SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम खण्ड ३९७ की कठिनाई महसूस नहीं होती । इतना ही नहीं, मैं ने खूब-खूब किया हैऐसा 'अहोभाव' भी उसके मन में नहीं आता । इसका परिणाम यह होता है कि ज्ञानी की कोई भी प्रवृत्ति उसके लिये बन्धनकारक नहीं होती । अज्ञानी की प्रवृत्ति प्राणिवर्ग के हित में ही क्यों न परिणत होती हो, फिर भी वैसी हितबुद्धि उसके मन में नहीं होती । उसकी प्रवृत्ति का पर्यवसान अपनी स्वार्थसाधना में ही होता है । खाना-पीना, सुख-विलास का उपभोग करना और बड़े-बड़े बँगले बनवाकर उनमें हर तरह के ऐशोआराम लूटना और इसके लिये अच्छे बरे किसी भी उपाय से धन के ढेर के ढेर लगा देनाऐसा उसकी बुद्धि और वृत्ति होती है । उसकी किसी प्रवृत्ति से यदि दूसरे का हित होता हो तो भी उस समय अहङ्कारवृत्ति, उपकारबुद्धि अथवा यश या दूसरे किसी बदले की लालसा बनी ही रहती है । अज्ञानी मनुष्य जप, तप, ध्यान, स्वाध्याय, सेवा, सामायिक, प्रतिक्रमण, देवपूजन अथवा गुरूसेवा आदि धार्मिक समझी जानेवाली प्रवृत्तियाँ करता है, फिर भी ऐसी प्रवृत्तियाँ में उसकी अहंवृत्ति (गर्व) सतत जागरित रहती है और मैं ने खूब अच्छा किया है ऐसे 'अहोभाव' से वह फूला नहीं समाता । इसीलिये अज्ञानी की प्रवृत्तियाँ और धार्मिक समझे जानेवाले आचरण भी उसके लिये बन्धनकारक होते हैं । ज्ञानी में परार्थसाधक बुद्धि और निरभिमानता मुख्यरूप से होती है, जबकि अज्ञानी में स्वार्थबुद्धि और अहंकारभाव मुख्यरूप से होता है। इस पर से प्रस्तुत विषय के बारे में समझा जा सकता है कि जो कार्य अथवा प्रवृत्ति उसके पीछे रहे हुए अज्ञान, मोह एवं कषाय के कारण दुष्कर्मबन्धक होती है, वही कार्य अथवा प्रवृत्ति उसके पीछे रही हई है विवेकदृष्टि तथा शुद्ध भावना के कारण श्रेयस्कर भी होती है । चीड़फाड़ के पीछे हत्या करनेवाले का आशय भिन्न होता है और कर्तव्यपालक डाक्टर का आशय भिन्न होता है। पहले का आशय क्रूर और हिंस्त्र होता है, जबकि दूसरे का आशय अन्य का भला करने का होता है । इस प्रकार एक ही क्रिया के लिये घोर पापरूप बनती है तो दूसरे के लिये पुण्यरूप । स्त्री के अंग का स्पर्श भक्ति, वात्सल्य अथवा अनुकम्पा से यदि किया जाय तो वह निर्दोष है और कामवासना से किया जाय तो सदोष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy