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________________ जैनदर्शन ६२ भिक्षा - माधुकरीवृत्ति से जीवनयापन करनेवाले, समभावशील और यथार्थ धर्म के उपदेशक सन्त पुरुष 'गुरु' कहे गए हैं । धर्मतत्त्व : " पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमलोभता ॥' ( हारिभद्र - अष्टक १३, श्लोक ० २) अर्थात् सब धर्मवालों के लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच बातें पवित्र सिद्धान्तरूप हैं - सर्वमान्य हैं । धर्म शब्द का अर्थ "दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते । धत्ते चैतान् शुभस्थाने तस्माद् धर्म इति स्मृतः ॥" इस वाक्य से यह बतलाया है कि प्राणियों को दुर्गति में पड़ने से जो बचाए वह धर्म है । जीवन को अधोगति में से ऊपर उठाए - ऊपर चढाए वह धर्म है । यह आत्मा का स्वानुभवगम्य उज्ज्वल गुण है । क्लिष्ट कर्म के संस्कार दूर होने से राग-द्वेष की वृत्तियाँ नरम पड़ने पर अन्तःकरण की जो शुद्धि होती है वही वास्तविक धर्म है । यही जीवन की उज्ज्वलता है । दया, मैत्री, परोपकार, सत्य, संयम, त्याग आदि सद्गुण आन्तरिक उज्ज्वल जीवन की शुभ प्रभा है । ऐसे प्रभाशाली जीवन को ही धार्मिक जीवन कहतें है । I ज्ञान के भेद : ऊपर कहा जा चुका है कि दर्शनमोह का आवरण शिथिल अथवा क्षीण होने पर सम्यग्दर्शन प्रकट होता है और उसके प्राकट्य के साथ ही ज्ञान में सम्यक्त्व (अच्छाई अथवा सच्चाई) आ जाता है । सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान का संपूर्ण साहचर्य है । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल ये ज्ञान के पाँच भेद हैं । मनोयुक्त इन्द्रियों द्वारा जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । आँख से देखा जाता है, जीभ से चखा जाता है, नाक से सूँघा जाता I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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