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________________ पोयूष वर्षिणी-टीका सू. ३२ संसारसागरवर्णनम् कलुस-जल-संचयं पइभयं अपरिमिय-महिच्छ-कलुसमइवाउवेग - उद्धुम्ममाण-दगरय -रयंधआर-वरफेण-पउर-आसाखाण्येव कलुषजलसंचयो यत्र स तथा तम् । इभयं प्रतिभयम्=महाभयङ्करम् , 'अपरिमियमहिच्छ-कलुसमइ-बाउवेग-उद्धम्ममाण-गरय-रयंधआर-वरफेण-पउर-आसा-पिवासधवलं' अपरिमित-महेच्छ-कलुषमति-बायुवेगो-भूयमानो-दकरजोरयाऽन्धकार-वरफेन-प्रचुराऽऽशापिपासा-धवलम्-अपरिमिताः अत्यधिका ये महेच्छाः-तीत्राभिलाषवन्तो लोकाः, तेषां कलुषा मलिना या मतिः सैव वायुवेगेन उद्भूयमानम्-उदकरजोरयः-जलकणसमूहः, तेन अन्धकार इव यत्र स तथा, वरफेनैरिव-आशापिपासाभिर्धवल इव धवलो यः स तथा तं, तत्राप्राप्तार्थानां प्राप्ति संभावना आशाः, धनसम्बन्धिन्यस्तीवलालसाः पिपासाः। 'मोहमहावत्तभोगभमभाण गुप्पमाणुच्छलंतपच्चोणियत्तपाणियपमायचंड बहुदुट्ठसावयसमाहयुद्धायमाणपब्भार - घोरकंदियमहारवरवंतभेवरवं'-मोहमहावर्तभोगभ्राभ्यद्गुप्यदुच्छल प्रत्यवनिपतत्पानीयप्रमादचण्डभव रूप ही जिसमें कलुष-मलिन-जल का चय है, (पइभयं) महाभयङ्कर है। (अपरि-मियमहिच्छ कलुसमइ-उवेग-उद्धम्ममाण गरयत्यंधयार-वरफेण-पउर-आसा-पिवासधवलं) अपरिमित-अत्यधिक अभिलाषाशा ही मनुष्यों की जो विविध प्रकार की बुद्रियां हैं ये ही मानों इसके वायुके झोकों से उड़ाने हुए जलकण हैं, इनसे यह संसारसमुद्र अंधकार से युक्त जैसा हो रहा है। आशा एवं पिपासारूप प्रचुर फेन से यह धवलित हो रहा है। अप्राप्त अर्थ की प्राप्ति की भावना का नाम अगा है, और धनबंधी तीन लालसा का नाम पिपासा है। (मोह-महावत्त-भोग-भममाण-गुप्पम गु-च्छलंत-पच्चोणियत्त-पाणिय-माय-चंडबहुदुट-साव यसमाहयुदायमाण-पधार-पोर-कंदिय-महारवरवंत-भेरव-रवं) इस संसार स-जल-संचय) साणे म१३५४२मा सुष-भेसा पाणीन सय छ; (पइभयं) भडामय ४२ छ (अपरिमिय-महिच्छ-कलुसमइ-वाउवेग-उद्धुम्ममाण-दगरय-रयंधयार-वरफेण-पउर-आसा-पिवास-धवल) अपरिभित-बहु ८ मनिसाषावाणी मनुબેની જે વિવિધ પ્રકારની બુદ્ધિ છે તે જાણે તેને વાયુના ઝપાટાથી ઉડતાં જલકણે છે. તેનાથી આ સંસાર સમુદ્ર અંધકારથી ભરેલ જેવો થઈ ગયે છે. આશા તેમજ પિપાસા (તૃષ્ણા) રૂપ પ્રચુર ફીણથી તે સફેદ થઈ રહેલે છે. અપ્રાપ્ત અર્થની પ્રાપ્તિની સંભાવનાનું નામ આશા છે અને ધન सधी तात्र वासानु नाम पिपासा छ. (मोह-महावत्त-भोग-भममाण-गुप्पमाणुच्छलंत-पच्चोणिवत्त-पाणिय-पमाय-चंड बहुदुट्ठ-सावय-समाहयुद्धायमाण-पब्भार-घोर
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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