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पोयूषवर्षिणी-टीका स. ३२ महावीर स्वामिशिष्यवर्णनम् जिइंदिया णिब्भया गयभया सचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु विरागयं गया संजया [विरता] मुत्ता लहुया णिरवकंखा साहू णिहुया चरंति धम्मं ॥ सू० ३२॥ या गयभया' निर्भया गतभयाः, 'सचित्तचित्तमीसिएसु दव्वेसु' सचित्ताऽचित्तमिश्रितेषु द्रव्येवु-वस्तुषु 'विरागयं गया' विरागतां गताः-वैराग्यं प्राप्ताः । 'संजया' संयताः यमवन्तः। 'विरता' विरताः हिंसादिभ्यो निवृत्ताः, 'मुत्ता' मुक्ताः-लोभरहिताः, 'लहुआ' लघुकाःस्वल्पोपधिधारितया लघुभूताः । 'गिरवकंखा' निरवकाङ्क्षाः उभयलोकसुखाभिलाषवर्जिताः, यतः पूर्वोक्तगुणविशिष्टाः, अतएव 'साहू' साधवः-मोक्षसाधकाः । 'गिहुया' निभृताःविनीता जात्यादिमदवर्जिताः इत्यर्थः, 'धम्म' धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणम् । 'चरंति' चरन्ति आराधयन्ति ।। सू० ३२॥ (णिब्भया गयभया) निर्भय थे, स हेतु इन्हें कहीं भी भय नहीं लगता था, (सचित्ताचित्तमीसिएसु दव्वेसु विरागयं गया) सचित्त, अचित्त और सचित्ताचित्त द्रव्यों में ये वैराग्य युक्त थे, (संजया घिरता मुत्ता) लयमशाली, हिंसादिनिवृत्त और लोभरहित थे, [लहुया] स्वल्प उपधि के धारक होने से ये लघु-लाघवगुणनंपन्न थे, (णिरवकंवा) इहलोक और परलोक के सुखों की अभिलाषा से रहित थे; अत एव ये मुनि गण (साहू) साधु, अर्थात् मोक्षसाधक थे । भगवान महावीरके ये साधु (णिहुया) निभृत-जात्यादि मद से रहित होनेके कारण विनीत होकर (धम्म) श्रुतचारित्रलक्षण धर्म की (चरंति) आराधना करते थे ।। सू०३२ ॥
सा साधुमे। तिन्द्रिय उता, (भिया गयभया ) निलय , तेथी तेभने ४४ाणे भय तु नहि. तसा (सचित्ताचित्तमीसिएसु व्वेसु विरागयं गया ) सचित्त, मयित्त भने सथित्तास्थित्त द्रव्यामा वैराज्यवान त, (संजया विरता मुत्ता ) सयभशादी, साहिथी निवृत्त मने सासहित उता, ( लहुया ) स्व८५ उपधिनाया२४ वाथी तेस धु-साधवष्णुसंपन्न हता, (णिरवकंखा ) डा मने परउना सुभानी मलिदापाथी २डित उता. तेथी ४ ते भुनिया ( साहू ) साधु मेट भाक्षसाच ता. मावान महावीरन२१साधुमे। ( णिहुआ) निमृत-त्यादि महथी २डित डोपाने ४ारणे वीनात थधने (धम्म ) श्रुतयारित्र३५ धमनी (चरंति) मा२२घना ४२ता al. (सू. ३२)