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________________ पीयूषवर्षिणी टीका. व. २० कूणिककृता सिद्धानां महावीरस्य च स्तुतिः १३५ ' सिद्धिगइनामधेयं ठाणं'इयदवधि ग्राह्यम् । अत्रैतावान् विशेषः-' ठाणं संपत्ताणं ' स्थानं संप्राप्तेभ्यः-इति प्रागुक्तम् , इह तु 'संपाविउकामस्स' संप्राप्तुकामायमोक्षगामिने-इत्युच्यते, चरमस्य तीर्थकरस्य कूणिकनृपशासनकाले विद्यमानत्वात् । 'मम धम्मायरियस्स' मम धर्माऽऽचार्याय ज्ञानाचारादिपञ्चविधाचारधारकाथ, न तु कलाचार्याय; क्यों कि उन्होंने कषायादिक अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है । महावीर प्रभु इस अवसर्पिणी काल के चौबीसवें अन्तिम तीर्थंकर हैं। "आदिगरस्स" इस पद-द्वारा प्रभु में अपने शासन की अपेक्षा धर्म की आदिकर्तृता प्रकट की गयी है । भगवान महावीर चतुर्विध संध के संस्थापक हैं । “जाव" पदसे “ संयंसंबुद्धस्स" यहां से लेकर “सिद्धिगइनामधेयं ठाणं " यहां तकका पाठ संगृहीत किया गया है। यहां इस पाठ में इतनी विशेषता पहिले पाठ की अपेक्षा जान लेनी चाहिये कि पहिले पाठ में “ ठाणं संपत्ताणं-स्थानं संप्राप्तेभ्यः" ऐसा पद रखा गया है और यहां पर “ ठाणं संपाविउकामस्स-स्थानं संप्राप्तुकामाय" ऐसा पाठ रखा है; क्योंकि प्रभु महावीर अभी उस सिद्धिगतिनामक स्थान की प्राप्ति करनेवाले हैं। 'मम धम्मायरियस्स'-कोणिक कहते हैं कि ये श्रमण भगवान् महावीर प्रभु, जो कि ज्ञानाचारादि पाँच प्रकार के आचारों के धारक होने के कारण मेरे धर्माचार्य हैं, कलाचार्य नहीं; उनके लिये नमस्कार है। इससे यह सूचित होता है कि जो ज्ञानाचारादि पाँच प्रकार के आचारों के धारक हैं वे ही धर्माचार्य कहे जाते हैं। અંતરંગ શત્રુઓ પર વિજય પ્રાપ્ત કર્યો છે. મહાવીર પ્રભુ આ અવસર્પિણી सना यावीसभा २मतिम तीर्थ ४२ छ. “आदिगरस्स” से ५४थी प्रभुभां પિતાના શાસનની અપેક્ષાએ ધર્મના આદિકર્તાપણું પ્રગટ કર્યું છે. ભગ पान मडावी२ यतुर्विध संघना संस्था५४ छ. 'जाव' ५४थी “ सयंसंबुद्धस्स" मडी थी सधन “सिद्धिगइनामधेयं ठाणं " न्यही सुधान। ५8 सेवामा साव्या છે. અહીં આ પાઠમાં એટલી વિશેષતા પહેલા પાઠની અપેક્ષાએ જાણવી ने पडे। ५४मा “ ठाणं संपत्ताणं "-स्थानं संप्राप्तेभ्यः " से यह १५रायु छ भने मडी “ ठाणं संपाविउकामस्स-स्थानं संप्राप्तुकामाय " से। પાઠ લીધો છે, કેમકે પ્રભુ મહાવીર હજુ તે સિદ્ધિગતિનામક સ્થાનને પ્રાપ્ત ४२वापामा छ. “ मम धम्मायरियस्स" : ४ छ ते श्रभा भगवान् કે જે જ્ઞાનાચારાદિ પાંચ પ્રકારના આચારના ધારક હોવાના કારણે મારા ધર્માચાર્ય છે, કલાચાર્ય નથી, એવા પ્રભુ ને નમસ્કાર હો. આથી એમ સૂચિત થાય છે કે જે જ્ઞાનાચારાદિ પાંચ પ્રકારના આચારના ધારક હોય
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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