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औपपातिकसूत्रे तरिकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं वियाणित्ता विउलेहिं अण्णभोगेहिं पाणभोगेहिं वत्थभोगेहि सयणभोगेहिं उवणिमंतेहिति ॥ सू० ४९॥
मूलम्-तए णं से दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहिं अण्णप्रतिज्ञं दारकम् 'अम्मापियरो' मातापितरौ 'बावत्तरिकलापंडियं' द्वासप्ततिकलापण्डितं 'जाव' यावत्-अत्र-यावच्छब्दाद्-अष्टादशदेशभाषाविशारदं गीतरति गान्धर्वनाट्यकुशलं हययोधिनम्-इत्यादीनि विशेषणानि द्वितीयैकवचनान्तानि ज्ञेयानि । 'अलं भोगसमत्थं' अलं भोगसमर्थम्-अलम् अत्यर्थं भोगानुभवसमर्थं 'वियाणित्ता' विज्ञाय 'विउलेहि अण्णभोगेहिं' विपुलैरन्नभोगैः 'पानभोगेहि' पानभोगैः 'लेणभोगेहिं ' लयनभोगैःचित्रशालाद्यावासनवनवाभोगैः 'वत्थभोगेहिं' वस्त्रभोगैः, 'सयणभोगेहिं' शयनभोगैः 'उवणिमंतेहिंति' उपनिमन्त्रयिष्यतः=भोगान् भुव-इति कथयिष्यतः ॥ नू० ४९॥
टीका-'तए णं' इत्यादि । 'तए णं से दढपइण्णे दारए' ततः खलु (अम्मापियरो) मातापिता (बावत्तरिकलापंडियं जाव अलंभोगसमत्थं ) ७२ कलाओं में पारंगत तथा नवयौवनशाली एवं भोग भोगने में समर्थ जानकर उसे (विउलेहिं) विपुल (अण्णभोगेहिं) अन्न के भोगों से, (पाणभोगेहिं) पान करने योग्य द्रव्यों के भोगों से, (लेणभोगेहिं) विविध चित्रों से सुशोभित प्रासाद के भोगों से, ( वत्थभोगेहिं) सुन्दर २ वस्त्रों को इच्छानुसार पहरने रूप भोगों से एवं (सयणभोगेहिं) शय्या आदि के भोगों से ( उवणिमंतेहिति) आमंत्रित करेंगे, अर्थात् 'भोगों को भोगो' ऐसा उससे कहेंगे ।। सू. ४९ ।।
(अम्मापियरो) मातापिता (बावत्तरिकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं) ७२ ४એમાં પારંગત અને નવયૌવનશાળી તેમજ ભેગ ભોગવવામાં સમર્થ જાણીને तेने (विउलेहिं) विधुर (अण्णभोगेहिं) मन्नना लोगाथा (पाणभोगेहिं) पान ७२वाने योज्य द्रव्यना मोगाथा (लेणभोगेहिं) विविध चित्रोथी सुशामित प्रासाह (भस)ना लोगोथी (वत्थभोगेहिं) सुंदर सुंदर पत्रोने मछानुसार ५२वा३५ लोगोथी तभन (सयणभोगेहिं) शय्या माहिना लोगोथी (उवणिभंतेहिंति) सामात्रित ४२शे, अर्थात् 'मोगाने सोगवा' सम तेने शे. (२२. ४८)