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________________ पंचम खण्ड ३९५ स्थिति का स्पर्श करती है उसे निश्चयदृष्टि अथवा निश्चयनय कहते हैं और जो दृष्टि वस्तु की व्यावहारिक अवस्था का अर्थात् अपनी मूलभूत न हो वैसी बाह्य अवस्था का स्पर्श करनेवाली है, वह व्यवहारदृष्टि अथवा व्यवहार नय है । जो दृष्टि जीव को उसके तात्त्विक शुद्ध-बुद्ध-निरंजन-निराकारसच्चिदानन्दरूप से जानती है वह निश्चयदृष्टि है और जो दृष्टि जीव को मोहवान्, अविद्यावान्, क्रोध-लोभादिरूपकालुष्यवान्, देहाध्यासी रूप से जानती है वह व्यवहारदृष्टि है । संक्षेप में, व्यवहारगामी (अर्थात् उपाधिविषयिणी) दृष्टि वह व्यवहारदृष्टि और मूलतत्त्व-स्पर्शी दृष्टि वह निश्चयदृष्टि । यह निश्चयदृष्टि सर्व प्राणियों में परम चैतन्य को देखती है, अतः यह विश्वप्रेमी है । निश्चयदृष्टि को हृदय में धारण करके अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति विशुद्ध मैत्रीभाव रखकर व्यवहार का व्यवहारिक जीवन का हमें पालन करने का है । इसी को ज्ञानी लोग कल्याण-विहार कहते हैं। निश्चयदृष्टि [तत्त्वस्पर्शी पवित्र ज्ञानदृष्टि] व्यवहार को उसमें आयी हुई या आने वाली अशुद्धियों को दूर करके शुद्ध बनाती है । जिस प्रकार समुद्र के बीच रात्रि के अन्धकार में मुसाफरी करने वाले जहाज को कप्तान दीपस्तम्भ के प्रकाश की सहायता से चट्टानों के साथ टकराने से बचाकर निर्भय रास्ते से ले जाता है, उसी प्रकार निश्चयदृष्टि मोहान्धकार को दूर करके और विवेकज्ञान को प्रकट करके स्वयं अपने आपके तथा दूसरे के साथ के निजव्यवहार को अशुद्ध या मलिन होने से बचाकर और शुद्ध मार्ग पर ले जाकर मोक्ष मार्ग को सीधा, सरल व निष्कण्टक बनाती है । संसारी अवस्था में स्व-परहित (भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक हित) के लिये किए जानेवाले व्यवहार-आचरण में से छुटकारा नहीं मिल सकता । वे कर्तव्यरूप से बजाने के होते हैं । शरीर है वहाँ तक व्यवहार भी है, किन्तु यदि वह निर्दोष, पवित्र और विशुद्ध प्रेमयुक्त हो तो मोक्षप्राप्ति में बाधक नहीं होता । यह पवित्र आत्मदृष्टिरूप निश्चयदृष्टि जिसके मनोमन्दिर में निरन्तर प्रकाशमान है उसके बाह्य जीवन पर, उसके मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यवहार पर इस दृष्टि का प्रकाश कैसा चमकता है, इसकी तो कल्पना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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