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________________ द्वितीय खण्ड ६३ है, कान से सुना जाता है, और चमडी से स्पर्श किया जाता है ये सब मतिज्ञान है । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान भी मतिज्ञान हैं । शब्द द्वारा या संकेत द्वारा जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । ये दोनों ज्ञान इन्द्रियाधीन होने के कारण यद्यपि परोक्ष हैं, फिर भी इन्द्रियों के द्वारा होनेवाले रूपावलोकन, रसास्वादन आदि ज्ञान व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष भी हैं । अतः उन्हें 'सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष' कहते हैं । जिस प्रकार ये रूपावलोकन, रसास्वादन आदि ज्ञान इन्द्रिय- सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष हैं उसी प्रकार सुखादि संवेदन मानस सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष हैं । यहाँ पर प्रसंगोपात्त इन्द्रियविषयक जैन - कथन भी तनिक देख लें । इन्द्रियाँ पाँच हैं : स्पर्शन (त्वचा), रसन ( जीभ), घ्राण (नाक), चक्षु और श्रोत्र । इनके स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द ये क्रमशः विषय हैं । ये स्पर्शादि प्रत्येक मूर्त अर्थात पौद्गलिक द्रव्य में रहनेवाले उसके अंश हैं, अविभाज्य पर्याय हैं और ये सब पौद्गलिक द्रव्य के सब भागों में एक साथ रहते हैं । इन्द्रियों की शक्ति भिन्न-भिन्न है । वह चाहे जितनी पटु क्यों न हो फिर भी अपने ग्राह्य विषय के अतिरिक्त अन्य विषय को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है । इसीलिये पाँचें इन्द्रियों के पाँचें विषय पृथक् पृथक् हैंनियत हैं । जिस प्रकार इन्द्रियों के उपर्युक्त पाँच विषय हैं उसी प्रकार मन का विषय विचार है । बाह्य इन्द्रियाँ केवल मूर्त पदार्थों को ही ग्रहण करती हैं और वह भी आंशिक रूप से; जबकि मन, जो आन्तर इन्द्रिय होने के कारण अन्तःकरण कहलाता है, मूर्त-अमूर्त सब पदार्थों को उनके अनेक रूपों के साथ ग्रहण करता है । यह भूत भविष्य - वर्तमान तीनों को ग्रहण करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि मन का कार्य विचार करने का है । इन्द्रियों के द्वारा गृहीत अथवा अगृहीत विषयों का अपने विकास अथवा योग्यता के अनुसार वह विचार कर सकता है। अतः मन का विषय विचार है स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों से तो सिर्फ मतिज्ञान ही होता है, जबकि मन से तो मति और श्रुत दोनों होते हैं - प्रथम सामान्य भूमिका का मतिज्ञान होता है, बाद में विचारात्मक विशेषतायुक्त श्रुतज्ञान होता है । इन दोनों में भी मति की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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