SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 586
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पोयूषयषिणी-टीका सू. ११ अन्तःपुरिकादीनामुपपातविषये गौतमप्रश्न: ५२५ पियरक्खियाओ भायरक्खियाओ पइरक्खियाओ कुलघररक्वियाओ ससुरकुलरक्खियाओ परूढ-णह-केस-कक्खरोमाओ ववगय-धूव-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकाराओ अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्लभ्रातृरक्षिताः, 'पइरक्खियाओ' पतिरक्षिताः, 'कुलघररक्खियाओ' कुलगृहरक्षिताः-कुलगृहे=पितृगृहे रक्षिताः-पितृवंशोद्भवैःपालिता इत्यर्थः, 'ससुरकुलरक्खियाओ' श्वशुरकुलरक्षिताः, 'परूढ-णह-केस-कक्खरोमाओ' प्ररूढ-नख-केश-कक्षरोमाणः-प्ररूढानि= संजातानि नखकेशकक्षरोमाणि यासांतास्तथा, 'ववगय-धृव-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकाराओ' व्यपगत-धूप-पुष्प-गन्ध – माल्याs - लङ्काराः-व्यपगताः त्यक्ताः धूपपुष्पगन्धमाल्यानामलकारा याभिस्तास्तथा, 'अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्ल-पंक-परितावियाओ' अस्नानकहुई अपने शील की रक्षा करती रहती हैं, (भायरक्खियाओ) कितनीक अपने भाइयों से सुरक्षित रहा करती हैं, (पइरक्खियाओ) कितनीक अपने २ पतिद्वारा सुरक्षित रहा करती हैं, (कुलघररक्खियाओ) कितनीक कुलगृह में पिता के वंशजों द्वारा पाली-पोषी जाकर सुरक्षित रहा करती हैं, (ससुर-कुल-रक्खियाओ) कितनीक ससुरपक्ष के लोगों द्वारा सुरक्षित की जाती हैं, (परूढ-णह-केस-कक्खरोमाओ) कितनीक ऐसी होती हैं कि जिनके केश, कांखरी के बाल एवं नख बढे रहा करते हैं, (ववगय-धृव-पुप्फ-गंध-मल्लालंकाराओ) कितनीक ऐसी होती हैं जो धूप-खूशबूदार तैल आदि के लेने से तथा पुष्पों एवं सुगंधित पुष्पों को मालारूप अलंकारों से सदा परित्यक्त रहा करती हैं, (अण्हाणगसेय-जल्ल-मल्ल-पंक-परितावियाओ) कितनीक ऐसी होती हैं जो स्नान नहीं करने से सी पिताथी सुरक्षित २हेतi पोताना शासनी २क्षा ४२ती डाय छ, (भायरक्खियाओ) टसी पोताना सामाथी सुरक्षित २६॥ ४२ छ, (पइरक्खियाओ) टमी पातपाताना पति द्वारा सुरक्षित २॥ ४२ छ, (कुलघररक्खियाओ) दीउसडमा पिताना पशले २॥ पालन-पोषण व सुरक्षित २॥ ४२ छे, ( ससुरकुलरक्खियाओ) मी४ सास पक्षन all द्वारा सुरक्षित ४२राय छ, (परूढ-णह-केस-कक्खरोमाओ) टी वी डाय छ , ना नम, श, तभ०४ ४iमरी (1)ना , qयता ता य छ, (ववगय-धूव-पुप्फ-गंध-मल्ला-लंकाराओ) 2ी सेवी डाय छ २५५સુગંધિત તેલ આદિના લેપથી તથા પુષ્પ તેમજ સુગંધિત પુષ્પની માલારૂપ साथी सहा परित्यात २६॥ ४२ छे, (अण्हाणग-सेय-जल्ल-मल्ल-पंक
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy