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________________ ३८ औपपातिकसूत्रे घरग-सुहसेउ-केउ-बहुला अणेग-रह-जाण-जुग्ग-सिविय - परिमो 'महयागंधद्धणि' महागन्धध्राणिम् गन्ध एव प्राणिः अर्थात्-गन्धतृप्तिः, महती चासौ गन्धध्राणिस्तां ' मुयंता' मुञ्चन्तः, पुनः कीदृशा वृक्षाः ? अत्राह-'णागाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरग-सुहसेउ केउ-बहुला' नानाविध-गुच्छ-गुल्म - मण्डपक-गृहक-सुखसेतु-केतु-बहुला:नानाविधगुच्छगुल्मानां मण्डपकाः, गृहकाः सुग्वाः सुखकारकाः सेतवः मार्गाःकेतवश्व पताकाः बहुलाः प्रचुरा येषु ते तथा, 'अणेग-रह-जाग-जुग्ग-सिविय-परिमोयणा' अनेकरथ-जान-युग्य-शिबिका-प्रविमोचनाः, अनेके रथाः,थानानि अश्वादीनि, युग्थानि शकटादीनि, शिबिकाः-पुरुषवाह्ययानविशेषाः-'पालखी' इति प्रसिद्धाः, तासां रथादिशिबिकान्तानां परिमोचनं-स्थापनं यत्र' तादृशाः, क्रीडाद्यर्थमागतानां जनानां रथादयस्तत्र तिष्ठन्तीति भावः । 'सुरम्मा' सुरम्याः-अतिशयरमणीयाः । 'पासाईया' प्रसादीयाःहृदयप्रसादकारकाः, 'दरिसणिज्जा' दर्शनीयाः-द्रष्टुं थोग्याः, 'अभिरूवा' सुगंधी से जो मंडित थी, और इसीलिए ( सुहसुरभिमणहरं ) जो अपनी इस शुभसुरभिसे मन को आनंदित करती थी ऐसी (महयागंधद्धणिं) विशिष्ट गंधध्राणिसुगंध की परम्परा को(मुंयता) छोडतेथे। (णाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरग-सुहसेउकेउ-बहुला ) इस प्रकार ये वृक्ष गुच्छों और गुल्मों से बने हुए अनेक मंडप, धर, सुन्दर मार्ग और पातकाओं से सदा सुशोभित थे ( अणेग-रह-जाण-जुग्ग-सिबियपरिमोयणा) इनके नीचे वनक्रीडा के निमित्त आये हुए व्यक्तियों के अनेक रथ, यान, युग्य-तांगा-वगैरह, पालखी आदि सवारियों के साधन रखे जाते थे (मुरम्मा, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरूबा, पडिरूबा, ) इसलिये ये वृक्ष बडे ही सुरम्य, हती. सुजयथार मरेली ती मने तेथी ? (सुहसुरभिमणहरं) २ पोतानी ॥ शुम सुवासथी भनने मान हित ४२ती ती मेवी (महयागंधद्धर्णि) विशिष्ट प्राणि-सुधनी ५२ पराने ( मुयंता ) छ। उता. (गाणाविह-गुच्छ-गुम्म-मंडवग-घरग-सुहसेउ-केउ-बहुला ) से प्रारे से वृक्षा ગુચ્છ અને ગુલ્મથી બનેલાં અનેક મંડપ, ઘર, સુંદર માર્ગ અને પતાકાઓથી सहा सुशालित २i Sai. (अणेग-रह-जाण-जुग्ग-सिबिय-परिमोयणा) मेमनी નીચે વનક્રીડાને નિમિત્તે આવેલી વ્યક્તિઓના અનેક રથયાન, બગી, ટાંગા पोरे, पासी माह सवारियाना साधन वामां आवतi di. (सुरम्मा, पासाईया, दरिसणिज्जा, अभिरुवा, पडिरूवा) थी ते वृक्ष हुन् सुरभ्य,
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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