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जैनदर्शन
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भिक्षा - माधुकरीवृत्ति से जीवनयापन करनेवाले, समभावशील और यथार्थ धर्म के उपदेशक सन्त पुरुष 'गुरु' कहे गए हैं ।
धर्मतत्त्व :
" पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमलोभता ॥'
( हारिभद्र - अष्टक १३, श्लोक ० २) अर्थात् सब धर्मवालों के लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच बातें पवित्र सिद्धान्तरूप हैं - सर्वमान्य हैं ।
धर्म शब्द का अर्थ
"दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते ।
धत्ते चैतान् शुभस्थाने तस्माद् धर्म इति स्मृतः ॥"
इस वाक्य से यह बतलाया है कि प्राणियों को दुर्गति में पड़ने से जो बचाए वह धर्म है । जीवन को अधोगति में से ऊपर उठाए - ऊपर चढाए वह धर्म है । यह आत्मा का स्वानुभवगम्य उज्ज्वल गुण है । क्लिष्ट कर्म के संस्कार दूर होने से राग-द्वेष की वृत्तियाँ नरम पड़ने पर अन्तःकरण की जो शुद्धि होती है वही वास्तविक धर्म है । यही जीवन की उज्ज्वलता है । दया, मैत्री, परोपकार, सत्य, संयम, त्याग आदि सद्गुण आन्तरिक उज्ज्वल जीवन की शुभ प्रभा है । ऐसे प्रभाशाली जीवन को ही धार्मिक जीवन कहतें है ।
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ज्ञान के भेद :
ऊपर कहा जा चुका है कि दर्शनमोह का आवरण शिथिल अथवा क्षीण होने पर सम्यग्दर्शन प्रकट होता है और उसके प्राकट्य के साथ ही ज्ञान में सम्यक्त्व (अच्छाई अथवा सच्चाई) आ जाता है । सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान का संपूर्ण साहचर्य है । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल ये ज्ञान के पाँच भेद हैं । मनोयुक्त इन्द्रियों द्वारा जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । आँख से देखा जाता है, जीभ से चखा जाता है, नाक से सूँघा जाता
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