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औपपातिकसूत्रे वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुयक्खाए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं ?, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूयाओ तामेव दिसं पडिगयाओ ॥ सू०६१ ॥
॥समोसरणं नाम पुव्वद्धं समत्तं ॥ कृत्वा वन्दन्ते नमस्यन्ति, 'वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' वन्दित्वा नमस्यित्वैवमवादिषु:'सुयक्खाए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं ?' स्वाख्यातं तव भदन्त ! निम्रन्थं प्रवचनम् यावत् किमङ्ग ! पुनरेतस्मादुत्तरतरम् ? ‘एवं बार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वंदना एवं नमस्कार किया, (वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी) वंदना नमस्कार करने के अनन्तर फिर वे प्रभु से इस प्रकार बोलीं कि (सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे) आपने हे भदन्त ! इस निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुन्दरपूर्वापरविरोधरहित-सर्वोत्कृष्टरूप से किया है । (जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतरं) हे प्रभो ! आपने इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में सब ही विषयों को अच्छी तरह समझाया है। कोई भी विषय ऐसा नहीं रहा कि जिस पर आपकी वाणी का अविरल प्रवाह न बहा हो । सब कुछ आपने बहुत सरल भाषा में समझा दिया है। हमने तो आजतक इतना मार्मिक उपदेश नहीं सुना; इससे उत्तम उपदेश की बात ही कहाँ : (एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूयाओ प्रदक्षिणपूर्व वहन। तभ०१ नभ२४।२ ४ा, (वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी) पहना-म२४।२ सीधा पछी तमामे प्रभुने मा ४२ ४यु (सुयक्खाए ते भंते ! णिमांथे पावयणे) माघे महन्त ! मानिन्थ प्रपयनन। उपदेश मgar साशशत, पूर्वाप२विशघहित तमा सर्वोत्कृष्ट यो छे. (जाव किमंग ! पुण एत्तो उत्तरतर) हे प्रसा! मापे मा निन्थ प्रपयनमा मधामे વિષયોને સારી રીતથી સમજાવ્યા છે. કોઈ પણ વિષય એ નથી રહ્યો કે જેના ઉપર આપની વાણીને અવિરત પ્રવાહ વહ્યો ન હોય, બધુય આપે બહુ સરલ ભાષામાં સમજાવી દીધું છે. અમે તે આજ સુધીમાં આટલો મામિક अपहेश सालण्यो नथी. माथी उत्तम उपदेशनी तो पात ४यi ? (एवं वदित्ता