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जैनदर्शन
क्यों मान लिया जाय? और ऐसा मानकर तथा हताश होकर कार्य प्रवृत्ति क्यों छोड़ दी जाय ? दृढ़ संकल्प के साथ यदि प्रामाणिक प्रयत्न हो तो वह सिद्धि को निकट लाता है। तेजस्वी तप के बल से अपना संकल्प पूर्ण होता है, अपनी आकांक्षा सफल होती है ।।
ये काल आदि परस्पर सापेक्षरूप से एकत्रित होकर कार्य करते हैं, अतः इन्हे 'समवायी कारण' कहते हैं । आत्मा का मूल स्वभाव सच्चिदानन्दरूप होने से, कर्मों के बल पर प्राप्त मनुष्यत्वादि विशिष्ट सामग्री के सहयोग से, उपस्थित कर्मों के फलों को समभावपूर्वक भुगतने के साथ भवचक्र के मूलरूप तृष्णा के विदारण में प्रयत्नशील होने पर परम कल्याणरूप सिद्धि प्राप्त होती है । काल तो जब हम उत्साहित होकर प्रयत्नशील होगें तब हमें 'ना' नहीं कहेगा । इस प्रकार आत्मकल्याण-साधन में इन कारणों का योग देखा जा सकता है ।
वादभूमि के बखेडों की निन्दा करके उसके सौष्ठव पर प्रकाश डालनेवाला नीचे का उल्लेख कितना सुन्दर है--
Disagreement is refreshing when two men lovingly desire to compare their views to find out truth. Controversy is wretched when it is only an attempt to prove another wrong.
--F. W. Robertson. अर्थात् मतभेद अथवा वादचर्चा उस समय सुन्दर लगती है जब सत्य की गवेषणा के लिये दो मनुष्य परस्पर मैत्रीभाव से अपने विचारों की तुलनात्मक आलोचना करना चाहते हैं, परन्तु मतभिन्नता या चर्चा जब दूसरे को झूठा सिद्ध करने प्रयत्नरूप होती है तब वह धिक्कारने योग्य होती है ।
अब ज्ञान-क्रिया का समन्वय देखें ।
किसी भी कार्य की, मोक्ष की भी सिद्धि ज्ञान और क्रिया इन दोनों पर अवलम्बित है । अकेला ज्ञान पंगु है और अकेली क्रिया अन्ध है । अतः क्रिया बिना के अकेले ज्ञान से अथवा ज्ञानरहित अकेली क्रिया से अभीष्ट
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