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औपपातिकसूत्रे २-माहात्म्यम्-अनुपम-महनीय-महिम-सम्पन्नत्वम् , ३-यशः-विविधानुकूलप्रतिकूल-परीषहोपसर्गसहन-समुद्भूता कीर्तिः । यद्वा-जगद्रक्षणप्रज्ञासमुत्था कीर्तिः । ४-वैरायग्यम्-सर्वथा कामभोगाभिलाषराहित्यम् , यद्वा-क्रोधादिकषायनिग्रहलक्षणम्, ५-मुक्तिः -सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, ६ रूपम्-सकलहृदयहारि सौन्दर्यम् , ७-वीर्यम्-अन्तरायान्तजन्यमनन्तसामर्थ्यम् , ८कर्मपलटविघटनजनितज्ञानदर्शनसुखवीर्यरूपाऽनन्तचतुष्टयलक्ष्मीः , ९-धर्मः-अपवर्गद्वारकपाटोद्घाटनसाधनं श्रुतचारित्र-लक्षगम् : १०-ऐश्वर्य-लोकत्रयाधिपत्यम्, चास्यास्तीति भगवान् , तद्वहुत्वे भगवन्तः, तेभ्यः । 'आइगराणं आदिकरेभ्यः-आदौ प्रथमतः स्वस्वशासनापेक्षया श्रुत-चारित्रधर्म-लक्षणं कार्यं कुर्वन्ति तच्छीला आदिकरास्तेभ्यः । 'तित्थयराणं ' तीर्थसमस्त त्रैकालिक पदार्थों को युगपत् जाननेवाला केवलज्ञान, २ माहात्म्य-अनुपम एवं महनीय महिमा (३) यश-विविध अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों के जीतने से उद्भूत असाधारण कीर्ति अथवा जगत् को संरक्षण करने के बुद्धिचातुर्य से प्राप्त यश, (४) वैराग्य-कामभोगों की अभिलाषाका सर्वथा अभाव अथवा क्रोधादिक कषायों का बिलकुल विनाश, (५) मुक्ति-समस्त कमीका अत्यंत क्षयरूप मोक्ष, (६) रूपसमस्त जनता के हृदय को हरण करनेवाला सौन्दर्य, (७) वीर्य-अन्तराय कर्म के सर्वथा विलयसे प्राप्त अनन्तसामर्थ्य, (८) लक्ष्मी-समस्त कर्मोंके सर्वथा प्रक्षीण होने से लब्ध अनन्तचतुष्टय, (९) धर्म-मोक्ष के द्वार को खोलने में साधकतम श्रुतचारित्ररूप धर्म, एवं (१०) ऐश्वर्य-लोकत्रयका आधिपत्य; ये दशों प्रकार जिनमें हों वे भगवान् हैं। (आइगराणं) अपने २ शासन की अपेक्षा जो सर्वप्रथम इस
(२) महात्म्य-मनुपम तमगा भडनीय भडिमा, (3) यश-विविध मनुण तेभ०४ પ્રતિકૂળ પરીષહોને જીતવાથી ઉદ્દભવ પામેલી અસાધારણ કીતિ, अथवा तनां संरक्षण ४२वाना मुद्धियातुर्य थी प्रास यश, (४) वैराग्य-કામોની અભિલાષાને સર્વથા અભાવ અથવા ક્રોધાદિક કષાયોને मिस विनाश, (५) मुक्ति-समस्त भनी सत्यत क्षय३५ भाक्ष, (६) रूप-समस्त प्राणिनां यनु २६४ ४२ ते सोय, (७) वीर्य-मतराय भने। सर्वथा नाश ४ीने प्रात थयेतुं मन त सामथ्य, (८) लक्ष्मी-समस्त
भी मेहम क्षीण थवाथी प्रात थये। मन तयतुष्टय (6) धर्म-भक्षनां पारने मालवामां भुज्य साधन श्रुतयारित्र३५ धर्म, तभी (१०) ऐश्वर्य-त्राणे सोनु माधिपत्य. २मा शेय प्रा२ रेनामा डाय ते भगवान छे. (आइगराण) પિતાપિતાના શાસનની અપેક્ષાએ જે સર્વથી પહેલાં આ કર્મભૂમિમાં શ્રુત