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जैनदर्शन की एक कण्ठी को लें । सोने की कण्ठी को तोड़ कर कडा बनाया । उस समय कण्ठे का नाश हुआ और कडे की उत्पत्ति हुई, यह हम स्पष्ट देखते हैं । परन्तु कण्ठी को तोड़कर, कण्ठे में जो सोना था उसी सोने का बनाया हुआ कड़ा सर्वथा नया ही उत्पन्न हुआ है ऐसा नहीं कहा जा सकता । कड़े को सर्वथा नवीन तो तभी माना जा सकता है जब उसमें कण्ठी की कोई भी वस्तु न आए । परन्तु जब कण्ठी का सभी का सभी सोना कड़े में आया है, सिर्फ कण्ठी का आकार ही बदला है, तो फिर कड़े को सर्वथा नवीन उत्पन्न कैसे माना जा सकता है ? इसी प्रकार कण्ठी का सर्वथा विनाश भी नहीं माना जा सकता । क्योंकि सर्वथा विनाश तो तभी माना जाय जब कण्ठी की कोई यदि भी वस्तु विनाश से न बची हो । परन्तु जब कण्ठी का समूचा सोना जैसे का तैसा कड़े में आया है तो फिर कण्ठे को सर्वथा विनष्ट कैसे कहा जा सकता है ? इस पर से यह बात अच्छी से ध्यान में आ सकती है कि कण्ठी का नाश कण्ठे के आकार (कण्ठा के पर्याय) के नाश तक ही मर्यादित है, यही तो कण्ठा का नाश है और कड़े की उत्पत्ति कड़े की उत्पत्ति कड़े के आकार (पर्याय) की उत्पत्ति तक ही सीमित है और यही तो कड़े की उत्पत्ति है, जबकि इन दोनों कण्ठी और कड़े का सुर्वण तो एक ही है । अतः कण्ठी और कड़ा ये एक ही सुवर्ण के आकारभेदों के (पर्यायभेदों के) अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
इस पर से कोई भी कह सकता है कि कण्ठी को तोड़कर बनाए हुए कड़े में, कड़े के आकार की उत्पत्ति, कण्ठी-रूप आकार का विनाश तथा सुवर्ण की स्थिति-इस प्रकार उत्पत्ति विनाश और स्थिति (ध्रुवत्व) इन तीनों का बराबर अनुभव होता है । जहाँ दृष्टि डालो वहाँ ऐसे उदाहरण उपस्थिति है ही। जब घर गिर पड़ता है तब यह घर जिन वस्तुओं का बना था वे वस्तुएँ सर्वथा नष्ट नहीं होती । वे सब पदार्थ रूपान्तर से-स्थूल अथवा सूक्ष्म रूप से, अन्तत: परमाणु रूप से तो अवश्य जगत् में रहते हैं । इस पर से तत्त्वदृष्ट्या उस घर का सर्वांशतः विनाश घट नहीं सकता । कोई भी स्थूल वस्तु जब बिखर जाती है तब उसके अणु अथवा अणुसंघात स्वतन्त्ररूप से अथवा दूसरी वस्तुओं के साथ मिलकर नया परिवर्तन खड़ा
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