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औपपातिकसूत्रे
- षेधार्थम् । 'अत्थि वेयणा' अस्ति वेदना-वेदना वेदनम्-स्वभावादुदीरणां कृत्वा वा उदयावलिकामनुप्रविष्टस्य कर्मणो योऽनुभवः कर्मफलभूतसुखदुःखानुभवः, तत्स्वरूपा । 'अत्थि णिजरा' अस्ति निर्जरा-निर्जरा देशतः कर्मक्षयः, 'अस्थि अरिहंता' सन्यहन्तः, 'अस्थि चक्कचट्टी' सन्ति चक्रवर्तिनः, 'अत्थि बलदेवा' सन्ति बलदेवाः, 'अस्थि वासुदेवा' सन्ति वासुदेवाः-अर्हदादीनां चतुर्गामभिधानं तु तेषां भुवनातिशायित्वप्रतिपादनार्थं तेषामतिशयत्वमश्रद्दधतां श्रद्धाविधानार्थ च । 'अस्थि नरगा' सन्ति नरकाःदेना इसे भाववर के स्थानापन्न जानना चाहिये । समितिगुप्ति आदि ये सब भावलंवर के ही भेद हैं । इनसे ही आत्मा में आते हुए कर्म रुकते हैं। यहां पर भावलंवर का ग्रहण हुआ है। भाव वर का कथन बन्ध और मोक्ष को जो निष्कारणक मानने वाले हैं उनकी धारणा का प्रतिषेध करने के निमित्त समझना चाहिये । (वेयणा) वेदना है। कर्म की स्वभावतः उदीरणा करके अथवा उदयावलि में उसे लाकर उसके सुखदुःखादिक रूप फल का अनुभव करना इसका नाम वेदना है। (णिज रा) निर्जरा है । एकदेश से कर्मों का क्षय होना सो निर्जरा है । (अस्थि अरिहंता अस्थि चकाट्टी) अर्हत हैं, चक्रवर्ती हैं । (अस्थि बलदेवा अस्थि वासुदेवा) बलदेव हैं, वासुदेव हैं । इन चार अहंत आदिका प्रतिपादन त्रिभुवन में इनकी सर्वोत्कृष्टता जाहिर करने के निमित्त है । अथवा जो इनमें अतिशयत्व नहीं मानते हैं, वे इस प्रतिपादन से उनके विषय में अपनी श्रद्धा जाग्रत करें इसके लिये भी यह अहंत आदि चार का प्रतिपादन किया गया जानना चाहिये । (अस्थि ભાવસંવરના ભેદ છે. એનાથી જ આત્મામાં આવતાં કર્મ શકાય છે. અહીં ભાવસંવરનું ગ્રહણ થયું છે. ભાવસંવરનું કથન બંધ અને મોક્ષને જેઓ નિષ્કારણક માને છે તેમની ધારણાને પ્રતિષેધ કરવા નિમિત્તે સમજવું જોઈએ. (वेयणा) हन। छ. भनी स्वभावत: 6वी२६॥ ४रीने अथवा व्यावसिमांत લાવીને તેનાં સુખ દુઃખ આદિક રૂપ ફલનો અનુભવ કરવો તેનું નામ વેદના छ. (णिजरा) नि। छ. शिथी भनि। क्षय थय। ते नि छ. (अत्थि अरिहंता त्थि चक्कचट्टी) मत छ. यपत्ती छ. (अस्थि बलदेवा अस्थि वासुदेवा) सहेर छ, वासुदेव छ. २॥ या२ मत माहितुं प्रतिपाहन, त्रिभु. વનમાં તેમની સર્વોત્કૃષ્ટતા જાહેર કરવાને નિમિત્તે છે. અથવા તેમાં જે અતિશયત્વ ન માનતા હોય તેઓ આ પ્રતિપાદનથી તેમના વિષયમાં પોતાની શ્રદ્ધા જાગ્રત કરે તે માટે પણ આ અહંત આદિ ચાનું પ્રતિપાદન કરેલું (१) चेदगपरिणामो जो कम्मस्सावणिरोहणे हेऊ।।
सो भावलंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो ॥ वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपिहा परीसहजओ य । चारित्तं बहुभेयं णायव्वा, भावसंवरविसेसा ॥ द्रव्यसंग्रह गाथा ३४-३५ ॥