Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জীষ্মম্বাই-লাঙ্গল পিকে-শ্রোবাজী-ক্লাস্তুহাজি। ' নিহমিনুষ্য-জীঘলজ্জা থান্যান্য গুলঞ্জওহর জিব্রীজেঁলাদাখাঙ্কািজু । औपपातिक-सूत्रम्। AUPAPAATIKA SUTRA জিব্দীজত মঞ্জরী- গান- অভিমালা= ' আনি লিকুলাসাবাজি । - মুফাজ্জ জ, লা শা, যা জলজ-সিরিজুয়ান্ত 'ঋষ্টি-গায়ালিনতাত-মৃত্নবক্সাইজঃ ও ৰাজ (খ্রীষন্দু) প্রচ্ছদের মাত্র জন | ছছ ছয় ইঞ্জি তখজিজ জাকি খ ট ==e Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराज विरचितया-पीयूषवर्षिण्याख्यया व्याख्यया समल हिम्दीगुर्जरभाषानुवादसहितन् औपपातिक-सूत्रम् । AUPAPAATIKA SUTRA नियोजक : संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागम निष्णात - प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि श्रीकन्हैयालालजी - महाराजः । 43 प्रकाशकः अ. भा. श्वे. स्था. . जैनशास्त्रोद्धार समिति - प्रमुखः श्रेष्ठि- श्रीशान्तिलाल - मङ्गलदासभाई - महोदयः मु. राजकोट (सौराष्ट्र ) वीर संवत २४८५ लङ्कृतम् प्रथम आवृत्ति : प्रति १००० * ईस्वी सन् १९५९ ✩ मूल्यम् - रू. १२-०० विक्रम संवत २०१५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : પ્રાપ્તિ સ્થાન : શ્રી અ, ભા. À, સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્રોટ્ટાર સમિતિ ગ્રીનલેાજ પાસે, રાજકોટ પ્રથમ આવૃત્તિઃ પ્રત ૧૦૦૦ વીર સંવત : ૨૪૯૫ વિક્રમ સવત : ૨૦૧૫ ઇસ્વી સન્ : ૧૯૫૯ મુદ્રક ઃ ગુણુવંત કે. કાઠારી મુદ્રણુસ્થાન સુભાષ પ્રિન્ટરી, ડૉ. ટ’કારિયા રેડ, અમદાવાદ, Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठ ४५-४९ . CRIM .. १ मङ्गलाचरण । . .... २ शास्त्रोपोद्घात । .... ३ चम्पानगरी-वर्णन। .... ...... ४-१९ ४ पूर्णभद्रचैत्य-वर्णन। .... ... . २०-२६ ५ वनषण्ड-वर्णन। .. .... ६ वृक्ष-वर्णन । ... .. २९-४१ ७ अशोकवृक्ष-वर्णन । ...... .३९-४१ ८ तिलकादिवृक्ष-वर्णन । .... ४२-४४ ९ पद्मलता-आदिका वर्णन.... १० पृथ्वीशिलापट्टक वर्णन ... ११ कूणिक राजाका वर्णन । ... ४९-५८ १२ धारिणी देवीका वर्णन । ... ५८-६२ १३ भगवान के विहार आदि समाचार लाने के लिये नियुक्त प्रवृत्तिव्यापृत-पुरुष और उसके अधीन पुरुषोंका वर्णन । ... ६३-६५ १४ उपस्थान शाला में स्थित राजा कूणिक का वर्णन । ....... ६५-६७ १५ भगवान महावीर स्वामी का वर्णन ।.... ... . १६ भगवान के आगमन के समाचार को जान कर प्रवृत्तिव्याप्त ". का राजा कूणिक के समीप जाना और उपनगर ग्राम में भगवान के आगमन-वृत्तान्त का निवेदन करना। ... १०५-११० १७ भगवान का आगमन वृत्तान्त सुन कर कृणिक राजा को हर्षे होना, और अपने राजचिह्नों को छोड़ कर, भगवान की तरफ मुँह कर, दोनों हाथ जोड कर सिद्धोंको और भगवान महा- वीर स्वामी को 'नमोत्थु गं' देना, और कूणिक राजा द्वारा प्रवृत्तिव्यापृत का सत्कार । ... ... १११-१३७ १८ पूर्णभद्र-उद्यान में भगवान के पधारने का वृत्तान्त निवेदन । __ करने के लिये प्रवृत्तिव्यापृत को कूणिक की आज्ञा । १३८ १९ पूर्णभद्र-उद्यान में भगवान का आगमन। .... १३९-१४१ २० भगवान के अन्तेवासियों (शिष्यों) का वर्णन । .... १४२-२०३ W का वर्णन। .... ६८-१०४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ २१ भगवान के शिष्यों का बाह्याभ्वान्सर तप-उपधान का वर्णन ।... २०३-३०६ २२ भगवान महावीर स्वामी के अनेकविध शिष्यों का वर्णन। ... ३०६-३२१ २३ असुरकुमार देवों का भगवान के समीप आगमन, और ____ उनका वर्णन .... .... .... . .... ३२२-३३० २४ नागकुमारादि भवनवासी देवों का भगवान के समीप आगमन, और उनका वर्णन । .... .... ३३१-३३३ १५ व्यन्तर देवों का भगवान के समीप आगमन, और उनका वर्णन । ... ३३४-३३८ २६ ज्योतिष्क देवों का भगवान के समीप आगमन, और उनका वर्णन । .... .... ... .... ३३९-३४१ २७ भगवान के समीप वैमानिक देवों का आगमन,और उनका वर्णन।... ३४२-३४६ २८ चम्पा नगरी के वासी लोगों का भगवान के दर्शन की उत्सुकता, और उनका भगवान के समीप जाना। .... ३४७-३६३ २९ प्रवृत्तिव्यामृत द्वारा कूणिक का भगवान के आगमन का परि ज्ञान, और राजा कूणिक द्वारा प्रवृत्ति व्यापूत.का सत्कार । .... ३६३-३६५ ३० राजा कूणिक-द्वारा बलव्यापृत (सेनापति) का आह्वान, और उसे हाथी, घोडा, रथ आदि तथा नगर के सजवाने का आदेश । ३६६-३६९ ३१ बलव्यापृत-द्वारा हस्तिव्यामृत को हाथी सजाने का आदेश और हस्तिव्यामृत-द्वारा हाथियों का सजाना। .... ... ३७०-३७७ ३२ बलव्यापृत-द्वारा यानशालिक को यान-सजाने का आदेश, और यानशालिक द्वारा यानों को सजाना। .... .... ३७७-३८२ ३३ बलव्यापृत-द्वारा नगरगुप्तिक को नगर सजाने का आदेश, और नगरगुप्तिक-द्वारा नगर को सजाना । .... .... 3८३-३८५ ३४ आभिषेक्य हस्तिरत्न-आदि का निरीक्षण कर के बलव्याप्त का कूणिक राजा के पास जा कर उन्हें भगवान के दर्शन के लिये जाने की प्रार्थना करना । .... .... ..... ३८५--३८८ ३५ कूणिक राजा का व्यायामादि करके स्नान करना, दण्डनायक आदि से परिवेष्टित हो गजराज पर आरुढ होना, और सभी प्रकार के ठाट-बाट के साथ भगवान के दर्शन के लिये प्रस्थान करना, उचित प्रतिपत्ति के साथ भगवान के समीप पहुँचना, और पर्युपासना करना । ..... ..... .... ३८८-४३५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ ३६ सुभद्रा आदि रानियों का अपनी २ दासी आदि परिवार के साथ सज-धज कर पूर्णभद्र उद्यान में भगवान के दर्शन के लिये उचित प्रतिपत्ति के साथ जाना और खडी २ भगवान ...की पर्बुपासना करना । .... .... ... ... ४३५-४४२ ३७ भगवान की धर्मदेशना ।.... ... .... .... ४४२-४७३ ३८ अनगार-धर्म की निरूपणा । .... .... ४७४-४८३ ३९ भगवान के पास बहुतों की प्रव्रज्या लेना और बहुतों का गृहस्थ- धर्म स्वीकार करना। .... .... .... ... ४८४-४८६ ४० परिषद का अपने २ स्थान पर जाना । ...... .... ४८६-४८८ ४१ कूणिक राजा का अपने स्थान पर जाना । .... ४८९-४९० ४२ सुभद्रा-आदि रानियों का अपने २ स्थान पर जाना ... ४९१-४९३ ॥ इति समक्सरण नामक पूर्वार्ष की विसामाणिक ॥ अथ उत्तरार्धं की विषयानुक्रमणि का ॥ .. १ गौतमत्वामी का वर्णन । ... .... .... ४९४-४९८ २ गौतमस्वामी का भगवान के समीप जाना। .... ... ४९९-५०२ ३ पापकर्म के विषय में गौतमस्वामी का प्रश्न, और भगवान का उत्सर। .... .... .... .... ५०२-५०३ ४ मोहनीय कर्म के बन्ध के विषय में गौतमस्वामी और भग. बान का प्रश्नोत्तर। .... ... .... .... ५ मोहनीय कर्म के वेदन करते हुए के कर्मबन्ध के विषय में गौतमस्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर । ..... .... ५०५-५०६ ६ त्रस-प्राणघातियों के नरक में उपपात के विषय में गौतम और भगवानका प्रश्नोत्तर। ... ७ असंयतों के उपपात-विषय में गौतम स्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर, तथा असंयतों के देवरूप में उपपात होने में भगवान द्वारा हेतु का कथन । .... .... ... ५०८-५१२ ८ अण्डुबद्धक-आदि के विषय में गौतम और भगवान का प्रश्नोत्तर । ५१३-५२० ९ प्रकृतिमद्रक-आदि के उपपात-विषय में गौतम और भगवान का प्रश्नोत्तर। ... ५२१-५२३ ५०४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के. स विषय .. .... पृष्ठ १० अन्तःपुरिका-आदि स्त्रियों के विषय में गौतम और भगवान ___का प्रश्नोत्तर ।... ...... . .... ५२४-५२८ ११ दकद्वितीय आदि. मनुष्यों के उपपात के विषय में गौतम और ...... ... भगवान का प्रश्नोत्तर । .... २८-५३१ १२ वानप्रस्थ-आदि तापसों के विषय में गौतम स्वामी और भग-. वान का प्रश्नोत्तर। .... ... ......... ..... .... ५३२-५३६ १३ प्रव्रजित श्रमण के उपपात के विषय में गौतम स्वामी और र भगवान का प्रश्नोत्तर। .... . .... ५३६-५३८ १४ सांख्य-आदि परिव्राजकों का और उनके भेद कर्ण-आदि ब्राह्मण परिव्राज कों का और शीलधी-आदि क्षत्रिय परिघ्राजकों का वर्णन । ५३९-५४१ १५ कर्ण-आदि और शीलधी-आदि का सकल-वेदादि-शास्त्र भिज्ञता का वर्णन। .... १६ कर्ण-आदि और शीलधी-आदि परिवाजकों के आचार का वर्णन । ५४३-५५६ १७ कर्ण-आदि और शीलधी-आदि परिव्राजकों की देवलोकस्थिति का वर्णन । ... ५५७-५५८ २८ अन्बड परिव्राजक के शिष्यों का विहार। ....... .... ५५८-५६३ १९ अम्बड परिव्राज के शिष्यों का संस्तारक-ग्रहण । .. ..... ५६३-५७३ २० अम्बड परिव्राजक के शिष्यों की देवलोकस्थिति का वर्णन!.... ५७३-५७४ २१..अम्बड परिव्राजक के विषय में भगवान और गौतम का संवाद। ६७४-६२५ २२ आचार्य, कुल: और गण-आदि-विरोधी. प्रव्रजित श्रमणों के विषय में भगवान का कथन । .... ... .... ६२५-६२८ २३ जलचर आदि संज्ञि-पच्छेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-पर्याप्तक के विषय .... ... में भगवान का कथन । . ... ............... १२८-६३१ २४ द्विगृहान्तरिक-त्रिगृहान्तरिक-आदि आजीवक के विषय में भगवान का कथन । ..... ६३१-६३६ २५ आत्मोत्कर्षिक-परपरिवादिक आदि प्रबजित श्रमणों के विषय में भगवान का कथन । .. ..... .... .... ६३४-६३५ २६ बहुरत-आदि निहनबों के विषय में भगवान का कथन। .... ६३६-६४० २७ अल्पारम्भ-आदि मनुष्यों के विषय में भगवान का कथन । ... ६४०-६५४ २८ अनारम्भ-आदि मनुष्यों के विषय में भगवान का कथन । .... ६५५-६५८ २९ ईर्यासमिति-आदि-युक्त साधुओं के विषय में भगवान का कथन । ६५८-६६३ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ३० सर्वकामविरत-आदि साधुओं के विषय में भगवान का कथन । ६६४-६६५ ३३ केवलिसमुद्धात के विषय में गौतम स्वामी और भगवान का प्रश्नोत्तर । ... ... ... ... ६६५-६९१ ३२ केवली के सिद्धिगति-प्राप्ति का क्रमनिरूपण । .... .... ६९१-६९७ ३३ सिद्धस्वरूपवर्णन । .... .... ६९८-७०० ३४ सिद्धों के साद्यपर्यवसितत्व-आदि का वर्णन । ... .... ७०१-७०२ ३५ सिद्धिगसि पाने वालों के संहनन और संस्थान का वर्णन। .... ७०२-७०३ ३६ सिद्धिगति पाने वालों के उच्चत्व और आयु का वर्णन । .... ७०४-७०५ ३७ सिद्धों के निवासस्थान के विषय में गौतमस्वामी और भगवान .. का प्रश्नोत्तर। .... . ... .... . .... ७०६-७११ ३८ ईषत्साम्भारा, पृथिवी के स्वरूप का वर्णन । .... .... ७११-७१२ ३९ ईषत्प्राग्भारा पृथिवी के बारह नाम । .... ४० ईषत्प्राग्भारा पृथिवी के स्वरूप का वर्णन । ... .... ७१४-७१५ ४१ सिद्धस्वरूप-वर्णन । .... ....७१६-७१७ ४२. शास्रोपसंहार । सहार ... ... .... ..... . ...... ७१८-७३७ ७१३. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन यह मानव सामाजिक प्राणी है। समाज की सुव्यवस्था ही मानवजाति की उन्नति का मूल मन्त्र है । . समाजकी सुव्यवस्था मानवजीवन की नैतिकता के 14 में ऊपर सुव्यवस्थित है । नैतिकता को अनुप्राणित करने वाला धर्म है । धर्मानुरूप नैतिकता ही मानव के ऐहिक और आमुष्मिक शुभ- दायिनी होती है । धर्म से ही मानव ऐहिक और पारलौकिक शुभ फलका अधिकारी होता है । इसी धर्मानुप्राणित नैतिकता के ऊपर मानवसमाजरूपी भित्ति सुव्यवस्थित है । " परन्तु कालक्रम से उस में दुर्बलता आने लगती है । मानवसमाजरूपी भित्ति लर - खराने लगती है, अब गिरी-तब गिरी ' जैसी दशा उपस्थित हो जाती है। ऐसी स्थिति में कोई एक महाप्राण महामानव का प्रादुर्भाव होता है, जो सॅमार्जमें धर्मानुरूप नैतिकता को 'सजग कर मानवको दुर्गति के गर्त में पड़ने से बचाता है । 4 हम जब आज से अढाई हजार वर्ष पूर्वकाल की ओर दृष्टि देते है उस समय की सामाजिक परिस्थिति बिलकुल अस्तव्यस्त दिखायी देती है। उस समय धर्मानुप्राणित नैतिकता विलुप्त सी होती जा रही थी । जिस के फलस्वरूप छोटी २ गुटबन्दी, नरसंहार, पशुहत्यायें - आदि की जड़ बलवती होती जा रही थी । ऐसे समय में महाप्राण महामानव भगवान् महावीर स्वामी का प्रादुर्भाव हुआ । भगवान् महावीर स्वामी ने मानवसमाज को सुव्यवस्थित करने के लिये आजीवन दुष्कर तपश्चरण किया, समाज को सुव्यवस्थित करने के लिये उन्होंने नियम बनाये, लोगों में धर्मानुरूप नैतिकता की वृद्धि के लिये आर्यावर्त्त में विहरण कर धर्मोपदेश दिया, ' जीवमात्र को सुख-शान्ति मिले ऐसा सर्वोत्तम उनका धर्मोपदेश केवल मानव के लिये ही हितकारक नहीं; के लिये हितकारक था । उनका धर्मोपदेश त्रस - स्थावर जीवों में भ्रातृत्व - भावना का संचार करता था । उसी धर्मोपदेश की प्रतिध्वनि आज भी हमें सुनायी देती है " धर्मका प्रचार किया । अपि तु जीवमात्र i खामि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ती मे सव्वभूएस, वेरं मज्झ न केणई ॥ मैं सभी जीवों से क्षमा चाहता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें । मेरा सभी जीवों के साथ मैत्रीभाव है, किसी के भी साथ वैरभाव नहीं । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् महावीर स्वामी ने जो उपदेश दिया वह भगवान् महावीर स्वामी और गौतम गणधर के संवादरूप में संगृहीत हुआ। इस संग्रहको 'आगम' नाम से कहा जाता है। स्थानकवासी-मान्यता अनुसार इस समय बत्तीस आमम उपलब्ध हैं, ११ अङ्ग, १२ उपाङ्ग, ४ मूल, ४ छेद और 3 आवश्यक। यह प्रस्तुत आगम उपाङ्ग है और यह आचाराङ्ग का उपाङ्ग है। क्यों किआचाराङ्ग के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में कहा गया है-' एवमेगेसिपी णार्य भवइ-अस्थि मे आया ओववाइए, मत्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी ?, के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि !' अर्थात्-कितनेक जीवों को यह ज्ञात नहीं होता है कि मेरी आत्मा औपपातिक है, या मेरी आत्मा औपपातिक नहीं है, में पूर्व में कौन था ?, और फिर यहाँ से च्युत होकर क्या होऊँगा ? । वहाँ पर जो आत्माको औपपातिक कहा है, उसीका यहाँ पर विशदरूपमें प्रतिपादन किया गया है। इसीलिये इस आगमका नाम 'औपपातिक' रखा गया है । 'उपपात' शब्दका का अर्थ-देवजन्म, नारकजन्म और सिद्धिगमन है । ' उपपात' को लेकर बनाया गया सूत्र 'औपपातिक' कहलाता है । इस सूत्र में 'जीवोंका किन कर्मों के करने से नरक में जन्म होता है, किन कर्मों से देवलोकमें जन्म होता है, और किस प्रकार कर्मक्षय करने से सिद्धिगति प्राप्त होती है।'-इसका विस्तारपूर्वक प्रतिपादन होने से 'औपपातिक' यह नाम सार्थक है। इस औपपातिक सूत्रका प्रारम्भ-भाग वर्णनात्मक है। इस में नगर, चैत्य, वनषण्ड, राजा, रानी, साधु, देव, देवी, समवसरण, धर्मकथा-आदिका वर्णन बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। इसके अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होत है कि तात्कालिक भारत का सब से अधिक शक्तिशाली राजा कूणिक का भगवान महावीर स्वामीके प्रति कैसा अनन्य भक्तिभाव था। तभी तो उन्होंने अपने राज्यसंचाल विभाग में एक ऐसा विभाग खोला था, जिसका अधिकारी और उसके हाथ के नीचे काम करने वाले अन्य हजारों कार्यकर भगवान के विहार का समाचार राजा के पास सर्वदा पहुंचाते रहते थे। राजा की ओर से उन्हें पूरी जीविका का प्रबन्ध था, और समय समय पर राजा पूर्ण रूप से पारितोषिक प्रदान कर उनका सत्कार भी करता था। जनसमुदायका भी भगवान के प्रति अनन्य भाव था, तभी तो भगवान के आगमनका समाचार पाते ही जनसमुदाय खाके दर्शन के लिये उमड पडता था । आबालवृद्ध स्त्रीपुरुष भगवान के दर्शन-निमित उद्यान में पहुँचते थे । भगवान उन्हें धर्मोपदेश देते थे, उसका प्रभाव यह पत्ता कि कितनेक सर्वविरति और कितनेक देशविरति होते थे, और कितनेक सुलभबोधि हो जाते थे। भगवान के बताये हुए उपदेशानुसार अपने जीवन को परिवर्तित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर वे देश, समाज सभीका कल्याण करते थे, और अपने इहलोक और परलोक की सिद्धिको भी प्राप्त करते थे । द्वितीय भाग में भगवान् गौतमस्वामी और भगवान् महावीरका प्रश्नोत्तरयह ज्ञात होता है कि किन कर्मों देवलोकगामी होते हैं, और कैसे रूप संवाद है। इस संवाद के अध्ययन से से जीव नरकगामी होते हैं, किन कर्मों से सिद्धिगामी होते हैं । इस प्रकार यह सूत्र परमोपादेय है । वर्णन की दृष्टि से यह तो समस्त जैनागमों का वर्णनकोश ही है । क्यों कि अन्य आगमों में जहाँ कहीं भी नगर, चैत्य, राजा, रानी आदिका वर्णन आता है, वहाँ संक्षेप में ही आता है, और ast ' औपपातिक सूत्र' से ही वर्णनात्मक सन्दर्भ लेनेके लिये निर्देश किया जाता है । इस दृष्टि से भी इसकी अत्यन्त उपादेयता है । सभी जीव सर्वदा यही चाहते हैं कि 'सर्वदा मे सुखं भूयाद् दुःखं माऽस्तु कदा चन' अर्थात् मुझे सर्वदा सुख मिले, दुःख कभी भी नहीं मिले। सुख अहिंसादि सत्कर्म से या आत्यन्तिक कर्मविमोक्ष से ही मिलता है, और दुःख हिंसादि असत्कर्मों से मिलता है । नरकादिक दुःख जिन कर्मों से मिलते हैं तथा देवलोकांदिक सुख जिन कर्मों से मिलते हैं उन कर्मों का परिज्ञान इस शास्त्र के अध्ययन से होता है । ज्ञपरिज्ञा से सुखदायी और दुःखदायी कर्मों को जानकर जीव प्रत्याख्यानपरिज्ञा से दुःखदायी कर्मों को छोड़कर, आसेवनपरिज्ञा से सुखदायी कर्मों का आसेवन करता है, और क्रमिक आत्मविशुद्धि से सिद्धिगामी होता है । इस दृष्टि से तो इसकी उपयोगिता अद्वितीय ही है । ऐसे अनुपम इस सूत्र की सर्वजनगस्य व्याख्या की नितान्त आवश्यकता थी । इस अभावको दूर करने के लिये पूज्य श्री १००८ घासीलालाजी म. सा. ने इस सूत्र की 'पीयूषवर्षिणी' नामक सरल संस्कृत व्याख्या रची हैं। जो साधारण संस्कृतज्ञों के लिये भी सुबोध है । हिन्दी और गुर्जर - भाषी जनताको इस सूत्रका अभिप्राय सरलतया ज्ञात हो, इसलिये इसका हिन्दी - गुर्जर अनुवाद भी किया गया है । इस प्रकार मूल, संस्कृत व्याख्या, हिन्दी और गुजरातीअनुबाद - सहित यह 'औपपातिकसूत्र' मुद्रित हो कर आप शास्त्रप्रेमी महानुभावों के समक्ष प्रस्तुत है । आप इस के स्वाध्याय से अपने जीवन का चरम उत्कर्ष साधन कर इस दुर्लभ मानव जीवन को सफल करें, यही हमारी आन्त रिक भावना है । इति शम् । अहमदाबाद -मुनि कन्हैयालाल ता. २४-१०-५८. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ૧૦,૦૦૦ આપનાર આધ મુરબ્બીશ્રી. સમિતિના પ્રમુખ; દાનવીર શેઠશ્રી શેઠ શાંતિ લા લ મ ગ ળ દા સ ભાઈ અ મ દા વા . Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ રચિત સૂત્રોની ટીકા શ્રી-વધમાન-શ્રમણ-સંઘના આચાર્ય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ આ પે લ સ મ તિ ૫ ત્ર તે મ જ અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીઓ, અદ્યતન-પદ્ધતિવાળા કોલેજના પ્રોફેસરે તે મ જ શાસ્ત્રજ્ઞ શ્રાવકેના અભિપ્રાય. છે. ગ્રીન લેજ પાસે | ગરેડીયા કુવાડ રાજકોટ : સૌરાષ્ટ્ર શ્રી અખિલ ભારત શ્વે. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्री दशवैकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र.) ॥ श्रीवीरगौतमाय नमः ॥ सम्मति-पत्रम्. मए पंडियमुणि-हेमचंदेण यपंडिय-मूलचन्दवास-चारा पत्ता पंडियरयणमुणि-घासीलालेण विरइया सक्कय-हिंदी-भाषाहिं जुत्ता सिरि-दसवेयालिय-नाममुत्तस्स आयारमणिमंजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अस्थि । एत्थ सद्दाणं अइसयजुत्तो अत्थो वण्णिओ, विउजणाणं पाययजणाण य परमोवयारिया इमा वित्ती दीसइ । आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुव्वं उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सरूवं जे जहा-तहा न जाणंति तेसिं इमाए वित्तीए परमलाहो भविस्सइ, कत्तुणा पत्तेयविसयाणं फुडरूवेण वण्णणं कडं, तहा मुणिणो अरहत्ता इमाए वित्तीए अवलोयणाओ अइसयजुत्ता सिज्झइ । सक्कयछाया सुत्तपयाणं पयच्छेओ य सुबोहदायगो अत्थि, पत्तेयजिण्णासुणो इमा वित्ती दळुव्वा । अम्हाणं समाजे एरिसविज्ज-मुणिरयणाणं सब्भावो समाजस्स अहोभग्गं अत्थि। किं ?, उत्तविज्जमुणिरयणाणं कारणाओ, जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ, अम्हकेरं साहिच्चं च लुत्तप्पायं अत्थि, तेर्सि पुणोवि उदओ भविस्सइ, जस्स कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो निव्वाणं पाविहिइ । अओहं आयारमणि-मंजूसाए कत्तुणो पुणो पुणो धनावायं देमि-॥ वि. सं. १९९० फाल्गुन-) शुक्ललत्रयोदशी-मङ्गले ( अलवर स्टेट) इइउवज्झाय-जइण-मणी आयारामो (पचनईओ) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ श्री आत्मारामजी महाराज तथा न्याय व्याकरण के ज्ञाता परम-पण्डित मुनिश्री १००७ श्री हेमचंद्रजी महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रका प्रमाणपत्र निम्न प्रकार है सम्मइवत्तं सिरि-वीरनिव्वाण-संवच्छर २४५८ आसोई (पुण्णमासी) १५ सुक्कवारों लुहियाणाओ। . मए मुणिहेमचंदेण य पंडियरयणमुणिसिरि-घासीलालविणिम्मिया सिरि-उवासगसुत्तस्स अगारधम्मसंजीवणी-नामिया वित्ती पंडियमूलचन्द-वासाओ अजोवंतं सुयासमीईणं, इयं वित्ती जहाणामं तहा गुणेवि धारेइ, सच्चं, अगाराणं तु इमा जीवण (संजमजीवण) दाई एव अथि। वित्तिकत्तुणा मूलसुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडीकओ, अहय उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवायवाओ, कम्मपुरिसहवाओ, समणोवासयस्स धम्मदढत्ता य, इच्चाइविसया अस्सि फुडरीइओ वण्णिया, जेण कत्तुणो पडिहाए सुटुप्पयारेण परिचओ होइ, तह इइहासदिडिओवि सिरिसमणस्स भगवओ महावीरस्स. समए वट्टमाण-भरहवासस्स य कत्तुणा विसयप्पयारेण चित्तं चित्तितं, पुणो सक्कयपाढीणं, वट्टमाणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासीण य परमोवयारो कडो, इमेण कत्तुणो अरिहत्ता दीसइ, कत्तुणो एयं कजं परमप्पसंसणिज्जमस्थि । पत्तेयजणस्स मज्झत्थभावाओ अस्स सुत्तस्स अवलोयणमईव लाहप्पयं, अवि उ सावयस्य उ इमं सत्थं सव्वस्समेव अस्थि, अओ कत्तुणो अणेगकोडीसो धन्नवाओ अत्थि, जेहिं अच्चंतपरिस्समेण जइणजणतोवरि असीमोवयारो कडो, अह य सावयस्य बारस नियमा उ पत्तेयजणस्स पढणिज्जा अत्थि, जेसिं पहावओ वा गहणाओ आया निव्वाणाहिगारी भवइ, तहा भवियव्वयावाओ पुरिसक्कारपरक्कमवाओ य अवस्समेव दंसणिज्जो, किं बहुणा ! इमीसे वित्तीए पत्तेयविसयस्स फुडसदेहिं वण्णणं कयं, जइ अन्नोवि एवं अम्हाणं पसुत्तप्पाए समाजे विजं भवेज्जा तया नाणस्स चरित्तस्स तहा संघस्स य खिप्पं उदओ भविस्सइ, एवं हं मन्ने ॥ भवईओउवज्झाय-जइणमुणि-आयाराम-पंचनईओ, Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिपत्र ( भाषान्तर) श्रीवीरनिर्माण सं० २४५८ आसोज शुक्ला (पूर्णिमा) १५ शुक्रवार लुधियाना मैंने और पंडितमुनि हेमचन्द्रजीने पंडितरत्नमुनिश्री घासीलालजीकी रची हुई उपासकदशांग सूत्रकी गृहस्थधर्मसंजीवनो नामक टीका पंडित मूलचन्द्रजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है । यह वृत्ति यथानाम तथागुणवाली-अच्छी बनी है। सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्री-संयमरूप जीवनको देनेवाली ही है। टीकाकार ने मूलसूत्र के भाव का सरल रीतिसे वर्णन किया है, तथा श्रावक का सामान्य धर्म क्या है ? और विशेष धर्म क्या है ? इसका खुलासा इस टीकामें अच्छे ढंगसे बतलाया है । स्याद्वादका स्वरूप कर्म-पुरुषार्थ-पाद और श्रावकको धर्मके अन्दर दृढ़ता किस प्रकार रखना, इत्यादि विषयोंका निरूपण इसमें भलीभाति किया है। इससे टीकाकारकी प्रतिभा खूब झलकती है। ऐतिहासिक दृष्टि से श्रमण भगवान् महावीरके समय भारतवर्ष में जैनधर्म किस जाहोजलाली पर था ? इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है । फिर संस्कृत जाननेवालोंको तथा हिंदीभाषाके जानने लोंको भी पूरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है उसकी सरल हिन्दी करदी गई है । इसके पढनेसे कर्ताकी योग्यताका पता लगता है कि वृत्तिका ने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है ! टीकाकारका यह कार्य परम प्रशंसनीय है । इस मूत्रको मध्यस्थ-भावसे पढने वालोंको परम लाभकी प्राप्ति होगी । क्या कहें श्रावकों (गृहस्थों ) का तो यह सूत्र सर्वम्व ही है, अतः टीकाकारको कोटिश धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रमसे जैन-जनताके ऊपर असीम उपकार किया है। इसमें श्रावकके बारह नियम प्रत्येक स्त्री-पुरुषके पढने योग्य हैं. जिनके प्रभावसे अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है। तथा भवितव्यतावाद और Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ૬,૦૦૦ આપનાર આધુ મુરબ્બીશ્રી. (સ્વ.) શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વારીયા ભા ણ વ ડે. Page #19 --------------------------------------------------------------------------  Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ पुरुषकारपराक्रमवाद हर - एकको अवश्य देखना चाहिये । कहां तक कहें, इसटी का में प्रत्येक विषय सम्यक् प्रकारसे बताये गये हैं । हमारी सुप्तप्राय ( सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान् फिर भी कोई होंगे तो ज्ञान, चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ्र उदय होगा, ऐसा मैं मानता हूँ आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजाबी. इसी प्रकार लाहोर में विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराजके दिये हुए, श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रके प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार है श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज - कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने बड़े परिश्रम व पुरुषार्थ से तैयार किया है सो आप धन्यवाद के पात्र हैं । आप जैसे व्यक्तियोंकी समाज में पूर्ण आवश्यकता है। आपकी इस लेखनीसे समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठावेंगे, टीकाके पढने से हमको अत्यानन्द हुवा, और मन में ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे- यह एक हमारे लिये बड़े गौरवकी है | बात वि. सं. १९८९ मा. आश्विन कृष्णा १३ वार भौम लाहोर. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र की 'अनगारधर्माऽमृतवर्षिणी' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र लुधियाना, ता. ४-८-५१. __ मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगारधर्माऽमृत-वर्षिणी' टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रवण किया। यह निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म. ने बड़े परिश्रम से लिखी है। इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सारपूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें हैं। मूल स्थलोंको सरल बनानेमें काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकों को लाभ होगा, ऐसा मेरा विचार है। ___ मैं स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करूँगा कि वे वृत्तिकारके परिश्रम को सफल बनाकर शास्त्रमें दीगई अनमोल शिक्षाओं से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे । श्रीमान्जी जयवीर __ आपकी सेवामें पोष्ट-द्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इसपर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं, पहुँचने पर समाचार देवें । ___श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म. ठाने ६ सुख शान्तिसे विराजते हैं । पूज्य श्री घासीलालजी म. सा. ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अर्जकर सुखशाता पूछे । __ पूज्य श्री घासीलालजी म.जी का लिखा हुआ विपाकसूत्र महाराजश्रीजी देखना चाहते हैं, इसलिये १ कापी आप भेजने की कृपा करें; फिर आपको वापिस भेज देवेंगे। आपके पास नहीं हो तो जहां से मिले वहांसे १ कापी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें । योग्य सेवा लिखते रहें । लुधियाना ता. ४-८-५१ निवेदक प्यारेलाल जैन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवारिधि - जैनधर्मदिवाकर - उपाध्याय - पण्डित - मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पंजाब)का आचारागसूत्र की आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मति-पत्र । मैंने पूज्य आचार्यवर्य श्रीघासीलालजी (महाराज)की बनाई हुई श्रीमद् आचाराङ्गमूत्र के प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी। यह टीका-न्याय सिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इसमें प्रसंग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है। टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक् मकार से स्पष्ट किये हैं, तथा पौढ विषयों का विशेषरूप से संस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद के पात्र हैं। मैं आशा करता हूँ कि-जिज्ञासु महोदय इसका भलीभाँति पठन द्वारा जैनागम-सिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्षित करेंगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पावेंगे। तथा आचार्यवर्य इसी प्रकार दूसरे भी जैनागमों के विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि. सं. २००२ । जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगशर सुदि १ । लुधियाना (पंजाब) - * :- शुभमस्तु । बीकानेरवाला समाजभूषण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठिआका अभिप्राय आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह बडा उपकारका कार्य है । इससे जैनजनता को काफी लाभ पहुंचेगा. (ता. २८-३-५६ का पत्र में से ) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ जैनागमवारिधि- जैनधर्मदिवाकर- जैनाचार्य-पू-य-श्री आत्मारामजीमहाराजानां पञ्चनद-(पंजाब )स्थानामनुत्तरोपपातिकसूत्राणा मर्थबोधिनीनामकटीकाथामिदम् सम्मतिपत्रम्. आचार्यवर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिताअनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थबोधिनीनाम्नी संस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्यं प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान् स्पष्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकशो धन्यवादानहन्ति ते । यथा चेयं वृत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदमभीप्सुभिर्निर्वाणपदमनुसरद्भिर्ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभिः श्रावकैश्च ज्ञानदर्शनचारित्राणि सम्यक् सम्प्राप्याऽन्येऽ यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते । आशासे श्रीमदाशुकविर्मुनिवरो गीर्वाणवाणीजुषा विदुषां मनस्तोषाय जैनागमसूत्राणां सारावबोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थं सरलाः सुस्पष्टाश्च वृत्तीविधाय तांस्तान् सूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति । अन्ते च "मुनिवरस्य परिश्रमं सफलयितुं सरलां सुबोधिनी चेमां सूत्रवृत्ति स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः ।" इत्याशास्ते-- विक्रमाब्द २००२ श्रावणकृष्णा प्रतिपदा लुधियाना. उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः।। ऐसेही : मध्यभारत सैलाना-निवासी श्रीमान रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि : श्रीमान की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है। यह ग्रन्थ सर्वांग-सुन्दर एवम् उच्चकोटि का उपकारक है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्रका आगमवारिधि-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र लुधियाना. ता. ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलाबचन्दजी पानाचंदजी ! सादर जय जिनेन्द्र । पत्र आपका मिला। निरयावलिका-विषय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मतिपत्र लिख दिया है, आपको भेज रहै हैं । कृपया एक कौपी निरयावलिका की और भेज दीजिये और कोई योग्य सेवा-कार्य लिखते रहें ! भवदीय. गुजरमल-बलवंतराय जैन ॥ सम्मतिः॥ (लेखक जैनमुनि पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराज) सुन्दरबोधिनीटीकया समलङ्कृतं हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिकासत्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढं मेऽभिमतम्, संस्कृतटीकेयं सरला सुबोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्बोधपदव्याख्यायुतत्वाच टीकैषा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादावपि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक् संभावयामि । जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजानां परिश्रमोऽयं प्रशंसनीयो, धन्यवादाश्चि ते मुनिसत्तमाः। एवमेव श्रीसमीरमल्लजी-श्रीकन्हैयालालजी-मुनिवरेण्ययोनियोजनकार्यमपि श्लाघ्यं, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादाही स्तः। .. सुन्दरमस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलङ्कृते मूत्ररत्मेऽस्मिन् यदि शब्दकोषोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकतां सर्वेऽप्यन्वेषकविद्वांसोऽनुभवन्ति । पाठकाः सूत्रस्यास्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजकमहोदयानां परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र पर जैन समाज के अग्रगण्य चैनधर्मभूषण महान विद्वान संतों एवं विद्वान श्रावकोने सम्मति मेजी है, उनके नाम निम्न लिखित हैं । (१) लुधियाना - सम्वत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के भंडार आगमरत्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य श्री मुनि हेमचन्द्रजी महाराज. (२) लाहौर - वि० सं० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डित रत्न श्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डितरत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचंद्रजी महाराज. (३) खीचन से ता. ९-११ - ३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८ श्री भारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज. (४) बालाचोर - ता. १४ - ११ - ३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्न श्री १००८ श्री शतावधानीजी श्री रतनचन्दजी महाराज. (५) बम्बई - ता. १६ - ११ - ३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कवि नानचन्द्रजी महाराज. (६) आगरा - ता. १८-११-३६, जगद् - वल्लभ श्री १००८ श्री जैनदिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद (दक्षिण) ता. २५ - ११ - ३६ का पत्र, स्थविरपद भूषित भाग्यवान पुरुष श्री ताराचन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००७ श्री खोभागमलजी महाराज. (८) जयपुर-ता. २६ - ११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरववर्धक शांतस्वभावी श्री १००८ श्री पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला - ता. २९-११- ३६ का पत्र, परम प्रतापी पंजाब केसरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री काशीरामजी महाराज. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान् रतनलालजी डोसी. (११) खीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ सुश्रावक श्रीयुत् माधवलालजी. ता. २५-११-३६ सादर जय जिनेन्द्र आपका भेजा हुवा उपासकदशांग सूत्र तथा पत्र मिला । यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ सुखशांति में विराजमान हैं । आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी वन्दना अर्ज कर सुखशांति पूछे। आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मति मंगाई उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नहीं आता। दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों है कि संस्कृत प्राकृत हिन्दी और गुजराती भाषा होने से चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं । जैन समाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभकामना है। आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा। योग्य लिखें, शेष शुभ। भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती आगरा से: श्री जैनदिवाकर प्रसिद्धवक्ता जगवल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पंडितरस्न मुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् न्यायतीर्य पण्डित १२ माधवलालजी खीचन से लिखते हैं कि : उन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाधतत्त्वगवेषणा के विषय में मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं । परन्तु : मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढ़ा है बहुत सराहना की है । वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसे ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं - ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुकम हैं ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्रकाश से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी । -*: ता. २९-११-३६ अम्बाला (पंजाब) पत्र आपका मिला। श्री श्री १००८ पंजाब केसरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाङ्ग सूत्र तथा sahara की एकएक प्रति भी प्राप्त हुई । दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं, ऐसे ग्रन्थरत्नों के प्रकाशित करवाने की बडी आवश्यकता है । इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है । आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है । आपका शाशिभूषण शास्त्री अध्यापक, जैन हाई स्कूल अम्बाला शहर. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ''ને નાના નાના નાન' ન મ મ માનીની I'ના''''' ' With રૂા. ૫,૨૫૧ આપનાર આધ મુરબ્બીશ્રી, એમ ધામો , તેની એ - જનજાનજનતાના નાના નાના નાના નાના નાના નનનન ઈઈઈઈઈઈઈઈઈઈઈઈઈઈઈઈOR veeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee પા પા પા ા પ ા n ા પ (/fli[ [ninira પ ા પ ા પ છ ગ ન લા લ શા મ ળ દા સ ભા વ તા ૨ ા ા ા e દ 13 'ફ Dellhu માયાપા, ઓ પJિAll, II મા પા પulllllllllllllllllllllllllllllllllllllllu SSSSSSSSSSSSSS ને ' I Page #29 --------------------------------------------------------------------------  Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ शान्तस्वभावी वैराग्यमूर्ति तत्ववारिधि धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज साहेबने सूत्र श्री उपासकदशाङ्गजी को देखा । आपने फरमाया कि पण्डित मुनि घासीलालजी महाराज ने उपासकदशाङ्ग सूत्रकी टीका लिखने में बडा ही परिश्रम किया है । इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रोंकी संशोधनपूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होने से भगवान निर्ग्रन्थों के प्रवचनों के अपूर्व रस का लाभ मिल सकता है. बालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पंडित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते हैं कि : उत्तरोत्तर जोतां मूल सूत्रनी संस्कृत टीकाओ रचवामां टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कर्यो छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरूरी लेवा जेवुं छे, वली करांचीना श्री संवे सारा कागलमां अने सारा टाइपमा पुस्तक छपावी प्रगट कर्तुं छे, जे एक प्रकारनी साहित्यसेवा बजावी छे. * बम्बई शहर में विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है, प्रयास अच्छा है । खीचन से स्थविर कियापात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडितरत्न मुनि समरथमलजी महाराज फरमाते हैं कि - विद्वान महात्मा पुरुषोंका प्रयत्न सराहनीय है । जैनागम श्रीमद् उपासकदशाङ्ग सूत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुबोधनी शुद्ध हिन्दी भाषा बड़ी ही सुन्दरता से लिखी है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः॥ श्री श्री श्री १००८ जैनधर्मदिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज चरणवन्दन स्वीकार हो । अपरश्च-समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर शोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्य ने नहीं किया । आपने स्थानकवासी जैनसमाज के ऊपर जो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा। ___हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेखनी को उत्तरोत्तर शक्ति प्रदान करें ता कि आप जैनसमाज के ऊपर और भी उपकार करते रहें, और आप चिरञ्जीव हो। हम हैं आप के मुनि तीन डदेपुर. मुनि सत्येन्द्रदेव-मुनि लखपतराय-मुनि पद्मसेन इतवारी बाजार नागपुर ता. १९-१२-५६ प्रखर विद्वान जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराज द्वारा जो आगमोद्धार हुआ और हो रहा है सचमुच महाराजश्री का यह स्तुत्य कार्य है । हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रों का सेट देखा और कई मार्मिक स्थलोंको पढा, पढकर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पडी। ___ वास्तव में मुनिराजश्री जैनसमाज पर ही नहीं, इतर समाज पर भी महा उपकार कर रहे हैं । ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता है, वह सभी समाज की अनमोल निधि है, जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है, जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घरघर में होना आवश्यक है । साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિપત્ર. શ્રમણુસંઘના મહાન આચાય આગમવારિધિ સર્વતન્ત્ર સ્વતંત્ર જૈનાચાય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિપત્રના ગુજરાતી અનુવાદ. મેં તથા પંડિત મુનિ હેમચંદ્રજીએ પંડિત મૂલચંઢજી વ્યાસ–નાગૌર મારવાડ વાળા દ્વારા મળેલી પડિરત્ન શ્રી. ઘાસીલાલજીમુનિ વિરચિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રની આચારમણિમ જૂષા ટીકાનું અવલાકન કર્યુ. આ ટીકા સુ ંદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દના અર્થ સારી રીતે વિશેષ ભાવ લઈ ને સમજાવવામાં આવેલ છે. તેથી વિદ્વાન અને સાધારણ બુદ્ધિવાળાઓ માટે આ ટીકા પરમ ઉપકાર કરવાવાળી છે. ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયના સારા ઉલ્લેખ કરેલ છે. જે અહિંસાના સ્વરૂપને યથાર્થરૂપથી નથી જાણતા, તેમને માટે અહિંસા શું વસ્તુ છે ?' તેનુ' સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે. વૃત્તિકારે સૂત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવલેાકનથી વૃત્તિકારની અતિશય ચેાગ્યતા સિદ્ધ થાય છે. આવૃત્તિમાં એક મીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલસૂત્રની સંસ્કૃતછાયા હાવાથી સૂત્ર, સૂત્રનાં પદ અને પદચ્છેદ સુમેધદાયક બનેલ છે. પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનું અવલેાકન અવશ્ય કરવું જોઈએ. વધારે શુ કહેવુ?. અમારા સમાજમાં આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિરત્નનું હોવું એ સમાજનુ અહાભાગ્ય છે. અદ્યતન સુપ્તપ્રાયસુતેલા સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેાપ પામેલુ સાહિત્ય એ બન્નેને આવા વિદ્વાન મુનિરત્નેાના કારણે ફરીથી ઉદય થશે. જેનાથી ભાવિતાત્મા મેાક્ષને ચેાગ્ય બનશે અને નિર્વાણુ પદ્મને પામશે. આ માટે અમેા વૃત્તિકારને વારવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ. વિક્રમ સંવત ૧૯૯૦ ફાલ્ગુન શુકલ તેરસ મૉંગળવાર ( અલવર સ્ટેટ) કૃતિ ઉપાધ્યાય જૈનમુનિ આત્મારામ પંચનદીય. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રમણ સંઘના પ્રચારમંત્રી પંજાબ કેસરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકેટમાં પધાર્યા હતા. ત્યારે તેના તરફથી શાસ્ત્રોને માટે મળેલા અભિપ્રાય. શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્રવારિધિ પંડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું છે તે કાર્ય જેનસમાજ અને તેમાંયે ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મૌલિક સંસ્કૃતિની જડને મજબૂત કરવાવાળું છે. એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે. માટે દરેક વ્યકિતએ તેમાં યથાશકિત ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલ્દીથી જલ્દી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે. દરિયાપુરી સંપ્રદાયના પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના સૂત્રો સબંધે વિચારે નમામિ વિર ગીરિસારધીરે પૂજ્યપાદ જ્ઞાનિપ્રવર શ્રી વાસીલાલજી મહારાજ તથા પંડિત શ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણા ની સેવામાં અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત. આપ સર્વે થાણુઓ સુખ-સમાધિમાં હશો, નિરંતર ધર્મધ્યાન ધર્મારાધનમાં લીન હશે. સૂત્રપ્રકાશન કાર્ય ત્વરિત થાય એવી ભાવના છે. દશવૈકાલિક તથા આચારાંગ એક એક ભાગ અહીં છે. ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પંડિતજનેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સાથે સાથે ટીક–વિનાના મૂળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે આવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે. અત્રે પૂજ્ય આચાર્ય ગુરુદેવને આંખે મોતિયો ઉતરાવ્યું છે અને સારું છે એજ. આસે શ્રદ ૧૦, મંગળવાર તા. ૨૫-૧૦-પપ પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છતે, દયા યુનિના પ્રસિત. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭ દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પંડિતરત્ન ભાઈચંદજી મહારાજને અભિપ્રાય રાણપુર તા. ૧૯-૧૨-૧૯૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનિપ્રવર પંડિતરત્ન પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિમુનિવરોની સેવામાં. આપ સર્વ સુખસમાધિમાં હશે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ સુંદર થઈ રહ્યું છે તે જાણી અત્યંત આનંદ. આપના પ્રકાશિત થયેલાં કેટલાંક સૂત્રે જોયાં. સુંદર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાયને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પંડિતરત્નને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સૂત્રપ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભવિ આત્માઓને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના. લી. પંડિતરત્ન બાળબ્રહ્મચારી પૂ. શ્રી ભાઈચંદજી મહારાજની આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનિના પાયવંદન સ્વીકારશે. તા. ૧૧-૫-૫૬ વિરમગામ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચંદ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માથી, ક્રિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન, મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજને અભિપ્રાય. ખીચનથી આવેલ તા. ૧૨-૨-૫૬ના પત્રથી ઉદધૃત. પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂત્રોનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે તે સાહિત્ય, પંડિત મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ, સમય ઓછો મળવાને કારણે સંપૂર્ણ જઈ શકયા નથી. છતાં જેટલું સાહિત્ય જોયું છે, તે બહુ જ સારું અને મનન સાથે લખાયેલું છે. તે લખાણ શાસ્ત્ર–આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે. આ સાહિત્ય દરેક શ્રદ્ધાળુ અને વાંચવા ગ્ય છે. આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રદ્ધા, પ્રરૂપણા અને ફરસણાની દઢતા શાસ્ત્રાનુકુળ છે. આચાર્યશ્રી અપૂર્વ પરિશ્રમ લઈ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે. લી. કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલું મુ. ખીચન. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લીંબડી સંપ્રદાયના સદાનંદી મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજને અભિપ્રાય શ્રીવીતરાગદેવ, જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થંકરનામગોત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાનપ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર અને તેને અનુમોદન આપનાર જ્ઞાનાવરણીય કર્મને ક્ષય કરી, કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદના અધિકારી બને છે. શાસ્ત્રજ્ઞ, પરમશાન્ત અને અપ્રમાદી પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પોતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગમાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશઃ ધન્યવાદના અધિકારી છે, વંદનીય છે. તેમની જ્ઞાનપ્રભાવનાની ધગશ ઘણા પ્રમાદિઓને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પોતે જ્ઞાનપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજશાસ્ત્રોદ્ધાસ્સમિતિના કાર્યવાહકો પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે. એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સૂચના છે કે – શાસ્ત્રોદ્ધારક પ્રવર પંડિત અપ્રમાદી સંત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે, તેમાં સહાય કરવા માટે–પંડિત વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે તેને પહોંચી વળવા માટે સારૂ-સરખું ફંડ જોઈ એ. એના માટે મારી એ સૂચના છે કે – શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે, જે બની શકે તે પ્રમુખ પિોતે અને બીજા બે ત્રણ જણાએ; ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બર બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે. જે કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પોતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે. છતાં જો સંભાવિત ગૃહસ્થ પ્રવાસે નીકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે. આર્થિક અનુકૂળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે. પૂજ્યશ્રી બાસીલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાનશકિતને જેટલો લાભ લેવાય તેટલો લઈ લે. કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવાએ અમદાવાદ પધરાવવા માટે વિનંતી કરવી, અને ત્યાં અનુકૂળતા મુજબ બે-ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ. થોડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટી મળવાની છે. તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્ય ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરીરાદિને સશક્ત અને દીર્ધાયુ રાખે જેથી તેઓ સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે. છે અસ્તુ. ચાતુર્માસ સ્થળ. લીંબડી લિ. સં. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩ ગુરુ. ( સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી શ્રીવધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્યશ્રી પૂનમચંદ્રજી મહારાજને અભિપ્રાય શાવિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈનઆગમ ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે. તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે. તેમણે આગમ ઉપરની સ્વતંત્ર ટિકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાયું છે. આગામે ઉપરની તેમને સંસ્કૃતટીકા, ભાષા અને ભાવની દૃષ્ટિએ ઘણુંજ સુંદર છે. સંસ્કૃતરચના માધુર્ય તેમજ અલંકાર વગેરે ગુણેથી યુકત છે. વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરેએ શાસ્ત્રી ઉપર રચેલી આ સંસ્કૃતરચનાની કદર કરવી જોઈએ, અને દરેક પ્રકારને સહકાર આપવો જોઈએ. આવા મહાન કાર્યમાં પંડિતરત્ન પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે. તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એ શુભેચ્છા સાથે. અમદાવાદ તા. ૨૨-૪–૫૬ રવિવાર, મુનિ પૂર્ણચંદ્રજી મહાવીર જયંતી ખંભાત સંપ્રદાયનાં મહાસતીજી શારદાબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય લખતર તા. ૨૫-૪-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલભાઈ મંગળદાસભાઈ પ્રમુખ સાહેબ, અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ. અમદાવાદ અમો અત્રે દેવગુરુની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ. વિ.માં આ૫ની સમિતિ–દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સૂત્રોનું કાર્ય કરે છે તે પૈકીનાં સૂત્રોમાંથી ઉપાસકદશાંગ સૂત્ર, આચારાંગ સૂત્ર અનુત્તરપપાતિક સૂત્ર, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० દશવૈકાલિક સૂત્ર વિગેરે સૂત્રો જોયાં. તે સૂત્રે સંસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષા એમાં હોવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનને ઘણું જ લાભદાયક છે. તે વાંચન ઘણુંજ સુંદર અને મને રંજક છે. આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રી જે અગાધ પુરુષાર્થથી કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સૂત્રો સમાજને ઘણું લાભનું કારણ છે. હંસસમાન બુદ્ધિવાળા આત્માઓ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાએ અવલોકન કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે. માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સૂચન કરું છું કે આ સૂત્રો પોતપોતાના ઘરમાં વસાવવાની સુંદર તકને ચૂકશે નહિ. આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરંપરા ને પુષ્ટીરૂપ સૂત્રો મળવાં બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યમાં આપશ્રી ત્થા સમિતિના અન્ય કાર્યકરે જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિર્જરાનું કારણ જેવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એજ લી. શારદાબાઈ સ્વામી ખંભાત સંપ્રદાય. બરવાળા સંપ્રદાયનાં વિદુષી મહાસતીજી મોંઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય ધંધુકા તા. ૨૭–૧-૫૬ શ્રીમાનશેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસ પ્રમુખ અ. ભા. ૩. સ્થા. જનશાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ મુ. રાજકોટ. અત્રે બિરાજતા ગુ. ગુ.ના ભંડાર મહાસતીજી વિદુષી મોંધીબાઈ સ્વામી તથા હીરાબાઈ આદિ ઠાણ બને સુખશાતામાં બિરાજે છે. આપને સૂચન છે કે અપ્રમત્ત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધમ ધ્યાન કરશોજી એજ આશા છે. વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં રચેલાં સૂત્રો ભાઈ પોપટલાલ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલાં. તે સૂત્રો તમામ આઘોપાંત વાંચ્યાં, મનન કર્યા અને વિચાર્યા છે. તે સૂત્રો સ્થાનક્વાસી સમાજને અને વીતરાગમાર્ગને ખૂબજ ઉન્નત બનાવનાર છે. તેમાં આપણી શ્રદ્ધા એટલી ન્યાયરૂષથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે. હંસ સમાન Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ૫,૨૫૧ આપનાર આ મુરબ્બીશ્રી, કે ઠા કરી જે ચં દ હ ર ગ વ દ ભા છે રા જ કે ટ. Page #39 --------------------------------------------------------------------------  Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આત્માઓ જ્ઞાનઝરણાઓથી આત્મરૂપ વાડીને વિકસિત કરશે. ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્યકરોને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કેઈની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂં કરાવશે તેવી આશા છે. એજ લિ. બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મોંઘીબાઈ સ્વામી ના ફરમાનથી લી. ડીદાસ ગણેશભાઈ-ધંધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ. ; અદ્યતન પદ્ધતિને અપનાવનાર વડોદરા કેલેજના એક વિદ્વાન પ્રેફેસરનો અભિપ્રાય, સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જેનશાસ્ત્રોના સંસ્કૃત ટીકાબદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાષાંતર કરવાના ઘણુ વિકટ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે. શાસ્ત્રો પૈકી જે પ્રસિદ્ધ થયાં છે તે હું જોઈ શકે છું. મુનિશ્રી પિતે સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમને ટુંકે પરિચય કરતાં સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સંપાદન કરવામાં તેમને પોતાના શિષ્યવર્ગનો અને વિશેષમાં ત્રણ પંડિતોને સહકાર મળ્યો છે, તે જોઈ મને આનંદ થયો. સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના અગ્રેસર પંડિતેનો સહકાર મેળવી આપી મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે. સ્થાનકવાસી–સમાજમાં વિદ્વત્તા ઘણી ઓછી છે તે દિગંબર, મૂર્તિપૂજક વેતાંબર ગેરે જિનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતાં હું વિરોધના ભય વગર કહી શકું. પૂ. મહારાજને આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણે સારાં આપવામાં આવ્યાં છે. ભાષા શુદ્ધ છે એમ હું ચેકસ કહી શકું છું. ગુજરાતી ભાષાંતરે પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે. મને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીને આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જૈનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાંતરને વાચનાલયમાં અને કુટુંબમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે. પ્રતાપગંજ, વડોદરા કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ, તા. ૨૭–૨–૧૯૫૬ એમ. એ. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મુંબઈની બે કલેજના પ્રોફેસરેને અભિપ્રાય મુંબઈ તા. ૩૧-૩-૫૬ શ્રીરામ શેઠ શાંતીલાલ મંગળદાસ પ્રમુખ શ્રી અખિલ ભારત શ્વે. સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, રાજકેટ. પૂન્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક આવશ્યક, ઉપાસકદશાંગ વગેરે સૂત્રો અમે જેમાં આ સૂત્ર ઉપર સંસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે અને સાથે સાથે હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાંતર પણ આપવામાં આવ્યાં છે, સંસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હિન્દી ભાષાંતરે જોતાં આચાર્યશ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એકસરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચોટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર–ગ્રંથમાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વત્તા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હિન્દીમાં થયેલા ભાષાંતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નોંધપાત્ર છે. એથી વિદ્વદજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સંતોષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રોમાંથી હજુ ૧૩ સૂત્રો પ્રગટ થયાં છે. બીજા સાત સૂત્રો લખાઈને તૈયાર થઈ ગયાં છે. આ બધાં જ સૂત્રો જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જેનસૂત્ર-સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણાશે એમાં સંશય નથી. આચાર્યશ્રીના આ મહાન કાર્યને જૈન સમાજને-વિશેષતઃ સ્થાનકવાસી સમાજને સંપૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ. પ્રો. રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેંટ ઝેવિયર્સ કોલેજ, મુંબઈ. છે. તારા રમણલાલ શાહ, સોફીયા કોલેજ, મુંબઈ. રાજકોટની ધર્મેન્દ્રસિંહજી કોલેજના પ્રોફેસર સાહેબને અભિપ્રાય જયમહાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકોટ, તા. ૧૮-૪–૫૬ પૂછવાચાર્ય પં. મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જૈન સમાજ માટે એક એભ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલ છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયોગી થઈ પડશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક, શ્રીવિપાકકૃત વિ. મેં જોયાં. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ સૂત્રો જોતાં પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાઓ ઉપરને અસાધારણ કાબૂ જણાઈ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણ નથી. આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રો ઉચ્ચ અને પ્રથમ કોટિના છે. તેની વસ્તુ ગંભીર, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પશી છે. આટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્ય સૂત્રોનું ભાષાંતર પૂ. ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કેટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણા અહેભાગ્ય છે. યંત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવના ઓસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાનઆધ્યાત્મિકતાથી ભરેલાં સૂત્રોનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદર્શક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ, સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સૂત્રો લખવામાં આવ્યા છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સંકળાયેલા જોઈએ છીએ. એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે. તેમનું જીવન સૂત્રોમાં વણાઈ ગયું છે. મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પિતાના શિષ્યોને તથા પંડિતેને સહકાર મળે છે. મને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકને પોતાના ઘરમાં વસાવશે અને પિતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તે મહારાજશ્રીએ ઉકાલે શ્રમ સંપૂર્ણપણે સફળ થશે. છે. રસિકલાલ કસ્તુરચંદ ગાંધી એમ. એ. એલ એલ. બી. ધર્મેન્દ્રસિંહજી કોલેજ રાજકેટ (સૌરાષ્ટ્ર) મુંબઈ અને ઘાટકેપરમાં મળેલી સભાએ ભીમાસર કેન્ફરન્સ તથા સાધુસમેલનમાં મોકલાવેલ ઠરાવ. હાલ જે વખતે શ્વેતાંબસ્થાનકવાસી જૈન સંઘ માટે આગમ-સંશોધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોની અતિઆવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાવેએ આ વાત દીર્ઘદ્રષ્ટિથી પહેલી પિતાના મગજમાં લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પંડિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતે સાહિત્યમંત્રી નીમ્યા છે તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ. ભા. . સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેટી વગવાળી કમિટી છે તેની મારફતે કામ થઈ રહ્યું છે જેને પ્રધાનાચાર્યશ્રી તથા પ્રચાર મંત્રીશ્રી, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ આ તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવાએ પેાતાની પસંૠગીની મહેાર છાપ આપી છે અને છેલ્લામાં છેલ્લા વડાદરા યુનિવસીટીના પ્રાફ઼ેસર કેશવલાલ કામદાર (એમ. એ.) એ પેાતાનુ સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે તે શાસ્ત્રોદ્ધારકમિટીના કામને સંમેલન તથા કાન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે. અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે–પંડિતની અને નાણાંની પાસેના ફંડમાંથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઇચ્છા ધરાવે છે. આ શાસ્રા અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રશંસાપૂર્વક પસંદગી મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કેન્ફરન્સ પેઃતાની ક્જ માને છે અને જે કાંઇ ત્રુટી હોય તે ૫. ૨. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાષ્ટ્રની સાનિધ્યમાં જઇ બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરવા. આ કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કાઈ પણ સત્તા ઉપરના અધિકારીઓની વાણી કે વનથી ન થાય તે જોવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે. ( સ્થા. જૈન પત્ર તા. ૪-૫-૫૬) સ્વતંત્રવિચારક અને નિડર લેખક જૈનસિદ્ધાંત'ના તંત્રીશ્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલના અભિપ્રાય 4 શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમાં મેલાવી તેમની પાસે બત્રીસે સૂત્રો તૈયાર કરાવવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઈ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલતા ત્યારે શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઈએ તેમનાં એક પત્રમાં મને લખેલુ કે— . આપણા સૂત્રોના મૂળ પાઠ તપાસી શુદ્ધ કરી સસ્કૃત સાથે તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. સિવાય મને કેાઈ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ જોવામાં આવતા નથી. લાંબી તપાસને અંતે મે' મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજીને પસંદ કરેલા છે. ’’ શેઠ શ્રી દામેાદરદાસભાઈ પોતે વિદ્વાન હતા, શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા. શ્રાવકે તેમજ મુનિએ પણ તેમની પાસેથી શિક્ષા વાંચના લેતા, તેમ જ્ઞાનચર્ચા પણ કરતા. એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની પસંદ્નગી યથાર્થ જ હોય એમાં Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫ નવાઈ નથી. અને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજીના બનાવેલાં સૂત્રો જોતાં સૌ કેઈને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામોદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે એવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે બરાબર ફળીભૂત મેલ છે. શ્રી વર્ધમાન – શ્રમણ સંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી વાસીલાલજી મ. નાં સૂત્રે માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ. નાં સૂત્રોની ઉપયોગિતાની ખાત્રી થશે. આ સૂત્ર વિદ્યાથીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાંચકને સને એ સરખી રીતે ઉપયોગી થઈ પડે છે. વિદ્યાર્થીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંત ટકા વિશેષ કરીને ઉપયેગી થાય તેમ છે ત્યારે સામાન્ય હિન્દી વાંચકને હિન્દી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખું સૂત્ર સરળતાથી સસાઈ જાય છે. કેટલાકને એ ભ્રમ છે કે સૂત્રે વાંચવાનું આપણું કામ નહિ, સૂત્ર આપણને સમજાય નહિ. આ ભ્રમ તદ્દન બેટ છે. બીજા કોઈપણ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતાં સૂત્રો સામાન્ય વાંચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભ. મહાવીરે તે વખતની લોકભાષામાં (અર્ધમાગધી ભાષામાં) સૂત્રો બનાવેલાં છે. એટલે સૂત્રો વાંચવામાં તેમજ સમજવામાં ઘણું સરળ છે. માટે કોઈ પણ વાંચકને એવો ભ્રમ હેય તે તે કાઢી નાખવે. અને ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાંતનું સાચું જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રો વાંચવાને ચૂકવું નહિ, એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલાં સૂત્રોજ વાંચવાં. સ્થાનકવાસીઓમાં આ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ જે કામ કરી છે અને કરી રહી છે તેવું કોઈ પણ સંસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી. સ્થા. જેમ શારદાર સમિતિના છેલલા રિપોર્ટ પ્રમાણે બીજાં છ સૂત્રો લખાયેલા પડ્યાં છે, બે સૂત્રો–અનુગદ્વાર અને ઠાણાંગ સૂત્રો–લખાય છે તે પણ થોડા વખતમાં તયાર થઈ જશે. તે પછી બાકીનાં સૂત્રો, હાથ ધરવામાં આવશે. તૈયાર સૂત્રો જદી છપાઈ જાય એમ ઈચ્છીએ છીએ અને સ્થા. બંધુઓ સરિવિને ઉજન અને સહાયતા આપીને તેમનાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવે એમ ઈચ્છીએ છીએ. - “જેન સિદ્ધાન્તો –મે ૧૯૫૫ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ શ્રુત ભકિત (પૂ. આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મ. સા. ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) ૬. સ'. ના જૈન મુનિ શ્રી. દયાનંદજી મહારાજ તા. ૨૩-૬-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ. આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધેય પરમપૂજ્ય, જ્ઞાનદિવાકર પ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. ચરમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર અનુપમ ન્યાય— યુકત, પૂર્વાપર–આવરુદ્ધં, સ્વપરકલ્યાણુકારક, ચરમ શીતળ વાણીના દ્યોતક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે. તેઓશ્રી પ્રાચીન, પૌર્વાત્ય સંસ્કૃતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પતિ છે અને જિનવાણીના પ્રકાશ સંસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિન્દીમાં મૂળ શબ્દાથૅ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે. એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનંદને વિષય છે. ભ. મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી. પરંતુ તેમની વાણીરૂપે અક્ષરદેહ ગણધર મહારાજોએ શ્રુતપરંપરાએ સાચવી રાખ્યા. શ્રુતપરંપરાથી સચવાતુ જ્ઞાન જ્યારે વિસ્તૃત થવાના સમય ઉપસ્થિત થવા લાગ્યા ત્યારે શ્રી દેવદ્ધિ ગણિ ક્ષમાશ્રમણે વલ્લભીપુર–વળામાં તે આગમાને પુસ્તકરૂપે આરૂઢ કર્યાં. આજે આ સિદ્ધાંતા આપણી પાસે છે. તે અર્ધમાગધી ભાષામાં છે. અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવાની તથા જનગણની ધમ ભાષા છે. તેને આપણા શ્રમણા અને શ્રમણીએ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાઓ મુખપાઠ કરે છે; પરન્તુ તેના અર્થ અને ભાવ ઘણા થાડાએ સમજે છે. જિનાગમ એ આપણાં શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્રેા છે. એ આપણી આંખા છે. તેના અભ્યાસ કરવા એ આપણી સૌની-જૈનમાત્રની ફરજ છે. તેને સત્યસ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણાં સદ્ભાગ્યે જ્ઞાનદ્વિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે સત્સ`કલ્પ કર્યાં છે. અને તે લિખિત સૂત્રોને પ્રગટ કરાવી શાસ્રાદ્ધારસમિતિ દ્વારા જ્ઞાન–પરમ વહેતી કરી છે. આવાં અનુપમ કાર્ય માં સકળ જૈનાના સહકાર અવશ્ય હોવા ઘટે અને તેના વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય માટે પ્રયત્નો કરવા ઘટે. ભ. મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે, હે ભગવાન ! સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે ? ભગવાન તેના પ્રતિ–ઉત્તર આપે છે કે શ્રુતની આરાધનાથી જીવાના અજ્ઞાનના નાશ થાય છે, અને તે સ ંસારના કલેશાથી નિવૃત્તિ મેળવે છે, અને સંસારકલેશોથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનના નાશ થતાં માક્ષ– ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. : આવા જ્ઞાનના કાર્યમાં મૂર્તિ પૂજક જૈના, દિગબર અને અન્યધમી એ હજારો અને લાખા રૂપીયા ખર્ચે છે. હિન્દુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડો નહિ પણ હજારો ટીકા થા દુનિયાની લગભગ સવાઁ ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. ઇસાઈ ધર્મના પ્રચારકા તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રંથ બાઈબલના પ્રચારાથે જગતની સ ભાષાઓમાં તેનું ભાષાંતર કરી, તેને પડતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધમ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭ સૂત્રોને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લીમ લોકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું પણ અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પિસા ઉપરનો મોહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ, અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયતને કરવા જોઈએ. આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદો સૌએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમાનુસાર રૂ. ૨૫૧ ભરી સમિતિના સભ્ય બનવું જોઈએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાંઓના મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું-જ્ઞાનપ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવું જોઈએ. આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમ–ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હરહંમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ જેથી પરમ શાન્તિ અને જીવનસિદ્ધિ મેળવી શકાય. (સ્થા. જૈન તા. પ-૭–૧૬) શ્રી. અ. ભા. શ્વે. સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખશ્રી વગેરે. રાણપુર પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્યભૂમિ ઉપર જ્યારથી શાન્ત–શાઅવિશારદ અપ્રમાદી પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં પુનીત પગલાં થયાં છે ત્યારથી ઘણું લાંબા કાળથી લાગૂ પડેલ જ્ઞાનાવરણીય કર્મનાં પડળ ઉતારવાનો શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે. અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે, અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામોને જનતા લાભ લ્ય છે. મને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હોય છે. પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમે અપ્રમત્ત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત્ત માત્ર પાંચ-સાત સાધુએ જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે. સમજાકાશમાં સ્થા. જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે પણ વો દિન...” શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને હારી એક નમ્ર સૂચના છે કે–પુજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે, અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનોને શરમાવે તેવી છે. તેમને ગામેગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણી શારીરિક, માનસિક અને વ્યાવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે. તે કોઈ યોગ્ય સ્થળ કે ત્યાં શ્રાવકે ભકિતવાળા હોય, વાડાના રાગના વિષથી અલિપ્ત હોય એવા કેઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થિરતો કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કરવું જોઈએ. બીજા કોઈ એવા સ્થળની અનુકૂળતા ન મળે તો છેવટ અમદાવાદમાં યંગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તે વધુ સારૂં. હારી આ સૂચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપું છુ. ફરીવાર પૂજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકોને મારા અભિનંદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશે. લિ. સદાનંદી જેનમુનિ છોટાલાલ જી. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ “જૈન સિદ્ધાંતના તંત્રીશ્રીના અભિપ્રાય. ાનમાષીઓમાં પ્રમાણભૂત સૂત્રો મહાર પાડનારી આ એકની એક સ ંસ્થા મના મા છેલ્લા રિપેા ઉપસ્થી જણાય છે કે તેણે ઘણી મારી પ્રગતિ કસ છે તે નોંધ આનંદ થાય છે. મૂળ પાઠ, ટીકા, હિન્દી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સૂત્રો બહાર પાડવાં એ કાંઇ સહેલુ કામ નથી. એ એક મહાભારત કામ છે. અને તે કામ ઓ શાઓતરસમિતિ ઘણી સફળતાથી પાર પાડી રહી છે. તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણા ગૌરવના વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે. સમિતિ તરફથી નવ સૂત્રો બહાર પડી ચૂકયાં છે, હાલમાં ત્રણ સૂત્રો છપાય છે. નવ સૂત્રો લખાઈ ગયાં છે અને જાંબુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિ તથા નંદીસૂત્ર તૈયાર થઈ રહ્યાં છે. હુાલમાં મંત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઇ સમિતિના કામમાં જ તેમના આખા વખત ગાળે છે અને સમિતિમાં કામકાજને ઘણા વેગ આપી રહ્યા છે. તેમની ખત માટે ધન્યવાદ. અને આ મહાભાપ્ત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તા છે વચેાવૃદ્ધ પંડિત મુનિશ્રી ક્ષક્ષીસાલજી મહારાજ, મૂળ પાઠનું સંશોધન તથા સ ંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રીજ તૈયાર કરે છે. યુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા, જૈન સમાજ ઉપર ઘણા મહાન છે. એ ઉપકારના બદલા સા વાળી શકાય તેમજ નથી. પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેના બહાર પડેલાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવી તેનુ અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનુ થાડું ઋણ અદા કર્યું' ગણાય. ભગવાને કહ્યું છે કે પદ્મમં નાળ તો ચા પહેલુ' જ્ઞાન પછી દયા, કથા ધર્માંને થાથ સમજવા હોય તા ભગવાનની વાણીરૂપ આપણા સૂત્રો વાંચવાંજ જોઇએ. તેનું અધ્યયન કરવુ જોઈએ અને તેના ભાવાથ યથાર્થ સમજવા જોઈએ. એટલા માટે આ શાસ્રદ્વારસમિતિના સર્વ સૂત્રો દરેક સ્થા. જૈને પોતાના ઘરમાં સાવધાજ જોઇએ. સધર્મજ્ઞાન આપણા સૂત્રોમાંજ સમાયેલુ છે, અને સૂત્રો સયાઇથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન મા સૂત્રો વાંચે એ વ્યાસ જવનું છે. “ જૈન સિદ્ધાંત ” ડીસેમ્બર—૫૬ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ૫,૦૦૧ આપનાર આધ મુરબીશ્રી, આ છ : છે છે (સ્વ.) શેઠ જી વ | ભા ઇ ધા ર સી ભા ઇ સો લા ! ૨. Page #49 --------------------------------------------------------------------------  Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ઉપાસકદશાંગ સૂત્રને માટે અભિપ્રાય મૂળ સૂત્ર તથા પૂ. મુનિશ્રી ઘાસલાલજીએ બનાવેલ સંસ્કૃત છાયા તથા ટિકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત. પ્રકાશક-અ. ભા. ૩. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રો કાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રેહ, શ્રીન લોજ પાસે, રાજકેટ. (સૌરાષ્ટ્ર). પણ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ એવડું મોટું) થઇ. પાકું પુછું. જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬. કિંમત ૮-૮-૦. અપણા મૂળ બાર આંગ સૂત્રોમાંનું ઉપાસકરશાંગ એ સાતમું અંગસૂત્ર છે, એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે -શ્રાવકેનાં જીવનચરિત્રો આપેલાં છે, જેમાં પહેલું ચક્ષત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. આનદ શ્રાવકે જેનધર્મ અંગીકાર કર્યો અને મારી વાત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા-પ્રત્યાખ્યાન લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણજ આવે છે. તેના અંતર્ગત અનેક વિષ જેવા કે, અભિગમ, લેકાવારૂપ, નવતત્વ, રિક, દેવલોક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે. આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બારે વ્રતની વિગત, અતિચારની વિગત વગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે. આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં અરિહૃત શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકે મૂર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચય (પ્રતિમા) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદ્દન ખોટે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ ખેાટે અર્થ બંધ બેસતું જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને રિહંત ચારૂં નો અર્થ સાધુ થાય છે તે બતાવી આપેલ છે. આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત ' તે શ્રાવકોની અદ્ધિ, રહેઠાણ, નગરી વગેરેનાં વર્ણન ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ, રાજ્યવ્યવસ્થા વગેરે બાબતેની માહિતી મળે છે. એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ, એટલું જ નહિ, પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ. ' પુસ્તકની શરૂઆતમાં વર્ધમાન શ્રમણ સંઘના, આચાર્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિપત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકના સંમતિ આપેલા છે, તે સૂત્રમાં પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે. જૈન સિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી, ૧૭ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સેંકડો સટીફીકેટ ઉપરાંત હાલમાં મળેલા * કેટલાક તાજા અભિપ્રાય શા સ્ત્રો ધા રના કાર્યને વેગ આપો તંત્રીસ્થાનેથી (જૈનોતિ) તા. ૧૫-૯-૫૭ - પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ ઠાણ ૪ હાલમાં અમદાવાદ મુકામે સરસપુરના સ્થા જૈન ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન છે. તેઓશ્રી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય ખૂબ જ ખંત અને ઉત્સાહથી વૃદ્ધવયે પણ કરી રહ્યા છે. તેઓશ્રી વૃદ્ધ છે છતાં પણ આખો દિવસ શાસ્ત્રની ટીકાઓ લખી રહ્યા છે. આજ સુધીમાં તેમણે લગભગ ૨૦ જેટલાં શાસ્ત્રોની ટીકાઓ લખી નાખી છે અને બાકીનાં સૂત્રાની ટીકા જેમ બને તેમ જલદી પૂર્ણ કરવી. એવા મને રથ સેવી રહેલ છે, સ્થા. જૈન સમાજમાં શાઓ ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવાને આ પ્રથમ જ પ્રયાસ છે અને તે પ્રયાસ સંપૂર્ણ બને એવી અમે શાસનદેવ પ્રત્યે પ્રાર્થના કરીએ છીએ. આજ સુધી ઘણા મુનિવરોએ શાસ્ત્રોનું કામ શરૂ કરેલ છે પણ કેઈએ પૂર્ણ કરેલ નથી. પૂજ્યશ્રી અમુલખઋષીજી મહારાજે બત્રીસે શાસ્ત્રો ઉપર હિન્દી અનુવાદ કરેલ અને સંપૂર્ણ બનેલ. ત્યારબાદ આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ હિન્દી ટીકા કેટલાક શાઓ ઉપર લખેલ પણ ઘણું શાસ્ત્રો બાકી રહી ગયાં. પૂજ્ય હસ્તિમલજી મહારાજે એક બે શાસ્ત્રો ઉપરની ટીકાઓના અનુવાદ કરેલ. પૂજય શ્રી જવાહિરલાલ મહારાજશ્રીએ સૂયગડાંગસૂત્ર ટીકા સહિત હિન્દી અનુવાદ સાથે પ્રકાશિત કરેલ. શ્રી સૌભાગ્યમલજી મહારાજે આચારાંગની હિન્દી ટીકા લખેલ પણ સંપૂર્ણ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા હજી સુધી સ્થા. જૈન સાધુઓ તરફથી થયેલ નથી. જ્યારે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ ૨૦ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા તેને હિન્દી ગુજરાતી અનુવાદ કરાવેલ છે. આથી હવે આશા બંધાય છે કે તેઓશ્રી બત્રીસે બત્રીસ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવામાં સફળ થશે અને શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ આજ સુધી ૧૦ થી ૧૨ શાસ્ત્રો છપાવી પણ દીધાં છે અને હજી પણ તે શાસ્ત્રો વિશેષ જલદી છપાય તે માટે શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સંપૂર્ણ પ્રયત્ન કરી રહેલ છે તે ધન્યવાદને પાત્ર છે. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના રૂ. ૨૫૧ ભરીને લાઈફ મેમ્બર થનારને તમામ શાસ્ત્ર શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી ભેટ મળે છે. આ રીતે એક પંથ અને દે કાજ, બંને રીતે લાભ થાય તેમ છે. રૂા. ૨૫૧ થી ૫૦૦ રૂપિયાની કિંમતનાં શાસ્ત્રો મળે એ પણ મોટો લાભ છે અને પ્રવચનની પ્રભાવના કરવાને ધર્મલાભ પણ મળે છે. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ સાલે પૂજ્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય પં. મુનિશ્રી કયાલાલજી મહારાજ મલાડ મુકામે ચાતુર્માસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રી શાસ્ત્રોના મેમ્બરે કરવા માટે અથાગ પ્રયત્ન કરીને પ્રવચનની સેવા બજાવી રહ્યા છે. અને અત્યાર સુધીમાં મુંબઈ તેમજ પરાઓના લગભગ ૪૦ જેટલા ગૃહસ્થ લાઈફ મેમ્બર બની ગયા છે અને મુંબઈમાં લગભગ ૩૦૦ જેટલા મેમ્બર થાય તે ઈચ્છવા ગ્ય છે. શ્રીમંત ગૃહસ્થ હજાર રૂપિયા પિતાના ઘર ખર્ચમાં તેમજ મજશેખના કામમાં તેમજ વ્યાવહારિક કામમાં વાપરી રહ્યા છે તે આવા શાસ્ત્રોદ્ધાર જેવા પવિત્ર કાર્યમાં રૂપિયા વાપરશે તે ધમની સેવા કરી ગણાશે. અને બદલામાં ઉત્તમ આગમસાહિત્યની એક લાયબ્રેરી મળી જશે. જેનું વાંચન કરવાથી આત્માને શાંતિ મળશે અને શાસ્ત્રઆજ્ઞા–પ્રમાણે વર્તવાથી જીવન સફળ થશે. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શeતાણાની નિમી જન્મેનીલાલજી મહારાજશ્રીને અમદાવાદને પત્ર “સ્થાનકશાસી જૈન' તા, મહ૧૭ના અંકમાં છપાએલ છે જે નીચે મુજબ છે. સૂત્રોના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર હોઈ શકે ખરે ? તા. ૭-૮-૧૭ના રોજ અત્રે બિરાજતા શાસ્ત્રોદ્ધારક આચાર્ય મહારાજશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પાસે, મારા ઉપર આવેલ એક પત્ર લઈને હું ગયે હતા, તે સમયે મારે પૂ. મ. સા. સાથે જે વાતચીત થઈ તે સમાજને જાણ કરવા સારૂ લખું છું. વાનું કામ, એક ગહન વસ્તુ છે. અપ્રસાદી થઈ તેયાં અવિરત પ્રયત્ન કરવા જોઈએ, સંપૂર્ણ શાસ્ત્રોનું જ્ઞાન તેમજ દરેક પ્રકારની ખાસ ભાષાનું જ્ઞાન હોય તેજ આગમાદ્ધારનું કાર્ય સફળતાથી થાય. આ પ્રકારનો પ્રયત્ન હાલ અમદાવાદ ખાતે સરસપુર જૈન સ્થાનકમાં બિરાજતા પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કરી રહ્યા છે. શાસ્ત્ર–લેખનનું આ કાર્ય થઈ રહ્યું છે, તેમાં અનેક વ્યકિતઓને અનેક પ્રકારની શંકાઓ થાય છે. તે પૈકી શાના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થાય છે? કરવામાં આવે છે? એવો પ્રશ્ન પણ કેટલાકને થાય છે અને તે પ્રશ્ન થાય તે સ્વાભાવિક છે, કેમકે અમુક મુનિરાજે તરફથી પ્રગટ થયેલ સૂત્રોના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થયેલા છે. જેથી આ કાર્યમાં પણ સમાજને શંકા થાય. પણ ખરી રીતે જોતાં, અત્યારે જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ ચાલી રહ્યું છે તે વિષે સમાજને ખાત્રી આપવામાં આવે છે કે, શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ તરફથી અત્યાર સુધીમાં પ્રગટ થયેલાં આગમના મૂળ પાઠમાં જરાપણ ફેરફાર કરવામાં આવેલ નથી અને ભવિષ્યમાં જે સૂત્રો પ્રગટ થશે તેમાં ફેરફાર થશે નહિ તેની સમાજ નેધ . ટી. શતાવધાની શ્રી જયંત મુન-અમદાવાદ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૩ શ્રી અખિલ ભારત સ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને ટુંક પરિચય” સ્થાનકવાસી સમાજની આ એકની એક સંસ્થા છે કે જેણે અત્યાર સુધીમાં તેર સૂત્ર છપાવી બહાર પાડી દીધાં છે. સાત સૂત્રો છપાય છે અને બીજાં કેટલાક છાપવા માટે તૈયાર થઈ ચૂક્યા છે. 'આ પ્રમાણે આ સંસ્થાએ મહાન પ્રગતિ સાધી છે તેને ટુંક પરિચય આ પત્રિકામાં આપેલ છે તે વાંચી જઈ સર્વ સ્થા. જૈન ભાઈબહેનેએ આ સંસ્થા ને યથાશકિત મદદ કરી તેના કાર્ય ને હજુ વિશેષ વેગવાન બનાવવાની જરૂર છે. ખાલી વડો વાગે ઘણે એમ સ્થા. કેન્ફરન્સ જેમ ખોટાં બણગાં ફેંકનારી સંસ્થાની કઈ કિંમત નથી, ત્યારે નકકર કામ કરનારી આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને દરેક પ્રકારે ઉત્તેજન આપવાની દરેક સ્થાક્વાસી જૈનની અનિવાર્ય ફરજ છે. અને આ સર્વ સૂત્રો તૈયાર કરનાર પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સ્થાનકવાસી સમાજ ઉપર ઘણે મહાન ઉપકાર છે. વયેવૃદ્ધ હોવા છતાં તેઓશ્રી જે મહેનત લઈ સૂત્ર તિયાર કરાવે છે તેવું કામ હજુ સુધી બીજા કેઈએ કર્યું નથી અને બીજું કઈ કરી શકશે કે નહિ તે પણ શંકાભર્યું છે. પૂજ્ય મુનિશ્રીના આ મહાન ઉપકારને કિંચિત બદલો સમાજે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને બની શકતી સહાય કરીને વાળવાને છે. સ્થાનકવાસી સમાજ જ્ઞાનની કદર કરવામાં પાછા હઠે તેમ નથી એવી અમે આશા રાખીએ છીએ. નસિદ્ધાંત” પત્ર ઓકટોમ્બર ૧૯૫૭ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી દશવૈકાલિક તથા ઉપાસક દશાંગ સૂત્રો ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ થયેલાં પૂજ્ય શ્રી વાસીલાલજી મહારાજ વિરચિત ઉપરોકત બે સુત્ર જૈનધર્મ પાળતા દરેક ઘરમાં હોવા જ જોઈએ. ' તે વાંચવાથી શ્રાવક ધર્મ અને શ્રમણ ધર્મના આચારનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે છે અને શ્રાવકે પિતાની નિરવદ્ય અને એષણીય સેવા શ્રમણ પ્રત્યે બજાવી શકે છે. વર્તમાનકાળે શ્રાવકેમાં તે જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે અંધશ્રદ્ધાએ બમણુવનની વૈયાવચ્ચ તે કરી રહેલ છે. પરંતુ “કલ્પ શું અને અકલ્પ શું” એનું જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે પિતે સાવદ્ય સેવા અપીને પિતાના સ્વાર્થને ખાતર શ્રમણવર્ગને પોતાને સહાયક થવામાં ઘસડી રહ્યા છે અને શ્રમણવર્ગની પ્રાયઃ કુસેવા કરી રહ્યા છે. તેમાંથી બચી લાભનું કારણ થાય અને શ્રમણને યથાત સેવા અપી તેમને પણ જ્ઞાન-દર્શનચારિત્રની આરાધના કરવામાં સહાયક થઈ પિતાના જ્ઞાનદશન-ચારિત્રની આરાધના કરી સુગતિ મેળવી શકે. શ્રમણની યથાતથ્ય સેવા કરવી તે અવશ્ય ગૃહસ્થની ફરજ છે. પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ. શાસ્ત્રોદ્ધારને અનુવાદ ત્રણ ભાષામાં રૂડી રીતે કરી રહ્યા છે અને રૂપીયા ૨૫૧ ભરી મેમ્બર થનારને રૂા. ૪૦૦-૫૦૦ લગભગ ની કીંમતના બત્રીસે આગ ફ્રી મળી શકે છે તે તે રૂા. ૨૫૧૭ ભરી મેમ્બર થઈ બત્રીસે આગમ દરેક શ્રાવકઘરે મેળવવા જોઈએ. બત્રીસે શાસ્ત્રોના લગભગ ૪૮ પુસ્તકે મળશે. તે તે લાભ પોતાની નિજર માટે, પુન્યાનુંબંધી પુન્ય માટે જરૂર મેળવે. ઉપરોકત બંને સૂત્રોની કીંમત સમિતિ કંઈક ઓછી રાખે તે હરકોઈ ગામમાં શ્રીમંત હોય તે સૂત્ર લાવી અરધી કીંમતે, મફત અથવા પૂરી કીંમતે લેનારની સ્થિતિ જોઈ દરેક ઘરમાં વસાવી શકે. –એક ગૃહસ્થ નોંધ –ઉપરની સૂચનાને અમે આવકારીએ છીએ. આવાં સૂત્રો દરેક ઘરમાં વસાવવા યોગ્ય તેમજ દરેક શ્રાવકે વાંચવા યોગ્ય છે. તંત્રી– રત્નત” પત્ર તા. ૧-૧૦-૧૭ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૫ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રાર સમિતિની કાર્યવાહક કમીટીના અહેવાલ. મે મહિનાની શરૂઆતમાં શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિની મીટીંગ અમદાવાદમાં મળી હતી તેને હેવાલ અમને મળે છે તેમાં સમિતિએ સરસ કામ કર્યું છે. આ ઉપરથી સમજી શકાય છે કે સ્થાનકવાસી સમાજમાં આજ સુધી કેઈએ પણ નથી કરી શકયું એવું મહાભારત કામ પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તથા શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ ઘણી સફળતાથી કરી રહી છે. અને તેઓ થોડા વખતમાં માથે લીધેલું સર્વ કામ સંપૂર્ણ રીતે પાર ઉતારશે એવી અમને ખાત્રી છે. આવા ઉત્તમ કાર્ય માટે સમસ્ત સ્થાનકવાસી જૈનેએ શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિને પિતાનાથી બની શકે તે રીતે સંપૂર્ણ ટેકે આપ જોઈએ, તે તેમની ફરજ બની રહે છે. જેને માટે સૂત્રો એ પહેલી ફરજીઆતની વસ્તુ છે. સૂત્રના આધારે જ ધર્મજ્ઞાન મળે છે. આજ સુધી જે આપણને અપ્રાપ્ય હતા તે આપણા જૈનસૂત્રે પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તથા શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિએ સુલભ કરી આપ્યા છે. તે હવે સ્થાનકવાસી જૈનોએ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના સભાસદ બની સમિતિનું કામ બનતી ઉતાવળે પૂરું થાય તેમ કરવાની ખાસ જરૂર છે. વાચકોમાંથી જેઓથી બની શકે તેમણે પહેલા વર્ગના શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના સભ્ય બની જવું જોઈએ. તેથી સમિતિના કામને ઉત્તેજન મળવા ઉપરાંત સભ્યને સૂત્રોને આપે સેટ મફત મેળવવાને લાભ મળશે અને સૂત્રો વાંચીને ધર્મારાધન કરવાને જે લાભ મળશે તે તે અમૂલ્ય જ છે. માટે સમિતિના સભ્ય થઈ જવાની અમારી દરેક સ્થા જૈનને ખાસ ભલામણ છે. જૈન સિદ્ધાંત” જુલાઈ-૧લ્પ૮ -- Acs a go souggg*99 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૬ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના આગમા અંગે અભિપ્રાય. * દક્ષિણ, ઉત્તર પ્રદેશ, દિલ્હી અને પ’જામમાં ઉગ્ર વિવ્હાર કરીને હાલમાં ગુજરાત– સૌરાષ્ટ્રમાં વિચરી રહેલા ઉગ્ર વિહારી પૂ. મહાસતીજી શ્રી ર્ભાકુંવરજી તથા પ્રસિદ્ધ વ્યાખ્યાની વિવિધભાષાવિશારદા પૂ. મહાસતીજી શ્રી. સુમતિ વરજીના, પૂજ્ય શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી શ્વાસીલાલજી મ. સા. નિમિત જૈનાગમાની સંસ્કૃત ટીકા તથા હિન્દી-ગુજશતીભાષાંતર પર અભિપ્રાયઃ— ૐ નમા સિદ્ધાણું શાસ્ત્રવિશારદ શ્રદ્ધેય પડિત રત્ન પૂજ્ય આચાર્ય મુનિશ્રી શ્વાસીલાલજી મહારાજ સાહેમ નૈનાગમેાના એક વિદ્વાન, વૃદ્ધવિચારક અને ઉત્તમ લેખક છે. સાહિત્યસર્જન એ તેમનાં જીવનના એક ઉત્તમ સોંકલ્પ છે. સામાજિકપ્રપચાથી દૂર રહી, અથાગ પરિશ્રમ દ્વારા વિરચિત, સંપાદિત અને અનુવાદિત તેમના અનેક ગ્રંથા પ્રકાશિત થયા છે, જે તમામ જૈનોને માટે ચિંતન, મનન અને અધ્યયન-અધ્યાપન માટે એક અપૂર્વ સાધનરૂપ છે. આવું ઉત્તમ સાહિત્ય તૈયાર કરીને તેઓશ્રીએ સાહિત્યસેવીના મહાન પદને દીપાવ્યું છે. અમદાવાદ તા. ૧-૫-૫૮ આગમના રહસ્યાથી અનભિજ્ઞ (અજાણુ) આજની પ્રજામાં શ્રદ્ધેય શ્રી મહારાજ સાહેબનું સાહિત્ય અત્યંત ઉપયાગી છે, તેમ હું માનું છું... આર્યા–સુમતિ વર. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૭ (Tri putinyurl.it Linunivirurgiiiiiiii) - finitin Liviiiiiiiiiiiiiiiiiii - ' NI TIT T TTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTT T Hiii': 5 :::: ; ; - :::: ::: Tit::: અલવરથી શ્રી શ્રમણ સંઘના ઉપાધ્યાય કવિ સુનિશ્રી અમરચંદજી મહારાજને કલ્પસૂત્ર માટે આવેલ પત્ર શ્રીયુત ભેગીલાલજી-અમદાવાદ, , ITTTTT in time: , , , : , જે - - - :11 vi 1. જયવીર આપને ત્યાં બીરાજમાન પરમ શ્રદ્ધેય શ્રી શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી પૂજ્ય- EEE E પાદશ્રી ઘાસલાલજી મહારાજ આદિ બધા સંતની સેવામાં વંદન સુખધી શાન્તિ નિવેદન છે. , ' : : ii iiii TIT T TTimliET TTTTTTTTTTTI ilinguirrrrrrrr i 1 vii ni is Immu t ' ' , = આપે મોકલેલ “કુલપસૂત્ર” મેળવીને શ્રદ્ધેય કવિજીએ પ્રસન્નતા પ્રગટ BE કરી છે અને સાદર યથાયોગ્ય અભિનંદન પૂર્વક લખાવ્યું છે કે “કલ્પસૂત્રનું પ્રકાશન બહુ જ ઉત્કૃષ્ટ કેટિનું છે. તેની ટીકા સુંદર વિસ્તારપૂર્વક સારી રીતે લખેલ છે. ટાઈમ મળતાં અધ્યયન કરવા માટે પ્રયત્ન કરવામાં આવશે. છાપવામાં આવેલ આવૃત્તિ માટે કોટિ કોટિ ધન્યવાદ આપવામાં આવે છે. : : ! * !': IST!! . . . . . . 1 કવિશ્રીજીનું સ્વાથ્ય સારી રીતે ચાલે છે. પહેલાની અપેક્ષાએ કંઈક E-E સારું છે. આ પત્ર વિલમ્બથી લખવામાં આવેલ છે તે ક્ષમા કરજે. DD :::ugT 1 in 1 - TTTTTT અલવર (રાજસ્થાન) તા. ૯-૮-૧૯૫૮, II , ભવદીય : રતનલાલ સંચેતી (હિન્દી ગુજરાતીમાં અનુવાદ) it in sti iii III Ti :: III - Tri ILIHLILIIILLILILITET Julum tiliiiiiiiiii RE --- - LES a ક - intimary Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री-मेवाडदेश-पावनकर्तृणां श्रीश्रमणसंघीयपण्डित-मुनिश्रीमाँगीलालजी महाराजानां तच्छिष्यस्य हस्तिमुनेश्व सम्मतिपत्रम् २०१५ वर्षीय-वर्षावास-दीपावली राजकरेड़ा (राजस्थान) __पुरतो जिनवाणीरसिकसजनानां पूज्यश्री १००८ श्रीघासीलालजी-महाराजविरचितजैनागमव्याख्याऽध्ययनजन्मनो ऽस्मत्स्वान्ते परिमितिमप्रा वतो निर्भरानन्दस्यानुभवं प्रसन्नमनसा कतिपयैः शब्दैनिर्दिशावः । ____ अस्माकमहोभाग्येन विराजमानैर्विद्यया वयसा च वृद्धैः सज्जनशिरोमणिभिः पूज्यपादवीमलङ्कुर्वद्भिः श्रीमज्जैनाचार्य-घासीलालजी-महाराजैःप्रणीतया व्याख्यया समलङ्कृतोजैनागमो दृष्टिगोचरीकृतः । मनोहारिणी संस्कृतटीका हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादद्वयं च बलान्मानसं समाकर्षति । पूज्यश्रीविरचितजैनागमव्याख्यानसहस्रभानुनाऽऽवयो नागमरहस्याज्ञान तमस्संहतिरपहृता, हृत्पद्मं च प्रफुल्लितम् । ___ आसीदभावो बहोः कालाज्जैनागमेषु स्थानकवासी संप्रदायाभिमत संस्कृत ल्याख्यानस्य, परतन्त्रश्चासीदद्यावधि स्थानकवासिजैनसमुदायः । परं परमकृपालुना श्रीमताऽऽचार्यप्रवेरणाsनवरतं परिश्रम्य जैनागमेषु स्वसंप्रदायपरिपोषिकां टीका विधाय सकलोऽपि स्थानकवासिजैनसंघः स्वावलम्बीकृतः । श्रीमजैनाचार्यकृतेयमुपकृतिः सकलस्थानकवासिजैनहृदयेषु वज्रलेपायिता भविष्यतीति मन्यावहे। अनादिधोराज्ञानतमसि पततां जनानां त्राणोपायः केवलं जिनभाषितमेवेति सर्वविदितमेव । तत्र सर्वजनकल्याणकामनया पूज्यश्रीचरणैर्या टीका विरचिता सा सर्वेषामपि सिद्धिप्रदा विजयप्रदा कल्याणप्रदा सन्मार्गप्रदर्शिका चास्तीति सुदृढोऽस्मविश्वासः । अतोऽहं सर्वानपि जैनबन्धून प्रोत्साहयामि, यत्ते स्वहितमभिसंधाय श्रीमत्पूज्यजैनाचार्यविरचितव्याख्यासाहाय्येन जैनागमहृदयं सम्यगवगम्य तन्निर्दिष्टमार्गेण स्व-स्वजीवनं सफलयन्तो लोकद्वयं साधयन्त्वित्यलभतिविस्तरेण । अन्ते च शासनाधीशमभ्यर्थयावहे यदस्मदीयाचार्यप्रवराः शतायुषो निरामयाश्च भवन्त्विति इत्थं पूज्यश्री १००८ श्रीघासीलालजी-महाराज-विरचित-जैनागमव्याख्यायां स्वसम्मतिं प्रदर्शयतःश्रीश्रमणसंधीव पण्डितमुनि माँगीलाल:, __ तच्छिश्यो हस्ती मुनिश्च Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 पृष्ठ पक्ति शुद्धिपत्रम् अशुद्धि शुद्धि __ पृष्ठ संपिडिय संपिडिय संपरिक्खते संपरिक्खित्ते अविद्यमाना रुजा यस्य अविद्यमाना रुजा यत्र तत्-अविद्यमान शरीरमनस्क तत्-अधिव्याधिरहितम् त्वात्-आधिव्याधिरहितम् इत्यर्थः । इत्यर्थः । तत्ततवे घोरतवे तत्ततवे महातवे द्योरतवे ४९६ अम्बड परिवाजका कर्णादि-शीलध्यादि परिव्राजचारवर्णनम् । कानाम् आचारवर्णनम्। ५४९ ५५१ शोर्षक शीर्षक शीर्षक शीर्षक अम्बडपरिव्राजकानां देवलोक स्थितिवर्णनम् । त्रिषष्टितमे ५५५ कर्णादि-शीलध्यादि-परिवाजकानां देवलोकस्थितिवर्णनम्। ५५७ एकोनचत्वारिंशत्तमे शीर्षक इति । Page #61 --------------------------------------------------------------------------  Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नम: ॥ 'जैनाचार्य'-'जैनधर्मदिवाकर'-पूज्य-श्री-घासीलालजीमहाराजविरचित-पीयूषवर्षिण्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् औपपातिकसूत्रम्. (मङ्गलाचरणम्) मालिनीछन्द । भविजनहितकारं ज्ञानवित्तैकसारं, कृतभवनिधिपारं नष्टकारिभारम् । अघहरणसमीरं दुःखदावाग्निनीरं, विमलगुणगभीरं नौमि वीरं सुधीरम् ॥१॥ औपपातिकसूत्रकी पीयूषवर्षिणी टीका का हिन्दी-भाषानुवाद । मङ्गलाचरणज्ञानावरण आदि चार घातिया कर्मों के सर्वथा विनाश से उद्भूत केवल ज्ञानरूपी अनंत अचिन्त्य अन्तरंगविभूतिविशिष्ट, भव्यजीवों के अबाध आत्मकल्याण का उज्वल मार्गप्रदर्शन करनेसे सदा हितकारक, स्वयं संसाररूपी अपार पारावार से पार होकर अन्य जीवोंको भी वहांसे पार करनेवाले, तृणादिक को उड़ानेवाली वायुकी तरह पापपुंज को उडानेके लिये अबाधगतिवाले, आधि, व्याधि एवं उपाधिजन्य अनेक दुःखोकी राशिरूपी प्रचण्ड अग्निकी ज्वालाको ध्वस्त करने के लिये निर्मल सलिल जैसे; ऐसे धीर वीर अन्तिम तीर्थकर श्रीवीरप्रभुको-जो क्षायिकगुणों से सदा ओतप्रोत बने हुए हैं-मैं भक्तिपूर्वक नमन करता हूं ॥ १ ॥ ઔપપાતિકસૂત્રની પીયુષવર્ષિણી ટીકાને ગુજરાતી-અનુવાદ भगवाय२५જ્ઞાનાવરણ આદિ ચાર ઘાતિયા કર્મોના સર્વથા વિનાશથી ઉત્પન્ન થયેલ કેવળજ્ઞાનરૂપી અનંત અચિંત્ય અંતરંગવિભૂતિરૂપ, ભવ્યજીના અબાધ આત્મકલ્યાણના ઉજજવલ માર્ગપ્રદર્શન કરવાથી સદા હિતકારક, પોતે સંસારરૂપી અપાર સમુદ્ર પાર કરીને બીજા સ્થાને પણ તેમાંથી પાર કરવાવાળા, જેમ વાયુ તૃણને ઉડાડી નાખે તેમ પાપપુંજને ઉડાડવામાં અબાધ ગતિવાળી, આધિ વ્યાધિ તેમજ ઉપાધિજન્ય અનેક દુઃખની રાશિરૂપી પ્રચંડ અગ્નિની વાલાને શાંત કરવા નિર્મલ જળ જેવા, એવા ધીર વીર અંતિમ તીર્થંકર શ્રી વિરપ્રભુ કે જે નિર્મલ ક્ષાયિક ગુણથી સદા ઓતપ્રોત બનેલા છે તેમને ई मस्तिपूर्व ४ नमन ४३ छु. (१) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपणातिकब बसन्ततिलका। आनन्तराऽऽगमसुधारसनिर्झरेण, ___ संसिच्य धर्मतरुसद्रुचिराऽऽलवालम् । स्वर्गाऽपवर्गसुखराशिफलं वितीर्य, मोक्षं गतं तमिह गौतममानमामि ॥ २ ॥ द्रुतविलम्बितम्। कमलकोमलमजुपदाम्बुजं, ___ विमलबोधिदरोषवियोषकम् । .. मुखमुशोभिसदोरकवत्रिक, गुरुवरं सदयं प्रणमाम्यहम् ॥३॥ अनन्तरागमरूपी निर्मल सुधारस के प्रवाह से धर्मरूपी वृक्षके सम्यग्दर्शनरूप भालवाल (क्यारी)को सींचकर जिन्होंने भव्यजनोंके लिये उसके फलस्वरूप स्वर्ग एवं मोक्ष के सुखरूप फलों को वितरित कर (देकर) उन्हें कल्याणस्थानमें लगाया; ऐसे मोक्षप्राप्त उन गौतमस्वामी को मैं भक्तिपूर्वक नमन करता हूं ॥ २ ॥ - जिनके उमय सुन्दर चरणकमल कमल जैसे कोमल हैं । जो निर्मल बोधि अर्थात् सम्यक्त्वको तथा श्रुतचारित्ररूप बोधको देने वाले हैं। जिनके मुखके ऊपर दोरासहित मुखपत्ति छहकाय के जीवोंकी रक्षा के निमित्त सदा बंधी हुई रहती है; ऐसे दयालु गुरुवर को मैं भक्तिपूर्वक नमन करता हूं ॥ ३ ॥ અનંતરાગમરૂપી નિર્મળ અમૃતના પ્રવાહથી ધર્મરૂપી વૃક્ષના સમ્યગ્દર્શનરૂપ આલવાલ (કયારી) ને સિંચન કરીને જેમણે ભવ્યજને માટે તેના ફલસ્વરૂપ સ્વર્ગ તેમજ મોક્ષનાં સુખરૂપ ફલોનું વિતરણ કરી તેમને કલ્યાણસ્થાનમાં લગાડયા એવા મોક્ષપ્રાપ્ત તે ગૌતમસ્વામીને હું ભક્તિપૂર્વક નમન . જેમનાં બંને સુંદર ચરણકમલ કમલ જેવાં કેમળ છે, જે નિર્મલધિ એટલે સમ્યકત્વને તથા શ્રુતચારિત્રરૂપ બેધને આપવાવાળા છે, જેના મુખ ઉપર રાસહિત મુખપત્તિ છકાયના જીની રક્ષાના નિમિત્ત સદા બાંધેલી રહે છે એવા દયાળુ ગુરૂવરને હું ભક્તિપૂર્વક નમન કરું છું. (૩) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषणी-टीका. मङ्गलाचरणम्. आर्या-गाथा । जब मुहपत्ति, सदोरगं बंधए मुहे निश्चं जो मुक्करागदोसो, वंदे तं गुरुवरं सुद्धं ॥ ४॥ अनुष्टुप् । ३ जैनीं सरस्वतीं नत्वा, घासीलालेन तन्यते । औपपातिकसूत्रस्य वृत्तिः पीयूषवर्षिणी ॥ ५ ॥ अथौपपातिकसूत्रम् - औपपातिकमिति कः पदार्थः : इतिचेदुष्यते - देवजन्म नैरयिकजन्म सिद्धिगमनश्चेतित्रयम् उपपातः, तमुपपातमधिकृत्य कृतमध्ययनम् औपपातिकम्, एतत् औपपातिकमुपानं, कस्मात् ? अङ्गस्य = आचाराङ्गस्य समीपवर्त्तित्वात्, तत्र हि प्रथमैं सदा उम गुरुदेव को नमस्कार करता हूं कि जिन्होंने छहकाय के जीवों की वतनानिमित्त अपने मुख पर दोरासहित मुखपत्तिको सदा बांध रखा है । तथा जिनकी दृष्टि में शत्रु और मित्र एवं निन्दक और वन्दक दोनों समान हैं । ऐसे रागद्वेष से सदा परे रहनेवाले शुद्ध गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूं ॥ ४ ॥ श्री जिनेन्द्र के मुखकमल से निर्गत द्वादशाङ्गीरूप वाणी को नमन कर मैं घासीलाल मुनि औपपातिकसूत्रकी पीयूषवर्षिणीनामक टीका रचता हूँ ॥ ५ ॥ प्र० - 'औपपातिक' इस पदका क्या अर्थ है ? उ०- देवोंका जन्म, नारकियोंका जन्म एवं सिद्धिगति में गमन, ये तीन उपपात हैं । इनको लेकर रचे गये सूत्रका नाम औपपातिक है । यह अंग नहीं है उपान है। હું સદા તે ગુર્દેવને નમસ્કાર કરૂ છું. જેમણે છકાયના જીવાની યતનાનિમિત્ત પાતાના મુખપર દારાસહિત મુખપત્તિને સદા બાંધી રાખે છે, તથા જેમની દૃષ્ટિમાં શત્રુ અને મિત્ર તેમજ નિક તથા પ્રશ'સક અને સમાન છે. એવા રાગદ્વેષથી સદા પર રહેવાવાળા શુદ્ધ ગુરૂદેવને હું નમસ્કાર કરૂ છું. (૪) શ્રી જિનેન્દ્રના મુખકમલથી નીકલેલી દ્વાદશાંગીરૂપ વાણીને નમન કરીને હું ઘાસીલાલ મુનિ ઔપપાતિકસૂત્રની પીયૂષવિણી નામે ટીકા રચુ છું. (૫) ૫૦- ઔપાતિક એ પન્નુને શુ અથ છે? دد ઉ~ દેવાના જન્મ, નાસિકના જન્મ તેમજ સિદ્ધિગતિમાં ગમન એ ત્રણ ઉપપાત છે. તેમને લઇને બનાવેલા સૂત્રનુ નામ ઔપપાતિક છે. આ અંગ નથી, ઉપાંગ છે. તેને ઉપાંગ એ માટે કહે છે કે તે આચારાંગસૂત્રનું Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे माध्ययनस्य प्रथमोदेशके-' एवमेगेसिं णो णायं भवइ--अस्थि मे आया ओववाइए, नत्थि मे आया ओक्वाइए, के अहं आसी ? के वा इओ चुए इह पेचा भविस्सामि ?' इत्यादि, अन्नाऽऽचाराङ्गसूत्रे यदात्मन औपपातिकत्वमुपात्तम् तदेवाऽत्र प्रतन्यते, तेन तदुपदिष्टार्थस्य सविस्तरं पुष्टिकरणरूपं सामीप्यमिह वर्तते, अत एवाचाराङ्गोपाङ्गता सिध्यति । अस्योपाङ्गस्य अयमुपोद्घातः---- मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी टीका-'तेणं कालेणं' इत्यादि। 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इसे उपांग इसलिये कहा है कि यह आचारांगसूत्रका समीपवर्ती है, अर्थात् आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देश में "एवमेगेसि णो णायं भवइ-अस्थि में आया ओववाइए, नत्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी ? के वा इओ चुए इह पेचा भविस्सामि ?" अर्थात्-किन्ही किन्ही जीवों को यह ज्ञान नहीं होता कि मेरा आत्मा उत्पत्तिशील है या मेरा आत्मा उत्पत्तिशील नहीं है ? मैं पहले कौन था और यहांसे मरकर परलोक में कौन होऊँगा ?, इत्यादि सूत्र जो कहा है, और इसमें आत्मा के जिस औपपातिकपने का कथन करने में आया है इसीकी इस उपांग में विस्तारके साथ पुष्टि करने में आई है, अतः यह पुष्टिकरणरूप समीपता इसमें है, इसीलिये इसमें आचारांगसूत्र की उपांगता सिद्ध होती है। इस उपांगका उपोद्घात इस प्रकार है-' तेणं कालेणं' इत्यादि । (तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम णयरी होत्था ) उस अवसસમીપવતી છે એટલે આચારાંગસૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનના પ્રથમ ઉદેશમાં " एवमेगेसिं णो णायं भवइ-अत्थि मे आया ओववाइए, नत्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसि ? के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि ?" सटसेજીવોને એ જ્ઞાન નથી હોતું કે મારો આત્મા ઉત્પત્તિશીલ છે કે નથી, હું પ્રથમ કોણ હતા અને અહિંથી મૃત્યુબાદ પરભવમાં હું કોણ થઈશ. ઈત્યાદિ સૂત્ર જે કહેલું છે, તથા એમાં આત્માનું જે ઔપપાતિકપણાનું કથન કરવામાં આવ્યું છે તેની આ ઉપાંગમાં વિસ્તાર સહિત પુષ્ટિ કરવામાં આવી છે. આમ આ પુષ્ટિકરણરૂપ સમીપતા આમાં છે તે માટે આમાં આચારાંગસૂત્રની ઉપાંગતા सिद्ध थाय छे. Sinनो पोधात ॥ ५४ारे छ:-'तेणे कालेणं' त्या (तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णाम णयरी होत्था) ते मक्सपियर्सना Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. १ चम्पावर्णमम् होस्था, रिथिमियसमिद्धा प्रमुइयजणजाणवया आइण्णतस्मिन् काले तस्मिन् समये, अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतशैया, कालसमययोर्लोकोक्तो पर्यायस्वे कथं युगपनिर्देशः । कथं न वा पुनरुक्तिदोषः । अत्र समाधानमाह- काल: ' इति वर्तमानावसर्पिण्याश्चतुरिकलक्षणः, समयस्तु हीयमानलक्षणः । यत्र काले सा चम्पाऽभूत् स कोणिको राजा बभूव, श्रीवर्द्धमानस्वामी च भगवान् आसीत् । अथवा 'तेणं' इति तृतीयैकवचनान्तं तेन कालेन तेन समयेन हेतुभूतेन अवसर्पिणीचतुर्थाऽऽरकलक्षणेन उपलक्षिता चम्पानामिका नगरी आसीत् । ननु सा नगरी सम्प्रत्यपि वर्तते, तर्हि औपपातिकसूत्रप्ररूपणाकालेऽपि 'आसीत्' इति — अस्ति' इति वक्तव्यम् , तत्कथमुक्तम् 'आसीत्' ? इति चेत्, उच्यते-अवसर्पिणीत्वात्कालस्य प्रस्तुतोपाङ्गसंग्रन्थनकाले वर्णनीयचम्पानगरी तादृशी वक्ष्यमाणविशेषणविशिष्टा नाऽभूदिति ‘अस्ति' इत्यनुक्त्वाऽऽसीदित्युक्तम् । चम्पापुरी वर्ण्यते-'ऋद्ध-स्थिमिय-समिद्धा' ऋद्धस्तिमितसमृद्धा, ऋद्धा-विभवभवनादिभिर्वृद्धिमुपगता, स्तिमिता-स्वपरचक्रभयरहिता, स्थिरेति यावत्, समृद्धा-धनधान्यसमेधिता, एभिलिभिः पदैः कर्मधारयसमासः, ऋद्धा चासौ स्तिमिता चासौ समृद्धा चेति तथा, विभवविस्तीर्णा प्रशान्तिसम्पन्ना चेत्यर्थः, 'पमुइय-जण-जाणवया' प्रमुदितजनजानपदा, प्रमुदिता प्रमोद प्राप्ताः जनाः नागरिकाः, जानपदाः अशेषदेशवासिनो यस्यां सा तथा, इष्टप्रभूतमिणी काल के चतुर्थ आरे में और हीयमान उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी, उसमें कोणिक राजा राज्य करते थे, और भगवान विचर रहे थे । वह नगरी कैसी थी ? इसका वर्णन करते हैं-वह नगरी (रिद्ध-स्थिमिय-समिद्धा) ऋद्ध-विभव एवं भवनादिकों की विशिष्ट वृद्धि से संपन्न थी। स्तिमित-इसमें निवास करने वाले लोगों को स्वचक्र और परचक्र का भय बिलकुल ही नहीं था। जनता यहां की सुख की नींद सोतीऔर सुख को नींदसे उठतीथी।समृद्धायह नगरी अखंड धन एवं धान्य से सदा परिपूर्ण थी। (पमुइय-जण-जाणवया) इसीलिये यहां के समस्त नागरिक जन एवं अशेष देशनिवासी मानव सर्वदा आनंद में मग्न ચોથા આરામાં અને હીયમાન તે સમયમાં ચંપા નામે નગરી હતી, તેમાં કેણિક રાજા રાજ્ય કરતા હતા અને ભગવાન મહાવીર વિચરી રહ્યા હતા. नगरी की ती ? तनु न ४२पामा मावे छे-नगरी (रिद्धस्थिमिय-समिद्धा) ऋतु-विमतेम नवनाविना विशिष्ट वृद्धिथात नारी संपन्न Vt. स्तिमित-तमा निवास ४२वाने वय तथा ५श्यना मिलाख नहोतो. त्यांनी on सुण निद्रा ४२ती मने सुषे निद्राथी ती ती. समृखा मानसरी मम धन धान्यथा सहा परिपूती . (पमुइय-जण-जाणषया) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . औपपातिकसत्रे जण-मणुस्सा हलसयसहस्स-संकि-विकि-लह-पण्णत्त-सेउसीमा बस्तुसौलभ्यात्प्रमोदमाननिखिलजनेति यावत् । 'आइण्णजण-मणुस्सा' आकीर्णजनमनुष्या, संख्यातिरेकात् संकुलतया परस्परोप-नंघटितमनुष्यप्राणिपरिपूर्णेत्यर्थः । अत्र जनेति आतसामान्यवाचित्वात्प्राणीति निर्वक्ति, ततो मनुष्यश्चासौ जनश्चेति कर्मधारये राजदन्तादीनामाकृतिगणत्वात् मनुष्यशब्दस्य परप्रयोगः, तेन आकीर्णा व्याप्ता-आकीर्णजनमनुष्या, आर्थत्वात्-आकीर्णशब्दस्य पूर्वप्रयोगः, 'हलसयसहस्स-संकिट-विकिट-लट-पण्णत्तसेउसीमा' हलशतसहस्रसंकृष्टविकृष्टलष्टप्रज्ञप्तसेतुसीमा, शतानि च सहस्राणि च शतसहस्राणि, हलानां शतसहस्राणि, अथवा शतमितानि सहस्राणि लक्षमिति यावत् , तैर्हलशतसहस्रैः संकृष्टा विकृष्टा द्विवारं कृष्टा त्रिवार कृष्टा अत एव लष्टा-मृष्टा प्रतनूकृतलोष्टा मनोज्ञा प्रज्ञप्ता= इयमस्य कर्षकस्ये'-ति निर्दिष्टा सेतुसीमा क्षेत्रपालीरूपा सीमा यस्यां सा तथा, सेतुभङ्गे कृषीवलानां सीमाविवादो मा भूदिति सेतुसीमा प्रज्ञप्ता, इति भावः, बने हुए थे। (आइण्ण-जण-मणुस्सा) यहां की मेदिनी (भूमि) सदा अधिक से अधिक मानवजनसंख्या से आकीर्ण बनी रहती थी-मार्गों पर बडी भीड़ लगी रहती थी । (इससयसहस्स-संकिट-विकिष्ट-ल-पण्णत्त-सेउसीमा) यहां की भूमि सैकडों अथवा हजारों अथवा लाखों हलों द्वारा जोती जाती थी, दो तीन बार जुतने से खेतों की मिट्टी बिलकुल पिस सी जाती थी, प्रायः वह कंकर पत्थर रहित थी, इससे वह बहुत ही मनोज्ञ प्रतीत होती थी । 'यह इस कर्षक की भूमि है, यह इस कर्षक की भूमि है' इस प्रकार से वहां प्रत्येक किसान के खेतकी सीमा निर्धारित मेडद्वारा करने में आई थी। खेत में मेडद्वारा सीमा निर्धारित यदि न की जाय तो इससे किसानों में अपने खेत की सीमा के बारे में अनेक प्रकारसे विवाद उपस्थित हो जाता આથી અહીંના સમસ્ત નાગરિક જન તેમજ બાકીના બધા દેશનિવાસી મનુષ્ય 'सहा मान भी भय थयेसा ता. (आइण्णअण-माणुस्सा) २डी नी भूमि सहा धारेने पधारे भानन भ्याली मरी २ती ती. (हलसयसहस्स-संकिटू-विकिट्र-लट्र-पण्णस-सेउसीमा) माडी नी भूमि से ४ हुन। અથવા લાખો હળથી ખેડાતી હતી. બે ત્રણ વાર ખેડવાથી ખેતરોની માટી બિલકુલ પીસાઈ જતી હતી. મુખ્યતઃ કાંકરા પત્થર રહિત હતી તેથી તે ઘણું જ મને પ્રતીત થતી હતી. “આ આ ખેડૂતની ભૂમિ છે, આ આ ખેડૂતની ભૂમિ છે એ પ્રકારે ત્યાં પ્રત્યેક ખેડૂતના ખેતરની સીમા મેડ-સીમાચિહ્ન દ્વારા નકકી કરવામાં આવી હતી. ખેતરમાં મેડ–સીમાચિહ્ન દ્વારા જે નકકા ન કરવામાં આવે તો તેથી ખેડૂતેમાં પિતપતાના ખેતરની સીમાના અનેક Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. १ चम्पावर्णनम्. कुकुड-संडेय-गाम-पउरा उच्छु-जव-सालि-कलिया गो-महिस-गवेलगप्पभूया आयारवंतचेइय-जुवइ-विविह-सण्णिविठ्ठ-बहुला उक्कोडि'कुक्ड-संडेय-गामपउरा' कुक्कुटपाण्डेयग्रामप्रचुरा-कुक्कुटाच पाण्डेयाः लघुगोपतयश्च कुक्कुटपाण्डेयाः, तेषां ग्रामाः समूहाः ते प्रचुराः प्रभूता यस्यां सा तथा । ' उच्छु-जबसालि-कलिया' इक्षुयवशालिकलिता-इक्षुभिर्यवैः शालिभिश्च कलिता=युक्ता, अनेन प्रजायाः पोषणहेतुरभिहितः । रिक्तोदराणां हि कार्यक्षमता न भवति । 'गो-महिस-गवेलग-प्पभूया' गोमहिषगवेलकप्रभूता-गावो, महिष्यः, गवलकाः मेषाः, ते प्रभूताः यस्यां सा तथा । 'आयारवंतचेइय-जुवइ-विविह-सण्णिविट्ठ-बहुला' आकारवचैत्ययुवतिविविधसन्निविष्टबहुला-आकारवन्ति सुन्दराकृतिकानि चैत्यानि-उद्यानानि, तथा युवतीनां विविधानि सन्निविष्टानि-नर्तक्यादीनां संनिवेशनानि भवनानि बहुलानि यस्यां सा तथा, है, अतः सेतुसीमा की हुई थी । (कुकुड-संडेय-गामपउरा) इस नगरी में कुकट एवं छोटे-छोटे साँढ बहुत थे । (उच्छ-जव-सालि-कलिया )इक्षु, जव एवं शाली का ढेर का ढेर यहां के खेतों में लगा रहता था, इससे प्रजाजन के पोषण में किसी भी प्रकार की बाधा किसी भी समय उपस्थित नहीं होती थी। बात भी ठीक है-भूखे पेट कुछ भी नहीं हो सकता । (गो-महिस-गवेलग-प्पभूया) गाय और भैंसों की पंक्ति की पंक्ति इस नगरी में दृष्टिपथ होती थी, इससे दूध और घी का अभाव जनता में कभी भी दिखलाई नहीं पडता था । मेष भी यहाँ अधिक मात्रा में थे (आयारवंतचेइय-जुवइ-विविह-सण्णिविट्ठ-बहुला) यहां बडे २ सुन्दर उद्यान थे, एवं युवति नर्तकियों के अनेक भवन भी थे । (उक्कोडिय-गायगंठिभेयग-भड-तक्कर-खंडरवरवપ્રકારના વિવાદ પેદા થાય છે એટલે સેતુસમાં કરવામાં આવી હતી. (कुकुड-संडेय-गामपउरा) ॥ नगरीमा भुर्गा तभ०४ नाना नाना साद घाडता. (उच्छु-जव-सालि-कलिया) शे२डी, ४१ तेभ०४ सीमाना ढग दावा महीना ખેતરમાં લાગેલા રહેતા હતા, તેથી પ્રજાજનના પિષણમાં કઈ પણ પ્રકારની બાધા કેઈપણ સમયે ઉપસ્થિત થતી નહતી. વાત પણ બરાબર છે–ભૂખ્યા पेटे ४थी ४is थाय नहि. (गो-महिस-गवेलग-प्पभूया) आय मने सोनी હારની હાર આ નગરીમાં નજરે જોવામાં આવતી હતી તેથી દૂધ અને ઘીને અભાવ જનતામાં કદી પણ જોવામાં આવતો ન હતો. ઘેટાં પણ અહીં વધારે प्रभाभi di. (आयारवंतचेइय-जुवइ-विविह-सण्णिविट्ठ-बहुला) त्यां माटा मोटर સુંદર ઉદ્યાન (બાગ) હતા તેમજ યુવતી નર્તક (નાચ કરનારિઓ)નાં અનેક सपना प तi. ( उक्कोडिय-गायगंठिभेयग-भड-तक्कर-खंडरक्स-रहिया) सभा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - औषपातिकको य-गायगंठिभेयग-भड-तक्कर-खंडरक्ख-रहिया खेमा णिस्वदवा सुभिकला वीसत्थसुहावासा अणेगकोडिकुडुंबियाइण्ण-णिव्वुय-सुहा 'उक्कोडिय-गायगंठिभेयग-भड-तक्कर-खंडरक्ख-रहिया' औत्कोटिकगात्रग्रन्थिभेदकभट-तस्कर-खण्डरक्ष-रहिता, उत्कोटैरुत्कोचैर्व्यवहरन्ति ते औत्कोटिका लञ्चग्राहिणः, गात्रात् कटि प्रदेशादेः सकाशाद् ग्रन्थि भिन्दन्तीति गात्रग्रथिभेदकाः गुप्तरीत्या ग्रन्थिहारिणः, भसः हठाल्लुण्टाकाः, तस्कराः चौराः खण्डरक्षाः शुल्कपालाः, देशसीमायां स्थित्वा ये राजकरं गृहन्ति ते, एतै रहिता-एतेषामुपद्रवैर्वर्जिता सर्वोपद्रवविरहितेत्यर्थः, अतएव 'खेमा' क्षेमा-कुशलस्वरूपा अशुभाभावात , 'णिरुवदवा ' निरुपद्रवा, स्वचक्रपरचक्रोभयचक्रकृतोपद्रवविरहिता। 'मुभिक्खा' सुभिक्षा-सु-सुलभा भिक्षा भिक्षूणां यत्र सा तथा, 'वीसत्थमुहावासा' विश्वस्तसुखावासा-विश्वस्तं विश्वासमुपगतं निश्चितं सुखं आवासे निवासस्थाने यस्यां सा तथा, 'अणेगकोडिकुटुंबियाइण्ण-णिव्वुय-सुहा' रहिया) इसमें किसी भी प्रकारका भय नहीं था, न तो लांच लेने वाले जन यहां थे और न गुप्तरीति से गांठ कतरनेवाले ग्रन्थिच्छेदक लुटेरे यहां थे । न यहां भट- जबरदस्ती लूटने वाले डाकू थे और न तस्कर-चोर ही थे । ऐसा भी कोई यहां नहीं था जो देशकी सीमा में खड़ा होकर राजा के टेक्स को लोगों से जोर-जुल्म द्वारा अपहरण करनेवाला हो । तात्पर्य यह है कि यह नगरी समस्त प्रकार के उपद्रवों से रहित थी । इसीलिये यहां पर ( खेमा णिरुवद्दवा मुभिक्खा वीसत्यमुहावासा) क्षेमा कुशलता बनी रहती थी, निरुपद्रवा-स्वचक्र और परचक्र का भय यहां नहीं था । सुभिक्षा-भिक्षुओंको भिक्षा भी सदा मुलभ थी। विश्वस्तसुखावासायहां का निवास जनता को सुखकारक था। मकानका दरवाजा खोलकर भी रात्रि को जनता કઈ પણ પ્રકારનો ભય નહે. નતે લાંચ લેવા વાળા અને અહીં હતાં કે ન તે ખીસાકાતરૂ લુટારા અહીં હતા. નહોતા અહીં ભટ–જબરદસ્તા લૂટવાવાળા ડાકૃઓ કે નહતા તસ્કર-ચાર લોકો. એવા પણ કઈ અહીં નહેતા કે જે દેશની હદમાં ઉભા રહીને રાજાના કરને લેકે પાસેથી જોરજુલમથી પડાવા લેવાવાળા હેય. તાત્પર્ય એ છે કે આ નગરી સમસ્ત પ્રકારના ઉપદ્રવથી રહિત हती. सटा भाटे मही (खेमा णिरुवद्दवा सुभिक्खा वीसत्थसुहावासा) क्षेमाअसता ४ायम २ती ती, निरुपद्रवा-स्वय मने पत्याउन सय मी नहातो. मुभिक्षा-भिक्षुमाने मिक्षा पY सहा सुसन ता. विश्वस्तसुखावासा-महीना निवास જનતાને સુખકારક હતે. મકાનનાં બારણાં ઉઘાડાં રેખાને પણ લોકે રાત્રિમાં Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स्व. १ चम्पावर्णनम्. णड-णदृग-जल्ल-मल्ल-मुठिय-वेलंबग-कहग-पवग-लासग-आइक्खगलंख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणिय-अणेगतालायराणुचरिया आराअनेककोटिकौटुम्बिकाकीर्णनिर्वतसुखा, अनेककोटिलंख्याख्येयैः कौटुम्बिकैः अनेक-पुत्रादिपरिवारवद्भिराकीर्णा=याप्ता चासौ निर्वृतसुखा-सम्पन्नसौख्या चेति तथा, जनाया बाहुल्येऽपि सुखसामग्री न तत्र दुर्लभेति भावः । ‘णड-णग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग-कहगपग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणिय-अणेगतालायराणुचरिया' नट-नर्तक-जल्ल-मल्ल-मौष्टिक-विडम्बक --कथक-प्लवक-लासका-चक्षक-लङ्ख-मङ्खतूणावत्तुम्बवीणिकानेकतालाचरानुचरिता, तत्र नटा: नाटककारकाः, नर्तकाः कविधनृत्यनिष्णाताः. जल्ला:-रज्जूपरिक्रीडनशीलाः, मल्ला: मल्लक्रीडाकारकाः, मौष्टिकाः मुष्टिनिश्चिन्तरीति से सुखकी निद्रा लिया करती थी। (अणेगकोडिकुटुंबियाइण्णणिव्वुयमुहा ) करोडों कुटुम्बों से इस नगरी के व्याप्त होने पर भी उन्हें यहां किसी भी प्रकार के कष्टका अनुभव नहीं होता था । उन्हें यहाँ प्रत्येक जीवनोपयोगी सामग्री सुलभ थी। (णड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग-कहग-पवगलासग - आइक्खग - लंख-मंख-तूणइल-तुंबवीणिय-अणेगतालायराणुचरिया) नट-नाटक करनेवालों से, नर्तक-अनेक प्रकारको नृत्यक्रिया में निष्णात व्यक्तियों से, जल्ल-रस्सी पर चढकर विविध प्रकार के खेल तमासे दिखलाकर जनता का मनोरंजन करनेवाले नटोंसे, मल्ल-मल्लक्रीडा में निपुण पहलवानों से, मौष्टिक-मुष्टि से प्रहार करनेवाले मौष्टिकों से, विडम्बक-वेष एवं भाषा आदि द्वारा दूसरों की नकल करके स्वयं हसनेवाले तथा दूसरों को भी उनके चित्तको अनुरंजित करके हंसानेवाले बहुरूपियों से, कथक–अनेक प्रकार की निश्चित शत सुपनी निद्रा ता . ( अणेगकोडिकुडुंबियाइण्णणिव्वुयसुहा) ४२।। मुटुमाथी २॥ नगरी व्यास डावा छतi ५ तभने मही કોઈપણ પ્રકારનાં કષ્ટને અનુભવ થતે નહિ. તેમને અહીં પ્રત્યેક જીવનउपयोगी चीपरतु रो भाती ती. ( णड-णट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलबग-कहग-पवग-लासग-आइक्खग--लंख-मंख--तूणइल्ल--तुंबवीणिय--अणेगतालायराणुचरिया) नट-नाट४ ४२वावापामाथी नर्तक-मने प्रा२नी नृत्यजियामामां નિષ્ણાત એવા પાત્રોથી, નડ્ડ–દેરડાં પર ચઢીને વિવિધ પ્રકારના ખેલતમાસા हेमाडीने नताने भना२०४न ४२वा नथी, मल्ल-भाडामा निपुर पहेसपानाथी, मौष्टिक-मुष्टिया प्रहार ४२वावा भौष्टिाथी, विडम्बक-मेष तेभ साषा (બેલી) દ્વારા બીજાઓની નકલ કરીને પોતે હસે તથા બીજાઓને પણ ખુશી Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमत्रे मुज्जाण-अगड-तलाग-दीहिय-वप्पिणगणोववेया नंदणवण-सन्निप्रहरणशीलाः, विडम्बका: वेषभाषादिभिः परानुकरणेन हसनहासनशीलाः, कथकाः= विविधकथाकारकाः गायका वा, प्लवका:-उत्प्लवनशीलाः-नद्यादितरणशीला वा, लासकाः रासक्रीडाकारिणः, आचक्षका: शुभाशुभशकुनाभिधायकाः, लढाः-दीर्घवंशशिरसि क्रीडनशीलाः, मसाः चित्रफलकं दर्शयित्वा भिक्षाग्राहिणः, तूणावन्तः तूगाभिधानवाद्यवादकाः, तुम्बवीणिकाः-वीणावादकाः, अनेके च ते तालाचरा:-काष्ठकरतालादिभिस्तालान् ददतो लोकानाऽऽचरन्ति अनुरञ्जयन्ति ये ते तथा; एतैर्नटादितालाचरान्तैरनुचरिता-युक्ता या सा तथा । 'आरामु-ज्जाण-अगड-तलागदीहिय-वप्पिणगणोववेया' आरामोद्यानावटतडागदीर्घिकाकथाकहानियों के कहने में कुशलमतिवाले कथाकारकों से, अथवा विविध प्रकार की गानकला में निपुण संगीतविद्याके जाननेवालों से, प्लवक-कूदनेवालोंसे अथवा तैरने की कलामें पारंगत अनेक तैराकोंसे, लासक-रास रचनेमें निपुण व्यक्तियों से, आचक्षक-शुभ और अशुभ शकुन को प्रकट करने में विशेषदक्ष नैमित्तिकों से, लड-बडे बडे बांसों के अग्रभाग पर चढकर वहां अनेक प्रकारकी क्रीडा करके दिखानेवाले नटों से, मङ्ख-सुन्दर चित्रों को दिखलाकर जनतासे भिक्षा ग्रहण करनेवाले भिक्षुकोंसे, तूणइल्ल-तूणा नामके वाचविशेष को बजाने वाले बाजीगरों से, तुम्बवीणिक-वीणा के बजाने में विशेष पटु वीणावादकों ने, एवं तालाचर-काष्ठकरताल आदिद्वारा ताल देकर लोगोंको अनुरंजित करनेवाले तालाचरों से अनुचरिता-वह नगरी कभी भी शून्य नहीं रहती थी । ( आरामु-ज्जाण-अगड-तलाग-दीहिय-वप्पिणगणो शन सावे मेवा म३पामाथी, कथक-मने ४२नी ४ा-पात ४ामा કુશલમતિવાળા કથાકારોથી, અથવા વિવિધ પ્રકારની ગાનકળામાં નિપુણ એવા साथी, प्लवक-पानी विधामा पूर्ण निपुणुता प्रात ४२सी डाय ते पुढनारासोथी, अथवा तवानी मागत मनसाथी, लासक-रास स्यामा निपुण व्यक्तिसाथी, आचक्षक-शुभ मने पशुम शगुन ४ामा म०४ ४२ मेवा નૈમિત્તિકેથી, ઇ-મેટા મેટા વાંસની ટોચ ઉપર ચઢીને ત્યાં અનેક પ્રકારની કીઠા કરીને દેખાડવાવાળા નટોથી, મસુંદર સુંદર ચિત્રોને દેખાડીને લેકે पासेथी लिक्षा ग्रहण ४२वावा भिक्षुमोथी, तूणइल्ल-तू। नामनां वाधविशेष - पापामारोथी, तुम्बवीणिक-पीए सवामा विशेष प्रवीण मेवा वीणावाह थी, तेमन तालाचर-४४४२तास माहिद्धारा तास न होने भुशी ४२वावा तासायरीथी अनुचरिता-ते नगरी ही ५५ शून्य रहती नहाती. (आरामु-ज्जाणअगड-तलाग-दीहिय-वप्पिण-गणोवबेया नंदणवणसन्निभष्पगासा) मारामा-भारती Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ trafort - टीका. सू. १ चम्पात्र जैनम् . भप्पगासा उब्विद्ध - विउल - गंभीर - खायफलिहा चक्क -गय-मु. वष्पिणगणोपपेताः, तत्र आरमन्ति = क्रीडन्ति यत्र ते आरामाः = मालतीप्रभृतिलता - व्राततरुसमूहसमेताः प्रदेशाः, उद्यानानि = कुसुमस्तबकाऽवनतलघुतरुपरिमण्डितानि स्थानानि, अवटा:=कूपाः, तडागाः = जलाशयविशेषाः, दीर्घिकाः = वाप्यः, वष्पिणाः = जलक्रीडास्थानानि क्षेत्राणि वा, 'वप्पिण' इति देशीयः शब्दः, एतेषां गणाः = समूहाः, गुणा वा रमणीयतादयः तैः उपपेता = युक्ता सा, 'नंदणवणसन्निभप्पगासा' नन्दनवनसन्निभप्रकाशानन्दनवनं-मेरोर्द्वितीयवनं, तत्सन्निभप्रकाशः तत्प्रकाशसदृशः प्रकाशो यस्यां सा तथा,नन्दनवनसदृशसुखसम्पन्ना चम्पानगरी - इत्यर्थः । ' उव्विद्ध - विउल - गंभीर - खायफलिहा ' उद्विद्धविपुलगम्भीरखात परिखा - उद्विद्धम् - उत् - उत्कर्षे ग विद्धम् = अत्यधः खानितम् ' अतिउण्ड ' इति भाषाप्रसिद्धं. ' विपुलं = विस्तृतम्, गम्भीरम् = अदृश्यात्रस्तलम्, खात्म्= उपरिविशालम् सङ्कुचिताधस्तलम्, परिखा च चतुर्दिक्षु गोलाकारखातरूपा 'खाई ' इति भाषाप्रसिद्धा यस्यां सा तथा, खातपरिखापरिवेष्टितेत्यर्थः । 'चक्क-गय-मुसुंढि - ओरोह-सयम्बिजमलकवाडघणदुप्पवेसा ' चक्रगदामुसुण्ढ्यवरोधशतघ्नीयमलकपाटघनदुष्प्रवेशा, ११ वेया नंदणवणसन्निभप्पगासा ) आराम - मालतीलता आदि के समूहों से एवं वृक्षराजि से मंडित प्रदेशों से, उद्यानों- पुष्पोंके गुच्छों के भारसे अवनत छोटे २ वृक्षों से परिमण्डित स्थानों-से, अत्रट - कूपों से, तडाग-सरोवरों-से, दीर्घिका-वापियों से, वप्पणजलक्रीडा करनेके विशेष स्थानों से वह नगरी सुशोभित थी; इसलिये मेरु के नंदनवन जैसी वह शोभाका धाम बनी हुई थी । ( उन्त्रिद्ध-विउल- गंभीर-खायफलिहा, चकगय-मुसुंढि - ओरोह-सयग्धि-जमलकवाडघ दुप्प वेसा) उद्विद्ध - इस नगरी के चारों ओर जो गोलाकार खाई थी वह बहुत ही गहरी थी, विपुल - विस्तृत थी, गंभीर - जिसका अधस्तल अदृश्य था ऐसी थी, एवं खातपरिखा - ऊपर विस्तृत और नीचे संकुचित थी । इसका जो चारों ओर का લતા આદિના સમૂહોથી તેમજ વૃક્ષરાજિથી શાલતા પ્રદેશેાથી, ઉદ્યાના પુષ્પાના ગુચ્છોના ભારથા લચી પડેલાં નાનાં નાનાં વૃક્ષાથી વીંટાએલાં સ્થાનાથી, અવટકૂવાઓથી, તડાગ-સરાવરાથી, દ્વીધિ કા-વાવાથી વિપણુ-જલક્રીડા કરવાનાં સ્થાન વિશેષથી તે નગરી સુશાભિત હતી. તેથી મેના નંદનવન જેવી તે શાલાનું धाभ अनी गर्छ हुती. ( उव्विद्ध - विउल- गंभीर - खायफलिहा, चक-गय-मुसुंढि -ओरोह-सयग्धि-जमलकवाडघणदुष्पवेसा ) मा नगरीनी यारे और ने गोजर ખાઈ હતી તે ઘણીજ ઉંડી હતી, વિસ્તારવાળી હતી, ગંભાર—જેનું તળિયું અદૃશ્ય હતું. એવી હતી, તેમજ ઉપર પહેાળી અને નીચે સંકુચિત Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे सुंडि-ओरोह-सयग्घि-जमलकवाडघणदुप्पवेसा धणुकुडिल-वंकपागार-परिक्खित्ता कविसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणा अट्टालयतत्र-चक्राणि-रथाङ्गानि, गदा शस्त्रविशेषाः मुसुण्ढयः-शस्त्रविशेषा एव, अवरोधःरथ्याद्वारे प्रतिभित्तिः, शतघ्न्यः-या उपरितनदेशान्निपातिताः सत्यः पुरुषशतानि नन्ति ताः, यमलकपाटानि-समभागद्वयोपेतानि कपाटानि, तान्येव घनानि-सान्द्राणि-दृढानि वा“धनः सान्द्रे दृढे दाढर्चे विस्तारे मुद्गरेऽम्बुदे ।" इति हेमकोशात् । एतैः परचक्रादीनां दुष्प्रवेशा-दुःखेन प्रवेष्टुं योग्या परचक्रादिपराभवरहितेत्यर्थः, 'धणुकुडिलवंकपागारपरिक्खित्ता' धनुःकुटिलवक्रप्राकारपरिक्षिप्ता-कुटिलं च तद्धनुः-धनुःकुटिलम् , आर्षत्वाद्विशेषणस्य परनिपातः, कुटिलधनुषोऽपेक्षयाऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता युक्तेत्यर्थः, 'करिसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणा' कपिशीर्षकवृत्तरचितसंस्थितविराजमाना, तत्र-कपिशीर्षकाः आकाराग्रभागाः 'कंगुरा, इति भाषाप्रसिद्धाः वृत्तरचिताः गोलाकारेण निर्मिताः संस्थिताः सुन्दरसंस्थानयुक्तास्तैर्विराजमाना-सुन्दरकपिशीर्षकतया शोभाशालिनीत्यर्थः, 'अट्टालय-चरिय-दार-गोपुर-तोरण-समुण्णय-सुविभत्त-रायमग्गा' अट्टालकचरिकाद्वारगोपुरतोरणसमुन्नतसुविभक्तराजमार्गा, कोट था वह चक्र, गदा, मुसुंढी, और अवरोध-रथ्याद्वार के पासकी दोहरी भीत से, शतघ्नी-जिनके उपर से गिराने पर सैकडों व्यक्ति चूर्णित हो जाते हैं ऐसे अस्त्रविशेषों से या तोपों से, और यमलकपाटघन-मजबूत, सम युगल कपाटों से युक्त था, अत एव दुष्प्रवेशा-उस नगरी में शत्रु प्रवेश नहीं कर सकते थे । (धणुकुडिल-वंक-पागार-परिक्खित्ता) इस नगरी का प्राकार (किला) कि जिससे यह परिवेष्टित थी वह वक्र हुए धनुष से भी अधिक वक्र था । (कविसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणा अट्टालय-चरिय-दार-गोपुर-तोरण-समुण्णय-सुविभत्तरायमग्गा) कपिशीर्षक-कोट के कंगूरे गोल आकार के थे एवं रंग-बिरंगे थे। इस कोट के હતી. તેની ચારે કેર જે કેટ હતું તે ચક્ર, ગદા, મુસુંઢી, અને અવરોધ-દ્વારના પાસેની બેવડી ભીંત–થી, શતની–જેને ઉપરથી પાડી નાખવાથી સેંકડો વ્યક્તિ ચૂરેચૂરા થઈ જાય છે એવાં અસ્ત્રવિશેષથી, અથવા તોપોથી, અને મજબૂત સમ યુગલ કપાટથી યુક્ત હતી. આ કારણથી તે નગરીમાં શત્રુ પ્રવેશ કરી શક્તા नाता. (धणुकुडिल-वंक-पागार-परिक्खित्ता) मा नगरीमा ४२ (8cal)रेनाथी ते घरायसी ती ते i। थये। धनुषथी ५४ क्यारे वाहतो. ( कविसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणा अट्टालय-चरिय-दार-गोपुर-तोरण-समुण्णय-सुविभत्त-रायमम्गा) टन ४in गाण मा२ना तातभा मेरी . मटनी ઉપર અટ્ટાલિકાઓ (અગાસીઓ) બનાવેલી હતી. કેટના મધ્યભાગમાં જ્યાં દરવાજા Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. १चम्पावर्णनम् चरिय-दार-गोपुर-तोरणसमुण्णयसुविभत्तरायमग्गा छेयायरियंरइयदढफलिहइंदकीला विवणिवणिछेत्तसिप्पियाइण्णणिव्वुयसुहा तत्र-अट्टालकाः-प्राकारोपरिवर्तिस्थलविशेषाः, चरिकाः अष्टहस्तप्रमागा वसतिदुर्गान्तरालवर्तिमार्गाः ‘दार' द्वाराणि-प्रसिद्धानि, गोपुराणि-गोपुराणि हि नगरस्य सौन्दयार्थ प्रतिद्वाराने निर्मितानि विचित्रशोभासम्पन्नानि प्रवेशद्वाराणि, तोरणानि प्रसिद्धानि, एतैरट्टालकादिभिः-उन्नताः-दर्शनीयत्वादिगुणसम्पन्नाः सुविभक्ताः-तत्तत्स्थाने गमनाय विभागरूपेण रचिताः राजमार्गा यस्यां सा। 'छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला' छेकाचार्यरचितदृढपरिघेन्द्रकीला छेकाचार्येण निपुणशिल्पिना, रचितः कृतः, परिधः= अर्गला, इन्द्रकील: संयोजितकपाटद्वयदृढीकरणाय लौहमयकीलविशेषः यद्वा-कपाटदृढीकरगाय लौहमयकण्टकविशेषः, यस्यां सा तथा, 'विवणिवणिच्छेत्तसिप्पियाइण्णणिव्वुयमुहा' विपणिवणिक्षेत्रशिल्प्याकीर्णनिर्वृतसुखा, तत्र-विपणीनां हट्टानां वणिजां च 'छेत्त' क्षेत्रं-स्थानरूपा या सा, प्रचुरहट्टप्रचुरव्यापारिगणसम्पन्नेत्यर्थः, तथा-शिल्पिभिः= कुम्भकारतन्तुवायादिभिः-आकीर्णा=परिपूर्णा, अतएव जनानां प्रयोजनसिया निर्वृतऊपर अट्टालिकाएँ बनी हुई थीं, कोट के मध्यभाग में जहां पर दरबाजे थे वहां आठ हाथ-प्रमाण चौडा मार्ग था । कोटमें प्रधान दरबाजे थे, जहां से नगरी में प्रवेश किया जाता था । द्वारों पर तोरण बहुत उन्नत थे । भिन्न २ स्थानों पर पहुँचने के लिये अलग २ मार्ग बने हुए थे। (छेयायरियरइयदढफलिहहंदकीला) निपुण शिल्पीके द्वारा रचित-कृत अर्गला से एवं इन्द्रकीला-दोनों किंवाडोंको परस्पर में दृढ करनेके लिये लगाये गये लोहनिर्मित कीलों से इस नगरीके द्वार युक्त थे । (विवणिवणिछेत्तसिप्पियाइण्णणिव्वुयसुहा) इसके बाजार अनेक दुकानों एवं व्यापारियोंसे आकीर्ण रहते थे । नगरीमें कुंभार और तन्तुवाय-जुलाहे बहुत थे, इससे હતા ત્યાં આઠ હાથના માપના પહેલા રસ્તા હતા. કોટમાં મુખ્ય દરવાજા હતા જેમાંથી નગરીમાં પ્રવેશ કરાતું હતું. દ્વારે ઉપર તેરણ ઘણાં સરસ હતાં, જુદાં જુદાં સ્થાન પર પહોંચવા માટે જુદા જુદા માર્ગ બનેલા હતા. (छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला ) निपुण शिपाथी मनावेस Aleu ( भागળીયા)થી તેમજ ઇદ્રકીલા–અને કમાડેને પરસ્પરમાં દઢ કરવા માટે લગાડવામાં આવેલ લોઢાના બનાવેલ કીલા (ભગળ) થી આ નગરીનાં દ્વાર યુક્ત di. { विवणिवणिछेत्तसिप्पियाइण्णणिव्वुयसुहा) मेनी मत२ २मने आने તેમજ વ્યાપારીઓથી ભરચક રહેતી હતી. નગરીમાં કુંભાર અને વણકર Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ औपपातिक • सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर-पणियावण- विविहवत्थुपरिमंडिया सुरम्मा नरवइपविणमहिवइपहा अणेगवरतुरग मत्तकुंजर रहपहनिष्पन्नं सुखं यस्यां सां तथा ततः पदत्रयस्त्र - विपिगिवणिक्क्षेत्रं चासौ शिल्प्याकीर्णा चासौ निर्वृतसुखाः चेति विगृह्य कर्मधारयः । सिंगाडग-तिग- चउक्क - चच्चर-पणियावणविविवत्थुपरिमंडिया ' शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरपगिताऽऽपणविविधवस्तुपरिमण्डिता, तत्र–शृङ्गाटकं—त्रिकोणं स्थानम्, त्रिकं यत्र त्रयो मार्गा मिलिताः, चतुष्कं - यत्र चत्वारो मार्गा मिलन्ति, चत्वरं-यत्र विविधमार्गसंगमः, एषु स्थानेषु पणितं - पणनं क्रयविक्रयव्यवहारस्तदर्थं ये - आपणाः-हट्टास्तेषां विविधवस्तूनि - विक्रेयद्रव्याणि तैः परिमण्डिता - सुशोभिता । 'सुरम्मा' सुरम्या 'नरवइपविणमहिवइपहा ' नरपतिप्रविकीर्णमहीपतिपथानरपतिना भूपेन प्रविकीर्णः - गमनागमनाभ्यां व्याप्तः, महीपतिपथः - राजमार्गों यस्यांसा । लोगोंकी प्रत्येक आवश्यक प्रयोजनकी सिद्धि होते रहने से चित्तवृत्ति सुखित बनी रहती थी, (सिंघाडग-तिग- चउक्क - चच्चर-पणियात्रण- विविद्यवत्थुपरिमंडिया) शृंगाटक - त्रिकोणस्थानमें, त्रिक-तीनमार्ग जहां पर आकर मिले होते हैं ऐसे स्थानमें, चतुष्क- जहां चार रास्ते आकर मिलते हैं ऐसे स्थान में, चत्वर - जहां अनेक प्रकारके मार्गों का संगम होता है ऐसे स्थानमें, क्रय और विक्रय करनेके निमित्त अनेक दुकाने बनी हुई थीं, जो सदा अनेक प्रकारकी विक्रेय वस्तुओंसे परिमण्डित रहा करती थीं; ऐसी दुकानोंसे यह नगरी सुरम्य थी । शोभा भी नगरीकी निराली होनेसे यह नगरी स्वयं ( सुरम्मा) देखनेबालोंके मनको आह्लादकारक हो रही थी । ( नरवइप विइण्णम हिवइपहा ) इसके राज - मार्ग नरपतिके गमन और आगमनसे सदा व्याप्त बने रहते थे । (अणेगवरतुरगઘણા હતા તેથી લેાકેાની પ્રત્યેક આવશ્યક પ્રયેાજનની સિદ્ધિ થતી રહેતી હાવાથી चित्तवृत्ति सुणभय मनी रहेती हुती. (सिंघाडग-तिग- चउक्क - चच्चर -पणियावणविविहवत्थुपरिमंडिया ) शृंगार४ - त्रिषु स्थानमां, त्रि-त्र रस्ता न्यां भावीने ભેગા થાય છે એવાં સ્થાનમાં, ચતુષ્ક- જ્યાં ચાર રસ્તા આવીને મળે છે એવાં સ્થાનમાં, ચત્વર--જ્યાં અનેક પ્રકારના માર્ગના સંગમ થાય છે એવાં સ્થાનમાં, ય અને વિક્રય કરવા નિમિત્તે અનેક દુકાનો બનાવેલી હતી જે સત્તા અનેક પ્રકારની વેચવાની વસ્તુઓથી શે।ભિત રહ્યા કરતી હતી. એવી દુકાનેાથી रमा नगरी सुरभ्य ( सुन्दर ) हुती. शोला પણ આ નગરીની નિરાલી होवाथी ते ( सुरम्या ) लेनारना भनने आया४४।२४ थती ( सागती ) डी. (नरवइपविइण्ण महिवइपहा ) भेना रात्रभार्ग नश्यतिनां गमन भागभनथी सहा व्याप्त अनेसा रहेता हता. ( अणेगघरतुरग-मन्तकुंजर - रहपहकर - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका. सू. १ चम्पावर्णनम्. श्रेठैरवैः, कर-सीय - संदमाणी आइण्णजाणजुग्गा विमउलणवणलिणिसोभिपंडुरवरभवणसण्णिमहिया उत्ताणणयणपेच्छणिजा पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा ॥ सु. १ ॥ 'अणेगवरतुरग - मत्तकुंजर - रहपहकर - बीय- संदमाणी आइण्णजाणजुग्गा' अनेकवरतुरगमत्तकुञ्जररथप्रकरशिबिकास्यन्दमान्या कीर्ण पानयुग्या, तत्र - अनेकैः -बहुविधैः, वरतुरगैः मत्तकुञ्जरैः - मदोन्मत्तगजैः, रथप्रकरैः - रथसमूहैः शिबिकाभिः- चतुरष्टषोडशपुरुषवाद्याभिः स्यन्दमानीभिः - लघुशिबिकाभिः, आकीर्णाकत्र्याप्ता परिपूर्णा इत्यर्थः, यानानि - रथभेदा युग्या - युगवहनशीलाः हया वृषभा वा सन्ति यस्यां सा तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । ' मिउलणवण लिणिसोभियजला विमुकुलनवनलिनीशोभित जला- विमुकुलाभिर्विकसिताभिः, नवाभिः - अचिरसमुत्पन्नाभिः, नलिनीभिःकमलिनीभिः शोभितानि जलानि यस्यां सा तथा । ' पंडुवर भवणसण्णिमहिया' पाण्डुरवरभवनसम्यक्महिता - पाण्डुरैः - सुधाधवलैः, वरभवनैः - प्रासादैः सम्यक् समन्तात्, महिता - प्रशंसिता रम्या - इत्यर्थः । ' उत्ताणगयग पेच्छ गिज्जा' उत्ताननयनप्रेक्षणीया - उत्तानैः - निर्निमेषैः नयनैः १५ मत्तकुंजर - रहपहकर - सीय- संदमाणी आइण्ण जाण जुग्गा ) यहां के मार्ग अनेक प्रकारके सुन्दर घोडोंसे, मत्तकुंजरोंसे, रथोंके समूहसे, चार या आठ अथवा सोलह मनुष्यों द्वारा उठाई जानेवाली बडीर पालकियोंसे, तामजाम युक्त रहा करते थे | हय- घोडे वृषभ - बैल यहां रथोंको खेचा करते थे । (विमउलणवण लिणिसोभियजला ) यहांके जलाशयोंका जद भी प्रफुल्लित नवीन २ कमलिनियोंसे सुशोभित था । ( पंडुरवरभवणसणिमहिया) इसका प्रत्येक सदन सदा सुधा-चुने से रहने के कारण बडाही भला मालूम पडता था (उत्तानणयग पेच्छणिज्जा ) नगरीकी सीय - संदमाणीआइ जाणजुग्गा ) अडींना મા અનેક પ્રકારના સુંદર ઘેાડાઓથી, મત્ત કુંજરાથી ( હાથીઆથી ), રથેાના સમૂહેાથી, ચાર આઠ અથવા સોળ મનુષ્યો દ્વારા ઉપાડાતી મેાટી મેાટી પાલખાઆથી, તામજાનાથી ચુક્ત २ह्या ४२ ता हता. डुय-घोडा, वृषल-अजह અહી' रथोने मेंयता हुता. ( विमउलणवण लिणिसोभियजला ) अडु नां रसायोनां सप्रति नवीन नवीन उमणोथी सुशोभित रहेतां तi ( पंडुरवरभवणसष्णिमहिया ) न्यानां प्रत्येक सदन ( भान ) सहा युनाथा पोतासां રહેવાના કારણે ખૂબ જ सरस सागतां डुतां. ( उत्तानणयणपेच्छणिज्जा ) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ औपपातिकसूत्रे प्रेक्षणीया, शोभासम्भारशालितया नगरीं पश्यद्भिर्निमेषा प्रायो न पात्यन्ते । 'पासाईया' प्रासादीया–प्रसादो मनःप्रसन्नता प्रयोजनं यस्याः सा प्रासादीया - हार्दिकोल्लासकारिणीति यावत् ' दरिसणिज्जा' दर्शनीया - रमणीयतया क्षणे क्षणे द्रष्टुं योग्या, 'अभिरुवा अभिरूपा - अभिमतमनुकूलं रूपं यस्याः सा तथा, ' पडिख्वा' प्रतिरूपा - रूप्यते एषोऽयमिति निश्चीयतेऽनेनेतिरूपमाकारः - अभिमतम् असाधारणं रूपं यस्याः सा अभिरूपासर्वथा दर्शकजननयनमनोहारिणीति निष्कर्षः ॥ सू. १ ॥ शोभा–अपलक–र्निर्निमेष दृष्टि से ही देखने योग्य थी - यह नगरी इतनी अधिक सुन्दर थी की जिसे निर्निमेष होकर लोग निहारा करते थे फिर भी नहीं अघाते थे । (पासाईया) देखकर मनमें बडीही प्रसन्नता होती थी । ( दरिसणिज्जा ) प्रदर्शिनीकी वस्तु जैसी यह बनी हुई थी । अति रमणीय होनेकी वजहसे यह क्षण २ में देखनेके काबिल थी । (अभिरूवा पडिरूवा ) इसका रूप अनुकूल था - मनको रुचे ऐसा था । इसीलिये यह अभिरूप एवं प्रतिरूप थी - दर्शकजनके मनको सब प्रकारसे आनंद प्रदान करनेवाली थी । भावार्थ — अवसर्पिणी कालके चतुर्थ इसमें ऊंचे २ मकान थे । ऋद्धिसे यह मंडित थी जनता हरएक प्रकारसे निर्भय होकर इसमें ऐसा कोई भी स्थल नहीं था जो भाग्यशाली आरेमें चंपा नामकी नगरी थी । । किसीभी प्रकारका यहां भय नहीं था । निर्विघ्न से रहा करती थी । नगरीमें जनसमूह से आकीर्ण न हो । इ નગરીની શૈાભા નિર્નિમેષ દૃષ્ટિએ જ જોવા લાયક હતી (દેખાઈ આવતી હતી ). આ નગરી એટલી તેા વધારે સુંદર હતી કે લેાકેા આંખનુ મટકુ માર્યા વગર જોયા જ કરતા હતા છતાં થાકતા होता. (पासाईया) लेने भनभां भूमन प्रसन्नता थती ती. ( दरिसणिज्जा ) अहर्शनीनी वस्तु नेवा એ બની ગઈ હતી. અતિરમણીય હોવાને કારણે એ ક્ષણે ક્ષણે જોવા યાગ્ય ती (अभिरुवा पडिरूवा) तेनुं ३५ अनुज तु-मनने ३ये येवु तु, तेथी તે તે અભિરૂપ તેમજ પ્રતિરૂપ હતી. જોનાર લેાકેાનાં મનને સર્વ પ્રકારથી આનઃ પ્રદાન કરાવે તેવી હતી. ભાવા-અવસર્પિણી કાલના ચેાથા આરામાં ચંપા નામે નગરી હતી. તેમાં ઉંચાં ઊંચાં મકાન હતાં. ઋદ્ધિથી તે શેાલતી હતી. કોઇ પણ પ્રકારના અહી ભય નહોતા. લાકે હરેક પ્રકારથી નિર્ભય બનીને તેમાં નિવિશ્ને રહેતા હતા. નગરીમાં એવું કાઈ પણ સ્થળ નહોતુ કે જે ભાગ્યશાળી જનસમૂહથી Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. १ चम्पावर्णनम् बाहिरकी जमीन हजारों हलों से जुता करती थी । प्रत्येक मौसमका धान्य इसमें होता था । गाय-भैंसोंकी इसमें कमी नहीं थी। नगरीकी सीमामें गांव बहुत नजदीक बसे हुए थे। इक्षु आदिकी उपज इसमें अधिक मात्रामें होती थी। बडे सुन्दर एवं विशाल बगीचे थे। इसमें जनताको कष्ट देनेवालोंका नामोनिशा तक भी नहीं था । न यहां लाँच लेने वाले थे, न ग्रन्थिच्छेदक थे, न उचक्के लुटेर ही थे। इसमें नर्तकियोंके स्थान भी अनेक थे। भिक्षुओंको प्रत्येक समय यहां भिक्षा सुलभ थी। कुलपरम्परासे श्रीमंत लोगोंका यहां अभाव नहीं था । मनोविनोद के साधन भी इस नगरीमें जगह२ पर थे। नट थे, नाटककार थे, मल्लयुद्ध करनेवाले थे, मुष्टियुद्ध करनेवाले थे । कथाकहानी सुनाकर लोगोमें सुप्त शुद्धपुरुषार्थको जगानेवाले जनभी यहां थे । रास रचाकर मानवों को आनंदित करने वाले खिलाडी व्यक्ति भी यहां रहा करते थे । तात्पर्य : यह कि प्रत्येक मनोविनोद की सामग्री यहां सतत प्रस्तुत रहा करती थी। नगरी के बाहिर-भीतर का प्रदेश आरामों, उद्यानों, कुवा, वावडी एवं जलाशय-तालाब आदि से सुशोभित था । ભરેલું ન હોય. તેની બહારની ભૂમિ હજારે હળથી ખેડાયા કરતી હતી. પ્રત્યેક મોસમનાં ધાન્ય તેમાં ઉત્પન્ન થતાં હતાં. ગાય-ભેંસોની તેમાં ખોટ નહેતી. નગરીની સીમામાં ગામડાં બહુ નજીકમાં વસેલાં હતાં. શેરડી આદિની ઉપજ તેમાં વધારે પ્રમાણમાં થતી હતી. મોટા સુંદર તેમજ વિશાલ બગીચા હતા. તેમાં લોકોને કષ્ટ દેવાવાળાનું નામનિશાન પણ નહોતું. ન તે અહીં લાંચ લેવા વાળા હતા કે ન ખિસ્સાકાતરૂ હતા. વળી લુંટારા પણ નહોતા. તેમાં નાચનારીઓનાં સ્થાન પણ ઘણાં હતાં. ભિક્ષુઓને પ્રત્યેક સમય અહીં હેજે ભિક્ષા મળી રહેતી હતી. કુળપરંપરાથી શ્રીમંત લોકોને અહીં અભાવ નહોતે. મનેવિનદનાં સાધન પણ આ નગરીમાં ઠેકઠેકાણે હતાં. નટ હતા, નાટયકાર હતા, મલ્લયુદ્ધ કરવાવાળા હતા, મુષ્ટિયુદ્ધ કરવા વાળા હતા, કથાવારતા સંભળાવી લોકમાં ઢંકાઈ રહેલો શુદ્ધ-પુરૂષાર્થ જાગૃત કરાવવાવાળા લકે પણ અહીં હતા. રાસ રચાવીને માનવને આનંદિત કરવાવાળા ખેલાડી વ્યક્તિઓ પણ અહીં રહેતા હતા. તાત્પર્ય એ કે પ્રત્યેક મનોવિદની સામગ્રી અહીં સતત પ્રસ્તુત રહ્યા કરતી હતી. નગરીની બહાર તેમજ અંદરના પ્રદેશ આરામે ઉદ્યાને કુવા વાવડી તેમજ જલારાયે-તળાવ આદિથી સુશોભિત હતા. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे इस नगरी के बाहिर एक विशाल और बहुत गहरी खाई थी। नगरी का कोट वक्र धनुषकी अपेक्षा भी अधिक वक्र था, जिसमें प्रत्येक आत्मरक्षण के साधन थे । किले में बडे २ दरवाजे थे, दरवाजों में वज्र जैसे मजबूत किवाड थे, किवाडों में नुकीले कीले लगे हुए थे। कोट के ऊपर जो अट्टालिकाएँ थीं उनमें अनेक प्रकार के अस्त्र और शस्त्रों का संग्रह किया गया था। वह वहां सदा सुरक्षित रहता था । नगरीमें विस्तृत बाजार थे, बाजारों में बडी २ दुकानें थीं, दुकानों में क्रय विक्रय की बहुमूल्य प्रत्येक आवश्यकीय वस्तुएँ संगृहीत थीं । नगरी के राजमार्ग हर समय अपार जनकी भीड से, हाथियों से, पालकियों से, रथों से, और तामजाम आदि से संकुलित बने रहा करते थे । यहां के मकान धवल चूनासे पुते हुए रहने के कारण .बडे ही सुहावने मालूम होते थे, तात्पर्य यह है कि यह नगरी बहुत ही सुन्दर और चित्त को लुभानेवाली थी। सब प्रकार से यहां जनताको आराम था । किसी भी त्रिलोकगत वस्तु का यहां अभाव नहीं था । अमरावती जैसी यह भली मालूम હોતી થી , આ નગરીની બહાર એક વિશાલ અને ઘણું ઉંડી ખાઈ હતી. નગરીને ફરતે વાંકુ ધનુષ કરતાં પણ વધારે વાંકે કેટ હતું. જેમાં દરેક આત્મરક્ષણનાં સાધન હતાં. કિલ્લામાં મોટા મોટા દરવાજા હતા. દરવાજામાં વજ જેવાં મજબૂત કમાડ હતાં. કમાડમાં આગળીઆ તથા ભેગળે લગાવેલાં હતાં. કેટના ઉપર જે અટારિઓ હતી તેમાં અનેક પ્રકારનાં અસ્ત્રો તથા શસ્ત્રો ને સંગ્રહ કરેલ હતું. તે ત્યાં સદા સુરક્ષિત રહેતે હતો. નગરીમાં વિસ્તૃત બજાર હતી. બજારમાં મોટી મોટી દુકાન હતી. દુકાનમાં ક્રય-વિજ્યની બહ-મૂલ્ય ( કિમતી ) પ્રત્યેક આવશ્યકીય વસ્તુઓ સંધરેલી હતી. નગરીના રાજમાર્ગ દરેક સમય અપાર માણસની ભીડથી, હાથીએથી, પાલખીએથી, રથી અને તામજામ આદિથી ભરચક રહ્યા કરતા હતા. અહીંનાં મકાન સફેદ ચુનાથી પિતાયેલાં રહેવાના કારણે ખૂબ જ રેશનકદાર લાગતાં હતાં. તાત્પર્ય એ કે આ નગરી બહુજ સુંદર અને ચિત્તને ખેંચવાવાળી હતી. દરેક પ્રકારથી અહીં લોકોને આરામ હતું. કેઈ પણ ત્રિલોકગત ( ત્રણ લોકમાં થતી ) વસ્તુને અહીં અભાવ નહે. અમરાવતી જેવી આ સરસ લાગતી હતી. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-सू. १ चम्पावर्णनम्. शंका-काल और समय तो एक ही अर्थ के वाचक हैं फिर सूत्र में “ तेणं कालेणं तेणं समएणं' ' ऐसा प्रयोग सूत्रकार ने क्यों किया ? उत्तर यह है-'काल' शब्द से अवसर्पिणी कालके चतुर्थ आरे का ग्रहण होता है, और 'समय' शब्द से यहाँ हीयमान लिया जाता है, तथा घडी घंटा पक्ष मास संवत्सर आदिरूप से परिवर्तित होने वाला परिणमन लिया जाता है, अथवा-जिस प्रकार संवत् और मिती खातों आदिमें लीखी जाती हैं, ठीक इसीप्रकार यहां पर भी समझना चाहिये । यह चंपा नगरी तो अब भी है फिर “ अस्ति" ऐसा न कहकर सूत्रकार ' आसीत् ' इस भूतकालिक क्रिया का प्रयोग क्यों करते हैं ? अर्थात्जिस समय औपपातिकसूत्रकी रचना हुई उस समय में भी वह नगरी थी, फिर 'अस्ति' ऐसा न कहकर 'आसीत्' ऐसा क्यों कहा ? इसका उत्तर यह है कि जिस समय इस उपांग रूप आगम की वाचना हुई थी, उस समय यह नगरी सूत्र में कहे हुए विशेषणों से सर्वथा युक्त नहीं थी, न इस समय वैसी है, इसलिये 'अस्ति' क्रियापदका प्रयोग न करके सूत्रकार ने आसीत् इस भूतकालिक क्रियापदका प्रयोग किया है ॥ सू. १॥ શંકા-કાલ અને સમય તે એકજ અર્થના વાચક છે છતાં સૂત્રમાં " तेणं कालेणं तेणं समएणं" मेवो प्रयोगसूत्रा भध्या छ ? उत्तर से छ। “કાલ” શબ્દથી અવસર્પિણી કાલના ચેથા આરાને અર્થ ગ્રહણ થાય છે, અને “સમય” શબ્દથી અહીં હીયમાન લેવાય છે, તથા ઘડી કલાક પક્ષ માસ સંવત્સર આદિ રૂપથી પરિવર્તિત થનાર પરિણમન લેવાય છે અથવા જે પ્રકારે સંવત્ તથા મિતી ચોપડા આદિમાં લખવામાં આવે છે તેવી જ રીતે અહીંયાં પણ समाने से. ॥ या नगरी तोडल ५४ छ छतi ' अस्ति' अभ न त 'आसीत् ' ओम भूतानि छियान प्रयोग भरे छ ? એટલે કે જે સમયે ઔપપાતિક-સૂત્રની રચના થઈ તે સમયમાં પણ त नगरी ती तो पY अस्ति सेभ न खतां आसीत् भर्यु ? तेनो पास એ છે કે, જે સમયે આ ઉપાંગરૂપ આગમની વાચના થઈ હતી તે સમયે આ નગરી સૂત્રમાં કહેલા વિશેષણથી સર્વથા યુક્ત ન હતી અને આ સમયે પણ તેવી નથી રહી. એ માટે અતિ ક્રિયાપદને પ્રયોગ ન કરતાં सूत्रमारे आसीत् मेवा भूतादि लियापन प्रयो। यो छे. (१) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम्-तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थणं पुण्णभद्दे णामं चेइए होत्था, चिराईए पुव्वपुरिसपण्णत्ते पोराणे सदिए वित्तिए कित्तिए णाए ____टीका-'तीसेणं' इत्यादि । 'तीसेणं चंपाए णयरीए' तस्याः खलु चम्पाया नगर्याः-न करोऽष्टादशविधस्तन्निवासिनांराज्ञे देयो यस्यां सा नगरी, अत्र ककारस्य गकाररूपो वर्णविपर्यासः पृषोदरादित्वात्, अष्टादशविधः करोऽस्माभिरन्तकृद्दशाङ्गसूत्र प्रथमसूत्रस्य मुनिकुमुदचन्द्रिकाटीकायामुक्तस्ततो विज्ञेयः। 'बहिया' बाह्ये, ‘उत्तरपुरत्थिमे' उत्तरपौरस्त्ये-उत्तरस्याः पूर्वस्या अन्तरालेऐशान्ये कोण इति यावत् । ' दिसीभाए ' दिग्भागे । 'पुण्णभद्दे णामं चेइए होत्था' पूर्णभद्रं नाम चैत्यं व्यन्तरायतनमासीत् । तत् कीदृशम् ? इत्याह-'चिराईए ' चिरादिकम् चिरकालिकम् अतएव-' पुबपुरिसपण्णत्ते' पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तम् , पूर्वपुरुषैः प्राचीनपुरुषैः प्रज्ञप्तम्-कथितं बहुकालतः प्रसिद्धम् इत्यर्थः । यतः पोराणे-पुरातनमतिप्राचीनम् 'सदिए' शब्दितं-शब्दः-प्रसिद्धिः सञ्जातो यस्य तत्-शब्दितम्प्रसिद्धिप्राप्तम्। 'वित्तिए' वित्तिकम्-वित्तं-प्रसिद्धिरस्यास्तीति वित्तिकम् प्रसिद्धमित्यर्थः । 'कित्तिए' कीर्तितम्-प्रवर्णितम् ‘णाए' प्रख्याततया ज्ञातं सकलजन 'तीसे णं चंपाए णयरीए० ' इत्यादि। (तीसे ण चंपाए णयरीए) उस चंपा नगरी के (बहिया) बाहिर (उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए) उत्तर और पूर्व दिशा के बीच ईशानकोणमें (पुण्णभद्दे णामं चेइए होत्था) पूर्णभद्र नाम का एक चैत्य-यक्षालय था। (चिराईए पुबपुरिसपण्णत्ते ) वह बहुत प्राचीन था । बडे-बूढे पुराने पुरुष भी इसकी तारीफ करते आ रहे थे। इसलिये बह (पोराणे) बहुत पुराना था। (सदिए ) इसी प्रकार से इसकी प्रसिद्धि भी चली आरही थी। और इसी कारण से वह (वित्तिए) बहुत पुराना है-इस रूपसे प्रसिद्धि-कोटि में आ गया तीसे णं चंपाए णयरीए० त्याहि. (तीसे णं चंपाए णयरीए) ते या नगरीन। (बहिया) मडार (उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए) उत्त२ मने पूर्व दिशानी च्ये-शान मत (पुण्णभद्देणामं चेइए होत्था) 5 नामनो मे येत्य-यक्षासय डतो. (चिराईए पुव्वपुरिसपण्णत्ते) से ઘણો પ્રાચીન હતે. ઘણા બુઠ્ઠા પુરાણ પુરૂષ પણ તેની પ્રશંસા કરતા આવતા ता, ते भाटे त ( पोराणे) पणे। पुराण ता. ( सहिए ) सेवी शत तनी प्रसिद्धि पY याली मापती ती मने से ४२१थी त (वित्तिए) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका छ २ पूर्णभद्र चैत्यवर्णनम. सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपडागे पडागाइपडागमंडिए सलोमहत्थे कयवेयदिए लाउल्लोइयमहिए गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरविदितम् । — सच्छत्ते' सच्छत्रम्-छत्रमण्डितम् । 'सज्झए ' सध्वजं–ध्वजोच्छ्रायैः सश्रीकम् । 'सघंटे' सघण्टम् । 'सपडागे' सपताकम् । 'पडागाइपडागमंडिए' पताकाऽतिपताकामण्डितम्-पताकाः लघुपताका अतिपताकाः विशालपताकाः, ताभिर्मण्डितम् । 'सलोमहत्थे' सरोमहस्तं-मृदुप्रमार्जनिकया सहितम् । 'कयवेयदिए' कृतवितर्दिकम् रचितवेदिकम् । 'लाउल्लोइयमहिए'-लापितोल्लोचितमहितम् , तत्र लापित-गोमयादिभिरङ्गणभित्यादेर्लेपनम्, उल्लोचितम्-खटिकादिद्रव्यैर्भित्यादीनां चाकचिक्ययुक्तकरणम् । था, (कित्तिए) लोगों द्वारा भी तरह तरह की किंवदंतियों (दन्तकथाओं) से यह कीर्तित हो रहा था। (णाए) ऐसा कोई भी जन नहीं था जो उसके नामसे अपरिचित हो। सर्वत्र जनों में यह ख्यातिप्राप्त स्थान था। (सच्छत्ते ) वह छत्रसहित था । (सज्झए) ध्वजाओं से युक्त था, (सघंटे ) घंटाओं से विशिष्ट था (सपडागे) पतकाओं से उसकी शोभा अपूर्व बन रही थी। उसमें (पडागाइपडागमंडिए) कोई २ छोटी पताकाएं थीं और कोई २ विशाल पताकाएँ थीं, जिनसे वह मंडित था । ( सलोमहत्थे ) मृदुप्रमा निका-मयूरपिच्छकी पीछी से ही उसकी सफाई होती थी, अतः इतस्ततः वे ही वहां रखी हुई रहती थीं, कठिन बुहारियां नहीं । (कयवेयदिये) इसमें वेदिका बनी हुई थी (लाउल्लोइयमहियं) इसके आंगन की जमीन लापितगोमय से लिपी हुई रहती थी, उसकी भीतें उल्लोचित-सफेद खडिया से पुती घो। पुराणे। छे थे ३५थी प्रसिद्धि-टिमा मापी गये। तो ( कित्तिए) લોક દ્વારા પણ જાતજાતની કિંવદંતિઓથી–દંતકથાઓથી તે કીર્તિત (अध्यात) 25 रह्यो ता. (णाए) सवा ४ ५ माणुस नखाता है જે એના નામથી અપરિચિત હોય. સર્વત્ર લોકોમાં આ ખ્યાતિ પામેલું સ્થાન तु. (सच्छत्ते) त छत्रसहित तुं. (सज्झए) धनसाथी युत तु. ( सघंटे ) सामाथी विशिष्ट तु. (सपडागे) पतामाथी तेनी शाला मपूर्व थई २४ी ती. तभi ( पडागाइपडागमंडिए) छ नानी पतास। ती मने nिe पता ती थी ते शामतुतु (सलोमहत्ये) भृहुप्रभा नि-मारना पीछांनी पीछीथी ४ तनी सई थती उती, આથી અહીં તહીં તે ત્યાં રાખવામાં આવતી હતી, કઠણ સાવરણી નહિ. (कयवेयदिए) तमi a६मनाक्षी ती. (लाउल्लोइयमहिए) तेन wingirl भूमि लापित-छायी बासी २४ती ती. तनी भी उल्लोचित-सहे। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ ...... .. . औपपातिकबत्रे दिण्णपंचंगुलितले उवचियचंदणकलसे चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लताभ्यां महितं युक्तम् । 'गोसीससरसरत्तचंदणदद्दर दिण्णपंचंगुलितलें' गोशीर्षसरसरक्तचन्दनप्रचुरदत्तपञ्चाङ्गुलितलम्, गोशीर्ष-गोरोचनं सरसं रक्तचन्दनम् , . एतेन चन्दनस्य पीतवर्णता रक्तता च व्यज्यते; तेन पीतरक्तसरसचन्दनेन दर्दरं-प्रचुरं यथा स्यात्तथा दत्तं पञ्चानामङ्गलीनां तलं व्यायतपञ्चाङ्गुलपागितलं चपेटारूपम् अङ्कनं चिह्नं यत्र तत् तथा । उवचियचंदणकलसे'. उपचितचन्दनकलशम्-मङ्गलार्थ न्यस्तचन्दनलिप्तघटम् । 'चंदणघडमुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए.': चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागम्-चन्दनघटाश्च सुष्टु कृततोरणानि च प्रतिद्वारदेशभागे यस्य तत्तथा, यत्र प्रतिद्वारे चन्दनलिप्तकलशाः सुन्दरतोरणानि च सन्तीत्यर्थः, 'आसत्तोसत्तविउलबट्टवग्धारियमल्लदामकलावे', आसक्तोसक्तविपुलवृत्ताऽवतारितमाल्यदामकलापम्-आसक्तो-भूमिसक्तः उत्सक्तः- उपरि सक्तः, विपुलो विस्तीर्णः, . 'चट्टो' वृत्तो-वर्तुलो गोलाकारः, . उपरिदेशात्-अवतारितः प्रलम्पमानीकृतः,'मलदामकलावे' माल्यानि-कुसुमानि, तेषां दामानि-मालाः पुष्पमालाः, ते माल्यदाम्नां रहती थी। इस कारण खूब महित-चमकती रहती थी।(गोसीससरसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितले ) भित्तियों में जगह २ पर गोरोचन और सरस रक्तचंदन के प्रचुरमात्रा में हाथे लगाये हुए थे । ( उवचियचंदणकलसे ) उस यक्षालयमें मंगल के निमित्त चंदन से लिप्त कलश स्थापित थे । (चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए) प्रत्येक द्वारों पर चंदन के घट रखे हुए थे, एवं अच्छी तरह से बनाए गये सुन्दर तोरण दरवाजों के ऊपर सुशोभित हो रहे थे, अथवा चंदन के छोटे २ कलशों से दरवाजों पर तोरणों की रचना करने में आई थीं। ( आसत्तोसत्तविउलबट्टवग्धारिय मडीयी पोतामेसी २७ती ती.ते ४०२ ते महित-यमता २३ती ती. (गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिण्णपंचंगुलितले) लाभ 388४ाणे गाशयन मने सरस २४तयहनना थापा भूम प्रभामा सावा . ( उवचियचंदणकलसे.).ते यक्षासयमा भवन निमित्त यन 3 श स्थापित हुता. (चंदणघड़सुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए ) प्रत्ये द्वारी ५२. यदना घट रामेसा હતા. તેમજ સરસ રીતે બનાવેલાં સુંદર તોરણ દરવાજાની ઉપર સુશોભિત લટકી રહેલાં હતાં. અથવા ચંદન લગાવેલાં નાનાં નાનાં કળશથી દરવાજા ५२. तारणीनी २यना ४२पामा दी... उता. ( आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्यारिय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. २ पूर्णभद्रचैत्यवर्णनम्. दामकलावे पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकंधूवडज्झंतमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरकलापः समूहो यत्र तत्, अर्थात्-उपर्यधोविस्तृतवर्तुलप्रलम्बमानकुसुममालाकलापोपेतम्। 'पंचपण्णसरससुरहिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिए' पञ्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितम्-पञ्चवर्गानि कृष्णनीलपीतरक्तश्वेतकान्तियुक्तानि सरसानि सुरभीणि-सुगन्धीनि च तानि मुक्तानि-विकीर्णानि यानि पुष्पाणि तेषां पुजैरुपचाराःरचनाविशेषाः, तैः कलितं युक्तं विविधवर्णकुसुमरचनासम्पन्नमित्यर्थः, 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवडझंतमघमपंतगंधुद्धयाभिरामे' कालागुरुप्रवरकुन्दरुष्कतुरुष्कधूपदह्यमानातिशयगन्धोद्भूताऽभिरामम्-कालागुरुः= कृष्णागुरुः, प्रवरकुन्दुरुष्कः श्रेष्ठगन्धद्रव्यविशेषः, तुरुष्कः सिल्हकः लोबान' इति भाषायाम्, धूपः गन्धद्रव्यलंयोगजन्यः पदार्थः, एते दह्यमानाः अग्नौ प्रक्षिप्यमाणास्तेषां 'मघमघंत' अतिशयितो यो गन्धः ‘उद्धृय' उद्भूतः सर्वतः प्रसृतः,ते न अभिरामम् मनोहरम् ' सुगंधवरगंधमल्लदामकलावे ) यक्षायतन में भींतों के ऊपर और नीचे सर्वत्र विस्तीर्ण एवं गोलाकार लटकते हुए कुसुमकी मालाओं के कलाप की सजावट हो रही थी। (पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए ) प्रतिस्थान पर यहां पंचवर्ण के सरस एवं सुगंधित पुष्पों के पुंजों से अनेक प्रकारकी रचना रचने में आई थी । ( कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवडझंतमघमतगंधुदुयाभिराभे ) उस यक्षायतनमें कृष्णागुरु, प्रवरकुन्दुरुष्क-श्रेष्ठगद्रव्यविशेष, तुरुष्क-सेल्हारस-लोवान और धूप ये सब सुगंधित पदार्थ अग्नि में समय २ पर प्रक्षिप्त हुआ करते थे, इसलिये वहां अद्भुत विशेष. गंध भरी रहती थी, इसलिये वह सदा अतिशय मल्लदामकलावे ) यक्षायतनमा मीतानी ५२ तथा नाये सर्वत्र विस्ती તેમજ ગોલાકાર લટકાવેલી પુષ્પોની માળાઓના કલાપની સજાવટ (શભા) 25२डी ती (पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए) १२४ स्थान પર અહીં પંચ વર્ણનાં સરસ તેમજ સુગંધિત પુષ્પના ઢગલાથી અનેક પ્રકા२नी २यना मनापामा २ावी ती. (कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवडज्झतमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे) ते यक्षायतनमा शु३, अपरन्३०४-श्रेष्ठ गधद्रव्य विशेष, તુરૂષ્ક–સેલ્લારસ–બાન અને ધૂપ, એ બધા સુગંધિત પદાર્થ અગ્નિમાં વારંવાર નાખવામાં આવતા હતા, તેથી ત્યાં બધું જ સુગંધભરી રહેતી હતી. આથી તે सहा भवभयतु-मधी त२३थी : सुगंधीया सुशामित मनी . २३तु: Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ औपपातिकसत्रे गंधगंधिए गंधवटिभूएणड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्टिय-वेलंबग-पवगकहग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तृणइल्ल तुंबवीणिय-भुयगमागह-परिगए बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए बहुजणस्स गंधिए' सुगन्धवरगन्धगन्धितम्-नानाविधपुष्पसम्पादितगन्धद्रव्यैः सुवासितम्। 'गंधवट्टिभूए' गन्धवर्तिभूतं गन्धद्रव्यगुटिकासदृशम्-सौरभ्यातिशयात् गन्धद्रव्यनिर्मितवद् भासमानम् । ‘णटणट्टगे'-त्यादि, अत्रैव प्रथमसूत्रे व्याख्यातम् , नवरम्-'भुयगमागहपरिगए' भोजकमागधपरिगतम् , भोजकाः-सेवकाः मागधाःस्तुतिपाठकाः, तैः परिगतं व्याप्तम् । 'बहुजगजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए' बहुजनजानपदस्य सुगंधि से सुशोभित बना रहता था । (सुगंधवरगंधिए ) अनेक प्रकार के सुगंधित पुष्पों की गंध से भी वह सदा सुवासित होता रहता था (गंधवहिभूए) इसलिये यह गंधकी बत्ती जैसा हो रहा था। ऐसा ज्ञात होता था कि यह सुगंधित द्रव्यों के चूर्ण से ही मानो विरचित किया गया है। (णड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबय-इत्यादि ) नृत्य करने वालों से, नाटक करने वालों से, डोरी पर नाचने वालों से, मुष्टियुद्ध करने वालों से, बंदर की तरह कूदने वालों से, भांड के जैसी नकल करने वालों से, तथा कहानी कहने वालों से, रास रचने वालों से, शुभा शुभ प्रकट करने वालों से, वांसके अग्रभाग पर खेलने वालों से, चित्रपट दिखला कर आजीविका करने वालों से, वीणा बजाने वालों से, तुंबी बजाने वालों से, भोजकों-सेवकों से, और मागधों-स्तुतिपाठकोंसे वह मंदिर सदा युक्त बना रहता था । (बहुजणजाण तु. (सुगंधवरगंधिए ) अने प्रा२नां सुअधित पुष्पानी अधथी ५ ते भेश सुवासित थ६२ तु. (गंधवट्टिभूए) मेथी ते अनावाती થઈ રહ્યું હતું. એમજ લાગતું હતું કે એ સુગંધિત દ્રવ્યના ચૂર્ણથી જ જાણે मनायूछे. (णड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्टिय-वेलंबय-इत्यादि ) नृत्य ४२नारामाथी, નાટયકારેથી, દોરા ઉપર નાચવાવાળાઓથી, મુષ્ટિયુદ્ધ કરનારાઓથી, વાંદરાની પેઠે કૂદવાવાળાએથી, ભાંડ (ભવાયા) જેવી નકલ કરવાવાળાએથી, તથા વાર્તા કહેવાવાળાએથી, રાસ કરનારાઓથી, શુભાશુભ પ્રકટ કરનારાઓથી, વાંસની ટોચ પર રમનારાઓથી, ચિત્રપટ દેખાડીને આજીવિકા કરવાવાળાએથી, વીણા વગાડનારાઓથી, તંબુર વગાડનારાઓથી, ભેજકે–સેવકેથી અને भागधे।-स्तुतियाअथी ते माहिर सहा १२५४ २ तु. ( बहुजणजाण Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २ पूर्णभद्रचैत्यवर्णनम् आहुस्स आहुणिजे पाहुणिजे अञ्चणिज्जे वंदणिजे नमंसणिज्जे पूयणिजे सकारगिजे सम्भाणणिजे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सण्णिहियपाडिहेरे विश्रुतकीर्तिकम्-बहुजनस्थ-पौरस्य, जानपदस्थ जनपदजातस्य अर्थात् नागरिकाणां देशवासिनां च विश्रुतकीर्तिकम्-प्रसिद्धियुक्तम्, 'बहुजणस्स' बहुजनस्स, 'आहुस्स' आहोतुः-दातुः-दानशीलस्य बहुजनन्थ, 'आहुणिज्जे' आहवनीयम् आहूयते-दीयते ऽस्मै इते आहवनीयं -सम्प्रदानरूपम , 'पाहुणिज्जे' प्राहवणीयम् - प्रकृष्टतया सम्प्रदानरूपम् , 'अञ्चणिज्जे' अर्चनीयम -आदरपात्रम् , 'वंदणिज्जे' वन्दनीयं-स्तुतियोग्यम् , 'नमंसणिजे' नमस्थनीयम् , 'पूगिज्जे' पूजनीयं-प्रशंसनीयम् , 'सकारणिज्जे' सत्करणीयम् , 'सम्माणणिज्जे' सम्माननीयम् , 'कल्लाणं' कल्याणम् 'मंगलं' मङ्गलम् 'देवयं' दैवतम् , ' चेइयं 'चै यम् , विणएणं' विनयेन, 'पज्जुवासणिज्जे' पर्युपासनीयम् , 'दिव्वे' दिव्यम् , 'सचे' सत्यं, 'सच्चोवाए' सत्यावपातं सफलसेवम् , वयस्स विस्सुयकित्तिए ) इस यक्षा पतन की प्रसिद्धि अनेक पुरवासियों एवं अनेक नगरनिवागियों तक थी । ( बहुजगस्स आहुस्स आहुणिज्जे) बहुत लोग इस में दान दिया करते थे । ( बंदणिजे णमंसणिज्जे अञ्चणिज्जे पूयणिज्जे सकारणिजे सम्माणणिज्जे ) यहां के लोग इस यक्षको वन्दनीय, नमस्करणीय, अर्चनीय, पूजनीय, सत्करणीय, और सम्माननीय मानते थे। (कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे दिव्वे सच सच्चोवाए सणिहियपाडिहेरे जागसहस्सभागपडिच्छए० ) तथा कल्याण, मंगल, दैवत मानते थे, और चैत्य अर्थात् लोगों की अभिलाषा को जानने वाले मानते थे, विनय से उपासना करने के योग्य मानते थे, दिव्य और सत्य मानते थे, सफल सेवा मानते थे, जगह २ इसके वयस्स विस्सुयकित्तिए ) यक्षायतननी प्रसिद्धि मने पुरवासीमा तभ०४ भने नगरवासीमा सुधी पांयी ती. (बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे) घ सो सभा होन पाया ४२तात. (वंदणिज्जे णमंसणिज्जे अञ्चणिज्जे पूयणिज्जे सकारणिज्जे सम्माणणिज्ज) मडना खा मा यक्षने वहनीय, નમસ્કરણીય, અર્ચનીય, પૂજનીય, સત્કરણીય, અને સમ્માનનીય માનતા હતા. (कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सण्णिहियपाडिहेरे जागसहस्सभागपडिच्छए) तथा ४८याण, मास, हैवत मानता ॥ અને ચૈત્ય અર્થાત્ લોકેની અભિલાષાને જાણવાવાળા માનતા હતા, વિનયથી ઉપાસના કરવા ચોગ્ય માનતા હતા, દિવ્ય અને સત્ય માનતા હતા, સફલ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जाग सहस्सभागपडिच्छए बहुजणो अच्चेइ आगम्म पुण्णभद्दचेइयं पुण्णभद्दचेइयं ॥ सू. २ ॥ मूलम् - सेणं पुण्णभद्द चेइए एक्केणं महया वणसंडेणं सव्वओ समता परिक्खित्ते । से णं वणसंडे किन्हे किन्होभासे ' सगिहियपाडिहेरे ' सन्निहित प्रातिहार्यम् -समिहितं - प्रातिहार्यम् - उपहाररूपं यस्य तत्, , जागसहस्सभागपडिच्छए यागसहस्रभागप्रतीक्षकम् यागो देवतोद्देशेन परोपकाराय दानकरणम्, तेषां सहस्राणि तेषां भागाः - स्वयमादेयाः, तान् प्रतीक्षते इति यागसहस्रभागप्रतीक्षकम्, ' बहुजणो ' बहुजन:, ' अच्चेइ ' अर्चति - सत्कुरुते, 'आगम्म' चैत्यम् २ -- पूर्णभद्रचैत्यमागत्य पूर्णभद्रचैत्य 6 4 पूर्णभद्रं औपपातिक पूर्णभद्रं एकेणं चत्यम् ? इत्याह सेणं पुण्णभ 6 आगत्य, पुण्णभक्षं चेइयं २' मर्चति - सत्कुरुते ॥ सू० २ ॥ टीका पुन : कीदृशं are ' तत्खलु पूर्णभद्रं चैत्यम् । महया वणसंडेणं ' एकेन - परस्परसंमिलिततया एकीभूतेन महता - विशालेन, वनघण्डेन ' सव्वओ समता संपरिक्खित्ते ' सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तम्, सर्वत्र - सर्वासु दिक्षु, समन्तात् - सर्वासु विदिक्षु, सम्परिक्षिप्तं - वेष्टितम् । स वनषण्डः कीदृश: ? इत्याह ( से णं) इत्यादि । ' से गं वणसंडे' स वनपण्डःखलु पास रूपं प्रातिहार्य रखे हुए नजर आते थे । इनके नाम से हजारों आदमी दाम देते थे, और बहुत से लोग आकर सांसारिक अभिलाषा की पूर्ति के लिये इसकी अर्चना करते थे ॥ ०२ ॥ , 'से णं पुण्णभद्दे चेइए० ' इत्यादि ( सेणं पुण्गभद्दे चेइए) वह पूर्णभद्र चैत्य ( एक्केणं महया वणसंडेणं ) एक विस्तृत वनखंड-वनषंड से ( सव्वओ समंता परिक्खित्ते ) समस्त दिशाओं एवं विदिशाओं में घिरा हुआ था । ( से णं वणसंडे किन्हे किन्होभासे नीले नीलोभासे સેવા માનતા હતા, ઠેકઠેકાણે તેમની પાસે ઉપહારરૂપ પ્રસાદ રાખેલા નજરે પડતા હતા. તેમના નામથી હજાર માણસા દાન દેતા હતા અને ઘણા લેાકેા આવીને સાંસારિક અભિલાષાની પૂર્ણાંતા માટે તેની પૂજા અર્ચા કરતા हता. (सू. २) ' से णं पुण्णभद्दे चेइए' इत्यादि, ( से णं पुण्णभद्दे चेइए) ते पूर्णभद्र चैत्य ( एक्केणं महया वणसंडेणं) मे विशाण वनयं उ-वनषडथी ( सव्वओ समंता परिक्खिते ) समस्त हिशाओ तेभ विधिशासभां घेराभेो। डतो. ( से णं वणसंडे किन्हे किन्होभासे नीले Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३ धनषण्ड वर्णनम् ૨૭ नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे णिद्धे गिद्धोभासे तिव्वे तिव्वोभासे, किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिद्धे णिद्धच्छाए तिव्वे कृष्णः-कृष्णवर्णः, 'किण्होभासे' कृष्णावभासः--कृष्ण इवाऽवभासते, नतु वस्तुतःकृष्ण एव, ‘नीले नीलोभासे' नीलो नीलावभासः-मयूरकण्ठवत्प्रतिभासमानः, · हरिए हरिओभासे' हरितो हरिताऽवभासः-हरितवगेपर्णानां प्राचुर्यात् शुकपक्षवदवभासमानः, इदानीं स्पर्शापेक्षया वर्ण्यते-'सीएसीओभासे शीतः शीताऽवभासः-लतापुञ्जव्याप्तत्वात् शीतस्पर्शवान् इत्यर्थः, "णिद्धे गिद्धोभासे स्निग्धः स्निग्धावभासः-नवनीतमिव चिक्कणः-चिक्कणवदवभासमान: नतु रूक्षः । 'तिव्वे तिव्योभासे' तीवस्तीत्रावभासः तीव्रः-प्रभाप्रकर्षवान् तीव्रावभासः- प्रकृष्टप्रभाऽवभासमानः, 'किण्डे किण्हच्छाए' कृष्णः कृष्णच्छायः-एते द्वे अपि विशेषणे गाढकृष्णतां ब्रूतः, तेन करा लकालिमावलीवलीढो वनषण्ड इत्युक्ता भवति । हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे गिद्धे गिद्धोभासे तिव्वे तिव्योभासे किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिण हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिद्धे गिद्धच्छाए तिव्वे तिव्यच्छाए ) यह वनखंड अतिशय सधन होने की वजह से कृष्ण तथा कृष्ण आभावाला था, देखने वालों के यह नील एवं नीलप्रभा से विशिष्ट ज्ञात होता था। यह हरित तथा हरित आभावाला था, इस कारण से इस वनखंड की कांति हरी प्रतीत होती थी। रंग भी हरा २ मालूम देता था। जहां २ वृक्षों की अतिशय सधन पंक्ति थी वहां २ की छाया अत्यंत शीतल थी। सदा वहां तरावट रहने से प्रभामें भी शीतलता रहा करती थी । जमीन कहीं २ नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे णिद्धे गिद्धोभासे तिव्वे तिव्योभासे, किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिद्ध णिद्धच्छाए तिव्वे तेव्वच्छाए ) मा पन गतिशय घाटा હોવાના કારણથી કાળા તથા કાળાશની આભાવાળે હતે. જોનારાઓ માટે તે લીલે તેમજ લીલી પ્રભાથી વિશિષ્ટ જણાતું હતું. તે હરિત તથા હરિત આભાવાળો હતો. તે કારણથી આ વનખંડની કાંતિ હરી લાગતી હતી. રંગ પણ હરાહરા (લીલાછમ) દેખાતું હતું. જ્યાં જ્યાં વૃક્ષોની બહુ ઘાટી હાર હતી ત્યાંની છાયા બહુ જ ઠંડી હતી. સદા ત્યાં ઠંડક રહેવાથી પ્રભામાં (ઉજાસમાં) પણ ઠંડક રહ્યા કરતી હતી. જમીન ક્યાંક કયાંક એટલી ચિકણી Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ औपपातिकसूत्रे तिव्वच्छाए घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंबभूए ॥ सू. ३॥ 'घणकडियकडिच्छाए' 'घनकटितकडिच्छायः ---परस्परं शाखानामनुप्रवेशाद् धनः-सान्द्रः, कटितः-कटाच्छादित इव निबिड:-बहुलनिरन्तरच्छाय इत्यर्थः । रम्यः-रमणीयगुणयुक्तः । 'महामेहणिकुरंबभूए' महामेधनिकुरम्बभूतः-महान्तः-विशालाः, मेघाः-जलधराः, तेषां निकुरम्बम्-महामेधनिकुरम्बम् सजलजलदवृन्दम् तथाभूतः-तत्सदृश:-महामेघनिकुरम्बभूतः-महाजलदवृन्दोपमः सश्रीकः श्यामतमो वनषण्ड इति यावत् ॥ सू. ३॥ पर इतनी चिकनी थी कि लोगों को इसकी प्रभा में भी चिकनाई लक्षित होती थी । वर्णादिक से यह तीत्र एवं तीव्र छायावाला था । (घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंबभूए ) यहां जितने भी वृक्ष थे उन सबकी शाखाएँ एक दूसरे वृक्षों की शाखाओं से परस्पर में मिल गई थीं, इससे यहां छाया की अत्यंत सघनता रहा करती थी। यह वन बडा ही सुहावना लगता था । ऐसा मालूम पडता था कि मानो महामेघों का यह एक विशाल समुदाय ही है। अथवा (किण्हे ) इत्यादि पदों की व्याख्या इस प्रकार भी हो सकती है-अत्यंत सघन होने से इस वनखंड में सूर्य की किरणों का प्रवेश तक भी नहीं हो सकता था इसलिये इसमें चारों ओर अंधकार छाया रहता था, अतः यह काला जैसा प्रतीत होता था। जैसे मयूर का कंठ नीला होता है यह भी उसी तरह नीला था । इसमें हरे२ पत्तों की प्रचुरता थी इसलिये इस वनकी कांति भी तोते की पांखों-जैसी हरी ज्ञात होती थी। वन का હતી કે લોકોને જેની પ્રભામાં પણ ચિકાશ લાગતી હતી. વર્ણાદિક(રૂપરંગ)થી ये तीन तेभर तीनछायापाडतो. (घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंबभूए ) मडी सi वृक्षा तi ते मायनी माया એક બીજા વૃક્ષેની શાખાઓ સાથે પરસ્પર મળી ગઈ હતી. આથી અહીં છાયા બહુ જ ઘાટી થઈ રહી હતી. આ વન ઘણું જ શોભાયમાન લાગતું હતું. એમ જણાતું હતું કે જાણે મહામેને એ એક મોટો સમુદાય જ છે. मथ। (किण्हे ) त्याहि पहानी व्याज्या सेम ५५५ श छ १ अत्यंत ઘાટું હોવાથી આ વનખંડમાં સૂર્યનાં કિરણોને પ્રવેશ માત્ર પણ થઈ શકતે નહિ. એથી તેમાં ચારે તરફ અંધકાર છવાઈ રહેતું હતું. તેથી તે કાળા જેવું પ્રતીત થતું હતું. જેમ મેરને કંઠ લીલે હોય છે તેમ આ પણ લીલું હતું. એમાં લીલાંછમ પાંદડાં બહુ જ હતાં, તેથી આ વનની કાંતિ પણ પિપટની પાંખે જેવી લીલી જણાતી હતી. વનને સ્પર્શ કંડે એ કારણથી Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ४ वृक्षवर्णनम्. मूलम्-ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंधमंतो तयामंतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमतो टीका:- ते णं पायवा' इत्यादि। 'ते' तत्सम्बन्धिनः-तच्छब्दस्य लक्षणया तत्सम्बन्धिन इत्यर्थः, तच्छब्देन बुद्धिस्थविषयपरामर्शात् वनखण्डस्य परामर्शः। वनखण्डसम्बन्धिन इत्यर्थः, पादपा वृक्षाः, कीदृशास्ते वृक्षाः? इत्यत्राऽऽह'मूलमंतो' मूलवन्तः-मूलानि सन्ति एषाम् इति मूलवन्तः मूलसम्बद्धा वृक्षा इत्यर्थः । 'कंदमंतो कन्दवन्तः-मूलानामुपरि ग्रन्थिरूपाः कन्दाः, ते सन्ति येषां ते तथा । 'खंधमंतो' स्कन्धवन्तः शाखाविभागस्थानं स्कन्धः, ते स्कन्धाः सन्त्येषां ते स्कन्धवन्तः। 'तयामंतो' त्वग्वन्तः--त्वचो -बल्कलानि सन्त्येषामिति ते तथा । 'सालमंतो' शालावन्तः-शालाः शाखाः सन्त्येषामिति । 'पवालमंतो' प्रवालवन्तः-प्रवाला-बालस्पर्श शीत इसलिये था कि यहां लताओं का कुंज अधिक था। मक्खन के समान यह स्पर्श में चिकन था । प्रभा के प्रकर्ष से इसकी प्रभा भी तीत्र थी । कृष्ण एवं कृष्णावभास इन दो विशेषणों से सूत्रकार का यह अभिप्राय है कि यहां पर जो कृष्णता थी वह गाढ थी। ॥ सू० ३॥ ' ते णं पायवा०' इत्यादि -- ( ते णं पायवा मूलमंतो) उस वनखंड के ये वृक्ष जमीन के भीतर गहरी फैली हुई बडी २ जडों वाले थे। (कंदमंतो खंधमतो तयामंतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुष्फमंतो फलमंतो बीयमंतो) कंद-मूलों के ऊपर गांठ-वाले थे । स्कंध-शाखाओं के रहने के स्थानवाले थे। त्वचा-छाल युक्त थे। शालाओं-शाखाओं से विशिष्ट थे । प्रवाल-कोपल सहित थे। पत्रों से भरे हुए थे, पुष्पों से युक्त थे । હતું કે અહીં લતાઓના કુંજ વધારે હતા. માખણના જે તેને સ્પર્શ ચિકણે હતો. ઉજાસ વધારે હોવાથી તેને ઉજાસ પણ તીવ્ર હતું. કૃષ્ણ તેમજ કૃષ્ણાવભાસ એ બે વિશેષણથી સૂત્રકારને એ અભિપ્રાય છે કે અહીં र ४ाश हुती ते घरी ती. (सू. 3) 'ते णं पायवा.' छत्याहि (ते णं पायवा मूलमंतो) से वनसभा या वृक्षा भीननी म४२ ti ३सा गा मोटा मोटा भूगवाजi sdi. (कंदमंतो खंधमंतो तयामंतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमंतो फलमंतो बीयमंतो) ४४-भूण ५२ 3-alni sai, સ્કંધ-શાખાઓને રહેવાનાં સ્થાનરૂપ હતાં. ત્વચા-છાલયુક્ત હતા, શાલાઓશાખાએથી વિશિષ્ટ હતા, પ્રવાલ-કુપળવાળા હતા, પત્ર-પાંદડાંથી ભરેલાં Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० औपपातिकसूत्रे फलमंतो बीयमंतो अणुपुव्व-सुजाय-रुइल-वभाव-परिणया एक्कखंधा अणेगसाला अणेग-साह-प्पसाह-विडिमा अणेग-नर-वाम सुप्पसारिय-अग्गेज्झ-घण-विउल-वट्ट-खंधा अच्छिदपत्ता अविरलपपल्लवानि सन्त्येषामिति । एवं 'पत्तमंतो' पत्रवन्तः, 'पुप्फमंतो' पुष्पवन्तः । 'फलमंतो' फलवन्तः । 'बीयमंतो' बीजवन्तः-बीजान्यङ्करजनकानि सन्त्येषामिति ते तथा 'अणुपुव्व-सुजाय-रुइल-वभाव-परिणया' अनुपूर्व-सुजात-रुचिर-वृत्तभावपरिणताः-अनुपूर्व यथाक्रमं सुजाताः रुचिराः सुन्दराश्चामी वृत्तभावैवर्तुलभावैर्गोलाकारैः परिणताश्च । ' एक्कखंधा' एकस्कन्धाः-एकस्कन्धवन्तः, 'अणेगसाला' अनेकशालाः, 'अणेग साह-प्पसाहविडिमा अनेक शाखा-प्रशाखा-विडिमाः अनेका शाखाः-स्कन्धसञ्जाताः प्रशाखाः-शाखाप्रसूताः, विडिमाः-ऊर्ध्वविनिर्गताः शाखाश्च येषु ते तथा, अनेकशाखाप्रशाखायुक्तवृक्षा इत्यर्थः । 'अणेग-नर-चाम-सुप्पसारिय-अग्गेज्झ-घण-विउल-बट्ट-खंधा' अनेकनर-वाम-सुप्रसारिताऽ-ग्राह्य-घन - विपुल - वृत्त-स्कन्धाः-अनेकैः नव्यामैः -- नराणां= व्यामैः = तिर्यग्बाहुद्वयप्रसारणप्रमाणैः सुप्रसारितैः अग्राह्यः = अप्रमेयः घनः-सान्द्रः, विपुलो-विशालो, वृत्तो-वर्तुलः, स्कन्धो येषां ते, अतिस्थूलफलों से लदे हुए थे । बीजों से भरे हुए थे। ( अणुपुत्र सुजाय-रुइल-बट्टभावपरिणया) ये सब के सब वृक्ष अनुक्रम से उत्पन्न हुए थे और छत्ते के जैसे रम्य गोल-आकारवाले थे । ( एकखंधा अणेगसाला अगेग-साह-प्पसाह-विडिमा) इनके स्कन्ध एक थे और अनेक शाखा प्रशाखा एवं विडिमाओं-ऊपरकी ओर गयी हुई शाखाओं से युक्त थे। (अणेग-नरवाम-सुप्पसारिय-अग्गेज्झ-घण-विउल-बट्ट-खंधा) अनेक पुरुषों द्वारा अच्छी तरह पसारे गये हाथों से भी इनका सान्द्र, विपुल एवं वर्तुलाकार स्कंधका ग्रहण नहीं हो सकता था। (अच्छिदपत्ता ) इनके पत्र भी इतने Sai, i li, साथी मरेखां उतi, मीथी म२५२ हुतां. (अणुपुव्वसुजाय-रुइल-चट्टभाव-परिणया) २॥ तमामे-तमाम वृक्षा अनुभवा२ उत्पन्न थयेां तi मने छत्री २i २भ्य गो मा४२वाज तi. (एक्कखंधा अणेगसाला अणेग-साह-प्पसाह-विडिमा) समर्नु २७ मे तुमने मने ॥ પ્રશાખા તેમજ વિડિમાએ–ઉપરની તરફ ગયેલી શાખાઓથી યુકત હતાં. ( अणेग-नर-वाम-सुप्पसारिय-अग्गेज्झ-घण-विउल-चट्ट-खंधा ) मने ५३षाદ્વારા ખૂબ પહેળા કરેલા હાથેથી પણ તેમનાં સાન્દ્ર વિશાળ તેમજ વળા१२ यउने साथ लीडी शो नहाता. (अच्छिद्दपत्ता) तमनां ५iasi 4g Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूवर्षिणी टीका. सू. ४ वृक्षवर्णनम. __३१ त्ता अवाईणपत्ता अणईयपत्ता निय-जरढ-पंडु-पत्ता णव-हरियभिसंत-पत्तभारं-धयार-गंभीर - दरिसणिज्जा उवणिग्गय - णवतरुणसघनविशालतया प्रसारितपाणिभिः नरैर्दुहवतुलस्कन्धा इति यावत् । 'अच्छिदपत्ता' अछिद्रपत्राः-अच्छिद्रागि-सूर्यकिरणैरपि दुष्प्रवेशानि, पत्राणि येषां ते, परस्परमिलितदलाः। 'अविरलपत्ता' अविरलपत्राः-बहुलपत्राः। 'अवाईणपत्ता' अवाचीनपत्राः--अवाचीनानि-अधोमुखानि, पत्राणि येषां ते तथा । 'अणईयपत्ता' अनीतिकपत्राः--ईतयःषट्-अतिवृष्टिः, अनावृष्टिः, मूषकः, शलभः, खगः, दिग्विजयादौ प्रस्थितो भूत्वाऽतिनिकटसमागतो नृपश्चेति; अविद्यमाना ईतयो येषां तानि-अनीतिकानि निरुपद्रवाणि पत्राणि येषां ते तथा । —निधय-जरठ-पंडु-पत्ता' निर्दूत-जरठ-पाण्डु-पत्राःनि तानि-क्षिप्तानि, जरठानि-जीर्णानि, पाण्डूनि-परिणतानि-पीतानि, पत्राणि येषां ते तथा । 'णव-हरिय-भिसंत-पत्तभारं-धयार-गंभीर-दरिसणिज्जा' नव-हरित-भासमान-पत्रभाराऽसघन थे कि जिनके बीच में जरा भी अन्तराल नहीं था । (अविरलपत्ता) इसोलिये इनके पत्र दूर २ नहीं थे, बिलकुल पास २ में चिपके हुए जैसे थे। (अवाईणपत्ता) जितने भी पत्र इन वृक्षों में लगे हुए थे वे सब अधोमुख थे। (अणईयपत्ता) ये पत्र अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक, शलभ, पक्षी और राजा इन छह ईतियों-विपत्तियों से रहित थे। (निद्वय-जरठ-पंडु-पत्ता णव-हरिय-भिसंत-पत्तभारं-धयार-गंभीर-दरिसणिज्जा) इन वृक्षों से पुराने पत्ते, पीले पत्ते एवं सडे हुए पत्ते गिर गये थे, उनके स्थान पर नवीन हरे चमकीले पत्र आगये थे उससे वहां अन्धकार जैसा सदा व्याप्त हो रहा था । अतः इस हालत में 'ये वृक्ष ऐसे हैं । इस प्रकार लोकों के लिये इनका स्पष्टरीति से विवेचन करना अशक्य था। ( उवणिग्गय-णव-तरुण-पत्त-पल्लव-को मेटम घाट उतांनी वयमा ४२॥ ५४ मत२ न . (अविरलपत्ता) આમ તેમનાં પાંદડાં છેટે છેટે નહોતાં, બિલકુલ પાસે પાસે જ ચેટેલાં જેવાં तi (अवाईणपत्ता) ये वृक्षामा खi iasi ani di ते या मधीभुम (नीय भुमi) तi. (अणईयपत्ता) २५isi -मतिवृष्टि, मनाવૃષ્ટિ, ઉંદર, શલભ (તીડ), પક્ષી અને રાજા એ છ ઈતિઓ-વિપત્તિઓથી २हित तi. (निद्भय-जरढ-पंडु-पत्ता णव-हरिय-भिसंत-पत्तभारं-धयार-गंभीर-दरिसणिज्जा) એ વૃક્ષ ઉપરથી જુનાં પાન, પીળાં પાન, તેમજ સડી ગયેલાં પાન પડી ગયાં હતાં અને તેમને ઠેકાણે નવાં લીલાં ચમકદાર પાન આવી ગયાં હતાં તેથી ત્યાં અંધકાર જેવું સદા વ્યાપ્ત થઈ રહ્યું હતું. આ પ્રમાણે આવી સ્થિતિમાં એ વૃક્ષે એવાં જ છે’ એ પ્રકારે સ્પષ્ટપણે વિવેચન કરવું લોકોને માટે Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे पत्त-पल्लव-कोमल-उज्जल-चलंत-किसलय-सुकुमाल-पवाल-सोहियवरंकुर-ग्गसिहरा णिच्चं कुसुमिया णिचं मऊरिया णिचं पल्लविया न्धकार-गम्भोर-दर्शनीयाः-नवेन हरितेन भासमानो दीप्यमानो यः पत्रभारः--पत्रसमूहः, तेन अन्धकाराः सान्धकाराः, अतएव-गम्भीरदर्शनीवा-गम्भीरम्-'इदमीदृग्' इति विवेक्तुमशक्यं यथा स्यात्तथा दृश्यन्ते इति गम्भीरदर्शनीयाः । 'उवणिग्गय-णव-तरुण-पत्त-पल्लव-कोमलउज्जल-चलंत-किसलय-सुकुमाल-पवाल-सोहिय-चरंकुर-ग्गसिहरा' उपनिर्गत-नवतरुणपत्र-पल्लव-कोमलो-उज्वल-चलत्किसलय-सुकुमार - प्रवाल - शोभित - वराऽङ्कुराऽग्रशिखराःतत्र-उपनिर्गतानि–सद्यःप्रकटितानि, नवतरुणानि-नवीनागततरुणतासम्पन्नानि पत्रपल्लवानिपत्ररूपाणि गुच्छरूपाणि तैः, तथा कोमलोज्ज्वलैः-मृदुनिर्मलैः, चलद्भिः, किसलयैःसद्योजातैः पत्रविशेषैः सुकुमारप्रवालैः - कोमलपल्लवैः, शोभितवराऽङ्कुराणि=सुन्दराङ्कुरयुक्तानि अग्रशिखराणि-उपरितनभागा येषां ते तथा । अत्र विशेषणे अङ्कुरप्रवालपल्लवकिसलयपत्राणि स्वल्पबहुबहुतरादिकालकृतावस्थाभेदाद्भिन्नानीति भावः । ‘णिञ्च कुसुमिया' नित्यं कुसुमिताः-सदा सर्वतुसंजातकुसुमोपेताः-न तु ऋतुभेदमल-उज्जल-चलंत-किसलय-सुकुमाल-पवाल-सोहिय-वरंकुर-ग्गसिहरा) इनके जो पत्र एवं पल्लव थे वे नवीन निकलने की वजह से नवीनतरुणता-संपन्न थे, कुम्हलाये या मुाये हुए नहीं थे । इन पर जो किसलय-कोंपले थीं वे कोमल थीं उज्जल थीं तथा मृदु पवन के झोके से हिलती रहती थीं । इनमें जो प्रवाल थे वे बहुत ही कोमल थे । इस प्रकार पत्रों से, पल्लवों से, कोंपलों से और प्रवालों से इनके उत्तम अंकुर शोभित हो रहे थे, इन अंकुरों से इन वृक्षों का अग्रभाग लहलहा रहा था । [णिचं कुसुमिया ] ये वृक्ष सदा सर्व ऋतुओं के पुष्पों से फूले रहते थे । मशय तुं. (उवणिग्गय-णव-तरुण-पत्त-पल्लव-कोमल-उज्जल-चलंत-किसलय सुकुमालपवाल-सोहिय-वरंकुर-गसिहरा) मेन रे पान तभ०४ ५ तi ते नवीन ઉગવાનાં કારણથી નવીન તરૂણતા–સંપન્ન હતાં. કરમાઈ ગયેલાં કે ચીમડાઈ ગયેલાં નહોતાં. તેના પર જે કિસલય-કુંપળે હતાં તે કોમળ હતાં, ઉજ્જવળ હતાં તથા મંદ પવનની લહેરીથી હલતાં હતાં. તેમાં જે પ્રવાલ હતાં તે બહુ જ કોમળ હતાં. આ પ્રકારે પત્રથી, પલ્લવથી, કુંપળેથી અને પ્રવાલોથી તેમનાં ઉત્તમ અંકુરો શેભી રહેતાં હતાં. એ અંકુરથી એ વૃક્ષોને मागमन मा सुशामित तो. (णिच्चं कुसुमिया) के वृक्ष भेशा सर्व *तुमानां पुण्याथी मिली रस रहेतi sai (णिच्च मऊरिया) सर्व से Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूsfर्षणी टीका. सू. ४ वृक्षवर्णनम्. ३३ णिचं थवइया णिच्चं गुलइया णिच्चं गोच्छिया णिच्चं जमलिया णिचं जुवलिया णिच्चं विणमिया णिच्चं पणमिया णिचं कुसुमिय 6 प्रतिबन्धितकुसुमाः । ' णिच्चं मऊरिया ' नित्यं मयूरिताः - मयूराः सन्त्येषामिति मयूरिताः नित्यं मयूरयुक्ता इत्यर्थः । ' णिचं पल्लविया ' नित्यं पल्लविताः - सर्वदा पल्लवसम्पन्नाः । 'णिचं थवइया ' नित्यं स्तबकिताः - नित्यं स्तबकवन्तः, गुच्छवन्त इत्यर्थः । “णिचं " नित्यं गुल्मिताः गुलइया जातियूथिकान मल्लिकादिलतावन्तः, चिं गोच्छिया ' नित्यं गुच्छिताः सदापुष्पगुच्छयुक्ताः । ' णिचं जमलिया ' नित्यं तया स्थिताः-अथवा यमलाः युग्मतया जाताः, ते सन्ति येषां ते यमलिताः । ' णिच्चं जुलिया ' नित्यं युगलिता - युगलतया स्थिताः । 'गिच्चं विणमिया' नित्यं विनमिताःफलपुष्पादिमारेण नताः । ' गिंच पगमिया' नित्यं प्रणमिताः केचित् प्रकर्षेण नम्रीभूताः । यमलिताः समपंक्ति [[णि मऊरिया ] सर्वदा इन वृक्षों पर मोर रहते थे । ( णिचं पल्लविया) ये वृक्ष नित्यपल्लवित रहते थे, अकाल में पतझड इनमें नहीं होता था । ( णिचं थवइया ) गुच्छों से ये हमेशा अन्वित बने हुए रहते थे [ णिच्चं गुलइया ] इनपर सदा नवमल्लिका आदि लतारं लिपटी रहती थीं । ' णिचं गोच्छिया ' ये हमेशां फूलों और फलों के गुच्छों से युक्त रहते थे । ' णिचं जमलिया णिचं जुवलिया ' ये जितने भी वृक्ष यहां पर थे वे सब जोडे सहित एक सी कतार में आजू-बाजू खडे हुए थे । 'णिचं विणमिया ' ऐसा कोई सा भी समय नहीं था कि जब ये फल एवं पुष्पादिक के भार से झुके न रहते हो । ' णिचं पणमिया ' कोई २ वृक्ष तो ऐसे भी थे जो पुष्पादिकों के भार से बिलकुल जमीन तक भी झुके हुए थे । [ णिचं-कुस वृक्षों पर भोर रहेता हुता ( णिच्चं पल्लविया) भे वृक्ष हमेशां पावित रह्या ४२तां डुतां. हुआ|जमां । तेमनां पान भरता नहोतां ( णिच्चं थवइया ) गुरुछोथी ते डुमेश सलर रहेतां तां ( णिच्चं गुलइया ) तेभना पर सहा नवभब्सिा आदि बताओ (वेसेो) वीटजायेसी रहेती हुती. ( णिच्चं गोच्छिया ) ते हमेशां से मने इणोना गुरछाथी युक्त रहेता हुता. ( णिच्च जमलिया णिच्च जुवलिया ) मे भेटतां वृक्षों सहीं इतां ते मघां लेडे भेडे खेड ४ द्वारमा भन्नुखान्नुभां लां तां. ( णिच्चं विणमिया ) मेव। अध्यषु सभय નહતા કે જ્યારે તેઓ લ તેમજ પુષ્પાદિકના ભારથી ઝુકેલાં ન રહેતાં હાય. ( णिच्चं पणमिया ) ( अ वृक्ष तो मेवां यहुतां ने पुष्याद्विना लारथी मिसडुस ४मीन सुधी नभी गयेसां तां ( णिच्चं - कुसमिय-मऊरिय Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र मऊरिय-पल्लविय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय - जमलिय - जुवलियविणमिय-पणमिय-सुविभत्त-पिंड-मंजरी-वडिंसय-धरा सुय-बरहिणमयणसाल - कोइल-कोभगक-भिंगारग-कोंडलग-जीवंजीवग-णंदीमुह-कविल-पिंगलक्खग-कारंड-चकवाय-कलहंस-सारसअणेग-सउणगण-मिहुण-विरइय-सदृदुण्णइय - महुर - सर-णाइया 'णिञ्च-कुसुमिय-मऊरिय-पल्लविय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय-जमलिय-जुवलियविणमिय-पणमिय-सुविभत्त-पिंड-मंजरी-वडिंसय-धरा' नित्यं-कुसुमित-मयूरित–पल्लवित-स्तवकित – गुल्मित-गुच्छित-यमलित-युगलित-विनमित-प्रणमित-सुविभक्त-- पिण्ड-मञ्जर्यवतंसकधराः, अत्र-कुसुमितादि-प्रणमितान्तं प्रतिपदं पूर्व व्याख्यातम् , कुसुमितादयः प्रणमितान्ता ये पादपास्ते कीदृशा इत्याह-सुविभत्त इत्यादि, सुविभक्ताःपृथक्-पृथक् स्थिताः पिण्डाः पिण्डीभूताः-धनीभूता या मञ्जर्यस्ता एवाऽवतंसकाःशिरोभूषणभूता इव तासां धराः-धारका इत्यर्थः । । पुनस्ते पादपाः कीदृशाः? इस्याह-'सुय-बरहिण-मयणसालकोइल-फोभगक-भिंगारग-कोडलग- जीवंजीवग-णंदीमुह-कविल–पिंगलक्खगकारंड-चकवाय-कलहंस-सारस-अणेग-सउणगण-मिहुण-विरइ य-सदुण्णइयमहुर-सर-णाइया' शुक-बर्हि मदनशाला-कोकिल कोभगक-भृङ्गारक-कोण्डलक-जीवञ्जीवकनन्दीमुख-कपिल-पिङ्गलाक्षक-कारण्ड-चक्रवाक-कलहंस सारसाऽनेक-शकुनगण-मिथुन -विरचितमिय-मऊरिय-पल्लविय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय-जमलिय-जुबलिय-विणमिय–पणमिय सुविभत्त-पिंड-मंजरी-वडिंसय-धरा ] इस प्रकार ये सब के सब कुसुमित, मयूरित, पल्लवित, स्तबकित, गुल्मित, गुच्छित, यमलित, विनमित, युगलित और प्रणमित वृक्ष, पृथक् पृथक् घनीभूत मंजरीरूप शिरोभूषणों से सदा युक्त बने हुए थे । (सुय-बरहिण-मयणसाल-कोइल-कोभगकभिंगारग-कोंडलग-जीबंजीवग-गंदीमुह-कविल-पिंगलक्खग-कारंड-चकवाय-कलहंससा रस-अणेग-सउणगण-मिहुण-विरइय-सद्दुण्णइय-महुर-सर-गाइया) ये वृक्ष शुक-तोता पल्लविय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय-जमलिय-जुवलिय-विगमिय-पणमिय-सुविभत्त-पिंड-मंजरी-वडिंसय-धरा) मा प्रारे ते तमामे तमाम वृक्षा सुभित, भयूरित, सवित. સ્તબકિત, સુમિત, ગુછિત, યમલિત, યુગલિત, વિનમિત અને પ્રકૃમિત થઈ gi नुहां घाटi भ ३५ शिरोभूषण।थी सहा युटत अनेसा तi. (सुय-बरहिण-मयणसाल-कोइल-कोभगक-भिंगारग-कोंडलग-जीवंजीवग-गंदीमुह-कविल-पिंगलक्खग-कारंड-चक्कवाय-कलहंस-सारस-अणेग-सणगण मिहुण--विरइय-सदुण्णइय-महुर-सर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका स्र. ४ वृक्षवर्णनम्. सुरम्मा संविडिय -दरिय भमर-महुयरि-पहकर परिलिंत-मत्तछप्पयकुसुमासव-लोल - महुर-गुमगुमंत-गुंजंत-देसभाया अभितर पुप्फ शब्दोत्रत - मधुर स्वरनादिताः । तत्र - शुकाः = प्र [: = प्रसिद्धाः, बर्हिणः = मयूराः, मदनशालाः - सारिकाविशेषाः 'मैना' इति प्रसिद्धाः, कोकिलाः–प्रसिद्धाः, कोभगकाः-पक्षिविशेषाः, भृङ्गारकाः--पक्षिविशेषाः, कोण्डलकाः - पक्षिविशेषाः, जीवञ्जीवकाः - चकोरपक्षिणः, नन्दीमुखाःपक्षिविशेषा, कपिलाः=पक्षिविशेषाः, पिङ्गलाक्षकाः - पक्षिविशेषाः, कारण्डकाः - पक्षिविशेषाः, चक्रवाकाः -- चक्रवा इति प्रसिद्धाः कलहंसाः, सारसा:- प्रसिद्धाः, शुकादिसारसान्ता येऽनेके पक्षिगगास्तेषां मिथुनानि स्त्रीपुंसयुग्मानि, तैर्विरचिताः = कृताः शब्दोन्नता उन्नतशब्दाः–दीर्धशब्दाः मधुरस्वरास्तैर्नादिताः - विविधपक्षिकृतमधुरध्वनियुक्ताः पादपा इत्यर्थः, 'सुरम्मा' सुरम्याः - अतीव रमगीयाः । ' संपिंडिय-दरिय- भमर-महुयरि-पहकर परिलिंतमत्तछप्पय कुसुमासव-लोल - महुर - गुम गुमंत-गुंजंत-देसभाया ' सम्पिण्डित - दृप्त-भ्रमरमधुकरं -प्रकर-परिमिलन्मत्तषट्पद-कुसुमासव-लोल-मधुर-गुमगुमेति-गुञ्जद्देशभागाः, तत्र - सम्पण्डिताः परस्परसंमिलिताः, दृप्तानां मदमत्तानां भ्रमराणां मधुकरी गां भ्रमरीगां प्रकराः = समूहास्तैः प्रकरैः परिमिलन्तो ये मत्तषट्पदाः, त एव पुनः कुसुमाssसवलोलाश्च पुष्परसाऽऽस्वादबर्हिण - मयूर, मदनशाल - मैना, कोकिल- कोयल, कोभगक-पक्षिविशेष, भृङ्गारक-पक्षिविशेष, कोंडलक- पक्षिविशेष, जीवंजीव - चकोर, नंदीमुख - पक्षिविशेष, कपिल - तीतर, पिंगलाक्षक - बटेर, कारण्ड, चक्रवाक - चकवा. कलहंस - वतक, सारस - इत्यादि अनेक पक्षियोंके जोड़ों की उन्नत एवं मधुरस्वरवाली ध्वनियों युक्त थे । [ सुरम्मा ) इस - लिये बडे ही आनंदप्रद थे, देखनेवाली को बहुत ही सुहावने लगते थे । ( संपिंडियदरिय- भमर - महुयरि-पहकर - परिलित - मत्त छप्पय - कुसुमासव - लोल - महुर -- गुमगुमंत - गुंजंत - देसभाया ) मद से उन्मत्त भ्रमर और भ्रमरियों के समुदाय जो पुष्पों के रस के पन से उन्मत्त बने हुए थे. अथवा पुष्पों के रस को पान करने के लिये णाइया) वृक्षो पोपट, मर्हिणु-भयर, भहनशास - भेना, अडिस - अया, अलगपक्षिविशेष, श्रृंगार --पक्षिविशेष, अंडा-पक्षिविशेष, लवलव-थोर, नहीभु-पक्षिविशेष, उपिा-तेतर, पिंगलाक्ष- मटेर, ४२३४, यटुवा-युवा, કલહું સ-વતક, સારસ ઇત્યાદિ અનેક પક્ષીઓનાં જોડાંની ઉન્નત તેમજ मधुर स्वरवाजी वाणीथी युक्त ॥ ( सुरम्मा ) तेथी भू मानं दृभय तां. लेनारने मडु सुंदर सागतां तां. ( संपिंडिय-दरिय-भमर-महुयरि-पहकर -परिलिंत-मत्त छप्पय-कुसुमासव-लोल - महुर-गुमगुमंत-गुंजत - देस - भाया ) भी उन्मत्त ब्रभर અને ભમરીઓના સમુદાય જે પુષ્પાના રસ પીને ઉન્મત્ત બન્યા હતા અથવા ३५ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे फला बाहिरपत्तोच्छण्णा पत्तेहि य पुप्फेहि य ओच्छन्नवलिच्छत्ता साउफला निरोयया अकंटया णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-रम्मसोहिया विचित्तसुहकेउभूया वावीपुक्खरिणीदीहियासु य सुनिलोलुपाः तेषां मधुरं यथा तथा गुमगुमेत्यव्यक्तनादानुकरणे तैर्मधुरभृङ्गसङ्गीतैर्गुञ्जन् देशभागो येषां पादपानां ते तथा । ' अभिंतरपुप्फफला' अभ्यन्तरपुष्फफलाः-अभ्यन्तरे पुष्पफलसंभृताः। 'बाहिरपत्तोच्छण्णा' बाह्यपत्रावच्छन्नाः-बहिःजातपत्रसमूहप्रच्छन्नाः । ‘पत्तेहि य' पत्रैश्च, 'पुप्फेहि य' पुष्पैश्च, 'ओच्छन्नवलिच्छते' अवच्छन्नप्रतिच्छन्नः-सर्वथाऽऽच्छादितः । 'साउफला ' स्वादुफलाः 'निरोयया' नीरोगकाः शीतविद्यदातपादिजनितोपघातरहिताः । 'अकंटया' अकण्टकाः – कण्टकरहिताः, 'णाणाविह-गुच्छ-गुल्म-मंडवग-रम्म सोहिया' नानाविध - गुच्छ-गुल्म-मण्डपकरम्य-शोभिताः नानाविधैबहुप्रकारैः गुच्छगुल्ममण्डपकैः = पुष्पस्तबक-लताप्रतानलालायित हो रहे थे, उनके 'गुमगुम' इस प्रकार के अव्यक्तनाद से गूंजते रहते थे । [ अभितरपुप्फफला ] भीतर में पुष्प एवं फल से [बाहिरपत्तोच्छण्णा] तथा बाहिर में पत्तों से ये वृक्ष व्याप्त हो रहे थे । (पत्तेहि य पुप्फेहि य ओच्छन्नवलिच्छत्ते) इसलिये देखनेवालों को ऐसा मालूम होता था कि ये पत्र और पुष्पों से ही आच्छादित हो रहे हैं । (साउफला) ये मीठे फलवाले थे, (निरोयया) नीरोग थे अर्थात् इनको न तो कभी विद्युत्पात का भय था और न कभी आतप-जनित पीडा का ही त्रास था । [ अकंटया ] कंटक-रहित थे । [णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-रम्म-सोहिया ] ये अनेक प्रकार के गुच्छगुल्मों-पुष्प स्तबकां से मंडित लताप्रतानों के निकुंजों से युक्त थे, इससे इनकी शोभा निराली પીવાને માટે ઝંખી રહેતો હતો તેના ગણગણાટના અવ્યક્ત નાદથી ગુંજીત तi (अभितरपुप्फफला) २५२न भागमा पु५ तभ०४ सथी (बाहिरपत्तोच्छण्णा) તથા બહારના ભાગમાં પાનથી આ વૃક્ષે વ્યાપ્ત બની રહેલાં હતાં. (पत्तेहि यःपुप्फेहि य ओच्छन्नवलिच्छत्ते) माथी नेनारामाने मेम. तुडतु २॥ वृक्षा पान मने पुष्पोथी। मेला २९ छ. (साउफला) से भीini उता, (निरोयया) नि॥ &di अर्थात् तमने न त ४ी विovt ५७वान लय तो मने न त तानी पीना त्रास तो. (अकंटया) ४iटा २डित उतi. (णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-रम्म-सोहिया) से मने प्रश्न शुरुछગુલ્મો-પુષ્પ સ્તવથી શોભતાં લતાપ્રતાનનાં નિકુજેથી યુક્ત હતાં. તેથી Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका मू. ४ वृक्षवर्णनम्. वेसिय-रम्म-जाल-हरया पिंडिमणीहारिमं सुगंधिं सुह-सुरभिमणहरं च महयागंधद्धणिं मुयंता णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवगविनिर्मितमण्डपैर्ये रम्याः रमणीयाः शोभिताः= शोभासंप नाश्च ते तथा । 'विचित्तसुहकेउभूया' विचित्रसुखकेतुभूताः-विचित्रसुखानां विविधसुखानां प्रागनयनरसनाहृदयप्रमोदानां केतुभूताः । 'वावी-पुक्खरिणी-दीहियासु य सुनिवेसिय-रम्मजाल-हरया' वापी-पुष्करिणी-दीर्घिकासु च सुनिवेशित-रम्थ-जाल-गृहकाः, तत्र-वापीषुचतुष्कोणरूपासु पुष्करिणीषु-गोलाकारासु कमलवतीषु वा, दीर्घिकासु आयामरूपासु 'सुनिवेसिय' सुनिवेशिताः-सुष्टुप्रकारेण रचिताः, ' रम्मजालहरया' रम्याः-सुन्दराः जालगृहाः-गवाक्षाः ‘जाली झरोखा ' इति भाषाप्रसिद्धा यैस्ते तथा । 'पिंडिमणीहारिमं 'इत्यादि, पिण्डिमनिहारिमां-शुभपुद्गलसमूहरूपेण दूरदेशगामिनीम् । 'सुगंधि' सुगन्धि-शोभनगन्धवतीम् । 'मुहसुरभिमणहरं ' शुभसुरभिमनोहरां श्रेष्ठसुगन्धमनोहारिणी हो रही थी। (विचित्तसुहकेउभूया ) विचित्र सुखों के केन्द्र बने हुए थे । (वावी-पुक्खरिणी-दीहियासु यमुनिवेसिय-रम्म-जाल-हरया) वनषण्ड में जितनी भी वापी-चारकोने वाली बावडियां एवं पुष्करिणी-गोलाकार तथा कमलनियों से युक्त बावडियां तथा दीर्घिकायें-लम्बे आकारवाली बावडियां थीं, इन सब पर वृक्षों के यथायोग्य संनिवेशसे स्थान २ पर सुन्दर जाली–झरोखे बने हए थे । अर्थात् बावड़ियों के ऊपर रहे हुए ये वृक्ष जाली–झरोखे के आकारवाले दीखते थे । इस वनखंड में कितनेक ऐसे भी वृक्ष थे जो (पिडिमणीहारिमं ) शुभ पुद्गलों के समूहरूप से दूर २ तक फैलनेवाली, (सुगंधिं ) तथा जिसमें अच्छी गन्ध आती थीतेभनी मा मनी ४ थ६ २ती उती. (विचित्तसुहकेउभूया) वियित्र सुभानु न्द्र माना गया तi (वावी-पुक्खरिणी-दीहियासु य सुनिवेसिय-रम्म-जाल-हरया) વનખંડમાં જેટલી એ વાવો-ચાર ખૂણાવાળી વાવડિઓ તેમજ પુષ્કરિણી–ગોલાકાર તથા કમલિનીએથી યુક્ત વાવડિઓ તથા દીધિકા-લાંબા આકારવાળી વાવડિઓ હતી. એ બધી ઉપર વૃક્ષોના યથાયોગ્ય સંનિવેશથી ઠેકઠેકાણે સુંદર જાળી-ઝરોખા બનાવેલાં હતાં. અર્થાત્ વાવડિઓની ઉપર મૂકી રહેલાં એ વૃક્ષે જાળી ઝરેખાના આકારવાળાં દેખાતાં હતાં. આ વનખંડમાં કેટલાંક मेवा ५५ वृक्ष तi २ (पिंडिमणीहारिम) शुभ माना सभू७३५था ६२ ६२ सुधी ३ नारी (सुगंधिं) तथा भां सारी सुमध यावती Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ औपपातिकसूत्रे घरग-सुहसेउ-केउ-बहुला अणेग-रह-जाण-जुग्ग-सिविय - परिमो 'महयागंधद्धणि' महागन्धध्राणिम् गन्ध एव प्राणिः अर्थात्-गन्धतृप्तिः, महती चासौ गन्धध्राणिस्तां ' मुयंता' मुञ्चन्तः, पुनः कीदृशा वृक्षाः ? अत्राह-'णागाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरग-सुहसेउ केउ-बहुला' नानाविध-गुच्छ-गुल्म - मण्डपक-गृहक-सुखसेतु-केतु-बहुला:नानाविधगुच्छगुल्मानां मण्डपकाः, गृहकाः सुग्वाः सुखकारकाः सेतवः मार्गाःकेतवश्व पताकाः बहुलाः प्रचुरा येषु ते तथा, 'अणेग-रह-जाग-जुग्ग-सिविय-परिमोयणा' अनेकरथ-जान-युग्य-शिबिका-प्रविमोचनाः, अनेके रथाः,थानानि अश्वादीनि, युग्थानि शकटादीनि, शिबिकाः-पुरुषवाह्ययानविशेषाः-'पालखी' इति प्रसिद्धाः, तासां रथादिशिबिकान्तानां परिमोचनं-स्थापनं यत्र' तादृशाः, क्रीडाद्यर्थमागतानां जनानां रथादयस्तत्र तिष्ठन्तीति भावः । 'सुरम्मा' सुरम्याः-अतिशयरमणीयाः । 'पासाईया' प्रसादीयाःहृदयप्रसादकारकाः, 'दरिसणिज्जा' दर्शनीयाः-द्रष्टुं थोग्याः, 'अभिरूवा' सुगंधी से जो मंडित थी, और इसीलिए ( सुहसुरभिमणहरं ) जो अपनी इस शुभसुरभिसे मन को आनंदित करती थी ऐसी (महयागंधद्धणिं) विशिष्ट गंधध्राणिसुगंध की परम्परा को(मुंयता) छोडतेथे। (णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरग-सुहसेउकेउ-बहुला ) इस प्रकार ये वृक्ष गुच्छों और गुल्मों से बने हुए अनेक मंडप, धर, सुन्दर मार्ग और पातकाओं से सदा सुशोभित थे ( अणेग-रह-जाण-जुग्ग-सिबियपरिमोयणा) इनके नीचे वनक्रीडा के निमित्त आये हुए व्यक्तियों के अनेक रथ, यान, युग्य-तांगा-वगैरह, पालखी आदि सवारियों के साधन रखे जाते थे (मुरम्मा, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरूबा, पडिरूबा, ) इसलिये ये वृक्ष बडे ही सुरम्य, हती. सुजयथार मरेली ती मने तेथी ? (सुहसुरभिमणहरं) २ पोतानी ॥ शुम सुवासथी भनने मान हित ४२ती ती मेवी (महयागंधद्धर्णि) विशिष्ट प्राणि-सुधनी ५२ पराने ( मुयंता ) छ। उता. (गाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरग-सुहसेउ-केउ-बहुला ) से प्रारे से वृक्षा ગુચ્છ અને ગુલ્મથી બનેલાં અનેક મંડપ, ઘર, સુંદર માર્ગ અને પતાકાઓથી सहा सुशालित २i Sai. (अणेग-रह-जाण-जुग्ग-सिबिय-परिमोयणा) मेमनी નીચે વનક્રીડાને નિમિત્તે આવેલી વ્યક્તિઓના અનેક રથયાન, બગી, ટાંગા पोरे, पासी माह सवारियाना साधन वामां आवतi di. (सुरम्मा, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरुवा, पडिरूवा) थी ते वृक्ष हुन् सुरभ्य, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ५ अशोकवृक्षवर्णनम् ३९ या सुरम्मा पासाईया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरुवा ||सु०४|| मूलम् - तस्स णं वगलंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एक्के असोगवरपायचे पण्णत्ते, कुस-विकुस-विसुद्ध रुक्खमूले अभिरूपाः – सुन्दरा कृतिमन्तः, ' पडिरूमा ' प्रतिरूपाः – अभिमतरूपवन्तः सकलजनचिताकर्षका वनपण्डस्य वृक्षाः सन्तीत्यर्थः ॥ | सू० ४ ॥ टीका- अशोकवृक्षवर्णनमाह - ' तस्स णं वणसंडस्स ' इत्यादि । तस्य 6 खलु 'बहुमज्झदेशभाए ' बहुमध्यदेशभागे - सर्वथा 6 महान् बनषण्डस्थ-पूर्ववर्णितवनपण्डस्थ मध्यभागे इत्यर्थः, एत्थ णं खलु - वनषण्डमध्यप्रदेशे महं ' अतिशय समुन्नतः 'एक्के ' एकः प्रधानः असोगवरपायवे ' अशोकवरपादपः- अशोक - नामकः श्रेष्ठवृक्षः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः,—कीदृश: स: : इत्याह 'कुस विकुस विमुद्धरुक्खमूले' कुश - विकुश - विशुद्धवृक्षमूल:- कुरा दर्भाः, विकुश : कुशभिन्नास्तत्सदृशास्तृगविशेषा एव, तैर्विशुद्धविरहितं—तृणवर्जितमित्यर्थः, बृक्षमूलं क्षाऽधःस्थलं यस्य अशोकपादपस्य स तथा । पुनः कीदृश: स: : अत्राऽऽह-'मूलमंते' मूलवान्, 'कंदमंते' कन्दवान् 'जाव' यावच्छब्दात्– हृदय - आह्लादक, दर्शनीय, सुन्दर आकृति से युक्त एवं यथेच्छरूपविशिष्ट प्रतिभासित होते थे || सू० ४ ॥ 4 ' तस्स णं वणसंडस्स० ' इत्यादि [ तस्स णं संस्स बहुमज्झदेसभाए ] इस वनखंड के ठीक बीचोबीच वाले प्रदेश में ( एत्थ णं ) इसके सिवाय अन्यत्र नहीं ( महं एके असोगवारपायवे पत्ते ) एक विस्तृत अशोक नामका श्रेष्ठ वृक्ष था । ( कुस - विकुस - विशुद्धरुक्खमूले) इसका अधोभाग कुश एवं कुश - जैसे अन्य तृणादिकों से रहित था । (मूलमंते હૃદયાહાલક, દશનીય, સુંદર આકૃતિથી યુક્ત તેમજ યથેચ્છરૂપવિશિષ્ટ लासतां हृतां. (सू. ४) तस्स णं वणसंडस्स इत्याहि. (तस्स णं वणसंडस बहुमज्झते सभाए ) मा वन उना अरामर वस्योवस्थना लागभां (एत्थ णं) तेना सिवाय मीने नहि (महं एक्के असोगवरपायवे पण्णत्ते) शेठ विशाल अशोउ नामनु श्रेष्ठ वृक्ष हुतु. ( कुस - विकुस - विसुद्ध - रुक्खमूले) તેની નીચેના ભાગ કુશ તેમજ કુશ જેવાં અન્ય તૃણાદિકાથી રહિત હતા. (मूलमंते कंदमंते जाव परिमोयणे) वृक्षाना विषय वर्जुन थोथा सूत्रभां Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सू मूलमंते कंदमंते जाव परिमोयणे सुरम्मे पासाईए दरिसणिजे अभिरू पडिवे ॥ सू. ५ ॥ ४० मूलम् - सेणं असोगवरपायवे अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिं बउलेहिंलउएहिं छत्तावेहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवण्णेहिं लोद्धेहिं स्कन्ध-त्वक्— शाला- प्रबाल - पत्र - पुष्प - फल - बीजानामपि ग्रहणम्, ' परिमोयणे ' परिमोचन: - अनेकरथादिवाहनानां परिमोचनं स्थापनं यत्र स तथा, क्रीडाद्यर्थमागतानां जनानां रथादयस्तत्र तिष्ठन्तीति भावः । " सुरम्मे' सुरम्यः - अतिशय - रमणीयः । 'पासाईए' प्रासादीयः - प्रसादाय हितः प्रसादोयः स एव मनः प्रसन्नताहेतुभूतः 'दरिस णिज्जे ' दर्शनीयः - द्रष्टुं योग्य: । ' अभिरूवे ' अभिरूपः - अभिमतं रूपं यस्य स तथा । 'पडिरूवे' प्रतिरूपः - प्रति - विशिष्टम् - असाधारणं रूपं यस्य स तथा || सू०५ ॥ टीका- -' से णं असोगवरपायवे ' इत्यादि । स खल्वशोकवरपादपः= पूर्ववर्जितः अशोकनामकः वृक्षः, अन्यैः बहुभिःबहुविधैर्वृक्षैर्वेष्टितः तथाहि 'तिलए हिं' कंदमंते जाव परिमोयणे ) जो वृक्षों के विषयका वर्णन चतुर्थ सूत्रमें आया है, उस समस्त वर्णन से यह युक्त था । इसलिये यह भी [ सुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरू पडिवे) सुरम्य, चित्ताह्लादक, दर्शनीय, अभिरूप एवं विशिष्ट आसाधारण शोभा - संपन्न था ॥ सू. ५ ॥ 'से णं असोगवरपायवे० ' इत्यादि ( सेणं असोगवरपायवे ) यह सुन्दर अशोक वृक्ष ( अण्णेहिं बहूहिं ) अन्य अनेक प्रकारके वृक्षों से परिवेष्टित था, उनमें से कितनेक वृक्षोंके नाम ये हैं( तिलएहिं बउलेहिं ) तिलक, बकुल ( लउएहिं छत्तोवेहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं કરવામાં આવેલું છે એ સમસ્ત વર્ણનથી તે યુક્ત હતુ. તેથી તે પશુ (सुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे) सुरभ्य, ચિત્તાäાદક, દર્શનીય, અભિરૂપ તેમજ વિશિષ્ટ અસાધારણ શાભા–સંપન્ન હતું. (સૂ. ૫) ' से णं असोगवरपायवे ' इत्यादि. ( से णं असोगवरपायवे ) या सुंदर अशी वृक्ष ( अण्णेहिं बहूहिं ) अन्य અનેક પ્રકારનાં વૃક્ષાથી વીંટળાએલું હતું. તેમાંથી કેટલાંક વૃક્ષોનાં નામ या प्रमाणे छे. (तिलएहिं बउलेहिं ) तिसङ, महुस ( लउएहिं छत्तोवेहिं सिरीसेहिं Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका. सू. ६ अशोकवृक्षवर्णनम्. धवेहिं चंदणेहिं अज्जुणेहिं णीवेहिं कुडएहिं कलंबेहिं सव्वेहिं फणसेहिं दाडिमेहिं सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पियएहिं पियंगृहिं पुरोवगेहिं रायस्वखेहिं नंदिरक्खेहिं सव्वओ समंता संपक्खिते ॥ सू०६ ॥ ४१ तिलकैः 'बउलेहिं' बकुलैः 'लउएहिं' लकुचैः विहारादिदेशेषु (बडहर) इति ख्यातै:'छत्तोवेहिं' छत्रोपै – र्वृक्षविशेषैः । 'सिरी से हिं' शिरीषैः प्रसिद्धैः पुष्पवृक्षैः । 'सत्तवण्णेहिं' सप्तपर्णैः, 'दहिवण्णेहिं' दधिवर्णैः-- वृक्षविशेषैः । 'लोद्धेहिं' लोधैः श्वेतरक्तकुयुमयुक्तैर्वृक्षविशेषैः । 'धवेहिं' धवैः प्रसिद्धैः । 'चंदणेहिं' चन्दनैः 'अज्जुणेहिं' अर्जुनैः–वृक्षविशेषैः । 'णीवेहिं' नीपैः=कदम्बैः । 'कुड एहिं ' - कुटजैः - गगनमल्लिकापर्यायैः । 'कलंबे हिं' कदम्बैः । ‘सव्वेहिं’ सव्यैः–त्वक्प्रदैर्वृक्षविशेषैः । 'फणसेहिं' पनतैः । ‘दाडिमेहिं' दाडिमैः । सालेहिं' शालैः । 'तालेहिं' तालैः । ‘तमालेहिं' तमालैः । 'पिएहिं' प्रियैः 'पियंगूहिं' प्रियङ्गुभिः- वृक्षविशेषैः । 'पुरोवगेहिं' पुरोपगैर्वृक्षभेदैः । 'रायरुक्खेहिं' राजवृक्षैरश्वत्थैः । 'णंदिरुक्खेहिं' नन्दिवृक्षैः । 'सव्वओ' सर्वतः सर्वदिक्षु - 'समता' समन्तात् परितः । 'संपरिक्खित्ते ' सम्परिक्षिप्तः–सम्यक् प्रकारेण वेष्टितः । सू० ६ ॥ 66 "" दहिवण्णेहिं लोद्धेहिं धवेहिं ) लकुच, ( विहार आदि देशों में इसे बडहर कहते हैं ) छत्रोप–वृक्षविशेष, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिवर्ण, लोध्र, धव ( चंदणेहिं अज्जुणेहिं, जीवेहिं, कुडएहिं, कलंबेहिं सव्वेहिं, फणसेहिं, दाडिमेहिं ) चंदन, अर्जुन, नीप, कुटज, कदम्ब, सभ्य, पनस, दाडिम-अनार के वृक्ष, ( सालेहिं तालेहिं तमाले हिं पिएहिं पियंगूहिं पुरोवगेहिं रायरुक्खेहिं नंदिरुक्खेहिं ) शाल, ताल, तमाल, प्रिय, प्रियंगु, पुरोपग, पीपल और नंदिवृक्ष; इन वृक्षों से यह अशोक वृक्ष ( सव्वओ सत्तवण्णेहिं दहिवण्णेहिं, लोद्धेहिं धवेहिं ) समुन्य, ( मिहार आदि देशोभां तेने मडडुर उडे छे ) छत्रीय - वृक्षविशेष, शिरीष, सप्तपर्णा, द्वधिवणु, बोध, धव, (चंदणेहिं, अज्जुणेहिं', णीवेहि, कुडएहि, कलंबेहिं, सव्वेहिं, फणसेहिं, दाडिमेहिं ) यहन, अर्जुन, नीच, डुटन, उहभ्ञ, सव्य, पनस, हाउभ--अनारनां वृक्ष, (सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पिएहिं पियंगूहिं, पुरोवगेहिं राजरुक्खेहिं नंदिरुक्खेहिं ) शास, तास, तभाव, प्रिय, प्रियंगु, युरोपण, पीपल भने नहिवृक्ष, मे वृक्षोथी ते अशोङ वृक्ष ( सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते ) सर्व हिशाओमां यारे Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमत्रे मूलम्-ते णं तिलया बउला लउया जाव णंदिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमतो एएसिं वण्णओ भाणियव्वो जाव सिबियपडिमोयणा सुरम्मा पासाईया टीका-तस्य पूर्ववर्णितस्याऽशोकवृक्षस्य परिवेष्टकाः तिलकाः पूर्ववर्णिताऽशोकवृक्षवद् वर्णनीयाः, तथा बकुलाः लकुचाः यावत्-शब्दस्योपादानात् नन्दिवृक्षेभ्यः पूर्वववर्तिनः छत्रोपशिरीषसप्तपर्णादयो राजवृक्षान्ताः सर्वे वृक्षा ग्राह्याः, नन्दिवृक्षाः, एते वृक्षाः कीदृशाः ? इत्याह-'कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला' कुश-विकुश विशुद्भवृक्षमूलादर्भादितणापनयनात् निर्मलतरुतलाः, एतेषां पदानां 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनम् , 'भाणियबो' भणितव्यः चतुर्थसूत्रवत् कथनीय इति यावत् , 'जाव' यावत् 'सिबियपरिमोयणा' शिबिकापरिमोचना:-रथादिशिबिकान्त-वाहनानां परिमोचनं स्थापनं यत्र समंता संपरिक्खित्ते) सब दिशाओं में चारों ओर से अच्छी तरह घिरा हुआ था ॥ सू. ६॥ ते णं तिलया बउला' इत्यादि, __ (ते णं तिलया बउला लउया जाव) यह सब तिलकबकुल लकुचवृक्ष से लगाकर नंदिवृक्ष-पर्यन्त-वृक्षसमूह (कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला) अपने २ नीचे भाग में कुस एवं अन्य कुस जैसी घास आदि से रहित था (मूलमंतो कंदमंतो एएसि वण्णओ भाणियबो जाव सिबियपरिमोयणा) पहिले ४ चतुर्थसूत्र में जो “ मूलमंत कंदमंत” इत्यादि पद वृक्षों के वर्णन करने में कहे गये हैं उन सभी पदों का अध्याहार इन वृक्षोंके वर्णन करने में भी कर लेना चाहिये। उन वृक्षों के नीचे माथी सारी रात घराये तु. (सू. ६) 'ते णं तिलया बउला' त्याह, (ते ण तिलया बउला लउया जाव) मा मधे। तिस सयवृक्षथी भांडीने नहिवृक्ष सुधीना वृक्षसभूड (कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला) पातपाताना नीयनामागमा अस तभ०४ मीन असां घास माहिथी २डित हुतi. (मूलमंतो कंदमंतो एएसिं वण्णओ भाणियव्वो जाव सिबियपरिमोयणा) याथा सूत्रमा મૂલમંત કંદમંત” ઈત્યાદિ વૃક્ષોનાં વર્ણન કરવામાં જે પદે કહેલાં છે તે બધાં પદને અધ્યાહાર આ વૃક્ષના વર્ણનમાં પણ કરી લેવું જોઈએ. તે વૃક્ષેની નીચે જે પ્રકારે રથી માંડીને શિબિકા (પાલખી) સુધીનાં Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टोका न. ७ तिलकादिवृक्षवर्णनम्. दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा ॥ सू० ७ ॥ मूलम् - ते णं तिलया जाव णंदिरुक्खा अण्णेहिं बहूहिं परमलयाहिं णागलयाहिं असोगलयाहिं चंपगलयाहिं ते तथा, क्रीडाद्यर्थमागतानां जनानां रथादयस्तत्र तिष्ठन्तीति भावः । 'सुरम्मा' सुरम्याः-अतीवरमणीयाः । ' पासाईया' प्रासादीयाः - हृदयोल्लासकाः, 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया: - द्रष्टुं योग्या 'अभिरुवा' अभिरूपा:- अभिमतसुन्दराकृतिमन्तः । 'पडिवा' प्रतिरूपाः-असाधारणसौन्दर्यवन्तः ॥ सू० ७ ॥ वक्तव्योऽर्थः—यथाऽशोकवरपादपो ४३ टीका — अयमंत्र बहुविधैस्तिलकादिवृक्षैः परितो वेष्टितः, तथैव ते वेष्टकवृक्षा अपि अन्याभिर्वक्ष्यमाणाभिः बहुविधाभिताभिः परिवेष्टिता अभूवन् । कास्ताः परिवेष्टनसाधनीभूता लता इत्यत्राह - ' ते णं ' ते खलु अशोकवरपादपस्य परिवेष्टकाः 'तिलया जाव णंदिरुक्खा' तिलका यावन्नन्दिवृक्षाः पञ्चविंशतिजातीया इत्यर्थः, ते पुनः कीदृशाः ? इत्याह- ' अण्णेहिं बहूहिं ' अन्याभिर्बह्वीभिः— जिस प्रकार रथों से लेकर शिबिकापर्यन्त के वाहन रखे जाते थे वैसे ही ये सब वाहन इन वृक्षों के भो अधोभाग में रखे हुए रहते थे । ( सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा ) ये वृक्ष भी सुरम्य, प्रासादीय, दर्शनीय, अमिरूप एवं प्रतिरूप - असाधारण सौन्दर्यवाले थे ॥ सू. ७ ॥ ' ते णं तिलया जाव ' इत्यादि, जिस प्रकार अशोक वृक्ष अनेक प्रकारके तिलकादिक वृक्षों से चारों ओर से घिरा हुआ था उसी प्रकार ये तिलकवृक्ष से लेकर नंदिवृक्षतकके समस्त अशोकवृक्षको परिवेष्टित करनेवाले वृक्ष भी ( अण्णेहिं बहूहिं पउमलयाहिं ) अन्य अनेक વાહન રાખવામાં આવતાં હતાં, તે જ પ્રકારે તે બધા આ વૃક્ષની નીચે पाशु राभवामां भावतां तां. ( सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडरूवा ) मे वृक्षो पशु सुरभ्य, प्रसाहीय, हर्शनीय, अलि३ तेभन प्रतिय-असाधारण सौन्दर्य वाणां तां. ( सू. ७) इत्यादि, ' ते णं तिलया जाव' જે પ્રકારે અશાક વૃક્ષ અનેક પ્રકારનાં તિલકાદિક બ્રહ્માથી ચારે બાજૂથી ઘેરાએલુ` હતુ` તે જ પ્રકારે આ તિલક વૃક્ષથી માંડીને નંદિવૃક્ષ સુધીનાં સમસ્ત વૃક્ષો दे ने यशोऽ वृक्षने वीं टगाई गयेसां तां ते प ( अण्णेहिं, बहूहिं पउमलयाहिं ) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ औपपातिकसूत्रे चूयलयाहि वणलयाहि वासंतियलयाहिं अइमुत्तयलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता ॥ सू. ८॥ ___मूलम्-ताओ णं पउमलयाओ णिचं कुसुमियाओ बहुविधाभिः । 'पउमलयाहिं' पद्मलताभिः । ‘णागलयाहिं'–नागलताभिः । 'असोगलयाहिं' अशोकलताभिः । चंपगलयाहिं ' चम्पकलताभिः, 'चूयलयाहिं' आम्रलताभिः, 'वणलयाहिं' वनलताभिः, 'वासंतियलयाहिं' वासन्तिकलताभिः, 'अइमुत्तयलयाहिं' अतिमुक्तक लताभिः 'कुंदलयाहिं' कुन्दलताभिः। 'सामलयाहिं' श्यामलताभिः, इमाभिर्दशजातीयाभिलताभिः, 'सब्बओ समंता संपरिक्खित्ता' सर्वतः समन्तात्सम्परिक्षिप्ताः-सर्वदिक्षु परितः सम्यक् परिवेष्टिताः ॥ सू० ८॥ 'ताओ णं पउमलयाओ' ताः खलु पद्मलताः-याभिस्तिलकादिनन्दिवृक्षान्ता वृक्षाः परितो वेष्टिताः ता लताः कीदृश्यः ? अत्राह- णिचं कुसुमियाओ' नित्यं प्रकारकी पद्मलताओं से (णागलयाहिं ) नागलताओं से, (चंपगलयाहिं ) चंपकलताओं से, (चूयलयाहिं) आम्र–लताओं से, (वणलयाहिं) वनलताओं से (वासंतियलयाहिं ) वासंतीलताओं से, (अइमुत्तयलयाहिं ) अतिमुक्तलताओं से (कुंदलयाहिं) कुन्दलताओं से और (सामलयाहिं) श्यामलताओं से (सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता) समस्त दिशाओंमें चारों ओर से घिरे हुए थे ॥ सू. ८॥ 'ताओ णं पउमलयाओ' इत्यादि, ये पद्मलता आदि लताएँ कि जिनसे तिलकसे प्रारंभकर नंदिवृक्ष तकके समस्तवृक्ष परिवेष्टित बने हुए थे, वे (णिचं कुसुमियाओ) नित्य प्रफुल्लित पुष्पों से मी मने प्र४२नी पसतासाथी ( णागलयाहिं ) साथी ( चंपगलयाहिं ) तामाथी ( चूयलयाहिं) याप्रदातामाथी (वणलयाहिं ) वनसाथी ( वासंतियलयाहिं ) वासंतीसतायोथी ( अइमुत्तयलयाहिं) मति भुत सतामाथी (कुंदलयाहिं ) सतामाथी मने ( सामलयाहि ) श्यामसतासाथी ( सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता ) समस्त हिशामामा थारे तथी धेशयेतां तi. (सू. ८) " ताओ ण पउमलयाओ" त्याहि, આ પઘલતા આદિ લતાઓ કે જેનાવડે તિલકથી માંડીને નંદિવૃક્ષ सुधीनां समस्त वृक्षो वीरगामे तi ते ( णिच्चं कुसुमियाओ) नित्य Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ९ पद्मलतादिवर्णनम्. ४५ जाव वडिंसयधराओ पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ ॥ सू. ९॥ __ मूलम्-तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्टा ईसिं कुसुमिताः सदासञ्जातपुष्पाः । 'जाव वडिंसयधराओ' यावदवतंसकधराः-शिरोभूषणभूषिता इव दृश्यमानाः, यावच्छब्दोपादानात्-'मऊरियलवइयथवइयगुलइय०' इत्यादि द्रष्टव्यम् , मयूरितपल्लवितस्तबकितगुल्मितादीनि विशेषणानि लतास्वपि संयोज्यानि, अतएव तादृश्यो लताः-'पासाईयाओ' प्रासादीयाः-चित्तप्रसन्नताकारिण्यः। 'दरिसणिज्जाओ' दर्शनीयाः-द्रष्टुं योग्याः । 'अभिरूबाओ' अभिरूपाः,-अभिमत-रूपवत्यः 'पडिरूवाओ' प्रतिरूपाः-प्रतिविशिष्टरूपवत्यः ॥ ९॥ टीका-' तस्स णं असोगवरपायवस्स' इत्यादि । तस्य अशोकवरपादपस्य 'ईसिं खंधसमल्लीणे' ईषत् स्कन्धर्वलीन:-वृक्षस्कन्धसमीपवर्ती यः 'हेट्ठा' अशोकयुक्त थीं। (जाव वडिंसयधराओ ) अतएव ऐसी ज्ञात होती थीं कि मानों इन्होंने शिरोभूषण ही धारण कर रक्खा है । यहां यावत्' शब्द से " मयूरित-पल्लवित-स्तवकित-गुल्मित" इत्यादि विशेषगोंका ग्रहण हुआ है। अतएव ये उताएँ भी (पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ) देखने वालोके चित्तको प्रसन्न करनेवाली. देखने योग्य, अभिरूप एवं असाधारण शोभा से युक्त थीं ॥ सू. ९ ॥ 'तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा' इत्यादि, (तस्स णं असोगवरपायवस्स हेद्वा) उस उत्तम अशोकवृक्षके नीचे (ईसिं खंधसमल्लीण) स्कन्ध (पेड) से कुछ दूरी पर ( एत्थ णं) किन्तु उसीके अधः प्रसित पाथी युत ती. (जाव वडिंसयधराओ) तेथी मेम सातुडतु કે જાણે તેઓએ શિરોભૂષણ (મુકુટ ) જ ધારણ કરેલા છે. અહીં યાવતુ २०४थी 'मयूरित पल्लवित स्तवकित गुल्मित ' त्यादि विशेषणे। दीधेला छे तेथी बतायो ५ ( पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ) नेनाરાએને ચિત્તને પ્રસન્ન કરવાવાળી, વાયેગ્ય, અભિરૂપ, તેમજ અસાધારણ मायुत ती. (सू. ८) ___ " तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा" त्याहि, - ( तस्स णं असोगवरपायवस्स हेवा) ते उत्तम अशी वृक्षनी नाय (ईसिं खंध-समल्लीणे ) २४.५ (वृक्ष) थी १२॥ ६२ ( एत्थ णं) ५ तेना नीयन। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ औपपातिक हर • " खंधसमलणे एत्थ णं महं एक्के पुढविसिलापट्टए पण्णत्ते विक्खंभायामउस्सेहसुप्पमाणे किण्हे अंजण-घण - किवाण- कुवलय-हल- कोसेज्जा - गास - केस - कज्जलंगी खंजण-सिंगभेद - रिट्ठय- जंबूफलवृक्षस्य अधः प्रदेशः, आसीदिति शेषः ' एत्थ णं महं एके पुढ विसिलापट्टए पण्णत्ते ' अत्र-अस्मिन्-अधः प्रदेशे 'महं' महान् एके ' एकः 'पुढविसिलापट्टए ' पृथ्वी शिलापट्टकः- पृथ्वीशिलापीठ इत्यर्थः । ' पण्णत्ते ' प्रज्ञतः कथितः । स पृथ्वीशिलापीठः कीदृशः ? इत्याऽऽह-'विक्खंभा - याम - उस्सेह - सुप्पमाणे ' विष्कम्भाss-यामो- त्सेध- सुप्रमाणः, विष्कम्भः– पृथुत्वं—परितो विशालत्वम् । 'आयामो' दीर्घत्वम् । 'उत्सेधः' - उच्चत्वम् । एतैर्विष्कम्भाssयामोत्सेधैः सु-सुष्टुप्रमाणं यस्य स विष्कम्भाssयामोत्सेधसुप्रमाणः कस्यापि प्रमेयस्य त्रिधा परिमाणं भवति; तेषु विष्कम्भः पृथुत्वं - स्थूलत्वं, आयामो दैर्घ्यम्, उत्सेध उच्चैस्त्वम्, एतैखिभिः प्रमाणैः सुष्ठु युक्तः नातिन्यूननात्यधिकप्रमाणयुक्त इति भावः । तथा - ' - 'किन्हे ' कृष्णः - कृष्णवर्णः नील इति यावत् । कीदृशः अत्राह - ' अंजणघण- किवाण - कुवलय- हलहर कोसेज्जा - गास - केस - कज्जलंगी खंजण- सिंगभेदरिदय - जंबूफल - असणग - सगबंधण - णीलुप्पलपत्तनिकर-अय सिकुसुम - पगासे अञ्जन-घन—कृपाण–कुवलय - हलधरकौशेया- काश-केश - कजलाङ्गी खञ्जन-शृङ्गभेद-रिष्टक - जम्बूफला – सनक - शणबन्धन - नीलोत्पलपत्रनिकराs - तसी - कुसुम - प्रकाशः, कृष्णः ? तत्र -अञ्जन: प्रदेश में (महं ) विशाल ( एक्के पुढविसिलापट्टए पण्णत्ते ) एक पृथिवीशिलापट्ट था । ( विक्खंभा - याम - उस्सेह - सुप्पमाणे ) यह लम्बाई, चौडाई, एवं ऊंचाई में बराबर प्रमाणवाला था, हीनाधिक- प्रमाणवाला नहीं था । ( किण्हे) वर्ण इसका कृष्ण - श्याम था । (अंजण-घण- किवाण - कुवलय- हलहरकोसेज्जा - गास - केस - कज्जलंगी खंजण- सिंगभेदरिट्ठय- जंबूफल-असणग-संणबंधण - गीलुप्पलपत्तनिकर-अय सिकुसुम-प्पगासे ) अतः इसका प्रकाश अंजनवृक्ष, घन- नीलमेघ, कृपाण - तलवार, कुवलय - नीलकमल, हलधरकौशेयआगभां (महं ) विशास ( एक्के पुढविसिला पट्टए पण्णत्ते ) थे पृथिवी शिक्षातो ( विक्खंभा - याम - उस्सेह - सुप्पमाणे ) मे संभाई होजाई तेमन याभां सरमा भाषवाणी हुतो. मोछ वधारे भायनो नहोतो. ( किण्हे ) वायु तेन पृ॒ष्णु-श्याम ( अणो ) इतो ( अंजण- घण- किवाण- कुवलय - हलहरकोसेज्जा-गास-केस-कज्जलंगी खंजण-सिंगभेद-रिट्ठय-जंबूफल- असणग-सणबंधण-णीलुप्पलपतनिकर-अयसिकुसुम - पगासे ) न्याभ तेन प्राशसां भेवा, नीसभेष, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. १० पृथ्वीशिलापट्टकवर्णनम्. ___४७ असणग-सणबंधन-णीलुप्पलपत्तनिकर-अयसिकुसुम-प्पगासे मरगयमसार-कलित्त-णयणकीय-रासिवण्णे णिद्धघणे अट्टसिरे आयअञ्जनकनामको वृक्षः । धनः-नीलजलधरः । कृपाणः-खड्गः, कुवलयं-नीलकमलम् , हलधरकौशेयं-बलभद्रकौशेयं-बलदेववस्त्रम् । आकाशं-दूरतया-नीलाऽवभासम् । केशाः-तरुणसम्बद्धा एव तेषामतिकृष्णत्वात् । कज्जलाङ्गी-कजल्लगृहं यत्र पात्रे कज्जलं स्थाप्यते, कज्जलकूपिका इति यावत्। खञ्जनः-खञ्जननामा कृष्णपक्षिविशेषः । शृङ्गभेदः-महिषशृङ्गखण्डः । रिष्टकं नीलवर्णरत्नं । जम्बूफलम्-अतिपक्वम्- जम्बू फलं नीलतमं भवति । 'असणग' असनकःबीयकाभिधानो वृक्षविशेषः । 'शण बन्धनं-शणकुसुमवृन्तम् । नीलोत्पलपत्रनिकरःनीलकमलपत्रसमूहः। अतसीकुसुमम् 'अलसीफूल' इति भाषाप्रसिद्धं पुष्पम् । अत्र-अञ्जनाधतसीक्रुसुमान्तानां प्रकाश इव प्रकाशो यस्य स तथा, अञ्जनादिसदृशश्यामवर्णवान् पृथिवीशिलापट्टक इत्यर्थः । तथा-'मरगय-मसार-कलित्त-णयणकीय-रासिवण्णे' मरकत-मसार-कटित्र-नयनकनीनिका-राशिवर्गः। तत्र मरकतः-नीलमणिः पन्ना इति भाषायाम् । मसारः-पाषाणस्य चिक्कणीकरणाथ शिलाग्यण्ड एव, अथवा-कषपट्टः-कसौटीति लोकेख्यातः, कटि-कृष्णचर्मण एव निर्मितम् । नयनकनीनिका नेत्रकनीनिका-एतेषां राशि:= पुञ्जः, तस्य वर्ण इव वर्णो यस्य स तथा, गिद्धघणे' स्निग्धधनः-सजलमेघ इव बलदेवका वस्त्र, आकाश, केश युवापुरुष के बाल, कजलाङ्गी-काजल रखने की डिबिया, खंजनपक्षी, शृंगभेद-महिष के शृंग का टुकडा, रिष्टक-नीलवर्ण का रत्न, जम्बूफलअतिशय पका हुआ जामुन, असनक-बीयक नामक वृक्षविशेष, सगबन्धन-सनके फूल का बेंट, नीलोत्पलपत्रनिकर-नीलकमल के पत्रों का समूह, और अतसीकुसुम-अलसी का पुष्प-इन सब के प्रकाश जैसा था। अर्थात् पृथिवीशिलापट्ट अञ्जन से लेकर अलसी के फूल के समान श्यामवर्ण था । [ मरगय-मसार-कलित्त-णयणकीय-रासिवण्णे ] पाण-तसा२, १सय-नासभा, धरौशेय- वनाव, ४२, शયુવાન પુરૂષનાવાળ, કજલાગી-કાજળ રાખવાની ડબ્બી, ખંજન-ખંજનપક્ષી, ગભેદ-ભેંસના શીંગના કટકા, રિબ્દકનીલવર્ણનાં રત્ન, જંબૂફલઅતિશય પાકેલ જાંબુ, અસનક-બીયક નામે વૃક્ષવિશેષ, સનબન્ધન-સનના ફૂલેને બેંટ, નીલેન્ધલપત્રનિકર-નીલ કમલનાં પાનને સમૂહ અને અતસીકુસુમ–અળસીનાં પુષ્પ એ બધાંને પ્રકાશ જે હતે. અર્થાત્ પૃથિવીશિલાપ અંજનથી માંડીને અળસીના ફૂલના જે શ્યામવર્ણને હતે. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ औपपातिकसूत्रे सयतलोवमे सुरम्मे ईहामिय-उसम-तुरग-गर-मगर-विहग-बालगकिण्णर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलय-पउमलय-भत्ति-चित्ते आईश्यामः । आकारस्तस्य कीदृश इत्याह-'अदुसिरे' अष्टशिरस्कः-अष्टकोण इत्यर्थः । 'आयंसयतलोवमे आदर्शतलोपमः-आदर्शतलस्य-दर्प तलस्योपमा यस्य स तथा। 'सुरम्ने अतीवरमणीयः। 'ईहामिय-उसभ-तुरग-नर-मगर-विहग बालग-किण्णर-रुरु-सरभ-चमरकुंजर-वणलय-पउमलय-भत्ति-चित्ते ईहामृग-वृषभ-तुरग-नर-मकर-विहग-व्यालककिन्नर-रुरु-शरभ चमर-कुञ्जर-बनलता-पमलता-भक्ति-चित्रः। तत्र-ईहामृगाः-वृकाः 'भेडिया' इति भाषाप्रसिद्धाः । वृषभाः-बलीवर्दाः, तुरगाः-अश्वाः, नराः-मनुष्याः, मकराः-ग्राहाः, विहगाः-पक्षिणः, व्यालकाः-सर्पाः, किन्नराः-व्यन्तरदेवाः, रुव:मृगाः, शरभाः-अष्टापदाः, कुञ्जराः-हस्तिनः, वनलताः-प्रसिद्धाः, पद्मलता:-कमललताः, मरकत-पन्ना, मसार-पत्थर को चिकना करने वाला पत्थर अथवा कसौटी, कटित्रकृष्णचमडे की बनी हुई वस्तुविशेष और नयनकीका नेत्र की कनीनिका-इनसब के पुंज जैसा इसका वर्ण था । (गिद्धघणे) वह सजल-मेघ के समान श्याम था । [ अट्ठसिरे ] आठ इसके कोने थे । [ आयंसयत्लोवमे ) इसका तलभाग आदर्श-काचदर्पण जैसा चमकीला था । (मुरम्मे) इससे यह देखने में विशेषकर रमणीय लगता था । (ईहामिय उसभ तुरग-नर-मगर-विहग-वालग-किण्णर रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलयपउमलय-भत्ति-चित्ते ) ईहामृग-वृक-भेडिया, वृषभ बलीवर्द,तुरग-अश्व, नर-मनुष्य, मकर-ग्राह, विहग-पक्षी, व्यालक-सर्प, किन्नर-व्यन्तरदेव, रुरु-मृग, सरभ-अष्टापद, (मरगय-मसार-कलित्त-णयणकीय-रासि-वण्णे) भ२४त-पन्ना, मसा२--पत्थरने थिए। કરવાવાળે પત્થર અથવા કસોટી, કટિત્ર–કૃષ્ણ ચામડાની બનાવેલી વસ્તુ વિશેષ અને નયનકીકા-આંખની કનીનિકા-એ બધાના પુંજ જેવો તેને વર્ણ डतो. (णिद्धघणे) ते २८ मेघना वो श्याम डतो. (अट्ठसिरे) 13 तेना भए ता. (आयसयतलोवमे) सेना तणिय माग माश---य--पर दे। यही तो. (सुरम्मे) तेथी ते नेवामा विशेष ४रीने २०७nand sतो. (ईहामिय-उसभ-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-रुरु-सरभ-चमर कुंरेजर - वणलय - 'पउमलय-भत्ति-चित्ते) घडामृग-४, वृषम- 04.08, तु२॥-4व, न२-मनुष्य, भ४२. भाड, विड-पक्षी, व्यास--सपी, सिन्नर-व्यन्त२४१, ३३-भृग, २-मटायह, ચમર, કુંજર-હાથી,વનલતા તેમજ પદ્મલતા એ બધાંનાં ચિત્રો વડે એ સુંદર Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ११ पृथ्वी शिलापट्टवर्णनम्. णग-रूय-बूर-णवणीय-तूल-फरिसे सीहासणसंठिए पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे ॥ सू. १०॥ मूलम्-तत्थ णं चंपाए णयरीए कूणिए णामंराया परिवसइ ईहामृगादिपद्मलतान्तानां भक्तयः-रचनाविशेषाश्चित्राणि, ताभिश्चित्रः सुन्दरः । 'आईणगरुय-बूर-णवणीय-तूल-फरिसे' आजिनक-रूत-बूर-नवनीत-तूल--स्पर्शः । तत्र आजिनकंचर्ममयवस्त्रम्, रूतं-मृदुकार्पासविशेषः, बूरो-वृक्षविशेषः, नवनीतम्-'मक्खन' इति प्रसिद्धम्, तूलम्-अर्कतूलम् , एतेषां स्पर्श इव स्पर्शो यस्य शिलापट्टकस्य स आजिनकरूत-बूर-नवनीत-तूल-स्पर्श:-अत्यन्तकोमल इत्यर्थः, 'सीहासणसंठिए' सिंहासनसंस्थितः सिंहासनाकारः । 'पासाईए' प्रासादीयः-हृदयहर्षकः । 'दरिसणिज' दर्शनीयः-नेत्राहलादजनकः 'अभिरूवे' अभिरूपः, 'पडिरूवे' प्रतिरूपः ॥ सू. १०॥ ___टीका—'तत्थ णं चंपाए णयरीए 'इत्यादि-तत्र खलु चम्पायां नगर्याम् , चमर, कुञ्जर हाथी, वनलता एवं पद्म-उता इन सबके चित्रों से यह सुन्दर था । ( आईणग-रुय-वर-गवणीय-तूल-फरिसे ) इसका स्पर्श आजिनक-चर्ममयवस्त्र, रूत-रुई, बूर-वृक्षविशेष, नवनीत-मक्खन और नूल–अर्कतूल इनके स्पर्श के समान था । तात्पर्य यह अत्यन्त कोमल स्पर्शवाला था। (सीहासनसंठिए ) इसका आकार सिंहासन जैसा था । [पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे ] हृदय को हर्ष देनेवाला, नेत्रोंको आह्लादित करनेवाला, एवं सुन्दर-आकृति संपन्न यह पृथिवीशिलापट्ट अपूर्व शोभासंपन्न था ।। सू० १० ॥ 'तत्थ णं चंपाए णयरीए' इत्यादि, ( तत्थ ण चंपाए णयरीए ] उस चंपानगरी में ( कूणिए णामं राया) डतो. (आईणग-रूय-बूर-णवणीय-तूल-फरिसे) तेना २५श नियम भयवर, ३- पास, भू२-वृक्षविशेष, नवनीत-भाममने तूस-1ईतूर (२॥४ानु ૩) તેના જેવો હતે. મતલબ કે તે અત્યન્ત કોમળ સ્પર્શવાળો હતે (सीहासनसंठिए) तेन मा४।२ सिंहासन को खतो. (पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे) इत्यने उप ५माउन॥२, नेत्राने मामा६४।२४ तभ०४ सुंदर આકૃતિસંપન્ન આ પૃથિવીશિલાપટ્ટ અપૂર્વ શોભાયુક્ત હતા. (સૂ. ૧૦) 'तत्थ णं चंपाए णयरीए' त्याहि, (तत्थ णं चपाए णयरीए) ते पानगरीमा (कूणिए णामं राया) इणि Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक महया - हिमवंत-महंतमलय - मंदर - महिंदसारे अञ्यंतविसुद्ध - दीह - रायकुल- वंस - सुप्पसूए निरंतरं रायलक्खण- विराइयंगपच्चंगे बहुजणबहुमाणपूइए सव्वगुणसमिद्धे खत्तिए मुइए मुद्धा' कूणिए णामं राया परिवसर' कूणिको नाम राजा परिवसति स्म, कूणिको भूपः कीदृश: ? इत्याह- ' महयाहिमवंत - महंतमलय--मंदर - महिंदसारे ' महाहिमवन्महामलयमन्दरमहेन्द्रसारः–महाहिमवन्महामलय - मन्दर - महेन्द्राणाम् एतन्नामकशैलानां सारः - शक्तिरिव सारो यस्य स तथा । ' अचंतविद्ध-दीह - रायकुल - वंस - मुप्पसूर अत्यन्तविशुद्ध–दीर्घ- राजकुल - वंश - सुप्रसूतः अत्यन्तविशुद्धौ = सर्वातिशायिनिर्मलौ दीर्थोंअतिपुरातनौ यौ राज्ञां कुलवंशौ - मातापितृवंशौ तत्र सु-सुष्ठु प्रसूतः - प्रादुर्भूतः - :- समुत्पन्न इति यावत् ; 'णिरंतरं ' निरन्तरम्, 'रायलक्खण - विराइयंगपच्चंगे ' राजलक्षणविराजिताङ्गप्रत्यङ्गः–राजलक्षणैः = सामुद्रिकशास्त्रोक्तैर्विराजितमङ्गं-हस्तादिकं , प्रत्यङ्गम् = ५० 4 स अङ्गुल्यादिकं यस्य तथा । 'बहुजण बहुमाणपूइए बहुजनबहुमानपूजितःबहुभिर्जनैर्बहुमानैरतिशयसत्कृतः, ' सव्वगुणसमिद्धे ' सर्वगुणसमृद्धः–सर्वैः–अशेषैः गुणैः = , कूणिक नाम के राजा [ परिवस ] राज्य करते थे । ( महया - हिमवंत-महंतमलयमंदर - महिंदसारे) यह महाहिमवंत पर्वत, महामन्य पर्वत, मेरु पर्वत, और महेन्द्रपर्वत के तुल्य श्रेष्ठ थे । (अच्चंतविसुद्ध दीह-रायकुल-वंस - सुप्पम् ए) अत्यंत विशुद्ध एवं अतिप्राचीन मातापिता संबंधी कुल एवं वंशमें इनका जन्म हुआ था । (णिरंतर-रायलक्खण-विराइयंगपञ्चंगे)अखंडित राजचिह्नों से इनके अंग एवं उपांग सुशोभित थे। (बहुजणबहुमाणपूइए) अनेकजनों द्वारा ये बहुमानपूर्वक सत्कृत होते रहते थे । ( सव्वगुणसमिद्धे ) अनेक नीति, दया एवं दाक्षिण्यादिक सद्गुणों से समृद्ध थे । ( मुइये ) ये सदा प्रसन्न - (महया-हिमवंत-महंत-मलय-मंदर नाभेशन (परिवसई) राज्य उरता हता. महिंद-सारे) मे भड्डाडिभवंत पर्वत, महाभलय पर्वत, भे३ पर्वत, मने महेन्द्र પતના જેમ શ્રેષ્ઠ ता. (अच्चंत विसुद्ध - दीह - रायकुल- वंस सुप्पसूए) अत्यंत વિશુદ્ધ તેમજ અતિ પ્રાચીન માતાપિતા સંબંધી કુળ તેમજ વંશમાં તેમના જન્મ थयो हतो. ( णिरंतर-राय- लक्खण-विराइयंगपञ्चंगे ) अमंडित रामथिनोथी तेमनां गतेभन उपांग सुशोभित तां. (बहुजणबहुमाण - पूइए) मने बोडीद्वारा ते बहुमान पूर्व સત્કાર પામતા હતા. ( सव्वगुणसमिद्धे ) अने नीति तेमन हाक्षिएय माहिङ सगुणोथी वधारे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ११ कूणिकवर्णनम् हिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मणुस्सिदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए नीतिदयादाक्षिण्यादिभिः समृद्धः सम्पन्नः, 'मुइये' मुदितः प्रसन्नः, अथवा 'मुइये' इति निर्दोषमातृकार्थो देशीशब्दः। उक्तं ब 'मुइये जे होइ जोणिसुद्धे' इति । निर्दोषमातृकः -निर्दोषाया मातुरपत्यं पुमान । 'खत्तिए' क्षत्रियः-शुद्धक्षत्रियगोत्रोत्पन्नः । 'मुद्धाहिसित्ते' मूर्दाभिषिक्त:-सर्वैरपि प्रत्यन्तराजैः प्रतापमसहमानैर्नान्यथाऽस्माकं गतिरिति परिभाव्य मूर्द्धभिर्मस्तकैरभिषिक्तः सम्मानितो मूभिषिक्तः । 'माउपिउसुजाए' मातापितृसुजातः- मातृभक्तः पितृनिदेशकारको विनीतश्च 'दयपत्ते' दयाप्राप्त:-निसर्गकारुणिकः । 'सीमंकरे' सीमाकरः-सीमा कुलमर्यादा, तस्याः करः कारकः । 'सीमंधरे' सीमाधरः कुलमर्यादाधारकः 'खेमंकरे क्षेमङ्करः= लब्धवस्तुपालनशीलः । 'खेमंधरे' क्षेमधर:-क्षेमस्य धारकः, लब्धस्य परिपालनं क्षेमःचित्त रहा करते थे । अथवा निर्दोष माता के ये पुत्र थे। (खत्तिए) शुद्ध क्षत्रिय गंश में ये उत्पन्न हुए थे । ( मुद्धाहिसिते ) उनके प्रबल प्रताप को सहन करने में असमर्थ हो उनके राज्य की चतुर्दिश्वर्ती सीमाओं के राजा लोग उनके चरणों में अपना शिर नमाते थे। (माउपिउसुजाए ) यह माताके भक्त एवं पिता की आज्ञा के परमपालक थे । (दयपत्ते सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे ) ये स्वभाव से दयालु थे, यह कुलमर्यादा के कारक थे, तथा उसका आराधक भी थे, लब्ध वस्तु के पालक एवं उसके धारक भी थे । अर्थात्-प्रजा-हित के योग्य . वस्तुओं को प्राप्त करते थे, और प्राप्त वस्तुओं का रक्षण करते थे, उन पर स्वयं समृद्ध ता. ( मुइये) ते सहा प्रसन्नचित्त २॥ ४२॥ ॥ PAथा निर्दोष भाताना ते पुत्र ता. (खत्तिए ] शुद्ध क्षत्रिय शभा ते उत्पन्न च्या . (मुद्धाहिसिने ) तमना अमर प्रतापने सडन ४२वामा मसमर्थ, तभना રાજ્યની ચારેબાજુની સીમાઓના રાજાલકે તેમનાં ચરણોમાં પોતાનાં शि२ नभावता उता. (माउपिउसुजाए) ते भाताना मत, तभी पितानी माज्ञान। ५२ पास al. ( दयपत्तं सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे) તેઓ સ્વભાવે દયાળુ હતા. તેઓ કુળમર્યાદાનું પાલન કરતા કારવતા અને તેને આરાધક પણ હતા. મેળવેલી વસ્તુના પાલક તેમજ તેના ઘરાક પણ હતા. અર્થાત્ પ્રજાહિતને યેગ્ય વસ્તુઓને પ્રાપ્ત કરતા હતા અને પ્રાપ્ત Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्घे पुरिसासीविसे पुरिसपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्तेविच्छिण्णतस्य कारको धारकश्चेतिभावः । 'मणुस्सिदे' मनुष्येन्द्रः-मनुष्येषु इन्द्र इव परमैश्वर्यवान् । 'जणवयपिया' जनपदपिता-जनपदस्य-जनपदवासिनां जनानां विनयशिक्षाप्रदानाद्ररक्षणात् भरणपोषण-शीलतया च पितेव-पिता। 'जणवयपाले' जनपदपाल:-जनपदवासिजीवमात्रप्रतिपालकः। 'जणवयपुरोहिए' जनपदपुरोहितःजनपदस्य जनपदवासिनां जनानां शान्तिकारितया पुरोहित इव पुरोहितः, 'सेउकरे' सेतुकरः-मार्गः सेतुः मर्यादाऽपि सेतुः, तदुभयस्य करः कर्तेति यावत् । 'केउकरे' केतुकरः चिह्नकारकः, अद्भुतकार्यकरणात् ; ‘णरपवरे' नरप्रवरः-नराः साधारणाः तेषु प्रवरः कोशसैन्यबलशालितया श्रेष्ठः, 'पुरिसवरे' पुरुषवरः-पुरुषेषु-पुरुषार्थदेख-रेख रखते थे । [ मणुस्सिदे जगवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए ] मनुष्यों में ये इन्द्र समान परमैश्वर्यशाली थे। जनपदनिवासियों को विनय संबंधी शिक्षा के दाता होने से एवं उनका अच्छी तरह से रक्षण करने से तथा भरणपोषण करने से ये देश के पिता तुल्य थे। इसीलिये ये जनपदपालक ऐसा विरुद धारण किये हुए थे। और इसीलिये ये प्रजाजन के लिये पुरोहित-सबसे पहिले हित में सावधान रहने वाले थे। [ सेउकरे ] ये उन्मार्गगामी मनुष्यों को मार्ग पर लाते थे और उन्हें मर्यादा में स्थिर करते थे। [ केउकरे ] ये अक्षत कार्यों के करने वाले थे। । णरपवरे ] ये मनुष्यों में श्रेष्ठ थे, (पुरिसवरे ) और पुरुषों में प्रधान थे। “ नर" इस शब्द से यहां साधारण १२तुमानु २क्षण ४२ता ता. तमना ५२ गते परे५ ।मता उता. (मणुस्सिंदे जणवयपिया जणवयपाले जणवयपुरोहिए ) मनुष्योम ते छन्द्र समान પરમ ઐશ્વર્યશાલી હતા. જનપદ નિવાસીઓને વિનય સંબંધી શિક્ષા દેવા વાળા હોવાથી તેમજ તેમનું સારી રીતે રક્ષણ કરવાથી તથા ભરણપોષણ કરવાથી તેઓ દેશના પિતા-તુલ્ય હતા. તે માટે જ તેઓ જનપદપાલક એવું બિરદ ધારણ કરતા હતા. અને એટલા માટે જ પ્રજાજનને માટે પુરોહિત–સર્વથી पडसा हितमा सावधान २डेवावा ता. (सेउकरे) तर जन्माणाभी मनुष्याने भार्ग ५२ उता मने तभने भर्याहामा स्थि२ ४२ता ता. (केउकरे) तय सहभुत आयो ४२ना२। उता. (णरपवरे) ते मनुष्यामा श्रेष्ठ (ता. (पुरिसवरे) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ पीयूवर्षिणी टीका. सू. ११ कूणिकवर्णनम् " चतुष्टयकारकेषु जनेषु परमार्थचिन्तकतयाऽग्रेसरः । ' पुरिससीहे ' १ पुरुषसिंहः, पुरुषः सिंह इव, सिंह इव निर्भयो बलवांथ इत्यर्थः ' पुरिसवग्वे ' पुरुषव्याघ्रः - व्याघ्रसदृशशूर इत्यर्थः ' पुरिसासी विसे ' पुरुषाशीविषः - अबन्ध्यकोपत्वाद् भुजङ्गतुल्यः । 'पुरिसपुंडरी ए' पुरुषपुण्डरीकः - पुरुषः पुण्डरीकमिव = श्वेतकमलमिव मृदुहृदयवत्त्वात्, जनानां सुखकरत्वाच्च । 'पुरिसवरगंधहत्थी' " पुरुषवरगन्धहस्ती - विपक्षपक्षमर्दकतया राजा पुरुषवरगन्धहस्ती - त्युच्यते । 'अड्ढे' आढ्यः - प्रचुरधनस्वामित्वात्, 'दित्ते' दृप्तः - दर्पवान् - शत्रुविजय कारित्वात्, स्वदेशस्वधर्माभिमतत्वाच्च । 'वित्ते ' वित्तः - प्रख्यातः, 'विच्छिण्ण - विउल-भवणसयणा - सण - जाण - वाहणाइणे' विस्तीर्ग - विपुल - भवन - शयनाss - सन - यान - वाहनाकीर्णः, मनुष्यों का ग्रहण हुआ है । उनमें श्रेष्ठ ये इसलिये थे कि ये कोश एवं सैन्यबल आदि से समृद्ध थे । पुरुष शब्द से चारों पुरुषार्थों को साधन करनेवाले मनुष्यविशेष का ग्रहण हुआ है, उनमें ये प्रधान इसलिये थे कि ये परमार्थ के चिन्तक थे । ( पुरिससीहे पुरिसवग्वे पुरिसीविसे पुरिसपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणा-सण - जाण - वाहणा- इण्णे) पुरुषसिंह ये इसलिये थे कि पुरुषों में ये सिंह के समान निर्भय एवं बलिष्ठ थे । पुरुया ये इसलिये थे कि ये पुरुषों में व्यात्र के समान शूर थे । पुरुषाशीविष ये इसलिये थे कि ये पुरुषों में सर्प के समान अवध्यकोपवाले थे । पुरुषों में पुंडरीक तुल्यये અને પુરૂષામાં પ્રધાન-મુખ્ય હતા. ‘નર’ આ શબ્દથી અહી સાધારણ મનુષ્યાન અ લેવાય છે. તેમનામાં શ્રેષ્ઠ એટલા માટે હતા કે તેઓ કાશ તેમજ સૈન્યખલ આદિથી સમૃદ્ધ હતા. પુરૂષ ' શબ્દથી ચારે પુરૂષાર્થાને સાધન કરવાવાળા મનુષ્ય વિશેષને અ ગ્રહણ કરાયા છે. તેમનામાં તે પ્રધાન ( મુખ્ય ) એટલા માટે હતા કે તેઓ પરમાના ચિન્તક હતા. ( पुरिससीहे पुरिसवग्धे पुरिसासीविसे पुरिसपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिण्ण-वि उल-भवण-सयणा - सण - जाण - वाहणा- इण्णे ) ५३षसिड તેઓ એટલા માટે હતા કે પુરૂષોમાં તેઓ સિહુના જેવા નિય તેમજ બલિષ્ઠ હતા. પુરૂષવ્યાઘ્ર તે એટલા માટે કહેવાતા કે તેઓ પુરૂષામાં વાઘના જેવા શૂરાં હતા. પુરૂષાશીવિષ એટલા માટે હતા કે પુરૂષામાં તેઓ સર્પના જેવા સફળ-કાપવાળા હતા. પુરૂષામાં પુંડરીક તુલ્ય તેઓ એ માટે હતા કે તેમનું હૃદય ગરીબે પ્રતિ ક્રયા-કામલ હતું, તેમજ સાધા તેએ 6 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे विउल-भवण-सयणा-सण-जाण-वाहणाइण्णे बहुधण्ण-बहुजायरूवरयए आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डिय-पउरभत्तपाणे विस्तीर्णानि विस्तारमुपगतानि, विपुलानि प्रचुराणि, भवनानि गृहाः, शयनानि शय्याः, आसनानि, यानानि रथाः, वाहनानि=अश्वादयः, तैराकीर्णः परिपूर्णः,'बहुधण्णबहुजायरूबरयए' बहुधान्यबहुजातरूपरजतः-बहूनि धान्यानि यस्य स बहुधान्यः, बहूनि जातरूपरजतानिजातरूपाणि=सुवर्णानि रजतानि रूप्याणि च यस्य स बहुजातरूपर जतः, बहुधान्यश्वासौ बहुजातरूपरजतश्चेति तथा, बहुधान्यबहुसुवर्णरजत-परिपूर्ण इत्यर्थः । 'आओग-पओग-संपउत्ते' आयोग-प्रयोगसम्प्रयुक्तः-आयोगो धनलाभः, तस्य प्रयोगो व्यवहारः, तत्र सम्प्रयुक्तो व्यापृतः कृतोद्यम इत्यर्थः। 'विच्छडियपउरइसलिये थे कि इनका हृदय गरीबों के प्रति दयार्द्र-कोमल था, एवं साधारण से भी साधारण मनुष्य के लिये ये सुखकारी थे। पुरुषों में उत्तम गंधहस्ती के तुल्य ये इसलिये थे कि ये शत्रुओं के मर्दक थे। प्रचुर धनका स्वामी होने से ये आढय थे। शत्रुओं के जीतनेवाले होने से ये दृप्त थे। स्वदेश एवं स्वधर्म का पालक होने से ये वित्त–प्रख्यात थे। इनके अनेक विस्तृत प्रासाद थे। बहुत अधिक अनेक प्रकार के शय्या, आसन, यान और वाहन इनके पास थे । [बहुधण्ण-बहुजायरूवरयए इनका कोष्ठागार शालि गोधूमादि धान्यों से भरा रहता था । तथा इनका भण्डार सोने चान्दी से सदा भरा रहता था । [ आओगपओगसंपउत्ते ] धनके लाभके व्यवहार में ये सदा उद्यमशील रहते थे। (विच्छड्डिय-पउर-भत्त-पाणे) રણમાં પણ સાધારણ મનુષ્યને માટે તેઓ સુખદાતા હતા. પુરૂષોમાં ઉત્તમ ગંધહસ્તીના જેવા તેઓ એ માટે હતા કે તેઓ શત્રુઓને મર્દન કરનારા હતા. ઘણા ધનના સ્વામી હોવાથી તેઓ આઢય હતા. શત્રુઓને જીતવાવાળા હોવાથી તેઓ દમ હતા. સ્વદેશ તેમજ સ્વધર્મના પાલક હોવાથી તેઓ વિત્ત-પ્રખ્યાત હતા. તેમના અનેક મોટા મોટા મહેલ હતા. બહુજ વધારે અનેક પ્રકારની શયા, આસન, યાન (રથ) અને વાહને તેમની પાસે डतो. (बहुधण्ण-बहुजायरूव-रयए) तेमनी ॥२ ( २) शालि गोधूम આદિ ધાન્યથી ભરેલો રહેતું હતું તથા તેમનો ભંડાર સોના ચાંદીથી સદા म२५२ २७तो तो. (आओग-पओग-संपउत्ते) धनना साना व्यवहारमा तमे। हमेश धमा २डेता उता. (विच्छडिय-पउर-भत्त-पाणे) तमना २सामा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. ११ कूणिकवर्णनम् बहु-दासी-दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूए पडिपुण्ण-जंत-कोसकोट्ठागारा-उधागारे बलवं दुब्बलपच्चामित्ते ओहयकंटयं निहयभत्तपाणे' विच्छदितप्रचुरभक्तपानः-विच्छर्दिते दत्ते प्रचुरे बहुले भक्तपाने आहारपानीये येन स तथा, वितीर्णबहुतरान्नजल इत्यर्थः । ' बहु-दासी-दास-गो-महिसगवेलगप्पभूए' बहु-दासी–दास-गो-महिष-गवेलकप्रभूतः बहवो दास्यो दासा गावो महिन्यो गवेलकाः मेषाश्च, तैः प्रभूतः सुवृद्धिमुपगतः । 'पडिपुण्ण-जंत-कोस-कोट्ठागारा-उधागारे' प्रतिपूर्ण-यन्त्र-कोश-कोष्ठागारा-ऽऽ-युधाऽऽगारः, तत्र-यन्त्रं-शिल्पादिसाधनरूपं-जलयन्त्रादिकं प्रस्तरप्रक्षेपणादिरूपं च, कोशो-दीनार-रत्नादिभाण्डागारम् , कोष्ठागारं-धान्यगृहम् , आयुधागारं-विविधशस्त्रास्त्रगृहं च प्रतिपूर्ण यस्य स तथा । 'बलवं' बलवान् – तनुबल-धनबल-सैन्यबलसम्पन्नः । 'दुब्बलपच्चामित्ते' दुर्बलइनके रसोई घर में इतना भक्तपान बनता था, कि सबके भोजन कर लेने पर भी बहुतसा बच जाता था, जो गरीबों को दे दिया जाता था । (बहु-दासी-दास-गोमहिस-गवेलग-प्पभूए) इनकी सेवा के लिये बहुत से दासी दास इनके पास सर्वदा रहते थे। और इनकी पशुशाला में गाय, भैंस तथा मेंषोंका झुण्डका झुण्ड रहता था । (पडिपुग्ण-जंत-कोस-कोट्ठागारा-उधागारे) उनका यन्त्रागार यन्त्रों से-शिल्प के साधनों से, फुहारा के साधनों से, तथा पत्थर फेंकने के साधनों से परिपूर्ण था, इनका कोश सुवर्णमुद्रा रत्न आदि से भरा रहता था, अनेक प्रकार के धान्यों से इनका कोष्ठागार परिपूर्ण था, तथा इनका शस्त्रागार अनेक प्रकारों के अस्त्रशस्त्रों से सदा भरा रहता था। (बल) ये राजा विशेष बलवान् थे, अर्थात् तनुबल એટલી તે રસેઈ બનતી હતી કે બધાં ભેજન કરી લીધા પછી પણ ઘણીએ रसा वधी ५७ती ती २ रीमाने मापी हेवामां पाती. (बहु-दासीदास-गो-महिस-गवेलग-प्पभूए) तेमनी सेवा माटे घना हासीहास तेमनी पासे સર્વદા રહ્યા કરતા હતા. તેમની પશુશાલામાં ગાય ભેંસ તથા ઘેંટાનાં टोजानii २डेतi sai. (पडिपुण्ण जंत-कोस-कोष्ठागारा-उधागारे) तमना यत्राગાર યંત્રથી–શિલ્પનાં સાધનથી, ફુવારાનાં સાધનથી, તથા પત્થર ફેંકવાના સાધનોથી પરિપૂર્ણ હતા. તેમને પ્રજાને સેનાના સિક્કા રને આદિથી ભરપૂર રહેતું હતું. અનેક પ્રકારનાં ધાન્યથી તેમને કેકાર પરિપૂર્ણ હિતે તથા તેમનું શસ્ત્રાગાર અનેક પ્રકારનાં અસ્ત્રશસ્ત્રોથી સદા ભરેલું રહેતું Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे कंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं अकंटयं ओहयसत्तुं निहयसत्तुं प्रत्यमित्रः-दुर्बलाः बलहीनाः प्रत्यमित्राः शत्रदा यस्य स दुर्बलप्रत्यमित्रः। अतः परं सर्वागि विशेषणानि राज्यस्य, प्रशासदिति क्रियाया वा सन्ति, तस्माद् विशेषणानां नपुंसकत्वं द्वितीयैकवचनान्तत्वं च। 'ओहयकंटयं ' उपहतकण्टकम्-उपहताः= संपत्तिहरणादिभिः उपघातं प्राप्ताः कण्टकाः कण्टकवत् अन्तःप्रविष्टतया वेदनाप्रदाः तस्करादयो यस्मिन् राज्ये, शासने वा, तत् तथा । 'निहयकंटयं' निहतकण्टकम्निहताः-बन्धनादिभिर्दण्डं प्राप्ताः कण्टकाः यत्र तत् 'मलियकंटयं ' मलितकण्टकम्मलिताः प्रहारादिभिर्मथिता कण्टकाः यत्र तत्। 'उद्धियकंटयं' उद्धृतकण्टकम्उद्धृताः=निजजनपदाबहिष्कृताः कण्टका यत्र तत् तथा । 'अकंटयं' अकण्टकम्धनबल एवं सैन्यबल से संपन्न थे । (दुबलपचामित्ते) इनके जितने भी वैरी थे वे सब दुर्बल-बलहीन थे । राज्य भी इनका (ओहय कंटयं निहयकंटयं मलियकंटयं उद्धियकंटयं) उपहतकंटक-भीतर प्रविष्ट होकर चुभनेवाले कांटोंकी तरह प्रनाको पीडित करनेवाले तस्कर आदिकों से सर्वथा रहित था । हितकंटक इसलिये कि जितने भी राज्य में चोर आदि थे वे सब बंधनद्वारा बद्धकर कारावास में बन्द कर दिये गये थे। मलितकंटक इसलिये था कि राज्य में जो भी चोर आदि थे वे सब प्रहारों द्वारा मथित कर दिये गये थे । उद्धृतकंटक इसलिये था कि राज्य के समस्त चोर आदि अपने जनपद से बाहर कर दिये गये थे। इसप्रकार इनका राज्य ( अकंटयं ) तु. (बलवं) मा २ विशेष जवान हुता पर्थात् तनुमस (शारीरि४ म) धनस तेमन सैन्यासथी संपन्न हता. (दुब्बलपच्चामित्ते) तमनारमा शडतातेमा माहुर-मडीन उता. तभनुशन्य ५५] (ओहयकंटय निहयकंटय मलियकंटयं उद्धियकंटयं) पडत ४- २४२मiत २डी हुण्या ४२ तेवा ४iटाना પ્રજાને દુઃખ-પીડા કરનાર તસ્કર આદિકોથી સર્વથા રહિત હતું. નિહલકટકએટલા માટે કે રાજ્યમાં જે કઈચાર આદિ હતા તેઓ બધાને બંધનથી બાંધીને કારાવાસમાં પુરી મુકેલા હતા. મલિતકંટક એટલા માટે હતું કે રાજ્યમાં જે કોઈ ચેર આદિ હતા તેઓ બધાને પ્રહારોથી મથિત કરવામાં (મારવામાં) આવ્યા હતા. ઉદ્દધૃતકંટક એટલા માટે હતું કે રાજ્યના તમામ ચોર આદિને પિતાનાં દેશથી બહાર કરી દેવામાં આવ્યા હતા. આ પ્રકારે તેમનું રાજ્ય (अकंटय) से पायो द्वारा त:४२ २माहि टासाने ढीने सर्वथा निष्ट Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी. ११ कूणिकवर्णनम्. मलियसत्तुं उद्धियसत्तुं निजियसत्तुं पराइयसत्तुं ववगयदुब्भिक्खं मारिभयविप्यमुकं खेमं सिवं सुभिक्खं पसांत डिंबडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ ॥ सू. ११ ॥ ५७ 6 प्रबलप्रतापभयाद् अविद्यमानाः कण्टकाः, यद्वा उपघात - निहनन - मलनोद्धारणक्रियाभिनिर्मूलीकृताः कण्टका यस्मिन् तत्तथा । ओहयसत्तं ' उपहतशत्रु - उपहताः=संपत्तिहरणादिभिरुपघातं प्राप्ताः शत्रवो यत्र तत् उपहतशत्रु राज्यं शासनं वा; 'निहयसत्तुं' निहतशत्रु निहताः = बन्धादिभिर्दण्डं प्राप्ताः शत्रवो यत्र तत्तथा, ' मलियसत्तुं 'मलितशत्रु प्रहारादिभिर्मलिताः=मथिताः शत्रवो यत्र तत्तथा, ' उद्धियसत्तुं ' उद्धृतशत्रु - स्वदेश 'निज्जियसत्तु ' बहिष्कृतशत्रु । , निर्जितशत्रु – तत्सैन्यसंहारादिभिः परिभूतशत्रु । ‘पराइयसत्तुं ’ पराजितशत्रु - पराजिताः शत्रवो यत्र तत्तथा, वशीकृतशत्रु इत्यर्थः । 'ववगयदुभिक्खं ' व्यपगतदुर्भिक्षम् - दुर्लभा भिक्षा दुर्भिक्षा, व्यपगता- दुर्भिक्षा यस्मात् तद् व्यपगतदुर्भिक्षं भिक्षादौर्लभ्यरहितमित्यर्थः, 'मारिभयविष्पमुक्कं ' मारीभयविप्रमुक्तम्= मरकीभयरहितम् । “ खेमं' क्षेमम्-क्षेमयुक्तं सकुशलम्, सिवं शिवं- निरुपद्रवम् । 'सुभिक्खं ' सुभिक्ष- सुलभा भिक्षा यत्र तत्तथा । ' पसांतडिंबडमरं ' प्रशान्त 4 इन उपायों द्वारा तस्कर आदि कांटों से रहित होकर सर्वथा अकंटक बना हुआ था । (ओहयसत्तुं निहयसत्तुं मलियसत्तुं उद्धियसत्तुं निज्जियसत्तुं पराइयसत्तुं ) इसी प्रकार इनका राज्य उपहतशत्रु, निहतशत्रु, मथितशत्रु, उद्धृतशत्रु, निर्जितशत्रु एवं पराजितशत्रु था । [ ववगयदुभिक्खं मारिभयविप्पमुक्कं ] इनके राज्य में भिक्षुकों को भिक्षा की दुर्लभता नहीं थी । मरकी का भयतक भी जनता को पीडित नहीं करता था । अतः राज्य में सर्वत्र ( क्षेमं ) कुशलता का सद्भाव था । (सिवं ) यहां की जनता में कुशलता छाने का एक कारण यह भी था कि यहां किसी भी मन्यु ं तु. (ओहयसत्तुं निह्यसत्तुं मलियसत्तुं उद्धियसत्तुं निज्जियसत्तु पराइयसत्तुं मे प्रारे ४ तेनु राज्य उपहतशत्रु, निडुतशत्रु, भथितशत्रु, उद्धृतशत्रु, निर्भितशत्रु तेभ ४ परान्तिशत्रु हेतु. ( ववगयदुभिक्खं मारिभर्यावप्पमुक्कं) तेना राज्यभां लिक्षुओने लिक्षा भजवी हुर्सल नहोती. भरडीनो लय अन्नने दुःख सायतो नहि. साम राज्यमा सर्वत्र (क्षेमं ) कुशजताना सहलाव हतो. (सिवं) अहींनी अन्नमां शजता छवाई नवानुं मेड अशु એ પણ હતું કે અહીં કાઇપણ પ્રકારના ઉપદ્રવ નહાતા. ઉપદ્રવના અભાવ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. औपपातिकसूत्रे मूलम्-तस्सणं कोणियस्स रन्नो धारिणी णामं देवी होत्था, सुकुमालपाणिपाया अहीण-पडिपुषण-पंचिंदियसडिम्बडमरम्-विघ्नकलहाभ्यां रहितम् , एवं यथा स्यात्तथा, एवंभूतं वा 'रज्ज' राज्यं–'पसासेमाणे' प्रशासत्-पालयन् ‘विहरइ' विहरति तिष्ठति ॥ सू. ११॥ टीका-तस्स णं कोणियस्स रन्नो' तस्य खलु कोणिकस्य राज्ञः 'धारिणी णाम देवी होत्था' धारिणी नाम देवी-राज्ञी आसीत्, सा धारिणी राज्ञी कीदृशी ? अत्रोच्यते-'सुकुमालपाणिपाया' सुकुमारपाणिपादा-पाणी च पादौ च पाणिपादम् , प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः, ततः सुकुमारं कोमलं पाणिपादं यस्याः सा तथा, सुकोमलकरचरणा । 'अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरा' अहीन-परिपूर्ण-पञ्चेन्द्रिय-शरीरालक्षणतोऽहीनानि=सम्पूर्णलक्षणानि, स्वरूपतः परिपूर्णानि–नातिहस्वानि नातिदीर्घाणि प्रकार का उपद्रव नहीं था । उपद्रव का अभाव भी इसलिये था कि (सुभिक्षं ) इसमें लोगों को खाद्यसामग्री सुलभ थी। ( पसांतर्डिबडमरं) विघ्न और कलहका यहाँ नाम भी नहीं था। इस प्रकार, अथवा ऐसे [ रज्ज पसासेमाणे विहरइ ] राज्य का पालन करते हुए कोणिक राजा राज्य करते थे ॥ सू० ११ ॥ 'तस्स णं कोणियस्स रन्नो' इत्यादि, (तस्स णं कोणियस्स रनो) उस कोणिक राजा की (धारिणी णामं ) धारिणी नाम की (देवी) रानी ( होत्था) थी । ( सुकुमालपाणिपाया) इसके हाथ और पैर दोनों ही बडे सुकुमार थे। (अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरा) इसका शरीर लक्षणसे अहीन एवं स्वरूप से परिपूर्ण-न अतिहस्व और न अति4g मेरा भाटे तो (सुभिक्ख) तभी बोन मापानी सामग्री सुखम हती. (पसांतडिंबडमरं) विन भने उसड (801)नु नाम निशान ४ नातु. २प्रारे अथवा-सेवा (रज पसामेमाणे विहरइ) शन्यनु पालन ४२ता २४ ४ि २ २०न्य ४२॥ ता. (सू. ११) "तस्स णं कोणियस्स रण्णो' प्रत्याहि. (तस्स ण कोणियस्स रण्णो) ते आणि सतना (धारिणी णाम) पारिनामना (देवी) २७१ (होत्था) ती. (सुकुमाल-पाणि-पाया) तेना हाथ मने ५॥ मन्नेय मर्ड सुकुमार (म) ॥ (अहीण-पडिपुषण-पंचिंदिय--सरीरा) तेनु शरीर લક્ષણથી અહીન તેમ જ સ્વરૂપથી પરિપૂર્ણ–બહુ નાનું નહિ તેમ બહુ મેટું Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. १२ धारिणीवर्णनम् रीरा लक्खण-वंजण-गुणोववेया माणु-म्माण--प्पमाण-पडिपुण्णसुजाय-सव्वंग-सुंदरंगी ससि-सोमाकार-कंत-पिय-दसणा सुरूवा नातिपीनानि नातिकृशानि पञ्च इन्द्रियाणि यत्र तदहीनपरिपूर्णपञ्चेद्रियं, तादृशं शरीरं यस्याः सा अहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरा-न्यूनाधिकवैकल्यादिदोषरहितलक्षणसहितपञ्चेन्द्रियपूर्णसुन्दरशरीरा इति यावत् । 'लक्रवण-वंजण-गुणोववेया' लक्षण-व्यञ्जनगुणोपपेता, नत्र-लक्षणानि चिह्नानि हस्तरेखादिरूपाणि स्वस्तिकादीनि, व्यञ्जनानि-मशतिलादीनि, तान्येव गुणाः प्रशस्तरूपाः तैरुपपेता सुसम्पन्ना । 'माणु-म्माण-प्पमाणपडिपुण्ण-सुजाय सव्वंग-सुंदरंगी' मानोन्मान-प्रमाण-प्रतिपूर्ण-सुजात-सर्वाङ्ग-सुन्दराङ्गी, मान जलादिपरिपूर्णकुण्डादिप्रविष्टे पुरुषादौ यदा द्रोणपरिमितं जलादि निस्सरति तदा स पुरुषादिर्मानवानुच्यते, तस्य शरीरावगाहनाविशेषो मानमत्र गृह्यते । उन्मानम् = ऊर्ध्वमानं यत् तुलायामारोप्य तोलनेऽर्धभारप्रमाणं भवति तत् । प्रमाणं-निजाङ्गुलीभिरष्टोत्तरशताङ्गुलिपरिमितोच्छ्रायः, मानं च उन्मानं च प्रमाणं चेति मानोन्मानप्रमाणानि, तैः प्रतिपूर्णानि संपन्नानि, अत एव सुजातानि यथोचितावयवसंनिवेशयुक्तानि, सर्वाणि= सक गनि, अङ्गानि मस्तकादारभ्य चरणान्तानि यस्मिंस्तत् तादृशम्-अत एव सुन्दरदीर्घ और पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण था । ( लक्खण-बंजण-गुणोववेया) लक्षणहस्तरेखादिकरूप एवं व्यंजन-मसतिल आदिरूप चिह्नों से यह सुसंपन्न थी । (माणुम्माण-प्पमाण-पडिपुण्ण-मुजाय-सव्यंग-सुंदरंगी) मान, उन्मान एवं प्रमाण से परिपूर्ण होने के कारण यथोचित अवयवों की रचना से इसके मस्तक से लेकर चरणतक के समस्त अंग एवं उपांग बडे ही सुहावने थे, अतः इसका शरीर सागसुन्दर था । ( ससि-सोमाकार-कंत-पियदंसणा) चंद्रमा के तुल्य इसका स्वरूप मुटु नहि त मने पायेय न्द्रियोथी परिपूर्ण हतु (लक्खणवंजण-गुणोववेया) सक्षण-२० २ाहि४३५ ते ४ व्य -भसा त माहि ३५ यिनोथी ते सुसपन्न ती. (माणु-म्माण-प्पमाण-पडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगी) मान, उन्मान तेभ प्रभाएथी परिपूर्ण पान ४२णे यथोચિત અવયવોની રચનાથી તેના માથાથી લઈને પગ સુધીનાં સમસ્ત અંગ તેમ જ ઉપાંગે ઘણું જ સુંદર હતાં તેથી તેનું શરીર સર્વાગ–સુંદર હતું. (ससि-सोमाकार-कंत-पियदसणा) द्रमा समान तेनु २१३५ पाथी ते Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० औपपातिकसूत्रे करयल - परिमिय- पत्थ-तिवली - वलियमज्झा कुंडल--लिहिय-गंडलेहा कोमुइय-रयणियर-विमल पडिपुण्ण- सोमवयणा सिंगारागारमङ्ग=वपुर्यस्याः सा तथोक्ता 'ससि - सोमाकार - कंत - पिय- दंसणा ' शशि - सौम्याकारकान्त - प्रियदर्शना, शशीव - चन्द्र इव सौम्यः = सुन्दरः आकारः खरूपं यस्याः सा तथा, कान्ता – कमनीया-मनोहरा, प्रियं हृदयाह्लादकं दर्शनं यस्याः सा तथा । ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । 'सुरुवा' सुरूपा - शोभनं रूपं यस्याः सा तथा । ' करयल - परिमिय-पसत्थ-तिवली - वलिय - मज्झा' करतल - परिमित - प्रशस्त - त्रिवली - वलितमध्या - करतलेन परिमितः प्रमाणित : - मुष्टिग्राह्य इत्यर्थः, स चासौ प्रशस्तः- शुभः, त्रिवलीवलितः = उदरोपरि वर्तमाना त्रिरेखा त्रिवलिस्तया वलितो = युक्तो मध्यो = मध्यभागा यस्याः सा तथा । ‘कुंडलु-ल्लिहिय-गंडलेहा' कुण्डलो - ल्लिखित - गण्डलेखा, कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता घृष्टा गण्डलेखा = कपोलमण्डले रचिता पत्रावली यस्याः सा तथोक्ता, 'कोमुइय - रयणियर - विमल - पडिपुण्ण - सोमवयणा' कौमुदित-रजनीकर-विमल परिपूर्णसौम्यवदना, कौमुदितः शरच्चन्द्रिकासहितो यो रजनीकरः = पूर्णचन्द्रस्तद्वद् विमलं होने से यह देखनेवालों के लिये बडी ही कान्त - मनोहर लगती थी, इसलिये इसका दर्शन हृदय का आह्लादक होता था । ( सुरूवा ) और यही कारण था कि जिसकी वजह से यह सुरूपा थी । ( करयल - परिमिय- पसत्थ - तिवली -वलियमझा ) इसका मध्यभाग - कटिप्रदेश करतलपरिमित अर्थात् मूठी में आसके इतना पतला था, प्रशस्त था, तथा इसका उदर त्रिवलीयुक्त था । ( कुंडलु - ल्लिहिय - गंडलेहा को - इय - रयणियर - विमल - पडिपुण्ण - सोमवयणा ) इसके कपोलमंडल पर जो पत्रावळी रचित थी वह कानों में पहिर हुए दोनों कुण्डलों से उल्लिखित - घृष्ट होती रहती थी । इसका जो सौम्यवदन - सुन्दर मुख था वह चन्द्रिका से समन्वित रजनीकर अर्थात् જોનારાઓ માટે ઘણીજ કાંત-મનેાહર લાગતી હતી. તેથી તેનુ' દર્શન હૃદયને आसादृ४ थतु ं हेतु (सुरुवा) भने मेन अरणथी ते सुइया हुती. ( करयल-परिमिय-पसत्थ-तिवली - वलियमज्झा ) तेनो मध्यलाग - उटिप्रदेश ४श्ताપરિમિત એટલે મુઠ્ઠીમાં સમાઇ શકે એવા પાતળા હતા, પ્રશસ્ત હતા તથા पेट त्रिवसी (त्रशु पक्षी) वाजु हेतु. (कुंडल-ल्लिहिय- गंडलेहा कोमुइय-रयणियरविमल--पडिपुण्ण--सोमवयणा) तेना पोलमंडल (मे गास) पर ने पत्रावली (શાભા વધારવા બનાવેલ રચના) બનાવેલી હતી તે તેના કાનમાં પહેરેલાં અને કુંડલેાથી ઘસાતી હતી. તેનું જે સૌમ્ય વદન–સુખ હતું તે ચ ંદ્રિકાથી Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. १२ धारिणीवर्णनम्. चारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव -णिउण-जुत्तोवयार-कुसला सुंदर-घण-जघण-वयण-कर-चरणपरिपूर्ण सौम्यं वदनं मुखं यस्याः सा तथा । 'सिंगारागारचारुवेषा' शृङ्गाराऽऽगारचारवेषा, शृङ्गारस्य शृङ्गाररसस्य अगारमिव गृहमिव चारुः शोभनो वेषो नेपथ्यंवस्त्रादिरचना यस्याः सा तथा । 'संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलाससललिय-लाव-णिउण-जुत्तोवयार-कुसला'-सङ्गत-गत हसित-भणित-विहितविलास-सललित–संलाप-निपुण-युक्तोपचार-कुशला, संगतेषु समुचितेषु गत-हसितभणित-विहित-विलास-सललित-संलापेषु निपुणा, तत्र-गतं गमनं गजहंसादिवत्, हसितं स्मितं, भणितं वचनं कोकिलवीणादिस्वरेण च युक्तं, विहितं चेष्टितं, विलासो-नेत्रचेष्टा, सललितसंलापः-वक्रोक्त्याद्यलङ्कारेण सहितं परस्परभाषणं, तेषु निपुणा=चतुरेत्यर्थः, तथा युक्तोपचारेषु सद्व्यवहारेषु कुशला=दक्षेत्यर्थः, ततः पदद्वयचन्द्रमा के समान बिलकुल विमल था। [ सिंगारागारचारुवेसा ] इसका नेपथ्य अर्थात् वेष शृङ्गार का घर था । [ संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलाससललिय-संलाव-णिउण-जुत्तोवयार-कुसला] इसकी गति गज एवं हंसादिकों की गति जैसी मनोमुग्धकारी थी, इसका स्मित बहुत सुन्दर था, एवं इसका भाषण कोकिल और वीणा आदि के स्वर जैसा कर्णप्रिय था, इसकी चेष्टाएँ और विलास अति मनोहर थे, तथा सललितसंलाप-परस्पर संभाषण वक्रोक्ति आदि अलंकारों से युक्त था । मतलव कहने का यह है कि यह इन गमनादिक क्रियाओं में विशेष चतुर थी । साथ २ योग्य सद्व्यवहारों में भी यह कुशल थी। [ सुंदर-थण-जघण-वयणशालता यंद्रमा समान भिसास निज तु. [सिंगारा-गारचारुवेसा ] तेना नेपथ्य अर्थात् ५ नए शानु ५२ तु. ( संगयगय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव-णिउण-जुत्तोवयार - कुसला ) तेनी ચાલ ગજ (હાથી) તેમ જ હંસ આદિકની ગતિ જેવી મને મુગ્ધકારી હતી. તેનું સ્મિત (હસવું) અતિ સુન્દર હતું. તેની બેલી કેયેલ અને વીણા આદિના સ્વર જેવાં કર્ણપ્રિય હતાં. તેની ચેષ્ટાઓ અને વિલાસ અતિ મને હર હતા. તથા સલલિતસંલાપ-પરસ્પર સંભાષણ–વક્રોકિત આદિ અલંકારોવાળાં હતાં. કહેવાનો મતલબ એ છે કે તે ગમન (ચાલ) આદિક ક્રિયાએમાં બહુ ચતુર હતી. સાથે સાથે ઉચિત સદ્વ્યવહારમાં પણ તે કુશલ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र नयण-लावण्ण-विलास-कलिया पासाईया दरिमणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, कोणिएणं रण्णाभंभसारपुत्तेण सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता, इतु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पञ्चणुभवमाणी विहरइ ॥ सू. १२॥ स्य कर्मधारयः । 'सुंदर-थण-जघण-बयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-विलास -कलिया' सुन्दर-स्तन-जघन-वदन-कर-चरण नयन-लावण्य-विलास-कलिता 'पासाईया' प्रासादीया-'दरिसणिज्जा' दर्शनीया । 'अभिरुवा' अभिरूपा 'पडि रूवा' प्रतिरूपा, 'कोणिएण रण्णा भंभसारपुत्तेण' कोणिकेन राज्ञा भंभसारपुत्रेण 'सद्धिं' सार्द्ध-सह । 'अणुरत्ता' अनुरक्ता-अनुरागवती, 'अविरत्ता' अविरक्ता-पत्यौ प्रतिकूलेऽपि कोपरहिता, 'इटे' इष्टान्-मनोऽनुकुलान् , 'सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे' शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् , 'पंचविहे' पञ्चविधान् , 'माणुस्सए कामभोए' मानुष्यकान् मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान् , 'पचणुभवमाणी' प्रत्यनुभवन्ती-भुञ्जाना 'विहरइ' विहरति स्म इति ॥ सू० १२ ॥ कर-चरण-नयण-लावण्ण-विलास-कलिया ] इसके पयोधरयुगल पुष्ट, जधन कदलीस्तंभ जैसे, वदन राकाशशि जैसा अर्थात् पूर्णिमा के चन्द्र जैसा था, कमल जैसे कोमल इसके कर चरण थे, नयनलावण्य अनुपम, एवं विलास मनोहर था । [पासाईया ] यह राजा के चित्त को प्रतिसमय प्रमुदित करती रहती थी । द्रष्टव्य वस्तुओं में यह भी एक [दरिसणिज्जा] द्रष्टव्य वस्तु थी। [ अभिरूवा पडिरूवा ] अभिरूप एवं प्रतिरूप थी। (कोणिएणं रण्णा भंभसारपुत्तेण सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्टे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सर कामभोए पञ्चणुभवमाणी विहरइ ] यह रानी अपने प्रियपति कोगिक राजा के साथ, डती. [सुदर-थण-जघण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण - विलास - कलिया] તેનાં બને તને પુષ્ટ, જઘન કેળનાં સ્તંભ જેવાં, વદન-મુખ રાકાશશિઅર્થાત્ પૂર્ણિમાના ચંદ્ર જેવું હતું. કમળ જેવા સુંવાળા હાથ પગ હતાં. नेत्रनाय अनुपम तेम ४ विलास मनोहर तुं. (पासाईया) ते २०जन। ચિત્તને હરવખત ખુશી કરતી રહેતી હતી. જોઈ શકાય તેવી વસ્તુઓમાં તે पY ४ (दरिसणिज्जा) नाराय: ता. [अभिरूवा पडिरूवा] समि३५ तेम १४ प्रति३५ ती. (कोणिएणं रण्णा भंभसारपुत्तेण सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ पोयूषवर्षिणी-टीका स्र १३ भगवत्प्रवृत्तिव्यापृत पुरुषवर्णनम् . मूलम् — तस्स णं कोणियस्स रण्णो एक्के पुरिसे विउलकयवित्तिए भगवओ पवित्तिवाउए भगवओ तदेवसियं पवित्तिं णिवेदेइ ॥ सू०१३ ॥ टीका- 'तस्स णं कोणियस्स रण्णो' इत्यादि । खलु कोणिकस्य राज्ञः ‘एक्के’ एकः ‘पुरिसे' पुरुषः 'विउलकयवित्तिए' विपुलकृतवृत्तिकःविपुला=अधिका कृता वृत्तिराजीविका यस्मै स विपुलकृतवृत्तिकः - दत्तप्रचुरजीविकः, 'भगवओ' भगवतः सर्वविधैश्वर्यवतो महावीरस्य ' पवित्तिवाउए ' प्रवृत्तिव्यापृतः = प्रवृत्तौ – वार्तायां कदा कुतो विहृत्य ग्रामे नगरे वा समवसृतः : एतद्रूपायाम् – व्यापृतः नियुक्तः 'भगवओ' भगवतः -- श्री महावीरस्य ' तद्देवसियं' तद्दैवसिकीं - तस्मिन् दिवसे भवा तद्दैवसिकी–नाम्, अर्थात् अस्मिन् दिवसेऽस्मान्नगराद् विहृत्याऽस्मिन्नगरे भगवान् विराजते, इत्येतद्रूपां दिवससम्बन्धिनीं 'पवित्ति' प्रवृत्तिं वार्त्ता ' णिवेदेइ' निवेदयतिकथयतीति । सू० १३॥ जो भंभसार ( श्रेणिक ) का पुत्र था; अनुरक्त होती हुई, उसके क्रोधित होने पर भी प्रतिकूलता से विमुख बन, इच्छित शब्द, स्पर्श, रस, रूप एवं गन्धरूप पांचों इन्द्रियों के मानवोचित प्रधान कामभोगों का अनुभव करती हुई आनंद से, अपना समय व्यतीत करती थी । सू० १२ ॥ 4 तस्स णं कोणिस्स ' इत्यादि, [तस्स णं कोणिस्स रण्णो ] उन कोणिक राजा के यहां [ एके पुरिसे ] एक ऐसा पुरुष नियुक्त था जिसे राजा की ओर [ विलयवित्ति ] बडी सह-फरिस - रस - रुव-गंधे पंचविहे माणुस्सर कामभोए पच्चणुभवमाणी विहरइ ) मे राएली पोताना प्रिययति अणि राल डे ने लालसार (श्रेणि४) નો પુત્ર હતા તેની સાથે અનુરકત (પ્રેમાળ) હતી. રાજા ક્રોધિત થાય તે પણ તે પ્રતિકૂળતાથી વિમુખ હતી, એટલે અનુકૂળ હતી. મનને ગમે તેવા શબ્દ, સ્પ, રસ, રૂપ તેમ જ ગંધરૂપ પાંચ ઈંદ્રિના માનવાચિત મુખ્ય કામભોગાના અનુભવ કરતી આનથી પેાતાના સમય વ્યતીત ४२ती हुती. (सू. १२ ) "" ' तस्स णं कोणियम्स " इत्यादि. ( तम्स णं कोणियस्स रण्णो ) ते अणि रान्नने त्यां [ एक्के पुरिसे ] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम् — तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिष्णभइ-भत्त-वेयणा भगवओ पवित्तिवाउया भगवओ तद्देवसिअं पवितिं णिवेदेति ॥ सू० १४ ॥ ૬૪ टीका — तस्स णं पुरिसस्स' इत्यादि, तस्य भगवद्वार्ताहरस्य पुरुषस्य भृत्यस्य 'बहवे अण्णे पुरिसा' बहवोऽन्ये पुरुषाः - राजसेवकाः, ते कीदृशा ? इत्याह'दिण्ण - भइ - भत्त- त-वेयणा' दत्त--भृति-भक्त -- वेतनाः - भृतिः स्वर्णमुद्रादिरूपा, भक्तम् आजीविका मिलती थी । ( भगवओ पवित्तिवाउए ) भगवान् कब कहां से विहार कर किस ग्राम में समवसृत हुए हैं " इस समाचार को जानने के लिये वह नियुक्त किया गया था । तथा [ भगवओ तद्देवसियं पवित्ति fras ] भगवान् के दैनिक वृत्तान्त का भी अर्थात् – आजदिन भगवान् इस नगर से विहार कर इस नगर में विराज रहे हैं इस प्रकार की उनकी दैनिक विहारवार्ता का भी ध्यान रखता था । यह वृत्तान्त राजा के निकट निवेदन करता था । सू० १३॥ 6 तरस णं पुरिसस्स बहवे ' इत्यादि, [ तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा ] इस पुरुष के हाथ के नीचे अनेक पुरुष कि जिन्हें ( दिण्ण - भइ - भत्त - वेयणा ) इसकी तरफ से सुवर्णमुद्रादिरूप भृति, एवं अन्नादिरूप भक्त इस प्रकार दोनों तरह का और भी बहुत "6 मेव। यु३ष राभेो हतो ने शब्द त२३थी ( विउलकयवित्तिए) भोटी भाभूविडा भजती हुती. [ भगवओ पवित्तिवाउए ] ભગવાન કયારે કયાંથી વિહાર કરી કયા ગામમાં સમવસત થયા છે” એ સમાચાર જાણવાને भाटे तेनी निभागुड उरेली हुती. तथा [ भगवओ तद्देवसियं पवित्तिं णिवेदेइ ] ભગવાનના દૈનિક વૃત્તાન્ત=અર્થાત્ આજરોજ ભગવાન આ નગરથી વિહાર કરીને આ નગરમાં બિરાજે છે એ પ્રકારની તેની દૈનિક ( દિવસ સંબંધી ) વહારવાર્તા નું પણ ધ્યાન રાખતા હતા. આ વૃત્તાન્ત રાજાની પાસે નિવેદ્યન उरतो तो. ( सू. १3 ) " तस्स णं पुरिसस्स बहवे " इत्यादि. ( तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा) ते पुरुषना हाथ नीचे मील या पु३षा हता. भने ( दिण्ण - भइ - भत्त - वेयणा ) तेना तर३थी સુવર્ણ મુદ્રાપ ભૂતિ તેમજ અન્નારૂપ ભક્ત-ખારાક એમ બન્ને પ્રકારનું વેતન Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स. १५ उपस्थानशालागतकूणिकवर्णनम्. ६५ मूलम्--तेणं कालेणं तेणं समएणं कोणिए राया भंभसारपुत्ते बाहिरयाए उवट्ठाणसालाए अणेग-गणणायग-दंडअन्नरूपम् इदं द्विविधं वेतनं-जीविका दत्तं येभ्यः, ते दत्तभृति-भक्तवेतनाः 'भगवओ पवित्तिवाउआ'-भगवतः प्रवृत्तिव्याताः-भगवविहारसमवसरणादिवृत्तान्त-निवेदने नियुक्ताः, भगवतस्तदैवसिकी प्रवृत्ति निवेदयन्ति-कथयन्तीति यावत् , नटेकेन मृत्येन तादृगप्रतिबन्धविहारिणो भगवतः विहारसमवसरणवार्तानिवेदनं सुलभम् इति हेतोरत्र कार्ये बहवो नियुक्ता इति भावः ॥ सू० १४ ॥ टीका—'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'कोणिए राया भंभसारपुत्ते' कोणिको राजा भंभसारपुत्र:-अयं कोणिको नृपो भंभसारस्य श्रेणिकापरनामवतो नृपस्य पुत्रः, 'बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए' बाह्यायामुपस्थानशालाथाम् बाह्ये सभागृहे-'अणेग-गणणायग-दंडणायग-राई-सर-तलवर-माडंवेतन दिया जाता था। (भगवओ) वे भगवान् महावीर के ( पवित्तिवाउया ) विहार और समवसरण आदि वृत्तान्त का निवेदन करने के लिये नियुक्त थे, [भगवओ तदेवसियं पवित्ति णिवेनि] इसलिये. वे भगवान् की विहारसंबंधी एवं समवसरणसंबंधी वार्ता प्रतिदिन आकर क निवेदन करते थे ॥ सू० १४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल उस समय ( कोणिए राया भंभसारपुत्ते) भंभसार-श्रेणिक नृप के पुत्र कोणिक राजा ( बाहिरयाए उवट्ठाणसालाए) बाहर की उपस्थान माला में (अणेग-गणणायग-दंडणायग(५२) आपामा मातुं. ( भगव ओ) तेस भगवान महावीरन (पवित्तिवाउया ) विडा२ अने समस२५ हि वृत्तांतनु निवेहन ४२१॥ भाट राणेसा उतi. ( भगव ओ तद्देवसियं पवित्ति णिवेदेति ) तथा तेसो भवाननी विहार સંબંધી તેમજ સમવસરણ સંબંધી વાર્તા દરરેજ આવીને નિવેદન કરતા ता. (सू. १४) " तेणं कालेणं तेणं समएणं" त्याहि. ( तेणं कालेणं तेणं समएण) ते स ते सभये (कोणिए राया भंभसारपुत्ते ) मनसा२--श्रेणि शतना पुत्राणि २ ( बाहिरथाए उवट्ठाणसालाए) सा२नी ५२थान सामi ( अणेग-गणणायग-दंडणायग-राई-सर-तलवर-माडं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ औपपातिकसूत्रे णायग-राई-सर-तळवर-माइंबिय-कोडुंबिय-मंति-महामंति-गणगदोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद-नागर-नेगम-सेटि-सेणावइ -सत्थवाह-दूय-संधिवाल सद्धिं संपरिबुडे विहरइ ॥ सू० १५ ॥ बिय-कोडुंबिय-मंति-महामंति-गणग-दोवारिय अमच्च-चेड-पीढमद-नागर-नेगम-सेट्ठिसेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवाल सद्धि' अनेक-गगनायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिक--मन्त्रि-महामन्त्रि-गणक-दौवारिका-ऽमात्य-चेट-पीठमर्द-नागर-नैगम-श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-दूत-सन्धिपालैः सार्धम् , तत्र-अनेके ये गणनायकाः समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणनायकाः, गणप्रधाना इत्यर्थः, दण्डनायका-दण्डदातारः, राजानः-मण्डलाऽधिपाः, ईश्वरा-ऐश्वर्यसम्पन्नाः युवराजाः, तलवराः-तलं सौवर्णपट्टबन्धः, परितुष्टनरपतिप्रदत्तेन तेन तलेन वराः, तलवराः-सन्तुष्टभूपप्रदत्तपट्टबन्धसुशोभितराजकल्पाः इत्यर्थः, 'माडंबिय' माडम्बिकाः, ग्रामपञ्चशतीपतय इत्यर्थः, यद्वा-सार्वक्रोश-द्वयपरिमितप्रान्तरैर्विच्छिद्य विच्छिद्य स्थितानां ग्रामाणामधिपतयः, कोडुंबिय-कौटुम्बिकाः-बहुकुटुम्बभरणतत्पराः, मन्त्रिणःराई-सर-तलवर-माडंबिय-कोडंबिय-मंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेडपीढमद्द-नागर-नेगम-सेटि-सेणावइ-सत्यवाह-य-संधिवाल सद्धिं संपरिबुडे विहरइ) अनेक गणनायकों से-प्रयोजन उपस्थित होने पर जो गण तैयार करते थे ऐसे लोगों से, दण्डनायकों से, माण्डलिक राजाओं से, ईश्वरों से युवराजों से, तलवरों से राजाने संतुष्ट होकर जिन लोगों को सुवर्णका पट्टबन्ध दिया, उस पट्टबन्ध से सुशोभित राजातुल्य पुरुषों से, माडम्बिकों से-पाँच सौ ग्रामों के अधिपतियों से, अथवा-ढाई ढाई कोशका अन्तर जिन दो गामों के बीच में होता है ऐसे अनेक गामों के अधिपतियों से, कौटुम्बिकों से-कुटुम्ब के भरण-पोषण में तत्पर व्यक्तियों से बिय-कोडुबिय-मंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च - चेड-पीढमद्द-नागर-नेगमसेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवाल सद्धि संपरिवुडे विहरइ) मने गणनायકેથી=પ્રોજન ઉપસ્થિત થાય ત્યારે જે ગણુ તૈયાર કરતા હતા તેવા લોકોથી, દંડનાયકેથી, માંડલિક રાજાઓથી, ઈશ્વરેથી યુવરાજેથી, તલવથી=રાજાએ સંતુષ્ટ થઈને જે લોકોને સુવર્ણને પટ્ટબન્ધ આપે હોય તે પટ્ટબંધથી સુશોભિત રાજા જેવા પુરૂષોથી, માડમ્બિકથી પાંચસો ગામના અધિપતિઓથી અથવા અઢી અઢી ગાઉનું અંતર જે બે ગામોની વચ્ચે હોય એવા અનેક ગામોના અધિપતિઓથી, કૌટુમ્બિકથી કુટુંબના A२६ पौष ५२ व्यतिमाथी, मात्रमाथी,=४व्यनी समीक्षा (निर्णय ) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. १५ उपस्थानशालागतकूणिकवर्जनम् . कर्तव्यालोचनं मन्त्रः, सोऽस्यास्तीति मन्त्री, बहुसंख्यका मन्त्रिणः, विचारकारका इत्यर्थः, महामन्त्रिणः-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः-सूक्ष्मातिसूक्ष्मविचारका इत्यर्थः, गणग-गणकाः-ज्योतिषिकाः-शुभाशुभफलादेशकारिणः, 'दोवारिय' दौवारिका द्वारपालाः, अमात्याः-राज्यहितचिन्तकाः-अष्टादशानां प्रकृतीनां नागरिकश्रेणीनां महत्तरा इति यावत् , चेटाः. दासाः, पीठमर्दाः-अङ्गसंवाहकाः-आसनसमीपवर्तिनः-सेवकाः, नागराः नगरवासिनो नागरिका, नैगमाः-पौरवगिजः, श्रेष्ठिनः-लक्ष्मीकृपासूचकपट्टालंकृतकाः प्रधानव्यवहारिणः 'सेणावइ । सेनापतयः-चतुरङ्गसेनायाश्चतुर्विधा अधिपाः, सार्थवाहाः-साथ समानव्यवसायिसमूह वाह यन्ति योगक्षेमाभ्यां रक्षन्ति इति अर्थात्-समूहेन दूरदेशं गत्वा क्रयविक्रयकर्तारः । दूताः-सन्देशहराः, सन्धिपालाः-युध्यमानेन राज्ञा कृतःसन्धिःतं पालयन्तीति सन्धिपालाः । एतेषां द्वन्द्वं विधाय तैर्गगनायकादिसन्धिपालाऽन्तैः सार्द्धम् , अत्र आषत्वात् सन्धिपालशब्दोत्तरवर्तितृतीयाविभक्तेर्लोपः, 'संपरिखुडे' सम्परिवृतः -संसम्यक् समन्ताद्वेष्टितः 'विहरई' विहरति-सुखेन कालं नयति स्मेति भावः ॥ सू० १५ ॥ मान्त्रयों से कर्तव्य की समीक्षा करनेवाले विचारवान पुरुषों से, महामन्त्रियों से= सूक्ष्मातिसूक्ष्मविचारशील मन्त्रिमण्डल के प्रधानों से, गणकों से-शुभ, अशुभ फल का निवेदन करनेवाले ज्योतिषियों से, दौवारिकों से द्वारपालों से, अमात्यों से राज्य के हेत चिन्तकों से अर्थात् अठारह प्रकृतियों-ज्ञातियों के मुखियों से, चेटों से दासों से, पीठमईकों से अङ्गमईकों से अर्थात् समीप में रहनेवाले सेवकों से, नागरों से नागरिक पुरुषों से, नैगमों से पौरवणिग्जनों से, श्रेष्ठियों से लक्ष्मी की कृपा का सूचक पट्ट से सुशोभित मुख्य मुख्य सेठों से, सेनापतियों से चतुरङ्गिणी सेना के नायकों से, सार्थवाहों से, दूतों से, तथा-सन्धिपालों से शत्रु राजाओं के साथ सन्धि करने के लिये नियुक्त अधिकारी पुरुषों से परिवृत होकर बैठे हुए थे ॥ सू० १५॥ કરનારા વિચારવાન પુરૂથી, મહામંત્રિઓથી સૂક્ષ્માતિસૂક્ષમ વિચારશીલ મંત્રિમંડલના પ્રધાનેથી, ગણકેથી=શુભ અશુભ ફલનાં નિવેદન કરવાવાળા જેતિષિએથી, દૌવારિકેથી દ્વારપાળોથી, અમાત્યોથી =રાજ્યહિતચિંતકથી અર્થાત્ અઢાર પ્રકૃતિ-જ્ઞાતિઓના મુખિઓથી, એટેથી=દાસેથી, પીઠમથીઅંગમર્દકેથી અર્થાત પાસે રહેવાવાળા (હજુરીઆ) સેવકેથી, નાગરથી= નાગરિક પુરૂષાથી, નિગમોથી=પર વણિક જનથી, શ્રેષ્ઠિઓથી લક્ષ્મીની કૃપાના સૂચક પટ્ટથી સુશોભિત મુખ્ય મુખ્ય શેઠેથી, સેનાપતિઓથી=ચતુરંગિણી સેનાના નાયકેથી, સાર્થવાહથી, દ્વતથી તથા સંધિપાલોથી=શત્રુ રાજાઓની સાથે સંધિ કરવાને માટે નિમણુંક કરેલા અધિકારી પુરૂષોથી વીંટળાઈને બેઠા હતા. (સૂ. ૧૫). Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महा टीका-' तेणं कालेणं ' इत्यादि । अधुना चरमतीर्थङ्करं भगवन्तं श्रीमहावीरस्वामिनं वर्णयति- तेणं' इति सूत्रेण । स खळु भगवान् वचनागोचरगुणनिकररुचिरो महावीरोऽप्रतिबन्धविहारक्रमेण पूर्णभद्रमुद्यानं समवसर्तुकामः चम्पाया नगर्याः समीपं ग्राममुपागत इति वर्धते ' तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । तस्मिन् खलु काले-चतुर्थारकलक्षणे तस्मिन् समये-कोगिकभूपशासनसमये, 'समणे' श्रमणः-श्राम्यति-तीव्रतपसि यतते, ते श्रमणः । 'भगवं' भगवान् समग्रैश्वर्यसम्पन्नः, 'महावीरे' महावीरः-महावीरनाम्ना प्रसिद्धश्चरमतीर्थकरः, गुगनिष्पन्नमिदं नाम; अधुना महावीरशब्द-व्युत्पत्तिमाह-विशेषतः शिवपदमियति-गच्छतीति वीरः अथवा विदारयति ' तेणं कालेणं तेणं समएणं समगे भगवं महावीरे' इत्यादि, अब चरमतीर्थकर भगवान महावीर स्वामी का " तेणं कालेणं" इत्यादि १६ वें सूत्रद्वारा वर्णन किया जाता है। इसमें सर्वप्रथम वचन-अगोचरप्रशस्त गुणों के समूह से विराजित वे प्रभु अप्रतिबंध विहार करते हुए पूर्णभद्र नाम के उद्यान में पधारने के निमित्त चंपानगरी के समीपवर्ती ग्राम में पधारे । ( तेणं कालेणं तेणं समएणं) अवसर्पिगी कालके चतुर्थ आरे के उस समयमें कि जिस समय में कोणिक राजा राज्य करते थे, (समणे) श्रमण-तीत्र तपस्या करनेवाले ( भगवं ) भगवान-समग्र ऐश्वर्य संपन्न ( महावीरे ) महावीर-जो अपुनरागमनरूप से शिवपद को प्राप्त करते हैं वे वीर हैं, कर्मशत्रुओं का जो विदारण “ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे” छत्याहि. वे य२भ तीथ४२ मावान महावीर स्वामीनु पनि “ तेणं कालेण" ઇત્યાદિ ૧૬મા સૂત્ર દ્વારા કરવામાં આવે છે. તેમાં સર્વથી પ્રથમ વચન અગેચર-પ્રશસ્ત ગુણોના સમૂહથી વિરાજમાન તે પ્રભુ અપ્રતિબન્ધ વિહાર કરતાં કરતાં પૂર્ણભદ્ર નામના ઉદ્યાનમાં પધારવાના નિમિત્તે ચંપાनगरीना नना ॥भमां पधार्या. ( ₹र्ण कालेणं तेणं समएणं ) असणी કાલના ચોથા આરા તે સમયે કે જે સમયમાં કેણિક રાજા રાજા ४२ तासमणे ) श्रम-तीन तपस्या ) मामा समय अवयसन महावीरे ) मडावी२- ३५. शि પદને પ્રાન કરે છે તેવીર છે, કર્મશત્રુઓને જ રહે છે તે વીર Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टोका सू. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम्. वीरे आइगरे तित्थगरे सयंसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसरिपुसंघ-मिति वीरः। यद्वा-अनन्याऽनुभूतमहातपःश्रिया विराजते इति वीरः, यद्वा अन्तरङ्गमोहमहाबलनिर्दलनार्थमनन्ततपोवीय व्यापारयति इति वीरः सामान्यजिनः; तदपेक्षया महांश्चासौ वीरः महावीरः । महत्त्वगुणयुक्तवीरत्वमस्य विविधपरिषहोपसर्गनिपातेऽपि निश्चलत्वात् जन्मसमये निजाङ्गुष्ठेन मेरोश्चालनाच्च । 'आइगरे' आदिकरः-आदौ प्रथमतः स्वशासनापेक्षया श्रुतचारित्रधर्मलक्षणं कार्य करोति तच्छील आदिकरः । 'तित्थगरे' तीर्थकरः-तीर्यते-पार्यते संसारमोहमहोद करते हैं वे वीर हैं, जो अनन्य सदृश तपस्या की शोभा से विराजमान होते हैं-वे वीर हैं, जिन्होंने अन्तरंग-अन्तः स्थित मोहके महाबल का नाश करने के लिये अपने अनन्त तप वीर्यका प्रयोग किया है वे वीर हैं । इस प्रकार के वीरों सामान्य जिनोंकी अपेक्षा भगवान् महत्त्व गुणों से युक्त हैं, इसलिये वे महावीर हैं। अनेक परिषह उपसर्ग उपस्थित होने पर भी वे निश्चल थे, जन्म समय में अपने अंगूठे से मेरु को हिलाया था यही इनका महत्व है। ऐसे अन्तिम तीर्थंकर महावीर प्रभु जो इन निम्नलिखित विशेषणों से संपन्न हैं वे चंपानगरी के समीपस्थ ग्राममें पधारे, इस प्रकार इस सूत्रका संबंध लगाना चाहिये । वे महावीर प्रभु कैसे हैं ? इस बात को नीचे लिखे हुए विशेषणों द्वारा सूत्रकार स्पष्ट करते हैं। वे प्रभु (आइगरे) आदिकर--स्वशासन की अपेक्षा श्रुतचारित्ररूप धर्म की आदि करने वाले हैं, (तित्थयरे) तीर्थकर हैं-जिसको प्राप्त कर जीव संसाररूपी महासमुद्र पार करते हैं જે અનન્ય-સદશ તપસ્યાની શોભાવડે વિરાજમાન છે તે વીર છે. જેઓએ અંતરંગ–અંતઃસ્થિત મેહના મહાબલને નાશ કરવાને માટે પિતાના અનંત તપવીય (બલ)ને પ્રયોગ કર્યો છે તે વીર છે. એ પ્રકારના વીરની–સામાન્ય જીની અપેક્ષા ભગવાન મહત્ત્વ ગુણેથી યુક્ત છે, તેથી તેઓ મહાવીર છે. અનેક પરીષહ ઉપસર્ગ ઉપસ્થિત થતાં પણ તેઓ નિશ્ચળ રહેતા, જન્મ સમયે પિતાના અંગુઠાવડે મેરૂ પર્વતને હલાવ્યો હતો એજ તેમનું મહત્ત્વ છે. એવા અંતિમ તીર્થકર મહાવીર પ્રભુ કે જે, નિમને લિખિત વિશેષણોથી . સંપન્ન છે તે ચંપોથીમાતા ના ગામમાં પધાર્યા. એ પ્રકારે આ સૂત્રને સંબંધ ઘટાવવો જોઈએ. લે મહાવીર પ્રભુ કેવા છે તે વાતને નીચે લખેલા विशेषणेवा। सूत्र . प्रभु (आइगरे ) मा४ि२-२५शासननी अपेक्षा श्रुतविन माहि ४२१८१ छ, (तित्थयरे ) तीर्थ Amrup Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र धिर्येन तत् तीर्थम् चतुर्विधः सङ्घः, तत्करणशीलत्वात् तीर्थकरः । 'सयंसंबुद्ध' स्वयंसम्बुद्भःस्वयं परोपदेशमन्तरेण सम्बुद्धः सम्यक्तया बोधं प्राप्तः-स्वयंसम्बुद्धः । 'पुरिमुत्तमे' पुरुषोत्तमः-पुरुषेषु उत्तमः-श्रेष्ठः-ज्ञानाद्यनन्तगुणवत्त्वात्पुरुषोत्तमः । 'पुरिससीहे ' पुरुषसिंहः-पुरुषेषु सिंहः-रागद्वेषादिशत्रुपराजये दृष्टाऽद्भुतपराक्रमत्वात् इति, यद्वा-पुरुषः सिंह इव इति पुरुषसिंहः । “पुरिसवरपुंडरीए' पुरुषवरपुण्डरीकम्-पुण्डरीकं-धवलकमलं, वरञ्च तत्पुण्डरीकं वरपुण्डरीकं धवलकमलप्रधानं, पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेत्युपमितसमासे पुरुषवरपुण्डरीकम् , भगवतो वरपुण्डरीकोपमा च विनिर्गताऽखिलाऽशुभमलीमसत्वात् सर्वैः शुभानुभावैः परिशुद्धत्वाच्च, यद्वा यथा पुण्डरीकं पङ्काजातमपि सलिले वर्द्धितमपि चोभयसम्बन्धमपहाय निर्लेप जलोपरि रमणीयं संदृश्यते निजानुपमगुणगगबलेन सुरासुर-नर-निकर-शिरोधारणीयतयाऽतिमहनीयं परमसुखाऽऽस्पदश्च भवति ऐसे चतुर्विध संघरूप तीर्थ के कर्ता हैं ( सयंसंबुद्धे ) परोपदेश के विना स्वयमेव बोध को प्राप्त हुए हैं, इसलिये स्वयंसंबुद्ध हैं, (पुरिमुत्तमे) ज्ञानादिक अनन्तशुद्ध गुणों की जागृति-विशिष्ट होने से पुरुषों में उत्तम हैं, (पुरिससीहे ) रागद्वेषादिक शत्रुओं के पराजित करने में अद्वितीय-पराक्रम प्रदर्शित करने के कारण पुरुषसिंह हैं । (पुरिसवरपुंडरीए) पुरुषवरपुंडरीक समस्त प्रकार की मलिनता के अभाव से पुरुषों में श्रेष्ठ शुभ्र कमल जैसे हैं । यहां भगवान् को जो वरपुंडरीक की उपमा दी गई है उसका भाव यह है कि जिस प्रकार कमल कीचड से उद्भूत होने पर एवं जल में वर्द्धित होने पर भी इन दोनों (कीचड और जल) के संबंध से रहित होकर निर्लेप होता है, जल से भिन्न होकर उसीमें रहता हुआ भी जैसे કર છે. જેને પ્રાપ્ત કરીને જીવ સંસારરૂપી મહાસમુદ્ર પાર કરે છે એવા यतुर्विध संध३५ तार्थना ४ छ. ( सयंसंबुद्धे ) परेपहेशन पर पानी भेगे०४ माधने प्राप्त यो छ तेथी स्वयं समुद्ध छे. ( पुरिसुत्तमे ) ज्ञान मनन्त शुद्ध शुष्णनीति -विशिष्ट पाथी पु३षामा उत्तम छे. (पुरिससीहे) રાગ દ્વેષાદિક શત્રુઓને પરાજિત કરવામાં અદ્વિતીય પરાક્રમ બતાવવાના કાર थी ५३५-सिड छे. ( पुरिसवरपुंडरीए) ५३५१२ री-समस्त ४२नी મલિનતાના અભાવથી પુરૂષોમાં શ્રેષ્ઠ શુભ્ર કમલ જેવા છે. અહીં ભગવાનને જે વરપુંડરીકની ઉપમા આપેલી છે તેને ભાવ એ છે કે જે પ્રકારે કમલ કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે તેમજ જલમાં વધતું જાય છે છતાં પણ એ બને ( કીચડ અને જલ)ના સબંધથી રહિત થઈને નિર્લેપ રહે છે. જલથી જુદા Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका. स. १६ भगवन्महावीरस्वामिवणनम्. ७१ वरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी लोगुत्तमे लोगनाहे लोगहिए लोगतथाऽयं भगवान् कर्मपङ्काजातो भोगाऽम्भोवर्द्धितः सन्नपि निर्लेपस्तदुभयमतिवर्तते, गुणसम्पदाऽऽस्पदतया च केवलादिगुणभावादखिलभव्यजनशिरोधारणीयो भवतीति । 'पुरिसवरगंधहत्थी' पुरुषवरगन्धहस्ती-गन्धयुक्तो हस्ती गन्धहस्ती वरश्चासौ गन्ध हस्ती वरगन्धहस्ती पुरुषो वरगन्धहस्तीव-पुरुषवरगन्धहस्ती, गन्धहस्तिलक्षणं यथा-- यस्य गन्धं समाघ्राय, पलायन्ते परे गजाः । तं गन्धहस्तिनं विद्यान्नृपतेर्विजयावहम् ॥ इति ।। अत एव यथा गन्धहस्तिगन्धमाघ्राय अन्ये गजा इतस्ततो द्रुतं पलाय्य क्यापि निलीयन्ते तद्वदचिन्त्यातिशयप्रभाववशाद् विहरणसमीरणगन्धसम्बन्धगन्धतोऽपि ईतिसुन्दर दिखता है और सुर, असुर एवं नरों द्वारा अपने २ शिरपर धारण किये जाने से अतिमहनीय एवं अत्यंत प्रशंसनीय होता है, उसीप्रकार प्रभु भी कर्मरूप पङ्क से उद्भूत होने पर एवं भोगरूप जल में वर्द्धित होने पर भी इन दोनों से निर्लिप्त ही हैं एवं ज्ञानादिकगुणरूपी सम्पत्ति के स्थान होने से अर्थात् केवलज्ञानादिक गुणों से विशिष्ट होने से समस्त भव्यजनों द्वारा शिरोधार्य हैं। (पुरिसवरगंधहत्थी ) भगवान् पुरुषों में गंधहस्ती जैसे हैं। जिसकी गंध से अन्य गज दूर भाग जावें उसका नाम गंधहस्ती है। यह हस्ती जिस राजा के पास होता है वह नियम में शत्रुओं के बीच में रहने पर भी विजयलक्ष्मी प्राप्त करता है। इसी प्रकार प्रभु के विहार की गंध से भी उस २ स्थान से डमर-मरकी आदि उपद्रव રહીને પણ તેમાંજ રહેતાં હતાં જેમ સુંદર લાગે છે અને સુર, અસુર તેમજ મનુષ્ય દ્વારા પિતાને માથે ધારણ કરવામાં આવતાં અતિમહનીય તેમજ અત્યંત પ્રશંસનીય બને છે, તેમ પ્રભુ પણ કર્મરૂપ પંક (કીચડ) થી ઉત્પન્ન થયા છતાં તેમજ ભેગરૂપ જલમાં વૃદ્ધિ પામ્યા છતાં પણ એ બન્નેથી નિર્લે પજ રહેલા છે તેમજ જ્ઞાનાદિક ગુણરૂપી સંપત્તિનું સ્થાન હવાથી અર્થાત્ કેવલ જ્ઞાનાદિક ગુણોથી વિશિષ્ટ હોવાથી સમસ્ત ભવ્ય જીવો द्वारा शिरोधार्य मनेा छ. ( पुरिसवरगंधहत्थी ) भगवान् ५३षामा यस्तो જેવા છે, જેની ગંધથી બીજા હાથીઓ દૂર ભાગી જાય તેનું નામ ગંધહસ્તી છે. આ હાથી જે રાજાની પાસે હોય છે તે નિયમથી શત્રુઓની વચમાં રહેવા છતાં પણ વિજયેલકમી પ્રાપ્ત કરે છે. એવી જ રીતે પ્રભુના વિહારની ગંધથી પણ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसत्रे डमर-मरकादय उपद्रवा द्राग् दिक्षु प्रद्रवन्तीति, गन्धगजाश्रितराजवद् भगवदाश्रितो भव्यगणः सर्वदा विजयवान् भवतीति भवत्युभयोर्युक्तं सादृश्यम् । ' लोगुत्तमे' लोकोत्तमः-लोकेषु भव्यसमाजेषु उत्तमः उत्कृष्टतमः, चतुस्त्रिंशदतिशयपञ्चत्रिंशद्वाणीगुणोपेतत्वात् । “लोगनाहे ' लोकनाथः-लोकानां भव्यानां नाथः नेता--योगक्षेमकरत्वात् । 'लोगहिए' लोकहितः-लोकः-एकेन्द्रियादिः सर्वप्राणिगणस्तस्मै हितः-तद्रक्षोपायप्रदर्शकत्वात् । ' लोगपईवे' लोकप्रदीपः-लोकस्य भव्यजनसमुदायस्य प्रदीपः; तन्मनोऽभिनिविष्टानादिमिथ्यात्वतमःपटलव्यपगमेन विशिष्टात्मतत्त्वप्रकाशकत्वात्; यथा प्रदीपस्य सकलजीवाथ तुल्यप्रकाशकत्वेऽपि चक्षुष्मन्त एव तत्प्रकाशसुखभाजो भवन्ति न त्वन्धास्तथा भव्या एव भगवदनुभावसमुद्भूतपरमानन्दसन्दोहभाजो भवन्ति नाभव्या इति भी इतस्ततः भाग जाते हैं । एवं भगवान का भक्तजन भी सर्वदा विजयशील रहा करते हैं । ( लोगुत्तमे) चौतीस अतिशय और पैंतीस वाणीगुणों से युक्त होने के कारण भगवान भव्यरूपी लोक में उत्कृष्टतम हैं । ( लोगनाहे ) लोकों के अर्थात् भव्यों के योगक्षेम करनेवाले होने से भगवान लोकनाथ हैं । ( लोगहिए ) सभी प्राणियों की रक्षा के उपाय दिखलाने के कारण भगवान् लोकों के अर्थात् एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियों के हितकारक हैं। इसलिये वे लोकहित हैं । ( लोगपईवे) भगवान् लोगों के भव्यों के मन में बसे हुए अनादिमिथ्यात्व पुञ्ज को दूर कर विशिष्ट आत्मतत्त्व प्रकाशित करने के कारण लोकप्रदीप हैं । जैसे-प्रदीप यद्यपि सभी जीवों के लिये तुल्यप्रकाश देने वाला है, तथापि नेत्रवान् मनुष्य ही उसके प्रकाश का आनन्द ले सकता है, उसी प्रकार भव्यलोग ही તે તે સ્થાનમાંથી ડમર, મરકી–આદિ ઉપદ્રવ પણ આમતેમ ભાગી જાય છે, તેમજ मावानना storन। ५९ सहा विन्यशील रह्या ४२ छ. (लोगुत्तमे) यात्रीस અતિશયો અને પાંત્રીસ વાણુ ગુણોથી યુક્ત હોવાના કારણે ભગવાન ભવ્યરૂપી भi Gष्टतम छे, (लोगनाहे) खोना अर्थात् मन्योना योगक्षेम ४२१- . पापाथी भगवान नाथ छे. (लोगहिए) तमाम प्राणीमानी २क्षाना ઉપાય બતાવનાર હોવાના કારણે ભગવાન લોકોનાં અર્થાત્ એકેન્દ્રિય આદિ तमाम प्राणीमाना हित:२४ छ. ते भाटेखित छ. (लोगपईवे) भगवान લોકેના–ભવ્ય જીવોના મનમાં વસેલા અનાદિ મિથ્યાત્વપુંજને દૂર કરીને વિશિષ્ટ આત્મતત્તવ પ્રકાશિત કરનારા હોવાના કારણે લોકપ્રદીપ છે. જેમકે પ્રદીપ જે કે બધા જીવોને માટે સમાન પ્રકાશ આપવાવાળો હોય છે, પણ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ पोयूषवर्षिणी टीका सू. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम्. पईवे लोगपज्जोयगरे अभयदए चक्खुदए मग्गदए सरणप्रतिबोधयितुं प्रदीपदृष्टान्तः; अतएव लोकपदेन भव्यानां ग्रहणम् । 'लोगपज्जोयगरे ' लोकप्रद्योतकरः-लोकशब्देनात्र लोक्यते दृश्यते केवलालोकेन यथावस्थिततयेति व्युत्पत्त्या लोकालोकसोरुभयोर्ग्रहणम् , तेन-लोकस्य-लोकालोकलक्षणस्य सकलपदार्थस्य प्रद्योतः-लोकालोकप्रयातस्तं करोतीत्येवं शीलो लोकालोकप्रद्योतकरः सर्वलोकप्रकाशकरगशीलः । ताच्छील्ये कर्तरि टः प्रत्ययः । 'अभयदये' अभयदयःन भयम् -अभयम् , भयानामभावो वा-अभयम्-अक्षोभलक्षण आत्मनोऽवस्थाविशेषो मोक्षसाधनभूतमुत्कृष्टधैर्यमिति यावत्, दयते-ददातीति दयः, अभयस्य दयः अभयदयः, यद्वा-अभया-भयरहिता-दया-सर्वजीवङ्कटप्रतिमोचनस्वरूपाऽनुकम्पा यस्य सेाऽभयदयः । 'चक्खुदये' चक्षुर्दयः-चक्षुर्ज्ञान-निखिलवस्तुतत्वाऽवभालकतया भगवान के प्रभाव-जनित परमानन्द के भागी होते हैं; अभव्य नहीं । (लोगपज्जोयगरे ) भगवान् लोकालोकलक्षण सभी पदार्थों के प्रकाशक हैं, इसलिये वे लोक-- प्रद्योतकर है। (अभयदए ) भगवान अभयदय हैं-आत्माकी अक्षोभपरिणति का ना अभय है। दूसरे शब्द में इसे मोक्षका साधनभूत उत्कृष्ट धैर्य भी कहते हैं। प्रभुम इसे प्रदान करते हैं; अतः वे अभयदय कहे गये हैं । अथवा भयरहित दया जिनके पास है वे अभयदय हैं । भगवान की दया समस्त जीवों को संकटों से छुडाने वाली होती है; इसलिये प्रभु अभयद । हैं । ( चक्खुदये) भगवान चक्षुर्दय हैं । जिस प्रकाः हरिणादि जंगली जानवरों से युक्त वन में चोरों द्वारा लूटे गये और નેત્રવાળો મનુષ્ય જ તેના પ્રકાશને આનંદ લઈ શકે છે, તે પ્રકારે જ ભવ્ય લોક જ ભગવાનના પ્રભાવજનિત પરમાનન્દના ભાગી થાય છે; અભવ્ય નહિં. (लोगपज्जोयगरे) भगवान् सक्ष तमाम पदार्थाना प्राश छ, तेथी तमा प्रद्योत४२ छे. (अभयदये) भगवान मभयदाता छ. मात्भाना શેભરહિતપણાની પરિણતિનું નામ અભય છે. બીજા શબ્દમાં તેને મેક્ષના સાધનભૂત ઉત્કૃષ્ટ ધર્ય પણ કહે છે. પ્રભુ તેને પ્રદાન કરવાવાળા છે તેથી તેઓ અભયદય છે. અથવા ભયરહિત દયા જેની પાસે છે તે અભયદય છે. ભગવાનની દયા મિસ્ત જીવોને સંકટોથી છોડાવવાવાળી जय छ । २४थी प्रभु यह छ. ( चक्खुदये ) भगवान यक्षुहय छ. - જે પ્રકારે હરિણ આદિ જંગલી જાનવરોથી યુક્ત વનમાં દ્વારા લૂંટવામાં Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ औपपातिकसूत्रे चक्षुःसादृश्यात् तस्य दयो दायकश्चक्षुर्दयः, यथा हरिणादिशरण्येऽरण्ये लुण्टाकलुण्टितेभ्यः पट्टिकादिदानेन चक्षूषि पिधाय हस्तपादादि बद्ध्वा तैर्गर्ते पातितेभ्यः कश्चित्पट्टिकाऽपनोदेन चक्षुर्दत्वा मार्ग प्रदर्शयतीति तथा भगवानपि भवारण्ये रागद्वेषलुण्टाकलुण्टिताऽऽमगुणधनेभ्यो दुराग्रहपष्टिकाऽऽच्छादितज्ञानचक्षुभ्यो मिथ्यात्वगर्ते पातितेभ्यस्तदपनयनपूर्वकं ज्ञानचक्षुर्दत्वा मोक्षमार्ग प्रदर्शयति । एतदेव प्रकारान्तरेणाऽऽह ' मग्गदए' मार्गदयः-सम्यग्रत्नत्रयलक्षणः शिवपुरपथः, यद्वा-विशिष्टगुणस्थानप्रापकः क्षयोपशमभाको आंखों के ऊपर पट्टी बांधकर एवं हाथ पैर बांधकर खड्डे में पटके गये प्रागियों को कोई दयालु सज्जन उनकी आंखों की पट्टी खोल कर एवं उन्हें खड्डे से निकाल कर मार्ग दिखलाता है और इस अपेक्षा जैसे वह उन्हें व्यावहारिकरूप से चक्षु का दाता कहा जाता है उसी प्रकार भगवान् भी इस संसाररूप अरण्य में रागद्वेष आदि चोरों द्वारा जिनका आत्मगुणरूपी धन हरण किया जा चुका है एवं दुराग्रहरूपी पट्टी द्वारा जिनके ज्ञानरूपी नेत्र ढके हुए हैं तथा जो मिथ्यात्वरूपी खड्डे में पडे हैं ऐसे प्राणियों को उस मिथ्यात्वरूपी खड्डे से निकालकर ज्ञानरूपी चक्षु देकर उन्हें मुक्तिमार्ग दिखलाते हैं, अतः प्रभु चक्षुर्दय हैं। इसी बातको प्रकारान्तर से सूत्रकार पुनः प्रदर्शित करते हैं-(मग्गदए ) वे प्रभु मार्गदय हैं-सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय मुक्ति का मार्ग है, अथवा विशिष्ट गुणस्थानों का प्रापक क्षयोपशमभाव भी मार्ग है । प्रभु इसके दाता हैं। (सरणदए) कर्मरूपी शत्रुओं से वशीकृत होने के कारण આવેલાં અને આંખેના ઉપર પટ્ટી બાંધીને તેમજ હાથ પગ બાંધીને ખાડામાં નાખી દેવામાં આવેલાં પ્રાણિઓને કેઈ દયાળુ સજ્જન તેમની આંખોની પટ્ટી ખોલીને તેમજ તેમને ખાડામાંથી બહાર કાઢીને રસ્તે બતાવે છે અને તે અપેક્ષાએ તે જેમ તેના વ્યાવહારિકરૂપથી ચક્ષુને દાતા કહેવાય છે, તેજ પ્રકારે ભગવાન પણ આ સંસારરૂપ અરણ્યમાં રાગદ્વેષ આદિ ચરો દ્વારા જેના આત્મગુણરૂપી ધન હરણ કરવામાં આવી ચુકેલું છે તેમજ દુરાગ્રહરૂપી પટ્ટી દ્વારા જેનાં જ્ઞાનરૂપી નેત્ર ઢાંકી દીધેલાં છે તથા જે મિથ્યાત્વરૂપી ખાડામાં પડ્યા છે તેવાં પ્રાણિઓને તે મિથ્યાત્વરૂપી ખાડામાંથી કાઢીને જ્ઞાનરૂપી ચક્ષુ આપીને તેમને મુક્તિમાર્ગ બતાવે છે–તેથી પ્રભુ ચક્ષુદ્દેય છે. આ વાતને प्रशन्तरथी सूत्र४१२ ३शने प्रदर्शित ४२ छ, (मग्गदए ) ते (प्रमु) भागદય છે--સમ્યગ્દર્શનાદિ રત્નત્રય મુક્તિને માગે છે અથવા વિશિષ્ટ ગુણસ્થાનને प्रात ४२।१ना२ क्षयोपशमलाप पर भाग छे. प्रभु तेनो हात छ. ( सरण Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टोका. सू. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम् दए जीवदए बोहिदए धम्मदए धम्मदेसए धम्मनायए धम्ममार्गः, तस्य दयः-दाता, 'सरणदए' शरणदयः-शरणं-परित्राणं कर्मरिपुवशीकृततया व्याकुलानां प्राणिनां रक्षणस्थानं वा तस्य दयः । 'जीवदए' जीवदयः-जीवेषु-एकेन्द्रियादिसमस्तप्राणिषु दया-सङ्कटमोचनलाणा यस्येति, यद्वा-जीवन्ति मुनयो येन स जीवः-लंयमजीवितं तस्य दयः । ' बोहिदए' बोधिदयः-बोधिः-जिनप्रणीतधर्ममूलभूता तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपा तस्था दयः । 'धम्मदए' धर्मदयः-धर्मः-दुर्गतिप्रपतज्जन्तुसंरक्षणलक्षणः श्रुतचारित्रात्मकन्तस्य दयः । 'धम्मदेसए' धर्मदेशकःधर्मः प्राप्रतिपादितलक्षगस्तस्य देशकः उपदेशकः। 'धम्मनायए' धर्मनायकः व्याकुल हुए प्राणियों को प्रभु निर्भय स्थान के प्रदायक हैं, (जीवदए ) भगवान् की दया केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों तक ही सीमित ( व्याप्त ) नहीं है, किन्तु एकेन्द्रिय से लेकर समस्त संज्ञी असंज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियोंतक भी वह एकरस होकर बह रही है, इसलिये वे जीवदय हैं। अथवा-मुनिजन जिस जीवनसे जीते हैं ऐसा जो संयमरूप जीवित है उसके प्रदाता होने से प्रभुको जीवदय कहा गया है । (योहिदए ) भगवान् समकितरूपी बोधको देने वाले हैं । (धम्मदए ) दुर्गति में गिरते हुए प्राणियोंको जो धारण अर्थात रक्षण करे वह श्रुतचारित्रात्मक धर्म ही धर्म है। भगवान उस धर्मके दाता हैं। (धम्मदेसए) भगवान् उक्तस्वरूप धर्मके उपदेशक है। धम्मनायए) भगवान् उस धर्मके नायक-नेता अर्थात् प्रभवस्थान हैं । दए ) :पी शत्रुमाथी १श ४२रामेसा पाना एणे व्यास येतो प्राणिमाने प्रभु निर्णय स्थाननो प्रहाय छे. (जीवदये ) भगवाननी या કેવલ સંજ્ઞી પંચેંદ્રિય જી સુધી જ વ્યાસ (મર્યાદિત) નથી, પરંતુ એકેદિયથી માંડીને સમસ્ત સંજ્ઞી અસંસી પંચેંદ્રિય પ્રાણીઓ સુધી પણ તેઓ એકરસ થઈને વહે છે, તે માટે તેઓ જીવદય છે. અથવા મુનિજન જેવું જીવન જીવે છે તેવું સંયમરૂપ જીવન જે છે તેના પ્રદાતા હોવાથી પ્રભુને पय हेसा छ. ( बोहिदये ) भवान् समति३पी माधने हेवावा छे. (धम्मदए) गतिमा ५i प्राणिसानो द्वा२ मर्यात् २क्षा ४२ ते श्रुतयारित्रात्म धर्म ४ धर्म छ. भगवान् ते धर्मना दाता छे. (धम्मदेसए ) मापाने ७५२ ४सा २१३५ धर्मना उपहेश छ. (धम्मनायए) भगवान ते घना नायनेता अर्थात प्रभवस्थान छे. (धम्मसारही) भगवान धर्म३५ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे सारही धम्मवरचाउरंत-चकवटी दीवो ताणं सरणगई पइट्ठा धर्मस्य नायकः नेता प्रभव इति यावत् । 'धम्मसारही' धर्मसारथिः-धर्मस्य सारथिः, भगवति सारथित्वारोपेण धर्मे रथत्वारोपो व्यःयते इति परम्परितरूपकालङ्कारस्तस्माद् यथा सारथी रथद्वारा तत्स्थमध्वनीनं सुखपूर्वकमभीष्टं स्थानं नयति उन्मार्गगमनादितश्च प्रतिरुणद्धि तथा भगवान् धर्मद्वारा मोक्षस्थानमिति भावः । 'धम्मवर-चाउत-चकवट्टी' धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती-दान-शील-तपो-भावैः चतसृणां नरकादिगतीनां चतुर्णा वा कषायाणामन्तो नाशो यस्मात् , अथवा-चतस्रो गतीश्चतुरः कषायान् वाऽन्तयति नाशयतीति, यद्वा-चतुर्भिर्दानशीलतपोभावैः कृत्वाऽन्तो रम्योऽथवा चत्वारो दानादयोऽन्ता–अवयवा (धम्मसारही) भगवान् धर्मरूप रथका संचालन करनेवाले हैं। भगवानमें सारथित्वका आरोप करनेसे धर्ममें रथत्वका आरोप व्यञ्जित होता है, इसलिये यहाँ परम्परितरूपक अलंकार समझना चाहिये। इसका अभिप्राय यह है कि, जैसे सारथी रथद्वारा रथ पर बैठे हुए पथिकोंको सुखपूर्वक उनके अभीष्ट स्थानमें पहुँचाता है, उन्मार्गगमन आदिसे उनको रोकता है, उसी प्रकार भगवान् भी धर्मरूप रथमें भव्य प्राणियोंको बैठाकर उसके द्वारा उन्हें उनका अभीष्ट मोक्ष स्थानतक सुखपूर्वक पहुँचा देते हैं और उन्हें उन्मार्गसे रोकते हैं। इसलिये भगवान् धर्मसारथि कहे गये हैं । (धम्मवरचाउरंतचकवट्टी) दान, शील, तप, एवं भाव इन धर्मके जिन चार पायों द्वारा चार नरकादि गतियोंका अथवा चार क्रोधादि कषायोंका नाश होता है, अथवा-चार गतियोंका एवं चार कषायोंका जो नाश करता है, अथवा दान, शील, तप एवं રથના સંચાલન કરવાવાળા છે. ભગવાનમાં સારથિત્વને આરેપ કરવાથી ધર્મમાં રથત્વને આરોપ વ્યંજિત (પ્રગટ) થાય છે. તેથી અહીં પરંપરિતરૂપક અલંકાર સમજવો જોઈએ. તેને અભિપ્રાય એ છે કે જેમ સારથી રથદ્વારા રથ પર બેઠાં બેઠાં પથિકોને સુખપૂર્વક તેના અભીષ્ટ સ્થાને પહોંચાડે છે, આડા-અવળા માર્ગથી તેને રોકે છે, તે જ પ્રકારે ભગવાન પણ ધર્મરૂપ રથમાં ભવ્ય પ્રાણિઓને બેસાડીને તે દ્વારા તેમને તેમના અભીષ્ટ મોક્ષ સ્થાનસુધી સુખપૂર્વક પહોંચાડી દે છે અને તેમને બેટા માર્ગથી રેકે છે. આથી भगवान धर्मसारथि ४२वाय छे. (धम्मवरचाउरंतचक्कयट्टी हान, शीख, त५, તેમજ ભાવ એ ધર્મના જે ચાર પાયા છે તે વડે ચાર નરકાદિ ગતિઓને અથવા ચાર કષાયોને નાશ થાય છે અથવા ચાર ગતિઓને તેમજ ચાર Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका. सू. १६ भगवामहावीरस्वामिवर्णनम. यस्य, यद्वा-चत्वारि दानादीनि अन्तानि स्वरूपाणि यस्य, 'अन्तोऽवयवे स्वरूपे च'-इति हेमचन्द्रः । स चतुरन्तः, स एव स्वाधिके प्रज्ञायणि चातुरन्तः, चातुरन्त एव चक्र जन्मजरामरणोच्छेदकत्वेन चक्रतुल्यत्वात् , वरञ्च तत्-चातुरन्तचक्रं वरचातुरन्तचक्रम् , वरपदेन राजचक्रापेक्षयाऽस्य श्रेष्ठत्वं व्यज्यते लोकद्वयसाधकत्वात् , धर्म एव वरचातुर•न्तचक्रं धर्मवरचातुरन्तचक्रं तादृशस्य धर्माऽतिरिक्तस्यासम्भवात् । अतएव सौगतादिधर्माभासनिरासः, तेषां तात्त्विकार्थप्रतिपादकत्वाभावेन श्रेष्ठत्वाभावात् , धर्मवरचातुरन्तचक्रेण वर्तितुं शीलं यस्येति धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, चक्रवर्तिपदेन पट्खण्डाधिपतिसादृश्यं व्यज्यते, तथाहि-चत्वारः-उत्तरदिशि हिमवान् शेषदिक्षु चोपाधिभेदेन समुद्रा अन्ताः सीमानस्तेषु स्वामित्वेन भवश्चातुरन्तः, चक्रेण-रत्नभूत-प्रहरणविशेषसदृशेन चारित्ररत्नेन वर्तितुं शीलं यस्य स चक्रवर्ती. चातुरन्तश्चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती, भाव इन चारको लेकर जो रम्य-श्रेष्ठ है, अथवा-दानादिक चार जिसके अवयव हैं, अथवा दानादिक चार जिसके स्वरूप हैं. वह चतुरन्त है, चतुरन्त शब्दसे स्वार्थमें अण् प्रत्यय करने पर “चातुरन्त" बन जाता है, चातुरन्तही जन्म, जरा और मरणका उच्छेदक होनेसे एक चक्र है, इसे वर शब्दके साथ संबंधित करने पर "वरचातुरन्तचक्र" ऐसा पद बन जाता है, वर पद इस चातुरन्तचक्रको राजचक्रकी अपेक्षा श्रेष्ठ प्रकट करनेके लिये दिया गया है । राजचक्र तो केवळ इस लोककाही साधक होता है तब कि यह चातुरन्तचक्र इहलोक और परलोक इन दोनों लोकोंका साधक माना गया है। अब इस “वरचातुरन्तचक्र" पदको धर्मके साथ मिलाने पर “धर्मवरचातुरन्तचक्र" इस प्रकारका पद निष्पन्न हो जाता है, કષાયને જે નાશ કરે છે અથવા દાન. શીલ, તપ તેમજ ભાવ એ ચારને લઈને જે રમ્ય-શ્રેષ્ઠ છે અથવા દાનાદિક ચાર જેનાં અવયવો છે અથવા દાનાદિક ચાર જેનું સ્વરૂપ છે તે ચતુરન્ત છે. ચતુરન્ત શબ્દથી સ્વાર્થમાં વળ પ્રત્યય કરવાથી ચાતુરન્ત બને છે. ચાતુરન્ત જ જન્મ જરા અને મરણને નાશ કરનાર હોવાથી ચક્ર છે, તેને વર શબ્દની સાથે જોડવાથી “ વરચાતુરક્તચક” એવું પદ બની જાય છે. વર પદ આ ચાતુરન્તચક્રને રાજચક્રની અપેક્ષાએ શ્રેષ્ઠ પ્રકટ કરવા માટે આપેલું છે. રાજચક તે કેવલ આજ લોકને સાધક બને છે જ્યારે આ ચાતુરન્તચક ઈહલોક અને પરલોક એ બને લોકોનો સાધક માનવામાં આવે છે. હવે આ “વરચાતુરન્તચક” પદને ધર્મની સાથે જોડવાથા “ધર્મવરચાતુરન્તચક્ર” આ પ્રકારનું પદ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे 4 अप्पsिहय-वर-नाण- दंसण-धरे वियट्टच्छउमे जिणे जावए तिष्णे धर्मेण–न्यायेन वरः श्रेष्ठः इतरतीर्थिकाऽपेक्षयेति धर्मवरः, धर्माः पुण्य-यम- न्याय स्वभावाऽऽचारसोमपाः, इत्यमरः, स चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती च । यद्वा चातुरन्तं च तच्चक्रं चातुरन्तचकं, वरश्च तच्चातुरन्तचक्रं वरचातुरन्तचक्रं धर्मो वरचातुरन्त चक्रमिव धर्मवरचा तुरन्त - चक्रं तेन वर्तितुं वर्तयितुं वा शीलं यस्य स तथा । 'दीवो' द्वीपः - संसारसमुद्रे निमज्जतां द्वीपतुल्यत्वात् । ' ताणं' त्राणं कर्मकदर्थितानां भव्यानां रक्षणसमर्थः । अत एव तेषां सरणगई ' शरणगतिः– आश्रयस्थानम् । 'पट्टा' प्रतिष्ठा - कालत्रयेऽप्यविनाशित्वेन स्थितः । 6 अप्पडिहय - वर - नाण- दंसग - घरे ' अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरः - प्रतिहतं जिसका अर्थ " धर्मही वरचातुरन्तचक्र है " ऐसा होता है । अन्य सौगतादिक धर्म धर्मवरचातुरन्तचक्र नहीं हैं; क्योंकि उनमें तात्त्विकता का अभाव है । इसका भी कारण एक यही है कि वे यथावस्थित अर्थका यथार्थ प्रतिपादन नहीं करते हैं । इस धर्मरचातुरन्तचक्र के अनुसार जिसके वर्तन करनेका स्वभाव है वह धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती है, अत एव भगवान् धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती हैं । भगवान् संसार समुद्र में डूबनेवाले प्राणियोंके द्वीपतुल्य हैं; इसलिये वे स्वयं ( दीवो) द्वीप हैं । (ताणं ) कर्मों से कदर्थित भव्योंके प्रभु रक्षक हैं इसलिये त्राता कहे गये हैं, और इसी कारण (सरणगई ) भव्योंके लिये शरणस्वरूप हैं । ( पट्ठा) प्रभु स्वयं प्रतिष्ठास्वरूप इसलिये हैं कि तीनों कालों में भी उनका कभी भी विनाश नहीं होता है । ( अप्प - डिह - - नाण - दंसणधरे ) प्रभुका अनंतज्ञान एवं अनंत दर्शन अप्रतिहत- निरा ७८ 4 નિષ્પન્ન થાય છે. જેનો અર્થ ધમ જ વરચાતુરન્તચક્ર' છે એવા થાય छे. जीन सौगत आदि, धर्म धर्भवस्यातुरन्तय नथी; प्रेम तेमां तात्त्विકતાના અભાવ છે. તેનું પણ કારણ એક તા એ છે કે તેએ યથાવસ્થિત અને યથાર્થ (ખરાખર) પ્રતિપાદન કરતા નથી. આ ધર્મવરચાતુરન્તચક્રને અનુસરીને જેને વર્તન કરવાના સ્વભાવ છે તે ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવર્તી છે. એટલે જ ભગવાન ધર્મ વરચાતુરન્તચક્રવત્તી છે. ભગવાન સૌંસાર સમુદ્રમાં डूमवावाजा आशियाना द्वीप नेवा छे तेथी तेथे पोते ( दीवो) द्वीप छे. (ताणं) :र्भाथी ४र्थित लग्योना प्रभु रक्षः छे ते भाटे तेथे त्राता :वाय छे, रमने ते ४ अरथी तेथे ( सरणगई ) लभ्योने भाटे शरणुस्व३५ छे. (पइट्ठा) अलु पोते प्रतिष्ठा-स्वय भेटला भाटे छेत्र अमांशु तेभनो उडीओ विनाश थते। नथी. ( अप्पडिय - वर - नाण - दंसण - धरे ) प्रभुनु Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम् तारए बुद्धे बोहए मुत्ते मोयगे सव्वन्नू सव्वदरिसी सिव-मयलभित्ताद्यावरगस्खलितं न प्रतिहतम्-अप्रतिहतं, ज्ञानञ्च दर्शनञ्चति ज्ञानदर्शने, वरे श्रेष्ठे च ते ज्ञानदर्शने-वरज्ञानदर्शने-केवलज्ञानकेवलदर्शने, अप्रतिहते वरज्ञानदर्शने-अप्रतिहतवरज्ञानदर्शने, धरतीति धरः-अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनयोधरः-अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरःआवरणरहितकेवलज्ञानकेवलदर्शनधारी। 'वियदृच्छउमे' व्यावृत्तच्छमा-छाद्यतेआत्रियते केवलज्ञान-केवलदर्शनाद्यात्मनोऽनेनेति छद्म-घातिककर्मवृन्दं-ज्ञानावरणीयादिरूपं कर्मजातम्, व्यावृत्तं-निवृत्तं छद्म यस्मात् स व्यावृत्तच्छद्मा। 'जिणे' जिनःरागद्वेषशत्रुविजेता । 'जावए' जापकः-जापयति रागद्वेषादिशत्रून् जयन्तं भव्यजीवगणं धर्मदेशनादिना प्रेरयतोति जापकः । 'तिण्णे' तीर्णः-स्वयं संसारौघं तीर्णः-उत्तीर्णः । 'तारए' तारकः-तारयति-तरतोऽन्यान् भव्यजीवान् प्रेरयतीति तारकः। 'बुद्ध' बुद्धः-स्वयं वरण एवं वर=श्रेष्ठ है अर्थात् प्रभु आवरणरहित केवलज्ञान, केवलदर्शन के धारक हैं। (वियदृच्छउमे ) केवलज्ञान एवं केवलदर्शनादिक जिसके द्वारा आवृत होते हैं वह यहां छद्म शब्दसे गृहीत हुआ है, अतः इस दृष्टिसे 'छद्म' शब्दका अर्थ घातिक कर्म होता है, यह छद्म प्रभुकी आत्मासे सर्वथा निवृत्त हो चुका है, इसलिये प्रभु व्यावृत्तछद्म हैं। (जिणे ) रागादिक अन्तरंग शत्रुओं पर विजय पाने से प्रभु जिन हैं। (जावए) जोतनेवाले भव्यजीवों को प्रभु ने अपनी धर्मदेशना द्वारा आत्मकल्याण के मार्ग की ओर प्रेरित किया, इसलिये प्रभु जापक-जितानेवाले हैं । (तिण्णे) संसारसमुद्र से पार होने की वजह से प्रभु स्वयं तीर्ण हैं। ( तारए) भगवान ने संसारसमुद्र से पार होने के इच्छावाले जीवों को प्रेरित किया इसलिये અનંતજ્ઞાન તેમજ અનંત દર્શન અપ્રતિહત-નિરાવરણ તેમજ વર શ્રેષ્ઠ છે અર્થાત્ પ્રભુ આવરણુરહિત કેવલજ્ઞાન અને કેવલ દર્શનના ધારક છે. (वियदृच्छउमे) सज्ञान तम उपस शनाहि ॥ द्वारा दोनय छ તે અહીં છદ્મ શબ્દથી લેવામાં આવેલ છે. આમ એ દૃષ્ટિથી છદ્મ શબ્દને અર્થ ઘાતિકકર્મ થાય છે. આ છ પ્રભુના આત્માથી સર્વથા નિવૃત્ત થયેલ छे. माटे प्रभु व्यावृत्त-छम छ. (जिणे) शाहि तर शत्रुस। ५२ विश्य भेजवाथी प्रभु सिन छ. (जावए) wait भव्य ७वाने प्रभुसे પિતાની ધર્મદેશના દ્વારા આત્મકલ્યાણના માર્ગના તરફ પ્રેરિત કર્યા તે માટે પ્રભુ १५४-छतावावा छ. (तिण्णे) संसार समुद्रथी ॥२ थवाना रणे प्रभु पाते ती छे. (तारए) भगवाने संसा२ समुद्रथी पा२ थवाना छापावाने Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक बोधं प्राप्तः । ' बोहर' बोधकः बुध्यमानान् अन्यान् भव्यजीवान् प्रेरयतीति बोधकः 'मुत्ते ' मुक्तः - अमोचि स्वयं कर्मपञ्जरादिति मुक्तः । ' मोयए' मोचकः - मुच्यमानानन्यान् भव्यजीवान् प्रेरयतीति मोचकः । ' सव्वष्णू ' सर्वज्ञः सर्वं सकलद्रव्यगुग-पर्यायलक्षगं वस्तुजातं याथातथ्येन जानातीति सर्वज्ञः । ' सव्वदरिसी ' सर्वदर्शी - सर्वं समस्तं पदार्थस्वरूपं सामान्येन द्रष्टुं शीलमस्याऽसौ सर्वदर्शी । 'सि' शिवं निखिलोपद्रवरहितत्वाच्छिवं कल्याणमयं स्थानमित्यस्य विशेष गमिदम् । शिवादीनां सर्वेषां द्वितीयान्तानामग्रेतनेन संपाविउकामे-इत्यनेन १ अयलं अचलं स्वाभाविकप्रायोगिकच लनक्रियाशून्यन् । ' अरुयं ८० , सम्बन्धः । अरुजम् - अविधमाना रुजा यस्य प्राप्त होने बुद्ध हैं, को मुक्ति प्राप्त की, इसलिये बोधक हैं, मुक्त हैं । जीवों को उन्हों ने तारक हैं । (बुद्रे) स्वयं बोध को ( बोहए ) बुध्यमान अनेक भव्य जीवों (मुत्ते) भगवान ने स्वयं कर्मरूपी पींजरे से ( मोयगे ) और कर्मरूपी पींजरे से मुक्त होने की इच्छावाले मुक्त किया इसलिये वे मोचक हैं । ( स ) सकलद्रव्यों के समस्त गुण और पर्यायों को युगपत् हस्तामलकवत् यथार्थ जानने से प्रभु सर्वज्ञ हैं । ( सन्दरिसी) तथा सामान्यरूप से त्रिकालवर्त्ती समस्त द्रव्यों के इष्टा होने से प्रभु सर्वदर्शी हैं । ( सित्र - मयल-मरुय-मगंत - मक्वय - मव्त्रावाह - मपुणरावत्ति सिद्धिगणामधेयं ठाणं संपाविउकामे ) निखिल उपद्रव रहित होने से शिव - कल्यागमय, स्वाभाविक एवं प्रायोगिक चलनक्रिया से शून्य होने के कारण अचल, शरोर तथा मन से के प्रेरित करने से वे कारण भगवान् પ્રેરિત કર્યા તેથી તે તારક छे. ( बुद्धे ) पोते मोघ पामेला होवाना अरगे भगवान युद्ध छे. ( बोहए ) मुध्यमान भने लय भवने मोघ भाटे प्रेरित रखाथी तेथे मोघ है (मुत्ते) लगवाने पोते उम३यी पांरांभांथी भुक्ति प्राप्त उरी तेथी तेयो भुत छे. ( मोयगे) भने उर्भ - રૂપી પીંજરામાંથી મુકત થવાના ઈચ્છાવાળા જીવાને તેઓએ મુકત કર્યા તેથી तेथेो भाय: छे. ( सव्वण्णू) सस द्रव्यों (पद्वार्थोना) समस्त गुण भने પર્યાયાને યુગપત્ હસ્તામલકવત્ યથાર્થરૂપે જાણવાથી પ્રભુ સર્વજ્ઞ છે. - ( सव्वदरिसी) तथा सामान्य उपश्री त्रिवर्ती समस्त द्रव्योना द्रष्टा होवाथी પ્રભુ સદ छे. (सिव-- नवल - मरुयमणंत - मक्खय- मव्वाबाह-मपुणरावत्ति सिद्धिगणामधेयं ठाणं संपाविउकामे) सण उपद्रव रहित होवाथी शिव= दयाशुમય, સ્વાભાવિક તેમજ પ્રાયેાગિક ચલન ક્રિયાથી શૂન્ય હેાવાના કારણે અચલ, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम् मरुय-मणंत-मक्खय-मव्वाबाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगइणामधेय ठाणं संपाविउकामे अरहा जिणे केवली सत्तहत्थुस्सेहे समचउतत्-अविद्यमानशरीरमनस्कत्वात्-आधिव्याधिरहितम् इत्यर्थः । 'अणतं' अनन्तम्अविद्यमानोऽन्तो नाशो यस्य तत् । अत एव 'अक्खयं' अक्षयं-नास्ति लेशतोऽपि क्षयो यस्य तत् -अविनाशीत्यर्थः । 'अव्वाबाहं-अव्याबाधं न विद्यते व्याबाधा-पीडा द्रव्यतो भावतश्च यत्र तत्। 'अपुणरावित्ति' अपुनरावृत्ति-अविद्यमाना पुनरावृत्ति:-संसारे पुनरवतरणं यस्मात् तत् , यत्र गत्वा न कदाचिदप्यात्मा विनिवर्तते, समाम्नातमन्यत्राऽपि न स पुनरावर्तते, न स पुनरावर्तते इति । इत्थमुक्तशिवत्वादिविशेषगविशिष्टं-'सिद्धिगइनामधेयं' सिद्धिगतिनामधेयं–सिद्धिगतिरिति नामधेयं= प्रशस्तं नाम यस्य तत् , 'ठाणं' स्थानम्-स्थीयतेऽस्मिन् इति स्थानं लोकाग्रलक्षणम् । 'संपाविउकामे' सम्प्राप्तुकामः सम्यक् प्राप्तुं प्रयत्नवान् इत्यर्थः । 'अरहा' अरहाः-अविद्यमानं रहः-तिरोहितं वस्तुजातं यस्य सोऽरहाः, 'अरहस्' इति सकारान्तः शब्दः; केवलज्ञानबलात् हस्तामलकीकृतलोकालोकवर्तिवस्तुकलाप इति यावत् । 'जिणे' जिनः-रागद्वेषादिविजेता । 'केवली' केवली केवलज्ञानसम्पन्नः। 'सत्तहत्थुस्सेहे'सप्तहस्तोत्सेधः-उत्सेधः उच्चैस्त्वं रहित होने के कारण अरुज-आधिव्याधिरहित, अनंत-नाशरहित, अतएव अक्षय, अव्याबाध-द्रव्यपीडा एवं भावपीडासे सर्वथा निर्मुक्त, अपुनरावृत्तिस्वरूप-जहां प्राप्त होने पर पुनः संसार में वापिस जीव का आना न हो ऐसे स्वरूपवाले, सिद्धिगति इस प्रशस्त नाम से प्रसिद्ध स्थान-लोकाग्रस्थान को प्राप्त करने वाले [ अरहा ] केवलज्ञान के बल से लोकालोकवर्ति समस्त वस्तुजात को हस्तामलकवत् जानने वाले वे प्रभु हैं, एवं (जिणे) रागद्वेषादिके विजेता हैं [ केवली ] केवलज्ञानसंपन्न हैं । [ सत्त શરીર તથા મનથી રહિત હોવાના કારણે અરૂજ-આધિ-વ્યાધિ-રહિત, અનંત–નાશ રહિત, અને તેટલા માટે અક્ષય, અવ્યાબાધ-દ્રવ્ય પીડા તેમજ ભાવપીડાથી સર્વથા નિમુક્ત, અપુનરાવૃત્તિસ્વરૂપ-જ્યાં પહોંચ્યા પછી ફરીથી સંસારમાં પાછા જીવનું આવવું ન થાય એવાં સ્વરૂપવાળા સિદ્ધિગતિ એ प्रशस्त नामथी प्रसिद्ध स्थान- स्थानने प्रात ४२वावा (अरहा) उपस જ્ઞાનના બળથી લોકાલેકવતી સમસ્ત વસ્તુજાતને હસ્તામલકવતું જાણવાવાળા ते प्रभु छ, तभ (जिणे) रागद्वेष माहिना विताछ (केवली) सज्ञानसंपन्न छ. (सत्तहत्थुस्सेहे) सात डा या छ (सम-चउरंस-संठाण-संठिए) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. औपपातिकसूत्रे रंस-संठाण-संठिए वज-रिसह-नाराय-संघयणे अणुलोमवाउवेगे कंकग्गहणी कवोयपरिणामे सउणिपोस-पिटुंतरोरुपरिणए पउमुसप्तहस्त उत्सेधो यस्य स सप्तहस्तोत्सेधः-सप्तहस्तोच्छ्रित इत्यर्थः । 'सम-चउ-रंससंठाण-संठिए' सम-चतुरस्र-संस्थान-संस्थितः-समाः-तुल्याःअन्यूनाधिकाः, चतस्रोऽस्रयः हस्तपादोपर्यधोरूपाश्चत्वारोऽपि विभागाः [शुभलक्षणोपेताः] यस्य (संस्थानस्य) तत् समचतुरस्र-तुल्यारोहपरिणाहं तच्च संस्थानम्-आकारविशेष इति समचतुरस्रसंस्थानं, तेन संस्थितः युक्तः । 'वज्ज-रिसह-नाराय-संघयणे' वज्रर्षभनाराचसंहननःवजं कीलिकाकारमस्थि, ऋषभः-तदुपरिवेष्टनपट्टाऽऽकृतिकोऽस्थिविशेषः, नाराचम्उभयतोमर्कटबन्धः, तथा च द्वयोरस्थ्नोः परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयं पुनरपि दृढीकर्तुं तत्र निखातं कीलिकाऽऽकारं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद् वनऋषभनाराचं तत् संहनम्-संहन्यन्ते-दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्गला येन तत्संहननम् अस्थिनिचयो यस्य स वज्रऋषभनाराचसंहननः । 'अणुलोमवाउवेगे' अनुलोमवायुवेगः-अनुलोमोऽनुकूलो वायुवेगः शरीराऽन्तर्वर्ती वायुवेगो यस्य स तथा, वायुप्रकोपरहितदेह इत्यर्थः, 'कंकग्गहणी' कङ्कग्रहणी-कङ्कः पक्षिविशेषः, तस्य ग्रहणीव ग्रहणी यस्य स कङ्कग्रहणीकङ्कगुदाशयवद् गुदाशयवान् । 'कवोयपरिणामे' कपोतपरिणामः-कपोतस्येव परिणामः आहारपरिपाको यस्य स तथा, यथा कपोतस्य । जाठराऽनलः पाषाणकणानपि पाचयति तथा तस्यापि जाठरानलोऽन्तप्रान्तादिसर्वविधाऽऽहारपरिपाचकः । 'सउणिहत्थुस्सेहे ] सात हाथ उँचे हैं। (समचउरंस-संठाण-संठिए ) समचतुरस्रसंस्थानवाले [वज्ज-रिसह-नाराय-संघयणे ] वज्र--ऋषभ-नाराच संहनन से युक्त [अणुलोमवाउवेगे] अनुकूल शरीरान्तर्वर्ती वायु के वेग से समन्वित, [ कंकग्गहणी ] कंकपक्षी के गुदाशय के समान गुदाशयवाले, [कवोयपरिणामे । कपोत की जठराग्नि जिस प्रकार कंकर पत्थर के कणों को भी पचा देती है उसी प्रकार प्रभु की जठराग्नि भी सब प्रकार के आहार को पचा देती है ऐसी जठराग्नि वाले, सभयतु२ख संस्थानवाला (वज्ज-रिसह-नाराय-संघयणे) १००--नारायसडननथी युत (अणुलोमवाउवेगे) मनु शरीiat'ती' वायुना गया समन्वित, (कंकग्गहणी) ४४ पक्षीना गुदाशयना i सुहाशया (कवोयपरिणामे) पोतन। ०४४२॥शि से प्रारे ४i४२१-५त्य२नी ४णासाने पर પચાવી દે છે તે જ પ્રકારે પ્રભુને જઠરાગ્નિ પણ અન્ત પ્રાન્ત આદિ સર્વ પ્રકા Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. १६ भगवन्म हावीरस्वामिवर्णनम्. प्पल-गंध-सरिस-निस्सास-सुरभि-वयणे छवी निरायंक-उत्तम-पस पोस-पिटुतरोरु -परिणए' शकुनि-पोस-पृष्ठान्तरोरुपरिणतः-शकुनेः पक्षिणः पोसवत् पुरीषसम्पर्करहितो निरुपलेपः पोसः-गुदाशयो यस्य स शकुनिपोसः, पृष्ठञ्च अन्तरे चपृष्ठोदरयोरन्तरालवर्तिनी अङ्गे–पार्थाविति यावत् , ऊरू च जो एतेषां प्राण्यङ्गत्वात्समाहारद्वन्द्वे-पृष्ठा--ऽन्तरोरु पृष्ठपार्श्वजचम्-तत् परिण-विशिष्टपरिणामवत्-सुजातं यस्य स तथा, शकुनिपोसश्चासौ पृष्ठान्तरोरुपरिणतश्च स शकुनिपोसपृष्ठाऽन्तरोरुपरिणतः-निर्लपमलद्वारसुन्दरपृष्ठपाचजवावान्-इत्यर्थः । 'पउमु-प्पल-गंधसरिस-निस्सास-सुरभि-वयणे' पद्मोत्पल-गन्ध-सदृश-निःश्वास-सुरभि-वदनः-प-= कमलम् , उत्पलं नीलकमलं तयोर्गन्धः, अथवा पग-पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यम् , उत्पलं च उत्पलकुष्टं तयोर्गन्धः, तेन सदृशः-समो यो निःश्वासःश्वासोच्छ्वासपवनः तेन सुरभि-सौरभमयं वदनं-मुखं यस्य स तथा, परिमलमयपदार्थसौरभसम्भारसम्भृतश्वासोच्छ्वाससुरभितमुख इति भावः । छवी' छविः-छविमान्–दीप्तिदेदीप्यमानशरीर इत्यर्थः । 'निरायंक-उत्तम-पसत्थ-अइसेय-निरुवम-पले' निरातकोत्तमप्रशस्ताऽतिश्वेतनिरुपमपलः, तत्र-आतङ्को रोगो निर्गता यस्मात् तन्निरातकं नीरोगम् , उत्तमम्-उत्कृष्टतमम् अत एव प्रशस्तम् , अतिश्वेतम्( सउणिपोस-पिटुंतरोरु-परिणए ) शकुनि-पक्षी के गुदाशय की तरह पुरीष के उत्सर्ग के संसर्ग से रहित गुदाशयवाले, एवं सुन्दर पृष्ठ, पार्श्व और जंघावाले (पउमु-प्पल-निस्सास-सुरभिवयणे) पद्म-कमल एवं उत्पल-नीलकमल अथवा पद्म-पद्मकनामक गंध द्रव्य और उत्पल-उत्पलकुष्ट-सुगन्धद्रव्य विशेष, इनकी सुगंध के समान उच्छ्वासवायु से सुरभितमुखवाले [ छवी ] कान्तियुक्त शरीरवाले, [निरायंक-उत्तम-पसत्थ-अइसेय-निम्बम-पले ] रोगमुक्त, सर्वोत्तमगुणयुक्त, २॥ मारने पयावी हे छे सेवा निवा॥ छे. (सउणि-पोस-पिटुंतरोरुपरिणए) शनि-पक्षीना शुहोशयनी 8 भजना ससाथी २डित शुहाशय तभ०४ सुह२ ४ (पी3) पाव (५७) मने धापा (पउमु-प्पल-निस्सास-सुरभि-वयणे) ५६म-भर तभ० - नीमा , અથવા પદ્મ પદ્મક નામક ગંધ દ્રવ્ય અને ઉત્પલ-ઉત્પલ કુષ્ટ-સુગન્ધ દ્રવ્ય વિશેષ, भनी सुगधना सेवा यास पायुथी सुमित-सुगंधित भुभव (च्वी) ziतियुत शरी२वा (निरायंक-उत्तम-पसत्थ-अइसेय-निरुवम-पले) रोगमुत, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे त्थ-अइसेय-निरुवम-पले जल्ल- मल्ल-कलंक सेय-रय- -दोस- वज्जियसरीर-निरुवलेवे छाया - उज्जोइयंग-पच्चंगे घण- निचिय - सुबद्ध-लक्खणुण्णय - कूडागारनिभपिंडिय- सिरए सामलिबोंड - घणनिचिय-च्छोडियअतिशयशुक्लगुणयुक्तं, निरुपमम् - अनुपमं पलं मानं यस्य सः; रोगमुक्तसर्वोत्तम - गुणयुक्त श्वेतनिरुपम - मांसवान् - इत्यर्थः । 'जल - मल्ल - कलंक - सेय - राय - दोस - वज्जियशरीर-निरुवलेवे' जल्ल - मल्ल - कलङ्क - स्वेद - रजो - दोष- वर्जित - शरीर - निरुपलेपः, तत्र - जल्लः - शरीरमलं शुष्क स्वेदरूपं, 'जल्ल' इति देशीयः शब्दः, मल्लःशरीरगतं प्रयत्नविशेषापनेयं कठिनीभूतं रजः, कलङ्कः– दुष्टमशतिलादिरूपः, स्वेदः - प्रस्वेदः, रजः - धूलिः, तेषां यो दोषः - मलिनीकरणं तेन वर्जितम् अतएव निरुलेपंनिर्मलं शरीरं यस्य स तथा विविधमलकलङ्कस्वेदरेणुदोषरहिततया निर्लेपनिर्मलशरीरवानित्यर्थः । 6 छाया - उज्जोइयं - गपचंगे ' छायोदयोतिताङ्गप्रत्यङ्गः-छाययाकान्त्या उद्योतितानि - चाकचिक्ययुक्तानि अङ्गप्रत्यङ्गानि - अङ्गोपाङ्गानि यस्य स तथा, अनुपमकान्त्या देदीप्यमानाऽङ्गप्रत्यङ्ग इत्यर्थः । ' घण- निचिय - मुबद्ध-लक्खणु-गयकूडागारनिभ-पिंडिय-सिरए' घन - निचित - सुबद्ध - लक्ष गोन्नत - कूटाऽऽकारनिभ-पिण्डितशिरस्कः, तत्र - घनम् - अतिशयेन निचितं घननिचितम् - अतिनिबिडम्, सुष्ठु - अतिशयेन श्वेत एवं निरुपम मांसवाले [ जल्ल- मल्ल - कलंक - सेय-यय-दोस - वज्जिय- सरीरfreeda ] विविध प्रकार के मैल - शुष्कस्वेदरूप जल्ल, कठिनीभूत रजःस्वरूप मल्ल, दुष्ट मसा तिल आदिरूप कलंक, एवं - स्वेद प्रस्वेद रज-धूलि के दोष से वर्जित शरीर होने से निर्मल शरीरवाले, [ छायाउज्जोइयंगपचंगे ] कान्ति से चमकते हुए अंगोपांगवाले, ( घणनिचिय - सुबद्ध-लक्खणु-णय - कूडागारनिभ-पिंडिय - सिरए) अतिनिबिड, स्पष्टरीति से प्रकटित-- शुभलक्षण - पन्न, उन्नत कूटाकार तुल्य एवं ८४ सर्वोत्तमगुणुयुक्त, श्वेत, तेन नियम भांसवाणा ( जल्ल मल्ल - कलंक - सेयरय - दोस- वज्जिय- सरीर - निरुवलेवे) विविध प्रहारना भेट - सुप्रयेला परसेवा ३५ જલ્લ, કઠણ અનેલ રજસ્વરૂપ મલ્લ, દુષ્ટ મસા તલ આદિ રૂપ કલંક, તેમજ સ્વેદ-પ્રસ્વેદ રજ-ધૂળના દોષથી ર્જિત શરીર હાવાથી નિર્મળ શરીરવાળા ( छाया - उज्जोइयंगपञ्चंगे ) अंतिथी यमारा भारतां संग उपांगवाजा (घण- निचिय - सुबद्ध-लक्खणु-ण्णय - कूडागारनिभ - पिंडिय- सिरप) अतिनिषिङ, स्पष्ट तिथी પ્રકટિત શુભલક્ષણ-સ’પન્ન, ઉન્નત કૂટાકાર તુલ્ય તેમજ નિર્માણ નામના Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम्. मिउ-विसय-पमत्थ-सुहुम-लक्षण-सुगंधि-सुंदर-भुयमोयग-भिंगनेल-कजल-पहट्ट भमरगण-गिद्ध-निकुरुंब-निचिय-कुंचिय-पयाबद्धानि–अवस्थितानि प्रकटतया विद्यमानानि लक्षणानि शिरःसम्बन्धिशुभलक्षणानि यत्र तत् सुबद्ध लक्षणम् , उन्नतम्-मध्यभागे उच्चं यत् कूटं तस्य य आकारस्तन्निभम्उन्नतकूटाकारसदृशमिति भावः । पिण्डित-निर्माणकर्म गायोजितं शिरो यस्य स घन-निचित -सुबद्ध-लक्षणोन्नत-कृटाकारनिंभ-पिण्डित-शिरस्कः । 'सामलिबोंड-घणनिचियच्छोडिय-मिउ-विसय-पसत्थ-मुहम-लक्खण-सुगंधि-सुंदर-भुयमोयग-भिंग-नेल-कज्जल-पहठ्ठ-भमरगण-णिद्ध-निकुरुंव-निचिय-कुंचिय-पयाहिणावत्त-मुद्ध-सिरए' शाल्मलिबोण्ड-धननि चेत-च्छोटित-मृदु-विशद-प्रशत-सूक्ष्म-लक्षग-सुगन्धि-सुन्दर-भुजमोचक-भृङ्ग-नैलकजल-प्रहृष्ट - भ्रमरंगग - स्निग्य - निकुम्ब - निचित - कुञ्चित - प्रदक्षि गाऽऽवर्त - मूर्द्धशिरोजः-शल्मलिः वृक्षविशेषः, तस्य बाण्डं-फलं, घननिचितम्-अतिनिबिडं, छोटितंस्फोटितं-तृ ठव्याप्तं शाल्मलि--फलखण्डं तद्वत् मृदवः-मृदुलाः इति शाल्मलिबोण्डघननिचितच्छोटितमृदवः, अधस्तले शिरोभागः कठिनः, उपरिभागे शाल्मलिफलखण्डगत-तूलवन्मृदुला के शाः इति भावः । तथा-विशदाः-निर्मलाः, प्रशस्ता -उत्तमाः सूक्ष्माःतनुतराः, लक्षणाः--सुलक्षणवन्तः, सुगन्धयः-शोभनगन्धयुक्ताः, सुन्दरा:-मनोहराः, तथा भुजमोचकवत् नीलरत्नविशेष इव, भृङ्गवत्-भ्रमरवत् , एवं नैलवत्-नीलीविकारवद्निर्माणनाम कर्म द्वाग मुरचित ऐसे मस्तकवाले, [ सामलिबोंड घणनिचिय-च्छोडिय-मिउ -विसय--पसत्य-सुहुम-लक्षण-सुगंधि-मुंदर-भुयमोयग-भिंग-नेलकज्जल-पहट-भमरगग-गिद्ध-निकुळंब-निचिय - कुंचिय - पयाहिणावत्त-मुद्धसिरए] सेंमन्वृक्ष के फलान्तर्गत तूल के समान मृदुल, विशद-निर्मल, प्रशस्त-उत्तम, सूक्ष्म-तनुतर ( पतले ), लक्षण--सुलक्षणयुक्त, सुगन्ध-शोभनगंध पन्न, सुन्दर-मनोहर तथा-नील रत्नविशेष की तरह लच्छेदार, नीलगुलिका की तरह नीले, कज्जल की भथा सुरथित सेवा भरतवा! ( सामलिबोंड-घणनिचिय - च्छोडिय-मिउविसय-पसत्थ-सुहुम-लक्खण-सुगंधि - सुंदर-भुयमोयग-भिंग-नेल-कज्जल-पहटु-भमरगण-निद्ध-निकुरुंब-निचिय-कुंचिय-पयाहिणावत्त-मुद्ध - सिरए ) सेभ२ वृक्षना सनी मर्गत ३॥ २i . विशह-निर्मा, प्रशस्त-उत्तम, सूक्ष्मહળવાં પાતળાં, લક્ષણ-સુલક્ષણયુક્ત, સુગંધ-શભનગંધસંપન્ન, સુંદર–મનહર તથા ખેલ રત્નવિશેષની પેઠે લખેદાર, નીલગુલિકાની જેમ લીલાં, કાજળના Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसत्रे हिणावत्त-मुद्धसिरए दालिमपुप्फप्पगास-नवणिज्ज-सरिस-निम्मल. सुणिद्ध-केसंत-केसभूमी छत्तागारुत्तिमंगदेसे णिव्वण-सम-लहमट्ट-चंदद्ध-सम-णिडाले उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्मवयणे अल्लीणनीलीगुलिकावत् , कजलवत्-मपीवत् , प्रहृष्ट-भ्रमर-गणवत्-सोल्लास-भ्रमर-वृन्दवत् स्निग्धं कान्तियुक्तम्-अतीवश्याममित्यर्थः, निकुरम्बं समूहो येषां ते भुजमोचक-भृङ्ग-नैलकज्जल-प्रहृष्ट-भ्रमर-गणस्निग्धनिकुरम्बाः, ते च पुनर्निचिताः परस्परं श्लिष्टाः कुश्चिताः= वक्रीभूताः-कुण्डलवद्वर्तुलाकाराः प्रदक्षिणाऽऽवर्ताः-प्रदक्षिणम् आवर्तन्ते ते तथा मूर्द्धनिमस्तके, शिरोजाः-केशा यस्य स तथा-शाल्मलि–फलखण्डवत्कोमलातिश्यामल-कृष्णमणिभ्रमरकजलवत्कृष्णतर-परस्परश्लिष्ट-प्रदक्षिणावर्त कुञ्चित-मस्तककेशवानिति यावत् । केशोत्पत्तिस्थानं वर्ण्यते-'दालिम-पुप्फ-प्पगास-तवणिज-सरिस-निम्मल-मुणिद्धकेसंत-केसभूमी' दाडिम-पुष्प-प्रकाश-तपनीय-सदृश-निर्मल-सुस्निग्ध--केशान्तकेशभूमिः, तत्र-दाडिम-पुष्प-प्रकाशा रक्तवर्णेत्यर्थः, तपनीयसदृशी-अग्निप्रतप्तसुवर्णसदृशवर्गा, तथा-निर्मला-उज्जवला, सुस्निग्धा-सुचिकगा, केशान्ते केशसमीपेकेशमूले केशभूमिः-केशोत्पत्तिस्थानं-मस्तकत्वक् यस्य स तथा, पूर्वोक्तमेव-विशेषणं प्रकारान्तरेणाह-'छत्तागारुत्तिमंगदेसे'. छत्राऽऽकारोत्तमाङ्गदेश:-छत्राऽऽकारः-वर्तुलोन्नतत्वगुणयोगाच्छत्राऽऽकृतिः-उत्तमाङ्गदेश:-मस्तकप्रदेशो यस्य सः, अत्युन्नतोत्तमाङ्गवान् इति तरह काले, प्रहृष्टभ्रमरगग की तरह कान्तियुक्त, परस्पर में संश्लिष्ट-विरले नहीं; टेढे कुण्डल की तरह वर्तुल आकारयुक्त दक्षिणावर्त केशों से युक्त थे, अर्थात्घुघरवालवाले थे । [ दालिमपुप्फ-प्पगास - तवणिज्जसरिस - निम्मल-मुणिद्धकेसंत केस-भूमी ] भगवान् के मस्तक की त्वचा दाडिम के पुष्प के समान लाल, तथा ताये हुए सुवर्ण के समान निर्मल एवं स्निग्ध चिकण थी। ( छत्तागारुत्तिमंगदेसे) भगवान का मस्तक छत्र समान गोलाकार था । (णिवण-समજેવાં કાળાં, કહુષ્ટ ભ્રમરાની પેઠે કાંતિયુક્ત, પરસ્પરમાં સંશ્લિષ્ટ, વિરલ નહિ; વાંકા કુંડલની પેઠે વર્તુળ આકારવાળા દક્ષિણાવર્ત કેશોથી યુક્ત ભગવાન હતા. मर्थात्.धुधरवाना वा ता. ( दालिमपुप्फ-पगास-तवणिज्ज-सरिस-निम्मलसुणिद्ध केसंत-केस-भूमी) भगवान्ना मस्तनी त्वया [ यामडी ] हाउभाना પુષ્પના જેવી લાલ, તથા તાવેલા સુવર્ણના જેવી નિર્મળ તેમજ સ્નિગ્ધथि४ ता, (छत्तागारुत्तिमंगदेसे) लगवाननु भरत छत्रनी पेठे गोदा।२ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणो-टीका. स. १६ भगवन्महावीरस्थापिवर्णनम् . पमाणजुत्त-सवणे सुस्सवणे पीण-मंसल-कवोल-देसभाए आणामिय-चाव-रुइल-किण्हब्भराइ-तणु-कसिण-गिद्ध-भमुहे अवदाभावः, 'णिवण-सम-लट्ठ-मट्ठ-चंदद्ध-सम-णिडाले' निव्रण-सम-लष्ट- मृष्ट-चन्द्रार्द्धसम-ललाटः तत्र-निर्बणं-क्षतरहित तया वणकि गरहितं, सम-विषमतारहितं, लष्टं-सुन्दरं,मृष्टं-शुद्धं चन्द्राऽर्द्धसमम्-अष्टमी-चन्द्र-मण्डलाऽऽकारम् , ललाटं-भालस्थलं यस्य सः, अष्टमीचन्द्र-मण्डल-समानाकार-सुन्दर-ललाट-इति भावः । 'उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्मवयणे' उडुपति-प्रतिपूर्ण-सौम्यवदनः उडुपतिः-शारदीयपूर्णचन्द्रस्तद्वत् परिपूर्ण-प्रभासमूहसम्भृतं, सौम्यं-सुन्दरं, वदनं-मुखं यस्य स तथा, शारदपूर्णचन्द्र-समान-सुन्दर-मुख इत्यर्थः । 'अल्लीण-पमाणजुत्त-सवणे' आलीन-प्रमाणयुक्त-श्रवणः-समुचितप्रमाणकर्णयुक्तः, अत एव-'मुस्सवणे' सुश्रवणः, शोभनकर्णवान् 'पीण-मंसल-कवोल-देसभाए' पीन-मांसलकपोल-देशभागः-पीनौ-पुष्टौ, मांसलौ मांसपूर्णी कपोलदेशभागौ-कपोलावयवौ यस्य स तथा-सुपुष्टकपोलयुक्त इति भावः । 'आणामिय-चाव-रुइल-किण्हब्भराइ-तणुकसिण-णिद्ध-भमुहे' आनामित-चाप-रुचिर-कृष्णाभ्रराजि-तनु-कृष्ण-स्निग्ध-भ्रूः-आनामितचापः-वक्रीकृतधनुः, तद्वद्रुचिरे-सुन्दरे तथा कृष्णा-भ्रराजी इव श्याममेघपङ्क्ती इव तनू-सूक्ष्मे, कृष्णे-श्यामे, स्निग्धे-चिक्कणे- ध्रुवौ यस्य स तथा, वक्रकृष्णसूक्ष्मचिक्कणलह-मट्ठ-चंदद्ध-सम-णिडाले ) भगवान का भालस्थल व्रग के चिह्न से रहित, विषमता से वर्जित, सुन्दर, शुद्ध एवं अष्टमी के चंद्रमा के समान था । [ उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्मवयणे ] प्रभु का मुख शरद ऋतु के पूर्णचन्द्रमण्डल समान सुन्दर और आह्लादक था । [ अल्लीण-पमाण-जुत्त-सवणे ] कान प्रमागयुक्त थे । [ सुस्सवणे ] इसलिये भगवान सुन्दर कानवाले थे । (पीण-मंसल-कवोल-देसभाए) भगवान के पुष्ट एवं भरे हुए सुन्दर कपोल थे । ( आणामिय-चाव-रुइल-किण्हब्भराइ-तणु-कसिण-णिद्ध-भमुहे ) वक्रित धनुष के समान रुचिर, तथा कृष्णमेघ हेतु (णिव्वण-सम--ल?--मट्ठ-चंदद्ध--सम-णिडाले) भगवाननु ससाट प्रशुना ચિહ્નથી રહિત, વિષમતાથી વર્જિત, સુંદર, શુદ્ધ તેમજ અષ્ટમીના ચંદ્ર न तु. ( उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्म-वयणे) प्रभुनु भुस २४*तुन। पूयाद्रम समान सुह२ तथा मासा तु (अल्लीण--पमाण--जुत्तसवणे) ४ान मापस२ उता. (सुस्सवणे) तथा भगवान सुंदर नाता (पाण-मंसल--कवोल-देसभाए) मानना पुष्ट तभ०४ मारेला सुंदर र Sai. (आणामिय-चाव-रुइल-किण्हब्भराइ-तणु-कसिण-णिद्ध-भमुहे ) : थयेi ધનુષના જેમ રૂચિર, તથા કૃષ્ણમેઘ (કાળાં વાદળાં) ની હારના જેવી Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे लिय-पुंडरीय-णयणे कोआसिय-धवल-पत्तलच्छे गरुलायय-उज्जु तुंग-णासे उवचिय-सिलप्पवाल-विवफल-सण्णिभाहरोह्र पंडुरससि-सयल-विमल-णिम्मल-संख-गोक्खीर-फेण-कुंद-दगरय-मुणा भ्रूयुक्त इत्यर्थः । 'अवदालिय-पुंडरीय-णयणे अवदलित-पुण्डरीक-नयनः-अवदलितेविकसिते, पुण्डरीके-श्वेतकमले इव नयने-नेत्रे यस्य सः, विकसितश्वेतकमलसदृशनेत्र इति भावः । 'कोआसिय-धवल-पत्तलच्छे विकसित-धवल-पत्रलाऽक्षः-कमलवद् विकसिते धवले-श्वेते, पत्रले–पदमयुक्ते, अक्षि गी-नत्रे यस्य सः, विशालनेत्रवानित्यर्थः । 'गरुला-यय-उज्जु-तुंग-णासे' गरुडा-यव-र्जुतुङ्ग-नासिकः-गरुडस्येव-गरुडपक्षिचञ्चुवद्आयता-दीर्घा, ऋज्वी-सरला, तुङ्गा-उन्नता, नासिका यस्य स तथा, गरुडचञ्चुवदीर्घसरलोचनासिकावान् इत्यर्थः । 'उबचिय-सिलप्पबाल-बिंबफल-सण्णिभा-हरोडे' उपचित-शिलाप्रवाल-बिम्बफल-सन्निभाऽधरोष्ठः-उपचितं-कृतसंस्कारं यच्छिलाप्रवालं-विद्रुमं, बिम्बफलं-रक्तातिरक्तं तयोः सन्निभः-सदृशो रक्तः अधरोष्ठो यस्य सः, अतिरक्तोष्ठवान्इत्यर्थः । “पंडुर-ससि-सयल-विमल-णिम्मल-संख-गीक्वीर-फेण-कुंद-दगरय-मुणालिया-धवल-दंतसेढी' पाण्डुर-शशि-शकल-विमल-निर्मल-शंख-गोक्षीर-फेन-कुन्द-दककी पंक्ति के समान काली, पतली और चिकनी भगवान की भैहें थीं । ( अवदालिय--पुंडरीय-णयणे ) विकसित श्वेतकमल के समान नेत्र थे। (कोआसियधवल-पत्तलच्छे) वे नेत्र-विकसित, स्वच्छ एवं पक्ष्मल-सुन्दर पीपणी वाले थे । (गरुला-यय-उज्जु-तुंग-णासे) गरुड पक्षी की चंचु समान दीर्घ, सरल एवं उन्नत नासिका थी। ( उचिय-सिलप्पबाल-बिंबफल-सण्णिभाहरोहे ) संस्कारयुक्त विद्रुम एवं रक्तातिरक्त-अतिशय लाल कुन्दुरुफल के समान अधरोष्ठ था । (पंडुर-ससिसयल-विमल-णिम्मल-संख-गोक्खीर-फेण-कुंद-दगरय-मुणालिया मी, पातमी मने थिएलभ। ती. ( अवदालिय-पुंडरीय-णयणे ) भीaai श्वेत भजन 24 नेत्र तi. ( कोआसिय-धवल-पत्तलच्छे ) ते नेत्र विसेमा २१७ तेभन ५६भ (सुंदर ५iपशुपाज ) तi (गरुला-ययउज्जु-तुंग-णासे) ३७ पक्षीनी यांय समान aint स२८ तभ०४ जन्नत नासि ती ( उवचिय-सिलप्पवाल-बिंबफल-सण्णिभा-हरोढे) २२४१२युत વિક્મ તેમજ રકતાતિરકત-અતિશય લાલ કુંદુરૂ ફલના જેવો અધરોષ્ઠ (38) ता. (पंडुर--ससिसयल-विमल-णिम्मल-संख-गोक्खीर-फेण कुंद--दग Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम्. लिया-धवल-दंतसेढी अखंडदंते अप्फुडियदंते अविरलदंते सुणिद्धदंते सुजायदंते एगदंतसेढीविव अणेगदंते हुयवह-णिद्धंतरजो-मृणालिका-धवळ-दन्तश्रेगिः-पाण्डुरं-श्वेतं यत्-शशिशकलं-चन्द्रखण्डः, तद्वद् विमला, तथा निर्मल:-अतिस्वच्छः, शङ्खः प्रसिद्धः, गोक्षीरं-गोदुग्धम् ,-फेनः-जलोपरिवर्तमानो नवनीतसमः, कुन्दं-तनामकं श्वेतकुसुमम्-दकरजः-जलकगः, मृगालिका-बिसिनी-तद्वद् धवलामहाश्वेता, दन्तश्रेणिः-दन्तपङ्क्तिर्यस्य स तथा, शुभ्रातिशुभ्रदन्तपङ्क्तिमानित्यर्थः । 'अखंडदंते' अखण्ड दन्तः-दन्तपङ्क्तौ दन्तवैक-ल्याभावात् , 'अप्फुडियदंते' अस्फुटितदन्तः दन्तपङ्क्तौ दन्तानां- देशतोऽपि भङ्गाभावत्, 'अविरलदंते ' अविरलदन्तः-अन्तरावकाशरहितदन्तः 'सुणिद्धदंते सुस्निग्धदन्तः-चिक्कणदन्तवान् , 'सुजायदंते' सुजातदन्तः-सुन्दरदन्तवान् इत्यर्थः । ' एगदंतसेढीविव अणेगदंते ' एकदन्तश्रेणीवाऽनेकदन्तः, 'हुतवह-णिद्धंत-धोय-तत्त-तवणिज्ज-रत्ततल-तालुजीहे ' हुतवह-निर्मात-धौत तप्ततपनीय-रक्ततर तालुजिह्वः-हुतवहेन-वह्निना पूर्व निति-निश्शेषेण संयोजितं पश्चाजलादिना धौतम् , अत एव-तप्तं वह्नितापं प्राप्त धवल-दंतसेढी) श्वत चन्द्रखंडके के समान विमल, तथा निर्मल शंख, गोक्षीर, फेन, श्वेतकुसुम, जलकग, एवं मृणाल के समान धवल दन्तपंक्तियाँ थीं। (अखंडदंते) भगवान के दाँत अखण्ड थे, (अप्फुडियदंते) अत्रुटित थे, (अविरलदंते) अवकाश रहित थे। (सुणिद्धदंते) चिक्कग. थे, (सुजायदंते) सुन्दर थे, ( एगदंतसेढीविव अणेगदंते ) एक दाँत · की श्रेणी के समान सभी दाँत मालूम होते थे। (यवह-णिद्धंत-धोय-तत्ततवणिज्ज-रत्ततल-तालुजीहे) पहले अग्नि में तपाये गये पश्चात् जलादिक द्वारा धोये गये पुनः अग्नि में तपाये रय-मुणालिया-धवल-दंत-सेढी) वेत यद्रमा २वी विभस, तथा निर्भ શંખ, ગાયનું દૂધ, ફીણ, તપુષ્પ, જલકણ (પાણીનાં બુંદ) તેમજ भृक्षास न वी स३४ हातनी २ उता. (अखंडदंते ) मानना in 44 . ( अप्फुडियदंते ) तूटया काना id u. ( अविरलदंते ) स१४०० (पास) २डित ता, (सुणिद्धदंते ) थिए। तो, (सुजायदंते ) सु४२ उता, ( एगदंतसेढी-विव अणेगदंते ) मे तनी श्रेए (७२) नाम या id पाता . ( हुतवह-णिद्धत-धोय-तत्ततवणिज्ज--रत्ततल--तालुजीहे ) पडखi मनिमा तावेदा पायी जाहिवा२ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे धोयतत्ततवणिज-रत्ततल-तालुजीहे अवडिय-सुविभत्त-चित्त-मंसू मंसल-संठिय-पसत्थ-सदूल-विउल-हणुए चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबुवर-सरिसग्गीवे वरमहिस-वराह-सीह-सर्ल-उसभ-नागवर-पडियत्तपनीयं-सुवर्ण तद्वद् रक्ततरम्-अतीवरक्तं, तालु च जिह्वा च यस्य स तथा, अतिरक्ततालुजिह्वावान् इत्यर्थः । 'अवडिय-विभत्त-चित्त-मंसू' अवस्थित-सुविभक्त-चित्रश्मश्रुः-अवस्थितानि-अवर्द्धनशीलानि, सुविभक्तानि-द्विभागाभ्यां विभक्ततया स्थितानि, चित्राणि-शोभासम्पन्नानि श्मश्रूणि-'दाढी मूछ'-इति भाषाप्रसिद्धानि यस्य सः, अवर्धनशील-सुविभक्त-सुशोभितश्मश्रुवान् इत्यर्थः । 'मंसल-संठिय-पसत्थ-सद्ल-विउलहणुए' मांसल-संस्थित-प्रशस्त-शार्दूल-विपुल-हनुः-तत्र-मांसलः-पुष्टः, संस्थितः-सुन्दरा कारः, प्रशस्तः-अतिरमणीयः,शार्दूलस्येव व्याघ्रस्येव, विपुलः-दीर्घः हनुः=चिबुकं यस्य स तथा-शार्दूल-वत्सुन्दर-सुविशालचिबुक इति भावः । 'चउरंगुल-मुप्पमाण-कंबुवरसरिसन्मणीवे' चतुरङ्गुल-सुप्रमाण-कम्बुवरसदृश-ग्रीवः-भगवदगुल्यपेक्षया चतुरङ्गुलसुप्रमाणा कम्बुवरसदृशी-उन्नततया त्रिबलिसद्भावाच्च श्रेष्ठशङ्खसदृशी ग्रीवा यस्य सतथा, चतुरङ्गुलप्रमाणोपेतश्रेष्ठशङ्खसदृशग्रीवावान् इत्यर्थः । ' वर-महिस-वराह-सीह-सदलउसम-नागवर पडिपुण्ण-विउल-क्खंधे' वरमहिष-वराह-सिंह-शार्दूल-वृषभ-नागवर-परिपूर्णगये सोने के समान अत्यंतरक्त ताल और जिह्वा थी। (अवद्विय-मुविभत्त-चित्तमम्) अवर्द्धनशील एवं दोभागों से विभक्त होकर अलग २ रही हुई दाढी एवं मूंछे थीं। (मंसल-संठिय-पसत्थ-सद्ल-विउल-हणुए) पुष्ट, सुन्दर आकार युक्त, एवं अतिरमणीय सिंह जैसी विपुल दाढी थी। (चउरंगुल-सुप्पमाणकंबुवरसरिस-ग्गीवे) भगवान की अंगुली की अपेक्षा चार अंगुलप्रमाणवाली एवं शंख के समान त्रिवलीविशिष्ट ग्रीवा थी। वरमहिस-वराह-सीह-सदूल-उसभघामेसा सुवर्ण नी पेठे मित्यत ale anj मने म तi. ( अवट्ठिय-सुविभत्त--चित्त-मंसू) मनशीर तम मे लागोथी विसरत ने सस सस २७सी बाढी तमा मुछ। उता. [ मंसल-संडिय-पसत्थ-सदूल-विउलहणुए ] Yष्ट, सुंद२ २२वाजी ते सति रमणीय सिडी विपक्ष बाढी ती. (चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबुवरसरिस-ग्गीवे) भगवाननi nirmil અપેક્ષાએ ચાર આંગળાંના માપવાળી તેમજ શંખની પેઠે ત્રિવલી ( ત્રણ २५) जी 31४ (२६) ता. [ वरमहिस-वराह-सीह-सद्ल-उसभ-नाग Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टोका. स. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम्. पुण्ण-विउलक्खंधे जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवर-पउट्ठ- सुसंठियसुसिलिट्ठ-विसिट्ट-घण-थिर-सुबद्ध-संधि-पुरवर-फलिह-वडिय-भुए विपुलस्कन्धः-श्रेष्ठमहिषवराह सिंहव्याघवृष गजवरागामिव प्रतिपूर्णी-प्रमाणयुक्तौ-विपुलौ=विस्ती हूं सामुद्रिकशास्त्रोक्तलक्षणयुक्तौ स्कन्धौ यस्य स तथा, 'सिंहव्याघ्रादिवत्सामुद्रिकोक्तलक्षणयुक्तप्रमागसहितविशालस्कन्धवान् इति भावः । 'जुगसन्निभ-पीण-रइयपीवर-पउट्ठ-सुसंठिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-घण-थिर-सुबद्ध-संधि-पुरवर-फलिह-वट्टियभुए' युगसन्निभ-पीन-रतिद-पीवर-प्रकोष्ठ-सुसंस्थित-सुश्लिष्ट-विशिष्ट-घन - स्थिर-सुबद्ध-सन्धि-पुरवरपरिघ-वर्तितभुजः. युगेन शकटाग्रायामस्थितकाष्ठेन सन्निभौ-तुल्यौ, पीनौ-पुष्टौ, रतिदौ=प्रीतिप्रदौ, पीवरप्रकोष्ठौ-कफोणेः 'खूणी' इति प्रसिद्धादधस्तान्मणिबन्धपर्यन्तः प्रकोष्ठः; पीवरौ पुष्टौ प्रकोष्ठौ ययोर्भुजयोस्तो, सुसंस्थितौ सुन्दरसंस्थानवन्तौ, पुनः कीदृशौ ?-सुश्लिष्टाः-संयुक्ताः, विशिष्टाः-प्रधानाः,घनाः-सघनाः, स्थिराः-दृढाः-सुबद्धाः सुष्ठु बद्धाःस्नायुभिःसन्धयः सक्थिसंयोगस्थानानि ययोस्तौ-सुश्लिष्टविशिष्टघनस्थिरसुबद्धसन्धी, पुनः-पुरवरपरिघवत्-नगरश्रेष्ठा-गलावत् वर्तितौ-वर्तुलौ बाहू-भुजौ यस्य स तथा; सुन्दरनगरार्गलावत् दृढदीर्घभुजवान् इति भावः। भुयगीसरविउल भोग-आयाण-पलिहउच्छूढ-दीह-बाहू-भुजगेश्वर-विपुल-भोगा -दान-पर्यवक्षिप्त-दीर्घनागव-पडिपुण्ण-विउल-खंधे) श्रेष्ठ महिष, वराह, सिंह, शार्दूल, वृषभ, एवं श्रेष्ठ हाथी के स्कंध जैसे विपुल स्कन्ध थे. (जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवर-पउट्ठसुसंठिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-घण-थिर-सुबद्धसंधि-पुरवर-फलिह-वट्टियभुए) गाडी के जुए के समान प्रीतिप्रद, पीवरप्रकोष्ठयुक्त-पुष्टपौंचावाली, सुन्दर आकृतिसंपन्न ऐसे, एवं सुश्लिष्ट-संयुक्त मिली हुई, विशिष्ट-उत्तम, घन-गठीली, मजबूत, स्थिर-स्नायुओं से सुबद्ध ऐसी संधियों वाली, तथा नगर की परिघा-भोंगल-जैसी वर्तुल भुजायें थीं। (भुयगीसर-विउलभोग-आयाण-पलिहउच्छूढ़-दीह-बाहू) वाञ्छित वस्तु वर-पडिपुण्ण--विउल-खंधे ] श्रेष्ठ ५, १२, सिड, शाईस, ५४, तभर श्रेष्ठ हाथाना मी विस मध उती. (जुगसन्निभ-पीण-रइय-पीवरपउट्ठ-सुसंठिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-घण-थिर-सुबद्ध-संधि-पुरवर-फलिह-वट्टियभुए) ગાડાના ધોંસરા જેવી પુષ્ટ, પ્રીતિપ્રદ, પીવર પ્રકેષ્ઠ–પુષ્ટ કાંડ વાળી, સુંદર सातिवाणी तेभ सुरियष्ट-संयुश्त-भिसित, विशिष्ट-उत्तम, धन-HRIS, સ્થિર–મજબૂત સ્નાયુઓથી સુસંબદ્ધ સંધિઓવાળી તથા નગરની ભગળ म २ सुनसा इती. [ भुयगी-सर-विउलभोग-आयाण-पलिहउच्छूढ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे भुयगीसर-विउल-भोग-आयाण-पलिहउच्छृढ-दीह-बाहू रत्ततलोवइय-मउय-मंसल - सुजाय-लक्षण-पसत्थ-अच्छिदजाल -पाणी पीवर-कोमल-वरं-गुल्ली आयंबतंब-तलिण-सुइ-रुइल-णिद्ध-णखे बाहुः, भुजगेश्वरः-सर्पराजः, तस्य विपुलभोगः-विशालदेहः, स च आदानाय-वाञ्छितवस्तुग्रहणाय 'पलिहउच्छूढ' पर्यवक्षिप्तः प्रेरितः-सर्वथा दण्डवत्प्रसारितः, तद्वत् दीर्धी लम्बौविशालौ, बाहू-भुजौ यस्य स तथा, लम्बविशालबाहुमान्-इत्यर्थः । 'रत्ततलो-वइयमउय-मंसल-सुजाय-लक्खणपसत्थ-अच्छिद्द-जाल-पाणी' रक्ततलो-पचित-मृदु-मांसलसुजात-लक्षणप्रशस्ता-च्छिद्रजाल-पाणिः, तत्र-रक्ततलौ-रक्ते तले ययोस्तौ तथा, तलभागे रक्तवर्णयुक्तौ इत्यर्थः, उपचितौ पृष्ठभागे उन्नतौ, मृदुकौ-कोमलौ, मांसलौ-पुष्टौ, सुजातौ-सुन्दरौ प्रशस्तलक्षणौ-शुभचिह्नयुतौ, अच्छिद्रजालौ-च्छिद्रजालवर्जितो, पाणी-हस्तौ यस्य स तथा, 'पीवर-कोमल-चरं-गुली' पीवर-कोमल-वराङ्गुलि:-पीवराः-पुष्टाः, कोमलाः-मृदुलाः, वराः-श्रेष्ठाः, अङ्गुलयो यस्य स तथा, 'आयंव-तंब-तलिण-सुइ-रुइल-णिद्ध-णखे' आताम्र-ताम्र-तलिन-शुचि-रुचिर-स्निग्धनखः-आताम्रताम्राः ईषद्रक्ताः, तलिनाः प्रतलाः शुचयः शुद्धाः, रुचिराः-मनोज्ञाः, स्निग्धाः सरसाः, नवा यस्य स तथा, 'चंदपाणिलेहे ' चन्द्रपाणिरेखः-चद्राकाराः पाणौ रेखा यस्य सः, चन्द्ररेखाचिह्नितहस्तवानित्यर्थः, को ग्रहण करने के लिये फैलाये हुए सर्पराज के शरीर समान दीर्घबाहु थे। (रत्ततलो-वइय-मउय-मंसल-मुजाय-लक्षण-पसत्थ-अच्छिद्दजाल-पाणी) तलभाग में लाल, पृष्ठभाग में उन्नत, कोमल, पुष्ट, शुभचिह्नों से युक्त, एवं छिद्रों से रहित हाथ थे। (पीवर-कोमल-वरं-गुली) हाथों की अंगुलियाँ पुष्ट, कोमल एवं सुन्दर थीं। (आयंवतंब-तलिण-सुइ-रुइल -णिद्ध-णखे) ईषद्रक्त, पतले, शुद्ध, सुन्दर, एवं चिकने नख थे। (चंदपाणिलेहे ) हाथों में चन्द्ररेखा थी। दीह-बाहू ] | छत परंतु देवाने भाटे सायेा सपना शरीर समान ain माई उता. ( रत्ततलो-वइय-मउय--मंसल-सुजाय-लक्खण-पसत्थअच्छिद्द-जाल-पाणी] तयाना मागमा सास, पाछन मागमा उन्नत, કમળ, પુષ્ટ, શુભ ચિહનોથી યુક્ત તેમજ છિદ્રો વગરના હાથ હતા. [पीवर-कोमल-वरं-गुली ] डायानी भांजी पुष्ट, म तभी सुंदर उती. [आयंबतंब-तलिण-सुइ-रुइल-मिद्ध-खे ] पद्रत पाता, शुद्ध, सुंदर तमा थि४९॥ नम त (चंदपाणिलेहे ) छायामां यन्द्ररेमा ती Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका स्र. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम्. ९३ चंदपाणिलेहे सूरपाणिलेहे संखपाणिलेहे चक्कपाणिलेहे दिसासोत्थियपाणिलेहे चंद- सूरसंख-चक्क - दिसासोत्थिय - पाणिलेहे कणग- मिलायलुज्जल- पसत्थ- समतल - उवचिय - विच्छिण्णपिहुलवच्छे सिरिवच्छंकियवच्छे अकरंडुय - कणग- रुयय-निम्मलसंखपाणिलेहे ' शङ्खपाणिरेखः-शङ्खरेखायुक्तहस्त इत्यर्थः, ' चक्कपाणिले हे ' चक्रपाणिरेखः - चक्ररेखा युक्तहस्तः, ' दिसासोत्थियपाणिलेहे ' दिक्स्वस्तिकपाणिरेखःदक्षिणाssवर्तस्वस्तिकाssकार - रेखा - युक्त- हस्तवान् इति भावः । ' चंद-मूर - संख-चक्कदिसासो स्थिय - पाणि लेहे ' चन्द्रसूरशङ्खचक्रदिक्स्वस्तिकपागिरेखः- चन्द्रसूर्यादिहस्तरेखा हस्ते विद्यमानाः प्रशस्तफलप्रदा भवन्ति, ताभिश्चन्द्रादिरेखाभिचिह्नितहस्तवानित्यर्थः, 'कणग-सिलायलु-ज्जल - पसत्थ - समतल - उवचिय - विच्छिण्ण-पिहुलवच्छे' कनकशिलातलो –ब्र्वल-प्रशस्त - समतलो - पचित - विस्तीर्ण-पृथुल-वक्षस्कः- कनकशिलातलवत् - सौवर्णपट्टिकावत्, उज्वलं- देदीप्यमानं प्रशस्तं = सुलक्षगोपेतं समतलञ्च - उन्नताऽऽनतरहितम्, उपचितं-पुष्टं, विस्तीर्णपृथुलम्,– अतिविशालं, वक्षः - उरस्थलं यस्य स तथा, ( सुरपाणिले हे ) सूर्यरेखा थी, ( संखपाणिलेहे ) शंखरेखा थी, ( चक्रपाणिलेहे ) चक्ररेखा थी, ( दिसासोत्थियपाणिले हे ) दक्षिणावर्त स्वस्तिक रेखा थी, ( चंदसूर-संख-चक्क - दिसासोत्थिय - पाणिले हे ) इस प्रकार चन्द्रमा, सूर्य, शंख, चक्र एवं दक्षिणावर्त स्वस्तिक की रेखायों से भगवान के हाथ सुशोभित थे । ( कणगसिलायलु-ज्जल-पसत्थ-समतल - उवचिय - विच्छिण्ण-पिहुल - वच्छे ) कनक शिला के समान - सुवर्ण के पाट के समान देदीप्यमान, शुभलक्षणों से युक्त, सम, पुष्ट, विस्तीर्ण एवं अतिविशाल वक्षस्थल था । वह वक्षस्थल (सिरिवच्छं कियवच्छे ) ( सूरपाणिलेहे ) सूर्यरेषा हुती. [ संखपाणिलेहे ] शरेणा हती. ( चक्कपाणिलेहे ] यरेणा हुती, ( दिसासोत्थियपाणिलेहे ) दक्षिणावर्त स्वस्तिङ रेमा डी. ( चंद-सूर-संख-चक्क - दिसासोत्थिय - पाणिलेहे ) मे अारे चंद्रमा, सूर्य, તેમજ દક્ષિણાવર્ત સ્વસ્તિકની રેખાએથી ભગવાનના હાથ સુશોભિત હતા. ( कणग - सिलायलु - ज्जल -- पसत्थ- समतल - उवचिय - विच्छिण्णपिहुल - वच्छे ) १२४ शिक्षा સમાન–સેાનાની પાટાના જેવુ દેદીપ્યમાન, शुलसक्षणीवाणु, सरपु, पुष्ट, विशाज तेमन महु पडोजु वक्षस्थण [ छाती ] तु ते वक्षस्थण ( सिविच्छं कियवच्छे ) श्रीवत्सना चिह्नवाणु तुं. अने शम, थ 6 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ औपपातिकसूत्रे सुजाय-निरुवहय-देह-धारीअसहम्म-पडिपुण्ण-वरपुरिस-लक्खणधरे सण्णयपासे संगयपासे सुंदरपासे सुजायपासे मियमाइय'सिरिवच्छंकियवच्छे, श्रीवत्साङ्कितवक्षस्कः-श्रीवत्सेन=शुभचिह्नविशेषेण अङ्कितं= चिहिनतं-वक्षः-हृदयस्थलं यस्य स तथा, 'अकरंडुय-कणग-रुयय-निम्मल-मुजायनिरुवहय-देह-धारी, अकरण्डुक-कनक-रुचक-निर्मल-सुजात-निरुपहत-देहधारी, अकरण्डुकः- करंडुय ' इति देशोयः शब्दः, अदृश्यमानं करण्डुकं पृष्ठभागास्थिकं यस्य देहस्य स अकरण्डुकः, तथा कनकरुचकः-सुवर्णवर्णयुक्तः, तथा-निर्मलः, सुजातः, निरुपहत;=रोगादिबाधारहितो यो देहस्तं देहं धरतीत्येवं शीलो यः स तथा, 'अट्टसहस्स-पडिपुष्ण-वरपुरिस-लक्षण-धरे ' अष्टसहस्र-प्रतिपूर्ण-वरपुरुष-लक्षणधरःअष्टोत्तरं सहस्रम्-अष्टसहस्रं, प्रतिपूर्णम् अन्यूनं, वरपुरुषाणां लक्षणं-स्वस्तिकादिकम्, तस्य धरः-धारकः, महापुरुषाणामष्टोत्तरसहस्रपरिमितानि सुलक्षणानि सन्ति, तेषां सर्वेषां धारकः-इति भावः । 'सण्णयपासे' सन्नतपार्श्वः-सन्नतौ अधोऽधोऽवनतौ पार्श्व-पार्श्वभागौ यस्य स सन्नतपार्श्वः, 'संगयपासे' सङ्गतपार्श्वः-सङ्गतौ-प्रमाणोचितौ, पाचभुजमूलादधःप्रदेशौ यस्य सः, प्रमाणयुक्तपार्श्वप्रदेशवानिति भावः । 'सुंदरपासे' सुन्दरपार्श्वः-दर्शनीयपार्श्वयुक्तः, 'सुजायपासे' सुजातपार्श्वः-सुन्दरपार्श्ववानित्यर्थः । श्रीवत्सके चिह्न से युक्त था। और प्रभुका शरीर (अकरंडुय-कणग-रुयय-निम्मलसुजाय-निरुवहय-देह-धारी) अकरण्डुक-अदृश्यमान पृष्ठभाग की हड्डीयुक्त, तथा सुवर्ण के जैसा निर्मल एवं रोगादिक बाधा से रहित था। भगवान् (अट्ठसहस्सपडिपुण्ण-वर-पुरिस-लकावण-धरे) न्यूनतारहित ऐसे १००८ स्वस्तिकादिक उत्तम पुरुषों के योग्य लक्षणों के धारक थे। भगवान् के शरीरका पार्श्वभाग (सण्णयपासे संगयपासे सुंदरपासे सुजायपासे मियमाइय-पीण-रइय-पासे ) क्रमिक अवनत प्रभुनु शरी२ ( अकरंडुय-कणग-रुयय-निम्मल-सुजाय-निरुवय-देह-धारी ) અકરંડુક-અદૃશ્યમાન-ન દેખાય તેવી રીતે વાંસા-બરડા-ની કડવાળું તથા સોનાના વણ જેવું નિર્મળ તેમજ ગાદિકની પીડા વગરનું હતું. ભગવાન (अट्ठसहस्स-पडिपुण्ण-वर-पुरिस-लक्खण-धरे ) न्यूनताडित व १००८ સ્વસ્તિક આદિક ઉત્તમ પુરૂષને યોગ્ય લક્ષણાના ધારક હતા. ભગવાનના शरीरना ५७मानो मा (सण्णयपासे संगयपासे सुंदरपासे सुजायपासे मियमाइय-पीण-रइय-पासे ) भथी नभे। तो, ति प्रमाणे तो, सु२ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टोका. स. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम् पीण-रइय-पासे उज्जुय-सम-सहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध आइज-लडह-रमणिज-रोम-राई झस-विहग-सुजाय-पीण-कुच्छी झसोयरे सुइकरणे पउम-वियड-णाभे गंगावत्तग-पयाहिणावत्त'मियमाइय-पीण-रइय-पासे ' मितमात्रिक–पोन-रतिद-पार्श्वः, तत्र-मितमात्रिकौसमुचितपरिमाणवन्तौ, पीनौ-पुष्टौ, रतिदौ-रम्यौ, पा-कक्षाभ्यामधो वामदक्षिणशरीरभागौ यस्य स तथा, 'उज्जुय-सम-सहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आइज्ज-लडहरमणिज्ज-रोमराई ऋजुक-सम-संहित-जात्य-तनु-कृष्ण-स्निग्धा-ऽऽदेय-ललितरमणीय-रोमराजिः, ऋजुकाणां-सरलानां, समसंहितानां-मिलितानां, जात्यानांस्वजातीयेषूत्तमानां, तनूनां सूक्ष्माणां, स्निग्धानां सरसानाम्, आदेयानाम्-उपादेयानां, ' लडह ' ललितानां-रमणीयानां-मनोरमाणां रोम्णां राजिः-पङ्क्तिर्यस्य स तथा, सरलसूक्ष्म-कृष्ण-सरस-रम्य-रोमराजिमान् इत्यर्थः । 'झस-विहग-सुजाय-पीण-कुच्छी अष-विहग-सुजात-पीन-कुक्षिः-मत्स्य-पक्षिगोरिव सुजातः=सुन्दरः, पीनः-पुष्टः, कुक्षिः-उदरं यस्य स तथा, 'झसोयरे' झषोदरः-मीनवत्सुन्दरोदरवान् इति भावः । 'सुइकरणे" शुचिकरणः-शुचीनि-पवित्राणि, करणानि-इन्द्रियाणि यस्य सः, इन्द्रियाणां मलवाहित्वेऽपि भगवदतिशयाद्-निर्मलतया निर्मल-निरुपलेपेन्द्रियवान् इति भावः। 'पउम-वियड-. था, उचित प्रमाण से युक्त था, सुन्दर था, शोभन था, तथा परिमित मात्रावाला, पुष्ट एवं रम्य था। रोमराजि (उज्जुय-सम-सहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आइज्ज-लडहरमणिज्ज-रोम-राई) सरल, परस्पर में मिलित, उत्तम, पंतली, काली, चिकनी, उपादेय एवं अत्यन्त मनोहर थी। उनकी कुक्षि (झस-विहग-सुजाय-पीग-कुच्छी) मत्स्य एवं पक्षी के समान सुन्दर और पुष्ट थी। (झसोयरे) उनका उदर मत्स्य के जैसा सुन्दर था । (सुइकरणे) इन्द्रियाँ यद्यपि स्वभावतः मलवाहिनी हैं, तथापि अतिशय के प्रभाव હિતે, શોભન હતું, તથા મર્યાદિત ઘાટને પુષ્ટ તેમજ રમ્ય હતો. મરાજિ (शरी२ ५२ना पानी पद्रित ) ( उज्जुय-समसहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्धआइज्ज-लडह- रमणिज्ज-रोम-राई ) सरपी, ५२२५२मा भजी गयेसी, उत्तम, પાતળી, કાળી, ચિકણ, ઉપાદેય તેમજ બહુજ મનહર હતી. તેમની કાંખ (स) ( झस-विहग-सुजाय-पीण-कुच्छी) मत्स्य तभ०४ पक्षीनवी सुह२ मने पुष्ट ती. (झसोयरे) तमनु ६२ (पेट) मादीन सुंदर तु. (सुइकरणे) द्रियो ने स्वभावथी भरवाहिनी छ तो ५ मतिशयन। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे तरंग-भंगुर-रवि-किरण-तरुण-बोहिय-अकोसायंत-पउम-गंभीर-वियड-णाभे माहय-सोणंद-मुसल-दप्पण-णिकरिय-वर-कणगच्छरुसरिस-वरवइर-वलियमझे पमुइय-वरतुरग-सीह-वर-वडिय-कडी णाभे' पद्म-विकट-नाभः-पाकोशवद् विकटा-गम्भीरा नाभिर्यस्य स तथा, 'गंगावत्तगपयाहिणावत्त-तरंग-भंगुर-रवि-किरण-तरुण-बोहिय-अकोसायंत-पउम-गंभीर-वियडणाभे' गङ्गाऽऽवर्तक-प्रदक्षिणाऽऽवर्त-तरङ्ग-भङ्गुर-रवि-किरण-तरुण-बोधितविकसत्पद्म-गम्भीर --- विकट-नाभः-तत्र – गङ्गाऽऽवर्तकसम्बन्धिप्रदक्षिणावर्ततरङ्गवद्भङ्गुरा= चक्राकारवर्तुला, रविकिरणतरुणबोधितविकसत्पद्मवद् गम्भीरा, विकटा=विशाला च नाभिर्यस्य स तथा, 'साहय-सोणंद-मुसल-दप्पण-णिकरिय-वरकणगच्छरुसरिस-वरवइर-वलिय-मज्झे' संहत-सोनन्द-मुसल-दर्पण-निकरित-वरकनकत्सरुसदश-वरवज्र-वलित-मध्यः-संहतं-क्षिप्तमध्यं यत्-सोनन्दं–त्रिकाष्ठिका, मुसल:-प्रसिद्धः, दर्पणः-दर्पणदण्डः, निकरितवरकनक सरुः निकरितं सारीकृतं सर्वथा संशोधितं यद् वरकनकं-श्रेष्ठसुवर्ग, तस्य त्सरु:-खड्मुष्टिः, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तैः सदृशः-वरसे भगवान की इन्द्रियाँ निर्लेप रहती थीं । (पउमायडणाभे) नाभि पद्मकोश के समान गंभीर थी, (गंगावत्तग-पयाहिणावत्त-तरंग-भंगुर-रवि-किरण-तरुण-बोहिय-अकोसायंतपउम-गंभीर-वियड-णाभे) तथा-गंगावर्तक-संबंधी प्रदक्षिणावर्तयुक्त तरंग की तरह भंगुर, चक्रसमान गोल, मध्याह्नकालके सूर्यकी किरणों द्वारा विकसित पद्म के समान गंभीर एवं विशाल थी । (साहय-सोणंद-मुसल-दप्पण-णिकरिय-वरकणगच्छरुसरिस-वरवइर-वलिय-मज्झे) कटिप्रदेश त्रिकाष्ठिका के मध्यभाग समान, मूसल के मध्यभाग समान, दर्पण के दण्ड के मध्यभाग समान, चलते हुए सोनेकी प्रमाथी भगवाननी द्रियो नि ५ २२ । ती. (पउमवियडणाभे) नालि प शवी गली२ ती. (गंगावत्तग- पयाहिणावत्त-तरंग-भंगुर-रवि-किरणतरुण-बोहिय-अकोसायंत-पउम-गंभीर-वियड--णाभे) तथा भावत: समाधी પ્રદક્ષિણાવર્તયુક્ત તરંગની પેઠે ભંગુર, ચક્રના જેવી ગોળ, મધ્યાહ્ન કાળના સૂર્યનાં કિરણોથી વિકસેલાં પદ્મ સમાન ગંભીર તેમજ વિશાળ હતી. ( साह्य-सोणंद-मुसल-दप्पण--णिकरिय-वरकणगच्छरु--सरिस-वरवइर-वलिय-मझे) કટિપ્રદેશ ત્રિકાઠિકા (ઘેડી અથવા તિરપાઈ)ના મધ્યભાગ જેવ, મૂસલના મધ્યભાગ જે, દર્પણના દંડના મધ્યભાગ જે, ચળકતા સેનાની ખ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका. सू. १६ भगवरमहावीरस्वामिवर्णनम्. वर-तुरग-सुजाय-गुज्झ-देसे आइण्ण-हउव्व णिरुवलेवे वरवारण-तुल्ल-विक्कम-विलसिय-गई गय-ससण-सुजाय-सन्निभोरू वज्र इव वलितः=क्षामः-कृशः, मध्यः मध्यभागो यस्य स तथा, ‘पमुइय-वरतुरगसीह-वर-वडिय-कडी' प्रमुदित-वरतुरग-सिंहवर-वर्तित-कटि:-प्रमुदितस्य रोगादिरहितत-या प्रसन्नस्य, वरतुरगस्य श्रेठहयस्य, तादृशस्य सिंहस्य चेव वरा श्रेष्ठा वर्तितावर्तुला, कटियस्य स तथा, 'वर-तुरग-सुजाय-गुज्झ-देसे' वर-तुरग-सुजात-गुह्यदेश:वरस्य श्रेष्ठस्य अश्वस्येव सुजातः-सुन्दरो गुह्यदेशो यस्य स तथा। 'आइण्णहउव्व णिरुवलेवे' आकीर्णहय इव निरुपलेपः-आकीर्णः सुलक्षणयुक्त उत्तम-जातीयो यो हयः अश्वः, स इव निरुपलेपः निर्गत उपलेपात्-मलिनसम्पर्कात् इति निरुपलेपः-निर्मल इत्यर्थः । 'वर-वारण-तुल्ल-विकम-विलसिय-गई। वर-वारण-तुल्य-विक्रम-विलसितगतिः-वरवारणस्य श्रेष्ठगजस्य तुल्यः =समानः विक्रमः पराक्रमः, तथा तत्तुल्या विलसिता चरणसंचरणरणनरहिता गतिर्गमनं यस्य सः, गजेन्द्रवदतुलबलशाली ललितगमनशीलश्चेति भावः। ‘गय-ससण-सुजाय-संनिभोरू' गज-श्वसन-सुजात-सन्निभोरुः-गजश्वसनस्य हस्तिशुण्डादण्डस्य सुजातस्य पृष्ठूत्पन्नस्य हस्तिश्वसनस्यैव सन्निभौ-सदृशौ खनमुष्टि के मध्यभाग समान और व्रजके मध्यभाग समान पतला था । तथा (पमुइय-वरतुरग-सीहवर-वट्टिय-कडी) कटिप्रदेश रोगादिकरहित होने से प्रसन्न श्रेष्ठ घोडे के समान और सिंह के समान गोल था । (वर-तुरग-सुजाय-गुज्झ-देसे) गुह्य प्रदेश सुन्दर घोड़े के गुह्य प्रदेश के समान था । (आइण्णहउन्च णिरुवलेवे) आकीर्ण जातीय घोड़ेके गुह्य प्रदेश के समान भगवानका गुह्य प्रदेश निरुपलेप था। तथा (वर-वारण-तुल्ल-विक्कम-विलसिय-गई) भगवानका पराक्रम उत्तम हाथी के समान था, तथा उनकी गति भी उसीके समान सुन्दर थी। (गय-ससण-सुनाय-सभिभोरू)हस्तिशुण्डाમુઠીના મધ્યભાગ જેવો અને વજના મધ્યભાગ જેવો પાતળે હતે. તથા (पमुइय-चरतुरग-सीह-वर-वट्टिय कडी) टिश राय माहिथी खित डापाथी प्रसन्न श्रेष्ठ घोडानी पें: मने सिडनी पेठे गोडतो. (वरतुरग-सुजाय-गुज्झ-देसे) गुह्यप्रदेश सुह२ घोडाना सुयशना वो तो (आइपणहउव्व णिरुवलेवे ) श्री-पान का आना शुगप्रशना वो मानना गुह्यप्रदेश नि३५३५ तो. “था (वर-वारण-तुल्ल--विक्कम--विलसिय-गई ) ભગવાનનું પરાક્રમ ઉત્તમ હાથીના જેવું હતું, તથા તેમની ચાલ પણ તેના Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे समुग्ग-निमग्ग- गूढ - जाणू एणी - कुरुविंदा - वत्त- वट्टा - णुपुव्व जंघे संठिय—सुसिलिट्ट - विसिह - गूढ - गुप्फे सुपइडिय - कुम्म चारु-चलणे ९८. ऊरू 6 एणी - कुरुविन्द यस्य स तथा, सुन्दर-गजशुण्डादण्डसदृशो रुयुगलवानिति भावः, 'समुग्गणिमग्ग- गूढ - जाणू' समुद्ग - निमग्न - गूढ - जानुः — समुद्गः – सम्पुटकः – तस्योपरितनाधस्तनरूपयोर्भागयोः संधिवत् निमग्नगूढे=अत्यन्तावृते-मांसपुष्टे इत्यर्थः तादृशे जानुनी 'घुटना' इति प्रसिद्धे यस्य स तथा, उपचितत्वाददृश्यमानजान्वस्थिक इत्यर्थः । 'एणी- कुरुविंदावत्त- वट्टा - णुपुव्व - जंघे ' वर्त्र-वृत्ता-नुपूर्व्यजङ्घःएण्याः - हरिण्या इव कुरुविन्दः —– तृणविशेषः, वर्त्र = सूत्रबलनकं च, ते इव च वृत्ते-वर्तुले, आनुपूर्व्येण तनुरूपे जङ्घे यस्य तथा यद्वा - एणी - कुरुविन्दावर्त्त - वृत्तानुपूर्व्य जङ्घः - इति च्छाया, तत्र - एण्या इव कुरुविन्दावतः = भूषणविशेष इव च वृत्ते= वर्तुले आनुपूर्व्येण तनुस्वरूपे जङ्घे यस्य स तथा, 'संठिय-सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ- गूढगुप्फे' संस्थित- सुश्लिष्ट - विशिष्ट - गूढ –गुल्फः - संस्थितौ – सुसंस्थानवन्तौ, स सुश्लिष्टौ - दण्ड के समान उन प्रभुकी दोनों जंघाएँ थीं । (समुग्ग-निमग्ग-गूढ-जाणू) डिब्बे के समान प्रभुके घुटने गुप्तढकनी से युक्त एवं अन्तर रहित होनेसे सुन्दर थे । अर्थात् उपचित होनेसे प्रभुके जानु की अस्थियाँ दृष्टिगोचर नहीं होती थीं । (एणी - कुरुविंदा - वत्त- वट्टा - णुपुव्व - जंघे ) एणी - हिरणी की जङ्घा समान, तथा कुरु - विन्द - तृणविशेष और डोरी के बलके समान अथवा कुरुविन्दावर्त्त नामक भूषणके समान गोल पतली - ऊपर से मोटी नीचेकी ओर उतरतीं २ पतली प्रभुकी दोनों जंघाएँ थीं । (संठिय-सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ- गूढ - गुप्फे) शोभन आकारयुक्त, अच्छी — જેવીજ સુદર ती. ( गय--ससण--सुजाय--सन्निभोरु ) હસ્તિશુ ડાદ ડના (हाथीना सूढना) भेवी ते असुनी भन्ने धाम हुती. ( समुग्ग - णिमग्ग--गूढजाणू ) उमानी पेठे अना घुटलो गुप्त ढांगुवाजां तेभन अंतर रहित હાવાથી સુંદર હતા.; અર્થાત્ ઉપચિત હેાવાથી પ્રભુના ઘુંટણુનાં હાડકાં हेयातां नडुतां. (एणी-- कुरुविंदा--वत्त-- वट्टा - णुपुव्व-- जंघे) मेली -हिरलीनी सभान, तथा--डु३विध--तृणुविशेष, भने छोरीनी वस समान, अथवा વિન્દાવત્ત નામક ભૂષણ સમાન ગાળ પાતળી--ઉપરથી જાડી તેમજ નીચેની त२३ उतरती उतरती पातंजी अलुनी भन्ने धायो हुती. ( संठिय--सुसिलिट्ठ -- विसिट्ठ-- गूढ -- गुप्फे ) शोलायमान भाअरवाजा, सारी रीते भणेसा तेभन धां३ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम् अणुपुव्व-सुसंहयं-गुलीए उण्णय-तणुतंब-णिद्ध-णक्खे रत्तुप्पलपत्त-मउय-सुकुमाल-कोमल-तले नग-नगर-मगर-सागर-चकंकसुमिलितो, गूढौ-मांसलत्वाददृश्यौ गुल्फो यस्य स तथा, पुष्टतया तिरोहितगुल्फः । 'सुप्पइट्ठिय-कुम्म-चरुचलणे' सुप्रतिष्ठित-कूर्मचारु-चरणः-सुप्रतिष्ठितौ-शोभनरूपेण स्थितौ, कूर्मवत्-कच्छपवत् , चारू सुन्दरौ चरणौ यस्य स तथा, संकोचिताङ्गकच्छपपृष्ठवचर वानिति भावः । 'अणुपुत्र-सुसंहयं-गुलीए' आनुपूर्व्य-सुसंहताऽङ्गुलीक:-आनुपूर्येण क्रमेण हीयमाना वर्द्धमाना वा, तथा सुसंहताः-विभिन्ना अपि संमिलिता अमुल्यः चरणामुल्यो यस्थ स तथा, 'उण्णय-तणु-तंब-णिद्धणक्खे' उन्नत-तनुताम्र-स्निग्ध-नखः-समुन्नत-प्रतल-रक्तचिक्कण-नख-युक्त इत्यर्थः, 'रत्तुप्पल-पत्त-मउय-सुकुमाल-कोमल-तले रक्तोत्पल-पत्र-मृदुक-सुकुमार-कोमलतलः-रक्तकमलदलवदतिकोमलारुणवर्णचरणतलवानित्यर्थः । 'नग-नगर-मगर-सागर-चकंक-वरंगमंगलं-किय-चलणे' नग-नगर-मकर-सागर-चक्राङ्क-वराङ्क-मङ्गलाङ्कित-चरणः,तत्र-नगः पर्वतः, रीति से मिलित एवं गूढ-मांसल-पुष्ट होनेसे अदृश्य ऐसे प्रभुके दोनों पैरोंके गुल्फ थे । (सुप्पइद्विय-कुम्म-चारु-चलणे) प्रभुके पाँव सकुच कर बैठे हुए कच्छ के समान सुन्दर थे । (अणुपुध-सुसंहयं-गुलीए) अनुक्रमसे उचित आकाररवाली एवं भिन्न २ होने पर भी परस्पर में संमिलित प्रभुके चरणोंकी अंगुलियां थीं। (उन्नय-तणु-तंब-णिद्ध-णक्खे) समुन्नत, प्रतल, रक्त एवं चिक्कण प्रभुके नख थे । (रतुप्पल-पत्त-मउय-सुकुमाल-कोमल-तले) रक्तकमलके दलके समान अति कोमल लालवर्णके प्रभुके चरणोंके तले थे । (नग-नगर-मगर-सागरचकंक-वरंग-मंगलं-किय-चलणे) नग-पर्वत, नगर-पुर, मकर-जलचरजीवविशेष, ગૂઢ માંસલ પુષ્ટ હોવાથી ન દેખાય એવા પ્રભુના બન્ને પગના ગોઠણે હતા. ( सुप्पइद्विय-कुम्म- चारु--चलणे) प्रभुन ५ सयाने मेडेस। यमानी पेठे सुह२ उता. ( अणुपुब्ब--सुसंहयं गुलीए) अनुभथी अथित मा४२वाजी તેમજ જુદી જુદી હોવા છતાં પણ પરસ્પરમાં જોડાએલી પ્રભુના ચરણેની मांगती ती. (उन्नय--तणु--तंब--णिद्ध--णक्खे) समुन्नत, प्रतस, ene तेभ० यि४४॥ प्रभुना न उता. ( रत्तुप्पल--पत्त--मउय--सुकुमाल--कोमल-तले) રક્ત કમલના દલના જેવાં અતિશય કેમળ લાલ વર્ણનાં પ્રભુના ચરણોમાં aloयां तi. ( नग-नगर--मगर-सागर-चक्कंक-वरंग-मंगलं-किय-चलणे ) નગ-પર્વત નગર--પુર, મકર-જલચર જીવ વિશેષ, સાગર--સમુદ્ર અને ચક Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० औपपातिकसूत्रे वरंग-मंगलं-किय-चलणे विसिहरूवे हुयवह-निम-जलिय-तडितडिय-तरुण-रवि-किरण-सरिस-तेए अणासवेअममे अकिंचणे नगरं पुरं, मकरः जलचरजीवविशेषः, सागरः=समुद्रः, चक्रं प्रसिद्धम् , एतान्येव अङ्कालक्षणानि, तथा वराऽङ्काश्च=शुभसूचकस्वस्तिकादिलक्षणानि, मङ्गलः=शुभलक्षणविशेषश्च, तैरलङ्कृतौ सुशोभितौ-चरणौ यस्य स तथा, नगनगरमकरादिचिह्न-स्वस्तिकादिचिह्न-मङ्गलचिह्नरूप-शुभलक्षणसुशोभितचरणयुगवानिति भावः । 'विसिगुरूवे' विशिष्टरूपः-अतिसुन्दरः, 'हुयवह-नि द्धन-जळिय-तडितडिय-तरुण-रवि-किरण-सरिस-तेए' हुतवह - निर्दूम - ज्वलित - तडितडि - तरुण - रवि-किरण - सदृश - तेजस्कः, हुतवहनि मज्वलितस्य अग्नेर्निर्दूमज्वालायाः, तडितडितः - धारावाहिकतया पुनः पुनर्विघोतितविद्युतः,-तथा तरुणरविकिरणानां-सदृशं समानं तेजः-दीप्तिर्यस्य स तथा, 'अणासवे, अनास्रवः-अविद्यमाना आस्रवा यस्य स तथा, कर्मागमरहित इत्यर्थः, 'अममे' अममः-ममत्वरहितः 'अकिंचणे' अकिञ्चनः- नास्ति सागर-समुद्र और चक्र इनके शुभ चिहनों से, स्वस्तिकादि शुभ चिहनों से तथा मङ्गल नामक शुभ चिह्नसे सुशोभित प्रभुके दोनों चरण थे । (विसिट्ठरूवे) प्रभुका रूप विशिष्ट असाधारण अर्थात् अनुपम था । (हुयवय-णिभूम-जलिय-तडितडिय-तरुण-रवि-किरण-सरिस-तेए) निर्धूम अग्नि के समान, बार बार चमकती हुई बिजली के समान तथा मध्याहनकालिक रविकिरणोंके समान प्रभुका तेज था । (अणासवे) नवीन कौके आस्रवसे प्रभु सर्वथा रहित थे । ( अममे) प्रभुके किसी भी पर पदार्थमें ममत्व नहीं था । (अकिंचणे) प्रभु अकिंचन-परिग्रहरहित थे। (छिन्नसोए) भगवानने अपनी भवपरम्पराको नष्ट कर दिया था । એનાં શુભ ચિહ્નોથી–સ્વસ્તિકાદિ શુભચિહ્નોથી, તથા મંગળનામક ચિહ્નથી यमित प्रभुना मन्ने यर हता (विसिद्धरूवे) प्रभुनु ३५ विशिष्ट---मसाधा२५ मर्यात अनुपम तु. (हुयवह-णिम- जलिय--तडि--तडिय--तरुण--रवि-- किरण-सरिस--तेए) धुमास १२॥ मनिनायु, पार पा२ यती विorળીના જેવું, તથા મધ્યાહ્ન કાળના સૂર્યનાં કિરણે જેવું પ્રભુનું તેજ હતું (गणासवे) नवीन भीनमासपथी प्रभु सर्पा २हित ता. ( अममे) प्रभुन ४ ५४ ५२ पहाभ भभव नहातु (अकिंचणे) प्रभु माय-परि• पाना संत. (छिन्नसोए) भगवाने पोताना सवयर परानो नाश ४॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम् १०१ छिन्नसोए निरुवलेवे ववगय-पेम-राग-दोस-मोहे निग्गंथस्स पवयणस्स देसए सत्थनायगे पइटावए समणगपई समणगकिञ्चन यस्य स तथा, परिग्रहग्रन्थिरहितः । 'छिन्नसोए' छिनस्रोताः-निवर्तितभवप्रवाहः, 'निरुवलेवे' निरुपलेपः-उपलेपो-मालिन्य; तद् द्विविधं द्रव्यरूपं भावरूपञ्च, तादृशाद् द्विविधादुपलेपात्-निर्गतो निरुपलेपः, द्रव्यतो निर्मलशरीरः, भावतः कर्मबन्धहेतुभूतोपलेपरहितः । पूर्वोक्तमेवार्थ विशेषतः स्पष्टयन्नाऽऽह ‘ववगय-पेम-राग दोस-मोहे' व्यपगतप्रेमरागद्वेषमोहः-प्रेम च रागश्च द्वेषश्च मोहश्चेति प्रेमरागद्वेषमोहाः, प्रेम-आसक्तिलक्षणम्, रागः-विषयेषु अनुरागरूपः, द्वेषः-अप्रीतिरूपः मोहः-अज्ञानरूपः, एते प्रेमादयो व्यपगताः-विनष्टा यस्य स तथा, 'निग्गंथस्स पवयणस्स देसए' निर्ग्रन्थस्य प्रवचनस्य देशकः-निर्ग्रन्थस्य-निर्गतं ग्रन्थाद् द्रव्यतः सुवर्णादिरूपाद्, भावतो मिथ्यात्वादिलक्षणात्-निर्ग्रन्थं तस्य निम्रन्थस्य, प्रवचनस्य-प्रकर्षणउच्यते-परमकल्याणाय कथ्यते इति प्रवचनम्-तस्य प्रवचनस्य देशकः उपदेशकःनिरारम्भ-निष्परिग्रह-धर्मोपदेशक इति भावः । 'सत्थनायगे' सार्थनायकः-सार्थस्यमोक्षप्रस्थितभव्यसमूहस्य, नेता-स्वामीत्यर्थः 'पइद्वावए' प्रतिष्ठापकः-श्रुत पारित्रलक्षणधर्मसंस्थापकः। 'समणगपई' श्रमणकपतिः-श्राम्यन्ति सोत्साहं कर्मनिर्जराथ (णिरुषलेवे) द्रव्य एवं भाव रूप दोनों प्रकारकी मलिनतासे प्रभु वर्जित थे । इसी बातको पुनः विशेष रूपसे इन विशेषणों से सूत्रकार स्पष्ट करते हैं-(ववगयपेम-राग-दोस-मोहे) भगवानने अपनी आत्मा से प्रेम, राग द्वेष एवं मोहको नष्ट कर दिया था । (णिग्गंथस्स पवयणस्स देसए) प्रभु निम्रन्थ प्रवचनके उपदेशक थे । (सत्यणायगे) मोक्षकी ओर प्रस्थित भव्यसमूहके भगवान नेता थे । (पइद्वावर) श्रुतचारित्ररूप धर्मके प्रभु संस्थापक थे । (समणगपई) भगवान् तप एवं साधा तो. (णिरुवलेवे) द्रव्य तमन मा१३५ मन्ने प्रा२नी मलिनताथी પ્રભુ વર્જિત હતા. આ વાતને ફરીને વિશેષ રૂપથી તેમનાં અંગેનાં વિશેपोथी सूत्रधार २५४ छे. (ववगय--पेम--राग--दोस-मोहे) भगवाने પિતાના આત્મામાંથી પ્રેમ, રાગ, દ્વેષ તેમજ મોહનો નાશ કર્યો હતે. (निगंवस्स पवयणस्म देसए ) प्रभु निन्य प्रपयनना उपहे४ ता (सत्षणायगे) भान त२६ वणेसा व्यसना पान नेता ता. (पइटावए) श्रुत शारित्र३५ धन प्रा सस्था५४ ता. ( समणगपई) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ औपपातिक विंद - परियढिए चउतीस - बुद्धा इसेस - पत्ते, पणतीस - सच्चवयणा श्रमं कुर्वन्ति तपः- स्वाध्यायादिषु इति श्रमणाः -त एव श्रमणकाः, तेषां पतिःचतुर्विधसङ्घाधिपतिरिति भावः, ' समणग-विंद-परियढिए ' श्रमणक-वृन्दद-परिवर्द्धकःश्रमणकानां चतुर्विधानां, वृन्दं - सङ्घः - तस्य परिवर्द्धकः - वृद्धिकारी । अथवा ' परियहए ' पर्यटकः—अग्रेसरः, यद्वा पर्यायकः – तैः परिपूर्णः । ' चउत्तीस - बुद्धाइसेस - पत्ते ' चतुस्त्रिंशद् - बुद्धातिशेष - प्राप्तः - चतुस्त्रिंशत् चतुस्त्रिंशत्संख्यका ये बुद्धानां = तीर्थकराणाम् अतिशेषाः-अतिशयाः तान् प्राप्तः, तत्र - अवृद्धिस्वभावकं केशश्मश्रुरोमनखमिति प्रथमोऽतिशयः, अन्येऽध्यतिशयाः समवायाङ्गसूत्रेऽभिहितास्ततोऽवगन्तव्याः । ' पणतीस - सच्चवयणाइसेस - पत्ते ' पञ्चत्रिंशत्सत्यवचनाऽतिशेषप्राप्तः पञ्चत्रिंशत्सख्यका ये सत्यवचनस्य अतिशेषाः - अतिशयाः तान् प्राप्तः, अर्थात् पञ्चत्रिंशद्वाणीगुणयुक्त इति भावः । पञ्चत्रिंशद्वाणीगुणा आचाराङ्गसूत्रस्य मत्कृताऽऽचारचिन्तामणिटीकायां प्रथमाध्य स्वाध्याय आदि क्रियाओंमें कर्मनिर्जरा के लिये परिश्रम करनेवाले श्रमणोंके स्वामी थे । (समणग- विंद-परि-यडिए) चतुर्विध संघके वे प्रभु वर्द्धक थे । अथवा उसके अग्रेसर या उससे परिपूर्ण | ( चउत्तीस - बुद्धाइसेस - पत्ते) तीर्थकरों के चौतीस अतिशय से प्रभु विराजमान थे। इनमें नख, केश एवं श्मश्रु - दाढी - मूँछका नहीं बढना यह पहला अतिशय है, अवशिष्ट अतिशय समवायाङ्ग सूत्र से जान लेना चाहिये । (पणतीस - सच्चवयणा - इसेस - पत्ते) वाणीके पैंतीस गुणों से प्रभु युक्त थे । ३५ वाणीगुणरूप अतिशय आचारांग सूत्रके प्रथम अध्ययनकी आचारचिंतामणि टीका में कहे हैं, अतः वहां से जान लेना चाहिये । (आगासगएणं चकेणं) आकाशगत ભગવાન તપ તેમજ સ્વાધ્યાય આદિ ક્રિયાએમાં કમનિર્જરાને માટે પરિશ્રમ કરવાવાળ શ્રમણેાના સ્વામી હતા. समणग--विंद--परियढिए ) यतुવિધ સઘના તે પ્રભુ વક હતા અથવા તેના અગ્રેસર કે તેનાથી પરિपूर्ण इता. ( चउत्तीसबुद्धा इसेसपत्ते ) तीर्थ रोना यात्रीस अतिशयोथी प्रभु બિરાજમાન હતા. તેમાં નખ કેશ તેમજ શ્મશ્ર-ઢાઢી--મૂંછનું ન વધવું એ પહેલા અતિશય છે, ખાકીના અતિશય સમવાંયાંગ સૂત્રથી જાણી લેવા छो. (पणतीस - सच्च-. वयणाइसेस - पत्ते ) वालीना यांत्रीस गुणोथी प्रभु યુક્ત હતા. ૩૫ વાણી ગુણરૂપ અતિશય આચારાંગ સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનની આચાર--ચિંતામણિ ટીકામાં કહેલા છે, એટલે ત્યાંથી તે જાણી લેવા Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ पोयूषवर्षिणी-टीका. स्व. १६ भगवन्महावीरस्वामिवर्णनम्.. इसेस-पत्ते आगासगएणं चक्कणं आगासगएणं छत्तेणं आगासमियाहिं चामराहिं आगासगएणं फालियामएणं सपायवीडेणं सीहासणेणं धम्मज्झएणं पुरओ पकढिज्जमाणेणं चउदसहिं समणसाहस्सीहिं छत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपडितुडे व्याख्याताः, 'आगासगएणं चक्केणं' आकाशगतेन चक्रेग । 'आगासगएणंछत्तेणं' आकाशगतेन छत्रेण। 'आगासमियाहिं' आकाशमिताभ्यां प्राप्ताभ्यां, 'चामराहिं' चामराभ्याम्-अतिशयप्रभावाच्चक्रादिभिरुपलक्षित इति भावः । 'आगासगएणं फलिआमएणं' आकाशगतेन स्फटिकमयेन-आकाशस्थितेन स्फटिकनिर्मितेन 'सपायवी ढेणं, सपादपीठेन–पादस्थापनपीठसहितेन 'सीहासणेणं' सिंहासनेन, 'धम्मज्झएणं' धर्मध्वजेन, 'पुरओ' पुरतः-अग्रतः, 'पकढिज्जमाणेणं' अतिशयमहिम्ना प्रकटयमानेन ' चउद्दसहिं समणसाहस्सीहिं' चतुर्दशभिः-श्रमणसाहस्रीभिः श्रमणानां चतुर्दशसहस्रैः 'छत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं ' षट्त्रिंशता आर्यिकासाहस्त्रीभिः-आर्यिकाणां षट्त्रिंशत्सहस्रैः ‘सद्धि' सार्द्ध-सह । 'संपडिबुडे' सम्परिवृतःचक्रसे, (आगासगएणं छत्तेणं) आकाशगत छत्रों से (आगासमियाहिं चामराहि) आकाशगत चामरों से वे प्रभु उपलक्षित थे। (आगासगएणं फलियामएण सपायवीटेणं सीहासणेणं धम्मज्झएणं पुरओ पकढिजमाणेणं) आकाशगत, स्फटिकमय एवं पादपीठसहित ऐसे सिंहासन से एवं अतिशय की महिमा से प्रकटित और आगे २ चलनेवाले ऐसे धर्मध्वजा से युक्त, तथा-(चउद्दसहिं समणसाहस्सीहिं छत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे ) १४ हजार श्रमणों के, एवं नये. ( आगासगएणं चक्केणं ) मशगत यथी ( आगासगएणं छत्तेणं ) माशात छोथी ( आगासमियाहिं चामराहिं ) माशात यामरोथी ते प्रभु साक्षित (माता) . ( आगासगएणं फलियामएणं सपायवीढेणं सीहासणेणं धम्मज्झएणं पुरओ पकढिजमाणेणं ] २माशात, टिभय तेभ પાદપીડ સહિત એવાં સિંહાસનધી તેમજ અતિશયની મહિમાથી પ્રગટિત मने 11 मा शासना२ ॥ धर्मपथी युत [ चउद्दसहिं समणसाहस्सोहिं छत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिबुडे ] १४ डा२ श्रमणाना तभ०४ છત્રીસહજાર આર્યાઓના પરિવારથી યુક્ત ભગવાન શ્રી મહાવીર પ્રભુ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे पुव्वाणुपुवि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइजमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे चंपाए णयरीए बहिया उवणगरग्गामं उवागऐ चंपं नगरिं पुण्णभदं चेइयं समोसरिउकामे ॥ सू० १६ ॥ ૨૦૪ -अप्र 6 भगवान् - श्रीमहावीरः, पुत्राणुपुत्रि ' पूर्वानुपूर्व्या- तीर्थंकर परिपाट्या - तीर्थङ्करपरम्परया । ' चरमाणे ' चरन् - विहरन्, ' गामाणुग्गामं ' ग्रामानुग्रामम् एकस्माद् ग्रामाद् ग्रामान्तरम्, 'दुइज्जमाणे ' द्रवन् गच्छन् एकस्माद् ग्रामादनन्तरं ग्राममनुल्लङ्घयन्नित्यर्थः, ' सुहंसुहेणं ' सुखसुखेन - संयमबाधारहितेन, ' विहरमाणे ' विहरन् - अ तिबद्धविहारं कुर्वन्, चंपा नयरीए ' चम्पाया नगर्याः, ' बहिया ' बहिः ' उवगगरग्गामं ' उपनगरग्रामम् नगरसमीपवर्त्तिनं ग्रामम् । ' उवागए ' उपागतः - सममृतः किमर्थमुपागतः ? इत्याह- ' चंपं णयरिं ' चम्पायां-चम्पानाम्यां नगर्यां ' पुण्णभदं चेइयं समोसरिउकामे पूर्णभद्रं = पूर्णभद्रनामकं चैत्यम् = उद्यानं समवसर्तुकामः- आगन्तुकामः सन् उपागत इति सम्बन्धः ॥ सू०१६ ॥ 4 छत्तीसहजार आर्यिकाओं के परिवार से युक्त भगवान् श्रीमहावीर प्रभु (पुन्त्राणुपुत्रि चरमाणे ) तीर्थंकरों की परंपरा के अनुसार विहार करते हुए ( गामाणुग्गामं दूइज्माणे ) एकग्राम से दूसरे ग्राम पधारते हुए ( सुहंसुहेणं विहरमाणे ) सुख सुख से विचरते हुए ( चंपाए णयरीए बहिया उवणगरग्गामं उवागए ) चंपा - नगरी के बाहरभाग की ओर स्थित; परन्तु वहां से बहुत दूर नहीं; किन्तु थोडी दूर पर रहे हुए ऐसे ग्राम में पधारे, यहां आने का कारण उनका यह था कि वे प्रभु (चंपं यरिं पुण्णभद्दं चेइयं समोसरिउकामे ) चंपानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में पधारनेवाले थे ॥ सू० १६ ॥ ( पुव्वाणुपवि चरमाणे ) तीर्थ रोनी परंपराने अनुसरीने विहार रा ४२ ( गामाणुम्गामं दूइज्जमाणे ) ગામથી બીજે ગામ પધારતા णयरीए बहिया उब परंतु नाथी हु ( सुहंसुहेणं विहरमाणे ) सुभ सुमेथी वियरता ( चंपाए णगरग्गामं उवागए ) थौंपा नगरीनी महारना लाग तर ક્રૂર નહિ પણ જરા દૂર આવેલા એવા ગામમાં પધાર્યા. અહીં अरणु तेभने थे हुतुं ते प्रभु ( चंप णयरिं पुण्णभद्दं चइयं समोस रिकामे) ચંપાનગરીના પૂર્ણ ભદ્ર નામના ઉદ્યાનમાં પધારવાવાળા હતા. [સૂ. ૧૬] આવવાનું Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका. सू. १७ प्रवृत्तिव्यापृतस्य कूणिकरामसमीपगमनम् १०५ मूलम्-तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हट्ठ-तुह-चित्त-माणंदिए पोइमणे परमसोमणस्सिए टीका-'तए णं' इत्यादि, ततः खलु यदा भगवान्-चम्पानगरीसमीपग्राममुपागतः तदनन्तरं-तत्पश्चात् , ‘से पवित्तिवाउए' स प्रवृत्तिव्यापृतः स पूर्वोक्तः-भगवद्वार्ताऽऽनयने नियुक्तः 'इमीसे कहाए' अस्याः कथायाः ' लढे समाणे' लब्धार्थः सन्-ज्ञातभगवदागमनवृत्तान्तः सन् , 'हट्ठ-तुटु-चित्त-माणंदिए' हृष्ट-तुष्ट-चित्ता-नन्दितः-हृष्टतुष्ट अतितुष्टम् , यद्वा हृष्टं-हर्षितम् , तुष्टम् प्राप्तसन्तोषतादृशं चित्तं यस्य स हृष्टतुष्टचित्तः, अत एव आनन्दितः आनन्दं प्राप्तः संजातमानसोल्लास इत्यर्थः । सूत्रे 'चित्तमाणदिए' इत्यत्र मकारः , प्राकृतत्वात् । 'पीइमणे' प्रीतिमनाः-प्रीतिः-तृप्तिर्मनसि यस्य स प्रीतिमनाः-तृप्तमानसः । 'परमसोमणस्सिए' परमसौमनस्यितः-परमम्-उत्कृष्टं च तत् सौमनस्यं प्रसन्नचित्तता चेति परमसौमनस्यं तदस्य संजातं परमसौमनस्थितः परमानुरागपूर्णमनस्कः, 'तए णं से पवित्तिवाउए' इत्यादि (तए णं ) जब भगवान् चंपानगरी के समीपवर्ती ग्राम में पधारे तब ( से पवित्तिवाउए ) भगवान की वार्ता के लाने के लिये नियुक्त किया हुआ वह पुरुष (इमीसे कहाए) इस समाचार को (लद्धटे समाणे) जानकर कि भगवान् चंपानगरी के समीपवर्ती ग्राम में आकर विराजमान हो चुके हैं, ( हट-तुटूचित्त-माणदिए) इससे उसके चित्त में अत्यन्त हर्ष और सन्तोष हुआ। अतः वह अत्यन्त आनंदित हुआ, (पीइमणे ) मन में प्रेम छा गया, (परमसोमणस्सिए ) अत्यंत अनुराग से उसका मन भर गया (हरिस बस-विसप्पमाण-हियए ) अपार 'तए णं से पवित्तिवाउए' त्याहि (तए णं) ज्या भावान यानगरी सभापती भिम पायर्या त्यारे (से पवित्तिवाउए) भगवाननी पाा-समायार. स. orqn भाटे निभासमा ते ५३षे ( इमीसे कहाए) से समायारने (लद्धढे समाणे ) या सगवान ચંપાનગરીના સમી પવતી ગામમાં આવીને બિરાજમાન થઈ ચૂક્યા છે, (हह-तुट्ठ-चित्त-माणदिए ) माथा तेना भनमा सत्यतष भने सतोष थयो भने तेथी ते मई मान पाभ्यो, (पीइमणे ) भनमा प्रेम छपाई गये।, ( परमसोमणस्सिए ) सत्यत मनुरागथा तेनु मन मरा यु, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक हरिस-वस-विसप्पमाण- हियए हाए कयबलिकम्मे कय- कोउयमंगल-पायच्छित्ते सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिए अप्प - महग्घा भरणा - लंकिय- सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्ख' हरिस-वस-विसप्पमाण - हियए ' हर्ष – वश–विसर्प – हृदयः— हर्षवशेन विसर्पत्-परित उच्छलद् हृदयं यस्य स तथा, भगवदर्शनादमन्दानन्दतरङ्ग समुच्छलितचित्त इत्यर्थः । 6 4 हाए ' स्नातः - कृतस्नानः, ' कयबलिकम्मे ' कृतबलिकर्मा - स्नाने कृते पशुपक्ष्याबर्थं कृतान्नभागः ' कय- कोउय- मंगल- पायच्छित्ते ' कृत-कौतुक - मङ्गल - प्रायश्चित्तःकृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि - दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वात् येन स तथा, तत्र कौतुकानि = मषीतिलकादीनि, मङ्गलानि तु सिद्धार्थदध्यक्षतादीनि । ' सुद्धप्प - वेसाई' शुद्धप्रवेश्यानि - शुद्धानि = प्रक्षालितत्वात् निर्मलानि, प्रवेश्यानि = राजसभाप्रवेशाऽऽर्हाणि - राजसभायोग्यानि ' मंगलाई ' मङ्गलानि - मङ्गलकारकाणि, 'वत्थाई' वस्त्राणि - विविधरूपप्रकाराणि - 'पवर' - प्रवराणि - मूल्यतो महार्घाणि, रूपत उज्ज्वलानि मृदूनि सान्द्राणि च; प्राकृतत्वाद् विभक्तेर्लोपः, 'परिहिए ' परिहितः - शरीरे यथास्थानं योजितः । 'अप्प - महग्घा भरणा-लंकियसरीरे ' अल्प - महार्घा - भरणा - ऽलंकृत - शरीर :- अल्पानि= हर्ष से उसका हृदय उछलने लगा । फिर उसने कोणिक राजा के पास जाने की तैयारी की। उसने ( हाए ) स्नान किया, ( कयबलिकम्मे ) पश्चात् पशुपक्षी आदि के लिये अन्न का विभागरूप बलिकर्म किया, ( कय - कोउय - मंगल - पायच्छित्ते ) दुःस्वप्नादि निवारण के लिए मषीतिलकादि किये और दही अक्षतादि धारण किये । (सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिए ) पश्चात् उसने स्वच्छ, राजसभा में जाने योग्य, मांगलिक, बहुमूल्य, तथा रूप उज्जवल वस्त्रों को धारण किये। (अप्प - महग्घा - भरणा - लंकिय - सरीरे ) वस्त्र पहिर चुकने के अनन्तर फिर उसने ( हरिस --वस-- विसप्पमाण -हियए) अपार हर्षथी तेनु हृदय छजवा सा. पछी तेथे अशि रामनी पासे भवानी तैयारी ४री तेथे ( व्हाए ) स्नान अयु, ( कयबलिकम्मे ) पछी पशु पक्षि माहि ने भाटे અન્નના વભાગરૂપ सिभ यु . ( कय-- कोउय-- मंगल-- पायच्छित्ते ) दुःस्वप्नाहि घोषना निवाરણને માટે મષી-તિલક આદિ કર્યા અને દહી અક્ષત આદિ ધારણ કર્યાં. (सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिए) पछी तेणे स्वच्छ, शम्सलाभां પહેરી જવા ચેાગ્ય, માંગલિક, બહુમૂલ્ય તથા રૂપથી ઉજ્જવલ વઓ ધારણ र्था. (अप्प-महग्घा-भरणा - लंकिय- सरीरे) वस्त्र पहेरी सीधा पछी तेथे मोछा १०६ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. १७ प्रवृत्तिव्यापृतस्य कूणिकराजसमीपगमनम् १०७ मइ, पडिणिक्खमित्ता चपाए णयरीए मझंमज्झेणं जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव कूणिए राया भिंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिपरिमागतो न्यूनानि, महा_णि-महान् अतिशयः-अर्घा=मूल्यं येषां तानि, आभ्रियन्ते= सम्यग् धार्यन्त इत्याभरणानि- अलङ्काराः, तैरलकृतं शरीरं यस्य स तथा, अल्पबहुमूल्यभूषणभूषितदेह इत्यर्थः, 'सयाओ गिहाओ' स्वकाद् गृहाद् , 'पडिणिक्खमइ' प्रतिनिष्क्राम्यति-निर्गच्छति। 'पडिणिक्वमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य-निर्गत्य, 'चंपाए णयरीए' चम्पाया नगर्याः, 'मझमज्झेणं' मध्यमध्येन-चतुर्दिगपेक्षमध्यभागेन, 'जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे' यत्रैव कोणिकस्य राज्ञो गृह-भवनम्, 'जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला' यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला-आस्थानमण्डपः, जेणेव कूणिए राया भिंभसारपुत्ते' यत्रैव कोणिको राजा भिंभसारफुत्रः, 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैवोपागच्छति, ‘उवागच्छित्ता' उपागत्य, 'करयलपरिग्गहियं' भार से अल्प एवं बहुमूल्य आभरण भी शरीर पर धारण किये। इस प्रकार सज-ज कर वह (सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ) अपने घर से निकला, (पडिणिक्वमित्ता चंपाए णयरीए मज्झमझेण जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे) घर से निकलकर यह चंपानगरी के ठीक मध्य के मार्ग से होकर जहां कोणिक राजा का प्रासाद था, (जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला) जहां पर बाहरी उपस्थानशाला थी, और (जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ) उस उपस्थानशाला में, जहाँ भंभसार के पुत्र कोणिक राजा बैठे हुए थे, वहां पहुँचा। (उवागच्छित्ता) वहाँ पहुँचते ही सर्वप्रथम उसने (करयलपरिग्गहियं વજનનાં તેમજ બહુમૂલ્ય આભરણ પણ શરીર ઉપર ધારણ કર્યા. આ ४ारे श॥२ ४रीने ते (सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ) पोताने धेरथी नीज्यो. (पडिणिक्खमित्ता चपाए णयरीए मझमज्झेणं जेणेव कोणियस्स रण्णो गिहे) धेरथी ना४जीन ते पानाशन ५२।४२ मध्यमामा थने त्यां आणि शतना भी डतो (जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला) भने ज्यां पा 6५२थान या ती, तथा (जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ) તે ઉપસ્થાન–શાલામાં જ્યાં ભંસારના પુત્ર કેણિક રાજા બેઠા હતા ત્યાં पांच्या. (उवागच्छित्ता) त्यो पांयतir सर्व प्रथम तण (करयलपरिग्गहि Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ .-- औपपातिकसूत्रे त्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावित्ता एवं वयासी ॥ सू० १७॥ .. मूलम्-जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं कंखंति, जस्स करतलपरिगृहीतं करतलेन करतलं परिगृहीतं-परस्परं संश्लिष्टम् । 'सिरसावत्तं' शिरआवर्तम्-शिरसि शिरसोऽग्रभागे आ-समन्ताद् वर्तते-परिभ्राम्यति इति शिरआवर्तस्तम् । 'अंजलिं' संमिलितकरयुगम् । 'मत्थए' मस्तके-ललाटदेशे, 'कट्ट'-कृत्वा 'जएणं' जयेन-जयः उत्कर्षप्राप्तिरूपः तेन-'जय जय महाराज' इति रूपेण, 'विजएणं' विजयेन-विशिष्टः प्रचण्डशत्रुनिग्रहरूपो जयो विजयः तेन-अर्थात्-विजयस्व विजयस्व महाराज इति रूपेग ‘वद्धावेइ' वर्द्धयति-जयेन विजयेन वर्द्धस्वेति वृद्धिकामनारूपामाशिषं प्रयुक्त स्म, वर्द्धयित्वा ‘एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् ॥ सू० १७ ॥ टीका-भगवद्विहारादिवानिवेदकः पुरुषः कोणिकनृपं किमवादीत् ? इत्याह'जस्स णं' इत्यादि, यस्य भगवतः श्रीमहावीरस्य खलु निश्चयेन, हे देवानुप्रियाः ! 'दंसणं' दर्शन सबहुमानं रूपावलोकनं भवन्तः 'खंति' काङ्क्षन्तिसिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, बद्धावित्ता एवं वयासी) दोनों हाथ जोडकर और अञ्जलिरूप में परिणत उन्हें मस्तक के दाँयें-बाये घुमाकर पश्चात् उन्हें मस्तक पर लगाकर अर्थात् नमस्कार कर " जय हो महाराज की, विजय हो महाराज की"-इस प्रकार जय विजय शब्दों द्वारा राजा को बधाया। बधाने के बाद फिर वह इस प्रकार बोला-सू० १७॥ 'जस्स णं देवाणुप्पिया' इत्यादि (देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! (जस्स णं) जिनके सदा आप (दसणं कखति) दर्शनों की इच्छा किया करते हैं (जस्स णं देवाणुप्पिया यं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएण वद्धावेइ वद्धावित्ता एवं वयासी) બને હાથ જોડીને અને તેમને મસ્તકની જમણી અને ડાબી બાજુએ ફેરવીને અંજલિ રૂપમાં પરિણત કરી માથે લગાવીને અર્થાત્ નમસ્કાર કરીને જય હે મહારાજાને, વિજય હો મહારાજાને એ પ્રકારે જય વિજય શબ્દો દ્વારા રાજાને વધાવ્યા અને વધાવ્યા પછી તે નીચે પ્રમાણે છે. (સૂ. ૧૭) 'जस्स ण देवाणुप्पिया' छत्याहि. (देवाणुप्पिया !) वानुप्रिय ! (जस्स णं) रेमना सहा आ५ (दसणं Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dreafter- टीका. स्व. १८ भगवदुपनगरग्रामागमनवृत्तान्त निवेदनम् . १०९ णं देवाप्पिया दंसणं पीहंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पत्थंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं अभिल संति, जस्स णं देवाणुअप्राप्तं प्राप्तुमिच्छन्ति 'जस्स खलु देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति ' हे देवानुप्रियाः ! यस्य भगवतः श्रीमहावीरस्य खलु दर्शनाय भवन्तः स्पृहयन्ति कदा मे भगवद्दर्शनं भविष्यतीत्युत्कण्ठां सततं धरन्ति प्राप्तं सत् पुनस्तत्परित्यक्तुं नेच्छन्तीति भावः । हे देवानुप्रियाः ! यस्य भगवतः खलु ' दंसणं' दर्शनं ' पत्थति ' प्रार्थयन्ति - भवन्तो याचन्ते-हे भगवन् ! भवद्दर्शनादेव मम जन्मनः सफलता स्यादतो भवन्तश्चरणपङ्कजं दर्शयन्तु–इति रहसि पुनः पुनः प्रार्थनां कुर्वन्ति, यद्वा - अस्मत्सदृशेभ्यो जनेभ्यः सततं याचन्ते-भगवद्दर्शनं कारयतेति भावः । ' जस्स णं देवाणुपिया दंसणं अभिलसंति ' यस्य खलु देवानुप्रिया दर्शनमभिलष्यन्ति कदाऽहं भगवत्समीपमुपगत्य तत्पर्युपासनं करिष्यामीत्यभिलाषमन्तःकरणे कुर्वन्तो भवन्तः सन्ति । ' जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति ) जिनके आप देवानुप्रिय दर्शन करने की सदा स्पृहा रखा करते हैं - कब मुझे भगवान् के दर्शन होंगे इस प्रकार की उत्कंठा निरन्तर किया करते हैं, (जस्स ण देवाणुप्पिया दंसणं पत्थति ) हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शनों की याचना किया करते हैं, अर्थात् - हे भगवन् ! आपके दर्शन से ही मेरा जन्म सफल होगा, इसलिये आप कृपा करके अपने चरणकमल का दर्शन दीजिये, इस प्रकार एकान्त में आप बार २ प्रार्थना किया करते हैं, अथवा - हमारे जैसे लोगों से आप प्रार्थना करते हैं कि मुझे भगवान का दर्शन कराओ । ( जस्स णं देवाणुण्णिया दंसणं अभिलसेंति ) हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शनों की चित्त में सदा अभिलाषा धारण किये रहते हैं कि कब मैं प्रभु के चरणोंमें उपस्थित होकर उनकी कखंति) हर्शननी च्छा र्या । छो, (जस्स णं જેમનાં આપ દન કરવાની સત્તા સ્પૃહા રાખેા છે ननां दर्शन थशे- प्रहारनी है। निरंतर ४ छ।, (जस्स णं देवापिया ! दंसणं पत्थंति) हे हेवानुप्रिय ! बेभनां दर्शनानी याथना अर्ध्या ४रे। છે, અર્થાત્ હે ભગવાન ! આપનાં દર્શનથીજ મારા જન્મ સલ થશે;એ માટે આપ કૃપા કરીને આપનાં ચરણ કમલનાં દર્શન આપશે-એ પ્રકારે એકાંતમાં આપ વારવાર પ્રાર્થના કર્યા કરે છે, અથવા-અમારા જેવા લાકે પાસે આપ પ્રાર્થના ४। छोडे भने लगवाननां हर्शन शो ( जस्स णं देवाणुप्पिया ! दंसणं अभिलसंति) हे हेवानुप्रिय ! साथ मेनां दर्शनानी भनभां सहा अलिदाषा धारण देवाणुप्पिया ! दंसणं पीहंति ). કે કયારે મને ભગવા Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० औपपातिकमुत्रे प्पिया नामगोयस्सवि सवणयाए हह-तुट्ट-जाव -हियया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं उवागए चंपं णयरिं पुण्णभदं चेइयं समोसरिउकामे। तं एवं देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पियं णिवेदेमि, पियं ते भवउ ॥ सू० १८॥ नामगोयस्सवि सवणयाए हट्ट-तुटु-जाव-हियया भवंति' यत्य भगवतः खलु हे देवानुप्रियाः ! नामगोत्रस्यापि नाम= महावीर' इति, गोत्रं वंश:-काश्यप गोत्रम् इति तयोरित्यर्थः, श्रवगतया-श्रवणेन इत्यर्थः, स्वार्थिकस्ताप्रत्ययः प्राकृतशैलीप्रभव इति, हृष्ट-तुष्ट-यावत्-हृदया भवन्ति, ‘से णं समणे भगवं महावीरे' स खलु श्रमणो भगवान् महावीरः--अतिशयमहिमान्वितः श्रमणः-साधुः, भगवान्-परमैश्वर्यसम्पन्नः महावीर इति अन्वर्थनामा. 'पुव्वाणुपुत्विं चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं उवागए' पूर्वानुपूर्त्या चरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन्-चम्पाया नगर्या उपनगरग्राम-नगरसमीपवर्तिनं ग्रामम् उपागतः-समागतः । किमर्थम् ? अत्राह'चपं णयरिं पुण्णभई चेइयं समोसरिउकामे' चम्पां नगरी पूर्णभद्रनामकम् उपासना करूँगा, (जस्स णं देवाणुपिया नामगोयस्सवि सवणयाए हट्ठ-तुटुजाव-हियया भवंति ) हे देवानुप्रिय ! जिनका नाम तथा गोत्र-वंश सुनकर भी आपका हृदय हृष्ट तुष्ट हुआ करता है, (से णं समणे भगवं महावीरे) वे श्रमण भगवान्=परमैश्वर्यसम्पन्न, गुणनिष्पन्न नामवाले महावीर (पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं उवागए) पूर्वानुपूर्वीरूप से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरते हुए आज चंपा नगरी के समीप ग्राम में पधारे हुए हैं, (चंपंणयरिं पुण्णभदं चेइयं समोसरिउकामे ) और કર્યા કરે છે કે કયારે હું પ્રભુનાં ચરણોમાં ઉપસ્થિત થઈને તેમની ઉપાસના ४३, (जस्स णं देवाणुप्पिया! नामगोयस्सवि सवणयाए हट्ठ-तुट्ठ-जाव-हियया भवंति) देवानुप्रिय! मनु नाम तथा गोत्र-4 सालजीने ५५५ मापर्नु यष्ट-तुष्ट थ य छ, (से णं समणे भगवं महावीरे) ते श्रम लगवान्परभैश्वयंपन्न, गुणनिष्पन्न नामा॥ महावीर (पुव्वाणुपुर्दिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे चंपाए णयरीए उवणयरम्गामं उवागए) पूर्वानुषी ३५था વિહાર કરતા કરતા એક ગામથી બીજે ગામ વિચરતા વિચરતા આજ पानगरानी सभीपन मम पधार्या छ. (चंपं णयरिं पुण्णभई चेइय Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपवर्षिणी-टीका. सू. १९ तवृत्तान्तश्रवणेन कूणिकस्य हर्षः १११ मूलम्-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म हह-तुट्ट-जावे उयानं समवसर्तुकामः ‘तं एवं देवाणुप्पियाणं पियट्ठयाए' तदेवं देवानुप्रियाणां प्रियार्थतया उत्कण्ठाविषयत्वादनुकूलार्थतया, एवम् अमुना प्रकारेण तद् वृत्तम् ‘पिय णिवेदेमि' प्रियं-प्रीतिकारकं निवेदयामि सविनयं कथयामीति भावः। 'पियं ते मवउ' प्रियं ते भवतु ॥सू० १८॥ टीका-'तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते' इत्यादि । ततः= तदनन्तरं खलु स कूगिको राजा भंभसारपुत्रः 'तस्स पवित्तिवाउयरस अंतिए" तस्य प्रवृत्तिव्यापृतस्य भगवद्विहारनिवेदकस्य पुरुषस्य अन्तिके-समीपे-तन्मुखादिति भावः, 'एयमद्वं' एतमर्थम्-भगवदागमनरूपम्-'सोचा' श्रुत्वा-श्रवगविषयं कृत्वा "णिसम्म' निशम्य-हृदि धृत्वा 'हट्ठ-तुटु-जाव-हियए' हृष्ट-तुष्ट-यावद्-हृदयः हर्षातिचम्पानगरी के पूर्णभद्रचैत्य में पधारेंगे; (तं एवं देवाणुप्पियाणं पियट्ठयाए पियं णिवेदेमि पियं ते भवउ ) इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं आपको यह प्रिय आत्महितकारी समाचार आपके हितके लिये सविनय निवेदन करता है। आपका कल्याण हो ॥ सू० १८ ॥ 'तए णं से कूणिए राया' इत्यादि--- (तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते) उसके बाद भंभसार का पुत्र वह कोणिक राजा (तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए ) उस संदेशवाहक के मुख से (एयमढे सोच्चा) · भगवान पधारे हैं ' इस कर्णप्रिय समाचार को सुनकर (णिसम्म ) और हृदय में अच्छी तरह धारण कर (इट्ठ-तुटु-जाव-हियए) समोसरिउकामे ) सने यानाशन पून येत्यभां पधारशे. (तं एवं देवा-णुप्पियाणं पियं णिवेदेमि पियं ते भवउ) माथी देवानुप्रिय ! मापने આ પ્રિય આત્મહિતકારી સમાચાર આપનાં હિતને માટે સવિનય નિવેદન ४३. मापनु ४८यार थामी. (सू. १८.) 'तए णं से कूणिए राया' त्याह (तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते) त्या२५छी लसान पुत्र ते अलि Rin ( तस्स पवित्तिवाउयस्स अंतिए) ते संदेशवासन भुमयी (एयमढे सोचा) पान पधार्या छ' थे ४ प्रिय समाया२ सालमीने (णिसम्म ) मने हत्यमा सारी शत धारण ४शन (हटु-तुट्ठ-जाव-हियए) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ औपपातिकसूत्रे हियए धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइय-ऊसविय-रोमकूवे वियसिय-वर-कमल-णयण-वयणे पयलिय-वर-कडग-तुडिय-केऊरशयेन प्रमुदितहृदयः, 'धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइय-ऊसविय-रोमकूवे' धारा-हत-नीप-सुरभि-कुसुममिव रोमाञ्चितो-च्छ्रित-रोमकूपः, तत्र-धाराभिःजलधरजलधाराभिः आहतं संसिक्तं यत्-नीपस्य कदम्बस्य सुरभि परिमलयुक्तं कुसुमं पुष्पम् तदिव 'चंचुमालइय' इति देशीयः शब्दः, रोमाञ्चित इत्यर्थः, अतएव उच्छ्रितः-उच्चतां गतो रोमकूपो-रोमस्थानं यस्य स उच्छ्रितरोमकूपः, ततः “पदद्वयस्य कर्मधारयः । “विअसिय-वर-कमल-णयण-वयणे' विकसित-वर-कमलनयन-वदनः-विकसितवरकमलवन्नयनवदनं यस्य स तथा, 'पयलिय-वर-कडगतुडिय-केंऊर-मउड-कुंडल-हार-विरायंत-रइय-वच्छे' प्रचलित-वर-कटक-त्रुटित-केयूरमुकुट-कुण्डल-हार-विसजमान-रचित-वक्षस्कः-प्रचलितानि-प्रकम्पितानि वर--कटक-त्रुटितकेयूर-मुकुट-कुण्डलानि यस्य स तथा, तत्र-वरौ श्रेष्ठौ, कटकौ वलयौ, त्रुटितेबाहुरक्षकभूषणे, केयूरौ-बाहुभूषणे भुजबन्धविशेषौ, मुकुटं शिरोभूषणम्, कुण्डले= कर्णभूषणे-इति, तथा हारः अष्टादशसरिकादिकः, विराजमानः शोभमानः, रचितः विन्यस्तःबहुत ही हृष्ट तुष्ट एवं आनन्दित हुए, (धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइयऊसविय-रोमकूवे) जिस प्रकार बरसात की धारा से सींचे जाने पर कदम्ब के सुगन्धित फूल एकदम विकसित हो जाते हैं, उसी प्रकार भगवान् के पधारने का समाचार सुनकर राजा के रोम खडे हो गये, (वियसिय-वर-कमल-णयण-वयणे) उनके नेत्र और मुख दोनों कमल के समान विकसित हो गये। (पयलिय-वरकडग-तुडिय-केऊस्मड्ड-कुंडल-हार-विरायंत-रइय-वच्छे) अपार हर्ष के मारे कम्पित इनके शरीर पर धृत श्रेष्ठ दोनों वलय, दोनों त्रुटित-बाहुरक्षकभूषण, तुष्ट भ०४ मानहित यया. [धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमंव चंचुमालइय-ऊसविय-रोमकूवे) ने मारे १२साहनी धाराथी सी याये। मन સુગંધિત ફૂલ એકદમ ખીલી નીકળે છે તે જ પ્રકારે ભગવાનના પધારવાના સમાચાર સાંભળીને રાજાનાં રોમે રેમ આનંદથી પુલકિત થઈ ઉભાં થયાં, ( वियसिय--वर-कमल-णयण-वयणे ) मन नेत्र तथा भुभ भन्ने माना रेभ. विसीय. ( पयलिय-पर-कडग-तुडिय-केऊर--मउड-कुंडल-हार-विरायंतरइय-वच्छे) अपार पने सपने पायमान थतi मनां शरीर ५२ पा२७५ કરેલાં શ્રેષ્ઠ બને વલય (કડાં), બને ત્રુટિતઆતુરક્ષક ભૂષણ, બંને કેયૂર Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका सू. १९ कूणिकस्य तत्कालोषिताचरणम् ११३ मउड-कुंडल-हार-विरायंत-रइय-वच्छे पालंबपलंबमाण-घोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं नरिंदे सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ,पञ्चोरुहित्तावेरुलिय-वरिट्ठ-रिट्ठपरिधृतः वक्षसि वक्षःस्थले यस्य स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । 'पालंब पलंबमाण-घोलंत-भूसण-धरे, प्रालम्ब-प्रलम्बमान-घूर्णमान-भूषणधरः-प्रालम्बः-कण्ठाभरणविशेषः, स एव प्रलम्बमानं लम्बाकारं धूर्णमानं दोलायमानं भूषणं तस्य धरः-धारकः, एतादृशः ‘नरिंदे' नरेन्द्रः कूणिकनृपः ‘ससंभमं' ससम्भ्रमं-सादरं यथा स्यात् , ' तुरियं' त्वरितं-शीघ्रतया यथा स्यात् , 'चवलं' चपलं-चञ्चलतया यथा स्यात् तथा 'सीहासणाओ अब्भुट्टेइ' सिंहासानदभ्युत्तिष्ठतिअवतरति, ‘अब्भुद्वित्ता' अभ्युत्थाय-अवतीर्य 'पायपीढाओ पच्चोरुहइ' पादपीठात्प्रत्यवरोहति-अवतरति, प्रत्यवरुह्य-अवतीर्य पादपीठादधोऽवतीर्य 'पाउआओ ओमुअइ' पादुके अवमुञ्चति, कीदृशे पादुके ? इत्याह-' वेरुलिय' इत्यादि, ' वेरुलिय-वरिट्ठदोनों केयूर-बाजूबन्द, मुकुट, दोनों कुण्डल, एवं १८ लरका हार, जो वक्षस्थल में धारण किया हुआ था और जिसकी शोभा से वक्षःस्थल सुशोभित हो रहा था; ये सब के सब आभूषणादि कंपित हो उठे। (पलंब–पालंबमाण-घोलंत-भूसणधरे ) हर्ष-जनित कम्प से चलायमान उनका प्रलम्बमान कण्ठाभरण उनकी शोभा को बढा रहा था। बाद में ( ससंभमं तुरियं चवलं नरिंदे) राजा बडे ही संभ्रम से-आदरपूर्वक, अर्थात् एकदम जैसे बैठे थे वैसे ही; शीघ्र ही चंचल जैसा होकर (सीहासणाओ अब्भुटेइ) अपने सिंहासन से उठे, और (अब्भुद्वित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ ) उठ कर पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरे, ( पच्चोरुहित्ता वेरू(બાજુબંધ), મુકટ, બન્ને કુંડલ તેમજ ૧૮ સરને હાર જે વક્ષસ્થળ ઉપર ધારણ કરવામાં આવ્યો હતો, અને જેની શેભાથી વક્ષઃસ્થલ સુશોભિત થઈ રહ્યું तु, त तमामे तमाम माभूषण माहि हुसी रह्यो तi, ( पालंब-पलंबमाणघोलंत-भूसण-धरे ) उपथी उत्पन्न थdi uथी यसायमान थdi तना अामi પહેરેલા લાંબા લટકતા હાર તેની શોભામાં વધારે કરી રહ્યા હતા. પછી ( ससंभमं तुरियं चवलं नरिंदे) २ घणा संभ्रमथा--माथी अर्थात् सम॥ मेसा त तपास Guque यया थने (सीहासणाओ अब्भुट्ठइ) पोताना सिहासन ५२थी ४या, मने (अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ ) ही पापी ५२ ५॥ राभान नीथे जर्या, (पच्चोरुहित्ता-वेरुलिय-वरिठ्ठ-रिव Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ औपपातिकसूत्रे अंजण-निउणो-विय-मिसिमिसंत-मणि-रयण-मंडियाओ पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता अवहट्टु पंच रायककुहाई, तंजहा-खग्गं १, छत्तं २, उप्फेसं ३, वाहणाओ ४, बालवीयणं ५। एगसाडियं रिद्व-अंजण-निउणो-विय-मिसिमिसंत-मणि-रयण-मंडियाओ' वैडूर्य-वरिष्ठरिष्टा-अन-निपुणाऽवरोपित-चिकिचिकायमान-मणि-रत्न-मण्डिते, तत्र-वरिष्ठानि=श्रेष्ठानि वैडुर्याणि रिष्टानि अञ्जनानि-एतन्नामकानि रत्नानि ययोः पादुकयोस्ते वैडूर्य-वरिष्ठरिष्टाञ्जने,-वैडूर्यादिभिश्चित्रिते इत्यर्थः; पुनः निपुणावरोपित-चिकिचिकायमानमणि-रत्न-मण्डिते '-निपुणेन शिल्पकलाकुशलेन अवरोपितानि परिकर्मितानिसंस्कारितानि यथास्थानजटितानि यानि चिकचिकायमानानि-चाकचिक्यमयानि मणिरत्नानि तैर्मण्डिते, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः; अवमुच्य, 'अवहट्ठ पंच रायककुहाई' अपहृत्य पञ्च राजककुदानि-अवतार्य पञ्चसंख्यकानि राजचिनानि, तान्येव पृथक् परिसंख्याति तद्यथा-तानि इमानि १-'खग्गं' खङ्गं त्यजति, २-'छत्तं' छत्रं-जहाति । ३-उप्फेसं-मुकुटम्-अवतारयति, ४ वाहणाओ-उपानहौ, पूर्वपरित्यक्ते पादुके अत्र 'वाहणाओ' इति पदेन गृह्येते; त्यजति । ५-'बालवीयणं' लिय-चरिद्र-रिद्र-अंजण-निउणो-विय-मिसिमिसंत-मणि-रयण-मंडियाओ पाउयाओ ओमुयइ ) नीचे उतर कर इन्होंने फिर दोनों पैरों से पादुकाएँ उतारी, ये पादुकाएँ श्रेष्ठ वैडुर्य, रिष्ट एवं अंजन नाम के रत्नों से खचित थीं, तथा शिल्पकलामें कुशल ऐसे कारीगरों द्वारा यथास्थान निवेशित चमकते हुए अनेक रत्नों से मंडित थीं। (ओमुइत्ता अवहट्ट पंच रायककुहाई ) पादुकाएँ उतारने के बाद इन्होंने पांच राजचिह्नों का भी परित्याग कर दिया । वे पांच राजचिह्न ये हैं-( खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ बालवीयणं) खड्ग, छत्र, उप्फेस-मुकुट, दोनों पैरों के जूते-पादुकाएँ अंजण-निउणो-विय-मिसिमिसंत-मणि-रयण-मंडियाओ पाउयाओ ओमुयइ) नाये ઉતરીને પછી તેમણે બન્ને પગમાંથી પાદુકાઓ ઉતારી નાખી, એ પાદુકાઓ શ્રેષ્ઠ વૈડૂર્ય, રિષ્ટ તેમજ અંજન નામના રત્નથી જડેલી હતી તથા શિલ્પકલામાં કુશળ એવા કારીગરે દ્વારા યથાસ્થાન બેસાડેલાં ચમકાર મારતાં અનેક २त्नाथी ते शामित उती. (ओमुइत्ता अवहट्ट पंच रायककुहाई ) पास। ઉતાર્યા પછી તેમણે પાંચ રાજચિહ્નોને પણ પરિત્યાગ કર્યો. તે પાંચ २०४यिन २मा प्रमाणे, उतi-(खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ बालवीयणं ) म, છત્ર, ઉપ્લેસ=મુકુટ, બન્ને પગના જોડા–પાદુકાઓ તેમજ ચામર, પછી Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका. व. १९ कूणिकस्य तत्कालोचिताचरणम् ११५ उत्तरासंगं करेइ, करित्ता अंजलिमउलियहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तकृपयाइं अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि साह? तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि बालव्यजनं-चामरयुगलं त्यजति । त्यक्त्वा ' एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ' एकशाटिकमुत्तरासङ्गं करोति, एकशाटिकम्- अस्फाटितमयोजितं स्यूतरहितम् उत्तरासङ्गम्=उत्तरीयवस्त्रं मुखोपरि यतनार्थं करोति-धरति करित्ता' कृत्वा 'अंजलिमउलियहत्थे' अञ्जलिमुकुलितहस्तः-अञ्जलिना-अञ्जलिबन्धनेन मुकुलितौ-कमलमुकुलतुल्यौ, हस्तौ यस्य स तथा बद्धाञ्जलिपुट इत्यर्थः । 'तित्थगराभिमुहे' तीर्थङ्कराभिमुखः यस्यां दिशि महावीरप्रभुर्वर्तते तस्यां दिशि कृतमुखः 'सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ सप्त अष्ट पदानि अनुगच्छति-आनुकूल्येन व्रजति-सिंहासनात्प्रभुसम्मुखं सप्ताष्टपदानि गच्छति, 'अणुगच्छित्ता' अनुगम्य 'वामं जाणुं अंचेइ' वाम जानु आकुञ्चयति-उर्ध्वं करोति, 'अंचित्ता' वामं जान्वाकुञ्चय-उर्वीकृत्य, 'दाहिणं जाणुं धरणितलंसि साह?' दक्षिणं जानु धरणितले संहृत्य-अधः संस्थाप्य, 'तिखुत्तो' त्रिकृत्वः-त्रिरावृत्तं-त्रिवारमिति यावत्-'मुद्धाणं धरणितलंसि एवं दोनों चामर । फिर (एकसाडियं उत्तरासंगं करेइ ) पश्चात् अस्फाटित, अयोजित-विना सीये ऐसे उत्तरीयवस्त्र को मुख के ऊपर यतनानिमित्त धारण किया । (करित्ता) धारण कर ( अंजलिमउलियहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ ) बद्ध कमल के समान अञ्जलिपुट करके जिस दिशामें तीर्थंकर विराजमान थे उस ओर सन्मुख होकर सात आठ पग आगे गये, (अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ ) जाकर वहां उन्होंने अपने बायें घुटने को ऊपर किया और ( दाहिणं जाणुं धरणितलंसि साहदु ) दाहिने घुटने को जमीन पर रखकर (तिक्खुत्तो ( एगसाडियं उत्तरासंग करेइ) २१२॥टित, (टया २नु) मयान्ति-स्यूतરહિત ( સીવ્યા વગરનું ) એવાં ઉત્તરીય વસ્ત્રને મુખ ઉપર યતના નિમિત્ત धा२९४ यु(करित्ता) घा२४ शने (अंजलिमउलियहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ) म भजनी पेठ मसिट ४शन २ दिशामा તીર્થકર બિરાજમાન હતા તે તરફ સન્મુખ થઈને સાત આઠ પગલાં આગળ गया, ( अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ) ४४ने त्यो भए पनि राम। दीय ५२ राज्यो मन (दाहिणं जाणु धरणितलंसि साहट्ट ) भा। दीयाने भीन ५२ राजीन (तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेइ) त्रय पार Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ औपपातिकसूत्रे निवेसेइ, निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता कडगतुडिय-थंभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता करयल जाव-कटु एवं वयासी ॥ सू. १९ ॥ निवेसेइ' मूर्द्धानं धरणितले निवेशयति-निजमस्तकं भूमिसंलग्नं करोति । 'निवेसित्ता' निवेश्य, 'ईसिं पच्चुण्णमइ ईषत प्रत्युन्नमति-अल्पनम्रीभूतकायो भवति, 'पच्चुण्णमित्ता' प्रत्युन्नम्य-अल्पनम्रीभूतकायो भूत्वा 'कडग-तुडिय-थंभियाओ भुयाओ पडिसाहरई' कटकत्रुटितस्तम्भितौ भुजौ प्रतिसंहरति, कटकत्रुटिताभ्यां-कङ्कण-भुजरक्षकाभ्यांस्तम्भितौ-स्तम्भरूपौ यौ भुजौ तौ प्रतिसंहरति-उर्ध्वं नयति-उत्थापयतीत्यर्थः, 'पडिसाहरित्ता' प्रतिसंहृत्य-उत्थाप्य, 'करयल जाव कटु' करतल यावत् कृत्वा, अत्र-यावच्छब्देनपरिगृहीतं-परस्परं संमिलितं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वेति बोध्यते, 'एवं वयासी' एवं= वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् ॥ सू० १९ ॥ मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेइ) तीनबार अपने मस्तक को जमीन पर झुकायाजमीन से माथे को लगाया । (निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ ) लगाने के बाद फिर ये थोडे से उठे, (पच्चुण्णमित्ता कडग-तुडिय-थंभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ ) उसके पश्चात् इन्होंने अपने दोनों हाथों को कि जो कंकण एवं भुजरक्षक अलंकारों से स्तम्भित थे, उँचा किया, (पडिसाहरित्ता करयल-जाव-कटु एवं वयासी ) ऊँचे करने के बाद फिर ये मस्तक पर अंजलिपुट रख कर इस प्रकार बोले भावार्थ-संदेशहर से प्रभु के आगमन की वार्ता सुनकर कोणिकराजा मारे अतिशय आनन्द के कारण उल्लसित हो गये । इस समाचार को सुनते ही ये रोमाञ्चित हो उठे। कमल के समान मुख आनन्दातिरेक से खिल उठा। नयनों ने पोताना भरतने भीन५२ नमायु-भीनने माथु मायु (निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ) २५ उया पछी तेसो ४२ ४या. (पच्चुण्णमित्ता कडगतुडिय-थंभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ) त्या२ ५छी तमामे पोताना भन्ने डाय કે જે કંકણ તેમજ કડાં ભુજરક્ષક વગેરે અલંકારોથી ખંભિત હતા તે या ४ा. (पडिसाहरित्ता करयल जाव कट्ट एवं वयासी) या ४शने पछी તેઓએ મસ્તક ઉપર અંજલિપુટ રાખીને આ પ્રમાણે કહ્યું – ભાવાર્થ–સંદેશવાહક દ્વારા પ્રભુના આગમનના સમાચાર સાંભળીને કેણિક રાજા અતિશય આનંદ થવાના કારણે ઉલ્લાસમાં આવી ગયા. એ સમાચાર સાંભળતા જ તેઓ રોમાંચિત થઈ ગયા. કમલની પેઠે મુખ આનંદના Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. २० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुति: ११७ मूलम् णमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थटीका-'नमोत्थु णं' इत्यादि 'नमोत्थु णं' नमोऽस्तु खलु, 'अरिहंताणं' अरिहन्तृभ्यःअरीन्-रागदिरूपान्-शत्रून् नन्ति-नाशयन्तीति व्युत्पत्त्याऽत्र सिद्धाहतोरुभयोररिहन्तृपदेन ग्रहणं बोध्यम् , तेभ्यः, 'भगवंताणं' भगवद्भ्यः , भगः-१ ज्ञान-सर्वार्थविषयकम् , भी मुख का साथ दिया । हर्षातिरेक के कारण इनका सम्पूर्ण शरीर कम्पित होने लगा, इस हेतु धारण किये हुए आभूषणादिक भी चंचल हो उठे। ये एकदम सिंहासन से उठे, उठकर पादपीठपर पैर रखकर नीचे उतरे। मणि-वैडूर्य-खचित दोनों पादुकाएँ उतारी । खड्ग आदि राजचिह्नों का परित्याग कर ये एकशाटिक उत्तरासंग कर जिस दिशा की तरफ वे महावीर प्रभु विराजमान थे उस दिशाकी ओर सात आठ पैर आगे जाकर नमस्कारविधि के अनुसार प्रभुकी परोक्ष वंदना करने लगे। उसमें यह पाठ बोले-। सू० १९ ॥ 'नमोत्थु णं' इत्यादि (नमोत्थु णं अरिहंताणं) रागादिकरूप शत्रुओं पर विजय पानेवाले अरिहंतों को नमस्कार हो। ( भगवंताणं) भगवान के लिये नमस्कार हो, भग जिनके हो वे भगवान हैं। भग शब्द के दस (१०) अर्थ हैं। वे इस प्रकार हैं-ज्ञान અતિરેકથી ખિલી ઉઠયું. નેત્રોએ પણ મુખને સાથ આપે. હર્ષાતિરેક થવાના કારણે તેમનું આખું શરીર ધ્રુજવા લાગ્યું અને તેથી શરીર પર ધારણ કરેલાં આભૂષણદિક પણ ચંચલ (ચલાયમાન) થઈ ગયાં. તેઓ એકદમ આસન ઉપરથી ઉઠયા અને ઉઠીને પાદપીઠ પર પગ રાખીને નીચે ઉતર્યા. મણિવૈડૂર્ય જડેલી બંને પાદુકાઓ ઉતારી. ખડગ આદિ રાજચિહ્નોને પરિત્યાગ કરી તેઓ એકશાટિક ઉત્તરાસંગ ધારણ કરી જે દિશા તરફ તે મહાવીર પ્રભુ બિરાજમાન હતા તે દિશા તરફ સાત આઠ પગલાં આગળ જઈને નમસ્કાર વિધિ અનુસાર પ્રભુની પરોક્ષ વંદના કરવા લાગ્યા. तभा मा पाई माया. (सू. १८) 'नमोत्थुणं' त्याहि. (नमोत्थु णं अरिहंताणं) साहि४३५ शत्रुमा ५२ विश्य भेगा मरिहताने नभ२४२ डी. ( भगवंताणं) भगवानने नभ४।२ . रेने लग હોય તે ભગવાન છે. ભગ શબ્દના ૧૦ અર્થ છે, તે આ પ્રકારે છે. १ ज्ञान-समस्त जना पदार्थ ने युगपत बना२ वणज्ञान, Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे २-माहात्म्यम्-अनुपम-महनीय-महिम-सम्पन्नत्वम् , ३-यशः-विविधानुकूलप्रतिकूल-परीषहोपसर्गसहन-समुद्भूता कीर्तिः । यद्वा-जगद्रक्षणप्रज्ञासमुत्था कीर्तिः । ४-वैरायग्यम्-सर्वथा कामभोगाभिलाषराहित्यम् , यद्वा-क्रोधादिकषायनिग्रहलक्षणम्, ५-मुक्तिः -सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, ६ रूपम्-सकलहृदयहारि सौन्दर्यम् , ७-वीर्यम्-अन्तरायान्तजन्यमनन्तसामर्थ्यम् , ८कर्मपलटविघटनजनितज्ञानदर्शनसुखवीर्यरूपाऽनन्तचतुष्टयलक्ष्मीः , ९-धर्मः-अपवर्गद्वारकपाटोद्घाटनसाधनं श्रुतचारित्र-लक्षगम् : १०-ऐश्वर्य-लोकत्रयाधिपत्यम्, चास्यास्तीति भगवान् , तद्वहुत्वे भगवन्तः, तेभ्यः । 'आइगराणं आदिकरेभ्यः-आदौ प्रथमतः स्वस्वशासनापेक्षया श्रुत-चारित्रधर्म-लक्षणं कार्यं कुर्वन्ति तच्छीला आदिकरास्तेभ्यः । 'तित्थयराणं ' तीर्थसमस्त त्रैकालिक पदार्थों को युगपत् जाननेवाला केवलज्ञान, २ माहात्म्य-अनुपम एवं महनीय महिमा (३) यश-विविध अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों के जीतने से उद्भूत असाधारण कीर्ति अथवा जगत् को संरक्षण करने के बुद्धिचातुर्य से प्राप्त यश, (४) वैराग्य-कामभोगों की अभिलाषाका सर्वथा अभाव अथवा क्रोधादिक कषायों का बिलकुल विनाश, (५) मुक्ति-समस्त कमीका अत्यंत क्षयरूप मोक्ष, (६) रूपसमस्त जनता के हृदय को हरण करनेवाला सौन्दर्य, (७) वीर्य-अन्तराय कर्म के सर्वथा विलयसे प्राप्त अनन्तसामर्थ्य, (८) लक्ष्मी-समस्त कर्मोंके सर्वथा प्रक्षीण होने से लब्ध अनन्तचतुष्टय, (९) धर्म-मोक्ष के द्वार को खोलने में साधकतम श्रुतचारित्ररूप धर्म, एवं (१०) ऐश्वर्य-लोकत्रयका आधिपत्य; ये दशों प्रकार जिनमें हों वे भगवान् हैं। (आइगराणं) अपने २ शासन की अपेक्षा जो सर्वप्रथम इस (२) महात्म्य-मनुपम तमगा भडनीय भडिमा, (3) यश-विविध मनुण तेभ०४ પ્રતિકૂળ પરીષહોને જીતવાથી ઉદ્દભવ પામેલી અસાધારણ કીતિ, अथवा तनां संरक्षण ४२वाना मुद्धियातुर्य थी प्रास यश, (४) वैराग्य-કામોની અભિલાષાને સર્વથા અભાવ અથવા ક્રોધાદિક કષાયોને मिस विनाश, (५) मुक्ति-समस्त भनी सत्यत क्षय३५ भाक्ष, (६) रूप-समस्त प्राणिनां यनु २६४ ४२ ते सोय, (७) वीर्य-मतराय भने। सर्वथा नाश ४ीने प्रात थयेतुं मन त सामथ्य, (८) लक्ष्मी-समस्त भी मेहम क्षीण थवाथी प्रात थये। मन तयतुष्टय (6) धर्म-भक्षनां पारने मालवामां भुज्य साधन श्रुतयारित्र३५ धर्म, तभी (१०) ऐश्वर्य-त्राणे सोनु माधिपत्य. २मा शेय प्रा२ रेनामा डाय ते भगवान छे. (आइगराण) પિતાપિતાના શાસનની અપેક્ષાએ જે સર્વથી પહેલાં આ કર્મભૂમિમાં શ્રુત Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षिणी-टोका. स्व. २० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुति: ११९ यराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं करेभ्यः-नीर्यते=पार्यते संसारमोहमहोदधिर्यस्माद् इति तीर्थम् चतुर्विधः सङ्घस्तत्करणशीलत्वात् तीर्थकरास्तेभ्यः । ' सयं संबुद्धाणं' स्वयं सम्बुद्धेभ्यः - स्वयं = परोपदेशमन्तरेण सम्बुद्धाः सम्यक्तया बोधं प्राप्ताः स्वयंसंबुद्धास्तेभ्यः । ' पुरिमुत्तमाणं' पुरुषोत्तमेभ्यः -- पुरुषेषु उत्तमाः=श्रेष्ठाः ज्ञानाद्यनन्तगुणवत्वात् इति पुरुषोत्तमास्तेभ्यः । ' पुरिससीहाणं' पुरुषसिंहेभ्यःपुरुषेषु सिंहा रागद्वेषादिशत्रुपराजये दृष्टाद्भुत पराक्रमत्वादिति यद्वा पुरुषाः सिंहा 'पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरुषवरपुण्डरीकेभ्यः -- पुण्डरीकं — धवलकमलं वरंच तत्पुण्डरीकं-धवलकमलप्रधानं, पुरुषो वरपुण्डरीकमिवेत्युपमितसमासे पुरुषवरपुण्डरीकं, पुरुषसिंहास्तेभ्यः 6 ܐ कर्मभूमि में श्रुतचारित्ररूप धर्मकी प्ररूपणा करते हैं वे आदिकर हैं, ऐसे आदिकरों के लिये नमस्कार हो । ( तित्थगराणं ) तीर्थकरों के लिये नमस्कार हो जिसके सहारे संसारी जीव इस संसाररूप समुद्र का पार पा जाते हैं उस चतुर्विध संघका नाम तीर्थ है, इस तीर्थ की स्थापना तीर्थंकर करते हैं । ( सयंसंबुद्धाणं) स्वयं-संबुद्धों के लिये नमस्कार हो । जो किसी के उपदेश विना प्रबुद्ध होते हैं वे स्वयंसंबुद्ध हैं। ( पुरिमुत्तमाणं ) ज्ञानादिक अनंत गुणों के धनी होने से पुरुषों में जो उत्तम हैं उनके लिये नमस्कार हो । ( पुरिससीहाणं ) रागद्वेष आदि शत्रुओं के पराजय करने में जिनकी अद्भुत शक्ति है वे पुरुषसिंह हैं, उनको नमस्कार हो ( पुरिसवरपुंडरीयाणं ) पुरुषों में वरपुण्डरीक के तुल्य जो हैं वे पुरुषवरपुंडरीक हैं, उनके लिये नमस्कार हो । प्रभु को जो वरपुंडरीक की ચારિત્રરૂપ ધર્મની પ્રરૂપણા કરે છે તે આદિકર છે, તેવા આર્દિકરાને નમસ્કાર ड. (तित्थगराणं) तीर्थशेने नमस्र हो. लेना आश्रयथी संसारी व આ સંસારરૂપ સમુદ્રને પાર કરી જાય છે તે ચતુર્વિધ સંઘનુ નામ તીથ છે. એ તીર્થની સ્થાપના તીર્થંકર १२ छे. ( सयंसंबुद्धाणं ) સ્વયંસ બુદ્ધોને નમસ્કાર હેા. જે બીજા કાઇએ આપેલા ઉપદેશ વિનાજ अयुद्ध होय छे ते स्वयं संयुद्ध छे ( पुरिसुत्तमाणं ) ज्ञानाहि अनंत गुणोना स्वाभी होवाथी थु३षोभां ने उत्तम छे तेभने नभस्र हो. (पुरिससीहाणं) રાગદ્વેષ આદિ શત્રુઓને પરાજય કરવામાં જેની અદ્ભુત શકિત છે તે ३षसिड छे, तेभने नमस्कार हो. (पुरिसवरपुंडरीयाणं) पुरषोभां वरयुं डरी४= શ્રેષ્ઠ કમળના તુલ્ય જે છે તે પુરૂષવરપુંડરીક છે, તેમને નમસ્કાર હેા. પ્રભુને Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे पुरुषवरपुण्डरीकञ्च पुरुषवरपुण्डरीकञ्चेत्यादिरीत्यैकशेषे पुरुषवरपुण्डरीकाणि तेभ्यः । भगवतो वरपुण्डरीकोपमा च विनिर्गताऽखिलाऽशुभमलीमसत्वात्सर्वैः शुभानुभावैः परिशुद्वत्वाच्च, यद्वा यथा पुण्डरीकागि पङ्काजातान्यपि सलिले वर्धितान्यपि चोभयसम्बन्धमपहाय निर्लेपानीव जलोपरि रमणीयानि सन्दृश्यन्ते निजानुपमगुणगगबलेन सुरासुरनरनिकरशिरोधारणीयतयाऽतिमहनीयानि परमसुखाऽऽस्पदानि च भवन्ति, तथेमे भगवन्तः कर्मपङ्काजाता भोगाऽम्भोवर्द्धिताः सन्तोऽपि निर्लेपास्तदुभयमतिवर्तन्ते, गुणसम्पदास्पदतया च केवलादिगुणभावादखिलभव्यजनशिरोधारणीया भवन्तीति, विस्तरस्तु शास्त्रान्तरेऽवलोकनीयः । 'पुरिसवरगंधहत्यीणं' पुरुषवरगन्धहस्तिभ्यःउपमा से युक्त किया है उसका कारण यह है कि प्रभु की आत्मा से समस्त अशुभ मलिन कर्म नष्ट हो गये हैं एवं शुभ अनुभावों से प्रभु सभी प्रकार से शुद्ध हैं। धवल कमल जिस प्रकार कीचड़ से उद्भूत होने पर और जल में वर्द्धित होने पर भी उन दोनों से अलिप्त रहता है, जलके ऊपर बहुत ही रमणीय प्रतिभासित होता है, तथा सुर असुरादिकों द्वारा शिरोधार्य होने से वह अतिमहनीय एवं परम सुख का आस्पद होता है उसी प्रकार प्रभु भी नामकर्म के उदय से, कर्मरूप पंक से पैदा होने पर एवं भोगरूप जल से संवर्द्धित होने पर भी इन दोनों के संबंध से सर्वथा , निर्लेप रहा करते हैं, एवं गुणरूपसंपत्ति के आस्पद होने से तथा केवलज्ञान की जागृति होने से वे अखिल भव्यजनों द्वारा शिरोधार्य भी होते हैं। (पुरिसवरगंधहस्थीगं) पुरुषों में उत्तम गंधहस्ती के समान जो होते हैं वे पुरुषवरगंधहस्ती कहे जाते हैं, જે વરપુંડરીકની ઉપમા આપી છે તેનું કારણ એ છે કે પ્રભુના આત્મામાંથી સમસ્ત અશુભ કાલિમા નષ્ટ થઈ ગયી છે તેમજ શુભ અનુભાવથી પ્રભુ સારી રીતે શુદ્ધ છે, શ્વેત કમલ જે પ્રકારે કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે અને જલમાં વધે છે છતાં પણ તે બન્નેથી અલિપ્ત રહે છે, જલની ઉપર બહુજ રમણીય પ્રતિભાસિત થાય છે, તથા સુર અસુર આદિકેથી શિરપર ધારિત હોવાથી તે અતિમહનીય તેમજ પરમ સુખને આપનાર બને છે, તેવી જ રીતે પ્રભુ પણ નામ કર્મના ઉદયથી, કમરૂપ પંકથી પેદા થવા છતાં તેમજ ભેગરૂપ જલથી સંવર્ધન પામવા છતાં પણ એ બન્નેના સંબંધથી સર્વથા નિર્લેપ રહ્યા કરે છે તેમજ ગુણરૂપ સંપત્તિના આપનાર લેવાથી તથા કેવલ જ્ઞાનની જાગૃતિ થવાથી તેઓ તમામ ભવ્યજને દ્વારા શિધાર્યું પણ થઈ जय छ. (पुरिस-वर-गंध-हत्थीणं) ५३षामा उत्तम अस्तीन सय Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. २० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुति: १२१ पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगगन्धयुक्ता हस्तिनो गन्धहस्तिनः, वराश्च ते गन्धहस्तिनो वरगन्धहस्तिनः, पुरुषा वरगन्धहस्तिन इव पुरुषवरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः, गन्धहस्तिलक्षणं यथा--- यस्य गन्धं समाघ्राय, पलायन्ते परे गजाः । तं गन्धहस्तिनं विद्यान्नृपतेर्विजयावहम् ॥ इति । अतएव यथा गन्धहस्तिगन्धमाघ्राय गजान्तराणीतस्ततो द्रुतं पलाय्य प्रच्छन्नस्थानं प्राप्नुवन्ति, तद्वदचिन्त्यातिशयप्रभाववशाद् भगवद्विहरणसमीरणगन्धसम्बद्धगन्धतोऽपि-ईति-डमर-मरकादय उपद्रवा द्राग् दिक्षु प्रद्रवन्तीति, गन्धगजाऽऽश्रितराजवद् भगवदाश्रितो भव्यगणः सर्वदा विजयवान् भवतीति भवत्युभयोः सादृश्यम् । ' लोगुत्तमाणं' लोकोत्तमेभ्यः, लोकेषु-भव्यसमाजेषु उत्तमाश्चतुस्त्रिंशदतिउनके लिये नमस्कार हो, गंधहस्तीका लक्षण इस प्रकार है “ यस्य गन्धं समाघ्राय पलायन्ते परे गजाः । तं गंधहस्तिनं विद्यान्नृपतेर्विजयावहम्" ॥ जिसकी गंध को सूंघकर भी अन्य हाथी भाग जाते हैं वह गंधहस्ती कहलाता है । यह जिस राजा के पास होता है वह अवश्य ही युद्ध में विजय प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार गंधहस्ती की गंध को सूंघकर अन्यगज भाग जाते हैं उसी प्रकार प्रभु के विहार की गंध सूंघ कर, अर्थात्-प्रभुके विहार की वायु के संबंध से ईति, डमर और मरकी आदि उपद्रव बिलकुल शांत हो जाते हैं। (लोगुत्तमाणं) છે તે પુરૂષવરગંધહસ્તી કહેવાય છે. તેમને નમસ્કાર હે. ગંધહસ્તીનું લક્ષણ આ પ્રકારે છે “ यस्य गन्धं समाधाय पलायन्ते परे गजाः। सं गन्धहस्तिनं विद्यान्नृपतेर्विजयावहम्' જેની ગંધ સુંઘવા માત્રથી બીજા હાથી ભાગી જાય તે ગંધહસ્તી કહેવાય છે. તે જે રાજાની પાસે હોય છે તે અવશ્યમેવ યુદ્ધમાં વિજય પ્રાપ્ત કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે-જે પ્રકારે ગંધહસ્તીની ગંધને સુંઘીને બીજા હાથી ભાગી જાય છે તેવી જ રીતે પ્રભુના વિહારની ગંધને સુંઘીને અર્થાત્ પ્રભુના વિહારના વાયુના સંબંધથી ઇતિ ડમર અને મરકી આદિ उपद्रव मिस खid य छे. (लोगुत्तमाण) यात्रीश अतिशय सभा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे शयपञ्चत्रिंशद्वाणीगुणोपेतत्वात् , तेभ्यः 'लोगनाहाणं' लोकनाथेभ्यः, लोकानां= भव्यानां नाथा नेतारो योगक्षेमकारित्वादिति लोकनाथास्तेभ्यः । 'लोगहियाणं' लोकहितेभ्यः-लोकः-एकेन्द्रियादिः सर्वप्राणिगणस्तस्मै हिता रक्षोपायपथप्रदर्शकत्वालोकहितास्तेभ्यः । 'लोगपईवाणं' लोकप्रदोपेभ्यः, लोकस्य भव्यजनसमुदायस्य प्रदीपास्तन्मनोऽभिनिविष्टाऽनादिमिथ्यात्वतमःपटलव्यपगमेन विशिष्टात्मतत्त्वप्रकाशकत्वात्प्रदीपतुल्यास्तेभ्यः । यथा प्रदीपस्य सकलजीवाथ तुल्यप्रकाशकत्वेपि चक्षुष्मन्त एव तत्प्रकाशसुखभाजो भवन्ति नत्वन्धास्तथा भव्या एव भगवदनुभावसमुद्भूतपरमानन्दसन्दोहभाजो भवन्ति नाऽभव्या इति प्रतिबोधयितुं प्रदीपदृष्टान्तः, अत एव च लोकपदेन भव्यानामेव ग्रहणम् । 'लोगपज्जोयगराण' लोकप्रद्योतकरेभ्यःचौंतीस अतिशयों एवं पैंतीस वाणी के गुणों से युक्त होने से प्रभु लोकोत्तम कहलाते हैं; ऐसे उनके लिये नमस्कार हो । (लोगनाहाणं) भव्यजीवों के योग-क्षेम--कारी होने से लोकनाथ प्रभु को नमस्कार हो। (लोगहियाणं ) एकेन्द्रिय प्राणियों से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त समस्त जीवों से व्याप्त इस लोक के लिये रक्षाके उपायभूत मार्ग के प्रदर्शक होने से लोकहितस्वरूप प्रभुके लिये नमस्कार हो। (लोगपईवाणं) भव्यजनों के मन में अनादिकाल से ठसाठस भरे हुए मिथ्यात्वरूपी अन्धकार के पटल के विनाश से विशिष्ट आत्मतत्त्व के प्रकाशक होने से भगवान् प्रदीपतुल्य है, जिस प्रकार दीपक सकल जीवों के लिये समान प्रकाशक होता हुआ भी चक्षुष्मान जीवों के लिये विशेष आनंदप्रद होता है उसी प्रकार प्रभु को लखकर भव्य जीव ही अमन्द आनंद के संदोह से सुखी हुआ करते हैं; ऐसे लोकके प्रदीपस्वरूप को नमस्कार પાંત્રીશ વાણીના ગુણોથી યુકત હોવાથી પ્રભુ લકત્તમ કહેવાય છે, તેમને नभ२४१२ डी. (लोगनाहाण) भव्य वोना योगक्षेम ४२ना२ डापाथ नाथ प्रभुने नभ२४।२ डा. (लोगहियाणं) मेद्रिय प्राणिमाथी भांडीने पायद्रिय પર્યન્ત સમસ્ત જીવથી વ્યાપ્ત આ લોકના માટે રક્ષાના ઉપાયભૂત માર્ગના प्रहरी ४ वाथी बतिस्प३५ प्रभुने नभ२४॥२ डी.(लोगपईवाण) भव्य बनाना મનમાં અનાદિકાલથી ઠસાકસ ભરેલા મિથ્યાત્વરૂપી અંધકારના સમૂહના વિનાશથી વિશિષ્ટ આત્મતત્વના પ્રકાશક હોવાથી ભગવાન પ્રદીપ સમાન છે, જેમ દીવો બધા ને સમાન પ્રકાશક હોય છે છતાં ચક્ષુવાળા જીવોને વિશેષ આનંદપ્રદ થાય છે તેવી રીતે પ્રભુને જોઈ ભવ્ય જીવો જ ઘણે આનંદ મેળવીને सुभ प्रात ४२ छ; अपाना प्रही५२१३५ने नम२४२ डी. लोयपज्जोयगराणं Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. २० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुति: १२३ पईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं लोकशब्देनाऽत्र लोक्यते-दृश्यते कवलाऽऽलोकेन यथावस्थिततयेति व्युत्पत्त्या लोकालोकयोरुभयोर्ग्रहणम् , तेन लोकस्य--लोकालोकलक्षणस्य सकलपदार्थस्य प्रद्योतः-लोकालोकप्रद्योतस्तं कर्तुं शीलं येषां तं लोकालोकप्रद्योतकराः लोकालोकसकलपदार्थप्रकाशक गशीलास्तेभ्यः । 'अभयदयाणं' अभयदयेभ्यः-न भयम् अभयम्, भयानामभावो वा अभयम् , अक्षोभलक्षण आत्मनोऽवस्थाविशेषो मोक्षसाधनभूतमुत्कृष्टधैर्यमिति यावत् , दयन्ते ददतीति दयाः, दयधातोःकर्तरि पचादित्वादच्; अभयस्य दया अभयदयाः, यद्वा अभया भयविरहिता दया सर्वजीवसङ्कटप्रतिमोचनस्वरूपा अनुकम्पा येषां तेऽभयदयास्तेभ्यः । 'चकवुदयाणं' चक्षुर्दयेभ्य चक्षुः-ज्ञान-निखिलवस्तुतत्वाऽवभासकतया चक्षुःसादृश्यात् , तस्य दयाः-दायकाश्चक्षुर्दयास्तेभ्यः, यथा हरिगादिशरण्येऽरण्ये लुण्टाकहो।(लोयपजोयगरागं) लोकालोकत्व व्य सकलपदार्थों को प्रकाश करनेके स्वभाववाले लोकप्रद्योतकरों के लिये नमस्कार हो । (अभयदयाणं) अभयदयों के लिये नमस्कार हो। आत्मा को अक्षे भलक्षण अवस्थाविशेष का नाम अभय है, इसे मोक्षसाधनरूप उत्कृष्ट धैर्यस्वरूा जानना चाहिये। इसे प्रदान करनेवाले होने से प्रभु अभयदय कहे गये हैं। अथवा-जिनकी दया भयरहित है अर्थात् भगवान् द्वारा प्रतिपादित दया समस्त जीवों के संकटोंको दूर करनेवाली है. भगवानने इस प्रकार की दयाका स्वरूप प्रकट किया है कि जिससे जीवों के ऊपर कोई भी संकट नहीं आ सकता है। (चक्खुदयाणं ) ज्ञानरूपचक्षु के दातार को नमस्कार हो। प्रभु चक्षुर्दय इसलिये कहे गये हैं कि जिसप्रकार हरिणादि जन्तुओं से व्याप्त जंगल में छूटेरों से लूटे गये લોકાલોક સ્વરૂપ સકલ પદાર્થોને પ્રકાશ આપવાના સ્વભાવવાળા લોકપ્રદ્યોतरोने नभ२४॥२ डा.[अभयदाण समययाने नभ२४॥२ .मात्मान। मालલક્ષણ અવસ્થાવિશેષનું નામ અભય છે, એને મેક્ષ સાધનરૂપ ઉત્કૃષ્ટ ધર્યસ્વરૂપ જાણવા જોઈએ. એનું પ્રદાન કરવાવાળા હોવાથી પ્રભુ અભયદય કહેવાય છે. અથવા-જેમની દયા ભયરહિત છે અર્થાત્ ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત દયા સમસ્ત જીવોનાં સંકટને દૂર કરવાવાળી છે. ભગવાને એ પ્રકારે દયાનું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યું છે કે જેથી જેવો ઉપર કોઈ પણ સંકટ ન આવી શકે. (चक्खुदयाणं) ज्ञान३५ यक्षुन हतारने नभ२४१२ . प्रभु यक्षुय मेट। માટે કહેવાય છે કે જે પ્રકારે હરિણ આદિ જાનવરથી વ્યાપ્ત જંગલમાં લુટારાથી ભૂટાયેલા પછી આંખો પર પાટા બાંધીને ખાડા આદિમાં ધક્કા Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ . औपपातिकसूत्रे लुण्टितेभ्यः पट्टिकादिदानेन चक्षूषि पिधाय हस्तपादादि बद्ध्वा तैर्गर्ते पातितेभ्यः कश्चित्पट्टिकाद्यपनोदनेन चक्षुर्दत्वा मार्ग प्रदर्शयति तथा भगवन्तोऽपि भवाऽरण्ये रागद्वेषलुण्टाकलुण्ठिताऽऽत्मगुणधनेभ्यो दुराग्रहपष्टिकाच्छादितज्ञानचक्षुभ्यो मिथ्यात्वोन्मार्गे पातितेभ्यस्तदपनयनपूर्वकं ज्ञानचक्षुर्दत्त्वा मोक्षमार्ग प्रदर्शयन्ति । एतदेव भङ्ग्यन्तरेणाऽऽह 'मग्गदयाणं' मार्गदयेभ्यः-मार्गः सम्यग्रत्नत्रयलक्षणः शिवपुरपथः, यद्वा-विशिष्टपश्चात् आंखों पर पट्टी बांधकर गर्त आदि में धक्का देकर पटके गये मानवों के लिये कोई दयालु मानव उनकी आंखोंकी पट्टी खोलकर चक्षुर्दाता बन उन्हें मार्गका प्रदर्शन कराता है, उसी प्रकार प्रभु भी इस अशरण भवरूप अरण्य में रागद्वेष आदि लुटेरों द्वारा आत्मगुणरूप धनों के अपहरण होने से दीनहीन बने हुए समस्त संसारी जीवोंको कि जिनकी ज्ञानरूप आंखों पर दुराग्रहरूपी पट्टी कमोंने बांध रखी है और इसीसे जिनका ज्ञानरूप नेत्र आच्छादित हो रहा है और इसीके वजह से जो उन्मार्गरूपी गर्त में धकेल दिये गये हैं, प्रभुने अपने दिव्य उपदेश द्वारा उन्हें सत् ज्ञान दिया, इससे उनका दुराग्रह नष्ट हो गया, और ज्ञानरूप अन्तरंग नेत्र निर्मल हो जाने से प्रभुने उन्हें मोक्षमार्ग दिखाया। इसलिये प्रभु उनके चक्षुर्दाता समान माने गये हैं। इसी विषय को विशेष स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार प्रकारान्तर से कहते हैं-कि (मग्गदयाणं) मोक्षमार्ग में लगानेवालों के लिये नमस्कार हो। यहां रत्नत्रय यही मोक्षमार्ग है, अथवा-गुणस्थानोंकी प्राप्ति करानेवाला क्षयोपशम દઈને નાખી દેવાયેલા માણસને જેમ કેઈ દયાળુ માણસ તેની આંખના પાટા ખેલીને ચક્ષુદ્દતા બની તેને માર્ગ બતાવે છે તેજ પ્રકારે પ્રભુ પણ આ અશરણ ભવરૂપ અરણ્યમાં રાગદ્વેષ આદિ લૂટારા દ્વારા આત્મગુણરૂપ સંપત્તિ લુટાઈ જતાં દીનહીન બનેલા સમસ્ત સંસારી જીવોને કે જેમની જ્ઞાનરૂપ આંખે પર દુરાગ્રહરૂપી પાટા કર્મોએ બાંધી રાખેલા છે અને તેથી જ જેનાં જ્ઞાનરૂપી નેત્ર ઢંકાઈ ગયાં છે અને એજ કારણથી જે ખોટા માર્ગરૂપી ખાડામાં ધકેલાઈ ગયા છે તેમને પ્રભુએ પિતાના દિવ્ય ઉપદેશ દ્વારા સત્ જ્ઞાન આપ્યું, તેથી તેમના દુરાગ્રહ નાશ પામ્યા અને જ્ઞાનરૂપ અંતરંગનાં નેત્ર નિર્મળ થઈ જવાથી પ્રભુએ તેમને મોક્ષમાર્ગ દેખાડયે. તેથી પ્રભુ તેમના ચક્ષુદ્ધતા સમાન મનાય છે. આજ વિષયને વિશેષ સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર तरथी ४ छ ( मग्गदयाणं) भाक्ष भागभा समाजाने नम२४२ હો. અહીં રત્નત્રય એ જ મેક્ષમાર્ગ છે. અથવા ગુણસ્થાનની પ્રાપ્તિ કરા Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. २० कूणिककृत्ता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुति: १२५ सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं गुणस्थानप्रापकः क्षयोपशमभावो मार्गस्तस्य दयाः दातारस्तेभ्यः । — सरणदयाणं' शरगदयेभ्यः-शरणं पारित्राणं-कर्मरिपुवशीकृततया व्याकुलानां प्राणिनां रक्षणस्थानं वा तस्य दयास्तेभ्यः। 'जीवदयाणं' जीवदयेभ्यः-जीवेषु-एकेन्द्रियादिसमस्तप्राणिषु दया-सङ्कटमोचनलक्षणा येषामिति, यद्वा-जीवन्ति मुनयो येन स जीवः-संयमजीवितं तस्य दयास्तेभ्यः । 'बोहिदयाणं' बोधिदयेभ्यः–बोधिर्जिनप्रणीतधर्ममूलभूता-तत्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपा तस्या दयाः-बोधिदयास्तेभ्यः । 'धम्मदयाणं' धर्मदयेभ्यः-धर्मः-दुर्गतिप्रपतज्जन्तुसंरक्षणलक्षणः श्रुतचारित्रात्मकस्तस्य दयास्तेभ्यः । भावरूप मार्ग है, भव्य जीवोंके लिये प्रभु इसके दातार हैं। इसलिये प्रभु मार्गदय हैं। (सरणदयाणं) शरणदातारों के लिये नमस्कार हो। प्रभु शरणदातार इसलिये हैं कि उन्होंने कर्मरूपी रिपु द्वारा वशीकृत होनेके कारण व्याकुल बने हुए समस्त प्राणियों को निर्भय स्थान में पहुँचनेका उपदेश दिया, अथवा-तुम्हारी रक्षा कैसे हो सकती है इसका उपाय बतलाया। (जीवदयाणं) जीवों के ऊपर दया रखने का उपदेश देनेवालों के लिये, अथवा-संयमरूप जीवन को प्रदान करनेवालों के लिये नमस्कार हो। (बोहिदयाणं) बोधिके दातारोंको नमस्कार हो। प्रभुने समस्त संसारी जीवों को जो मोक्षाभिलाषी थे उन्हें तत्त्वार्थ के श्रद्धान करने रूप बोधि को प्रदान किया; क्योंकि आत्मकल्याण के मार्ग में सर्वप्रथम यही एक प्रधान साधक है। इसलिये प्रभु इस अपेक्षा से बोधिदातार कहे गये हैं। (धम्मदयाणं) धर्मके વનારા ક્ષયોપશમભાવરૂપ માર્ગ છે. ભવ્ય જીવોને માટે પ્રભુ તેના દાતાર છે. तेथी प्रभु भागय छ. (सरणदयाणं) शरहातारीने नभ२४॥२ डा. प्रभु श२९४દાતાર એટલા થાટે છે કે તેમણે કમરૂપી રિપુદ્વારા વશીભૂત થઈ જવાના કારણે વ્યાકુલ બની ગયેલાં સમસ્ત પ્રાણિયોને નિર્ભય સ્થાનમાં પહોંચવાને ઉપદેશ કર્યો, અથવા તેમની રક્ષા કેમ થઈ શકે તેને ઉપાય બતાવ્યું. (जीवदयाणं) लयोन S५२ या रामपानी पहेश वा अथवा सयभ३५ पन महान ४२१॥ पाजाने नमः४॥२ . ( बोहिदयाणं) माधिना हाताशेने નમસ્કાર હો. પ્રભુએ સમસ્ત સંસારી જીવોને જે મેક્ષાભિલાષી હતા તેમને તત્વાર્થ શ્રદ્ધાનરૂપ બેધિ પ્રદાન કર્યું, કેમકે આત્મકલ્યાણના માર્ગમાં સૌથી પ્રથમ આજ એક મુખ્ય સાધન છે. એ માટે પ્રભુ એ અપેક્ષાએ બધિहातार ४३वाय छ (धम्मदयाणं) धर्मना दाताराने नभ२४१२ डो. दुर्गतिमा Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ औपपातिकसूत्रे धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्म-वर-चाउरंत-चक्क-वट्टीणं दीवो इहोक्तेषु विशेषणेषु तं दयन्ते इत्यपव्याख्यानम् , 'अधीगर्थदयेशाम् ' इति कर्मणि शेषत्वविवक्षायां षष्ठ्युत्पत्तेः । शेषत्वाऽविवक्षायां तु द्वितीयायाः सत्वेऽपि 'कर्मण्यण् । इत्यणुत्पत्त्या अभयदायेभ्य इत्याद्यनिष्टप्रयोगापत्तेर्दुर्वारत्वात् । 'धम्मदेसयाणं' धर्मदेशकेभ्यः-धर्मः प्राक्प्रतिपादितलक्षणः, तस्य देशकाः उपदेशकास्तेभ्यः । 'धम्मनायगाणं' धर्मनायकेभ्यः-धर्मस्य नायकाः नेतारः-जनानामन्तःकरणे धर्मप्रचारकरणाद् इति यावत्-धर्मनायकास्तेभ्यः । 'धम्मसारहीणं' धर्मसारथिभ्यः-धर्मस्य सारथयः धर्मसारथयस्तेभ्यः, भगवत्सु सारथित्वाऽऽरोपेण धर्मे रथत्वारोपो व्यज्यते इति परम्परितरूपकमलङ्कारस्तस्माद्यथा सारथयो रथद्वारा रथस्थान् पथिकान् सुखपूर्वकमभीष्टं स्थानं नयन्त्युन्मार्गगमनादितश्च प्रतिरुन्धते, तथा भगवन्तो धर्मद्वारा मोक्षस्थानदातारोंको नमस्कार हो। दुर्गति में पड़ने से जीवोंको रोकनेवाला एक सर्वज्ञ वीतराग प्रभु द्वारा प्रतिपादित श्रुतचारित्ररूप धर्म ही है। प्रभुने ऐसे धर्मका जीवों को अपनी दिव्यवाणी द्वारा उपदेश दिया, अतः वे धर्मके दातार कहलाये। (धम्मदेसयाणं) धर्मदेशकों के लिये नमस्कार हो। (धम्मनायगाणं) धर्मके नायकों के लिये नमस्कार हो। प्रभु धर्म के नायक इसलिये कहलाये हैं कि उन्होंने जनता के अन्तःकरण में धर्मका प्रचार किया है । (धम्मसारहीणं ) धर्मके सारथियों को नमस्कार हो। यहां परम्परितरूपकालंकार है। क्यों कि भगवान में सारथित्व का जब आरोप किया गया है तो धर्ममें रथत्वका आरोप प्रकट होता है। इसलिये जिसतरह सारथी रथ द्वारा रथस्थ पथिक को सुखपूर्वक अभीष्ट स्थान पर पहुंचा दिया करता है, પડવાથી જીવને રોકવાવાળા એક સર્વજ્ઞ વીતરાગ પ્રભુદ્વારા પ્રતિપાદિત કૃતચારિત્રરૂપ ધર્મ જ છે. પ્રભુએ એવા ધર્મને જીને પિતાની દિવ્યવાણી દ્વારા उपहेश माथ्यो; भाट तसा धर्मना हाता२ ४वाया. (धम्मदेसयाणं ) धर्महेश ने नभ२४१२ डी. (धम्मनायगाणं ) धर्मना नायने नभ२४१२ डी. प्रभु ધર્મના નાયક એટલા માટે કહેવાય છે કે તેમણે જનતાના અંતઃકરણમાં धन प्रयार यो छे. (धम्मसारहीणं) धर्मना साथियाने नभ२४१२ डी. અહીં પરંપરિત–રૂપક અલંકાર છે; કેમકે ભગવાનમાં સારથિત્વને આપ કરવાથી ધર્મમાં રથત્વને આરોપ પ્રકટ થાય છે. આ માટે જેવી રીતે સારથી રથદ્વારા રથમાં બેસનાર પથિકને સુખપૂર્વક અભીષ્ટ સ્થાને પહોંચાડી દે છે તેમજ બેટા માર્ગથી તેની રક્ષા કરે છે તેવીજ રીતે પ્રભુએ પણ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका.स.२० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुति: १२७ मितिभावः । 'धम्म-वर-चाउरंत-चक्क-चट्टीणं'-धर्म-वर-चातुरन्त-चक्र-वर्तिभ्यः दानशीलतपोभावैश्चतसणां नरकादिगतीनां चतुर्णा वा कषायाणामन्तो नाशो यस्मात् , अथवा चतस्रो गतीश्चतुरः कषायान् वा अन्तयति=नाशयतीति, यद्वा-चतुर्भिर्दानशीलतपोभावैः कृत्वा अन्तो रम्यः, 'मृताववसिते रम्ये समाप्तावन्त इष्यते' इति विश्वकोषात् । अथवा चत्वारो दानादयोऽन्ताः अवयवा यस्य, यद्वा चत्वारो दानादयः अन्ताःस्वरूपाणि यस्य, 'अन्तोऽवयवे स्वरूपे च' इति हेमचन्द्रः, स चतुरन्तः स एव चातुरन्तः, स्वार्थिकः प्रज्ञायण चातुरन्त एव चक्र एवं उन्मार्ग गमन से उसकी रक्षा करता है, उसी प्रकार प्रभु ने भी धर्मद्वारा जीवों को उनके अभीष्ट स्थानरूप मुक्तिस्थान में पहुँचाया है, एवं कुमार्ग-कुधर्म-से उनकी रक्षा की है । (धम्म-वर-चाउरत-चक्क-बट्टीणं) दान, शील, तप एवं भाव इन चार का सहारा लेकर चार नरकादिगतियों का, अथवा-चार क्रोधादिक कषायों का जिससे नाश होता है, अथवा-चार गतियों एवं चार कषायों का जो विनाश करता है, अथवा दान, शील, तप एवं भाव इनको लेकर जो रम्य है, अथवा-ये चार दानादिक जिसके अवयव हैं, अथवा-ये चार दानादिक जिसके निजस्वरूप हैं वह चातुरन्त है। अन्त शब्द के कोषों में “ मृताववसिते रम्ये समाप्तावन्त इष्यते " " अन्तोऽवयवे स्वरूपे च" इस प्रकार अनेक अर्थ हैं। उन्हीं अर्थों को लेकर यहां “ अन्त" शब्द के अर्थ का स्पष्टीकरण किया गया है। स्वार्थ में अण् प्रत्यय करने से “ चातुरन्त " ऐसा पद निष्पन्न हो जाता ધર્મ દ્વારા જીવોને તેમના અભીષ્ટ સ્થાનરૂપ મુકિતસ્થાનમાં પહોંચાડ્યા છે तेभ उभाग सुधर्मथा तेभनी २क्षा ४३री छे. (धम्मवर-चाउरंत-चक्क वट्टीणं) દાન, શીલ, તપ, તેમજ ભાવ એ ચારને આશ્રય લઈને ચાર નરકાદિ ગતિએને, અથવા ચાર ક્રોધાદિક કષાયને જે વિનાશ કરે છે, અથવા દાન, શીલ, તપ તેમજ ભાવ એ લઈને જે રમ્ય છે, અથવા એ ચાર દાનાદિક જેમનાં અવયવ છે, અથવા એ ચાર દાનાદિક જેના નિજસ્વરૂપ છે તે यातुरन्त छ. सन्त शान अषामा "मृताववसिते रम्ये समाप्तावन्त इष्यते" " अन्तोऽवयवे स्वरूपे च" से सारे सने मथ छे. ते मी લઈને અહીં અંત શબ્દના અર્થનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવેલું છે. स्वार्थमा अण् प्रत्यय ४२वाथी " चातुरन्त " मे ५६ निष्पन्न 28 जय छे. આ વાતુરન્ત જ એક ચક્ર છે, કેમકે ચક્ર જે પ્રકારે બીજાને ઉચ્છેદ કરે છે Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ औपपातिकसूत्रे जन्मजरामरणोच्छेदकत्वेन चक्रतुल्यत्वात् , वरं च तच्चातुरन्तचक्रं वरचातुरन्तचक्रम् , वरपदेन राजचक्राऽपेक्षयाऽस्य श्रेष्ठत्वं व्यज्यते लोकद्वयसाधकत्वात् , धर्म एव वरचातुरन्तचक्रं-धर्मवरचातुरन्तचक्रं, तादृशस्य धर्मातिरिक्तस्याऽसम्भवात्; अतएव सौगतादिधर्माऽऽभासनिरास; तेषां तात्त्विकार्थप्रतिपादकत्वाभावेन श्रेष्ठत्वाऽभावात् ; धर्मवरचातुरन्तचक्रेण वर्तितुं शीलं येषामिति धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनस्तेभ्यः । चक्रवर्तिपदेन षट्खण्डाधिपतिसादृश्यं व्यज्यते, तथा हि चत्वारः उत्तरदिशि हिमवान् शेषदिक्षु चोपाधिभेदेन समुद्रा अन्ताः सीमानस्तेषु स्वामित्वेन भवाश्चातुरन्ताः, चक्रेण रत्नहै। यह चातुरन्त ही एक चक्र है; क्यों कि चक्र जिस प्रकार पर का उच्छेदक होता है उसी प्रकार यह "चातुरन्तचक्र" भी जीवों के जन्म, जरा एवं मरण का उच्छेदक है। इसलिये इसमें चक्र की उपमा सार्थक होती है। 'वर' शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है, यह चातुरन्तचक्र में उत्कृष्टता द्योतित करता है। राजचक्र की अपेक्षा यह चक्र उत्कृष्ट है। क्यों कि यह लोकद्वय में हित का साधक होता है। धर्म ही एक उत्कृष्ट चातुरन्त चक्र है, अन्य नहीं ! इस कथन से अन्य सौगतादिक संमत धर्म में धर्माभासता होने से तात्त्विक अर्थ को प्रतिपादन करने का अभाव कथित हुआ है , अतः उनमें श्रेष्ठता नहीं है। इस धर्मवरचातुरन्तचक्र के अनुसार जिनका वर्तन करने का स्वभाव है वे धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती कहे गये हैं । " चक्रवर्ती" पद से षट्खंड के अधिपति का सादृश्य अभिव्यक्त होता है । "चत्वारःअन्ताः-चतुरन्ताः" यहां अन्त शब्द का अर्थ सीमा होता है । उत्तरदिशा में हिमवान् एवं शेष तीन दिशाओं में उपाधि के भेद से तीन समुद्र ये चतुरन्त पद से गृहीत તેજ પ્રકારે આ ચાતુરન્તચક પણ છાનાં જન્મ, જરા તેમજ મરણને ઉચછેદ કરે छ. मे भाटे मामायनी रुपमा सार्थ थाय छे. 'वर' शण्डनो मर्थ उत्कृष्ट છે. આ પદ ચાતુરન્તકમાં ઉત્કૃષ્ટતા ઘોતિત કરે છે. રાજચક્રની અપેક્ષાએ આ ચક ઉત્કૃષ્ટ છે. કેમકે આ બન્ને લોકમાં હિતનું સાધક થાય છે. ધર્મજ એક ઉત્કૃષ્ટ ચાતુરન્તચક છે, બીજું નહિ! આ કથનથી બીજાં સૌગત આદિક સંમત ધર્મમાં ધર્માભાસતા હોવાથી તાત્ત્વિક અર્થને પ્રતિપાદન કરવાને અભાવ કહેવામાં આવ્યો છે, માટે તેમાં શ્રેષ્ઠતા નથી. આ ધર્મવરચાતુરન્તચક અનુસાર જેનું વર્તન કરવાને સ્વભાવ છે તે ધર્મવરચાતુરતચક્રવતી' કહેવાય છે. “ ચક્રવતી ” પદથી ષટ (છ) ખંડનાં અધિપતિનું सादृश्य लियत थाय छे. " चत्वारःअन्ताः चतुरन्ताः " मी मन्त શબ્દનો અર્થ સીમા થાય છે. ઉત્તરદિશામાં હિમવાનું તેમજ શેષ (બાકીની) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुतिः १२९ भूतप्रहरगविशेषसदृशसम्यक्चारित्ररूपरत्नेन वर्तितु शीलं येषां ते चक्रवर्तिनः, चातुरन्ताश्च ते चक्रवर्तिनः चातुरन्तचक्रवर्तिनः, धर्मेण-न्यायेन वराः श्रेष्ठा इतरतीर्थिकाऽपेक्षयेति धर्मवराः, धर्माः प्राणातिपातादिनिवृत्तिदानशीलादिरूपाः, 'धर्माः पुण्ययम-न्याय-स्वभावाऽऽचार-सोमपा -इत्यमरः, तैर्वराः श्रेष्ठा अन्यतीर्थिकापेक्षयेति धर्मवराः, ते च ते चातुरन्तचक्रवर्तिनश्चेति-धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनः । यद्वा चातुरन्तं च तच्चक्रं चातुरन्तचक्रं, वरञ्च तचातुरन्तचक्रं वरचातुरन्तचक्रं, धर्मो वरचातुरन्तचक्रमिव धर्मवरचातुरन्तचक्रं, तेन वर्तितुं-वर्तयितुं वा शीलं येषां ते धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनस्तेभ्यः, 'दीवो' द्वीपेभ्यः-संसारसमुद्रे निम जतां द्वीपतुल्यत्वात् । 'ताण' त्राणेभ्यः-कर्मकद किये गये हैं। इन चार सीमाओं के जो स्वामी हैं वे चातुरन्त हैं। चक्रशब्द का अर्थ रत्नरूप प्रहरण-शस्त्रविशेष है। चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक रत्न चक्र भी होता है । चक्रवर्ती के चक्ररत्नसदृश सम्यक्चारित्ररूपी रत्न से वर्तन करने का जिनका स्वभाव है वे चक्रवर्ती हैं। धर्म शब्द का अर्थ न्याय और प्राणातिपातादि-निवृत्ति, दान, शील, आदि भी है। धर्म से-न्याय से, अथवा-प्राणातिपातादि-निवृत्ति, दान, शील-आदि से जो अन्यतीर्थिकों की अपेक्षा उत्तम हैं वे धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती हैं। अथवा-चातुरन्तचक्रसदृश धर्म से जिनका वर्त्तने का स्वभाव है वे धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती हैं । ऐसे धर्मवरचातुरत्नचक्रवर्तियों के लिये नमस्कार हो । 'दीवो' सारसमुद्र में डूबते हुए प्राणियों के जो द्वीप के समान आधार हैं ऐसे प्रभु के लिये नमस्कार हो। ( तागं ) कमी से कदर्थित प्राणियों ત્રણ દિશાઓમાં ઉપાધિના ભેદથી ત્રણ સમુદ્ર એ ચતુરન્ત પદથી લેવાયું છે. આ ચાર સીમાઓના જે સ્વામી છે તે ચાતુરન્ત છે. ચક્ર શબ્દનો અર્થ રત્નરૂપ પ્રહરણ અર્થાત્ શસ્ત્રવિશેષ છે. ચક્રવર્તીના ચૌદ રત્નોમાં એક રત્ન ચક પણ હોય છે. ચકવતીના ચકરત્નસદૃશ સમ્મચારિત્રરૂપી રત્નથી વર્તન કરવાને જેનો સ્વભાવ છે તે ચક્રવતી છે. ધર્મ શબ્દને અર્થ ન્યાય અને પ્રાણાતિપાતાદિનિવૃત્તિ, દાન, શીલ આદિ પણ છે. ધર્મથી, ન્યાયથી અથવા પ્રાણાતિપાતાદિનિવૃત્તિ, દાન, શીલ આદિથી જે અન્યતીર્થિકની અપેક્ષાએ ઉત્તમ છે તે ધર્મવરચાતુરન્તચકવતી છે. અથવા વરચાતુરન્તચકસદશ ધર્મથી જેને વર્તવાને સ્વભાવ છે તે ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવતી છે. એવા ધર્મવરચાતુરન્તચક્રવત્તીઓને નમસ્કાર હો. (दीवो) संसारसमुद्रमा मत प्राणीमाने दीपना समान २ आधार छ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे ताणं सरणगई पइट्ठा अप्पडिहय-वर-नाण-दंसण-धराणं वियट्टर्थितानां भव्यानां रक्षसक्षणेभ्यः । अतएव तेषां भव्यानां 'सरणगई' शरणगतिभ्यःआश्रयस्थानेभ्यः, 'पइटा' प्रतिष्ठाभ्यः-कालत्रयेऽपि अविनाशित्वात् स्थितेभ्यः, 'दीवो' इत्यादीनि 'पइट्ठा' इत्यन्तानि चतुर्थ्यर्थे प्रथमान्तानि, अत्रैकवचनं नपुंसकत्वं स्त्रीत्वं चाविवक्षितम् । 'अप्पडियहय-वर-नाण-दसण-धराणं' अप्रतिहतवर-ज्ञान दर्शन–धरेभ्यः-प्रतिहतं-भित्याद्यावरणस्खलितं-न प्रतिहतम्-अप्रतिहतं, ज्ञानञ्च दर्शनञ्चेति ज्ञानदर्शने, यतोऽप्रतिहते अतएव वरे-श्रेष्ठे च ते ज्ञानदर्शने वरज्ञानदर्शने केवलज्ञानकेवलदर्शने, अप्रतिहते वरज्ञानदर्शने अप्रतिहतवरज्ञानदर्शने, तयोर्धराःअप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधराः - सम्पूर्णाऽवरणरहितकेवलज्ञानकेवलदर्शनधारिणस्तेभ्यः । 'वियदृच्छउमाणं' व्यावृत्तच्छद्मभ्यः--छाद्यते -आत्रियते केवलज्ञानकेवलदर्शनगुणाद्यास्मनोऽनेनेति छद्म-ज्ञानावरणीयादिकं कर्माष्टकं, व्यावृत्तं-निवृत्तं छद्म येभ्यस्ते व्यावृके जो त्राता हैं ऐसे प्रभु के लिये नमस्कार हो । ( सरणगई ) भव्यों के लिये आश्रयस्थानस्वरूप प्रभु के लिये नमस्कार हो । ( पइट्टा) कालत्रय में भी अविनश्वरस्वरूप प्रभु के लिये नमस्कार हो (दीवो) यहां से लेकर (पइट्ठा) तक के समस्त विशेषण चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में प्रथमान्त प्रयुक्त हुए हैं । यहां एकवचन, नपुंसकत्व एवं स्त्रीत्व अविवक्षित हैं। (अप्पडिहय-वर-नाणदसण-धराणं ) जो अप्रतिहत अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के धारक हैं, उनके लिये नमस्कार हो। ( वियदृच्छउमाणं) जिनके द्वारा आत्मा का स्वभावभूत केवलज्ञान एवं केवल दर्शन आवृत होता है ऐसे आठों ही कर्म 'छम' शब्द से गृहीत हुए हैं, यह छद्म जिनकी आत्मा से सदा के लिये दूर हो चुका है सेवा प्रभुने नभ२४।२ डो. ( ताणं) ४थी मथाdi प्राणिसाना २ त्राय मर्थात् २क्ष छ. सेवा प्रभुने नभ२४॥२ डो. ( सरणगई ) नव्याने भाटेमाश्रयस्थान २१३५ प्रभुने नभ२४।२ डो. (पइट्टा) त्रणे मां अविनाशी२१३५ प्रभुने नभ२४॥२ डो (दीवो) २मडी थी सधने (पइट्टा) सुधीन या विशेषण। यतुथी वितिन અર્થમાં પ્રથમાન્ત વપરાયેલાં છે, અહીં એકવચન નપુંસકત્વ (નાન્યતર જાતિ) तमन्त्रीत्व [नारी ति] मविवक्षित छ. [अप्पडिहय-वर-नाण-दसण-धराणं] જે અપ્રતિહત અનંતજ્ઞાન અને અનંત દર્શનના ધારક છે તેમને નમસ્કાર छ.. (वियदृच्छउमाण) मना द्वारा यात्मभाना स्वभावभूत पर शान तभ०४ કેવલ દર્શન આવૃત થાય છે એવા આઠેય કર્મ “ધ” શબ્દથી ગૃહીત થાય Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषधर्षिणी टीका. सू२० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुतिः १३१ च्छउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सव्वणं सव्वदरिसीणं सिव-मयलतछमानस्तेभ्यः । 'जिणाणं' जिनेभ्यः-स्वयं रागद्वेषशत्रुजेतृभ्यः, 'जायवाणं' जापकेभ्यः-जापयन्ति कर्मशत्रून् जयन्तं भव्यजीवगणं धर्मदेशनादिना प्रेरयन्तीति जापका, जिधातोर्णी ' क्रीजीनां णौ' इतिसूत्रेण आत्वे पुकि जापि इति ण्यन्ताद्धातो वुलि जापकपदसिद्धिः, तेभ्यो जापकेभ्यः । 'तिन्नाणं' तीर्णेभ्यः-स्वयं संसारौधंसंसारार्णवं तीर्णाः उत्तीर्णास्तेभ्यः । 'तारयाणं' तारकेभ्यः-तारयन्त्यन्यान् इति तारकास्तेभ्यः । 'बुद्धाणं' बुद्धेभ्यः-स्वयं बोधं प्राप्तेभ्यः । 'बोहयाणं' बोधकेभ्यः-बोधयन्त्यन्यान् इति बोधकास्तेभ्यः । 'मुत्ताणं' मुक्तेभ्यः-अमोचिषत स्वयं कर्मबन्धादिति मुक्तास्तेभ्यः । 'मोयगाणं' मोचकेभ्यः -मुच्यमानान् अन्यान् प्रेरयऐसे व्यावृत्तछद्मवाले सिद्ध प्रभु के लिये नमस्कार हो। (जिणाणं) राग द्वेष आदि अंतरंग शत्रुओं के विजेता ऐसे प्रभु के लिये नमस्कार हो। (जावयाणं) जो कर्मशत्रुओं के जीतने के लिये उद्यत भव्यगणों को धर्मदेशनादि द्वारा प्रेरित करते हैं वे जापक हैं, ऐसे जापक सिद्ध प्रभु को नमस्कार हो। (तिन्नाणं) स्वयं सार समुद्र से जो पार हुए हैं वे तीर्ण हैं, ऐसे तीर्ण सिद्ध प्रभु को नमस्कार हो। (तारयाणं) जो पर को पार कर देते हैं वे तारक हैं, ऐसे तारक : प्रभु को नमस्कार हो। ( बुद्धाणं) स्वयं बोध को प्राप्त जो होते हैं वे बुद्ध कहलाते हैं उनको नमस्कार हो। (बोहयाणं) पर को बोध करने वाले प्रभु के लिये नमस्कार हो। ( मुत्ताणं) मुक्त प्रभु के लिये नमस्कार हो। (मोयगाणं) છે. આ “છદ્મ” જેમના આત્માથી સદાને માટે દૂર થઈ ચુકેલાં છે એવા વ્યાवृत्तछमार सिद्ध प्रभुने नभ२४।२ हो. (जिणाणं) रागद्वेष माहि मत शत्रुान विरा मेवा सिद्ध प्रभुने नभ२४।२ डी. (जावयाणं) २ भशत्रुએને જીતવાને માટે ઉદ્યત (તૈયાર) ભવ્યગણોને ધર્મદેશના આદિ દ્વારા घेरित ४२ छ ते १५४ छ । १५ सिद्ध प्रभुने नभ२४।२ . (तिन्नाणं) પોતે સંસાર સમુદ્રથી પાર થએલા છે તે તીર્ણ કહેવાય છે એવા તીર્ણ સિદ્ધ प्रधुने नभ२४॥२ डो. (नारयाण) 2 भीतने पा२ तारी हे छ ते २४ छ मेवा त।२४ प्रभुने नभ२४।२ डी. (बुद्धाणं) पोत माधन प्रास थयेा छ त सुद्ध ४उपाय छ भने नभ२४।२ डो. (बोहयाणं) मीनने माय ४२4॥ प्रभुने नभ२४२ डो. (मुत्ताणं) भुत प्रभुने नभ२४१२ डी. (मोयगाणं) मीनने Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ओपपातिकसूत्रे मरुय-मणंत-मक्खय-मव्वाबाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगइनामधेयं न्तीति मोचकास्तेभ्यः, 'सबन्नूणं' सर्वज्ञेभ्यः-सर्व-सकलद्रव्यगुण-पर्यायलक्षणं वस्तुजातं याथातथ्येन जानन्तीति सर्वज्ञास्तेभ्यः, 'सव्वदरिसीणं' सर्वदर्शिभ्यःसर्व समस्तं पदार्थस्वरूपं सामान्येन द्रष्टुं शीलं येषां ते सर्वदर्शिनस्तेभ्यः, स्थानविशेषणमाह-'सि' शिवं-निखिलोपद्रवरहितत्वाच्छिवं-कल्याणमयम् , 'अयलं' अचलम् स्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाशून्यम्, 'अरुयं' अरुजम्-अविद्यमाना रुजा यत्र तत् , अविद्यमानशरीरमनस्कत्वाद् आधिव्याधिरहितमित्यर्थः, 'अगंतं' अनन्तम्अविद्यमानोऽन्तो नाशो यस्य तत्, अत एव अक्वयं' अक्षयम्-नास्ति लेशतोऽ पि क्षयो यस्य तत्-अविनाशीत्यर्थः, 'अव्वाबाहं ' अव्याबाधम्-न विद्यते व्योबाधापीडा द्रव्यतो भावतश्च यत्र तत् । 'अपुणरावित्ति' अपुनरावृत्ति न संसारे पुनरावृत्तिः पुनरवतरणं यस्मात् तत् , यत्र गत्वा न कदाचिदप्यात्मा निवर्तते, समाम्नातमन्यदूसरों को मुक्त कराने वाले सिद्ध प्रभु के लिये नमस्कार हो। (सवण्णूणं सबदरिसीणं) सर्वज्ञ-समस्त गुणपर्यायस्वरूप वस्तुसमूह के युगपत् यथार्थ ज्ञाता के लिये नमस्कार हो, एवं यथार्थ द्रष्टा के लिये नमस्कार हो। विशेषाकार बोध का नाम ज्ञान एवं सामान्याकार बोध का नाम दर्शन है। (सिव-मयल-मरुयमणंत-मक्खय-मव्वाबाह-मपुगरावित्ति सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं) निखिल उपद्रवों से रहित होने के कारण शिव कल्याणमय, अचल स्वाभाविक एवं प्रायोगिक क्रिया से शून्य, अरुज शारीरिक एवं मानसिक व्याधि और आधि से सर्वथा परिवर्जित, अनन्त, अविनाशी, अतएव अक्षयस्वरूप, अव्याबाध-द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की पीडा से निर्मुक्त, अपुरावृत्ति-जहां जाकर फिर संसार में भुत ४२॥ain सिद्ध प्रसुने नमः४।२ डो. (सवण्णूगं सव्वदरिसीणं) સર્વજ્ઞ સમસ્તગુણ–પર્યાય-સ્વરૂપ વસ્તુસમૂહના યુગપતું યથાર્થ જ્ઞાતાને નમસ્કાર હો, તેમજ યથાર્થ દ્રષ્ટાને નમસ્કાર હો. વિશેષાકાર બેધનું નામ ज्ञान तम सामान्या४२ साधनाम शन छ. (सिव मयल-मरुय-मणंत-मक्खय-मव्वाबाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं) स४१ उपद्रवोथी રહિત હોવાના કારણે શિવ-કલ્યાણમય, અચલ–સ્વાભાવિક તેમજ પ્રાયેગિક ક્રિયાઓથી શૂન્ય, અરૂજ-શારીરિક તેમજ માનસિક વ્યાધિ અને આધિથી સર્વથા परिवनित (भुत), सनत, अविनाशी मने तथा अक्षय-२१३५,मव्यामाध-द्रव्य અને ભાવ અને પ્રકારની પીડાથી નિમુક્ત, અપુનરાવૃત્તિ-જ્યાં જઈને પાછું Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स्रु. २० कूणि कृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुतिः १३२ ठाणं संपत्ताणं, नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स त्रापि - ' न स पुनरावर्त्तन स पुनरावर्त्तते इति । इत्थम्—–उक्तशिवत्वादिविशेषणविशिष्टम् । ' सिद्धिगइनामधेयं ' सिद्विगतिनामधेयम्, सिद्विगतिरिति नामधेयं = नाम यस्य तत् सिद्विगतिनामकम् ' ठाणं ' स्थानम् - स्थीयतेऽस्मिन् इति स्थानंलोकाग्रलक्षणम्, 'संपत्ताणं ' सम्प्राप्तेभ्यः समाश्रितेभ्यः । इयदवधि - समुच्चयेन सर्वसिद्रापेक्षया विशेष गोपादानपूर्वकं नमस्कारवाक्यमभिधाय सम्प्रति भगवन्महावीरोद्देश्यकं नमस्कारमभिधत्ते–' नमोत्थु णं ' नमोऽस्तु खलु - ' समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणाय भगवते - महावीराय, अत्र श्रमणशब्देनायमर्थो बोद्धव्यः - परकृतस्थान - निवासादुरगसमः, परीषहोपसर्गेष्वप्रकम्पत्वागिरिसमः, तपस्तेजोमयत्वादनलसमः, गम्भीरत्वादजीव का अवतरण नहीं होवे ऐसे सिद्विगति नामके स्थान को - लोक के अग्रभाग में स्थित मुक्तिस्थान को प्राप्त हुए श्री सिद्धों को नमस्कार हो । यहां तक के इन विशेषगों से समस्त सिद्धों की अपेक्षा से नमस्कार का कथन किया गया 1 अब भगवान् महावीर को उद्देश्य कर के यहां से नमस्कार करने का कथन सूत्रकार करते हैं - ( नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स fareगरस्स जाव संपाविकामस्स मम धम्मायरियस धम्मोवदेसगम्स ) श्रमण भगवान् महावीर के लिये नमस्कार हो । श्रमण शब्द से सूत्रकार ने प्रभु महावीर में इन विशेषताओं का कथन किया है; वे कहते हैं भगवान् महावीर सर्प की तरह परकृत स्थान में निवास करने के कारण सर्पप - सदृश हैं । परीषह एवं उपसर्गों के आने पर भी प्रभु अप्रकंप थे; अतः वे गिरिसम हैं । तप एवं तेज धारक होने से प्रभु अग्नि - जैसे प्रतापशाली हैं । गांभीर्य एवं ज्ञानादिकरूप સંસારમાં જીવને અવતરવું ન થાય એવા, સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને લેાકના અગ્રભાગમાં રહેલ મુક્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલ શ્રીસિદ્ધ પ્રભુને નમસ્કાર હો. અહીં સુધીનાં આ વિશેષણાથી સમસ્ત સિદ્ધોની અપેક્ષાએ નમસ્કારનું કથન કર્યું છે. હવે ભગવાન મહાવીરને ઉદ્દેશીને અહીંથી નમસ્કાર કરવાનું કથન सूत्र४२ ४ छे - ( नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स तित्थगरजा संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स ) श्रमण लगवान् મહાવીરને નસ્કાર હેા. શ્રમણ શબ્દથી સૂત્રકારે પ્રભુ મહાવીરમાં આ વિશેષતાઓનું કથન કર્યું છે. તેઓ કહે છે કે ભગવાન મહાવીર સર્પની પેઠે ખીજાએ કરેલાં નિવાસસ્થાનમાં રહેવાને કારણ સ જેવા छ. પરીષહુ તેમજ ઉપસર્ગા આવતાં પણ પ્રભુ ધ્રુજી જતા નહિ; માટે તે પત Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ओपपातिकसूत्रे , आदिगरस्स तित्थगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायज्ञानादिरत्नाकरत्वात् मर्यादाधारकत्वात् सागरसमः । निरालम्बनत्वाद् गगनसमः । सुखदुःखयोरदशितविकारभावाद् वृक्षसमः । अनियतवृत्तित्वाद् भ्रमरसमः । संसारभयोद्विग्नत्वात् मृगसमः । सर्वंसहत्वाद् धरणिसमः । कामभोगोद्भवत्वेऽपि विषयविरक्ततया पङ्कजलोपरि वर्तमानकमलवन्निर्लेपत्वात् कमलसमः । लोकालोकयोर विशेषत्वेन प्रकाशकत्वाद्रविसमः । सर्वत्राप्रतिहतगतित्वात्पवनसमः । स एवंभूतो भगवानस्तीति भावः । भगवते - समग्रैश्वर्ययुक्ताय, महावीराय-महांश्चासौ वीरः - 'वीर विक्रान्तौ ' - अस्माद्धातोरिगुपधत्वात्कप्रत्यये वीरः कषायादिमहारिपुविजेता इत्यर्थः, तस्मै महावीराय = अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतितमचरमतीर्थङ्कराय । ' आदिगरस्स ' आदिकाय, 'तित्थगरस्स' तीर्थकराय, 'जाव संपावकामस्स' यावत् सम्प्राप्तुकामाय - यावच्छब्दात्- 'संयंसंबुद्धस्स इत्यारभ्यरत्नों से भरे हुए होने के कारण, एवं मर्यादा के धारक होने के कारण प्रभु समुद्रतुल्य हैं । गगन की तरह निरालंब, वृक्षकी तरह सुख एवं दुःख में अदर्शितविकारभावयुक्त, भ्रमर की तरह अनियतवृत्तिसंपन्न, मृग की तरह इस संसाररूपी भय से अत्यंत त्रस्त, धरिणी की तरह क्षमा के भंडार वे प्रभु हैं I प्रभु कामभोग से उत्पन्न हैं तो भी विषयों से विरक्त होने के कारण पंक से उत्पन्न एवं जल से संबर्द्धित कमल की तरह बिलकुल वैषयिक भावों से निर्लिप्त हैं, इसलिये प्रभु कमल जैसे हैं । प्रभु लोक और अलोक के समानरूप से प्रकाशक हैं, इसलिये रवितुल्य हैं । प्रभु सर्वत्र अप्रतिहत-विहारी हैं, इसलिये वायु जैसे हैं । प्रभु समग्र ऐश्वर्यसम्पन्न हैं, इसलिये भगवान् हैं । प्रभु एक महावीर हैं; જેવા છે. તપ તેમજ તેજના ધારક હાવાથી પ્રભુ અગ્નિ જેવા પ્રતાપશાલી છે. ગાંભીય તેમજ જ્ઞાનાદિકરૂપ રત્નાથી ભરેલા હોવાના કારણે, તેમજ મર્યાદાના ધારક હાવાના કારણે પ્રભુ સમુદ્ર સમાન છે. આકાશની પેઠે નિરાલખ, વૃક્ષની પેઠે સુખ તેમજ દુઃખમાં ન દેખાય જેનેા વિકાર એવા, ભ્રમરની પેઠે અનિયતવૃત્તિસંપન્ન, મૃગની પેઠે આ સંસારરૂપી ભયથી અત્યંત ત્રાસી ગયેલા, ધરતીની પેઠે ક્ષમાના ભંડાર, તે પ્રભુ છે. પ્રભુ કામભાગથી ઉત્પન્ન થયેલા છે તે પણ વિષયેાથી વિરકત હોવાના કારણે કીચડથી પેદા થયેલ તેમજ જલથી વધેલા કમળની પેઠે બિલકુલ વિષયના ભાવાથી નિલેષ છે, તેથી પ્રભુ કમલ જેવા છે. પ્રભુ લેાક અને અલેાકના સમાનરૂપથી अाश छे तेथी रवि (सूर्य) समान हे प्रभु समग्र - मैश्वर्य संपन्न छे તેથી ભગવાન છે. પ્રભુ એક મહાન વીર છે; કેમકે તેમણે કષાય આફ્રિક Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका. व. २० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुतिः १३५ ' सिद्धिगइनामधेयं ठाणं'इयदवधि ग्राह्यम् । अत्रैतावान् विशेषः-' ठाणं संपत्ताणं ' स्थानं संप्राप्तेभ्यः-इति प्रागुक्तम् , इह तु 'संपाविउकामस्स' संप्राप्तुकामायमोक्षगामिने-इत्युच्यते, चरमस्य तीर्थकरस्य कूणिकनृपशासनकाले विद्यमानत्वात् । 'मम धम्मायरियस्स' मम धर्माऽऽचार्याय ज्ञानाचारादिपञ्चविधाचारधारकाथ, न तु कलाचार्याय; क्यों कि उन्होंने कषायादिक अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है । महावीर प्रभु इस अवसर्पिणी काल के चौबीसवें अन्तिम तीर्थंकर हैं। "आदिगरस्स" इस पद-द्वारा प्रभु में अपने शासन की अपेक्षा धर्म की आदिकर्तृता प्रकट की गयी है । भगवान महावीर चतुर्विध संध के संस्थापक हैं । “जाव" पदसे “ संयंसंबुद्धस्स" यहां से लेकर “सिद्धिगइनामधेयं ठाणं " यहां तकका पाठ संगृहीत किया गया है। यहां इस पाठ में इतनी विशेषता पहिले पाठ की अपेक्षा जान लेनी चाहिये कि पहिले पाठ में “ ठाणं संपत्ताणं-स्थानं संप्राप्तेभ्यः" ऐसा पद रखा गया है और यहां पर “ ठाणं संपाविउकामस्स-स्थानं संप्राप्तुकामाय" ऐसा पाठ रखा है; क्योंकि प्रभु महावीर अभी उस सिद्धिगतिनामक स्थान की प्राप्ति करनेवाले हैं। 'मम धम्मायरियस्स'-कोणिक कहते हैं कि ये श्रमण भगवान् महावीर प्रभु, जो कि ज्ञानाचारादि पाँच प्रकार के आचारों के धारक होने के कारण मेरे धर्माचार्य हैं, कलाचार्य नहीं; उनके लिये नमस्कार है। इससे यह सूचित होता है कि जो ज्ञानाचारादि पाँच प्रकार के आचारों के धारक हैं वे ही धर्माचार्य कहे जाते हैं। અંતરંગ શત્રુઓ પર વિજય પ્રાપ્ત કર્યો છે. મહાવીર પ્રભુ આ અવસર્પિણી सना यावीसभा २मतिम तीर्थ ४२ छ. “आदिगरस्स” से ५४थी प्रभुभां પિતાના શાસનની અપેક્ષાએ ધર્મના આદિકર્તાપણું પ્રગટ કર્યું છે. ભગ पान मडावी२ यतुर्विध संघना संस्था५४ छ. 'जाव' ५४थी “ सयंसंबुद्धस्स" मडी थी सधन “सिद्धिगइनामधेयं ठाणं " न्यही सुधान। ५8 सेवामा साव्या છે. અહીં આ પાઠમાં એટલી વિશેષતા પહેલા પાઠની અપેક્ષાએ જાણવી ने पडे। ५४मा “ ठाणं संपत्ताणं "-स्थानं संप्राप्तेभ्यः " से यह १५रायु छ भने मडी “ ठाणं संपाविउकामस्स-स्थानं संप्राप्तुकामाय " से। પાઠ લીધો છે, કેમકે પ્રભુ મહાવીર હજુ તે સિદ્ધિગતિનામક સ્થાનને પ્રાપ્ત ४२वापामा छ. “ मम धम्मायरियस्स" : ४ छ ते श्रभा भगवान् કે જે જ્ઞાનાચારાદિ પાંચ પ્રકારના આચારના ધારક હોવાના કારણે મારા ધર્માચાર્ય છે, કલાચાર્ય નથી, એવા પ્રભુ ને નમસ્કાર હો. આથી એમ સૂચિત થાય છે કે જે જ્ઞાનાચારાદિ પાંચ પ્રકારના આચારના ધારક હોય Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे रियस्स धम्मोवदेसगस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयंति-कट्ठ वंदइ णमंसइ, वंदित्ता धर्माचार्यत्वमेव प्रकटीकरोति-'धम्मोवदेसगरस' धर्मोपदेशकाय, श्रुतचारित्रलक्षणरूपधर्मप्ररूपकाय, 'वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए' वन्दे खलु भगवन्तं तत्रगतमिहगतः-इह गतः-चम्पानगरीस्थितोऽहम्-कोणिकः,तत्रगतं चम्पा-नगरीसमीप-ग्रामे स्थितं भगवन्तं महावीरं, वन्दे-पूर्वोक्तस्तुत्या स्तुतिविषयं करोमि । 'पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं तिक?' पश्यतु मां भगवान् तत्रगत इहगतमिति कृत्वा-सर्वज्ञत्वात् तत्रगतो दूरस्थितो भगवान् इहगतं व्यवधानेन स्थितं मां पश्यतु-इति कृत्वा इत्युक्त्वा- दइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दते-स्तौति, नमस्यति–पञ्चाङ्ग नमनपूर्वकं प्रगमति, वन्दित्वा नमस्थित्वा 'धम्मोवदेसगस्स' भगवान वीर श्रुतचारि रूप धर्मका उपदेश करते हैं, इसलिये वे धर्मोपदेशक हैं, अतः ऐसे वीरप्रभु के लिये नमत्कार हो। कोगिक राजा इस प्रकार कहकर प्रभुवीर को परोक्ष वंदन करते हैं कि-( तत्थगयं इहगएत्ति कटु वंदइ णमंसइ) वे वीरप्रभु कि जिन्हें मैं इस समय नमस्कार कर रहा हूं; यद्यपि मेरे प्रत्यक्ष नहीं हैं तथापि वे इस चंपानगरी के पास के ग्राम में विराजमान हैं और मैं यहां पर हूं, अतः यहां चंपानगरी में रहा हुआ मैं उपनगरग्राम में विराजमान वीर प्रभु को नमस्कार करता हूं। "पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं" वे प्रभु वहां पर विराजमान होते हुए व्यवधान से स्थित मुझे अपने ज्ञानरूपी नेत्र द्वारा देखें। इस प्रकार कहकर कोणिक राजाने प्रभु को वंदन किया एवं नमस्कार कियापंचांगनमनपूर्वक नमस्कार किया। (वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे छ भने ४ घर्भाचार्य डामा मा . “ धम्मोवदेसगस्स” भगवान મહાવીર શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મના ઉપદેશક છે તેથી તેઓ ધર્મોપદેશક છે, માટે એવા મહાવીર પ્રભુને નમસ્કાર હો. કણિકરાજા આ પ્રકારે કહીને प्रभु वीरने परोक्ष पहन ४२ छ (तत्थगयं इहगएत्ति कट्ट वंदइ णमंसइ) તે વીર પ્રભુ કે જેમને હું આ સમયે નમસ્કાર કરી રહ્યો છું તે છે કે મને પ્રત્યક્ષ નથી તે પણ તેઓ આ ચંપાનગરીની પાસેના ગામમાં છે અને હું અહીં છું; આથી હું અહીં ચંપાનગરીમાં રહીને ઉપનગર ગામમાં વિરા भान वीर प्रभुने नभ२४२ ४३७. पि.सउ मे भगवं तत्थगए इहगयं ] प्रभु ત્યાં વિરાજમાન હોવા છતાં દૂર રહેલા એવો મને પિતાનાં જ્ઞાનરૂપી નેત્રદ્વારા જુએ. આ પ્રકારે કહીને કેણિક રાજાએ પ્રભુને વંદન કર્યા, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. २० कूणिककृतः प्रवृत्तिव्यापृतसत्कारः णमंसित्ता सीहासणवरगए परस्थाभिमुहे निसीयइ, निसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउथस्स अट् त्तरं सयसहस्सं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता सकारेइ सम्माणेइ, सकारिता संमाणित्ता एवं वयासी ॥ सू० २० ॥ 'सीहासणारगए ' सिंहासनवरगतः, 'पुरत्थाभिमुहे ' पौरस्त्याभिमुखः, पूर्वाभिमुखः सन 'निसीयई' निवीदति-उपविशति, नसीइत्ता निषय-उपविश्य 'तरस पवित्तिवाउयरस' तस्मै प्रवृत्तिव्याताय- भगवदागमननिवेदकाय, 'अठुत्तरं सयसहस्सं पीइदाणं दलर' अष्टोत्त शतसहस्रं प्रीतिदानं ददाति-अष्टाधिकं लक्षमितं राजतमुद्रारूपं प्रीतिदान=तुष्टिदः । पारितोषिकं ददाति । 'दलइत्ता सकारेइ संमाणेइ' दत्वा सत्करोति-बखादिना, मानयति आसनादिना, दानं विधिसहितमेव भव्यस्य भवति इति भावः । 'सका ता सम्माणित्ता एवं वयासी' सत्कृत्य सन्तोष्य, मान्य-सम्मानं विधाय, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् ॥ सू० २० ॥ निसीयइ) वंदन नमन करके वह कणिक राजा अपने सिंहासन पर पीछे जाकर पूर्व की तरफ मुख करके बैठ गये। . निसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अठुत्तरं सयसहस्सं पीइदाणं दलया) बैठकर फिर उन्होंने उस मंदेशवाहक को प्रीतिदान में-पारितोषिकरूपसे १ लाख ८ चांदी की मुद्राएँ दी। (दलइत्ता सकारेइ सम्माणेइ) देकर उसका खूब सत्कार किया और संमान किया, (सकारिता संमाणित्ता एवं वयासी) आदर सत्कार कर चुकने पर फिर राजाने उससे इस प्रकार कहा-सू०२०॥ तभ०४ नमः४।२ ४--पंचांग-मन-पूर्व नभ२४२ ४ा. (वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे निसीयइ ) वहन नभ२४१२ ४ीने ते ४ि४२।। પિતાના સિંહાસન પર પાછા જઈને પૂર્વ તરફ મુખ કરીને બેસી ગયા. (निसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अहुत्तर सयसहस्सं पीइदाणं दलयइ ) मेसीन પછી તેમણે તે સંદેશવાહકને ઘોતિદાનમાં પારિતોષિક (ઈનામ) રૂપે १ सय ८ मुद्रा यापी. (दलइत्ता सकारेइ संमाणेइ) छने तेना भूय सत्४२ यो मन सन्मान यु (सक्कारित्ता संमाणित्ता एवं वयासी) मा६२ स४२ ४३१ युध्या ५०ी २ तेने २॥ ५४॥२ ४यु:-(सू. २०) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्र० २१ - प्रवृत्तिव्यापृतं प्रति कूणिकस्यादेशः ) औपपातिकसूत्रे मूलम् - जया णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेजा, इह समोसरिजा, इहेव चंपाए णयरीए बहिया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं अरहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेजा, तया णं तुमं मम एयमट्ठे निवेदिज्जासि-त्ति कट्टु विसज्जिए || सू० २१ ॥ १३८ " टीका- राजा कूणिको भगवद्वार्तानिवेदकं पुरुषमादिशति ' जया णं ' इत्यादि । यदा खलु देवानुप्रिय ! श्रमणो भगवान् महावीरः इहाऽऽगच्छेत्, इह समवसरेत् इहैव चम्पायां नगर्यौ बाह्ये पूर्णभद्रे चैत्ये यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य अरहा जिनः केवली श्रमणगणपरिवृतः संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरेत्, तदा खलु मह्यमेतमर्थं निवेदयेरितिकृत्वा विसर्जितः ॥ सू० २१ ॥ 6 जया णं इत्यादि (देवाणुपिया) हे देवानुप्रिय ! ( जया णं ) जिस समय ( समणे भगवं महावीरे ) श्रमण भगवान् महावीर प्रभु ( इहमागच्छेज्जा ) यहां पर विहार करते हुए पधारें, ( इह समोसरिज्जा ) यहाँ समवसृत हों, और ( इहेव चंपाए यरी बहिया पुणभद्दे चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं अरहा जिणे केवल समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा ) इस चंपानगरी के बाहर पूर्णभद्र नामक उद्यान में यथाप्रतिरूप - साधु को कल्पने योग्यअवग्रह - वसति की आज्ञा वनमाली से ग्रहण कर वे श्रमणगण से परिवृत अरहा जिन 6 जया णं' इत्याहि (देव णुप्पिया ) ! डे हेवानुप्रिय ! ( जया णं ) ने सभये ( समणे भगवं महावीरे ) श्रमण भगवान् महावीर प्रभु ( इहमागच्छेज्जा ) विहार ४२ता उरता अहीं पधारे, ( इह समोसरिज्जा ) अहीं सभवसृत थाय, मने ( इहेव चंपाए णयरी बहिया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिव्हित्ताणं अरहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा ) भा ચંપાનગરીની બહાર પૂર્ણભદ્ર નામના ઉદ્યાનમાં યથાપ્રતિરૂપ--સાધુને કલ્પવા ચેાગ્ય અવગ્રહ–વસ્તીની આજ્ઞા ગ્રહણ કરીને તેઓ શ્રમણગણથી વીંટળાએલા અરહાજિન કેવલી ભગવાન મહાવીર સ્વામી સત્તર પ્રકારના સયમ વડે Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. २२ पूर्णभद्रोदयाने भगवदागमनम् मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पल-कमल-कोमलु-म्मीलियम्मि अहपंडुरे पहाए रत्तासोग-प्पगास-किंसुय-सुयमुह-गुंजद्धराग-सरिसे कम टीका-'तए णं' इत्यादि । ततस्तदनन्तरं खलु श्रमणो भगवान् महावीरः 'कल्लं' कल्ये-द्वितीयदिवसे 'पाउप्पभायाए रयणीए' प्रादुष्प्रभातायां प्रकटीभूत-प्रभातायां रजन्यां 'फुल्लुप्पल-कमल-कोमलु-म्मीलियम्मि'फुल्लो-त्पल-कमल-कोमलोन्मीलिते-फुल्लं-विकसितंच तत्-उत्पलं-पद्म, कमलश्च=चित्रमृगः-हरिणविशेषः, तयोः कोमलं-मृदुकम् , उन्मीलितंपत्राणां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिन् ततथा तस्मिन् , इदं प्रभातविशेषणम् । 'अह' अथ-अनन्तरं-रजनीपर्यवसानाऽनन्तरम्-'पंडुरे' पाण्डुरे-शुक्ले 'पभाए' प्रभाते-प्रातःकाले, अथ सूर्यविशेषणान्याह-रत्तासोग' इत्यादि । 'रत्तासोग-प्पगास-किंसुय-सुयमुह-गुंजद्धराग-सरिसे' रक्ताऽशोक-प्रकाश--किंशुक शुकमुख - गुञ्जाऽर्द्धराग - सदृशे, रक्ताऽ केवली भगवान् महावीर स्वामी सत्रह प्रकार के संयम से और बारह प्रकार के तप से अपनी आत्मा को भावते हुए जब विचरें, (तया णं) तब तुम निश्चय से (मम एयमद्वं निवेदिज्जासि) मुझे यह समाचार निवेदित करना; (त्तिकट्ठ विसज्जिए ) ऐसा कहकर उसे विसर्जित कर दिया ॥सू०२१॥ 'तए णं' इत्यादि (तए णं) तदनन्तर (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर (कलं) दूसरे दिन (पाउप्पभायाए रयणीए) जिसमें प्रभात प्रकट हो चुका है ऐसी रजनी के होने पर (फुल्लु-प्पल-कमल-कोमलुम्मीलियंमि अहपंडुरे पहाए) तथा विकसित कमलपत्रों एवं चित्रमृग के नयनों का उन्मीलन जिसमें हो चुका है ऐसे शुभ्र आभायुक्त प्रातःकाल के होने पर, तथा ( रत्तासोग-प्पगास-किंसुय. અને બાર પ્રકારના તપ વડે પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા જ્યારે વિચારે (तया ण) त्यारे तमे ४३२ (मम एयमटुं निवेदिज्जासि) भने से सभाया२ निवेदन ४२०. (त्तिकट्ट विसजिए) सेम डीन तेने विहाय यो.[ सू. २१]. 'तए णं' त्याहि. (तए ण) त्या२ पछी (समणे भगवं महावीरे) श्रम मावान् महावीर (कल्लं) मीर हिवसे (पाउप्पभायाए रयणीए) ते रात्रिनुं न्यारे प्रमात ५४८ थयु, (फुल्लु-प्पल-कमल-कोमलु-म्मीलियमि अहपंडुरे पहाए) तथा વિકસેલાં કમલપત્રો તેમજ ચિત્રમૃગનાં નયન જ્યારે ઉઘડી ચુક્યા હોય એવી शुम सालापाणे प्रात: थयो, तथा ( रत्तासोग-पगास-किंसुय-सुयमुह Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. औपपातिकमूत्र लागर-संड-बोहए उहियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते, जेणेव चंपाणयरी, जेणेव पुष्णभदे चेइए, जेणेव वणसंडे, शोकः प्रसिद्धवृक्षः-तस्य प्रकाशः प्रभा, स रक्ताऽशोकपकाशः. सच किंशुकं-५ लाशपुष्पं, शुकमुखं च, गुञ्जा-रक्तकृतः फलविशेष:-- इद्रं च रक्ताभागः, एतेषां यो रागःरक्तवर्णः तेन सदृश:-समानः तस्मिन्-तत्तु बलालिमायुक्ते, कमलागर--संड- बोहए' कमलाऽऽकर-षण्ड-बोधके-कमलानामाकराः कर ओत्पत्तिस्थानानि-तडागाइयः, तेवु-कमलाकरे यानि षण्डानि-कमलवनानि, तेषां बोधकः-वित्र शकः तस्मिन्-कमल-वनविकाशकारिणीत्यर्थः, 'उट्ठियम्मि उत्थिते-उदिते 'मरे' सूर्ये, पुनः कीदृशः 'सहस्सरसिमि दिणयर तेयसा जलंते सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति-स स्र-सहस्रपरिमिताः रश्मयः किरगा यस्य स तस्मिन् तादृशे दिनकरे-दिवसकारके, तेजसः-किरणपुञ्जेन, ज्वलति-जाज्वल्यमाने सति, 'जेणेव चंपा णयरी' यत्रैव चम्पा नगरी वर्तत इति शेषः । 'जेणेव पुणभः चेइए' यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यमुद्यानमस्ति । 'जेणे? वसंडे' यत्रैव वनपण्डः, 'जेणेव असोगवरपायवे' सत्रैवाशोकवरपादपः, जेणेत्र पुढविसिलापट्टए' यत्रैव पृथ्वीसुयमुह-गुंजद्धराग-सरिसे कमलागर-सं:-बोहए ) रक्त-अशोक के प्रकाशतुल्य, पलाशपुष्प के समान, शुक के मुख 5 समान और गुंजा के आधे भाग की ललाई के समान, कमलवनों को विकसित करनेवाला प्रभात होने पर (उट्टियंमि मूरे) आकाश में सूर्य का उदय होने पर, और पश्चात् (सहरसरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलंते) सहस्रकिरणवाला दिनकर जब अपने तेजसे आकाश में चमकने लगा तब (जेणेव चंपायरी जेणेव पुण्णभदे चेइए जेणेव वणसंडे जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढवीसिलापट्टए तेणेव उवा च्छइ ) जहाँ वह चंपानगरी थी, जहाँ वह पूर्णभद्र उद्यान था, जहाँ वह अशोक वर क्ष था, जहाँ पृथिवीशिलापट्टक था, वहां गुंजद्धराग-सरिसे) २४ मनप्र४ाश समान,शु--सुडांना पु०५ समान, શુકમુખ-પોપટના મુખ્ય સમાન, અને જાના અર્ધા ભાગની લાલાશ સમાન (कमलागरसंडबोहए) ४भसनां बनाने सवावाणु प्रभात थdi (उट्ठियम्मि सूरे) माशमा सूर्य नेय थdi मने पछी ( सहस्सरस्सिंमि दिणयरे तेयसा जलंते ) सहसटिवाणे सूर्य न्यारे पोताना ते४५ माशमा यभवा ये त्यारे, (जेणेव चंपाणयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव वणसंडे जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढवीसिलापट्टए तेणेव उवागच्छइ) ज्यां ते यानगरी હતી, જ્યાં તે પૂર્ણભદ્ર ઉદ્યાન હતું, જ્યાં તે અશેક વરવૃક્ષ હતું અને જ્યાં Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ पोयूषवर्षिणी-टोका. स. २२ पूर्णभद्रोदयाने भगवदागमनम् जेणेव असोगवरपायवे जेव, पुढवीसिलापट्टए तेणेव उवागच्छइ. उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं असोगवरपायवस्स अहे पुढ वेमिलापट्टगंसि पुरस्थाभिमुहे पलियंकनिसन्न अरहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे बहरइ ॥सू० २२ ॥ शिलापट्टको स्ति, तेणेव उवागच्छः । तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, · अहापडिरूवं' यथाप्रतिरूपम्-यथासाधुकल्पं, 'ओग्गह' अवग्रहम्-आज्ञाम्, ‘ओगिण्हित्ता णं' अवगृह्य-गृहीत्वा खल ‘असोगवरवायास्स अहे : अशोकवरपादपस्य अधः अधःप्रदेशे, 'पुढविसिलापटगंसि' पृथ्वीशिलापट्टके- थ्वीशिलापट्टकोपरि, 'पुरत्थाभिमुहे' पौरस्त भिमुखः-पूर्वाभिमुखः, 'पलियंकनिसन्ने' पल्यङ्कनिषण्णः-पत्यकेन--पल यातिर तेन आसनविशेषेण निषण्णः-उपविष्टः, 'अरहा' अरहाः-अविद्यमानं-रहः- एकान्तम् स्य सोऽरहाः-केवलज्ञानबलेन सर्वज्ञः, 'जिणे जिनः-रागद्वेषविजेता, 'केवली' प्राप्त केवलानः, 'समगगगपरिवुडे 'श्रम गगगपरिवृतः - माधुपरिवार संयुक्तः ‘संजमेणं ताला अप्पाणं भावेमाणे : मंत्रमेन तपसा आत्मानं भावयन् 'विहरइ' विहरति स्म । सू० २२ ॥ पधारे। (उबागच्छित्ता अहापडिरूपं ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं असोगवरपायवस्स अहे पुढवीसिलापट्टगंसि पुरत्थाभिमहे पलियंकनिसन्ने अरहा जिणे केवली समगगणपवुिडे संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे विहरइ ) पधारने के बाद वे प्रभु साधुसमाचारी के अनुसार बनमाली की आज्ञा लेकर अशोकवृक्ष के नीचे पृथवीशिलापटक पर पूर्वकी ओर मुख कर पर्यक आसन से (पलथी मारकः) विराजमान हुए। तथा श्रमणगणों से परित वे अरहा केवली जिन महावीर प्रभु तप एवं यम से अपनी आमा को भावित करते हुए विचरने लगे ॥ सू०२२ ॥ पृथिवीशिक्षा-पट्ट तो, त्यो पा. ( उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गह • ओगिण्हित्ताणं असोगवरपायवस्स अहे पुढवीसिलापट्टगंसि पुरत्थाभिमुहे पलियंकनिसन्ने अरहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ) पधार्या ५छी ते साधु-समाया प्रमाणे वनमालीनी माज्ञा લઈને અશોકવૃક્ષની નીચે પૃથિવીશિલાપટ્ટક ઉપર પૂર્વ દિશા તરફ મુખ રાખીને પર્યક આસનથી (પલાંઠી વાળીને) વિરાજમાન થયા. તથા શ્રમણગણથી વીંટળાઈને અરહા કેવલી જિન મહાવીર પ્રભુ, તપ તેમજ સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિચરવા લાગ્યા. સૂ. ૨૨. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ औपपातिकसत्रे मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो, अप्पेगइया उग्ग टीका-चम्पायां नगया पूर्णभद्रोद्याने यदा भगवतः श्रीमहावीरस्य समवसरणमभूत् तदा तेन साधू समागतानां श्रमणानां वर्णनं कुर्वन्नाह-'तेणं कालेणं' इत्यादि। तस्मिन् खलु काले तस्मिन् खलु समये च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य श्रीमहावीरस्वामिनः अन्तेवासिनः-अन्ते समीपे चारित्रक्रियाद्यर्थ वस्तुं शीलं स्वभावो येषां तेऽन्तेवासिनः-शिष्याः, 'बहवे '-बहवः-बहुसंख्यकाः, 'समणा' श्रमणाः-साधवः 'भगवंतो'-भगवन्तः-वैराग्येण श्रुतचारित्रलक्षणधर्मेण च युक्तत्वात् श्रमणा अपि भगवन्त इत्युच्यन्ते । 'अप्पेगइया' अप्येके-अपिः-समुच्चये, एके केचिदित्यर्थः । 'उग्गपवइया' उग्रप्रव्रजिताः-उग्राः आदिनाथेन ये नगररक्षकत्वेन आरक्षकत्वेन नियुक्तास्तदंशजाः प्रत्रजिताः दीक्षिताः, उग्र इति क्षत्रियजातिभेदः, तद्वन्त उग्रा उच्यन्ते, ते प्रवजिता इत्यर्थः । 'तेणं कालेणं' इत्यादि ' तेणं कालेण तेणं समएणं' उसी काल और उसी समयमें (समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो) श्रमण भगवान् महावीर के बहुत से श्रमण भगवंत अन्तेवासी=समीप में रह कर चारित्रक्रिया आदिके आराधन करने वाले शिष्य थे। शिष्यों का विशेषण जो “समणा भगवंतो" है, उसका अभिप्राय यह है कि वे सब श्रमण–साधु थे, और वैराग्य से, एवं श्रुतचारित्ररूप धर्म से युक्त थे। इनमें (अप्पेगइया) कितनेक (उग्गपवइया) उग्रवंश के-आदिनाथ प्रभुने पहिले जिन्हें नगरों की रक्षा के लिये नियुक्त किया था उन पुरुषों के वंशके थे। कितनेक “ तेणं कालेण' त्याहि. (तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते ४ास भने त समयमा (समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो) श्रम समपान महाવીરના ઘણય શ્રમણ ભગવંત અંતેવાસી સમીપમાં રહીને ચારિત્રક્રિયા माहिना माराधना ४२वा शिष्य। उता. शिध्यानु विशेष समणा भगवंतो छ, तन मनिपाय से तमा मा श्रमसाधु ता भने वैराज्य तभ०४ श्रुतयारित्र३५ यथा युत ता. तमाम (अप्पेगइया) सामे (उग्गपव्वइया ) 3 शना-माहिनाथ प्रभुये पडेला साने નગરની રક્ષા માટે નિયુકત કર્યા હતા તે પુરૂષના વંશના–હતા. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषर्षिणी-टीका. सू. २३ भगवदन्तेवासिवर्णनम् पव्वइया, भोगपव्वइयो, राइण्ण-णाय-कोरव्व-खत्तिय-पव्वइया, भडा जोहा सेणावई पसत्थारो सेट्टी इब्भा, अण्णे य बहवे 'भोगपवइया' भोगप्रवजिताः-ऋषभदेवेन ये पूर्वं गुरुत्वेन स्थापितास्तद्वंशजा भोगा इत्युच्यन्ते, भोगाश्च ते प्रबजिताः दीक्षिताः भोगप्रव्रजिताः, भोगकुलोत्पन्ना दीक्षिता इत्यर्थः । 'राइण्ण-णाय-कोरब-खत्तिय-पव्वइया' राजन्य-ज्ञात–कौरव-क्षत्रिय प्रवजिताः-ये तेनैव मित्रत्वेन व्यवस्थापितास्तद्वंशजाश्च राजन्या उच्यन्ते, ज्ञाता इक्ष्वाकुवंशविशेषे जाताः, कौरवाः-कुरुवंशोत्पन्नाः, 'खत्तिय क्षत्रियाः-क्षतात् त्रायन्ते इति क्षत्रियाः, ते राजन्यादयः प्रव्रजिताः, 'भडा'-भटाः-चारभटाः-पदातयः, 'जोहा 'योधाः-भटेभ्यो विशिष्टतराः सहस्रपरिमितैरपि रिपुसैनिकै रेकाकिनोऽपि योद्धं समर्थाः । 'सेणावई' सेनापतयः-सैन्यनायकाः, 'पसत्थारो' प्रशास्तारः-शासका नीतिशास्त्रधुरीगाः, 'सेट्टी' श्रेष्ठिनः-लक्ष्मीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टमण्डितमस्तकाः, 'इब्भा' इभ्या इभो हस्ती तत्प्रमाणपरिमितसुवर्णादिराशिस्वामिनः । एते सर्वे प्रव्रजिता अन्तेवासिनो जाताः । ये-च(भोगपव्वइया) जिन्हें आदिनाथ प्रभुने गुरुरूप से स्थापित किया था उन भोगों के वंश के थे। कितनेक (राइण्ण-णाय-कोरब-खत्तिय-पव्वइया) प्रभुने जिन्हें अपने मित्ररूप से स्थापित किया था उन राजन्यों के वंश के थे, कितनेक ज्ञात इक्ष्वाकुवंश के थे, कितनेक कौरव-कुरुवंश के थे, कितनेक क्षत्रियवंश के थे। ऐसे ही (भडा जोहा सेणावई पसत्यारो सेट्ठी इन्भा) भट-सामान्यवीर, योधा अकेले ही हजारों शत्रुसैनिकों से युद्ध करने में समर्थ वीर, तथा सेनापति, प्रशास्ता न्यायाधीश, सेठ सर्वापेक्षा अधिक धनी होने का सूचक राजप्रदत्त पट्टबन्ध को धारण करने वाले नगरसेठ, और इभ्य= हाथी प्रमाण सुवर्णादि राशिके स्वामी भी भगवान् के समीप प्रव्रजित हुए थे। टमा ( भोगपव्वइया ) भने महिनाथ प्रभुये शु३३चे स्थापित र्या उता त लोग-शन। उता. सामे४ (राइण्ण-णाय-कोरव्व-खत्तिय-पव्वइया ) પ્રભુએ જેમને પોતાના મિત્રરૂપે સ્થાપિત કર્યા હતા તે રાજન્ય–વંશના હતા. કેટલાએક જ્ઞાત= ઈફવાકુવંશના હતા. કેટલાક કૌરવઃકુરૂવંશના હતા, सा क्षत्रियशनात. तमगा (भडा जोहा सेणावई पसत्थारो सेट्टी इब्भा) ભટ સામાન્યવીર,દ્ધા-એકલાજ હજારે શત્રુ સૈનિક સાથે યુદ્ધકરવામાં સમર્થનીર, તથા સેનાપતિ, પ્રશાસ્તા ધારાશાસ્ત્રમાં નિપુણ, સેઠ=સવની અપેક્ષાએ વધારે પિસાદાર હોવાનું સૂચક રાજ્યતરફથી અપાએલ પટ્ટાબંધ (ઈલકાબ) ધારણ કરવાવાળ નગરશેઠ, અને ઈભ્ય હાથી જેવડા સુવર્ણના ઢગલાના સ્વામી પણ ભગपान पासे प्रति यया उता. (अण्णे य बहवो एवमाइणो) माननी पासे मान्न Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे पुनः एवमादयः - एवम्प्रकाराः, एवमाइणो उत्तम - जाइ - कुल - रुब - विणय विष्णाण - वण्णलावण्ण - विक्कम - पहाण - सोभग्ग-कंति- जुत्ता बहु-धण-घण्ण'अण्णे ' अन्ये-उक्तातिरिक्ताः, ' बहवे ' बहवः - बहुसंख्यकाः ' एत्रमाणो ' उत्तम-जाइ-कुल- रूत्र- विणय-त्रिष्णाणवण्ण-विकम- पहाणसोभग्ग-कंति- जुत्ता' उत्तम-जाति-कुल- रूप-विन - विज्ञान - वर्ण - लावण्य - विक्रम - प्रधानसौभाग्य-कान्ति-युक्ताः – उत्तमाः - श्रेष्ठा जात्यादयो विक्रमान्ताः तत्र - जातिर्मातुर्वंशः, कुलंपितृवंशः, रूपं– शरीराऽऽकारः, विनयः - कायिक-वाधिक मानसिक विशुद्धिर्नम्रता च, विज्ञानसंसाराऽसारतारूपं विशिष्टज्ञानं, वर्णः- कायकान्तिः, लावण्यम् - आकारस्यैव स्पृहगीयता, विक्रमः पराक्रमः, प्रधाने-श्रेष्ठे ये सौभाग्यकान्ती - सौभा - सुन्दरभाग्यम्, कान्तिः - दीप्तिः- एताभ्याम् सौभाग्यकान्तिभ्याम्, तथा उत्तमजाव्यादिभिक्ता उत्तमजात्यादिमन्तः प्रत्रजिताः, तथा बहु - धन - धण्ण- णिचय - परियाल - फिडिया ' बहु- धन-धान्य - निचय-परिवार( अण्णेय बहवो एवमाइणो ) भगवान के समीप और भी बहुत से प्रव्रजित हुए थे, वे सब ( उत्तम - जाइ -कुल- रूत्र - विषय - विष्णाण-वण्ण-लावण्ण- विक्कमपहाण - सोभग्ग - कंति - जुत्ता) उत्तमजाति = निर्मलमातृवंश, उत्तमकुल = निर्मलपितृवंश, उत्तमरूप = सुन्दर आकार, विनय = कायिक वाचिक मानसिक विशुद्धि, अथवा नम्रता, विज्ञान=संसार को असार समझने की बुद्धि, वर्ण-शरीरकान्ति, लावण्य= शरीर का जगमगाहट, विक्रम = शारीरिक बल, श्रेष्ठ सौभाग्य और उत्तम दीप्ति से युक्त थे । ( बहु - धन - धण्ण - णिचय - परियाल - फिडिया णरवइ-गुणा - इरेगा इच्छियभोगा सुहसंपल लिया) कितनेक इस शिष्यमंडली में ऐसे भी थे जो दीक्षित होने के पहिले गणिम एवं धरिमरूप धन की एवं शाली आदि धान्य की राशियों से, और 4 १४४ यशु धष्णाय प्रत्रभित थया हुता. तेथे मधा (उत्तम-जाइ-कुल- रूव-विणय-विष्णाण-वण्ण लावण्ण-विक्कम-पहाण- सोभग्ग कंति - जुत्ता ) (त्तमन्नति=निर्माण मातृवश, उत्तमકુળ=નિર્મળ પિતૃવંશ, ઉત્તમરૂપ=સુંદરઆઇ ૨, વિનયકાયિક વાચિક માનસિક विशुद्धि, नम्रता, विज्ञान - संसारने असार समन्वानीबुद्धि, वर्ण-शरीरनी કાંતિ, લાવણ્ય શરીરના ઝગમગાટ, વિક્રમશારીરિકખલ, શ્રેષ્ઠ સૌભાગ્ય તથા उत्तम हीसिवाजा हुता. (बहुधण-घण्ण- णिचय परियाल फिडिया णरवइ - गुणा - इरेगा इच्छियभोगा सुहसंपल लिया ) उटझाखे आा शिष्यम उसी मां सेवा पशु हुता કે જે દીક્ષિત થયા પહેલાં ગણમ તેમજ ધરમરૂપ ધનના, તેમજ શાલી આદિ ધાન્યના ઢગલાથી અને દાસદાસીએ આદિ પરિવાર સમુદાયથી રાજસી Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २३ भगवदन्तेवासिवर्णनम् णिचय - परियाल - फिडिया णरवइ-गुणा - इरेगा इच्छियभोगा सुहसंपल लिया किंपाग फलोत्रमं च मुणिय विसयसोक्खं, जलस्फुटिताः, तत्र धनानि - गणिम - धरिमादीनि धान्यानि - शाल्यादीनि तेषां निचया राशयः, बहवश्चामं धनधान्यनिचयाश्व, परिवागः - दासीदासादिपरिकराः, तैः स्फुटिताः प्रकाशिताः, 'नरवइ - गुणाइरेगा ' नरपति- गुणा-तिरेकाः, नरपतिगुणैर्विभवविलासादिभिरतिरेक आधिक्यं येषां ते तथा, ' इच्छियभोगा ' ईप्सितभोगाः - ईप्सिताः - वाञ्छिता भोगाभुज्यन्त इति भोगा :- शब्दरूपादयो विषया येषां ते तथा, परमविलासिनः, 'सुहसंपललिया ' सुखसम्प्रलालिताः - सुखेन - अनुकूल वेदनीयेन - शुभपरिणामोपार्जितानुकूलशब्दादिजनक पुण्यपुजेन सम्प्रलालिताः - सम्यक् वर्धिताः, एवंविधाः पूर्वं सुखिनोsपि प्रत्रजिताः; किं कृत्वा प्रत्रजिता इत्याह- 'किंपागफलोवमं च' इत्यादि । किम्पाक - फलोप - किपाको वृक्षविशेषस्तत्फलतुल्यम्, किम्पाकफलं दर्शने आस्वादे च मनोरमं परिणामे प्राणहारकं भवति तद्वदित्यर्थः । ' विसयसोक्खं ' विषयसौख्यम् - विषयाणां - शब्दस्पर्शा दीनां सौख्यं सुखं 'मुणिय' - ज्ञात्वा च - पुनः 'जल - बुब्बुय - समाणं' जल - बुदबुद -समादासीदास आदि परिवार समुदाय से राजसी ठाठ वाले थे, जो वाञ्छित शब्दरूपादिक विषयों में तल्लीन थे, परम विलासी थे, एवं पुण्य के पुंज से ही जिनका मानों लालन–पालन होता रहता था । ( किंपाक - फलो-चमं च मुणिय विसयसोक्खं जलबुब्बु - समाणं कुसग्ग- जल-बिंदु - चचलं जीवियं य णाऊण ) इन्होंने क्या समझकर के दीक्षा धारण की इस प्रश्न का समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं - उन्होंने यह समझा कि ये वैषयिक सुख किंपाकफलके समान परिणाम में अनिष्टकारक हैं, और यह मानवजीवन पानी के बुलबुले समान 'क्षणभंगुर है, एवं कुश के अग्र पर रहे हुए जल के बिन्दु के समान चंचल है १४५ ઢાઠવાળા હતા, જે મનવાંછિત રાખ્તરૂપ આદિક વિષયામાં તલ્લીન હતા, બહુજ વિલાસી હતા, તેમજ પુણ્યના ઢગલાથી જ જાણે જેમનું લાલન પાલન થતું रहेतु' ३तु. (किंपाग --फलो-चमं च मुणिय विसयसोक्खं जल - बुब्बुय-समाणं कुसमग - जल- बिंदु - चंचलं जीवियं य णाऊण ) तेथे थे शुं समलने दीक्षा धारण करी હતી ? એ પ્રશ્નનું સમાધાન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે તેઓ એમ સમજ્યા કે આ વિષયસુખ કિ...પાકલની પેઠે પરિણામે અનિષ્ટકારક છે, અને આ માનવ જીવન પાણીના પરપોટાની પેઠે ક્ષણભંગુર છે, તેમજ કુશના છેડાપર રહેલાં पाणीनां टीयांनी पेठे ययक्ष छे. सेभ लगीने ( अद्भुवमिणं रयमिव पडा Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकखत्रे बुब्बुयसमाणं कुसग्ग-जल-बिंदु-चंचलं जीवियं च णाऊण, अद्भुवमिणं रयमिव पडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं, चइत्ता हिरणं, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा धणं, एवं धणं बलं वाहणं कोसं कोहानम्-यथा जले बुबुदाः प्रादुर्भवन्ति झटित्येव नश्यन्ति च तद्वत् आशुविनाशि, तथा 'कुसग्ग-जलबिंदु-चंचलं' कुशाग्र-जलबिन्दु-चञ्चलं-कुशाऽग्रे-दर्भपत्राग्रभागे यो जलबिन्दुः तद्वच्चञ्चलं-झटिति पतनशीलं, 'जीवियं' जीवितं मनुष्यजीवनम् , 'णाऊण-ज्ञात्वा-अवगत्य, 'अद्धवमिणं' अध्रुवमिदम्-इदं विषयसौख्यधनादिसञ्चयाऽऽदिकम् , अध्रुवम् अनियतरूपं, 'पडग्गळग्गं ' पटानलग्नं, 'रयमिव-रज इव-धूलिकणमिव 'संविधुणित्ताणं' संविधूय-सम्यक्-विशेषरूपेण, पृथक्कृत्य, तथा 'चइत्ता' त्यक्त्वा, ‘हिरणं ' हिरण्यं-रूप्यम् , 'चिच्चा सुवण्णं ' त्यत्क्वा सुवर्णम् , 'चिच्चा धणं' त्यक्त्वा धनम् , 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'धण्णं '-धान्यं-शाल्यादिसञ्चयम् , बलं-चतुर्विधं सैन्यम् , 'वाहणं ' वाहनं-रथादिकम् , 'कोसं ' कोशम् स्वर्णरजतादिगृहम् , 'कोट्ठागारं ' कोष्ठागारं धान्यराशिगृहम्' 'रज्जं'-राज्यं-राजाधिकृतदेशम् ऐसा जानकर (अद्धवमिणं रयमिव पडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं) तथा ये विषयसुख एवं धन आदि का संचय सब के सब अध्रुव-अनित्यस्वरूप है, ऐसा विचार कर, उन्होंने पटके अग्रभाग में लगी हुई धूलि के समान उन्हें भावतः मन से सर्वथा दूर कर दिया। और ये द्रव्यतः बाह्यरूप से भी ( चइत्ता हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा धणं एवं धण्णं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं रज रटुं पुरं अंतेउरं चिच्चा, विउल-धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय संख-सिलप्पवाल-रत्तरयणमाइयं संत-सार-सावतेज् विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता, मुंडा भवित्ता,अगाराओ अणगारियं पव्वइया) हिरण्य-चान्दी-का परित्याग कर, सुवर्ण . का परित्याग कर,सोनाचान्दी से अतिरिक्त धन का परित्याग कर, इसी तरह धान्य का, लग्गं संविधुणित्ताणं) तथा या विषयसुमतेम४ घन माहिना सयय तमामेતમામ અધવ-અનિત્યસ્વરૂપ છે, એમ વિચારીને તેઓએ વસ્ત્રના છેડા ઉપર લાગેલ ધૂળની જેમ તેમને ભાવપૂર્વક મનમાંથી તદ્દન ત્યાગ કર્યો. मन तया द्रव्यथा मा३पे पy (चइत्ता हिरणं, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा धणं, एवं धणं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं रज रटुं पुरं अंतेउरं चिच्चा, विउल-धणकणग-रयण-मणि-मोत्तिय संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण-माइयं संत-सार-सावतेज विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता, मुंडा भवित्ता, अगाराओ अणगारियं पव्वइया) डि२७य-यांवानी परित्याग ४शन,सुपए ने। परित्या ४शन, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २३ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १४७ गारं रजं रहें पुरं अंतेउरं चिच्चा, विउल-धण-कणग-रयणमणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण-माइयं संत-सारसावतेजं विच्छड्डइत्ता विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायएकभूपाज्ञावशवर्तिदेशम् । 'रटुं' राष्ट्र देशम् , 'पुरं प्राकारयुक्तं नगरम् । 'अंतेउरं' अन्तःपुरं-राजस्त्रीणां निवासगृहम् , । 'चिच्चा' त्यक्त्वा — विउल-धण-कणगरयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण-माइयं , विपुल-धन-कनक-रत्नमणि-मौक्तिक-शङ्ख-शिलाप्रवाल रक्तरत्नाऽऽदिकम् , तत्र-विपुलानि धनानि-गोवृषादीनि, कनकं सुवर्णम्-अघटितसुवर्णसमूहम्, रत्नानि कर्केतनादीनि, मणयः-चन्द्रकान्तादयः, मौक्तिकानि-मुक्ताफलानि, शङ्खाः-पद्मशङ्खादयः, शिलाप्रवालानि-विद्रुमाणि, रक्तरत्नानि-पद्मरागादीनि, आदिशब्दात् शय्यासिंहासनादिपरिग्रहः । एतत्सर्वसारभूतं कथयति-'संत-सारसावतेज ' सत्सारस्वापतेयम्- सन् विद्यमानः सारो बहुमूल्यता यत्र तत् सत्सारं, स्वपतौ साधु स्वापतेयं-धनं, सत्सारञ्च तत्स्वापतेयं सत्सारस्वापतेयं प्रधानधनं त्यक्त्वा, पुनः 'विच्छड्डइत्ता' विच्छर्दय-परित्यज्य, विच्छर्दवत् कृत्वेत्यर्थः । 'विगोवइत्ता' विगोप्य चतुर्विध सैन्य का, रथादिकरूप वाहनका,स्वर्ण रजत आदि के स्थानभूत कोशका,कोष्ठागार का, राज्यका, देशका, पुरका, अन्तःपुरका परित्याग कर, एवं विपुलधन-गोवृषभादिकका. कनक-सामान्य सुवर्णका, रत्न का, मणि-मौक्तिकका, शंख-पद्मशंख आदि का, शिलाप्रवाल-विद्रुम का, रक्तरत्न-पद्मरागादिक मणियों का, आदि शब्द से गृहीत शय्यासिंहासन वगैरह इन सबका परित्याग कर, तथा उत्तमसारभूत-कोहीनूर जैसे बहुमूल्य होने से जिसमें सार विद्यमान है ऐसे स्वापतेय-प्रधानधन को भी छोडकर, वमन के समान उससे ममत्व बुद्धि हटाकर, एवं जो खजाने में भी पहिले से गुप्त સેના ચાન્દીથી અતિરિક્ત ધનને પરિત્યાગ કરીને, અને એવી રીતે ધાન્યને, ચતુર્વિધ સિન્યને , રથ આદિરૂપ વાહનને સેના ચાંદી આદિના સ્થાનભૂત ખજાनाना, अण्डागारनो, न्यनो, हेशनी, पुरनो, अत:पुरनो परित्याशने, तभ४ विपुल (मड) धनना-आय ४ महिनो,४४नो-सामान्य सुवर्णनो, २त्नना, મણિમતીને, શંખ-પદ્મશંખ આદિને, શિલાપ્રવાલ-વિક્મને, રક્તરત્ન -પદ્યરાગ આદિક મણિઓને, આદિ શબ્દથી એમ સમજવાનું કે શમ્યા સિંહાસન વગેરે એ બધાને પરિત્યાગ કરીને, તથા ઉત્તમ સારભૂત કહીનર જેવાં કિમતી હેવાથી જેમાં સાર મોજુદ છે એવાં સ્થાપતેય-મુખ્ય ધનને પણ છોડીને, વમન (ઉલટી) ની પેઠે તેમાંથી મમત્વ બુદ્ધિ હટાવી દઈને તેમજ જે ખજાનામાં પણ પહેલેથી જ ગુપ્ત દ્રવ્ય હતું તેને પણ બહાર Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H १४८ औपपातिकसूत्रे इत्ता, मुंडा भवित्ता, अगाराओ अणगारियं पव्वइया; अप्पेगइया अद्धमासपरियाया, अप्पेगइया मासपरियाया, एवं दुमासयदपि गुप्त-निधौ निक्षिप्तं धनं प्रागासीत् तदपि प्रकटीकृत्य=निःसार्य, उदारतापूर्वकं 'दाणं' दानं दत्त्वा, 'दाइयाणं' दायादेभ्यः-स्वगोत्रिकेभ्यः ‘परिभायइत्ता विभागशोदत्त्वा च 'मुंडा भवित्ता' मुण्डा भूत्वा द्रव्यतः शिरोलुञ्चनेन, भावतः क्रोधाद्यपनयनेन च मुण्डिता भूत्वा, 'पव्वइया' प्रजिताः-श्रमगा जाता इत्यर्थः । 'अप्पेगइया' अप्येके–केचिद् ‘अद्धमासपरियाया' अर्द्धमासपर्यायाः कथञ्चित्प्रागवस्थात्यागेन अवस्थान्तराऽऽसौ पर्यायः, स पर्यायो जन्मना दीक्षया चेति द्विविधः, प्रथमो जन्मपर्यायः, द्वितीयो दीक्षापर्यायः, अत्र दीक्षापर्यायो गृह्यते, केचिदर्द्धमासाद् गृहीतलंयमपर्यायाः । 'अप्पेगइया । अप्येके-केचन, ‘मासपरियाया' मासपर्यायाः-मासाऽवधेः कालाद् गृहीतश्रमणपर्यायाः । एवम्-अमुना प्रकारेण केचिद्विमासपर्यायाः, केचित् त्रिमासद्रव्य था उसे भी बाहर निकाल कर, और उदारतापूर्वक उसे दान में व्यय करके तथा सगोत्रियों में विभक्त करके, मुंडित हो-द्रव्यरूप से मस्तक लुचितकर एवं भावरूप से क्रोधादिक का परिहार कर प्रव्रजित हुए थे। (अप्पेगइया) कितनेक ( अद्धमासपरियाया) इनमें ऐसे थे जिन्हें दीक्षा ग्रहण किये केवल अर्धमास ही हुआ था। (अप्पेगइया मासपरियाया एवं दुमासपरियाया तिमासपरियाया जाव एक्कारसमासपरियाया) इसी प्रकार कितनेक ऐसे थे जिन्हें दीक्षा लिये हुए दो मास हुए थे, कितनेक ऐसे थे जिन्हें दीक्षा लिये ३ मास हुए थे, कितनेक ऐसे थे जिन्हें चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दश एवं ११ ग्यारह કાઢીને અને ઉદારતાપૂર્વક તેને દાનમાં વ્યય કરીને તથા સાત્રિઓમાં વહેંચી દઈને મુંડિત થઈદ્રવ્યરૂપથી મસ્તકને વંચિત કરીને તથા ભાવરૂપથી धाहिने छोडीन प्रमलित थय। हुता. ( आपेगइया) टमास (अद्धमासपरियाया ) भां सेवा उतारेमाने दीक्षा सीधाने मात्र १२थे। भडिन। ४ थयो हता. ( अप्पेगइया मासपरियाया एवं दुमासपरियाया तिमासपरियाया जाव एक्कारसमासपरियाया) तवी शते साये तसाभा मेवात જેઓને દીક્ષા લીધાને એક માસ થયા હતા, કેટલાક એવા હતા કે જેઓને દીક્ષા લીધાને બે માસ થયા હતા, કેટલાએક એવા હતા કે જેઓને દીક્ષા લીધાને ત્રણ માસ થયા હતા, કેટલાક એવા હતા જેમને ચાર, પાંચ, છ, सात, 8, न१, ६श तभ०४ मागमा२ महिना थय। इu. (अप्पेगइया Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू २३ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १४९ परियाया, तिमास परियाया जाव एक्कारसमासपरियाया अप्पेगइया वासपरियाया, दुवासपरियाया तिवासपरियाया अप्पेगया अगवासपरियाया संजमेणं तवसा अपागं भावेमाणा विहरति ॥ सू. २३ ॥ " पर्याया यावदेकादशमासपर्यायाः, केचिद्वर्षपर्यायाः केचिद् द्विवर्षपर्यायाः केचित् त्रिवर्षपर्यायाः, केचिदनेकवर्षपर्यायाः, ' संजमेणं ' संयमेन सप्तदशविधेन, तपसा कर्म निवारण द्वादशविधेन ' अप्पाणं ' आत्मानं 'भावेमाणा' भावयन्तो विहरन्ति ॥ सू० २३ ॥ महिने हुए थे । ( अप्पेगइया वासपरियाया दुवासपरियाया तिवासपरियाया ) कितनेक इनमें ऐसेभी थे कि जिन्हें दीक्षा लिये हुए १ वर्ष, २ वर्ष, एवं तीनवर्ष आदि हो चुके थे । ( अप्पेगइया अणेगवासपरियाया ) कितनेक एसे भी मुनिजन थे जिन्हें दीक्षा लिए हुए अनेक वर्ष व्यतीत हो चुके थे । ये सबके सब मुनिजन ( संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे हिरंति ) १७ प्रकार के संयम से एवं १२ प्रकारके तपसे अपनी आत्माको भावित करते हुए विचरते थे | भावार्थ —— भगवान् महावीर प्रभुकी शिष्यमंडली में अनेक मुनिजन थे । कोई उग्रकुलके थे, कोई भोगकुलके थे, कोई राजन्यकुलके थे । कोई कौरव वंश के थे, कोई क्षत्रियवंश के थे। कितनेक भट - सामान्य वीर योधा, सेनापति, प्रशासक, श्रेष्ठी और इभ्य आदि थे । विनय विज्ञान आदि अनेक सद्गुों से संपन्न ये मुनिजन दीक्षा लेने के पहिले अनेक प्रकार के धनादिक से, एवं भोगोपभोग की सामग्री वासपरियाया दुवासपरियाया तिवासपरियाया ) साये तेसोभां मेवा પણ હતા કે જેમને દીક્ષા લીંધાને ૧ વર્ષ, ૨ વર્ષ, તેમજ ત્રણ વર્ષ આદિ થઈ गयां डुतां. (अप्पेगइया अणेगवासपरियाया ) साये मेवा या मुनि हुता है જેએને દીક્ષા લીધાને અનેક વર્ષ વીતી ગયેલાં હતાં. તે તમામે તમામ મુનિજને (संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति) १७ अहारना संयमथी ते १२ પ્રકારના તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા થતા વિચરતા હતા. ભાવા—ભગવાન મહાવીર પ્રભુની શિષ્યમંડલીમાં અનેક મુનિજના હતા. કાઇ ઉગ્રકુળના હતા, કેાઈ ભાગકુળના હતા, કેાઈ રાજન્યકુળના હતા, કાઈ કૌરવ વંશના હતા,કેાઈ ક્ષત્રિય વંશના હતા, કેટલાએક ભદ્ર સામાન્યવીર, योद्धा - विशिष्टवीर, सेनापति, प्रशासक, श्रेष्ठी रमने हल्य माहि हुता. विनय વિજ્ઞાન આદિ અનેક સદ્ગુણેાથી સંપન્ન એવા આ મુનિજન દીક્ષા લીધા પહેલાં Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ टीका--' तेणं कालेणं' इत्यादि, 'अंतेवासी ' तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य से युक्त । इनका वैभवविलास राजाओं के वैभवविलास तुल्य था । इन्होंने अपने जीवन में यह विचार किया था कि ये सांसारिक विषयभोग किंपाकफल के समान बाहर से ही मनोहर लगते हैं, परिणाम में ये जीवको महान् दुखदायी हैं। जलबिन्दु के समान ये क्षणविनश्वर हैं । कुशाग्रभागमें स्थित ओसकी बूंद के तुल्य देखते २ नष्ट हो जाते हैं । अतः इनका परित्याग ही सर्वश्रेयस्कर है । ऐसा समझ कर ही इन्होंने समस्त धनधान्यादिक परिग्रहका परित्याग किया और प्रभु के पास दीक्षित हो गये। इनमें कितनेक मुनिजनों की दीक्षापर्याय १५ दिन, एकमास आदि की थी, कितनेक मुनिजनों की १ वर्ष २ वर्ष आदि की थी, एवं कितनेक मुनिजनों की अनेक वर्ष की थी ॥ सू. २३॥ १५० ' तेणं कालेणं ' इत्यादि ० ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल में और उस समय में ( समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के ( बहवे ) अनेक (अंतेवासी ) शिष्य અનેક પ્રકારના ધન આદિક તેમજ લાગેાપભાગની સામગ્રીવાળા હતા. તેમના વૈભવ વિલાસ રાજાઆના વૈભવવિલાસ જેવા હતા. તેઓએ પેાતાના જીવનમાં એમ વિચાર કર્યાં હતા કે આ સાંસારિક વિષયભાગ કિ પાકલની પેઠે બહારથી જ મનેાહર લાગે છે, પરિણામમાં તે આ જીવને દુઃખદાયી છે. પાણીનાં ટીપાંની પેઠે તે ક્ષણમાં નાશ પામે તેવા છે. કુશના અગ્રભાગમાં રહેલા એસના ટીપાની પેઠે જોતજોતામાંજ નાશ પામી જાય છે. આથી તેમના પરિત્યાગ જ સર્વશ્રેયસ્કર છે એમ સમજીને તેઓએ તમામ ધન આદિક પરિગ્રહના પરિત્યાગ કર્યાં, અને પ્રભુની પાસે દીક્ષિત થઇ તેમાં કેટલાએક મુનિજનાની દીક્ષાપર્યાય ૧૫ દિવસ, એક માસ વગેરે મુદ્દતની હતી, અને-કેટલાએક મુનીજનાની દીક્ષાપર્યાય ૧ વર્ષ ૨ વર્ષ માદિની हती, तेभन डेंटला भुनिन्नानी भने वर्षांनी हुती. (सू. २३) ધાન્ય गया. " तेणं काले छत्याहि. "" ( तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते असमां मने ते सभयभां ( समणस्स भगवओ महावीरस्स ) श्रमायु भगवान् भहावीरना ( बहवे ) भने (अंतेवासी) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूवर्षिणो-टीका. स. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् महावीरस्त अंतेवासी बहवे निग्गंथा भगवंतो, अप्पेगइया आभिणिबोहियणाणी जाव केवलणाणी, अप्पेगइया मणबलिया अन्तेवासिनः-शिष्याः ‘बहवे' बहवः-बहुसंख्यकाः, 'निग्गंथा' निर्ग्रन्थाः-ग्रन्थो द्विविध आभ्यन्तरो बाह्यश्च, तत्र-कषायादिरूप आभ्यन्तरः, धनधान्यादिपरिग्रहरूपो बाह्यः, तेन द्विविधेन बाह्याभ्यन्तररूपेण ग्रन्थेन निर्मुक्ता निर्ग्रन्थाः, अथवा ग्रन्थान्निर्गता निम्रन्थाः-क्रोधादिभिर्धनादिभिश्च मुक्ता इत्यर्थः, भगवन्तः ‘अप्पेगइया' अप्येककेकेचित् 'आभिणिबोहियणाणी' आभिनिबोधिकज्ञानिनः- अभि' इति आभिमुग्ख्ये, 'नि' -इति नैयत्ये; ततश्च-अभिमुखो वस्तुयोग्यदेशाऽवस्थानाऽपेक्षी बोधः-अभिनिबोधः, स एव आभिनिबोधिकम् , स्वार्थे विनयादित्वात् इकण् प्रत्ययः, कचित्स्वार्थिकोऽपि प्रत्ययः प्रकृति वचनञ्चातिवर्तते, तेन अभिनिबोधस्य पुंस्त्वेऽपि आभिनिबोधिकस्य नपुंसकत्वं; यथा विनय एव वैनयिकम् , आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानम् आभिनिबोधिकज्ञानम्, तदन्त्येषामित्याभिनिबोधिकज्ञानिनः, 'जाव' यावत् 'केवलणाणी ' केवलज्ञानिनः – केवलं - शुद्धं – निर्मलं - सकलाऽऽवरणमलकलङ्कविगमसम्भूतत्वात् , अथवा थे, जो (निग्गंथा) बाह्य एवं अन्तरंग परिग्रह के सर्वथा त्यागी थे, तथा (भगवंतो) त्याग एवं वैराग्य से जिनका अन्तःकरण भरपूर था । इनमें (अप्पेगइया ) कितनेक (आभिणिबोहियनाणी) आभिनिबोधिक ज्ञानी थे। जो ज्ञान अभिमुख एवं योग्यक्षेत्र में स्थित वस्तु को इंद्रिय और मनकी सहायता से जानता है वह अभिनिबोध है, अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक है । आभिनिबोधिक ज्ञान का दूसरा नाम मतिज्ञान है। इस ज्ञान से जो युक्त थे वे आभिनिबोधिकज्ञानी कहे गये हैं। (जाव केवलणाणी ) कितनेक श्रुतज्ञानी थे, कितनेक अवधिज्ञानी थे, कितनेक मनःपर्ययज्ञानी थे और कितनेक केवलज्ञानी शिव्या ता. ( निग्गंथा ) २ मा तम मत परियडना सर्वथा त्या उता, तथा (भगवंतो) त्या तभ०४ वैराज्यथा मना मत:४२९३ स२५२ तi. तमामा (अप्पेगइया) सामे (आभिणिबोहियनाणी ) मालिनिमाधिજ્ઞાની હતા. જે જ્ઞાન અભિમુખ એટલે ગ્ય ક્ષેત્રમાં રહેલ વસ્તુને ઈંદ્રિય અને મનની સહાયતાથી જાણે છે તે અભિનિબંધ છે. અભિનિબંધ એજ આભિનિધિક છે. આમિનિબેધિક જ્ઞાનનું બીજું નામ મતિજ્ઞાન છે. આ જ્ઞાનથી જે યુક્ત હતા તેમને જ આભિનિબેધિકજ્ઞાની કહેવામાં આવે छ. (जाव केवलणाणी)मा श्रुतज्ञानी ता, मामे मधिज्ञानी al, કેટલાએક મન ૫ર્યયજ્ઞાની હતા, તથા કેટલાએક કેવલજ્ઞાની હતા. કેવલ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपणनिकलने वयबलिया कायबलिया णाणबलिया दंसणबलिया चारित्तबसकलं-परिपूर्ण-सम्पूर्णज्ञेयग्राहित्वात् , यद्वा केवलम् असाधारण तादृशाऽपरज्ञानाऽभावात् , केवलञ्च तद् ज्ञानं केवलज्ञानं, तदस्ति येषां ते केवलज्ञानिनः । अत्र-आभिनिबोधिकज्ञानिकेवलज्ञानिनोमध्ये यावच्छब्दान्मत्यवधि-मनःपर्ययज्ञानिनोऽपि गृह्यन्ते, विस्तरभयादेषां व्याख्यातो विरम्यते; 'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित् 'मणवलिया'मनोबलिकाः-अनुकूलप्रतिकूलपरिषहेऽपि तत्सहनशीलतया मनोबलधारिणः,'वयबलिया' वाग्बलिकाः-प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहक्षमाः, 'कायबलिया 'कायबलिकाः क्षुधादि-परिषहेषु तीवेषु ग्लानिरहितदेहाः, 'णाणबलिया' थे। केवल शब्दका शुद्ध परिपूर्ण अथवा असाधारण ऐसा अर्थ है । यह ज्ञान शुद्ध इसलिये कहा गया है कि यह आत्मा में चतुर्विध घातिकर्मों के सर्वथा विनाश से उद्भूत होता है। परिपूर्ण-संपूर्ण इसलिये है कि यह त्रिकालगत समस्त ज्ञेयराशि को युगपत् जानता है । असाधारण इसलिये है कि इसके जैसा और कोई दूसरा ज्ञान नहीं है। यह केवलज्ञान जिनके आत्मामें अभिव्यक्तरूपमें विद्यमान है वे केवलज्ञानी है । (अप्पेगइया मणवलिया वयबलिया कायबलिया ) कितनेक मनोबलधारी थे। इसबल के प्रभाव से ही अनुकूल एवं प्रतिकूल परिषहों के सहनेमें शक्ति आत्मा को मिलती है। कितनेक वचनबल के धारी थे। प्रतिज्ञात अर्थ को निर्वाह करने की क्षमता इस बलद्वारा आत्मा को प्राप्त होती है। कितनेक कायबल के धारी थे। इसके द्वारा तीत्र क्षुधादिक परीषहों के होने पर भी देहमें थोडीसी भी ग्लानि उद्भूत नहीं होने पाती है। (णाणबलिया दंसणबलिया चारित्तबलिया) कितनेक निरतिશબ્દનો અર્થ શુદ્ધ પરિપૂર્ણ અથવા અસાધારણ એવું છે. આ જ્ઞાન શુદ્ધ એટલા માટે કહેવામાં આવ્યું છે કે તે આત્માનાં ચતુર્વિધ ઘાતિકર્મોના સર્વથા વિનાશથી ઉત્પન્ન થાય છે, પરિપૂર્ણ – સંપૂર્ણ એટલા માટે છે કે તે ત્રણે કાળમાં સમસ્ત યરાશિને યુગપતું જાણે છે. અસાધારણ એટલા માટે છે કે તેના જેવું બીજું કોઈ જ્ઞાન નથી. આ કેવલજ્ઞાન જેના આત્મામાં न्ममिव्यत३५मा विद्यमान छ तेसज्ञानी छे. (अप्पेगइया मणबलिया वयबलिया कायबलिया) सामे मनामधारी ता, 20 ससना प्रमाथी०४ અનુકૂળ તેમજ પ્રતિકૂળ પરીષાને સહન કરવાની શક્તિ આત્માને મળે છે. કેટલાએક વચનબલના ધારી હતા, પ્રતિજ્ઞાત અર્થાત્ પ્રતિજ્ઞા કરેલા અર્થનું પાલન કરવાની ક્ષમતા આ બલથી જ આત્માને પ્રાપ્ત થાય છે. કેટલાક કાયબલને ધારી હતા. તેના દ્વારા તીવ્ર સુધા આદિક પરિષહ આવતાં પણ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम्. लिया, अप्पेगइया मणेणं सावा-गुग्गह-समत्था, एवं वएणं ज्ञानबलिकाः-निरतिचारज्ञानवन्तः । 'दंसगबलिया' दर्शनबलिकाः दर्शनं श्रद्धा तद्रूपं बलमस्त्येषामिति दर्शनबलिकाः – सुरैरपि सम्यक्त्वधर्मतश्चालयितुमशक्या इत्यर्थः, 'चारित्तबलिया' चारित्रबलिकाः-दृढचारित्रबलयुक्ताः, 'अप्पेगइया' अप्येककेकेचित् , 'मणेणं सावा-गुग्गह-समत्था' मनसा शापाऽनुग्रह समर्थाः-मनसैव मनोभावादिनैव परेषां शापाऽनुग्रहौ=निग्रहाऽनुग्रहो कर्तुं समर्थाः, ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'वएणं कारणं' वाचा कायेन च निग्रहाऽनुग्रहयोः समर्थाः । 'अप्पेगइया' अप्येकके-'खेलोसहिपत्ता' खेलौषधिप्राप्ताः-खेल:-श्लेष्मा, स एवौषधिः सकलरोगादयचारज्ञानवान थे । कितनेक श्रद्धारूपबलसंपन्न थे। इस बल की प्राप्ति होने पर सम्यक्त्व से चलायमान करने के लिये कोई भी शक्ति कार्यकर नहीं हो सकती है। कितनेक चारित्ररूपबलविशिष्ट थे। इस शक्ति की जागृतिमें आत्मा अपने गृहीत चारित्र से रंचमात्र भी शिथलित नहीं होता है । ( अप्पेगइया मणेणं सावा-गुग्गह-समत्था एवं वएणं कायेणं) कितनेक मन से ही शाप एवं अनुग्रह करने में समर्थ थे । इसी तरह वचन और काय से भी समझ लेना चाहिये । ( अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एवं जल्लोसहिपत्ता, विप्पोसहिपत्ता, आमोसहिपत्ता, सवोसहिपत्ता) कितनेक ऐसे थे जिन्हें खेलोषधिरूप लब्धि प्राप्त थी। इस लब्धिवाले मुनिजन का स्वेदज मल भी समस्त शारीरिक उाद्रवों का अपहारक होता है। कितनेक ऐसे थे जिन्हें विद्युडोषधि प्राप्त थी। इस लब्धिवाले मुनि के थूक की बूंदें तक भी रोगोंपर ओषधिका हेडमा ४२-२वी सानि उत्पन्न थती नथी. ( णाणबलिया दंसणबलिया चारित्तबलिया ) मा निरतियार ज्ञानवान ता. खामे श्रद्धा३५બલ-સંપન્ન હતા, આ બેલની પ્રાપ્તિ થતાં સમ્યકત્વથી ચલાયમાન કરવાને કોઈ પણ સમર્થ નથી. કેટલાએક ચારિત્રરૂપ બલવિશિષ્ટ હતા. આ શક્તિની જાગૃતિમાં આત્મા પોતે ગ્રહણ કરેલ પારિત્રથી છેડો પણ શિથિલ થત नथी. ( अप्पेगइया मणेणं सावाणुग्गहसमत्था एवं वएण कायेण) सामे મનથી જ શાપ તેમ જ અનુગ્રહ કરવામાં સમર્થ હતા. એવી જ રીતે વચન मने आयाथी ५ सभ७ वा नये. (अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एवं जल्लोसहिपत्ता विप्पोसहिपत्ता आमोसहिपत्ता सव्वोसहिपत्ता) सामे मेवाडतासाने જલ્લૌષધિ લબ્ધિ પ્રાપ્ત હતી.આ લબ્ધિ (સિદ્ધિ)વાળા મુનિજનના વેદ (પરસેવા)ના મલ પણ સમસ્ત શારીરિક ઉપદ્રને નાશ કરે છે. કેટલાક એવા હતા Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे काएणं, अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एवं जल्लोसहिपत्ता, विप्पोसहिपत्ता,आमोसहिपत्ता,सव्वोसहिपत्ता,अप्पेगइया कोहबुद्धी,एवं नर्थोपशमनहेतुत्वात् , तां प्राप्ताः, येषां श्लेष्मस्पर्शन सर्वे रोगा विनश्यन्ति ते-इत्यर्थः, एवम्-अमुना प्रकारेण 'जल्लोसहिपत्ता' जल्लौषधिप्राप्ताः – जल्लः-स्वेदजो मलः स एवौषधिः सकलव्याधिप्रशमनहेतुत्वात्तां प्राप्ताः, येषां स्वेदजमलस्पर्शन रोगाः विनश्यन्ति ते इति भावः, 'विप्पोसहिपत्ता' विद्युडोषधिप्राप्ताः-विग्रुषः-निष्ठीवनादिबिन्दवः, तद्रूपा ओषधिस्तां प्राप्ताः, 'आमोसहिपत्ता' आमदैषधिप्राप्ताःआमर्षणम्-आमर्षः-हस्तादिसंस्पर्श इति, स ओषधिरिव इत्याम?षधिस्तां प्राप्ताः । 'सव्वोसहिपत्ता' सर्वोषधिप्राप्ताः सर्वे खेलजल्लविघुटकेशनखादयस्ते सर्व एवौषधयस्ताः प्राप्ताः, एषु एकैकस्य सर्वविधरोगोपशमकतयौषधित्वाऽऽरोपः । 'अप्पेगइया' अध्येकके–केचित्-'कोह्रबुद्धी' कोष्टबुद्धयः-कोष्ठवत्-कुशूलवत् सूत्राऽर्थरूपधान्यस्य यथालब्धस्याऽविस्मृतस्य आजीवनधारणात् कोष्ठबुद्धयः, यथा धान्यकाम करती हैं। कितनेक ऐसे थे जिन्हें आमखैषधि प्राप्त हो चुकी थी। इस लब्धि के प्रभाव से इस लब्धिप्राप्त मुनिजन का हस्तादिक स्पर्श औषधि का काम करता है। कितनेक ऐसे भी मुनिजन थे जिन्हें सर्वोषधि नामकी लब्धि प्राप्त हो चुकी थी। इस लब्धिप्राप्त मुनिजन के खेल-श्लेष्मा, जल्ल-स्वेदज मेल, विपुट्-थूक आदि के कण, केश और नखादिक सब औषधि का काम करते हैं। इन सब को औषधि इसलिये कहा गया है कि जिस प्रकार औषधियां रोगोपशामक होती हैं उसी प्रकार ये सब भी रोगोपशामक होते हैं । ( अप्पेगइया कोट्ठबुद्धी, एवं बीयबुद्धी, पडबुद्धी, अप्पेगइया पयाणुसारी, अप्पेगइया संभिन्नसोया) कितनेक ऐसे थे जिन्हें कोष्ठજેમને વિપ્રડોષધિ લબ્ધિ પ્રાપ્ત હતી. આ લબ્ધિવાળા મુનિના શૂકનું ટીપું પણ ઓષધીનું કામ કરે છે. કેટલાક એવા મુનિજને હતા જેઓને આમષષધિ પ્રાપ્ત હતી. આ લબ્ધિના પ્રભાવથી આ લબ્ધિવાળા મુનિજનના હસ્તાદિકનો સ્પર્શ પણ ઓષધીનું કામ કરે છે. કેટલાક એવા પણ મુનિજન હતા, જેમને સવૌષધિ નામની લબ્ધિ પ્રાપ્ત હતી. આ લબ્ધિવાળા મુનિજનના ખેલ-કફ, જલ-દજ મેલ, વિપુલૂંક આદિના કણ, કેશ અને નખ આદિક બધું ઓષધિનું કામ કરે છે. એ બધાને ઓષધિઓ એટલા માટે કહેવામાં આવે છે કે જે પ્રકારે ઔષધીઓ शगने भाउ छ त ४ २ मे ५ समर। राज भट। छ. (अप्पेगइया कोट्ठबुद्धी, एवं बीयबुद्धी, पडबुद्धी, अप्पेगइया पयाणुसारी, संभिन्नसोया) सामे Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १५५ बीयबुद्धी पडबुद्धी, अप्पेगइया पयाणुसारी, अप्पेगइया संभिसम्भृतकुशूला इष्टदेवताऽनुग्रहप्रभावात्सदा पूर्णा आसते तथा प्रवर्धमानमेधापरिपूर्णास्तेऽप्यन्तेवासिन इति भावः । 'एवम् '-इत्थम् ‘बीयबुद्धी' बीजबुद्धयः-विविधसूत्राऽर्थागमरहस्याधिगमविशालवृक्षजननाद् बीजमिव बुद्भिर्येषां ते बीजबुद्धयः-अल्पेनापि पदेन बह्वर्थप्रतिपादकबुद्धिशालिन इति भावः। 'पडबुद्धी' पटबुद्धयः-अत्र पटशब्देन पटसदृशा विस्तीर्णाः सूत्रार्था गृह्यन्ते, तद्विषयिका बुद्धिर्येषां ते तथा, तन्तुसमुदायात्मकवस्त्रवत्प्रभूतसूत्रार्थग्रहणसमर्थज्ञानवन्त इत्यर्थः । 'अप्पेगइया पयाणुसारी' अप्येकके पदानुसारिणः-- पदेनैकेनैव सूत्रपदेन तदनुकूलानि तदाकाङ्कितानि पदशतान्यबुद्धि प्राप्त थी। जिस प्रकार कोठा धान्य से इष्टदेवता के अनुग्रहवश सदा भरा हुआ रहता है उसी प्रकार इस बुद्धि की प्राप्ति से मुनिजन भी सूत्रार्थरूप धान्य से जीवनपर्यन्त भरे हुए रहते हैं। वह इन्हें कभी भी विस्मृत नहीं होता है। कितनेक ऐसे थे जिन्हें बीजबुद्धि प्राप्त थी। जिस प्रकार सूक्ष्म से भी सूक्ष्म बीज से विशालवृक्ष तैयार हो जाता है उसी प्रकार इस बुद्धि के धारक मुनिजन भी विविध सूत्रों के अर्थों के अर्थात् आगमों के रहस्यों के ज्ञाता हो जाते हैं। अल्पपद से भी ये विस्तृत अर्थ के प्रतिपादन करने की योग्यता से विशिष्ट बन जाते हैं। कितनेक पटबुद्धि के धारक थे । पट शब्द से यहां विस्तृत सूत्रार्थ गृहीत हुए हैं । जिस प्रकार वस्त्र तन्तुओंका समुदायात्मक होता है उसी प्रकार इस बुद्धि के प्रभाव से मुनिजन भी विस्तृत-सूत्रार्थ के ज्ञानविशिष्ट होते हैं । कितनेक पदानुसारी थे। एक ही सूत्र के पद से इतर तदनुकूल एवं उस सूत्र એવા હતા કે જેમને કષ્ટબુદ્ધિ પ્રાપ્ત હતી, જે પ્રકારે ઈષ્ટદેવતાના અનુગ્રહથી કઠાર ધાન્યથી સદા ભરેલા રહ્યા કરે છે તે જ પ્રકારે આ બુદ્ધિની પ્રાપ્તિથી મુનિજન પણ સૂત્રના અર્થરૂપ ધાન્યથી જીવનપર્યન્ત ભરેલા રહ્યા કરે છે. તેઓ તેને કદી પણ ભૂલી જતા નથી. કેટલાએક એવા પણ હતા કે જેમને બીજબુદ્ધિ પ્રાપ્ત હતી. જે પ્રકારે સૂક્રમમાં પણ સૂમ બીજથી વિશાલ વૃક્ષ તૈયાર થઈ જાય છે તે જ પ્રકારે આ બુદ્ધિના ધારક મુનિજન પણ વિવિધ સૂત્રોના અને એટલે આગમોના રહોને જાણનારા થઈ જાય છે. અભ્યપદથી પણ વિસ્તૃત અર્થનું પ્રતિપાદન કરવાની ગ્યતાવાળા બની જાય છે. કેટલાએક પટબુદ્ધિના ધારક હતા. પટ શબદથી અહીં વિસ્તૃત સૂત્રાર્થ લીધેલ છે. જે પ્રકારે વસ્ત્ર એ તંતુઓનું સમુદાયાત્મક હોય છે તે જ પ્રકારે આ બુદ્ધિના પ્રભાવથી મુનિજન પણ વિસ્તૃત સૂત્રાર્થના જ્ઞાનવિશિષ્ટ થાય છે. કેટલાક પદાનુસારી હતા. એક જ સૂત્રના Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ औपपातिकसूत्रे नसोया, अप्पेगइया खीरासवा, अप्पेगइया महुयासवा, अध्पे ' नुसरन्ति तच्छीलाः । अल्पेनाऽप्यनल्पकल्पका इत्यर्थः । अपेगइया संभिन्न साया ' अप्येकके संभिन्नश्रोतारः-- संभिन्नान् शब्दान् - पृथक् २ युगपच्छृण्वन्ति इति भिन्नश्रोतारः, यद्वा संभिन्नानि - शब्देन संबद्धानि शब्दग्राहकाणि श्रोतांसि - सर्वागीन्द्रियाणि येषां ते सम्भिन्नश्रोतसः । अप्पेगइया खीरासवा ' अप्येके क्षीराssस्रवाःमधुरत्वेन क्षीरवद्-दुग्धवच्छ्रोतॄणां सुखकराणि वचनान्यास्रवन्ति - मुखेभ्येा विनिर्गच्छन्ति येषां ते क्षीराssस्रवाः, 'अप्पेगइया महुयासवा' अप्येके मध्वास्रवाः - मधुवत् में आकांक्षित अन्य सैकडों पदों का भी जो अनुसरण करनेवाले होते हैं पदानुसारी कहलाते हैं । कितनेक संभिन्नश्रोता थे । संभिन्न श्रोता मुनिजन अनेक भेदों से भिन्न २ शब्दों को भी युगपत् पृथक् २ रूप से सुन लिया करते हैं । एक ही साथ अनेक शब्द एकत्र हो रहे हों, तो भी संभिन्न श्रोता उन शब्दों को पृथक् २ रूप से युगपत् जान लिया करते हैं, अथवा ' श्रोतस् ' शब्द समस्त इन्द्रियों का वाचक है, इससे यह अर्थ लब्ध होता है कि संभिन्नश्रोता मुनिजन की समस्त इन्द्रियाँ शब्दों से संबद्ध रहा करती हैं, अर्थात् वह श्रोत्र - इन्द्रियका काम शेष चार इन्द्रियों से भी लेते हैं, एक इन्द्रिय से अन्य इन्द्रियों का काम लेते हैं । ( अप्पेगइया खीरासवा अप्पेगइया महुयासवा अप्पेगइया सप्पियासवा अप्पेगइया अक्खीणमहाणसिया ) कितनेक ऐसे भी थे जिनके मुख से श्रोताजनों के प्रति क्षीर के जैसे मधुर - मीठे वचन પદ્મશ્રી ખીજા તેને અનુકૂળ તેમજ તે સૂત્રમાં આકાંક્ષિત અન્ય સેંકડો પટ્ટોના પણ જે અનુસરણ કરવાવાળા હોય છે તે પદ્માનુસારી કહેવાય છે. કેટલાએક સભિન્ન-શ્રોતા હતા. સભિન્નશ્રોતા મુનિજને અનેકભેદોવાળા જુદા જુદા શબ્દોને પણ યુગપત્ જુદા જુદા રૂપથી સાંભળી લે છે. એકીસાથે અનેક શબ્દ એકત્ર થઈ જાય છે તે પણ સભિન્નશ્રોતા તે શબ્દોને જુદા જુદા રૂપથી યુગપત્ જાણી લે છે. અથવા શ્રોતસ્ શબ્દ ઇંદ્રિયાનેા વાચક છે. તેથી એવા અથ નીકળે છે કે સ`ભિન્ન—શ્રોતા મુનિજનની સમસ્ત ઇંદ્રિ શબ્દ સાથે સંબદ્ધ રહ્યા કરે છે ( જોડાએલી રહે છે), અર્થાત્ તે શ્રોત્ર ઇંદ્રિયનુ કામ મીજી ચાર ઇંદ્રિયા પાસેથી પણ લે છે. એક ઈંદ્રિય પાસે બીજી ઇંદ્રિथेोनु : अभ से छे. (अप्पेगइया खीरासवा अप्पेगइया महुयासवा अप्पेगइया सप्पियासवा अप्पेगइया अक्खीणमहाणसिया ) उटा सेवा पशु हुता, प्रेमना भुजथी Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. मु. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १५७ गइया सप्पियासवा, अप्पेगइया अक्खीणमहाणसिया, एवं मधुरवचनान्यास्रवन्ति येषां ते तथा, 'अप्पेगइया सप्पियासवा' अप्येकके सर्पिरास्रवा -घृतवच्छोतृणां स्नेहातिशयसम्पादकाः, श्रोतृस्नेहातिशयसंपादकत्वादेव ते क्षीरास्रवमध्वास्रवेभ्यो भेदेन कथिताः, 'अप्पेगइया अकरवीणमहाणसिया' अप्येकके अक्षीणमहानसिकाः- अक्षीणमहानसी नाम लब्धि प्राप्ताः, अत्र महानसम्-अन्नपाकस्थानं, तदाश्रितत्वादन्नमपि महानसमुच्यते, अझीगं-भिक्षार्थमागताय लब्धिविशेषधारिणे साधवेऽन्ने प्रदत्ते सति तदवशिष्टमन्नं पुरुषशतसहस्रेभ्योऽपि दीयामनं न क्षीयते, यावत्तदन्नस्वामी स्वयं न भुङ्क्ते; अपिच भिक्षापात्रगतं तदन्नं लब्धिविशेषप्रभावादेव साधुशतसहस्रेभ्योऽपि परिविष्यमाणं न क्षीयते यावत् तदन्नभिक्षाग्राहकः स्वयं न भुङ्क्ते, निकला करते थे। क्षीरास्रवलब्धि का काम यही है कि यह जिसे प्राप्त होती है वह क्षीर के समान मधुर वचनों को सदा बोला करता है। कितनेक ऐसे मुनिजन थे जो मध्वास्रव थे, जिनके मुखकमल से मधु के तुल्य मधुर वचन निकला करते थे। कितनेक ऐसे थे जो सपिरास्रव थे-घृत के समान स्नेहापादन करनेवाले वचनों के प्रयोक्ता थे। कितनेक अक्षीणमहानसिक थे। इस लब्धिप्राप्त मुनिजन का यह प्रभाव होता है कि यह जिस घर से भिक्षा ले आवे उस घर का अवशिष्ट अन्न जबतक देनेवाला स्वयं न खा लेवे, तबतक लाख आदमियों को भी वितरित करने पर खूटता नहीं है । तथा उस साधुद्वारा लाया गया वह भिक्षान्न भी जबतक लानेवाला साधु स्वयं न खा लेवे तबतक लाख साधुओं द्वारा आहारित होने पर भी શ્રોતાજનોના પ્રતિ દૂધપાક જેવાં મધુર-મીઠાં વચન નીકળ્યા કરતાં હતાં. ક્ષીરસવ લબ્ધિનું કામ એજ છે કે તે જેને પ્રાપ્ત થાય છે તે દૂધપાક જેવાં મધુર વચને જ સદાય બેલ્યા કરે છે. કેટલાક એવા પણ મુનિજને હતા જે મધ્વાસવ હતા.જેમના મુખકમલમાંથી મધના જેવાં મધુર વચન નીકળે છે તે મધ્વાસવ છે. કેટલાક એવા હતા કે જે સપિરાસવ હતા, ઘીની પેઠે નેહાપાદન કરવાવાળાં વચને બોલનારા હતા. કેટલાએક અક્ષીણમહાનસિકલબ્ધિધારી હતા, આ લબ્ધિ પ્રાપ્ત મુનિજનને એવો પ્રભાવ હોય છે કે તે જે ઘેરથી ભિક્ષા લઈને આવે તે ઘરનું બાકીનું અન્ન જ્યાં સુધી દેવાવાળે પિતે ન ખાય ત્યાં સુધી લાખો માણસોમાં વહેંચી આપે તે પણ ખૂટી જતું નથી. તથા તે સાધુએ લાવેલું તે ભિક્ષાનું અન્ન પણ તે લઈ આવનાર સાધુ પિતે ખાય નહિ, ત્યાં સુધી લાખે સાધુઓ તેને આહાર કરે તેય પણ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ औपपातिकसूत्र उज्जुमई, अप्पेगइया विउलमई विउव्वणिड्ढिपत्ता चारणा विजाएवम् ‘उज्जुमई' ऋजुमतयः-मननं मतिः, संवेदनमित्यर्थः-ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिर्येषां ते ऋजुमतयः । अर्धतृतीयोच्छ्याङ्गुलन्यूनमनुष्यक्षेत्रवर्तिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्यप्रत्यक्षीकरणहेतुमनःपर्ययज्ञानविशेषवन्त इत्यर्थः । ऋजुमतिनामकलब्धिविशेषधारिण इति भावः । अप्पेगइया विउलमई' अप्येकके विपुलमतयः- विपुला सविशेषणवस्तुमाहितया विस्तीर्णा मतिः-मनःपर्ययज्ञानं येषां ते विपुलमतयः । ऋजुमतिविपुलमतिमतामयं तात्त्विको भेदः, विपुलमतयः- घटेोऽनेन चिन्तितः, स घटो द्रव्यतः- सुवर्णघटितः, क्षेत्रतः- पाटलिपुत्रनगरस्थः, कालतःशारदीयः, भावतः-पीतवर्ण इत्येवमशेषविशेषणयुक्तं वस्तु जानन्ति, ऋजुमतयस्तु सामान्यत एव जानन्ति । अतृतीयोच्छ्याऽङ्गुलन्यूने मनुजक्षेत्रे वर्तमानानां संज्ञिपञ्चेन्द्रिखूटता नहीं है । ( एवं उज्जुमई, अप्पेगइया विउलमई विउव्वणिढिपत्ता चारणा विज्जाहरा आगासाइवाई) इस प्रकार कितनेक तपस्वी शिष्यजन ऋजुमति-मनः पर्यवज्ञानवाले थे । ऋजुमति-मनःपर्यवज्ञानी सामान्यतः संज्ञी-पंचेन्द्रिय के मन के भावों को जानते हैं । कितनेक विपुलमति-मनःपर्यव के धारक थे-विशेषणसहित वस्तु को ग्रहण करने की बुद्धिवाले थे। जैसे किसी ने द्रव्य की अपेक्षा सुवर्ण का, क्षेत्र की अपेक्षा पाटिलपुत्र का, काल की अपेक्षा शरदकाल का और भाव की अपेक्षा पीत वर्णका घट चिन्तित किया, विपुलमति इन समस्त विशेषणों सहित उस घट को जान लेते हैं । अर्द्धतृतीय अंगुलसे न्यून इस मनुष्य क्षेत्रमें वर्तमान संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों के मनमें स्थित वस्तु का सामान्यतः जाननेवाला ऋजुमति-मनःपर्य भूट नथी. (एवं उज्जुमई अप्पेगइया विउलमई विउव्वणिढिपत्ता चारणा विज्जाहरा आगासाइबाई) ते प्ररेटमा तपस्वी शिष्य. *भतिમનઃ–પર્યવજ્ઞાની હતા. ઋજુમતિમનઃ-પર્યાવજ્ઞાની સામાન્યતઃ સંસી–પંચેંદ્રિયના મનના ભાવને જાણે છે. કેટલાક વિપુલમતિ–મન:પર્યવના ધારક હતા, વિશેષણસહિત વસ્તુને જાણનારી બુદ્ધિવાળા હતા. જેમ કે કોઈએ દ્રવ્યની અપેક્ષા સુવર્ણના, ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ પાટલિપુત્રના, કાલની અપેક્ષાએ શરદકાલના, અને ભાવની અપેક્ષાએ પીળા રંગના ઘટનું ચિંતવન કર્યું, ત્યારે વિપુલમતિ એ બધા વિશેષણે સહિત તે ઘટને જાણું લે છે. અદ્ધતૃતીયઅંગુળયૂન આ મનુષ્યક્ષેત્રમાં વર્તમાન સંજ્ઞી પંચેંદ્રિય જીના મનમાં રહેલ વસ્તુને સામાન્યતઃ જાણવાવાળા ઋજુમતિ–મનઃ પર્યવજ્ઞાન થાય છે, તેમજ સંપૂર્ણ મનુષ્યક્ષેત્રમાં વર્તમાન Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. २४ भगवदन्तेवासिषणनम् याणां मना वस्थितवस्तुनः सामान्यतो ग्राहिका ऋजुमतिः। सम्पूर्णे मनुजक्षेत्रेऽशेषविशेषवस्तुग्राहिका विपुलमतिः । विपुलमतिनामकलब्धिविशेषधारिण इति भावः । 'विउव्वणिढिपत्ता' विकुर्वणर्द्धिप्राप्ताः-विकुर्वणा-वैक्रियकरणलब्धिः सैव ऋद्धिः, तां प्राप्ता ये ते तथा । विकुर्व' विक्रियाम् इति पारिभाषिकः सौत्रो धातुः, अस्माद्धातोर्युच्प्रत्यये विकुर्वणा, नानारूपा विक्रिया- रचनेत्यर्थः; बाह्यपुङ्गलान् भवधारणीयशरीरानवगाढ क्षेत्रप्रदेशवर्तिना वैक्रियसमुद्धातेन गृहीत्वा एका विकुर्वगा क्रियते, एवम् आभ्यन्तरपुङ्गला भवधारिणीयेनौदारिकेण वा शरीरेण ये क्षेत्रप्रदेशमवगाढास्तेष्वेव ये वर्तन्ते तान् गृहीत्या विज्ञेया। एवं बाह्यान्तरपुद्गलयोगेन तृतीया विकुर्वणा बोध्या । स्थानाङ्गसूत्रे-(३ ठा. १उ०) सविस्तरं वर्णिता । 'चारणा' चारणाः-चरणं गमनम् अतिशययुक्तमस्ति येषां ते चारणाः, 'ज्योत्स्नादिभ्योऽण् ' इति पाणिनिसूत्रान्मत्वर्थीयोऽणप्रत्ययः। आकाशगमनागमनरूपलब्धिसम्पन्ना इत्यर्थः । ते द्विविधाः-विद्याचारणाः, जङ्घाचारणाश्च। तत्र विद्या-पूर्वगतविवक्षितश्रुतज्ञानांशः, तदभ्याससमये षष्ठषष्ठनिरन्तवज्ञान होता है, एवं सम्पूर्ण मनुष्यक्षेत्र में वर्तमान समस्त वस्तुओं-बादर पदार्थों को विशेषरूप से जाननेवाला विपुलमतिमनःपर्यवज्ञान होता है। कितनेक वैक्रिय-लब्धि के धारी थे । वैक्रियलब्धि अनेक प्रकार की होती है। इस ऋद्धि के धारी मुनिजन अनेक प्रकार से अपने शरीर की विकुर्वणा कर लेते हैं। इसका विशेष वर्णन स्थानांग सूत्र के तृतीय ठाणे के प्रथम उद्देशक में किया गया है। कितनेक चारणलब्धि के धारक थे। चारणलब्धि के धारी मुनिजनों का गमन अतिशयसंपन्न होता है । इस ऋद्धि के धारक मुनियो का गमनागमन आकाश में होता है। चारणऋद्धिधारी मुनिजन दो प्रकार के होते हैं--एक विद्याचारण, दूसरे जंघाचारण । १४ पूर्षों में विवक्षित श्रुतज्ञान સમસ્ત વસ્તુઓ-બાદર પદાર્થોને વિશેષરૂપે જાણવાવાળા વિપુલમતિ–મન:પર્યવજ્ઞાન થાય છે. કેટલાએક વિક્રિયલબ્ધિના ધારક હતા. વૈક્રિયલબ્ધિ અનેક પ્રકારની થાય છે. એ ઋદ્ધિના ધારક મુનિજને અનેક પ્રકારથી પોતાના શરીરની વિકુવણ કરે છે. આનું વિશેષ વર્ણન સ્થાનાંગ સૂત્રના તૃતીય કાણા પ્રથમ ઉદ્દેશકમાં કરેલું છે. કેટલાક ચારણલબ્ધિના ધારક હતા. ચારણલબ્ધિના ધારક મુનિજનનું ગમન અતિશયસંપન્ન હોય છે. આ ઋદ્ધિના ધારક મુનિઓનું ગમનાગમન આકાશ માગે થાય છે. ચારણ-ઋદ્ધિધારી મુનિજન બે પ્રકારના થાય છે–એક વિદ્યાચારણ અને બીજા જંઘા ચારણ. ૧૪ પૂર્વેમાં વિવક્ષિત શ્રુતજ્ઞાનનું અંશ વિદ્યા Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे रतपःकरणेन द्विचत्वारिंशदोषवर्जनपूर्वकसाभिग्रहान्तप्रान्ततुच्छरूक्षादिग्रहणरूपया पिण्डविशुद्ध्या च विद्याचारणनामकलब्धिरुत्पद्यते, ये तया लब्ध्या युक्तास्ते विद्याचारणा उच्यन्ते । यद्यपि पिण्डविशुद्धयादिकं सर्वेषां साधूनामपेक्ष्यं तथाप्यत्रान्तप्रान्तादिसाभिग्रहग्रहणमावश्यकमिति विशेषः । विद्याचारणास्तिर्यग्गत्या प्रथमेनोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छन्ति, ततो द्वितीयोत्पातेनाष्टमं नन्दीश्वरं गच्छन्ति, ततः परं तेषां गतिर्नास्ति, नन्दीश्वरद्वीपात् प्रतिनिवर्तमानाः एकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमायान्ति । ते पुनरूवंगत्या मेरुं जिगमिषवः प्रथमेका अंश विद्या है । इस विद्या के अभ्यास के समय में मुनिजन अन्तररहित षष्ठ षष्ठ तपस्या करते हैं, और पारणा के दिन ४२ दोषों को टालकर अन्तप्रान्त एवं तुच्छ रूक्षादिक आहार ग्रहण करते हैं। इसपर भी अभिग्रह रखते हैं। इस तरह उन्हें विद्याचारण नामकी लब्धि प्राप्त होती है । इस लब्धि से युक्त मुनिजन विद्याचारण कहे गये हैं। यद्यपि पिण्डादिक की विशुद्धि समस्त साधुओं के लिये सापेक्ष है, तथापि इस ऋद्धि की प्राप्ति के लिये साभिग्रह अन्त-प्रान्तादि आहार का ग्रहण करना आवश्यक है। विद्याचारण मृद्धि के धारक मुनिजन यदि तिरछे गमन करें तो इस ऋद्धि के प्रभाव से प्रथम उत्पात में मानुषोत्तर पर्वत तक चले जाते हैं । द्वितीय उत्पात से आठवें नंदीश्वर द्वीप तक जाते हैं। इससे आगे उनका गमन नहीं होता है। पुनः एक ही उत्पात से ये नंदीश्वर द्वीप से वापिस अपने स्थानपर आ जाते हैं। यदि ये ऊपर की ओर गमन करें, और मेरु पर्वत पर जाने के इच्छुक हों तो प्रथम उत्पात से नंदनवन तक जाते हैं और द्वितीय उत्पात से છે. આ વિદ્યાના અભ્યાસના સમયમાં મુનિજન અંતરરહિત છઠછઠ તપસ્યા કરે છે. અને પારણને દિવસે ૪૨ દેથી રહિત અંતપ્રાંત તેમજ તુચ્છ રક્ષ આદિક આહાર ગ્રહણ કરે છે. તે ઉપરાંત પણ અભિગ્રહ રાખે છે. આવી રીતે તેમને વિદ્યાચારણ નામની લબ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે. આ લબ્ધિવાળા મુનિજન વિદ્યાચારણ કહેવાય છે. જો કે પિંડાદિકની વિશુદ્ધિ સમસ્ત સાધુઓ માટે સાપેક્ષ છે, તે પણ આ ઋદ્ધિની પ્રાપ્તિ માટે સાભિગ્રહ અંતપ્રાંતાદિ આહાર ગ્રહણ કરવું આવશ્યક છે. વિદ્યાચારણ ઋદ્ધિના ધારક મુનિજન જે તિરછા ગમન કરે તે આ ઋદ્ધિના પ્રભાવથી પ્રથમ ઉત્પાતમાં માનુષત્તર પર્વતસુધી ચાલ્યા જાય છે, બીજા ઉત્પાતમાં આઠમા નંદીશ્વર દ્વીપ સુધી જાય છે. તેનાથી આગળ તેમનું ગમન થતું નથી. પાછા એક જ ઉત્પાતથી એ નંદીશ્વર દ્વીપથી પોતાના સ્થાને આવી જાય છે. જે તે ઉપરની તરફ ગમન કરે અને મેરૂપર્વત પર જાવાની ઈચ્છા હોય તે પ્રથમ ઉત્પાતથી નંદનવન Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् नोत्पातेन नन्दनवनं गच्छन्ति, ततो द्वितीयोत्पातेन पण्डकवनम् , ततः प्रतिनिवर्तमानाः एकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमागच्छन्ति । पण्डकवनादूर्ध्व तेषां गतिर्नास्ति । येऽष्टमाष्टमनिरन्तरतपःकरणेनाऽऽत्मानं भावयन्ति तेषां जङ्घाचारणनामकलब्धिः समुत्पद्यते, ये तया लब्ध्या युक्तास्ते जङ्घाचारणा उच्यन्ते । जङ्घाचारणास्तिर्यग्गत्या एकेनोत्पातेनेतस्त्रयोदशं रुचकवरद्वीपं गच्छन्ति, ततः परं तेषां गतिर्नास्ति, ततः प्रतिनिवर्तमानाः प्रथमोत्पातेन नन्दीश्वरवरं द्वीपमागच्छन्ति, द्वितीयोत्पातेन स्वस्थानम् । ते पुनरूर्ध्वगत्या मेरुं जिगमिषवः स्वस्थानादेकोत्पत्त्या पण्डकवनमधिरोहन्ति । ततः प्रतिनिवर्तमानाः प्रथमोत्पातेन नन्दनवनमागच्छन्ति, ततो द्वितीयोत्पातेन स्वस्थानमायान्ति । पण्डकवनादृवं जञ्जाचारणानामपि गतिर्नास्ति । पण्डकवन तक चले जाते हैं। फिर वहां से लौटकर एक ही छलांग में अपने स्थान पर वापिस आजाते हैं । पण्डकवन से आगे इनका गमन नहीं है । जंघाचारण नामकी लब्धि उन साधुजनों को प्राप्त होती है, जो निरन्तर-अन्तररहित अष्टम की तपस्या करते हैं। इस लब्धिसंपन्न मुनिजन यदि तिरछे गमन करें तो प्रथम ही उत्पात में तेरहवां द्वीप जो रुचकवर द्वीप है वहां तक पहुँच जाते हैं, इसके आगे नहीं जाते हैं। क्यों कि आगे इनकी गति नहीं होती है। वहां से वापिस होकर ये प्रथम उत्पात में नन्दीश्वर द्वीप आ जाते हैं और द्वितीय उत्पात में अपने स्थान पर आ जाते हैं। यदि ये ऊपर की ओर उडे और मेरुपर्वत पर जाने की इच्छावाले हों तो अपने स्थान से एक ही उत्पात में पण्डकवन में पहुँच जाते हैं। वहां से जब ये वापिस होते हैं तो प्रथम उत्पात में ये नंदनवन आजाते हैं और फिर द्वितीय उत्पात से अपने स्थान पर । पण्डकवन से आगे जंघाचारणवालों की भी गति नहीं है। સુધી જાય છે, અને બીજા ઉત્પાતથી પંડકવન સુધી ચાલ્યા જાય છે. પછી ત્યાંથી પાછા આવતાં એક જ છલાંગમાં પિતાના સ્થાન પર પાછા આવી જાય છે. પંડકવનથી આગળ તેમનું ગમન નથી. જંઘા ચારણ નામની લબ્ધિ એ સાધુઓને પ્રાપ્ત થાય છે કે જે નિરંતરસતત અષ્ટમ-અષ્ટમની તપસ્યા કરે છે. આ લબ્ધિવાળા મુનિજને જે તિરછા ગમન કરે તે પ્રથમ જ ઉત્પાતમાં તેરમે દ્વીપ જે રૂચકવર નામે દ્વીપ છે, ત્યાં સુધી પહોંચી જાય છે, તેનાથી આગળ નથી જતા; કેમ કે આગળ તેમની ગતિ થતી નથી. ત્યાંથી પાછા વળતાં તેઓ પ્રથમ ઉત્પાતમાં નદીશ્વરદ્વીપ આવી જાય છે, અને બીજા ઉત્પાતમાં પોતાના સ્થાન પર આવી જાય Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ औपपातिकसूत्रे चारणलब्धिसम्पन्नो हि साधुः खलु भगवद्वर्णितगणितानुयोगं विज्ञाय, स्वेन स्वेन गम्यं द्वीपवनादिकं विलोकयितुमौत्सुक्यवशात् स्वस्वलब्धि स्फोटयित्वा तत्र तत्र जिगमिषति । गत्वा च तत्र तत्र यथाभगवद्वर्णितं द्वीपवनादिकं विलोक्य संजाताह्लादश्चैत्यानि वन्दते, अर्थात् भगवतोऽनन्तानि ज्ञानानि स्तौति, स्तुत्वा प्रतिनिवर्तते, प्रतिनिवृत्य इह स्वस्थानमागच्छति, आगत्य इह चैत्यानि वन्दते - अर्थात् - ज्ञानानि स्तौति । ज्ञानानन्त्याद् बहुवचनम् । सर्वमेतद् भगवतीसूत्रेऽभिहितम् । अधिकजिज्ञासुभिस्तत्र द्रष्टव्यम् । ' विज्जाहरा ' विद्याधराः - रोहिणीप्रज्ञत्यादिविविधविद्याविशेषधारिणः । आगा 6 चारणलब्धिसंपन्न साधुजन प्रभुद्वारा वर्णित गणितानुयोग को जान करके अपने २ द्वारा गम्य द्वीपवनादिक को देखने के लिये उत्कंठा के वशवर्ती हो, अपनी२ लब्धि को प्रगट करते हैं और वहां जाते हैं । भगवान् ने द्वीपवनादिक का स्वरूप जैसा कहा है वैसा वे वहां उसे देखते हैं और अपार आनंद से पुलकित होते हैं । प्रभु के अपार ज्ञान की अतिशय स्तुति करते हैं । फिर वहां से वापिस अपनी जगह पर आजाते हैं । आकर यहां पर भी चैत्यों की अर्थात् प्रभु के ज्ञान की स्तुति करते हैं । यह सब प्रकरण भगवतीसूत्र में कहा हुआ है । जिन्हें अधिक जानने की इच्छा हो वह वहां से देख लेवें । कितनेक मुनि रोहिणी - प्रज्ञप्ति - आदि विविध प्रकार की विद्याओं के धारण करनेवाले છે. જો તેઓ ઉપરની તરફ ઉડે અને મેરૂ પર્વત પર જવાની ઈચ્છા કરે તે પોતાના સ્થાનથી એક જ ઉત્પાતમાં પડકવનમાં પહોંચી જાય છે. ત્યાંથી જ્યારે તેઓ પાછા વળે ત્યારે પ્રથમ ઉત્પાતમાં નંઢનવન આવી જાય છે, અને પછી બીજા ઉત્પાતમાં પેાતાના સ્થાન પર આવે છે. પડકવનથી આગળ જંઘાચારણવાલાની પણુ ગતિ હેાતી નથી. ચારણધ્ધિસંપન્ન સાધુજન પ્રભુએ વર્ણવેલા ગણિતાનુયાગને જાણીને પેાતપાતાથી ગમ્ય દ્વીપવન આક્રિકને જોવા માટે ઉત્કંઠાને વશવતી થઈને પોતપોતાની લબ્ધિને પ્રગટ કરે છે, અને ત્યાં ત્યાં જાય છે. ભગવાને દ્વીપવન આદિકનાં સ્વરૂપ જેવાં કહેલાં છે તેવાં જ તેએ ત્યાં જુએ છે, અને અપાર આનંદથી પુલકિત થાય છે. પ્રભુના અપાર જ્ઞાનની અતિશય સ્તુતિ કરે છે. પછી ત્યાંથી પાછા પેાતાના સ્થાને આવી જાય છે. આવીને અહીં પણ ચૈત્યની અર્થાત્ પ્રભુના જ્ઞાનની સ્તુતિ કરે છે. કેટલાએક મુનિ રાહિણી પ્રજ્ઞપ્તિ આદિ વિવિધ પ્રકારની વિદ્યાઓના ધારણ કરવાવાળા હતા. કેટલાએક મુનિજન Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १६३ 6 हरा आगासाइवाई, अप्पेगझ्या कणगावलितवोकम्मं पडिवण्णा, एवं गावलिं खुड्डागसीह निक्कीलियं तवोकम्मं पडिवण्णा,अप्पेगइया साइवाई' आकाशातिपातिनः - आकाश - व्योम अतिपतन्ति – अतिक्रामन्ति - आकाशगामिविद्याप्रभावात्-ये ते तथा । 'अपेगइया कणगावलितवोकम्मं पडिवण्णा ' अप्येकके कनकावलीतपःकर्म प्रतिपन्नाः, ' एवं ' एवम् अनेन प्रकारेण 'एगाबलि' एकावलीं प्रतिपन्नाः, एकावलीनामकतपः कर्मण आकृतिरन्यत्रोक्ता - इति न सा वित्रियते । ‘ खुड्डागसीहनिक्कीलियं तवोकम्मं पडिवण्णा' क्षुल्लक - सिंह- निष्क्रीडितम् - क्षुल्लकं- लघु, सिंहनिष्क्रीडितं - सिंहगमनं तदिव यत्तपस्तत् सिंहनीष्क्रीडितम् एततपो वक्ष्यमाणमहासिंहनिष्क्रीडिताऽपेक्षया क्षुल्लकं, सिंहगमनञ्च अतिक्रान्तदेशाऽवलोकनतो भवति. एवमतिक्रान्ततपः सेवनेन अपूर्वतपसोऽनुष्ठानं यस्मिन् तत् सिंहनिष्की - " 46 " थे । कितनेक ऐसे मुनिजन थे जो आकाशगामी थे । इनके पास आकाशगामिनी विद्या थी । उसके ही प्रभाव से ये आकाशमें उडते थे। (अप्पेगइया कणगावलितवोकम्मं पडिवण्णा एवं एगालं खुड्डागसोहनिकीलियं तवोकम्मं पडिवन्ना ) कितनेक ऐसे मुनिजन जो कनकावली तप को तपते थे, और कितनेक मुनिजन एकावली तप तपते थे । कितनेक ऐसे थे जो लघुसिंहनिष्क्रीडित तप की आराधना करते थे । इस तप के साथ क्षुल्लक पद का प्रयोग हुआ है सो महासिंहनिष्क्रीडित तपकी अपेक्षा समझना चाहिये । जिस प्रकार सिंह अपने द्वारा अतिक्रान्त देश को अवलोकन करते हुए आगे २ गमन करता है । उसी प्रकार इस तप में भी अतिक्रान्त तप के सेवन की अपेक्षा रखते हुए अपूर्व २ तपों का अनुष्ठान એવા હતાકે જે આકાશગામી હતા. તેમની પાસે વિદ્યા હતી. તેનાજ પ્રભાવથી તેએ આકાશમાં उडता ता. ( अप्पेगइया कणगावलितवोकम्मं पडिवण्णा, एवं एगावलिं खुड्डागसीहनिक्कीलियं तवोकम्मं पडिबन्ना ) डेंटला येवा भुनिन्न हुता है ? उनअवसी तथ तचता हुती, અને કેટલાક મુનિજન એકાવલી તપ તપતા હતા. કેટલાક એવા હતા જે લઘુસિંહ-નિષ્ક્રીડિત તપની આરાધના કરતા હતા. આ તપની સાથે ક્ષુલ્લક ” પદ્મના પ્રયાગ થયા છે, તે મહાસ'નિષ્ક્રીડિત તપની અપેક્ષાએ સમજવા જોઈએ. જે પ્રકારે સિંહ પાતાથી અતિક્રાંત દેશને જોતા થકા આગળ આગળ ગમન કરે છે તે જ પ્રકારે આ તપમાં પણ અતિક્રાંત તપના સેવનની અપેક્ષા રાખતાં અપૂર્વ અપૂર્વ તાનું અનુષ્ઠાન કરવામાં આવે છે. किया जाता है । આકાશગામિની 66 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ औपपातिकसूत्रे महालयं सीहनिक्कीलियं तवोकम्म पडिवण्णा, भद्दपडिमं महाभदपडिमं सवओभदपडिमं आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्म पडिवण्णा, मासियं भिक्खुपडिमं, एवं दोमासियं पडिमं, तिमासियं डितं तपःकर्म प्रतिपन्नाः; 'अप्पेगइया महालयं सीहनीकीलियं तवोकम्म पडिवण्णा' अप्येकके महासिंहनिष्क्रीडितं तपःकर्म प्रतिपन्नाः, ‘भद्दपडिम' भद्रप्रतिमां 'महाभदपडिम' महाभद्रप्रतिमां, सचओभद्दपडिम' सर्वतोभद्रप्रतिमां प्रतिपन्नाः, 'आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्म पडिवण्णा' आचामाम्लवर्द्धमानकं तपःकर्म प्रतिपन्नाः । ' मासियं भिक्खुपडिमं ' मासिकी भिक्षुप्रतिमां-मासपरिमाणा मासिकी तां भिक्षुप्रतिमाम् अभिग्रहरूपाम् , तत्र हि मासं यावदेका दत्ति:-अविच्छिन्नदानम् , अर्थात् अविच्छिन्नधारया करस्थाल्यादिभ्यः यद् भक्तं पानं च पतति सा (अप्पेगइया महालयं सीहनीकीलियं तवोकम्म पडिवन्ना) कितनेक मुनिजन महासिंहनिष्क्रीडित तप करते थे । (भदपडिमं महाभदपडिमं सबओभदपडिमं आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्मं पडिवण्णा) कितनेक मुनि ऐसे थे जो भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा एवं सर्वतोभद्रप्रतिमा-रूप तप का आराधन करते थे। कितनेक ऐसे भी थे जो आयंबिलवर्द्धमान तप को करते थे। इनका विस्तृत वर्णन अन्य शास्त्रों में हैं। (मासियं भिक्खुपडिमं, एवं दोमासियं पडिमं तिमासियं पडिमं जाव सत्तमासियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा) कितनेक मुनिराज ऐसे थे जो एकमासिक भिक्षुप्रतिमा के धारी थे । इस प्रतिमा में एक महिने तक एक दत्ति होती है । भिक्षापात्र में अविच्छिन्नधारापूर्वक जो भिक्षा दाता के हाथ अथवा थाली आदिसे गिरती (अप्पेगइया महालय सीहनीक्कीलियं तवोकम्मं पडिवन्ना) ॥ भुनिन महासिनिधीडित त५ ४२ता . (भदपडिमं महाभद्दपडिमं सव्वओभद्दपडिमं आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्म पडिवण्णा) माय भुनिया मेवा छता કે જેઓ ભદ્રપ્રતિમા મહાભદ્રપ્રતિમા તેમજ સર્વતોભદ્રપ્રતિમા રૂપ તપનું આરાધન કરતા હતા. કેટલાક એવા પણ હતા જે આયંબિલ–વદ્ધમાન તપ ४२ता उता. मानु विस्तारपूर्व वन अन्य शास्त्रोमा छे. (मासियं भिक्खुपडिमं, एवं दोमासियं पडिमं तिमासियं पडिमं जाव सत्तमासियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा) साम्मे भुनिरा०४ सवा २ सेभासि लिक्षुप्रतिभाना ધારક હતા. આ પ્રતિમામાં એક મહીના સુધી એક દત્તિ થાય છે. ભિક્ષા Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीgesर्षिणी टीका. सू. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १६५ 4 पडिमं जाव सत्तमासियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, पढमं सत्तराईदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा जाव तच्च सत्तराईदियं भिक्खु - दत्तिः, एवं द्वितीयाद्याः सप्तम्यन्ता एकैकदत्तिवृद्धियुक्ताः । एवं 'दोमासिय पडिमं ' द्वैमासिकीं प्रतिमाम् प्रतिपन्नाः । 'तिमासियं पडिमं ' त्रैमासिक प्रतिमां प्रतिपन्नाः । जाव सत्तमा सयं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा' यावत् सप्तमासिकीं भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नाः । ' पढमं सत्तराईदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा जाव तच्च सत्तराईदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा' प्रथमां सप्तरात्रिन्दिवां भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नाः—यावत्तृतीयां सप्तरात्रन्दिवां भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नाः । तत्र सप्तरात्रन्दिवा - है उसका नाम दत्ति है । इस प्रकार १ महीने तक आहार की एक दत्ति और पानी की एक दत्ति ग्रहण की जाती है । इसी प्रकार दोमास प्रमाणवाली - भिक्षुप्रतिमा को, तीन मास की प्रमाणवाली भिक्षुप्रतिमा को यावत् सातमास प्रमाणवाली भिक्षुप्रतिमा को पालन करनेवाले मुनिजन थे । द्विमासिक भिक्षुप्रतिमामें २ दत्तियाँ आहार की २ दत्तियाँ पानी की ली जाती हैं । इस क्रमिक वृद्धि से सातमास - प्रमाणवाली सप्तमभिक्षुप्रतिमा में ७ दत्तियाँ आहार की और सात दत्तियाँ पानी की ली जाती हैं । (पढमं सत्त इंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा जाव तच्च सतराईदियं भिक्खुपडिमं पडिवन्ना) और पहली सात दिनरात की भिक्षुप्रतिमा के, दूसरी सात दिनरात की भिक्षुप्रतिमा के, तथा तीसरी सात दिनरात की भिक्षुप्रतिमा के धारी थे । इन तीनों પાત્રમાં અવિચ્છિન્ન ધારાપૂર્વક જે ભિક્ષા દાતાના હાથે અથવા થાળીથી પડે છે તેનું નામ દૃત્તિ છે. આ પ્રકારે એક મહિના સુધી આહારની એક વ્રુત્તિ અને પાણીની એક દૃત્તિ ગ્રહણ કરાય છે. એ પ્રકારે એ માસના પ્રમાણુવાળી ભિક્ષુ–પ્રતિમાનું, ત્રણ માસ પ્રમાણવાળી ભિક્ષુપ્રતિમાનું, યાવત્ સાત માસ પ્રમાણ વાળી ભિક્ષુપ્રતિમાનું પાલન કરવાવાળા મુનિજન હતા. દ્વિમાસિકભિક્ષુપ્રતિમામાં ૨ વ્રુત્તિ આહારની, ૨ત્તિ પાણીની લેવામાં આવે છે. આ પ્રકારે ક્રમિક વૃદ્ધિથી સાત માસના પ્રમાણવાળી સક્ષમ ભિક્ષુપ્રતિभाभा ७ दृत्ति आहारनी भने ७ हत्ति पानी सेवामां आवे छे. ( पढमं संत्तराइदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा जाव तच्च सत्तराइदियं भिक्खुपडिमं पडिवन्ना) અને પહેલી સાત દિવસ રાતની ભિક્ષુપ્રતિમાના, બીજી સાત દિવસ-રાતની ભિક્ષુપ્રતિમાના તથા ત્રીજી સાત વિસરાતની ભિક્ષુપ્રતિમાના ધારકે। હતા. આ ત્રણેય સાત દિવસ-રાતની ભિક્ષપ્રતિમાઓની વિધિ આ પ્રકારે છેઃ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक १६६ पडिमं पडिवण्णा, अहोराईदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, एकसप्त रात्रिन्दिवानि = अहोरात्रा यस्यां सा सप्तरात्रिन्दिवा – सप्ताऽहोरात्रप्रमाणा । प्रथमायां च चतुर्थचतुर्थेन पानकाऽऽहारविरहित उत्तानको वा पार्श्वशायी वा निषद्योपगतो वा ग्रामादिभ्यो बहिर्विहरति । द्वितीया सप्तरात्रन्दिवाऽप्येवंविधैव, नवरम् - दण्डाऽऽयतो वा लगण्डशायी वा उत्कुटुको वा विहरति । एवं तृतीया सप्तरात्रिन्दिवाऽपि, नवरं वीराssसनिको वा गोदोहिकस्थितो वा आम्रकुब्जको वाssस्ते । ' अहोराइंदियं भिक्खुपडिमं सात दिनरात की भिक्षुप्रतिमाओं की विधि इस प्रकार है - प्रथम सप्तरात्रिन्दिव भिक्षुप्रतिमा मैं- अष्टमी भिक्षुप्रतिमा में एकान्तर चउविहार उपवास करते हुए ग्राम से बाहर कायोत्सर्ग करे, और तीन आसन करे | उनके नाम (१) उत्तानासन - चित्त होकर सोना (२) एकपार्श्वासन = एक करवट से सोना, और (३) निषद्यासन - पर्यङ्कासन से रहना । दूसरी और तीसरी सात दिनरात की भिक्षुप्रतिमायें - नवमी तथा दसमी भिक्षुप्रतिमायें भी * 1 इसी प्रकार की हैं । केवल आसन के भेद हैं। नौमी के तीन आसन - दण्डासन, लगण्डासन, उत्कुटुकासन। (१) दण्डासन - दण्ड के समान सीधे शयन करना । (२) लगण्डासन - टेड़े कांठ के जैसे शयन करना अर्थात् मस्तक और ऍड़ी को पृथ्वी पर सटा कर पीठ को अधर रख कर सोना, (३) उत्कुटुकासन = पैरों के बल बैठना । दसमी के तीन आसनवीरासन, गोदोहिकासन, आम्रकुब्जकासन । (१) वीरासन - पृथ्वी पर पैर रख कर सिंहा પ્રથમ સમરાત્રિ દિવ ભિક્ષુપ્રતિમામાં—અષ્ટમી ભિક્ષુપ્રતિમામાં–એકાન્તર ચોવિહાર ઉપવાસ કરતાં ગામથી બહાર જઈ કાયાત્સગ ४२वी. अने त्रालु आसन खा. तेमनां नाम - ( १ ) उत्तानासन-थित्ता थर्धने सुवु (२) पार्श्वासन -मेड पड रही सुवु, अने (3) निषद्यासन-पय असनथी રહેવું. ખીજી અને ત્રીજી સાત દિવસ-રાતની ભિક્ષુપ્રતિમાઓ-નૌમી અને દશમી ભિક્ષુપ્રતિમાઓ--પણ આ પ્રકારની છે. કેવલ આસનમાં ફેર છે. નવમી प्रतिभाना ऋणु आसन- डासन, सगौंडासन, उत्हुटु असन. (१) हुंडासन - દંડની પેઠે સીધા સુઈ જવું, (૨) લગંડાસન–વાંકા લાકડાની પેઠે શયન કરવુ અર્થાત્ માથું અને એડી (પાની ) ને પૃથ્વીપર લગાડી પીઠને અધર रात्री सुवु, (3) उत्डुटुडासन - यगना जसथी ( उलउड पगे ) मेसवु દશમી પ્રતિમાના ત્રણ આસન~વીરાસન, ગાદેહિકાસન, આમ્રકુબ્જ કાસન. (૧) વીરાસન–પૃથ્વીપર પગ રાખીને સિંહાસન પર બેઠેલાની પેઠે Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका मू. २४ भगवदन्तेवासिवणनम् १६७ राइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा, सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं, पडिवण्णा' अहोरात्रिन्दिवां भिक्षुप्रतिमा प्रतिपन्नाः-आहोरात्रिकीमित्यर्थः । अत्र-रात्रिदिवशब्दो रात्रिपरो बोध्यः । अस्याञ्च षष्ठोपवासिको ग्रामादिभ्यो बहिः प्रलम्बभुजस्तिष्ठति । 'एकराइंदियं भिक्खुपडिम पडिवण्णा' एकरात्रिन्दिवाम् एकरात्रप्रमाणां भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नाः; अत्रापि ‘रात्रिन्दिव ' शब्दो रात्रिपरो बोध्यः । अस्यां चाऽष्टमभक्तिको ग्रामाद् बहिरीषदवनतगात्रोऽनिमिषनयनः शुष्कपुद्गलनिबद्धदृष्टिर्जिनमुद्रास्थापि सन पर बैठे हुए के समान घुटने अलग २ रखकर विना सहारे स्थिर रहना, (२) गोदोहिकासन--गोदोहिक के समान बैठना अर्थात् जैसे गाय दूहने वाला जब दूध दूहता है तब वह अपने दोनों पैरों के अग्रभाग के सहारे बैठता है, उसी प्रकार बैठना । (३) आम्रकुब्जकासन आम्रफल के समान कूबड़े होकर स्थिर रहना । आठवीं नौमी दशमी प्रतिमा में तीन २ आसन बताये हैं, उन तीन तीन में से किसी एक आसन से रहे । तथा (अहोराइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा) ग्यारहवीं अहोरात्रिक भिक्षुप्रतिमा के धारक थे । इसमें चउविहार बेला किया जाता है, और गाम के बाहर आठ प्रहरों तक काउसग किया जाता है । ( एक्कराइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा) बारहवीं एकरात्रिक भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। इसमें चउविहार तेले के दिन गाम से बाहर श्मशान भूमि में जाकर किसी एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर करके चार प्रहरों तक कायोत्सर्ग किया जाता है । इन सभी प्रतिमाओं-अभिग्रहविशेषों में सभी का ગઠણે જુદા જુદા રાખીને ટેકે લીધા વિના સ્થિર રહેવું, (૨) ગેહિકાસનગદેહિકની પેઠે બેસવું અર્થાત્ જેમ ગાય દેહવાવાળો જ્યારે દૂધ દેહે છે ત્યારે તે પોતાના બંને પગના અગ્રભાગને ટેકે બેસે છે, તેવી જ રીતે બેસવું (૩). આમ્રકુંજકાસન–આમ્રફલની પેઠે કૂબડા થઈને સ્થિર રહેવું. આઠમી નેમી અને દશમી પ્રતિમામાં ત્રણ ત્રણ આસન બતાવ્યાં છે. તે ત્રણ ત્રણમાંથી કોઈ पाप से मासनथी २. तथा (अहोराइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवण्णा) महारा. દિવસરાતની અગ્યારમી ભિક્ષુપ્રતિમાના ધારકે હતા. આમાં ચૌવિહાર ७४ ४२शय छ, मन भनी मा२ माउ पारने अस४२॥य छे. (एकराइंदियं भिक्खुपडिम पडिवण्णा) मारभी रात्रि भिक्षु प्रतिमान धा२४ ता. આમાં ચૌવિહાર તથા અદૃમને દિવસે ગામથી બહાર સ્મશાન ભૂમિમાં જઈને એક પુદ્ગલપર દષ્ટિ સ્થિર કરીને કાર્યોત્સર્ગ કરાય છે. આ બધી પ્રતિમા એમાં Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे तपादः प्रलम्बितभुजस्तिष्ठति। एतासु प्रतिमासु न सर्वेषामधिकारः, किन्तु विशिष्टमंहननवतामेव । आह च, 'पडिवजइ एयाओ, संघयणधिइजुओ महासत्तो । पडिमाउ भावियप्पा सम्म गुरुणा अणुनाओ॥ १ ॥ इति, 'सत्तसतमियं भिक्खुपडिम' सप्तसप्तमिकां भिक्षुप्रतिमां-सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसतमिका, इयं च सप्तभिर्दिनानां सप्तकैर्भवति अर्थात्-सप्तभिः सप्ताऽहैरिति । तत्र च प्रथमदिने एका दत्तिर्भक्तस्य, एकैव दत्ति: पानकस्य, एवं द्वितीयादिषु दिनेषु क्रमेणैकैकदत्तिवृद्धया सप्तमदिने सप्त दत्तयः । एवम् अधिकार नहीं है, किन्तु विशिष्ट संहननवाले हो इन प्रतिमाओं का आराधन कर सकते हैं। कहा भी है-'पडिवजइ एयाओ, संघयण-धिइ-जुओ महासत्तो । पडिमाउ भावियप्पा, सम्मं गुरुणा अणुन्नाओ।" छाया-प्रतिपद्यते एताः संहनन-धृतियुतो महासत्वः । प्रतिमा भावितात्मा, सम्यग्गुरुगा अनुज्ञातः ॥ अर्थात्-महासत्त्वशाली, संहनन और धैर्य से युक्त भावितात्मा मुनिजन ही गुरु से सम्यक् अनुज्ञात होकर इन प्रतिमाओं को स्वीकार करते हैं। तथा (सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं) सात हैं सातवें दिन जिसमें ऐसी भिक्षुप्रतिमा के अर्थात् ऊनपचास दिन को भिक्षुप्रतिमा के धारक थे । यह प्रतिमा सातसप्ताहों में की जाती है। इसमें प्रथम सप्ताह के प्रथमदिन में एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की ली जाती है, द्वितीयदिन में दो दत्तियाँ आहार की और दो दत्तियाँ पानी की ली जाती हैं। इसी तरह प्रतिदिन एक एक दत्ति को वृद्धि से सातवें दिन सात दत्तियाँ आहार की और અભિગ્રહ વિશેષમાં બધાને અધિકાર નથી; પરંતુ વિશિષ્ટસંહનનવાલા જ આ બધી પ્રતિમાઓનું આરાધન કરી શકે છે. કહ્યું પણ છે___“ पडिवज्जइ एयाओ, संवयण-धिइ-जुओ महासत्तो। ' पडिमाउ भावियप्पा, सम्म गुरुणा अणुन्नाओ"॥ छाया-प्रतिपद्यते एताः संहनन-धृतियुतो महासत्वः । .. प्रतिमा भावितात्मा, सम्यग्गुरुणा अनुज्ञातः ॥ : અર્થાત મહાસત્ત્વશાલી સંહનન અને ધર્યથી યુક્ત ભાવિતાત્મા મુનિજન સમ્યફ અનુજ્ઞાત થઈને અર્થાત્ ગુરૂની આજ્ઞા લઈને, પ્રતિમાઓને સ્વીકાર ४२ छ. तथा (सत्तसत्तमिय भिक्खुपडिम) सातछ सातमा हिवस सभा मेवी ભિક્ષુપ્રતિમાના અર્થાત્ ઓગણપચાસ દિવસની ભિક્ષુપ્રતિમાના ધારક હતા. આ પ્રતિમા સાત સપ્તાહોમાં કરાય છે. તેમાં પ્રથમ સપ્તાહના પ્રથમ દિવસે એક દત્તિ આહારની અને એક દત્તિ પાણીની લેવાય છે. બીજે Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् अट्टअट्टमियं भिक्खुपडिमं, णवणवमियं भिक्खुपडिमं, दसदस'अट्ठअमियं भिक्खुपडिम' अष्टाऽष्टमिका भिक्षुप्रतिमाम् , 'णवणवमियं' नवनवमिका भिक्षुप्रतिमाम् , 'दसदसमियं' दश दशमिकां भिक्षुप्रतिमाम् , नवरम् दत्तिवृद्धिः सात दतियाँ पानी की ली जाती हैं। इसी प्रकार दूसरे सप्ताह से लेकर सातवें सप्ताह तक की दत्तियों के विषय में भी समझना चाहिये । इस प्रकार आहार और पानी की मब दत्तिया ३९२ होती हैं। तथा ( अट्ठअहमियं भिक्खुपडिमं) अष्टाष्टमिक भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। यह भिक्षुप्रतिमा आठ अष्टाहों में अर्थात् चौसठ दिनों में की जाती है । इसमें प्रथम अष्टाह के प्रथम दिन में एकदत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की ली जाती है। प्रत्येक दिन में एक एक दत्ति की वृद्धि होने के कारण आठवें दिन में आठ दत्तिया आहार की और आठ दत्तिया पानी की ली जाती हैं। इसी प्रकार अवशिष्ट सातों अष्टाहों के बारे में भी समझना चाहिये। इस प्रकार आहार और पानी की कुल दत्तिया ५७६ होती हैं। तथा (नवनवमियं भिक्खुपडिमं ) नवनवमिका भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। यह भिक्षुप्रतिमा नौ नवाहों में, अर्थात् ८१ दिनों में पूरी होती है । प्रत्येक नौ दिनों के अन्तिम दिन में एक एक दत्ति की वृद्धि होने से नौ दत्तिया आहार की और नौ दत्तिया पानी की होती हैं । દિવસે બે દક્તિ આહારની અને બે દત્તિ પાણીની લેવાય છે. એવી રીતે પ્રતિદિન એક એક દત્તિના વધારાથી સાતમે દિવસે ૭ દક્તિ આહીરની અને ૭ દત્તિ પાણીની લેવાય છે. આ પ્રકારે બીજા સપ્તાહથી લઈને ૭ માં સપ્તાહ સુધીની દત્તિઓના વિષયમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રકારે આહાર भने पाणीनी मधी इत्ति। ३८२ थाय छे. तया (अदृअट्ठमियं भिक्खुपडिम) અષ્ટાછમિક ભિક્ષુપ્રતિમાના ધારકે હતા. આ ભિક્ષુપ્રતિમા આઠ અબ્રાહમાં અથાત્ ચોસઠ દિવસમાં કરાય છે. તેમાં પ્રથમ અષ્ટાહના (અઠવાડિયાના) પ્રથમ દિવસે એક દત્તિ આહારની અને એક દત્તિ પાણીની લેવાય છે. પ્રત્યેક દિવસે એક એક દત્તિનો વધારો થવાના કારણે આઠમે દિવસે આઠ દત્તિઓ આહારની અને આઠ દત્તિઓ પાણીની લેવાય છે. એજ પ્રકારે બાકીના ૭ અાહો ( અઠવાડિયા ) ના બારામાં પણ સમજવું જોઈએ. એવી રીતે આહાર અને પાણીની કુલ દત્તિએ પ૭૬ થાય છે. તથા (नवनवमियं भिक्खुपडिमं) नवनभि मिझुप्रतिमाना था। उता. २॥ ભિક્ષુપ્રતિમા નવનવાહમાં અર્થાત ૮૧ દિવસમાં પૂરી થાય છે. પ્રત્યેક નવ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० औपपातिकसूत्रे मियं भिक्खुपडिमं, खुड्डियं मोयपडिमं पडिवण्णा, महल्लियं मोयपडिमं पडिवण्णा, जवमज्झं चंदपडिमं पडिवण्णा, वइरसंख्याक्रमेण कार्या। केचित् ‘खुड्डियं मोयपटिम पडिवण्णा' क्षुल्लिका मोकप्रतिमा प्रतिपन्नाः, अस्याः क्षुल्लकत्वं महत्यपेक्षया बोध्यम् । तथा ' महल्लियं मोयपडिमं पडिवण्णा' महतीं मोकप्रतिमां प्रतिपन्नाः । अनयोः प्रतिमयोाख्या ग्रन्थान्तरे विलोकनीया । 'जवमझं चंदपडिमं पडिवण्णा' यवमध्यां चन्द्रप्रतिमा प्रतिपन्नाः-यवस्येव मध्यं यस्यां सा यवमध्या, चन्द्र इव कलावृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा, तथा हि शुक्लप्रतिपदि-एकं कवलंम् अभ्यवहृत्य प्रतिदिनमेकैकइस प्रकार आहार और पानी की सब दत्तिया ८१० होती हैं । तथा (दसदसमियं भिक्खुपडिमं) दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा के धारक थे। यह भिक्षुप्रतिमा दश दशाहों में, अर्थात् सौ दिनों में पूरी होती है। इसमें प्रत्येक दशवें दिनमें दस दत्तिया आहार की और दस दत्तिया पानी की होती हैं। इस प्रकार आहार और पानी की कुल दत्तिया ११०० होती हैं । कितनेक मुनिजन ( खुड्डियं मोयपडिमं पडिवण्णा) क्षुल्लक मोकप्रतिमा के धारक थे। तथा--(महल्लियं मोयपडिमं पडिवण्णा) महामोकप्रतिमा के धारक थे। तथा कितनेक मुनिजन (जवमझं चंदपडिमं पडिवण्णा) यवमध्य चन्द्रप्रतिमा के धारक थे । इस प्रतिमा में शुक्ल पक्ष की एकम तिथि में एक कवल आहार किया जाता है। प्रतिदिन एक एक कवल की वृद्धि से पूर्णिमा में १५ कवल आहार દિવસના અંતના દિવસે એક એક દત્તિની વૃદ્ધિ થવાથી નવ દત્તિઓ આહારની અને નવ દક્તિએ પાણીની થાય છે. આ પ્રકારે આહાર અને પાણીની सधी हुत्तिया ८१० थाय छे. तथा (दसदसमियं भिक्खुपडिम) शशभि लिक्षપ્રતિમાના ધારકે હતા. આ ભિક્ષુપ્રતિમા દશ દશાહોમાં અર્થાત સો દિવસમાં પૂરી થાય છે. એમાં પ્રત્યેક દશમા દિવસે દશ દત્તી આહારની અને દશ દત્તિએ પાણીની હોય છે. આ પ્રકારે આહાર અને પાણીની કુલ દત્તિઓ ૧૧૦૦ थाय . ४ भुनिन (खुड्डियं मोयपडिमं पडिवण्णा) क्षुदसभी प्रतिभाना धा२४ ता. तथा ( महल्लियं मेायपडिमं पडिवण्णा ) महाभा प्रतिभाना धा२४ ता. तथा ८४ भुनिन (जवमझं चंदपडिमं पडिवण्णा ) યવમધ્યચંદ્રપ્રતિમાના ધારક હતા. આ પ્રતિમામાં શુક્લપક્ષની એકમ તિથિમાં એક કેબિઆને આહાર કરાય છે. પ્રતિદિન એક એક કેળિઆને વધારે Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू. २४ भगवदन्तेवासिवर्णनम् मज्झं चंदपडिमं पडिवण्णा, विवेगपडिमं विओसग्गपडिमं उवकवलवृद्धया पञ्चदश पौर्णमास्यां, कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदशैव भुक्त्वा द्वितीयादौ प्रतिदिनम् एकैककवलहान्या अमावास्यायामेकमेव यस्यां भुङ्क्ते सा स्थूलमध्यत्वाद् यवमध्येति तां प्रतिपन्नाः । 'वइर-(वज्ज)मज्झं चंदपडिमं पडिवण्णा' वज्रमध्यां चन्द्रप्रतिमां प्रतिपन्नाः-वज्रस्येव मध्यं यस्यां सा तथा, यस्यां हि कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश कवलान् भुक्त्वा तत प्रतिदिनमेकैकहान्या अमावास्यायामेकं, शुक्लप्रतिपद्यपि एकमेव, ततो द्वितीयादौ पुनरेकैकवृद्धया पौर्णमास्यां पञ्चदश भुङ्क्ते सा तनुमध्यत्वाद् वज्रमध्या इति तां प्रतिकिया जाता है। तथा कृष्णपक्ष की एकम तिथि में १५ कवल आहार किया जाता है, और द्वितीया से एक एक कवल घटाने से अमावास्या तिथि में मात्र एक कवल आहार किया जाता है। जैसे-यव का मध्यभाग स्थूल होता है, उसी प्रकार इस प्रतिमा का भी मध्यभाग पूर्णिमा और कृष्ण पक्षकी एकम, पन्द्रह पन्द्रह कवल आहारलेने के कारण स्थूल है । इसलिये इस प्रतिमा को ' यवमध्यचन्द्रप्रतिमा' कहते हैं। तथा-कितनेक मुनिजन ( वइरमझं चंदपडिम पडिवण्णा) वज्रमध्य चन्द्रप्रतिमा को धारण किये हुए थे। यह प्रतिमा कृष्णपक्ष की एकम के दिन पन्द्रह कवल आहार कर के प्रारम्भ की जाती है । प्रतिदिन एक एक कवल घटाने से अमावास्या में एक कवल तथा शुक्लपक्ष की एकमतिथि में एक कवल आहार किया जाता है। फिर प्रतिदिन एक एक कवल की वृद्धि से पूर्णिमा के दिन पन्द्रह कवल आहार लिया जाता કરવાને હવાથી પૂનમના દિવસે ૧૫ કેળિઆને આહાર કરાય છે, તથા કૃષ્ણપક્ષની એકમ તિથિએ ૧૫ કળિઆને આહાર કરાય છે, અને બીજથી એક એક કેલિઆને આહાર ઘટાડતાં અમાવાસ્યા તિથિમાં માત્ર એક કેળિઆને આહાર કરાય છે. જેમ યવને મધ્યભાગ સ્થૂલ હોય છે તેવી જ રીતે આ પ્રતિમામાં પણ મધ્યભાગ પૂનમ અને કૃષ્ણ પક્ષની એકમ, પંદર પંદર કેળિઆ આહાર લેવાને કારણે, સ્થૂલ છે; તેથી આ પ્રતિમાને “યવમધ્ય प्रतिमा : ४ छे. ताटा भुनिन ( वइरमज्झं चंदपडिम पडिवण्णा) વજ મધ્યચંદ્રપ્રતિમાને ધારણ કરવાવાળા હતા. આ પ્રતિમા કૃષ્ણપક્ષની એકમને દિવસે પંદર કોળિઆ આહાર લઈને શરૂ કરાય છે. પ્રતિદિન એક એક કોળિઓ આહાર ઘટાડતાં અમાવાસ્યાને દિવસે એક કોળિઓ તથા શુક્લ પક્ષની એકમ તિથિએ એક કોળિઓ આહાર કરાય છે. પછી પ્રતિદિન Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ औपपातिकखत्रे हाणपडिमं पडिसंलीणपडिमं पडिवण्णा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ सू. २४ ॥ पन्नाः। तथा केचित् 'विवेगपडिम' विवेकप्रतिमां-विवेचनं विवेकः त्यागः,स च आन्तराणां कषायादीनां बाह्यानां च गगशरीरानुचितभक्तपानादीनाम् , तस्य प्रतिमा प्रतिपत्तिर्विवेकप्रतिमा तां, 'विओसग्गपडिम' व्युत्सर्गप्रतिमा कायोत्सर्गप्रतिमाम् , 'उवहाणपडिम' उपधानप्रतिमाम्-मोक्षं प्रति · उप-सामीप्येन दधाति-नयतीत्युपधानम्-अनशनादिकं तपस्तद्विषया प्रतिमा अभिग्रहस्तां, तथा 'पडिसंलीणपडिमं' प्रतिसँल्लीनप्रतिमां-क्रोधादिनिरोधाऽभिग्रहं 'पडिवण्णा' प्रतिपन्नाः संयमेन तपसा आत्मानम् भावयन्तः विहरन्ति ॥ सू० २४ ॥ है। जैसे वज्रका मध्यभाग पतला होता है उसी प्रकार इस प्रतिमा का भी मध्यभाग अमावास्या और शुक्लपक्ष की एकम, एक एक कवल आहार लेने के कारण पतला है; इसीलिये इस प्रतिमा को 'वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा' कहते हैं । तथा कितनेक मुनिजन 'विवेगपडिम' विवेकप्रतिमाके अर्थात् आभ्यन्तरिक कषायादिकों के, तथा-गण, स्वशरीर और अकल्पनीय भक्तपानादिकों के त्याग की प्रतिमा के, “विओसग्गपडिमं' व्युत्सर्गप्रतिमा के, अर्थात् कायोत्सर्गप्रतिमा के, ' उपहाणपडिम' उपधान प्रतिमा के अर्थात् अनशनादिरूप उग्र तपस्या की प्रतिमा के, तथा-(पडिसंलीणपडिम) प्रतिसंलीन प्रतिमा के अर्थात् क्रोध आदि कपायों के निरोध करने के अभिग्रह के (पडिवण्णा) धारक थे। पूर्वोक्त सभी प्रकार के मुनिराज सत्रह प्रकार के संयम से એક એક કોળિઓ વધારતાં જઈ પૂનમને દિવસ પંદર કોળિઆ આહાર લેવાય છે. જેમ વજને મધ્યભાગ પાતળો હોય છે તેવી જ રીતે આ પ્રતિમામાં પણ મધ્યભાગ–અમાવાસ્યા અને શુક્લ પક્ષની એકમ, એક એક કોળિઓ આહાર લેવાના કારણે પાતળે છે; એ માટે જ આ પ્રતિમાને “વજા મધ્યयद्रप्रतिमा" वाय छे. तथा सामे भुनिन (विवेगपडिम) विवे४પ્રતિમાના અર્થાત આત્યંતરિક કષાય આદિના, તથા-ગણના, પિતાનાशरीरना मने म४८५नीयमान पान माहिना त्यागनी प्रतिमाना(विओसग्गपडिम) व्युत्सम प्रतिमा मेट योत्सग प्रतिभाना, (उपहाणपडिम) Bधानप्रतिमाना मर्थात् मनशन मा३ि५ तपस्यानी प्रतिमाना, तथा (पडिसलीणपडिम) પ્રતિસંલીનપ્રતિમાના અર્થાત્ ક્રોધ આદિ કષાયેના નિરોધ કરવાના અભિગ્રહના (पडिवण्णा) पा२४ ता. पूरित सर्व ४२॥ मुनि।०४ सत्तर ५४२॥ सय Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २५ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १७३ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रूवसंपण्णा विणयसंपण्णाणाणसंपण्णा दंसणसंपण्णा टीका—'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतेवासी' अन्तेवासिनः-शिष्या बहवः स्थविराः= चिरतरकालपालितश्रामण्यपर्याया, भगवन्तः संघमशोभाशालिनः, एपां विशेषणान्याह-'जाइसंपण्णा' जातिसम्पन्नाः-उत्तममातृकवंशयुक्ताः, एवम् 'कुलसंपण्णा' कुलसम्पन्नाः-श्रेष्ठपैतृकवंशयुक्ताः, 'बलसंपण्णा' बलसम्पन्नाः-बलं-संहननसमुत्थितः पराक्रमः, तेन सम्पन्नाःयुक्ताः, 'रूवसंपण्णा' रूपसम्पन्नाः-रूपम्-आकृतिः-सुन्दराऽऽकारस्तेन युक्ताः। 'विणतथा बारह प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे ।। सू० २४ ॥ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि. ___( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उसकाल उस समय में (समणस्स भगवो महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो) श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी-शिष्य अनेक स्थविर भगवन्त थे । दीक्षापर्याय से युक्त एवं धर्म से प्रचलित को पुनः धर्म में स्थिर करनेवाले को स्थविर कहते हैं। यमशोभासे जो युक्त हों उन्हें 'भगवन्त' कहते हैं । ये (जाइसंपण्णा) जातिसंपन्न-उत्तममातृवंश के थे, और (कुलसंपण्णा) कुलसम्पन्न- उत्तमपितृवंश के थे। (बलसंपण्णा) संहनननामकर्मसे प्राप्त बल से विशिष्ट थे। (रूवसंपण्णा) सुन्दर आकृतिवाले थे। (विणयसंपण्णा)जिससे अष्टविध कर्ममल મથી તથા બાર પ્રકારના તપથી આત્માને ભાવિત કરતા વિચરતા હતા. (સૂ. ૨૪) _' तेणं कालेणं तेणं समएणं' त्याहि. __ ( तेणं कालेणं तेणं समएण) ते ४० ते समयमा ( समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो) श्रम लगवान महावीरन। અંતેવાસી-શિષ્ય અનેક સ્થવિર ભગવંતે હતા. ધર્મથી ચલાયમાન થતા સાધુઓને ફરીથી ધર્મમાં સ્થિર કરવાવાળાને સ્થવિર કહે છે. જે સંયમशोमाय तेमने मत ४९ छ. ते (जाइसंपण्णा) जतिपन्न-उत्तम भातृक्शन। उता, मने (कुलसंपण्णा) ११ सपन्न-उत्तम पितृशना उता. ( बलसंपण्णा ) सनननामभथी प्रात थयेटर सडे विशिष्ट उता. (रूवसंपण्णा) सुंदर मातिा . (विणयसंपण्णा) नाथा Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ औपपातिकसूत्रे चरित्तसंपण्णा लज्जासंपण्णा लाघवसंपण्णा ओयंसी तेयंसी यसंपण्णा' विनयसम्पन्नाः-विनीयतेऽपनीयते- संक्लेशकारकमष्टविधं कर्म येन स विनयःअभ्युत्थानादि-गुरुसेवालक्षणः तेन युक्ताः, 'णाणसंपण्णा' ज्ञानसंपन्नाः, ज्ञानं श्रुतचारित्रलक्षणं तेन युक्ताः, 'दंसणसंपण्णा' दर्शनसम्पन्नाः-दर्शन-सम्यक्त्वं तेन युक्ताः 'चरित्तसंपण्णा' चरित्रसम्पन्नाः चरित्रं-समितिगुप्त्यादिकं तेन युक्ताः, लज्जासंपण्णा' लज्जा-सम्पन्ना लज्जा-संयमविराधनायां हृदयसंकोचरूपा तया युक्ताः; 'लाघवसंपण्णा' लाघवसम्पन्नाः लाघवं द्रव्यतो ऽन्पोपधिता, भावतो गौरवत्रयत्यागः-तेन युक्ताः, 'ओयंसी' ओजस्विनः, ओजो-मानसी शक्तिस्तद्वन्तः, 'तेयंसी' तेजस्विनः-तेजःअन्तर्बहिर्देदीप्यमानत्वं तेजोलेश्यादि वा तद्वन्तः, 'वचंसी' वचस्विनः, वचः--आदेयवचनं-सौभाग्याधुपेतमेषामस्तीति ते वचस्विनः, अपनीत--नष्ट होता है वह विनय है, ऐसे विनय से युक्त थे। गुरुओं के आने एवं जाने आदि पर खडे होना इत्यादिक क्रियाएँ सब विनय के ही अन्तर्गत हैं। (णाणसंपण्णा) विशिष्टज्ञान से संपन्न थे। (दसण-संपण्णा) विशिष्टदर्शनसे-सम्यक्त्व से संपन्न थे। (चरित्तसंपण्णा) समिति-गुप्ति-आदिरूप चारित्र से संपन्न थे। (लज्जासंपन्ना) संयमविराधनामें जो स्वाभाविक हृदयका संकोच उसे लज्जा कहते हैं, उससे वे युक्त थे। (लाघवसंपण्णा) अल्प-उपधिरूप द्रव्यलाघव एवं तीन गौरवका परित्यागरूप भावलाधव से युक्त थे। (ओयंसी) ये ओजस्वी थे, अर्थात् तप और संयम के प्रभाव से युक्त थे। (तेयंसी) ये तेजस्वी थे, अर्थात् भीतर और बाहर देदीप्यमान थे, अथवा द्रव्यभावरूप तेजोलेश्या आदिसे युक्त थे। (वचंसी) ये आदेयवचन से, અષ્ટવિધ કર્મમલ અપનીત-નષ્ટ થાય છે તેને વિનય કહે છે એવા વિનયથી યુક્ત હતા. ગુરૂઓ આવે તેમ જ જાય ત્યારે ઉભા થવું વિગેરે ક્રિયાઓ अधी विनयनी ४ मतर्गत छ. (णाणसंपण्णा) विशिष्टज्ञानवार ता. (दसणसंपण्णा) विशिष्ट शनयी-सभ्यत्वथा संपन्न ता. (चरित्तसंपण्णा) सभितिशुति-माहि३५ यास्त्रिया संपन्न ता. (लज्जासंपण्णा) संयमविराधનામાં જે સ્વાભાવિક હદયને સંકોચ થાય તેને લજજા કહે છે તેનાથી યુક્ત उu. ( लाघवसंपण्णा) २२८५-५धि३५ द्रव्याध तभ० गोरखना परित्या३५ लामाथी युत . (ओयंसी) ते ४२वी ता, मर्थात त५ मने संयमन प्रा . (तेयसी) ते ते ता અર્થાત્ અંદર અને બહાર દેદીપ્યમાન હતા, અથવા દ્રવ્યભાવરૂપ તેજલેશ્યા माहिवार . ( वच्चंसी) तया माहेययनवाला, मथवा त५ सयमना Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका. सू. २५ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १७५ वचंसी जियकोहा जियमाणा जियमाया जियलेोभा जिइंदिया जियणिद्दा जियपरीसहा जीवियास-मरण-भय-विप्पमुक्का वयअथवा-वर्चः तेजः प्रभावः-तद्वन्तो वर्चस्विनः । 'जसंसी' यशस्विनः तपःसंयमसमाराधनख्यातिप्राप्ताः। 'जियकाहा' जितक्रोधाः-जितः क्रोधे। यैस्ते जितक्रोधाः, क्रोधजयः-उदयप्राप्तक्रोधविफलीकरणतो ज्ञातव्यः। 'जियमाणा' जितमानाः, तत्र मानः-मन्यतेऽनेनेति मानः-अभिमानः-ज्ञानादिना अहमनुपमोऽस्मीत्यभिमानरूपः-गर्व इति यावत् । 'जियमाया' जितमायाःतत्र माया-परवञ्चनाभिप्रायेण शरीराकारनेपथ्यमनोवाक्कायकौटिल्यकरणरूपा, सा जिता यैस्ते तथा, उदयप्राप्तपरवञ्चनकर्मविफलीकारकाः, 'जियलोभा' जितलोभाः ‘जिईदिया' जितेन्द्रियाः 'जियणिद्दा' जितनिद्राः 'जियपरीसहा ' जितपरीषहाः 'जीवियास-मरण-भय-विप्पमुक्का' जीविताऽऽशा-मरण-भय-विनमुक्ताः-जीवितस्य-प्राणअथवा तपसंयमके प्रतापसे युक्त थे। (जसंसी) ये यशस्वी थे, अर्थात् तप और संयमकी आराधना से प्रसिद्धि पाये हुए थे। (जियकोहा) क्रोधको जिन्होंने जीत लिया था। (जियमाणा) मानको जिन्होंने दूर कर दिया था, अर्थात् “ मैं ज्ञानादिक गुणोंसे अनुपम हूँ" इस प्रकार अभिमानरूप गर्वको जिन्होंने परास्त कर दिया था। (जियमाया) दूसरोंको वंचन करनेके अभिप्रायसे वेष बनाना, एवं मन-वचन और कायको कुटिलतामें परिणत करना इसका नाम माया है; इस मायाका भी जिन्होंने अपनी शुभपरिणति द्वारा निवारण कर दिया था । (जियलोभा) इसी प्रकार लोभको भी जिन्होंने नष्ट कर दिया था। (जिइंदिया) इन्द्रियोंको जिन्होंने अच्छी तरह अपने वशमें कर रखा था । (जियणिदा जियपरीसहा) निद्रा और परीषहों को जिन्होंने जीत लिया था । (जिवियास-मरण-भय-विप्पमुक्का) जीनेकी आशा एवं मरणके प्रा ता. ( जसंसी) ते यशस्वी तत, अर्थात् त५ भने सयभनी माराधनाथी प्रसिद्धि पामेला उता. ( जियकोहा) ओध सभाणे त्यो छे. (जियमाणा) भान रसाये २ ४२ छ, अर्थात् ईशानाहि गुणेथी अनुपम छु' वा मनिभान३५ गवनेसास ५२शस्त ४ो छ. (जियमाया) બીજાની વંચના- છેતરપિંડી કરવાના હેતુથી વેષ બનાવવા તેમ જ મન વચનકાયાથી કુટિલતા કરવી તેનું નામ માયા છે. આ માયાનું પણ જેઓએ પિતાની शुभपरियतिथी निवा२९५ ४यु छ. (जियलोभा) तवी ४ रीत सामना ५५ रसाये नाश यो छ. (जिइंदिया) रेसाये सारीश द्रियाने पाताने १२ ४ बीधी ती. (जियणिद्दा जियपरीसहा) निद्रा मने परीषडाने मान्य ती Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ औपपातिकसूत्रे प्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा णिग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा अज्जवप्पहाणा मदवप्पहाणा लाघवप्पहाणा धारणस्य-आशा जीविताऽऽशा, मरणस्य भयंत्रासः, एताभ्यां विप्रमुक्ताः, “वयप्पहाणा' व्रतप्रधानाः-व्रतं-संयमः प्रधानम्-उत्तमं-शाक्यादिभिक्षुकाऽपेक्षया निम्रन्थत्वाद् येषां ते व्रतप्रधानाः, अथवा व्रतेन-संयमेन प्रधानाः श्रेष्ठाः-निर्ग्रन्थश्रमणा इत्यर्थः । ते च न केवलं व्यवहारत एव इत्यत आह-गुणप्पहाणा' गुणप्रधानाः-गुणाः कारुण्यादयः, यथोक्तं'परोपकारैकरतिनिरीहता, विनीतता सत्यमनुत्थचित्तता । श्रुते विनोदोऽनुदिनं न दीनता, गुणा इमे सत्त्ववतां स्वभावजाः । इति, एतैर्गुणैःप्रधानाः । 'करणप्पहाणा' करणप्रधानाः-करणं क्रिया, तचेह पिण्डविशुद्धयादिरूपं, तेन प्रधानाः, अथवा करणं-पिण्डविशुद्धयादिरूपं प्रधानं येषां ते करणप्रधानाः, 'चरणप्पहाणा' चरणप्रधानाः-चरणं महाव्रतादिमूलगुणरूपं तत्प्रधानाः, 'णिग्गहप्पहाणा' निग्रहप्रधानाः-इन्द्रियनोइन्द्रियदमनप्रधानाः, 'निच्छयप्पहाणा' निश्चयप्रधानाः-निश्चयः-तत्वनिर्णयः; तत्र प्रधानाः, अथवा अवश्यङ्करणीयासु ग्यमक्रियासु निश्चितचित्ताः, 'अज्जवष्पहाणा' आर्जवप्रधानाः-आर्जवं मायाराहित्यं तत्प्रधानाः, कर्पूरवदन्तर्बहिनिर्मलाः, 'महवप्पहाणा' मार्दवप्रधानाः-मार्दवं-मानोभयसे जो सर्वथा विप्रमुक्त थे । (वयप्पहाणा) व्रतपालन करनेके कारण प्रधान थे, (गुणप्पहाणा) क्षान्त्यादि गुणोंसे प्रधान थे, (करणप्पहाणा) पिण्डविशुद्धयादि रूप मुनियोंकी क्रियामें प्रधान थे, (चरणप्पहाणा) महावत आदि मूल गुणोंसे प्रधान थे, (णिग्गहप्पहाणा) इन्द्रिय, नोइन्द्रिय (मनके) दमन करनेमें प्रधान थे, (णिच्छयप्पहाणा) तत्त्वनिर्णय तथा अवश्यकरणीय संयम क्रियामें प्रधान थे। (अज वप्पहाणा) सरलतामें प्रधान थे, अर्थात् कपूर के तुल्य अन्तर बाहर निर्मल थे। (मदवप्पहाणा) मानके उदयका निरोध करनेवाले सीधा ता, (जीवियास-मरण-भय-विप्पमुक्का) पानी ॥ तभी भरना अयथा सो सर्वथा भुत ता. (वयप्पहाणा) प्रतपासन ४२वाना रणे प्रधान al, (गुणप्पहाणा) क्षान्ति माहि गुणेथी प्रधान (मुख्य) ता, (करणप्पहाणा) विविशुद्धि-माहि३५ भुनियानी जियामा प्रधानता , (चरणप्पहाणा) भाबत माहि भूखणेथी प्रधान उता, (णिग्गहप्पहाणा) छद्रिय नाद्रियनु मन ४२वामा प्रधान उता, (णिच्छयप्पहाणा ) तत्त्वनिय तथा अवश्य ४२वानी संयमडियामा प्रधान ता. (अजवप्पहाणा) સરલતામાં પ્રધાન હતા, અર્થાત્ કપૂરની પેઠે અંતર બહારથી નિર્મળ હતા, (महवप्पहाणा) भानना अयने। निरोध ४२पापा मर्थात् प्रत्याहि मा8 प्री Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २५ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १७७ खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विज्जापहाणा मंतप्पहाणा वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सायप्पहाणा दयनिरोध , तत्प्रधानाः-जात्याद्यष्टविधमदवर्जिताः, 'लाघवप्पहाणा' लाधवप्रधानाः, लाघवंद्रव्यतोऽन्योपधित्वं भावतो गौरवत्रयत्याग,: तत्प्रधानाः । ' खंतिप्पहाणा' क्षान्तिप्रधानाःक्षान्तिः-क्रोधोदयनिरोधः-तत्प्रधानाः । 'मुत्तिप्पहाणा' मुक्तिप्रधानाः-मुक्तिर्लोभोदयनिरोधः, तत्प्रधानाः, निर्लोभा इत्यर्थः । 'विजापहाणा' विद्याप्रधानाः-वेदनं विद्या ससाधना रोहिणीप्रज्ञप्तिप्रभृतिर्देव्यधिष्ठिता सा प्रधानं येषां ते विद्याप्रधानाः । 'मंतप्पहाणा' मन्त्रप्रधानाः, 'वेयप्पहाणा ' वेदप्रधानाः-वेद्यते ज्ञायते जीवाजीवादिस्वरूपमेभिरिति वेदाःआचाराङ्गादय आगमाः, तत्प्रधानाः, बंभप्पहाणा' ब्रह्मप्रधानाः, ब्रह्म-ब्रह्मचर्य-कुशलानुष्ठानं तत्प्रधानाः । 'नयप्पहाणा' जयप्रधानाः-जयन्ति बोधयन्ति अनेकधर्मात्मकवस्तुन एकांशम् इति नयाः-नैगमादयःसप्त, तत्प्रधानाः, 'नियमप्पहाणा' नियमप्रधानाः, नियमोद्रव्य-क्षेत्रकालभावतो विविधाभिग्रहग्रहणम तत्प्रधानाः, 'सञ्चप्पहाणा' सत्यप्रधानाः-जीवाअर्थात् जात्यादि आठ प्रकारके मदसे रहित थे। (लाघवप्पहाणा) द्रव्यसे अल्पउपधियुक्त होने कारण तथा भावसे गौरवत्रयरहित होनेके कारण प्रधान थे । (खंतिप्पहाणा) क्रोधके उदयका निरोध करने में प्रधान थे । (मुत्तिप्पहाणा) लोभ के उदयका निरोध करने में प्रधान थे । ( विजापहाणा ) रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्याओंसे प्रधान थे। (मंतप्पहाणा) मन्त्रोंसे प्रधान थे। (वेयप्पहाणा) आचाराङ्ग आदि शास्त्रों से प्रधान थे । (भप्पहाणा) ब्रह्मचर्य से प्रधान थे। (नयप्पहाणा) नैगमादि सात-नयोंके स्वरूप निरूपण करनेमें प्रधान थे। (निगमप्पहाणा) द्रव्य क्षेत्र काल भावमे विविध प्रकार के अभिग्रह करनेमें प्रधान थे। (सच्चप्पहाणा) जीवा२॥ महया २डित ता, (लाघवप्पहाणा ) द्रव्यथा -१६५-उपधिया डावाना ४॥२ तथा माथी | गौरवथा २डित हवाना २ प्रधान हुता. (खंतिप्पहाणा) अधना अध्यन निरोध ४२वामा प्रधान उता, (मुत्तिप्पहाणा) सोमना अयना निरोध ४२वामा प्रधान Kal, (विजापहाणा) रोहिणी प्रज्ञप्ति माहि विद्यामानां प्रधान (ता. ( मंतःपहाणा) मत्रोथी प्रधान उता. (वेयप्पहाणा) मयाराम माहि त्रोथी प्रधान ता. (बंभप्पहाणा) ब्रह्मचर्य था प्रधान उता, (नयप्पहाणा ) नाम हि सात नयाना २१३५ नि३५४ ४२वामा प्रधान . ( नियमापहाणा ) द्रव्य-क्षेत्र-स-माथी विविध प्रा२न। समिअड ४२वामा प्रधान हुता, ( सच्च पहाणा) ७१ म माहि पार्थानां Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक , चारुवण्णा लज्जा-तवस्सी - जिइंदिया से ही अणियाणा अप्पासुया जीवादिपदार्थानां यथावस्थितस्वरूपकथनं सत्यं तत्प्रधानाः, 'सोयष्पहागा' शौचप्रधानाःशौचम् - अन्तःकरणशुद्धिरूपम्, तत्प्रधानाः । यद्यप्यत्र चरणकरणग्रहणेऽप्यार्जवादिकं गृहीतं भवति, तथापि आर्जवादीनां पृथक्कथनं प्रधानताख्यापनार्थम्-इत्यवगन्तव्यम् । चारुवण्णा ' चारुवर्णाः–वर्णः–कान्तिः कीर्तिः, मतिश्च – चारुर्वर्णो येषां ते, गौरवर्णयुक्ताः, अथवा उत्तमकीर्तिमन्तः, प्रशस्तमतियुक्ता वा; 'लज्जा-तव-स्सी - जिइंदिया' लज्जातपः-श्री-जितेन्द्रियाः—लज्जया–संयमविराधनायां हृदयसंकोचरूपया तपः श्रिया - तपस्तेजसा जितानि इन्द्रियाणि यैस्ते तथा; यद्यपि जितेन्द्रिया इति प्रागुक्तं, तथाप्यत्र लज्जातपःश्रीविशेषितत्वान्न पुनरुक्तिदोषः । ' सोही ' शोधयः - शोधियोगात् शोधिरूपाः - शुद्राः - अकलुषहृदया इत्यर्थः, जीवादि पदार्थोंके यथावस्थित स्वरूपकथनको सत्य कहते हैं, उससे वे प्रधान थे । ( सोयप्पाणा ) अन्तःकरणकी शुद्धिको शौच कहते हैं, उसमें वे प्रधान थे । (चारुवण्णा) वर्णशब्दका प्रयोग कान्ति, कीर्त्ति एवं मतिमें होता है । इस अपेक्षा से ये सब गौरवर्ण विशिष्ट थे, अथवा उत्तमकीर्तिसंपन्न थे, या उत्तमबुद्धि - आत्मकल्याणमें आगे२ अधिकाधिकरूपसे प्रेरणा करनेवाली बुद्धिसे युक्त थे । ( लज्जा -तव-र बस्सी - जिइंदिया ) लज्जा-संयमविराधनामें संकोच, एवं तपःश्री के प्रभावसे इन्होंने इन्द्रियोंको जीत लिया था । यद्यपि “ जिइंदिया " इस पद - द्वारा उनमें जितेन्द्रियता प्रकट कर दी गई है, फिर भी यहां पर जो पुनः जितेन्द्रियता वर्णित हुई है, वह लज्जा एवं तपके प्रभाव से उनमें जितेन्द्रियता थी यह विशेषरूपसे कथित हुआ है, अतः इस कथन में पुन १७८ यथावस्थित स्वइचनु अथन सत्य अडेवाय, तेमां तेथे प्रधान हता. (सोयपहाणा ) अ ंतः४२णुनी शुद्धिने शौथ उहे छे, तेमां तेथे प्रधान हता. ( चारुवण्णा) व शहना प्रयोग अंति, डीति तेन भतिभां थाय छे. આ અપેક્ષાએ તેઓ બધા ગૌરવ વિશિષ્ટ હતા, અથવા ઉત્તમ प्रीतिસંપન્ન હતા, અથવા ઉત્તમબુદ્ધિ-આત્મ કલ્યાણમાં આગળ આગળ વધારેમાં वधारे ३५थी प्रेरणा ४रवावाजी बुद्धिवाजा हता. ( लज्जा - तवस्सी - जिइंदिया ) લજ્જા=સંયમવિરાધનામાં સકાચ તેમ જ તપશ્રીના પ્રભાવથી તેઓએ इंद्रियाने कती सीधी हुती. ले ! " जिइंदिया ” मे पहथी तेभनाभां भितेंદ્રિયપણું પ્રકટ કરી દીધેલુ છે, છતાં પણ અહીં જે કરીને જિતેન્દ્રિયતાનુ વર્ણન કરવામાં આવ્યુ' છે તે લજ્જા તેમજ તપના પ્રભાવથી તેમનામાં જિતેન્દ્રિયપણું હતું તેનું વિશેષરૂપથી કથન કર્યું છે. માટે આ કનમાં પુન Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू० २५ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १७९ अब हिसा अप्पडिलेस्सा मुसामण्णरया दंता इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओकाउं विहरति ॥ सू० २५ ॥ यद्वा- सुहृदः - प्राणिमात्रस्य मित्ररूपाः, ' अणियाणा ' अनिदानाः- निदायते - छिद्यते मोक्षफलमनेन इति निदानं-स्वर्गादिद्विप्रार्थनम्, न विद्यते निदानं येषां ते अनिदानाः, 'अप्पोसुया' अल्पौत्सुक्या:याः - अल्पम् - अपगतम् औत्सुक्यम् - उत्सुकता येषां ते - अल्पौत्सुक्या:विषयौत्सुक्यरहिताः, ‘अवहिल्लेसा' अबहिर्लेश्याः- संयमादबहिर्भूता लेश्या मनोवृत्तयो येषां ते इत्यर्थ: । ' अप्पडिलेस्सा ' अप्रतिलेश्याः-अविद्यमानाः प्रतिलेश्याः - सदृशमनोवृत्तयो येषां ते अप्रतिलेश्याःप्रवर्धमानपरिणामसम्पन्नाः, 'सुसामण्णरया , सुश्रामण्यरताः-श्रमणस्य भावः श्रामण्यं, शोभनं श्रामण्यं सुश्रामण्यं - सम्पूर्णः सकलसावद्यनिवृत्तिरूपः संयमः तस्मिन् रताः=संलग्नाः, ‘ दंता ' दान्ताः - इन्द्रिय- नोइन्द्रियदमनपरायणा इति भावः । ' इणमेव ' इदमेव ‘गिगंथं ' नैर्ग्रन्थ्यं– निर्ग्रन्थानां भावो नैर्ग्रन्थ्यं - श्रमणधर्ममयम् ' पावयणं ' प्रवचनं–प्र=प्रकृष्टतया-उच्यते जीवादिस्वरूपं यस्मिन् तत्प्रवचनं जैनागमः तत् ' पुरओकाउ' ' पुरस्कृत्य = प्रमाणीकृत्य ' विहरति ' विहरन्ति ॥ सू० २५ ॥ रुक्तिदोष नहीं आता है । ( सोही ) ये शोधि - अकलुषहृदयवाले थे, अथवा प्राणिमात्रके मित्र स्वरूप थे । ( अणियाणा) मोक्षरूप फल जिसके द्वारा काट दिया जाता वह निदान है, इस निदान से ये सर्वथा रहित थे । ( अप्पोसुया ) इनमें विषयसम्बन्धी कोई उत्सुकता नहीं थी । ( अब हिल्लेसा ) इनका मानसिक व्यापार संयम की आराधनासे बाहिरकी ओर थोडा भी नहीं जाता था । (अप्पडिलेस्सा) मनके साधारण प्रवृत्तिको प्रतिलेश्या कहते हैं, परन्तु वे अप्रतिलेश्या से - प्रवर्द्धमान मनके शुभ परिणामोंसे युक्त थे | ( सुसामण्णरया ) वे सुश्रामण्य में रत थे, अर्थात् सकल सावधकी ३ति होष भावतो नथी. ( सोही ) तेथे शोधि- अउदुषितहृदयवाजा ता. अथवा प्राणिमात्रा भित्रस्व३५ हुता. ( अणियाणा ) भोक्ष३य इस भेनाथी કપાઈ જાય છે તેને નિદાન કહે છે, તેવા નિદ્વાનથી તેએ સર્વથા રહિત હતા. ( अप्पोसुवा ) तेमनामां विषयसंमंधी ॥ उत्सुस्ता नहोती, (अबहिल्लेसा) તેમને માનસિક વ્યાપાર સંયમની આરાધનાથી બહારની તરફ જરાપણ જતા नहोतो. (अपडिलेस्सा) भननी साधारण अवृत्तिने प्रतिवेश्या उहे छे, परंतु तेथे। अप्रतिद्वेश्याथी = प्रवर्द्धमान भननां शुभ परिणामोथी युक्त हता. (सुसामण्णरया) तेथे। सुश्रामस्यां रत ( लागी रहेला) हुता, अर्थात् सघणा सावद्यनी निवृत्ति संयममां तेथे सहा सलग्न रहेता हुता, (दंता) हान्त हता Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० औपपातिकसत्रे मूलम्-तेसिणंभगवंताणंआयावाया वि विदिता भवंति, परवाया वि विदिता भवंति, आयावायं जमइत्ता नलवणमिव टीका-'तेसि णं भगवंताणं' इत्यादि । तेषां खलु श्रीमहावीरशिष्याणां भगयतां संयमविभूषितानाम् ‘आयावाया वि' आत्मवादा अपि-स्वसिद्धान्तवादा अपिआर्हतवादा अपीत्यर्थः, विदिता-विज्ञाता भवन्ति, 'परवाया वि विदिता भवंति' परवादा भपि विदिता भवन्ति-परेषां-शाक्यादीनां वादाः-मतानि विदिता भवन्ति, स्वपरनिवृत्तिरूप सयममें ये सदा संलग्न रहते थे। (दंता) दान्त थे, अर्थात् इन्द्रिय और नोइन्द्रिय-मन के दमन करनेवाले थे । (इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओकाउं विहरंति) ये मुनिजन- इसी निर्ग्रन्थ प्रवचनको आगे रखकर विचरते थे, अर्थात् इनकी सब प्रवृत्ति आगमानुकूल ही होती थी ॥ सू० २५ ॥ तेसि णं भगवंताणं' इत्यादि-- (तेसि णं भगवंताणं) भगवान् महावीर के संयम से विभूषित उन शिष्यों के ( आयावाया वि) आत्मवाद-स्वसिद्धान्तप्रतिपादित --आईतवाद भी (विदिता भवंति) विदित था, अर्थात् भगवान् महावीर के ये शिष्य स्वसिद्धान्त-प्रतिपादिततत्वों के पूर्ण ज्ञाता थे । ( परवाया वि विदिता भवंति ) तथा शाक्यादिको का क्या सिद्धान्त है, यह भी इन्हें विदित था। मतलब कहने का यह है कि ये मुनिजन स्वपरसिद्धान्त के पूर्णवेत्ता थे। ऐसा कोई भी सिद्धान्त नहीं था जो इनकी अर्थात् द्रिय भने नद्रियनु मन ४२वावा ता, (इणमेव णिगंथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति) ते मुनिशन। २. निन्थ प्रयनने मागण રાખીને વિચરતા હતા, અર્થાત્ તેમની સર્વે પ્રવૃત્તિ આગમને અનુકૂળ જ यती ती. (सू. २५) 'तेसि णं भगवंताणं त्याहि. (तेसि णं भगवंताणं) सयमयी विभूषित मावान महावीरन ते शिष्यो ( आयावायावि) यात्मवाह-वसिद्धांत-प्रतिपादित तत्व-माता ५५ (विदिता भवंति) ngu ता, अर्थात् मावान महावीरन ते शिष्यो स्पसिriतप्रतिपादित तत्त्वाना स पूर्ण साता त. (परवायावि विदिता भवंति) તથા શાકય આદિકેને શું સિદ્ધાંત છે તે પણ તેઓ જાણતા હતા. કહેવાને મતલબ એ છે કે તે મુનિજને સ્વપર-સિદ્ધાંતના પૂર્ણ જ્ઞાતા હતા. એ કઈ પણ સિદ્ધાંત નહેત કે જે તેમની નજર બહાર હોય. હજુ તેઓ કેવા Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २६ भगवदन्तेवासिवर्णनम् मत्तमातंगा अच्छिद्दपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तियासिद्धान्तप्रवीणतया न किञ्चिदविदितं तेषां भवतीति भावः । पुनस्ते कीदृशाः ? इत्यनेकैविशेषणैःकथयति-'आयावायं जमइत्ता' आत्मवादान् यमयित्वा-स्वसिद्वान्तान् पुनः पुनरभ्यस्य-अतिपरिचितान् विधाय, 'नलवणमिव मत्तमातंगा' नलवनमिव मत्तमातङ्गाः-क्रीडाद्यर्थ पुनःपुनःप्रवेशेन कमलवनं यथा मदोन्मत्ता गजेन्द्रा अतिपरिचितं कुर्वन्ति तथैव ते पुनःपुनरभ्यासेन निजसिद्धान्तं परिचितं कृतवन्तोऽतस्ते तत्तुल्या इत्यर्थः । 'अच्छिह-पसिण-चागरणा' अच्छिद्र-प्रश्न-व्याकरणाः-अच्छिद्राः-निरन्तराः-धारावाहिकरूपाः प्रश्ना, निरन्तराण्युत्तराणि येषु तादृशानि व्याकरणानि-विस्तारयुक्तव्याख्यानानि येषां ते-अच्छिद्रप्रश्नव्याकरणाः-पुनःपुनःप्रश्नोत्तरसमुचितव्याख्यानिनिपुणाः, अत एव- रयण-करंडग-समाणा' रत्न-करण्डक-समानाः-रत्नानां मगिमाणिक्यादीनां करण्डको मञ्जूषा तस्य समानास्तत्तल्याः, करण्डको यथा बहुविधरत्नपूर्णो भवति दृष्टि से बाहर हो। और भी ये कैसे थे ? सो इस बात को आगे के विशेषणों द्वारा सूत्रकार कहते हैं-(आयावायं जमइत्ता नलवणमिव मत्तमायंगा) जिस प्रकार मदोन्मत्त गजराज सरोवर आदि में क्रीड़ा करने के लिये पुनःपुनः प्रवेश कर कमलवन से पूर्ण परिचित हो जाते हैं उसी प्रकार ये भी ज्ञानरूपी सरोवर में क्रीडा करने के लिये पुनः २ प्रवेश कर स्वपर-सिद्धान्तरूपी कमलवन से पूर्ण परिचित थे। ( अच्छिद-पसिण-वागरणा ) जब ये प्रवचन करते थे तब उसमें श्रोताजन धारावाहिकरूप से प्रश्न किया करते थे, उनका उत्तर भी ये उसी ढंग से देते थे । ( रयण-करंडक-समाणा) इसलिये ये ऐसे ज्ञात होते थे कि मानों रत्नकरण्डक हैं; जैसे रत्नों का करण्डक अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम अमूल्य रत्नों से भरपूर होता उता ते पत मान विशेषणेवा। सूत्र४२ ४ छ-(आयावायं जमइत्ता नलवणमिव मत्तमायंगा) 2ी रीते महोन्मत्त ४२४ सरोव२ माहिभां ક્રીડા કરવા માટે વારંવાર પ્રવેશ કરીને કમલેના વનથી પૂર્ણ પરિચિત થઈ જાય છે, તેવી જ રીતે તેઓ પણ જ્ઞાનરૂપી સરોવરમાં ક્રીડા કરવાના કારણે વારંવાર પ્રવેશ કરીને સ્વપર-સિદ્ધાંતરૂપી કમલવનથી પૂર્ણ પરિચિત હતા. (अच्छिद-पसिण-वागरणा) न्यारे ते अपयन ४२ता ता त्यारे तेभा श्रोताજનો એકધારી રીતે પ્રશ્ન કર્યા કરતા હતા અને તેના ઉત્તર પણ તેઓ તેવીજ રીતે भापता ता. (रयण-करंडग-समाणा) मेथी तेस। सेवा सागतात, तणे રત્નને કરંડિઓ હોય. જેમ રત્નોને કરંડિઓ અનેક પ્રકારના ઉંચામાં ઉંચાં Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक वणभूया परवाइपमद्दणा आयारधरा चोइसपुव्वी दुवाल संगिणो तथैव तेऽपि मुनिवराः सम्यग्ज्ञाना दिरत्नपूर्णाः सन्ति । पुनस्ते कीदृशाः ? इत्याह- 'कुत्ति - यावणभूया ' कुत्रिकाऽऽपणभूताः–कूनां स्वर्गमर्त्यपातालभूमीनां त्रिकं कुत्रिकं, तात्स्यात् तद्व्यपदेश इति कृत्वा तत्र स्थितं वस्त्वपि कुत्रिकमुच्यते, कुत्रिकस्य आपणः कुत्रिकापणः । देवाधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपाताललोकत्रयसंभविवस्तुसम्पादकहट्ट इत्यर्थः, तद्भूताः - समीहितार्थ - सम्पादनलब्धियुक्तत्वेन तत्तुल्या इति भावः । 'परवाइपमहणा' परवादिप्रमर्दनाः- परवादिनां शाक्यादीनां मतनिराकरणेन विजेतार इत्यर्थः । ' आयारधरा' आचारधराः- आचाराङ्गसूत्रस्य धारकाः यावद्विपाकसूत्रधराः, 'चोरसपुच्ची' चतुर्दशपूर्विणः चतुर्दश पूर्वाणि विषन्ते येषां ते चतुर्दशपूर्विणः षड्गुणहानिवृद्धिरूपस्थानसंस्थिताः परस्परं भवन्ति न्यूनाधिक्येन, तथाहि यः कश्चित् सकलाभिलाप्यवस्तुबेदितया चतुर्दशपूर्वी स उत्कृष्टः, ततोऽन्ये सूत्रार्थतदुभयरूपतारतम्याच्चतुर्दशपूर्वधराः । 'दुवाल संगिणे । ' द्वादशाङ्गिनः - द्वादशानि-अङ्गानि आचाराङ्गादीनि खन्ति है उसी प्रकार ये साधुजन भी सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान आदि विविध गुणरूप रत्नों से भरपूर थे । (कुत्तियात्रणभूया ) ये कुत्रिकापण तुल्य थे । जिस आपण दूकान ) में स्वर्ग मर्त्य, पाताल - तीनों लोक की वस्तुएँ रहती हैं, उसको 'कुत्रिकापण' कहते हैं । उस कुत्रिकापण से सभी अभिलषित वस्तुएँ मिलती हैं । उसी प्रकार ये अभिलषित तीनों लोक के पदार्थों के सम्पादन करने की लब्धियों से युक्त थे । अत एव कुत्रिकापण-तुल्य थे । ( परवाइपमद्दणा ) परवादियों के मत को निराकरण करने से ये उनके विजेता थे । ( आयारधरा ) आचारांग सूत्र से लेकर विपाकसूत्रतक के आगमों के ये धारक थे । ( चोहसपुब्बी ) चौदहपूर्वी के ये पाठी थे । इस प्रकार ये सब के सब ( दुबालसंगिणो ) द्वादशांग के वेत्ता थे । (समत्तકિંમતી રત્નાથી ભરપૂર હાય છે તેમ એ સાધુજના પણ સમ્યગ્દર્શન તેમજ સમ્યજ્ઞાન આદિ વિવિધ ગુણરૂપ રત્નાથી भरपूर डता, (कुत्तियावणभूया) તેઓ કુત્રિકાપણુ જેવા હતા. જે આપણુ (કાન)માં સ્વર્ગ મર્ત્ય અને પાતાળ ત્રણે લેાકેાની વસ્તુઓ રહેતી હાય તેને ‘ક્રુત્રિકા’ કહે છે. તે કુત્રિકાપણમાં બધી ઇચ્છિત વસ્તુઓ મળે છે, તેવી રીતે તેઓ પણ ત્રણે લેાકેાના ઈચ્છિત પદાર્થો મેળવવાની લબ્ધિવાળા હતા. એથી તેએ કુત્રિકાપણુ જેવા હતા. (आयारधरा) मान्याशंगसूत्रथी सहने विषासूत्र सुधीनां भागभाना तेथे धार 1 ता. ( चोहसपुव्वी) यौह पूर्वोना तेथे लगुनारा हुती. थे प्रहारे थे तभाभे तभाभ (दुबालसंगिणा ) द्वादशांगना ज्ञाता उता (समत्तगणिपिडगधरा ) समस्त १८२ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू. २६ भगवदन्तेवासिवर्णनम् समत्तगणिपिडगधरा सबक्खरसण्णिवाइणो सबभासाणुगामिणो अजिणा जिणसंकासा जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ सू० २६ ॥ येषां ते द्वादशाङ्गिनः-द्वादशाङ्गागमज्ञातारः, द्वादशाङ्गज्ञातृत्वेऽपि समस्तश्रुतधरत्वं न सिध्यतीत्यत आह-'समत्तगणिपिडगधरा'समस्तगणिपिटकधराः-गणा-गच्छः,गुणगणो वाऽस्याऽस्तीति गणी-आचार्यः तस्य पिटक इव पिटकः सर्वस्वमित्यर्थः, समस्तस्य गणिपिटकस्य धराः धारकाः अतएव-'सबक्खर-सण्णिवाइणो' सर्वाऽक्षरसन्निपातिनः,यद्यपि न क्षरति-स्वभावान्न कदाचित्य च्यवते इत्यक्षरं परं तत्त्वं केवलज्ञानादिरूपम् , तथाप्यत्र अक्षर-शब्दा स्वरव्यञ्जनभेदेन भिन्ने वर्णसमुदाये, ततश्च-अक्षराणां सन्निपाताः संयोगाः स्ववर्गपरवगैः संमीलनानि-अक्षरसन्निपाताः, सर्वे चतेऽक्षरसन्निपाताः, ते सन्ति येषां ते सर्वाऽक्षरसन्निपातिनःसर्वाक्षरज्ञानवन्त इतिभावः। 'सव्वभासाणुगामिणो' सर्वभाषानुगामिनः-सर्वाश्च ता भाषाः-भाषणानि, यद्वा भाष्यन्ते इति भाषाः= व्यक्तवचनानि, आसां भाषाणां संकृतप्राकृताऽऽदय आर्याऽनार्यादयो बहवो भेदा भवन्ति, ताःसर्वभाषा अनुगच्छन्ति एवं शीलाः सर्वभाषानुगामिनः, 'अजिणा' अजिनाःअसर्वज्ञत्वादिति भावः। जयन्ति कर्मरिपून् इति जिनाः सर्वज्ञाः, ये जिना न भवन्ति ते अनिनाः-असर्वज्ञाः, तथापि-'जिनसंकासा, जिनसङ्काशाः-जिनसदृशाः पृष्टनिर्वचनकारिगणिपिटग-धरा) समस्तगणिपिटक के धारक थे। (सव्वक्खरसण्णिवाइणो) यद्यपि केवलज्ञानादिरूप तत्त्व-अक्षर शब्द से गृहीत होना चाहिये था, परन्तु ऐसा अक्षर यहां गृहीत नहीं हुआ है, किन्तु स्वर एवं व्यंजन के भेद से भिन्न वर्णसमुदाय का ही यहां अक्षर शब्द से ग्रहण किया गया है। सन्निपात शब्द का अर्थ संयोग है। ये मुनिजन, सर्व प्रकार के अक्षरों के संयोग से क्या अर्थ होता है, उसके ज्ञाता थे। ( सव्व-भासा-णुगामिणो) आर्य एवं अनार्य सब देश की भाषा के ये सब जानकार थे। (अजिणा) ये सर्वज्ञ तो नहीं थे पर (जिणसंकासा) सर्वज्ञ के जैसे थे। गणिपिटना तसा पा२४ ता. (सव्वक्खरसण्णिवाइणो) ने सज्ञान આદિરૂપ તત્ત્વ-અક્ષર શબ્દથી લેવો જોઈતું હતું, પરંતુ એવો અક્ષર અહીં લેવાયો નથી, પણ સ્વર તેમજ વ્યંજનના ભેદથી જુદા વર્ણસમુદાયજ અહીં અક્ષર શબ્દથી લેવામાં આવ્યું છે. સન્નિપાત શબ્દને અર્થ સંગ છે. એ મુનિજને સર્વ પ્રકારના અક્ષરના સંયેગથી શું અર્થ થાય છે તેના જ્ઞાતા उता. (सव्व-भासा-णुगामिणो) मार्य तभ०४ अनार्य या देशनी भाषान तये। मा १४२ u. (अजिणा) ते सर्वज्ञ तनडात; ५५ (जिणसंकासा) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे अणगारा भगवंतो, इरियासमिया त्वाद् अविसंवादिवचनत्वाच्चेति भावः । जिणा इव अवितहं वागरमाणा' जिना इव अवितथं व्याकुर्वाणाः - जिनवद् याथातथ्येन - यद्वस्तु यादृगेव तथा कथयन्तः 'संजमेण' संयमेन - सावद्ययोगविरमणलक्षणेन 'तवसा ' तपसा 'अप्पाणं भावेमाणा विहरंति' आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति ॥ सू० २६ ॥ १८४ टीका- 'तेणं कालेणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तेवासिनेा बहवोऽनगाराः, 'भगवंता' भगवन्तः - संयमशोभावन्तः, 'इरियासमिया' ईर्यासमिताः - ईरणं - गमनमीर्या, तस्यां समिताः = पम्यक्प्रवृत्ताः, गमने ( जिणा इव अवितहं वागरमाणा ) जिन - सर्वज्ञ - प्रभु जिस प्रकार यथार्थ की प्ररूपणा करते हैं उसी प्रकार ये भी अवितथ - जो वस्तु जैसी थी उसी तरह से उसकी व्याख्या करने वाले थे । (संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति) ये सब के सब साधुजन सावद्ययोगविरमणलक्षणरूप १७ प्रकार के संयम से एवं अनशनादि १२ प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए प्रभु के साथ विचरते थे || सू० २६ || ' तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि ( तेणं कालेणं तेणं समएणं ) उस काल और उस समय में ( समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के ( अंतेवासी ) पास में रहनेवाले ( बहवे अणगारा भगवंतो ) सभी अनगार भगवान ( इरियासमिया ) ईर्यासमिति से युक्त थे, अर्थात् अन्य जीवों की किसी भी प्रकार से विराधना न सर्वज्ञ वा हुता. ( जिगा इव अवितहं वागरमा णा) निन- सर्वज्ञ-प्रभु ने अहारे યથાની પ્રરૂપણા કરે છે તેજ પ્રકારે તે પણ અવિતથ-જે વસ્તુ જેવી हती तेवी तथा तेनी व्याख्या ४२नाश हुता. ( संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाण विहरति ) तेथे तमाम साधुन सावद्ययोग विरभांशु सक्षण३५ १७ પ્રકારનાં સંયમથી તેમ જ અનશન આદિ ૧૨ પ્રકારનાં તપથી આત્માને ભાવિત કરતા કરતા પ્રભુની સાથે વિચરતા હતા. (સ્૦ ૨૬) समएणं " इत्याहि. " तेणं कालेणं तेण ( तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते आण मने ते सभयभां (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रभाणु भगवान् महावीरना (अंतेवासी) पासे रहेवावाजा ( बहने अणगारा भगवंता ) धणा अनगार लगवान ( इरियासमिया ) धर्यासभिति Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ पीयूषवर्षिणी-टीका. सु. २७ भगवदन्तेवासिवर्णनम्. भासासमिया एसणासमिया आयाण-भंड-मत्त-निक्खेवणा-समिदत्तावधाना इत्यर्थः, यथाऽन्यजीवस्य कथमपि विराधना न भवेत् तथोपयोगपूर्वकगमनशीला इति भावः । 'भासासमिया' भाषासमिताः- भाषासमितियुक्ताः-भाषासमितिर्निरवद्यवचनप्रवृत्तिस्तया युक्ता इत्यर्थः। 'एसणासमिया' एषणासमिताः-एषणायामुद्गमादिद्विचत्वारिंशद्दाषवर्जनेन समितिः-सम्यक्प्रवृत्तिरेषणासमितिस्तया युक्ताः, विशुद्धाऽऽहारादिग्रहणान्वेषणोपयोगयुक्ता इत्यर्थः। 'आयाण-भंड-मत्त-निक्खेवणा-समिया' आदा न-भाण्ड-मात्र-निक्षेपणासमिताः-आदाने ग्रहणे-अस्य भाण्डमात्रयोरित्यनेन सम्बधः-प्रत्यासत्तिन्यायात् , साहचर्याद्वा । देहलीदीपन्यायाद्वा भाण्डमात्रशब्दस्य आदाननिक्षेपाभ्यां संबन्धः, भाण्डमात्रयोः-भाण्डस्य पात्रस्य, मात्रस्य वस्त्राद्युपपकरणस्य चेत्यर्थः; हो इस प्रकार उपयोगपूर्वक गमन करने के स्वभाववाले थे। ( भासासमिया) निरवद्यवचनप्रवृत्ति से युक्त थे। (एसणासमिया) एषणा में उद्गमादिक ४२ दोषों का परिवर्जनपूर्वक प्रवृत्ति करना इसका नाम एषणासमिति है। इस समिति से युक्त एषणासमित है। ये साधुजन विशुद्ध आहारादिके ग्रहण में एवं अन्वेषणमें उपयोग-विशिष्ट थे। ( आयाण-भंड-मत्त-निक्खेवणा-समिया) आदान शब्द का अर्थ ग्रहण है। इसका संबंध प्रत्यासत्तिन्याय से, अथवा साहचर्य से भाण्डमात्र के साथ है। अथवा-भाण्डमात्र शब्द का सम्बन्ध — देहली--दीपक ' न्याय से आदान और निक्षेप इन दोनों के साथ होता है। ये साधुजन भाण्ड=पात्र एवं मात्र वस्त्रादिक उपकरण के आदान-ग्रहण और निक्षेपण-रखना रूप समिति से युक्त थे । વાળા હતા, અર્થાત્ બીજા ની કઈ પણ પ્રકારે વિરાધના ન થાય એવી रीत उपयोगपूर्व गमन ४२वाना स्वभाव ता. (भासासमिया) निरवधपयन-प्रवृत्तिामा उता. (एसणासमिया) अषणामा वाम मा ४२ होषानां પરિવર્જનપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવી તેનું નામ એષણાસમિતિ છે. આ સમિતિથી યુક્ત જે છે તે એષણાસમિત છે. તે સાધુજને વિશુદ્ધ આહારાદિક લેવામાં तभा तन मन्वेषभा उपयोगविशिष्टता, (आयाण-भंड-मत्त-निक्खेवणा-समिया) આદાન શબ્દનો અર્થ ગ્રહણ છે, તેને સંબંધ પ્રત્યાસત્તિન્યાયથી અથવા સાહચર્યથી ભાંડમાત્રની સાથે છે. અથવા ભાંડમાત્ર શબ્દને સંબંધ દેહલી દીપક' ન્યાયથી આદાન અને નિક્ષેપ એ બેઉની સાથે થાય છે, તે મુનિઓ ભાંડપાત્રના અને વસ્ત્રાદિક ઉપકરણનાં આદાન-ગ્રહણ અને નિક્ષેપણુક મૂકવારૂપ સમિતિથી યુકત હતા, અર્થાત્ પાત્ર તેમજ વસ્ત્રાદિક ઉપકરણોનાં Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ या उच्चार- पासवण- खेल - जल्ल-सिंघाण पारिडावणिया-समिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिंदिया गुत्तबंभयारी अममा अकिं औपपातिक तयोर्निक्षेपणे–अवस्थापने समिताः - सुप्रतिलेखन - मार्जनाद्युपयोगपूर्वकप्रवृत्तियुक्ताः, 'उच्चारपासवण - खेल - जल्ल-सिंघाण - पारिट्ठावणिया – समिया' उच्चार - प्रस्रवण - श्लेष्म- जल्लशिङ्घाण - परिष्ठापनिका - समिताः, तत्र - उच्चारः - पुरीषम्, प्रस्रवणं-मूत्रं, खेल:- श्लेष्मा, उपलक्षणत्वान्निष्ठीवनस्यापि ग्रहणम्, जल्लः - स्वेदजमलम्, शिङ्खाणं- नासिकामलम्, एतेषां परिष्ठापनिकापरिष्ठापना-परित्यागः–सैव परिष्ठापनिका, स्वार्थे कः, तस्यां समिताः, शुद्धस्थण्डिलाश्रयणात्सम्यगुपयुक्ताः । ' मणगुत्ता' मनोगुप्ताः - (१) त्रिविधा मनोगुप्तयः - आर्त्तरौद्रध्यानानुबन्धिकल्पनाजालबियोगः प्रथमा ( २ ) शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुबन्धिनी माध्यस्थ्यपरिणतिर्द्वितीया, (३) सकलमनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधाऽवस्थाभाविनी–आत्मरमणरूपा अर्थात् पात्र एवं वस्त्रादिक उपकरणों के सुप्रतिलेखन प्रमार्जनादिक में ये सब उपयोगपूर्वक प्रवृत्तिं करने वाले थे । ( उच्चार- पासवण - खेल - जल्ल-सिंघाण - पारिट्ठावणिया - समिया) उच्चार - पुरीष, प्रस्रवण - मूत्र, खेल - श्लेष्मा, उपलक्षण से निष्ठीवनथूकना, जल्ल- स्वेदज मेल, शिंघाण - नासिका का मेल इन सबके परिष्ठापन - रूप समिति से युक्त थे | ( मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता ) गुप्ति तीन प्रकार की है - मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति; इनमें मनोगुप्ति तीन प्रकारकी है - आर्त्त एवं रौद्रध्यान का परित्याग करना प्रथम मनोगुप्ति है, शास्त्र के अनुसार, परलोक की साधक और धर्मध्यान के साथ अनुबन्ध रखने वाली माध्यस्थ्यपरिणतिरूप द्वितीय मनोगुप्ति है । सकल मनोवृत्ति के निरोध से योगों की निरोधावस्था में होनेवाली परिणति - आत्मा में रमणरूप परिणति સુપ્રતિલેખન અને પ્રમાન આફ્રિકમાં તે બધા ઉપયાગપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા हुता. उच्चार-प।सवण-खेल-जल्ल-सिंघाण पारिद्रावणिया -समिया ) उभ्यार=पुरीष, प्रसवणु=भूत्र, भेस=श्लेष्मा, उपलक्षणथी निष्ठीवन - थुम्वु, भस - परसेवाना भेस, शिघाणु - नाना भेटा, मा अधाना परिष्ठायन३५ समितिथी युक्त ता. (मणगुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता) गुप्तित्र प्रहारनी छे मनोगुप्ति, वन्यनशुप्ति मने यशुप्ति, તેમાં મનેાપ્તિ ત્રણ પ્રકારની છે-આત્ત તેમજ રૌદ્ર ધ્યાનના પરિત્યાગ કરવા એ પ્રથમ મનેાપ્તિ છે, શાસ્ત્રને અનુસરનારી પરલેાકની સાધક અને ધમ ધ્યાનની સાથે અનુબંધ રાખનારી માધ્યસ્થ્યપરિણતિરૂપ બીજી મનેાપ્તિ છે. બધી મનેાવૃત્તિ માત્રના નિરોધથી યાગાની નિરોધાવસ્થામાં થનારી પરિણતિ-આત્મામાં Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू० २७ भगवदन्तेवासिवर्णनम् तृतीया । उक्तं च योगशास्त्रे विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनस्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता ॥इति।। तया मनोगुप्त्या युक्ताः-मनोगुप्ताः। 'वयगुत्ता' वचोगुप्ताः-वचनगुप्तियुक्ताः, वचनगुप्तिश्चतुर्विधा, उक्तं च सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा य, वयगुत्ती चउव्विहा ॥ (उत्त० अ. २४ गा. २२) छाया--सत्या तथैव मृषा च सत्यमृषा तथैव च । चतुर्थ्यसत्यमृषा च वचोगुप्तिश्चतुर्विधा । वचोगुप्तिः वचनगुप्तिश्चतुर्विधा-सत्या, मृषा, सत्यमृषा असत्यमृषा चेति । जीवं प्रति--' अयं जीवः ' इति कथनं सत्या, जीवं प्रति 'अयमजीवः' इति कथनं मृषा, पूर्वमनिर्णीय वदति-'अद्यास्मिन् तीसरी मनोगुप्ति है। योगशास्त्र में यही बात कही है विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ॥ आत्मारामं मनस्त मनोगुप्तिरुदाहता ॥ ___ इस मनोगुप्ति से युक्त होने का नाम मनोगुप्त है। वचनगुप्ति से युक्त होना सो वचनगुप्त है। वचनगुप्ति ४ प्रकार की है " सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य ॥ चउत्थी असच्चमोसा य वयगुत्ती चउब्विहा ॥ ( उत्त० अ० २४ गा. २२) अर्थ इस गाथा का इस प्रकार है। सत्य, मृषा, सत्यमृषा और असत्यमृषा; इस प्रकार वचन ४ प्रकार के होते हैं; (१) जिस वस्तु का जैसा स्वरूप રમણરૂપ પરિણતિ એ ત્રીજી મનગુપ્તિ છે. શાસ્ત્રમાં એક વાત કહી છે विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । ___ आत्मारामं मनस्तज्ज्ञ, - मनोगुप्तिरुदाहता ॥ આ મગુપ્તિથી યુક્ત હેવાનું નામ મને ગુપ્ત છે. વચનગુપ્તિથી યુકત વચનગુપ્ત છે. વચનગુપ્તિ ૪ પ્રકારની છે. सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असञ्चमामा व वयगुत्ती चउबिहा ॥ (उत्त० अ० २४गा० २२) ગાથાને અર્થ આ પ્રકાર છે સત્ય ૧, મૃષા ૨, સત્યમૃષા ૩ અને અસત્યમૃષા ૪-એ પ્રકારે વચન ૪ પ્રકારના થાય છે. (૧) જે વસ્તુનું જેવું સ્વરૂપ હોય તે વસ્તુને તે જ સ્વરૂપથી પ્રકાશિત Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૮ औपपातिकमा नगरे शतं बालका जाताः' इति तत्कथनं सत्यमृषा । ' स्वाध्यायसमं तपो नास्ति' इति कथनं चतुर्थी असत्यमृषा, यद्वचनं न सत्यं नापि मृषा, सा चतुर्थीति, चतुर्विधवचनयोगनिवृत्तिर्वचोगुप्तिरिति भावः । 'कायगुत्ता' कायगुप्ताः-गमनागमनप्रचलनादिक्रियाया गोपनं कायगुप्तिः, कायगुप्तिर्द्विधा-चेष्टानिवृत्तिरूपा, यथागमं चेष्टा-नियमरूपा च । तत्र परीषहोपसर्गादिस्संभवेऽपि यत् कायोत्सर्गकरणादिना कायस्य निश्चलताकरणम् , सर्वयोगनिरोधावस्थायां वा सर्वथा यत् कायचेष्टानिरोधनं सा प्रथमा । गुरुमापृच्छय शरीरसंस्तारकभूम्यादिहै उस वस्तु को उसी स्वरूप से प्रकाशित करनेवाला वचन सत्यवचन है; जैसेयह जीव है । (२) जीव को अजीव कहना मृपावचन है। (३) मिश्रितवचन सत्यमृषा वचन है; जैसे-आज इस नगर में सौ बालक जन्मे हैं। यह वचन मिश्ररूप इसलिये है कि इसमें सौ का निर्णय नहीं है। (४) जो वचन मृषा भी न हो और सत्य भी न हो ऐसे वचन का नाम असत्यमृषा है; जैसे-स्वाध्याय समान तप नहीं है "-ऐसा वचन न सत्य है और न असत्य ही है, अर्थात् व्यवहार वचन है । इस ४ प्रकार के वचनयोग का वचनगुप्ति में निरोध हो जाता है । गमन-आगमन आदि क्रिया का जिसमें निरोध है वह कायगुप्ति है। यह कायगुप्ति २ प्रकारकी है-चेष्टानिवृत्तिरूप १, यथा-आगम-चेष्टानियमनरूप २ । परीषह एवं उपसर्ग के आनेपर भी शरीर से ममत्व का परित्याग कर जो उसे निश्चल करना है, अथवा सर्वयोगों की निरोध-अवस्था में जो सर्वथा काय की चेष्टाओं का निरोध करना है यह चेष्टानिवृत्तिरूप पहली कायगुप्ति है। गुरु से पूछकर शारीरिक क्रियाओं की निवृत्ति के समय, કરવાવાળું વચન સત્યવચન છે. જેમકે આ જીવ છે. (૨) જીવને અજીવ वुमे भृषापयन छ. (3) भिवयन सत्यभूषावयन छ भ3 આજે આ નગરમાં સે બાળક જન્મ્યાં છે. આ વચન મિશ્રરૂપ એટલા માટે છે કે એમાં સેને નિર્ણય નથી. () જે વચન મૃષા પણ ન હોય અને સત્ય પણ ન હોય એવાં વચનનું નામ અસત્યમૃષા છે, જેમ “સ્વાધ્યાયના જેવું તપ નથી.” એવા વચન નથી તે સત્ય કે નથી અસત્ય, અર્થાત્ વ્યવહારવચન છે. આ ચાર પ્રકારનાં વચનગનો વચનગુપ્તિમાં નિરોધ થઈ જાય છે. ગમનઆગમન-આદિ કિયાઓને જેમાં નિરોધ હોય તેને કાયમુસિ કહે છે. આ કાયગુપ્તિ બે પ્રકારની છે–૧ ચેષ્ટાનિવૃત્તિરૂપ, અને ૨ યથા–આગમ–ચેષ્ટાનિયમનરૂપ. પરીષહ તેમજ ઉપસર્ગના આવવા છતાં પણ શરીરથી મમત્વને ત્યાગ કરીને જે તેને નિશ્ચિત કરવું, અથવા સર્વ યોગોની નિરધ-અવસ્થામાં જે સર્વથા કાયની ચેષ્ટાઓને નિરોધ કરવું તે ચેષ્ટા Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २७ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १८९ प्रतिलेखनाप्रमार्जनादिसमयोक्तक्रियाकलापपुरःसरं शयनासनादि विधेयम् , ततः शयनासननिक्षेपादानादिषु स्वेच्छया चेष्टापरिहारेण नियता-शास्त्रनियमानुसारिणी या कायचेष्टा सा द्वितीयेति। उक्तं च-उपसर्गप्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिर्निंगद्यते ॥१॥ शयनासननिक्षेपादानसंक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ॥२॥इति।। तया युक्ताः । 'गुत्ता' गुप्ताः-अशुभयोगनिग्रहो गुप्तिस्तया युक्ताः, 'गुत्तिदिया' गुप्तेन्द्रियाः-गुप्तानि-असंयमस्थानेभ्यः सुरक्षितानि-इन्द्रियाणि यैस्ते गुप्तेन्द्रियाः, 'गुत्तअथवा भूमि आदिकी प्रतिलेखना एवं प्रमार्जन करते समय जो अपनी इच्छानुसार शारीरिक चेष्टाओं का परित्याग करना है, एवं गुरु आदि की आज्ञानुसार शयन, आसन, निक्षेपण एवं आदानादिक में कायचेष्टा का नियमन करना है वह दूसरी कायगुप्ति है । कहा भी है-उपसर्गप्रसंगेऽपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः। स्थिरीभावः शरीरस्य, कायगुप्तिर्निंगद्यते ॥१॥ शयनासननिक्षेपा,-दानसंक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ॥२॥ श्लोकों का अर्थ ऊपर लिखे भावके अनुसार है। ये साधुजन कायगुप्ति के आराधक थे। अत एव ( गुत्ता) अशुभ योग के निग्रहरूप गुप्ति से ये मुनिजन युक्त थे। ( गुतिंदिया) असंयमस्थानों से इन्द्रियों को सुरक्षित रखनेवाले थे, इसलिये इन्हें गुप्तेन्द्रिय कहा गया है। ( गुत्तवंभयारी) नौ| નિવૃત્તિરૂપ પહેલી કાયમુર્તિ છે. ગુરુને પૂછીને શારીરિક ક્રિયાઓની (શૌચાદિની) નિવૃત્તિના સમયે અથવા ભૂમિ આદિની પ્રતિલેખના તેમજ પ્રમાર્જન કરવાના સમયે જે પિતાની ઈચ્છા પ્રમાણે શારીરિક ચેષ્ટાઓને પરિત્યાગ કરવાને છે, તેમજ ગુરુ આદિની આજ્ઞા–અનુસાર શયન, આસન, નિક્ષેપણ, તેમજ આદાનાદિકમાં કાયષ્ટાનું નિયમન કરવાનું હોય છે, તે બીજી કાયગુપ્તિ છે. ४धु ५४ छ - उपसर्गप्रसङ्गेऽपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य, कायगुप्तिर्निगद्यते ॥ शयनासननिक्षेपा,-दानसक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ॥ કેને અર્થ ઉપર લખેલા ભાવ પ્રમાણે છે. તે સાધુજને કાયમુક્તિના આરાધક હતા. માટેજ (ગુત્ત) અશુભાગના નિગ્રહરૂપ ગુપ્તિથી તે મુનિજને युत al. (गुत्तिंदिया) मस यमन स्थानोथी छद्रियाने सुरक्षित रामवाणा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० औपपातिकसूत्रे चणा अकाहा अमाणा अमाया अलेाभा संता पसंता उवसंता परिणिव्वुयाअणासवाअगंथा छिण्णगंथा छिण्णसायानिरुवलेवा, बंभयारी' गुप्तब्रह्मचारिणः-गुप्तं नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभी रक्षितं ब्रह्म-मैथुनविरमणं चरन्ति तच्छीलाः, 'अममा' अममाः-ममत्वरहिताः, 'अकिंचणा' अकिञ्चनाः-नास्ति किंचन येषां ते अकिञ्चनाः-धर्मोपकरणातिरिक्तवस्तुरहिताः । ‘अकोहा' अक्रोधाः क्रोधवर्जिताः, 'अमाणा' अमानाः = मानरहिताः, 'अमाया' मायाः = मायावर्जिताः, अलोभा' अलोभाः लोभरहिताः, 'संता' शान्ताः बहिवृत्त्या शान्तियुक्ताः, 'पसंता' प्रशान्ताः= अन्तर्वृत्या शान्तियुक्ताः, अत एव 'उपसंता' उपशान्ताः=शीतीभूताः ‘परिणिव्वुया' परिनिर्वृताः= कर्मकृतविकाररहितत्वात् स्वस्थीभूताः, अतएव 'अणासवा' अनास्रवाः= आस्रवरहिताः, 'अग्गंथा' अप्रन्थाः निर्बन्थाः, छिग्णांथा' छिन्नग्रन्थाः ग्रन्थाति बध्नाति आत्मानं कर्मणेति ग्रन्थः, स द्विविधः-- द्रव्यभावभेदात् , द्रव्यं-हिरण्यादिः, वाटिका-सहित ब्रह्मचर्य के धारक थे, इसलिये गुसब्रह्मचारी थे। (अममा) ममत्व से रहित थे। (अकिंचणा) धर्मोपकरण से अतिरिक्त और इनके पास कुछ नहीं था। (अकोहा) क्रोधरहित थे। (अमाणा) मानरहित थे। (अमाया) मायारहित थे। (अलोमा) लोभरहित थे। (संता) बाहरसे शान्तियुक्त थे, (पसंता) भाभ्यन्तर से शान्तियुक्त थे, अत एव (उवसंता) शीतीभूत थे। (परिणिव्वुया) कर्मकृत विकार से रहित होने के कारण स्वस्थ थे, अत एव (अणासवा) आस्रव से रहित थे। (अग्गंथा) निम्रन्थ थे। (छिण्णगंथा) जो आत्मा को कर्मों से जकड़े (बाँधे) उसका नाम ग्रन्थ है। यह दो प्रकार का होता है। १ द्रव्यग्रन्थ, दूसरा भावग्रन्थ । हिरण्यादि द्रव्यग्रन्थ हैं। हुता, तेथी तेमन गुप्तद्रिय ४३ छ. (गुत्तबंभयारी) नववाटि। (45) सहित प्रायर्यनु पासन ४२ना२ ता. (अममा) भभत्थी २डित उता. (अकिंचणा) धर्ना५४२४थी मतिरित मी तेमनी पासे नातु (अकोहा) ओघडित ता. ( अमाणा) भान२डित ता. (अमाया ) भाया२डित ता. (अलोभा) लडित ता. (संता) महारथी शान्तियुत u. (पसंता) माल्यन्तरथी शन्तियुत ता, मत सेव ( उवसंता) शान्त-शातीभूत मन्६२ २मने महारथी शीत . (परिणिव्वुथा) ४भत विधारथी डावाने ४२णे स्वस्थ उता, मत सव (अणासवा) गासवथी २डित al. (अग्गंथा) निन्थ ता. (छिण्णगंथा) रे मामाने भीथी ४४डी राणे (मांधे) तेनु નામ ગ્રન્થ છે. એ બે પ્રકારના થાય છે. ૧ દ્રવ્યગ્રન્થ અને ૨ ભાવગ્રન્થ. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २७ गवदन्तेवासिवर्णनम् १९१ कंसपाईव मुक्कतोया, संख इव निरंगणा, जीवो विव अप्पडिहयगई, भावो मिथ्यात्वादिः, स विविधो अन्धश्छिन्नो यैस्ते तथा। 'छिण्णसोया' छिन्नस्रोतसः-छिन्नसंसारप्रवाहाः । 'निरुपलेवा' निरुपलेपाः-कर्मबन्धहेतुरुपलेपो रागादिस्तेन रहिताः, निरुपलेपतामेव 'कंसपाईच' इत्या दे–'मुहुयहुयासणो इव' इत्यन्तैरुपमानोपमेयभावैः प्रदर्शयति, तत्र-'कंसपाईव मुक होया' कास्यपात्रीय मुक्ततोथा मुक्तं त्यक्तं तोयमिव संसारबन्धहेतुत्वात्स्नेहो यैस्ते तथा, पथा कांस्यपात्र्यां पतितमपि जलं लिप्तं न भवति तथा संसारबन्धहेतुस्तेयु लिमो न भवतीति भावः; ‘संख इव निरंगणा' शङ्ख इव मिथ्यात्वादि भावग्रन्थ हैं। इन दोनों प्रकार के ग्रन्थों से रहित होने के कारण ये 'छिन्नयन्थ' कहे गये हैं। (हिण्णसोया) संसार का प्रवाहरूप स्रोत इनसे अलग हो चुका था। (णिरुवलेवा ) धर्मबंध में कारणभूत रागादिक लेप से भी ये रहित थे; इसलिये निरुपलेप थे। इसी बात को आगे के 'कंसपाईव' से लेकर 'मुहुयहुयासणो इव' यहाँ तक के उामान पदों के द्वारा सूत्रकार प्रकट करते हैं । (कंसपाईव मुक्कतोया) काँसे का नाजन जिस प्रकार पानी के संसर्ग से सर्वथा रहित होता है उसी प्रकार जल के तुल्य: स्नेह को संसार का बंधन का हेतु होने से जिन्होंने सर्वथा छोड दिया, अथवा काँसे के भाजन में गिरा हुआ जल जैसे लिप्त नहीं होता उसी प्रकार संसारबंवाहतु आस्रव जिनमें लिप्त नहीं होता, अतः वे काँसे के भाजन के समान निरुपलेध कहे गये हैं। (संख इव निरंगणा) शंख में હિરણ્ય આદિ દ્રવ્યગ્રંથ છે. મિથ્યાત્વ આદિ ભાવગ્રન્થ છે. આ બને પ્રકારના ગ્રન્થથી રહિત હોવાના કારણે તેઓને છિન્નગ્રંથ કહેવામાં આવ્યા छ. (छिण्णसोया) संसारना प्रवा३५ स्रोत तेमनाथी यस युध्या ता. (णिरुवलेवा) मधमा ४१२७ गाहपथी ५ ते २डित Su, तथी नि३५२५ ता. मा०४ वातने माना 'कंसपाईव' थी साधने 'सुहुयहुयासणे| इव' मी सुधीनां पानपोथी सूत्र४२ ५४८ ४२ छ. (कंसपाईव मुक्कतोया) ४iसानु पास भ पाणीना साथी सवथा २डित जय छ તેજ રીતે જલના તુલ્ય સહ જ, સંસારના બંધનને હેતુ છે તેને જેમણે સર્વથા છોડી દીધો, અથવા કાંસાના વાસણમાં પડેલા પાણી જેમ લિપ્ત થતાં (એટતાં) નથી, તેવી જ રીતે સ સારબંધનને હેતુ આસવ જેઓમાં લિપ્ત થત નથી, તેથી તેઓને કાંસાના વા સણની પેઠે નિરૂપલેપ કહેવામાં આવ્યો છે. (संख इव निरंगणा) शमन ५५ २ हात नथी तेवी रीत Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ औपपातिकमत्रे जच्चकणगंपिव जायरूवा, आदरिसफलगा इव पागडभावा, कुम्मो नीरङ्गणाः-रङ्गणं रागाद्युपरञ्जनं तस्मानिर्गताः, शके यथा किमपि रञ्जनद्रव्यं स्थिति न लभते तथैतेष्वनगारेषु रागादयो न तिष्ठन्तीत्यर्थ : । 'जीवो विव अप्पडिहयगई' जीव इव अप्रतिहतगतयः-जीवो यथा शुभाशुभकर्मवशादव्याहतगत्या सर्वत्र याति तथा अप्रतिहता गतिर्येषां ते तथा, देशनगरादिषु अप्रतिबन्धविहारित्वेन वादादिषुकुतीर्थिकमतनिराकरणसामोपेतत्वेन च अस्खलितगतयः, 'जच्चकणगं पिव जायरूवा' जात्यकनकमिव जातरूपाः-शोधितसुवर्णमिव निर्मलाः-रागादिरहिता इत्यर्थः । 'आदरिसफलगा इव पागडभावा' आदर्शफलका इव प्रकटभावाः-प्रकटाः प्रकटिताः, भावाः-उत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावका जीवाजीवादिपदार्थाः यैस्ते तथा, आदर्शफलका जैसे कोई भी रंग स्थिति नहीं पा सकता, उसी प्रकार रागादिक भी उन अनगारों में ठहर नहीं सकते थे। अतः ये शंख के समान नीरङ्गण कहे गये हैं। (जीवो विव अप्पडिहयगई) जीव जिस प्रकार शुभ और अशुभ कर्म के वश प्रेरित होकर अव्याहत गति से सर्वत्र चला जाता है उसी प्रकार इनका भी देश, नगर आदिमें अप्रतिहतगतिविहार होने से एवं वाद-विवाद आदि में कुतीर्थिक मतों के निराकरण करने की सामर्थ्य से युक्त होने से ये भी जीव के समान अस्खलितगतिवाले थे। (जच्चकणगं पिव जायरूबा) शोधितसुवर्ण के समान ये बिल्कुल निर्मल थे। (आदरिसफलगा इव पागडभावा) आदर्श अर्थात् काच जिस प्रकार प्रतिबिम्बित मुखादिक अवयवों को यथावस्थित प्रकट करता है उसी प्रकार ये भी अपने ज्ञान के द्वारा उत्पाद व्यय एवं ध्रौव्य-विशिष्ट जीवाजीवादिक पदार्थों को प्रकट करते थे। इनकी રાગાદિક પણ તે અનગારમાં રહી શકતા નથી, તેથી તેઓ શંખની પેઠે नीर गए उपाय छ. (जीवाविव अप्पडिहयगई) ७१ भ शुभ मने अशुभ કર્મવશ પ્રેરિત થઈને અવ્યાહત ગતિથી સર્વત્ર ચાલ્યો જાય, તેમ તેઓની પણ દેશ નગર આદિમાં અપ્રતિહતગતિ-વિહાર હોવાથી તેમજ વાદવિવાદ આદિમાં કુતીર્થિકમતોનું નિરાકરણ કરવાનું સામર્થ્ય હોવાથી તેઓ પણ જીવની પેઠે અખલિતગતિવાળા હતા. (जच्चकणगं पिव जायरूवा) धेिसा सुवर्ण नावा तसा मिस नि त. (आदरिसफलगा इव पागडभावा) साहश अर्थात् अरीसो म प्रतिनिमित મુખ આદિક અવયવોને યથાવસ્થિત પ્રકટ કરે છે (દેખાડે છે) તેમ તેઓ પણ પિતાનાં જ્ઞાન દ્વારા ઉત્પાદ, વ્યય તેમ જ દ્રૌવ્ય-વિશિષ્ટ જીવ-અજીવ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू. २७ भगवदन्तेवासिवर्णनम् १९३ इव गुतिंदिया, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा, गगणमिव निरालंबणा, यथा प्रतिबिम्बितान् मुखाद्यवयवान् यथावस्थितं प्रकटीकुर्वन्ति, तथा यत्कृतदेशनया जनानां चित्तदर्पणे जीवाजीवादिसकलपदार्थाः सुस्पष्टं प्रकाशन्ते इत्यर्थः । 'कुम्मो इव गुतिंदिया' कूर्म इव गुप्तेन्द्रियाः-कूर्मो यथा भयहेतौ सति संवृतसर्वेन्द्रियो भवति तथा संसारभ्रमणभयाद् गुप्तानि-विषयकषायेभ्यः संरक्षितानि इन्द्रियाणि येषां ते गुप्तेन्द्रियाः। 'पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा' पुष्करपत्रमिव निरुपलेपाः-यथा कमलपत्रं निर्लिप्तं सत् जलोपरि तिष्ठति तथा निरुपलेपाः-पङ्कजलतुल्यस्वजनविषयसम्बन्धरहिता भवन्तीति भावः । 'गगणमिव निरालंबणा' गगनमिव निरालम्बनाः-कुलग्रामनगराधालम्बनवर्जिताः, जीवाजीवादिविषयक देशना ऐसी होती थी कि जिससे मनुष्यों के चित्तरूपी दर्पण में उत्पादादि--स्वभाव वाले समस्त जीवादिक पदार्थ अच्छी तरह-स्पष्टरूप से प्रतिभासित होने लगते थे। (कुम्मो इव गुतिंदिया) कच्छप जिस प्रकार भय के कारणों के उपस्थित होने पर समस्त इन्द्रियों को लंगोपित कर लेता है उसी प्रकार ये मुनिजन भी संसारपरिभ्रमण के भयसे विषय-कषायों की ओर से अपनी २ इन्द्रियों को सुरक्षित किये हुए रहते थे। (पुक्खरपत्तंव निरुवलेवा) जिस प्रकार कमलपत्र जल से निर्लिप्त होकर उस के ऊपर रहता है और कीचड से उत्पन्न होने पर भी जैसे वह उसके संबंध से रहित होता है इसी प्रकार ये साधुजन भी कीचड एवं जलतुल्य स्वजन, एवं विषयों के संबंध से बिलकुल रहित थे। (गगणमिव निरालंबणा) आकाश की तरह ये कुल, ग्राम और नगर आदि के सहारे की अपेक्षा नहीं रखते थे। ( अणिलो इव निरालया) पवन की तरह घर આદિક પદાર્થોને પ્રકટ કરતા હતા. તેમની જીવાજીવાદિ વિષયની દેશના એવી થતી હતી કે જેથી મનુષ્યના ચિત્તરૂપી દર્પણમાં ઉત્પાદ આદિ સ્વભાવવાળા સમસ્ત જીવાદિક પદાર્થ સારી રીતે સ્પષ્ટરૂપે પ્રતિભાસિત થતા હતા. (कुम्मो इव गुत्तिंदिया) आयो म नयनां ॥२॥ मावी ५i समस्त ઇંદ્રિઓને સંગપિત કરી લે છે તેમ એ મુનિજને પણ સંસાર–પરિભ્રમણના ભયથી વિષયકષાયની તરફથી પિતપતાની ઈંદ્રિઓને સુરક્ષિત રાખતા હતા. ( पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा) म भणपत्र सथी निर्मित थने तेनी ५२ રહે છે અને કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે તે પણ જેમ તે તેના સંબંધથી રહિત હોય છે તેવી જ રીતે સાધુજન પણ કીચડ તેમ જ જલતુલ્ય स्वान तेम ४ विषयोन। समथी भिस २डित ता. ( गगणमिव निरालंबणा) २४ाशनी पेठे तेमा म अने ना२ महिना मायनी Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ औपपातिकसूत्रे अणिलो इव निरालया, चंदा इव सोमलेस्सा, सूरोइव दित्ततेया, सागरो इव गंभीरा, विहग इव सव्वओ विप्पामुका, मंदरो इव अप्पकंपा, सारयसलिलंव सुद्धहियया,खग्गिविसाणं व एगजाया, 'अणिलो इव निरालया' अनिल इव निरालयाः-पवन इव गृहरहिताः, 'चंदो इव सोमलेस्सा' चन्द्र इव सौम्यलेश्याः-अनुपतापहेतुमनःपरिणामधारिणः, 'मूरो इच दित्ततेया' सूर्य इव दीसतेजसः-द्रव्यतः शरीर प्त्या भावतो ज्ञानेन च देदीप्यमानाः । 'सागर इव गंभीरा' सागर इव गम्भीराः-हर्षशोकादिकारणसंयोगेऽपि निर्विकारचित्ताः। 'विहग इव सबओ विप्पमुक्का' विहग इव सर्वतो विप्रमुक्ताः-परिवारपरित्यागात् नियतवासरहितत्वाच्चेति भावः । 'मंदरो इव अप्पकंपा' मन्दर इव अप्रकम्पाः-मेरुवत् परिषहोपसर्गपवनैरचलिताः । “सारयसलिलं व सुद्धहियया' शारदसलिलमिव शुद्धहृदयाः-यथा शरदृतौ जलं निर्मलं भवति तथा परमनिर्मलहृदया इति भावः । 'खग्गिविसाणं से रहित थे। (चंदो इव सोमलेस्सा) चन्द्र के समान इनकी लेश्या सौम्य थी। (मूरो इव दित्ततेया) सूर्य के समान ये दीप्त तेजवाले थे। शारीरिक कांति द्रव्यतेज, एवं ज्ञान यह भावतेज है। (सागर इव गंभीरा ) सागर के तुल्य ये गंभीर प्रकृति के थे। हर्ष शोक आदि के कारणों के उपस्थित होने पर भी इनके चित्त में किसी भी तरह का विकार उत्पन्न नहीं होता था। (विहग इस सबओ विप्पमुका) पक्षी की तरह ये नियमित निवास से रहित थे। (मंदरो इव अप्पकंपा) मेरुपर्वत की तरह परीषह एवं उपसर्गरूप पवन से ये अचलित थे । (सारयसलिलं व सुद्धहियया) शरद ऋतु के जल समान उनका हृदय निर्मल था। (खग्गिविसाणं व एगजाया) खड्गी मपेक्षा २मत नहता. ( अणिलो इव निरालया ) पवननी पे घरथी २डित उता. ( चंदो इव सोमलेस्सा) यंद्रनी पेठे तेभनी वेश्या सौम्य ती. (सूरो इव दित्ततेया ) सूर्यना पेठे तेथे! वीस-ते४२वी ता. शारीरि, ति द्रव्यते। तम ज्ञान से भावते छे. (सागर इव गंभीरा) सागरन वाली२ प्रतिना તેઓ હતા. હર્ષ શેક આદિનાં કારણે આવી જતાં પણ તેમના ચિત્તમાં કોઈ ५६ जना वि४२ उत्पन्न थतनहातो. (विहग इव सव्वओ विप्पमुक्का) पक्षीनी पे तमा नियभित निवासथी २डित ता. (मंदरो इव अप्पकंपा) મેરુ પર્વતની પેઠે પરીષહ તેમજ ઉપસર્ગરૂપ પવનથી તેઓ અચલિત હતા. (सारयसलिलं व सुद्धहियया ) १२६ ऋतुना सनी पेठे तभनय निर्माण डतi. (खग्गिविसाणं व एगजाया ) मडगी ( 1 )ना शीरानी पेठे, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूष वर्षिणो-टीका. सू. २७ भगवदन्तेवासिवर्णनम् भारंडपक्खीव अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, वसभो इव जाय व एगजाया' खड्गिविषाणमिवैकजाताः-खड्गी आरण्यजीवः-तस्थ विषाणं शृङ्ग, तदेकमेव भवति, तदिव एकजाताः-एकीभूता-रागादिसहायरहिताः, कुटुम्बादिसाहाय्यवर्जिता इत्यर्थः। 'भारंडप वीव अप्पमत्ता' भारण्डपक्षांचाऽप्रमत्ताः-भारण्डपक्षी-भारण्डश्चासौ पक्षी च भारण्डपक्षी, अवंद्रिजीवकस्त्रिचरणवान् द्वाभ्यां ग्रीवाभ्यां द्वाभ्यां मुखाभ्यां च युक्तः, द्वयोर्जीवयोरेकमेवोदरं भवति,तौ चात्यन्तमप्रमत्ततयैव निर्वाहं लभते। यदि कदाचिदैवात् तत्रैकोऽपि जीवः प्रमादं करोति, तदा उभयो शो भवति, तस्मात् सर्वदा चकितचित्तौ प्रमादरहितौ तौ तिष्ठतः । तद्वदप्रमत्ताः-तपःसंयमादिधर्मरक्षणे प्रमाद हिता इत्यर्थः । 'कुंजरो इव सोंडीरा' कुञ्जर इव शौण्डीराः-हस्तीव शूराः कषायादिरिपुभञ्जनशीलाः । 'वसभो इव जायत्थामा' वृषभ इव जातस्थामानः-जातं स्थाम-बलं येषां ते जातस्थामानः-वृषभवत्संजातपराक्रमा (गैंडा ) के सींग की तरह, ये रागादिकों की सहायता से रहित होने के कारण, एकस्वरूप थे। (भारंडपक्वीव अप्पमत्ता) भारंड पक्षी की तरह ये अप्रमत्त थे। यह पक्षी दो ववाला होता है। इसके तीन पैर होते हैं। ग्रीवा और मुख इसके दो होते हैं। उदर अर्थ । पेट एकही होता है । ये दोनों जीव अत्यंत अप्रमत्त होते हैं। यदि कदाचित् एक जीव प्रमाद करे तो दोनों का नाश होवे । इसलिये अप्रमत्तचित्त होकर ये दोनों बहुत ही सावधानी से रहते हैं। उसी तरह ये मुनिजन भी तप एवं संयमादिक धर्म के रक्षण करने में प्रमादवर्जित थे। ( कुंजरो इव सोंडीरा) कुंजर के समान ये कषायादिक के भंजन में शौण्डीर-शूरवीर थे। ( वसभो इव जायस्थामा) वृषभ के तमाशाहिनी सहायताथी २हित डावाने २णे, स४२१३५ हुता. (भारंडपक्खीव अप्पमत्ता) भार पक्षीनी पेठे तेस। मप्रमत्त उता. २॥ पक्ष में જીવવાળાં હોય છે. તેને ત્રણ પગ હોય છે. ડેક અને મુખ તેને બે હોય છે. ઉદર (પેટ) તેને એક જ હોય છે. તે બન્ને જીવ બહુ અપ્રમત્ત હોય છે. જે કદાચિત્ એક જીવ પ્રમાદ (ભૂલો કરે છે તે બન્નેને નાશ થાય છે. તેથી અપ્રમત્તચિન (ચતુર) થઈને તે બન્ને બહુ જ સાવધાનીથી રહે છે. તેવી જ રીતે એ મુનિજન પણ તપ તેમજ સંયમ આદિ ધર્મનાં રક્ષણ ४२पामा प्रभा२डित उता. (कुंजरो इव सोंडीरा) २ (डाथी)नी पेठे તેઓ કષાય આદિકના ભંગ (નાશ) કરવામાં શૌડીર–શૂરવીર હતા. ( वसभो इव जायत्थामा ) वृषमानी पेठे तेस। मलिष्ठ उता. ( सीहो इव दुद्ध Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ औपपातिक त्थामा, सीहा इव दुद्धरिसा, वसुंधरा इव सव्वफासविसहा, सुहुहुयासणा इव तेयसा जलंता ॥ सू० २७ ॥ 6 इत्यर्थः । ' सीहो इव दुद्धरिसा ' सिंह इव दुईपाः - सिंहवत्परीषहादिमृगैर्दुर्धर्षा इत्यर्थः । वसुंधरा इव सव्वासविसहा ' वसुन्धरा इव सर्वस्पर्शविषहा:- पृथ्वी यथा सर्वं सह्यमसह्यं वा स्पर्शं सहते सर्वंसहेति चोच्यते तथैवैते साधवोऽपि अनुकूलप्रतिकूलपरीषहोपसर्गसुसहा भवन्ति। ' मुहुयहुयासणी इव तेयसा जलंता ' सुहुतहुताशन इव तेजसा ज्वलन्तः–सुहुतः–सुष्ठु हुतः - घृताद्याहुतिभिस्तर्पितो यो हुताशनो वह्निः - तद्वत्तेजसा - तपःसंयमतेजसा ज्वलन्तो दीप्यमाना इति भावः ॥ अत्र उपमानसंग्राहकम् इदं गाथाद्वयम् : --- ' कंसे ९ संखे २ जीवे ३, जच्चे कणगे य ४ आदरिसे ५ । कुम्मे ६ पुक्खरपत्ते ७, गयणे ८ अणिले ९ य चंद १० सूरे य ११ ॥ सागर १२ विहगे १३ मंदर १४, सारयसलिलं च १५ खग्गी य १६ । भारंडे १७ गय १८ वसहे १९, सीह २० वसुंधरा २१ सुहुयहुए २२|| २ || इति ॥ सू० २७ ॥ समान ये बलिष्ठ थे। (सीहो इव दुद्धरिसा ) सिंह के समान ये दुर्धर्ष थे । सिंह जैसे मृगादिकों से अप्रधृष्य होता है, उसी प्रकार मृग जैसे परीषहादिकों से ये भी चलितचित्त नहीं होते थे। ( वसुंधरा इव सव्वफासविसहा ) पृथिवी के समान सर्वस्पर्शसह थे। पृथिवी जिस तरह सहने योग्य अथवा नहीं सहन करने योग्य ऐसे भी स्पर्श को सहती है उसी प्रकार ये मुनिजन भी अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों के उपनिपात को अच्छी तरह सहन करते थे । ( मुहुयहुयासणो इव तेयसा जलता ) सुहुत अग्नि की तरह ये तप और संयम के तेज से देदीप्यमान थे । सू. २७ ॥ रिसा ) सिंहना वा तेथे दुर्धर्ष हुता. सिंह ने भृग आदि।थी अयધૃષ્ય હાય છે તેવી જ રીતે મૃગસમાન પરીષહુ આદિકાથી તેએ પણ ચલિતचित्त थता नहोता. ( वसुंधरा इव सव्वफासविसहा ) पृथिवीनी पेठे सर्व स्पर्श સહન કરતા હતા. પૃથિવી જેમ સહેવા યાગ્ય અથવા ન સહન કરવા યોગ્ય એવા પણ સ્પર્શીને સહન કરે છે તેવી જ રીતે એ મુનિજને પણ અનુકૂળ તેમ જ પ્રતિકૂળ પરીષહોના ઉપનિપાત ને સારી રીતે સહન કરતા हता. ( सुहुहुयासणो इव तेयसा जलता ) सुहुत अग्निनी पेठे तेथे तप मने संयमना તેજથી દેીપ્યમાન હતા. (સ્૦ ૨૭) Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. २८ भगवदन्तेव सिवर्णनम् १९७ मूलम् - नत्थि णं तेसि णं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे भवइ । सेय पडबंधे चउव्विहे पण्णत्ते; तंजहा- दव्वओ खेतओ कालओ भावओ । दव्वओ णं- सचित्ताचित्तमीसिएस " " टीका - नत्थि ' इत्यादि । नास्ति अयं पक्षः, यत् खलु सि णं भगवंताणं ' तेषां खलु भगवताम्-श्रीमहावीरस्वामिनः शिष्याणाम् कत्थइ क्वापि कस्मिन्नपि विषये ' पडिवं भवइ ' प्रतिबन्धः - आसक्तिः भवतीति, श्री महावीरस्वामिनोऽन्तेवासिनां संयमप्रतिबन्वीभूतः कोऽपि हेतुः कुत्राऽपि न भवतीति भाव: । 'सेय पडबंधे चउत्रिहे पण्णत्ते ' स च प्रतिबन्धश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः 'तं जहा ' तद्यथा-भेदप्रकार श्वेत्थम् - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । तेषु 'दव्वओ णं' द्रव्यतः खलु 'सचित्ताचित्त-मीसिसु दव्वेसु' सचित्ताऽचित्त - मिश्रितेषु द्रव्येषु । तत्र - सचित्तं - शिष्यादिकम्, अचित्तं=वस्त्रादिकम्, मिश्रितम् = शिष्यसहितवस्त्रादिकम् एतेषु द्रव्येषु; 'खेत्तओ' क्षेत्रतः - 6 ' नत्थि णं ' इत्यादि । ( तेसि णं भगवंताणं ) भगवान महावीर के समीप में रहनेवाले उन स्थविर भगवन्तों का ( कत्थइ ) किसी भी विषय में ( पडिबंधे ) प्रतिबंध ( नत्थि ) नहीं था । अर्थात् भगवान् वीर प्रभु के ये समस्त मुनिजन संयम के विघातक किसी भी विषय में आसक्ति नहीं रखते थे। ( से य पडिबंधे चउन्विहे पण्णत्ते ) वह प्रतिबंध चार प्रकार का कहा गया है; (तंजा ) वह इस प्रकार है - ( दव्त्रओ खेत्तओ कालओ भात्रओ) द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से एवं भाव से । ( दव्त्रओ णं सचित्ता - चित्त - मी सिएस दव्वेसु) द्रव्य से प्रतिबंध ३ प्रकार का है - ( १ ) सचित्त (२) अचित्त (३) सचित्ताचित्त । 'aferi' Seule. ( तेसि णं भगवंताणं ) भगवान महावीरना सभीयभां રહેવાવાળા તે स्थविर लगवाने ( कत्थइ ) या विषयभां ( पडिबंधे ) प्रतिबंध ( नत्थि ) ન હેાતા, અર્થાત્—ભગવાન વીરપ્રભુના તે સમસ્ત મુનિજના સયમના વિદ્યાતક होय सेवा अर्थ या विषयभां आसहित रामता नहोता. ( से य पडिबंधे चव्विहे पण्णत्ते) ते प्रतिगंध यार प्रहारना उडेला छे. ( तंजहा ) ते या प्रारे छे. ( दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ) द्रव्यथी, क्षेत्रथी, अजथी तेभन लावथी. ( दव्वओ णं सचित्ता - चित्त - मी सिएस दव्वेसु) द्रव्यथी प्रतिगंध त्र प्रहारनो छे- (१) सचित्त, (२) अथित्त, ( 3 ) सवित्तायित्त, शिष्य याहि सचित्त छे, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ औपपातिकसूत्रे दव्वेसु । खेत्तओ-गामे वा णयरे वा रणणे वा खेत्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा । कालओ-समए वा आवलियाए वा आणा'गामेवा' ग्रामे वा, ‘णयरे वा नगरे वा 'रण्णे वा अरण्ये वा, 'खेत्तेवा' क्षेत्रे वा, खले धान्यसंम र्दनसंशोधनस्थाने वा, 'घरे वा अंगणे वा' गृहे वाऽङ्ग गे वा । 'कालो समएवा आवलियाए वा' कालतः-समये सर्वतो जघन्ये काले, समयस्य विस्तृतोऽर्थ उपासक दशाङ्गस्यागारधर्मसञ्जीवनीवृत्तितोऽवसेयः । 'आवलिकायाम्' असंख्यातसमय रूप याम् , 'आणापाणुए वा' आनप्राणे वा= शिष्यादिक सचित्त हैं। वस्त्रादिक अजीव पदार्थ अचित्त हैं। शिष्यसहित वस्त्रादिक सचित्ताचित्त हैं। इनमें इन मुनिजनों को बिलकुल भी आसक्ति नहीं थी। (खेत्तओ गामे वा णयरे वा रणे वा खेत्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा) इसी तरह क्षेत्र की अपेक्षा ग्राम में, नगर में, जंगल में, क्षेत्र में, खल-धान्यादिक के कूटने और फटकने के स्थान ऐसे खलिहान में, घर में अथवा आंगन में प्रतिबंध नहीं था। (कालओ समए वा आरलियाए वा आणापाणुए वा थोवे वा लवे वा मुहुत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा अण्णयरे वा दीहकालसंजोगे) कालकी अपेक्षा से समय-सब से छोटे काल में. इस समय और कालका विस्तृत अर्थ 'उपासकदशांग' की 'अगारधर्मसंजीवनी' वृत्ति में कहा है, वहां से जान लेना चाहिये । आवलिका में, अख्यात समयकी एक आवलिका होती है; उच्छ्वासनिश्वासकालरूप आनप्राण में, स्तोकमें-सप्तप्राणप्रमाणवाले कालविशेषमें-सात उच्छ्वासमें, लवमें-सात વસ્ત્રાદિક અજીવ પદાર્થ અચિત્ત છે. શિષ્યસહિત વસ્ત્રાદિક સચિત્તાચિત્ત છે. तमा से मुनिशनाने मिस ०४ पासहित नहाती. ( खेत्तओ गामे वा णयरे वा रणे वा खेत्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा) तेवी रीते क्षेत्रनी अपेक्षा-आममा, नगरमां, सभा, मेतरमां, स-धान्य परेने टा. ખાંડવાનાં સ્થાનભૂત એવાં ખલિહાનમાં, ઘરમાં, આંગણાંમાં પ્રતિબંધ નહોતો. (कालओ समए वा आवलियाए वा आण पाणुए वा थोवे वा लवे वा मुहुत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा अण्णयरे वा दीहकालसंजोगे) सनी અપેક્ષાએ સમય-સૌથી છેડા કાળમાં (આ સમય અને કાલને વિસ્તૃત અર્થ “ઉપાસકદશાંગની” “અગારધર્મસંજીવની” વૃત્તિમાં કહેલો છે ત્યાંથી જાણી લેવું જોઈએ.), આવલિકામાં ( અસંખ્યાત સમયની એક આવલિકા થાય છે), ઉચ્છવાસનિઃશ્વાસ-કાલરૂપ આનપ્રાણમાં, સ્તકમાં-સપ્તપ્રાણના પ્રમાણ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स. २८ भगवदन्तेवासिवर्णनम् पाणुए वा थोवे वा लवे वा मुहत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा अण्णयरे वा दोहकालसंजोगे। भावओ-कोहे वा माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा। एवं तेसिंण भवइ ॥ सू० २८॥ उच्चासनिःश्वास काल इत्यर्थः, 'थोवे वा' स्तोके वा-सतपाणमाने वा कालविशेषे, 'सत पागाणि से थोवे' इत्युक्तेः । 'लवे वा'-'सत्त थोवाणि से लवे' इति ससस्तोकमिते काले वा, 'मुहुत्ते वा' मुहूर्ते वा-लवानां सतसततिप्रमाणे काले, 'अहोरत्ते वा' अहोरात्रे वा-रात्रिदिवसप्रमाणे काले वा, 'पक्खे वा' पक्षे-पञ्चदशदिवसप्रमाणके काले वा 'मासे वा' त्रिंशदिवसप्रमाणके काले वा, 'अयणे वा' अयनेउत्तरायणदक्षिणायनभेदाद्विविधे षण्मासप्रमिते काले वा, 'अण्णयरे वा दीहकालसंजोगे' अन्यतरस्मिन् वा दीर्घकालसंयोगे-उक्तप्रभेदाः भिन्ने वा संवत्सरादिरूपे काले । 'भावओ' भावतः-'कोहे वा' क्रोधे वा 'माणे वा'-माने वा, 'मायाए वा'-मायायां वा, 'लोहे वा' लोभे वा ‘भए वा' भये वा, हासे वा। 'एवं तेसिं ण भवइ' एवं तेषां न भवति, एवं-पूर्ववर्णितप्रकारेण तत्र तत्र प्रतिबन्धः-आसक्तिस्तेषां मुनीनां न भवति ॥सू० २८॥ स्तोक अर्थात् ४९ उच्छवास-अमित कालमें, मुहूर्तमें-७७ लवोंसे प्रमित कालमें, अहोरात्रमें, पक्ष-१५ दिनके कालमें, मास-३० दिन-प्रमाण समयमें, अयनमें उत्तरायणदक्षिणायन रूप छ छ महिनोंमें, एवं और भी संवत्सरादिरूप बृहत्समयमें प्रतिबंध नहीं था। (भावओ) भावकी अपेक्षासे (कोहे वा माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा एवं तेसि ण भवइ) क्रोधमें, मानमें, मायामें, लोभमें, भयमें, अथवा हास्यमें उन मुनिजनोंको किसीभी तरहका प्रतिबंध नहीं था ॥ सू० २८॥ જેટલા કાળવિશેષમાં-સાત ઉસમાં, લવમાં-સાત સ્તોક અર્થાત્ ૪૯ ઉસના પ્રમાણના કાળમાં, મુહૂર્તમાં-૭૭ લોથી પ્રમિત કાળમાં, અહો२त्रिम, पक्ष-१५ द्विपसना मां, भास-3० ४१सना समयमां, अयनमांઉત્તરાયણ-દક્ષિણાયનરૂપ છ છ મહિનામાં, તેમજ બીજાપણ સંવત્સર આદિરૂપ ain समयमा प्रतिम नहोतो. ( भावओ) मानी अपेक्षाये ( कोहे वा माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा एवं तेसिं ण भवइ ) जोधमi, માનમાં, માયામાં, લોભમાં, ભયમાં અથવા હાસ્યમાં તે મુનિઓને કોઈ પણ तरेन। प्रतिमा नहोतो. (सू. २८) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० औपपातिकसूत्रे मूलम्-ते णं भगवंतो वासावासवजं अट्ट गिम्हहेमंतियाणि मासाणि गामे एगराइया गयरे पंचराइया, वासीचंदणसमाण - 'ते णं भगवंतो' इत्यादि। ते श्रीवर्धमानस्वामिनः शिष्याः खलु भगवन्तो 'वासावासवजं' वर्षावासवर्जम् 'अट्ठ गिम्हहेमंतियाणि' अष्टौ ग्रैष्महैमन्तिकान् ‘मासाणि' मासान् , 'गामे एगराइया' ग्रामे एकरात्रिकाः-यस्मिन् दिवसेऽनगारा ग्राममागच्छन्ति स दिवसः पुनर्यावन्नावर्तते तावत्पर्यन्तः काल एकरात्रशब्देन गृह्यते; तेनैकसप्ताहनिवासिन इत्यर्थः। 'णयरे पंचराइया'–नगरे पञ्चरात्रिकाः-यस्मिन् दिवसेऽनगारा नगरमागच्छन्ति स दिवसः पञ्चवारमावर्तितः पञ्चरात्रमुच्यते, तेनैकोनत्रिंशदिवसवासिन इत्यर्थः । स्थविरकल्पिनां शेषकाले एकस्मिन् नगरे मासकल्पविहारित्वात्। 'वासी-चंदण-समाण-कप्पा' वासी-चन्दनसमान-कल्पाः, वासी-'वसुला' इति प्रसिद्धः काष्ठतक्षणशस्त्रविशेषः, वासीव वासी अपकारी, तां चन्दनसमानं-चन्दनवत् कल्पयन्ति मन्यन्ते ये ते वासीचन्दनसमानकल्पाः-अपकारिणमप्युपकारकत्वेन मन्यमाना इत्यर्थः। तथा चोक्तम् 'तेणं भगवंतो' इत्यादि, (तेणं भगवंतो) वर्द्धमान स्वामी के वे संयमी शिष्यजन (वासावासवज्ज) वर्षाकाल-चौमासा छोडकर ( अट्ठ गिम्हहेमंतियाणि मासाणि) ग्रीष्मकाल एवं शीतकालके ८ महीनोंमें (गामे) छोटे गाममें (एगराइया) एकरात्रिपर्यन्त-एक सप्ताह तक और (णयरे) नगरमें (पंचराइया) पांच रात्रितक-२९ दिवस-पर्यन्त ठहरते थे। (वासी-चंदण-समाण-कप्पा) ये अपने अपकारीजनको भी उपकारीरूपसे मानते थे । अथवा कोई चाहे इन्हें वसूलासे छीले, चाहे चंदनसे चर्चे, दोनों पर समान दृष्टि रखते थे। कहा भी है 'तेणं भगवंतो' त्याहि (तेणं भगवंतो) पद्धभान स्वाभीना ते सयभी शिष्या (वासावासवज्ज) वर्षास-यामा छोडीन (अट्ठ गिम्हहेमंतियाणि मासाणि) श्रीभास तेभ शीतन 18 महिनामा (गामे) नाना गाममा (एगराइया) मे रात्रि सुधी-मे 24840डीया सुधी, मने (णयरे ) नगरमा ( पंचराइया) पांय रात्रि सुधी-२८ दिवस सुधी २४ता ता. (वासीचंदणसमाणकप्पा) ते પિતાના અપકારી જનેને પણ ઉપકારીરૂપ ગણતા હતા. અથવા કઈ ભલે તેમને વાંસલાથી છલે કે ભલે ચંદનથી ચર્ચે બેઉપર સમાન દૃષ્ટિ રાખતા હતા. કહ્યું પણ છે Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૧ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. २९ भगवदन्तेवासिवर्णनम् “ यो मामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ ॥ . शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥” इति ॥ यद्वा-वास्यां चन्दनसमानः कल्प आचारो येषां ते वासीचन्दनसमानकल्पाः, यो मामपकरोत्येष तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥१॥ सजनोंका जब कोई मनुष्य अपकार करता है, तब वे ऐसा समझते हैं कि यह जो मेरा अपकारी है सो तो वस्तुतः उपकारी ही है। क्यों कि इसके अपकार से हमारी सहनशीलता आदि गुणोंकी परीक्षा होती है, शत्रु-मित्रमें, निन्दा-स्तुति-आदिमें समदृष्टिता बढती है। अतः यह मेरा अपकारी नहीं, प्रत्युत उपकारी है। जैसे किसीकी गर्दनकी नस यदि चढ जाती है, उसको यथास्थानमें बैठानेके वैद उसका शिर पकडकर बायें-दायें घुमाता है, उस समय रोगीको पीडा होती है, परन्तु नसके अपने स्थान पर बैठ जाने पर पीडितकी पीडा शान्त हो जाती है, वह नीरोग हो जाता है, उसी प्रकार अपकारी भी अपकारके द्वारा सजनोंकी आत्माको, जो अनादिकालसे स्वस्थानच्युत हो संसारमें भ्रमण कर रही है; स्वस्थानमें स्थित करता है। इसलिये सजन अपने अपकारीको उपकारीही मानते हैं, उस पर आक्रोश कभी भी नहीं करते यो मामपकरोत्येष तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षाद्युपायेन कुर्वाण इव नीरुजम् ॥ १॥ સજ્જનેને કઈ મનુષ્ય જ્યારે અપકાર કરે છે ત્યારે તેઓ એમ સમજે છે કે આ જે અમારે અપકારી છે તે તે ખરી રીતે ઉપકારી જ છે. કેમકે તેના અપકારથી અમારી સહનશીલતા આદિગુણની પરીક્ષા થાય છે, શત્રુ-મિત્રમાં, નિંદા-સ્તુતિ આદિમાં સમદષ્ટિપણું વધે છે. તેથી તે અમારા અપકારી નથી, પરંતુ ઉપકારી છે. જેમકે કોઈની ગરદનની નસ જે ચડી જાય છે તે તે બરાબર ઠેકાણે બેસાડી દેવાને માટે વિદ્ય તેનું માથું પકડીને જમણું-ડાબું ફેરવે છે. તે વખતે રેગીને પીડા થાય છે; પરંતુ નસને પિતાને ઠેકાણે બેસી જવાથી તે રોગીની પીડા શાંત થઈ જાય છે, અને તે નિરોગી થઈ જાય છે. તેવી જ રીતે અપકારી પણ અપકારદ્વારા સજ્જનેના આત્માને-કે જે અનાદિકાલથી પોતાના સ્થાનથી ગ્રુત થઇ સંસારમાં ભ્રમણ કરી રહેલ છે તેને પોતાના સ્થાનમાં સ્થિર કરે છે. તેથી સજ્જન પિતાના અપકારીને ઉપકારીજ માને છે. તેના પર ગુસ્સો કદી પણ કરતા નથી. Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ औपपातिकमरे कप्पा समले कंचणा समसुहदुक्खा इहलोग-परलोग-अप्पडिबद्धा संसारपारगामी कम्मणिग्घायणट्टाए अब्भुटिया विहरंति।सू. २९॥ तथाचोक्तम् “अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । सुरभीकरोति वासी, मलयजमपि तक्षमाणमपि ॥” इति । 'समलेढुकंचणा' समलेष्टुकाञ्चनाः लेष्टुः-मृत्तिकाखण्डः, काञ्चनं-सुवर्ण, ते उभे समे तुल्ये येषां ते तथा, 'सममुहदुक्खा' समसुखदुःखाः, सुखे दुःखे च समानपरिणामा हैं, अथवा-वासी-अपकारीमें चंदनके समान है आचार जिनका ऐसे वे साधुजन थे । चंदन वासी द्वारा वसूला द्वारा काटे जाने पर भी वसूलाके मुखको सुवासित करता है। कहा भी है अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्स्युपकारमेव. हि महान्तः । सुरभीकरोति वासी मलयजमपि तलमाणमपि ॥ १ ॥ .. तथा दुष्ट-स्वभाववाले मनुष्य यद्यपि सजनोंका निरन्तर अपकार ही करते रहते हैं, तो भी वे सजन उन अपकारियों पर कभी भी क्रुद्ध नहीं होते हैं, उनका कभी भी अपकार नहीं करते हैं । प्रत्युत वे अपकारियोंका भी उपकार ही करते हैं। जैसे चंदनवृक्ष अपने अङ्गको काटनेवाले मनुष्यको, काटने के साधन कुठारके मुखको भी सुरभित ही करता है ॥१॥ (समलेढुकंचणा) पाषाण और सुवर्ण इन दोनों को बराबर समझते थे । (समसुहઅથવા વાસી-અપકારી પ્રતિ ચંદનના સરખો આચાર છે જેમને એવા તે સાધુજને હતા. ચંદન વાસીદ્ધારા-વાંસલાથી કપાઈ જવા છતાં પણ વાંસલાના મુખને સુવાસિત કરે છે. કહ્યું પણ છે– अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः । सुरभीकरोति वासी मलयजमपि तक्षमाणमपि ।। તથા તે દુષ્ટ સ્વભાવવાળા મનુષ્ય જે કે સજ્જનોને હમેશ અપકાર જ કર્યા કરે છે તે પણ તે સજ્જને તે અપકારીઓ ઉપર કદી પણ ક્રોધ કરતા નથી, કદી પણ તેમને અપકાર કરતા નથી, પરંતુ તે અપકારીઓ ઉપર પણ ઉપકાર જ કરે છે. જેમ ચંદનવૃક્ષ પિતાનાં અંગને કાપવાવાળા મનુષ્યને, मने ४५वाना साधन गुडासना भुमने पर सुजाधित ४२ छ. (१) (समलेहकंचणा) पाषाणू मने सुवर्ष से मन्नने १२।१२ समता ता. ( समसुह Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका. स. २९ भगवदन्तेवासिवर्णनम् २०३ मूलम्-तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाइत्यर्थः । ' इहलोग-परलोग-अप्पडिबद्वा' इहलोकपरलोकाऽप्रतिबद्धाः- लोकद्वयसुखासक्तिरहिताः, 'संसार-पार-गामी' संसार-पार-गामिनः-भवसमुद्रतः स्वपरात्मतारकाः, 'कम्मणिग्घायणद्वाए अब्भुटिया विहरंति' कर्मनिर्घातनार्थमभ्युत्थिताः-सकलकर्मनिर्जरणार्थं कृतोद्यमा विहरन्ति ॥ सू० २९॥ टीका-'तेसि णं' इत्यादि । तेषां श्रीमहावीरस्वामिशिष्याणां' 'भगवंताणं' भगवतां तपःयमशोभाशालिनाम्, 'एएणं विहारेणं विहरमाणाणं' एतेन विहारेण विहरताम्-तत्र विहारः विचरणं-मुनिचर्या, यद्वा विविधैरनेकप्रकारैरुपधिभारवहन-पादचलनपरीषहसहनादिरूपैः कायक्लेशैः कर्माणि हियन्तेऽनेनेति विहारः, एतेन विहारेण-ग्रामनगरा दुक्खा ) सुख एवं दुःखमें समान परिणाम वाले थे । सुखमें हर्ष एवं दुःखमें विषाद इस प्रकार विषमता लिये इनके परिणाम नहीं थे । (इहलोग-परलोग-अप्पडिबद्धा) इस लोक-संबंधी एवं परलोक संबंधी सुखोंकी आसक्ति इनके हृदयमें नहीं थी। (संसारपारगामी) ये भवरूपी समुद्रको तिरनेवाले थे। (कम्मणिग्घायणट्ठाए अब्भुट्ठिया विहरंति) समस्त कर्मोंकी निर्जरा करनेके लिये ही संयमाराधनमें तत्पर होकर विचरते थे ॥ सू० २९॥ 'तेसि णं भगवंताणं' इत्यादि, (तेसि णं भगवंताणं) महावीर स्वामीके इन स्थविर भगवन्तोंका जो (एएणं विहारेण विहरमाणाणं) इस प्रकारके विहार करते थे। विहार शब्दका अर्थ मुनिवर्या दुक्खा ) सुप तभ०४ मा समान परिणामवाय ता. सुभाष तेम विषा (४) मेवी विषम मनाम नाती. (इहलोगपरलोग-अप्पडिबद्धा ) 0 a४-सी ५२४-सधा सुमोनी मासहित तमनायम नहोती. (संसारपारगामी) तसा सव३५समुद्रने तरवावा ता. (कम्मणिग्घायणट्टाए अब्भुट्ठिया विहरंति) समस्त भीनी નિર્જરા કરવા માટે જ સંયમ-આરાધનામાં તત્પર થઈને વિચારતા હતા. (सू. २८) 'तेसि णं भगवंताण' छत्यहि, ( तेसि णं भगवंताण ) से महावीर स्वामीन त स्थविर सial (एएणं विहारेण विहरमाणाणं) । अरे विडा२ ४२ता ता. विडा२ शान। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ औपपातिकसत्रे णाणं इमे एयारूवे सम्भंतरबाहिरए तवोवहाणे होत्था । तं जहा-अभितरए वि छविहे, बाहिरए वि छव्धिहे । से दिगमनरूपेण सञ्चरताम् , 'इमे एयारूवे' इदमेतद्रूपं वक्ष्यमाणस्वरूपं 'सम्भंतरवाहिरए' साभ्यन्तरबाह्यं 'तवोवहाणे' तपउपधानं तपःकर्म 'होत्था' आसीत् ; 'तं जहा' तद्यथा-'अभितरए वि छविहे' आभ्यन्तरकमपि षड्विधं, 'बाहिरए विछबिहे' बाह्यमपि षड्विधम् । ‘से किं तं बाहिरए छबिहे पण्णत्ते' ? अथ किं तद् बाह्य षड्विधं प्रज्ञप्तम् ?–अथेति है। अथवा-"विविधैः–अनेकप्रकारै-रुपधिभारवहन-पादचलन-परीषहसहनादिरूपैःकायक्लेशैः कर्माणि हियन्ते अनेनेति विहारः” इस व्युत्पत्तिके अनुसार संयमोपयोगी वस्त्रपात्रादिरूप उपधिको स्वयं उठाना, विना किसी सवारीके पादत्राण-रहित होकर चलना, क्षुधापरीषह आदिका सहना-आदि विविध कायक्लेशों द्वारा कर्मोका हरण किया जाता है जिससे उसका नाम विहार है। इस विहार से वे मुनिवर ग्राम-नगरादि में विचरते थे। इन मुनिवरों के ( इमे एयारूवे ) इस प्रकार वक्ष्यमाण रूप से (सब्भंतरवाहिरए तवोवहाणे होत्था) आभ्यन्तर एवं बाह्य तप-उपधान था, अर्थात् वे तपस्या में तत्पर थे । (तं जहा) वह इस प्रकार है-(अभितरएवि छबिहे बाहिरएवि छबिहे ) तप दो प्रकार का है-एक आभ्यन्तर तप और दूसरा बाह्य तप । इनमें आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है और बाह्यतप भी छह प्रकार का है । ( से किं तं बाहिरए छविहे पण्णत्ते) ये छ प्रकार के बाह्यतप अर्थ भुनियर्या छ. मथा-" विविधैः अनेकप्रकारैरुपधिभारवहन-पादचलन-परीषहसहनादिरूपैः कायक्लेशैः कर्माणि हियन्ते अनेन इति विहारः" से व्युत्पत्तिઅનુસાર સંયમ–ઉપગી વસ્ત્રપાત્ર આદિરૂપ ઉપધિને પિતે ઉપાડવી, કઈ વાહન વિના અને પગરખાં વિના ચાલવું, સુધા (ભૂખ)–પરીષહ, આદિ સહન કરવા વિગેરે વિવિધ કાયકલેશેદ્વારા કર્મોનો ક્ષય થાય છે જેનાથી તેનું નામ વિહાર છે. આ વિહારથી તે મુનિવરે ગામ નગર આદિમાં વિચરતા डता. ते मुनिपरानु ( इमे एयारूवे ) - प्रा२ वक्ष्यमा ३५थी (सब्भंतरबाहिरए तवोवहाणे होत्था ) मान्यत२ ते ४ या त५ उतुं; अर्थात् ते तपस्यामा तत्५२ ता. (तं जहा) ते २0 प्रारे छ-( अभितरए वि छव्विहे बाहिरए वि छव्विहे) त५ 2. प्रा२नां छ-४ माल्या तर त५, मने मीj બાહાતપ. તેમાં આત્યંતર તપ પણ છ પ્રકારનાં છે અને બાહ્યતા પણ છે प्रजानां . (से किं तं बाहिरए छविहे पण्णत्ते ? ) ते छ प्रा२नु मात५ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषर्षिणी-टीका. सू. ३० तपःम्वरूपवर्णनम् २०५ किं तं बाहिरए छबिहे पण्णले?, तं जहा-अणसणे १ ओमोयरिया २ भिक्खायरिया ३ रसपरिचाए ४ कायकिलेसे ५ पडिसंलीणया ६ । से किं तं अणसणे ? अणसणे दुविहे पण्णते, तं आनन्तर्ये, तद् बाह्य-बहिर्दृश्यमानं षड्विध=षट्प्रकारकं तपः किं-कीदृशं प्रज्ञप्तम् ?-इति प्रश्नः । उत्तरमाह-'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा, 'अणसणे' अनशनम् १, 'ओमोअरिया' अवमोदरिका (२), 'भिक्खायरिया' भिक्षाचरिका (३), 'रसपरिच्चाए' रसपरित्यागः (४), 'कायकिलेसे' कायक्लेशः (५), 'पडिसंलीणया' प्रतिसंलीनता (६), एतत् षड्विधं तपो बहिर्दृश्यते इति बाह्यम् । एषु अनशनं जिज्ञासुः शिष्यः पृच्छति-'से किं तं अणसणे' अथ किन्तदनशनम् ? अनशनं किंस्वरूपं कतिविधं चेति प्रष्टुरभिप्रायः । अस्योत्तरम्-'अणसणे दुविहे पण्णत्ते' अनशनं द्विविधं प्रज्ञप्तम् ? अनशनम् आहारपरित्यागः, तद् द्विविधं प्रज्ञतम्, द्विविधत्वं प्रकटयति-तं जहा' तद्यथा 'इत्तरिए य' इत्वकौन हैं ? यह प्रश्न है। उत्तर-(तं जहा वे छह प्रकार के बाह्य तप इस प्रकार हैं-(अणसणे, ओमोयरिया, भिक्खायरिया, रसपरिच्चाए, कायकिलेसे,पडिलीणया) अनशन, अवमोदरिका, भिक्षाचरिका, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता ये बाह्यतप हैं । बाह्यतप ये इसलिये कहे गये हैं कि सबके लिये प्रकटरूपसे दृष्टिगोचर होते हैं । (से किं तं अणसणे ) शिष्य प्रश्न करता है-हे भदन्त ! अनशन तप का क्या स्वरूप है ? वह कितने प्रकार का है ?, उत्तर ( अणसणे दुविहे पण्णत्ते ) अनशन दो प्रकार का है । ( तं जहा ) उसके वे दो प्रकार ये हैं-( इत्तरिए य आवकहिए य) इत्वरिक और यावकथिक । इनमें इत्वरिक अप काल का है, और यावत्कथिक यावजीव का है। श्रीमहावीर शु छ ? ( तं जहा ) ते ७ प्रा२न। माह्यत५ । प्रमाणे छ-(अणसणे, ओमोयरिया, भिक्खायरिया, रसपरिच्चाए, कायकिलेसे, पडिसलीणया) अनशन, અવમેરિકા, ભિક્ષાચરિકા, રસપરિત્યાગ, કાયકલેશ અને પ્રતિસંલીનતા એ બાહ્યતમ છે. એ બધાંને બાધતપ એટલા માટે કહેવામાં આવે છે કે याने ते ५४८३पे दृष्टिगाय२ थाय छे. ( से किं तं अणसणे?) शिष्य प्रश्न કરે છે–હે ભદન્ત ! અનશન તપનું શું સ્વરૂપ છે? તે કેટલા પ્રકારનું છે? उत्तर-(अणसणे दुविहे पण्णत्ते) मनशन में प्रा२नु छ. (तंजहा) तेना से ४२ या प्रमाण छ-( इत्तरिए य आवकहिए य) प२ि४ अने या१४थि४. तमा ઈત્વરિક છેડા સમયનું છે, અને યાવત્રુથિક જીવનપર્યતનું છે. શ્રી મહાવીર Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ औपपातिकसूत्रे जहा - इत्तरिए य १ आवकहिए य २ । से किं तं इतरिए ? इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - चउत्थभत्ते १ छट्टभत्ते २ अट्टमभन्त्ते रिकं च- एति - गछति तच्छीलम् इत्वरं, तदेव - इरिकम् - अल्पकालिकम्, यथा श्रीमहावीरस्वामिनस्तीर्थे नमस्कारसहित प्रत्याख्यानकालादारम् मासपर्यन्तम्, श्रीनाभेयतीर्थङ्करतीर्थे संवत्सरपर्यन्तम्–इति १ । ' आवकहिए य' यावत्कथिकञ्च - यावत् - यदवधिर्मनुष्योऽयमिति मुख्यव्यवहाररूपा कथा यावत्कथा, तत्र भवं श्रावत्कथिकं - जीवनपर्यन्तम् अनशनमिति । अनयोरित्वरिकं पृच्छति——से किं तं इत्तरिए' अथ किन्तद् इत्वरिकम् ?, अस्योत्तरमाह'rate aorat पण्णत्ते' इत्यरिकम् अनेकविधं प्रज्ञम् 'तं जहा ' - तद्यथा - तानि यद्रूपाणि सन्ति तथा कथयति - 'चउत्थभत्ते' चतुर्थभक्तम् - एकोपवासरूपम् १ | 'छट्टभत्ते ' षष्ठभक्तम्–निरन्तरदिनद्वयोपवासरूपम् २ | 'अट्टमभत्ते' अष्टमभक्तं- निरन्तरदिनत्रयोपवासरूस्वामी के तीर्थ में इत्वरिक तप नमस्कारसहित = नौकारसी प्रत्याख्यान काल से लेकर छह मासपर्यन्त का कहा गया है। श्री आदिनाथ तीर्थंकर के शासन में इसकी मर्यादा नौकासी से लेकर एकवर्ष पर्यन्त की थी। शेष २२ तीर्थकरों के शासन में अष्टमास पर्यन्त इसकी अवधि थी । (से किं तं इत्तरिए ? ) इत्वरिक तप क्या है ? उत्तर - ( इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते ) यह इत्वरिक तप अनेक प्रकार का कहा गया है; (तं जहा) वे प्रकार ये हैं(चउत्थभत्ते छठ्ठभत्ते अट्टमभत्ते दसमभत्ते बारसभत्ते चउदसभत्ते सोलसभत्ते अद्धमासियभत्ते मासियभत्ते दोमासियभत्ते तेमासियभत्ते चउमासियभत्ते पंचमासियभत्ते छम्मासिय भत्ते ) चतुर्थभक्त - एक उपवास, षष्ठभक्त-दो उपवास - निरन्तर - लगातार दिन का उपवास, अष्टमभक्त - निरन्तर तीन दिन तक उपवास, दशभभक्तं चार उपवास - लगातार સ્વામીના તીમાં ઈત્વરિક તપ નમસ્કારસહિત–નૌકારસી પ્રત્યાખ્યાનકાલથી લઈને છ માસ સુધીનું કહેવું છે. શ્રી આદિનાથ તીર્થંકરના સમયે તી માં તેની મર્યાદા નૌકારસીથી લઈ ને એક વર્ષ સુધીની હતી. બાકીના ૨૨ તી - ४रौना तीर्थभां ८ भास सुधीनी तेनी अवधि हुती. ( से किं तं इत्तरिए ? ) त्वरिङ तय शु छे ? उत्तर - ( इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते ) मा त्वरि तथ हे छे; ( तंजहा ) ते साम छे. ( चउत्थभत्ते भत्ते अमभत्ते दसमभत्ते बारसभत्ते चउदसभत्ते सोलसभत्तं अद्धमासियभत्ते मासियमभन्त्ते दोमासियभत्ते तेमासियमभत्ते उमासियमभत्ते पंचमासियभत्ते छम्मा सियभत्ते ) तुर्थ-लत मे उपवास, षण्डलस्त मे उपवास-निरन्तर लगातार मे हिवसनी उपवास, अष्टभलत- साथै त्रशुद्विवसनो उपवास-त्र उपवास, दृशभ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૭ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. ३० अनशनतपोवर्णनम् ३ दसमभत्ते ४ बारसभत्ते ५ चउद्दसभत्ते ६ सोलसभत्ते ७ अद्धमासियभत्ते ८मासियभत्ते ९ दोमासियभत्ते १० तेमासियभत्ते ११ चउमासियभत्ते १२ पंचमासियभत्ते १३ छम्मासियभत्ते १४, पम् ३ । 'दसमभत्ते' दशमभक्तम्-निरन्तरदिनचतुष्टयोपवासरूपम् ४ । 'वारसभत्ते' द्वादशभक्तम्-निरन्तरदिनपञ्चकोपवासवतम् ५। 'चउदसभत्ते' चतुर्दशभक्तम्-निरन्तरदिनवट्कोपवासरूपम् ६ । 'सोलसभत्ते' षोडशभक्तम्-निरन्तरदिनसप्तकोपवासरूपम् ७ । 'अद्धमासियभत्ते' अर्द्धमासिकभक्तम्-निरन्तरपञ्चदशदिवमोपवासरूपम् ८ । 'मासियभत्ते' मासिकभक्तम्निरन्तरत्रिंशदिवसोपवासरूपम् ९ । 'दोमासियभत्ते' द्वैमासिकभक्तम् 'तेमासियभत्ते' त्रैमासिकभक्तम् । 'चउमासियभत्ते' चातुर्मासिकभक्तम् । 'पंचमासियभत्ते' पाञ्चमासिकभक्तम् । 'छम्मासियभत्ते' पाण्मासिकभक्तम् । 'से तं इत्तरिए' तदेतदित्वरिकम् । 'से किं तं 'आवकहिए' अथ किन्तद् यावत् कथिकम् ? 'आवकहिए' यावत्कथिकम्-यावत्-यदवधिः ४ दिन के उपवास, द्वादशभक्त–पाँच उपवास-लगातार पाँच दिन तक उपवास, चतुर्दशभक्तछ उपवास-लगातार ६ दिनतक उपवास करना, षोडशभक्त-७ दिन उपवास-लगातार ७ दिनतक उपवास करना, अद्वैमासिकभक्त-निरन्तर-लगातार १५ दिनतक उपवास करना, मासिकभक्त-लगातार एक महिने भरके उपवास करना, द्वैमासिकभक्त-लगातार एकही साथ दोमास के उपवास, त्रैमासिकभक्त-लगातार-एकही साथ ३ मास के उपवास, चातुर्मासिकभक्त लगातार-एकहीसाथ चार महिने का उपवास, पाश्चमासिकभक्त-पाच महिने के लगातार उपवास, और पाण्मासिकभक्त लगातार छह महिने के उपवास करना । यह सब. इत्वरिक नामका अनशन तप है । यावत्कथिक का मतलब है-जबतक “ यह मनुष्य है " इस ભક્ત-ચાર ઉપવાસ-એક સાથેજ ચાર દિવસને ઉપવાસ, દ્વાદશભક્ત-પાંચ ઉપવાસ-એકસાથે પાંચ દિવસ સુધી ઉપવાસ, ચતુર્દશભક્ત–એક સાથે ૬ દિવસે સુધી ઉપવાસ કર, ષોડશભક્ત-૭ દિવસ એક સાથે ઉપવાસ કરે, અર્ધમાસિકભક્ત નિરંતર એક સાથે ૧૫ દિવસ સુધી ઉપવાસ કર, માસિકભક્ત– એક સાથે એક મહિના સુધી ઉપવાસ કર, દૈમાસિકભક્ત-એક સાથે બે મહીના સુધીના ઉપવાસ, સૈમાસિક ભક્ત–એક સાથે ત્રણ માસ સુધી ઉપવાસ, ચાતુર્માસિક ભક્ત-એક સાથે ચાર મહિનાના ઉપવાસ, પાંચમાસિકભક્ત=પાંચ મહિના સુધી એકીસાથે ઉપવાસ, અને ષામાસિક ભક્ત-છ મહિના સુધી એકીસાથે ઉપવાસ કરે. આ બધું ઈ–રિકનામનું અનશન તપ છે. યાવત્ક Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ औपातिकसूत्रे से तं इत्तरिए। से किं तं आवकहिए ? आवकहिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पाओवगमणे य १ भत्तपचक्खाणे य २।से किं तं पाओकथा-' मनुष्योऽयम्' एतद्रूपा सा यावत्कथा, तत्र भवं यावत्कथिकम्-थावजीवनमित्यर्थः, तद् 'दुविहे पण्णत्ते' द्विविधं प्रज्ञप्तम् । 'तं जहा' तद्यथा-'पाओवगमणे य भत्तच्चक्खाणे य' पादपोपगमनं च भक्तप्रत्याख्यानं च, तत्र-पादपस्येव वृक्षस्येवोपगमनम्अस्पन्दतया-निश्चलतयाऽवस्थानं पादपोपगमनम-चतर्विधाSSहारपरित्यागेन शरीरप्रतिक्रियावर्जनेन च वृक्षवन्निश्चलावस्थानमित्यर्थः। 'स किं तं पाओवगमणे-अथ किन्तत्पादपोपगमनम् ?-पादपोपगमनं कीदृशम् ? अत्राह-पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते' पादपो प्रकार का उसके तप करने वाले के साथ व्यवहार चलता रहे तबतक जो व्रत किया जाय वह यावत्कथिक है-जीवनपर्यन्त आराधित अनशन त यावत्कथिक है । ( से किं तं आवकहिए ?) यावत्कथिक तप कितने प्रकार का है . उत्तर-(आवकहिए दुविहे पण्णत्ते ) यह तप दो प्रकार का है-( तं जहा ) वह इस प्रकारसे ( पाओवगमणे य भत्तपच्चकवाणे य) पादपोपगमन और दूसरा भक्तप्रत्याखान । जिसमें कटे वृक्ष की तरह निश्चल हो कर स्थिति रहे वह पादपोपगमन है-चारों प्रकार के आहार के परित्याग से एवं शरीर की शुश्रूषा आदि क्रियाओं के परित्याग से कटे वृक्ष की तरह निश्चल हो जाना इसका नाम पादपोपगमन है। (से किं तं पाओवगमणे?) पादपोपगमन कितने प्रकार का है ?, (पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते )यह पादपोपगमन संथारा दो प्रकार का है; ( तं जहा ) वह इस થિકની મતલબ છે, જ્યાં સુધી “ આ મનુષ્ય છે” એ પ્રકારને તેના–તપ કરનારના સાથે વ્યવહાર ચાલતો રહે ત્યાં સુધી જે વ્રત કરવામાં આવે તે यावथि छ-छपनपत २माराधित मनशन त यावत् थि: छ. (से किं तं । आवकहिए ) या४थि व्रता प्रा२ना छ ? उत्तर ( आवकहिए दुविहे पण्णत्ते) 40 त५ मे प्रानुं छे. ( तं जहा ) ते 40 प्रा२ छ. (पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य) (१) पाहपापाभन मने मी सातत्याખ્યાન. જેમાં કાપેલાં વૃક્ષની પેઠે નિશ્ચલ જેવી સ્થિતિ રહે તે પાદપપગમન છે–ચારેય પ્રકારના આહારને ત્યાગ કરીને તેમજ શરીરની સેવા-સુશ્રષા આદિ ક્રિયાઓના ત્યાગ કરીને કાપેલાં વૃક્ષની પેઠે નિશ્ચલ થઈ જવું તેનું नाम पाहपोपशमन छे. (से किं तं पाओवगमणे?) पापोभन टा२न। छ ? (पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते) २ पापोपगमन संथा। मे प्रा२ना Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायूषवर्षिणी टीका सू. ३० अनशनतपोवर्णनम् २०९ वगमणे? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते; तं जहा-वाघाइमे य १ निव्वाघाइमे य २ नियमा अप्पडिकम्मे। से तं पाओवगमणे। से किं तं भत्तपञ्चक्खाणे ? भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते; तं पगमनं द्विविधं प्रज्ञप्तम् ; 'तं जहा' तद्यथा-'वाघाइमे य' व्याघातवच्च-व्याघातः-व्याघ्रसिंह-दावानलादि-संजातोपद्रवः, तेन सहितं व्याघातवत् । 'निवाघाइमे य निर्व्याघातवच्चसिंहदावानलाद्युपद्रवरहितं यत्प्रतिपद्यते तत् निर्व्याधातवत् , व्यावातविरहितमित्यर्थः । एतद् द्विविधं 'नियमा अप्पडिकम्मे' नियमादप्रतिकर्म=नियमतः शरीरचलनादिक्रियारहितं भवति । 'से तं पाओवगमणे' तदेतत्पादपोपगमनम् । ‘से किं तं भत्तपच्चक्खाणे?' अथ किं तद् भक्तप्रत्याख्यानम् ?,-'भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते' भक्तप्रत्याख्यानं द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तत्र–भक्तप्रत्याख्यानं-चतुर्विधस्याऽऽहारस्य, त्रिविधस्य पानकरहितस्य वाऽऽहारस्य वर्जनरूपं द्विविधं प्रज्ञप्तम्-द्विप्रकारकं कथितम् । 'तं जहा' तद्यथा-वाघाइमे य' प्रकार से-(वाघाइमे य१निव्वाघाइमे य २ नियमा अप्पडिकम्मे) १ व्याघातवत्, २ निर्व्याघातवत् । जो व्याघ्र, सिंह एवं दावानल आदि से उद्भूत उपद्रव से सहित होता है वह व्याघातवत् है । जिसमें इस प्रकार के उपद्रव न हों वह निर्व्याघातवत् है । यह पादपोपगमन नियमतः शारीरिक हलनचलन आदि क्रियाओं से रहित होता है । तथा इसमें औषधोपचार आदि नहीं किया जाता है। (सेतं पाओवगमणे) यह पादपोपगमन सन्थारा है। अब भक्तप्रत्याख्यान का वर्णन करते हैं-(से किं तं भत्तपच्चक्खाणे) यह भक्तप्रत्याख्यान कितने प्रकार का होता है ?, ( भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते ) यह भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का है, (तं जहा) वह इस प्रकार-(वाघाइमे य निव्याघाइमे य छे-(तं जहा) ते २॥ प्रारे-(वाघाइमे य १ निव्वाघाइमे २ य नियमा अप्पडिकम्मे ) १ व्याघातत् मने मीन नियाधातपत्. पाच (सावन) તેમજ દાવાનલથી થતા ઉપદ્રવવાળા હોય છે તે વ્યાઘાતવત્ છે. જેમાં એ પ્રકારના ઉપદ્રવ ન હોય તે નિર્યાઘાતવત્ છે. આ પાદપોપગમન નિયમ પ્રમાણે શારીરિક હલનચલન આદિ ક્રિયાઓથી રહિત હોય છે, તથા એમાં ઔષધેपया२ मा नथी ४२ता. (से तं पाओवगमणे) ये पाहपोपगमन संथारे॥ २॥ प्रमाणे थाय छे. हुवे मतप्रत्याभ्याननु वर्णन ४२ छ-(से किं तं भत्तपञ्चक्खाणे ?) मा मतप्रत्याज्यान प्रारना थाय छ ? (भत्तपञ्चक्खाणे दुविहे पण्णत्ते) से में प्रा२॥ छ-(तं जहा) ते ॥ ४॥२-(वाघाइमे य निव्वाघाइमे य नियमा Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० औपपातिकसूत्रे जहा-वाघाइमे य १ निव्वाघाइमे य २णियमा सप्पडिकम्मे।से तं भत्तपच्चक्खाणे। से तं अणसणे। से किं तं ओमोयरिया ? ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-दव्वोमोयरिया य १ भावोमोव्याघातवच विनयुक्तञ्च । 'निव्वाघाइमे य निर्व्याघातवच्च-विघ्नरहितं च । एतद् द्वयं 'णियमा सप्पडिकम्मे' नियमात् सप्रतिकर्म-नियमतः शरीरचलनादिक्रियासहितं भवति । तेन बाह्यौषधोपचारो वैयावृत्त्यं च तस्य भवति । ' से तं भत्तपच्चक्खाणे' तदेतद् भक्तप्रत्याख्यानम् । ' से तं अणसणे' तदेतदनशनम् । 'से किं तं ओमोयरिया' अथ का साऽवमोदरिका ?, 'ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता' अवमोदरिका द्विविधा प्रज्ञप्ता-अवमोदरिका-अवमम्-ऊनम् , उदरं यस्मिन् भोजने तद् अवमोदरं, तदस्त्यस्यामिति अवमोदरिका-तपोरूपा क्रिया, सा द्विविधा प्रज्ञप्ता,-द्विप्रकानियमा सप्पडिकम्मे ) १ व्याघातवत् २ निाघातवत् । इस भक्तप्रत्याख्यान में चौविहार एवं तेविहार दोनों किया जाता है । विघ्नयुक्त का नाम व्याघातवत् एवं विघ्नरहित का नाम निर्व्याघातवत् है । इस तप में नियमतः शारीरिक हलन–चलनादिक क्रियाएँ होती हैं । उनका इसमें परित्याग नहीं है । इसलिये इसमें बाह्य औषधोपचार, एवं वैयावृत्य किये जाते हैं । ( से तं भत्तपञ्चक्खाणे) यह भक्तप्रत्याख्यान के भेदों का वर्णन है । (से तं अणसणे) इस प्रकार तपके १२ भेदों में से अनशन नामका १ प्रथम बाह्यतप का वर्णन सम्पूर्ण हुआ । (से किं तं ओमोयरिया ?) प्रश्न–अवमोदरिका किसे कहते हैं और वह कितने प्रकार की है ? (ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता) उत्तर-यह अवमोदरिका सप्पडिकम्मे ) १ व्याधातवत् २ निाधातत्. । मतप्रत्याभ्यानमा यौपिडा२૪ ચારે પ્રકારના આહારને ત્યાગ તેમજ તેવિહાર બન્ને કરવામાં આવે છે. વિદનવાળાનું નામ વ્યાઘાતવતું તેમજ વિદ્ધરહિતનું નામ નિર્ચાઘાતવત છે. આ તપમાં નિયમ પ્રમાણે શારીરિક હલનચલન આદિક ક્રિયાઓ થાય છે. તેને આમાં પરિત્યાગ નથી. તેથી આમાં બાહ્ય ઔષધેપચાર તેમજ વૈયાવૃત્ય કરાય છે. ( से तं भत्तपञ्चक्खाणे) २मतप्रत्याभ्यानना हार्नु वर्णन छे. (से तं अणसणे) से प्रारे तपन १२ लेहाभांथा. मनशननाभना १ प्रथम पाहતપનું વર્ણન સંપૂર્ણ થયું. (से किं तं ओमोयरिया) प्रश्न-अपमहरि ने ४९ छ ? मने ते टा मारनी छ ? (ओमोयरिया दुविहा पण्णत्ता) उत्तर-से अवमोहरिया में प्रा२नी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स्व. ३० अवमोदरिकातपोषर्णनम्. २११ यरिया य २ । से किं तं दव्वोमोयरिया ? दवोमोयरिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवगरणदव्योमोरिया य १ भत्तपाणदव्योमोयरिया य २। से किं तं उवगरणदव्वोमोयरिया ? उवगरणदव्वोमोयरिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगे वत्थे १ एगे पाए २ चियरा कथिता 'तं जहा' तद्यथा-'दव्योमोयरिया य' द्रव्यावमोदरिका च । 'भावोमोयरिया य' भावाऽवमोदरिका च । 'से किं तं दबोमोयरिया ?' अथ का सा द्रव्याऽवमोदरिका ?, 'दव्योमोयरिया दुविहा पण्णत्ता' द्रव्यावमोदरिका द्विविधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा'-तद्यथा ' उवगरणदव्योमोयरिया य ' उकग्णद्रव्यावमोदरिका च १ । 'भत्तपाणदयोमोयरिया य' भक्तपानद्रव्यावमोदरिका च २ । 'से किं तं उवगरणदव्योमोयरिया' अथ का सा उपकरणद्रव्यावमोदरिका ? 'उवगरणदव्योमोयरिया तिविहा पण्णत्ता' उपकरणद्रव्यावमोदरिका त्रिविधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-१ 'एगे वत्थे' एकं वस्त्रम्-एकचोलपट्टरूपं वस्त्रं न द्वितीयम् ; २--'एगे पाए' एकं पात्रम् ; ३-'चियत्तावगरणसाइदो प्रकारकी है; [तं जहा] वे दो प्रकार ये हैं-दबोमोयरिया य भावोमोयरियाय । एक द्र,विमोदरिका और दूसरी भावावमोदरिका । [ से किं तं दव्योमोयरिया] प्रश्नवह द्रव्यावमोदरिका क्या है-कितने भेदवाली है ? उत्तर-[दव्योमोयरिया दुविहा पण्णता] द्रव्यावमोदरिका दो भेदवाली है; [तं जहा] वे दो प्रकार इस तरह हैं-[उवगरणदव्योमोयरिया य भत्तपाणदव्योमोयरिया य] १ उपकरणद्रव्यावमोदरिका और २ भक्तपानद्रव्यावमोदरिका । [उवगरणदब्बोमोयरिया तिविहा पण्णत्ता] इनमें उपकरणद्रव्यावमोदरिका तीन प्रकार की है। (तं जहा) वे तीन प्रकार ये हैं-[एगे वत्थे एगे पाए चियत्तोवगरणसाइजणया] एक वस्त्र १, एक पात्र २, और तीसरा त्यक्तोपकरणस्वादनता छ. ( तंजहा ) ते मे ४२ ॥ छ-(दव्वोमोयरिया य भावोमोयरिया य) ४ द्रव्यावभा२ि४॥ मने मी० लावावमा२ि४. (से किं तं दव्वोमोयरिया ) प्रश्न-- 2 द्रव्यावहारि४। शुछ ? ॥ ४२नी छ ? (दव्योमोयरिया दुविहा पण्णत्ता) उत्तर-ते में प्रा२नी छ-( तं जहा) ते मे ५४२ मावी रीते छे. ( उवगरणदव्वोमोयरिया य भत्तपाणदव्वोमोयरिया य) १ ५४२ द्रव्यापभाह२ि४। मने भी मतदानद्रव्यावहारि४. ( उवगरणदव्वोमोयरिया तिविहा पण्णत्ता) भां 6५४२ द्रव्यावसाहरि४॥ १Y ४।२नी छे. (तं जहा) ते ३१ ४१२ मा छ-( एगे वत्थे एगे पाए चियत्तोवगरणसाइज्जणया ) १ मे १स, मीना से पात्र, मने श्री त्यस्तो५४२१२१। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ औपपातिकसूत्रे त्तोवगरणसाइजणया ३ से तं उवगरणदव्योमोयरिया। से किं तं भत्तपाणदव्वोमोयरिया ? भत्तपाणदव्वोमोरिया-अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-अट्ट कुकुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारजगया' त्यक्तोपकरणस्वादनता, त्यक्ता-उपकरणस्य स्वादनता-आसक्तिर्यस्यामवमोदरिकायां सा तथा, भाण्डोपकरणादिषु मूपिरित्यागितेत्यर्थः । ' से तं उवगरणदव्योमोयरिया' सैषा उपकरणद्रव्यावमोदरिका । ‘से कि तं भत्तपाणदव्योमोयरिया' अथ का सा भक्तपानद्रव्यावमोदरिका ? ' भत्तपाणदव्वोमोयरिया'-भक्तपानद्रव्यावमोदरिका-' अणेगविहा पण्णत्ता' अनेकविधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-'अट्ठ कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अप्पाहारे' अष्टौ कुक्कुटाऽण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् आहरनल्पाहारः-अष्ट कुक्कुटा३ । वस्त्र में एक ही वस्त्र रखना; जैसे कोई चोलपट्ट रखता है तो वह वही रखेगा, अन्य दूसरा वस्त्र नहीं रख सकता। दूसरे प्रकार में एक ही पात्र रखना दूसरा पात्र नहीं । जिस अवमोदरिका में उपकरण की आसक्ति त्यक्त हो जाती है वह उसका तीसरा प्रकार है, अर्थात्-भाण्डोपकरण में मूर्छा का परित्याग । (से तं उवगरणदव्योमोयरिया) इस प्रकार ये तीन भेद उपकरणद्रव्यावमोदरिका के कहे गये हैं। [से किं तं भत्तपाणदव्वोमोयरिया] प्रश्न-भक्तपानद्रव्यावमोदरिका क्या है ?, अर्थात्-भक्तपानद्रव्यावमोदरिका के कितने भेद हैं ?; (भत्तपाणदव्योमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता) यह भक्तपानद्रव्यावमोदरिका अनेक प्रकार की कही गयी है; (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(अट्ठ कुक्कुडियंडगप्पामाणमेत्ते कवले आहारमाणे अप्पाहारे) प्रथम भेद अल्लाहार है, इसमें દનતા. વસમાં એક જ વસ્ત્ર રાખવું. જેમ કોઈ ચિલપટ્ટ રાખે છે તો તે તે જ રાખે, બીજું વસ્ત્ર રાખી શકે નહિ. બીજા પ્રકારમાં એક જ પાત્ર રાખવું બીજું (દ્વિતીયાદિક) પાત્ર નહિ. જે અવમોદરિકામાં ઉપકરણની આસક્તિ ત્યક્ત થઈ જાય છે તે તેને ત્રીજો પ્રકાર છે અર્થાત ભાંડોપકરણમાં મૂછને પરિત્યાગ. ( से तं उवगरणदव्योमोयरिया) से प्रारना २॥ त्र मे ५४२ द्रव्याव मोहरि४ाना ४सा छ. (से किं तं भत्तपाणदव्योमोयरिया ) प्रश्न-मतदानद्रव्यावમેદરિકા શું છે ? અર્થાત ભક્ત પાનદ્રવ્યાવદરિકાના કેટલા પ્રકાર છે? (भत्तपाणदव्योमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता) ॥ सतपानद्रव्यापभा२ि४॥ भने ४२नी डसी छे, (तंजहा) ते २॥ प्रसारे छ -(अट्ठ कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अप्पाहारे) प्रथम लेह २५८पाडा२ छ. तमा ३४ाना धडा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ३० अवमोदरिकात पोवर्णनम् २१३ माणे अप्पाहारे १, दुवालस कुक्कुडियंडगप्पमाणमेते कवले आहारमाणे अवड्ढोमोयरिया २, सोलस कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे दुभागपत्तोमोयरिया ३, चउवीमं कुक्कुडियंडगप्पण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् य आहरन् भवति, तस्य स आहार : अल्पाहारः । द्वात्रिंशत्परिमितैः कवलैः पुरुषाऽऽहारः पर्याप्तः, तत्र चतुर्थांशस्य ग्रहणादल्पाहारस्तेनैव भक्तपानद्रव्यावमोदरिकाऽपि सिद्धा (१) । 'दुवालस कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अवड्ढोमोयरिया' द्वादश कुक्कुटाण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् आहरन् यो भवति तस्य स आहारः अपार्द्धाविमोदरिका, षोडश कबला अर्द्धम्, तस्मात् अपकृष्टा = न्यूना द्वादशकवलात्मकत्वाद् याऽवमोदरिका सा-अपार्द्धाऽवमोदरिका (२) । 'सोलस कुक्कुडियंडगप्पमागमेत्ते काले आहारमाणे दुभागत्तोमोयरिया' पोडश कुक्कुटाण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् आहरन् द्विभागप्राप्ताऽवमोदरिका-षोडश कुक्कुटाण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् आहरन् यो भवति तस्य स आहारो द्विभागप्राप्तावमोदरिका = द्वितीयभागप्राप्तावमोदरिका भवति । अयं कापःपर्याप्तपुरुषाहारद्वात्रिंशत्कवलानां भागद्वये कृते सति प्राप्तान् षोडश कवलान् भुञ्जानस्य द्विभागप्राप्तावमोदरिका तपस्या भवतीति (३) । 'चउवीसं कुक्कुडियंडगप्पमाणमेते कवले कुक्कुट अण्ड प्रमाण आठ कवल का आहार होता है । पुरुष के लिये ३२ कवलप्रमाण आहार पर्याप्त होता है । इनमें चतुर्थांशश-आठ कवल प्रमाण आहार के लेने से यह अल्पाहार कहा गया है (१) । (दुवाल कुक्कुडियंडगप्पमागमेत्ते कवले आहारमाणे अड्ढोमोयरिया) दूसरा भेद अपार्द्ध - अवमोदरिका है, इसमें कुक्कुड अंड प्रमाण १२ कवलों का आहार लिया जाता है (२) । ( सोलस कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे दुभागपत्तोमोयरिया ) तीसरा भेद विभागप्राप्ताव मोदरिका है, इसमें कुक्कुट - अंड - प्रमाण १६ कवलों का आहार किया जाता है (३) । (चउवीसं कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे જેટલા–કાળિઆના આહાર થાય છે. પુરૂષને માટે ૩૨ કેળિઆ જેટલા આહાર પર્યાપ્ત થાય છે. તેમાંથી ચતુર્થાંશ કેાળિઆ-જેટલા આહાર લેવાથી એને अस्याहार उडेवाय छे. (१) (दुवालस कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अवड्ढोमोयरिया) जीने लेह सार्द्ध - अवभरि छे. मेमां उडानां डा वडा १२ अजिमानो भाडार सेवाय छे. (२) ( सोलस कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे दुभागपत्तोमोयरिया) त्रीले लेई द्विलाणप्राप्तावभोहरा छे. शोभां डुटुडाना ईडा नेवडा १६ अजिमानो आहार सेवाय छे. (3) ( चउवीसं कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पत्तोमोयरिया ) थोथे। लेह प्रभाव Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ पपातिक माणमेत्ते कवले आहारमाणे पत्तोमोयरिया ४, एक्कतीसं कुक्कुडियंडगप्पमाणमेते कवले आहारमाणे किंचूणोमोयरिया ५, बत्तीसं कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ते, एत्तो एगेण विघासेणं ऊणयं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे णो पकामरसआहारमाणे पत्तोमोयरिया' - चतुर्विंशतिं कुक्कुटाण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् आहरन् प्राप्ताऽवमोदरिका-द्वात्रिंशत्कवलानां चतुर्थांशन्यूनमाहारम् अहरन् यो भवति, तस्य स आहारः प्राप्तावमोदरिका - पादमात्रानतया प्राप्तेवाऽवमोदरिका प्राप्तावमोदरिका भवति ॥४॥ 'एकतीसं कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे किंचूणोमोयरिया' एकत्रिंशतं कुक्कुटाऽण्डकप्रमाणमात्रान् कवलान् आहरन् यो भवति तस्य किञ्चिदूनावमोदरिका = कवलैकन्यूनावऽमोदरिका भवति ||५|| 'बत्तीसं कुक्कुडियंगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ते' द्वात्रिंशतं कक्कुटाण्डप्रमाणमात्रान् कवलान् आहरन् प्रमाणप्राप्तः = प्रमाणप्रमिताssहारयुक्तो भवतीत्यर्थः, ‘एत्तो एगेण वि घासेणं ऊणयं आहारमाहारेमाणे समणे fariथे णो पकामरस भोइत्ति वत्तव्यं सिया' इत एकेनापि ग्रासेन ऊनकम् आहरम् आहरन् श्रमणो निर्ग्रन्थो नो प्रकामरसभोजीति वक्तव्यं स्यात् इतः - एतेभ्यः - द्वात्रिंशत्कवपत्तोमोयरिया) चौथा भेद प्राप्तावमोदरिका है, इसमें कुक्कुटाण्डप्रमाण २४ कवलों का आहार किया जाता है (४) । (एकतीसं कुकुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे किंचूगोमोयरिया) पाँचवाँ भेद किंचित् - न्यून - अवमोदरिका है । इसमें कुक्कुट अंड प्रमाण ३१ कवलों का आहार लिया जाता है । (बत्तीसं कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ते) ३२ - कवल - प्रमाण आहार करना पर्याप्त आहार है । यह अवमोदरिका तप नहीं है । ( एतो एगेवि घासेणं ऊणयं आहारमाहारेमाणे समणे fariथे णो पकामरस भोइत्ति वत्तव्वं सिया) ३२ कवलप्रमाण आहार में से जो श्रमण મારિકા છે. એમાં કુકડાના ઈંડા જેવડા ૨૪ કાળિને આહાર કરાય છે. (४) (एक्कतीसं कुक्कुडियंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे किंचूणोमोयरिया) पांयभा ભેદ કિચિત્—ન્યૂન—અવમેરિકા છે. તેમાં કુકડાના ઇંડા જેવડા ૩૧ કાળિઆના भाडार सेवाय छे. ( बत्तीस कुक्कुडियंडगप्पमाणामेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ते ) ३२ अजिमा भेटलो आहार रखो मे भर्याहा छे. आ अवभोहरिठा तथ नथी. (एत्तो एगेणवि घासेणं ऊणयं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे णो पकामरसोइति वत्तव्वं सिया ) ३२ जिया भेदसा माहारमांथी ने श्रमाणु निर्भय Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू० ३० अवमोदरिकातपोवर्णनम् भोइत्ति वत्तव्वं सिया। से तं भत्तपाणदव्योमोयरिया । से तं दव्वोमोयरिया। से किं तं भावोमोयरिया ? भावोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता; तं जहा-अप्पकोहे १, अप्पमाणे २, अप्पमाए ३, लेभ्यः-एकनाऽपि ग्रासेनोनकमाहारमाहग्न् श्रमणो निम्रन्थो नो प्रकामरसभोजी-नात्यन्तभोजनशीलोऽस्तीति वक्तव्यम् स्यात् , अयं भावः-किंचिदूनावमोदरिकां तपस्यां कुर्वन् 'प्रकामभोजी' इति नोच्यते इति । 'से तं भत्तपाणदव्योमोयरिया' सैषा भक्तपानद्रव्यावमोदरिका । अतः परं भावाऽमोदरिकामाह-'से किं तं भावोमोयरिया' अथ का सा भावाऽवमोदरिका ? 'भावोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता' भावाऽमोदरिका अनेकविधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा 'अप्पकोहे' अल्पक्रोधः-क्रोधनं क्रोधः-क्रोधमोहनीयोदयसम्पाद्यः अक्षमापरिणतिरूपः, अल्पशब्दाऽत्र प्रतनुवाचकः-तेन अल्पः-स्वल्पः क्रोधः-अल्पक्रोधः । 'अप्पमाणे' निग्रंथ एक कवल भी आहार कम करते हैं वे गकामभोजी नहीं हैं, अर्थात् जिह्वाइन्द्रिय के विजेता हैं-ऐसा समझना चाहिये । (से तं भत्तपाणदव्योमोयरिया) इस प्रकार यहां तक भक्तपानद्रव्यावमोदरिका का कथन किया, अर्थात् इस पूर्वोक्त प्रकार से भक्तपानद्रव्यावमोदरिका का स्वरूप है । (से तं दव्योमोयरिया) इस प्रकार यह द्रव्यावमोदरिका का स्वरूप है। यहां से आगे अब भावावमोदरिका का कथन करते हैं-(से किं तं भावोमोयरिया ? ) प्रश्न-यह भावावमोदरिका क्या है? कितने प्रकार की है: (भावोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता) उत्तर-भावावमोदरिका अनेक प्रकार की कही गई है; (तं जहा) जैसे-(अप्पकोहे ) अल्पक्रोध-अक्षमापरिणतिका नाम क्रोध है, अल्पशब्द प्रतनुवाची है, अर्थात् क्रोधकषाय में अल्पता करना । (अप्पએક કોળિયો પણ આહાર એ છે કરે તે પ્રકામજી નથી, અર્થાત જીભधाद्रियना विरे॥छ-म सभा २. (से तं भत्तपाणदव्योमोयरिया) से પ્રકારે અહીં સુધી ભક્તપાનદ્રવ્યાવદરિકાનું કથન કર્યું, અર્થાત્ એ पूर्वात ४२ मतानद्रव्यावभाहरिनु २१३५ छ. (से तं दव्वोमोयरिया) આ પ્રકારે આ દ્રવ્યાવદરિકાનું સ્વરૂપ છે. અહિંથી આગળ હવે ભાવાमारिनु ४थन ४२ छ-(से कि तं भावोमोयरिया ?) प्रश्न-4 महरि शु, टसा प्रा२नी वाय छ ? (भावोमोयरिया अणेगविहा पण्णत्ता) उत्तरलावावभाहरि४ घ ४२नी वाय छे. (तं जहा) भ (अप्पक्कोहे) અલ્પક્રોધ, અક્ષમા-પરિણતિનું નામ ક્રોધ છે, અલ્પ શબ્દ પ્રતનુવાચી छ-अर्थात् जोधायमा २५६५ (माछु) ४२. (अप्पमाणे अप्पमाए Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे अप्पलोहे ४, अप्पसद्दे ५, अप्पकलहे ६. अप्पझंझे ७ ।से तं भावोमोयरिया । से तं ओमोयरिया। से किं तं भिक्खायरिया ? भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता; तं जहा-दव्वाभिग्गहचरए १, अल्पमानः-जात्याद्यभिमानराहित्यम् । 'अप्पमाए' अल्पमाया, 'अप्पलोहे' अल्पलोभः,'अप्पसद्दे' अल्पशब्दः,-'अप्पकलहे' अल्पकलहः कलहाभावः, 'अप्पझंझे अल्पझञ्झः= परस्परभेदोत्पादकवचनव्यापारो झञ्झः, तस्याभावः । ' से तं भावोमोयरिया' सैषा भावाऽवमोदरिका । ‘से तं ओमोयरिया' सैषाऽवमोदरिका । ‘से किं तं भिक्खायरिया' अथ का सा भिक्षाचर्या ?, 'भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता' भिक्षाचर्या अनेकविधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-दव्वाभिग्गहचरए' द्रव्याभिग्रहचरकः-द्रव्याऽऽश्रिताभिग्रहेण 'अमुकवस्तु ग्रहीष्यामि' इति रूपेण माणे अप्पमाए अप्पलोहे अप्पसद्दे अप्पकलहे अप्पझंझे ) मान को अल्प करना, माया को अल्प करना, लोभ को अल्प करना, शब्द को अल्प करना अर्थात् कम बोलना, कलह को अल्प करना-अभाव करना, झंझा को अर्थात्-गण में जिस वचन से छेद-भेद उत्पन्न होता है उस वचनका अल्प करना-अभाव करना, यहाँ पर 'अल्प ' शब्द अभावार्थक है । (से तं भावोमोयरिया) ये सभी भावावमोदरिका हैं । (से तं ओमोयरिया) यह अवमोदरिका तपका वर्णन संपूर्ण हुआ। ( से किं तं भिक्खायरिया ? ) भिक्षाचर्या क्या है-कितने तरह की है ? उत्तर-(भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता) भिक्षाचर्या अनेक तरह की कही गई है । (तं जहा) जैसे (दव्याभिग्गहचरए, खेत्ताभिग्गचरए, कालाभिग्गहचरए भावाभिग्गहचरए) १ द्रव्याभिग्रहचरक-मुनि अभिग्रह लेता है कि मुझे जो अमुक वस्तु भिक्षा में अप्पलोहे अप्पसद्दे अप्पकलहे अप्पझंझे) भान १८५(माछु)४२, माया म८५ ४२वी, લોભ અલ્પ કર, શબદ અલ્પ કરવા અર્થાત્ ઓછું બોલવું, કલહ (કંકાસ) ઓછા કરવા, ઝંઝા અર્થાત્ લોકોના સમૂહમાં જે વચનેથી છેદ–ભેદ ઉત્પન્ન थाय सेवा वयन नही मोसi, (से तं भावोमोयरिया) २३॥ या नावावभाहरि४। छ. (से तं ओमोयरिया ) २॥ अवमा हरितनु वन संपूर्ण यु: (से किं तं भिक्खायरिया) भिक्षाच्या शुछ-21 सतनी छ ? उत्तर (भिक्खायरिया अणेगविहा पण्णत्ता) भिक्षायर्या अनेकतनी ४९वाय छे. (तं जहा) म (दव्वाभिग्गहचरए, खेत्ताभिग्गहचरए, कालाभिग्गहचरए, भावाभिग्गहचरए) १ द्रव्या Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० भिक्षाचर्यातपोवर्णनम् खेत्ताभिग्गहचरए २, कालाभिग्गहचरए ३, भावाभिग्गहचरए ४, उक्खित्तचरए ५, णिक्खित्तचरए ६, उक्खित्तणिक्खित्तचरए ७, चरति=भिक्षामटति, द्रव्याश्रिताऽभिग्रहं वा चरति-आसेवते यः स द्रव्याभिग्रहचरकः, इह च भिक्षाचर्यायां प्रक्रान्तायां यद् द्रव्याभिग्रहचरक इत्युक्तं तद्धर्मधर्मिणोरभेदविवक्षणात् । द्रव्याभिग्रहश्च लेपकृतादिद्रव्यविषयः । १। 'खेत्ताभिग्गहचरए' क्षेत्राऽभिग्रहचरकः-क्षेत्राऽभिग्रहः 'अमुकस्थाने ग्रहीष्यामि' इत्यादिरूपः ।२। 'कालाभिग्गहचरए' कालाभिग्रहचरकः, कालाभिग्रहः-पूर्वाणादिविषयः । ३ । 'भावाभिग्गहचरए' भावाभिग्रहचरकः-भावाभिग्रहोगानहसनादिप्रवृत्तपुरुषादिविषयः, तेन चरतीति । ४ । 'उक्खित्तचरए' उत्क्षिप्तचरकःउत्क्षिप्तं-गृहस्थेन स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुद्भुतं तदर्थमभिग्रहतश्चरति-गच्छतीत्युत्क्षिप्तचरकः। ५। 'णिक्खित्तचरए' निक्षिप्तचरकः-निक्षिप्तं-पाकादिभाजनादुद्धृत्य अन्यभाजने स्थापितं, तदर्थमभिग्रहं कृत्वा चरति-इति निक्षिप्तचरकः ।६। 'उक्खित्त-णिक्खित्त-चरए' उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचरकः-पाकभाजनादुत्क्षिप्तं तदेव अन्यत्र स्थाने निक्षिप्तं यत् तदुत्क्षिप्तनिक्षिप्तम् , मिलेगी तो ही लूंगा, अन्यथा नहीं । भिक्षाचर्या का यद्यपि प्रकरण है, परन्तु जो " द्रव्याभिग्रहचरक " ऐसा निर्देश किया है वह धर्म और धर्मी में अभेद की विवक्षासे समझना चाहिये । २ क्षेत्राभिग्रहचरक-अमुक स्थान में मिलेगा तो लूंगा । ३ कालाभिग्रहचरकअमुक समय में लूंगा। ४ भावाभिग्रहचरक-अमुक प्रकार का दाता देगा तो लूंगा । ५-(उक्वित्तचरए) उत्क्षिप्तचरक-गृहस्थने पाकभाजन से अपने लिये निकाला हो, उसमें से यदि देगा तो लूंगा । (६) (निवित्तचरए) निक्षिप्तचरक-गृहस्थने पाक भाजन से निकाल कर अन्य भाजन में रख दिया हो, उसमें से देगा तो लूंगा । ७-(उक्खित्त ભિગ્રહચરક-મુનિ અભિગ્રહ કરે છે કે મને જે અમુક વસ્તુ ભિક્ષામાં મળશે તે જ હું લઈશ, બીજી નહિ. ભિક્ષાચર્યાનું છે કે પ્રકરણ છે; પરંતુ જે “દ્રવ્યાભિગ્રહચરક” એમ નિર્દેશ કરે છે તે ધર્મ અને ધમમાં અભેદની વિવક્ષાએ સમજ જોઈએ. [૨] ક્ષેત્રાભિગ્રહચરક-અમુક સ્થાનમાં મળશે તે લઈશ, [3] सानिय२४-२मभु समयमा सश, [४] लावालिय२४-२५४ ५४।२न होता साप त सश, [५] (उक्खित्तचरए) लक्षितय२४-गृहस्थे રાંધવાના પાત્રમાંથી પિતાને માટે કાઢેલું હોય તેમાંથી જે આપશે તે લઈશ, [६] (निक्खित्तचरए) निक्षितय२४-गृहस्थे संधवाना पात्रमाथी ढीने मीनत पासमा राजी ही डाय तमाथी माप तो श. [७] (उक्खित्त-निक्खि Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ औपपातिकसूत्रे णिक्खित्तउक्खिसघरए ८, वटिजमाणचरए ९, साहरिजमाणचरए १०, उवणीयचरए ११, अवणीयचरए १२, उवणीय-अवणीयचरए तदर्थमभिग्रहतश्चरति स उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचरक इत्युच्यते ।७। 'णिक्वित्त-उक्वित्त-चरए' निक्षिप्तोत्क्षिप्तचरकः-निक्षिप्तं-पाकभाजनादन्यत्र स्थापितमुत्क्षिप्तं तदेव पुनरुद्धृतं-हस्ते गृहीतं, तदर्थमभिग्रहं कृत्वा चरति स निक्षिप्तोत्क्षिप्तचरकः ।८। 'वट्टिजमाणचरए' वर्त्यमानचरकः-वय॑मानं-परिविष्यमाणं ग्रहीतुं चरति स वय॑मानचरकः ।९। 'साहरिज्जमाणचरए' संहियमाणचरकः-अत्युष्णं व्यञ्जनसूपादि शीतलीकरणाय स्थाल्यादिषु विस्तारितं तत्पुनर्भाजने क्षिप्यमाणं संहियमाणमुच्यते, तद् ग्रहीतुं चरति-इति संहियमाणचरकः ।१०। 'उवणीयचरए' उपनीतम् अन्येन केनचिद् गृहस्थाय प्रेषितं यत् तदुपनीतं, तदेव ग्रहीतुं चरति-इत्युपनीतचरकः ।११। 'अवणीयचरए' अपनीतचरकः-अपनीतं गृहस्थेन अन्यस्मै कस्मै चिदातुं निक्खित्त-चरए ) उत्क्षिप्तनिक्षिप्तचरक दाताने पहले पाकभाजन से अन्नादिक निकाला, फिर उसको उसने अन्य पात्रमें रखा, उसमें से यदि देगा तो लूंगा । ८-( निक्खित्तउक्खित्त-चरए ) निक्षिप्तउत्क्षिप्तचरक-दाताने पाकभाजन से अन्नादिक को निकाल कर दूसरे पात्र में रख दिया हो, उसीको हाथ में उठाया हुआ हो, उससे यदि देगा तो लूंगा । ९-(वहिज्जमाणचरए ) वय॑मानचरक–दाता द्वारा परोसी जाती हुई वस्तु में से देगा तो लूंगा । १०-(साहरिजमाणचरए ) संहियमाणचरक–दाताने उष्ण व्यञ्जन एवं सूपादिक को ठंडा करने के लिये स्थाली आदि में रखा, फिर उस व्यञ्जनादिक को उसी पात्र में रखता हुआ उसमें से देगा तो लूंगा । ११-(उवणीयचरए ) उपनीतचरक-दाता से मैं उसी पदार्थ को लूंगा जो उसके लिये अन्य किसी व्यक्तिने भेजा होगा । १२(अवणीयचरए) अपनीतचरक-मैं दाता से वही पदार्थ लूंगा जो उसने अन्य किसी त्तचरए) लक्षितनिक्षिप्तय२४-वातासे पडसा रांधवानां :पासमांथी मन्नाहि કાઢયું પછી તેને તેણે બીજા વાસણમાં રાખ્યું હોય, તેમાંથી એ આપશે તે सश. [८] (वट्टिज्जमाणचरए) पत्यभानय२४-हात दापीरसवाभा यावती वस्तुभांथी माप तो सश. [१०] (साहरिज्जमाणचरए) सडियभाय२४દાતાએ ગરમ વ્યંજન તેમજ સૂપ (દાલ) આદિને ઠંડાં કરવા માટે થાળી આદિમાં રાખ્યાં હય, પછી તે વ્યંજન આદિકને તે જ પાત્રમાં રાખતાં તેમાંથી माशे त . [११] (उवणीयचरए) पनीतय२४-६ पासेथी ई એ જ પદાર્થ લઈશ કે જે બીજા કેઈએ તેને માટે મોકલ્યા હેય. [૧૨] (अवणीयचरए) अपनातय२४- हात पासेथी ते ४ पहा १४ ते Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ३० भिक्षाचर्यातपोषर्णनम् १३, अवणीय - उवणीयचरए १४, संसद्वचरए १५, असंसट्टचरए १६, तज्जायसंसट्टचरए १७, अण्णायचरए १८, मोणचरए १९, निःसार्यान्यत्र स्थापितं तदेव अपनीतं, तदर्थं चरति - इत्यपनीतचरकः । १२ । ' उवणीयअत्रणीय चरए' उपनीतापनीतचरकः यदेव उपनीतम् - अन्येन प्रेषितं तदेव अपनीतं स्थानान्तरे स्थापितं तद् ग्रहीतुं चरति इत्युपनीताऽपनीतचरकः । १३ । 'अवणीय - उवणीय-चरए' अपनीतोपनीतचरकः-अपनीतम्=कस्मै चित् अन्यस्मै दातुं निःसार्यान्यत्र स्थापितं, तदेव उपनीतं यस्य गृहस्थस्य समीपे प्रेषितं तस्य गृहस्थस्य गृहे प्रापितं तदपनीतोपनीतं, तदर्थं चरतीत्यपनीतोपनीत चरकः | १४ | 'संसदूचरए' संसृष्टचरकः - संसृष्टेन = खरण्टितेन हस्तादिना दीयमानं संसृष्टमुच्यते, तद् ग्रहीतुं चरति - इति संसृष्टचरकः | १५ | 'असंसट्टचरए ' असंसृष्टचरकःअसंसृष्टेन = अखरण्टितेन चरति - इत्यसंसृष्टचरकः । १६ । ' तज्जाय संसदूचरए ' तज्जातसंसृष्टचरकः-तज्जातेन=परिविष्यमाणद्रव्येण यत्संसृष्टं हस्तादि, तेन दीयमानं वस्तु ग्रहीतुं यदूसरे को देने के लिये निकाल कर रख दिया होगा । १३ - ( उवणीय-अवणीय-चरए) उपनीत—अपनीतचरक—मैं वही पदार्थ लूंगा जो उस दाता के लिये किसी दूसरे ने उसके पास भेजा होगा, और दाताने उसी पदार्थ को यदि दूसरे को देने के लिये एक तरफ रख छोड़ा होगा । १४– (अवणीय - उवणीय - चरए) अपनीत उपनीतचरक - किसी गृहस्थने किसी व्यक्ति को देने के लिये अन्नादिक अन्यत्र स्थापित कर रखा होगा और उसको उसने उसके यहां भेज दिया होगा, तथा वह उसके घर भी पहुँच चुका होगा, उसमें से देगा तो लूंगा । १५ - ( संसट्टचरए) संसृष्टचरक - भरे हुए हाथ से देगा तो लूंगा । १६- ( असंसचरए) असंसृष्टचरक - विना भरे हुए हाथ से देगा तो लूंगा । १७ (तज्जायसंसचरए) तज्जातसंसृष्टचरक - हाथ जिस चीज से संसृष्ट-भरा रहा होगा, वही चीज यदि तेथे जीन अर्थ भाणुसने देवाने भाटे अढी राजेसे होय. [१३] ( उवणीयअवणीयचरए) उपनीत-मयनीत-थर-हुं ते चहार्थ सर्वश ने अ ખીજાએ તે દાતાને માટે તેની પાસે મેાકલ્યા હોય અને દાતાએ તે જ પદાર્થને आई मीनने देवा भाटे ४ तर राणी भूभ्यो होय. [१४] ( अवणीयउवणीयचर ) अपनीत - उपनीत-२४- गृहस्थे । व्यक्तिने हेवा भाटे અન્નાદિક બીજે ઠેકાણે રાખી મુકેલું હોય અને તે તેણે તેને ત્યાં માકલી દીધું હાય અને તે તેને ઘેર પણ પહેાંચી ગયુ. હાય તેમાંથી આપશે તેા લઈશ. [१५] (संसट्टचरए) संसृष्टय२४-शाह माहिथी लरेसा हाथथी मायशे तो ६. (११) (असंसट्टचरए) संसृष्टय२४- वगर लरेसा हाथथी आयशे तो दाश. २१९ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० औपपातिकसूत्रे दिट्ठलाभिए २०, अदिट्टलाभिए २१, पुट्टलाभिए २२, अपुट्ठलाभिए श्वरति स तज्जातसंसृष्टचरकः ।१७। 'अण्णायचरए' अज्ञातचरकः-अज्ञातम्-अज्ञातसाधुनियम कुलं चरति यः सोऽज्ञातचरकः । १८ । 'मोणचरए.' मौनचरकः-मौनम्= वाक्संयमनं, तेन चरति यः स मौनचरकः ।१९। 'दिट्ठलाभिए' दृष्टलाभिकः-दृष्टस्यैव भक्तादेर्लाभो दृष्टलाभः, यद्वा दृष्टात्प्रथमदृष्टादेव दातुर्ग्रहाद्वा लाभो दृष्टलाभः, सोऽस्ति यस्य स दृष्टलाभिकः ।२०। 'अदिट्ठलाभिए' अदृष्टलाभिकः-अदृष्टस्य-आवरणाऽऽच्छादितस्य दात्रादिभिः कृतोपयोगस्य भक्तादेर्लाभः, अथवा अदृष्टात् पूर्व कदापि न दृष्टाद् दायकाल्लाभः; सोऽस्याऽस्तीत्यदृष्टलाभिकः ।२१। 'पुट्ठलाभिए' पृष्टलाभिकः-भिक्षार्थं समागतं यं साधु 'भो साधो ! त्वं किमिच्छसि ?' एवं कश्चिद् गृहस्थः पृच्छति स पृष्ट इत्युच्यते, तस्य साधोमुझे देगा तो लूंगा । १८-(अण्णायचरए) अज्ञातचरक-जो साधुओं के नियमों से अनभिज्ञ होगा उसी कुल की मैं भिक्षा लूंगा। १९-(मोणचरए) मौनचरक-मैं वहीं से भिक्षाप्राप्त करूँगा जो मेर विना बोले मुझे भिक्षा लाकर देगा। २०-(दिट्ठलाभिए) दृष्टलाभिक मैं वही भिक्षा लूंगा जो सर्वप्रथम मेरी दृष्टि में आवेगी, अथवा मैं उसीसे भिक्षा लूंगा जो सर्वप्रथम मुझे दिखाई देगा, अथवा मैं उसी स्थान से भिक्षा लूंगा जो सबसे पहिले मुझे दिख जायगा । २१-(अदिदुलाभिए) अदृष्टलाभिक-जो अशनादिक आवरण से आच्छादित होने की वजह से दिखलाई तो न पडे, परन्तु दाता उसे अपने उपयोग में ला चुका हो, उसमें से भिक्षा देगा तो लूंगा, अथवा-जिस दाता को मैं पहिले कभी भी नहीं देखा वह देगा तो लूँगा । २२-(पुट्ठलाभिए) पृष्टलाभिक-दाता यदि पूछेगा, [१७] (तज्जायसंसट्ठचरए) dard Yष्टय२४-डायरे याथी समुष्ट यजयते यी ने भने मापशे तो श (१८) (अण्णायचरए) मशातय२४-२ સાધુઓના નિયમથી અજ્ઞાત હોય એવાં કુળની હું ભિક્ષા લઈશ (૧૯) (मोणचरए) भौनय२४-९ तेना पासेथा मिक्षा सध्श ने भा। मोत्या विना४ भने निक्षा सापाने साथी देश (२०) (दिदुलाभिए) टमानि-हुँ એ જ ભિક્ષા લઈશ કે જેને હું સર્વથી પહેલાં જઇશ. અથવા હું તેના જ હાથથી ભિક્ષા લઈશ જે માણસ માટે સર્વપ્રથમ જોવામાં આવશે, અથવા હું તેજ જગ્યાથી ભિક્ષા લઈશ જે જગ્યા માટે સર્વ–પ્રથમ દેખાશે (૨૧) (अदिट्ठलाभिए) PAमानि-2 भावाना पहा distinी ढसा डावान। કારણથી દેખાય નહિ પણ દાતા તેને પિતાના ઉપયોગમાં લાવી ચૂકેલા હોય તેમાંથી ભિક્ષા આપશે તો લઈશ. અથવા જે દાતાને મેં પહેલાં કદી જોયેલા नडाय ते माप त सश. (२२) (पुट्ठलाभिए) पृष्टमामि-हाताने Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका. स्व. ३० भिक्षाचर्यातपोवर्णनम् २२१ २३, भिक्खालाभिए २४, अभिक्खालाभिए २५, अण्णगिलायए स्तस्माद् गृहस्थाद् यो लाभः स पृष्टलाभः, सोऽस्याऽस्तीति पृष्टलाभिकः ।२२। 'अपुट्ठलाभिए' अपृष्टलाभिकः-केनचिद् गृहस्थेनाऽपृष्टस्यैव साधोर्यस्तस्माद् गृहस्थाल्लाभः सोऽपृष्टलाभः, सोऽस्याऽस्तीत्यपृष्टलाभिकः ।२३। 'भिक्खालाभिए' भिक्षालाभिकः-कस्यचित् क्षेत्राद् गृहाद्वा याचित्वा गृहस्थेन समानीततुच्छबल्लचगककोद्रवादिकनिष्पादित आहारो भिक्षा, तस्या लाभोऽस्यास्तीति भिक्षालाभिकः ।२४। 'अभिक्खालाभिए' अभिक्षालाभिकः-- अयाचितलाभः-अभिक्षा, तस्या लाभोऽस्याऽस्तीत्यभिक्षालाभिकः ।२५। 'अण्णगिलायए' अन्नग्लायकः-अन्नेन-आहारेण विना ग्लायकः, रात्रिनिष्पन्नमन्नं ग्रहीष्यामीत्यवग्रहं कृत्वा भिक्षाचरक इत्यर्थः, पर्युषितान्नभिक्षाचरक इति भावः ।२६। 'ओवणिहिए' औपनिहितिकःउपनिहितं-कथश्चिद् गृहस्थेन स्वसमीपे समानीतमन्नादिकम् , तेन चरति इत्योपनिहितिकः महाराज! आप क्या चाहते हैं; तभी लूँगा । २३-(अपुटलाभिए) अपृष्टलाभिक दाता यदि नहीं पूछेगा तभी लूंगा। २४-(भिक्खालाभिए) भिक्षालाभिक-दाता गृहस्थ बाल चना एवं कोद्रव आदि अन्न को किसी के खेत से अथवा किसी के घर से मांग कर लाया होगा उस अन्न से निष्पादित आहारमें से यदि देगा तो लूंगा । २५ (अभिक्खालोमिए) अभिक्षालाभिक–दाता माँग कर जो पदार्थ नहीं लाया होगा उसमें से देगा तो लूंगा। २६-( अन्नगिलायए) अन्नग्लायक-जो अशनादिक रात्रिमें पकाया गया होगा वही लूंगा, अर्थात्-पर्युषित अन्न की भिक्षा लेने का अभिग्रह लेनेवाला संयमी जन अन्नग्लायक है। २७ (ओवणिहिए ) औपनिहितिक-गृहस्थ अपने समीप में किसी प्रकार से लाया गया अशनादिक में से देगा तो लूँगा । २८-( परिमियपिंड पूछ। ॐ भडारा ! २मापने शु छे त्यारे १४श. (२३) (अपुट्ठलाभिए) मटवाभिहातले नडि पूछ तो हैं सश. (२४) (भिक्खालाभिए) ભિક્ષાલાભિક–દાતા ગૃહસ્થ જે વાલ ચણા તેમજ કોદરા આદિ અનાજ કેઈના ખેતરથી અથવા કોઈને ઘેરથી માગીને લાવ્યા હોય તે અન્નથી બનાવેલા આહારभांथा मापशे तो सश.(२५) (अभिक्खालाभिए) समिक्षामि-हताये भांजाने २ पहाथ नही दाव्य य माथी माप aavA. (२६) (अनगिलायए) અન્નગ્લાયક–જે ભજન રાતમાં રાંધેલું હશે તે જ લઈશ-અર્થાત્ વાસી અન્નની मिक्षा मेवानी मलिना२ सयभीत मनसाय छे. (२७) (ओवणिहिए) ઔપનિહિતિક-ગૃહસ્થ પિતાની સમીપમાં કઈ પણ પ્રકારે લાવેલા ભેજનમાંથી Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ ओपपातिकसूत्र २६, ओवणिहिए २७, परिमियपिंडवाइए २८, सुद्धेसणिए २९; संखादत्तिए ३०। से तं भिक्खायरिया ॥ सू. ३०॥ ।२७। 'परिमियपिंडवाइए' परिमितपिण्डपातिकः-परिमितपिण्डस्य - प्रमागोपेनपिण्डस्य पातो लाभः परिमितपिण्डपातः, सोऽस्यास्तीति परिमितपिण्डपातिकः-आधाकर्मादिदोषरहितं भक्तादिकमेकस्माद् गृहाद्यदि पर्याप्तं लभ्येत तदा ग्राह्यम्-इत्यभिग्रहवान् ।२८। 'सुद्धेसणिए' शुद्धैषणिकः-शुद्धैषणा-शङ्कादिदोषरहितता, शुद्धस्य-उद्गमादिदोषरहितस्य वा एषणा, साऽस्याऽस्तीति शुद्वैषणिकः, सर्वथा शुद्धमेव ग्राह्यमित्यभिग्रहधारीति भावः ।२९। 'संखादत्तिए'. संख्यादत्तिकः-संख्याप्रधाना दत्तिः संख्यादत्तिः, तया चरतीति संख्यादत्तिकः । दर्वीकटोरकादितोऽविच्छिन्नधारया या भिक्षा पतति सा, तथा-एकक्षेपरूपा च भिक्षा दत्तिरित्युच्यते ।३०। ‘से तं मिक्खायरिया' सैषा भिक्षाचर्या ॥ सू. ३० ॥ वाइए ) परिमितपिण्डपातिक-आधाकर्मादिक दोषों से रहित भक्तादिक यदि एक ही गृह से पर्याप्तमात्रा में मिल जाय तो लूँगा। २९ (सुद्धेसगिए ) शुद्धैषणिक-शंकादिक दोषों से रहित अथवा उद्गमादिक दोषों से वर्जित आहार लेने वाला । ३०-(संखादत्तिए) संख्यादत्तिक वह है जो इस प्रकार का संकल्प करता है कि दर्वी-कडछी एवं कटोरी आदि से अविच्छिन्न धारारूप में जो भिक्षा मेरे पात्र में पड़ जायगी उतनी ही भिक्षा में ग्रहण करूगा । (सेतं भिक्खायरिया) भिक्षाचर्या के ये ३० भेद हैं ॥ सू० ३०॥ माशे तो सश. (२८) (परिमियपिंडवाइए) परिभितपिपाति-माधाકર્મ આદિક દેથી રહિત ભક્તાદિક જે એક જ ઘેરથી પુરતા પ્રમાણમાં भणी य त ase. (२८) (सुद्धेसणिए) शुद्धष४ि-७। माहि होषाथी २डित मथ। माहिर होषाथी पति माडा२ देवावा. 3० (संखादत्तिए) સંખ્યાત્તિક તે છે કે જે એવો સંકલ્પ કરે છે કે દવ–કડછી તેમજ કટોરી આદિથી સતત ધારારૂપમાં જેટલી પણ ભિક્ષા મારા પાત્રમાં પડી જશે मेटी निक्षu ve. (से तं भिक्खायरिया) लिक्षायांना ३० ले छ. (सू. ३०) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. ३० रस परित्यागतपोवर्णनम्. , २२३ मूलम्-से किं तं रसपरिचाए? रसपरिच्चाएअणेगविहे पण्णत्ते; तं जहा १ निव्विइए,२पणीयरसपरिच्चाए, ३आयंबिलिए, टीका-' से किं तं' इत्यादि-‘से किं तं रसपरिच्चाए' अथ कोऽसौ रसपरित्यागः ?, 'रसपरिचाए' रसपरित्यागः 'अणेगविहे पण्णत्ते' अनेकविधः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा-तदनेकविधत्वं चैवम्-'निन्विइए' निर्विकृतिकः-निर्गता घृतादिरूपा विकृतिर्यस्मात् स निर्विकृतिकः १, 'पणीयरसपरिच्चाए' प्रणीतरसपरित्यागः-प्रणीतरसः प्रचुरत्वात् द्रवघृतबिन्दुसन्दोहोऽपूपादिः, तस्य परित्यागः २, 'आयंबिलिए' आचामाम्लम्विकृतिरहितानामोदनभर्जितचणकादीनां रूक्षान्नानामचित्त उदके प्रक्षिप्यैकासनस्थेन सकृद्भोजनमाचामाम्लं नाम तप उच्यते । तथा चोक्तम् 'से किं तं रसपरिच्चाए ?' इत्यादि । (से किं तं रसपरिच्चाए ?) रसपरित्याग तप किसे कहते हैं ? वह कितने प्रकार का है ? इस प्रकार शिष्य प्रश्न करता है । उत्तर-(रसपरिच्चाए) रसपरित्याग तप (अणेगविहे पण्णत्ते) अनेक प्रकारका कहा गया है । वह इस प्रकार से है-(निश्चिइए) निर्विकृतिक-जिस आहार से घृतादिक विकृति निर्गत हो चुकी हो ऐसे आहारका ग्रहण करना सो निर्विकृतिक है । अर्थात्-विगय नहीं लेना (१)। (पणीयरसपरिच्चाए) प्रणीतरसपरित्याग–अपूप अर्थात् मालपुआ आदि सरस आहार का परित्याग करना (२)। (आयंबिलिए) आचामाम्ल-विगयरहित ओदन, मूंजे हुए चने आदि रूक्ष अन्नको अचित्त पानी में डालकर एकस्थान पर बैठ एक बार ही खाना सो आचामाम्ल तप है । ‘से किं तं रसपरिच्चाए ?' त्यादि (से किं तं रसपरिच्चाए) डवे मही २सपरित्यास त५ अनेछ-त टमा ४२नां छ ? २॥ प्रारे शिष्य प्रश्न ४२ छे. उत्तर (रसपरिचाए) २सपरित्यागत५ (आणेगविहे पण्णत्ते) मने प्रारनां वाय छे. ते म॥ प्रारे छ-(निव्विइए) निर्विति- माडामाथी घी मेरेना विकृति नीजी 10 डाय એ આહાર લેવો તે નિર્વિકૃતિક છે. અર્થાત્ વિગય (ઘી-દૂધ વગેરે) देवू नहि. (१) (पणीयरसपरिच्चाए) प्रतिरसपरित्याग-३५ अर्थात् भासमा माहि सरस माहारने। परित्याग ४२वो. (२) (आयंबिलिए) मायामासવિષયરહિત ભાત, ભુજેલ ચણા આદિ લખું અન્ન અચિત્ત પાણીમાં નાખી Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ औपपातिक ४ आयामसित्थभोई, ५ अरसाहारे, ६ विरसाहारे, ७ अंताहारे, विगइरहियस्स ओयण, - भज्जियंचगगाइलुक्ख - अन्नस्स । खित्ता जले अचित्ते, खाणं आयंबिलं जाण ॥ ३ ॥ इ 'आयाम-सित्थ-भोई' आयाम - सिक्थ-भोजी, – अवस्रावणगतसिक्थभोक्ता, ४ 'अरसाहारे' अरसाऽऽहारः- अरसः = जीरक - हिमवादिभिर संस्कृत आहारो यस्य सोsरसाssहारः ५ । 'विरसाहारे ' विरसाssहारः - विरसः - विगतरसः - पुराणधान्यौदनादिः आहारो यस्य स विरसाहारः ६ । ' अंताहारे ' अन्त्याऽऽहारः - अन्ते भवम् अन्त्यं - जघन्यधान्यं कोद्रवादि तदेवाऽऽहारो यस्य सोऽन्त्याहारः ७ | 'पंताहारे ' प्रान्ताऽऽहारः - प्रकर्षेणान्तं प्रान्तं - पाकपात्रादन्ने निःसारिते तत्पात्रश्लिष्टं दर्यादिना घर्षणेन निःसारितमन्नं, वल्लचणकादिनिष्पादि कहा भी है-“विगइरहियस्स ओयणभज्जियचणगाइलुक्खअन्नस्स । खित्ता जले अचित्ते खाणं आयंबिलं जाण" इसका अर्थ आयंबिल का जो अर्थ किया है वही है (३) । ( आयामसित्थभोई ) आयामसिक्थभोजी - ओसामण में आये हुए सीथ मात्र का आहार करना (४) । (अरसाहारे) अरसाहार - जांर हींग आदि से विना बघारे हुए आहार का लेना (५) (विरसाहारे) विरसाहार - विगत रसवाले पुराने धान्य का आहार लेना (६) । (अंताहारे) अन्ताहार - काद्रव आदि तुच्छ धान्य का आहार लेना (७) । ( पंताहारे) प्रान्ताहार - पकाने के वर्तन में से अन्न के निकालने पर करछली आदि के घर्षण से पात्र में लगा हुआ जो कुछ अन्न निकाला जाता ह अथवा वल्ल चणा आदि से बना हुआ पश्चात् खड्डी छाछ से मिश्रित अन्नादि [એક ઠેકાણે બેસી એકવાર ખાવું તે આચામામ્લ તપ छे. " विगइरहियस्स ओयणभज्जियचणगाइलुक्ख अन्नस । खित्ता जले अचित्ते खाणं आयंबिलं जाण मानो अर्थ सायं मिसनो के अर्थ यो छे ते ४ छे. (3) (अयामसित्थभोई) આયામસિકથભેાજી–એસામણમાં આવેલા સીથના જ માત્ર આહાર કરવા (४) (अरसाहारे) अरसाहार - ३ डींग माद्दिथी वधार्या वगरना लोननो आहार ४२ (६) (विरसाहारे) विरसाहार-रस वगरना लुना धान्यथी जनेसु आहार सेवा (अंताहारे) मताहार-अहरा याहि तुग्छ धान्यनो आहार सेवा. (७) ( पंताहारे) प्रान्ताडार - रांधवाना वासशुभांथी अन्न अढी सीधा पछी अच्छी આદિના ઘર્ષણથી પાત્રમાં લાગેલું જે કાંઈ અન્ન નિકાળવામાં આવે છે તે અથવા વાલ —ચણા આદિના મનેલો (લોટ) પછી ખાટી છાશમાં મેળવી રાંધેલું અન્ન આદિ તે "" Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ३० रसपरित्यागत पोवर्णनम्. ८ पंताहारे, ९ लूहाहारे, १० तुच्छाहारे, से तं रसपरिच्चाए । से किं तं कायकिले से १ कायकिलेसे अणेगविहे पणते; तंजहा- ठाणहिइए १, उक्कुडयासणिए २, पडिमट्ठाई ३, तमम्लतक्रमिश्रितं पर्युषितं वाऽन्नं, तदाहारो यस्य स तथा ८ । 'लूहाहारे ' रूक्षाहारःरूक्षम्=अस्निग्धमन्नमेवाहारो यस्य स तथा ९ । 'तुच्छाहारे' तुच्छाहारः- तुच्छ ः– अल्पोऽसारश्व श्यामाकादिनिष्पादित आहारो यस्य स तथा १० इति । उपसंहरन्नाह - ' से तं रसपरिच्चाए ' स एष रसपरित्याग इति । , इत्थं दशविधं रसपरित्यागं वर्णयित्वा कायक्लेशं वर्णयति -' से किं तं कायकिलेसे ' अथ कोऽसौ कायक्लेशः : उत्तरमाह - ' कायकिले से अणेमविहे पण्णत्ते ' कायक्लेशोऽनेकविधः प्रज्ञप्तः। ‘तंजहा' तद्यथा- ' ठाणट्ठिए ' स्थानस्थितिकः - स्थानं कायोत्सर्गः, तेन स्थितिर्यस्य स्र स्थानस्थितिकः । १ । ' उक्कुडुयासणिए उत्कुटुकाssसनिकः -- भूमावसंलग्नपुतेन प्रान्त है, अथवा प्रान्तका अर्थ बासी अन्न भी है । इसका आहार करना प्रान्ताहार है ( ९ ) । ( लूहाहारे ) रूक्षाहार - रूक्षस्वभाववाला कुलथी आदि का आहार रूक्षाहार है (९) । (तुच्छाहारे) तुच्छाहार - असार - जिसमें कुछ भी सार नहीं है ऐसा श्यामाक, मलीचा आदि तुच्छ धान्य का आहार तुच्छाहार है (१०) । ( से तं रसपरिच्चाए ) ये दस प्रकार के रखपरित्याग तप हैं । अब कायक्लेश का वर्णन सूत्रकार करते हैं - ( से किं तं कायकिले से ?) प्रश्न – वह कायक्लेश तप कितने प्रकार का है? (कायकिले से अणेगविहे पण्णत्ते ) उत्तरकायक्लेश तप अनेक प्रकार का है; (तं जहा ) वे प्रकार इस तरह हैं - ( ठाणइए) स्थानस्थितिक, स्थान शब्द का अर्थ कायोत्सर्ग है; इस कायोत्सर्ग से जिसकी स्थिति सर्वदा रहती है वह स्थानस्थितिक है | ( उक्कुडुयासजिए ) उत्कुटुकासनिक–उकड्डु–आसन बैठना પ્રાન્ત છે, અથવા-પ્રાન્તના અર્થ વાસી અન્ન પણ છે, તેના આહાર કરવા ते आन्ताहार छे (८). ( लहाहारे) रूक्षाहार--रुक्ष स्वभावना हुजथी माहि नो भाडार रुक्षाहार छे (७). (तुच्छाहारे) तुम्छाहार-असार - ने मन्नभां अंध પણ સાર નથી એવું સામે મલીચા આદિ તુચ્છ ધાન્યના આહાર તે तुम्छाहार छे (१०). ( से तं रसपरिच्चाए ) भी इस प्रारनां रसपरित्याग तप छे. हवे असेशन वर्णुन सूत्र४२ रे छे - ( से किं तं कायकिले से ) प्रश्न- ते अयउदेश तथ डेंटला प्रभारनां छे ? - ( कायकिले से अणेगविहे पण्णत्ते) अम्बेश भने प्रा२नां छे; ( तं जहा ) ते प्रहार साम छे - ( ठाणट्ठिइए) स्थानस्थिति४=स्थान शब्दनेो અથ કાયાત્સગ છે. આ કાયાત્સગથી જેની સ્થિતિ સા રહે છે તે I २२५ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરઃ औपपातिकसूत्रे वीरासणिए ४, नेसजिए ५, दंडायइए ६, लउडसाई ७, आयाबद्धाञ्जलिपुटेन भूमौ चरणतलमारोप्योपवेशनम्-उत्कुटुकं, तदासनमस्यास्तीति उत्कुटुकाऽऽसनिकः ।२। 'पडिमद्राई' प्रतिमास्थायी प्रतिमा मासिक्यादयः नियमविशेषाः, ताभिस्तिष्ठति तच्छीलः प्रतिमास्थायी ।३। 'वीरासणिए' वीराऽऽसनिकः-सिंहासनोपरि समुपविष्टस्य भूमिस्थितचरणस्य सिंहासनापनयने कृते सिंहासनोपविष्टवदवस्थानं वीरासनं, तदस्यास्तीति वीरासनिकः ।४। 'नेसज्जिए ' नैषधिकः-निषद्या-पुताभ्यां भूम्यामुपवेशनं, तया चरतीति नैषेधिकः।५। 'दंडायइए' दण्डायतिकः-दण्डस्येवायतम् आयामोऽस्याऽस्तीति यह उत्कुटुक-आसन है, जो इस आसन से बैठता है वह उत्कुटुकासनिक है । इस आसन में भूमि पर दोनों चरणों के तलियों को जमाया जाता है और पुत-(बेठक) जमीन को स्पर्श नहीं करते, तथा दोनों हाथों की अंजली बंधी रहती है । (पडिमट्ठाई) प्रतिमास्थायी साधु की १२ प्रतिमाओं का धारण करने वाला प्रतिमास्थायी है । (वीरासणिए) वीरासनिक-वीरासन से ठहरनेवाला वीरासनिक है। इस आसन का यह लक्षण है-काई मनुष्य सिंहासन पर बैठा हुआ है, उस सिंहासन को हटा लेने पर वह वैसे ही खड़ा रह जाय, उसे 'वीरासन' कहते हैं। उस आसन से तप करनेवाले का वीरासनिक कहते हैं । (नेसज्जिए) नैषधिक-निषद्याका अर्थ है-पालथी मार कर बैठना । इस आसन से तप करनेवाले का नैषधिक कहते हैं । (दंडायइए) दण्डायतिक–दंड की तरह लंवा होकर आसन में स्थिति करनेवाला दंडायतिक है । (लउडसायी) लकुटशायी चक्रकाष्ठ का नाम स्थानस्थिति छ. ( उक्कुडुयासणिए) ९४ासनि:=63 मासनथी मेस ते ઉત્કટુક આસન છે. જે આ આસન કરે છે તે ઉકુટુંકાસનિક છે. આ આસનમાં ભૂમિ ઉપર બન્ને પગનાં તળિયાને જમાવી દેવામાં આવે છે અને પુત (વેઠક) જમીનને સ્પર્શ કરતી નથી. તથા બને હાથની અંજલિ मांधेसी २९ छे. (पडिमट्ठाई ) प्रतिभास्थायी-साधुनी १२ प्रतिमामानी धार ४२वावाणी प्रतिभास्थायी छ. (वीरासणिए) वाशसनिल-वीरासनथा सनार વિરાસનિક છે. આ આસનનું એ લક્ષણ છે કે-કોઈ મનુષ્ય સિંહાસન ઉપર બેઠા હોય તે સિંહાસનને હટાવી લેવાથી તે જ પ્રમાણે ઉભું રહી જાય તેને पीरासन ४९ छ. ते मासनथी त५ ४२वावाजाने पारासनि४ ४ छ. (नेसजिए) નૈષધિક-નિષદ્યાનો અર્થ છે પલાંઠી મારીને બેસવું. આ આસનથી તપ કરવાવાળાને नैषधि ४ छ. (दंडायइए) यति-नी पेठे खin थने सासनमा स्थिति ४२वा यति छे. (लउडसाई) सटायी--qist a४ानु नाम Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. स. ३० कायक्लेशतपोवर्णनम २२७ वए ८, अवाउडए ९, अकंडुयए १०, अणिहए ११, सव्वगायपरिकम्म-विभूस-विप्पमुक्के १२, से तं कायकिलेसे। दण्डायतिकः ।६। 'लउडसाई' लकुटशायी-लकुटो-वक्रकाष्ठं तद्वच्छेते तच्छीलो लकुटशायी-उत्तामः सन् शयित्वा पाणिकद्वयं (एडी' इति भाषाप्रसिद्धद्वयं) शिरश्चेति त्रयं भूमौ स्थापयित्वा शेते तच्छीलः ।७। 'आयावए' आतापकः-आतापयति शीतोष्णादिभिर्देहं संतापयतिक्लेशयतीत्यातापकः; आतापना च सूर्यातपादिसहनम् ।८। 'अवाउडए' अप्रावृतकः-शीतकाले प्रावरणरहितः-सदोरकमुखवस्त्रिकाचोलपट्टातिरिक्तवस्त्ररहितः ।९। 'अकंडूयए' अकण्डूयकःकण्डूयनं-गात्रघर्षणं, तद्रहितः ।१०। 'अणिट्ठहए' अनिष्ठीवकः-निष्ठीवनरहितः ।११। 'सव्वगाय-परिकम्म-विभूस-विप्पमुक्के' सर्वगात्र-परिकर्म-विभूषा-विप्रमुक्तः सर्वस्य गात्रस्य परिकर्म-मार्जन विभूषा-विभूषणं च, ताभ्यां विप्रमुक्तः-त्यक्तसंमार्जनविभूषणः ।१२। 'से तं कायकिलेसे स एष कायक्लेशः। लकुट है । इस तरह होकर जो शयन करता है वह लकुटशायी है । ऊपर मुँह कर पहिले सोना पथात् दोनों पैरों की एडियों को एवं शिर को जमीन पर टेकना, इस प्रकार शरीर को अधर रखकर आसन करना 'लकुटशयनासन' है। (आयावए) आतापक-सूर्यादि की आतापना लेने वाला, (अवाउडए) अप्रावृतक-शीतकाल में सदोरक मुँहपत्तो एवं चोलपट्टा के अतिरिक्त अन्यवस्त्रों से रहित हो खुले शरीर से शीतको सहन करनेवाला अप्रावृतक है। (अकंडूयए) अकण्डूयक खुजली चलने पर भी शरीर को नहीं खुजलाने वाला अकण्डूयक है। (अणिट्ठहए ) अनिष्ठीवक-थूक आने पर भी नहीं थूकनेवाला अनिष्ठीवक है। (सबगाय-परिकम्म-विभूस-विप्पमुक्के) .. सर्वगात्रपरिकर्मविभूषाविप्रमुक्त-शरीर की सर्वथा शुश्रूषा-विभूवा नहीं करनेवाला सर्वगात्रपरिकर्मविभूषाविप्रमुक्त है । ( से तं कायલકુટ છે. એવી રીતે થઈને જે શયન કરે છે તે લકુટશાયી છે. ઉપર મેટું રાખીને પહેલાં સુવું, પછી બન્ને પગની એડીઓને તેમજ શિરને જમીન ઉપર ટેકાવવું–આ પ્રકારે શરીરને અધર રાખીને આસન કરવું તે “લકુટशयनासन' छ. (आयावए) मापात-सूर्य माहिनी मातापन देवा, (अवाउडए) मप्रावृत४-शातासभा हो।साथे मुंडपत्ती तभ०४ सालपट्टा सिवायनां બીજાં વસ્ત્રો રહિત થઈને ખુલ્લે શરીરે શીતને સહન કરવાવાળા અપ્રાકૃતક छ. (अकंडूयप) १४४-मुखी मातi. छdi ५२ शरीरने माणे नहि ५४५४ छ. (अणिट्ठहए) मनिष्ठी43-५४ मा॥ छतi ५ न ५४वावा मनिष्ठी५४ छ. (सबगाय-परिकम्म-विभूस-विप्पमुक्के) सर्वात्रा२४ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ औपपातिकसूत्रे से किंतं पडिसंलीयणापडिसंलीणयाचउव्विहा पण्णत्ता; तंजहा-१ इंदियपडिसंलीणया, २ कसायपडिसंलीणया, ३ जोगपडिसलीणया, ४ विवित्त-सयणा-पण-सेवणया।से किं तं इंदियपडिसंलीणया ? इंदियपडिसंलीणया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा __ 'से किं तं पडिसलीणया? ' अथ का सा प्रतिसंलीनता-प्रतिसंलीनता=गोपन; सा कतिविधा ? उत्तरमाह-'पडिसलीणया' प्रतिसंलीनता-'चउन्विहा पण्णत्ता' चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा १-'इंदियपडिसंलीणया' इन्द्रियप्रतिसंलीनता-इन्द्रियनिरोधकरणशीलता । २-' कसायपडिसंलीणया' कषायप्रतिसंलीनता। ३-'जोगपडिसंलीणया' योगप्रतिसंलीनता। ४-'विवित्त-सयणा-सण-सेवणया विविक्त-शयनाsऽसन-सेवनता। 'से किंतं इंदियपडिसलीणया' अथ का सा इन्द्रियप्रतिसंलीनता ?, 'इंदियकिलेसे ) कायक्लेश के ये १२ भेद हैं। ( से किं तं पडिसलीणया) प्रतिस्लीनता तप कितने प्रकार का है ? (पडिसंलीणया चउन्विहा पण्णत्ता) प्रति लीनता तप चार प्रकार का है। (तं जहा) वे चार प्रकार ये हैं-(इंदियपडिसलीणया) इन्द्रियप्रति लीनता-इन्द्रियों को गोप करके रखना । (कसायपडिसंलीणया) कषायप्रति लीनता-क्रोधादिकषायों को गोप करके रखना, (जोगपडिसंलीणया) योगप्रतिसंलीनता-मन वचन काया के व्यापार को गोप करके रखना (विवित्त-सयणा-सण-सेवणया) विविक्तशयनासनसेवनतास्त्री-पशु-पण्डक-रहित स्थान में शयनासन करना । ( से किं तं इंदियपडिसंलीणया) इन्द्रियप्रतिसंलीनता कितने प्रकार की है ? (इंदियपडिसंलीणया पंचविहा पण्णत्ता) यह વિભૂષાવિપ્રમુક્ત–શરીરની સર્વથા શુશ્રષા (સેવા શણગાર) ન કરવાपाणाने सर्वत्रपरिभाविभूषाविप्रभुत ४छ. (से तं कायकिलेसे) ४ायसेशन मा १२ ५४२ थाय छे. ( से किं तं पडिसलीणया ) प्रतिदीनता त५ सानां छ ? (पडिसलीणया चउव्विहा पण्णत्ता) प्रतिस सीनता त५ यार प्रधानां छे. (तं जहा) ते यार ४१२ मा प्रभाव छ. (इंदियपडिसलीणया) द्रिमाने गोपी रामवी. ( कसायपडिसलीणया) ४ायप्रतिससीनता-ओध माहिषायाने सी रामपा. (जोगपडिसंलीणया ) योगप्रतिसताना-पाणी, मन मने ४ायान। व्यापारने २७ रामपा. (विवित्त-सयणा-सण-सेवणया) विवितशयनासन सेवनताश्रीपशु५४२हित स्थानमा शयनासन ४२. (से किं तं इंदियपडिसलीणया) धद्रियप्रतिसदीनता ८॥ प्रा२नी छ ? (इंदियपडिसलीणया पंचविहा पण्णत्ता) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ३० प्रतिसंलीनता तपोवर्णनम् २२९ सोइंदिय - विसय- प्यार-निरोहो वा सोइंदिय-विसय- पत्ते अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा १. चक्खिदिय-विसय- प्पयार-निरो हो वा चक्खिपडिलीणया ' इन्द्रियप्रति संलीनता ' पंचविहा पण्णत्ता' पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा ' तद्यथा - ' 'सोइंदिय - विसय- पयार - निरोहो वा, सोइंदिय - विसय - पत्ते अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा ' श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचार निरोधो वा श्रोत्रेन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहो वा-श्रोत्रेन्द्रिस्य–कर्णस्य विषये - शब्दे, प्रचारस्य = प्रवृत्तेः, निरोधः - निषेधः, संयमशीलताविधातकः शब्दो न श्रोतव्यः, यद्यकस्मात्कर्णकुहरगतः स्यात् तदा यत्कार्यं तदाह - श्रोत्रेन्द्रिय-विषयप्राप्तेष्वर्थेषु=श्रुतेषु भावेषु, रागद्वेषयोर्निग्रहो विधेयः; अर्थात् - मधुरमृदङ्ग सङ्गीतेषु - अनुरागो न कर्तव्यः, आक्रोशादिषु शब्देषु द्वेषः - अप्रीतिलक्षणश्चित्तविकारो न कार्यः १ | 'चक्खिदियविसय- प्यार - निरोहो वा, चक्खिदिय - विसय - पत्ते अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा' चक्षुरिन्द्रियविषयप्रचारनिरोधो वा चक्षुरिन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहो वाइन्द्रियप्रति संलीनता पांच प्रकार की है; (तं जहा ) वे प्रकार ये हैं - ( सोइंदिय - विसय- प्यारनिरोहो वा, सोइंदिय - विसय- पत्ते अत्थेसु राग दोसनिग्गहो वा ) श्रोत्र - इन्द्रिय को विषय - शब्द में प्रवृत्ति करने से रोकना, संयम एवं शील को विधात करनेवाले शब्दों को नहीं सुनना, यदि अकस्मात् इस प्रकार के शब्द कानमें आकर पड़ भी जावें तो उस विषयमें राग-द्वेष नहीं करना, यह प्रथम प्रकार है १ । मतलब इसका यह है कि मधुर मृदङ्ग सङ्गीत आदि प्रिय एवं आक्रोशादि अप्रिय शब्दों के प्रति प्रीति- अप्रीतिलक्षणरूप चित्तविकार नहीं करना सो श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचारनिरोध, एव श्रोत्रेन्द्रियविषयप्राप्तार्थरागद्वेषनिग्रहनामक प्रथम प्रकार है १ । चक्खिदिय-विसय- प्यार-निरोहो वा चक्खिदिय - विसय- पत्ते अस्थेसु रागदोसनिग्गहो वा ) चक्षु इन्द्रिय को अपने विषयभूत पदार्थों में प्रवृत्त होने से रोकना, मा द्रियप्रतिसंसीनता च प्रहारनी छे - ( तं जहा ) ते પ્રકાર આ छे(सोइंदिय-विसय-पयार- निरोहो वा, सोइंदिय-विसय- पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा ) શ્રોત્ર-ઈંદ્રિયને વિષય-શબ્દમાં પ્રવૃત્તિ કરવાથી રાકવી, સંયમ તેમજ શીલના વિઘાત કરવાવાળા શબ્દો સાંભળવા નહિ. જો અકસ્માત્ આવા પ્રકારના શબ્દ કાનમાં આવીને પડી પણ જાય તે તે વિષયમાં રાગદ્વેષ ન કરવા. એ ૧ પ્રથમ પ્રકાર છે. મતલબ તેની એ છે કે મધુર સ્મૃદંગ સંગીત આદિ પ્રિય, તેમજ આક્રોશ આદિ અપ્રિય શબ્દમાં પ્રીતિ અપ્રીતિ-લક્ષણરૂપ ચિત્તવિકાર ન કરવા તે શ્રોત્ર'દ્રિયવિષય–પ્રચારનિરોધ તેમજ શ્રોત્રે દ્રિયવિષયપ્રાપ્તા રાગદ્વેષનિગ્રહ નામના प्रथम प्र४२ छे. ( चक्खिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा चक्खिंदिय - विसय- पत्ते अत्थेसु Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० औपपातिकसूत्रे दिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसुरागदोसनिग्गहोवा २, घाणिदिय-विसयप्पयार-निरोहो वा घाणिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिगहो वा ३,जिभिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा जिभिदिय-विसय-पत्तेसुअत्थेसु रागदोसनिग्गहोवा ४,फासिंदिय-विसय-प्पयारचक्षुरिन्द्रियस्य नेत्रस्य विषये-रूपे प्रचारस्य प्रवृनेनिरोधः कार्यः, वा-अथवा चक्षुरिन्द्रियविषयप्राप्तेषु दृष्टेषु अर्थेषु-मनोज्ञामनोज्ञरूपेषु रागद्वेषयोनिग्रहः कर्तव्य इति शेषः ।२। 'घाणिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा, घाणिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गही वा' घ्राणेन्द्रियविषयप्रचारनिरोधो वा घ्राणेन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहो वाघ्राणेन्द्रियं नासिका, तस्य विषयो गन्धस्तस्य प्रवृत्तेर्निषेधो विधेयः-सुरभिगन्धे दुरभिगन्धे वा नासिकामागते रागद्वेषौ निराकर्तव्यौ ।३। 'जिभिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा, जिभिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा' जिह्वेन्द्रियविषयस्य भोजनरसस्य प्रचारनिषेधः, जिह्वायामागतेऽपि मनोज्ञामनोज्ञरसे रागद्वेषयोर्निग्रहः ।४। 'फासिंअथवा प्रवृत्त होने पर उसके विषय में राग और द्वेष नहीं करना, यह द्वितीय प्रकार है २। (घाणिंदिय-विषय-प्पयार-निरोहो वा, घाणिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा) घ्राण-इन्द्रिय को अपने विषय में प्रवृत्त होने से रोकना, तथा प्रवृत्त होने पर उस विषयमें राग द्वेष नहीं करना; यह तृतीय प्रकार है ३। (जिभिदिय-विसय-प्पयारनिरोहो वा जिभिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा ) जिह्वा-इन्द्रिय को अपने विषयमें प्रवृत्त होने से रोकना, एवं उस विषय में उसके प्रवृत्त होने पर प्राप्त विषयमें राग-द्वेषका निग्रह करना, यह चौथा प्रकार है ४। (फासिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा, फासिदिय-विसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा) इसी प्रकार स्पर्शन, इन्द्रिय रागदोसनिग्गहो वा) यक्षु-द्रियन विषयभूत पहाभा तनी प्रवृत्ति २।४वी अथवा પ્રવૃત્તિ થઈ જતાં તે બાબત રાગ અને દ્વેષ ન કર. એ બીજો પ્રકાર છે. (पाणिंदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा घाणिंदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहोवा) ઘાણ—ઇંદ્રિયના વિષયમાં તેની પ્રવૃત્તિ કવી, અથવા પ્રવૃત્તિ થઈ જતાં તે भासतमा रामदेषन ४२३।. येत्रीने ४२ छ. (जिभिदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा जिभिदिय-बिसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा) द्रियना विषयमांપ્રવૃત્તિ રોકવી તેમજ તેના વિષયમાં તે પ્રવૃત્ત થઈ જાય તો પછી પ્રાપ્ત भासतमा २॥ द्वेष यतां शवो. से. या प्र४२ छ. ( फासिंदिय-विसय Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ३० प्रतिसंलोनतातपौवर्णनम् निरोहो वा फासिंदिय-विसथ-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहोवा ५, से तं इंदियपडिसंलीणया । से किं तं कसायपडिसंलीणया ? कसायपडिसंलीणया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-१ कोहस्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं । २ माणदिय-विसय-प्पयार-निरोहो वा, फासिदिय-विसय-पत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा' स्पर्शेन्द्रि विषयप्रचारनिरोधो वा स्पर्शेन्द्रियविषयप्राप्तेष्वर्थेषु रागद्वेषनिग्रहो वास्पर्शेन्द्रियं त्वक्, तस्य विषयः स्पर्शः शीतोष्णादिकः, तत्र प्रवृत्तेः प्रतिषेधः, प्राप्तेष्वपि शुभाशुभस्पर्शेषु रागद्वेषयोनिषेधः। 'से तं इंदियपडिसंलीणया' सैषा इन्द्रियप्रतिसंलीनता । ' से किं तं कसायपडिसलीणया' अथ का सा कषायप्रतिसंलीनता ?, 'कसायपडिसंलीणया' कषायप्रतिसंलीनता 'चउबिहा पण्णत्ता' चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, 'तं जहा' तद्यथा-'कोहस्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं' क्रोधस्योदयनिरोधो वा, उदयप्राप्तस्य वा क्रोधस्य विफलीकरणम्-प्रथमतस्तु क्रोधस्य उदय एव निषेको भी अपने विषय में प्रवृत्त होने से रोकना एवं उस विषय में उसके प्रवृत्त होने पर उसमें राग द्वेष होने का वर्जन करना, यह पांचवाँ प्रकार है । इन पांचों प्रकारों का भाव यही है कि इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना, तथा प्राप्त उनके अपने २ मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ विषयों के ऊपर राग एवं द्वेषकी परिणति से विरक्त रहना । सेि तं इंदियपडिसंलीणया) यह सब इन्द्रियप्रति लीनता है । ( से किं तं कसायपडिसंलीणया) कषायप्रतिसलीनता क्या है ? (कसायपडिसंलीणया चउन्विहा पण्णत्ता) कषायप्रतिसंलीनता चार प्रकार की है । (तं जहा) वह इस प्रकार से है-(१-कोहस्सुदयनिरोहो वा, उदयप्पयार-निरोहो वा फासिंदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा ) ये मारे સ્પર્શન-ઈદ્રિયના વિષયમાં તેની પ્રવૃત્તિ રેકવી તેમજ તે વિષયમાં તેની પ્રવૃત્તિ થઈ જાય તો તે માટે રાગ દ્વેષ ન કર. એ પાંચમ પ્રકાર છે. આ પાંચેય પ્રકારેને ભાવ એ જ છે કે ઈદ્રિએ ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરે, તથા તે પ્રાપ્ત થતાં પિતપોતાના મનેશ તેમજ અમને વિષય ઉપર २॥२॥ द्वेषनी परिणतिथी वि२४त २. ( से तं इंदियपडिसलीणया ) २मधु द्रियप्रतिससीनता छ. ( से किं तं कसायपडिसलीणया ) प्रश्न-पायप्रतिसदीनता शुछे ? उत्तर-(कषायपडिसंलीणया चउव्विहा पण्णत्ता) ४ायप्रतिससीनता यार प्रा२नी छ. (तं जहा ) ते २मा प्रशारे छ-(कोहस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे स्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं । ३ मायाउदयगिरोहो वा, उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरणं । ४ लोहस्सुदयणिरोहो वा, उदयपत्तस्त वा लोहस्स धनीयः, यथा क्रोधो नोदयेत तथा यतितव्यम् ; अथापि यदि क्रोध उदयं प्राप्नुयात् तदा तस्य विफलीकरणम् व्यर्थीकरणम् ।१। 'माणस्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं'-मानस्योदयनिरोधो वा उदयप्राप्तस्य वा मानस्य विफलीकरणम्मानस्य-अभिमानस्योदय एवं निषेधितव्यः, माने उदयं प्राप्तेऽपि विफलीकरणम्-सतोऽपि असत इव करणम् ।२। 'माया-उदय-निरोहो वा, उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरणं' मायाया उदयनिरोधो वा, उदयप्राप्ताया वा मायाया विफलीकरणम्उदयमानाया एव मायायाः परवञ्चनारूपाया निषेधः कर्तव्यः, कथञ्चिदुदिताया वा मायायाः= कपटक्रियाया विफलीकरणम् ।३। 'लोहस्सुदयणिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा लोहस्स पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं, २-माणस्सुदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं, ३ मायाउदयनिरोहो त्रा, उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरणं, ४ लोहस्सुदयणिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरणं ) प्रथम तो क्रोध के उदय का ही निरोध करना, यह सर्वोत्तम पक्ष है, उदयनिरोध होने से क्रोध का मूल विनष्ट हो जाता है । यदि क्रोध उदित हो जाय तो उसे विफल कर देना चाहिये १ । प्रथम तो ऐसा ही यत्न करना चाहिये कि जिससे मानकषाय का उदय ही न हो; यदि मानकषाय उदित हो जाय तो उसे विफल कर देना चाहिये २ । उत्तम बात यही है कि मायाकषाय आत्मा में उदित न हो, यदि वह उदित हो जाती है तो उसको विफल बना देना कोहस्स विफलीकरणं, माणुस्सुदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा माणस्स विफलीकरणं, मायाउदयनिरोहो वा उदयपत्ताए वा मायाए विफलीकरणं, लोहस्सुदयणिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरणं) प्रथम तो ओधनउय थdi ४ निरोध ४२। से સર્વોત્તમ પક્ષ છે. ઉદયનિરોધ થવાથી કોધનું મૂળ જ નાશ પામે છે. જે ક્રોધને ઉદય થઈ જાય તે તેને વિફલ કરી દેવો જોઈએ ૧. પહેલાં તે એ જ યત્ન કરવો જોઈએ કે જેથી માનકષાયને ઉદય જ ન થાય. જે માનકષાયને ઉદય થઈ જાય તે તેને વિફલ કરી દે જોઈએ ૨. ઉત્તમ વાત એ જ છે કે માયાકષાય પણ આત્મામાં ઉદય ન થઈ શકે એવી જાતની પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ. જે તેને ઉદય થઈ ચુકે હોય તે તેને વિફલ કરી દેવું જોઈએ ૩. એ જ પ્રકારે લોભ પણ આત્મામાં ઉદિત ન થાય Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. ३० प्रतिसंलीनतातपोवर्णनम् २३३ विफलीकरणं, से तं कसायपडिसलीणया।से किं तं जोगपडिसंलीगया ? जोगपडिसंलीणया तिविहा पण्णत्ता; तं जहां-१ मणजोगपडिसंलीणया, २ वयोगपडिसंलीणया, ३ कायजोगपडिसंलीविफलीकरणं' लोभस्योदयनिरोधो वा, उदयप्राप्तस्य वा लोभस्य विफलीकरणम्-परस्वग्रहणलालसा लोभस्तस्योदय एव निराकरणीयः, कथञ्चित्क्वापि वस्तुनि लोभे सत्यपि स लोभ उदितोऽपि निषेधनीयः ।४। ‘से तं कसायपडिलीणया' सैषा कषायप्रतिसंलीनता ।।। ‘से किं तं जोगपडिसंलीणया' अथ का सा योगप्रतिसंलीनता ? 'जोगपडिसंलीणया' योगप्रतिसंलीनता-'तिविहा पण्णत्ता' त्रिविधा प्रज्ञप्ता 'तं जहा' तद्यथा 'मणजोगपडिसंलीणया' मनोयोगप्रतिसंलीनता-योगो बन्धः, कर्मणा सह मनसो योगो-मनोयोगः, तस्य प्रतिसंलीनता-निरोधशीलता १। 'वयजोगपडिसलीणया-वाग्योगप्रतिसंलीनता २। 'कायजोगपडिसंलीणया' काययोगप्रतिसंलीनता ३। ' से किं तं चाहिये ३ । इसी प्रकार लोभ भी आत्मा में उदित न हो सके, इस प्रकार प्रवृत्ति करनी चाहिये, यदि वह उदित हो चुका हो तो उसे विफल कर देना चाहिये ४ । तात्पर्य यह है कि चारों कषायों को जैसे भी बने उस प्रकार से जीतना । ( से तं कसायपडिसलीणया) यह कषायप्रतिसंलीनता है। (से किं तं जोगपडिसलीणया) योगप्रतिसंलीनता क्या है: (जोगपडिसलीणया तिविहा पण्णत्ता) योगप्रतिसलीनता तीन प्रकार की कही गई है, (तंजहा) वह इस तरह से; (मणजोगपडिसंलीणया वयजोगपडिसंलीणया कायजोगपडिसलीणया ) कर्मों के साथ मनका बंधन होना सो मनोयोग है, उसका गोपन करना मनोयोगप्रतिसंलीनता है। वचनयोगप्रतिसंलीनता एवं काययोगप्रतिसंलीनता भी वचनयोग को गोपना एवं काययोग को गोपना है। इसी विषय को आगे के सूत्रांश से सूत्र આ માટે પ્રયત્ન કરવો જોઈએ. કદાચ તે ઉદિત થઈ ચુક્યો હોય તે તેને નિષ્ફળ કરી દેવું જોઈએ ૪. पर्य ये छेयाश्य ४ायाने रेभ मने ते। प्रशारे ता. (से तं कसायडिसलीणया) २॥ ४ायप्रति सानछ. (से किं तं जोगपडिसलीणया) प्रश्न-योगप्रतिससाना शुछ? उत्त२-(जोगपडिसंलीणया तिविहा पण्णत्ता) योगप्रतिससीनता ऋण प्रा२नी उपाय छ, (तं जहा) ते माप्रमाणे छ-( मणजोगपडिसंलीणया वयजोगपडिसलीणया कायजोगपडिसंलीणया) ४ नी साथै भननु धन थाय ते મને છે. તેનું ગોપન કરવું તે મને ગપ્રતિસલીનતા છે. વચનગપ્રતિસંલીનતા તેમજ કાયગપ્રતિસંલીનતા પણ વચનગને ગોપવું તેમજ કાય Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे णया। से किं तं मणजोगपडिसंलीणया ? मणजोगपडिसंलीणया-१ अकुसलमणनिरोहो वा, २ कुसलमणउदीरणं वा। से तं मण-जोग-पडिसंलीणया।से किंतं वयजोगपडिसंलीणया? वयोगपडिसलीणया-१ अकुसलवयणिरोहोवा, २ कुसलवयउदीरणं वा। से तं वयजोगपडिसंलीणया । से किं तं कायजोगपडिसंलीणया ? मणजोगपडिसंलीणया' अथ का सा मनोयोगप्रतिसंलीनता ? 'मणजोगपडिसंलीणया' मनोयोगप्रतिसंलीनता 'अकुसल-मण-णिरोहो वा । अकुशलमनोनिरोधो वा, 'कुसल-मण-उदीरणं वा ' कुशलमनउदीरणं वा, शुभमनस उदीरणं प्रवर्तनम् , ' से तं मण-जोग-पडिसंलीणया' सैषा मनोयोगप्रतिसंलीनता,। ' से किं तं वयजोगपडिसंलीणया' अथ का सा वाग्योगप्रतिसंलीनता ? 'वयजोगपडिसलीणया' वाग्योगप्रतिसंलीनता-'अकुसलवयनिरोहो वा' अकुशलवानिरोधो वा ?, 'कुसलवयउदीरणं वा' कुशलवागुदीरणं वा २ । ' से तं वयजोगपडिसलीणया' सैषा वाग्योगप्रतिसलीनता। कार प्रकट करते हैं - ( से किं तं मणजोगपडिसंलीणया) वह मनोयोगप्रतिसंली नता. क्या है ? (मणजोगपडिसंलीणया-अकुसलमगनिरोहो, कुसलमणउदीरणं वा, से तं मणजोगपडिसंलीणया) अकुशल-अशुभ मनका निरोध होना, अथवा शुभमन का प्रवर्तन होना सो यह मनोयोगप्रतिसंलीनता है । ( से किं तं वयजोगपडिसंलीणया) वचनयोगप्रतिसंलीनता क्या है ? (वयजोगपडिसलीणया अकुसलवयनिरोहो वा कुसलवयउदीरणं वा, से तं वयजोगपडिसंलीणया) अकुशलवाणी का निरोध करना अथवा कुशलवाणी का उदीरण करना, यह वचनयोगप्रतिसंलीनता है। ( से किं तं कायजोगपडिसंलीणया) काययोगप्रतिसंलीनता किसका नाम है ? (कायजोगયોગને ગોપવું એ છે. આ વિષયને આગળના સૂત્રના અંશમાં સૂત્રકાર પ્રકટ ४२ छे--( से किं तं मणजोगपडिसंलीणया) ते मनायोगप्रतिस सीनता शु छ ? (मणजोगपडिसलीणया अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं वा, से तं मणजोगपडिसंलीणया)-मस-मशुल भनन। निरोध थयो,अथवा शुम भनमा प्रवर्तन ते भनायोसतिस सीनता छ. ( से किं तं वयजोगपडिसलीणया)-क्यनयोगप्रतिससीनता छ ? (वयजोगपडिसलीणया अकुसलवयनिरोहो वा कुसलवयउदीरण वा,से तं वयजोगपडिसलीणया)--मशी वाणीना निरोध ४२वी, अथवा शत पाणीनु अही२९५ ४२७ ते क्यनयोगप्रतिससीनता . ( से किं तं कायजोगपडिसंलीणया) Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० प्रतिसलीनतातपोवर्णनम् कायजोगपडिसलीणया-जं णं सुसमाहियपाणिपाए. कुम्मो इव गुतिदिए सव्वगायपडिसंलीणे चिट्ठइ, से तं कायजोगपडिसंलीगया।से किं तं विवित्त-सयणा-सण-सेवणया? विवित्त-सयणा-सणसेवणया-जंणंआरामेसु उजाणेसु देवकुलेसु सहासु पवासु पणिकाययोगप्रतिसंलीनतामाह-' से किं तं कायजोगपडिसलीणया ? अथ का सा काययोगप्रतिसंलीनता ? 'कायजोगपडिसंलीणया' काययोगप्रतिसंलीनता नाम-'जं णं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिदिए सव्वगायपडिसंलीणे चिट्ठइ' यत् खलु सुसमाहितपागिपादः कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः सर्वगात्रप्रतिसंलीनस्तिष्ठति । यत् खलु निश्चयेन सुसमाहितपाणिपादः=सुसंयतहस्तचरणः, अत एव कच्छपवद् गुप्तेन्द्रियः सुरक्षितसर्वेन्द्रियः, सर्वगात्रप्रतिसंलीन:--सर्वैः गात्रैः अवयवैः प्रतिसंलीनः-निवारितवृत्तिस्तिष्ठति-कायिकसावद्याऽनुष्ठानवर्जितो भवति । ' से तं कायजोगपडिसलीणया' सैषा काययोगप्रतिसंलीनता । ‘से किं तं विवित्त-सयणा-सण-सेवणया' अथ का सा विविक्तशयनाऽऽसनसे नता ? विविक्तानि=दोषरहितानि शयनासनानि, तेषां सेवनता सेवनम् , सा कीदृशी ? इति प्रश्न , उत्तरमाह-'विवित्त-सयणा-सण-सेवणया-जं णं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुले सु सहासु पवासु पणियगिहेसु पणियसालासु इत्थी-पसु-पंडग-संसत्तविरहियासु वसहीसु फासुएसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारंग उवसंपज्जित्ताणं पडिसंलीणया-जं णं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिदिए सव्वगायपडिसंलीणे चिट्ठइ, से तं कायजोगपडिसंलीणया) हाथ पैरों को तथा इन्द्रियों को कच्छप के समान अच्छी तरह विषयों से गोप कर रखना काययोगप्रतिसंलीनता है। (से किं तं विवित्त-सयणा-सण-सेवणया) विविक्तशयनासन-दोषरहित शयन तथा आसन की सेवनता क्या है ? (विवित्त-सयणा-सण-सेवणया-जं णं आरामेसु उजाणेसु देवकुले मु, सहामु, पवासु, पणियगिहेसु, पणियसालासु, इत्थीपसुपंडगसंसत्तविरहियासु ययोप्रतिस सीनता शेनु नाम छ ? -(कायजोगपडिसलीणया--जं णं सुसमाहियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिदिए सव्वगायपडिसलीणे चिट्ठइ, से तं कायजोगपडिसलीणया) હાથ,પગ,તથા ઈંદ્રિયને કાચબાની પેઠે સારી રીતે વિષયોથી ગોપવી રાખવાં તે કાયयोगप्रतिसदीनता छे. (से किं तं विवित्त-सयणा-सण-सेवणया) विवितशयनासनहोपडित शयन तभ०४ २मासननु सेवन शु छ ? (विवित्त-सयणा-सण-सेवणयाजं णं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सहासु पवासु पणियगिहेसु पणियसालासु, Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ औपपातिकसूत्रे यगिहेसुपणियसालासु इत्थी-पसु-पंडग-संसत्त-विरहियासु वसहीसु फासुएसणिज्जं पीढ-फलग-सेन्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, से तं विवित्तसयणासणसेवणया । से तं पडिसंलीणया । से तं बाहिरए तवे ॥ सू०३०॥ विहरइ' विविक्तशयनासनसेवनता—यत् खल्वारामेषु उद्यानेषु देवकुलेषु प्रपासु पणितगृहेषु पणितशालासु स्त्री-पशु-पण्डक-संसक्त-विरहितासु वसतिषु प्रासुकैषणीयं पीठफलक-शय्या-संस्तारकम् उपसम्पद्य विहरति, 'स्त्री-पशु-पण्डक-संसक्त-विरहितासु' इत्यस्य लिङ्गविपरिणामेन आरामादिपदेष्वप्यन्वयः कार्यः, ततश्च-यत् खलु-निश्चयेन अनगारः, स्त्री-पशु-पण्डक-संसक्त-विरहितेषु स्त्रियः, पशवः, पण्डकाः नपुंसकाः, एतै सर्वैः संसक्तं संयोगः, तेन विरहितेषु आरामेषु कृत्रिमवनेषु, उद्यानेषु-कुसुमकाननेषु, देवकुलेषु–यक्षकुलेषु, तथा स्त्र्यादिसंसक्तवर्जितासु सभासु, प्रपासु-पानीयशालासु, पणितगृहेषु व्यावहारिकजनोचितेषु पण्यगृहेषु, पणितशालासु = बहुग्राहकदायकजनयोग्यासु, स्यादिसंसर्गरहितासु वसतिषु-सामान्यगृहिगृहेषु, एवंविधानेकस्थानेषु ‘फासुएसणिजं' प्रासुकैषणीयं-प्रगता असवः असुमन्तः प्राणिनो यस्मात् तत्प्रासुकम् अचित्तम् , अत एव एषवसहीसु फासुएसणिज्जं पीढफलगसेज्जासंथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ) दोषरहित शयन एवं आसन की सेवनता यह इस प्रकार से होती है जो अनगार स्त्रियों, पशुओं, एवं नपुंसकों से रहित आरामों में कृत्रिमवनों में, उद्यानों में-कुसुमित काननों में, देवकुलों में यक्षायतनों में, सभाओं में, प्रपाओं में -पानीयशालाओं में, पणितगृहों में व्यावहारिकजनोचित पण्यगृहों में, पणितशालाओं में अनेक ग्राहक एवं दायक जनों के योग्य ऐसे स्थानों में, वसतियों में सामान्य गृहस्थजनों के घरों में, अचित्त एवं निरवद्य पीठ, फलक, इत्थीपसुपंडगसंसत्तविरहियासु वसहीसु फासुएसणिज्ज पीढफलगसेज्जासंथारगं उवसंपज्जित्ताण विहरइ, से तं पडिसलीणया) होषरहित शासन तभ०४ शयननु सेवन કરવું તે આ પ્રકારે થાય છે કે જે અનગાર સ્ત્રીઓ, પશુઓ, તેમજ પંડકોનપુંસકથી રહિત આરામમાં એટલે કૃત્રિમવામાં, ઉદ્યાનોમાં-ફુલવાડીઓમાં, દેવકુલોમાંચક્ષાયતમાં, સભાઓમાં, પ્રપાઓમાં-પાનીયશાલાઓમાં (પરબના સ્થાનમાં) પતિગૃહોમાં-વ્યવહારિક-સેકચિત દુકાનોમાં, પણિતશાલાઓમાં -અનેક ગ્રાહકો તેમજ દાયકે (દેનારા) લોકોને એગ્ય એવાં સ્થાનમાં એટલે ગંદામામાં,વસતિઓમાં–સામાન્ય ગૃહસ્થ કેનાં ઘરમાં, અચિત્ત તેમજ નિરવદ્ય Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ३० आभ्यन्तरतपोभेदवर्णनम् २३७ मूलम् — से किं तं अभितरए तवे ?, अब्भितरए तवे छवि पण्णत्ते, तं जहा -१ पायच्छित्ते, २ विणए, ३ वेयावच्चं४ सज्झाओ, ५ झाणं, ६ विउसग्गो । णीयं = निरवद्यम् पीठफलकशय्यासंस्तारकम् उपसम्पद्य विहरति । ' से तं विवित्त-सयणासण- सेवणया' सैषा विविक्त - शयना - सन - सेवनता । से तं पडिलीणया ' सैषा प्रतिसंलीनता, ' से तं बाहिरए तवे ' तदिदं बाह्यं तपः || सू० ३०॥ 6 टीका — अथाभ्यन्तरं तपः प्रोच्यते-' से किं तं अभितरए तवे ?' अथ किं तद् आभ्यन्तरं तपः ?, उत्तरमाह - ' अभितरए तवे छव्विहे पण्णत्ते ' आभ्यतरं तपः षड्विधं प्रज्ञप्तम् ; ' तं जहा ' तद्यथा - १ 'पायच्छित्तं' प्रायश्चित्तम्, २ - 'विगए' विनयः, ३ ' वेयावच्चं ' वैयावृत्यम्, ४ - 'सज्झाओ' स्वाध्यायः, ५- 'झाणं' ध्यानम्, ६'विसग्गो' व्युत्सर्ग इति । तत्र प्रायश्चित्तमाह- 'से किं तं पायच्छित्ते' अथ किं शय्या एवं संस्तारक अंगीकार कर विचरता है, (से तं विवित्त-सयणा - सण - सेवणया) यह विविक्तशयनासनसेवनता है । (से तं पडिलीणया) इस प्रकार यह प्रतिसंलीनता है । (से तं बाहिरए तवे ) इस प्रकार यह छह प्रकार के बाह्य तप के भेद - प्रभेद क गये हैं | सू० ३०॥ अब आभ्यन्तर तप का सूत्रकार वर्णन करते हैं-' से किं तं अभितरए तवे ?' इत्यादि । (से किं तं अभितर तवे ? ) आभ्यन्तर तप क्या है - कितने प्रकार हैं ? ( अभितरए तवे छविहे पण्णत्ते) आभ्यन्तर तप छह प्रकार का हैं; ( तं जहा ) वह इस प्रकार से है, ( पायच्छित्तं, विणए, वेयावच्चं, सज्झाओ, झाणं, विसग्गो) १ प्रायश्चित्त, २ विनय, ३ वैयावृत्य, ४ स्वाध्याय, ५ ध्यान और ६ का चीड, इस, शय्या तेभन संस्तार गंभीर उरीने वियरे छे ( से तं विवित्तसयणा - सण - सेवणया ) ते विवित शयनासनसेवनता छे. ( से तं पडिसंलीणया ) मा प्रहारे मा प्रतिससीनता छे. ( से तं बाहिरए तवे ) आ प्रहारे ते छ अठारना आह्यतयना लेह-अलेह उडेला छे. (सू. 30 ). हुवे आल्यं तर तथनुं सूत्र४२ वर्शन रे - 'से किं तं अब्भितरए तवे ?' त्याहि. ( से किं तं अब्भितरए तवे ? ) प्रश्न- माल्यन्तर तथ शुछे ? डेंटला अारनां छे ? ( अब्भितरए तवे छव्विहे पण्णत्ते ) उत्तर - आल्यन्तर तथ छ પ્રકારનાં छे. ( तं जहा ) ते या अरे छे - ( पायच्छित्तं विणए बेयावच्चं, सन्झाओ झाणं विसग्गो) १ प्रायश्चित्त, २ विनय, 3 वैयावृत्त्य, ४ स्वाध्याय, ये ध्यान Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ औपपातिकसूत्रे से किं तं पायच्छित्ते ? पायच्छिते-दसविहे पण्णत्ते; तं जहा-आलोयणारिहे १, पडिक्कमणारिहे २, तदुभयारिहे ३, विवेतत्प्रायश्चित्तम् ?–प्रायश्चित्तं किंस्वरूपं कतिविधञ्चेति पृच्छति, उत्तरमाह-'पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते' प्रायश्चित्तं दशविधं प्रज्ञप्तम्-ग्रायः पापं, तस्मात् चित्तं-जीवं शोधयति-कर्ममलिनं विमलीकरोतीति प्रायश्चित्तमिनि । यद्वा-प्रायो बाहुल्येन चित्तम्= अन्तःकरणं स्वेन स्वरूपेण अस्मिन् सति भवति इति प्रायश्चित्तम्-अनुष्ठानविशेषः । संवरादेरपि तथैवात्मनः शुद्धिकरणात् प्रायोग्रहणमिति । अस्य दशविधत्वं दर्शयति'तं जहां' तद्यथा-'आलोयणारिहे' आलोचनाऽर्हम्-आलोचना गुरुसमीपे पापस्य निवेदनं, तावन्मात्रेणैव यस्य पापस्य शुद्भिस्तदालोचनाहम् । आलोचनां-गुरुनिवेदनां विशुद्धये व्युत्सर्ग । (से किं तं पायच्छित्ते) प्रायश्चित्त कितने प्रकार का है ?—(पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते) -- प्रायश्चित्त १० प्रकारका है । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं(आलोयणारिहे पडिक्कमणारिहे तदुभयारिहे विवेगारिहे विउसग्गारिहे तारिहे छेयारिहे मूलारिहे अणवठ्ठप्पारिहे पारंचियारिहे ) कर्मों से मलिन चित्त-जीवका संशोधन जिससे होता है, अथवा जिसके होने पर प्रायः करके अन्तःकरण अपने स्वरूप में स्थित होता है, वह प्रायश्चित्त है । संवरादिक से भी आत्मा की शुद्धि होती है इसलिये उनसे इसे पृथक् करनेके लिये प्रायश्चित्त में 'प्रायः' शब्दका प्रयोग हुआ है । इस में प्रथम प्रायश्चित्त आलोचनाह हेाता है । गुरु के समीप पापों का निवेदन करना इसका नाम आलोचना है । इस आलोचनामात्र से जिस पाप की शुद्धि हो जाती है वह आलोचनार्ह व्युत्सर्ग. (से किं तं पायच्छित्ते) प्रायश्चित्त सामानां छ? (पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते ) -प्रायश्चित्त १० २i छ. ( तं जहा) ते ॥ २ छ(आलोयणारिहे पडिक्कमणारिहे तदुभयारिहे विवेगारिहे विउसगारिहे तवारिहे छेयारिहे मूलारिहे अणवढप्पारिहे पारंचियारिहे, से तं पायच्छित्ते) ४थी भलिन થયેલાં ચિત્તનું સંશોધન જેનાથી થાય છે અથવા જે થવાથી પ્રાયઃ અંતઃકરણ પોતાના સ્વરૂપમાં આવી જાય છે તે પ્રાયશ્ચિત્ત છે. સંવરાદિકથી પણ આત્માની શુદ્ધિ થાય છે તેથી તેનાથી આને જુદું કરવા માટે પ્રાયશ્ચિત્તમાં પ્રાયઃ શબ્દ લીધે છે. આમાં પ્રથમ પ્રાયશ્ચિત્ત આલોચના થાય છે. ગુરૂની પાસે પાપનું નિવેદન કરવું તેનું નામ આલેચના છે. આ આલોચનામાત્રથી જે પાપની શુદ્ધિ થઈ જાય છે તે આલેચનાતું પ્રાયશ્ચિત્ત છે. ભિક્ષાચર્યા Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् २३९ यदर्हति भिक्षाचर्यादौ संजातमतिचारजातं तदालोचनाह,तद्विशोधकमालोचनालक्षणं प्रायश्चित्तरूपं कार्यमपि अतिचाररूपे कारणे कार्योपचारादालोचनाहमित्युच्यते। 'पडिक्कमणारिहे' प्रतिक्रमणाहम्-प्रतिक्रमणप्रतिनिवर्तनं-शुभयोगादशुभयोगसंक्रान्तस्यात्मनः पुनः शुभयोगे प्रत्यानयनं, मिथ्यादुष्कृतप्रदानरूपमित्यर्थः । अयं भावः गुप्तित्रये समितिपञ्चके च सहसाकारतोsनाभोगतो वा कथमपि प्रमादे सति मिथ्यादु कृतप्रदानलक्षणं प्रतिक्रमणम् । तत्र सहसाकारतोऽनाभोगतो वा यदि मनसा दुश्चिन्तितं, तथा वचसा दुर्भाषितं, कायेन दुश्चेष्टितं, तथाईर्यायां यदि कथां कथयन् व्रजेत् , भाषायामपि यदि गृहस्थभाषया, प्रहररात्र्यनन्तरप्रायश्चित्त है। भिक्षाचर्या आदि में लगे हुए अतिचारस्वरूप पापों की गुरु के समीप विशुद्धि के लिये आलोचना की जाती है; अतः ये पाप आलोचना के योग्य हैं। आलोचना के योग्य जो प्रायश्चित्त को कहा है वह कारण में कार्य के उपचार से जानना चाहिये । (पडिक्कमणारिहे) प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ पीछे हटना है, शुभ योग से अशुभ योग की तरफ झुके हुए आत्मा को पुनः शुभ योग में लाने के लिये मिथ्यादुष्कृत देना सो प्रतिक्रमण के योग्य प्रायश्चित्त है। इसका भाव यह है-तीन गुप्तियों में, एवं पांच समितियों में अकस्मात्-सहसाकार से, अथवा अनाभोग–अनुपयोग से कथमपि प्रमाद के हो जाने पर मिथ्यादुष्कृत प्रदान करना सो प्रतिक्रमण है । इसमें यदि सहसाकार से अथवा अनाभोग से मन द्वारा खोटा चिन्तवन हो गया हो, वचन से दुर्भाषण हो गया हो, एवं काय सेदुश्चेष्टित हो गया हो, तथा ईर्यापथ में प्रवृत्ति करते (मागमें चलते ) समय यदि कथा कही गयी हो, भाषासमिति में यदि गृहस्थ की भाषा के अनुसार, अथवा प्रहररात्रि के આદિમાં લાગેલાં અતિચારસ્વરૂપ પાપની ગુરુની પાસે વિશુદ્ધિને માટે આલોચના કરાય છે. આથી તે પાપ આલોચનાયેગ્ય છે. આલેચનાને એગ્ય જે પ્રાયશ્ચિત્ત ને કહ્યું છે તે કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી न ले १. (पडिक्कमणारिहे ) प्रतिभा शहना अर्थ 'पाछुट' છે. શુભગથી હટી જઈને અશુભ યોગની તરફ વળતાં ચિત્તને ફરીને શુભ ગમાં લાવવા માટે મિથ્યાદુકૃત દેવું તે પ્રતિક્રમણને એગ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત છે. તેને આ ભાવ છે-ત્રણ ગુપ્તિઓમાં, તેમજ પાંચ સમિતિઓમાં અકસ્માત્ અચાનક, અથવા અનાગ–અનુપગથી કાંઈ પણ પ્રમાદ થઈ જતાં મિથ્યાદુષ્કૃત પ્રદાન કરવું તે પ્રતિક્રમણ છે. આમાં જ અચાનક અથવા અનાગે મનથી ખોટું ચિંતવન થઈ ગયું હોય, વચનથી ખરાબ ભાષણ થયું હોય, તેમજ કાયાથી ખરાબ ચેષ્ટા થઈ હોય, તથા ઈર્યાપથમાં પ્રવૃત્તિ કરતાં (માગે ચાલતાં) જે કથા કહેવાઈ ગઈ હોય, ભાષા સમિતિમાં જે ગૃહસ્થની ભાષા Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० औपपातिकसुत्रे मुच्चैःस्वरेण वा, अन्यथा सावधवचनेन भाषेत, तथा-एषणायां भक्तपानगवेषणवेलायामनुपयुक्तः सदोषमाहारादिकं गृह्णीयात् , तथा सहसाऽनाभोगतो वा भाण्डोपकरणस्यादानं निक्षेप प्रमार्जनं प्रतिलेखनं च कुर्यात् , तथा अप्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले उच्चारादीनां परिष्ठापनं सहसाऽनाभोगतो वा कुर्यात् । उपलक्षगमेतत्-तेन यदि चतुर्विधा विकथा, क्रोधादयः कषायाः, शब्दादिविषयेष्वासक्तिर्वा सहसाऽनाभोगतो वा कृता स्यात् , तदा एतेषु सर्वेषु स्थानेषु मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षणं प्रायश्चित्तं; तच पूर्ववत् कारणे कार्योपचारात्प्रतिक्रमणाहमित्युच्यते ।२। 'तदुभयारिहे' तदुभयाऽहम्-आलोचनाप्रतिक्रमणोभयअनन्तर उच्चस्वर से वचनकी प्रवृत्ति हो गई हो, या सावधवचन निकल गया हो, एषणासमिति में-भक्तपानगवेषण के काल में अनुपयुक्त होकर यदि सदोष आहार ग्रहण करने में आगया हो, अनाभोग से अनुपयोग से अथवा सहसाकार से भाण्डोपकरण का आदान एवं निक्षेपण, प्रमार्जन या प्रतिलेखन हो गया हो, तथा अप्रत्युपेक्षित स्थंडिल में उच्चार आदिका परिष्ठापन सहसाकार से या अनाभोग से कर दिया गया हो, इसी तरह यदि सहसाकार से एवं अनाभोग से चार विकथाओं में, चार क्रोधादिक कषायों में, एवं शब्दादि पांच इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति हो गई हो तो इन समस्त स्थानो में “ मेरे दुष्कृत मिथ्या हों" इस प्रकार मिथ्यादुष्कृतप्रदानस्वरूप यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। पहिले की तरह यह प्रायश्चित्त भी कारण में कार्य के उपचार से प्रतिक्रमणाई कहा गया है २ । (तदुभयारिहे ) जो प्रायश्चित्त आलोचना एवं प्रतिक्रमण, इन दोनों के અનુસાર અથવા પ્રહરરાત્રિ વીત્યા પછી ઉંચા સ્વરથી વચન બેલાઈ ગયું હોય, અથવા સાવદ્ય વચન નીકળી ગયું હોય, એષણા સમિતિમાં–આહારપાણીના ગષણ કાલમાં અનુપયુક્ત થઈને જે સદોષ આહાર ગ્રહણ કરવામાં આવી ગયે હોય, અનાગથી અથવા અચાનક ભાંડોપકરણનાં આદાન તેમજ નિક્ષેપણ, પ્રમાર્જન અથવા પ્રતિલેખન થઈ ગયું હોય, તથા અપ્રત્યુપેક્ષિત સ્થંડિલમાં ઉચ્ચાર આદિનું પરિષ્ઠાપન સહસાકારથી કે અનાગથી (અચાનક કે અનાભેગથી) કરાઈ ગયું હોય, એવી જ રીતે જો સહસાકારથી કે અનાગથી ચાર વિકથાઓમાં, ચાર ક્રોધાદિક કષાયોમાં, તેમજ શબ્દાદિ પાંચ ઇન્દ્રિઓના વિષયોમાં આસક્તિ થઈ ગઈ હોય તો એ બધાં સ્થાનોમાં “મારું દુષ્કૃત - મિથ્યા થાઓ” એ પ્રકારે મિથ્યાદુકૃતપ્રદાનસ્વરૂપ આ પ્રતિક્રમણ–પ્રાયશ્ચિત્ત છે. પહેલાની પેઠે આ પ્રાયશ્ચિત્ત પણ કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી प्रतिभा उपाय छ २. ( तदुभयारिहे ) २ प्रायश्चित्त मालायन भर Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् गारिहे ४, विउस्सग्गारिहे ५, तवारिहे ६, छेदारिहे ७, मूलारिहे ८, अणवट्टप्पारिहे ९, पारंचियारिहे १०। से तं पायच्छित्ते । योग्यम् ।३। 'विवेगारिहे' विवेकार्हम्-विवेकः-अनेषणीयभक्तादिपरित्यागः, तदर्हम् ।४। 'विउस्सग्गारिहे' व्युत्सर्गाऽहम् व्युत्सर्गः कायोत्सर्गः, तद्योग्यम् ।। 'तवारिहे' तपोऽहम्-तपः नमस्कारसहितकालादारभ्य षण्मासर्पयन्तमनशनम् , तत्र कस्यापि तपसो योग्यं तपोऽहम्-अतीचारः, तद्विशोधकत्वात् प्रायश्चित्तमपि तपोऽर्हमुच्यते-इति ।६। 'छेदारिहे' . छेदार्हम्-छेदः-दिनपञ्चकादारभ्य षण्मासपर्यन्तं साधुपर्यायस्य न्यून ताकरणं, तदर्हम् ।७। 'मूलारिहे' मूलार्हम्-मूलं-पुनव्रतस्योपस्थापनम्-पुनर्दीक्षारोपणम् , तहम् ।८। 'अणघट्टप्पारिहे' अनवस्थाप्याईम्-यस्मिन् आसेविते कं चन कालं व्रतेषु अनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चात्तपश्चीर्णतया तदोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्यार्हम् । योग्य होता है वह तदुभयाई प्रायश्चित्त है ३ । (विवेगारिहे) अनेषणीय भक्तादिक का परित्याग करना विवेक है, इसके योग्य जो प्रायश्चित्त है वह विवेकाह प्रायश्चित्त है ४ । (विउसग्गारिहे) व्युत्सर्ग शब्द का अर्थ कायोत्सर्ग है। इसके योग्य प्रायश्चित्त का नाम व्युत्सर्हि प्रायश्चित्त है ५ । (तवारिहे) जो प्रायश्चित्त तपस्या के योग्य होता है वह तपोऽहं प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त नोकारसी से लेकर छ मास तक होता है ६ । (छेदारिहे) साधुपर्याय में पाँच दिनसे लेकर छ मास तक की साधुपर्याय की न्यूनता करना छेदार्ह प्रायश्चित्त है ७ । (मूलारिहे) जो प्रायश्चित्त पुनः दीक्षा आरोपण के योग्य होता है वह मूलाई प्रायश्चित्त है ८ । ( अणवट्ठप्पारिहे) जिस दोषके सेवन करने पर संयमीजन कुछ काल तक महाव्रतों के विषय में अनवस्थापित अलग कर दिये जाते हैं, • प्रतिभा, से मन्नने योग्य डाय छत तलयाई प्रायश्चित्त छ 3. (विबेगारिहे) અનેષણય ભેજન આદિકને પરિત્યાગ કરે તે વિવેક છે. તેને એગ્ય જે प्रायश्चित्त छ त विवाह प्रायश्चित्त छ ४. (विउसग्गारिहे) व्युत्सर्ग शहने। અર્થ કાર્યોત્સર્ગ છે. તેને એગ્ય પ્રાયશ્ચિત્તનું નામ વ્યુત્સર્ગાતું પ્રાયશ્ચિત્ત છે ૫. ( तवारिहे ) २ प्रायश्चित्त तपस्याने योग्य राय छ त तपा प्रायश्चित्त छ. म प्रायश्चित्त नोटारसीथी सध्ने छ भास सुधी थाय छ १. (छेयारिहे) સાધુપર્યાયમાં પાંચ દિવસથી લઈને છ માસ સુધીની સાધુપર્યાયની ન્યૂનતા ४२वी ते छह प्रायश्चित्त छ ७. (मूलारिहे ) २ प्रायश्चित्त शन दीक्षा मारोपणने योज्य खाय छ त भूदा प्रायश्चित्त छ ८. ( अणवटुप्पारिहे) २ દોષનું સેવન કરવાથી સંયમી જન કેટલાક કાળ સુધી મહાવ્રતના વિષયમાં Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ औप गतिकसूत्रे अयं भावः-अनवस्थाप्यो द्विविधो भवति-आशातनाऽनवस्थाप्यः, प्रतिसेवनानवस्थाप्यश्चेति । तत्र तीर्थकर-संघ-श्रुता-ऽऽचार्यो-पाध्याय-गणधर–महर्द्धिकान् आशातयन् अनवस्थाप्याईनामकं नवमं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । स जघन्येन षण्मासान् उत्कर्षतः संवत्सरं यावत् तपः कुर्वन् आशातनतपोऽनवस्थाप्यः कर्तव्यः । तावता च तपसा क्षपिताऽऽशातनाननितकर्मत्वादूर्ध्वं महावतेषु स्थाप्यते । प्रतिसेवनानवस्थाप्यस्तु साधर्मिकाऽन्यधार्मिकवस्तुस्तैन्याभ्यां हस्ततालादिभिश्च भवति । स च जघन्यतो वर्षम् उत्कृष्टतो द्वादश वर्षाणि तपः कुर्वन् भवति, एवं पुनः उस दोष के निवारण के लिये तपस्या में लगाये जाते हैं, इस प्रकार जब तपसे उस दोषकी पूर्णतया शुद्धि हो जाती है तब दोषोपरत वे संयमी महाव्रतों में स्थापित कर दिये जाते हैं । इस प्रकार के प्रायश्चित्त का नाम अनवस्थाप्याह है, मतलब इसका यह है-अनवस्थाप्य दो प्रकारका होता है-१ आशातनानवस्थाप्य, २ प्रतिसेवनानवस्थाप्य । जो तीर्थकर, संघ, श्रुत, आचार्य, उपाध्याय, गगधर एवं लब्धिधारियों की आशातना करता है एसा संयमी इस अनवस्थाप्यारी नामक नवम प्रायश्चित्त का भागी होता है । इनसे आशातनाजन्य दोष की शुद्धि के लिये जघन्य से छहमाह तक, और उत्कृष्ट से एक वर्ष तक तप कराया जाता है। इतने तप से आशातनाजन्य दोष की जब शुद्धि हो जाती है तब बाद में वह साधु महाव्रतों में स्थापित कर दिया जाता है। जो स्वधर्मी और अन्यधर्मी की वस्तु चुराता है, अथवा दयारहित बुद्धि से थप्पड़ आदि मारता है, उसे प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्याई प्रायश्चित्त करना पड़ता है । यह प्रायश्चित्त जघन्य से एक वर्ष का होता है, અનવસ્થાપિત કરવામાં આવે છે, તેમજ પાછા તે દેષના નિવારણ માટે તપસ્થામાં લગાડવામાં આવે છે, એ પ્રકારે જ્યારે તપસેવનથી દેષની સંપૂર્ણ શુદ્ધિ થઈ જાય છે ત્યારે દોષોપરત (દેષમુક્ત) તે સંયમી મહાવ્રતમાં સ્થાપિત કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્તનું નામ અનવસ્થાપ્યાહ છે. એની મતલબ એ છે કે-અનવસ્થાપ્ય બે પ્રકારના થાય છે. ૧ આશાતનાનવસ્થા અને ૨ પ્રતિસેવનાનવસ્થાપ્યું. જે તીર્થકર, સંઘ, શ્રત, આચાર્ય, ઉપાધ્યાય, ગણધર, તેમજ લબ્ધિધારિઓની આશાતના કરે છે, એવા સંયમી આ અનવસ્થાપ્યાહ નામના નવમાં પ્રાયશ્ચિત્તના ભાગી થાય છે. તેનાથી આશાતનાજન્ય દેષની શુદ્ધિને માટે જઘન્યથી છ મહિના સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક વર્ષ સુધી તપ કરાય છે. એટલા તપથી આશાતનાજન્ય દોષની જ્યારે શુદ્ધિ થઈ જાય છે ત્યાર બાદ તે સાધુ મહાવ્રતોમાં સ્થાપિત કરી દેવાય છે. જે સાધમીની અને અન્ય ધર્માની વસ્તુને ઘેરી લે છે, અથવા દયારહિત બુદ્ધિથી લાફે આદિ મારે છે તેને પ્રતિસેવનાનવસ્થાપ્યાઈ પ્રાયશ્ચિત્ત કરવું પડે છે. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् २४३ तदनन्तरं व्रतेषु स्थाप्यते । संहननादिगुणयुक्त एवानवस्थाप्यः क्रियते, अन्यस्य तु मूलमेव दीयते । संहननादिगुणयुक्तोऽपि यदि अनन्यसाध्यकुलगणसङ्घकार्यकारी बहुजनसाध्यकार्यकारी वा भवेत् , तर्हि द्विविधोऽप्यनवस्थाप्यः खलु गुरुमुखात् सङ्घसाक्षितया च स्तोकं स्तोकतरं वा मासद्वयं मासैकमात्रं वा अनवस्थाप्यतपो वहेत् । यद्वा-चतुर्विधसंघाधारभूतोऽयं परमभद्रकः स्वयमेव तपश्चर्यादिनाऽनवस्थाप्यशोध्यमतीचारमलं क्षालयिष्यतीति कृत्वा सर्व मुश्चेत् अनवस्थाप्यतपो न कारयेदिति । और उत्कृष्ट से बारह वर्ष का । इस प्रकार तपस्या करने के बाद वह साधु महावतों में स्थापित किया जाता है । संहननादिगुणयुक्त ही इस प्रायश्चित्त के अधिकारी हैं। दूसरे को तो मूलाई प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। संहननादिगुणयुक्त साधु यदि दूसरों से असाध्य ऐसे कुल गग संघ के कार्य करनेवाला हो, अथवा कुल गण संघ का जो कार्य बहुजनसाध्य हो उस कार्य को वह अकेले ही करनेवाला हो तो ऐसे आशातनाऽनवस्थाप्य और प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्य साधु के लिये संघकी साक्षी में गुरुके मुख से स्तोक-दो मास का, अथवा स्तोकतर-एकमास का तप दिया जाता है। तदनन्तर वह महावतों में स्थापित किया जाता है। अथवा यदि कोई साधु चतुर्विध संघ का आधार हो, पर भद्रक हो, वह स्वयमेव तपस्या करके अनवस्थाप्य तप के द्वारा विशोधनीय पापमल का प्रक्षालन कर लेगा, ऐसा विश्वास हो, तो ऐसे साधु का अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है। આ પ્રાયશ્ચિત્ત જઘન્યથી એક વર્ષનું થાય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી બાર વર્ષનું થાય છે. આ પ્રકારે તપસ્યા કર્યા પછી તે સાધુ મહાવ્રતમાં સ્થાપિત કરાય છે. સંહનનાદિગુણયુક્ત જ તે પ્રાયશ્ચિત્તના અધિકારી છે. બીજાને તે મૂલાહ પ્રાયશ્ચિત્ત જ અપાય છે. સંહનનાદિગુણયુક્ત સાધુ જે બીજાથી અસાધ્ય (ન બને) એવાં કુલ ગણ સંઘનાં કાર્ય કરવાવાળે હેય અથવા કુલ ગણ સંઘનાં જે કાર્ય બહુજનસાધ્ય હોય, એવાં કાર્યોને તે એકલો જ કરવાવાળો હોય તો એવા આશાતનાનવસ્થાપ્ય અને પ્રતિસેવનાનવસ્થાપ્ય સાધુને માટે સંઘની સાક્ષીમાં ગુરૂના મુખથી સ્તક-બે માસનું, અથવા સ્તાકતર–એક માસનું તપ અપાય છે. ત્યાર પછી તે મહાવ્રતમાં સ્થાપિત કરાય છે. અથવા જે કોઈ સાધુ ચતુર્વિધ સંઘનો આધાર હોય, પરમભદ્રક હોય, તે પિતે જ તપસ્યા કરીને અનવસ્થાપ્ય તપ દ્વારા વિરોધનીય પાપમલ ધોઈ નાખશે એ વિશ્વાસ હોય છે એવા સાધુન અનવસ્થાપ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત અપાતું નથી.. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे अनवस्थाप्यतपोविधिरुच्यते - अनवस्थाप्यप्रायश्चित्ती साधुः प्रशस्तेषु द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु गुरुसमीपे सरलभावेन स्वातिचारमालोचयति। आलोचनाऽनन्तरं गुरुः कायोत्सर्गं कारयति, तथाहिऐर्यापथिकीं समग्रां श्रावयति, 'तस्मुत्तरीकरणेणं' इत्यारभ्य यावत्- 'अध्याणं वो सिरामि' इति पठित्वा कायोत्सर्गे वारद्वयं चतुर्विंशतिस्तवमनुचिन्त्य पारयित्वा पुनश्चतुर्विंशतिस्तवमुच्चार्याचार्यः साधूनामन्त्र्य वदति - " एषोऽनवस्थाप्यो मुनिस्तपः प्रतिपद्यते, एष युष्मान्नालपिष्यति, युष्माभिरपि नापनीयः, एष सूत्रार्थं शरीरवार्तां सुखशातादिरूपां वा न प्रक्ष्यति, युष्माभिरपि न प्रष्टव्यः, परिष्ठापनादिकमस्य भवद्भिर्न कर्तव्यम्, न चाऽयं भवतां करिष्यति । उपकरणमस्य भव २४४ अब अनवस्थाप्यप्रायश्चित्त की विधि कहते हैं - अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त लेने वाला साधु प्रशस्त द्रव्य क्षेत्र काल भावमें गुरु के निकट सरल भावसे अपने अतीचारों की आलोचना करता है । जब वह आलोचना कर चुकता है तब गुरु महाराज उसे कायोत्सर्ग करवाते हैं । वह इस प्रकार है— गुरु महाराज पहले समग्र ईर्यापथिकी सुनाते हैं, फिर 'तस्मुत्तरीकरणेणं' यहां से लेकर " अप्पाणं वोसिरामि " यहाँ तक पढकर कायोत्सर्ग में दो वार चतुर्विंशतिस्तव की अनुचिन्तना कर, पाल कर, फिर एकवार चतुर्विंशतिस्तव का उच्चारण करते हैं, और आचार्य तथा साधुओं को बुलाकर इस प्रकार कहते हैं - "यह अनवस्थाप्य मुनि तपस्या कर रहा है, यह न तुम लोगों से बोलेगा, न तुम लोग इससे बोलना । यह तुम लोगों से सूत्रार्थ और शरीर की सुखशाता आदि नहीं पूछेगा, तुम लोग भी इस से मत पूछना । इसकी परिष्ठापनिका आदि तुम लोग मत करना, यह भी तुम लोगों की नहीं करेगा । હવે અનવસ્થાપ્ય પ્રાયશ્ચિત્તની વિધિ કહે છેઃ અનવસ્થાપ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત લેવાવાળા સાધુ પ્રશસ્ત દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાલ અને ભાવમાં ગુરૂની પાસે સરલભાવથી પોતાના અતીચારોની આલેાચના કરે છે. જ્યારે તે આલેચના કરી લે છે ત્યારે ગુરૂ મહારાજ તેને કાયાત્સર્ગ કરાવે છે. તે આ પ્રકારે છે–ગુરૂ મહારાજ પહેલાં સમગ્ર ઈર્યાપથિકી સંભળાવે છે. પછી ' तस्सुत्तरीकरणेणं' अहींथी सर्धने 'अप्पाणं वोसिरामि' अहीं सुधी ભણીને કાર્યાત્સ માં ચતુર્વિશતિસ્તવની અનુચિતના કરીને, પાળીને, પછી ચતુર્વિ’શતિસ્તવનું ઉચ્ચારણ કરે છે, અને આચાય તથા સાધુઓને ખેલાવીને આ પ્રકારે કહે છે આ અનવસ્થાપ્ય મુનિ તપસ્યા કરી રહ્યો છે, તે ન તે તમારી સાથે ખેલશે અને ન તમારે એને ખેાલાવવા. એ તમાને સૂત્રા અને શરીરની સુખશાતા આદિ નહિ પૂછે અને તમારે પણ તેને પુછવુ નહિ. તેની પરિષ્ઠાયનિકા આફ્રિ તમારે ન કરવી અને તે પણ તમારી નહિ કરે. તેનાં Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका. सू. ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् २४५ द्भिर्न प्रतिलेख्यम्, न चायं भवतां प्रतिलेखथिष्यति । भक्तपानमस्मै न देयं, नाप्यस्माद्ग्राह्यम् , अनेन सार्धं नोपवेष्टव्यम्, न चाप्यनेन सहेकमण्डल्यां भोक्तव्यम्, अनेन सार्धं किमपि न कार्यमिति।" अयं नवदीक्षितं साधुं वन्दते, एनं न कोऽपि वन्दते, ग्रीष्मे चतुर्थषष्ठाष्टमानि, शिशिरे षष्ठाष्टमदशमानि, वर्षास्वष्टमदशमद्वादशानि जधन्यमध्यमोत्कृष्टानि, पारणके च निर्लेपः, एवंरूपं सुदुश्चरं तपश्चरति । अस्य गच्छेन सह वासः एक क्षेत्रे एकोपाश्रये एकस्मिन् पार्श्वे शेषसाधुपरिभोग्यप्रदेशे कल्पते, नत्वालपनादीनि शेषाणि । रोगादौ समुत्पन्ने सति रोगादिनिवृत्तिपर्यन्तं इसके उपकरण की प्रतिलेखना तुम लोग मत करना, यह भी तुम लोगोंके उपकरण की प्रतिलेखना नहीं करेगा; न तुम लोग इसे भक्तपान दो, न इससे भक्तपान लो, न इसके साथ बैठो, न इसके साथ एक मण्डली में आहारादि करो, और न इसका सहकार लेकर कोई अन्य कार्य करो।" यह साधु नवदीक्षित साधु की वन्दना करता है, इसको वन्दना कोई भी नहीं करता। यह साधु ग्रीष्म ऋतु में जघन्य से उपवास, मध्यम से बेला, और उत्कृष्ट से तेला करता है; शिशिर ऋतु में-जधन्य से बेला, मध्यम से तेला और उत्कृष्ट से चौला करता है; एवं वर्षा ऋतु में जघन्य से तेला, मध्यम से चोला और उत्कृष्ट से पँचोला करता है; पारणा में विकृतिवर्जित आहार लेता है। अनवस्थाप्यप्रायश्चित्ती इस प्रकार का दुष्कर तप करता है। इस साधु को अन्य साधुओं के वसतियोग्य प्रदेश में रहना कल्पता है । यह गच्छ के साथ एकक्षेत्र में, एक उपाश्रय में, एक ही पार्श्व में रह सकता है, किन्तु इसको आलपन (बातचीत) आदि नहीं ઉપકરણની પ્રતિલેખના તમારે ન કરવી તે પણ તમારાં ઉપકરણની પ્રતિલેખના નહિ કરે. ન તમારે તેને આહારપાણી દેવાં કે ન તેની પાસેથી આહારપાણી લેવાં. ન તેની સાથે બેસવું, ન તેની સાથે એકમંડલીમાં આહાર આદિ કરવાં અને ન તેને સહકાર લઈને કોઈ અન્ય કાર્ય કરવું.” આ સાધુ નવદીક્ષિત સાધુની વંદના કરે છે, તેની વંદના કોઈ પણ કરતું નથી. આ સાધુ ગ્રીષ્મઋતુમાં જઘન્યથી ઉપવાસ, માધ્યમથી બેલા, અને ઉત્કૃષ્ટથી તેલા કરે છે, શિશિરઋતુમાં જઘન્યથી બેલા, મધ્યમથી તેલા અને ઉત્કૃષ્ટથી ચૌલા કરે છે, તેમજ વર્ષાઋતુમાં જઘન્યથી તેલા, મધ્યમથી ચૌલા અને ઉત્કૃષ્ટથી પંચેલા કરે છે. પારણામાં વિકૃતિવજિત આહાર લે છે. અનવસ્થાપ્યપ્રાયશ્ચિત્તી આ પ્રકારનું દુષ્કર તપ કરે છે. આ સાધુને અન્ય સાધુઓના વસતિગ્ય પ્રદેશમાં રહેવું કપે છે. તે ગ૭ની સાથે એક ક્ષેત્રમાં, એક ઉપાશ્રયમાં, એક જ પાર્ધમાં રહી શકે છે પરંતુ તેને આલપન (વાતચીત) આદિ કલ્પતું Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ औपपातिकसूत्रे तद्वैयावृत्यं करणीयं, तस्मिन्निवृत्ते सति पुनस्तपसि संस्थाप्यः। इति संक्षेपतोऽनवस्थाप्यतपोविधिः । इदं नवमं प्रायश्चित्तम् ।९। __'पारंचियारिहे' पाराञ्चिकाऽर्हम्-पारं तीरं तपसाऽपराधस्य अञ्चति गच्छति ततो दीक्ष्यते यः स पाराञ्ची, स एव पाराञ्चिकः; तस्य यदर्ह तत् पाराञ्चिकाहं दशमं प्रायश्चित्तम् । यद्वा-पारमन्तं प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताऽभावाद् अञ्चति-गच्छतीत्येवंशील: साधुः पाराञ्चिकस्तदहं प्रायश्चित्तम् ।१०। पाराञ्चिकः संक्षेपतो द्विविधः-आशातनापाराञ्चिकः, प्रतिसेवनापाराश्चिकश्चति । तत्र-तीर्थकर-संघ-श्रुताचार्य-गणधर-महर्द्धिकान् आशातयति यः स कल्पता है। यदि उस साधु को रोगादि हो जाय तो जबतक रोगादि की निवृत्ति न हो तबतक अन्य साधु उसकी वैयावृत्त्य कर सकते हैं। जब वह साधु रोग से निर्मुक्त हो जाय तो फिर उससे तपस्या करानी चाहिये । यह अनवस्थाप्यारी नामक नवमा प्रायश्चित्त हुआ। _ 'पारंचियारिहे' जो साधु तप के द्वारा अपने किये हुए अपराध को पार करता है, अर्थात् अपराधजनित पापसे मुक्त होता है; फिर उसे दीक्षा दी जाती है, वह साधु 'पाराश्चिक' है। उस साधु को पापविशोधनार्थ जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह 'पाराश्चिकाई' प्रायश्चित्त है। अथवा जो साधु उत्कृष्टतर अन्य प्रायश्चित्त के न होने के कारण मात्र अन्तिम प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है वह 'पाराश्चिक' कहा जाता है। उस अन्तिम प्रायश्चित्त को 'पाराञ्चिकाई' कहते हैं। पाराश्चिक साधु दो प्रकार का है-पहला आशातनापाराञ्चिक, दूसरा प्रतिसेवना पाराश्चिक । जो तीर्थंकर, संघ, श्रुत, आचार्य, गणधर और लब्धिधारी की आशातना નથી. જે તે સાધુને રેગાદિ થઈ જાય તો જ્યાં સુધી રોગાદિની નિવૃત્તિ ન થાય ત્યાં સુધી અન્ય સાધુ તેનું વૈયાવૃત્ય કરી શકે છે. જ્યારે તે સાધુ રેગથી નિમુક્ત થઈ જાય ત્યાર પછી તેની પાસે તપસ્યા કરાવવી જોઈએ. આ અનવસ્થાપ્યાહ નામનું નવમું પ્રાયશ્ચિત્ત થયું. 'पारंचियारिहे' साधु तपा। पोते ४२सा अपराधने पा२ ४२ छ अर्थात् અપરાધજનિત પાપથી મુક્ત થાય છે તેને ત્યાર પછી દીક્ષા દેવાય છે. તે સાધુ 'पाराश्चिक' छते साधुने पापविशाधना से प्रायश्चित्त उपाय छते 'पाराश्चिकाई' પ્રાયશ્ચિત્ત છે, અથવા જે સાધુ ઉત્કૃષ્ટતર અન્ય પ્રાયશ્ચિત્ત ન હોવાના કારણ भाथी मतिम प्रायश्चित्तनो मधिजारी छ 'पाराश्चिक' ४उपाय छे. ते मतिम प्रायश्चित्तने 'पाराञ्चिकाई' ४वाय छे. पाश्यि साधु मे ॥२॥ छ-पडसा माशतनामायि४, मीत प्रतिसेवनामाथि४.२ तीथ ४२, संघ, Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् २४७ आशातनापाराञ्चिकः । तस्य पाराञ्चिकाहनामकं दशमं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । स जघन्येन षण्मासान् , उत्कर्षतो द्वादश मासान् गच्छतो निःसारितस्तपसि तिष्ठति । प्रतिसेवनापाराश्चिकस्त्रिविधः-दुष्टः, प्रमत्तः, अन्योन्यं कुर्वाणश्चेति । तत्र दुष्टोद्विविधः-कषायदुष्टो, विषयदुष्टश्चेति । तत्र कषायदुष्टो द्विविधः-स्वपक्षदुष्टः, परपक्षदुष्टश्च । अत्र चतुर्भङ्गी, तद्यथा-स्वपक्षः स्वपक्षे दुष्टः १, स्वपक्षः परपक्षे दुष्टः २, परपक्षः स्वपक्षे दुष्टः ३, परपक्षः परपक्षे दुष्टः ४ । प्रथमभङ्गे-मृतगुरुदन्तभञ्जकः १,गुरुगलमर्दकः २, नेत्रोत्खातकः ३, दन्तैर्देशकः ४, इत्यादीन्युदाहरणानि । द्वितीयभङ्गेराजादिगृहस्थवधकः २, तृतीये-यथा केनापि गृहस्थावस्थायां वादे पराजितः कश्चिद् आसीत् , करता है वह 'आशातनापाराश्चिक' है। इसे पाराञ्चिकाई' नामक दशवाँ प्रायश्चित्त दिया जाता है। यह जघन्य से छ मास तक और उत्कृष्ट से बारह मास तक गच्छ से बहिष्कृत होकर तपस्या करता है। 'प्रतिसेवनापाराश्चिक' तीन प्रकार का होता है। वे प्रकार ये हैं-(१) दुष्ट, (२) प्रमत्त और (३) अन्योऽन्यकुर्वाण। इनमें 'दुष्ट' दो प्रकार का होता है-(१) कषायदुष्ट और (२) विषयदुष्ट । कषायदुष्ट दो प्रकार का है-(१) स्वपक्षदुष्ट और. (२) परपक्षदुष्ट । यहाँ पर चतुर्भङ्गी होती है। चतुर्भङ्गी का प्रकार इस प्रकार है-(१) स्वपक्ष, स्वपक्ष में दुष्ट-साधुओं से द्वेष करनेवाला साधु । इसका उदाहरण है-मृत गुरु का दाँत पाडनेवाला, मृत गुरु की गर्दन मरोड़नेवाला, मृत गुरु तथा साधु की आँखों को निकालनेवाला, दाँतों से साधु को काटनेवाला-साधु । (२) स्वपक्ष-परपक्ष में दुष्टगृहस्थों से द्वेष करनेवाला साधु । इसका उदाहरण है-राजा आदि गृहस्थों का वध શ્રત, આચાર્ય, ગણધર અને લબ્ધિધારીની આશાતના કરે છે તે આશાતનાપારાચિક છે. તેને પારાંચિકાઈ નામનું દશમું પ્રાયશ્ચિત્ત દેવાય છે. એ જઘન્યથી છ માસ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી બાર માસ સુધી ગચ્છથી બહિષ્કૃત થઈને તપસ્યા કરે છે. પ્રતિસેવનાપારાંચિક” ત્રણ પ્રકારના થાય છે. તે આ सारे छे-(१) हुट, (२) प्रभत्तमन (3) अन्योऽन्या . तमा हुट' मे २i थाय छे. (१) ४षायहुष्ट मने (२) विषयष्ट. ४ायट में मारनां छ-(१) स्वपक्षहुष्ट मने (२) ५२५क्षदृष्ट. मडी यतुलगी थाय છે. ચતુર્ભગીના પ્રકાર આમ છે–(૧) સ્વપક્ષ, સ્વપક્ષમાં દુષ્ટ–સાધુઓને દ્વેષ કરવાવાળા સાધુ. તેનું ઉદાહરણ છે–મરેલા ગુરૂના દાંત પાડવાવાળો, મરેલા ગુરૂની ગરદન મરડવાવાળો, મરેલા ગુરૂ તથા સાધુની આંખે કાઢી લેવાવાળે, દાતેથી સાધુને બટકાં ભરવાવાળે સાધુ. (૨) સ્વપક્ષ, પરપક્ષમાં દુષ્ટ–ગૃહસ્થને ઠેષ કરવાવાળો સાધુ. તેનું ઉદાહરણ છે–રાજા આદિ ગૃહસ્થને વધ કરવા Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૪૮ औपपातिकसूत्रे स तस्य गृहस्थावस्थायां विजयिनः साधोरिको जातः; यथा स्कन्दकुमारस्य पालक इति ।३। यो राज्ञो युवराजस्य वा वधकः स चतुर्थभङ्गान्तर्गतः । अदीक्षितत्वात् वधकः परपक्षः, राजा तु परपक्ष एवास्ति ।४। प्रथमभङ्गे योऽनुपरतः स प्रायश्चित्तानहः, तस्मात् तस्य साधुवेषमपहृत्य गुरुणा बहिर्निस्सारणं करणीयम्, यस्तूपरतः 'पुन:वं करिष्यामी' ति प्रतिजानाति तस्य तपोरूपं करनेवाला साधु । (३) परपक्ष, स्वपक्ष में दुष्ट-साधु से द्वेष करनेवाला गृहस्थ । इसका उदाहरण इस प्रकार है-किसी साधुने गृहस्थावस्था में वादविवाद में किसी को पराजित किया था। पराजित मनुष्य उसका वैरी हो गया। बाद में विजयी मनुष्यने दीक्षा लेकर साधुत्व को अङ्गीकार किया, उस समय पराजित मनुष्य तीव्र वैरानुबन्ध के कारण उस साधु को मार डाला। जैसे-पालकने स्कन्दक आदि पाँचसौ मुनियों को मार डाला। तथा (४) परपक्ष–परपक्ष में दुष्ट गृहस्थ से द्वेष करनेवाला गृहस्थ । इसका उदाहरण है-राजा वा युवराज का वध करनेवाला गृहस्थ । हत्या करनेवाला अदीक्षित होने के कारण परपक्षी है, राजा आदि तो परपक्षी है ही, इसलिये यह चतुर्थ भङ्ग का उदाहरण है। ___ प्रथमभङ्ग में जो साधु अनुपरत है, अर्थात मृतगुरु के दांत पाड़ना आदि दुष्कृत्य से निवृत्त नहीं होता है, वह प्रायश्चित्त का अधिकारी नहीं है। गुरु को चाहिये कि ऐसे साधु का वेष छीन लें, और गच्छ से उसको निकाल दें। जो साधु दात पाड़ना आदि दुष्कृत्यों से निवृत्त हो जाता है, और प्रतिज्ञा करता है कि “मैं अब फिर कभी ऐसा काम नहीं करूँगा" वाणा साधु. (3) ५२५क्ष, स्वपक्षमा दृष्ट-साधुन। द्वेष ४२पापा २५. सानु ઉદાહરણ આમ છે-કેઈ સાધુએ ગૃહસ્થાશ્રમમાં વાદવિવાદમાં કેઈને પરાજિત કર્યો હતો. પરાજિત માણસ તેને વેરી થઈ ગયો. પછી વિજયી મનુષ્ય દીક્ષા લઈ સાધુત્વ અંગીકાર કર્યું, તે સમયે પરાજિત મનુષ્ય તીવ્ર વૈરાનુબંધને કારણે તે સાધુને મારી નાખે. જેમ, પાલકે કંઇક આદિ પાંચસો મુનિઓને મારી નાખ્યા. તથા (૪) પરપક્ષ, પરપક્ષમાં દુષ્ટ–ગૃહસ્થાને છેષ કરવાવાળા ગૃહસ્થ. તેનું ઉદાહરણ છે–રાજા અથવા યુવરાજને વધ કરવાવાળે ગૃહસ્થ, હત્યા કરવાવાળો અદીક્ષિત હોવાને કારણે પરપક્ષી છે, રાજા આદિ તે પરપક્ષી છે જ, આથી એ ચતુર્થભંગનું ઉદાહરણ છે. - પ્રથમ ભંગમાં–જે સાધુ અનુપરત છે અર્થાત્ મરેલા ગુરૂના દાંત પાડવા આદિ દુષ્કૃત્યથી નિવૃત્ત થતો નથી તે પ્રાયશ્ચિત્તને અધિકારી નથી. ગુરૂએ એવા સાધુનો વેષ છીનવી લેવો જોઈએ અને ગચ્છથી તેને બહિષ્કાર કરે જોઈયે. જે Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् २४९ पाराञ्चिकाहं प्रायश्चित्तं कर्तव्यम् । ततः साधुवेषपरित्यागेन स गुरुनिदेशतः कपर्दिका वणिग्भ्यो याचित्वा गुरवे प्रदर्शयति, ततो गुरुर्मुनिवेषं दत्त्वा दीक्षां ददाति । पाराञ्चिकतपोविधानं प्रागुक्तानवस्थाप्यतपोवद् ग्रीष्मे चतुर्थषष्टाष्टमानि, शिशिरे षष्ठाष्टमदशमानि, वर्षास्वष्टमदशमद्वादशानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि, पारणके च निर्लेप इति । द्वितीयभङ्गेऽपि चानुपरतः प्रथमभङ्गवत् साधुवेषापहारेण गच्छाद् बहिष्करणीयः, उपर ऐसे साधु को गुरु पाराञ्चिकाई प्रायश्चित्त दें। ऐसा साधु साधुवेष का परित्याग कर शिर के ऊपर कपड़ा बाँधकर गुरु की आज्ञा से बाजार में जाकर व्यापारियों से अपना पापनिवेदनपूर्वक एक एक कौड़ो माँगता है, माँग कर उन कौड़ियों को गुरु महाराज को दिखलाता है। तब गुरु महाराज उसे मुनिवेष देकर फिर से दीक्षा देते हैं। पाराश्चिक तप का विधान पूर्वोक्त अनवस्थाप्य तप के समान है। इस तपस्या में वह साधु ग्रीष्म ऋतु में जधन्य से उपवास, मध्यम से बेला, उत्कृष्ट से तेला; शिशिर ऋतु में जघन्य से से बेला, मध्यम से तेला, उत्कृष्ट से चौला; और वर्षा ऋतु में जधन्य से तेला, मध्यम से चौला, उत्कृष्ट से पँचोला करता है। पारणा में विकृतिवर्जित आहार लेता है। द्वितीयभङ्ग में जो साधु अनुपरत है अर्थात् राजा आदि गृहस्थों के घातरूप व्यापार से निवृत्त नहीं होता है, ऐसे साधु का साधुवेष छीनकर गुरु महाराज उसे गच्छ से निकाल दें। जो साधु राजादिक गृहस्थ के घातरूप व्यापार સાધુ દાંત પડવા આદિ દુષ્કથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે અને નિયમ કરે છે કે- હવે ફરીને એવું કામ નહિ કરું” એવા સાધુને ગુરૂ પારાંચિકાણું પ્રાયશ્ચિત્ત આપે. એ સાધુ, સાધુનો વેષ છેડી દઈ શિરના ઉપર કપડું બાંધી ગુરૂની આજ્ઞા લઈ બજારમાં જાય છે અને વ્યાપારીઓની પાસે પોતાનું પાપનું નિવેદન કરી એક એક કેડી માંગે છે. માંગીને તે કેડિએને ગુરૂ મહારાજને બતાવે છે. ત્યારે ગુરૂ મહારાજ તેને મુનિવેષ આપીને ફરીને દીક્ષા આપે છે. પારાચિક તપનું વિધાન આગળ કહેલ અનવસ્થાપ્ય તપના સમાન છે. આ તપસ્યામાં તે સાધુ ગ્રીષ્મઋતુમાં જઘન્યથી ઉપવાસ, માધ્યમથી બેલા, ઉત્કૃષ્ટથી તેલા, શિશિરઋતુમાં જઘન્યથી બેલા, મધ્યમથી તેલા, ઉત્કૃષ્ટથી ચૌલા, અને વર્ષાઋતુમાં જઘન્યથી તેલા, મધ્યમથી ચૌલા, ઉત્કૃષ્ટથી પંચેલા કરે છે. પારણામાં વિકૃતિવજિત આહાર લે છે. દ્વિતીયભંગમાં–જે સાધુ અનુપરત હેય અર્થાત્ રાજા આદિ ગૃહસ્થોના ઘાતરૂપ વ્યાપારથી નિવૃત્ત થતું નથી, એવા સાધુને સાધુવેષ છીનવી લઈને Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक चेत् तर्हितस्य न पाराश्चिकतपः करणं, नापि च साधुवेषापहारः, किं तु पुनर्दीक्षाप्रदानमात्र प्रायश्चित्तम् । २५० तृतीयभङ्गे चतुर्थभङ्गे च यद्यतिशयज्ञानी 'उपशान्तोऽयम्' इति मन्यते, तदा स्वदेशे दीक्षितुं न कल्पते, किन्तु अन्यस्मिन् देशे गत्वा दीक्षा दातव्या । विषयदुष्टोऽपि पूर्ववद् द्विविधः – स्वपक्षदुष्टः, परपक्षदुष्टश्चेति । तत्रापि चतुर्भङ्गीतद्यथा - स्वपक्ष: स्वपक्षे दुष्टः १, स्वपक्षः परपक्षे दुष्टः २, परपक्ष: स्वपक्षे दुष्टः ३, से निवृत्त हो जाय तो उससे गुरु पाराश्चिक तप नहीं करायें, न उसका साधुवेष ही छीनें, किन्तु उसे क्षेत्रपाराश्चिक करके फिर से दीक्षा दें, यह उसका प्रायश्चित्त हैं । तृतीयभङ्ग में - जो गृहस्थ साधु का घातक है वह यदि दीक्षा लेना चाहे, गुरुमहाराज को वह उपशान्त ज्ञात हो तो उसे गुरुमहाराज अन्यदेश में ले जाकर दीक्षा दें। क्योंकि स्वदेश में इसके लिये दीक्षा नहीं कलपती है । चतुर्थभङ्ग मेंजो कोई गृहस्थ, राजा युवराज आदि गृहस्थ का घातक है, वह यदि दीक्षा लेना चाहे और गुरु महाराज को वह उपशान्त मालूम हो, तो उसको परदेश में ले जाकर दीक्षा दें। स्वदेश में उसके लिये दीक्षा नहीं कलपती है । विषयदुष्ट भी पूर्ववत् दो प्रकार का होता है - स्वपक्षदुष्ट और परपक्षदुष्ट । यहाँ पर भी चतुर्भङ्गी है । वह इस प्रकार है - ( १ ) स्वपक्ष, स्वपक्ष में दुष्ट - बाला या तरुणी साध्वी का शील भङ्ग करनेवाला साधु । (२) स्वपक्ष, परपक्ष में दुष्ट - शय्यातर की स्त्री या ગુરૂ મહારાજે તેને ગચ્છથી બહાર કરવા. જો સાધુ રાજાદિક ગૃહસ્થના ઘાતરૂપ વ્યાપારથી નિવૃત્ત થઇ જાય તેા તેને ગુરૂ પારાંચિક તપ ન કરાવે, ન તેને સાધુવેશ પણ છીનવી લે, પરંતુ તેને ક્ષેત્રપારાંચિક કરીને ફરીથી તેને દીક્ષા આપે; એ જ તેનું પ્રાયશ્ચિત્ત છે. તૃતીયભંગમાં—જે ગૃહસ્થ સાધુના ઘાતક હાય તે જો દીક્ષા લેવા ચાહે તે અતિશયજ્ઞાની ગુરૂમહારાજને જો તે ઉપશાંત જણાય તે તેને ગુરૂમહારાજ અન્યદેશમાં લઇ જઇને દીક્ષા આપે. કેમકે સ્વદેશમાં તેને માટે દીક્ષા કલ્પતી નથી. ચતુર્થાંભંગમાં—જો કાઇ ગૃહસ્થ, રાજા યુવરાજ આદિ ગૃહસ્થને ઘાતક હાય, તે જો દીક્ષા લેવાને ચાહે તે તેને પરદેશમાં લઇ જઈ ને દીક્ષા દેવી. સ્વદેશમાં તેને માટે દ્વીક્ષા કલ્પતી નથી. વિષયદુષ્ટ પણ પૂર્વ પ્રમાણે એ પ્રકારના થાય છે. સ્વપક્ષષ્ટ અને પરપક્ષदुष्ट. सहीं पशु अतुलजी छे. ते या प्रकारे छे -- (१) स्वपक्ष, स्वचक्षमां દુષ્ટ-આલા અથવા તરૂણી સાધ્વીનુ' શીયળ ભંગ કરવાવાળા સાધુ. (૨) સ્વપક્ષ, Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् २५१ परपक्षः परपक्षे दुष्टः ४ । तत्र-बालायां तरुण्यां वा साच्यां यः साधुर्दुष्टः शीलभङ्गकारकः, स प्रथमो भङ्गः । साधुरेव शय्यातरगृहिण्यामन्यतीर्थिकायां वा अध्युपपन्न इति द्वितीयः । गृहस्थो बालायां तरुण्यां वा साच्यामध्युपपन्न इति तृतीयः । गृहस्थो गृहस्थायामिति चतुर्थः । एवं विषय दुष्टोऽपि चतुर्विधो मन्तव्यः । तत्र-प्रथमभङ्गे वर्तमानो यो नुपरतः स लिङ्गपाराश्चिकः कर्तव्यः-साधुवेषापहारेग सर्वथा गच्छाद् बहिष्करणीयः । यस्तपरतः-उपशान्तः ‘पुनर्नैवं करिष्यामी'-ति प्रतिजानाति, तस्य पाराञ्चिकाहं तपोरूपं प्रायश्चित्तं कारयति, ततः साधुवेषमनपहृत्य दीक्षाप्रदानं कर्तव्यम्, उपरतस्य विषयदुष्टस्य लिङ्गपारश्चिकत्वविधानाभावात् । परतीर्थिक की स्त्री से व्यभिचार करनेवाला साधु । (३) परपक्ष, स्वपक्ष में दुष्ट-बाला या तरुणी साध्वी का शीलभङ्ग करनेवाला गृहस्थ । (४) परपक्ष, परपक्ष में दुष्ट-गृहस्थ स्त्री के साथ व्यभिचार करने वाला गृहस्थ । विषयदुष्टके ये चार भङ्ग हुए। इनमें प्रथमभङ्ग में वर्तमान साधु अपने दुष्कर्म से निवृत्त न हो तो गुरु उसको लिंगपाराञ्चिक कर दें, अर्थात्-उसका साधुवेष ले लें, और उसका गच्छ से सर्वथा बहिष्कार कर दें । जो साधु अपने ६ष्कर्म से निवृत्त एवं उपशान्त होकर ऐसी प्रतिज्ञा करे कि “मैं अब फिर कभी भी ऐसा न करूँगा" उसको गुरु पाराञ्चिकाहं तपोरूप प्रायश्चित्त देते हैं। ऐसे साधुका साधुवेष नहीं छीना जाता है, मात्र उसे नयी दीक्षा दी जाती है। अपने दुष्कर्म से निवृत्त विषयदुष्ट के लिये लिङ्गपाराञ्चिक का विधान नहीं है, अर्थात्-उसका वेष नहीं छीना जाता है। પરપક્ષમાં દુષ્ટ-શય્યાતરની સ્ત્રી અથવા પરતીથિકની સ્ત્રીથી વ્યભિચાર કરવાવાળે સાધુ. (૩) પરપક્ષ, સ્વપક્ષમાં દુષ્ટ-બાલા અથવા તરુણ સાધ્વીનું શીયળ ભંગ કરવાવાળા ગૃહસ્થ. (૪) પરપક્ષ, પરપક્ષમાં દુષ્ટ–ગૃહસ્થ સ્ત્રીની સાથે વ્યભિચાર કરવાવાળે ગૃહસ્થ. વિષયદુષ્ટના આ ચાર ભંગ થયા. તેમાં પ્રથમ ભંગમાં વર્તમાન સાધુ પિતાનાં દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત ન થાય તે ગુરૂ તેને લિંગપરાંચિક કરી દે, અર્થાત્ તેનો સાધુ વેષ લઈ લે અને ગચ્છમાંથી તેને સર્વથા બહિષ્કાર કરી દે. જે સાધુ પિતાનાં દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત તેમ જ ઉપશાંત થઈને એવી પ્રતિજ્ઞા કરે કે “હું હવે ફરીને કદી એવું નહિ કરું’ તેને ગુરૂ પારાંચિકાહતરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત આપે છે. એવા સાધુને સાધુવેષ છીનવી લેવાતું નથી. માત્ર તેને નવી દિક્ષા અપાય છે. પિતાનાં દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત વિષયદુને માટે લિંગપરાંચિકનું વિધાન નથી. અર્થાત્ તેને વેષ છીનવી લેવાત નથી. Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक द्वितीयभङ्गेऽपि वर्तमानो योऽनुपरतः स एव लिङ्गपाराञ्चिकः कर्तव्यः, उपरतस्तु न लिङ्गतः पाञ्चिकः कर्तव्यः, क्षेत्रत एव पाराञ्चिकः कर्तव्यः पुनर्दाक्षाप्रदानमात्रं तस्य प्रायश्चित्तम् । तृतीये चतुर्थे च भङ्गे यद्युपशान्तस्तदाऽन्यस्मिन् देशे दीक्षा दातव्या, अत्र पाराञ्चिकतपनः प्रस्तुतत्वात् परपक्षे तस्यासम्भवात् । यद्यनुपशान्तस्तर्हि दीक्षा न दातव्या । येषु ग्रामादिषु ताः साध्यो विहरन्ति तेषु तेषु स्थानेषु विहर्तुं स प्रथमभङ्गे वर्तमानः साधुर्निवार्यते । द्वितीयादिष्वपि भङ्गेषु तानि स्थानानि ग्रामादीनि परिहर्तव्यानि । एतदुक्तं भवति द्वितीयभङ्गे यस्यां २५२ द्वितीयभङ्गमें वर्तमान साधु यदि अपने दुष्कर्म से निवृत्त न हो तो गुरु महाराज उस साधुको लिङ्गपाराञ्चिक कर दें, अर्थात् उसका साधुवेष लेकर उसको गच्छ से सर्वथा के लिये निकाल दें। जो साधु निवृत्त हो जाय उसको लिङ्गसे पाराञ्चिक न करें, अर्थात् उसका साधुवेष नहीं छीनें, किन्तु उसको क्षेत्र से पाराश्चिक कर दें । ऐसे साधुको फिर से दीक्षा दें । यही इसके लिये प्रायश्चित्त है । तृतीय चतुर्थ भङ्गमें वर्तमान गृहस्थ उपशान्त अर्थात् अपने दुष्कर्म से निवृत्त हो तो उसको अन्यदेश में दीक्षा देनी चाहिये । यदि वह उपशान्त न हो तो अन्य देश में भी दीक्षा नहीं दें । यहाँ पाराञ्चिक का प्रस्ताव, अर्थात् उपक्रम है, पाराश्चिक तप परपक्ष अर्थात् गृहस्थ के लिये सम्भावित नहीं है, इसलिये गृहस्थ के लिये देशान्तर में दीक्षा देने का विधान किया है । प्रथमभङ्ग के साधु को, जिन साध्वियों का उसने शील भङ्ग किया है वे साध्विय દ્વિતીયભંગમાં વર્તમાન સાધુ જે પેાતાનાં દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત ન થાય તેા ગુરૂ તે સાધુને લિંગપારાંચિક કરી દે, અર્થાત્ તેના સાધુ વેષ લઈ લે અને તેને ગચ્છથી સર્વથા માટે બહિષ્કાર કરે. જે સાધુ નિવૃત્ત થઇ જાય તેને લિંગથી પારાંચિક ન કરે, અર્થાત્ તેના સાધુવેષ ન લઈ લે. પરંતુ તેને ક્ષેત્રથી (તે સ્થળથી) પારાંચિક કરે. એવા સાધુને ફ્રીને દીક્ષા દે, એ જ તેને માટે પ્રાયશ્ચિત્ત છે. તૃતીય ચતુથભંગમાં વર્તમાન ગૃહસ્થ ઉપશાંત અર્થાત્ પેાતાનાં દુષ્કર્મ થી નિવૃત્ત થાય તે તેને ખીજા દેશમાં દીક્ષા દેવી જોઇએ. જો તે ઉપશાંત ન થાય તેા ખીજા દેશમાં પણ દીક્ષા ન દેવી. અહી પારાંચિકના પ્રસ્તાવ, અર્થાત્ ઉપક્રમ છે, પારાંચિક તપ પરપક્ષ અર્થાત્ ગૃહસ્થને માટે સંભવિત નથી, તેથી ગૃહસ્થને માટે દેશાંતરમાં દીક્ષા દેવાનું વિધાન કર્યું છે. પ્રથમ ભંગના સાધુને, જે સાધ્વીઓનુ તેણે શીલભંગ કર્યું. હાય તે સાધ્વીએ જે ગામ નગરાદિ સ્થાનામાં વિહાર કરતી હોય ત્યાં વિહાર કરવા દેવામાં આવતા નથી. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० प्रायश्चित्तभदवर्णनम्. नगर्यां यस्मिन् गृहस्थकुले दोष उत्पनः, उत्पन्स्यते वा, तदीये कुले प्रवेष्टुं वारगीयः। तथा यत्र निर्गमप्रवेशयोरमेकमेवास्ति तत्र, तथा द्वयोमियोरपान्तराले यत्र द्वयादिगृहाणां संनिवेशस्तत्रापि गमनागमनं वारणीयम् । अयं क्षेत्रपाराञ्चिक इत्युच्यते । द्विविधेऽपि दुष्टपाराञ्चिके प्रथमभङ्गाधिकारः। शेषाणि पुनर्द्वितीयभङ्गादीनि शिष्यबुद्धिवैशद्यार्थ प्रदर्शितानि। अथ प्रमत्तपाराञ्चिक उच्यते-स्यानर्द्धिनिद्रावान् प्रमत्तपाराञ्चिकः, तस्य सामान्यलोकबलाद् द्विगुणं त्रिगुणं चतुर्गुणं वा बलं भवति, तस्मादसौ गुरुणा एवं प्रज्ञापनीयःसौम्य ! लिङ्गं मुञ्च, चारित्रं तव नास्ति । यद्येवं गुरुणा सानुनयमुक्तः साधुवेषं मुञ्चति, ततः जिन ग्रामनगरादि स्थानों में विहार करती हैं वहाँ विहार नहीं करने दिया जाता है । द्वितीयभङ्ग के साधु को जिस नगरी में, जिस कुलमें उससे दोष हो गया और होने की संभावना है, वहां नहीं जाने दिया जाता है, और जहाँ निकलने तथा प्रवेश करने का द्वार एक ही है वहाँ, तथा दो गावों के बीच में जहाँ दो तीन धर वसे हुए हों वहाँ भी, इस सावु का गमनागमन रोक दिया जाता है। यही क्षेत्रपाराञ्चिक कहा जाता है। __ प्रतिसेवनापाराञ्चिक के दुष्ट नामक प्रथम भेद के कषायदुष्ट और विषयदुष्ट ये दो भेद हुए। इन दोनों भेदों में प्रथम भङ्गका ही यहाँ अधिकार है , क्यों कि प्रथम भङ्ग में ही पाराञ्चिकाई प्रायश्चित्त दिया जाता है । द्वितीयभङ्ग आदि तो शिष्यों की बुद्धि विशद हो, इसलिये दिखलाये गये हैं। __ अब प्रमत्तपाराश्चिक कहते हैं । स्त्यानर्द्धिनिद्रावान् साधु प्रमत्तपाराञ्चिक है। उसे सामान्य लोगों के बलसे द्विगुण, त्रिगुण वा चतुर्गुण बल होता है। ऐसे साधु को દ્વિતીય ભંગના સાધુને, જે નગરીમાં જે કુળમાં તેનાથી દેષ થઈ ગયો હોય અને હેવાની સંભાવના હોય ત્યાં જવા દેવાતા નથી. અને જ્યાં નીકળવાનું તથા પ્રવેશ કરવાનું દ્વાર એક જ હોય ત્યાં, તથા બે ગામોની વચ્ચે જ્યાં બે ત્રણ ઘર વસેલાં હોય ત્યાં પણ તે સાધુનું ગમનાગમન રોકવામાં આવે છે, આ જ ક્ષેત્રપારાંચિક કહેવાય છે. પ્રતિસેવનાપારાંચિકના દુષ્ટ નામના પ્રથમ ભેદના કષાયદુષ્ટ અને વિષયદુષ્ટ, એ બે પ્રકાર થયા. એ બન્ને પ્રકારમાં પ્રથમ ભંગને જ અહીં અધિકાર છે, કેમકે પ્રથમ ભંગમાં જ પારાંચિકાણું પ્રાયશ્ચિત્ત દેવાય છે. દ્વિતીય ભંગ આદિ તે શિષ્યની બુદ્ધિ વિશદ થાય તે માટે બતાવ્યા છે. હવે પ્રમત્તપારાચિક કહે છે. ત્યાનદ્ધિ નિદ્રાવાન સાધુ પ્રમત્તપરાંચિક છે. તેનામાં સામાન્ય કેનાં બળ કરતાં બમણું ત્રણગણું અથવા ચારગણું બળ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ औपपातिकमुत्रे शोभनम् । अथ न मुञ्चति ततः संघो मिलित्वा तस्य साधुवेषं हरति, न त्वेक एवं जनः, तस्यैकस्योपरि प्रद्वेषसंभवात् , प्रद्वेषयुक्तश्च स तस्य हिंसनमपि कुर्यात् । तस्मै पुनर्दीक्षा न दीयते । यस्तु ज्ञानातिशयवान् आचार्य एवं जानाति-'यन्न पुनरेतस्य स्त्यानदिनिद्रोदयो भविष्यतीति, ततः पाराञ्चिकार्ह प्रायश्चित्त कारयित्वा तस्मै दीक्षां ददाति । संघेन मिलित्वा तस्य साधुवेषापहारे कृते पुनराचार्य एवमुपदिशति-स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि देशव्रतानि गृहाण, तानि चेत् प्रतिपत्तुं न समर्थस्ततो दर्शनं (सम्यक्त्वं ) गृहाण । अथैवमुक्तोऽपि गुरुमहाराज इस प्रकार कहें-"सोम्य! तुम साधुवेष छोड़ दो, क्यों कि तुम में चारित्र का अभाव है। गुरु से इस प्रकार सरल भाव से कहे जाने पर यदि वह साधुवेष का परित्याग कर दे तो अच्छा है; नहीं तो संघ मिलकर उसका साधुवेष छीन ले, अकेले नहीं; क्यों कि साधुवेष छीने जाने के समय उस साधु को द्वेष उत्पन्न होगा, और द्वेषयुक्त वह साधु मनुष्य की हिंसा भी कर सकता है। ऐसे साधु को फिर से दीक्षा नहीं दी जाती है । यदि अतिशयज्ञानी गुरु को ऐसा अनुभव हो कि यह प्रकृतिभद्रक है, इसे अब स्त्यानर्द्धिनिद्रा आदि नहीं होगी, तो गुरु उस साधु को पाराञ्चिकाई प्रायश्चित्त देकर फिर से दीक्षा दें। संध मिलकर उस साधु का जब वेष छीन ले, तब गुरु महाराज स्त्यानर्द्धिनिद्रावान् प्रमत्तपाराञ्चिक साधु को इस प्रकार उपदेश दें-आज से तुम स्थूलप्राणातिपातविरमणरूप श्रावक धर्म को स्वीकार करो। यदि तुम इसका आचरण करने में असमर्थ हो तो तत्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व को स्वीकार करो । इस प्रकार उपदेश देने पर भी यदि હોય છે. એવા સાધુને ગુરૂમહારાજ આ પ્રમાણે કહે-“ સૌમ્ય ! તું સાધુવેષ છેડી દે, કેમકે તારામાં ચારિત્રને અભાવ છે. ગુરૂ તરફથી આ પ્રકારે સરલ ભાવે કહેવામાં આવતાં જે તે સાધુવેષને પરિત્યાગ કરી દે તો સારું છે, નહિ તે સંઘે મળીને તેને સાધુવેષ છીનવી લેવું, એકલાએ નહિ. કેમકે સાધુવેષ છીનવી લેતી વખતે તે સાધુને દ્વેષ ઉત્પન્ન થશે, અને ષવાળે તે સાધુ મનુષ્યની હિંસા પણ કરી શકે છે. એવા સાધુને ફરીને દીક્ષા દેવાતી નથી. જે અતિશય જ્ઞાનવાન ગુરૂને એવો અનુભવ થાય કે આ પ્રકૃતિભદ્રક છે, હવે એને સ્થાનદ્ધિનિદ્રા આદિ નહિ થાય તે ગુરૂ તે સાધુને પારાંચિકા પ્રાયશ્ચિત્ત દઈને ફરીને દીક્ષા આપે. સંઘ મળીને તે સાધુને જ્યારે વેષ છીનવી લે ત્યારે ગુરૂમહારાજ ત્યાનષ્ક્રિનિદ્રાવાન પ્રમત્તપરાંચિક સાધુને આ પ્રકારે ઉપદેશ આપે–આજથી તું સ્થૂલપ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ શ્રાવક ધર્મને સ્વીકાર કર. જે તું તેનું આચરણ કરવામાં અસમર્થ હોય તે તત્ત્વાર્થશ્રદ્ધાનરૂપ સમ્યકત્વને સ્વીકાર કર. આ પ્રકારે ઉપદેશ દેવા છતાં પણ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. ३० प्रायश्चित्तभेदवर्णनम् श्रावकत्वं सम्यक्त्वं वा नेच्छति, तदा तस्य सहवासो वर्जनीयः । __ अथाऽन्योन्यकुर्वाणपाराञ्चिक उच्यते-मुखपायुभ्यां मैथुनी अन्योन्यकुर्वाणपाराश्चिकः। स पुनर्न दीक्षणीयः । यदि तु अतिशयज्ञानी आचार्य:-' अयं न पुनरेवं करिष्यति' इति जानाति, तदा पाराञ्चिकाहं तपः कारयित्वा पुनस्तस्मै दीक्षा प्रदेया। विषयदुष्टोऽनुपरत एव लिङ्गतः पाराञ्चिकः क्रियते। यस्तु विषयदुष्ट उपरतः स उपाश्रयादिक्षेत्रत एव पाराञ्चिकः क्रियते, न तु लिङ्गतः। शेषाः कषायदुष्टप्रमत्तान्योन्यकुर्वाणा नियमाल्लिङ्गपाराञ्चिकाः क्रियन्ते । वह श्रावकत्व अथवा सम्यक्त्व को स्वीकार करना नहीं चाहे, तब संघ उसका सहवास कभी भी नहीं करे, सर्वदा के लिये उसका बहिष्कार कर दे। ___अब अन्योऽन्यकुर्वाण पाराञ्चिक कहते हैं-जो साधु मुखमैथुनी और गुदामैथुनी हो, वह 'अन्योऽन्यकुर्वाण पाराञ्चिक' है । ऐसे साधु को फिर से दीक्षा नहीं दी जाती है । यदि अतिशयज्ञानी गुरु महाराज को ऐसा अनुभव हो कि यह फिर ऐसा नहीं करेगा, तब वे उससे पाराञ्चिकाई तप करा कर फिर से उसे दीक्षा दें। विषयदुष्ट साधु यदि अपने दुष्कर्म से निवृत्त नहीं होता है तो वह लिङ्गपाराश्चिक होता है, अर्थात् उसका साधुवेष ले लिया जाता है, और उसे गच्छ से निकाल दिया जाता है । जो विषयदुष्ट साधु अपने दुष्कर्म से निवृत्त हो जाता है, वह उपाश्रयादि क्षेत्र से ही पाराञ्चिक किया जाता है, अर्थात् वह अन्य प्रदेश में भेज दिया जाता है, उसका साधुवेष જે તે શ્રાવકત્વ અથવા સમ્યકત્વને સ્વીકાર કરવા ન ચાહે તો સંધ તેને સહવાસ કદી પણ કરે નહિ, સર્વદા માટે તેને બહિષ્કાર કરી દે. હવે અડન્યકુર્વાણ–પરાંચિક કહે છે-જે સાધુ મુખમૈથુની અને ગુદામિથુની હોય તે અ ન્યકુર્વાણ-પારાંચિક” છે. એવા સાધુને ફરીને દીક્ષા અપાતી નથી. જે અતિશયજ્ઞાની ગુરૂમહારાજને એ અનુભવ થાય કે આ ફરીને એવું નહિ કરે, તો તેઓ તેની પાસે પારાંચિકાઉં તપ કરાવીને ફરીને તેને દીક્ષા આપે. વિષયદુષ્ટ સાધુ જે પિતાનાં દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત ન થાય તો તેને લિંગપારાચિક કરાય છે, અર્થાત્ તેને સાધુવેષ લઈ લેવાય છે, અને તેને ગ૭થી કાઢી મૂકવામાં આવે છે. જે વિષયદુષ્ટ સાધુ પિતાના દુષ્કર્મથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તે ઉપાશ્રયાદિ ક્ષેત્રમાંથી જ પારાચિક કરાય છે, અર્થાત્ તેને બીજા પ્રદેશમાં મોકલવામાં આવે છે. તેને સાધુવેષ લઈ લેવામાં આવતું નથી. વિષયદુષ્ટથી જુદા જે કષાયદુષ્ટ, પ્રમત્ત અને અ ન્યકુણ છે, એ ત્રણને નિયમ પ્રમાણે લિંગપરાંચિક કરવામાં આવે છે, અર્થાત્ તેમને સાધુવેષ લઈ લેવાય છે. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे यस्तु साधुः कर्मदोषात् पाराञ्चिकापत्तियोग्यात् उत्कृष्टमपराधपदं प्राप्तः, स यदि भद्रकः 'पुनरेवं न करिष्यामी' - ति व्यवसितस्तदा स तपःपाराश्चिक:- अर्थात् तपः समाराधनतत्परः पाराञ्चिकः क्रियते । तस्य तपःकरणयोग्यता यथा भवति तदुच्यते - वज्रऋषभनाराचं संहननं, वज्रकुड्यसमानं वीर्यं, सागरवद्गम्भीरता, मेरुवद्धीरता, आगमज्ञानं - जघन्येन नवमपूर्वान्तर्गतमाचाराख्यं तृतीयं वस्तु, उत्कर्षतो दशमपूर्वं संपूर्ण, तच्च सूत्रतोऽर्थतश्च यदि परिचितं भवति । एतैः संहननादिभिः सम्पन्नः, तथा सिंहविक्रीडितादितपः कर्मभावितः, इन्द्रियकषायाणां निग्रहे समर्थः, प्रवचनरहस्यार्थज्ञानसम्पन्नश्च तथा गच्छान्निःसारितस्यापि यस्य २५६ नहीं छीना जाता है । विषयदुष्ट से भिन्न जो कषायदुष्ट, प्रमत्त और अन्योऽन्यकुर्वाण हैं, ये तीन नियमतः लिङ्गपाराचिक किये जाते हैं, अर्थात् इनका साधुवेष ले लिया जाता है । जिस दुष्कर्म से साधु पाराचिक होता है, उस दुष्कर्म के कारण जो साधु उत्कृष्ट अपराधी हो गया हो, वह साधु यदि भद्रक हो और वह ऐसा नियम करे कि “मैं अब फिर कभी भी ऐसा नहीं करूँगा " तब वह साधु तपः पाराश्चिक किया जाता है, अर्थात् उससे पाराश्चिक तप कराया जाता है । पाराञ्चिक तप करने की योग्यता जैसे होती है सो कहते हैं- जो साधु वज्र - ऋषभ - नाराच संहननवाला हो, वज्र की भींत के समान दृढ जिसका वीर्य-पराक्रम हो, समुद्र समान जिसमें गाम्भीर्य हो, मेरु के समान जिसमें धीरता हो, तथा जो आगम को जानने वाला हो अर्थात् जधन्य से नवमपूर्वान्तर्गत आचाराख्य तृतीय वस्तु को, उत्कृष्ट से सम्पूर्ण दशम पूर्व को सूत्र से और अर्थ से जानने वाला हो, सिंहविक्रीडित आदि तप कर चुका हो, इन्द्रिय और कषायों के निग्रह करने में समर्थ हो, प्रवचन के गूढार्थ को जानने वाला हो, गच्छ से निकाले जाने पर भी जिसके मनमें 'मैं गच्छ से निकाला જે દુષ્કર્મથી સાધુ પારાંચિક થાય છે તે દુષ્કર્મના કારણે જે સાધુ ઉત્કૃષ્ટ અપરાધી થયા હાય તે સાધુ જો પ્રકૃતિભદ્રક હાય અને જો તે એવી પ્રતિજ્ઞા કરે કે ‘હું હવે ફરીને કદી આવું નહિ કરૂં' તાતે સાધુ તપઃપારાંચિક કરાય છે, અર્થાત્ તેની પાસે પારાંચિક તપ કરાવવામાં આવે છે. પારાંચિક તપ કરવાની ચાગ્યતા કેવી હાય તે કહે છે—જે સાધુ વઋષભનારાચસહુનનવાળા હાય, વાની ભીંતના જેવા દૃઢ જેનુ વીર્ય-પરાક્રમ હાય, સમુદ્રની જેમ જેનામાં ગાંભીય હાય, મેરૂની પેઠે જેનામાં ધીરતા હોય, તથા જે આગમને જાણવાવાળા હોય અર્થાત્ જઘન્યથી નવમપૂર્વ ગત मायाરામ્ય ત્રીજી વસ્તુને, ઉત્કૃષ્ટથી સપૂર્ણ દશમ પૂર્વને સૂત્રથી તથા અર્થથી જાણુનારા હાય, સિ’હવિક્રીડિત આદિ તપ કરી ચૂકયા હોય, ઇંદ્રિય અને કાષાયાના નિગ્રહ કરવામાં સમર્થ હોય, પ્રવચનના ગૂઢાર્થીને જાણવાવાળા હોય, ગચ્છ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. सू० ३० विनयभेदवर्णनम् २५७ से किं तं विणए ? विणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहाअहं गच्छान्निःसारितोऽस्मीत्यशुभो भावः स्वल्पतरोऽपि न विद्यते स एवंविधगुणसम्पन्न एव पाराञ्चिकं प्रायश्चित्तं कर्तुमर्हति । यस्त्वेतद्गुणरहितस्तस्य पाराञ्चिकापत्ति प्राप्तस्य मूलमेव प्रायश्चित्तं भवति । आशातनापाराञ्चिको जघन्येन षण्मासान् , उत्कर्षतश्च द्वादश मासान् भवति, एतावन्तं कालं गच्छानियूंढ (निष्काशित ) स्तिष्ठति । प्रतिसेवनापाराञ्चिको जघन्येन संवत्सरमुत्कर्षतो द्वादश वर्षाणि नियूंढ आस्ते । विस्तरस्तु-अन्यत्र द्रष्टव्यः । ‘से तं पायच्छित्ते' तदेतप्रायश्चित्तम् । से किं तं विणए ' अथ कोऽसौ विनयः ? विनयः किंस्वरूप इति प्रश्नः । उत्तरमाह-'विणए' विनयः-विनयति-अपनयति अष्टविधकर्माणीति विनयः अभ्युत्थानवन्दनगया हूँ' यह अशुभ भाव अणुमात्र भी न हो, इस प्रकार के गुणों से युक्त ही साधु पाराचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी है । जो साधु इन गुणों से रहित है, उससे पाराञ्चिकार्ह प्रायश्चित्त योग्य अपराध हो गया है, उसको मूलाई प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। आशातनापाराश्चिक साधु जघन्य से छ मास तक और उत्कर्ष से बारह मासतक गच्छ से बहिष्कृत रहता है। प्रतिसेवनापाराञ्चिक साधु जघन्य से एक वर्ष और उत्कर्ष से बारह वर्ष गच्छ से बहिष्कृत रहता है। इसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र देखना चाहिये । (से तं पायच्छित्ते) ये दस प्रकार के प्रायश्चित्त हैं ।सू० ३०॥ (से किं तं विणए ) विनय का क्या स्वरूप है? (विणए सत्तविहे पण्णत्ते ) विनय सात प्रकार का है । जो अष्टविध कर्मों को दूर करता है, वह विनय है । માંથી કાઢેલા છતાં પણ જેના મનમાં “ હું ગચ્છથી બહિષ્કાર પામેલ છે ? એ અશુભ ભાવ અણુમાત્ર પણ ન હોય, એ પ્રકારના ગુણોવાળે જ સાધુ પારાચિક પ્રાયશ્ચિત્તને અધિકારી છે. જે સાધુ એ ગુણોથી રહિત છે તેનાથી પારાંચિકાણું પ્રાયશ્ચિત્ત એગ્ય અપરાધ થઈ ગયો હોય તે તેને મૂલાઈ પ્રાયશ્ચિત્ત જ અપાય છે. આશાતનાપારાચિક સાધુ જઘન્યથી છ માસ સુધી અને ઉત્કર્ષથી બાર માસ સુધી ગચ્છથી બહિષ્કૃત રહે છે. પ્રતિસેવનાપારાચિક સાધુ જઘન્યથી એક વર્ષ અને ઉત્કર્ષથી બાર વર્ષ સુધી ગ૭થી महिष्कृत २९ छे. तनुं विस्तृत वर्णन मीरथी न न . ( से तंपायच्छित्ते) ॥ ६श अरनi प्रायश्चित्त छ. (सू० ३०) (से किं तं विणए) विनय तनुं २१३५ शुंछ ? उत्तर-(विणए सत्तविहे पण्णत्ते) ते सात Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ औपपातिकसूत्रे णाणविणए १, दंसणविणए २, चरित्तविणए ३, मणविणए ४, वयविणए ५, कायविणए ६, लोगोवयारविणए ७। से किं तं णाणविणए ? णाणविणए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- आभिणिबोहियणाणविणए १, सुयणाणविणए २, ओहिणाणविणए ३, भक्त्यादिरूपः, स ' सत्तविहे पण्णत्ते' सप्तविध प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' तद्यथा-१-'णाणवि. णए' ज्ञानविनयः, २-'दसणविणए' दर्शनविनयः, ३–' चरित्तविणए' चारित्रविनयः, ४ 'मणोविगए' मनोविनयः, ५-'वइविणए' वाग्विनयः, ६ 'कायविणए' कायविनयः, ७ -'लोगोवयारविणए' लोकोपचारविनयः। एष सप्तविधोऽपि विनयः क्रमेण स्वरूपतो भेदतश्च निरूप्यते-' से किं तं णाणविणए' अथ कोऽसौ ज्ञानविनयः? उत्तरमाह'णाणविणए' ज्ञानविनयः ‘पंचविहे पण्णत्ते' पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथातत्पञ्चविधत्वं दर्शयति-'आभिणिबोहियणाणविगए'आभिनिबोधिकज्ञानविनयः, 'मुयणाणयह विनय गुरु आदि के आने पर खड़े हो जाना, तथा वंदना, शुश्रूषा, भक्ति आदि करना, इस रूप से शास्त्रों में प्रतिपादित किया गया है । (तं जहा) विनय के सात प्रकार ये हैं-(णाणविणए, दसगविणए,चरित्तविणए, मणविणए,वडविणए, कायविणए,लोगोवयारविणए) ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनोविनय, वचनविनय, कायविनय, और लोकोपचारविनय । अब यथाक्रम इनके स्वरूप और भेदों का वर्णन सूत्रकार करते हैं-( से कि तं णाणविणए) वह ज्ञानविनय क्या है ? अर्थात् जिसमें ज्ञान का विनय किया जाता है ऐसा वह ज्ञानविनय कितने प्रकार का है, (णाणविणए पंचविहे पण्णत्ते) ज्ञानविनय पांच प्रकार का कहा है। (तं जहा) वे पांच प्रकार ये हैं-(आभिणिवोहियणाणविणए, सुयપ્રકારનાં છે. જે આઠ જાતનાં કર્મોને દૂર કરે છે તે વિનય છે. આ વિનય તપ, ગુરુ આદિ પધારતાં ઉભા થઈ જવું, તથા વંદના શુશ્રષા આદિ કરવાં, એ રૂપે શાસ્ત્રોમાં प्रतिपाइन थु छे. (तं जहा) विनय तपना ते सात प्रा२ मा छ-(णाणविणए दसणविणए चरित्तविणए मणविणए वयविणए कायविणए लोगोवयारविणए) १ज्ञानविनय,२ ४शनविनय, 3 यास्त्रिविनय, ४ मनोविनय, ५वयनविनय,६४यવિનય, અને ૭ લોકોપચારવિનય. હવે તેનું કમવાર સ્વરૂપ તથા પ્રકારનું વર્ણન सूत्र४२ ४२ छ-( से किं तं णाणविणए ) ते ज्ञानविनय शु छ ? अर्थात् જેમાં જ્ઞાનને વિનય કરાય છે એ તે જ્ઞાનવિનય કેટલા પ્રકાર છે? (णाणविणए पंचविहे पण्णत्ते) ज्ञानविनय पांय प्रशारने। ४ छ. (तं जहा) ते पांच प्रा२ २॥ -(आभिणिबोहियणाणविणए, सुयणाणविणए, ओहिणाणविणए, Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० धिन पभेदवर्णनम् ६५९ मणपज्जवणाणविणए ४, केवलणाणविणए ५। से किं तं दसणविणए ? दसणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुस्सूसणावि गए १, अणञ्चासायणाविणए २ । स किं तं सुस्सूसणाविणए ? सुस्मूविणए' श्रुतज्ञानविनयः, ‘ओहिणाणविणए' अवधिज्ञानविनयः ‘मणपजवणाणविणए' मनःपर्यवज्ञानविनयः, 'केवलणाणविगए' केवलज्ञानविनयः । अथ दर्शनविनयं पृच्छति-' से किं तं दंसगविणए' थि कोऽसौ दर्शनविनयः ? 'दसणविणए' दर्शनविनयः-दर्शनमोहनीयक्षयादिजनितस्तर श्रद्धानरूप आत्मपरिणामो दर्शनं, तत्सम्बन्धी विनयः दर्शनविन यः, स 'दुविहे पण्णले' विधः प्रज्ञप्तः, दैविध्यं दर्शयति-तं जहा तद्यथा'सुस्मूसणाविणए' शुश्रूषणाविनय –विधिवत्सामीप्येन गुर्वादेः सेवनं शुश्रूप, तद्रूपो विनयः । 'अणचासायणाविणए' अनत्याशातनाविनयः – 'अति अतीव, आयः= सम्यक्त्वादिलाभ:--अत्यायः, तस्य शाना=ध्वंसना-अत्याशातना, तन्निषेधरूपो विनयोऽनत्याशातनाविनयः, गुर्वादेरवर्णवादादिनिवारणम् । पृषोदरादित्वात्सिद्धिः । णाणवि ए, ओहिणाणविणए मणपजवणाणविणए केवलणाणविणए) आभिनिबोधिकज्ञानविन , श्रुतज्ञानविनय, अवधिज्ञा- विनय, मनःपर्ययज्ञानविनय, एवं केवलज्ञानविनय । (से : तं दंसणविणए ) दर्शनविनय कितने प्रकार का है ? (दसणविणए दुविहे पणत्ते) दर्शनविनय दो प्रकार का है । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(सुस्मसणाविणए अणच्चासायणाविणए ) पहा-शुश्रूषाविनय-गुरु आदि के समीप रह कर विधिपूर्वक सेवा करना । दूसरा-अनत्याशा ननाविनय-सम्यक्त्वादिक के लाभ को जो नष्ट करता है वह अन्याशातना है, इसका निषेधः प जो विनय है वह अनत्याशातनाविनय है । गुरु आदि के अवर्णवाद को दूर करना-निवारण करना, इसका नाम अनत्याशातनाविनय है । भणपज्जवणाणविणए, केवलणाणविगए) १ मिनिमाधिज्ञानविनय, २ श्रुतज्ञान विनय. 3 मवधिज्ञानविनय, ४ मनःपर्ययज्ञानविनय, ५ पसज्ञानविनय. प्रश्न- से किं तं दसणविणए) नविनय 2 प्ररने छ ? उत्तर-(दसणविणए दुविहे पण्णत्ते) शिनविनय मे प्रा२ने। छ, (तं जहा ) ते २॥ प्रारे छे-(सुस्सूसण विणए अणच्चासायणाविणए) पडसा-शुश्रूषाविनय-गुरु महिना પાસે રહીને વિધિપૂર્વક સેવા કરવી; બીજો અનન્યાશાતનાવિનય-સમ્યકત્વ આદિકના લાભને જે નાશ કે છે તે અત્યાશાતના છે, તેને નિષેધરૂપ જે વિનય છે તે અનન્યાશાતનાવિનય છે. ગુરુ આદિના અવર્ણવાદને દૂર કર-તેનું निपाणु ४२ तेनु नाम २.त्यातनाविनय छे. प्रश्न-(से किं तं सुस्सूसणा Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० औपपातिकसूत्रे सणाविणए अणेगविहे पण्णत्ते; तं जहा-अब्भुटाणे इ वा १, आसणाभिग्गहे इ वा २, आसणप्पदाणे इ वा ३, सकारे इ वा ४, सम्माणे इ वा ५, किइकम्मे इ वा ६; अंजलिप्पग्गहे इ वा ७, एंत 'से किं तं सुस्सूसणाविणए' अथ कोऽसौ शुश्रूषणानिनयः ?--'सुस्मूसणाविणए' शुश्रूषणाविनयः 'अणेगविहे पण्णत्ते' अनेकविधः प्रजप्त:-'तं जहा' तद्यथा-'अब्भुटाणे इवा' अभ्युत्थानमिति वा, 'इति' 'वा' इति पदद्वयं वाक्या कारे, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । अभ्युत्थानम्आचार्यादेरागतस्य अभिमुखम्-उत्थानम् अभ्युत्थानं -विनयाऽहस्य दर्शनादेवाऽऽसनत्यागः ।१। 'आसणाभिग्गहे इ वा' आसनाभिग्रह इति वा, आसनाभिग्रहः-गुर्वादिर्यत्र यत्रोपवेष्टुमिच्छति तत्र तत्राऽऽसनप्रापणम् ।२। 'आसणप्पदाणे इ वा' आसनप्रदान मिति वा, गुरौसमागते सति आसनदानम् ।३। 'सकारे इवा' सत्कार इति वा-विनयाऽर्हस्य गुर्वादेः वन्दनादिनाऽऽदरकरणंसत्कारः ।४। 'संमाणे इ वा सम्मान इति वा, खमानो वा-गुर्वादे: आहारवस्त्रादिप्रशस्तवस्तुना संमाननम् ।५। 'किइकम्मे इ वा कृतिकर्म इति वा-कृतिकर्म यथाविधि वन्दनम् ।६। (से किंतं सुस्मणाविणए) शुश्रूषणाविनय कितने प्रकार का है ? (सुस्मुसणाविणए अणेगविहे पण्णत्ते) शुश्रूषणाविनय अनेक प्रकार का है: (तं जहा) जैसे-(अब्भुटाणे वा) आये हुए आचार्य आदि के आने पर खडे होना । विनय के योग्य साधुजन को देखते ही आसन का परित्याग करना (१)। (आसणाभिग्गहे इवा) गुर्वादिक जहां २ बैठना चाहें वहां २ आसन लेकर उपस्थित रहना, अथवा आसन पहुँचाना (२)। (आसणप्पदाणे इ वा) गुरुके आने पर आसन प्रदान करना (३) (सक्कारे इवा) विनययोग्य गुर्वादिक का वन्दना आदि द्वारा सत्कार करना (४) । (संमाणे इ वा) गुर्वादिकों का आहार, वस्त्रादिक प्रशस्तवस्तुओं द्वारा संमान करना (५)। (किइकम्मे इवा) यथाविधि वन्दना करना यह कृतिकर्म है, अर्थात्-गुर्वाविणए) शुश्रूषणाविनय प्रा२नी छ ? (सुस्सूसणाविणए अणेगविहे पण्णत्ते) शुश्रूषणाविनय मने प्रारन। छ, (तं जहा) भ-(अब्भुद्वाणे इ वा) माडी “इ” “वा" से शा पाण्यासारमा १५राया . ५थाરેલા આચાર્ય આદિની સામે જવું, વિનયને વેગ સાધુજનેને જોતાં જ આસનને परित्याग ४२३। (१). (आसणाभिग्गहे इ वा) गुरु महिन्यां या मेसा या त्या त्या पासन धने २ २३, मथवा आसन पचाउ (२). (आसणप्पदाणे इ वा) गुरु सावत्यारे आसन प्रहान ४२ (3). (सक्कारे इवा) विनय योग्य शुरु माहिने पहना माहिदा सत्२ ४२व। (४). (संमाणे इ वा) ४३ माहिz २२-१२६४ प्रशस्त पस्तुमाथी सन्मान ४२७ (५). (किइक Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ पीयूषवर्षिणी-टीका. स ३० विनयभेद वर्णनम् स्स अणुगच्छणया ८, ठियस्स पज्जुवासणया ९, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया १०, से तं सुस्सूसणाविणए । से किं तं अणच्चासायणाविणए ? अणच्चासायणाविणप पणयालीसविहे पण्णत्ते; तंजहाअरहंताणं अणच्चासायणया १, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अण'अंजलिप्पग्गहे इ वा'. अञ्जलिप्रग्रह इति वा-अञ्जलिप्रग्रहः गुरुसंमुखे अञ्जलीकरणम् ।७। 'एंतरस अणुगच्छणया' आगच्छतोऽनुगमनता-गुर्वादिकम् आयान्तं प्रति संमुखे गमनम् ।८। 'ठियस्स पज्जुवासणया' स्थितस्य पर्युपासनता-उपविष्टस्य गुर्वादेरिच्छानुकूलसेवा ।९। 'गच्छंतस्स पडिसंसाहणया' गव्छतः प्रतिसंसाधनता गच्छतो गुर्वादेः पश्चाद् गमनशीलता ।१०। 'से तं सुस्सूसणाविणए' स एष शुश्रूषणाविनयः । अनत्याशातनां पृच्छति-से किं तं अणच्चासायणाविणए' अथ कोऽसौ अनत्याशातनाविनयः ? 'अणच्चासायणाविणर' अनत्याशातनाविनय:-'पणयालीसविहे पण्णत्ते' पञ्चचत्वारिंशद्विधः प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' तद्यथा-'अरहंताणं अणच्चासायणया' अर्हतामनत्याशातनतादिकों की सविधि वन्दना करना (६) । (अंजलिप्पग्गहे इ वा) गुरु के सन्मुख दोनों हाथ जोड़ना (७) । (एतस्स अणुगच्छणया) गुर्वादिक आ रहे हों तो उनके सन्मुख जाना (८) । (ठियस्स पज्जुवासणया) जब वे बैठे हों तो उनकी इच्छानुकूल सेवा करना (९) । (गच्छंतस्स पडिसंसाहणया) जब वे जाने लगें तो उनके पीछे २ चलना (१०)। (से तं सुस्मसणाविणए) यह सब शुश्रूषगाविनय है । (से किं तं अणच्चासायणाविणए) अनत्याशातनाविनय कितने प्रकार का है? (अगच्चासायणाविणए पणयालीसविहे पण्णत्ते ) अनत्याशतनाविनय पैंतालीस प्रकार का है; ( तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(अरहंताणं अणच्चासायणया) अर्हत भगवान् का अवर्णवाद आदि नहीं करना (१), म्मे इ वा) यथाविधिकहना ४२वी से कृतिम छ, अर्थात् गुरु माहिनी सविधि वना ४२वी (६). (अंजलिप्पग्गहे इ वा) शुरुनी सोभे ने डाय नेवा (७). (एतस्स अणुगच्छणया) गु२ माहि पधारता हाय त्यारे तेभनी सोमेन्दु (८). (ठियस्स पज्जुवासणया) न्या३ तेसा मे डाय त्यारे तेमनी छाने अनुण सेवा ४२वी (८). (गच्छंतस्स पडिसंसाहणया) च्यारे तेस४ागे त्यारे तेमनी पाछ पाछयास (१०). ( से तं सुस्तूसणाविणए) से मथा शुश्रूषणाविनय छे. प्रश्न-(से किं तं अणच्चासायणाविणए) मनत्याशतनाविनय घटना प्रहारने छ ? उत्तर-(अणच्चासायणाविणए पणयालीसविहे पण्णत्ते) मनत्याशातना विनय पिसतासीस प्रारना छ, (तं जहा) ते १२ मा छ-(अरहताणं अणच्चासायणया):महत Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬૨ औपपातिकसूत्रे च्चा सायणया २, आयरियाणं अणच्चासायणया ३, एवं उवज्झायाणं ४, थेराणं ५, कुलस्स ६, गणस्स ७, संघस्स ८, किरयाणं ९, संभोगस्स १०, आभिणिबोहियणाणस्स ११, सुयणाणस्स अर्हद्भगवतामवर्णवादादिनिवारणम् |१| 'अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस अणच्चासायणया' अर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्य अनत्याशातनता - सर्वज्ञकथितधर्मस्याऽवर्णवादादिनिवारणम् |२| 'आयरियाणं अणच्चा सायणया' आचार्याणामनत्याशातनता । ३ । एवम् - 'उवज्झायाणं' उपाध्यायानाम् ।४। ‘थेराणं’ स्थविरागाम् | ५ | 'कुलस्स' कुलस्य - एकाचार्यसन्ततिरूपस्य समानाssचारसाधुसमूहस्य । ६ । 'गगस्स' गगस्य - परस्परसापेक्षाऽनेककुलसाधुसमुदायस्य | ७| 'संघल्स' संघस्य-सम्यग्दर्शनादियुक्तसाधुसाध्वीश्रावकश्राविकारूपस्य | ८ | 'किरियाणं' क्रियाणाम् - ईर्यापथ्रिकादीनाम् ।९। ‘संभोगस्स' सम्भोगस्य - सम् = एकत्र भोगो = भोजनं- संभोगः - समानसामा - चारी तथा साधूनां परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहार स्तस्य, एकसामाचारिकताया इत्यर्थः । १० । 'आभिणिataणाणस्स' आभिनिबोधिकज्ञानस्य | ११ | 'सुयणाणस्स ' श्रुतज्ञानस्य | १२ | ( अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणच्चासायणया ) अर्हत भगवान् द्वारा प्रज्ञप्त धर्मका अवर्णवाद आदि नहीं करना (२), (आयरियाणं अणच्चासायणया) आचार्य महाराज का अवर्णवाद नहीं करना (३), इसी तरह ( उवज्झायाणं ) उपाध्याय का ( ४ ), ( थेराणं ) स्थविरों का (५), (कुलस्स) एक आचार्य के सन्ततिरूप समान आचार वाले साधुओं के समूह का ( ६ ), ( गणस्स) परस्पर सापेक्ष अनेककुलवाले साधुसंप्रदाय का (७), (संघएस) सम्यग्दर्शन आदि से युक्त साधु, साध्वी, श्रावक श्राविकारूप संघ का (८), (किरियाणं) ईर्यापथिक आदि क्रियाओं का (९), (संभोगस्स) संभोग - एक सामाचारिकता का (१०), (आभिणिवोयिणाणस्स) आभिनिवोधिक ज्ञान का (११), (सुयणागस्स) श्रुतज्ञान का भगवाननो अववाह न मोसवेो (१), (अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणच्चासायणया) हु लगवान द्वारा प्रज्ञप्त धर्मनी अववाह न गोसव (२), (आयरिया अणच्चासायणया) मान्यार्य महाराष्नो अणुवाहन मोसो (3), मे रीते ( उवज्झायाणं ) उपाध्यायोनो (४), (राणं) स्थविरोना (५), (कुलस्स) भेउ मायार्थना संततिय समान आथारवाजा साधुयाना समूहनो (१), ( गणस्स) परस्परसापेक्ष भने दुवाणा साधुस अहायनो (७), ( संघस्स) सभ्यग्दर्शन माहिथी युक्त साधु-साध्वी-श्राव:- श्रावि ३५ संघा (८), (किरियाणं) र्यापथि यहि डियागोनो (८), (संभोगस्स) सौंभोग - सामान्यारितानो (१०), (आभिणिबोहियणाणस्स) मलिनिमोधिठ ज्ञाननो (११), (सुयणाणस्स) श्रुतज्ञानना Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. ३० विनयभेदवर्णनम् १२, ओहिणाणस्स १३, मणपज्जवणाणस्स १४, केवलणाणस्स १५, एएसिं चेव भक्तिबहुमागे ३०, एएसिं चेव वण्णसंजलणया ४५, से तं अणच्चासायणाविणए । से किं तं चरितविणए?, 'ओहिणाणस्स' अवधिज्ञानस्य | १३ | 'मणपज्जवणाणस्स' मनः पर्यवज्ञानस्य |१४| 'केवलणाणस्स' केवलज्ञानस्य | १५ | 'एए सिं चेव भत्तिबहुमाणे' एतेषाञ्चैव भक्ति बहुमानम् - भक्तियुक्तं बहुमानम् 'अरहंताणं' इत्यारभ्य ' केवलणाणस्स' इति - पर्यन्तानामनत्या - शातनता पञ्चदशविधा; पुनरेतेषामेव अर्हदादीनां भक्तिबहुमानयोगे त्रिंशद्विधत्वम् । पुन: - 'एएसिं चेव वण्णसं जलणया' एतेषामेव वर्णसंज्वलनता=सद्द्भूतगुणोत्कीर्तनता, अत्रेदं बोध्यम्--अनत्याशातनाविनयो हि पञ्चचत्वारिंशद्विधः प्रोक्तः; तत्र - अर्हदादिविनयाः पञ्चदश, अर्हदादिभक्तिबहुमानानि पञ्चदश, अर्हदादीनां वर्णसंज्वलनताश्च पञ्चदश, तदित्थमनत्याशातनाविनयः पञ्चचत्वारिंशद्विध इति । उपसंहरन्नाह - ' से तं अगच्चासायणाविणए' स एषोऽ नव्याशातनाविनयः । इति । ' से किं तं चरितविणए ?' अथ कोसौ चारित्र - (१२), (ओहिणाणस्स) अविधिज्ञान का (१३), (मणपज्जवणाणस्स ) मनः पर्यवज्ञान का (१४) और (केवलणाणस्स ) केवलज्ञान का अवर्णवाद नहीं करना (१५) । (एएसिं चेव भत्तिबहुमाणे ) तथा इन्हीं पन्द्रह भेदों का भक्तिपूर्वक बहुमान करना । इस प्रकार इन पन्द्रह भेदों को भक्तिबहुमान के साथ द्विगुणित करने से तीस भेद हो जाते हैं । पुनः (एएसिं चेव वण्ण संजलणया ) इन्हीं के सद्भूत गुणों का उत्कीर्तन करना । इस तरह तीस में पन्द्रह वर्णसंज्वलनता मिलाने से पैंतालीस भेद अनत्याशातनाविनय के होते हैं । इस प्रकार ( से तं अणच्चासायणाविणए ) यह सब अनत्याशातनाविनय है । प्रश्न - ( से किं तं चरितविणए ) चारित्र विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर - (चरित - (१२), (ओहिणाणस्स) अवधिज्ञानने। (13), (मणपज्जवणाणस्स) मनःपर्यंव ज्ञाननो (१४), २मने (केवलणाणस्स) देवलज्ञाननो अववाह न मोसो (१५). (एएसिं चेव भत्तिबहुमाणे) तथा मान पंढर प्राशेनु लतिपूर्व अहुमान ४२वां मे अअरे પંદર પ્રકારના ભક્તિબહુમાનની સાથે અમણા કરવાથી તીસ પ્રકાર થઈ लय छे. वजी (एएसिं चेव वण्णसंजलणया) तेभना सहभूत गुणोनुं उत्डीर्तन કરવું. એ રીતે તીસ માં પંદર વર્ણ સંજવલનતા મેળવવાથી પિસતાલીસ પ્રકાર मनत्यशातनाविनयना थाय छे. ( से तं अणच्चासायणाविणए) मा अारे मे मधा अनत्याशातनाविनय छे. प्रश्न - ( से किं तं चरित्तविणए ) न्यास्त्रिविनय-डेटसा अारन! छे ? उत्तर- ( चरित्तविणए पंचविहे पण्णत्ते) यास्त्रिविनय पांथ प्रहारनो २६३ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ औपपातिकसूत्रे चरित्तविणए पंचविहे पण्णत्ते; तं जहा-सामाइयचरित्तविणए १, विनयः? अनेकजन्मसञ्चिताऽष्टविधकर्मसञ्चयस्य क्षयाय चरणं चारित्रं-सर्वविरतिलक्षणम् , तत्सम्बन्धी विनयश्चारित्रविनयः, स कतिविधः ?, इति प्रश्नः, उत्तरमाह-'चरित्तविणए पंचविहे पण्णत्ते' चारित्रविनयः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा-'सामाइयचरित्तविणए' सामायिकचारित्रविनयः-सर्वजीवेषु रागद्वेषविरहितो भावः समः, तस्य समस्य-प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहेतुभूताया विशुद्धेरायो लाभः समायः, स एव सामायिकम्-सावद्ययोगविरतिरूपम् , विनयादित्वात् स्वार्थे ठक्; तद्रूपं चारित्रं, तस्य विनयः-सामायिकचारित्रविविणए पंचविहे पण्णत्ते ) अनेक जन्म में उपार्जित आठ प्रकार के कर्मों के क्षय के लिये जो आचरण किया जाय वह सर्वविरतिरूप चारित्र है । इस चारित्र का विनय करना सो चारित्रविनय है । वह पाँच प्रकार का है । (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(सामाइयचरित्तविणए छेदोवट्ठावणियचरित्तविणए परिहारविसुद्धिचरित्तविणए सुहुम संपरायचरित्तविणए अहक्वायचरित्तविणए ) सामायिकरूप चारित्र का विनय, छेदोपस्थापनीयचारित्र का विनय, परिहारविशुद्विचारित्र का विनय, सूक्ष्मसम्परायचारित्र का विनय, एवं यथाख्यातचारित्र का विनय । समस्त जीवों में राग एवं द्वेष की परिणति का परिहार करना इसका नाम “ सम" है । प्रतिक्षण अपूर्व अपूर्व कर्मनिर्जरा के कारण इस समरूप विशुद्धि का आय=लाभ होना इसका नाम 'समाय' है । “समाय" ही सामायिक है। यह सामायिक सर्वसावद्ययोगविरतिरूप है । इस प्रकार इस सर्वसावद्ययोगविरतिरूप सामायिकचारित्र का जो विनय है वह सामायिकचारित्रविनय है १। पूर्वदीक्षापर्याय का छेदन છે. અનેક જન્મમાં ઉપાર્જિત આઠ પ્રકારનાં કર્મોના ક્ષયને માટે જે આચરણ ४२॥य छ ते सर्व विति३५ यात्रि छ. (तं जहा) ते ४२ ॥ -(सामाइयचरित्तविणए छेदोवद्वावणियचरित्तविणए परिहार विशुद्धिचरित्तविणए, सुहुमसंपरायचरित्तविणए, अहक्खायचरित्तविणए ) सामायि४३५यास्त्रिना विनय, छहપસ્થાપનીયચારિત્રને વિનય, પરિહારવિશુદ્ધિચારિત્રને વિનય, સૂક્ષ્મસં૫રાયચારિત્રને વિનય, તેમ જ યથાખ્યાતચારિત્રને વિનય. સમસ્ત જીવમાં रातभ०४ देषनी परिणतिने। परिहार (त्या) ४२वो तेनु नाम “सम" છે. પ્રતિક્ષણે અપૂર્વ અપૂર્વ કર્મનિર્જરાના કારણભૂત આ સમરૂપ વિશુદ્ધિને साल थवो तेनु नाम “आय' छ. सम मने आय से अन्ने पहोने भेजवाथी 'समाय' सj ५४ मनी तय छे. समाय ०४ सामयि: छ. २मा सामायि४ સર્વસાવદ્યગવિરતિરૂપ છે. આ પ્રકારે આ સર્વસાવદ્ય વિરતિરૂપ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका. सू. ३० विनयभेदवर्णनम् २६५ छेदोवद्यावणिय चरित्तविणए २, परिहारविसुद्धिचरित्तविणए ३, सुहुमसंपरायचरित्तविणए ४, अहक्खायचरित्तविणए ५, से तं नयः ।१। 'छेदोवट्ठावणियचरित्तविणए' छेदोपस्थापनीयचारित्रविनयः-छेदेन पूर्वपर्यायच्छेदेन उपस्थाप्यते आरोग्यते यन्महावतलक्षणं चारित्रं तच्छेदोपस्थापनीयम् ; तच्च तच्चा. रित्रं च, तत्सम्बन्धी विनयः ।२। “परिहारविमुद्धिचरित्तविणए' परिहारविशुद्धिचारित्रविनयः-परिहरगं-परिहारस्तपोविशेषः, तेन कर्मनिर्जरारूपा विशुद्धिर्यस्मिन् चारित्रे तत्परिहारविशुद्धि, तादृशं चारित्र, तत्सम्बन्धी विनयः ।३। 'मुहुमसंपरायचरित्तविणए' सूक्ष्मसंपरायचारित्रविनयः-सम्पति संसारमनेनेति सम्परायः कषायोदयः, सूक्ष्मो लोभांशावशेषः सम्परायो यत्र तत्सूक्ष्मसम्परायं, तद्रूपं यच्चारित्रं, तत्सम्बन्धी विनयः, ।४। 'अहक्खायचरित्तविणए' यथाख्यातचारित्रविनयः-याथातथ्येनाऽभिविधिना च यदाख्यातं कर पुनः महावतों का जिसमें आरोपण किया जाता है वह छेदोपस्थापनीयचारित्र है । इस चारित्र संबंधी जो विनय है वह छेदोपस्थापनीयचारित्रविनय है २। “परिहरणं परिहारः" परिहरण अर्थात् गच्छ का परित्याग करने का नाम परिहार है, यह परिहार एक प्रकार का विशेष तप है। इससे कर्मों की निर्जरारूप विशुद्धि जिस चारित्र में होती है उसका नाम परिहारविशुद्धिचारित्र है, इस चारित्र संबंधी जो विनय है वह परिहारविशुद्धिचारित्रविनय है ३। 'संपराय' शब्द का अर्थ कषाय है, क्यों कि इसीके वश में होकर जीव संसार में परिभ्रमण किया करता है । जिस वारित्र में सूक्ष्म लोभ के अंश का सद्भाव पाया जाता है वह सूक्ष्म परायचारित्र है । इस चारित्र के विनय करने का नाम सूक्ष्मपरायचारित्रविनय है ४। तीर्थकर प्रभु ने जिस यथार्थता एवं अभिविधि के अनुसार चारित्र का प्रतिपादन किया સામાયિક ચારિત્રને જે વિનય તે સામાયિકચારિત્રવિનય છે. પૂર્વ દીક્ષાપર્યાયનું છેદન કરી ફરીને મહાવ્રતનું જેમાં આરોપણ કરાય છે તે છેદપસ્થાપનીયચારિત્ર છે. આ ચારિત્ર સંબંધી જે વિનય છે તે છેદેપસ્થાપનીયयारित्रविनय छ. " परिहरणं परिहारः,” परि७२६१ मत छ। परित्याग કરવાનું નામ પરિહાર છે, આ પરિહાર એક પ્રકારનું વિશેષ તપ છે. તેનાથી કર્મોની નિર્જરારૂપ વિશુદ્ધિ જે ચારિત્રમાં થાય છે તેનું નામ પરિહારવિશુદ્ધિ. . ચારિત્ર છે. આ ચારિત્ર સંબંધી જે વિનય છે તે પરિહારવિશુદ્ધિચારિત્રવિનય છે. “સ પરાય” શબ્દનો અર્થ કષાય છે, કેમકે એને જ વશ થઈને જીવ સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. જે ચારિત્રમાં સૂમલોભના અંશને સદ્ભાવ મળે છે તે સૂફમસંપરાયચારિત્ર છે. આ ચારિત્રના વિનયનું નામ સૂફમસંપરાયચારિત્રવિનય Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मनः, रित्तविणए । से किं तं मणविणए ? मणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सत्थमणविणए १, अप्पसत्थमणविणए २ | से किं तं अप्पसत्थमणविणए ? अप्पसत्थमणविणए - जे य मणे सावजे १, तीर्थकरैः कथितमकषायं चारित्रमिति तत् यथाख्या तचारित्रं तस्य कषायरहितचारित्रस्य विनयः ॥ ५ । ' से तं चरितविणए' स एष चारित्रविनयः । ' से किं तं मणविणए ' अथ कोऽसौ मनोविनयः ? उत्तरमाह - 'मणविणए' – मनोविनयः - मन्यते चिन्त्यतेऽनेनेति तत्सम्बन्धी विनयः, 'दुविहे पण्णत्ते' द्विविधः प्रजाः, 'तं जहा ' तद्यथा' - पसत्थमणविणए' प्रशस्तमनोविनयः - प्रशस्तम् = अवधरहितं मनोऽन्तःकरणं, तस्य विनयः |१| 'अप्पसत्थमणविणए' अप्रशस्तमनोविनयः - अप्रशस्त मनसो विनयः | २ | ' से किं तं अप्प सत्थमणविणए ' अथ कोऽसौ अप्रशस्तमनोविनयः ? उत्तरमाह - 'अप्पसत्थमणविणए - जे है, इस रूप के चारित्र का नाम यथाख्यातचारित्र है । इस चारित्र का विनय करना सो यथाख्यात चारित्रविनय है ५ । ( से तं चरितविणए ) यह सब चारित्रविनय है । प्रश्न( से किं तं मणविणए ) मन का विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर - ( मणविणए दुविहे पण्णत्ते) मनोविनय दो प्रकार का कहा गया है; (तं जहा ) जैसे - ( पसत्यमण विणए) प्रशस्त मन का विनय - पापरहित मन को अपनाना प्रशस्तमनोविनय है । (अप्पसत्थमणविए) अप्रशस्त मन का विनय करना सो अप्रशस्तमनोविनय है । प्रश्न - (से किं तं अपसत्थमणविre) अप्रशस्तमनोविनय क्या है? उत्तर - ( अप्पसत्थमणविणए जे मणे सावज्जे १, सकिरिए २, सककसे ३, कडुए ४, गिट्ठरे ५, फरुसे ६, છે. તી'કર પ્રભુએ જે યથાતા તેમજ અભિવિધિના અનુસાર ચારિત્રનુ પ્રતિપાદન કર્યું' છે તે રૂપના ચારિત્રનું નામ યથાખ્યાતચારિત્ર છે. આ ચારિત્રને विनय उरव। ते यथाभ्यातथास्त्रिविनय छे. ( से तं चरितविणए ) मा अधा ચારિત્રવિનય છે. २६६ प्रश्न- (से किं तं विणए ) भननेो विनय शुं छे ? डेटा प्रहारनो छे ? उत्तर- (मविए दुविहे पण्णत्ते) भनोविनय में अारना उसे छे. (तं जहा ) ?भ - (पसत्थमणविणए) प्रशस्त भननो विनय-पापरहित भनने अपनावबुं ते प्रशस्तमनोविनय छे. ( अप्पसत्यमगविणए) अप्रशस्त भननेो विनय ४२ ते अप्रशस्तमनोविनय छे. प्रश्न - ( से किं तं अप्पसत्यराणविणए) अप्रशस्तभनोविनय शुं छे ? उत्तर- ( अप्पसत्यमणविणए-जे य मणे सावज्जे, सकिरिए, सक कसे, कडुए, णिडुरे, फरुसे, अण्ह ्यकरे, छेयकरे, भेयकरे परितावणकरे, उद्दवणकरे, भूओवघाइए ) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ३० विनयभेदवर्णनम् सकिरिए २, सक्क्कसे ३, कड्डुए ४, णिहुरे ५, फरुसे ६, अहयकरे ७, छेयकरे ८, भेयकरे ९, परितावणकरे ९०, उद्दवणकरे ११, भूओवघाइए १२, तहप्पगारं मणो णो पहारेज्जा, से तं अप्पसय मणे' यच्च मनः - 'सावज्जे' सावद्यं सदापम् | १ | 'सकिरिए' सक्रियम् = प्राणातिपाताचारम्भक्रियायुक्तम् | २ | 'सककसे ' सकार्कश्यम् = कर्कशतासहितम् । ३ । ' कडुए ' कटुकम् - स्वस्य परस्य च कटुकरसवद्, उद्वेजकम् |४| ' णिहुरे' निष्ठुरं – दयारहितम् ।५। — फरुसे ' परुषं–कठोरम् ।६। — अण्हयकरे ' आस्रवकरम् = आस्रवकारि |७| 'छेयकरे ' छेदकरम्= संयमसमाधिविनाशकम् । ८। ' भेयकरे ' भेदकरम् = समाधिविघातकम् | ९| 'परितावणकरे ' परितापनकरम्–प्राणिनां सन्तापजनकम् । १० । 'उदवणकरे' उपद्रवणकरम् - प्राणान्तकष्टकारकम् | ११ | 'भूओघाइए' भूतोपघातिकम् भूतानां प्राणिनामुपघातो हिंसा, सोऽस्याऽस्तीति भूतोपघातिकम् ।१२।। ‘ तहष्पगारं मणो णो पहारेज्जा' तथाप्रकारं तादृशं मनो नो प्रधारयेत् =नो प्रवर्तयेत्–असंयमक्रियासु मनो नोदीरयेत् । ' से तं अप्पसत्थमणविणए ' स एषोऽप्रशस्तम नोविनयः । 'से किं तं पसत्थमणविणए ' अथ कोऽसौ प्रशस्तमनोविनयः :अण्हयक रे ७, छेयकरे ८, भेयकरे ९, परितावणकरे १०, उद्दवणकरे ११, भूओघाइए १२ ) - जो मन सावद्य - पापसहित हो १, सक्रिय - प्राणातिपातादिक आरम्भक्रियायुक्त हो २, सकर्कश–प्रेमभाव से रहित हो ३, कटुक - अपने तथा पर के लिये कटुकरस के समान उद्वेजक हो ४, निष्ठुर - दयारहित हो ५, परुष - कठोर हो ६, आस्रवकर - आस्रवकारी हो ७, छेदकर - संयमरूपसमाधि का विध्वंसक हो ८, भेदकर - समाधिविघातक हो ९, परितापनकर - प्राणियों को सन्ताप का जनक हो १०, उपद्रवणकर - उपद्रव का कर्त्ता हो ११, एवं भूतोपघातिक-प्राणियोंका प्राणहर्त्ता हो १२, वह मन अप्रशस्त है। (तहप्पगारं मणो णो पहारेज्जा) ऐसे मन को असयम क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं करना । ( से तं अप्पसत्थमणविणए ) वह अप्रशस्तमनोवितय है । (से किं तं पसत्थमणविणए) प्रशस्तमनोविनय क्या है ? उत्तरજે મન સાવદ્ય-પાપસહિત હાય, સક્રિય-પ્રાણાતિપાતાદિક આરભક્રિયાયુક્ત હાય, પ્રેમભાવથી રહિત હોય, પોતાના તથા પારકા માટે કડવા રસની પેઠે ઉપદ્રવ४न होय, निष्ठुर-व्यारहित होय, परुष-उठोर होय, आसवारी होय, संयंभરૂપ સમાધિના વિધ્વંસક હોય, શરીરક્રિકનું ભેદક હોય, પ્રાણિઓને સંતાપજનક હોય, ઉપદ્રવ કરનારું હોય, તેમ જ પ્રાણિઆનું પ્રાણ લેનારું હોય તે મન અપ્રશસ્ત छे. (तहप्पगारं मणो णो पहारेज्जा) मेवां भनने असंयम डियागोभां प्रवृत्त न ४२वु', (सेतं अप्पसत्यमणविणए) ते अप्रशस्तमनेोविनय छे. प्रश्न- (से किं तं पसत्थमण विणए) २६७ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ औपपातिकसूत्रे त्थमणविणए । से किं तं पसत्थमणविणए ? पसत्थमणविणएतं चेव पसत्थं णेयव्वं । एवं चेव वइविणओवि एएहि पएहिं चेव णेयव्यो। से तं वइविणए। 'पसत्थमणोविणए' प्रशस्तमनोविनयः 'तं चेत्र पसत्थं णेयवं' तदेव प्रशस्तं नेतव्यम् अप्रशस्ते यद्विशेषणं तदेव प्रशस्तरूपेण परिवर्तनीयम्; यथा-प्राक् तत्र सावद्यमित्युक्तं, अत्र तु निरवद्यमिति वाच्यम् । इत्थं सर्वाणि विशेषणानि परिवर्तनीयानि, तथा सति प्रशस्तमनोविनयः। ' एवं चेव वइविणओवि एएहि पएहिं चेव णेयव्वो' एवमेव वाग्(पसत्थमणविणए तं चेव पसत्थं णेयव्वं) अप्रशस्त मन के जो विशेषण हैं उनका प्रशस्तरूप में परिवर्तन करने से प्रशस्तमन होता है। जैसे-जो मन निरवद्य-पापरहित हो १, अक्रिय-प्राणातिपातादिक क्रिया से विरत हो २, अकर्कश-प्रेमसहित हो ३, अकटुकस्वपर का उद्वेग करने वाला नहीं हो ४, अनिष्ठुर-दयायुक्त हो ५, अपरुष–कोमल हो ६, अनास्रवकर-संवरयुक्त हो ७, अच्छेदकर-छेदकर नहीं हो, अर्थात् संयमसमाधि से युक्त हो ८, अभेदकर-भेदकर नहीं हो, अर्थात् समाधियुक्त हो ९, अपरितापनकर-प्राणियों के लिये संतापकर नहीं हो, अर्थात् शान्तिजनक हो १०, अनुपद्रवकर-प्राणियों का उपद्रवकारी नहीं हो ११, और अभूतोपघातिक-प्राणियों का उपधात करनेवाला नहीं हो १२। ऐसा मन प्रशस्तमन कहा गया है । इसका जो विनय-आदर सो प्रशस्तमनोविनय है । ( एवं चेव वइविणओवि एएहिं पएहिं चेव णेयन्वो) इसी प्रकार वचन का विनय भी प्रशस्त प्रशस्त मनाविनय शुछ ? उत्तर-(पसत्यमणविणए-तं चेव पसत्थं णेयव्यं) मप्रशस्त મનનાં જે વિશેષણ છે તેમનું પ્રશસ્ત રૂપમાં પરિવર્તન કરવાથી પ્રશસ્ત મન થાય છે. જેમકે–જે મન નિરવદ્ય-પાપરહિત હોય, અકિય-પ્રાણાતિપાતાદિક ક્રિયાઓથી વિરત હોય, અકર્કશ–પ્રેમસહિત હોય, અકટુક–સ્વપરને ઉદ્વેગ કરવાવાળું ન હોય, मनि २-यावाणु डाय, २५५२५-ॐामा डोय, मनास५४२-संवरवाणु डोय, અચ્છેદકર-છેદન કરવાવાળું ન હોય અર્થાત્ સંયમસમાધિથી યુક્ત હોય, અભેદકર-ભેદ કરનાર ન હોય, અર્થાત્ સમાધિયુક્ત હોય, અપરિતાપનકરપ્રાણિઓને માટે સંતાપકર ન હોય, અર્થાત્ શાંતિજનક હય, અનુપદ્રવકરપ્રાણિઓને ઉપદ્રવકારી ન હોય અને અભૂતપઘાતિક-પ્રાણિઓનો ઉપઘાત કરનાર ન હોય, એવું મન પ્રશસ્તમન કહેવાય છે. તેને જે વિનય–આદર ते प्रशस्तभनोविनय छे. (एवं चेव वइविणओवि एएहिं पएहिं चेव णेयव्वो) Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. ३० विनयभेदवर्णनम् विनयोऽप्येतैः पदैरव नेतव्यः-प्रथमं प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदेन द्विविधं विधाय, ततः परम् अप्रशस्तवाग्विनये सावद्यादिविशेषणानि देयानि, प्रशस्तवाग्विनये निरवद्यादीनि विशेष और अप्रशस्त भेद से दो प्रकार का है। जो वचन सावद्य-पापसहित हो, सक्रिय-प्राणातिपातादिक की आरम्भक्रिया से युक्त हो, सकर्कश-कर्कशता से युक्त हो, कटुक-स्वपर को कटुकरस के समान उद्विग्न करने वाला हो, निष्ठुर-दयारहित हो, परुष-कठोर हो, आस्रवकर-आस्रवका उत्पादक हो, छेद कर यमसमाधि का विनाशक हो,भेदकर-समाधि का विघातक हो, परितापनकर--प्राणियों के लिये सन्तापजनक हो, उपद्रवणकर-प्राणियों के लिये उपद्रवकारी हो, तथा भूतोपधातिक-प्राणियों की हिंसा करने वाला हो, ऐसा वचन अप्रशस्तवचन है। इस तरह का वचन नहीं बोलना अप्रशस्तवचनविनय है । तथा-जो वचन निरवद्य-पापरहित हो, अक्रिय-प्राणातिपातादिक क्रिया से विरत हो, अकर्कश-प्रेमसहित हो, अकटुक-स्वपर के लिये उद्वेगजनक नहीं हो, अनिष्ठुर-दया -सहित हो, अपरुष-कोमल हो, अनास्रवकर-संवरयुक्त हो, अच्छेदकर-छेदकर नहीं हो अर्थात् नयमसमाधि से युक्त हो, अभेदकर-भेदकर नहीं हो, अर्थात् समाधियुक्त हो, अपरितापनकर-प्राणियों को सन्ताप देने वाला नहीं हो, अनुपद्रवणकर-प्राणियों के लिये उपद्रव करने वाला नहीं हो, और अभूतोपघातिक-प्राणियों की हिंसा करने वाला नहीं हो, પ્રકારે વચનને વિનય પણ પ્રશસ્ત અને અપ્રશસ્ત ભેદે કરીને બે પ્રકારને છે. જે વચન સાવદ્ય-પાપસહિત હય, સક્રિય-પ્રાણાતિપાતાદિકની આરંભક્રિયાથી યુક્ત હોય, સકર્કશકશતાવાળું હેય, કટુક–સ્વપરના કટુ (કડવા) રસની પેઠે ઉદ્વિગ્ન કરવાવાળું હેય, નિષ્ફર-દયારહિત હોય, પરુષ-કઠેર હોય, આસ્રવકર-આસવનું ઉત્પાદક હોય, છેદકર-સંયમ સમાધિનું વિનાશક હોય, ભેદકર-સમાધિનું વિઘાતક હય, ઉપદ્રવણકર-પ્રાણિઓને માટે ઉપદ્રવકારી હોય, તથા ભૂતપઘાતિક–પ્રાણીઓની હિંસા કરનારું હોય, એવું વચન અપ્રશસ્ત વચન છે. એવી જાતનું વચન બોલવું નહિ તે અપ્રશસ્તવચનવિનય છે. તથા જે વચન નિરવદ્ય-પાપરહિત હોય, અક્રિય–પ્રાણાતિપાતાદિક ક્રિયાથી વિરત હોય, અકર્કશ–પ્રેમસહિત હોય, અકટુક-સ્વપરના માટે ઉદ્ધગજનક न डाय, मनिष्२-ध्यावाणुहोय, २१५२ष-भ होय, मनास१४२-१२યુક્ત હોય, અચ્છેદકર- છેદકર ન હોય, અર્થાત્ સંયમ-સમાધિવાળું હોય, અભેદકર–ભેદકર ન હોય, અર્થાત્ સમાધિયુક્ત હોય, અપરિતાપનકર-પ્રાણિ એને સંતાપ આપનાર ન હોય, અનુપદ્રવકર-પ્રાણિઓને માટે ઉપદ્રવ કરનારું ન હોય અને અભૂતપઘાતિક-પ્રાણિઓની હિંસા કરવાવાળું ન હોય એવાં Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० औपपातिकसूत्रे से किं तं कायविणए?, कायविणए दुविहे पण्णत्ते; तं जहा-पसत्थकायविणए १, अप्पसत्थकायविणए २ । से किं तं अप्पसत्थकायविणए ? अप्पसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते; तं जहा -अणाउत्तं गमणे १, अणाउत्तं ठाणे २, अणाउत्तं णानि योजनीयानि । ' से तं वइविणए' स प वाग्विनयः। कायविनयं पृच्छति-से किं तं कायविणए' अथ कोऽसौ कायविनयः ? उत्तरमाह-'कायविणए'-कायविनयः 'दुविहे पण्णत्ते' द्विविधः प्रज्ञप्तः, १ 'पसस्थकायविणए' प्रशस्तकायविनयः, २- अप्पसत्थकायविणए' अप्रशस्तकायविनयः । 'से किं तं अप्पसत्थकायविणए' अथ कोऽसौ अप्रशस्तकायविनयः ? 'अप्पसत्थकायविणए ' अप्रशस्तकायविनयः ‘सत्तविहे पण्णत्ते' सप्तविधः प्रज्ञप्तः। सप्तविधत्वं दर्शयति-तं जहा' तद्यथा-'अणाउत्तं गमणे' अनायुक्तं गमनम् ऐर्यापथिक्यामसावधानतया गमनम् ।१। 'अणाउत्तं ठाणे' अनायुक्तं स्थानम् उपयोगाभावेन अवस्थानम् ऐसे वचन को प्रशस्तवचन कहते हैं। ऐसे वचन का बोलना सो प्रशस्तवचनविनय है। ( से तं वइविणए ) सो यह पूर्वोक्त वचनविनय है । अब कायविनय क्या है ? इस बात को शिष्य पूछता है ( से किं तं कायविणए ) कायविनय क्या-कितने प्रकार का है ? उत्तर-( कायविणए दुविहे पण्णत्ते) कायविनय दो प्रकार का है (पसत्थकायविणए अप्पसत्थकायविणए ) एक प्रशस्तकायविनय और दूसरा अप्रशस्तकायविनय । 'से किं तं अप्पसत्थकायविणए ?' अप्रशस्तकायविनय कितने प्रकार का है ? 'अप्पसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते' अप्रशस्तकायविनय सात प्रकार का है; (तं जहा) जैसे-(अणाउत्तं गमणे) अनुपयुक्त गमन-ईर्यापथ में विना उपयोग के गमन करना, ( अणाउत्तं ठाणे) विना उपयोग के खडा होना, (अणाउत्तं निसीयणे) વચનને પ્રશસ્ત વચન કહે છે. એવાં વચન પોલવાં તે પ્રશસ્તવચનવિનય છે. હવે आयविनय शुछ १ ते पात शिष्य पूछे छ-(से किं तं कायविणए) ४ायविनय शु छ-32 प्रा२। छ ? उत्तर-(कायविणए दुविहे पण्णत्ते) यविनय मे प्रा२नो छ(पसत्थकायविणए अप्पसत्थकायविणए) ४-५श ४ायविनय मने माने--प्रशस्त यविनय. ( से किं तं अप्पसत्थकायविणए) २५प्रशस्तायविनय 21 प्रारन। छ ? (अप्पसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते) मप्रशस्तायविनय सात प्रा२ने। छ; (तं जहा) २ (अणाउत्तं गमणे) अनुपयुम्त आमन-ध्यापथमा विना योगनु गमन ४२७, (अगाउत्तं ठाणे) विना उपयोगनु मा २९. (अणाउत्तं निसीयणे) MBER Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स्व. ३० विनयभेदवर्णनम् २७१ निसीयणे ३, अणात्तं तुयहणे ४, अणाउत्तं उल्लंघणे ५, अणाउत्तं पल्लंघणे ६, अणाउतं सव्विदियकायजोगजुंजणया ७, से तं अप्पसत्थकायविए ? | पसत्थ कायविणए एवं चैव पसत्थं भाणियव्वं । से तं सत्थकायविणए । से तं कायविणए । से किं |२| 'अणाउतं निसीयणे ' अनायुक्तं निपदनम् = अनुप योगेनोपवेशनम् | ३ | अणाउत्तं तुयट्टणे ' अनायुक्तं त्वग्वर्तनम् = अनवधानतया त्वग्वर्तनं=संस्तारके पार्श्वपरिवर्तनम् ।४। 'अणाउतं उल्लंघणे ' अनायुक्तमुल्लङ्घनम् = कर्दमादीनामतिक्रमणम् । ५ । ' अणाउ पल्लंघणे ' अनायुक्तं प्रोल्लङ्घनम्=पुनः पुनरुल्लङ्घनम् | ६| ' अणाउतं सव्विंदियकायजोगजुंजण या ' अनायुक्तं सर्वेन्द्रियकाययोगयोजनता = सर्वेषामिन्द्रियाणां काययोगस्य च योजनं–प्रवर्तनम्–असावधानतया सर्वेन्द्रियकाययोगव्यापारणम् । ७ । ' से तं अप्पसत्थकायfare ' स एषोऽप्रशस्तकायविनयः । ' से किं तं पसत्थकायविणए : अथ कोsसौ प्रशस्तकायविनयः ? ' पसत्थकाय विणए ' प्रशस्तकायविनयः - ' एवं चेव पसत्थं भाणियव्वं ' एवमेव = अप्रशस्तवदेव प्रशस्त कायविनयो भणितव्यः = वक्तव्यः; यथा तत्रानाविना उपयोग के बैठना, ( अगाउत्तं तुयहणे ) विना उपयोग के विस्तर पर करबट बदलना, (अगाउत्तं उल्लंघणे ) विना उपयोग के कीचड़ आदि का लांघना, (अण उत्तं पलंघणे ) विना उपयोग के बार बार कीचड़ आदिका उल्लंघन करना । ( अगाउत्तं सत्रिदियकायजोगजुंजणया) विना उपयोग के समस्त इन्द्रियों की एवं काययोग की प्रवृत्ति करना, ( से तं अप्पसत्थकायत्रिए ) इन सभी अप्रशस्त क्रियाओं से काय को रोकना अप्रशस्तकायविनय है । प्रश्न- (से किं तं पसत्कायविणए) प्रशस्त कायविनय क्या है ? उत्तर(पसत्थकाय विणए एवं चेव भाणियां से तं पसत्य काय त्रिण ए) इसी तरह प्रशस्त कायविनय है, अर्थात् अप्रशस्त कायविनय में अनुपयुक्त अवस्था से होने वाली गमनादिक क्रियाएँ रोकी विना उपयोग मेसवु, (अणाउतं तुराट्टणे ) विना उपयोग पथारीमां पासां महसवां, (अणाउत्तं उल्लंघणे ) विना उपयोगे डीयड वगेरे टयवु, (अणाउत्तं पल्लंघणे) उपयोगवगर वारंवार डीयर विगेरेनु सधन ४२, (अणात्तं सव्विदियकायजोगजुंजणया ) विना उपयोगनु समस्त इंद्रियांनी तेमन आययोगनी प्रवृत्ति रवी, (से तं अप्पसत्थकायविणए) से अधी अप्रशस्त डियागोथी अयाने शेडवी ते अप्रशस्तायविनय छे. प्रश्न - ( से किं तं पसत्थकायविणए ) प्रशस्त डायविनय शुं छे ? उत्तर-( पसत्थकायविणए - एवं चेव भाणियव्वं से तं पसत्थकायविणर) પ્રશસ્તકાયવિનય આ જ રીતે છે. અર્થાત અપ્રશસ્તકાયવિનયમાં અનુપયેાગી અવ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ औपपातिकसूत्रे तं लोगोवयारविणए ? लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते; तं जहा-अब्भासवत्तियं १, परच्छंदाणुवत्तियं २, कजहेओ ३, कयपडिकिरिया ४, अत्तगंवेसणया ५, देसकालण्णुया ६, सबसु अप्पडिलोमया ७, से तं लोगोवयारविणए । से तं विणए ॥ सू० ३०॥ युक्तमुक्तम् , अत्र सोपयोगं गमनादिकं वाच्यमित्यर्थः । ' से तं पसत्थकायविणए ' स एष प्रशस्तकायविनयः । ‘से तं कायविणए ' स एष कायविनयः । ' से किं तं लोगोवयारविणए' अथ कोऽसौ लोकोपचारविनयः? लोकानामुपचरणं लोकोपचारः, तत्सम्बन्धी विनयो, लोकोपचारविनयः, लोकव्यवहारसाधको विनय इयर्थः; ' लोगोश्यारविगए सत्तविहे पण्णत्ते' लोकोपचारविनयः सप्तविधः प्रज्ञप्तः,-'तं जहा' तद्यथा-'अब्भासवत्तियं' अभ्यासवृत्तिता कलाचार्यादिसमीपस्थितिशीलता ।।। 'परच्छंदाणुवत्तियं' परच्छन्दानुवर्तिता=पराभिप्रायानुवर्तनम् ।२। 'कजहेओ' कार्थहेतोः विद्यादिप्राप्तिनिमित्तं श्रुतं जाती हैं और इस प्रशस्तकायविनय में ये सब ही कायसंबंधी क्रियाएँ उपयुक्त होकर की जाती हैं । प्रश्न-( से किं तं लोगोवयारविणए ) लोकोपचार विनय क्या-कितने प्रकार का है उत्तर-(लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते) लोकव्यवहारसाधक यह लोकोपचारविनय सात प्रकार का कहा गया है, (तं जहा) वे सात सात प्रकार ये हैं-(अभासवत्तियं) अभ्यासवर्तिता-कलाचार्य आदि के समीप में स्थितिशीलता, अर्थात्-गुरु आदि के निकट रहने का स्वभाव होना, (परच्छंदाणुवत्तिया) परच्छन्दानुवर्तिता-गुरु आदि की आज्ञा के अनुकूल अपनी प्रवृत्ति रखना, ( कन्जहेओ) विद्या आदि की प्राप्ति के निमित्त भक्तपान સ્થાથી થવાવાળી ગમન આદિક ક્રિયાઓને શેકાય છે અને આ પ્રશસ્તકાયવિનયમાં तमधी अयसमधी जिया उपयोगी २५५स्थाथी ४२राय छे. प्रश्न-(से किं तं लोगोवयारविणए) खोपया विनय शुछ-32। प्रा२नो छ ? उत्तर-(लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते) व्यवहारसाचा सापयाविनय सात प्रा२ने। ४। छ, (तं जहा) ते सात प्रा२ मा छ--(अब्भासवत्तियं ) सल्यासपत्तिताકલાચાર્ય આદિના સમીપમાં સ્થિતિશીલતા, અર્થાત્ ગુરુ આદિની પાસે રહેવાને स्वभाव डावो, (परच्छंदाणुवत्तिया) ५२२ हानुवर्तिता-गुरे माहिनी माज्ञाने मनुज पातानी प्रवृत्ति २५वी, (कज्जहेओ) विधा माहिनी प्रातिन निभित्ते Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० विनयभेदप्रायश्चित्तभेदवर्णनम् २७३ मूलम्-से किं तं वेयावच्चे ? वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते; प्रापितोऽहमनेने'–ति हेतोः शुश्रूषा । ३ । 'कयपडिकिरिया' कृतप्रतिक्रिया "भक्तादिनोपचारे कृते सति प्रसन्ना गुरवो मे श्रुतदानरूपां प्रतिक्रियां-प्रत्युपकारं करिष्यन्ती"ति बुद्ध्या गुरूणां शुश्रूषाकरणम् ।४। 'अत्तगवेसणया' आगिवेषणता-आर्तस्य दुःखितस्य गवेषणता-औषधभैषज्यादिना पीडितस्योपकार इत्यर्थः ।५। 'देसकालण्णुया' देशकालज्ञता=देशकालोचितार्थसम्पादनम् ।६। 'सबढेसु अप्पडिलोमया' सर्वार्थेषु अप्रतिलोमता सर्वप्रयोजनेषु आनुकूल्यम् । ' से तं लोगोवयारविणए, से तं विणए' स एष लोकोपचारविनयः, स एष विनयः ॥ सू० ३०॥ टीका-आभ्यन्तरतपसस्तृतीयभेदं वैयावृत्यं नाम तपः पृच्छति-' से किं तं वेयावच्चे' अथ किं तद् वैयावृत्त्यम् ? साधूनामाहारौषधादिभिः साहाय्यकरणं वैयावृत्त्यम् , तत् आदि लाकर देना, ( कयपडिकिरिया ) कृतप्रतिक्रिया-कृत उपकार का ध्यान रखकर प्रत्युपकार करने की भावना से प्रीतियुक्त व्यवहार करना, (अत्तगवेसणया) आत्तेगवेषणता-रोगादि अवस्था से युक्त गुरु महाराज आदि का औषध-भेषज द्वारा उपचार करना, ( देसकालण्णुया) देशकालज्ञता-देशकाल के अनुसार प्रवृत्ति करना , (सबढेसु अप्पडिलोमया) सब कार्यों में अप्रतिकूलता अर्थात् अनुकूलता रखना । ( से तं लोगोवयारविणए ) यह सब लोकोपचारविनय है । (से तं विणए ) इस प्रकार विनय तप का वर्णन जानना चाहिये ॥ सू० ३० ॥ ‘से किं तं वेयावच्चे। सूत्रकार अब आभ्यन्तर तप का जो तृतीय भेद वैयावृत्त्य तप है उसका भान-पान माहिसावी माप, (कयपडिकिरिया ) इतप्रतिलिया-रेसा ઉપકારને ધ્યાનમાં રાખીને પ્રત્યુપકાર કરવાની ભાવનાથી પ્રીતિયુક્ત વ્યવહાર ४२वा, (अत्तगवेसणया) आगिवेषता-शाहि अवस्थामा शुरुमडा२।०४ माहिना मोषध-लेषन्थी उपया२ ४२व।, (देसकालण्णुया) देशासज्ञता-हेश सने मनुसरीने प्रवृत्ति ४२वी, (सव्वट्ठसु अप्पडिलोमया) मा मां मप्रतिसत अर्थात् मनुज रामवी. ( से तं लोगोवयारविणए ) से यथा auया२विनय छे. ( से तं विणए ) से प्रारे विनय तपनुं वर्ष न त नये. (सू. ३०) ‘से किं तं वेयावच्चे' इत्याहि. સૂત્રકાર હવે આભ્યન્તર તપન જે ત્રીજે ભેદ વિયાવૃત્ય તપ છે તેનું Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭૪ औपपातिकसूत्र तं जहा-आयरियवेयावच्चे १,उवज्झायवेयावच्चे २, सेहवेयावच्चे ३, गिलाणवेयावच्चे ४, तवस्सिवेयावच्चे ५, थेरवेयावच्चे ६, साहम्मिय'दसविहे पण्णत्ते' दशविधं प्रज्ञप्तम्, तं जहा-तद्यथा 'आयरियवेयावच्चे' आचार्यवैयावृत्यम्-आचार्यस्य वैयावृत्त्यम्=आहारादिभिः शुश्रूषाकरणम् ।१। 'उवज्झाय वेयावच्चे' उपाध्यायवैयावृत्त्यम् ।२। 'सेहवेयावच्चे' शैक्षवैयावृत्त्यम्-नवदीक्षितो बालः शैक्षः, तस्य संयमसाहाय्यदानम् ।३। 'गिलाणवेयावच्चे ग्लानवैयावृत्त्यम्-लानस्य तपसा रुजया वा खिन्नस्य वैयावृत्यम् ।४। 'तवस्सिवेयावच्चे' तपस्विवैयावृत्त्यम्=निरन्तरं चतुर्भक्तादिकरणशीलस्य मासक्षपणादिकरणशीलस्य वा वैयावृत्त्यम् , 'थेरवेयावच्चे' स्थविरवैयावृत्त्यम्-स्थविवर्णन करते हैं । शिष्य पूछता है-हे भदन्त ! ( से किं तं वेयावच्चे ) वैयावृत्त्य तप क्या-कितने प्रकार का है? उत्तर-(वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते) यह वैयावृत्त्यतप दस प्रकार का है । आहार औषध आदि द्वारा सहायता करना वैयावृत्य है । (तं जहा) उसके वे दस भेद इस प्रकार से हैं-( आयरियवेयावच्चे, उवज्झायवेयावच्चे, सेहवेयायचे, गिलाणवेयावच्चे, तवस्सिवेयावच्चे, थेरवेयावच्चे, साहम्मियवेयावच्चे, कुलवेयावच्चे, गणवेयावच्चे, संघवेयावच्चे, से तं वेयावच्चे ) आचार्य महाराज का वैयावृत्त्य-आहार पानी आदि द्वारा सेवा करना, उपाध्याय का वैयावृत्य, शैक्ष-नवदीक्षित साधु का वैयावृत्य, ग्लान-तपस्या से अथवा रोग से ग्लान सावु का वैयावृत्त्य, तपस्वी-निरन्तर चतुर्थभक्त आदि तपस्या करने वाले अथवा मासक्षपगादि की तपस्या करनेवाले तपस्वी महाराज का वैयावृत्य, स्थविर-जरा से जर्जरित अथवा ज्ञान से वृद्ध साधु का वैयावृत्त्य, साधर्मिक-समान वर्णन ४२ छ. शिष्य पूछ छ- महन्त ! (से किं तं वेयावच्चे) वैयावृत्त्य त५ शुछ-32 प्रा२नु छ ? उत्तर-( वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते) ॥ वैयावृत्त्य તપ ૧૦ પ્રકાર નું છે. આહાર ઔષધ આદિ દ્વારા સહાયતા કરવી તે વિયાવૃત્ય छ. (तं जहा) तेना से ४२ मे २॥ प्रारे छे. (आयरियवेयावच्चे, उवज्झायवेयावच्चे, सेहवेयावच्चे, गिलाणवेयावच्चे, तवस्सिवेयावच्चे, थेरवेयावच्चे, साहम्मियवेयावच्चे, कुलवेयावच्चे, गणवेयावच्चे, संघवेयावच्चे, से तं वेयावच्चे) आयार्य મહારાજનું વૈયાવૃ–આહાર પાણી આદિ દ્વારા સેવા કરવી, ઉપાધ્યાયનું વૈયાવૃત્ય, શિક્ષ–નવદીક્ષિત સાધુનું વિયાવૃત્ય, ગ્લાન-તપસ્યાથી અથવા રેગથી કલાન્ત (દુર્બળ) સાધુનું વૈયાવૃજ્ય, તપસ્વી-નિરંતર ચતુર્થભક્ત આદિ તપસ્યા કરવાવાળા અથવા માસક્ષપણ આદિની તપસ્યા કરવાવાળા તપસ્વી મહારાજનું વયાવૃત્ય, સ્થવિર–વૃદ્ધાવસ્થાથી જર્જરિત અથવા જ્ઞાનથી વૃદ્ધ સાધુનું વૈયા Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ३० वैयावृत्त्यभेद-स्वाध्यायभेदवर्णनम् २७५ वेयावच्चे ७, कुलवेयावच्चे ८, गणवेयावच्चे ९, संघवेयावच्चे १०, से तं वेयावच्चे । से किं तं सज्झाए ? सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते; तं जहा-वायणा १, पुच्छणा २, परियट्टणा ३, अणुप्पेहा ४,धम्मरस्य=जराजीर्णस्य ज्ञानवृद्धस्य वा वैयावृत्त्यम् ।६। 'साहम्मियवेयावचे' साधर्मिकवैयावृत्त्यम्समानधर्मणां वैयावृत्त्यम् ।७। 'कुलवेयायचे' कुलवैयावृत्त्यम्-एकाचार्यसन्ततिरूपं कुलं, तस्य वैयावृत्त्यम् ।८। 'गणवेयावच्चे' गणवैयावृत्यम्-कुलानां समूहो गणो–गच्छस्तस्य वैयावृत्यम् ।९। 'संघवेयावच्चे' संघवैयावृत्त्यम्-गणानां समुदायः सङ्घः तस्य वैयावृत्त्यम् , ।१०। ' से तं वेयावच्चे' तदेतद् वैयावृत्त्यम् । ‘से किं तं सज्झाए' अथ कः स स्वाध्यायः ? स्वाध्यायः किंस्वरूपः कतिविधः ? इति प्रश्न-उत्तरमाह-'सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते' स्वाध्यायः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, स्वाध्यायः-सु-सुष्टु आ मर्यादया कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षया वा अध्यायः श्रुतस्य अध्ययन स्वाध्यायः । तत्पञ्चविधत्वं दर्शयति "तं जहा' तद्यथा-'वायणा' वाचना-अध्यापनम् , धर्मवालों का वैयावृत्त्य, कुल-एक आचार्य की संततिरूप मुनिजनों का वैयावृत्त्य, गण-कुलसमूहरूप गच्छ का वैयावृत्त्य और गण के समूहरूप संघका वैयावृत्त्य करना सो यह सब वैयावृत्त्य तप के भेद हैं । प्रश्न-से किं तं सन्माए) स्वाध्याय तप क्या-कितने प्रकार का है ? उत्तर-(सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते) स्वाध्याय तप पांच प्रकार का है । अकाल–वेला का परिहार करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार श्रुतका अध्ययन करना स्वाध्याय है, उसके वे पांच प्रकार ये हैं-(चायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा)वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा एवं धर्मकथा । (सेतं सज्झाए) इस प्रकार स्वाध्याय पांच प्रकार का है। आचार्यादिक વૃન્ય, સાધર્મિક-સમાનધર્મવાળાનું વૈયાવૃત્ય, કુળ-એક આચાર્યની સંતતિ રૂપ મુનિજનનું વૈયાવૃત્ય, ગણ-કુળસમૂહરૂપ ગચ્છનું વિયાવૃત્ય, અને ગણના સમૂહરૂપ धनु वैयावृत्त्य ४२वें; से था वैयावृत्त्य तपना ले छे. प्रश्न-(से किं तं सज्झाए) स्वाध्याय त५ शुंछे-सानु छ ? उत्तर-(सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते) स्वाध्याय તપ પાંચ પ્રકારનું છે. અકાલવેળાનો ત્યાગ કરીને પોતાની શક્તિ અનુસાર श्रुतनुं सध्ययन ४२j ते स्वाध्याय छे. तेना से पांय प्रा२ मा छ-(वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा) वायना, प्र-छन, परिवर्तना, सनुप्रेक्षा तभी धर्मथा. (से तं सज्झाए) २ मारे स्वाध्याय पांय प्रा२न। छे. આચાર્ય આદિક પાસેથી સૂત્ર આદિક ગ્રહણ કરવાં તે વાચના ” છે. સૂત્ર આદિને પૂછવાં તે “પ્રચ્છના” છે. શીખાવેલાં સૂત્રનું વિસ્મરણ ન થઈ જાય તે Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ औपपातिकसूत्रे कहा ५, से तं सज्झाए।से किं तं झाणे ? झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-अट्टज्झाणे १, रुदज्झाणे २, धम्मज्झाणे ३,सुक्कज्झाणे ४। 'पुच्छणा' प्रच्छना, ।२। परियट्टणा' परिवर्तना=अधीतस्य सूत्रस्य ‘मा भूद् विस्मरण'–मिति कर्मनिर्जरार्थं पुनः पुनः कस्मिंश्चिदेकस्मिन् वस्तुनि अन्तर्मुहूर्तमात्रकालं चित्तं स्थिरीकृत्य चिन्तनं, तत्पठनं, सूत्रस्य गुणनमित्यर्थः ।३। 'अणुप्पेहा' अनुप्रेक्षा-सूत्रवदर्थेऽपि विस्मरणं संभवति; अतः सोऽपि परिभावनीच इत्यनुप्रेक्षण-चिन्तनिकेत्यर्थः ।४। 'धम्मकहा' धर्मकथाधर्मस्य-श्रुतरूपस्य या कथा व्याख्या सा ।५। 'से तं सज्झाए' स एष स्वाध्यायः । 'से कि तं झाणे' अथ किं तद् ध्यानम् ? 'झाणे चउबिहे पण्णत्ते' ध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तं जहातद्यथा-१-'अट्टज्झाणे' आर्तध्यानम्-ऋतं दुःखं, तस्य निमित्तं, यद्वा-तत्र भवम् आर्त तच्च तद् ध्यानम् , आर्तस्य दुःखितस्य वा ध्यानम्-आर्तध्यानम्-मनोज्ञामनोज्ञवस्तुसंयोगवियोगादिनिबन्धनचित्तवैलव्यरूपम् । तथा चोक्तम्से सूत्रादिक का ग्रहण करना 'वाचना' है । सूत्र आदि का पूछना 'प्रच्छना' है । अधीत सूत्र का विस्मरण न हो जाय, इस विचार से पुनः पुनः उसकी आवृत्ति करना 'परिवर्तना' है। सूत्रार्थ का पुनः पुनः चिन्तन करना 'अनुप्रेक्षा' है। तथा धर्म की कथा करना-'धर्मकथा' है । प्रश्न-(से किं तं झाणे) ध्यानका क्या स्वरूप है-वह कितने प्रकार है ? उत्तर-(झाणे चउबिहे पण्णत्ते) ध्यान के चार प्रकार हैं, (तं जहा) वे चार प्रकार ये हैं-(अट्टज्झाणे, रुद्दज्झाणे, धम्मज्झाणे, सुक्कज्झाणे) आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, एवं शुक्लध्यान । इनमें दुःख के निमित्त अथवा दुःख में जो ध्यान होता है वह आर्तध्यान है, मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ वस्तु के संयोग और वियोग में जो एक प्रकार की चित्त में विकलता होती है वह आर्तध्यान है। कहा भी हैવિચારથી ફરી ફરીને તેની આવૃત્તિ કરવી તે “પરિવર્તના” છે. સૂત્રના અર્થનું ફરી ફરીને ચિંતન કરવું તે “અનુપ્રેક્ષા છે. તથા ધર્મની કથા કરવી “ધર્મ४था' छे. प्रश्न-(से किं तं झाणे) च्याननु शु १३५ छ ? ते 21 प्रा२नु छ ? उत्तर- (झाणे चउविहे पण्णत्ते) ध्यानना यार ५४२ छ, (तं जहा) मा छ( अट्टज्झाणे, रुद्दज्झाणे, धम्मज्झाणे, सुक्कज्झाणे, ) यात ध्यान, शैद्रध्यान, धर्मધ્યાન તેમજ શુકલધ્યાન. તેમાં દુખને નિમિત્તે અથવા દુઃખને સમયે જે ધ્યાન થાય છે તે આત્તધ્યાન છે, મનેશ તેમજ અમનેઝ વસ્તુના સંગથી તેમજ વિયેગથી જે એક પ્રકારની ચિત્તમાં વિકળતા થાય છે તે આધ્યાન છે. કહ્યું પણ છે– Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३० ध्यानभेदवर्णनम् राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु, स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति मोहाद्, ध्यानं तदातमिति संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥१॥ २-'रुद्दज्झाणे' रौद्रध्यानम्-रोदत्यपरान् इति रुद्रः प्राण्युपघातादिपरिणतो जीवस्तस्य कर्म रौद्रम्-हिंसाद्यतिक्रूरतारूपं, तद्रूपं ध्यानं रौद्रध्यानम् । तदुक्तम् संछेदनैर्दहनभञ्जनमारणैश्च, बन्धप्रहारदमनैर्विनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानं तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ञाः ॥२॥ इति। राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु, स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति मोहाद् . ध्यानं तदार्त्तमिति संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः” ॥ १ इति।। राज्य का उपभोग, पलङ्ग आदि सुकोमल शय्या, सुन्दर आसन, घोड़े हाथी आदि वाहन, मनोहारिणी स्त्रियाँ, इत्र आदि सुगन्धित वस्तुएँ, सुन्दर सुन्दर पुष्पों की सुललित मालाय, तथा मणिरत्नमय आभूषण, इन सबों में मोह के कारण जो मनुष्य की उत्कट अभिलाषा है, उस अभिलाषा को विज्ञ जन 'आर्तध्यान' कहते हैं ॥१॥ "रोदयति अपरान् इति रुद्रः" जो दूसरों को रुलाता है वह रुद्र है, अर्थात् प्राणियों की उपघात आदि क्रिया में लवलीन जो जीव है वह रुद्र है, रुद्र का जो कर्म वह रौद्र है। उसका हिंसादिक अतिक्रूरतारूप जो ध्यान है वह रौद्रध्यान है। कहा भी है संछेदनैर्दहनभञ्जनमारणैश्च बन्धप्रहारदमनैर्विनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानं तु रौद्रमिति तत्मवदन्ति तज्ज्ञाः॥२॥ राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति मोहाद्, ध्यानं तदातमिति संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥१॥ રાજ્યને ઉપભોગ, પલંગ આદિ સુકમલ શય્યા, સુંદર આસન, ઘડા હાથી આદિ વાહન, મહારિણી સ્ત્રીઓ, અત્તર આદિ સુગંધિત વસ્તુઓ, સુંદર સુંદર પુષ્પની બનાવેલી સુલલિત માળાઓ, તથા મણિરત્નમય આભૂપણ, આ બધાંમાં મેહને કારણે જે મનુષ્યની ઉત્કટ અભિલાષા છે તે मलितापाने विद्वानो मात्तथ्यान' ४९ छे. (१) । “रोदयति अपरान् इति रुद्रः" २ मीन शवरावे ते सुद्र छ, અર્થાત પ્રાણિઓની ઉપઘાત (મારવું) આદિ ક્રિયાઓમાં લવલીન રહેતે જે જીવ છે તે રુદ્ર છે, રુદ્રનું જે કર્મ તે રૌદ્ર છે. તેનું હિંસાદિક અતિક્રૂરતારૂપ જે ધ્યાન છે તે રૌદ્રધ્યાન છે. કહ્યું પણ છે – संछेदनैर्दहनभञ्जनमारणैश्च, बन्धप्रहारदमनैर्विनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानं तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥२॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे ३-'धम्मज्झाणे' धर्मध्यानम् सर्वज्ञाऽऽज्ञाद्यनुचिन्तनम् । उक्तञ्च " सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनागमनेषु चिन्ता। पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यानं तु धर्ममिति संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः" ॥३॥ इति । जो मनुष्य छेदन, दहन अर्थात् जलाना, भञ्जन-तोडना-भाँगना, मारण-प्राणरहित करना, बाँधना, प्रहार करना, दमन करना, काटना आदि क्रियाओं में आनन्द मानता है, प्राणियों पर जिसको अनुकम्पा नहीं होती है, ऐसे मनुष्य की उन दुष्प्रवृत्तियों को विज्ञ जन 'रौद्रध्यान' कहते हैं ॥२॥ . सर्वज्ञ की आज्ञा आदि का अनुचिन्तनरूप धर्मध्यान है। कहा भी हैसूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनागमनेषु चिन्ता। पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यानं तु धर्ममिति संभवदन्ति तज्ज्ञाः॥३॥ सूत्र और सूत्र के अर्थ का चिन्तन करना, साधन का चिन्तन करना, अर्थात् साधूपकरण की प्रतिलेखना करने में तत्परता रखना, महाव्रत धारण का चिन्तन करना अर्थात् महाव्रत जो धारण किये हैं उनमें कोई अतिचार न लगे इसके लिये सर्वदा प्रयत्नशील होना , बन्ध और मोक्ष के स्वरूप का चिन्तन करना, 'चतुर्गतिक संसार में जीव का गमनागमन किस कारण से होता है उसका चिन्तन करना, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना, हे मनुष्य छेतुन, हसन अर्थात् योग, ras-wing, भा२णપ્રાણરહિત કરવું, બાંધવું, પ્રહાર કરવ, દમન કરવું, કાપવું આદિ ક્રિયાઓમાં આનંદ માને છે, પ્રાણિઓ ઉપર જેને દયા નથી આવતી એવા મનુષ્યના એ દુપ્રવૃત્તિઓને વિદ્વાને રિદ્રિધ્યાન કહે છે. (૨) સર્વજ્ઞની આજ્ઞા આદિનું અનુચિંતનરૂપ ધર્મધ્યાન છે. કહ્યું પણ છે – सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमोक्षगमनागमनेषु चिन्ता । पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यानं तु धर्ममिति संप्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥३॥ સૂત્ર અને સૂત્રના અર્થનું ચિંતન કરવું, સાધનનું ચિંતન કરવું અર્થાત્ સાધુનાં ઉપકરણની પ્રતિલેખના કરવામાં તત્પરતા રાખવી, મહાવ્રત ધારણનું ચિંતન કરવું, અર્થાત્ મહાવ્રત જે ધારણ કર્યા છે તેમાં કઈ અતિચાર ન લાગે તે માટે સર્વદા પ્રયત્નશીલ રહેવું, બંધ અને મોક્ષના સ્વરૂપનું ચિંતન કરવું, ચતુર્ગતિક સંસારમાં જીવનું આવવા-જવાનું શું કારણુથી થાય છે ? Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स. ३० ध्यानभदवर्णनम्. २७९ ४-'मुक्कज्झाणे' शुक्लध्यानम्-शुचं-शोकं क्लमयति अपनयतीति शुक्लं-भवक्षयकारणं, शुक्लं च तद् ध्यानं शुक्लध्यानम् । तथा चोक्तम् “यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, संकल्पकल्पनविकल्पविकारदाषैः । योगैः स च त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति ॥ ३ ॥ इति । एवं सभी प्राणियों पर दया रखना, इस प्रकार की आत्मा की शुभ प्रवृत्ति को विज्ञ जन 'धर्मध्यान' कहते हैं ॥३॥ “शुचं-शोकं क्लमयतीति शुक्लं " शोक को जो नष्ट करे वह 'शुक्ल' है। “शुक्ल च तद् ध्यानं च शुक्लध्यान" शुक्लरूप जो ध्यान वह शुक्लध्यान है । अर्थात् जो भवक्षय का कारण होता है अथवा जिससे शोक का अपनयन होता है, वह शुक्लध्यान है । कहा भी है यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, संकल्पकल्पनविकल्पविकारदोषैः। योगैः स च त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति ।। जिनकी इन्द्रियां विषयप्रवृत्तियों से रहित हैं; जो संकल्प-विकल्प-जनित विकार-दोषों से वर्जित हैं, कायिक, वाचिक, मानसिक तीनों योगों को वश कर लेने के कारण जिनकी आत्मा निश्चल है, ऐसे महात्माओं की प्रशस्त परिणति को विज्ञ जन ‘शुक्लध्यान' कहते हैं ॥४॥ તેનું ચિંતન કરવું, પાંચેય ઇન્દ્રિઓને નિગ્રહ કરે, તેમ જ બધાં પ્રાણિઓ ઉપર દયા રાખવી, એ પ્રકારની આત્માની શુભ પ્રવૃત્તિને વિદ્વાને ધર્મધ્યાન” કહે છે. “शुचं-शोकं क्लमयतीति शुक्लं" ना रे नाश ४२ ते 'शुस' छे. “शुक्लं च तद् ध्यानं घ-शुक्लध्यानं " शुस३५ रे ध्यान ते शुऊसध्यान छ, અર્થાત્ જે ભવક્ષયનું કારણ હોય છે અથવા જેનાથી શેકનું અપનયન થાય છે તે શુક્લધ્યાન છે. કહ્યું પણ છે यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, संकल्पकल्पनविकल्पविकारदोषैः । योगैः स च त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति ॥१॥ જેની ઇંદ્રિય વિષયપ્રવૃત્તિથી રહિત છે, જે સંકલ્પવિકલ્પજનિત વિકારદેષોથી વર્જિત છે, કાયિક, વાચિક, માનસિક, ત્રણેય યોગોને વશ કરી લેવાના કારણે જેને આત્મા નિશ્ચલ છે, એવા મહાત્માઓની પ્રશસ્ત પરિણતિને વિદ્વાને “શુક્લધ્યાન કહે છે (૧). Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० औपपातिकसूत्रे अट्टज्झाणे चउबिहे पण्णत्ते; तं जहा-अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ १, मणुण्ण एषु चतुर्विधेषु ध्यानेषु प्रथममार्तध्यानं चतुर्विधमाह-'अट्टज्झाणे चउबिहे पण्णत्ते' आर्तध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् ,' 'तं जहा' तद्यथा-१-'अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ' अमनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तस्तस्य विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति-अमनोज्ञः अनिष्टो यः शब्दादिः, तस्य सम्प्रयोगो-योगस्तेन सम्प्रयुक्तो यः स तथाविधः सन् तस्य अमनोज्ञशब्दादेः विप्रयोगस्मृतिः वियोगचिन्ता, तया समन्वागतः= अनुगतश्चापि भवति, एतद् आर्तध्यानम् ; ध्यानध्यानवतोरभेदोपचाराद् ध्यानवानपि ध्यानमुच्यते, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । २-मणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइस इन चार प्रकार के ध्यानों में प्रथम जो आर्तध्यान है, वह चार प्रकार का है, इसी बात को बताने के लिये सूत्रकार कहते हैं-(अट्टज्झाणे चउबिहे पण्णत्ते) आर्तध्यान ४ प्रकार का कहा गया है । (तं जहा) वह इस प्रकार से-( अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए याधि भवइ) अमनोज्ञ--अनिष्ट शब्दादि के संबंध होने पर उसके विप्रयोग-दूर करने के लिये जो बारंबार विचार किया जाता है वह अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है । यहां ध्याता को जो ध्यान कहा है वह ध्यान और ध्यानवान् में अभेद के उपचार से जानना चाहिये। इसी तरह से आगे के ध्यानों में भी अभेद का उपचार जानना। (मणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि આ ચારેય પ્રકારનાં ધ્યાનમાંથી પ્રથમ જે આર્તધ્યાન છે તે ચાર प्रारर्नु छ, से पात ४डेवा माटे सूत्रा२ ४ छ-(अट्टज्झाणे चउव्विहे पण्णत्ते) मात ध्यान या२ ५४२i ४९सा छ (तं जहा) ते २मा प्रारे छ-(अमणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ) मनोज्ञ-मनिष्ट શબ્દાદિકને સંબંધ થતાં તેને વિપ્રોગ-દૂર કરવા માટે જે વારંવાર વિચાર કરવામાં આવે છે તે અનિષ્ટસંગજન્ય આર્તધ્યાન છે. અહીં ધ્યાન કરનારને જે ધ્યાન કહેવામાં આવ્યું છે તે ધ્યાન અને થાનવાનમાં અભેદ (એકતા)ના ઉપચારથી થયો છે તેમ જાણવું જોઈએ, એ જ રીતે આગળના ध्यानामा ५४ ममेहन। उपया२ one al. (मणुण्णसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ) भना-2 शाहि विषयानी Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवषिणो-टीका सू. ३० ध्यानभेदवर्णनम् - २८१ संपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ २, आयंकसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ ३, परिजूसियकामभोगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ ४ । अदृस्स णं झाणस्स चत्तारि लमण्णागए यावि भवइ ' मनोजसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तस्तस्याऽविप्रयोगस्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति-मनोज्ञः-इष्टो यः शब्दादिः, त य सम्प्रयोगः-नयोगस्तेन सम्प्रयुक्तः सन् तस्य मनोज्ञशब्दादेरविप्रयोगस्मृतिः अवियोगचिन्ता, तया समन्वागतः संयुक्तश्रापि भवति । ३ – आयंकसंपयोगसंपउत्ते तस्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भव' आतङ्कसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तस्तस्य विप्रयोगम्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति-आतको रोगः, तस्य सम्प्रयोगः-संयोगः, तेन सम्प्रयुक्तः सन् तस्थाऽतङ्कस्य विप्रयोगस्मृतिः वियोगचिन्ता, तया समन्वागतश्चापि भवति । ४-'परिसियकामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ ' परिजुष्टकामभोगसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तस्तस्याऽविप्रयोगस्मृतिसमन्वागतथापि भवति, परि-समन्तात् , दुष्ट: सेवितः-प्रीतो वा यः कामभोगस्तस्य संप्रयोगेश संप्रयुक्तः सन् , तस्य कामभोगस्य अविप्रयोगस्मृतिः अवियोगचिन्ता तया, समन्वागतः= संयुक्तश्चापि भवति । 'अट्टस्स णं झाणम्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' आर्तस्य खलु ध्या- . भवइ) मनोज- इष्ट शब्दादिक विषयों की संप्राप्ति होने पर उनके अविप्रयोग-वियोग न होने का वारंवार चिन्तवन करना सो वह इष्टसंयोगज आर्तध्यान है। (आयंकसंपओगसंपउत्ते तम्स विप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ) आतंक-रोग के संप्रयोग-संयोग होने पर जो उसके वियोग होने का वारंवार चिन्तवन करना है वह वेदनाजन्य आर्त्तध्यान हैं । ( परिजसियकामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ ) सेवित कामभोगों की प्राप्ति होने पर उनका कभी भी वियोग न हो ऐसा विचार करना सो यह चौथा आर्तध्यान है । ( अट्टस्स णं जाणस्स चत्तारि लक्खणा સંપ્રાપ્તિ થતાં તેમને અવિપ્રોગ-વિયોગ ન થાય તેનું વારંવાર ચિંતવન ४२ ते राष्टस योगन्य मातध्यान छे. (आयंकसंपओगसंपउत्ते तस्स विप्पओग सइसमण्णागए यावि भवइ) सात-रोगना सप्रयोग-संयोग थत तना વિગ થવાનું વારંવાર ચિંતવન કરે છે તે વેદનાજન્ય આર્તધ્યાન છે. (परिजूसियकामभोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पओगसइसमण्णागए यावि भवइ) સેવન કરેલ કામોની પ્રાપ્તિ થતાં તેમને કદી પણ વિગ ન થાય Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ औपपातिकसूत्रे क्खणा पण्णत्ता; तं जहा-कंदणया १, सोयणया २, तिप्पणया ३, विलवणया ४ । रुद्दज्झाणे चउव्विहे पण्णत्ते; तं जहाहिंसाणुबंधी १, मोसाणुबंधी २, तेणाणुबंधी ३, सारक्खणानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा' तद्यथा--१ 'कंदणया' क्रन्दनता-सशब्दाऽश्रुप्रक्षेपरूपा । २ 'सोयणया' शोचनता-मानसग्लानिरूपा । ३ 'तिप्पणया' तेपनता निश्शब्दाश्रुमोचनम् । ४ 'विलवणया' विलपनता-पुनः पुनः स्वकृताशुभकर्मणामुच्चारणम् , “कीदृशं पूर्वजन्मनि मया दुष्कृतमाचरितं यत्फलमधुनेदृशं मया लभ्यते” इत्यादिरूपम् । ‘रुद्दज्झाणे चउबिहे पण्णत्ते' रौद्रध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , 'तं जहा' तद्यथा-१ 'हिंसाणुबंधो' हिंसानुबन्धि–हिंसां परप्राणहरणरूपामनुबध्नाति=करोतीति हिंसानुबन्धि,२-'मोसापण्णत्ता ) इस आर्तध्यान के ४ चार लक्षण बतलाए गये हैं; ( तं जहा) वे इस प्रकार हैं-(कंदणया सोयणया तिप्पणया विलवणया) क्रन्दनता-शब्दसहित आंसुओं को निकालते हुए रोना (१)। शोचनता-मानसिक ग्लानि करना (२) । तेपनता-ऐसा रोदन हो कि जिसमें रोने की आवाज आवे नहीं; परन्तु आँसू निकलते रहें (३) । विलपनतावारंवार अपने किये हुए कर्मों का जिसमें चिन्तवन करते हुए उच्चारण हो, जैसे-मैंने पूर्वजन्म में कैसे पाप किये, जिसका फल मुझे भोगना पड़ रहा है; ये सब आर्तध्यान के लक्षण हैं । इन लक्षणों से आर्तध्यान की सत्ता जानी जाती है । ( रुद्दज्झाणे चउबिहे पण्णत्ते) रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है, जैसे-(हिंसाणुवंधी, मोसाणुबंधी, तेणाणुबंधी, सारक्खणाणुबंधी) जिस ध्यान में हिंसा का अनुबंध हो वह हिंसानुबंधी रौद्रध्यान है। सो विया२ ४२यो त । याथु सात ध्यान छ. (अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता ) मा मात ध्यानना यार सक्षण यावेi छ, (तं जहा ) तमा प्ररेछ-( कंदणया सोयणया तिप्पणया विलवणया ) अन्न-२०६ साथे मांसु उतi २७ (१), शयन-मानसि सानि ४२वी (२), તેપન–એવું દિન થાય કે જેમાં રેવાને અવાજ આવે નહિ, પરંતુ આંસુ વહેતાં રહે (૩), વિલપન–વારંવાર પોતે કરેલાં કર્મોનું ચિંતવન કરતાં મોટેથી વિલાપ કરે, જેમકે મેં પૂર્વ જન્મમાં કેવા પાપ કર્યો કે જેનું ફળ મારે ભેગવવું પડે છે. આ બધાં આર્તધ્યાનનાં લક્ષણ છે. એ લક્ષણથી આર્તધ્યાનની सत्ता one सेवाय छे. ( रुद्दज्झाणे चउविहे पण्णत्ते ) शैद्रध्यान या प्रा२नु छ, (तं जहा) भ3-(हिंसाणुबंधी, मोसाणुबंधी,तेणाणुबंधी, सारक्खणाणुबंधी) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३० ध्यानभेदवर्णनम् २८३ णुबंधी ४। रुदस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहाउसण्णदोसे १, बहुदोसे २, अण्णाणदोसे ३, आमरणंतदोसे णुबंधी' मृषानुवन्धि-मृषा=असत्यं, तदनुबध्नाति-करोतीति मृषानुबन्धि,असत्यवचनेन धर्मोपधातकुमार्गप्ररूपगनिन्दादिकारकमित्यर्थः । ३-'तेगाणुबंधी' स्तैन्यानुबन्धि अदत्तादानकारकम्,४ 'सारकावणाणुबंधी' संरक्षणानुबन्धि-विषयसाधनस्य धनादिकस्य संरक्षणे अनुबन्धः= सम्बन्धोऽस्यास्तीति तत् संरक्षणानुबन्धि । 'रुदस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' रौद्रस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लकगानि प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा' तद्यथा -'उसण्णदोसे' बाहुल्यदोषः-अनुपरततया बाहुल्येन प्राचुर्येण दोषो हिंसाऽनृताऽदत्ताऽऽदानसंरक्षणानामन्यतमः-बाहुल्यदोषः । 'उसन्न' इति बाहुल्यार्थे देशीयशब्दः ।१। तथा-'बहुदोसे' बहुदोषः-बहुषु हिंसादिषु प्रवृत्तिलक्षणो दोषो बहुदोषः ।२। 'अण्णाणदोसे' अज्ञानदोषः-अज्ञानात्-कुशास्त्रादिसंस्कारात् हिंसादिषु अधर्मस्वरूपेषु धर्मबुद्धया प्रवृत्तिलक्षणो दोषोऽज्ञानदोषः ।३। जिस ध्यान में मृषा-झूठ का अनुबंध हो वह मृषानुबंधी रौद्रध्यान है । जिस ध्यान में चोरी करने का अनुबंध हो वह स्तैन्यानुबंधी रौद्रध्यान है । जिस ध्यान में विषय के साधनभूत धनादिक के संरक्षण का अनुबंध है वह संरक्षणानुबंधी रौद्रध्यान है। (रुदस्स णं झाणस्स चत्तारिलक्खणा पण्णत्ता) इस रौद्रध्यान के ४ लक्षण कहे हुए हैं, जैसे-(उसण्णदोसे, बहुदोसे, अण्णाणदोसे आमरणंतदोसे ) हिंमा, झूठ, चोरी आदि पापकर्मों में से किसी एक पापकर्म में जो बाहुल्येन प्रवृत्ति होना सो उसन्नदोष है। हिंसादिक सभी पाप कर्मों में जो बाहुल्येन प्रवृत्ति होना सो बहुदोष है। कुशास्त्रादिक के संस्कारजन्य अज्ञान से हिंसादिकों में धर्मबुद्धि से प्रवृत्त होना सा अज्ञानदोष है । मरणपर्यन्त पश्चात्ताप नहीं करते हुए हिंसाજે ધ્યાનમાં હિંસાને અનુબંધ હોય તે હિંસાનુબંધી રૌદ્રધ્યાન છે. જે ધ્યાનમાં મૃષા–જુઠાણાને અનુબંધ હોય તે મૃપાનુબંધી રૌદ્રધ્યાન છે. જે ધ્યાનમાં ચોરી કરવાને અનુબંધ હોય તે સ્તન્યાનુબંધી રૌદ્રધ્યાન છે. જે ધ્યાનમાં વિષયના સાધનભૂત ધન આદિકના સંરક્ષણને અનુબંધ છે તે સંરક્ષણાનુબંધી રૌદ્રધ્યાન छे. (रुद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता) २॥ शैद्रध्यानना या सक्षy ai छ;(तं जहा) भ3-(उसण्णदोसे, बहुदोसे, अण्णाणदोसे, आमरणंतदोसे) डिसा, જુઠાણું, ચેરી, આદિ પાપકર્મોમાંથી કોઈ પણ એક પાપકર્મમાં જે બળવાન પ્રવૃત્તિ થવી તે ઉસદોષ છે. હિંસાદિક બધાં પાપકર્મોમાં જે બળવાન પ્રવૃત્તિ થવી તે બહુદોષ છે. કુશાસ્ત્રાદિકનાં સંસ્કારજન્ય અજ્ઞાનથી હિંસાદિકમાં ધર્મબુદ્ધિથી પ્રવૃત્તિ થવી તે અજ્ઞાનદેષ છે. મરણપર્યન્ત પશ્ચાત્તાપ કર્યા વગર હિંસાદિક કર્મોમાં Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ औपपातिकसूत्र ४। धम्मज्झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते; तं जहा-आणा'आमरणंतदोसे' आमरणान्तदोषः-मरणमेव अन्तो मरणान्तः, मरणपर्यन्तम् असञ्जातानुतापस्य कालशौकरिकादेरिव या हिंसादिषु प्रवृत्तिः सा प्रवृत्तिरेव आमरणान्तदोषः । ४ । एषु ध्यानेषु आर्तरौद्रे त्याज्ये धर्मशुक्ले तु ग्राह्ये । 'धम्मज्झाणे चउविहे चउप्पडायारे पण्णत्ते' धर्मध्यानं चतुर्विधं चतुष्प्रत्यवतारं प्रज्ञप्तम् । धर्मध्यानं चतुर्विधं-चतस्रो विधाः स्वरूपलक्षणालम्बनानुप्रेक्षारूपाः प्रकारा यस्मिन् तत् तथोक्तम् । चतुष्प्रत्यवतारं च-स्वरूपादिषु एकैकस्य चतुष्प्रकारतया प्रत्यवतारो विचारणीयत्वेन अवतरणं यस्मिन् तत् , प्रत्येकं चतुर्विधमित्यर्थः, प्रज्ञप्तम् । तत्र स्वरूपस्य चातुर्विध्यमाह-तद्यथा-'आणाविचए' आज्ञाविचयम्-आज्ञा=जिनप्रवचनं, तस्या विचयः पर्यालोचनं यत्र तत्तथा, आज्ञागुणाऽनुचिन्तनमित्यर्थः, आज्ञामेवं चिन्तयेत्-आज्ञा भगवतः सर्वज्ञस्य पूर्वापरविशुद्धा निरवशेषजीवकायहिताऽनवद्या महार्था महानुभावा निपुणजनदिकों में प्रवृत्तिशील रहना सो आमरणान्तदोष है । इन चार ध्यानों में आर्त्त-रौद्र-ध्यान छोड़ने योग्य है, और धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान ये दो ध्यान ग्राह्य हैं । अब धर्मध्यान का भेद कहते हैं-(धम्मज्झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्त ) धर्मध्यान-स्वरूप, लक्षण, आलम्बन, एवं अनुप्रेक्षा के भेद से चार प्रकार का है, इन चारों में भी एक एक के चार चार भेद होते हैं । इस प्रकार कुल इसके १६ भेद हो जाते हैं । धर्मध्यान के चार स्वरूप ये हैं-- ( आणाविचए, अवायविचए, विवागविचए, संठाणविचए, ) अज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, और संस्थानविचय । तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का जिसमें विचार किया जाय वह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। तीर्थकर प्रभुकी आज्ञा का चिन्तवन इसमें इस प्रकार किया जाता है भगवान् का आज्ञारूप प्रवचन पूर्वापर में निर्दोष है, निरवशेष जीवों का हितकर्ता પ્રવૃત્તિશીલ રહેવું તે આમરણાંત દોષ છે. આ ચારેય ધ્યાનમાં આતં–રૌદ્રધ્યાન છોડવા ગ્ય છે અને ધર્મધ્ય ન તેમજ શુક્લધ્યાન એ બે ધ્યાન ગ્રહણ ४२१॥ योग्य छ. वे धमध्यानना ४२ ४ छ-(धम्मज्झाणे चउविहे चउप्प. डोयारे पण्णत्ते ) मध्यान, २१३५, सक्ष, न तभ०४ २५नुप्रेक्षाना मेथी ચાર પ્રકારનું છે. આ ચારમાં પણ એકએકના ચાર ચાર ભેદ થાય છે. से रीते स तेना सोण (१६) लेह गय छे. (जहा) धर्मध्यानना यार ४ २१३५ २॥ छ-(आणाविचए, अवायविचए, विवागविचए, संठाणविचए ) २माशाવિચય, અપાયવિચય, વિપાકવિચય અને સ્થાનવિચય, તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞાને જેમાં વિચાર કરવામાં આવે તે આજ્ઞાવિચય ધર્મધ્યાન છે. તીર્થકર પ્રભુની આજ્ઞાનું ચિંતવન એમાં આ રીતે કરાય છે ભગવાનનું આજ્ઞારૂપ પ્રવચન પૂર્વાપરમાં નિર્દોષ છે, તમામ જીવોને હિતકર્તા છે, અનવદ્ય છે, Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सु. ३० ध्यानभेदवर्णनम् २८५ विचए १, अवायविचए २, विवागविचए ३, संठाणविचए ४। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-आणाविज्ञेया द्रव्यपर्यायप्रपञ्चबोधिनी अनाद्यनन्ता भवप्रपञ्चमोचनी नरकनिगोदादिदुःखविध्वंसिनी कर्मग्रन्थिभेदिनी विद्यते । २-'अबायविचए' अपायविचयम्-आपाया-रागद्वेषादिजन्या अनर्थास्तेषां विचयो यत्र तत्तथा, विषयदोषाऽनुचिन्तनमित्यर्थः । ३ 'विवागविचए' विपाकविचयम्-विपाकः कर्मफलं, तस्य विचयो यत्र तत्तथा, कर्मफलाऽनुचिन्तनमित्यर्थः । ४'संठाणविचए' संस्थानविचयम्-संस्थानानि लोकद्वीपसमुद्राद्याकृतयः, तेषां विचयो यत्र तत् तथा, 'धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्षणा पण्णत्ता'धर्मस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा' तद्यथा-१-'आगारुई' आज्ञारुचिः-आज्ञा-सर्वज्ञवचनरूपा, तया है, अनवद्य है, गंभीर है, प्रभावशाली है, निपुणजनविज्ञेय है, द्रव्य एवं पर्यायों का बोधक है, अनादि एवं अनन्त है, लंसार का अन्त करने वाला है, नरक एवं निगोदादिक के दुःखों का विनाशक है और कर्मग्रन्थि का उच्छेदक है ॥१॥अपायविचय-रागद्वेष आदि से जन्य अनर्थों का नाम अपाय है । इनका विचारना जिसमें होता है-अर्थात् शब्दादि विषयों के दोषों का अनुचिन्तन जिसमें किया जाता है वह अपायविचय धर्मध्यान है ॥२॥ विपाकविचय-कर्मफल का नाम विपाक है, इसका चिन्तन करना अर्थात् कर्म से बद्ध हो आत्मा चतुर्गतिक संसार में भ्रमण करता है ऐसा जो विचारना सो विपाकविचय है ॥३॥ संस्थानविचय--चौथा भेद है, संस्थानका अर्थ लोकद्वय एवं समुद्रादिक का आकार है, इनका विचार करना सोरस्थानविचय है।॥४॥(धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता) ગંભીર છે, પ્રભાવશાલી છે, નિપુણ લોકથી જાણવા ગ્ય છે, દ્રવ્ય તેમજ પર્યાનું બોધક છે, અનાદિ અનંત છે, સંસારને અંત કરવાવાળું છે, નરક તેમજ નિગોદ આદિકનાં દુઃખનું વિનાશક છે, કર્મની ગ્રન્થિનું ઉછે. દક છે (૧). અપાયવિચય-રાગદ્વેષ આદિથી થતા અનર્થોનું નામ અપાય છે. તેને વિચાર જેમાં કરાય છેઅર્થાત્ શબ્દાદિ વિષયોના દેનું અનુચિંતન જેમાં કરાય છે તે અપાયરિચય ધર્મધ્યાન છે (૨). વિપાકવિચય-કર્મફલનું નામ વિપાક છે. તેનું ચિંતન કરવું, અર્થાત્ કર્મથી બંધાયેલે આત્મા ચતુર્ગતિક સંસારમાં ભ્રમણ કરે છે. એમ જે વિચારવું તે વિપાકવિચય છે (૩). સંસ્થાનવિચય ચિા પ્રકાર છે. સંસ્થાનનો અર્થ લોક, દ્વીપ તેમજ સમુદ્રાદિકને આકાર છે; તેને વિચાર કરવો તે સંસ્થાનવિચય છે (૪). (धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता) मध्यानना यार सक्षy Bai छ. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे रुई १, णिसग्गरुई २, उवएसरुई ३, सुत्तरूई ४। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता; तं जहा-वायणा १, पुच्छणा धर्मानुष्ठानगता रुचिः श्रद्धानम् । २-'णिसगाई' निसर्गरुचिः-स्वभावतस्त वश्रद्धानम् । ३-'उवएसरुई' उपदेशरुचिः साधूपदेशात्तत्त्व प्रदानम् । ४-'सुत्तरुई' सूत्ररुचिः सूत्रे-आगमे रुचिः श्रद्धानम् । आज्ञाऽऽराधनविषया रुचिः-अज्ञारुचिः 'आज्ञा पूर्वापरविशुद्राऽनवद्या'-एतद्रूपा याऽऽगमविषया रुचिः सा सूत्ररुचिरिति तयोर्भेद । 'धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता' धर्मस्य खलु ध्यानस्य चत्वार्यालम्बन नि प्रज्ञप्तानि-धर्मध्यानशिखरारोहणार्थ यान्यालम्ब्यन्ते-आश्रीयन्ते तान्यालम्बनानि चतुर्विधानि कथितानि, 'तंजहा' तद्यथा-१-'वायणा' धर्मध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं; (तं जहा) वे इस प्रकार से हैं-(आणाई,णिसग्गरुई, उवएसरुई, सुत्तरुई ) आज्ञारुचि, निसर्ग:चि, उपदेशरुचि, सूत्ररुचि । तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के आराधन करने में श्रद्धा का उत्पन्न होना आज्ञारुचि है १ । स्वभाव से जिनप्ररूपित तत्त्वों में श्रद्धा होना निसर्गरुचि है - । साधु-मुनिराजों के उपदेश से तत्त्वों में श्रद्धा होना उपदेशरुचि है ३ । जैनागमों में पद्धा होना मूत्ररुचि है ४ । आज्ञारुचि और सूत्ररुचि में क्या भेद है ? इसका उत्तर यह है के तीर्थंकर भगवान की आज्ञा का आराधन करना-आज्ञारुचि है, तथा तीर्थंकर भगवान् को आज्ञा पूर्वापरविशुद्ध है, अनाध है-इस प्रकार आगम के विषय में दृढश्रद्धा होना-मूत्ररुचि है । यही इन दोनों में भेद है। (धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता) धर्मध्यान के आलंबन ४ चार हैं । ये आलंबन धर्मध्यान के शिखर पर चढ़ने के लिये जीवों को सहारे का काम देते हैं, (तं जहा) (तं जहा) ते भारे -(आणाई, णिस गरुई, उबएसमई, सुत्तराई ) यासाथि, નિસર્ગ રુચિ, ઉપદેશરુચિ, સૂત્રરુચિ. તો કર ભગવાનની આજ્ઞાનું આરાધન કરવામાં શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થવી તે આજ્ઞાર એ છે ૧, સ્વભાવથી જ જિનપ્રરૂપિત તોમાં શ્રદ્ધા થવી તે નિસર્ગ રુચિ છે ? સાધુ મુનિરાજોના ઉપદેશથી તેમાં શ્રદ્ધા થવી તે ઉપદેશચિ છે ૩, જૈન આગમમાં શ્રદ્ધા થવી તે સૂત્રરૂચિ છે , આજ્ઞારુચિ અને સૂત્રરુચિમાં શું ભેદ છે ? તેનું ઉત્તર આ છે કે–નીર્થકર ભગવાનની આજ્ઞાનું આરાધન કરવું તે આજ્ઞારુચિ છે, તથા-તીર્થકર ભગ વાનની આજ્ઞા પૂર્વાપરવિશુદ્ધ છે, અનવદ્ય છે. એ પ્રકારે આગમના વિષયમાં दृढ श्रद्धा थवी ते सूत्र थि छ. २0 ४ सन्नेमा तत छे. (धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता) धर्मध्यानां मारामन या२ छे. ते मन ધર્મધ્યાનના શિખર ઉપર ચડવા માટે જીવોને આશ્રય- આધારનું કામ કરી દે Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सू. ३० ध्यानभेदवर्णनम् २८७ २, परियट्टणा ३, धम्मकहा । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-अणिचाणुप्पेहा १, असरणाणुप्पेहा २, एगत्ताणुप्पेहा ३, संसाराणुप्पेहा ४ । वाचना, २ 'पुच्छणा' प्रच्छना, ३–'परियट्टणा' परिवर्तना, ४-'धम्मकहा' धर्मकथा, 'धम्मस णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ' धर्मस्थ खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षाः प्रज्ञताः 'तं जहा तद्यथा-'अणिचागुप्पेहा' अनित्यानुप्रेक्षा=अनित्यचिन्तनिका, तथा चोक्तम् " कायः संनिहितापायः, संपदः दमापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भङ्गुरम् ” ॥ १ ॥ इति ॥ वे इस प्रकार हैं-(वायणा) वाचना १, (पुच्छणा) प्रच्छना २, (परियट्टणा) परिवर्तना ३, (धम्मकहा) धर्मकथा ४ । इनका स्वरूप पीछे कह दिया गया है । (धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ) धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षा कही हैं, (तं जहा) वे ये है-(अणिचाणुप्पेहा) अनिः नुप्रेक्षा-इसमें समस्त पौद्गलिक पदार्थों का अनित्यरूप से चिन्तवन किया जाता है; जैस कायः संनिहितापायः, संपदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्यादि भङ्गरम् ॥१॥ इस शरीर के पीछे अपाय-रोगा लगा हुआ है । इसलिये यह नष्ट होने वाला है । यह धनधान्यादि सम्पत्ति, आपत्तियों का स्थान है । क्यों कि इसीके कारण स्त्री, पुत्र, मित्र, स्वजन, परिजन और ग्रामजन आदि से शत्रुता होती है, लड़ाई होती है, अन्त में छे, (तं जहा) ते २१॥ ४ारे -(वायणा) वाय-aiय १, (प्रच्छना) प्रच्छनापु० २, (परियट्टणा) परिवतना-2वृत्ति ४२वी 3, (धम्मकहा) धर्मथा ४, सेभनु स्व३५ पाछ वा आयु. (धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ) यमध्याननी या२ मनु प्रेक्षा ४डी छ;( तं जहा) ते २मा प्रमाणे छ-(अणिच्चाणुप्पेहा) नित्यानुप्रेक्षा-मामा समस्त पौड्गति पहानु અનિત્યરૂપથી ચિંતવન કરવામાં આવે છે. જેમકે – कायः संनिहितापायः, संपदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पादि भङ्गरम् ॥ १॥ આ શરીરની પાછળ અપાય–ગ-આદિ લાગી રહેલા છે, તે માટે તે નાશ પામવાવાળું છે. આ ધનધાન્યાદિ–સંપત્તિ આપત્તિઓનું સ્થાન છે Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सू 'असरणाणुप्पेहा' अशरणाऽनुप्रेक्षा- अशरणत्वपर्यालोचना अस्थां संसृतौ न कोऽपि कस्यापि रक्षकः एतद्रूपा, जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते जिनवरवचनादन्यन्नास्ति शरणं क्वचिल्लोके - इत्येवमशरणस्य = अत्राणस्य अनुप्रेक्षा = पर्यालोचना | ૨૮૮ प्राण तक खोना पड़ता है । जिन जिन अभिलपित प्रिय स्त्री, पुत्र, धन आदि का समागम अर्थात् प्राप्ति होती है, वे सब बिछुड़ने वाले हैं। क्यों कि संयोग के बाद वियोग अवश्य होता है | अधिक क्या; जो जो उत्पन्न होता है, वह सब नियमतः नष्ट भी होता ही है; क्यों कि उत्पत्तिशील सभी पदार्थ विनश्वर अर्थात् नाशवान् होते हैं । ऐसे विनश्वर पदार्थों में फिर आसक्ति और प्रेम क्यों ! उचित यह है कि जो धर्म कभी भी नष्ट होने वाला नहीं है, उसी पर मुझे आकर्षण होना चाहिये, इन विनश्वर सांसारिक पदार्थों पर नहीं ! इस प्रकार सांसारिक समस्त पदार्थों के प्रति अनित्यत्व का चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है ॥ १ ॥ ( असरणाणुप्पेहा ) अशरणानुप्रक्षा -- संसार में इस जीव का कोई भी शरण नहीं है। जन्म, जरा एवं मरण के भय से व्याकुल हुए एवं व्याधि और वेदना से ग्रस्त बने हुए इस प्राणी का यदि लोक में कोई शरण है तो वह एक जिनवर का धर्म ही है, और कोई नहीं ! इस प्रकार से इस अनुप्रेक्षा में विचार किया जाता है । कहा भी है કેમકે તેના જ કારણે સ્ત્રી, પુત્ર, મિત્ર, સ્વજન, પરિજન અને ગામના લેાકા આદિ સાથે શત્રુતા થાય છે, લડાઇ (ઝગડા) થાય છે, આખરે પ્રાણ સુધી ખાવા પડે છે. જે જે અભિલષિત પ્રિય સ્ત્રી, પુત્ર, ધન આદિને સમાગમ અર્થાત્ પ્રાપ્તિ થાય છે તે બધાં વિખૂટા પડનાર છે, કેમકે સંચાગ પછી વિયાગ અવશ્ય થાય છે, વધારે શું ? જે જે ઉત્પન્ન થાય છે તે બધું નિયમપ્રમાણે નાશ પણ પામે છે જ, કેમકે ઉત્પત્તિશીલ તમામ પદાર્થ વિનશ્વર અર્થાત નાશવાન હાય છે; તેા એવા વિનશ્વર પાર્થાંમાં વળી આસક્તિ અને પ્રેમ શા માટે ? ઉચિત તા એ છે કે જે ધમકી પણ નાશ પામનાર નથી તે ઉપર જ મને આકષઁણુ થવુ જોઇએ, આ વિનશ્વર સાંસારિક પદાર્થો પર નહિ. એ પ્રકારે સાંસારિક તમામ પદાર્થ માટે અનિત્યપણાનું ચિંતન કરવુ તે અનિત્યાનુપ્રેક્ષા છે (૧). (સરળાનુવૃંદા) અશરણાનુપ્રેક્ષા-સંસારમાં આ જીવનું કાઇ પણ શરણુ નથી. જન્મ, જરા તેમજ મરણના ભયથી વ્યાકુળ થતાં તેમજ વ્યાધિ અને વેઢનાથી ગ્રસ્ત બની જતાં આ પ્રાણીનુ' જો કાઈ શરણ (આશ્રય) હોય તે તે એકમાત્ર આ લેાકમાં જિનવરના ધર્મ જ છે, બીજું કાઈ નહિ. આ પ્રકારના આ અનુપ્રેક્ષામાં વિચાર કરવામાં આવે છે. કહ્યુ પણ છે— Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषवर्षिणी-टीका सू. ३० ध्यानभेदवणन म् २८९ कलत्रमित्रपुत्रादि,-स्नेहग्रहनिवृत्तये । इति शुद्धमतिः कुर्यादशरण्यत्वभावनाम् ॥१॥ अशरणभावना चैवम् इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो तदन्तकातङ्के कः शरण्यः शरीरिणाम् ॥१॥ पितुर्मातुः स्वसुर्कीतन्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥२॥ कलत्रमित्रपुत्रादि,-स्नेहग्रहनिवृत्तये । इति शुद्धमतिः कुर्यादशरण्यत्वभावनाम् ॥१॥ शुद्धबुद्धियुक्त भव्य प्राणी स्त्री, पुत्र, मित्र, स्वजन-सम्बन्धी आदिकों के स्नेह-बन्धन से मुक्त होने के लिये इस प्रकार से अशरणभावना की चिन्ता करे। अशरणभावना इस प्रकार से करनी चाहियेइन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो ! तदन्तकातङ्के, कः शरण्यः शरीरिणाम् ॥१॥ ये महापराक्रमी अजेय इन्द्र, उपेन्द्र आदियों को भी जब कालने कवलित करलिया, तो; अरे ! इस संसार में साधारण मनुष्य की फिर गणना ही क्या है ? उस सर्वविजयी काल के आने पर मनुष्य का क्या कोई त्राण, शरण हो सकता है ? कोई नहीं ! ॥१॥ पितुर्मातुः स्वसुधीतुस्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः, कर्मभिर्यमसद्मनि ॥२॥ ___ कलत्रमित्रपुत्रादि-स्नेहग्रहनिवृत्तये । ___ इति शुद्धमतिः कुर्यादशरण्यत्वभावनाम् । १॥ શુદ્ધબુદ્ધિયુક્ત ભવ્ય પ્રાણી સ્ત્રી, પુત્ર, મિત્ર, સ્વજન, સંબંધી આદિના નેહ–બંધનથી મુક્ત થવા માટે આ પ્રકારે અશરણભાવનાની ચિંતા કરે. અશરણભાવના આ પ્રકારે કરવી જોઈએ— इन्द्रोपेन्द्रादयोऽयेते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो! तदन्तकातङ्के, कः शरण्यः शरीरिणाम् ॥ १॥ એ મહાપરાક્રમી અજેય ઈન્દ્ર, ઉપેન્દ્ર આદિઓને પણ જ્યારે કાળ કોળિએ કરી ગયો, તે અરે ! આ સંસારમાં સાધારણ મનુષ્યની વળી ગણત્રી જ શું છે? તે બધાને વિજેતા એ કાલ આવી જતાં મનુષ્યનું શું કઈ રક્ષણ કે શરણ થઈ શકે છે? કઈ જ નહિ (૧). Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० औपपातिकसूत्रे शोचन्ति स्वजनानन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः । नेष्यमाणं न शोचन्ति स्वात्मानं मूढबुद्धयः ॥३॥ संसारे दुःखदावाग्निज्वलज्वालाकरालिते । वने मृगार्मकस्येव शरणं नास्ति देहिनः ॥४॥ असहाय जीव अपने कर्मों के द्वारा मृत्यु के समीप पहुँचाये जाते हैं। अर्थात्माता, पिता, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, स्त्री आदि के देखते ही देखते जीव को उसका स्वकृत कर्म मृत्यु के लिये समर्पित कर देता है, उस समय उस जीव के त्राण करने में माता पिता आदि कोई भी समर्थ नहीं होते हैं, जीव अकेला ही मृत्यु प्राप्त कर स्वकृत कर्मानुसार फल भोगता है ॥२॥ शोचन्ति स्वजनानन्तं, नीयमानान् स्वकर्मभिः। नेष्यमाणं न शोचन्ति, स्वात्मानं मूढबुद्धयः ॥३॥ अज्ञानी जीव स्वकृत कर्मों के द्वारा मरते हुए स्वजनों के लिये शोक करता है, परन्तु वह अज्ञानी जीव अपने लिये नहीं सोचता है, जो वह स्वयं अपने कर्म के द्वारा स्वयं मृत्यु के निकट पहुँच रहा है ॥३॥ संसारे दुःखदावाग्नि,-ज्वलज्ज वालाकरालिते। वने मृगार्भकस्येव, शरणं नास्ति देहिनः॥४॥ पितुर्मातुः स्वसुर्धातु-स्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः, कर्मभिर्यमसद्मनि ।।३।। પિતા, માતા, બહેન, ભાઈ, પુત્ર આદિના જોતજોતામાં જ અસહાય જીવ પિતાનાં કર્મોદ્વારા મૃત્યુની સમીપે જાય છે, અર્થા–માતા, પિતા, ભાઈ, બહેન, પુત્ર, પુત્રી, સ્ત્રી આદિના જોતજોતામાં જ જીવને તેનું પિતાનું કર્મ મૃત્યુને સમર્પણ કરી દે છે, તે સમયે તે જીવનું રક્ષણ કરવામાં માતા પિતા આદિ કોઈપણ સમર્થ થતા નથી. જીવ એકલો જ મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરીને સ્વકૃત (પિત કરેલાં) કર્માનુસાર ફળ ભેગવે છે (૨). शोचन्ति स्वजनानन्तं, नीयमानान् स्वकर्मभिः । नेष्यमाणं न शोचन्ति, स्वात्मानं मूढबुद्धयः ॥२॥ અજ્ઞાની જીવ સ્વકૃત કર્મો દ્વારા મરી જતા સ્વજને માટે શેક કરે છે, પરંતુ તે અજ્ઞાની જીવ પિતાને માટે નથી વિચાર કરતા કે તે પોતે પિતાનાં शुभ द्वारा मृत्युनी पासे पांची २ा छ (3). संसारे दुःखदावाग्नि-ज्वलज्ज्वालाकरालिते। वने मृगार्भकस्येव, शरणं नास्ति देहिनः ॥४॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू. ३० भ्यानभेदवर्णनम् २९१ अन्यच्च-परलोकसहायार्थ पिता माता न तिष्ठतः । न पुत्रदारं न ज्ञातिधर्मस्तिष्ठति केवलः ॥१॥ ३-'एगत्ताणुप्पेहा' एकत्वानुप्रेक्षा-आत्मन एकाकित्वचिन्तनम् ; तथा चोक्तम् उत्पद्यते जन्तुरिहैक एव विपद्यते चैकक एव दुःखी । कर्मार्जयत्येकक एव चित्रम् आसेवते तत्फलमेक एव ॥१॥ जैसे प्रचण्ड दावाग्नि की ज्वाला से जलते हुए वन में मृग के बच्चे का कोई रक्षक नहीं होता है, उसी प्रकार दुःखरूपी दावाग्नि की प्रचण्ड चाला से जलते हुए इस संसार में आत्मा का कोई रक्षक नहीं है ॥४॥ और भी कहा है परलोकसहायार्थ, पिता माता न तिष्ठतः। न पुत्रदारं न ज्ञाति-धर्मस्तिष्ठति केवलः॥ माता-पिता परलोक में जीव को सहायता के लिये नहीं जाते हैं, न स्त्री, पुत्र, स्वजन-संबंधी आदि ही जाते हैं। मात्र एक धर्म ही परलोक में जीव के साथ जाता है॥४॥ ---इस प्रकार से चिन्तन करना सो अशरणानुप्रेक्षा है। ( एगत्ताणुप्पेहा) एकत्वानुप्रेक्षा-आत्मा अकेला है। इस प्रकार से चिन्तन करना-एकत्वानुप्रेक्षा है। एकत्वानुप्रेक्षा का चिन्तन इस प्रकार से करना चाहिये, जैसेकर्म के फलों को यह जीव अकेला ही भोगता है। माता पिता आदि कोई भी इस जीव को साथ नहीं देते हैं। सब अपने २ स्वार्थ के हैं। कहा भी है... જેમ પ્રચડ દાવાગ્નિની જ્વાલાથી બળતા વનમાં મૃગનાં બચ્ચાંઓને કઈ રક્ષક થતો નથી, તે જ પ્રકારે દુઃખરૂપી દાવાગ્નિની પ્રચંડ જવાલાથી બળતા આ સંસારમાં આત્માનો કઈ રક્ષક નથી (૪). વળી પણ કહ્યું છે – परलोकसहायार्थ, पिता माता न तिष्ठतः । न पुत्रदारं न ज्ञाति, धर्मस्तिष्ठति केवलः ।।५।। માતા-પિતા પરલોકમાં જીવની સહાયતા માટે જતા નથી, ન સ્ત્રી, પુત્ર, સ્વજન, સંબંધી આદિ પણ જાય છે. માત્ર એક ધર્મ જ પરલોકમાં જીવની સાથે જાય છે. આ પ્રકારે ચિંતન કરવું તે અશરણાનુપ્રેક્ષા છે (૫) (एगत्ताणुप्पेहा) त्यानुप्रेक्षा-मात्मा से छे सारे तिन કરવું તે એકવાનુપ્રેક્ષા છે. એકવાનુપ્રેક્ષાનું ચિંતન આ રીતે કરવું જોઈએ; જેમકે-કર્મના ફળને આ જીવ એકલો જ ભોગવે છે, માતા પિતા આદિ કોઈ પણ આ જીવને સાથ દેતા નથી. સૌ પોતપોતાના સ્વાર્થના છે. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ औपपातिकसूत्रे यजीवेन धनं स्वयं बहुविधैः कष्टैरिहोपाय॑ते, तत्संभूय कलत्रमित्रतनयै त्रादिभिर्भुज्यते ।। तत्तत्कर्मवशाच्च नारकनरस्वर्वासितिर्यग्भवे-, प्वेकः सैष सुदुःसहानि सहते दुःखान्यसंख्यान्यहो ॥२॥ उत्पद्यते जन्तुरिहैक एव, विपद्यते चैकक एव दुःखी। कर्माजत्येकक एव चित्रम् , आसेवते तत्फलमेक एव ॥१॥ . जीव अकेला ही इस संसार में उत्पन्न होता है, अकेला ही अपार दुःख का अनुभव करते हुए मृत्यु को प्राप्त होता है, अकेला ही वह नानाविध कर्मों का उपार्जन करता है, तथा अकेला ही उसका फल भोगता है ॥१॥ यजीवेन धनं स्वयं बहुविधैः कप्टैरिहोपार्जीते, तत्संभूय कलत्रमित्रतनयधीत्रादिभिर्भुज्यते । तत्तत्कर्मवशाच नारकनरस्वर्वासिनिर्यग्भवे, ब्वेकः सैष सुदुःसहानि सहते दुःग्वान्यसह्यान्यहो ॥२॥ जीव जो अनेकविध कष्टों से स्वयं धनोपार्जन करता है, उस धन का उपभोग स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, मित्र, स्वजन-सम्बन्धी आदि करते हैं। परन्तु धनोपार्जन करनेवाला वह जीव तो स्वकृत उन उन कर्मों के अनुसार देव मनुष्य नारक तिर्यक् आदि४ह्यु ५ छ. उत्पद्यते जन्तुरिहैक एव, विपद्यते चैकक एव दुःखी । कर्मार्जयत्येकक एव चित्रम्, आसेवते तत्फलमेक एव ॥१॥ જીવ એકલો જ આ સંસારમાં ઉત્પન્ન થાય છે, એટલે જ અપાર દુઃખનો અનુભવ કરતે કરતે મૃત્યુને પ્રાપ્ત થાય છે, એકલો જ તે અનેક પ્રકારનાં કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે, તથા એકલા જ તેનું ફળ ભોગવે છે (૧). यज्जीवेन धनं स्वयं बहुविधैः कप्टैरिहोपाय॑ते, तत्संभूय कलत्रमित्रतनयैर्धात्र दिभिर्भुज्यते । तत्तत्कर्मवशाच्च नारक-नर-स्वर्वासितिर्यग्भवे-- ध्वेकः सैष सुदुःसहानि सहते दुःखान्यसह्यान्यहो ॥२॥ જીવ જે વિધવિધ અનેક કષ્ટોથી પોતે ધન ઉપાર્જન કરે છે તે घनना उपास खी, पुत्र, मा-धु, भिव, स्व०४न--समधी माहि ४२ છે. પરંતુ ધને પાર્જન કરવાવાળે તે જીવ તે પોતે કરેલાં તે તે કર્મો અનુસાર દેવ મનુષ્ય નારક તિર્યકુ આદિ ભેમાં એકલો જ અતિદુસહ અનંત Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३० ध्यानभेदवर्णनम् जीवो यस्य कृते भ्रमत्यनुदिशं दैन्यं समालम्बते, धर्माद् भ्रश्यति वञ्चयत्यतिहितान् न्यायादपक्रामति । देहः सोऽपि सहात्मना न पदमप्येकः परस्मिन्भवे, गच्छत्यस्य ततः कथं वदत भोः ! साहाय्यमाधास्यति || ३ || स्वार्थैकनिष्टं स्वजनं स्वदेह, - मुख्यं ततः सर्वमवेत्य सम्यक् । सर्वस्य कल्याणनिमित्तमेकं धर्मं सहायं विदधीत धीमान् || इति|| भवों में अकेला ही अतिदुःसह अनन्त दुःखों को सहता रहता है । में कोई भी अपना नहीं है ॥ २ ॥ और भी कहा है जीवो यस्य कृते भ्रमत्यनुदिनं दैन्यं समालम्बते, धर्माद् भ्रश्यति वञ्चयत्यतिहितान् न्यायादपक्रामति । देहः सोऽपि सहात्मना न पदमप्येकः परस्मिन् भवे, गच्छत्यस्य ततः कथं वदत भोः ! साहाय्यमाधास्यति || ३ || जीव जिस शरीर के लिये चारों दिशाओं में घूमता फिरता रहता है, दीनता प्रदर्शित करता है, धर्म से भ्रष्ट होता है, अपने अत्यन्त हितैषियों को भी ठगता है, न्यायमार्ग चलित होता है, वह शरीर भी जीव के साथ परभव में एक पग भी नहीं साथ देता । हे भव्यो ! सोचो - विचारो ! यह शरीर तुम्हारी क्या सहायता कर सकता है, कुछ नहीं ॥ ३॥ और भी कहा है- स्वार्थेकनिष्ठं स्वजनं स्वदेह, - मुख्यं ततः सर्वमवेत्य सम्यक् । सर्वस्य कल्याणनिमित्तमेकं, धर्म सहायं विदधीत धीमान् ||४|| २९३ अहो ! इस संसार દુઃખાને સહન કરતા રહે છે. અહા ! આ સંસારમાં કઈ એ આપણું નથી (૨). બીજું પણ કહ્યુ છે— जीवो यस्य कृते भ्रमत्यनुदिनं दैन्यं समालम्बते, धर्माद् भ्रश्यति वञ्चयत्यतिहितन्ा न्यायादपक्रामति । देहः सोऽपि सहात्मना न पदमप्येकः परस्मिन् भवे, गच्छत्यस्य ततः कथं वदत भोः ! साहाय्यमाधास्यति || ३ || જીવ જે શરીરને માટે ચારેય દિશાઓમાં ભટકતા ફરતા રહે છે, દ્વીનતા બતાવે છે, ધથી ભ્રષ્ટ થાય છે, પેાતાના અત્યંત હિતેચ્છુઓને પણ ઠંગે છે, ન્યાયમાથી ચલિત થાય છે, તે શરીર પણ જીવની સાથે ५२ભવમાં એક ડગલુંએ સાથ આપતું નથી. હું ભળ્યેા ! શાચા-વિચારે ! આ શરીર તમારી શુ સહાયતા કરી શકશે ? કાંઇ पशु नहि ! Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ औपपातिकसूत्रे ४-'संसाराणुप्पेहा' संसारानुप्रेक्षा-संसारस्य चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु सरणलक्षणस्य अनुप्रेक्षा तथा चोक्तम् माता परभवे पुत्री सैव जन्मातरे स्वसा । पुनर्भार्या भवेत् सैव प्राणिनां गतिरीदृशी।। १॥ माता, पिता, स्त्री, पुत्र, स्वजन, संबंधी आदि सभी भी स्वार्थ के हैं, अपना शरीर स्वार्थ का ही है, इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य इन सभी विषयों पर अच्छी तरह विचार कर सभी का कल्याण करने वाले धर्म को ही सहायक बनावे ॥४॥ --इस प्रकार से चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है क्षण संसार के विषय में चिन्तन करना-संसारानुप्रेक्षा है। कहा भी है माता परभवे पुत्री, सैव जन्मान्तरे स्वसा। पुनर्भार्या भवेत् सैव, प्राणिनां गतिरीदृशी ॥१॥ इस भव में इस जीव की जो माता होती है, वह दूसरे भव में उसकी पुत्री हो जाती है, फिर भवान्तर में उसकी बहन हो जाती है, उसके बाद अन्य जन्म में फिर वह उसकी भार्या हो जाती है । अधिक क्या कहा जाय! संसार की कुछ ऐसी ही विचित्र दशा है ॥ १॥ और भी कहा हैફરી પણ કહ્યું છે स्वार्थंकनिष्ठं स्वजनं स्वदेह, मुख्यं ततः सर्वमवेत्य सम्यक् । सर्वस्य कल्याणनिमित्तमेकं, धर्म महायं विदधीत धीमान् ।।४।। माता, पिता, खी, पुत्र, १०४न-मधी माहिया वार्थ ना छे. પિતાનું શરીર પણ સ્વાર્થનું જ છે, તેથી બુદ્ધિમાન મનુષ્ય એ બધાં વિષ ઉપર સારી રીતે વિચાર કરી સર્વનું કલ્યાણ કરવવાળા ધર્મને જ સહાયક બનાવે. આ પ્રકારે ચિંતન કરવું તે એકવાનુ પ્રેક્ષા છે (૫). (संसाराणुप्पेहा) संसारानुप्रेक्षा-यतुतिसक्षyा॥ संसारन विषयमा ચિંતન કરવું તે સંસારાનુપ્રેક્ષા છે. કહ્યું પણ છે– माता परभवे पुत्री, सैव जन्मान्तरे स्वसा । पुनर्भार्या भवेत् सैव, प्राणिनां गतिरीदृशी ॥१॥ આ ભવમાં જે આ જીવની માતા હોય છે તે જ બીજા ભવમાં તેની પુત્રી થઈ જાય છે. વળી ભવાન્તરમાં તેની બહેન થઈ જાય છે. ત્યાર પછી બીજા જન્મમાં વળી તે તેની સ્ત્રી થઈ જાય છે. વધારે શું કહેવાય ! સંસારની કોઈ એવી જ વિચિત્ર દશા છે. (૧) ફરી પણ કહ્યું છે – Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३० ध्यानभेदवर्णनम् पिता परभवे पुत्रः स तु भ्राता भवान्तरे । पुनस्तातः पुनः पुत्रः प्राणिनां गतिरीदृशी ॥२॥ मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे ॥३॥ कृच्छ्रेण मेध्यमध्ये नियमिततनुभिः स्थीयते गर्भवासे, कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने चोपभोगः । २९५ पिता परभवे पुत्रः, स तु भ्राता भवान्तरे । पुनस्तातः पुनः पुत्रः, प्राणिनां गतिरीदृशी ॥२॥ इस संसार में जीव की पर्याय एकसी शाश्वत नहीं रहती है। जो इस भव में पिता होता है, वही परभव में पुत्र बन जाता है, एवं भवान्तर में भ्राता भी हो जाता है, पश्चात फिर पिता हो जाता है, फिर पुत्र हो जाता है । इस संसार में प्राणियों की ऐसी ही कुछ विचित्र गति है ||२|| और भी कहा है मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे || ३ | इस संसार में इस जीव के हजारों माता और पिता बन चुके हैं, हजारों पुत्रकलत्र हो चुके हैं । इस समय भी ये माता पिता पुत्र और कलत्र इस जावके हैं, और आगे भी ये होंगे ||३|| और भी कहा है कृच्छ्रेण मेध्यमध्ये नियमिततनुभिः, स्थीयते गर्भवासे, कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने चोपभोगः । पिता परभवे पुत्रः स तु भ्राता भवान्तरे । पुनस्तातः पुनः पुत्रः, प्राणिनां गतिरीदृशी ||२|| આ સંસારમાં જીવની પર્યાય એક જેવી કાયમ રહેતી નથી. જે આ ભવમાં પિતા હાય છે તે જ પરભવમાં પુત્ર થઇ જાય છે, તેમજ ભવાન્તરમાં ભાઇ પણ થઈ જાય છે.પછી પિતા થઈ જાય છે. વળી પુત્ર થઈ જાય છે. આ સંસારમાં પ્રાણિઓની એવી જ કઇં વિચિત્ર ગતિ છે (૨) ફ્રી પણ કહ્યું છે– मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च । संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे || ३ || આ સંસારમાં આ જીવના હજારા માતાપિતા થઇ ચુકયા છે. હજારા પુત્ર-કલત્ર થઇ ચુકયા છે. આ સમયે પણ એ માતા, પિતા, પુત્ર અને કલત્ર આ જીવના છે, અને આગળ પણુ આ માતા-પિતા આદિ આ જીવને થશે જ. (૩) વળી કહ્યું પણ છે. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सुक्कज्झाणे चउव्विहे उप्पडोयारे पण्णत्ते; तं जहा नारीणामप्यवज्ञा विलसति नियतं वृद्धभावेऽप्यसाधुः, संसारे रे मनुष्या! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ॥४॥ –इदं धर्मध्यानम् ॥ 'मुक्कज्झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते ' शुक्लध्यानं चतुर्विधं चतुष्प्रनारीणामप्यवज्ञा विलसति नियनं वृद्धभावेऽप्यसाधुः, संसारे रे मनुष्याः वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ||४|| अत्यन्त अपवित्र गर्भवास में रह कर यह जीव अनेक कष्टों को सहता रहता है । वहाँ इसका शरीर सिकुड़ा रहता है । यौवन अवस्था में यह जीव विषय भोग के समय स्त्रीवियोगजनित दुःख से अत्यन्त दुःखी होता है । स्त्री यदि जीवित रहे तो वृद्धावस्था में यह अपनी उसी स्त्री का असा अपमान सहन करता है । फिर हे भव्यों! तुम ही कहो, इस संसार में किंचिन्मात्र भी सुख है : कुछ भी नहीं ॥५॥ 1 इस प्रकार जीव को संसार के विषय में विचार करना चाहिये । इस प्रकार २९६ धर्मध्यान समझना चाहिये । अब शुक्लध्यान कहते हैं-(सुकज्झाणे चउव्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते) शुक्लध्यान चार प्रकार का है, और यह स्वरूप लक्षण, आलंबन एवं अनुप्रेक्षा के भेद से सोलह कृच्छ्रेणामेध्यमध्ये नियमिततनुभिः स्थीयते गर्भवासे, कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने चोपभोगः । नारीणामप्यवज्ञा विलसति नियतं वृद्धभावेऽप्यसाधुः, संसारे रे मनुष्याः ! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ||४|| અત્યંત અપવિત્ર ગવાસમાં રહીને આ જીવ અનેક કષ્ટોને સહન કરતા રહે છે. ત્યાં તેનુ શરીર સ ંકેાચાઈને રહે છે. જુવાન અવસ્થામાં આ જીવ વિષયભાગના સમયે સ્ત્રીવિયાગથી ઉત્પન્ન થતા દુઃખથી બહુ જ દુ:ખી થાય છે. સ્ત્રી જો જીવતી હાય તા પોતાની વૃદ્ધાવસ્થામાં તે પેાતાની તે જ સ્ત્રીનુ અસહય અપમાન સહન કરે છે. માટે હું ભળ્યેા ! તમે જ કહેા, આ संसारभां ४रायण सुख छे ? भराय नहि. (८) આ પ્રકારે જીવને સ‘સારના વિષયમાં વિચાર કરવા જોઇએ. એ પ્રકારે ધર્મ-ધ્યાન સમજવું જોઇએ. હવે શુકલધ્યાન કહે छे ( सुक्कज्झाणे चव्विहे उपोयारे पण्णत्ते) शुद्धध्यान यार अारनु छे, अने ते स्व३५ लक्षण, मास Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ पोयूषर्षिणी टीका सू. ३० ध्यानभेदवर्णनम् पुहुत्तवियके सवियारी १, एगत्तवियके अवियारि २, सुहुमकिरिए अप्पडिवाई ३,समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी४।सुक्कस्स णं झाणस्स त्यवतारं प्रज्ञतम् । यथा मलापगमेन शुचिताधर्माभिसम्बन्धात् पटः शुक्लः इत्युच्यते, तथा रागद्वेषमलापनयनाच्छुचिताधर्मसम्बन्धाद् ध्यानमपि शुक्लमित्युच्यते, तच्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद् यथा-'पुहुत्तवियक्के सवियारी' पृथक्त्ववितर्क सविचारि १, 'एगत्तवियके अवियारि' एकत्ववितर्कमविचारि २, 'मुहुमकिरिए अप्पडिवाई' सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति, ३, 'समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी' समुच्छिन्नक्रियमनिवर्तिं ४-इति । ____ तत्र पूर्वगतश्रुतज्ञानानुसारेण ध्येयविशेषगतोत्पादादिनानापर्यायाणां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकादिनानानयैरर्थव्यञ्जनयोगलंक्रान्तिसहितानुचिन्तनं पृथक्त्ववितर्कसविचारम् ॥१॥ प्रकार का कहा गया है। जिस तरह मैल के दूर होने से वस्त्र बिलकुल साफ हो जाता है और “शुक्लः पटः" इस प्रकार कहा जाता है, उसी तरह रागद्वेषरूपी मैल के अपगमसे ध्यान भी शुद्ध हो जाता है और इसीसे वह शुक्लध्यान कहा जाता है । (तं जहा) इसके वे चार प्रकार ये हैं-(पुत्तवियके सवियारी) पृथक्त्वतर्कसविचार, (एगत्तवियके अवियारि) एकत्ववितर्क अविचार, (मुहुमकिरिए अप्पडिवाई) सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती, (समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी) समुच्छिन्नक्रिय-अनिवर्त्ति । इनका वर्णन इस प्रकार है-पूर्वगत श्रुतज्ञान के अनुसार ध्येयविशेषगत उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य आदि पर्यायों का द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों से अर्थसंक्रान्ति, व्यंजनसंक्रान्ति एवं योगसंक्रान्ति युक्त होकर विचार करना सो पृथक्त्वविर्तकसविचार शुक्लध्यान का प्रथम भेद है ॥१॥ जिस तरह सिद्धगारुडिक आदि બન તેમજ અનુપ્રેક્ષાના ભેદથી સેળ પ્રકારનું કહેવાય છે. જેવી રીતે મેલ દેવાઈ पाथी वर मिसस स २७ छ भने “शुक्लः पटः" से मारे કહેવાય છે, એ જ રીતે રાગદ્વેષરૂપી મેલ દૂર થઈ જવાથી ધ્યાન પણ શુદ્ધ २४ तय छ, मने ते ४२४थी तेने शुभसध्यान ४वाय छे. (तं जहा) तेना यार प्रा२ मा छे-(पुहुत्तवियके सवियारी) पृथत्ववित-सपियार (एगत्तवियक्के अवियारि) सत्पवित-मविया२ (सुहुमकिरिए अप्पडिवाई) सूक्ष्भडिय--मप्रतिपाती (समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी) समुछिन्नडिय-निवृत्ति. પૂર્વગત શ્રુતજ્ઞાન અનુસાર ધ્યેયવિશેષથી થતા ઉત્પાદ, વ્યય તેમજ ધ્રૌવ્ય આદિ પર્યાના દ્રવ્યાર્થિક નથી, અર્થસંક્રાંતિ, વ્યંજનસંક્રાંતિ તેમજ યંગસંક્રાંતિથી યુકત થઈને વિચાર કરવો તે પૃથકત્વવિતર્કસવિચાર શુકલध्याननी प्रथम प्र४२ छ (१). Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमत्रे यथा सिद्धगारुडिकादिमन्त्रः सकलशरीरस्थापि विषमं विषं मन्त्रसामर्थेन सर्वावयवेभ्यः समाकृष्य दंशस्थाने समानीय संस्तम्भयति, तथा पूर्वगतश्रुतानुसारतोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिराहित्येनाशेषविषयेभ्यः संहृत्यैकस्मिन्नेव पर्याये योगस्य निर्वातस्थाने दीपशिखावत स्थिरीकरणम् एकत्ववितर्काऽविचारम् ॥२॥ यदा जघन्ययोगवतः संज्ञिपर्याप्तस्य मनोद्रव्याणि समये निरुन्धन् असंख्यातसमयैः संपूर्ण मनोयोगं तत्पश्चात् पर्याप्तद्वीन्द्रियस्य वाग्योगपर्यायतोऽख्यातगुणन्यूनवाग्योगपर्यायान् प्रतिसमयं निरुन्धन असंख्यातसमयैः संपूर्ण वाग्योगं, ततश्च प्रथमसमयसमुत्पन्ननिगोदजीवस्य जघन्यकाययोगपर्यायतोऽसंख्यातगुणहीनकाययोग प्रतिसमयं निरुन्धन् , असंख्यातमंत्रवाला पुरुष समस्त शरीर के अवयवों में व्याप्त विषम विष को मंत्र के प्रभाव से खेंचकर काटे हुए स्थानपर स्तंभित कर देता है उसीतरह पूर्वगतश्रुतज्ञान के अनुसार अर्थ, व्यंजन एवं योगों की संक्रान्ति से रहित होने के कारण, अशेषविषयों से योगों को हटाकर एक ही पर्याय में योग का, वातरहित स्थान में दीपक की लौ की तरह, स्थिर करना सो एकत्वविर्तक-अविचार-नामक शुक्लध्यान का दूसरा भेदहै ॥२॥ सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति शुक्लध्यान सिर्फ सूक्ष्मकाययोगवाले जीव को होता है। सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति शुक्लध्यान के सन्मुख हुआ जीव सर्वप्रथम मनोद्रव्यों का प्रतिसमय निरोध करता हुआ असंख्यातसमयप्रमाणकाल में समस्तमनोयोग का, इसीतरह प्रतिसमय वाग्योगपर्यायों का निरोध करता हुआ असंख्यातसमयप्रमाणकाल में समस्तवाग्योग का, एवं प्रथम समयमें समुत्पन्न निगोदजीवकी जघन्य अवगाहनास्वरूप काययोगपर्यायों से असंख्यात જેવી રીતે સિદ્ધ ગાર્િડક આદિ મંત્રવાળો પુરુષ આખા શરીરના અવયમાં પ્રસરેલાં વિષમ ઝેરને મંત્રના પ્રભાવથી ખેંચીને કરડેલા સ્થાન ઉપર ખંભિત કરી દે છે, તેવી જ રીતે પૂર્વગત શ્રુતજ્ઞાન અનુસાર અર્થ, વ્યંજન તેમજ ગેની સંક્રાંતિથી રહિત હોવાને કારણે, બીજા વિષયેથી ચેગોને હટાવીને એક જ પર્યાયમાં વેગને હવા વગરના સ્થાનમાં દીપકની તની પેઠે સ્થિર કરે તે શુકલધ્યાનના એકત્વવિકઅવિચાર નામને બીજો પ્રકાર છે. (૨) સૂમકિય-અપ્રતિપાતિ શુકલધ્યાનને સન્મુખ થયેલો જીવ સર્વપ્રથમ મદ્રાના હરવખત નિરોધ કરતાં કરતાં અસંખ્યાત-સમયપ્રમાણુ કાલે સમસ્ત મનેયેગને, તેમ જ વારંવાર વાગ્યેગપર્યાને નિરોધ કરતાં કરતાં અસંખ્યાત–સમય–પ્રમાણે કાળે સમસ્ત વાગ્યેગન, તેમ જ પ્રથમ સમયમાં સમુત્પન્ન નિગોદ જીવની જઘન્ય અવગાહના સ્વરૂપ કાયાગની પર્યાયથી અસંખ્યાતગુણહીનકાયમને વારંવાર નિધિ કરતાં Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ पीयूषवर्षिणी टीका सु. ३० ध्यानभेदवर्णनम् समयैर्वादरकाययोगं च सर्वथा निरुणद्धि, लदेदं सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यानमुपक्रमते ॥३॥ तत्र श्वासोच्छ्वासस्वरूपं सूक्ष्ममपि काययोग निरुध्य अयोगित्वं प्राप्य शैलेशीमवस्थां प्रतिपद्यते, मध्यमकालेन 'अ इ उ ऋ ल' इत्येवंरूपं पञ्चलध्वक्षरोच्चारणसमकालस्थितिकं समुच्छिन्नक्रियमनिवर्ति ध्यानमनुभवति ॥४॥ दशवैकालिकसूत्रस्याचारमणिमञ्जूषाटीकायामस्माभिः सविस्तरं शुक्लव्यानवर्णनं कृतम् , अतस्ततोऽवगन्तव्यम् । तथा-तत् शुक्लध्यानं चतुष्प्रत्यवतारं प्रज्ञतम् । 'सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि । 'तं जहा' तयथा गुगहीनकाययोग को प्रतिसमय में निरोध करता हुआ असंख्यातसमयप्रमाणकाल में बादरकाययोग का सर्वथा निरोध कर देता है, तब जाकर इसे सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपातिनामक शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है, यह सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपातिनामक तीसरा भेद है।३। इस अवस्थामें श्वासोच्छ्यासरूप सूक्ष्मकाययोगका भी निरोध कर, अयोगि-अवस्था को प्राप्त हो, शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वहां 'अ इ उ ऋ लु' इन पांच लघु अक्षरों के मध्यम काल से उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय तक वहां ठहर कर समुच्छिन्नक्रिय-अनिवर्त्तिनामक शुक्लध्यानका अनुभव करता है ।४। इस शुक्लध्यान का विशेष विस्तारपूर्वक वर्णन दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन की 'आचारमणिमंजूषा' नामकी टीका में लिखा गया है, अतः विशेषार्थी को इसका विशेष वर्णन वहां से देख लेना चाहिये । (मुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता) इस शुक्लध्यान के चार लक्षण हैं; (तं जहा) वे इस प्रकार हैं-(विवेगे) विवेक-देह से आत्माको કરતાં અસંખ્યાતસમયપ્રમાણુ કાળે બાદરકાયેગને સર્વથા નિરોધ કરી દે છે, ત્યારે તેને સૂક્ષ્મક્રિય-અપ્રતિપાતિ નામક શુકલધ્યાનની પ્રાપ્તિ થાય छ. मा सूक्ष्भडिय-मप्रतिपाति नामे त्रीले ४२ छ. (3) તે અવસ્થામાં શ્વાસોચ્છવાસરૂપ સૂક્ષ્મકાયેગને પણ નિરોધ કરી, અયોગિઅવસ્થાને પ્રાપ્ત થઈ, શૈલેશી અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરી લે છે. ત્યાં જ રૂ૩ = $ આ પાંચ લઘુ અક્ષરનું મધ્યમકાલથી ઉચ્ચારણ કરવામાં જેટલો સમય લાગે તેટલા સમયસુધી કાઈને સમુછિન્નક્રિય–અનિવર્તિ નામક શુકલધ્યાનને અનુભવ કરે છે (૪). આ શુક્લધ્યાનનું વિશેષ વિસ્તારપૂર્વક વર્ણન દશવૈકાલિકસૂત્રના ચોથા અધ્યયનની આચારમણિમંજૂષા નામની ટીકામાં લખવામાં આવ્યું છે. તેથી વિશેષ જાણવાવાળાને માટે તેનું વિશેષ વર્ણન ત્યાંથી જોઈ લેવું જોઈએ. * (सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता) २शुसध्यानना यार सक्षा) 2. (तं जहा) ते न्यारे छे-(विवेगे) विव४-हेडथीमात्माने होतो , Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० औपपातिकसूत्रे चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता; तं जहा-विवेगे १, विउस्सग्गे २, अव्वहे ३, असम्मोहे ४। सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहा-खंती १, मुत्ती २, अजवे ३, मद्दवे ४। सुक्कस्स 'विवेगे विवेकः-पृथक्करणं,स च पृथक्कारः-देहादात्मनो बुद्ध्या विवेचनम् ॥१॥'विउस्सग्गे' व्युत्सर्गः-निस्सङ्गतया देहोपधित्यागः ॥२॥ 'अबहे ' अव्यथम्-देवाद्युपसर्गजनितं भयं व्यथा-तया रहितम् ॥३॥ 'असंमोहे' असंमोहः-देवमायाजनितस्य मूढत्वस्य निषेधः ॥४॥ 'मुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता' शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चत्वार्यालम्बनानि प्रज्ञप्तानि; 'तं जहा' तद्यथा-' खंती' क्षान्तिः-परकृताऽपकारसहनम् ॥१॥ 'मुत्ती' मुक्तिः-निर्लोभता ॥२॥ 'अजवे' आर्जवं-सरलता ॥३॥ 'मद्दवे' मार्दवं--मृदुता ॥४॥ 'मुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ' शुक्लस्य भिन्न जानना १। (विउस्सग्गे) व्युत्सर्ग-देह तथा उपधि का परित्याग करना २। (अव्वहे) अव्यथ-व्यथारहित होना-देवादिकृत उपसर्गजनित भय का नाम व्यथा है, इससे रहित का नाम अव्यथ है, अर्थात्-देवादिकृत उपसर्गों का निश्चल भावसे सहन करना ३। (असंमोहे) असंमोह-मोहरहित होना-देवादिक द्वारा प्रदर्शित मायाकी ओर आकृष्ट नहीं होना ४। (सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता) शुक्लध्यान के चार आलंबन हैं, (तं जहा) वे इस प्रकार हैं-(खंती) क्षान्ति-परकृत अपकार का सहन करना १, (मुत्ती) मुक्ति-लोभका परित्याग करना २, (अजवे) आजैव-चित्त में सरलता रखना ३, और (मदवे) मार्दव गुणका होना ४ । (मुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ) शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षा हैं; (तं जहा) वे ये हैं-(अवायाणुप्पेहा) अपायानुप्रेक्षा(विउस्सग्गे) व्युत्सर्ग-हेड तथा उपधिनी परित्याग ४२वो, (अव्वहे) मध्यय-व्यथाરહિત હોવું–દેવાદિત ઉપસર્ગથી થયેલ ભયનું નામ વ્યથા છે, તેનાથી રહિતનું નામ અવ્યર્થ છે, અર્થાત–દેવાદિકથી કરાએલ ઉપસર્ગોને નિશ્ચળ ભાવથી સહન કરવાં. (असंमोहे) असभा-मोडडित य-हेवाद्विारा प्रशित भाया त२५ २४Q 8. (सुक्कस्स ण झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता) शुसध्यानना या२ मापन छ; (तं जहा) ते मा प्रारे छ-(खंती) क्षान्ति-भीतये ४२८ २५५४२ने सहन ४२३।, (मुत्ती) भुस्ति-वलनी परित्याग ४२।, (अज्जवे) माव-चित्तमा सरता रामवी, अने (मद्दवे) भाई-भृता गुण थj. (सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ) शुसध्याननी या२ मनुप्रेक्षा छ; (तं जहा) ते २॥ छ (अवायाणुप्पेहा) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. ३० ध्यानभेदवर्णनम् णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ; तं जहा-अवायाणुप्पेहा १ असुभाणुप्पेहा २ अणंतवत्तियाणुप्पेहा ३ विपरिणामाणुप्पेहा ४। से तं झाणे॥ सू० ३०॥ खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुप्रेक्षाः प्रज्ञप्ताः; 'तं जहा' तद्यथा-' अवायाणुप्पेहा' अपायानुप्रेक्षा-अपायानां प्राणातिपाताद्यास्रवद्वारजनितानाम् अनर्थानामनुचिन्तनम् ॥१॥ 'असुभाणुप्पेहा' अशुभानुप्रेक्षा-संसारस्यैव अशुभस्वरूपतयाऽनुचिन्तनम् ॥२॥'अणंतवत्तियाणुप्पेहा' अनन्तवृत्तिताऽनुप्रेक्षा-अनन्तवृत्तिता तैलिकचक्रयोजितस्य वृषस्य मार्गाऽनवसानवत्कदाप्यसमाप्तिशीलता तस्या अनुप्रेक्षा-अनुचिन्तनम् ॥३॥ 'विपरिणामाणुप्पेहा' विपरिणामानुप्रेक्षाउत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावानां पदार्थानां यो विपरिणामः-प्रतिक्षणं नवनवपर्यायरूपः तस्यानु चिन्तनम् ॥४॥' से तं झाणे' तदेतद् ध्यानम् ॥ सू० ३०॥ अपायों का अर्थात् प्राणातिपातादिक पाप, जो कर्मों के आस्रव के लिये द्वार जैसे हैं उनसे जनित अनर्थों का बारंबार विचार करना सो अपायानुप्रेक्षा है १। (असुभाणुप्पेहा) अशुभानुप्रेक्षा-संसार स्वयं अशुभस्वरूप है, ऐसा वारंवार विचार करना सो अशुभानुप्रेक्षा है २ । (अणंतवत्तियाणुप्पेहा) अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा-भवपरंपरा की अनंतवृत्ति का विचार करना, अर्थात् जिस प्रकार तेली का बैल कोल्हू में जोता जाने पर चक्कर काटता है उसी प्रकार इस जीव के भी, जबतक यह संसार में रहता है तबतक इसके भ्रमण की कभी भी समाप्ति नहीं होती है, इस प्रकार का अनुचिन्तन करना अनंतवर्तितानुप्रेक्षा है ३। (विपरिणामाणुप्पेहा) विपरिणामानुप्रेक्षा-प्रत्येक द्रव्य, उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य स्वभाववाले हैं, अतः वस्तु प्रतिसमय અપાયાનુપ્રેક્ષા--અપાયોને અર્થાતુ-પ્રાણાતિપાતાદિક પાપ જે કર્મોના આસવને માટે દ્વાર જેવાં છે તેમનાથી થતા અનર્થોનો વારંવાર વિચાર કરે તે सपायानुप्रेक्षा छ. (असुभाणुप्पेहा) अशुमानुप्रेक्षा-ससा२ पोते अशुभ-१३५ छ, सेवा पारंवार विचार ४२३ ते २मशुमानुप्रेक्षा छे. (अणंतवत्तियाणुप्पेहा) અનંતવત્તિતાનુપ્રેક્ષા–ભવપરંપરાની અનંતવૃત્તિતાનો વિચાર કરવો, અર્થાત્ જેવી રીતે ઘાંચીને બળદ ઘાણીમાં જોડાઈને ચક્કરે-(આઠ) ફર્યા કરે છે એવી રીતે આ જીવ પણ જ્યાં સુધી સંસારમાં રહે છે ત્યાં સુધી તેના બ્રમણની કદી પણ સમાપ્તિ થતી નથી, એ પ્રકારનું અનુચિંતન કરવું તે અનંતपतितानु प्रेक्षा छ. (विपरिणामाणुप्पेहा) विपरिभानुप्रेक्षा-प्रत्ये द्रव्य ઉત્પાદ, વ્યય તેમજ ધ્રૌવ્ય સ્વભાવવાળાં છે, તેથી હરવખત વસ્તુ પરિણમન Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ औपपातिकसूत्रे मूलम्-से किं तं विउस्सग्गे ? विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते; तं जहा–१ दव्वविउस्सग्गे, २' भावविउस्सग्गे य । से किं तं दव्वविउस्सग्गे ? दव्वविउसग्गे चउब्बिहे पण्णते, तं जहा-१ सरीर ___टीका-आभ्यन्तरतपसः षष्ठभेदमाह-' से किं तं विउस्सग्गे' अथ कोऽसौ व्युत्सर्गः ? व्युत्सर्गः किंस्वरूपः कतिविधश्चेति प्रश्नः । व्युत्सर्गः-वि-विशेषेण, उत्-उत्कृष्टभावनया सर्गः त्यागः । 'विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते' व्युत्सगों द्विविधः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा १-दवविउस्सग्गे' द्रव्यव्युत्सर्गः, २-'भावविउस्सग्गे' भावव्युत्सर्गः । ' से किं तं दव्वविउस्सग्गे ? ' अथ कोऽसौ द्रव्यव्युत्सर्गः ? 'दव्वविउस्सगे चउविहे पण्णत्ते' द्रव्यव्युत्सर्गः-चतुर्विधः प्रज्ञप्तः; 'तं जहा' तद्यथा-'सरीरविउस्सग्गे' शरीरव्युत्सर्गः ॥१॥ परिणमती रहती है । इस प्रकार जो चिन्तन करना इसका नाम विपरिणामानुप्रेक्षा है । (से तं झाणे) इस प्रकार चार ध्यानका वर्णन हुआ ॥ सू० ३०॥ से किं तं विउस्सग्गे' इत्यादि, अब आभ्यन्तर तपका जो छठा भेद व्युत्सर्ग है उसका वर्णन करते हैं-(से किं तं विउस्सग्गे) विशेष रीति से उत्कृष्ट भावनापूर्वक परित्याग करना व्युत्सर्ग है, वह व्युत्सर्गतप क्या-कितने प्रकार का है ? (विउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते) व्युत्सर्ग के दो भेद हैं; (तं जहा) वे ये हैं-(दव्वविउस्सग्गे भावविउस्सग्गे)१-द्रव्यव्युत्सर्ग और २भावव्युत्सर्ग । ( से किं तं दवविउस्सग्गे) द्रव्यव्युत्सर्ग क्या-कितने प्रकार का है ? (दवविउस्सग्गे चउबिहे पण्णत्ते) द्रव्यव्युत्सगे चार प्रकार का है । (तं जहा) जैसे કરતી હોય છે, એક જ રૂપે કદી નથી રહેતી. એ પ્રકારે જે ચિંતન કરવું તેનું नाम विपरिणाभानुप्रेक्षा छे. (से तं झाणे) से प्रमाणे या२ ध्याननु वधुन यु: (सू० ३०) ‘से किं तं विउस्सग्गे?' त्यहि હવે સૂત્રકાર આભ્યન્તર તપને જે છો પ્રકાર વ્યુત્સર્ગ છે તેનું વર્ણન કરે छे-(से किं तं विउस्सग्गे) विशेषशतिथी अष्टभावनापूर्व परित्याग ४२वो त व्युत्सर्ग छे. व्युत्स त५ टक्षा प्रा२नु छ ? (चिउस्सग्गे दुविहे पण्णत्ते) सेना ने प्रा२ छ,-(तं जहा) ते मा -( दवविउस्सग्गे भावविउस्सग्गे य) ૧ દ્રવ્યબુત્સર્ગ અને ૨ ભાવયુત્સર્ગ. દ્રવ્યબુત્સર્ગ શું-કેટલા પ્રકારનું છે ? (दव्वविउस्सग्गे चउविहे पण्णत्ते) से द्रव्यव्युत्सर्ग यार प्रानुं छे. (तं जहा) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सू. ३० व्युत्सर्गभेदवर्णनम् विउस्सग्गे, २ गणविउस्सग्गे, ३ उवहिविउस्सग्गे, ४ भत्तपाणविउस्सग्गे। से तंदव्वविउस्सग्गे।से किंतं भावविउस्सग्गे? भावविउस्सग्गेतिविहे पण्णत्ते, तं जहा-१कसायविउस्सग्गे,२संसारविउस्स'गणविउस्सग्गे' गणव्युत्सर्गः ।२। “उवहिविउस्सग्गे' उपधिव्युत्सर्गः-उपधेरुपकरणस्य त्यागः ।३। 'भत्तपाणविउस्सग्गे' भक्तपानव्युत्सर्गः-अन्नजलत्यागः ।४। ‘से तं दव्वविउस्सग्गे' स एष द्रव्यव्युत्सर्गः । ‘से किं तं भावविउस्सग्गे' अथ कोऽसौ भावव्युत्सर्गः । 'भावविउस्सग्गे तिविहे पण्णत्ते' भावव्युत्सर्गः त्रिविधः प्रज्ञप्तः; 'तं जहा' तद्यथा-'कसायविउस्सग्गे' कषायव्युत्सर्गः ।१। 'संसारविउस्सग्गे' संसारव्युत्सर्गः ।२। 'कम्मविउस्सग्गे' कर्मव्युत्सर्गः।३। 'से किंतं कसायविउस्सग्गे अथ कोऽसौ कषायव्युत्सर्गः ? 'कसाय(सरीरविउस्सग्गे १, गणविउस्सग्गे २, उवहिविउस्सग्गे ३, भत्तपाणविउस्सग्गे ४) शरीरव्युत्सर्ग १, गणव्युत्सर्ग २, उपधिव्युत्सर्ग ३, और भक्तपानव्युत्सर्ग ४ । इनमें शरीर के ममत्व का त्याग करना सो शरीरव्युत्सर्ग है १ । पडिमा आदि आराधन करने के लिये गण-संप्रदाय से ममत्वका त्याग करना सो गगव्युत्सर्ग है २। वस्त्रादिक उपधि के ममत्व का त्याग करना सो उपधिव्युत्सर्ग है ३। भोजन एवं पानी का त्याग करना सो भक्तपानव्युत्सर्ग है ४। (से तं दव्वविउस्सग्गे) यह सब द्रव्यव्युत्सर्ग है । (से किं तं भावविउस्सग्गे) भावव्युत्सर्ग क्या-कितने प्रकार का है ? ( भावविउस्सग्गे तिविहे पण्णत्ते ) भावव्युत्सर्ग तीन प्रकार का है; (तं जहा) वे प्रकार ये हैं-(कसायविउस्सग्गे १ संसारविउस्सग्गे२ कम्मविउस्सग्गे३) कपायव्युत्सर्ग १, संसारव्युत्सर्ग २, एवं कर्मव्युत्सर्ग ३ । (से किं तं कसायविउस्सग्गे) कषायव्युत्सर्ग क्या कितने प्रकारका है ? ( कसाय भ-(सरीरविउस्सग्गे गणविउस्सग्गे उवहिविउस्सग्गे भत्तपाणविउस्सग्गे) शरी२વ્યુત્સર્ગ, ગણુયુત્સર્ગ, ઉપધિવ્યુત્સર્ગ અને ભક્તપાનબુત્સર્ગ. તેમાં શરીરના મમત્વનો ત્યાગ કરવો તે શરીરવ્યુત્સર્ગ છે. પડિમા આદિ આરાધન કરવા માટે ગણ-સંપ્રદાયથી મમત્વને ત્યાગ કરે તે ગણવ્યુત્સર્ગ છે. વસ્ત્રાદિક ઉપાધિથી મમત્વને ત્યાગ કરે તે ઉપધિવ્યુત્સર્ગ છે. ભેજન તેમજ પાણીને त्या १२ ते मतानव्युत्स छ. २॥ या द्रव्यव्युत्स छे. (से किं तं भावविउस्सग्गे) लावल्युत्सग शु-32 प्रा२नो छ ?(भावविउस्सग्गे तिविहे पण्णत्ते) भाव्युत्स ऋY प्ररने छ; (तं जहा) ते - प्रशारे छ-(कसायविउस्सग्गे संसारविउस्सग्गे कम्मविउस्सग्गे) ४ायव्युत्सग, ससा२०युत्स तम भव्युत्सम Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ औपपातिकसूत्रे ग्गे, ३ कम्मविसग्गे । से किं तं कसायविउस्सग्गे, ? कसायविउसग्गे चव्विहे पण्णत्ते; तं जहा को हकसायवि उस्सग्गे, २ माणकसाय विउस्सग्गे,३ मायाकसायविउस्सग्गे, ४ लोहकसायवि उस्सग्गे । सेतं कसायविसग्गे । से किं तं संसारविउस्सग्गे ? संसारविउस्सग्गे चव्विहे पण्णत्ते; तं जहा - १ णेरइयसंसारवि उस्सग्गे, २ तिरि विउस्सग्गे चउवि पण्णत्ते' कषायव्युत्सर्गः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा ' तद्यथा- 'कोहकसायविउस्सगे ' क्रोधकषायव्युत्सर्गः | १ | ' माणकसायविस्तरंगे' मानकषायव्युत्सर्गः । ' मायाकसायविउस्सग्गे ' मायाकषायव्युत्सर्गः | ३ | 'लोहक सायविउस्सगे ' लोभकषायव्युत्सर्गः ।४। ' से तं कसायविउस्सगे ' स एष कषायव्युत्सर्गः । ' से किं संसारविउस्सगे' अथ कोऽसौ संसारख्युत्सर्गः : 'संसारविउस्सग्गे चउव्विहे पण्णत्ते संसारव्युत्सर्गः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, 'तं जहा ' तद्यथा - ' णेरइयसंसार विउस्सग्गे ' नैरयिकसंसारव्युत्सर्गः ।१। ' तिरिय संसारविउस्सग्गे' तिर्यक्संसारव्युत्सर्गः | २ | ' मणुयसंसारविउ विउस्सग्गे चउव्हेि पण्णत्ते) कषायव्युत्सर्ग चार प्रकारका है । ( तं जहा ) वे चार प्रकार ये हैं- ( कोहकसायविसग्गे १, माणकसायविउस्सग्गे २, मायाकसाय विउस्सग्गे ३. लोहकसायविउस्सग्गे ४) क्रोधकषायव्युत्सर्ग १, मानकषायव्युत्सर्ग २, मायाकषायन्युत्सर्ग ३ एवं लोभकषायव्युत्सर्ग ४ । (से तं कसायविसग्गे) इन क्रोधादि चार कषायोंका परित्याग करना यह कषायव्युत्सर्ग है । (से किं तं संसार विउस्सग्गे) सारुयुत्सर्ग क्या- कितने प्रकार का है ? (संसारविउस्सग्गे चउव्विहे पण्णत्ते) संसारव्युत्सर्ग चार प्रकार का है, (तं जहा) वे चार प्रकार ये हैं-(णेरइयसंसारविउस्सग्गे १ तिरियसंसारविउस्सग्गे २ मणुयसंसारविउस्स ( से किं तं कसायविउस्सग्गे) उषायव्युत्सर्ग डेटा प्रहारनो छे ? ( कसायविस चविहे पण्णत्ते) उषायव्युत्सर्ग यार अारनो छे (तं जहा ) भ- (कोहकसायविउस्सग्गे माणकसायविउस्सग्गे मायाकसायविउस्सगे लोहकसायविउरसगे) अध- . કષાયવ્યુત્સ, માનકષાયવ્યુત્સગ, માયાકષાયજ્યુસ, તેમજ લેાભકષાયવ્યુત્સગ (सेतं कसायविसग्गे) मे धाहि यारेय उषायानो परित्याग व ते या उषायव्युत्सर्ग छे. (से किं तं संसारविउस्सग्गे) संसारभ्युत्सर्ग डेटा प्रअरने छे ? (संसारविउस्सग्गे चउव्विहे पण्णत्ते) संसारभ्युत्सर्ग और प्रार! छे, (तं जहा) ते यार प्रारमा छे - (रइय संसार विउस्सग्गे तिरियसंसारविउस्सग्गे मणुयसंसारविसग्गे Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका सू. ३० व्युत्सर्गभेदवर्णनम् यसंसारविउस्सग्गे, ३ मणुयमंसारविउस्सग्गे, ४ देवसंसारविउस्सग्गे। से तं संसारविउस्सग्गे। से किं तं कम्मविउस्सग्गे ? कम्मविउस्सग्गे अविहे पण्णत्ते; तं जहा, १ णाणावरणिजकम्मविउस्सग्गे,२दरिसणावरणिजकम्मविउस्सग्गे,३ वेयणिज्जकम्मविउस्सगे, ४ मोहणिजकम्मविउस्सग्गे, ५आउकम्मविउस्सग्गे,६णामकम्मविउस्सग्गे ७,गोयकम्मविउस्सग्गे ८ अंतरायकम्मविउस्सग्गे। से तं कम्मविउस्सग्गे। से तं भावविउस्सग्गे ॥ सू० ३० ॥ स्सग्गे' मनुजसंसारव्युत्सर्गः ।। 'देवसंसारविउस्सग्गे' देवसंसारव्युत्सर्गः ।। 'से तं संसारविउस्सग्गे' स एष संसारख्युत्सर्गः । ‘से किं तं कम्मविउस्सग्गे' अथ कोऽसौ कर्मव्युत्सर्गः: 'कम्नविउस्सग्गे अट्टविहे पण्णत्ते' कर्मव्युत्सर्गः अष्टविधः प्रज्ञप्तः । 'तं जहा' तद्यथा-'णाणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे' ज्ञानावरणीयकर्मव्युत्सर्गः ।१। 'दरिसिणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे' दर्शनाऽवरणीयकर्मव्युत्सर्गः ।२। 'वेयणिज्जकम्मविउस्सगे' वेदनीयकर्मव्युत्सर्गः ।। 'मोहणिज्जकम्मविउस्सग्गे' मोहनीयकर्मगे३, देवसंसारविउम्सग्गे ४) नैरथिक सारव्युत्सर्ग, तिर्यकलसारव्युत्सर्ग, मनुजसंसारव्युत्सर्ग, एवं देव साग्व्युत्सर्ग, (से तं संसारविउम्सगे) इस प्रकार चारगतिरूप संसार का यह व्युत्सर्ग (परित्याग) “सारव्युत्सर्ग है। (से किं तं कम्मविउस्सग्गे) कर्मव्युत्सर्ग क्या-कितने प्रकार का है। (कम्मविउस्सग्गे अट्टविहे पण्णत्ते) निसमें आठ प्रकार के कर्मोका व्युत्सर्ग-परित्याग हो वह कर्मव्युत्सर्ग आठ प्रकार का है; (तं जहा) जैसे (णाणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे १,दरिसणावरणिजकम्मविउस्सग्गे २,वेयणिज्जकम्मविउस्सग्गे ३,मोहणिज्जकम्मविउस्सग्गे देवसंसारविउस्सग्गे) नैयि४ सा२व्युत्सर्ग, तिस सा२युत्सर्ग, मनुसंसा२व्युत्सर्ग तेभ वस सा२व्युत्सर्ग, (से तं संसारविउस्सग्गे) से मारे ચારેય ગતિરૂપ સંસારને આ વ્યુત્સર્ગ (પરિત્યાગ) તે સંસારબ્યુત્સર્ગ છે. (से किं तं कम्मविउस्सग्गे) भव्युत्सा ४२नी छ ? (कम्मविउस्सग्गे अविहे पण्णत्ते) मा पाठेय ना भनिव्युत्सा-परित्याग तय छ । २। भव्युत्स 2213 ५४ारने। छ; (तं जहा) हेभ-(णाणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे, दरिसणावरणिज्जकम्माविउस्सग्गे, वेयणिज्जकम्मविउस्सग्गे, मोहणि Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसुत्रे मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो अप्पेगइया आयारधरा व्युत्सर्गः ।४। ‘आउकम्मविउस्सग्गे' आयुष्कर्मव्युत्सर्गः।।५। 'णामकम्मविउस्सग्गे' नामकर्मव्युत्सर्गः ।६। 'गोयकम्मविउस्सग्गे' गोत्रकर्मव्युत्सर्गः ।। · अंतरायकम्मविउस्सग्गे' अन्तरायकर्मव्युत्सर्गः ।८। ‘से तं कम्मविउस्सग्ग' स एष कर्मव्युत्सर्गः, ‘से तं भावविउस्सग्गे' स एष भावव्युत्सर्गः । इत्थमनशनादिभेदेन षड्विधं बाह्यं प्रायश्चित्तादिभेदेन षड्विधमाभ्यन्तरं च तपो व्याख्यातम् ॥ सू० ३० ॥ टीका- तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि। तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'बहवे अणगारा भगवंतो' बहवोऽनगारा भगवन्तः-वर्णिताः पुनर्वर्ण्यमानाः शिष्मा ४, आउकम्मविउस्सग्गे ५, णामकम्मविउस्सग्गे ६, गोयकम्मविउस्सग्गे, ७ अंतरायकम्मविउस्सग्गे ८) ज्ञानावरणीयकर्मव्युत्सर्ग १, दर्शनावरणीयकर्मव्युत्सर्ग २, वेदनीयकर्मव्युत्सर्ग ३, मोहनीयकर्मव्युत्सर्ग ४, आयुकर्मव्युत्सर्ग ५, नामकर्मव्युत्सर्ग ६, गोत्रकर्मव्युत्सर्ग ७, एवं अंतरायकर्मव्युत्सर्ग ८, (से तं भावविउस्सग्गे) ये सब भावव्युत्सर्ग हैं । इस तरह यहां तक अनशनादिक के भेद से छह प्रकार बाह्यतप का और प्रायश्चित्त आदि के भेद से छह प्रकार आभ्यंतर तप का वर्णन हुआ ॥ सू० ३० ॥ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि। (तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय (समणम्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर प्रभु के, जो (बहवे अणगारा भगवंतो) बहुत ज्जकम्मविउस्सग्गे, आउकम्मविउस्सग्गे, णामकम्मविउस्सग्गे, गोयकम्मविउस्सग्गे, अंतरायकम्मविउस्सगे) ज्ञानावरणीय भव्युत्सर्ग, शनावरणीय भव्युत्सर्ग, વેદનીયકર્મવ્યુત્સર્ગ, મેહનીય કર્મવ્યુત્સર્ગ, આયુકર્મવ્યુત્સર્ગનામકર્મ વ્યુત્સર્ગ, गोत्रभव्युत्स तभ०४ मतशय भव्युत्सर्ग, (से तं कम्मविउस्सग्गे) मा ४२ मा भव्युत्सा २४ रनो छ. (से तं भावविउस्सग्गे) से मया ભાવવ્યુત્સર્ગ છે. એ રીતે અહીં સુધી અનશન આદિના ભેદથી છ પ્રકારનાં બાહાતપનું અને પ્રાયશ્ચિત્ત આદિના ભેદથી છ પ્રકારનાં આત્યંતર તપનું वर्णन यु. (सू० ३०) । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' त्याहि. (तेणं क लेण तेणं समएणं) ते ४ मने ते सभये (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रभा भगवान् महावीर प्रभुनारे (बहवे अणगारा भगवंतो) घर। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ३१ महावीरस्वामि शिष्यवर्णनम् जाव विवागसुयधरा तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे गच्छागच्छि गुम्मागुम्मि फड्डाफढेि अप्पेगइया वायंति, अप्पेगइया पडिबहुसंख्यका आसन्, तेषु शिष्येषु 'अप्पेगइया' अप्येकके केचित्-'आयारधरा जाव विवागसुयधरा' आचारधरा यावद् विपाकश्रुतधराः-आचाराङ्गादि-विपाकान्त-सर्वश्रुतधारिणः, इमे पूर्वं वर्णिताः, 'तत्थ तत्थ तहि तहि देसे देसे' तत्र तत्र तस्मिन् तस्मिन् देशे देशे-अत्र वीप्सया स्थानबाहुल्यकथनात्साधूनामधिकता अप्रतिबन्धविचरणं च सूचितम् , तथा बहवो बहुविधग्रामनगरवनादिषु गता इति च गम्यते। 'गच्छागच्छि' गच्छागच्छि-एकाचार्यपरिवारो गच्छः-गच्छेन गच्छेन विभज्य वाचनादिकं प्रवृत्तम्, इति विग्रहे 'तत्र तेनेदमिति सरूपे' इत्यनेन गच्छागच्छि, इत्यस्य साधुत्वम् । एवं 'गुम्मागुम्मि' गुल्मागुल्मि-गुल्म गच्छकभागः, गुल्मेन गुल्मेन विभज्य इदं वाचनादिकं प्रवृत्तमिति गुल्मागुल्मि । 'फड्डाफडिं' फड्डकाफड्डकि-फडकं लघुतरो गच्छकभागः, फडकेन फडकेन विभज्येदं वाचनादिकं प्रवृत्तम् , इत्यर्थे फड्डकाफड्डकि-एषु प्रयोगेषु समासे कृते पूर्वपदस्य दीर्घः समासान्त इच्-प्रत्ययश्च। 'अप्पेगइया वायंति' अप्येकके से अनगार भगवंत थे, उनमें (अप्पेगइया) कितनेक (आयारधरा जाव विवागसुयधरा) आचारांगसूत्र के धारक थे, 'यावत्' शब्द से कितनेक सूत्रकृताङ्ग से लेकर प्रश्नव्याकरण पर्यन्त सूत्रों में से एक २ सूत्र के धारक थे और कितनेक विपाकश्रुत के धारक थे, उपलक्षणसे कितनेक सबके भी धारक थे। (तत्थ तत्थ तहि तहि देसे देसे) वे उसी बगीचे में भिन्न २ जगह पर (गच्छागच्छि) गच्छ गच्छरूप में विभक्त होकर, (गुम्मागुम्मि) गच्छ के एक २ भाग में विभक्त होकर (फड्डाफर्डि) फुटकर फुटकर रूप में विभक्त होकर विराजते थे । इनमें से (अप्पेगइया वायंति) कितनेक सूत्र की वाचना प्रदान करते थे-सूत्र पढाते मनार सात ता; तभनाभा (अप्पेगइया) 23 (आयारधरा जाव विवागसुयधरा) माया सूत्रना था२४ ता, 'यावत् २०४थी सा सूत्रतinथा લઈને પ્રશ્નવ્યાકરણ સુધીના સૂત્રોમાંથી એક એક સૂત્રના ધારક હતા, અને કેટલાક विपासूत्रना था२४ Cal, SANYथी टा मया सूत्राना धा२४ ता. (तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे) ते मायामा नुही नही च्याले (गच्छागच्छि) २७ गछ३५मा विast ने, (गुम्मागुम्मि) गछन से भागमा विभत ने (फड्डाफडिं) टा-छपाय ३५मा विमत ने विशvdi . तेमनामांथा (अप्पेगइया वायति) 32४ सूत्रनी वायना माता -सूत्र लावता Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ औपपातिकसूत्रे पुच्छंति, अप्पेगइया परियति, अप्पेगइया अणुप्पेहंति, अप्पेगइया अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेयणीओ णिव्वेयणीओ वाचयन्ति-सूत्रवाचनां ददते-गच्छैकदेशं गगाऽवच्छेदकाधिष्ठितं विधाय सूत्रवाचनां वाचयन्ति । 'अप्पेगइया पडिपुच्छति' अप्येकके प्रतिपृच्छन्ति-सूत्रार्थों पृच्छन्ति, 'अप्पेगइया परियति ' अप्येकके परिवर्तयन्ति-सूत्रार्थो पुनःपुनरभ्यस्यन्ति । 'अप्पेगइया अणुप्पेहंति' अप्येकके अनुप्रेक्षन्ते परिचिन्तयन्ति । 'अप्पेगइया अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेयणीओ णिव्वेयणीओ बहुविहाओ कहाओ कहंति' अप्येकके आक्षेपणीः विक्षेपणीः संवेदिनीः निर्वेदिनीर्बहुविधाः कथाः कथयन्ति; मोहादपनीय तत्त्वं प्रति आक्षिप्यते आकृष्यते प्राणी याभिस्ता आक्षेपण्यस्ताः- कथा ' इत्यस्य विशेषणम् । विक्षेपणी:-विक्षिप्यते कुमार्गे प्रसक्तः प्राणी कुमार्गापृथक् क्रियते याभिस्ताः विक्षेपण्यस्ताः। संवेदिनी:-संवेद्यते मोक्षसुखाभिलाषः क्रियते याभिस्ताः । निर्वेदिनी:-निर्वेद्यते संसागद् निर्विष्णो थे, (अप्पेगइया) कितनेक (पडिपुच्छंति) सूत्र और अर्थ को पूछते थे, (अप्पेगइया) कितनेक (परियटृति) सूत्र और अर्थ की आवृत्ति करते थे, (अप्पेगइया) कितनेक (अणुप्पेहंति) सूत्र-अर्थ की अनुप्रेक्षा-परिचिन्तन करते थे, (अप्पेगइया ) कितनेक (अक्खेवणीओ १, विक्खेवणीओ २, संवेयणीओ ३, णिव्वेयणीओ४, बहुविहाओ कहाओ कहंति) आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदिनी, और निर्वेदिनी, इन अनेक प्रकार की कथाओं को कहते थे । मोह से दूर कराकर प्राणी जिस कथा के द्वारा तत्त्व के प्रति आकृष्ट किया जाता है उस कथा का नाम 'आक्षेपणी कथा' है १, कुमार्ग में रत प्राणी जिस कथा से उस कुमार्ग की ओर से पृथक् किया जाता है उस कथा का नाम 'विक्षेपणी कथा' है २, डता, (अप्पेगइया) 32सा (पडिपुच्छति) सूत्र तथा अर्थ पूछता डा. (अप्पेगइया) 2 (परियटृति) सूत्र तथा मथनी यावृत्ति ४२॥ ता. (अप्पेगइया) 2 ( अणुप्पेहंति) सूत्र-मथनी मनुप्रेक्षा-परिथितन ४२॥ ता. (अप्पेगइया) ८४ (अक्खेवणीओ, विक्खेवणीओ, संवेयणीओ - णिव्वे. यणीओ, बहुविहाओ कहाओ कहंति ) मा५७, विक्षे५७, संवहनी, मने નિર્વેદની, એ પ્રકારે અનેક પ્રકારની કથાઓ કરતા હતા. મેહથી દૂર કરીને જે કથા તત્ત્વના તરફ આકર્ષણ કરે છે તે કથાનું નામ “આક્ષેપણી કથા” છે. કુમાર્ગમાં મગ્ન થયેલા પ્રાણીને જે કથાથી તે કુમાર્ગ તરફથી જુદો કરાવાય તે કથાનું નામ “વિક્ષેપણી કથા” છે. જે કથા સાંભળવાથી પ્રાણી Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ३१ महावीरस्वामि शिष्यवर्णनम् ३०९ बहुविहाओ कहाओ कहंति अप्पेगइया उड्ढजाणू अहोसिरा झाणको हो गया संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ सू० ३१ ॥ =वैराग्यवान् विधीयते याभिस्ताः; एतादृशीः बहुविधाः कथाः कथयन्ति=श्रावयन्ति । या विविधाः कथाः शृण्वन् श्रोता मोहं परित्यज्य तत्त्वं प्रति आक्षिप्तो भवति, तथा विक्षिप्तः कुमार्गत्रिमुखो भवति, एवं संवेदनीयः =मोक्षसुखाभिलाषी, निर्विण्णः - संसारादुद्विग्नो भवति । 'अप्पेगइया उड्ढजाणू अहोसिरा' अप्येकके ऊर्ध्वजानवः, अधः शिरसः = अधोमुखा - नोर्ध्वं तिर्यग् वा दत्तदृष्टयः ' झाणकोट्ठोवगया ' ध्यानकोष्टोपगताः - ध्यानरूपो यः कोष्ठस्तमुपगताः, संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन्तो विहरन्ति । सू० ३१ ॥ जिस कथा के सुनने से प्राणी मोक्षसुख की अभिलाषावाला बन जाता है उस कथा का नाम ' संवेदनी कथा ' है ३, जिस कथा के सुनने से प्राणी संसार से विरक्त हो जाता है उस कथा का नाम ' निवेदनी कथा ' है ४ । इन कथाओं का सुनने वाला श्रोता मोह का परित्याग कर तत्त्व के प्रति आकृष्ट होता है, कुमार्ग से विमुख होता है, मोक्ष सुखका अभिलाषी होता है और निर्विण्ण- संसारसे - उद्विग्न होता है । (अप्पेगइया उड्ढजाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ) कितनेक मुनिजन दोनों घुटनों को ऊँचा कर नीचे मस्तक किये हुए - माथा झुकाये हुए- ध्यानरूपी कोष्ठ में प्राप्त थे । इस प्रकार संयम और तपसे अपनी आत्मा को भावित करते हुए साधुगण विचर रहे थे || सू० ३१ ॥ મેાક્ષના સુખ માટે અભિલાષાવાળા બને છે તે કથાનુ નામ સવેદની સ્થા છે, જે કયા સાંભળવાથી પ્રાણી સંસારથી વિરક્ત થાય છે તે કથાનુ નામ ‘નિવેદ્યની કથા ’ છે. આ કથાઓના સાંભળનાર શ્રોતા માહના પરિત્યાગ કરીને તત્ત્વના તરફ આકર્ષિત થાય છે, કુમાર્ગથી વિમુખ थाय छे, મેાક્ષના સુખના અભિલાષવાળા થાય છે અને સંસારથી નિર્વિષ્ણુउद्विग्न थाय छे. (अप्पेगइया उडजाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेण तवसा अपाण भावेमाणा विहरंति ) डेटला मुनिभ्न भन्ने घुटो या राणी, માથું નીચે રાખી–માથું નીચે કરીને- ધ્યાનરૂપી કાઠામાં પ્રાપ્ત હતા. એ પ્રકારે સંયમ અને તપથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતા સાધુગણ વિચરતા હતા. (सू० ३१). Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र - मूलम्-संसारभउबिग्गा भीया जम्मण-जर-मरणगंभीर-दुक्ख-पक्खुभिय-पउर-सलिलं संजोग-विओग-वीइ टीका-भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनोऽनगाराः पुनः कीदृशाः? इत्याह-संसारभउविग्गा' इत्यादि । संसारभयोद्विग्नाः-चतुर्गतिभ्रमणलक्षणसंसारभयादुद्विग्नाः व्याकुलाः, 'केनोपायेन संसारसागरात् तरिष्यामः' इतिचिन्ताजाल कुला इत्यर्थः । अत एव 'भीया'-भीताः = भययुक्ताः, अस्य तरन्तीत्यत्रान्वयः । सूत्रकारः संसारसागरं वर्णयति-'जम्मण-जर-मरणकरण-गंभीर-दुक्ख-पक्खुब्भिय-पउर-सलिल' जन्म-जरा-मरण-करण-गम्भीर-दुःख-प्रक्षुभितप्रचुर-सलिलम्-जन्मजरामरणान्येव करणानि-साधनानि यस्य तत् तथा, तदेव गम्भीरदुःखं प्रगाढदुःखं, तदेव प्रक्षुभितं प्रचलितम् , प्रचुर=विपुलं सलिलं जलं यस्मिन् स जन्मजरा-मरण-करण-गम्भीर-दुःख-प्रक्षुभित-प्रचुरसलिलस्तं, पुनः कीदृशं संसारसागरम् ? इत्या 'संसारभउव्विग्गा' इत्यादि। भगवान् महावीर के अनगार और भी कैसे थे ? इस बातको प्रकट करने के लिये सूत्रकार इस सूत्रकी प्ररूपणा करते हुए कहते हैं कि भगवान् महावीर स्वामी के ये अनगार (संसारभउव्विग्गा) चतुर्गति में भ्रमण करने रूप संसार के भय से उद्विग्न थे, 'किस उपाय से हम लोग इस अथाह संसारसागर से पार होंगे' इस प्रकार का चिन्तवन सर्वदा करते रहते थे । (भीया) इसलिये ये संसारभीरु थे । अब यहां से यह संसारसागर कैसा है? इस बात को नीचे लिखित विशेषणों द्वारा सूत्रकार स्पष्ट करते हैं-(जम्मण-जर-मरण करण-गंभीर-दुक्ख-पक्खुभिय-पउरसलिलं) जन्म, जरा और मरण, ये ही जिसके साधन हैं ऐसा प्रगाढ दुःख ही जिसमें उछलता हुआ अगाध जल भरा हुआ है, तथा 'संसारभउब्विग्गा' त्याहि.. ભગવાન મહાવીરના અનુગાર ફરી પણ કેવા હતા? તે વાતને પ્રકટ કરવા સૂત્રકાર આ સૂત્રની પ્રરૂપણ કરતાં કહે છે કે–ભગવાન મહાવીર સ્વામીના ते मन॥२ (संसारभउव्विग्गा) यतुतिमा भ्रम ४२११॥३५ संसारना ભયથી ઉદ્વિગ્ન હતા, “કયા ઉપાયથી અમે આ અગાધ સંસારસાગરથી પાર थ' से प्रा२नु थितवन सह। ४ा ४२ता उता. (भीया) मेथी तेस। સંસારભીરૂ હતા. હવે અહીંથી આ સંસારસાગર કેવો છે? તે વાત નીચે समेत विशेषणे। द्वारा सूत्रधार स्पष्ट ४२ छ-(जम्मण-जर-मरण-करण-गंभीरदुक्ख-पक्खुब्भिय-पउरसलिलं) ४भ, ४२॥ मने भ२९, से १२i साधन छ એવાં પ્રગાઢ દુઃખ જ જેમાં વિસ્તારથી ઉછળતા પાણીના જેમ ભરેલાં છે. તથા Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सू. ३१ महावीरस्वामि शिष्यवर्णनम् । चिंता-पसंग-पसरिय-बह-धंध-महल्ल-विउल-कल्लोल-कलुणविलविय-लोभ-कलकलंत-बोलबहुलं अवमाणण-फेण-तिव्वकाङ्क्षायामाह-'संजोग-विओग-वीइ-चिंता-पसंग-पसरिय वह-बंध-महल्ल-विउल-कल्लोलकलुण-विलविय-लोभ-कलकलंत-बोल-बहुलं' संयोग-वियोग-वीचि-चिन्ताप्रसङ्ग-प्रसृतवध-बन्ध-महाविपुल-कल्लोल-करुण-विलपित-लोभ-कलकलायमान-बोल-(ध्वनि)-बहुलम्-संयोगवियोगाः अप्रियशब्दादिसंयोग-प्रियशब्दादिवियोगा एव वीचयः=तरङ्गा यत्र सागरे स संयोगवियोगवीचिः, चिन्ताप्रसङ्गः-पुनःपुनश्चिन्ताप्राप्तिः स एव प्रसृतं प्रसरणं यस्य स तथा, वधाः=हननानि, बन्धाः संयमनानि, त एव महान्तो-दीर्घाः, विपुलाः विस्तीर्णाः कल्लोलाः-महोर्मयो यत्र स वधबन्धमहाविपुलकल्लोलः, करुणानि करुणरसजनकानि विलपितानि=विलापवचनानि, लोभाः लोभसम्भूताऽऽक्रोशाश्च त एव कलकलायमाना बोलाः ध्वनयो बहुला यत्र स तथा, ततः संयोगवियोग चिश्चासौ चिन्ताप्रसङ्गप्रसृतश्च तथा वधबन्धमहाविपुलकल्लोलश्चासौ करुणविलपितलोभकलकलबोलबहुलश्च स तथा, तं तादृशं; संयोगादितरगतरङ्गितं चिन्ताविस्तीर्ण वधबन्धकल्लोलं करुणविलापलोभसंभूताक्रोशप्रचण्डनादनादितमित्यर्थः। पुनः कथम्भूतम् ? 'अवमाणणफेणतिव्वखिंसणपुलंपुलप्पभूयरोगवेयणपरिभवविणिवाय(संजोग-विओग-चीइ-चिंतापसंग-पसरिय-वह-बंध-महल्ल-विउल-कल्लोल-कलुण-विलविय-लोभ-कलकलंत-बोल-बहुलं) संयोग=अमनोज्ञ शब्दादिकों का संबंध, वियोग मनोज्ञ शब्दादिकोंका अभाव, ये जिसमें वीचि कल्लोल हैं, चिन्ता जिसका विस्तार है, वध एवं बंधन ही जिसमें विस्तृत तरंगें हैं, करुणारसजनक विलापवचन एवं लोभ से संभूत आक्रोशवचन, ये दो जिसकी बहुल कलकलायमान ध्वनियां हैं-गर्जना हैं, (अवमाणण-फेण-तिव्य-खिंसण-पुलंपुलप्पभूय-रोगवेयण-परिभव-विणिवाय-फरुस-धरिसणा-समावडिय-कढिण-कम्म-पत्थरतरंग-रंगंत-निच्चमच्चुभय-तोयपटुं) अपमान ही जिसमें फेनराशि है। दुःसहनिंदा, निर(संजोग-विओग-वीइ-चिंतापसंग-पसरिय वह-बंध-महल्ल-विउल-कल्लोल-कलुण-विलवियलोभ-कलकलंत-बोल-बहुलं) सयोग-मनने न गमे तेवा श६ महिना સંબંધ, મનને ગમે તેવા શબ્દ આદિકેને વિયેગ, એ જેમાં વીચિ-લહેરે છે, ચિંતા જેને વિસ્તાર છે, વધ તેમજ બંધન જ જેમાં મેટાં મજા છે, કરૂણારસજનક વિલાપવચન તેમજ લોભથી ઉત્પન્ન થયેલ આક્રોશ વચન से से नी भोटरी ४१४साट पनि छाना छ, (अवमाणण-फेण-तिव्वखिसण-पुलंपुल-प्पभूय-रोगवेयण-परिभव-विणिवाय-फरुस - धरिसणा - समावडियकढिण-कम्म-पत्थर-तरंग-रंगत-निच्चमच्चुभय-तोयपढे) २१५मान ४ मा शगुना Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे खिंसण-पुलंपुल (पलुंपण)-प्पभूयरोग-वेयण-परिभव-विणिवायफरुस-धरिसणा-समावडिय-कढिग-कम्म-पत्थर-तरंग -रंगंतनिच्चमच्चुभयतोयपटुं कसाय-पायाल-संकुलं भवसयसहस्सफरुसधरिसणासमावडियकठिणकम्मपत्थरतरंगरंगतमचुभयतोयपढे' अपमानन-फेनतीव-खिंसन-पुलम्पुल-प्रभूत-रोग-वेदना-परिभव-विनिपात-परुष-धर्षगा-समापतित-कठिनकर्मप्रस्तर-तरङ्ग-रङ्गन्नित्यमृत्युभय-तोयपृष्ठम्-अपमाननमेव फेनो यत्र सोऽवमाननफेनः, तथा तीवखिंसनम् दुःसहनिन्दा, पुलम्पुलप्रभूता निरन्तरसमुत्पन्ना या रोगवेदनाः परिभवाः अनादराः, विनिपाताः=नाशाः, अथवा परिभवविनिपातः-परिभवः पराभवः पराजयो हानिर्वा, तस्य विनिपातः प्राप्तिः परुषधर्षणाः-निष्ठुरवचननिर्भर्त्सनानि, तथा समापन्नानिबद्धानि यानि कठिनानि कठोरोदयानि कर्माणि=ज्ञानाऽऽवरणीयादीनि, एतान्येव प्रस्तराः -पाषाणास्तैः कृत्वा तत्संघट्टनं प्राप्य समुत्थितैः, तरङ्गैः, रिङ्गत्-प्रचलत् , नित्यं ध्रुवं यन्मृत्युभयं-मरणभीतिः तदेव तोयपृष्ठं जलोपरितनभागो यत्र स तथा तादृशम् ; पुनः कीदृशं 'कसायपायालसंकुलं' कषायपातालसङ्कुलम्-कषाया एव पातालाः=पातालकलशाः-अधस्तलानि तैः सङ्कुल:-व्याप्तस्तम् । 'भवसयसहस्स-कलुस-जल-संचयं शवशतसहस्रकलुषजलसञ्चयम् - भवशतसह न्तर समुत्पन्न रोगवेदना, पराभव, विनिपात-विनाश, अथवा पराभव की प्राप्ति, निष्ठुर वचन, अपमान के वचन, एवं कठोर उदयवाले संचित ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म, ये ही जिसमें पाषाण हैं, और इन पाषाणों के संघटन से अनेक प्रकार की आधिव्याधिरूप तरङ्गे उत्पन्न होती हैं, इन तरंगों द्वारा चलायमान अवश्यंभावी मृत्युभय ही जिसमें तोयपृष्ठ-जल का उपरितनभाग है, ऐसा यह संसारसागर है। तथा यह (कसाय-पायालसंकुलं) कषायरूप पातालकलशों से व्याप्त है। (भव-सयसहस्स-कलुस-जल-संचयं) लाखों ढगा३५ छ, हुसड निहा, निरत२ थती रोगहना, पराम, विनिपातવિનાશ, અથવા પરાભવની પ્રાપ્તિ, નિષ્ફર વચન, અપમાનનાં વચન, તેમજ કઠોર ઉદયવાળાં સંચિત જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મો, એ જ જેમાં પાષાણ (ખડકો) છે, અને આ પાષાણે સાથે ભટકાવાથી જે અનેક પ્રકારનાં આધિવ્યાધિરૂપ મેજા ઉત્પન્ન થતાં રહે છે અને તે દ્વારા ચલાયમાન અવશ્યભાવી મૃત્યુભય જ જેમાં પાણીની સપાટીને ભાગ છે; એ આ સંસારસાગર છે. તથા આ (कसायपायालसंकुल) ४ाय३५ पाताजशथी व्यास छ. ( भव-सयसहस्स-कलु Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूष वर्षिणी-टीका सू. ३२ संसारसागरवर्णनम् कलुस-जल-संचयं पइभयं अपरिमिय-महिच्छ-कलुसमइवाउवेग - उद्धुम्ममाण-दगरय -रयंधआर-वरफेण-पउर-आसाखाण्येव कलुषजलसंचयो यत्र स तथा तम् । इभयं प्रतिभयम्=महाभयङ्करम् , 'अपरिमियमहिच्छ-कलुसमइ-बाउवेग-उद्धम्ममाण-गरय-रयंधआर-वरफेण-पउर-आसा-पिवासधवलं' अपरिमित-महेच्छ-कलुषमति-बायुवेगो-भूयमानो-दकरजोरयाऽन्धकार-वरफेन-प्रचुराऽऽशापिपासा-धवलम्-अपरिमिताः अत्यधिका ये महेच्छाः-तीत्राभिलाषवन्तो लोकाः, तेषां कलुषा मलिना या मतिः सैव वायुवेगेन उद्भूयमानम्-उदकरजोरयः-जलकणसमूहः, तेन अन्धकार इव यत्र स तथा, वरफेनैरिव-आशापिपासाभिर्धवल इव धवलो यः स तथा तं, तत्राप्राप्तार्थानां प्राप्ति संभावना आशाः, धनसम्बन्धिन्यस्तीवलालसाः पिपासाः। 'मोहमहावत्तभोगभमभाण गुप्पमाणुच्छलंतपच्चोणियत्तपाणियपमायचंड बहुदुट्ठसावयसमाहयुद्धायमाणपब्भार - घोरकंदियमहारवरवंतभेवरवं'-मोहमहावर्तभोगभ्राभ्यद्गुप्यदुच्छल प्रत्यवनिपतत्पानीयप्रमादचण्डभव रूप ही जिसमें कलुष-मलिन-जल का चय है, (पइभयं) महाभयङ्कर है। (अपरि-मियमहिच्छ कलुसमइ-उवेग-उद्धम्ममाण गरयत्यंधयार-वरफेण-पउर-आसा-पिवासधवलं) अपरिमित-अत्यधिक अभिलाषाशा ही मनुष्यों की जो विविध प्रकार की बुद्रियां हैं ये ही मानों इसके वायुके झोकों से उड़ाने हुए जलकण हैं, इनसे यह संसारसमुद्र अंधकार से युक्त जैसा हो रहा है। आशा एवं पिपासारूप प्रचुर फेन से यह धवलित हो रहा है। अप्राप्त अर्थ की प्राप्ति की भावना का नाम अगा है, और धनबंधी तीन लालसा का नाम पिपासा है। (मोह-महावत्त-भोग-भममाण-गुप्पम गु-च्छलंत-पच्चोणियत्त-पाणिय-माय-चंडबहुदुट-साव यसमाहयुदायमाण-पधार-पोर-कंदिय-महारवरवंत-भेरव-रवं) इस संसार स-जल-संचय) साणे म१३५४२मा सुष-भेसा पाणीन सय छ; (पइभयं) भडामय ४२ छ (अपरिमिय-महिच्छ-कलुसमइ-वाउवेग-उद्धुम्ममाण-दगरय-रयंधयार-वरफेण-पउर-आसा-पिवास-धवल) अपरिभित-बहु ८ मनिसाषावाणी मनुબેની જે વિવિધ પ્રકારની બુદ્ધિ છે તે જાણે તેને વાયુના ઝપાટાથી ઉડતાં જલકણે છે. તેનાથી આ સંસાર સમુદ્ર અંધકારથી ભરેલ જેવો થઈ ગયે છે. આશા તેમજ પિપાસા (તૃષ્ણા) રૂપ પ્રચુર ફીણથી તે સફેદ થઈ રહેલે છે. અપ્રાપ્ત અર્થની પ્રાપ્તિની સંભાવનાનું નામ આશા છે અને ધન सधी तात्र वासानु नाम पिपासा छ. (मोह-महावत्त-भोग-भममाण-गुप्पमाणुच्छलंत-पच्चोणिवत्त-पाणिय-पमाय-चंड बहुदुट्ठ-सावय-समाहयुद्धायमाण-पब्भार-घोर Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ औपपातिकसूत्रे पिवास-धवलं मोहमहावत्त-भोग-भममाण-गुष्पमाणु-च्छलंतपञ्चोणियत्त-पाणिय-पमाय-चंड-बहुदुइ-सावय-समाहयुद्धायमाण--पब्भार-घोर-कंदियमहारवरवंत-भेरवरवं अण्णाण भमंतिमबहुदुष्टचापदसमाहतोद्रावत्प्राग्भारधोरक्रन्दितमहारवरुवझैरवरवम्-मोहरूपे महावतें भाग एवं नान्यत्-चक्राकारेण भ्रमत् , गुबत्-चपलीभवत् , उछल-उपनत . 'पञ्चोणिय' प्रत्यवनिपतत्-अधःपतत् , पानीयं जलं यत्र स तथा, प्रमादाः अद्यादथस्न एव चण्डबहुदुष्टश्वापदाः-चण्डाः क्रोधशीलाः बहु दुष्टाः अतिदुष्टस्वभावाः, श्वापदाः हिंसकजीवास्तै समाहय' समाहताः प्रहता-आधातं प्राप्ताः ‘उद्धायमाण' अन्तः = उच्छलन्तः विविधं चेष्टमाना वा समुद्रपक्षे मत्स्यादयः संसारपक्षे पुरुषादयः, तेषां 'प प्राग्भारः-समूहो यत्र स तथा, तथा घोरो यः क्रन्दितमहारवः रोदनमहाशब्दः स रुवनप्रतिनदन-प्रतिध्वनि कुर्वन् भैरवरवो भयानकशब्दो यत्र स तथा, ततस्त्रयाणां पदानां कर्मधारयः, तम्--'अण्णाग-भमंत-मच्छ-परिहत्थ-अणिहुयि देय-महामगर-तुरिय-बरिग-खोखुमभाग-नचंत-चवलचंचल-चलंत-घुम्पंत-जलसमूह' अज्ञान-भ्रमन्मत्स्य-परिहस्तानिवृतेन्द्रियसमुद्र के मोहरूप महा-आवर्त में भोगरूप जल चक्राकार से घूम रहा है, अत्यन्त चंचल हो रहा है, उछल रहा है, उछल कर फिर नीचे गिर रहा है । तथा इस संसार समुद्र में ग्रमाद आदि ही क्रोधी एवं अतिदुष्ट स्वभाव वाले हिंसक जीव हैं । इन के द्वारा आधात को प्राप्त होकर समस्त संसारी जीवों-पुरुष आदि (समुद्रपक्ष में मत्स्यादिक जलचर जीवों) का समूह इधर-उधर भागता फिरता है । उन्हीं संसारी जीवों के भयंकर आक्रन्दन की महाभीषण प्रतिध्वनि इस संसार समुद्र में हो रही है। तथा-(अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्य-अणिहुयिदिय-महासागर-तुरिय-चरिय-खोखुब्भमाणनचंत-चवल-चंचल-चलंत-घुम्मत - जलसमूह) कंदिय-महारख-रवंत-भेरव-रवं) ॥ संसार समुद्रना भाड३५ भड। गावतभा ભેગરૂપ જલચકની પેઠે ઘૂમી રહ્યું છે. બહુ વેગ થઈ રહ્યો છે, ઉછળી રહ્યું છે. ઉછળીને પાછું નીચે પડે છે. તથા–આ સંસારસમુદ્રમાં પ્રસાદ આદિ જ કોધી તેમજ અતિદુષ્ટ સ્વભાવવાળા હિંસક જીવ છે, તેમના દ્વારા આઘાત પામીને સમસ્ત સંસારી જી-પુરુષ આદિ (સમુદ્ર પક્ષમાં મસ્યાદિક જલચર જીવો)ને સમૂહ આમતેમ ભાગનાસ કરે છે. તે સંસારી જીવોને ભયંકર આકંદનનો મહાભીષણ પડઘે આ સંસારસમુદ્રમાં પડે छ, तथा (अण्णाण-भमंत-मच्छ-परिहत्थ अणिहुधिदिय-महासागर-तुरिय चरिय-खोग्खु Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सू. ३२ संसारसागरवर्णनम् च्छपरिहत्थ-अणिहुयिंदिय-महामगर-तुरिय-चरिय-खोखुब्भमाणनचंत-चवल-चंचल-चलंत-घुम्मंत-जल-समूहंअरइ-भय-विसायसोग-मिच्छत्त-सेल-संकडं अणाइसंताण-कम्मबंधण-किलेसमहामकर-त्वरितचरित-चोक्षुभ्यमाण-नृत्यच्चपलाचञ्चल-चलद्-घूर्णजल-समूहम्-अज्ञानान्येव भ्रमन्तो मत्स्याः प्रतिहस्ता जलजन्तुविशेषाः, यस्मिन् संसारसागरे स तथा, अनिभृतानिअनुपशान्तानि यानीन्द्रियाणि तान्येव महामकरास्तेषां यानि त्वरितानि शीघ्राणि चेष्टितानि -चेष्टाः तैः-चोक्षुभ्यमाणः अत्यन्तमुच्छलन नृत्यन्निव नृत्यन् , चपलावच्चञ्चलं यथा स्यात् तथा व छन् , पूर्णन विद्युत्समानवेगेन चलच्चक्राकारं भ्रमन् जलसमूहः, संसारपक्षे तु जडसमूहो-विवेकज्ञानरहितानां समूहो यत्र स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तं तादृशम् । 'अरइ-भयविसाय सोग-मिच्छत्त-सेल-संकडं'अरतिभयविशादशोकमिथ्यात्वशैलसङ्कटम्-अरतिः, भयं, विषादः,योकः, मिथ्यात्वम् एतानि प्रतिरोधकतया शैला इव तैः सङ्कटः अतिविकटः, तं तादृशम् , 'अणाइ-संताण-कम्म-बंधण-किलेस-चिक्खिल्ल-सुदुत्तारं' अनादि-सन्तान-कर्मबन्धनक्लेशकर्दमसुतरम्-अनादिसन्तानम् अनादिप्रवाहं यत्कर्मबन्धनं तच्च, क्लेशाश्च रागादयस्तल्लक्षणं यत् इस सार समुद्र में अज्ञान ही घूमते हुए मत्स्य एवं परिहस्त-जलजन्तुविशेष हैं। अनुपशान्त इन्द्रियां ही इसमें विकराल मगर हैं । इन इन्द्रियरूप महामकरों के चंचल चेष्टाओं से इसमें अज्ञानियों का समूहरूप जलसमूह क्षुब्ध हो रहा है, नाच रहा है, विद्युद्वेग से चक्रवत् घूम रहा है। (अरइ-भय-विसाय-सोग-मिच्छत्त-सेल-संकडं) अरति-अप्रीति, भय-भीति, विषाद, झोक एवं मिथ्यात्वरूप पर्वतों से यह संसारसमुद्र अत्यंत विकट बना हुआ है। (अणाइ-संताणकम्मवंधणकिलेस-चिक्विल्ल-सुदुत्तारं) अनादिकाल से इस जीव के साथ भमाण नच्चंत-चपलचंचल-चलंत-घुम्मंत जल-समूह) २॥ ससासमुद्रमा अज्ञान જ ઘુમતા માછલાં તેમજ પરિહસ્ત-જલજંતુવિશેષ છે. અનુશાંત ઇંદ્રિયે જ એમાં વિકરાળ મગર છે. તે ઈદ્રિયરૂપ મહામકની ચંચળ ચેષ્ટા ઓથી તેમાં અજ્ઞાનીઓના સમૂહરૂપ જલસમૂહ ક્ષુબ્ધ થઈ રહ્યો છે, નાચી २ह्यो , पीजीणे यानी पेठे ५१ २ह्यो छे. (अरइ-भय-विसाय-सोग-मिच्छत्त-सेल-संकडं) २२ति-मप्रीति, मय-नीति, विषाह-श, तेभन मिथ्यात्व३५ पाथी २॥ संसारसमुद्र सत्यत वि४८ अने। छ. (अणाइ-संताणकम्म बंधण-किलेस-चिक्खिल्ल-सुदुत्तारं) मनाहि थी २॥ ७वनी साथे धन Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपानिकसूत्रे चिक्खिल्ल-सुदुत्तारं अमर-णर-तिरिय-णरयगइ-गमण-कुडिलपरियत्त-विउलवेलं चउरंतं महतमणवदग्गं रुदं संसारसागरं 'चिक्रवल्लं'-कर्दमः, तेन सुष्टु दुस्तरः स तथा म् । 'अमर-णर-तिरिय-णरय-गई-गमणकुडिल-परियत्तविउल-वेलं'अमर-नर-तिर्थङ्ना क-गतिगमन-कुटिल-परिवर्त-विपुल-वेलम् , सुर-नर-तिर्यङ्नारक -गतिषु चतसृषु-गमनं तदेव कुटेलपरिवर्ताः-वक्रसम्भ्रमास्त एष विपुलाः= विशालाः वेलाः यस्मिन् स तथा तं-चतुगभनरूपकुटिलावर्तविपुलतटम् । 'चउरंत' चतुरन्तम्-दिग्भेदगतिभेदाभ्यां चतुर्विभागम् । 'अहंत' महान्तम्=विशालम् । 'अगवदग्गं' अनवदग्रम् अपर्यवसानम् । 'रुदं रौद्रम्-भयज किम् । 'भीमदरिसणिज' भीमदर्शनीयम्भीमं यथा भवतीत्येवं दृश्यते यःस भीमदर्शनीयस्तम् , यस्थ दर्शनाद् भवमुत्पद्यते तमित्यर्थः । बंधन अवस्था को प्राप्त-चला आ रहा जो कर्म : वं इनसे उद्भूत जो रागादिक परिणाम हैं, ये ही जहां चिकना कादव हैं। इसीसे इसका तिरना दुष्कर हो रहा है । (अमर-णरतिरिय-णयगइ-गमण-कुडिल-पश्यित्त-विउल वेलं) देवगति, मनुष्यगति, तिथंचगति एवं नरकगति इन चार गतियों में जो निरन्तर जीव क परिभ्रमण है वही इसकी वक्र परिवर्द्धमान विस्तृत वेला है । (चउरंत) चतुर्गतिरूप चार दिशाओं के चार विभागों से जो विभक्त है । (महंतं) जो बड़ी विशाल है। (अणवदग्गं) जिसका पार पाना बहुत ही कठिन है । (रुदं) जो बड़ा ही विकरालस्वरूप वाला है। (भीमदरिसणिज्ज) जिसके देखने मात्र से ही भय का संचार होता है। ऐसा यह संसारसर द है । इसका पार पाना विना यमरूप जहाज के हो नहीं सकता है । अब यहां से यमरूप जहाज का वर्णन सूत्रकार करते हैं અવસ્થાથી ચાલ્યાં આવતાં જે કર્મ તેમજ તેમનાથી પેદા થતા જે રાગાદિક પરિણામ છે તે જ ચીકણો કાદવ છે અને તેથી તેને તરવું મુશ્કેલ થાય છે. (अमर-णर-तिरिय-णरय-गइ-गमण-कुडिल-परियत-विउल-वेल) वाति, मनुष्याति, તિર્યંચગતિ તેમજ નરકગતિ આ ચાર ગતિરામાં જે નિરંતર જીવનું પરિભ્રમણ छ ते ४ तेनी isी, परिवधित थती विवेसा छ. (चउरंत) यति३५ यार ाियांना या विभागाथा २ विमत छ. (महंत) २ प भारी छ. (अणवदग्गं) रेनो पा२ पाभव। ४४ छ (रुदं) २ ४ वि४२॥ २१३५वाण छ. (भीमदरिसणिज्ज) न शन मात्रयी ४ नयने सयार થાય છે. એવો આ સંસારસમુદ્ર છે. તેને પાર પામ તે સંયમરૂપ નાવ વગર બની શકતું નથી. હવે અહીંથી સંયમરૂપ નાવ (વહાણ)નું વર્ણન Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका खु. ३२ महावीर स्वामिशिष्यवर्णनम् भीमदरिसणिजं तरंति, धिइ-धणिय-निप्यकंपेण तुरिय-चवलं संवर-वेरग्ग-तुंगकूवय-सुसंपउत्तेणं णाण-सिय-विमल-भूसिएणं सम्मत्त-विसुद्ध-लद्ध-णिजमएणं धीरा संजमपोएण सीलक'संसारसागरम तरन्ति, अस्य 'संथमपोस' इत्यग्रे वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । संसारभयोद्विग्नाः “यमिनः यमपोतेन तरीतुं पारयन्ती र्थः । किम्भूतेन यमपोतेनेत्याह-'धिइधणियनिप्पकंपेण' धृतिधनिकनिष्प्रकम्पेण-धृतिर पेग रज्जुबन्धनेन धनिकम् अत्यर्थं निष्प्रकम्पः= कम्पनरहितस्तेन यमपोतेन, 'तुरियचवलं' रितचपलम् अतिशीघ्रम् ,–'संवर-वेरग्ग-तुंगकूवय-सुसंपउत्तेणं' वर-वैराग्य-तुङ्ग कूपक-जुलंप्रयुक्तेन, तत्र नंबरः प्राणातिपातादिविरतिरूपः, वैराग्य-विषयाजभिषङ्गः, एतद्रूपो यस्तु : अत्युच्चः कूपकः-पोतमध्यस्थितः स्तम्भः, तेन सुष्टु सम्प्रयुक्तः-सम्यक्तथा प्रयोजितस्तेन, 'णाण-सिय-विमल-मसिएणं' ज्ञान-सितविमलोच्छितेन, ज्ञानमेव सितं= वेतं वस्त्रं तदेव विमलम् उच्छ्रितं यत्र तेन, मूले मकारः प्राकृतत्वात् । पवनप्रकम्पितश्वेतपः मण्डलमण्डितपटाकर्षणेन नौका वेगगामिनी भवति । सति साधनोपेतेऽपि पोते कर्णधारेग भाव्यमित्याह-'सम्मत्तविसुद्धलद्धणिज्जाम(धिइधणियणिप्पकंपेण) धृतिरूप रज्जुबंधन से जो अत्यंत निष्प्रकंप है। (तुरियचवलं) गति जिसकी अत्यंत शीघ्रगामी है : (संवर-वे गग-तुंग-कूवय-सुसंपउत्तेणं) संवर-प्राणातिपातादि से निवृत्तिरूप विरति एवं वैराग्य-विषयों में अनभिष्वङ्गरूप वृत्ति-ये दोनों ही जिसके बीच में एक ऊँचा कूपक-स्तम्भ है। (णाण-सिय-विमल-मूसिएणं) ज्ञानरूपी सफेदवस्त्र का जिसमें पाल तना हुआ है । नौका में एक लकड़ी का खंभ लगा रहता है जिस पर एक कपड़ा तना रहता है । इससे हवा की रुकावट होने से नौका बड़े वेग से चलती है। यही रूपक यहां घटित किया गया है। सम्मत्त-विसुद्ध-लद्ध-णिज्जामएणं ) जिसमें सूत्रा२ ४२ -(धिइधणियणिप्पकंपेण) पति३५ होना धनथी २ ५४ निष्प (१८) छ. (तुरियचवलं) गतिनी अत्यंत वेगवाजी छे. (संवर-वेरग्गतुंग-कूवय सुसंपउत्तेण) स१२-प्रातिपतिथी निवृत्ति३५ वि२ति तेभ०४ વિરાગ્ય વિષમાં અનાસક્તિરૂપ વૃત્તિ-એ બને જેના વચમાં એક ઉંચે ५४२तला . (णाण-सिय-विमल-मूसिष्णं) शान३५ स३६ वखना सभा सद હોય છે. વહાણુમાં એક લાકડાને થાંભલો લાગેલ હોય છે જેના પર એક કપડું (સઢ) તાણેલો હોય છે. તેમાં હવા રેકાઈ જાય છે તેથી ભરાઈને વહાણ બહુ वेगथी या छ. २५0 ४ ३५४ २०डी धरावे . (सम्मत्त-विसुद्ध-लद्ध-णिज्जामएण) Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ औपपातिक लिया पसत्थज्झाण-तव-वाय- गोलियपहाविएणं उजमववसायग्गाहिय- णिजरण - जयण- उद्योग जाण दंसण-[चरित] विसुद्धएणं' सम्यक्त्वविशुद्धलब्धनिर्यामकेण सम्यक् रूपो विशुद्रो निर्दोष लब्धः = प्राप्तो निर्यामकः= कर्णधारो -- नौकावाहको यत्र स तथा तेन, सरूपकर्णवारयुक्तेनेत्यर्थः ; धीराः - स्थिरस्व भावाः, 'संजमपोएण' संयमपोतेन =सीयमनौ या । 'सीलकलिया' शीलकलिता:--अष्टादशसहस्रशीलाङ्गरथधारकाः—शीलसंयुक्ताः; 'पसह ज्झाग तनवायपणोलिय पहा बिएणं' प्रशस्तध्यानतपोवातप्रगोदित प्रधावितेन - प्रशस्तं ध्यानं धर्मशुकादिकं तद्रूपं तपः तदेव बातो वायुः, तेन प्रणोदितः = प्रेरितः, अतएव प्रधावितस्तेन, 'उज्जम-वत्रसाय-ग्गहिय- गिज्जरण-जयणउवओगगाणदंसगचरितविद्धवयवरभंडभरेयसारा' उद्यमव्यवसाय गृहीतनिर्जरगयतनोपयोगज्ञानदर्शनचारित्रविशुद्वतवर भाण्डभृतसारा उद्यमः = प्रमादपरित्यागः व्यसायो - मोक्षप्राप्तिनिश्चयः- ताभ्यां मूल्यरूपाभ्यां यद्गृहीतं क्रीतं नि रंगयतनोपयोगज्ञानदर्शनचारित्रविशुद्रं व्रतवरं= विशुद्ध सम्यक्त्व ही नियमक-कर्णधार के रानापन है, अर्थात् विशुद्ध समकित का लाभ जिसमें खेवटिया के समान है । (पसत्य-ज्झाणत वाय-पणोलिय-महाविएणं) प्रशस्त ध्यानरूप तपरूपी वायु से प्रेरित होकर जो आगे २ बढता रहता है । इस तरह इन पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट इस संयमरूपी हाज के द्वारा इस साररूप अभार दुस्तर समुद्र को (धीरा) धीरवीर स्थिर स्वभाववाले मु (जन ही (तरंति) पार करते हैं । अब यहां से मुनिजनों के लिये प्रयुक्त विशेषणों का अस्पष्ट किया जाता है - ( सीलकलिया) ये मुनिजन-शील - १८ हजार शील के भेदों को भाण करने वाले हैं। (उज्जम-मवसान ग्गहियणिज्जरण - जयण उवओग-गाग-दंसण-[चरित विमुद्धवयरमंडभरियसारा) उद्यम अर्थात् C જેમાં વિશુદ્ધ સમ્યકત્વ જ નિર્યામક-ક ધા ને સ્થાને (સુકાની) છે, અર્થાત્ વિશુદ્ધ समतिनो साल ४ मा सुभनीना भान है ( पसत्य-ज्झाण-तव- वाय-पणोल्लिय - पहा विएणं) પ્રશસ્ત ધ્યાનરૂપ રરૂપી વાયુથી પ્રેરિત થઇને આગળ આગળ વધતા રહે છે. એ રીતે પૂર્વોક્ત વિશેષણાથી વિશિષ્ટ આ સંયમરૂપી વહાણુદ્વારા સંસારરૂપ અપાર સ્તર સમુદ્રને ધીર વીર સ્થિર સ્વભાવ वाजा भुनिन्नो ४ (तरंति) पार उरे छे. हुवे नहीं थी भुनिन्नो भाटे साडेसां विशेषशाना अर्थ स्पष्ट वामां आवे है - (सीलकलिया) से भुनिन्नो शीस१८ डलर शीसना प्रकारने धारण उरवावा! छे (उज्जम ववसाय-ग्गाहिय-गिज्जरण-जयण-उवओग-णाण- दंसण-[ चरित्त]- विसुद्ध यवर- भंड- भरिय - सारा) उद्यम अर्थात् - Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३२ महावीरस्वामिशिष्यवर्णनम् ३१९ वयवर - भंड- भरियसारा जिणव वयणोवदिट्ट-मग्गेण अकुडिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिमुहा समण-सत्थवाहा सुसुइ-सुभास - महात्रतं तदेव भाण्डः क्रयणीयवस्तु जातरूपः, नृतः = स्थापितः सारो = रत्नादिरूपः पदार्थों यैस्ते तथा, केन पथा प्रयान्तस्तरन्तीत्यत्राह - 'जिणच वयगोवदिमग्गेग' जिनवरवचनोपदिष्टमार्गेण जिनवरवचनम्=आगमरूपं तेन उपदिष्टः कथि :- मार्ग :- संयमपथः तेन, 'अकुडिलेन' अकुटिलेन - कापट्यादिदोषरहितेन, 'सिद्धिपट्टणामिमुहा ' सिद्धिपत्तनाभिमुखाः - सिद्धिरेव पत्तनं वणिक्पुरं तदभिमुखाः- तस्य मुखाः । ' सगवर सत्थवाहा' श्रमणवर सार्थवाहाः - श्रमणप्रमाद का परित्याग एवं व्यवसाय अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय, इन दोनों मूल्यों से गृहीत क्रीत वरत्रत - महात्रतरूप - मण्डों का क्रयणीय वस्तुओं का - कि जो निर्जरा, यतना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन एवं [ चारित्र ] से शुद्ध हैं, जिनमें सार भरा हुआ है ऐसे मुनिजन इस संसाररूप महासमुद्र से पार होते हैं। किस मार्ग पर चलते हुए ये पार होते हैं ? सो बताते हैं- (जिणवरवय गोवदिमग्गेण ) जिनवर का जो वचन है-आगम है, उसके द्वारा उपदिष्ट जो संयमरूप मार्ग है, उस पर चलकर ही ये मुनिजन इस संसाररूप समुद्र को पार करते हैं । यह मार्ग कैसा है, इसके लिये सूत्रकार (अकुडिलेण) इस विशेषण से स्पष्ट करते हैं - यह मार्ग कपटता आदि दोषों से रहित हैं, अर्थात् - सरल है - आड़ा - टेढ़ा नहीं है । ऐसे मार्ग से प्रयाग करने वाले ये निजन पुन: कैसे होते हैं ? यह अब यहां से स्पष्ट किया जाता है - (सिद्धिपट्टाभि ) इस प्रकार के मार्ग से प्रयाण करने वाले પ્રમાદના પરિત્યાગ તેમજ વ્યવસાય અર્થાત્ માક્ષ પ્રાપ્ત કરવાના દૃઢ નિશ્ચય, मे मन्ने मूल्य (भित ) थी सीधेस-वेद्यातां सीधेस १२ व्रत - महाव्रत३च वासलोना-वेथाती सीधेसी वस्तुओना ने निश, यतना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन તેમજ ચારિત્રથી વિશુદ્ધ છે જેમાં સાર રેલા છે. એવા મુનિજન આ સંસારરૂપ મહાસમુદ્રથી પાર થઈ જાય છે. કયા માર્ગ પર ચાલતાં તેઓ પાર થાય છે ? તે ताये - (जिणवरवयणोवदिट्ठमग्गेण) निवर ने वयन छे-आगम छे- तेना દ્વારા ઉપદેશાએલ જે સયમરૂપ માર્ગ છે, તેના પર ચાલીને જ તે મુનિજને આ સંસારરૂપ સમુદ્રને પાર કરે છે. આ મા કેવા છે? તે માટે સૂત્રકાર ( अकुडिलेण) मा विशेषणुथी स्पष्ट हुने छे. या भार्ग उपटता आहि होषोथी રહિત છે-અર્થાત્ સરળ છે, આડોટડા નથી. એવા મા થી પ્રયાણ કરનારા એ મુનિજના વળી કેવા હોય છે તે બધુ અહીંથી સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે. (सिद्धिपट्टणाभिहा) में अहारना भार्गे प्रयाणु उरवावाजा भुनिन्नो सिद्धि३य Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ओपपातिकसूत्रे सुपरह- सासा गा गा मे एरायं गरे नगरे पंचरायं दूइजंता श्रेष्ठाः-सार्थवाहाः-संधीभूतव्यवसायिनः । सुइ-सुसंभास - सुपण्ह- सासा' सुश्रुति (सुशुचि) सुसम्भाषा-सुप्रश्न– स्वाशाः - सुष्टु श्रुतयो ये ते सुश्रुतयः - सम्यक्सूत्रग्रन्थाः - सत्सिद्धान्ताः, अथवा सुशुचयः - सम्यक्छुद्धिमन्तः । सुखः खजनकः सम्भाषो येषां ते सुसम्भाषाः-कदाचिदपि कटूच्चारणं न कुर्वन्तः । शोभनाः प्रा येषां ते सुप्रश्नाः - प्रमितसमुचितप्रश्नकारिणः, शोभना आशा येषां ते स्वाशाः - मुक्तिमात्रेच्छवः, चतुर्णामेषां कर्मधारये - सुश्रुति सुसम्भाषासुप्रश्नस्वाशाः, एवंविधाः सन्तः 'गामे गाये एगराय ग्रामे ग्रामे - एकरात्रम् - प्रतिग्रामम् एकरात्रम्, अस्थ 'दूइज्जता ' इत्यनेन सहान्वयः । 'नगरे नगरे पंचरायं' नगरे नगरे पञ्चरात्रम् - प्रतिनगरंपञ्चरात्रं, 'दुइज्जंता' द्रवन्तः = वसन्तः, धातूनामनेकार्थत्वात्, 'जिइंदिया' जितेन्द्रियाः 'णिन्भ मुनिजन सिद्धिरूप पण - पत्तन के सन्मुख होते हैं । ( समणवरसत्थवाहा ) इनके साथी श्रमणश्रेष्ठरूप सार्थवाह-व्यवसायिजन होते हैं। (सुसुइ-मुभास - सुपरहसासा) सत् सिद्धान्तों के ये पारंगत होते हैं, अथवा इनका सिद्धान्त समीचीन- निर्दोष होता है, अथवा ये विशिष्ट - शुद्धि-संपन्न होते हैं । भाषा इनकी बड़ी ही मनोमुग्धकारी होती है । कभी भी ये कटुक भाषा का उच्चारण नहीं करते हैं । ये जो भी प्रश्न करते हैं वह प्रमाणोपेत होता है-व्यर्थ के अक्षरों का उसमें समावेश नहीं रहता । सांसारिक पदार्थों में किसी में भी इनकी इच्छा जागृत नहीं होती; सिर्फ मुक्ति प्राप्त करने की भावना ही एक इनकी रहा करती है । (गामे गाये एगरायं णयरे वरायं दूइज्जता ) ये साधु ग्रामों में एक रात और नगरों में पांच रात निवास करते थे । (जिइंदिया ) ये जितेन्द्रिय थे, चट्टणु-पत्तननी सन्मुख होय छे. (सागवरसत्थवाहा) तेमना साथी श्रमाशुश्रेष्ठ ३५ सार्थवाह-व्यवसायी न होय छे ( सुसुइसुसं भाससुपण्हसासा) सत्-सिद्धांતેમાં તેઓ પારંગત હોય છે અથવા તેઓના સિદ્ધાન્તા નિર્દોષ હોય છે, અથવા તેઓ વિશિષ્ટ શુદ્ધિસપન્ન હેાય છે. ભાષા તેમની બહુજ મને મુગ્ધ કરવાવાળી હાય છે. કદીપણ તેએ કડવીભાષાના ઉચ્ચાર કરતા નથી. તેઓ જે કાંઈ પ્રશ્ન કરે છે તે પ્રમાણવાળા હોય છે–વ્ય રહેતા નથી. સાંસારિક પદાર્થોમાં કાઇમાં પણ તેમની ઇચ્છા જાગૃત થતી નથી. मात्र मुक्ति प्राप्त खानी लावना ४ ४ तेभने रह्या उरे छे. (गामे गामे एगरायं णयरे णयरे पंचरायं दूइज्जता ) मा साधुओ गाभडायामां मेड રાત સુધી અને નગરમાં પાંચ રાત સુધી નિવાસ કરતા gal. (farsfear) અક્ષરોના તેમાં સમાવેશ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका स. ३२ महावीर स्वामिशिष्यवर्णनम् जिइंदिया णिब्भया गयभया सचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु विरागयं गया संजया [विरता] मुत्ता लहुया णिरवकंखा साहू णिहुया चरंति धम्मं ॥ सू० ३२॥ या गयभया' निर्भया गतभयाः, 'सचित्तचित्तमीसिएसु दव्वेसु' सचित्ताऽचित्तमिश्रितेषु द्रव्येवु-वस्तुषु 'विरागयं गया' विरागतां गताः-वैराग्यं प्राप्ताः । 'संजया' संयताः यमवन्तः। 'विरता' विरताः हिंसादिभ्यो निवृत्ताः, 'मुत्ता' मुक्ताः-लोभरहिताः, 'लहुआ' लघुकाःस्वल्पोपधिधारितया लघुभूताः । 'गिरवकंखा' निरवकाङ्क्षाः उभयलोकसुखाभिलाषवर्जिताः, यतः पूर्वोक्तगुणविशिष्टाः, अतएव 'साहू' साधवः-मोक्षसाधकाः । 'गिहुया' निभृताःविनीता जात्यादिमदवर्जिताः इत्यर्थः, 'धम्म' धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणम् । 'चरंति' चरन्ति आराधयन्ति ।। सू० ३२॥ (णिब्भया गयभया) निर्भय थे, स हेतु इन्हें कहीं भी भय नहीं लगता था, (सचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु विरागयं गया) सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त द्रव्यों में ये वैराग्य युक्त थे, (संजया घिरता मुत्ता) लयमशाली, हिंसादिनिवृत्त और लोभरहित थे, [लहुया] स्वल्प उपधि के धारक होने से ये लघु-लाघवगुणनंपन्न थे, (णिरवकंवा) इहलोक और परलोक के सुखों की अभिलाषा से रहित थे; अत एव ये मुनि गण (साहू) साधु, अर्थात् मोक्षसाधक थे । भगवान महावीरके ये साधु (णिहुया) निभृत-जात्यादि मद से रहित होनेके कारण विनीत होकर (धम्म) श्रुतचारित्रलक्षण धर्म की (चरंति) आराधना करते थे ।। सू०३२ ॥ सा साधुमे। तिन्द्रिय उता, (भिया गयभया ) निलय , तेथी तेभने ४४ाणे भय तु नहि. तसा (सचित्ताचित्तमीसिएसु व्वेसु विरागयं गया ) सचित्त, मयित्त भने सथित्तास्थित्त द्रव्यामा वैराज्यवान त, (संजया विरता मुत्ता ) सयभशादी, साहिथी निवृत्त मने सासहित उता, ( लहुया ) स्व८५ उपधिनाया२४ वाथी तेस धु-साधवष्णुसंपन्न हता, (णिरवकंखा ) डा मने परउना सुभानी मलिदापाथी २डित उता. तेथी ४ ते भुनिया ( साहू ) साधु मेट भाक्षसाच ता. मावान महावीरन२१साधुमे। ( णिहुआ) निमृत-त्यादि महथी २डित डोपाने ४ारणे वीनात थधने (धम्म ) श्रुतयारित्र३५ धमनी (चरंति) मा२२घना ४२ता al. (सू. ३२) Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् — तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरकुमारा देवा अंतियं पाउब्भवित्था, कालमहानील-सरिस - गील-गुलिय-गवल-अयसिकुसुम-प्पगासा विय ३२२ टीका- ' तेणं कालेणं तेणं समरणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ' बहवे असुरकुमारा देवा अंतियं पाउन्भवित्था ' बहवोऽसुरकुमारा देवा अन्तिकं प्रादुरभूवन् - भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनोऽन्तिकं = समीपमागत्य प्रादुर्भूताः । असुरकुमाराणां वर्णनमाह - ' काल - महानील-सरिस-णील-गुलिय-गवल-अयसिकुसुम-पगासा' काल-महानील-सदृश-नील-गुलिक-गवलाऽतसीकुसुम-प्रकाशाः - कालो यो महानीलो–मणिविशेषः, तत्सदृशाः वर्णतो ये ते तथा, पुनर्नीलो मणिविशेषः, गुलिका = नीलीगुटिका, गवलं=माहिषं शृङ्गम्, अतसीकुसुमं च एतेषां प्रकाश इव प्रकाशो येषां ते तथा । 'वियसिय सयवत्तमिव' विकसितशतपत्रमिव = प्रफुल्लेन्दीरवरतुल्यं 'पत्तल - णिम्मला-ईसी ' तेणं कालेणं तेणं समएणं ' इत्यादि । इस सूत्रद्वारा सूत्रकार श्रमण भगवान महावीर के निकट आये हुए असुरकुमार देवों का वर्णन करते हैं- ( तेण कालेणं तेणं समएणं ) उस काल एवं उस समय में (समणस्स भगवओ महावीरस्स ) श्रमण भगवान महावीर के ( अंतियं) समीप ( बहवे ) अनेक (असुरकुमारादेवा) असुरकुमार देव ( पाउन्भवित्था) प्रकट हुए। (काल-महानीलसरिस - पील- गुलिय-गवल-अय सिकुसुम-प्पगासा) कृष्ण महानील मणि, नीलमणि, गुलिका, भैंस के सींग के अन्दरका भाग, अलसीका फूल; इन सबों के समान ये असुरकुमार कृष्णवर्ण थे । (वियसिय सयवत्तमिव ) विकसित शतपत्र के समान - अर्थात् इन्दीवर- कमल - के तुल्य " तेण कालेन तेणं समएणं " इत्यादि. આ સૂત્ર દ્વારા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની પાસે આવેલા અસુરडुभार देवानुं वर्णन वामां आवे छे. (तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते असते सभयने विषे (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रभणु भगवान महावीरनी ( अंतियं) पासे (बहवे ) न्मने४ ( असुरकुमारा देवा) असुरकुभार हेव ( पाउब्भवित्था) अगर थया. तेभनां शरीरनो वर्षा हे छे - ( काल - महानील - सरिस - णील-गुलिय-गवल अयसिकुसुम - पगासा) सॄष्णु भडानीस भणि, नीदमणि, गुलिभ, ले सनां शींगડાંની અંદરના ભાગ અને અળશીનાં ફૂલ, આ સની સમાન તે અસુરકુમાર दृष्ट्णु वर्णाना हता. ( वियसियसयवत्तमिव ) विसेसां शतपत्रमा समान, अर्थात् Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३३ असुरकुमारदेववर्णनम्। सिय-सयवत्तमिव पत्तलनिम्मला-ईसी-सिय-रत्त-तंबणयणागरुलायय-उज्जु-तुंग-णासा ओयविय-सिलप्पवाल-बिंबफल-सण्णिभाहरोहा पंडुर-ससिसयल-विमल-णिम्मल-संख-गोखीर-फेण-दगरयसिय-रत्त-तंब-णयणा' पत्रल-निर्मलेषत्सित-रक्त-ताम्र-नयनाः-पत्रलानि-पदमवन्ति-सूक्ष्मरोमयुक्तानि, तथा निर्मलानि तथा ईषत् सितानि-बेतानि तथा ईषद्रक्तानि तथा ईषत्ताम्राणि= अरुणानि नयनानि येषां ते तथा-विकसितशतपत्रतुल्यकिञ्चिच्छुभ्ररक्तनेत्रा इत्यर्थः । 'गरुला-यय-उज्जु-तुंग-णासा' गरुडाऽऽयत तुङ्गनासिकाः-गरुडस्येव आयता-दीर्घा, ऋञ्ची=सरला तुङ्गा उच्चा नासिका येषां ते तथा-सरलदीर्घसुन्दरनासिकावन्तः । 'ओयवियसिलप्पवाल-बिंबफल-सण्णिभा-हरोद्वा' उपचित-शिलाप्रवाल-बिम्बफल-सन्निभाऽधरोष्ठाः-उपचितः पुष्टो यः शिलाप्रवाल:=विद्रुमः, बिम्बफलम्-अतीवारुणं पुष्ट वनवल्लीफलम् , तत्सन्निभौ तुल्यौ अधरोष्ठौ-ओष्ठद्वयं येषां ते, तथा विद्रुभविम्बफलवत् अतीवरक्तोष्ठद्वयवन्तः, 'पंडुर-ससियल-विमल-गिम्मल-संख-गोखीर-फेण दगरय-मुणालिया-धवव-दंतसेढी' पाण्डुर-शशिशकल-विमल-निर्मल-शङ्ख-गोक्षीर-फेन-दकरजो-मृणालिका-धवल-दन्तश्रेणयः, पाण्डुरशशिशकलं शुभचन्द्रखण्डः, तद्वद्विमलनिर्मलाः-विमलेष्वपि निर्मलाः-अतीवोज्वलाः,अतएव-शङ्ख इनके नेत्र थे। (पत्तल-णिम्मला-ईसी-सिय-रत्त-तंब-णयणा) ये नेत्र पक्ष्मल थे-सूक्ष्म रोमयुक्त थे, निर्मल थे, कुछ श्वेत थे, ईषद्रक्त थे, और कुछ २ लाल भी थे। (गरुला-यय-उज्जुतुंग-नासा) गरुड़ के समान दीर्घ, ऋज्वी-सरल एवं ऊँची इनकी नासिका थी । (ओयविय-सिलप्पवालबिवफल-सण्णिभा-हरोद्वा) पुष्ट शिलप्रवाल-विद्रुम (मूंगा), एवं अतीव अरुण बिम्बफल के समान लाल इनके दोनों ओष्ठ थे । (पंडुर-ससि-सयल-विमल-णिम्मलसंख-गोखीर-फेण-दगरय-मुणालिया-धवल-दंतसेढी) धवलचन्द्र के खंड के छन्द्वीव२-भसनावां मना नेत्र हुतi. (पत्तल-णिम्मला-ईसी-सिय रत्ततंबणयणा) એ નેત્ર પફમલ હતાં-સૂમ રેમ (વાળ) યુક્ત હતાં, નિર્મળ હતાં, કંઈક ધોળાં डतi, षद्रत तi, भने १२॥ ०४२ सास पर तi.(गरुलायय-उउजु-तुंग-नासा) २उनावी einी, स२ मने या मेमनी नासि४। ती. (ओयविय-सिलप्पवालविवफल-सब्णिमा-इरोदा) पुष्ट शिसवाल-विद्रुम (भू॥) अने अतिशय बास वर्णन मिन्मसना २१ राता अमना मन्ने ४ ता. (पंडुर-ससिसयल-विमलणिम्भल-संख-गोखीर-फेण-दगरय-मुणालिया-धवल-दतसेढी) स यद्रथ इन। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ओपपातिकसूत्रे मुणालिया-धवल-दंतसेढी, हुयवह-णिद्धंत-धोय-तत्ततवणिज-रत्ततल-तालुजीहा अंजण-घणकसिण-रुयग-रमणिज-णिद्ध-केमा, वामेग-कुंडलधरा अद-चंदणा-लि-गत्ता ईसी-सिलिंध-पुप्फ-प्पगागोक्षीरफेनदकरजोमृणालिकावद् धबलाः दन्तश्रेण हो येषां ते तथा, तत्र दकरजः-जलकणः । 'हतवह-णिदंत-धोय-तत्ततवणिज्ज-रत्ततल-ताल नीहा' हुतबह-निर्मात-धौत-तप्ततपनीयरक्ततलतालुजिह्वाः-हुतवहेन वह्निना निर्मातं-प्रतापितं धौतं-जलप्रमार्जितं तप्तं यत् तपनीयं-सुवर्ण, तद्वद् रक्ततलम्-अरुणोपरिप्रदेशं तालुजिह्र येषां ते तथा-अतिप्रतप्तसंमृष्टसुवर्णवर्णतालजिह्वावन्तः। 'अंजण-घणकसिग-रुयग-रमणिजणिद्ध केसा' अञ्जनधनकृष्णरुचकरमगीयस्निग्धकेशाःअञ्जनं-कजलं, धना-मेधः, एतत्सदृशाः कृष्माः कृष्णवर्गाः, तथा रुचको-मणिविशेषः, तद्वत् स्निग्धाः-चिक्कणाः--केशा येषां ते तथा, कामेगकुंडलधराः' वामैककुण्डलधराः–वामे कर्णे-एककुण्डलधारिणः, न तु दक्षिणे कर्णे; तज्जागीयस्वभावात् एकस्मिन्नेव कर्णे कुण्डलधारकाः दक्षिणे कर्णे त्वन्याभरणधारिण इतिभावः। 'अदचंद ाणुलित्तगत्ता'आर्द्रचन्दनानुलिप्तगात्राः-सद्योसमान शुभ्र, एवं शङ्ख, गोक्षीर, फेन, जलकण और मृणाल के समान अत्यन्त निर्मल इनकी दन्तपङ्कि थी।(हृतवह-णिदंत-धोय-तत्त-भवणिज्ज-रत्ततल-तालुजीहा) पहिले वह्नि में तपाये गये पश्चात् तेजाब में धोये गये पुनः अनि में तपाकर उज्ज्वल किये गये सुवर्ण के समान रक्ततलवाले इनके तालु और जिह्वा थी। (अंजण-घण-कसिण-रुयग-रमणिज्जणिदरकेसा) इनके केश अंजन एवं काले मेघ के समान काले तथा रुचक के समान चिकने । (वामेगकुंडलधरा) इनके वाम कर्ण में कुडल शोभित हो रहा था । इनमें ऐसी प्रथा है कि, ये लोग बायें कान में कुण्डल पहनते हैं और दाहिने कान में अन्य आभूषा । दाहिने कान में ये कभी भी कुण्डल नहीं पहनते हैं। अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता) आर्द्र चन्दन से समान शुभ्र भने ५, क्षीर (६५), ९, ४६४९ न्यने भृार (४भ४४) नवी अत्यन्त निभ मेमनी हतपतिमा ती. (हुतवह णिद्धंत-धोयतत्त-तवणिज्ज रत्ततल तालु-जीहा) पडसा भातपायदा पछी तेनमा घायलों सुवर्ण नावi ane di qui मेमना drai मने म तi. (अंजण-घणकसिण-रुयग-रमणिज्ज-णिद्ध-केसा) मेमना 41 mixey मने ४i lami रेवा तथा सुचना वा चा उता. (वामेगकुंडलधरा) मेमना । કાનમાં કુંડળ શોભી રહ્યાં હતાં. એમાં એવી પ્રથા છે કે એ લોક ડાબા કાનમાં કુંડળ પહેરે છે અને જમણા કાનમાં બીજું ઘરેણું. આ લોગો भए। ४ानमा यारे ५५ पता नथी. ( अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका स. ३३ असुरकुमारदेववर्णनम् साइं असंकिलिट्टाई सुहुमाइं वत्थाई पवरपरिहिया, वयं च पढमं समइकंता विइयं च असंपत्ता भद्दे जोव्वणे वट्टमाणा, तलभंगयघृष्टचन्दनचर्चितशरीराः । अथ वस्त्रविशेषणान्याह-ईसी-सिलिंध-पुप्फ-प्पगासाई'ईषत्-सिलीन्ध्रपुष्पप्रकाशानि-मनाकसिलीन्ध्रकुसुमप्रभाणि--ईषत्सितानीत्यर्थः; सिलीन्ध्रकुसुम-वर्षर्ती भूमिभित्त्वा छत्रकमिव बहिनिस्सरति,मतान्तरे तु एत कुसुमं रक्तवर्णमेव ग्राह्यं यतोऽसुरा रक्तवसनाः प्रायो भवन्तीति । पुनःकीदृशानि वस्त्राणि ? अत्राऽऽह 'मुहुमाई सूक्ष्माणि। 'असंकिलिट्ठाई' असंक्लिष्टानि-दूषणरहितानि। 'वत्थाई' वस्त्राणि-'पवरपरिहिया' प्रवरपरिहिताः-प्रवरम् - उत्कृष्टं यथा तथा परिहिताः परिधृतवन्तः । 'वयं च पढमं समइकंता' वयश्च प्रथमम्=षोडशवर्षपर्यइनका समस्त शरीर लिप्त था । (इसी-सिलिंध-पुप्फ-पगसाइं) इन्होंने जो वस्त्र पहिन रखे थे वे कुछ कम सफेद थे, जैसे सिलीन्ध्र पुप्पका प्रकाश होता है वैसा ही इनका प्रकाश था। वर्षाऋतु में जमीन को फोड़ कर छत्र के आकार जैसा जो पुष्प उत्पन्न होता है उसका नाम सिलीन्ध्र है। किन्हीं २ का मत है कि यह पुष्प रक्तवर्ण भी होता है । अतः इसके ग्रहण से उनके वस्त्र रक्तवर्ण के थे ऐसा ही समझना चाहिये । क्यों कि असुर जाति के देव प्रायः लालवस्त्र धारण करने वाले होते हैं । (मुहुमाई) ये वस्त्र-जिन्हें इन्होंने पहिन रखे थे, अत्यन्त सूक्ष्म-पतले थे, (असंकिलिट्ठाई) और दोष रहित थे। (वत्थाई पवरपरिहिया) ऐसे वस्त्र इन्होंने अच्छी तरह से अपने शरीर पर धारण कर रखे थे । (वयं च पढमं समइक्कंता) प्रथम वय को ये उल्लङ्घन कर चुके थे; अर्थात् ये सब सोलह वर्ष से ऊपर के जैसे मालूम होते भाद्र (लीना ) यन्तुन (सूम ) पणे तभनi Pा शरी२ सित तi. ( इसी-सिलिंध-पुप्फ-पगासाई) तमामे है पनी पा ता ते કઇંક ઓછાં સફેદ હતાં. જેવો સિલીન્દ્ર પુષ્પને પ્રકાશ હોય છે તેવો જ તેમને પ્રકાશ હતો. વર્ષાઋતુમાં જમીનને ફાડીને છત્રના આકાર જેવાં જે પુષ્પ ઉત્પન્ન થાય છે તેનું નામ સિલીન્દ્ર છે. કોઈ કોઈને મત છે કે આ પુષ્પ લાલરંગનાં થાય છે. ત્યારે એ અર્થ ગ્રહણ કરવાથી તેમનાં વસ્ત્ર લાલરંગનાં હતાંએમ જ સમજવું જોઈએ. કેમકે અસુર જાતિના દેવ ઘણું કરીને લાલ વસ્ત્ર धारण ४२११७॥ य छे. (सुहुमाई) २॥ १२ रे तयाये पाडा तi ते अत्यंत सूक्ष्म-पात तi (असंकिलिट्ठाई) भने षडित तi. (वत्थाई पवर-परिहिथा) सेवा सो तमामे सारी रीत पोताना १२ घा२५Y ४ तi (वयं च पढम समइक्कंता) प्रथम वयनु ते॥ Geधन ४२ यू४या , अर्थात् Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ औपपातिक तुडिय - पवर- भूसण - निम्मल-मणि-रयण-मंडिय-भुया दसमुद्दामंडिय-ग्गहत्था चूलामणि- चिंध गया सुरूवा महड्डिया महज्जुइया न्तमतिक्रान्ताः । ' विइयं च असंपत्ता' द्वितीयञ्चाऽसम्प्राप्ताः - द्वितीयं - तरुणं वयः, असंप्राप्ताः = नाद्यापि प्राप्तवन्तः । अतएव - 'भद्दे जोवणे वट्टमाणा' भद्रे यौवने वर्तमानाः - सदा यौवनवयोधारिणः । 'तलभंगय- तुडिय-पवर भूसग निम्मल-मणि रयण-मंडिय-भुया'तलभङ्गक-त्रुटिक प्रवरभूषण-निर्मल-मणि-रत्नमण्डित-भुजाः – तलभङ्गकं – बाबाभरणम्, त्रुटिकानि च बाहुरक्षकाणि, तान्येव भूषणानि तैर्निर्मलमणिरत्नैश्च मण्डिता भुजा येषां ते तथा-विविधवरभूषणमणिरत्नभूषितभुजा इत्यर्थः, 'दसमुद्दामंडियग्गहस्था' दशमुद्रामण्डिताऽग्रहस्ताः- दशभिर्मुद्राभिः = मुद्रिकाभिः मण्डिताः=भूषिताः-अग्रहस्ता अङ्गुलयो येषां ते तथा । 'चूलामणिचिंध गया' चूडामणिचिह्नगताःचूडामणिरूपचिह्नधारका इत्यर्थः । 'सुरूवा' सुरूपाः - सुन्दराssकाराः 'महड्डिया' महर्द्धिका= विशिष्ट विमानपरिवारादियुक्ताः । 'महज्जुइया' महाद्युतिकाः - विशिष्टशरीराऽऽ भरणादिप्रभाभाथे, (विइयं च असंपत्ता) और अभीतक ये तरुण अवस्था को जैसे प्राप्त नहीं हुए हों ऐसे दीखते थे । इसलिये ये सदा (भद्दे जोन्वणे वट्टमाणा) अभिनव यौवन अवस्था से सम्पन्न थे । (तलभंग - तुडिय-पवरभूषण- णिम्मल-मणि- रयण-मंडिय- भुया) इनकी भुजाएँ तलभंगक-बाहु के एक आभरण एवं त्रुटिक - बाहुरक्षक- भुजबंध इन उत्तम दोनों आभूषणों से और निर्मल मणिरत्नों से मण्डित थीं । ( दसमुद्दा- मंडिय-ग्गहत्था) हाथ की सबकी सब अंगुलियाँ दस मुद्रिकाओं से मण्डित थीं, अर्थात्-हाथ की दसों अंगुलियों में मुद्रिकायें थीं । (चूडामणि - चिंध-गया) चूडामणिचिह्न के ये धारक थे । ( सुरूवा) इनका रूप बडा ही सुन्दर था । (मह डिडया) विशिष्ट विमान एवं परिवारादि रूप ऋद्धि के ये सभी देव धारक थे । (महतेथे मधा सोज वर्ष थी उपरना होय सेवा हेमाता हुता. (विइयं च असंपत्ता) અને હજી સુધી તેઓએ તરુણ અવસ્થાને પ્રાપ્ત ન કરી હાય એવા તે हेमाता हुता, आथी तेथे सहा (भद्दे जोव्वणे वट्टमाणा) अभिनव यौवन अव स्थायी सम्पन्न हुता. (तलभंगय- तुडिय-पवर-भूसण- णिम्मल-मणि रयण-मंडिय-भुया) તેમની ભુજાએ તલભગક-માહુના આભરણુ અને ત્રુટિબાહુરક્ષક-ભુજबंध मे मन्ने उत्तम आभूषणोथी तथा निर्माण भणिरत्नोथी मंडित हुती. ( दसमुद्दा - मंडिय - गहत्था) हाथनी तभाभेतमाम मांगजीओ हश मुद्रिअमोथी (वींटीએથી) મંડિત હતી. અર્થાત્ હાથની દશેય આંગળીઓમાં મુદ્રિકાએ હતી, (चूलामणि- चिंध-गया) यूडामणियितना धार४ तेथेो हता. ( सुरूवा) तेमन ३५ मडुन सुंदर डुतां. (महड्डिया ) विशिष्ट विमान भने परिवार याहि ३५ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका स. ३३ असुरकुमारदेववर्णनम् ३२७ महब्बला महासोक्खा महानुभागा हार-विराइय-वच्छा कडगतुडिय-थंभिय-भुया अंगय-कुंडल- मट्ट - गंडयल - कण्णपीढधारी विचित्त-वत्था-भरणा विचित्त-माला-मउलि-मउडा कल्लाणग-पवरस्वराः। 'महब्बला' महाबलाः-विशेषबलशालिनः । 'महायसा' महायशसः-विशालकीर्तिमन्तः, 'महासोक्खा' महासौख्याः-विशिष्टसुखसम्पन्नाः । 'महाणुभागा' महानुभागाःअचिन्त्यप्रभावयुक्ताः। 'हारविराइयवच्छा' हारविराजितवक्षसः । 'कडगतुडियर्थभियभुया' कटकत्रुटिकस्तम्भितभुजाः-कटकैः वलयैः त्रुटिकैः-बाहुरक्षकभूषणविशेषैः स्तम्भिता-सज्जिता भुजा येषां ते तथा। 'अंगय-कुंडल-मट्ठ-गंडयल-कण्णपीढ-धारी' अङ्गद-कुण्डल-मृष्ट-गण्डतलकर्णपीठ-धारिणः-अङ्गदानि बाह्वाभरणानि कुण्डलमृष्टगण्डतलानि कर्णपीढानि-कर्णाभरणाविशेषान् धरन्ति तच्छीलाः । 'विचित्त-वत्था-भरणा'-विचित्र-वस्त्राभरणाः-विचित्राणि= ज्जुइया) शरीर एवं आभरण आदि की विशिष्ट प्रभा से ये मण्डित थे । (महब्बला) विशेष शक्तिसम्पन्न थे । (महायसा) इनकी कीर्ति दिग्दिगन्त में फैली हुई थी। (महासोक्खा) विशिष्ट सुख के ये भोक्ता थे। (महाणुभागा) अचिन्त्य प्रभाव के धारक थे। (हार-विराइयवच्छा) इनका वक्षःस्थल हार से शोभायमान था । (कडग-तुडिय-थंभिय-भुया) कटक, बलय एवं त्रुटिक-भुजबन्ध से इनकी भुजायें सज्जित थीं। (अंगय-कुंडल-मट्ठ-गंडयलकण्णपीढ-धारी) अंगद-बाजूबन्ध, कुण्डल-कर्णाभरणविशेष कि जिससे इनके कपोल घर्षितहो रहे हैं इन दोनों को एवं और भी अन्य विशिष्ट कर्णाभरणों को ये धारण किये हुये थे। (विचित्तवत्थाभरणा) विविध प्रकार के वस्त्र एवं आभरणों को ये पहने हुए थे। (विचित्त*द्धिथी मा सर्प हेवो सपन्न (ता. (महज्जुइया) विशिष्ट शरी२ मने माम२६ माहिनी प्रमाथा तेसो भडित हुता. (महब्बला) विशेषशतिस पन्न al. (महायसा) भनी ति यात२३ ३ गती . (महासोक्खा) विशिष्ट सुमना तसा लोताता, (महाणुभागा) मथिन्त्य प्रभावना घा२४ ता. (हारविराइय-वच्छा) तमनु वक्षस्थल (छाती) डा२ वणे शमायभान तु, (कडगतुडिय-थंभिय-भुया) ४८४-५सय भने त्रुटि-सुमन्यथा तभी मुन्नमा सwिord हती. (अंगय-कुंडल-मट्ट-गडयल-कण्णपीढधारी) २४-मानूसन्ध, हुस-नानां આભરણ વિશેષ કે જેના વળે તેમના ગાલ ઘર્ષિત થતાં હતા, એ બને તથા ते उपरांत भी विशिष्ट ४ मानणीने तयार पा२५ ४ा उतi. (विचित्तवत्थाभरणा) विविध प्रश्न पत्र तथा मानणाने तेम्मा पा२१ ४ा उतi. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे वत्थ-परिहिया कलाणग-पवर-महा-लेवणा भासुरखोंदी पलंaaणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं रूवेणं विविधानि वस्त्राणि आभरणानि च येषां ते तथा, 'विचित्तमाला' विचित्रमाला-विचित्राः= विविधाऽऽकारा मालाः पुष्पस्रजो येषां ते तथा, 'मउलिमउडा' मौलिमुकुटाः - मौलिषु = मस्तकेषु मुकुटानि येषां ते तथा 'कल्लाणग-पवरवत्थ- परिहिया' कल्या गक प्रवरवस्त्र-परिहिताः- कल्याणकानि=माङ्गलिकानि प्रवराणि - श्रष्ठानि वस्त्राणि परिहिताः-परिघृतवन्तः-परिघृतमाङ्गलिक श्रेष्ठवस्त्राः। ‘कल्लाणग-पवर - मल्ला - णुलेवणा' कल्याणक-प्रवर-माल्यानुलेपनाः कल्याणकारीणि प्रवराणि माल्यान्यनुलेपनानि च येषां ते तथा, माङ्गलिकमाच्यानुलेपनवन्तः । ' भासुरखोंदी ' भास्वरदेहाः - देदीप्यमानशरीराः 'पलंब - वणमाल- धरा 9 प्रलम्बवनमालाधराः, प्रलम्ब:शुम्बनकं तद्युक्ता वनमाला तस्या धराः, वनमाला कण्ठता जानुपर्यन्तं लम्बमाना भवति तस्या धारकाः, 'दिव्वेणं वण्णेणं' दिव्येन वर्णेन - 'दिग्वेणं गंधेणं' दिव्येन गन्धेन - 'दिव्वेणं माला) इन्हों ने जो मालायें धारण कर रखी थीं वे विचित्र पुष्पों से गूँथी हुई थीं । अतः ये विचित्र - अनेक प्रकार की मालाओं को धारण किये हुए थे । (मउलिमउडा) इनके मस्तक कुटों से शोभित थे । (कल्लाणग-पवर- वत्थ- परिहिया ) कल्याणकारी एवं विशेष कीमती वस्त्रों को इन्होंने धारण कर रखाथा । (कल्लाणग-पवर - मल्ला - णुलेवणा) आनन्ददायक एवं सुन्दर आकार युक्त मालाओं से एवं विलेपनों से इनका शरीर सज्जित हो रहा था । ( भासुरबोंदी) इनका शरीर विशिष्ट आभा से युक्त हो रहा था । ( पलंबवणमालधरा) इन्होंने जो बनमालायें धारण कर रखी थीं वे घुटनों तक लटक रही थीं। ये सब ( दिव्वेंग ) रूवेणं एवं फासेणं संघारणं संठाणेणं) दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्वरूपसे, इसी प्रकार दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, समचतुरस्र संस्थान से, तथा - ( - (दिव्वा इड्ढीए ( विश्वित्तमाला तेथेोये ? भाजाओ धारण ४रेसी हुती ते विचित्र पुष्पोथी ગુંથાએલી હતી. આમ તેઓએ વિચિત્ર-અનેક પ્રકારની માળાએ ધારણ કરી हती. (मउलिमउडा) तेभना भस्त भुम्टो वणे शोली रह्या तां. (कल्लाणगपवर- वत्थ- परिहिया) उदयाशुअरी भने विशेष भिती वस्त्रो तेमागे धारणु उरी राजेयां डुतां. (कल्लाणग-पवर - मल्ला - णुलेवणा) मानहाय भने सुंदर याअरयुक्त भाजाथी तेमन विद्वेयनाथी तेभना शरीर सन्ति तां (भासुरबोंदी) तेभना शरीर विशिष्ट माला वजे युक्त डुतां. ( पलंब - वणमालधरा ) તેઓએ જે વનમાલાએ ધારણ કરી હતી. તે ઘુંટણ સુધી લટકી રહી હતી. मी अधा (दिव्वेणं वण्णेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं रुवेण एवं फासेणं संघाएणं संठाणेणं) ३२८ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका सु. ३३ असुरकुमारदेववर्णनम् ३२९ एवं फासेणं संघाएणं संठाणेणं दिव्वाए इड्ढीए जुईए पभाए छायाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोयमाणा पभासेमाणा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं रूवेणं' दिव्येन रूपेण ' एवं फासेणं' एवं स्पर्शन 'संघाएणं' संहननेन । 'संठाणेणं' संस्थानेन–समचतुरस्रलक्षणेन । 'दिव्बाए इड्ढोए' दिव्यया ऋया-देवोचितया परिवारादिरूपया। 'दिवाए जुईए' दिव्यया द्युत्या, 'दिव्वाए पभाए' दिव्यया प्रभया-प्रभया= विमानदीप्त्या । 'दिव्याए छायाए' दिव्यया छायया-शोभया । 'दिवाए अञ्चीए' दिव्यया अर्चिषा-शरीरस्थरत्नादितेजोज्वालया। तेएणं' तेजसा-शरीरसम्बन्धिरोचिषा, प्रभावेण वा । 'दिवाए लेसाए' दिव्यया लेश्यया-शरीरकान्त्या 'दस दिसाओ उज्जोयमाणा' दश दिशा उद्दयोतयन्तः प्रकाशकरणेन, ‘पभासेमाणा' प्रभासयन्तः-शोभयन्तः 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतिय' अन्तिक-समीपम्.... 'आगम्मागम्म' आगत्याऽऽगत्य-वारंवारमुपेत्य । 'रत्ता' रक्ताः-सानुरागाः 'समणं भगवं जुईए पभाए छायाए अच्चीए दिव्वेण तेएणं दिव्वाए लेसाए) दिव्य ऋद्धि से, दिव्य युति से, दिव्य प्रभासे-विमान आदिकी दीप्ति से, दिव्य छाया से–शोभासे, शरीरस्थ रत्न आदि के दिव्य तेज से, दिव्य शारीरिक कान्ति से एवं दिव्यलेश्यासे (दस दिसाओ उज्जोयमाणा) दस दिशाओं को उद्दयोतयुक्त करते हुए (समणस्स भगवओ) श्रमण भगवान् (महावीरस्स) महावीर के (अंतियं) समीप (आगम्मागम्म) वारंवार आ आकर (रत्ता) बड़ी भक्ति के साथ (समणं भगवं महावीरं) श्रमण भगवान महावीर को (तिक्खुत्तो) तीन દિવ્ય વર્ણ વળે, દિવ્ય ગંધ વળે, દિવ્ય સ્વરૂપ વળે, તે જ પ્રકારે દિવ્ય સ્પર્શ वणे, हिव्य सहनन वणे, सभयतुरख-समयारस-सस्थानपणे, तथा-(दिव्वाए इड्ढीए जुईए पभाए छयाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए) दिव्य *द्धि पणे, દિવ્ય દ્યુતિ વળે, દિવ્ય પ્રભા વળે-વિમાન આદિની દીપ્તિ વળે, દિવ્ય છાયા એટલે શોભા વળે, શરીર ઉપરનાં રત્ન આદિનાં દિવ્ય તેજ વળે, દિવ્ય શારીરિક કાંતિ वणे, मने हिव्य अश्या वणे (दस दिसाओ उज्जोयमाणा.) शे हिशासाने योत-युद्धत (प्रोशित) ४२॥ यया (समणस्स भगवओ) श्रम भगवान् (महावीरस्स) मडावीरनी ( अंतियं ) पासे (आगम्मागम्म) वारंवार सावी मावाने (रत्ता) मई ४ महितपूर्व ४ (समणं भगवं महावीरं) श्रमाय मापान मडावीरने ( तिक्खुत्तो) वा२ (आयाहिण-पयाहिणं) मसिट मांधानतेने Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० औपपातिकसूत्रे आगम्मागम्म रत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता साइं साइं नामगोयाइं साति, णञ्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा नमसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवामंति ॥सू० ३३॥ महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणम् अञ्जलिपुटं बद्ध्वा तं बद्धाञ्जलिपुटं दक्षिणकर्णमूलत आरभ्य ललाटप्रदेशेन वामकर्णान्तिकेन चक्राकारं त्रिः परिभ्राम्य ललाटदेशे स्थापनरूपं कुर्वन्ति, कृत्वा 'वदंति' वन्दन्ते स्तुवन्ति, 'नमसंति' नमस्यन्ति-नमस्कुर्वन्ति, वंदित्ता' वन्दित्वा 'नमंसित्ता' नमस्यित्वा 'साइं साइं णामगोयाइं साति' स्वानि स्वानि नामगोत्राणि श्रावयन्ति कथयन्ति । 'णञ्चासण्णे णाइदूरे' नात्यासन्ने नातिदूरे 'सुस्मसमाणा' शुश्रूषमाणाः-सेवां कुर्वाणाः 'नमंसमाणा' नमस्यन्तः नमस्कुर्वन्तः 'अभिमुहा' अभिमुखाः ‘विणएणं' विनयेन 'पंजिलउडा' प्राञ्जलिपुटा:-बद्धाञ्जलयः पज्जुवासंति' पर्युपासते सेवन्ते ॥सू० ३३॥॥ बार (आयाहिणपयाहिणं) अंजलिपुट बाँध कर उसे दक्षिण कान से लगा कर मस्तक के पास से बायें कान तक चक्राकार घुमाते हुए पुनः मस्तक पर (काति) रखते थे; (करित्ता) रखकर (वंदंति नमसंति) वन्दना करते थे, नमस्कार करते थे, (वंदित्तानमंसित्ता) वन्दना नमस्कार करके (साइं साइं नामगोयाई साति ) अपने अपने नाम एवं गोत्रों का उच्चारण करते थे। (णचासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा नमसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जवासंति) न अतिसमीप और न अति दूर ही, अर्थात्-भगवान से थोड़ी दूर पर भगवान के सामने बैठ कर विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड कर सेवा करने लगे ॥ सू० ३३॥ જમણું કાનથી લઈને મસ્તકની પાસેથી ડાબા કાન સુધી ચક્રાકાર ફેરવીને, शने भरत४ ५२ (करेंति) मत ता. (करित्ता) सीन (वंदति नमसंति) वहन ४२ता , नभ२४१२ ४२ता al. (वंदित्ता नमंसित्ता) वहना-नभ२४।२ ४शने ( साई साई नामगोयाई सावेंति) पात-पोतानां नाम से गोत्रनi या२६५ ४२॥ ता. (णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा नमसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति) प सभी५ नड, तम ५ ६२ नडि, અર્થાત્ ભગવાનથી ઘેડે જ દૂર ભગવાનની સામે બેસીને વિનયપૂર્વક બને डाथ डी सेवा ४२१साया. (सू. 33) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ३४ नागकुमारादिदेववर्णनम् मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरिंदवज्जिया भवणवासी देवा अंतियं पाउब्भ टीका-अवशिष्टान् भवनवासिनो वर्णयन्नाह-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य, 'बहवे असुरिंदवज्जिया भवगवासी देवा अंतियं' बहवोऽसुरेन्द्रवर्जिता भवनवासिनो देवा अन्तिकं 'पाउब्भवित्था' प्रादुर्बभूवुः-भगवतः श्रीमहावीरस्य समीपे प्रादुर्भूता इत्यर्थः । भवनवासिदेवानां जातिभेदमाश्रित्य दश भेदा भवन्ति, तथाहिअसुराः असुरकुमाराः नागकुमाराः सुपर्णकुमाराः विदयुत्कुमाराः अग्निकुमाराः द्वीपकुमाराः उदधिकुमारा दिशाकुमाराः पवनकुमारा स्तनितकुमाराश्चेति । कुमारवत् क्रीडनपराश्चैते कुमारा उच्यन्ते । भवनेषु पाताललोकदेवाऽऽवासविशेषेषु वसन्ति तच्छीला भवन भगवान के निकट आये हुए भवनवासी देवों के भेदस्वरूप असुरकुमारोंका वर्णन कर, अब सूत्रकार अविशिष्ट भवनवासी देवों का वर्णन करते हैं-'तेणं कालेणं' इत्यादि। (तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान महावीर के (अंतियं) पास (वह) अनेक (असुरिंदवज्जिया) असुरेन्द्रों को छोडकर (भवणवासी देवा) भवनवासी देव (पाउब्भवित्था) प्रकटित हुए। इन भवनवासी देवों के दस मेद, जाति भेदको लेकर होते हैं । जैसे-असुरकुमार १, नागकुमार २, सुपर्णकुमार ३, विद्युत्कुमार ४, अग्निकुमार ५, द्वीपकुमार ६, उदधिकुमार ७, दिशाकुमार ८, पवनकुमार ९, स्तनितकुमार १० । कुमार की तरह ये क्रीडा करने में सदा तत्पर रहते हैं, इसलिये इनकी कुमार संज्ञा है । पाताल लोक में जो देवों के आवास ભગવાનની પાસે આવેલા ભવનવાસી દેવાના ભેદ–સ્વરૂપ અસુર કુમાनु न ४२ छे.-'तेणं कालेणं' त्याहि. (तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते ४० अन ते समयमा (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रम मनवान महावीरनी (अतिय) पासे (बहवे) मने (असुरिंदवज्जिया) असुरेन्द्रो छ।डीने मीन (भवनवासी देवा) अपनवासी (पाउभवित्था) प्रगट थया. २॥ नवनवासी દેના દશ ભેદ જાતિભેદને લઈને થાય છે; જેમકે-અસુરકુમાર ૧, નાગકુમાર ૨, સુપર્ણકુમાર ૩, વિદત્યુકુમાર ૪, અગ્નિકુમાર પ, દ્વીપકુમાર ६, अधिभार ७, हिसाभार ८, ५वनमा२ ८, स्तनितभार १०. કુમાર–બાળકની પેઠે તેઓ ક્રીડા કરવામાં સદા તત્પર રહે છે એ કારણથી તેમની કુમાર સંજ્ઞા છે. પાતાલ લોકમાં જે દેવોના આવાસ-વિશેષ છે તેમાં તેઓ રહે છે તે કારણથી તેઓ ભવનવાસી કહેવાય છે. સૂત્રકાર આવા Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे वित्था-णागपइणो सुवण्णा विज्जू अग्गीयदीव उदही दिसाकुमारा य पवणा थणिया य भवणवासी णागफडा-गरुल-वइर-पुण्णवासिन इत्युच्यन्ते-भवनवासिनामेतेषु दशसु भेदेषु प्रथमभेदं परित्यज्य नव भेदानत्र दर्शयति‘णागपइणो' नागपतयो-नागकुमाराः । 'सुवण्णा' सुपर्णकुमाराः । 'विज्जू'--विद्युत्कुमाराः 'अग्गी य' अग्निकुमाराश्च । 'दीवा' द्वीपकुमाराः । 'उदही' उदधिकुमाराः । 'दिसाकुमारा य' दिशाकुमाराश्च 'पवणा' पवनकुमाराः 'थणिया य' स्तनितकुमाराश्च । एते 'भवणवासी' भवनवासिनः । एतेषां नागकुमारादीनां नागफणादीनि चितानि भवन्ति, तानि क्रमशो दर्शयन्नाह-'णागफडा-गरुल-बदर-पुण्णकलससीह-हयवर-गयंक-मयरंक-वरमउड-बद्धमाण-णिज्जुत्त-विचित्त-चिंधगया' नागफणागरुड-वज्र-पूर्णकलश-सिंह-हयवर-गजाङ्क-मकराङ्क-वरमुकुट-वर्द्धमान-निर्युक्त-विचित्र -चिह्नगताःनागकुमाराणां मुकुटेषु नागफगाचिहनानि,सुपर्णकुमागणां मुकुटेषु गरुडचिहनानि, विद्युत्कुमाराणां मुकुटेषु वज्रचिह्नानि, अग्निकुमाराणां मुकुटेषु पूर्णकलशचिह्नानि, द्वीपकुमाराणां मुकुटेषु सिंहचिविशेष हैं उनमें ये रहते हैं, इसलिये ये भवनवासी कहलाते हैं। सूत्रकार इन्हीं भवनवासियों के प्रथम भेदको छोडकर अन्य नौ भेदों को यहां बतला रहे हैं-(णागपइणो) नागपति. नागकुमार (सुवण्णा) सुपर्णकुमार (विज्जू) विद्युत्कुमार (अग्गी य) अग्निकुमार (दीवा) द्वीपकुमार (उदही) उदधिकुमार (दीसाकुमारा य) दिशाकुमार (पवणा) पवनकुमार (थणिया य) स्तनितकुमार (भवणवासी) ये इस प्रकार भवनवासी देवों के भेद हैं । इनमें (णागफडा-गरुल-वइर-पुण्णकलस-सिंह-हयवर-गयंक-मयरंक-चरमउडवद्धमाण-णिज्जुत्त-विचित्त-चिंध-गया) नागकुमारों के मुकुटमें नागकी फणाका चिह्न है ॥१॥ सुपर्णकुमारों के मुकुटमें गरुडका चिह्न है ॥२॥ विद्युत्कुमारों के मुकुटो में वज्रका चिह्न है ॥३॥ अग्निकुमारों के मुकुटों में पूर्णकलशका चिह्न है ॥४॥ द्वीपकुमारों के मुकुटों ભવનવાસિઓના પ્રથમ ભેદ છોડીને અહીં બીજ નવ ભેદને मता छ-(णागपइणो) नापति-नागभार (सवण्णा) सुपर्ण भा२ ( विजू ) वियुत्भार (अग्गी य) निभा२, (दीवा) द्वीपमा२ (उदही) विभा२ (दिसाकुमारा य) हिशाभार (पवणा) ५वनमा२ (थणिया य) स्तनितमार (भवणवासी) ॥ ४॥ ५४ारे अपनवासी हेवोना मे छे. आभा (णागफडागरुल-वइर- पुण्णकलस-सिंह-हयवर-गयक-मयरंक - वरमउड-बद्धणाण - णिज्जुत्तविचित्त-चिंध-गया ) नागभाना भुटमा नाजनी नु थिल छ १. સુપર્ણકુમારના મુકુટમાં ગરુડનું ચિહ્ન છે ૨. વિયુકુમારોના મુકુટમાં Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टीका सु. ३४ नागकुमारादिदेववर्णनम् कलस-सीह-हयवर-गयंक-मयरंक-वर-मउड-वद्धमाण-णिज्जुत्त-विचित्त-चिंधगया सुरूवा महिड्ढिया, सेसं तं चेव जाव पज्जुवासंति ॥ सू० ३४॥ नानि, उदधिकुमाराणां मुकुटेष्वश्वचिहनानि, दिशाकुमाराणां मुकुटेषु हस्तिचिह्नानि, पवनकुमाराणां वरमुकुटेषु मकरचिह्नानि, तथा स्तनितकुमाराणां मुकुटेषु वर्धमानचिह्नानि भवन्ति, तानि नागफणादीनि वर्धमानान्तानि 'निजुत्त' निर्युक्तानि-मुकुटेषु स्थितानि, 'विचित्त'विचित्राणि-नानाविधानि, 'चिंध' चिहनानि गताः प्राप्ताः ये ते तथा, नागफणादीनि वर्द्धमानान्तानि यथास्थानस्थितानि विचित्ररूपाणि लक्षणानि तेषां मुकुटेषु भवन्तीत्यथः । 'सुरुवाः' सुरूपाःसुन्दराऽऽकाराः । 'महिड्डिया'–महर्द्रिकाः-महत्या ऋद्या युक्ताः । 'सेस तं चेव' शेषं तदेव-शेषम् अवशिष्टं तदेव-पूर्ववदेव वाच्यम्, कियदवधि वाच्यम् ? इत्याह-'जाव पज्जुवासंति' यावत् पर्युपासते-इति । ते नागकुमारादयः नवनिकायभवनवासिदेवाः असुरकुमारवद् भगवन्तं सेवन्ते इति भावः ॥सू० ३४ ॥ में सिंहका चिह्न है ॥५॥ उदधिकुमारों के मुकुटों में अश्वका चिह्न है ॥६॥ दिशाकुमारों के मुकुटों में हाथीका चिह्न है ॥७॥ पवनकुमारों के उत्तम मुकुटों में मगरका चिह्न है ॥८॥ तथा स्तनितकुमारों के मुकुटों में वर्धमान (स्वस्तिक) का चिह्न है ॥९॥ ये सब चिह्न निर्युक्तयथास्थान स्थित हैं, और विचित्र रूपवाले हैं । (सुरूवा) ये सब देव सुन्दर आकार संपन्न, एवं (महिड्ढिया) महती ऋद्धि से युक्त हैं। (सेसं तं चेव जाव पज्जुवासंति) ये सब भवनवासी देवों का नौ प्रकार के निकाय असुरकुमार देवोंकी तरह भगवान की सेवा करने लगे । सू० ३४॥ વજનું ચિહ્ન છે ૩. અગ્નિકુમારના મુકુટમાં પૂર્ણ–કલશનું ચિહ્ન છે ૪. દ્વીપકુમારના મુકુટમાં સિંહનું ચિત્ર છે ૫. ઉદધિકુમારના મુકટમાં અશ્વનું ચિહ્ન છે ૬. દિશાકુમારોના મુકુટમાં હાથીનું ચિહ્ન છે ૭. પવનકુમારના મુકુટમાં મગરનું ચિત્ર છે ૮. તથા સ્વનિતકુમારના મુકુટમાં વર્ધમાન (સ્વસ્તિક)નું ચિહ્ન છે ૯. આ બધાં ચિહ્નો નિયુક્ત-યથાસ્થાન होय छे. अने विचित्र-३५i राय छे. (सुरुवा) 0 मा हेवा सु४२ मा४।२-सपन्न, सेब (महिड्ढिया) महान ऋद्धिथी युत डाय छे. (सेसं तं चेव जाव पज्जुवासंति) २ मा सपन-पासी हेवन। न २॥ निय ससुर भा२ हेयोनी पेठे भगवाननी सेवा ४२॥ साय. (सू. ३४). Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ औपपातिकसूत्रे मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे वाणमंतरा देवा अंतियं पाउब्भवित्था-पिसाय-भूयाय जक्ख___टीका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि। तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'बहवे वाणमंतरा देवा अंतियं पाउभवित्था' बहवो व्यन्तरा देवा अन्तिके प्रादुर्बभूवुः, तत्र-व्यन्तरा-अन्तरम् अवकाशः, तच्चेहाश्रयरूपम् ; विविधम् अन्तरं= पर्वतान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः-देवविशेषाः, यद्वा-'वाणमन्तरा' इतिच्छाया । तत्रेयं व्युत्पत्ति:-बनानामन्तराणि वनान्तराणि, तेषु भवाः वानमन्तराः, पृषोदरादित्वान्मध्ये मकारागमः । भगवन्महावीरस्वामिसन्निधौ समवसरणे व्यन्तरा देवाः प्रकटीभूता इत्यर्थः, ते कतिविधाः ? अत्राऽऽह - 'पिसाय-भूया य' पिशाचाः १, भूताश्च 'तेणं कालेणं' इत्यादि । ( तेणं कालेण तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान महावीर के (अंतियं) समीप (बहवे) अनेक (वाणमंतरा देवा) व्यंतर देव (पाउन्भवित्था) आये । व्यन्तर इनका नाम इसलिये है कि इनका अन्तर=अवकाश अर्थात् निवासस्थान अनेक प्रकार के हैं, जैसे-पर्वत, गिरिकन्दरा, वन आदि । अथवा--'वाणमन्तर की संस्कृत छाया 'वानमन्तर' भी होती है । वनान्तरों में-वनों के मध्य में जिनका रहना हो वे बानमन्तर हैं । ये वानमन्तर भगवान महावीर के समवसरण में उपस्थित हुए। ये व्यन्तर देव कितने प्रकार के हैं ? इस प्रकार की आशंका होने पर सूत्रकार उसका समाधान करते हुए उनके भेदों को गिनाते हैं-(पिसाय-भूया य जक्ख ' तेण कालेणं' छत्याहि. (तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते स मन त समयन विषे (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रम भगवान महावीरनी ( अंतियं ) पासे (बहये) भने (वाणमंतरा देवा) व्यत२ हव। (पाउन्भवित्था) माव्या. व्यत२ सयु તેમનું નામ એ કારણથી છે કે તેમનું અન્તર- અવકાશ, અર્થાત્નિવાસ સ્થાન, અનેક પ્રકારનું છે, જેમકે પર્વત, પર્વતની ગુફા, તથા વન આદિ. न्यथा 'वाणमंतर'नी संस्कृत छाया 'वानमन्तर' थाय छे. पनान्तराभां-बनाना મધ્યમાં–જેમનું રહેવાનું થાય તે વાનમન્તર છે. આ વાનમન્તર ભગવાન મહાવીરના સમવસરણમાં ઉપસ્થિત થયા. આ વ્યન્તર દેવ કેટલા પ્રકારના छ ? मावी शानु समाधान ४२ता सूत्रा२ तना हो ४ छ-(पियास Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ३५ व्यन्तरदेववर्णनम् रक्खसा किंनर-किंपुरिस-भुयगपइणोयमहाकाया गंधव्व-णिकायगणा णिउण-गंधव्वगीय-रइणो अणवण्णिय-पणवणिय-इसिवाइय-भूयवाइय-कंदिय-महाकंदिया य कुहंड-पययदेवा चंचल-च२, 'जक्ख-रक्खसा' यक्षाः ३, . राक्षसाः ४, ‘किंनर-किंपुरिस-भुयगपइणो' किन्नर - किंपुरुष -- भुजगपतयः - किनराः ५, किम्पुरुषा ६, भुजगपतयः-महोरगाः ७, 'महाकाया' महाकायाः विशालशरीरधारिणः, ८, ‘गंधध-णिकाय-गणा' गन्धर्वनिकायगगाः-गन्धर्वसमूहगणाः, गन्धर्वजातय इत्यर्थः, 'जिउण-गंधव-गीय-रइणो' निपुग-गान्धर्व-गीत-रतयः-निपुणं-प्रशस्तं, गान्धर्व नाट्योपेतं गानं, गीतञ्च नाट्यर्वर्जितगानं, तत्र रतिर्येषां ते तथा, 'अगवण्णिय-पणवणिय-इसिवाइय-भूयवाइय-कंदिय-महाकंदिया य कुहंड-पयय-देवा' अप्रज्ञप्तिक-पञ्चप्रज्ञप्तिक-ऋषिवादिक-भूतवादिक-क्रन्दित-महाक्रन्दिताच कूष्माण्ड-पतगदेवाः-एतेऽष्टौ व्यतरा निकायविशेषभूता रत्नप्रभापृथिव्या उपरितनयोजनरक्खसा किंनर-किंपुरिस-भुयगपइणो य महाकाया गंधव्वणिकायगणा) पिशाच १, भूत २, यक्ष ३, राक्षस ४, किन्नर ५, किंपुरुष ६, भुजगपति ७, एवं विशाल शरीर धारण करनेवाला महोरग ८, गंधर्वनिकायगण, अर्थात्-गन्धर्व ९, ये व्यन्तर देव हैं। ये सब (णिउण-गंधन-गोय-रइणो) प्रशस्त नाटकीयगान में एवं नाट्यवर्जित गानविद्या में रति रखनेवाले होते हैं । (अणवण्णिय-पणवणिय-इसिवाइय-भूयवाइय-कंदिय-महाकंदिया य कुहंड-पययदेवा ) अप्रज्ञप्तिक, पञ्चप्रज्ञप्तिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतगदेव; ये भी आठ व्यन्तरनिकाय के देव हैं । इन सब का निवास रत्नप्रभापृथिवी के ऊपरी भाग में १०० योजन तक है । ये कैसे होते हैं ? सो भूया य जक्ष- रक्खसा किन्नर-किंपुरिस-भुयगपइणो य महाकाया गंधव्वणिकायगणा) पिशाय १, भूत २, यक्ष 3, राक्षस ४, सिन्न२ ५, ५३५ ६, ભુજગપતિ ૭, એવં વિશાલ શરીર ધારણ કરવાવાળા મહેરગ ૮, ગંધર્વ नियर अर्थात् ६, से व्यन्त२ हेव छ. २ मा ( णिउणगंधव्य-गीय-रइणो) प्रशस्त नाटीय गानमा, तभ०४ नाटय-पति मानविधामा प्रेम रामपाडाय छे. (अणवण्णिय-पणवणिय-इसिबाइय-भूयवाइय-कंदिय-महाकंदिया य कुहंड-पयय-देवा ) अज्ञ४ि, यशति, ऋषिવેદિક, ભૂતવાદિક, કન્દ્રિત, મહાકન્દિત, કૃષ્માંડ અને પતગ દેવ આ પણ આઠ વ્યન્તર નિકાયના દેવ છે. આ બધાને નિવાસ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપ२ना मामा १०० येन सुधा छ. तसा उपाय छ ? ते ४ छ-(चंचल Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ औपपातिकसूत्रे वल-चित्त-कीलण-दवप्पिया गंभीर-हसिय-भणिय-पीयगीय-णच्चण-रई वणमाला-मेल-मउड-कुंडल-सच्छंद-विउव्वियाहरण-चारुशतवर्तिनः, ते कीदृशाः? अत्राऽऽह-'चंचल-चबल-चित्त-कीलण-दवप्पिया' चञ्चल-चपलचित्त-क्रीडन-द्रव-प्रियाः-चञ्चलादपि चपलानि चित्तानि येषां ते चञ्चलचपलचित्ताः अतिचपलमानसाः, क्रीडनं-क्रीडा, द्रवश्च परिहासः क्रीडाद्रवौ प्रियौ येषां ते क्रीडाद्रवप्रियाः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । 'गंभीर-हसिय-भणिय-पीय-गीय-णचण-रई गम्भीर-हसित-भणितप्रिय-गीत-नर्तन-रतयः-गम्भीरम् इतरैरज्ञेयं हसितं- हास्यम्, भणितं वाक्प्रयोगः, 'प्रियं येषां ते गम्भीर-हसित-भणित-प्रियाः, गीतनर्तनयो रतिर्येषां ते गीतनर्तनरतयः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। 'वणमाला-मेल-मउड-कुंडल-सच्छंद- विउब्धिया-हरण-चारु-विभूसण-धरा' वनमालाऽऽमेल-मुकुट-कुण्डल-स्वच्छन्द-विकुर्विताऽऽभरण-चारु-विभूषण-धरा : वनमाला-रत्नादिमयाss भरणविशेषः, आमेल:--पुष्परचितालङ्कारविशेषः, मुकुटं सुवर्णमयं शिराभूषणम्, कुण्डलं-कर्णाऽभरणम् , एतदतिरिक्तानि-स्वच्छन्दविकुर्वितानि-स्वाभिप्रायानुसारात्सद्यः प्रकटीकृतानि आभरणानि, कहते हैं-(चंचल-चवल-चित्त-कीलण-दव-प्पिया) अति चपल चित्तवाले ये व्यन्तर देव, क्रीडा एवं परिहास-प्रिय हुआ करते हैं। (गंभीर-हसिय-भणिय-पीय-गीयणच्च-णरई) दूसरों द्वारा अज्ञेय ऐसे हसित-हँसने में तथा बोलने की चतुराई में ये विशेष निपुण होते हैं, अथवा हसित एवं भणित; ये दो बातें इन्हें विशेष प्रिय होती हैं । गीत और नर्तन में इन्हें विशेष अनुगग होता है । (वणमाला-मेल-मउड- कुंडल-सच्छंद-विउविया-हरण-चारु-विभूसण-धरा) वनमाला-रत्नादि द्वारा निर्मित आभरणविशेष, आमेलक-पुष्पों द्वारा रचित अलंकार विशेष, मुकुट -सुवर्णमयशिरोभूषण, कुंडल-कर्णाभरण, एवं अपनी इच्छानुसार निष्पादित और भी अन्य आभरण ये ही जिनके सुहावने आभूषण चवल-चित्त-कीलण-दव-प्पिया) मई ४ यश चित्तपात व्यन्त२ १ । से परिडासप्रिय डोय छे. (गंभीर-हसिय-भणिय-पीय-गीय-णच्चण-रई) मीनथी ન જાણુ શકાય એવા હસિતહસવામાં તેમ જ ભણિત-બોલવામાં તેઓ વિશેષ નિપુણ હોય છે. અથવા હસિત એવં ભણિત આ બે વાતે તેમને વિશેષ પ્રિય હોય છે. ગીત અને નાચમાં તેમને વિશેષ અનુરાગ હોય છે. (वणमाला-मेल-मउड-कुंडल-सच्छंद-विउव्विया-हरण-चारु-विभूसण-धरा) वनभानाરત્નાદિ દ્વારા નિર્મિત આભરણ વિશેષ, આમેલ-પુષ્પ દ્વારા રચિત અલંકાર विशेष, भुट-सुवर्णमय शिशभूषा, दुस- २, तेभल पातानी २छाનુસાર નિષ્પાદિત બીજા પણ આભરણે; એ જ જેમનાં સહામણાં આભૂષણો છે Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३५ व्यन्तरदेववर्णनम् विभूसण-धरा सव्वोउय-सुरभि-कुसुम-सुरइय-पलंबसाभंत-कंतवयसंत-चित्त-वणमाल-रइय-वच्छा कामगमा कामरूवधारी णाणाविह-वण्ण-राग--वरवत्थ-चित्त-चिल्लिय-णियंसणा विविह-देसतान्येव चारुविभूषणानि तेषां धराः। 'सव्वोउय-सुरभि-कुसुम-सुरइय-पलंब-सोभंत-कंत-वियसंत-चित्त-वणमाल-रइय-वच्छा ' सर्वर्तु-सुरभि-कुसुम-सुरचित-प्रलम्ब-शोभमान-कान्तविकसच्चित्रवनमाला-रतिद-वक्षसः-सर्वेषु ऋतुषु सुरभीणि यानि कुसुमानि तैः सुरचिता प्रलम्बा च शोभमाना च कान्ता च विकसन्ती च चित्रा विचित्रा चासौ वनमाला-पुष्पस्रक्, तथा रतिदानि=सुन्दराणि वक्षांसि येषां ते तथा, 'कामगमा' कामगामिनः-इच्छागामिनः। 'कामरूबधारी' कामरूपधारिणः-स्वेच्छानुसाररूपधारकाः । 'णाणाविह-वण्ण-राग-वरवत्थचित्त-चिल्लिय-णियंसणा' नानाविध-वर्ण-राग-वरवस्त्र-चित्र-देदीप्यमान-निवसनाः नानाविधवर्णो रागो येषु तानि-नानाविधवर्णरागाणि तानि तथाभूतानि वरवस्त्राणि चित्राणि-विचित्राणि 'चिल्लिय' देदीप्यमानानि, निवसनानि-परिधानानि येषां ते तथा, 'चिल्लिय' इतिदेशीयशब्दः; रक्तादिबहुविधपरिधानवसनानि परिदधाना इत्यर्थः । 'विविह-देसणेवच्छ-गहिय-वेसा' विविध-देश-नेपथ्य-गृहीत-वेषाः-विविधानाम् अनेकेषां देशानां नेपथ्यैः प्रसाधनविशेषैः गृहीतः हैं। (सबोउय-सुरभि-कुसुम-सुरइय-पलंब-सोभंत-कंत-वियसंत-चित्त-वनमाल-रइय-वच्छा ) इनके वक्षःस्थल, सदा समस्त ऋतुओं के सुरभित पुष्पों द्वारा रचित लंबी २ सुन्दर विकसित चित्र-विचित्र वनमालाओं द्वारा सुहावने रहा करते हैं। ( कामगमा) इनका गमन इच्छानुसार हुआ करता है। (कामरूबंधारी) इच्छानुसार ये रूपों को धारण करते रहते हैं। (णाणाविह-वण्ण-राग-वरवत्थ-चित्त-चिल्लियणियंसणा) अनेक प्रकार के रंगवाले तथा चित्र-विचित्र प्रभावाले ऐसे चमकते हुए वस्त्रों को ये पहिरा करते हैं। (विविह-देसी-णेवच्छ-गहिय-वेसा) अनेक देशों ( सव्वोउय-सुरभि-कुसुम-सुरझ्य-पलंब-सोभंत-कंत-वियसंत-चित्त-वनमाल-रइय-वच्छा ) તેમનાં વક્ષસ્થલ હમેશાં સમસ્ત ઋતુઓનાં સુંદર પુષ્પ દ્વારા બનાવેલી લાંબીલાંબી સુંદર વિકસિત ચિત્ર-વિચિત્ર વનમાલાઓથી શોભાયમાન રહે છે. (कामगमा) तमनु अमन छानुसा२ थतु डाय छे. (कामरूवधारी) ४२छानुसा२ ते ३५ धा२३ ४२त। २ छ. (णाणाविह-वण्ण-राग-वरवत्थ-चित्त-चिल्लिय। णियंसणा) भने ४२॥ २i तथा चित्रविचित्र प्रमाणi मेवां यमा२ पत्री तमा ५७२ जे. (विविह-देसी-णेव-च्छगहिय-वेसा) मने शान। तय पोश।४ ५७२ जे. (पमुइय-कंदप्प-कलह-केली-कोलाहल प्पिया) प्रभुहिताना Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ वच्छ गहिय- वेसा पमुइय-कंदप्प-कलह-केली-कोलाहल-प्पिया हास-बोल - बहुला अणेग-मणि-रयण-विविह- णिज्जुत्त-विचित्त- चिंधगया सुरूवा महिड्ढिया जाव पज्जुवासंति ॥ सू० ३५॥ =कृतः वेषः शरीरशोभाssधायकप्रसाधनं यैस्ते तथा, तत्र नेपथ्यं - 'पोशाक' इति भाषाप्रसिद्धम्, 'पमुइय-कंदष्प-कलह-केली-कोलाहल - पिया' प्रमुदित-कन्दर्प-कलह-केलि-कालाहल-प्रियाःप्रमुदितानां यः कन्दर्पप्रधानः कलहः केली = क्रीडा, तज्जन्यः कालाहलः - कलकलः प्रियेो येषां ते तथा, कामकलहक्रीडाकेालाहलपरायणा इत्यर्थः । ' हास - बाल - बहुला' हा सध्वनि बहुलाः 'अग-मणि-रण- विविह- णिज्जुत्त-विचित्त-चिंध गया' अनेक-मणि-रत्न-विविध-निर्युक्त - विचित्र-चिह्नगताः-अनेकानि यानि मणिरत्नानि तानि विविधनिर्युक्तानि विविधप्रकारेण यथास्थानस्थितानि, तान्येव विचित्रचिह्नानि तानि गताः = प्राप्ताः । 'सुरुवा' सुरूपाः - सुन्दराऽऽकाराः। महिड्डिया ' महर्द्धिकाः – महासम्पत्तियुक्ताः । ' जाव पज्जुवासंति' यावत्पर्युपासते- -आदक्षिण प्रदक्षिण-वन्दनादीनि पूर्ववत् कृत्वा भगवतः श्रीमहावीरस्याभिमुखे स्थिताः कृतप्राञ्जलिपुटाः भगवन्तं श्रीमहावीरं सेवन्ते - इति ॥ सू० ३५ ॥ औपपातिक की ये पोशाक धारण किये रहते हैं । (पमुइय - कंदप्प-कलह - केली - कोलाहल- प्पिया ) प्रमुदितों का जो कन्दर्पप्रधान कलह एवं क्रीडा होती है इससे जन्य जो कोलाहल होता है वह इन्हें अधिक प्रिय रहा करता है । ( हास-बोल - बहुला ) ये हँसी-मजाक करने में बड़े चतुर होते हैं । (अणेग - मणि - रयण - विविह- णिज्जुत्त-विचित्त - चिंध-गया) अनेक मणिरत्न, जो कि विविध प्रकार से यथास्थान पर निवेशित रहा करते हैं वे ही जिनके विचित्र चिह्न हैं ऐसे, (सुरुवा) सुन्दर आकार विशिष्ट, (महिड्डिया ) एवं महाऋद्धियुक्त वे व्यन्तर देव ( जात्र पज्जुवासंति) पूर्ववर्णित असुरकुमारों की तरह दोनों हाथ जोड़कर वंदना एवं नमस्कार करके प्रभु महावीर की सेवा में संलग्न हुए ॥ सू० ३५ ॥ જે કન્દ્ર પ્રધાન કલહ એવં ક્રીડા થાય છે તેમાંથી જે કાલાહુલ ઉત્પન્ન थाय छे ते तेभने अधि प्रिय लागे छे. (हास - बोल-बहुला) हांसी - भन्न ४२वामां मा महु ४ यतुर होय छे. (अणेग-मणि-रयण- विविह- णिज्जुत्त-विचित्तचिंध-गया) मने मणिरत्न ने विविध प्रहारे यथास्थान निवेशित रहे छे ते ४ यानां विचित्र चिह्न छे. सेवा (सुरुवा) सुंदर भार યુક્ત (महिडिडया) व भड्डा - ऋद्धियुक्त ते व्यन्तरहेव (जाव पज्जुवासंति) पूर्वे उडेला અસુરકુમારાની પેઠે બન્ને હાથ જોડી વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને પ્રભુ महावीरनी सेवाभां लग्न थया (सू. 34) Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३६ ज्योतिकदेववर्णनम् मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जोइसिया देवा अंतियं पाउन्भवित्था-बिहस्सई चंदसूर-सुक्क-सणिच्छराराहू धूमकेतु-बुहा यअंगारका यतत्त-तवणिज्ज टीका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जोइसिया देवाअंतियं पाउभवित्था' ज्योतिष्का देवा अन्तिके प्रादुर्बभूवुः-श्रीमहावीरस्य समीपे प्रकटीभूताः। नामभिर्योतिष्कान् कथयति-'बिहस्सई' बृहस्पतयः-ज्योतिष्काणामसंख्यातत्वात् प्रत्येकं ते बहवः सन्ति-इति । 'चंद-सूर-सुक्क-सणिच्छरा' चन्द्रसूर्य शुक्रशनैश्चराः, 'राहू' राहवः, 'धूमकेउ-बुहा य' धूमकेतुबुधाश्च, 'अंगारका य' अङ्गारकाः-मङ्गलाश्च, किंवर्णा एते ? इत्याह-तत्त-तवणिज्ज-कणग-वण्णा' तप्त-तपनीय-कनक-वर्णाः-तप्ततनीयं-रक्तसुवर्ण, कनकं पीतसुवर्णं तद्वद्वर्णो येषां ते तथा । केचिद्रक्ताः केचित्पीता इत्यर्थः; तथा-जे य गहा जोइसंमि चारंचरंति' ये च ग्रहा ज्योतिषे 'तेणं कालेणं' इत्यादि। (तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल एवं उस समय में (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के (अंतियं) समीप (जोइसिया देवा) ज्योतिषी देव (पाउब्भवित्था) प्रकटित हुए । ज्योतिषी देवों के ये नाम हैं(बिहस्सई चंद-सूर-सुक्क-सणिच्छरा राहू, धूमकेतु-बुहा य अंगारका य) बृहस्पति, चंद्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध और अंगारक-मंगल। (तत्ततवणिज-कणग-वण्णा) ये देव तप्ततपनीय-रक्त सुवर्ण और कनक-पीत सुवर्ण इनके समान वर्णवाले होते हैं। (जे य गहा जोइसंमि चारं चरंति) उक्त से अतिरिक्त ' तेणं कालेणं ' त्याहि. (तेणं कालेणं तेणं समएणं) तम त समयमा (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रभरण नगवान महावीरनी (अंतिय) पासे (जोइसिया देवा) ज्योतिषी हेव (पाउन्भवित्था) ५४८ च्या. ज्योतिषी योनां नाम मा प्रमाणे छे-(बिहस्सई चंद-सूर-सुक्क-सणिच्छरा राहू धूमकेतु-बुहा य अंगारका य) मृरपति, यद्र, सूर्य, शु, शनैश्वर, राहु, धूभडेतु, सुध मने ॥२४-मास. (तत्ततवणिज्ज-कणग-वण्णा) ते त तपनीय-२४d सुवर्ण मने ४४-पीजi સુવર્ણના જેવા વર્ણવાળા હોય છે. અર્થાત કેટલાએક લાલવણુંવાળા તથા सामे पाजावाजा डाय छे. (जे य गहा जोइसंमि चारं चरंति) st Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० औपपातिकसूत्रे कणग-वण्णा, जे य गहा जोइसंमि चारं चरंति केऊ यगइरइया अट्ठावीसविहा य णक्खत्तदेवगणा णाणा-संठाण-संठियाओ य चारं चरन्ति-उक्तातिरिक्ता ये ग्रहा ज्योतिप-ज्योतिश्चक्रे-चक्रवदवभासमाने ज्योतिमण्डले भ्रमणं कुर्वन्ति । बहुत्वाद् बहुवचनम् । ' केऊ य गइरइया' केतवश्च गतिरचिताःकेतवा-जलकेत्वादयः, किम्भूताः ? अत्राऽऽड्-गतिचिताः-मनुष्यलोकाऽपेक्षया गतिमन्तः । 'अट्ठावीसविहा य णखत्त-देव-गणा' अष्टाविंशतिविधाश्च नक्षत्रदेवगणाः-अष्टाविंशतिनक्षत्रदेवताः। अत्र-प्रसङ्गादन्येषामपि ज्योतिष्कदेवानां लंख्या उच्यन्ते-ज्योतिष्कदेवाः पञ्चविधाः भवन्ति, सूर्याः १, चन्द्रमसः २, ग्रहाः ३, नक्षत्राणि ४, प्रकीर्णतारकाश्च ५, तत्र द्वौ सूर्यो जम्बूद्वीपे, लवणे चत्वारः, धातकीखण्डे द्वादश, कालोदधौ द्विचत्वारिंशत् , पुष्कराद्धे द्विसप्ततिः-इत्येवं मनुष्यलोके द्वात्रिंशदधिकं शतं सूर्याः सन्ति, चन्द्रमसेोऽपि जो ग्रह ज्योतिश्चक्र में-चक्र की तरह प्रतिभासमान इस ज्योतिर्मण्डलमें भ्रमण करते हैं वे ( केऊ य गइरइया) जलकेतु आदि केतुग्रह, जो कि मनुष्यलोक की अपेक्षा ही सदा गतिविशिष्ट हैं। अर्थात् यह समस्त ज्योतिश्चक्र इस मनुष्यलोक रूप ढाई द्वीप में ही गति विशिष्ट हैं, अन्यत्र नहीं। ( अट्ठावीसविहा य णक्खत्तदेवगणा) तथा जो अट्ठाईस (२८) प्रकार के नक्षत्र जाति के देवता हैं। ___यहाँ पर प्रसंगवश अन्य ज्योतिषी देवों की भी संख्या कहते हैं। ज्योतिषी देव पाँच प्रकार के हैं-सूर्य १, चन्द्रमा २, ग्रह ३, नक्षत्र ४, और प्रकीर्ण तारा ५। इन सबों में प्रत्येक की संख्या इस प्रकार है-जम्बूद्वीप में दो सूर्य हैं, लवण समुद्र में चार सूर्य हैं, धातकीखण्ड में बारह सूर्य हैं, कालोदधि में बयालीस सूर्य हैं और पुष्कराई में बहत्तर सूर्य हैं। इस प्रकार मनुष्यलोक में सूर्य की संख्या एक सौ बत्तीस है। चन्द्रमा की संख्या વર્ણવેલાથી બીજા જે ગ્રહો નિશ્ચકમાં–ચકની પેઠે પ્રતિભાસિત આ તિमें समां-प्रभा ४२ छेते (केऊ य गइरइया) तु माहितु मनुष्यલોકની અપેક્ષા જ હમેશાં ગતિ-વિશિષ્ટ છે. અર્થા–આ. સમસ્ત તિશ્ચક मा भनुष्या३५ मढी दीपमा ४ गतिविशिष्ट छ, मी नलि. (अट्ठावीसविहा य णक्खत्त देवगणा) तथा २ २८ 'प्रा२ना नक्षत्र जतिना पताछ. અહીં પ્રસંગવા બીજા જોતિષી દેવાની પણ સંખ્યા કહે છે. - તિષી દેવ પાંચ પ્રકારના છે–સૂર્ય ૧ ચંદ્રમા ૨ ગ્રહ ૩ નક્ષત્ર ૪ તથા પ્રકીર્ણ તારા ૫. આ બધામાં પ્રત્યેકની સંખ્યા આ પ્રકારે છે-જંબુદ્વીપમાં ૨ સૂર્ય છે. લવણુ સમુદ્રમાં ચાર સૂર્ય છે. ધાતકીખંડમાં ૧૨ સૂર્ય છે. કાલેદધિમાં ૪૨ સૂર્ય છે. તથા પુષ્કરાદ્ધમાં ૭૨ સૂર્ય છે. આ પ્રકારે મનુષ્યલેકમાં Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पीयूषवर्षिणो-टीका सू. ३६ ज्योतिकदेववर्णनम् पंचवण्णाओ ताराओ ठियलेसा चारिणो य अविस्साममंडलगई पत्तेयं णामंकपागडियचिंधमउडा महिड्ढिया जाव पज्जुवासंति ॥सू०३६॥ एतावत्संख्यका एव । नक्षत्रसंख्या उक्ता एव। अष्टाशीतिम्रहाः । एकस्य खलु चन्द्रमसस्ताराः कोटोनां कोट्यः एतावत्यो भवन्ति-षट्षष्टिसहस्राणि नव.च शतानि पञ्चसतत्यधिकानि ‘णाणा-संठाण-संठियाओ'नाना-संस्थान-स्थिताः, 'पंचवण्णाओ' पञ्चवर्णाः, 'ताराओ' ताराः, 'ठियलेसा' स्थितलेश्या निश्चलप्रकाशाः । ‘चारिणो य' चारिण्यश्चसञ्चरणशीलाः, 'अविस्साम-मंडल-गई अविश्राम-मण्डल-गतयः-निरन्तरसंचरणशीलाः, 'पत्तेयं प्रत्येकम्-पृथक् पृथक 'णामंक-पागडिय-चिंध-मउडा' नामाऽङ्क-प्रकटित-चिह्नमुकुटाः-नामाङ्कानि नामाङ्कितानि-नामाक्षरयुक्तानि प्रकटितचिहनानि स्पष्टचिह्नयुक्तानि मुकुटानि येषां ते तथा, 'महिडिढया' महर्द्धिकाः-महर्द्धियुक्ताः सन्ता ज्योतिष्का देवाः 'जाव पज्जुवासंति' यावत्=पूर्ववत्प्रदक्षिणवन्दनादिभिः पर्युपासते ॥ सू० ३६॥ भी इसी प्रकार समझनी चाहिये । ग्रह अट्टासी हैं। नक्षत्र की संख्या ऊपर कही गयी है। प्रकीर्णतारकाओं में केवल चन्द्रमा के ही परिवार के तारे ६६९७५ (छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर) कोडाकोडी हैं। इसी तरह और के भी तारों के परिवार शास्त्रान्तर से समझना। . (णाणा-संठाण-संठियाओ) इन ताराओं का आकार एकसा निश्चित नहीं है; इनका आकार अनेक प्रकार का है। (पंचवण्णाओ) ये पाँच वर्णवाले हैं। (ठियलेसा) इनकी लेश्या स्थिर है-इनकी लेश्या में कोई परिवर्तन नहीं होता है। (चारिणो य) ये लंचरण-शील हैं। अतः ( अविस्साम-मंडल-गई ) निरन्तर गमन સૂર્યની સંખ્યા એકબત્રીસ છે. ચંદ્રમાની સંખ્યા પણ એટલી જ સમજી લેવી જોઈએ. ગ્રહ ૮૮ છે. નક્ષત્રની સંખ્યા ઉપર કહી છે. પ્રકીર્ણતારાઓમાં કેવળ ચંદ્રમાના પરિવારના તારા ૬ ૬૯૭૫ (છાસઠ હજાર નવો પીતર ) કેડાછેડી છે. એવી જ રીતે બીજા ચંદ્રમાના પણ તારા-પરિવાર શાસ્ત્રાન્તરથી समला . ___ (णाणा-संठाण-संठियाओ) २तारामान। मा४२ मे वो निश्चित नथी. तेमना ४२ अने४ प्रा२ना छे. (पंचवण्णाओ) ते पाय qg छ. (ठियलेसा) तेमनी अश्या स्थि२ छ, तभनी वेश्यामा ३२३०२ थत। नथी. (चारिणो य) ते संयशी छ. (अविस्साम-मंडल-गई) मा नि२. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂકર औपपातिकसूत्रे मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणंसमणस्स भगवओ महावीरस्स वेमाणियादेवा अंतियं पाउब्भवित्था, सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिद-बंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्सारा-णय-पाणया-रण टीका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि। तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'वेमाणिया देवा अंतियं पाउभवित्था' वैमानिका देवा अन्तिके प्रादुर्बभूवुः । के ते वैमानिका देवाः ? इत्याह-सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतय महामुक्क-सहस्सारा-णय-पाणया-रण-अञ्चयवई' सौधर्मे १-शान २-सनत्कुमार ३-माहेन्द्र ४, ब्रह्म ५-लान्तक ६-महाशुक्र ७-सहस्रारा-ऽऽनत ९-प्राणता १०ऽऽ-रणा११ च्युतपतयः १२, करते रहना यही इनका स्वभाव है। (पत्तेयं णामंक-पागडिय-चिंध-मउडा) प्रत्येक के मुकुट अपने अपने नामों से युक्त एवं स्पष्ट चिह्न वाले हैं । (महिड्ढिया) ये सब महाऋद्धि के धारी हैं। (जाव पज्जुवासंति) पूर्व में वर्णित असुरकुमारों की तरह ये सब ज्योतिषी देव भी भगवान् महावीर की सेवा करने लगे ॥ सू० ३६ ॥ 'तेणं कालेणं' इत्यादि। ( तेणं कालेणं तेणं समएण) उस काल और उस समय में (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के (अंतियं) समीप (वेमाणिया देवा) वैमानिकदेव (पाउन्भवित्था) प्रकट हुए । वैमानिक देव कौन हैं ? सो कहते हैं-(सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्सारा-णयपाणया-रण-अच्चुय-चई) सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक त२ मन ४२॥ २२ से तमनो स्वभाव छ. (पत्तेयं णामंक-पागडियचिंध-मउडा) प्रत्येना भुट पोतपोतानां नाभाथी युद्धत सव २५ शिक्षा छ. (महिड्ढिया) से मचा महाऋद्धिना धा२४ छे. (जाव पज्जुवासंति) पूर्व ४९ અસુરકુમારની પેઠે આ બધા તિષીદેવ પણ ભગવાન મહાવીરની સેવા ४२वा साया. (सू०३९) 'तेणं कालेणं' ऽत्यादि. (तेणं कालेणं तेणं समएण) ते स मने ते समयमा (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रम मापान भडावा२नी (अंतियं) पासे (वेमाणिया देवा) वैभानि: ५ (पाउन्भवित्था) प्रगट थया. ते वैमानि वा छान छ ? → ४ छ(सोहम्मी-साण-सणंकुमार-महिंद-बंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्सारा-णय-पाणया-रण-अच्चुयवई) सौधर्म १, शान २, सनभा२ 3, भाडेन्द्र ४, प्रा४ ५, सन्त Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषवर्षिणी-टीका ख. ३७ ज्योतिष्क देववर्णनम् अच्चुवई पहिडा देवा जिण दंसणु-स्सुया-गमण-जणिय-हासा पालग - पुप्फग - सोमणस-सिरिवच्छ-णंदियावत्त- कामगम-पीइगमसौधर्मादयच्युतान्ताः कल्पाः सन्ति, एषु वैमानिका देवा भवन्ति, अत एव सौधर्मादयच्युतान्तानां देवलोकानां पतयः=स्वामिनः 'पहिठ्ठा' प्रहृष्टाः = अतिहर्षं प्राप्ताः देवाः = वैमानिकाः । ' जिणदंसणु-स्सुया-गमण - जणिय-हासा' जिन-दर्शनोत्सुका-ssगमन-जनित - हासा : - जिनदर्शनार्थोत्सुकानाम् एषां; देवानामागमनं, तेन जनितो हासः - आनन्दो येषां ते तथा । जिनेन्द्रदर्शनात्कण्ठाऽऽगमनजातप्रमादाः । सौधर्मादिद्वादशकल्यानां दशसंख्यका इन्द्राः सन्ति, तत्र नवमदशमयेोरेक इन्द्रो भवति । शक्रादीनामच्युतान्तानां दशानामिन्द्राणां पालकादीनि सर्वतोभद्रान्तानि दश विमानानि भवन्ति, तान्याह- 6 पालग १, पुप्फग २, सोमणस ३, सिविच्छ ४, दियावत ५, कामगम ६, पीइगम ७, मणोगम ८, विमल ९, सव्वओभद १० - सरिसणामधेज्जेहिं विमाणेहिं ओइण्णा' पालक - पुष्पक - सौमनस - श्रीवत्स - नन्द्यावर्त-व गम-प्रीतिगम-मनागम-विमल-सर्वतोभद्र-सदृशनामधेयैर्विमानैरवतीर्णाः = ते दश इन्द्राः पाल -काम ३४३ I महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये देवलोक हैं । ये सौधर्मादिक, वैमानिक देवताओं के रहने के स्थान हैं। ये देवलोक १२ हैं । इनकी कल्प संज्ञा है ये वैमानिक देव इनके पति हैं। इन कल्पों में जो उत्पन्न होते हैं वे वैमानिक या कल्पवासी देव कहलाते हैं । (पहिट्ठा ) अतिहर्ष को प्राप्त हुए ( देवा ) ये वैमानिक देवेन्द्र ि जिन्हें (जि-दंसणु-स्सुया-गमण-जनिय - हासा ) जिनेन्द्र के दर्शन के लिये उत्सुकतापूर्वक आगमन से अति आनंद हुआ है । (पालग - पुप्फग - सोमणस - सिरिवच्छ दियावत्त कामगम- पीइगम - मणोगम - विमल - सव्वओभद्द - सरिस - णामधेज्जेहिं विमाहिं) वे दस वैमानिक देवेन्द्र अपने २ पालक, १ पुष्पक २ सौमनस, ३ श्रीवत्स, १, महाशु ७, सरखार ८, मानत E, आणुत १०, १२ ११, मने અચ્યુત ૧૨; આ ધ્રુવલેાક છે. આ સૌધર્માદિક, વૈમાનિક દેવતાઓનાં રહેવાનાં સ્થાન છે. તે દેવલાક ૧૨ છે. તેમની કલ્પ સસા છે. તેમના સ્વામી ૧૦ છે. આ કલ્પામાં જે ઉત્પન્ન થાય છે તે વૈમાનિક અથવા કલ્પવાસી દેવ उपाय छ. (पहिट्ठा) हुं दुर्ष प्राप्त थतां (देवा) मा वैभानि देवेन्द्र लेने (जिण- दंसणु-स्सुया-गमण - जनिय -हासा) किनेन्द्रना दर्शन भाटे उत्सुरतापूर्व आगमनथी यति मानह थयो छे. (पालग - पुप्फग - सोमणस - सिरिमच्छ - नंदियावत्त - कागगम - पीइगम - विमल - सव्वओभद्द - सरिसणामधेज्जेहिं विमाणेहिं ) ते दृश Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ औपपातिकसूत्रे विमल-सव्वओभद्द-सरिसणामधेन्जेहिं विमाणेहिं ओइण्णा वंदगा जिणिदं मिग-महिस-वराह-छगल-ददुर-हय-गयवइ-भुयग-खग्गउसभंक-डिम-पागडिय-चिंध-मउडा पसिढिल-वरमउड - तिरीडकादिसर्वतोभद्रान्तनामकैः, तथा तत्सदृशनामकैः-पूर्णभद्र-सुभद्रादिनामकैश्चान्यैर्बिमानैरन्येऽपि देवाः 'ओइण्णा' अवतीर्णाः भुवमागताः । 'वंदगा जिणिदं' वन्दका जिनेन्द्रस्य =जिनेन्द्रं वन्दितुकामा इत्यर्थः । 'मिग-महिस-वराह-छगल-दर-हय-गयवइ-भुयग-खग्गउसभंक-विडिम-पागडिय-चिंध-मउडा' मृग-महिप-वराह-छगल-दर्दुर-हय-गजपति-भुजगखड्ग-ऋषभाऽङ्क-विडिमप्रकटित-चिह्नमुकुटाः, मृगमहिषादि-ऋषभान्ताः अङ्काः-चिह्नानि विडिमेषु विस्तीर्णभागेषु येषां मुकुटानां तानि मृगमहिषवराह-छगल-दर्दुरहयगजपतिभुजगखड्गऋषभाङ्कविडिमानि, तानि अतएव प्रकटितचिह्नानि रत्नादिदीप्त्यो प्रकाशितचिह्नयुक्तानि मुकुटा४ नंद्यावर्त, ५ कामगम, ६ प्रीतिगम, ७ मनोगम, ८ विमल, ९ सर्वतोभद्र १० इन नामवाले विमानों से और पूर्वोक्त विमानों से अतिरिक्त पूर्णभद्र सुभद्र आदि विमानों से दश देवेन्द्रों से भिन्न अन्य वैमानिक देव (ओइण्णा) पृथ्वी पर अवतरित हुए-आये, अर्थात्इन पूर्वोक्त नामवाले विमानों द्वारा दस देवेन्द्र, तथा और भी अन्य देव अपने अपने विमानों द्वारा इस भूमण्डल पर अवतीर्ण हुए-उतरे । क्यों कि ये सब (वंदगा जिणिंदं) जिनेन्द्र की वन्दना करने की कामना वाले थे। (मिग-महिस-वराह-छगल-दद्दरहय-गयवइ-भुयग-खग्ग-उसभंक-विडिम-पागडिय-चिंध-मउडा) इनके मुकुटोंके विडिमों-विस्तीर्ण भागों में क्रमशः मृग, महिष, वराह, छगल-बकरा, दर्दुर-मेंढक, દ્વિમાનિક દેવેન્દ્રો પોતપોતાના પાલક ૧, પુષ્પક ૨, સૌમનસ ૩, શ્રીવત્સ ૪, नापत ५, अभिगम, प्रीतिगम ७, मनागम ८, विभ, सर्वतोभद्र १०, આ નામવાળાં વિમાનેથી, તથા પૂર્વોકત વિમાનથી અતિરિત પૂર્ણભદ્ર सुभद्र मावि विभानाथी ४श देवेन्द्रोथी मिन्न मी वैमानि४ हेव। (ओइण्णा) પૃથ્વી પર આવ્યા. અર્થાત્ આ પૂર્વોક્ત-નામવાળાં વિમાન દ્વારા તે દેવેન્દ્ર તથા બીજા પણ દેવ પોતપોતાનાં વિમાન દ્વારા આ ભૂમંડલ પર ઉતરી माव्या. भ मे मथा (वंदगा जिणिंद) जिनेन्द्रनी पहना ४२वानी मनाव ता. (मिग-महिस-वराह-गल-ददुर-हय-यवइ-भुयग-खग्ग-उसभंकविडिम-पागडिय-चिंध-मउडा) तेमन। भुटाना विडिभा-विस्ती भागमा उभश: भृग, भडिप, १२।७, छाय--२५४२१, २- ४ [31], य--घाट, 10 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीकृषवषिणो-टीका सु. ३७ वैमानिकदेववर्णनम् धारी कुंडल-उज्जोविया-णणामउड-दित्त-सिरया रत्तामा पउम-पम्हनि येषां ते तथा । तत्र ऋषभो वृषभः, मृगमहिषादिचिह्नयुक्तमुकुटसहिताः ‘पसिढिलवर-मउड-तिरीड-धारी' प्रशिथिल-वरकेशविन्यास-किरीटधारिणः, प्रशिथिला ये 'वरमउड' वरकेशविन्यासाः प्रशस्तकेशविन्यासाः किरीटाश्च तान् धरन्ति ये ते तथा, 'मउड' इति केशविन्यासार्थका देशीशब्दः । 'कुंडल-उज्जोविया-णणा' कुण्डलो-ढ्योतिता-ननाः-कुण्डलेन उद्दयोतितं प्रकाशितम् आननं मुखं येषां ते तथा; कुण्डलोद्भासितमुखा इत्यर्थः । 'मउड-दित्त-सिरया' मुकुट-दीप्त-शिरोजाः-मुकुटेन रत्न-खचितेन दीप्ताः शिराजाः= केशा येषां ते तथा, 'रत्ताभा' रक्ताऽऽभाः अरुणकान्तिमन्तः । 'पउम-पम्ह-गोरा' हय घोड़ा, गजपति-गजेन्द्र, भुजग-सर्प, खङ्ग और वृषभ इनके चिह्न थे। (पसिढिलवर-मउड-तिरीड-धारी) प्रशिथिल उत्तम मउड केशविन्यास एवं किरीट-मुकुट को ये धारण किये हुए थे, अर्थात् भगवान् के दर्शन करते की त्वरा में इनके प्रशस्त केशविन्यास और मुकुट शिथिल हो गये थे। (कुंडल-उज्जोविया-णणा) कुंडलों की विशिष्ट आभा से इनका मुखमण्डल प्रकाशित हो रहा था। (मउड-दित्त-सिरया) (१) ये चिह्न १० हैं, देवलोक १२ हैं। पर इनके इन्द्र १० हैं-(१) सौधर्मका इन्द्र, (२) ईशानका इन्द्र, (३) सनत्कुमारका इन्द्र, (४) माहेन्द्र का इन्द्र, (५) ब्रह्मलोक का इन्द्र, (६) लान्तकका इन्द्र, (७) महाशुक्रका इन्द्र, (८) सहस्रारका इन्द्र, (९)आनत एवं प्राणतका इन्द्र और (१०) आरण एवं अच्युत देवलोकका इन्द्र; इस प्रकार ये १० इन्द्र इन १२ कल्पों के हैं। इन इन्द्रों के ये क्रमशः पालकादिक १० विमान होते हैं । मृग महिष आदिके क्रमश : ये १० चिह्न मुकुटों में इनके होते हैं। पति [rl], सुस-सपी, मड्स अने वृषभ [मह], मेन यिन' तi. (पसिढिल-वर-मउड-तिरीड-धारी) प्रशिथित उत्तम भ6-शविन्यास सेव કિરીટ-મુકુટ તેમણે ધારણ કર્યા હતાં. અર્થાત્ ભગવાનનાં દર્શન કરવાની ઉતાવળમાં તેમના પ્રશસ્ત કેશ-વિન્યાસ અને મુકુટ શિથિલ થઈ ગયાં હતાં. (कुंडल-उज्जोविया-णणा) Baiनी विशिष्ट माना ()थी तमना भुप ___ (१) मा यि १० छ, पक्षा४ १२ छ, पण तेनाद्र १० छ. (१) सौधर्मना , (२) शानन द्र, (3) सनत्कुमारने द्र, (४) माहेन्द्रनो द्र, (५) प्रहसन द्र, (6) Aids द्र, (७) भडाना , (८) ससारना ઇંદ્ર, (૯) આનત એવં પ્રાણતને ઈદ્ર, તથા (૧૦) આરણ એવું અશ્રુત દેવલોકન ઈંદ્ર. આ પ્રકારે આ ૧૦ ઇંદ્ર આ ૧૨ કલ્પના છે. આ ઇદ્રોના કમથી પાલક Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ औपपातिक गोरा सेया सुभ-वण-गंध-फासा उत्तमवेउब्विणे। विविह-वत्थ-गंधमहिड्ढिया महज्जुइया जाव पंजलिउडा पज्जु मल्ल-धारी वासंति ॥ सू०३७ ॥ पद्म-पम-गौराः पद्मकिञ्जल्कवद् गौरवर्णाः । 'सेया ' श्वेता :- शुकान्ति-शालिनः । 'सुभ-वण्ण-गंध-फासा ' शुभ-वर्ण- गन्ध-स्पर्शाः । ' उत्तम वेड व्विणो' उत्तम विकुर्विणः= उत्तम विकुर्वणाकारिणः ' विविह-वत्थ-गंध-मल्ल-धारी' विविध वस्त्र- गन्ध-माल्य-धारिणः 'महिड्डिया ' महर्द्धिकाः – महासम्पत्तिशालिनः । ' महज्जुइया' महाद्युतिकाः - अतिशयः युतिमन्तः । ' जाव पंजलिउडा पज्जुवासंति' यावत्प्राञ्जलिपुटाः पर्युपासते - - यावच्छब्दात् - पूर्ववत् त्रिकृत्वः, आदक्षिणप्रदक्षिण- वन्दन - नमनादयः सूच्यन्बे; प्राञ्जलिपुटाः - बद्धाऽञ्जलयः पर्युपासते—समन्तादुपासनां कुर्वते ॥ सू०३७ ॥ मस्तक की केशपंक्ति मुकुट की कांति से दीप्त हो रही थी । ( रत्ताभा ) इनकी कांति अरुण-लाल थी, ( पउम - पम्ह - - गोरा ) पर इनका शरीर कमल के केशरों के समान गौरवर्णवाला था । इसलिये ( सेया ) ये शुभ्रक्रांति से शोभित थे । ( सुभ-गंध-वण्णफासा) इनके शरीर के गंध, वर्ण और स्पर्श शुभ थे । ( उत्तम वेउब्विणो ) ये उत्तम वैक्रिय शरीर करनेवाले थे। (विविह-वत्थ- गंध - मल्ल - धारी ) अनेक प्रकार के - उत्तमोत्तम वस्त्रों को ये धारण किये हुए थे । गले में इनके सुगंधित पुष्पों की माला सुशोभित हो रही थी। तथा ये (महिड्डिया ) महर्द्धिक थे। एवं तिधारी थे । ( जाव पंजलिउडा पज्जुवासंति ) ये पूर्ववर्णित तीन बार अंजलिपूर्वक सविधि वन्दना कर प्रभु की सेवा करने लगे ॥ सू० ३७ ॥ ( महज्जुइया ) महाअसुरकुमारों की तरह " मंडन प्राशित थ रह्यां तां (मउड - दित्त - सिरया ) भस्तउनी देशपांडित भुटनी अंतिथी हीथी उठती हुती. ( रत्ताभा) तेभनी अंति अरुणु-सास हुती. (पउम-पम्ह-गोरा) पशु तेमनां शरीर उभसनां शरो नेवां और वर्णुनां ता. साथी (सेया) तेथे शुभ्रांतिथी शोलता हुता. ( सुभ-गंध-वण्ण - फासा) मेमना शरीरना गन्ध, वाणु मने स्पर्श शुल हुता. ( उत्तमवेउव्विणो ) तेथे उत्तम वैडिय–शरीर धारण ४२वावाला हुता. (विविह-वत्थ - गंध - मल्ल-धारी) अने પ્રકારના ઉત્તમાત્તમ વસ્ત્રો તેમણે ધારણ કર્યાં હતાં, તેમના ગળામાં સુગધિત पुष्योनी भाजा शोली रही हुती. तथा तेथे (महिड्डिया ) भद्धि हुता. शेव (महज्जुइया) भड्डाधुतिधारी हुता. (जाव पंजलिउड़ा पज्जुवासंति) तेथे આદિક ૧૦ વિમાન હોય છે. મૃગ મહિષ, આદિનાં અનુક્રમે તેઓના મુકુ ટમાં ચિહ્નો હોય છે. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् ३४७ मूलम्-तए णं चंपाए णयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे इ वा जणवूहे इ वा टीका-'तए णं' इत्यादि। ततः तदनन्तरं चतुर्निंकायदेवानामागमनाऽनन्तरं, खलु 'चंपाए णयरीए' चम्पायां नगर्याम् 'सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु' शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु-तत्रशृङ्गाटकं-'सिंघाडा' इति भाषाप्रसिद्धं जलजं फलं, तदाकारं स्थानं, त्रिकोणमित्यर्थः; त्रिकं-मिलितत्रिमार्गस्थानम् , चतुष्कं यत्र चत्वारो मार्गा मिलिताः सन्ति तत्-'चोराहा' इति भाषाप्रसिद्ध स्थानम्, चत्वरं बहुमार्गसंमेलनस्थानम्, चतुर्मुखं चतुर्दारं स्थानम्-आगन्तुकादीनां विश्रामस्थानम् , महापथः-राजमार्गः, पन्थाः रथ्यामात्रम् , तेषु सर्वेषु स्थानेषु यत्र ‘महया जणसद्दे इ वा' महान् जनशब्दः-परस्पराऽऽलापादिरूपो भवति ‘इकारो' वाक्यालङ्कारार्थः, 'वा'-प्रकारार्थः; तथा 'जणवूहे इ वा ' जनव्यूहः-लोकसमूहः, 'जण ... 'तए णं चंपाए णयरीए' इत्यादि। (तए णं) चतुर्निकाय के देवों के आगमन के अनन्तर (चंपाए णयरीए) चंपा नगरी में (सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु) शृंगाटकतीनकोनवाले स्थान पर, त्रिक-जहां पर तीन रास्ते आकर मिलते हैं ऐसे स्थान पर, चतुष्क-जहां पर चार मार्ग आकर मिले रहते हैं ऐसे चौराहे पर, चत्वर-अनेकमार्गीका संमेलन जहाँ होता है ऐसे स्थान पर, चतुर्मुख-आगन्तुक जनों के विश्रामार्थ निर्मापित स्थान पर, महापथ-राजमार्ग पर, एवं पथ अर्थात् जहाँ से गली निकलती हो ऐसे स्थान पर, (महया जणसद्दे इ वा) महान् जन शब्द होने लगा-परस्पर मिलजुल कर लोग बातचीत करने लगे। (जणवूहे इ वा) एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से पूछने लगा, अथवाપૂર્વે કહેલા અસુરકુમારની પેઠે ત્રણવાર અંજલિપૂર્વક સવિધિ વંદના ४शने प्रमुनी सेवा ४२वा साया. (सू. 3७.). 'तए ण चंपाए णयरीए' त्यादि। । (तए ण) यतुनियन वोना मागमन पछी (चंपाए णयरीए) यापानगरीमा (सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु) शंगाटक-त्रtyा स्थान ५२, त्रिक-न्याय २२ मावाने भणे छ सेवा स्थान ५२, चतुष्क-न्य या२ भाग मावीने भले छ सेवा यौटा ५२, चत्वर-मने४ भानु सभेतन ज्यां थाय छ । स्थान ५२, • चतुर्मुख-माना२ मा - साना विश्राम भाट भु४२२ ४२i स्थान ५२, महापथ--२४५२, मेव पथ-अर्थात् न्याथी. सीनागी डाय तवां स्थान। ५२, (महया जणसद्दे इ वा) મહાન જન-શબ્દ થવા લાગ્યા-પરસ્પર મેલામલાપ કરી લેકે વાતચીત Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૮ औपपातिकसूत्रे जणबोले इवा जणकलकले इ वा जणुम्मी इ वा जणुक्कलिया इ वा जणसपिणवाए इवा; बहुजणो अण्णमण्णस्त एवमाइक्खड़, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ; एवं खलु देवाणुप्पिया ! बोले इ वा ' जनानामव्यक्तो ध्वनिर्वा, 'जणकलकले ३ वा' जनकलकलो-जनानां व्यक्तवर्गात्मको नादः 'जणुम्मी इ वा ' जनोर्मि:=जन बाधः-तरङ्गवजनानामुपर्युपरि समागमनम् . 'जणुकलिया इ वा' जनोत्कलिका वा-जनानां लघुतरः समुदायः, 'जणसण्णिवाए इ वा ' जनसन्निपातः-जनानां संघर्षरूपेण संमिलनं भवति, तत्र-'बहुजणो' बहुजनः 'अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ' अन्योऽन्यमेवमाचष्टे-एकोऽपरं वदति सामान्यरूपेण, ' एवं भासइ' एवं भाषते वक्ष्यमागप्रकारेण विशेषतः कथयति ' एवं पण्णवेइ' प्रज्ञापयति-अपृष्टः सन् कथयति ‘एवं परूवेइ' एवं प्ररूपयति–पृष्टः सन् कथयति, मनुष्यों का एकत्र जमघट्ट होने लगा। (जणबोले इ वा) मनुष्यों की अव्यक्तध्वनि होने लगी। (जणकलकले इ वा) प्रगट रूप में कहीं २ मनुष्यों का कलकल अर्थात् स्पष्ट ध्वनि सुनाई देने लगी। (जणुम्मी इ वा) समुद्र के तरंग समान ऊपर के ऊपर लोगों के झुंड आने लगे। कहीं २ पर (जणुक्कलिया इ वा) सामान्य रूप से जनसमुदाय एकत्रित हुआ। (जणसण्णिवाए इ वा) कहीं २ पर मनुष्यों का इतना अधिक संघट्ट हुआ कि वे सब परस्पर में एक दूसरे से संघृष्ट होने लगे। इन सब में (बहुजणो) अनेक मनुष्य (अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ) परस्पर में एक दूसरे से इस प्रकार सामान्यरूप में कहने लगे, ( एवं भासइ) कोई २ इस प्रकार विशेषरूप से कहने लगे, (एवं पण्णवेइ) काई ४२१॥ या. (जणवूहे इ वा) मे भास माने पूछाय-मया माणु सोनु टोमे था सायु. (जणबोले इ वा) बानी भव्यत पनि था सी. (जणकलकले इ वा) प्रगटपे ४यां ४यां मनुष्योनी ४४४४ अर्थात २५ष्ट पनि समाप दासी. (जणुम्मी इ वा) समुद्रनां मानी पेठे ७५२१. ७५२ साना टणi qा दायi. (जणुक्कलिया इ वा) सामान्य३५ ४--- समुदाय मेत्रित था. (जणसण्णिवाए इ वा) ७ स्थाने मनुष्यो मेटा એકઠા થયા છે તે બધા પરસ્પરમાં એક બીજાની સાથે અથડાવા લાગ્યા. 20 धाम (बहुजणो) अने मनुष्य (अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ) ५२२५२मा मे भीगने म ४ारे सामान्य३५मा ४ दाया. (एवं भासइ) 8 ६ २॥ प्रारे विशेष३५मा वा साया, (एवं पण्णवेइ) आई 35 yoया Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ पोषवर्षिणो-टोका स. ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सयंसंबुद्धे पुरिसुत्तमे जाप संपाविउकामे पुव्वाणुपुर्दिवं चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे इहमागए इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव चंपाए णयरीए बहिं किं कथयतीति सूत्रकार आह-' एवं खलु देवाणुपिया' इत्यादि। एवं खलु भो देवानुप्रियाः ! श्रमगो भगवान् महावीरः, 'आइगरे तित्थयरे सयंसंबुद्ध' आदिकरस्तीर्थकरः स्वयंसंबुद्धः, 'पुरिमुत्तमे' पुरुषोत्तमः, 'जाव संपाविउकामे' यावत्सम्प्राप्तुकामः-सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तुकाम इति भावः। 'पुवाणुपुग्छि' पूर्वानुपूर्वी-तीर्थकरपरम्परागतमर्यादाम् 'चरमाणे' चरन् आचरन् , 'गामाणुग्गाम दूइज्जमाणे ' ग्रामानुग्रामं द्रवन्-प्रत्येकं ग्रामं गच्छन्–क्रमप्राप्तग्राममत्यजन् , 'इहमागए' इहाऽऽगतः, इह चम्पायामागत इति भावः, “इह संपत्ते' इह सम्प्राप्तः, इह पूर्णभद्रे कोई विना पूछे ही दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, ( एवं परूवेइ) कोई कोई पूछे जाने पर दूसरे से इस प्रकार कहने लगे। क्या कहने लगे ? इसको सूत्रकार कहते हैं( एवं खलु देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रियो ! (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर कि, (आइगरे तित्थगरे सयंसंबुद्धे पुरिमुत्तमे जाव संपाविउकामे पुन्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम दुइजमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे) जो अपने शासन को अपेक्षा से धर्म के आदि कारक हैं, चतुर्विध संघ के संस्थापक हैं, स्वयंसंबुद्ध हैं, एवं पुरुषों में उत्तम हैं, यावत् मोक्ष प्राप्त करने के कामी हैं, वे अन्य तीर्थकरों की परम्परा से आगत मर्यादा का संरक्षण करते हुए एवं ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आज यहाँ पधारे हुए हैं, यहां संप्राप्त हुए हैं, साधुसमाचारी के अनुसार यहाँ समवसृत १॥२४ मीनथी प्रारे ४ा साया, (एवं परूवेइ) छ छ पूछाપર બીજાએથી કહેવા લાગ્યા. શું કહેવા લાગ્યા ? આ વાતને સૂત્રકાર પ્રકટ ४२ छ-(एवं खलु देवाणुप्पिया) हेवानुप्रियो (समणे भगवं महावीरे) श्रम भगवान् मडावी२ (आइगरे तित्थगरे सयंसंबुद्ध पुरिसुत्तमे जाव संपाविउकामे पुव्वाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे) मे। પિતાની શાસનની અપેક્ષાથી ધર્મના આદિકારક છે, ચતુર્વિધ સંઘના સંસ્થાપક છે, સ્વયંસંબુદ્ધ છે તેમજ પુરૂષોમાં ઉત્તમ છે, યાવત્ એક્ષપ્રાપ્ત કરવાની કામનાવાળા છે, તેઓ અન્ય તીર્થકરોની પરંપરાથી ચાલતી મર્યાકાનું સંરક્ષણ કરતાં કરતાં, એવં ગ્રામાનુગ્રામ વિચરતાં વિચરતાં આજે અહીં પધાર્યા છે. અહીં સંપ્રાપ્ત થયા છે, સાધુસમાચારીને અનુસાર અહીં Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० औपपातिकसूत्रे पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तं महप्फलं खलु भा देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग संप्राप्त इति भावः, 'इह समोसढे इह समवसृतः, साधुकल्प्यावग्रहे समवसृत इति भावः, तदेवाह-'इहेव चंपाए णयरीए' इत्यादि, इहैव चंपाया नगर्याः, 'बहिं ' बहिः-बहिभवे प्रदेशे, 'पुण्णभद्दे चेइए' पूर्णभद्रे चैत्ये-पूर्णभद्रनामक उद्याने, 'अहापडिरूवं उग्गह उग्गिण्हित्ता' यथाप्रतिरूपमवग्रहमवगृह्य-संयमानुकूलमावासस्थानं याचित्वा, 'संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ' संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् धिहरति ।। तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया!' तन्महत्फलं खलु भो देवानुप्रियाः ! 'तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोत्तस्सवि सवणयाए' तथारूपाणामर्हता भगवतां नामगोत्रयोरपि श्रवणतया तादृशानां सर्वातिशयवतां भगवतां तीर्थङ्कराणां नामगोत्रश्रवणेनापि महत्फलं भवति, 'किमंग पुण अभिगमण-वंदण-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए' किमङ्ग पुनरभिगमन-वन्दन-नमस्यन–प्रतिप्रच्छन–पर्युपासनया--हे अङ्ग !- हे हुए हैं, और ( इहेव चंपाए णयरीए बहिं पुष्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ) इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र उदयान में ठहरने के लिये वनपाल की आज्ञा लेकर संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचर रहे हैं। इसलिये ( भो देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! जब (तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए ) तथारूप सर्वातिशयसंपन्न भगवान् तीर्थंकरों के नाम एवं गोत्र के श्रवण से भी (महप्फलं) जीवों को महाफल प्राप्त होता है, तब (किमंग ! पुण आभिगमण -वंदण-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुसभक्त थया छ. तथा तसा (इहेव चंपाणयरीए बहिं पुण्णभद्दे चेइए अहापडि रूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ) 24॥ पानगरीनी બહાર પૂર્ણભદ્ર ઉદ્યાનમાં ઉતરવા માટે વનપાલની આજ્ઞા લઈને સંયમ તેમજ तपथी पोताना मामाने मावित ४२तां वियरे छ. २ माटे (भो देवाणुप्पिया) ७. वानुप्रिय ! न्यारे (तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं णामगोयस्सवि सवणयाए) તથારૂપ સર્વાતિશયસંપન્ન ભગવાન તીર્થકરોનાં નામ તેમજ ગેત્રનાં શ્રવણથી ५४ (महप्फलं) ७वाने मडास प्रास थाय छ, त्यारे (किंमंग पुण अभिगमण: वंदण-णमंसण पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए) -मायुष्मन् ! तेमना सभी Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूष वर्षिणी-टीका सू. ३८ भगवद्दर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् ३५१ पुण अभिगमण-वंदण - णमंसण - पडिपुच्छण-पज्जुवा सणयाए ? एमवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग ! पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामो णं आयुष्मन् ! तेषामभिगमनेन, वन्दनेन स्तवेन, नमस्यनेन =नमस्कारेण, प्रतिप्रच्छनेन = प्रतिप्रश्वेन, पर्युपासनया=सेवनया पुनः यत् फलं भवति तत् किं वक्तव्यम्, अकथितमपि सुबुद्धं भवतीतति भावः । ‘एगस्स वि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए' एकस्यापि आचार्यस्स धार्मिकस्य सुवचनस्य श्रवणतया - एकस्यापि आचार्यस्य - आचार्यप्रोक्तस्य, धार्मिकस्थ=धर्मप्रयोजनस्य, अत एव सुवचनस्य = सदुपदेशस्य श्रवणतया श्रवणेन महाफलं भवति, "किमंग पुण विजलस्स अट्ठस्स गहणयाए' किमङ्ग ! पुनर्विपुलस्यार्थस्य ग्रहणतया - यावदुपदिष्टस्य अर्थस्य ग्रहणेन किं वक्तव्यम्, यावत्प्रोक्तार्थग्रहणेन सर्वथा कृतार्थो भवतीति भावः । 'तं' तत्-तस्मात् खलु 'देवाणुप्पिया !' हे देवानुप्रियाः । 'गच्छामो' गच्छामः = तदन्तिकं व्रजामः, वासणयाए ) हे अंग - आयुष्मन् ! उनके समीप जाने से, उनको वन्दना करने से उनकी स्तुति करने से, उन्हें नमन करने से, प्रश्न पूछने से और उनकी पर्युपासना करने से जीवों को किस अनुपम फल की प्राप्ति न होती होगी, अर्थात् सब कुछ फल की प्राप्ति होगी, इसमें संदेह के लिये अल्पमात्र भी स्थान नहीं है । ( एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए) जब तथारूप आचार्य अरिहन्त भगवन्त से कहे हुए धार्मिक सदुपदेशरूप एक भी वचन के सुनने से जीव महाफल का भागी होता है, तब हे आयुष्मन् ! उनके द्वारा कथित विपुल अर्थों के ग्रहण " करने से जो फल होता है उसके विषय में तो कहना ही क्या ? ( तं गच्छामो णं देवा જવાથી, તેમને વંદના કરવાથી, તેમની સ્તુતિ કરવાથી, તેમને નમસ્કાર કરવાથી, તેમને પ્રશ્ન પૂછવાથી તથા તેમની પ પાસના કરવાથી જીવાને કયા અનુપમ ક્લની પ્રાપ્તિ ન થઈ શકે ? અર્થાત્સલની પ્રાપ્તિ થશે. मां सदेह भांटे अस्थमात्र या स्थान नथी. (एगस्स वि आयरियरस धम्मियस सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ) न्यारे तथा३य અરિહન્ત' ભગવન્ત તરફથી કહેવામાં આવતા ધાર્મિક સદુપદેશરૂપ એક પણ વચનને સાંભળવાંથી જીવ મહાલના ભાગી થાય છે ત્યારે હે આયુષ્મન્ ! તેમના દ્વારા કહેવામાં આવતા વિપુલ અર્થાનું ગ્રહણ કરવાથી જે કુલ થાય ते विषयभां तो अहेवानु शु ? ( तं गच्छामो णं देव ाणुप्पिया ) भाटे हे Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसत्रे देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासामो। एयं णे इहभवे पेच्चभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए 'समणं भगवं महावीरं वंदामो' श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दामहे-स्तुमः गुणगानेन, 'णमंसामो' नमस्कुर्मः पञ्चाङ्गनमनेन, 'सक्कारेमो' सत्कुर्मः अभ्युत्थानादिना, 'संमाणेमो' सम्मानयामः-परमादरेग-भक्तिबहुमानेनेत्यर्थः, 'कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवसामो कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं विनयेन पर्युपास्महे-कल्याणं कल्याणप्राप्तिकारणम् , मङ्गल दुरितदूरीकरणकारणम् , दैवतं देवोचितप्रभावोपचितम् , चैत्य केवलज्ञानयुक्तं-चित्तप्रसादहेतुं वा एतादृशं भगवन्तं पर्युपास्महे=विनयेन सेवामहे, 'एयं णे' एतन्नः-एतद्-भगवद्वन्दनादि, न:-अस्माकम् , 'इहभवे पेच्चभवे य' इहभवे प्रेत्यभवे-परभवे च 'हियाए' णुप्पिया) इसलिये हे देवानुप्रिय ! उनके पास अपने चलें, वहां जाकर (समणं भगवं महावीरं) श्रमण भगवान् महावीर को (वंदामो) वन्दना करें अर्थात् उनका गुणगान करें । (णमंसामो) पंचांग-नमन-पूर्वक नमस्कार करें । (सकारेमो) अभ्युत्थानादिक क्रियाओं द्वारा उनका सत्कार करें । (संमाणेमो) भक्ति बहुमान के साथ उनका सम्मान करें । (कल्लाणं) कल्याण प्राप्ति के कारणभूत, (मंगलं) पापों को दूर करने के लिये निमित्तरूप, (देवयं) देवाधिदेव के प्रभाव से युक्त, (चेइयं) केवलज्ञान युक्त, ऐसे श्री भगवान् महावीर स्वामी की (विणएणं) विनयपूर्वक (पज्जुवासामो) सेवा करें । (एयं णे इहभवे पेच्चभवे य ) यह भगवान का वन्दन और नमस्कार आदि इस भव में और परभव में (हियाए) आजीवन कल्याण के लिये (सुहाए) सुख के लिये अर्थात् भोगजनित हेवानुप्रिय ! तेमनी पासे मापणे ४४, त्यांधने (समणं भगवं महावीरं) श्रम लगवान महावीरने (वंदामो) बना ये अर्थात् तेमन गुरागान शये. (णमंसामो) पंचांग-नमनपूर्व नभ२४२ ४३शये. (सक्कारेमो) अत्युत्थान माहि जियाय द्वारा तेभने। सत्४।२ ४रीमे. ( संमाणेमो) सहित महुभान साथ तमनु सन्मान ४श. (कल्लाणं) ४च्या प्रालिन। २९४भूत, (मंगल) पापीना नाश ४२१॥ भाट निभित्त३५, (देवयं) हेवाधिवन प्रमाथी युत, (चेइयं) सज्ञान युत, सेवा श्री लगवान महावीर स्वामीनी (विणएण) विनयपूर्व (पज्जुवासामो) सेवा ४शये(एयं णे इहभवे पेच्चभवे य) मा लगवानने न तथा नम२४.२ आEि PAL Aqभा तथा ५२ममा (हियाए) 2004न ४ल्याण Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टोका सू. ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् आणुगामियत्ताए भविस्सइ-त्ति कट्टु बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता, एवं दुपडोयारेणं राइण्णा खत्तिया माहणा भडा जोहा हिताय जीवनादिनिर्वाहाय, 'सुहाए' सुखाय भोगलंपाद्यानन्दाय, 'खमाए' क्षमाय समुचितसुखसामर्थ्याय, ‘णिस्सेयसाए' निःश्रेयसाय भाग्योदयाय, 'आणुगामियत्ताए' आनुगामिकतायै अनुगमनशीलत्वेन भवपरम्पराऽनुबन्धिसुखाय भविष्यति । 'त्तिक?' इति कृत्वा इति एवं कृत्वा आख्यानं भाषणं प्रज्ञापनां प्ररूपणां च अन्योऽन्यं कृत्वा 'बहवे' बहवः, 'उग्गा उग्गपुत्ता' उग्रा उग्रपुत्राः, तत्र-उग्राः-आदिदेवाऽवस्थापिताः रक्षकवंशजाः, उग्रपुत्राः-त एव कुमारावस्थासंपन्नाः, 'भोगा भोगपुत्ता' भोगाः-भोगपुत्राः-भोगाः आदिदेवावस्थापिताः गुरुवंशजाः, भोगपुत्राः-त एव कुमारावस्थासम्पन्नाः, 'एवं दुपडोयारेणं' एवं द्विपदोच्चारणेनते च ततत्पुत्राश्चेति द्विवारोच्चारणेन 'राइण्णा राजन्याः-भगवद्वयस्यवंशजाः,राजन्यपुत्राः-राजआनन्द प्राप्ति के लिये (खमाए) समुचित सुख देने के लिये (णिस्सेयसाए) निःश्रेयस अर्थात् भाग्योदय के लिये, तथा (आणुगामियत्ताए) जन्म-जन्मान्तर में सुख देने के लिये (भविस्सइ) होगा, (त्तिकट्ट) इस प्रकार विचार कर (बहवे) बहुत से (उग्गा) भगवान् आदिनाथ प्रभु द्वारा स्थापित रक्षकवंश में उत्पन्न 'उग्र' कहलाते हैं, ऐसे उग्रवंशीय लोग, और (उग्गपुत्ता) उन उग्रवंशीय लोगों के पुत्र, तथा बहुत से (भोगा) भगवान आदिनाथ प्रभु द्वारा स्थापित गुरुवंशश में उत्पन्न 'भोग' कहलाते हैं, ऐसे भोगवंशीय लोग और (भोगपुत्ता) उन भोगवंशीय लोगों के पुत्र, (एवं दुपडोयारेणं) इसी तरह आगे के पदों का भी दुबारा उच्चारण करना चाहिये, जैसे-'राइण्णा राइण्णपुत्ता' इत्यादि । तथा-बहुत से (राइण्णा) राजन्य-अर्थात् भगवान आदिनाथ के मित्रों के वंशज एवं उनके पुत्र, (खत्तिया) भाटे, (सुहाए) सुप भाट यर्थात् सोनित मान प्राप्ति माटे, (खमाए) सभुस्थित सुप हेवा माटे (णिस्सेयसाए) निश्रेयस अर्थात् मायाहयने भाटे, तथा (आणुगामियत्ताए) सन्म-मांतरभां सुप हेवा माटे (भविस्सइ) थशे. (त्ति कटु) २ प्रारे विया२ ४रीने (बहवे) घ । ( उम्गा) भगवान આદિનાથ પ્રભુ દ્વારા સ્થાપિત રક્ષકવંશમાં ઉત્પન્ન “ઉગ્ર” કહેવાય છે, એવા अशीय ४, तथा (उग्गपुत्ता) ते अशीय साहना पुत्र, (भोगा) माવાન આદિનાથ પ્રભુ દ્વારા સ્થાપિત ગુરૂવંશમાં ઉત્પન્ન ‘ભગ’ કહેવાય છે, सेवा मोशी ४, तथा (भोगपुत्ता) ते मावशी खान पुत्र, ( एवं दुपडोयारेणं) से शत मागणना होना पण मीपार अभ्यारण ४२वु नये, सम-“राइण्णा, राइण्णपुत्ता" त्याहि, तथा घाय। (राइण्णा) शान्य-मर्थात् भगवान महिनाथना भित्रना वश मेव तमना पुत्र, (खत्तिया) क्षत्रिय Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे पसत्थारो मलई लेच्छई लेच्छइपुत्ता अण्णे य बहवे राई-सरतलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेहि-सेणावइ-सत्थवाहन्यकुमाराश्च, 'खत्तिया' क्षत्रियाः, क्षत्रियकुमाराश्च, 'माहणा' ब्राह्मणाः, ब्राह्मणकुमाराश्च, 'भडा' भटाः-भटकुमाराश्च, 'जोहा' योधाः-युद्धव्यवसायवन्तः, तेषां कुमाराश्च, 'पसत्यारो' प्रशास्तारःधर्मशास्त्रपाठकाः, तेषां पुत्राश्च, 'मल्लई' मल्लकिनः विशिष्टक्षत्रियजातीयाः, तेषां पुत्राश्च, 'लेच्छई लेच्छकिन:-क्षत्रियजातिभेदवन्तः, 'लेच्छइपुत्ता' लेच्छकिपुत्राः, 'अण्णे य बहवे' अन्ये च बहवः 'राई-सर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाह-प्पभिइओ' राजे-श्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिके-भ्य-श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाहप्रभृतयः, तत्र-राजानो-माण्डलिकाः नरपतयः, ईश्वराः ऐश्वर्यसंपन्ना युवराजाः, तलवराः स्तुष्टभूपालदत्तपट्टबन्धपरिभूषिता राजकल्पाः, माडम्बिकाः ग्रामपञ्चशतीपतयः, यद्वा-सार्धक्रोशद्वयपरिमितप्रान्तरैर्विच्छिद्य विच्छिद्य स्थितानां ग्रामाणामधिपतयः, कौटुम्बिकाः कुटुम्बभरणे तत्पराः, क्षत्रिय और उनके पुत्र, (माहणा) ब्राह्मण और ब्राह्मणपुत्र, (भडा) भट और भटपुत्र, (जोहा) योधा-युद्ध के व्यवसायवाले व्यक्ति और उनके पुत्र, (पसत्थारो) धर्मशास्त्रपाठक और उनके पुत्र, ( मल्लई ) मल्लकी-मल्लकि जाति के क्षत्रिय और उनके पुत्र,( लेच्छई ) लेच्छकी-लेच्छकी जाति के क्षत्रिय और (लेच्छइपुत्ता) लेच्छकियों के पुत्र, तथा और भी बहुत से (राई-सर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-प्पभिइओ) राजा-मांडलिक नृपति, ईश्वर-ऐश्वर्यसंपन्न युवराज, तलवर-संतुष्ट हुए नृपतिद्वारा प्रदत्त पट्टबंध से परिभूषित राजा जैसे विशिष्ट व्यक्ति, माडंबिक-पांचसौ गांव के अधिपति, अथवा ढाई २ कोस पर बसे हुए ग्रामों के स्वामी, कौटुम्बिक-अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करने वाले, अथवा-बहुत कुटुम्ब का पालनपोषण करने वाले, इभ्यतथा तमना पुत्र, (माहणा) ब्राह्मण तथा ब्राह्मणुपुत्र, (भडा) मट तथा मटपुत्र, (जोहा) योद्धा-युद्धमा व्यवसाय ४ तथा तमना पुत्र, (पसत्यारो) धर्मशाखा४४ तथा तभना पुत्र, (मल्लई ) भस-भसजतिना क्षत्रिय मने तेना पुत्र, (लेच्छई) ७४ी-२०४ी जतिना क्षत्रिय तथा (लेच्छइपुत्ता) खेन्छटिमाना पुत्र तथा मीन ५५ ५। (राई-सर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय इब्भ-सेद्वि-सेणावइ-सत्थवाह-प्पभिइओ) २00-मांसि नृपति, ४१२-मैश्वर्यસંપન્ન યુવરાજ, તલવર-સંતેષ પામેલા નૃપતિ દ્વારા પ્રદત્ત પટ્ટબંધથી પરિભૂષિત રાજા જેવા વિશિષ્ટ લોક, માડંબિક-પાંચસે ગામના અધિપતિ, અથવા અઢી ૨ કેસ પર વસેલાં ગામના સ્વામી, કૌટુંબિક–પિતાના કુટુંબના ભરણ-પોષણ કરવાવાળા, અથવા ઘણાં કુટુંબનાં પાલન પોષણ કરવા Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सु. ३८ भगवदर्शनार्थ जनौत्सुक्यम् यद्वा-बहुकुटुम्बपोषकाः, इभ्याः इभो हस्ती, तत्प्रमाणं द्रव्यमर्हन्तीति तथा, ते च जधन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रिप्रकारास्तत्र हस्तिपरिमितमणिमुक्ताप्रवालसुवर्णरजतादिद्रव्यराशिस्वामिनो जघन्थाः, हस्तिपरिमितवज्रहीरकमणिमाणिक्यराशिस्वामिनो मध्यमाः, हस्तिपरिमितकेवलवहीरकराशिस्वामिन उत्कृष्टाः, हस्तिप्रमाणोच्छितधनराशिस्वामिन इभ्या इत्यर्थः । श्रेष्ठिनः = लक्ष्मीकृपाकटाक्षप्रत्यक्षलक्ष्यमागद्रविणलक्षलक्षणविलक्षणहिरण्यपट्टसमलङ्कृतमूर्धानो नगरप्रधानव्यवहर्तारः, सेनापतयः चतुरङ्गसैन्यनायकाः, सार्थवाहाः गणिम-धरिम-मेयहस्ति प्रमाण द्रव्यरूपन्न धनिक जन, ये जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट के भेद से ३ प्रकार के होते हैं; इनमें जिनके पास हस्तिप्रमाणपरिमित मणि, मुक्ता, प्रवाल, सुवर्ण एवं रजत आदि द्रव्य की राशि होती है वे जघन्य इभ्य हैं, जिनके पास हस्तिप्रमाण परिमित वज्र हीरे, मणि, माणिक्य की राशि होती है वे मध्यम इभ्य हैं, परन्तु जिनके पास केवल हस्तिप्रमाण-परिमित वज्र हीरों की राशि होती है वे उत्कृष्ट इभ्य हैं । श्रेष्ठी-लक्ष्मी की जिन पर पूरी २ कृपा हो, उस कृपाकोरके कारण जिनके लाखों के खजाने हों, तथा जिनके शिर पर उन्हीं को सूचित करने वाला चान्दी का विलक्षण पट्ट शोभायमान हो रहा हो, जो नगर के प्रधान व्यापारी हों, उन्हें श्रेष्ठी कहते हैं, ऐसे श्रेष्ठी जन, सेनापति चतुरङ्ग सेना के नायक, सार्थवाह-जो गणिम=गिन कर खरीदने-बेचने योग्य नारियल, सुपारी, केला आदि वस्तुओं को, धरिम-तौलकर खरीदने-बेचने योग्य धान, जौ, नमक, शक्कर आदि वस्तुओं को, मेय-सरावा, आदि छोटे वर्तन आदि से माप कर खरीदने बेचने योग्य दूध, पा, ल्य-स्ति-प्रमाणु-द्रव्य-संपन्न पनि नो, म ४धन्य, मध्यम તેમજ ઉત્કૃષ્ટના ભેદથી ૩ પ્રકારના હોય છે. તેમાં જેમની પાસે હસ્તિપ્રમાણપરિમિત મણિ, મુક્તા, પ્રવાલ, સુવર્ણ તેમજ ચાંદી આદિ દ્રવ્યના ઢગલા હોય તે જઘન્ય ઇભ્ય છે, જેની પાસે હસ્તિપ્રમાણપરિમિત વજ, હીરા, મણિ, માણેકના ઢગલા હેય તે મધ્યમ ઇભ્ય છે. પરંતુ જેમની પાસે કેવલ હસ્તિ પ્રમાણપરિમિત વા હીરાના ઢગલા હેય તે ઉત્કૃષ્ટ ઈભ્ય જન છે. શ્રેષ્ઠી-લક્ષ્મીની જેમના પર પુરેપુરી કૃપા હોય, તે કૃપાના કારણે જેના લાખના ખજાના હોય તથા જેમના માથા ઉપર તેનું સૂચન કરવાવાળાં ચાંદીનાં વિલક્ષણ પટ્ટ (પાઘડી) શોભી રહી હોય, જે નગરના મુખ્ય વ્યાપારી હોય તેમને શ્રેષ્ઠી उपाय छे. शेव। श्रेष्ठी, सेनापति-यतु । सेनाना नाय४, साया-२ ગણિમ=ગણતરી કરીને ખરીદાય તથા વેચાય તેને યોગ્ય નારિયલ, સોપારી, કેળાં આદિ વસ્તુઓ, ધરિમeતળીને ખરીદવા, વેચવા યોગ્ય ધાન, જવ, મીઠું, સાકર આદિ વરતુઓ, મેય=પાવળું કે ડેબે એવાં નાનાં વાસણથી Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ औपपातिकसूत्रे प्पभिइओ अप्पेगइया वंदणवत्तियं अप्पेगइया पूयणवत्तियं एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं दंसणवत्तियं कोऊहलवत्तियं, अप्पेपरिच्छेद्यरूपकेयविक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशान्तराणि व्रजतां सार्थं वाहयन्ति योगक्षेमाभ्यां परिपालयन्तीति, दीनजनोपकाराय मूलधनं दत्त्वा तान् समर्द्धयन्तीति तथा, एतप्रभृतयः, एषु-'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित्-'वंदणवत्तिय वन्दनवृत्तिकम्-वन्दनाय वृत्तिः प्रवृत्तिर्यस्मिन् कर्मणि तत् तथा, क्रियाविशेषणमिदं; वन्दनार्थमित्यर्थः, 'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित् 'पूयणवत्तिय' पूजनवृत्तिकम्-सेवाकरणार्थम् , 'सकारवत्तियं' सत्कारवृत्तिकम्-सत्कारार्थम् , 'सम्माणवत्तिय' सम्मानवृत्तिकम्-सम्मानार्थम् , 'दंसणवत्तिय' दर्शनवृत्तिकम् दर्शनार्थम् , ' कोऊहलवत्तिय ' कौतूहलवृत्तिकम्-कौतूहलार्थम्घी, तेल आदि वस्तुओं को, तथा-परिच्छेद्य कसौटी आदि पर परीक्षा करके खरीदने बेचने योग्य मणि, मोती, मूंगा, गहना आदि वस्तुओं को लेकर नफा के लिये देशान्तर में जाने वाले सार्थ (समूह) को ले जाते हैं, तथा योग (नयी वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम ( प्राप्त वस्तु की रक्षा ) के द्वारा उनका पालन करते हैं, गरीबों की भलाई के लिये उन्हें पूँजी देकर व्यापार द्वारा उन्हें धनवान बनाते हैं, वे सार्थवाह कहलाते हैं; ऐसे सार्थवाह लोग; इनमें से-(अप्पेगइया) कितनेक (वंदणवत्तियं) वन्दना करने के लिये (अप्पेगइया) कितनेक (पूयणवत्तियं) सेवा करने के लिये, (एवं) इसी तरह (सकारवत्तियं) सत्कार करने के लिये, (सम्माणवत्तियं) समान करने के लिये, (दसणवत्तियं) दर्शन करने के लिये, (कोऊहलवत्तियं) पहिले कभी भी भगवान को नहीं देखे थे; अतः उनको देखने के लिये, માપીને ખરીદવા વેચવા યોગ્ય દૂધ, ઘી, તેલ આદિ વસ્તુઓ તથા પરિચ્છેદય =કસટી આદિ ઉપર પરીક્ષા કરીને ખરીદવા વેચવા યોગ્ય મણિ, મેતી, પરવાળાં, ઘરેણાં આદિ વસ્તુઓ લઈને નફે કરવા માટે દેશાંતરમાં જવાવાળા સાથે (સમૂહ)ને લઈ જાય છે, તથા યોગ (નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ) અને ક્ષેમ (પ્રાપ્ત વસ્તુની રક્ષા) દ્વારા તેમનું પાલન કરે છે, ગરીબોના ભલા માટે તેમને પુંજી દઈને વ્યાપાર દ્વારા ધનવાન બનાવે છે તે સાર્થવાહ કહેવાય છે. એવા मेवा सार्थ वा सोसभांना (अप्पेगइया) ४८४ (वंदणवत्तियं) बहन। ४२१॥ भाटे (अप्पेगइया) ८४ (पूयणवत्तियं) सेवा ४२१॥ भाटे, (एवं) मेवी शत (सकारवत्तिय) सत्४२ ४२१। माटे (सम्माणवत्तियं) सन्मान ४२१। भाट (दसणवत्तियं) ४शन ४२१॥ भाट (कोऊहलवत्तियं) ५७i sी ५५ मापानन नये। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ पोषवर्षिणो-टोका सू. ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् गइया अडविणिच्छयहेउं अस्सुयाइं सुणेस्सामो सुयाइं निस्संकियाइं करिस्सामो, अप्पेगइया अट्ठाई हेऊइं कारणाइं वागरणाइं पुच्छिस्सामो, अप्पेगइया सव्वओ समंता मुंडे भवित्ता अपूर्वदृष्टदर्शनार्थमित्यर्थः । 'अप्पेगइया' अप्येकके–केचित् 'अट्ठ-विणिच्छय-हेउं' अर्थविनिश्चयहेतु-अर्थानां जीवाजीवादिभावानां यत् स्वरूपं तस्य विनिश्चयो हेतुर्यस्मिस्तत्, जीवाजीवादिस्वरूपविनिश्चयार्थमित्यर्थः, 'अस्सुयाई' अश्रतानि आगमरहस्यानि, 'सुस्सामो' श्रोष्यामः-इत्याशया, 'सुयाई निस्संकियाइं करिस्सामो' श्रुतानि निशङ्कितानि करिष्यामःइत्याशया, 'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित्–'अट्ठाई हेऊइं कारणाइं वागरणाई' अर्थान् हेतून् कारणानि व्याकरणागि, तत्र-अर्थान्-जीवाजीवादिनवतत्त्वरूपान् भावान् , हेतून् --- जीवादिस्वरूपसाधकान् , कारणानि अन्यथाऽनुपपत्तिमात्ररूपाणि व्याकरणानि परपृष्टार्थोत्तररूपाणि 'पुच्छिस्सामो' प्रक्ष्यामः, 'अप्पेगइया' अप्येकके, 'सव्वओ समंता मुंडे भवित्ता' सर्वतः समन्ताद् मुण्डा भूत्वा-सर्वतः सावद्यव्यापार(अप्पेगइया) कितनेक (अविणिच्छयहेउ) जीव अजीव-आदि पदार्थों के स्वरूप को निश्चय करने के लिये, तथा (अस्मुसाई सुणेस्सामो) आगम के रहस्य जो पहिले कभी सुनने में नहीं आये हैं उन्हें सुनेंगे, और (सुयाई निस्संकियाइं करिस्सामो) जो आगम के रहस्य सुने हैं उन्हें शंका रहित करेंगे इस प्रकार की भावना से, (अप्पेगइया) और कितनेक (अट्ठाइं हेऊइं कारणाइं वागरणाई पुच्छिस्सामो) जीव अजीव आदि नव तत्त्वरूप भावों को, जीवादिक के स्वरूप के साधकरूप हेतुओं को, अन्यथानुपपत्तिरूप कारणों को, एवं पर के द्वारा पूछे गये अर्थ के उत्तररूप व्याकरण को पूछेगे इस प्रकार की भावना से, (अप्पेगइया) कितनेक (सव्यओ समंता मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पदनडि यी तमन ने भाटे, (अप्पेगइया ) ॥४ ( अट्टविणिच्छयहेउ) 4-04 आदि पार्थानां २१३५न। निश्चय ३२वाने भाटे तथा (अस्सुयाई सुणेस्सामो) माजमना स्य २ ५९सा ही सामन्यां नहाता ते समशु, तथा (सुयाई निस्संकियाइं करिस्सामो) ने मामनु २७२य सामन्यु तेने शा२डित ४२शु. से प्रा२नी भावनाथी, (अप्पेगइया) तथा टा४ (अट्ठाई हेऊई कारणाइं वागरणाइं पुच्छिस्सामो) १ २0१ २माहि नवतत्प३५ लावाने, જીવ આદિકનાં સ્વરૂપનાં સાધકરૂપ હેતુઓને, અન્યથાનુપપત્તિ રૂપ કારણોને તેમજ બીજ દ્વારા પૂછાતા અર્થના ઉત્તરરૂપ વ્યાકરણને પૂછશું-એ પ્રકારની ભાવनाथी, ( अप्पेगइया) ४९४ (सव्वओ समंता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ औपपातिकसूत्रे 6 अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो, [अप्पेगइया ] पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामो, अप्पेगइया जीयमेति कट्टु पहाया कयवलिकम्मा कय- कोउय-मंगलविरतिपूर्वकं मुण्डिताः-कृतकेशलुञ्चनाः सम्पद्य 'अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो' अगाराद्=गृहाद् अनगारिकतां= साधुत्वं प्रव्रजिष्यामः = प्राप्स्यामः - अनगारा भविष्यामः, 'अप्पेगइया' अप्येकके ‘पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामो ' पञ्चानुव्रतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्मं प्रत्रजिष्यामः, ' अप्पेगइया' अप्येकके' जिण - भत्ति - रागेणं ' जिनभक्तिरागेण, 'अप्पेगइया ' अप्येकके, 'जीयमेयंति कट्टु ' जीतमेतदिति कृत्वा - कुलाचारोऽयमिति मत्वा, 'व्हाया ' स्नाताः - ' कयवलिकम्मा ' कृतबलिकर्माणः, 'कय - कोउय - मंगल - पायच्छित्ता ' कृत - कौतुक - मङ्गल--प्रायश्चित्ताःइस्लामो) सावध व्यापारों से सर्वथा विरत होकर, केशलुंचनपूर्वक गार्हस्थिक अवस्था का परित्याग कर अनगार बनेंगे - इस प्रकार की भावना से, तथा कितनेक - ( पंचाणुव्व इयं सिसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामो) पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रत के भेद से १२ भेदरूप गृहस्थ के धर्म को स्वीकार करेंगे - इस भावना से, (अप्पेगइया) कितनेक (जिगभत्तिरागेणं) जिनेन्द्र की भक्ति करेंगे इस प्रकार भक्ति के अनुराग से, (अप्पेगइया,) कितनेक (जीयमेयंत्ति कट्टु ) यह हम लोगों का कुलाचार है-इस प्रकार मान कर (व्हाया ) स्नान किये, ( कयवलिकम्मा) काक आदि को अन्नादि दान रूप बलिकर्म किये, ( कय- कोउय-मंगल- पायच्छित्ता) दुःस्वप्नादि निवारण के लिये रियं पव्व सामो) सावध व्यापारोथी सर्वथा विरत थर्धने देशसु यानपूर्व ગાર્હ સ્થિક અવસ્થાના પરિત્યાગ કરીને અનગાર અન-એ પ્રકારની ભાવनाथी, तथा डेटा ( पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिसामो) : आयुक्त तेभन सात शिक्षामतना मेथी १२ लेह ३५ गृहस्थना धर्मनो स्वी४२ ४२शु खेवी भावनाथी, ( अप्पेगइया ) उटवाउ ( जिगभत्तिरागेणं) भनेन्द्रनी लड़ित रशु से प्रहारनी लतिना अनुरागथी, (अप्पेगइया ) डेंटला ( जीयमेयंति कट्टु ) या अभारी हुसायार छे-थे अरनी मान्यताथी, ( ण्हाया ) स्नान री ( कय - बलि - कम्मा ) अगडा महिने अन्न माहि हान३य अलिर्भ ४ ( कय- कोउय - मंगल - पायच्छित्ता) दुःस्वप्नाहि निवारणने भाटे भसी तिस हड्डी थोमा आदि धारण इरी, ( सिरसा कंठे Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सु. ३८ भगवदर्शनार्थ जनोत्सुक्यम् पायच्छित्ता, सिरसा कंठे मालकडा आविद्ध-मणि-सुवण्णा कप्पियहार-द्धहार-तिसर-पालंब-पलंबमाण-कडिसुत्त-सुकय - सोहाभरणा पवर-वत्थ-परिहिया चंदणो-ल्लित्त-गाय-सरीरा, अप्पेकृतं कौतुकं मषीपुण्ड्रादिकं, मङ्गलं-दध्यक्षतादि, एतद्द्वयं प्रायश्चित्तं दुःस्वप्नादिप्रशमनत्वेनावश्यकरणीयत्वाद् यैस्ते तथा, कौतुकमङ्गलरूपं प्रायश्चित्तं कृतवन्त इत्यर्थः । 'सिरसा कंठे मालकडा' शिरसि कण्ठे कृतमालाः 'आविद्ध-मणि-सुवण्णा' आविद्ध-मणिसुवर्णाः-परिधृतमणिकनकभूषणाः; भूषणान्येव नामभिर्निर्दिशति-'कप्पिय-हार-ख़हारतिसर-पालंव-पलंबमाण-कटिसुत्त-सुकय-सोहाभरणा' कल्पित-हारा-ऽर्द्धहार-त्रिसरप्रालम्बप्रलम्बमान-कटिसूत्र-सुकृत-शोभाऽऽभरणाः, तत्र-हारः अर्द्धहारः त्रिसरकश्च प्रसिद्धः; तथा प्रालम्बः झुम्बनकं स एव प्रलम्बमानः यत्र तत् कटिसूत्रं च तानि सुकृतशोभानि आभरणानि कल्पितानि-धृतानि यैस्ते तथा, विविधभूषणभूषितशरीरा इत्यर्थः; तथा-'पवर-वस्थपरिहिया' प्रवरवस्त्रपरिहिताः श्रेष्ठवस्त्रधारकाः, 'चंदणो-ल्लित्त-गाय-सरीरा' चन्दनो-ल्लिप्तगात्र-शरीराः-चन्दनचर्चितशरीगः। 'अप्पेगइया' अयेकके-'हयगया एवं गयगया रहगया मीतिलक दधि अक्षत आदि धारण किये, (सिरसा कंठे मालकडा आविद्ध-मणि-सुवप्रणा) मस्तक एवं कंठ में मालाएँ धारण किये, जिनमें मगि जड़े हुए हैं ऐसे सुवर्णों के आभूषण पहिने, तथा (कप्पिय-हार द्धहार-तिसर-पालंव-पलंबमाण-कटिसुत्त-सुकयसोहा-भरणा) शरीरशोभावर्द्धक अठारह लर के हार, ९ लर के अर्धहार, तीन लर के तिसरक, और नीचे की ओर लटकते हुए झुमके वाले कटिसूत्र पहिरे, (पवर-वत्थ-परिहिया) अच्छे २ सुन्दर बहुमूल्य वस्त्र पहिरे, (चंदणो-ल्लित्त-गाय सरीरा) शरीर पर चन्दन लगाये; जब इस प्रकार वहाँ की जनता सज-धज कर तैयार हो चुकी तब उसमें से (अप्पेगइया) कितनेक (चलने के लिये), (हयगया) धोड़ों पर सवार हुए, (एवं गयगया) मालकडा आविद्ध-मणि-सुवण्णा ) मस्त तेभ०४ मां माता धा२९ ४३१, मा भए सांय सेवा सुवर्णनां याभूषण पा', तथा (कप्पिय-हार-द्धहार-तिसर-पालब-पलबमाण-कटिसुत्त-सुकय-सोहाभरणा) शरीरशालावध: २ढार સર (લટ)ના હાર, ૯ સરના અધહાર, ત્રણ સરના હાર, નીચેની તરફ exi भाव टिसूत्र पडा, (पवर-वत्थ-परिहिया ) सा२। सा२। सुन्४२ पहुभूल्य वस्त्रो पर्या, (चंदणो-ल्लित्त-गाय सरीरा) शरी२ ५२ ચંદન લગાવ્યું. જ્યારે આ પ્રકારે ત્યાંની જનતા સજીધજીને તૈયાર થઈ गई त्यारे तमाथी ( अप्पेगइया ) यसवा माटे ( हयगया ) घोडा ५२ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे गइया हयगया एवं गयगया रहगया सिबियागया संदमाणियागया, अप्पेगइया पाय-विहार-चारिणो पुरिस-वग्गुरा-परिक्खित्ता महया उक्किटि-सीह-णाय-बोल-कलकल-रवेणं पक्खुब्भिय-महासमुद-रव-भूयं पिव करेमाणा चंपाए णयरीए मज्झंसिवियागया संदमाणियागया' हयगता एवं गजगता रथगताः शिबिकागताः स्यन्दमानिकागताः-तत्र शकटोपरि दत्ता शिबिकैव स्यन्दमानिका, 'अप्पेगइया' अप्येकके 'पायविहार-चारिणो' पादविहार चारिणः 'पुरिसवरगुरापरिक्खित्ता' पुरुषवागुरापरिक्षिप्ताःपुरुषसमूहेन परिवेष्टिताः, 'महया' महता 'उकिट्ठि-सीहणाय-बोल-कलकल-रवेणं' उत्कृष्टि-सिंहनाद-बोल–कलकल - रवेण – उत्कृष्टिः आनन्दमहाध्वनिः, सिंहनादः प्रसिद्धः, बोलः वर्णव्यक्तिसहितो ध्वनिः, कलकलः वर्णव्यक्तिरहितो ध्वनिः, एषां समाहारः, तदेव यो खः स तथा तेन, 'पखुभिय-महासमुद्द-रवभूयं पिव ' प्रक्षुभित-महासमुद्र-रवभूतमिव-प्रक्षुभितमहासमुद्रस्य यो रवभूतः संजातशब्दस्तमिव-तद्वत् नगरं 'करेमाणा' कुर्वन्तःइसी प्रकार कितनेक हाथी पर आरूढ़ हुए, (रहगया) कितनेक रथों पर बैठे, (सिबियागया) कितनेक पालखियों में चढ़े, (संदमाणियागया) कितनेक बहेलियों-पालकीविशेष में बैठे; (अप्पेगइया) तथा कितनेक (पुरिस-चग्गुरा-परिक्वित्ता) पुरुषों के समूह से घिरे हुए होकर (पाय-विहार-चारिणो) पैदल ही निकले; ये सभी (महया) महान् (उकिद्धि-सीहणाय-बोल-कलकल-रवेणं) 'उकिष्टि'-उत्कृष्टि-अतिशय आनन्द जनितध्वनि से, (सीहणाय) सिंहनाद-सिंहनाद से, 'बोल'-व्यक्तवर्णयुक्त ध्वनिसे, तथा 'कलकलरव'-अव्यक्त ध्वनि से (पक्खुभिय-महासमुह-रवभूयं पिव) चम्पानपरी को प्रक्षुसवार थया. (एवं गयगया ) न्। प्रा टा४ डाथी५२ ॥३० थया. (रहगया) टदा २० ५२ मेही. (सिबियागया) मा पासणीसाभा यउया. (संदमाणियागया ) टसा पासमाविशेषमा मेडी, (अप्पेगइया) तथा सा ( पुरिस-वग्गुरा-परिक्खित्ता ) ५३षोन टोजi साथे धीमे-धीमे ५ (पायविहार-चारिणो ) पेस०८ नlxvया, २ मा (महया) भान् (उक्किट्ठि-सीहणाय-बोल-कलकलरवेणं) 'उक्किट्ठि' कृष्टि-तिशय मान नित पनिथी, (सीहणाय) सिंहनाह-सिनाथी, (बोल) ०५४तवाणु युद्धत पनिथी तथा (कलकलरव) २५०५४त निथी (पक्खुभिय-महासमुद्द-रवभूयं पिव) या नगरीने Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सु. ३८ जनानां भगवदर्शनार्थ गमनम् मझेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेक उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासंति, पासित्ता जाणवाहणाई ठवेंति, ठवित्ता जाणवाहणेहिंतो पञ्चोरुहंति, पच्चोरुहिता जेणेव चम्पानगरी महाकोलाहलमयी कुर्वन्तः, 'चंपाए णयरीए' चम्पाया नगर्याः 'मज्झं-मज्झेणं' मध्यमध्येन-सर्वतो मध्यमार्गेण णिग्गच्छति'निर्गच्छन्ति,'णिग्गच्छित्ता'निर्गत्य'जेणेव पुण्णभद्दे चेइए' यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यम् , 'तेणेव उवागच्छंति' तत्रैवोपागच्छन्ति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य, 'समगस्स भगवओ महावीरस्स अदरसामंते ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसमीपे-'छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासंति' छत्रादीन् तीर्थकरातिशेषान्=तीर्थकरातिशयदयोतकानि कानिचिच्छत्रादीनि चिहनानि पश्यन्ति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'जाणवाहणाइं ठवेंति' यानवाहनानि स्थापयन्ति, 'ठवित्ता' स्थापयित्वा 'जाणवाहणेहितो भित महासमुद्र के महाध्वनि से मानो युक्त करते हुए, (चंपाए णयरीए) उस चंपा नगरी के (मझमज्झणं) ठीक बीचो बीच के मार्ग से (णिगच्छंति) निकले, (णिग्गच्छित्ता) ये सब निकल कर ( जेणेव पुण्णभद्दे चेइए ) जहां पर वह पूर्णभद्र नामका उद्यान था (तेणेव उवागच्छंति) वहाँ पर पहुँचे, (उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासंति) वहाँ पहुँच कर उन्होंने भगवान् महावीर के न अतिदूर और न अतिनिकट तीर्थंकरों के अतिशय स्वरूप छत्र आदिकों को देखा, ये छत्रादिक तीर्थंकरों के अतिशय द्योतक चिह्न माने गये हैं; (पासित्ता जाणवाहणाई ठति) इन चिन्हों के देखते ही उन सबों ने अपने २ यानवाहनादिकों को वहीं रोक प्रक्षुभित महासमुद्रनामावनिथीम युक्त ४२ता डाय तम (चंपाए जयरीए) ते या नगरानी (मज्झंमज्झेणं) ॥२५२ वच्यावश्यना माथी (णिगंच्छंति) नीच्या, (णिग्गच्छित्ता)ते या नीजीने (जेणेव पुण्णभद्दे चेइए) न्यांत पूलद्र नामनु जधान उतु (तेणेव उवागच्छंति) त्यां पडया, (उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासंति) त्यां पडांचीन तयार ભગવાન મહાવીરથી બહુ દૂર નહિ તેમ તીર્થકરેના અતિશયસ્વરૂપ છત્ર આદિને જોયાં, આ છત્ર આદિક તીર્થકરેના અતિશયદ્યોતક ચિહ્ન મનાય छ; (पासित्ता जाणवाहणाई ठवेंति) मे थिनीने तi ४ सांय पोत Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करिता वदंति णमस्तंति, वंदित्ता णमस्सित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति ॥ सू० ३८॥ पच्चोरुहंति' यानवाहनेभ्यः प्रत्यक्रोहन्ति–अधस्तादवतरन्ति, ‘पञ्चारहित्ता' प्रत्यवरुह्य, 'जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरः [ विराजते ] 'तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता' तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य 'समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेंति' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य विकृत्व आदक्षिणं प्रदक्षिण कुर्वन्ति-त्रिवारमादक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति, 'करित्ता' कृत्वा 'वंदंति' वन्दन्ते-स्तुवन्ति, 'णमस्संति' नमस्यन्ति प्रणमन्ति, 'वंदित्ता णमस्सित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा ‘णचासण्णे णाइदूरे' नात्यासन्ने नातिदूरे 'सुस्सूसमाणा' शुश्रूषमाणाः 'गमंसमाणा' नमस्यन्तः 'अभिमुहा' अभिमुखाः संमुखाः, 'विणएणं पंजलिउडा' विनयेन प्राञ्जलिपुटाः-विनयविनम्रबद्धाञ्जलयः, 'पज्जुवासंति' पर्युपासते-उपासनां कुर्वन्ति ॥ सू०३८॥ दिये, (ठवित्ता जाणवाहणेहितो पञ्चोरुहंति) जब वे अच्छी तरह रुक चुके तब वे सबके-सब अपने २ वाहनों से नीचे उतरे, (पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति) उतर कर फिर वे सब लोग जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे वहाँ पहुँचे, (उवागच्छित्तासमणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तोआयाहिणं पयाहिणं करेंति) बाद उन्होंने भगवान् महावीर को तीनबार हाथ जोड़कर प्रदक्षिणा की, (करित्ता) प्रदक्षिणा पोनi यानपाईनाछिीने त्यां८ २।४ी दीघi, (ठवित्ता जाणवाहणेहितो पचोरुहंति) न्यारे तेय. सारी रीत ४६ या त्यारे ते पा पातपातानi पानामांथी नीचे उता, (पच्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति) तीन पछी ते सामान्य श्रम नावान महावीर मिराभान उता त्यां पांच्या (उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिण करेंति) माह तमामे भगवान महावीरने त्रशुवार हाथ डीने प्रक्षिा ४२. (करित्ता) प्रक्षिाए। ४२री सीधा पछी 4जी ते यावेसा न Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सू. ३९ प्रवृत्तिव्यापृतात् कूणिकम्य भगवदागमनज्ञानम् ३६३ मूलम्-तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लद्धडे समाणे हह-तुह-जाव-हियए बहाए जाव अप्प-महग्धा-भरणा टीका—'तए णं से पवित्तिवाउए' इत्यादि । 'तए णं से पवित्तिवाउए' ततः खलु स प्रवृत्तिव्यापृतः भगवद्विहारादिवृत्तान्तनिवेदनेऽधिकृतः, 'इमीसे कहाए लद्धडे समाणे' अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् ' हट्ठतुट्ठ-जाव-हियए' हृष्ट-तुष्ट-यावद्धृदयः 'हाए जाव अप्प-महग्घा-भरणा-लंकियसरीरे स्नातो यावदल्पमहा(भरणाऽलङ्कृतशरीरः 'सयाओ गिहाओ' स्वकाद्गृहात् 'पडिणिकर चुकने बाद फिर उस आगत जनसमूहने (वंदंति नमस्संति) वन्दना एवं नमस्कार किया, ( वंदित्ता णमस्सित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति) वंदना एवं नमस्कार करने के पश्चात् भगवान से न अतिसमीप में एवं न अतिदूर ही उनके सामने उचित स्थान पर बैठ कर वे सब विनयपूर्वक हाथ जोडकर सेवा करने लगे । सू. ३८ ॥ 'तए णं से पवित्तिवाउए' इत्यादि । (तए णं) इस के बाद (से पवित्तिवाउए) वह भगवान के विहार आदि के समाचार लाने में नियुक्त किया हुआ व्यक्ति, (इमीसे कहाए) इस कथासे-भगवान के आगमन के वृत्तान्त से (लट्टे समाणे) परिचित होकर, (हट्ठ-तुटू-जाव-हियए) अपने अन्तःकरण में विशेषरूप से हर्षित एवं संतुष्ट हुआ, फिर उसने (हाए जाव अप्प - महग्घा - भरणा - लंकिय - सरीरे) स्नान किया, पश्चात् थोड़े सभूडे (वंदति णमस्संति) वहन तेभन नभ२४।२ ४ा, (वंदित्ता णमस्सित्ता णचासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति) वन। तेभन नभ२४॥२ ४ा पछी भगवानथा गहु २ नतिम म સમીપ નહિ એમ તેમની સામા ઉચિત સ્થાન પર બેસીને તે બધા વિનયपूर्व डायनेसन सेवा ४२वा साया. (सू. ३८) 'तए णं से पवित्तिवाउए' छत्याहि. (तए णं) त्या२ पछी (से पवित्तिवाउए) ते भावानना विडा२ महिना समाया दावा माटे नियुटत अरेस माणुस (इमीसे कहाए) मा वातथीभगवानना यागमनना वृत्तान्तथी (लद्धडे समाणे) परिस्थित थने (हदु-तुट्ठ-जावहियए) पोताना मत:४२मा विशेष३५थी हर्षित तभ०४ संतुष्ट थयो. पछी तेणे (ण्हाए जाव अप्प-महग्या-भरणा-लंकिय-सरीरे) स्नान ४यु. ५छी थे। मारवाni all Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे लंकिय-सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चंपाणयरिं माझंमज्झेणं जेणेव बाहिरिया सा चेव हेछिल्ला वत्तक्खमइ पडिणिक त्वमित्ता'प्रतिनिष्क्रामति,प्रतिनिष्क्रम्य, 'चंपायरिं मझमज्झेणं'चम्पानगर्या मध्यमध्येन,'जेणेव बाहिरिया यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला,'सा चेव हेविला वर्तव्यया' सैवाऽधस्ताद् वक्तव्यता, अर्थात्-यत्रैव राज्ञः कोगिकस्य गृहं यत्रैव कोगिको राजा भम्भसारपुत्रस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीतं शिरआवर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयति,वर्धयित्वा एवमवादीत् =भगवतः समवसरणं सविस्तरं निगदितवान् ,तदनु भूपो भगवदागमनं श्रुत्वा हृष्टतुष्टः सन् सिंहासनादुत्थाय राजचिह्नानि परित्यज्य भगवदभिमुखं सप्ताष्टपदानि गत्वा भार वाले तथा बहुमूल्य आभरणों से अलंकृतशरीर होकर (सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ) अपने घर से निकला, (पडिणिक्वमित्ता) निकलकर(चंपाणयरिंमज्झमज्झेणं) ठीक चंपा नगरी के बीचोबीच मार्ग से होता हुआ, (जेणेव बाहिरिया सा चेव हेदिल्ला वत्तव्यया जाव णिसीयइ) जहां नीचे बाहिर की ओर वह उपस्थानशाला थी, एवं जहां राजा कोणिक का गृह था, तथा जहां पर वे विराजमान थे, वहां पर वह पहुँचा; पहुँचकर दोनों हाथों को जोड़कर उसने कोणिक नरेशको सादर नमस्कार किया, पश्चात् आपकी जय हो और विजय हो-इस रूपसे उन्हें बधाई दी। बधाई दे चुकने के अनन्तर फिर उसने 'हे राजन् ! आज श्रमण भगवान महावीर प्रभु चंपानगरी के पूर्णभद्र उद्यान में समवसृत हुए हैं--- इत्यादि विस्तृत रूप से भगवान् के समवसरण का वृत्तान्त कहा । राजा ने जब प्रभु के आगमन का वृत्तान्त सुना तब वे भी चित्त में अधिक प्रसन्न एवं संतुष्ट हुए । मारे हर्ष के म भूस्याम माल थी शरीरने शारीनेत (सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ) पोताना धेरथी नी४ज्या, (पडिणिक्खमित्ता) नीजीने(चंपाणयरिं मझमझेणं) ५२।५२ पानगरानी च्यावन्यने मागे ५४ने (जेणेव बाहिरिया सा चेव हेद्विल्ला वत्तव्वया जाव णिसीयइ) ज्यांनी मानी त२५ ते ७५२थानासा ती तभ०४ च्या રાજા કણિકનું ગૃહ હતું તથા જ્યાં તે વિરાજમાન હતા ત્યાં પહોંચે. પહોંચીને બને હાથ જોડીને તેણે કણિક નરેશને સાદર નમસ્કાર કર્યા. પછી આપની જય થાવ તથા વિજય થવો એ રૂપે તેણે વધાઈ આપી. વધાઈ દઈ ચુક્યા પછી તેણે કહ્યું, હે રાજન ! આજે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુ ચંપાનગરીના પૂર્ણભદ્ર ઉધાનમાં સમવસૃત થયા છે. આ પ્રકારે તેણે વિસ્તૃતરૂપથી ભગવાનના સમવસરણને વૃત્તાન્ત કહ્યો. રાજાએ જ્યારે પ્રભુના આગમને વૃતાન્ત સાંભળ્યો ત્યારે તેઓ પણ મનમાં બહુ પ્રસન્ન તેમજ સંતુષ્ટ થયા. આનંદમાં આવી Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषवषिणो-टोका स. ३९ कूणिककृतः प्रवृत्तिव्यापृतसत्कारः ३६५ व्वया जाव णिसीयइ, णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्धतेरस-सयसहस्साइं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ ॥ सू०३९ ॥ तत्रोपविश्य यावत् 'नमोऽत्थुणं' पठति 'जाव' यावत् सिंहासने 'णिसीयई निषीदति उपविशति, 'णिसीइत्ता' निषद्य-उपविश्य, तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्धत्तेरससयसहस्साइंपीइदाणं दलयई तस्मै प्रवृत्तिव्यापृताय अत्रयोदशशतसहस्राणि प्रीतिदानं ददाति-सार्द्धद्वादशशतसहस्राणि राजतमुद्राः प्रीतिदानं--पारितोषिकं समर्पयति । 'श्रमणो भगवान् महावीरस्वामी चम्पानगर्या उपनगरग्राममुपागतः चम्पानगरी पूर्णभद्रचैत्यं समवसर्तुकामः' इति निवेदितं प्रवृत्तिव्यापृतेन, अतस्तदाऽष्टोत्तरैकलक्ष ख्यकं राजतमुद्रारूपं प्रीतिदानं प्रदत्तम् । अत्र तु अस्यामेव चम्पानगर्याम् अतिसन्निकृष्टे स्थाने पूर्णभद्रचैत्ये समवसृत-इति वार्ता निवेदिता, अतो हर्षातिशयादेतद्वार्तानिवेदने सार्धद्वादशलक्षराजतमुद्रारूपं प्रीतिदानं प्रवृत्तिव्यापृताय दत्तम्-इति भावः । 'दलइत्ता सकारेइ सम्माणेइ' दत्त्वा सत्कारयति-वस्त्रादिदादेन, सम्मानयति-प्रियवचनेन, 'सकारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ' सत्कृत्य सम्मान्य प्रतिविसर्जयति ॥ सू०३९ ॥ वे एकदम सिंहासन से उठ के खडे हुए और नीचे उतरकर जिस दिशा में भगवान विराजमान थे, उस दिशा की ओर, सात आठ पग जाकर और बैठकर विधिपूर्वक "नमोत्थु णं" दिये। बाद सिंहासन पर बैठे, (णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्धत्तेरस-सयसहस्साइं पीइदाणं दलयइ) बैठ कर उन्होंने उस संदेशवाहक के लिये साढे बारह लाख चांदी की मुद्राओं का प्रीतिदान-पारितोषिक प्रदान किया, ( दलइत्ता) प्रीतिदान देकर उन्होंने (सकारेइ) उसका सत्कार किया (सम्माणेइ) मधुर वचनों से सन्मान किया। इस प्रकार (सकारित्ता संमाणित्ता) सत्कार एवं सन्मान करके उन्हों ने उसे (पडिविसज्जेइ) જઈ તેઓ એકદમ સિંહાસનેથી ઉડીને ઉભા થયા તથા નીચે ઉતરીને જે દિશામાં ભગવાન વિરાજમાન હતા તે દિશાની તરફ સાત આઠ પગલાં જઈને तथा मेसीने विधिपूर्व “नमोत्थु ण" हीधु. या सिंहासन५२ मे, (णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अद्धरत्तेससयसहस्साई पीइदाणं दलयइ) मेसीन તેઓએ તે સંદેશવાહકને માટે સાડાબાર લાખ ચાંદીના સિક્કાઓનું પ્રીતિदान-पारितोषि: महान ज्यु. (दलइत्ता) श्रीतिहान ॥धीने तेमासे (सक्कारेइ) तेन सा२ ४यो, (सम्माणेइ) मधु२ क्यनाथी सन्मान यु. २मा प्रारे Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम् - तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते बलवाउयं आमंते, आमंतित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणु ३६६ टीका- 'तए णं से' इत्यादि । 'तए णं' ततः खलु ' से कूणिए राया भंभसारपुत्ते' स कूगिको राजा भंसारपुत्रः 'बलवाउयं' बया तं = सैन्यव्यापारपरायणं – सेनापतिमित्यर्थः, ‘आमंतेइ’आमन्त्रयति=आह्वयति, 'आमंतित्ता' आमन्त्र्य - आहूय, ' एवं वयासी' - एवमवादीत् - 'विपामेव भो देवाणुपिया' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! 'आभिसेकं हत्थिरयणं बिदा किया । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चंपानगरी के उपनगरग्राम में पधारे हुए हैं और वे चंपानगरी के पूर्णभद्र उद्यान में पधारनेवाले हैं - इस प्रकार का समाचार कोणिक राजा को जब इस संदेशवाहक ने सुनाया था तब उस समय राजाने उसे पारितोषिक रूप में १ लाख चांदी की मुद्राएँ दी थीं । परंतु जब उसने यह खबर दी कि प्रभु चंपानगरी के पूर्णभद्र उद्यान में पधार चुके हैं तब इस बात को सुनकर उन्हें अत्यंत हर्षका आवेग बढ़ा, और इस आवेग के प्रभाव उन्होंने उसे १२ ॥ लाख चांदी की मुद्राएँ दीं ॥ सू० ३९॥ ' तर णं से कूणिए राया' इत्यादि । (तए णं) इसके अनन्तर ( भंभसारपुत्ते) भंभसार अर्थात् श्रेणिक का पुत्र ( से कूणिए राया ) उस कूणिक राजा ने ( बलवाउयं) अपने बलव्यापृत-सेनापति को (आमंतेइ ) बुलाया, (आमंतित्ता) बुलाकर ( एवं वयासी) इस प्रकार कहा - (खिप्पा(कारिता सम्माणित्ता) सत्सार तेभन सन्मान ने तेभाणे तेने (पडिविसउज्जेइ) विद्वाय . श्रभशु भगवान महावीर स्वामी यांपानगरीना उपनगर ગ્રામમાં પધાર્યા છે તથા તેઓ ચંપાનગરીના પૂર્ણ ભદ્ર ઉદ્યાનમાં પધારવાના છે-એ પ્રકારના સમાચાર કેણિક રાજાને જ્યારે આ સંદેશવાહકે સભળાવ્યા ત્યારે તે સમયે રાજાએ તેને પારિતાષિકરૂપમાં એકલાખ આઠે ચાંદીના સિક્કાઓ આપ્યા હતા. પરંતુ જ્યારે તેણે આ ખખર આપી કે પ્રભુ ચંપાનગરીના પૂર્ણભદ્ર ઉદ્યાનમાં પધારી ચુકયા છે ત્યારે આ વાત સાંભળી તેમને અત્યંત ને! આવેગ વધ્યા અને આવેગના પ્રભાવથી તેમણે તેને ૧૨ साम यांहीनी महोरो आयी. (सू. उ८) 'तए णं से कूणिए राया' इत्यादि. (तए णं) त्यार पछी ( से कूणिए राया ) ते ईलि पतिने (आमंतेइ ) मासाव्या, (भंभसारपुत्ते) लभसार अर्थात् श्रेणिम्ना पुत्र रानमे (बलवा उयं) पोताना माव्यामृत-सेना(आमंतित्ता) गोसावीने ( एवं क्यासी) मा अठारे Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सु. ४० कूणि कस्य भगवदर्शनार्थमुयोगः ३६७ प्पिया ! आमिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि, हय-गय-रह-पवरजोहकलियं च चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि, सुभदापमुहाण य देवीणं बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए पाडियकपाडियकाई जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणाइं उवहवेहि; चंपं च णयरिं सब्भिपडिकप्पेहि' आभिषेक्यं हस्तिरत्नं परिकल्पय-पट्टहस्तिरत्नं सज्जितं कुरु, 'हय-गय-रह-पवरजोह-कलियं च चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि' हय-गज-रथ-प्रवरयोध-कलितां च चतुरङ्गिगी सेनां सन्नाहय-सुसज्जितां कुरु, 'सुभदापमुहाण य देवीणं' सुभद्राप्रमुखानाञ्च देवीनाम् 'बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए' बाह्यायामुपस्थानशालायाम्, 'पाडियक्कपाडियकाई' प्रत्येकप्रत्येकानि-सर्वासां पृथक् पृथक् 'जत्ताभिमुहाई' यात्राभिमुखानिगमनार्थमुद्यतानि, 'जुत्ताई' युक्तानि-योजितबलीवनि 'जाणाई' यानानि धार्मिकरथान् 'उवट्ठवेहि' उपस्थापय सजीकृत्य समानय, 'चंपं च णयरिं सभितरबाहिरियं' मेव भो देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही (आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि) तुम पट्टहस्तिरत्न को सज्जित करो, (हय-गय-रह-पवरजोह-कलियं च चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि) साथ में घोड़ों, हाथियों, रथों एवं उत्तम योधाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना को भी सुसज्जित करना, तथा (सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए) सुभद्राप्रमुख देवियों के लिये भी बाहिर उपस्थानशाला में (पाडियकपाडियक्काइं) अलग २ रूप में (जत्ताभिमुहाई) चलने में अच्छे (जुत्ताइं) एवं अच्छे बैलों वाले (जाणाई) धार्मिक रथों को (उवट्ठवेहि) सज्जित करके ले आओ। (चंपं च णयरिं सम्भि४यु-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया)देवानुप्रिय ! शी ४ (आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि ) तमे पट्ट हस्तिरत्नने सति ४२. (हय-य-रह-पवरजोह-कलियं च चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि) साथमा घोस, हाथी, २थी, तभा ઉત્તમ યોદ્ધાઓથી યુક્ત ચતુરંગિણી સેનાને પણ સુસજિજત કરે. તથા (सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए) सुभद्राप्रभुभ वासाने भाटे ५९५ मा उपस्थानशासाम (पाडियक्क-पाडियक्काई) ससस सस ३५म (जत्ताभिमुहाई) यासवामा सा२। ( जुत्ताई) तभ०४ सा२। महामा (जाणाई) धार्मि: २थाने (उवट्ठवेहि) सहित ४शने व आवो. (चंपं च णयरिं सब्भितरबाहिरियं) पानगरीने २६२ तेभल मडारथी (आसित्त-सित्त Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ओपपातिकसूत्रे तरबाहिरियं आसित्त-सित्त-सुइ-सम्मट्ट-रत्यंतरा-वण-वीहियं मंचाइमंच-कलियं णाणाविह-राग-उच्छिय-ज्झय-पडागा-इपंडाग-मंडियं लाउल्लोइयमहियं गोसीस-सरस-रत्तचंदण-जाव-गंधवट्टिभूयं चम्पां च नगरी साभ्यन्तरबाह्याम् , 'आसित्त-सित्त-सुइ-संमट्ठ-रत्यंतरावण-वीहियं' आसिक्त-सिक्त-शुचि-संमृष्ट-रथ्यान्तरा -- ऽऽपग - वीथिकाम् -आसिक्तानि ईषत् सिक्तानि, सिक्तानि भूयसा जलेन धौतानि अतएव शुचीनि पवित्रागि संमृष्टानि कचवरापनयनेन संशोधितानि रथ्यान्तराणि-रथ्यामध्यानि आपणवीथयश्च-हट्टमार्गा यस्यां सा आसिक्त-सिक्तशुचि-संमृष्ट-रथ्याऽन्तराऽऽपग-वीथिका, ताम् , 'मंचा-इमंच-कलिय' मञ्चा-तिमञ्च-कलिताम्मञ्चाः-मालकाः-दर्शकजनोपवेशनयोग्याः, अतिमच्चाः मञ्चोपरिमञ्चाः, तैः कलिता-युक्ता ताम् , 'णाणाविह-राग-उच्छिय-ज्झय-पडागा-इपडाग-मंडियं नानाविध-रागो-च्छ्रितध्वज-पताकाऽतिपताका-मण्डिताम्-नानाविधरागाः विविधवर्णा ये उच्छ्रिता ध्वजाः, पताकातिपताकाः – पताकाः – ध्वजाग्रवर्तिचेलाञ्चलानि, पताकामतिक्रान्ता अतिपताकाः =पताकोपरिवर्तिन्यः पताकाः, ताभिर्मण्डिताम्-सुशोभिताम्-नानाविधवर्णसमुच्छ्रितध्वजपताकाऽतिपताकाभिर्मण्डितामित्यर्थः । 'लाउ-ल्लोइय-महिय' लाउल्लोइयमहिताम्-'लाउतरबाहिरियं ) चंपानगरी को भीतर एवं बाहिर से (आसित्त-सित्त-सुइ-संम-रत्यंतरावणवीहियं) पहिले थोडे से जल से छिड़कवा कर पीछे अधिक जल से छिड़कवाकर गलियों के एवं बजारों के रस्तों को साफ-सूफ करवाओ और जहां भी कूड़ा-कर्कट पड़ा हो उसे झड़वाकर साफ करवाओ, (मंचा-इमंच-कलियं णाणाविह-राग-उच्छिय-ज्झय-पडागाइपडाग-मंडियं) मार्ग में आजू-बाजू मंचों पर मंच जमवाकर लगवा दो, ताकि लोग उन पर अच्छी तरह से बैठ सकें । अनेक रंगों की ऊँची २ ध्वजाएँ, पताकाएँ एवं अतिपताकाएं नगर भर में लगाओ, (लाउल्लोइयमहिय) जगह २ पर गोबर से जमीन को लिपवाओ सुइ-संमट्ट-रत्यंतरावण-चीहिय) पडेल योis पीना छ४१ ४शन पछी વધારે પાણું છંટાવીને ગલિયોના તેમજ બજારેના રસ્તાઓને સાફસૂફ કરાવો, અને જ્યાં પણ કૂડા-કર્કટ (કચરાપૂજ) પડયો હોય તેને ઝાડુ મરાવી સાફ કરાવે. (मंचा-इमंच-कलियं णाणाविह-राग-उच्छिय-ज्झय-पडागा-इपडाग-मंडिय) भागभां આજુબાજુ મંચ ઉપર મંચ ગોઠવાવી દો જેથી લોકે તેમના પર સારી રીતે બેસી શકે. અનેક રંગેની ઉંચી ઉંચી ધજાઓ, પતાકાઓ તેમજ અતિपता नगरसरमा सगासा. (लाउल्लोइयमहियं) ४॥ ४॥५२ छाथी Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टीका सु. ४० कूणिकस्य बलव्यापृतं प्रत्यादेश: करेहि य कारवेहि य, करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि, णिजाहिस्सामि समणं भगवं महावीरं अभिवंदिउं ॥ सू. ४०॥ ल्लोइय' इति देशीयः शब्दः; गोमयादिना भूमौ यद् लेपनं सेटिकादिना कुड्यादिषु च यद् धवलनं तद् 'लाउल्लोइयं तेन महिताम्-सुसजिताम्, 'गासीस-सरस-रत्तचंदणजाव-गंधवट्टिभूयं करेहि य' गोशीर्ष-सरस-रक्तचन्दन-यावद्-गन्धवर्तिभूतां कुरु-गोशी:= चन्दनविशेषैः सरसरक्तचन्दनेन यावद् गन्धवर्तिभूतां समुपचितगन्धद्रव्यरूपां कुरु, 'कारवेहि य' कारय च, अन्यानपि तथा कर्तुं प्रेरय, 'करेत्ता यकारवेत्ता य' कृत्वा च कारयित्वा च, 'एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि' एतामाज्ञां प्रत्यर्पय, आज्ञापिताऽर्थान् सम्पाद्य मह्यं कथय, 'णिज्जाहिस्सामि समणं भगवं महावी अभिवंदिउं' निर्यास्यामि= निर्गमिष्यामि श्रमणं भगवन्तं महावीरमभिवन्दितुम् ।। सू. ४० ॥ और भीतों को खड़ी से पुतबाओ, (गोसीस-सरस-रत्तचंदा-जाव-गंधवट्टि-भूयं) गोशीर्षचन्दन विशेष, एवं सरस रक्तचंदन से समस्त नगर को सुगंधित बनवाओ ताकि वह सुगंधपुंज जैसा मालूम पड़ने लगे। (करेहि य कारवेहि य) यह सब काम स्वयं करो तथा दूसरों को भी इस तरह करने के लिये प्रेरित करो। (करेत्ता य कारवेत्ता य) करके एवं करवा करके(एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि) इस मेरी आज्ञा को पुनः मुझे प्रत्यर्पित करो-आपकी आज्ञानुसार सब काम हो चुके हैं इसकी मुझे खबर दो । (णिज्जाहिस्सामि समणं भगवं महावीरं अभिवंदिउं ) बाद में मैं श्रमण भगवान महावीर की वन्दना के लिये निकलूंगा ॥ सू. ४०॥ भीनने दीपावो मने मीताने महथी घावो (गोसीस-सरस-रत्तचंदणजाव-ांधवट्टि-भूयं) शीर्ष-यन्तन विशेष तमा सरस २४तय नथी समस्त नारने सुगधित मनावो था त सुमधु वी organ दागे. (करेहि य कारवेहि य) मा मधु ४ाम न ४२ तथा मीनने ५५ वी शत ४२१॥ प्रेरित ४२, (करेत्ता य कारवेत्ता य) ४शन तम ४२२वीन (एयमाणत्तिय पच्चप्पिणाहि) २॥ भारी माज्ञाने पाछी भने प्रत्यर्षित |-मापनी आज्ञानुसा२ मधु म. 25 यू छे थेनी भने ५४२ हो. (णिज्जाहिस्सामि समणं भगवं महावीरं अभिवंदिउ) माह हुँ श्रम समपान महावीरनी 4 भाटे नीजीश. (सू. ४०) Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपातिक मूलम् - तए णं से बलवाउए कूणिएणं रण्णा एवं वृत्ते समाणे हट्ट - जाव - हियए करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं सामित्ति आणाए विणणं वयणं पडिसुणेइ, पडिणित्ता हत्थिवाउयं आमंतेइ, आमंतेत्ता एवं वयासी ३७० टीका - ' ' इत्यादि । 'तए णं से बलवाउए' ततः खलु स बव्यापृतःसेनापतिः 'कूणिएणं रण्णा एवं बुत्ते समाणे' कूणिकेन राज्ञा एवमुक्तः सन्, 'हदुतुङजाब-हियए' हृष्टतुष्टयावद्धृदयः 'करग्रलपरिग्गहियं ' करतलपरिगृहीतं – बद्ध करतलयुगलम्, सिरसावतं ' शिरआवर्त्तं ' 'मत्थए अंजलिं कट्टु ' मस्तके अञ्जलिं कृत्वा ' एवं सामित्ति आणा विएणं वयणं पडिसुणेइ ' एवं स्वामिन्! इति आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिशृणोति = एवं स्वामिन् ! यद्यथाज्ञापयति देवस्तत्तथैव संपादयामि इत्युक्वा आज्ञाया वचनं सविनयं प्रतिशृणोति - स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य = स्वीकृत्य ' हत्थिवाउयं 6 तएां से बलवाउए ' इत्यादि । (तए णं) इसके बाद ( से बलवाउए) वह सेनापति ( रण्णा एवंवुत्ते समाणे ) राजा के द्वारा इस प्रकार से आज्ञापित होता हुआ (हट्ठ-तुटु - जाव - हियए करयल-परिगहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं सामित्ति आणाए विणणं वयणं पडिसुणे) विशेष हर्षित एवं संतुष्ट हुआ, यावत् अन्तःकरण में प्रफुल्लित हो गया। दोनों हाथों को जोड़कर मस्तकपर अंजलिरूप में उन्हें स्थापित करते हुए फिर वह इस प्रकार बोला कि हे स्वामिन्! आपने जिस प्रकार का आदेश प्रदान किया है वह मैं उसी प्रकार से संपादित करूँगा । इस रीति से विनयपूर्वक उसने राजा के आदेश को स्वीकार कर लिया । 'तए णं से बलवाउए' इत्यादि. (तए णं) त्यार पछी ( से बलवाउए) ते सेनापति (रण्णा एवं वुत्ते समाणे) रानना द्वारा या अठ्ठारे याज्ञापित थतां (हट्ठ- तुट्ठ - जाव - हियए करयल - परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं सामित्ति आणाए विणणं वयण पडिसुणेइ ) વિશેષ તિ તેમજ સંતુષ્ટ થયા, યાવત્ અંત:કરણમાં પ્રફુલ્લિત થઇ ગયા. અન્ને હાથેા જોડીને મસ્તક ઉપર અંજલિરૂપે તેમને સ્થાપિત કરી પછી તે આ પ્રકારે એ કે હે સ્વામિન્ ! આપે જે પ્રકારના આદેશ પ્રદાન કર્યા છે તે હું તેવીજ રીતે સંપાદિત કરીશ. આ રીતે વિનયપૂર્વક તેણે રાજાના Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाषवर्षिणी टीका सू. ४१ बलव्यापृतस्य हस्तिव्यापृतं प्रत्यादेशः खिप्पामेव भो देवाशुप्पिया ! कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि, हय-गय-रह-पवरजोह - कलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेहि, सण्णाहेत्ता एयमाणत्तिय पच्चपिणाहि ॥ सू० ४१ ॥ आमंतेइ ' हस्तिव्यापृतमामन्त्रयति = महामात्रमाह्वयति, ' आमंतेत्ता आमन्त्र्य - आहूय एवं वयासी' एवमवादीन् -' खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कूणियस्स रण्णो भंसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हस्थिरयणं पडिक पेहि' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! कूणिकस्य राज्ञो भम्भसारपुत्रस्य आभिषेक्यं हस्तिरत्नं परिकल्पय; आभिषेक्यं हस्तिरत्नं प्राप्ताभिषेकं, मुख्यं हस्तिरत्नं परिकल्पय = सुसज्जितं कुरु, 'हय-गय-रह-पवर जोह - कलिये' हय - गजरथ-प्रवरयोध-कलिताम्, 'चाउरंगिणिं सेणं' चतुरङ्गिणीं सेनाम्, ' सण्णा हेहि ' नाहय - सन्नद्धां कुरु, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि ' एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पय- इमां मदीयामाज्ञां सम्पाद्य मह्यं निवेदय-इत्थं राज्ञाऽऽज्ञप्तो बलव्यापृतो हस्तिव्यापृत माज्ञापयामास । सू० ४१ ॥ 6 ३७१ 9 ( पडिणित्ता हत्थिवाउयं आमंतेइ ) राजा का आदेश प्रमाण कर उसने तुरंत ही हाथियों के अधिकारी को बुलाया, (आमंतेत्ता) बुलाकर ( एवं ) इस प्रकार ( वयासी) वह बोला - (खिप्पामेव भो देवाणुपिया) हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही ( कूणियस्स रण्णो भसारपुत्तस्स आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि ) भंभसार अर्थात् श्रेणिक राजा के पुत्र कूगिक राजा के पट्टहस्ती को सुसज्जित करो । ( हय-गय-रह-पवरजोह - कलियं चाउरंग सेणं सा हि ) साथ में हय - अश्व, गज- अन्यहाथी, रथ, प्रवरभट इनसे युक्त आद्देशना स्वीकार ४२री सीधे (पंडिसुणित्ता हत्थिवाउयं आमंतेइ ) रामना आहेशने प्रभाणु ४री तेथे तरतन हाथीगोना अधिडारीने मोलाव्या. (आमंतेत्ता) जोसावीने (एवं) मा अठारे ( वयासी) तेथे ४ - (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया) હે દેવાનુપ્રિય ! તમે તુરત ४ ( कूणियम्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकरपेहि ) ललसार अर्थात् श्रेणि रामना पुत्र लिड रामना पट्टस्तिने तैयार 1. ( हय-गय-रह - पवरजोह - कलिये चाउरंगिणं सेणं सण्णाहेहि ) साथै साथै डुय--घोडा, जन-मील हाथी, रथ, अवरलट मेथी युक्त चतुरंगिली भेनाने पशु तैयार इरो, ( सण्णा हेत्ता) सन्नद्ध उरीने (एयमाणत्तियं Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपातिकसूत्रे - मूलम्-तए णं से हथिवाउए बलवाउयस्त एयमहें सोचा आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेई, पडिसुणित्ता छेयायरिय-उवएस-मइ-कप्पणा-विकप्पेहि सुणिउणेहिं उज्जल-णेवत्थ टीका-'तए णं से' इत्यादि । 'तर णं' ततः बलव्यापृताज्ञाऽनन्तरं खलु ' से हस्थिवाउए' स हस्तिव्यापृतः-महामात्रः, 'बलपाउयस्स एयमढे सोचा' बलव्यापृतस्य एतमर्थ सुसज्जितगजाऽऽनयनादिरूपं वचनं श्रुत्वा, 'आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ' आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिशगोति-विनयपूर्वकमाज्ञावचनं सेनापतिनिदेशमङ्गीकरोति, 'पडिसुणित्ता' प्रतिश्रत्य ' छेयायरिय-उवएस-मइ-कप्पणाविकप्पेहि छेकाऽऽचार्यो-पदेश-मति-कल्पना-विकल्पैः-छेकाचार्यस्य–पटुतरशिल्पशिक्षकस्योपदेशाजाता या मतिः=बुद्धिः तया या कल्पना सजना-हस्तिनां शृङ्गारसमारचना, तां विविधप्रकारेण कल्पयन्ति ये ते तथा तैः, सुशिक्षकोपदेशलब्धबुद्ध्या विशिष्टशिल्पकल्पनाकारकैरित्यर्थः, अतएव 'सुणिउणेहिं' सुनिपुणैः-गजादिशृङ्गाररचनाकुशलैः ‘उज्जलचतुरंगिणी सेना को भी सुसजित करो । (सण्णाहेत्ता ) सन्नद्र करके (एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि) बाद में इस मेरी आज्ञा के यथावत् पालन करने की हमें पीछे खबर दो ॥सू. ४१॥ 'तए णं से हत्थिवाउए' इत्यादि । (नए णं) सेनापति के आदेश देने के बाद (से हस्थिवाउए) वह हाथियों का अधिकारी (बलबाउयस्स) सेनापति के (एयमढें) इस बातको (सोचा) सुनकर (आणाए वयणं) आज्ञा के वचन को (विणएणं) विनयपूर्वक (पडिसुणेइ) स्वीकार किया । (पडिसुणित्ता) स्वीकार कर उसने (छेयायरिय-उवएस-मइ-कप्पणा विकप्पेहिं) छेकाचार्यविशिष्टनिपुणशिल्पशिक्षक के उपदेश से उद्भूत बुद्धि द्वारा विविध प्रकारकी रचना से हाथि. पच्चप्पिणाहि) पछी मा भारी माज्ञाने यथावत् पानी तनी भने पाछी मस२ माप. (सू. ४१) 'तए ण से हथिवाउए' त्याहि. (तए णं) सेनापति माहेश सीधा पछी (से हत्थिवाउए) ते था.मोना अधिश (बलवाउयस्स.) सेनापतिनी (एयमटुं) से पातने (सोचा) सांमजीने (आणाए वयण) माशानां पयनने (विणएणं) विनयपूर्व (पडिमुणेइ) स्वी४२ ४ा, (पडिसणित्ता) स्वी४२ ४रीने तेथे (छेयायरिय-उवएस-मइ-कप्पणा विकહિ) છેકાચાર્ય વિશિષ્ટ નિપુણ શિલ્પ શિક્ષકના ઉપદેશથી ઉદ્ભવેલી બુદ્ધિ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ४२ हस्त्यादिसज्ज नम् हव्व-परिवत्थियं सुसजं धम्मिय-सण्णद्ध-बद्ध-कवइय-उप्पीलिय-कच्छ-चच्छ-गेवेय-बद्ध-गलवर-भूषण-विरायंत अहियतेय-जुत्तं सललिय-वर-कण्णपूर-विराइयं पलंब-ओचूल-महुयरणेवत्थ-हा-परिवत्थियं' उञ्चल नेपथ्य-शीघ्र-परिवस्त्रितम्-उज्वलनेपथ्येन-निर्मलवेषरचनया शीघ्रं, परिवस्त्रितं-आच्छादितम् , अलंकृतमित्यर्थः, अतएव 'सुसज्ज' कृतसन्नाहम्, 'धम्मिय-सण्णद्ध-बद्ध-कवइय-उप्पीलिय-कच्छ-वच्छ-गेवेयबद्ध-गलवर-भूमण-विरायंत' धार्मिक सन्नद्ध-बद्ध-कवचिको-स्पीडित कक्ष-वक्षोप्रैवेय-बद्ध-गलवर-भूषण-विराजमानम् , गर्मिकं सन्नद्धं सजीकृतं बद्धं यत् कवचं सन्नाहविशेषः, तदस्यास्तीति-धार्मिकसन्नद्धबद्धकवचिकम् , उत्पीडिता=आकृष्य बद्धा, कक्षा बन्धनरज्जुः, वक्षसि वक्षःस्थले यस्य तत् तथा, ग्रैवेयक-ग्रोवाभूषणं, बद्धं गले कण्ठे यस्य तत् तथा, वरभूषणैः = अन्यैर्गजस्य श्रेष्ठाभरणैर्विराजमानम् , 'अहियतेयजुत्तं' अधिकतेजोयुक्तम्=परमतेजस्वि, 'सललिय-वरकण्णपूर-विराइयं' सललित-वरकर्णपूरयों के शृंगार करने वाले (मुणिउणेहि) निपुण व्यक्तियों से (उज्जल-णेवत्थ-हव्व-परिवत्थियं) हाथीका शृंगार करवाया; इसमें सर्वप्रथम उन कुशल पुरुषों ने उसे निर्मल भूषणों की रचना से अलंकृत किया । (सुसज्ज) उस पर अच्छी तरह से झूलें वगैरह सजायीं। (धम्मिय-सण्णद्ध-बद्ध-कवइय-उप्पीलिय-कच्छ-वच्छ-गेवेय-बद्ध-गलवर-भूषणविरायंत) धार्मिक उत्सव के समय जैसा हाथी का शृंगार होता है ठीक वैसा ही शंगार इसका किया गया । पेट या छाती पर इसके मजबूत कवच कसकर बांधा गया । गले में इसके आभूषण पहिनाए गये । और इसके अंग-उपांगों में सुन्दर २ उसके योग्य आभूषण द्वारा विविध प्राथी साथीमाना ॥२ ४२पापा (सुणिउणेहिं ) निपुष्य व्यतिमा वा ( उज्जल-णेवत्थ-हव्व-परिवत्थिय ) हाथीना शा२ ४२राव्या, તેમાં સર્વથી પ્રથમ તે કુશળ પુરૂષોએ તેને સુન્દર અલંકારની રચનાથી मन र्या, (सुसज्ज) तेन। 8५२ सारी रात सूख वगेरे सन्नपी. (धम्मियसण्णद्ध-बद्ध- कवइय-उप्पीलिय-कच्छ-वच्छ-गेवेय-बद्ध-गलवर - भूषण - विरायतं) ધાર્મિક ઉત્સવના સમયે જે હાથીને શણગાર હોય છે તે જ બરાબર શણગાર તેને કર્યો. પેટ અથવા છાતી ઉપર મજબૂત કવચ કસીને તેને બાંધ્યું. ગળામાં તેને આભૂષણો પહેરાવવામાં આવ્યાં. તેનાં બીજાં અંગે तथा अपांगमा सुंदर सुंदर तेने योग्य आभूषण। परायां. (अहिय Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ औपपातिक कयंधयारं चित्त-परित्थोम - पच्छयं पहरणा - वरण- भरिय - जुद्धविराजितम्—सललितौ-लालित्ययुक्तौ यौ वरकर्णपूरौ - प्रशस्तकर्णाभरणे ताभ्यां विराजितम् ' पलंब - ओचूल - महुयर -- कर्यधयारं ' प्रलम्वाडवचूलमधुकर कृताऽन्धकारम् - प्रलम्बाति अवचूलानि=गजपृष्ठादधःप्रलम्बिशृङ्गारवस्त्रांशरूपाणि यस्य तत्तथा, तथा मधुकरैर्मदजलगन्धलुब्धैः कृतः अन्धकारो यत्र तत्तथा, ततः - अनयोः कर्मधारयः, तत्, 'चित्त-परिच्छेयपच्छयं ' चित्र-परिच्छेक - प्रच्छदम् - चित्रो - विचित्रः परिच्छेको = लघुः प्रच्छदः - आच्छादयःवस्त्रविशेषो यस्य तत्तथा तत्, 'पहरणा-वरण- भरिय- जुद्ध-सज्जं ' प्रहरणा - वरण-भृतयुद्धसज्जम्-प्रहरणावरणैरायुधकवचैर्भृतं = सम्भृतम्, अत एव युद्धसज्जं युद्धाय समुद्यतम्, 'सच्छत्तं' पहिरा दिये गये । ( अहियतेयजुत्तं) इससे स्वाभाविकरूप से तेजः संपन्न वह गजराज देखने में और अधिक तेजस्वी दीखने लगा । ( सललिय- वर - कण्णपूर - विराइयं) इसके कान में जो आभूषण - कर्णपूर पहिराने में आये थे वे चलते समय इधर उधर जब हिलते थे तब उनके द्वारा यह गजराज बड़ा ही सुहावना लगता था । ( पलंब-ओचूल-महुयरकधया) इस पर जो झूल डाली गई थी वह पीठ से नीचे तक लटक रही थी । इसके कपोल स्थल से जो मदजल झर रहा था और उसकी सुगन्धि से जो भ्रमरसमूह उसके आसपास मंडरा रहा था वह ऐसा मालूम होता था कि मानो इसकी शरण में अंधकार ही आया है । (चित्त-परित्थोम - पच्छयं) इसकी पीठ पर झूल के ऊपर जो छोटा सा आच्छादकवस्त्र डाला गया था वह सुन्दर बेलबूटियों से युक्त था । (पहरणा - वरण- -भरियजुद्ध - सज्ज) प्रहरण - शस्त्र और आवरण - कवच से सुसज्जित यह हाथी ऐसा मालूम पड़ता था कि मानो यह युद्ध के लिये ही सजाया गया है। (सच्छत्तं) यह छत्रसहित था । तेयजुत्तं ) माथी स्वाभाविक तेल्थी संपन्न ते गमरान वधारे तेस्वी हेमाता हतो. (सललिय- वर- कप्णपूर - विराइयं) तेना अनमां ने भालूषाणुકપૂર પહેરાવવામાં આવ્યાં હતા તે ચાલતી વખતે જ્યારે આમતેમ હાલતાં तांत्यारे तेनाथी भागवरान मडुन शोलायमान सागतो तो. ( पलंबओ चूल - महुयर - कथंधयारं ) तेना पर ने जूस राजी हुती ते पी थी नीचे सुधी લટકી રહી હતી. તેના ગ`ડસ્થલથી જે મદજલ ઝરી રહ્યું હતું તથા તેની સુગ'ધથી જે ભમરાઓના સમૂહ તેની આસપાસ ફરતા રહેતા હતા તેથી शुभ भगा तु लागे तेना शरशुभां अंधार मान्यो छे. ( चित्तपरिच्छेय. पच्छयं ) तेनी पीठ पर जूस ते सुंदर वेस यूटियोथी युक्त तु उपर नानुं ढांडे वस्त्र नाच्यु तुं (पहरणावरण भरिय - जुद्ध- सज्जं ) प्रहरशुશસ્ત્ર અને આવરણુ-કવચથી સુસજ્જિત આ હાથી એવા લાગતા હતા કે Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सु. ४२ हस्त्या सिजनम् सनं सच्छत्तं सज्झयं सघंटं सपडागं पंचामेलय - परिमंडियाभिरामं ओसारिय - जमल-जुयल - घंटं विज्जुपिणद्धं व कालमेहं उपपाइयपव्वयं व चंकमंत मत्तं गुलगुलंतं मण-पवण - जइण - वेगं सब्छत्रम् - छत्रयुक्तम्, 'सज्झयं ' सध्वजम् - ध्वजयुक्तम् ' सघं ' सघण्टम् - घण्टाभूषितो - भयपार्श्वम्, 'पंचामेलय - परिमंडिया - भिरामं ' पञ्चामेलक- परिमण्डिताऽभिरामम्पश्चभिरामेलकैः=पञ्चवर्णाभिः पुष्पमालाभिः परिमण्डितम् - अतएव अभिरामं सुन्दरं यत्तथा तत्, ' ओसारिय - जमल-जुयल --घंटं ' अवसारित - यमल - युगल - धण्टम्-अवसारितम्= अधोऽवलम्बितं यमलं=समं युगलं द्विकं घण्टयोर्यत्र तत् तथा तत्, ' विज्जुपिणद्धं ' विद्युत्पिन द्रम्-विद्युद्विद्योतितं ‘कालमेहं व ' कालमेघमिव - गजस्य कृष्णवर्णत्वात् उच्चतया च मेघोपमा, ' उप्पाइय-पव्त्रयं व औत्पातिकपर्वतमिव - अकस्मान्नूतनसमुद्भूतपर्वतमिव, ' चं कमंतं ' ' चङ्क्रम्यमाणम् - अतिशयेन क्राम्यत् - स्वाभाविकपर्वतो हि न चङ्क्र भावः । ' गुलगुलंतं ' ध्वनत् = महामेधवद् ध्वनिं कुर्वत्-इत्यर्थः, 'मण-पत्र - जइण- वेगं ' ( सज्झयं ) ध्वजासहित था ( सघंट) घंटाओं से इसके उभयपार्श्व युक्त थे । (पंचामेलयपरिमंडिया - भिरामं ) पांचवर्ण के पुष्पमाला पहनाने के कारण यह अत्यन्त सुन्दर लगता था । (ओसारिय-जमल-जुयल - घंटं ) नीचे तक एक ही साथ लटकते हुए दो घंटों से यह शोभित था । (विज्जुपिणद्धं ) इस पर जो भी आभरण सजाये गये थे वे बिजली समान चमकते थे, अतः यह गजराज ( काल मेहं व ) कृष्णवर्ण होने से काला मेघ के जैसा ज्ञात होता था । (चंकमतं उत्पाइयपव्त्रयं व ) चलते समय यह औत्पातिक पर्वत समान दिखायी देता था । (गुलगुलंतं ) जब यह चिंधाडता था तो ऐसा प्रतीत होता भागे थे युद्धने भाटे ४ सन्नमेो छे. ( सच्छत्तं ) मे छत्रसहित हतो. (सज्झयं) ध्वन्नसहित डतो. ( सघंट) घंटाओ। मन्ने मान्नु सटती हुती. (पंचामेलय - परिमंडिया - भिरामं ) पांय वर्गुनी पुष्पमाला पडेराववाथी मे सुंदर सागतो इतो. (ओसारिय- जमल-जुयल - घंटं) नीथे सुधी थे मे घ ंटामोथी ते शोलतो तो. ( विज्जुपिण ) तेना पर સજાએલાં હતાં તે વીજળીના જેવાં ચમકતાં હતાં. આથી (कालमेहं व ) ष्णुवर्ग होवाथी अदा भेघना नेवो भगात हुतो. (चंकमंत उप्पा इयपव्वयं व) न्यासती वमते मे सौत्याति पर्वतना वो जातो तो. (गुलगुलंतं) न्यारे ते मराडतो तो त्यारे से प्रतीत थतुं तु लागे ३७५ લટકતા साथै अह आमरण આ ગજરાજ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिकसूत्रे भीमं संगामियाओजं आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेइ, पडिकप्पित्ता हय – गय-रह - पवरजोह-कलियं चाउरंगिणीं सेणं सण्णाहेइ, जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ ॥ सू० ४२॥ मनःपवनजयिवेगं गत्या मनःपवनाधिकवेगयुक्तं, 'भीम' भयङ्करम् , ' संगामियाओज' सांग्रामिकाऽऽयोज्यम् संग्राम एव सांग्रामिकं तस्मिन् आयोज्यम्=आयोजनीयं-ग्रामयोग्यमित्यर्थः; 'आभिसेकं हत्थिरयणं' आभिषेक्यं हस्तिरत्नम् – अभिषेकार्ह हस्तिश्रेष्ठम , 'पडिकप्पेइ' परिकल्पयति, 'पडिकप्पित्ता' परिकल्य, 'हय-गय-रहपवरजोह-कलिय' हय-गज-रथ-प्रवरयोध-कलितां-हथैर्गजै रथैः प्रवरयोधै महारथिभिर्युक्ताम्, 'चाउरंगिणिं सेणं ' चतुरङ्गिणी सेनाम्=चतुरङ्गवतीं सेनाम् , 'सण्णाहेइ' संनाहयति, 'जेणेव बलवाउए' यत्रैव बलव्यापृतः सेनापतिः, 'तेणेव उवागच्छ।' तत्रैवोपागच्छति, ' उवागच्छित्ता' उपागत्य, ‘एयमाणत्तियं' एतामाज्ञाप्तिकाम्-सेनापतेराज्ञाम् 'पञ्चप्पिणइ' प्रत्यर्पयति-तदीयामाज्ञां सम्पाद्य पश्चान्निवेदयति, भवदाज्ञानुसारेण सर्व संपादितमस्माभिरिति ॥ ४२॥ कि मानो महामेघकी गर्जना हो रही है । (मण-पवण-जइग-वेगं) इसकी गति मन और पवन के वेग को जीतने वाली थी, (भीम) देखने में यह बडा भयंकर जैसा लगता था । (संगामियाओज्जं) इस के ऊपर जितनी भी सामग्रिया रखने में आई थीं वे सब संग्राम के योग्य थीं । (आभिसेक्कं हत्थिरयणं) इस प्रकार इस पट्टहस्ति को (पडिकप्पेइ) उन निपुण मतिवाले पुरुषों से सजवाया, (पडिकप्पित्ता) सजवाने के बाद फिर उस हाथी के अधिकारी ने उन निपुण पुरुषों से (हय-गय-रह-पवरजोह-कलियं चाउरंगिणि महाभेधनी गईना थाय छ. (मण-पवण-जइण-वेगं) तेनी गति भन तथा पवनना ने ते मेवी ती. (भीम) नेपामां से मई सय७२ २३॥ सागतो तो. (संगामियाओज्ज) तेना ५२ टक्षी सामग्री रामपामा मावी ती ते मधी सामने योग्य ती. (आभिसेक्कं हत्थिरयण) मा ४ारे थे पट्टस्तिने (पडिकप्पेइ) नि भुद्धिपाता पु३षाये सन्तव्य। डतो. (पडिकप्पित्ता) तैयार ४२री सीधा पछी त हाथीना माघारीमे ते निपुण ५३षोदा (हय-गय-रह-पवर-जोहकलिये चाउरंगिणिं सेण सण्णाहेइ) पास, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषषिणी-टीका सू. ४३ बलव्यापृतस्य यानशालिकं प्रत्यादेशः ३७७ । मूलम्त ए णं से बलवाउए जाणसालियं सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सुभदापमुहाणं देवीणं बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए पाडियकपाडियकाई टीका-'तए णं से' इत्यादि । 'तए णं से बलवाउए' ततः खलु स बलयापूतः-तदनन्तरम्-चतुरङ्गिगीसेनासजीकरणानन्तरं स सेनापतिः 'जाणसालियं' यानशालिकं यानशालाधिकृतम्, ‘सद्दावेइ' . शब्दयति आह्वयति, 'सदावित्ता एवं वयासी' शब्दयित्वा एवमवादीत् 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!' क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! 'सुभदापमुहाणं देवीणं' सुभद्राप्रमुखानांमुभद्रादीनां देवीनां 'बाहिरियाए उवट्ठाणसेणं सण्णाहेइ) घोडा, हाथी, रथ एवं सुभटों से युक्त चतुरंगिणी सेना सजवायी, सजवा कर (जेणेव बलबाउए) जहाँ पर सेनापति थे (तेगेत्र उवागच्छइ) वहाँ पर गया, (उवागच्छित्ता) पहुँचकर (एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ) उसने निवेदन किया कि आपने जो आज्ञा प्रदान की थी वह सब मैंने.आपकी आज्ञानुसार ठीक कर लिया है । सू०४२॥ 'तए णं से बलबाउए' इत्यादि । .. (तए णं) चतुरंगिणी सेना जब सजी जा चुको तब (से बलवाउए) उस सेनापतिने (जाणसालिय) यानशाला के अधिकारी को (सदावेइ) बुलाया, (सद्दावित्ता) बुलाकर (एवं वयासी) इस प्रकार कहा-(विप्पामेव भी देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही (सुभदापमुहाणं देवीणं) सुभद्रा आदि देवियों के लिये (बाहिरियाए उबढाणसालाए) बाहिर की उपस्थानशाला में (पाडियक्कपाडियकाई) एक एक रानी હાથી, રથ તેમજ સુભટોથી યુકત ચતુરંગિણી સેના તૈયાર કરાવી. તૈયાર કરાવીને (जेणेव बलंवाउए) न्यो सेनापति ता. (तेणेव उवागच्छई)त्यां गया, (उवागच्छिंत्ता) तेणे, त्यां पडयीन (एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ) निवेदन यु माघे २ माज्ञा આપી હતી તે બધું મેં આપની આજ્ઞા પ્રમાણે ઠીક કરી લીધું છે. (સૂ૦ ૪૨) " तए णं से बलवाउए' छत्याहि. " (तए णं) यतुर गिjी सेना न्यारे तैयार थ युद्धी त्यारे (से बलवाउए) ते सेनापति (जाणसालिय) यानासाना मधिशारीने (सहावेइ) मोसाव्यो, (सहावित्ता) सापाने (एवं वयासी) प्रा यु-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया) डेवानुप्रिय! तमे वह (सुभदापमुहाणं देवीणं) सुभद्रा याहि वीस। भाट ( बाहिरियाए. उवट्ठाणसालाए) मारनी पस्थानशालामi (पाडियक्क Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्रे जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणाई उवहवेहि, उवहवित्ता एयमणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ॥ सू० ४३ ॥ मूलम्-तए णं से जाणसालिए बलवाउयस्स एयमझु सालाए' बाह्यायामुपस्थानशालायाम् , 'पाडियक्कपाडियकाई' प्रत्येकं प्रत्येकम् प्रत्येकाऽर्थम् , 'जत्ताभिमुहाई' यात्राभिमुखानि भगवद्दर्शनार्थगमनानुकूलानि 'जुत्ताई' युक्तानि 'जाणाई' यानानि 'उवद्वेहि उपस्थापय-सजीकृत्य समानय, 'उबवित्ता' उपस्थाप्य 'एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि' एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पय-मदीयामाज्ञां पश्चात् समर्पय-सर्व सम्पादितम् इति ब्रूहि ॥ सू० ४३ ॥ टीका-'तए णं से' इत्यादि । ततः खलु स 'जाणसालिए बलवाउयस्स एयम' यानशालिको बलव्यामृतस्यैतमर्थम् यानसज्जीकरणाऽऽनयनरूपं निदेशं श्रुत्वा, आज्ञाया विनयेन वचनं 'पडिमुणेइ' के बैठने योग्य अलग २ रूप में (जत्ताभिमुहाई) यात्रा के लायक भगवान के दर्शन करने के लिये जिसमें बैठकर जाया जाता है ऐसे (जुत्ताई) एवं अच्छे २ बैलों से युक्त (जाणाई) रथादिक वाहनों को (उपवेहि) उपस्थित करो, (उवद्ववित्ता) उपस्थित करके (एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणेहि) इस मेरी आज्ञा को यथावत् पालन करने की खबर पीछे मुझे बहुत जल्दी भेजो ॥ सू० ४३ ॥ 'तए णं से जाणसालिए' इत्यादि । (तए णं) सेनापति के आदेश देने के बाद (से जाणसालिए) उस यानशाला के अधिकारी ने (बलवाउयस्स) सेनापति के (एयम) यान को सज्जित करके लानेकी पाडियक्काई ) मे ४ राणीने मेसा योय अस 1 ३५भा (जत्ताभिमुहाई) यात्राने साय: मानना शन ४२१॥ भाटे सभा मेसीने पाय सेवा, (जुत्ताई) तेभर सारा सा२। महोथी युत (जाणाई) २० माहि पाहुनाने (उवट्ठवेहि) डा०४२ 37. (उवदुवित्ता) ४२ ४शने (एयमाणत्तिय पच्चप्पिणेहि) २॥ भारी माज्ञानु पासन ४२वानी ५२ पछी भने मर्ड सही भी . (सू० ४३) " तए णं से जाणसालिए" त्याहि. (तए गं) सेनापतिना माहेश सीधा पछी (से जाणसालिए) ते यानासाना मधिलारी (बलवाउयस्स) सेनापतिनी (एयम₹) यानने तैयार ४रीन सा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषषिणो-टोका सू. ४४ यानशालिकस्य बलव्यापृताऽऽदेशसंपादनम् ३७९ आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाणाइं पञ्चुवेक्खेइ, पञ्चुवेक्खित्ता जाणाइं संपमजेइ,संपमजित्ता जाणाई संवट्टेइ,संवट्टित्ता जाणाई जीणेइ,णीणित्ता जाणाणं दूसे पवीणेइ, पवीणित्ता जाणाई प्रतिशृणोति स्वीकरोति, प्रतिश्रुत्य आज्ञावचनं स्वीकृत्य यत्रैव यानशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'जाणाई पच्चुवेक्खेइ' यानानि प्रत्युपेक्षते सम्यक् पश्यति, प्रत्युपेक्ष्य–दृष्ट्या 'जाणाई संपमज्जेइ' यानानि सम्प्रमार्जयति–विगतरजांसि कुरुते, सम्प्रमाW, 'जाणाई संवटे' यानानि वर्तयति-रुकस्मिन् स्थाने स्थापयति, 'संवट्टित्ता' वर्त्य 'जाणाई णीणेइ' यानानि नयति-शालातो बहिःकरोति, नीत्वा 'जाणाणं' यानानां 'दूसे' दृष्याणि आच्छादनवस्त्राणि 'पवीणेइ' प्रविनयति अपसारयति, प्रविनीय-अपसार्य, आज्ञाको सुनकर (आणाए विणएणं वयणं) उस आज्ञावचन को विनयपूर्वक (पडिसुणेइ) स्वीकार किया, (पडिसुणित्ता) स्वीकार करके फिर वह (जेणेव जाणसाला) जहां यानशाला थी (तेणेव उवागच्छइ) वहाँ पहुँचा, (उवागच्छित्ता) पहुँचकर (जाणाई पच्चुवेक्खेइ) उसने वहां पहिले रथ आदि यानों को अच्छी तरह से देखा । (पच्चुवेक्खित्ता) देखकर (जाणाइं संपमजेइ) उसने उन्हें अच्छी तरह झाड-झूड कर साफ किया । (संपमज्जित्ता जाणाई संवद्देइ) साफ करने के बाद उसने फिर जितने चाहिये थे उतने यान एक जगह एकत्रित किये। (संवट्टित्ता) इकट्ठ करने के बाद (जाणाई णीणेइ) वहां से उसने उन सब को गहिर निकाला। (णीणित्ता) बाहिर पानी माज्ञा सामनीने आणाए विणएणं वयणं) ते पाहावयनना विनयपूर्व (पडिसुणेइ ) २वी॥२ ४ो. (पडिसुणित्ता) स्वी४२ ४रीने पछी ते (जेणेव जाणसाला) ज्यां याना ती ( तेणेव उवागच्छइ) त्यां पांच्या (उवागच्छित्ता) पचाने ( जाणाई पच्चुवेक्खइ) तेथे त्यां पडेटा २५ माहि यानाने सारी रीते या. ( पच्चुवेक्खित्ता) लेधने (जाणाई संपमज्जेइ) ते तेणे सारी रीत inी-डी साई ४ा. ( संपमज्जिता जाणाई संव?ई) सो ४२१ લીધા પછી તેણે જેટલાં જોઈતાં હતાં તેટલાં યાન (વાહન) એક જગાએ मे४i या (संवट्टिता) मे४४i ४0 बीधा पछी ( जाणाइं जीणेइ) त्यांची तेरे मे याने महा२ ४ढयां. (णीणित्ता) महा२ ४ाढीने (जाणाणं दूसे Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : ओपपातिकसूत्रे समलंकरेइ, समलंकरित्ता जाणाई वरभंडगमंडियाइंकरेइ,करित्ता जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाहणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता वाहणाई पञ्चुवेक्खेइ, पञ्चुवेक्खित्ता वाहणाइं संपमज्जइ, संपमजित्ता वाहणाई जीणेइ, णीणित्ता वाह'जाणाई समलंकरेइ' यानानि समलङ्करोति यन्त्रयोक्त्रादिभिः कृतालङ्काराणि करोति, समलङ्कृत्य 'जाणाइं वरभंडगमंडियाई' यानानि वरभाण्डकमण्डितानि वराभरणभूषितानि 'करेइ' करोति, कृत्वा यत्रैव वाहनशाला तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, वाहनशालामनुप्रविशति, अनुप्रविश्य वाहणाई पच्चुवेक्खेइ' वाहनानि प्रत्युपेक्षते, तेषामङ्गप्रत्यङ्गसौन्दर्य पश्यति, दृष्ट्वा वाहनानि 'संपमज्जइ' सम्प्रमार्जयति-निर्मलीकरोति, सम्प्रमार्थ वाहनिकालकर (जाणाणं दूसे पत्रीणेइ) उनके ऊपर के वस्त्रों को उसने दूर किया । (पवीणित्ता) जब वस्त्र कि जिनसे ये ढके हुए थे दूर हो चुके तब उसने (जाणाई समलंकरेइ) उन सब यानों को अलंकृत किया । (समलंकरित्ता) जब वे अच्छी तरह अलंकृत हो चुके तब (जाणाई वरभंडगमंडियाइं करेइ) उन यानों को उसने अच्छी रीति से गादी-तकिया आदि उपकरणों से मंडित किया। (करित्ता) सुसज्जित कर (जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्छइ) फिर वह जहां वाहनशाला थी वहाँ पहुँचा, (उवागच्छित्ता) पहुँच कर (वाहणसालं अणुपविसइ) वह उस वाहनशाला के भीतर प्रविष्ट हुआ । (अणुपविसित्ता) प्रविष्ट होकर (वाहणाइं पञ्चुवेक्खेइ) उसने वाहनों को देखा (पच्चुवेपवीणेइ) तेमना ५२नां पत्रोने तेथे १२ भूश्या (पवीणित्ता) न्यारे ते पसीनाथी ते ढाया तो ते २ २ गया त्या२. तेणे ( जाणाई समलंकरेइ) ते या यानाने शायर्या . ( समलंकरिता ) न्यारे ते सारी राते मत थ युध्या त्यारे ( जाणाई वरभंडगमंडियाइं करेइ) ते यानाने तेणे सातथी ही तछिया मा ७५४२ थी मांडित ४ा. (करित्ता) सुसCorora शेने (जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्छइ.) ५७ ते या पाउनासा ती त्या पडल्या. ( उवागच्छित्ता ) पांयीन (वाहणसालं अणुपविसइ) ते से पानासानी म४२ मत या. ( अणुपविसित्ता) मिस २४ने (वाहणाई पच्चुवेक्खेइ ) तेथे वाहनाने लेया. ( पच्चुवेक्खित्ता) लेधने (वाह: Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो टोका सू. ४४ यानशालिकस्य बलव्यापृताऽऽदेशसंपादनम् ३८१ णाई अप्फालेइ, अफालित्ता दूसे पवीणेइ, पवीणित्ता वाहणाई समलंकरेइ, समलंकरित्ता वाहणाइं वरभंडगमंडियाइं करेइ,करिता वाहणाइं जाणाई जोएइ, जोइत्ता पओयलहिँ पओयधरए य नानि ‘णीणेइ' नयति बहिष्करोति, नीत्वा वाहनानि ‘अप्फालेइ ' आस्फालयति हस्तेन आस्फालयति, आस्फाल्य 'दुसे पवीणेई' दूष्यागि प्रविनयति आच्छादनवस्त्राण्यपनयति, प्रविनीय 'वाहणाई समलंकरेइ' वाहनानि समलङ्करोति, समलङ्कृत्य वाहनानि 'वरभंडगमंडियाइं करेइ' वरभाण्डकमण्डितानि करोति, कृत्वा 'वाहणाई जाणाई जोएइ' वाहनानि यानेषु योजयति, योजयित्वा यानशालिकः 'पओयलढेि' प्रतोदयष्टिं वाहनचालनार्थी यष्टिं 'पराणी' इति भाषाप्रसिद्धां 'पओयधरए य' प्रतोदधरान् = शकटवाहकान् समं युगपत्-एकस्मिन् काले 'आडहइ' आहरति एकस्मिन् स्थाने सवाक्खित्तादेखकर -(वाहणाई संपमज्जइ) उसने उन्हें साफ किया । (संपमज्जित्ता) साफ? सूफ कर (वाहणाई णीणेइ) वाहनों को उसने वहां से बाहिर निकाला, (णीणित्ता) बाहिर निकालकर (वाहणाई अप्फालेइ) उसने फिर उनके पीठ पर हाथ फिराया, (अप्फालित्ता) हाथ फिराकर (दूसे पवीणेइ) फिर उसने उनकी खोलियों को अलग किया । (पवीणित्ता) जब खोलियां उनकी अलग हो चुकी तब फिर उसने (वाहणाई समलंकरेइ) उन वाहनोंको शृगारित किया । (समलंकरित्ता) जब वे अच्छी तरह से सजा दिये गये तब (वाहणाइं वरभंडगमंडियाई करेइ) उसने उनको उपकरणों से मंडित किया, (करिता) करने के बाद (वाहणाइं जाणाई जोएइ) फिर उसने उन वाहनों-बैलों को रथों में जोते, (जोइत्ता) जोतने के बाद (पओयलढेि पओयधरए य समं आडहइ) उसने णाई संपमज्जइ ) तेणे तेभने सो ४ा. ( संपमज्जित्ता) सा-सू शने ( वाहणाई णीणेइ ) वाहनाने तो त्यांथी पा२ ४ढयां. (णीणित्ता) महार ४ाढीने (वाहणाइं अप्फालेइ) ते शने भनी पी3 3५२ डाय ३२०या. ( अप्फालित्ता ) डाय ३२वीने (दूसे पवीणेइ ) पछी तणे तेभनी जागाने ही ४री, (पवीणित्ता ) न्यारे गाणे तेमनी जुही ४२।। त्या२ पछी तेणे (वाहणाई समलंकरेइ) ते वाहनाने शार्या, (समलंकरित्ता) न्यारे ते सारी शते तैयार ( सक15) या त्यारे (वाहणाई वरभंडगमंडियाई करेइ) तेरी तेभने ५४२थी भरित ४ा. (करित्ता) ४ा पछी (वाहणाई जाणाई जाएइ) ते ते पाडनाना महोने कथामा डाव्यां, (जोइत्ता) डाव्यां पछी (पओयलट्ठि Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ औपपातिकलत्रे समं आडहइ, आडहित्ता वट्टमग्गंगाहेइ, गाहित्ता जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बलवाउयस्स एयमाणत्तियं पच्चपिणइ ।। सू० ४४॥ मूलम्-तए णं से बलवाउए णयरगुत्तियं आमंतेइ, हनयानानि तेषु प्रतोदयष्टीः प्रतोदधरान्-शकटवाहकांश्च स्थापयति । 'आडहित्ता' आहृत्य, 'वट्टमग्गं' वर्तमार्गम्=शकटादिगम्यमार्ग-राजमार्ग 'गाहेइ' ग्राहयति, ग्राहयित्वा यत्रैव बलव्यापृतस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य 'बलबाउयम्स एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ' बलव्यापृताय एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयति आज्ञा सम्पाद्य पश्चान्निवेदयतीत्यर्थः ॥ सू०४४ ॥ टीका–'तए थे' इत्यादि । 'तए ण से बलवाउए' ततः खलु स बलव्यापृतो उन यानों में हांकने की चाबुकों एवं हांकने वालों को एक ही साथ स्थापित कर दिया, (आडहित्ता) चाबुक लेकर हांकने वाले जब अच्छी तरह उन यानों पर जमकर बैठ चुके तब (वट्टमग्गं गाहेइ) उसने उन यानों को राजमार्ग पर उपस्थित किये । (गाहित्ता नेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ) उन्हें राजमार्ग पर उपस्थित कर फिर वह यानशालाधिकारी जहां सेनापति थे वहां पहुंचा । (उवागच्छित्ता बलबाउयस्स एयमाणत्तियं पञ्चप्पिगइ) पहुँचकर उसने कहा कि हे स्वामिन् ! आपके आज्ञानुसार सभी यान तैयार हैं । सू० ४४ ॥ 'तए णं से बलबाउए' इत्यादि । (तरणं) इसके बाद (से बल पाउर) उस सेनापतिने (गयागुत्तिय) नगर की रक्षा पओयधरए य समं आडहइ) तेथे ते यानामा पानी यामुळे तेभर iपापाजाने ४ ४ साथे स्थापित ४री हीधा. ( आडहित्ता) यामु४ साधने isपापा न्यारे सारी ते ते यान। ५२ मेसी युध्या त्यारे (वट्टमग्गं गाहेइ) तेथे ते यानाने २००४ मा ५२ ४२ ४ा, (गाहित्ता जेणेव बलवाउए तेणेव उवा છ) તેમને રાજમાર્ગ પર હાજર કરીને પછી તે યાનશાળાધિકારી સેનાपतिनी पासे पांय. ( उवागच्छित्ता बलवाउयस्स एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणइ) પહોંચીને તેણે કહ્યું કે હે સ્વામિન ! આપની આજ્ઞા પ્રમાણે બધાં યાન તૈયાર छ. (सू० ४४) "णं से बलवाउए" त्याहि. - (तए ) त्या२ पछी (से बलवाउए) ते सेनापति (णयरगुत्तिय) नारनी Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणिगो-टीका सु. ४५ बलव्यापृतस्य नगररक्षकं प्रत्यादेशः ३८३ आमंतित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चंपंणयरिं सभितरबाहिरियं आसित्त जाव कारवेत्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ॥ सू० ४५॥ 'णयरगुत्तियं नगरगुत्तिकं नगरगोप्तारम् 'आमंतेइ' आमन्त्रयति=आह्वयति,-'आमंतित्ता ' एवं वयासी' आमन्त्र्यैवमवादीत् 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया' शिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! 'चंपं णयरिं' चम्पां नगरी 'सभितरबाहिरियं ' साभ्यन्तरबाद्याम् 'आसित्त जाव कारवेत्ता' आसिक्तशुचिनमृष्टरथ्यान्तरापणवीथिकां यावद्गन्धवर्तिभूतां कुरु, कारय, कृत्वा, कारयित्वा 'एयमाणत्तिय' एतामाज्ञप्तिकां 'पञ्चप्पिणाहिं' प्रत्यर्पय ॥ सू०४५ ॥ करनेवाले कोटवाल को (आमंतेइ) बुलाया,और (आमंतित्ता) बुलाकर (एवं वयासी) इस प्रकार कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया) हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही (चंपं गयरिं) इस चंपा नगरी की (सभितरबाहिरियं) भीतर बाहिर से सफाई कराओ। पानी से इसमें छिड़काव कराओ। जगह २ इसे पानी से धुलवाओ। कहीं भी कूडा-करकट का नाम न मिले, इस तरह से इसकी सफाई हो जानी चाहिये । प्रत्येक गली एवं बाजारों के मार्ग सब बहुत ही अच्छी तरह से साफसूफ किये जायें। जगह २ सुगंधित जल का, गोरोचन का एवं सरस लाल चंदन का छिड़काव हो, जिससे यह नगरी सुगंधित द्रव्य जैसी बन जावे। तुम से यही कहना है, जाओ और इस आदेश की शीघ्र से शीघ्र पूर्ति करो और उन कामों को पूरा कर के मुझे शीघ्र सूचित करो ॥ सू० ४५॥ २क्षा ४२११७ टपालने (आमतेइ) मसाल्या. अने (आमंतित्ता) मातापीने (एवं वयासी) । प्रशारे . (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ) 3 वानुप्रिय ! तभे सहीथी (चंपं णयरिं) मा यानाशनी (सभितरबाहिरिय) २ तथा બહારથી સફાઈ કરાવે, તેમાં પાણીને છંટકાવ કરાવે, ઠેક-ઠેકાણે તેને પાણીથી ધવરાવો. ક્યાંય પણ કૂડાકરકટનું નામ ન રહે એમ તેની સફાઈ થવી જોઈએ. પ્રત્યેક ગલી તેમજ બજારના. રસ્તા ખૂબ જ સારી રીતે સાફસૂફ કરવા. ઠેકઠેકાણે સુગંધિત જલને, ગશીર્ષ–સુખડને તેમજ સરસ રકત ચંદનને છંટકાવ હોય, જેથી આ નગરી સુગંધિત ચીજ જેવી બની જાય. તમને એજ કહેવાનું છે. જાઓ અને આદેશને જલદી પૂર્ણ કરે અને તે કામ પૂરાં કરીને મને જલદી ખબર કરે. (સૂ) ૮૫) Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ औपचाक्षिकसत्रे मूलम्--तए णं से णयरगुत्तिए बलवाउयस्स एयमद्वं (सोना) आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता चंपं गरि सभितरबाहिरियं आसित्त जाव कारवेत्ता जेणेव टीका–'तए णं' इत्यादि। 'तए णं से णयरगुत्तिए' ततः खलु स नगरगुप्तिको 'बलवाउयस्स एयमहें' बलयापृतस्यैतमर्थ 'सोचा' श्रुत्वा 'आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ'. आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिशृणोति, 'पडिसुणित्ता चंपं गयरिं सभितरबाहिरियं आसित्त जाव कारवेत्ता' प्रतिश्रुत्य चम्पां नगरी साभ्यन्तरबाह्यामासिच्य यावत् कारयित्वा 'जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव बलव्यापृतस्त 'तए णं से णयरगुत्तिए' इत्यादि । " (तए णं) इसके बाद ( से णयरगुत्तिए) उस नगररक्षक कोटवालने (बलवाउयस्स) सेनापति के ( एयमहें) नगर की सफाई कराने के आदेश को ( सोच्चा) सुनकर (आणाए वयणं विणएणं) आज्ञा के वचन को बड़े विनय के साथ (पडिमुणेइ) स्वीकार किया। (पडिसुणित्ता चंपं णयरिं सभितरवाहिरियं) स्वीकार करने बाद ही उसने चंपानगरी के भीतर बाहिर सब तरफ से ( आसित्त जाव कारवेत्ता) सफायी करवा दी। पहिले उसने उसे सब जगह पानी के छिड़काव से सिंचवाया। गली-कूचों में जो कूड़ा-करकट पड़ा हुआ था उसकी सफाई करवाई। बाजारों के रास्तों को तथा नालियों को अच्छी तरह से झाड़-पोछकर साफ करवाया, मतलब यह कि सफाई में किसी भी तरह की त्रुटि नहीं रखी। जब नगरी अच्छी तरह भीतर-बाहिर से साफ हो " तए णं से णयरगुत्तिए" पत्यादि. (तए ण) त्यार पछी (से णयरगुत्तिए) ते ना२२६४ 24ta (बलवाउयस्स) सेनापतिना (एयम8) नगरनी स॥ ४२१वान। माहेशने (सोच्चा) सीने (आणाए वयण विणएण) मांज्ञाना. यनाने सविनयपूर्व ४ (पडिसुणेई) स्वी ४२. ४ो, (पडिसुणित्ता चंप णयरिं सभितरबाहिरिय) स्वी४.२ ४ा पछी ४ तेणे यपानगरानी मह२ मने महा२ मधी त२३थी (आसित्त जाव कारवेत्ता) संश કરાવી લીધી. પહેલાં તેણે તેમાં બધી જગાએ પાણીનો છંટકાવ કરાવ્યા, ગલીગુંચીમાં જે કચરે પૂજે પડયે હતું તેની સફાઈ કરાવી. બજા-- રેના રસ્તા સારી રીતે વાળઝુડ કરી સાફ કરાવ્યા. મતલબ એ કે સફાઈમાં કેઈપણ પ્રકારની ત્રુટિ રાખી નહિ. જ્યારે નગરી સારી રીતે અંદર અને Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ पीयूषवर्षिणी- टीका सु. ४७ बलव्यापृतस्य कूणिकं प्रतिनिवेदनम् बलवाउए तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पि इ || सू० ४६ ॥ मूलम् — तर णं से बलवाउए कोणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पियं पासइ, हय-गयत्रैवोपागच्छति ' उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणइ ' उपागत्य एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयति । सू० ४६ ॥ टीका- 'तए णं ' इत्यादि । ' तए णं से बलवाडए 9 ततः खलु स बलव्यापृतः ‘कोणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स' कूणिकस्य राज्ञो भंभसारपुत्रस्य 'आभिसेक्कं हत्थरयणं पडिकप्पियं ' आभिषेक्यं हस्तिरत्नं परिकल्पितं “ पासइ ' पश्यति, ' हयगय जाव सण्णाहियै ' हय- गज-यावत् संनाहितां 'पास' पश्यति, अत्र यावच्छब्देन , J चुकी तब फिर वह कोटवाल ( जेणेव बळवाउए तेणेव उवागच्छइ ) जहाँ सेनापति था वहाँ पर पहुँचा । पहुँच कर उसने नगरी साफ हो चुकी है इस बात की उसे खबर दी || सू० ४६॥ , तए णं से बलवाउए ' इत्यादि । (तए णं ) इसके बाद ( से बलवाउए ) उस सेनापतिने (भंभसारपुत्तस्स) भंभसार अर्थात् श्रेणिक के पुत्र ( कोणियम्स रण्णो ) कूणिक राजा के ( आभिसेक ) अभिषिक्त-पट्ट ( हत्थिरयणं ) हस्तिरत्नको (पडिकप्पियं) अच्छी तरह से शृंगारित किया हुआ (पास) देखा । ( हयगय जाव सण्णाहियं पासइ ) तथा - हय - गज आदि से युक्त चतुरंगिणी सेना को भी सन्नद्ध देखा । ( सुभद्दापमुहाणं देवीणं महारथी साई थर्ध त्यारे वजी ते अटवास ( जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ) જ્યાં સેનાપતિ હતા ત્યાં પહેાંચ્યા અને પહેાંચીને તેણે નગરી સાફ થઈ ગઈ छे, मे वातनी तेने अमर हीधी. (सू० ४६) 6 तए णं से बलवाउए' इत्याहि. (तए णं) त्यारपछी [ से बलवाउए] ते सेनापति [भसारपुत्तस्स ] ललसार अर्थात् श्रेणिउना पुत्र (कोणियस्स रण्णो ) डि रामना [ आभिसेकं] मालिषेऽयभट्ट (हत्थरयणं) हाथीरत्नने (पडिकप्पियं) सारी रीते शत्रुगारे ( पासइ) लेये. ( हयगय जाव सण्णाहियं पासइ) तथा-हुय ग આદિથી યુકત ચતુરગિણી Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे जाव-सण्णाहियं पासइ, सुभदापमुहाणं देवीणं पडिजाणाई उवट्ठवियाइं पासइ, चंपं णयरिं सभितर जाव गंधवहिभूयं कयं पासइ, पासित्ता हतुट्टचित्तमाणंदिए पीयमणे जाव हियए जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता 'रथ-प्रवरयोध-कलितां च चतुरङ्गिणी सेनाम्' इति दृश्यम् , 'सुभद्दापमुहाणं देवीणं' सुभद्राप्रमुखाणा-सुभद्रादीनां देवीनां 'पडिजाणाई उवट्ठवियाई' प्रतियानानि-शकटानि उपस्थापितानि पासइ' पश्यति, 'चंपं णयरिं सभितर जाव गंधवट्टिभूयं कयं पासइ' चम्पां नगरी साऽभ्यन्तरां यावद् गन्धवर्तिभूतां कृतां पश्यति, दृष्ट्वा · हट्ठ-तु-चित्तमाणदिए ' हृष्टतुष्टचित्ताऽऽनन्दितः 'पीयमणे जाव हियए' प्रीतमना यावद् हृदयो 'जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते' यत्रैव कूणिको राजा भंभसारपुत्रः, 'तेणेव उवागच्छइ ' तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'करयल जाव एवं वयासी' पडिजाणाइं उवट्ठवियाई पासइ) सुभद्राप्रमुख देवियों के लिये आये हुए रथों को भी देखा। (चंपं णयरिं सभितर ज़ाब गंधवट्टिभूयं कयं पासइ) और यह भी देखा कि चंपानगरी भीतर बाहिर से अच्छी तरह से स्वच्छ हो चुकी है, एवं उससे सुगंधि की महक उठ रही है । (पासित्ता हट्ठ-तुट्ठ-चित्त-माणदिए पीयमणे जाव हियए जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ) यह सब देखकर वह बहुत ही खुश हुआ हर्ष के मारे वह फूला नहीं समाया । प्रसन्न मन होकर वह शीघ्र ही जहां श्रेणिक के पुत्र कूणिक राजा थे वहां पहुँचा । (उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी) पहुँचकर उसने सर्वप्रथम राजा को दो हाथ जोडकर प्रणाम किया और सेनाने ५५ पासे ले. (सुभद्दापमुहाणं देवीणं पडिजाणाई उवद्ववियाई पासइ) सुभद्राप्रभुभ वासाने माटे आवेता रथाने ५५ लेया. (चंप णयरिं सभितर जाव गंधवट्टिभूयं कयं पासइ) अने ये पायु , पानगरी અંદર અને બહારથી સારી રીતે સ્વચ્છ થઈ ગઈ છે, તેમજ તેમાંથી સુગંધીની म यादी २ड़ी छ. (पासित्ता हट्ठ-तुट्ठ-चित्त-माणदिए पीयमणे जाव हियए जेणेव कूणिए राया भभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ) मा मधुमेधने ते मई २४ ખુશ થય અને અત્યંત હર્ષિત થઈ ગયે. મન પ્રસન્ન થવાથી તુરત જ rयां श्रेणिना पुत्र लि४ २० ता त्या पडक्या. (वागच्छित्ता करयल जाव Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ४७ बलव्यापृतस्य कूणिकं प्रतिनिवेदनम् ३८७ करयल जाव एवं वयासी - कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसेक्के हस्थिरयणे, हय-गय- जाव-पवर जोह - कलिया य चाउरंगिणी सेणा सण्णाहिया, सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहिरियाए उवद्वाणसालाए पाडियक्कपाडियक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणाई उवहावियाई, " , करतल यावदेवम् अवादीत् - ' कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसेक्के हत्थरयणे ' कल्पितं खलु देवानुप्रियाणामाभिषेक्यं हस्तिरत्नम् ' हयगयरहपवरजोहकलिया य हयगजरथप्रवरयोधकलिता च ' चाउरंगिणी सेणा सण्णाहिया ' चतुरङ्गिणी सेना सन्नाहिता, सुभदापमुहाण य देवीणं ' सुभद्राप्रमुखानां च देवीनां ' बाहिरियाए उट्ठाणसाला ए बाह्यायामुपस्थानशालायां ' पाडियक्कपाडियक्काई ' प्रत्येकं प्रत्येकं ' जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणारं उट्ठावियाई ' यात्राभिमुखानि युक्तानि यानानि उपस्थापितानि, फिर इस प्रकार कहने लगा कि ( कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसेके हस्थिरयणे ) हे देवानुप्रिय ! आपका आभिषेक्य हस्तिरत्न शृंगारित हो चुका है । ( हय-गय-रहपबरजोह - कलिया य चाउरंगिणी सेणा सण्णाहिया) घोड़े, हाथी, रथ एवं सुभटों से युक्त चतुरंगिणी सेना भी सजा - बजाकर तैयार की जा चुकी है । ( सुभद्दापमुहाण य hari बाहिरिया उवद्वाणसालाए पाडियक्कपाडियक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई उट्टावियाई सुभद्राप्रमुख देवियों के भी बाहिर की उपस्थानशाला में अलग २ बैठने के लिये, यात्रा के योग्य एवं अच्छे २ बैला से युक्त ऐसे रथ लाकर उपस्थित कर दिये 4 एवं वयासी) पोथीने तेथे सर्वथी पडेसां रामने भन्ने हाथ लेडी प्रशाभ ऊर्जा भने पछी ते मा अमरे हेवा साग्यो ! ( कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसेक्के हत्थरयणे) हे हेवानुप्रिय ! आपनो खलिषेश्य हाथीरत्न शाशुगाराई गयो छे. (हय-गय-रह - पवरजोह - कलिया य चाउरंगिणी सेणा सण्णाहिया) घोडा, हाथी, रथ तेभन सुलटोथी युक्त यतुरंगिली सेना याशु थर्ध गह छे. (सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहिरियाए उबट्ठाणसालाए पाडियक्कपाडियक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणाई उवट्ठावियाई) सुभद्राप्रभुख દેવીઆને માટે પણ અહારની ઉપસ્થાનશાલામાં અલગ અલગ બેસવાને સારૂ, યાત્રાને ચેાગ્ય તેમજ સારા સારા બળદથી યુક્ત એવા રથ લઈ આવી हा√२ राजेसा छे. ( चंपा णयरी सब्भितरबाहिरिया आसित्त- जाव - गंधबट्टिभूया कया) સજ્જ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकबत्रे चंपा णयरी सभितरबाहिरिया आसित्त जाव गंधवटिभूया कया, तं णिजंतु णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं अभिवंदिउं ॥सू० ४७॥ मूलम्-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते बल'चंपा णयरी सभितरबाहिरिया' चम्पा नगरी साऽभ्यन्तरबाह्या 'आसित्त जाव गंधवष्टिभूया कया' आसिक्त यावद् गन्धवर्तिभूता कृता, 'तं णिज्जंतु णं देवाणुप्यिा' तन्निर्यान्तु खलु देवानुप्रियाः ! 'समणं भगवं महावीरं अभिवंदिउं' भगवन्तं महावीरमभिवन्दितुम् ॥ सू० ४७॥ टीका-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः सेनापतिनिवेदनानन्तरं खलु ‘से कूणिए राया भंभसारपुत्ते ' स कूणिको गजा भंभसारपुत्रः 'बलवाउयस्स अंतिए' बलव्यापृतस्याऽन्तिके बलव्यापृतमुखात् 'एयमट्ट' एतमर्थ-'भवदाज्ञानुसारेण सर्व सम्पाहैं। (चंपा णयरी सभितरवाहिरिया आसित्त जाव गंधवट्टिभूया कया) तथा चंपानगरी भी भीतर बाहिर से अच्छी तरह झड़वाकर साफ करा दी गई है। उसमें जल भी छिड़कवा दिया गया है, यावत् वह सुगंधित द्रव्य जैसी बन चुकी है; (तं देवाणुप्पिया) अतः हे देवानुप्रिय ! ( समण भगवं महावीरं अभिवंदिउं णिज्जंतु ) अब आप श्रमण भगवान् महावीर को वंदना करने के लिये पधारें ॥ मू० ४७ ॥ 'तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते इत्यादि । (तए णं) इसके बाद (भंभसारपुत्ते से कूगिए राया) भंभसार अर्थात् श्रेणिक के पुत्र कूणिक राजा (बलवाउयस्स) सेनापति के मुख से ( एयमद्रं सोचा ) हाथी आदि की તથા ચંપાનગરી પણ અંદર-બહારથી સારી રીતે વાળીઝૂડી સાફ કરાવી દીધી છે. તેમાં પાણી પણ છંટાવ્યું છે. જેથી તે સુગંધિત દ્રવ્ય જેવી બની ७ छे. (तं देवाणुप्पिया) माटे देवानुप्रिय ! (समण भगवं महावीरं अभिवंदिउ णिज्जंतु) वे २५ श्रम लापान महावीरने बहना ४२१। सा३ पधारे. (सू. ४७) 'तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते' त्यादि. (तए णं) त्या२ पछी (भभसारपुत्ते से कूणिए.र.या) समसार मर्यात श्रेलिना पुत्र ४ि २०n (बलवाउयस्स) सेनापतिना भुमयी [एयमढे सोच्चा] साथी Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोवृषवर्षिणी टीका सु. ४८ कूणिकम्य व्यायामादिविधि: वाउयस्स अंतिए एयम सोचा णिसम्म हतुझ जाव हियए जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्सा अहणसालं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अणेग-वायाम-जोग्ग-वग्गण-वामहणमल्लजुद्ध-करणेहिं संते परिस्संते सयपागसहस्सपागेहिं सुगंधदितम्'-एतद्रूषां वार्ता 'सोचा' श्रुत्वा ‘णिसम्म ' निशम्य-हृदि धृत्वा, 'हट्ट-तुटु जाव हियए' हृष्ट--तुष्ट-यावद्धृदयः- परमप्रसन्नमानसः सन् 'जेणेव' यत्रैव 'अट्टणसाला' अट्टनशाला-व्यायामशाला 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैवोपागच्छति, “उवागच्छित्ता' उपागत्य 'अट्टणसालं अणुप्पविसइ' अट्टनशालामनुप्रविशति, 'अणुप्पविसित्ता' अनुप्रविश्य 'अणेग-वायाम-जोग्ग-बग्गण-वामद्दण-मल्लजुद्ध करणेहिं' अनेकव्यायाम-योग्य-वल्गन-व्यामर्दन-मल्लयुद्ध -करणैः-अनेके ये व्यायामाः-शारीरिकपरिश्रमाः तद्योग्यं तदनुकूलं, वल्गनं कूर्दनं, व्यामर्दनं परस्परबाह्याद्यङ्गमोटनं, मल्लयुद्धं-मल्लक्रीडनम्, करणानि मुद्गरादिचालनानि तैः सर्वैः ‘संते' श्रान्तः-सामान्यतः, 'परिस्संते' पूरी तैयारी के समाचार को सुनकर (णिसम्म) एवं अच्छी तरह से विचार कर (हट-तुट्ठजाव-हियए) अपने मनमें बहुत ही अधिक हर्षित हुए एवं संतुष्ट हुए। (जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ) पश्चात् वे जहा व्यायामशाला थी वहाँ पर पहुँचे । ( उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसइ) पहुँचते ही वे उसमें प्रविष्ट हुए । (अणुपविसित्ता अणेग-वायाम-जोग्ग-वग्गण-वामद्दण मल्लजुद्ध-करणेहिं संते परिस्संते) प्रविष्ट होकर उन्होंने वहां पर अनेक प्रकार का व्यायाम-शारीरिक परिश्रम किया, शारीरिक परिश्रम के योग्य दौड़ना-कूदना प्रारंभ किया। अपने अंग उपांगोंका अच्छी तरह से मर्दन माहिना पुरेश तयारीना सभायारने सामनीन (णिसम्म ) तभक सारी शते विया२ ४रीने (ह?--तुट्ठ-जाव-हियाए) पोताना मनमा गहु ति या, तेम०४ संतुष्ट थया. (जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ) पछी ते ज्यां व्यायामशा ती त्यां पडल्या. (उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसइ) ५iयतin ते तेभा होमस थया. (अणुपवि सित्ता अणेग-वायाम-जोग्ग-वग्गण-वामहण-मल्लजुद्ध-करणेहिं संते परिस्संते) मस धने तेभणे त्यां मने ४२न। વ્યાયામ-શારીરિક કસરત કરી. શારીરિક પરિશ્રમને યોગ્ય દેડવા-કૂદવાને પ્રારંભ કર્યો. પિતાનાં અંગ-ઉપાંગોને આમ તેમ વાળ્યાં. મલ્લોની સાથે કુસ્તી કરી. ત્યાં રાખવામાં આવેલ મુદગર ફેરવ્યાં. આ ક્રિયાઓથી તેઓ પહેલાં Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० औपपातिकसूत्र तेलमाइएहिं पीणणिजेहिं दप्पणिजेहिं मयणिजेहिं बिहणिज्जेहिं सबिंदियगायपल्हायणिजेहिं अभिगेहिं अभिगिए परिश्रान्तः-अङ्गप्रत्यङ्गापेक्षया, 'सयपाग-सहस्सपागेहिं ' शतपाकसहस्रपाकैः, शतकृत्वः षाको येषु ते शतपाकाः, शतसंख्यकौषधिमिश्रणेन वा पाको येषु ते, शतकार्षापणमूल्यकद्रव्यमिश्रणेन वा पाको येषु ते शतपाकास्तैलविशेषाः, एवं सहस्रपाका अपि, ततस्तयो द्वन्द्वः, तैस्तैलविशेषैः, सुगन्धितैलादिकैः ‘पीणणिज्जेहिं ' प्रीणनीयैः-रसरुधिरादिधातुसुखप्रदैः, 'दप्पणिज्जेहिं' दर्पणीयैः=बलवर्द्धकैः, 'मयणिज्जेहिं' मदनीयैः कामवर्द्धकैः, 'बिहणिजेहिं बृहणीयैः-मांसोपचयकारिभिः, 'सव्विदिय-गाय-पल्हायणिज्जेहिं ' सर्वेन्द्रिय-गात्र-प्रह्लादनीयैः, सर्वेषाम् इन्द्रियाणाम् , गात्राणां प्रह्लादनीयैः--प्रह्लादजनकैः, किया । मल्लों के साथ कुश्तो लडी। वहां पर रखे हुए मुद्गरों को भी फिराया । इन क्रियाओं से वह पहिले साधारण श्रान्त हुए एवं बाद में अधिक परिश्रान्त हुए । इस तरह जब अच्छी रीति से वे खूब व्यायाम कर चुके तब (सयपागसहस्सपागेहिं) उन्हों ने शत *पाकवाले एवं सहस्रपाकवाले तैलों से (पीणणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं) जो तेल प्रीणनीय-रस-रुधिर आदिवर्धक एवं दर्पणीय-बलवर्द्धक होते हैं, ( मयणिज्जेहि ) कामवर्द्धक होते हैं, (बिहणिज्जेहिं) बृहणीय-मांसबढानेवाले होते हैं, ( सव्विंदिय-गाय-पल्हायणिजेहिं) समस्त इन्द्रिय एवं समस्त शरीर को आनन्द देनेवाले होते हैं ऐसे तेलों से तथा (अभिगेहिं) * सौ वार पकाये गये, अथवा सौ प्रकार की औषधियों को मिश्रित कर पकाये गये, अथवा सौ रुपये मूल्यवाली औषधियों को गलाकर पकाये गये ऐसे तैलों से। इसी प्रकार सहस्रपाक में भी समझना चाहिये। સાધારણ થાક્યા, તેમજ ત્યાર પછી વધારે થાક લાગે. આવી રીતે જ્યારે म ४सरत ४३ सीधी त्यारे (सयपागसहस्सपागेहिं) तभणे शत॥४i तभ०४ सहसपा४i atथी ते (पीगणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं) श्री नीय२४ ३धि२ माहि १४ तम वर्षीय- ४ डोय छ, (मयणिज्जेहिं) म१५४ डोय छ, (बिंहणिज्जेहिं) मणीय-भांसवध डोय छे, (सव्विदिय-गाय-पल्हायणिज्जेहिं) समस्त द्रियो तभ०४ समस्त शरीरने सान [૧] સવાર પકાવેલું અથવા સ પ્રકારની ઓષધીઓથી મિશ્રિત કરી પકાવેલું અથવા સો રૂપિયાની કિંમતની ઓષધીઓને ગાળીને પકાવેલ એવાં તેલો. આજ રીતે સહઅપાકમાં પણ સમજવું જોઈએ. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका स. ४८ कूणिकस्य व्यायामादिविधिः समाणे तेलचम्मंसि पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुउमाल-कोमल-तलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पट्टेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउण'अभिगेहिं ' अभ्यङ्गैः-स्नेहनैः ‘अभिगिए समाणे ' अभ्यङ्गितः-कृताभ्यङ्गः सन् 'तेलचम्मंसि' तैलचर्मणा, अत्र तृतीयार्थे सप्तमी; तैलानुलिप्तशरीरस्य मर्दनसाधनरूपं चर्म 'तैलचर्म' इत्युच्यते; 'संवाहिए समाणे' संवाहितः सन्-इत्युत्तरेण अन्वयः; कैः संवाहित इत्याह-पुरिसेहिं पुरुषैः-अङ्गसंवाहननियुक्तभृत्यैः, तैः कीदृशैरित्याह'पडिपुण्ण-पाणिपाय-सुउमाल-कोमल-तले हिं' प्रतिपूर्ण-पाणिपाद-सुकुमार-कोमलतलै:--प्रतिपूर्णानाम् अविकलाना, पाणिपादानां सुकुमारकोमलानि-अतिमृदुलानि तलानि येषां ते तथा तैः, ‘छेएहिं ' छेकैः मर्दनकलानिपुणैः, 'दक्खेहिं ' दक्षः अविलम्बितकारिभिः, मर्दनकार्येऽप्रेसरैः, 'पढेहिं' प्रष्ठैः, 'कुसले हिं' कुशलैः=मर्दनविधिज्ञैः, 'मेहावी हिं' मेधाविभिः-प्रतिभाशालिभिः, निउण-सिप्पो-वगएहिं ' निपुणशिल्पोपगतैः, उवटनों से (अभिगिए समाणे) शरीर की खूब मालिश करवाई । *(तेलचम्मंसि) तैलचर्मसे मालिस करनेवाले (पुरिसेहिं) पुरुषों ने कि जिनके (पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुउमाल-तलेहिं) हाथ और पैर के तलबे अधिक सुकुमार थे, (छेएहिं) मर्दन करनेकी कला में जो अधिक निपुण थे, (दक्खेहिं ) इसीलिये जो इस कला के जाननेवालों में सर्वप्रथम गिने जाते थे, (पढेहिं) मर्दन करने की विधि क्या है और किस ढंग से किस समय कैसा मर्दन करना चाहिये-इत्यादि बातों में जो विशेष पटु थे, (मेहावीहिं) नवीन २ रीति से ___* यहां तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति हुई है, तैल से चिकने हुए शरीर को मर्दन करने का साधनरूप चर्म तैलचर्म कहलाता है। पापाजां डाय छ, सेवा तेथी, तथा (अभिगेहिं) Gटनोथी ( अभिगिए समाणे) शा२नी भू मालिश ४२रावी. (तेलचम्मंसि) तेसयमयी मालिश ४२वा (पुरिसेहिं) ५३षो सेरेना (पडिपुण्ण-पाणि-पाय-सुउमाल-तलेहिं) डाथ तथा पानi dui मई सुभा२ मा तi, (छेएहिं) भईन ४२पानी ४ामा २ मा निपु ता, (दक्खेहि) माथी २ ॥ ४ाना १५२मां सर्वप्रथम साता ता, ( पटेहिं ) भहन ४२वानी विधि छ भने वी રીતે કેવા સમયે કેમ મદન કરવું જોઈએ-ઈત્યાદિ વાતમાં જે વિશેષ 3 &al, (मेहावीहिं) नवी नवी रीत २ भई ४२वानी ४ाना मावि [૨] અહીં તૃતીયાના અર્થમાં સપ્તમી વિભક્તિ થઈ છે. તેલથી ચીકણાં થયેલ શરીરને મર્દન કરવાનું સાધનરૂપ ચર્મ તેલચમ કહેવાય છે. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे सिप्पो-वगएहिं अभिगण-परिमदणु-व्वलण-करणगुण-णिम्मा एहि अहिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए चउव्विहाए निपुणानि सूक्ष्माणि यानि शिल्पानि अङ्गमर्दनादीनि तान्युपगतानि-अधिगतानि यैस्ते तथा तैः, अङ्गमर्दनक्रियाज्ञानसम्पन्नैरित्यर्थः । 'अभिगण-परिमहणु-बलण-करण-गुण-णिम्माएहि'अभ्यञ्जन-परिमईनो-द्वलन-करण-गुण-निर्मातृभिः-अभ्यञ्जनम् अभ्यङ्गः-तैलमर्दनम् ,परिमर्द नम् अङ्गसंवाहनम् , उद्वलनम् =उद्वर्तनम् तेषां करणे ये गुणाः शरीरस्वास्थ्यकान्तितुष्टिपुष्टिस्फू ादिरूपाः, तेषां निर्मातृभिः विधायकैः, कया संवाहितः ? इत्यत्राऽऽह-'अद्विसुहाए' अस्थिसुखया अस्थिसुखकारिण्या, 'मंसमुहाए' मांससुखया-मांससुखकारिण्या, 'तयासुहाए' त्वक्सुखया, 'रोमसुहाए' रोमसुखया, 'चउचिहाए' चतुर्विधया, 'संवाहणाए' जो मर्दन करने की कला के आविष्कारक थे, (निउण-सिप्पो-वगएहि ) सूक्ष्म से सूक्ष्म भी अंगमर्दन आदि क्रियाओं के जो पूर्णरूप से ज्ञाता थे, अथवा जिन्होंने इस क्रिया को निपुण कलाचार्य से सीखा था। (अभिगण-परिमदणु-बलण-करण-गुण-निम्माएहि) अभ्यंगन-तेलमर्दन, परिमर्दन-अंग के वाहन एवं उद्वलन-उवटन करने से जो शरीरस्वास्थ्य, कान्ति, तुष्टि-पुष्टि तथा हर एक कार्य में स्फूर्ति आदि गुण होते हैं, उन गुणों को वे अपने अभ्यङ्गन आदि कला के द्वारा प्रत्यक्ष कर देते थे। इनलोगों ने राजा का किस प्रकार से संवाहन किया सो कहते हैं-(अडिसुहाए) हड्डियों में सुखकारी (मंससुहाए) मांस में सुखकारी (तयासुहाए) चमड़ी में सुखकारी (रोमसुहाए) रोम २ में सुखकारी, इस प्रकार अस्थिसुखजनक, मांससुखजनक, चर्मसुखजनक एवं रोमसुख जनक रूप से (चउबिहाए) चार प्रकार की (संवाहणाए ) मालिश क्रिया से ( संवाहिए समाणे) ०४।२४ ता, (निउण-सिप्पो-वगएहिं ) सूक्ष्भमा सूक्ष्म पर अमन माहि ક્રિયાઓના જે સંપૂર્ણ જ્ઞાતા હતા, અથવા જેઓ આ ક્રિયાઓ નિપુણ ४सायार्थ पासेथी शीमेसा हुता, (अभिगण-परिमद्दणु-व्वलण-करण-गुणनिम्माएहिं) सत्यागन-तसमहन, परिमन-गनु सवाईन तभ० वसन-54ટન કરવાથી જે શરીરસ્વાચ્ય, કાંતિ, સુષ્ટિ–પુષ્ટિ તથા હરેક કાર્યમાં સંસ્કૃતિ આદિ ગુણ હોય છે તે ગુણેને તેઓ પોતાના અભંગન આદિ કલાઓ દ્વારા પ્રત્યક્ષ કરી દેતા હતા. તે લોકોએ રાજાનું કેવા પ્રકારે સંવાહન કર્યું ते ४ छ-(अद्विसुहाए) ii सुभारी (मंससुहाए) मांसभा सुमारी (तयासुहाए) यामडीमा सुभारी (रोमसुहाए) रोम रोममा सुपारी, मे રીતે અસ્થિસુખજનક, માંસ સુખજનક, ચર્મસુખજનક તેમજ રેમસુખ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोषवर्षिणो-टीका सू. ४८ कूणिकम्य स्नानविधानम् संवाहणाए संवाहिए समाणे अवगय-खेय-परिस्समे अट्टणसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता समुत्त-जाला-उला-भिरामे विचित्तमणि-रयणसेवाहनया मर्दनेन 'संवाहिए समाणे' संवाहितो=मर्दितः सन् , 'अवगय-खेय-परिस्समे' अपगत-खेद-परिश्रमः समपनीतखेदपरिश्रमः, 'अट्टणसालाओ' अट्टनशालातः व्यायामशालातः 'पडिनिक्खमइ' प्रतिनिष्क्रामति, 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिक्रम्य, 'जेणेव मजणघरं तेणेव उवागच्छइ यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य, 'मजणघरं अणुपविसइ' मज्जनगृहमनुप्रविशति, 'अणुपविसित्ता' अनुप्रविश्य 'समुत्त-जाला-उला-भिरामे' समुक्त-जाला-ऽऽकुला-ऽभिरामे-समुक्तजालेन-मुक्तासहितेन जालेन गवाक्षेण आकुलो-व्याप्तः, अतएव अभिरामः-सुन्दरस्तस्मिन् , 'विचित्त-मणि-रयण-कुहिम-तले' विचित्र-मणि-रत्न-कुट्टिम-तले-विचित्रमणिरसजा की खूब मालिश की । जब राजा की अच्छी तरह से मालिश हो चुकी तब वे (अवगय-खेय-परिस्समे) परिश्रम एवं खेद से रहित हो ( अट्टणसालाओ) उस व्यायामशाला से (पडिणिक्खमइ) बाहर निकले, (पडिणिक्खमित्ता) निकल कर (जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ ) जहां स्नान घर था वहाँ पहुँचे । (उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ) पहुँच कर स्नानघर में प्रविष्ट हुए । ( अणुपविसित्ता) वहाँ प्रविष्ट होकर (समुत्त-जाला-उला-भिरामे ) मोतियों की लड़ियों वाले गोखलों से युक्त होने के कारण अति सुन्दर (विचित्त-मणिरयण-कुट्टिम-तले) तथा विविध मणियों से जटित नापी (चउव्विहाए) यार प्रा२नी (संवाहणाए) मालिशथी (संवाहिए समाणे) રાજાની ખૂબ માલિશ કરી. જ્યારે રાજાની સારી રીતે માલિશ થઈ રહી त्यारे तसा (अवगय-खेय-परिस्समे) परिश्रम तभ मेथी भुत २७ (अट्टणसालाओ) ते व्यायामशालामांथा (पडिणिक्खमइ) मा२ नाsvel. (पडिणिक्खमित्ता) नीजीने (जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ) ज्यां स्नानघर तु त्यां पाया. (उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ) पडयाने स्नानघरमा ave यया. (अणुपविसित्ता) तभi मस धने (समुत्त-जाला-उला-भिरामे) मोतियानी सटिवाणा गोसायोथी युत डोवाना ॥२णे अतिसु२, (विचित्त Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ औपपातिकसूत्रे कुटिमयले रमणिजे पहाणमंडवंसि णाणा-मणि-रयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीढंसि सुहणिसण्णे सुद्धोदएहिं गंधोदएहिं पुष्फो. दएहिं सुहोदएहिं पुणो पुणो कल्लाणग-पवर-मजण-विहीए मजिए, तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहि कल्लाणग-पवर-मजणानैः खचितं कुट्टिमतलं भूभागो यस्य स तथा तस्मिन् , 'रमणिज्जे' रमणीये-मनोहरे, 'हाणमंडवंसि' स्नानमण्डपे, 'णाणा-मणि-रयण-भत्ति-चित्तंसि' नाना-मणि-रत्नभक्ति-चित्रे=विविध-मणि-रत्न-रचनाविचित्रे, 'हाणपीढंसि' स्नानपीठे 'मुहणिसण्णे' सुखनिषण्णः=सुखाऽऽसीनः, 'सुद्धोदएर्हि' शुद्धोदकैः निरवद्यजलैः 'गंधोदएहिं' गन्धोदकैः श्रीखण्डादिमिश्रितैः जलैः, 'पुप्फोदएहि पुष्पोदकैः पुष्पमिश्रितजलैः, 'सुओदएहिं' सुखोदकैः नातिशीतोष्णैः पुणो पुणो पुनः पुनः कल्लाणग-पवर-मज्जण-विहीए' कल्याएकप्रवर-मज्जन-विधिना कल्याणकारक-श्रेष्ठस्नान-विधानेन, 'मज्जिए' मजितः-स्नपितः, 'तस्थ' तत्र स्नानावसरे, 'कोउयसएहिं' कौतुकशतैः, कौतुकाना=दृष्टिदोषनिवारणार्थ अंगन वाले (रमणिज्जे) मनोहर (पहाणमंडवंसि) स्नानमंडप में रक्खे हुए (णाणा-मणिरयण-भत्ति-चित्तंसि ) अनेक मणि और रत्नों की रचना से युक्त (हाणपीढंसि) ऐसे स्नान करने के पीठ (बाजोट) पर (मुहणिसण्णे) सुख से बैठे, और वहां बैठ कर (सुद्धोदएहिं) शुद्ध-निर्मल जलसे, (गंधोदएहिं) गंधोदक-चन्दनमिश्रित जल से (पुप्फोदएहिं) पुष्पमिश्रितजल से, (मुहोदएहिं) किंचिदुष्ण जल से (पुणो पुणों) बार बार (कल्लाणगपवर-मज्जण-विहीए मज्जिए ) उन्होंने कल्याणकारक श्रेष्ठ स्नानविधि से स्नान किया। (तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं) उस अवसर में विविध प्रकार के अनेक कौतुकों से-दृष्टिमणि-रयण-कुट्टिम-तले) तथा विविध भएमाथी गडित injiant, (रमणिज्जे) भना२ (व्हाणमंडवंसि) स्नानम उपभो रामेसा (णाणा-मणि-रयण-भत्तिचित्तंसि) अनेभषि तथा रत्नानी मनापथी युत (हाणपीढंसि ) मेवी स्नान ४२पानी पी3 (मान) ७५२ (सुहणिसण्णे) सुमेथी मेह।. अने. मेसीन (सुद्धोदएहिं) शुद्ध-निभग ४ ५, (गंधोदएहिं) घोह४-यनमिश्रित ४८५3, (पुष्फोदएहिं) पुष्पमिश्रित 43, (सुहोदएहिं ) १४२॥ GY सडे, (पुणो पुणो) पार पा२ (कल्लाणग-पेवर-मज्जण-विहीए मजिए ) तभणे. ४च्या २४ श्रे४ स्नानविधिथी नान यु. ( तत्थ कोउयसएहिं Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सू. ४८ कूणिकस्य वस्त्रादि धारणम् ३९५ वसाणे पम्हल-सुकुमाल-गंध-कासाइय-लूहियंगे सरस-सुरहिगोसीस-चंदणा-णुलित्त-गत्ते अहय-सुमहग्घ-दूस-रयण-सुसंवुए रक्षाबन्धनादीनां शतैः बहुविधैर्युक्तः 'कल्लाणग-पवर-मज्जणा-वसाणे' कल्याणकप्रवरमजनावसाने, स्नानानन्तरमित्यर्थः; 'पम्हल-सुकुमाल-गंध-कासाइय-लूहियंगे' पल्मल-सुकुमार-गन्धकाषायिका-रूक्षिताऽङ्गः, पदमला-उत्थितसूक्ष्मतन्तुसमूहयुक्ता, सा च सुकुमारासुकोमला गन्धवती च एतादृशी या काषायिका कषायरक्तशाटिका-अङ्गप्रोञ्छनिका तया रूक्षिताङ्गः-निर्जलीकृतशरीरः, 'सरस-सुरहि-गोसीस-चंदणा-णुलित्तगत्ते' सरस-सुरभि-गोशीर्ष-चन्दना-नुलिप्त-गात्रः, तत्र-गोशीर्षचन्दनं गोशीर्षनाम्ना प्रसिद्ध चन्दनम् । 'अहय-सुमहग्ध-दूस-रयण-सुसंवुए' अहत-सुमहार्य-दूष्य-रत्न-सुरवृतः-अहतम्-अखण्डितं कीटमूषिकादिभिरकर्तितं नूतनमिति भावः, सुमहायं बहुमूल्यं यद् दूष्यरत्न प्रधानवस्त्रं तेन सुवृतः सुष्टु आच्छादितः, परिधृतनूतनबहुमूल्यवस्त्र इत्यर्थः । दोष निवारणार्थ रक्षाबंधनादिकों के अनेक प्रकारों से युक्त उन राजा ने (कल्लाणग-पवरमज्जणा-वसाने) जब उस कल्याणकारक श्रेष्ठ स्नान की समाप्ति हो चुकी तब (पम्हलसुकुमाल-गंध-कासाइय-लूहियंगे) पक्ष्मल-उठे हुए कोमल तंतु वाले सुकुमार एवं सुगंधित कषाय रंग की तोलिया से अपने समस्त शरीर को पोछा । पश्चात् (सरस-सुरहिगोसीसचंदणा-णुलित्त-गत्ते ) समस्त शरीर पर सरस सुगंधित गोशीर्षचंदन का लेप किया । (अहय-मुमहग्घ-दूसरयण-सुसंवुए) जब लेप अच्छी तरह से शुष्क हो चुकातब अहत-कीटमूषक आदि से नहीं काटे गये, नवीन-ऐसे बहुमूल्य प्रधान वस्त्रों को उन्होंने शरीर पर धारण किया । (सुइ-माला-वण्णग-विलेवणे) पश्चात् शुद्धपुष्पों की माला बहुविहे हिं) ते अवसरे विविध प्रश्ना मने कौतु। 43-दृष्टिष-निवा२॥ २क्षामनाहि मने प्रा२युत ते शनये (कल्लाणग-पवर-मज्जणा•वसाने) या२ ते ४८या २४ श्रेष्ठ स्नाननी समाप्ति यु४ी त्यारे (पम्हल सुकुमाल-गंधकासाइय-लूहियंगे) ५६मस-पसी मासा सुवाणां सुतरवा કોમળ તેમજ સુગંધિત કષાય રંગના ટુવાલ વડે પિતાનાં સમસ્ત શરીરને दुध नाभ्यु. पछी (सरस-सुरहि-गोसीस-चंदणा-णुलित्त-गत्ते) समस्त शरी२ ५२ स२स तेम०४ सुधित गाशीष यहननी वे५ ४यो. (अहय-सुमहग्ध-दूसरयणसुसंवुए) न्यारे A५ सारी रात सुबई गयो त्यारे मत-४ीटभूष४ (श्री. કે ઉંદર) આદિથી કપાયેલાં નહિ એવાં, નવીન–એવાં બહુકિંમતી વસ્ત્રોને तेमणु शरी२ ५२ धा२५ ४ा. (सुइ-माला-वण्णग-विलेवणे) पछी शुद्ध पानी Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिकसत्रे सुइ-माला-वण्णग-विलेवणे आविद्ध-मणि-सुवण्णे कप्पियहार-द्वहार-तिसरय-पालंब पलंबमाण-कडिसुत्त-सुकय-सोभे पिणद्ध-गेविज-अंगुलिज्जग-ललियंगय-ललिय-कयाभरणे वर'सुइ-माला-वण्णग-विलेवणे' शुचि-माला-वर्गक-विलेपन:-शुचि-शुद्धं यत् मालावर्णकविलेपनं--तत्र-माला-पुष्पमाला, वर्णकः अङ्गरागविशेषः तस्य विलेपनं, एतद्वयं यस्य स तथा, 'आविद्ध-मणि-सुवण्णे' आविद्ध-मगि-सुवर्णः परिहितमणिकनक-भूषणः 'कप्पिय-हार-द्धहार-तिसरय-पालंब पलंबमाण-कडिसुत्त-सुकय-सोभे' कल्पिहारा- हार-त्रिसरक-प्रालम्ब-प्रलम्बमान-कटिसूत्र-सुकृत – शोभः, कल्पितः परिधृतः, हारः अष्टादशसरिकः, अर्धहारः नवसरिकः, त्रिसरिकश्च-'तिलडीहार' इति प्रसिद्धः येन स तथा, प्रालयः-झुम्बनकं, प्रलम्बमानो यस्मिन् कटिसूत्रे तत् तेन कटिसूत्रेण'कन्दोरा' इति भाषाप्रसिद्धेन सुकृता-सुष्टु रचिता शोभा येन स तथा, पदद्वयस्य कर्मधारयः, हारादिधारणेन परमशोभासम्पन्न इत्यर्थः । 'पिगद्ध-गेविज्जगअंगुलिज्जग-ललियंगय-ललिय-कयाभरणे' पिनद्ध-अवेयका-मुलीयक-ललिताऽङ्गक-ललित-कृताऽऽभरणः, पिनद्धानि अवेयकाणि ग्रीवाभूषणानि, अङ्गुलीयकानि च, येन स तथा, ललिताङ्गके-सुन्दरशरीरे ललितं यथा स्यात् तथा कृतं विन्यस्तमाभरणं येन स तथा, पहनी, एवं शुद्ध सुगंधित द्रव्य का विलेपन किया । (आविद-मणि-सुवण्णे) पुनः सुवर्ण के आभूषण कि जिनमें मणि जड़े हुए थे पहिने । (कप्पिय-हार-दहार-तिसरय-पालंबपलंबमाण-कडिसुत्त-सुकय-सोभे) अठारह लरका हार पहिरा, नव लर का हार पहिरा, तीन लर का हार पहिरा और लम्बा लटकता हुआ कटिसूत्र (कन्दोरा) पहिरा । (पिणद्धगेविजग-अंगुलिज्जग-ललियंगय-ललिय-याभरणे) गले में और भी सुन्दर आभूषण धारण किये । हाथों की अंगुलियों में मुद्रिकाएँ पहिरी तथा शरीर पर उस समय के भा॥ पडेतभ०४ शुद्ध सुगंधित द्रव्यनु विवेपन ४यु. (आविद्ध-मणि-सुवष्णे) 4जी सुषु नां धरेयां मां भणि 3i si ते ५डा. (कप्पिय-हारद्धहार-तिसरय-पालंब पलंबमाण-कडिसुत्त-सुकय-सोभे) अढा२ सरना ७२ पडयो, નવ સરને હાર પહેર્યો, ત્રણ સરને હાર પહેર્યો તથા લાંબે લટકતે કટિसूत्र ( ४२) ४भरमा धारण यो. (पिणद्ध-विज्जग-अंगुलिज्जग-ललियंगयललिय-कयाभरणे) गजामा मर्डर सुंदर माभूषा धारण ४ा. डायनi આંગળામાં વીંટીઓ પહેરી તથા શરીર ઉપર તે સમયને ઉચિત બીજાં પણ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू. ४८ कूणिकस्य वस्त्रादि शरणम् कडग-तुडिय-थंभिय-भुए अहिय-रूव-सस्सिरीए मुद्दियापिंगलंगुलीए कुंडल-उज्जोविया-णणे मउड-दित्त-सिरए हारोत्थय सुकय-रइय-वच्छे पालंब-पलंबमाण-पड-सुकय-उत्तरिजे णाणाततस्तयोः कर्मधारयः । यद्वा-पिनद्वानि यानि ग्रैवेयकागि अङ्गुलीयकानि च तैललिताङ्गकं, तत्र ललितं कृतमाभरगम्=अन्यद् भूषगजातं येन स तथा । 'वरकडग-तुडिय-थंभिय-भुए' वरकटक-त्रुटिक-स्तम्भित -- भुजः, वरकटकत्रुटिकैः श्रेष्ठवलयबाहुरक्षकाख्यैर्भूषणैर्भूषितबाहुः, 'अहिय-रूप-सस्सिरीए' अधिकरूपसश्रीकः-अधिकसौन्दर्येण शोभासम्पन्नः, 'मुद्दिया-पिंगलं-गुलीए' मुद्रिका-पिङ्गला-मुलीकः-मुद्रिकाभिः अङ्गुलीयकैः पिङ्गला अङ्गुल्यो यस्य स तथा, 'कुंडल उन्नोवियाणणे' कुण्डलोद्योतिताऽऽननः-कुण्डलदीत्या विद्योतितमुखः, 'मउड-दित्त-सिरए' मुकुट-दीप्त-शिरस्कः, 'हारो-स्थय-सुकयरइय-वच्छे' हारा-वस्तृत-सुकृत-रतिद-वक्षाः-हारेण अवस्तृतम् आच्छादितं सुकृतं= शोभनीकृतम् अतएव रतिदं दृष्टिसुखदं वक्षो यस्य स तथा, 'पालंब पलंबमाण-पडमुकय-उत्तरिज्जे' प्रालम्ब - प्रलम्बमान – पट -- सुकृतो - त्तरीयः - प्रालम्बेन-दीर्षण उचित और भी आभूषण धारण किये । (वर-कडग-तुडिय-थंभिय-मुए) दोनों हाथों में सुन्दर कड़े पहिरे एवं बाहुओं पर भुजबंध बांधे, (अहियख्वसस्सिरीए) इस प्रकार उनके शरीर की शोभा और भी अधिक द्विगुणित हो गई । (मुद्दिया-पिंगलं-गुलीए) उनने जो मुद्रिकाएँ अंगुलियों में पहिर रक्खी थीं उनसे उनकी अंगुलियां सब पीली झायीं से चमकने लगीं । (कुंडलउज्जोवियाणणे) कुण्डलों से मुख चमकने लगा। (मउड-दित्तसिरए) मुकुट से मस्तक शोभित होने लगा । (हारोत्थय-सुकय-रइय-बच्छे) हार से अच्छादित उनका वक्षस्थल बड़ा ही मनोहर मालूम होने लगा, अतः देखनेवालों को आनन्द होता था। (पालब-पलंबमाण-पड-सुकय-उत्तरिजे) अधिक लंबे वस्त्र का इनने माभूषण पा२१ ४ा. (वर-कडग-तुडिय--थंभिय-भुए) भन्ने हामी सुंदर ४i पर्या, तेभर माहुमा ५२ भुरा मांध्या. (अहिय-रूव-सस्सिरीए) २म ४ारे तन। शरीरनी शाला मई पधारे थ६ ६. (मुहिया-पिंगलं-गुलीए) તેમણે જે વીંટીઓ આંગળાંમાં પહેરી હતી તેનાથી તેમની બધી આંગળીઓ पीजी थी यमा al. (कुंडल-उज्जोविया-णणे) हुमाथी भुम यम४१दाज्यु. (मउड-दित्त-सिरए) भुटथी मस्त शासवा सायु. (हारोत्थय-सुकयरड्य-वच्छे) हारथी ये तनु वक्षस्थल (छाती) म भनाइ२ भातु Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ औपपातिकसूत्रे मणि-कणग-रयण-विमल-महरिह-णिउणो-विय-मिसिमिसंत-विरइय-सुसिलिह-विसिट्ट-लह-संठिय-पसत्थ-आविद्ध-वीर-वलए, प्रलम्बमानेन पटेन वस्त्रेण सुकृतं सुविन्यस्तम् उत्तरीयम्-उत्तरासङ्गवस्त्रं येन स तथा, 'गाणा-मणि-कणग-रयण-विमल-महरिह-णिउणो-विय-मिसिमिसंत-विरइयसुसिलिट-विसिद्ध-ल-सठिय-पसत्थ-आविद्ध-वीर-चलए' नाना-मणि-कनकरत्न-विमल-महार्ह-निपुण–परिकर्मित-देदीप्यमान-विरचित-सुश्लिष्ट-विशिष्ट-लष्ट --- स्थित-प्रशस्ता - ऽऽविद्ध-वीर - वलयः – नानाविधानि माणिकनकरत्नानि = चन्द्रकान्तादिमणि-सुवर्ण-कर्केतनादि-रत्नानि यस्मिन् सः, अत एव विमल:=निर्मल: महार्हः= महतां योग्यश्च, तथा-निपुणपरकर्मितदेदीप्यमानः-निपुणेन शिल्पकलादक्षेग शिपिना 'उविय' परिकर्मितः संस्कारमापादितः, तत एव 'मिसिमिसंत' देदीप्यमानः= दीप्तिसम्पन्नश्च, पुनः-विरचित - सुश्लिष्ट-विशिष्ट-संस्थितः-विरचितं निर्मित-सुश्लिष्टं, शोभनसन्धिकं विशिष्टम् उत्कृष्टम् लष्टं मनोहरं संस्थित संस्थानम्-आकारो यस्य स तथा, अत एव-प्रशस्तः प्रशंसनीयः, एतादृशः आविद्धः परिधृतः वीरवलयो-विजयवलयो येन उत्तराभंग किया था। (णाणा-मणि-कणग-रयण-विमल-महरिह-निउणो-वियमिसमिसंत-विरइय-मुसिलिट्ठ-विसिद्ध-ल?-संठिय-पसत्य-आविद्ध-वीरवलये)देदीप्यमान तथा निपुण कारीगरों द्वारा सुसंस्कारित एवं बड़े भाग्यशालियों के धारण करने योग्य ऐसे निर्मल अनेक मगियों एवं रत्नों से युक्त सुवर्ण के बने हुए वीरवलय का कि जो सुलंधि से पन्न, उत्कृष्ट, मनोहर और सुन्दर आकार से विशिष्ट तथा प्रशंसनीय था इनने धारण कर रखा था । जिस वलय (कड़े) को धारण कर शत्रु पर विजय प्राप्त की जाती है उस काय का नाम वीरवलय है, अथवा--जो इस वलय को धारण करता है वह तु, माथी नारने मान थत। डतो. (पालंब पलंबमाण-पड-सुकय-उत्तरिज्जे) घर खin सानु तभणे उत्तरास (421) ४युडतु. (णाणा-मणि-कणगरयण विमल-महरिह-निउगो-विय मिसमिसंत-विरइय-सुसिलिट्ट-विसिट्ठ-लद्व-संठिय-पसत्थ-आविद्ध-वीरवलये) हेहीप्यमान मने निपुण ४ारीगरे। द्वारा सुस२४ारित, તેમજ ભાગ્યશાળીઓને ધારણ કરવા યોગ્ય એવાં નિર્મળ, અનેક મણિઓ તથા રત્ન વડે યુક્ત સેનાનું બનાવેલું વીરવલય જે સુસંધિથી સંપન્ન, ઉત્કૃષ્ટ, મનહર અને સુંદર આકારથી વિશિષ્ટ તથા પ્રશંસનીય હતું તે તેણે ધારણ કર્યું હતું. જે વલય (કડાં)ને ધારણ કરવાથી શત્રુ ઉપર વિજય મેળવાય છે તે વલયનું નામ વીરવલય છે. અથવા જે આ વલયને ધારણ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो टोका स. ४८ कूणिकस्य वस्त्रादि धारणम् ३९९ किं बहुणा ! कप्यरुक्खए चेव अलंकिय-विभूसिए णरवई सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं उभओ चउ चामर-वाल-वीइस तथा, यं वलयं धृत्वा विजयते ताशवलयधारक इत्यर्थः । यद्वा यदि कश्चिदस्ति वीरस्तदाऽसौ मां विजित्य मम हस्ताद्वहिष्करोत्वेतं वलयमिति स्पर्धयन् य कटकं हस्ते परिधत्ते स वीरवलय इत्युच्यते । 'किं बहुणा' किम्बहुना-किमधिकेन वर्णनेन ? 'कप्परुक्खए चेव अलंकिय विभूसिए णरवई' कल्पवृक्ष इवाऽलङ्कृतविभूषितो नरपतिः-अलङ्कृतो मगिरत्नाऽऽभूषणैः, विभूषितश्च महार्हपरिधानीयादिविचित्रवसनैः नरपतिः कूणिको राजा साक्षात्कल्पवृक्ष इव शोभते इति भावः । स नरपतिः ‘सकोरंट-मल्ल-दामेणं' सकोरण्टमाल्य-दाम्ना-कोरण्टस्य माल्यानि=कुसुमानि तेषां दामानि-मालास्तैः सहितेन 'छत्तेणं धरिज्जमाणेणं' छत्रेण ध्रियमाणेन शोभमानः, 'उभओ चउ-चामर-वाल-चीइयंगे' उभयतः चतुश्चामरवालवीजिताङ्गः, 'मंगल-जयसद्द-कया-लोए' मङ्गल-जयशब्द-कृताऽऽलोकःइस बात की घोषणा करता है कि जो भी कोई वीर हो वह मेर हाथ से इस वलय को खेचें-छुडावें, इस प्रकार की स्पर्धा से वीरों द्वारा जो वलय धारण किया जाता है वह भी वीरवलय कहा गया है। (किं बहुणा) अधिक क्या कहा जाय ? (अलंकिय-विभूसिए) मगिरत्नादिक के आभूषणों से अलंकृत एवं बहुमूल्य अनेक प्रकार के सुंदर सुंदर वस्त्रों से विभूषित (णरवई) वे राजा (कप्परुक्खए चेव) कल्पवृक्षकी तरह शोभित होने लगे। उनके ऊपर (सकोरंट-मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं) कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र धरा हुआ था, एवं उनके ऊपर (उभओ चउ-चामर-वाल-वीइयंगे) दोनों ओर से चार चामर ढोरे जा रहे थे, (मंगल-जयसद्द-कया-लोए) तथा उनके देखते ही मनुष्यों ने 'मंगल हो, जय કરે છે તે એ વાતની ઘોષણા કરે છે કે જે કોઈ પણ વીર હોય તે મારી પાસેથી હાથમાંથી આ વલયને ખેંચીને છોડાવી જાય આ પ્રકારની સ્પર્ધાથી વીરે દ્વારા જે વલય ધારણ કરવામાં આવે છે તેને વીરવલયા पामां आवे छे. (किं बहुणा) वधारे शु डे डोय! (अलंकियविभूसिए ) मणिरत्नायुत माभूषणोथी मत तभक गहुभूख्य (घgi भिती ) मने प्रारनां सुंदर वस्त्रोथी विभूषित (णरवई ) ते रा ( कप्परुक्खए चेव) ४८५वृक्षनी पेठे शामा साउया. तमना ७५२ (सकोरंट-मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं) २टना पुष्पानी भासा 43 युरात छत्र धारण ४रायेत तु. तभी तमना ५२ (उभओ चउ-चामर वालवीइयंगे) मन्ने पाये भणी या२ याभ२ ढाई २wi di. (मंगल-जयसद्द-कया लोए) तथा तभने Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xco ओपपातिकसो यंगे मंगल-जयसद-कयालोए मजणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अणेग-गणनायग-दंडनायग-राई-सर-तलवरमाडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेहि-सेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवाल सद्धिं संपडिबुडे धवल-महामेह-णिग्गए इव गहगण-दिप्पंतमङ्गलरूपो जयशब्दः कृतो जनेन आलोके दर्शने यस्य र स्था, 'मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ' मजनगृहात्प्रतिनिष्क्रामति बहिनिर्गच्छति, 'पडिणि मित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'अणेगमणनायग-दंडनायग-राई-सर-तलवर-माड कोडुबिय- इब्भ-सेटि - सेणाबह-सत्यवाह-य-संधिवाल सद्धिं संपडिवुड' अनेक-गणनायक-दण्डनायकराजेश्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिकेभ्य-श्रेष्ठि-सेनापति - सार्थवाह - दूत -. सन्धिपालैः साई सम्परिवृतः-अत्रत्यानि पदानि प्राग् व्याख्यातानि, मजनगृहान्निष्क्रान्तो नरपतिः क इव शोभते ? इत्याह-'धवल' इत्यादि। 'धवल-महामेह-णिग्गए इव' धवल-महामेघनिर्गत इवधवलमहामेघतो निर्गतः मेघावरणविनिर्मुक्त इव 'गहगण-दिप्पंत-रिक्ख-तारागणाण मज्झे हो' इस प्रकार का शब्द करने लगे । इस प्रकार वे राजा (मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ) स्नान घर से निकले । (पडिणिक्वमित्ता) निकलते ही ( अणेग-गणनायग-दंडनायग-राई-सर-तलवर-माडं बिय-कोडुंबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्यवाह-य-संधिवाल सद्धिं संपडिबुडे ) अनेक गणनायकों, अनेक दंडनायकों, राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत एवं संधिपालों से घिरे हुए वे राजा (धवल-महामेह-णिग्गए इव) धवल महामेघ के आवरण से रहित (गहगण-दिप्पंतरिक्व-तारागणाण मज्झे ससिन्ब) ग्रहगणों के बीच में वर्तमान तथा दीप्यमान ऐसे જોતાંજ મનુષ્ય “મંગલ હો જય હો” એ પ્રકારના શબ્દ બોલવા લાગ્યા. भावी रीत ते रात (मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ) स्नान घरमांथी नीया. (पडिणिक्खमित्ता) indiar (अणेग-गणनायग-दंडनायग-राई-सर-तलवर-माडं. क्यि-कोडुबिय-इब्भ-सेद्वि-सेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवाल सद्धिं संपडिबुडे) मने भरनायी, सने हुनायी, २०१, ४श्व२, A२, मामि, डौटुमि, ल्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवा, इत तमा संघियासाथी धेरा (णरवई) ते २in (धवल-महामेह-णिग्गए इव) घर भडाभेधना माव२४थी भुत (गहगण-दिप्पंत-रिक्ख-तारागणाण मज्झे ससिव्व) गायोना क्यमा वर्तमान तथा Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका ख. ४८ कूणिकस्य हस्तिरत्नारोहरणम् ४०१ रिक्a - तारागणाण मज्झे ससिव्व पियदंसणे णरवई जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अंजण- गिरिकूड-संणिभं गयवहं णरवई दुरूढे ॥ सू० ४८ ॥ ससिन्न' ग्रहगण - दीप्यमान-ऋक्ष तारागणानां मध्ये शशीव- दीप्यमानानाम् ऋक्षाणां =नक्षत्राणां तारागणानां च मध्ये चन्द्र इव, 'पियदंसणे' प्रियदर्शनः 'णरवई' नरपति: ' जेणेव बाहिरिया उाणसाला ' यत्रैव बाह्योपस्थानशाला, 'जेणेव आभिसेके हस्थिरयणे ' यत्रैवाऽभिषेक्यं=पङ्कं हस्तिरत्नम्, ' तेणेव उवागच्छइ' तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छिता ' उपागत्य 'अंजणगिरि - क्रूड - सण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे ' अञ्जनगिरिकूटसन्निभं गजपतिं नरपतिर्दुरूढः = अञ्जनपर्वतशिखराकारं गजेन्द्रं नरेन्द्रो दूरूढः–आरूढवान् ॥ सू० ४८ ॥ नक्षत्र एवं तारागणों के मध्य में सुशोभित चंद्रमा के समान ( पियदसणे) देखने में बहुत ही सुन्दर मालूम होते थे । मतलब इसका यह है कि यहाँ । जा को चंद्रमा की और उनके स्नान घर को शुभ्र मेघों की, तथा गणनायक आदि नक्षत्र और ताराओं की उपमा दी गई है | इस प्रकार से वे राजा ( जेणेव बाहि या उवद्वाणसाला जेणेंब आभिसेके हत्थरयणे तेणेव उवागच्छइ ) जहां पर बाहिर की ओर उपस्थानशाला थी और जहां वह आभिषेक्य हस्तिरत्न खडा हुआ था वहा पहुँचे । (उवागच्छित्ता अंजणगिरि - कूड - संण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे ) पहुँचते ही वे अंजनगिरि के शिखर के समान उस हाथी पर आरूढ हो गये || सू० ४८ ॥ દીપ્યમાન એવા નક્ષત્ર તેમજ તારાગણોના મધ્યમાં સુશોભિત ચંદ્રમા જેવા (पियदंसणे) लेवामां महुन सुंदर सागता હતા. મતલબ એ છે કે અહી' રાજાને ચંદ્રમાની અને તેમના સ્નાનઘરને શુમેઘાની તથા ગણનાયક આદિને नक्षत्र अने तारायोनी उपमा साथी छे. या अरे ते राल (जेणेव बाहिरिया वाणसाला जेणेव अभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छ ) જ્યાં અહારની માજીએ ઉપસ્થાનશાલા હતી અને જ્યાં તે આભિષેકય હાથીરત્ન ઉભું रह्यो त। त्यां थडग्या ( उवागच्छित्ता अंजणगिरि - कूड - संनिभं गयवहं णरवई दुरूढे ) होयतां ४ सन्नगिरिना शिमरना लेवा ते हाथी पर आउट था गया (सू० ४८ ) Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦૨ ओपपातिकसूत्र मूलम्-तए णं तस्स कूणियस्स रणो भंभसारपुत्तस्स आभिसेकं हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अदृह मंगलया पुरओ अहाणुपुत्वीए संपट्टिया, तंजहा-सोवत्थिय टीका-गजेन्द्राधिरूढो नरेन्द्रो भगवदभिमुखं यियासतीति तस्य पुरतः प्रयातम् अष्टमङ्गलादिपदात्यनीकान्तं कान्तं राजोचितवस्तुजातं वर्णयति-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः तदनन्तरम्-सेनापतिसमानीतपट्टगजरत्नसमधिरोहणाऽनन्तरं 'तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स आभिसेकं हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स' तस्य कूणिकस्य राज्ञो भंभसारपुत्रस्याऽऽभिषेक्यं हस्तिरत्नमधिरूढस्य सतः 'तप्पढमयाए इमे अट्ठ मंगलया पुरओ अहाणुपुव्वीए संपद्विया' तत्प्रथमतया इमान्याष्टाष्ट मङ्गलानि पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थितानि, 'तंजहा'-तद्यथा-' सोवत्थिय-सिरिवच्छ-णदियावत्तवद्धमाणग-भदासण-कलस-मच्छ-दप्पणा'--सौवस्तिक-श्रीवत्स-नन्द्यावर्त -- वर्द्धमानक-भद्रासन-कलश-मत्स्य-दर्पणाः, तत्र-मस्यः-चित्रपटलिखितमत्स्यरूपः । एते 'तए णं तस्स कूणियस्स' इत्यादि । - (तए णं) इसके बाद (भंभसारपुत्तस्स) भंभसार अर्थात् श्रेणिक के पुत्र (तस्स कूलियस्स रणो) उस कूणिक राजा के (आभिसेकं हत्थिरयणं) आभिषेक्य हस्तिरत्न के ऊपर (दुरूढस्स समाणस्स) सबार होते ही (तप्पटमयाए) सर्वप्रथम उनके (पुरओ) आगे आगे (इमे अटू मंगलया अहाणुपुवीए संपद्रिया) ये आठ आठ मांगलिक द्रव्य अनुक्रम से संप्रतिष्ठित हुए-चलने लगे, (तं जहा) वे मांगलिक द्रव्य ये हैं, (सोवत्थिय-सिरिवच्छगंदियावत्त-बद्धमाणग-भद्दासण-कलस-मच्छ-दप्पणा) स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण ! इनमें से स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त " तए णं तस्स कूणियस्स” छत्यादि. (तए ण) त्यार पछी (भंभसारपुत्तस्स) समसा२ अर्थात् श्रेणिना पुत्र (तस्स कूणियस्स रण्णो) तेणि २ (आभिसे हस्थिरयणं) मालिषय स्ति२.नना ५२ (दुरूढस्स समाणस्स) सवार 23 rdi o४ (तप्पढमयाए) सर्वथा पडेसां तेमनी (पुरओ) मा मा (इमे अट्ठ मंगलया अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया) 2418 २४ भांजलि द्रव्य अनुभथी गोवामां माव्या, (तंजहा) ते भांजलि द्रव्य । तi. (सोवन्थिय-सिरिवच्छ-णंदियावत्त-वद्धमाणगभद्दासण-कलस-मच्छ दप्पणा) १ स्वस्ति, २ श्रीवत्स, 3 नन्धावत', ४ वर्ष Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीको सू. ४९ भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् । ४०३ सिरिवच्छ-णंदियावत्त-वद्धमाणग-भदासण-कलस-मच्छ-दप्पणा । तयाणंतरं च णं पुण्ण-कलस-भिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसण-रइय-आलोय-दरिसणिज्जा वाउ-य-विजयमाङ्गलिकतया यात्रायामुपयुक्ताः । तदनन्तरं च खलु 'पुण्ण-कलस-भिंगारं' पूर्ण-कलशभृङ्गारं,जलपरिपूर्णा घटा भृङ्गाराश्च, तत्र भृङ्गार:-'झारी' इति प्रसिद्धः, एते पुरः प्रस्थिताः । "दिव्या य' दिव्या-शोभना च 'छत्तपडागा' छत्रपताका-छत्रेण सहिता पताका-छत्रपताका 'सचामरा' सचामरा=चामराभ्यां युक्ता च, 'दसण-रइय-आलोय-दरिसणिज्जा' दर्शनरचिता-लोक-दर्शनीया-दर्शने राज्ञो दृष्टिविषये रचिता-कृता, आ समन्तात् लोकैः जनैदर्शनोया दृश्या च, 'वाउ-य-विजय-वेजयंती य' वातो-भूत-विजय-वैजयन्ती च-बातोद्भूता =: पवनप्रकम्पिता चासौ विजयवैजयन्ती च = विजयसूचिका ध्वजपताका और वर्धमानक ये साथिये कहलाते हैं । मत्स्य से यहां चित्रपट में लिखित मत्स्य का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिये। ये आठ मंगलस्वरूप होने से प्रस्थान में उपयुक्त गिने जाते हैं। (तयाणंतरं च णं) इसके बाद (पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसणरइय-आलोय-दरिसणिज्जा वाउ-य-विजय-वेजयंती य ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुव्वीए संपद्विया) कितनेक लोग पूर्णकलश जल से भरे हुए कलश, तथा जल से भरी हुई झारियाँ लेकर आगे २ चलने लगे ! कितनेक चामरसहित सुन्दर छत्र-पताकाओं को लेकर आगे २ चलने लगे ! और कितनेक तो राजा की दृष्टि में आ सके इस प्रकार से रखी हुई, देखने में सुंदर ऊँची अत एव आकाश को छूती हुई ऐसी विजयમાનક, ૫ ભદ્રાસન, ૬ કલશ, ૭ મત્સ્ય અને ૮ દર્પણ. એમાંથી સ્વસ્તિક, શ્રીવત્સ, નન્દાવર્ત અને વર્ધમાનક એ સાથિયા કહેવાય છે. મત્સ્ય એટલે અહીં ચિત્રપટમાં આળે ખેલાં માછલાંનું ચિત્ર સમજી લેવું. આ આઠ મંગલस्व३५ डावाथी प्रस्थान (डा२ ४ती मते) ५०ी गाय छे. (तयाणंतरं च णं) त्या२ पछी (पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दसणरइय-आलोय-दरिसणिज्जा वाउ-य-विजय-वेजयंती य ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया) anas पूर्ण सश-४थी सारेसा जश તથા જલથી ભરેલી ઝારીઓ લઈને આગળ આગળ ચાલવા લાગ્યા. કેટલાક ચામર સહિત સુંદર છત્ર પતાકાઓને લઈને આગળ આગળ ચાલવા લાગ્યા, અને કેટલાક તે રાજાની નજર પડી શકે એમ રાખેલી, જોવામાં સુંદર Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ औपपातिकसूत्रे वेजयंती य ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुब्बीए संपट्टिया । तयाणंतरं च णं वेरुलिय-भिसंत-विमल-दंडं पलंबकोरंट-मल्लदामो-वसोभियं चंदमंडलणिभं समूसियं विमलं आयवत्तं पवरं सीहासणं वरमणिरयणपादपीढं सपाउयाजोयसमा'ऊसिया' उच्छिता-उत्थापिता, अतएव 'गगगतलमगुलिहन्ती' गगनतलमनुलिखन्ती-व्योमतलं स्पृशन्ती-अत्युच्चा, पुरतो यथानुपूा सम्प्रस्थिता प्रचलिता । छत्रं वर्णयन्नाह-वेरुलिय' इत्यादि । तदनन्तरं खलु 'वेरुलिय-भिसंत-विमल-दंडं' वैडूर्यभासमान-विमल-दण्डम्-वैडूर्यस्य-रत्नविशेषस्य भासमानो=दीप्यमानो विमलो दण्डो यत्र तत् तादशम्,-'पलंब-कोरंट-मल्ल-दामोवसोभियं' प्रलम्बमान-कोरण्ट-माल्यदामोपशोभितम्' प्रलम्बमानेन कोरण्टाख्यमालोपयोगिकुसुमानां दाम्ना=मालया उपशोभितम् । अतएव-'चंदमंडलणिभं' चन्द्रमण्डलनिभं-चन्द्रमण्डलेन समानम् , 'समृसियं' समुच्छ्रितम् विस्तारितम् , 'विमलं आयवत्तं ' विमलम् आतपत्रम् ; सिंहासनं वर्णयन्नाह-'पचर-सीहासणं' इति, प्रवरसिंहासनम्, तत् कीदृशम् ? इत्याह-'वर-मणि-रयण-पाद-पीढं ' वर-मणि-रत्न–पादवैजयन्ती-विजयध्वजों को लेकर आगे २ चलने लगे । (तयाणंतरं च णं) इसके बाद (वेरुलिय-भिसंत-विमल-दंडं पलंब-कोरंट-मल्ल-दामो-वसोभियं चंदमंडलणिभं समूसियं विमलं आयवत्तं पवरं सीहासणं वर-मणि-रयण-पादपीठं सपाउयाजोयसमाउत्तं बहु-किंकर-कम्मकर-पुरिस-पायत्त-परिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुबीए संपट्टियं) कितनेक लोग वैदूर्य मणि की प्रभा से प्रकाशित दण्डवाले, लटकती हुई कोरंटमाला से सुशोभित, चंद्रमण्डलसदृश तथा ऊँचे उठाये हुए ऐसे छत्र को लेकर आगे २ चले । तथा बहुत से नौकर-चाकर और सैनिक लोग श्रेष्ठ सिंहासनको तथा पादुकासहित, उत्तम मगिઉંચી એટલે કે આકાશને અડતી હોય તેવી વિજયજયન્તી વિજયધ્વજાसोने सने माग मा यासा साया. ( तयाणंतरं च ण) त्या२ पछी (वेरुलिय-भिसंत-विमल-दंडं पलंब-कोरंट-मल्ल-दामो-वसोभियं चंद-मंडल-णिभं समूसियं विमलं आयवत्तं परं सीहासणं वर-मणि-रयण-पाद-पीठं सपाउयाजोय-समाउत्तं बहु-किंकर-कम्मकर-पुरिस-पायत्त-परिक्खित्तं पुरओ अहापुणुव्वीए संपद्रिय) as a वैडूर्य मणिनी प्रमाथी प्रोशित वाणा, सटती કેટમાળાથી શોભતા, ચંદ્રમંડલ જેવા, તથા ઉંચે ઉપાડેલાં છત્રને લઈ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सु. ४९ भगवदर्शनार्थे कूणिकस्य गमनम् उत्तं बहु-किंकर -कम्मकर- पुरिस-पायत्त परिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुवीए संपद्वियं । तयाणंतरं च णं बहवे लट्टिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलगग्गाहा पीढग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा हडप्पयग्गाहा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपपीठम् - श्रेष्ठ- मणि-रत्न-खचित - पादस्थापन पीठ - सहितम्, 'सपाउया - जोय - समाउत्तं' स्वपादुकायोग-समायुक्तम्-स्वदुकयोर्यो योगः संबन्ध:, तेन समायुक्तम्, 'बहु- किंकर - क्रम्मकर-पुरिस-पायत्त-परिक्खित्तं ' बहु - किङ्कर-कर्मकर-पुरुष-पादात - परिक्षिप्तम् - बहुभिः = अनेकैः किङ्करैः=स्वामिनं पृष्ट्वा कार्यकरै:, कर्मकरैः=भृत्यैः,पुरुषैः = साधारणजनैः, पादातेन=पदातिसमूहेन परिक्षिप्तम् = उत्थापितम्, पुरतो यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितम् । 'तयाणंतरं च णं' तदनन्तरञ्च खलु 'बहवे लट्ठिग्गाहा' बहवो यष्टिग्राहिणः ' कुंतग्गाहा ' कुन्तग्राहिणः = भल्लधारकाः 'चावग्गाहा' चापग्राहिणः = धनुर्धारिणः, 'चामरग्गाहा' चामरग्राहिणः, 'पासग्गाहा' पाशग्राहिणः - उद्धतगजाश्वादिबन्धनसाधनं पाशस्तस्य धारकाः । ' पोत्ययग्गाहा १ पुस्तकग्राहिणः, 'फलगग्गाहा' फलकप्राहिणः - फलकः - 'ढाल' इतिख्यातस्तस्य धारका ः, 'पीढरगाहा' पीठग्राहिणः-पीठानि=आसनविशेषास्तेषां धारका इत्यर्थः । ' वीणग्गाहा' वीणाग्राहिणः-वीणा=वाद्य ४०५ रत्नों के बने हुए पादपीठ को लेकर आगे २ चलने लगे । इसके बाद ( बहवे लट्ठिग्गाहा) अनेक लाठीधारी चलने लगे। (कुंतग्गाहा) अनेक भल्लधारी (चावग्गाहा) धनुर्धारी (चामरग्गाहा) चामरधारी (पासग्गाहा) उद्धत हाथी और घोड़ों को जिसके द्वारा वश में किया जाये ऐसे पाश को धारण करने वाले, (पोत्थयग्गाहा ) पुस्तकधारी, ( फलगग्गाहा) ढाल को धारण करने वाले (पीढग्गाहा) आसनविशेष के धारी (वीणग्गाहा) वीणाधारी (कुतु આગળ આગળ ચાલ્યા, તથા ઘણા નાકર-ચાકર અને સૈનિક લેાક શ્રેષ્ઠ સિંહાસનને તથા પાદુકાસહિત ઉત્તમ મણિરત્નાની બનેલી પાદપીઠને લઇને भागण आगण यास्या. त्यार पछी ( बहवे लट्ठिग्गाहा ) मने साडीधारी ચાલવા साज्या. ( कुंतग्गाहा ) अने5 लाखांधारी, ( चावग्गाहा ) धनुर्धारी, (चामरग्गाहा) याभरधारी, ( पासग्गाहा) उद्धत हाथी भने घोडाने नेना द्वारा वशमां सह शाय सेवा पाशने धारण उरवावाजा, (पोत्थयग्गाहा ) पुस्तउधारी, (फलगग्गाहा) ढालने धारण उरवावाजा, (पीढग्गाहा) आसन विशेषना धारण ४२वावाजा, (वीणग्गाहा) वीणाधारी, (कुतुवग्गाहा) तुम अर्थात् याभडानां तेस पात्रने Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ औपपातिकसूत्रे ट्टिया।तयाणंतरं चणंबहवे दंडिणो मुंडिणोसिहंडिणो जडियो पिच्छिणो हासकरा डमरुयकरा चाडुकरा वादकरा कंदप्पकरा दवकरा कोकुइया किड्डकरा यवायंता य गायंताय हसंता य णचंता य भासंविशेषस्तस्या धारका इत्यर्थः, 'कुतुबग्गाहा' कुतुपग्राहिगः-तैलादीनां चर्ममयं पात्रं कुतुपस्तस्य धारकाः, 'हडप्पयग्गाहा' हडप्फग्राहिणः-ताम्बूलादिभाजनं हडप्फस्तस्य धारका इत्यर्थः; 'पुरओ अहाणुपुबीए संपट्ठिया' पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थिताः। 'तयाणंतरं च णं' तदनन्तरं च खलु 'बहवे' बहवो 'दंडिणो' दण्डिनः 'मुंडिणो' मुण्डिनः 'सिहंडिगो' शिखाण्डनः शिखाविशेषधारिणः, 'जडिणो' जटिनः जटावन्तः, 'पिच्छिणो'-पिन्छिनः मयूरादिपिच्छवन्तः 'हासकरा' हास्यकराः 'डमरुयकरा' डमरुककराः='डुगडुगी'-तिप्रसिद्धवाद्यवादिनः, 'चाडुकरा' चाटुकारिणः प्रियवचनवादिनः, 'वादकरा' वादकारिणः, 'कंदप्पकरा' कन्दर्पकारिणः कामकथाकारिणः, 'दवकरा' द्रवकराः परिहासकारिणः ‘कोकुइया' कौतुकिकाः कुतूहलकारिणः, 'कीइकरा' क्रीडाकराः, 'वायंता य' वादयन्तश्च-मृदङ्गादिकं वग्गाहा) कुतुप अर्थात् चमड़े के तेलपात्र को धारण करने वाले, (हडप्पयग्गाहा) तथा हडप्फ-ताम्बूल पात्र को धारण करने वाले अनुक्रम से आगे २ चलने लगे । (तयाणंतरं च णं) इसके बाद (बहवे) बहुत से (दंडिणो) दंडी, (मुंडिणो) मुण्डी, (सिहंडिणो) शिखाधारी, (जडिणो) जटाधारी, (पिच्छिणो) मयूर आदि पिच्छ के धारी (हासकरा) हँसाने वाले (डमरुयकरा) डुगडुगी बजाने वाले, (चाडुकरा) प्रिय वचन बोलने वाले, (वादकरा) वादविवाद करने वाले, (कंदप्पकरा) कामकथा करने वाले, (दवकरा) हँसीमजाक करने वाले, (कोक्कुइया) कुतुहल करने वाले, किड्डकराय) खेल-तमाशा करने वाले, (वायंता य) मृदंगादिक बाजे बजाने वाले,(गायंताय) गाना गाने वाले, (हंसता य) विना कारण (पासाने) धा२९.४२वावा, (हडप्पयग्गाहा) तथा .(तiमूसपात्र)ने धारण ४२वावाजानुभथी मागणयासवासाच्या. (तयाणंतरं च णं) त्यार पछी (बहवे) अने। (दंडिणो) ६ (मुंडिणो) भुड (सिहंडिणो) शिपायाश (जडिणो) ४ाधारी (पिच्छिणो) मयू२ माहि पीछान। पा२९५ ४२ना२। (हासकरा) साना (विपी ) (डमरुयकरा) ॥ ५॥उन॥२॥ (चाडुकरा) प्रियवयन मासना।, (वादकरा) पाविवाह ४२नारा, (कंदप्पकरा) भथा. ४२नारा, (दवकरा) डांसीभ०५४ ४२ना२१, (कोक्कुइया) तुरद ४२।२।, (किड्डुकरा) मेस तमासा ४२न।२।, (वायंता य) भृाहि (दास) alon 403ना२, (गायता य) Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ४९ भगवदर्शनार्थ फूणिकस्य गमनम् ताय सावेंतायरक्खंताय आलोयं च करेमाणाजयसदं पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिया । तयाणंतरं च णं जच्चाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेला-मउल-मल्लिय-च्छाणं चंचुच्चिय-ललियनादयन्तः, ‘गायंता' गायन्तः गान्धर्वमनुतिष्ठन्तः, 'हसंता' हसन्तः, च-पुनः 'णचंता' नृत्यन्तः, 'भासंता' भाषमाणाः 'सावंता' श्रावयन्तः भूत-भविष्यद्-वादिनः, 'रक्खता' रक्षन्तः-राज्ञो देहरक्षां कुर्वन्तः, 'आलोयं च करेमाणा' आलोकं च कुर्वन्तः-राजादिदर्शनं कुर्वन्तः, 'जयसई पउंजमाणा' जयशब्दं प्रयुञ्जानाः वदन्तः । 'पुरओ' पुरतः-अग्रतः, 'अहाणुपुवीए' यथानुपूर्व्या क्रमेण 'संपट्ठिया' सम्प्रस्थिताः -प्रचलिताः । 'तयाणंतरं च णं' तदनन्तरञ्च खलु 'जच्चाणं' जात्यानाम्-उत्तमजातिभवानाम् , 'तर-मल्लि-हायणाणं' तरोमल्लिहायनानां-तरो वेगः तस्य मल्लिः धारकः'मल मल्ल धारणे' इति धातुपाठे स्थितान्मल्लधातोः कर्तरि इः, ततश्च तरोमल्लिः वेगधारकः हायनः संवत्सरो येषां ते तरोमल्लिहायनाः-यौवनवयःस्थितास्तेषाम् , तुरगाणामित्यग्रेण अन्वयः, पुनः कीदृशानाम् ? अत्राऽऽह--'हरिमेला-मउल-मल्लिय-च्छाणं' हरिमेलामुकुल-मल्लिका-क्षाणाम्-हरिमेला=वृक्षविशेषः तस्य मुकुलं कलिका, मल्लिका वसन्तजः हँसने वाले, (णचंताय) नाचने वाले, (भासंताय) भाषण करने वाले, (सावेंता य) भूत-भविध्यत् कहने वाले, (रक्वंता य) राजा के आत्मरक्षक, (आलोयं च करेमाणा) राजा का दर्शन करने वाले पुरुष, तथा-(जयसई पउंजमाणा) 'जय जय' शब्द करने वाले, ये सभी (पुरओ) आगे २ (अहाणुपुवीए) यथाक्रम से (संपद्विया) चलने लगे। (तयाणंतरं च णं) इसके बाद (जचाणं तरमल्लिहायणाणं) उत्तम जाति के, वेगवाले नौजवान घोड़े चलने लगे। (हरिमेला-मउल-मल्लिय-च्छाणं) ये घोड़े हरिमेला-वृक्षविशेष की गायन ना२।, (हसता च) विना४२ डसना, (गच्चंता य) नायना, (भासंता य) भाषा ४२२१, (सावेंता य) भूत भविष्य नारा, (रक्खंता य) २०नना यात्म२६४, (आलोयं च करेमाणा) २जना हशन ४२नारा, तथा (जयसदं पउंजमाणा) 'न्य ४य' श०६ ४२वावाणा, ये यथा ( पुरओ) मा माग (अहाणु पुवीए) यथामथी (संपढिया ) यासका साया. (तयाणंतरं च णं) त्या२ पछी (जचाणं तरमल्लिहायणाणं) उत्तम जतिना वेगवा नपानुपान घा यावा या. (हरिमेला-मउल-मल्लिय-च्छाणं ) मा घोडा હરિમેલા-વૃક્ષવિશેષની કળી તેમજ મલ્લિકાપુષ્પ–વેલાનાં ફૂલ જેવી આંખે Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ औपपातिकसूत्रे पुलिय-चल-चवल-चंचल-गईणं लघण-वग्गण-धावण-धोरण-तिवई-जइण-सिक्खिय-गईणं ललंत-लाम-गललाय-वर-भूसणाणं मुहकुसुमविशेषः ‘बेली' इतिख्यातस्तद्वदक्षिणी येषां ते तथा तेषां, 'चंचु-च्चिय-ललियपुलिय-चल-चवल-चंचल-गईणं'चञ्चू-चित-ललित-पुलित-चल-चपल-चञ्चल-गतीनाम्, चञ्चुः शुकचञ्चुः तद्वद्वक्रतया उचितं-चरणयोरुत्थापनं तेन ललितंसविलासं यत् पुलितं गमनविशेषः-एतद्रूपा-चलानां गतिमतां चपलचञ्चला=अतिचञ्चला, यद्वा-चपलाविद्युत् , तद्वच्चञ्चला गतिर्येषां ते तथा तेषां, वक्रपदक्षेपगमनविशेषाऽतिशयचञ्चलगमनवताम् , 'लंघण-घागण-धावण-धोरण-तिवई-जइण-सिक्खिय-गईणं' लवन-वल्गन-धावनधोरण--त्रिपदी-जयिनी–शिक्षित-गतीनाम् लङ्घनं-ग देरुल्लङ्घनम्, वल्गनम् =उत्कूर्दनम् , धावनं शीघ्रमृजुगमनम् , धोरणं गतिचातुर्यम् , त्रिपदी भूमौ पदत्रयन्यासः, जयिनीजयिन्याख्या अतितीव्रगतिः, एताः शिक्षिता अभ्यस्ता गतयो यैस्ते तथा तेषाम् । 'ललंत-लाम-गललाय-वर-भूसणाणं' लल-ल्लामद्-गललात-वर-भूषणानाम्-ललन्ति–दोलायमानानि, लामन्ति= रम्यागि, गललातानि-ग्रीवास्थितानि वरभूषणानि येषां ते तथा तेषां, चञ्चलसुन्दरग्रीवाभरणकली एवं मल्लिकापुष्प-वेला के फूल-के समान आंखोंवाले थे । (चंचु-च्चिय-ललिय-पुलियचल-चवल-चंचल-गईणं) शुक की चंचु के समान वक्र पैर उठा कर सविलास चलने के कारण वे बहुत भले मालूम होते थे, तथा चलने में बिजली के समान चंचल थे। (लंघण वग्गण-धावण-धोरण-तिवई-जइण-सिक्खियगईणं) लंघन-खङ्ग आदि का लांधना, वल्गन-कूदना, धावन-शीघ्रतापूर्वक दौडना, धोरण-सूगर के समान नीचे सिर कर के दौडना, त्रिपदी-तीन पैरों से खड़ा होना, जयिनी-अतितीत्र चालका चलना,-इन सबों में ये अतिनिपुण थे । (ललंत-लाम-गललाय-पर-भूसगाणं) इनके गले में जो आभूषण थे वे इधर उधर हिलते डुलते थे और बहुत ही सुन्दर थे। (मुहभंडग-ओचूलग-थासग अहिपात. (चंचु-च्चिय-ललिय-पुलिय-चल-चवल चंचल गईणं) पोपटनी यांनी જેમ વાંકા પગ ઉપાડીને વિલાસ કરતા ચાલવાના કારણે તેઓ બહુ ભલા सागत तातथा यासामा विणीनी पेठे यश ता. (लंघण-वग्गणधावण-धोरण-तिवई-जइण-सिक्खिय-गईणं) धन-५ माहिने खis (५९): વલ્ગન-કૂદવું, ધાવન–ઝડપથી દેડવું, ધોરણ-સૂકરની પેઠે નીચું માથું રાખી દેડવું, ત્રિપદી-ત્રણ પગે ઉભા રહેવું, જયિની અતિ ઝડપવાળા ચાલથી यास. 20 मामा तो निघुन उता. (ललंत-लाम-गललाय-वर भूसणाणं) તેમના ગળામાં જે આભૂષણ હતાં તે આમતેમ હાલતાં-ડોલતાં હતાં અને Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका शु. ४९ भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् ४०९ भंडग-ओचूलग-थासग-अहिलाण-चामर-गंड - परिमंडिय - कडीणं किंकर-वर-तरुण-परिग्गहियाणं अट्ठसयं वरतुरगाणं पुरओ अहाणुपुबीएसंपट्टिय। तयाणंतरं च णं ईसीदंताणंईसीमत्ताणं ईसीतुंमाणं भूषितानाम् । 'मुहभंडग-ओचूलग-थासग-अहिलाण-चामरगंड-परिमंडिय-कडीणं' मुखभाण्डका ऽवचूलक-स्थासका-भिलान-चामरगण्ड-परिमण्डित-कटीनाम् -मुखभाण्डकं मुखाभरणम् , अवचूलाः प्रलम्बमानगुच्छाः, स्थासकाः=दर्पणाऽकारा अलङ्काराः, अभिलानाः-मुखबन्धविशेषाश्च, येषां ते, तथा चामरगण्डैः चामरसमूहैः, परिमण्डिता कटिर्येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तेषां तथाभूतानाम् । किंकर-वर-तरुण-परिग्गहियाणं' किङ्करवरतरुण-परिगृहीतानाम्--किंकरवराश्च ते तरुणाः-तरुणकिङ्करश्रेष्ठाः, तैः परिगृहीतानाम् , 'अट्ठसयं वरतुरगाणं' अष्टशतं वरतुरगाणां श्रेष्ठहयानामष्टाऽधिकं शतम् , 'पुरओ अहाशुपुवीए संपद्वियं' पुरतो यथानुपूर्ध्या सम्प्रस्थितम् । ' तयाणंतां च णं' तदनन्तरं च खलुईसीदंताणं' ईषदन्तानाम् =अल्पदन्तवताम् 'ईसीमत्ताणं' ईषन्मतानाम्=किञ्चिन्मदशालिनाम् , लाण-चामरगंड-परिमंडिय-कडीणं) मुखभाण्डक-मुख का आभूषण, अवचूल-प्रलम्बमान गुच्छे जो मस्तक के ऊपर मुर्गे की कलंगी के समान लगाये जाते हैं, स्थासक-दर्पण के आकार जैसे आभरणविशेष, तथा अहिलाण-मुखबन्धविशेष से ये शोभित हो रहे थे, तथा चामरगंड - चामरसमूह-से इनका कटिभाग विशेष अलंकृत हो रहा था । (किंकर-चरतरुण-परिग्गहियाणं) इनको पकड़ने वाले सईस उत्तम एवं तरुण अवस्था वाले थे।(अट्ठसयं वर-तुरगाणं पुरओअहागुपुव्वीए संपट्ठिय)इस प्रकार १०८ घोड़े आगे आगे अनुक्रम से चलने लगे। (तयाणंतरं च णं ईसीदंताणं ईसीमत्ताणं ईसीतुंगाणं महु सुह२ उतi. (मुहभंडग-ओचूलग-थासग-अहिलाण-चामरगंड-परिमंडिय-कडीण) મુખભાંડક-મુખનું આભૂષણ, અવચૂલ–પ્રલંબમાન ગુચ્છા જે મસ્તકના ઉપર કુકડાની કલંગીના જેમ લગાવાય છે, સ્થાસક-દર્પણના આકાર જેવાં આભ. રણ વિશેષ, તથા અહિલાણુ–મુખ્યબંધનવિશેષ, એ બધાથી તેઓ શેક્ષિત થઈ રહ્યા હતા, અને ચામરગંડ-ચામરસમૂહથી તેમને કેડનો ભાગ विशेष मदत २४ २ह्यो ता. ( किंकर-वर-तरुण-परिग्गहियाणं ) તેમને પકડનારા સઇસ ઉત્તમ તેમજ તરુણ અવસ્થાના હતા. (अट्ठ-सयं वर-तुरगाणं पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिय) २मा प्रा२ना १०८ घोडा मनुभथी माग मा यसका साया. (तयाणंतरं च णं ईसीदंताणं ईसी Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० औपपातिकमत्रे ईसी-उच्छंग-विसाल-धवल-दंताणं कंचणकोसी-पविठ्ठ-दंताणं कंचण-मणि-रयण-भूसियाणं वर-पुरिसा-रोहग-संपउत्ताणं अट्ठसयं गयाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपट्टियं । तयाणंतरं च णं सच्छ'ईसीतुंगाणं' ईषत्तुङ्गानाम्=मनागुन्नतानाम् , 'ईसी-उच्छंग-विसाल-धवल-दंताणं' ईषदुत्सङ्ग-विशाल--धवल-दन्तानाम् ईषदुत्सङ्गे-मध्यभागे विशालाः अल्पवयस्कत्वात् , तथा धवला दन्ता येषां ते धवलदन्ताः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तेषाम् , 'कंचण-कोसी-पविठ्ठदंताणं' काञ्चन-कोश--प्रविष्ट-दन्तानाम् , कंचण-मणि-रयण-भूसियाणं' काञ्चनमणिरत्न-भूषितानाम् , 'वर-पुरिसा-रोहग-संपउत्ताणं' वर-पुरुषा-ऽऽरोहक-सम्प्रयुक्तानाम्-वरपुरुषाः श्रेष्ठपुरुषाश्चामी-आरोहकाः तैः सम्प्रयुक्तानाम्=युक्तानाम् , एतादृशां-'गयाणं' गजानाम्-हस्तिनाम् , 'अद्वसयं' अष्टशतम् अष्टाधिकं शतम् , 'पुरओ अहाणुपुबीए संपट्ठियं' पुरतो यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितम् । अथ रथानां वर्णनमाह-'तयाणंतरं' इत्यादि । 'तयाणंतरं ईसी-उच्छंग-विसाल-धवल-दंताणं कंचण-कोसी-पविठ्ठ-दंताणं कंचण-मणि-रयण-भूसियाणं वर-पुरिसा-रोहग-संपउत्ताणं अट्ठसयं गयाणं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं) इनके बाद आगे आगे १०८ हाथी चले,ये हाथी अल्पदंतवाले थे,पूरे दांत इनके वाहिर नहीं निकल पाये थे । किंचित् मदशाली थे । थोड़े ही ऊँचे थे, अधिक नहीं, इनका मध्यभाग भी अधिक विशाल नहीं था ! दांत इनके अत्यंत धवल थे । इनके दांतों में सोने की खोलिया पहनायी गयी थीं। ये सुवर्ण एवं मणिरत्नों से विभूषित हो रहे थे । इनके ऊपर श्रेष्ठ पुरुष बैठे हुए थे। (तयाणंतरं च णं सच्छत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सणंदिघोसाणं स-खिखिषी जाल-परिक्वित्ताणं हेमवय-चित्तमत्ताणं ईसीतुंगाणं ईसी-उच्छंग-विसाल-धवल-दंताणं कंचण-कोसी-पविद्व-दंताण कंचणमणि-रयण-भूसियाणं वर-पुरिसा-रोहग-संपउत्ताणं अट्ठसयं गयाणं पुरओ अहाणुपुवीए संपद्रिय) त्या२५छी माण माग १०८ हाथी यादया. मा डाथी २८५ itવાળા હતા–તેના દાંત પૂરા બહાર નીકળેલા નહોતા. કિંચિત્ મદશાળી હતા. થડાક ઉંચા હતા બહુ નહિ. તેમનો પીઠને ભાગ વધારે પહોળો નહોતો. તેમના દાંત બહુ ધોળા હતા. તેમના દાંતમાં સેનાની ખેળો પહેરાવી હતી. તેઓ સુવર્ણ તેમજ મણિરત્ન વડે વિભૂષિત બન્યા હતા. તેમના ઉપર શ્રેષ્ઠ પુરુષ બેઠા हता. (तयाणंतरं च णं सच्छत्ताण सज्झयाण सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सणंदिघोसाणं स-खिखिणी-जाल-परिक्खित्ताणं हेमवय-चित्त-तिणिस-कणग Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषाषणो-टीका सू. ४९ भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् त्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सणंदिच णं' तदन्तरञ्च खलु 'सच्छत्ताणं' सच्छत्राणां छत्रयुक्तानाम् , 'सज्झयाणं' सध्वजानाम्ध्वजयुक्तानाम् ‘संघंटाणं' सघण्टानाम् , 'सपडागाणं' सपताकानाम्-ध्वजो गरुडादिचिह्नयुक्तस्तदन्या तु पताका तद्वताम् , 'सतोरणवराणं' सतोरणवराणाम् श्रेष्ठतोरणवताम् , 'सणंदिघोसाणं' सनन्दिघोषाणाम्-नन्दी द्वादशविधवाद्यनिर्घोषः, तद् यथा-१ भंभा, २ मउंद, ३ मद्दल, ४ कडंब, ५ झल्लरि, ६ हुड्डक्क, ७ कंसाला । ८ काहल, ९ तलिमा, १० वंसो, ११ संखो, १२ पणवो य बारसमो ॥ १॥ तत्र-'भंभा' भम्भा भेरी १, 'मउंद' मुकुन्दः= वाद्यविशेषः २, 'मद्दल' मर्दलः मृदङ्गः ३, 'कडंब' कडम्बः वाद्यविशेषः ४, 'झल्लरि' झल्लुरी-'झालर' इति ख्यातो वाद्यविशेषः ५, 'हुडुक्क हुडुक्कः वाद्यविशेषः, अयं देशीयः शब्दः ६, 'कंसाला' कांस्यालः वाद्यविशेषः ७, 'काहल' काहल: वाद्यविशेषः ८, 'तलिमा तलिमा= तिणिस-कणग-णिज्जुत्त-दारुयाणं कालायस-मुकय-णेमि-जंत-कम्माणं) इनके बाद आगे आगे १०८ रथ चल रहे थे, ये रथ छत्रसहित थे, ध्वजासहित थे, इनके ऊपर ध्वजाएँ फहरा रही थीं, इनमें घण्टे लटक रहे थे, जिससे चलते समय इनकी मधुर आवाज आती थी। पताकासहित थे । (गरुड आदि के चिह्नों से युक्त का नाम ध्वजा है और चिह्नरहित का नाम पताका है। ) इन रथों पर तोरण बंधे हुए थे । ये रथ नन्दिघोष सहित थे । बारह प्रकार के वाद्यों का नाम नंदिघोष है, वे १२ बारह प्रकार के बाजे ये हैं-भंभा-भेरी, मउंद-मुकुंद (यह एक जात का बाजा होता है), मल-मृदंग, कडंब-(यहू भी एक जात का बाजा होता है), झल्लरी–झालर, हुडुक्क (यह भी एक जात का बाजी विशेष होता है), कंसाल-(यह भी एक जातका बाजाविशेष है), काहल-(यह भी एक जात का बाजा विशेष है), तलिमा-वाद्यविशेप, वंश-वाद्यविशेष, शंख, एवं १२वां पवणणिज्जुत्त-दारुयाण कालायस-सुकय-णेमि-जंत-कम्माणं) त्या२ पछी माग मागण ૧૦૮ રથ ચાલતા હતા. આ રથ છત્રવાળા હતા. ધ્વજાવાળા હતા. તેમના ઉપર ધજા ફરકી રહી હતી. તેમાં ઘંટ લટકી રહ્યા હતા જેથી ચાલતી વખતે તેમને મધુર અવાજ આવતો હતો. પતાકાવાળા હતા. (ગરૂડ આદિનાં ચિહ્નો જેમાં હોય તે ધ્વજા કહેવાય અને જે ચિહ્નવિનાની હોય તે પતાકા કહેવાય.) આ રથ ઉપર તોરણ બાંધેલાં હતાં. નંદિઘષવાળા હતા. બાર પ્રકા૨નાં વાદ્યો (વાજા)નાં નામ નંદિઘોષ છે. તેઓ ૧૨ બારનાં નામ આ પ્રમાણે छे-भंभा-लेरी, मउंद-भु (म0 मे तनु वा हाय छे) झल्लरी-आसर, हुडुक्क (240 ५४ मे २मभु तनुपान्डाय छे) कंसाल-(म। ५५ मे तनु qug विशेष छे.) काहल-मा मे अभु तनुं वा विशेष छे. तलिमा Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषपातिकसूत्रे घोसाणं सखिखिणीजालपरिक्खित्ताणं हेमवय-चित्त-तिणिस-कणग-णिजुत्त-दारुयाणं कालायस-सुकय-णेमि-जंत-कम्माणं सुसिवाद्यविशेषः ९, 'वंसो' वंशः बाद्यविशेषः १०, 'संदो' शङ्खः प्रसिद्धः, 'पणवो य बारसमो' पगवश्व द्वादशः-तत्र पणवः-पटहः 'ढोल' इति प्रसिदः । 'स-खिखिणी-जालपरिकि वत्ताणं' सकिङ्किगी-जाल-परिस्प्तिानाम्-सह किति माभिः क्षुद्रधण्टिकाभिः सहितं यज्जालकं आभरणविशेषः तेन जालकेन परिक्षिप्ताः सुशोभितास्तेषाम् , 'हेमवय-चित्त-तेणिसकणग-णिज्जुत्त-दारुयाणं' हैमवत-चित्र-तैनिदा-कनक-निर्युक्त-दारुकाणाम्-हैमवतानि हिमवगिरिसम्भूतानि, चित्राणि विचित्राणि, तैनशानि=तिनशनामकतरुसम्बधीनि, कनकनियुक्तानि सुवर्णखचितानि, दारुकाणि काष्ठानि येषु रथेषु तेषाम् , 'कालायस-सुकयणेमि-जंतकम्माणं' कालायस-सुकृत-नेमि-यन्त्र-कर्मणाम्-कालायसेन कर्कशलौहेन-सुष्टु कृतं नेमे: चक्रधाराया यन्त्रकर्म=बन्धनक्रिया येषां ते तथा तेषां कर्कशलौहसम्पादितनेमिबन्धनबद्धानाम् , 'मुसिलिट्ठ-वत्त-मंडलधुराणं' ' सुश्लिष्ट-वृत्त-मण्डल-धुरागाम्सुष्टु लिष्टा वृत्तमण्डला - अत्यन्तगोलाकारा धूर्येषां ते तथा तेषां दृढघटितपटह-ढोल । इन बारह प्रकार के वादित्रों से विशिष्ट ये रथ थे । इन पर जो जालकआभरणविशेष सजाने में आये थे, अथवा इन रथों में जो जालियां थीं वे सब क्षुद्र-छोटी छोटी घंटियों से युक्त थीं । इनसे रथों की शोभा में अधिक वृद्धि हो रही थी। ये रथ जिस काष्ठ के बने हुए थे, वह काष्ठ तिनश नामका था । यह हिमवत गिरि से मंगाया गया था और बहुत सुन्दर था । इस काष्ठ के ऊपर सुवर्ण का काम किया हुआ था। ये रथ इन्हीं काष्ठों के बने हुए थे । इनके पहियों पर मजबूत लोहे के पट्टे चढाये हुए थे। (मुसिलि:-वत्त मंडल-धुराणं) इनकी धुरायें बहुत ही मजबूत एवं गोल आकार की थीं। पावि- तनुं पातु, वंश-वांसनु वाचविशेष, श, मने सारभुपणवपटह-ढोल. २ मारेय प्रजानां पत्रिोथी विशिष्ट २॥ २थ डतो. तेन। ५२ જે જાલક આભરણવિશેષ સજાવવામાં આવ્યાં હતાં, અથવા આ રથમાં જે જાળી હતી તે બધી મુદ્ર-નોની નાની ઘંટડીઓવાળી હતી. એનાથી રથાની શોભામાં અધિક વૃદ્ધિ થતી રહેતી હતી. આ રથ જે લાકડાને બનાવ્યા હતા તે લાકડાં તિનશ નામનાં હતાં. એ હિમવંત ગિરિથી મંગાવેલાં હતાં અને બહુ જ સુંદર હતાં. આ લાકડાંની ઉપર સુવર્ણનું કામ કરવામાં આવેલું હતું. એ રથ આ જ લાકડાના બનાવ્યા હતા. તેમનાં i S५२ भल्भूत वाढाना पट्टा डाव्या तत. (सुसिलिट्ठ-वत्त-मंडल-धुराण) Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणो-टोका मृ. ४९ भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् ४१३ लिट्ठ-वत्त-मंडल-धुराणं आइण्ण-वर-तुरग-संपउत्ताणं कुसल-नरच्छेय-सारहि-सुसंपग्गहियाणं वत्तीस-तोण-परिमंडियाणं सकंकड़वडेंसगाणं सचाव-सर-पहरणा-वरण-भरिय-जुद्ध-सज्जाणं अहसयं वृत्तमण्डलधुरा गाम् । 'आइण्ण - वर - तुरग - संपउत्ताणं' आकीर्ण - वरतुरग-सम्प्रयुक्तानाम् – योजितोत्तमजातिमद्घोटकानाम्, 'कुसल-नर-च्छेय-सारदि-- सुसंपग्गहियाणं' कुशल-नर-च्छेक-सारथि सुसम्प्रगृहीतानाम्-कुशलनराः विज्ञपुरुषाः एव ये छेकाः निपुणाः सारथयः तैः सुसम्प्रगृहीतानाम् सञ्चारितानाम् । ' बत्तीस-तोरण-परिमंडियाणं' द्वात्रिंशत्तोरगपरिमण्डितानां-तोरणानि अर्धवर्तुलाऽऽकाराणि द्वाराणितैत्रिंशत्सङ्ग्यकैः तोरणैः वन्दनवारैः परिमण्डितानां, प्रतिरथं द्वात्रिंशद्वन्दनवाराणि सन्तीति भावः । 'सकंकडवडेंसगाणं' सकङ्कटाऽवतंसकानाम्-कङ्कटाः कवचाः, अवतंसकाः शिरस्त्राणानि 'टोप' इति प्रसिद्धाः, तैः युक्ताः सकङ्कटावतंसकाः तेषाम्-'सचावसर-पहरणा-वरण-भरिय-जुद्ध-सज्जानां' सचाप-शर-प्रहरणा-ऽऽवरण- भृत - युद्र-सज्जानाम्-चापैः सहिताः शराः, सचापशराः प्रहरणानि खड्गादीनि, आवरणानि='ढाल' (आइण्ण-चर-तुरग-संपउत्ताणं) इनमें जो घोड़े जोतने में आये थे वे बहुत ही उत्तम जाति के थे । (कुसल-नर-च्छेय-सारहि-सुसंपग्गहियाणं) इनके जो सारथी थे वे अश्वचालन क्रिया में विशेष निपुण थे । ये ही इन्हें चला रहे थे । (बत्तीस-तोरण-परिमंडियाणं) प्रत्येक रथों पर बत्तीस २ वन्दनबारें बंधी हुई थीं। (सकंकडवडेंसगाणं) इनमें कवच और शिरस्त्राग-लोहे के टोप भी रखे हुए थे । (सचाव-सर-पहरणा-वरणभरिय-जुद्ध-सज्जाणं) ये सब रथ चाप-धनुष, शर-बाण, प्रहरण-हथियार एवं आवरण-ढाल आदिकों से भरे हुए थे, अतः देखने वालों को ऐसे मालूम पड़ते थे कि मानो तेमनां घांस॥ पहुस भभूत तभ०४ गाण २।४।२नां तi. (आइण्णवरतुरगसंपउत्ताण) मा घोडा नेपामा माव्या ता ते पहु०४ उत्तम जतिना ता. (कुसल-वर-च्छेय-सारहि-सुसंपन्गहियाणं) तेना ने सारथी ता ते અશ્વસંચાલન કિયામાં વિશેષ નિપુણ હતા, તેઓજ તેમને ચલાવતા હતા. (बत्तीस-तोरण-परिमंडियाण) प्रत्ये४ स्थान। 8५२ मत्रीस मत्रीस पहनमाश माधी ती. (सकंकडवडेंसगाणं) तेमा ४५य मने शिश्ना-सोढाना ट।५ ५y राणेला उतi. (स-चाव-सर-पहरणा-वरण-भरिय-जुद्ध-सज्जाण) ये मया રથ ચાપ-ધનુષ, શર–બાણ, પ્રહરણ-હથિયાર તેમજ આવરણ – ઢાલ આદિથી Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे रहाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपड़ियं । तयाणंतरं च णं असिसत्ति-कुंत-तोमर-सूल-लउल-भिंडिमाल-धणु-पाणि-सज्जं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुवीए संपढियं ॥ सू० ४९ ॥ इति प्रसिद्धानि, तै ताः, अतएव युद्धाय इव सज्जास्तेषां 'रहाणं' रथानाम् 'अदुसयं' अष्टशतम् अष्टाधिकशतं 'पुरओ अहाणुपुवीए संपद्वियं ' पुरतो यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितम् । अथ पदातिसैन्यवर्णनमाह-' तयाणंतरं च णं' इत्यादि। तदनन्तरञ्च खलु 'असि-सत्तिकुंत-तोमर-मल-लउल-भिडिमाल-धणु-पाणि-सज्ज' असि-शक्ति-कुन्त-तोमर-- शूल-लकुट-भिन्दिपाल-धनुः-पागि-सज्जम्-असिः खड्गः, शक्तिः अस्त्रविशेषः, कुन्तः-- भल्लः, तोमरः बाणविशेषः, शूलम् एकशूलम्-' बरछी' इति प्रसिद्धम् , 'लउल ' लकु ट: यष्टिः, 'भिंडिमाल' भिन्दिपाल:-अस्त्रविशेषः, ' गोफग' इति भाषाप्रसिद्धः, धनु:प्रसिद्धम् , एतानि पाणौ हस्ते यस्य तत् तथा, तच्च तत् सजं चेति समासः, तादृशम् , 'पायत्ताणीयं' पदात्यनीकम् पदातिसैन्यम् , 'पुरओ अहाणुपुबीए संपढिय' पुरतो यथानुपूर्त्या सम्प्रस्थितम् ॥ सू० ४९ ॥ ये युद्ध के मैदान में जाने के लिये ही तैयार किये गये हैं; ऐसे (रहाणं अट्ठसयं) १०८ एक सौ आठ रथ (पुरओ) आगे २ (अहाणुपुवीए) यथाक्रम से (संपट्ठियं) चलने लगे। (तयागंतरं च णं असि-सत्ति-कुंत-तोमर-मूल-लउल-भिंडिमाल-धणु-पाणि-सज्जं पायताणीयं पुरओ अहाणुपुबीए संपद्वियं) इनके आगे २ असि-तलवार,शक्ति-अस्त्रविशेष, कुन्त-भाला, तोमर-अस्त्रविशेष, शूल-बरछी, लकुट-लाठिया, भिंडिमाल-भिन्दिपाल-गोफण और धनुत्र ये सब जिनके हाथों में थे, ऐसे पदातिसैन्य अनुक्रम से चलने लगे ॥सू.४९।। ભરેલા હતા. આથી જેનારને એમજ લાગે કે જાણે યુદ્ધના મેદાનમાં જવા भाटे ४ तैया२ ४. छ. सेवा (रहाणं अट्ठसय) मेसो ४ १०८ २५ (पुरओ) 2411 411 (अहाणुपुवीए) यथामथी (संपट्ठिय) यासवा साज्या. (तयाणंतरं च णं असि- सत्ति-कुंत-तोमर-सूल लउल-भिंडिमाल-धणु-पाणि-सज्ज पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुवीए संपद्रिय) तेमनी मा २मा मसि-तसपा२, शस्ति-मसविशेष, अन्त मासा, ताभ२-२मविशेष, शूली-१२छी, सटલાકડીઓ, ભિંડિમાલ-બિંદિપાલ-ગોફણ અને ધનુષ એ બધાં જેના હાથમાં इता मेवा पहातिसैन्य अनुभे यासा साया. (सू..४८.) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ५० भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् मूलम्-तए णं से कूणिए राया हारोत्थय-सुकयरइय-वच्छे कुंडलउज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए णरसीहे णरवई परिंदे णरवसहे मणुयरायवसहकप्पे अब्भहियं रायतेयलच्छी टीका-'तए णं से' इत्यादि । 'तए णं' ततस्तदनन्तरम् अष्टमङ्गलशृङ्गारितहयगजादिप्रस्थानानन्तरं खलु ‘से कृणिए राया' स कूणिको राजा 'हारोत्थयसुकय-रइय-वच्छे' हारावस्तृत-सुकृत-रतिद-वक्षाः-हारावस्तृतं हारप्रावृतं, सुकृतं सुरचितम् अतएव रतिदम्-प्रीतिप्रदं वक्षः हृदयदेशो यस्य स तथा, 'कुंडल-उज्जोइयागणे' कुण्डलोद्योतिताऽऽननः, मुकुटदीप्तशिरस्कः, 'णरसीहे' नरसिंहो, 'णरवई' नरपतिः, 'गरिंदे' नरेन्द्रः ‘णरवसहे' नरवृषभः-अङ्गीकृतकार्यभारनिर्वाहकत्वात् । 'मणुय 'तए णं से कूणिए राया' इत्यादि । (तए णं) इसके बाद (से कूणिए राया) वह कूणिक राजा कि जिनका वक्षस्थल (हारोत्थय-सुकय-रइय-वच्छे) हारों से व्याप्त, सुरचित और रतिद-प्रीतिप्रद था, (कुंडलउज्जोइया-णणे) जिनका मुख कुंडलों की आभा से अधिक दीप्तिसंपन्न हो रहा था। (मउडदित्त-सिरए) मुकुट धारण करने से जिनका मस्तक सुशोभित हो रहा था । (णरसीहे) जो मनुष्यों में सिंह जैसे थे । (गरवई) जो मनुष्यों के स्वामी थे; क्यों कि हर तरह से उनका पालन-पोषण करते थे । इसीलिये (णरिंदे) जो नरों में इन्द्र जैसे थे । (गरवसहे) जो नरों में वृषभसमान थे, क्यों कि ये अपने ऊपर जो कार्य लेते थे उसे अवश्यमेव पूरा करते थे । (मणुयराय-वसह-कप्पे) मानवों के राजाओं के भी जो राजा-चक्रवर्ती-जैसे 'तए णं से कूणिए राया' त्याहि (तए ण) त्या२ पछी (से कूणिए राया) ते शि: २.० २नु वक्षःस्थ (छाती) (हारोत्थय-सुकय-रइय-वच्छे) डोरोथी व्यास, सुरथित मने प्रीति तुः (कुंडल-उज्जोइया-णणे) भनु भुभ योनी मामा-श 43 अधि४ सिंपन्न थ२घु तु. (मउड-दित्त-सिरए) भुट पाए २पाथी रेनु भरत४ सुशामित थ २खु तु. (णरसीहे) २ मनुष्यामा सिडा उत, (णरवई) २ मनुष्योना स्वाभी उता, भले ७२ तथा तमनु पालन-पोषण ४२॥ ता. माथी (परिंदे) तेसो नरोना धंद्रा त. (गरवसहे) २ पुरुषमा वृषभ-समान हुता, भ तेथे पोताना S५२ २ सय देता ता ते म१श्यमेव ५३ ४२ता . (मणुयराय-वसह Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ औपपातिकसूत्र ए दिप्पमाणे हत्थक्खंधवरगए सकोरंटमलदामेणं छत्तेणं धरिमाणेणं सेयवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहिं २ वेसमणे चेव णरवई अमरasसण्णिभाए इड्ढीए पहियकित्ती हय-गय-पवरजोहक - राय - सहकप्पे मनुजराज -- वृषभ - कल्पः - मनुराजानां - राज्ञां वृषभा = नायकाश्चक्रवर्तिनः तैस्तुल्यः -- मनाङन्यूनतया समानः, उत्तरमरतार्धस्थापि साधने प्रवृत्तत्वादिति भावः । ' अन्भहियं' अभ्यधिकं - यथा स्यात् तथा - ' राय - तेय - लच्छीए' राजतेजोलक्ष्म्या, 'दिप्पमाणे ' दीप्यमानः, 'हस्थि - क्खंध - वर - गए' हस्ति-स्कन्ध-वर - गतः, 'सकोरंटमल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं' सकोरण्ट - माल्य-दाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेन, 'सेय-र-चामराहिं उद्धव्त्रमाणीहिं उद्धव्त्रमाणीहिं ' श्वेतवरचामरैरूद्धूयमानैरुद्भूयमानैः शोभमानः 'वेसमणे चेव' वैश्रवग इव - लोकपालः कुबेर इव ' णरवई' नरपतिः, ' अमर इसणिभार इड्ढीए' अमरपतिसन्निभया - इन्द्रसदृश्या ऋद्रया, 'पहियकित्ती ' 1 थे । ‘चक्रवर्ती जैसे थे’– इसका मतलब यह है कि उत्तर भरतार्थ के साधन में प्रवृत्त होने से चक्रवर्ती जैसे थे । (अब्भहियं रायतेयलच्छीए दिप्पमाणे) जो राजसी तेज से और राजलक्ष्मी से अधिक देदीप्यमान थे । ऐसे ये कूणिक राजा (हस्थि - कबंध - वर - गए) जब हाथी पर बैठे तब इन्हों ने अपने ऊपर ( सकोरंट-मल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं) कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र धारण किया, और इनके ऊपर (सेय- वर - चामरा हिं उदुत्रमाणीहिं २ ) सफेद चमर दुलने लगे । इनसे ये ( णरवई) राजा (वेसमणे चैत्र) कुबेर के समान दिखने लगे । तथा ( अमर इस ण्णिभाए इड्ढीए पहियकित्ती ) इन्द्र के कप्पे ) भाणुसोना राजयोना पशु रान --यवत જેવા हता. 'यवर्ती જેવા હતા'-એની મતલબ એ છે કે ઉત્તર ભરતાધ ને સ્વાધીન કરવામાં प्रवृत्त होवाथी थडवत नेवा हुता. ( अब्भहियं रायतेयलच्छीए दिप्पमाणे ) જેએ રાજસા તેજથી તથા રાજલક્ષ્મીથી અધિક દેદ્દીપ્યમાન હતા. એવા या शिराल (हत्थि - क्खंध-वरगए) न्यारे हाथी उपर मेहा त्यारे तेभ પેાતાના ઉપર ( सकोरंट - मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं) और टयुष्योनी भाजासोथी युक्त छत्र धारण यु अने तेभना उपर ( सेयवरचामराहि मी २ ) सह याभर ढोजावा साज्यां तेनाथी तेथे (णरवई) राम (वेसमगे चेव ) मेरना नेवा देणावा साज्या तथा ( अमरवइसणिभाए इड्ढीए पहिय कित्ती ) द्रना देवी ऋद्धिना अरगुथी विख्यात डीर्तीवाजा तेथे (हय Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणो-टीका सु. ५० भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् ४१७. लियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सू० ५०॥ ___ मूलम्-तए णं तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स प्रथितकीर्तिः, 'हय-गय-पवर-जोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए' हयगजरथप्रवरयोधकलितया चतुरङ्गिण्या सेनया-हयैर्गजे रथैः प्रवरयोपै रथिभिर्महारथिभिः कलितया= युक्तया, चत्वारि अङ्गानि यस्यां सा चतुरङ्गिणी तया-हयगजरथपदातिरूपैश्चतुर्भिरङ्गैः समेतया सेनया 'समणुगम्ममाणमग्गे' समनुगम्यमानमार्गः-समनुगम्यमानो मार्गो यस्य स तथा, 'जेणेव पुण्णभद्दे चेइए' यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यं 'तेणेव' तत्रैव 'पहारेत्थ' प्रधारितवान् ‘गमणाए' गमनाय पूर्णभद्रोद्यानं गन्तुं मनसि निश्चयं कृतवान् ॥सू० ५०॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स पुरओ' ततः खलु तस्य कूणिकस्य राज्ञो भंभसारपुत्रस्य पुरतः 'महं' महान्तः उच्चाः, 'आसा' अश्वाः तुरङ्गमाः, 'आसवरा' अश्ववरा-जात्या शृङ्गारेण च वराः श्रेष्ठाः अश्वाः समान ऋद्धि के कारण विख्यात कीर्त्तिवाले ये (हय-गय-पपरजोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव पहारेत्थ गमणाए) घोड़ा, हाथी और श्रेष्ठ योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना से युक्त हो जहाँ पूर्णभद्र नामका उद्यान था उस ओर चले ॥ सू. ५०॥ 'तए णं तस्स कूणियस्स रण्णो' इत्यादि । (तए णं) इसके बाद (तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स) भंभसार के पुत्र उन कूणिक राजा के (पुरओ) आगे आगे (महं आसा) बड़े उँचे २ घोडे एवं (आसवरा) जाति और शृंगार से उत्तम घोड़े चलने लगे । (उभओ पासिं णागा णागगय-पवरजोह-कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव पहारेत्थ गमणाए) घास, डाथी मने श्रेष्ठ योद्धामाथी युत ચતુરંગિણી સેનાથી યુક્ત થઈ જ્યાં પૂર્ણભદ્ર નામનું ઉદ્યાન હતું તે તરફ याच्या (सू. ५०) 'तए णं तस्स कूणियस्स रण्णो' त्यादि. (तए ण) त्या२ पछी (तस्स कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स) सारना पुत्र तेणि २नी (पुरओ) मा माग (महं आसा) पडू या या 2 तेमा (आसवरा) onla तथा श॥२थी उत्तम घास यासपा Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ औपपातिकसूत्रे पुरओ महं आसा आसवरा उभओ पासिं णागा णागवरा पिट्टओ रहसंगेल्ली ॥ सू० ५१ ॥ मूलम्-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते अब्भुगयभिंगारे पग्गहियतालयंटे ऊसविय-सेय-च्छत्ते पवीइयसंप्रस्थिताः, 'उभओ पासिं' उभयोः पार्श्वयोः वामदक्षिणयोः ‘णागा' नागाः-महान्तो गजाः ‘णागवरा' नागवराः जात्या शृङ्गारेण च वराः श्रेष्ठा गजाः संप्रस्थिताः, तथा'पिट्ठओ' पृष्ठतः= रहसंगेल्ली' रथगेल्ली रथसमूहः संप्रस्थितः । 'संगेल्ली' इति समूहवाचको देशीयः शब्दः ॥ सू० ५१ ॥ टोका-'तए णं से' इत्यादि । 'तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते' ततः खलु स कूणिको राजा भंभसारपुत्रः "अब्भुग्गयभिंगारे' अभ्युद्गतभृङ्गारः-अभ्युद्गतः पुरतः प्रस्थितः भृङ्गारः= झारी' इति प्रसिद्धं जलपात्रं यस्य स तथा 'पग्गहियतालयंटे' प्रगृहीततालवृन्तः-प्रगृहीतं तालवृन्तं यस्मै स प्रगृहीततालवृन्तः । 'ऊसवियसेय-च्छत्ते' उच्छ्रितश्वेतच्छत्रः-'ऊसविय' उच्छ्रितम्-उपरि वितानितं श्वेत-धवलं छत्रं वरा) तथा उनके दोनों तरफ बड़े २ हाथी एवं जाति से और शृंगार से श्रेष्ठ गजराज चलने लगे, और (पिट्ठओ) उनके पीछे २ (रहसंगेल्ली) रथका समूह चला ॥ ५१ ॥ 'तए णं से कूणिए राया' इत्यादि । (तए णं) उसके बाद (से कूणिए राया भंभसारपुत्ते) भंभसार के पुत्र वे कूणिक राजा कि, जिनके आगे (अभुग्गयभिंगारे) जल से भरी हुईं झारिया थीं, (पग्गहियतालयंटे) जिनके दोनों ओर पवनपंखे हो रहे थे, (ऊसविय-सेय-छत्ते) जिनके ऊपर श्वेत छत्र धरा हुआ था, तथा (पवीइय-बाल-बोयगीए) जिनके ऊपर वाल-व्यजन अर्थात् चमर ढोरा जा रहा था, साया. (उभओ पासिं णागा णागवरा) तथा तभनी भन्ने त२३ भोटा मोटर थी तेभन तिथी श॥२थी श्रेष्ठ ११४२०४ यासपा साया. तथा (पिट्टओ) तमनी पा७१ पाछ५ (रहसंगेल्ली) २थन। समूड यादया. (सू. ५१) "तए णं से कूणिए राया" ईत्याहि (तए णं) त्या२ पछी (से कूणिए राया भंभसारपुत्ते) मलसाना पुत्र ते दूणि शत ना मा ( अब्भुग्गयभिंगारे ) Aथा मरेकी आरीम। डती, (पग्गहियतालयंटे) नी भन्ने मान्नु पवन५ मा २७ २। उता, (ऊसविय-सेय-छत्ते) । ७५२ श्वेत छ घरेलु तु, तथा (पवीइयवालवीय Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टीका सु. ५२ भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् वाल-वीयणीए सव्विड्ढीए सव्वज्जुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सबविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्व-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकारेणं सव्व-तुडिय-सह-सण्णिणायस्मै स तथा । 'पवीइय-वाल-वीयणीए' प्रवीजित-वाल-व्यजनिकः-प्रवीजिता= प्रचालिता वालव्यजनिका यस्मै स तथा, 'सविडडीए' सर्वा सर्वया ऋद्धया । 'सव्वज्जुईए' सर्वद्यत्या सकलवस्त्राभरणानां प्रभया, 'सव्वबलेणं' सर्वबलेन सर्वसैन्येन, 'सबसमुदणं' सर्वसमुदयेन = सर्वपरिवारादिसमुदायेन, 'सव्वादरेणं' सर्वादरेण सर्वप्रयत्नेन, 'सव्वविभूईए' सर्वविभूत्या सर्ववैभवेन, 'सव्वविभूसाए' सर्वविभूषया = सर्वविधनेपथ्यादिधारणेन, 'सव्वसंभमेणं' सर्वसम्भ्रमेण = सर्वेण औत्सुक्येन स्नेहमयेन चाञ्चल्येनेत्यर्थः, 'सव्व-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकारेण' सर्व-पुष्प-- गन्ध-माल्या-ऽलङ्कारेण, 'सब-तुडिय-सह-सण्मिणाएणं' सर्व-त्रुटित-शब्द-संनिनादेन सर्वविधानां त्रुटितानां वाद्यानां यो शब्दः तस्य संनिनादेन प्रतिध्वनिना । 'महया ऐसे वे कूणिक राजा (सविडढीए) अपनी समस्त राज्य ऋद्धिसे (सव्वज्जुईए) समस्त वस्त्र और आभरणों की प्रभासे (सव्वबलेणं) अपनी समस्त सेनाओं से (सव्वसमुदएणं) अपने समस्त परिजनों से, (सव्वादरेण) आदरसत्काररूप सभी प्रयत्नों से (सव्वविभूईए) अपने समस्त ऐश्वर्य से (सव्वविभूसाए) सभी प्रकार के वस्त्राभरणों की शोभा से, (सव्वसंभमेणं) भक्तिजनित अत्यधिक उत्सुकता से (सव्व-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकारेणं) सब तरह के पुष्पों से, सब तरह के गन्ध द्रव्यों से, सब तरह की मालाओं से, एवं सब तरह के अलंकारों से (सबतुडिय-सह-सणिणाएणं) सभी प्रकार के वादित्रों की मधुर ध्वनि से, तथा-(महया णीए) न। ५२ पाय अर्थात् यभ२ ढोणा २ तां, मेवा ते कृष्णुि४ २० (सव्विड्ढीए) पोतानी समस्त शल्य ऋद्धिथी, (सव्वज्जुईए) सभस्त १ तथा मामरणाना प्रभाव 43, (सव्वबलेणं) पोतानी समस्त सेनाम। 43, (सव्वसमुदएण) पोताना समस्त परिन। 43, ( सव्वादरेणं) २मा२ सत्४२ ३५ सघणा प्रयत्न! 43 (सव्वविभूईए) पोतानां समस्त मैश्वर्य पडे, (सव्वविभूसाए) तमाम प्रा२नां सामरणोनी शाम 43, (सव्वसंभमेणं) मस्तिनित सत्यात उत्सुता 43, (सव्व-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकारेणं) सर्व પ્રકારનાં પુષ્પ વડે, સર્વ પ્રકારના ગંધદ્રવ્યો વડે, સર્વ પ્રકારની માળાઓ 43 तभ०४ सर्व ४२॥ २ २। 43, (सव्व तुडिय-सह-सण्णिणापणं) सर्व H४५२i raन मधु२ पनि 43, an (महया इड्ढीए) पोताना विशिष्ट Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર૦ औपपातिकसूत्रे एणं महया इड्ढीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वर-तुडिय-जमगसमग-प्पवाइएणं संख-पणवपडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरय-मुअंग-दुंदुहि-णिग्घोस-णाइय-रवेणं चंपाए णयरीए मज्झं-मज्झेणं णिग्गच्छइ ॥ सू० ५२ ॥ इडढीए' महत्या ऋद्धया 'महया जुईए' महत्या युत्या, 'महया बलेणं' महता बलेनविपुलसैन्येन, 'महया समुदएणं' महता समुदायेन समृहेन । 'महया वर-तुडियजमग-समग-पवाइएणं' महता वर-त्रुटित-यमकसमक-प्रवादितेन महताबृहता, वरत्रुटितानां = श्रेष्ठविविधवाद्यानां-यमकसमकं = युगपत्प्रवादितेन 'संख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरय-मुअंग-दुंदुहि-णिग्योस-णाइय-रवेणं' शङ्खपणव–पटह-भेरी-झल्लरी-खरमुखी-हुडुक्क-मुरज-मृदङ्ग-दुन्दुभि-निर्घोष–नादित-रवेणशङ्खादिदुन्दुभ्यन्तानां वाद्यविशेषाणां निर्घोषस्य नादितरवेण=प्रतिध्वनिना चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन ‘णिग्गच्छइ' निर्गच्छति ॥ सू. ५२॥ इड्ढीए) अपनी विशिष्ट ऋद्धि से, (महया जुईए) अपनी विशिष्ट द्युति से, (महया बलेणं) अपनी विशिष्ट सेना से (महया समुदएणं) अपने विशिष्ट परिजनों से (महया-वर-तुडियजमग-समग-पवाइएणं) एक ही साथ बजने वाले बाजों की मनोहर महाध्वनि से, तथा (संख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक-मुरय-मुअंग-दुंदुहि-णिग्योसणाइय-रवेणं ) शंख, पणव, पटह, भेरी, झल्लरी, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज, मृदङ्ग एवं दुन्दुभि के निर्घोष की प्रतिध्वनि से शोभित होते हुए (चंपाए णयरीए मज्झंमज्जेणं णिग्गच्छइ) चम्पा नगरी के बीचो-बीच से होकर चले ॥ सू. ५२ ॥ सद्धि , (महया जुईए) पोतानी विशिष्ट धुति 43, (महया बलेणं) पातानी विशिष्ट सेना 43, (महया समुदएणं). पोताना विशिष्ट परिन 43, (महया वर-तुडिय-जमगसमग-पवाइएणं) मेसाथे मातi on ना भनोडर भड़ा पनि वडे, तथा (संख-पणव-पडह-भेरी-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरय-मुअंग-दुंदुहिणिग्योस-णाइय-रवेणं) , ५१, ५८, लेरी, सारी, मरभुमी, हु, मु२०४, भृह, तम मिना निर्धाषनी प्रतिध्वनि शमिता (चंपाए णयरीए मज्झं-मज्झेणं णिग्गच्छइ) 0 नगीना पक्ष्या-१२न्य धने याल्या. (सू. ५२) Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू. ५३ भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् ४२१ मृलम्-तए णं तस्स कूणियस्स रणो चंपाए णयरीए मज्झमझेणं निग्गच्छमाणस्स बहवे अत्थत्थिया कामस्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया किविसिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चकिया नंगलिया मुहमंगलिया वद्धमाणा पूसमाणया टीका-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः चम्पानगरीमध्येन निर्गमनाऽनन्तरं खलु 'तस्स कूणियस्स रणो' तस्य कूणिकस्य राज्ञः, 'चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छमाणस्स' चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छतः 'बहवे' बहवः अनेके 'अत्थत्थिया' अर्थाऽर्थिकाः धनार्थिकाः, 'कामत्थिया' कामार्थिकाः सुखार्थिकाः । 'भोगत्थिया' भोगार्थिकाः, 'लाभत्थिया' लाभार्थिकाः=लाभाऽभिलाषिणः, 'किव्विसिया' किल्विषिकाः भाण्डचेष्टाकारिणः-हास्यकरा इत्यर्थः, 'कारोडिया' कापालिकाः, 'कारवाहिया' कारबाधिताः कर एव कारः, तेन बाधिताः राजकरपीडिताः, 'संखिया' शाङ्खिकाः शङ्खचादकाः 'चकिया' चाक्रिकाः चक्रधारकाः ‘नंगलिया' 'तए णं तस्स कणियस्स' इत्यादि। (तए णं) उसके बाद (तस्स कूणियस्स रण्णो) उस कूणिक राजा के (चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं) चंपा नगरी के मध्यभाग से होकर निकलते समय (बहवे अत्यत्थिया कामत्थिया) अनेक धनार्थियों ने-सुखार्थियों ने-(भोगत्थिया लाभत्थिया) अनेक भोगार्थियों ने, अनेक लाभार्थियों ने, (किनिसिया) भण्डचेष्टा करने वालोंने-हँसीमजाक करने वालों ने, (कारोडिया) अनेक कापालिकों ने एक प्रकार के भिक्षुकोंने, (कारवाहिया) अनेक राजकरपीडितों ने, (संखिया) अनेक शंख बजाने वालों ने (चकिया) अनेक चक्रधारियोंने, (नंगलिया) अनेक कृषकों ने, (मुहमंगलिया) अनेक शुभाशीर्वाद 'तए णं तस्स कूणियस्स' इत्याहि. (तए ण) त्या२ ५७ (तस्स कूणियस्स रण्णो) ते दूणुि राना (चंपाए णयरीए मज्झंमज्झेणं) या नगराना मध्यभागभांथी नीती मते (बहवे अत्यत्थिया कामत्थिया) मने धनाथि सामे, मने माथिमायसुमाथिमाये (भोगत्थिया लाभत्थिया) मने साथियोमे, मने allथियाणे, (किब्विसिया) मयेष्टा ४२वावाबासास-सी म४ ४२वावासामे, (कारोडिया) मने पालिये-४ प्रारना लिमामे, (कारवाहिया) मने रा०४४२ पीडितास, (संखिया) न्यने ५ मावाणासास, (चक्किया) Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરર औपपातिकसूत्र खंडियगणा ताहि इटाहि कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामाहिं हिययगमणिज्जाहिं वग्गूहिं जय-विजय-मंगलसएहिं अणवरयं अभिणंदंता य अभित्थुणंता य एवं वयासीलाङ्गलिकाः कर्षकाः 'मुहमंगलिया' मुखमङ्गलिकाः-मुखे मङ्गलं येषामस्ति ते मुखमङ्गलिकाः शुभवचनवादकाः, 'वद्धमाणा' वर्द्धमानाः स्कन्धेष्वारोपिताः पुरुषाः, “पूसमाणवा' पुष्यमानवाः मागधाः, 'खंडियगणा' खण्डिकगणाः छात्रसमुदायाः । एते सर्वे 'ताहिं' ताभिः विवक्षिताभिः, 'इट्ठाहिं' इष्टाभिर्वाञ्छिताभिः, 'कंताहिं' कान्ताभिःकमनीयाभिः, 'पियाहिं' प्रियाभिः, 'मणुण्णाहिं' मनोज्ञाभिः सुन्दरतया मनोऽनुवूलाभिः, 'मणामाहिं' मनोऽमाभिः-मनसा अभ्यन्ते-गम्यन्ते इति मनोडमास्ताभिःमनसाऽवगमनीयाभिः-हृदयाह्लादकत्वात् ; 'मणाभिरामाहि ' मनोऽभिरामाभिः, ' वग्गूहि' वाग्भिः, 'जय-विजय-मंगल-सएहिं' 'जय-विजय' इत्यादिभिर्मङ्गलकारकवचनशतैः 'अणवरयं' अनवरतम् , 'अभिणंदंता य' अभिनन्दयन्तश्च, 'अभित्थुणंता य' अभिष्टुवन्तश्च ते पूर्वोक्ता अर्थाऽर्थिकादयो बिरुदावलीपाठादिना राजानं प्रसादयन्तः ‘एवं वयासी' एवमवादिषु:-'जय जय गंदा' जय जय नन्द ! नन्दयति आनन्दयति देने वालों ने, (वद्धमाणा) कंधों पर बैठे हुए अनेक पुरुषों ने, (पूसमाणया) बिरुदावली बोलने वालों ने (खंडियगणा) छात्रगणोंने (ताहि इटाहि कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहि मणाभिरामाहि) अपनी २ भाषा के अनुसार इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, हृदयाह्लादक, मनोभिराम (हिययगमणिज्जाहिं ) एवं हृदयंगम (वग्गूहि) वचनों से (जयविजयमंगलसएहिं ) कि जिनमें जय और विजय के ही मंगलकारक शब्दों का समावेश था, (अगवरयं) अच्छी तरह (अभिगंदंता य अभित्थुणंता य एवं क्यासी) अभिनंदन एवं स्तुति करते हुए इस प्रकार कहना प्रारंभ किया-(जय जय णंदा जय भने यधाशयाये (नंगलिया) मने मेहता (मुहमंगलिया) भने शुभाशीर्वाद देववाणासामे (वद्धमाणा) ४i S५२ मेटेस। अने ५३षोये (पूसमाणया) मिक्सी मसनारामासे (खंडियगणा) छात्रगणे (ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामाहिं) पातपातानी भाषामनुसार घंट, ४भनीय, प्रिय, मनोज्ञ, या सा६४, मनोमिराभ, (हिययगमणिज्जाहिं) तेम ४ गम (वग्गूहिं) वयना । (जय-विजय-मंगलसएहिं) मा ४५ भने विशयन भा४।२४ शहानी समावेश हता, (अणवरय) सारी शते (अभिणदता य अभित्थूणता य एवं वयासी) भनिनन भर Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ पोषवर्षिणी टीका सु. ५३ भगवद्दर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् जय जय णंदा ! जय जय भद्दा ! भदं ते, अजियं जिणाहि, जियं च पालेहि, जियमज्झे साहि । इंदो इव देवाणं, चमने इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव , 4 जनान् - इति नन्दः, तत्सम्बोधने हे नन्द ! जय जय = त्वं विजयवान् भव । ' जय जय भद्दा ' जय जय भद्र ! हे भद्र ! - कल्याणस्वरूप ! विजयस्व | भद्दं ते ' भद्रं तुभ्यमस्तु । 'अजियं जिणाहि ' अजितं जय = अजितं देशादिकं जय, ' जियं च पालेहि' जितं च पालय, 'जियमज्झे वसाहि' जितमध्ये वस । तथा त्वम् ' इंदो इव देवाणं ' इन्द्र इव देवानाम्, 'चमरो इव असुराणं' चमर इव = एतन्नामक इन्द्र इव असुराणाम् = सुरविरोधिनाम्, 'धरणो इव नागाणं ' धरणेन्द्र इव नागानाम्, 'चंदो इव ताराणं ' चन्द्र इव तारागाम्, 'भरहो इव मणुयाणं ' भरत इव मनुजानाम्, 'बहूई वासाई' बहूनि वर्षाणि, 'बहूई वाससयाई ' बहूनि वर्षशतानि, 'बहूई वाससहस्साइं ' बहूनि वर्षसहस्राणि जय भद्दा ) हे नन्द - मनुष्यों को अपार आनंद प्रदान करनेवाले स्वामिन्! आपकी जय हो जय हो । हे भद्र ! - कल्याणस्वरूप ! आप सदा विजयशाली रहें। (भदं ते) आपका सदा कल्याण हो ! ( अजियं जिणाहि ) आपने जिसको नहीं जीता हो, उस पर विजय करें । (जियं च पाले हि ) जिसको आपने जीता है उसका पालन करें । (जियमज्झे साहि) जीते हुए प्रदेश में सदा आपका निवास रहे ! (इंदो इत्र देवाणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इत्र मणुयाणं) देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों मे धरणेन्द्र की तरह, ताराओं मे चंद्र की तरह और मनुष्यों में भरत की तरह आप ( बहूई वासाईं बहूई वाससयाई बहूहिं स्तुति रतां मा अारे उहेवाना प्रारंभ . ( जय जय णंदा जय जय भद्दा ) હું નં–મનુષ્યેાને અપાર આનંદ આપવાવાળા સ્વામિન! આપની જય હો भय हो ! हे लद्र ! - ४या स्व३५ ! या सहा विन्न्यशाजी रहे। ! (भद्दं ते) भानुं सही उदया हो. (अजियं जिणाहि) साये मेनेन छत्या होय तेना (५२ विनय भेजवा. ( जियं च पालेहि ) नेने आये त्या होय तेमनु पान ४. (जियमज्झे वसाहि) तेवा प्रदेशमां सहा आपनो निवास रहे (इंदो इव देवाणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव ताराणं, भरहो इव मणुयाणं) हेवामां चंद्रनी प्रेम, असुरोभां अमरेंद्रनी प्रेम, नागड्डुभाशेभां ઘરણેદ્રની જેમ, તારાઓમાં ચંદ્રની જેમ અને મનુષ્યેામાં ભરતની જેમ, या (बहूई वासाईं बहूई वाससयाई बहूई वाससहस्साईं) घणां वरसो सुधी, Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ औपपातिकसूत्रे मणुयाणं, बहूई वासाइं बहूई वाससयाइं बहूई वाससहस्साई अणहसमग्गो हतुट्टो परमाउं पालयाहि, इडजणसंपडिवुडो चंपाए णयरीए अण्णेसिं च बहणं गामा-गर-णयर-खेड'अणहसमग्गो' अनघसमग्रः, अनघश्चासौ समग्रश्चेति विग्रहः, निष्पापः परिपूर्णसम्पत्तिपरिवारादिभिः सम्पन्नश्च, यद्वा-अनघेन=पुण्येन समग्रः पूर्णः, यद्वा-न अधसमग्रः अनघसमनः सर्वविधपापरहित इत्यर्थः, 'हद्वतुट्ठो' हृष्टतुष्टः सन् 'पालयाहि' पालय ‘परमाउं' परमायु:-परमम् उत्कृष्टम्-अपमृत्युवर्जितमखण्डितं पूर्णमायुः, तथा-'इद्व-जण-संपरिवुडो' इष्टजनसम्परिवृतः-परिवारादिसमेतः, चम्पाया नगर्याः, 'अण्णेसिं च बहूर्ण गामागर-जयर-खेड-कबड-दोगमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगम-संवाह - संनिवेसाणं' अन्येषाञ्च बहूनां ग्रामा-ऽऽकर-नगर-खेट-कर्वट-द्रोणमुख-मडम्ब-पट्टना-ऽऽश्रम-निगम-वाह-संनिवेशानाम्-तत्र-ग्रामः साधारणजनवासस्थानम् , आकरः = लवणादिसम्भवस्थानम् , नगरम् अविद्यमानकरम् , खेटं धूलीप्राकारवेष्टितम् , कर्वट कुनगरम् , वाससहस्साई) बहुत वर्षांतक, बहुत सैकडों वर्षों तक, बहुत हजार वर्षों तक (अणहसमग्गो) पूर्ण पुण्यशाली रहते हुए अथवा परिपूर्ण सम्पत्ति एवं परिवार आदि से संपन्न अथवा सर्वविधपापरहित होते हुए ( हट्ठतुट्ठो परमाउं पालयाहि ) सदा आनंद और संतोष के साथ अखण्ड आयु भोगवें । (इटु-जण-संपडिवुडो चंपाए णयरीए अण्णेसिं च बहूणं गामा-गर-णयर-खेड-कबड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगम-संवाह-संनिवेसाणं आहेवचं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे ) इष्ट जनों से परिवृत होते हुए आप चंपानगरी के तथा और भी बहुत से गांवों के, आकर-लवण आदि के उत्पत्ति स्थानों के, नगरों-जिनमें कर नहीं लगता हो घ से ४ वरस सुधी, घा १२ १२से सुधी (अणहसमग्गो) पूर्ण પુણ્યશાલી રહેતાં અથવા પરિપૂર્ણ સંપત્તિ તેમજ પરિવાર આદિથી સંપન્ન मथ सर्वशते ॥५२डित २तi (हट्ठतुट्ठो परमाउं पालयाहि) सही मान तथा संतोषपूर्व ४ २५43 आयु लोगो, (इदुजणसंपडिवुडो चंपाए णयरीए अण्णेसिं च बहूणं गामा-गर-णयर-खेड-कव्वड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगमसंवाह-संन्निवेसाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्त महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे) Jष्ट भाषसो पडे परिवृत (बिटाये।) २५ ચંપાનગરીના તથા બીજાં પણ ઘણા ગામના, આકરના–લવણ આદિનાં ઉત્પત્તિસ્થાનનાં, નગરોના-જેમાં કર ન લેવાતું હોય એવી વસ્તીઓના Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौरपषिणो-टीका सू. ५३ भगवदर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् ४२६ कव्वड-दोणमुह-मडब-पट्टण-आसम-निगम-संवाह-संनिवेसाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईद्रोणमुख जलस्थलपथोपेतम् , मडम्बम् अविद्यमानासन्नग्रामान्तरम् , 'पट्टणं' पत्तनम् जलपथेन स्थलपथेन वा निर्गमप्रवेशौ यत्र तत् पत्तनम् , यथा काञ्चीतो मुम्बापुरी, यद्वा-जलपथेनैव निर्गमप्रवेशौ न तु स्थलपथेन, यथा-भारताद् आंग्लराजधानी ' इंग्लेण्ड' इति प्रसिद्धा; तत्, किंच-स्थलपथेनैव निर्गमप्रवेशौ न तु जलपथेन तत् , एतत् सर्वं पत्तनमुच्यते । यद्वायत्र सर्व वस्तु लभ्यते तत् पत्तनम् । आश्रमः तापसाद्यावासः, निगमः वाणिज्यप्रधानं नगरम् , संवाहः कृषीवलानां धान्यरक्षणस्थानम् , निवेशः सार्थकटकादीनामुत्तरणस्थानम् । तेषाम्-'आहेवच्चं' आधिपत्यम् , 'पोरेवचं' पौरोवृत्त्यम्=पुरोवर्तित्वम्-अग्रेसरत्वम् ' साऐसी बस्तियों के, खेटों के-धूलि के प्राकार से परिवेष्टित बस्तियों के, कर्बटों के सामान्य नगरों के, द्रोणमुखों-जलमार्ग एवं स्थलमार्ग से युक्त प्रदेशों के, मडम्बों-जिनके आसपास दूसरे ग्राम नहीं होते हैं ऐसे प्रदेशों के, पत्तनों के जहां जलपथ से भी एवं स्थलपथ से भी आना-जाना होता है; जैसे कराँची से बम्बई, अथवा जहां सिर्फ जलमार्ग से ही आनाजाना होता है; जैसे भारत से इङ्गलैन्ड, अथवा स्थलमार्ग से ही जहां आना-जाना होता है, ये सभी पत्तन कहलाते हैं । अथवा समस्त वस्तुओं का लाभ जहां होता है वह भी पत्तन है, ऐसे पत्तनों के, आश्रमों के अर्थात् तापस आदि के आवासों के, निगमों के अर्थात् व्यापारिक नगरों के, संवाहों के अर्थात् किसानों के धान्य आदि रखने के स्थलों के, तथा संनिवेशों के अर्थात् सार्थवाह और सेना आदि के उतरने के स्थानों के आधिपत्य को, पौरवृत्य को अग्रेसरत्वको, स्वामित्व को-प्रभुत्व को, उनके भर्तृत्व को–पोषकत्व को, उनमें महं બેટના ધૂળ (માટી)ના પ્રાકારથી પરિચ્છિત વસ્તીના, કબોના સામાન્ય નગરના, દ્રોણમુખોના-જલમાર્ગ તેમજ સ્થલમાર્ગથી યુક્ત પ્રદેશના, મહેંબના–જેની આસપાસ બીજા ગામ ન હોય તેવા પ્રદેશના, પત્તનોના-જ્યાં જલમાર્ગથી તેમજ સ્થલમાર્ગથી પણ આવી જઈ શકાતું હોય જેમકે કરાંચીથી મુંબઈ, અથવા જ્યાં માત્ર જલમાર્ગથી જ આવી જઈ શકાય, જેમકે ભારતથી ઈગલાંડ, અથવા માત્ર સ્થલ માર્ગથી જ જ્યાં જઈ આવી શકાય તે બધાં પત્તન કહેવાય છે, અથવા સમસ્ત વસ્તુઓની પ્રાપ્તિ જ્યાં થઈ શકે તે પણ પત્તન છે. એવાં પત્તના, આશ્રમના અર્થાત્ તાપસ આદિના આવાસેના, નિગમના અર્થાત્ વ્યાપારિક નગરેના, સંવાહોના અર્થાત્ ખેડુતેનાં ધાન્ય આદિ રાખવાનાં સ્થળોના, તથા સંનિવેશના અર્થાત્ સાર્થવાહ અને સેના આદિના ઉતરવાના સ્થાને ના આધિપત્યને, પૌરવૃત્યને – અગ્રેસર Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे सर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महया-हय-नट्ट-गीयवाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुअंग-पडु-प्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहराहित्ति कटु जय जय सदं पउंजेति ॥ सू. ५३ ॥ मित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं ' स्वामित्वं प्रभुत्वम् , भर्तृत्वम्=पोषकत्वम् , महत्तरकत्वम् नायकत्वम् , 'आणा-ईसर-सेणावचं' आज्ञेश्वर-सेनापत्यम्-आज्ञेश्वरः आज्ञाप्रदः सेनापतिषु यः स आज्ञेश्वरसेनापतिः, यस्याज्ञामुपादाय सेनापतिः स्वकार्ये प्रवर्तते स इत्यर्थः, तस्य भावस्तत्त्वं तत् 'कारेमाणे' कारयन् 'पालेमाणे' पालयन् प्रजाजनान् रक्षन् 'महयाहय-नट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल ताल-तुडिय-घण-मुअंग-पडु--प्पवाइय-रवेणं' महता अहत-नाट्य-गीत-वादित्र-तन्त्री-तल-ताल-तौर्यिक-घन-मृदङ्ग-पटु-प्रवादितरवेण-महता-दीर्धेण, अहतम् अव्यवच्छिन्नं यन्नाटयं-नाटकम् तत्र यद् गीतं-गेयम् , वादिनवाद्यम् , तथा तन्त्री वीणा, तलतालाः हस्तास्फोटाः, तौर्यिकम् शेषवाद्यसमुदायः, घनमूदङ्गः मेघवद् ध्वनिकारको मर्दल:-एतत्सर्वं समुदितं पटुप्रवादितं दक्षपुरुषवादितं तस्य रवेण=नादेन-आनन्दित इति गम्यते, तथाभूतः सन् ‘विउलाई' विपुलानि अत्यधित्तरकत्व-नायकत्व को, एवं आज्ञेश्वरसेनापत्य को-सेनापतियों के आज्ञाप्रदत्वरूप अधिकार को (कारेमाणे पालेमाणे) कराते हुए, पालते हुए एवं सदा (महया-ऽहय-नट्ट-गीय-वाइयतंती-तलताल-तुडिय-घणमुअंग-पडु-प्पवाइयरवेणं) व्यवधानरहित-अव्यवच्छिन्न-निरन्तर प्रवर्तित-नाटक में गाये गये गीतों के, चतुरपुरुषों द्वारा बनाये गये वादित्रों के, तथा तंत्रीवीणा के, तलताल हस्तस्फोटशब्द-तालियों के, तौर्यिक-और भी अवशिष्ट बाजों के समूह के, घनमृदंगों-मेघकी तरह गरजने वाले ढोलों के एवं मर्दलों के अविरल शब्दों से आनंदित त्खने, स्वामित्वने-प्रभुत्वने, सतवन-पोषपने, तभi भत्त२४त्पने-नायત્વને તેમજ આશ્વરસેનાપત્યને – સેનાપતિઓના આજ્ઞા પ્રદત્વરૂપ અધિકારને (कारेमाणे पालेमाणे) ४२२वता मने पालता ५४ी, तभ सहा (महयाऽहय-नट्टगीय-वाइय-तंती-तलताल-तुडिय-घणमुअंग-पडु-पवाइय-रवेणं) व्यवधान२डित. અવ્યવચ્છિન્ન-નિરંતર પ્રવર્તિત-નાટકમાં ગવાતાં ગીતોના તેમજ ચતુર પુરુષો દ્વારા વગાડાતાં વાજિત્રાના, તથા તંત્રી-વીણાના, તલતાલ–તાલિઓના, તૌયિક-બીજા બાકીનાં વાજાંઓના સમૂહના, ઘનમૃદંગ–મેઘની પેઠે ગર્જનારા લોના, તેમજ મર્દોના અવિરલ શબ્દ દ્વારા આનંદિત થતાં Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षिणी-टीका स्र. ५४ भगवद्दर्शनार्थ कूणिकस्य गमनम् मूलम् — तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते नयणमालासहस्सेहिं पेच्छिजमाणे पेच्छिनमाणे, हिययमालासहस्से हिं कानि, ‘भोगभोगाई' भोगभोगान् 'भुंजमाणे विहराहित्ति कट्टु ' भुञ्जन् विहर इति कृत्वा = इत्युक्त्वा, 'जय जय सद्दं परंजंति ' जयजयशब्दं प्रयुञ्जते-उ -जय जयेति शब्दानुच्चारयन्ति ॥ सू. ५३ ॥ टीका- ' तर णं से' इत्यादि । 'तए णं से कूणिए राया भंभंसारपुत्ते ततः खलु स कूणिको राजा भंभसारपुत्रः ' नयणमालासहस्सेहिं पेच्छिजमाणे पेच्छिजमाणे ' नयनमालासहस्रैः प्रेक्ष्यमाणः प्रक्ष्यमाणः बहुविधदर्शकजननयनपङ्क्तिभिर्वारं वारं निरीक्ष्यमाणः, 'हिययमालासहस्सेहिं अभिगंदिज्जमाणे अभिनंदिज्जमाणे ! हृदयमालासहस्रैरभिनन्दयमानः अभिनन्द्यमानः- धन्योऽयं कृतपुण्योऽयं सफलजन्माऽयमित्यादिहोते हुए (विउलाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहराहि) विपुल - अत्यधिक भोगभोगों को भोगते. हुए अपना समय निर्विघ्नरीति से व्यतीत करें, (त्तिकट्टु) इस प्रकार ( जय जय सई परंजंति) वे पूर्वोक्त अर्थाभिलाषी आदि समस्त जय जय शब्द बोलते थे ॥ सू० ५३ ॥ तणं से' इत्यादि । " (re i) इसके बाद (भंभसारपुत्ते) भंभसार के पुत्र (से) वे (कूणिए) कूणिक (राया) राजा (णयणमालासहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे) हजारों दर्शकजनों की हजारों नयनपंक्तियों द्वारा निरीक्षित होते हुए, (हियमालासहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे अभिनंदिज्जमाणे) हजारों मनुष्यों के हृदयसहस्रों द्वारा अभिनंदित होते हुए, अर्थात् -" इस राजा को धन्यवाद है, यह बड़ा पुण्यशाली है, इसका जन्म सफल है" इत्यादि - रीति से बार(विलाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहराहि) विपुस - अतिशय लोग लोगोने लोगવતા આપને સમય નિવિશ્ર્વ રીતે व्यतीत ४२. (त्ति कट्टु ) या अरे (जय जय स पउंजंति ) ते उपर ऐसा अर्थालियाषी आदि अधा भ्य भ्य शब्द मोदता हुता. (सू. ५३ ) ' तए णं से' छत्याहि. (तए णं) त्यार पछी ( भंभसारपुते ) लभसारना पुत्र (से) ते ( कूणिए) ईडि (रायां) शब्न ( णयणमालासहस्सेहिं पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे ) इन्नरो लेनारा बोडोनी डुलरो मांगो द्वारा लेवाता, (हिययमालासहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे अभिनंदिज्जमाणे) हुन्न। मनुष्योनां डुलरो हृदय द्वारा मलिनहित थवा, અર્થાત્—“આ રાજાને ધન્યવાદ છે. તેએ બહુ અહુ પુણ્યશાલી છે. તેમના જન્મ સફલ છે.' ઇત્યાદિ રીતથી વાર વાર હજારા લેાકેા દ્વારા હાર્દિક ભાવના ४२७ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे अभिणंदिज्जमाणेअभिणंदिज्जमाणे, मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुबमाणे अभिथुव्वमाणे, कंति-दिव्व-सोहग्ग-गुणेहिं पत्थिजमाणे पत्थिज्जरीत्याऽसकृत् सहस्राऽधिकजनहृदयैः स्तूयमानः, ‘मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे' मनोरथमालासहस्रैविस्पृश्यमानः विरपृश्यमानः=हीनदीनरक्षणपूर्वक सकलमनोरथपूरकत्वात्-जनानां मनोरथमालासहस्रैर्मुहुर्मुहुः स्पृश्यमानः-'नृपोऽयमस्माकमापदुद्धारकः पालकश्च, अतोऽयं शतं वर्षाणि जीवतु' इत्यादि मनोरथसहस्रविषयीभवन्इत्यर्थः । 'वयणमालासहस्सेहिं वचनमालासहस्रैः-मञ्जुलोदारवचनरचनानिचयैः, 'अभिथुन्चमाणे अभिथुव्वमाणे' अभिष्ट्रयमानः अभिष्ट्रयमानः, 'कंति-दिव्व-सोहग्ग-गुणेहिं पत्थिन्जमाणे पत्थिजमाणे' कान्तिदिव्यसौभाग्यगुणैःप्रार्थ्यमानःप्रार्थ्यमानः, कान्त्या देहदीप्त्या, प्रशस्तसौभाग्यादिगुणैश्च हेतुना जनैः सातिशयम् अभिलष्यमाणः अभिलष्यमाणः, 'बहूणं नरनारीसहरसाणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साई बार सहस्राधिक जनों द्वारा हार्दिक भावना से स्तुत होते हुए, (मणोरहमालासहस्सेहि विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे) हजारों जनों के मनोरथ सहस्ररूपी मालाओं द्वारा स्पृष्ट होते हुए, अर्थात्-हीनदीन जनों के रक्षापूर्वक समस्त मनोरथों का पूरक होने से ये राजा हम लोगों की आपत्ति से रक्षा करने वाले हैं, एवं पालक हैं, इसलिये ये सौ वर्ष तक जीवित रहें" इस प्रकार से जनों के हजारों मनोरथ का पात्र होते हुए, (वयणमालासहस्सेहिं अमिथुव्वमाणे अभिथुव्वमाणे) मंजुल एवं उदार वचनों की रचनाओं द्वारा अभिष्टुत होते हुए, (कंति-दिव्य सोहग्ग-गुणेहिं पत्थिन्जमाणे पत्थिजमाणे) देह की दीप्ति से एवं दिव्य-असाधारण सौभाग्यादिक गुणों से जनों द्वाग प्रार्थित होते हुए, (बहूणं नरनारिपूर्व स्तुति ४२|ता, (मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिप्पमाणे) गरे। લોકોના હજારે મનેરથરૂપી માલાઓ દ્વારા સ્પર્શતા, અર્થાત્ હીનદીનજનની રક્ષાપૂર્વક સમસ્ત મનોરથ પરિપૂર્ણ કરતા હોવાથી આ રાજા અમારી આપત્તિથી રક્ષા કરવાવાળા છે તેમજ પાલક છે, તેથી તેઓ સો વર્ષ સુધી वा २-मा प्रा२न बान । मनोरथाने पात्र थता, (षयणमालासहस्से हिं अभिथुव्वमाणे अभिथुव्यमाणे) Age तभ०४ २ वयनानी श्यना । मलिष्टुत थता, (कंति-दिव्व-सोहग्ग-गुणेहिं पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे) દેહની દીપ્તિથી તેમજ દિવ્ય-અસાધારણ સૌભાગ્ય આદિક ગુણેથી લેકે દ્વારા प्रार्थित यता, (बहूणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे पडिच्छ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ५४ कूणिकस्य पूर्णभद्रचैत्ये समागमनम् माणे; बहणं नरनारीसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साइंपडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे,भवणपंतिसहस्साइं समइच्छमाणे समइच्छमाणे, चंपाए नयरीए मझंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे' बहूनां नरनारीसहस्राणां दक्षिणहस्तेनाञ्जलिमालासहस्राणिबहूनां नरनारीसहस्राणां यानि अञ्जलिमालासहस्राणि राज्ञः सत्काराय विरचितानि मालारूपाणि सहस्राणि प्राञ्जलिपुटानि तानि उत्थापितेन दक्षिणहस्तेन प्रतीच्छन् प्रतीच्छन् वारंवारं स्वीकुर्वन् , 'मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे' मञ्जमजुना धोषेण अतिकोमलेन शब्देन प्रतिबुध्यमानः २=अनुमोदयन् २, 'भवण-पंति-सहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे' भवनपक्तिसहस्राणि समतिक्रामन् समतिक्रामन् , 'चंपाए नयरीए मज्झंमझेण' चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन, 'निग्गच्छइ' निर्गच्छति=निस्सरति, 'निग्गच्छित्ता' निर्गत्य, समणस्स भगवओ महावीरस्स' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ' अदूरसामंते' सहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे) हजारों नरनारियों की अंजलिरूप माला के सहस्रों को जो राजा के सत्कारार्थ विरचित हुईं थीं; अपने दक्षिण (दाहिने हाथ से स्वीकृत करते हुए, (मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे) अत्यन्त मधुर स्वर से उनलोगों के द्वारा किये हुए सत्कार-सम्मान का अनुमोदन करते हुए, (भवण-पंति-सहस्साइं समइच्छमाणे समइच्छमाणे) एवं हजारों महलों की पंक्ति को पार करते हुए. (चंपाए णयरीए मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ) चंपा नगरी के बीचमार्ग से होकर निकले, (निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागमाणे) गरे। नरनारीमान डायना हुन। ४८३५ मादाय 2 शतना सत्रार्थ २या ती तन। पोताना भाए। हाथथी स्वी४२ ४२ता, (मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे) मत्यत मधु२ २१२थी ते बारा ४२६। सत्४।२-सम्माननु मनुभाहन ४२ता, (भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे) तभ०४ । भवानी डारने ५सा२ ४२॥ (चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ) या नगरीन। १च्या मार्गमा थने नाया. (निम्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ) नीजीन न्यां पूर्णभद्र Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्रे भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासइ, पासित्ता अभिसेकं हत्थिरयणं ठवेइ, ठवित्ता आभिसेकाओहत्थिरयणाओपञ्चोरुहइ, पच्चोरुहिताअवहट्टुपंचरायकउहाई, तंजहा-खग्गं छत्तं उपफेसं वाहणाओ वालवीयणिं; जेणेव समणे अदूरसमीपे नातिदूरे नातिसमीपे, किंचिदूरे इत्यर्थः । 'छत्ताईए तित्थयराइसेसे' छत्रादिकान् तीर्थकरातिशेषान्=तीर्थकरातिशयान् 'पासई' पश्यति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा, 'आभिसेकं हत्थिरयणं' आभिषेक्यं हस्तिरत्नम् 'ठवेइ, ठवित्ता' स्थापयति, स्थापयित्वा, 'आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ' आभिषेक्यात् हस्तिर नात् 'पच्चोरुहइ' प्रत्यवरोहति अवतरति, 'पच्चोरुहित्ता' प्रत्यवरुह्य, 'अवहट्ट पंच रायकउहाई' अपहृत्य पञ्च राजककुदानि-त्यक्त्वा पञ्च राजचिह्नानि=राजाऽयमिति ज्ञापकानि चिह्नानि, 'तंजहा' तद्यथा-तानिचिह्नानि यथा-'खग्गं' खड्गम् , 'छत्तं' छत्रम् , 'उप्फेसं' मुकुटम् 'उप्फेस' इति च्छइ) निकल कर जहाँ पूर्णभद्र उद्यान था वहाँ आये, (उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासइ) आकर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर के न अतिसमीप और न अतिदूर-किन्तु कुछ ही दूर पर तीर्थकरों के अतिशयस्वरूप छत्रादिकों को देखा, (पासित्ता आभिसेकं हत्थिरयणं ठवेइ) देखते ही उन्होंने अपने हाथी को खड़ा करवाया, (ठवित्ता आभिसेकाओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ) हाथी के खड़े होते ही वे उस हाथी से नीचे उतरे, (पच्चोरुहित्ता अवह१ पंच रायकउहाई) नीचे उतरते ही उन्हों ने इन पांच राजचिह्नों का परित्याग किया, (तं जहा) वे पांच राजचिह्न ये हैं-(खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ वालवीयणि) खड्गउधान तु त्या माथ्या, (उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताइए तित्थयराइसेसे पासइ) मावीने तेमाणे श्रम मापान महाવીરથી બહુ દૂર નહિ તેમ બહુ સમીપ નહિ, પણ જરા દૂરે, તીર્થકરેના अतिशय २१३५ छाडिने नयां, (पासित्ता आभिसेक्कं हत्थिरयणं ठवेइ) dir माथे पोताना थाने ले २४ाव्या, (ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ) हाथी नो २डेत ४ ते ते हाथी ५२थी नीय उता, (पच्चोरुहित्ता अवहट्ट पंच रायकउहाइं) नीचे उतरीने ४ तमामे पाय शथिलोना त्या ज्यो. (तंजहा) त पाय २४ यिनी ॥ छ-(खग्गं छत्तं उपफेसं वाहणाओ वालवीयणिं) मतसवा२, छत्र, 8.स-भुट, पानत Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका सू. ५४ कूणिकस्य भगवदुपासना ४३१ भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तंजहा-(१) सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए, (२) अचित्ताणं दव्याणं अविओसरणयाए, (३) एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं, (४) देशीयः शब्दः, 'वाहणाओ' उपानहौ 'बालवीयणिं' वालव्यजनीम्-चामरम्, एतानि त्यक्त्वा, 'जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरः, 'तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता' तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य, 'समणं भगवं महावीरं' श्रमणं भगवन्तं महावीरं 'पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ' पञ्चविधेनाऽभिगमेनाभिगच्छतिपञ्चप्रकारेण अभिगमेन=सत्कारविशेषेण अभिमुखं गच्छति, 'तंजहा' तद्यथा-तत्पञ्चविधाभिगमनं यथा-'सचित्ताणं दवाणं विओसरणयाए' सचित्तानां द्रव्याणां व्युत्सर्जनतयाहरितफलकुसुमादीनां वस्तूनां त्यागेन १, 'अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरणयाए' अचित्तानां द्रव्याणामव्युत्सर्जनतया, अचित्तानां वस्त्राभरणादीनाम् अत्यागेन २, ‘एगसाडियमुत्ततलवार, छत्र, मुकुट, उपानत्-पगरखे, एवं वालव्यजनी-चामर । फिर वे (जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ) जहां श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे वहाँ पर आये, (उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ) जाते ही वे पांच प्रकार के अभिगमन-सत्कारविशेष से युक्त होकर प्रभु के सन्मुख पहुँचे । वे पांच प्रकार के सत्कारविशेष इस प्रकार हैं-(सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए) हरित फल फूल आदि सचित्त द्रव्यों का परित्याग करना, (अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरणयाए) वस्त्र आभरण आदि अचित्त द्रव्यों का परित्याग नहीं करना, (एगसाडियमुत्तरासंगकरणेणं) भाषा की यतना के लिये अखण्ड अर्थात् जो सीया हुआ न हो ५॥२i, तभ०४ पासव्यसनी-याभ२. ५छी तसा (जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ) च्या श्रमाणु मगवान महावीर मिश। त्या माव्या. (उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ) मातi જ તેઓ પાંચ પ્રકારનાં અભિગમન-સત્કારવિશેષથી યુક્ત થઈને પ્રભુના सन्भु ५ ५i-या. ते पांय ४२ना सा२विशेष ॥ ४॥२॥ छ-(सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए) दीai m दूस माहि सचित्त द्रव्योनी परित्याग ४२३, (अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरणयाए) पत्र-याल२६४ माहि मथित द्रव्यानी परित्या न ३२, (एगसाडियमुत्तरासंगकरणेणं) लापानी यतन Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ औपपातिक चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं, (५) मणसो एगत्तभाव करणेणं, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता तिविहाए पज्जुवासणरासंगकरणं' एकशाटिकोत्तराऽऽसङ्गकरणेन- भाषायतनार्थम् अस्यूतेन एकपटेन उत्तरासङ्गकरणं तेन ३, 'चक्खुप्फासे ' चक्षुःस्पर्शे - श्रीमहावीरे दृष्टिमागते, 'अंजलिपरगहेणं' अञ्जलिप्रग्रहेण=कृताञ्जलिपुटेन ४, ' मणसो एगत्तभावकरणेणं' मनस एकत्र - भावकरणेन–मनसः चित्तस्यैकत्र = भगवद्विषये भावकरणेन = स्थिरीकरणेन, एवं पञ्चविधाभिगमेन 'समणं भगवं महावीरं ' श्रमणं भगवन्तं महावीरम् अभिगम्य, तस्य श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ‘तिक्खुत्तो' त्रिकृत्वः 'आयाहिणपयाहिणं' आदक्षिणप्रदक्षिणम् = अञ्जलिपुटं बद्ध्वा तं बद्धाञ्जलिपुटं दक्षिणकर्णमूलत आरभ्य ललाटप्रदेशेन वामकर्णान्तिकेन चक्राकारं त्रिः परिभ्राम्य ललाटदेशे स्थानरूपं, 'करेइ' करोति, 'करिता ' कृत्वा ' वंदइ नमसइ ' वन्दते नमस्यति–स्तौति नमस्करोति, वंदित्ता नमसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा, 'तिविऐसे वस्त्र का उत्तरासङ्ग करना, (चक्खुप्फासे अंजलिपग्ग हेणं) जब से भगवान दिखायी दें, तभी से दोनों हाथों को जोड़ना, और (मणसो एगत्तभावकरणेणं) मन को एकाग्र करके भगवान में लगाना । इस प्रकार इन पाँच अभिगमनों से युक्त होकर राजाने भगवान् महावीर प्रभु को तीन बार (आयाहिणपयाहिणं) आदक्षिणप्रदक्षिण-अञ्जलिपुट को दाहिने कान से लेकर शिर पर घुमाते हुए बायें कान तक ले जाकर फिर उसे घुमाते हुए दाहिने कान पर ले जाना और बाद में उसे अपने ललाट पर स्थापन करना - रूप आदक्षिणप्रदक्षिण (करेइ) किया, (करिता) आदक्षिणप्रदक्षिण कर के ( वंदइ नमसइ) वन्दना और नमस्कार किया । ( वंदित्ता नमसित्ता) वन्दना नमस्कार कर के (तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ) માટે અખંડ અર્થાત્ જે સીવેલાં ન હેાય તેવાં વસ્રનું ઉત્તરાસંગ કરવું, (चक्खु फासे अंजलिपग्गहेणं) न्यारथी लगवान हेणाय त्यारथी ४ मन्ने हाथने लेडवा, मने (मणसो एगत्तभावकरणेणं) भनने मेअथ रीने लगवानभां જોડવું. આ પ્રકારે આ પાંચ અભિગમનેાથી યુક્ત થઇને રાજાએ ભગવાન भडावीर प्रभुने त्रशु वार ( आयाहिणपया हिणं ) माहाक्षशुप्रट्टक्षिण-मसियुटने જમણા કાનથી લઈને શિર ઉપર ઘુમાવતાં ડાબા કાન સુધી લઈ જઈને પાછે તેને ઘુમાવીને જમણા કાને લઈ જવા અને પછી તેને પોતાના કપાળે સ્થાथन ४२वा३य आदक्षिणु- प्रदक्षिणु (करेइ) यु, (करिता ) महक्षिण- अदक्षिणु ४ने (वंदइ नमसइ) वहना भने नमस्कार . ( वंदित्ता नर्मसित्ता) पहना Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू. ५४ दूणिकस्य भगवद्पासना याए पज्जुवासइ, तंजहा-काइयाए वाइयाए माणसियाए । काइयाए-ताव संकुइयग्गहत्थपाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ । वाइयाए-जं जं भगवं हाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासइ' त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपास्ते-भगवतः पर्युपासनां विधत्ते, 'तंजहा' तद्यथा-तत् त्रिविधत्वं दर्शयति-'काइयाए वाइयाए माणसियाए' कायिक्या वाचिक्या मानसिक्या, पर्युपास्ते इति पूर्वेणान्वयः । तत्र कायिक्या पर्युपासनया तावत् ‘संकुइयग्गहत्थपाए' सङ्कुचिताऽग्रहस्तपादः, 'सुस्सूसमाणे' शुश्रूषमाणः= सेवमानः, ‘णमंसमाणे' नमस्यन्-अभिमुखे विनयेन प्राञ्जलिपुटः पर्युपास्ते, 'वाइयाएजं जं भगवं वागरेइ' वाचिक्या पर्युपासनया-यद् यद् भगवान् व्याकरोति व्याख्याति, त्रिविध पर्युपासना से उनकी उपासना की। वह त्रिविध उपासना इस प्रकार है-(काइयाए वाइयाए माणसियाए) काय से उपासना करना, वचन से उपासना करना एवं मन से उपासना करना। (काइयाए ताव) कायिक उपासना इस प्रकार से उसने की-(संकुइयग्गहत्थपाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ) प्रभु के समीप वे हाथपावों को संकुचित करके उचित आसन से बैठे । उनसे धर्म सुनने की इच्छा करने लगे, उन्हें बारंबार नमस्कार करने लगे, पुनः नम्र होकर प्रभु के सम्मुख दोनों हाथों को जोड़ते हुए प्रभु की सेवा करने लगे । (वाइयाए) वचन से उपासना उन्होंने इस प्रकार की-(जं जं भगवं वागरेइ) जो जो भगवान् कहते थे, उस पर राजा इस प्रकार कहते थे, हे भगवान् ! (से जहेयं तुब्भे वदह) आप जैसा कहते हैं, (एवमेयं भंते!) हे नभ२४॥२ ४शन (तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ) विविध पर्युपासना तेमनी उपासन। ४. ते विविध उपासना मा प्ररे छ-(काइयाए वाइयाए माणसियाए) याथी पासना ४२वी, क्यनथी उपासना ४२वी तभ० भनथा उपासना ४२वी. (काइयाए ताव) यि उपासना तणे 41 रे ४री-(संकुइयग्गहत्थपाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ) પ્રભુની પાસે તેઓ હાથ-પગને સંકુચિત કરીને ઉચિત આસન પર બેઠા. તેઓ પાસેથી ધર્મ સાંભળવાની ઈચ્છા કરવા લાગ્યા, તેમને વારંવાર નમસ્કાર કરવા લાગ્યા, અને નગ્ન થઈને પ્રભુના સન્મુખ બને હાથ જોડીને प्रभुनी सेवा ४२१॥ साया. (वाइयाए) क्यनथी तभणे या प्रमाणे उपासना ४२-(जं जं भगवं वागरेइ) २. लगवान ४ता ता ते ५२ २२० । मारे माता ता-डे मावान् ! (से जहेयं तुम्भे वदह) २।५ म ४ छ। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ औपपातिकसूत्रे वागरेइ, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुन्भे वदह-अपडिकूलतत्र तत्र–'एवमेयं भंते !' एवमेतद् भदन्त ! हे भगवन् ! यद् भवानुपदिशति तद् एवमेवास्ति, 'तहमेयं भंते !' तथैतद् भदन्त ! हे भगवन् ! भवता यदुपदिष्टं तत्तथैव । 'अवितहमेयं भंते !' अवितथमेतद् भदन्त ! हे भगवन् ! भवदुक्तमेतत् सर्वं सत्यमेव । 'असंदिद्धमेय भंते ! ' असन्दिग्धमेतद् भदन्त ! हे भगवन् ! एतत् सन्देहरहितं देशशङ्कासर्वशङ्कावर्जितम् । 'इच्छियमेयं भंते !' इष्टमेतद् भदन्त ! हे भगवन् ! एतद्भव द्वचनमस्माभिर्वाञ्छितमेव, 'पडिच्छियमेयं भंते ! ' प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! हे भगवन् ! पुनः * पुनरिष्टमेतद् भवद्वचनम् , 'इच्छियपडिच्छियमेयं भंते !' इष्टप्रतीष्टमेतद् भदन्त ! हे भगवन् ! एतद् वचनम् इष्टप्रतीष्टोभयरूपं वर्तते । ' से जहेयं तुब्भे वदह' तद्यथैतद् यूयं वदथ-तदेतद् यथा भवन्तः कथयन्ति तत्तथैवेति वदन् 'अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ' अप्रतिकूलयन् प्रतिकूलाचरणं वर्जयन् पर्युपास्ते । 'माणसियाए' मानसिक्या-मन:भगवन् ! यह ऐसा ही है, (तहमेयं भंते !) हे भगवन् ! यह वैसा ही है, (अवितहमेयं भंते !) हे भगवन् ! आपने जो कहा सो सत्य है, (असंदिद्धमेयं भंते!) हे भगवन् ! यह देशशङ्का और सर्वशङ्का से सर्वथा रहित है, (इच्छियमेयं भंते !) हे भगवन् ! आपका यह वचन हम लोगों के लिए सर्वदा वाञ्छनीय है, (पडिच्छियमेयं भंते!) हे भगवन् ! यह आपका वचन हम लोगों के लिये सर्वथा वाञ्छनीय है, (इच्छियपडिच्छियमेयं भंते!) हे भगवन् ! यह आपका वचन हम लोगों के लिये सर्वदा और सर्वथा वाञ्छनीय है। इस प्रकार राजा-(अपडिकूलमाणे) भगवान के साथ अनुकूल आचरण करते हुए (पज्जुवासइ) उनकी उपासना करने लगे। (माणसियाए) राजा ने भगवान् की मानसिक उपा(एवमेयं भंते !) हे भगवन् ! से अभ०४ छ, (तहमेयं भंते !) हे भगवन् ! से सभा छ, (अवितहमेयं भंते !) हे भगवन् ! माघे रे ४थुते सत्य छे. (असंदिद्धमेयं भंते ! ) मापन् ! २ मा क्यन शश। भने सर्वशासाथी सर्वथा २डित छे. (इच्छियमेयं भंते !) मावन् ! मापन - वयन सभा२। भाटे सांछनीय छे. (पडिच्छियमेयं भंते !) मगवन् ! ॥ सायनां वयन अमा। भाटे सर्वथा पांछनीय छ, (इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते !) मगन् ! २॥ सायनां पयन समा२। भाटे सहा मने सर्वथा पांछनीय छे. 240 घारे २०० (अपडिकूलमाणे) सापाननी साथे अनुस Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सु. ५४ कूणिकस्य भगवदुपासना ४३५: माणे पज्जुवासइ | माणसिया ए - महयासंवेगं जणइत्ता तिव्वध-: म्माणुरागरत्ते पज्जुवासइ ॥ सू० ५४ ॥ मूलम् - तए णं ताओ सुभद्दप्पमुहाओ देवीओ अंतो अंतेउरंसि पहायाओ जाव पायच्छित्ताओ सव्वालंकारविभूसि सम्बन्धिन्या पर्युपासनया, 'महयासंवेगं ' महासंवेगं = महद्वैराग्यं ' जणइत्ता ' जनयित्वा 'तिव्व - धम्मा - णुराग-रत्ते ' तीव्र-धर्मानुराग-रक्तः सन् ' पज्जुवासइ ' पर्युपास्ते, अनेन वीतरागाणं पुष्पधूपादिभिः सावद्यपूजा निराकृता ॥ सूत्र ५४ ॥ टीका — 'तए णं ताओ' इत्यादि । 'तए णं' ततः खलु 'ताओ सुभद्दप्प-: मुहाओ' ततः तदनन्तरम् - सुभद्राप्रमुखाः 'देवीओ' देव्यः = राश्यः अंतो अंतेउरंसि अन्तरन्तःपुरस्य स्त्रीभवनमध्ये, 'व्हायाओ जाव पायच्छित्ताओ' स्नाताः यावत् प्रायसना इस प्रकार की - (महया संवेगं जणइत्ता तिव्व-धम्मा - णुराग-रते पज्जुवासइ) प्रभु. के से धर्म का उपदेश सुन कर राजा के हृदय में परम वैराग्य उत्पन्न हुआ और धर्मानुराग से प्रेरित होकर वे प्रभु की उपासना करने लगे । इस सूत्र से वीतरागों की पुष्पधूप आदि से सावद्य पूजा करना सर्वथा निषिद्ध है - यह सूचित होता है ॥ सू० ५४ ॥ 'तए णं ताओ इत्यादि । मुख (तए णं) इसके बाद (ताओ सुभद्दप्पमुहाओ देवीओ) वे सुभद्राप्रमुख देवियां भी (अंतो अंतेउरंसि) अंतः पुरस्थ स्त्रीभवन के मध्यवर्ती स्नानागार में (व्हायाओ जाव आयर ४२ता (पज्जुवा सइ) तेभनी उपासना ४२वा साज्या ( माणसियाए) રાજાએ ભગવાનની માનસિક ઉપાસના २मा प्र}ारे ४री- (महया संवेगं जणइता तिव्व- धम्मा-णुराग-रत्ते पज्जुवासइ) प्रभुना भुजथी धर्मना उपदेश सांलળીને રાજાના હૃદયમાં પરમ વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થયું, અને ધર્માનુરાગથી પ્રેરિત થઇને તેઓ પ્રભુની ઉપાસના કરવા લાગ્યા. આ સૂત્રથી વીતરાગાની પુષ્પ ધૂપ આદિ વડે સાવદ્યપૂજા કરવી એ સર્વથા નિષિદ્ધ છે તે સૂચિત થાય છે. (सू० १४.) 66 तए णं ताओ" इत्याहि. (तए णं) त्यार पछी ( ताओ सुभद्दष्पमुहाओ देवीओ ) ते सुभद्रा प्रभु हेवीओ। यषु (अंतो अंतेउरंसि ) मतःपुरभां स्त्रीलवनना मध्यवर्ती स्नानागारभां (ण्हायाओ जाव पायच्छित्ताओ) स्नान इरीने तुङ तथा असिउर्भथी Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र याओ बहूहिं खुजाहिं चिलाईहिं वामणीहिं वडभीहिं बब्बरीहिं बउसियाहि जोणियाहिं पल्हवियाहिं ईसणियाहिं चारुइणियाहिं श्चित्ताः-यावत्-शब्दात्-'कृतबलिकर्माणः कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः' इति सङ्गहः, तथा 'सव्वालंकार-विभूसियाओ' सर्वा-sलङ्कार-विभूषिताः सर्वैरलङ्कारैरलङ्कृता : 'बहूहिं खुजाहिं' बह्वीभिः कुब्जाभिः-वक्रशरीराभिः 'कूबडी' इति प्रसिद्धाभिः, 'चिलाईहिं किरातीभिः किरातदेशोपन्नाभिः, 'बामणीहिं' वामनाभिः-अतिहस्व शरीराभिः, 'वडभीहिं' वटभिकाभिः वक्राऽधःकायाभिः, 'बब्बरीहिं' बर्बरीभिः=बर्बरदेशोत्पन्नाभिः, 'बउसियाहि' बकुशिकाभिः, 'जोणियाहिं' योनिकाभिः योनिकदेशोत्पन्नाभिः, 'पल्हवियाहिं' पह्लविकाभिः=पह्नवदेशोत्पन्नाभिः, 'ईसिणियाहिं' 'ईसिन' नामकोऽनार्यदेशस्तत्रोत्पन्नाभिः 'चारुइणियाहिं' चारुकिनिकाभिः, 'चारुकिनिक' देशविशषोत्पन्नाभिः, 'लासियाहिं लासिकाभिः लासकदेशोपायच्छित्ताओ) स्नान करके कौतुक तथा बलिकर्म से निवृत्त होकर, (सव्वा-लंकार-विभूसियाओ) एवं समस्त अलंकारों को धारण कर (बहू हिं खुज्जाहिं चिलाईहिं ) अनेक कुबडी दासियों से, अनेक किरातिनियों–किरात देशमें उत्पन्न दासियों से, (वामणीहिं) अनेक वामनियोंसे-जिनका शरीर अत्यंत हस्व-छोटा था ऐसी दासियों से, (वडभीहिं) अनेक वटभियो–जिनकी कमर बिल्कुल झुक गई थी ऐसी दासियों से, (बब्बरीहिं) बर्बर देशोद्भव अनेक दासियों से, (बउसियाहिं) बकुश देश की दासियों से, (जोणियाहिं) यूनान देश की दासियों से, (पल्हवियाहि) अनेक पह्लविकाओं-पह्नवदेश की दासियों से, (ईसिणियाहिं) इसिन नाम का एक अनार्यदेश है इस देश की दासियों से, (चारुइणियाहिं) चारुकिनिक देश की दासियों से, (लासियाहिं) लासकदेश की दासियों से, (लउसियाहि) निवृत्त ने (सव्वालंकारविभूसियाओ) तेभ सर्व मशिने धारण ४शने (बहूहिं खुजाहिं चिलाईहिं) मने जुपडी हासीमाथी, मने ४ि२१तीसा-सित देशमा उत्पन्न थयेसी हासीयाथी, (वामणीहिं) मने वाभનિઓ-જેનાં શરીર અત્યંત નાનાં-(ઠીંગણા) હતાં એવી દાસીઓથી, (वडभीहिं) मने पटलीमा-भनी भ२ छ४ वी ४ ती मेवी हासीसाथी( बब्बरीहिं ) मर-देशात्पन्न सने हासीसाथी, (बउसियाहिं) भश शनी हासीमाथी, (जोणियाहिं) यूनान शनी हासीमाथी, (पल्हवियाहिं) मने पडसविधाय-५६सय हेशनी हासीमाथी, (ईसिणियाइिं) सिन नामनो से मनायः देश छे ते शनी सीसाथी, (चारुइणियाहिं) या३तिनि४ शिनी सीयाथी, (लासियाहिं) पास शिनी हासमाथी, (लउसियाहिं) सशशिनी हासीमाथी (सिंहलीहिं) सिंडस शिनी Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका सु. ५५ सुभद्रादीनां भगवदर्शनार्थ गमनम् ४३७ लासियाहिं लउसियाहिं सिंहलीहिं दमलीहि, आरबीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहिं णाणादेसीहिं विदेस-वेस-परिमंडियाहिं इंगिय-चिंतिर-पत्थियवियाणियाहिं सदेसणेवत्थ-ग्गहिय-वेसाहिं चेडिया-चक्कवाल-वत्पन्नाभिः, 'लउसियाहि' लकुशिकाभिः-लकुशदेशोत्पन्नाभिः, 'सिंहलीहिं' सिंहलीभिः= सिंहलदेशोत्पन्नाभिः 'दमिली हिं' द्रविडीभिः द्रविडदेशोत्पन्नाभिः, 'आरबीहिं' आरबीभिः= अरबदेशोत्पन्नाभिः, 'पुलिंदीहिं' पुलिन्दीभिः पुलिन्ददेशोत्पन्नाभिः, 'पक्कणीहिं' पक्कणीभिः= पक्कणदेशोत्पन्नाभिः, 'बहलीहिं' बहलीभिः=बहलनामकोऽनार्यदेशस्तत्रोत्पन्नाभिः, 'मुरुंडीहिं' मुरुण्डीभिः मुरुण्डदेशोत्पन्नाभिः, 'सबरी हिं' शबरीभिः शबरदेशोत्पन्नाभिः, 'पारसीहिं पारसीभिः पारसदेशोत्पन्नाभिः, किरातादयः सर्वेऽनार्यदेशाः, 'णाणादेसीहि नानादेशीयाभिः,'विदेस-वेस-परिमंडियाहि विदेश-वेष-परिमण्डताभिः विविध-देशपरिमण्डनयुक्ताभिः, 'इंगियचिंतिय-पत्थिय-वियाणियाहिं'इङ्गित-चिन्तित-प्रार्थित-विज्ञाभिः,इङ्गितम् अभिप्रायानुरूपलकुशदेश की दासियों से, (सिंहलीहिं) सिंहलदेश की दासियों से, (दमिलीहिं) द्रविडदेश की दासियों से, (आरबीहिं) अरबदेश की दासियों से, (पुलिंदीहिं) पुलिन्ददेश की दासियों से, (पक्कणीहिं) पक्कणदेश की दासियों से, (बहलीहिं) बहल नाम के अनार्य देश की दासियों से, (मुरुंडिहिं) मुरुण्डदेश की दासियों से, (सबरी हिं) शबरदेश की दासियों से, (पारसी हिं) पारसदेश की दासियों से, (ये किरात आदि जितने भी देश हैं वे सब अनार्य देश है) इन (णाणादेसीहिं) अनेक देश की दासिया, जो (विदेस-वेसपरिमंडियाहि) विदेशी वेष भूषा से सज्जित थीं, (इंगिय-चिंतिय-पत्थिय-वियाणियाहिं) इंगित को अर्थात् अभिप्राय के अनुरूप चेष्टा को, चिन्तित को अर्थात् मनोगत भावको, हासीसाथी, (दमिलीहिं) द्रविड हेशनी हासीमाथी, (आरबीहिं) २०२५ शनी हासीमाथी (पुलिंदीहिं) पुति शनी सीमाथी (पक्कणीहिं) ५४४१४ शनी हासीसाथी, (बहलीहिं) पडत नाभना मनार्य शनी सीमाथी, (मुरुंडीहिं) भु२४ शिनी हासीसाथी, (सबरीहिं) ०५२ शनी सीसाथी, (पारसीहिं) પારસ દેશની દાસીઓથી, આ કિરાત આદિ જેટલા દેશ છે તે બધા અનાર્ય हेश छ, 24 (णाणादेसीहिं) मने शनी हासीमा २ (विदेस-वेस-परिमंडियाहिं) विश वेष भूषाथी सnिd sती, (इंगिय-चिंतिय-पत्थिय वियाणियाहिं) ઈંગિતને એટલે અભિપ્રાયને અનુરૂપ ચણાને, ચિન્તિતને એટલે મને ગત ભાવને, Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ औपपातिक सू :-अन्तः रिसवर – कंचुइज्ज - महत्तर - बंद - परिक्खित्ताओ अंतेउराओ णिग्गच्छ न्तिणिभ्गच्छित्ता जेणेव पाडियक्कजाणारं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पाडियक्कपाडियक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताइं जाणाई दुरूचेष्टितम्, चिन्तितं=मनोगतं, प्रार्थितम् = अभिलपितं तेषां विज्ञाभिः, 'सदेस - णेवत्थ-‍ -ग्गहिय - वेसाहिं' स्वदेश- नेपथ्य – गृहीत - वेषाभिः - स्वदेशस्य यानि नेपथ्यानि – वस्त्रभूषणधारणरीतयः, तैर्गृहीता वेषा याभिः तास्तथा ताभिः, 'चेडिया - चक्कवाल - वरिसवर-कंचुइज्ज - महत्तर - वंद - परिक्खित्ताओ' चेटिका - चक्रवाल - वर्षवर - कञ्चुकीय - महत्तर - वृन्दपरिक्षिप्ताः--चेटिकानां–दासीनां चक्रवालं मण्डलम्, वर्षवराः - क्लीबाः, कञ्चुकीयाः = अ पुरबहिः प्रदेशरक्षकाः, तदन्ये ये महत्तराः = प्रामाणिका अन्तःपुररक्षकाः, तेषां यद् वृन्दं तेन परिक्षिप्ताः=परिवेष्टिता यास्तास्तथा सुभद्राप्रमुखा देव्यो = राश्यः 'अंतेउराओ णिग्गच्छंति' अन्तःपुरात्—स्त्रीगृहान्निर्गच्छन्ति, 'णिग्गच्छित्ता' निर्गत्य, 'जेणेव पाडियकजाणाई' यत्रैव प्रत्येकयानानि=पृथक् २ यानानि सन्ति, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य 'पाडियक्क - पाडि - प्रार्थित को अर्थात्–अभिलषित को जानने में विज्ञ थीं, (सदेस - णेवत्थ-ग्गहिय- वेसाहिं) अपने २ देश की रीति के अनुसार वेषभूषा धारण की हुई थीं, ऐसी इन विदेशी दासियों से, तथा-(वेडिया-चक्कवाल - वरिसवर-कंचुइज्ज - महत्तर - वंद - परिक्खित्ताओ ) विदेशी दासियों से भिन्न दासियों के समूह से, वर्षवरों से नपुंसकों से, कंचुकियों से तथा और भी अन्य प्रामाणिक अन्तःपुर रक्षकों से परिक्षिप्त - घिरी हुईं होकर (अंतेउराओ णिग्गच्छंति) अंतःपुर निकलीं, (णिग्गच्छित्ता) निकलकर ( जेणेव पाडियकजाणाई) जहां अपने २ योग्य अलग २ यान रखे हुए थे, (तेणेव उवागच्छंति) वहां पर पहुँची, ( उवागच्छित्ता पाडियकपाडियक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई दुरूहंति) पहुँच कर उन पृथक् २ प्रार्थितने भेटले अभिलाषाने लगी सेवामां निपुणु हुती, (सदेसणेवत्थगहियवेसाहिं) नेभेोभे पोतपोताना देशनी रीत प्रमाणे वेष धारण ४रेखे। हुता ओवी या विदेशी हासीमोथी, तथा (चेडिया - चक्कवाल - वरिसवर-कंचुइज्ज - महउत्तर- वंद - परिक्खित्ताओ ) विदेशी हासीमोथी लुट्ठी हासीखोना समृहुथी, तथा વવર–નપુંસકાથી, કંચુકીએથી, તથા બીજા પણ પ્રામાણિક અંતઃપુરરક્ષठोथी परिक्षिप्त-वीटामेली मनीने (अंतेउराओ णिग्गच्छंति) अंतःपुरथी नीडजी, (णिग्गच्छित्ता) नीजीने (जेणेव पाडियक्कजाणाई ) नयां पोतपोताने योग्य हां हां यान (वाहनो) रामवामां भाव्यां तां ( तेणेव उवागच्छंति) त्यां यहींथी. ( उवागच्छित्ता पाडियक्कपाडियक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई दुरू Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ५५ सुभद्रादीनां भगवद्दर्शनार्थ गमनम् ४३९ हंति, दुरूहित्ता णियग-परियाल सद्धिं संपरिवुडाओ चंपाए णयरीए मझंमज्झेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभदे चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणस्स भगव ओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्तादीए तित्थयराइसेसे पासंति, यक्काई' प्रत्येकप्रत्येकानि=पृथक् २ कल्पितानि 'जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई'-यात्राभिमुखानि युक्तानि यानानि-यात्राभिमुखानि भगवदर्शनार्थगमनाय सज्जितानि युक्तानि बलीवर्दैः योजितानि, यानानि=रथान् 'दुरूहंति' अधिरोहन्ति, 'दुरूहित्ता' अधिरुह्य, "णियगपरियाल सद्धिं' निजकपरिवारैः सार्द्धम् , 'संपरिवुडाओ' सम्परिवृताः समन्ताद्वेष्टिताः, चम्पाया नगर्या मध्यमध्येन, 'णिग्गच्छंति निर्गच्छन्ति, 'णिग्गच्छित्ता' निर्गत्य, 'जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छंति' यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यं तत्रैवोपागच्छन्ति, 'उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते' उपागत्य श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यादूरसमीपे 'छत्तादीए तित्थयराइसेसे' छत्रादिकान् तीर्थकरातिशेषान्-तीर्थकरातिशयान् यानों पर, जो भगवान के दर्शन के लिये ले जाने के निमित्त पहिले से सज्जित कर रखे हुए एवं बलीवर्द आदिकों से युक्त थे; सबार हुई। (दुरूहित्ता णियग-परियाल सद्धिं) सबार होकर अपने २ परिवारों के साथ (संपरिवुडाओ) परिवेष्टित होती हुई वे सब देवियां (चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं) चंपा नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर (णिग्गच्छंति) निकलीं, (णिग्गच्छित्ता) निकलकर (जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छंति) जिस ओर पूर्णभद्र चैत्य (उद्यान) था, उस ओर आयीं, (उवागच्छित्ता) आकर (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्तादीए तित्थयराइसेसे पासंति) उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर से कुछ दूर पर रहे हुए तीर्थंकरों के अतिशय हंति) पडांचीने ते नुहा नु। याना-२थे। ५२ २ मावानन शने । માટે પહેલાંથી તૈયાર કરી રાખવામાં આવ્યાં હતાં તેમજ બળદ જોડી रामेi di तमां मेi, (दुरूहित्ता णियग-परियाल सद्धिं) मेसीन पातपाताना परिवारनी साथे (संपरिवुडाओ) युत धने ते सधी हेवास। (चंपाए णयरीए मझमज्झेण) पानगरीना मरोस२ च्या-पयन। भागे थने (णिग्गच्छंति) नाजी, (णिग्गच्छित्ता) नामीन (जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छंति) २ त२५ पूलद्र शैत्य (Gधान) तु ते त२५ मावी, (उवागच्छित्ता) मावीने (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्तादीए तित्थयराइसेसे पासंति) तेभाणु Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सू पासित्ता पाडियक्कपाडियक्काडं जाणारं ठवेंति, वित्ता जाणेहिंतो पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता, बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ताओ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविणं अभिगमेणं अभिगच्छंतिः 'पासंति' पश्यन्ति, 'पासित्ता' दृष्ट्वा, 'पाडियक- पाडियक्काई जाणाई ठवेंति' प्रत्येकप्रत्येकान यानानि स्थापयन्ति, स्थापयित्वा 'जाणेहिंतो पच्चोरुहंति' यानेभ्यः प्रत्यवरोहन्ति = अवतरन्ति, 'पच्चोरुहित्ता' प्रत्यवरुह्य, 'बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ताओ' बह्वीमिः कुब्जिकाभिर्यावत्परिक्षिप्ताः=परिवेष्टिताः,यावच्छब्दात्पूर्वोक्ता विविधदेशजातिसमुद्भूता ग्राह्याः, 'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति'यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छन्ति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति ' श्रमणं भगवन्तं महावीरं पञ्चविधेनाऽभिगमेनाभिगच्छन्ति, पञ्चविधमभिगमनं स्फुटीकरोति - ' तं जहा ' तद्यथा स्वरूप छत्रादिकों को देखा, (पासित्ता) देख कर उन सबने (पाडियक्कपाडियक्काई जाणाई ठवेंति) अपने २ (पृथक् २) यानों को रोक दिया और वे ( जाणेहिंतो पचोरुहंति) उन यानों से नीचे उतरीं, (पच्चोरुहित्ता ) उतर कर ( बहूहिं खुज्जाहिं जा परिक्खित्ताओ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति) उन अनेक कुब्जादिक दासियों से परिवृत होती हुईं वे जहां श्रमण भगवान् महावीर थे वहां पर आयीं, ( उवागच्छित्ता) आकर उन्हों ने (समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति) प्रभु के निकट जाने के लिये पांच प्रकार के अभिगमनों को अच्छी तरह धारण किया । वे पाँच प्रकार के अभिगमन ये हैं-(सचित्ताणं दव्त्राणं विओसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं अवि ४४० શ્રમણ ભગવાન મહાવીરથી જરા દૂર રહેલા તીથ કરાના અતિશય સ્વરૂપ छत्राहिने लेयां, (पासित्ता) ले ने अधी (पाडियक्कपाडियक्काई जाणाई ठवेंति) पोतपोताना (लुद्दा लुहा) यानो-स्थाने रोडी हीघा, मने तेभी ( जाणेहिंतो पच्चोरुहंति) ते यानामांथी नीचे उतरी, (पच्चोरुहित्ता) उतरीने (बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ताओ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति) ते अने કુબ્જા આદિક દાસીઓના પરિવાર સહિત જ્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર હતા त्यां यावी, (उवागच्छित्ता) खावीने तेथे थे (समणं भगव महावीरं पंचविणं अभिगमेणं अभिगच्छंति) प्रभुनी पासे ४वा भाटे यांय प्रहारना अलिगमनाने सारी રીતે ધારણ કર્યાં. તે પાંચ પ્રકારનાં અભિગમન छे- (सचित्ताणं दव्वाणं Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पोयूषवर्षिणी-टोको सू. ५५ सुभद्रादीनां पूर्णभद्रचैत्ये समागमनम् ४४१ तंजहा-१ सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए, २-अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरणयाए, ३-विणओणयाए गायलट्ठीए, ४-चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, ५-मणसो एगत्तीभावकरणेणं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपायाहिणं करेंति, 'सचित्ताणं दव्याणं विओसरणयाए' सचित्तानां द्रव्याणां व्युत्सर्जनतया-सचित्तद्रव्यत्यागेन,१, 'अचित्ताणं दवाणं अविओसरणयाए' अचित्तानां द्रव्यागामव्युत्सर्जनतया-अचित्तद्रव्याणां वस्त्राभरणादीनामपरित्यागेन २, ‘विणओगयाए गायलट्ठीए' विनयावनतया गात्रयष्टया ३, 'चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं' चक्षुःस्पर्शेऽञ्जलिप्रग्रहेण= श्रीवर्धमाने महावीरे चक्षुर्विषये सति अञ्जलिविरचनेन ४, 'मणसो एगत्तीभावकरणेणं' मनस एकत्रीभावकरणेन-मनसः चित्तस्य एकत्रीभावकरणं-एकत्र=भगवद्विषये स्थिरीकरणं तेन ५, एतद्रूपेण पञ्चप्रकारेण अभिगमेन, 'समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता वंदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता' श्रमणस्य ओसरणयाए, विणओगयाए गायलट्ठीए, चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीभावकरणेणं) सचित्त द्रव्यों का परित्याग करना-प्रभु के दर्शन करने के लिये जाते समय अपने पास सचित्त वस्तुओं को नहीं रखना, अचित्तवस्त्रादिकों का त्याग नहीं करना, विनय से अवनत गात्र-शरीर होना-विनयभार से नम्रीभूत होना, प्रभु के दिखते ही दोनों हाथों को जोड़ना, एवं प्रभु की भक्ति में मन को एकाग्र करना। इन पांच अभिगमनों से युक्त सपरिवार उन रानियों ने (समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति) श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिण किया, (करित्ता वंदति नमसंति) विओसरणयाए, अचित्ताणं दव्याणं अविओसरणयाए, विणओणयाए गायलट्ठीए, चक्खु'फासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीभावकरणेणं) सचित्त द्रव्योन। परित्याग કરવો–પ્રભુ દર્શન કરવા માટે જતી વખતે પિતાની પાસે સચિત્ત વસ્તુઓ ન રાખવી ૧, અચિત્ત વસ્ત્રાદિકનો ત્યાગ કરવો ૨, વિનયથી નમાવેલ ગાત્રશરીર રાખવું-વિનયભારથી નમ્રીભૂત થવું ૩, પ્રભુને જોતાંજ બને હાથ જોડવા ૪, તેમજ પ્રભુની ભક્તિમાં મનને એકાગ્ર કરવું ૫; આ પાંચ અભિआमनाथी युक्त सपरिवार ते राणगामे (समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति) श्रमाणु सावान महावीरने वा२ मा क्षिप्रहक्षिण ४ा, (करित्ता वंदति णमंसंति) पछी पहना तेभ०४ नम२४२ ४यो, Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ओपपातिकत्र करित्ता वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता कूणियरायं पुरओ कट्टु ठिइयाओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउडाओ पजुवासंति ॥ सू० ५५ ॥ मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रणो भंभसारपुत्तस्य सुभद्दापमुहाणं देवीणं तीसे य महइमहाभगवतो महावीरस्य त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति, कृत्वा वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा, 'कूणियरायं पुरओ कटु ठिइयाओ चेव' कूणिकराजं पुरतः कृत्वा स्थिता एव 'सपरिवाराओ' सपरिवाराः-परिजनसमेताः, 'अभिमुहाओ' अभिमुखाः भगवदृष्टिपथे, 'विणएणं पंजलिउडाओ पज्जुवासंति' विनयेन प्राञ्जलिपुटाः कृताञ्जलिपुटाः पर्युपासते ॥ सू० ५५ ॥ 'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः द्वादशविधपरिषदुपस्थितिसमनन्तरं खलु 'समणे भगवं महावीरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'कूणियस्स रणो भंभसारपुस्सस्स' कूणिकस्य राज्ञो भंभसारपुत्रस्य 'सुभद्दापमुहाणं देवीणं' सुभद्राप्रमुखाणां देवीनाम्-'तीसे पश्चात् वंदना एवं नमस्कार किया, (वंदित्ता णमंसित्ता कूणियरायं पुरओ कटु ठिइयाओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउडाओ पज्जुवासंति) वंदना नमस्कार कर चुकने के बाद फिर वे, कूणिक राजा को आगे कर के खड़ी खड़ी विनयपूर्वक हाथ जोड़ कर भगवान की सेवा करने लगीं ॥ सू. ५५ ॥ __ 'तए णं ' इत्यादि। (तए णं) बारह प्रकार के परिषद जम जाने पर (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान् महावीर ने (कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स ) भंभसार अर्थात् श्रेणिक (वंदित्ता णमंसित्ता कूणियरायं पुरओ कट्ट ठिइयाओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउडाओ पज्जुवासंति) वंदना नम२४।२ ४२री सीधा पछी वणी ते કૃણિક રાજાને આગળ કરીને ઉભી ઉભી વિનયપૂર્વક હાથ જોડીને ભગવાનની सेवा ४२१। al. (सू. ५५) “तए णं" त्याहि. (तए ण) मा२ ४२नी परिष६ १२७ rdi (समणे भगवं महावीरे) श्रम जापान मडावी२ (कूणियस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स ) मनसा२ अर्थात् श्रेष Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषवर्षिणी-टीका स्रु. ५६ भगवतो धर्मदेशना ४४३ लियाए परिसाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अगसयाए अणेगसयवंदाए अणेग सयवंद परिवाराए य महइमहालियाए' तस्याश्व महातिमहत्याः 'परिसाए' परिषदः = सभायाः, 'इसि परिसाए' ऋषिपरिषदः - ऋषन्ति = जानन्ति अवधिज्ञानादिनेति ऋषयः - अतिशयज्ञानवन्तः तेषां परिषत्सभा तस्याः, 'मुणपरिसाए' मुनिपरिषदः - मुणन्ति - मन्यन्ते वा = प्रतिजानन्ति सर्वसावद्यव्यापारोपरतिम् इति मुणयो - मुनयो वा - सर्वविरतिमन्तः, तेषां परिषत् तस्या मुणिपरिषदो, मुनिपरिषदो वा, 'जइपरिसाए' यतिपरिषदः - यतन्ते दशविधयतिधर्मे इति यतयः । तथा चोक्तम्- - एवं यः शुद्धयोगेन, परित्यज्य गृहाऽऽश्रमान् । संयमे रमते नित्यं स यतिः परिकीर्तितः ॥ १ ॥ इति तेषां यतीनां परिषत् - तस्याः, 'देवपरिसाए' देवपरिषदः - देवानां = भवनपत्यादिचतुर्विधदेवानां परिषत् -- तस्याः, 'अणेगसयाए' अनेकशतायाः - अनेकानि शतानि यस्यां साऽनेकशता तस्याः, 'अणेगसयवंदाए' अनेकशतवृन्दायाः = अनेकशतानि वृन्दानि = समूहा यस्यां साऽनेकशतवृन्दा तस्याः, 'अणेगसयवंद परिवाराए' अनेकशतवृन्दपरिके पुत्र कूणिक राजा को, तथा - ( सुभद्दापमुहाणं देवीणं ) सुभद्राप्रमुख राजरानियों को, (ती से य महइमहालियाए ) तथा उस बड़ी भारी ( परिसाए ) सभा को, (इसिपरिसाए ) ऋषियों-अवधिज्ञान से पदार्थों को जानने वालों की सभा को, (मुणिपरिसाए) मुनियों-सर्वसावद्य व्यापारों के मन वचन एवं काय आदि से त्यागियों की सभा को, ( जइपरिसाए ) गृहाश्रम का परित्याग कर जो मन, वचन, काय के शुद्धयोग से संयम में अर्थात् दश प्रकार के यतिधर्म में नित्य यत्नवान होते हैं वे यति हैं, उनकी सभा को, ( देवप रिसाए ) भवनपति आदि चतुर्निकाय के देवों की सभा को, ( अणेगसयाए ) अनेकशतसंख्यावाली ( अणेगसयवंदाए) अनेकशत वृन्द ( समूह ) वाली ( अणेगउना पुत्र लिए रामने, तथा - ( सुभद्दापमुहाणं देवीणं) सुभद्रा - प्रमुख रामराणीथेने (तीसे य महइमहालियाए) तथा ते महु भोटी (परिसाए) सलाने, (इसि परिसाए) ऋषिमेो-अवधिज्ञानथी यहार्थोने लगुवावाजाभोनी सलाने, (मुणिपरिसाए) भुनिओ सर्व सावद्यव्यापाराने भन वथन तेभन या माहिथी त्याग ४२नारनी सलाने, (जइपरिसाए) गृहस्थाश्रमना परित्याग पुरी ने मन, વચન, કાયના શુદ્ધયાગથી સંયમમાં અર્થાત્ દશ પ્રકારના યતિધમ માં नित्य यत्नवान रहे छे ते यति छे तेभनी सलाने, (देवपरिसाए) भवनयति आद्दि येतुर्निष्ठायना हेवोनी सलाने, (अणेगसयाए) अनेक शत (सेो) संख्या Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ औपपातिकसूत्रे ओहबले अइबले महब्बले अपरिमिय-बल-वीरिय-तेय-माहप्प-कंति-जुत्ते सारय-णवत्थणिय -महुर-गंभीर-कोंच-णिवारायाः-अनेकशतवृन्दं परिवारो यस्यां सा तथा तस्याः, इत्थम्भूताया विविधायाः परिषदः, अत्र कर्मणः सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठी; 'ओहवले' ओधबल: अप्रतिबद्धबलशाली,' अइवले'. अतिबल:=अतिशयबलवान् , 'महब्बले' महाबल:- अनुपमप्रशस्तशक्तिमान् , 'अपरिमिय-बल-वीरिय-तेय-माहप्प-कंति-जुत्ते' अपरिमित-बल-वीर्य-तेजो-माहात्म्यकान्ति–युक्तः, अपरिमितम् अत्यधिकं बलं शारीरिकम् , वीर्य=जीवसम्भूतम् , तेजो-दीप्तिः, माहात्म्यम् प्रभावः, कान्तिः सौन्दर्यम् , एतैर्युक्तः, 'सारय-णव-स्थणिय-महुर-गंभीरकोंच-णिग्योस-दुंदुभि-स्सरे' शारद-नव-स्तनित-मधुर-गम्भीर-क्रौञ्च-नि?ष-दुन्दुभिस्वरः-शारद-शरत्कालिकं यन्नवस्तनितं-नवघनगर्जितं तद्वन्मधुरो गम्भीरश्च तथा क्रौञ्चनिसय-वंद-परिवाराए) अनेकशत-समूह-युक्त परिवार वाली उस सभा को, (अरहा) अहंत प्रभु (धम्म) श्रुतचारित्ररूप धर्म का (भासइ) उपदेश देते हैं-इस शाश्वत नियम के अनुसार ( अद्धमागहाए भासाए) अर्धमागधी भाषा द्वारा (धम्म) श्रुतचारित्ररूप धर्म का (परिकहेइ) उपदेश दिया। भगवान् कैसे थे ? सो कहते हैं-भगवान् महावीर प्रभु (ओहबले अइबले महब्बले अपरिमिय-बल-वीरिय-तेय-माहप्पकंति-जुत्ते ) अप्रतिबद्धबलशाली थे । अतिशयवलिष्ठ थे। अनुपम-प्रशस्त शक्ति-संपन्न थे। अपरिमित बल, वीर्य, तेज, माहात्म्य एवं कांति से युक्त थे। बल से यहां पर शारीरिक शक्ति का कांग्रह हुआ है। वीर्य से जीव की असाधारण शक्ति का ग्रहण किया गया है। प्रभाव का नाम माहात्म्य है, शारीरिक सुन्दरता का नाम कांति है। (सारय-णवपाणी (अणेगसयवंदाए) मनेशत वृन्ह (सभूड) पाजी (अणेग-सय-वंद-परिसाए) मने-शत-समूड युत परिवारपाजी ते समाने, (अरहा) मत प्रभु (धम्म) श्रुतयारित्र३५ धर्मने। (भासइ) उपहेश मापे छे-मा शाश्वत नियमने मनुसरीने (अद्धमागहाए भासाए) 4-भागधी लापा द्वारा (धम्म) श्रुतयारित्र ३५ धमनी (परिकहेइ) पहेश २मायो. भगवान । ता? ते ४ छ-मावान महावीर प्रभु (ओहबले, अइबले, महब्बले, अपरिमिय-बल-वीरिय तेय-माहप्प-ति-जुत्त) मप्रतिमद्ध मसाजी , अतिशय मजपान ता. अनुपम પ્રશત-શક્તિ-સંપન્ન હતા. અપરિમિત બેલ, વીર્ય, તેજ, માહામ્ય તેમજ કાંતિથી યુક્ત હતા. બલથી અહીં શારીરિક શક્તિનો સંગ્રહ સમજવું. વીર્યથી જીવની અસાધારણ શક્તિને અર્થ ગ્રહણ કર્યો છે. પ્રભાવને અર્થ માહાત્મ્ય छ. शारीरि४ सुदरता मेट ४iति छे. (सारय-णव-स्थणिय-महुर-गंभीर-कोंच Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ५६ भगवतो धर्मदेशना ग्घोस - दंदुभि-स्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइore अगरलाए अमम्मणाए सव्व - क्खर - सण्णिवाइयाए घोषवत् - क्रौञ्चः पक्षिविशेषस्तस्य मञ्जुलकू जनवत्, दुन्दुभिस्वरवच्च स्वरो यस्य स तथा-शारदजलधरध्वनिवत् क्रौञ्चकलकूजनवद् दुन्दुभिस्वरवन्मधुरगम्भीरदूरगामिध्वनियुक्त इत्यर्थ: । 'उरे वित्थडाए' उरसि विस्तृतया - वक्षःस्थलस्य विस्तीर्णत्वात् तत्र विस्तारमुपगतया, 'कंठे वट्टयाए' कण्ठे वृत्ततया, स्वार्थे तल्, वृत्तया इत्यर्थः कण्ठस्य वर्त्तुलत्वात् तत्र वृत्तरूपेण स्थितया, ‘सिरे समाइण्णाए' शिरसि समाकीर्णया - शिरसि = मूर्ध्निसमाकीर्णया = व्याप्तया, ततः 'अगरलाए' अगरलया = व्यक्तया - मूर्ध्नः परावृत्य वक्रमागत्य ताल्वादितत्तत्स्थानं प्राप्य वर्णसमुदायस्वरूपं प्राप्तया इति भावः, 'अमम्मणाए' अमन्मनया=वर्णपदवैकल्यरहितया, 'सव्वक्खरसन्निवाइयाए' सर्वाक्षरसन्निपातिकया - सर्वे अक्षरसन्न - पाताः=वर्णःसंयोगाः सन्ति यस्यां सा तथा - सकलवाङ्मयस्वरूपा तया, भगवतः सर्वज्ञतया सर्वार्थवाचकशब्दप्रयोगकरणादिति भावः ; 'पुण्ण रत्ताए' पूर्णरक्तया – पूर्णा स्वरकलादि - स्थणिय-महुर-गंभीर - कोंच - णिग्घोस- दुंदुभि-रसरे ) भगवान् की ध्वनि शरत्कालीन नवीन मेघ की गर्जना जैसी मधुर एवं गंभीर थी । तथा क्रौंचपक्षी के मंजुल निर्घोष की तरह मीठी एवं दुंदुभि के स्वर की तरह बहुत दूर तक जानेवाली थी । (उरे वित्थडाए ) वक्षस्थल के विस्तीर्ण होने से वहाँ पर विस्तार को प्राप्त हुई ऐसी (कंठे वट्टयाए) कंठ के वर्तुल होने के कारण वहाँ पर गोलरूप से स्थित, ( सिरे समाइण्णाए ) मस्तक में व्याप्त, ( अगरलाए ) मस्तक से वक्ररूप में आकर उन २ ताल्वादिकस्थानों में प्राप्त होकर वर्णसमुदायस्वरूप को प्राप्त, अत एव स्पष्ट उच्चारणवाली, ( अमम्मणा ) मण मण शब्द से रहित अर्थात् वर्ण एवं पद की विकलता से रहित, (सव्वक्खरसणिवाइयाए ) सकलवाङ्मयस्वरूप - समस्त अक्षरों के संयोगवाली -सकल णिग्घोस - दुंदुभि-रसरे) लगवाननो ध्वनि, शरह अजना नवीन भेधनी गर्भना જેમ મધુર તેમજ ગંભીર હાય તેવા હતા. તથા કૌંચ પક્ષીના મંજુલ નિર્ધાષના જેમ મીઠા તેમજ દુંદુભિના સ્વરના જેમ બહુ દૂર સુધી જાય તેવે डुतेो. (उरे वित्थडाए) वक्षस्थल विस्तीर्ण (पडोजु ) होवाथी त्यां विस्तारने प्राप्त थयेसी, (कंठे वट्टयाए ) ४: गोण होवाना अरो त्यां गोज ३५थी स्थित, (सिरे समाइण्णाएं) भस्तम्भां व्यास, (अगरलाए) भस्तथी व ३५भां भावी ते ते તાલુ આદિક સ્થાન પ્રાપ્ત કરી વણુ સમુદાયસ્વરૂપને પ્રાપ્ત હાવાથી સ્પષ્ટ ઉચ્ચાराजु बाजी, (अमम्मणाए) भाणु-भणु शब्द रहित अर्थात् वशु तेभन पहनी विश्वताथी रडित (सव्व - क्खर - सण्णिवाइयाए) सस वाङ्मयस्व३य-समस्त अक्ष ४४५ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ औपपातिकसत्रे पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ, अरिहा धम्म परिकहेइ । तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्म आइक्खइ, सावि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियभिरुपपन्ना रक्ता च गेयरागेण मालकोशाख्येन युक्ता च तया, 'सव्वभासाणुगामिणीए' सर्वभाषानुगामिन्या सर्वभाषापरिणमनशीलया, 'सरस्सईए' सरस्वत्या वाण्या, 'जोयणणीहारिणा' योजननिर्झरिणा-योजनप्रमाणदूरगामिना 'सरेणं' स्वरेण ध्वनिना, अर्द्धमागध्या भाषया भाषते । 'अरिहा धम्म परिकहेई' अर्हन् धर्म परिकथयति । 'तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं' तेषां सर्वेषामार्याऽनार्याणाम् आर्याणाम् आर्यदेशोत्पन्नाम् , अनार्याणाम् अनार्यदेशोत्पन्नाम् , 'अगिलाए' अग्लायन्-ग्लानिरहितो 'धम्म' धर्म=श्रतचारित्रलक्षणम् , 'आइक्खइ' आख्याति-कथयति । 'सावि य अद्धमागहा भासा' साऽपि च अर्द्धमागधी भाषा-प्राकृतभाषालक्षणबहुला, 'तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं' तेषां भाषामय, (पुण्णरत्ताए ) स्वर एवं कलादिकों से उत्पन्न तथा मालकोश नामक गेयराग से युक्त, (सबभासाणुगामिणीए) और सर्वभाषापरिणमनस्वभाववाली ऐसी (सरस्सईए ) सरस्वती-वाणी से, जो (जोयणणीहारिणा) एक योजन तक दूर जाने वाले स्वर से युक्त थी और जिसका दूसरा नाम अर्धमागधी भाषा था; (तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्म आइक्खइ ) उन समस्त आर्यदेशोत्पन्न एवं अनार्यदेशोत्पन्न मानवों को श्रुतचारित्र रूप धर्म का विना किसी खेद के प्रभु ने उपदेश दिया। (सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अपणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ) प्रभु ने जिस अर्द्धमागधी भाषा द्वारा उन रोना सयोगवाजी-स४सलाषाभय, (पुण्णरत्ताए) २१२ तेभ साथि सत्पन्न मातोश नामगेयाथी युत, (सव्वभासाणुगामिणीए) सलाषा-परिणमन२१मावाणी मेवी (सरस्सईए) स२२पती-पाणीथी, है (जोयणणीहारिणा) मे જન સુધી દૂર જાય તેવા સ્વરથી યુક્ત હતી તથા જેનું બીજું નામ અર્ધभागधी भाषा तुं, (तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्म आइक्खइ) તે સમસ્ત આર્ય-અનાર્ય–દેશોત્પન્ન માનવને શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને કંઈ પણ मेह विना प्रमुम्मे पहेश माल्यो. (सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ) प्रभुमेरे सभागधी Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ पीपवर्षिणो-टीका सु. ५६ भगवतो धर्मदेशना मणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ। तंजहाअस्थि लोए, अस्थि अलोए, एवं जीवा अजीवा बंधे मोक्खे पुण्णे सर्वेषाम् आर्याणामनार्यागाम्, 'अप्पणो' आत्मनः स्वस्य, 'सभासाए' स्वभाषायाः, 'परिणामेणं परिणमई' परिणामेन परिणमति, यादृशं धर्म कथयति तं दर्शयति-'तं जहा' तद्यथा'अत्थि लोए' अस्ति लोकः-इत्यादिः 'सफले कल्लाणपावए' इत्यन्तो ग्रन्थो धर्मस्वरूपप्रदर्शकः । लोकः-पञ्चास्तिकायमयः । 'अस्थि अलोए' अस्त्यलोकः-अलोकः केवलाकाशरूपः-एतयोरस्तित्वाभिधानं शून्यवादनिरासार्थम् । 'एवं जीवा' "अस्थि जीवा" सन्ति • जीवाः-जीवाः-उपयोगलक्षगाः । इदं नास्तिकमतनिराकरणार्थम्। 'अस्ति अजीवा' सन्ति अजीवाः जडलक्षणाः, एतत्कथनमद्वैतवादनिराकरणार्थम् । 'अत्थि बंधे' अस्ति बन्धःसमस्त आर्य और अनार्यों को श्रुतचारित्ररूप धर्म का उपदेश दिया वह प्रभु की भाषा, उन समस्त आर्य-अनार्यों की अपनी २ भाषा में परिणमित होने के स्वभाववाली थी। भगवान् ने जिस तरह धर्म का उपदेश दिया सूत्रकार उसे यहां प्रकट करते हैं . (अत्थि लोए) पंच-अस्तिकायमय यह लोक अस्ति-स्वरूप है। (अस्थि अलोए) केवल आकाशस्वरूप अलोक भी अस्तिस्वरूप है। लोक और अलोक में अस्तित्वस्वरूपता का कथन बौद्धों द्वारा संमत शून्यवाद के निराकरण करने के लिये जानना चाहिये । (एवं जीवा) इसी तरह उपयोगलक्षणवाला जीव भी अस्तित्वविशिष्ट है। जीव में अस्तित्वविधान नास्तिकमत के परिहारनिमित्त जानना चाहिये । (अजोवा) जिसका लक्षण जड है ऐसा अजीव पदार्थ भी भावस्वभावविशिष्ट है। अजीव पदार्थ की सत्ता का वह निरूपण अद्वैतवाद के निराकरण के लिये जानना चाहिये। (बंधे) जीव और कर्मोंका संबंध ભાષા દ્વારા તે સમસ્ત આર્ય અને અનાય લોકોને શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપે, પ્રભુની તે ભાષા તે સમસ્ત આર્યો અનાર્યોની પિતાની ભાષામાં પરિણામ પામવાવાળા (સમજાય તેવા)-સ્વભાવવાળી હતી. ભગવાને वीरीत भनी पहेशहीधा ते सही सूत्रा२ ४८ ४२ छ-(अत्थि लोए) पंयमस्तियमय मा सो मस्तिस्१३५ छे. (अस्थि अलोए) वर माशસ્વરૂપ અલોક પણ અસ્તિસ્વરૂપ છે. લોક અને અલકમાં અસ્તિસ્વરૂપતાનું કથન બૌદ્ધો દ્વારા સંમત શૂન્યવાદનું નિરાકરણ કરવા માટે જાણવું જોઈએ. (एवं जीवा) मा शत 6पयोगसक्षशवाजा १.५ मस्तित्व-विशिष्ट જીવમાં અસ્તિત્વનું વિધાન નાસ્તિકમતના પરિહારનિમિત્તે જાણવું જોઈએ. (अजीवा) नु सक्षY ४४ छ ता २०७१ पदार्थ ५४ ला१-२१मा-विशिष्ट છે. અજીવ પદાર્થની સત્તાનું આ નિરૂપણ અદ્વૈતવાદનાં નિરાકરણ (પરિહાર) Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪૮ कर्मणा जीवसम्बन्धोऽस्ति, बन्धनं बन्धः - आत्मप्रदेशानां ज्ञानावरणीयादिकर्मपुद्गलानां च परस्परं क्षीरोदकवत् सम्बन्ध इत्यर्थः । एतत्कथनं सांख्यादिमतनिराकरणार्थम् | 'अस्थि मोक्खे' अस्ति मोक्षः = जीवस्य अखिलकर्मक्षयो मोक्षः सोऽस्ति । सकलकर्मणां क्षय:- आत्मप्रदेशेभ्योऽपगमः, तथासति सकलकर्मविमुक्तस्य ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणस्यात्मनः स्वस्वरूपेऽवस्थानं मोक्ष इत्यर्थः । सकलकर्मक्षयसमकालमेव औदारिकशरीरात्यन्त वियुक्तस्यास्य मनुष्यजन्मनः समुच्छेदः, बन्धहेत्वभावाच्चोत्तरजन्मनः पुनरप्रादुर्भावः, आत्मा ज्ञानाद्युपयोगलक्षणः स्वरूप बंध भी है । जिस प्रकार दूध और पानी का परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप संबंध होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप जो संबंध है उसका नाम बंध है । बंध के अस्तित्व का विधान सदा आत्मा को एकान्त शुद्ध माननेवाले सांख्य आदि की मान्यता को निराकरण करने के लिये जानना चाहिये। (मोक्खे) मोक्ष है। जब बंध है तो उसके अत्यंताभावस्वरूप जीव के समस्त कर्मोंका क्षयस्वरूप मोक्ष भी है । आत्मा जब समस्त कर्मों से बिल्कुल रिक्त हो जाता है तब ज्ञानदर्शनरूप अपने स्वरूप में इसका शाश्वतिक अवस्थान हो जाता है । इसीका नाम आत्मा की मुक्ति है । मतलब इसका यह है कि आत्मा से जिस समय शुलध्यान के प्रभाव से समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है उसी समय इसके गृहीत औदारिक शरीर का अत्यन्त वियोग हो जाता है । इस औदारिक शरीरका अत्यन्त वियोग होना ही मनुष्यजन्मका समुच्छेद है । बन्ध तुओंका अभाव होने से इस आत्मा को फिर उत्तरकाल जन्मकी प्राप्ति होती नहीं है । भाटे लवु लेहये. (बंधे) व भने उर्भाना संधस्व३५ अंध पशु छे. જેવી રીતે દૂધ અને પાણીના પરસ્પર એકક્ષેત્ર-અવગાહ રૂપ સંબંધ થાય છે તેજ પ્રકારે જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મ પુદ્ગલાના આત્મપ્રદેશેાની સાથે એકક્ષેત્રાવગાહ રૂપ જે સંબંધ છે તેનું નામ અંધ છે. બંધના અસ્તિત્વનુ` વિધાન, સદા આત્માને એકાન્ત શુદ્ધ માનવાવાળા સાંખ્ય આદિની માન્યતાનું નિરાકરણ ४२वा भाटे लावु हाये. (मोक्खे) भोक्ष छे. न्यारे अंध छे त्यारे तेना અત્યંત અભાવ સ્વરૂપ-જીવનાં સમસ્ત કર્મના ક્ષય સ્વરૂપ મેાક્ષ પણ છે. આત્મા જ્યારે સમસ્ત કર્માથી બિલકુલ રિક્ત (મુક્ત) થઈ જાય છે ત્યારે જ્ઞાન-દર્શન-સ્વરૂપ પેાતાના સ્વરૂપમાં શાશ્વતિક તેનુ અવસ્થાન થઈ જાય છે. આનું જ નામ આત્માની મુક્તિ છે. એની મતલબ એ છે કે આત્મામાંથી જે વખતે શુકલધ્યાનના પ્રભાવથી સમસ્ત કર્મના ક્ષય થઇ જાય છે તેજ વખતે તેનાથી ગ્રહણ કરાયેલા ઔદારિક શરીરને અત્યંત વિયેાગ થઈ જાય છે. આ ઔદ્યારિક શરીરના અત્યંત વિયોગ થવા એ જ મનુષ્ય જન્મને સમુદેદ છે. ખંધના હેતુઓને અભાવ થવાથી આ આત્માને ઉત્તરકાળમાં ફ્રી જન્મની પ્રાપ્તિ થતી નથી. આ માટે આ આત્મા, પેાતાના--જ્ઞાન-દર્શન ઉપ औपपातिक Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ५६ भगवतो धर्मदेशना ४४९ पावे आसवे संवरे वेयणा णिजरा अरिहंता चकवट्टी बलदेवा केवलः शुद्धः इत्येषाऽवस्था मोक्ष इत्यास मायते इति भावः । 'अस्थि पुण्णे' अस्ति पुण्यम्पूयते पवित्र क्रियते आत्मा अनेनेति, पुनाति आत्मानमिति वा पुण्यं शुभकर्म, 'पूब परने' इत्यस्माद्धातोः 'पूजो यण्णुक हस्वश्च' इत्यौणादिकसूत्रेण सिद्भिः, पुण्यं हि संसारपारावारोत्तरणे तरगिभूतम् । अनेनैवार्यजनय हाभिजनकुलबोधिबीजनिजधर्मादिप्राप्तिर्जायते । किं बहुना तीर्थकरगोत्रमपि पुण्येनैव बध्यते. यो हि पुण्यं सर्वथा हेयं मन्यमानत्तत् त्यजति, असौ समुपेक्षिततरिरिवाऽप्राप्तपरतीरो मध्येसमुद्रं मज नवसीदति । 'अस्थि पावे' अस्ति पापम्-पातयति=शुभपरिणामाद् ध्वंसयमात्मानमिति पापम् , पापमेवाऽपचीयमानं सुखं जनइसलिये यह आत्मा अपने ज्ञानदर्शनोपोगरूप स्वभाव में मग्न होता हुआ केवल शुद्ध अवस्थावाला हो जाता है। आत्माकी इसी अवस्थाका नाम मोक्ष है । (पुणे) पुण्य है। आत्मा जिसके द्वारा पवित्र किया जाय उसका नाम पुण्य है, अथवा जो आत्मा को पवित्र करे ऐसा जो शुभकर्म है उसका नाम पुण्य है । यह पुण्यकर्म जीव को संसाररूप पारावार से पार करने के लिये नौकास्वरूप है । इसीके प्रभाव से आर्यदेश, उच्चकुल में जन्म, बोधिबीजइत्यादि समस्त उत्तमोत्तम वस्तु की प्राप्ति इस जीव को होती है । ज्यादा और क्या कहा जाय ? तीर्थंकरगोत्रकर्म का बंध भी तो साक्षात् इसी पुण्य का फल है। जो व्यक्ति इस पुण्य कर्म को सर्वथा हेय समझकर उसका परित्याग कर देते हैं वे, जिसने दूसरे तीर को प्राप्त किये विना समुद्र के बीच में ही जहाज का परित्याग कर दिया है उस मनुष्य के समान हैं । ( पावे ) पाप है। जो इस जीव को शुभपरिगाम से गिरा देता है उसका नाम पाप है । शंका-पाप जब अपचीयमान होता जाता है तब इस जीव को सुख की ગિરૂપ સ્વભાવમાં મગ્ન રહીને, કેવલ શુદ્ધ અવસ્થાવાળો થઈ જાય છે. मात्मानी २मा मवस्थानुं । नाम भाक्ष छे. (पुण्णे) पुष्य छे. मात्मा हैन। દ્વારા પવિત્ર કરાય તેનું નામ પુણ્ય છે. અથવા જે આત્માને પવિત્ર કરે એવાં જે શુભ કર્મ છે તેનું નામ પુણ્ય છે. આ પુણ્યકર્મ જીવને સંસારરૂપ પારાવાર (સમુદ્ર)થી પાર કરવા માટે હેડી રૂપ છે. તેના પ્રભાવ વડે જીવને આર્ય દેશ, ઉચ્ચ કુળમાં જન્મ, બેધિબીજ ઈત્યાદિ સમસ્ત ઉત્તમત્તમ વસ્તુની પ્રાપ્તિ થાય છે. વધારે બીજું શું કહેવું, તીર્થકરગોત્રકમને બંધ પણ સાક્ષાત્ એજ પુણ્યકર્મનું ફલ છે. જે વ્યક્તિ આ પુણ્ય કર્મને સર્વથા હેય સમજીને તેને પરિત્યાગ કરી દે છે તેઓ જેમ કોઈ સામે કાંઠે પહોંચ્યા વિનાજ સમુદ્રની વચમાં વહાણનો પરિત્યાગ કરી દીએ એવા મનુષ્ય જેવા છે. (पावे) ५।५ छ.२ मा छपने शुभपरिणामथी पाडी छ तेनु नाम पा५ छ. श-पा५ न्यारे २५चीयमान (स्वल्प) थ य छे त्यारे २॥ वने Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्र ४५० यति, उपचीयमानं तदेव दुःखं जनयति न पुण्यं पृथगस्ति, अथवा पुण्यमेवोपचीयमानं सुखं जनयति, तदेवापचीयमानं दुःखं जनयति, न पापं विद्यते इत्येवंवादिमतनिराकरणार्थं पुण्यपापयोः पृथगभिधानम्, केवलैकस्वभाववादिनिरासार्थं वा सर्वेषां पृथक् पृथगुक्ति: । ' अस्थि आसवे ' अस्त्यास्रवः - आ - समन्तात् स्रवति - प्रविशति आत्मनि ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधं कर्म येन स आस्रवः, आश्रव इतिच्छायापक्षे तु - आश्रीयते - समुपायते कर्म येन सः, पृषोदरादित्वाद् यस्य वः, सर्वथा जीवतडागे कर्मसलिलप्रवेशाय नालिकाप्राप्ति होती है एवं पाप जब उपचीयमान होता है तब दुःख की प्राप्ति होती है, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पाप के अपचय और उपचय के अधीन ही जीवों को सुख-दुःख की प्राप्ति होती है, अतः सुख का कारण पुण्य एवं दुःख का कारण पाप इस प्रकार से दो स्वतंत्र तत्त्व मानना ठीक नहीं है, या तो पुण्य ही मानो या पाप ही मानो, दोनों को एक साथ मत मानो । इसी तरह पुण्य का ह्रास जब होने लगता है तब जीवों को दुःख की प्राप्त होती है और जब पुण्य का उपचय होता है तब जीवों को सुखकी प्राप्ति होती है । इस कथन से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि सुखदुःख, पुण्य के उपचय और अपचय के आधीन हैं । अतः इनका कारण उसका ही उपचय एवं अपचय है । इससे यह एक पुण्य तत्व ही मानना चाहिये-सो ऐसा कहने वाले वादियों के मन्तव्य को निराकरण के लिये दोनों तत्त्वों की स्वतंत्र रूप से सत्ता प्रतिपादित की है । अथवा जो वस्तुका एक ही स्वभाव मानते हैं उन वादियों के मत को निराकरण करने के लिये भिन्न २ रूप से समस्त पदार्थों का यह निरूपण हुआ है । ( आसवे ) आस्रव तत्व है । जिसके कारण से ज्ञानावरणीय सुमनी प्राप्ति थाय छे तेमन याच न्यारे उपचीयमान (संचित ) थाय छे ત્યારે દુઃખની પ્રાપ્તિ થાય છે આથી એ નિષ્કર્ષ (સાર) નીકળે છે કે પાપના અપચય અને ઉપચયને આધીન જીવાને સુખ દુઃખની પ્રાપ્તિ થાય છે. આથી સુખનું કારણ પુણ્ય તેમજ દુઃખનું કારણ પાપ આ પ્રકારનાં બે સ્વતંત્ર તત્ત્વ માનવાં ઠીક નથી. કાં તે પુણ્યને માના અગર તા પાપને માના બન્નેને એક સાથે ન માનો. આવી રીતે પુણ્યના હ્રાસ જ્યારે થવા લાગે છે ત્યારે જીવાને દુઃખની પ્રાપ્તિ થાય છે, અને જ્યારે પુણ્યના ઉપચય થાય છે ત્યારે જીવાને સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ કથનની પણ એજ નિષ્કર્ષ નીકળે છે કે સુખ દુઃખ, પુણ્યના ઉપચય અને અપચયને આધીન છે. આથી આનું કારણ તેનાજ ઉપચય તેમજ અપચય છે. તેથી એ એક પુણ્ય તત્ત્વજ માનવું જોઈએ. આમ કહેવાવાળા વાદિઓના મંતવ્યના નિરાકારણને માટે બન્ને તત્ત્વાની સ્વતંત્ર રૂપે સત્તાનું પ્રતિપાદન કર્યુ` છે. અથવા જે વસ્તુને કેવળ એકજ સ્વભાવ માને છે તેવા વાદિએના મતનું નિરાકરણ કરવા માટે જુદા જુદા રૂપથી समस्त पहार्थोनु ं याम निश्शु उयु छे. (आसवे ) आसव तत्त्व छे. ना Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूष पर्षिणी-टीका सु. ५६ भगवतो धर्मदेशना रूप इति यावत् । कर्मबन्धहेतुरास्रवः, स च मिथ्यात्वादिः । 'अस्थि संवरे' अस्ति संवरः आस्रवनिरोधः, मंत्रियते निरुध्यते आस्रवत् आगच्छत् कर्म येन सः-संवर, एष च द्रव्यभावभेदाभ्यां द्विविधः, तत्र द्रव्यतस्तथाविधद्रव्येण (चिक्कणमृदादिना) सलिलोपरि तरण्यादावनवरतप्रविशन्नीराणां निरोधः, भावतः आत्मतरण्यां प्रविशत्कर्मजलानां समितिगुप्तिप्रभृतिभिनिरोधः । इह भाववरस्य ग्रहणम् । एतत्कथनं बन्धमोक्षयोर्निष्कारणत्वप्रतिआदिक अष्ट-प्रकार का कर्म आत्मा में प्रविष्ट होता है उसका नाम आस्रव है । (आसवे) इस पद की 'आश्रव' जब इस प्रकार की संस्कृत छाया रखी जायगी तब इसका अर्थ होगा जिसके द्वारा जीव कर्मों का आश्रय-समुपार्जन करे वह आश्रव है । जिस प्रकार तालाब में पानीका आना नालों द्वारा होता है उसी प्रकार इस जीव में जिसके द्वारा कर्मरूपी पानी आता रहता है वह आस्रव है । यह आस्रव ही नवीन कर्मों के बन्ध का कारण होता है। यह आस्रव तत्व मिथ्यात्वादिक के भेद से अनेक प्रकार का है; क्यों कि ये जो मिथ्यात्वादिक हैं वे कर्मों के आगमन के कारण हैं । (संवरे) संवर तत्त्व है । आस्रव का रुकना इसका नाम संवर है। द्रव्यसंवर और भावसंवर इस प्रकार से संवर के दो भेद हैं । द्रव्यकर्मों के आगमन को रोकने में आत्मा का जो परिणाम कारण होता है वह परिणाम भावसंवर है, एवं जो कर्मपुद्गलों का रुकना है वह द्रव्यांवर है । नौका में पानी के आगमन का रुकना इसे द्रव्यसंवर के स्थानापन्न, एवं जिस छिद्र से वह आता था उसका बंद कर કારણે જ્ઞાનાવરણીય આદિક આઠ પ્રકારનાં કર્મ આત્મામાં પ્રવિષ્ટ થાય છે तेनु नाम मासव छ. (आसवे) २॥ पहनी (आव) २॥ प्रा२नी ने संस्कृत છાયા રાખવામાં આવે તે એને અર્થ એમ થાય કે જેના દ્વારા જીવ, કર્મોને આશ્રય (સમુપાર્જન) કરે તે આશ્રવ છે. જેમ તળાવમાં પાણીનું આવવું નાળા દ્વારા થાય છે તેમ આ જીવમાં જેના દ્વારા કર્મરૂપી પાણી આવે છે તે આસવ છે. આ આસવ જ નવીન કર્મોના બંધનું કારણ થાય છે. એવું તે આસ્રવ તત્ત્વ મિથ્યાત્વ આદિકના ભેદથી અનેક પ્રકારનું છે; કેમકે આ જે मिथ्यात्व माहि छे ते ना मननु ४।२९ छ. (संवरे) सं.२ तप छ. આસવને રોકવું તેનું નામ સંવર છે. દ્રવ્યસંવર અને ભાવસંવર આ પ્રકારના સંવરના બે ભેદ છે. દ્રવ્યકર્મોના આગમનને રોકવામાં આત્માનું જે પરિણામ કારણ હોય છે તે પરિણામ ભાવસંવર છે. તેમજ જે કર્મ પુદ્ગલેને રેકે તે દ્રવ્યસંવર છે. વહાણમાં પાણીના આવવાને રેવું એ દ્રવ્યસંવરનું સ્થાનાપન તેમજ જે છિદ્રમાંથી તે આવતું હતું તેને બંધ કરી દેવું તે ભાવસંવરનું સ્થાનાપન સમજવું જોઈએ. સમિતિગુપ્તિ આદિ એ બધા Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे - षेधार्थम् । 'अत्थि वेयणा' अस्ति वेदना-वेदना वेदनम्-स्वभावादुदीरणां कृत्वा वा उदयावलिकामनुप्रविष्टस्य कर्मणो योऽनुभवः कर्मफलभूतसुखदुःखानुभवः, तत्स्वरूपा । 'अत्थि णिजरा' अस्ति निर्जरा-निर्जरा देशतः कर्मक्षयः, 'अस्थि अरिहंता' सन्यहन्तः, 'अस्थि चक्कचट्टी' सन्ति चक्रवर्तिनः, 'अत्थि बलदेवा' सन्ति बलदेवाः, 'अस्थि वासुदेवा' सन्ति वासुदेवाः-अर्हदादीनां चतुर्गामभिधानं तु तेषां भुवनातिशायित्वप्रतिपादनार्थं तेषामतिशयत्वमश्रद्दधतां श्रद्धाविधानार्थ च । 'अस्थि नरगा' सन्ति नरकाःदेना इसे भाववर के स्थानापन्न जानना चाहिये । समितिगुप्ति आदि ये सब भावलंवर के ही भेद हैं । इनसे ही आत्मा में आते हुए कर्म रुकते हैं। यहां पर भावलंवर का ग्रहण हुआ है। भाव वर का कथन बन्ध और मोक्ष को जो निष्कारणक मानने वाले हैं उनकी धारणा का प्रतिषेध करने के निमित्त समझना चाहिये । (वेयणा) वेदना है। कर्म की स्वभावतः उदीरणा करके अथवा उदयावलि में उसे लाकर उसके सुखदुःखादिक रूप फल का अनुभव करना इसका नाम वेदना है। (णिज रा) निर्जरा है । एकदेश से कर्मों का क्षय होना सो निर्जरा है । (अस्थि अरिहंता अस्थि चकाट्टी) अर्हत हैं, चक्रवर्ती हैं । (अस्थि बलदेवा अस्थि वासुदेवा) बलदेव हैं, वासुदेव हैं । इन चार अहंत आदिका प्रतिपादन त्रिभुवन में इनकी सर्वोत्कृष्टता जाहिर करने के निमित्त है । अथवा जो इनमें अतिशयत्व नहीं मानते हैं, वे इस प्रतिपादन से उनके विषय में अपनी श्रद्धा जाग्रत करें इसके लिये भी यह अहंत आदि चार का प्रतिपादन किया गया जानना चाहिये । (अस्थि ભાવસંવરના ભેદ છે. એનાથી જ આત્મામાં આવતાં કર્મ શકાય છે. અહીં ભાવસંવરનું ગ્રહણ થયું છે. ભાવસંવરનું કથન બંધ અને મોક્ષને જેઓ નિષ્કારણક માને છે તેમની ધારણાને પ્રતિષેધ કરવા નિમિત્તે સમજવું જોઈએ. (वेयणा) हन। छ. भनी स्वभावत: 6वी२६॥ ४रीने अथवा व्यावसिमांत લાવીને તેનાં સુખ દુઃખ આદિક રૂપ ફલનો અનુભવ કરવો તેનું નામ વેદના छ. (णिजरा) नि। छ. शिथी भनि। क्षय थय। ते नि छ. (अत्थि अरिहंता त्थि चक्कचट्टी) मत छ. यपत्ती छ. (अस्थि बलदेवा अस्थि वासुदेवा) सहेर छ, वासुदेव छ. २॥ या२ मत माहितुं प्रतिपाहन, त्रिभु. વનમાં તેમની સર્વોત્કૃષ્ટતા જાહેર કરવાને નિમિત્તે છે. અથવા તેમાં જે અતિશયત્વ ન માનતા હોય તેઓ આ પ્રતિપાદનથી તેમના વિષયમાં પોતાની શ્રદ્ધા જાગ્રત કરે તે માટે પણ આ અહંત આદિ ચાનું પ્રતિપાદન કરેલું (१) चेदगपरिणामो जो कम्मस्सावणिरोहणे हेऊ।। सो भावलंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो ॥ वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपिहा परीसहजओ य । चारित्तं बहुभेयं णायव्वा, भावसंवरविसेसा ॥ द्रव्यसंग्रह गाथा ३४-३५ ॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सृ. ५६ भगवतो धर्मदेशना • वासुदेवा नरगा रइया तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ माया पिया रिसओ देवा देवलोया सिद्धी सिद्धा परिणिव्वुया, अनेकविधनरकस्थानानि सन्ति । 'अस्थि णेरइया ' सन्ति नैरयिकाः = नरकनिवासिनः सन्ति, 'अस्थि तिरिक्खजोणिया ' सन्ति तिर्यग्योनिकाः, 'तिरिक्खजोणिणीओ ' सन्ति तिर्यग्योनिजाताः स्त्रियः, नरकनैरयिकादीनामदृश्यानां सत्तास्थापनाय कथनम् । 'अथ माया अस्थि पिया ' अस्ति माता अस्ति पिता, केचिदेवं मन्यन्ते - मातापितृव्यवहारो न वास्तविकः, यतो हि - यूकाकुमिगण्डोलकादयः स्वजनकं विनैवोत्पद्यन्ते, तन्मतनिराकरणार्थमिदं भगवता प्रोक्तमिति भावः । ' अत्थि रिसओ' सन्ति ऋषयः - ऋषयः = अतीन्द्रियाऽर्थद्रष्टारः सन्ति । केचित्त्वेवं वदन्ति - अतीन्द्रियार्थस्य द्रष्टारो न संभवन्ति, नरगा अस्थि णेरइया अस्थि तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ) अनेक विध नरकस्थान हैं और उनमें रहने वाले जीव नारकी हैं, तिर्यंचयोनि के जीव हैं. तिर्थंच योनि में उत्पन्न तिर्यञ्च स्त्रियां भी हैं । नरक एवं नारकी आदि अदृश्य जीवों का जो कथन किया है वह उनकी सत्ता प्रदर्शित करने के लिये जानना चाहिये । (अस्थि माया अस्थि पिया) माता हैं, पिता हैं । कोई २ ऐसे मानते हैं कि माता-पिता यह व्यवहार वास्तविक नही है; क्योंकि ऐसे भी कई जीव हैं कि जो माता-पिता के विना भी उत्पन्न होते रहते हैं। उनकी इस कल्पना को निराकरण करने के लिये भगवान् ने यह कहा है । (अस्थि रिसओ) अतीन्द्रिय अर्थ को देखने वाले ऋषिजन हैं । इस कथन का तात्पर्य यह है कि बहुत से वादी ऐसा कहते हैं कि अतीन्द्रियार्थ द्रष्टा कोई नहीं है; कारण कि पुरुष रागादि से कभी निर्मुक्त नहीं हो सकता । अतः जैसे हमलोग रागादिसंपन्न होने से अतीन्द्रियार्थ के लागुवु लेहये. (अस्थि नरगा अस्थि णेरइया अस्थि तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ) मनेऽविध નરકસ્થાન છે, અને તેમાં રહેવાવાળાં જીવ નારકી છે. તિય ચયેાનિના જીવ છે, તિર્યંચયેાનિમાં ઉત્પન્ન તિર્યંચ સ્ત્રીએ પણ છે. નરક તેમજ નારકી આદિ અદૃશ્ય જીવાતુ જે કથન કર્યું' છે તે તેમની સત્તા अहर्शित उरवा भाटे भगवु . ( अस्थि माया अत्थि पिया ) भाता छे पिता छे. કેાઈ કાઇ એમ માને છે કે માતા પિતા એ વ્યવહાર વાસ્તવિક નથી; કેમકે એવા પણ કેટલાય જીવ છે કે જે માતાપિતા વિના પણ ઉત્પન્ન થતા રહે છે. તેમની આ કલ્પનાનું નિરાકરણ કરવા માટે ભગવાને એમ કહ્યું छे. तथा (अस्थि रिसओ) अतींद्रिय अर्थने लेवावाजा ऋषिश्न छे. आ उथનનુ' તાત્પર્ય એ છે કે ઘણા વાદિઓ એમ કહે છે કે અતીન્દ્રિય—અ—દ્રષ્ટા ફાઈ છે નહિ; કારણ કે પુરુષ રાગાદિથી કઢી પણ નિમુક્ત થઈ શકતા નથી, .४५३ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ औपपातिकसूत्रे पुरुषाणां रागादिदोषवत्त्वात् अस्मदादिवत् इति, नन्मतनिरासार्थमिदमुक्तम् । 'अस्थि देवा अस्थि देवलोया' सन्ति देवाः भवनपत्यादयः, सन्ति देवलोकाः-देवानां लोकाः= स्थानानि सौधर्मादीनि । यत्वाहुः-न सन्ति देवादयोऽप्रत्यक्षत्वात् इति, तन्मतव्युदासार्थमिदमुक्तम् , 'अस्थि सिद्धी अस्थि सिद्धा' अस्ति सिद्धिः, सन्ति सिद्धाः-सिद्धिः सिध्यन्तिनिष्टितार्था भवन्ति यस्यां सा तथा, सिद्धिमन्तः सिद्धाः। 'परिणिवाणे' परिनिर्वाणमस्ति-परिनिर्वाणं कर्मकृतसन्तापोपशान्त्या सुस्थत्वम् । निःशेषतः सकलकर्मक्षयजन्यमात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः । 'अस्थि परिणिव्वुया' सन्ति परिनिर्वृताः अपुनरावृत्त्या सकलसन्तापदर्शक नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति रागादिक से विशिष्ट होने के कारण अतीन्द्रियार्थ पदार्थों का द्रष्टा नहीं हो सकता है । इस प्रकार जो यह मीमांसकों की मान्यता है उस मान्यता को दूर करने के लिये अतीन्द्रियार्थ द्रष्टा की यह स्थापना की है । (अत्थि देवा अस्थि देवलोया) पुण्यजनित अलौकिक क्रीडा का जो अनुभव करते हैं उनका नाम देव है । वे देव भवनपति आदि के भेद से ४ प्रकार के हैं। इनके रहने के स्थान भी हैं । जिन्हें स्वर्ग या देवलोक कहते हैं । जो यह कहते हैं कि अप्रत्यक्ष होने से देवादिक नहीं हैं उनके इस मत का निराकरण करने के लिये देवों का स्वरूप कहा है । (अत्थि सिद्धी अत्थि सिद्धा) सिद्धि है, और सिद्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है ऐसे सिद्ध भी हैं। (परिणियाणे) परिनिर्वाण-मुक्ति है । कर्मकृत सन्ताप की उपशांति से उद्भूत सुस्थत्व का नाम परिनिर्वाण है । समस्त कर्मों के अत्यंत विनाश से जन्य जो आत्यंतिक सुख है उसका नाम सुस्थत्व है । (अत्थि परिणिबुया) अपुनरावृत्तिविशिष्ट होने से सकल संताप આથી જેમ આપણે રાગ આદિ સંપન્ન હોવાથી અતીદિયાથના દર્શક બની શકતા નથી તેજ પ્રકારે કોઈ પણ વ્યક્તિ રાગ આદિકોથી વિશિષ્ટ હેવાના કારણે અતીન્દ્રિય પદાર્થોના દ્રષ્ટા બની શકે નહિ. એવી જે આ મીમાંસકેની માન્યતા છે તે માન્યતાને દૂર કરવાને માટે અતીયિાર્થ દ્રષ્ટાની આ સ્થાપના ४॥छ. (अस्थि देवा अत्थि देवलोया) पुश्यनित मौलि पाना मनु. ભવ કરે છે તેમનું નામ દેવ છે. તે દેવે ભવનપતિ આદિના ભેદથી ૪ પ્રકારના છે. તેમનાં રહેવાનાં લક એટલે સ્થાન પણ છે જે એમ કહે છે કે અપ્રત્યક્ષ હોવાથી દેવ આદિક નથી. તેમના આ મતનું નિરાકરણ કરવા भाट वोनु स्व३५ ४९ छे. ( अत्थि सिद्धी अस्थि सिद्धा) सिद्धि छे. मने सिद्धि ने प्राप्त-थ गई छ वा सिद्ध ५५ छ. (परिणिव्वाणे) परिनिर्वाण-मुहित छ. भतरे सता५ तेनी Saiतिथी अत्पन्न થતું જે સુસ્થત્વ તેનું નામ પરિનિર્વાણ છે. સમસ્ત કર્મોના અત્યંત વિનાशथी पेह। यतु मायाति: सुप छे तेनु नाम सुस्था५ . (अत्थि परि Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स्रु. ५६ भगवतो धर्मदेशना હ १ पाणाइवाए, २ मुसावाए, ३ अदिण्णादाणे, ४ मेहुणे, ५ कलापपरिवर्जिताः । 'अस्थि पाणाइवाए' अस्ति प्राणातिपातः- प्रागाः = उच्छ्वासनिःश्वासादयस्तेषामतिपातः वियोजनं - प्रागातिपातः प्राणिहिंसनमिति यावत्; तदुक्तम्पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता-स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ॥ १ ॥ इति । अस्थि मुसावाए ' अस्ति मृषावादः - मृषा - मिथ्या, वादः - वदनम् - असद्द्भूतार्थसंभाषणमिति यावत् । ' अदिण्णादाणे' अदत्ताऽऽदानमस्ति - न दत्तमदत्तम् = देवगुरुभूपगाथापतिसाधर्मिकैरननुज्ञातं, तस्याऽऽदानं = ग्रहणम् | 'अस्थि मेहुणे' अस्ति मैथुनम् - मिथुनेन = स्त्रीपुंसाभ्यां निर्वृत्तं कर्म मैथुनं कामक्रीडेत्यर्थः । ' अस्थि परिग्गहे' अस्ति परिग्रहः-परिके कलापों से परिवर्जित ऐसे जीव हैं । (अस्थि पाणाइवाए) प्राणिहिंसा पाप है, उच्छ्वासनिःश्वास आदि प्राण हैं, इनका अतिपात करना अर्थात् प्राणियों के प्राण का वियोग करना प्राणातिपात है । कहा भी है " “पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा | शास्त्रों में पांच इन्द्रिय, तीन बल, आयु, श्वासोच्छ्वास इस प्रकार से ये १० प्राण भगवान ने बतलाये हैं । इनका वियोग करना इसका नाम हिंसा है । (अस्थि मुसावाएं) मृषावाद पाप है । असद्भूत अर्थ का कथन करना इसका नाम मृषावाद है । (अदिण्णादाणे) अदत्तादान पाप है । देव, गुरु, भूप, गाथापति एवं साधर्मिक आदि की कोई वस्तु को उनकी आज्ञा के विना लेना सो अदत्तादान है । (अस्थि मेहुणे) मैथुन पाप है । (अस्थि परिग्गहे) परिग्रह भी पाप है । जो मूर्च्छापूर्वक ग्रहण किया जाय उसका नाम परिग्रह है, अर्था मिव्वुया) मधुनरावृत्तिविशिष्ट थवाथी तमाम संतापना उसापोथी परिवर्तित मेवा व छे. (अत्थि पाणाइवाए) પ્રાણિહિંસા પાપ છે. ઉચ્છ્વાસનિઃશ્વાસ આદિ પ્રાણ છે. તેના અતિપાત કરવા અર્થાત્ પ્રાણિઓને પ્રાણથી વિયેાગ કરવા પ્રાણાતિપાત છે. કહ્યું પણ છેઃ— 1 “पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुतास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ॥ શાસ્ત્રોમાં પાંચ ઇંદ્રિય, ત્રણ અલ, આયુ, શ્વાસેાાસ આ પ્રકારથી ૧૦ प्राणु लगवाने मतान्या छे. तेनेो वियोग ४२ तेनु नाम हिंसा छे. (अस्थि मुसावाए) भृषावाढ याय है. असहभूत अर्थ अथन ४२वु ते भृषावाद छे. (अदिण्णादाणे) महत्ताहान पाय छे. हेव, गुरु, लूप, गाथायति तेन साध મિક આદિની કોઈ વસ્તુને તેમની આજ્ઞા વગર લેવી તે અદત્તાદાન છે, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे परिग्गहे, ६ अस्थि कोहे, ७ माणे, ८ माया, ९ लोभे, अस्थि सर्वतो भावेन गृह्यते जन्मजरामरणादिदुःखैर्वेष्टयते आत्मा अनेनेति, यद्वा परिगृह्यते समू र्छ स्वीक्रियत इति । 'अस्थि कोहे माणे माया लोभे' अस्ति क्रोधः, अस्ति मानः, अस्ति माया, अस्ति लोभः । क्रोधः क्रोधमोहनीयप्रकृत्युदयेन स्वपरचित्तप्रज्वलनरूपविकृतिजनकः आत्मनः परिणामविशेषः । मानः स्वापेक्षयाऽन्यं हीनं मन्यते जनो येन सः, मानमोहनीयोदयसमुत्थोऽन्यहीनतामननलक्षण आत्मनः परिणामविशेषः । माया मायामोहनीयोदयसमुत्थो जीवस्य वञ्चनपरिणतिविशेषः-स्वपरव्यामोहोत्पादकमाचरणमिति यावत् । लोभः लोभप्रकृत्युदयवशात् द्रव्याघभिलाषलक्षणो जीवस्य परिणतिविशेषः । 'अत्थि जाव मिच्छादंसजन्म, जरा एवं मरणादि दुःखों से जिसके द्वारा आत्मा वेष्टित होता है उसका नाम परिग्रह है। (ममेदं ) भाव का नाम मूर्छा है। (अस्थि कोहे माणे माया लोभे) ये चार कषाय हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोधमोहनीय प्रकृति के उदय से स्व और पर की चित्तवृत्ति में प्रज्वलन रूप विकारजनक जो आत्मा का परिणामविशेष होता है, उसका नाम क्रोध है। मानमोहनीय के उदय से अन्य को हीन समझने का जो आत्मा का परिणामविशेष होता है वह मान है । इसके सद्भाव में जीव अपनी अपेक्षा अन्य जन को हीन समझता है । मायामोहनीय के उदय से पर को वंचित करने का जो आत्मा का परिणामविशेष होता है वह माया है । इसके वश में रहा हुआ जीव स्व और पर का व्यामोहक आचरण किया करता है। लोभप्रकृति के उदय के वश से द्रव्यादिक को चाहने की जो आत्मा की परि गतिविशेष है उसका नाम लोभ है। (अत्थि मेहुणे) भैथुन पा५ छ. (अस्थि परिग्गहे) ५.२ ५५ पा५ छ, रे મૂર્છાપૂર્વક ગ્રહણ કરાય તેનું નામ પરિગ્રહ છે, અર્થાત્ જન્મ જરા તેમજ મરણ આદિ દુઃખથી આત્મા જેના દ્વારા વેષ્ટિત થઈ (વીંટળાઈ જાય છે तेनु नाम परियड छ. भू भानु नाम ५५५ परियड छ. (ममेदं) मापनु नाम भूछी छे. (अत्थि कोहे माणे माया लोभ) मा यार ४षाय छे-अध, भान, માયા અને લોભ. કોમેહનીય પ્રકૃતિના ઉદયથી સ્વ અને પરની ચિત્તવૃત્તિમાં પ્રજ્વલનરૂપ વિકારજનક જે આત્માનું પરિણામ-વિશેષ હોય છે તેનું નામ ક્રોધ છે. માન–મેહનીયના ઉદયથી એક બીજાને હીન સમજવાનું જે આત્માનું પરિણામવિશેષ થાય છે તે માને છે. આના સદભાવમાં જીવ પિતાના કરતાં બીજા માણસને હીન સમજે છે. માયામોહનીયના ઉદયથી બીજાની વંચના કરવાનું જે આત્માનું પરિણામવિશેષ થાય છે તે માયા છે, તેને વશ થયેલે જીવ સ્વ તથા પરનું વ્યાહક આચરણ કર્યા કરે છે. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका सू. ५६ भगवतो धमदेशना ४५७ जाव मिच्छादसणसल्ले। अस्थि पाणाइवायवेरमणे मुसावायणसल्ले' अस्ति यावत् मिथ्यादर्शनशल्यम्, अत्र यावच्छब्दात्-'पेज्जे, दोसे, कलहे, अब्भक्खाणे, पेसुण्णे, परपरिवाए, अरइरई, मायामोसे' इत्येषां संग्रहः । अस्ति प्रेम-प्रेम रागः-पुत्रकलत्रादिष्वभिष्वङ्गपरिणामविशेषः । 'अस्थि दोसे' अस्ति द्वेषःद्वेषः आत्मनोऽप्रीतिलक्षणपरिणामः, अस्ति कलहः-कलः आनन्दस्तं हन्तीति कलहः-वाचिकद्वन्द्वः, 'अस्थि अब्भक्खाणे' अस्त्यभ्याख्यानम्-अभ्याख्यानम् असदोषारोपणम् । 'अत्थि पेसुण्णे' अस्ति पैशुन्यम्-पैशुन्यं प्रच्छन्नतया परदोषाऽऽविष्करणम् , अत्थि परपरिवाए' अस्ति। परपरिवादः-परेषां काक्वादिभिर्दोषकथनम्, 'अत्थि अरइरई' स्तः अरतिरती-अरतिः अरतिमोहनीयोदयाचित्तोद्वेगरूप आत्मनः परिणतिविशेषः, रतिः= (जाव मिच्छादसणसल्ले) यावत् मिथ्यादर्शन आदि शल्य हैं। यहां “यावत् " शब्द से " पेजे, दोसे, कलहे, अब्भक्खाणे, पेसुण्णे, परपरिवाए, अरइरई, मायामोसे" इस पाठ का संग्रह हुआ है । पुत्रकलत्रादिकों में जो आसक्तिरूप परिणामविशेष है उसका नाम प्रेम है। अप्रीतिलक्षण जो आत्माका परिणाम है वह द्वेष है । आनंद जिससे नष्ट होता है उसका नाम कलह है । असत्य दोषोंका आरोपण करना इसका नाम अभ्याख्यान है। पीठ पीछे दूसरे के दोषोंको प्रकट करना इसका नाम पैशुन्य है । दूसरे की निंदा करना इसका नाम परपरिवाद है। अरति एवं रति ये दोनों पाप हैं । अरतिमोहनीय के उदय होने से संयम के अन्दर जो चित्तोद्वेग होता है उसको ‘अरति' कहते हैं । सांसारिक विषयों की अभिलाषा को 'रति' कहते हैं। कपटसहित मिथ्याभाषण करना इसका नाम मायामृषा લાભપ્રકૃતિના ઉદયને વશ થવાથી દ્રવ્યાદિકને ચાહવાની જે આત્માની પરિણતિविशेष छ तेनु नाम वाम छ. (जाव मिच्छादसणसल्ले) यावत् भिथ्याशनशक्ष्य छे. मी "यावत्" या " पेज्जे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरई मायामोसे" २॥ पानी सब ४यो छे. तेभा पुत्र આદિમાં જે આસક્તિરૂપ પરિણામવિશેષ છે તેનું નામ પ્રેમ છે. અપ્રીતિલક્ષણ જે આત્માનું પરિણામ છે તે છેષ છે. આનંદ જેનાથી નષ્ટ થાય છે તેનું નામ કલહ છે, અને અસત્ય દોષોનું આરોપણ કરવું તેનું નામ અભ્યા ખ્યાન છે. કેઈની ગેરહાજરીમાં (પીઠપાછળ) તેના દોષે પ્રકટ કરવા તેનું નામ પિશુન્ય (ચાડી) છે. બીજાની નિંદા કરવી તેનું નામ પર પરિવાર છે. અરતિ તેમજ રતિ એ બન્ને પાપ છે. અરતિ–મોહનીયને ઉદય થવાથી सयभनी म २२ चित्तने देश थाय छेतेने 'अरति' हे छे. सांसारि४ विषयोनी मलितापाने 'रति' ४ छे. ४५८वा यालाषाय ४२ तेनु नाम Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपातिकसूत्र वेरमणे आदिण्णादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे। सव्वं अत्थिभावं अत्थित्ति वयइ, विषयाभिरुचिः । 'अस्थि मायामोसे ' अस्ति मायामृषा-मायया सह मृषा-मायामृषा= सकपटमिथ्याभाषणम् , “मिच्छादसणसल्ले' मिथ्यादर्शनशल्यम्-मिथ्यादर्शनं शल्यमिव, प्रतिक्षणं विविधव्यथाविधायकत्वात् । 'अत्थि पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे अदिण्णादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे' अस्ति प्राणातिपातविरमणम् , मृषावादविरमणम्, अदत्तादानविरमणम् , मैथुनविरमणम् , परिग्रहविरमणम् । केषाञ्चिन्मते प्राणातिपातादिविरमणस्याशक्यत्वं प्रतिपादितं तन्निरासार्थ तत्सत्ताऽभिधानम् । 'जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे' यावन्मिथ्यादर्शनशल्यविवेकः-मिथ्यादर्शनशल्यस्य विवेकः= पृथग्भावः, तस्मान्निवृत्तिरित्यर्थः, सोऽप्यस्ति । ' सव्वं अत्थिभावं अत्थित्ति वयइ' सर्वमस्तिभावमस्तीति वदति-सर्व-सफलम् अस्तिभावं-सत्तारूपक्रियासहितो भावः= वस्तुसत्त्वम् है। तथा कुदेव कुगुरु कुधर्म में श्रद्धा रखना मिथ्यादर्शन है। शल्य की तरह प्रतिक्षण अत्यन्त दुःखदायी होने के कारण यह मिथ्यादर्शन शल्य कहलाता है। (अस्थि पाणाइवायवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे) जो लोग हिंसादिक पांच पापों से विरक्त होने में अशक्यता प्रतिपादित करते हैं उनके लिये प्रभु कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है, प्राणातिपात से जीव विरक्त होता है, मृषावाद से जीव विरक्त होता है, एवं परिग्रह से जीव विरक्त होता है, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से भी जीव विरक्त होता है। (सव्वं अत्थिभावं अत्थित्ति वयइ सव्वं णत्थिमा णस्थित्ति वयइ) " अस्ति" यह पद सब को "अस्ति" इस रूपसे कहता है और “ नास्ति' यह पद समस्त भाव को 'मायामृषा' छ, भने छुढेव, शुरु, धर्ममा श्रद्धा रामवी ते भिथ्याशन छ, ते शयनी भा४ प्रतिक्षा :महायी वाथी 'मिथ्यादर्शनशल्य' उपाय छे. (अत्थि पाणाइवायवेरमणे, मुसावायवेरमणे, अदिण्णादाणवेरमणे, मेहुणवेरमणे, परिगहवेरमण, जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे) डिसा माहि पांय पापोथी વિરક્ત હવામાં અશકયતા પ્રતિપાદિત કરે છે તેમના માટે પ્રભુ કહે છે કે એવી વાત કઈ છે નહિ. પ્રાણાતિપાતથી જીવ વિરક્ત થાય છે, મૃષાવાદથી જીવ વિરક્ત થાય છે, અદત્તાદાનથી જીવ વિરક્ત થાય છે, મૈથુનથી જીવ વિરક્ત થાય છે તેમજ પરિગ્રહથી જીવ વિરક્ત થાય છે, યાવત્ મિથ્યાદર્શનશલ્યથી ७१ वि२४त थायछे. (सव्वं अस्थिभावं अत्थित्ति वयइ सव्वं णत्थिभावं णत्थित्ति वयइ) “अस्ति" से पहचाने मस्ति (छ) से ३४ छ, भने “नास्ति' से ५६ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सु. ५६ भगवतो धर्मदेशना सव्वं णस्थिभावं णस्थित्ति वयइ, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, फुसइ पुण्णपावे, ‘जीवोऽस्त्यजीवोऽस्ति, पुण्यमस्ति, पापमस्ति' इत्यादिरूपेण वस्तुयथार्थस्वरूपनिरूपणमिति यावत् , तम् 'अस्ति' इति कृत्वा वदति, यथा जीवत्वे सति जीवः, अजीवत्वे सति अजीव इत्यादि । 'सव्वं णत्थिभावं णस्थित्ति वयइ' सर्व नास्तिभावं नास्तीति वदतिसर्व नास्तिभावम्--अजीवत्वे सति अजीवः, अपटत्वे सति अपट इत्येवंरूपो भावो नास्तिभावस्तं नास्तीतिपदेन वदति । 'मुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति' सुचीर्णानि कर्माणि सुचीर्णफलानि भवन्ति-सुचीर्णानि-सु-प्रशस्ततया चीर्णानिपादितानि कर्माणिदानादीनि, सुचीर्णफलानि-सुचीर्णं फलं येषां तानि, सुचरितमूलकत्वात् पुण्यकर्मबन्धादिफलवन्तीत्यर्थः । 'दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति' दुश्चीर्णानि कर्माणि दुश्चीर्णफलानि भवन्ति-दुश्चीर्णानि कुत्सितानीत्यर्थः, दुश्चीर्णफलानि-कुत्सितफलवन्ति-नरकनिगोदादिगमनादिरूपफलदायकानि भवन्तीत्यर्थः। 'फुसइ पुण्णपावे' स्पृशति "नास्ति' इस रूप से कहता है। स्वसत्तारूप क्रिया से युक्त का नाम अस्तिभाव है एवं पररूप से असत्ता का नाम नास्तिभाव है। मतलब इसका यह है कि प्रत्येक पदार्थ स्व-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से ही अस्तित्वविशिष्ट है और पर-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य नास्तित्वविशिष्ट है। इससे स्याद्वादसिद्वान्त का कथन किया गया है। (मुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति) प्रशस्तभावों से संपादित दानादिक सत्कर्म पुण्य कर्म के बन्ध करनेवाले होते हैं। पुण्यकर्म का बंध कराना ही इनका फल माना गया है। (दुचिण्णा कम्ना दुचिण्णफला भवति) कुत्सितभावों से किये कार्य कुत्सित-नरकनिगोदादि--फलवाले होते हैं, अर्थात् कुत्सित कर्मों को करनेवाला બધા ભાવને નાસ્તિ (નથી) એ રૂપે કહે છે. સ્વસત્તારૂપ કિયાથી યુક્તનું નામ અસ્તિ-ભાવ છે તેમજ પરરૂપથી અસત્તાનું નામ નાસ્તિભાવ છે. આને મતલબ એ છે કે પ્રત્યેક પદાર્થ સ્વ-દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ તથા ભાવની અપેક્ષાથી જ અસ્તિત્વવિશિષ્ટ છે અને પર-દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ અને ભાવની અપેક્ષા તેજ પદાર્થ નાસ્તિત્વવિશિષ્ટ છે. આથી સ્યાદવાદસિદ્ધાંતનું કથન કરवामां आवे छे. (सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति) प्रशस्तनावोथी साદિત દાન આદિક સત્કર્મ પુણ્ય કર્મનું બંધ કરવાવાળા થાય છે. પુણ્યકર્મને मध ४२३। ०४ मेनु ५॥ ४ामा माव्यु छे. (दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति) कुत्सित मावोथी ४२jार्य इत्सित-न२४-निगाह याणि थाय छे. Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० औपपातिकसूत्रे पञ्चायति जीवा, सफले कल्लाणपावए। धम्ममाइक्खइ-इणमेव पुण्यपापे-जीवः सुचरितक्रियाभिः पुण्यम् , असुचरितक्रियाभिः पापं च स्पृशतिबध्नाति । 'पञ्चायति जीवा' प्रत्यायान्ति जीवाः तेनैव स्पृष्टेन बद्रेन--शुभाऽशुभकर्मसन्तानेन पुनर्जीवा उत्पद्यन्ते, 'भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः' इति नास्तिकवचनं न सत्यम् इति भावः । तत उत्पत्तौ सत्याम् ' सफले कल्लाणपाधए ' सफले कल्याणपापके-सौभाग्यदौर्भाग्यहेतुत्वात् पुण्यं पापञ्च शुभाशुभं कर्म सफलं भवतीति भावः । प्रकारान्तरेणापि धर्मोपदेशं भगवान् ददाति, तदेव संप्रत्याह-'धम्ममाइक्खइ' इत्यारभ्य 'पडिरूवे' प्राणी नरकनिगोदादिक का पात्र बनता है। (फुसइ पुण्णपावे ) जीव सुचरित क्रियाओं द्वारा पुण्य एवं असुचरित क्रियाओं द्वारा पाप का बंध करनेवाला होता है। (पञ्चायति जीवा) शुभाशुभ कर्मों से बद्ध हुआ जीव इस संसार में जन्ममरण के दुःखों को प्राप्त करता है, अर्थात् जबतक कर्म तति जीव में अस्तित्वविशिष्ट रहती है-जीव कर्मों से जबतक बंधा रहता है तबतक ही वह संसार में उत्पन्न होता रहता है। इस कथन से नास्तिक के इस वाद का कि-" भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः" अर्थात् जब देह भस्मीभूत हो जाता है तो पुनः उसकी प्रापि नहीं होती है-निराकरण हो जाता है। (सफले कल्लाणपावए) सौभाग्य एवं दौर्भाग्य के हेतु होने से पुण्य और पाप सफल हैं। प्रकारान्तर से भी प्रभुने श्रुतचारित्र रूप धर्म का उपदेश दिया-इस बात को सूत्रकार-'धम्ममाइक्खइ' से लेकर 'पडिरूवे' यहाँ तक के मूलपाठ से प्रदर्शित करते मुत्सित भी ४२वावा प्राणी न२४-निगाह माहिना पात्र मने छ. (फुसइ : पुण्णपावे) 4 सुथरित लिया। द्वारा पुष्य तेभ०८ मसुया२त लिया। द्वा२। पापना ५ ४२वावा थाय छे. (पच्चायति जीवा) शुभाशुभ थी मधाએલા જીવ આ સંસારમાં જન્મમરણનાં દુઃખને પ્રાપ્ત કરે છે. અથાત્ જ્યાં સુધી કર્મસંતતિ જીવમાં અસ્તિત્વવિશિષ્ટ રહેતી હોય છે-જીવ જ્યાં સુધી કર્મોથી બંધાયેલ રહે છે ત્યાં સુધી જ તે સંસારમાં ઉત્પન્ન થયા કરે છે. मा ४यनयी नास्ति ने मेवो वा “भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः" અર્થાત્ જ્યારે દેહ ભસ્મીભૂત થઈ જાય છે તે પછી વળી ફરી તેની પ્રાપ્તિ थती नथी. मानु नि।४२४ २५ लय छे. (सफले कल्लाणपावए) सोलाज्य તેમજ દૌર્ભાગ્યના હેતુભૂત હોવાના કારણે પુણ્ય અને પા૫ સફળ (ફળ આપना२२) छ. બીજી રીતે પણ પ્રભુએ શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મને ઉપદેશ આપ્ટેએ पातने सूत्र॥२-'धम्ममाइक्खई'थी सधन - पडिरूवे ' मी सुधीन भूणा Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सृ. ५६ भगवतो धर्मदेशना ४६१ णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए संसुद्धे पडिपुणे णेया 6 " इत्यन्तेन ग्रन्थेन । ‘ धम्ममाइक्खइ ' धर्ममाख्याति -' इणमेव णिग्गथे पावयणे सच्चे ' इदमेव नैर्ग्रन्थं प्रवचनं सत्यम् - इदं - प्रत्यक्षतया विद्यमानं, नैर्ग्रन्थं-निर्ग्रन्थानां द्रव्यभावग्रन्थिरहितानां संयमिनां सम्बन्धि प्रवचनम् = आगमः, सत्यं - सद्द्भ्यो हितं वास्तविकञ्च । 'अणुत्तरे ' अनुत्तरम् - नास्त्युत्तरं यस्मात नास्मात्प्रधानतममन्यदस्तीति भावः; 'के लिए ' कैवलिकं–केवलिप्रणीतम्–अद्वितीयं वा, ' संसुद्धे ' संशुद्धम् = कषादिभिः संशुद्धं सुवर्णमिव निर्दोषम्, 'पडिपुण्णे' प्रतिपूर्णम् - सर्वथा समग्रं - सूत्रापेक्षया मात्राविन्द्वादिभिः, अर्थापेक्षया चाकाङ्क्षाऽध्याहारादिभिर्वर्जितम् ' णेयाउए ' नैयायिकम् = न्यायानुगतं प्रमाणाsबाधितम् ' सल्लकत्तणे ' शल्यकर्तनम्=मायादिशल्यच्छेदनक्षमम् - एतद्भावभावितानां हैं । 'धम्माइक्रखइ ' भगवान ने प्रकारान्तर से भी धर्मोपदेश किया। जैसे - ( इणमेव णिग्गंथे पावणे सच्चे ) प्रत्यक्षतया विद्यमान यह निर्ग्रन्थों - द्रव्य एवं भावरूप ग्रन्थि से रहित संयमियों का प्रवचन - आगम सत्य - भव्यों का हितकारक एवं यथार्थ है । ( अणुत्तरे ) यह अनुत्तर है - इससे उत्तर - प्रधान और दूसरा कोई नहीं है । ( के लिए ) कारण कि यह केवलज्ञानी द्वारा प्रणीत हुआ है; इसीलिये यह अद्वितीय है । (संसुद्धे ) कषादिक द्वारा शुद्ध किये हुए सोने के समान यह शुद्ध है । ( पडिपुणे ) यह सर्वथा प्रतिपूर्ण है, न तो सूत्र की अपेक्षा से इसमें मात्रा एवं बिंदु आदि के अध्याहार की आवश्यकता है और न अर्थ की अपेक्षा से इसमें आकांक्षा आदि के अध्याहार की आवश्यकता है, अर्थात् सब प्रकार से यह पूर्ण है । ( गेयाउए) इस भगवदुपदिष्ट आगम में किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है । ( सहकत्तणे ) मायामिध्यात्व एवं निदान शल्यों का द्वारा प्रदर्शित रे छे. 'धम्ममा इक्खइ' लगवाने प्राशन्तरथी पशु धर्मोपदेश ¥र्यो ?भडे (इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे) प्रत्यक्षतया (नभरनी सामेन ) વિદ્યમાન (મેાજીદ) આ નિન્થા-દ્રવ્ય તેમજ ભાવ રૂપ ગ્રન્થિથી રહિત સયમીઓનાં પ્રવચન-આગમ સત્ય-ભવ્યોને માટે હિતકારક તેમજ યથાય છે. ( अणुत्तरे ) मा अनुत्तर छे. सनाथी उत्तर - प्रधान (मुख्य) जीभुं अंध नथी. (केवलिए) र मा કેવળજ્ઞાની દ્વારા પ્રણીત થયેલું (રચાએલું) છે તે भाटे या अद्वितीय छे. (संसुद्धे) उषाहि द्वारा शुद्ध असां सोना भेवु ते शुद्ध छे. (पडिपुणे) એ સર્વદા પરિપૂર્ણ છે—સૂત્રની અપેક્ષાએ તેમાં માત્રા તેમજ બિંદુ આદિના અધ્યાહારની આવશ્યક્તા નથી અને અર્થની અપેક્ષાથી તેમાં આકાંક્ષા આદિના અધ્યાહારની પણ આવશ્યક્તા નથી. તમામ પ્રકારે से पूछे. (याउए) मा लगव - उपष्टि आगमभां अर्ध पाग प्रभालुधी Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ओपपातिकसूत्रे उए सल्लकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिज्जाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे इहट्ठिया जीवा सिझंति बुझंति भावशल्यानि विच्छेदमायान्तीति। ‘सिद्धिमग्गे' सिद्धिमार्गः-सिद्धिः कृतकृत्यता-तस्या मार्गः=उपायः; 'मुत्तिमग्गे' मुक्तिमार्गः सकलकर्मवियोगस्य हेतुः, ‘णियाणमग्गे' निर्वाणमार्गः-निर्वागस्य सकलकर्मक्षयजन्यस्य पारमार्थिकसुखस्य मार्गः, ‘णिजाणमग्गे' निर्या मार्गः-निर्याणम् अपुनरावृत्त्या संसारात प्रस्थानं तस्य मार्गः, 'अवितहं' अवितथम्-वितथं मिथ्या तद्विपरीतं–त्रिकालाबाधितमित्यर्थः । 'अविसंधि' अविसन्धि= अव्यवच्छिन्नं-न कदाचिदपि विच्छेदमुपगतम् । 'सव्वदुक्त्वप्पहीणमग्गे' सर्वदुःखप्रहीणमार्गः-सर्वाणिजन्ममरणादीनि दुःखानि प्रहीगानि यत्र स सर्वदुःखाहीणो मोक्षस्तस्य कर्तन ( छेदन ) इसी आगम से होता है। (सिद्विमग्गे ) यह आगम ही सिद्धि-कृतकृत्यता का एक मार्ग है। (मुत्तिमग्गे ) समस्त कर्मों के क्षय का यही एक उपाय है। (गिवागमग्गे ) समस्त कर्मों के क्षय से उद्भूत पारमार्थिक सुख का यही एक रास्ता है। (णिज्जाणमग्गे) लंसार में जीव का पुनः आगमन न हो इस रूप से जो जीव का संसार से प्रस्थान होता है उसका प्रधान कारण एक यही आगम है। (अवितहं ) यह आगम त्रिकाल में भी कुतर्कों द्वारा बाधित नहीं है। (अविसंधि ) महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से-न इसका कभी विच्छेद होता है, और न कभी विच्छेद होगा। (सबदुक्खप्पहीणमग्गे ) समस्त दुःखों का जिसमें सर्वथा अभाव है ऐसे मोक्ष का यही एक उत्तम मार्ग है। जिस लिये यह प्रभु द्वारा प्रतिपादित आगम पूर्वोक्त प्रकार से इन सद्गुगों माथा यावती नयी. (सल्लकत्तणे) भाया, मिथ्यात्व तम निदान शल्यानां ४तन (छन) २॥ मामथी थाय छे. (सिद्धिमगगे) 20 सालभर सिद्धि-कृतकृत्यतानी से भाग छ. (मुत्तिमग्गे) समस्त र्भाना क्षयने। मासे पाय छ. (णिव्वाणमग्गे) समस्त ४ ना क्षयथी पन्न थता पारमाथि सुमने। मा४ मे २२तो छ. (णिज्जाणमग्गे) संसारमा पर्नु पुनः आगमन नथाय એ રૂપથી જે જીવનું સંસારથી પ્રસ્થાન થાય છે તેનું પ્રધાન કારણ એક मा मागम छे. (अवितह) मा मागमा भा ५५] त? द्वारा मयत नथी. (अविसंधि) महाविड क्षेत्रनी अपेक्षाथी नथी माना ही विछे थयो, नथा विछे थातो अने नथी ४ी विछ थवानी. ( सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे) સમસ્ત દુઃખને જેમાં અભાવ છે એવા મોક્ષને આ એક ઉત્તમ માર્ગ છે. જેથી પ્રભુ દ્વારા પ્રતિપાદન કરેલું આ આગમ પૂર્વોક્ત એવાં સદ્દગુણોથી યુક્ત Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टीका स. ५६ भगवतो धर्मदेशना मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। एगच्चा पुण मार्गः, यत एवं सद्गुणगुम्फितं नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् , अतएव ' इहविया जीवा सिझंति' इह स्थिता जीवाः सिध्यन्ति-इह-नैर्ग्रन्थप्रवचने स्थिताः एतदाराधका जीवाः सिध्यन्ति सिद्धिपदं प्राप्नुवन्ति, अणिमादिसिद्धिं वा 'बुझंति' बुध्यन्ते-केवलज्ञानप्राप्त्या निःशेषविशेष जानन्ति, 'मुच्चंति' मुच्यन्ते-भवोपग्राहिगां कर्मणां निरंशनष्टत्वात् , 'परिणिव्यायंति' परिनिर्वान्ति-कर्मजन्यसकलसन्तापविरहात् , वक्तव्यसारं वक्ति-सव्वदुक्खाणमंतं करेंति' सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति-सर्वेषां शारीरिकमानसिकानां दुःखानाम् अन्तं नाशं कुर्वन्ति । 'एगच्चा पुण एगे भयंतारो' एकार्चाः पुनरेके भदन्ताः – एकैव अर्चा भविष्यन्ती मनुष्यतनुर्येषां ते एकार्चाः सन्तः, पुनरेके-केचिद् भदन्ताः-नैर्ग्रन्थप्रवसे युक्त है । इसीलिये ( इहद्विया जीवा सिझंति ) जो जीव इसकी आराधना में अपने जीवन का उत्सर्ग कर देते हैं वे नियमतः सिद्धिपद के प्रापक होते हैं, (अणिमादिसिद्धिं वा) अथवा इस लोक में अणिमादि सिद्धि के धारक होते हैं। (बुज्झंति) केवलज्ञान की प्राप्ति से सभी वस्तुओं को जानते हैं। (मुञ्चति) भवोपग्राहिकर्मों का सम्पूर्णरूप से नाश होने के कारण वे मुक्त हो जाते हैं। (परिणिव्यायंति) कर्मजन्य समस्त संताप के विरह से वे शीतलीभूत हो जाते हैं। (सम्बदुक्खाणमंतं करेंति) शारीरिक एवं मानसिक समस्त दुःखों का वे ही अन्त करनेवाले होते हैं। (एगच्चा पुण एगे भयंतारो) इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना करनेवाले भव्य जीव वर्तमान शरीर के छूट जाने के बाद मात्र एक बार मनुष्य शरीर धारण करते हैं, अर्थात् वे एकावतारी होते हैं। वे भव्य जीव इस शरीर के छूटने पर (पुवकम्मावसेसेणं) पूर्वकर्मों के बाँकी छ तेथी ४ (इहटिया जीवा सिझंति) २०१२नी माराधनामा पोताना જીવનને ઉત્સર્ગ કરી દે છે તેઓ નિયમત -નિશ્ચયથી–સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત થાય छ, (अणिमादिसिद्धिं वा) nawi मणिमाहि-सिद्धिने पाभे छ. (बुझंति) अवज्ञाननी प्रातिथी मधी वस्तुमे। लणे छ. (मुच्चंति) वापयाडि भनि। सपू ३पे नाश वान। ।२णे तया भुत थ य छे. (परिणिव्वायंति) ४જન્ય સમસ્ત સંતાપના વિરહથી (ત્યાગથી) તેઓ શીતલીભૂત બની જાય છે. (सव्वदुक्खाणमंतं करेंति) शारी२ि४ तेमस मानसि४ समस्त हु:मोना ते मत ४२वावा डाय छे. (एगच्चा पुण एगे भयंतारो) - निन्थ अवयननी माराધના કરવાવાળા ભવ્ય જીવ વર્તમાન શરીર છૂટી જવા બાદ માત્ર એકવાર મનુષ્ય શરીરને ધારણ કરે છે. અર્થાત્ તેઓ એકાવતારી થાય છે. તે ભવ્ય Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૯૬૯ varasa एगे भयंतारो पुत्रकम्मावसेसेणं अण्णयरेसु देवलोपसु देवताए उववत्तारो भवंति, महढिएस जाव महासुक्खेसु दूरंगइएस चिरपि । ते णं तत्थ देवा भवंति - महिडिया जाव चिर चनस्याराधका भव्याः, ‘पुत्रकम्मात्रसेसेणं ' पूर्वकर्माऽवशेषेण, 'अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ता उत्तारो भवति ' अन्यतमेषु देवलोकेषु देवत्वेनोत्पत्तारो भवन्ति, 'महढिएस जाव महासुक्खेसु दूरंगइएस चिरट्ठिएसु ' महर्द्धिकेषु यावन्महासौख्येषु -अत्र यावच्छन्दात्='महज्जुइएसु, महाबलेसु, महायसेसु, महाणुभागेसु ' इति दृग्यम् । प्राग्व्याख्यातमेतत् । दूरगतिकेषु = अनुत्तरविमानादिषु, चिरस्थितिकेषु - चिरा - बहुसागरोपमा स्थितिर्येषु तेषु । ‘ते णं तत्थ देवा भवंति ' ते खलु तत्र देवा भवन्ति; कीदृशा देवा भवन्तीत्यत्राऽऽह—— महिढिया ' महर्द्धिकाः = महर्द्धिसंपन्नाः, यावत् - ' चिरद्विझ्या ' चिर रहने के कारण (अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववत्तारो भवंति महट्ठिएसु जाव महासुखे दूरंगइएस चिरदिइएस) महर्द्धिक - विमान आदि महासम्पत्तिवाले, महाद्युतिक= विविध रत्न आदि की महाकान्तिवाले, महाबल - अत्यन्त स्थिर अर्थात् द्रव्यरूप से शाश्वत, महायशस्वी-शास्त्रों द्वारा प्रशंसित, महानुभाग - महाप्रभावशाली, महासौख्य- अत्यन्त सुख के निधानरूप, चिरस्थितिक - बहुत सागरोपमकी स्थितिवाले, दूरगतिक - मनुष्यलोक आदि से अत्यन्त दूरवर्त्ती, ऐसे अनुत्तर विमानादिक देवलोकों में से किसी एक देवलोक में उत्पन्न होते हैं । (ते णं तत्थ देवा) वे देव वहाँ पर ( भांति महिड्ढिया जाव चिरड़िया) महर्द्धिक- विमान आदि की महासम्पत्तिवाले, महाद्युति - शरीर और आभरण की महा या शरीर छूटी भतi ( पुव्वकम्मावसेसेणं) पूर्व उभ माडी रहेवाना अरणे (अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति महढिएसु जाव महासुक्खेसु दूरंगइए चिट्ठिइएस) भडद्धि ४ - विमान याहि महासंपत्तिवाजा, भड्डाधुतिङવિવિધ રત્નઆદિની મહાકાન્તિવાળા, મહાખલ-અત્યંત સ્થિર અર્થાત્ દ્રવ્યરૂપથી शाश्वत, भडायशस्वी - शास्त्रो द्वारा प्रशंसित, भड्डानुलाग भड्डाप्रभावशाली, भड्डाસૌખ્ય-અત્યંત સુખના નિધાન રૂપ, ચિરસ્થિતિક-ઘણા સાગરોપમની સ્થિતિવાળા, દૂગતિક--મનુષ્ય લેાક આદિથી અત્યંત ક્રૂરવત્તી, એવા અનુત્તર વિમા नाहि देवखेाभांना अ मे देवो मां उत्पन्न थाय छे. (ते णं तत्थ देवा) ते दे॒व त्यां (भवंति महिढिया जाव चिरट्ठिइया) महद्धि ४ - विमान आाहिनी भड्डाસંપત્તિ વાળા, મહાવ્રુતિ-શરીર અને આભરણુની મહાકાન્તિવાળા, મહાખલ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ virus foot - टीका ख. ५६ भगवतो धर्मदेशना ક 4 ssया हार - विराइय- वच्छा जाव पभासमाणा कप्पोवगा गतिस्थितिकाः=चिरकालस्थितिकाः, 'हारविराइयवच्छा' हारविराजितवक्षस्काः - हारभूषितहृदयाः, 'जाव पभासमाणा' यावत् प्रभासमानाः - यावच्छन्दादिदं दृश्यम् - 'कडय - तुडिय - थंभियभुया' कटक–त्रुटित–स्तम्भित- भुजाः 'अंगय – कुंडल - मट्ठ - गंडयल - कण्णपीढ - धारी ' अङ्गद–कुण्डल–गण्डतल - कर्णपीठ - धारिणः ' विचित्त-वत्था - भरणा ' विचित्र-वस्त्राssभरणाः, ' विचित्तमाला ' विचित्रमालाः, ' मउलिमउडा ' मौलिमुकुटाः, 'कल्लाणगपवर- वत्थ- परिहिया ' कल्याणक - प्रवर-वस्त्र-परिहिताः, कल्लाणग-पवर - मल्लाणुलेवणा ' कल्याणक - प्रवर - माल्या - नुलेपनाः, ' भासुरबोंदी ' भास्वरदेहाः, ' पलंबवणमालधरा ' प्रलम्बवनमालाधराः ' दिव्वेणं संघाएणं ' दिव्येन संघातेन, 'दिव्वेणं संठाणेणं' दिव्येन संस्थानेन = सुन्दरेणाssकारेण, 'दिव्वाए इड्ढीए' दिव्यया ऋद्धया, 'दिव्वाए जुईए' दिव्यया द्युत्या, ' दिव्वाए पभाए ' दिव्यया प्रभया ' दिव्वाए छायाए ' दिव्यया छायया, 'दिव्वाए अचीए' दिव्येन अर्चिषा - दिव्येन तेजसा, 'दिव्वाए लेसाए' दिव्यया लेश्यया, ' दस दिसाओ उज्जोयमाणा ' दश दिशा उद्योतयन्तः - समन्तात्सर्वान् दिगाभोगान् विभासयन्तः इति । ' पभासमाणा " प्रभाकान्तिवाले, महाबल- शरीर से अत्यन्त बलवान्, महायशस्वी - अत्यन्त यशवाले, महानुभागअत्यन्त प्रभावशाली, महासौख्य-सुखपुंज को भोगनेवाले और चिरस्थितिक--अनेक सागरोपमस्थितिवाले होते हैं । इनका वक्षःस्थल सदा हारों की मालाओं से सुशोभित रहा करता है । (जाव पभासमागा) यहाँ 'जाव' शब्द से ( कडय - तुडिय - थंभिय-भुया अंगय - कुंडल - गंडयल - कण्णपीठ - धारी विचित्त-वत्था - भरणा विचित्तमाला मउलिमउडा कल्लाणग-पवर- वत्थ- परिहिया कल्लाणग-पवर - मल्ला - णुलेवणा भासुरबोंदी पलंब - वणमाल-धरा दिव्वेणं संघारणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्ढीए दिव्वाए जुईए दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्त्राए अच्चीए दिव्वाए शरीरे धणा मवान्, महायशस्वी - अत्यंत यशवाजा, महानुभाग- अत्यंत अलाવશાળી, મહાસૌખ્ય–સુખપુજને ભેગવવાવાળા અને ચિરસ્થિતિક–અનેક સાગરોપમ સ્થિતિવાળા થાય છે. એમનુ' વક્ષઃસ્થલ સદા હારાની માલાએથી સુÀાભિત २ह्या ४२ छे. (जाव पभासमाणा ) यहीं 'जाव' शब्हथी (कडय - तुडिय - थंभियभुया अंगय-कुंडल-गंडयल - कण्णपीढ - धारी विचित्त-वत्था - भरणा विचित्त माला मउलिमउडा कल्लाणग-पवर - वत्थ - परिहिया कल्लाणग-पवर - मल्ला - णुलेवणा भासुरबोंदी पलंब - वणमाल - धरा दिव्वेणं संघाएणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्ढीए दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वाए लेसाए दस Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र कल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसिभद्दा जाव पडिरूवा। तमाइक्खइसमानाः प्रकर्षेग शोभमानाः 'कप्पोवगा' कल्पोपगाः-कल्पः इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंशपारिषद्या-त्मरक्ष-लोकपाला-नीक-प्रकीर्णका-भियोग्य-किल्बिषिक-व्यवहारस्वरूप आचारस्तमुपगताः प्राप्ताः, सौधर्मादिदेवलोकवासिवैमानिकदेवत्वं प्राप्ताः, 'गइकल्लाणा गति कल्याणाःकल्याणा गतिर्येषां ते तथा, अथवा-गत्या चतुर्गतिकलोके देवगतिरूपया कल्याणाः= लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासमाणा) इस पाठ का संग्रह हुआ है, इस का अर्थ इस प्रकार है-इनकी भुजाएँ कटक-कड़े और त्रुटित-भुजबन्ध इन आभूषणों से विभूषित रहा करती हैं। बाकी के इन समस्त पदों का अर्थ पीछे जहां पर देवों के आगमन का वर्णन किया गया है उस ३३वें सूत्र में लिखा जा चुका है। (कप्पोवगा) इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीकाधिपति, प्रकीर्णक, आभियोग्य, किल्बिषिक, ये दश प्रकार के देव जहाँ होते हैं उन देवलोकों का नाम कल्प है। इन कल्पों में जो उत्पन्न होते हैं उनका नाम कल्पोपग है। सौधर्मादिक देवलोक से अच्युत देवलोक तक के देव कल्पोपग कहलाते हैं; क्यों कि यहीं तक इन्द्रादिक १० प्रकार के देवों का व्यवहार होता है, इनके बाद नहीं ! (गइकल्लाणा) इनकी गति कल्याणकारी होती है, अथवा चतुर्गतिक इस लोक में ये देवगति में रहनेवाले होने के कारण उत्तम होते हैं, इस अपेक्षा ये गतिकल्याण कहे गये हैं। (ठिइकल्लाणा) अनेक पल्योपम (१) असुरकुमारों के वर्णन में इन समस्त पदों का अर्थ लिखा गया है। दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासमाणा) मा पानी सड ४यो छ. माने। अर्थ આ પ્રકારે છે. એમની ભુજાઓ કટક (કડાં) અને ત્રુટિત–ભુજબંધ એ આભૂષણોથી શણગારેલી રહે છે. બાકીનાં આ બધાં પદોનો અર્થ અગાઉ જ્યાં દેવના આગમનનું વર્ણન કર્યું છે તે ૩૩માં સૂત્રમાં લખાઈ ગયું છે.' (कप्पोवगा) द्र, साभानि, वायलिश, पारिषध, माम२६४, पास, અનીકાધિપતિ, પ્રકીર્ણક, આભિગ્ય, કિલિબષિક, આ દશ પ્રકારના દેવ જ્યાં હોય છે તે દેવકનું નામ કલ્પ છે. આ કલ્પમાં જે ઉત્પન્ન થાય છે તેમનાં નામ કાગ છે. સૌધર્માદિક દેવલોકથી લઈને અચુત દેવલોક સુધીના દેવ કપગ કહેવાય છે. કેમકે અહીં સુધી ઇંદ્રાદિક ૧૦ પ્રકારના हेवोनो व्यवहार थाय छे. त्यार पछी नहि. (गइकल्लाणा) तेभनी गति ४त्याકારી હોય છે. અથવા ચતુર્ગતિક આ લોકમાં તેઓ દેવગતિમાં રહેવાવાળા હોવાને કારણે ઉત્તમ હોય છે. આ અપેક્ષાથી તેઓ ગતિ કલ્યાણ કહેવાય છે. (૧) અસુરકુમારના વર્ણનમાં આ બધાં પદોને અર્થ લખાઈ ગયો છે. Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टोका सू. ५६ भगवतो धर्मदेशना ४६७ एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पकरेंति, भद्ररूपाः, 'ठिइकल्लाणा' स्थितिकल्याणाः अनेकपल्योपमसागरोपमरूपचिरस्थितिकाः 'आगमेसिभद्दा' आगमिष्यद्भद्राः-आगमिष्यत् आगामिकालभावि भद्र-कल्याणं-निर्वाणरूपं येषां ते तथा, 'जाव पडिरूवा' यावत्प्रतिरूपाः--अतिरमणीयाऽऽकाराः, यावच्छब्दात्'प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा' इति बोध्यम् । पुनरपि 'तमाइक्खइ' तदाचष्टे-तत्प्रवचनं कथयति-' एवं खलु चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पकरेंति' एवं खल चतुर्भिः स्थानैर्जीवा नैरयिकतायाः कर्माणि प्रकुर्वन्ति, तत्र नैरयिकतायाः=नारकित्वस्य, सागरोपम तक देवलोक में इनकी स्थिति होने के कारण ये देव स्थितिकल्याण कहे गये हैं। इनमें से आकर ही तो मनुष्यपर्याय लेकर जीव निर्वाण-मुक्ति का लाभ करते हैं; अतः वे (आगमेसिभदा) आगमिष्यद्भद्र कहे गये हैं ।(जाव पडिरूवा) यहाँ पर 'यावत्' शब्द से “प्रासादीयाः, दर्शनीयाः, अभिरूपाः" इन पदों का भी संग्रह हुआ है । 'पासादीयाः' इन्हें देखने से मन प्रसन्न हो जाता है। अत एव ये 'दर्शनीयाः' दर्शनीय हैं। 'अभिरूपाः' इनके रूप की सुन्दरता प्रतिक्षण नवीन नवीन भाव से बढती रहती हो ऐसे ये मालूम होते हैं; इसलिये ये अभिरूप हैं। 'प्रतिरूपाः' इनके रूप की तुलना नहीं हो सकती है, क्यों किं इनका रूप असाधारण होता है, अर्थात् ये अनुपम सुन्दर होते हैं। अब इस प्रवचन का क्या फल है ? इसको कहते हैं (एवं खलु चाहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्म पकरेंति) यह जीव चार कारणों द्वारा नरक में ले जानेवाले कर्मों को करते हैं, अब इस बात को प्रभु प्रकट (ठिइकल्लाणा) मने पल्यापम सागरोपम सुधी पक्षोभ तमनी स्थिति હોવાના કારણે તે દેવે સ્થિતિકલ્યાણ કહેવાય છે. તેમાંથી આવીને જ મનુध्यपर्याय प्रात ४२ 0 निर्मा-भुतिन साल ४२ छ, भाट तसा (आगमेसिभद्दा) मागमिष्यमद्र ४ाय छे. (जाव पडिरूवा) सही यावत् २४थी 'प्रासादीयाः, दर्शनीयाः, अभिरूपाः' से पहना सयड थयो छ. "प्रासादीयाः”- सभने नेता मन प्रसन्न २४ नय छे. म. माटे ४ तेस 'दर्शनीयाः' शनीय छ. 'अभिरूपाः' अमन। ३५नी सुंदरता प्रतिक्षा नवीन નવીન ભાવથી વધતી જતી હોય તેમ તેઓ જણાય છે; તે માટે તેઓ અભિ३५ छ. 'प्रतिरूपाः' भनी ३५नी तुसना न श, भतभनु ३५ અસાધારણ હોય છે, અર્થાત્ તેઓ અનુપમ સુંદર હોય છે. હવે આ પ્રવयनन शुस छ ? ते ४ छ (एवं खलु चहि ठाणेहिं जीवा रइयत्ताए कम्मं पकरेंति) ॥ १ या२ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ औपपातिकसूत्रे णेरइयत्ताए कम्मं पकरेत्ता रइएसु उववजंति, तं जहा-महारंभयाए १ महापरिग्गहयाए २ पंचिंदियवहेणं ३ कुणिमाहारेणं ४, एवं एएणं अभिलावेणं। तिरिक्खजोणिएसु-१ माइल्लयाए ‘णेरइयत्ताए कम्मं पकरेत्ता णेरइएमु उववति ' नैरयिकतायै कर्माणि प्रकृत्य प्रकर्षण विधाय नैरयिकेषु उत्पद्यन्ते=नारकजीवानां मध्ये जायन्ते, तंजहा-तद्यथा येन प्रकारेण नैरयिकेषु जायन्ते तत् कथयति सूत्रकारः-१ 'महारंभयाए' महारम्भतया सावद्याऽऽरम्भबाहुल्येन,-२ ‘महापरिग्गहयाए' महापरिग्रहतया परिग्रहाधिक्येन, ३ 'पंचिंदियवहेणं' पञ्चेन्द्रियवधेन–पञ्चेन्द्रियप्राणिनां हिंसया, ४ 'कुणिमाहारेणं' कुणपाहारेण मांसाहारेण, एवं एएणं अभिलावेणं' एवमेतेनाभिलापेन कथनेन 'तिरिक्खजोणिएसुतिर्यग्योनिषु-तिरश्चां योनयः उत्पत्तिस्थानानि तत्र, १-माइल्लयाए णियडिल्लयाए' मायावितया निकृतिमत्तयामाया परवञ्चना सैषामस्तीति मायाविनः तेषां भावस्तत्ता तया; निकृतिः-मायावरणार्थ मायान्तरकरणं सैषामस्तीति निकृतिमन्तः, तद्भावो निकृतिमत्ता तया, २ 'अलियवयणेणं' करते हैं-(तं जहा) वे चार कारण ये हैं-(महारंभयाए) महा-आरम्भ, (महापरिग्गयाए) महापरिग्रह, (पंचिंदियवहेणं ) पंचेन्द्रिय जीवों का वध करना, (कुणिमाहारेणं) मांस का आहार करना । इन चार कारणों से (णेरइयत्ताए कम्मं पकरेत्ता णेरइएमु उववजंति) नरक में ले जाने के योग्य कर्मों का उपार्जन होता है, इसलिये ये जीव नरक में उत्पन्न होते हैं । ( एवं एएणं अभिलावेणं) इसी प्रकारका चार कारण रूप कथन (तिरिक्खजोणिएमु ) तिर्यञ्च गति में उत्पन्न कराने वाले कर्मों का भी है । वे चार कारण ये हैं-(माइल्लयाए) मायाचारी करना (णियडिल्लयाए) एवं माया को संवरण करने के लिये और अधिक मायाचारी करना १, ( अलियवयणेणं ) असत्य २। द्वारा न२४i aarti | ४२ छ, (तंजहा) ते या२ ४।२१) २मा छ(महारंभयाए) मा सारभ, (महापरिगहयाए) भडपिरियड, (पंचिंदियवहेणं) पायद्रियवोनो १५४२वी, (कुणिमाहारेणं) भांसन। माइ।२ ४२वी. मा यार ४२शोथी (णेरइयत्ताए कम्मं पकरेत्ता णेरइएसु उववज्जति) न२४i as orq। योय ४ीनु उपा नाय छ तेथी ते १ न२४मा नय छे. (एवं एएणं अभिलावेणं) - २i ४ यार ४१२५ ३५ ४थन (तिरिक्खजोणिएसु) ति य गतिमा अत्यन्न ४२२नारा ४ीनु ५४ छे. ते यार ४१२ ॥ छ-(माइल्लयाए) भायायारी ४२, (णियडिल्लयाए) તેમજ માયાનું સંવરણ કરવા માટે ઢાંકવા માટે અન્ય માયાચારી કરવું (૧). Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सु. ५६ भगवतो धर्मदेशना णियडिल्लयाए, २ अलिंयवयणेणं, ३ उकंचणयाए,४वंचणयाए। मणुस्सेसु-पगइभद्दयाए १, पगइविणीययाए २, साणुकोअलीकवचनेन=असत्यभाषणेन, ३ 'उकंचणयाए' उत्कञ्चनतया-उत्कञ्चनता नाम कं चन सरलहृदयं वञ्चयितुं प्रवृत्तस्य परं चतुरतरं नरं पार्श्वस्थं विलोक्य क्षणं वञ्चनानिवृत्ततयाऽवस्थानं तया, कपटवृत्त्या, ४ 'वंचणयाए' वञ्चनतया। एतैश्चतुर्भिः स्थानैर्जीवास्तिर्यग्योनिषु यान्ति। मनुष्यजीवेषु पुनः कैश्चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यन्ते ? तदर्शयितुमाह'मणुस्सेसु' इत्यादि । मनुष्येषु, 'पगइभद्दयाए' प्रकृतिभद्रतया स्वभावसरलतया १, 'पगइविणीययाए ' प्रकृतिविनीततया स्वभावतो विनयशीलतया २, 'साणुक्कोसयाए' सानुक्रोशतया-अनुक्रोशो-दया तेन सः वर्तते इति सानुक्रोशस्तस्य भावः सानुक्रोशता तया-सदयतया ४, 'अमच्छरियाए ' अमत्सरितया-मत्सरोऽन्यशुभद्वेषस्तदभावोऽमत्सरः= परगुणग्राहित्वं सोऽस्त्येषामित्यमत्सरिणस्तदभावोऽमत्सरिता तया-ईर्ष्याराहित्येन । एतैश्चतुर्भिः भाषण करना २, (उक्कंचणयाए) किसी सरल हृदयवाले व्यक्ति को ठगने के लिये प्रवृत्त हुए ठगिया-मायाचारी वाले का, उस सरल पुरुष के पास किसी चतुर पुरुष की स्थिति देखकर कुछ समयतक वंचनामय अपनी प्रवृत्ति को स्थगित कर ठहर जाना-कपटवृत्ति को रोक रखना ३, (वंचणयाए) दूसरों को ठगना ४ । इन चार कारणों से जीव तिर्यंचगति में ले जाने वाले कर्मों का उपार्जन करते हैं। (मणुस्सेसु) मनुष्यगति में जीव चार कारणों से जाते हैं । वे कारण ये हैं-(पगइभद्दयाए) प्रकृति से भद्र होना १, (पगइविणीययाए) प्रकृति से विनीत होना २, (साणुक्कोसयाए) दयालु होना ३, एवं (अमच्छरियाए) मत्सरभाव नहीं रखना अर्थात् गुणग्राही होना ४ । इन चार कारणों से ये जीव मनुष्यगति में उत्पन्न (अलियवयणेणं) असत्य भाषण ४२j (२). (उक्कंचणयाए) ४ स२ या માણસને ઠગવા-છેતરવા માટે પ્રવૃત્ત થનારા ઠગ-માયાચારીવાળાનું, તે સરળ પુરુષની પાસે કોઈ ચતુર પુરુષની હાજરી જોઈ થોડા સમય માટે વંચનામય પિતાની પ્રવૃત્તિને સ્થગિત કરી રોકાઈ જવું–પિતાની કપટવૃત્તિને ठी राम (3). (वंचणयाए) मानने 14 (४). मा यार ४२योथी छ तिय य गतिभा व ४१२i k Bान ४२ छ. (मणुस्सेसु) भनुष्यगतिभा ॥ १४ ४२पोथी- तय छे. ते रणे। म छ-(पगइभद्दयाए) अतिथी मद्रायु (१), (पगइविणीययाए) प्रतिथी विनीत डाj (२), (साणुक्कोसयाए) यात्रा (3), तभ०४ (अमच्छरियाए) भत्सरसा न રાખવો અર્થાત ગુણગ્રાહી થવું (૪). આ ચાર કારણોથી આ જીવ મનુષ્ય Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे सयाए ३, अमच्छरियाए ४ । देवेसु - सरागसंजमेणं १, संजमा संजमेणं २, अकामाणजराए ३, बालतवोकम्मेणं ४ । तमाइक्खइ स्थानैर्जीवा मनुजत्वं प्राप्नुवन्ति । देवत्वप्राप्तिहेतुभूतानि चत्वारि स्थानानि दर्शयति- 'देवेसु' इत्यादि । देवेषु - ' सरागसजमेणं ' सरागसंयमेन - रागेण = आसक्त्या सहितः सरागः स चासौ संयमश्व सरागयसंमस्तेन - सकषायचारित्रेण १, ' संजमासंजमेणं ' संयमासंयमेन = देशसंयमेन २, 'अकामणिज्जराए' अकामनिर्जरया - अकामेन = अभिलाषमन्तरेण निर्जरा = क्षुधादिसहनं तया ३, ' बालतवोकम्मेणं' बालतपः कर्मणा - बालसादृश्याद् बालाः= मिथ्यादृशः, तेषां तपःकर्म बालतपः कर्म, तेन ४, एतैः स्थानैर्जीवा देवभवं प्राप्नुवन्तीति भावः । पुनः प्रकारान्तरेण ' तमाइक्खइ ' तदाख्याति = तत् कथयति 'जह णरगा गम्मंती' ४७० कराने वाले कर्मों का उपार्जन करते हैं । (देवेसु) चार कारणों से जीव देवगति में उत्पन्न होते हैं। वे चार कारण ये हैं- ( सरागसंजमेणं) सरागसंयम का पालन करना १, (संजमासंजमेणं) देशविरति पालन करना २, (अकामणिजराए) अकामनिर्जरा ३, एवं (बालतवकमेणं) बाल तपस्या ४ । जिस संयम में राग ( आसक्ति ) विद्यमान होता है उस का नाम सरागसंयम है । मतलब - कषायसहित चारित्र का पालना सरागसंयम है । १२ बारह व्रतों का-देशविरति का धारण करना इसका नाम संयमासंयम है । अभिलाषा - इच्छा के विना क्षुधा आदि का सहन करना इसका नाम अकामनिर्जरा है । मिथ्यादृष्टियों के का नाम बालतप है । इन कामों के करने से जीव देवगति में जाने योग्य कर्मों का उपार्जन करते हैं। (जह णरगा गम्मंती जे गरगा जाय वेयणा णरए । सारीरमाणसाईं दुक्खाई गतिभां उत्पन्न ४राववावाजां मेनुं उपान ४रे छे. (देवेसु) यार परशोथी लव देवगतिमां उत्पन्न थाय छे - ( सरागेसंजमेणं) सराग संयमनु पालन ४२ १, (संजमासंजमेणं) देशविरतिनुं पालन ४२ २, (अकामणिज्जराए) भाभનિર્જરા ३, तेभन (बालतवोकम्मेणं) मास तपस्या ४ ) ने संयममां राग - मासहित વિદ્યમાન હોય છે તેનું નામ સરાગ—સંયમ છે. મતલબ-કષાય સહિત ચારિત્રનું પાલન કરવુ. તે સરાગસંયમ છે (૧). ૧૨ मार व्रतोद्देशविरतिધારણ કરવાં તેનું નામ સયમાસયમ છે (૨). અભિલાષા-ઇચ્છા—વિના ભૂખ આદિ સહન કરવું તેનું નામ અકામ નિર્જરા છે (૩). મિથ્યાર્દષ્ટિનાં તપનું નામ આલતપ છે (૪). આ કામા કરવાથી જીવ દેવગતિમાં જવા યાગ્ય કર્માનુ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टोका सू. ५६ भगवतो धर्मदेशना ४७१ “जह णरगा गम्मंती, जे णरगा जा य वेयणा णरए। सारीरमाणसाइं दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए ॥१॥ माणुस्सं च अणिञ्चं, वाहि-जरा-मरण-वेयणा-पउरं । देवे य देवलोए, देविह्नि देवसोक्खाइं ॥२॥ इत्यादिगाथाभिः । 'जह णरगा गम्मंती' यथा नरका गम्यन्ते-जीवैर्येन प्रकारेण नरकाः नरकस्थानानि गम्यन्ते प्राप्यन्ते, 'जे णरगा' ये नरकाः-यद्रूपा नरकाः नारकिणः सन्ति, 'जा य वेयणा णरए' याश्च वेदना नरके याः यादृश्यो वेदनाः= यातनाश्च नरके भवन्ति, तत्सर्वं कथयतीति पूर्वेणान्वयः । 'सारीरमाणसाइं दुक्खाई तिरिक्खजोणीए' शारीरमानसानि दुःखानि तिर्यग्योन्याम्-यथा च शरीरसम्बन्धीनि मनःसम्बन्धीनि च दुःखानि भवन्ति प्राणिनामिति शेषस्तथा भगवान् परिकथयति ॥ १ ॥ एवं 'माणुस्सं च अणिचं वाहि-जरा-मरण-वेयणा-पउरं' मानुष्यश्चाऽनित्यं व्याधि-जरा-मरण-वेदना-प्रचुरम्-व्याधयो ज्वरादयः जरा वार्धकं,मरणं प्रसिद्ध, वेदनाः= शीतोष्णादिस्वरूपाः, प्रचुराः विशदा यस्मिस्तादृशम् , अतएव अनित्यं क्षणभङ्गुरं मानुव्यं मनुष्यभवं परिकथयति । ' देवे य देवलोए देविदि देवसोक्खाई। देवान् च देवलोकान् देवद्धि देवसौख्यानि-तथा देवान् , च पुनः देवलोकान् , देवर्द्धि देवसमृद्धि, देवसौख्यानि देवसम्बन्धीनि सुखानि कथयतीति शेषः ॥२॥ एतान्येव नरकादीनि तिरिक वजोगीए) जीव जिस प्रकार नरकों में जाते हैं, और वहां जैसे नारकी हैं, एवं उन्हें जिस प्रकार की वेदना भोगनी पड़ती है यह सब प्रभु ने (आइक्खइ) बतलाया। तिर्यग्गति में पहँचने पर इस जीव को जितने भी शारीरिक एवं मानसिक कष्ट भोगने पड़ते हैं, यह भी भगवानने स्पष्ट किया । (माणुस्सं च अणिचं वाहि-जरा-मरण-वेयणा-पउरं) यह मानवपर्याय अनित्य है, व्याधि, जरा, मरण एवं वेदना से प्रचुर-भरी है । (देवे य Sपान ४२ छ. (जह णरगा गम्मंती जे णरगा जा य वेयणा णरए । सारीरमाणसाइं दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए) १२ प्रा नरमा तय छ, मने त्यांचा નારકી હોય છે, તેમજ તેમને જે પ્રકારની વેદના ભેગવવી પડે છે, એ બધું प्रभुणे (आइक्खइ) मताव्यु. तिय य-गतिमा ५indi 240 ने २i શારીરિક તેમજ માનસિક દુઃખ હોય છે તે બધાં ભેગવવાં પડે છે, એ પણ मनपाने स्पष्ट यु. (माणुस्सं च अणिचं वाहि-जरा-मरण-वेयणा-पउर) 0 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्रे णरगं तिरिक्खजोणिं, माणुसभावं च देवलोगं, च। सिद्धे य सिद्धवसहिं, छज्जीवणियं परिकहेइ ॥३॥ जह जीवा बझंती मुच्चंती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं, करेंति केई अपडिबद्धा ॥४॥ संगृह्य ब्रूते-'णरगं' नरकं-नरकावास, 'तिरिक्खजोणि ' तिर्यग्योनि, 'माणुसभावं' मनुष्यभावं मनुष्यत्वं च ' देवलोगं ' देवलोकञ्च कथयति। तथा 'सिद्धे य' सिद्धांश्च 'सिद्धवसहिं '-सिद्धवसतिं सिद्धक्षेत्रं, 'छज्जीवणिय' षड्जीवनिका परिकथयति ॥ ३ ॥ एवं 'जह जीवा, बझंती' यथा जीवा बध्यन्ते बन्धं प्राप्नुवन्ति, 'मुच्चंती' मुच्यन्ते= मुक्ता भवन्ति, 'जह य संकिलिस्संति' यथा च संक्लिश्यन्ति, 'जह दुक्खाणं अंतं करेंति केई अपडिबद्धा' यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति केऽपि अप्रतिबद्धाः-केऽपि कति-चिज्जीवा अप्रतिबद्धाः प्रतिबन्धरहिताः-मुक्ताः सन्तो दुःखानामन्तं नाशं कुर्वन्ति, तत्सर्व देवलोए देविड्ड देवसोक्खाइं) एवं देवगति में देवताओं को देवबंधी अनेक ऋद्धियां एवं देवपर्यायासंबंधी अनेक सौख्यों की प्राप्ति होती है-यह सब भी प्रभुने अच्छी तरह स्पष्ट करके अपनी दिव्यध्वनि द्वारा प्रदर्शित किया। (जरगं तिरिक्खजोणि माणुसभावं च देवलोगं च । सिद्धे य सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ) इस प्रकार प्रभु ने नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति का कथन किया, साथ में यह भी बतलाया कि सिद्ध कैसे होते हैं और सिद्धस्थान कैसा है, एवं षड्जीवनिकाय कौन २ हैं । (जह जीवा बझंती मुच्चंती जह य संकिलिस्सति । जह दुक्खाणं अंतं करेंति केई अपडिबद्धा) जीव जिस प्रकार कर्मों માનવપર્યાય અનિત્ય છે. વ્યાધિ, જરા, મરણ તેમજ વેદનાથી પ્રચુર-ભરેલી छ. (देवे य देवलोए देविढिं देवसोक्खाई) तभ०४ गतिमा हेवतासाने हेवસંબંધી અનેક ઋદ્ધિઓ તેમજ દેવપર્યાય-સંબંધી અનેક સીખની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ બધું પણ પ્રભુએ સારી રીતે સ્પષ્ટ કરીને પિતાના દિવ્ય ધ્વનિ દ્વારા પ્રદર્શિત यु. (जरगं तिरिक्खजोणिं माणुसभावं च देवलोयं च । सिद्धे य सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ) मा ४ारे प्रभुणे न२४, तिय य, मनुष्य तेभ देवशतिनु ४थन કર્યું, તે સાથે એ પણ બતાવ્યું કે સિદ્ધ કેવા હોય છે, અને સિદ્ધસ્થાન કેવું છે, तभ० षड्पनिय आ य छे. (जह जीवा बझंती मुच्चंती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करेंति केई अपडिबद्धा) १२ प्र४ारे ४थी Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ५६ भगवतो धर्मदेशना. ४७३ अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुगं विहाडेति ॥५॥ जह रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो। जह य परिहीणकम्मासिद्धा सिद्धालयमुवेति ॥६॥सू०५६॥ कथयति ॥ ४ ॥ 'अट्टा अट्टियचित्ता' आर्तादार्तितचित्ताः-आर्तात् आर्तध्यानाद् आर्तितं= पीडितं चित्तं येषां ते तथा, 'जह जीवा' यथा जीवाः ‘दुक खसागरमुर्वेति' दुःखसागरं दुःखरूपं समुद्रमुपयन्ति प्राप्नुवन्ति, तत् कथयति । 'जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेंति' यथा च वैराग्यमुपगताः प्राप्ताः कर्मसमुद्गं-कर्मणां समुद्गं-मञ्जूषां कर्मराशिमिति यावत् विघाटयन्ति त्रोटयन्ति-नाशयन्तीति यावत् , तत् कथयति । 'जह रामेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो' यथा रागेग-पुत्रकलत्रादिष्वभिष्वङ्गरूपेण कृतानाम्= उपार्जितानां कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां पापकः पापमयः फलविपाकः फलपरिणामो भवति। से बंधते हैं और जिस प्रकार उनसे छूटते हैं तथा जिस प्रकार से अनेक संक्लेशों को भोगते हैं और फिर अप्रतिबद्ध होकर जिस प्रकार से कितनेक भव्यजीव समस्त प्रकार के दुःखों का विनाश करते हैं यह विषय भी प्रभु ने आगत जनता को अच्छी तरह समझाया । (अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेंति) प्रभु ने यह भी बतलाया कि आर्तध्यान से पीडित चित्तवाले प्राणी-जीव किस तरह दुःख सागर में गोते खाते रहते हैं और किस प्रकार से वैराग्य को प्राप्त कर जीव कर्मराशि को विनष्ट कर देते हैं। (जह रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो। બંધાય છે, અને જે પ્રકારે તેથી છૂટે છે, તથા જે પ્રકારે અનેક સંકલેશેને ભેગવે છે, અને પાછા અપ્રતિબદ્ધ થઈને જે પ્રકારે કેટલાક ભવ્ય જીવ સમસ્ત પ્રકારનાં દુઃખને વિનાશ કરે છે. એ વિષય પણ પ્રભુએ આવેલ नताने सारी रीत समाव्या. (अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेंति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेंति) प्रभुये से ५४ मतायु, सातધ્યાનથી પીડાતા ચિત્તવાળા પ્રાણી-જીવ કેવી રીતે દુઃખસાગરમાં ગોથાં ખાધા કરે છે, અને કેવી રીતે વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરીને જીવ કર્મરાશિને નાશ 3रे छ. (जह रागेण कडाणं कम्माण पावगो फलविवागो। जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुवेंति) पुत्र-४सत्र माविमा मासहित ३५ रागथी 64 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ औपपातिकसूत्रे मूलम् तमेव धम्मं दुविहं आइक्खइ, तं जहा-अगार'जह य' यथा च-येन प्रकारेण 'परिहीणकम्मा' परिहीनकर्माणः-परिहीणानि-विनष्टानि कर्माणि येषां ते, सिद्धाः-'सिद्धालयमुति' सिद्धालयमुपयन्ति-लोकान्तक्षेत्रलक्षणं स्थानं प्राप्नुवन्ति, तथा भगवान् परिकथयतीति पूर्वेणान्वयः ॥ सू० ५६ ॥ टीका-' तमेव' इत्यादि । ‘तमेव धम्म दुविहं आइक्रवइ' तमेव= पूर्वोक्तमेव धर्म द्विविधं द्विप्रकारम् , आख्याति-कथयति, 'तं जहा' तद्यथा--' अगारधम्म अणगारधम्म च' अगारधर्मम् , अनगारधर्मं च-अगारं गृहं तात्स्थ्यादगारा गृहस्थाः , गृहा दारा इत्यादिवत् , यद्वा-अगारमस्त्येषामित्यर्थे 'अर्श आदिभ्योऽच्' इति मत्वर्थीयाच्प्रत्ययः, तेषां धर्मः-वक्ष्यमाणस्वरूपस्तम् , तथा-अनगारधर्म=न विद्यतेऽगारंगृहं येषां तेऽनगाराः साधवस्तेषां धर्मस्तं च आख्याति । तत्र प्राधान्यात् प्रथमजह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुवेंति ) पुत्रकलत्रादिकों में आसक्तिरूप राग से उपार्जित ज्ञानावरणीय आदिक कर्मों का पापमय फल जैसे होता है और कर्मों को नष्ट कर जीव सिद्धावस्थापन हो सिद्धालय में जैसे पहुँचते हैं यह सब भी प्रभु ने अपनी देशना में स्पष्ट किया ॥ सू. ५६॥ . 'तमेव धम्म दुविहं आइक्खइ' इत्यादि प्रभु ने (तमेव धम्मं दुविहं आइक्वइ) इस धर्म को दो प्रकार से कहा है। ('अगारधम्मं अणगारधम्म च) १ गृहस्थ का धर्म और दूसरा अनगार-मुनि का धर्म । (१) 'अगार' नाम घर का है। परन्तु इस पद से यहाँ उनमें रहने वाले गृहस्थों का ग्रहण हुआ है, अथवा “अर्श आदिभ्योऽच्" इस सूत्र से अस्त्यर्थ में अच् प्रत्यय करने से भी उनमें रहने वाले गृहस्थों का ग्रहण हो जाता है । જેન કરેલાં જ્ઞાનાવરણીય આદિક કર્મોના પાપમય ફલ જેમ થાય છે અને કર્મોને નાશ કરી જીવ સિદ્ધ-અવસ્થા પ્રાપ્ત કરી સિદ્ધાલય (મુક્તિ સ્થાનમાં) જેમ પહોંચે છે તે બધું પણ પ્રભુએ પિતાની દેશનામાં સ્પષ્ટ કર્યું. (સૂ. ૫૬) _ “तमेव धम्मं दुविहं आइक्खई" छत्याहि. प्रभुणे (तमेव धम्मं दुविहं आइक्खइ) २॥ धर्म में प्रा२ने। ४ह्यो छ ('अगारधम्म अणगारधम्मं च) १-श्यना धर्म मने मी मना२-मुनिना (૧) અગાર એટલે ઘર. પરંતુ આ પદથી અહીં તેમાં રહેવાવાળા स्था मेवो मथ घड ४य छ, मथवा “ अर्श आदिभ्योऽच्” या सूत्रथी 'अस्ति' अर्थ मां अन्य प्रत्यय साथी ५ तमा २९वावा गृउस्था-सवे। અર્થ થાય છે. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ पीयूषवर्षिणी- टीका. सू. ५७ अनगार धर्मनिरूपणम्. धम्मं अणगारधम्मं च । अणगारधम्मो ताव - इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय - अदिण्णादाण मेहुण- परिग्गहमनगारधर्ममेव व्याचष्टे–' अणगारधम्मो ताव ' इति । अनगारधर्मस्तावत् - तावत् = प्रथमम् अनगारधर्म उच्यते -' इह खलु सन्त्रओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं ' इह खलु सर्वतः सर्वात्मना मुण्डो भूत्वाऽगारादनगारितां प्रव्रजितस्य सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरमणम्-इह जगति खलु सर्वतः=द्रव्यतो भावतश्चेत्यर्थः, सर्वाऽऽत्मना = परमवैराग्येण मुण्डो भूत्वा - द्रव्यतो मुण्डो मस्तके लुञ्चितकेशः, भावतस्तु कषायागामपनयनमिति मुण्डलक्षणधर्मयोगात्पुरुषो मुण्ड उच्यते, अत्र 'अर्श आदिभ्योऽच्' इत्यच्प्रत्ययः; तादृशो भूत्वेत्यर्थः; अगाराद् - गृहात् गृहं (अणगारधम्मो ताव) अनगार का धर्म वे ही जीव पालन करते हैं जो (इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय - आदिण्णादाण मेहुण - परिग्गह- राई भोयणवेरमणं) यहां सर्व प्रका से- द्रव्य एवं भावरूप से, सर्वात्मना - परमवैराग्य संपन्न होकर मुंडित हो जाते हैं । यह मुंडित अवस्था द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार का है - केशों का लुंचन करना द्रव्यमुंडन है, एवं कषायों का त्याग करना भावमुंडन है, मुंडित होकर जो अपने गृह का परित्याग कर साधु की दीक्षा से दीक्षित हो जाता है। उसका नाम अनगार है । इस अनगार अवस्था में (१) मुंड पद से मुंडित पुरुष का मत्वर्थीय अच्प्रत्यय करने से ग्रहण हुआ है । परभ धर्म (अणगारधम्मो ताव) अनगारना ધમ તેજ જીવ પાલન કરે છે જે ( इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय - अदिण्णादाण - मेहुण - परिग्गह-राईभोयणवेरमणं) अडीं सर्व प्रारथी- द्रव्य तेमन लाव ३५थी सर्व प्रारे વૈરાગ્ય–સપન્ન થઈ જાય છે. આ મુંડિત અવસ્થા દ્રવ્ય તેમજ ભાવ ના ભેદથી બે પ્રકારની છે-કેશલ ચન કરવુ” એ દ્રવ્યમુંડન છે, તેમજ કષાયાના ત્યાગ કરવા' એ ભાવમુડન છે. મુડિત થઈ જે પેાતાના ઘરનેા ત્યાગ કરી સાધુની દીક્ષાથી દીક્ષિત થઈ જાય છે તેમનું નામ અનગાર છે. આ અનગાર अप(१) मुंड शब्दथी भुंडित पुरुषने। मत्वर्थीय अच् प्रत्यय लगाउवाथी ગ્રહણ કર્યો છે. Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ औपपातिकसूत्रे परित्यज्येत्यर्थः, अनगारितां साधुत्वं प्रवजितस्य प्रकर्षेग समस्तममत्वपरित्यागपूर्वकं स्वीकृतवतः, सर्वस्मात् त्रिकरणत्रियोगतो जायमानात् अखिलात् प्राणातिपातात्-प्राणाः= स्पर्शेन्द्रियादयः सन्त्येषामिति प्राणा:-एकेन्द्रियादयो जीवास्तेषामतिपातो-वियोजनं-हिंसनमित्यर्थस्तस्माद् विरमणं निवर्त्तनम् ॥ १ ॥ 'मुसापाय-अदिणादाण-मेहुण-परिग्गहराइभोयणाओ वेरमणं' मृपावादा-ऽदत्ताऽऽदान-मैथुन-परिग्रह-रात्रिभोजनाद्विरमणम्मृषावादः असत्यभाषणं तस्माद् विरमण निवृत्तिः ॥ २ ॥ अदत्तादानं-न दत्तमदत्त देवगुरु-भूप-गाथापति-साधर्मिकैरननुज्ञातं, तस्यादानं ग्रहणं तस्माद् विरमणम् , ॥ ३ ॥ मैथुनं-मिथुनेन स्त्रीपुंसाभ्यां निर्वृत्तं कर्म-कामक्रीडालक्षणं, तस्माद् विरमणम् ॥ ४ ॥ परिग्रहः-परि=सर्वतो भावेन गृह्यते जन्मजरामरणादिजनितैर्दुःखैर्वेष्टयत आत्मा अनेनेति, कृत, कारित, अनुमोदना एवं मन, वचन और काय इस प्रकार त्रिकरण और त्रियोग से प्राणातिपातादिक पापों का सर्वथा त्याग कर दिया जाता है। प्राणातिपात का त्याग करनाइसीका नाम प्राणातिपातविरमण है । 'प्राण' शब्द से प्राणवाले एकेन्द्रियादिक जीवों का ग्रहण हुआ है। 'अतिपात' शब्द का अर्थ वियोग करना है। एकेन्द्रियादिक प्राणियों की हिंसा से विरक्त-सर्वथा दूर-होना इसका नाम प्राणातिपातविरमण-अहिंसा-महावत है। इसी तरह त्रियोग-त्रिकरण से मृषावाद से विरक्त होना इसका नाम मृषावादविरमण-सत्य-महाव्रत है । देव, गुरु, भूप, साधर्मिक एवं गाथापति द्वारा अदत्त का ग्रहण करना इसका नाम अदत्तादान है, उससे निवृत्त होना उसका नाम अदत्तादानविरमण महावत है। तीन करण तीन योग से जो मैथुन से निवृत्त होना उसका नाम मैथुनविरमण महाव्रत है। जिसके ग्रहण से आत्मा, जन्म, जरा एवं मरण आदि जनित दुःखों से वेष्टित होती है उसका नाम परिग्रह है । धर्मोपकरण सिवाय अन्य सब धन-धान्यादिक को परिग्रह में परिगणित किया સ્થામાં કૃત, કારિત, અનુમોદન તેમજ મન, વચન અને કાય એ પ્રકારે ત્રિકરણ અને ત્રિોગથી પ્રાણાતિપાત આદિક પાપને સર્વથા ત્યાગ કરાય છે. પ્રાણાતિપાતને ત્યાગ કરવો એનું જ નામ પ્રાણાતિપાત–વિરમણ છે. “પ્રાણ શદથી પ્રાણવાળા એકેન્દ્રિયાદિક પ્રાણિઓની હિંસાથી વિરકત–સર્વથા દૂર થવું એનું નામ પ્રાણાતિપાત વિરમણ-અહિંસા મહાવ્રત છે. એવી જ રીતે ત્રિગત્રિકરણથી મૃષાવાદથી વિરકત થવું એનું નામ મૃષાવાદવિરમણ-સત્ય મહાવ્રત છે. દેવ, ગુરુ, ભૂપ, સાધર્મિક તેમજ ગાથા પતિ દ્વારા અદત્તનું ગ્રહણ કરવું તેનું નામ અદત્તાદાન છે, તેથી નિવૃત્ત થવું અદત્તાદાનવિરમણ મહાવ્રત છે. ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી મિથુનથી નિવૃત્ત રહેવું એનું નામ મિથુનવિરમણ મહાવ્રત છે. જેના ગ્રહણથી આત્મા, જન્મ, જરા તેમજ મરણ આદિ દુખેથી ઘેરાઈ જાય છે તેનું નામ પરિગ્રહ છે. ધર્મોપકરણ સિવાય અન્ય Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका स्व. ५७ अनगार धर्मनिरूपणम्. ४७७. राइभोयण-वेरमणं। अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवहिए णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । अर्थात् परिगृह्यते=समूर्च्छ स्वीक्रियत इति परिग्रहः-धर्मोपकरणभिन्नं सर्वमित्यर्थस्तस्माद् विरमणम् ॥ ५ ॥ रात्रिभोजनं-रात्रौ भोजनं तस्माद् विरमणम् ॥ ६ ॥'अयमाउसो ? अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते' अयमायुष्मन् ? अनगारसामयिकः-अनगाराणां साधूनां समये सिद्धान्ते, यद्वा आचारे भवः, धर्मः प्रज्ञप्तः कथितः । 'एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवद्विए' एतस्य धर्मस्य शिक्षायाम् आसेवने उपस्थितः उद्युक्तः, 'णिग्गंथे वा' निम्रन्थः साधुर्वा ‘णिग्गंथी वा निर्ग्रन्थी वा उपस्थिता साध्वी वा-'विहरमाणे' विहरमाणः विचरन् 'आणाए आराहए भवई' आज्ञायाः सर्वज्ञोपदेशस्य आराधको भवति । इत्थमनगारधर्ममुपदिश्य संप्रत्यगारधर्ममुपदिशति, तदेवाह-'अगारधम्म' इत्यादि । गया है । क्यों कि प्राणियों को इनमें 'ममेदंभाव' होता है । इस परिग्रह से विरक्त होना परिग्रहविरमण महाव्रत है। रात्रि में भोजन नहीं करना-इसका नाम रात्रिभोजनविरमण व्रत है । (अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते) हे आयुष्मन् ! सिद्धान्त में यह साधुओं का आचारजन्य धर्म प्रतिपादित किया गया है । (एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवहिए)इस साधु के धर्म के आसेवन में उपस्थित (तत्पर) चाहे निर्ग्रन्थ-साधु हो, चाहे निर्ग्रन्थी-साध्वी हो, (विहरमाणे) जो इसे अपने आचरण में लाता है वह (आणाए आराहए भवइ) प्रभु सर्वज्ञ के आज्ञा का आराधक माना जाता है । इस प्रकार अनगारधर्म की प्ररूपणा कर के प्रभुने — गृहस्थ का क्या धर्म है ?' इसकी प्ररूपणा इस प्रकार की બધાં ધન ધાન્ય આદિકની, પરિગ્રહમાં ગણના થાય છે. કેમકે પ્રાણિઓને सभा 'ममेदभाव' थाय छे. ये परियडथी वि२४त थj से परियड-विरभर મહાવ્રત છે. રાત્રિમાં ભોજન ન કરવું તેનું નામ રાત્રિભોજન વિરમણ વ્રત છે. (अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते) हुमायुष्यमान ! सिद्धांतमा साधुमाना मायान्य मा धर्मनु प्रतिपान ४२८ छे. (एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवद्विए) साधुना मा भने पावामा उपस्थित-तत्पर, यात निधन्य-साधु डोय आई ते नियन्थी-साध्वी य (विहरमाणे) २ माने मायरमा दावे ते (आणाए आराहए भवइ) प्रभु सर्वशनी माज्ञानमारा मनाय छे. આ પ્રકારે અનગાર ધર્મની પ્રરૂપણ કરીને પ્રભુએ “ગૃહસ્થને શું ધર્મ છે તેની Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ औपपातिकसूत्रे - अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा-पंच अणुव्वयाइं १, तिणि गुणव्वयाइं २, चत्तारि सिक्खावयाइं ३। पंच अणुव्वयाइं, तं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं १, 'अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ' अगारधर्म द्वादशविधमाख्याति, 'तं जहा' तद्यथा, 'पंच अणुव्वयाइं पञ्चाऽणुव्रतानि 'तिणि गुणवयाइं त्रीणि गुणवतानि 'चत्तारि सिक्खावयाइं' चत्वारि शिक्षावतानि, शिक्षा अभ्यासः-पुनः पुनरभ्ययनं तत्प्रधानानि व्रतानि-शिक्षाव्रतानि । यद्यपि पुनः पुनरासेवनायोग्यानि शिक्षात्रतानि पुरो वक्ष्यमाणानि चत्वार्येव, तथापि त्रयाणां गुणवतानां शिक्षात्रतेष्वेवान्तर्भावात् सप्त शिक्षात्रतानि इत्यप्युच्यते ३ । स्वरूपख्यापनाय आह-'पंच अणुव्बयाई' पञ्चाऽणुव्रतानि-तं जहा' तद्यथा-'थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं' स्थूलात्प्राणातिपाताद्विरमणम्-प्राणानां प्राणिनामतिपातो-हिंसनं-तस्मात् स्थूलात् विरमणं-निवृत्तिः, न तु सूक्ष्मात् ॥ १॥ 'थूलाओ है-(अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ) प्रभुने कहा कि गृहस्थ धर्म १२ प्रकार का है, (तं जहा) उसके वे १२ प्रकार इस तरह से हैं (पंच अणुव्बयाई तिण्णि गुणधयाई चत्तारि सिक्खावयाइं) ५ अणुव्रत, ३ गुणवत, एवं ४ शिक्षाबत । कहीं २ पर शिक्षाव्रतसात भी कहे गये हैं सो उसका कारण यह है कि उनमें ३ गुणवतों को सम्मिलित कर लिया गया है। शिक्षाप्रधान व्रतों का नाम शिक्षात्रत है। (पंच अणुव्वयाइं तं जहा) पांच अणुव्रत ये हैं-(थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं) स्थूल प्राणातिपात से विरक्त होना सो अहिंसा अगुव्रत है । 'स्थूल' शब्द यहां यह बतलाता है कि सूक्ष्म से नहीं; किन्तु स्थूल प्राणा५३५॥ २ ४२ ४२॥ छ-(अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ) प्रभु उत्थ धर्म १२ ॥२ मारना छ. (तंजहा) तेनासे १२ मार ४२ गावी शतना छे-(पंच अणुव्वयाइं तिणि गुणव्वयाई चत्तारि सिक्खावयाई) ५ माशुव्रत, 3. गुशुव्रत, तम४ ४ शिक्षाप्रत. यां: ४यां शिक्षात સાત પણ કહેવામાં આવ્યાં છે, તેનું કારણ એ છે કે તેમાં ત્રણ ગુણવ્રતને સંમિલિત કરી લેવામાં આવ્યા છે. શિક્ષાપ્રધાન પ્રતાનું નામ શિક્ષાત્રત છે. (पंच अणुव्वयाइं तंजहा) पाय माबत मा छ-(थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं) સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતથી વિરક્ત થવું તે “અહિંસા અણુવ્રત” છે. “સ્કૂલ” શબ્દ અહીં એ બતાવે છે કે સૂમથી નહિ પણ સ્થૂલ પ્રાણાતિપાતથી વિરમણ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टीका सु. ५६ अगार धर्मनिरूपणम्. ४७९ थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं २, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं ३, सदारसंतोसे ४, इच्छापरिमाणे ५। तिणि गुणव्वमुसावायाओ वेरमणं' स्थूलान्मृषावाद्विरमणम् स्थूलासत्यवचनकथनान्निवृत्तिः। “थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं' स्थूलाददत्तादानाद्विरमणम्-अदत्तस्य आदानं ग्रहणं तस्माद्विरमण निवृत्तिः ३ । 'सदारसंतोसे' स्वदारसन्तोषः परदारवेश्यादिवर्जनम् ॥४॥ 'इच्छापरिमाणे' इच्छापरिमाणः-इच्छायाः धनाद्यभिलाषरूपायाः परिमाणं-नियमनम्-इच्छापरिमाणम्-देशतः परिग्रहविरतिः, यद्वा-इच्छा परिग्राह्यवस्तुविषया वाञ्छा तस्याः परिमाणम् इयत्ता। इदमेतावदेव मया धार्यमुपार्जनीयं वेति नियमनमिच्छापरिमा गम् ॥५॥ 'तिष्णि गुणवयाइं त्रीणि तिपात से विरमण होना ही अहिंसा अणुव्रत है। (थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं) स्थूल मृषावाद से विरक्त होना-स्थूल असत्य वचनों के कहने से दूर रहना-सो स्थूलमृषावाद-विरमग अणुव्रत है । (थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं) स्थूल अदत्तादान से विरमण होना सो अचौर्य अणुव्रत है । (सदारसंतोसे) अपनी स्त्री में ही संतोष रखना-परदारा (परस्त्री) एवं वेश्या आदि का परित्याग कर देना-सो स्वदारसंतोष अणुव्रत है। (इच्छापरिमाणे) धन एवं धान्यादिक की अभिलाषा रूप इच्छा का प्रमाण करना-एक देशसे परिग्रह का त्याग करना, अथवा परिग्राह्यवस्तुविषयक वाञ्छा का नाम इच्छा है, इसका परिमाण इस प्रकार करना कि मैं अमुक वस्तु इतनी रखूगा, इतनी कमाऊँगा, इससे अधिक नहीं । यह इच्छापरिमाण नामका अणुव्रत है (तिण्णि गुणव्ययाई) गुणव्रत तीन हैं-ये गुणव्रत अणुव्रतों के थj थे ४ मडिसा माणुव्रत' छ. (थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं) स्थूल-भूषाવાદથી વિરક્ત થવું–શૂલ અસત્ય વચને કહેવાથી દૂર રહેવું તે “સ્કૂલ–મૃષાवाह-विरमा माधुव्रत' छे. (थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं) स्थूस महत्ताहानथी विरभ थj थे 'सयौर्य आशुव्रत' छे. (सदारसंतोसे) पातानी सीमा જ સંતેષ રાખવે-પરદારા-પરસ્ત્રી તેમજ વેશ્યા આદિને પરિત્યાગ કરી દેવો ते २१४॥२-सतोष माधुव्रत' छ. (इच्छापरिमाणे) घन तम धान्य माहिनी અભિલાષા રૂપ ઈચ્છાનું પ્રમાણ કરવું (હદ રાખવી)–દેશ થકી પરિગ્રહને ત્યાગ કરે. અથવા પરિગ્રહ કરવાની વસ્તુ બાબતની જે વાંછા તેનું નામ ઈચ્છા છે, તેનું પરિમાણ (માપ-મર્યાદા) આ પ્રકારે કરવું કે હું અમુક વસ્તુ આટલી રાખીશ, આટલી કમાઈશ, આથી વધારે નહિ. આ ઈચ્છાપરિમાણ નામનું અણુव्रत छ. (तिण्णि गुणव्वयाई) शुष्शबतष छ. २॥ शुष्णबत माशुव्रतानां 8५४१२४ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० औपपातिकसूत्र याई, तं जहा-अणत्थदंडवेरमणं ६, दिसिव्वयं ७, उवभोगगुणवतानि, 'तं जहा' तद्यथा 'अणत्थदंडवेरमण' अनर्थदण्डविरमणम्-अर्थः प्रयोजनं गृहस्थस्य क्षेत्र-वास्तु-धन-शरीरपरिपालनीयादिविषय, तदर्थो दण्डः आरम्भः प्राण्युपमर्दोऽर्थदण्डः । दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति पर्यायाः। दण्डः निष्प्रयोजनं हिंसादिकरणमित्यर्थः; तस्माद्विरमणं निवर्तनम् १, 'दिसिन्धयं दिगवतम्-दिशः पूर्वदक्षिणादय ऊर्ध्वमधश्चेति दशविधाः, तत्र दिशां सम्बन्धि व्रतं दिग्त्रतम्-एतावत्सु पूर्वादिदिग्विभागेषु मया गमनागमनं विधेयं न उपकारक हैं; (तं जहा) वे तीन प्रकार ये हैं-(अणत्थदंडवेरमणं दिसिव्वयं उपभोगपरिभोगपरिमाणं) अनर्थदंडविरमण व्रत, दिग्वत, उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत । क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, एवं शरीर के परिपालन आदि के निमित्त जो आरंभ किया जाता है, इसका नाम अर्थ है । इस आरंभ में प्राणिवध अवश्यंभावी है । अतः इसमें जो दंड-प्राणियों का विनाश होता है उससे पाप का बंध जीव को होता है । अतः यह वध अर्थदंड है । अर्थात् प्रयोजन को लेकर जो प्राण्युपमर्दनरूप दंड किया जाता है उसका नाम अर्थदंड है । दण्ड, निग्रह, यातना एवं विनाश ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । इससे जो विपरीत है उसका नाम अर्थदंड है । अर्थात् निष्प्रयोजन हिंसादिक पाप करना सो अनर्थदंड है । इससे विरक्त होना सो 'अनर्थदंडविरमण' है। दश दिशाओं में आने-जाने का प्रमाण करना सो 'दिवत' है। चारदिशा और विदिशा तथा उर्च एवं अधः इस प्रकार ये १० दिशाएँ हैं। मैं अमुक दिशा की ओर इतनी दूर तक जाऊँगा और आऊँगा, इससे आगे बाहिर छ; (तंजहा) तत्र प्रा२ मा छे (अणत्थ-दंड-वेरमणं दिसिव्वयं उवभोगपरिभोगपरिमाण) सन -विरभर व्रत, हिवत, उपसागपरिमापरिभाएर व्रत. क्षेत्र, વાસ્તુ, ધન, ધાન્ય, તેમજ શરીરના પરિપાલન આદિન નિમિત્ત જે આરંભ કરવામાં આવે છે તેનું નામ અર્થ છે. આ આરંભમાં પ્રાણિવધ અવથંભાવી છે. આથી એમાં જે દંડ-પ્રાણિઓને વિનાશ થાય છે તેનાથી પાપને બંધ જીવોને થાય છે. તેથી આ વધ અર્થદંડ છે, અર્થાત પ્રજનને લઇને જે પ્રાણિ-ઉપમર્દનરૂપ દંડ કરાય છે તેનું નામ અર્થદંડ છે. દંડ, નિગ્રહ, યાતના તેમજ વિનાશ એ બધા પર્યાયવાચી શબ્દો છે. તેનાથી જે વિપરીત (ઉલટા) છે તેનું નામ અનર્થદંડ છે. અર્થાત્ નિષ્ણજન હિંસા આદિ પાપ કરવાં તે અનર્થદંડ છે. તેનાથી વિરક્ત થવું તે અનર્થદંડવિરમણ છે. દશ દિશાઓમાં આવવા-જવાનું પ્રમાણ રાખવું તે દિગ્ગત છે. ચાર દિશા અને વિદિશા તથા ઉપર અને નીચે એ પ્રકારે આ દશ ૧૦ દિશાઓ છે. હું અમુક દિશા તરફ આટલે દૂર સુધી જઈશ કે આવીશ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका स. ५७ अगारधर्मनिरूपणम् ४८१ परिभोगपरिमाणं ८। चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा-सामाइयं ९, देसावयासियं १०, पोसहोववासे ११, अतिहिसंविभागे, परतस्तदधिके इत्येवम्भूतं दिग्वतम् ॥ ७ ॥ 'उवभोग-परिभोग-परिमाणं' उपभोगपरिभोग-परिमाणम्-उपभोगः सकृद्भोगोऽशनपानानुलेपनादीनाम् , परिभोगस्तु पुनः पुनर्भोग आसनशयनवसनादीनाम् , तयोः परिमाणम् ॥ ८॥ 'सामाइयं' सामायिकम्-समानां= ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो लाभः समायः-तत्र भवं सामायिकम् ॥ ९॥ 'देसावयासिय' देशाऽवकाशिकम्-देशे दिग्वतगृहीतदिक्परिमाणस्य विभागे अवकाशो-गमनाद्यवस्थान नहीं, इस प्रकार १० दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा करना सो ‘दिखत' है । एक बार जो भोगने में आता है उसका नाम उपभोग है; जैसे-अशन, पान एवं अनुलेपन आदि । जो बार २ भोगने में आते हैं ऐसे आसन, शयन, वसन आदि को परिभोग कहा गया है। इन दोनों का प्रमाण करना सो ' उपभोग-परिभोग-परिमाण' है । (चत्तारि सिक्खावयाई) शिक्षाव्रत चार हैं, (तं जहा) वे ये हैं-(सामाइयं देसावयासियं पोसहोपवासे अतिहिसंविभागे) सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग । दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र का नाम सम है। इस सम के आय (लाभ) का नाम समाय है। इसमें जो समतापरिणाम होता है उसका नाम सामायिक है। 'दिखत' में जो मर्यादारूप से आने-जाने के लिये जीवनपर्यन्त दिशारूपी क्षेत्र रख लिया था, उसीके भीतर २ प्रतिदिन संकोच करना सो 'देशावकाशिक' है; जैसे-मैं आज इस दिशा के એનાથી આગળ-બહારે નહિ. આ પ્રકારે ૧૦ દિશાઓમાં આવવા-જવાની મર્યાદા કરવી તે દિગ્દત છે. એક વાર જે ભોગવવામાં આવે છે તેનું નામ ઉપગ છે, જેમકે-અશન, પાન તેમજ અનુલેપન આદિ. જે વારંવાર ભેગવવામાં આવે છે એવાં આસન, શયન, વસન આદિને પરિભેગ કહેવાય છે. मा भन्ने प्रमाण राम त पलोग-पश्लिोग-परिभाष्य' छ. (चत्तारि सिक्खावयाइं) शिक्षाबत या२ छ. (तं जहा) ते ॥ छ-(सामाइयं देसावयासियं पोसहोपवासे अतिहिसंविभागे) सामायि १, हेशाशि४ २, पोषधोपपास 3, તેમજ અતિથિસંવિભાગ ૪. દર્શન, જ્ઞાન તેમજ ચારિત્રનું નામ સમ છે. • આ સમના આય (લાભ)નું નામ સમાય છે. એમાં જે સમતા-પરિણામ થાય છે તેનું નામ સામાયિક છે ૧. દિવ્રતમાં જે મર્યાદારૂપથી આવવા-જવાને માટે જીવનપર્યત દિશારૂપી ક્ષેત્ર રાખ્યું હતું તેમાં જ પ્રતિદિવસ ન્યૂનતા કરવી તે દેશાવકાશિક છે. જેમકે હું આજ આ દિશામાં આ સ્થાન સુધી Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ औपपातिकसूत्रे अपच्छिमा-मारणंतिया-संलेहणा-झूसणा-राहणा १२। अयतेन निर्वृत्तं देशावकाशिकम्-दिग्त्रतगृहीतपरिमागस्य प्रतिदिनं संक्षेपकरणम् ॥ १० ॥ 'पोसहोपवासे' पोषधोपवासः-पोषणं पोषः-पुष्टिरित्यर्थस्तं धत्ते गृहणाताति पोषधः, स चासावुपवासश्चेति पोषधोपवासः, एतत्तु अस्य व्युत्पत्तिमात्रम् , प्रवृत्तिनिमित्तं तु-आहारादिचतुष्टयपरित्याग एवेति बोध्यम् ; अष्टमीचतुर्द यमावास्यापौर्णमासीषु अनुष्ठेयो व्रतविशेषः । तदुक्तम् 'आहार-तनुसत्कारा-ऽब्रह्म-सावद्य-कर्मणाम् ।। त्यागः पूर्वचतुष्टय्यां, तद्विदुः पोषधव्रतम् ॥ ११ ॥ इति । 'अतिहिसंविभागे' अतिथि विभागः-अतिथिः साधुस्तस्मै संविभागः स्वात्मकल्याणभावनया समर्पणम् 'अपच्छिमा-मारणंतिया-सलेहणा-झसणा-राहणा' अपश्चिम-मारणान्तिक-लेखना- जूषणा-ऽऽराधना=अपश्चिमा--पश्चिमैवाऽमङ्गलपरिहारार्थमपश्चिमेत्युच्यते, मरणं प्राणत्यागलक्षणम् , तदेवान्तो मरणान्तः, तत्र भवा मारणान्तिकी; लिख्यते कृशीक्रियतेऽनया शरीरकषायादि-इति संलेखना-तपोविशेषलक्षणा; एतत्पदत्रयस्य इस स्थान तक जाऊँगा, इस गली तक जाऊँगा, आगे नहीं ! इत्यादि। चारों प्रकार के आहार का परित्याग करना इसका नाम 'पोषधोपवास' है। यह व्रत प्रत्येक महिने की प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या एवं पूर्णमासी के दिन किया जाता है। कहा भी है-पर्वचतुष्टय में-चारपर्यों में आहारका परित्याग, शारीरिक संस्कार का परित्याग, कुशील का परित्याग आदि सावध कर्मीका जो त्याग है सो 'पोषधवत' है। अतिथि नाम साधु का है। साधु के लिये जो संविभाग–अपनी आत्मा के कल्याण की भावना से आहार पानी आदि समर्पण करना-सो ‘अतिथिसंविभाग' है। (अपच्छिमा-मारणंतिया-संले. हणा-झूसणा-राहणा) लेखना यद्यपि पश्चिम है-अर्थात्-अन्त में धारण की जाती है; જઈશ, આ ગલી સુધી જઈશ. આગળ નહિ જાઉં! ઈત્યાદિ. ચારેય પ્રકારના આહારને પરિત્યાગ કરવો તેનું નામ પિષધેપવાસ છે. આ વ્રત પ્રત્યેક માસની પ્રત્યેક અષ્ટમી, ચતુર્દશી, અમાવાસ્યા તેમજ પૂર્ણિમાને દિવસ કરાય છે ૩. કહ્યું પણ છે–પર્વચતુષ્ટયમાં–ચાર પર્વમાં આહારને પરિત્યાગ, શારીરિક સંસ્કારને પરિત્યાગ, કુશીલનો પરિત્યાગ આદિ રાવદ્ય કર્મોને જે ત્યાગ છે તે પિષધવ્રત છે. અતિથિ નામ સાધુનું છે. સાધુ માટે જે સંવિભાગ–પિતાના આત્માના કલ્યાણની ભાવનાથી આહાર પાણી આદિ સમર્પણ કરવું તે અતિથિસંવિमाग छ ४. (अपच्छिमा-मारणंतिया-संलेहणा-झूसणा-राहणा) समन પશ્ચિમ હોય છે અંતમાં ધારણ કરાય છે, તે પણ તેને અપશ્ચિમ કહેવાય Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो टोका सू. ५७ अगारधर्मनिरूपणम् ४८३ माउसो! अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते। एयस्स धम्मस सिक्खाए उवहिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए हवइ ॥ सू० ५७॥ कर्मधारये-अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना, नस्याः जूषणा=सेवना-मरणकाले संलेखनानाम्ना तपसा शरीरस्य कषायादीनाञ्च कृशीकरणं, तस्या आराधना=निरवच्छिन्नतया संपादनम् ॥ १२ ॥ 'अयमाउसो' अयमायुष्मन् ! 'अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते' अगारसामयिको धर्मः प्रज्ञप्तः 'एयरस धम्मरस सिक्खाए उवद्विए समणोवासए वा समणोफिर भी यहां जो उसे अपश्चिम कहा है वह अमंगलपरिहार के निमित्त से जानना चाहिये । क्यों कि “ अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते" तप का फल संलेखनापूर्वक प्राणों का विसर्जन करना प्रभुने बतलाया है, अतः यदि यह अन्तिम समय आचरित नहीं होती है तो जीवनभर की गई व्रताराधना तपस्या आदि एक प्रकार से निष्फल ही समझना चाहिये। अतः इस अपेक्षा से यह अपश्चिम-सर्वोत्कृष्ट कही गई है। यह संलेखना (मारणान्तिकी) मरण के समय धारण की जाती है। काय और कषाय आदि जिसके द्वारा अथवा जिसमें कृश किये जाते हैं उसका नाम संलेखना है। यह संलेखना भी एक तप-विशेष है। इसे प्रेम से धारण करना चाहिये इस अर्थ को धोतित करने के लिये ही " जूषणा" यह पद दिया गया है। (अयमाउसो!) इस प्रकार हे आयुष्मन् ! यह ( अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते) गृहस्थ का धर्म सिद्धान्त में कहा गया है। (एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोवासर वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए छ. ते यस परिहारनु निमित्त त नये. म "अन्तक्रियाधिकरणं तपःफलं सकलदर्शिनः स्तुवते” तनुस सलेमना-पूर्व प्राणोनु विसन કરવું. એમ પ્રભુએ બતાવ્યું છે. આથી જે આ અંતિમ સમયે આચરવામાં નથી આવતી તે જીવનભર કરેલી પ્રત–આરાધના તપસ્યા આદિ એક પ્રકારે નિષ્ફલ જ માનવી જોઈએ. આમ આની અપેક્ષાએ આ અપશ્ચિમ-સર્વોત્કૃષ્ટ रासी छ. 24 सपना (मारणान्तिकी) भ२४ना समये धारण ४२राय छे. કાય અને કષાય આદિ જેના દ્વારા અથવા જેમાં કૃશ કરાય છે તેનું નામ સંલેખના છે. આ સંલેખના પણ એક તપવિશેષ છે. તેને પ્રેમથી ધારણ ४२वी नेस. मा मथ ने धोतित (पाशित) ४२वा भाटे ४ "जूषणा” से ५६ पापे छ. (अयमाउसो) २९ मायुष्मन् ! २ (अगारसामा Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे तए णं सा महतिमहालिया मणूसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हह-तुट्टवासिया वा' एतस्य धर्मस्य शिक्षायाम् उपस्थितः श्रमणोपासको वा श्रमगोपासिका वा, 'विहरमाणे विहरन् ‘आणाए आराहए भवई' आज्ञाया आराधको भवति । अगारधर्मस्य विस्तरतो व्याख्या उपासकदशाङ्गसूत्रस्यागारधर्मसंजीवन्याख्यायां व्याख्यायां प्रथमाध्ययनेऽस्माभिः कृता । सू० ५७॥ . टीका-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः खलु 'सा महतिमहालिया' सा महातिमहती अतिविशाला-'मसगृपरिसा' मनुष्यपरिषद् 'समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके समीपे 'धम्मं सोचा आराहए हवइ) इस धर्म की शिक्षा में उपस्थित चाहे श्रमण का उपासक-गृहस्थ हो, चाहे श्रमण की उपासिका-श्राविका हो, कोई भी क्यों न हो, जो भी प्राणी इस धर्म की छत्रच्छाया में अपने आपको विसर्जित कर देता है, अर्थात्-इन व्रतों की आराधना करता है वह तीर्थकर प्रभु की आज्ञा का आराधक माना गया है । अगारधर्म की विस्तृतरूप से व्याख्या उपासकदशांग सूत्र के ऊपर विरचित अगारधर्मजीवनीनामकी टीका में प्रथम अध्ययन में की गई है । अतः विशेषार्थी विषय को वहां से विस्ताररूप में देख लें । सू० ५७॥ 'तए णं सा महतिमहालिया' इत्यादि। (तए गं) तदन्तर (सा महतिमहालिया) वह अतिविशाल (मणूसपरिसा) मनुष्यों की सभा (समणस्स) श्रमण (भगवओ) भगवान ( महावीरस्स ) महावीर के इए धम्मे पण्णत्ते) उत्थना धर्म सिद्धांतभा सा छे. ( एयस्म धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए हवइ) 0 धमनी शिक्षामा उपस्थित, या श्रमाना उपास४-१७२५ હાય, ચાહે શ્રમણની ઉપાસિકા-શ્રાવિકા હોય, જે કોઈ પણ પ્રાણી આ ધર્મની છત્ર-છાયામાં પિતાની જાતનું વિસર્જન કરી દે છે–આ વ્રતની આરાધના કરે છે, તે તીર્થકર પ્રભુની આજ્ઞાન આરાધક મનાય છે. અગારધર્મની વિસ્તૃતરૂપથી વ્યાખ્યા ઉપાસકદશાંગસૂત્રના ઉપર બનાવેલી અગારધર્મ સંજીવની નામની ટીકામાં પ્રથમ અધ્યયનમાં કરવામાં આવેલી છે, માટે વિશેષ જિજ્ઞાસુઓએ આ વિષયને ત્યાંથી વિસ્તારરૂપે જોઈ લે. (સૂ) પ૭) 'तए णं सा महतिमहालिया' /त्याहि. (तए णं) त्या२ पछी (सा महितमहालिया) ते मतिविशार (मणूस Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ५८ भगवतोऽन्तिके बहूनां प्रव्रज्यादि ग्रहणम् जाव - हियया उडाए उट्ठेइ उट्टित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तों आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अण ४८५ 6 " वंदइ णिसम्म ' धर्मं श्रुत्वा=आकर्ण्य, निशम्य हृदि धृत्वा 'हट्ठ तुट्ठ - जाव - हियया' हृष्ट-तुष्टयावद्-हृदया ' उट्ठाए उट्ठेइ ' उत्थया - उत्थानशक्त्या उत्तिष्ठत्ति ' उट्ठित्ता' उत्थाय, समणस्स भगवओ महावीरस्स ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ' तिक्खुत्तो ' त्रिकृत्वः, 'आयाहिणपयाहिणं करेइ ' आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, 'करिता ' कृत्वा, णमंसइ ' वन्दते नमस्यति, ' वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा, तत्र - ' अत्थे - गइया ' सन्त्येकके=केचित् ' मुंडे भवित्ता' मुण्डा भूत्वा 'अगाराओ' अगाराद = गृहात् - गृहं परित्यज्येत्यर्थः, 'अणगारियं' अनगारितां = साधुतां प्रव्रजिताः = प्राप्ताः, ' अत्थेगइया ' 4 ( अंतिए ) समीप (धम्मं) धर्म का व्याख्यान ( सोच्चा ) सुनकर, एवं अच्छी तरह उसे ( णिसम्म ) हृदयंगम कर ( हट्ट - तुट्ट - जाव - हियया) बहुत ही अधिक हर्षित एवं संतुष्टचित्त हुई, ( उट्ठाए उट्ठे) पथात् अपने २ आसन से उठी, (उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिणपयाहिणं करेइ करिता वंदइ णमंसइ) उठ कर फिर उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीनवार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वन्दन - नमस्कार किया, (वंदित्ता मंसित्ता अत्थेगइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया) वंदना - नमस्कार कर के कितनेक मनुष्योंने मुंडित होकर, अपने २ घर को छोड़कर उनके पास अनगार बने, अर्थात् दीक्षा धारण की। ( अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि - जाव परिसा) मनुष्यानी सभा ( समणस्स ) श्रमण (भगवओ) भगवान ( महावीरस्स) भडावीरना (अंतिए) सभी ( धम्मं श्रुतयास्त्रिय धर्मनी देशना ( सोच्चा) सांलजीने तेमन सारी रीते तेने (णिसम्म ) इयंगम उरीने (हट्टु - तुट्ठ-ज हियया) डु डुर्षित तेभन संतोष याभी, ( उडाए उट्ठेइ) पछी पोतपोताना खासनेथी बुडी, (उट्ठित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता वंदइ णमंसइ) उडीने, पछी तेमागे श्रमण भगवान महावीरने त्राणुवार यादृक्षिणु-प्रदक्षिणु-पूर्व वहन नमस्कार अर्या, ( वंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगइया मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया) वहना-नमस्कार उरीने उसा મનુષ્યાએ મુંડિત થઇને પાતપાતાનાં ઘર છેાડીને તેમના પાસે અનગાર थया, अर्थात् दीक्षा सीधी. (अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवाल - Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ औपपातिकसूत्रे गारियं पव्वइया, अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा ॥ सू० ५८॥ मूलम्-अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुअक्खाए ते सन्त्येकके 'पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा' पञ्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाप्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपन्नाः ।। सू०५८ ॥ टीका-'अवसेसा णं परिसा' इयादि । 'अवसेसा णं परिसा समणं . भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंस्त्तिा एवं वयासी' अवशेषा=अवशिष्टा खलु परिषत् श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमति, वन्दित्वा नमस्यित्वा पवमवादीत्'मुअक्खाए ते भंते ! णिगंगथे पावयणे' याख्यातं सुष्टु कथितं सामान्यतस्त्वया भदन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम् , 'एवं सुप्पण्णत्ते' एवं सुप्रज्ञप्तम्-विशेषकथनात् , 'सुभासिए' धम्म पडिवण्णा) कितनेकों ने पाँच अणुवत, सात शिक्षात्रत-इस तरह १२ प्रकार का गृहस्थधर्म स्वीकार किया ॥ सू. ५८ ।। 'अवसेसा णं परिसा' इत्यादि । (अवसेसा णं परिसा) अवशिष्ट परिषतने (समणं भगवं महावीरं) श्रमण भगवान् महावीर को (वंदइ णमंसइ) वन्दना एवं नमस्कार किया, (वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी) बंदना नमस्कार करने के बाद फिर उन्होंने इस प्रकार कहा-(सुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे) हे भदन्त ! आपने निम्रन्थ प्रवचन बहुत अच्छा कहा, (एवं सुप्पण्णत्ते) और आपने इसका बहुत अच्छी तरह से ग्ररूपण किया, (सुभासिए) आपने खूब सविहं गिहिधम्म पडिवण्णा) 32सा पंथ मानत सात शिक्षाबत अभ १२ પ્રકારના ગૃહસ્થ ધર્મ સ્વીકાર કર્યો. (સૂ. પ૮) _ 'अवसेसा णं परिसा' इत्याहि. (अवसेसा णं परिसा) माडीनी परिप (समणं भगवं महावीरं) श्रम भगवान महावीरने (वदंइ णमंसइ) वहना तेमन नभ२४।२ ४ा, (वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी) हिना नभ२४॥२ ४ा पछी ते माये २ प्रमाणे धु-(मुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे) हे महन्त ! मा निधन्य अवयन म सा३ ४, (एवं सुप्पण्णत्ते) मने मापे तेनुप सारी रीते ५३५ ४. (सुभासिए) Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टीका सु. ५९ परिषदः स्वस्वस्थानगमनम ४८७ भंते ! णिग्गंथे पावयणे, एवं सुप्पण्णत्ते, सुभासिए, सुविणीए, सुभाविए। अणुत्तरे ते भंते ! निग्गंथे पावयणे । धम्म णं आइक्खमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खह, उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह, विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह, वेरसुभाषितम्-भावव्यञ्जनात् , 'मुविणीए' सुविनीतम्-शिष्येषु सुष्टु विनियोजितत्वात् , 'सुभारिए' सुभावितम्-सुष्टु भावितम्-तत्त्वकथनात् , 'अणुत्तरे' अनुत्तरं-नास्त्युत्तरं यस्मात् तद्-अनुत्तरं-सर्वश्रेष्ठं, तव भदन्त निर्ग्रन्थं प्रवचनम् । 'धम्मं णं आइक्वमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खह' धर्म खल्वा चक्षाणा यूयमुपशमम् क्रोधादिनिरोधम् आख्याथ= कथयथ, 'उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्वह ' उपशममाचक्षाणा विवेकमाख्याथ, क्रोधादिनिरोधं कथयन्तो यूयं विवेकं हेयोपादेयविवेचनं कथयथ, 'विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्वह-विवेकमाचक्षाणा विरमणमाख्याथ, विरमणम्-प्राणातिपातादिनिवर्त सुन्दर रूप से पदार्थों के स्वरूप को प्रकट किया, (सुविणीए) आपने शिष्यों को खूब समझाया, (सुभाविए) जीवादि सभी तत्वों को आपने अच्छी तरह से समझाया। (अणुत्तरे ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे) हे भदन्त ! आपका यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वोत्कृष्ट है। हे भदन्त ! (धम्मं णं आइक्खमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खह) धर्मका उपदेश करते समय आप उपशम भाव-क्रोधादिनिरोध का उपदेश करते हैं, (उपसमंआइक्खमाणा विवेगं आइक्खह) क्रोधादिक के निरोध का उपदेश करते समय हेयोपादेयरूप विवेक का उपदेश देते हैं, (विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह) विवेक का उपदेश करते समय प्रागातिपातादिक से विरक्त होने का भी उपदेश करते हैं, (वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइ मापे सूप सुह२ ३५थी पहानि। १३५ने ४८ ४ा. (सुविणीए) माघे शिष्याने पूरा समनव्या. (सुभाविए) वाहिया तत्वाने सारीरीतेसभनव्या. (अणुत्तरे ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे) ७ महन्त ! मापनुमा निधन्य अवयन सर्वोत्कृष्ट छे. महन्त ! (धम्मं णं आइक्खमाणा तुम्भे उवसमं आइक्खह) ધર્મનો ઉપદેશ કરતી વખતે આપે ઉપશમભાવ-ક્રોધાદિનિરોધનો ઉપદેશ ४. छ. (उवसम आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह) डोपाहिन निरोधने। 64हेश ४२ती मते डेय-उपाय ३५ विवेनो उपहेश ४ छ. (विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह) विवेने। उपहेश ४२ती मते प्रातिपाताहिथी Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ ओपपातिकसूत्र मणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह। णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, किंमंग ! एत्तो उत्तरतरं ?, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ सू०५९ ॥ नम् ; ' वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह' विरमणमाचक्षाणा अकरणं पापानां कर्मणामाख्याथ-पापरूपाणां कर्मणामकरणम् अनाचरणं कथयथ, ‘णस्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए' नास्ति खल्वन्यः कोऽपि श्रमणो वा ब्राह्मणो वा य ईदृशं धर्ममाख्यायात् , 'किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं' किमङ्ग ! पुनरेतस्मात् उत्तरतरम्-अस्माद्धर्मोपदेशादुत्कृष्टं कथयिष्यतीति का सम्भावना ! न कापीत्यर्थः, ‘एवं वदित्ता जामेव दिस पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया' एवम् उदित्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेव दिशं प्रतिगताः ॥ सू०५९ ॥ क्खह) प्राणातिपातादिक के विरमण का उपदेश देते हुए आप पापरूप कर्मों को नहीं करने का उपदेश भी देते हैं। अतः (णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तर) इस संसार में हे नाथ ! ऐसा और कोई दूसरा श्रमण वा ब्राह्मण उपदेष्टा नहीं है जो इस प्रकार के धर्म का उपदेश दे सके, (किमंग! पुण एत्तो उत्तरतरं) फिर इससे उत्कृष्ट धर्म का उपदेश कौन दे सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ! (एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया) इस प्रकार कह कर वे सब जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर चले गये ॥सू. ५९॥ वि२४त थपानी पहेश यो छे. (वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह) प्रातिपातहिना विरभानो उपहेश हेती मते आपे पा५३५ ४ी न ४२वान पY अपहेश ४ये छ. माटे (णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए) २॥ ससारमा, नाथ ! सेवा मीने કેઈ શ્રમણ કે બ્રાહ્મણ ઉપદેષ્ટા નથી કે જે આ પ્રકારના ધર્મને ઉપદેશ मापी श. (किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं) तो पछी मानाथी उत्कृष्ट यमन 64देश र पापी श ! अर्थात् नहि. (एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया) मा ४२ ४डीने ते या हिशामेथी याच्या ता ते ४ हिशा त२५ पाछ। यादया गया. (सू. ५८) Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सु. ६० कूणिकस्य स्वस्थाने गमनम्. ४८९ मूलम्-तए णं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हहतुट्ट-जाव-हियए उठाए उढेइ, उहित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, णमंसइ, टीका--'तए णं से' इत्यादि । 'तए णं से कूणिए राया भभसारपुत्ते' ततः खलु स कूणिको राजा भंभसारपुत्रः, 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य, 'हट्ठतुट-जाव-हियए' हृष्ट-तुष्ट-यावद्धृदयः ‘उट्ठाए उठेइ ' उत्थयोत्तिष्ठति, ‘उद्वित्ता' उत्थाय श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ‘तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ' त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, 'करित्ता' कृत्वा 'वंदइ णमंसइ' वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता 'तए णं से कूणिए राया' इत्यादि । (तए णं) अनन्तर (से कूणिए राया भंभसारपुत्ते) भंभसार के पुत्र उन कूणिक राजाने (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के (अंतिए) पास में (धम्मं सोचा) धर्मोपदेश सुनकर, (णिसम्म) एवं उसका अच्छी तरह पूर्वापररूप से विचार कर, (इट-तुटु-जाव-हियए) चित्त में अधिक से अधिक आनंद एवं संतोष प्राप्त किया, (उदाए उद्देइ) बाद में अपने स्थान से उठे और (उद्वित्ता) उठकर (समणं भगवं महावीरतिक्खुत्तो अयाहिणपयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ) उन्होंने श्रमण भगवान महावीर की तीनवार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वंदना एवं नमस्कार किया, (वंदित्ता णमंसित्ता एवं "तए णं से कूणिए राया” त्याहि. (तए णं) त्यार पछी (से कूणिए राया भंभसारपुत्ते) मनसायना पुत्र त खि २ (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रभर लगवान महावीरनी (अंतिए) पासे (धम्मं सोच्चा) ध पहेश सालमीन, (णिसम्म) तभ० तेने भारी शत पूर्वा५२३५था विया२ ४शने, (हट्ठ-तुट्ठ-जाव-हियए) मनमा गई " मान तम०४ सवाष पास ४यो, (उढाए उद्वेइ) त्या२ पछी पोताना स्यानेथी ४या, अने (उद्वित्ता) हीन (समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ) तभणे श्रम लगवान महापारने - पा२ क्षि-क्षिणपूर्व४ पन तमा नभ२४२ ४ा. (वंदित्ता णमंसित्ता Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० . औपपातिकसूत्रे वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं ? एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए ॥ सू०६० ॥ णमंसित्ता एवं वयासी' वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्- मुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं ' स्वाख्यातं तव भदन्त ! निम्रन्थं प्रवचनम् यावत् किमङ्ग ! पुनरेतस्मादुत्तरतरम् ! ' एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए' एवम् उदित्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतः, तामेवं दिशं प्रतिगतः ॥ सू० ६० ॥ वयासी) वंदना एवं नमस्कार कर फिर उन्होंने प्रभु से इस प्रकार कहा-(सुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे) हे भदन्त ! आपने निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुन्दरपूर्वापरविरोधरहित-सर्वोत्कृष्ट किया है। (जाव किमंग पुण एत्तो उत्तरतर) इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में ऐसा कोई सा भी विषय बाकी नहीं बचा जिस पर आपने प्रकाश न डाला हो-- अच्छी तरह से विवेचन नहीं किया हो । आपने सब कुछ एक ही साथ बहुत ही अच्छी तरह मीठे शब्दों में समझा दिया है, हमने तो ऐसा उपदेश आजतक नहीं सुना, कल्याण एवं जीवनके उपयोगी सब विषय आपने कहे हैं।-इत्यादि । एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए) इस प्रकार प्रभु की स्तुति रूप में कह कर कूणिक राजा जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर वहां से वापिस चले गये । सू० ६०॥ एवं वयासी) न तम०४ नम२४.२ ४शने पछी तमा प्रभुने l ४ह्यु-(सुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे) महन्त ! मापणे! २निन्थ પ્રવચનને ઉપદેશ બહુજ સુંદર–પૂર્વાપરવિરોધરહિત-સર્વોત્કૃષ્ટ થયા છે. (जाव किमंग! पुण एत्तो उत्तरतरं) २ निधन्य अवयनमा सवा ५५ વિષય બાકી રહ્યો નથી જેના ઉપર આપે પ્રકાશ ન નાખે હેય-સારી રીતથી વિવેચન ન કર્યું હોય. આપે તમામે–તમામ એક સાથેજ બહુજ સારી પેઠે મીઠા શબ્દમાં સમજાવી દીધું છે. અમે તે એ ઉપદેશ આજ સુધી સાંભળ્યો નથી. કલ્યાણ તેમજ જીવનમાં ઉપયોગી બધા વિષય આપે કહ્યા छे. त्याहि. (एवं वदित्ता जामेव दिसं पा उन्भूए तामेव दिसं पडिगए) । પ્રકારે પ્રભુની સ્તુતિરૂપમાં કહીને કૃણિક રાજા જે દિશાએથી આવ્યા હતા ते हि॥ २३ ॥छ। यादया गया. (सू. १०) Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. ६१ सुभद्रादीनां स्वस्थाने गमनम् ४९१ मूलम्-तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हह-तुट्ट-जाव-हिययाओ उहति, उहित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता वंदंति णमंसंति, ___टीका--'तए णं ताओ' इत्यादि । 'तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ' ततः खलु ताः सुभद्राप्रमुखा देव्यः 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके 'धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ-तुट्ठ-जाव-हिययाओ' धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्ट-तुष्ट यावद्धृदया 'उठाए उठेति' उत्थयोत्तिष्ठन्ति, 'उट्ठित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स' उत्थाय श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति' त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति, 'करित्ता वंदति णमंसंति' 'तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ' इत्यादि । (तए णं) इस के बाद (ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ) वे सुभद्राप्रमुख देवियाँ भी (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान महावीर के (अंतिए) समीप (धम्म सोचा) धर्म श्रवण कर, एवं (णिसम्म) उसे हृदयंगम कर, (हट्ठ-तुट्ठ-जाव-हिययाओ) बहुत ही अधिक खुश एवं संतुष्ट होती हुई जहाँ वे खडी थीं वहाँ से (उद्वाए उडेति) चल कर भगवान के समीप आयीं, (उद्वित्ता) आकर उन्होंने (समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति करित्ता वंदति णमंसंति) श्रमण भगवान् महावीर की तीन "तए णं ताभो सुभदापमुहाओ" त्याहि. (तए णं) त्या२ पछी (ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ) ते सुभद्रा-प्रभु हेवीमे। ५y (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रम मावान महावीरना (अंतिए) सभीचे (धम्म सोच्चा) धर्म-श्रवधु ४शन, तम०४ (णिसम्म) तनयम ४शने (हटु-तुटु-जाव-हिययाओ) मई मुश तम संतोष पामती न्यो त। Gमी ती त्यांथी ( उदाए उट्टेति ) यासीन सपाननी पासे मावी, (उद्वित्ता) मावीन तमाये ( समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता वदति णमंसंति) श्रम मापान महावीरने २ माइक्षिण Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ औपपातिकसूत्रे वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुयक्खाए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं ?, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूयाओ तामेव दिसं पडिगयाओ ॥ सू०६१ ॥ ॥समोसरणं नाम पुव्वद्धं समत्तं ॥ कृत्वा वन्दन्ते नमस्यन्ति, 'वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' वन्दित्वा नमस्यित्वैवमवादिषु:'सुयक्खाए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं ?' स्वाख्यातं तव भदन्त ! निम्रन्थं प्रवचनम् यावत् किमङ्ग ! पुनरेतस्मादुत्तरतरम् ? ‘एवं बार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वंदना एवं नमस्कार किया, (वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी) वंदना नमस्कार करने के अनन्तर फिर वे प्रभु से इस प्रकार बोलीं कि (सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे) आपने हे भदन्त ! इस निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुन्दरपूर्वापरविरोधरहित-सर्वोत्कृष्टरूप से किया है । (जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं) हे प्रभो ! आपने इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में सब ही विषयों को अच्छी तरह समझाया है। कोई भी विषय ऐसा नहीं रहा कि जिस पर आपकी वाणी का अविरल प्रवाह न बहा हो । सब कुछ आपने बहुत सरल भाषा में समझा दिया है। हमने तो आजतक इतना मार्मिक उपदेश नहीं सुना; इससे उत्तम उपदेश की बात ही कहाँ : (एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूयाओ प्रदक्षिणपूर्व वहन। तभ०१ नभ२४।२ ४ा, (वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी) पहना-म२४।२ सीधा पछी तमामे प्रभुने मा ४२ ४यु (सुयक्खाए ते भंते ! णिमांथे पावयणे) माघे महन्त ! मानिन्थ प्रपयनन। उपदेश मgar साशशत, पूर्वाप२विशघहित तमा सर्वोत्कृष्ट यो छे. (जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतर) हे प्रसा! मापे मा निन्थ प्रपयनमा मधामे વિષયોને સારી રીતથી સમજાવ્યા છે. કોઈ પણ વિષય એ નથી રહ્યો કે જેના ઉપર આપની વાણીને અવિરત પ્રવાહ વહ્યો ન હોય, બધુય આપે બહુ સરલ ભાષામાં સમજાવી દીધું છે. અમે તે આજ સુધીમાં આટલો મામિક अपहेश सालण्यो नथी. माथी उत्तम उपदेशनी तो पात ४यi ? (एवं वदित्ता Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सु. ६१ सुभद्रादीनां स्वस्थाने गमनम् । वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूयाओ तामेव दिसं पडिगयाओ' एवम् उदित्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूताः, तामेव दिशं प्रतिगताः ॥ सू० ६१॥ इति श्री–विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक – पश्चदशभाषाकलितललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्रीशाहछत्रपति-कोल्हापुरराज-प्रदत्त जैनशास्त्राचार्य-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालतिविरचितायाम् औपपातिकसूत्रस्य पीयूषव पिण्याख्यायां व्याख्यायां समवरणनामकं पूर्वार्दै सम्पूर्णम् । तामेव दिसं पडिगयाओ) इस प्रकार भक्तिभाव से प्रभु की स्तुति करके वे सब रानियाँ जहां से आई थीं वहीं वापिस चली गयीं ॥ सू० ६१॥ ॥इति औपपातिक सूत्रका समवसरणनामक पूर्वार्द्ध संपूर्ण । जामेव दिसं पाउब्भूयाओ तामेव दिसं पडिगयाओ) - प्रारे तिमाथी પ્રભુની સ્તુતિરૂપે નિવેદન કરીને તેઓ બધી રાણીઓ જ્યાંથી આવી હતી त्यां पाछी यासी ४ (सू. ११.) ઈતિ ઔપપાતિક સૂત્રનું સમવસરણ નામક પૂર્વાદ્ધ સંપૂર્ણ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ औपपातिकसूत्रे __अथ उत्तरार्द्धम्मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्ते णं टीका–'तेणं कालेणं' इत्यादि । ( तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स) तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य (जेटे अंतेवासी इंदभूई णाम अणगारे) ज्येष्ठोऽन्तेवासीन्द्रभूतिनामा अनगारः, ज्येष्ठत्वमस्य संयमपर्यायेण सर्वश्रेष्ठत्वात् , अन्तेवासी शिष्यः, इन्द्रभूतिरेतन्नामकः, अनगारः साधुः, स कीदृशः ? इत्याह-'गोयमगोत्ते णं' गौतमगोत्र:-गौतम गौतमाख्यं गोत्रं यस्य स तथा 'णं' इति वाक्यालंकारे; 'सत्तुस्सेहे' सप्तोत्सेधः-सप्तहस्तः उत्सेधः-उच्छ्यो यस्य स तथा, 'सम-चउरंस-संठाण-संठिए' सम-चतुरस्र-संस्थान-संस्थितः-समं च तच्चतुरस्रं चेति __उत्तरार्ध का अनुवाद प्रारंभ'तेणं कालेणं' इत्यादि। (तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल एवं उस समय में (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् के महावीर के (जेटे अंतेवासी) 'बड़े शिष्य (गोयमगोत्ते णं) गौतमगोत्री (सम-चउरंस-संठाण-संठिए) समचतुरस्रसंस्थानम्पन्न (सत्त (१) जिसमें अंग एवं उपांग की रचना सम-प्रमाणोपेत (जिसका जितना प्रमाण होना चाहिये उस माफिक) होती है, कमती बढ़ती नहीं होती; उसका नाम 'समचतुरस्रसंस्थान' है। इसमें एक सौ आठ अंगुल के उच्छ्राय वाले अंग और उपांग होते हैं। आकार बड़ा ही सौम्य होता है। - उत्तराधना अनुवाहन पारतेणं कालेणं' इत्यादि. (तेणं कालेणं तेणं समएणं) ते स त त समयमा (समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रम मावान महावीरना (जेट्टे अंतेवासी) मोटा शिष्य (गोयमगोत्ते णं) गौतमगोत्री (समचरंस-संठाण-संठिए) सभयतु२ख(૧) જેમાં અંગ તેમજ ઉપાંગની રચના સમ–પ્રમાણપત (જેવું જેટલું પ્રમાણ હોવું જોઈએ તે પ્રમાણે) હેય, વધુ ઘટુ ન હોય તેનું નામ 'सभयतुरख-सस्थान' छ. मामा सो मा8 मin (सु) न। ઉછાયવાળાં અંગ તથા ઉપાંગ હોય છે. આકાર બહુજ સૌમ્ય હોય છે. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. १ गौतमस्वामिवर्णनम् ४९५ सत्तुस्सेहे सम-चउरंस-संठाण-संठिए वइर-रिसह-णारायसंघयणे कणग-पुलग-णिघस-पम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे समचतुरस्रम्-मानोन्मानप्रमाणानामन्यूनानधिकत्वात् अङ्गोपाङ्गानां चाविकलत्वात् ऊर्ध्व तिर्यक् च तुल्यत्वात् समं, चतुरस्रं चाविकलावयवत्वात् , समं च तच्चतुरस्रं चेति समचतुरस्र-स्वामुलाष्टशतोच्छायाङ्गोपाङ्गयुक्तं, युक्तिनिर्मितलेप्यकवद्वा, संस्थानम् आकारविशेषः, तेन संस्थितः युक्तः, 'वइर-रिसह-णाराय-संघयणे' वज्र-र्षभ-नाराच-संहननः-वज्र= कीलिका, ऋषभः =पट्टः, नाराचः मर्कटबन्धः-उभयपार्श्वयोरस्थिबन्धविशेषः, वज्रर्षभनाराचाः संहनने अस्मां बन्धविशेषे यस्य स वर्षभनाराचसंहननः, 'कणग-पुलग-णिघस-पम्हगोरे' कनक-पुलक-निकष-पद्मगौरः-कनकस्य सुवर्णस्य पुलको लवः-प्रफुल्लवर्तुलकणरूपः, तस्य निकषः कषपट्टे कृष्टो रेखारूपो लक्षणया लक्ष्यते, पुलकस्य संशुद्धतया निकषे कृष्टा रेखाऽतीव चाकचिक्ययुक्ता भवति,अतएव तेनोपमानेनोपमितः पद्मगौरः-पद्मगर्भः किचल्कः, तद्वद्गौरः कमनीयकान्तिः, 'उग्गतवे' उग्रतपाः, 'दित्ततवे' दीप्ततपाः दीप्तः प्रदीप्तो स्सेहे) सातहाथ की अवगाहनायुक्त (वइर-रिसह-णाराय-संघयणे) 'वज्र-ऋषभनाराचसंहननधारी (कणग-पुलग-णिघस-पम्हगोरे) विशुद्ध सुवर्ण के खण्ड की शाण पर घसी हुई रेखा के समान चमकीली कान्ति वाले तथा कमल के केसर के समान गौरवर्ण (इंदभूई णामं अणगारे) ऐसे गौतम नाम से प्रसिद्ध इंद्रभूति नाम के अनगार गणधर थे । (उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेयलेस्से) इनकी तपस्या बड़ी उग्र थी। (१) इस संहनन में वज्र की सी कीलें, वज्र के से हाड एवं वज्र का सा पट्टबन्ध होता है। संस्थान-संपन्न (सत्तुस्सेहे) सात डायनी साडनायुत (वइर-रिसहणाराय-संघयणे) १००-' म नाराय-सडनन धारी (कणग-पुलग-णिघसपम्हगोरे) विशुद्ध सुवण न। उनी । ५२ घसेली २॥ २वी यहीदी siति तथा भजना सरना ने गौरव ( इंदभूई णामं अणगारे) એવા ગૌતમનામથી પ્રસિદ્ધ ઇંદ્રભૂતિ નામના અનગાર ગણધર હતા. (उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउल-तेयलेस्से) तमनी तपस्या मई ग्र હતી. કર્મરૂપી વનને બાળવાવાળા હોવાથી તેમનું તપ અગ્નિના જેવું બહુ (૧) આ સંહનનમાં વજના જેવા ખીલા, વા જેવાં હાડ તેમજ વજ જેવાં પદૃબંધ હોય છે. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र तत्ततवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी हुताशन इव कर्मवनदाहकत्वेन जाज्वल्यमानं तपो यस्य स तथा, ' तत्ततवे' तप्ततपाःतप्तं सविधि सेवितं तपो येन स तप्ततपाः, 'महातवे ' महातपाः बृहत्तपोयुक्तः, 'घोरतवे' घोरतपाः=अतिकठिनतपोयुक्तः, 'उराले' उदारः, 'घोरे' घोरः भीमः, अत्र कश्चिच्छङ्कतेय उदारः स भीमः कथम् ? अस्योत्तरमाह-अतिकष्टं तपः कुर्वन् अल्पशक्तिमतां भयानको भवतीति निसर्गः । कश्चिद् वक्ति-उदारः प्रधानः, घोरस्तु परीषहेन्द्रियकषायाऽऽख्यानां रिपूणां विनाशे कठोरः । केचिदात्मनिरपेक्षतया तपस्सु प्रवर्तमानत्वाद् घोरः इत्याहुः । 'घोरगुणे' कर्मरूपी वन को जलाने वाला होने से इनका तप अग्नि की तरह अधिक जाज्वल्यमान था। तपस्या की आराधना ये विधिपूर्वक बड़ी सावधानी से करते थे। ये महातपस्वी थे। दूसरे मुनिजन जिन तपों को करना अति कठिन मानते थे, उन तपों को ये तपते थे। ये उदार एवं घोर अर्थात् भयानक थे । प्रश्न-उदारता और भयानकता ये दोनों धर्म परस्परविरोधी हैं; क्यों कि जो उदार होता है वह भयानक नहीं होता और जो भयानक होता है वह उदार नहीं होता, अतः इन दोनों बातों का यहां निर्वाह कैसे हो सकता है ? उत्तर-ये अतिकठिन तपस्याओं को करते थे, अतः अल्पशक्ति वालों को ये देखने में बड़े भयानक-जैसे मालूम देते थे, अर्थात् अल्पशक्ति वालों को इनसे डर लगता था, इस अपेक्षा इन्हें भयानक कहा गया है। कोई २ ऐसा भी कहते हैं कि 'उदार' शब्द का अर्थ 'प्रधान' है, एवं 'घोर' शब्द का अर्थ 'कठोर' है। ये कठोर इसलिये थे कि परीषह, इन्द्रिय एवं कषाय इन જાજવલ્યમાન હતું. તપસ્યાની આરાધના તેઓ વિધિપૂર્વક બહુ સાવધાનીથી કરતા હતા. તેઓ મહાતપસ્વી હતા. બીજા મુનિજને જે તપેને કરવાનું બહુ કઠણ માનતા હતા તેવા તપોને આ કરતા હતા. તેઓ ઉદાર તેમજ ઘોર અર્થાત્ ભયાનક હતા. ___-GRता अने भयानता से मन्ने प ५२२५२ विरोधी छे; કેમકે જે ઉદાર હોય છે તે ભયાનક હતા નથી અને જે ભયાનક હોય છે તે ઉદાર હોતા નથી, તે પછી આ બને વાતેનો અહીં મેળ કેવી રીતે થઈ શકે ? ઉત્તર–આ અતિ કઠણ તપસ્યા કરતા હતા તેથી અલ્પશક્તિવાળાઓને તેઓ જોવામાં ભયાનક જેવા દેખાતા હતા, અર્થાત્ અલ્પશક્તિવાળાઓને તેમને ડર લાગતો હતો. આ અપેક્ષાથી તેમને ભયાનક કહેલા છે. કઈ કઈ એમ પણ કહે છે કે “ઉદાર” શબ્દનો અર્થ “પ્રધાન છે, તેમજ “ઘર' શબ્દનો અર્થ “કઠોર છે. તેઓ કઠોર એ માટે હતા કે પરિષહ, Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. १ गौतमस्वामि वर्णनम् ४९७ उच्छूढसरीरे संखित्त - विउल - तेयलेस्से समणस्स भगवओ घोरगुणः–घोरा=अन्यैर्दुरुद्वहाः गुणाः = मूलगुणादयो यस्य स तथा । ' घोरतवस्सी ' घोरतपस्वी=दुष्करतपश्चरणशीलः, पारणादौ नानाविधाभिग्रहधारकत्वात्, 'घोर - बंभचेर - वासी' घोर–ब्रह्मचर्य—वासी–घोरं—दारुणमल्पसत्त्वैर्दुर्वहत्वाद् यद् ब्रह्मचर्यं तत्र वसति तच्छीलः । 'उच्छूढसरीरे ' उच्छूढशरीरः- उच्छूढम् = उज्झितमिव संस्कार परित्यागात् शरीरं येन स उच्छूढशरीरः - शरीरसंस्कारं प्रति निःस्पृहत्वात् त्यक्तशरीरसंस्कारः । ' संखित्तविउल-तेयलेस्से ' संक्षिप्त - विपुल - तेजोलेश्य :- संक्षिप्ता - निजशरीराऽन्तर्निहिता, विपुला = रिपुओं के विनाश करने में निरत थे । कठोर बने विना शत्रुओं का निवारण करना बड़ा ही मुश्किल होता है । कोई २ ऐसा भी कहते हैं कि तपस्याओं के तपने में ये अपनी निज आत्मा की परवाह ही नहीं करते थे, अतः घोर थे । 'घोरगुणवाले' ये इसलिये थे कि इनके द्वारा धृत मूलगुण आदि अन्यजनों के लिये दुर्धारणीय थे, 'घोरतपस्वी' ये इसलिये थे कि जिस दिन पारणा का अवसर होता था उस दिन ये अनेक प्रकार के अभिग्रहों को धारण करते थे । 'घोर - ब्रह्मचर्य - वासी' ये इसलिये ये कि ये अल्पशक्ति वाले प्राणियों: द्वारा दुर्वह होने से कठिनतर ऐसे ब्रह्मचर्य की आराधना में पूर्णनिष्ठ हो चुके थे । 'उच्छूढशरीर' इन्हें इसलिये कहा है कि इन्हों ने अपने शरीर का संस्कार करना ही छोड़ दिया : था । अतः उनका शरीर ऐसा ज्ञात होता था कि मानो इन्होंने इसका परित्याग जैसा कर - रखा है। 'संक्षिप्त - विपुल - तेजोलेश्य' ये इसलिये थे कि यद्यपि विशिष्ट तपस्या की ઈન્દ્રિય તેમજ કષાય એ રિપુઓના વિનાશ કરવામાં નિરત હતા. કઠોર અન્યા વિના શત્રુઓનુ નિવારણ કરવું બહુજ મુશ્કેલ થાય છે. કાઈ કાઈ એમ પણ કહે છે કે તપસ્યા તપવામાં તેઓ ખુદ પેાતાના આત્માની પરવાહ पशु डरता नहोता. भावी शेते घोर हता. 'धोरगुणुवाजा' तेथेो मे ५२ણથી હતા કે તેમના દ્વારા ગ્રહણ કરાયેલા મૂલગુણ આદિ ગુણા ખીજાજને માટે દુર્ધારણીય (ગ્રહણ ન કરી શકાય એવા ) हुता. 'घोरतपस्वी' तेथे मे માટે હતા કે જે દિવસે પારણાના અવસર આવતા તે દિવસે તેઓ અનેક પ્રકારના અભિગ્રહાને ધારણ કરતા हुता. 'धोर-ग्रह्मथर्य - वासी' तेथे भे માટે હતા કે તેએ અલ્પશક્તિવાળા પ્રાણિએ દ્વારા દુહ ( સહન ન થાય. એવા ) હાવાથી બહુ કઠણુ એવી બ્રહ્મચર્યની આરાધનામાં પૂર્ણ નિષ્ઠ થઈ ચુકયા હતા. ‘ઉજ્જૂઢશરીર’ એમને એ માટે કહેતા કે તેમણે પોતાના શરીરના સંસ્કારો જ છોડી દીધા હતા. આથી તેમનું શરીર એવુ જણાતું. હતુ' કે જાણે તેઓએ તેના પરિત્યાગ જ કરી નાખ્યા હાય સક્ષિપ્ત Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ औपपातिकसूत्र महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोहोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ सू. १॥ अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राऽन्तर्वर्तिवस्तुदहनसमर्थत्वाद् विशाला तेजोलेश्याः-विशिष्टतपःसम्भूतलब्धिविशेषोद्भवा तेजोज्वाला यस्य स तथाभूतः सन् 'समणम्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽदूरसमीपे-अदूरसमीपे–नातिदूरे नातिसमीपे उचितदेशे, 'उडढजाणू' उर्ध्वजानुः-ऊर्चे जानुनी यस्य स ऊर्ध्वजानु:उत्कुटुकाऽऽसनवान् , 'अहोसिरे' अधःशिराः अधोमुखो, नावं न तिर्यग् वा क्षिप्तदृष्टिः, 'झाण-कोट्ठो-वगए' ध्यान-कोष्ठो-पगतः-ध्यानं कोष्ट इव ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः, यथा कोष्ठगतं धान्यं विकीर्णं न भवति तथैव ध्यानगता इन्द्रियान्तःकरणवृत्तयो बहिर्न यान्तीति आराधना से इन्हें तेजोलेश्या प्राप्त हो चुकी थी, जिसकी इतनी सामर्थ्य होती है कि अनेकयोजनप्रमाण क्षेत्र के भीतर रही हुई वस्तुओं को वह क्षणमात्र में दग्ध कर डालती है, परन्तु ऐसी विपुल तेजोलेश्या को भी इन्होंने अपने शरीर के भीतर ही अन्तर्हित कर रखी थी, उसका उपयोग नहीं करते थे, और ये (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते) श्रमण भगवान् महावीर के न अतिदूर और न अतिनिकट, किन्तु पास ही कुछ दूरी पर (उजाणू) घुटनों को ऊँचाकर (अहोसिरे) शिर को नीचे कर के (झाण-कोट्ठोवगए) ध्यानरूपी कोठे में विराजमान थे, अर्थात् ध्यान में बैठे थे। ध्यान को जो कोष्ठ की उपमा दी है उसका हेतु यह है कि जिस प्रकार कोठे में रहा हुआ धान्यादिक इतस्ततः (इधर-उधर) नहीं बिखरता है उसी प्रकार ध्यानगत इन्द्रिय एवं अन्तःकरण की वृत्तियां વિપુલતેજલેશ્ય એ આથી હતા કે તેમને જે કે વિશિષ્ટ તપસ્યાની આરાઘનાથી તેલેશ્યા પ્રાપ્ત થઈ ચૂકી હતી, જેનું એટલું સામર્થ્ય હોય છે કે અનેક એજનના પ્રમાણ ક્ષેત્રની અંદર રહેલી વસ્તુઓને તેઓ ક્ષણ માત્રમાં બાળીને ભસ્મ કરી નાખે છે, પરંતુ એવી વિપુલ તેજલેશ્યાને પણ તેઓએ પોતાના શરીરની અંદર જ અન્તહિત કરી રાખી હતી, તેને ઉપયોગ કરતા नहात. (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते) तस। श्रभा मावान भडीવીરની બહુ દૂર નહિ તેમ બહુ પાસે નહિ પણ તેમની પાસે જ છેડે જ દૂર ५२ (उड्ढजाणू) धुणे। 6॥ ४शन (अहोसिरे) शिरने नभावाने (झाण-कोदोवगए) यान३पी मा विमान ता-मर्थात् ध्यानमा मे ता. प्याનને જે કોઠાની ઉપમા આપી છે તેને હેતુ એ છે કે જેમ કઠામાં ભરેલાં ધાન્ય આદિક આમતેમ વિખરાઈ જતાં નથી તેમ ધ્યાનમાં ચાટેલી ઇંદ્રિએ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स्र. २ गौतमस्वामिनो भगवत्समीपे गमनम् " ४९९ मूलम् — तप णं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए " भावः, नियन्त्रितचित्तवृत्तिमानित्यर्थः, ' संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् = वासयन् विहरति ॥ सू० १ ॥ टीका- 'तए णं से' इत्यादि । 'तए णं से भगवं गोयमे ' ततः खलु स भगवान् गौतमः ' जायसड्ढे ' जातश्रद्ध: - जाता = प्राग्भूता संप्रति सामान्येन प्रवृत्ता श्रद्धा-तत्त्वनिर्णयविषयिका वाञ्छा यस्य स जातश्रद्ध:, वक्ष्यमाणतत्त्वपरिज्ञानेच्छावानित्यर्थः, 'जायसंसए ' जातसंशयः - जातः प्रवृत्तः संशयो यस्य स तथोक्तः, संशयोत्पत्तिप्रकारस्त्वित्थम्-औपपातिकसूत्रं हि - अचाराङ्गस्योपाङ्गम्, तेनाचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययने प्रथमोद्देशके य आत्मन उपपात उक्तः, तस्मिन् विषये वक्ष्यमाणसंशयोत्पत्त्या जातबाहर इधर-उधर नहीं हो सकती हैं। मानसिक प्रत्येक वृत्तियां इस अवस्था में नियंत्रित हो जाती हैं। ऐसे ये गौतम नामसे प्रसिद्ध इन्द्रभूति गणधर (संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर) संयम एवं तप से सदा अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे ॥ सू. १ ॥ " 'तर णं से' इत्यादि । (तए णं) परिषत् चले जाने के बाद (से भगवं गोयमे) वे भगवान् गौतम (जायसड् ढे ) कि जिनके चित्तमें तत्त्व को निर्णय करने के लिये वाञ्छा हुई, कारण कि इन्हें (जासं) इस प्रकार का संशय उद्भूत हुआ था कि यह औपपातिक सूत्र, आचारांग सूत्र का उपांग है, आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में जो आत्मा का उपपात कहा है सो किस प्रकार से कहा है ? (जायको ऊहल्ले) अतः भगवान् मेरे संशयित તેમજ અંતઃકરણની વૃત્તિએ બહાર આમતેમ જઈ શકતી નથી. માનસિક પ્રત્યેક વૃત્તિએ આ અવસ્થામાં નિયંત્રિત થઈ જાય છે. એવા આ ગાતમ नाभे प्रसिद्ध द्रभूति गणधर (संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे સંયમ તેમ જ તપથી સદા પેાતાની આત્માને ભાવિત કરતા કરતા हता. (सू. १) विहरइ ) વિચરતા C तए 'Seulle. (तए णं) परिषह् यासी गया पछी (से भगवं गोयमे) ते लगवान गौतम ( जायसड्ढे ) ना चित्तमां तत्त्वनो निर्णय अखानी वांछा था, अर तेभने (जायसंसए) मा प्रहारनो संशय उत्पन्न थयेो हतो या औषधाતિક સૂત્ર, આચારાંગ સૂત્રનુ ઉપાંગ છે. આચારાંગ સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનના પ્રથમ ઉદ્દેશકમાં જે આત્માના ઉપપાત વગૈા છે તે કેવા પ્રકારથી કહ્યો छे ? (जायको ऊहल्ले) डुवे भगवान भारा भी संशयना प्रश्ननो उत्तर न लागे Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सूत्रे जायको ऊहले, उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उपण्णको ऊहले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोऊहल्ले, समुप्पण्णसड्ढे समु ५०० संशय इति भावः । ' जायकोऊहल्ले ' जातकुतूहल: - जातं कुतूहलम् - औत्सुक्यं यस्य स जातकुतूहल:, मत्कृतप्रश्नस्य कीदृशमुत्तरं भगवान् वक्ष्यति तच्छ्रोतुमौत्सुक्यवानित्यर्थः, ' उप्पण्णसड् ढे ' उत्पन्नश्रद्धः - उत्पन्ना - विशेषेण जाता श्रद्धा यस्य स तथा यद्वाश्रद्धायाः स्वरूपस्य तिरोहितत्वे जातश्रद्धः, तस्याः स्वरूपस्य प्रादुर्भावे तु उत्पन्नश्रद्धः - इति भावः । ' उप्पण्णसंसए' उत्पन्नसंशयः, 'उप्पण्णकोऊहल्ले ' उत्पन्नकुतूहल:, ' संजायसड्ढे ' संजातश्रद्धः, प्रकर्षादिवाचकः शब्दः, ततश्च संजाता = विशेषतरेण उत्पन्ना श्रद्धा यस्य स संजातश्रद्ध:, ' संजाय संसए' संजातसंशयः, 'संजायको ऊहल्ले : संजातकुतूहल:, ' समुप्पण्णसड्ढे ' समुत्पन्न श्रद्धः – समुत्पन्ना - सर्वथा संजाता श्रद्धा यस्य स तथा, , प्रश्न का उत्तर न मालूम किस तरह का देंगे ? इस बात को जानने को उत्कण्ठा उनके चित्त में बढ़ी क्यों कि ( उप्पण्णसड्ढे ) भगवान के ऊपर ही उनके चित्त में अतिशय श्रद्धा थी, अतः उनसे ही निर्णय करने के लिये श्रद्धा उत्पन्न हुई । ( उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोऊहल्ले संजायसड् ढे संजायसंसए संजायकोऊहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णको ऊहल्ले) उत्पन्न सय, उत्पन्नकौतुहल' - इत्यादि पदों द्वारा वाच्यार्थ में, अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा ज्ञान की तरह उत्तरोत्तररूप से विशेषता द्योतन करने के लिए सूत्रकार 'जात, उत्पन्न, संजात, समुत्पन्न' इन पदों का प्रयोग किया है । भगवान् गौतम को जो चित्त में तत्त्व के निर्णय करने की इच्छा जागृत हुई वह पहिले सामान्यरूप में ही हुई, कारण कि उन्हें अंशय जो उत्पन्न हुआ था वह भी सामान्यरूप से ही हुआ था, इसी કેવી રીતે આપશે? એ વાતને જાણવાની ઉત્કંઠા તેમના ચિત્તમાં વધી; કેમકે (उप्पण्णसड्ढे) भगवानना उपर तेमना वित्तमां अतिशय श्रद्धा हुती, हवे तेभनी पाथी निर्णय वा भाटे श्रद्धा उत्पन्न यह (उत्पण्णसंसए उपष्णकोॠहल्ले संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोऊहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुण्णसंसए समुपणको हल्ले) ' उत्पन्नसंशय उत्पन्नाौतुहल' इत्याहि हो द्वारा વાગ્યામાં, અવગડુ, ઇહા, અવાય અને ધારણા જ્ઞાનની પેઠે ઉત્તરાત્તરરૂપથી विशेषताना प्राश साववाभाटे सूत्रारे 'जात उत्पन्न संजात समुत्पन्न' से होनो પ્રયાગ કર્યા છે. ભગવાન ગૌતમને જે ચિત્તમાં તત્ત્વના નિ ય કરવાની ઇચ્છા જાગ્રત થઈ તે પહેલાં સામાન્યરૂપમાં જ થઇ હતી. કારણ તેમને જે સંશય Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स. २ गौतमस्वामिनो भगवत्समीपे गमनम् ५०१ प्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उठाए उठेइ, उहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता 'समुप्पण्णसंसए' समुत्पन्नसंशयः, 'समुप्पण्णकोऊहल्ले' समुत्पन्नकुतूहलः, श्रद्धादयः शब्दा व्याख्याता एव । अत्रैवं श्रद्धादौ कार्यकारणभावः । प्रश्नवाञ्छारूपा श्रद्धा जाता, तस्याः कारणं-संशयः कुतूहलं चेति । 'उद्वाए उठेइ' उत्थया उत्थानशक्त्या स्वासनात् उत्तिष्ठति, उत्थाय, जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरो विराजत इति शेषः, 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैवोपागच्छति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य, 'समणं भगवं महावीरं' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य, 'तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ ' त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, 'करित्ता' कृत्वा 'वंदइ णमंसइ' तरह अपने प्रश्न के उत्तर को सुनने के लिये जो उनके चित्त में उत्कण्ठा जागृत हुई वह भी सामान्यरूप से ही। फिर बाद में 'उत्पन्नसड्ढे' आदि पदों द्वारा जो सूत्रकार ने श्रद्धा को उत्पन्न आदिरूप में प्रकट किया है उससे श्रद्धा आदि में उत्तरोउत्तर विशेषता जाननी चाहिये । इस प्रकार के वे गौतमप्रभु (उवाए उठेइ) उत्थानशक्ति द्वारा अपने स्थान से उठे और (उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उबागच्छइ) उठकर जहां प्रभु श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे वहाँ पहुँचे, (उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ) पहुँचते ही उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर प्रभु को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिण किया, (करित्ता वंदइ णमंसइ) फिर बाद में वंदना एवं ઉત્પન્ન થયે તે પણ સામાન્યરૂપથી જ થયો હતો. આવી જ રીતે પોતાને પ્રશ્નનો ઉત્તર સાંભળવાને માટે તેમના ચિત્તમાં જે ઉત્કંઠા જાગ્રત થઈ તે પણ सामान्य३५नी४ ता. पण त्या२ ५छी (उप्पण्णसड्ढे) मावि ५ ६२रा रे સૂત્રકારે શ્રદ્ધાને ઉત્પન્ન આદિ રૂપથી પ્રકટ કરી છે તેથી શ્રદ્ધા આદિમાં उत्तरोत्तर विशेषता नवी ने. २॥ ५४॥२ ते गौतम प्रभु (उढाए उद्वेइ) 'उत्थानशति द्वारा पोताना स्थानथी ४२, मने ( उद्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ) ने न्यi प्रभु श्रम भगवान महावीर मि२१४मान ता त्यां पांच्या. (उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ) पयतi on तभणे श्रम मवान महावीर प्रभुने एy Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ औपपातिक वंदइ णमंसई, वंदिता णमंसित्ता नच्चासपणे नाइदूरे सुस्सूसमा - णे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पजुवासमाणे एवं वयासी ॥ सू०२ ॥ मूलम् — जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अ-पडि वन्दते नमस्यति, 'वंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा, 'नच्चासण्णे नाइदूरे ' नात्यासन्ने नातिदूरे 'सुस्म्रुसमाणे णमंसमाणे ' शुश्रूषमाणो नमस्यन् 'अभिमुहे विणणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी' अभिमुखे विनयेन प्राञ्जलिपुटः पर्युपासीन एवमवादीत् । प्राग् व्याख्यातम् ॥ सू०२ ॥ टीका - अथात्मन उपपातस्य कर्मबन्धपूर्वकत्वात् कर्मबन्धविषये पृच्छति - ' जीवे णं भंते!' इत्यादि । ' जीवे णं भंते ! ' जीवः खलु भदन्त ! - भगवन् ! ' असंजए ' असंयतः=असंयमवान्–सर्व सावद्यानुष्ठानयुक्तः, 'अविरए ' अविरतः = प्राणातिपातादिविर नमस्कार किया, (वंदित्ता णमंसित्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुरसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी) वंदना नमस्कार करने के बाद फिर वे प्रभु के निकट सामने ही, न उनसे अति दूर न उनके अतिनिकट ही, किन्तु उचित स्थान पर विनयावनत होकर दोनों हाथों को जोड़कर बैठ गये, पश्चात् इस प्रकार बोले ॥सू.२॥ 6 'जीवे णं भंते ! ' इत्यादि । गौतम भगवान् से क्या पूछा ? इस बात को इस सूत्र द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं- ( भंते ) हे भदंत ! जो ( जीवे) जीव ( असंजए ) असंयमी है --सर्व सावध વાર આદક્ષિણપ્રદક્ષિણ , ( करिता वंदइ णमंसइ) पछी वंदना नभरार अर्था. (वंदित्ता णमंसित्ता नच्चासणे नाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमु विणणं पंजलिउडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी) वहना नमस्र य पछी तेथे પ્રભુની પાસે સામે જ, ન બહુ ક્રૂર કે ન બહુ પાસે પણુ–ઉચિત સ્થાને, વિનયથી નમ્ર બનીને અન્ને હાથ જોડીને બેસી ગયા. પછી આ પ્રકારે ઓલ્યા (સૂ.૨) 'जीवे णं भंते' इत्याहि. ગૌતમે ભગવાનને શુ પૂછ્યું ?–એ વાતને આ સૂત્રદ્વારા સૂત્રકાર પ્રદशित ४२ छे.- (भंते ) हे लहन्त ! ? (जीवे) व (असंजए) असंयमी छे Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका मु. ३ पापकर्मबन्धे गौतमप्रभः ५०३ हय-पञ्चक्खाय-पावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते पावकम्मं अण्हाइ १, हंता ! अण्हाइ ॥सू०३॥ तिरहितः, तथा-'अ-प्पडिहय-पच्चक वाय-पावकम्मे' अ-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा-प्रति हतानि अतीतकालकृतानि निन्दाद्वारेग, प्रत्याख्यातानि भविष्यत्कालभावीनि निवृत्तिद्वारेण, पापकर्माणि प्रागातिपातादिरूपाणि येन स प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा, भूतभाविपापनिषेधाभावेन' यस्तथा न भवति सः-अ-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा, अतएव-'सकिरिए' सक्रियः कायिक्यादिक्रियायुक्तः, 'असंवुडे' असंवृतः अनिरुद्धेन्द्रियः, 'एगंतदंडे' एकान्तदण्डः-एकान्तेनैव= सर्वथैव दण्ड- यत्यात्मानं परं वा पापप्रवृत्तितो यः स एकान्तदण्डः, 'एगंतवाले' एकान्तबाल:-सर्वथा मिथ्यादृष्टिः, अतएव-'एगंतसुत्ते' एकान्तसुप्तः सर्वथा मिथ्यात्वनिद्रया प्रसुप्तः, 'पावकम्म' पापकर्म-प्राणातिपातादिकर्म 'अण्हाइ' आस्रवति बध्नाति किम् ?, भगवानाह'हंता अण्हाई' हन्ताऽऽस्रवति-हन्त इति स्वीकारे, आस्रवतिबध्नाति-इदमुत्तरवाक्यम् ॥सू०३॥ अनुष्ठान करने में लगा हुआ है, (अविरए) प्राणातिपातादिक से जिसने विरति धारण नहीं की है, तथा (अ-प्पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे ) लगे हुए पापकर्मों का निंदा द्वारा तथा भविष्यत् काल में बंधनेवाले पापकर्मों का प्रत्याख्यान-निवृत्ति द्वारा जिसने परित्याग नहीं किया है, (सकिरिए ) कायिकी आदि क्रियाओं से जो युक्त है, इसीलिये (असंवुडे) असंवृत-अनिरुद्धेन्द्रिय बना हुआ है, ( एगंतदंडे) अपने को अथवा परको जो पापमय प्रवृत्ति से दंडित-दुःखित करता रहता है, जो (एगंतबाले) एकान्तमिथ्यादृष्टि है और (एगंतसुत्ते ) सर्वथा मिथ्यात्व की निद्रा में गाढ सुप्त बना हुआ है, वह (पावकम्म) पापकर्म-प्राणातिपातादिक कर्मों का ( अण्हाइ) बन्ध करता है क्या ? तब भगवान् ने कहा, (हंता) हां गौतम ! ( अण्हाइ) बन्ध करता है। सर्व सावध मनुष्ठान ४२वामा तत्५२ २ छ, (अविरए) प्रातिपात माहि४थी रेणु विरति धा२१ ४२री नथी, तथा (अ-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे) લાગી રહેલાં પાપકર્મોનો નિંદા દ્વારા, તથા ભવિષ્ય કાળમાં બંધાનારાં પાપभनि। अत्याध्यान-निवृत्ति-द्वारा, गण परित्या ज्या नथा; (सकिरिए) यित्री माह जियामाथी र युत छ, तेथी (असंवुडे) मस वृत-मनिरुद्ध धादियोवा मन्या छ, (एगंतदंडे) पाताने अथवा ५२ने रे पापमय प्रवृत्तिथा डित-दु:मित ४ा ४२ छ सेवा ते (एगंतबाले) id मिथ्याष्टि (एगंतसुत्ते) सर्वथा भिथ्यात्पनी घोर निद्रामा सुतो छ, ते (पावकम्म) पाप भ-. प्रातिपात माहि भेना (अण्हाइ) म ४२ छ ॐ शु? त्यारे लगवाने ४ह्यु-(हंता) है। गौतम ! (अण्हाइ) म छ.. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ औपपातिकसूत्र मूलम्-जीवे णं भंते ! असंजए जाव एगंतसुत्ते मोहणिज्जं पावकम्म अण्हाइ ? हंता ! अण्हाइ ॥ सू०४॥ टीका-'जीवे णं भंते !' इत्यादि । 'जीवेणं भंते !' जीवः खलु भदन्त ! 'असंजए जाव एगंतसुत्ते' असंयतो यावदेकान्तसुप्तः 'मोहणिज्जं पावकम्मं ' मोहनीथं पापकर्म 'अण्हाइ' आस्रवति-बध्नाति किम् ?-इति प्रश्न, उत्तरमाह--'हंता ! अण्हाई' हन्त ! आस्रवति बन्नातीत्यर्थः । सू० ४ ॥ भावार्थ-जो जीव असंयमी है, सावद्य अनुष्ठानों से निवृत्त नहीं हुआ है, पूर्वकृत पापकर्मों की जिसने निंदा नहीं की, तथा भविष्यत् काल में मैं ऐसे पापकर्म नहीं करूँगा-इस प्रकार अकरणभाव से जिसने उनका परित्याग नहीं किया, कायिकी आदि क्रियाओं में जो मग्न है, स्वयं दुःखित होता है और दूसरों को भी अपनी कुत्सित प्रवृत्ति से दुःखित करता रहता है ऐसा मिथ्यात्व की गाढ अंधेरी में रहा हुआ मिथ्यादृष्टि जीव पापकर्मों का बंधक होता है या नहीं ?-इस प्रकार गौतम के प्रश्न को सुनकर प्रभु ने कहा-हां ! होता है। सू० ३॥ 'जीवे णं भंते !' इत्यादि। (जीवे णं भंते ! असंजए जाव एगंतसुत्ते) हे भदंत ! वही पूर्वोक्त असंयम आदि अवस्था से लेकर सर्वथा मिथ्यात्वरूपी गाढनिद्रा में प्रसुप्त अलंयमी मिथ्यादृष्टि जीव (मोहणिज्ज) मोहनीय कर्म का (अण्हाइ) बंध करता है क्या ? (हंता) हां गौतम ! (अण्हाइ) बन्ध करता है । सू. ४ ॥ ભાવાર્થ–જે જીવ અસંયમી છે, સાવદ્ય અનુષ્ઠાનેથી નિવૃત્ત થતો નથી, પૂર્વે કરેલાં પાપ કર્મોની જેણે નિંદા કરી નથી, તથા ભવિષ્ય કાલમાં એવાં પાપ કર્મ હું નહિં કરું એ પ્રકારના અકરણભાવથી જેણે તેને પરિત્યાગ કર્યો નથી, કાયિકી આદિ ક્રિયાઓમાં જે મગ્ન છે, પોતે દુઃખિત થાય છે અને બીજાને પણ પોતાની કુત્સિત પ્રવૃત્તિથી દુઃખિત કરે છે એવા મિથ્યાત્વના ગાઢ અંધારામાં રહેલો એવો મિથ્યાદષ્ટિ જીવ પાપકર્મોને બંધક થાય છે યા નહિ ? આ પ્રકારના ગૌતમને પ્રશ્નને સાંભળીને પ્રભુએ કહ્યું-હા ! થાય છે. (સૂ. ૩) 'जीवे णं भंते' प्रत्याहि (जीवे गं भंते ! असंजए जाव एगंतसुत्ते) हे महन्त! ५२ ४स અસંયમ આદિ અવસ્થાથી લઈને સર્વથા મિથ્યાત્વરૂપી ગાઢ નિદ્રામાં સુતેલા मसयभी-मिथ्याष्टि१ (मोहणिज्ज) भडनीय भनी (अण्हाइ) मध ४२ छ शु? (हंता) । गौतम ! ( अण्हाइ) छ. (सू. ४) Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी- टीका . ५ भोहनीय कर्मबन्धविषये प्रश्न: ५०५ मूलम् — जीवे णं भंते! मोहणिजं कम्मं वेदेमाणे किं मोहणिज्जं कम्मं बंधइ ?, वेयणिज्जं कम्मं बंधइ ? गोयमा ! मोहणिज्जं पि कम्मं बंधइ, वेयणिज्जं पि कम्मं बंधइ, पण्णत्थ चरिम टीका- जीवे णं भंते !' इत्यादि । ' जीवे णं भंते !' जीवः खलु भदन्त ! ' मोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे ' मोहनीयं कर्म वेदयन् = अनुभवन् 'किं मोहणिज्जं कम्मं बंध' किं मोहनीय कर्म बध्नाति ?, अथवा - ' वेयणिज्जं कम्मं बंधइ ? ' वेदनीयं कर्मबध्नाति किम् ? इति प्रश्ने सत्युत्तरमाह - ' गोयमा ! मोहणिज्जं पि कम्मं बंधइ वेयणिज्जं पि कम्मं बंधइ ' गौतम ! मोहनीयमपि कर्म बध्नाति वेदनीयमपि कर्मबध्नाति, 'गणत्थ चरिममोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे ' केवलं चरममोहनीयं कर्म वेदयन्, 'णण्णस्थ ' इति नवरं - केवलमित्यर्थः, सूक्ष्मसम्परायदशमगुणस्थानके लोभमोहनीयसूक्ष्मकि , , 6 'जीवे णं भंते' इत्यादि । (भंते) हे भदंत ! (मोहणिज्जं कम्मं) मोहनीय कर्म का (वेदेमाणे) अनुभव करने वाला (जीवे णं) जीव (किं) क्या (मोहणिज्जं कम्मं ) मोहनीय कर्म का (बंधइ) बंध करता है ? (वेयणिज्जं कम्मं बंधइ) अथवा वेदनीय कर्म का बंध करता है ? इन दो प्रश्नों का उत्तर प्रभु इस प्रकार देते हैं- ( गोयमा) हे गौतम ! (मोहणिज्जं पि कम्मं बंध वेयणिज्जं पि कम्मं बंध) मोहनीय कर्म का अनुभव करनेवाला जीव मोहनीय कर्म का भी बंध करता है और वेदनीय कर्म का भी बंध करता है, (णण्णस्थ चरिममोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे वेयणिज्जं कम्मं बंधइ) केवल सूक्ष्मसंपराय नामके १० वें गुणस्थान में चरम-मोहनीय - सूक्ष्मलोभ - को वेदन करने वाला जीव वेदनीय कर्म का बंध करता है, क्यों कि अयोगी ' जीवे णं भंते ' त्याहि. (भंते ) हे लढत ! ( मोहणिज्जं कम्मं ) भोडुनीय उना ( वेदेमाणे ) अनुभव ४२वावाजा (जीवे) व ( किं) शुं ( मोहणिज्जं कम्मं ) भोडुनीय भने (बंधइ ) अंधरे छे ? ( वेयणिज्जं कम्मं बंधइ ) अथवा वेहनीय उन अंध उरे छे ? या मे प्रश्नोना उत्तर प्रभु मा प्रहारे भाये छे - (गोयमा) हे गौतम ! ( मोहणिज्जं पि कम्मं बंधइ वेयणिज्जं पि कम्मं बंधइ) भोडनीय उनो अनुभव ४२नारा જીવ મેાહનીય કર્મના પણ અંધ કરે છે અને વેદનીય કના પણ બંધ કરે छे. (roणत्थ चरिममोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे वेयणिज्जं कम्मं बंधइ) डेवल सूक्ष्म સંપરાય નામના ૧૦ દશમા ગુણુસ્થાનમાં ચરમ મેાહનીય–સૂમલેાભનુ વેદન Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मोहणिजं कम्मं वेदेमाणे वेयणिजं कम्मं बंधइ, णो मोहणिज्ज कम्मं बंधइ ॥ सू०५॥ टिकारूपं चरममोहनीयमित्युच्यते, तद्वेदयन् जीवः, 'वेयणिज्जं कम्मं बंधइ ' वेदनीयं कर्म बध्नाति, यतो हि अयोगिन एव वेदनीयकर्मणो बन्धाभावः, 'णो मोहणिज्ज कम्म बंधइ' नो मोहनीयं कर्म बध्नाति-सूक्ष्मसंपरायस्य मोहनीयायुष्कवर्जानां षण्णामेव प्रकृतीनां बन्धकत्वादिति ॥ सू० ५॥ नामक चौदहवें गुणस्थान में ही वेदनीय कर्म के बन्ध का अभाव है; (णो मोहणिज्जं कम्म बंधइ) इसलिये सूक्ष्मसंपराय वाला जीव मोहनीय एवं आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीयादि छ प्रकृतियों का बन्धक होता है । भावार्थ-प्रश्न इस प्रकार है कि मोहनीय कर्म का वेदन करने वाला जीव मोहनीय कर्म का बंध करता है कि वेदनीय कर्म का बन्ध करता है ? उत्तर-वेदनीय कर्म का भी बंध करता है और मोहनीय कर्म का भी बंध करता है, परन्तु अन्तिम मोहनीय-सूक्ष्मलोभ का क्षय करते समय (बारहवें गुणस्थान में) वेदनीय कर्म का तो बंध करता है परन्तु मोहनीय कर्म का बंध नहीं करता । कारण कि मोहनीय कर्म का क्षय १० वें गुणस्थान में ही हो जाता है, आगे सिर्फ ११ वेदनीय कर्म का बंध होता है सो यह भी केवल तेरहवें गुणस्थान तक ही जानना चाहिये; क्यों कि १४ वे गुणस्थान में वेदनीय कर्म के बंध का अभाव है । मू.५॥ કરનારા જીવ વેદનીય કર્મને બંધ કરે છે. કેમકે અગી નામના ચૌદમાં शुशुस्थानमा वेहनीय भनामधनी मला छे. (णो मोहणिज्जं कम्म बंधइ) मा माटे सूक्ष्म ५२।या 0 मोहनीय तमा मायुभने છેડીને બાકીની જ્ઞાનાવરણીય આદિ છ પ્રકૃતિઓના બંધક થાય છે. ભાવાર્થ–પ્રશ્ન એવા પ્રકારને છે કે મેહનીયકર્મનું વેદન કરવાવાળા જીવ મેહનીય કમને બંધ કરે છે કે વેદનીય કમને બંધ કરે છે? ઉત્તર–વેદનીય કર્મને ય બંધ કરે છે અને મેહનીય કમને પણ બંધ કરે છે. પરંતુ અંતિમ મોહનીય સૂક્ષ્મલાભને ક્ષય કરતી વખતે (બારમા ગુણસ્થાનમાં) વેદનીય કર્મને તે બંધ કરે જ છે, પરંતુ મોહનીય કર્મને બંધ કરતા નથી, કારણ કે મોહનીય કર્મનો ક્ષય ૧૦ માં ગુણસ્થાનમાં જ થઈ જાય છે. આગળ માત્ર 1 વેદનીય કર્મને જ બંધ થાય છે, અને તે પણ કેવળ તેરમાં ગુણસ્થાન સુધી જ જાણવો જોઈએ, કેમકે ૧૪ માં ગુણ સ્થાનમાં વેદનીય કર્મના બંધને અભાવ છે. (સૂ. ૫) Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ६ त्रसघातिनां नरकोपपातविषये प्रश्नः ५०७ __ मूलम्-जीवे णं भंते ! असंजए जाव एगंतसुत्ते उस्सण्ण-तस-पाण-घाई कालं किच्चा रइएसु उववज्जइ ?, हंता ! उववजइ ॥ सू० ६॥ मूलम्--जीवेणं भंते! असंजए अविरए अ-प्पडिहय-प टीका-अथोपपातं पृच्छति–'जीवे णं भंते ! ' इत्यादि । 'जीवे णं भंते !? जीवः खलु हे भदन्त ! 'असंजए जाव एगंतमुत्ते' असंयतो यावदेकान्तसुप्तः-प्राग्व्याख्यातः, 'उस्सण्ण-तस-पाण-घाई' प्रायस्त्रस-प्राण-घाती-'उस्सण्ण' इतिप्राःय== बाहुल्येन त्रसप्राणान्=त्रसप्राणिनो हन्ति तच्छीलः, 'कालमासे' मरणसमये, 'कालं किच्चा' कालं कृत्वा-मरणं विधाय, ‘णेरइएसु उववज्जइ' नैरयिकेषूत्पद्यते किम् ? इति प्रश्ने, उत्तरमाह भगवान्-'हंता ! उववज्जइ' हन्त ! उत्पद्यते नारकेषु जायते ॥ सू०६ ॥ टीका-'जीवे णं भंते' इत्यादि । 'जीवे णं भंते !' जीवः खलु हे 'जीवे णं भंते !' इत्यादि ! गौतम उपपात के विषय में पूछते हैं-(जीवे णं भंते ! असंजए जाव एगंतमुत्ते उस्सण्ण-तसपाण-घाई) हे भदंत ! वही पूर्वोक्त असंयम आदि अवस्था से लेकर सर्वथा मिथ्यात्वरूपी गाढनिद्रा में प्रसुप्त मिथ्यादृष्टि जीव जो बहुलता से त्रसजीवों की हिंसा करने में लवलीन रहा करता है वह (कालमासे) मृत्यु के समय में (कालं किच्चा) मर कर (णेरइएस) नारकियों में (उववजइ) उत्पन्न होता है क्या ? उत्तर-(हंता) हां गौतम ! (उववज्जइ) उत्पन्न होता है । सू. ६ ॥ 'जीवे णं भंते त्याहि. गौतम यातना विषयमा पूछे छ-(जीवेणं भंते ! असंजए जाव एगंतसुत्ते उस्सण्ण-तस-पाण-घाई) 3 Hd ! ५२ ४७८ मसयम मावि PA4સ્થાથી લઈને સર્વથા મિથ્યાત્વ રૂપી ગાઢનિદ્રામાં સુતેલ મિથ્યાદષ્ટિ જીવ જે धणे भरे। स वानी डिसा ४२पामा भन्थे। २९ छ, ते (कालमासे) भृत्युसमये (कालं किच्चा) भरीने (ोरइएस) ना२४ीमामा (उववज्जइ) उत्पन्न थाय छ ? उत्तर-(हंता) । गौतम ! (उववज्जइ) उत्पन्न थाय छे. (सू. ६) Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिसूत्रे चक्रखाय - पावकम्मे इओ चुए पेच्च देवे सिया ?, गोयमा ! अत्थेगइया देवे सिया, अत्थेगइया णो देवे सिया ॥ सू०७ ॥ मूलम् - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - अत्थेगइया ५०८ भदन्त ! ' असंrए अविरए अ-पहिय - पच्चक्रखाय - पावकम्मे ' असंयतः अविरतः अ-प्रतिहत-प्रत्याख्यात—पापकर्मा - व्याख्यातपूर्वः, 'इओ चुए ' इतः = मर्त्यलोकात्, च्युतः= मृतः, ' पेच्च देवे सिया' प्रेत्य देवः स्यात् - प्रेत्य = जन्मान्तरे देवः – देवगतिसमापन्नः स्यात् किम् ? इति प्रश्न भगवानुत्तरं कथयति - ' गोयमा ! अत्थेगइया देवे सिया ' गौतम ? अस्त्येकको देवः स्यात्-कश्विदेवः स्यात्, ' अत्थेगइया णो देवे सिया' अस्त्येकको नो देवः स्यात् - कश्विदेवगतिसमापन्नो न भवेत् ॥ सू० ७ ॥ टीका 'सेकेणणं भंते !' इत्यादि । ' से केणट्टेणं भंते! 'एवं वुच्चइअथेगइया देवे सिया अत्थेगइया णो देवे सिया ? ' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते ऽस्त्ये 'जीवे णं भंते!' इत्यादि । (भंते ) हे भदंत ! (असंजए अविरए अ - पडिहय - पञ्च क्खाय - पावकम्मे जीवे) जो जीव असंयमी है, अविरतिसंपन्न है, पापकर्मों का जिसने निंदाद्वारा एवं विनिवृत्तिद्वारा प्रत्याख्यान नहीं किया है ऐसा वह जीव, (इओ चुए) इस मर्त्यलोक से मर कर (पेच्च) परलोक में-जन्मान्तर में (देवे सिया) क्या देवलोक में उत्पन्न हो सकता है ? उत्तर(गोयमा) हे गौतम! ( अत्थेगइया देवे सिया अत्थेगइया णो देवे सिया ) कितनेक जीव देवलोक में उत्पन्न होते हैं और कितनेक जीव देवलोक में उत्पन्न नहीं भी होते हैं ॥ सू. ७ ॥ 'जीवे णं भंते' इत्याहि. (भंते ) हे लढत ! ( असंजए अविरए अ - पडिहय-पच्चक्खाय - पावकम्मे जीवे) જે જીવ અસયમી છે, અવિરતિસંપન્ન છે, પાપકર્મોનુ જેણે નિદા દ્વારા तेभन विनिवृत्ति द्वारा प्रत्याभ्यान यु नथी सेवा ते लव (इओ चुए) मा भर्त्यखेोऽभांथी भरीने (पेच्च) परखेोभां - भांतरभां ( देवे सिया ) शुद्वेवबोङभां उत्पन्न थह शडे छे ? (गोयमा) उत्तर - हे गौतम! (अत्थेगइया देवे सिया अत्थेगइया णो देवे सिया) डेंटला व देवबेोउभां उत्पन्न थाय छे અને કેટલાક જીવ દેવલાકમાં ઉત્પન્ન નથી પણ થતા. ( સૂ. છ ) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषवर्षिणी- टीका. सू. ८ असंयतानां देवत्वेनोपपाते हेतुप्रदर्शनम्. ५०९ देवे सिया, अत्थेगइया णो देवे सिया ? गोयमा ! जे इमे जीवा गामा - गर-णयर-निगम - रायहाणि - खेड - कब्बड - मडंब - दोणमुह-पट्टणा-सम-संवाह सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए अकामकको देवः स्यात्, अस्त्येकको न देवः स्यात् :- एवं यदुच्यते यदेको देवो भवति एको न भवतीति किंनिमित्तकोऽयं भेद: : इति प्रश्न, भगवानुत्तरमाह - ' गोयमा ! जे इमे जीवा गामा - गर-यर - णिगम - रायहाणि - खेड - कब्बड - मडंब - दोणमुह - पट्टणा-समसंवाह - सण्णिवेसेसु' गौतम ! य इमे जीवा ग्रामा - ssकर - नगर-निगम - राजधानी - खेट - कर्बट–मडम्ब-द्रोणमुख–पट्टनाऽऽश्रम - संबाध - सन्निवेशेषु - प्राग्व्याख्यातरूपेषु 'अकामतण्हाए ' अकामतृग्गया-अकामानां = निर्जराद्यनभिलाषिणां सतां तृष्णा-तृट् - अकामतृष्णा ता अ ? 'सेकेणणं भंते! ' इत्यादि । प्रश्न- (भंते!) हे भदंत ! ( से केणद्वेणं एवं बुच्चइ अत्थेगइया देवे सिया अत्थे - गइया देवे णो सिया) आप ऐसा किस कारण कहते हैं कि कितनेक जीव देवलोक में उत्पन्न हो सकते हैं और कितनेक नहीं हो सकते हैं, ? उत्तर - (गोयमा) गौतम ! सुनो; (जे इमे जीवा गामा- गर गयर - निगम - रायहाणि - खेड - कब्बड - मडंब - दोणमुहपट्टणा - सम-संवाह - सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचरेवासेणं अक्कामं अण्हाणग-सीया-यव- दंस-मसग - सेय- जल्ल- मल्ल - पंक - परितावेणं अप्पतरो वा भुज्जतरो कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, परिकिलेसित्ता वी कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उत्तारो भवति) जो जीव प्रकोट्ट सहित ग्राम में, सुवर्णादिक की खानों में, कर 'से केणट्टणं भंते!' इत्याहि ! प्रश्न – (भंते ) हे महंत ! ( से केणटुणं एवं वुच्चइ अत्थेगइया देवे सिया अत्थेगइया देवे णो सिया) साथ सेभ शुं अरथी हो छ। हे उटलाई भव हेवट्यामां उत्पन्न यह शडे छे भने डेंटला नथी यहा शडता ? उत्तर - (गोयमा) गौतम ! सांलणे (जे इमे जीवा गामा- गर - णयर-निगम - रायहाणि - खेड कब्बड - मडंब - दोणमुह - पट्टणा - सम-संबाह-सण्णिवे सेसु अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकाम - अण्हाणग-सीया-यव दंस-मसग - सेय- जल्ल-मल्ल-पंक- परितावेणं अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, परिकिलेसित्ता कालमा कालं किच्चा अण्ण वाणमंतरेसु देवलो देवत्ताए उववत्तारो भवंति ) જે જીવ કાટ ખાધેલા ગામમાં, સુવર્ણની ખાણેામાં, કર વગરના નગરમાં, વ્યાપારીઓની વસ્તીવાળા નિગમમાં, રાજા Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० औपपातिकसूत्रे छुहाए अकाम-बंभचेर-वासेणं अकाम-अण्हाणग-सीया-यवदंस-मसग-सेय-जल्ल-मल्ल-पंक - परितावेणं अप्पतरो वा कामछुहाए' अकामक्षुधया-अकामानां निर्जराद्यनभिलाषिणां सतां क्षुधा-अकामक्षुधा तया, 'अकाम-बंभचेर-वासेणं' अकाम–ब्रह्मचर्य-वासेन-अकामानां निर्जराद्यनपेक्षाणां-ब्रह्मचर्ये वासः तेन, 'अकाम-अण्हाणग-सीया-यर-दंस-मसग-सेय-जल्ल-मल्ल-पंचपरितावेणं ' अकामा-ऽस्नानक-शीता-ऽऽतप-दंश-मशक-स्वेद-जल्ल-मल्ल-पत्र-परितापेन-अकामानां निर्जराद्यनपेक्षमाणानां यानि स्नानाऽभावादीनि पकान्तानि तेषां परितापेन= सन्तापेन, 'अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति' अल्पतरं वा रहित नगर में, व्यापारियों की बस्तीवाले निगम में, राजा की राजधानी में, धूल के कोट से युक्त खेडे में, कुत्सित जन की बस्तीवाले कर्बट में, नजदीक २ ग्रामवाले मडंब में, जल और स्थल इन दोनों प्रकार के मार्ग वाले द्रोणमुख (बंदर) में, सर्ववस्तु जहां मिलती हों ऐसे पाटण में, तापसों के आश्रमों में, पर्वत के नजदीक बाले संबाध में, एवं गोपालों की प्रधान बस्तीवाले सन्निवेश में, अकामनिर्जरासे-मनविना परवश हो कर खाने पीने की वस्तु न मिल सकन के कारण क्षुधा-तृषा सहन करने से, अकामब्रह्मचर्य से-इच्छा होने पर भी स्त्री आदि की अप्राप्ति से ब्रह्मचर्य पालन करने से, अकामस्नान से-इच्छा होने पर भी पानी न मिल कने के कारण स्नान नहीं करने से, वस्त्रादिक न मिल सकने के कारण शीत-आतप जन्य दुःख सहने से, दंशमशक के द्वारा काटे जाने का कष्ट सहन करने से, स्वेद, जल्ल, मल्ल एवं पंक आदि को शरीर से दूर नहीं करने से, अर्थात् इन के द्वारा उत्पन्न परिताप के सहन करने. યુક્ત રાજધાનીમાં, ધૂળના કેટવાળા ગામડામાં, કુત્સિત જનેના નિવાસરૂપ કર્બટમાં, પાસે પાસે ગામવાળા મડંબમાં, જલ અને સ્થલ એ બન્ને પ્રકારના માર્ગવાળાં દ્રોણમુખ (બંદર)માં, સર્વ વસ્તુ જ્યાં મળતી હોય એવા પાટણમાં, તપસ્વીઓના આશ્રમમાં, પર્વતની પાસેના સંબધમાં, તેમજ ગોવાળની મુખ્ય વસ્તીવાળા સન્નિવેશમાં, અકામનિર્જરાથી-મનવિના પરવશ થઈને–ખાવાપીવાની વસ્તુ મળી ન શકવાથી ભૂખતરસ સહન કરીને, અકામબ્રહ્મચર્યથી-ઈચ્છા હોવા છતાં સ્ત્રી આદિની અપ્રાપ્તિથી બ્રહ્મચર્ય પાલન કરીને, અકામસ્નાનથી-ઈચ્છા હોવા છતાં પાણી ન મળી શકવાના કારણે સ્નાન નહિ કરીને, વસ્ત્રાદિક ન મળી શકવાના કારણે ઠંડી–ગરમીથી થતાં દુઃખ સહન કરીને, દેશમશકથી કરડાઈ જવાનું કષ્ટ સહન કરીને, વેદ, જલ, મલ તેમજ પંક આદિને શરીરથી દૂર નહિ કરીને એટલે, આથી ઉત્પન્ન થતા Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषषिणी-टीका स. ८ असंयतानां देवत्वेनोपपाते हेतुप्रदर्शनम् ५१५ भुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किच्चा अपगयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तर्हि तेसिं गई, तर्हि तेसिं ठिई, तेहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते । तेसिं णं भंते देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?, गोयमा ! दसवाससहस्साइं ठिई भूयस्तरं वा कालमात्मानं परिक्लेशयन्ति-'अप्पतरो भुज्जतरो' इत्युभयत्र द्वितीयार्थे प्रथमा, 'परिकिलेसित्ता' परिक्लेश्य 'कालमासे' कालमासे कालावसरे 'कालं किच्चा' कालं कृत्वा 'अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएम देवत्ताए उववत्तारो भवंति अन्यसमेषु व्यन्तरेषु देवलोकेषु देवत्वेनोपपत्तारो भवन्ति-अन्यतमेषु-बहूनां मध्ये एकतरेषु देवलोकेषु उपपातं प्राप्नुवन्ति, 'तहि तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई तहिं तेसिं उवका पण्णत्ते' तत्र=देवलोके तेषां गतिः, तत्र तेषां स्थितिः, तत्र तेषामुपपातः प्रज्ञप्तः । 'तेसिणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' तेषां खलु भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, 'गोयमा ! दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता' हे गौतम ! दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता-वर्षाणां दशसहस्राणि से ये सब कष्ट जीव अल्पकाल तक सहे या बहुतकाल तक सहे, परन्तु इन कष्टों से जो अपना खात्मा को क्लेशित करते हैं वे मरणकाल प्राप्त होने पर मर कर किसी एक व्यन्तरदक्षों के देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, (तहिं तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई तहिं तेसिं उसकाए पण्णत्ते ) इसलिये वहीं पर उनकी गति, वहीं पर उनकी स्थिति और वहीं पर उक्का उपपात होता है । (तेसिं णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) हे भदंत ! वहां पर उन देवों की कितने काल तक की स्थिति होती है ? (गोयमा! दसवाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता) गौतम ! सुनो, वहां पर उनकी स्थिति दसहजार वर्ष की होती પરિતાપને સહન કરીને-ચાહે તે બધાં કષ્ટ જીવ થોડો વખત સહન કરે અથવા લાંબા કાળ સુધી સહન કરે પરંતુ આ કષ્ટોથી જે પિતાના આત્માને કલેશિત કરે છે તે મરણકાલ પ્રાપ્ત થતાં મરીને કોઈ એક વ્યન્તર દેવના हेवाभा हेव३थे उत्पन्न थाय छ, (तहिं तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते) माथी त्यां तेभनी गति, त्यां तभनी स्थिति, मन त्यां४ तेभने। ५५त थाय छ. (तेसिं णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? ) 3 मत ! त्यो त हेवोनी ४७ स्थिति डाय छे ? (गोयमा ! दसवास Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे पण्णत्ता । अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्ढीइ वा जुईइ वा जसेइ वा बलेइ वा वीरिएइ वा पुरिसक्कार-परक्कमेइ वा ?, हंता! अत्थुि । ते णं भंते ? देवा परलोगस्स आराहगा ?, णो इण, समझें ॥ सू०८॥ यावत् तत्र तेषां स्थिति प्रज्ञप्ता । 'अत्थि गं भंते ! तेसिं देवाणां इड्ढीइ वा जुईइवा जसेइ वा-बलेड वा वीरिएइ वा पुरिसकारपरकमेइ वा ?' अस्ति खलु हे भदन्त ! तेषां देवानामृद्धिरिशि वा, युधिरिति वा, यश इति वा, बलमिति वा, वीर्यमिति वा, पुरुषकारपराक्रम इति वा , ते देवानामृयादयो विद्यन्ते नवेति प्रश्नः, उत्तरमाह-'हंता ! अत्थि' हन्त ! अस्ति-तेषामृद्ध्यायगे वर्तन्ते इति भावः । पुनः-पृच्छति-' तेणं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा?' ते खलु हो भदन्त ! देवाः परलोकस्याऽऽराधकाः परलोकसा. धकाः सन्ति किम् ?, उत्तरमाह-'णी इणद्वे सम8' नाऽयमर्थः समर्थः संगतःइत्युत्तरम् , अयमभिप्रायः-ये हि जीवाः सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकानुष्ठानेन देवा भवन्ति, त एव नियमतयाऽऽन्तर्येण पारम्पर्येण वा निर्वागाकूल भवान्तरं प्राप्नुवन्ति तदन्ये तु भाज्याः ॥ सू० ८॥ है। (अत्थि णं भंते ! तेसिं . देवाणं इड्ढीइ वा जुईइ वा जसेइ वा बलेड वा वीरिएइ वा पुरिसकारपरकमेइ वा ) प्रभो ! वहां उन देवों में परिवार आदि ऋद्धियों, शारीरिक कांति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम ये सब बाते हैं या नहीं, (हंता ! अत्थि) उत्तर-हां हैं। (ते णं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा) है भदंत ! वे देव परलोक के आराधक होते हैं क्या ? उत्तर-(णो इणद्वे समटे ) यह: अर्थ समर्थित नहीं हैं, क्योंकि जो जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र-पूर्वक अनुष्ठान सहस्साई ठिई पण्णत्ता) गौतम ! समो, त्यो तमनी स्थिति इस पर १पनी राय छे. (अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्ढीइ वा जुईइ वा जसेइ वा बलेइ वा वीरिएइ वा पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा) असो ! त्यो त हेवामा परिवार माहि ઋદ્ધિઓ, શારીરિક કાંતિ, યશ, બળ, વીર્ય અને પુરુષકાર–પરાક્રમ આ બધું डाय नडि ? (हंता अत्थि) हा छ. (ते णं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा) हे महत! ते हे। ५२खना २।२।५४ डोय छे ? (णो इणद्वे समटे) A! मथ समर्थित नथी; भरे ७१ सय ४शन सभ्य ज्ञान Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टोका सू. ९ अण्डुबद्धकादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्न ५१३ मलम-से जे इमे गामा-गर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-संबाह-सपिणवेसेसुमणुया भवंति,तंजहा-अंडुबद्धगा णियलबद्धगा हडिब टीका-' से जे इमे' इत्यादि । ‘से जे इमे' अथ य इमे 'गामा-गरणयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-संबाह - सण्णिवेसेसु मणुया भवंति' ग्रामा–ऽऽकर-नगर-निगम-राजधानी-खेड-कर्बट-मडम्ब-- द्रोणमुख-पट्टणाऽऽ-श्रम-संबाध-सन्निवेशेषु मनुजा भवन्ति-ग्रामादयः प्राग व्याख्याताः, तेषु य इमे मनुष्या भवन्ति, 'तंजहा' तद्यथा- 'अंडुबद्धगा' अण्डुबद्धकाः-अण्डूनि अन्दुसे देव होते हैं वे ही जीव आराधक होकर नियम से, आगामी एक ही मनुष्य भव से अथवा परम्परा से सात आठ भव से मुक्ति का लाभ करनेवाले होते हैं, अन्य नहीं। परन्तु जो अकामनिर्जरा करके देवता होते हैं वे सभी निर्वागानुकूल भवान्तर प्राप्त करें ही यह नियम नहीं है । सू० ८ ॥ से जे इमे गामागर' इत्यादि । ( से जे इमे ) जो ये जीव (गामा-गर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेडकब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-संबाह-सण्णिवेसेसु मणुया भवंति ) ग्राम में, आकर में, नगर में, निगम में, राजधानी में, खेडे में, कर्बट में, मडम्ब में, द्रोणमुख में, पट्टण में, आश्रम में, संबाध में, एवं सन्निवेश में मानव की पर्याय से उत्पन्न होते हैं और वे किसी अपराधवश (अंडुबद्धया) लोह एवं काष्ठ के बंधनों से हाथ पैरों को बांधकर તેમજ સમ્યારિત્રપૂર્વક અનુષ્ઠાનથી દેવ થાય છે. તેજ જીવ આરાધક થઈને નિયમથી આગામી એક જ મનુષ્યના ભવથી અથવા પરંપરાથી સાતઆઠ ભવોથી મુક્તિને લાભ મેળવનાર થાય છે. પરંતુ જે અકામનિર્ભર કરીને દેવતા થાય છે તે નિર્વાણ–અનુકૂલ ભવાંતર પ્રાપ્ત કરે જ એ નિયમ नथी. (सू. ८) 'से जे इमे गामागर-' त्याहि. (से जे इमे) 2 24॥ ७१ (गामा-गर-णयर-णिगम-रायहाणि-खेड-कब्बडमडंब-दोणमुह-पट्टणा-सम-संबाह-सण्णिवेसेसु मणुया भवंति) आभमां, मा४२मां, નગરમાં, નિગમમાં, રાજધાનીમાં, ખેડામાં, કર્બટમાં, મડંબમાં, દ્રોણમુખમાં, પાટણમાં, આશ્રમમાં, સંબધમાં, તેમજ સન્નિવેશમાં માનવની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमत्र द्धगाचारगबद्धगाहत्थच्छिण्णगा पायच्छिण्णगा कण्णच्छिण्णगा नकच्छिण्णगा ओच्छिण्णगा जिब्भच्छिण्णगा सीसच्छिण्णगा मुहच्छिण्णगामज्झच्छिण्णगावइकच्छच्छिण्णगाहियउप्पाडियगा कानि काष्ठमयानि लोहमयानि वा हस्तयोः पादयोर्वा बन्धनविशेषाः, तेषु बद्धकाः बद्धा एव बद्धकाः, स्वार्थे कः; 'णिअलबद्धगा' निगडबद्धकाः-निगडाः लौहमया पादयोर्बन्धविशेषाः 'बेडी' इति प्रसिद्धाः तेषु बद्धकाः-निगडबद्धा इत्यर्थः, ‘हडिबद्धगा' हडिबद्धकाः-हडिःखोटकः, तत्र बद्धकाः, 'चारगबद्धगा' चारकबद्धकाः-चारकाः कारागाराणि, तत्र बद्धकाः; 'हत्थच्छिण्णगा' हस्तच्छिन्नकाः-हस्तौ छिन्नौ येषां ते तथा, 'पायच्छि णगा' पादच्छिन्नकाः 'कण्णच्छिण्णगा' कर्णच्छिन्नकाः, 'नक्कच्छिण्णगा' नासिकाछिनकाः, 'ओढच्छिण्णगा' ओष्ठच्छिन्नकाः, 'जिब्भच्छिण्णगा' जिह्वाच्छिन्नकाः, 'सीसच्छिण्णगा' शीर्षच्छिन्नकाः, 'मुहच्छिण्णगा' मुखच्छिन्नकाः, 'मज्झच्छिण्णगा' मध्यच्छिन्नकाः, मध्यः उदरदेशः; 'वइकच्छच्छिण्णगा' वैकक्षच्छिन्नकाः-उत्तरासङ्गाऽऽकारेण विएक स्थान पर रोककर रख दिये जाते हैं, (णिअलबद्धगा ) बेड़ी से जकड़ दिये जाते हैं, ( हडिबद्धगा) काष्ठ के खोड़े में पैर डलबाकर रोक दिये जाते हैं, (चारगबद्धगा) जेलखाने में बंद कर दिये जाते हैं, ( हत्थच्छिण्णगा) तथा उनके दोनों हाथ काट दिये जाते हैं, (पायच्छिण्णगा) दोनों पैर छिन्नभिन्न कर दिये जाते हैं, ( कण्णच्छिण्णगा) कान छेद दिये जाते हैं, ( नक्कच्छिण्णगा) नाक छेद दी जाती है, (ओडच्छिण्णगा) ओष्ठ छेद दिये जाते हैं, (जिब्भच्छिण्णगा) जिह्वा छेद दी जाती है, (सीसच्छिण्णगा) शिर छेद दिया जाता है, (मुहच्छिण्णगा) मुख छेद दिया जाता है, (मज्झच्छिण्णगा) थाय छ भने तसा अपराध (अंडुबद्धगा) सोढाना तम०४ १४ाना मधनाथी डाय-५गने मांधान में स्थान ५२ २।४ी २४ाय छ, (णिअलबद्धगा) माथी १४ी हेवाय छ, (हडिबद्धगा) १४ाना सोडा (५४)मा ५॥ नापीने शठी २माय छे. (चारगबद्धगा) समानामा परी हेवामां आवे छ, (हत्थच्छिण्णगा) तथा तमना मन्ने हाथ पी नinाम मा छ, (पायच्छिण्णगा) भन्ने ५॥ छिन्न भिन्न ४२ नमामा आवे छे, (कण्णच्छिण्णगा) ४ान छही नामपामा आवे छे. (नक्कच्छिण्णगा) न छही नसाय छ, (ओदृच्छिण्णगा) 88 छही नपाय छे. (जिब्भच्छिण्णगा) से छही नपाय छे. (सीसच्छिण्णगा) शि२ छही नमाय छ. (मुहच्छिण्णगा) भुभ छी नसाय . (मज्झच्छिण्णगा) Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी- टीका सू. ९ अण्डुबद्ध कादोनामुपपातविषये गौतमप्रश्न. ५१५ णयणुप्पाडियगा दसणुप्पाडियगा वसणुप्पाडियगागेवच्छिण्णगा तंडुलच्छिण्णगा कागणिमंसक्खावियगा ओलंबियगा लंबियगा दारिताः, 'हियउप्पाडियगा' हृदयोत्पाटितकाः-उत्पाटितहृदया इत्यर्थः, ‘णयणुप्पाडियगा' नयनोत्पाटितकाः-उत्पाटितनयनाः पृथक्कृतनेत्राः, 'दसणुप्पाडियगा' दशनोत्पाटितकाः-उत्पाटितदशनाः पृथक् कृतदन्ताः, 'वसणुप्पाडियगा' वृषणोत्पाटितकाः-पृथक्कृताण्डकाशाः, 'गेवच्छिण्णगा' ग्रीवाच्छिन्नकाः छिन्नग्रीवाप्रदेशाः, 'तंडुलच्छिण्णगा' तण्डुलच्छिन्नकाः-तण्डुलवत् कणशश्छिन्नाः, 'कागणिमंसक्खावियगा' काकणीमांसखादितकाः-काकणीमांसानि देहोत्कृत्तमांसखण्डानि खादितानि येषां ते तथा, 'ओलंबियगा' अवलम्बितकाः रज्ज्वा बद्ध्वा कूपादौ पातिताः, 'लंबियगा' लम्बितकाः तरुशाखादौ बद्ध्वा लम्बिताः, 'घंसियगा' घर्षितकाः चन्दनवत् पाषाणादौ घृष्टाः, 'घोलिमध्यभाग-पेट का भाग छेद दिया जाता है, (वइकच्छच्छिण्णगा) बायें कन्धे से लेकर दाहिने काँख के नीचे के भाग सहित मस्तक छेद दिया जाता है, (हियउप्पाडियगा) हृदय फाड़ दिया जाता है, (णयणुप्पाडियगा) दोनों आंखें फोड़ दी जाती हैं, (दसणुपाडियगा) अंडकोष निकाल लिये जाते हैं, (गेवच्छिण्णगा) गर्दन तोड़-मरोड़ दी जाती है, (तंडुलच्छिण्णगा) तन्दुल की तरह कण२ करके उनके शरीर के खंड २ कर दिये जाते हैं, (कागणि-मंस-क्खावियगा) उनकी देह से मांस काट २ कर कौओं को खिला दिया जाता है, (ओलंबियगा ) रस्सी से बांधकर कुए में डाल दिये जाते हैं, (लंबियगा) वृक्ष की शाखा आदि पर बांधकर लटका दिये जाते हैं, (घंसियगा) चंदन की तरह पत्थर आदि पर घिसे जाते हैं, (घोलियगा) भाण्ड में स्थित दही की भध्यमा-पटने मारा छही नसाय छे. (वइकच्छच्छिण्णगा) मी ४iuथी सधने सभी पासना नीयन। म सडित भरत छेदी नसाय छे. (हियउप्पाडियगा) हय नपाय छ. (णयणुप्पाडियगा) मन्ने मांडी वाय छे. (दसणुप्पाडियगा) हात पाडी नपाय छे. (वसणुप्पाडियगा) मष ४ढी नमाय छे. (गेवच्छिण्णगा) नाडी-भ२ नमाय छ. (तंडुलच्छिण्णगा) तन्दुલની પેઠે કણકણ કરીને તેના શરીરના કટકે-કટકા કરી નાખવામાં આવે છે. (कागणि-मंस-खावियगा) तेना समांथी भांस पी पीने ४ामने भqशपाय छे. (ओलंबियगा) हो२iथी मांधान पाम नाभी वाय छे. (लंबियगा) उनी जीमे मांधान aanwi यावे छे. (घंसियगा) यहननी पेठ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र घंसियगा घोलियगा फालियगा पीलियगा सूलाइयगा सूलभिण्णगा खारवत्तिया वज्झवत्तिया सीहपुच्छियगा दवग्गिदड्ढगा पंकोसण्णगा पंके खुत्तगा वलयमयगा वसट्टमयगा णियाणमयगा' घोलितकाः भाण्डस्थितदधिवदूर्ध्वाऽधःक्रमेणाऽऽघूर्णिताः, 'फालियगा' स्फाटिताःशुष्ककाष्ठवत्कुठारेण द्विधा कृताः, 'पीलियगा' पीडितकाः-यन्त्रक्षिप्तेक्षुयष्टिवत् पीडिताः, 'मूलाइयगा' शूलाचितकाः शूले समारोपिताः, ‘सूलभिण्णगा' शूलभिन्नकाः शूलेन विदारिताः, 'खारवत्तिया' क्षारवर्तिताः क्षारे क्षिप्ताः, · वज्झवत्तिया' वध्यवर्तिताः= वध्यस्थाने पातिताः, 'सीहपुच्छियगा' सिंहपुच्छितकाः-छिन्नजननेन्द्रियकाः, यद्वा-सिंहपुच्छे बद्ध्वा समाकृष्टाः ‘दवग्गिदड्ढगा' दावाग्निदग्धकाः-दावाग्निना-वनाग्निना दग्धाः, 'पंकोसण्णगा' पङ्काऽवसन्नकाः सर्वथा पङ्के निमग्नाः, 'पंके खुत्तगा' पङ्के निमग्नाः= उत्तरीतुमसमर्थाः, 'वलयमयगा' वलन्मृतकाः-संयमयोगाद् भ्रष्टानां परीषहाद्यसहनतया तरह ऊँचे नीचे करके मथ दिये जाते हैं, अथवा घुमाये जाते हैं, (फालियगा) शुष्ककाष्ठ की तरह दो टुकडों के रूप में कर दिये जाते हैं, (पीलियगा) कोल्हू में क्षिप्त इक्षु की तरह पोल दिये हैं, (मूलाइयगा) शूली पर चढा दिये जाते हैं, (मूलाभिण्णगा) शूल से विदारित कर दिये जाते हैं, (खारवत्तिया) क्षार में पटक दिये जाते हैं, ( वज्झवत्तिया ) वध्यस्थान में रख दिये जाते हैं, (सीहपुच्छियगा) उनका लिङ्ग काट दिया जाता है, अथवा वे सिंह की पूँछ में बाँधकर घसीटे जाते हैं, (दवग्गिदड्ढगा) दावाग्नि द्वारा दग्ध कर दिये जाते हैं, (पंकोसण्णगा) कीचड़ में बिलकुल धसा दिये जाते हैं, (पंके खुत्तगा) कीचड़ में इस प्रकार खड़े कर दिये जाते हैं कि जिससे फिर पत्थ२ ५२ घसी नासामा मावे छे. (घोलियगा) वासभा रामेसा हीनी પેઠે ઉંચ-નીચે કરી મથન કરવામાં આવે છે, અથવા ઘુમાવવામાં આવે છે. (फालियगा) सुदi aixsiनी पेठे ये ९४ाना ३५मा ४ नापामा सावे छे. (पीलियगा) सूमां नामामा माती शे२डीनी पेठे पानी नपाय छे. (सूलाइयगा) शमी ५२ यावी हेवाय छे. (सूलाभिण्णगा) शूरथी डी नामपामा मावे छे. (खारवत्तिया) क्षारमा नामी वाय छे. (वज्झवत्तिया) १५. स्थानमा २माय छे. (सीहपुच्छ्यिगा) लिपी नसाय छ, अथवा-सिनी पुछडीमा मांधाने घसे डाय छे. (दवग्गिदडगा) दावाग्नि द्वारा माजी नमाय छ. (पंकोसण्णगा) ४६१मां नमी वाय छ तेथी त्यां भरी जय छ, (पंके खुत्तगा) Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूवषिणो-टोका स. ९ अण्डुबद्ध कादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्नः ५१७ यगा अंतोसल्लमयगा गिरिपडियगा तरुपडियगा गिरिपक्खंदोमरणं-वलन्मरणं तद्वन्तो वलन्मृतकाः, यद्वा-बुभुक्षादिना आर्ता भूत्वा मृतास्ते वलन्मृतकाः, 'वसद्वमयगा' वशार्तमृतकाः-इन्द्रियविषयवशगता आर्ताः सन्तः शब्दादिवशवर्तिमृगादिवन्मृता इत्यर्थः, ‘णियाणमयगा' निदानमृतकाः-ऋद्धिभोगादिप्रार्थना निदानं, तत्पूर्वकं मरणं निदानमरणम् , तद्वन्त इत्यर्थः, 'अंतोसल्लमयगा' अन्तःशल्यमृतकाः-अन्तःशल्याः अनुद्भुतभावशल्या अन्तःस्थितभल्लादिशल्या वा मृताः, 'गिरिपडियगा' गिरिपतितकाः-गिरेः पर्वतात्पतिताः, 'तरुपडियगा' तरुपतितकाः-वृक्षात्पतिताः, 'मरुपडियगा' मरुपतितकाः-मरौ=निर्जले देशे पतिताः, 'गिरिपक्वंदोलगा' गिरिपक्षान्दोलकाः-गिरिपक्षे पर्वतपार्श्वे आत्मानमान्दोलयन्ति ये ते तथा, गिरिपरिसरान्मरणायैव दत्तझम्पा वे वहां से पार नहीं आ सकें, ( वलयमयगा) परीषह आदि को सहन करने में असमर्थ होने की वजह से गृहीत संयम से जो भ्रष्ट होना इसका नाम वलन्मरण है, अथवा दुःखित होकर जो मरना है उसका नाम भी वलन्मरण है, इस मरण से जो युक्त हों वे वलन्मृतक हैं, ऐसे जो वलन्मृतक हैं, ( वसट्ठमयगा) शब्दादिक के वशवर्ती मृग की तरह जो इन्द्रियों के विषयों में फँसकर दुरवस्था से प्राणों का त्याग करते हैं, (णियाणमयगा) जो इन्द्रियभोगादिकों की चाहनारूप निदान से मरण करते हैं, (अंतोसल्लमयगा) हृदय में शल्य धारण कर जो मरण करते हैं, अथवा भल्लादिक शस्त्रों से विदारित होकर जो मरण करते हैं, (गिरिपडियगा) पहाड़ से गिरकर जो मरण करते हैं, (तरुपडियगा) पेड़ से गिरकर जो मरण करते हैं, (मरुपडियगा) जो मरुस्थल में पड़ कर मर जाते हैं, (गिरिपक्खंदोलगा) पर्वत से जो झंपापात कर के मर जाते हैं, (तरुपक्खंदोलगा) वृक्षों से ગારામાં એવી રીતે ઉભા કરી દેવાય છે કે જેથી પાછા તે ત્યાંથી નીકળી શકે नहि. (वलयमयगा) परिषड माहिना सहन ४२वामा असमर्थ पाथी दीघेता સંયમથી ભ્રષ્ટ થવું તેનું નામ સ્મરણ છે. આ મરણથી જે યુક્ત હોય અથવા દુઃખી થઈને જે મરણ થાય તેવા મરણથી જે યુક્ત હોય તે વલ—त४ छ, (वसट्टमयगा) २०४ महिने ११ २७ भृगनी पेठे २ द्रियाना विषयमा इसाई ४६ प्राणन त्या ४२ छ, (णियाणमयगा) २ दिया। माहिनी याहुना ३५ निहानथी भरण पामे छ, (अंतोसल्लमयगा) इयमां શલ્ય ધારણ કરીને ( છરી મારીને ) જે મરણ પામે છે, અથવા माखi विशेरे शस्त्रोथी 2 भ२९५ पामे छ, (गिरिपडियगा) ५६ ७५२था ५डीने २ भ२९५ पामे छ, (तरुपडियगा) 3थी ५डी रे भ२५ पामे छे, (मरुप डियगा) हे मरुस्थलमा ५डीने भरी जय छ, (गिरिपक्खंदोलगा) पर्वत ५२थी Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे लगा तरुपक्खंदोलगा मरुपाखंदोलगा जलपवेसी (जलणपवे. सिगा) विसभक्खियगा सत्थोवाडियगा वेहाणसिया गेद्धपट्ठगा कतारमयगा दुब्भिक्खमयगा असंकिलिट्ठपरिणामा ते कालमासे मृताश्च तथाभिधीयन्ते; 'तरुपक्वंदोलगा' तरुपक्षान्दोलकाः=तरुपक्षाज्झम्पादानेन मृताः. 'मरुपक्खंदोलगा' मरुपक्षान्दोलकाः-मरुपक्षे–मरुभूमौ आत्मानमान्दोलयन्ति ये ते तथा, मरुभूमौ मृता इत्यर्थः, 'जलपवेसी' जलप्रवेशिनः-जले निमज्ज्य मृता इत्यर्थः. 'जलणपवेसिगा' ज्वलनप्रवेशिकाः-अग्नौ मृता इत्यर्थः, 'विसभक्खियगा' विषभक्षितकाःविषभक्षणेन मृता इत्यर्थः, 'सत्थोवाडियगा' शस्त्रोत्पाटितकाः-शस्त्रेण क्षुरिकादिना विदारिताः सन्तो मृताः, 'वेहाणसिया' वैहायसिकाः-वृक्षशाखादावुद्धत्वाद् विहायसि= आकाशे यन्मरणं भवति तद्वेहायसं, तदस्ति येषां ते वैहायसिकाः, 'गेद्धपट्ठगा' गृध्रस्पृष्टकाः-गृधैः पक्षिविशेषैः स्पृष्टस्य=विदारितस्य करिकरभरासभादिमृतकलेवरस्याभ्यन्तरे गत्वा ये मृतास्ते गृध्रस्पृष्टकाः, 'कतारमयगा' कान्तारमृतकाः अरण्ये मृताः, 'दुभिक्खमयगा' दुर्भिक्षमृतकाः-दुर्भिक्षे मृता इत्यर्थः, 'असंकिलिट्ठपरिणामा' असंक्लिष्टपरिणामाः, झंपापात कर के मर जाते हैं, ( मरुपक्खंदोलगा ) मरुस्थल में मार्ग भूलकर जो उसी में मर जाते हैं, (जलपवेसी ) जल में डूब कर जो मर जाते हैं, ( जलणपवेसिगा) अग्नि से जलकर जो मर जाते हैं, (विसभक्वियगा) विष खाकर जो मर जाते हैं, ( सत्थोवाडियगा) शस्त्रों से आहत होकर जो मर जाते हैं, (वेहाणसिया) वृक्षों पर लटक कर जो मर जाते हैं, (गेद्धपढगा) गृद्धों द्वारा विदारित ऐसे करि-हाथी एवं करभ-ऊँट आदि के कलेवर में प्रविष्ट होकर जो मरते हैं, (कंतारमयगा) जो जंगल में ही मर जाते हैं, (दुभिक्खमयगा) दुर्भिक्ष से पीडित होकर जो मौत के घाट उतर जाते हैं, ( असं पापात ४शने (टीन) भ२५५ पामे छ, (तरुपक्खंदोलगा) वृक्ष ५२थी पायात ४शन रे भ२९ पामे छ, (मरुपक्खंदोलगा) भस्थसभा २स्तो भूतीने तभी से भरी तय छे, (जलपवेसी) समां मीने २ भ२९५ पामे छे, (जलणपवे. सिगा) मनिथी जीने २ भरी जय छ, (विसभक्खियगा) २ पाईने २ भ२ पामे छे, (सत्थोवाडियगा) शस्त्रोना धातथी २ भरी तय छ, (वेहाणसिया) वृक्ष। ५२ टीन रे भ२७ पामे छे, (गेद्धपढगा) गीघोा । विद्यारित હાથી તેમજ કરભ-ઉંટ આદિના શરીરમાં પ્રવિષ્ટ થઈને જે મરણ પામે છે, (कंतारमयगा) २ सभा / भरण पामे छे, (दुभिक्खमयगा) निक्षथी पाईने Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका. स. ९ अण्डुबद्धकादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्नः ५१९ कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई, तहिं तेर्सि उववाए पण्णत्ते। तेसिंणंभंते ! देवाणं केवइयंकालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! संक्लिष्टपरिणामा महातरौद्रध्यानाऽऽवेशेन देवत्वं न लभन्ते, अतः असंक्लिष्टपरिणामा इति विशिष्य प्रदर्शिताः, ते कालमासे कालं कृत्वा, 'अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएम देवताए उववत्तारो भवंति' अन्यतमेषु व्यन्तरेषु देवलोकेषु देवत्वेनोपपत्तारो भवन्ति, 'तर्हि तेसिं गई। तत्र तेषां गतिः, 'तहि तेसिं ठिई' तत्र तेषां स्थितिः, 'तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते' तत्र तेषामुपपातः प्रज्ञप्तः । ' तेसिं णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?' तेषां खलु भदन्त ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ?, ' गोयमा ! बारकिलिटुपरिणामा) और जिनके परिणाम संक्लिष्ट नहीं होते हैं, ऐसे जीव (अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएमु देवत्ताए उववत्तारो भवंति ) किसी एक व्यन्तर देव की पर्याय से उत्पन्न होते हैं । (तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई, तहिं तेर्सि उववाए पण्णत्ते) वहीं पर उनकी गति, वहीं पर उनकी स्थिति एवं वहीं पर उनका उपपात कहा गया है, ( तेसिं णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ) हे भदंत ! वहां उन जीवों की (१) संक्लिष्टपरिणामों के सद्भाव में जीवों को देवगति का बंध नहीं होता है। महा आर्तरौद्रध्यान के परिणाम संक्लिष्ट परिणाम हैं, असंक्लिष्ट परिणाम ही देवगति की प्राप्ति में कारण है, इस बात को प्रदर्शित करने के लिये "असंकिलिट्ठपरिणाम" इस पद का प्रयोग किया है। २ भीतने छ, '(असंकिलिट्ठपरिणामा) मने रेनु परियाभ-मत सोट न थाय । ०१ (अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) ! से व्यत२ पक्षोभ व्यत२-३वनी पर्यायथी उत्पन्न थाय छे. (तहिं तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते) त्यांतभनी गति, त्यां तभनी स्थिति, तेमा त्यो तमना Sund वामां आव्यो छे. (तेसिं गं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता) ९ मत ! त्यांते ७वानी स्थिति साजन तापी (૧) સંકિલષ્ટ પરિણામના સદભાવમાં જીવોને દેવગતિને બંધ થસે નથી. મહા–આરૌદ્રધ્યાનનાં પરિણામ સંકિલષ્ટ પરિણામ છે. અસંકિલષ્ટ પરિણામ પણ દેવગતિની પ્રાપ્તિમાં કારણભૂત છે. એ વાત પ્રદર્શિત કરવા "असंकिलिट्ठपरिणाम" से पहनो प्रयास ४यो छ. Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० औपपातिकसूत्रे बारसवाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता । अस्थि णं भंते ! तेर्सि देवाणं इड्ढीइ वा, जुईइ वा, जसेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसकारपरकमेइ वा ?, हंता ! अत्थि। ते णं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा ?, णो इणढे समहे ॥ सू०९॥ सवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता' गौतम ! द्वादशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ताः । 'अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्ढीइ वा जुईइ वाजसेइ वा बलेइ वा वीरिएइ वा पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा ?' अस्ति खलु भदन्त ! तेषां देवानामृद्धिरिति वा तिरिति वा यश इति वा बलमिति वा वीर्यमिति वा पुरुषकारपराक्रम इति वा ? इति प्रश्ने भगवानुत्तरं वक्ति"हंता ! अत्थि' हन्त ! अस्ति, ' ते णं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा ?' ते खलु भदन्त ! देवाः परलोकस्याऽऽराधकाः भवन्ति किम् ? ' णो इणढे समढे' नाऽयमर्थः समर्थः ॥ सू० ९॥ स्थिति कितने काल की बतलाई गई है ?, (गोयमा ! बारसवाससहम्साइं ठिई पण्णत्ता) गौतम ! उन जीवों की वहां स्थिति बारह हजार वर्ष की बतलाई गई है। (अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्ढीइ वा जुईइ वा जसेइ वा बलेइ वा वीरिएइ वा पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा ) हे भदंत ! वहां उन देवों में ऋद्धि, द्युति, कीर्ति, बल, वीर्य एवं पुरुषकारपराक्रम है या नहीं ? (हंता अत्थि) हां है। (ते णं भंते देवा ! परलोगस्स आराहगा) हे भदंत ! वे देव परलोक के आराधक होते हैं क्या ? (णो इणटे समढे) हे गौतम ! वे आराधक नहीं होते हैं। भावार्थ-जो जीव ग्राम आदि में उत्पन्न होकर पूर्वोक्तरूप से प्रदर्शित विषमछ ? (गोयमा ! बारसबाससहस्साई ठिई पण्णत्ता) गौतम !ते वानी त्यो स्थिति मार न२ १२सनी मावी छे. (अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इड्ढीइ वा जुईइ वा जसेइ वा बलेइ वा वीरिएइ वा पुरिसक्कार-परक्कमेइ वा) हे महत! त्यो તે દેવોમાં ઋદ્ધિ, ઘુતિ, કીતિ, બળ, વીર્ય, તેમજ પુરુષકાર–પરાક્રમ છે કે नडि ? (हंता अत्थि) । छे. (ते णं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा) हे महत! मा व परसाना माराध डाय छे शुं ? ( णो इणढे समढे) हे गौतम ! આરાધક નથી હોતા. ભાવાર્થ–જે જીવ ગામ આદિમાં ઉત્પન્ન થઈને પૂર્વોક્ત રૂપે બતાવેલી Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सु. १० प्रकृतिभद्रकादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्नः ५२१ मूलम्-से जे इमे गामागर जाव संनिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा- पगइभद्दगा पगइउवसंता पगइ-पतणु-कोह-माण टीका—'से जे इमे' इत्यादि । ‘से जे इमे' अथ य इमे वक्ष्यमाणा 'गामागर जाव संनिवेसेसु मणुया भवंति' ग्रामाकर यावत्संनिवेशेषु मनुजा भवन्ति-प्रामे आकरे नगरे निगमे यावत् सन्निवेशे मनुष्या भवन्ति, तान् वर्णयति-'तं जहा' तद्यथा 'पगइभदगा' प्रकृतिभद्रकाः-प्रकृत्या स्वभावेन भद्रकाः परोपकारपरायणाः, 'पगइउवसंता' प्रकृत्युपशान्ताः क्रोधोदयाऽभावादुपशान्तिमुपगताः, 'पगइ-पतणु-कोह-माण-माया-लोहा' प्रकृति-प्रतनु-क्रोध-मान-माया-लोभाः-सत्यपि कषायोदये प्रकृत्या प्रतनुक्रोधादिभावाः, 'मिउ-मद्दव-संपण्णा' मृदु-मार्दव-सम्पन्नाः-मृदु यन्मार्दवं तत् सम्पन्नाः प्राप्ताः, अत्य स्थिति को अकामनिर्जरा के बल से भोगते हैं वे जीव मरकर व्यन्तर पर्याय से उत्पन्न होते हैं । वहां पर उनकी स्थिति १२ हजार वर्ष की होती है, द्युति ऋद्धि आदि समस्त देवोचित गुणों से ये संपन्न रहते हैं। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं । सू. ९ ॥ ___ 'से जे इमे गामागर जाव' इत्यादि । (से जे इमे) जो जीव (गामागर जाव संनिवेसेसु) पूर्वोक्त ग्राम, आकर से लेकर सन्निवेश आदि स्थानों में (मणुया भवंति) मनुष्य होते हैं और उनमें जो (पगइभदगा पगइउवसंता पगइ-पतणु-कोह-माण-माया-लोहा ) प्रकृति से भद्रक होते हैं, क्रोधादिक कषायों के उदय के अभाव से जिनके परिणाम शांतियुक्त बने रहते हैं, स्वभाव से ही जिनकी क्रोध, मान, माया एवं लोभ ये चार कषायें पतली रहा करती हैं, વિષમ સ્થિતિને અકામનિર્જરાના બલથી ભોગવે છે તે જીવ મરી જઈને વ્યંતર–પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાં તેમની સ્થિતિ ૧૨ બાર હજાર વર્ષની હોય છે. દુતિ, ઋદ્ધિ આદિ સમસ્ત દેવોચિત ગુણેથી તેઓ સંપન્ન રહે छ. तेथे ५२४ना सारा डा नथी. (सू. ) “से जे इमे गामागर जाव" ऽत्याहि. (से जे इमे) २ १ (गामागर-जाव-संनिवेसेसु) पूर्व ४३ ॥म, मा४२थी ने सन्निवेश माहि स्थानमा (मणुया भवंति) मनुष्य थाय छे. सन तभा २ (पगइभहगा पगइउवसंता पगइ-पतणु-कोह-माण-माया-लोहा) પ્રકૃતિથી ભદ્રક હોય છે, ક્રોધ આદિક કષાયોના ઉદયના અભાવથી જેના ફલરૂપે શાંતિયુક્ત રહ્યા કરે છે, સ્વભાવથી જ જેના ક્રોધ, માન, માયા Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ औपपातिकसूत्रे माया-लोहा मिउ-मदव-संपण्णा अल्लीणा विणीया अम्मापिउ-सुस्मृसगा अम्मापिईणं अणइक्कमणिजवयणा अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं थमहंकारजयशीला इत्यर्थः; 'अल्लीणा' आलीनाः गुरुमाश्रित्य वर्तनशोलाः, “विणीया' विनीताः विनयवन्तः, 'अम्मा-पिउ-मुस्सूसगा' अम्बा-पितृ-शुश्रूषकाः मातापित्रोः सेवकाः, 'अम्मापिईणं अणइक्कमणिज्जवयणा' अम्बापित्रोरनतिक्रमणीयवचनाः मातापित्रोनीतिवचनपरायणाः, 'अप्पिच्छा' अल्पेच्छाः=अल्पाभिलाषवन्तः, 'अप्पारंभा' अल्पारम्भाःअल्पः स्वल्पः, आरम्भः पृथिव्याधुपमर्दनरूपो येषां नेऽल्पारम्भाः, 'अप्पपरिग्गहा' अल्पपारग्रहाः-अल्पः परिग्रहो धनधान्यादिरूपो येषां ते तथा; एतदेव वाक्यान्तरेणाऽऽह-'अप्पेणं आरंभेण अप्पेणं समारंभेण' अल्पनारम्भेण अल्पेन समारम्भेण-इहाऽरम्भः=प्रागिनामुपघातः, (मिउ-मद्दव-संपण्णा) मृदुमार्दव से जिनकी आत्मा अत्यंत वासित होती है, अहंकार का सर्वथा जिनमें अभाव रहा करता है, (अल्लीणा) गुरु की आज्ञानुसार जो अपनी प्रकृति को सुचारु बनाये रहा करते हैं, (विणीया) जो प्रकृति से ही अत्यंत विनीत होते हैं, (अम्मा-पिउ-सुस्सूसगा) मातापिता के जो सेवा करते हैं, (अम्मा-पिईणं अगइक्कमणिजवयणा) मातापिता के वचनों के अनुसार जो चलते हैं, (अप्पिच्छा) जिनकी इच्छाएँ-आवश्यकताएँ बहुत थोड़ी होती हैं, (अप्पारंभा) आरंभ जिनका अल्प होता है, (अप्पपरिग्गहा) धनधान्यादिरूप परिग्रह जिनका अल्प होता है, (अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा) एवं जो अल्प आरंभ से, अल्प समारम्भ से और अल्प आरंभ-समारंभ से आजीविका चलाया करते तभी साल से यार ४षाय नम २। ४२ छ. (मिउ-मद्दव-संपण्णा) भृदुમાર્દવથી જેમને આત્મા અત્યંત વાસિત (પ્રફુલ) હોય છે, અહંકારને समनामा सर्वथा समाव २॥ ४२ छ. (अल्लीणा) गुरुनी माज्ञा-मनुसार २ पोतानी प्रकृतिने सुंदर मनाच्या ४२ छ, (विणीया) २ प्रकृतिथी / सत्यत विनीत य छ, (अम्मा-पिउ-सुस्सूसगा) माता-पितानी सेवा ४२ छ, (अम्मापिईणं अणइक्कमणिज्जवयणा) मातापितानi क्यने। अनुसार रे या छ (पते छे), (अप्पिच्छा) नी छायो-यावश्यतामा म ४ थोडी डाय छ, (अप्पारंभा) मा ना २०६५ सय छ, (अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा) तभ०४ २ २०८५ २२ मथी, Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौयूषवर्षिणी- टीका स. १० प्रकृतिभत्रकादीनामुपपातविषय गौतमप्रश्नः ५२३ अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा बहूई वासाइं आउयं पालेति, पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु, तंचेव सव्वं, णवरं ठिई चउद्दसवाससहस्साइं ॥ सू० १० ॥ समारम्भस्तु तेषां परितापकरणम् ' अप्पेणं आरंभसमारंभेणं' अल्पेन आरम्भसमारम्भेणआरम्भश्च समारम्भश्चेति-आरम्भसमारम्भं तेन, अल्पेनारम्भेण अल्पेन समारम्भेण चेत्यर्थः, 'वित्तिं कप्पेमाणा' वृत्ति कल्पयन्तः जीविका कुर्वाणाः, 'बहूई वासाई आउयं पालेति' बहूनि वर्षाणि आयूंषि जीवितानि पालयन्ति, 'पालित्ता' पालयित्वा, 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'अण्णयरेसु वाणमंतरेसु' अन्यतरेषु व्यन्तरेषु, अतोऽग्रे 'तं चेव सव्वं तदेव-पूर्ववदेव सर्वं वर्णनं ज्ञेयम् । 'णवरं' नवरं-विशेषस्तु-ठिई चउद्दस-वास-सहस्साई' स्थितिश्चतुर्दशवर्षसहस्राणि-चतुर्दशवर्षसहस्राणि यावत् स्थितिः प्रज्ञप्ता ॥ सू० १०॥ हैं, ऐसे जीव (बहूई वासाइं आउयं पालेंति) बहुत वर्षांतक जीवित रहा करते हैं, (पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएम देवत्ताए उववत्तारो भवंति ) पश्चात् काल अवसर काल करके किसी एक व्यन्तरों के देवलोक में देवतारूप से उत्पन्न होते हैं। (तं चेव सव्वं) यहां पूर्ववणित प्रकार के अनुसार स्थिति आदि सब कुछ समझ लेना चाहिये। (णवरं) विशेषता सिर्फ इतनी ही है कि वहां पर उनकी स्थिति १२ हजार वर्ष की प्रतिपादित की गई है, और यहां पर उनकी (ठिई चउद्दसवाससहस्साई) १४ हजार वर्ष की स्थिति जाननी चाहिये ॥ सू० १०॥ અ૫ સમારંભથી અને અલ્પ આરંભ–સમારંભથી પિતાની આજીવિકા ચલાવ્યા अरे छ. मेवा ०१ (बहूहं वासाइं आउयं पालेंति) धरा परसो सुधी पता २॥ ४२ छे. (पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) ५छी त मसरे ४४ ४रीने व्यतरोना भi देवता३ये उत्पन्न थाय छे. (तं चेव सव्वं) सही અગાઉ વર્ણન કરેલા પ્રકાર અનુસાર સ્થિતિ આદિ બધું સમજી લેવું नये. (णवरं) विशेषता मात्र मेटली ४ छ , त्यो तमनी स्थिति १२ मा२ १२ १२सनी प्रतिपाहित ४२सी छ, मन मी तमनी (चउद्दस-वाससहस्साई) १४ यो १२ १२सनी स्थिति सभापी नये, (सू० १०) Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ ओपपातिकसूत्र मूलम्—से जाओ इमाओ गामागर जाव संनिवेसेसु इत्थियाओ भवंति, तं जहा-अंतो अंतेउरियाओ गयपइयाओ मयपइयाओ बालविहवाओ छड्डियल्लियाओ माइरक्खियाओ ____टीका-'से जाओ इमाओ' इत्यादि । ‘से जाओ इमाओ' अथ या इमाः ईटश्यः 'गामागर जाव संनिवेसेसु इत्थियाओ भवंति' ग्रामाऽऽकर यावत् संनिवेशेषु स्त्रियो भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'अंतो अंतेउरियाओ' अन्तरन्तःपुरिकाः अन्तःपुरान्तर्वतिन्यः, 'गयपइयाओ' गतपतिकाः-गताः क्वापि प्रोषिताः पतयो यासां तास्तथा, 'मयपइयाओ' मृतपतिकाः-मृताः पतयो यासां तास्तथा, विधवा इत्यर्थः, 'बालविहवाओ' बालविधवाःबालाश्चामू: विधवाः-बाल्ये वैधव्यं गताः, 'छड्डियल्लियाओं' छर्दिताः पत्यादिभिः परित्यक्ताः, 'माइरक्खियाओ' मातृरक्षिताः अपररक्षकाभावाज्जनन्या रक्षिताः, मातृकृतरक्षया शीलरक्षणकारिका इत्यर्थः, एवमग्रेऽपि बोध्यम् ; 'पियरक्खियाओ' पितृरक्षिताः, 'भायरक्खियाओ' 'से जाओ इमाओ' इत्यादि । (से जाओ इमाओ) जो ये जीव (गामागर जाव संनिवेसेसु) ग्राम आकर आदि से लेकर संनिवेशतक के स्थानों में स्त्रीपर्याय से उत्पन्न होते हैं, जैसे कि उनमें कितनीक स्त्रियां तो (अंतो अंतेउरियाओ) राजा के अंतःपुर की रानियां होती हैं, कितनीक (गयपइयाओ) प्रोषितभर्तृका होती हैं, जिनके पति प्रवासी अर्थात् परदेश गये हों उनको प्रोषितभर्तृका कहते हैं, कितनीक (मयपइयाओ) विधवा होती हैं, (बालविहवाओ) बालविधवा होती हैं, (छड्डियल्लियाओ) कितनीक पतिद्वारा परित्यक्त होती हैं, कितनीक (माइरक्खियाओ) मातृरक्षिता होती हैं, (पियरक्खियाओ) कितनीक पिता से सुरक्षित होती ' से जाओ इमाओ' त्याह. ( से जाओ इमाओ) मा १ (गामागर जाव संनिवेसेसु) म આકર આદિથી લઈને સંનિવેશ સુધીના સ્થાનોમાં સ્ત્રીપર્યાયથી ઉત્પન્ન थाय छ; भतेसामा 2ी सीमा त (अंतो अंतेउरियाओ) सना मत:५२नी २५ डाय छ, टमी (गयपइयाओ) प्राषितमत। डाय छे, (જેના પતિ પ્રવાસી અર્થાત્ પરદેશ ગયા હોય તેમને પ્રોષિતભર્તૃકા કહે छे), 32ी (मयपइयाओ) विधा डाय छे, टी४ (वालविहवाओ) मास-विधवा य छ, (छड्डियल्लियाओ) eels पतिता। परित्य४॥ य छ, दक्षी (माइरक्खियाओ) भातृशक्षिता राय छ, (पियरक्खियाओ) हैट Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषयषिणी-टीका सू. ११ अन्तःपुरिकादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्न: ५२५ पियरक्खियाओ भायरक्खियाओ पइरक्खियाओ कुलघररक्वियाओ ससुरकुलरक्खियाओ परूढ-णह-केस-कक्खरोमाओ ववगय-धूव-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकाराओ अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्लभ्रातृरक्षिताः, 'पइरक्खियाओ' पतिरक्षिताः, 'कुलघररक्खियाओ' कुलगृहरक्षिताः-कुलगृहे=पितृगृहे रक्षिताः-पितृवंशोद्भवैःपालिता इत्यर्थः, 'ससुरकुलरक्खियाओ' श्वशुरकुलरक्षिताः, 'परूढ-णह-केस-कक्खरोमाओ' प्ररूढ-नख-केश-कक्षरोमाणः-प्ररूढानि= संजातानि नखकेशकक्षरोमाणि यासांतास्तथा, 'ववगय-धृव-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकाराओ' व्यपगत-धूप-पुष्प-गन्ध – माल्याs - लङ्काराः-व्यपगताः त्यक्ताः धूपपुष्पगन्धमाल्यानामलकारा याभिस्तास्तथा, 'अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्ल-पंक-परितावियाओ' अस्नानकहुई अपने शील की रक्षा करती रहती हैं, (भायरक्खियाओ) कितनीक अपने भाइयों से सुरक्षित रहा करती हैं, (पइरक्खियाओ) कितनीक अपने २ पतिद्वारा सुरक्षित रहा करती हैं, (कुलघररक्खियाओ) कितनीक कुलगृह में पिता के वंशजों द्वारा पाली-पोषी जाकर सुरक्षित रहा करती हैं, (ससुर-कुल-रक्खियाओ) कितनीक ससुरपक्ष के लोगों द्वारा सुरक्षित की जाती हैं, (परूढ-णह-केस-कक्खरोमाओ) कितनीक ऐसी होती हैं कि जिनके केश, कांखरी के बाल एवं नख बढे रहा करते हैं, (ववगय-धृव-पुप्फ-गंध-मल्लालंकाराओ) कितनीक ऐसी होती हैं जो धूप-खूशबूदार तैल आदि के लेने से तथा पुष्पों एवं सुगंधित पुष्पों को मालारूप अलंकारों से सदा परित्यक्त रहा करती हैं, (अण्हाणगसेय-जल्ल-मल्ल-पंक-परितावियाओ) कितनीक ऐसी होती हैं जो स्नान नहीं करने से सी पिताथी सुरक्षित २हेतi पोताना शासनी २क्षा ४२ती डाय छ, (भायरक्खियाओ) टसी पोताना सामाथी सुरक्षित २६॥ ४२ छ, (पइरक्खियाओ) टमी पातपाताना पति द्वारा सुरक्षित २॥ ४२ छ, (कुलघररक्खियाओ) दीउसडमा पिताना पशले २॥ पालन-पोषण व सुरक्षित २॥ ४२ छे, ( ससुरकुलरक्खियाओ) मी४ सास पक्षन all द्वारा सुरक्षित ४२राय छ, (परूढ-णह-केस-कक्खरोमाओ) टी वी डाय छ , ना नम, श, तभ०४ ४iमरी (1)ना , qयता ता य छ, (ववगय-धूव-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकाराओ) 2ी सेवी डाय छ २५५સુગંધિત તેલ આદિના લેપથી તથા પુષ્પ તેમજ સુગંધિત પુષ્પની માલારૂપ साथी सहा परित्यात २६॥ ४२ छे, (अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्ल-पंक Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे पंक-परितावियाओ ववगय-खीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल्लगुल-लोण-महु-मज-मंस-परिचत्त-कया-हाराओ अप्पिच्छाओ अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समास्वेद-जल्ल-मल्ल-पङ्क-परितापिताः-अस्नानकेन स्नानाऽभावेन हेतुना स्वेदजल्लमल्लपङ्कः-स्वेदः= प्रस्वेदः, जल्लः शुष्कः प्रस्वेदः, मल्लः=रजोमात्रं कठिनीभूतम् , पङ्कः आर्दीभूतं रजः, तैः परितापिताः=क्लेशिताः-संभृता इत्यर्थः, 'ववगय-खीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल्ल-गुललोण-महु-मज-मस-परिचत्त-कया-हाराओ' व्यापगत-क्षीर-दधि-नवनीत-सर्पिस्तैल-गुड-लवण-मधु-मद्य-मांस-परित्यक्त-कृताऽऽहाराः-व्यपगतानि क्षीरदधिनवनीतसपौषि यस्मात् स व्यपगतक्षीरदधिनवनीतसर्पिः, तैलगुडलवणमधुमद्यमांसैः परित्यक्तः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, क्षीरादिमांसपर्यन्तरहित इत्यर्थः, तादृशः कृतः सेवितः आहारो याभिस्तास्तथा, 'अप्पिच्छाओ' अल्पेच्छाः, 'अप्पारंभाओ' अल्पारम्भाः-अल्पः आरम्भः पृथिव्याधुपमर्दनव्यापारो यासां तास्तथा, 'अप्पपरिग्गहाओ' अल्पपरिग्रहाः-अल्पधनधान्यसंग्रहाः, 'अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं' अल्पेनाऽऽरम्भेण अल्पेन पसीना से लथपथ रहा करती हैं, एवं पशीना के शुष्क हो जाने से उस पर बैठी हुई धूलि, काले कठिन मैल के रूप में परिणमित होकर उनके शरीर को मलिन बनाये रहती हैं। (ववगय-वीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल्ल-गुल-लोण-महु-मज्ज-मस-परिचत्तकया-हाराओ) कितनीक ऐसी होती हैं कि जो दूध, दही, मक्खन, सर्पि-घृत, तैल, गुड़, नमक, मधु, मद्य, एवं मांस से वर्जित आहार किया करती हैं, (अप्पिच्छाओ) और जिनकी इच्छाएँ स्वभावतः अल्प हुआ करती हैं, (अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ) वे अल्पआरंभ से, परितावियाओ) सी वी डाय 2 2 स्नान न ४२वाथी पसीनाथी લથપથ રહ્યા કરે છે, તેમજ પસીને સુકાઈ જવાથી તેના પર ઉડીને પડેલી ધૂળ કાળા અને કઠણ મેલના રૂપે પરિણામ પામીને તેમના શરીરને મલિન मनाव्या ४२ छ. (ववगय-खीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल्ल-गुल-लोण-महुमज्ज-मंस-परिचत्त-कया-हाराओ) की सेवा हाय छ २ दूध, दही, मामा, सपि-धी, तेस, गोण, भाई, मध, भय, तभी मांसथी पति माडा२ ४ा ४२ छ, (अप्पिच्छाओ) अने भनी छाया स्वमायी ॥ म८५ २६॥ ३२ छे. (अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टोका. स. ११ अन्तःपुरिकादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्नः ५२७ रंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वितिं कप्पेमाणीओ अकामबंभ चेरवासेणं तामेव पइसेजं णाइक्कमंति। ताओणं इत्थियाओ एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणीओ बहूई वासाइं, सेसं तं चेव, जाव चउसद्धिं वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता ॥सू० ११॥ समारम्भेण अल्पेन आरम्भसमारम्भेग, 'वित्तिं कप्पेमाणीओ' वृत्तिं कल्पयन्त्यः-वृत्ति जीविका कुर्वाणाः,अकामब्रह्मचर्यवासेन-अकामानां निर्जराद्यनपेक्षाणां ब्रह्मचर्ये वासस्तेन 'तामेव पइसेज्जं' तामेव पतिशय्यां-पत्या सह सेवितां शय्यां-पतिशय्यां 'णाइक्कंमति' नातिकामन्ति, परपुरुषपरिहारेण सर्वथा पतिव्रतधर्मपालिका इत्यर्थः, 'ताओ णं इत्थियाओ एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणीओ' ताः खलु स्त्रिय एतद्रूपेण विहारेण विहरन्त्यः, 'बहूई वासाइं आउयं पालेंति' बहूनि वर्षाणि आयुष्यं पालयन्ति, पालयित्वा, शेषं तदेव यावत्-अत्र यावच्छब्देनेदं दृश्यम् कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतमेषु व्यन्तरेषु देवलोकेषु देवत्वेनोपपातं प्राप्ता भवन्ति, तत्र-देवलोके तासां अल्प समारंभ से, और अल्प आरम्भ-समारंभसे अपनी आजीविका चलाती हैं, (अकाम-बंभचेर-वासेणं तामेव पइसेज्ज णाइक्कमंति) और परवशता से ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई अपने पति की शय्या का उल्लंघन नहीं करती हैं-पातिव्रत्य धर्म के पालन में निरत रहा करती हैं, इस प्रकार जो स्त्रियां अपने जीवन को व्यतीत करती हैं, (ताओ णं इत्थियाओ एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणीओ बहूई वासाइं आउयं पालेंति) वे स्त्रियां इस प्रकार की अपनी नैतिक प्रवृत्ति से युक्त बनी रह कर बहुत वर्षों की आयु पालती हैं, (सेसंतं चेव) एवं जब उनका मरने का अवसर आ जाता है तब वे उस अवसर में मर कर अन्यतम व्यसमारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ) ते॥ २८५ मारलथी, અ૫ સમારંભથી અને અલ્પ આરંભ–સમારંભથી પોતાની આજીવિકા ચલાવે छ. (अकामबंभचेरवासेणं तामेव पइसेज्जं णाइक्कमंति) मने ५२१शताथी બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરતી થકી પિતાના પતિની શય્યાનું ઉલ્લંઘન કરતી નથીપાતિવ્રત્ય ધર્મના પાળનમાં નિરત રહ્યા કરે છે. આ પ્રકારે જે સ્ત્રીઓ પિતાના बनने व्यतीत ४२ छे. (ताओ णं इत्थियाओ एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणीओ बहूई वासाई आउयं पालेति) ते खायो । प्रा२नी पोतानी नैतिप्रवृत्ति ४२ती २हीने घgi परसोनी आयु लागवे छे. (सेसं तं चेव) तम न्यारे તેમના મરવાને અવસર આવે છે ત્યારે તે અવસરમાં મરીને બીજા વ્યંતરના Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ औपपातिकसूत्रे मूलम्—से जे इमे गामागर जाव सन्निवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा-दगविइया दगतइया दगसत्तमा दगएक्कारसमा गतिस्तासां स्थितिस्तासामुपपातः प्रज्ञप्तः, तासां खलु हे भदन्त ! देवत्वं प्राप्तानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा ! ' हे गौतम ! इति । 'चउसढेि वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता' चतुःषष्टिं वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ॥ सू० ११॥ टीका-'से जे इमे' इत्यादि । 'से जे इमे' अथ य इमे ईदृशाः, 'गामागरजाव सन्निवेसेसु मणुया भवंति' ग्रामाऽऽकर यावत् सन्निवेशेषु-प्रामाऽऽकर-नगर-निगमराजधानी-खेट-कर्वट-पट्टन-मडम्ब-द्रोणमुखा-ऽऽश्रम-संबाध-सन्निवेशेषु प्राग्व्याख्यातस्वरूपेषु मनुजा भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'दगविइया' दकद्वितीयाः-ओदनापेक्षया दकम्= उदकं द्वितीयं भोजने येषां ते दकद्वितीयाः, 'दगतइया' दकतृतीयाः-ओदनसूपरूपद्रव्यद्वयाऽपेक्षया दकम् उदकं तृतीयं येषां ते दकतृतीयाः, 'दगसत्तमा' दकसप्तमाः-ओदनादीनि न्तरों के देवलोक में देवता की पर्याय से उत्पन्न होती हैं । वहीं पर उनकी गति, वहीं पर उनकी स्थिति एवं वहीं पर उनका उपपात होता है। हे भदन्त ! वहाँ पर उनकी स्थिति कितनी है ? हे गौतम । (चउसढेि वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता) वहां उनकी स्थिति ६४ हजार वर्ष की है ॥ सू० ११॥ 'से जे इमे गामागर जाव' इत्यादि। (से जे इमे गामागर जाव सनिवेसेसु मणुया भवंति) ये जो इन ग्राम आकर आदि पूर्वोक्त स्थानों में इस प्रकार के मनुष्य होते हैं; (तं जहा) जैसे कि (दगबिइया) जिनके आहार में अन्न एवं द्वितीय पानी ये दो ही द्रव्य हों, (दगतइया) अन्न--चावल, दाल एवं तृतीय पानी ये तीन द्रव्य हों, (दगसत्तमा) छह द्रव्य अन्न-चावल-दाल आदि हों દેવલોકમાં દેવતાની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે. અહીં જ તેમની ગતિ, અહીં જ તેમની સ્થિતિ તેમજ અહીં જ તેમને ઉપપાત થાય છે. હે ભદન્ત! ત્યાં तभनी स्थिति दी जाय छ ? 8 गौतम! (चउसद्धिं वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता) त्यां मनी स्थिति ६४ योस न२ १२सनी छे. (सू० ११) ___ 'से जे इमे गामगर जाव' त्याहि. (से जे इमे गामगर जाव सन्निवेसेसुमणुया भवंति) मेसे। म। ॥भ, मा४२ माह 6५२ सा स्थानामा २ अरे मनुष्य थाय छ, (तं जहा) भी (दगबिइया) 2ना माडामा सन्न तभ०४ मीनु पो मे द्रव्य-पाथ डाय, (दगतइया) मन्न-योगा , तभी त्री पानी त्राण द्रव्य डेय, Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू. १२ दकद्वितीयादि मनुष्योपपातविषये गौतमप्रश्नः ५२९ गोयमा गोव्वइया गिहिधम्मा धम्मचिंतगा अविरुद्ध-विरुद्ध-वुड्ढषड्द्रव्याणि दकं च सप्तमं भोजने येषां ते दकसप्तमाः, 'दगएकारसमा' दकैकादशाः-ओदनादीनि दश द्रव्याणि दकञ्चैकादशं पूरगाय मोजने येषां ते दकैकादशाः, 'गोयमा' गौतमाःवृषभं पुरस्कृत्य तत्क्रीडां दर्शयित्वा येऽनं याचन्ते, तेन च जीवन निर्वाहयन्ति त इत्यर्थः । 'गोव्वइया' गोवतिकाः-गोव्रतमस्ति येषां ते गोवतिकाः, ते हि गोषु प्रामानिर्गच्छन्तीषु निर्गच्छन्ति, चरन्तीषु चरन्ति, पिबन्तीषु पिबन्ति, आयान्तीषु आयान्ति, शयानासु च शेरते, उक्तश्च__. “गावीहिं समं निग्गमपवेससयणासणाइं पकरेंति। ... भुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विहाविता ॥१॥" तथा सातवां पानी हो, (दगएकारसमा) दस द्रव्य दाल भात आदि अन्य हो, एवं ११ वां पानी हो. (गोयमा) तथा जो बैल को आगे कर के जनता को उसकी क्रीडा दिखाकर उससे अन्न की याचना कर अपना जीवन निर्वाह करने वाले हों, (गोत्रतिका) 'ग्रोवती हों, (गिहि (१) गोवती पुरुष, जब गायें गांव से बाहर निकलती हैं तब अपने घर से बाहर निकलते हैं, जब वे चरती हैं तब वे भोजन करते हैं, जब वे पानी पीती हैं तब ही ये पानी पीते हैं । जब ये घर आती हैं तब येभी अपने घर आते हैं । और जब ये सोती हैं तब ये भी सो जाते हैं। _ “गावीहिं समं निग्गमपवेससयणासणाई पकरेंति । भुजति जहा गावी. तिरिक्खवासं विहाविता ॥१॥ (दगसत्तमा) छ द्रव्य (मन)-यामाहा माहि हाय तथा सातभु : डाय, (दगएक्कारसमा) ४श द्रव्य-हण भात माहि अन्न यतभ०४ ११ भु पा डाय, (गोयमा) तथा 2 महीने माणसावीन बालीनतनी भी દેખાડીને તેમની પાસેથી અન્ન માગી પિતાનું જીવન નિર્વાહ કરવાવાળા य, (गोव्रतिका) गावती त्य, (गिहिधम्मा) ७२५ यमन ४८या४।२४ (૧) ગવતી પુરુષ, જ્યારે ગાયા ગામથી બહાર નીકળે છે ત્યારે પિતાના ઘેરથી બહાર નીકળે છે. જ્યારે તેઓ ચરે છે ત્યારે તે ભેજન કરે છે, જ્યારે તેઓ પાણી પીએ છે ત્યારે જ તે પાણી પીએ છે. જ્યારે તેઓ” ઘેર આવે છે. ત્યારે તે પણ ઘેર આવે છે, અને જ્યારે તેઓ સુવે છે ત્યારે તે પણ સુઈ જાય છે. “ गावीहिं समं निग्गपवेससयणासणाई पकरेंति । भुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विहाविंता" ॥ १॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे सावग-प्पभितयो, तेसिं णं मणुयाणं णो कप्पंति इमाओ नव रसविगईओ आहारत्तए, तं जहा-खीरं दहि णवणीयं सपि तेल्लं छाया-गोभिः समं निर्गमप्रवेशशयनाऽऽशनादि प्रकुर्वन्ति । ___ भुञ्जते यथा गावस्तिर्यग्वाम विभावयन्तः ॥ १ ॥ इति । 'गिहिधम्मा' गृहिधर्मागः-'गृहस्थधर्म एव श्रेयस्करः'- इति मत्वा दानादिधर्माराधकाः 'धम्मचिंतगा' धर्मचिन्तकाः धर्मशास्त्रपाठकाः, 'अविरुद्ध-विरुद्ध-वुड्ढसावग-प्पभितो' अविरुद्ध-विरुद्ध वृद्धश्रावक-प्रभृतयः, अविरुद्धा वैनयिकाः, उक्तञ्च "अविरुद्धो विणयकरो, देवाईणं पराए भत्तीए। जह वेसियायणसुओ, एवं अन्ने वि नायव्वा ॥१॥" छाया-अविरुद्धो विनयकरो, देवादीनां परया भक्त्या । यथा वैश्यायनसुत, एवमन्येऽपि ज्ञातव्याः ॥ १ ॥ इति । विरुद्धाः अक्रियावादिनः, आत्माद्यनभ्युपगमेन बाहयाभ्यन्तरविरुद्धत्वात् , वृद्धश्रावकाः ब्राह्मणाः, एते प्रभृतिरादिर्येषां ते तथा । 'तेसिं णं मणुयाणं णो कप्पति इमाओ नव रसविगईओ आहारेत्तए' तेषां खलु मनुजानां नो कल्पन्ते इमा नव रसविकृतीराहर्तुम् , धम्मा) गृहस्थ धर्म को श्रेयस्कर मानकर दानादिक धर्म के आराधक हों, (धम्मचिंतगा) धर्मशास्त्र के पाठक हों, (अविरुद्ध-विरुद्ध-बुड्ढसावग-प्पभितयो) 'अविरुद्ध-वैनयिक हो, विरुद्ध-अक्रियावादी हो-आत्मादिक पदार्थों के नहीं मानने से बाह्य एवं आभ्यन्तर क्रियाओं के विरोधी हो. वृद्श्रावक हां-ब्राह्मण हों-इत्यादि। (तेसिं णं मणुयाणं नो कप्पंति इमाओ नव रसविगईओ आहारेत्तए) इन समस्त जनों को ये नवरस विकृतियां (नौ वि (१) अविरुद्धो विणयकरो देवाईणे पराए भत्तीए । जह वेसियायणसुओ एवं अन्ने चि नायव्वा ॥१॥ मानाने हान-माEि धर्मना मा२।डाय, (धम्मचिंतगा) धर्मशासना पा8 ४२ना। डाय, (अविरुद्ध-विरुद्ध-वुड्ढसावग-पभितयो) अविन-वैनયિક હેય, વિરુદ્ધ- અક્રિયાવાદી હોય-આત્મા-આદિક પદાર્થોને ન માનવાથી બાહ્ય તેમજ અભ્યન્તર ક્રિયાઓના વિરોધી હય, વૃદ્ધશ્રાવક હોય–બ્રાહ્મણ राय-त्याle. (तेसिं गं मणुयाणं णो कप्पंति इमाओ नव रसविगईओ आहारेतए) मा समस्त होने से न१२सविकृतिया (नौ विजय) मावा योग्य (१) अविरुद्धो विणयकरो देवाईणं पराए भत्तीए । जह वेसियायणसुओ एवं अन्ने वि नायव्वा ॥ १ ॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका सू. १२ एकद्वितीयादिमनुष्योपपातविषये गौतमप्रश्नः ५३१ फाणियं महुँ मजं मंसं, णो अण्णत्थ एक्काए सरिसवविगईए, ते ण मणुया अप्पिच्छा, तं चैव सव्वं, णवरं चउरासीइं वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता ॥ सू० १२ ॥ ता इंमा नवरसविकृतयः प्रदर्श्यन्ते-'तं जहा' तद्यथा-'खीरं दहिं णवणीयं सप्पिं तेल्लं फाणियं महुँ मज्जं मांसं' क्षीरं दधि नवनीतं सर्पिः तैलं फाणितं मधु मद्यं मांसम्-तत्रनवनीतं 'मक्खन' इति प्रसिद्धं, फाणितं-गुडः, अन्यानि प्रसिद्धानि, आहर्तुं न कल्पन्ते इत्यन्वयः । 'णो अण्णत्थ एक्काए सरिसवविगईए' नो अन्यत्रैकस्याः सार्षपविकृतेःसार्षपतैलरूपामेकां विकृति वर्जयित्वा अन्या उक्ता विकृतयो न कल्पन्तेऽभ्यवहर्तुमिति शेषः । 'ते ण मणुया अप्पिच्छा' ते खलु मनुजा अल्पेच्छाः, 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव= अवशिष्टं सर्वं पूर्ववदेव,बोध्यम् । 'णवरं' नवरं विशेषस्तु-'चउरासीइं वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता' चतुरशीतिं वर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता-व्यन्तरेषु देवत्वेनोत्पन्नानां तेषां तत्रावस्थानं चतुरशीतिवर्षसहस्राणि यावत् ॥ सू० १२ ॥ गय) खाने योग्य नहीं हैं। वे विकृतियां ये हैं-(खीरं दहिं णवणीयं सप्पिं तेल्लं फाणिय महुँ मज्जं मांस) क्षीर, दधि, नवनीत, सर्पि, तैल, फाणित, मधु, मद्य, एवं मांस । गुड़ का नाम फाणित है । नवनीत नाम मक्खन का है । (णो अण्णस्थ एकाए सरिसवविगईए) एक सरसों के तैलरूप विकृति का परिहार नहीं बतलाया गया है । नवरसंरूप विकृति का परिहार करने वाले व्यक्ति सरसों का तैल खा सकते हैं । (ते णं मणुया अप्पिच्छा, तं चेव सव्वं, णवरं चउरासीई वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता) ये मनुष्य अल्पइच्छावाले होते हैं। अवशिष्ट समस्त पूर्व की तरह यहां जान लेना चाहिये । विशेषता नथी. ते विकृतियो । छ-(खीरं दहिं णवणीयं सप्पिं तेल्लं फाणियं महुं मज्जं मांस) क्षीर (ध), डी, नवनीत, सपि-(धृत), तेस, आणित, મધ, મધ, તેમજ માંસ. ગોળનું નામ ફાણિત છે. નવનીત એટલે भासण. (णो अण्णत्य एक्काए सरिसवविगईए) मे सरसना तस३५ विતિના પરિવાર નથી બતાવ્યો. નવરસરૂપ વિકૃતિને પરિહાર કરવાવાળા માણસ सरसनु तेस मा शई छ. (ते णं मणुया अप्पिच्छा, तं चेव सव्वं, गवरं चउरासीई वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता) ॥ मनुष्यो अ६५-२ डाय છે. બાકીનું બધું પૂર્વ કહ્યા પ્રમાણે જાણી લેવું જોઈએ. વિશેષમાં વિશેષતા Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम्--से जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति, तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जणई सड्ढई थालई हुंबउट्टा दंतुक्खलिया उम्मजगा संमज्जगा निमज्जगा संपक्खालगा ___टीका–से जे इमे' इत्यादि । ‘से जे इमे' अथ ये इमे 'गंगाकूलगा' गङ्गाकूलकाः गङ्गातटाश्रिताः 'वाणपत्था' वानप्रस्थाः वानप्रस्थाश्रमवर्तिनः 'तावसा भवंति' तापसा भवन्ति 'तं जहा' तद्यथा-'होत्तिया' होत्रिकाः आग्निहोत्रिकाः, 'पोत्तिया 'पोत्रिकाः= वस्त्रधारकाः, 'कोत्तिया' कौत्रिकाः भूमिशायिनः, 'जण्णई' यज्ञकिनः यज्ञकारकाः, 'सड्ढई' श्राद्धकिनः श्राद्धकारकाः, 'थालई' स्थालकिनः भोजनपात्रधारकाः, हुंबउट्ठा' कुण्डिकाधारिणाः,'हुँबउट्ठा' इति देशीयः शब्दः; 'दंतुक्खिलिया' दन्तोलूखलिकाः फलभोजिनः, 'उम्मज्जगा' उन्मज्जकाः-उन्मजनमात्रेण जलोपरि तरणमात्रेण ये स्नान्ति ते, 'सम्मजगा' संमजकाः-उन्मजनस्यैवाऽसकृत् करणेन ये स्नान्ति ते, 'निमज्जगा' निमजकोः-स्नानाथ निमग्ना सिर्फ यहां इतनी ही है कि ऐसे जीव जो व्यन्तर देवों में उत्पन्न होते हैं उनकी वहां स्थिति चौरासी हजार वर्ष की बतलाई गई है ॥ सू. १२॥ से जे इमे' इत्यादि (से जे इमे) जो ये (गंगाकूलगा वणपत्था तावसा भवंति) गंगा के तट पर रहनेवाले वानप्रस्थ तापस हैं; जैसे (होत्तिया) आग्निहोत्रिक, (पोत्तिया) पोत्रिक-वस्त्रधारक, (कोतिया) कौत्रिक-भूमिशायी भूमि पर सोने वाले, (जण्णई) यज्ञकारक, (सड्ढई) श्राद्धकारक, (थालई) भोजनपात्रधारक, (हुंबउट्ठा) कुण्डिकाधारी, (दंतुक्खलिया) फलभोजी, (उम्मज्जगा) एक बार पानी में डुबकी लगाकर स्नान करने वाले, (सम्मज्जगा) बार बार માત્ર અહીં એટલીજ છે કે જીવ જે ચન્તર દેવમાં ઉત્પન્ન થાય છે તેની ત્યાં સ્થિતિ ચોર્યાસી હજાર વરસની બતાવવામાં આવી છે. (સૂ૧૨) ___ 'से जे इमे' त्याहि. __ (से जे इमे) २ २॥ (गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति) ना तट ५२ सना। वानप्रस्थ तापस डाय छ, २१ :-(होत्तिया) २मान्नित्रि, (पोत्तिया) पात्रि-वधा२४, (कोत्तिया) त्रि-भूभिशायी-भूमि ५२ सुवा१, (जण्णई) यज्ञ४।२४, (सड्ढई) श्राद्ध४।२४, .(थालई) मानपात्रधा२४, (हुंबउट्ठा) ४िाधारी, (दंतुक्खलिया) ३साल, (उम्मज्जगा) सेवा२ पानीमा उम४ी भारीने स्नान ४२पापा, (सम्मज्जगा) पापा२ ५४ी भारीने Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टोका स. १३ वानप्रस्थादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्नः ५३३ दक्खिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मिगलुद्धगा हत्थितावसा उदंडगा दिसापोक्खिणो वकवासिणो बिलवासिणो एव ये क्षणं तिष्ठन्ति ते, 'संपखालगा' प्रक्षालकाः-ये मृत्तिकादिधर्षणपूर्वकमङ्गानि प्रक्षालयन्ति ते संप्रक्षालकाः, 'दक्षिणकूलगा' दक्षिणकूलकाः-ये गङ्गायाः पूर्वाभिमुखगमनशीलाया दक्षिणतट एव वसन्ति ते, 'उत्तरकूलगा' उत्तरकूलकाः-उत्तरतट एव ये वसन्ति ते, 'संखधमगा' शङ्खध्मायकाः शङ्खवादकाः-शङ्ख वादयित्वा ये भुञ्जते ते इत्यर्थः, 'कूलधमगा' कूलध्मायकाः-ये कूले स्थित्वा शब्दं कृत्वा भुञ्जते ते, 'मियलुद्धगा' मृगलुब्धकाः-व्याधवन्मृगमांसजीविनः, 'हत्थितावसा' हस्तितापसाः-ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति ते, 'उदंडगा' उद्दण्डकाः-उत्-ऊर्ध्वं दण्डा येषां ते उद्दण्डकाः, दण्डमूर्ध्वं कृत्वा ये सञ्चरन्ति ते इत्यर्थः; 'दिसापोक्विणो' दिशाप्रोक्षिणः उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुच्चिन्वन्ति ते, “वक्तवासिणो' वल्कवाससः–वल्कानि तरुत्वच एव वासांसि येषां ते तथा, 'बिलवासिणो' बिलवासिनः= डुबकी लगाकर स्नान करनेवाले, (निमज्जगा) पानी में कुछ देर तक डूबकर स्नान करने वाले, (संपक्वालगा) मिट्टी आदि से अंग को घर्षण कर स्नान करने वाले, (दक्षिणकूलगा) गंगा के दक्षिण तट पर वसने वाले, (उत्तरकूलगा) गंगा के उत्तर तट पर वसने वाले, (संखधमगा) शंखों को बजाकर भोजन करने वाले, (कुलधमगा) नदी के तट पर बैठ कर शब्द कर के भोजन करने वाले, (मियलुद्धगा) ब्याधोंकी तरह मृग के मांस को खाने वाले, (हत्थितावसा) हाथी को मारकर उसके मांस का भोजन करने वाले, (उदंडगा) दंडे को ऊंचा करके फिरने वाले, (दिसापोक्विणो) दिशाओं को जल से सिंचन करने वाले, (वकवासिगो) वृक्षों की छाल को पहिरने वाले, (बिलवासिणो) भूमिगृह में निवास स्नान ४२१७, (निमज्जगा) पाणीभा थोडीपा२ सुधा मीन स्नान ४२वावा, (संपखालगा) माटी माहि १3 २५ गने घसीने स्नान ४२वा पाणा, (दक्खिणकूलगा) गाना दक्षिण तट ५२ सपा, .. (उत्तरकूलगा) गाना उत्तर तट ५२ सवा(संखधमगा) श५ वडीने मान ४२वावा, (कूलधमगा) नदीना तट ७५२ मेसीन ६ ४२ता ४२ai (Anadi meti) मोन ४.पाव, (मियलुद्धगा) · शिरीनी पेठे . भानु मांस मावावा, (हत्थितावसा) हाथीने भारीने तेनां मांसनु मो०४न ४२११७, (उदंडगा) ने उयो ४२॥ ५२वावा, (दिसापोक्खिणो) हिशोभा पाणी छital al, (वक्कवासिणो) वृक्षनी. छार ५३२१। aal, . (बिलवासिणो) . भूभिडमा Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे जलवासिणो रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणोवाउभक्खिणो सेवालभविखणोमूलाहाराकंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहाराबीयाहारा भूमिगृहवासिनः, 'जलवासिणो' जलवासिनः-ये जले प्रविष्टा एव निवसन्ति ते, 'रुक्खमूलिया' वृक्षमूलकाः-तरुतले ये निवसन्ति ते, 'अंबुभक्विणो' अम्बुभक्षिणः= जलाहारकारिणः, 'वाउभक्खिणो' वायुभक्षिणः पवनाहाराः, 'सेवालभक्खिणो' शैवालभक्षिणः-शैवालं जललतां भक्षन्ति तच्छीलाः-जलोपरिस्थितहरितवनस्पतिविशेषभोजिन इत्यर्थः, 'मूलाहारा' मूलाहाराः-मूलानि आहरन्ति तच्छीलाः, 'कंदाहारा' कन्दाऽऽहाराः= सूरणादिकन्दभक्षिणः, ' तयाहारा' त्वगाहाराः निम्बादित्वग्भक्षिणः, ‘पत्ताहारा' पत्राऽऽहाराः बिल्वादिपत्रभक्षिणः, 'पुप्फाहारा' पुष्पाऽऽहाराः कुन्दशोभाञ्जनादिपुष्पभक्षिणः, 'बीयाहारा' बीजाऽऽहाराः कूष्माण्डादिबीजभोजिनः, ‘परिसडिय-कंद-मूल-तयपत्त-पुप्फ-फला-हारा' परिशटित-कन्द-मूल-त्वक्-पत्र-पुष्प-फला-ऽहाराः-- परिशटितं केनचिदानीतं स्वयं पतितं च परिशटितम् , तादृशं कन्दमूलत्वपत्रपुष्पफलम् आहरन्ति तच्छीला:-केन चित् आनीतानि तरुभ्यः स्वयं पतितानि वा पत्रपुष्यफलान्येव करने वाले, (जलवासिणो) जल में खड़े रहने वाले, (रुक्खमूलिया) वृक्ष के नीचे निवास करने वाले, (अंबुभक्खिणो) मात्र जल का आहार करने वाले, (वाउभक्विणो) मात्र वायु का ही आहार करने वाले, (सेवालभक्खिणो) मात्र शैवालका ही आहार करने वाले, (मूलाहारा) मात्र मूल का ही आहार करने वाले, (कंदाहारा) सूरणादिक कंदों का आहार करने वाले, (तयाहारा) त्वक् छालका आहार करने वाले, (पत्ताहारा) बिल्व आदि के पत्तों का आहार करने वाले, (पुप्फाहारा) पुष्पों का आहार करने वाले, (परिसडियकंद-मूल-तय-पत्त-पुप्फ-फला-हारा) तोड़ कर या स्वयं लाये हुए नहीं, किन्तु स्वयं निवास ४२वावा, (जलवासिणो) rawine SAL २९वावा, (रुक्खमूलिया) वृक्षनी नीय निवास ४२११, (अंबुभक्खिणो) भात्र पाणीना माहार ४२पापा, (वाउभक्खिणो) मात्र वायुना माहा२ ४२वावा, (सेवालभक्खिणो) मात्र शैवानी माडा२ ४२११, (मूलाहारा) मात्र भूगनी माहार ४२वावा, (कंदाहारा) सूर माहिना माहा२ ४२वावा, (तयहारा) १५छासन। माडा२ ४२वावा, (पत्ताहारा) भीसी माहि पानने। माडार ४२१।पा, (पुप्फाहारा) पुण्यानो माहा२ ४२वावा, (बीयाहारा) भांड माहिना मीने माडा२ ४२११, (परिसडिय-कंद-मूल-तय-पत्त-पुप्फ-फलाहारा) तडीने અથવા પિતે લાવેલ ન હોય પરંતુ પોતાની મેળે પડી ગયેલાં અથવા કેઈએ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. १३ वानप्रस्थादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्नः ५३५ परिसडिय-कंद-मूल-तय-पत्त-पुप्फ-फलाहारा जला-भिसेयकढिण-गायभूया आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंडुसोल्लियं पिब अप्पाणं करेमाणा बहुइं वासाइं परियागं पाउणंति, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं जोइभुञ्जते कन्दमूलत्वचामपि तथाविधानामेवोपयोगं कुर्वते ते, ‘जलाभिसेय-कढिण-गायभूया' जलाभिषेक-कठिन-गात्र-भूताः-जलाभिषेकेण कठिनं यद् गात्रं तत् प्राप्ता ये ते तथा, 'आयावणाहिं' आतपनाभिः-प्रखररविकराऽऽसेवनाभिः, 'पंचग्गितावेहिं' पञ्चाग्नितापैः-चतसृषु दिक्षु प्रज्वालितैश्चतुर्भिरग्निभिः उपरिभागे सूर्यकिरणपञ्चमैर्ये तापास्तैः; 'इंगालसोल्लियं ' अङ्गारपक्वम्-प्राकृते-पच् ' धातोः स्थाने 'सोल्ल' आदेशो भवति । अङ्गारैर्निर्धूमज्वलदनलपिण्डैरिव पक्वम् , 'कंडुसोल्लियं' कन्दुपक्वम्-कन्दुः चणकादिभर्जनपात्रं, तत्र पक्वम् , ' अप्पाणं करेमाणा' आत्मानं शरीरं कुर्वाणाः, 'बहूई वासाइं परियागं पाउणंति' बहूनि वर्षाणि पर्याय वानप्रस्थपर्यायं पालयन्ति, पालयित्वा, गिरे हुए या किसी के द्वारा लाये गये कंद, मूल, त्वक्, पत्र, पुष्प एवं फलों का आहार करने वाले, (जलाभिसेय-कढिण-गाय भूया) जलाभिषेक करने से जिनका शरीर कठिन हो गया है ऐसे, (आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंडुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा) तथा आतापना-प्रखर सूर्य की किरणों के सेवन से, पंचाग्नि के बीच बैठकर तापों के सहन करने से अंगार में पक्व हुए जैसे एवं भाड में भूजे हुए जैसे अपने सरीर को करने वाले ये वानप्रस्थ तापस जन (बहूई वासाइं परियागं पाउणंति) बहुत वर्ष पर्यन्त वानप्रस्थ तापस की पर्याय का पालन करते हुए (कालमासे कालं किच्चा) सपी पेi , भूदा, छातपत्र, पुष्प, तभ०४ जना माहा२ ४२वावा, (जलाभिसेय-कढिण-गाय-भूया) सनी मलि४ ४२पाथीनां शरी२ ४ ४ अयां डाय मेवा, (आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंडुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा) तथा यातायन-अमर सूर्यन रिना सेवनथी, पयाનિના વચ્ચે બેસીને તાપ સહન કરવાથી, અંગારમાં પકાવેલ હોય તેવાં તેમજ હાંડલામાં ભૂજેલ જેવાં પોતાના શરીરને કરી નાખવાવાળા તે વાનप्रस्थ ॥५सन (५वी-सी) (बहूई वासाइं परियागं पाउणंति) बाट १२से। सुधा पानप्रस्थ ॥५सनी पर्यायनु पालन ४२i ४२di (कालमासे कालं किच्चा) Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ औपपातिकसूत्रे सिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । पलिओवम वाससहस्समब्भहियं ठिई। आराहगा ? णो इणहे समझे। सेसं तं चेव ॥ सू० १३॥ ..... मूलम्—से जे इमे जाव सन्निवेसेसु पव्वइया समणा 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'उक्कोसेणं जोइसिएम देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति' उत्क्रोशेन ज्योतिषिकेषु देवेषु देवत्वेनोपपत्तारो भवन्ति; 'पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई' पल्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकं स्थितिःवर्षशतसहस्राणि अभ्यधिकानि यत्र तत्-वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् एकलक्षवर्षाधिकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्तेति । शिष्यः पृच्छति-एते ज्यौतिषिका देवा 'आराहगा?' आराधकाः= परलोकस्याराधका भवन्ति किम् ?, उत्तरमाह-'णो इणडे समटे' नाऽयमर्थः समर्थः संगतः, परलोकस्याराधका न भवन्ति। अस्यार्थस्तु-अत्रैवोत्तरार्दैऽष्टमे सूत्रे व्याख्यातः ॥ सू० १३ ॥ टीका–से जे इमे' इत्यादि । 'से जे इमे' अथ य इमे 'जाव सन्निवेमरण के अवसर में मृत्यु के वशवर्ती हो, (उकोसेणं जोइसिएम देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) उत्कृष्ट रूप से ज्योतिषी देवों में देवरूप से उत्पन्न हो जाते हैं। (पलि ओवमं बाससयसहस्समब्भहियं ठिई) वहां पर उनकी स्थिति १ लाख वर्ष अधिक एक पल्यप्रमाण होती है। गौतम पूछते हैं-हे नाथ । (आराहगा) ये परलोक के आराधक होते है या नहीं ? उत्तर-(णो इणढे समढे) ये परलोक के आराधक नहीं होते हैं ।। सू. १३ ॥ _' से जे इमे जाव' इत्यादि (से जे इमे) जो ये (जाव सनिवेसेसु) ग्राम नगर आदि स्थानों में (पव्वइया ४८ अक्सरे ४८ ४शने (उक्कोसेणं जोइसिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) उष्ट३५थी ज्योतिषी वोमा १३५ उत्पन्न थ य छे. (पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई) त्या तेमनी स्थिति १ सय १२स ५२ ४ ५८यप्रभाव होय छे. गौतम पूछे छे , हे नाथ! (आराहगा) तमा ५२सना मा२।५४ लोय छ ॐ नडि ? उत्तर-(णो इणद्वे सम?) तमा ५२॥२॥२॥घ डोत नथी. (सू. १३) ___“ से जे इमे जाव" त्याहि. (से जे इमे) 2 (जाव सन्निवेसेसु) आम ना२ याहि स्थानोमा (पव्वइया : Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीपवर्षिणी-टीका सू. १४ प्रव्रजित श्रमणोपपातविषये गौतमप्रश्नः १३७ भवति, ते जहा-कंदप्पिया कुक्कुइया मोहरिया गीयरइपिया मवणसीला, ते णं एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियाय पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणासेसु पब्वइया समणा भवंति ' यावत्सन्निवेशेषु प्रव्रजिताः श्रमणाः भवन्ति, 'तं जहा' तषथा-'कंदप्पिया' कान्दर्पिकाः-हास्यकारका भाण्डादयः, 'कुक्कुइया' कौकुचिकाःकुकुचेन-कुत्सितचेष्टया चरन्तीति कौकुचिकाः ये च भ्रूनयनवदनकरचरणाऽऽदिभिर्भाण्डा इव तथा चेष्टन्ते यथा स्वयमहसन्त एव परान् हासयन्ति ते। 'मोहरिया' मौलरिकाः वाचालाः-नानाविधाऽसम्बद्धभाषिण इत्यर्थः। 'गीय-रइ-प्पिया' गीतरति-प्रियाः-गीतेन या रतिः क्रीडा सा प्रिया येषां ते तथा, 'नचणसीला' नर्तनशीलाः 'ते गं एएणं विहारेणं विहरमाणा' ते खलु एतेन विहारेण विहरन्तः उक्तमाचरणमाचरन्तः, 'बहूई वासाइं सामण्णपरियाय पाउणंति' बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं= चारित्रपर्यायं पालयन्ति, 'पाउणित्ता' पालयित्वा 'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य= समणा) प्रव्रजित श्रमण होते हैं, (तं जहा) जैसे—(कंदप्पिया कुकुइया मोहरिया गीयरइप्पिया) कांदर्पिक-हास्यकारक भांड आदि, कौकुचिक-भ्र, नयन, वदन, कर एवं चरण आदिकों से कुत्सित चेष्टाएँ करके भांडों की तरह स्वयं न हँसकर दूसरों को हँसाने वाले, गीतपूर्वक क्रीड़ा को अधिक पसंद करने वाले, (नच्चणसीला) नृत्य करने के स्वभाव वाले; ये सब (एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियायं पाउणंति) अपने २ पद के अनुसार उक्त आचरण कोआचरण करते हुए बहुत वर्षोंतक श्रमणपर्याय को पालते हैं, (पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय-अपडिक्कंता कालमासे कालं समणा) प्रशस्ति श्रम थाय छ, (तं जहा) २पा (कंदप्पिया कुक्कुइया मोहरिया गीय-रइ-प्पिया) 4-डास्य।२४ (माया) माहि, डीयिट-भ નયન, વન, કર તેમજ પગ આદિ વડે કુત્સિત ચેષ્ટાઓ કરી ભવૈયાની પેઠે સ્વયં (પતે) ન હસતાં બીજાને હસાવવાવાળા, મખરિક–અનેક પ્રકારના અસંम प्रसा५ ४२११, गीतयुत जडाने पधारे ५४ ४२वापा, (नच्चणसीला) नृत्य ४२वाना स्वभावा, या मधा (एएणं विहारेणं विहरमाणा बहूई कासाई सामण्णपरियायं पाउणंति) पोत पोतानां ५४ प्रमाणे त मायरभुने सायरतां मायरतi gi १२से। सुधी श्रम-पर्यायने पाणे छ. ( पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय-अपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र लोइय-अपडिकंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तर्हि तेसिं गई, सेसं तं चेव, णवरं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई ॥ सू० १४॥ उक्तस्य पापस्थानस्य, 'अणालोइयअपडिकंता' अनालोचिताऽप्रतिक्रान्ताः-अनालोचिताश्च ते अप्रतिक्रान्ताः-गुरूणां समीपे अकृताऽऽलोचनका अतएव दोषादनिवृत्ता इत्यर्थः । 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा, 'उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएम देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति' उत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे कान्दर्पिकेषु= हास्यक्रीडाकारकेषु देवेषु देवत्वेनोपपत्तारो भवन्ति, 'तहिं तेसिं गई' तत्र तेषां गतिः 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव पूर्वोक्तमेव बोध्यम् । 'पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई' पल्योपमं वर्षशतसहस्राऽभ्यधिकं स्थितिः-लक्षवर्षाधिकं पल्योपमं स्थितिः ॥ नू० १४ ॥ किच्चा उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) पालन करते हुए अंत समय वे अपने उक्त पापस्थानों की गुरु के समीप आलोचना नहीं करके उनसे निवृत्त नहीं होते हैं, इसलिए जब वे काल-अवसर में काल करते हैं, तव अधिक से अधिक सौधर्मकल्प में जो हास्यक्रीडाकारक देव हैं उनमें देवरूप से उत्पन्न होते हैं। (तहिं तेसिं गई सेसं तं चेव) वहीं पर उनकी गति आदि बतलाई गई है। यहां पर और भी जो कुछ वक्तव्य है वह इसी आगमके उत्तरार्ध में आठवें सूत्र की तरह समझ लेना चाहिये। (पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई) उस कल्प में उनकी स्थिति उस पर्याय में १ लाख वर्ष अधिक १ पल्य की जाननी चाहिये ।। सू० १४ ॥ सोहम्मे कप्पे कंदप्पिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) पासन ४२i ४२ai અંત સમયે તેઓ પિતાનાં ઉક્ત પાપસ્થાનોની ગુરુની પાસે આલોચના ન કરવાથી તેનાથી નિવૃત્ત થતા નથી. તેથી જ્યારે તેઓ કાલ અવસરે કાલ કરે છે ત્યારે વધારેમાં વધારે સૌધર્મ ક૫માં જે હાસ્યક્રીડાકારક દેવ છે तभा १३ उत्पन्न थाय छे. (तहिं तेसिं गई सेसं तं चेव) त्यो भनी गति આદિ બતાવવામાં આવેલ છે. અહીં બીજું પણ જે કાંઈ વર્ણન છે તે આ मागभना त्तरार्थना सभा सूत्रनी पेठे सम य . (पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई) से ४८५म तेमनी स्थिति ते पर्यायभा १ ॥ वरस Siत १ पदयनी पशुपी नेस. (सू. १४) Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका स. १५ सांख्यादय. परिव्राजकभेदाः ___ मूलम्-से जे इमे जाव सन्निवेसेसु परिव्वायगा भवंति, तं जहा-संखा जोगी काविला भिउव्वा हंसा परमहंसा टीका-' से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे' अथ य इमे ईदृशाः 'जाव सन्निवेसेसु यावत् सन्निवेशेषु, 'परिवायगा भवंति' परिव्राजकाः संन्यासिनो भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'संखा जोगी काविला भिउव्वा हंसा परमहंसा बहुउदगा कुडिव्वया कण्हपरिवायगा' सांख्याः योगिनः कापिलाः भार्गवाः हंसाः परमहंसा बहूदकाः कुटीव्रताः कृष्णपरिव्राजकाः, तत्र सांख्याः सांख्यमतानुयायिनः, योगिनः-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः सोऽस्त्येषां ते योगिनः, 'कापिलं शास्त्रं सांख्यं द्विविधम्-सेश्वरं निरीश्वरं च। तत्र सेश्वरं सांख्यं भगवदवतारः कपिलः प्रणीतवान् , निरीश्वरं सांख्यं तु अग्न्यवतारः कपिल इति सांख्यशास्त्रानुयायिनः' इति वाचस्पत्याभिधानकोशः। निरीश्वरसांख्यमतानुयायिन इति भावः। 'भिउन्चा' से जे इमे जाव' इत्यादि । (से जे इमे) जो ये (जाव सनिवेसेसु) ग्राम आकर आदिसे लेकर सन्निवेश तक के स्थानों में (परिव्वायगा) 'परिव्राजक रहते हैं; जैसे (संखा जोगी काविला भिउव्वा हंसा परमहंसा) सांख्य-सांख्यमतानुयायी साधु, योगी-चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग को पालन करने वाले साधु, कापिल-निरीश्वर सांख्यमतानुयायी साधु, (१) सांख्य दो प्रकार के हैं-१ सेश्वरसांख्य, २ निरीश्वरसांख्य। सेश्वरसांख्यईश्वर को मानता है । निरीश्वर सांख्य ईश्वर को नहीं मानता है । वाचस्पत्याभिधानकोष में ऐसा लिखा है कि भगवदवतारस्वरूप कपिलने ईश्वरवादी सांख्य को, एवं अग्न्यवतारविशिष्ट उसी कपिलने निरीश्वरवादी सांख्य को रचा है। " से जे इमे जाव" त्याहि. (से जे इमे) २॥ (जाव सन्निवेसेसु) म ४२ माहिया वन सन्निवेश सुधानां स्थानमा (परिव्वायगा) परिमा०४४ २९ छे, रेवा (संखा जोगी काविला भिउव्वा हंसा परमहंसा) सांज्य-सांध्यमतन मनुयायी साधु, ગી-ચિત્તવૃત્તિનિરોધરૂપ ભેગનું પાલન કરવાવાળા સાધુ, કાપિલ-નિરીश्व२ 'सांज्यभत अनुयायी साधु, मासु बिना ४, (हंसा) इंस (१) सांभ्य में प्रधानां छे. १ सेश्वरसाज्य- २ निरीश्वरसाज्य. सेश्वरસાંખ્ય ઈશ્વરને માને છે. નિરીશ્વરસાંખ્ય ઈશ્વરને માનતા નથી. વાચસ્પત્યઅભિધાન કોષમાં એમ લખ્યું છે કે ભગવાનના અવતારસ્વરૂપ કપિલે ઈશ્વરવાદી સાંઓને તેમજ અગ્નિ–અવતાર–વિશિષ્ટ તેજ કપિલે નિરીશ્વરવાદી સાંખ્ય રચ્યું છે. Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकत्रे बहुउदगा कुडिव्वया कण्हपरिव्वायगा । तत्थ खलु इमे अट्ठ माहणपरिव्वायगा भवति, तं जहा - ५४० कण्णे य करकंडेय, अंबडे य परासरे । कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य नारए ॥ भार्गवाः–भृगुर्लोकप्रसिद्ध ऋषिस्तद्वंशजाः भार्गवाः । ' हंसा ' - हंसाः = पर्वत कुहरपथ्याssश्रमाssरामवासिनो भिक्षार्थं च ग्रामं प्रविशन्ति । ' परमहंसा' परमहंसाः, एतेषु नदी - पुलिनसमागमप्रदेशेषु वसन्ति मरणसमये चीरकौपीनकुशांश्च त्यक्त्वा प्राणान् परित्यजन्ति । 'बहुउदगा ' बहूदकाः, इमे तु ग्राम एकरात्रिका, नगरे पञ्चरात्रिकाः प्राप्तभोगांव भुञ्जते इति । ' कुडिव्या ' कुटीव्रताः = कुटीचराः, ते च कुट्यां वर्तमाना व्यपगत क्रोधलोभमोहा अहङ्कारं वर्जयन्ति । ' कण्हपरिव्वायगा ' कृष्णपरिव्राजकाः - परिव्राजकविशेषा एव, नारायणभक्तिका इति केचित्। ‘तत्थ खलु इमे अट्ठ माहणपरिव्वायगा भवंति ' तत्र खलु st ह्मणरिवाजका भवन्ति । तं जहा " , तद्यथा - ' कण्णेय करकंडेय अंबडे य भार्गव- - भृगु ऋषि के वंशज (शिष्य), हंस - पर्वतकी गुफा, आश्रम, देवमन्दिर तथा बगीचा आदि में निवास करने वाले साधु, जो सिर्फ भिक्षा के लिये ही ग्राम में आते हैं, (परमहंसा) नदी के तट पर नग्नरूप में रहने वाले साधु, जो मरण काल में चीर, कौपीन और कुशा को त्याग कर मरण करते हैं । (बहुउदगा) एक रात ग्राम में पांच राततक नगर में रहें तथा जो मिले सो खावें ऐसे बहूदक साधु, ( कुडिव्या) कुटीत्रत - कुटीचर- क्रोध, लोभ एवं मोह तथा अहंकार से रहित होकर पर्णकुटी में रहने वाले, ( कण्हपरिव्वायगा ) नारयण के भक्त परिव्राजक—अथवा कृष्ण के भक्त परिव्राजक, (तत्थ) इनमें (अट्ठ) आठ (इमे) ये (माहण 4 પર્વતની ગુફા, આશ્રમ તથા બગીચા આદિમાં નિવાસ કરવાવાળા સાધુ, मात्र लिक्षी भाटे गामां आवे छे. (परमहंसा) नहीना तट उपर नग्नરૂપમાં રહેનારા સાધુ, જે મરણકાલમાં ચીર, કૌપીન (લંગોટી) અને કુશાને त्याग ४री भराशु थामे छे. (बहुउद्गा) खेड रात ગામમાં, પાંચ રાત સુધી नगरमां रहे तथा ने भजे ते जाय सेवा मडूह साधु, ( कुडिब्बा) टीવ્રત-કુટીચર-ક્રોધ, લેાભ તેમજ મેાહ તથા અહંકારથી રહિત થઈને પણ - छुटीमा रहेवावाजा, ( कण्ह परिव्वायगा ) नारायगुना लम्त परिवा४४ અથવા पृ॒ष्णुना लडत परिवा४४, (तत्थ ) मेमां (अट्ठ) आठ (इमे) या (माहणपरि Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणी-टीका सू. १५ कर्णादीनां शीलध्यादीनां परिव्राजकानांवर्णनम् ५४१ तत्थ खलु इमे अखत्तियपरिव्वायया भवंति। तं जहासीलही ससिहारे नग्गई भग्गईति य ॥ विदेहे राया रामे बलेति य अहमे ॥सू० १५॥ मूलम् ते णं परिवाया रिउवेय-यजुव्वेय-सामवेयपरासरे। कण्हे दीवायणे चेव देवगुत्ते य नारए ॥ कर्णश्च करकण्टश्च अम्बडश्च पराशरः । कृष्णो द्वैपायनश्चैव देवगुप्तश्च नारदः । एतेऽष्टौ ब्राह्मणपरिव्राजकाः । 'तत्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिचायगा भवंति' तत्र खल्विमेऽष्टौ क्षत्रियपरिव्राजका भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'सीलही ससिहारे नग्गई भग्गईति य । विदेहे राया रामेबलेति य अमे।' शीलधीः शशिधारो नग्नको भग्नक इति च । विदेहो राजा रामो बल इति च अष्टमः । एते षोडश परिवाजका लोकतो ज्ञेयाः ।। सू० १५ ॥ टीका–' ते ण परिवाया' इत्यादि । ‘ते णं परिवाया' ते खलु परिबायगा भवंति ) ब्राह्मण की जाति के परिव्राजक होते हैं-( तं जहा ) सो जैसे (कण्णे य करकंडे य अंबडे य परासरे । कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य नारए.) १ कर्ण, २ करकंड, ३ अंबड, ४ पारासर, ५ कृष्ण, ६ द्वैपायन, ७ देवगुप्त एवं नारद । (तत्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिव्वायगा) तथा ये आठ क्षत्रिय जाति के परिव्राजक होते हैं; (तं जहा) सो जैसे-(सीलही ससिहारे य नग्गई भग्गई ति य। विदेहे राया रामे बलेति य अट्ठमे) शीलधी, शशिधार, नग्नक, भग्नक, विदेह, राजा राम और बल ॥ सू. १५ ॥ 'तेणं परिव्वाया रिउवेय' इत्यादि । (ते ण परिवाया) ये १६ साधु-परिव्राजक-आठ ब्राह्मण जाति के आठ क्षत्रिय व्वायगा भवंति) प्राझनी मतिना परिवार थाय छे, (तं जहा) रेम (कण्णे य करकंडे य अंबडे य परासरे । कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य नारए) १ ४, २ ४२४७, 3 २५५७, ४ पास२, ५ , ६ द्वैपायन, ७ हेवशुत, तभ०४ ८ ना२६. (तत्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिव्वायगा भवंति) तथा ॥ मा क्षत्रियजतिना परिवा४ोय छे. (तं जहा) म (सीलही ससिहारे नग्गई भग्गईति य । विदेहे राया रामे बलेति य अट्ठमे) १ २aधी, २ शशिधार, 3 नन, ४ लान, ५ विद्वेड, ६ , ७ राम तथा ८ मस. (सू. १५) ' तेणं परिवाया रिउवेय' त्यादि. (ते णं परिव्वाया) मा १६ साधु-परिवा४४ मा प्राय गति सने Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक अहव्वणवेय- इतिहासपंचमाणं निघंटुछट्टाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउन्हं वेदाणं सारगा पारगा धारगा सडंगवी सहितंतविसारया, संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोड़ ५४२ परिव्राजकाः -- प्राग्वर्णिता अष्टौ ब्राह्मणपरित्राजकाः, अष्टौ क्षत्रियपरित्राजकाः, ते कीदृशाः ? अत्राsse - 'रिउवेय-यजुव्वेय - सामवेय- अहन्त्रणवेय - इतिहासपंचमाणं ' ऋग्वेदयजुर्वेद सामवेदाऽथर्ववेदेतिहासपञ्चमानाम् ऋग्वेदादयश्चत्वारो वेदाः, तथा इतिहास पञ्चमो - येषां ते इतिहासपञ्चमाः तेषाम् ' निघंटुछडाणं ' निघण्टुपष्टानाम् निघण्टुर्नाम कोशः षष्ठः = षट्संख्यापूरको येषां तेषां ' संगोवंगाणं ' साङ्गोपाङ्गानाम् - अङ्गैरुपाङ्गैः सहितानाम्, ' सरहस्साणं ' सरहस्यानां रहस्ययुक्तानाम्, 'चउन्हें ' चतुर्णाम्, 'वेदाणं' वेदानाम्, सारगा सारकाः = अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकाः, अथवा स्मारकाः अन्येषां विस्मृतस्य स्मारणात्, 'पारगा ' पारगाः = संपूर्णवेदार्थज्ञानवन्तः, ' धारगा ' धारकाः = धारयितुं क्षमाः, ‘सडंगवी' षडङ्गविदः, ‘सट्टितंत विसारया' षष्ठितन्त्रविशारदाः- षष्ठितन्त्रं-कपिलसिद्वान्तःतत्र विशारदाः = पण्डिताः, 'संखाणे ' संख्याने गणितविषये. 'सिक्खाकप्पे ' शिक्षाकल्पे 6 , जाति के (रिउवेय-यजुव्वेय - सामवेय - अहव्वणवेय - इतिहासपंचमाणं निघंटुछद्वाणं संगोत्रं गाणं सरहस्साणं चउन्हं वेदाणं) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, निघंटु इन छह शास्त्रों के तथा इन शास्त्रों के और भी जितने अंग और उपांग हैं उनके एवं रहस्य सहित चार वेदों के ( सारगा) पाठन द्वारा प्रचारक होते हैं, या दूसरों के लिये विस्मृत हुए इन के स्मारक होते हैं. (पारगा) स्वयं भी इन सब शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं, (धारगा) इन सबकी धारणा वाले होते हैं । इसलिये ये (सडंगवी) पडंगवेदवित् कहे जाते हैं | ये (सविसारया ) षष्टितंत्र - कपिलशास्त्र के भी वेत्ता होते हैं, (संखाणे सिक्खा मा क्षत्रिय लतिना (रिउवेय-यजुव्वेय - सामवेय- अहह्व्वणवेय- इतिहास - पंचमाणं निघंटुछट्ठाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउन्हं बेदाणं) ऋग्वेद, यजुर्वेद्द, सामवेद्द, અથવવેદ, ઇતિહાસ, નિઘંટુ આ છ શાસ્ત્રોનાં, તથા આ શાસ્ત્રાનાં બીજા पाशु भेटतां गंग अने उपांग छे तेमनां, रहस्यसहित चार वेद्दोनां (सारगा) પઠનદ્વારા પ્રચારક હોય છે, અથવા ખીજાને વિસ્મરણ થયેલ હોય તે તેમને યાદ ४शवनारा होय छे, (पारगा) पोते पशु ते शास्त्री लगुनारा होय छे, तेथी तेथे। (धारगा) या अघांनी धारणावासा होय छे, तेथी तेथे (सडंगवी) षडंगवेदवित् उवाय छे. तेथे (सद्वितंतविसारया ) षष्टितंत्र - पिशास्त्रमा पशु Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका स. १६ कर्णा.शीलध्या. च वेदादिसकलशास्त्राभिज्ञत्वम् ५४३ सामयणे अण्णेसु य बहसु बंभण्णएसु य सत्थेसु सुपरिणिडिया यावि होत्था ॥ सू०१६ ॥ . मूलम्-ते णं परिव्वायगा दाणधम्मं च सोयधम्म अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रं शिक्षा, तथाविधसमाचारप्ररूपकं शास्त्रमेव कल्पस्तस्मिन् , 'वागरणे' व्याकरणे शब्दशास्त्रे, 'छंदे' छन्दसि=वृत्तबोधके शास्त्रे, 'निरुत्ते' निरुक्ते शब्दार्थबोधके, ‘जोइसामयणे' ज्योतिषामयने ज्योतिश्शास्त्रे, 'अण्णेसु य बहुसु बंभण्णएमु य सत्थेसु' अन्येषु च बहुषु ब्राह्मण्येषु च शास्त्रेषु-ब्राह्मणेभ्यो हितानि ब्राह्मण्यानि–वेदव्याख्यारूपाणि ब्राह्मणादीनि शास्त्राणि तेषु च बहुषु शास्त्रेषु, ‘सुपरिणिद्विया यावि होत्था' सुपरिनिष्ठिताः परिपक्वज्ञानाश्चापि भवन्ति ॥ सू० १६ ॥ टीका- ते णं परिवाया' इत्यादि। “ते णं परिव्याया' ते खलु परिव्राजकाः, 'दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च ' दानधर्मं च शौचधर्म च कप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोइसामयणे अण्णेसु य बहूसु बंभण्णएमु य सत्थेसु सुपरिणिट्ठिया यावि होत्था) तथा गणित के विषय में, शिक्षा-अक्षर के स्वरूप को निरूपण करने वाले शास्त्र में, कल्प में, व्याकरण शास्त्र में, छंद शास्त्र में, निरुक्त-शब्दार्थबोधक शास्त्र में, एवं ज्योतिष शास्त्र में और भी अनेक बहुत से ब्राह्मणशास्त्रों में ये परिपक्व ज्ञानशाली होते हैं । सू. १६ ॥ 'तेणं परिव्यायगा' इत्यादि (ते णं परिव्वायगा) ये समस्त परिव्राजक (दाणधम्मं च सोयधम्मं च) दानधर्म की, शौचधर्म की, (तित्थाभिसेयं च) तीर्थाभिषेक की (आघवेमाणा) जनता में नगुना। हाय छे. (संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोइसामयणे अण्णेसु य बहूसु बंभण्णएसु य सत्थेसु सुपरिणिद्विया यावि होत्था) तथा गणितना विषયમાં, શિક્ષા-અક્ષરના સ્વરૂપને નિરૂપણ કરવાવાળા શાસ્ત્રમાં, કલ્પમાં, વ્યાકરણ શાસ્ત્રમાં, છંદ શાસ્ત્રમાં, નિરુક્ત-શબ્દાર્થ બેધક શાસ્ત્રમાં, તેમજ જ્યોતિષ શાસ્ત્રમાં અને બીજા પણ અનેક બ્રાહ્મણ શાસ્ત્રોમાં તેઓ જ્ઞાનશાલી હોય છે. (सू. १६) 'तेणं परिव्वायगा' त्याहि. (ते णं परिव्वायगा) मा समस्त परिमा (दाणधम्मं च सोयधम्मं च) नियमनी, शौयधमनी, (तित्थाभिसेयं च) तीर्थ मलिषेनी (आघवेमाणा) Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपातिकसूत्रे च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणा पण्णवेमाणा परवेमाणा विहरंति । जं णं अम्हं किंचि असुई भवइ त णं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं सुई भवइ । एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवित्ता अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो॥ सू० १७॥ तीर्थाभिषेकञ्च, 'आघवेमाणा' आख्यान्तः कथयन्तः, ‘पण्णवेमाणा' प्रज्ञापयन्तः= बोधयन्तः, 'परूवेमाणा' प्ररूपयन्तः उपपत्तिभिः स्वसिद्धान्तं स्थापयन्तो विहरन्ति । 'जं णं अम्हं किंचि असुई भवइ ' यत् खल्वस्माकं किञ्चिदशुचि भवति, 'तं णं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं सुई भवइ ' तत्खलु उदकेन च मृत्तिकया च प्रक्षालितं शुचि भवति-पवित्रं भवति, ‘एवं खलु अम्हे' एवं खलु वयं, 'चोक्खा ' चोक्षाः कृतप्रमार्जनाः-विमलदेहनेपथ्याः, 'चोक्खायारा' चोक्षाचाराः पवित्राचाराः, अतएव -' मुई' पुष्टि करते हुए (पण्णवेमाणा) जनता को ये सब बातें अच्छी तरह समझाते हुए (परूवेमाणा विहरंति) जनता में इनकी युक्तिपूर्वक प्ररूपणा करते हुए विचरते रहते हैं। (जं णं अम्हं किंचि असुई भवइ त णं उदएण य मट्टियाए य पक्वालियं सुई भवइ) वे कहते हैं कि जो कुछ भी हम लोगों की दृष्टि में अपवित्र ज्ञात होता है वह पानी से या मिट्टी से जब प्रक्षालित हो जाता है तब वह शुचि हो जाता है । (एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवित्ता अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्वेणं सग्गं गमिस्सामो) इस प्रकार हम लोग चोखे हैं और हमारा आचारविचार भी चोखा–पवित्र है। नतामा पुष्टि (प्रया२) ४२त। २४, (पण्णवेमाणा), निताने या मधी पाता सारी रीत सभा २४, (परूवेमाणा विहरंति) नतम तभनी युस्तिपूर्व ४ प्र३५। ४२॥ २४। वियरता २९ छे. (जं णं अम्हं किं चि असुई भवइ तं णं उदएण य मट्टियाए य पक्खालियं सुई भवइ) ते॥ ४ छ 2 xis પણ આપણી દષ્ટિમાં અપવિત્ર જણાય છે તે પાણીથી અથવા માટીથી જે घोपामा मावे ते शुस्थि- पवित्र 5 लय छे. (एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमयारा भवित्ता अभिसेयजलपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गमिस्सामो) આ પ્રકારે આપણે ચેકખા છીએ, અને આપણા આચારવિચાર પણ ચેકખા Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषचर्षिणी टीका सु. १८ कर्णादि शीलध्यादि परिव्राजकानामा चारवर्णनम् ५४५. ___ मूलम्-तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पद, अगडं वा तलायं वा नई वा वाविं वा पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालियं शुचयः शुद्धाः 'सुइसमायारा' शुचिसमाचाराः सर्वथा शुद्धाचाराः भवित्ता' भूत्वा 'अभिसेय-जल-पूय-प्पाणो' अभिषेक-जल-पूताs-त्मानः-अभिमन्त्रितजलैः पूताः= पवित्रा आत्मानो येषां ते तथा, 'अविश्वेणं सग्गं गमिस्सामो' अविघ्नेन स्वर्ग गमिष्यामःअस्माकं स्वर्गगमनं निर्बाधमस्ति-इत्यर्थः ॥ सू० १७ ॥ टीका—'तेसिंण परिव्वायगाणं' इत्यादि । 'तेसिं गं परिवायगाणं' तेषां खलु परिव्राजकानाम् , 'णो कप्पइ अगडं वा तलायं वा नई वा वाविं वा पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालियं वा सरं वा सागरं वा ओगाहित्तए' नो कल्पतेऽवटं वा तडागं वा नदी वा वापी वा पुष्करिणी वा दीर्घिकां वा गुञ्जालिका वा सरो हम शुचि हैं और हमारा आचार-विचार भी शुचि हैं। इस तरह शुचि होकर, अभिमंत्रित जल से सर्वथा आत्मा को पवित्र कर हम लोग विना किसी विघ्न के स्वर्ग में जावेंगे-हम लोगों को स्वर्गप्राप्ति निर्बाध है ॥ सू. १७॥ 'तेसिं णं परिवायगाणं' इत्यादि । (तेसिं णं परिवायगाणं) इन परिव्राजकों को (णो कप्पइ) इतनी बातें कल्पित नहीं है-(अगडं वा तलायं वा नइं वा वाविं वा पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालिय वा सरं वा सागरं वा ओगाहित्तए) कूए में प्रवेश करना, तालाब में प्रवेश करना, नदी में प्रवेश करना, बावड़ी में प्रवेश करना, पुष्करिणी में प्रवेश करना, दीर्घिका में प्रवेश करना, गुंजालिका में प्रवेश करना, सरोवर में प्रवेश करना, एवं समुद्र में प्रवेश करना । પવિત્ર છે. અમે શુચિ છીએ, અને અમારા આચારવિચાર પણ શુચિ છે. આવી રીતે શચિ થઈને, અભિમંત્રિત જલથી સર્વથા આત્માને પવિત્ર કરીને અમે કઈ જાતના વિદ્ધ વિના સ્વર્ગમાં જશું–અમને સ્વર્ગની પ્રાપ્તિ નિબંધ છે. (सू. १७) 'तेसिं गं परिव्वायगाणं' त्याहि. (तेसिं गं परिव्वायगाणं) ॥ परिवानी (णो कप्पइ) मारी तो दियत नथी. (अगडं वा तलायं वा नई वा वाविं वा पुक्खरिणिं वा दीहियं वा गुंजालियं वा सरं वा सागरं वा ओगाहित्तए) एवामा प्रवेश ४२वो, तभी . પ્રવેશ કરે, નદીમાં પ્રવેશ કરે, વાવમાં પ્રવેશ કરે, પુષ્કરિણીમાં પ્રવેશ કર, દીઈિકામાં પ્રવેશ કરે, ગુંજાલિકામાં પ્રવેશ કરે, સરેવરમાં પ્રવેશ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमरे वा सरं वा सागरं वा ओगाहित्तए, णण्णत्थ अद्धाणगमणेणं। णोकप्पइ सगडं वा जाव संदमाणियं वा दुरूहित्ताणं गच्छित्तए। वा सागरं वाऽवगाहितुम्, तत्रावटः कूपः, बापी चतुष्कोणजलाशयविशेषः, पुष्करिणी= वर्तुलाकारजलाशयः, दीर्घिका आयताकारजलाशयः, गुलालिका वक्रजलाशयः, सरः= कृत्रिमपद्मयुक्तजलाशयः, तेषु प्रवेष्टुं संन्यासिनां न कल्पते, ‘णण्णस्थ अदाणगमणेणं' नान्यत्राध्वगमनात्=न इति यो निषेधः सोऽध्वगमनादन्यत्र, मार्गे जलाशयप्रवेशो न निषिद्ध इत्यर्थः । ‘णो कप्पइ सगडं वा जाव संदमाणियं वा दुरूहित्ता णं गच्छित्तए' नो कल्पते शकटं वा यावत् स्यन्दमानिकां वाऽधिरुह्य खलु गन्तुम्-शकटमधिरुह्य गन्तुं न कल्पते इत्यन्वयः, यावच्छब्दादिदं बोध्यम्-रथं वा यानं वा युग्यं वा गिल्लिं वा-पुरुषद्वयोत्क्षिप्तदोल्लिकां वा 'मोल्लिकां वा' यानविशेषं वा प्रवहणं वा शिबिकाम् वा इति, थिल्लिंवा =अश्वद्वयवाह्य यानविशेषं वा, तथा स्यन्दमानिकां शिबिकाविशेषं वा, आरुह्य गन्तुं तेषां परिचार कोने वाले जलाशय का नाम बावड़ी, गोल मुहवाले जलाशय का नाम पुष्करिणी, एवं विस्तृत आकारवाले जलाशय का नाम दीर्घिका है, जो जलाशय टेडा होता है उसका नाम गुंजालिका है । इन सब में प्रवेश करना संन्यासियों के लिये निषिद्ध है ।हां (णण्णस्थ अद्धागमणेणं) मार्ग में चलते समय यदि कोई तालाब नदी आदि जलाशय बीच में पड जाय तो अगत्या उसमें होकर जाना निषिद्ध नहीं है । (णो कप्पइ सगडं वा जाव संदमाणियं वा दुरूहित्ता गच्छित्तए) इसी तरह शकट-बैलगाडी पर चढ़कर भी जाना निषिद्ध है । यहां 'यावत्' शब्द से-"रथं वा यानं वा युग्यं वा गिल्लि वा" इत्यादि पाठ गृहीत हुआ है। इसका मतलब इस प्रकार है-रथ पर, यान पर, घोड़े पर, दो पुरुष जिसे लेकर चलते हैं ऐसी કરવો, તેમજ સમુદ્રમાં પ્રવેશ કરે. ચારે કોરેથી ઘેરાયેલું જલાશય હેય તેનું નામ વાવ, ગેળ મુખવાળું જલાશય હોય તે પુષ્કરિણી, તેમજ વિસ્તૃત આકારવાળાં જલાશયને દીધિંકા કહે છે. જે જલાશય વાંકાચુંકાં હોય છે તેનું નામ ગુંજાલિકા છે. આ બધામાં પ્રવેશ કરે એ સંન્યાસીઓને માટે નિષિદ્ધ छ.। (णण्णत्थ अद्धाणगमणेणं) भाभा यासती मते ने ता नही આદિ જળાશય વચમાં આવી જાય તે અગત્યા તેમાં થઈને જવું નિષિદ્ધ નથી. (जो कप्पइ सगडं वा जाव संदमाणियं वा दुरूहित्ता गच्छित्तए) मापी रीत શકટ-અળદનું ગાડું પર ચડીને પણ જવું નિષિદ્ધ છે. અહીં યાવત यी " रथं वा यानं वा युग्यं वा गिल्लिं वा” छत्यादि 8 अडले यो छे. એનો મતલબ એ છે કે રથ પર, યાન પર, ઘોડા પર, બે માણસો જેને Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका स. १७कर्णादि शीलध्यादि परिव्राजकानामाचारवर्णनम् ५५७ तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ आसं वा हत्थिं वा उट्टे वा गोणिं वा महिसं वा खरं वा दुरूहित्ता णं गमित्तए, णण्णत्थ बलामिओगेणं। तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पइ नडपेच्छाइ वा जाव मागहपेच्छाइ वा पेच्छित्तए। तेसिं गं परिवायगाणंणो वाजकानां न कल्पते इत्यन्वयः, 'तेसिं णं परिव्वायगाणं नो कप्पइ आसं वा हत्यि वा उट्टे वा गोणि वा महिसं वा खरं वा दुरूहित्ताणं गमित्तए णण्णत्थ बलाभियोगेणं' तेषां खलु परिव्राजकानां न कल्पतेऽश्व वा हस्तिनं वोष्ट्र वा गां वा महिषं वा खरं वाऽधिरुह्य खलु गन्तुम्-नान्यत्र बलाऽभियोगात्-बलेन बलात्कारेण यः अभियोगः नियोजनं-बलबत्पारन्त्र्यनियोग इत्यर्थः, तस्मात् , अन्यत्र तेषां परिव्राजकानां गन्तुं न कल्पते। 'तेसिं गं परिव्वायगाणं णो कप्पइ नडपेच्छाइ वा जाव मागहपेच्छाइ वा पेच्छित्तए' तेषां खलु परिव्राजकानां नो कल्पते नटप्रेक्षणमिति वा यावन्मागधप्रेक्षणमिति वा प्रेक्षितुम्डोली पर, अथवा झोल्लिका-यानविशेष पर, प्रवहण-पालकी पर, बग्घी पर, एवं स्यन्दमानिका-तामजाम पर चढ़कर भी जाना साधुओं के लिए वर्जित है। (तेसिंणं परिव्वायगाणं णोकप्पइ आसं वा हत्थिं वा उट्टे वा, गोणि वा, महिसं वा, खरं वा दुरूहित्ताणं गमित्तए) उन परिव्राजकों को घोडे पर, हाथी पर, ऊँट पर, बैल पर, भैंसा पर, एवं गधे पर चढ़ कर भी चलना वर्जित है, (णण्णत्थ बलाभिओगेणं) बलाभियोग को छोड कर । यदि कोई हठ करके अर्थात् जबर्दस्ती से बैठाबे तो दोष नहीं है । (तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पइ नडपेच्छाइ वा जाव मागहपेच्छाइ वा पेच्छित्तए) उन परिव्राजकों को यह भी उचित नहीं है, अर्थात् उनके आचारके अनुसार यह भी उन्हें वर्जित है कि वे લઈને ઉપાડીને ચાલે છે એવી ડોલી પર અથવા એલ્લિકા નામના યાનવિશેષ પર, પ્રવહણ-પાલખી પર, બગ્ગી પર તેમજ સ્વમાનિકા–તામજામ પર यदीने ५९ साधुभाने माटे पनि त छ. (तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पड़ आसं वा हत्यिं वा उटुं वा गोणिं वा महिसं वा खरं वा दुरूहित्ताणं गमित्तए) તે પરિવ્રાજકને ઘોડા પર, હાથી પર, ઊંટ પર, બળદ પર, ભેંસા પર, તેમજ गधे ५२ वढीने यासपति छे.(गण्णत्थ बलाभिओगेणं) महालियोछोडीन, ने ४रीने १५२६२तीथी साडी है तो दोष नथी. (तेसिं गं परिव्वायगाणं णो कप्पइ नडपेच्छाइ वा जाव मागहपेच्छाइ वा पेच्छित्तए) परिवाना Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ औपपातिकमत्रे कप्पइ हरियाणं लेसणया वा घट्टणया वा थंभणया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए। तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ इत्थिकहाइ वा भत्तकहाइ वा देसकहाइ वा रायकहाइ वा चोर नटादीनां गीतनृत्यादिकानि प्रेक्षितुं तेषां परिव्राजकानां न कल्पते । 'तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ हरियाणं लेसणया वा घट्टणया वा थंभणया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए ' तेषां खलु परिव्राजकानां नो कल्पते हरितानां वनस्पतीनां श्लेषणता वा घट्टनता वा स्तम्भनता वा लूषणता वोत्पाटनता वा, श्लेषणतादौ सर्वत्र स्वार्थे तल, श्लेषणादिकमित्यर्थः । श्लेषण स्पर्शः, घट्टनता घट्टनं-संघर्षणम् , स्तम्भनता स्तम्भनं-हस्तादिनाऽवरोध , शाखापल्लवादीनां मोटनम् ऊर्वीकरणं च, लूषणता-ठूषणं हस्तादिना पनकादेः संमार्जनम्, 'तेसिं परिवायगाणं णो कप्पइ इत्थिकहाइ वा भत्तकहाइ वा देसकहाइ वा रायकहाइ वा चोरकहाइ वा जणवयकहाइ वा अणत्थदंड करित्तए' तेषां परिव्राजकानां नो कल्पते-'स्त्रीकथा' इति वा, 'भक्तकथा' इति वा 'देशकथा' इति वा, 'राजनटों का एवं मागध आदिकों का खेल-तमासा नहीं देखें और उनके गीत नृत्य आदि नहीं सुनें । (हरियाणं लेसणया वा घट्टणया वा थंभणया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए) हरितवनस्पति का स्पर्श करना, संघर्षण करना, हस्तादिक द्वारा अवरोध करना, शाखा एवं उनके पत्ते आदिकों को ऊँचा करना अथवा उन्हें मोड़ना, हस्त आदि के द्वारा पनक आदि का संमार्जन करना, ये सब बातें भी (तेसिं परिवायगाणं णो कप्पइ) उन परिव्राजकों के लिये कल्पित नहीं है (इत्थिकहाइ वा भत्तकहाइ वा देसकहाइ वा रायकहाइ वा) स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा ( चोरकहाइ वा जणवयकहाइ આચાર અનુસાર એ પણ તેમને વર્જિત છે, કે તેઓ નટોના તેમજ માગધ આદિકના ખેલ-તમાશા જુએ નહીં, અને તેમનાં ગીત નૃત્ય આદિ સાંભળે નહીં. (हरियाणं लेसणया वा घट्टणया वा थंभणया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए) લીલી વનસ્પતિને સ્પર્શ કર, સંઘર્ષણ કરવું, હાથેથી અવરોધ કરે, શાખા તેમજ તેનાં પાંદડાં આદિકેને ઉંચાં કરવાં, અથવા મરડવાં, હાથ આદિથી सीस-फूस साहिन सभाई- ४२वु, मा मधी पात। ५५ (तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ) ते परिवा। माटे दियत नथी. (इत्थिकहाइ वा भत्तकहाइ वा देसकहाइ वा रायकहाइ वा) खी४था, मत था, शि४था, रा४था, (चोरकहाइ वा जणवयकहाइ वा) यो२४था तभ०४ ५४४था (तेसिं णं परिनायगाणं Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोचूपवर्षिणी-टीका सू. १८ अम्बरपरिव्राजकाचार वर्णनम् कहाइ वा जणवयकहाइ वा अणत्थदंडं करित्तए। तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अयपायाणि वा तउयपायाणि वा तंबपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुप्पपायाणि वा सुक्ष्णपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि धारित्तए, कथा' इति वा, 'चोरकथा' इति वा, 'जनपदकथा' इति वाऽनर्थदण्डं कर्तुम्-रूयादीनां कथाः कत्तुं न कल्पन्ते, तथा अनर्थदण्डमपि कर्तुं न कल्पते। 'तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अयपायाणि वा तउयपायाणि वा तंबपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुप्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि धारित्तए' तेषां खलु परिव्राजकानां नो कल्पन्ते-अयःपात्राणि वा त्रपुकपात्राणि वा ताम्रपात्राणि वा जयःदपात्राणि वा सीसकपात्राणि वा रूप्यपात्राणि वा सुवर्णपात्राणि वा अन्यतराणि वा बहुमूल्यानि धारयितुम्, तत्र-अयःपात्राणि लौहपात्राणि, त्रपुकपात्राणि-त्रप्वेव पुकं 'राँगा' इति ख्यातं तस्य पात्राणि, अन्यत् सर्व सुगमम् । ‘णण्णत्य अलाउपाएण वा वा) चोरकथा एवं जनपदकथा, (तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ) ये कथाएँ भी उन परिव्राजकों के लिये कल्पित नहीं है; कारण कि इन कथाओं के करने से (अणत्थदंडं करित्तए) अनर्थदंड का बंध होता है ये कथाएँ अनर्थदंड करानेवाली हैं। (अयपायाणि वा तउयपायाणि वा तंबपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुप्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि धारित्तए तेसिं परिवायगाणं णो कप्पइ) लोह के पात्र, त्रपु के पात्र, तांबे के पात्र, जसद के पात्र, सीसे के पात्र, चांदी के पात्र, सुवर्ण के पात्र, तथा और भी धातु के बहुमूल्य पात्र उन साधुओं को णो कप्पइ) 0 ४थामा पषु त परिमाने भाटे ४ल्पित नथी, पर है से थामा ४२पाथी (अणत्थदंडं करित्तए) अनर्थ उनी मय थाय छ-मा था। सन ७ ४२१वाजी छे. (अयपायाणि वा तउयपायाणि वा तंबपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुप्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि धारित्तए तेसिं परिव्वायगाणं णो कप्पइ) बढानु पात्र ५ (sial), पात्र, तiमानुपात्र, सतनु पात्र, सीसांनुपात्र, यांदान પાત્ર, સુવર્ણનું પાત્ર, તથા બીજી ધાતુનાં બહુમૂલ્ય પાત્ર રાખવાં એ સાધુमाने पोताना माहार विहार मोट हियत नथा. (णण्णत्थ भलाउपाएण वा Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसत्रे णण्णत्थ अलाउपाएण वा दारुपाएण वा मट्टियापाएण वा। तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अयबंधणाणि जाव बहुमुल्लाणि धारित्तए। तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ णाणाविहवण्णरागरत्ताइं वत्थाइंधारित्तए, णण्णत्थ एगाए धाउरत्ताए। तेसिं णं परिदारुपाएण वा मट्टियापारण वा' नाऽन्यत्राऽलाबुपात्राद् वा दारुपात्राद्वा मृत्तिकापात्राद्वा, 'न'इति पूर्वोक्तो निषेधः-तुम्बीपात्रात् काष्ठनिर्मितपात्रात् , मृत्तिकापात्राद्वाऽन्यत्र । तुम्बी-काष्ठमृत्तिकापात्राणि तु संन्यासिनां कल्पन्ते इति भावः । 'तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पइ अयबंधणाणि वा जाव बहुमुल्लाणि धारित्तए ' तेषां खलु परिव्राजकानाम् अयोबन्धनानि लौहबन्धनयुक्तानि पात्राणि, यावच्छब्दात्-त्रपुताम्रादिबन्धनयुक्तानि पात्राणि, तथा बहुमूल्यानि अन्यान्यपि बन्धनानि धारयितुं तेषां संन्यासिनां न कल्पन्ते । ' तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ णाणाविह-वण्ण-राग-रत्ताई वत्थाई धारित्तए' तेषां खलु परिव्राजकानां अपने आहार-विहार आदि के लिये रखना कल्पित नहीं है। (णण्णत्थ अलाउपाएण वा मट्टियापारण वा) तूंबड़ी, काष्ठनिर्मित कमण्डलु, अथवा मिट्टीका पात्र, ये ही उन्हें रखना कल्पता है। ( अयबंधणाणि जाव बहुमुल्लाणि धारित्तए तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ) तथा-लौह के बंधन से युक्त पात्र, त्रपु के बंधन से युक्त पात्र, तांबे के बंधन से युक्त पात्र, जसद के बंधन से युक्त पात्र, सीसे के बंधन से युक्त पात्र, चांदी के बंधन से युक्त पात्र, सुवर्ण के बंधन से युक्त पात्र तथा और भी बहुमूल्य बंधन से युक्त पात्र इन साधुओं को कल्पित नहीं बतलाया गया है। (तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ णाणाविह-वण्ण-राग-रत्ताई वत्थाई धारित्तए णण्णत्थ एगाए धाउरत्ताए) अनेक प्रकार दारुपाएण वा मट्टियापारण वा) लॅमडी, सानु मने भ31 मय। भाटीन पात्र मे तमामे रामस्थित छ. (अयबंधणाणि जाव बहुमुल्लाणि धारित्तए तेसिं गं परिव्वायगाणं णो कप्पइ) तथा बढाना धनथी युक्त पात्र, ત્રપુના બંધનથી યુક્ત પાત્ર, તાંબાના બંધનથી યુક્ત પાત્ર, જસતના બંધનથી યુક્ત પાત્ર, સીસાના બંધનથી યુક્ત પાત્ર, ચાંદીના બંધનથી યુક્ત પાત્ર, સુવર્ણના બંધનથી યુક્તપાત્ર તથા બીજી પણ બહુમૂલ્ય (કીમતી) ધાતુનાં બંધનથી शुत पात्र साधुमाने माटे नियत मताद नथी. (तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पइ णाणाविह-वण्णराग-रत्ताई वत्याइं धारित्तए, णण्णत्थ एगाए धाउरत्ताए) Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषर्षिणी-टीका स. १८ अम्बडपरिव्राजककाचारवर्णनम् व्वापगाणं णो कप्पइ हारं वा अद्धहारं वा एगावलिं वा मुत्तावलि वा कणगावलिं रयणावलिं वा मुरविं वा कंठमुरवि वा पालंबं वा तिसरयं वा कडिसुत्तं वा दसमुदियाणंतगं वा कडयाणि वा नो कल्पन्ते नानाविध-वर्ण-राग-रक्तानि वस्त्राणि धारयितुम् , ‘णण्णत्थ एगाए धाउरत्ताए' नान्यत्रैकस्माद्धातुरक्तात्-केवलं गैरिकादिधातुरक्तं कल्पते इत्यर्थः, । 'तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पइ हारं वा अद्धहारं वा एगावलि वा मुत्तावलि वा कणगावलिं वा रयणावलिं वा मुरविं वा कंठमुरविं वा पालंबं वा तिसरयं वा कडिसुत्तं वा दसमुद्दियाणंतगं वा कडयाणि वा तुडियाणि वा अंगयाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा मउडं वा चूलामणि वा पिणद्धित्तए' तेषां खलु परिव्राजकानां नो कल्पन्ते हारं वाऽर्द्धहारं वा, एकावलिं वा, मुक्तावली वा, कनकावली वा, रत्नावली वा, मुरवि-कर्णभूषणविशेषं वा, कण्ठमुरविं-कण्ठभूषणविशेषं वा, प्रालम्ब वा, त्रिसरकं वा, कटिसूत्रं वा, दशमुद्रिकानन्तकं वा, रूढोऽयं शब्दस्तेन-हस्ताङ्गुलीमुद्रिकादशकमित्यर्थः; कटकानि वा, के रंगों से रंजित वस्त्र भी इन्हें धारण करना उचित नहीं बतलाया गया है। सिर्फ एक गैरिक रंग से रंगा हुआ वस्त्र ही इन्हें धारण करना बतलाया है। (तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ हारं वा अद्धहारं वा एगावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलिं वा रयमावलिं वा मुरविं वा कंठमुरविं वा तिसरयं वा कडिसुत्तं वा दसमुद्दियाणंतगं वा कडयाणि वा तुडियाणि वा अंगयाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा मउडं वा चूडामणि वा पिणद्धित्तए, णण्णस्थ एगेणं तंबिएणं पवित्तएणं) हार, अर्द्धहार, एकावलि, मुक्तावलि, कनकावलि, रत्नावलि, मुरवी, कण्ठमुरवी. ( ये कंठ के आभઅનેક પ્રકારના રંગથી રંગાએલાં વમ પણ તેઓએ ધારણ કરવાં ઉચિત નથી. માત્ર એક ગેરના રંગથી રંગાયેલ વસ્ત્ર જ તેમણે ધારણ કરવાનું मतायुं छे. (तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ हारं वा अद्धहारं वा एगावलिंबा मुत्तावलिं वा कणगावलिं वा रयणावलिं वा मुरविं वा कंठमुरविं वा पालंबं वा लिसरयं वा कडिसुत्तं का दसमुद्दियाणंतगं वा कडयाणि वा तुडियाणि वा अंगयाणि वा केऊ- . राणि वा कुंडलाणि का मउडं वा चूडामणि वा पिणद्धित्तए, णण्णत्थः एगेणं तंबिएणं पवितएणं) खार, मार, पति, भुतावलि,. अनापति, रत्नापति, મુરવી, કંઠમુરવી, (આ બધા કંઠના આભરણે છે) પ્રાલંબ, ત્રણ સરને Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ औपपातिकसूत्र तुडियाणि वा अंगयाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा मउडं वा चूलामणि वा पिणद्धित्तए,णण्णत्थ एगेणं तंबिएणं पवित्तएणं। तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमे चउव्विहे मल्ले धारित्तए, णण्णत्थ एगेणं कण्णरेणं । तेसिं गं त्रुटिकानि वा, अङ्गदानि केयूरान् वा, कुण्डानि वा, मुकुटं वा, चूडामणिं वा पिनद्भुम् ; हारादीनि तेषां परिव्राजकानां न कल्पन्ते परिधातुमित्यर्थः । ‘णण्णस्थ एगेणं तंबिएणं पवित्तएणं' नाऽन्यत्रैकस्मात्ताम्रमयात्पवित्रकात्-ताम्रमयमङ्गुलायकं पवित्रकनानकं तु तेषां परिधर्तुं कल्पत इति भावः । 'तेसिं गं परिवायगाणं णो कप्पइ गथिम-वेढिमपूरिम-संघाइमे चउबिहे मल्ले धारित्तए' तेषां खलु परिव्राजकानां नो कलान्ते प्रन्थिमवेष्टिम-पूरिम-सङ्घातिमानि चतुर्विधानि माल्यानि धारयितुम्-ग्रन्थेन ग्रन्थनेन नर्वृत्तं निर्मितं मालारूपं प्रन्थिमम् ; वेष्टेन वेष्टनेन निर्वृत्तं वेष्टिमम् , परिमं पूरणेन निर्वृत्तम् , संघातेन निर्वृत्त सङ्घातिमम् ; एतानि चतुर्विधानि माल्यानि धारयितुं न कल्पन्ते इत्यर्थः; ‘णण्णत्थ एगेणं कण्णपूरेणं' नान्यत्रैकस्मात्कर्णपूरकात्-एकं पुष्पमयं कर्णपूरं तेषां न निषि इमिति भावः ।। रण विशेष हैं), प्रालंब, तीन लरका हार, कटिसूत्र, दशमुद्रिकाएँ, कटक, त्रुटिक-बाजूबंध, अंगद, केयूर, कुंडल, मुकुट, चूड़ामणि, इनका पहिरना भी इन साधुओं को कल्पता नहीं है। एक तांबे की अंगूठी ही इन्हें हाथ की अंगुली में धारण करना कल्पता है। (तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पइ गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमे चउबिहे मल्ले धारित्तए, णण्णत्थ एगेणं कण्णपूरेणं ) इन परिव्राजकों को गूंथ कर बनाई गई, वेष्टित कर बनाई गई, एवं परस्पर दो पूलों को संयुक्त करके बनाई गई, ऐसी चर प्रकार की मालाओं का पहिरना भी कल्पता नहीं है। एक पुष्पों का रचित कर्णफूल ही कान में ७।२, टिसूत्र, ४२ मुद्रिामा (1), ४४४, त्रुटि४- माध, 18 ५२, કુંડલ, મુકુટ, ચૂડામણિ, એ પહેરવું પણ આ સાધુઓને કલ્પતું નથી. એક diमानी सही ४ तेथे डायनी मांगनीमा धारण ४२वी ४८पे छ (तसिं गं परिव्वायगाणं णो कप्पइ-गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमे चउब्विहे मल्ले धारित्तए णण्णत्थ एगेणं कण्णपूरेणं) मा परिवाने सुथार मनासी, वल्टिशने मनाવેલી, સંચા ઉપર પૂરીને બનાવેલી તેમજ પરસ્પર બે પુળાને જે ડીને બના વેલી એવી ચાર પ્રકારની માલાએ પહેરવી ક૫તી નથી. સિફ પુપનું એક ८ भने ४६५नीय छ. (तेसिं णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अगलुएण वा Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणो-टोका स. १९ अम्बडपरिव्राजकाचारवर्णनम् परिव्वायगाणं णो कप्पइ अगलुएण वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए, णण्णत्थ एकाए गंगामट्टियाए ॥ सू० १८॥ .. मूलम्-तेसिं णं परिव्वायगाणं कप्पइ मागहए पत्थए 'तेसिं णं परियायगाणं णो कप्पइ-अगलुएण वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए' तेषां खलु परिव्राजकानां नो कल्पतेऽगरुणा वा चन्दनेन वा कुङ्कुमेन वा गात्रमनुलेप्तुम्-सुगन्धितद्रव्येण गात्राऽनुलेपनं संन्यासिनां न कल्पते इत्यर्थः, 'णण्णत्थ एक्काए गंगामट्टियाए 'नाऽन्यत्रैकस्या गङ्गामृत्तिकायाः-एकां गङ्गामृत्तिका वर्जयित्वाऽयं निषेध इत्यर्थः ॥ सू० १८॥ टीका-'तेसिं गं' इत्यादि । 'तेसिं णं' तेषां खलु 'परिवायगाणं कप्पइ मागहए पत्थए जलस्स पडिग्गाहित्तए' परिव्राजकानां कल्पते मागधं प्रस्थं जलस्य परिग्रहीतुम् , प्रस्थः परिमाणविशेषः, तथाहि-'दो असईओ पसई, दोहि पसईहिं उनके लिये पहिरना अवर्जित है। (तेसिं णं परिवायगाणं णो कप्पइ अगलुएण वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिपित्तए णण्णस्थ एकाए गंगामट्टियाए) तथा उन परिव्राजकों के लिये अगुरु से, चंदन एवं कुंकुम से शरीर पर लेप करना भी निषिद्ध है। सिर्फ यदि वे लेप करना चाहें तो एक मात्र गंगा की मिट्टी का लेप कर सकते हैं । सू. १८॥ 'तेसिंणं' इत्यादि। (तेसिं णं परिवायगाणं ) उन प्रत्येक परिव्राजकों को अपने उपयोग में लाने के वास्ते (मागहए पत्थए जलस्स पडिग्गाहित्तए कप्पइ) केवल मगधदेश-प्रचलित प्रस्थप्रमाणमात्र जल लेना कल्पता है । प्रस्थ एक माप का नाम है। कहा भी है-दो चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए णण्णत्थ एक्काए गंगामट्टियाए) तथा ते પરિવ્રાજકને માટે અગુરુથી, ચંદનથી તેમજ કંકુથી શરીર પર લેપ કરવો પણ નિષિદ્ધ છે. જે તે લેપ કરવા ચાહે તે એકમાત્ર ગંગાની માટીને લેપ ४री श छ. (सू. १८) " तेसिं णं" छत्याहि. (तेसिं णं परिव्वायगाणं) प्रत्ये परिमाये तान उपयोगमा सेवा माटे (मागहए पत्थए जलस्स पडिग्गाहित्तए कप्पइ) मगध देशमा प्रयલિત પ્રસ્થપ્રમાણમાત્ર જલ લેવું કપે છે. પ્રસ્થ” એક માપનું નામ છે. Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे, से वि य थिमिओदए णो चेव णं कदमोदए, से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव णं अबहुप्पसण्णे, से वि य परिपूए णो सेइया होइ । चउसेइओ उ कुलओ चउकुलओ पत्थओ होइ ॥१॥ चउपत्थमाढयं तह चत्तारि य आढया भवे दोणो।' छाया-द्वे असती प्रसृतिः, द्वाभ्यां प्रसृतिभ्यां सेतिका भवति । चतुष्सेतिकस्तु कुलवश्चतुष्कुलवः प्रस्थो भवति ॥ १॥ चतुष्प्रस्थमाढकं तथा चत्वारि आढकानि भवेद् द्रोणः ॥ इति । मागधप्रस्थपरिमितं जलं संन्यासिनां परिग्रहीतुं कल्पते इत्यर्थः । ' से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे' तदपि च जलं वहमानं= नद्यादिस्रोतोवर्ति व्याप्रियमाणं वा परिग्रहीतुं कल्पते, नो चैवाऽवहमानम्। ‘से वि य थिमिओदए णो चेव णं कदमोदए' तदपि च स्तिमितोदकं नो चैव खलु कर्दमोदकम् , स्तिमितोदकं पङ्कसम्पर्करहितं कल्पते, यत्र तु कर्दमसम्पर्कोऽस्ति तज्जलं न कल्पते-इत्यर्थः, ‘से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव णं अबहुप्पसण्णे' तदपि च जलं बहुप्रसन्नम् अतिअसती की एक प्रसूति होती है। दो प्रसृति की एक सेतिका, चार सेतिकाओं का एक कुलव और चार कुलवों का एक प्रस्थ होता है । यह पहिले समय में काष्ठ का बनता था । चार प्रस्थों का एक आढक और चार आढकों का एक द्रोण होता है । इनके लिये प्रस्थप्रमाण जल उपयोग में लेने का विधान किया गया है (से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे) वह भी बहती हुई नदी आदि का होना चाहिए, बिना बहता हुआ जल लेना उन्हें निषिद्ध है। ( से वि थिमिओदए णो चेव णं कद्दमोदए ) वह भी यदि स्वच्छ हो तब ही ग्रहण करने योग्य कहा गया है, कर्दम से मिश्रित नहीं। (से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव णं अबहुप्पसण्णे) स्वच्छ होने पर भी निर्मल हो तब ही ग्राह्य हो सकता કહ્યું પણ છે–એ અસતીની એક પ્રસૂતિ થાય છે. બે પ્રકૃતિની એક સેતિકા, ચાર સેતિકાઓનો એક કુલવ અને ચાર કુલવને એક પ્રશ્ય થાય છે. આ અગાઉના સમયમાં લાકડાંને બનતે હતો. ચાર પ્રસ્થાને એક આઢક અને ચાર આઢકોને એક દ્રોણ થાય છે. પ્રસ્થપ્રમાણુ જલના ઉપગનું વિધાન २ ४२ छ (से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे) ते ॥ ५ पता नही साहिन युिनेस, विना परतुं स तभने निषिद्ध छे. (से वि य थिमिओदए णो चेव णं कद्दमोदए) ते ५ ते १२७ डाय तो अडाय ४२१॥ योग्य छ, ४६ भथी मिश्रित नहि. (से वि य बहुप्पसण्णे णो चेव णं Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूष वर्षिणी-टोका स्रु. १९ अम्बडपरिव्राजका चारवर्णनम् चेवणं अपरिपूए, से वि य णं सेवि य पिबित्तए, णो चेव णं , " दिण्णे णा चेव णं अदिण्णे, हत्थ - पाय - चरु- चमस - पक्खालहाए सिणाइत्तए वा । तेसिं णं परिव्वायगाणं कप्पइ मागहए स्वच्छं कल्पते, नो चैव खलु अबहुप्रसन्नम्, ' से वि य परिपूए णो चेत्र णं अपरिपूए नदपि च जलं परिपूतं=वस्त्रेण गालितं कल्पते, नो चैव खल्वपरिपूतम्, से वि य णं दिणे णो चेवणं अदिण्णे ' तदपि च खलु दत्तं कल्पते, न चैव खल्वदत्तम्, 'सेवि य पिबित्त णो चेवणं हस्थ- पाय - चरु - चमस - पक्खालणट्टाए सिणाइत्तए वा' तदपि च पातुं कल्पते नो चैव खलु हस्तपादचरुचमसप्रक्षालनार्थम्, तत्र-हस्तौ पादौ च प्रसिद्धौ । चरुः= अन्नपात्रं, यस्मिन् भिक्षान्नं स्थाप्यते । चमसो - दर्विका - परिवेषणपात्रं 'चमचा' इति प्रसिद्धम्, है, अतिनिर्मल नहीं होने पर ग्राह्य नहीं हो सकता । ( से वि य परिपूए णो चेव षं अपरिपूर) अतिनिर्मल होने पर भी वस्त्र से छाना जाने पर ही कल्पित कहा गया है, अनछना पानी अपने उपयोग में लाने का निषेध है ( से वि य णं दिण्णे णो चेवणं अदिण्णे ) छना हुआ होने पर भी किसी दाता के द्वारा दिया गया ही ग्रहण करने के योग्य कहा है, विना दिया हुआ नहीं । ( से वि यः पिबित्तए णो चैव हत्थ -पाय-चरुचमस - पक्खालणट्ठाए ) दिया गया भी जल का उपयोग केवल पीने के लिये ही करने की आज्ञा है, हाथ-पैर, चरु - भोजन पात्र एवं चमचा धोने के लिये उसका उपयोग विहित नहीं है, अर्थात् हाथ पैर आदि धोने के काम में उसको नहीं ला सकते, (सिणाइत्तए वा ) । ५५५ अबहुप्पसण्णे) २१२४ होवा छतां पशु अतिनिर्माण होय तो ग्राह्य थ श छे, अतिनिर्माण न होय तो ग्राह्य यह शस्तु नथी. (से वि य परिपू णो चेव णं अपरिपूर) अतिनिर्माण होवा छतां पशु वस्त्रधी गजामेसु હાય તા જ કલ્પિત કહેલુ છે. વગર ગળાયેલું પાણી પેાતાના ઉપયાગમાં बानु निषिद्ध छे. (से वि य णं दिण्णे णो चेव णं अदिष्णे) गाणेसु होय છતાં પણુ કાઇ દાતા દ્વારા અપાએલું જ ગ્રહણ કરવા ચેાગ્ય કહેવામાં આવ્યું छे, वगर हीधेसु नहि. ( से वि य पिबित्तए णो चेव हत्थ - पाय - चरु - चमस - पक्खा - लणट्टाए) आलु होय तेवा नसो उपयोग पशु ठेवण पीवा भाटे ४ १२पानी खाज्ञा छे, हाथ-पत्र, थ३-लोभन पात्र, तेभन यभया घोवा भाटे તેના ઉપયેગ કરવા વિહિત નથી, અર્થાત્ હાથ પગ આદિ ધાવાના કામમાં तेन। उपयोग इरी शाय नहि. (सिणाइत्तए वा) तेन तेना उपयोग स्नान Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ औपपातिकसूत्रे आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे, जाव णं अदिण्णे, सेवि य हत्थपायचरुचमसपक्खालट्टयाए, णो चेवणं पिबित्तए सिणाइत्तए वा ॥ सू० १९ ॥ " एतेषां प्रक्षालनार्थं स्नातुं वा न कल्पते इति । 'तेसिंणं परिव्वायगाणं कप्पइ मागहए आढए जस्स पडिग्गाहित्तए ' तेषां खलु परिव्राजकानां कल्पते मागधमाढकं जलस्य परिग्रहीतुम्, ' से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे जाव णं अदिण्णे ' तदपि च वहमानं नो चैव खल्ववहमानं यावत्खलु अदत्तम्, यावच्छब्दात्कर्दम रहितं स्वच्छं, वखगालितं च कल्पते, अवहमानादिकं तु न कल्पते इति बोध्यम् । ' से वि य हत्थ - पाय - चरु - चमस - पक्खालणट्टयाए ' तदपि च हस्त-पाद- चरु - चमस - प्रक्षालनार्थम्, 'णां चेत्र णं पिबत्तए सिणाइत्तए वा' नो चैव खलु पातुं स्नातुं वा ॥ सू० १९ ॥ और न उसका उपयोग स्नान करने में ही किया जाता है। इसी प्रकार ( तेसिं णं परिव्वायगाणं कप्पइ मागहए आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे जाव णं अदिण्णे, से विय हत्थ - पाय - चरु- चमस - पकखालणgure, णो चेवणं पिबत्तए सिणाइत्तए वा ) इन साधुओं के लिये मगधदेशीय प्रस्थ प्रमाणमात्र जल ही हाथ, पैर, पात्र, चम्मच आदि धोने के लिये ग्राह्य बतलाया गया है। वह भी बहता हुआ ही होना चाहिये - स्थिर नहीं । उसमें भी वह अतिस्वच्छ एवं वस्त्र सेना हुआ तथा दाता के द्वारा दिया गया होना चाहिये, इससे भिन्न नहीं ऐसा जल हस्त पाद, चरु एवं चमचा के धोने के काम में आ सकता है; अन्यथा नहीं । अतः 1 वामां पशु ४री शाय नहि मे प्रारे (तेसिं णं परिव्वायगाणं कप्पइ मागहुए आढए जलरस पडिग्गाहित्तए से वि य वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे जाव णं अदि से विय हत्थ - पाय - चरु - चमस - पक्खालणट्ट्याए णो चेव णं पिबित्तए सिणाइत्तए वा ) मा साधुयाने भाटे भगधद्देशीय प्रस्थप्रभाणु भात्र જય જ હાથ પગ પાત્ર ચમચા આદિ ધાવાને માટે ગ્રાહ્ય બતાવવામાં આવ્યું છે. તે પણ વહેતું હેાય તે જ હાવુ' જોઇએ, ન વહેતું હોય તે નહિ. તેમાં પણુ તે અતિસ્વચ્છ તેમજ વસ્ત્રથી ગાળેલુ તથા દાતા દ્વારા અપાએલું હાવુ જોઈએ, તેનાથી બીજું નહિ. એવું જલજ હાથ, પગ, ચરૂ તેમજ ચમચાને ધાવાના કામમાં આવી શકે છે, બીજી નહિ. આમ એ નિમિત્તે પ્રાપ્ત કરા Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. २० अम्बडपरिव्राजकानां देवलोकस्थितिवर्णनम् ५५७ मूलम् ते णं परिव्वायगा एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं परियाय पाउणंति, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारोभवति। . टीका-' ते णं परिव्वायगा' इत्यादि । ' ते णं परिव्वायगा' ते खलु परिव्राजकाः 'एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा' एतद्रूपेण-उक्तरूपेण विहारेण विहरन्तः, 'बहूई वासाइं परियाय पाउणंति' बहूनि वर्षाणि पर्यायं पालयन्ति, 'पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा' पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा 'उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति' उत्क्रोशेन ब्रह्मलोके कल्पे देवत्वेनोपपत्तारो भवन्ति, 'तहिं इस निमित्त प्राप्त किये गये जल को पीने अथवा स्नान के काम में लाने का निषेध है ॥ सू. १९॥ 'ते णं परिव्वायगा' इत्यादि । (ते णं परिव्वायगा) ये परिव्राजक (एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा) इस प्रकार के विहार से विचरण करते हुए अर्थात् इस प्रकार की परिस्थिति में रहते हुए (बहूई वासाइं परियायं पाउणंति) अपने जीवन के बहुत वर्षों को इसी पर्याय का पालन करते २ जब व्यतीत करते हैं, तब (कालमासे कालं किच्चा) कालमास के उपस्थित होने पर मर कर वे (उक्कोसेणं)ज्यादा से ज्यादा (बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति) ब्रह्मलोक नामक पंचमकल्प में देवता की पर्याय से उत्पन्न हो जाते हैं। (तहिं तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई) वही पर उनको गति एवं वहीं पर उनकी स्थिति शास्त्रों में वर्णित की યેલ જલને પીવા અથવા નાન કરવાના કામમાં લેવાનો નિષેધ છે. (સૂ. ૧૯) - " ते णं परिव्वायगा" त्यादि. (ते णं परिव्वायगा) ये रिवा४४ (एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा) । પ્રકારના વિહારથી વિચરણ કરતાં કરતાં, અર્થાત્ આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં २ता (बहूई वासाइं परियाय पाउणंति) पोताना न पा रसाने मे पर्यायना पासनमा व्यतीत ४२ छ. त्यारे (कालमासे कालं किच्चा) म१सरे ४ ४शने तसा (उक्कोसेणं) पधारेभा पधारे (बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति) प्रक्ष नामना पांयमा ४६५मा हेक्तानी पर्यायथा उत्पन्न २७ नय छ, (तहिं तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई) त्या तभनी गति तभ०४ त्यां Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ औपपातिकसूत्र तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई। दससागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सेसं तं चेव ॥ सू० २०॥ मूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसयाइं गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलमासंमि गंगाए महानईए उभओकूलेणं कंपिल्लपुराओ णयराओ तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई ' तत्र तेषां गतिः, तत्र तेषां स्थितिः । 'दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता' दश सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव ॥ सू० २० ॥ टीका-तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । ' तेणं कालेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'अम्मडस्स परिवायगस्स सत्त अंतेवासिसयाई' अम्बडस्य परिव्राजकस्य सप्तान्तेवासिशतानि सप्तशतसंख्यका अन्तेवासिनः-शिष्याः, 'गिम्हकालसमयसि जेद्वामूलमासंमि' ग्रीष्मकालसमये ज्येष्ठामूलमासे-ज्येष्ठानक्षत्रे मूलनक्षत्रे वा पूर्णिमा यस्मिन् तस्मिन् , ज्येष्ठमासे इत्यर्थः । 'गंगाए महाणईए उभओगई है। इस स्थिति का प्रमाण (दस सागरोवमाइं) वहां १० दस सागर है, (सेसं तं चेव) यावत् ये भाराधक नहीं होते हैं । सू० २० ॥ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' इत्यादि । (तेणं कालेणं समएणं) उस काल में एवं उस समय में (अम्मडस्स परियायगस्स) अम्बड नामक परिव्राजक (संन्यासी) के (सत्त अंतेवासिसयाई) सात सौ शिष्य (गिम्हकालसमयंसि) ग्रीष्म काल के समय (जेट्ठामूलमासंमि) ज्येष्ठ मास में (गंगाए तेमनी स्थिति शालोमा न ४२सी छ. २॥ स्थितिनु प्रभार (दस सागगेवमाइं) त्यi १० स सानु छे. (सेसं तं चेव) यावत् त। मा२।५५ डता नथी. (सू. २०) " तेणं कालेणं तेणं समएणं " त्यादि. (तेणं कालेणं तेणं समएणं) मा तभ० ते समयमा (अम्मडस्स परिव्वायगस्स) २५२५७ नामना परिका (सन्यासी)ना (सत्त अंतेवासिससयाई) सातसो शिष्य (गिम्हकालसमयसि) श्रीभ जना समयमा (जेवामूलमासंमि) २४ महिनामा (गंगाए महाणईए उभओ कूलेणं) 10 नहाना मन्ने त Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू. २१ अम्बडपरिव्राजकशिव्यविहारः ५५९ पुरिमतालं जयरं संपट्टिया विहाराए ॥ सू० २१ ॥ _. “मूलम्-तए णं तेसिं परिठवायगाणं तीसे अगामियाए छिण्णोवायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं कूलेणं ' गंगाया महानद्या उभयतः कूलेन उभयतटाभ्याम् , 'कंपिल्लपुराओ जयरामो पुरिमतालं जयरं संपद्विया विहाराए' काम्पिल्यपुरानगरात्पुरिमतालं नगरं संप्रस्थिता विहाराय-विहर्तुम् ॥ सू० २१॥ टीका-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं' ततः खलु ‘तेसिं परिवायगाणं' तेषां परिव्राजकानाम् , 'तीसे अगामियाए ' तस्या अग्रामिकायाः-ग्रामसम्बन्धरहितायाःग्रामाद्दूरवर्तिन्या इत्यर्थः; 'छिन्नोवायाए' छिन्नावपातायाः जनागमनिर्गमरहितायाःनिर्जनाया इत्यर्थः; 'दीहमद्धाए' दीर्घाऽध्वायाः दीर्घमार्गायाः-प्रान्तरावस्थिताया इत्यर्थः; 'अडवीए' अटव्याः वनस्य 'कंचि देसंतरमणुपत्ताणं' किञ्चिद्देशान्तरमनुप्राप्तानाम् = महाणईए उभो कूलेणं) गंगा नदी के दोनों तटों से होकर, (कंपिल्लपुराओ जयराओ पुरिमतालणयरं संपट्ठिया) कांपिल्यपुर नगर से पुरिमताल नगर की ओर विहार के लिये निकले ॥ सू० २१ ॥ 'तए णं' इत्यादि। (तए णं) इसके बाद (तेसिं परिव्वायगाणं) उन परिव्राजकों का (तीसे अगामियाए अडवीए) जब कि वे चलते २ एक भयंकर अटवी में आ पहुँचे, जो ग्राम के सम्बंध से सर्वथा रहित थी-ग्राम से बहुत दूर थी, (छिन्नोवायाए) इसलिये यहां पर मनुष्यों का संचार बिलकुल ही नहीं था, अर्थात् वह अटवी निर्जन थी, (दीहमद्धाए) रास्ते इसके बड़े विकट थे, (कंचि देसंतरमणुप्पत्ताणं) इसका थोड़ा सा ही भाग इन्होंने तय कर पाया ५२ धने (कंपिल्लपुराओ जयराओ पुरिमतालणयरं संपट्ठिया) ४iveयपुर नारथी पुरिभतार नगरनी त२५ विडार भाटे नीxvil. (सू. २१) " तए गं" त्याहि. (तए णं ) त्या२ पछी (तेसिं परिव्वायगाणं) ते परिवार, (तीसे अगामियाए अडवीए) न्यारे यासdi यसतi से सय ४२ सटवी (न)मा मापी પહોંચ્યા કે જે વન ગામના સબંધથી સર્વથા રહિત હતું-ગામથી બહુ દૂર 6. (छिन्नोवायाए) तथा मही मनुष्योन। सयार मिस नहाता मेरो a न निईन तु. (दीहमद्धाए) तेना २२ता महु वि४८ ता. (कंचि Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपपातिकस्रो से पुव्वग्गहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुंजमाणे झीणे॥ सू० २२॥ मूलम्-तए णं ते परिव्वायगा झीणोदगा समाणा तण्हाए पारब्भमाणा २ उदगदायारमपस्समाणा अण्णमण्णं सदावेंति, सदावित्ता एवं वयासी ॥ सू० २३ ॥ कंचित् प्रदेशमागतानां 'से' तत् 'पुव्वग्गहिए' पूर्वगृहीतम् 'उदए' उदकम् 'अणुव्पुवेणं' आनुपूर्येग 'परि जमाणे' परिभुज्यमानं 'झीणे. क्षीणं-क्षयं प्राप्तम् ॥ सू० २२॥ टीका--'तए णं ते परिवाया' इत्यादि । 'तए णं ते परिव्याया' ततः खलु ते परिव्राजकाः 'झीणोदगा समाणा' क्षीणोदकाः सन्तः, 'तण्हाए' तृष्णया पिपासया, 'पारब्भमाणा २' प्रारभ्यमाणाः२=पीड्यमानाः२-व्याकुलीभवन्तः, व्याकुलीभावेहे तुगर्भविशेषणमाह-'उदगदायारमपस्समाणा' उदकदातारमपश्र न्तः, तेषामदत्ताग्राहित्वादिति भावः, 'अण्णमण्णं सदावेति' अन्योऽन्यं शब्दयन्ति-परस्परमाह्वयन्ति, शब्दयित्वा=आहूय 'एवं वयासी' एवमवादिषुः-एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदन्ति स्म ॥ सू० २३ ॥ था कि इतने में (से पुव्वग्गहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुजमाणे झीणे) चलते समय अपने स्थान से लाया हुआ जल क्रमशः पीते २ खतम हो गया ॥ सू० २२ ॥ 'तए णं से परिवाया' इत्यादि । (तए णं) इस के बाद (ते परिवाया झीणोदगा समाणा) वे परिव्राजक कि जिनका पानी बिलकुल समाप्त हो चुका है, (तण्हाए पारब्भमाणा २) पुनः तृषा से अत्यंत पीडित-व्याकुल होते हुए (उदगदायारमपस्समाणा) उस समय किसी पानी दाता को देसंतरमणुपत्ताण) तेना था। मा तमो याच्या मेटमामा (से पुव्वग्गहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुजमाणे झीणे) यासती मते पोताना स्थानेथी सास are वे उजवे पीतां पीतi ५३ २४ गयु. (सू. २२) _ " तए णं ते परिव्वाया ” छत्यादि. (तए ण) त्या२ पछी (ते परिवाया झीणोदगा समाणा) ते परित्रा। मना पाणी मिage समास थ यू४यां छे, (तण्हाए पारब्भमाणा २) तेस। तरसथी गई ०४ पीडित-व्या धने (उदगदायारमपस्समाणा) ते नभये । पाणीना हाताने न नेपाथी (अण्णमण्णं सदावेंति) ५२२५२ र ने Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका सु. २४ अम्बडपरिव्राजक शिष्य विहारः ५६१ मूलम् — एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए कंचि देसतरमणुपत्ताणं से उदए जाव झीणे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए 6 6 टीका--ते परिव्राजकाः परस्परं यदवादिषुस्तन्निर्दिशति - ' एवं खलु देवाणुपिया' इत्यादि । ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! ' एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! अहं sire अगामि आए जाव अडवीए ' अस्माकमरया अग्रामिकाया यावदटव्याः, कंचिदेसंतरमणुपत्ताणं से उदए जाव झीणे ' किञ्चिदेशान्तरमनुप्राप्तानां तत् उदकं यावत् क्षीणम्, 'तं सेयं खलु देवाणुप्पिया' तत् तस्मात् श्रेयः खलु हे देवानुप्रियाः ? ' अहं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए ' अस्माकमस्यामग्रामिकायां यावदटव्याम्, नहीं देखकर, (अण्णमण्णं सदावेति) परस्पर में एक दूसरे का आह्वान करने लगे, (सद्दावित्ता एवं वयासी) और आह्वान करके इस प्रकार बोले || सू० २३ ॥ एवं खलु देवाणुपिया ! ' इत्यादि । ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! ) हे देवानुप्रियों ! यह बात बिलकुल ठीक है कि (अहं इमी अगामियाए जाव अडवीए कंचिदेसंतरमणुपत्ताणं से उदए जाव झीणे) हम लोगों का, इस अग्रामिक अटवी में कि अभी जिसे थोड़ी ही तय की है, वह अपने २ स्थान से लाया हुआ जल अब समाप्त हो चुका है, (तं सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्हं इमी अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समंता वेसणं करिए) ऐसी हालत में हमारे तुम्हारे लिये यही एक कल्याणकारक मार्ग है कि हम इस अग्रामिक एवं निर्जन अटवी में सर्व प्रकार से चारों ओर किसी जलमोसावा साज्या, ( सद्दावित्ता एवं वयासी) भने मोसावी या प्रारे उडेवा साज्या ( सू० २३ ) " एवं खलु देवाणुप्पिया ! " इत्याहि. ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! ) हे हेवानुप्रियो ! मे बात जिसस ही छे ( अहं इमी अगामियाए जाव अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से उदए जाव झीणे) आयो मा वनभां थोडी दूर यासीने माप्या छीमे, भने हुमां જરાક જ શકાયા છીએ, ત્યાં તે પોતાના સ્થાનેથી લાવેલું પાણી સમાસ ग. ( तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए उद्गदायारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करिश्तए) मेवी हासतभां भभारा Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ औपपातिकसूत्रे जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए-त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमé पडिसुणेति, पडिसुणित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स 'सव्वओ समंता मग्गणगवेषणं करेंति, करित्ता उदगदायार'उदगदायारस्स सबओ समंता मग्गणगवसणं करित्तएत्ति कटु' उदकदातुः सर्वतः समन्तात् मार्गणगवेषणं कर्तुम् इति कृत्वा, 'अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढे पडिसुणेति' अन्योऽन्यस्य अन्तिके एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति, 'पडिसुणित्ता' प्रतिश्रुत्य 'तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति' तस्याम् अग्रामिकायां यावदटव्याम् उदकदातुः सर्वतः समन्ताद् मार्गणगवेषणं कुर्वन्ति, 'करित्ता' कृत्वा, 'उदगदायारमलभमाणा' उदकदातारम् अलभमानाः, - 'दोचंपि दाता की मार्गणा एवं गवेषणा करें, (त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमé पडिसुणेति) इस प्रकारकी की गई सलाह सबने एकमत होकर मान ली। (पडिमुणित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति) पश्चात् उस सलाह के अनुसार वे सब उस अग्रामिक अटवी में सर्व प्रकार से चारों ओर पानी के देने वाले दाता की गवेषणा करने में संलग्न हो गये । (करित्ता उदगदायारमलभमाणा दोचपि अण्णमण्णं सदावेंति सदावित्ता एवं वयासी) गवेषणा करते २ जब उन्हें कोई તમારા માટે એ જ એક કલ્યાણકારક માર્ગ છે કે આપણે આ અગ્રામિક તેમજ નિર્જન વનમાં સર્વ પ્રકારથી ચારે કોરે કઈ જલના દાતારની માગણી तभ०४ ५ ४श. (त्ति कट्ठ अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठ पडिसुणेति) २ प्रा२नी ४२सी ससाड पधारी भत ने मानी.बीधी. ५०ी (पडिसुणित्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदायारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति) ते साडने मनुसरीने ते या ते मयाभि मटी (वन)मा સર્વ પ્રકારથી ચારે કોર પાણી દેવાવાળા દાતારની શોધ કરવામાં સંલગ્ન २४ गया. (करित्ता उद्गदायारमलभमाणा दोच्चंपि अण्णमण्णं सद्दावेंति सद्दावित्ता एवं वयासी) शोध ४२di ४२di पर तमने न्यारे । ५५५ पाना Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. सू. २५ अम्बडपरिव्राजकशिष्यविहारः मलभमाणा दोचंपि अण्णमण्णं सदावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी ॥ सू० २४ ॥ मूलम्-इह णं देवाणुप्पिया ! उदगदातारो णत्थि, तं णो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं गिण्हित्तए, अदिण्णं साइअण्णमण्णं सदावेति' द्वितीयमपि-द्वितीयवारमपि अन्योऽन्यं शब्दयन्ति, 'सदावित्ता' शब्दयित्वा 'एवं वयासी' एवमवादिषुः ।। सू० २४ ॥ टीका--' इह णं देवाणुप्पिया!' इत्यादि । 'इह णं देवाणुप्पिया!' इह खलु हे देवानुप्रियाः ! — उदगदातारो णत्थि' उदकदातारो न सन्ति । 'तं णो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं गिहित्तए' तत्-तस्मात् नो खलु कल्पतेऽस्माकमदत्तम् उदकं ग्रहीतुम् , 'अदिण्णं साइजित्तए' अदत्तम् उदकं स्वादयितुं पातुम् , 'तं मा णं अम्हे इयाणिं' तन्मा खलु वयमिदानीम् , 'आवइकालंपि' आयतिकालमपि आगामिनि भी पानी का दाता नहीं मिला तब उन्होंने द्वितीयवार भी परस्पर में एक-दूसरे का आह्वान किया, और आह्वान करके इस प्रकार बोले ॥ सू० २४ ॥ 'इह णं देवाणुप्पिया' इत्यादि । (इह णं देवाणुप्पिया ! उदगदायारो णत्थि) हे देवानुप्रियो ! प्रथम तो इस अटवी में एक भी उदकदातार नहीं है, (तं णो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं गिण्हित्तए) दूसरे-हम लोगों को अदत्त जल ग्रहण करना उचित नहीं है, (अदिण्णं साइज्जित्तए) कारण कि अदत्त जल का पान करना हम लोगों की मर्यादा से सर्वथा विरुद्ध है । (तं मा णं अम्हे इयाणिं आवइकालं पि अदिणं गिण्हामो अदिण्णं साइजामो मा णं દાતાર મળે નહિ ત્યારે તેઓએ બીજી વાર પણ પરસ્પર એકબીજાને मोसाव्या, मसापीने २॥ ४ारे ४ा दायां (सू० २४) " इह णं देवाणुप्पिया" त्याहि. (इह णं देवाणुप्पिया) : हेवानुप्रिया! प्रथम तो 40 सटवीमा मेय पाणीना हाता२ नथी, (तं णो खलु कप्पइ अम्हं अदिणं गिण्हित्तए) मी माथुने महत्त १८ घड ४२ लयित नथी. (अदिणं साइज्जित्तए) કારણ કે અદત્ત જલને પીવું તે આપણી મર્યાદાથી સર્વથા વિરુદ્ધ છે. (तं मा णं अम्हे इयाणिं आवइकालंपि अदिण्णं गिण्हामो अदिण्णं साइजामो मा Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक जित्तए, तं मा णं अम्हे इयाणि आवइकालं पि अदिष्णं गिण्हामो, अदिष्णं साइज्जामो, मा णं अम्हं तवलोवे भविस्सा | तं सेयं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तिदंडं, कुंडियाओ य, कंच ५६४ 6 समयेऽपि 'अदिष्णं गिण्हामो ' अदत्तं गृह्णीमः - अदत्तमुदकं न स्वीकुर्मः, 'अदिण्णं साइज्जामो ' अदत्तं स्वादयामः = अदत्तं जलं मा स्वादयाम इत्यन्वयः, माणं अम्हं तवलोवे भविस्स' मा खलु अस्माकं तपोलोपो भविष्यति, अदत्तस्याग्रहणेऽनास्वादने चास्माकं तपोलोपो न भविष्यतीत्यर्थः । ' तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! ' तत् = तस्मात् श्रेयः खलु अस्माकं हे देवानुप्रियाः ! ' तिदंडयं ' त्रिदण्डकं ' कुंडियाओ य कुण्डिकाश्च=कमण्डलून्, 'कंचणियाओ य' काञ्चनिकाश्च = रुद्राक्षमालिकाः, ' करोडियाओ अहं तवलोवे भविस्सइ) तथा हम सब लोगों का यह भी दृढ निश्चय है कि आगामी काल में भी हम सब विना दिया हुआ जल न ग्रहण करें और न उसे पियें; क्योंकि इस प्रकार के आचरण से हमारी तपस्या का लोप हो जायगा; अतः वह भी सुरक्षित रहे इस अभिप्राय से हममें से किसी को भी अदत्त जल ग्रहण नहीं करना चाहिये और न उसे पीना ही चाहिये। (तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! तिदंडं कुंडियाओ य, कंचणियाओ य, करोडियाओ य, भिसियाओ य, छष्णालए य, अंकुसए य, केसरियाओ य, पवि तय, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य, धाउरत्ताओ य, एगं एडित्ता गंगं महानई ओगाहित्ता) इसलिये हे देवानुप्रियो ! अब हम सब की भलाई इसी में है कि हम सब त्रिदण्डों को, कमण्डलुओं को, रुद्राक्ष की मालाओं को, करोटिकाओं - णं अहं तवलोवे भविस्सइ ) तथा मायणे दृढनिश्चयी छीलविषयाणमां પણ દીધેલુ ન હોય એવું જલ ગ્રહણ કરવું નહિ અને પીવું નહિ, કેમકે એ પ્રકારના આચરણથી આપણી તપસ્યાના લેપ થઈ જશે, માટે તે સુરક્ષિત રહે એવા અભિપ્રાયથી આપણામાંના કોઈ એ પણ અદત્ત જલ श्रद्धालु न १२वु ले यो अने ते चीवु पशु न लेई मे. ( तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! तिदंडं, कुंडियाओ य, कंचणियाओ य, करोडियाओ य, केसरियाओ य, पवित्तर य, गणेन्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य धाउरत्ताओ य एते एडित्ता गंगं महानई ओगाहित्ता ) मे भाटे हे देवानुप्रियो ! हवे આપણી ભલાઇ એમાં જ છે કે આપણે ત્રત્રુડાને, કમ હ્યુએને, રૂદ્રાક્ષની Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स्र. २५ अम्बडपरिव्राजक शिष्याणां संस्तारकग्रहणम् ६५५ णियाओ य, करोडियाओ य, भिसियाओ य, छण्णालए य, अंकुस य, केसरियाओ य, पवित्तए य, गणेत्तियाओ य, छत्तए य, वाहणाओ य, पाउयाओ य, धाउरत्ताओ य एगंते एडित्ता, गंगं महाणई ओगाहिता, वालुयासंथारए संथरित्ता, संलेहणा 4 , , य' करोटिकाश्च= मृण्मयभाजन विशेषान्, 'भिसियाओ य' वृषिकाश्च–उपवेशनपट्टिकाः, 'छष्णालए य' षण्णालिकानि च = त्रिकाष्ठिकाः, ' अंकुसर य ' अङ्कुशकांश्च-आकर्षणिकाः–वृक्षपल्लवाद्याकर्षण साधनविशेषान् देवार्चने पत्रपुष्पफलानां संग्रहार्थमङ्कुशका उपयुज्यन्ते; ‘केसरियाओ य ' केशरिकाश्च = प्रमार्जनार्थानि वस्त्रखण्डानि, ' पवित्तए य पवित्रकाणि= ताम्रमयमुद्रिकाः, 'गणेत्तियाओ य ' हस्तधार्या रुद्राक्षमालाः, ' गणेत्तिया इति हस्तधार्यरुद्राक्षमालार्थे देशीयशब्दः ; 'छत्तए य' छत्राणि च ' वाहणाओ य ' उपानहश्च, ' पाउयाओ य ' पादुकाश्च = काष्ठपादुकाः, ' धाउरत्ताओ य ' धातुरक्ताश्व = गैरिकोपरञ्जिताः, शाटिकाः = संन्यासिपरिधानीयवस्त्राणि, एतानि सर्वाणि ' एगंते एडिचा ' एकान्ते त्यक्त्वा, 'गंगं महाणई ओगाहित्ता' गङ्गामहानदीमवगाह्य गङ्गायां महानद्यामवतीर्थ- 'वालुया संथारए संथरित्ता' वालुकामंस्तारकान् संस्तीर्य, 'संलेहणाझूसियाणं' संलेखना मिट्टी के बने हुए पात्रविशेषों को, वृषिकाओं - बैठने के पाटियों को, तिपाइयों को, देवों की पूजा के लिये पत्र - पुष्पादिकों के गिराने के वास्ते सदा पास में रहनेवाली छोटी सी अंकुशिका को, केशरिका को प्रमार्जन करने के काम में आनेवाले वस्त्र के खंडों को, तामे की सुंदरियों को, सुमरिनियों को, छत्रों को, जूतों को, काष्ठ की पादुकाओं को एवं गैरकधातु से रक्त पहिरने की धोतियों को एकान्त में छोड़कर महानदी गंगा को पारकर ( वालुया संथारए संथरित्ता ) उसके तट पर बालुका का संथारा बिछावें और उस पर આદિ માળાઓને, કરેાટિકાએ-માટીનાં બનેલાં પાત્ર વિશેષાને, વૃષિકાઓ--બેસવાના पाटसामने, त्रियार्धमाने (घाडीने), हेवाने पून निमित्त पत्र, पुण्य રાખવા માટે સદા પાસે રહેવાવાળી નાની સરખી અંકુશિકાને, કેશરિકાઓનેપ્રમાર્જન કરવાના કામમાં આવવાવાળા વજ્રના કટકાઓને, તાંબાની भुहरियाने, सुभरिनियोने, छत्रोने, भेडाने, साउडानी पाहु असोने, તેમજ ગેરૂ રંગેલાં પહેરવાનાં ધાતિયાંઓને એક ઠેકાણે રાખી દઈ ને भहानही गंगाने उतरीने ( वालुयासंथारए संथरित्ता ) तेना तट पर रेतीना Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र झूसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खियाणं पाओवगयाणं कालं अणवकैखमाणाणं विहरित्तएत्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयम? पडिसुणेति, पडिसुणित्ता तिदंडए य जाव एगंते एडेंति, एडित्ता गंगं महाणइं ओगाहेति, ओगाहित्ता वालुआसंथारए संथरंति, जुष्टानाम्--तपसा शरीरस्य कृशीकरणं संलेखना तया जुष्टानां सेवितानां-युक्तानाम , 'भत्तपाण-पडियाइक्खियाणं' भक्तपान-प्रत्याख्यातानाम् ' 'पाओवगयाणं' पादपोपगतानाम् छिन्नवृक्षवन्निष्पन्दतयाऽवस्थितानाम् , 'कालं अणवक खमाणाणं विहरित्तए त्ति कट्ट' कालमानवकाङ्क्षतां-मरणमनिच्छतां विहर्तुमिति कृत्वा, 'अण्णमण्णस्स अंतिए एयमद्वं पडिसुऐति' अन्योऽन्यस्याऽन्तिके एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति, 'पडिसुणित्ता' प्रतिश्रुत्य 'तिदंडए य जाव एगंते एडेंति' त्रिदण्डकांश्च यावत् सर्वोपकरणानि एकान्ते त्यजन्ति, 'गंगं महाणइं ओगाहेति गङ्गां · महानदीमवगाहन्ते=अवतरन्ति, 'ओगाहित्ता' अवगाह्य= (भत्तपाणपडियाइक्खियाणं) भक्तपान का प्रत्याख्यान कर (पाओवगयाणं) छिन्नवृक्ष की तरह निश्चेष्ट होते हुए (कालं अणवकंखमाणाणं) मरण की इच्छा से रहित होकर (संलेहणाझसियाणं विहरित्तए) संलेखनापूर्वक मरण को प्रेम के साथ सेवन करें। (त्तिकटु ) इस प्रकार विचारकर (अण्णमण्णस्स अंतिए एयमद्वं पडिमुणेति) उन लोगोंने इस निर्धारित बात को स्वीकार कर लिया, (पडिसुणित्ता) स्वीकार करने के बाद (तिदंडए य जाव एगते एडेंति ) फिर उन सबने अपने २ त्रिदंड आदि उपकरणों को एकान्त में परित्यक्त कर दिया, (एडित्ता गंगं महाणइं ओगाहेंति) परित्यक्त कर चुकने पर फिर वे सब के सब उस महानदी गंगा में प्रविष्ट हुए, ( ओगा. संथा। पिछवीमे, मने तेना ५२ (भत्तपाण-पडियाइक्खियाणं) सतपानना प्रत्याध्यान रीने (पाओवगयाण) पाहपोमन संथा। रीने (कालं अणवस्खमाणाण) भनी ४२७ाथी २डित ने (संलेहणाझूसियाणं विहरित्तए) सखे मनापूर्व भ२- प्रेमथा सेवन ४२. (त्ति कट्ट) - ४२नो विया२ ४१ (अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिसुणेति) ते साये । निर्धा२ अरेसी पातना स्वी४२ ४३१ सीधे. (पडिसुणित्ता) स्वी४२ ४ा पछी (तिदंडए य जाव एगंते एडेंति) ते अधारी पातपाताना हि माहि ५४२णने सान्त स्थानमा परित्यत ४१ घi, (एडित्ता गंगं महनई ओगाहेंति) छोडी सीधा पछी ते Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -पोयूषवषिणो-टीका सू. २५ अम्बडपरिव्राजकशिष्याणां संस्तारग्रहणम् ५७ संथरित्ता वालुयासंथारयं दुरूहिति, दुरूहित्ता पुरत्थाभिमुहा संपलियंकनिसपणा करयल जाव कटु एवं वयासी ॥ सू० २५॥ मूलम् नमोत्थुणंअरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोत्थुणं अवतीर्य ‘वालुयासंथारए' वालुकास्तारकान् ‘संथरंति' संस्तृणन्ति, 'संथरित्ता' संस्तीर्य वालुयासंथारयं' वालुकालस्तारकं दुरूहिति' दूरोहन्ति आरोहन्ति, 'दुरूहित्ता' दूरुहट आरुहय. 'पुरथिमाभिमुहा' पौरस्त्याभिमुखाः पूर्वदिङ्मुखाः, 'संपलियंकनिसण्णा' सम्पर्यकनिषण्णाः-संपर्यः पद्मासनं तेन निषण्णाः-पद्मासनेनोपविष्टाः, 'करयल जाव बट्ट एवं वयासी करतल यावत्कृत्वा मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवदन् ॥ सू० २५ ॥ टीका-'नमोत्थु णं इत्यादि।'नमोत्थुणं अरहताणं जाव संपत्ताणं' नमोऽस्त्वहद्भ्यो यावत् सम्प्राप्तेभ्यः, यावच्छब्दात्-आदिकरेभ्यः, तीर्थङ्करेभ्यः स्वयं संबुद्धेभ्यः-इत्यादीनि विशेषणानि पूर्वार्धगतविंशतिसंख्यकसूत्राद् बोध्यानि। सिद्धगतिनामधेयं स्थानं सम्प्राप्तेभ्यः । हित्ता वालुआसंथारए संथरंति ) उसे पार कर उन लोगोंने बालंकाका संथारा बिछाया, (संथरित्ता वालुयासंथारयं दुरूहिति) बिछाकर उसपर वे फिर चढ गये, (दुरूहित्ता) चढ़कर (पुरत्थाभिमुहा संपलियंकनिसण्णा करयल जाव कट्ट एवं क्यासी) पूर्व दिशा की ओर मुँह कर पर्यङ्कासन से बैठ गये और दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगा इस प्रकार कहने लगे । सू० २५ ॥ -... "णमोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं' इत्यादि। ... (णमोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं) यावत् मुक्ति प्राप्त हुए श्री अर्हतप्रभु को नमस्कार हो। (समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव.संपाविउकामस्स नमोत्थु णं) याय 1 भडानही आगामी प्रविष्ट थया.. (ओगाहित्ता कालुआसंथारए संथरंति) तेने पा२ रीने तमासे मादुरा (२ती) न संथा। पिछाव्या. (संथरित्ता वालुयासंथारयं दुरूहिति) (वीन तेन। ५२ ते 21. (दुरूहित्ता) मेसीने (पुरत्थाभिमुहा संपलियंकनिसण्णा करयल जावं कट्ट एवं वयासी) पूर्व दिशानी २६ મોઢા રાખી પર્યક-આસનથી બેસી ગયા અને બંને હાથને જોડીને મસ્તક 6५२ शमीने २॥ प्रारे वा साया. (सू. २५) .. 'मोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं' त्याहि. . (णमोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं) मुहितने प्रात थये। श्री मत प्रभुने नभ२४१२ डी. (समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स नमो Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ औपपातिकमरे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, नमोत्थु णं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। पुचि णं अम्हेहिं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलगपाणाइवाए पञ्चक्खाए जावज्जीवाए, सव्वे मुसावाए अदिण्णादाणे पञ्चक्खाए जावजीवाए, सव्वे मेहुणे पञ्चक्खाए जाव'नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स' नमोऽस्तु खलु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सम्प्राप्तुकामाय, 'नमोत्थु णं अम्मडस्स परिवायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स' नमोऽस्तु खल्वम्बडाय परिव्राजकाय अस्माकं धर्माचार्याय धर्मोपदेशकाय । धर्माचार्यत्वं प्रकटयति-'पुट्विं णं अम्हेहिं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलगपाणाइवाए पच्चक्रवाए जावज्जीवाए' पूर्वं खल्वस्माभिरम्बडस्य परिवाजकस्याऽन्तिके स्थूलप्राणातिपातः प्रत्याख्यातो यावज्जीवम्-जीवनपर्यन्तं स्थूलप्राणातिपातविरमगमस्माभिरङ्गीकृतम्। 'मुसावाए अदिण्णादाणे पञ्चक्खाए जावज्जीवाए' श्रमण भगवान् महावीर को जो मुक्ति प्राप्त करने के कामो हैं नमस्कार हो। (धम्मोवदेसगस्स धम्मायरियस्स अम्हं परिवायगस्स अम्मडस्स नमोत्थु णं) धर्म के उपदेशक धर्माचार्य ऐसे हमारे गुरु अम्मड परिव्राजक को नमस्कार हो। (पुचि णं अम्हेहि अम्मडस्स परिवायगस्स अंतिए थूलगपाणाइवाए जावज्जीवाए पञ्चक्खाए) पहिले हम लोगों ने अम्बड परिव्राजक के समीप स्थूलप्राणातिपातका यावजीव प्रत्याख्यान किया है। (सव्वे मुसावाए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए सव्वे मेहुणे पञ्चक्वाए जावजीवाए थूलपरिग्गहे पचक्खाए जावज्जीवाए) इसी तरह त्थु ण) श्रभर मावान् भडावी२ रे मुद्रित प्रा ४२वानी मनापा छ भने नभ२४॥२ . (धम्मोवदेसगस्स धम्मायरियस्स अम्हं परिव्वायगस्स अम्मडस्स नमोत्थु ण) धर्मना पहेश धायार्य सेवा समा। गुरु अमर परिप्राशने नम२४।२ . (पुल्वि णं अम्हेहिं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलगपाणाइवाए जावज्जीवाए पच्चक्खाए) पसां ममे से 44 परिवानी पासे स्थू। प्रायतिपातनु या प्रत्याभ्यान ४यु छ, (सव्वे मुसावाए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, सव्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, थूलपरिग्गहे Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. २६ अम्बडपरिव्राजकशिष्याणां संस्तारग्रहणम् ५६९ जीवाए, थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावजीवाए, इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामोजावज्जीवाए, एवं जाव सव्वं परिग्गहं पञ्चक्खामो जावजीवाए, सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पेजं दोसं कलहं अब्भक्खाणं मृषावादोऽदत्ताऽऽदानं प्रत्याख्यातं यावजीवम् , ' सव्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए सर्वं मैथुनं प्रत्याख्यातं यावजीवम् , 'थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावज्जीवाए' स्थूल: परिग्रहः प्रत्याख्यातो यावजीवम् । 'इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्यं पाणाइवायं पञ्चक्खामो जावज्जीवाए' इदानी वयं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिके सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामो यावजीवम् , “एवं जाव सव्वं परिग्गरं पञ्चक्खामो जावज्जीवाए' एवं यावत् सर्वं परिग्रहं प्रत्याख्यामो यावज्जीवम् , 'सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पेज्जं दोसं कलहं अब्भक्खाणं पेसुण्णं परपरिवायं अरइरई मायामोसं समस्त मृषावाद का समस्त अदत्तादान का जीवनपर्यन्त परित्याग कर दिया है, समस्त मैथुन का यावज्जीवन परित्याग कर दिया है। स्थूल परिग्रहं का भी यावज्जीवन परित्याग कर दिया है। (इयाणि अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पञ्चक्खामो जावज्जीवाए ) अब इस समय हम सब लोग श्रमण भगवान् महावीर के समीप पुनः समस्त प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान करते हैं, ( एवं जाव सव्वं परिग्गरं पञ्चक्खामो जावज्जीवाए) इसी तरह समस्त परिग्रह आदि का भी जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान करते हैं, ( सव्यं कोहं माणं मायं लोहं पेज दोसं कलह पच्चक्खाए जावज्जीवाए) मेवी शते समस्त भृषावाहन। सने समस्त महत्ताદાનને જીવનપર્યન્ત પરિત્યાગ કરી દીધો છે, સમસ્ત મૈથુનને જીવનપર્યન્ત પરિત્યાગ કરી દીધો છે. સ્થૂલ પરિગ્રહને પણ યાવન્યજીવન પરિત્યાગ કરી हीधे। छे. (इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामो जावज्जीवाए) डव २मा समये अभे अपाय हो। श्रभर सगवान મહાવીરની પાસે વળી પાછા સમસ્ત પ્રાણાતિપાતનું જીવનપર્યન્ત પ્રત્યાખ્યાન शय छाये. (एवं जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामो जावज्जीवाए) मेवी । રીતે સમસ્ત પરિગ્રહ આદિનું પણ જીવનપર્યન્ત પ્રત્યાખ્યાન કરીએ છીએ. (सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पेज्जं दोसं कलहं अब्भक्खाणं पेसुण्णं परपरिवायं अरइ. Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे 6 पेपणं परपरिवार्य अरइरई मायामोस मिच्छादंसणस अकरणिज्जं जोगं पञ्चक्खामो जावज्जीवाए, सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चव्विपि आहारं पच्चक्खामो जावज्जीवाए, जं पि य इमं मिच्छादंसणस ं अकरणिजं जोगं पच्चक्खामो जावज्जीवाए ' सर्वं क्रोधं मानं मायां लोभं प्रियं द्वेषं कलहम् अभ्याख्यानं पैशुन्यं परपरिवादम् अरतिरती मायामृषा मिथ्यादर्शनशल्यमकरणीयं योगं प्रत्याख्यामो यावज्जीवम् - अत्रत्यानि सर्वाणि पदानि प्राग् व्याख्यातानि । सर्व्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विपि आहारं पच्चक्खामो जावज्जीवाए ' सर्वमशनं पानं खाद्यं स्वाद्यं चतुर्विधमपि आहारं प्रत्याख्यामो यावज्जीवम् । ' जंपि य इमं सरीरं इट्ठे कंतं पिय मणुण्णं मणामं पेज्जं थेज्जं वेसासियं समयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, मा णं सीयं मा णं उन्हं माणं खुहा माणं पिवासा माणं वाला माणं अभक्खाणं पेसुणं परपरिवार्य अरइरई ) इसी तरह उन्हीं की साक्षीपूर्वक समस्त का, समस्त मान का, समस्त माया का, समस्त लोभ का, समस्त प्रिय का समस्त द्वेष का, कलह का, अभ्याख्यान का, पैशुन्य का, परपरिवाद का अरति - रति का ( मायामोसं) मायामृषा का, (मिच्छादंसणसलं) मिथ्यादर्शन शल्य का, ( अकरणिज्जं जोगं) एवं अकरणीय योग का ( पच्चक्खामो जावज्जीवाए ) यावज्जीव प्रत्याख्यान करते हैं । ( सव्र्व्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चव्विपि आहारं पञ्चकखामो जावज्जीवाए ) समस्त, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य इन चार प्रकार के आहारों का यावज्जीव प्रत्याख्यान करते हैं । ( जंपि य इमं सरीरं इद्वं कंतं प्रियं मणुण्णं मणामं पेज्जं थेज्जं वेसासियं संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरेंडगसमाणं, मा णं सीयं माणं उन्हं मा णं खुहा माणं रई) मेवी रीते तेमनी ४ साक्षी पूर्व समस्त धनु, समस्त भाननु, સમસ્ત માયાનું, સમરત લેાભનુ, સમસ્ત પ્રિયન્તુ, સમસ્ત દ્વેષનું, કલહનું अल्याच्याननुं (भाजनु ), पैशुन्यनु, घरपरिवाहनु, भरतिनु, रतिनु, (मायामोसं) भायाभृषानु', (मिच्छादंसणसल्लं) मिथ्यादर्शनशस्यनु, (अकरणिज्जं जोगं) तेभन मरणीय योगनु (पचक्खामो जावज्जीवाए) वनपर्यन्त प्रत्याख्यान उरी छीये. (सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विपि आहारं पच्च क्खामो जावज्जीवाए) समस्त अशन, पान, मद्य, स्वाद्य वगेरे यार प्रहारना खाडाशेनुं यावन्लवन प्रत्याख्यान उरी छीथे. (अं पि यइ सरीरं तं प्रियं मणामं मणुण्णं पेज्जं थेज्जं वेसासियं संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंड - ५७० Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो टोका सृ. २६ अम्बड परिव्राजककशिष्याणां संस्तारग्रहणम् ५७१ सरोरं इझं कंतं पियं मणुण्णं मणाम पेज थेजं वेसासियं संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, माणं सीयं माणं उण्हं माणं चोरा मा ण दंसा मा णं मसगा मा णं वाइयपित्तियसिभियसंनिवाइय विविहा रोगायंका परिसहोवसग्गा फुसंतु' इदं पुरतो वर्तमानं शरीरम् इष्टं-वल्लभम् , कान्तं= कमनीयम् , प्रियं-सदा रोमाऽऽस्पदम् , मनोज्ञं-सुन्दरम् , मनोऽमं=मनसाऽम्यते प्राप्यते पुनः पुनः संस्मरणतो यत्तन्मनोऽमम् , प्रेयः सर्वपदार्थेष्वतिशयेन प्रियमिति प्रेयः, अथवा कालान्तरनयनात्प्रेर्यम् , स्थैर्य स्थैर्यवत्-स्थिरम् इत्यर्थः, वैश्वासिकम्-विश्वासः प्रयोजनम्-अस्येति वैश्वासिकम्-प्राणिनां परशरीरमेव प्राचुर्येणा ऽविश्वासहेतुः,निजशरीरं तु प्रतीतिपात्रमेव भवति, संमततत्कृतकार्याणां सम्मतत्वात्, बहुमतं-बहुशोबहूनां वामध्ये मतम्-इष्टं यत्त हुमतम् , अनुमतं-वैगुपदर्शनेऽपि अनुप्रश्वात्मतम्-अनुमतम् , अतएव भाण्डकरण्डकसमानं-भाण्डानाम् भूषगानां करण्डकसमानं--भूषणमञ्जूषातुल्यमुपादेयमित्यर्थः, एतादृशं शरीरं मा शीतं शैत्यं स्पृशदु, मापिवासा मा णं वाला मा णं चोरा मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइयपित्तियसिभियसंनिवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु) यहां पर सर्वत्र "मा" शब्द निषेध अर्थ में, एवं “णं" शब्द वाक्यालंकार में प्रयुक्त हुआ समझना चाहिये । इष्ट-वल्लभ; कान्त-कमनीय, प्रिय-सदा प्रेमास्पद, मनोज्ञ-सुन्दर, मनोम-समस्त की अपेक्षा अत्यंत प्रिय, स्थैर्य-स्थिरतायुक्त, वैश्वासिक-पर शरीर की अपेक्षा जीवों को अपना शरीर अतिशय प्रीति का स्थान होता है इस अपेक्षा अतिशय प्रीतिका पात्र, शारीरिक कार्यों के संमत होने से संमत, बहुत करके अथवा बहुतों के मध्य में इष्ट होने से बहुमत, अनुमत-विगुणता के दिखने पर भी प्रेम का स्थानभूत, जिस प्रकार भूषणों का करंडक प्रिय समाणं मा णं सीयं मा णं उण्हं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं वाला मा णं चोरा मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइयपित्तियसिंभियसंनिवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु) मडी सर्वत्र 'मा' २०६ निषेधन पर्थमा तभी 'णं' શબ્દ વાકયાલંકારમાં વાપરેલે સમજવું જોઈએ. ઈષ્ટ-વલભ, કાન્ત-કમનીય, પ્રિય-સદા પ્રેમાસ્પદ, મને જ્ઞ–સુંદર, મનમ–સમસ્તની અપેક્ષા અત્યંત પ્રિય, ધૈર્ય–સ્થિરતાયુક્ત, વિશ્વાસિક–બીજાનાં શરીરની અપેક્ષાએ જીવને પિતાનાં શરીર અતિશય પ્રીતિનું સ્થાન હોય છે–એ દષ્ટિએ અતિશય પ્રીતિને. પાત્ર, શારીરિક કાર્યો માટે સંમત હેવાથી સંમત, ઘણું કરીને અથવા ઘણાઓની વચમાં ઈષ્ટ તેથી બહુમત, અનુમત-વિગુણતા જવા છતાં પણ પ્રેમના સ્થાનભૂત, જે પ્રકારે ઘરેણુને કરંડીયે પ્રિય હોય છે તેવી રીતે પ્રિય હોવાને Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ औपपातिकसूत्रे खुहा मा णं पिवासा माणं वाला माणं चोरा मा णं मसगा मा णं वाइयपित्तिर्यासभियसंनिवाइय विविहा रोगायंका परिसहोवसग्गा फुसंतु-त्ति कटु एयंपिणं चरमेहि ऊसासणीसासेहि वोसिशब्दा निषेधार्थः, 'ण' शब्दा वाक्यालङ्कारार्थः; शैत्यं कर्तृ शरीरकर्मकं स्पर्शनं न करोतु,एवमेवोष्णक्षुधा-पिपासा-व्याल-चौर-दंश-मशक-वातिक-पैत्तिक श्लैष्मिक-सान्निपातिकादया विविधा रोगातङ्काः परीषहा उपसर्गाश्चैतच्छशरीरं न स्पृशन्तु। अत्र व्यालाः सर्पाः, रोगाः महाव्याधयः, आतङ्काः सद्योधातिनो रोगा एव, परीषहाः क्षुधादयो द्वाविंशतिः, उपसर्गाः दिव्यादयः, अन्यत् सुगमम् । 'त्तिकट्ट ' इति कृत्वा 'एयं पिणं चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं वोसिरामि त्तिकट्ट' एतदपि खलु चरमैरुच्छ्वासनिःश्वासैर्युत्सृजामि--एतदपि शरीरं त्यजामि इति कृत्वा= इत्थं विचार्य 'संलेहणाझूसणाझूसिया' संलेखना-जूषणा-जुष्टाः-संलेखनायां कषायहोता है उसी प्रकार से प्रिय होने कारण भाण्डकण्डक के तुल्य (इम) इस मेरे (सरीरं) शरीरको शीत स्पर्श न करे, उण स्पर्श न करे, क्षुधा स्पर्श न करे, पिपासा स्पर्श न करे, व्याल-सर्प स्पर्श न करे, चोर उपद्रव न करे, दंस-डांस स्पर्श न करे, मशक-मच्छर स्पर्श न करे, वातसंबंधी, पित्तसंबंधी, कफसंबंधी, सन्निपातसंबंधी आदि विविध रोग-महाव्याधियां, आतंक-सद्य:प्राणहर रोग, परीषह-क्षुधाआदि एवं उपसर्ग-देवादिक कृत उपद्रव, कोई भी इस शरीर को स्पर्श न करें; (:त्तक१) इस प्रकार की विचारधारा को (चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं वोसिरामि) अब चरम उच्छासनिःश्वास तक छोड़ते हैं। (त्तिकट्ट) इस तरह करके (संलेहणाझूसणाझसिया) संलेखना में-कषाय एवं शरीर के कृश करने में प्रीति से युक्त वे ४२णे मांड४२३४ना तुक्ष्य (इम) मा भारा (सरीरं) शशश्न 1 २५श न ४रे, गरमी २५श न ४२, भूम २५श न ४२, त२स २५श न उरे, व्यासસર્પ સ્પર્શ ન કરે, ચોર ઉપદ્રવ ન કરે, દંશ-ડાંસ સ્પર્શ ન કરે, મશકभ२०२ २५श न ४२, पातमधी, पित्तसी , सी , सन्निपातસંબંધી આદિ વિવિધ રંગ-મહાવ્યાધિઓ, આતંક–તીવ્રપ્રાણહર રોગ, પરીપહ-સુધા આદિ તેમજ ઉપસર્ગ–દેવદિકકૃત ઉપદ્રવ, એવું કાંઈ પણ આ शरीरने २५श न ४२. (त्ति कट्ट) मा ४२नी विचारधाराने (चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं वोसिरामि) डवे यम वासनिःश्वास सुधी छोड्छु. (त्तिक१) भावी रीते ४शन (संलेहणाझूसणाझूसिया) सपनामां-उषाय तेभा शरीरने दृश ४२वाभां प्रीतिथी युत, ते मधा (भत्तपाणपडियाइक्खिया) मत तेभर Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका स्व. २६ अम्बडपरिब्राजकशिष्याणां संस्तार ग्रहणम् ५७३ रामि-तिक संलेहणासणाझूसिया भत्तपाणपडियाइ क्खिया पाओवगया कालं अणवर्कखमाणा विहरंति ॥ सू० २६ ॥ मूलम् -- तणं ते परिव्वायगा बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति, छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं शरीरकृशीकरणे या जोषणा - प्रीतिः तया जुष्टाः सेविताः, ' भत्तपाणपडियाइक्खिया ' प्रत्याख्यातभक्तपानाः, 'पाओवगया ' पादपोपगताः - वृक्षवन्निष्पन्दतया स्थिताः, 'कालं अणवकंखमाणा' कालमनवकाङ्क्षन्तः, केचिद् वेदनाविकला मरणमिच्छन्ति तेषां निषेधार्थ - तद्वाक्यम् एवम्भूता विहरन्ति - अम्बडपरिवाजकशिष्या इति ॥ सू० २६ ॥ टीका- 'तए णं ते परिव्वायगा ' इत्यादि । ' तए ं ते परिव्वायगा ' ततः खलु ते परिव्राजकाः - अम्बडशिष्याः कृतकायोत्सर्गाः - ' बहूई भत्ताईं अणसणाए छेदेंति' बहूनि भक्तानि अनशनेन छिन्दन्ति, 'छेदित्ता ' छित्त्वा ' आलोइयपडिकंता ' आलोचितप्रतिक्रान्ताः=गुरुजनस्य समीपे कृताssलोचनाः, प्रतिक्रान्ताः - पापस्थानात्पश्चा सब के सब (भत्तपाणपडियाइक्खिया ) भक्त एवं पान का प्रत्याख्यान करके ( पाओबगया) वृक्ष की तरह निश्रेष्ट होकर (कालं अणवखमाणा हिरंति ) मरने की इच्छा नहीं करते हुए स्थित हो गये || सू० २६ ॥ 'तए णं ते परिव्वायगा इत्यादि । (तए णं) इसके बाद ( ते परिव्वायगा ) उन समस्त पारत्राजकोने ( बहूईं भत्ता) चारों प्रकार के आहार का ( अणसगाए ) अनशन द्वारा (छेदेति) छेद कर दिया, (छेदित्ता ) छेद करने के बाद ( आलोइयपडिक्कंता ) अपने अतिचारों की - या प्रत्याख्यान ४रीने (पाओवगया) वृक्षनी पेठे निश्चल थने (कालं अणवकंखमाणा विहरंति) भरवानी इच्छा नहीं रतां स्थित थ गया. (सू. २६) तए णं ते परिव्वायगा ' त्याहि. ( ( तए णं) त्यार पछी (ते परिव्वायगा ) ते मधा परित्राये ( बहूई भत्ताई ) न्याय प्रारना महारना (अणसणाए ) अनशन द्वारा ( छेदेंति ) छे उरी हीधेो. (छेदित्ता) छेढ उरी हीघा पछी (आलोइयपडिक्कता) पोताना अतियारौनी आयोयना इरी, मुखी तेथे तेनाथी निवृत्त थया. ( समाहिपत्ता ) Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ औपपातिकसूत्र किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा । तहिं तेसिं गई। दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव ॥ सू० २७॥ मूलम्-बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइत्परावृत्ताः, 'समाहिपत्ता' समाधिप्राप्ताः-उपशान्तहृदयाः, 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा, 'बंभलोए कप्पे देवत्ताए उपवण्णा' ब्रह्मलोके कल्पे देवत्वेनोपपन्नाः, देशविरतिफलं त्वेषां परलोकाऽऽराधकत्वमेव । परित्राजकक्रियाफलं ब्रह्मलोकगमनम् । 'तहिं तेसिं गई' तत्र तेषां गतिः, 'दस सागरोषमाइं ठिई पत्ता ' दशसागरोपमागि स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'परलोगस्स आराहगा' परलोकस्याऽऽराधकाः सन्तीत्यर्थः, 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव ॥ सू० २७॥ ____टीका-'बहुजणे ण भंते !' इत्यादि । बहुजनः जनसमूहः खलु हे भदन्त ! आलोचना की, पश्चात् वे उनसे परावृत्त हुए। फिर (समाहिपत्ता) समाधि प्राप्त कर (कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उपवण्णा) काल-अवसर में काल करके ब्रह्मलोक कल्प में देव की पर्याय से उत्पन्न हुए। (तहिं तेसिं गई, दससागरोवमाई ठिई पण्मत्ता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेत्र) वहीं पर उनकी गति प्ररूपित करने में आई है। स्थिति इनकी १० सागर प्रमाग है । ये परलोक के नियम से आराधक कहे गये हैं। शेष पहिले को तरह समझना चाहिये ।। सू. २७ ॥ 'बहुजणे णं भंते' इत्यादि । पुनः गौतमस्वामी ने भक्तिपूर्वक प्रभु से पूछा कि (भंते) हे भगवन् ! (बहुभने समाधि प्रात ४ीने ( कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे. देवत्ताए उववण्णा) स-मसरे ४१ रीने ब्रह्म।४ ४६५ वनी पर्यायथी । उत्पन्न 24 . (तहिं तेसिं गई, दससागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, परलोगस्म आरा. हगा, सेसं तं चेय) यir तेमनी गति प्र३पित ४२१मा मापी छ. तेमनी સ્થિતિ ૧૦ સાગર પ્રમાણ છે. તેઓને નિશ્ચિતરૂપથી પરલોકનાં આધારક કહેવામાં આવ્યા છે. બાકીનું અગાઉની પેઠે સમજી લેવું જોઈએ. (સૂ. ર૭) 'बहुजणे णं भंते 'त्यादि. 4जी गौतम स्वामी महितपूर्व प्रसुने पूछयु (भंते ! ) मावन् ! Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका सू. २८ अम्बडपरित जक विषये भगवदगौतमयो संवादः ५७५ क्खइ एवं भासइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ । एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहारेइ, घरसए वसहि उवेइ । से कहमेवं भंते ! एवं ॥ सू० २८॥ - मूलम्-गोयमा ! ज णं से बहुजणे अण्णमण्णस्स 'अण्णमण्णरस एवमाइक्वइ' अन्योन्यमेवमाख्याति हे भगवन् ! जनसमूहः परस्परमिस्थं वक्ति, ' एवं भासइ' एवं भाषते, 'एवं पनवेइ' एवं प्रज्ञापयति, ‘एवं परूवेइ' एवं प्ररूपयति, 'एव खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरेणयरे' एवं खल्वम्बडः परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे नगरे, 'घरसए आहारमाहारेइ' गृहशतादाहारमाहरति=भिक्षा गृङ्गाति, 'घरसए वसहि उवेइ'. गृहशते वसतिमुपैति, ' से कहमेयं भंते एवं' तत् कथमेतद् भगवन् ! एवम्-इति भगवन्तं प्रति शिष्यप्रश्नः ॥ सू०. २८ ॥ टीका-भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि । 'जं णं से बहुजणे अण्णमण्णजणे णं) बहुत से लोग ( अण्णमण्णस्स) परस्पर जो ( एवमाइक्खइ) इस प्रकार कहते हैं, ( एवं भासइ) इस प्रकार भाषण करते हैं, ( एवं पन्नवेइ ) इस प्रकार अच्छी तरह ज्ञापित करते हैं, ( एवं परूवेइ ) इस प्रकार प्ररूपित करते हैं कि ( एवं खलु अम्मडे परियायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहारेइ) ये अम्बडपरिव्राजक कंपिल्लपुर नगर में सौ घरों में आहार करते हैं, एवं (घरसए वसहिं उवेइ) सौ घरों में निवास करते हैं; (से) सो (भंते!) हे भदंत ! (कहमेयं ) यह बात कैसे है ? ॥ सू० २८॥ 'गोयमा! ज णं से बहुजणे' इत्यादि। प्रभु गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (गोयमा !) हे गौतम ! (बहुजणे णं) घ a (अण्णमण्णस्स) ५२२५२ २. (एवमाइक्खइ) । मारे ४ छ, (एवं भासइ) २ मारे भाषण ४२ छ, (एवं पन्नवेइ) मा ४२ सारी रीते. ज्ञापित ४२ छ (४४वे ), (एवं परूवेइ) 0 प्रारे ५३पित ४२ छ है ( एवं खलु अम्मड़े परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए आहारमाहारेइ) सम्म परिवान पिसपुर नगरमा सो घरमा माहा२ ४२ छ तभ०४ (घरसए वसहिं उवेइ) सो घमा निवास ४२ छ, (से) तो ( भंते !) महन्त ! (कहमेयं ) २ पापी छ ? (सू. २८) 'गोयमा ! जं णं से बहुजणे' त्यादि. प्रभु गौतमना प्रश्न उत्तर मापतi ४ छ , ( गोयमा ! ) 3 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे जाव घरसए वसहि उवेइ । सच्चे णं एसमझे, अहंपि णं गोयमा! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि-एवं खलु अम्मडे परिव्वायए जाव वसहि उवेइ ॥ सू० २९॥ स्स एवमाइक्वई' हे गौतम ! यत्खलु स बहुजनोऽन्योऽन्यम् एवमाख्याति, यावदेवं प्ररूपयति, 'एवं खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे जाव घरसए वसहि उवेइ' एवं खन्वम्बडः परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे यावद् गृहशते वसतिमुपैति-इति यत्वया पृच्छयते । 'सच्चे णं एसमढे ' सत्यः खल्वेषोऽर्थः । अहंपिणं गोयमा ! एवमाइक्वामि' अहमपि खलु गौतम ! एवमाख्यामि, 'जाव एवं परूवेमि' यावदेवं प्ररूपयामि प्ररूपणां करोम्,ि ‘एवं खलु अम्मडे परिवायए जाव वसहिं उवेइ एवं खलु अम्बडः परित्राजको यावद् वसतिमुपैतिगृहशताद् भिक्षां गृह्णाति, गृहशते वसतिं करोति, इति ॥ सू० २९ ॥ (ज) जो (से) वे (बहुजणे) बहुत से लोग (अण्णमण्णस्स) परस्पर दूसरे से ( एवमाइक्खइ जाव परूवेइ ) इस प्रकार कहते हैं यावत् इस प्रकार प्ररूपित करते हैं कि ( एवं खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे ) ये अम्बड परिव्राजक कंपिल्लपुर नगर में (जाव घरसए वसहिं उवेइ ) सौ घरों में भिक्षा लेते हैं और सौ घरों में निवास करते हैं; सो (सच्चे णं एसमद्वे) यह बात बिलकुल ठीक है। (अहं पिणंगोयमा ! एवमाइक्वामि) गौतम ! मैं भी इसी तरह कहता हूं (जाव एवं परूवेमि) यावत् इसी तरह प्ररूपित करता हूं कि ( एवं खलु अम्मडे परिव्यायए जाव वसहि उवेइ) ये अम्बड परिव्राजक सौ घरों में आहार करते हैं और सौ घरों में निवास करते हैं । सू० : ९॥ गौतम ! (जं) २ ( से ) तया ( बहुजणे ) घy a (अण्णमण्णस्स) ५२२५२ मे मीनने ( एवमाइक्खइ जाव परूवेइ ) 20 मारे ४९ छ यावत् या प्रारे प्र३पित ४२ छ ( एवं खलु अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे) ते मम परित्रा४४ पिसपुर नगरभा (जाव घरसए वसहिं उवेइ ) । धराथी लिक्षा के छ भने सो धरोमा निवास ४२ छ त। (सच्चे णं एसमडे, मावात मिस ४ छ. ( अहंपि णं गोयमा ! एवमाइक्खामि ) गौतम ! हु ५५ से शत ४९ छु. (जाव एव परूवेमि) यावत् मेवी ते प्र३पित ४३ छु ( एवं खलु अम्मडे परिवायए जाव वसहि उवेइ ) थे २५७ ७ परिવ્રાજક સે ઘરોમાં આહાર કરે છે અને એ ઘરોમાં નિવાસ કરે છે. સૂ. ૨૮ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टोका स. ३० अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गीतमयोः संवाद: ५७७ मूलम्-से केण?णं भंते ! एवं वुचइ-अम्मडे परिव्वायए जाव वसहि उवेइ ॥ सू० ३०॥ मूलम्-गोयमा ! अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स पगइभद्दयाए जाव विणीययाए छठंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं टीका--पुनर्गौतमः पृच्छति-'से केण?णं' इत्यादि। ' से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ' तत् केनार्थेन हे भदन्त ! एवमुच्यते-'अम्मडे परिव्वायए जाव वसहिं उवेइ' अम्बडः परिव्राजको यावद् वसतिमुपैति, गृहशताभिक्षां करोति, गृहशते वसतिं स्वीकरोति, इति ॥ सू० ३०॥ टीका--भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि। हे गौतम ! 'अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स पगइभद्दयाए' अम्बडस्य खलु परिव्राजकस्य प्रकृतिभद्रतया-प्रकृतेः= स्वभावस्य भद्रतया सरलतया 'जाव विणीययाए ' यावद्विनीततया-यावच्छब्दादिदं दृश्यप्रकृत्युपशान्ततया प्रकृतितनुक्रोधमानमायालोभतया मृदुमार्दवसम्पन्नतयाऽऽलीनतया इति, ‘से केणटेणं' इत्यादि। (भंते) हे भदन्त ! ( से केणट्रेणं एवं वुच्चइ) आप यह किस आशय से कहते हैं कि-(अम्मडे परिवायए जाव वसहि उवेइ ) अम्बड परिव्राजक सौ घरों में आहार करते हैं और सौ घरों में निवास करते हैं । सू. ३०॥ 'गोयमा ! अम्मडस्स णं' इत्यादि। (गोयमा) हे गौतम ! यह अम्बड परिव्राजक ( पगइभद्दयाए जाव विणीययाए) प्रकृति से भद्र है, अल्प क्रोध, मान, माया एवं लोभ-कषायवाला है, स्वभावतः ‘से केणटेणं' त्याहि. (भंते ! ) 3 महन्त ! (से केणढणं एवं वुच्चइ) 0५ मे या हेतुथी ४। छ। -( अम्मडे परिव्वायए जाव वसहिं उवेइ ) २५५ परिवा४४ से ઘરમાં આહાર કરે છે અને સે ઘરમાં નિવાસ કરે છે? (સૂ. ૩૦) ‘गोयमा ! अम्मउस्स णं' त्याहि. (गोयमा ! ) गौतम ! । म परिवा४४ (पगइभद्दयाए जाव विणीययाए ) अतिथी मद्र, ६५ अध, भान, भाया, तम बोल કષાયવાળા છે; સ્વભાવતઃ મૃદુ-માર્દવ ગુણથી યુક્ત છે; તથા અત્યંત વિનીત . Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ आपपातिकसूत्रे उडढं बाहाओ पगिज्झिय २ सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं पसत्थाहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं अन्नया कयाइं तदावरणिजाणं कम्माणं विनयशीलतया, 'छटुंछद्रेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं' षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा-मुहुर्दिनद्वयाऽनशनरूपेण अविश्रान्तेन तपोरूपेग कर्मणा, 'उड्ढं बाहाओ पगिज्झियर' ऊर्ध्वं बाहू प्रगृहय२=बाहू ऊर्ध्वं कृत्वा 'मुराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स' सूर्याभिमुखस्याऽऽतापनाभूमावातापयतः 'सुभेणं परिणामेणं' शुभेन परिणामेन शुभ-रूपयाऽऽत्मपरिणत्या, 'पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं' प्रशरतैरध्यवसानैःउत्तममनोविशेषैः, 'पसत्थाहिं लेसाहिं विमुज्झमाणीहिं' प्रशस्ताभिर्लेश्याभिविशुध्यमानाभिः 'अन्नया कयाइं' अन्यदा कदाचित् ‘तदावरणिजाणं कम्माण मृदुमार्दव गुण से युक्त है, तथा अत्यंत विनीत भी है । (अनिक्खित्तेणं ) तथा लगातार (छठे छ?णं तवोकम्मेणं ) छठ छठ-बेला-की तपस्या करनेवाला है। एवं (उड्ढे बाहाओ पगिज्झिय२) बाहुओं को ऊपर उठा कर, (मराभिमुहस्स ) सूर्य के सन्मुख (आयावणभूमीए आयावेमाणस्स ) आतापना के योग्य प्रदेश में आतापना लेता है। अतः (अम्मडस्स परिव्यायगस्स ) इस अम्बड परिव्राजक को (सुभेणं परिणामेणं) शुभ परिणाम से-शुभरूप आत्मा की परिणति से, (पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं ) प्रशस्त अध्यवसानों से-उत्तम विचारधाराओं से, (पसत्थाहिं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं) प्रशस्त लेश्याओं की विशुद्धि होने से, (अण्णया कयाई) किसी एक समय (तदावरणिज्जाणं कम्माणं) तदावरणीय कर्मों-वीर्य के, वैक्रियलब्धि के एवं अवधि ज्ञान के ५) छ. (अनिक्खित्तेणं) तथा साता२ (छटुंछटेणं तवोकम्मेणं) ७४ ७४मेसा-नी तपस्य॥ ४२११ छ. तेभ ( उड्ढ बाहाओ पगिझियः ) डायने या ४शने (सूराभिमुहस्स) सूर्यनी सन्भुज (आयावणभूमीर आयावेमाणस्स) मातापनाने योग्य प्रदेशमा मातापन छे माथी ( अम्मडस्स परिव्वायगस्स) से २५ परिवा४४ने (सुभेणं परिणामेणं) शुभ ५.२ मिथी, शुभ३५ यात्मानी परिणतिथी, (पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं) प्रशस्त मध्यवसानोथी-उत्तम विचारधारासाथी, (पसत्थाहिं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं ) प्रशस्त बेश्यामानी विशुद्धि पाथी (अण्णया कयाई) २४ समय (तदावरणिजाणं कम्माणं) ता१२७य ४ -वीर्य, वैयिनि मने विज्ञानना Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूपवषिणी टीका सू. ३१ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गीतमयोः संघादः ५७९ खओवसमेणं ईहावूहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स वीरियलद्धी वेउब्वियलद्धी ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा ।तए णं से अम्मडे परिव्वायगे तीए वीरियलद्धीए वेउब्धियलद्धीए ओहीणाणलद्धीए खओवसमेणं' तदावरणीयानां कर्मणां वीर्यवैक्रियलब्ध्यवधिज्ञानावरणीयानां क्षयोपशमेन, 'ईहा-वृहा-मग्गण-वेसणं करेमाणस्स' ईहा-व्यूह-मार्गण-गवेषणं कुर्वतः-तत्र-ईहा= मतिज्ञानभेदः-नामजात्यादिविशेषकल्पनारहितसामान्यज्ञानोत्तरं विशेषनिश्चयार्थ विचारणा इत्यर्थः, व्यूहः अपोहः-सामान्यज्ञानोत्तरकालं विशेषनिश्चयार्थ विचारणायां प्रवृत्तायां तदनु गुणदोषविचारणाजनितो निश्चयः। मार्गणं-जीवादिपदार्थस्य यथावस्थितस्वरूपान्वेषणम् , गवेषणं मार्गणानन्तरमनुपलभ्यस्य जीवादिपदार्थस्य सर्वतः परिभावनम् , एषां समाहारस्तत् तथा, तत् कुर्वतः अम्बडस्य परिव्राजकस्येत्यन्वयः । ‘वीरियलद्धी' वीर्यलब्धिः, 'वेउवियलद्धी' वैक्रियलब्धिः 'ओहिणाणलदी समुप्पण्णा' अवधिज्ञानलब्धिश्च समुत्पन्ना। 'तए णं आवरण कर्मों के (खओवसमेणं) क्षयोपशम से (ईहा-वृहा-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स) ईहा-नाम एवं जात्यादिरूप कल्पना से रहित सामान्य ज्ञान के बाद विशेषरूप से निश्चय करने की चेष्टा-विचारधारा, व्यूह-सामान्य ज्ञान के बाद विशेष निश्चय के लिये विचारणा करने पर गुणदोष के विचार से होनेवाला निश्चय-अवायरूप ज्ञान, मार्गण-यथावस्थित जीवादिक पदार्थ के स्वरूपका अन्वेषण, एवं गवेषण-मार्गण के बाद अनुपलभ्य जीवादिक पदार्थों के सभी प्रकार से निर्णय करने की तरफ तत्परतारूप गवेषण (करेमाणस्स) करने से (वीरियलद्धी वेउन्वियलद्धी ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा) वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि, तथा अवधिज्ञानलब्धि उत्पन्न हो गई । (तए णं से मा१२५ र्भाना (खओवसमेणं) क्षयोपशमी (ईहा-हा-मग्गणगवसणं करेमाणस्स) घड-नाम तम४ जति माहिनी ४५नाथी રહિત સામાન્ય જ્ઞાન થયા પછી વિશેષરૂપથી નિશ્ચય કરવાની ચેષ્ટાવિચારધારા, બૃહ-સામાન્યજ્ઞાન બાદ વિશેષ નિશ્ચય કરવા માટે વિચારણા કર્યા પછી ગુણદોષના વિચારથી થવાવાળા નિશ્ચય-અવાયરૂપ જ્ઞાન, માગણયથાવસ્થિત જીવ–આદિક પદાર્થના સ્વરૂપનું અન્વેષણ, તેમજ ગષણ-માર્ગ પછી અનુપલભ્ય જીવ આદિક પદાર્થોને સર્વ પ્રકારથી નિર્ણય કરવાની તરફ तत्परता३५ गवेषण (करेमाणस्स) ४२वाथी (वीरियलद्धी वेउब्वियलद्धी ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा) वीर्य सब्धि, वैयिधि, तथा भवधिज्ञानसन Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकत्र सेमुप्पण्णाप जणविम्हावणहेउं कंपिलपुरे णयरे घरसए जाव वसहि उवेइ । से तेणद्वेण गोयमा ! एवं वुच्चइ- अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे यरे घरसए जाव वसहिं उवेइ ॥ सू० ३१॥ ८.८० अम्म परिव्वाय' ततः खलु स अम्बडः परित्राजकः, 'तीए वीरियलद्वीए वेउव्जियलद्धीए ओहिणाणलदीए समुप्पण्णाए ' तया वीर्यलब्ध्या वैक्रियलब्ध्याऽवधिज्ञानलब्ध्याच समुत्पन्नया ' जणविम्हावण हेउं ' जनविस्मापनहेतोः, 'कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव सहि उवे ' काम्पिल्यपुरे नगरे गृहशते यावद्वसतिमुपैति, ' से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ' तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-' अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहि उवेइ ' अम्बडः परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे नगरे गृहशते यावद्वसति - मुपैति ॥ सू० ३१ ॥ अम्मडे परिव्वाय ती वीरियलद्धीए वेउव्वियलद्धीए ओहिणाणलद्धीए समुपण ए) इसके बाद उत्पन्न हुई उन वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि एवं अवधिज्ञानलब्धि द्वारा यह . ( जणविम्हावण हेउं ) मनुष्यों को आश्चर्यचकित करने के लिये ( कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव सहि उवेइ ) कंपिल्ल नगर में सौ घरों से भिक्षा करता है, एवं उन्हीं में विश्राम करता है। ( से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ ) इस आशय से, हे गौतम! मैं ऐसा कहता हूं ( अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव सहि उवेइ ) कि अम्बड परिव्राजक कंपिल्लपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है और सौ घरों में निवास करता है | सू० ३१ ॥ उत्पन्न थ. ( तए णं से अम्मडे परिव्वायगे तीए वीरियलद्धीए वेडव्वियलद्धीए ओहिणाणलद्धीए समुप्पणाए ) त्यार पछी उत्पन्न थयेसी ते वीर्यसन्धि, વૈક્રિયિકલબ્ધિ તેમજ અવધિજ્ઞાનલબ્ધિ દ્વારા थे ( जणविम्हावणहेउं ) मनुष्याने आश्चर्ययति वा भाटे ( कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहि उवेइ ) ४ पिल्सपुरनगरमा सो धरौथी लिक्षा उरे छे तेन तेमां विश्राम ४२ छे, ( से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ ) मा आाशयथी हे गौतम! हुं शुभ उहुं छु ं (अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे घरसए जाव वसहि उवेश ) કે અમ્બડ પરિત્રાજક કપિલ્લપુર નગરમાં સેા ઘરોમાં આહાર કરે છે અને સેા ઘરોમાં નિવાસ કરે છે. (સૂ૦ ૩૧) Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका. स. ३२ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवदगौतमयोःसंवादः ५८१ मूलम्-पह णं भंते ! अम्मडे परिव्वायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ॥ सू० ३२॥ मूलम्-णो इणढे समझे गोयमा ! अम्मडे णं परि गौतमः पृच्छति-'पहू णं भंते' इत्यादि । 'भंते !' हे भदन्त ! 'अम्मडे परिवायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए' अम्बडः परिवाजको देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डः लुञ्चितकेशो भूत्वाऽगारादनगारितां साधुत्वं प्रवजितुं प्राप्तुं 'प्रभू णं' प्रभुः समर्थः किम् ? ‘णं' इति वाक्यालङ्कारे । सू० ३२ ॥ टीका--भगवानाह-'णो इणद्वे समढे गोयमा ?' इत्यादि । 'णो इणद्वे समद्वे गोयमा!' नाऽयमर्थः समर्थो गौतम ! 'अम्मडे णं परिव्वायए समणोवासए' अम्बडः खलु 'पहू णं भंते ! अम्मडे परिव्वायए' इत्यादि। (भंते) हे भदन्त ! ( अम्मडे परिव्यायए ) यह अम्बड परिव्राजक ( देवाणुप्पियाणं अंतिए) आप के पास (मुंडे भवित्ता) मुंडित होकर (अगाराओ) आगार अवस्था से (अणगारियं) अनगार अवस्था को (पव्वइत्तए) धारण करने के लिये (पहू णं) समर्थ है क्या ? ॥ सू० ३२॥ 'णो इणद्वे समढे' इत्यादि। प्रभु ने कहा-(गोयमा ) हे गौतम ! (णो इणद्रे समद्रे) यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्यों कि (अम्मडे णं परिवायए) यह अम्बड परिव्राजक (समणोवासए) श्रमणोपासक 'पहू णं भंते! अम्मडे परिव्वायए' त्याहि. (भते) हे महन्त ! (अम्मडे परिव्यायए) । अन्य परिवा४४ (देवाणुप्पियाणं अंतिए) २॥पनी पासे (मुंडे भवित्ता) भुजित थने (अगाराओ) स॥२ अवस्थाथी (अणगारियं), मनगा२ २मस्थाने (पव्वइत्तए) घार ४२वाने माटे (पहू णं) समर्थ छ भ? (सू० ३२) “णो इणटे समढे " त्याहि. प्रभुणे ४यु (गोयमा) हे गौतम! (णो इणद्वे सम) मा अर्थ समथ नथी. भ (अम्मड़े णं परिव्वायए) २१॥ सभ्य परिका (समणो Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ औपपातिकसूत्रे व्वायए समणोवासए अभिगयजीवाऽजीवे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, णवरं ऊसियफलिहे अवंगुदुवारे चियत्तंतेउरघरदारपवेसी एयं णं वुच्चइ ॥ सू० ३३ ॥ परिव्राजकः श्रमणोपासकः, 'अभिगयजीवाऽजीवे' अभिगतजीवाऽजीवः=जीवा जीवतत्त्वज्ञः, 'जाव' यावत्-अत्र यावच्छब्दादिदं दृश्यम्-उपलब्धपुण्यपापः, आस्रव वरनिर्जराक्रियाऽधिकरणबन्धमोक्षकुशलः इति, 'अप्पाणं भावेमाणे' आत्मानं भावयन् विहरतिविचरति । ‘णवरं'-अयमत्र विशेषः-'ऊसियफलिहे ' उच्छ्रितस्फटिकः स्फटिकराशिरिव निर्मलः, 'अवंगुदुवारे' अपावृतद्वार:-'अवंगु' इतिदेशीयः शब्दः; उद्घाटितकपाट द्वारः-अतिधार्मिकतयाऽस्य प्रवेशकाले जनैः कपाट उद्घाटयते इति भावः । 'चियत्तंतेउरघरदारपवेसी' त्यक्ताऽन्तःपुरगृहद्वारप्रवेश:-त्यक्तः प्रीत्या जनैर्दत्त: अन्तःपुरगृहद्वारषु प्रवेशो यस्य स तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्र प्रवेशेऽनाशङ्कनीय इति भावः । 'एयं णं वुच्चइ' एवं खलूच्यते एतादृशः सोऽम्बड उच्यते ॥ सू० ३३॥ होकर ( अभिगयजीवाजीवे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ) जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष इनका ज्ञाता होता हुआ अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचर रहा है। (णवरं) परन्तु ( एवं णं वुच्चइ) इतना मैं अवश्य कहता हूं कि यह अम्बड परिव्राजक (ऊसियफलिहे ) स्फटिकमणि की राशि के समान निर्मल, (अवंगुदुवारे) जिसके लिये सभी के घरों का दरवाजा हर बख्त खुला रहता है, ऐसा है, और (चियत्तंतेउरघरदारपवेसी) यह विश्वस्त होने के कारण राजाक अन्तःपुर में भी बे-रोकटोक आता जाता है । सू० ३३ ॥ वासए) श्रमणेपास४ थने (अभिगयजीवाजीचे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ) १, २०७१, पुष्य, पाप, सासव, स२, नितभा ५ मोक्ष सेना ज्ञाता छने पोताना मात्भाने भावित ४२di वियरे छे. (णवरं ) ५२न्तु (एवं णं बुच्चइ) मेटता म१श्य । म पनि (ऊसियफलिहे ) २२टिमणिनी राशि (ढसानी)) पे निर्भस (अवंगुद्वारे) જેના માટે બધાના ઘરના દરવાજા હર વખત ખુલલા રહે છે એવા છે. અને (चियत्तंतेउरघरदारपवेसी) से विश्वासु वान। ४।२१ २नो मत पुरमा પણ કઈ જાતની કટેક વિના આવે જાય છે. (સૂ૦ ૩૩) Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणो-टीका सु. ३५ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गोतमयोः संवाद: ५८३ मूलम्-अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स थूलए पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावज्जीवाए जाव परिग्गहे, णवरं सव्वे मेहुणे पञ्चक्खाए जावजीवाए ॥ सू० ३४॥ मूलम्-अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पड़ टीका-'अम्मडस्स णं परिवायगस्स' इत्यादि। 'अम्मडस्स णं परिवायगस्स' अम्बडस्य खल्लु परिव्राजकस्य 'थूलए पाणाइवाए पञ्चक्रवाए जावज्जीवाए जावपरिग्गहे ' स्थूलः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातो यावज्जीवम् , यावत्पदेन मृषावादः, अदतादानं च गृह्येते; परिग्रहश्च प्रत्याख्यातः, 'णवरं' नवरं 'सव्वे' सर्व सर्वविधं 'मेहुणे' भैथुनमपि ‘पञ्चक्खाए जावज्जीवाए' प्रत्याख्यातं यावजीवम् ॥ सू० ३४ ॥ टीका-'अम्मडस्स णं परिवायगस्स' इत्यादि । 'अम्मडस्स णं परि. 'अम्मडस्स णं परिवायगस्स' इत्यादि । ( अम्मडस्स णं परिवायगस्स) इस अम्बड परिव्राजक ने (थूलपाणाइवाए पच्चकवाए जावज्जीवाए ) स्थूल प्राणातिपात का यावजोव परित्याग किया है, (जाव परिग्गहे ) इसी तरह स्थूल मृषावाद का, स्थूल अढ़त्तादान का, स्थूल परिग्रह का भी याव जीव परित्याग किया है । (णवरं) परंतु (सव्वे मेहुणे पञ्चक्खाए जावज्जीवाए) स्थूलरूप से ही मैथुन का परित्याग नहीं किया है; किन्तु इसका तो उसने समस्त प्रकार से जीवनपर्यन्त परित्याग किया है ।। सू. ३४ ॥ 'अम्मडस्स णं परिवायगस्स' इत्यादि । (अम्मडस्स णं परिवायगस्स) इस अम्बड परिव्राजक के लिये विहार करते 'अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स' ऽत्याहि. (अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स) २॥ सम्म परिवार (थूलपाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए) स्थूस प्रातियातन 404 परित्याग ४यो छे. (जाव परिग्गहे) तवी ४ ते २८ भृषावाहनो, स्थूत महत्तहाननी, स्थूल परियडनी ५ या परित्यायो छ. (णवरं) परंतु (सव्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए) २थूस३५थी ४ भैथुननी परित्या नथी ४यो ५२न्तु તેને તે તેમણે સમસ્ત પ્રકારથી જીવનપર્યન્ત પરિત્યાગ કર્યો છે. (સૂ૦ ૩૪) " अम्भडस्स णं परिव्वायगस्स" त्याहि. (अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स) २॥ समय परिवा४४ ने भाट विहार Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक सू 6 अक्खसोयप्यमाणमेत्तंपि जलं सयराहं उत्तरित्तए, णण्णत्थ अद्धाणगमणेणं । अम्मडस्स णं णो कप्पइ सगडं वा एवं तं चैव भाणियव्यं णण्णत्थ एगाए गंगामहियाए । अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स व्यायगस्स अम्बडस्य खलु परिव्राजकस्य, 'णो कप्पड़ अक वसोयप्पमाणमेत्तंपि जलं सयराहं उत्तरित्त ' अक्षस्रोतः प्रमाणमात्रमपि - अक्षस्रोतः = चक्रधूः प्रवेशर तदेव प्रमाणं तेन प्रमाणेन मात्रा - परिमाणम् अवगाहनतो यस्य तत्तथा तत्, चक्रस्य छिद्रपर्यन्तं जलमपि 'सयराहं ' शीघ्रं 'सयराहं ' इतिदेशीयशब्दः, ' उत्तरित्तए ' उत्तरीतुं नो कल्पते - तत्र प्रवेष्टुं न कल्पते, तस्मान्न्यूनपरिमाणं जलमुत्तरीतुं कल्पत इति भावः । णण्णत्थ अद्धाणगमणेणं' नाऽन्यत्राऽध्वगमनात् - अध्वगमनादन्यत्राऽयं निषेधः - अवगमने जलमुत्तरीतुं कल्पते, 'अम्मडस्स णं णो कप्पइ सगडं वा एवं तं चैव भाणियव्वं जाव' अम्बस्य खउ नो कल्पते शकटं वा एवं तदेव भणितत्र्यं यावत्, यावच्छब्देन ' संदमा - णियं वा दुरूहित्ताणं गच्छत्तए' इत्यारभ्य 'कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए ' इति पर्यन्तः पाठोऽस्यैवोत्तरार्धगताष्टादशसूत्रगतोऽनुसन्धेय इति । 'गण्णत्थ एगाए गंगामट्टियाए ' समय मार्ग में (सयराह) अकस्मात् (अक्खसोयप्पमाणमेत्तंपि ) गाड़ी की बुरा प्रमाण जल आ जाय तो भी उसमें ( उत्तरित्तए णो कप्पर) उतरना नहीं कल्पता है I ( णष्णस्थ अद्धागगमणेणं) परंतु विहार करते हुए अन्य रास्ता नहीं हो तो बात अलग ! ( अम्मडस्स णं णो कप्पइ सगडं वा एवं तं चैव भाणियव्वं जाव ) इसी तरह इस अम्बड परित्राजक को शकट आदि पर चढना भी कल्पता नहीं है। यहां 'यात्रत् ' शब्द से 'संदमाणियं वा दुरूहित्ता णं गमित्त ' यहां से लेकर ' कुंकुमेण वा गावं अणुलिंपित्त' यहां तक का पाठ इसी आगम के उत्तरार्ध के अठारहवें सूत्र से समझ लेना , ४२ती वमते भार्गभा ( सयराहं ) अस्मात् ( अक्खसोयप्पमाणमेत्तंपि ) गाडीना घोंसराना प्रमाण भेटसु स भावी लय तो पशु तेभां ( उत्तरित्तए णे कप्पइ ) तर यतुं नथी. ( णण्णत्थ अद्धाणगमणेणं ) परंतु विहार उरता रतां ખીજા રસ્તા ન હેાય તેા વાત જુદી. अम्मडस्स णं णो कम्पइ सगडं वा एवं तं चेव भाणियव्वं जाव ) सेवी रीते ते सभ्य परिवाहने शट (गार्ड) आदि २ न्यढवुं पशु उदयतुं नथी. मड्डी ( यावत् ) शब्दथी ' संद्माणियं दुरूहित्ता णं गच्छत्त' अडीं थी सहने 'कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए' अड्डी सुधीनो थाई या आगमना उत्तरार्धना अढारमा सूत्रधी लगी होवो लेये. (पणण्णत्थ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका मृ. ३५ अम्बरपरिव्राजकरिषये भगन्दगौतमयोः संवादः ५८५ णो कप्पइ आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा मीसजाए इ वा अज्झोयरए इ वा पूइकम्मे इ वा कीयगडे इ वा पामिच्चे इ वा अणिसिनान्यत्रैकस्या गङ्गामृत्तिकायाः-एका गङ्गामृत्तिका कल्पते ग्रहीतुमित्यर्थः । 'अम्मडस्स णं परिवायगस्स णो कप्पइ आहाकम्मिए वा' अम्बडस्य खलु परिव्राजकस्य नो कल्पतेआधाकर्मिकं षट्कायोपमर्दनपूर्वकं साध्वर्थकृतमशनादिकं वा. 'उद्देसिए वा' औदेशिकं= साधुमुद्दिश्य यत् कृतं तद् वा न कल्पते, 'मीसजाए इ वा' मिश्रजातं-मिश्रेण-गृहस्थसाध्वादिप्रणिधानलक्षणभावेन निष्पन्नं पाकादिभावमुपगतं मिश्रजातमन्नाद्येव, तदपि न कल्पते, 'इवा' इति सर्वत्र वाक्यालङ्कारे; 'अज्झोयरए इ वा' अध्यवरतम्-साध्वर्थमधिकप्रक्षेपणेन निष्पादितम् , एतदप्यकल्पनीयम् , 'पूइकम्मे इ वा' पूतिकर्म-आधाकर्माद्यविशुद्धलेशसंपृक्तभक्तादि, तदपि न कल्पते, ‘कीयगडे इवा' क्रीतकृतम्-क्रोतं-क्रयणं-साचाहिये । (णण्णत्थ एगाए गंगामट्टियाए ) इसे सिर्फ एक गंगा की मिट्टी ही कल्पित है। (अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स) इस अम्बड परिव्राजक के लिये (णो कप्पइ आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा मीसजाए इ वा अज्झोयरए इ वा पूइकम्मे इ वा कीयगडे इ वा पामिच्चे इ वा अणिसिटे इ वा अभिहडे इ वा) षट्कायोपमर्दनपूर्वक साधु के निमित्त निष्पादित आधाकर्मिक एवं औद्देशिक साधु के उद्देश्य करके बनाया गया अशनादिक ग्रहण करना परिवर्जित है। तथा मिश्रजात-साधु एवं गृहस्थ के उद्देश्य से तैयार किया गया अन्नादिक का भी ग्रहण करना निषिद्ध है। इन पदों में “इ” . "वा" ये दोनों वर्ण वाक्यालंकार में प्रयुक्त हुए हैं। इसी तरह अध्यवरत-साधु के लिये अधिक मात्रा में बनाया गया आहार, पूतिकर्म-आधाकर्मिक आहार के अंश से मिश्रित एगाए गंगामट्टियाए) तेने माटे मात्र मे ॥नी माटी स्थित मतावा छ. (अम्मडस्स गं परिव्वायगस्स) । म परिवाने माटे (णो कप्पइ आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा मीसजाए इ वा अज्झोयरए इ वा पूइकम्मे इ वा कीयगडेइ वा पामिच्चे इ वा अणिसिटे इ वा अभिहडे इ वा) ५८ (७) या उपमनपूर्व સાધુને નિમિત્ત નિષ્પાદિત આધાકર્મિક તેમજ ઔદેશિક–સાધુને ઉદ્દેશ્ય કરીને બનાવેલું અશન આદિક ગ્રહણ કરવું પરિવર્જિત છે. તથા મિશ્રજાત-સાધુ તેમજ ગૃહસ્થના ઉદ્દેશ્યથી તૈયાર કરેલાં અન્ન-આદિકનું ગ્રહણ કરવું પણ નિષિદ્ધ છે. આ પદોમાં “શું અને વા’ એ બન્ને વર્ણ વાક્યાલંકારમાં વપરાયેલા છે. તેવી જ રીતે અધ્યવરત-સાધુને માટે અધિક માત્રામાં બનાવેલા આહાર, પૂર્તિ કર્મ–આધાકર્મિક આહારના અંશથી મિશ્રિત આહાર, કતકૃત Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे हे इ वा अभिहडे इ वा ठइत्तए वा रइत्तए वा, कंतारभत्त इ वा दुभिक्खभत्ते इ वा गिलाणभत्ते इ वा वदलियामत्ते इ वा पाहुणध्वादिनिमित्तं तेन कृतं निष्पादितम् , तदपि न कल्प्यम् । 'पामिच्चे इ वा ' प्रामित्यम्= यदन्नवस्त्रादिकं साध्वर्थमुच्छिद्यानीयते तत् प्रामित्यम् । 'अणिसिटे इ वा ' अनिसृष्टम्सर्वैः स्वामिभिः साधवे दातुं न निसृष्टं नानुज्ञातं यत् तदनिसृष्टम् , यदा द्वित्राणां पुरुषाणां साधारणे आहारे एकोऽन्याननापृच्छ्य साधवे ददाति, तदा तदन्नमनिसृष्ट, तदपि न कल्पते । 'अभिहडे इ वा' अभ्याहृतम्-साधु मुखमानीतं न कल्पते। 'ठइत्तए वा' स्थापितं-स्वनिमित्तं स्थापितं न कल्पते । 'रइत्तए वा' रचितम्-औदेशिकभेदः, तच्च मोदकचूर्णादि पुनर्मोदकतया रचितं, तदपि न कल्प्यम् । ' कंतारभत्ते इ वा ' कान्तारभक्तम्कान्तारम् अरण्यम्-तत्समुल्लङ्घनार्थं नीयमानं भक्तम् । यद्वा अरण्ये भिक्षुकाणां निर्वाहाय यत् संस्क्रियते तत् कान्तारभक्तम्-तदप्यकल्पनीयम् । 'दुभिक्खभत्ते इ वा' दुर्भिक्षभक्तमिति वा-दुर्भिक्षे भिक्षुकाणां कृते यत् संस्क्रियते तदप्यकल्पनीयम् । 'गिलाणभत्ते इ वा ' ग्लानआहार, क्रीतकृत-मोल लाकर दिया गया आहार, प्रामित्य-उधार लेकर अथवा किसी दूसरे से झपट कर दिया हुआ आहार, अनिसृष्ट-जिस आहार के ऊपर अनेक का स्वामित्व है उन सभी को पूछे विना सिर्फ एक के द्वारा दिया गया आहार, अभ्याहृत-साधु के संमुख लाकर दिया गया आहार, स्थापित-साधु के निमित्त रखा हुआ आहार, रचित-मोदकचूर्ण आदि को फोडकर पुनः मोदकरूप में बनाया गया आहार, कान्तारभक्त-अटवी को उल्लंघन करने के लिये घर से लाया हुआ पाथेयस्वरूप आहार, अथवा जंगल में भिक्षुकों के निर्वाह के लिये तैयार करवाया गया आहार, दुर्भिक्षभक्त-दुर्भिक्ष के समय भिक्षुकों को देने के लिये बनवाया गया आहार, ग्लानभक्त-रोगी के लिये बनाया गया आहार, वार्दलिकाવેચાતે લઈને દીધેલો આહાર, ઝામિત્ય–ઉધાર લઈને અથવા કોઈ બીજા પાસેથી ઝુંટવી લઈને દીધેલ આહાર, અનિસૃષ્ટ–જે આહારના ઉપર અનેકનું સ્વામિત્વ હોય એવા બધાને પૂછ્યા વિના માત્ર એકના દ્વારા અપાયેલ આહાર, અભ્યાહત-સાધુની સામે લઈ આવીને આપેલો આહાર, સ્થાપિત– સાધુના નિમિત્તે રાખી મુકેલે આહાર, રચિત લાડુને તેડીને ભૂકા કરી પછી તે ભૂકામાંથી લાડુ-રૂપમાં બનાવેલ આહાર, કાન્તારભક્ત—અટવીને ઉલ્લંઘન કરવા માટે ઘરથી લાવી રાખેલ પાથેયસ્વરૂપ આહાર, અથવા જંગલમાં ભિક્ષુકોના નિર્વાહ માટે તૈયાર કરાવેલો આહાર, દુર્ભિશભક્ત-દુકાળ સમયમાં ભિક્ષુકોને દેવા માટે બનાવેલો આહાર, પ્લાનભક્ત–રોગીને માટે બનાવેલ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३७ अम्मडपरिव्राजकविषये भगवदगौतमयो संवादः ५८ गभत्ते इ वा भोत्तए वा पाइत्तए वा। अम्मडस्स णं परिवायगस्स णो कप्पइ मूलभोयणे वा जाव बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा ॥ सू० ३५॥ भक्तम्-ग्लानः सन् निजाऽऽरोग्याय यत्प्रदीयते तद्-ग्लानभक्तम् , 'बद्दलियाभत्ते इ वा' वार्दलिकाभक्तम्-वृष्टौ यद्दातुं क्रियते एतदप्यकल्प्यम् । 'पाहुणगभत्ते इ वा' प्राघुणकभक्तम्-प्राघुणकः कोऽपि कस्य चिद् गृहे समागतः तस्य कृते यत् क्रियते तत् प्राघुणकभक्तम् , एतदप्यकल्पनीयम् । एतत्पूर्वोक्तम्-' भोत्तए वा पाइत्तए वा' भोक्तुं वा पातुं वा न क ल्पते इत्युक्तमेव । 'अम्मडस्स णं परिवायगम्स णो कप्पइ मूलभोयणे वा जाव बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा' अम्बडस्य खलु परिव्राजकस्य न कल्पते मूलभोजनं वा यावद् बीजभोजनं वा भोक्तुं वा पातुं वा-मूलानि कमलादीनां, यावच्छब्दात्कन्दभोजन फलभोजनं हरितभोजनमेतानि त्रीणि पदानि गृह्यन्ते, तत्र-कन्दाः-सूरणादयः, फलानि आम्रफलादीनि, हरितानि मधुरतृणादीनि, बीजानि=शाल्यादीनि, एतानि भोक्तुं न कल्पन्ते, तथाआधाकर्मादिपानकानि पातुं न कल्पन्ते इति ॥ सू. ३५ ॥ भक्त-वृष्टि में देने के लिये बनाया गया आहार, प्राघुणकभक्त-पाहुनों के लिये रांधा गया आहार, उस अम्बड परिव्राजक के लिये नहीं कल्पता है, और इसी प्रकार का पेय भी उसे नहीं कल्पता है । (अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पइ मूलभोयणे वा जाव बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा) इसी प्रकार इस अम्बड परिव्राजक के लिये कमलादिकों के मूल, सूरणादिक कन्द, आम्र आदि फल का भोजन एवं अपक्क शाल्यादिक एवं मधुर तृण आदि हरित सचित्त वस्तु का भोजन भी अकल्पित है ।। सू. ३५ ॥ આહાર, વાર્દશિકાભક્ત-વૃષ્ટિમાં દેવા માટે બનાવેલ આહાર, પ્રાળુણકભક્તપણુઓને માટે રંધાવવામાં આવેલો આહાર તે અઅડ પરિવ્રાજકને માટે नथी ४८५ती, अने माq। ४२नु पेय ५५ तेने नथी ४६५तु. ( अम्मदस्स गं परिव्वायगस्स णो कप्पइ मूलभोयणे वा जाव बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा) આ પ્રકારે એ અમ્બડ પરિવ્રાજકને માટે કમળ આદિકનાં મૂળ, સૂરણ આદિક કંદ, આગ્ર આદિક ફળનું ભેજન તેમજ અપકવ શાલિ આદિક તેમજ મધુર તૃણ આદિ લીલી સચિત્ત વસ્તુનું ભેજન પણ અકલ્પિત છે. (સ. ૩૫) Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ औपातिकसूत्रे मूलम्-अम्मडस्स णं परिवायगस्स चउविहे अणहादंडे पच्चक्खाए जावज्जीवाए; तं जहा-अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे ॥ सू० ३६ ॥ टीका... 'अम्मडस्स णं' इत्यादि। 'अम्मडस्स णं परिवायगस्स ' अम्बडस्य खलु परिव्राजकन्य 'चउविहे अणट्ठादंडे पञ्चक्खाए जावजीवाए' चतुर्विधः अनर्थदण्डः-अर्थः प्रयोजनं गृहस्थस्य क्षेत्रवास्तुधनधान्यं शरीरपरिपालनादिविषयं तदर्थ आरम्भो-भूतोपमदाऽर्थदण्डः । दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति पर्यायाः । अर्थेन प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्डः, स चैवंभूत उपमर्दनलक्षणो दण्डः क्षेत्रादिप्रयोजनमपेक्षमाणोऽर्थदण्ड उच्यते, तद्विपरीतोऽनर्थदण्डः प्रत्याख्यातो यावज्जीवम् । अयमनर्थदण्डः किंस्वरूपः ? इति बोधयितुमाह-'तं जहा' तद्यथा-'अवज्झाणायरिए ' अपध्यानाऽऽचरितः--अपध्यानम् आर्तरौद्ररूपं, तेनाचरितः= आसेवितो योऽनर्थदण्डः स तथा । ‘पमायायरिए' प्रमादाऽऽचरितः-प्रमादेन- मद्यविषय 'अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स' इत्यादि। __ (अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स) इस अम्बड परिव्राजक के (चउविहे) चारों प्रकार के (अणद्वादंडे ) अनर्थ दंडों को (जावज्जीवाए पञ्चक्खाए ) जीवनपर्यन्त परित्याग है । वे चार अनर्थदंड इस प्रकार हैं-( अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे ) अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान, एवं पापकर्मोपदेश । विना प्रयोजन जीवों का उपमर्दन जिन कार्यों के करने से होता है उसका नाम अनर्थदंड है। आर्तरौद्ररूप ध्यान का नाम अपध्यान है। इस ब्यानसे उद्भूत अथवा क्रियमाण दंड का नाम अपध्यानाचरित अनर्थ दंड है। मद्य, विषय, कषाय, निद्रा एवं विकथारूप प्रमाद से " अम्मउम्स गं परिव्वायगस्स" त्यादि. ( अम्मडस्स णं परिव्वायगरस ) मा २५५७ परिवाने (चरव्विहे) यारेय प्रा२ना (अणदादंडे ) अनर्थ हुन। ( जावज्जीवाए पच्चक्खाए) पनपर्यन्त परित्याग छ. से यार मन ४ मा ४२ना छ. (अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे ) २५५च्या नायरित, प्रभाहायरित, डिसा પ્રદાન-હિસાકારક શર કોઈને દેવું, તેનેજ પાપકર્મને ઉપદેશ. વિના પ્રજન જીનું ઉપમન જે કાર્યો કરવાથી થાય તેનું નામ અનર્થદંડ છે. આ રૌદ્રરૂપ ધ્યાનનું નામ અપધ્યાન છે. આ ધ્યાનથી ઉદભવેલા અથવા થનારા દંડનું નામ અપપ્પાનાચરિત-અનર્થદંડ છે. મઘ, વિષય, કષાય, નિંદ્રા તેમજ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ३७ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवदगौतमयो संवादः ५८९ मूलम्-अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स कप्पइ मागहए अद्धाढए जलस्स परिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणए णो चेव कषायनिद्राविकथालक्षणेन आचरितः ‘हिंसप्पयाणे' हिंसाप्रदानम्-हिंसाहेतुत्वादग्निविषशस्त्रादिकं हिंसोच्यते, कारणे कार्योपचारात् , तत्प्रदानमन्यस्मै क्रोधाभिभूताय अनभिभूताय वा। यद्वा-हिंस्रप्रदानमितिच्छाया-हिंस्रं हिंसाकारि शस्त्रादि, तत्प्रदानं परेषां समर्पणम् , अयं तृतीयोऽनर्थदण्डः, ‘पावकम्मोवएसे' पापकर्मोपदेशः-पातयति नरकादाविति पापम् , तत्प्रधानं कर्म पापकर्म, तस्योपदेशः, कृष्यादिसावद्यव्यापारे प्रवर्तनम् , अयं चतुर्थः ॥ सू० ३६ ॥ टीका-'अम्मडस्स' इत्यादि । ___'अम्मडस्स णं परिवायगस्स कप्पइ' अम्मडस्य खलु परिव्राजकस्य कल्पते 'मागहए अद्धाढए जलस्स परिग्गाहित्तए' मागधमर्धाढकं जलस्य परिग्रहीतुम् , 'से वि य किये गये कार्य का नाम प्रमादाचरित अनर्थदंड है। हिंसा के हेतु होने से अग्नि, विष एवं शस्त्र आदि, कारण में कार्य के उपचार से हिंसास्वरूप कहे गये हैं। इन हिंसा के कारणों को किसो क्रोधयुक्त व्यक्ति के लिये अथवा क्रोधरहित व्यक्ति के लिये देना सो हिंसाप्रदान नाम का अनर्थदंड है। आत्मा को जो नरक में डाले उसका नाम पाप है, इस पापप्रधान कर्म करने का उपदेश देना अथवा स्वयं भी कृष्यादि सावद्यरूप व्यापार में प्रवृत्ति करना सो पापोपदेश नामका अनर्थदंड है ॥ सू. ३६ ॥ 'अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स' इत्यादि । ( अम्मडस्स णं परिवायगस्स) इस अम्बड परिव्राजक को (मागहए अद्धाढए) मगधदेश प्रसिद्ध अर्ध-आढक-प्रमाण ( जलस्स परिग्गाहित्तए कप्पइ) जल વિકથારૂપ પ્રમાદથી આચરેલાં–કરેલાં કાર્યનું નામ પ્રમાદા ચરિત–અનર્થદંઠ છે. હિંસાના હેતુ થાય તેવાં અગ્નિ, વિષ તેમજ શસ્ત્ર આદિ, કારણમાં કાર્યો ઉપચાર થવાથી હિંસાસ્વરૂપ કહેવાય છે. આ હિંસાનાં કારણેને કઈ ક્રોધાયમાન વ્યક્તિને કે વિના ક્રોધવાળા વ્યક્તિને માટે આપવાં તે હિંસાપ્રદાન નામને અનર્થદંડ છે. આત્માને જે નરકમાં નાખે તેનું નામ પાપ છે. આ પાપપ્રધાન કર્મ કરવાને ઉપદેશ દે અથવા પિતે પણ કૃષિ આદિ સાવદ્યરૂપ व्यापारमा प्रवृत्ति ४२वी ते पापोश नाभनो मन छ. (सू. ३६) 'अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स' ऽत्यादि. ( अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स) । मम परिका (मागहए अद्धाढए) भगवशप्रसिद्ध मया प्रमाण (जलस्स परिग्गाहित्तए कप्पइ) Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपणतिकमत्रे णं अवहमाणए, एवं थिमिए पसन्ने जाव से वि य परिपूए णो चेव णं अपरिपूए, से वि य सावजे त्ति काउं णो चेव णं अणवज्जे, से वि य जीवत्ति काउं णो चेव णं अजीवे, से वि वहमाणए णो चेव णं अवहमाणए' तदपि च वहमानं नो चैव खलु अवहमानम् , ‘एवं थिमिए पसन्ने जाव' एवं स्तिमितं प्रसन्नं यावत् ' से वि य परिपूर णो चेव णं अपरिपूए' तदपि च परिपूतं नो चैव खलु अपरिपूतम् , कस्मात् कारणात् परिपूतं गृहणातीत्यत आह-से वि य सावजे त्ति काउं' तदपि च सावधमिति कृत्वा- इति। इदं जलं सावद्यमस्तीति ज्ञात्वा वस्त्रगालितं कृत्वा गृहणातीति भावः । ‘णो चेव णं अणवजे' न चैव खलु अनवद्यम्-न तु निरवद्यमिति कृत्वा परिपूतं करोति । सावद्यमित्यपि कथं ज्ञातम् ? इत्यत आह-' से वि य जोवत्ति काउं' तदपि च जीवा इति कृत्वा, इह पुतरकादिजीवाः सन्तीति कृत्वेति भावः; 'णो चेव णं अजीवे त्ति काउं' नो चैव खलु अजीव-जीवरहितम् इति कृत्वा, ‘से वि य दिण्णे णो चेव णं अदिण्णे' तदपि च दत्तं नो चैव खल्वदत्तम् , ग्रहण करना कल्पता है । ( से वि य वहमाणए णो चेव णं अवहमाण र ) जितना अर्ध-आढक-प्रमाण जल लेना इसे कल्पता है सो भी बहता हुआ ही कल्पसा है, अबहता हुआ नहीं । ( एवं थिमिए पसन्ने जाव से वि य परिपूए णो चेव णं अपरिपूए) वह भी कर्दम से रहित, स्वच्छ, प्रसन्न-निमल यावत् परिपूत-छाना हुआ ही कल्पता है, इससे विपरीत नहीं । ( से वि य सावज्जत्ति काउं णो चेव णं अणबजे ) सोभी सावद्य समझ कर छाना हुआ ही कल्पता है, निरवद्य समझ कर नहीं । ( से वि य जीवत्ति काउं णो चेव णं अजीवे) सावध भी उसे वह जीवसहित समझ कर ही मानता है, अजीव समझकर नहीं ! (से वि य दिण्णे णो चेव णं अदिण्णे) ४८ ग्रहण ४२j ४८पे छ. ( से वि य वहमाणए णो चेव णं अवहमाणए) જેટલું અર્ધ આહક પ્રમાણ જલ લેવું તેને કપે છે તે પણ વહેતું હોય ते ४ ४८ छ, न पडेतुं डाय ते नहि. (एवं थिमिए पसन्ने जाव से वि य परिपूए णो चेव णं अपरिपूए) ते ५५ ईभ ()थी हित, १२०, પ્રસન્ન-નિર્મળ યાવત્ પરિપૂત–ગાળેલું જ કપે છે, તે વિનાનું નહિ (તેનાથી बटुनथा ४६५तु). (से वि य सावज्जेत्ति काउं जो चेव णं अणवज्जे) ते ५५५ सावध समलने आणे ४८ छ, निरवध सभने नडि. (से वि य जीवत्ति काउं णो चेव णं अजीवे ) सावध ५५ तेने ते सहित सभने ४ भाने छ, म सभने नहि. (से वि य दिण्णे णो चेव णं अदिण्णे) ते ५५ ७ मापे डाय ते ४८पे छे. वीथा परनु नहि. ( से वि Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. स. ३८ अम्घडपरिव्राजक विषये भगवदगीतमयोः संघाम:५९१ य दिण्णे णो चेव णं अदिण्णे, से वि य हत्थ-पाय-चरुचमस-पक्खालणट्टयाए पिबित्तए वा, णो चेव ण सिणाइत्तए। अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स कप्पइ मागहए य आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, से वि य वहमाणए जाव णो चेव णं अदिण्णे, “से वि य हत्थ-पाय-चरु-चमस-पक्खालणट्टयाए पिबित्तए वा' तदपि च हस्तपाद-चरु-चमस-प्रक्षालनार्थाय पातुं वा, चरुः पात्रविशेष; 'णो चेव णं सिणाइत्तए' नो चैव खलु स्नातुम्। 'अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स कप्पइ' अम्बडस्य खलु परिव्राजकस्य कल्पते 'मागहए य आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए' मागधं चाढकं जलस्य प्रतिग्रहीतुम् , 'से वि य वहमाणए जाव णो चेव णं अदिण्णे' तदपि वहमानं यावत् नो चैव खल्वदत्तम् , “से वि य सिणाइत्तए' तदपि च स्नातुम् , 'णो चेव णं हत्थ-पाय-चरु-चमसवह भी दिया हुआ ही कल्पता है, विना दिया हुआ नहीं । ( से वि य हत्थ-पाय-चरुचमस-पायालणट्ठयाए पिबित्तए वा) दिया हुआ भी वह जल हस्त, पाद, चरु (पात्र विशेष) एवं चमस के प्रक्षालन के लिये अथवा पीने के लिये ही कल्पता है, (णो सिणा इत्तए स्नान के लिये नहीं । ( अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स कप्पइ मागहए य आढए जलास पडिग्गाहित्तए ) इस अम्बड परिव्राजक को मगधदेशसंबंधी आढकप्रमाण जल ग्रहण करना कल्पता है, ( से वि य वहमाणए जाव णो चेव णं अदिण्णे) वह भी बहता हुआ थावत् दिया हुआ ही कल्पता है, विना दिया हुआ नहीं ! (से वि य सिणाइत्तए णो चेव णं हत्थ-पाय-चरु-चमस-पक्रवालणट्ठयाए) वह भी स्नान के लिये य हत्थ-पाय-चर-चमस-पक्खालणट्टयाए पिबित्तए वा ) सीधेदुहायत ५६ पाणी, હાથ પગ, ચ, તેમજ ચમસને ધોવા માટે અથવા પીવા માટે જ કપે છે. (ચરુ, यभस से पात्रविशेषना नाभा छे.) (णो सिणाइत्तए) स्नान भाट नलि. (अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स कप्पइ मागहए य आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए) मा म परिजाने भगबहेश-समाधी माप्रमाणुस अड) ४२j ४८ छ. (से वि य वहमाणए जाव णो चेव णं अदिण्णे) ते ५५५ य ते ४६पे छे, (यावत्) सापडं हाय ते ४८५ छे. मापे न डाय तेनडि. ( से वि य सिणाइत्तए णा चेव णं हत्थ-पाय-चरु-चमस-पक्खालणट्टयाए) पर स्नान भाटे ४ ४८ छे. Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ सेविय सिणाइत्तए, णो चेव णं क्खालणट्टयाए पिबित्तए वा ॥ सू० ३७ ॥ मूलम् — अम्मडस्स णो कप्पइ - अण्णउत्थिया वा अपणउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाइं पखालणट्टयाए पबित्तए वा ' नो चैव खलु हस्त-पाद- चरु - चमस - प्रक्षालनाऽर्थं पातुं वा, शेषपदव्याख्याऽस्यैवागमस्योत्तरार्धे एकोनविंशतितमे सूत्रे प्रदर्शिता, अत्र सूत्रे जलस्य परिमाणं प्रदर्शितमस्ति ।। सू. ३७ ॥ टीका- 'अम्मडस्स णो कप्पर ' इत्यादि । • अम्मडस्स णो कप्पइ ' अम्बदस्य न कल्पते, अस्य 'वन्दितुम्' इत्यत्रान्वयः । कान् वन्दितुं न कल्पते : अत्राऽऽह - ' अण्णउत्थिया वा' अन्ययूथिकान् वा अन्यत् = तीर्थकरसंघापेक्षया भिन्नं यद् यूथं - संघस्तदन्ययूथं तदस्त्येषामित्यन्ययूथिका: शाक्यादिभिक्षवः तानू, 'अण्णउस्थिवदेयाणिवा' अन्ययूथिकदैवतानि वा अन्ययूथिकानां दैवतान अन्ययूथिकदैवतानि - अर्हद्भिन्नान् देवान वा, ' अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेहयाई ' ही कल्पता है, हाथ, पैर, चरु एवं चमचा को धोने के लिये नहीं, और न पान के लिये ही। ‘आढक' आदि का अर्थ इसी आगम के उत्तरार्ध में उन्नीसवें सूत्र की व्याख्या में प्रदर्शित किया गया है । सू. ३७ ॥ औपपातिक हत्थ - पाय - चरु - चमस - प 6 , 'अम्मडस्स णो कप्पड़' इत्यादि । ( अम्मडस्स ) इस अम्बड को ( अण्णउत्थिया) अन्ययूथिक - तीर्थंकर की अपेक्षा शाक्यादिक भिक्षुओं का संघ, एवं ( अण्णउत्थिय देवयाणि वा ) अन्यसंघ द्वारा उपास्यरूप से संमत अर्हत - प्रभु सिवाय दूसरे देवता, ( अण्णउत्थियपरिग्गहियाહાથ, પગ, ચરુ તેમજ ચમચા ધાવા માટે નહિ અને પીવા માટે પણ નહિ. ' आढक ' माहिती अर्थ मेन मागभना उत्तरार्धमा भोगणुवीशमां सूत्रनी व्याभ्यामां ४२वामां मान्यो छे. ( सू. ३७ ) 'अम्मडस्स णो कप्पइ' इत्यादि. ( अम्मङस्स ) थे सभ्यउने (अण्णउत्थिया) जीन्न यूथगजा - तीर्थ ४२स धनी अपेक्षा शा४य लिक्षुखोना संघ, तेमन ( अण्णउत्थियदेवयाणि वा ) जीन्न સંઘ દ્વારા ઉપાસ્યરૂપથી સંમત અર્હત प्रभु सिवाय मील हेव, ( अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाइं ) तथा मील यूथमां लजी गयेला जैन साधु Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सु. ३८ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गीतमयोः संवादः५९३ वंदित्तए वा णमंसित्तए वा जाव पज्जुवासित्तए वा, णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाइं वा ॥ सू० ३८॥ मूलम्--अम्मडे णं भंते ! परिव्वायए कालमासे कालं अन्ययूथिकपरिगृहीतान् वा चैत्यान् , आर्षत्वात् क्लीबनिर्देशः; चितिः=ज्ञानं, तत्र साधवः= कुशलाः चित्याः अर्हत्साधवः, त एव चैत्याः, प्रज्ञादित्वात् स्वार्थेऽण् ; तान् , अयमत्र पिण्डितोऽर्थः, तैर्थिकान्तरसाधून् वा तैर्थिकान्तरदेवान् वा, यथाकथंचित्तैर्थिकान्तरसंमिलितान् जिनसाधून् वा वंदित्तए वा' वन्दितु स्तोतुं वा, ‘णमंसित्तए वा' नमस्यितुं नमस्कर्तुं वा 'जाव पज्जुवासित्तए वा' यावत् पर्युपासितुम् आराधयितुं वा, ‘णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाइं वा' नाऽन्यत्र अर्हतो वा अर्हच्चैत्यान् वा । अयं निषेधोऽईद्विषये, अर्हत्साधुविषये वा न घटते, किन्तु ततोऽन्यत्राऽयं निषेध इति भावः। 'चैत्य' शब्दस्य विस्तृतोऽर्थ 'उपासकदशाङ्ग'-सूत्रस्यागारधर्मसंजीवनीटीकायां मया प्रदर्शितः स ततोऽवसेयः ॥ सू. ३८॥ टीका-गौतमः पृच्छति-'अम्मडे णं भंते ! परिव्वायए' इत्यादि। 'भंते' हे भदन्त ! 'अम्मडे णं परिव्वायए' अम्बडः खलु परिव्राजकः णि वा चेइयाइं) तथा अन्य यूथ में सम्मिलित जैन साधु भी (वंदित्तए वा णमंसित्तए वा जाव पज्जुवासित्सए वा) वंदना करने, नमस्कार करने एवं पर्युपासना करने के लिये (णो कप्पइ) कल्पते नहीं हैं। (णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाइं वा) परंतु यदि नमस्कार आदि के लिये उसे कोई कल्पते हैं तो वे एकमात्र अरिहंत एवं अरिहंत के साधुजन ही कल्पते हैं । 'चैत्य' शब्द का विस्तृत अर्थ, जिज्ञासुओं को 'उपासकदशांग' की अगारधर्मसंजीवनी टीका में देखना चाहिये ॥ सू. ३८॥ 'अम्मडे णं भंते' इत्यादि। (भंते) हे भदंत ! (अम्मडे णं परिवायए) यह अम्बड परिव्राजक (कालमासे ५) (वंदित्तए वा णमंसित्तए वा जाव पज्जुवासित्तए वा) ना ४२११, नभ२४१२ ४२१॥ तेभ०४ पर्युपासना ४२वा माटे (णो कप्पइ) नथी ४८५ता. (णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाइं वा) परंतु नभ४१२ माहि योग्यले કેઈ એને માટે હોય તે તે એકમાત્ર અરિહંત તેમજ અરિહંતના સાધુજન ४ छ. 'चैत्य' शहना विस्तृत अर्थ विज्ञासुमागे 'उपासकदशांगनी અગારધર્મ સંજીવની ટીકામાં જે જોઈએ (સૂ. ૩૮). "अम्मडे णं भंते !" ईत्यादि. (भंते) महन्त ! (अम्मडे णं परिव्वायए) सम्म परिवा१४ (काल Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकम किच्चा कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ? गोयमा ! अम्मडे णं परिव्वायए उच्चावएहिं सील-व्वय-गुण-वेरमणपञ्चक्खाण-पोसहो-ववासेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं 'कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ?' कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? भगवानाह-'गोयमा! अम्मडे णं परिवायए' हे गौतम ! अम्बडः खलु परिव्राजकः 'उच्चावएहि उच्चावचैः नानाविधैः, 'सील-उवयगुण-वेरमण-पञ्चक्खाण-पोसहोववासेहि' शील-व्रत-गुण-विरमग-प्रत्याख्यानपोषधोपवासैः, शीलानि--"शील समाधौ” अस्माद् घञ्, नपुंसकत्वं लोकात् , शीलति-आत्मचिन्तनरूपं समाधि प्राप्नोति एभिस्तानि शीलानि । तानि चत्वारि-सामायिक-देशावकाशिकपोषधा-तिथिसंविभागाख्यानि, व्रतानि-पञ्चाणुव्रतानि, गुणाः-त्रीणि गुणव्रतानि, विरमणं-मिथ्यात्वान्निवर्तनम् , प्रत्याख्यानं-पर्वदिनेषु त्याज्यानां परित्यागः, पोषधोपवासः-पोषं-पुष्टिं धर्मस्य वृद्धिमिति यावद् धत्ते इति पोषधः, पोषधशब्दो रूढया पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टमी-चतुर्दशी-पौर्णमास्यमावास्यातिथयः, पूरणात् पर्वेत्युच्यते, पूरणत्वं धर्मवृद्धिकारकत्वात् ; पोषधे उपकालं किच्चा) काल अवसर में काल करके (कहिं गच्छहिति) कहां जायगा ? (कहिं उववजिहिति) कहां उत्पन्न होगा ? प्रभु ने कहा-(गोयमा) हे गौतम !(अम्मडे णं परिवायए उच्चावएहिं सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहि) यह अम्बड परिव्राजक अनेक प्रकार के शीलवत-जिनके द्वारा आत्मा के चिन्तन रूप समाधि जीव प्राप्त करता है उनका नाम शीलवत है, गुणवत, मिथ्यात्वविरमण, प्रत्याख्यान-पर्वदिनों में त्याग करने योग्य वस्तुओं का त्याग करना, पोषधोपवास-अष्टमी, चतुर्दशी, पौर्णमासी एवं अमावास्या ये तिथियाँ धर्म का पोषण करती हैं इसलिये ये पौषध हैं, इनमें चतुर्विध आहार का मासे कालं किच्चा) ४ अक्सरे पास ४शन (कहिं गच्छिहिति) ४यां ? (कहिं उववन्जिहिति) ४यां उत्पन्न थशे ? प्रभुमे उत्तरमा ४यु-(गोयमा) गौतम ! (अम्मडे णं परिव्वायए उच्चावएहिं सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाणपासहोववासेहिं) से मम परिवा४, मने प्रारनां शीसवत (ना દ્વારા આત્માનાં ચિન્તનરૂપ સમાધિ જીવ પ્રાપ્ત કરે છે તેનું નામ શીલવ્રત છે), ગુણવ્રત, વેરમણ–મિથ્યાત્વવિરમણ, પ્રત્યાખ્યાન-પર્વના દિવસોમાં ત્યાગ કરવા ગ્ય વસ્તુઓનો ત્યાગ કરવો, પોષપવાસ–અષ્ટમી, ચતુર્દશી, પણુંમાસી તેમજ અમાવાસ્યા એ તિથિઓ ધર્મનું પોષણ કરે છે તે માટે Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणी-टीका सू. ३९ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ५९५ समणोवासगपरियायं पाउणिहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सहि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता, वासः=नियमविशेषः पोषधोपवासः, स चतुर्विधः-आहारशरीरसत्कारत्यागब्रह्मचर्यसावद्यव्यापारपरित्यागभेदात् । एषां शीलादिपोषधोपवासान्तानामितरेतरयोगद्वन्द्वस्तैस्तथोक्तैः 'अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं समणोवासयपरियाय पाउणिहिति' आत्मानं भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं पालयिष्यति, 'पाउणित्ता' पालयित्वा 'मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता' मासिक्या संलेखनयाऽऽत्मानं जुषित्वा सेवित्वा, 'सर्द्वि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता' षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा, 'आलोइयपडिकंते' त्याग करना । इन सबका भेद इस प्रकार है, शीलवत का भेद-सामायिक, देशावकाशिक, पौषध और अतिथि विभाग इस प्रकार से ४ हैं। गुणवत तीन हैं। पौषधोपवास भी ४ प्रकार का है-आहार का त्याग, शारीरिक सत्कार का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन एवं सावध व्यापार नहीं करना । इन सब नियमों-व्रतों से ( अप्पाणं भावेमाणे) अपनी आत्मा को भावित करता हुआ (बहूई वासाई समणोवासगपरियाय पाउणिहिति) अनेक वर्षों तक श्रमणोपासक - श्रावक की पर्याय का पालन करेगा। (पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झसित्ता) इस प्रकार श्रावक की पर्याय को पालन करके फिर वह १ मास की संलेखना से अपनी आत्मा को युक्त कर-अर्थात् एक मास की संलेखना धारण कर (सर्टि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता) साठ भक्त का अनशन से छेदकर (आलोइयपडिकते) पापकर्मों की आलोचना-प्रतिक्रमण करके (समाहिपत्ते) समाधि એ પિષધ છે. તેમાં ઉપવાસ એટલે વસવું એ પિષધેપવાસ કહેવાય છે. એ બધાને ભેદ આ પ્રકારે છે, શીલવતના ભેદ-સામાયિક, દેશાવકાશિક, પિષધ, અને અતિથિસંવિભાગ, આ ચાર પ્રકારનાં છે. ગુણવ્રત ત્રણ પ્રકારનાં છે. પિષધોપવાસ ચાર ૪ પ્રકરના છે–આહારને ત્યાગ, શારીરિક સત્કારને ત્યાગ, બ્રહ્મચર્યનું પાલન તેમજ સાવધ વ્યાપાર ન કરે. આ બધા नियमी-प्रताथी (अप्पाणं भावेमाणे) पोताना मात्माने सावित ४२त। २४ (बहूई वासाई समणोवासगपरियाय पाउणिहिति) अने१२सो सुधी भए। पास४-श्रावनी पर्यायतुं पान ४२शे. (पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता) 0 पारे श्रा१नी पर्यायनु पान ४शने पछी ते से भासनी सपना धारण ४रीने (सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता) स18 सतनुं मनशनथी छेहन शने (आलोइयपडिक्कते) पा५ ४ीनी Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमुत्रे आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किन्ना बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववजिहिति। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं अम्मडस्स वि देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई ॥ सू० ३९ ॥ मूलम् --से णं भंते ! अम्मडे देवे ताओ देवलोगाओ आलोचितप्रतिक्रान्तः प्रतिनिवृत्तः, 'समाहिपत्ते' समाधिप्राप्तः, 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'बंभलोए कप्पे देवत्ताए उवजिहिति' ब्रह्मलोके का देवत्वेनोत्पस्यते, 'तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ' तत्र खलु अस्ति एकेषां केषांचिद् देवानां दश सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । 'तत्थ णं अम्मडस्स वि देवस्स दस सागरोवमाई ठिई ' तत्र खलु अम्मडस्याऽपि देवस्य दश सागरोपमानि स्थितिः ॥ सू० ३९॥ टीका-गौतमः पृच्छति-'से णं भंते ?' इत्यादि। ‘से णं भंते ! अम्मडे देवे' स खलु भदन्त ! अम्बडो देवः, 'ताओ देवको प्राप्त करेगा। पश्चात् (कालमासे कालं किच्चा) काल अवसर में कल कर के (बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववन्जिहिति) ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में उत्पन्न होगा। (तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दससागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता ) वहां कितनेक देवों की स्थिति १० सागर की है। (तत्थ णं) वहां पर ( अम्मडस्स वि देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई ) इस अम्बड देव की भी दश सागर प्रमाण स्थिति होगी॥र. ३९॥ ‘से णं भंते अम्मडे देवे' इत्यादि । गौतम पूछते हैं-(भंते) हे भदंत ! ( से अम्मडे देवे ) वह अम्बड देव (ताओ मासायना तथा प्रतिभY ४शन (समाहिपत्ते ) समाधिने प्रात ४२शे पछी (कालमासे कालं किच्चा) स-अवसरे ४शने (बंभलोए कप्पे इवत्ताए उववजिहिति) प्रहाता नामना पांयमा वाम उत्पन्न थशे. (तत्थ ण अत्थेगइयाणं देवाणं दससागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता) त्यांना हेवोनी स्थिति दृश १० सागरनी छ, (तत्थ णं) त्यां (अम्मडस्स वि देवस्स दससागगेवमाई ठिई) 241 २१वनी ५ इस सागर प्रभार स्थिति यरी. (सू० 36) 'से गं भंते ! अम्मडे देवे' त्याहि. गौतम पूछे छ-(भंते) महत! (से णं अम्मडे देवे) ते मय हे Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ४० अम्घडपरिव्राजकविषये भगवदगौतमयो संघादः ५९७ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववजिहिइ १ ॥ सू० ४०॥ ___ मूलम्-गोयमा ! महाविदेहे वासे जाइं कुलाई लोगाओ' तस्माद्देवलोकात् 'आउक्खएणं' आयुःक्षयेण=देवसम्बन्ध्यायुःकर्मदलिकनिर्जरणेन, 'भवखएणं' भवक्षयेण=देवभवहेतुगत्यादिकर्मनिर्जरणेन, 'ठिइक्खएणं' स्थितिक्षयेण ब्रह्मलोके दशसागरोपमस्थितिक्षयेण 'अणंतरं' अनन्तरं चयं शरीरं 'चइत्ता' त्यक्त्वा, 'कहिं गच्छिहिइ' कुत्र गमिष्यति, 'कहिं उववजहिइ' कुत्रोत्पत्स्यते ? ॥ सू. ४० ॥ टीका-गौतमेन पृष्टः सन् भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि। 'गोयमा !' हे गौतम ! ' महाविदेहे वासे जाइं कुलाइं भवंति' महाविदेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति सन्ति, कानि तानि ? इत्याह-'अड्ढाई' आढयानि=समृद्धानि, देवलोगाओ) उस देवलोक से (आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं) आयु के क्षय-देवसंबंधी आयुकर्म के दलिकों की निर्जरा से, भव के क्षय-देवभव के हेतु गत्यादिक कर्म की निर्जरा से तथा स्थिति के क्षय-ब्रह्मलोक संबंधी १० सागर की स्थिति के समाप्त होने से (चयं चइत्ता) देवपर्याय से च्यवकर (अणंतरं) इसके बाद (कहिं गच्छिहिइ कहिं उववजिहिइ) कहां जायगा ? कहां उत्पन्न होगा ? ॥ सू. ४० ॥ 'गोयमा! महाविदेहे वासे' इत्यादि । गौतमस्वामीने पूर्वोक्त प्रकार से जब प्रभु से पूछा तब उन्होंने कहा-(गोयमा) हे गौतम ! ( महाविदेहे वासे ) महाविदेह क्षेत्र मे (जाइं) जितने ( अड्ढाई दित्ताई वित्ताई) आढ्य-समृद्ध दीप्त-उज्ज्वल तथा प्रशंसित, एवं वित्त-प्रसिद्ध, (कुलाइं भवंति) (ताओ देवलोगाओ) ते पोथी (आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं) આયુને ક્ષય--દેવસંબંધી આયુકર્મલિકની નિર્જરાથી, ભવનો ક્ષય-દેવભવના હેતુ ગતિ આદિક કર્મની નિર્જરાથી તથા સ્થિતિને ક્ષય-બ્રહ્મલોક सधा श सा२नी स्थिति समास पाथी (चयं चइत्ता) पर्यायथी २युत थने (अणंतरं) त्या२ पछी (कहिं गच्छिहिइ कहिं उववजिहिइ ?) ४यां शे? जयां उत्पन्न थशे? (सू० ४०) “ गोयमा ! महाविदेहे वासे” त्यादि. गौतम ५२ ४ा मारे न्यारे प्रभुने पूछ्युं त्यारे तमामे -(गोयमा) 3 गौतम ! (महाविदेहे वासे) भविड क्षेत्रमा (जाई) २८॥ (अड्ढाई दित्ताई वित्ताई) माढय-समृद्ध, द्वीH-Sarvq तथा प्रशसित, तेभ वित्तप्रसिद्ध, (कुलाइं भवंति) पुणो छ. (वित्थिण्ण-विउल-भवण-सयणा-सण-जाण Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्र भवंति अड्ढाइं दित्ताइं वित्ताइं वित्थिण्ण-विउल-भवण-सयणा-सण-जाण-वाहणाइं बहुधण-जायरूव-रययाइं आओग-पओग-संपउत्ताई विच्छड्डिय-पउर-भत्तपाणाइं बहु-दासी'दित्ताई' दीप्तानि=उज्ज्वलानि-प्रशंसितानि, 'वित्ताई' वित्तानि प्रसिद्धानि 'वित्थिण्णविउल-भवण-सयणा-सण-जाण-वाहणाई' विस्तीर्ण-विपुल-भवन-शयना-ऽऽसनयान-वाहनानि-विस्तीर्णानि-विस्तृतानि विपुलानि-विशालानि भवनानि शयनादीनि च येषु कुलेषु तानि तथा, 'बहुधण-जायरूव-रययाई बहुधन-जातरूप-रजतानि-बहूनि धनानि जातरूपाणि-सुवर्णानि रजतानि च येषु तानि तथा, 'बहु-दासी-दास-गो-महिसगवेलग-प्पभूयाइं बहु-दासी-दास-गो-महिष-गवेलक-प्रभूतानि–बढ्यो दास्यः बहवो दासाः, गावः वृषभा धेनवश्च, महिषाः महिषाः महिष्यश्च, गवेलकाः मेषाः तै प्रभूतानि= सहितानि, 'आओग-पओग-संपउत्ताई' आयोग-प्रयोग-सम्प्रयुक्तानि-विविधदानाssकुल हैं। जो कि (वित्थिण्ण-विउल-भवण-सयणा-सण-जाण-वाहणाई) विस्तृत एवं विपुल भवनों के अधिपति हैं । जिनके पास अनेक प्रकार के शयन, आसन एवं यानवाहनादिक हैं। (बहुधनजायरूवरययाइं) जो बहुत अधिक धन के स्वामी हैं। सोने एवं चांदीकी जिनके पास कमी नहीं है। (आओग-पओग-संपउत्ताई) आदान-प्रदान अर्थात् लाभ के लिये लेन-देन का काम करते हैं, (विच्छड्डिय-पउर-भत्त-पागाइं ) याचक आदि जनों के लिये जो प्रचुरमात्रा में भक्तपान आदि देते हैं, ( बहु-दासी-दास-गोमहिस-गवेलग-प्पभूयाइं) जिनकी सेबामें रातदिन अनेक दासी एवं दास उपस्थित रहा करते हैं, जिनकी गोशालाएँ अनेक बैलोंसे, गायों से, महषियों से, महिषों से, एवं मेषों से, सदा भरपूर रहा करती हैं, (बहजणस्स अपरिभ्रयाई) और जो किसी के द्वारा भी पराभव वाहणाई) 2 विan तभ० विपुण सपनाना मधिपति छ, भनी पासे मने प्रा२न शयन, शासन, तभ०४ यान-पान माहिर छ, (बहु-धनजायरूव-रययाइं) ५४ घनना स्वाभी छ, सुपण तभा यांही भनी पासे मछी नथी, (आओग-पओग-संपउत्ताइं) माहान-महान अर्थात् सामने भाटे से नु म ४२ छ, (विच्छड्डिय-पउर-भत्त-पाणाई) याय: माहि बनाने माटो प्रयु२ मात्रामा मत--पान मा मापे छ, (बहु-दासीदास-गो-महिस-गवेलग-प्पभूयाइं) रेनी सेवामा रातहिवस भने वासी દાસ ઉપસ્થિત રહ્યા કરે છે. જેમની ગૌશાળાઓ અનેક બેલેથી, ગાયોથી लेसोथी, पामोथी, तभ०४ धेटतथा सहा म२५२ २ ४२ छ, (बहुजणस्स Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ४१ अम्बडपरिव्राजक विषये भगवद्गीतमयोःसंवाद:५९९ दास-गो-महिस-गवेलगप्पभूयाइं बहुजणस्स अपरिभूयाइं तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पञ्चायाहिइ ॥ सू. ४१॥ मूलम्--तए णं तस्स दारगस्स गब्भत्थस्स समाणस्स अम्मापिईणं धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ॥ सू. ४२॥ दान-कर्मोपयुक्तानि, 'विच्छड्डिय-पउर-भत्तपाणाई' विच्छर्दित-प्रचुर-भक्तपानानिविच्छर्दितानि दत्तानि प्रचुराणि भक्तानि पानानि-पेयानि यैः कुलैस्तानि तथा, 'बहुजणस्स अपरिभूयाइं ' बहुजनस्याऽपरिभूतानि, कैरप्यपराजितानीत्यर्थः । 'तहप्पगारेसु' तथाप्रकारेषु-तादृशेषु कुलेषु, 'पुमत्ताए' पुंस्तया-पुरुषतया, 'पञ्चायाहिइ' प्रत्यायास्यति उत्पत्स्यत इत्यर्थः ।। सू. ४१॥ टीका-'तए णं' इत्यादि ।'तए णं' ततः खलु-तत्पश्चात् 'तस्स दारगस्स' तस्य दारकस्य बालस्य 'गब्भत्थस्स चेव' गर्भस्थस्यैव-गर्भाऽऽगतस्यैव सतः पुण्यशालितया तत्प्रभावात् 'अम्मापिईणं धम्मे' मातापित्रोधर्मे 'दढा पइण्णा' दृढा प्रतिज्ञा 'भविस्सइ' भविष्यति-धर्माराधनाय दृढनिश्चयो भविष्यतीत्यर्थः । सू. ४२॥ नहीं पा सकते हैं, (तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पञ्चायाहिइ) ऐसे विशिष्ट कुलों में से किसी एक कुल में यह अम्बड परिव्राजक पुरुषरूप से उत्पन्न होगा ॥ सू० ४१॥ 'तए णं तस्स दारगस्स' इत्यादि । (तए णं) इसके पश्चात् (तस्स दारगस्स) उस लड़के के (गब्भत्थस्स समाणस्स) गर्भ में आते ही पुण्य के प्रभाव से (अम्मापिईणं) मातापिता को (धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ) धर्म में दृढ आस्था उत्पन्न होगी ॥ सू० ४२ ॥ अपरिभूयाइं) मने २ ४थी ५४ ५२राम पामता नथी. (तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाहिइ) i विशिष्ट मामाथी अ से सुषमा से सभ्य परिवा४४ पुरुष३५थी उत्पन्न थशे. (सू. ४१) 'तए णं तस्स दारगस्स' त्याहि. (तए णं) त्या२ पछी (तस्स दारगस्स) ते छ।४२राना (गन्भत्थस्स समाणस्स) गममा मातi पुश्यना प्रभाव 43 (अम्मापिईणं) माता-पितानी (धम्मे दढा पइण्णा भविस्सइ) धर्ममा १८ मास्था उत्पन्न थशे. (सू. ४२) Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० औपपातिकसूत्रे मूलम्--से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण राइंदियाणं वीइकंताणं सुकुमालपाणिपाए जाव ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे दारए पयाहिए ॥ सू. ४३ ॥ ___ मूलम्--तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे टीका-'से णं तत्थ' इत्यादि । ‘से णं तत्थ' स खलु तत्र ‘णवण्हं मासाणं' नवसु मासेषु, अत्र सप्तम्यर्थे षष्टी, एवमग्रेऽपि; 'बहुपडिपुण्णाणं' बहुप्रतिपूणेषु सर्वथा व्यतीतेषु, 'अद्धट्ठमाणं' अर्धाष्टमेषु-सार्धसप्तसु 'राइन्दियाणं' त्रिन्दिवेषु 'वीइक्ताणं' व्यतिक्रान्तेषु व्यतीतेषु 'जाव ससिसोमाकारे' यावत् शशिसौम्याकारः= चन्द्रवत्सुन्दरः, 'कंते' कान्तः कमनीयः, 'पियदंसणे' प्रियदर्शनः, 'सुरूवे' सुरूपः, 'दारए' दारकः पुत्रः ‘पयाहिए' प्रजनिष्यते उत्पत्स्यते ।। सू. ४३ ॥ टीका-'तए णं' इत्यादि। 'तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे' ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ प्रथमे दिवसे 'ठिइवडियं' स्थितिपतितं कुलमर्यादाप्राप्तं-पुत्रजन्मोत्सव 'से णं तत्थ णवण्हं मासाणं' इत्यादि । (तत्थ) गर्भ में (णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वीइकंताणं) नौ महीने साढे सात दिनरात बीतने पर (सुकुमालपाणिपाए जाव ससिसोमा. कारे कंते पियदंसणे सुरूवे दारए पयाहिइ) यह सुकुमार पाणिपादवाला यावत् चंद्रमा के समान सौम्य आकारवाला, कांत, प्रियदर्शन एवं सुन्दररूप से विशिष्ट ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा ।। सू. ४३ ॥ 'तए णं तस्स दारगस्स' इत्यादि । (तए णं) इसके बाद (तस्स दारगस्स) इस बालक के (अम्मापियरो) माता‘से णं तत्थ णवण्हं मासासं' इत्यादि. (तत्थ) सभा (णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण राईदियाणं वीइक्वंताणं) नव भडिन। मने सारा सात हिनरात पीत्या पछी (सुकुमाल-पाणि-पाए जाव ससिसोमाकारे कंते पियदसणे सुरूवे दारए पयाहिइ) એ સુકુમાર હાથપગવાળો, યવત્ ચંદ્રમા જે સૌમ્ય આકારવાળે, કાંત, प्रियशन, तभ०४ सुह२ ३५था विशिष्ट अवे। पुत्र उत्पन्न थशे. (सू. ४३) 'तए णं तस्स दारगरस' ईत्यादि. (तए ण) त्या२ ५छी (तस्स दारगस्स) मा माउने। (अम्माप्पियरो) भात- . Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषधषिणी-टोकाम.४४ अम्बडपरिव्राजकरिषये भगन्दगौतमयोः संवादः ६०१ दिवसे ठिइवडियं काहिति, बिइयदिवसे चंदसूरदंसणियं काहिति, छठे दिवसे जागरियं काहिति, एक्कारसमे दिवसे वीइकते णिव्वत्त असुइ-जाय-कम्मकरणे संपत्ते बारसाहे दिवसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गोणं गुणणिप्फण्णं णामधेजं काहिति'काहिति' करिष्यतः, 'बिइयदिवसे' द्वितीयदिवसे 'चंदसूरदंसणिय' चन्द्रसूर्यदर्शनिकानामकं पुत्रजन्मोत्सवविशेष करिष्यतः, 'छठे दिवसे' षष्ठे दिवसे 'जागरियं' जागरिकां रात्रिजागरिकां-सुतजन्मोत्सवरूपां करिष्यतः, 'एक्कारसमे दिवसे' एकादशे दिवसे 'वीइकंते' व्यतिक्रान्ते व्यतीते. 'णिब्बते' निवृत्ते व्यतीते 'असुइजायकम्मकरणे' अशुचिजातकर्मकरणे-अशुचीनाम् अशौचवतां जातकर्मणो जातकर्मसंस्कारस्य यत् करणं= विधानं तस्मिन् , निवृत्ते सतीति पूर्वेणान्वयः, 'संपत्ते बारसाहे दिवसे' सम्प्राप्ते द्वादशाहे दिवसे-द्वादशाहरूपे दिने समागते इत्यर्थः, 'अम्मापियरो इमं एयारुवं गोणं गुणणिप्फbणं नामवेज्जं काहिति' अम्बापितरौ इदं वक्ष्यमाणम् एतद्रूपं वक्ष्यमाणस्वरूपं गौण= पिता (पढमे दिवसे) प्रथम दिवस में (ठिइवडियं) अपनी स्थिति के अनुसार पुत्र-जन्म के उत्सव को काहिति) मनावेंगे। (बिइयदिवसे चंदमरदंसणियं काहिति) द्वितीय दिवसमें पुत्रजन्म के उत्सव के अवसर पर मनाये जाने वाले 'चंद्रसूर्यदर्शनिका' नाम के उत्सव को करेंगे। (छट्टे दिवसे जागरियं काहिति) छठवें दिन जागरण करेंगे, (एकारसमे दिवसे वीइक्कंते णिवत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते वारसाहे दिवसे) ग्यारहवें दिवस जननाशौच समाप्त होने पर फिर बारहवें दिवस के लगने पर (अम्मापियरो) इसके मातापिता (इमं एयारूवं गोणं गुणणिप्फण्णं णामधे काहिति) इसका गुणसंबंधयुक्त एवं सार्थक पिता (पढमे दिवसे) पडसा हिवसे (ठिइवडिय) पोतानी स्थिति अनुसार पुत्र मनो. उत्सव (काहिति) मनावशे, (बिइयदिवमे चंदसूरदंसणियं काहिति) બીજે દિવસે પુત્રજન્મના ઉત્સવ અવસરે મનાવવામાં આવતે “ચંદ્રસૂર્યशनि।' ये नामनी उत्सव ४२0, (छट्टे दिवसे जागरियं काहिति) ७४ हिवसे २१ ४२. (एकारसमे दिवसे वीइकंते णिवत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते बारसाहे दिवसे) २५०ीयार पिसे म-मशीय (सूत) समास- 45 गया पछी पारभ। हिवस थतi (अम्मापियरो) तेना मातापिता (इमं एयारूवं गोणं गुणणिफणं णामबेज्ज काहिति) तेना शुस गधने अनुमान तमा Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपणातकसूत्रे जम्हा अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढपइण्णा, तं होउ णं अम्हं दारए दढपइण्णे गामेणं । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेजं करेहितिदढपइण्णत्ति ॥ सू. ४४ ॥ मूलम्--तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो साइरेगहगुणसम्बन्धयुक्तं, गुणनिष्पन्नं-गुणैः धर्मविषयकदाढादिगुणैर्निष्पन्नं सिद्धं नामधेयं करिष्यतः । 'जम्हा णं अम्हं इमंसि दारंगसि गब्भत्थंसि चेव समाणंसि' यस्मात्खल्यावयोरस्मिन् दारके गर्भस्थ एव सति 'धम्मे' धर्मे धर्माराधने 'दढपडण्णा' दृढप्रतिज्ञा दृढनिश्चयो जातः, 'तं होउ णं अम्हं दारए दढपइण्णे णामेणं' तद् भवतु खल्वावयोर्दारका दृढप्रतिज्ञो नाम्ना-तस्मादस्य बालकस्य 'दृढप्रतिज्ञ' इति नामास्तु-इत्यर्थः । 'तए णं नस्स दार गस्स अम्मापियरो णामधेज करेहिति दढपइण्णेत्ति' ततः खलु अम्बा पतरौ तस्य दारकस्य नामधेयं करिष्यतो दृढप्रतिज्ञ इति ।। सू. ४४ ।। टीका-'तं दढपइण्णं' इत्यादि । 'तं दढपइण्णं' तं दृढप्रतिज्ञं-दृहप्रतिनामकं नामकरणसंस्कार करेंगे । वह इस बात को विचार कर इसका नाम रखेंगे कि जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढइण्णा, तं होउ णं अम्हं दारए दढपइण्णे नामेणं ) हमारा यह बालक जब गर्भ में आया था तब से ही हम लोगों की प्रतिज्ञा-आस्था धर्म में दृढ़ हुई, अतः हमारे इस बालक का नाम दृढ प्रतिज्ञ हो। (तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेजं करेहिति दढपइण्णत्ति ) उस समय उस बालक के मातापिता उसका नाम दृढप्रतिज्ञ रखेंगे । सू. ४४ ।। સાર્થકે નામકરણ સંસ્કાર કરશે. તેઓ એ વાતનો વિચાર કરીને તેનું નામ शमशे (जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भन्धीस चेव समाणंसि हम्मे ढपइण्णा तं होउ णं अम्हं दारए दढपइण्णे नामेणं) अमारे। २॥ मा न्यारे ગર્ભમાં આવ્યો હતો ત્યારથીજ અમારા લોકેની પ્રતિજ્ઞા-આસ્થા ધર્મમાં દઢ थ, तथा सभा२। २। मानु नाम प्रतिज्ञ २. (तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज करेहिंति दढपइण्णत्ति) ते समये ते मान. मातापिता तेनु नाम प्रतिज्ञ रामशे. (सू. ४४) Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणी टीका सू. ४५ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गौतमयोः संवादः १०३ वासजागं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणदिवसणखसमुहत्तंसि कलायस्थिस्स उवेहिति ॥ सू. ४५॥ मूलम्-तए णं से कलायरिए तं दढपइण्णं दारगं लेहाइयाओ 'दारयं' दारकं=कुमारम् , 'अम्मापियरो' अम्बापितरौ 'साइरेगट्ठवासजायगं' सातिरेकाष्टवर्षजातकं किंचिदधिकाष्टवर्षाणि जातानि यस्य स तथा तं, किंचिदधिकाष्टवर्षवयस्कमित्यर्थः; 'जाणित्ता' ज्ञात्वा 'सोभणंसि' शोभने-शुभकारके 'तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहुरासि' तिथिकरणदिवसनक्षत्रमुहूर्ते 'कलायरिस्स' कलाचार्यस्य 'उवणेहिंति' उपनेष्यतः--द्वासप्तति कलाज्ञानप्राप्तये कलाशिक्षकस्य समीपं नेष्यत इत्यर्थः ॥ सू० ४५ ॥ टीका—'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से कलायरिए' ततः खलु स कलाचार्यः 'तं दढपइण्णं' तं दृढप्रतिज्ञं दृढप्रतिज्ञनामकं 'दारगं' दारकं 'लेहाइयाओ' लेखादिकाः, 'तं दढपइण्णं दारगं' इत्यादि । (तं दढपइण्णं दारगं) पश्चात् उस दृढप्रतिज्ञ नामक बालक को (अम्मा पियरो) उसके माता-पिता (साइरेगढवासजायगं जाणित्ता ) जब आठ वर्ष से कुछ अधिक वय का जानेंगे तब वे उसे (सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-णक्रवत्त-मुहुतंसि कलायरियस्स उवणेहिति) शुभ तिथि, शुभ करण, शुभ नक्षत्र एवं शुभ मुहूर्त में कलाचार्य के पास ७२ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कराने के निमित्त ले जावेंगे ॥ सू. ४५॥ 'तए णं से कलायरिए' इत्यादि। (तए णं) इसके बाद ( से कलायरिए) वह कलाचार्य (तं दढपइण्णं 'तं दढपइण्णं दारगं' त्याहि. (तं दढपइण्णं दारगं) त्या२ पछी त प्रतिज्ञ नामना माने (अम्मापियरो) तेन भाता-पिता (साइरेग-वास-जायगं जाणित्ता) न्यारे 218 १२सथी ६४ पधारे उभरने। तरी त्यारे तसा तेन (सोभणंसि तिहि-करणदिवस-णक्खत्त-मुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेहिति) शुमतिथि, शुन ४२४, शुन દિવસ, શુભ નક્ષત્ર, તેમજ શુભ મુહૂર્તમાં કલાચાર્યની પાસે ૭૨ કળાઓનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરાવવા નિમિત્તે લઈ જશે. (સૂ. ૪૫) 'तए णं से कलायरिए' प्रत्याहि. (तए णं) त्या२ ५छी (से कलायरिए) ते ४सायाय (तं दढपइण्णं दारगं) Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपातिकसत्रे गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरिकलाओ सुत्तओ य अत्थओ य करणओ य सेहाविहिति सिक्खाविहिति, तं जहा-लेहं १, गणियं २, रूवं ३, पढें ४, गीयं ५, वाइयं ६, सर'गणियप्पहाणाओ' गणितप्रधानाः, 'सउणरुयपजवसाणाओ' शकुनरुतपर्यवसानाः, 'बावतरिकलाओ' द्वासप्ततिकलाः, 'मुत्तओ य' सूत्रतः सूत्रस्थपदपाठनात् , 'अत्यओ य' अर्थतः पदार्थबोधनात् , 'करणओ य' करणतः प्रयोगतः-कलाव्यापारप्रदर्शनात् , 'सेहाविहिति' साधयिषयति प्रापयिष्यति, 'सिक्खावहिति' शिक्षयिष्यति अभ्यासं कारयिष्यति । ___ ताः कला नामतः प्रदर्शयति- 'तं जहा' तद्यथा-'लेहं' लेखे–लेखनं लेख:अक्षरविन्यासस्तद्विषयकलाविज्ञानं लेख एवोच्यते तम् , 'गणियं' गणितं संख्यानं संकलिताद्यनेकभेदम् २, 'रूवं रूपं लेप्यशिलासुवर्णमणिवस्त्रचित्रादिषु रूपनिर्माणम् ३, 'णह' नाटयंसाभिनयनिरभिनयपूर्वकं नर्तनम् ४, 'गीय' गीतं गान्धर्वकलाज्ञानविज्ञानम् ५, 'वाइयं' वाद्य वीणापटहादिवादनकलाज्ञानम् ६, 'सरगयं' स्वरगतं-गीतमूलभूतानां षड्जऋषभादिदारगं) उस दृढप्रतिज्ञ कुमार को ( लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ ) लिखने आदि की, गणित की, तथा पक्षी के शब्द आदि जानने की (बावत्तरिकलाओ) ७२ कलाओं में (सुत्तओ य) सूत्ररूप से (अत्थओ य) एवं अर्थरूप से तथा (करणो य) प्रयोगरूप से (सेहाविहिति) प्राप्त करायेगा, (सिक्वाविहिति) अभ्यास करायेगा। (तं जहा) बहत्तर कलाओं के नाम ये हैं- (१ लेहं ) लेख लिग्वने की, (२ गणियं ) गणित की, (३ रूवं ) रूप की-अर्थात् लेप्य, शिला, सुवर्ण, मणि. वस्त्र एवं चित्र इत्यादिकों में रूपनिर्माण करने की, (४ णटुं) नृत्य की -साभिनय एवं निरभिनयपूर्वक नाचने की, (५ गीयं) गाने की, (६ वाइयं ) वीणा एवं पटह-ढोल आदि बाजे बजाने की, (७ सरगयं) ते प्रतिज्ञ हुभारने (लेहाइयाओ गणियापहाणाओ) अमन माहिती, नितनी तथा पक्षीना शह पाहि पानी (बावत्तरिकलाओ) ७२ मे। (सुत्तओ य) सूत्र३५थी (अत्थओ य) तभ०४ २५ ३५थी, तथा (करणओ य) प्रयोग ३५थी (सेहाविहिति) प्रात ४२११शे, (सिक्खा विहिति) सल्यास ४२११शे. (तं जहा ५२ ४ामान नाम २॥ प्रमाणे -१ (लेहं) अ५ समपानी, २ (गणियं) गणितनी, . (रूवं) ३५नी अर्थात् प्य, शिक्षा, सुवा, मणि, १२ मा ચિત્ર ઇત્યાદિમાં રૂ૫ નિર્માણ કરવાની, ૪ (ટ્ટ) નૃત્યની–સાભિનય તેમજ निरभिनय-पू' नावानी, ५ (गीय) पानी, ६ (वाइयं) वा तभी ५८ दाद मा पनि वानी, ७ (सरगय) स्वनी-जीतना भूलभूत Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका सु. ४६ अम्बडपरिवाजकविषये भगवद्गौतमयोःसंवादः ६०५ गयं ७, पुक्खरगयं ८, समतालं ९, जूयं १०, जणवायं ११, पासगं १२, अट्ठावयं १३, पोरेकव्वं १४, दगमट्टियं १५, अण्णविहिं १३, पाणविहिं १७, आभरणविहिं १८, सयणविहिं १९, अजं २०, स्वराणां परिज्ञानम् ७, 'पोक्खरगयं' पुष्करगतं मृदङ्गविषयकं विज्ञानम् , वाद्यान्तर्गतत्वेऽपि मृदङ्गादेः पृथक्कथनं परमसंगीताङ्गत्वबोधनार्थम् ८, 'समतालं' समतालं-गीतादिमानकालस्ताल: स समः न्यूनाधिकमात्रारहितो ज्ञायते यस्मात् तत् समतालविज्ञानम् ९, 'जूयं' द्यूतं--'जुगार' इति भाषायाम् १०, 'जणवायं' जनवाद–जनेषु वादप्रतिवादकरणरूपम् ११, 'पासयं' पाशकं-धूतोपकरणविशेषं, 'पाशा' इति भाषायाम् १२, 'अट्ठावयं' अष्टापदं-छूतविशेषखेलनम् १३, 'पोरेकन्वं' पुरःकाव्यं पुरतः पुरतः काव्य-काव्यरूपवाणीनिःसारणं =शीघ्रकवित्वमित्यर्थः १४, 'दगमट्टियं' दकमृत्तिकाम्-उदकयुक्तमृत्तिकाप्रयोगविधिः दकमृत्तिका-कुम्भकारविद्येत्यर्थः, ताम् १५, 'अन्नविहि' अन्नविधिम् अन्ननिष्पादनविज्ञानम् । 'अन्नविहिं' इत्यत्र समवायाङ्गोक्तस्य ‘मधुखित्थं' इत्यस्य समावेशः १६, पाणविहिं' पानविषयविज्ञानम् १७, 'आभरणविहि' आभरणविधिम् भूषगनिर्माणधारणविज्ञानम् । स्वरो की-गीत के मूलभूत षड्ज-ऋषभ आदि स्वरों की, (८ पुक्खरगय) मृदंग बजाने की (९ समतालं) समताल की-तान के अनुसार ताल बजाने की, (१० जूयं) जुआ खेलने की, (११ जणवायं) लोकों के साथ प्रतिवाद करने की, (१२ पासगं) पासा फेंकने की, (१३ अट्ठावयं) अष्टापद-चौपड़ खेलने की, (१४ पोरेकव्वं) आशुकवि होने की, (१५ दगमदियं) मिट्टी से अनेक प्रकार के वर्तन बनाने की, (१६ अण्णविहिं) धान्य आदि को बो कर अन्नादिक उत्पन्न करने की-भोजन बनाने की, समवायाङ्ग में उक्त 'मधुसित्थं'मधुसिक्थ का इसामें समावेश किया गया है; (१७ पाणविहिं) पेयपदार्थ की विधि जानने पडी-ऋषम माहि स्परेशनी, ८ (पुक्खरगय) भृ॥वानी, ८ (समतालं) समतासनी-तानने अनुसार पानी, १० (जूयं) ॥२ २भवानी, ११ (जणवायं) बानी साथे प्रतिवाद ४२पानी, १२ (पासगं) पासा पानी, १३ (अष्टावयं) मष्टाप-योपाट २भवानी, १४ (पोरेकव्वं). माशुविथपानी, १५ (दगमट्टिय) भाटीमाथी मने प्रारन म मनापानी, १६ (अण्णविहिं) धान्य माहिने पावाने अन्न आहिने उत्पन्न ४२वाना- मना पानी, सभपायांगमा त 'मधुसित्थं' मधुसिथनी समावेश २मडी ॥ ४२पामा माव्य। छ; १७ (पाणविहिं) पीवाना पहानी विधि नवानी, १८ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ औपपातिकसूत्रे इत्यत्र प्रहेलियं २९, मागहियं २२, गाहं २३, गीइयं २४, सिलोयं २५, 'आभरण चिहिं' समवायाङ्ग - ज्ञाता - राजप्रश्नीय - जम्बूद्वीपप्रप्तिवर्णितस्य 'वत्थवि' इत्यस्य, तथा ज्ञाता - राजप्रश्नीय- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकयितस्य 'विलेवणविहिं' इत्यस्य च समावेशः १८, 'सयणत्रिहिं' शयनविधि - शय्यापर्यङ्कादिविधिज्ञानम् १९, 'अज्जं ' आर्यां=मात्राछन्दोरूपां मात्रामंमेलनेन छन्दोनिर्माणविज्ञानम् २०, ' पहेलियं ' प्रहेलिकां = गूढाशय गद्यपद्यमयी रचनाम् २१, ' मागहिये मागधिकां= मगधदेशीयभाषा कवित्वम् २२, 'गाई' गाथां = संस्कृतेतरभाषानिबद्धामार्यामेव, कलिङ्गादिदेशभाषानिबद्ध कवित्वविज्ञानं वा २३, 'गीइयं' गीतिकां = पूर्वार्धसदृशोत्तरार्धलक्षणरूपाम् २४, ‘सिलोयं' श्लोकम्=अनुष्टुबादिलक्षणम् २५, 'हिरण्णजुति' हिरण्ययुक्ति= रजतनिर्मा की, (१८ आभरणविहिं) आभरण आदि को बनाने एवं उन्हें यथास्थान धारण करने की, समवायाङ्ग, ज्ञाता, राजप्रश्नीय और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में उक्त 'वत्थविहिं' वस्त्रविधि का, ज्ञाता, राजप्रश्नीय तथा जम्बूद्वीप में उक्त 'विलेवण विहिं' विलेपनविधि का समावेश यहीं पर हो जाता है; (१९ सयणविहिं ) शय्या आदि बनाने की, (२० अज्जं ) आर्याछन्द-मात्रिक छंदों को रचने की, ( २१ पहेलियं) प्रहेलिका की, अर्थात् गूढ़ आशयवाली गद्यपद्यमयी रचना करने की. (२२ मा गहियं) मागधिकाकी अर्थात् मगध देशकी भाषा में कविता रचने की, (२३ गाहं) संस्कृत से भिन्न भाषा में मात्रिक छन्दो में कविता रचने की, अथवा कलिंग आदि देशों की भाषा में निबद्ध कविता के विज्ञान की, ( २४ गीइयं) पूर्वार्ध के सदृश उत्तरार्ध लक्षणरूप गीतिका छन्द में काव्य रचने की, (२५ सिलोयं) अनुष्टुप् आदि छन्दों में श्लोकों को रचने की, ( २६ हिरण्णजुत्ति) चाँदी बनाने की विधि की (२७ सुत्र(आभरणविहिं) समरशु आदि मनाववानी, समवायांग, ज्ञाता, राप्रश्नीय रमने मंजूदीय प्रज्ञप्तिमा उत ' वत्थविहिं ' वस्त्रविधिनो, भने ज्ञाता, रा४પ્રશ્નીય અને સમવાયાંગમાં ઉક્ત 'विलेवणविहिं' विद्वेधनविधिन। સમાવેશ અહી જ કરવામાં આવ્યેા છે. १८ ( सयणविहिं ) મ્યા આફ્રિ मनाववानी, २० ( अज्जं ) आर्या ६६- मात्रि४-छ हो रयवानी, २१ (पहेलियं) अहेसानी अर्थात् गूढ આશયવાળી ગદ્યપદ્યમયી રચના रवानी, २२ (मागहियं) भागधी अर्थात् भगध देशनी लाषाभां विता २न्यवानी, २३ (गाहं) संस्कृतथी छुट्टी भाषाभां भात्रि छ होमां उविता रथવાની, અથવા કલિંગ આદિ દેશની ભાષામાં રચિત કવિતાના વિજ્ઞાનની, २४ (गीइयं) पूर्वार्धना प्रेम उत्तरार्धं सक्षण ३५ गीतिमा छद्धभां अन्य २न्यवानी, २५ (सिलोयं) अनुष्टुप मा छ होमा हो रथवानी, २६ (हिर , Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू ४६ अम्बडपरिव्राजक विषये भगवद्गीतमयोः संवादः ६०७ हिरण्णजुत्ति २६, सुवण्णजुत्ति २७, गंधजुत्ति २८, चुण्णजुत्तिं २९, तरुणीपडिकम्मं ३०, इथिलक्खणं ३१, पुरिसलक्खणं ३२, हयलक्खणं ३३, गयलक्खणं ३४, गोणलक्खणं ३५, कुक्डलक्षण विधिम् २६, 'सुवन्नजुर्ति सुवर्णयुक्ति सुवर्णनिर्माणोपायम् २७, 'गंधजुतिं' गन्धयुक्ति गन्धद्रव्यनिर्माणा प्रधिम् २८, 'चुनजुत्ति' चूर्णयुक्तिं वशीकरणान्तर्धानार्थ तत्तदुचितद्रव्याण्येकत्रीकृत्य तत्पिष्टीकरणविधिम् २९, 'तरुणीपडिकम्म' तरुणीपरिकर्म-युवतीरूपशोभापरिवर्धनविधिम् ३०, 'इत्थिलकखणं' स्त्रीलक्षणम्पमिनीहस्तिन्यादियुवतीनां लक्षणम् ३१. 'पुरिसलक्खणं' पुरुषलक्षणम्-उत्तममध्यमादिपुरुषाणां लक्षणविज्ञानम् ३२, ' हयलकावणं' हयलक्षणं-दीर्धग्रोवाक्षिकूटादिलक्षणविज्ञानम्, 'हयलक्खणं' इत्यत्र समवायाङ्गोक्तस्य 'आससिक्वं' इत्यस्य समावेशः ३३, ‘गयलक्खणं' गजलक्षण= हस्तिशुभाऽशुभलक्षणविज्ञानम् , 'गयलक्खणं' इत्यत्र समवायाङ्गोक्तस्य ‘हत्थिसिक्वं'' इत्यस्य समावेशः ३४, ‘गोणलक्खणं' गोलक्षणं-सास्नाविकला अतिरूक्षा मूषिकनयनाश्व न शुभदा गावः' इत्यादिविज्ञानम् ३५, 'कुकुडलक्रवणं' कुक्कुटलक्षणम् , 'कुक्कुडलवरवण नजुर्ति) सुवर्णनिर्माण करने की विधि की, (२८ गंधजुर्ति) गंधद्रव्य को बनाने की विधि की, (२९ चुनजुति) वशीकरण आदि चूर्ण को बनाने वाली औषधियों को एकत्रित कर उनकी पिष्टी करने की विधि की, (३० तरुणीपडिकम्म) युवती के रूप की शोभा बढ़ाने की विधि की, (३१ इत्थिलक्खणं) पानी, हस्तिनी आदि युवतियों को जानने के लक्षणों की, ३२ पुरिसलकवणं) पुरुषों को पहिचानने के लक्षणों की, (३३ हयलकवण) अश्वों के लक्षणों को जानने की तथा उनको चलाने की (३४ गयलक्खणे) हाथी के लक्षणों को जानने की, यहाँ पर समवायांग में उक्त 'हत्थिसिक्वं' हस्तिशिक्षा कला का समावेशी हुआ है, (३५ गोणलक्खणं) गाय के लक्षणों को जानने की, (३६ कुक्कुडलक्षणं) कुक्कुटण्णजुत्ति) याही मनापानी विधिनी, २७ (सुवन्नजुत्ति) सुप निभा ४२वामी विधिनी, २८ (गंधजुत्ति) अपद्रव्य समाधानी विधिनी, २८ (चुन्नजुत्ति) વશીકરણ આદિ ચૂર્ણ બનાવવાની ઔષધીઓને એકઠી કરી તેને પીસવાં (4टी' नाम)नी विधिनी, 30 (तरुणीपंडिकम्म) युक्तांना ३पनी शाला धारपानी विधिनी, ३१ (इत्थिलक्खणं) पमिनी, स्तिनी साहि युवतीमा ने पानi सक्षपानी, 3२ (पुरिसलक्खण) पुरुषोने onपामा संक्षणांनी, 33 (हयलक्खण) घोडानi Aapl onानी तथा भने यसiqानी, ३४ (गयलक्खणं) डाथीनां सक्षणे। oneyपानी, सडी सभपायांमा ‘हत्थि Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपणतिकसूत्र ३६, पक्कलक्खणं ३७, छत्तलक्खणं ३८, चम्मलक्खणं ३९, दंडलक्खणं ४०, असिलक्खणं ४१, मणिलक्खणं ४२, कागणिलक्खणं ४३, वत्थुविजं ४४, खंधारमाणं ४५, नगरमाणं ४६, चार इत्यत्र समवायाङ्गोक्तस्य ' मिढयलक्खणं' इत्यस्य समावेशः, उपस्करादौ संचारेण सादृश्यात् ३६, 'चक्कलक्खणं' चक्रलक्षणं चक्ररत्नगुणदोषविज्ञानम् ३७, 'छत्तलक्खणं' छत्रलक्षण छत्रस्य शुभाशुभविज्ञानम् ३८, 'चम्मलक्खण' चर्मलक्षणं, चर्म-ढाल इति प्रसिद्ध तस्य शुभाशुभलक्षणज्ञानम् ३९, 'दंडलक्षणं' दण्डलक्ष गम्=दण्डस्य शुभाशुभलक्षणविज्ञानम् ४०, 'असिलक्षणं' असिलक्षणम्='अङ्गुलीशतार्थ उत्तमः खड्ग' इत्यादिविज्ञानम् ४१, 'मणिलक्खणं' मणिलक्षणं-रत्नपरीक्षाविज्ञानम् ४२, 'कागणिलक्खणं' काकणीलक्षणम्-चक्रवर्तिनो रत्नविशेषः काकणी, तस्या विषापहरणमानोन्मानादियोगप्रवर्तकत्वादिज्ञानम् ४३, 'वत्थुविज ' वास्तुविद्याम्-वसति अस्मिन्निति वास्तु-गृहादिकं तस्य विद्या वास्तुशास्त्रप्रसिद्धं गृहभूमिगतदोषगुणविज्ञानम्, 'वत्थुविज' इत्यत्र समवायाङ्गोक्तयोः 'वत्थुमाणं' 'वत्थुनिवास' इत्यनयोः समावेशः ४४, 'खंधारमाणं' मुर्गे के लक्षणों को जानने की, समवायाङ्ग में उक्त ‘मिंढयलक्खणं' (मेंढेका लक्षण) का समावेश यहीं हो जाता है। (३७ चक्कलक्खणं) नक्ररत्न के गुणदोष जानने की, (३८ छत्तलक्षणं) छत्र के शुभाशुभ जानने की, (चम्मलक्खणं) ढाल के खोटे खरे लक्षणों को जानने की, (४० दंडलक्खण) दंड के अच्छे-बुरे लक्षणों को जानने की, (४१ असिलक्षणं) तलवार के लक्षणों की, (४२ मणिलक्खणं) मणिलक्षण जानने की-रत्नकी परीक्षा करने की, (४३ कागणीलक्रवणं) चक्रवर्ती के काकणी रत्न को जानने की, (४४ वत्थुविज्जं) वास्तु (घर) शास्त्र की, समवायाङ्ग में उक्त 'वत्थुमाणं' वास्तुमान और 'वत्थुनिवेश' वास्तुनिवेश इन दोनों का यही समावेश होता है, (४५ खंधारमाणं) शत्रु को सिक्खं' स्तिशिक्षा ४ानी समावेश थये। छे. ३५ (गोणलक्खणं) यनi सक्षणेMyपानी, 3१ (कुक्कुडलक्खणं) ४४-४iti सक्षणे। शुवानी, समायांगwi sxa 'मिंढयलक्खणं' (टातुं सक्षपन समावेश मी थाय छे. ३७ (चकलक्खणं) ५२त्नना शुषोष otyानी, 3८ (छत्तलक्खणं) छत्रना शुभ मशुम पानी, 36 (चम्मलक्खणं) ढासन मोटi म सक्षणे। जपानी, ४० (दंडलक्खण) नां सारा-२सा सक्ष। पानी, ४१ (असिलक्खणं) तपारनi सक्षणेनी, ४२ (मणिलक्खणं) मणिनi Aajो any. पानी, ४३ (कागणीलक्खण) यतीना sixel २लने पानी, ४४ (वत्थुविजं) Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यत्र पीयूषवर्षिणी-टीका सु. ४६ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६०९ ४७, पडिचारं ४८, वूहं ४९, पडिवूहं ५०, चकवूहं ५१, गरुलवूहं स्कन्धावारमानं-शत्रुं विजेतुं कदा कियत्परिमितं सैन्यं निवेशनीयमिति प्रमाणविज्ञानम् । ' खंधारमाणं ' इत्यत्र समवायाङ्गोक्तस्य 'खंधावारणिवेसं' इत्यस्य समावेशः ' नगरमाणं ' नगरमानम्-अस्मिन् प्रदेशे कीदृशमायामदैर्थ्योपलक्षितं नगरं निर्मापणीयं, येन विजयशाली भवेयम्, कस्य वर्णस्य कस्मिन् स्थाने निवेशः श्रेष्ठ इति विज्ञानम्, 'नगरमाणं' इत्यत्र समवायाद्गोक्तस्य 'नगरणिवेसं' इत्यस्य समावेशः ४६, 'चारं ' चारं=ज्योतिश्चारविज्ञानम्। 'चारं ' इत्यत्र समवायाङ्गोक्तानां 'चंदलक्खणं' सूरचरियं, राहुचरियं, गहचरियं' इत्येतेषां चतुर्णां समावेशः ४७, 'पडिचारं ' प्रतिचारं प्रतिवर्त्तितचारम्-इष्टानिष्टफलजनकशान्तिकर्मादिक्रियाविशेषविज्ञानम्, 'पडिचारं ' 'सोभागकरं, दोभागकरं, विज्जागयं, अंतगयं, रहस्सगयं, सभासंचारं ' इत्येतेषां समवायाङ्गोक्तानां षण्णां समावेशः ४८, 'वह' व्यूहं - शकटथाकृतिसैन्यरचनम् ४९, ' - जीतने के लिये कितनी सेना होनी चाहिये इस प्रकार सेना के परिमाण को जानने की, यहाँ पर समवायाङ्ग में उक्त ' खंधावारणिवेस ' स्कन्धावारनिवेश का समावेश होता है। (४६ नगरमाणं) इस प्रदेश में कितना लंबा कितना चौड़ा नगर बसाना चाहिये जिससे मैं विजयशाली हो सकूं तथा किस वर्ण को किस स्थान में बसाना श्रेष्ठ होगा इन सब बातों के विज्ञान की, समवायाङ्ग में उक्त ' नगरनिवेसं नगरनिवेश का अन्तर्भाव यहीं पर हो जाता है । (४७ चारं ) ज्योतिश्चक्र की, समवायाङ्ग में कथित (चंदलक्खणं) चंद्रमा के लक्षण, (सूरचरियं राहुचरियं गहचरियं) सूर्य की चाल, राहु की चाल एवं ग्रहों की चाल, इन सबों का समावेश 'चार' में समझना चाहिए । ( ४९ पडिचारं ) इष्टानिष्टफलजनक शान्तिकर्म आदि क्रियाविशेषों के विज्ञान की, यहाँ समवायांग कथित “सोभागकरं दोभागकरं विज्जागयं मंतवास्तु (घर) शास्त्रनी, समवायांगमां उत "वत्थुमाणं वत्थुनिवेसं” वास्तुमान तेभन वास्तुनिवेशने। सभावेश अहीं थाय छे. ४५ (खंध (रमाणं) शत्रुने જીતવા માટે કેટલી સેના હૈ!વી જોઈ એ, એ રીતે સેનાના પરિમાણને (ગણતરી) જાણવાની, સમવાયાંગમાં ઉક્ત ' खंधावारनिवेसं' २४ धावारनिवेशने। सड्डीं ५२ सभावेश थाय छे; ४९ (नगरमाणं) या प्रदेशमां देवड्डु सां ने डेट પહેાળું નગર વસાવવું જોઇએ કે જેથી હું વિજયશાળી થઈ શકું તથા ક્યા વણું (જાત) ને કયા સ્થાનમાં વસાવવું શ્રેષ્ઠ થશે એ બધી વાતાના વિજ્ઞાનની, સમવાયાંગમાં ઉક્ત ' नगरनिवेस ' नगरनिवेशान सभावेश सहीं थयो छे. ४७ (चारं) ल्योतिश्चनी, समवायांगभां કહેલ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० औपपातिकसूत्रे ५२,सगडवूहं ५३, जुद्धं ५४, निजुद्धं ५५, जुद्धाइजुद्धं ५६, मुट्ठिवृह' प्रतिव्यूहम् व्यूहप्रतिपक्षिभूतं व्यूह-सैन्यरचनाविशेषम् ५०, 'चकवूह' चक्रव्यूहम् = सैन्यस्य चक्राकाररचनाविशेषम् ५१, 'गरुलवूह' गरुडव्यूहं गरुडाकृति सेनानिवेशपरिज्ञानम् ५२, 'सगडवूह' शकटव्यूह-शकटाकृतिसैन्यरचनम् ५३, 'जुद्धं ' युद्धं संग्रामम् , 'जुद्धं' इत्यत्र ज्ञाता-समवायाङ्गोक्तस्य 'अद्विजुद्धं' इत्यस्य, तथा-समवायाङ्गोक्तस्य 'दंडजुद्धं' इत्यस्य, तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिकथितस्य 'दिद्विजुद्धं' इत्यस्य, तथा-राजप्रश्नीयसूत्रोक्तस्य 'असिजुद्धं' इत्यस्य च समावेश: ५४, 'निजुद्धं' नियुद्धं मल्लयुद्धम् ५५, 'जुद्धाइजुद्धं ' युद्धातियुद्धम् खड्गादिप्रक्षेपपूर्वकं महायुद्धम् ५६, 'मुट्ठिजुद्धं' मुष्टियुद्धम् , योधयोः परस्परं मुष्ट्या हननम् ५७, 'बाहुजुद्धं ' बाहुयुद्धम् ५८, 'लयाजद्धं' लतायुद्धगयं रहस्सगयं सभासंचारं " इस पाठ का समावेश हुआ है । (४९ वूह, शकट आदि के आकार में सैन्य स्थापित करने की, (५० पडिवहं) व्यूह के प्रतिपक्षी व्यूह की रचना करने की, (५१ चकवूह) चक्रव्यूह की सैन्य को चक्राकर रचने की, (५२ गरुलव्वूह) गरुङव्यूह की-गरुड़ की आकृति के समान सैन्य को रचने की, (५३ सगडहं) शकट की आकृति के समान सैन्य को रचने की, (५४जुद्धं) संग्राम करने की, यहाँ पर ज्ञाता, समवायाङ्ग में कथित (अद्विजुद्धं) अस्थियुद्ध का, (दंडजुद्धं) दंडयुद्ध का, त्था जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में प्रतिपादित (दिद्विजुद्धं ) दृष्टियुद्ध का और राजप्रश्नीय सूत्र में बताया गया (असिजुद्धं) तलवार से युद्ध करने का समावेश हुआ है, (५५ निजुद्धं) मल्लयुद्ध की, (५६ जुद्धाइजुद्धं) खङ्गादिप्रक्षेपपूर्वक महायुद्ध करने की, (५७ मुट्ठिजुद्धं) मुष्टियुद्ध करने की, (५८ बाहुजुद्धं) बाहु से युद्ध करने की, (५९ लयाजुद्धं) लतायुद्ध की, जिन प्रकार लता 'चंदलक्खण' यंद्रभाना सक्षy ‘सूरचरियं राहुचरियं गहचरिय' सूर्यनी यास, रानी यास तेमन अडानी यास से यांनी समावेश 'चार' मां सम४वा न . ४८ (पडिचार) Uष्ट-मनिष्ट न खiतिम यहि जियाविशेषना विज्ञाननी, मही समवाय मम स "सोभागकरं, दोभागकरं, विजागय, मंतगयं, रहस्सगयं, सभासंघारं” २॥ ५४नी समावेश थयो छे, ४८ (वूह) श४८ [] माहिना मा२मा सैन्य स्थापित ४२वानी, ५० (पडिवूह) न्यूडना प्रतिपक्षी न्यूडनी स्यना ४२वानी, ५१ (चक्वूह) य.. व्यूडनी-सैन्यने २।४।२ २यवानी, ५२ (गरुलवूह) १२७०यूडन:-रुनी मातिनावी सैन्यस्यना ४२वानी, ५3 (सगडबृहं) शनी २॥ति ना समान सैन्य स्यवानी, ५४ (जुद्ध) संग्राम ४२वानी, मडी 'ज्ञाता बने समवायांग' मा ४९८ (अद्विजुद्धं) मस्थियुद्धनी, (दंडजुद्धं) युद्धन तथा जंबुद्वीप Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. ४६ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गीतमयोःसंवादः ६११ जुद्धं ५७, बाहुजुद्धं ५८, लयाजुद्धं ५९, ईसत्थं ६०,छरुप्पवायं६१, धणुव्वेयं ६२, हिरणपागं ६३, सुवण्णपागं ६४, सुत्तखेडं ६५, यथा लता वृक्षमारोहन्ती आमूलमांशिरो वृक्षमावेष्टयति, तथा यत्र योधः प्रतियोधशरीरं गाढं निपीड्य भूमौ पातयति तल्लतायुद्धम् ५९, 'ईसत्थं' इषुशास्त्रं नागवाणादिदिव्यास्त्रसूचकं शास्त्रम् , 'ईसत्थं' इति प्राकृतशैल्या इषुशास्त्रम् ६०, 'छुरप्पवायं' क्षुरप्रपातम्, क्षुरः='क्षुरा' इति प्रसिद्धः छेदनशस्त्रविशेषः, तस्य प्रपातः पातनम् ६१, 'धणुव्वेयं' धनुर्वेदं धनुशास्त्रम् ६२, 'हिरण्णपागं' हिरण्यपाक-रजतसिद्धिं ६३, 'सुवण्णपागं' सुवर्णपाकं-कनकसिद्धिम्, 'सुवण्णपागं' इत्यत्र समवायाङ्गराजप्रश्नीयसूत्रोक्तयोः 'मणिपागंधातुपागं' इत्यनयोः समावेशः ६४, 'मुत्तखेड' सूत्रखेलं सूत्रक्रीडाम् ६५, 'वट्टखेडं' वृत्तखेलम् ६६, एतत्कलाद्वयं लोकतो बोध्यम्। 'वट्टखेडं इत्यत्र 'चम्मखेडं' चर्मखेलम्-इत्यस्य समवायाङ्गोक्तस्य समावेशः। वृक्ष पर चढ कर नीचे से ऊपर तक वृक्ष को लपेट लेती है उसी प्रकार योधा जिस युद्ध में प्रतियोधा के शरीर को अत्यन्त पीड़ित कर जमीन पर पटक देते हैं और उसके ऊपर चढ़ बैठते हैं वह लतायुद्ध है उसकी, (६० ईसत्थं) इषुशास्त्र की, 'ईसत्थं ' यहां पर प्राकृतशैली से इषुशास्त्र समझना चाहिये । नागबाण आदि दिव्य अस्त्र आदि का सूचक जो शास्त्र है उसका नाम इषुशास्त्र है उस की, (६१ छुरप्पवायं) छुरा से युद्ध करने की, (६२ धणुव्वेयं) धनुर्वेद की, (६३ हिरण्णपागं) रजतसिद्धि की, (६४ सुवण्णपागं ) सुवर्णसिद्धि की, राजप्रश्नीय एवं समवायांग में कथित मणिपाक और धातुपाक का समावेश यहीं करना चाहिये । (६५ सुत्तखेडं) सूत्र-डोरा से खेलने की, (६६वट्टखेडं) वर्त्त-रस्सी पर खेलने की, यहाँ पर समवायाङ्गोक्त-(चम्मखेडं) चमड़ा से खेलना-इसका भी समावेश प्रज्ञप्ति + अहिपाहन ४२८ (दिद्विजुद्धं) दृष्टियुद्धनी मने 'राजप्रश्नीय' सूत्रमा मतावस (असिजुद्धं) तसारथी युद्ध ४२वाने समावेश थये। छ. ५५ (निजुद्धं) भयुद्धनी, ५६ (जुद्धाइजुद्धं) 11 माहि प्रक्षेपपूर्व ४ [। भारीने] महायुद्ध ४२वानी, ५७ (मुद्विजुद्धं) मुष्टियुद्ध ४२वानी, ५८ (बाहुजुद्धं) माथी युद्ध ४२वानी, ५८ (लयाजुद्धं) सतायुद्धनी, तेरी सता[स] वृक्ष ५२ यडीने नायथी अ५२ सुधा વૃક્ષને લપેટી લે છે તેવી જ રીતે ચોધા જે યુદ્ધમાં સામેના યોધાના શરીરને ગાઢરૂપથી પીડા કરી જમીન ઉપર પાડી દે છે અને તેના ઉપર ચડી બેસે છે તે લતાયુદ્ધ छ, तेनी; ६० (ईसत्थं) षुशासनी, 'ईसत्थं' 41 प्राकृत शवीथी धुशार सभा લેવું જોઈએ. નાગબાણ આદિ દિવ્ય અસ્ત્ર આદિનું સૂચક જે શાસ્ત્ર છે તેનું નામ ४५शा छ.तेनी, ११ (छुरप्पवाय) ७२राथी युद्ध ४२१।नी, ६२ (ध गुब्वेय) धनुनी , १३ (हिरण्णपागं) २०४सिद्धिनी, ६४ (सुवण्णपागं) सुवर्ण सिद्धिनी, 'राजप्रश्नीय' Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ औपपातिकसूत्र खेडं ६६, णालियाखेडं ६७, पत्तच्छेजं ६८, कडच्छेनं ६९, सजीवं ७०, निज्जीवं ७१, सउणरुय ७२ - मिति बावत्तरिकलाओ सेहावित्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिणं उवणेहिति ॥ सू० ४६ ॥ - 'नालिया खेडं' नालिका खेलम् = द्यूतविशेषम् - माभूदिष्टदायाद् विपरीतपाशकनिपतनमिति नालिकायां यत्र पाशकः पात्यते । यद्यपि ते एवास्य समावेशो भवितुमर्हति तथापि नालिकाखेलप्राधान्यज्ञापनार्थं भेदेन ग्रहणम् ६७, 'पत्तच्छेज' पत्रच्छेद्यम् = अष्टोत्तरशतपत्राणां मध्ये विवक्षित संख्याकपत्रच्छेदने हस्तलाघवम् ६०, 'कडच्छेज' कडच्छेयम् - कट (चटाई ) - वत् क्रमाच्छेद्यं वस्तु यत्र विज्ञाने तत्तथा तत् ६९, 'सज्जीवं' सजीवं = सजीवकरणं--मृतधात्वादीनां सहस्वरूपापादनम् ७०, 'निज्जीवं' निर्जीवं निर्जीवकरणम् - हेमादिधातुमारणं पारदमारणं वा ७१, 'सउणरुयं' शकुनरुतम् अत्र शकुनपदं रुतपदं चोपलक्षणम् तेन सर्वशकुनसंग्रहः, गतिचेष्टादिगवलोकनादिपरिग्रहश्र ७२. ' इति वाक्त्तरिकलाओ' इति द्वासप्ततिकलाः=द्वासप्ततिपुरुषकला ः 'सेहावित्ता सिक्खावेत्ता' सेधयित्वा शिक्षयित्वा च 'अम्मापिणं उवणेहिति' मातापित्रोरुपनेष्यति = समर्पयिष्यति ॥ सु. ४६ ॥ हुआ है । ( ६७ नालियाखेडं ) द्यूतविशेष खेलने की - नालिका में पाशे डालकर जुआ खेलने की, (६८ पत्तच्छेज) पत्र छेदन करने की, १०८ पत्रों में से विवक्षित पत्र को छेदन करने में हाथ की कुशलता की, (६९ कडच्छेज्जं ) कट की अर्थात् चटाई की तरह क्रम २ से छेदन करने की, (७० सज्जीवं) मारी हुईं धातुओं को पुनः प्रकृतिस्थ करने की, ( ७१ निज्जीवं) निर्जीव करने की - हेमादिक धातुओं को मारने की, अथवा पारे को मारने की, ( ७२ सऊणरुयं ) पक्षियों के शब्द पहिचानने की उनकी गति, चेष्टा एवं अवलोकन आदि जानने की कला, (इति बावत्तरिकलाओ सेहावित्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिणं ते ' समवायांग 'भां उस मशिया न्यने धातुयाउन सभावेश मड्डी ४२व ले. १५ (सुत्तखेडं) सूत्र - होराथी रभवानी, ६६ ( वट्टखेडं) वर्त - होरडी पर रभवानी, भड़ीं सभवायांगमां उडे (चम्मखेडं) 'यामडांथी जेववु' सेना पशु सभावेश यो छे. ६७ (नालियाखेड) घृतविशेष भवानी - नासिकामां पासा नाणीने लुगार रभवानी, ६८ ( पत्तच्छेज्जं ) पत्र अपवानी, १०८ पत्रा भांथी विवक्षित पत्रो अथवामां हाथनी हुशणता नी, ६८ (कडच्छेज) उटनी - अर्थात् यटार्धनी पेठे ङभञ्ज्भथी छेहन ४२वानी, ७० (सज्जीवं) भारेसी धातुभाने इरीने अधृतिस्थ रवानी, ७१ (निज्जीवं) नव ४२वानी- हेम आदि धातुमने भारवानी, अथवा पाराने भारवानी ७२ (सउणरुयं) पक्षियोना शब्द समभवानी, तेभनी गति, श्रेष्टा तेभ अवसेोउन याहि भगुवानी झा ( इति बावनरिकलाओ सेहावित्ताँ सिक्खावित्ता Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ४७ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६१३ मूलम्-तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्ला-लंकारेण य सकारेहिंति सम्माणेहिंति, सक्का टोका-'तए ण' इत्यादि। 'तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं ' ततः खलु तस्य दृढप्रतिज्ञस्य दारकस्य अम्बापितरौ तं कलाचार्य 'विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं' विपुलेनाऽशनपानखाद्यस्वाद्येन 'वत्थ-गंध-मल्ला-लंकारेण य सकारेहिंति सम्माणेहिति' वस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण च सत्कारयिष्यतः सम्मानयिष्यतः-सुगमानि पदानि वाक्यानि च । 'सकारिता सम्माणित्ता' सत्कृत्य संमान्य 'विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्संति' विपुलं जीविउवणेहिति) ये ७२ कलायें पुरुषकी हैं, इन कलाओं की शिक्षा कलाचार्य उसे देगा, पश्चात् वह उसे उसके मातापिता के पास लाकर सौंप देगा ।। सू. ४६ ॥ 'तए णं तस्स' इत्यादि। (तएणं) इसके बाद (तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स) उस दृढ़ प्रतिज्ञकुमार के (अम्मापियरो) मातापिता (तं कलायरियं) उस कलाचार्य का (विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्ला-लंकारेण य सकारेहिति) विपुल, अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, गंध, एवं माला तथा अलंकारों के प्रदान से खूब सत्कार करेंगे। (सम्माणेहिति) खूब सन्मान करेंगे। (सकारिता सम्माणित्ता) सत्कार एवं सन्मान करके पश्चात् वे उसे (विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्संति) अम्मापिईणं उवणेहिति) ॥ ७२ ४ास पुरुषनी छ. मे ४ामानी साया तेने शिक्षा मापशे. ५छी ते तेन तेना मातापितानी पासे सावीने सोपी शे.(सू०४९) 'तए णं तस्स' त्याहि. (तए णं) त्या२ ५छी (तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स) ते प्रतिज्ञ मारना (अम्मापियरो) मातापिता (तं कलायरिय) ते सायाय ने (विउलेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्ला-लंकारेण य सक्कारेहिति) विधुत मशन, पान, ખાદિમ, સ્વાદિમ, વસ્ત્ર, ગંધ તેમજ માલા તથા અલંકારો આપીને ખૂબ सा२ ४२शे, (सम्माणेहिति) भूम सन्मान ४२शे. (सक्कारिता सम्माणित्ता) सा२ मा सन्मान ४शने पछी तो तेने (विउलं जीवियारिहं पीइदाणं Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ औपपातिकसूत्रे रित्ता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्संति, दलइत्ता पडिविसजेहिंति ॥ सू० ४७॥ मूलम्--तए णं से दढपइण्णे दारए बावत्तरिकलापंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए अट्टारसदेसभासाविसारए गीयरई काऽऽहं प्रीतिदानं दास्यतः, 'दलइत्ता' दत्वा 'पडिविसजेहिति' प्रतिविसर्जयिष्यतः ॥ सू० ४७॥ टीका--'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से दढपइण्णे दारए ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारकः 'बावत्तरिकलापंडिए' द्वासप्ततिकलापण्डितः 'नगमुत्तपडिबोहिए' नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधितः-नवाङ्गानि द्वे श्रोत्रे, द्वे नेत्रे, द्वे घ्राणे, एका च जिह्वा, त्वगेका, मनश्चैकमिति, तानि सुप्तानीव सुप्तानि-बाल्यादव्यक्तचेतनानि तानि प्रतिबोधितानि यौवनेन व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा । ' गीयरई 'गीतरतिः गानप्रियः, 'गंधव्य-णट्टविपुल रूप में जीविका के योग्य प्रीतिदान देंगे, (दलइत्ता पडिविसजेहिंति) और देकर उसे विसर्जित कर देंगे ॥ सू. ४७॥ 'तए णं से दढपइण्णे दारए' इत्यादि । (तए णं) इस के बाद (से) वह (दढपइण्णे) दृढप्रतिज्ञ (दारए) कुमार (बावत्तरिकलापंडिए) बहत्तर कलाओं में पंडित (नवंगसुत्तपडिबोहिए ) एवं सुप्त नवांगों-२ कान, २ नेत्र, २ नासिका के छिद्र, १ जिह्वा, १ स्पर्शन इन्द्रिय और मन के प्रतिबोध-जागृति से युक्त-यौवनावस्था संपन्न होकर, (अद्वारसदेसभासाविसारए ) १८ देशों की भाषा का ज्ञाता होगा, (गीयरई गंधणट्टकुसले ) यह कुमार गीत में दलइस्संति) विYA ३५i विधाने योग्य प्रीतिहान सायरी. (दलइत्ता पडिविसज्जेहिंति) मने मापाने तेभनु विसन ४१ शे. (सू. ४७) 'तए णं से दढपइण्णे दारए' त्यादि. (तए णं) त्या२ पछी (से) ते (दढपइण्णे) प्रतिज्ञ (दारए) उभार (बावत्तरिकलापंडिए) मोडतर ४ायामा पडित (नवंगसुत्तपडिबोहिए) तभ०४ सुस न१ अगा-२ आन, २ नेत्र, २ नासिडानां छिद्र, १ ० १ २५શન ઇંદ્રિય અને મનના પ્રતિબંધ-જાગૃતિથી યુક્ત-યૌવનાવસ્થ, સંપન્ન यधने (अट्ठारसदेसभासाविसारए) १८ देशोनी मापाने ज्ञाता थशे. (गीयरई Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषर्षिणी-टोका स. ४८ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गीतमयोः संवाद: ६१५ गंधव्वणदृकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमदी वियालचारी साहसिए अलं भोगसमत्थे यावि भविस्सइ ॥ सू० ४८॥ मूलम्--तए णं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो बावकुसले' गान्धर्व-नाट्यकुशलः-गान्धर्व गीतविद्यायां नाट्ये-नाट्यशास्त्रे च कुशलः निपुणः, 'अट्ठारस-देसभाषा-विसारए' अष्टादश-देश-भाषा-विशारदः, 'हयजोही' हयजोधी-हयेन=अश्वेन युध्यते तच्छीलो हययोधी, एवं ‘गयजोही रहजोही बाहुजोही' गजयोधी रथयोधी बाहुयोधी-ज्ञातव्यः ‘बाहुप्पमद्दी' बाहुप्रमर्दी-बाहुभ्यां प्रमृद्नाति तच्छीलो बाहुप्रमर्दी, 'वियालचारी' विकालचारी-निर्भयत्वाद्विकाले रात्रावपि चरति तच्छीलो विकालचारी, अत एव 'साहसिए' साहसिकः अतिशूरः, 'अलं भोगसमत्थे' अलम्भोगसमर्थः-अलम्=अत्यर्थं भोगानुभवसमर्थः 'यावि भविस्सइ' चापि भविष्यति ।। सू० ४८॥ टीका-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं दढपइण्णं दारयं' ततः खलु दृढअनुराग वाला तथा गान्धर्वविद्या में और नृत्यकला में कुशल होगा। (हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही) यह अश्वयोधी, गजयोधी, रथयोधी और बाहुयोधी होगा। (बाहुप्पमदी वियालचारी साहसिए) यह बाहुप्रमर्दी होगा और अति शूर होगा; इस लिये इसे विकाल रात्रि में भी आने-जाने में कोई भय नहीं होगा। ( अलं भोगसमत्थे यावि भविस्सइ) तथा यह भोगसमर्थ भी होगा ।। सू. ४८ ॥ 'तए णं दढपइण्णं दारगं' इत्यादि। (तए णं) बाद में (दढपइण्णं दारगं) इस अपने दृढप्रतिज्ञ बालक को गंधव्व-णट्ट-कुसले) मे उभार गीतभा, विधामा मने नृत्यकामा इश थशे. (हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही) से अश्वमोधी, अयोधी, २थयोधी, मने माडुयोधी थशे. (बाहुप्पमद्दी वियालचारदी साहसिए) એ બાપ્રમદ્દ થશે અને અતિ શૂરવીર થશે. આ માટે તેને વિકાળ રાત્રિમાં पण आ441-4iwi तनो मय थशे नहि. (अलं भोगसमत्थे यावि भविस्सइ) तथा २॥ लेागसमर्थ ५४ थशे. (सू. ४८) 'तए णं दृढपइण्णं दारगं' त्याहि. (तए णं) त्या२ पछी (दढपइण्णं दारगं) मा पोतान! प्रतिश पाने Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे तरिकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं वियाणित्ता विउलेहिं अण्णभोगेहिं पाणभोगेहिं वत्थभोगेहि सयणभोगेहिं उवणिमंतेहिति ॥ सू० ४९॥ मूलम्-तए णं से दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहिं अण्णप्रतिज्ञं दारकम् 'अम्मापियरो' मातापितरौ 'बावत्तरिकलापंडियं' द्वासप्ततिकलापण्डितं 'जाव' यावत्-अत्र-यावच्छब्दाद्-अष्टादशदेशभाषाविशारदं गीतरति गान्धर्वनाट्यकुशलं हययोधिनम्-इत्यादीनि विशेषणानि द्वितीयैकवचनान्तानि ज्ञेयानि । 'अलं भोगसमत्थं' अलं भोगसमर्थम्-अलम् अत्यर्थं भोगानुभवसमर्थं 'वियाणित्ता' विज्ञाय 'विउलेहि अण्णभोगेहिं' विपुलैरन्नभोगैः 'पानभोगेहि' पानभोगैः 'लेणभोगेहिं ' लयनभोगैःचित्रशालाद्यावासनवनवाभोगैः 'वत्थभोगेहिं' वस्त्रभोगैः, 'सयणभोगेहिं' शयनभोगैः 'उवणिमंतेहिंति' उपनिमन्त्रयिष्यतः=भोगान् भुव-इति कथयिष्यतः ॥ नू० ४९॥ टीका-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से दढपइण्णे दारए' ततः खलु (अम्मापियरो) मातापिता (बावत्तरिकलापंडियं जाव अलंभोगसमत्थं ) ७२ कलाओं में पारंगत तथा नवयौवनशाली एवं भोग भोगने में समर्थ जानकर उसे (विउलेहिं) विपुल (अण्णभोगेहिं) अन्न के भोगों से, (पाणभोगेहिं) पान करने योग्य द्रव्यों के भोगों से, (लेणभोगेहिं) विविध चित्रों से सुशोभित प्रासाद के भोगों से, ( वत्थभोगेहिं) सुन्दर २ वस्त्रों को इच्छानुसार पहरने रूप भोगों से एवं (सयणभोगेहिं) शय्या आदि के भोगों से ( उवणिमंतेहिति) आमंत्रित करेंगे, अर्थात् 'भोगों को भोगो' ऐसा उससे कहेंगे ।। सू. ४९ ।। (अम्मापियरो) मातापिता (बावत्तरिकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं) ७२ ४એમાં પારંગત અને નવયૌવનશાળી તેમજ ભેગ ભોગવવામાં સમર્થ જાણીને तेने (विउलेहिं) विधुर (अण्णभोगेहिं) मन्नना लोगाथा (पाणभोगेहिं) पान ७२वाने योज्य द्रव्यना मोगाथा (लेणभोगेहिं) विविध चित्रोथी सुशामित प्रासाह (भस)ना लोगोथी (वत्थभोगेहिं) सुंदर सुंदर पत्रोने मछानुसार ५२वा३५ लोगोथी तभन (सयणभोगेहिं) शय्या माहिना लोगोथी (उवणिभंतेहिंति) सामात्रित ४२शे, अर्थात् 'मोगाने सोगवा' सम तेने शे. (२२. ४८) Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू.५० अम्बडपरिव्राजकविषये भगवदूगौतमयोः संवादः ६१७ भोगेहिं जावसयणभोगेहिंणोसजिहिति,णोरजिहिति, णोगिज्झिहिति, णो मुज्झिहिति, णो अज्झोववजिहिति ॥ सू० ५०॥ ____ मूलम् से जहाणामए उप्पले इ वा पउमे इ वा कुसुस दृढप्रतिज्ञो दारकः 'तेहिं विउलेहिं अण्णभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं तैर्विपुलैरन्नभोगैविच्छयनभोगैः-अत्र यावच्छब्दात्पानलयनवस्त्रभोगैरिति ग्राह्यम् , 'णो सन्जिहिति' नो सङ्यति-न सङ्ग-सम्बन्धं करिष्यति, 'णो रजिनहिति' नो रक्ष्यति-न राग-प्रेम भोगसम्बन्धहेतुं करिष्यति, ‘णो गिज्झिहिति' नो गर्द्धिष्यते-नो गृद्धिभावं करिष्यति, ‘णो मुशिहिति' नो मोहिष्यति मोहं न करिष्यति, ‘णो अज्झोववजिहिति' नो अध्युपपत्स्यते न तदेकानमना भविष्यति ॥ सू० ५०॥ टीका-'से जहाणामए' इत्यादि । ‘से जहाणामए' अथ यथा नाम 'तए णं से दढपइण्णे' इत्यादि। (तएणं) माता-पिता के इन बचनों को सुनने के बाद ( से दढपइण्णे दारए) वह दृढप्रतिज्ञ कुमार ( तेहिं विउलेहिं अण्णभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं णो सज्जिहिति) उन अन्न आदि विपुल भोगों में बिलकुल ही आसक्तचित्त नहीं होगा। (णो रजिहिति) अनुरक्त नहीं होगा। (णो गिज्झिहिति) उनमें गृद्ध नहीं होगा, (णो मुज्झिहिति ) मूच्छित नहीं होगा, और (णोअज्झोववजिहिति ) न उनमें सर्वथा एकाग्रमन ही होगा ॥ सू. ५०॥ 'से जहाणामए' इत्यादि । इस सूत्र में “इ वा” ये शब्द वाक्यालंकार में प्रयुक्त हुए हैं। ( से जहाणा 'तए णं से दढपइण्णे' छत्याहि. __(तए णं) मातापितानi वयन सलिण्य पछी, (से दढपइण्णे दारए) ते दृढप्रतिज्ञ भार (तेहिं विउलेहि अण्णभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं णो सजिहिति) તે અન્ન આદિ વિપુલ ભેગોમાં બિલકુલ જ મનની આસક્તિ રાખશે નહિ, (णो रन्जिहिति) अनु२४ थरी नड, (णो गिज्झिहिति) तभा द्ध थरी नड, (णो मुज्झिहिति) भूछित थशे नडि अने तेभा (णोअज्झोववज्जिहिति) सर्वथा अमन ५ थशे नहि. (सू. ५०) 'से जहाणामए' त्यादि. मा सूत्रमा “इ वा' मे २०६ ४या४।२३थे १५॥ये। 2. (से जहा Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक ६१८ मे इवा नलिइ वा सुभगे इ वा सुगंधे इ वा पोंडरीए इवा महापोंडरीए इ वा यसपत्ते इवा सहस्सपत्ते इ वा सय सहस्सपत्ते इवा पंके जाए जले संबुड्ढे गोवलिप्पड़ पंकरणं, णोवलिप्पइ लम्, 'उप्पले इ वा' उत्पल - रक्तकमलम्, 'इवा' इति वाक्यालङ्कारे 'पउमे इ वा' पद्मम् - कमलमेव, 'कुसुमे इवा' कुसुमम्, 'नलिणे इ वा' नलिनम्, 'सुभगे इ वा' सुभगं - कमलविशेषः 'सुगंधे इवा' सुगन्धम् = सन्ध्याविकासिकमलविशेषः ; 'पौंडरीए इ वा' पुण्डरीकं श्वेतकम'महापोंडरीए इ वा' महापुण्डरीकं विशालं श्वेतकमलम्, 'सयपत्ते इ वा शतपत्रम् = कमलम्, 'सहस्सपत्ते इ वा' सहस्रपत्रम्, 'सयसहस्सपत्ते इ वा ' शतसहस्रपत्रम्, एतानि सर्वाणि कमलजातीयान्येव । एतत्प्रत्येकम् - 'पंके जाये' पङ्के जातम् - कर्दमे समुत्पन्नं 'जले संवुड्ढे ' जले संवृद्धम्, 'णोवलिप्पर पंकरएणं' नोपलिप्यते पङ्करजसा - पङ्कः कर्दमः स एव रजो रेणुतुल्यत्वात् तेन नोपलिप्यते = उपलिप्तं न भवतीत्यर्थः । 'णोवलिप्पइ जल " मए) जैसे ( उप्पले इ वा ) रक्त कमल, ( पउमे इ वा ) पद्मकमल (कुसुमे इ वा ) कुसुम - पुष्प, (नलिणे इ वा ) नलिन - कमलविशेष, ( सुभगे इ वा ) सुभग कमल, (सुगंधे इ वा ) सुगंधकमल - सन्ध्याकालविकासी सौगन्धिक कमल, ( पौंडरीए इ वा ) पुण्डरीक - श्वेतकमल, ( महापोंडरी ए इ वा ) महापुंडरीक - विशाल श्वेतकमल, ( सयपत्ते इ वा ) शतपत्र कमल, ( सहस्सपत्ते इ वा ) सहस्रपत्र कमल, (सयसहस्सपत्ते इ वा ) लक्षपत्र कमल, ये सब कमल की जातियां हैं । ( पंके जाए ) ये कीचड़ उत्पन्न होते हैं, (जले संवुड्ढे) तथा जल में बढते हैं, तो भी ( गोवलिप्पर पंकरएणं णोवलिप्पइ जलरएणं ) पंक की रज से वे लिप्त नहीं होते हैं और न जल की रज से-बिन्दुओं से लिप्त णामए) भडे (उप्पले इ वा) २४त भण, ( पउमे इवा) पद्म उभज, (कुसुमे इ वा ) सुभ-पुष्प, (नलिणे इ वा) नसिन-भणविशेष, (सुभगे इ.वा) सुलग भज, (सुगंधे इवा) सुगंध उमज - सध्या अणे विकास यामेतेषु सुगंधवाणु भण, (पोंडरीए इवा) पुंडरी४ - श्वेत उभ, (महापोंडरीए इ वा ) भडायु डरी-विशाजश्वेत (सयपत्ते इ वा ) शतयत्र भण, (सहस्सपत्ते इ वा ) सहस्रपत्र उभ (सयसहस्सपत्ते इ वा ) लक्षयत्र भण, थे अधी उभजनी लतियो छे. (पंके जाए) ते श्रीन्य मां उत्पन्न थाय छे, (जले संवुड्ढे) तथा सभां वधे छे, ते (णोवलिप पंकरएणं व णालिप्पइ जलरएणं) डीयडनी २४थी तेथे दिप्त थतां नथी, तेभन नसनां टीयांथी मे लिप्त थतां नथी, (एवामेव से दढप Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ utrafinी टीका स्रु. ५१ अम्बड परिव्राजकविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६१९ जलरएणं, एवामेव दढपइण्णेवि दारए कामेहिं जाए भोगेहिं संवढे णोवलिप्पिहिति कामरएणं, गोवलिप्पिहिति भोगरएणं, गोवलिप्पिहिति मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरिजणेणं ॥ सू० ५१ ॥ मूलम् - - से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं रएणं' नोपलिप्यते जलरजसा 'एवामेव दढपइण्णेवि दारए' एवमेव दढप्रतिज्ञोऽपि दारकः, 'कामेहिं जाए भोगेहिं संबुड्ढे' कामैर्जातो भोगैः संवृद्धः 'णोवलिप्पिहिति' नोपलेप्स्यते, 'कामरएणं' कामरजसा - कामः शब्दो रूपं च स एव रजः कामरजस्तेन, 'णोवलिप्पिहिति' नोपलेप्स्यते 'भोगरएणं' भोगरजसा - भोगः - गन्धो रसः स्पर्शश्च स एव रजो भोगरजस्तेन, 'गोवलिप्पिहिति मित्त- गाइ-णियग - सयण - संबंधि- परिजणेणं' नोपलेप्स्यते मित्र - ज्ञाति - निजक - स्वजन - सम्बन्धि - परिजनेन - मित्राणि - सुहृदः, ज्ञातयः = सजातीयाः, निजकाः=भ्रातुष्पुत्रादयः, स्वजनाः = मातुलादयः, सम्बन्धिनः = श्वशुरादयः, परिजनाः भृत्या दयः, एतैर्न लिप्सो भविष्यति ॥ सू. ५१ ॥ होते हैं; ( एवामेव से दढपणे वि दारए) इस तरह वह दृढप्रतिज्ञ कुमार भी (कामेहिं) कामों से - काम सेवन से ( जाए) उत्पन्न होगा, ( भोगेहिं संबुड्ढे ) भोगों से वृद्धिंगत होगा, तो भी वह ( कामरणं ) काम रजसे ( गोवलिप्पि हिति) उपलिप्त नहीं होगा, (भोगरएणं णोवलिपिहिति ) भोगरज से उपलिप्त नहीं होगा। गंध, रस, स्पर्श इन गुणों का नाम भोग है । शब्द तथा रूप का नाम काम हैं । भोगरज एवं कामरज इनमें रूपकालंकार है । ( णोवलिप्पिहिति मित्त - णाइ - णियग - सयण-संबंधिपरिजणेणं) इसी तरह वह मित्र - सुहृद्, ज्ञाति - सजातीय, निजक-भतीजा आदि, स्वजन - मामा आदि, संबंधी - श्वशुर आदि एवं परिजन - भृत्य आदि परिकरों के साथ भी मोह को प्राप्त नहीं होगा । सू. ५१ ॥ इणे वि दारए) तेवी रीते ते दृढप्रतिज्ञ उभार पशु (कामेहिं) भोथी-अभ सेवनथी ( जाए) उत्पन्न थशे, (भोगेहिं संवुड्डे) लोगोथी वृद्धिंगत थशे, तो पशु ते (कामरणं) अभ२४थी ( णोवलिपिहिति) उपक्षिप्त थशे नहि. (भोगरएणं णोवलिप्पिहिति) लोगरन्थी उपसित थशे नहि. गंध, रस, स्पर्श मे गुशनु નામ ભાગ છે. શબ્દ તથા રૂપનું નામ કામ છે. ભાગરજ તેમજ કામરજ शेभां ३यम्-असं अ२ . ( णोवलिप्पिहिति मित्त-णाइ - णियग-सयण - संबंधि - परिजणेणं) भावी रीते ते भित्र सुहृद, ज्ञाति-सन्नतीय, नि२४ - भ्रातृपुत्र (लत्रिने) આદિ, સ્વજન–મામા આદિ, સંબંધી-શ્વશુર આદિ તેમજ પરિજન-નાકર આઢિ પરિકર—પરિવાર સાથે પણ માહુને પ્રાપ્ત કરશે નહિ. (સૂ. ૫૧) Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० औपपातिकसूत्रे बोहिं बुज्झिहिति, बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइ. हिति ॥ सू० ५२॥ मूलम्-से णं भविस्सइ अणगारे भगवंते ईरियास मिए जाव गुत्तबंभयारी ॥ सू० ५३॥ टीका-'से गं' इत्यादि । 'से णं' स दृढप्रतिज्ञः खलु 'तहारूवाणं' तथारू पाणां सम्यग्ज्ञानादिसम्पन्नानां 'थेराणं' स्थविराणाम् , 'अंतिए' अन्तिके -समीपे 'केवलं बोहिं केवलां बोधि-विशुद्धं सम्यगदर्शनं 'बुज्झिहिति' भोत्स्यते ज्ञास्यति, अनुभविष्यती त्यर्थः, 'बुज्झित्ता' बुद्ध्वा 'अगाराओ' अगारात्-गृहात-गृहं परित्यज्येत्यर्थः, 'अणगा रियं' अनगारितां साधुत्वं 'पव्वइहिति' प्रत्रजिष्यति प्राप्स्यति ॥ सू. ५२ ॥ टीका-'से णं' इत्यादि । 'से णं' स खलु दृढप्रतिज्ञो दारकः 'भविस्सइ अणगारे' अनगारो भविष्यतीत्यन्वयः, स कीदृशो भविष्यतीत्याह 'भगवंते' भगवान् अतिशयधारी, 'ईरियासमिए' ईर्यासमितः गमनक्रियायां यतनायुक्तः, 'जाव' यावत्--यावच्छब्दात्-भाषासमितः, एषणासमितः, इत्यादि पञ्चसमितियुक्तः, 'गुत्तबंभयारी' गुप्तब्रह्मचारी= गुप्तब्रह्मचर्यवान् ॥ सू. ५३ ॥ 'से णं तहारूवाणं' इत्यादि । (से णं) वह दृढप्रतिज्ञ कुमार नियम से (तहारूवाणं थेराणं) तथ रूप-सम्यग्ज्ञान आदि गुणों से युक्त स्थविरों के (अंतिए) पास (केवलं बोहिं) केवल बोधि कोविशुद्ध सम्यग्दर्शन को (बुज्झिहिति) प्राप्त करेगा-उसका अनुभव करेगा, (बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिति) अनुभव करने के बाद फिर वह अगार-अवस्था से विरक्त हो कर साधु अवस्था को प्राप्त करने वाला होगा। सू. ५२॥ ‘से णं भविस्सइ' इत्यादि । (से णं) वह दृढप्रतिज्ञ कुमार (अणगारे भगवंते ) अनगार भगवन्त ‘से गं तहारूवाणं' त्याहि. (से णं) ते प्रतिज्ञ उभार नियमथी (तहारूवाणं थेराणं) तथा३५ सभ्य ज्ञान माहि गुणथी युश्त स्थविरोनी (अंतिए) पासे (केवलं बोहिं) मे व विशुद्ध सभ्यशनने (बुज्झिहिति) प्राप्त ४२शे-तेन मनुल ४२से, (बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिति) अनुस१ ४२१ सीधा पछी मम॥२અવસ્થાથી વિરક્ત થઈને સાધુ-અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરવાવાળે થશે. (સૂ. ૫૨) 'से णं भविस्सई' इत्याहि. (से ण) ते ६प्रतिश कुमार (अणगारे भगवंते) मनमा पन्त (भवि Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सु. ५४ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६२१ मूलम्-तस्स णं भगवंतस्स एएण विहारेणं विहरमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिव्वाघाए निरावरणे कसिणे पोडपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पजिहिति ॥सू० ५४॥ .. टीका-'तस्स णं' इत्यादि । ' तस्स णं भगवंतस्स 'तस्य खलु भगवतो दृढप्रतिज्ञस्याऽनगारस्य, 'एएणं विहारेणं विहरमाणस्स' एतेन विहारेण विहरतः'अणंते ' अनन्तम् अनन्तार्थविषयम् , 'अणुत्तरे' अनुत्तरं सर्वोत्तमम् , “णिन्याघाए' निर्व्याघात व्याघाताबहिर्भूतम्-अप्रतिहतमित्यर्थः, 'निरावरणं' क्षायिकत्वादावरणरहितम्, 'कसिणे' कृत्स्नं सकलार्थग्राहकम्, 'पडिपुण्णे' प्रतिपूर्ण सकलस्वकीयांशयुक्तम् , 'केवलवरणाणदंसणे' केवलवरज्ञानदर्शनम्-केवलम् असहायम् अतएव वरं श्रेष्ठं ज्ञानं (भविस्सइ) होगा, अर्थात् उत्कृष्ट मुनिराज बनेगा, वह (इरियासमिए जावं गुत्तबभयारी) ईर्यासमिति आदि पांच समितियों और तीन गुप्तियों का आराधक एवं यावत् गुप्तब्रह्मचारी होगा ॥ सू० ५३ ॥ 'तस्स णं भगवंतस्स ' इत्यादि। ( तस्स णं भगवंतस्स ) उन अतिशय प्रभावविशिष्ट दृढप्रतिज्ञ मुनि को (एएणं विहारेणं विहारमाणस्स) इस प्रकार के विहार से विचरते हुए (अणंते) अनन्त पदार्थों के युगपत् जानने के साधक होने से अनन्त, (अणुत्तरे) सर्वोत्कृष्ट, (णिव्वाघाए) निर्व्याघात, (णिरावरणे) आवरणरहित, (कसिणे) ज्ञान के पूर्ण विकास से सकलार्थग्राहक, (पडिपुण्णे) तथा अपने समस्त . अविभागी. अंशों में से किसी स्सइ) थरी, अर्थात् ट मुनि। मनशे, ते (इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी) ઈર્યાસમિતિ આદિ પાંચ સમિતિઓ અને ત્રણ ગુતિઓને આરાધક તેમજ शुतम्रझयारी थशे. (सू. ५3) . 'तस्स णं भगवंतस्स' छत्याहि. (तस्स णं भगवंतस्स) ते अतिशय-प्रमा-विशिष्ट प्रतिज्ञ भुनिने (एएणं विहारेणं विहरमाणस्स) थे प्रा२ना विडारथी वियरतi (अणंते) मनत पहाथीने मे साथे नपामा साध४ पाथी मनत, (अणुत्तरे) सर्वोत्कृष्ट, (णिव्वाघाए) निपात, (णिरावरणे) आ१२२डित, (कसिणे) ज्ञानना वि४।सथी स४ अर्थाने ongs , (पडिपुण्णे) तथा पोताना समस्त अविलागी यशामाथी ७. ५ मशथी डीन नडिया (केवलवरणाणदसणे) Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम् — तए णं दढपइण्णे केवली बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणिहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं सित्ता, सहि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता, जस्सडाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतवणए केसलोए च दर्शनं चेति ज्ञानदर्शनं, तत्र ज्ञानं विशेषाऽवबोधरूपम्, दर्शनं सामान्यावबोधरूपं 'समुपज्जिहिति ' समुत्पत्स्यते = उदेष्यति ॥ सू० ५४॥ टीका- ' तए णं ' इत्यादि । 'तए णं से दढपइण्णे केवली ' ततः खलु स दृढ प्रतिज्ञः केवली ' बहूई वासाईं केवलिपरियायं' बहूनि वर्षाणि केवलिपर्यायं ' पाउणिहिति' पालयिष्यति, ' पाउणित्ता' पालयित्वा 'मासियाए संलेहणाए अप्पाणं सित्ता' मासिक्या संलेखनयाऽऽत्मानं जूषित्वा = सेवित्वा 'सट्ठि भत्ताइं असणार छेइता ' षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्वा ' जस्सट्ठाए ' यस्यार्थाय = यन्निमित्तं ' कीरइ ' દૂર भी अंश से हीन नहीं ऐसे ( केवलवरणाणदंसणे ) इन्द्रियों की सहायता आदि से रहित होने के कारण केवल - असहाय उत्तम ज्ञान एवं उत्तमदर्शन उत्पन्न होंगें ॥सू० ५४ ॥ 'तए णं से दढपइण्णे केवली ' इत्यादि । (तए णं ) इस के बाद ( से दढपणे केवली ) वे दृढप्रतिज्ञ केवली भगवान् ( बहूई वासाईं) बहुत वर्षों तक ( केवलिपरियागं ) केवलिपर्याय का ( पाउणिहिति ) पालन करेंगे, ( पाउणित्ता) पालन करके ( मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता ) एक मास की संलेखना से आत्मा को झोंसकर (सट्ठि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता ) एवं साठ भक्तों का अनशन से छेदकर (जस्सट्टाए) जिसके निमित्त (नग्गभावे ) नग्न ઈંદ્રિઓની સહાયતા આદિથી રહિત હાવાને કારણે કેવળ-અસહાય એવા ઉત્તમ જ્ઞાન તેમજ દ્રન उत्यन्न थशे. (सू. ५४) 'तए णं से दढपणे केवली' इत्यादि. (तए णं) त्यार पछी (से दढपइण्णे केवली) ते दृढप्रतिज्ञ देवसी लगवान (बहूई वासाई) धां वरसेो सुधी (केवलिपरियागं ) ठेवलीपर्यायनु ( पाउणिह्निति) पासून ४२शे, ( पाउणित्ता) पासन अरीने ( मासियाए संलेहणाए अप्पाणं सित्ता) : भासनी सोमनाथी आत्माने सेवीने, (सट्ठि भत्ताइं अणसणाए छेदिता) तेभन साह लड़तोने अनशनथी बेहन उरीने (जस्सट्टाए) लेना निमित्त Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पीयूषवर्षिणी- टीका सु. ५५ अम्बडपरिव्राजक विषये भगब्द् गौतमयोः संवादः ६२३ बंभचेरवासे अच्छत्तगं अणोवाहणगं भूमिसेजा फलहसेजा कट्ठसेज्जा परघरपवेसो लद्धावलद्धं, परेहिं हीलणाओ खिसणाओ क्रियते, ' नग्गभावे ' नग्नभावः ' मुंडभावे ' मुण्डभावः, 'अण्हाणए ' अस्नानम् = स्नानवर्जनम्, 'अदंववणए' अदन्तधावनम् - दन्तधावनवर्जनम्, ' केसलोए ' केशलोचः केशानां लुश्चनम्, 'बंभचेरवासे' ब्रह्मचर्यवासः - ब्रह्मचर्यपालनं, ' अच्छत्तगं ' अच्छत्रकम् = छत्रधारणवर्जनम्, 'अणोवाहणगं' अनुपानत्कं = पादत्राणराहित्यं, अश्वशिबिकादिवाहनराहित्यं च, 'भूमिसेज्जा' भूमिशय्या, 'फलहसेज्जा' फलकशय्या, 'कट्ठसेज्जा' काष्ठशय्या, ' परघरपवेसो ' परगृहप्रवेशः - भिक्षाद्यर्थमित्यध्याहार्यमित्यर्थः ; 'लद्धावलद्धं' लब्धापलब्धम्सत्कारादिना लब्धं–लाभः - प्राप्तिः, अपलब्धम् - अपमानेन प्राप्तिः क्रियते इति पूर्वेण सम्बन्धः । तथा - ' परेहिं हीलणाओ ' परेषां हेलना:= अवज्ञाः - परकृता जन्मकर्ममर्मोद्घाटना:, यथाभाव, (मुंडभावे) मुण्डभाव, (अण्हाणए ) स्नान का परित्याग, ( अदंतवणए) दाँतो के प्रक्षालन करने का परित्याग, ( केसलोए) केशों का लोच करना, (बंभचेरवासे) ब्रह्मचर्य का पालन, ( अच्छत्तगं ) छत्र धारण नहीं करना, (अणोवाहणगं) विना जूतों के चलना, अश्व पर, शिबिका पर, वाहन पर नहीं बैठना, ( भूमिसेज्जा ) भूमि पर शयन करना, (फलहसेज्जा ) काष्ठ के पाटिये पर सोना, (कट्ठसेज्जा ) साधारण काष्ठ पर सोना, (परघरपवेसो) दूसरों के घर भिक्षावृत्ति के लिये जाना, (लद्धावलर्द्ध) मान और अपमान - पूर्वक प्राप्त भिक्षा में समभाव रखना, ये सब (कीरइ ) किये जाते हैं, और जिसके निमित्त ( परेहिं हीलणाओ ) परकृत अवज्ञाओं को - जैसे 'अरे ! तू जारजात (दोगला ) है' इस प्रकार के अनादर वचनों का, (खिसणाओ) लोगों के द्वारा खिजाने का -लोकों (नग्गभावे) नग्नलाव, (मुंडभावे) भुंउभाव, (अण्हाणए) स्नाननो परित्याग, ( अदंतवणए) हांतानु अक्षासन श्वानो परित्याग, (केसलोए) देशोनु सुन १२, (बंभचेरवासे) ब्रह्मचर्य पालन ४२वु, (अच्छत्तगं) छत्र धार न ४२, (अणोवाहणगं) लेडा पडेर्या विना व्यासवु, अश्वयर, शिमिडायर (पासणी ५२), वार्डन पर न मेसवु, (भूमिसेज्जा) लूभियर शयन ४२वु, (फलहसेज्जा) લાકડાંના पाटियां पर सुवु, (कट्ठसेज्जा) साधारण લાકડાં પર સુવું, (परघरपवेसो) मीलने घेर लिक्षावृत्ति भाटे ४वु, (लद्धावलद्धं) भानअपमानमां समभाव रामवो, मे मधु (कीरइ) ४२वामां आवे छे, भने लेना निभित्ते ( परेहिं हीलणाओ ) मालमे उरेसी अवज्ञाओ। नेवी 'अरे! तु' भरलत छे' मा अारनां मनाहरनां वन्यने।, (खिंसणाओ) बोना Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૭ औपपातिकसूत्रे निंदणाओ गरहणाओ तालणाओ तजणाओ परिभवणाओ पव्वणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा अहि''जारजातोऽसि' इत्यादिरूपा इत्यर्थः । ' खिसणाओ' खिंसना :- लोकसमक्षं ममद्घाटनम् 'निंदणाओं' निन्दनाः = मनसा जुगुप्साः, ' गरहणाओ ' गर्हणाः समक्षे क्रियमाणा जुगुप्साः, ' तालणाओ ' ताडनाः = चपेटादिदानानि, ' तज्जणाओ ' तर्जनाः = अङ्गुल्यादिप्रदर्शनपूर्वकं कटुवचनकथनानि, 'परिभवणाओ ' परिभावनास्तिरस्काराः, 'पव्वहणाओ ' प्रव्यथनाः = पीडोत्पादनाः, , उच्चावया उच्चावचाः = अनेकविधाः, ' गामकंटगा ' ग्रामकण्टकाः – ग्रामः समूहः, स चेन्द्रियाणामिह प्रकरणवशाद् गृह्यते, इन्द्रियाणां प्रतिकूलाः शब्दादय इत्यर्थः, ' बाबीसं परीसहोवसग्गा' द्वाविंशतिः परीषहोपसर्गाः ' अहियासिज्जंति ' अधिसहिष्यन्ते, 'तमट्ठमाराहित्ता' तमर्थमाराव्य = आत्मकल्याणरूपं तमर्थं साधयित्वा 'चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं ' चरमैरुच्छ्वासनिःश्वासैः ' सिज्झिहिति ' सेत्स्यति = के समक्ष अपने मर्मों के उद्घाटनों का, (जिंदणाओ ) अपने प्रति लोगों के मानसिक घृणाओं का, ( गरहणाओ) लोगों द्वारा प्रत्यक्षरूप से की गयी घृगाओं का. ( तालणाओ ) थप्पड़ आदि की ताड़ना का ( तज्जणाओ ) अंगुली - निर्देश - पूर्वक कह हुए कटु वचनों का, (परिभवणाओ ) तिरस्कारों का, ( पव्वहणाओ ) पीडाजनक परिस्थितियों का, ( उच्चावया ) अनेक प्रकार के, ( गामकंटगा ) इन्द्रियों के प्रतिकूल शब्दादिकों का, बावीस परीसहोवसग्गा) बाईस प्रकार के परीषहों का, एवं परकृत उपसर्गों का ( अहियासिज्जति) सहन किया जाता है, ( तमट्ठमाराहित्ता ) वे दृढप्रतिज्ञ केवली भगबान् उस आत्मकल्याण रूप अर्थ को आराधित करके (चरिमेहिं उस्सासणिस्सा सेहिं ) 4 6 દ્વારા થતી ખીજવણીનું-લેાકેા સમક્ષ પેાતાની માર્મિક વાર્તાને પ્રકાશ थाय तेनु', (जिंदणाओ) पोताना अति बडोनी मानसिङ घृणामानु, (गरहणाओ) बोअथी प्रत्यक्ष३ये ४येसी घृणामानु', ( तालणाओ ) थप्पड - साहियो भार भावानु', (तज्जणाओ) सांगली सीधीने उस उटु वचनानुं (परिभवणाओ) तिरस्थाशेनु', ( पव्वहणाओ ) पीडान परिस्थितिमेोनु, ( उच्चावया ) मने अारना ( गामकंटगा ) इंद्रियाने अतिज शब्द माहिनु, तथा ( बावीसं परीसहोवसग्गा) यावीस अझरना परीषोनु तेभन जीनसे रेखा उपसर्गोनु (अहियासिज्जंति) सडुन उराय छे. (तमट्ठमाराहित्ता) ते दृढप्रतिज्ञ ठेवली लगवान ते आत्म४या३य अर्थने आराधित उरीने (चरमेहिं उस्सास - णिस्सासेहिं) अन्तिम २छ्वास - निःश्वासोथी ( सिज्झिहिति) हृतछ्रुत्य थशे. Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवषिणो-टोका सू. ५४ अम्बडपरिव्राजकविषये भगवद्गौतमयोःसंवादः ६२५ यासिजंति, तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिति, बुज्झिहिति, मुच्चिहिति, परिणिव्वाहिति, सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति ॥ सू० ५४॥ मूलम्-से जे इमे गामा-गर-जाव-सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा-आयरियपडिणीया उवज्झायकृतकृत्यो भविष्यति, 'बुज्झिहिति' भोत्स्यते-समस्तानान् केवलज्ञानेन ज्ञास्यति, 'मुच्चिहिति' मोक्ष्यते-सकलकर्माशैः, 'परिणिव्वाहिति' परिनिर्वास्यति कर्मकृतसन्तापाऽभावेन शीतलीभविष्यति, 'सबदुक्खाणमंत करेहिति' सर्वदुःखानाम् शारीरमानसानां सकलदुःखानामन्तं करिष्यतीति ।। सू० ५५॥ टीका-'से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे' अथ य इमे 'गामा-गरजाव-सण्णिवेसेसु' प्रामाऽऽकर-यावत्-सन्निवेशेषु, 'पन्बइया समणा भवंति' प्रजिताः श्रमणा भवन्ति, ते कोदृशाः सन्तीत्यत्राऽऽह-तंजहा' तद्यथा-'आयरियपडिणीया' आचार्यप्रत्यनीकाः आचार्यविरोधिनः, 'उवज्झायपडिणीया' उपाध्यायप्रत्यनीकाः, अन्तिम उच्चासनिःश्वासों से (सिज्झिहिति) कृतकृत्य हो जायेंगे, (बुझिहिति) समस्त चराचर पदार्थों को केवलज्ञानरूपी आलोक-प्रकाश से जान जायेंगे, (मुचिहिति) समस्त कर्माशों से छूट जायेंगे, (परिणिव्वाहिति) कर्मकृत सन्ताप के अभाव से शीतलीभूत हो जायेंगे,( सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति) समस्त शारीरिक, मानसिक दुःखों का अन्त कर देंगे ॥ सू. ५५॥ से जे इमे' इत्यादि । (से जे इमे) वे जो (गामा-गर-जाव सनिवेसेसु ) ग्राम, आकर से लेकर सन्निवेश तक के स्थानों में (पवइया समणा) प्रव्रजित साधु होते हैं, जैसे-(आयरियपडिणीया) आचार्य के प्रत्यनीक-विरोधी, (उवज्झायपडिणीया) उपाध्याय के विरोधी, (मुच्चिहिति) समस्त भर्भाना साथी छूटी री, (परिणिव्वाहिति) भथी थत संतापन समाथी शीतलीभूत 25 , (सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति) समस्त शारी२ि४, मानसि मानो सन्त 30 श. (सू. ५५) ' से जे इमे' त्याहि. (से जे इमे) तमोरे (गामा-गर-जाव-सन्निवेसेसु) ॥ मा४२ माहिथी सधने सन्निवेश सुधानां स्थानामा (पव्वइया समणा) प्रत्र. जित साधु य छ, २१, (आयरियपडिणीया) मायायना प्रत्यनी-विरोधी, Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपातिकसूत्रे पडिणीया कुलपडिणीया गणपडिगीया आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारगा अकित्तिकारगा बहहिं असब्भावुब्भावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूई वासाइं सामण्ण'कुलपडिणीया' कुलप्रत्यनीकाः, 'गणपडिणीया' गगप्रत्यनीकाः, 'आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा' आचार्योपाध्यायानामयशस्कारकाः, 'अवण्णकारगा' अवर्णकारकाः=निन्दकाः 'अकित्तिकारगा' अकीर्तिकारकाः, 'बहुहिं असम्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य' बह्वीभिरसद्भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभिनिवेशैश्च-असद्भावानाम्= अविद्यमानार्थानाम् असद्भावना=आरोपणास्ताभिः, तथा च-मिथ्यात्वाभिनिवेशैश्व-आशातनाजनितैर्मिथ्याल्वग्रहै:, 'अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा' आत्मानं च परञ्च तदुभयञ्च व्युद्ग्राहयन्तः आशातनारूपे पापे नियोजयन्तः, 'वुप्पाएमाणा' व्युत्पादयन्तः-आशातनारूपं पापमुपार्जयन्तः, 'विहरित्ता' विहृत्य, 'बहूई वासाइं सामण्ण (कुलपडिणीया) कुल के प्रत्यनीक, (गणपडिणीया) गण के प्रत्यनीक, (आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारगा) आचार्य एवं उपाध्यायों के अयशस्कारक, तथा अवर्णवादकारक-निंदाकरने वाले, (अकित्तिकारगा) अकीर्तिकारक, (बहुहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य) अनेक असद्भावों की उद्भावना-दोषों के अभाव में भी दोषों को उनमें प्रकट करने से, मिथ्यात्व के अभिनिवेशों-आशातनाजनित मिः याग्रहों से (अप्पाणं परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा) अपने आपको एवं दूसरों को तथा साथ में दोनों को आशातनारूप पाप में नियोजित करते हुए, स्वयं आशातना रूप (उवज्झायपडिणीया) अध्यायना विरोधी, (कुलपडिणीया) सना विरोधी, (गणपडिणीया) गाना विरोधी, (आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा अवण्ण कारगा) આચાર્ય તેમજ ઉપાધ્યાયના અયશકારક, અવર્ણવાદકારક–નિંદા કરવાવાળા, (अकित्तिकारगा) २३४ीति १२४, तसा (बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य) मने असमायोनी अमावनाथी-होषो न डाय तेभा ५९ होषो પ્રકટ કરવાથી, મિથ્યાત્વના અભિનિવેશોથી–આશાતનાજનિત મિથ્યા- આઝ थी, (अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा) पाते पाताने तेभ०४ બીજાને તથા બનેને સાથે જ આશાતનારૂપ પાપમાં નિજિત કરતાં કરતાં, Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू. ५५ आचार्यादिप्रत्यनीक साधु वर्णनम् ६२७ परियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय-अप्पडिकंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिबिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई, परियाय पाउणंति, पाउणित्ता' बहूनि वर्षानि श्रामण्यपर्यायं पालयन्ति, पालयित्वा 'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य तस्य प्रत्यनीकतादिसंजातस्य पापस्थानस्य, 'अणालोइय-अप्पडिकंता' अनालोचिताऽप्रतिक्रान्ताः-गुरुसमीप आलोचनायाः प्रतिक्रमणस्य चाकरणेन दोषादनिवृत्ताः सन्तः ‘कालमासे कालं किच्चा', कालमासे कालं कृत्वा 'उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिब्बिसिएसु' उत्कर्षेण लान्तके कल्पे=लान्तकनामके षष्ठे देवलोके देवकिल्बिषिकेषु देवकिबिसियत्ताए उववत्तारो भवंति' देवकिल्बिषिकतया उत्पत्तारो पाप का उपार्जन करते हुए (विहरित्ता बहूई वासाइं) इस भूमंडल पर विचरण करते रहते हैं, और इतस्ततः उसका प्रचार करते २ ही अनेक वर्षों तक उस साधुपर्याय को पालते हैं, वे (तस्स ठाणस्स अणालोइय-अप्पडिकंता) उन पापस्थानों की आलोचना नहीं कर के, उन पापस्थानों का प्रतिक्रमण नहीं करके (कालमासे कालं किच्चा) काल अवसर में काल कर (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट (लंतए कप्पे देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति) लान्तक नामके छठवें देवलोक में किल्बिषिक देवों में किल्बिषिक जाति के देव होते हैं । इनको जो देवपर्याय मिलती है वह विशिष्ट श्रामण्यजन्य है, अर्थात् बालतप के प्रभाव से प्राप्त होती है; परंतु वहां किल्बिषिक देवों में जो जन्म होता है यह तो आचार्यादिक की प्रत्यनीकता के फल से होता है । जिस प्रकार लोक में चांडाल आदि हुआ करते हैं उसी (विहरित्ता बहूई वासाई) २॥ भूभ अ५२ विय२५ ४२त। २ छ, भने આમ-તેમ તેને પ્રચાર કરતા કરતા જ અનેક વરસો સુધી તે સાધુપર્યાयनुपालन ४२ छ, तेसो (तस्स ठाणस्स अणालोइय-अप्पडिकंता) ते ५॥५स्थानानी मासायना न ४२त, ते पा५स्थाननु प्रतिभY न ४२di (कालमासे कालं किच्चा) अवसरे ४८ ४रीने (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट (लंतए कप्पे देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति) सन्त नामना छ। हे લેકમાં કિલિબષિક દેવમાં કિબિષિક જાતિના દેવ થાય છે. તેમને જે દેવપર્યાય મળે છે, તે વિશિષ્ટ શ્રમણ ધર્મ પાળવાથી જ મળે છે, અર્થાત્ બાલતપના પ્રભાવથી પ્રાપ્ત થાય છે; પરંતુ ત્યાં જે કિલિબષિક દેવમાં જન્મ થાય છે એ તે આચાર્ય આદિકની પ્રત્યેનીકતાનાં ફળથી થાય છે. Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૮ औपपातिकसूत्रे तेरस सागरोवमाइं ठिई, अणाराहगा, सेसं तं चेव ॥ सू० ५६॥ मूलम्-से जे इमे सण्णि-पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवंति, तं जहा-जलयरा थलयरा खहयरा, भवन्ति उत्पद्यन्ते, एतेषां विशिष्टश्रामण्यजन्यं देवत्वं, प्रत्यनीकताजन्यं किल्बिषिकत्वं, तेन ते देवेषु चाण्डालतुल्या भवन्ति । 'तहिं तेसिं गई ' तत्र तेषां गतिः, 'तेरस सागरोवमाई ठिई' त्रयोदश सागरोपमाणि स्थितिः । 'अणाराहगा' अनाराधका भवन्ति । 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव ॥ सू० ५६॥ टीका-' से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे' अथ य इमे 'सण्णि-पंचिदिय-तिरिक्खजोणिया पज्जत्तया भवंति' संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकाः पर्याप्ता भवन्ति, के ते? इत्याह-तं जहा' तद्यथा-'जलयरा थलयरा खहयरा' जलचराः स्थलचराः खेचराः, 'तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झ प्रकार देवों में किल्बिषिक जाति के देव होते हैं । (तहिं तेसिं गई) वहीं पर उनकी गति होती है। वहां (तेरस सागरोवमाइं ठिई) १३ सागर की उनकी स्थिति होती है, (अणाराहगा सेसं तं चेव) ये जीव अनाराधक होते हैं। इस विषयमें अवशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये ॥ सू. ५६ ॥ 'जे इमे' इत्यादि। (जे इमे सण्णि-पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिया) जो ये संज्ञि-पंचेन्द्रिय-तिर्यश्चयोनि के पर्याप्त जीव हैं, (तं जहा) जैसे-(जलयरा थलयरा खहयरा) जलचर, स्थलचर और खेचर। ( तेसिं णं अत्यंगइयाणं सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं ) જેવી રીતે લોકમાં ચાંડાલ આદિ હોય છે તેવી જ રીતે દેશમાં કિલિબષિક तिना देव डाय छ. (तहिं तेसिं गई) त्यां तभनी गति डोय छे. त्यां ( तेरस सागरोवमाई ठिई) १३ सागरनी तेमनी स्थिति डाय छे. (अणाराहगा सेसं तं चेव) Pा विषयमा माडीनु मधुमल प्रमाणे समj ले . मे १ २मनारा हाय छे. (सू. ५) ‘से जे इमे' त्यादि. __(से जे इमे सण्णि-पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिया) २ मा सशी-यन्द्रियतियय-योनिन यति ।, (तं जहा) २ (जलयरा थलयरा खहयरा). १५२, २५सय भने य२. (तेसिं णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स. ५७ जलचरादिविषये भगवद्गौतमयोः संपादः ६२९ तेसिं णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-वूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाणं सण्णि-पुव्वजाई-सरणे समुप्पज्जइ ॥ सू० ५७॥ मूलम्-तए णं समुप्पण्णजाइसरणा समाणा सयमेव वसाणेहिं लेस्साहिं विमुज्झमाणीहि । तेषां खलु अस्ति एकेषां शुभेन परिणामेन प्रशस्तैरध्यवसानैर्लेश्याभिर्विशुद्धयमानाभिः, तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं' तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन, अतएव 'ईहा-चूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाणं' ईहा-व्यूह--मार्गण-गवेषणं कुर्वताम् , एषां पदानां व्याख्या अत्रैवोत्तरार्धे एकत्रिंशत्तमसूत्रे गता। 'सण्णिपुबजाईसरणे' लज्ञिपूर्वजातिस्मरण–पूर्वसंज्ञिभवस्मरणं, 'समुप्पजइ' समुत्पद्यते ॥ सू० ५७॥ टीका-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं समुप्पण्णजाइसरणा समाणा' उनमें कितनेक जीव, शुभ परिणामों से, प्रशस्त अध्यवसायों से, (विसुज्झमाणीहिं लेस्साहि) विशुद्ध लेश्याओं-लेश्या की विशुद्धि से, तथा-(तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं) तदावरगोय-ज्ञानावरणीय एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से (ईहा-वृहमग्गण-गवेसणं करेमाणाणं) ईहा, व्यूह, मार्गग एवं गवेषण करते हैं, करते करते, (सण्णि-पुव-जाई-सरणे समुप्पज्जइ) लंज्ञित्व अवस्था के पूर्वभवों की स्मृति-जातिस्मरण ज्ञान-पाते हैं । (ईहा) आदि पदों की व्याख्या यहीं उत्तरार्ध के एकतीसवें सूत्र में देखें ॥ सू. ५७ ॥ पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं) तमासा वोने ३२ शुभ परिणाभाथी, प्रशस्त मध्यवसायाथी (विसुज्झमाणीहिं लेस्साहिं) विशुद्ध वेश्याव्या-श्यामानी पवित्रतथी, तथा (तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं) तावरणीय-ज्ञानावरणीय तेम०४ वार्यान्तराय भंना क्षयोपशमथी, (ईहा-बूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणाण) घडा, न्यूड, भाए तभ०४ गवेष! ४२i ४२i (सण्णिपुव्वजाईसरणे समुप्पज्जइ) सशित्व अस्थाना पूर्व भवानी स्मृति-तिभर ज्ञान-उत्पन्न थाय छे. 'ईहा' माहि पहानी मथ ये ४ सूत्रना उत्तराभा मेत्रीशमा सूत्रमा नुमो. (सू. ५७) Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० औपपातिकसूत्रे पंचाणुव्वयाइं पडिवजंति, पडिवजित्ता बहहिं सीलव्वय-गुणवेरमण-पच्चखाण-पोसहो-ववासेहिं अप्पाणं भावमाणा बहूई वासाइं आउयं पालेंति, पालित्ता भत्तं पञ्चक्खंति, बहुई भत्ताई ततः खलु समुत्पन्नजातिस्मरणाः सन्तः 'सयमेव ' स्वयमेव, ‘पंचाणुव्वयाई' पञ्चाणुव्रतानि 'पडिवजति' प्रतिपद्यन्ते स्वीकुर्वन्ति, 'पडिवज्जित्ता' प्रतिपद्य 'सीलव्ययगुण-विरमण-पच्चक्रवाण-पोसहोववासेहिं' शीलवत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यान-पोषधोपवासैः, 'अप्पाणं भावेमाणा' आत्मानं भावयन्तः, 'बहूई वासाई' बहूनि वर्षाणि 'आयुय' आयुष्कं 'पालेति' पालयन्ति, 'पालित्ता' पालयित्वा भत्तं ' भक्तं 'पचक्वंति' प्रत्याख्यान्ति, 'बहूई भत्ताई' बहूनि भक्तानि 'अणसणाए' अनशनेन ‘छे देति' 'तए णं समुप्पण्णजाइसरणा' इत्यादि । (तए णं) तब (समुप्पण्णजाइसरणा समाणा) जातिस्मरणज्ञानयुक्त वे जीव, उस ज्ञान के प्रभाव से (सयमेव) स्वयं ही (पंचाणुव्ययाई) पांच अणुव्रतों के स्वीकार कर लेते हैं। (पडिवज्जित्ता बहूहिं सीलव्यय-गुण-वेरमण पञ्चकवाण-पोसही-चवासेहिं) स्वीकार कर शीलवतों से, गुणवतों से, हिंसादिक पापों के त्याग से, प्रत्याख्यानों से एवं पोषधोपवासों से (अप्पाणं भावेमाणा) अपनी आत्मा को भावित करते हुए (बहूइं वासाई) अनेक वर्षों तक (आउयं पालेंति) आयुष पालते हैं, (पालित्ता) आयुष पालकर वे (भत्तं पञ्चक्खंति) भक्तप्रत्याख्यान करते हैं । (बहूई भत्ताइं अगसगाए छेदेति) अनशन से अनेक भक्तों का छेदन करते हैं, (छेदित्ता आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे 'तए णं समुप्पण्णजाइसरणा' त्याहि. (तए णं) त्यारे (समुप्पण्णजाइसरणा समाणा) नति-भ२९ --ज्ञानयुत ते ७१ ये ज्ञानना प्रभार ५3 (सयमेव) पोते ८ (पंचाणुव्वयाई) पांय मानताना स्वी४।२ ४२ से. (पडिवजित्ता बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहो-ववासेहि) स्वी॥२ ४रीने शीसतोथी, शुशुव्रताथ, हिंसा माहि पापान त्यागथी, प्रत्याज्यानाथी तभ०४ पौषधोपवासोथी (अप्पाणं भावेमाणा) पोताना मात्माने भावित ४२त ४२di (बहूई वासाइं) मने: परसे। सुधी (आउयं पालेंति) आयुष्य पाणे छे, (पालित्ता) मायुष्य पाजाने तसा (भत्तं पच्चक्खंति) मतप्रत्याज्यान ४२ छ, (बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति) मनशनथी मने सातोनु छैन ४२ छ, (छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहि Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ५८ जलचरादिविषये भगवदगौतमयोः संवादः ६३१ अणसणाए छेदेति,छेदित्ता आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उवत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई, अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, परलोयस्स आराहगा, सेसं तं चेव ॥ सू० ५८ ॥ ___ मूलम्-से जे इमे गामागर जाव संनिवेसेसु आजीछिन्दन्ति, 'छेदित्ता' छित्त्वा 'आलोइयपडिकंता' आलोचितप्रतिक्रान्ताः, 'समाहिपत्ता' समाधिप्राप्ताः, 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालावसरे कालं कृत्वा, 'उक्कोसेणं' उत्कर्षेण 'सहस्सारे कप्पे' सहस्रारे कल्पे-सहस्रारनामके अष्टमे देवलोके 'देवत्ताए' देवत्वेन ‘उववत्तारो भवंति' उपपत्तारो भवन्ति=उत्पद्यन्ते, 'तहिं तेसिं गई' तत्र तेषां गतिः, 'अद्वारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता' अष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'परलोगस्स आराहगा' परलोकस्याराधकाः, ‘सेसं तं चेव' शेषं तदेव ॥ सू० ५८॥ टीका--' से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे' अथ य इमे 'गामा-गरकालं किच्चा) छेदन कर वे अपने पापों की आलोचना करते हैं, प्रतिक्रमण करते हैं, समाधि को प्राप्त होते हैं । तथा काल अवसर काल कर के (उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे देवताए उववत्तारो भवंति) उत्कृष्ट आठवें देवलोक सहस्रार कल्प में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। (तहिं तेसिं गई) वहीं पर उनकी गति कही गयी है। (अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता) इस आठवें देवलोक में १८ सागर को स्थिति है। (परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव) ये परलोक के आराधक होते हैं । अवशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये ॥ सू. ५८ ॥ पत्ता कालमासे कालं किच्चा) छेतुन ४रीने तो पात रेखi पापानी माताચના કરે છે, પ્રતિક્રમણ કરે છે, સમાધને પ્રાપ્ત થાય છે, તથા કાલ અવસરે ४८ ४रीने (उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति) उत्कृष्ट मामा सखा२ वेपमा १३५थी उत्पन्न थाय छे. (तहिं तेसिं गई) त्यो भनी गति मतावाम मावी छ. (अद्वारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता) - 08 Ta४मा १८ सागरनी Gष्ट स्थिति छ. (परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव) એઓ પરલોકના આરાધક હોય છે. બાકીનું બધું પૂર્વ પ્રમાણે સમજી લેવું नेश. (सू. ५८) Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ औपपातिक 4 विया भवंति तं जहा - दुघरंतरिया तिघरंतरिया सत्तरंत रिया उप्पलवेंटिया घरसमुदाणिया विज्जुयंतरिया उहियासमणा, ते जाव - संनिवेसेसु ' ग्रामाss - कर - यावत्संनिवेशेषु ' आजीविया भवंति ' आजीविका:= गोशालक मताऽनुवर्तिनो भवन्ति । ते किंस्वरूपाः ? अत्राऽऽह - ' तं जहा ' तद्यथा'दुघरंतरिया ' द्विगृहाऽन्तरिकाः - एकस्मिन् गृहे भिक्षां गृहीत्वा अभिग्रहविशेषेण गृहद्वयमतिक्रम्य पुनर्भिक्षां गृह्णन्ति, न निरन्तरं न एकान्तरं वा भिक्षां गृह्ग्न्तीति भावः; ' तिघरंतरिया ' त्रिगृहाऽन्तरिका:- त्रीन् गृहानतिक्रम्य भिक्षां गृह्णन्तीति त्रिगृहान्तरिकाः, एवं ' सत्तघरंतरिया ' सप्तगृहान्तरिकाः – सप्तगृहान् परित्यज्य भिक्षां गृहूणन्तीति, 'उप्पलवेंटिया ' उत्पलवृन्तिकाः- उत्पलवृन्तानि नियमविशेषात् ग्राह्यतथा भैक्षत्वेन येषां ते उत्पलवृन्तिकाः, 'घरसमुदाणिया ' गृहसमुदानिकाः - गृहसमुदानम् = अनेकगृहे भिक्षा येषां ते गृहसमुदानिकाः, ' विज्जुयंतरिया ' विद्युदन्तरिकाः - विद्यत्सम्पातेऽन्तरं =मिक्षाग्रहणस्यावरोधो येषां विद्युदन्तरिकाः विद्युति दीप्यमानायां भिक्षार्थं नाटन्तीति भावः ; 'उहियासमणा उष्ट्रिकाश्रमणाः- उष्ट्रिका = मृत्तिकामयो भाजनविशेषः, तत्र प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति तपस्यन्ति त 'से जे इमे' इत्यादि । ( से जे इमे) ये जो (गामा - गर - जाब - संनिवे सेमु ) ग्राम आकर आदि स्थानों से लेकर संनिवेश तक में (आजी त्रिया) गोशालक के मतानुयायी (भवति) होते हैं, (तं जहा) जैसे- (दुघरंतरिया) दो घर के अन्तर से जो भिक्षा लेते हैं, (निघरंतरिया) तीन घर के अन्तर से जो भिक्षा लेते हैं, (सत्तवरंत रिया) सात घरों के अन्तर से जो भिक्षा लेते हैं, (उप्पलवेंटिया) कमल के नालों की जो भिक्षा करते हैं, ( घरसमुदाणिया) बहुत घरों से जो भिक्षा लेते हैं, (विज्जुयंतरिया) बिजली चमकने पर जो भिक्षा नहीं लेते हैं, (उट्टियासमणा) मिट्टी के किसी बड़े वर्तन - नाँद आदि में प्रविष्ट हो कर जो तप करते 'से जे इमे' त्याहि. ( से जे इमे ) तेथे ? (गामा - गर - जाव - संनिवेसेसु) गाम सार आहि स्थानोथी साने संनिवेश सुधीमां (आजीविया) गोशासना मतानुयायी (भवति) होय छे, (तंजहा ) वा (दुघरंतरिया) में धरने म ंतर राजी ने लिक्षा से छे, (तिघरंत रिया) व धरने मंतर राणी ने लिक्षा से छे. (सत्तघरंतरिया) सात घरोना अंतस्थी ने मिक्षा से छे. (उप्पलवेंटिया) भजना नाजनी ? लिक्षा ४रे छे, (घर सामुदाणिया) घां घरोथी ? भिक्षा से छे, (विज्जुयंतरिया) विभजी यम त्यारे ने लिक्षा सेता नथी, ( उट्टियासमणा) भाटीनां Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवर्षिणी-टीका सू. ५९ आजीविक विषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६३३ of एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं परियायं पाउजित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उबवसारो भवंति । तहिं तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाई ठिई, अणाराहगा, सेसं तं चेव ! सू० ५९ ॥ उष्ट्रिकाश्रमणाः; ' ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा' ते खलु एतद्रूपेण विहारेण विहरन्तः, 'बहूई वासाइं परियायं पाउणित्ता ' बहूनि वर्षाणि पर्यायं पालयित्वा, 'कालमासे कालं किञ्चा' कालमासे कालं कृत्वा, 'उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवताए उक्तारो भवंति ' उत्कर्षेण अभ्युते कल्पे देवत्वेनोत्पत्तारो भवन्ति, ' तहिं तेसिं गई तत्र तेषां गतिः, 'बावीसं सागरोवमाई ठिई ' द्वाविंशतिं सागरोपमानि स्थितिः । 'अणाराहगा' अनाराधकाः, ' सेसं तं चेव' शेषं तदेव ॥ सू० ५९ ॥ " हैं, इस प्रकार जो अभिग्रह वाले हैं, (ते गं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई परियाय पाउणत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उवबत्तारो भवति) ये सब इस प्रकार विहार करते हुए बहुत वर्षों तक इस पर्याय को पा - कर काल अवसर में काल करके उत्कृष्ट बारहवें देवलोक अच्युत कल्प में देव की पर्याय से उत्पन्न होते हैं । (तहिं तेसिं गई ) वहीं पर उनकी गति होती है । (बावीसं सागरोंक माई ठिई) २२ सागर की इनकी स्थिति वहां होती है । (अणाराहगा ) ये सब अनाराधक होते हैं । (सेसं तं चेव) अवशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये ॥ सू. ५९ ॥ ના કાઈ મેટાં વાસણ-કાઠી આદિમાં પ્રવિષ્ટ થઈને જે તપશ્ચર્યા કરે છે, આ પ્રકાअलिगडवाजा ? छे, (ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूइं वासाइं परियाय पाउणत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववतारो भवंति ) मा अधा सा प्रहारे विडार ४२४२तां धांवरसेो सुधी આ પર્યાયને પાળીને કાલ અવસરે કાલ કરીને ઉત્કૃષ્ટ મારમા અચ્યુત કલ્પમાં हेबंनी पर्यायथी उत्पन्न थाय छे. (तहिं तेसिं गई ) त्यां तेभनी गति थाय छे, (बावीस सागरोवमाई ठिई) भावीश सागरनी तेभनी स्थिति त्यां होय छे. (अणारांहगा ) मा अधा अनाराध होय छे. (सेसं तं चेव ) माडीनुं मधु पूर्व अभी समन्वु लेहये. (सू. यह) Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम्—सेजे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा–अत्तुक्कासिया परपरिवाइया भूइकम्मिया भुजो भुजो कोउयकारगा, ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहर टीका-' से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति' अथ य इमे ग्रामाऽऽकर यावत्सन्निवेशेषु प्रजिताः श्रमणा भवन्ति । तद्भदान् दर्शयितुमाह-' तं जहा' तद्यथा 'अत्तुकासिया' आमोत्कर्षिकाःआत्मन उत्कर्षः श्रेष्ठत्वं सोऽस्त्येषामित्यात्मोत्कर्षिकाः-आत्मगौरवदर्शकाः, 'परपरिवाइया' परपरिवादिकाः--परेषां परिवादो=निन्दाऽस्ति येषां ते परपरिवादिकाः-परनिन्दका इत्यर्थः, 'भूइकम्मिया' भूतिकर्मिकाः-भूतिकर्म-ज्वरितानां बाधाप्रशमनार्थं भस्मदानं तदस्ति येषां ते भूतिकर्मिकाः, 'भुजो भुज्जो कोउयकारगा' भूयोभूयःकौतुककारका -भूयोभूयः= पुनः पुनः कौतुकं परेषां सौभाग्यादिनिमित्तं स्नपनादि तत्कर्तारः, यद्वा-कुतूहलकारकाः। ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा' ते खल्वेतद्रूपेण विहारेण विहन्तः 'बहूई से जे इमे गामागर' इत्यादि । (से जे इमे) जो ये (गामागर-जाव संनिवेसेसु) ग्राम आकर आदि से लेकर संनिवेश तक के स्थानों में प्रवजित संयमी श्रमण हैं, जैसे-(अत्तुक्कासिया) अपनी आत्मा के गौरव को दिखाने वाले, (परपरिवाइया) स्वमत को अच्छा समझकर दूसरों की निंदा करने वाले, (भूइकम्मिया) भूतिकर्म करने वाले-ज्वरित व्यक्तियों की बाध को शमन करने के लिये भस्म को देने वाले, (भुजो २ कोउयकारगा) पुनः पुनः अनेक प्रकार के कौतुक करने वाले, ( ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा) वे सब इस प्रकार के आचार में रहते हुए. (बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति) बहुत वर्षों तक श्राम 'से जे इमे गामागर' त्याहि. (से जे इमे) २ । (गामा-गर-जाव-संनिवेसेसु) गाम २॥४२ આદિથી લઈને સંનિવેશ સુધીના સ્થાનમાં પ્રવજિત સંયમી શ્રમણ છે; જેવા 3-(अत्तुक्कासिया) पाताना मात्भाना गौरवने हेमावा(परपरिवाइया) पोताना भतने सारे। समझने मानी नि। ४२पापा, (भूइकम्मिया) भूतिકર્મ કરવાવાળા--જવરથી પીડાતા માણસનાં દુઃખ શમન કરવા માટે ભસ્મ मावा, (भुजो भुजो कोउयकारगा) पापा२ मने प्रा२i 8ौतु ४२वापा, (ते णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा) ते ५४१२॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uttafort - टीका सु. ६० आत्मोत्कर्षकादिविषये भगवद् गौतमयोः संवादः ६३५ माणा बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे आभिओगिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तर्हि तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाइं ठिई, परलोगस्स अणाराहगा, सेसं तं चैव ॥ सू० ६० ॥ . वासाईं सामण्णपरियागं पाउणंति ' बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयन्ति ' पाउणित्ता' पालयित्वा ' तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता ' तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्ताः ' कालमासे कालं किच्चा ' कालमासे कालं कृत्वा ' उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे आभिओगिएसु देवे देवत्ताए उववत्तारो भवंति ' उत्कर्षेणाच्युते कल्पे आभियोगिकेषु-अभियोगे = आज्ञाकर्मणि नियुक्ता अभियोगिकास्तेषु - आज्ञाकारिषु देवेषु देवत्वेनोपपत्तारो भवन्ति, एतेषां देवत्वं चारित्राराधकत्वेन, आभियोगिकत्वं चात्मोत्कर्षादिख्यापनात्; ' तहिं तेसिं गई ' तत्र तेषां गतिः, ' बावीसं सागरोवमाई ठिई ' द्वाविंशतिं सागरोपमानि स्थितिः, 'परलोमस्स अणाराहगां ' परलोकस्याऽनाराधकाः ' सेसं तं चेव ' शेषं तदेव ॥ सू० ६० ॥ पर्याय को पालते हैं, ( पाउणित्ता) पालकर (तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंता ) उन पापस्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये विना ( कालमासे कालं किच्चा ) काल अवसर में कालकर ( उक्को सेणं अच्चुए कप्पे आभिओगिएसु देवे देवताए उववत्तारो भवति) अधिक से अधिक अच्युतदेवलोक के अभियोगिक देवों में- जो इन्द्र आदि के आज्ञाकारी होते हैं, उत्पन्न हो होते हैं, । चारित्र की आराधना करने वाले होने से ये देवपर्याय तो पालते हैं, परंतु आत्मोत्कर्ष आदि ख्यापन करने के कारण इन्हें आभियोगिक आयारमां रडीने (बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति) घणां वरसों सुधी श्रीभएय-पर्यायने पाणे छे, ( पाउणित्ता) पाणीने ( तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कता) ते पापस्थानोनी याबोयना तेन प्रतिभा र्या वगर (कालमासे कालं किच्चा) अस अवसरमा अझ उरीने (उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे आभिओगि एसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) वधारेभां पधारे अभ्युत देवलेोउना आलियो ગિક દેવામાં, જે ઈંદ્ર આદિના આજ્ઞાકારી હોય છે; ઉત્પન્ન થાય છે. ચારિત્રની આરાધના કરવાવાળા હેાવાથી તે દેવપર્યાય તે પામે છે; પરંતુ આત્મત્ક Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् - से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु णि. हगा भवति, तं जहा - बहुरया १, जीवपएसिया २, अव्वत्तिया ६३६ टीका -' से जे इमे ' इत्यादि । ' से जे इमे गामागर जाव सष्णिवे से' अथ य इमे ग्रामाकर यावत् - संनिवेशेषु 'णिण्हगा' निह्नवाः - निहुवते = अपलपन्तिअन्यथा प्ररूपयन्तीति निह्नवाः = मिथ्यात्वाभिनिवेशाजिनोक्तार्थस्यापलापका इत्यर्थः, यथ जमाल्यादयः; ते कतिविधा भवन्ति ? इत्याकाङ्क्षायां दर्शयति- 'तं जहा ' तवथा- ' - 'बहुरया बहुरता :- बहुषु समयेषु रताः - आसक्ताः- - बहुभिरेव समयैः कार्यं सम्पद्यते, नैकेन समयेन जाति के देवों में जन्म धारण करना पड़ता है । ( तहिं तेसिं गई) वहीं पर इनकी गति एवं (बावीसं सागरोवमाई ठिई) स्थिति २२ सागर की कही गई है । ( परलोगस्स अणाराहगा ) ये परलोक के अनाराधक कहे गये हैं । (सेसं तं चेव) अवशिष्ट पूर्ववत समझना चाहिये ॥ सू. ६० ॥ 'से जे इमे गामागर' इत्यादि । ( से जे इमे ) जो ये (गामागर - जाव - सणि वेसेसु) ग्राम आकर आदि स्थानों से लेकर संनिवेश तक कथित स्थानों में रहने वाले ( णिण्हगा भवंति ) जमालि आदि निबमिथ्यात्व के अभिनेवेश से जिनोक्त अर्थ के अपलापक होते हैं; जैसे - ( बहुरया जीवपरसिया अव्वत्तिया सामुच्छेइया दोकिरिया तेरासिया अवद्धिया इच्चेते सत्तपत्रयहिगा) बहुरत- बहुरतों का ऐसा सिद्धान्त है कि कार्य अनेक समयों में ही होता આદિ ખ્યાપન કરવાના કારણે તેમને આભિયાગિક જાતિના દેવામાં જન્મ ધારણ ४२वे। थडे छे. (तहिं तेसिं गई ) त्यां तेभनी गति, तेभन (बावीसं सागरोव माई ठिई) स्थिति २२ सागरनी उडेसी छे. (परलोगस्स अणाराहगा) तेथे परखेोउना मनाराध उडेवाय छे. (सेसं तं चेव ) माडीनु मधु पूर्व प्रभाग समन्वु लेहये. (सू. यह) " जे इमे गामागर ' छत्याहि. (जे इमे) तेथे ? (गामागर जाव सण्णिवेसेसु) गाभ, व्या४२ साहि स्थानाथी बने सनिवेश सुधीनां उडेसां स्थानामा रहेवावाजा (णिण्हगा भवंति ) જમાલિ જેવા નિહનવ-મિથ્યાત્વના અભિનિવેશથી જિન ભગવાને કહેલા अर्थंना असाथ होय छे; नेवा - ( बहुरया जीवपएसिया अव्वत्तिया सामुच्छेया दोकिरिया तेरासिया अबद्धिया इच्चेते सत्त पवयणणिण्हगा ) (1) बहुरत - મહુરતાના એવા સિદ્ધાંત કે કાર્ય અનેક સમયેામાં જ થાય છે એક Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयवर्षिणी-टीका सू. ६१ निह्नव विषये भगवद्गौतमयोः संवादः ७ ३, सामुच्छेइया ४, दोकिरिया ५, तेरासिया ६, अबजिया ७, इत्येवंवादिनो बहुरताः-जमालिमतानुयायिनः १; 'जीवपएसिया ' जीवप्रदेशिकाः-एक एव चरमप्रदेशो जीव इत्यभ्युपगमाज्जीवप्रदेशो विद्यते येषां ते तथा, एकेनाऽपि प्रदेशेन न्यूनो जीवो न भवति, अतो येनैकेन प्रदेशेन पूर्णः सन् जीवो भवति, स एवैकः प्रदेशो जीवो भवतीत्येवंविधवादिनः तिष्यगुप्ताचार्यमतानुयायिनः २; ' अव्वत्तिया' अव्यक्तिकाः-अव्यक्तं समस्तमिदं जगत् , साध्वादिविषये श्रमणोऽयं देवो वाऽयम् इत्यादिविविक्तप्रतिभासोदयाऽभावात्, ततश्चाध्यक्तम् अस्फुटं वस्तु-इति मतमस्ति येषां तेऽव्यक्तिकाः, अथवा अविद्यमाना साध्वादिव्यक्तिरेषामित्यव्यक्तिकाः, आषाढाचार्यशिष्यमताऽन्तर्वर्तिनः ३, “सामुच्छेइया' सामुच्छेदिकाः-प्रतिक्षणं नारकादिभावानां समुच्छेद-क्षयं वदन्तीति सामुच्छेदिकाः-क्षणक्षयिभावप्ररूपका अश्वमित्रमतानुयायिनः ४; 'दोकिरिया' द्वैक्रियाः-द्वेक्रिये=शीतवेदनोष्णवेदनादिहै, एक समय में नहीं। ये जमालिमत के अनुयायी होते हैं १ । जीवप्रदेशिक :का ऐसा कहना है कि जीव एक चरमप्रदेशस्वरूप ही है । जीव यदि एक भी प्रदेश से न्यून हो तो वह जीवसंज्ञा प्राप्त नहीं कर सकता; अतः जिस एक प्रदेश से परिपूर्ण होकर वह जीव कहलाता है वह उस एकप्रदेशस्वरूप ही है। ये तिष्यगुप्त आचार्य के मतानुयायी होने हैं २ । अव्यक्तिक का यह कहना है कि यह समस्त जगत साधु आदि के विषय में सर्वश्रा अव्यक्त है; क्यों कि ये देव हैं, ये श्रमण हैं-इस प्रकार का भिन्न २प्रतिभास नहीं होता है। इसलिए वास्तविक क्या है यह सब अव्यक्त-अस्फुट है । अथवा ये अव्यक्तिक जन किसी को भी साधुव्यक्ति नहीं मानते हैं । ये आषाढाचार्य के शिष्यों के मत के अन्तर्वर्ती माने जाते हैं ३ । सामुच्छेदिक-मतवादी प्रत्येक पदार्थ को क्षणविनश्वर मानते हैं। ये अश्वमित्र के मत के अनुयायी हैं ४ । द्वैक्रिय-मतवादी की ऐसी मान्यता है कि एक ही समय में समयमा नलि. मा भासिनतना मनुयायी हाय छे. (२) जीवप्रदेशिक-मनु એવું કહેવું છે કે જીવ એક ચરમ–પ્રદેશ–સ્વરૂપ જ છે. જીવ જે એક પ્રદેશથી ન્યૂન (કમ) હોય તે તે જીવસંજ્ઞા પ્રાપ્ત કરી શકે નહિ. આથી જે એક પ્રદેશથી પરિપૂર્ણ હોય તે જીવ કહેવાય છે, તે એક પ્રદેશ સ્વરૂપ જ છે. આ तिष्यशुत मायायन भतानुयायी होय छे. (३) अव्यक्तिक-समर्नु अभ કહેવું છે કે આ સમસ્ત જગત સાધુ આદિના વિષયમાં સર્વથા અવ્યક્ત છે, કેમકે તેઓ દેવ છે, આ શ્રમણ છે, આ પ્રકારને જુદો જુદો પ્રતિભાસ હતો નથી. એથી વાસ્તવિક શું છે એ બધું અવ્યક્ત-અસ્કુટ છે. અથવા આ અવ્યક્તિક અને કોઈને પણ સાધુ વ્યક્તિ માનતા નથી. આ અષાઢાસાयंना शिष्याना भतना मतपत्ती मनाय छे. (४) सामुच्छेदिक-मामले પદાર્થને ક્ષણભંગુર માને છે, તેઓ અશ્વાયત્રના મતના અનુયાયી છે. Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे इच्चेते सत्त पवयणणिण्हगा केवलं चरियालिंगसमाणा मिच्छास्वरूपे एकस्मिन् समये जीवोऽनुभवति इत्येवं वदन्ति ये ते द्वैक्रियाः क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिणो गङ्गाचार्यमतानुयायिनः ५, 'तेरासिया' त्रैराशिकाः-त्रीन् राशीन-जीवाऽजीव-नोजीवरूपानं वदन्ति ये ते त्रैराशिकाः-राशित्रयाख्यापका इत्यर्थः-रोहगुप्ताचार्यमतानुसारिणः ६; 'अबद्धिया' अबद्धिकाः-जीवः कर्मणा बद्धो न भवति, किन्तु कञ्चुकवत्स्पृष्टो भवति इत्येवं वदन्ति ये तेऽबद्धिकाः, गोष्ठामाहिलमतावलम्बिनः ७; उपलक्षणं चैतद्वान्तसम्यक्त्वानामन्येषामपि । 'इच्चेते सत्त पवयणणिण्हगा' इत्येते सप्त प्रवचननिह्नवाः-प्रवचनं जिनागमं निहनुवते अपलपन्ति, अन्यथा तदेकदेशस्य चाऽभ्युपगमात् ते प्रवचननिह्नवाः, केवलं-' चरियालिंगसमाणा' चर्यालिङ्गसमान :--चर्यया= भिक्षाटनादिक्रियया लिङ्गेन-रजोहरणादिना च समानाः साधुतुल्याः, ते पुनः कीदृशाः ?, एक जीव दो विरुद्ध क्रियाओं का भी अनुभव करता है। शीतवेदना एवं उष्णदना ये दो परस्पर में एक समय में विरुद्ध हैं। इन्हें जीव एक समय में भोगता है । ये गंगाचार्य के मत के अनुयायी होते हैं. ५। त्रैराशिक मतवालेका ऐसा कहना हैं कि जीवों की तीन राशियाँ हैं(१) जीव, (२) अजीव एवं (३) नोजीव। ये रोहगुप्त के मत के अनुयायी हैं ६ । अबद्धिक लोग ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि जीव और कर्म का बंध नहीं होता है। सिर्फ जव के साथ कर्म कंचुक की तरह स्पृष्ट रहा करते हैं । ये गोष्ठमाहिल के मत को मानने वाले होते हैं ७ । यह उपलक्षणस्वरूप है, इससे सम्यक्त्वरहित क्रिया करने वालों का भी ग्रहण हुआ है । इस प्रकार ये सात प्रवचन-जिनागम के निह्नव हैं । (केवल चण्यिालिंगसमाणा) मात्रा चर्या-भिक्षा याचना आदि क्रिया तथा लिङ्ग-रजोहरणादि साधु के चिह्नों की अपेक्षा इन में समानता (५) द्वैक्रिय-मेमनी मेवी मान्यता ४०४ समयमा ४ मे विरुद्ध जियामाना पण मनुभव ४२ छे. शीतवेदना-तभ०४ उष्णवेदना 241 मे ५२२५२मां એક સમયમાં વિરુદ્ધ છે. તેમને જીવ એક સમયમાં ભેગવે છે. તેઓ ગંગાयाय ना भतना अनुयायी होय छे. (६) त्रैराशिक-तेसा मेम ४९ छ वानी 3 राशिया छ, (१) ०१ (२) २१ तमन (3) नो०१. तेस। शगुप्तना मतना अनुयायी छ. (६) अबद्धिक-तेसा सेभ प्र३५ ४२ छ કે જીવ અને કર્મને બંધ થતું નથી. માત્ર જીવની સાથે કર્મ કંચુકની પેઠે. સ્કૃષ્ટ રહેલાં (ચેટી રહેલાં લાગી રહેલાં) છે. આ ગોષ્ઠમાહિલના મતને માનવા વાળા હોય છે. આ ઉપલક્ષણસ્વરૂપ છે, માટે સમ્યકત્વરહિત કિયા કરવાવાળાનું પણ ગ્રહણ થાય છે. આ પ્રકારે આ સાત પ્રવચન-જિનાગમનાં નિહ્નવछ केवलं चरियालिंगसमाणा) मात्र यर्या-भिक्षा यायना साहिहिया तथा Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणी-टीका. स्व. ६० निह्नव विषये भगवद्गीतमयोःसंवादः ६३९ दिट्टी बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूइं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता कालमासे इत्यत्राह-मिच्छादिट्ठी' मिथ्यादृष्टयः-मिथ्या विपरीता दृष्टिः मतं येषां ते तथा, एते सप्त निह्नवकाः 'बहूहिं' बहुभिः । 'असब्भावुब्भावणाहिं' असद्भावोद्भावनाभिःअसद्भावानाम् अविद्यमानार्थानाम् उद्भावनाः-उत्प्रेक्षणानि-आरोपणानि, ताभिः, 'मिच्छन ताभिणिवेसेहि य'. मिथ्यात्वाभिनिवेशैश्च-मिथ्यात्वोदये अभिनिवेशाः स्वमतस्थापनाऽऽग्रहास्तैः 'अप्पाणं च परं च तदुभयं च ' आत्मानञ्च परञ्च तदुभयञ्च 'बुग्गाहेमाणा' व्युद्ग्राहयन्तः स्वमते स्थापयन्तः, “वुप्पाएमाणा' व्युत्पादयन्तः जिनवचनविरुद्धप्ररूपणाजनितपापमुपार्जयन्तः, 'विहरित्ता' विहृत्य, 'बहूई वासाइं' बहूनि वर्षाणि 'सामण्णपरियागं' श्रामण्यपर्याय पाउणंति' पालयन्ति, ' पाउणित्ता' पालयित्वा 'कालमासे. है। (मिच्छादिट्ठी) ये सातों ही निह्नव मिथ्यादृष्टि हैं । (बहूहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा) ये अनेक प्रकार के असद्भावों की उद्भावनाओं से-अविद्यमान पदार्थों की कल्पनाओं से, तथा मिथ्यात्वादिक में अभिनिवेशों से-अपने मत को स्थापन करने रूप आग्रहों से अपनी आत्मा को, दूसरों को तथा स्व-पर इन दोनों को अपने मत में स्थापित करते हुए एवं जिनमत के विरुद्ध प्ररूपणा करने से उत्पन्न पाप का उपार्जन करते हुए (विहरित्ता) विचरते हैं । इस લિંગ-રજોહરણ આદિ સાધુનાં ચિહની અપેક્ષાએ તેઓમાં સમાનતા છે. (मिच्छादिट्ठी) से सातय निइन भिथ्याइष्टि छे. (बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं :मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा.)તેઓ અનેક પ્રકારના અસદભાવોની ઉદ્દભાવનાથી–અવિદ્યમાન પદાર્થોની કલ્પ ના કરવાથી તથા મિથ્યાત્વ આદિકમાં અભિનિવેશથી–પિતાના મતનું સ્થાપન કરવા રૂપી આગ્રહથી, પિતાના આત્માને, બીજાઓને તથા પિતાના ઉપરાંત આ બન્નેને પિતાના મતમાં સ્થાપિત કરતાં તેમ જ જિનમતની विरुद्ध प्र३५।। ४२वाथी उत्पन्न थतi पानुपान ४२di (विहरित्ता) वियरे छ. २॥ प्रारे ते (बहूई वासाइं सामण्णपरियायं पाउणंति) मने परमी सुधी આવાજ પ્રકારના આચાર-વિચારમાં તન્મય બનીને શ્રમણ્યપર્યાયનું પાલન Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० औपपातिकसूत्रे कालं किच्चा उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेज्जसु देवत्ताए उववन्तारो भवति । तहिं तेसिं गई, एक्कतीसं सागरोवमाइं ठिई, परलोगैस्स अणाराहगा, सेसं तं चैव ॥ सू० ६१ ॥ मूलम् - से जे इमे गामागार जाव सण्णिवेसेसु मणुया काले किer' कालमासे कालं कृत्वा 'उक्कोसेणं' उत्कर्षेण 'उवरिमेसु गेवेज्जेसु' उपरितनेषु मैक्यकेषु ' देवत्ताए उववत्तारो भवति ' देवत्वेनोपपत्तारो भवन्ति । ' तहिं तेसिं गई ' तत्र तेषां गतिः, ' एकतीसं सागरोवमाई ठिई ' एकत्रिंशत्सागरोपमानि स्थितिः, 'परलोगस्स अणाराहगा ' परलोकस्याऽनाराधकाः, 'सेसं तं चेव ' शेषं तदेव ॥ सू० ६१ ॥ टीका--' से जे इमे ' इत्यादि । ' से जे इमे ' अथ य इमे ' गामा-गरजाव - सण्णिवेसेसु ' ग्रामाss कर - यावत्सन्निवेशेषु ' मणुया भवंति ' मनुजा भवन्ति, इस प्रकार ये (बहू वासाई सामण्णपरियायं पाउणंति) अनेक वर्षों तक इसी प्रकार के आचार-विचारों में तन्मय बने हुए श्रामण्यपर्याय का पालन करते रहते हैं । ( पाउजित्ता कालमा से कालं किच्चा उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेज्जेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति) पालकर काल अवसर काल करके अधिक से अधिक उपरिम ग्रैवेयकों में देव की पर्याय से उत्पन्न होते हैं । ( तहिं तेसिं गई, एकतीसं सागरोवमाई ठिई, परलोगस्स अणाहारगा, सेसं तं चेव) वहीं पर उनकी गति एवं ३१ सागर प्रमाण स्थिति होती है । ये परलोक के अनाराधक कहे गये हैं । अवशिष्ट सत्र पूर्ववत् समझना चाहिये ॥ सू. ६१ ॥ 'से जे इमे' इत्यादि । (से जे इसे), जो ये (गामा - गर- जाव-सण्णिवे सेसु मणुया भवति ) ग्राम आकर यावत् सन्निवेशों में मनुष्य रहते हैं, (तं जहा ) जैसे- (अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा रे छे. (पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेज्जेसु देवता उवषत्तारो भवंति ) पाणीने अस अवसरे अब उरीने वधारेभां पधारे (परिभ ग्रैवेय।भां देवनी पर्यायथी उत्पन्न थाय छे. ( तहिं तेसिं गई एक्कतीसं सागरोवमा ठिई परलोगस्स अणाहारगा सेसं तं चेव) त्यां तेमनी गति, तेन ૩૧ સાગર પ્રમાણુ સ્થિતિ હેાય છે. તેએ પરલેાકના અનારાધક કહેવાય છે. આકીનું બધુ... પૂર્વ પ્રમાણે સમજવું જોઇએ. (સૂ. ૬૦) ' से जे इमे ' इत्याहि. (से जे इमे) तेथे ? ( गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवति ) Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू.६२ अल्पारम्भादिमनुष्य विषये भगवदगौतमयोःसंवादः६४१ भवंति; तं जहा-अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा 'तं जहा' तद्यथा-'अप्पारंभा' अल्पारम्भाः-अल्प आरम्भः कृष्यादिना पृथिव्यादिजीवोपमर्दो येषां ते तथा, 'अप्पपरिग्गहा' अल्पपरिग्रहाः अल्पः-परिग्रहः धनधान्यादिस्वीकाररूपो येषां ते तथा, 'धम्मिया' धार्मिकाः-धर्मेण प्राणातिपातादिविरमणरूपेण चरन्ति ये ते धार्मिकाः, 'धम्माणुया' धर्मानुगाः-धर्ममनुगच्छन्ति ये ते धर्माऽनुगाः, कुत इत्थम् ? अत्राऽऽह-'धम्मिट्ठा' धर्मेष्टाः-धर्म एवेष्टो-वल्लभो येषां ते धर्मेष्टाः। अथवाधर्मिष्ठाः धर्मोऽस्ति येषां ते धर्मिणः, त एवातिशययुक्ता धर्मिष्ठाः । 'धम्मक्खाई। धर्मख्यातयः-धर्मात् ख्यातिः प्रसिद्धिर्वेषां ते धर्मख्यातयः। अथवा धर्माऽऽख्यायिनः-धर्ममाख्यान्ति-भव्येभ्यः प्रतिपादयन्तीति धर्माख्यायिनः । ‘धम्मप्पलोई' धर्मप्रलोकिनः। धम्मिया धम्माणुया) अल्प आरंभी-जो पृथिव्यादिक जीवों के उपमर्दन वाले कृष्यादिक रूप आरंभ को अल्प करते हैं वे, अल्पपरिग्रही अर्थात् जिनके धनधान्यादिक के स्वीकाररूप ममत्वभाव अल्प होता है वे, धार्मिक-प्राणातिपातादिक विरमणरूप धर्म से जो युक्त होते हैं वे, तथा-धर्मानुग-धर्मपद्धति के अनुसार जो चलते हैं वे, (धम्मिट्ठा धम्मक्खाई धम्मप्पलोई धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा) धर्मेष्ट-धर्म ही जिन्हें प्रिय है वे, अथवा धर्मिष्ठ--धर्म के अतिशय से जो युक्त हैं वे, धर्मख्याति-धर्म से जिनकी ख्याति हुई है वे, अथवा-धर्मख्यायीभव्यजनों के लिये जो श्रुतचारित्ररूप धर्म का कथन करने वाले होते हैं वे, धर्मप्रलोकी धर्म को जो उपादेयरूप से मानते हैं वे, धर्मपरञ्जन-धर्म के सेवन करने में जो अधिक साम, न्या४२ तभी सन्निवेशामा भनुष्य २ छ, (तं जहा) सेवा, (अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया) अ६५ मारली-2 पृथिवी माEि वाने દુઃખ દેવાવાળા કૃષિ આદિક રૂપ આરંભને અલ્પ (ઓછાં) કરે છે તેઓ, અલ્પ પરિગ્રહી-જેના ધન ધાન્ય આદિકના સ્વીકાર રૂપ મમત્વભાવ અ૫ હોય છે તેઓ, ધાર્મિક-પ્રાણાતિપાતઆદિકના વિરમણરૂપ ધર્મથી જે યુક્ત હોય છે તેઓ, તથા ધર્માનુગધર્મપદ્ધતિને અનુસરીને જે ચાલે છે તેઓ, (धम्मिट्रा धम्मक्खाई, धम्मप्पलोई, धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा) घण्ट-धर्म જ જેમને ઈષ્ટ-પ્રિય છે તેઓ, અથવા ધર્મિષ્ઠ-ધર્મના અતિશયથી જેઓ યુક્ત છે તેઓ, ધર્મખ્યાતિ-ધર્મથી જેઓની ખ્યાતિ (પ્રસિદ્ધિ) થઈ છે તેઓ, અથવા ધર્મખ્યાયી ભવ્ય જિનેને માટે જે શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મનું કથન કરવાવાળા હોય છે તેઓ, ધમપ્રકી–ધમને જે ઉપાદેયરૂપથી માને છે તેઓ, ધર્મ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ औगपातिकसूत्रे धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साहूहिँ एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगचाओ अपडिविरया, एवं जाव पडिग्गहाओ, एगच्चाओ कोहाओ 'धम्मपलज्जणा' धर्मप्ररञ्जनाः-धर्मे प्ररज्यन्ति आसजन्ति-परायणा भवन्ति ये ते धर्मप्ररञ्जनाः । 'धम्मसमुदायारा' धर्मसमुदाचाराः-धर्मः समुदाचारः सदाचारो येषां ते धर्मसमुदाचाराः । 'धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा' धर्मेणैव वृत्तिं कल्पयतः-धार्मिकजीविका निर्वहन्तः, 'सुसीला' सुशीलाः शोभनाचारवन्तः 'सुव्बया' सुत्रताः= शोभनव्रतवन्तः 'सुप्पडियाणंदा' सुप्रत्यानन्दाः-सुष्टु प्रत्यानन्दः-चित्ताऽऽह्रदो येषां ते तथ , ' साहूहिं' साधुभ्यः साधुसमीपात्-साध्वन्तिके प्रत्याख्याय 'एगच्चाओ' एकस्मात स्थूलरूपात् न तु सर्वस्मात् 'पाणाइवायाओ' प्राणातिपातात् =परप्राणव्यपरोपणतः, 'पडिविरया' प्रतिविरताः निवृत्ताः, 'जावज्जीवाए' यावजीव-जीवनपर्यन्तमित्यर्थः, 'एगचाओ अपडिविरया' एकस्मात् =सूक्ष्मरूपात् अप्रतिविरताः=अनिवृत्ताः । एवं जावपरिगहाओ' एवं अनुराग संपन्न होते हैं वे, धर्मसमुदाचार-धर्म ही जिनका उत्तम आचार हैं वे, धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा) तथा जो धर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं वे, (सुसीला सुव्बया मुप्पडियाणंदा) शोभन आचार जिनका है वे, सुव्रत-निरतिचार व्रतों के जो पालन करने वाले हैं वे, सुप्रत्यानन्द-जिनका चित्त सदा अच्छी तरह से आनंदलंपन्न रहा करता है वे, तथा जो (साहू हिं एगच्चाओ) साधु के समीप प्रत्याख्यान लेकर केवल एक (पाणाइवाधाओ) स्थूल प्राणातिपातरूप से ( जावज्जीवाए पडिविरया) जीवनपर्यन्त प्रतिविरत -निवृत्त रहते हैं, (एगचाओ अपडिविरया) परंतु सूक्ष्मरूप प्राणातिपात से विरक्त नहीं रहते हैं , (एवं जाव પ્રરંજન-ધર્મનું સેવન કરવામાં જે અધિક અનુરાગસંપન્ન હોય છે તેઓ, धर्मसमुहाया२-धर्म भनी उत्तम माया२ छ तेसो, (धम्मेणं व वित्तिं कप्पेमाणा) तथा धर्मथी ४ पोतानुं न यावे छ तसा, (सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा ) शासन याया२ रेना छ तेसा, सुव्रत-निरतियार વ્રતનું જેઓ પાલન કરવાવાળ છે તેઓ, સુપ્રત્યાનંદ-જેમનું ચિર. હંમેશાં सारी रीत मानसपन्न २॥ ४२ छ तेस, तथा रेसा (साहूहि गच्चाओ) साधुनी पासे प्रत्याध्यान साधने उपस मे (पाणाइवायाओ) स्थूलमायातिपात३५ पायथा (जावज्जीवाए पडिविरया) वनपर्यन्त प्रतिवि२त-निवृत्त २९ छ, (एगच्चाओ अपडिविरया) परंतु सूक्ष्म प्रातिपातथी वि२४त २ता नथी तेसो, एवं जाव Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ utrafift टीका सु. ६२ अल्पारम्भादिमनुष्य विषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६४३ माणाओ मायाओ लोहाओ पेजाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादंसणसल्लाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया, एगच्चाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावज्जीवाए, , यावत्परिग्रहात्, यावच्छब्देन - मृषावादाऽदत्तादान - मैथुनानि बोद्धव्यानि । ' एगच्चाओ' एकस्मात् = स्थूलात् 'कोहाओ' क्रोधात्, 'माणाओ' मानात्, 'मायाओ' मायायाः, 'लोहाओ ' लोभात्, 'पेज्जाओ' प्रेयसः, ' दोसाए ' द्वेषात् ' कलहाओ कलहात् 'अब्भक्खाणाओ' अभ्याख्यानात् = पैशुन्यात्, 'परपरिवायाओ ' परपरिवादात् ' अरइरईओ ' अरतिरतिभ्याम् ' मिच्छादंसणसल्लाओ' मिथ्यादर्शनशल्यात् 'पडिविरया' प्रतिविरताः= भावतो विरताः ' जावज्जीवाए ' यावज्जीवं जीवनपर्यन्तम् ; 'एगच्चाओ अपडिविरया ' एकस्मात्-सूक्ष्मात् अप्रतिविरताः 'एगच्चाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावज्जीवाए एगचाओ अपडिविरया ' एकस्मादारम्भसमारम्भात्प्रतिविरता यावज्जीवमेकस्मादप्रति पडिग्गहाओ) तथा इसी तरह स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन एवं स्थूल परिग्रह से विरक्त रहते हैं वे, ( एगच्चाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ पेज्जाओ दोसा कहाओ अभक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादंसण सल्लाओ पडिविरया जावज्जीवाए) इसी प्रकार स्थूल क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति, रति, मायामृषा, एवं मिथ्यादर्शनशल्य से जीवनपर्यन्त प्रतिविरत रहा करते हैं, ( एगच्चाओ अपडिविरया ) किन्तु सूक्ष्म क्रोधादिकों से प्रतिविरत नहीं रहते हैं, ( एगच्चाओ आरंभसमारंभाओ पडि पडिग्गहाओ ) तथा सेवी ४ ते स्थूल भृषावाह, स्थूल महत्ताहीन, स्थूल मैथुन, ते स्थूल परिग्रड्थी ने विरस्त रहे छे तेथेो, ( एगच्चाओ कोहाओ माणाओ माया ओ लोहाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अब्भक्खाणाओ पेसुण्णाओ परपरिवायाओ अरइरईओ मायामोसाओ मिच्छादंसणसल्लाओ पडिविरया जावज्जीवाए) अहारे स्थूल ोध, मान, भाया, बोल, राग, द्वेष, उसड, अल्याध्यान, पैशुन्य, घरपरिवाह, अरति, रति, भायाभूषा, तेभन भिथ्यादर्शनશલ્યથી જીવનપર્યન્ત પ્રતિવિરત रह्या छे, ( एगच्चाओ अपडिविरया ) परंतु सूक्ष्म डोध आद्विमेथी प्रतिविरत रहेता नथी. ( एगच्चाओ आरंभ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ औपपातिकसूत्रे एगच्चाओ अपडिविरया, एगच्चाओ करणकारावणाओ पडिविरया जावजीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया, एगच्चाओ पयणपयावणाओ पडिविरया जावजीवाए, एगच्चाओ पयणपयावणाओ अपडिविरया, एगच्चाओ कोहण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह विरताः 'एगचाओ करणकारावणाओ' एकस्मात्करणकारणात् =स्वयम् नुष्टानं करणं, प्रेरणया परहस्तात्कारणम् , तयोःसमाहारः, तस्मात् 'पडिविरया' प्रतिविरताः, 'जावजीवाए ' यावजीवम् , 'एगचाओ अपडिविरया' एकस्मादप्रतिविरताः गज्ञामाज्ञादिभिः कारणैः । 'एगचाओ पयणपयावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए' एकस्मात्पचनपाचनात्-पचनं स्वहस्तात्पाककरणं, पाचनं-परद्वारेण, तस्मात्प्रतिविरताः यावजीच, 'एगचाओ पयणपयावणाओ अपडिविरया' एकस्मात् पचनपाचनादप्रतिविरताः। 'एगचाओ कोट्टणपिट्टण-सज्जण-तालण-वह-बंध-परिकिळेसाओ' एकस्मात्कुट्टन-पिट्टन-तर्जन-ताडन विरया जावज्जीवाए ) ऐसे ही वे स्थूल आरंभ--समारंभ से ही जीवनपर्यंत विरक्त रहते हैं, सूक्ष्म आरंभसमारंभ से नहीं। (एगचाओ करणकारावणाओ पडिविरया) कोई ऐसे हैं जो केवल स्वयं करने से एवं दूसरों से कराने से जीवनपर्यन्त विरत रहते हैं, (एगच्चाओ अपडिविरया) कोई ऐसे हैं जो राजाकी आज्ञा-आदि के कारण इनसे प्रतिविरत नहीं हैं, ( एगच्चाओ पयण-पयावणाओ पडिविरया जावजीवाए ) कोई २ ऐसे हैं जो पचन-पाचन क्रिया से जीवन पर्यन्त विरत हैं। (एगचाओ पयणपयावणाओ अपडिविरया) कोई २ ऐसे हैं जो इन पचन-पाचनादि क्रियाओं से विरत नहीं हैं । ( एगच्चाओ समारंभाओ पडिविरया जावज्जीवाए) तभ०४ ते २८ मार-मार लथी પણ જીવનપર્યન્ત વિરક્ત રહે છે, સૂક્ષ્મ આરંભ–સમારંભથી વિરક્ત નથી रहेता. (एगच्चाओ करणकारावणाओ पडिविरया) सेवा छ ? ४२वा साथी बन५ त विरत डाय छे. (एगच्चाओ अपरिविरया) पाछे ? शनी माज्ञा माहिना पारणे तेनाथी प्रतिविरत होता नथी, (एगच्चाओ पयणपयावणाओ पडिविरया जावज्जीवाए) सेवा छरे पयन-पायन लियाथी नयंत विरत छ. (एगच्चाओ पयणपयावणाओ अपडिविरया) अध કઈ એવા છે કે જે આ પચન-પાચન આદિ કિયાએથી વિરસ નથી. (एगच्चाओ कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बंध-परिकिलेसाओ पडिविरया Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषधर्षिणी-टोकाम.६२ अल्पारम्भादिमनुष्यविषये भगवद्गौतमयोःसंवाद:४५ बंध-परिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अपडिविरया, एगच्चाओ ण्हाण-मदण-वण्णग-विलेवण-सह-फरिस रस-रूव-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया जावजीवाए, एगञ्चाओ -वध-बन्ध-परिक्लेशात्-तत्र कुट्टनम् छेदनम्, पिट्टनं-वस्त्रादेरिव मुद्गरादिना हननम् , तर्जनम्= 'ज्ञास्यसि रे जाल्म ! ' एतद्रूपं भर्त्सनं, ताडनं चपेटादिना हननम्, वधः= प्राणव्यपरोपणं, बन्धः-रज्जुपाशादिना बन्धनम् , परिक्लेशो बाधोत्पादनं तेषां समाहारः तस्मात् 'पडिविरया' प्रतिविरताः = निवृत्ताः 'जावजीवाए' यावज्जीवम् , 'एगचाओ अपडिविरया' एकस्मात् अप्रतिविरताः = अनिवृत्ताः। 'एगच्चाओ ण्हाण-मद्दण-वण्णग-विलेवण-सद्द-फरिस-रस - रूव-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया जावज्जीवाए ' एकस्मात् स्नान-मर्दन-वर्णक-विलेपन-शब्द--स्पर्श-रस कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बंध-परिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवार) कोई २ ऐसे हैं जो कुट्टन-छेदन, पिट्टन-पीटना-वस्त्रादिक का जिस प्रकार मुद्गरादिक से कूटना होता है उसी प्रकार मुद्गर-मूसल आदि से पीटना-कूटना, तर्जन-खोटे बचनों द्वारा भर्त्सना करना, ताडन-चपेटा थप्पड-आदि मारना, वध-प्राणव्यपरोपण करना, बन्ध-रज्जुपाश आदि से किसी को बांधना, एवं परिक्लेश-किसी को बाधा आदि उत्पन्न करमा, इन सब कार्यों से यावज्जीवन प्रतिविरत हैं, ( एगचाओ अपडिविरया) कोई २ ऐसे हैं जो इन क्रियाओं से प्रतिविरत नहीं हैं । ( एगच्चाओ ण्हाण-मद्दण-वण्णग-विलेवण-सद-फरिस-रस-रूब-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया जावज्जीवाओ) जावजावाए) से छे २ टन-छन, पिट्टन-पीट- पहनने પ્રકારે મુદુગર આદિથી કૂટે છે તે પ્રકારે મુગર (ધોકા) મૂસલ (સાંબેલાં) આદિથી પીટવા-કૂટવા, તર્જન-ખેટાં ખરાબ વચનો દ્વારા ભત્સના કરવી, તાડન તમાચા , २-५७ मा भार, १५-प्राणुव्यपरोपY ४२९ (भारी नाम), मधદોરડાંના પાશ આદિથી કોઈને બાંધવું, તેમજ પરિકલેશ-કેઈને બાધા દુઃખ) माहि पया. मी मां थी वनपर्यन्त प्रतिविरत छ. (एगच्चाओ अपडिविरया) मेवा छ २ मा जियामाथी प्रतिविरत नथी. (एगच्चाओ ण्हाण-मद्दण वण्णग-विलेवण-सह-फरिस-रस-स्व-ध-मल्ला-लंकारामओ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिकसूत्र अपडिविरया, जे यावण्णे तहप्पगारा सावजजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कजंति तओ वि एगञ्चाओ पडिविरया जावज्जोवाए, एगच्चाओ अपडिविरया ॥ सू० ६२॥ रूप-गन्ध-माल्याऽ-लङ्कारात्प्रतिविरता यावज्जीवम् , 'एगच्चाओ अपडिविरया' एकस्मादप्रतिविरताः-तत्र वर्णकः अङ्गरागः, अन्यत् स्पष्टम् । तथा-'जे यावण्णे तहप्पगारा' ये यावन्तस्तथाप्रकाराः 'सावज्जजोगोवहिया' सावद्ययोगौपधिकाः-साद्यवयोगाः सावधयोगयुक्ताश्च ते औपधिकाः मायाप्रयोजनाश्चेति तथा, 'पर-पाण-परियावणकरा' परप्राणपरितापनकराः 'कम्मंता' कर्मान्ताः=कृष्यादिव्यापारांशाः 'कज्जति' क्रियन्ते, 'तओ वि एगचाओ पडिविरया' ततोऽपि एकस्मात् प्रतिविरताः प्रतिनिवृत्ताः, 'एगच्चाओ अपडिविरया' एकस्मात् अप्रतिविरताः अनिवृत्ताः सन्ति ॥ सू० ६२ ॥ कोई २ ऐसे हैं जो जीवनपर्यन्त स्नान से, मर्दन से, विलेपन से, शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श इन इन्द्रियों के भोगों से, माला एवं अलंकार आदि से निवृत्त हैं। ( एगच्चाओ अपडिविरया) कोई २ ऐसे भी हैं जो इनसे बिलकुल ही प्रतिविरत नहीं हैं। जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जंति) इसी प्रकार के और भी जितने सावधयोगोपधिक अर्थात्-सावद्ययोगयुक्त और मायाकषायजन्य तथा दूसरों के प्राणों को परिताप पहुँचाने वाले जो कृष्यादि व्यापार हैं, ( तओ वि) उनसे भी कितनेक ऐसे मनुष्य हैं जो (एगचाओ पडिविरया जावज्जीवाए ) एकान्ततः पडिविरया जावज्जीवाओ) वा डाय छ न त स्नानथी, મર્દનથી, અંગરાગથી, વિલેપનથી, શબ્દ–સ્પર્શ—રૂપ–ગંધ–રસ એ ઇદ્રિના लोगोथी मने भाणा तभ०४ म२ माहिथी निवृत्त छ. (एगच्चाओ अपडिविरया) आई मे पY छ रे तेनाथी मिसse on प्रतिविरत डत नथी. (जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कजंति) मे रे मीत पषु २८साधयोगोषधि એટલે સાવદ્યગયુક્ત અને માયાકષાયજનિત તથા બીજા જીના પ્રાણને परिता५ पयाना२ २ कृषि मा व्यापार छ, (तओवि) तनाथी पर मीना टेटमा मेवा मनुष्य छ २ (एगच्चाओ पडिविरया जावज्जीवाए) वनपर्यन्त Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीवपषिणी-टीका मु.६३ अल्पारम्भादिमनुष्यविषये भगवद्गीतमयोःसंवादः६४७ मूलम्-तं जहा-समणोवासगा भवंति, अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा आसव-संवर-निज्जर-किरियाअहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसला असहेजा देवा-सुर-नाग टीका-ये पूर्व सामान्येन कथितास्त एव विशेषेण कथ्यन्ते-'तं जहा' तद्यथा-ते मनुजाः, 'समणोवासगा भवंति' श्रमणोपासकाः साधुसेवकाः-श्रावकाः भवन्ति, ते कीदृशाः सन्ति ? अत्राऽऽह-'अभिगयजीवाजीवा' अभिगतजीवाजीवाः-अभिगताःयथावस्थितस्वरूपेण ज्ञाता जीवा अजीवाश्च यैस्ते तथा, जीवाजीवतत्त्वज्ञानवन्त इत्यर्थः; 'उवलद्धपुण्णपावा' उपलब्धपुण्यपापाः-उपलब्धे यथावस्थितस्वरूपेण विज्ञाते पुण्यपापे यैस्ते तथा, तत्त्वतो विज्ञातपुण्यपापस्वरूपा इत्यर्थः; 'आसव-संवर-निज्जर-किरियाअहिंगरण-बंध-मोक्ख-कुसला' आस्रव-संवर-निर्जरा-क्रिया-धिकरण-बन्ध-मोक्षकुशलाः-तत्रास्रवः आत्रवति अविशति अष्टविधं कर्मसलिलं येन आत्मसरसि स आस्रवः= जीवनपर्यंत प्रतिविरत हैं, तथा कितनेक ऐसे हैं जो (एगञ्चाभो अपडिविरया) इनसे प्रतिविरत नहीं हैं । सू० ६२॥ तं जहा समणोवासगा' इत्यादि । (तं जहा) इसी प्रकार (समणोवासगा भवंति) अन्य श्रमणोपासक होते हैं; जो कि (अभिगयजीवाजीवा) जीव और अजीव के यथार्थ स्वरूप के ज्ञाता होते हैं, (उवलद्धपुण्णपावा) पुण्य एवं पाप का यथावस्थित स्वरूप जिन्होंने अच्छी तरह जान लिया है, (आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसला) आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध, मोक्ष इनमें हेय कौन २ हैं और उपादेय कौन २ हैं: इस प्रकार हेय और उपादेय के ज्ञान से जिनका भाव परिपक्व हो चुका है। प्रतिविरत छ, तथा डेटा सेवा छ २ (एगच्चाओ अपडिविरया) तनाथी प्रतिविरत नथी. (सू. १२) 'तं जहा समणोवासगा' त्याहि. (तं जहा) मे शत (समणोवासगा भवंति) २ श्रभो।पास४ सय छ, (अभिगयजीवाजीवा) २७१ अने अपना यथार्थ २१३५ना ज्ञाता डाय छ, (उवलद्धपुण्णपावा) पुष्य तभ०४ पातुं यथास्थित २१३५२मासे सारी रीते समल दीधेछ, (आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसला) मालप, १२, नि , लिया, अधि४२५, मध, मोक्ष, म उय Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपपातिक जाता है उसी संबर है। गुप्ति, मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपः, संवरः - संवियते = निस्ध्यते आस्रवत्कर्म येन परिगामेन स संवरः, समितिगुप्तिप्रभृतिभिरात्मसरसि आस्रवत्कर्मसलिलानां स्थगनमित्यर्थः ; निर्जरानिर्जरणं कर्मणां जीवप्रदेशेभ्यः परिशटनं-- विशरणं, सा च-देशतः कर्मक्षयरूपा, क्रिया = कायिकयादिका, अधिकरणम्- अधिक्रियते नरकगतियोग्यतां प्राप्यते आत्माऽनेनेत्यधिकरणम्द्रव्यतो गन्त्रीयन्त्रादि, भावतः क्रोधादिकम्, बन्धः - जीवस्य कर्मपुद्गलसम्बन्धः; मोक्षःजिस प्रकार नौका में छिद्रों द्वारा जल का प्रवेश होता रहता है इसी प्रकार इस आत्मारूप सरोवर में जिसके द्वारा अष्टविध कर्मरूप जल का आगमन होता है उसका नाम आस्रव है । मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग के भेद से यह आस्रव अनेक प्रकार का है । छिद्रों के बंद करने से जिस प्रकार नौका में पानी का आना रुक प्रकार जिन परिणामों से आते हुए कर्म रुक जाते हैं उन परिणामों का नाम समिति एवं परीषह आदि के भेद से यह संवर अनेक प्रकार का बतलाया गया है। जीवप्रदेश से कर्मों के एकदेश का नाश होना इसका नाम निर्जरा है । काय आदि संबंधी व्यापारों का नाम क्रिया है । नरकगति में जाने की योग्यता जीव जिसके द्वारा प्राप्त करता है वह अधिकरण है । द्रव्य और भाव के भेद से यह दो प्रकार का है। यहां पर भाव अधिकरण का कथन है, अतः वह क्रोधादिक कषायरूप जानना चाहिये । जीव का एवं कर्मपुद्गलों का परस्पर में एक क्षेत्रावगाहरूप संबंध का नाम बंध है । समस्त कर्मों के શું છે અને ઉપાદેય શું છે આવી રીતે હેય અને ઉપાદેયના જ્ઞાનથી જેના ભાવ પરિપક્વ થઈ ગયા હોય છે. જેવી રીતે નૌકામાં છિદ્રો દ્વારા જળના પ્રવેશ થયા કરે છે તેવી જ રીતે આ આત્મારૂપ સરોવરમાં જેના દ્વારા આઠે પ્રકારનાં ક રૂપી જલનું આગમન થાય છે તેનું નામ આસવ છે. મિથ્યાદર્શન, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય તેમજ યાગના ભેદથી આ આસ્રવ અનેક પ્રકારના થાય છે. છિદ્રોને અધ કરવાથી જેવી રીતે નૌકામાં પાણીનું આવવું રાકાઈ જાય છે તેવી જ રીતે જે પરિણામેાથી આવનારાં કર્મ રોકાઈ જાય એવાં પરિણામેાનું નામ સંવર છે. ગુપ્તિ, સમિતિ તેમજ પરીષહુ આદિના ભેદથી આ સંવર અનેક પ્રકારના બતાવવામાં આવ્યા છે. જીવ-પ્રદેશથી કર્મોના એક દેશ નષ્ટ થાય તેનું નામ નિર્જરા છે. કાય આદિ સંબંધી વ્યાપારાનુ નામ ક્રિયા છે. નરકગતિમાં જવાની યાગ્યતા જીવ જેના દ્વારા પ્રાપ્ત કરે છે તે અધિકરણ છે. દ્રવ્ય તથા ભાવ ના ભેદથી તે બે પ્રકારના છે. અહીં' ભાવ– અધિકરણનું કથન છે તેથી તે ક્રેષ આદિક કષાયરૂપ જાણવું જોઈએ. જીવને તેમજ કર્મ પુદ્ગલાના પરસ્પરમાં એકક્ષેત્રાવગાડુંરૂપ સંબંધ છે, તેનું નામ અંધ છે. સમસ્ત કર્મના અત્યંત—આત્યંતિક ક્ષયનું નામ મેાક્ષ છે. ६४८ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ६० अल्पः रम्भादिमनुष्य विषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६४९ सकलकर्मक्षये सति जीवस्य कर्मसंयोगापादितरूपरहितस्य साद्यपर्यवसानम् अन्याबाधमवस्थानम्, उक्तं च नीसेसम्म विगमो मुक्खो जीवस्स सुद्धरुवस्स । साइणपज्जवसाणं अव्वाबाहं अवत्थाणं ॥ १ ॥ छाया - निश्शेषकर्मविगमो मोक्षो जीवस्य शुद्धरूपस्य । साद्य पर्यवसानम् अध्याबाधम् अवस्थानम् ॥ इति ॥ 6 तेषां द्वन्द्वः, तत्र कुशलाः, आस्रवादीनां हेयोपादेयतास्वरूपज्ञानिन इत्यर्थः, 'असहेज्जा ' असाहाय्याः - अविद्यमानं साहाय्यं - देवादिसाहाय्यं स्वस्यैव धर्मजनितसामर्थ्यातिशयात् येषां ते तथा, यद्वा -- स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमिति ज्ञात्वा मनोदौल्याभावात् परसाहाय्यानपेक्षा इत्यर्थः । 'देवा-सुर - नाग - जक्ख - रक्खस - किंनर - किंपुरिस- गरुल- गंधव्त्र - महोरगाइएहिं देवगणेहिं ' देवा - सुर- नाग - यक्ष - राक्षसअत्यन्त - आत्यन्तिक-क्षय का नाम मोक्ष है । समस्त कर्मों के क्षय होने पर उनके संयोग से आपादित मूर्तित्व का शीघ्र ही पर्यवसान जीव में हो जाता है, इससे अमूर्तित्वरूप स्वभाव का प्राचुर्य होने से उसका अव्याबाधरूप से अवस्थान हो जाता है। कहा भी हैसमस्त कर्मों का विगम ही मोक्ष है और वही जीव का शुद्ध स्वरूप है, इस स्वरूप के प्राप्त होते ही जीव का अवस्थान अव्याबाधरूप से आत्मा में हो जाता है। जो " असाहाय्या " हैं अर्थात् धर्मजनित सामर्थ्य के अतिशय से देवादिकों की सहायता की स्वप्न में भी इच्छा नहीं रखते हैं; अथवा अपने द्वारा कृत शुभाशुभ कर्म आत्मा स्वयं ही भोग करता है दूसरों की सहायता इसमें कार्यकारी नहीं हो सकती - इस प्रकार की मानसिक दृढता के कारण जो दूसरों की सहायता की थोड़ी सी भी पर्वाह नहीं करते हैं । (देवा - मुर-नाग-जक्ख સમસ્ત કર્મોના ક્ષય થવાથી તેમના સંચાગથી આપાદિત મૂર્તિત્વનું તરત જ પવસાન જીવમાં થઈ જાય છે તેથી અમૃતિ ત્વરૂપ પેાતાના સ્વભાવનું પ્રાચ થવાથી તેનુ અવ્યાબાધરૂપથી અવસ્થાન થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે—સમસ્ત કર્માનુ... વિગમ એજ મેાક્ષ છે, અને એજ જીવનું શુદ્ધ સ્વરૂપ છે. આ સ્વરૂપને પ્રાપ્ત થતાં જ જીવતું અવસ્થાન આવ્યાબાધ રૂપથી આત્મામાં થઇ लय छे. 'असाहाय्या' छे अर्थात् धर्म थी उत्पन्न थता सामर्थ्यना अतिशयथी દેવ આફ્રિકાની સહાયતાની સ્વપ્નમાં પણ ઈચ્છા રાખતા નથી. અથવા પેાતાના દ્વારા કરાયેલાં શુભ અશુભ કર્મ આત્મા પોતે જ ભાગવે છે, ખીજાની સહા એમાં કામ આવી શકતી નથી. આ પ્રકારની માનસિક દૃઢતાના કારણે જે ખીજાની સહાયતાની જરા પણ પરવાહ श्र्रता नथी. ( देवा - सुर-नागजक्ख - रक्खस - किंनर - किंपुरिस - गरुल - गंधव्व - महोरगाइएहिं देवगणेहिं निमांथाओ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० औपपातिक जक्ख- रक्खस- किन्नर - किंपुरिस - गरुल- गंधव्त्र - महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिजा, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिक्कंखिया निव्वितिगिच्छा लट्ठा गहिया किंनर - किंपुरुष - गरुड - गन्धर्व - महोरगादिकैःकैः - तत्र देवाः = वैमानिकाः असुरा:--असुरकुमाराः, नागाः=नागकुमाराः, असुरा नागा इमे उभये भवनपतयः; यक्षाः राक्षसाः किंनराः किंपुरुषाः - एते चत्वारो व्यन्तरविशेषाः, गरुडाः गरुडध्वजाः सुपर्णकुमाराः भवनपतिविशेषाः, गन्धर्वाः महोरगाव व्यन्तरविशेषाः, तत्प्रभृतिभिः देवगणैः ' निग्गंथाओ पावयणाओ' नैर्ग्रन्थात् प्रवचनात् ' अणइक्कमणिज्जा' अनतिक्रमणीयाः = अचालनीयाःनिर्ग्रन्थप्रवचनात् तान् चालयितुं देवादयोऽप्यसमर्था इति भावः । ' निग्गंथे पावयणे ' नैर्ग्रन्थे प्रवचने ' निस्संकिया ' निःशङ्किताः = शङ्कारहिताः, 'निक्कंखिया ' निष्काङ्क्षिताः= परमतानभिलाषिणः, ' निव्वितिमिच्छा' निर्विचिकित्साः - फलं प्रति संदेहवर्जिताः, 'लद्धड्डा ' लब्धार्थाः - अर्थश्रवणात्, 'गहियट्ठा ' गृहीतार्थाः - अर्थावधारणात्, 'पुच्छि - रक्खस- किंनर - किंपुरिस - गरुल- गंधव्त्र - महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयाओ अइकमणिज्जा) देव, असुरकुमार, नागकुमार, यक्ष, राक्षस, किंनर, किंपुरुष, गरुड, सुपर्णकुमार, गन्धर्व एवं महोरग इत्यादिक देवगणों द्वारा भी जो निर्ग्रन्थ प्रवचन से एक बाल भी विचलित नहीं किये जा सकते हैं, (निग्गंथे पावयणे णिस्संकिया किंखिया णिव्वितिमिच्छा लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा) निर्ग्रन्थप्रवचन में जिनकी श्रद्धा निःशंकित है, निष्कांक्षित है- परमत की ओर जिनके हृदय में जाने की अथवा उसे सराहने आदि की थोड़ी सी भी अभिलाषा नहीं है, निर्विचिकित्सागुण से जो भरपूर हैं, फल के प्रति जिनकी श्रद्धा संदेह से सर्वथा रिक्त है, जो लब्धार्थ हैं, गृहीतार्थ 4 - पावणयाओ अणइक्कम णिज्जा ) हेव, मसुरडुभार, नागडुभार, यक्ष, राक्षस, डिनर, छिंयुरुष, गरुड, सुपर्णा कुमार, गंधर्व तेभन महोरग त्या हि देवગણેા દ્વારા પણ જે નિગ્રંથ પ્રવચન વડે એક વાળ જેટલા પણ વિચલિત उरी शाता नथी, ( निम्गंथे पायवणे णिस्संकिया, णिक्कंखिया णिव्वितिगिच्छा लट्ठा गहिट्ठा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा ) निर्ऋन्थ अवयनमां नेभनी श्रद्धा नि:શકિત છે, કાંક્ષા વગરના છે—પરમતની તરફ જવાની જેમના હૃદયમાં અભિલાષા જરા પણ નથી, અથવા પરમતની પ્રશ'સા આદિ કરવાની કિંચિત પણ અભિલાષા નથી, નિવિચિકિત્સા-ગુણથી જે ભરપૂર છે. ફળના તરફ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू.६३ अल्पारम्भादिमनुष्यविषये भगवदगौतमयोःसंवादः६५१ पुच्छियहाअभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा अहि-मिंज-पेमा-णुरागरत्ता,अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अढे, अयं परमहे, सेसं अणडे, ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तं-तेउर-घरप्पवेसा बहूहिं यद्वा' पृष्टार्थाः-संदिग्धार्थस्य प्रश्नकरणात् , 'अभिगया' अभिगतार्थाः-पृष्टार्थस्याभिगमात् 'विणिच्छियहा' विनिश्चितार्थाः-पदार्थानां विनिश्चयात्, 'अहि-मिंज-पेमाणुराग-रत्ता' अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्ताः अस्थीनि='हड्डी' इति प्रसिद्धानि, मजा-अस्नां मध्यगतो धातुविशेषः, तासु अस्थिमज्जासु प्रवचनस्य प्रेमानुरागेण प्रेमरूपेणानुरागेण रक्ता ये ते तथा, ते श्रावकाः पुत्रादीन् संबोध्य वदन्ति 'अयमाउसो' इत्यादि । इदं हे आयुष्मन् ! 'निग्गंथे पावयणे' नैर्ग्रन्थं प्रचनम् , 'अहे' अर्थः मोक्षस्य कारणम् , अतएव-'अयं परमट्टे इदं परमार्थः सारभूतः, ‘सेसे अणटे' शेषमनर्थम्-शेष-नैर्ग्रन्थप्रवचनभिन्नं कुप्रवचनं धनधान्यपुत्रकलत्रादिकं च अनर्थ व्यर्थम् , 'ऊसियफलिहा' उच्छ्रितस्फटिकाः-उच्छितम् उन्नतं स्फटिक स्फटिकमिव चित्तं येषां ते तथा, स्फटिकवनिर्मलहृदया इत्यर्थः; हैं, पृष्टार्थ हैं, अभिगतार्थ हैं, (विणिच्छियट्ठा) विनिश्चितार्थ हैं, (अहि-मिज-पेमा-णुरागरत्ता) प्रवचन के प्रति अनुराग जिनकी नश-नश में भरा हुआ है । ऐसे ये श्रावक जन वार्तालाप के प्रसंग में अपने २ पुत्रादिकों को अथवा अन्यजनों को इस प्रकार कह कर समझाते-बुझाते हैं-(अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अटे अयं परमढे सेसे अणहे) हे आयुष्मन् ! यह निम्रन्थ प्रवचन ही मोक्ष का कारण है इसलिए यही परमार्थभूत है । इससे भिन्न जो कुप्रवचन है-मिथ्यादृष्टियों द्वारा उपदिष्ट प्रवचन है वह, तथा धन, धान्य, पुत्र एवं कलत्रादि, अनर्थ के कारण हैं। इन व्यक्तियों का (ऊसियफलिहा) हृदय स्फटिक જેમની અસંદિગ્ધ શ્રદ્ધા છે, જે લબ્ધાર્થ છે, ગૃહીતાર્થ છે, પૃષ્ટાર્થ છે, અભિ वार्थ छ, (विणिच्छियदा) विनिश्चिार्थ छे, (अद्वि-मिंज-पेमा-गुराग-रत्ता) જેની નસે–નસમાં પ્રવચન પ્રતિ અનુરાગ ભરેલો હોય છે. એવા એ શ્રાવક જન વાર્તાલાપના પ્રસંગમાં પિતપોતાના પુત્રાદિકને અથવા બીજા લોકોને मा मारे ४डीने समनवे-मुआवे छ-(अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अद्वे, अयं परमटे, सेसे अणद्वे) उ मायुभन् ! म नियन्य प्रयन भोक्ष ४१२९५ છે. માટે એજ પરમાર્થભૂત છે. તેનાથી બીજા જે કાંઈ પ્રવચન છે તે મિથ્યાદષ્ટિએ દ્વારા ઉપદેશાયેલાં પ્રવચન છે, તે, તથા ધન, ધાન્ય, પુત્ર તેમજ કલત્ર माल, मन ना ४१२६५ छ. २॥ व्यतिमान ४५ (ऊसियफलिहा ) २३टि४ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ औपपातिकसूत्रे सील-व्वय-गुण-वेरमण-पञ्चक्खाण-पोसहो-ववासेहिं चउद्दसट्टमुदिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेत्ता 'अवंगुयदुवारा ' अपावृतद्वाराः दानार्थमर्थिभ्य उद्घाटितद्वारा इत्यर्थः, 'अवंगुय' इति देशीयः शब्दः, 'चियत्तंतेउरघरप्पवेसा' त्यक्तान्तःपुरगृहप्रवेशाः-त्यक्तः-प्रीत्या प्रदत्तः, अन्तःपुरे वा गृहे वा प्रवेशो येषां ते तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीया इत्यर्थः। ते कथंभूता विहरन्तीत्याह-' चउद्दस-द्वमु-दिव-पुण्णमासिणीसु' चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टापौर्णमासीषु 'बहूहि' बहुभिः, 'सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्रवाण-पोसहो-ववासेहिं' शील-व्रत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यान-पोषधो-पवासैः-अस्य व्याख्याऽत्रैवोत्तरार्धे त्रिषष्टितमे सूत्रेऽवलोकनीया । चतुर्दश्यष्टम्युदिष्टापौर्णमासीपु-इह-'उहिष्टा' इत्यनेन अमावास्या गृह्यते । मणि के समान निर्मल रहा करता है । (अवंगुयदुवारा) इनके धर के दरबाजे सदा दानके लिये खुले रहा करते हैं, (चियत्तं-तेउर-घर-पवेसा) राजा के अंतःपुर में भी इनको आने-जाने की कोई भी रोक-टोक नहीं होती है । (बहूहिं सील-यय-गुण-वेरमणपञ्चक्खाण-पोसहोववासेहिं चउद्दसटुमुदिट्ठपुण्णमासिणीसु) 'शील' शब्द से सामायिक, देशावकाशिक, पोषध, अतिथिसंविभाग ये चार लिये जाते हैं। 'व्रत' से पांच अणुव्रत, गुण से तीन गुणव्रत लिये जाते हैं। विरमण-मिथ्यात्व से निवृत्त होना, प्रत्याख्यान-पर्वदिनों में निषिद्धवस्तुका त्याग करना । पोषधोपबास-(पोषं धत्ते) इस व्युत्पत्ति से धर्म की वृद्धि को जो करता है वह पोषध कहलाता है, अर्थात् चतुर्दशी, अमावास्या, अष्टमी, पूर्णिमा, ये पोषध कहलाते हैं; इन पर्वदिनों में आहार, शरीरसत्कार, अब्रह्मचर्य, और सावधव्यापार इन चारों मणिना २i निमण २॥ ४२ छ, (अवंगुयदुवारा ) तमना ५२ना ४२वात सहा हान भाटे घा. २॥ ४२ छ. (चियत्तंतेउरघरप्पवेसा) २011 अत:પુરમાં પણ તેમને આવવા-જવાની કોઈ પણ જાતની રેક-ટેક થતી નથી, (बहूहिं सील-वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं चउद्दसमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु) '१६' शथी सामायि, देशावशि४, पोषध, मतिथिसवि. मासमे या२ समपान छे. 'प्रत'थी पाय मानत, 'गुथी त्रए गुरुવ્રત લેવાનાં છે, વિરમણ-મિથ્યાત્વથી નિવૃત્ત થવું, પ્રત્યાખ્યાન-પર્વના દિવसोमा निषिद्ध स्तुनी त्या ४२वो. पोषधोपवास(पोषं धत्ते) मा व्युत्पत्तिथी ધર્મની વૃદ્ધિને જે કરે છે તે પિષધ કહેવાય છે, અર્થાત્ ચતુર્દશી, અમવાસ્યા, અષ્ટમી, પૂર્ણિમા, એ પિષધ કહેવાય છે. આ દિવસોમાં–પર્વદિવસોમાં આહા૨, શરીરસત્કાર, અબ્રહ્મચર્ય અને સાવઘવ્યાપાર એ ચારેયને ત્યાગ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका सू.६३ अल्पारम्भादिमनुष्य विषये भगवदगौतमयोःसंवादः६५३ समणे निग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणंओसहभेसजेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति, विहचतुर्दश्यादिषु तिथिषु 'पडिपुण्णं' प्रतिपूर्ण पोसह ' पोषधं, ' सम्म' सम्यक् 'अणुपालेत्ता' अनुपाल्यः ‘समणे निग्गंथे' श्रमणान् निर्ग्रन्थान् ‘फासुएसणिज्जेणं' प्रासुकैषणीयेन, 'असण-पाण-खाइम-साइमेणं' अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन, 'वत्यपडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं' वस्त्रपतद्ग्रहकम्बलपादप्रोञ्छनेन, तत्र पतद्ग्रहः पात्रं, पादप्रोञ्छनं-रजोहरणम् , 'ओसहभेसज्जेणं' औषधभैषज्येन 'पाडिहारिएण य पीढफलग-सेजा-संथारएणं' प्रातिहारिकेण च पीठफलकशय्यासंस्तारकेग-तत्र पीठम् = आसनं, फलकम् अवष्टम्भनफलकं, शय्या वसतिः, यद्वा बृहत्संस्तारक;, संस्तारकः लघुतरः, एषां समाहारद्वन्द्वः, ततस्तेन, 'पडिलाभेमाणा' प्रतिलम्भयन्तः ददतः, 'विहरंति' का त्याग करना पोषधोपवास है; इस तरह बारह प्रकार के श्रावक धर्म को (सम्म अणुपालेत्ता) अच्छी तरह पालन करते हैं । (समणे निग्गंथे) श्रमणनिम्रन्थों को (फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं) प्रासुक-एषणीय अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य ऐसे चारों प्रकार के आहारों से (वस्थ-परिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं) एवं वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, औषध, (पाडिहारिएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलामेमाणा विहरंति) एवं प्रातिहारिक (पडिहारा) पीठ (बाजोट) फलक (पाट) शय्या (वसति) और संस्तारक आदि से, मुनियों को प्रतिलाभित करते हुए विचरते हैं, अर्थात् उन्हें इन पूर्वोक्त वस्तुओं को आवश्यकतानुसार प्रदान करते हैं, (विहरित्ता भत्तं ४२३॥ ते पोषधोपवास छ. २॥ शत मा२ ५४२i श्रा१४ भने ( सम्म अणुपालेत्ता) सारी ते पालन ४२ छ. (समणे निग्गंथे ) श्रम निर्थ थाने (फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइण-साइमेणं) प्रासु-मेषणीय मशन, पान, भाध तथा स्वाध सेवा न्यारेय प्रा२ना माहारथी, (वत्थ-परिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं) तेमन वस्त्र, पात्र, ५, २०२, मौषध, लेष४, (पाडिहारिएण य पीठ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति) तभ०४ प्रातिरि४ (पउिडा२१) पी8 (माले) ३१४-५८, शय्या (वसति) मने सस्ताરક આદિથી મુનિને પ્રતિલાભિત કરતા વિચરે છે, અર્થાત્ તેઓ આ ઉપર ४९सी वस्तुमाने मावश्या प्रमाणे महान ४रे छे. (विहरित्ता भत्तं पच्चक्रांति) Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ औपपातिक रित्ता भत्तं पच्चक्खंति, ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति, छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवति, तर्हि तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाई ठिई, आराहगा, सेसं तहेव ॥ सू० ६३ ॥ " विहरन्ति, ' विहरिता' विहृत्य ' भत्तं पच्चक्खति ' भक्तं प्रत्याख्यान्ति = परित्यजन्ति, 'अणसणाए छेदेंति' अनशनया छिन्दन्ति, ' छेइता ' छित्त्वा ' आलोइयपडिकंता ' आलोचितप्रतिक्रान्ताः, ' समाहिपत्ता ' समाधिप्राप्ताः, ' कालमासे' कालमासे ' कालं किच्चा ' कालं कृत्वा ' उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे ' उत्कर्षतोऽच्युते कल्पे ' देवत्ताए उबवत्तारो भवंति ' देवत्वेन उपपत्तारो भवन्ति । ' तहिं तेसिं गई' तत्र तेषां गतिः, 'बावीस सागरोवमाई ठिई ' द्वाविंशतिं सागरोपमानि स्थितिः, 'आराहगा ' आराधकाः, ' सेसं तहेव ' शेषं तथैव ॥ सू० ६३ ॥ 6 पञ्चक्खंति) पश्चात् अन्तिम समय में भक्तप्रत्याख्यान करते हैं, (ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति) वे अनेक भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करते हैं, (छेदित्ता आलोइयपडिकंता सामाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा ) छेदन कर अपने पापस्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके वे समाधिसहित काल अवसर में काल कर (उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ता उत्तारो भवति) जघन्य पहले देवलोक उत्कृष्ट बारहवें देवलोक अच्युतकल्प में देवपर्याय से उत्पन्न होते हैं । (तर्हि तेसिं गई, बावीसं सागरोवाई ठिई, आरहगा, सेसं तहेव) प्रथम देवलोक में इनकी उत्कृष्ट दो सागरोपम और बारहवें देवलोक पछी संतसमये लस्त-प्रत्याच्यान रे छे. (ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति) तेथेो मने लङतोनुं अनशन द्वारा छेटुन उरे छे. (छेदित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा) छेढन उरीने पोतानां पायस्थानानी આલેાચના તેમજ પ્રતિક્રમણ કરીને તેઓ સમાધિ–સહિત કાલ અવસરમાં કાલ ४ने (उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति ) ४धन्य पडेला देवલાક, ઉત્કૃષ્ટ ખારમા દેવલે અચ્યુત કલ્પમાં દેવપર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે. ( तहिं तेसिं गई, बावीसं सागरोवमाई ठिई, आराहगा, सेसं तहेव ) प्रथम દેવલાકમાં તેમની ઉત્કૃષ્ટ એ સાગરોપમ અને ખારમા દેવàાકમાં ઉત્કૃષ્ટ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी-टीका सू.६४ अनारम्भादिमनुष्यविषयेभगवद्गौतमयो:संवाद:६५५ ..मूलम् से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया • भवंति, तं जहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया जाव कप्पेमाणा ... टीका–से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे गमागर जाव सण्णिवेसेसु' अथ य इमे ग्रामाऽऽकर यावत् सन्निवेशेषु 'मणुया भवंति ' मनुजा भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया जाव कप्पेमाणा' अनारभ्भाः अपरिप्रहा धार्मिका यावत् कल्पयन्तः, अत्र-यावच्छब्देन 'धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई,धम्मप्पलोई, धम्मपलज्जणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेणं चेव वित्तिं' धर्मानुगा धर्मिष्ठा धर्माख्यायिनो धर्मप्रलोकिनो धर्मप्ररञ्जना धर्मसमुदाचारा धर्मणैव वृत्तिम्-इति पाठो में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम स्थिति कही गयी है । अवशिष्ट पहले के समान समझना चाहिये ॥ सू. ६३ ॥ . से जे इमे' इत्यादि । (से जे इमे) जो ये (गामागर जाव सण्णिवेसेसु) ग्राम आकर आदि निवास स्थानों से लेकर सन्निवेश तक के निवासस्थानों में (मणुया भवंति) मनुष्य निवास करते हैं और उनमें जो कई एक मनुष्य (साहू) साधु होते हैं वे (अणारंभा) आरंभ से रहित होते हैं, (अपरिग्गहा) परिग्रहवर्जित होते हैं, (धम्मिया) धार्मिक होते हैं, (जाव धम्मेणेव वित्तिं कप्पेमाणा) एवं निर्दोष भिक्षा से अपनी संयमयात्रा का निर्वाह करते हैं। यहाँ 'जाव' शब्द से “धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई, धम्मपलोई, धम्मपलज्जणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेणं चेव वित्तिं " इस पाठ का ग्रहण हुआ है । इसकी બાવીસ સાગરેપમ સ્થિતિ કહેવાય છે. બાકી બધું પહેલાં પ્રમાણે સમજવું न . (सू. १३) से जे इमे' इत्यादि. (से जे इमे ) तमोरे (गामागर जाव सण्णिवेसेसु ) म मा४२ मत निवासस्थानायी साधन सन्निवेश सुधीनां निवासस्थानामा (मणुया भवंति) मनुष्य निवास ४२ छ भने तभा २ मामे मनुष्य (साहू) साधु राय छ त। (अणारंभा) माथी २हित डाय छ, (अप्पपरिम्गहा) परिपात डाय छ, (धम्मिया) पनि य छे. (जाव धम्मेणेव वित्तिं कप्पेमाणा) मा निहोष-मिक्षा पोतानी संयमयात्रानो निवड ४२ छे. मडी 'जाप' शथी "धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाई, धम्मपलोई, धम्मपलज्जणा, धम्मसमुदायारा, धम्मेणं चेव वित्ति' मा पाइने अड ४२वामा मान्य छे. मानी व्याभ्या Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ औपपातिकसूत्रे सुसीला सुव्वया सुपडियाणंदा साहू सव्वाओ पाणाड़वायाओ पडिविरया जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया, सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ जाव मिच्छादंसणसल्लाओ ऽनुसन्धेयः । सर्वेषां व्याख्याऽत्रैव द्विषष्टितमे सूत्रे गताः । नवरं - धर्मेणैव वृत्तिं कल्पयन्तः-निरवद्यभिक्षया संयमयात्रारूपां वृत्ति निर्वहन्तः इत्यर्थो बोध्यः । शेषपदानामपि व्याख्या तस्मिन्नेव सूत्रे कृताऽस्माभिः । 'मुसीला सुब्वया' सुशीलाः सुव्रताः 'सुपडियाणंदा' सुप्रत्यानन्दाः - सुष्ठु प्रत्यानन्दचित्ताहादो येषां ते तथा, आज्ञाविचयधर्मध्यानानन्दयुक्ताः साहू ' साधवः, ' सव्वाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया' सर्वस्मात् प्राणातिपातात्प्रतिविरता यावत्सर्वस्मात् परिग्रहात्प्रतिविरताः, 'सव्वाओ कोहाओ माणाओ लोभाओ जाव मिच्छादंसण सल्लाओ पडिविरया ' सर्वस्मात् क्रोधान्मानान्मायाया लोभाद् यावन्मिथ्यादर्शनशल्यात्प्रतिविरताः, ' साओ आरं 6 व्याख्या इसी उत्तरार्ध के बासठवें (६२) सूत्र में की जा चुकी है। (सुसीला) ये सुशील तथा (सुब्वया) निर्दोष रीति से व्रतों की आराधना करने वाले होते हैं । (सुपडियाणंदा) आज्ञाविचयनामक धर्मध्यान के ध्याने से इनका चित्त सदा अह्लादयुक्त बना रहता है। ये सब (सव्वा पाणावायाओ पडिविरया) सर्व प्रकार के प्राणातिपात से विरत रहते हैं, (जाव सव्त्राओ परिग्गहाओ पडिविरया) यावत् समस्त परिग्रह से विरक्त रहा करते हैं, (सव्वाओ कोहाओ) समस्त प्रकार के क्रोध से, (माणाओ) मान से, (मायाओ) माया से, (लोहाओ) लोभ से, (जाव मिच्छादंसणसल्लाओ) यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से, (डिविया) विरक्त रहा करते हैं, (सव्वाओ आरंभससमारंभाओ पडिरिया) समस्त या आगमना उत्तरार्धना यास (१२) मां सूत्रमा वामां आवी छे. (नुसीला) सुशील तथा (सुव्वया) निर्दोष रीतिथी व्रतानी आराधना કરવાવાળ હોય छे. (सुपडियाणंदा) मज्ञावियय नामना धर्मध्यान व्याववाथी तेमनां थित्त सहा मान ही जवां रहे छे. ते मघा (सव्वाओ पाणाइवायाओ पडिविरया) सर्व अमरना प्रातियातथी विरस्त रहे छे. (जाव सव्वाओ परिग्गहाओ पडिविरया) तेभन समस्त परिग्रहथी विरक्त रह्या उरे छे. (सव्वाओ कोहाओ) समस्त प्रहारना डोधथी, (माणाओ ) भानथी, (मायाओ) भायाथी, (लोहाओ) बोलथी, (जाब मिच्छादंसण सल्लाओ ) तेभन मिथ्यादर्शन शक्ष्यथी (पडिविरया ) विस्त २ह्या रे छे. (सव्वाओ आरंभ-समारंभाओ पडिविरया) समस्त आरंभसभा Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूपवर्षिणी- टोका सू.६४ अनारम्भादिमनुष्य विषये भगवद्गीतमयोः संपाद:६५७ पडिविरया, सव्वाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया, सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया, सव्वाओ पयणपयावणाओ पडिविरया, सव्वाओ कोट्टण-पिट्टण-तजण-तालण-वह-बंधकिलेसाओ पडिविरया, सव्वाओ पहाण-मद्दण-वण्णग-विलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया, भसमारंभाओ पडिविरया' सर्वस्मादारम्भसमारम्भात्प्रतिविरताः 'सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया' सर्वस्मात्करणकारणात्प्रतिविरताः, 'सव्वाओ पयणपयाणवाओ पडिविरया' सर्वस्मात्पचनपाचनात्प्रतिविरताः, 'सव्वाओ कुट्टण-पिट्टण-तज्जणतालण-वह-बंध-परिकिलेसाओ पडिविरया' सर्वस्मात्कुट्टन-पिट्टन-तर्जन-ताडनवध-बन्ध-परिक्लेशात्प्रतिविरताः, 'सव्वाओ ण्हाण-महण-वण्णग-विलेवण-सहफरिस-रस-रूव-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया' सर्वस्मात् स्नान-मर्दन–वर्णकविलेपन-शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्ध-माल्याऽ-लङ्कारात्प्रतिविरताः, तथा 'जे यावण्णे आरंभसमारंभ से प्रतिविरत होते हैं, (सव्याओ करणकारावणाओ पडिविरया) समस्त करण एवं करावणसे-करने-कराने से विरक्त होते हैं, (सव्याओ पयणापयावणाओ पडिविरया) सर्व प्रकार की पचन एवं पाचन क्रिया से प्रतिविरत होते हैं, (सव्वाओ कोट्टणपिट्टण-तज्जण-तालण-चह-बंध-परिकिलेसाओ पडिविरया) समस्त प्रकार के कुट्टण, पिट्टण, तर्जन, ताडन, वध, बंध, परिक्लेश से विरक्त होते हैं, (सव्वाओ ण्हाण-मद्दणवण्णग-विलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया) संपूर्ण स्नान, मदन, वर्णक, विलेपन, शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श, माल्य एवं अलंकारों से रहित थी प्रतिवि२४त डाय छे. (सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया) समस्त ४२६१ तमा ४२सपथा-४२११-२ववाथी वि२४त डाय छे. (सव्वाओ पयणपयावणाओ पडिविरया) सर्वप्रा२नी पयन तभ०४ पायन जियाथी वि डाय छे. (सव्वाओ कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बंध-परिकिलेसाओ पडिविरया) સમસ્ત પ્રકારના કુકણ, પિટ્ટણ, તર્જન, તાડન, વધ, બંધ, પરિકલેશથી વિરકત હોય छ. ( सव्वाओ ण्हाण-मदण-वण्णग-विलेवण-सह-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्ला-लंकाराओ पडिविरया) से पूर्ण स्नान, मन, व, विवेपन, श०४, २५, २स, Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे जे यावण्णे तहप्पगारा सावजजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कजंति तओ वि पडिविरया जावजीवाए ॥ सू० ६४ ॥ मूलम् से जहानामए अणगारा भवंति- ईरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति ॥ सू०६५॥ तहप्पगारा' ये यावन्तस्तथाप्रकाराः, 'सावज्जजोगोवहिया' सावद्ययोगौपधिकाः-सावद्ययोगाः=सावद्ययोगयुक्ताश्च ते औपधिकाः मायाप्रयोजनाश्चेति तथा, 'परपाणपरियावणकरा' परप्राणपरितापनकराः, 'कम्मंता' कमीशाः व्यापारांशाः ‘कजंति' क्रियन्ते ' तो वि पडिविरया जावज्जीवाए' ततोऽपि प्रतिविरता यावजीवम् ॥ सू.६४॥ टीका-' से जहानामए' इत्यादि। ' से जहानामए अणगारा भवंति ' अथ यथानाम केचित् अनगारा भवन्ति; कीदृशास्तेऽनगाराः ? इत्याह 'ईरियासमिया' ईर्यासहोते हैं, (जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कज्जति तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए) तथा इसी प्रकार के और भी जो सावद्ययोगवाले मायाकषायजनित कार्य हैं कि जिनमें प्राणियों के प्राणों को परिताप जन्य कष्ट भोगना पड़ता है उन सब से ये प्रतिविरत होते हैं । सू. ६४ ॥ ‘से जहानामए' इत्यादि । (से जहानामए अणगारा भवंति) ये जो अनगार होते हैं, वे ( ईरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति) ईर्यासमिति, भाषा३५, मध, भासा तभ०४ २४थी रहित डाय छे. (जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता पर-पाण-परियावण-करा कज्जंति तओ वि पडिविरया. जावज्जीवाए) तथा से प्रधान मीonyy सावधयोmi माया पायनित કાર્ય છે કે જેમાં પ્રાણિયેના પ્રાણોને પરિતાપજનિત કષ્ટ ભોગવવા પડે છે, तेवi wधा आयोथी तमा वि२४ जाय छे. (सू. ६४) ‘से जहानामए ' त्याहि. (से जहानामए अणगारा भवंति) - सनगार राय छ, तमा (ईरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव निगथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति) ध्यासमिति, Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टी.सू.६५-६६ईर्यासमित्यदियुक्तसाधुविषयेभगवद्गौतमयोःसंवादः६५९ मूलम्-तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं अत्थेगइयाणं अणंते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ। ते बहुइं वासाइं केवलिपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता भत्तं पच्चमिताः गमनागमनादिषु समितियुक्ताः ‘भासासमिया' भाषासमिताः सन्तः, यावच्छब्दाद् गुप्तिगुप्ताः इति दृश्यम् ; 'इणमेव' इदमेव ‘णिग्गंथं पावयणं ' नैर्ग्रन्थं प्रवचनं 'पुरओकाउं' पुरस्कृत्य-प्रधानीकृत्य 'विहरंति' विहरन्ति । सू० ६५ ॥ टीका- तेसि णं' इत्यादि । 'तेसि णं भगवंताणं तेषां खलु भगवताम् अनगारभगवताम् 'एएणं' एतेन पूर्वोक्तेन 'विहारेणं विहरमाणाणं' विहारेण विहरताम् ' अत्थेगइयाणं' अस्त्येकेषाम् , 'अणंते' अनन्तम् अन्तरहितं 'जाव' यावत् 'केवळवरणाणदंसणे' केवलवरज्ञानदर्शनं 'समुप्पज्जइ ' समुत्पद्यते=अचिरेण प्रादुर्भवति । 'ते बहूई वासाइं ' ते अनगारा भगवन्तो बहूनि वर्षाणि ' केवलिपरियायं ' केवलिपर्यायं समिति आदि समितियों को तथा तीन गुप्तियों को पालन करते हैं । एवं इन समस्त क्रियास्वरूप जो निर्ग्रन्थप्रवचन है उसके अनुसार ही अपनी समस्त प्रवृत्ति चलाते हैं। सू. ६५ ॥ __ 'तेसिं णं भगवंताणं' इत्यादि। (तेसिं णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं) इस प्रकार के इन अनगार भगवन्तों में जो निम्रन्थ प्रवचन को आगे करके विचरते हैं, (अत्थेगइयाणं) उन में से कितनेक अनगार भगवन्तों को (अणंते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ) अनंत केवलज्ञान एवं अनंत केवलदर्शन उत्पन्न होता है । (ते बहूइं वासाइं केवलिपरियागं पाउणंति) वे इसी पर्याय में बहुत वर्षों तक इस पृथ्वीमंडल को पावन करते हैं, ભાષાસમિતિ આદિ સમિતિઓનું તથા ત્રણ ગુપ્તિઓનું પાલન કરે છે. તેમજ સમસ્ત ક્રિયાસ્વરૂપ જે નિર્ચન્જ પ્રવચન છે તેને અનુસરીને જ પિતાની समस्त प्रवृत्तिमा यसावे छे. (सू. ६५) 'तेसिं णं भगवंताणं, त्याहि.. (तेसिं णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं) प्रारना । सन॥२ भगवानोमा के निधन्य प्रक्यनने भुज्य ४शन वियरे छे, (अत्थेगइयाण) तमाथी टा४ मन॥२ भगवानाने (अणंते जाव केवल-वर-नाणदसणे समुप्पज्जइ) मनात उशान तभ०४ मन उ न पन्त थाय छे. (ते बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणंति) ते॥ २॥ ४ पर्यायमा घgi Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपणतिकसत्रे क्खंति, पञ्चक्खित्ता बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदंति, छेदित्ता जस्सहाए कीरइ नग्गभावे जाव अंतं करंति ॥ सू० ६६॥ मूलम्-जेसि पि य णं एगइयाणं णो केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ ते बहूइं वासाइं छउमत्थपरियागं पाउणंति, 'पाउणंति' पालयन्ति, 'पाणित्ता' पालयित्वा, ‘भत्तं पच्चक्रांति' भक्तं प्रत्याख्यान्ति, 'भत्तं पञ्चक्वित्ता' भक्तं प्रत्याख्याय 'बहूई' बहूनि 'भत्ताइं अणसणाए' भक्तानि अनशनया 'छेदंति' छिन्दन्ति, 'छेदित्ता' छित्त्वा ‘जस्सद्वाए । यस्मै अर्थाय 'कीरइ' क्रियते 'नग्गभावो' नग्नभावः आकिश्चन्यं क्रियते इत्यन्वयः, 'जाव अंतं' यावत्-सर्वदुःखनामन्तं करंति' कुर्वन्ति ॥ सू० ६६ ॥ 'जेसि पि य णं' इत्यादि । 'जेसि पि य णं एगइयाणं णो केवलवरनाणदंसणे समुपज्जइ ' येषामपि च खलु एकेषां नो केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पद्यते= (पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खंति) इस पर्याय को प्राप्त कर वे भक्त का प्रत्याख्यान कर देते हैं । (पञ्चक्खित्ता बहुई भत्ताई अणसणाए छेदंति) प्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों का अनशन द्वारा छेदन कर देते हैं । (छेदित्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव अंतं करेंति) छेदन करके जिस प्रयोजन के लिये नग्नभाव उन्होंने धारण किया था वे उस प्रयोजन को प्राप्त करते हैं, अर्थात् समस्त दुःखों का अंत करते हैं । सू. ६६ ॥ . 'जेसि पि य णं' इत्यादि। ___ (जेसि.पि य णं) इन साधुओं में से भी (एगइयाणं) जिन किन्हीं साधु मुनिराजों को (जो केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जइ) निर्मल केवलज्ञान एवं केवल दर्शन का १२सी सुधा मा पृथ्वीमने पावन ४२ छ. (पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खंति) मा पर्यायने प्रात ४शन सतप्रत्याभ्यान ४री हे छ. (पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदंति) प्रत्याध्यान ४शने मने मतोतुं मनशन द्वारा छेहन ४२ छ. (छेदित्ता जस्सद्वाए कीरइ नग्गभावे जाव अंत करेंति) छेदन કરીને જે પ્રયજન માટે નગ્નભાવ તેમણે ધારણ કરેલ હતું તે પ્રજનને पास ४२ छे, अर्थात् समस्त मानो मत ४२ छे. (सू. १६) 'जेसि पि य णं' त्याहि. (जेसि पि य ण) PAL साधुमामाथी प (एगइयाणं) साधु मुनि. रामेन (णो केवलवरनाणदसणे समुप्पज्जइ) निशान तेभर ३१ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , पीयूषषणी - टी. सू. ६७ईर्यासमित्यादियुक्तसाधुविषये भगवद् गौतमयोः संवादः ६६१ पाउणित्ता आबाहे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा भत्तं पच्चक्खंति । ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेंति, छेदित्ता जस्साए कीरइ नग्गभावे जाव तमट्ठमाराहित्ता चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं प्रादुर्भवति, ' ते बहूई वासाई' तेऽनगारा भगवन्तो बहूनि वर्षाणि छउमत्थपरियायं पाउणंति ' छद्मस्थपर्यायं पालयन्ति = छद्मस्थावस्थां पालयन्ति, ' पाउणित्ता ' पालयित्वा 'आबाहे ' आबाधायां = रोगादिबाधायाम् ' उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा उत्प नायां वा अनुत्पन्नायां वा सत्यां ' भत्तं पच्चक्खंति ' भक्तं प्रत्याख्यान्ति, ' ते बहूई भत्ता असणाए छेदेति ' ते बहूनि भक्तानि अनशनया छिन्दन्ति, 'छेदित्ता ' छित्त्वा ' जस्साए ' यस्मै अर्थाय ' कीरइ नग्गभावे ' क्रियते नग्नभावः - अकिञ्चन्यं क्रियते, 'जाव तमट्ठमाराहित्ता ' यावत् तमर्थमाराध्य, ' चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं ' चरमैरुच्छ्वासनिःश्वासैः ' अणंतं ' अनन्तम् = अन्तरहितम्, ' अणुत्तरं ' अनुत्तरम् = उत्कृष्टम्, लाभ शीघ्र नहीं होता है, (ते बहूई वासाई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता) वे अनगार भगवान् छमस्थ पर्याय को ही बहुत वर्षों तक पालते रहते हैं, (पाउणित्ता) और उस पर्याय के पालन करते २ भी यदि (आबा हे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा) किसी प्रकार की चाहे उन्हें रोगादिक बाधा उत्पन्न हो, चाहे न भी हो तो भी वे (भत्तं पच्चक्खंति) भक्तप्रत्याख्यान करते हैं । (ते बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदेति) वे अनेक भक्तों का अनशन द्वारा छेदन करते हैं, (छेदित्ता जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावे जाव तमट्ठमाराहित्ता ) छेदन करके उन्हों 6 जिस की प्राप्ति के लिये नग्नभाव धारण किया था, उस प्रयोजन की सिद्धि प्राप्त कर (चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं अनंतं अणुत्तरं णिव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं दर्शनन। सास सही भजतो नथी, ( ते बहूई वासाई छउमत्थपरियागं पाउणंति ) ते अनगार ભગવાન છદ્મસ્થપર્યાયનું જ ઘણાં વરસે। સુધી પાલન ४२ छे, ( पाउणित्ता ) अने ते पर्याय घासन उरतां तां पशु ले (आबाहे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे वा ) अ अारनी रोग आदिनी थीडा उत्पन्न थाय } थाडे न पाए। थाय तो पशु तेथे। ( भत्तं पच्चक्खंति ) लउतप्रत्याय्यान ४२ छे. ( ते बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदेंति) तेथे अने लड़तोनुं अनशनद्वारा छेहन पुरे छे. ( छेदित्ता जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावे जाव तमट्ठमाराहित्ता ) છેદન કરીને તેઓએ જેની પ્રાપ્તિ માટે નગ્નભાવ ધારણ કર્યાં હતા તે પ્રયાबननी सिद्धि प्राप्त अरीने ( चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं अनंतं अणुत्तरं णिव्वा Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्र अणंतं अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरनाणदंसणं उप्पादेंति, तओ पच्छा सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति ॥ सू० ६७॥ __ मूलम्--एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्वकम्मावसेसेणं 'निव्वाघायं । निर्व्याघातं सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टविषयेषु अप्रतिहतं, 'निरावरणं निरावरणं कर्मावरणरहितं ' कसिणं' कृत्स्नं सकलं, 'पडिपुण्णं' प्रतिपूर्ण संपूर्ण, 'केवलवरनाणदंसणं' केवलवरज्ञानदर्शनम् ' उप्पादेति' उत्पादयन्ति, ' तो पच्छा सिज्झिहिंति' ततः पश्चात् सेत्स्यन्ति, 'जाव अंत' यावत् अन्तं-सर्वदुःखानामन्तं 'करेहिति' करिष्यन्ति ॥ सू० ६७ ॥ 'एगच्चा' इत्यादि । 'एगच्चा' एकाऽर्चा:-एका=असाधारणगुणत्वात् अद्वितीयाकेवलवरनाणदंसणं उप्पादेंति) चरम उच्छ्वास-निःश्वासों में अन्तरहित, अनुपम, निर्व्याधात-सूक्ष्म, व्यवहित एवं विप्रकृष्ट विषय को हस्तामलकवत् जानने के लिये समर्थ, निरा. वरण-कर्मावरणरहित, कृत्स्न-सकल, एवं प्रतिपूर्ण-संपूर्ण केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उत्पत्ति से विशिष्ट हो जाते हैं । (तओ पच्छा सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति) इसके पश्चात् वे सिद्ध हो जाते हैं और उस अवस्था में उनके समस्त दुःखों का एवं उनके कारणभूत कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाता है ॥ सू० ६७॥ 'एगच्चा पुण' इत्यादि। इन अनगार भगवन्तों के बीच (एगे) कितनेक ऐसे भी अनगार भगवान होते घायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्ण केवलवरनाणदसणं उप्पादेंति) यम २०वासનિઃશ્વાસમાં અંતરહિત, અનુપમ, નિર્ચાઘાત–સૂક્ષ્મ, વ્યવહિત તેમજ વિપ્રકૃષ્ટ વિષયને હસ્તામલકવતું જાણવા માટે સમર્થ, નિરાવરણ-કર્માવરણરહિત, કુસ્ન–સકળ, તેમજ પરિપૂર્ણ-સંપૂર્ણકે વળજ્ઞાન તેમજ કેવળદર્શનની ઉત્પત્તિથી विशिष्ट 25 तय छे. (तओ पच्छा सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिति) त्यार પછી તેઓ સિદ્ધ થઈ જાય છે, અને તે અવસ્થામાં તેમનાં સમસ્ત દુઃખેને તેમજ તેમનાં કારણભૂત કર્મોને સર્વથા અભાવ થઈ જાય છે. (સૂ) ૬૭) 'एगच्चा पुण' त्याहि. - આ અનગાર ભગવન્તની વચમાં (ને) કેટલાક એવા પણ અનગાર Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स.६५ ईर्यासमितादि विषये भगवद् गौतमयोः संवादः ६६३ कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सव्वट्ठसिद्ध महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई, तेत्तीस सागरोक्माई ठिई, आराहगा, सेसं तं चेव ॥ सू०६८॥ मनुजभवभाविनी वा अर्चा=तनुर्येषां त एकार्चाः 'पुण' पुनः, अत्र पुनःशब्द उक्तार्थापेक्षया वैलक्षण्यद्योतनार्थः, 'एगे' एके-अन्ये तु 'भयंतारो' भक्तारः संयमसेविनः, 'भयंतारो' इत्यत्रानुस्वार आर्षत्वात् 'पुधकम्मावसेसेणं' पूर्वकर्मावशेषेण पूर्वकृतकर्मणामवशेषेण 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा-'उक्कोसेणं सचट्ठसिद्ध महाविमाणे उत्कर्षण सर्वार्थसिद्धे महाविमाने 'देवत्ताए' देवत्वेन 'उववत्तारो भवंति' उपपत्तारो भवन्ति उत्पद्यन्ते, 'तर्हि तेसिं गई तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई' तत्र तेषां गतिः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि स्थितिः। 'आराहगा' आराधकाः परलोकस्याऽऽराधकाः, 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव ।। सू.६८॥ हैं कि जिन्हें उसी भव से केवलज्ञान एवं केवलदर्शन का लाभ नहीं होता है तो ऐसे वे अनगार भगवान् (एगच्चा) एकभवावतारी होते हैं। ये (भयंतारो) संयम को आराधना करते २ ही (पुम्बकम्मावसेसेणं) पूर्वकर्म के अवशिष्ट होने के कारण (कालमासे कालं किच्चा). काल अवसर में काल कर (उक्कोसेणं) उत्कर्ष से (सबसिद्ध महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति) सर्वार्थसिद्ध नामके महाविमान में देवपर्याय से उत्पन्न हो जाते हैं। (तहिं तेसिं गई, ठिई तेत्तीस सागरोवमाइं) वहीं पर उनकी गति और स्थिति होती है। इनकी स्थिति वहाँ पर तेतीस सागर प्रमाण है। (आराहगा सेसं तं चेव) ये नियम से परलोक के आराधक होते हैं। अवशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये। सू. ६८॥ ભગવાન હોય છે કે જેમને તેજ ભવમાં કેવળજ્ઞાન તેમજ કેવળદર્શનને साल भगत नथी तो मेवा तमनार मवान (एगच्चा) सातारी डाय छे. ते (भयंतारो) संयमनी साराधना ४२i ४२di ar (पुव्वकम्मावसेसेणं) पूर्वमना माडी २९वान रणे (कालमासे कालं किच्चा) ४-मसरे ४८ ४रीने (उक्कोसेणं) ४ 43 (सव्वदसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति) सथिसिद्ध नामना मडाविमानमा हेवपर्याथी उत्पन्न थाय छे. ત્યાં તેમની ગતિ અને સ્થિતિ હોય છે. તેમની ત્યાં સ્થિતિ તેત્રીસ સાગર प्रभाय छे. (आराहगा सेसं तं चेव) तेस। नियमयी ५२४ मा२।५४ सोय छ, माडी मधु अ॥ प्रमाणे सभाध्ये . (सू. १८) Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ औपपातिकसूत्रे मूलम्-से जे इमे गमागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति, तं जहा-सव्वकामविरया सव्वरागविरया सव्वसंगातीता सव्वसिणेहाइकंता अक्कोहा निक्कोहा खीणकोहा एवं माण टीका-'से जे इमे' इत्यादि । 'से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति' अथ य इमे ग्रामाऽऽकर यावत् संनिवेशेषु मनुजा भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा 'सत्यकामविरया' सर्वकामविरताः- सर्वकामेभ्यः समस्तशब्दादिविषयेभ्यो विरताः= निवृत्ताः, शब्दादिविषयेषु वा विरता=विगतौत्सुक्याः, 'सबरागविरया' सर्वरागविरताःसर्वरागात्-समस्ताद् विषयाभिमुखहेतुभूताऽऽत्मपरिणामविशेषात् निवृत्ताः, 'सव्यसंगातोता' सर्वसङ्गाऽतीताः-सर्वसङ्गात् मातापित्रादिसम्बन्धादतीताः विनिर्गताः-सर्वसङ्गरहिता इत्यर्थः, 'सबसिणेहाइकता' सर्वस्नेहातिक्रान्ताः स्नेहरहिताः, 'अकोहा' अक्रोधाः, ' से जे इमे' इत्यादि। (से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु ) ये जो ग्राम आकर आदि से लेकर सन्निवेश तक के निवासस्थानों में (मणुया भवंति) मनुष्य रहते हैं, (तं जहा) जैसे (सबकामविरया सव्वरागविरया सव्यसंगातीता सव्वसिणेहाइकंता) जो समस्त शब्दादिक विषयों से निवृत्त हैं, अथवा शब्दादिक विषयों में जिन्हें उत्सुकता नहीं हैं, समस्त विषयों की ओर झुकाने वाले आत्माके रागरूप परिणाम से जो निवृत्त हैं, मातापिता आदि समस्त संबंधिजनों से अथवा समस्तप्रकार के परिग्रह से जो दूर हो चुके हैं, जिन्हों ने सम्पूर्णप्रकार का स्नेहभाव परिवर्जित कर दिया है । (अक्कोहा णिकोहा खीण ‘से जे इमे' त्याहि. (से जे इमे) २ २ (गामागर जाव सण्णिवेसेसु) ॥ २४२ साहिथी सधने सन्निवेश सुधीनां निवासस्थानामा (मणुया भवंति) मनुष्य २७ छ, (तं जहा) 243-( सव्वकामविरया सव्वरागविरया सव्वसंगातीता सव्वसिणेहाइक्कंता ) से समस्त शहाहि विषयोथी निवृत्त छ अथवा શબ્દાદિક વિષયમાં જેમને ઉત્સુકતા નથી હોતી, સમસ્ત વિષયની તરફ ખેંચવાવાળા આત્માના રાગરૂપ પરિણામથી જેઓ નિવૃત્ત છે, માતાપિતા આદિ સમસ્ત સંબંધી જનથી અથવા સમસ્ત પ્રકારના પરિગ્રહોથી જેઓ દૂર થઈ ગયેલા છે, જેઓએ સંપૂર્ણ પ્રકારના સ્નેહભાવને પરિવર્જિત કરી દીધેલ છે, (अक्कोहा णिक्कोहा खीणक्कोहा एवं माणमायालोहा ) भनी ओघ नष्ट ५४ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uttafort टीका सु. ६९ सर्वकामबिरतादिविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६६५ मायालोहा अणुपुव्वेणं अनुकम्मपयडीओ खवेता उप्पि लोगगाणा भवति ॥ सू० ६९ ॥ मूलम् - अणगारे णं भंते! भावियप्पा केवलिसमु 'णिक्कोहा' निष्क्रोधाः = कोधान्निष्क्रान्ताः, 'खीणकोहा' क्षीणक्रोधाः - क्रोधः क्षीणो येषां ते क्षीणक्रोधाः - मोहनीयकर्मणां क्षयीकरणात् क्षीणक्रोधमोहनीय कर्माणः, 'एवं माणमायालोहा ' एवं मानमायालोभाः=एवं क्षीणमानमायालोभाः, 'अणुपुव्वेणं' आनुपूर्व्या क्रमशो यथाबद्धम्, 'अकम्पयडीओ' अष्टकर्मप्रकृती: 'खवेत्ता' क्षपयित्वा 'उष्पिं लोयग्गपइद्वाणा' उपरि लोकाग्रप्रतिष्ठानाः–लोकाप्रावस्थिता 'भवंति' भवन्ति ॥ सू. ६९ ॥ टीका- 'अणगारे णं भंते' इत्यादि । 'अणगारे णं भंते !' अनगारः खलु हे भदन्त ! ‘भावियप्पा ' भावितात्मा = कृताऽऽत्मसाक्षात्कारः, 'केवलिसमुग्धारणं' केवलि कोहा एवं माणमायालोहा ) जिनका क्रोध नष्ट हो गया है, अत एव जो निष्क्रोध हैं, मोहनीय कर्म नष्ट हो जाने के कारण क्रोध जिनकी आत्मा से क्षीण हो चुका है, इसी तरह से मान, माया एवं लोभ भी जिनकी आत्मा से सर्वथा नष्ट हो चुके हैं, वे (अणुपुवेणं अट्ठ कम्मपयडीओ खवेत्ता उपिं लोयग्गपट्टाणा भवंति ) क्रम २ से पूर्वबद्ध अष्टकर्मों की प्रकृति को सर्वथा नष्ट कर नियमसे लोक के अग्रभागमें निवास करनेवाले होते हैं, अर्थात् मोक्षको प्राप्त करते हैं । सू. ६९ ॥ 'अणगारे णं भंते!' इत्यादि । (भंते!) हे भगवन् ! (भावियप्पा अणगारे णं) भावितात्मा अनगार (साधु) (केवलिसमुग्धारणं) केवलिसमुद्घात द्वारा (समोहणित्ता) आत्मप्रदेशों को शरीर से गये। छे, तेथी भेमो डोधरहित छे, मोहनीय उर्भ नष्ट यह भवाना ४२શુથી ધ જેમના આત્મામાંથી ક્ષીણ થઈ ગયેલેા છે, તેવી જ રીતે માન, માયા तेभन बोल पण नेमना आत्मामांथी सर्वथा नष्ट थह गयेलां छे, तेमा ( अणुपुवेणं अट्ठ कम्मपयडीओ खवेत्ता उप्पि लोयग्मपइडाणा भवंति ) समुभथी પૂર્વ અદ્ધ આઠ કર્મીની પ્રકૃતિને સથા નષ્ટ કરીને નિયમથી લેાકના ઉપરના ભાગમાં નિવાસ કરવાવાળા થાય છે, અર્થાત્ મેાક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે.(સ. ૬) ' अणगारे णं भंते!' इत्यादि. ( भंते! ) हे भगवन् ! ( भावियप्पा अणगारे णं ) लावितात्मा अनणार ( साधु ) ( केवलिसमुग्घाएणं ) देवसिसभुद्धात द्वारा ( समोहणिता ) आत्म Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकमत्रे ग्घाएणं समोहणित्ता केवलकप्पं लोयं फुसित्ताणं चिट्टइ?, हंता ! चिहइ ॥ सू० ७०॥ समुद्घातेन, तत्र प्रथमं समुद्घातस्वरूपमुच्यते-यथास्वभावस्थितानामात्मप्रदेशानां समुद्धातनं= समन्तादुद्धातनं-स्वभावादन्यभावेन परिणमनं समुद्धातः, स च सप्तविधः-वेदनासमुद्घातः १, कषायसमुद्धातः २,मरणसमुद्धातः ३, वैक्रियसमुद्घातः ४, तैजससमुद्घातः ५, आहारकसमुद्धातः ६, केवलिसमुद्घातश्च ७ । एषु सप्तसु समुदातेषु चरमः केवलिसमुद्घ तः। तत्र को नाम केवलिसमुद्घातः ? उच्यते-यस्यान्तर्मुहूर्तकाले परमपदं भावि, तस्मिन् केवलिनि भवः समुद्धातः केवलिसमुद्धातस्तेन, 'समोहणित्ता' समवहत्य आत्मप्रदेशान् प्रसार्य 'केवलकप्पं' केवलकल्प संपूर्ण 'लोयं' लोकं 'फासित्ता णं' स्पृष्ट्वा खलु 'चिट्ठई' तिष्ठति किम् ? । उत्तरमाह-'हंता' इत्यादि । 'हन्त' इतिपदं कोमलाऽऽमन्त्रणपूर्वकस्वीकारार्थकम्, 'चिट्ठइ' तिष्ठति ॥ सू. ७० ॥ बाहर निकालकर (केवलकप्पं लोयं) क्या समस्त लोकका (फुसित्ता) स्पर्श करके (चिट्ठइ) ठहरते हैं ? उत्तर-(हंता ! चिट्ठइ) हां! ठहरते हैं। यथास्वभाव से स्थित आत्मप्रदेशों का अन्य भाव में परिणमन करना उसका नाम समुद्धात है । समुद्घात ७ प्रकार क है-वेदनासमुद्घात १, कषायस मुद्घात २, मरणसमुद्घात ३, वैक्रियसमुद्घात ४, तैजससमुद्धात ५, आहारकसमुद्घात ६, केवलिसमुद्घात ७ । इनमें अन्तिम समुद्घात केवलिसमुद्घात है । जिसको अन्तर्मुहूर्त काल में निर्वाण पदकी प्राप्ति होती है ऐसे केवली भगवान का दण्ड, कपाट, मन्थान और लोकपूरण क्रिया द्वारा आत्मप्रदेशों का मूल शरीर को न छोड़कर शरीर से बाहर फैलना इसका नाम केवलिसमुद्धात है ॥ सू. ७० ॥ प्रशाने शरीरथी महा२ ४ाढीन. ( केवलकप्पं लोयं) शु सभ२ नो (फुसित्ता) २५श ४शन ( घिदुइ ) २ छ ?. ( हंता ! चिट्ठइ) ! २९ છે. યથાસ્વભાવમાં રહેલા આત્મપ્રદેશને અન્યભાવમાં ફેરવી નાખવું તેનું નામ સમુદઘાત છે. સમુદ્દઘાત ૭ પ્રકારના છે–૧ વેદના મુદ્દઘાત, ૨ કષાયસમુદ્દઘાત, ૩ મરણ મુદ્દઘાત, ૪ વૈકિયસમુદ્દઘાત, ૫ તૈજસસ મુદ્દઘાત, ૬ આહારકસમુઘાત, ૭ કેવલિસમુદ્દઘાત. તેમાં છેલ્લો સમુદ્દઘાત કેવલિસમુદૂઘાત છે. જેને અન્તમુહૂર્ત કાળમાં નિર્વાણપદની પ્રાપ્તિ થાય છે એવા કેવલી ભગવાનના દંડ, કપાટ, મળ્યાન, અને લોકપૂરણ ક્રિયા દ્વારા આત્મપ્રદેશને, મૂળ શરીરને નહિ છેડતાં શરીરથી બહાર ફેલાવો થવો તેનું નામ उपसिसमुधात छ. (सू. ७०) Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सृ. ७१ केवलिसमुद्घातविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६६७ मूलम् — से नूणं भंते ! केवलकप्पे लोए तेहिं निज्ज - रापोग्गलेहिं फुडे ? हंता ! फुडे ॥ सू० ७१ ॥ मूलम् — छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं णिजरापोगाणं किंचि वण्णं वण्णं, गंधेणं गंधं, रसेणं रसं, फासेणं टीका - 'से नूणं भंते !' इत्यादि । 'से नूणं भंते !' अथ नूनं हे भदन्त ! 'केवलकप्पे लोए' केवलकल्पो लोकः, 'तेहिं ' तै: 'निज्जरापोग्गलेहिं ' निर्जरापुद्गलैःनिर्जरा प्रधानाः पुद्गला निर्जरापुद्गलाः - जीवेन अकर्मतामापादिताः कर्मपुद्गलास्तैः 'फुडे' स्पृष्टः व्याप्तः किम् ? इति प्रश्नः । उत्तरमाह 'हंता ! फुडे' हन्त ! स्पृष्टः ॥ सू. ७१ ॥ टीका- 'छउमत्थे णं भंते !' इत्यादि । 'छउमत्थे णं भंते !' छद्मस्थः खलु भदन्त !' – हे भदन्त ! छद्मस्थः खलुः मनुष्यः, छद्मस्थ इह निरतिशयज्ञानयुक्तो ज्ञेयः, यतश्छद्मस्थोऽपि विशिष्टावधिज्ञानयुक्तो निर्जरापुद्गलान् जानात्येव । ' तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं ' तेषां निर्जरापुद्गलानां 'किंचि' किञ्चिद् 'वण्णेणं' वर्णेन - वर्णतया यथावस्थितस्वरूपेण 'वण्णं' वर्ण ' से नूणं भंते !' इत्यादि । ( से नूणं भंते ! ) हे भदंत ! क्या अवश्यतया ( तेहिं निज्जरापोग्गलेहिं ) उनके निर्जराप्रधान पुद्गलों द्वारा ( केवलकप्पे लोए) यह समस्त लोग ( फुडे ) स्पृष्ट होता है ? (हंता ! फुडे ) हाँ ! स्पृष्ट होता है ॥ ॥ सू. ७१ ॥ 'छउमत्थे णं ' इत्यादि । (छउमस्थे णं भंते! मणुस्से ) हे भदन्त ! विशिष्टज्ञानी छद्मस्थ मनुष्य ( तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं ) उन निर्जराप्रधान पुद्गलों को ( किंचि) किंचित् (वणेणं वण्णं से नूणं भंते!' छत्याहि. ( से नूण भंते ! ) हे महंत ! शुं अवश्यतया ( तेहिं निज्जरापोग्गलेहिं ) तेभनां નિરાપ્રધાન પુદ્ગલા દ્વારા ( केवलकप्पे लोए ) આ સમસ્ત લેાકને ( फुडे ) स्पर्श थाय छे ? ( हंता ! फुडे ) हा ! थाय छे. (सू. ७१) छउमत्थे णं इत्याहि. ( छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से ) हे लहांत ! विशिष्टज्ञानी छद्मस्थ मनुष्य ( तेस णिज्जरापोग्गलाणं ) ते नि राप्रधान पुगोसोने ( किंचि કિંચિત્ वणं वण्णं गंधेणं गंध रसेणं रसं फासेणं फासं जाणइ पासइ) वाशुथी 6 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ औपपातिकसूत्रे फासं जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो इणढे समझे ॥ सू० ७२ ॥ मूलम्-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वण्णं जाव जाणइ पासइ ? ॥ सू० ७३ ॥ कालादिरूपं, 'गंधेन गंध' गन्धेन गन्धम् , 'रसेन रस' रसेन रसम्, 'फासेणं फासं' स्पर्शेन स्पर्श 'जाणइ' जानाति विशेषतः, 'पासइ' पश्यति सामान्यतः किम् ?, उत्तरमाह'गोयमा' हे गौतम ! 'णो इणद्वे समडे' नायमर्थः समर्थः=संगतः, कर्मपुद्गलानां साऽतिशयज्ञानगम्यत्वात् । अत्र छद्मस्थशब्देनातिशयज्ञानरहितस्य विवक्षितत्वादिति भावः । एवं गन्धादयोऽपि ज्ञेयाः ।। सू० ७२ ॥ टीका-‘से केणद्वेणं भंते !' इत्यादि ! 'से केणद्वेणं भंते !' अथ केनाऽर्थेन भदन्त ! ‘एवं बुच्चइ' एवमुच्यते-'छउमत्थे णं मणुस्से' छद्मस्थः खलु मनुष्यः 'तेसिं णिज्जरापुग्गलाणं' तेषां निर्जरापुद्गलानां 'णो किंचि वण्णेणं वणं जाव जाणइ पासइ' नो किश्चिद्वर्णेन वर्ण यावज्जानाति पश्यति ॥ सू० ७३ ॥ गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणइ पासइ) वर्ण से वर्ण को, गंध से गंध को, रस से रस को और स्पर्श से स्पर्श को जानता. है देखता है ? उत्तर--(गोयमा!) हे गौतम ! (णो इणढे समद्वे) यह अर्थ सिद्धान्त से समर्थित नहीं है। अर्थात् छद्मस्थ केवली भगवान् के निर्जराप्रधान पुद्गलों के रूप, रस, गंध, और स्पर्श को किंचिन्मात्र भी नहीं जान सकता है, न देख सकता है ।। सू. ७२ ॥ ‘से केणटेणं भंते!' इत्यादि । (भंते ! ) हे भदंत ! (से) यह बात (केगटेणं एवं वुच्चइ ) किस-कारण ऐसी कही વર્ણને, ગંધથી ગંધને, રસથી રસને અને સ્પર્શથી સ્પર્શને જાણે છે ? नु छ ? उत्त२-( गोयमा ! ) 3 गौतम ! (णो इणद्वे समढे ) २॥ मथ સિદ્ધાંતથી સમર્થન પામેલે નથી, અર્થાત્ છદ્મસ્થ પુરુષ કેવલી ભગવાનના નિર્જરાપ્રધાન પુદ્ગલોનાં રૂપ, રસ, ગંધ તથા સ્પર્શને કિંચિત માત્ર ५ नणी शत नथी, तेभ ने शत ५५ नथी. (सू. ७२) ‘से केणगुणं भंते !' त्याहि. (भंते ! ) 3 महन्त ! ( से ) ॥ पात (केण?णं एवं वुच्चइ ) । Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयर्षिणी-टीका स.७४ केवलिसमुद्घात विषये भगवदगौतमयोः संवाद:६६९ मूलम्-गोयमा! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुदाणं सव्वभंतराए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूय-संठाण-संठिए टीका-भगवानाह-'मोयमा' इत्यादि । 'गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे' हे गौतम ! अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः 'सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वन्भंतराए' सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरकः सर्वद्वीपसमुद्रमध्यवर्ती, 'सव्वखुड्डाए' सर्वक्षुल्लकः सर्वद्वीपसमुद्रापेक्षया लघुः, 'वट्टे' वृत्तः गोलाकारः, मोदकवद् धनवृत्तोऽपि भवेत् तद्व्यवच्छेदार्थ प्रतरवृत्ततामाह'तेल्लापूय-संठाण-संठिए' तैलाऽपूप-संस्थान-संस्थितः- तैलमिति घतस्योपलक्षणम् , तेन तैलादिपक्काऽप्पाऽऽकारसंस्थितः, 'व? ' वृत्तः, ' रहचकवाल-संठाण-संठिए' रथचक्रवालजाती है कि (छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिज्जरापोम्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वणं जाव जाणइ पासइ) छद्मस्थ मनुष्य, उन केवली भगवान् के उन निर्जराप्रधान पुद्गलों के वर्ण गंध रस स्पर्श को न जान सकता है ? न देख सकता है ? ॥ सू. ७३ ॥ ‘गोयमा । अयं णं' इत्यादि। (गोयमा ! ) हे गौतम ! (अयं णं जंबुद्दीवे दीवे) यह जंबूद्वीप नामका द्वीप (सव्वदीवसमुदाणं) समस्त द्वीप और समुद्रों का (सबभंतराए) सर्वप्रकार से मध्यवर्ती है । अतः यह (सव्वखुडाए) सब से छोटा है। (बट्टे) यह वलय के समान वृत्ताकार-गोल है। (तेल्ला-पूय-संठाण-संठिए) तैलपक्क पुआ के आकार जैसा गोल है। (बट्टे रहचकवाल-संठाण-संठिए) रथके पहिये जैसा गोल है। (वट्टे पुक्स्वर४।२४थी मेम ४२वाय छ (छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वणं जाव जाणइ पासइ) छA२५ मनुष्य त उसी भवानना તે નિર્જરાપ્રધાન પુગલોના વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શને નથી જાણી શકતા કે नथी हेभी ? (सू. ७३) ‘गोयमा ! अयं णं' त्यादि. (गोयमा !) हे गौतम ! ( अयं णं जंबुद्दीवे दीवे) मा दीप नामने। दी५ ( सव्वदीवसमुदाणं ) समस्त द्वीपो मने समुद्रोनी (सव्वमंतराए) सर्व ४२थी मध्यता छ. माय ते ( सव्वखुडाए) माथी नाना छे. ( वट्टे) ते नयना ( 41 ) २३ वृत्ता४।२ गो छ. ( तेल्लापूय-संठाण-सठिए) पुसान PA२ । गो छ. (बट्टे रहचक्कवाल-संठाण-संठिए) २थना २ गोल छे. (वट्टे पुक्खरकण्णिया-संठाण-संठिए) भनी ४ि को गोरा छ. ( वट्टे पडिपुण्ण-चंद-संठाण-संठिए) पूयन्द्रमा Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० औपातिकसूत्र वट्टे रहचक्कवाल-संठाण-संठिए वढे पुक्खर-कण्णिया-संठाणसंठिए वट्टे पडिपुण्ण-चंद-संठाणसंठिए एक जोयणमयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साइं सोलस सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिणि य कोसे अहावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलियं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ॥ सू० ७४ ॥ संस्थान-संस्थितः-चक्रवालं-मण्डलं, मण्डलत्वधर्मयोगाच्च रथचक्रमपि रथचक्रवाल, तत्संस्थानेन संस्थितः-रथचक्राऽऽकारसंस्थित इत्यर्थः 'बट्टे ' वृत्त: 'पुक्खर-कण्णिया-संठाण संठिए वट्टे' पुष्करकर्णिका-संस्थान-संस्थितः-पद्मबीजकोशसदृशाकारयुक्तः, 'एक्कं जोय गसयसहस्सं आयामविक्रखंभेणं एक योजनशतसहस्रम् आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्यपरिणाहाभ्य मेकलक्षयोजनप्रमाणः, 'बट्टे' वृत्तः, 'पडिपुण्ण-चंद-संठाण संठिए प्रतिपूर्ण-चन्द्र--संस्थ न-संस्थितः, 'तिण्णि जोयणसयसहस्साई त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रीणि लक्षाणि योजन नि, 'सोलस सहस्साई' षोडश सहस्राणि, 'दोणि य सत्तावीसे जोयणसए' द्वे च सप्तविंशे योजनशते सप्तविंशत्यधिके द्वे शते योजनानि 'तिणि य कोसे' त्रीश्च कोशान् 'अट्ठावीसंग धणुसयं' अष्टाविंशं च धनुश्शतम्-अष्टाविंशत्यधिकशतधषि, 'दस य अंगुलाई' त्रयोदा चाङ्गलानि 'अद्धंगुलियं च' अङ्गुलिकञ्च ‘किंचि विशेषाहिए' किश्चिद्विशेषाऽधिक परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'पण्णत्ते प्रज्ञप्तम् ॥ सू० ७४ कणिया-संठाण-संठिए ) कमलकी कर्णिका के जैसा गोल है। ( बढे पडिपुण्णचंद-संठाण-संठिए ) पूर्णचंद्रमंडल के जैसा गोल है। (एकं जोयण पयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साइं सोलससहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलियं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ) यह जंबूद्वीप एक लाख योजनका सायाम एवं वो गण छे. ( एक्कं जोयण- सयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साइं सोलससहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलियं च किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ) २0 ४ मूदाय १ वा योजना २यायाम तम विलवाणे समो Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका मृ. ७५ केवलिसमुदघातविषये भगवद्गौतमयोःसंवादः६७१ ___ मूलम्-देवे णं महड्डिए महजुइए महब्बले महाजसे महासोक्खे महाणुभावे सविलेवणं गंधसमुग्गयं गिण्हइ, गिण्हित्ता तं अवदालेइ, अवदालित्ता जाव इणामेवत्ति कटु केवल टीका–'देवे गं' इत्यादि । ‘देवे णं' देवः खलु 'महड्डिए' महर्द्धिकः= विपुलैश्वर्ययुक्तः, 'महज्जुइए' महाद्युतिकः महातेजस्वी, 'महब्बले महाजसे' महाबलो महायशाः 'महासोक्खे' महासौख्यः-महासुखी, 'महाणुभावे' महानुभावः, 'सविलेवणं' सविलेपनं 'गंधसमुग्गयं गन्धसमुद्गकंगन्धसंपुटकं 'गिण्हइ' गृहणाति, 'गिण्हित्ता' गृहीत्वा तं-गन्धसमुद्गकम् 'अवदालेई' अवदालयति-उद्घाटयति, 'अवदालित्ता' अवदाल्य= उद्घाट्य, 'जाव इणामेवत्ति कट्ट' यावत् इदमेवमिति कृत्वा, इह यावच्छब्दः परिमाणार्थकस्तावदित्यस्य सापेक्षः, इदं गमनम् , एवम् =छोटिकात्रयं यावता कालेन भवति तावत्काविष्कंभवाला है । इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोश एकसौ अट्ठाईस धनुष साड़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। उससे यह परिवेष्टित है ।सू.७४॥ 'देवे णं महढिए' इत्यादि। (महडिए) महाऋद्धि का धारी (महब्बले) महाबलिष्ठ (महाजसे ) अतिशय यशस्वी (महासोक्खे ) अत्यन्तसौख्यवाले (महाणुभावे) एवं अत्यंत प्रभावशाली ऐसा कोई (देवे णं) देव (सविलेवणं गंधसमुग्गय) विलेपनसहित एक गंध के समुद्गक (पेटी) को (गिण्हइ) लेवे, (गिण्हित्ता) और लेकर उसे (अवदालेइ ) वहीं पर खोले, (अवदालित्ता) खोलकर (जाव इणामेवत्ति कटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं) પિળે છે. તેને પરિઘ ત્રણ લાખ સોળ હજાર બસો સત્તાવીશ જન ત્રણ કેશ એક અઠાવીસ ધનુષ અને સાડા તેર આંગળથી જરા વધારે છે. તે मेटदा धेशवामा छे. (सू. ७४) 'देवे णं महडिए' त्याहि. (महडिए) महा*द्धिना धारी ( महब्बले) मामलि (महाजसे) अतिशय यशस्वी ( महासोक्खे) अत्यंत सौम्या ( महाणुभावे ) तभ सत्यंत प्रभावशाली मे ई (देवे णं) हेव (सविलेवणं गंधसमुग्गयं) विवेपन सहित मे असमुह (सुमधद्रव्यनी पेटरी) २ (गिण्हइ) सीस, (गिण्हित्ता ) मन सधनतेने (अवदालेइ) त्यiar ॥, (अवदालित्ता) Guna (जाव इणामेवंत्ति कट्ट केवलकप्प जंबुद्दीवं दीवं) के समस्त पूरी Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ औपपातिकसूत्रे कप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छराणिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा ॥ सू० ७५ ॥ मूलम् से णूणं भंते ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ? हंता ! फुडे ॥ सू० ७६ ॥ लिकम् सत्वरमित्यर्थः, इति कृत्वा, 'केवलकप्पं' केवलकल्पं संपूर्ण, 'जंबुद्दी' जम्बूद्वीप 'दीवं' द्वीपं 'तिहिं त्रिभिः 'अच्छराणिवाएहिं' अच्छराशब्दो देशीयश्लोटिकावाचकः, छोटिकाभिरित्यर्थः, 'तिसत्तखुत्तो' त्रिसप्तकृत्वः=एकविंशतिवारान् 'अणुपरियट्टित्ताणं' अनुपर्यट्य= परिभ्रम्य खलु ' हव्वमागच्छज्जा' शीव्रमागच्छेत् । छोटिकात्रयकालसमकाले एव संपूर्ण जम्बूद्वीपमेकविंशतिवारान् परिभ्रम्य शीघ्रमागच्छेदित्यर्थः ।। सू०७५ ॥ टीका-गौतमः पृच्छति-से गृणं भंते !' इत्यादि । ' से शृणं भंते !' अथ नूनं हे भदन्त ! ' से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे ' स केवलकल्पे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'तेहिं । तैः, 'घाणपोग्गलेहिं' घ्राणपुद्गलैः गन्धपुद्गलैः 'फुडे' स्पृष्टः किम् ; ? भगवानाह–'हंता ! फुडे' हन्त ! स्पृष्टः ॥ सू. ७३ ॥ उस समस्त जंबूद्वीप की (तिहिं अच्छराणिवाएहिं) तीन चुटकी बजाने में जितना समय लगे उतने समय में (तिसत्तखुत्तो) तीनगुणित सात-इक्कीस बार (अणुपरियट्टित्ता) प्रदक्षिणा देकर (हव्वमागच्छेज्जा) वहीं पर शीघ्र आजावे ।। सू. ७५ ॥ ‘से णूणं भंते !' इत्यादि। गौतम पूछते हैं-(से णूणं भंते ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे ) हे भदन्त ! वह समस्त जंबूद्वीप (तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ?) क्या उन समस्त सुगंधित पुद्गलों से स्पृष्ट हो जाता है ? उत्तर-(हंता ! फुडे) हां ! हो जाता है । सू. ७६ ॥ पनी (तिहिं अच्छराणिवाएहिं ) ३ २५टी 4॥वामा । समय दाणे तटसा समयमा (तिसत्तखुत्तो) वीसपा२ (अणुपरियट्टित्ता) प्रक्षिाए। धने ( हव्वमागच्छेज्जा) त्यां पाछ। सही मावी य. (सू. ७५) ‘से णूणं भंते !' त्याहि. गौतम पूछे छ-( से णूणं भंते ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे ) महन्त ! २१ समस्त भूटी५ ( तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे) शु त समस्त सुगंधित पुढाथी स्पृष्ट ५७ तय छ ? उत्तर-(हंता ! फुडे ) ७, २६ जय छे. (सू. ७६) Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-डीका स. ७७ केवलिसमुद्घातविषये भगवगौतमयोः संवादः ६७३ मूलम् छडमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं घाणयोग्गलाणं किंचि वण्णेणं वण्णं जाव जाणइ पासइ ? गोयमा ! जो इण समझे ॥सू० ७७ ॥ मूलम्-से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-छउमत्थे टीका-पुनर्गीतमः पृच्छति-' छउमस्थे गं' इत्यादि ! 'भंते !' हे भदन्त ! 'छउमस्थे णं मणुस्से' छमस्थः खलु मनुष्यः, 'तेसिं घाणपोग्गलाणं' लेषां प्राणपुद्गलानां 'किंचि वण्णेणं वणं जाव जाणइ पासइ' किञ्चिद्वर्णेन वर्ण यावज्जानाति पश्यति किम् ? भगवानाह-'गोयमा! णो इणट्रे समटे' गौतम ! नाऽयमर्थः समर्थः । सू. ७७ ॥ टीका-'से तेणट्रेणं' इत्यादि । ‘से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ ' अथ . . 'छउमस्ये णं भंते ! मणुस्से' इत्यादि । पुनः गौतम ने पूछा-(छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से ) हे भदन्त ! क्या छमस्थ ममुष्य, (तेसिं घाणपुग्गलाणं) उन सुगंधित पुद्गलों को (किंचि वण्णे वणं जाव) वर्ण से यावत् गंध स्पर्शादि से थोड़ा भी (जाणइ पासइ) जान सकता है ? देख सकता है ! प्रभु ने कहा कि (गोयमा!) हे गौतम ! (णो इणटे समद्वे) यह अर्थ समर्थ नहीं है । सू. ७७॥ ‘से तेण?णं' इत्यादि । (से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ) हे गौतम ! छमस्थ उन निर्जरापुद्गलों को गंधादिगुणों द्वारा थोड़ा भी नहीं जान सकता है-यह जो बात कही गई है सो इसलिये 'छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से' छत्यादि. anी गीतमे ५ यु-(छउमत्थे णं भंते! मगुस्से)मन्त! शुभस्थ मनुष्य, (सेसिं घाणपोग्गलाणं) त सुधित पुगवाने पहुंथी तभ०४ गध स्पर्श माहिथी १२ प ( जाणइ पासइ) mea श छ ? ने श छ ? प्रभुये ४ (गोयमा !) 8 गौतम ! (णो इणद्वे समढे) ॥ २मर्थ समर्थ ना. (सू. ७७) ‘से वेणगुणं' त्याहि. (से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ) 8 तम! :छA२५, तनिशપુદગલાને ગંધ આદિગુણે દ્વારા જરા પણ જાણી શકતું નથી એમ જે Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ औपपातिकत्रे णं मणुस्से तेसिं निजरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णेणं वणं जाव जाणइ पासइ ॥ सू० ७८ ॥ मूलम्--एए सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता, समणातेनाऽर्थेन हे गौतम ! एवमुच्यते-'छउमत्थे णं मणुस्से' छद्मस्थः खलु मनुष्यः 'तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं' तेषां निर्जरापुद्गलानां 'न किंचि वण्णेणं' न किंचिद् वर्णेन 'वणं' वर्ण 'जाव जाणइ पासइ ' यावज्जानाति पश्यति । तस्य छद्मस्थस्य सातिशयज्ञानाभावात्स यथावस्थितस्वरूपेण वर्णादिकं न जानातीत्यर्थः ॥ सू. ७८ ।। टीका-'एए सुहुमा' इत्यादि । 'एए' एते वर्णादयस्तथा 'सहुमा' सूक्ष्माः सन्ति यत् तान् यथावस्थितस्वरूपेण छद्मस्थो न जानाति, तथा 'ते पोग्गला' ते पुद्गलाः=निर्जरापुद्गलाः अतिसूक्ष्माः ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः । 'समणाउसो' हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! अथवा-श्रमणश्चासावायुष्मांश्चेति समासस्तस्यामन्त्रणं हे श्रमणायुष्मन् ! हे गौतम ! कही गई है कि (छउमत्थे णं मणुस्से ) उस छद्मस्थ के सातिशय ज्ञान का अभाव है, अतः वह यथावस्थित रूप से (तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं) उन निर्जरित पुद्गलों के (णो किंचि वण्णेणं वणं जाव जाणइ पासइ) वर्णादिक को थोड़ा भी नहीं जान सकता है, न देख सकता है । सू. ७८ ।। 'एए सुहुमा णं' इत्यादि। (एए सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता) उन निर्जरापुद्गलों को छमस्थ यथावस्थित रूपसे इस कारण से भी नहीं जान सकता है कि उन पुद्गलों के वर्गादिक गुण सूक्ष्म हैं, अतः (समणाउसो ! सबलोयं पि य णं ते फुसित्ता णं चिटुंनि) हे आयुपात ४डी छे ते से भाटे ४सी छ (छउमत्थे णं मणुस्से ) ते ७५२थने सातिशय ज्ञानना यमाय छे. तेथी ते यथावस्थित३५थी ( तेर्सि गिजरापागलाणं ) त नि रित पुगताना (णो किंचि दण्णेणं वण्णं जाव जाणइ पासइ) पण माहिने ४२। ५y anी शते नथी, पण शत। नथी. (सू.७८) 'एए सुहुमा णं' त्यहि (एए सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता) ते निशाने छमस्थ યથાવસ્થિતરૂપથી એ કારણથી પણ જાણી શકતો નથી કે તે પુદગલનાં વર્ણ माहि गुष्य सूक्ष्म छे. तेथी ( समणाउसो! सव्वलोयं पि य णं फसित्ता णं चिटुंति ) , आयुष्मन् श्रमायु ! 2ी रीते छमस्थ म माहि शुणे ॥२॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स. ७९ केवलिसमुद्घातविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६७५ उसो ! सव्वलोयं पि य णं ते फुसित्ता णं चिति ॥ सू० ७९ ॥ मूलम् - कम्हा णं भंते ! केवली समोहणंति ? कम्हाणं केवली समुग्धायं गच्छति ? गोयमा ! केवलीणं चत्तारि कम्मंसा यथाऽतिसूक्ष्मत्वाद् · गन्धपुद्गलान्न जानात्येवं निर्जरा पुलानपीति दृष्टान्तप्रदर्शनम् । 'सव्वलोयं पि य णं ' सर्वलोकमपि च खलु ते निर्जरापुद्गलाः ' फुसित्ता णं ' स्पृष्ट्वा खलु ' चिट्ठेति ' तिष्ठन्ति ॥ सू. ७९ ॥ टीका — गौतमः पृच्छति - ' कम्हा णं भंते !' इत्यादि । ' कम्हा णं भंते ! ' कस्मात्खलु भदन्त ! – भदन्त ! कस्मात् खलु 'केवली' केवलिनः 'समोहणंति' समुदघ्नन्ति–कस्मै प्रयोजनाय केवलिनः समुद्घातं कुर्वन्तीत्यर्थः, उक्तमर्थं- - पुनः सुखबोधार्थमाह- 'कम्हाणं केवली' कस्मात् खलु केवलिनः, 'समुग्धायं ' समुद्घातम् = आत्मप्रदेशप्रसारकतां गच्छन्ति = प्राप्नुवन्ति, भगवानुत्तरमाह - ' गोयमा !' गौतम ! ' केवलीणं चत्तारि कम्मंसा ' केवलिनां चत्वारः ष्मन् श्रमण ! जिस प्रकार छद्मस्थ गंधादिक गुणों द्वारा अत्यंत सूक्ष्म रूप से परिणत गंध पुद्गलों को यथावस्थित रूपसे नहीं जान सकता है उसी प्रकार वह अत्यंत सूक्ष्मरूप से परिणत होने के कारण उन निर्जरापुद्गलों को भी गंधादिक गुणद्वारा न जान सकता है, न देख सकता है । इस दृष्टान्त से यह बात स्फुट हो जाती है । सू. ७९ ॥ 6 'कम्हा णं भंते ! ' इत्यादि । गौतम ने पुनः प्रश्न किया - ( भंते ! ) हे भदन्त ! ( कम्हा णं ) किस कारण से (केवली ) केवली भगवान् ( समोहणंति ) समुद्घात करते हैं ? अर्थात् - केवलियों को समुद्घात किस प्रयोजन के लिये करना पड़ता है ? उत्तर - ( गोयमा !) हे गौतम ! (फेबलीणं चत्तारि कम्मंसा अपलिक्खीणा भवंति ) केवलियों के चार कर्म अवशिष्ट रहते અત્યંત સૂક્ષ્મરૂપમાં પરિણામ પામેલાંગ પુદ્ગલાને યથાસ્થિતરૂપથી જાણી શકતા નથી, તેવીજ રીતે અત્યંત સૂક્ષ્મરૂપમાં પરિણામ પામેલાં હેાવાને કારણે તે નિરાપુદ્ગલેાને પણ ગંધ આદિક ગુણુ દ્વારા જાણી શકતા નથી, તેમ જોઈ શકતા નથી.આ દૃષ્ટાંતથી એ વાત સ્પષ્ટ થઈ જાય છે. ( સ. ૭૯ ) कम्हा णं भंते ! केवली समोहणंति' इत्यादि. 6 गौतमे वजी पाछे। प्रश्न - ( भंते ! ) हे अहन्त ! ( कम्हा णं ) या अरथी ( केवली ) देवसी लगवान् ( समोहणंति ) समुद्द्धात ४रे छे, अर्थात्ठेवलीयोने सभुद्धात या प्रयोजनने भाटे १२व पडे छे ? उत्तर- ( गोयमा ! ) हे गौतम! ( केवलीणं चत्तारि कम्मंसा अपलिक्खीणा भवंति ) देवजीयानां यार Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ औपपातिकसूत्रे अपलिक्खीणा भवंति, तंजहा-(१) वेयणिजं (२) आउयं ३ णामं गोसं सव्वबहुए से वेयणिजे कम्मे भवइ, सव्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ। विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहि य, विसमसमकरणयाए पंधणेहिं ठिईहि य । एवं खलु केवली समोहणंति, एवं खल्लु केवली समुग्घायं गच्छंति ॥ सू० ८०॥ कर्माशाः 'अपलिक्खीणा' अपरिक्षीणाः अवशिष्टा 'भवंति' भवन्ति सन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'यपिज्ज' वेदनीयम् , 'आउयं' आयु :, 'णाम' नाम, ‘गोत्तं' गोत्रम् , 'सव्यपहुए से गणिज्जे कम्मे भवइ' सर्वबहुलं तद् वेदनीय कर्म भवति, 'सव्वत्थोवे से आउर कम्मे भवइ' सर्वस्तोकं तद् आयुः कर्म भवति, 'विसमं समं करेइ बंधणेहि ठिईहिय' विषमं समं करोति बन्धनैः-प्रदेशबन्धानुभागबन्धावाश्रित्येति भावः, स्थितिभिश्च= स्थितिबन्धविशेषैश्व, ‘विसमसमकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य एवं खलु केवली समोहषंति' अत्रैवं पदयोजना-एवं खलु विषमसमकरणाय=विषमकर्मणां समीकरणार्थ बन्धनैः स्थितिभिश्च केवलिनः 'समोहणंति' समुनन्ति-समुद्घातं कुर्वन्ति ' एवं खलु केवली समुग्घायं गच्छंति' एवं खलु केवलिनः समुद्घातं गच्छन्ति ॥ सू. ८० ॥ हैं, (तं जहा) वे ये हैं-( वेयणिज्ज आउयं णामं गोत्तं ) वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । (सबबहुए से बेयणिज्जे कम्मे भइ) केवली में सबसे अधिक स्थितिवाला उस समय वेदनीय कर्म रहता है। (सम्वत्थोरे से आउए कम्मे भवइ) तथा सबसे स्तोक आयुकर्म रहता है । (विसमं समं करेइ यंधणेहिं ठिईहि य विसमसमकरणयाए वंधणेहि ठिईहि य ) इस विषमता को सम करने के लिये अर्थात् आयुकर्म की स्थिति के समान वेदनीयादिक कर्मी की स्थिति करने के लिये केवली भगवान् समुद्वात करते हैं। अन्य भाटी २९ छ; (तं जहा) ते २॥ छ. (वेयणिज्जं आउयं णामं गोत्तं) वहनीय , मायु, नाम भने गोत्र. (सव्वबहुए से वेयणिज्जे कम्मे भवइ) वजीभा साथी पधारे स्थितिवाणां ते समय वहनीय ४२ छे. ( सव्वत्थोवे से आउए. कम्मे भवइ) तथा सर्वथी स्तो: आयुभ २ छ. (विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहि य, विसमसमकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य ) मा વિષમતાને સમ કરવા માટે અર્થાત્ આયુકર્મની સ્થિતિ બરાબર વેદનીય Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोषर्षिणी टीका ख. ८१ केवळ समुद्घातविषये भगवद्गौतमयोः संवादः ६७७ मूलम् - सव्वे विणं भंते! केवली समुधाचं गच्छति ? णो इट्ठे समहे । अकित्ताणं समुग्धायं, अनंता केवली जिणा । जरामरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगइं गया ॥ सू० ८१ ॥ टीका — गौतमः पृच्छति - 'सव्वे वि णं' इत्यादि । 'सव्वे विणं भत्ते !' सर्वेऽपि खलु भदन्त ! – हे भदन्त ! सर्वेऽपि खलु 'केवली' केवलिनः 'समुग्धायं' समुद्घातं 'गच्छति' गच्छन्ति किम् ? भगवानाह 'णो इणट्ठे समट्टे' नाऽयमर्थः समर्थः । " अकित्ता णं समुग्धायं, अणंता केवली जिणा । जरामरणविष्पमुक्का, सिद्धिं वरगईं गया ॥ १ ॥ ” कर्मों का स्थितिबंध, अनुभागबंध एवं प्रदेशबंध, समुद्धात करने से आयुकर्म के स्थितिबंध, अनुभागबंध एवं प्रदेशबंध के बराबर हो जाते हैं । ( एवं खलु केवली समोहणंति, एवं खलु केवली समुग्धायं गच्छति ) इस प्रकार केवलियों के समुद्धात करने का यह प्रयोजन है । इस प्रकार वे केवली समुद्धात करते हैं । सू. ८० ॥ ' सव्वे विणं भंते ! इत्यादि । प्रश्न- (भंते!) हे भदन्त ! क्या ( सव्वे विणं केवली ) समस्त केवली भगवान् (समुग्धायं गच्छंति ) समुद्धात करते हैं । ( णो इणट्ठे समट्ठे ) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है, अर्थात् - समस्त केवलो भगवान् समुद्धात करें ऐसा कोई मियम આદિક કર્મોની સ્થિતિ કરવા માટે કેવલી ભગવાન સમુદ્દાત કરે છે. બીજા કર્મોનાં સ્થિતિબંધ, અનુભાગમધ તેમજ પ્રદેશમય, સમુદ્ઘાત કરવાથી આયુકન। સ્થિતિબંધ, અનુભાગમધ તેમજ પ્રદેશખ ધના ખરાખર થઈ જાય છે. ( एवं खलु केवली समोहणंति एवं खलु केवली समुग्धायं गच्छति ) मा प्रहारे કેવલીઓને સમુદ્ધાત કરવાનું આ પ્રયેાજન છે. આ પ્રકારે તે કેવલી સમ્રુघात पुरे छे. ( सू. ८० ) 6 सव्वे विणं भंते ! केवली ' त्याहि. प्रश्न – ( भंते ! ) हे लहन्त ! शु ( सव्वेवि णं केवली ) वधा ठेवली भगवान् ( समुग्धायं गच्छति ) समुहद्धात ४रे छे ? ( णो इकट्ठे समट्ठे ) डे ગૌતમ! આ અર્થ સમર્થિત નથી, અર્થાત્ સમસ્ત કેવલી ભગવાન શુભા Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् -- कइसमए णं भंते! आउज्जीकरणे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते ॥ सू० ८२ ॥ ६७८ अकृत्वा खलु समुद्घातम्, अनन्ताः केवलिनो जिनाः । जरामरण विप्रमुक्ताः सिद्धिं वरगतिं गताः ॥ १ ॥ अयंभावः - षण्मासायुषि अवशिष्टे सति येषां केवलं ज्ञानमुत्पन्नं ते नियमतः समुद्घातं कुर्वन्ति, अन्ये तु समुद्धातं कुर्वन्ति न वा कुर्वन्तीति ॥ सू० ८१ ॥ टीका- गौतमः पृच्छति - 'कइसमए णं' इत्यादि । 'कइसमए णं भंते !' कतिसमयं खलु भदन्त ! 'आउजीकरणे पण्णत्ते' आवर्जीकरणं प्रज्ञप्तम् । आवर्ज्यतेऽभिमुखीक्रियते मोक्षोऽनेनेति-आवर्जस्तस्य करणविवक्षायां च्चिप्रत्ययः । केवलिसमुद्घातात् पूर्वं क्रिय नहीं है । क्योंकि (समुग्धायं अकित्ता) समुद्घात को नहीं भी करके ( अणंता केवली ) अनंत केवली (जिणा ) जिन ( जरामरणविष्यमुक्का ) जन्म, जरा एवं मरण से रहित होकर ( वरगईं ) सिद्धिस्वरूप सर्वोत्कृष्ट गति को प्राप्त हुए हैं । भावार्थ - जिनकी आयु ६ मास की बाकी बची है और अब उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ है तो ऐसी स्थिति में वे नियम से केवलिसमुद्घात करते हैं। बाकी के लिये ऐसा कोई नियम नहीं है कि समुद्घात करें ही ! ॥ सू. ८१ ॥ ' कइसमए णं भंते !' इत्यादि । प्रश्न - ( भंते! ) हे भदंत ! ( कइसमए णं आउज्जीकरणे पण्णत्ते ) मोक्षप्राप्ति का आवर्जीकरण कितने समय का होता है ! उत्तर - ( असंखेज्जसमए अंतोमुहुvिe पण्णत्ते) असंख्यात समय का अंतर्मुहूर्त कहा है। जिसके द्वारा जीव मोक्ष के अरे वो अर्ध नियम नथी; उभडे ( समुग्धायं अकित्ता ) समुद्घात न पशु रीने (अनंता केवली ) अनंत ठेवली ( जिणा ) नन ( जरामरणविष्पमुक्का) ४न्भु, ४रा तेभन भरणुथी रहित थर्धने ( वरगई ) सिद्धिस्व३५ सर्वोत्कृष्ट ગતિને પ્રાપ્ત થયા છે. ભાવા–જેમની આયુ છ માસ બાકી રહે છે અને હવે તેમને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું છે, તે એવી સ્થિતિમાં તેએ નિયમથી કેલિસમુદ્દાત કરે છે. બાકીને માટે એવા કેાઈ નિયમ નથી કે સમુધ્ધાત ५२ ४. ( सू. ८१ ) 6 'कइसमए णं भंते! त्याहि. प्रश्न - ( भंते ! ) डे लहन्त ! ( कइसमए णं आउज्जीकरणे पण्णत्ते ) भोक्ष प्राप्तिनुं भाव७४२ डेटला समयमां थाय छे. अंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते ) असण्यात सभयनुं अंतर्मुहूर्त उत्तर - ( असंखेज्जसमए हेतु छे. नेना द्वारा Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स. ८२ केबलिसमुद्घातविषये भगवदगौतमयोः संपादः६७९ मूलम्-केवलिसमुग्घाएणं भंते ! कइसमइए पण्णते ? गोयमा ! असमइए पण्णत्ते; तं जहा-पढमे समए दंडं करेइ, माणं यत् मोक्षं प्रत्यात्मनोऽभिमुखीकरणं तत्, तच्च उदयावलिकायां कर्मपुद्गलप्रक्षेपव्यापाररूप उदीरणाविशेषः । केवलिसमुद्घातं कुर्वन् केवली प्रथममेवाऽऽवर्जीकरणं करोति । भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते' असंख्येयसमयिकम् भान्तर्मोहूर्तिकं प्रज्ञप्तम् ॥ सू० ८२ ॥ टीका—गौतमः पृच्छति-'केवलिसमुग्घाए णं' इत्यादि । 'केवलिसमुरघाए णं भंते !' केवलिसमुद्घातः खलु भदन्त ! हे भदन्त ! केवलिसमुद्धातः 'कइसमइए पण्णत्ते' कतिसमयिकः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठसमइए पण्णत्ते' अष्टसमयिकः प्रज्ञप्तः । अन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदे केवलिनि यः समुद्घातो भवति स केवलिसमुद्घातः, स चाष्टसु समयेषु भवतीत्यर्थः । तदेवाह-'तंजहा' तद्यथा 'पढमे समए अभिमुख किया जाता है उसका नाम आवर्जीकरण है। यह केवलिसमुद्घात के पहिले होता है। उदयावलिका में कर्मपुद्गल का प्रक्षेप करने-रूप व्यापार का यह नामान्तर है ।। सू. ८२ ॥ 'केवलिससुग्घाए णं भंते !' इत्यादि । प्रश्न-(भंते !) हे भगवन् ! (केवलिसमुग्घाए णं कइसमइए पण्णत्ते ). केवलिसमुद्घात कितना समय का कहा गया है ? उत्तर-(गोयमा) हे गौतम ! (अट्ठसमइए पण्णत्ते) इसका काल ८ समय का कहा गया है। अन्तर्मुहूर्त में परमपद का लाभ जिनको होने वाला है ऐसे केवलियों द्वारा जो समुद्घात किया जाता है उसका नाम केवलिसमुद्घात है। इसका काल ८ समय का है। (तंजहा) वह समुद्घात इस प्रकार से होता है-(पढमे समए दंडं करेइ) प्रथम समय में केवली के જીવ મોક્ષની સામે કરવામાં આવે છે તેનું નામ આવકરણ છે. તે કેવલિસમૃદુધાતની પહેલાં થાય છે. ઉદયાવલિકામાં કર્મ પુદ્ગલેને પ્રક્ષેપ. ४२५। ३५ व्यापारमा नामांतर छे. (सू. ८२) 'केवलिसमुंग्याए णं भंते !' त्याहि. प्रश-(भंते !) सगवान् ! (केवलिसमुग्घाए णं कइसमइए पण्णत्ते) पलिसमुधातनाम। समय ४सा छ ? उत्तर-(गोयमा !) गौतम !. ( अटुसमइए पण्णत्ते) तेन ॥ ८ समय छे. अतभुतभा परमपन। લાભ જેમને થવાને હોય છે એવા કેવળીઓ દ્વારા જે સમૃદુલાત કરવામાં साव छ तेनु नाम सिसभुधात छ. तनस ८ समयना छे. ( तंजहा). Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० ओपपातिकमंत्र बिईए समए कवाडं करेइ, तइए समए मंथं करेइ, चउत्थे दंडं करेइ' प्रथमे समये दण्डं करोति-प्रथमे समये ऊर्ध्वाधोलोकान्तं यावत्प्रसारितैरात्मप्रदेशैर्दण्डाकारतां कुरुते । 'बिईए समए कवाडं करेइ' द्वितीये समये कपाट करोतिःद्वितीये समये पूर्वपश्चिमयोर्दिशोर्विस्तृतैरात्मप्रदेशैरव कपाटाकारतां कुरुते । 'तइए समए मंथं करेइ' तृतीये समये मन्थानं करोति तृतीये समये दक्षिणोत्तरयोर्दिशोरप्यात्मप्रदेश: कपाटाकारविस्तृतैर्मन्थानाकारतां कुरुते । 'चउत्थे समए लोयं पूरेइ' चतुर्थे समये लोकं पूरयति चतुर्थे समये तदन्तरालपूरणेन सर्वलोकस्य पूरणं कुरुते । एवं समुद्धातं कुर्वन् केवली चतुर्भिः समयैर्विश्वव्यापी भवति । एवं केवली स्वात्मप्रदेशानां विस्तारणेन कर्मलेशान् समीकृत्य विपर्र तक्रमेण समुभात्मप्रदेश दण्डाकार होते हैं, अर्थात् प्रथम समय में उर्ध्वलोक एवं अधोलोकः के अन्त तक प्रसारित होकर आत्मप्रदेश दंडाकारता को धारण करते हैं। (विईए समए क्वाडं करेइ ) द्वितीय समय में वे ही आत्मप्रदेश पूर्व और पश्चिम दिशा में विस्तृत होकर कपाटाकारता को धारण करते हैं। (तइए समए मंथं करेइ) तृतीय समय में दक्षिण और उत्तरदिशा में विस्तृत होकर मन्थान के आकार हो जाते हैं । (चउत्थे समए लोयं करेइ ) चतुर्थ समय में इनके अन्तराल की पूर्ति करते हुए वे समस्त लोक को पूरण कर हते हैं, अर्थात् समस्त लोक में फैल जाते हैं। इसका नाम लोकपूरणसमुद्घात है। इस प्रकार आत्मप्र देशों को फैलाने--रूप समुद्घात करते हुए वे केवली ४ चार समयों में विश्वव्यापी बन जाते हैं, पश्चात् प्रसारित उन आत्मप्रदेशों को संकुचित करते हैं। इस क्रिया में भी उन्हें ते समुद्यात मारे थाय छ, ( पढमे समए दंडं करेइ) प्रथम समयमा કેવળીના આત્મપ્રદેશ દંડાકાર હોય છે, અર્થાત્ પ્રથમ સમયમાં ઉર્વલોક તેમજ અલોકના અંત સુધી ફેલાઈ જઈને આત્મપ્રદેશ દંડાકારतान पाय रे छ. ( बिईए समए कवाडं करेइ ) मीन समयमा ते ४ यात्मપ્રદેશ પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશામાં વિસ્તાર પામીને કપાટના આકારને ધારણ ४२ . ( तइए समए मंथं करेइ ) श्रीन समयमा दक्षिण तथा उत्तर दिशामा विस्तार पाभीने भन्थाननी २0१२ था२९५ ४२ छ. ( चउत्थे समए लोयं पूरेइ) ચોથા સમયમાં તેના અંતરાલની પૂર્તિ કરતાં કરતાં તે સમસ્ત લોકને પૂરણ કરી દીએ છે, અર્થાત્ સમસ્ત લોકમાં ફેલાઈ જાય છે. આનું નામ લોકપ્રણસમુહૂવાત છે. આ પ્રકારે આત્મપ્રદેશના ફેલાવા રૂપ સમુહૂવાત કરતાં કરતાં તે કેવલી ૪ સમયમાં વિશ્વવ્યાપી બની જાય છે, પછી પ્રસારેલા તે આત્મપ્રદેશને સંકુચિત કરે છે. આ ક્રિયામાં પણ તેને ૪ સમય લાગે છે. માટે તે Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स. ८३ केवलिसमुद्घात विषये भगवदगौतमयोः संवाद.६८१ समए लायं पूरेइ, पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ, छठे समये मंथं पडिसाहरइ, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ, पच्छा सरीरत्थे भवइ ॥ सू० ८३ ॥ मूलम्--से णं भंते! तहा समुग्घायं गए किं मणजोगं घातेन प्रसारितान् आत्मप्रदेशान् संहरति, तदाह-'पंचमे समये' इत्यादि । 'पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ' पञ्चमे समये लोकं प्रतिसंहरति चतुर्भिः समयैर्जगत्पूरणं कृत्वा पञ्चमे समये आत्मप्रदेशान् अन्तरालावस्थितान् उपसंहरति । 'छटे समए मंथं पडिसाहरइ' षष्ठे समये मन्थानं प्रतिसंहरति । 'सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ' सप्तमे समये कपाट प्रतिसंहरति । 'अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ' अष्टमे समये दण्डं प्रतिसंहरति । 'तओ पच्छा सरीरस्थे भवइ' ततः पश्चात् शरीरस्थो भवति ॥ सू. ८३ ॥ टीका-'से णं भंते !' इत्यादि । ‘से णं भंते !.' अथ खलु भदन्त ! 'तहा ४ चार समय लगते हैं। सो ये सर्वप्रथम (पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ) पंचम समय में अन्तराल में स्थित उन आत्मप्रदेशों को उपसंहृत करते हैं। (छठे समए मंथ पडिसाहरइ) छठे समय में मंथाकाररूप से स्थित उन आत्मप्रदेशों को संकोचते हैं। (सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरई) ७ वें समय में कपाटाकारता को और (अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ) आठवें समय में दंडाकारता को संकुचित करते हैं। (तओ पच्छा सरीरत्थे भवइ) उसके बाद आत्मस्थ हो जाते हैं। सू० ८३ ॥ ‘से णं भंते !' इत्यादि । (से णं भंते ! तहा समुग्घायं गए किं मणजोगं जुजइ) हे भदंत ! इस साथी पडतi (पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ ) पांयम समयमा, अतरासमi २७ a मामशाना सा२ ४२ छे. (छ? समए मंथं पडिसाहरइ) છઠ્ઠા સમયમાં મંથાકારરૂપથી સ્થિત (રહેલા ) તે આત્મપ્રદેશને સંકેચે छ. (सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ) सातभा समयमा ४ारताने, मन (अदुमे समए दंडं पडिसाहरइ) 8भा समयमा ४२तान सथित रे छे. (तओ पच्छा सरीरत्थे भवइ) त्या२५छी मात्भस्थ 25 जय छे. (सू. ८3) ‘से णं भंते !' त्याहि. (से गं भंते ! तहा समुग्घायं गए किं मणजोगं जुजइ ?) 3 महन्त ! Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ औपपातिकसूत्रे झुंजइ ?, वयजोगं जुंजइ ?, कायजोगं मुंजइ ?। गोयमा ! णो मणजोगं जुजइ, णो वयजोगं जुंजइ, कायजोगं जुंजइ ॥ सू०८४॥ __ मूलम्-कायजोगं जुजमाणे किं ओरालियसरीरसमुग्घायं गए' तथा समुद्घातं गतः केवली 'किं मणजोगं जुंजइ ?' किं मनोयोगं युनक्ति ? 'वयजोग जुंजइ ?' वाग्योगं युनक्ति किम् ? 'कायजोगं जुजइ' काययोगं युनक्ति किम् ?, भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'णो मणजोगं जुंजइ' नो मनोयोगं युनक्ति, ‘णो वयजोगं जुजइ' नो वाग्योग युनक्ति, 'कायजोगं जुजइ' काययोगं युनक्ति ॥ सू. ८४ ॥ टीका-गौतमः पृच्छति--'कायजोगं' इत्यादि । 'कायजोगं जुजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ ?' काययोगं युञ्जानः किमौदारिकशरीरकाययोगं युङ्क्ते ? प्रकार समुद्धात अवस्था में रहनेवाला वह आत्मा कितने योगों को प्रयुक्त करता है ?, क्या मनोयोग को प्रयुक्त करता है ? (वयजोगं जुजइ ) क्या वचनयोग को प्रयुक्त करता है ? ( कायजोगं जुजइ ) क्या काययोग को प्रयुक्त करता है ? भगवान् ने कहा (गोयमा !) हे गौतम ! (णो मणजोगं जुजइ, णो वयजोगं जुजइ, कायजोगं जुजा ) वह न मनोयोग को प्रयुक्त करता है और न वचनयोग को प्रयुक्त करता है, किन्तु एक कायजोग को ही प्रयुक्त करता है । सू० ८४ ॥ 'कायजोगं जुजमाणे' इत्यादि। गौतम ने पुनः प्रभु से पूछा कि हे प्रभु ! (कायजोगं जुजमाणे) केवली काययोग को योजित करते हुए ( किं ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ ? ) क्या औदा આ પ્રકારે સમુદઘાત અવસ્થામાં રહેવાવાળા તે અત્મા કેટલા પેગોને પ્રયુક્ત ४२ छ ? शुभनायोगने प्रयुत ४२ छ ? (वयजोगं जुजइ) शुपयनयोगने प्रयुत ४२ छ ? ( कायजोगं जुजइ)शुाययोगने प्रयुत ४२ छ ? नावाने -(गोयमा ! ) 3 गौतम! (णो मणजोगं जुंजइ, णो वयजोगं झुंजइ, कायजोगं जुंजइ) ते नथी भनायोगने प्रयुत ४२ता, तथा नथी वयनગને પ્રયુકત કરતા, પરંતુ એક કાગને જ પ્રયુકત કરે છે. (સૂ. ૮૪) 'कायजोगं जुजमाणे' त्याहि. गौतमे quी पाछु प्रभुने पूछयु प्रभु! ( कायजोगं जुजमाणे ) पक्षी ययोशन योनित ४२di ४२di ( किं ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ ?) Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका, स० ८४ केवलिसमुद्घातविषये भगवद्गौतमयो संपादः ६८३ कायजोगं जुजइ ?, ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ?, वेउव्वियसरीरकायजोगं जुजइ ?, वेउव्वियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ ?, आहारगसरीरकायजोगं जुजइ ?, आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ ?, कम्मसरीरकायजोगं जुजइ । गोयमा ! 'ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ? ' औदारिकमिश्रशरीरकाययोगं युङ्क्ते ? 'वेउब्वियसरीरकायजोगं झुंजइ' वैक्रियशरीरकाययोगं युङ्क्ते ?, · वेउन्वियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ?' वैक्रियमिश्रशरीरकाययोगं युङ्क्ते ? 'आहारगसरीरकायजोगं जुजइ ?' आहारकशरीरकाययोगं युङ्क्ते ? ‘आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ' आहारकमिश्रशरीरकाययोगं युङ्क्ते? 'कम्मसरीरकायजोगं मुंजइ' कार्मणशरीरकाययोगं युङ्क्ते ?, भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'ओरालियसरीरकायजोगं जुंजई' औदारिकरिकशरीररूपी काययोग को काममें लाते हैं ? अथवा (ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ) औदारिकमिश्रशरीरकाययोग को काम में लाते हैं. ( वेउब्बियसरीरकायजोगं जुंजइ? वेउनियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ? आहारगसरीरकायजोगं जुजइ ? आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ? कम्मसरीरकायजोगं मुंजइ ?) या वैक्रियिकशरीरकाययोगरूपी काययोग को काम में लाते हैं ? या वैक्रियिकमिश्रशरीर को काम में लाते हैं ? अथवा आहारकशरीररूपी काययोग को काम में लाते हैं ?, या आहारकमिश्रशरीरकाययोग को काम में लाते हैं ?, या कार्मणशरीरकाययोग को काम में लाते हैं ? । भगवान कहते हैं-(गोयमा!) हे गौतम ! (ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ) शुं मौ॥२४शरी२३॥ ययागने ममा दीये छ ?, अथ। (ओरालियमिस्ससरीरकायनोगं जुजइ ? ) मोहोरि भिश्रशरी२४ाययोगने भिमा साये ? ( वेउव्वियसरीरकायजोगं झुंजइ ? वेउव्वियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ? आहारगसरीरकायजोगं जुजइ ? आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ ? कम्मसरीरकायजोगं जुजइ ?) अथवा वैज्यिशरी२३५० ययागने ममा दावे छ ? अथवा વૈક્રિયમિશ્રશરીરકાયોગને કામમાં લાવે છે? અથવા આહારકશરીરરૂપી કાયયોગને કામમાં લાવે છે? અથવા આહારકમિશ્રશરીરકાયયોગને કામમાં લાવે છે? मथ। शरी२४॥ययोजनाममा छ ? मावान छ-(गोयमा!) गौतम ! ( ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ ओरालियमिस्सकायजोगं जुजइ) पक्षी Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ, ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं पि जुंजइ, णो वेउव्वियसरीरकायजोगं जुंजइ, णो वेउव्वियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ, णो आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ, कम्मसरीरकायजोगपि जुंजइ। पढमट्टमेसु समएसु शरीरकाययोगं युङ्क्ते, 'ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ, औदारिकमिश्रशरीरकाययोगमपि युङ्क्ते, 'णो वेउब्बियसरीरकायजोग जुजइ' 'नो वैक्रियशरीरकाययोगं युक्ते, ‘णो वेउब्धियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ' नो वैक्रियमिश्रशरीरकाययोगं युङ्क्ते, 'णो आहारगसरीरकायजोगं जुंजइ 'नो आहारकशरीरकाययोगं युङ्क्ते, ‘णो आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ' नो आहारकमिश्रारीरकाययोगं युङ्क्ते, 'कम्मसरीरकायलोगंजंजइ कार्मणशरीरकाययोगमपि युक्ते । 'पढमट्ठमेसु समएसुओरालियसरीरकायकोगंपि जंजई प्रथमाऽष्टमयोः समययोरौदारिकशरीरकाययो गमपि युङ्क्ते, 'बिइयछट्ठसत्तमेसु केवली भगवान् औदारिकशरीरकाययोग को काम में लाते हैं, तथा औदारिकमिश्रशरीरकाययोग को भी काम में लाते हैं। (णो वेउब्वियसरीरक: यजोग जुजइ, णो वेउब्धियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ, णो आहारगसरीरकायजोगं जुजइ, णो आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ, कम्म सरीरकायजोगंपि जुनइ) वैक्रियशरीरकाययोग, वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग, आहारकशरीरकाययोग, आहारकमिश्रशरीरकाययोग इनको काम में नहीं लाते । परन्तु कार्भगशरीरकाययोग को वे काम में लाते हैं । ( पढमहमेसु समएस ओरालियसरीरकायजोग सुनइ विइयछनुसत्तमेसु समएसु ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ, तइयचउत्थपंचमेहिं कम्मसरीरकायजोगं जुजइ ) प्रथम और आठवें समय में तो ભગવાન ઔદારિક શરીરકાયોગને કામમાં લાવે છે તથા ઔદ્યારિકમિશ્રશારીરકાયयोगने ५५ मिमांसाचे . ( णो वेउब्वियसरीरकायजोगं जुजइ, णो वेउव्वियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ, णो आहारगमरीरकायजोगं जुजइ, णो आहारगमिस्ससरीरकायजोगं मुंअइ, कम्मसरीरकायडोगंपि जुजइ) वैष्टियशरी२४ाययोगने, વૈકિયમિશ્રશરીરકાયયોગને, આહારકરી કાયયેગને, આહારકમિશ્રશરીરકાયયેગને કામમાં લાવતા નથી, પરંતુ કાર્મણારીશ્કાયયેગને તેઓ કામમાં લાવે છે. (पढमदुमेसु समएसु ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ, बिइयछट्ठसत्तमेसु समासु ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं मुंजइ, तइयचउन्थपंचमेहिं कम्मसरीरकायजोग जुंजइ) Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका सू. ८५ केवलिसमुद्घात विषये भगवद्गीतमयोः संवादः६८५ ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ, बिइयछट्ठसत्तमेसु समएसु ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ, तइयचउत्थपंचमेहि कम्मसरीरकायजोगं झुंजइ ॥ सू० ८५॥ मूलम्-से णं भंते ! तहा समुग्घायगए सिज्झइ ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं झुंजइ' द्वितीयषष्ठसप्तमेषु समयेषु औदारिकमिश्रशरीरकाययोगं युङ्क्ते, मिश्रत्वं चात्र कार्मणेनैव सहौदारिकस्यावस्थानात् । 'तइयचउत्थपंचमेहिं कम्मसरीरकायजोगं जंजइ' तृतीयचतुर्थपश्चमेषु समयेषु कार्मणशरीरकाययोगं युङ्क्ते ॥ मू. ८५ ॥ ___टीका-'से णं भंते' इत्यादि । ‘से णं भंते ! तहा समुग्धायगए' स खलु भदन्त !: औदारिकशरीररूपी काययोग को वे काम में लाते हैं, दूसरे, छठे एवं सातवें समय में औदारिकमिश्रशरीरकाययोग को काम में लाते हैं, एवं तीसरे, चौथे एवं पंचम समय में कार्मणशरीररूपी काययोग को काम में लाते हैं ॥ भावार्थ-काययोग ७ प्रकार काहै। उनमें औदारिकशरीरकाययोग, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग एवं कार्मणशरीरकाययोग ये ३ तीन योग केवली के होते हैं । बाकी के ४ काययोग केवली के नहीं होते हैं । प्रथम और आठवें समय में औदारिकशरीरकाययोग होता है, द्वितीय, छठवें और सातवें समय में औदारिकमिश्रशरीरकाययोग होता है और तीसरे, चौथे एवं पांचवें समय में उनके समुद्घात अवस्था में कार्मगशरीररूपी काययोग होता है ॥ सू० ८५ ॥ પ્રથમ તથા આઠમા સમયમાં તે ઔદારિક શરીરરૂપી કાયયોગને તેઓ કામમાં લાવે છે. બીજા, છઠ્ઠા તેમજ સાતમા સમયમાં ઔદારિકમિશ્રશરીરકાયયેગને કામમાં લાવે છે, તેમજ ત્રીજા, ચેથા અને પાંચમા સમયમાં કામણ શરીરરૂપી કાયયેગને કામમાં લાવે છે. ભાવાર્થકાયાગ ૭ પ્રકારના છે, તેમાં ઔદારિક શરીરકાયયોગ, ઔદારિકમિશરીરકાયોગ, તેમજ કાર્યરૂશરીરકાયયેગ, આ ત્રણ રોગ કેવલીના હેય છે. બાકીના ૪ કાયગ કેવલીના હોતા નથી. પ્રથમ અને આઠમા સમયમાં ઔદારિકકાયમ હોય છે. બીજા, છઠ્ઠા અને સાતમા સમયમાં ઔદારિકમિશ્રશરીરકાયમ હોય છે, અને ત્રીજા, ચેથા તેમજ પાંચમા સમયમાં તેમની સમુદઘાત અવસ્થામાં કામણુશરીરરૂપી કાયયોગ હોય છે. ( સૂ. ૮૫) Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ औपपातिकसूत्रे बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ ? णो इणढे समहे! से णं तओ पडिणियत्तइ, पडिणियत्तित्ता इहमागच्छइ, तओ पच्छा मणजोगंपि जुंजइ, वयजोगंपि जुंजइ, कायजोगंपि जुजइ ॥ सू० ८६ ॥ तथा समुद्घातगतः-हे भदन्त ! स खलु तथा समुद्घातगतः कृतसमुद्धातः केवली 'सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ?' सिध्यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति किम् ?, भगवानाह- णो इणद्वे समटे' नाऽयमर्थः समर्थः ! 'से णं' स खल 'तओ' ततः समुद्घातात् 'पडिणियत्तइ' प्रतिनिवर्तते, 'पडिणियत्तित्ता' प्रतिनिवर्त्य इहमागच्छइ' इहाऽऽगच्छति शरीरस्थो भवति । 'तओ पच्छा' ततः पश्चात्, 'मणजोगंपि जुजई' मनोयोगमपि युङ्क्ते, 'वयजोगंपि जुंजइ' वाग्योगमपि युक्ते 'कायजोगं पि जुंजई' काययोगमपि युङ्क्ते ॥ सू० ८६ ॥ 'से णं भंते !' इत्यादि। (भंते !) हे भदंत ! (से णं तहा समुग्धायगए) समुद्घात अवस्था में केवली भगवान् (सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्याइ) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वाण हो (सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ) क्या समस्त दुःखों का अंत करते हैं ? प्रभु ने उत्तर दिया कि (गोयमा !) हे गौतम ! (णो इणद्वे समठू) यह अर्थ समर्थित नहीं है। (से णं तओ पडिणियत्तइ, पडिणियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता तओ पच्छा मणजोगं पि झुंजइ, वयजोगं पि जुजइ, कायजोगं पि जुंजइ) किन्तु जब वे समुद्धात कर चुकते हैं से णं भंते ! 'त्याहि. (भंते ! ) 8 लत ! (से णं समुग्घायगए) समुधात अवस्थामा पक्षी सरावान् (सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिणिव्वाइ) सिद्ध, मुद्ध, मुन्त तेभ परिनिर्वाण थने ( सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ) शु समस्त माने। मत ४२ छ ? प्रभुये उत्त२ माथ्यो है ( गोयमा ! ) 3 गौतम ! (णो इणद्वे समढे ) PAL अर्थ समर्थित नथी. (से णं तओ पडिणियत्तइ, पडिणियत्तित्ता इहमागच्छइ, आगच्छित्ता तओ पच्छा मणजोगं पि जुंजइ, वयजोगंपि जुजइ, कायजोगं पि जुंजइ ) परंतु न्यारे समुधात ४२॥ यु छ अर्थात् ते ક્રિયાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે અને પૂર્વ પ્રમાણે શરીરમાં સ્થિત થઈ જાય છે ત્યારે Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू. ८६ केवलिसमुद्घातविषये भगवद्गौतमयोः संवादः६८७ मूलम्--मणजोगं जुजमाणे किं सच्चमणजोगं जुंजइ ? मोसमणजोगं जुजइ ?, सच्चामोसमणजोगं जुजइ ?, असच्चामा टीका—गौतमः पृच्छति-"मणजोगं" इत्यादि । 'मणजोगं झुंजमाणे किं सचमणजोगं जुजई' मनोयोगं युञ्जानः किं सत्यमनोयोगं युङ्क्ते ? 'मोसमणजोगं जुजइ ?' मृषामनोयोगं युङ्क्ते ? 'सच्चामोसमणजोगं जुंजई' सत्यमृषामनोयोगं युङ्क्ते किम् ?, भगवाअर्थात् उस क्रिया से निवृत्त हो चुकते हैं और पूर्ववत् शरीर में स्थित हो जाते हैं तब मनोयोग को भी प्रयुक्त करते हैं, वचनयोग को भी प्रयुक्त करते हैं तथा काययोग को भी प्रयुक्त करते हैं । समुद्घात-अवस्था में मरण नहीं होता । अतः मुक्ति की प्राप्ति उस समय नहीं होती ॥ सू० ८६ ॥ 'मणजोगं जुंजमाणे' इत्यादि । प्रश्न-हे भदंत ! आपने जो अभी यह बात कही है कि समुद्घात से निवृत्त होने पर केवली भगवान् मनोयोग को प्रयुक्त करते हैं सो इस विषय में यह पूछता हूं कि वे भगवान् (मणजोगं जुजमाणे) मनोयोग को प्रयुक्त करते हुए चार मनोयोगों में से कौन से मनोयोग को प्रयुक्त करते हैं ?(किं सच्चमणजोगं जुंजइ, मोसमणजोगं जुंजइ, सच्चामोसमणजोगं जुजइ, असच्चामोसमणजोगं जुजइ?)सत्यमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, या असत्यमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, अथवा मिश्रमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, असत्यमृषामनोयोग को प्रयुक्त करते हैं ? अर्थात् व्यवहारमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं । (गोयमा !) हे गौतम ! (सच्चમને યોગને પણ પ્રયુક્ત કરે છે, વચનગને પણ પ્રયુક્ત કરે છે તથા કાયયોગને પણ પ્રયુક્ત કરે છે. સમુદ્રઘાત અવસ્થામાં મરણ થતું નથી. તેથી મુક્તિની प्रालि त समये थती नथी. (सू. ८६) 'मणजोगं जुजमाणे' प्रत्याहि. પ્રશ્ન–હે ભદન્ત ! આપે જે હમણાં એ વાત કહી છે, કે સમુઘાતથી નિવૃત્ત થતાં કેવલી ભગવાન મનેયેગને પ્રયુકત કરે છે. માટે એ વિષયમાં એ પૂછું છું है त सपान (मणजोगं जुजमाणे) भनायोगने प्रयुत ४२i यार मनायोगभांयी ४॥ मनायोगने प्रयुत ४२ छे ? (किं सच्चमणजोगं जुंजइ ? मोसमणजोगं जुंजइ ? सञ्चामोसमणजोगं जुजइ ? असच्चामोसमणजोगं जुजइ ?) भुसत्यમ ગને પ્રયુક્ત કરે છે? અથવા અસત્યમયેગને પ્રયુકત કરે છે? અથવા મિશ્રમયોગને પ્રયુક્ત કરે છે? કે અસત્યમૃષામનેયોગને પ્રયુક્ત કરે છે मात् व्यवहारमनायोगने प्रयुत ४२ छ ? उत्तर-(गोयमा !) Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ औपपातिकसूत्रे समणजोगं झुंजइ ? गोयमा! सच्चमणजोगं जुंजइ, णो मोसमणजोगं जुंजइ, णो सच्चामोसमणजोगं जुंजइ, असच्चामोसमणजोगं पि जुंजइ ॥ सू० ८७॥ ___ मूलम्--वयजोगं जुंजमाणे किं सच्चवइजोगं जुजइ ? नाह-'गोयमा! सच्चमणजोगं जुजई' गौतम ? सत्यमनोयोगं युङ्क्ते, 'णो मोसमणजोगं झुंजई' नो मृषामनोयोगं युङ्क्ते 'णो सच्चामोसमणजोगं जुजइ' नो सत्यमृषामनोयोगं युङ्क्ते, 'असच्चामोसमणजोगंपि जुजई' असत्याऽमृषामनोयोगमपि युङ्क्ते ॥ सृ० ८७ ॥ टीका--गौतमःपृच्छति-'वयजोग' इत्यादि । 'वयजोगं जुजमाणे किं सच्चवइजोगं जुजई' वाग्योगं युञानः किं सत्यवाग्योगं युङ्क्ते ? 'मोसवइजोगं जुंजई मृषावामणजोगं जुजइ) वे केवली सत्यमनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, (णोमोसमणजोगं जुजइ णो सच्चामोसमणजोगं मुंजइ, असञ्चामोसमणजोगं जुजइ) असत्यमनोयोग एवं मिश्रमनोयोग को प्रयुक्त नहीं करते हैं, किन्तु असत्यामृषामनोयोग को प्रयुक्त करते हैं, अर्थात् व्यवहार मनोयोग को प्रयुक्त करते हैं। सत्यमनोयोग एवं व्यवहारमनोयोग को वे केवली प्रयुक्त करते हैं, अन्य दो को नहीं ॥ सू० ८७ ॥ 'वयजोगं जुंजमाणे' इत्यादि । प्रश्न-हे भगवन् ! वे केवली जो (वयजोगं जुजमाणे किं) वचनयोग को प्रयुक्त करते हैं सेा क्या (सचवइजोग जुजइ, मोसवइजोगं जुजइ, सच्चामोसवइजोगं मुंजइ, असञ्चामोसवइजोगं झुंजइ) सत्यवचन योग को प्रयुक्त करते हैं, या असत्यवचनगौतम ! (सचमणजोगं जुंजइ) वणी सत्यमनायोगने प्रयुत ४२ छ. (णो मोसमणजोगं जुजइ, णो सच्चामोसमणजोगं झुंजह, असच्चामोसमणजोग झुंजइ) असत्यभनायोग तभी भिमनायागने प्रयुत ४२ता नथी; परंतु અસત્યામૃષામનગને પ્રયુકત કરે છે અર્થાત વ્યવહારમયોગને પ્રયુકત કરે છે. સત્યમનેયાગ તેમજ વ્યવહારમાગને તે કેવલી પ્રયુકત કરે છે. मीत मेने नलि. (सू. ८७) ___ 'बजोग जुजमाणे ' ४त्या. प्रल- लगवन् ! ते पक्षी २ (वयजोगं जुजमाणे) क्यनयोगन प्रभुत ४२ छ, तशु (सच्चवइजोगं जुजइ, मोसवइजोगं जुजइ, सच्चामो Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका ८८ केवलिसमुद्घातविषये भगवद्गीतमयोःसंवादः ६८९ मोसवइजोगं जुजइ ? सच्चामोसवइजोगं झुंजइ ? असच्चामोसवइजोगं जुंजइ ? सच्चवइजोगं जुजइ, णो मोसवइजोगं जुंजइ, णो सच्चामोसवइजोगं जुंजइ,असच्चामोसवइजोगं पि जुंजइ ॥सू०८८॥ मूलम्-- कायजोगं जुजमाणे आगच्छेज्ज वा चिटेज ग्योगंयुङ्क्ते? 'सच्चामोसवइजोगं जंजइ' सत्यमृषावाग्योगं युङ्क्ते? असच्चामोसवइजोगं जुजई' असत्याऽमृषावाग्योगं युङ्क्ते किम् ? भगवानाह-'गोयमा ! सच्चवइजोगं जुजइ ?' गौतम ! सत्यवाग्योगं युङ्क्ते, 'णो मोसवइजोगं जुजई' नो मृषावाग्योगं युङ्क्ते, णो सच्चामोसवइजोगं जुजइ'नो सत्यमृषावाग्योगं युङ्क्ते, 'असच्चामोसवइजोगं पि जुंजइ' असत्याऽमृषावाग्योगमपि युक्ते ॥ सू० ८८ ॥ टीका-'कायजोगं' इत्यादि । 'कायजोग जुंजमाणे आगच्छेज्ज वा चिद्वेज वा' काययोगं युञ्जान आगच्छति वा तिष्ठति वा, 'णिसीएज वा' निषीदति उपविशति वा, योग को प्रयुक्त करते हैं, अथवा मिश्रवचनयोग को प्रयुक्त करते हैं, या असत्यामृषावचनयोग को प्रयुक्त करते हैं ? उत्तर-(गोयमा !) हे गौतम ! (सच्चवइजोगं जुजइ) वे केवली सत्यवचनयोग को प्रयुक्त करते हैं, (णो मोसवइजोगं जुंजइ णो सच्चामोसवइजोगं झुंजइ) असत्यवचनयोग को एवं मिश्रवचनयोग को प्रयुक्त नहीं करते हैं । (असच्चामोसवइजोगपि जुंजइ) परन्तु असत्यामृषावचनयोग को प्रयुक्त करते हैं। चार वचनयोगों में से केवली .. के सत्यवचनयोग एवं असत्यामुषावचनयोग दो ही वचनयोग होते हैं, बांक के दो नहीं ॥ सू० ८८ ॥ सवइजोगं जुजइ, असच्चामोसवइजोगं जुजइ) सत्यवयनयोगने प्रयुत ४२ छ, અથવા અસત્યવચનગને પ્રયુકત કરે છે, અથવા મિશ્રવચનગને પ્રયુકત કરે छ, अथवा असत्याभूषावयनयोगने प्रयुत रे छ ? उत्तर-(गोयमा !) ९ गौतम ! ( सच्चवइजोगं जुंजइ) ते पक्षी सत्यवयनयोगने प्रयुत ४२ छ. (णो मोसवइजोगं झुंजइ णो सच्चामोसवइजोगं जुजइ ) असत्यवयनयोगने तभ०४ भिवयनयोगने प्रयुत ४२ता नथी, (असच्चामोसवइजोगपि जुजइ) ५२न्तु અસત્યામૃષાવચનોગને પ્રયુક્ત કરે છે. ચાર વચનમાંથી કેવલીના સત્યવચનગ તેમજ અસત્યામૃષાવચનગ બે જ માત્ર વચનગ હોય છે. मीना मे नलि. (सू. ८८) Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० औपपातिकम वा णिसीएज वा तुयट्टेज वा उल्लंघेज वा पलंधेज वा उक्खेवणं वा पक्वेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेजा, पाडिहारियं वा, पीढफलगसेज्जासंथारगं पञ्चप्पिणेज्जा ॥ सू० ८९ ॥ 'तुयहेज वा' त्वग्वर्तयति-शयनं करोति वा 'उल्लंघेज्ज वा' उल्लङ्घयति-गादिकं वा, 'पल्लंघेज वा' प्रोल्लङ्घयति वा, उक्खेवणं वा' उत्क्षेपणम् ऊर्ध्वगमनं वा, 'पक्खेवणं वा' प्रक्षेपण नीचैर्गमनं वा, 'तिरियक्खेवण वा' तिर्यक्क्षेपण तिर्यग्गमनं वा 'करेजा' करोति, 'पाडिहारियं वा पीढ-फलग-सेन्जा-संथारगं पञ्चप्पिणेज्जा' प्रतिहार्य वा पीठफलकशय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयति ॥ सू० ८९ ॥ 'कायजोगं जुजमाणे' इत्यादि। हे गौतम (कायजोगं जुजमाणे आगच्छेज वा चिद्वेज वाणिसीएज वा तुयटेज वा उल्लंघेज वा पल्लंघेज वा) इस काययोग को प्रयुक्त करते हुए वे आते हैं, जाते हैं, ठहरते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, करवट बदलते हैं, उल्लंघन करते हैं, प्रलंघन करते हैं, (उक्खेवणं वा पक्खेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेजा) उत्क्षेपण करते हैं, प्रक्षेपण-हाथपैर को ऊपर-नीचे करते हैं, तिरछे गमन करते हैं, (पाडिहारियं वा पीढफलगसेज्जासंथारगं पञ्चप्पिणेज्जा) काम निकल जाने के बाद प्रातिहार्यक पीठ, फलक, शय्या, एवं संथारे को पीछे देते हैं । सू० ८९ ॥ " कायजोग जुंजमाणे' प्रत्याहि. હે ભદન્ત ! કાયયોગ પ્રયુક્તિ કરતા કેવળી ભગવાન શું શું કામ કરે छ ? 8 गौतम ! ( ( कायजोगं जुजमाणे आगच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयटेज्ज वा उल्लंघेज्ज वा पल्लंघेज्ज वा) से ययागने प्रयुत ४२॥ तस। माचे छ, तय छ, ४ाय छे, छे, मेसे छ, सुवे छे, ४२१८ मा छ, अवचन ४२ छ, धन ४२ छे. ( उक्खेवणं वा पक्खेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेज्जा) क्षेप रे छे, प्रक्षेप-डा५ या-नी॥ ४२ छ, तिरछ। (मा-मणु) गमन रे छ, (पाडिहारियं वा पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणेज्जा) म थक गया पछी प्रतिकार्य थी, ३८४,शय्या, तभ सयाराने पाछ। भुडी हे छ. (सू. ८६) Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणो-टीका मू. ९० केवलिसमुद्घातविषये भगवद्गीतमयोः संवादः ६९१ मूलम्--से णं भंते ! तहा सजोगी सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? णो इणढे समढे ॥ सू० ९०॥ ___ मूलम्- से णं पुवामेव सण्णिस्स पंचिंदियस्स पज टीका गौतमः पृच्छति-से गं भंते !' इत्यादि । 'से णं भंते ! तहा सजोगी' स खलु भदन्त ! तथा सयोगी 'सिज्झई' सिम्यति किम् 'जाव' यावत् 'सव्वदुक्खाणमंत करेइ' सर्वदुःखानामन्तं करोति किम् ? । भगवानाह -'णो इणद्वे समढे' नाऽयमर्थः समर्थः ।। सू० ९० ॥ टीका--'से णं पुवामेव' इत्यादि । 'से णं' स केवली खलु 'पुवामेव' पूर्वमेव= योगनिरोधावस्थाया आदावेव 'संण्णिस्स पंचिंदियस्स' संज्ञिनः पञ्चेन्द्रियस्य, अत्र पश्चेन्द्रियस्येति विशेषणं संज्ञिस्वरूपप्रदर्शनार्थ, पञ्चेन्द्रियस्यैव संज्ञित्वात् ; 'पज्जत्तगस्स' पर्याप्तकस्य= मनःपर्याप्त्या पर्याप्तस्येत्यर्थः, अन्यपर्याप्तस्य मनसोऽभावात् । स च मध्यमादिमनोयोगोऽपि 'से णं भंते !' इत्यादि। (भंते !) हे भदंत ! (से तहा सजोगी) वे केवली ऐसी सयोगी अवस्था में रहते हुए (सिज्झइ जाव अंतं करेइ) सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वाण हो समस्त दुःखों का अन्त करते हैं क्या ? उत्तर-हे गौतम ! (णो इणद्वे सम?) यह अर्थ समर्थित नहीं है । अर्थात् सयोगिकेवली कर्मों का अन्त नहीं करते ! ॥ सू० ९० ॥ 'से णं पुवामेव' इत्यादि । (से णं) ये सयोगी केवली भगवान् (पुवामेव) पहिले (सण्णिस्स पंचिंदियस्स पजत्तगस्स) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के (जहण्णजोगस्स हेट्ठा) जघन्यमनोयोग से भी नीचे ‘से णं भंते !' त्याहि. (भंते !) महन्त ! ( से तहा सजोगी) वसी सेवा सयाजी-मस्थामा २ai (सिज्झइ जाव अंतं करेइ) सिद्ध, मुद्ध, मुश्त, तभ०४ परिनिal ४ समस्त मना शुमत ४२ छे ? उत्तर- गौतम ! (णो इणद्वे सम8) मा अर्थ समर्थित नथी, अर्थात् सयोगी पक्षी भानो मत ४२ता नथी. (सू. ८०) ___“से णं पुव्वामेव" त्याहि. (से णं) त सयोगी पक्षी भावान् (पुव्वामेव) परसा (सण्णिस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स ) संशी पंथेन्द्रिय पर्याप्त४॥ (जहण्णजोगस्स हेढा) Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ और पातिकसूत्रे त्तगस्स जहण्णजोगस्स हेहा असंखेजगुणपरिहीणं पढमं मणजोगं निरंभइ, तयाणंतरं च णं बिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्टा असंखेजगुणपरिहीणं बिइयं वयजोगं निरंभइ, नयाणंतरं च णं सुहमस्स पणगजीवस्स अप्पजत्तगस्त जहण्णजोगस्स हेट्टा असंखेजगुणपरिहीणं तइयं कायजोगं णिरंभइ॥ सू.० १.१ ॥ स्यादित्यत आह -'जहण्णजोगस्स' इति । 'जहण्णजोगम्स' जधन्ययोगस्य जधन्यमनोयोगवतः, 'हेट्ठा' अधः, यो मनोयोगो भवतीति गम्यते, जधन्यमनोयोगसमान यो न भवतीत्यर्थः। योगाश्च-मनोद्रव्याणि तद्व्यापारश्चेति।जधन्यमनोयोगाधोभागवर्तित्वमेव दई यन्नाह-'असंखेजगुणपरिहीणं' इति । अख्येयगुणपरिहीनम्-असंख्यातगुणेन परिहीनो यः स तथा तम् , असंख्यातभागमात्रया समये समये क्रमेण तं मनोयोगं निरुन्धानः सर्वमनोयोगं निरुणद्धि अनुत्तरेणाचिन्त्येन अकरणवीर्येणेति तदाह-'पढम' इत्यादि। प्रथमं शेषवागा देयोगापेक्षया प्राथम्येन, 'मणजोगं' मनोयोगं 'निरंभइ' निरुणद्धि । 'तयाणंतरं च णं' तदनन्तरं च खलु 'बिंदियस्स' द्वीन्द्रियस्य ‘पज्जत्तगस्स' पर्याप्तकस्य 'जहण्णजोगस्स' जधन्यये गस्य 'हेट्ठा' अधः, 'असंखेजगुणपरिहीणं' असंख्येयगुणपरिहीणं 'बिइयं द्वितीय 'वयजोग' वाग्योगं 'निरंभइ ' निरुणद्धि । 'तयाणंतरं च णं' तदनन्तरं च खलु 'सुहुमस्स पणगजीवस्स' के (असंखेजगुणपरिहीणं पढमं मणजोगं निरंभइ) असंख्यात गुणहीन प्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं, (तयाणंतरं च णं विदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेढा) तदनन्तर पर्याप्त द्वीन्द्रिय के जधन्य वचनयोग के नीचे के ( असंखेजगुण होणं विइयं वयजोगं) अख्यात-गुण-हीन दूसरे वचनयोग का (निरंभइ) निरोध करते हैं। (तयागंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अप्पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस हेवा असंखेज धन्य भनायोथी ५७ नायन। (असंखेज्जगुणपरिहीण पढमं मणजोगं निरंभइ ) २१ ज्यातडीन प्रथम मनायोगनी निरोध ४२ छ. (तयाणं नरं च णं बिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेढा ) त्या२ पछी पर्याप्त दीन्द्रिय ४५न्य क्यनयोशनी नीयन (असंखेज्जगुणपरिहीणं बिइयं बयजोगं) म सध्यातशुगुडान oilan क्यनयान। (निरंभइ) निरो५ ४२ छ. ( तयाणंनरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अप्पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेज्जगुगपरिहीणं Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी टीका, स्व. ९२ केवलिनः सिद्धिगतिप्राप्तिक्रम निरूपणम्. ६९३ मूलम् -- से णं एएणं उवाएणं पढमं मणजोगं निरुभइ, निरुंभित्ता वयजोगं निरुभइ, निरुंभित्ता कायजोगं निरुंभइ, निरंभित्ता जोगणिरोह करे, करिता अजोगत्तं पाउणइ, पाउणित्ता ईसिं 6 सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य, ‘अपज्जत्तगस्स' अपर्याप्तकस्य 'जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेज्ज - गुणपरिहीणं ' जघन्ययोगस्याधोऽसंख्ये यगुणपरिहीनं. ' तइयं ' तृतीयं कायजोगं ' काययोगं ' निरुंभइ ' निरुणद्धि ॥ सू. ९१ ॥ टीका -' से णं इत्यादि । ' से णं' स केवली खलु ' एएणं उवाएणं पढमं मणजोगं निरुंभइ ' एतेनोपायेन प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, 'निरंभित्ता' मनोयोग निरुध्य, 'वयजोगं निरुभइ ' वाग्योगं निरुणद्धि, 'निरंभित्ता' वाग्योगं निरुध्य ' कायजोगं निरुंभइ ' काययोगं निरुणद्धि, 'निरंभित्ता ' काययोगं निरुध्य, ' जोगणिरोहं करेइ ' योगनिरोधं करोति, ' करिता ' योगनिरोधं कृत्वा ' अयोगत्तं पाउण गुणपरिहीणं कायजोगं णिरुभइ) पश्चात् सूक्ष्म अपर्याप्त पनक ( निगोद) जीव के जघन्य से नीचे के असंख्यातगुणहीन तृतीय काययोग का निरोध करते हैं । सू० ९१ ॥ 'से णं एएणं उवाएणं' इत्यादि । (eri उवाएणं) इस प्रकार के उपाय से (सेणं) वह केवली भगवान् (पढमं मणजोगं) प्रथम मनोयोग का (निरुंभइ) निरोध करते हैं, (निरंभित्ता) उसका निरोध हो चुकने के बाद (वयजोगं निरुंभइ) वचनयोग का निरोध करते हैं, (निरंभित्ता) इसके बाद (कायजोगं निरंभ इ) कायजोग का निरोध करते हैं । इस रीति से (निरुंभित्ता जोगनिरोहं करेइ) समस्त योगों का वे निरोध जब करते हैं तब (अजोगतं पाउ कायजोगं णिरुभइ ) पछी सूक्ष्म अपर्याप्त पन ( निगोह ) कवना धन्यथी નીચેના અસંખ્યાત ગુણહીન ત્રીજા કાયયેાગના નિરોધ કરે છે. (સૂ. ૯૧) C से णं एएणं उवाएणं ' इत्यादि. ( एएणं उवाएणं) मा अठारना उपायथी ( से णं ) ते ठेवसी लगवान् ( पढमं मणजोगं ) प्रथम मनोयोगनो ( निरुभइ ) निरोध अरे छे, (निरुंभित्ता) ते निरोध था रह्या पछी ( वयजोगं निरुभइ ) वन्यनयोगनो निशेध ४रे छे. (निरुंभित्ता ) त्यार पछी ( कायजोगं निरुभइ ) आयलेगनो निरोध रे छे, आ रीतथी ( निरंभित्ता जोगनिरोहं करेइ ) समस्त योगोनो तेथेो निरोध न्याये पुरे छे, त्यारे ( अजोगतं पाउणइ ) अयोगी - अवस्थाने प्राप्त यर्धलय , Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ औपपातिक हस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ, पुव्वरइयगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए अयोगत्वं प्राप्नोति, ‘ अयोगत्तं पाउणित्ता' अयोगत्वं प्राप्य, 'ईसिंहस्सपंचक्रवरुच्चारणद्धाए ' ईषद्ध्रस्वपश्चाऽक्षरोच्चारणाऽद्धायाम् - ईषत् - अल्पानि यानि हूस्वानि पञ्चाक्षराणि तेषां यदुच्चारणं तस्य याऽद्धा = कालः सा तथा तस्याम्, इदमुच्चारणं न द्रुतं न विलम्बितं किन्तु मध्यममेव गृह्यते, — असंखेज्जसमइयं ' असंख्येयसमयिकाम्, 'अंतोमुहुत्तियं ' आन्तमौहूर्तिकीं ' सेलेसिं 'शैलेशी - शैलानामीशः शैलेशो मेरुः, तस्येव या स्थिरता=साम्याद्यवस्था सा शैलेशी ताम्, अथवा - शीलेश :- सर्वसंवररूपचारित्रवान्, तस्येयमवस्था योगनिरोधरूपा शैलेशी तां, शैलेश्यवस्थायां केवली वेदनीयादिकर्मचतुष्टयं क्षपयति, तत्प्रकार माह' पुव्वरइय ' इत्यादि । 'पुव्वरइयगुणसेढीयं च णं कम्मं' पूर्वरचितगुणश्रेणिकं च कर्म, पूर्वं = शैलेश्यवस्थायाः प्राग् रचिता गुणश्रेणी यस्य तत्तथा, का नाम गुणश्रेणी: उच्यतेणइ)अयोगि—अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, ( पाउणित्ता ईसिं-हस्स - पंचक्रखरु - चारण-द्धा असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं) अयोगी - अवस्था को प्राप्त हो जाने के बाद हूस्व पांच अक्षर के उच्चारण काल - प्रमाण समय में, अर्थात् असंख्यात समय के अंतर्मुहूर्त जैसे काल में (सेलेसिं पडिवज्जइ) वे शैलेशी - अवस्था को प्राप्त करते हैं, अथवा सर्व कर्मों के संवररूप चारित्र वाले की अवस्था को - योगनिरोधरूप अवस्था प्राप्त करते हैं । इस शैलेशी-अवस्था में केवली किस प्रकार से वेदनीय आदि चार अघातिया कर्मों को क्षय करते हैं, इस बात को प्रगट करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि (पुव्त्ररइयगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं अनंते कम्मंसे खवयं ते) शैलेशी-अवस्था के पहिले जिन कर्मों की गुणश्रेणी रची-जाय वे गुणश्रेणिक कर्म है । गुणछे. ( पाउणत्ता ईसिंहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं ) અયેાગી–અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઇ ગયા પછી હસ્વ પાંચ અક્ષરના ઉચ્ચારણકાલ– પ્રમાણ સમયમાં, અર્થાત્ અસંખ્યાત સમયના અંતર્મુહૂત જેવા કાલમાં ( सेलेसिं पडिवज्जइ ) तेथे। शैलेशी व्यवस्थाने आप्त ४२ छे, अथवा सर्वકર્મીના સંવરરૂપ ચારિત્રવાળાની અવસ્થાને-યાગનિરોધરૂપ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. આ શૈલેશી અવસ્થામાં કેવલી કેવા પ્રકારથી વેદનીય આદિ ચાર અધાતિયા કર્મના ક્ષય કરે છે? એ વાતને પ્રકટ કરતાં સૂત્રકાર કહે छे े ( पुव्वरइयगुण सेढीयं च ण कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं अणते कम्मंसे खवयंते ) शैलेशी व्यवस्थानी पडेसां ने उर्मोनी शुशुश्रेणी रथी को Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका स. ९२ केवलिन: सिद्धिगतिप्राप्तिक्रमनिरूपणम् ६९५ यत् केवलिनो वेदनीयादिकं चतुर्विधं कर्म कालान्तरवेद्यं स्थितं वर्तते, तस्य शीघ्रतरक्षपणार्थ तस्यैव कर्मणो दलिकं क्रमेण प्रतिसमयं पूर्वपूर्वापेक्षया उत्तरोत्तरमसंख्यातगुणवृद्धया गुणीकृत्य स्वल्पं, बहु, बहुतरं, बहुतमम्-इति श्रेणीरूपेण स्थितिखण्डं रचयति । इदमत्र स्पष्टीकरणम्-गुणश्रेणीरचनायाः प्रथमसमये कर्मदलिकं स्वल्पं गृह्यते, द्वितीयसमये पूर्वा पेक्षया असंख्यातगुणितं दलिकं गृह्यते, तृतीयसमये ततोऽप्यसंख्यातगुणितं कर्मदलिकं गृह्यते, एवमुत्तरोत्तरमसंख्यातगुणवृद्धया कर्मदालक रचयति । एवं कर्मदलिकरचनं तावद्वाच्यं, यावदन्तर्मुहूर्त चरमसमयम् । तच्चान्तर्मुहूर्तमपूर्वकरणानिवृत्तिकरणकालाभ्यां स्तोकाभ्यधिकं वेदितव्यम् । अयं कर्मपुद्गलानां रचनाविशेषो " गुणश्रेणी"-त्युच्यते । 'तीसे श्रेणी किसे कहते हैं ? इस बात को प्रकट किया जाता है-कालान्तर में वेदन करने योग्य जो वेदनीयादिक चार कर्म अभी अवशिष्ट हैं उन्हें शीघ्रतर क्षपण करने के निमित्त उनके दलियों को क्रम से प्रतिसमय पूर्व पूर्व को अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणवृद्धि से गुणित कर स्वल्प, बहु, बहुतर एवं बहुतम-इस श्रेणीरूप में विभाजित करते हुए स्थिति का खंडन करना सो गुणश्रेणी है । मतलब इसका यह है कि गुणश्रेणीरचना के प्रथम समय में कर्मदलिक स्वल्प ग्रहण किये जाते हैं, द्वितीय समय में पूर्व की अपेक्षा असंख्यातगुणित दलिक ग्रहण किये जाते हैं, तृतीय समय में इससे भी असंख्यातगुणे कर्मदलिये ग्रहण किये जाते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित कर्मदलियों को वहांतक ग्रहण किया जाता है कि जबतक अन्तर्मुहूर्तका अन्तिमसमय पूर्ण नहीं हो जाता। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के काल से यह अन्तर्मुहूर्त कुछ अधिक समझना चाहिये । इस प्रकार कर्मपुद्गશકાય તે ગુણશ્રેણિકકમ છે. ગુણશ્રેણી કેને કહેવાય? એ વાત પ્રગટ કરાય છે-કાલાન્તરમાં વેદન કરવા એગ્ય જે વેદનીય આદિક ચાર કર્મ હજુ બાકી છે તેમને જલદી ખપાવવા-ક્ષપણ કરવા-નિમિત્ત તેમના દલિઓમાં ધીમેધીમે ક્રમપૂર્વક પ્રતિસમય પૂર્વ પૂર્વની અપેક્ષા ઉત્તરોત્તર અસંખ્યાત ગુણવૃદ્ધિથી ગુણિત કરીને સ્વલ્પ, બહ, બહુતર તેમજ બહુતમ આમ શ્રેણીરૂપમાં વિભાજિત કરતાં કરતાં સ્થિતિનું ખંડન કરવું એને ગુણશ્રેણું કહે છે. એની મતલબ એ છે કે ગુણશ્રેણુરચનાના પ્રથમ સમયમાં કર્મલિક સ્વલ્પ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, બીજા સમયમાં પ્રથમની અપેક્ષા અસંખ્યાતગુણિત દલિક ગ્રહણ કરવામાં આવે છે. ત્રીજા સમયમાં તેનાથી પણ અસંખ્યાતગુણ કર્મદલિક ગ્રહણ કરાય છે. આ પ્રકારે ઉત્તરોત્તર અસંખ્યાતગુણિત કમંદલિઓને ત્યાં સુધી ગ્રહણ કરવામાં આવે છે કે જ્યાં સુધી અન્તર્મુહૂર્તને અંતિમ સમય પૂરો થઈ ન જાય. અપૂર્વકરણ અને અનિવૃત્તિકરણના કાળથી આ અન્તમુહૂર્ત કંઈ અધિક સમજવું જોઈએ. આ પ્રકારે કર્મ પુદગલની રચનાની Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ औपपातिक असंखेजाहिं गुणसेढीहिं अणंते कम्मंसे खवयंते वेयणिज्जाउयणामगोए इच्थेते चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ, खवित्ता ओरालि ". सेलेसिमद्धाए ' तस्यां शैलेश्यद्धायाम् " क्षपयन् ” – इति पदमध्याहृत्य योजना करणीया; 'असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं ' असंख्येयाभिगुर्णश्रेणिभिः, 'अणते कम्मंसे खवयंते ' अनन्तान् कर्मांशान् क्षपयन्, ' वेयणिज्जाउयणामगोए ' वेदनीयायुर्नामगोत्राणि, 'इच्चे ते चत्तारि कम्मंसे' इत्येतांश्चतुरः कर्माशान् 'जुगवं खवेइ ' युगपत् क्षपयति । अयमंत्र समुदायार्थः एवं पूर्वं गुणश्रेणीं कृत्वा विशुद्धपरिणामवशादसंख्यातसमयवत्यामान्तर्मौहूर्तिक्यां शैश्यवस्थायां कर्म क्षपयन् केवली स्वरचिताभिरसंख्यातगुणश्रेणीभिः शीघ्रतरक्षपणक्रियायां साधनभूताभिरनन्तपुद्गलरूपत्वादनन्तान् कर्माशान् क्षपयन् २ वेदनीयादिकांश्चतुरः कर्मांशान् लोकी रचना की विशेषताका नाम गुणश्रेणी है । इस प्रकार वे केवली भगवान् प्रथम-रचित गुणश्रेणिक कर्मको उस शैलेशी के काल में नष्ट करते हुए असंख्यात गुणश्रेणियों द्वारा अनंत कर्माशोंका क्षय कर देते हैं । ( वेयणिज्जा - उय - नाम - गोए इच्चेते चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ ) वेदनीय, आयु, नाम एवं गोत्र इन चार कर्मांशोंको एक साथ क्षय कर हैं। मतलब इसका यह है- इस प्रकार गुणश्रेणी करके विशुद्ध हुए परिणामों के वश से असंख्यातसमयप्रमाण अन्तर्मुहूर्त कालकी इस शैलेशी अवस्था में वे केवली प्रभु, कर्मको क्षपित करते हुए, कर्मों की शीघ्रतर क्षपण क्रिया में साधनभूत असंख्यात गुणश्रेणियों द्वारा अनन्तपुद्गलस्वरूप कर्मांशोंका क्षय करते २ वेदनीयादिक चार अघातिया कर्माशोका एक ही साथ क्षय कर देते हैं । (खवेत्ता उरालिय- तेय - कम्माई सव्वाहिं विष्पजह - વિશેષતાનું નામ ગુણશ્રેણી છે. આવી રીતે તે કેવલી ભગવાન પ્રથમ રચેલ ગુણશ્રેણિક કને તે શૈલેશીના કાળમાં નષ્ટ કરતાં કરતાં અસંખ્યાત ગુણश्रेणियों द्वारा अनंत उभंना संशोनो क्षय ४री द्वे छे. ( वेयणिज्जाउयणाम गोए इच्चेते चत्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ ) वेहनीय, आयु, नाम तेभन गोत्र थे ચાર કર્માશોના એક સાથે ક્ષય કરે છે. એની મતલબ એ છે કે-આ પ્રકારે ગુણશ્રેણી કરીને વિશુદ્ધ થયેલાં પરિણામને વશ થઈ અસંખ્યાત—સમય—પ્રમાણ અન્તર્મુહૂત કાળની આ શૈલેશી અવસ્થામાં તે કેવલી પ્રભુ કને ક્ષપિત કરતાં કરતાં કર્મોની બહુજ ઉતાવળી ક્રિયામાં સાધનભૂત અસંખ્યાત ગુણુશ્ર ણીઓ દ્વારા અનંતપુદ્ગલસ્વરૂપ કર્માંશોને ક્ષય કરતાં કરતાં વેદનીય આદિક ચાર (૪) અધાતિયા કર્મા શોના એકસાથે જ ક્ષય કરી નાખે છે. ( खवेत्ता उरालिय-तेय -कम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहइ ) ક્ષપણ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टोका सु. ९२ केवलिनः सिद्धिगतिप्राप्तिकमनिरूपणम् ६९७ यतेयकम्माइं सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता उज्जुसेढीपडिवण्णे अफुसमाणगई उड्ढं एकसमएणं अविग्गहेण गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ ॥ सू० ९२ ॥ युगपत् क्षपयतीति । 'खवित्ता' क्षपयित्त्वा 'ओरालियतेयकम्माई' औदारिकतैजसकर्माणि 'सव्याहिं ' सर्वाभिः अशेषाभिः, 'विप्पजहणाहिं' विप्रहाणिभिः-विशेषेण प्रकर्षतो हानयः त्यागास्ताभिः, अत्र व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनम् , विप्पजहइ' विप्रजहाति सर्वथा परिशाटयति, 'विप्पजहित्ता' विग्रहाय परित्यज्य, 'उज्जुसेढीपडिवण्णे' ऋजुश्रेणिप्रतिपन्नः-ऋजुः= अवक्रा, श्रेणिः आकाशप्रदेशपङ्क्तिस्तामाश्रितः 'अफुसमाणगई' अस्पृशद्गतिः-अस्पृशन्ती सिद्धयन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य स तथा, 'एक्कसमएणं' एकसमयेन, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः स्यात् , इष्यते तु तत्रैक एव समयः, य एव चायुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः स एव निर्वाणसमयः । अतोऽन्तराले समयान्तरस्यासद्भावादन्तरालप्रदेशानामसंस्पर्शन भवति । भावतोऽयं सूक्ष्मोऽर्थः केवलिगम्यः । 'अविग्गहेणं' अविग्रहेण=अवक्रेण-वक्र एव हि समयान्तरं लगति प्रदेशान्तरं च स्पृशति । ‘उड्ढे ' ऊर्व 'गंता' गत्वा 'सागारोवउत्ते' साकारोपयुक्तः ज्ञानोपयोगवान् , 'सिज्झइ ' सिद्धयति=सिद्धो भवति ॥ सू० ९२॥ णाहिं विप्पजहइ) क्षपण करने के बाद औदारिक, तैजस एवं कार्मण इन शरीरोंको विशिष्टरूप से समस्त हानियों द्वारा सर्वथा छोड़ देते हैं। (विप्पजहिता उज्जुसेढीपडिवण्णे अफुसमाणगई उड्ढे एकसमएणं अविग्गहेण गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ) छोड़ने के बाद ऋजु-अवक्र आकाशके प्रदेशोंकी पंक्तिस्वरूप श्रेणीको आश्रित करते हुए, अर्थात् श्रेणीके अनुसार सिद्धिके अन्तराल के प्रदेशोंको नहीं स्पर्शते वे केवली भगवान् एक समय में विग्रहरहित गति से-सीधी गति से होकर सिद्धगति में विराजमान हो जाते हैं। यहां उनका उपयोग साकार होता है, अर्थात् ज्ञानोपयोग से वे विशिष्ट रहते हैं। કર્યા પછી ઔદારિક, તેજસ તેમજ કામણુ એ શરીરને વિશિષ્ટરૂપથી स४॥ निम्या वा। सर्वथा छ। हाय छे. ( विप्पजहित्ता उज्जुसेढीपडिवण्णे अफुसमाणगई उड्ढे एक्कसमएणं अविग्गहेण गंतो सागारोवउत्ते सिज्झइ) છોડી દીધા પછી ઋજુ-અવક આકાશના પ્રદેશની પંક્તિસ્વરૂપ શ્રેણીને આશ્રિત કરતાં, અર્થાત શ્રેણીને અનુસાર સિદ્ધિના અંતરાલપ્રદેશોને સ્પર્શ ન કરતાં તે કેવલી ભગવાન એક સમયમાં વિગ્રહરહિત ગતિથી-સીધી ગતિથી થઈને સિદ્ધિગતિમાં વિરાજમાન થઈ જાય છે. અહીં તેમને ઉપયોગ સાકાર હોય Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ औपपातिकसने मूलम् ते णं तत्थ सिद्धा हवंति, साइया अपजवसिया टीका-अत्रोत्तरार्द्र एकोनसप्ततितमे सूत्रे यदवोचत् ‘से जे इमे गामागरजाव सन्निवेसेसु मणुया हवंति सव्वकामविरया' इत्यारभ्य 'अट्ठकम्मपयडीओ खवइत्ता उप्पिं लोयग्ग भावार्थ-इस उपाय से योगोंका निरोध करते समय प्रथम मनोयोगका निरोध करते हैं,फिर वचनयोगका और फिर बाद में काययोगका । योगोंके निरोध हो जाने से वे अयोगी अवस्थाको प्राप्त कर हस्व अकारादि के, अर्थात् अ, इ, उ, ऋ,ल-इन पांच अक्षरों के उच्चारण करने में जितना काल लगता है उतने काल तक उस अयोगी-अवस्था में रहते हुए शैलेशी–अवस्थाको प्राप्त करने के पश्चात् असंख्यातगुणश्रेणी से अनंत कर्माशोंका क्षय कर देते हैं। फिर वेदनीय, आयु, नाम एवं गोत्र इन चार अघातिया कर्मोको युगपत् विनष्ट कर वे भगवान् , औदारिक, तैजस एवं कार्मण शरीरको क्षपित करते हैं। इस प्रकार कर्मों और शरीरों से सर्वथा रहित बने हुए वे प्रभु आकाशकी प्रदेशपंक्ति के अनुसार १ समय प्रमाणवाली अविग्रहगति से गमन कर सिद्धिगति में जाकर विराजमान हो जाते हैं । यहां वे साकार-उपयोगविशिष्ट रहा करते हैं ॥ सू. ९२॥ 'ते णं तत्थ' इत्यादि। इसी आगम के उत्तरार्धका ६९ वाँ सूत्र जो (से जे इमे गामागर जाव सभिवेછે. જ્ઞાનેપગથી તેઓ વિશિષ્ટ રહે છે. ભાવાર્થ-આ ઉપાયથી યેગોને નિરોધ કરતી વખતે પ્રથમ મનોયેગને તે કેવલી નિરોધ કરે છે. પછી વચનગના અને ત્યાર પછી કાયકેગના નિરોધ થઈ ગયા પછી તેઓ અગી-અવસ્થા પ્રાપ્ત કરીને स्व २२ माहिर्नु, अर्थात्-अ, इ, उ, ऋ, लु.-मा पांय अक्षरानु उभ्या કરવામાં જેટલો કાળ લાગે એટલા કાલ સુધી તેઓ તે અગી અવસ્થામાં રહેતા શૈલેશી–અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરીને પછી અસંખ્યાત ગુણશ્રેણીથી અનંત કમોને ક્ષય કરી દે છે. પછી વેદનીય, આયુ, નામ તેમજ ગોત્ર એ ચાર અઘાતિયા કર્મોને યુગપતુ નાશ કરીને તે ભગવાન ઔદારિક, તેજસ તેમજ કાર્પણુ શરીરને ક્ષપિત કરે છે. આ પ્રકારે કર્મો અને શરીરથી સર્વથા રહિત બનેલા તે પ્રભુ આકાશની પ્રદેશપંકિત અનુસાર ૧ સમયપ્રમાણવાળી અવિગ્રહગતિથી ગમન કરીને સિદ્ધિગતિમાં જઈ વિરાજમાન થઈ જાય છે. અહીં તેઓ सा॥२-उपयोग-विशिष्ट २ह्या रे छे. (सू. ६२ ) ___ ते णं तत्थ' छत्याहि.. .. मे ४ सामना उत्तरानुसासित्तेरभुसूत्र (सेजे इमे गामागर जाव Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uterfeit टीका, सु. ९३ सिद्धस्वरूपवर्णनम् असरीरा जीवघणा दंसणनाणोवउत्ता निट्टियट्ठा निरेयणा पट्ठाणा हवंति ' इति, तत्र ते लोकाग्रप्रतिष्ठानाः सन्तः कीदृशा भवन्तीति जिज्ञासायामाह - ' ते णं' इत्यादि । ' ते णं ' ते = पूर्वनिर्दिष्टा मनुष्याः खलु ' तत्थ ' तत्र लोकाग्रे प्रतिष्ठानं प्राप्ताः सन्तः, 'सिद्धा हवंति' सिद्धा भवन्ति । ते कीदृशा भवन्तीत्याह - 'साइया' सादिकाः = आदिसहिताः, ' अपज्जवसिया' अपर्यवसिताः = अन्तरहिताः - अविनाशिन इत्यर्थः 'असरीरा ' अशरीराः=पञ्चविधशरीररहिताः, अन्ये वदन्ति - सशरीरोऽपि सिद्धो भवतीति तन्मतनिराकरणार्थ ६९९ I सेसु मणुया हवंति सव्वकामविरया) यहाँ से लेकर (अट्ठ कम्मपगडीओ खवइत्ता उपि लोयग्गपट्टाणा हवंति) यहाँ तक है । इस सूत्र में यह जो कहा गया है कि वे सिद्ध भगवान् लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हो जाते हैं, उसी विषय में अब इस सूत्र द्वारा यह बताया जाता है कि वे सिद्ध भगवान् लोक के अग्रभाग में रहते हुए कैसे होते हैं । वह इस प्रकार है- (ते णं तत्थ सिद्धा हवंति) वे पूर्वनिर्दिष्ट मनुष्य, लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित होते हुए सिद्ध कहे जाते हैं, वे (साइया अपज्जवसिया) सादि और पर्यवसानरहित होते हैं, अर्थात्-वहां से फिर उन्हें संसार में पीछे जन्म धारण नहीं करना पड़ता है, एतदर्थ उन्हें अपर्यवसित कहा है । अनादिकाल से लगे हुए कर्मों का क्षय करके वे सिद्ध हुए हैं, अतः इस अपेक्षा वे सादि कहे गये हैं । (असरीरा) औदारिक आदि पांच शरीरों से वे सर्वथा रहित होते हैं। कितनेक ऐसा कहते हैं कि सशरीर भी प्राणी सिद्ध होता है, उनके इस सिद्धान्त को दूर करते हुए भगवान ने सिद्धों का ( असरीरा) यह विशेषण दिया है । सन्निवेसे मणुया हवंति सव्वकामविरया) सहीं थी बहने (अट्ठ कम्मपगडीओ खवइन्ता पं लोयग्गपट्टणा हवंति) अडीं सुधी छे. या सूत्रमां ने आा हेवामां आयु छ કે તે સિદ્ધ ભગવંતા લાકના અગ્રભાગમાં પ્રતિષ્ઠિત થઇ જાય છે, તે જ વિષયમાં આ સૂત્ર દ્વારા એમ બતાવવામાં આવે છે કે તેઓ સિદ્ધ ભગવંતા લેાકના अग्रभागमां रÈतां देवा थाय छे. ते या प्रारे छे - ( ते णं तत्थ सिद्धा हवंति ) તે પૂર્વે બતાવેલા મનુષ્ય, લાકના અગ્રભાગમાં પ્રતિષ્ઠિત થઈ જતાં સિદ્ધ उडेवाय छे. तेथे ( साइया अपज्जवसिया ) साहि अने अंत (४न्भ-भरणु )રહિત થાય છે. ત્યાંથી પાછા તેઓને સંસારમાં જન્મ ધારણ કરવા પડતા નથી, તે અમાં તેમને અપર્યવસિત કહેવામાં આવે છે. અનાદ્વિકાળથી લાગેલાં કર્મના ક્ષય કરીને તે સિદ્ધ થયા છે, આથી એ અપેક્ષાએ તેમને સાદિ કહે છે. असरीरा ) मौहारि४ माहि यांन्य शरीरोथी तेथे सर्वथा રહિત થાય છે. કેટલાક એમ કહે છે કે સશરીર પણ પ્રાણી સિદ્ધ હોય છે, तेनां या सिद्धांतने २ ४२तां लगवाने सिद्धोने ' असरीरा' मे विशे Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० - - - - - औपपातिकसूत्रे नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति ॥९३॥ मिदं विशेषणम् , 'जीवघणा' जीवधनाः-जीवाश्च ते घना जीवधनाः-अन्तररहितत्वेन जीवप्रदेशमयाः, योगनिरोधकाले रन्ध्रपूरणेन त्रिभागोनावगाहनायाः सद्भावादित्यर्थः, 'दंसणनाणोवउत्ता' दर्शनज्ञानोपयुक्ता-दर्शनम् अनाकारं, ज्ञानं साकारं, तयोरुपयुक्ताः, 'निहियद्वा' निष्ठितार्थाः कृतकृत्याः-समाप्तसर्वप्रयोजना इत्यर्थः । 'निरयणा' निरेजनाः निश्चलाः-स्थिरा इत्यर्थः, 'नीरया' नीरजसः बध्यमानकर्मरहिता इत्यर्थः, यद्वा-नीरया इतिच्छाया, रयो, वेगस्तद्रहिताः=निरुद्वेगा:-निरौत्सुक्या इत्यर्थः । ‘णिम्मला' निर्मलाः पूर्वबद्धकर्म-- निमुक्ताः, 'वितिमिरा' वितिमिराः विगताज्ञानाः, 'विसुद्धा' विशुद्धाः कर्मविशुद्धप्रकर्षमुपगताः, इससे भगवान का यह अभिप्राय प्रगट होता है कि शरीरसहित जीव कभी भी मुक्त नहीं होता है। (जीवघणा) अन्तररहित होने से वे भगवान जीवप्रदेशमय रहते हैं। अन्त के शरीर की अवगाहना से उनकी सिद्ध-अवस्था में अवगाहना कुछ कम रहती है। योगनिरोधकाल में शरीर के छेदों के पूरण हो जाने से त्रिभाग-ऊन उनकी अवगाहना बतलाई गई है। (दसणणाणोवउत्ता) दर्शन एवं ज्ञान से वे उपयुक्त रहा करते हैं। अनाकार ज्ञान का नाम दर्शन एवं साकार ज्ञान का नाम ज्ञान कहा गया है। (निट्ठियट्ठा) समस्त मनोरथ सिद्ध हो जाने से एवं कुछ भी कार्य करने के लिये बाकी नहीं रहने से वे भगवान् कृतकृत्य कहे जाते हैं। तथा (निरेयणा) ये निश्चल, (नीरया) बध्यमान कर्मों से रहित, अथवा निरुद्वेग, (णिम्मला) निर्मल-पूर्वबद्धकर्मों से निर्मुक्त, (वितिमिरा) अज्ञानरूप तिमिर से अतीत, ષણ આપ્યું છે. આથી ભગવાનને આ અભિપ્રાય પ્રગટ થાય છે કે શરીરसहित ७१ ४४ी ५ भुत था नथी. (जीवघणा) मत२२डित डोवाथी તે ભગવાન જીવપ્રદેશમય રહે છે. અંતના શરીરની અવગાહનાથી તેમની સિદ્ધ-અવસ્થામાં અવગાહના જરા ઓછી રહે છે. ગ-નિરોધ કાળમાં શરીરના છેદના પૂરણ થઈ જવાથી વિભાગન્યૂન તેમની અવગાહના બતાવેલી છે. (दसणणाणोवउत्ता) शन तेभ शानथी ते ७५युत २॥ ४२छे. मना२शाननु नाम हीनतम सा॥२ ज्ञाननु नाम ज्ञानदेवाय . (निदियट्टा) समस्त मनोरथ સિદ્ધ થઈ જવાથી તેમજ કાંઈ પણ કાર્ય કરવાનું બાકી ન રહેવાથી તે ભગવાન કૃતकृत्य उपाय छे. तथा (निरेयणा) तमो निश्व, (नीरया ) मध्यभान ४ थी २डित, निरुद्वेग, (णिम्मला) निर्भ-पूर्व ४था निभुत, (वितिमिरा) मज्ञान३५ विभि२-५४ारथी सतात, (विसुद्धा) ना विनाशथी यती Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका, सू. ९३, ९४ सिद्धानां साथपर्यवसितत्वादिवर्णनम् ७०१, ___मूलम्--से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-ते णं तत्थ सिद्धा. भवंति सादीया अपजवसिया जाव चिट्ठति ? गोयमा ! से जहा णामए बीयाणं. अग्गिदड्ढाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइ, 'सासयमणागयद्धं कालं चिति' शाश्वतम् अमागताद्धं कालं भविष्यत्कालं “चिटुंति' तिष्ठन्ति ॥ सू० ९३ ॥ ____टीका-गौतमः पृच्छति-'सेकेणद्वेणं भंते'! इत्यादि । 'भंते !' हे भदन्त ! 'से केणटेणं' अथ केनाऽर्थेन केन कारणेन ‘एवं वुच्चई' एवमुच्यते. तेणं तत्थ सिद्धा भवंति' ते खलु तत्र सिद्धा भवन्ति, सादीया' सादिका 'अपज्जवसिया' अपर्यवसिता 'जाव चिट्ठति' यावत् तिष्ठन्ति ?, भगवानाह-'गोयमा!' हे गौतम ! ' से जहा णामए' तद् यथा नाम 'बीयाणं अग्गिदड्ढाणं' बीजानामग्निदग्धानां 'पुणरवि' पुनरपि — अंकुरुप्पत्ती ण भवइ ' अङकुरोत्पत्तिर्न भवति, ‘एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए (विसुद्धा) कर्मों के विनाश से उद्भूत आत्मविशुद्धि से युक्त हो कर (सासयमणागयद्धं कालं चिदंति) भविष्यत्काल में शाश्वतरूप से सिद्धावस्था से संपन्न रहा करते हैं । अर्थात्-सिद्ध भगवान् सादि-अनंत रहा करते हैं, एवं शुद्ध आत्मगुणों के पूर्ण विकास से वे सिद्ध-अवस्था में अनंतकालतक विराजित रहते हैं । सू० ९३ ॥ 'सेकेणणं' इत्यादि। प्रश्न- (भंते !) हे भदंत ! (से केणटेणं एवं वुच्चइ) " वे सादि अपर्यवसित होते हैं" यह आप किस कारण से कहते हैं ? उत्तर-(गोयमा!) हे गौतम ! सुनो! (से जहा णामए बीयाणं अग्गिदड्ढाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइं) जिस प्रकार अग्नि मात्भपिशुद्धिथा युत धने (सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति) भविष्यमा शाश्वतરૂપથી સિદ્ધાવસ્થાથી યુકત રહ્યા કરે છે. અર્થાત્ સિદ્ધ ભગવાન સાદિ અનંત રહ્યા કરે છે, તેમજ શુદ્ધ આત્મગુણના પૂર્ણ વિકાસથી તેઓ સિદ્ધ અવસ્થામાં मनात सुधी विराभान २९ छे. (सु. ६3). . ‘से केणगुणं' छत्यादि. :: , .. प्रश्न-( भंते !) महत ! ( से केणठेणं एवं वुच्चइ ) “तया साह अपर्यवसित होय छे" मम मा५शु ४२Yधी ४ो छ. ? त्तर-(गोयमा !) गौतम ! समी . (से जहा णामए बीयाणं अग्गिदड्ढाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइ ) २ प्रारे निथी मणेता मीमा शने १२ अपन्न ४२वानी Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go? औपपातिकसूत्रे एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपज्जवसिया जाव चिट्ठति ॥ सू० ९४॥ मूलम्--जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे दड्ढे ' एवमेव सिद्धानां कर्मबीजे दग्धे सति 'पुणरवि' पुनरपि ‘जम्मुप्पत्ती न भवइ ' जन्मोत्पत्तिर्न भवति-जन्मनः प्रादुर्भावो न भवति, ‘से तेणटेणं' तत्तेनाऽर्थेन, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एवं वुच्चइ' एवमुच्यते-' ते णं सिद्धा भवंति सादीया अपज्जवसिया' ते खलु सिद्धा भवन्ति सादिका अपर्यवसिता 'जाव चिह्रति' यावत्तिष्ठन्ति ।।सू० ९४॥ टीका-गौतमः पृच्छति-'जीवाणं भंते !' इत्यादि । 'भंते ! ' हे भदन्त ! 'जीवा णं' जीवाः खलु 'सिज्झमाणा' सिद्धयन्तः ‘कयरंमि' कतरस्मिन् षट्सु संहननेषु कस्मिन् ‘संघयणे' संहनने 'सिझंति' सिध्यन्ति । भगवानाह-'गोयमा' से दग्ध बीजों में पुनः अंकुर को उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं रहती है, (एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती ण भवइ ) उसी तरह सिद्ध भगवान् के भी कर्मरूपी संसारका बीज नष्ट हो जाने पर पुनः जन्मकी उत्पत्ति नहीं होती हैं । (से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ) इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा है कि (ते णं सिद्धा भवंति सादीया अपज्जवसिया) वे सिद्ध सादि अपर्यवसित होते हैं। सू. ९४ ॥ 'जीवा णं भंते !' इत्यादि । प्रश्न- (भंते ! ) हे भदंत ! (जीवाणं सिज्झमाणा) जीव सिद्ध होते हुए (कयरंमि संघयणे सिझंति) छह संहननों में से कौन से संहनन में सिद्ध होते हैं ? शहित २९ती नथी, (एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती ण भवइ) तवी ते सिद्ध भगवानने पर भी ससानां भी नष्ट थ पाथी शने भनी उत्पत्ति थती नथी. (से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ ) मेटा माटे गौतम ! म ४ह्यु छ है ( ते णं सिद्धा भवंति सादिया अपज्जवसिया) ते सिद्धी साहि-अपर्यवसित होय छे. (सू. ८४) 'जीवा गं भंते ! सिझमाणा' त्यादि. प्रश्न-(भंते !) महन्त ! (जीवा गं सिझमाणा) १ सिद्ध २४ ( कयरंमि संघयणे सिझंति ?) ७ सहननामाथी ४या सहननमा सिद्ध Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषयषिणी टी. स्व०९५,९६ सिध्यमानानां संहननसंस्थानवर्णनम् ७०३ सिझंति?गोयमा! वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति ॥सू० ९५॥ मूलम्--जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संठाणे सिझंति १ गोयमा ! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे सिझंति ॥ ९६ ॥ हे गौतम ! 'वइरोसभणारायसंघयणे' वज्रर्षभनाराचसंहनने 'सिझंति' सिद्धयन्ति ।।सू० ९५॥ टीका-गौतमः पृच्छति- 'जीवा णं भंते !' इत्यादि । 'भंते !' हे भदन्त != हे भगवन् ! 'जीवा णं सिज्झमाणा कयरम्मि संठाणे सिझंति ?' जीवाः खलु सिध्यन्तः कतरस्मिन् संस्थाने सिध्यन्ति ? भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे सिझंति' षष्णां संस्थानानामन्यतरस्मिन् कस्मिंश्चिदेकस्मिन् संस्थाने सिध्यन्ति ॥ सू० ९६ ॥ उत्तर-(गोयमा !) हे गौतम ! (वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति) वज्रऋषभनाराचसंहनन से वे सिद्ध होते हैं। वजऋषभनाराचसंहननवाला जीव ही मुक्ति को पाता हैं ।सू. ९५॥ 'जीवा णं भंते !' इत्यादि। प्रश्न-(भंते !) हे भदंत ! (जीवाणं सिज्झमाणा) जो जीव सिद्ध होते हैं वे (कयरंसि संठाणे सिझंति) कौन से संस्थान से सिद्ध होते हैं ? उत्तर-(गोयमा!) हे गौतम ! (छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे सिमंति) छह संस्थानों में से किसी भी एक संस्थान से जीव सिद्धिगतिका लाभकर सकते हैं । सू. ९६ ॥ थाय छ ? उत्तर-(गोयमा !) गौतम! (बइरोसभणारायसंघयणे सिझंति) વજઋષભનારાચસંહનનથી તેઓ સિદ્ધ થાય છે. વજaષભનારાસંહનનવાળા 40 भुमितने भेज छ. (सू. ८५) 'जीवा णं भंते !' त्यादि. प्रश्न-(भंते ! ) मत ! (जीवा णं सिझमाणा) रेलवे सिद्ध थाय छ तमा ( कयरंमि संठाणे सिझंति ?) ४या संस्थानथी सिद्ध थाय छ ? उत्तर(गोयमा ! छण्हं संठाणाण अण्णयरे संठाणे सिझंति) गौतम! छ સંસ્થામાંથી કોઈ પણ એક સંસ્થાનથી જીવ સિદ્ધિગતિને લાભ કરી श छ. (सु. ८ ) Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ faras मूलम् —— जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्च सिज्यंति ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचणुसइए सिज्झति ॥सू० ९७॥ २०० टीका- गौतमः पृच्छति - ' जीवा णं भंते!' इत्यादि । ' भंते!' हे भदन्त ! ' जीवाणं सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चते सिज्यंति ?' जीवाः खलु सिध्यन्तः कतरस्मिन्कयति उच्चत्वेऽवगाहनेन सिध्यन्ति ? भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम! ' जहणणेणं' जघन्येन 'सत्तरयणीए' सप्तरत्निके सप्तहस्तपरिमिते 'उक्कोसेणं' उत्कर्षेण 'पंचधणुसइए' पञ्चधनुःशतिके= पञ्चशतधनुः परिमिते उच्चत्वे, 'सिज्झति' सिध्यन्ति । चतुर्हस्तपरिमाणविशेषो धनुरित्युच्यते । इदं जघन्यं तीर्थंकरापेक्षया कथितम् । अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मीपुत्रेण न विरोधः । ॥ सू० ९७ ॥ 'जीवा णं भंते!" इत्यादि । प्रश्न - ( जीवा णं भंते ! सिज्झमाणां कयरम्मि उच्चत्ते सिज्झति ? ) भदंत ! जो जीव सिद्ध होते हैं वे कितनी अवगाहना से सिद्ध होते हैं ? उत्तर - ( गोयमा ! जहणं सत्तरयणी उक्कोसेणं पंचधणुसईए सिज्झति ) है गौतम ! कम से कम - ७ हाथ प्रमाणवाली अवगाहना से और उत्कृष्ट से ५०० धनुषकी अवगाहना से सिद्ध होते हैं । ४ हाथका एक धनुष होता है । जघन्य कथन तीर्थंकर की अपेक्षा से जानना चाहिये । अतः दो हाथकी अवगाहना वाले कुर्मीपुत्र से इसमें कोई विरोध नहीं आता है ॥ ९७॥ 'जीवा णं भते ! त्याहि. प्रश्न - ( जीवा णं भते ! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिज्झति ? ) डे ભત ! જે જીવ સિદ્ધ થાય છે તે કેટલી અવગાહનાથી સિદ્ધ થાય છે? उत्तर—( गोयमा ! जहणणेणं सत्तरयणीए उक्कोसेणं पंचधणुसइए सिज्यंति ) હે ગૌતમ ! એછામાં એછી ૭ હાથ--પ્રમાણવાળી અવગાહનાથી અને ઉત્કૃષ્ટથી ( વધારેમાં વધારે) ૫૦૦ ધનુષની અવગાહનાથી સિદ્ધ થાય છે. ૪ હાથનું એક ધનુષ થાય છે. જધન્ય કથન તીથ રની અપેક્ષાએ જાણવું જોઈ એ. આથી એ હાથની અવગાહનાવાળા કૂમી પુત્રથી આમાં કઈ વિરોધ આવતા नथी. (सू. ८७) Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टीका स.९७,९८,सिद्धानामुञ्चत्वायुषोर्विषये भगवद्गीतमयो:सघादः ७०५ मूलम्-जीवाणं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिझंति ? गोयमा! जहण्णेणं साइरेगट्ठवासाउए, उक्कोसेणं पुव्वकोडियाउए सिझंति ॥ सू० ९८ ॥ टीका-गौतमः पृच्छति-'जीवा णं भंते !' इत्यादि । 'भंते !' हे भदन्त ! 'जीवा णं सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिझंति ?' जीवाः खलु सिध्यन्तः कतरस्मिन् आयुषि सिध्यन्ति ? भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'जहण्णेणं साइरेगट्ठवासाउए' जघन्येन सातिरेकाऽऽष्टवर्षाऽयुषि, 'उक्कोसेणं' उत्कर्षेण 'पुव्वकोडियाउए' पूर्वकोट्यायुषि 'सिझंति' सिध्यन्ति । पूर्व इति चतुरशीतिलक्षाणां चतुरशीतिलक्षैर्गुणने कृते या संख्योपलभ्यते तावत्संख्यकवर्षपरिमितः काल उच्यते ॥ सू० ९८॥ 'जीवा गं भंते' इत्यादि। प्रश्न-(जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिझंति ?) हे भदंत ! जो जीव सिद्ध होते हैं वे कितनी आयुवाले सिद्ध होते हैं ? अर्थात् कितनी आयुतक के जीव सिद्धिगतिका लाभ कर सकते हैं ? उत्तर-(गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगढ़वासाउए उक्कोसेणं पुव्वकोडियाउए सिज्झंति) कम से कम आठ वर्ष से कुछ अधिक आयु वाले जीव सिद्ध हो सकते हैं और ज्यादा से ज्यादा एक पूर्वकोटि आयुवाले जीव सिद्ध हो सकते हैं। ८४००००० चौरासी लाख वर्षका पूर्वाङ्ग होता है और ८४००००० चौरासी लाख पूर्वाङ्गका एक पूर्व होता है ॥ सू. ९८ ॥ 'जीवा गं भंते !' त्याहि. प्रश्न-(जीवा णं भंते ! सिझमाणा कयरम्मि आउए सिझंति ?) 8 ભદંત ! જે જીવ સિદ્ધ થાય છે તે કેટલી આયુષ્યવાળા સિદ્ધ થાય છે ? અર્થાત્ કેટલી આયુષ્ય સુધીના જીવ સિદ્ધિગતિને લાભ કરી શકે છે? उत्तर-(गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगढवासाउए उक्कोसेणं पुव्वकोडियाउए सिमंति) माछामा सोछ। ८ १२सथी थास पधारे आयु (भ२) વાળા જીવ સિદ્ધ થઈ શકે છે, અને વધારેમાં વધારે ૧ પૂર્વકેટી આયુષ્યવાળા જીવ સિદ્ધ થઈ શકે છે. ૮૪૦૦૦૦૦ ચોર્યાસી લાખ વર્ષનું એક પૂર્વાગ થાય છે, અને ૮૪૦૦૦૦૦ ચોર્યાસી લાખ પૂર્વાગનું એક પૂર્વ थाय छे. (सू. ८८) Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम्-अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ? णो इणढे समहे ! एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ सू० ९९ ॥ - अत्थि णं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परि टीका—'ते णं तत्थ सिद्धा हवंति' इति पूर्वोक्तवचनात् यद्यपि लोकाग्रं सिद्धानां स्थानमिति निश्चीयते, तथापि मुग्धशिष्यस्य विविधलोकाग्रकल्पनानिराकणार्थ लोकाग्रस्वरूपं विशेषेण बोधयितुं च प्रश्नोत्तरसूत्रमाह--'अस्थि णं' इत्यादि । गौतमः पृच्छति'अस्थि णं भंते !' अस्ति खलु भदन्त ! 'अस्थि णं' इति वाक्योपन्यासे, 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति?' अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधः सिद्धाः परि वसन्ति किम् ?, भगवानुत्तस्माह-'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः, ‘एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याः, न परिवसन्तीत्यर्थः ।। सू० ९९ ॥ टीका--'अस्थि णं' इत्यादि । गौतमः पृच्छति- 'अत्थि णं भंते !' अस्ति खलु भदन्त ! 'सोहम्मस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परिवसंति ?' सौधर्मस्य कल्पस्याऽधः सिद्धाः परिवसन्ति किम् ? भगवानाह-' णो इणद्वे समढे'' नायमर्थः समर्थः ! 'एवं सव्वेसिं 'अस्थि णं भंते !' इत्यादि। प्रश्न--(अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति?) हे भदंत ! क्या सिद्ध भगवान् इस रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे रहते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! (णो इणद्वे समझे) यह अर्थ. समर्थ-नहीं है,---अर्थात्-रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे सिद्ध नहीं रहते हैं। (एवं जाव अहे सत्तमाए) इसी प्रकार शर्कराप्रभासे लेकर तमंतमा तक के नीचे भी सिद्ध नहीं रहते हैं; क्यों कि ये सभी नरकलोक हैं । सू० ९९ ॥ 'अत्थि णं भंते !' छत्यादि. प्रश्न-(अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ?) હે ભદંત ! શું સિદ્ધ ભગવાન આ રત્નપ્રભા પૃથિવીની નીચે રહે છે ? ઉત્તરहै गौतम ! (णो इणढे समठे ) ॥ अथ समर्थ नथी, अर्थात्रत्नमा पृथिवीनी नीय सिद्ध २४ता नथी. (एवं जाव अहे सत्तमाए) આ પ્રકારે શરામભાથી લઈને તમતમા સુધીની નીચે પણ સિદ્ધ રહેતા नथी. भ मा मचा न२४४ छ. (२०६८) Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषषिणी-टीका,स.९९,सिद्धानां निवासस्थानविषयेभगवद्गौतमयोःसंपाद:७०७ वसंति ? णो इणहे सम?! एवं सव्वेसिं पुच्छा, ईसाणस्स सणंकुमारस्स जाव अच्चुयस्स गेवेजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणं ॥ सू० १००॥ मूलम्-~-अस्थि णं भंते ! ईसीपब्भाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ?, णो इणहे समठे ॥ सू० १०१ ॥ पुच्छा' एवं सर्वेषां पृच्छा, 'ईसाणस्स सणकुमारस्स जाव अच्चुयस्स गेवेज्जविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणं' ईशानस्य सनत्कुमारस्य यावत्-अच्युतस्य अवेयकविमानानाम्, अनुत्तरविमानानाम् ॥ सू० १०० ॥ टीका-..'अत्थि' इत्यादि । गौतमः पृच्छति-'अत्थि णं भंते !' अस्ति खल 'अत्थि णं भंते !' इत्यादि । प्रश्न-(भंते !) हे भदंत ! (अस्थि णं सोहम्मस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परिवसंति)क्या सिद्ध भगवान् सौधर्म कल्प के नीचे रहते हैं ? उत्तर-(गोयमा !) हे गौतम ! (णो इणढे समढे) यह अर्थ समर्थ नहीं है। (एवं सव्वेसिं पुच्छा ईसाणस्स सणंकुमारस्स जाव अच्चुयस्स गेवेज्जविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणं) इसी तरह गौतम की पृच्छा, ईशान, सनत्कुमार आदि से लेकर अच्युत देवलोक तक के ग्रैवेयक विमानों एवं अनुत्तरविमानों के विषय में भी जाननी चाहिये, और प्रभु का निषेधात्मक उत्तर भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिये ॥ सू० १०० ॥ 'अत्थि णं भंते !' त्याहि. प्रश्न-(भंते ! ) हे महत! ( अत्थि णं सोहम्मस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परिवसंति ) शु सिद्ध मान सौधर्भपनी नीय २७ छ ? उत्तर-(गोयमा !) गौतम! (णो इणठे समठे) मा मर्थ समर्थ नथी. (एवं सव्वेसिं पुच्छा ईसाणस्स सणकुमारस्स जाव अच्चुयस्स गेवेज्जविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणं) એવી રીતે ગૌતમના પ્રશ્નો ઇશાન, સનકુમાર આદિથી લઈને અશ્રુત દેવલોક સુધીના પ્રવેયક વિમાને તેમજ અનુત્તર વિમાનના પણ જાણવા જોઈએ, અને પ્રભુના નિષેધાત્મક ઉત્તરે પણ એજ પ્રકારે સમજી લેવા नई से. (सू० १००) Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ औपपातिकसूत्रे मूलम्-से कहिं खाइ णं भंते ! सिद्धा परिखसंति ?। गोयमा ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भदन्त ! 'ईसीपब्भाराए' ईषत्प्राग्भारायाः-ईषत् अल्पः प्राग्भारो महत्त्वं यस्याः सा तथा तस्याः-सिद्धशिलायाः 'पुढवीए' पृथिव्या 'अहे' अधः 'सिद्धा परिवसंति ?' सिद्धाः परिवसन्ति किम् ?, भगवानाह-'णो इणद्वे समडे' नाऽयमर्थः समर्थः । सू० १०१ ।। टीका--'से कहिं' इत्यादि । गौतमःपृच्छति-'से कहिं खाइ णं भंते ! सिद्धा परिवसंति ? अथ कस्मिन् पुनः खलु भदन्त ! सिद्धाः परिवसन्ति ? 'खाई' इतिदेशीयः शब्दः पुनरर्थवाचकः । भगवानाह-'गोयमा!' हे गौतम ! 'इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए' 'अत्थि णं भंते !' इत्यादि । प्रश्न-(भंते !) हे भदंत ! (अस्थि णं ईसीपब्भाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति?) क्या सिद्ध भगवान् ईषत्प्राग्भारा-सिद्धशिला के नीचे रहते हैं ? उत्तर-हे गौतम ! (णो इणद्वे समढें) यह अर्थ समर्थ नहीं है ॥ सू० १०१॥ 'से कहि खाइ णं इत्यादि। - गौतम ने पुनः प्रभु से पूछा-(भंते!) हे भदंत ! (से कहिं खाइ णं सिद्धा परिवसंति) सिद्ध लोग इन पूर्वोक्त स्थानों में नहीं रहते तो फिर वे कहाँ रहते हैं ? तब प्रभु ने कहा-(गोयमा!) हे गौतम । (इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए) इस रत्नप्रभापृथिवी १-'खाइ' यह देशीय शब्द है, यह 'पुनः' शब्द के अर्थ का द्योतक है। ‘णं' शब्द वाक्यालंकार में प्रयुक्त हुआ है। 'अस्थि णं भंते !' त्यादि. प्रश्न-(भंते !) महत! (अत्थि णं ईसीपब्भाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति ) शुसिद्ध भगवान् षत्प्राउभारा-सिद्धशिवानी नीये २९ छ ? उत्तर- गौतम ! (णो इणठे समठे ) मा म समर्थ नथी. (सू० १०१) 'से कहिं खाइ गं' त्याहि. गौतमे शने प्रभुने पूछ्यु-(भंते !) हे महत! ( से कहिं खाइ णं सिद्धा परिवसंति ) सिद्ध a४ मा पूर्वरित स्थानोमा नथी २७ तो पछी तमा ४यां २९ छ ? त्यारे प्रभुये ४ह्यु-(गोयमा !) गौतम! ( इमीसे १-खाइ' से शह देश ४ छ, Avg 'पुनः' २०४॥ मना सूय४ छ. 'णं' श६ वाज्यालामा छ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका सू.१०२,सिद्धानांनिवासस्थानविषयेभगवद्गौतमयोःसंवाद:७०९ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिमसूरियग्गहगणणक्खत्तताराभवणाओ बहूई जोयणाइं, बहूइं जोयणसयाइं, बहूइं जोयणसहस्साइं, बहूइं जोयणसयसहस्साइं, बहुओ जोयणकोडीआ, बहूआ जोयणकाडाकाडीओ उड्ढतरं उप्पइत्ता सोहम्मी-साण-सणंकुमारअस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयाद् भूमिभागात् 'उड्ढं' ऊर्ध्व 'चंदिम-मूरिय-ग्गहगण-णक्खत्त-ताराभवणाओ' चन्द्र-सूर्यग्रहगण-नक्षत्र-ताराभवनात् 'बहूई जोयणाई' बहूनि योजनानि, 'बहूइं जोयणसयाई' बहूनि योजनशतानि, 'बहूई जायणसहस्साई' बहूनि योजनसहस्राणि, 'बहूइं जायणसयसहस्साई बहूनि योजनशतसहस्राणि, 'बहूओ जोयणकोडीओ' बहव्यो योजनकोट्यः 'बहूओ जोयणकोडीकोडीओ' बहव्यो योजनकोटिकोट्यः 'उड्ढतरं उप्पइत्ता' ऊध्वेतरमुत्पत्य 'सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-महामुक्क-सहस्सारआणय-पाणय-आरण-अच्चुए'सौधर्मे-शान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-लान्तक-महाशुक्र के (बहुसमरणिज्जाओ भूमिभागाओ) बहुसमरमणीय भूमिभाग से (उड्ढं) ऊँचे-ऊपर (चंदिम-सूरिय-ग्गहगण-णक्खत्त-ताराभवणाओ) चंद्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं ताराओं के भवनों से (बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडीकोडीओ) बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन. बहुत हजारों योजन, बहुत लाखों योजन, बहुत करोड़ों योजन एवं अनेक कोटाकोटी योजन (उड्ढतरं उप्पइत्ता) ऊपर जाने पर (सोहम्मी-साण-सणंकुमार-माहिंदबंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय-आरण-अच्चुए तिण्णि य अट्ठारे गेविज्ज रयणप्पहाए पुढवीए) । २त्नमा पृथिवीना (बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ) पसभरभणीय भूमिमाथी ( उड्ढं ) 2-3५२ (चंदिमसूरियग्गहगणणक्खत्तताराभवणाओ) यद्रमा, सूर्य, ड, नक्षत्र तभ०४ तारायानां भवनाथी (बहूई जोयणसयाइं बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडीकोडीओ) घg। सायेयोन, घणा से४। જન, હજારે એજન, ઘણુ લાખો યોજન, ઘણું કરડે જન તેમજ मने टीटी यान ( उड्ढतरं उप्पइत्ता) S५२ rai ( सोहम्मी-साणसणंकुमार-माहिद-बंभ-लंतग-महासुक्क सहस्सार-आणय-पाणय-आरण-अच्चुए Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० औपपातिक माहिंद - बंभ - लंतग-महासुक्क - सहस्सार - आणय - पाणय- आरण - अच्चए तिष्णि य अहारे गेविजविमाणावाससए वोर्डवsता विजय- वेजयंत - जयंत - अपराजिय- सव्वट्टसिद्धस्स य महावि माणस्स सव्बउवरिल्लाओ थ्रुभियग्गाओ दुवालसजेोयणाई अवाहाए एत्थ णं ईसीपब्भारा णाम पुढवी पण्णत्ता, पणयालीसं जो सहस्रारा-ऽऽनत-प्राणताऽऽ-रणाऽच्युतानि, 'तिष्णि य अट्ठारे गेविज्जविमाणावाससए' त्रीणि च अष्टादश ग्रैवेयविमानावासशतानि - यैवयकविमानावासानाम् अष्टादशाधिकशतत्रयं 'बीईव - त्ता' व्यतित्रज्यव्यतीत्य-उल्लङ्घ्य, तत्र - प्रथमत्रिकस्य एकादशाधिकशतं (१११), द्वितीयत्रिकस्य सप्तोत्तरशतं (१०७), तृतीयत्रिकस्य शतं (१००) ग्रैवेयकविमानावासान् व्यतिक्रम्येत्यर्थः । ‘विजय- वेजयंत - जयंत - अपराजिय-सम्बद्धसिद्धस्स य महाविमाणस्स' विजय- वैजयन्त-जयन्ताs - पराजित - सर्वार्थसिद्धस्य च महाविमानस् 'सव्वउवरिल्लाओ' सर्वोपरितनात्, 'धूभियग्गाओ' स्तूपिकाप्रात् = शिखराग्रभागात् 'दुवालस farmareer ) सौधर्म, ईशान, सनःकुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक, सहखार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत ये १२ देवलोक, एवं प्रथमत्रिक के १११, दूसरे त्रिक के १०७, एवं तीसरे त्रिकके १०० इस प्रकार तीनसौ अठारह ग्रैवेयक विमानों को (वीईवइत्ता) पार करने के बाद जो ( विजय - वेजयंत - जयंत - अपराजिय-सम्बद्ध सिद्धस्स य महाविमाणस्स सव्वउवरिल्लाओ धूभियागाओ ) विजय, वैजयन्त, जयंत, अपराजित एवं सवार्थसिद्ध ये पांच अनुत्तर विमान आते हैं, इन महाविमानों के शिखर के अग्र - तिष्णि य अट्ठारे गेविज्जविमाणावाससए ) सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, भाडेन्द्र, ब्रह्म, वांत, महाशुङ, सहसार, मानत, आशुत, भारण, अभ्युत આ ૧૨ દેવાય, તેમજ પ્રથમ ત્રિકનાં ૧૧૧, ખીજા ત્રિકનાં ૧૦૭, તેમજ त्रील त्रिश्नां १००, मे रीते शुसो मढार (३१८) ग्रैवेय विभानाने ( वीईवइत्ता) चार अर्था पछी ने (विजय - वेजयंत - जयंत - अपराजिय- सव्वट्टसिद्धस्स य महाविमाणस्स सव्ववरिल्लाओ थूभियग्गाओ ) विभ्य, वैन्यन्त, भ्यंत, अपराभित, તેમજ સર્વાર્થસિદ્ધ એ પાંચ અનુત્તર વિમાન આવે છે, એ મહાવિમાનના शिमरना अग्रभागथी ( दुवालसजोयणाई अबाहाए ) १२ येन हर त Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणो-टोका, सू.१०२,सिद्धानांनिवासस्थानविषये भगवद्गौतमयोःसंवादः७११ यणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकाडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साइं दाण्णि य अउणापण्णे जायणसए किंचिविसेसाहिए परिरएणं ॥ सू० १०२ ॥ .. मूलम्-ईसीपब्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभाए. जोयणाई' द्वादश योजनानि 'अवाहाए' अबाधया=अन्तरेण-दृरेण ततोऽप्युपरीत्यर्थः, 'एत्थ णं' अत्र खलु 'ईसीपब्भाराणाम' ईषत्प्राग्भारा-सिद्धशिला नाम 'पुढवी पण्णत्ता' पृथिवी प्रज्ञता, 'पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं' पञ्चचत्वारिंशत् योजनशतसहस्राणि आयामविष्कम्भेण-आयामेन विष्कम्भेण .च, 'एगा.जोयणकोडी' एका योजनकोटिः 'बायालीसं च' द्वाचत्वारिंशच्च 'सयसहस्साई' शतसहस्राणि 'तीसं च सहस्साई' त्रिंशच्च सहस्राणि, 'दोण्णि य अउणापण्णे जोयणसए' द्वे चैकोनपञ्चाशे योजनशते, 'किंचि. विसेसाहिए' किञ्चिद्विशेषाधिके 'परिरयेणं' परिरयेण–परिधिना ॥ सू० १०२ ॥ टीका--'ईसीपब्भाराए' इत्यादि । 'ईसीपब्भाराए णं पुढवीए' ईषत्प्राग्भारायाः खलु पृथिव्या 'बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणिए खेते अट्ठ जायणाई बाहल्लेणं' भाग से (दुवालस जोयणाइं अबाहाए ) बारह योजन दूर जाने पर, अर्थात् इन पांच अनुत्तर विमानोंके शिखरों के अग्रभाग से १२ योजन ऊपर (एत्थ णं ईसीपब्भारा णाम पुढवी पण्णत्ता) ईषत्प्राग्भारा पृथिवी अर्थात् सिद्ध शिला है। (पणयालीस जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साइं दोणि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए पडिरएण) यह पैंतालीस लाख योजनकी लंबी-चौड़ी और एक करोड बयालीस लाख, तीन हजार, दो सौ उंचास योजन से कुछ अधिक परिधिवाली है । सू. १०२॥ मर्थात मे पाय मनुत्तविमानानां महागथी १२ योन ५२ ( एत्थ णं ईसीपब्भारा णाम पुढवी पण्णत्ता ) ध्यत्मामा पृथिवी-मर्थात् सिद्धशिता छ. (पणयालीसं च जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई, तीसं च सहस्साई; दोणि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए पडिरएणं) मा पीरतालीस साम योजना ainी-पक्षमा અને એક કરોડ બેતાલીસ લાખ ત્રીસ હજાર બસે ઓગણપચાસ યોજનથી ४२॥ पधारे परिधिवाजी छ. ( सू० १०२) Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ औपपातिकसूत्रे अजोयणिए खेत्ते अह जायणाइं बाहल्लेणं, तयाणंतरं च णं मायाएर परिहायमाणी २ सव्वेसु चरिमपेरंतेसु मच्छियपत्ताआ तणुयतरा अंगुलस्स असंखेजइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ता ॥ सू० १०३ ॥ बहुमध्यदेशभागेऽष्टयोजनिक क्षेत्रम् अष्ट योजनानि बाहल्येन, 'तयाणंतरं च णं' तदनन्तरञ्च खलु 'मायाए' २ मात्रया २ 'परिहायमाणी' २ परिहीयमाना २'सव्वेसुचरिमपेरंतेमु सर्वेषु चरमप्रान्तेषु 'मच्छियपत्ताओ तणुयतरा' मक्षिकापक्षात्तनुकतरा 'अंगुलस्स असंखेजइभार्ग' अङ्गुलस्याऽसंख्येयभागं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता ॥ सू० १०३ ॥ 'इसीपब्भाराए णं पुढवीए' इत्यादि । इस (इसीपब्भाराए णं पुढवीए) ईषत्प्रागभारा पृथिवीका अर्थात् सिद्धशिलाका (बहुमज्झदेसभाए अटुजोइणिए खेत्ते) जो बहुमध्यदेशभागस्थित आठ योजनका क्षेत्र है, उसका (अट्ठजोयणाइं बाहल्लेणं) आठ योजन बाहल्य है, अर्थात् सिद्धशिला बीच में आठ योजन जाड़ी है । (तयाणंतरं च णं मायाए २ परिहायमाणी २) उस मध्यभाग से क्रमशः कम होती हुई यह (सव्वेसु चरिमपेरंतेसु) सभी चरम प्रदेशों में (मच्छियपत्ताओ तणुयतरा) मक्खी के पांख से भी अधिक पतली है, (अंगुलस्स असंखेजइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ता) अतः यह बारीकी में अंगुल के असंख्यातवें भाग जाननी चाहिये ॥ सू. १०३ ॥ 'ईसीपब्भाराए णं पुढवीए' त्याहि. ___ा (ईसीपब्भाराए णं पुढवीए) षत्प्रामा२। पृथिवाना, अर्थात् सिद्धशियाना (बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणिए खेत्ते ) मई-मध्यश-मागमा २ रे 28 योन प्रमाणपाणु क्षेत्र छ, तेनi ( अदुजोयणाई बाहल्लेणं) माइयोन मादय छ, अर्थात् सिद्धशिमा वयभामा योनी छे. (तयाणंतरं च णं मायाए २ परिहायमाणी २) ते मध्यमाथी भश: धीमे-धीमे साछी थतi ndi AI, ( सव्वेसु चरिमपेरंतेसु) मा यम प्रशामा (मच्छियपत्ताओ तणुयतरा) मामानी पांमथी ५४ वधारे पातमी छे. ( अंगुलस्स असंखेज्जइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ता) पाम ते भारीमा मांजाना असण्याતમા ભાગની જાણવી જોઈએ. (સૂ૦ ૧૦૩) Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका, सू. १०३, १०४ ईषत्प्राग्भाराया द्वादश नामानि. ३ मूलम्-ईसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेजा पण्णत्ता, तं जहा-ईसीइ वा ईसीपब्भाराइ वा तणूइ वा तणुतणूइ वा सिद्धीइ वा सिद्धालएइ वा मुत्तीइ वा मुत्तालएइ वा लेोयग्गेइ वा लोयग्गथूभिगाइ वा लेोयग्गपडिबुज्झणाइ वा सव्व-पाण-भूय-जीव-सत्त-सुहावहाइ वा ॥ सू० १०४॥ टीका--'ईसीपब्भाराए' इत्यादि ! 'इसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता' ईषत्प्राग्भारायाः खलु पृथिव्या द्वादश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा' तद्यथा-'ईसीइ वा' ईषत् इति वा १, 'ईसीपब्भाराइ वा' ईषत्प्राग्भारा इति वार, 'तणूइ वा' तनुरिति वा३, 'तणुतणइ वा तनुतनुरिति वा४, सिद्धीइवा' सिद्धिरिति वा५, 'सिद्धालएइ वा' सिद्धालय इति वा ६, 'मुत्तीइ वा' मुक्तिरिति वा ७, 'मुत्तालएइ वा' मुक्तालय इति वा ८, 'लोयग्गेइ वा' लोकाग्रमिति वा ९, 'लोयग्गथूभिगाइ वा' लोकाग्रस्तूपिकेति वा १०, 'लोयग्गपडिबुज्झणाइ वा' लोकाग्रप्रतिबोधनेति वा ११, 'सव्व-पाण-भूय-जीव -सत्त-सुहावहाइ वा' सर्व-प्राण-भूत-जीव-सत्त्व-सुखावहेति वा १२ ॥ सू० १०४ ॥ 'ईसीपब्भाराए णं पुढवीए' इत्यादि । (ईसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेज्जा भवंति) ईषत्प्रागभारा पृथिवी के १२ नाम हैं, (तं जहा) जैसे-१-(ईसीइ वा) ईर्षत् , २-(ईसीपब्भाराइ वा) ईषत्प्राग्भारा, ३-(तणूइ वा) तनु, ४-(तणुतणू इवा) तनुतनु, ५-(सिद्धी इ वा) सिद्धि, ६-(सिद्धालए इवा) सिद्धालय, ७-(मुत्ती इवा) मुक्ति, ८-(मुत्तालए इवा) मुक्तालय, ९-(लोयग्गे इवा) लोकाग्र, १०-(लोयग्गथूभिगा इवा) लोकाग्रस्तृपिका, ११-(लोयग्गपडिबुज्झणा 'ईसीपब्भाराए णं पुढवीए' त्यादि. (ईसीपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता) २षत्माअना। पृथिवीन १२ नाभा छ, (तं जहा ) म १-(ईसी इवा) ध्षत् , २-" (ईसीपब्भारा इवा) ध्षामा२, 3-(तणू इवा) तनु, ४-(तणुतणू इ वा) तनुतनु, ५-(सिद्धी इवा) सिद्धि, ६-(सिद्धालए इवा) सिद्धारय,७-(मुत्ती इवा) भुमित, ८(मुत्तालए इ वा) भुतालय, ६-(लोयम्गे इ वा) a , १०-(लोयग्गथूभिगा इ वा) स्तु५ि४, ११-(लोयम्गपडिबुझणा इवा) अप्रतिमाधना, १२-(सव्व-पाण Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिक मूलम् - ईसीपब्भारा णं पुढवी सेया संखतल - विमलसोल्लिय - मुणाल - द्गरय- तुसार - गोक्खीर - हार - वण्णा उत्ताणय - छत्त-संठाण - संठिया सव्वजुणसुव्वण्णयमई अच्छा सहा ७१४ टीका - - 'ईसीपन्भारा' इत्यादि । 'ईसीप भारा णं पुढवी' ईषत्प्राग्भारा खलु पृथिवी 'सेया' श्वेता 'संखतल - विमल - सोल्लिय - मुणाल - दगरय- तुसार गोक्खीर -हार-वण्णा' शङ्खतल-विमल - शौल्य- मृणाल - दकरज - स्तुषार- गोक्षीर-हार-वर्णा-तत्र - शङ्खतलं = शङ्ङ्खस्याधस्तनो भागः, विमलं निर्मलं शौल्य = श्वेतकुसुमविशेषः, मृणालं = कमलस्य कन्दः, तुषार : - हिमं - ' बर्फ' इति प्रसिद्धम्, हारः = मुक्ताहारः, शङ्खादिहारान्तानां वर्ण इव वर्णो यस्याः सा तथा, 'उत्ताणय-छत्त-संठाण - संठिया' उत्तानकच्छत्र - संस्थान - संस्थिता - उत्तानकम् = ऊर्ध्वमुखं–विस्फारितं यत् छत्रं तस्य संस्थानमिव संस्थानं तेन संस्थिता = युक्ता, 'सव्वज्जुणइ वा) लोकप्रप्रतिबोधना, १२ - (सव्व - पाण- भूय-जीव - सत्त - सुहावहा इ वा ) सर्वप्राणभूत जीवसत्त्वसुखावहा ।। सू० १४ ॥ 'ईसीपारा णं पुढवी' इत्यादि । (ईसीप भारा णं पुढवी ) यह ईषत्प्राग्भारा नामकी पृथिवी (सेया) सफेद है । इसकी उज्ज्वलता (संखतल- विमल-सोल्लिय मुणाल दगरय- तुषार गोक्खीर- हार - वण्णा) शंख के तलभागके समान, शुभ्रपुष्पके समान, मृणालके समान, कमलके समान, पानीकी बिन्दुओं के समान, बर्फ के समान, दुग्ध के समान, एवं मुक्ताहार के समान है । ये सब चीजें जिस प्रकार शुभ्र होती हैं उसी प्रकार यह भी शुभ्र है । (उत्ताणय-छत्त-संठाणसंठिया) शिर पर ताने हुए छत्र के समान इसका आकार है । (सब्वज्जुण - सुवण्णयमई - भूय - जीव-सत्त - सुहावहा इ वा ) सर्व-प्राणु-भूत-लव-सत्त्व- सुभावडा (सू० १०४) 'ईसीप भारा णं पुढवी' इत्यादि. (ईसीप भारा णं पुढवी ) या षित्याग्लाश पृथिवी ( सेया ) सह छे. तेनी उगवणता ( संखतल - विमल - सोल्लिय - मुणाल - द्गरय- तुसार - गोक्खीरहार - वण्णा ) शमना तजीयांना लाग नेवी उल्वज, शुभ पुण्य समान, भजना મૃણાલ જેવી, પાણીનાં બિંદુએના જેવી, ખરફના भेवी, દૂધના જેવી, તેમજ મેાતીના હાર જેવી ઉજ્જવળ છે. આ બધી ચીજો જેવી શુભ્ર ( धोणी ) होय छे तेवीन रीते या पाशु शुभ छे. ( उत्ताणय-छत्त-संठाण - संठिया) शिर उपर मोटेसां छत्र समान तेना याअर छे. ( सव्वज्जुण Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टी.स. १०५, ईषत्प्रारभारायाः स्वरूपवर्णनम्. लण्हा घट्ठा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा ॥ सू० १०५॥ मुवष्णयमई' सर्वार्जुनसुवर्णकमयी-सर्वेण सर्वावयवावच्छेदेन अर्जुनसुवर्णकमयी श्वेतकाञ्चनमयी, तथा-'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकवत् , 'सण्हा' श्लक्ष्णा शुभपरमाणुस्कन्धरचिततया श्लक्ष्णा-सूक्ष्मतन्तुनिर्मितस्त्रवत् सूक्ष्मा, 'लण्हा' श्लक्ष्णा-घुण्टितवस्त्रवन्मसृणा, 'लट्ठा' लष्टा सुन्दराकृतिका, 'घट्ठा' घृष्टा घृष्टेव-खरशाणया शोधितपाषाणवत्, 'महा' मृष्टा-मृष्टेव-कोमलशाणया शोधितपाषाणवत्, ‘णीरया' नीरजाः, 'णिम्मला' निर्मला, गणप्पंका' निष्पङ्का-कर्दमरहिता. 'णिकंकडच्छाया' निष्कङ्कटच्छाया आवरणरहिता 'समरीचिया' समरीचिका=किरणसमूहयुक्ता, 'मुप्पभा' सुप्रभा शोभासम्पन्ना, 'पासाईया' प्रासादीया-प्रसादः प्रमोदः स एव प्रासादः, स प्रयोजनं यस्याः सा तथा, 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया-दर्शनाय हिता, तां पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यतीत्यर्थः, 'अभिरुवा' अभिरूपा= अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा मटठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादीया, दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा) तथा यह संपूर्ण श्वेतकांचनमय है, आकाश एवं स्फटिक के समान स्वच्छ है, शुद्धपरमाणुस्कन्धों से रचित होने के कारण सूक्ष्मतन्तुओं से निर्मित वस्त्र के समान सूक्ष्म है, घुटे हुए वस्त्र के समान चिकनी है, घृष्ट है-खर शाण से घिसे हुए पत्थर के जैसी है, मृष्ट है, अर्थात्-कोमलशाण से घिसे हुए पत्थर के समान चिकनी है। नीरज-निर्मल है। कर्दमरहित है। आवरणरहित है। किरणों के समुदाय से सुरम्य है। शोभासे संपन्न है। प्रमोद प्रदान करने वाली है। दर्शनीय है। सुवण्णयमई अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिक्कंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा) तथा એ સંપૂર્ણ શ્વેત કાંચનમય છે, આકાશ તેમજ સ્ફટિકના સમાન સ્વચ્છ છે. શુદ્ધ પરમાણુસ્કંધોથી નિર્મિત હોવાને કારણે સૂક્ષમતંતુઓથી નિર્મિત વસ્ત્રસમાન સૂવમ છે, ઘંટિત-માંડ વિગેરેથી ઘસાયેલા વસ્ત્રની માફક ચીકણી છે, ધૃષ્ટ છે–ખરશાણુથી ઘસાયેલા પત્થરના જેવી છે, મૃષ્ટ છે–અર્થાત કેમશાણુથી ઘસેલા પત્થરના જેવી ચીકણું છે, નીરજ-નિર્મળ છે, કમ (४६१) थी २डित छ, शाला-सपन्न छ, प्रभाह (मान) मा पाणी છે, દર્શનીય છે, એને જેવાવાળાનાં નેત્ર એને જોતાં જોતાં ધરાતાં જ નથી, એ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ औपपातिकसूत्रे मृलम्-ईसीपब्भराए णं पुढवीए सेयाए जोयणंमि लोगंते । तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे, तत्थ णं सिद्धा भगवंतो.सादिया कमनीया, 'पडिरूवा' प्रतिरूपा-दर्शने प्रतिक्षणं नवं नवमिव प्रतिभासमानं रूपं यस्याः सा तथा ॥ सू० १०५ ॥ टीका-'इसीपब्भाराए' इत्यादि । 'ईसीपब्भराए गं' ईषत्प्राग्भारायाः सिद्धशिलायाः खलु 'पुढवीए सेयाए' पृथिव्याः श्वेतायाः 'जोयणंमि लोगंते' योजने लोकान्तः= योजनपरिमितं क्षेत्रमुपरि गत्वा लोकान्तो वर्तते । अत्र योजनम्-उत्सेधाङ्गुलयोजनं ग्राह्यम्, तदीयस्यैव हि क्रोशषड्भागस्य सत्रिभागत्रयस्त्रिंशदधिकधनुःशतत्रयीप्रमाणत्वादिति । 'तस्स जोयणस्स' तस्य योजनस्य, 'जे से' यः सः 'उवरिल्ले' उपरितनः 'गाउए' देशीयोऽयं शब्दः क्रोशार्थे, स च द्विसहस्रधनुःप्रमाणं क्षेत्रम् , उक्तं च-" चउहत्थं पुण धनुहं दुनि सहस्साइ गाउयं तेसिं" ॥ इति । 'तस्स णं' तस्य खलु 'गाउयस्स' क्रोशस्य, 'जे से उवरिल्ले' यः स उपरितनः 'छब्भाए' षड्भागः षष्ठो भागः, 'तत्थ णं सिद्धा भगवंतो इसे देखने वालों के नेत्र इसे देखते २ थकते नहीं हैं। यह बड़ी ही कमनीय है। इसे ज्यों ज्यों देखा जाता है त्यों २ यह नवीन२ जैसी प्रतीत होती है । सू० १०५ ॥ 'ईसीपब्भाराए णं पुढवीए' इत्यादि। इस (ईसीपब्भाराए णं पुढवीए सेयाए)शुभ्र ईषत्प्राग्भारा पृथिवी से (जोयणमि) ऊपर १ योजन में (लोगंते) लोक का अंत है । (तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे, तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादिया अपज्जवसिया) उस योजनपरिमित लोक के अंत में ३३३ धनुष और ३२ अंगुल जितनी जगह रही है, उसमें अर्थात् उस योजन के ऊपर के कोस के छठवें भाग में सिद्ध भगवान् બહુ જ કમનીય છે, તેને જેમ જેમ લેવાય તેમ તેમ તે નવીન નવીન જેવી प्रतीत थाय . (सू० १०५) 'ईसीपब्भाराए णं पुढवीए' त्याहि. मा (ईसीपब्भाराए णं पुढवीए सेयाए ) शुभ्र धपत्याउमा पृथिवीथी ( जोयणंमि ) 3५२ १ थानमा (लोगते ) ने मत छे. (तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए, तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छब्भागे, तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादिया अपज्जवसिया चिर्सेप्ति ) ते योगनपरिभित सोना અંતમાં ૩૩૩ ધનુષ અને ૩૨ આંગળ જેટલી જગા રહી છે, તેમાં અર્થાત Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोयूषवर्षिणी टीका, म. १०६ सिद्धस्वरूपवर्णनम् ७१७ अपज्जवसिया अणेगजाइ-जरा-मरण-जोणि-वेयणं संसारकलंकलीभाव-पुणब्भव-गब्भवास-वसही-पवंचं अइक्कंता सासयमणागयद्धं चिट्ठति ॥ सू० १०६ ॥ मूलम्--कहिं पडिहया सिद्धा ?, कहिं सिद्धा पडिट्ठिया ? कहिं बोदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ?॥ सू० १०७॥ सादिया अपज्जवसिया' तत्र खलु सिद्धाभगवन्तः सादिका अपर्यवसिताः 'अणेग-जाइजरा-मरण-जोणि-वेयणं' अनेक-जाति-जरा-मरण-योनि-वेदनम्-अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा तं, 'संसार-कलंकलीभाव-पुणम्भव-गन्भवासवसही-पवंचं संसार-कलङ्कलीभाव-पुनर्भव-गर्भवास-वसति-प्रपञ्च - संसारे कलङ्कलीभावेन =असमञ्जसत्वेन ये पुनर्भवाः पौनःपुन्येन उत्पादाः, गर्भवासवसतयः गर्भाश्रयनिवासाश्च तासां यः प्रपञ्चो–विस्तरः स तथा तम् 'अइक्कंता' अतिक्रान्ताः निस्तीर्णाः, 'सासयं' शाश्वतम् 'अणागयद्धं' अनागताद्धां-भविष्यत्कालं 'चिटुंति' तिष्ठन्ति ॥ सू० १०६ ॥ टीका-'कहिं पडिहया' इति । गौतमः पृच्छति-'कहिं पडिहया सिद्धा' क्व प्रतिहताः सिद्धाः सिद्धाः कुत्र प्रतिरुद्धाः, तथा 'कहिं सिद्धा पडिट्टिया' क्व सिद्धाः प्रति सादि-अपर्यवसित स्थिति में विराजमान हैं। (अणेग-जाइ-जरा-मरण-जोणि-वेयणं संसार-कलंकलीभाव-पुणब्भव-गब्भवास-वसही-पवंचमइकंता)ये सिद्ध भगवान् अनेक जाति, जरा एवं मरण की वेदना से, तथा असमंजसपूर्ण जो बार बार जन्म लेना, गर्भ में वास करना आदि दुःख हैं उनसे युक्त सांसारिक प्रपंचों से रहित होकर (सासयमणागयद्धं चिट्ठति) सदा शाश्वतिकरूप से वहाँ पर विराजते रहते हैं ॥ सू० १०६॥ તે ચોજનની ઉપરના કોસના છઠ્ઠા ભાગમાં સિદ્ધ ભગવાન સાદિ–અપર્યવસિત स्थितिमा विराभान छ. (अणेग-जाइ-जरा-मरण-जोणि-वेयणं संसार-कलंकलीभाव-पुणब्भव-गब्भवास-वसही-पवंचमइक्कंता) से सिद्ध भगवान भने। જન્મ, જરા તેમજ મરણની વેદનાથી તથા અસમંજસપૂર્ણ જે વારંવાર જન્મ લે, ગર્ભમાં વાસ કરવ–આદિ દુઃખ છે તેનાથી ચુકત સાંસારિક પ્રપંચથી २हित थने ( सासयमणागयद्धं चिट्ठति ) सहा वति४३५थी nir विराrau २९ छे. (सू० १०६) Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपपातिकसूत्रे मूलम् -- अलोगे पहिया सिद्धा, लोयग्गे य पडिडिया । इह बोंदिं चत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झइ ॥ सू०१०८ ॥ ७१८ ष्ठिताः=ञ्यवस्थिताः ? तथा - 'कहिं बौदि चइत्ता णं' क्व शरीरं त्यक्त्वा खलु 'कस्थ गंतूण' क्व गत्वा 'सिज्झर' सिध्यन्ति ? | 'बोंदी' इति शरीरार्थको देशीशब्दः । 'सिज्झइ ' इत्यत्रार्षत्वाद बहुत्वे एकत्वम् ॥ सू० १०७ ॥ टीका- 'अलोगे' इत्यादि । 'अलोगे' अलोके = अलोकाकाशास्तिकाये 'सिद्धा' सिद्धाः 'पडिया' प्रतिहताः = प्रतिरुद्धाः, तथा 'लोयग्गे य' लोकाग्रे = पश्चास्तिकायलक्षणलोकशिरोभागे च 'पडिट्टिया' प्रतिष्ठिताः = अपुनरावृत्तिरूपेण व्यवस्थिताः, तथा 'इ' इह 'कहिं पहिया सिद्धा ' इत्यादि । गौतम पूछते हैं कि हे भदंत ! ( कहिं पहिया सिद्धा) सिद्ध भगवान किस स्थान पर अटके हैं ?, (कहिं सिद्धा पडिट्ठिया) वे कहां प्रतिष्ठित हैं ?, (कहिं बौदिं चइताणं ) इस शरीर को छोड़कर ( कत्थ गंतूण सिज्झइ ) वे कहां जा कर सिद्ध होते हैं ? ॥ सू. १०७ ॥ 'अलोगे पहिया' इत्यादि । उत्तर - हे गौतम! (अलोगे पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पडिट्ठिया) सिद्ध भगवान् लोक अग्रभाग में रहते हैं, इसलिये वे अलोक में जाने से अटके हुए हैं । लोक के अग्रभाग में उनकी स्थिति है । (इह बोंदि चइत्ता णं) इस मनुष्यलोक में वे शरीर का 'afe ufegur fer?" Scale. गौतम पूछे छेडे हे लहन्त ! ( कहिं पडिहया सिद्धा) सिद्ध भगवान झ्या स्थाने अटडया छे ?, ( कहिं सिद्धा पडिट्टिया ) तेथे अयां प्रतिष्ठित छे ?, ( कहिं बोंदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ) मा शरीरने छोडीने तेथे यांने सिद्ध थाय छे ? ( सू.० १०७ ) 'अलोगे पsिहया' त्याहि. उत्तर- हे गौतम! ( अलोगे पहिया सिद्धा) सिद्ध भगवान बोउना अग्रभागमां रहे छे तेथी तेथे अलोभां भवाथी अटट्ठेसा होय छे. (लोयग्गे य पडिट्टिया) बोना अग्रभागमां तेभनी स्थिति छे. ( इह बोंदि चइत्ता ) आ भनुष्यसेोऽभां तेया शरीरनो परित्याग अरीने ( तत्थ गंतूण सिज्झई) Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवषिणी टीका, शास्त्रोपसंहारः ७१९ मूलम्-जं संठाणं भवं, चयंतस्स चरिमसमयंमि। आसीय पएसघणं, तं संठाणं तर्हि तस्स ॥ सू० १०९॥ मूलम्-दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं । तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया। सू० ११०॥ . . . मनुष्यक्षेत्रे 'बोंदि' शरीरं 'चइत्ता गं' त्यक्त्वा खलु 'तत्थ' तत्र=लोकाग्रे 'गंतूण' गत्वा 'सिज्झइ' सिध्यन्ति ॥ सू. १०८॥ टीका---'जं संठाणं' इत्यादि । 'भवं' भवं संसारं 'चयंतस्स' त्यजतः सिद्धस्य 'चरिमसमयंमि' चरमसमये-मोक्षगमनसमये 'इहं तु' इह तु मनुष्यक्षेत्रे तु 'जं संठाणं' यत् संस्थानम् 'आसीय' आसीत् , 'तं सठाणं' तत् संस्थानं 'तस्स' तस्य सिद्धस्य तर्हि'. तत्र सिद्धक्षेत्रे 'पएसघणं' प्रदेशघनं तृतीयभागेन रन्ध्रपूरणाद् भवति ॥ सू. १०९ ॥ . टीका-'दीहं वा' इत्यादि । 'दीहं वा' दीर्घ=पञ्चधनुःशतमानं वा, 'हस्सं वा' परित्याग करके (तत्थ गंतूण सिज्झइ) सिद्धस्थान में जाकर सिद्ध होते हैं ॥ सू. १०८ ! 'जं संठाणं' इत्यादि। (भवं चयंतस्स) संसार का परित्याग करते हुए सिद्ध का (चरिमसमयंमि) मोक्षगमन समय में (इहं तु) इस मनुष्यक्षेत्र में (जं संठाणं) जो संस्थान था, (तस्स) उस सिद्धका (तं संठाणं) वह संस्थान (तहिं) उस सिद्ध क्षेत्र में (पएसघणं) कान, चक्षु आदि इन्द्रियों के रिक्त स्थान भर जाने के कारण प्रदेशघनरूप होता है । सू. १०९ ॥ 'दीहं वा हस्सं वा' इत्यादि । (दीहं वा) चाहे संस्थान दीर्घ-५०० धनुष का हो, (हस्सं वा) चाहे हस्व-२हाथ सिद्ध स्थानमा ने तय सिद्ध थाय छे. (सू. १०८) 'जं संठाणं' छत्यादि (भवं चयंतस्स) संसारन। परित्याग ४२ती १५ सिद्धनु (चरिमसमयंसि) मोक्षगमन समयमा (इहं तु) मा भनुष्य-क्षेत्रमा (जं संठाणं) २ संस्थान तु, (तस्स) ते सिद्धनु (तं संठाणं) संस्थान (तहिं) ते सिद्धक्षेत्रमा (पएसघणं) अन, मां हि द्रियाना रित स्थानो परिपूर्ण थाने रणे अहेशचन३५ थाय छ. (सू. १.८) 'दीहं वा हस्सं वा' त्याहि. (दीहं वा) या संस्थान : (i)-५०० धनुषनु डाय, (हस्सं का) Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० औपपातिकसूत्रे मूलम्-तिणि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागोय होइ बोद्धव्यो। एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया। सू० १११॥ हस्वं वा हस्तद्वयमानं वा, वा-शब्दान्मध्यमं चापि ग्राह्यं जं चरिमभवे संठाणं हवेज' यच्चरमभवे संस्थानं भवेत् 'तत्तो' ततः तस्मात् , 'तिभागहीणं' त्रिभागहीनं त्रिभागेन-तृतीयभागेन रन्ध्रपूरणात् त्रिभागहीनं यथा स्यात्तथा 'सिद्धाणोगाहणा' सिद्धानामवगाहना 'भणिया' भणिता कथिता जिनैरिति शेषः ॥ सू. ११० ॥ ___टीका-'तिण्णि' इत्यादि । 'तिणि सया तेत्तीसा' त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशद्धषि, तथा 'धणुत्तिभागो य' धनुस्त्रिभागश्च–धनुषः एकस्य धनुषस्त्रिभागः तृतीयो भाग:द्वात्रिंशदङ्गुलानि,तेन त्रयस्त्रिंशदधिकशतत्रय-३३३-धनूंषि द्वात्रिंशदङ्गुलानि चेत्यर्थः, अयं सिद्धानामुत्कर्षतोऽवगाहनाप्रमाणो बोद्धव्यो' बोद्धव्यो ज्ञातव्यो भवति । अमुमेवार्थमाह-एसा खल सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया' एषा खलु सिद्धानाम् उत्कर्षाऽवगाहना भणितेति। इयमवगाहना पञ्चधनुश्शतप्रमाणशरीराणां भवतीति बोध्यम् ॥ मू० १११ ॥ का हो,अथवा मध्य-अवगाहना के विकल्पों वाला हो, (जं चरिमभवे हवेज्ज संठाणं) अन्तिम भव-समय में जैसी अवगाहनावाला शरीर होगा, (तत्तो तिभागहीणं सिद्धाणोगाहणा भणिया) उससे तृतीय भाग-हीन अवगाहना सिद्धों की सिद्धिगति में होती है ।।सू. ११० ॥ 'तिणि सया तेत्तीसा' इत्यादि । (तिणि सया तेत्तीसा) तीन सौ तेंतीस धनुष, तथा (धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्यो) एक धनुष का तीसरा भाग, अर्थात् ३२ अंगुल, (एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया) इतनी उत्कृष्ट अवगाहना सिद्ध भगवान् की जानना चाहिये । यह अवगाहना, जिनका शरीर ५०० धनुष का होता है उनकी अपेक्षा कही गई है। सू. १११॥ ચાહે હસ્વ-૮-૨ હાથનું હોય, અથવા મધ્ય અવગાહનાના વિકલ્પોવાળું डाय, (जं चरिमभवे हवेज्ज संठाणं) मतिम स-समयमा 2ी सानापाणु शरीर शे (तत्तो तिभागहीणं सिद्धाणोगाहणा भणिया) तनाथी त्रीन ભાગની ઓછી અવગાહના સિદ્ધોની સિદ્ધિગતિમાં હોય છે. (સૂ. ૧૧૦) 'तिण्णिसया तेत्तीसा' त्याहि. (तिण्णि सया तेत्तीसा) असो तेत्रीस धनुष, तथा (धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्वो) मे धनुषा त्रीने मास, अर्थात् ३२ मां, (एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया) मेटली कृष्ट साना सिद्ध माननी पी. Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणी-टीका शास्त्रोपसंहारः ७२१ मूलम्-चत्तारि य रयणीओ,रयणितिभागूणिया य बोद्धव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमओगाहगा भणिया। सू० ११२॥ मूलम्-एक्का च होइ रयणी, साहीया अंगुलाइ अझ भवे। . एसा खलु सिद्धाणं, जहण्णओगाहणा भणिया। सू० ११३॥ टीका-'चत्तारि' इत्यादि । 'चत्तारि य रयणीओ' चतस्रश्च रत्नयः, 'रयणितिभागृणिया य' रनित्रिभागोनिका च सिद्धानां मध्यमाऽवगाहना 'बोद्धव्वा' बोद्धव्या। अमुमेवार्थमाह- 'एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया' एषा खलु सिद्धानां मध्यमाऽवगाहना भणिता । षोडशाङ्गुलाधिकचतुर्हस्तप्रमाणा सिद्धानां मध्यमावगाहनेत्यर्थः । इयं सप्तहस्तप्रमाणशरीरधारिणां सिद्धानाम् ॥ सू० ११२ ॥ टीका—'एक्का' इत्यादि । सिद्धानां जधन्याऽवगाहनायाम् 'एक्का च होइ ‘चत्तरि य रयणीओ' इत्यादि । (चत्तारि य रयणीओ) चार हाथ और (रयणितिभागृणियाय बोद्धव्वा) एक हाथ का तीसरा भाग, अर्थात् १६ अंगुल की मध्यम अवगाहना होता है । (एसा खलु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया) सिद्धों को यह मध्यम अवगाहना ७ हाथ शरीरवालों की अपेक्षा से जाननी चाहिये ॥ सू. ११२ ॥ 'एक्का च होइ रयणो' इत्यादि। (एक्का च होइ रयणी साहीया अंगुलाइ अट्ठ भवे) कुछ अधिक एक हाथ, આ અવગાહના, જેનું શરીર ૫૦૦ ધનુષનું હોય છે તેની અપેક્ષાએ કહેલી छे. (सू. १११) 'चत्तारि य रयणीओ' छत्यादि. (चत्तारि य रयणीओ) या२ ७.अने (रयणितिभायूणिया य बोद्धव्वा) ૧ હાથનો ત્રીજો ભાગ, અર્થાત્ ૧૬ આંગળની મધ્યમ અવગાહના હોય છે. (एसा खलु सिद्धाणं मज्झिम-ओगाहणा भणिया) सिद्धोनी 241 मध्यम माना ૭ હાથ શરીરવાળાની અપેક્ષાથી જાણવી જોઇએ. ( સૂ૦ ૧૧૨ ) 'एक्का च होइ रयणी' ऽत्याहि. (एक्का च होइ रयणी साही या अंगुलाइ अट्ट भवे ) ४ बायकी थोडी hd Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२३ औपपातिकसूत्रे रयणी साहीया' एका च भवति रत्निः साधिका । कियता प्रमाणेनाधिका भवतीत्याह'अंगुलाई' इत्यादि। 'अंगुलाइ अट्ठ भवे' अङ्गुलानि अष्ट भवन्ति । अष्टाङ्गुलाधिकैकहस्तप्रमाणा सिद्धानां जघन्यावगाहना भवतीत्यर्थः। अमुमेवार्थमाह-एसा खलु सिद्धाणं जहण्णओगाहणा . भणिया' एषा खलु सिद्धानां जघन्यावगाहना भणितेति । इयं द्विहस्तप्रमाणशरीराणाम् । इयं त्रिविधाऽप्यवगाहना शरीरोर्ध्वमानमाश्रित्य गृह्यते, अन्यथोपविष्टानां सिध्यतां मानं विसदृशमपि भवेत् । नन्वेवमूर्ध्वमानाङ्गीकारे नाभिकुलकरस्य भार्याया मरुदेव्याः कथं सिद्रिस्थानप्राप्तिः, नाभिकुलकरो हि पञ्चविंशत्यधिकपञ्चशतधनुःप्रमाण आसीत् , तद्भार्याऽपि मरुदेवी तत्प्रमाणैव, तथाचोक्तम्-"संघयणं संठाणं उच्चत्तं चेव कुलगरेहिं समं” इति । अतस्तदवगाहना उत्कृष्टावगाहनातोऽधिकतरा ?, अर्थात् एक हाथ ८ अंगुल, (एसा खलु सिद्धाणं जहण्णओगाहणा भणिया) यह जघन्य अवगाहना सिद्ध भगवान् की जाननी चाहिये । यह अवगाहना २ हाथ की अवगाहना वाले जीवों की अपेक्षा कही गई समझना चाहिये । यह तीनों प्रकार की अवगाहना शरीर की ऊँचाई की अपेक्षा कही गई है। बैठकर सिद्ध होने वालों का मान तो विसदृश भी होना चाहिये । प्रश्न-इस तरह ऊर्ध्वमान को आश्रित करने पर नाभिकुलकर की भार्या मरुदेवी को सिद्धिस्थान की प्राप्ति कैसे हो सकती है; क्यों कि नाभिकुलकर ५२५ धनुष प्रमाण अवगाहनावाले थे तो उनकी धर्मपत्नी भी उतनी ही अवगाहनावाली होंगी । क्यों के ऐसा कहा है कि संहनन और संस्थान कुलकरों की महिलाओं का कुलकरों के समान होता है । इसलिये उनकी अवगाहना उत्कृष्ट अवगाहना से अधिकतर हो जाती है ? । उत्तर-प्रश्न ठीक हैं, परंतु इसका समाधान इस प्रकार है, यद्यपि कुलकर जैसी उच्चता उनकी पत्नियों में पधारे, अर्थात् मे डाथ ८ #inn, (एसा खलु सिद्धाणं जहण्णओगाहणा भणिया) सिद्ध भगवाननी २॥ धन्य २२१॥डन ongवी. २मा मवाना ૨ હાથની અવગાહનાવાળા જીવોની અપેક્ષાએ કહેલી છે એમ સમજવું. એ ત્રણેય પ્રકારની અવગાહના શરીરની ઉંચાઈની અપેક્ષાએ કહેલી છે. નહિં તે બેસીને સિદ્ધ થવાવાળાઓનું માન (પ્રમાણ) વિસદશ (જુદું') પણ કેવું જોઈએ. પ્રશ્ન–આ રીતે ઉદ્ઘ (ઉંચા) માનને આશ્રિત કરવાથી નાભિકુલકરનાં ધર્મપત્ની મરુદેવીને સિદ્ધિસ્થાનની પ્રાપ્તિ કેવી રીતે થઈ શકે ?, કેમ કે નાભિકુલકર પ૨૫ ધનુષ્યપ્રમાણ અવગાહનાવાળા હતા કે, તેમનાં ધર્મપત્ની પણ એટલી જ અવગાહનાવાળી હશે. કેમકે એમ કહ્યું છે કે કુલકરની મહિલાએનું સંહનન અને સંસ્થાન કુલકરના સમાન હોય છે. આથી તેમની અવગાહના, ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાથી વધારે થઈ જાય છે. ઉત્તર–પ્રશ્ન ઠીક છે; પરંતુ તેનું સમાધાન આ પ્રકારે છે, જેને કુલકર જેવી ઉચ્ચતા તેમની પત્ની Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२३ पोयूषवर्षिणी टीका, शास्त्रोपसंहारः मूलम्-ओगाहणाए सिद्धा,भवत्तिभागेण होंति परिहीणा। संठाणमणित्थत्थं, जरामरणविप्पमुक्काणं ॥ सू० ११४ ॥ जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अत्रोच्यते-यद्यपि कुलकरतुल्यमुच्चत्त्वं तत्पत्नीनामित्युक्तं, तथापि पञ्चशतधनुर्मानता तस्या वार्धक्येन शरीरसंकोचात् संजातेति नास्ति विरोधः ॥ सू० ११३ ॥ टीका--'ओगाहणाए' इत्यादि । 'ओगाहणाए'अवगाहनया स्वावगाहनया सिद्धा' सिद्धाः, 'भवत्तिभागेण' भवत्रिभागेन-भवस्यचरमभवशरीरस्य-चरमशरीरसम्बन्धिन्या अवगाहनायाः, त्रिभागेन तृतीयभागेन 'परिहीणा' परिहीनाः 'होति' भवन्ति । तेषां 'जरामरणविप्पमुक्काणं' जरामरणविप्रमुक्तानां सिद्धानाम् 'अणित्थत्थं' अनित्थंस्थम्-अमुना प्रकारेणेतीत्थम् , तत्र तिष्ठतीति-इत्थंस्थम् ,न इत्थंस्थम्-अनित्थंस्थम्-न केनचित्परिमण्डलादिलोकिकसंस्थानेन स्थितं 'संठाणं' संस्थानं भवति ॥ सू० ११४ ॥ टीका-तत्र सिद्धक्षेत्रे सिद्धा देशभेदेन उतैकस्मिन् देशे तिष्ठन्तीत्याशङ्कायामाह-'जत्थ' इति । 'जत्थ य' यत्र च यत्रैव देशे, 'एगो सिद्धो' एकः सिद्धस्तिष्ठति, होती है तो भी उनमें ५०० धनुष-प्रमाणता उनके वृद्ध अवस्था में शरीर के संकोच से घटित हो जाती है । अतः कोई विरोध नहीं है ॥ सू. ११३ ॥ 'ओगाहणाए सिद्धा' इत्यादि । (ओगाहणाए सिद्धा भवतिभागेण होंति परीहीणा) सिद्ध अपने अंतिमशरीर-संबंधी अवगाहना के तृतीय भाग से हीन अवगाहनावाले होते हैं । (संठाणमणिस्थस्थं जरामरणविप्पमुक्काणं) उनका आकार किसी परिमंडल आदि लौकिक आकार से स्थित नहीं है, वे जन्म, जरा एवं मरण से सदा के लिये रहित हो जाते हैं । सू. ११४॥ માં હોય છે તો પણ તેઓમાં ૫૦૦ ધનુષપ્રમાણુતા તેમની વૃદ્ધાવસ્થામાં શરીરના સંકેચાવાથી ઘટીને થઈ જાય છે. તેથી કેઈ વિરોધ નથી. (સૂ૦ ૧૧૩) 'ओगाहणाए सिद्धा' त्याहि. (ओगाहणाए सिद्धा भवत्तिभागेण होति परिहीणा ) सिद्ध पानी अपગાહનાથી અંતિમ શરીરસંબંધી અવગાહનાના ત્રીજા ભાગથી ઓછા થાય छे. (संठाणमणित्थत्थं जरामरणविप्पमुक्काणं) तमन। मा परिभा આદિ લૌકિક આકારથી સ્થિત નથી. તેઓ જન્મ, જરા તેમજ મરણથી સદાયને માટે રહિત થઈ જાય છે. (સૂ) ૧૧૪) Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ औपपातिकसूत्रे अण्णोण्णसमोगाढा, पुट्टा सव्वे य लोगंते ॥ सू० १५१ ॥ मूलम्-फुसइ अणंते सिद्धे, सव्वपएसेहि णियमसा सिद्धो। 'तत्थ' तत्र देशे 'अणंता' अनन्ताः-अविद्यमानोऽन्तो येषां तेऽनन्ता , 'भवक्खयविमुक्का' भवक्षयविमुक्ताः-भवक्षये सति विनमुक्ताः, अनेन स्वच्छयाऽवतरणशक्तिमसिद्धव्यवच्छेदमाह। 'अण्णोण्णसमोगाढा' अन्योऽन्यसमवगाढाः परपरस्परं सम्यक् अवगाढाः-धर्मास्तिकायादिवत् संमिलिताः, 'सव्वे य' सर्वे च लोगंते' लोकान्ते -लोकाग्रभागे अलोकेन 'पुढा' स्पृष्टाः- लग्नाः, प्रतिरुद्धत्वात् , तत्र धर्मास्तिकायाभावादिति । अत एव-'लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इत्युक्तम् । सू० ११५ ॥ टीका—'फुसइ' इत्यादि । 'सिद्धे' सिद्धः एकः सिद्धः 'णियमसा' नियमेन 'जत्थ य एगो सिद्धो' इत्यादि । (जस्थ य एगो सिद्धो) जिस सिद्धक्षेत्र में एक सिद्ध भगवान विराजते हैं, (तत्थ अणंता) उसी सिद्रक्षेत्र में अनंत सिद्ध विराजमान रहते हैं। (भवक वयविमुक्का) उनके भवका क्षय सर्वथा हो चुका है। (अण्णोण्णसमोगाढा पुट्ठा) जिस प्रकार एक ही स्थान पर धर्मादिक द्रव्य परस्पर अवगाढरूप में स्थित होकर रहते हैं उसी प्रकार ये सिद्ध आत्मा भी एक ही स्थान पर परस्पर में अबगाढरूप से रहते हैं। फिर भी अपने २ चैतन्यस्वरूप का परित्याग नहीं करते हैं। (सव्वे य लोगते) धर्मास्तिकायका अभाव होने से ये लोक के अग्रभाग में स्पृष्ट रहते हैं। सू. ११५ ॥ ‘फुसइ अणंते सिद्धे' इत्यादि । (फुसइ अणंते सिद्धे सव्वपएसेहि णियमसा सिद्धो) एक सिद्ध 'जत्थ य एगो सिद्धो' त्याहि. __ (जस्थ य एगो सिद्धो) के क्षेत्रमा से सिद्ध भगवान गिरे छ, (तत्थ अणता ) ते सिद्धक्षेत्रमा सनत सिद्ध विमान डाय छे. (भवक्खयविमुक्का) तमना सपनो क्षय सर्वथा २४ यूथ्यो छे. ( अण्णोण्ण समोगाढा पुट्ठा) प्रा२ मे स्थान ५२ यहि द्रव्य ५२५२ २मગાઢરૂપમાં સ્થિત થઈ રહે છે તેજ પ્રકારે તે સિદ્ધ આત્મા પણ એકજ સ્થાન પર પરસ્પરમાં અવગાઢરૂપથી રહે છે. છતાં પણ પોતપોતાના ચિતન્યસ્વરૂપો પરિત્યાગ કરતા નથી. ધર્માસ્તિકાયને અભાવ હોવાથી તેઓ લો ના અગ્ર मागमा स्पृष्ट (सी) २९ छे. (सू. ११५) 'फुसइ अणंते सिद्धे' त्याहि. (फुसइ अणंते सिद्ध सव्वपएसेहि णियमसा सिद्धो) मे सिद्ध भगवान् Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयूषषिणो-टोका शाखोपसंहारः ७२५ ते विअसंखेजगुणा, देसपएसेहिं जे पुट्टा ॥सू०॥ ११६ ॥ 'सव्यपएसेहिं' सर्वप्रदेशैः आत्मनोऽसंख्यातप्रदेशैः, 'अणं ते सिद्धे' अनन्तान् सिद्धान् 'फुसई' शति । तथा 'ते वि' तेऽपि ते सर्वे सिद्धा अपि 'असंखेजगुणा' असंख्येयगुणा वर्तन्ते, 'जे' ये सिद्धाः 'देसपएसेहिं देशप्रदेशैः-देशैः=असंख्यातदेशैः प्रदेशैः =असंख्यातप्रदेशैश्च 'पुढा' स्पृष्टाः ! तेषां सर्वेषां सिद्धानां प्रत्येकं स्वस्वव्यतिरिक्तसिद्धैरसंख्यातदेशप्रदेशवद्भिः समिलित्वेन गुणितत्वमङ्गीकृत्य "असंख्येयगुणाः' इत्युक्तम् । अयं भावः-सर्वात्मप्रदेशैस्तावदनन्ताः सिद्धाः स्पृष्टाः, एकसिद्धाऽवगाहनायामनन्तानामवगाढत्वात् । तथैकैकदेशेनाऽप्यनन्ताः, एवमेकैकप्रदेशेनाप्यनन्ता एव । तत्र देशो-द्वयादिप्रदेशसमुदायः, प्रदेशस्तु-निर्विभागोंऽश इति । एकैकसिद्धश्चाऽसंख्येयदेशप्रदेशात्मकः, ततश्च मूलाऽनन्तकेsसंख्येयैर्देशाऽनन्तकैरसंख्येयैरव च प्रदेशाऽनन्तकैर्गुणिते यावती संख्या भवेत् सां केवलिगम्यैवेति ॥ सू. ११६ ॥ भगवान् नियम से आत्मा के असंख्यातप्रदेशों द्वारा अनंत सिद्धों का स्पर्श करते हैं. और (ते वि असंखेजगुणा) वे सब सिद्ध असंख्यातप्रदेशों से स्थित हैं। (देसपएसेहि जे पुट्ठा) देश से एवं प्रदेशों से भी वे सिद्ध असंख्यातगुणित हैं। मतलब इसका यह है कि समस्त आत्मप्रदेशों से वे अनंत सिद्ध स्पृष्ट हैं। एक सिद्ध की आत्मा में अनंत सिद्धों की अवगाहना होने से, तथा एक एक देश से, एवं प्रदेश से वे सिद्ध अनंत हैं । द्वयादिक प्रदेश के समुदाय का नाम देश, एवं अविभागी अंश का नाम प्रदेश है । एक एक सिद्ध असंख्यात देश और प्रदेशात्मक हैं । इसलिये मूल अनंत को असंख्यात एवं अनंत देश और प्रदेशों से गुणा करने पर कितनी राशि होगी यह बात सिर्फ केवली भगवान् द्वारा ही जानी जा सकती है ॥ सू. ११६ ॥ નિયમથી આમાના અસંખ્યાત પ્રદેશ દ્વારા અનંત સિદ્ધોનો સ્પર્શ કરે છે, मने ( ते वि असंखेजगुणा ) ते ५ सिद्ध मस ज्यात प्रशाथी सस्थित छ. ( देसपएसेहिं जे पुद्रा ) देशथी तभ०४ प्रदेशाथी ५ ते सिद्धो असभ्यातગણે છે. એની મતલબ એવી છે કે સમસ્ત આત્મપ્રદેશથી તે અનંતસિદ્ધો સ્પર્શાવેલા છે. એક સિદ્ધના આત્મામાં અનંત સિદ્ધોની અવગાહના હોવાથી, તથા એક એક દેશથી, તેમજ પ્રદેશથી તે સિદ્ધો અનંત છે. દ્વિઆદિક પ્રદેશના સમુદાયનું નામ દેશ, તેમજ અવિભાગી અંશનું નામ પ્રદેશ છે. એક એક સિદ્ધ અસંખ્યાત દેશ અને પ્રદેશાત્મક છે. તે માટે મૂલ અનંતને અસંખ્યાત તેમજ અનંત દેશ તથા પ્રદેશથી ગુણાકાર કરવાથી કેટલી રાશિ (જથ્થા ) થશે તે વાત તે માત્ર કેવળી ભગવાન દ્વારાજ જાણી शाय छे. (सू०. ११६) Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ आपपातिकसूत्रे मूलम्--असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे य णाणे य। सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ सू० ११७ ॥ मूलम् केवलणाणुवउत्ता, जाणंति सवभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु, केवलदिट्टीहि णंताहि ॥ सू० ११८॥ टीका-'असरीरा' इत्यादि। अशरीरा जीवघना उपयुक्ता दर्शने च ज्ञाने च । साकारमनाकारं लक्षणमेतत्तु सिद्धानाम् ॥ एतेषां पदानां व्याख्याऽस्यैवागमस्य उत्तरार्द्ध त्रिसप्ततितमसंख्याके सूत्रे पूर्वमुक्ता ॥ सू. ११७ ॥ टीका---यदुक्तम्-'उवउत्ता दंसणे य णाणे य' इति, तत्र ज्ञानदर्शनयोः सर्वविषयतामुपदर्शयन्नाह–'केवलणाणुवउत्ता' इत्यादि । 'केवलणाणुवउत्ता' केवल 'असरीरा जीवघणा' इत्यादि। (असरीरा जीवघणा उवउत्ता सणे य णाणे य) सिद्धों का लक्षणनिर्देश इस सूत्र में कहा गया है। औदारिक आदि शरीर से रहित एवं घनरूप आत्मप्रदेशवाले वे सिद्ध भगवान् केवलज्ञान एवं केवलदर्शन से सदा उपयुक्त हैं। (सागारमणागारं) केवल ज्ञान की अपेक्षा वे साकार उपयोग से युक्त हैं, एवं केवल दर्शन की अपेक्षा निराकारस्वरूप दर्शन से युक्त हैं। (लक्खणमेयं तु सिद्धाणं) यही सिद्धों का लक्षण है। सू. ११७॥ 'केवलणाणुवउत्ता' इत्यादि। (केवलाणाणुवउत्ता जाणंति सव्वभावगुणभावे) केवलज्ञानरूप उपयोग से युक्त वे सिद्ध भगवान् समस्त वस्तुओं के अनंतगुण, एवं उनकी अनंतपर्यायों को युगपत् जानते 'असरीरा जीवघणा' त्याहि. ( असरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे य णाणे य ) सिद्धोनi सनो निर्देश આ સૂત્રમાં કહેવામાં આવ્યું છે. ઔદારિક આદિ શરીરથી રહિત તેમજ ઘનરૂપ આત્મપ્રદેશવાળા તે સિદ્ધ ભગવાન કેવળજ્ઞાન તેમજ કેવળદર્શનથી सह। उपयुद्धत छ. ( सागारमणागारं ) वणशाननी अपेक्षा तेया सा४१२ ઉપયોગથી યુક્ત છે, તેમજ કેવળદર્શનની અપેક્ષાએ નિરાકારસ્વરૂપ દર્શનથી युद्धत छ. ( लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ) ४ सिद्धोनi Aa] छ. (सू. ११७ ) 'केवलणाणुवउत्ता' छत्यादि. ( केवलणाणुवउत्ता जाणंति सव्वभावगुणभावे ) शान३५ रुपयोगथी Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२७ पीयूषवर्षिणी-टीका शास्त्रोपसंहारः मूलम्-ण वि अत्थि माणुसाणं,तंसोक्खंण वि य सव्वदेवाणं। जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं ॥सू०११९॥ ज्ञानोपयुक्ताः सन्तस्ते सिद्धाः 'सव्वभावगुणभावे' सर्वभावगुणभावान् समस्तवस्तुगुणपर्यायान् 'जाणंति' जानन्ति, तत्र-गुणाः-सहवर्तिनः, पर्यायास्तु-क्रमवर्तिन इति । तथा 'णंताहिं' अनन्ताभिः 'केवलदिट्ठीहि' केवलदृष्टिभिः, अनन्तैः केवलदर्शनैरित्यर्थः, 'सबओ' सर्वतः सर्वभावान् खलु-निश्चयेन 'पासंति' पश्यन्ति । सू० ११७ ॥ टीका--सिद्धानां सुखं वर्णयति-'ण वि' इत्यादि । 'अव्वाबाह' अव्याबाधं सकल दुःखवर्जितं मोक्षस्थानम् ‘उवगयाणं' उपगतानां प्राप्तानां, ‘सिद्धाणं' सिद्धानाम् ‘जं यत् 'सोवावं' सौख्यम् 'अत्थि' अस्ति, 'तं' तत् 'सोक्वं' सौख्यं 'ण विमाणुसाणं' नापि मनुष्याणामस्ति, 'ण वि य सव्वदेवाणं' नापि च सर्वदेवानाम् ॥ सू० ११९ ॥ हैं। (पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठीहि णंताहिं) अनंतकेवलदृष्टिस्वरूप अनंतदर्शन से युक्त वे सिद्ध भगवान् , युगपत् समस्त भावों को उनकी गुणपर्यायों सहित देखते हैं । वस्तु में त्रिकाल उसके साथ रहने वाले गुण होते हैं । एवं क्रमवर्ती पर्याय होती हैं। सू. ११७ ॥ 'णवि अत्थि' इत्यादि । (जं सिद्धाणं सोकरवं अव्वाबाहं उवगयाणं ) सकल दुःखों से वर्जित ऐसे मोक्षस्थान में प्राप्त हुए सिद्धों को जो सुख है, (ण वि अस्थिमाणुसाणं तं सोक्वंण वि य सव्वदेवाणं) वह सुख त्रैलोक्य में न तो मनुष्य को है, और न सर्व देवों को है ॥ सू. ११९ ॥ યુક્ત તે સિદ્ધ ભગવાન સમસ્ત વસ્તુઓના અનંતગુણ, તેમજ તેમની અનંત पर्यायाने सहीसाथे तणे छ. (पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठीहि गंताहि) અનંત કેવળદષ્ટિસ્વરૂપ અનંતદશનથી યુક્ત તે સિદ્ધ ભગવાન એકીસાથે સમસ્ત ભાવોને તેમની ગુણ–પર્યા–સહિત જુએ છે. વસ્તુમાં ત્રિકાળ તેની સાથે રહેવાવાળા ગુણ હોય છે, તેમજ કમવતી પર્યાય હોય છે. (સૂ. ૧૧૮) ‘णवि अत्थि' छत्याहि. (जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं) स४८ माथी पति सेवा मोक्षस्थान प्राप्त ४२॥ सिद्धीने रे सुप छ, (ण वि अत्थि माणुसाणं तं सोक्खं ण वि य सव्वदेवाणं) ते सुप ay a४भांय नथी छ मनुष्यने नयी सर्प हेवाने तु(सू. ११८) Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ औपपातिकम मूलम्--जं देवाणं सोकरलं , सव्वद्धापिंडियं अणंतगुणं । ण य पावइ मुत्तिसुहं, गंतेहिं वग्गवग्गेहिं ॥ सू० १२० ॥ टीका-कस्मादेवं सुख भवतीत्यत आह-ज देवाणं' इत्यादि । 'ज' यद् 'देवाणं' देवानाम् अनुत्तरसुरान्तानां 'सोक्वं' सौख्यंत्रकालिकसुरस. तद्यदि 'सव्वद्धापिडियं' सर्वाद्वापिण्डितम्-सर्वाऽद्या=अतीताऽनागतवर्तमानकालेन पिण्डितम् = गुणितं, तथा 'अणंतगुणं' अनन्तगुणमिति, तदेवं प्रमाणं किलाऽसत्कल्पनया एकैकाssकाशप्रदेशे स्थाप्यते, इत्येवं सकललोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणेनाऽनन्तं भवति, एवंभूतं देवमुर्ख 'ण य पावइ मुतिसुहं न च प्राप्नोति मुक्तिसुख-नैव मुक्तिसुखसमानतां लभते, अनन्ताऽनन्तत्वात् सिद्धसुखस्य । किंविधं देवसुखमित्याह-'णतेहिं वग्गवग्गेहि अनन्तैर्वर्ग 'जं देवाण सोक्ख' इत्यादि । (जं देवाणं सोक्षं सम्बद्धापिंडियं अणंतगुणं ) जो सर्व देवों का त्रैकालिक सुख है उसे अनन्तगुणा किया जाय तो भी वह (ण य पादइ मुत्तिसुहं णंतेहिं पग्गवग्गेहिं) सिद्ध भगवान् के एक क्षणोद्भव सुख की बराबरी नहीं कर सकता है। इसे यो समझना चाहिये कि सर्वदेवों का त्रैकालिक सुख एक २ आकाश के प्रदेश पर स्थापित करते २ आकाश के अनंत प्रदेश उस सुख से जब भर जायें तब उन समस्त-प्रदेशस्। सुखों का परस्पर में गुणा करो । इस प्रकार वह देवसुख अनंतगुणित हो जाता है । यह अनंतगुणित सुख भी सिद्धों के एक क्षण में होनेवाले सुख की समता नहीं कर सकता। कारण कि उनका सुख अनंतानंत है। देवों का सुख अनंतवर्गों से वर्गित बतलाया गया है। वर्ग 'जं देवाणं सोक्खं' इत्याहि. (जं देवाणं सोक्खं सव्वद्धापिंडियं अणंतगुणं) हे सर्व वोनु गर्नु सुप छे. तेने मनता ७२वामा मावे तो पण ते, (ण य पावः मुत्तिसुहं गंतेहिं वग्गवग्गेहिं ) सिद्ध मानना मे थी उत्पन्न यता सुमनी બરાબરી કરી શકતું નથી. આથી એમ સમજવું જોઈએ કે પર્વદેવેનું ત્રણ કાળનું સુખ એક એક આકાશના પ્રદેશ ઉપર સ્થાપિત કરે. એ રીતે સ્થાપિત કરતાં કરતાં આકાશના અનંત પ્રદેશ તે સુખથી જ્યારે ભરાઈ જાય ત્યારે તે સમસ્ત પ્રદેશમાં રહેલાં સુખને પરસ્પરમાં ગુણાકાર કરે. એ પ્રકારે તે દેવસુખ અનંતગણો થઈ જાય છે. આ અનંતગણ સુખ પણ સિદ્ધોનાં એકક્ષણમાં થવાવાળા સુખની બરાબરી કરી શકતાં નથી. કારણ કે તેમનાં સુખ અનંતાનંત છે. દેવનાં સુખ અનંત વર્ગોથી વગિત બતાવ્યાં Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टीका शास्रोपसंहारः ___ ७२६ मूलम्-सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वद्धापिंडिओजइ हवेजा। सोऽणंतवग्गभइओ, सव्वागासे ण माएजा ॥ सू० १२१ ॥ वर्ग:=अनन्तैरपि वर्गवर्गः, तत्र तद्गुणो वर्गों, यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारः, तस्यापि वर्गो वर्गवर्गो, यथा षोडश, एवमनन्तशो वर्गितमपीत्यर्थः ॥ सू. १२० ॥ टीका-'सिद्धस्स' इत्यादि । 'सिद्धस्स' सिद्धस्य 'मुहो' सुखः सुरु सम्बन्धी 'रासी' राशिः समूहः, स च–'सम्बद्धापिंडिओ' सर्वाद्धापिण्डितः-सर्वाद्धाभिः= सर्वकालसमयैः पिण्डितो-गुणितो 'जइ हवेज्जा' यदि भवेत् , 'सो' स पुनः 'अणंतवग्गभइओ' अनन्तवर्गभक्तः अनन्तवगैर्विभागीकृतः, 'सव्वागासे' सर्वाऽऽकाशे लोकाऽलोकरूपे ‘ण माएज्जा' न मायात्-न स्थातुं शुक्नुयात् । अयं भावः-इह किल निरुपमं सुख गृह्यते, ततश्च यत आरभ्य लोके सुखशब्दप्रवृत्तिः, तदवधीकृत्य एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावत् तत् सुखं के वर्ग करने का नाम वर्गवर्ग है। जिस प्रकार दो का वर्ग ४, और चार का वर्ग १६ होता है । १६ वर्गवर्ग है ॥ सू. १२० ॥ 'सिद्धस्स सुहो रासी' इत्यादि । (सिद्धस्स सुहो रासी सम्बद्धापिंडिओ जइ हवेज्जा) सिद्ध भगवान् के सुख को जो राशि है वह सर्वकाल के समयों से यदि गुणित की जाय, और ( सोऽणतवग्गभइओ) उस उत्पन्न महाराशि में अनन्त वर्गों से भाग दिया जाय, तो भी ( सव्यागासे ण माएजा) वह सिद्धों के सुखों की विभक्त सुखराशि समस्त आकाश में नहीं समा सकती है। मतलब इसका यह है कि लोक में जो सुख-शब्द से कहा जाता है उस सुख में एकएक गुण की क्रमिक वृद्धि से जब वह सुख अनन्तगुण वृद्धि पाकर अपनी अन्तिम अवधि છે. વર્ગને વર્ગ કરે તેનું નામ વર્ગ વર્ગ છે. જે પ્રકારે ૨ ને વર્ગ ૪, અને यारा वर्ग १६ थाय छे. १६ - छ. (सू. १२०) 'सिद्धस्स हो रासी' इत्यादि. (सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्वापिंडिओ जइ हवेज्जा) सिद्ध भगवानन। સુખની જે રાશિ છે તેને સર્વકાળના સમયથી જે ગુણવામાં આવે અને (सोऽणंतवम्गभइओ) तनाथ त्पन्न थयेटी त महाराशिने मन तथा मासी वामां आवे तो ५ ( सव्वागासे ण माएज्जा ) ते सिद्धानां सुभानी ભાગલબ્ધ સુખરાશિ સમસ્ત આકાશમાં સમાઈ શકતી નથી. આને અભિપ્રાય એ છે કે લોકમાં જે સુખ-શબ્દથી કહેવાય (સમજાય ) છે તે સુખમાં એક એક ગુણની ક્રમિક વૃદ્ધિથી જ્યારે તે સુખ અનન્તગુણ વૃદ્ધિ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० औपपातिकसूत्र मूलम्--जह णाम कोइ मिच्छो, नगरगुणे बहुविहे वियाणंते। न चएइ परिकहेउं, उवमाए तहिं असंतीए॥सू०१२२॥ विशिष्यते यावदनन्तगुणवृद्धया चरमावधि प्राप्तं भवति । ततश्च तदत्यन्तनिरुपममौत्सुक्यवृत्तिविरहितं प्रशान्तमहोदधितुल्यं चरमाहलादस्वरूपम् । तस्माच्चरमाहादात् पूर्व प्रथमाचानन्तरमपान्तरालवत्तिनो ये तातरम्येनालादविशेषास्ते सर्वाकाशप्रदेशराशेरपि भूयांसो भवन्तीत्यतः किलोक्तम्-'सव्वागासे ण माएजा' इति, अन्यथा प्रतिनियतदेशावस्थितिः कथं तेषामिति सूरयोऽभिदधतीति ॥ सू. १२१ ।। टीका-'जह णाम' इत्यादि । 'जह णाम' यथानाम यथादृष्टान्तम्- दृष्टान्तमनुसृत्य कथयामीत्यर्थः, 'कोई मिच्छो' कश्चिन्म्लेच्छो 'बहुविहे' बहुविधान् 'नगरगुणे' नगरगुणान् ‘वियाणंते' विजान्नपि 'परिकहेउ' परिकथयितुं वर्णयितुं 'न चरई' न शक्नोति, कयं न शक्नोति ? इत्याह –'उवमाए' इत्यादि । ' उवमाए तहिं को प्राप्त होता है, तब वह अत्यन्त अनुपम, उत्कण्ठा की वृत्ति से रहित, और प्रशान्त समुद्र के समान गम्भीर चरमसुखरूप हो जाता है । उस चरम सुख से पहले और प्रथम सुख के बाद के जो मध्यवर्ती तरतभता से युक्त सुखविशेष हैं, वे सभी सर्वाकाशप्रदेशों से भी अधिक हैं । इसीलिये कहा गया है- 'सव्वागासे ण माएज्जा' अर्थात् सिद्धों का अनन्तवर्ग-विभक्त भी सुख, समस्त आकाश में नहीं समा पाता है ।। मू. १२१ ।। 'जह णाम कोइ मिच्छो' इत्यादि । दृष्टान्त देकर इसी विषय को स्पष्ट करते हैं-(जहणाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणते) जैसे कोई म्लेच्छ बहुत प्रकार के नगरगुणों को जानता हुआ भी ( न પામીને પોતાની અંતિમ અવધિને પ્રાપ્ત થાય છે, ત્યારે તે અત્યન્ત અનુપમ, ઉત્કંઠાની વૃત્તિથી રહિત અને પ્રશાન્ત સમુદ્ર સમાન ગંભીર ચરમસુખરૂપ થાય છે. તે ચરમ સુખથી પૂર્વ અને પ્રથમ સુખની પછી મધ્યવતી, તારતમ્યથી યુકત જે સુખવિશેષ છે, તે સુખ સઘળા આકાશ પ્રદેશની અપેક્ષાએ પણ અધિક छ. मे भाट वामां माव्युछ 'सव्वागासे ण माएज्जा' सटो સિદ્ધોના અનંતવર્ગવિભકત સુખ પણ સઘળા આકાશ પ્રદેશમાં સમાઈ शतु नहि. (सू. १२१) 'जह णाम कोइ मिच्छो' प्रत्याहि. दृष्टान्त छने मे विषय २५ष्ट ४२ छे. (जह णाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणते ) म ध से खेछ म प्रा२ननगशुष्णाने Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिणो-टोका शाखांपसंहारः ७३१ असंतीए' उपमायाः = सादृश्यस्य तत्र वने असत्त्वात् = असद्भावादिति । एवमत्र कथानकम् - कश्चिन्नरपतिर्दुष्टाऽश्वारूढः सन् पवनसेवनार्थं वनं जगाम तत्र चाश्वस्य दुर्जातिकत्वेन परिश्रान्तो asवादवतीर्णः । तत्रैकेन वनवासिना म्लेच्छेन भूपतिः सत्कृतः । ततौऽसौ नृपतिस्तं म्लेच्छं निजरा जवानीमानोय विशिष्टभोगभूतिभोजनं कृतवान् । एकदाऽसौ म्लेच्छः प्रावृषि प्राप्तायां मनोहरं मेघध्वनिं श्रुत्वा वनं गन्तुमुत्कण्ठितोऽभवत् । राज्ञा सम्मानपूर्वकं विसर्जितः सन्नसौ व य चएइ परिकहेउं ) उसका वर्णन वन में नहीं कर सकता है, क्योंकि ( उपमाए तर्हि असंतीए ) उपमा का वहां अभाव है । यहाँ इस प्रकारको एक कथा है । कोई एक राजा वायु सेवन लिये घोड़े पर सवार हुआ। वह घोड़ा महादुर्दान्त था । इसलिये चलते २ उसे यह भय लग रहा था कि कहीं यह मुझे पटक न दे, अतः उसे रोकते २ वह थक गया और किसी जंगल में जाकर वह उससे नीचे उतर पड़ा । इतने में एक भील ने उसे देखा और सहसा पास आकर उसने थके हुए राजा की सेवा-शुश्रूषा से थकावट दूर की। राजा बड़ा खुश हुआ, और उसे अपने साथ लेकर वह अपनी राजधानी को वापिस लौट आया। वहां राजा ने राजसी ठाटबाट के अनुसार उसे खूब आनन्द से रखा । खाने-पीने के लिये उसे ऐसे २ भोज्य पदार्थ दिये कि जो उसने अपने जोवन में कभी देखे तक भी नहीं थे । रहते २ जब कुछ समय व्यतीत हो गया तब वर्षाकाल के आने पर उसे अपने स्थान पर जाने की उत्कंठा जगी । જાણતા થકા પણ ( न य चएइ परिकहेउं ) तेनु वर्षान वनमां श्री शता नथी, प्रेम! ( उवमाए तहिं असंतीए ) उपमानेा त्यां अभाव छे. અહી આ પ્રકારની એક વાર્તા છે. કોઈ એક રાજા વાયુસેવન (ફવા) માટે ઘેાડા ઉપર સવાર થઇને મહેલમાંથી બહાર નીકળ્યા. જે ઘેાડા ઉપર તે સવાર થયા હતા તે મહા દુર્રાન્ત (મુશ્કેલીથી વશ થાય તેવા) હતા. તેથી ચાલતાં ચાલતાં તેને એ ભય લાગતા હતા કે કયાંક આ મને પાડી તેા નહિ દે ?, આથી તેને રોકતાં રોકતાં તે થાકી ગયા, અને કોઈ જંગલમાં જઇને તેના ઉપરથી તે નીચે ઉતર્યા એટલામાં એક ભીલે તેને જોયા અને તરત જ પાસે આવીને તેણે થાકેલા રાજાની સેવાશુશ્રૂષ કરી થાક ઉતાર્યા. રાજા અહુ ખુશી થયે અને તેને પેાતાની સાથે લઈ ને તે પેાતાની રાજધાનીએ પાછા આવ્યા. ત્યાં રાજાએ પેાતાના રાજસી ઠાઠમાઠપૂર્વક તેને ખૂબ આનંદથી રાખ્યા. ખાવા-પીવાને માટે તેને એવા એવા તા ભેાજ્ય પદાર્થ આપ્યા કે જે તેણે તેની જીઢગીમાં કદીએ જોયા પણ નહાતા. આમ રહેતાં રહેતાં કેટલેક સમય વીતી ગયે અને વરસાદને સમય આવ્યા ત્યારે તેને પેાતાનાં સ્થાન પર જવાની ઉત્કંઠા Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ औपपातिक मूलम् -- इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवमं णत्थि तस्स ओवम्मं । स्ववासस्थानमागतः । अथ स्वपरिवारस्तं पृच्छति स्म हे तात ! कीदृशम् तद् भूपनगरम् ? इति । स म्लेच्छस्तस्य भूपनगरस्य सर्वान् बहुविधान् नगरगुगान् विजानन्नपि तान् वक्तुं कृतोद्यमोsपि तत्र वने नगरसादृश्यस्याभावाद् वर्णयितुं नाशक्नोदिति ॥ सू० १२२ ॥ टीका – 'इ' इत्यादि । इय' इति = एवम् अनेन प्रकारेण' सिद्धाणं' सिद्धानां 'सोक्खं' सौख्यम्, 'अणोवमं' अनुपमं वर्तते, कुतः ? यतस्तस्य 'ओवम्मं णत्थि ' औपम्यं राजा को जब यह ज्ञात हुआ तब उसने उसको खूब आदर-सत्कार के साथ बिदा किया । चलते २ यह अपने घर पर आ गया । सब कुटुम्बी जन इससे मिलने को आने लगे । लोगों ने पूछा, कहो भाई ! राजा के निकट कैसे रहे ?, राजा का वह नगर कैसा है ! | भील ने जो कि उस राजा के नगर की सब प्रकार की श्री से परिचित हो चुका था, राजधानी का वर्णन करने का उद्यम तो किया; परन्तु वह अपने उन भील - भाइयों के समक्ष यथावत् उसका वर्णन नहीं कर सका । कारण कि उस वन में नगर के वर्णन से मिलनेवाली उपमेय वस्तुओं का अभाव था । इस दृष्टान्त का भाव इस प्रकार समझना चाहिये कि वह भील नगर में अनुभवित आनन्दका अपने अन्य भाइयों के समक्ष उस जंगल में उस प्रकार की वस्तु के अभाव से वर्णन नहीं कर सका। उस सुख की कुछ भी उपमा नहीं बता सका । सू. १२२ ॥ જાગૃત થઇ. જ્યારે આ વાત રાજાના જાણવામાં આવી ત્યારે તેણે તેને ખૂબ આદર-સત્કારની સાથે વિદાયગિરી આપી. ચાલતાં ચાલતાં તે પેાતાને ઘેર પહોંચ્યા. બધાં કુ ટુ બી માણસ તેને મળવાને આવવા લાગ્યાં. àાકાએ પૂછ્યું કે, કહેા ભાઈ, રાજાની પાસે તમે કેવી રીતે રહ્યા હતા ?, રાજાનુ તે નગર કેવુ છે ?. ભીલ જો કે તે રાજાના નગરની બધી જાતની શ્રી( વૈભવ શેાભા ) થી પરિચિત થઇ ગયા હતા, અને રાજધાનીનું વર્ણન કરવાને તેણે ઉદ્યમ (પ્રયત્ન ) તેા કર્યા, પરંતુ તે પેાતાના ભીલ ભાઇઓની સમક્ષ યથાવત્ ( જોઇએ તેવું) તેનું વર્ણન કરી શકયા નહિ; કારણ કે તે વનમાં નગરના વન સાથે મેળખાય જેવી ઉપમા આપવા ચેાગ્ય વસ્તુઓના અભાવ હતા. આ દૃષ્ટાંતને ભાવ એવી રીતે સમજવા જોઈએ કે તે ભીલ જે પ્રકારે અનુભવેલ આનંદને પેાતાના બીજા ભાઈ એની સમક્ષ વર્ણન કરવા જતાં પણ તે જંગલમાં એવા પ્રકારની વસ્તુએના અભાવથી પોતે ભાગવેલા આનંદના અનુભવ કરાવી શકયેા નહિ. તે સુખની કોઈ પણ ઉપમા બતાવી શકયા નહિ, (सू. १२२ ) Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३३ पीयूषवर्षिणो-टीका शास्त्रोपसंहारः किंचि विसेसेणेत्तो, ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं। सू० १२३॥ मूलम्-जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई। तण्हाछुहाविमुक्को, अच्छेज जहा अमियतित्तो॥ सू० १२४ ॥ नास्ति, तथापि बालानां बोधार्थमाह-'किंचि' इत्यादि । 'किंचि विसेसेण' किश्चिद्विशेषेण 'एत्तो' इतः अतः परम् 'ओवम्म' औपम्यम्=उपमानम् 'इणं' इदं वक्ष्यमाणं 'सुणह' शृणुत, 'वोच्छं' वक्ष्ये-अहं कथयिष्यामीत्यर्थः ॥ सू. १२३ ॥ टीका-'जह' इत्यादि । 'जह' यथा 'कोई पुरिसो' कोऽपि पुरुषः, 'सव्वकामगुणियं' सर्वकामगुणितं सर्वाभिलषणीयरसादिसंपन्नं, 'भोयणं' भोजनम् अशनादिकम् , 'भोत्तूण' भुक्त्वा, 'तण्हाछुहाविमुक्को' तृष्णाक्षुधाविमुक्तः पिपासाबुभुक्षारहितः 'अमि 'इय सिद्धाणं सोक्खं' इत्यादि । (इय सिद्धाणं सोक्खं) इसी प्रकार सिद्धों का सुख यद्यपि (अणोवमं) अनुपम है, अतः (णत्थि तस्स ओवम्म) उसकी किसी भी सांसारिक पदार्थ के साथ उपमा नहीं दी जा सकती है, तो भी (किंचि विसेसेणेत्तो ओवम्ममिण सुणह वोच्छं) बालजीवों को बोधन करने के लिये कुछ विशेषरीति से सिद्धो के इस सुख को उपमा देकर समझाया जाता है । सू. १२३ ॥ 'जह सव्वकामगुणियं' इत्यादि । (जह सबकामगुणियं पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई ) कोई पुरुष पांचों इन्द्रियों को तृप्त करनेवाले काम-शब्द, रूप, और भोग-गंध, रस, स्पर्श आदि विषयों को यथेछरीति से भोगकर ( तण्हाछुहाविमुक्को) पिपासा एवं बुभुक्षा से रहित (अमियतित्तो 'इय सिद्धाणं सोक्खं' छत्याहि. ( इय सिद्धाणं सोक्खं) २॥ ४॥२ सिद्धानुसुम ले (अणोवमं ) मनुपम छे, तेथी (णत्थि तस्स ओवम्मं ) तेनी रुपमा ७ ५ सांसारि४ पहाथ ना सुमना साथे मापी शती नथी. तो ५ (किंचि विसेसेणेत्तो ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं) पासवाने साधन ४२१। भाटे ४४ विशेष રીતથી સિદ્ધોનાં આ સુખની ઉપમા દઈને સમજાવવામાં આવે છે. (સૂ.૧૨૩) 'जह सव्वकामगुणियं' छत्याहि. (जह सव्वकामगुणियं पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई ) रेभ / पुरुष પાંચેય ઈદ્રિઓને તૃપ્ત કરવા વાળા કામ-શબ્દ, રૂપ, અને ભેગ-ગંધ, રસ, સ્પર્શ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ औपपातिकमुत्रे मूलम्--इय सव्वकालतित्ता, अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ सू० ॥ १२५ मूलम्--सिद्धत्ति य बुद्धत्ति य, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति । यतित्तो' अमृततृप्तो 'जहा' यथा=इव, 'अच्छेज्ज' आसीत=तिष्ठेत् ॥ सू. १२४ ॥ ____टीका-'इय' इत्यादि । 'इय' इति एवं 'सबकालतित्ता' सर्वकालतृप्ताःअपुनरावृत्तिस्थान प्राप्तत्वात् , 'निव्वाणं' निर्वाणं मोक्षम् ‘उवगया' उपगताः 'सिद्धा' सिद्धाः, 'अउलं' अतुलम्=अनुपमम् 'सासयं' शाश्वतं सार्वकालिकम् , अव्वाबाई' अव्याबाधं-पर्वदुःखविवर्जितं 'मुहं' सुखं 'पत्ता प्राप्ताः, अतः 'सुही चिट्ठति' सुखिनस्तिष्ठन्ति, ननु 'सुखं प्राप्ता' इत्युक्ते 'सुखिन' इति किमर्थम् ?, अत्रोच्यते-केचिन्मन्यन्ते दुःखाभावमात्रं मुक्तिरिति, तन्मतनिराकरणार्थ मोक्षस्य वास्तविकसुखस्वरूपताप्रतिबोधनार्थं च 'सुखं प्राप्ताः सुखिनस्तिष्ठन्ती'त्युक्तम् ॥ सू. १२५ ॥ टीका-साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिबोधयन्नाह-'सिद्धत्ति' इत्यादि। जहा ) अमृतपान से तृप्त के समान (अच्छेज ) रहता है । सू. १२४ ॥ 'इय सव्वकालतित्ता' इत्यादि । (इय सव्वकालतित्ता) अपुनरावृत्तिस्वरूप मुक्तिस्थान को प्राप्त होने के कारण सर्वकाल तृप्त हुए (निव्वाणमुवगया सिद्धा) वे सिद्ध भगवान् , शारीरिक एवं मानसिक दुःखो से सर्वथा रहित होकर ( अउलं अव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता) अनुपम, शाश्वत एवं अव्याबाध सुख को भोगते हुए उस मुक्तिस्थान में सदाकाल -अनन्तकाल तक सुखी ही सुखी रहते हैं । सू. १२५ ॥ माहि विषयाने यथे०३५ सोमवीन ( तण्हाछुहाविमुक्को ) पिपासा तेभा मुमुक्षा (सूम-तरस ) थी २डित (अमियतित्तो जहा) अमृतपानथी तृतनी म ( अच्छेज ) २९ छे. (सू. १२४ ) 'इय सव्वकालतित्ता' त्यादि. ( इय सव्वकालतित्ता ) पुनरावृत्ति२१३५ भुक्षितस्थानने प्राप्त थवाना ४ारणे सास तृत थये। (निव्वाणमुवगया सिद्धा) ते सिर मावान शारी२ि४ तभ०४ मानसि हुमाथी सर्वथा २डित यधने (अउलं अव्वाबाहं चिटुंति सुही सुहं पत्ता ) अनुपम, शाश्वत तभ०४ २५व्यामा सुमने लापता त भुमित स्थानमा सास-सनतास सुधी सुभी २९ छे. (सू. १२५) Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीयूषवर्षिण टोका, शास्त्रोपसंहारः ७३५ उमुक्ककम्मकवया,अजरा अमरा असंगा य ॥ सू० १२६ ॥ मूलम् -- णिच्छिण्णसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का । 'सिद्धत्ति य' सिद्धा इति च - तेषां नाम, कृतकृत्यत्वात्, 'बुद्धत्ति य' बुद्धा इति च-केवलज्ञानेन विश्वावबोधात्, 'पारगयत्ति य' पारगता इति च - भवसागरपारगमनात, 'परंपर गयत्ति य' परंपरगताः = मिथ्यात्वादिचतुर्दशगुणस्थानकानां मनुष्यादिसुगतीनां च पारंपर्येण भवसिन्धुपारं प्राप्ता इति, 'उम्मुक्ककम्मकवया' उन्मुक्तकर्मकवचाः = कर्मकवचवर्जिताः 'अजरा' अजराः–वयसोऽभावात्, 'अमरा' अमराः - आयुषोऽभावात्, 'असंगा य' असङ्गाश्व सकलक्लेशरहितत्वात् ॥ सू. १२६ ॥ टीका -- ' णिच्छिण्ण' इत्यादि । 'णिच्छिष्णसव्वदुक्खा' निस्तीर्णसर्वदुःखाः'सिद्धत्ति य बुद्धति य' इत्यादि । सिद्धति य ) कृतकृत्य होने से वे सिद्ध कहे जाते हैं । ( बुद्धत्तिय ) केवल ज्ञान से सकल लोकालोक के ज्ञाता होने से वे बुद्ध कहे जाते हैं । ( पारगयत्ति य ) भवरूप समुद्र से पारंगत हो जाने के कारण वे पारगत कहे जाते हैं । ( परंपरगयत्ति य ) मिथ्यात्व - आदि चौदह गुणस्थानकों और मनुष्य - आदि सुगतियों की परम्परा से भवसिन्धु को पार करने के कारण वे परंपरगत कहे जाते हैं । (उम्मुककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य) कर्मरूप कवच से वर्जित होने के कारण, एवं आयु कर्म का सर्वथा प्रक्षय हो जाने के कारण वे अमर कहे जाते हैं । तथा सकलक्लेशों से रहित होने के कारण वे असंग कहे जाते हैं । ये सिद्ध, बुद्ध, आदि सब शब्द, पर्यायवाची शब्द हैं । सू. १२६ ॥ 'सिद्धत्तिय बुद्धत्ति य ' इत्यादि. (fazfa a) zdşcu Tıqal Aнà ßus sêqнi sud d. (gefa 7) કેવળજ્ઞાનથી સકલ લેાકાલેાકના સાતા હાવાના કારણે બુદ્ધ કહેવામાં आवे छे. ( पारगयत्ति य ) लव३५ समुद्रथी चारगत थ भवाना अरो तेभने पारंगत 'हेवामां आवे छे. (परंपरगयत्ति य) मिथ्यात्व -माहि यौह गुणुस्थान है। અને મનુષ્ય આદિ સુગતિએની પર પરાથી ભવિસને પાર કરવાને કારણે તે परं परगत उडेवाय छे. ( उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ) ४३५ કવચથી ર્જિત હાવાના કારણે તેમજ આયુકા સર્વથા પ્રક્ષય થઈ જવાના કારણે તેઓને અમર કહેવામાં આવે છે, તથા સકલ કલેશાથી રહિત હાવાના કારણે અસંગ કહેવામાં આવે છે. આ સિદ્ધ યુદ્ધ આદિ બધા શબ્દો પર્યાયवाथी शब्द छे. (सू. १२६ ) Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ औपातिकमा अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहोंती सासयं सिद्धा ॥ सू० १२७॥ मूलम्-अतुलसुखसागरगया, अब्बाबाहं अणोवमं पत्ता । सव्वमणागयमद्धं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ सू० १२८ ॥ ॥ ओवाइयं समत्त ॥ निस्तीर्णानि सर्वदुःखानि यैस्ते तथा-शारीरमानससकलदुःखान्यतिक्रान्ताः, पुनः-'जाइजरामरणबंधणविमुक्का' जातिजरामरणबन्धनविमुक्ताः=जन्मवाक्यमृत्युकर्मबन्धनरहिताः 'सिद्धा' सिद्धाः 'अव्वाबाह' अव्याबाधं व्याघातवर्जितं 'सासयं' शाश्वतं सार्वकालिकं 'सोक्ख' सौख्यम् 'अणुहोंती' अनुभवन्ति ।। सू. १२७ ॥ टीका-'अतुलसुख'--इत्यादि । 'अतुलसुखसागरगया' अतुलसुखसागरगताःअतुल: अनुपमो यः सुखसागरः=सुखसमुद्रस्तं गताः प्राप्ताः, पुनः 'अबाबाई' अव्या ‘णिच्छिण्णसव्वदुक्खा' इत्यादि । (सिद्धा) ये सिद्ध भगवान् (णिच्छिण्णसव्वदुक्खा) समस्त दुःखों के अतिक्रमण, तथा (जाइजरामरणबंधणविमुक्का) जन्म, जरा एवं मरण के बन्धनों से निर्मुक्त हो जाने के कारण, (सासयं अव्वाबाहं सुक्खं अणुहोती) शाश्वत एवं अव्याबाध सुख का अनन्त काल तक अनुभव करते रहते हैं । सू. १२७ ॥ 'अतुलसुखसागरगया' इत्यादि । (अतुलसुखसागरगया) अनुपम सुख सागर में मग्न वे सिद्ध भगवान् , ‘णिच्छिण्णसव्वदुक्खा' छत्यादि. (सिद्धा) से सिद्ध भगवान ( णिच्छिण्णसव्वदुक्खा) सधा हुमाना मति भए, तथा ( जाइजरामरणबंधणविमुक्का) गन्म, १२। तभ० भनi अधिनाथी निभुत थपाना रणे ( सासयं अव्वाबाहं सुक्खं अणुहोंती) શાશ્વત તેમજ અવ્યાબાધ સુખને અનંત કાલ સુધી અનુભવ કરતા २ छे. (सू १२७) 'अतुलसुखसागरगया' Uत्यादि. ( अतुलसुखसागरगया ) अनुपम सुमना सारमा मन त सिद्ध 1वान्, ( अव्वाबाहं अणोवमं पत्ता) ते प्रात ४२i मुस्तिस्थानमा ( सव्वमणा Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ पीयूषवर्षिणी-टीका, शास्त्रोपसंहारः बाधं व्याघातवर्जितम् अणोवमं अनुपमम्=सादृश्यवर्जितं सिद्धिस्थानं 'पत्ता' प्राप्ताः अधिष्ठिताः सिद्धाः, 'सुहं पत्ता' सुखं प्राप्ताः सुखमधिगताः, अतएव 'सुही' सुखिनः सन्तः सव्वमणागयमद्धं' सर्वमनागताद्धं सर्वं भविष्यत्कालं 'चिट्ठति' तिष्ठन्तोति ॥ सू. १२८ ॥ ॥औपपातिकं समाप्तम् ॥ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक - श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य'-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य-श्रीघासीलालव्रतिविरचिता औपपातिक-सूत्रस्य पीयूषवर्षिण्याख्या व्याख्या सम्पूर्णा ॥ (अब्बाबाहं अणोवमं पत्ता) प्राप्त हुए उस मुक्ति स्थान में (सव्वमणागयमद्धं चिट्ठति सुही मुहं पत्ता) अनन्तकाल तक सदा सुखी ही रहते हैं। ॥ सू. १२८ ॥ ____इति औपपातिकसूत्र का हिन्दी अनुवाद सम्पूर्ण ॥ गयमद्धं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता) अन सुधा सुभी०४ २७ छ. (सू. १२८) ઈતિ ઔપપાતિક સૂત્રને ગુજરાતી અનુવાદ સંપૂર્ણ Page #799 --------------------------------------------------------------------------  Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દાનવીરોની નામાવલી 3 શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતાઅર સ્થાનકવાસી ન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ. ગરેડીયા કુવા રેડગ્રીન લેજ પાસે, રા જ કે ટ શરૂઆત તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા. ૧૦-૧ર-૫૮ સુધીમાં દાખલ થયેલ મેમ્બરનાં રુઆરક નામો ગામવાર કકાવારી લિસ્ટ (રૂ. ૨૫૦ થી ઓછી રકમ ભરનારનું નામ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી.) VV Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબીશ્રીઓ-૫ ( ઓછામાં ઓછી રૂ. ૫૦૦૦ ની રકમ આપનાર). નંબર નામ ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાઇ ૧૦૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઇ કારીયા, હા. શેઠ લાલચંદભાઈ જેચંદભાઈ, નગીનભાઈ, વૃજલાલભાઈ તથા વલ્લભદાસભાઈ ભાણવડ ૬૦૦૦ ૩ કોઠારી જેચંદભાઈ અજંસાહા-હરગોવિંદભાઈ જેચંદભાઈ રાજકોટ પર ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવાભાઈ ' શેરાપુર ૫૦૦૧ ૫ સ્વ. પિતાશ્રી છગનલાલ કળિદાસના સ્મરણાર્થે હ. ભોગીલાલ છગનલાલભાઇ ભાવસાર અમદાવાદ ૫૨૫ | મુરબ્બીશ્રીઓ-૨૧ (ઓછામાં ઓછી રૂા. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વર્ધમાન કે ઠારી હ. કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ , જેતપુર ૩૬ ૦ ૨ દેશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ * રાજકેટ ૩૬ન્ક ૩ મહેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદ રાજકેટ ૩૨૮લ્લાના ૪ હેતા માણેકલાલ અમુલખરાય ઘાટકોપર ૩૨૫ ૫ સંઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલાબચંદ જામનગર ૩૧૦૧ ૬ શેઠ શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણી રાજકેટ ૨૫૦૦ ૭ નામદાર ઠાકોર સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર મોરબી ૨૦૦૦ ૮ શેઠ લહેરચંદ કુંવરજી હા. શેઠ ન્યાલચંદ લહેરચંદ સિદ્ધપુર ૨૦૦૦ ૯ શાહ છગનલાલ હેમચંદ વસા હા. મેહનલાલભાઈ તથા મોતીલાલભાઈ મુંબઈ ૨૦૦૯ ૧૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ મોરબી ૧૯ ૧૧ મહેતા સોમચંદ તુલસીદાસ તથા તેમનાં ધર્મપત્ની અ.સૌ. મણીગૌરી મગનલાલ રતલામ ૧૫૦૦ ૧૨ મહેતા પોપટલાલ માવજીભાઈ જામજોધપુર ૧૩૦૧ ૧૩ દોશી કપુરચંદ અમરશી હા. દલપતરામભાઈ જામજોધપુર ૧૦૦૨ - ૧૪ બગડીઆ જગજીવનદાસ રતનશી ? દામનગર ૧૦૦૨ ૧૫ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ ૧૦૦૧ ૧૬ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ પિોરબંદર ૧૦૦૧ ૧૧૭ શ્રીમાન ચંદ્રસિંહજી સાહેબ મહેતા (રેલ્વે મેનેજર) કલકત્તા ૧૦૦૧૩ ૧૮ મહેતા સમચંદ મેણસીભાઇ (કરાંચીવાળા. . મેરી- ૧૦ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ શાહ હરીલાલ અનેપચંદભાઈ ખwત ૧૦૦૧ ૨૦ કોઠારી છબીલદાસ હરખચંદભાઈ મુંબઈ ૧૦૦૦ ૨૧ કઠારી રંગીલદાસ હરખચંદભાઈ શિહેર ૧૦૦૦ સહાયક મેમ્બરે-૪૯ (ઓછામાં ઓછી રૂા. ૫૦૦ ની રકમ આપનાર) ૧ શાહ રંગજીભાઈ મેહનલાલ અમદાવાદ ૭૫૧ ૨ મેદી કેશવલાલ હરીચંદભાઈ સાબરમતી ૭૫૦ ૩ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ હા. શેઠ ઝુંઝાભાઈ વેલસીભાઈ વઢવાણ શહેર ૭૫૦ શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઈ શીવ ૭૦૦ ૫ શેઠ રતનશી હરજીભાઈ હા. ગોરધનદાસભાઈ જામજોધપુર ૫૫૫ ૬ બાટવીયા ગીરધર પરમાનંદ હા. અમીચંદભાઈ ખાખીજાળીઆ પર૭ ૭ મેરબીવાળા સંઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. મણીબાઈ તરફથી હ. મુલચંદદેવચંદ (કરાંચીવાલા) મલાડ પ૧૧ ૮ વેરા મણલાલ પોપટલાલ અમદાવાદ ૫૦૨ ૯૯ ગેસલીયા હરીલાલ લાલચંદ તથા ચંપાબેન ગોસલીયા અમદાવાદ ૧૦૨ ૧૦ શાહ પ્રેમચંદ માણેચંદતથા અસૌ.સમરતબેન રાજસીતાપુર અમદાવાદ ૧૦૨ ૧૧ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૨ શેઠ ચંદુલાલ છગનલાલ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૩ શાહ શાન્તીલાલ માણેકલાલ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૪ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાંચીવાલા) લીંબડી ૫૦૧ ૧૫ કામદાર તારાચંદ પોપટલાલ ધોરાજીવાળા રાજકોટ ૫૦૧ ૧૬ મહેતા મેહનલાલ કપુરચંદ રાજકોટ ૫૦ ૧૭ શેઠ ગોવિંદજીભાઈ પોપટભાઈ રાજકોટ ૫૦૦ ૧૮ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી રાજકેટ ૫૦૧ ૧૯ સ્વ. પિતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્થે હા. વેણીચંદ શાન્તીલાલ (જાબુઆવાળા) મેઘનગર ૫૦૧ ૨૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંધ હા. શેઠ ઠાકરશી કરસનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૨૧ શેઠ તારાચંદ પુખરાજજી ઔરંગાબાદ ૫૦૦ ૨૨ શ્રી સ્થાનકવાસી જનસંઘ ઔરંગાબાદ ૫૦૦ ૧૫૦ શેઠ શેષમલજી જીવરાજજી ૧૨૫ શેઠ અનરાજજી લાલચંદજી ૧૫ કડચંદજી રૂપચંદજી Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ૧૦૦ દગડુમલજી ચાંદમલજી ૫૦૦ ૨૩ મહેતા મૂળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઈ તથાદુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૭૫૦ ૨૪ શેઠ હરખચંદ પુરુષોત્તમ હા. ઈન્દુકુમાર ચોરવાડ ૫૦૦ ૨૫ શેઠ કેસરીમલજી વસતીમલજી ગુગલીયા રાણાવાસ ૫૦૧ ૨૬ સ્થા. જૈનસંધ હા. બાટલીઆ અમીચંદ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીઆ ૫૦૧ ૨૭ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ હા. કુલચંદભાઈ, ગુલાબચંદભાઈ નાગરદાસભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૮ શેઠ મણલાલ મેહનલાલ ડગલી હા. મુળજીભાઈ મણીલાલ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૯ સ્વ. કાંતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ બાલચંદ સાકરચંદ મુંબઈ ૫૦૧ ૩૦ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા) મુંબઈ ૫૦૧ ૩૧ શાહ જયંતીલાલ અમૃતલાલ શીવ ૫૦૧ ૩૨ વેરા મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ શીવ ૫૦૧ ૩૩ શેઠ ગુલાબચંદ ભુદરભાઈ તથા કસ્તુરબેન હ. ભાઈ અનેપચંદ ખારોડ ૫૦૧ ૩૪ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મહેતા ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૫ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૬ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ રાજકેટ ૫૦૧ ૩૭ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી તથા અ. સૌ. નંદકુવરબેન તરફથી જામનગર ૧૦૩ ૩૮ શેઠ દેવચંદ અમરશી (બેન ધીરજકુંવરની દીક્ષા પ્રસંગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૯ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ (બેન ધીરજકુંવરની દીક્ષા પ્રસંગે ભેટ)ભાણવડ ૫૦૧ ૪૦ વકીલ વાડીલાલ નેમચંદ શાહ વીરમગામ ૫૦૧ ૪૧ મહેતા શાંતિલાલ મણીલાલ હ. કમળાબેન મહેતા અમદાવાદ ૨૫૬ કર શ્રીયુત લાલચંદજી તથા અ. સૌ. ઘીસાબેન છે ૫૦૧ ૪૩ શેઠ મેહનલાલ મુકુટલાલ બાલયા ૪૪ સ્વ. શેઠ ઉકાભાઈ ત્રોવનદાસ વીસલપુરવાળાના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ લમીબાઈ ગીરધર તરફથી હ. મરઘાબેન - તથા મંગુબેન ૪૫ પારેખ યંતીલાલ મનસુખલાલ રાજકેટવાળા હા. વિનુભાઈ , ૫૦૧ ૪૬ શ્રીયુત શેઠ લાલચંદજી મીશ્રીલાલજી * ૫૦૧ ૪૭ શ્રી વાંકાનેર સ્થા. જૈન સંઘ વાંકાનેર ૫૦૧ ૪૮ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ ૪૯ શેઠ ગુદડમલજી શેશમાલજી જેવર (બરાર) પીપળગાંવ ૫૦૧ ૫૦૧ બોટાદ ૫૦૧ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . , : 'ટ - ૨૫૧ ૪૧૨ મેમ્બરેનું ગામવાર લીસ્ટ - અમદાવાદ તથા પરાંઓ. ૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ ૨૫૧ ૨ શેઠ છોટાલાલ વખતચંદ હા. ફકીરચંદભાઈ ૨૫૧ ૩ શાહ કાન્તીલાલ ત્રીભોવનદાસ ૨૫૧ ૪ શાહ પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ ૫ શાહ પોપટલાલ મેહનલાલ ૬ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ ૨૫૦ ૭ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૮ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ " ૯ સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા. કાનજીભાઈ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૧૦ ભાવસાર ભેગીલાલ જમનાદાસ (પાટણવાળા) ૨૫૧ ૧૧ શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ ૨૫૧ ૧૨ શાહ નરસિંહદાસ ત્રીભાવનદાસ ૨૫૧ ૧૩ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઠકેટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટ કર્તા શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ ૨૫૧ ૧૪ શ્રી છીપાપોળ દરીયાપુરી આઠકોટી સ્થા. જૈનસંઘહા. ચંદુલાલ અચરતલાલ ૨૫૧ ૧૫ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ C/o શાહ બાલાભાઈ મહાસુખરામભાઈ ૨૫૧ ૧૬ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી ૨૫૧ ૧૭ શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા. ડે. કું. સરસ્વતીબહેન શેઠ ૨૫૧ ૧૮ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈનસંઘ હા. શાહ કાન્તિલાલ જીવણલાલ ૨૫૧ ૧૯ મેદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ ૨૫૧ શાહ મોહનલાલ ત્રીકમદાસ ૨૫૧ ૨૧ શ્રી છકેટી સ્થા. જૈનસંઘ હા. શાહ પોચાલાલ પીતામ્બરદાસ ૨૫૧ ૨૨ શેઠ પોપટલાલ હંસરાજના સમરણાર્થે હા. શેઠ બાબુલાલ પોપટલાલ ૨૫૧ ૨૩ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળાના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેસાઈ ૨૫૧ ૨૪ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય ૨૫૧ શાહ મણીલાલ આશારામ ૨૫૧ ૨૬ શાહ ચીનુભાઈ સાકરચંદ - ૨૫૧ ૨૭ શાહ વરજીવનદાસ ઉમેદચંદ ૨૫૧ ૨૮ શાહ રજનીકાન્ત કસ્તુરચંદ : ૨૫ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૯ સંઘવી જીવણલાલ છગનલાલ (સ્થા. જૈમ) ૨૫૧ ૩૦ શાહ શાંતિલાલ મોહનલાલ ધ્રાંગધ્રાવાળા ૨૫૨ ૩૧ અ. સૌ. બેન રતનબાઈ નાદેચા હા. ધુલજીભાઈ ચંપાલાલજી ૩૨ શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાલા ૨૫૧ ૩૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠકોટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૩૪ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી સાદડીવાળા ૨૫૧ ૩૫ સ્વ. પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હજારમલજી બરડીયાના મરણાર્થે હાં. મૂળચંદજી જવાહરલાલજી ૩૬ સ્વ. ભાવસાર બબાભાઈ (મંગળદાસ) પાનાચંદના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ પુરીબેન ૨૫૧ ૩૭ સ્વ. પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ. માતુશ્રી મૂળીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. કઠલભાઈ કોઠારી ૩૦૧ ૩૮ ભાવસાર કેશવલાલભાઈ મગનલાલભાઈ ૨૫૧ ૩૯ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા. પાર્વતીબેન ૨૫૧ ૪૦ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપુરવાળા (સાબરમતી) ૨૫૧ ૪૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ (સાબરમતી) ૨૫૦ ૪૨ શ્રી બીપિનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ ગોપાણ (રાણપુરવાળા) ૩૦૧ ૪૩ ભાવસાર છોટાલાલભાઈ છગનલાલભાઈ ૨૫૧ ૪૪ ભાવસાર શકરાભાઈ છગનલાલભાઈ ૪૫ અ. સૌ. જીવીબેન રતીલાલ હા. ભાવસાર રતીલાલ હરગોવિંદદાસ ૨૫૧ ૪૬ સંઘવી બાલુભાઈ કમળશી તથા તેમના ધર્મપત્નિઓ અ.સૌ. ચંપાબેન તથા વસંતબેન તરફથી ૨૫૧ ૪૭ અ. સૌ. વિદ્યાબેન વનેચંદ દેશાઈ હા ભૂપેન્દ્રકુમાર વનેચંદ દેશાઈ ૨૫૧ ૪૮ સ્વ. પારેખ નાનચંદ ગોવિંદજી મોરબીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. રતીલાલ નાનચંદ પારેખ ૩૦૧ ૪૯ શાહ નટવરલાલ ગોકળદાસ ૨૫૧ ૫૦ શાહ શામળભાઈ અમરશીભાઈ ૨૫૧ ૫૧ શાહ ત્રીભવનદાસ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ શીવકુંવરબેન તરફથી હા. રતીલાલ ત્રીભોવનદાસ ૪૦૨ પર અ.સૌ. કંકુબેન (ભાવસાર ભેગીલાલભાઈ છગનલાલભાઈને ધર્મપત્નિ) ૩૯ ૨૫૧ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૫૧ - ૨૫૧ અ. સી. સવિતાબેન (જયંતીલાલ લેગીલાલનાં ધર્મપત્નિ) ૨૫૧ ૫૪ અ.સૌ. શાંતાબેન (દીનુભાઈ ભેગીલાલનાં ધર્મપત્નિ) ૨૫૧ ૫૫ અ. સી. સુનંદાબેન (રમણભાઈ ભેગીલાલનાં ધર્મપત્નિ) ૨૫૧ પ૬ શેઠ હીરાજી રૂગનાથજીના મરણાર્થે હા. વાગમલજી રૂગનાથજી ૩૦૧ ૫૭ શેઠ મણીલાલ બાઘાભાઈ ૨૫૧ ૫૮ પટવા સુમેરમલજી અનેપચંદજી જોધપુરવાળા ૩૦૧ ૫૯ સ્વ. માણેકલાલ વનમાળીદાસ શાહના સમરણાર્થે - હા. રમણલાલ માણેકલાલ ૬૦ સ્વ. શાહ ધનરાજજી ખેમરાજજીનાં સ્મરણાર્થે હા. કનૈયાલાલજી ધનરાજજી ૩૦૧ ૬૧ શ્રી સારંગપુર દ. આ. કે. સ્થા. જૈન સંઘ " હા. શાહ રમણલાલ ભગુભાઈ ૬૨ દેશી હરજીવનદાસ જીવરાજ તથા હિમ બાઈ લહેરચંદના ' સમરણાર્થે હા. દેશી મનહરલાલ કરસનદાસ મુળીવાળા ૨૫૧ ૬૩ શાહ પૂનમચંદ ફતેહચંદ ૨૫૧ ૬૪ શ્રી ચતુરભાઈ નંદલાલ ૨૫૧ ૬૫ શ્રીયુત અમૃતલાલ ઈશ્વરલાલ ૨૫૧ ૬૬ શાહ જાદવજી મેહનલાલ તથા શાહ ચીમનલાલ અમુલખભાઈ ૨૫૧ ૬૭ અ, સૌ. લાભુબેન મગનલાલ હા. શાહ અમૃતલાલ ધનજીભાઈ વઢવાણ શહેરવાળા ૩૦૧ ૬૮ અ. સૌ. બહેન કાન્તાબેન ગોરધનદાસ ૨૫૧ ૬૯ દોશી ફુલચંદ સુખલાલભાઈ બાટાદવાળાના સમરણાર્થે - હ. દોશી છબીલદાસ ફુલચંદભાઈ ૨૫૧ ૭૦ લાલાજી રામકુમારજી જૈન ૨૫૧ ૭૧ શેઠ છોટાલાલ ગુમાનચંદ પાલનપુરવાળા ૨૫૧ ૭૨ શાહ ધીરજલાલ મોતીલાલ ૨૫૧ ૭૩ સંઘવી સૂર્યકાંત ચુનીલાલના સ્મરણાર્થે હ. સંઘવી જીવણલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧ ૭૪ ભાવસાર મેહનલાલ અમુલખરાય ૨૫૧ ૭૫ શાહ ફુલચંદ મુલચંદભાઈ હ. હસમુખભાઈ કુલચંદભાઈ ૨૫૧ ૭૬ લલ્લુભાઈ મગનભાઈ ચૂડાવાલાના સ્મરણાર્થે હ. જસવંતલાલ લલ્લુભાઈ ૩૦૧ ૭૭ શ્રીમાન મીઠીલાલજી જવાહરલાલજી બરડીયા અલ્વરવાળા ૨૫૧ ૭૮ મહેતા મુળચ દ મગનલાલ ૨૫૧ ૭૯ વૈદ્ય નરસીદાસ સાકરચંદનાં ધર્મપત્નિ રેવાબાઈના સ્મરણાર્થે “હ. હરીલાલભાઈ ' ' ૨૫૧ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ અમરેલી ૧ માસ્તર હકમીચંદ દીપચંદ શેઠ અમલનેર ૧ શાહ નાગદ્દાસ વાઘજીભાઈ ૨ શ્રી સ્થા. જનસંઘ હા. શાહ ગાંડાલાલ ભીખાલાલ આણંદ ૧ શેઠ રમણીકલાલ એ. કપાસી હા. મનસુખલાલભાઈ આસનસોલ ૧ બાવીસી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ - મણીબાઈ તરફથી હા. રસિકલાલ, અનિલકાંત, વિનોદરાય આટકોટ ૧ શાહ ચુનીલાલ નારણજી ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૧ ઉદયપુર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શ્રીયુત સાહેબલાલજી મહેતા ૩૦૧ ૨ શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડ ૩ શેઠ મગનલાલજી બાગટેચા ૪ અ.સૌ. બહેન ચંદ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલજી નાહરનાં - ધર્મપત્નિ હા. શેઠ રણજીતલાલજી હીંગડ ૨૫૧ ૫ સ્વ.શેઠ કાળુલાલજી લેઢાના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ દેવતસિંહજી લેઢા ૨૫૧ ૬ સ્વ. શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલાના સ્મરણાર્થે હા. પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા ૭' પૂજ્ય પિતાશ્રી મેતીલાલ મહેતાના સ્મરણાર્થે હા. રણજીતલાલજી મેતીલાલજી મહેતા ૨૫૧ ૮ શેઠ છગનલાલ બાગચા ૨૫૧ ૯ શેઠ ભીમરાજ થાવરચંદ બાફણા ૨૫૧ ઉમરગાંવરેડ ૧ શાહ મેહનલાલ પોપટલાલ પાનેલીવાળા '૨૫૧ ઉપલેટા ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ ૨ સ્વ. બેન સંતકબેન કચરાં હાં. આગમચંદભાઈ, ઇટાલાલભાઈ તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણુવાળા) - ૨૫૧ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા. શેઠ પ્રતાપભાઈ ૨૫૧ ૪ સંઘાણી મૂળશંકર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમના પુત્રો જયંતીલાલભાઈ તથા રમણીકલાલ ૨૫૧ ૫ દેશી વિઠ્ઠલજી હરખચંદ (આગળના રૂા. ૧૫૧ મળીને) ૨૫૧ એડન કેમ્પ ૧ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણી ૨૫૧ ૨ શાહ જગમોહનદાસ પરસેતમદાસ ૨૫૧ કલકત્તા ૧ શ્રી કલકત્તા જૈન શ્વે. સ્થા. (ગુજરાતી) સંઘ. હો. શાહ જયસુખલાલ પ્રભુલાલ ૨૫૧ કલોલ ૧ શેઠ મોહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ ૨૫૧ ૨ ડે. મયાચંદ મગનલાલ શેઠ હા. ડે. રતનચંદ મયાચંદ - ૨૫૧ ૩ સ્વ. નાથાલાલ ઉમેદચંદ્રના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શાહ મણીલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા. મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ ૨૫૧ ૫ સ્વર્ગસ્થ શ્રીયુત વાડીલાલ પશેત્તમદાસના સ્મરણાર્થે હા. ઘેલાભાઈ તથા આત્મારામભાઈ ૨૫૧ ૬ શેઠ નાગરદાસ કેશવલાલ ૨૫૧ ૭ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હ. શેઠ આત્મારામભાઈ મેહનલાલભાઈ ર૫૧ ૨૫૦ ૨૫ ૧ શ્રી સ્થા. દરીયાપુરી જૈન સંઘ હા. ભાવસાર દામોદરદાસભાઈ ઈશ્વરભાઈ ૨પ૧ કાનપુર -- ૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચંદભાઈ (આગળના રૂા. ૧૫૦ મળીને) ૩૦૦ ૨ શાહ હરકીશનદાસ ફૂલચંદભાઈ કુંદણી (આટકોટ) ૧ દેશી રતીલાલ ટેકરશીભાઈ કેલકી ૧ પટેલ ગોવિંદલાલ ભગવાનજી ૨૫૧ ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી તેમના સ્વ. સુપુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણાર્થે) ૩૦૨ ખાખીજાળીયા ૧ બાટવીયા ગુલાબચંદ લીલાધર (આગળના રૂા. ૧૫૧ મળીને) ૨૫૧ ૧ શેક કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ પર - Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ છે . : : ' . . . . . . ૨૫૧ ૨૫૧ - ૨૫૧ ૨૫૧ - ૨૫૧. ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ..... ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. પટેલ કાન્તીલાલ અંબાલાલ ૩ શાહ સાકરચંદ મેહનલાલ ૪ શાહ ચંદુલાલ હરીલાલ ૫ શાહ સકરાભાઈ દેવચંદ ૬ શાહ ત્રિભવનદાસ મંગળદાસ ગુંદા ૧ સ્વ. મહેતા પૂનમચંદ ભવાનભાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ દીવાળીબેન લીલાધર ગોંડલ ૧ સ્વ. બાખડા વછરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપત્નિ કમળબાઈ તરફથી હ. માણેકચંદભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળીઆ લીલાધર દાદર તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સી. - લીલાવતી સાકરચંદ કંઠારીના બીજા વરસીતપની ખુશાલીમાં ૩ કામદાર ઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા. હરીલાલ જુઠાભાઈ ૪ સ્વ. કોઠારી કૃપાશંકર માણેકચંદના સ્મરણાર્થે હતું. તેમનાં ધર્મપત્નિ પ્રભાકુંવરબેન ગોધરા ૧ શાહ ત્રીવનદાસ છગનલાલ ઘટકણું ૧ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ લવાડ (થાણા) ૧ મહેતા ગુલાબચંદજી ગંભીરમલજી ઘોડની ૧ શેઠ ચાંદલ મોહનલાલ ભંડારી ચુડા (ઝાલાવાડ)૧ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હા. રતીલાલ ગાંધી પ્રમુખ જલેસર (બાલાસોર). ૧ સંધવી નાનચંદ પિપટભાઈ થાનગઢવાળા ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૧ - ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ જામજોધપુર ૩૮૭ ૧ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ ૨ શાહ ત્રીભવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા ૩ દેશી માણેકચંદ ભવાન (આગળના રૂ ૧૫૧ મળીને)' , '. ૨૫૧ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ પટેલ લાલજી જુઠાભાઈ (આગળના રૂ. ૧૫૧ મળીને) ૨૫૧ ૫ શેઠ બાવનજી જેઠાભાઈ (આગળના રૂા. ૧૫૧ મળીને) ઉપ૧ જામનગર ૧ શેઠ છોટાલાલ કેશવજી - ૨૫૧ ૨ વોરા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ ૨૫૧ ૩ ડો. સાહેબ પી. પી. શેઠ જામખંભાળીઆ ૧ શેઠ વસનજી નારણુજી - ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હા. મહેતા રણછોડદાસ પરમાનંદ ૨૫૧ ૩. સંધવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ ૨૫૧ જાવરા જ સ્વ. ભંડારી સ્વરૂપચંદજી શાહના ધર્મપત્નિ મોતીબેનના સ્મરણાર્થે - હ. શ્રીયુત લાલચંદજી રાજમલજી કીશનગઢવાળા ૨૫૨ જીનાગઢ: . . . : ૧ વ્હાહ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા. હરીલાલભાઈ (હાટીના માળીઓવાળા) ૨૫૧ જુનારદેવ (મધ્ય પ્રાંત) - ૧ ઘેલાણી ત્રીકમજીભાઈ લાધાભાઈ ૨૫૧ - ૨૫૧ - ૨૫૧ : ૧ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા. નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા) ૨૫૧ ૨ દેશી છોટાલાલ વનેચંદ ' ૨૫૧ ૩ કોઠારી ડોલરકુમાર વેણીલાલ ૪ અ.સૌ. બહેન સુરજકુંવર વેણીલાલ કોઠારી જેતલસર, ૧ શાહ લીમીચંદ કપુરચંદ ' ૨૫૧ ૨, કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ જબકબેન તરફથી હા. શાન્તીલાલભાઈ ગાંડલવાળા જોધપુર (રાજસ્થાન) ૧ હસ્તીમલજી મનરૂપમલજી સામસુખા જોરાવરનગર ૧ થી . રથ જૈન સંઘ હ. શેઠ ચંપકલાલ ધનજીભાઈ ૨૫૧ ડભાસ ૧. તુરખીઆ લહેરચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ જીવતીબાઈ તરફથી હા. જયંતીભાઈ ૨૫૧ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K ડાંડાઈચા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સ'ધ હા. શેઠ ચ'પાલાલજી મારવે ઢસા (વાયાધેાળા) ૧ શ્રી ઢસાગામ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. એક સગ્રહસ્થ તરફથી થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભાવનદાસ ૩ શાહ ધારશીભાઈ પાશવીરભાઈ હા. સુખલાલભાઇ દહાણુ રાડ (થાણા) ૧ શાહ હરજીવનદાસ એઘડ ખંધાર (કરાચીવાળા) દિલ્હી ૧ લાલા પૂર્ણચંદ્રજી જૈન (સેન્ટ્રલ બેંકવાળા) ૨ શ્રીયુત શ્વેતાબચંદ જૈન ૩ લાલાજી મીઠુનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૪ લાલાજી ગુલશનરાયજી જૈન એન્ડ સન્સ ૫ અ. સૌ. સજ્જનબેન ઇશ્વરમલજી પારેખ ધાર (મધ્યપ્રાંત) ૧ શેઠ સાંગરમલજી પનાલાલજી ધ્રાંગધ્રા ૧ શ્રી સ્થા. ન મેાટા સંઘ હા. શેઠ મંગળજીભાઈ જીવરાજ ૨ સંધવી નરસીઢાસ વખતચંદ્ન ૩ ક્કર નારણદાસ હન્ગેાવી દદાસ ૪ કાઠારી કપૂરચંદ મંગળજી યારાજી ૧ શ્વેતા પ્રભુદાસ મૂળજીભાઇ ૨ પિતાશ્રી ભગવાનજી કચરાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. પટેલ દલીચંદ ભગવાનજી ૩ અ સૌ. ખચીબેન ખાખુભાઇ ૪ ધી નવ સૌરાષ્ટ્ર એઈલ મીલ પ્રા. લીમીટેડ ૪ સ્વ. રાયચંદ પાનાચંદ શાહના સ્મરણાર્થે હા. ચીમનલાલ રાયચ ૬ ગાંધી પાપટલાલ જેચ છ દેશાઈ છગનલાલ ડાહ્યાભાઈ લાઠવાળાનાં ધર્મપત્નિ દિવાળીબેન તરફથી હા. કુમારી હસુમતી ૨૫૦ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧. ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫૧ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ પુના ૧ ભાવસાર ખેડવાસ ગણેશભાઈ ૨ શેઠ પોપટલાલ ધારશી ૩ સ્વ ગુલાબચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા. પોપટલાલ નાનચંદ ૪ વસાણી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ " નંદુરબાર ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ . પાણસણુ ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ૧ લમીબેન હા. હેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ ૨ શ્રી કાગછ સ્થાનકવાસી જૈન પુસ્તકાલય ૩ મહેતા મણીલાલ ભાઈચંદભાઈ ૪ મહેતા સૂરજમલ ભાઈચંદભાઈ પાલેજ. ૧ સ્વ મનસુખલાલ મોહનલાલ સંધવીના સ્મરણાર્થે . હા. ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ ૧ શેઠ ઉતમચંદજી કેવળચંદજી ધોકા , પ્રાંતિજ ૧ શ્રી પ્રાંતિજ સ્થા જૈનસંઘ હ. શ્રીયુત અંબાલાલ મહાસુખરામ બરવાળા (ઘેલાશા) ૧ સ્વ મોહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ સુરજબેન મોરારજી બગસરા (ભાયાણી) ૧ શેઠ પોપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હા. શેઠ માનસંગ પ્રેમચંદ બેરાજ (કચ્છ) ૧ શેઠ ગાંગજી કેશવજી (જ્ઞાનભંડાર માટે) બેંગલોર ૧ બાટવીયા વનેચંદ અમીચંદ મહાવીર ટેક્ષટાઈલ સ્ટોર તરફથી ભાઈ ચંદ્રકાંતના લગ્નની ખુશાલમાં આયg ૧ સ્વ. વસાણી હરગોવિંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ છબલબેન * મકાનેર ૧ શેઠ રૂાનજી શેઠીયા ૨૫૧ ર૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૨ ૨૫૧ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ મઢુલી ૧ શાહ પ્રવિણચંદ્ર નરસીદાસ (સાણુંઢવાળા) ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ્ન ભાણવડ ૧ શેઠ ચંદખાઈ માણેકચંદ ૨ સ'ઘવી માણેકચંદ માધવજી ૩ શેઠ લાલજીભાઇ માણેકચંદ ( લાલપુરવાળા ) ૪ શેઠ રામજી જીણાભાઈ ૫ શેઠ પદમશી ભીમજી ફારીઆ ૬ ફારીઆ ગાંડાલાલ કાનજીભાઈ હા. અ. સૌ. શાંતાબેન વસનજી ૭ વકીલ મણીલાલ ખેંગારભાઈ પૂનાતર .ભીલવાડા ૧ શ્રી શાંતિ જૈન પુસ્તકાલય હૈ. ચાંદમલજી માનમલજી સંઘવી ૨ શેઠ ભીમરાજ મીશ્રીલાલજી ભાજાચ (કચ્છ) ૧ જ્ઞાન મંદિરના સેક્રેટરી શાહ કુંવરજી જીવરાજ ભાવનગર ૧ સ્વ. કુંવરજી ખાવાભાઇના સ્મરણાર્થે હું. શાહ લહેરચંદ કુંવરજી મદ્રાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચ જી મનાર (થાણા) ૧ શાહ શેરમલજી દ્વેષીચંઢજી જસવંતગઢવાળા હા. પૂનમચંદજી શેરમલજી માલ્યા : 149 માનકુવા (કચ્છ) ૧ સ્વ. મહેતા કુંવરજી નાથાલાલના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ વરખાઈ હરખચંદ (માનકુવા સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ માટે ) સુબઇ તથા પરાં ૧ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ ૨ શાહ હરજીવન કેશવજી ૩ ઘેલાણી પ્રભુલાલ ત્રકમજીભાઈ (રીવલી) ૪. શેઠ છેટુભાઈ હરગાવિંદદાસ કટારીવાલા ** ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૨ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ર૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫ર ૨૫૧ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫ શ્રી વર્ધમાન સ્થા. જૈન સંઘ ૨૫૧ હા, કેશરીમલજી અનેાપચંદજી ગુગળીયા (મલાડ) ૨૫૧ શેઠ ડુંગરશી હુંશરાજ વીસરીયા ७ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ. સૌ, કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૨૫૧ . શાહે હિંમતલાલ હરજીવનદાસ ૨૫૧ રે શાહ રતનશી માણશીની કંપની ૧૦ શાહ શીવજી માણેક (કચ્છ. બેરાજાવાળા ) ૧૧ વારા પાનાચંદ સંઘજીના સ્મરણાર્થે ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૫ ૨૩ ૧૫ ૧૬. ૧૭ શ્રીયુત અમૃતલાલ વમાન ખપેાદરાવાળા હો. વલીચંદ અમૃતલાલ ૧૮. સ્વ. શાહ નાગશી સેાજપાળ ગુંદાળાવાળાના સ્મરણાર્થે હા. રામજી નાગશી (મલાડ) ૨૫ હા. ત્રમકલાલ પાનાચંદ એન્ડ બ્રધર્સ સ્વ. પૂ. પિતાશ્રી વીરચંદ જેસી ંગભાઈ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ શેઠ ૨૩ ૨૭ શા. કુંવરજી હુંસરાજ સ્વ. માતુશ્રી માણેકબેનના સ્મરણાથે હા. શેઠ વલભદાસ નાનજી (પારખ’દરવાળા) એક સગૃહસ્થ હા. શેઠ સુંદરલાલ માણેક અ. સૌ. પાનબાઈ હા. શેઠ પદમશી નરસિંહભાઇ (મલાડ) ૨૫૧ ૫૧ .... ૨૫૧ ૧૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૨૦ ૨૧ શાહ નગીનદાસ કલ્યાણજી વેરાવળવાળા શીવલાલ ગુલાબચંદ શેઠ મેવાવાળા સ્વ. જટાશંકર દેવજી દોશીના સ્મરણાર્થે ૨૧ હા. રણછેાડદાસ (બાબુલાલ) જટાશંકર દોશી સ્વ- ગાડા વણુારશી ત્રીભેાવન સરસઈવાળા સ્મરણાર્થે હા. જગજીવન વણારશી ગેાડા (મલાડ) ૨૪ સ્વ. ત્રીભાવનદાસ વ્રજપાળ વીંછીયાવાળાના સ્મરણાથે હા. હૅરગાવિંદદાસ ત્રીભાવનદાસ અજમેરા સ્વ. કાનજી મૂળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના ૧૬ ઉપવાસના પારણા પ્રસંગે હા. જયંતીલાલ કાનજી કાળાવડવાળા(મલાડ) ૨૫૧ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઇ ૨૫૦ શાહ પ્રેમજી માલશી ગંગર (મલાડ) ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨. ૨૯ ૩. ૩૧ ૩ર ૩૩ ૩૪ ૩૫ ૩૬ ___ ૧૬. ૪૩ સ્વ. પિતાશ્રી પત્તુભાઇ માનાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ કાનજી પતુભાઈ (મલાડ) શાહ વેલજી જેશીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ, સ્વ. નાનમાઈના સ્મરણાર્થે ૨૧. પિતાશ્રી રાયશી વેલજીના સ્મરણાર્થે હા. શાહ દામજી રાયશી (મલાડ) શેઠ ત્રંબકલાલ કસ્તુરચ'દ લી’ખડીવાળા તરફથી શ્રી અજરામર શાસ્ત્રભડાર લીમડી માટે (માટુંગા) સ્વ. પિતાશ્રી ભીમજી કારશી તથા માતુશ્રી પાલાબાઇના સ્મરણાર્થે હા. શાહે ઉમરશીભાઇ ભીમશી કચ્છપતરીવાળા (મલાડ) શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા શાહ વરજાંગભાઈ શીવજી (મલાડ) રતીલાલ ભાઇચંદ મહેતા ૨૫૧ શાહ ખીમજી મૂળજી પૂજા (મલાડ) મેસર્સ' સવાણી ટ્રાન્સપેટ કપની હા. શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૩૦૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૩૫ ૫૧ ૩૮ ઘેલાણી વલભજી નસ્લેરામ હે. નરસીભાઈ વલભજી ૨૫૧ ૩૯ અ. સૌ. સમતાખેત શાન્તીલાલ C/o.શાન્તીલાલ ઉજમશી શાહ(મલાડ) ૨૫૧ ૪૦ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચંદ ૨૫૧ ૪૧ કપાસી મેાહનલાલ શીવલાલ ૨૫૧ ૪૨ સ્વ. કેશવલાલ વછરાજ કોઠારીના સ્મરણાર્થે સુરજબેન તરફથી હા. તનસુખલાલભાઈ (મલાડ) દડીયા અમૃતલાલ મેાતીચંદ (ઘાટકોપર) ૪૪ શેટ સરદારમલજી દેવીચંદજી કાવેડીયા (સાદડીવાળા) - દોશી ચત્રભુજ સુંદરજી (ઘાટકેાપર) ૪૬ દોશી જુગલકીશાર ચત્રભુજ (ઘાટકોપર) ४७ દોશી પ્રવીણચંદ્ર ચત્રભુજ (ઘાકાપર) ૪૮ ૩૦૧ પા ૩૦૧ પા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ શાહ ત્રીભેાવનદાસ માનસિંગ ઢોઢીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. શાહુ હરખચંદ ત્રીભાવનદાસ ૨૫૧ ૪૯ શાહે જેઠાલાલ ડામરથી ધ્રાંગધ્રાવાળા હા. શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૫૦ શાહુ ચંદુલાલ કેશવલાલ ૫૧ સ્વ. પિતાશ્રી શામળ કલ્યાણજી ગાંડલવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્રા તરફથી હા. વૃજલાલ શામળછ બાવીશી ૩૦૧ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S પર શાહ પ્રેમજી હીર ગાલા ૨૫૧ ૫૩ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચંદ જસાણીના સ્મરણાર્થે હા. લીમીચંદ તથા કેશવલાલભાઈ ૩૦૧ ૫૪ સ્વ. પિતાશ્રી હંસરાજ હીરાના સ્મરણાર્થે હા. દેવશી હંસરાજ કચ્છ બીદડાવાળા (મલાડ) ૨૫૧ ૫૫ સ્વ. માતુશ્રી ગોમતીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ પોપટલાલ પાનાચંદ ૨૫૧ ૫૬ શેઠ નેમચંદ સ્વરૂપચંદ ખંભાતવાળા હા. ભાઈ જેઠાલાલ નેમચંદ ૨૫૧ ૫૭ સ્વ. પિતાશ્રી શાહ અંબાલાલ પરસોતમ પાણશણવાળાના મરણાથે તેમના પુત્રો તરફથી હા. બાપાલાલભાઈ ૨૫૧ ૫૮ બેન કેશરભાઈ ચંદુલાલ જેસીંગલાલ શાહ ૨૫૧ ૧૯ દડીયા જેસીંગલાલ ત્રીકમજી ૨૫૧ ૬૦ શાહ કાન્તીલાલ મગનલાલ (ઘાટકોપર) ૨૫૧ ૬૧ કોઠારી સુખલાલજી પૂનમચંદજી (ખાર) ૨૫૧ ૬૨ સ્વ. માતુશ્રી કડવીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમના પૌત્ર હકમીચંદ તારાચંદ દોશી (કાંદીવલી) ૨૫૧ ૬૩ પારેખ ચીમનલાલ લાલચંદનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. શ્રીમતી ચંચળબાઈના સ્મરણાર્થે હા. સારાભાઈ ચીમનલાલ ૨૫૧ ૬૪ શાહ કેરશીભાઈ હીરજીભાઈ ૩૦૧ ૬૫ પિતાશ્રી કુંદનમલજી મોતીલાલજીના સ્મરણાર્થે હા. મોતીલાલ જુબરમલ (અહમદનગરવાળા) ૨૫૧ ૬૬ શ્રી વર્ધમાન શ્વેતામ્બર સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ રૂપચંદ શીવલાલ કામદાર (અંધેરી) ૨૫૧ ૬૭ અ. સી. કમળાબેન કામદાર હા. રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૬૮ ધી મરીના મેન હાઈસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા. શાહ મણીલાલ ઠાકરશી. ૨૫ ૬૯ સ્વ. માતુશ્રી જીવીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શામજી શીવજી કચછ ગુંદાળાવાળા (ગોરેગાંવ) : ૨૫૧ ૭૦ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કંપની (કાંદીવલી) ૭૧ અ. સૌ. લાછુ એમ હા. રવજી શામજી (કાંદીવલી ૨૫૧ ૭૨ અ. સૌ. બેન કુંદનગૌરી મનહરલાલ સંઘવી (ખારોડ) ૨૫૧ ૭૩ શાહ કરશન લધુભાઈ (દાદર) ૩૦૧ ૭૪ અ.સૌ. રંજનગરી ચંદુલાલ શાહC/o ચંદુલાલ લહમીચંદ (માટુંગા) ૨૫૧ ૫ મહેતા મોટર સ્ટોર્સ હા. અનેપચંદ ડી. મહેતા (મુંબઈ) ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ ૫૧ ૭૬ શેઠ મનુભાઈ માણેકચંદ હા. ઝાટકીયા નરભેરામ મેારારજી (ઘાટકેાપર) ૨૫૧ ૭૭ ખેતાણી મણીલાલ કેશવજી (વડીયાવાળા) ઘાટકોપર ૭૮ સ્વ. કસ્તુરચંદ અમરશીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ ઝવેરબેન મગનલાલની વતી—જયંતીલાલ કસ્તુરચંદ મશ્કારીયા (ચુડાવાળા) ૨૫૧ છે સ્વ. પૂજ્ય માતુશ્રી જકલમાઇના સ્મરણાર્થે હા. દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ (મલાડ) ૮૦ શાહ નટવરલાલ દીપચંદ તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. સુશીલાબેનના વર્ષી તપની ખુશાલીમાં ૮૧ શેઠ રસીકલાલ પ્રભાશંકર મારીવાળા તરફથી તેમનાં માતુશ્રી મણીબેનના સ્મરણાર્થે ૩૦૧ ૨૫૧ ૮૨ કાટીચા જયંતીલાલ રણછેાડદાસ સૌભાગ્યચંદ્ર જુનાગઢવાળા ૮૩ મેાદી અભેચંદ સુરચંદ રાજકાટવાળા હા. ડોસાલાલ અભેચંદ ૮૪ સ્વ. શાહ રાયશી કચરાભાઇના સ્મરણાર્થે તેમના ૨૫૧ ૨૫૧ ધર્મ પત્નિ તેણુભાઈ વતી હ શાહ જેઠાલાલ રાયશી ૮૫ શ્રીયુત જે. સી. વારા ૨૫૦ ૮૬ શ્રી વર્ધમાન સ્થા.જૈન શ્રાવક સંઘ હૈ. સંઘવી ચીમનલાલ અમરચંદ(દાદર) ૨૫૧ ૮૭ સ્વ. આશારામ ગીરધરલાલના સ્મરણાર્થે હ. શાંતિલાલ આશારામની વતી જસવંતલાલ આશારામ લખતરવાળા માંડવી ( કચ્છ ) ૧ શ્રી સ્થા. છ ફાટી જૈન સંઘ હા. મહેતા ચુનીલાલ વેલજી માંડવા ( ધેાળાજકશન) ૧ શ્રી માંડવા સ્થા. જૈન સંઘ હું. અ. સૌ. કચનગૌરી રતિલાલ ગાસલીયા ગઢડાવાળા ૧ શાહ દેવરાજ પેથરાજ ૨ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી. મહેતા ૨૫૧ યાદગીરી ૧ શેઠ ખાદરમલજી સૂરજમલજી એન્કર્સ ૨૫૧ ૨૫૧ २७७ મેસાણા ૧ શાહ પદમશી સુરચંદના સ્મરણાર્થે હા. શીવલાલ પદ્મમશી વીરમગામવાળા ૨૫૧ મામ્બાસા ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૦ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૩૦૧ ४०० ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ રાણપુર (ઝાલાવાડ) ૧ શ્રીમતિ માતુશ્રી સમરતબાઈના સ્મરણાર્થે હા. ડો. નત્તમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા રાણાવાસ (મારવાડ) ૧ શેઠ જવાનમલજી નેમચંદજી હા. બાબુ રીપબચંદજી રાજકોટ ૧ ધી વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ૩ બાબુ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ઉદેપુરવાળા) ૪ શેઠ મનુભાઈ મુળચંદ (એજીનીઅર સાહેબ) ૫ શેઠ શાન્તીલાલ પ્રેમચંદ તેમનાં ધર્મપત્નિના વરસીતપ પ્રસંગે ૬ ઉદાણી ન્યાલચંદ હાકેમચંદ વકીલ ૭ શેઠ પ્રજારોમ વીઠ્ઠલજી ૮ બહેન સથુંબાળ નૌતમલાલ જસાણી (વરસીતપની ખુશાલી) ૯ મોદી સૌભાગ્યચંદ મેતીચંદ ૧૦ બદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. સમરતબેનના વરસીતપની ખુશાલી ૧૧ દેશી મોતીચંદ ધારશીભાઈ (રીટાયડ એજીનીઅર સાહેબ ) ૧૨ કામદાર ચંદુલાલ જીવરાજ ૧૩ હેમાણી ઘેલુભાઈ સવચંદ ૧૪ પ્રભુલાલ ન્યાલચંદ દફતરી ૧૫ સ્વ. મહેતા દેવચંદ પુરૂષોત્તમદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ હેમકુવરબાઈ તરફથી હા. યંતીલાલ દેવચંદ મહેતા રાજાજીકાકેરડા (ભીલવાડા) ૧ શ્રીમાન જોરાવરમલજી ધર્મચંદજી ડુંગરવાલ [ મુનીશ્રી માંગીલાલજીના ઉપદેશથી ] રાયચુર ૧ સ્વ. માતુશ્રી મોંઘીબાઈના સ્મરણાર્થે હ. શાહ શીવલાલ ગુલાબચંદ વઢવાણવાળા ૨ ગુન ૧ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલનાં ધર્મપત્નિ અ. સો. કમળાબેન રાપર (કચ્છ) ૧ પુજ્ય વાલજીભાઈ ન્યાલચંદ ૨૫૧ - ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० લખતર ૧ શાહ રાયચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા. શાહ શાન્તીલાલ રાયચંદ ૨૫૧ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા, ભાઈ ત્રીભોવનદાસ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ ૨૫૧ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ સાદવાળાના સ્મરણાર્થે હા, ભાઈ શાન્તીલાલ જાદવજી ૨૫૧ ૬ દોશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સમરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ સમરતબેન વૃજલાલ તરફથી હા. જયંતીલાલ ઠાકરશી ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ નેમચંદ સવજીભાઈ મેદી હા. મગનલાલભાઈ ૨ શેઠ મુળચંદ પિપટલાલ હ. મણીબાઈ તથા જેસીંગલાલભાઈ ૨૫૧ લાખેરી (રાજસ્થાન) ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા. મહેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ | (સીવીલ એનજીનીઅર સાહેબ) ૨૫ લીમડી (પંચમહાલ). ૧ શાહ કુંવરજી ગુલાબચંદ ૨૫૧ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાબચંદ ૨૫૧૬ લીબડી (સૌરાષ્ટ્ર) ૧ શાહ ચકુભાઈ ગુલાબચંદ ૨૫૧ લાકડીયા (કચ્છ) શ્રી થાવર જૈન સંઘ હ. શાહ રતનશી કરમણ લેનાવાલા ૧ શેઠ ધનરાજજી મૂળચંદજી મૂળા વઢવાણ શહેર ૧ શાહ દીલીપકુમાર સવાઈલાલ હા. સવાઈલાલ ત્રંબકલાલ શાહ ૨ શાહ મગનલાલ ગોકળદાસ હા. રતીલાલ મગનલાલ કામદાર ૨૫૧ ૩ સંઘવી મુળચંદ બેચરભાઈ હા. ભાઈ જીવણલાલ ગફલદાસ ૨૫૧ ૪ શેઠ વૃજલાલ સુખલાલ ૨૫૧ ૫ શેઠ કાન્તીલાલ નાગરદાસ ૨૫૧ ૬ વોરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૨૫૧ ૭ સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ ૨૫૧ ૮ શાહ દેવશી દેવકરણ ૨૫૧ ૯ વોરા ડેસાભાઈ લાલચંદ સ્થા. જૈન સંધ હા. વારા નાનચંદ શીવલાલ ૨૫૧ ૧૦ વાર ધનજીભાઈ લાલચંદ્ર સ્થા. જૈન સંઘ હા. વેરા પાનાચંદ ગેબરદાસ ૨૫૧ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૧ દેશી વીરચંદ્ર સુરચંદ હા. દેશી નાતચંદ ઉજમશી ૨૫૧ ૧૨ સ્વ. વેરા મણીલાલ મગનલાલ હા. વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૨૫૧ વટામણ ૧ શ્રી વટામણ સ્થા. જૈન સંધ હા. શ્રી ડાહ્યાભાઈ હસુભાઈ પટેલ ૨૫૧ વલસાડ ૧ શાહ ખીમચંદ મૂળજીભાઈ ૨૫૧ વણી ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્નિ વ. ચંચળબેન તથા પુરીબેનના મરણુંથે હા. ભાઈ મનહરલાલ નાનાલાલ ૨૫૧ વડેદરા ૧ કામદાર કેશવલાલ હિમતરામ પ્રોફેસર સાહેબ (ગોંડલવાળા) ૨૫૧ ૨ વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહ ૨૫૧ વડીયા ૧ પંચમીયા ભવાનભાઈ કોળાભાઈ (જેતપુરવાળા) વાંકાનેર ૧ માસ્તર કાન્તીલાલ ત્રંબકલાલ ખંઢેરીયા ૨ દફતરી ચુનીલાલ પોપટલાલ મરબીવાળા હા, ભાઈ પ્રાણલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧ વીછીયા ૧ શ્રી સ્થા. જન સંધ હા. અજમેરા રાયચંદ વૃજપાળ વીરમગામ ૧ શાહ વિઠ્ઠલભાઈ મોદી માસ્તર ૨૫૧ ૨ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ ૨૫૧ ૩ શાહ મણીલાલ જીવણલાલ (શાહપુરવાળા) ૨૫૧ ૪ શાહ અમુલખ (બચુભાઈ) નાગરદાસનાં ધર્મપનિ અ.સૌ.બેન લીલાવંતીના વરસીતપનાં પારણાની ખુશાલીમાં હા. ભાઈ કાન્તીલાલ નાગરદાસ ૩૦૦ ૫ સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા. શેઠ ચુનીલાલ નાનચંદ ૬ સ્વ. શેઠ મણીલાલ લહમીચંદના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્રો તરફથી હા. ખીમચંદભાઈ (ખારાધોડાવાળા) ૨૫૧ ૭ સ્વ. શેઠ હરીલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ અનુભાઈ હરીલાલ ૨૫૧ ૮ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ ૨૫૧ ૯ સ્વ શાહ વેલશીભાઈ સાકરચંદભાઈના સ્મરણાર્થે હા. ચીમનલાલ વેલશી (કત્રાસવાળા) ૫૧ ૨૫૧ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૦ પારેખ મણીલાલ કરશી લાતીવાળા તરફથી (ટીએનના સ્મરણાર્થે) ૨૫૧ ૧૧ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના સુપુત્ર વાડીલાલભાઈનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. - નારંગીબેનના વરસીપત નિમીત્ત હા. શાન્તીભાઈ ૨૫૧ ૧૨ સ્વ. છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ કમળાબેન તરફથી હા. મંજુલાકુમારી ૧૩ શ્રી સ્થા. જૈન શ્રાવિકા સંઘ હા. પ્રમુખ અ.સૌ. રંભાબેન વાડીલાલ ૨૫૧ ૧૪ સ્વ. ત્રીભવનદાસ દેવચંદ તથા સ્વ. અ. સૌ. ચંચળબેનના સમરણાર્થે હા. ડે. હિંમતલાલ સુખલાલ ૧૫ શાહ મૂળચંદ કાનજીભાઈ તરફથી હા. નાગરદાસ ઓઘડભાઈ ૨૫૧ ૧૬ શેઠ મેહનલાલ પીતાંબરદાસ હા. ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખભાઈ ૨૫૧ ૧૭ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈના વરસીતપ નિમિત્તે હા. નથુભાઈ નાનચંદ શાહ ૩૦૧ ૧૮ સ્વ. મણીયાર પરસેતમદાસ સુંદરજીના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ સાકરચંદ પરસેતમદાસ ૨૫૧ ૧૯ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ ૨૫૧ વેરાવલ ૧ શાહ કેશવલાલ જેચંદભાઈ ૨૫૧ ૨ શાહ ખીમચંદ સૌભાગ્યચંદ વસનજી ૨૫૧ ૩ સ્વ. શેઠ મદનજી જેચંદભાઈ માંગરોળવાળાના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ લાડકુંવરબાઈ તરફથી હા. ધીરજલાલ મદનજી ૨૫૧ સરખેજ ૧ સ્વ. પિતાશ્રી શાહ ફકીરચંદ પુંજાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રમણલાલ ફકીરચંદ ૨૫૧ સતાર ૧ સ્વ. મદનલાલજી કુંદનમલજી કોઠારીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપતિન રાજકુવરબાઇ મદનલાલજી ૨૫૧ સાદડી ૧ શેઠ દેવરાજ જીતમલજી પૂનમીયા ૨૫૧ સાલબની (બંગાળ) ૧ દેશી ચુનીલાલ કુલચંદ મોરબીવાળા ૨૫૦ સાણંદ ૧ શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હ. શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ ૩૦૧ ૨ અ. સૌ. ચંપાબેન હા. દેશી છવરાજ લાલચંદ ૨૫૧ ૩ પટેલ મહાસખલાલ ડોસાભાઈ ૨૫૧ ૪ શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઈ ૨૫૧ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ * ૨૫૧ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સંઘવી લીમડીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. વાડીલાલ મેહનલાલ કે ઠારી ૨૫૧ ૬ પારેખ નેમચંદ મોતીચંદ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. પારેખ ભીખાલાલ નેમચંદ ૨૫૧ ૭ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ જયંતિલાલ નારણદાસ ૨૫૧ સુરત ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શાહ છોટુભાઈ અભેચંદ ૨૫૧ ૨ શ્રીયુત કલ્યાણચંદ માણેકચંદ હડાલાવાળા ૨૫૧ સુવઇ (કચ્છ) ૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાનંદી જેન મુનિશ્રી છોટાલાલ મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા. જૈન સંઘ જ્ઞાનભંડારને ભેટ ૨૫૧ સુરેન્દ્રનગર ૧ શેઠ ચાંપશીભાઈ સુખલાલ ૨૫૧ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૨૫૧ ૩ સ્વ. કેશવલાલ મૂળજીભાઈનાં ધર્મપત્નિ અમૃતબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ કેશવલાલ (થાનગઢવાળા) ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચંદ ૨૫૧ ૫ શાહ વાડીલાલ હરખચંદ ૨૫૧ સંજેલી (પંચમહાલ) ૧ શાહ લુણાજી ગુલાબચંદ ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ. શેઠ પ્રેમચંદ દલીચંદ ૨૫૧ હાટીના માળીયા ૧ શેઠ ગોપાલજી મીઠાભાઈ ૨૫૦ હારીજ ૧ અમુલખભાઈ મુળજી હા. પ્રકાશચંદ અમુલખ ૩૦૧ ૨ સ્વ. બેન ચંદ્રકાન્તાના સ્મરણાર્થે હા. અમુલખ મુળજીભાઈ ૩૦૧ ૧ હીરાચંદ વનેચંદજી કટારીઆ - હુબલી તા.૧૦-૧ર-૫૮ સુધી મેમ્બરોની સંખ્યા ૫ આઇ મુરબ્બીશ્રીઓ ૪૯ સહાયક મેમ્બર ર૧ મુરબીશ્રીઓ ૪૧૨ લાઈફ મેમ્બરે ૬૯ બીજા કલાસના મેમ્બરે કુલ મેમ્બરે ૫૫૬ રાજકોટ તા. ૧૦-૧ર-૫૮ સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ - મંત્રિ ૨૫૧ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની અગત્યની અપીલ સ્થાનકવાસી જન ભાઈઓ અને બહેને – સ્થાનકવાસી સમાજને બે અવલંબન છે. તેમાં પહેલું મુનિવર્ગ અને બીજું શાઅશ્રવણ છે. જ્યાં જ્યાં મુનિમહારાજની ગેરહાજરી હોય છે (અને ભવિષ્યમાં રહેવાની છે) તે સ્થળે આ શાસ્ત્રો સ્થાનકવાસી કોમને ટકાવી રાખવા મોટામાં મોટું સાધન છે. ઓછામાં ઓછા રૂા. ૫૦૦૦ આપી આદ્ય મુરબ્બીપદ આપ દિપાવી શકે છે. ઓછામાં ઓછા રૂા. ૧૦૦૦ આપી મુરબ્બીપદ મેળવી શકે છે. ઓછામાં ઓછા રૂ. ૫૦૦) આપી સહાયક મેમ્બર બની શકે છે. અને ઓછામાં ઓછા રૂા. ૨૫] આપી લાઈફ મેમ્બર તરીકે દરેક ભાઈ બેન દાખલ થઈ શકે છે, ઉપરના દરેક મેમ્બરને ૩૨ સૂત્રે તથા તેના તમામ ભાગો મળી લગભગ ૭૦ ગ્રંથે જેની કિંમત લગભગ ૮૦૦ ઉપર થાય છે તે ભેટ તરીકે મળી શકે છે. અને દરેક શાસ્ત્રમાં તેમનું નામ પ્રસિદ્ધ કરવામાં આવે છે. - દરેક શાસ્ત્ર ૪ ભાષામાં તૈયાર થાય છે. એટલે દરેક પાનામાં ૪ ભાષા જોવામાં આવશે. ઉપરમાં અર્ધમાગધી, તેની નીચે સંસ્કૃત છાયા–ટીકા ત્યાર બાદ હીન્દી રાષ્ટ્રભાષા અને છેવટે ગુજરાતીમાં અનુવાદ જેવામાં આવશે. શ્રમણ વર્ગ, શ્રાવક વર્ગને દરેક પ્રદેશમાં વસતા સમાજનાં દરેક અંગને એક સરખી રીતે ઉપયોગી થાય તેવી રીતે ખ્યાલ કરીને શાસ્ત્રની રચના કરવામાં આવે છે. બહાર દેશાવરમાં વસતા આપણા ભાઈઓને તેમજ ગામડામાં વસતા શ્રાવકોને તેમજ કુરસદે વાંચન કરનાર બહેનો તેમજ વિદ્યાર્થીઓને એક સરખું ઉપયેગી થઈ શકે તેવું સાહિત્ય બીજી કોઈ જગ્યાએ મળી શકે તેમ નથી. 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