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पीयूषवर्षिणी टीका, स्व. ९२ केवलिनः सिद्धिगतिप्राप्तिक्रम निरूपणम्. ६९३
मूलम् -- से णं एएणं उवाएणं पढमं मणजोगं निरुभइ, निरुंभित्ता वयजोगं निरुभइ, निरुंभित्ता कायजोगं निरुंभइ, निरंभित्ता जोगणिरोह करे, करिता अजोगत्तं पाउणइ, पाउणित्ता ईसिं
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सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य, ‘अपज्जत्तगस्स' अपर्याप्तकस्य 'जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेज्ज - गुणपरिहीणं ' जघन्ययोगस्याधोऽसंख्ये यगुणपरिहीनं. ' तइयं ' तृतीयं कायजोगं ' काययोगं ' निरुंभइ ' निरुणद्धि ॥ सू. ९१ ॥
टीका -' से णं इत्यादि । ' से णं' स केवली खलु ' एएणं उवाएणं पढमं मणजोगं निरुंभइ ' एतेनोपायेन प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, 'निरंभित्ता' मनोयोग निरुध्य, 'वयजोगं निरुभइ ' वाग्योगं निरुणद्धि, 'निरंभित्ता' वाग्योगं निरुध्य ' कायजोगं निरुंभइ ' काययोगं निरुणद्धि, 'निरंभित्ता ' काययोगं निरुध्य, ' जोगणिरोहं करेइ ' योगनिरोधं करोति, ' करिता ' योगनिरोधं कृत्वा ' अयोगत्तं पाउण गुणपरिहीणं कायजोगं णिरुभइ) पश्चात् सूक्ष्म अपर्याप्त पनक ( निगोद) जीव के जघन्य से नीचे के असंख्यातगुणहीन तृतीय काययोग का निरोध करते हैं । सू० ९१ ॥
'से णं एएणं उवाएणं' इत्यादि ।
(eri उवाएणं) इस प्रकार के उपाय से (सेणं) वह केवली भगवान् (पढमं मणजोगं) प्रथम मनोयोग का (निरुंभइ) निरोध करते हैं, (निरंभित्ता) उसका निरोध हो चुकने के बाद (वयजोगं निरुंभइ) वचनयोग का निरोध करते हैं, (निरंभित्ता) इसके बाद (कायजोगं निरंभ इ) कायजोग का निरोध करते हैं । इस रीति से (निरुंभित्ता जोगनिरोहं करेइ) समस्त योगों का वे निरोध जब करते हैं तब (अजोगतं पाउ
कायजोगं णिरुभइ ) पछी सूक्ष्म अपर्याप्त पन ( निगोह ) कवना धन्यथी નીચેના અસંખ્યાત ગુણહીન ત્રીજા કાયયેાગના નિરોધ કરે છે. (સૂ. ૯૧)
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से णं एएणं उवाएणं ' इत्यादि.
( एएणं उवाएणं) मा अठारना उपायथी ( से णं ) ते ठेवसी लगवान् ( पढमं मणजोगं ) प्रथम मनोयोगनो ( निरुभइ ) निरोध अरे छे, (निरुंभित्ता) ते निरोध था रह्या पछी ( वयजोगं निरुभइ ) वन्यनयोगनो निशेध ४रे छे. (निरुंभित्ता ) त्यार पछी ( कायजोगं निरुभइ ) आयलेगनो निरोध रे छे, आ रीतथी ( निरंभित्ता जोगनिरोहं करेइ ) समस्त योगोनो तेथेो निरोध न्याये पुरे छे, त्यारे ( अजोगतं पाउणइ ) अयोगी - अवस्थाने प्राप्त यर्धलय
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