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________________ औपपातिकसूत्रे ताणं सरणगई पइट्ठा अप्पडिहय-वर-नाण-दंसण-धराणं वियट्टर्थितानां भव्यानां रक्षसक्षणेभ्यः । अतएव तेषां भव्यानां 'सरणगई' शरणगतिभ्यःआश्रयस्थानेभ्यः, 'पइटा' प्रतिष्ठाभ्यः-कालत्रयेऽपि अविनाशित्वात् स्थितेभ्यः, 'दीवो' इत्यादीनि 'पइट्ठा' इत्यन्तानि चतुर्थ्यर्थे प्रथमान्तानि, अत्रैकवचनं नपुंसकत्वं स्त्रीत्वं चाविवक्षितम् । 'अप्पडियहय-वर-नाण-दसण-धराणं' अप्रतिहतवर-ज्ञान दर्शन–धरेभ्यः-प्रतिहतं-भित्याद्यावरणस्खलितं-न प्रतिहतम्-अप्रतिहतं, ज्ञानञ्च दर्शनञ्चेति ज्ञानदर्शने, यतोऽप्रतिहते अतएव वरे-श्रेष्ठे च ते ज्ञानदर्शने वरज्ञानदर्शने केवलज्ञानकेवलदर्शने, अप्रतिहते वरज्ञानदर्शने अप्रतिहतवरज्ञानदर्शने, तयोर्धराःअप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधराः - सम्पूर्णाऽवरणरहितकेवलज्ञानकेवलदर्शनधारिणस्तेभ्यः । 'वियदृच्छउमाणं' व्यावृत्तच्छद्मभ्यः--छाद्यते -आत्रियते केवलज्ञानकेवलदर्शनगुणाद्यास्मनोऽनेनेति छद्म-ज्ञानावरणीयादिकं कर्माष्टकं, व्यावृत्तं-निवृत्तं छद्म येभ्यस्ते व्यावृके जो त्राता हैं ऐसे प्रभु के लिये नमस्कार हो । ( सरणगई ) भव्यों के लिये आश्रयस्थानस्वरूप प्रभु के लिये नमस्कार हो । ( पइट्टा) कालत्रय में भी अविनश्वरस्वरूप प्रभु के लिये नमस्कार हो (दीवो) यहां से लेकर (पइट्ठा) तक के समस्त विशेषण चतुर्थी विभक्ति के अर्थ में प्रथमान्त प्रयुक्त हुए हैं । यहां एकवचन, नपुंसकत्व एवं स्त्रीत्व अविवक्षित हैं। (अप्पडिहय-वर-नाणदसण-धराणं ) जो अप्रतिहत अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के धारक हैं, उनके लिये नमस्कार हो। ( वियदृच्छउमाणं) जिनके द्वारा आत्मा का स्वभावभूत केवलज्ञान एवं केवल दर्शन आवृत होता है ऐसे आठों ही कर्म 'छम' शब्द से गृहीत हुए हैं, यह छद्म जिनकी आत्मा से सदा के लिये दूर हो चुका है सेवा प्रभुने नभ२४।२ डो. ( ताणं) ४थी मथाdi प्राणिसाना २ त्राय मर्थात् २क्ष छ. सेवा प्रभुने नभ२४॥२ डो. ( सरणगई ) नव्याने भाटेमाश्रयस्थान २१३५ प्रभुने नभ२४।२ डो. (पइट्टा) त्रणे मां अविनाशी२१३५ प्रभुने नभ२४॥२ डो (दीवो) २मडी थी सधने (पइट्टा) सुधीन या विशेषण। यतुथी वितिन અર્થમાં પ્રથમાન્ત વપરાયેલાં છે, અહીં એકવચન નપુંસકત્વ (નાન્યતર જાતિ) तमन्त्रीत्व [नारी ति] मविवक्षित छ. [अप्पडिहय-वर-नाण-दसण-धराणं] જે અપ્રતિહત અનંતજ્ઞાન અને અનંત દર્શનના ધારક છે તેમને નમસ્કાર छ.. (वियदृच्छउमाण) मना द्वारा यात्मभाना स्वभावभूत पर शान तभ०४ કેવલ દર્શન આવૃત થાય છે એવા આઠેય કર્મ “ધ” શબ્દથી ગૃહીત થાય
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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