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________________ ३० औपपातिकसूत्रे फलमंतो बीयमंतो अणुपुव्व-सुजाय-रुइल-वभाव-परिणया एक्कखंधा अणेगसाला अणेग-साह-प्पसाह-विडिमा अणेग-नर-वाम सुप्पसारिय-अग्गेज्झ-घण-विउल-वट्ट-खंधा अच्छिदपत्ता अविरलपपल्लवानि सन्त्येषामिति । एवं 'पत्तमंतो' पत्रवन्तः, 'पुप्फमंतो' पुष्पवन्तः । 'फलमंतो' फलवन्तः । 'बीयमंतो' बीजवन्तः-बीजान्यङ्करजनकानि सन्त्येषामिति ते तथा 'अणुपुव्व-सुजाय-रुइल-वभाव-परिणया' अनुपूर्व-सुजात-रुचिर-वृत्तभावपरिणताः-अनुपूर्व यथाक्रमं सुजाताः रुचिराः सुन्दराश्चामी वृत्तभावैवर्तुलभावैर्गोलाकारैः परिणताश्च । ' एक्कखंधा' एकस्कन्धाः-एकस्कन्धवन्तः, 'अणेगसाला' अनेकशालाः, 'अणेग साह-प्पसाहविडिमा अनेक शाखा-प्रशाखा-विडिमाः अनेका शाखाः-स्कन्धसञ्जाताः प्रशाखाः-शाखाप्रसूताः, विडिमाः-ऊर्ध्वविनिर्गताः शाखाश्च येषु ते तथा, अनेकशाखाप्रशाखायुक्तवृक्षा इत्यर्थः । 'अणेग-नर-चाम-सुप्पसारिय-अग्गेज्झ-घण-विउल-बट्ट-खंधा' अनेकनर-वाम-सुप्रसारिताऽ-ग्राह्य-घन - विपुल - वृत्त-स्कन्धाः-अनेकैः नव्यामैः -- नराणां= व्यामैः = तिर्यग्बाहुद्वयप्रसारणप्रमाणैः सुप्रसारितैः अग्राह्यः = अप्रमेयः घनः-सान्द्रः, विपुलो-विशालो, वृत्तो-वर्तुलः, स्कन्धो येषां ते, अतिस्थूलफलों से लदे हुए थे । बीजों से भरे हुए थे। ( अणुपुत्र सुजाय-रुइल-बट्टभावपरिणया) ये सब के सब वृक्ष अनुक्रम से उत्पन्न हुए थे और छत्ते के जैसे रम्य गोल-आकारवाले थे । ( एकखंधा अणेगसाला अगेग-साह-प्पसाह-विडिमा) इनके स्कन्ध एक थे और अनेक शाखा प्रशाखा एवं विडिमाओं-ऊपरकी ओर गयी हुई शाखाओं से युक्त थे। (अणेग-नरवाम-सुप्पसारिय-अग्गेज्झ-घण-विउल-बट्ट-खंधा) अनेक पुरुषों द्वारा अच्छी तरह पसारे गये हाथों से भी इनका सान्द्र, विपुल एवं वर्तुलाकार स्कंधका ग्रहण नहीं हो सकता था। (अच्छिदपत्ता ) इनके पत्र भी इतने Sai, i li, साथी मरेखां उतi, मीथी म२५२ हुतां. (अणुपुव्वसुजाय-रुइल-चट्टभाव-परिणया) २॥ तमामे-तमाम वृक्षा अनुभवा२ उत्पन्न थयेां तi मने छत्री २i २भ्य गो मा४२वाज तi. (एक्कखंधा अणेगसाला अणेग-साह-प्पसाह-विडिमा) समर्नु २७ मे तुमने मने ॥ પ્રશાખા તેમજ વિડિમાએ–ઉપરની તરફ ગયેલી શાખાઓથી યુકત હતાં. ( अणेग-नर-वाम-सुप्पसारिय-अग्गेज्झ-घण-विउल-चट्ट-खंधा ) मने ५३षाદ્વારા ખૂબ પહેળા કરેલા હાથેથી પણ તેમનાં સાન્દ્ર વિશાળ તેમજ વળા१२ यउने साथ लीडी शो नहाता. (अच्छिद्दपत्ता) तमनां ५iasi 4g
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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