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विकृतिविज्ञान . है कणात्मक धातु भी उगने लगता है और वह वियोजित हो जाता है पूय जिसके कारण स्तरों ( fasciae), कण्डराओं ( tendons ) तथा पेशियों तक पहुँच जाता है वहां से आगे त्वचा तक नाडीव्रण ( sinus ) बन जाते हैं। इसके पश्चात् सन्धियों का विसंघटन ( disorganisation) पूर्ण हो जाता है और विकृतिक सन्धिमुक्ति हो जाती है। यदि उपशम (resolution ) हो गया तो सन्धि स्थैर्य (ankylosis) हो जाता है। इसके कारण अंगविकृत, अनुपयुक्त तथा टेढ़ा-मेढ़ा (crippled ) हो जाता है। __युग्मगोलाणुओं से उत्पन्न होने वाला फुफ्फुसगोलाणुजनित सन्धिपाक (Pnue.
mococcal arthritis) एक शिशु रोग है जो फुफ्फुसपाक के पश्चात् या फुफ्फुसगोलाणुजनित मध्यकर्णपाक के पश्चात् होता है। इसमें शूलरहित सन्धिपाक रहता है। बड़ी एक सन्धि ही इससे प्रभावित होती है जिसके कारण विसंघटन तथा विकृतिक सन्धिमुक्ति प्रायशः मिलती है। उत्स्यन्दन बहुत बड़ा होता है। पूय पतला, क्रीम जैसा, हरा हरा सा होता है । इसमें फुफ्फुसगोलाणु बहुत से देखे जातेहैं । इन्हीं फुफ्फुसगोलाणुओं की उपस्थिति से इस सन्धिपाक में अन्य पूयजनक जीवाणुज सन्धिपाक से विभेद करते हैं । आमवातज सन्धिपाक में और इसमें, यही अन्तर है कि यह पाककाल में शूलरहित और केवल एक ही सन्धि में मिलता है।
युग्मगोलाणुओं से दूसरा सन्धिपाक प्रमेहाणुजनित सन्धिपाक (Gonococcal arthritis ) कहलाता है । मूत्रप्रजनन पथ में कहीं भी उष्णवात या सुजाक होने के कारण द्वितीयक रोग के रूप में इसका उदय होता है। सुजाक (पूयमेह) का प्रारम्भ अति सौम्य रूप का भी हो फिर भी यह हो सकता है और प्रायशः उपसर्ग के तीसरे सप्ताह में यह मिलने लगता है । बहुत कम सुजाक पीडितों में यह सन्धिपाक देखने में आता है। मणिबन्ध या जानु की सन्धियाँ इससे पहले प्रभावित होती हैं । यह पाक एक सन्धि से दूसरी में जाता है । रोग के प्रारम्भ की तीव्रावस्था में सन्धि में बहुत शूल देखा जाता है।
विकृतिविज्ञान की दृष्टि से सुजाकजनित सन्धिपाक में कई बातें महत्व की हैं। एक तो उसकी उग्रता कभी अत्यल्प और कभी अत्यधिक देखी जाती है। कभी कभी तो विना किसी उत्स्यन्द का सन्धिश्लेष्मधराकला पाक मात्र ही देखा जाता है, कभी केवल उत्स्यन्द होकर ही रह जाता है तथा कभी पूय संचय हो जाता है। लस्य उत्स्यन्द से प्रमेहाणुओं की प्राप्ति कठिनता से होती है जब कि पूय में खूब मिलते हैं । इस पाक में श्लेष्मधराकला छिद्रिष्ठ ( spongy ), लाल तथा कणात्मक (graunlating ) हो जाती है जिससे प्रारम्भ में लस और बहुत बाद में पूय निःसृत होता है जो सन्धायीकास्थि तक बढ़ता चला जाता है इसके कारण सन्धायीकास्थि का अपरदन
और नाश होने लगता है जिससे पर्याप्त तान्तव सन्धिस्थैर्य (fibrous ankylosis) मिल सकता है परन्तु सम्पूर्ण सन्धि का विसंघटन इस रोग में मिलता नहीं है।
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