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पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २७ गवदन्तेवासिवर्णनम्
१९१ कंसपाईव मुक्कतोया, संख इव निरंगणा, जीवो विव अप्पडिहयगई, भावो मिथ्यात्वादिः, स विविधो अन्धश्छिन्नो यैस्ते तथा। 'छिण्णसोया' छिन्नस्रोतसः-छिन्नसंसारप्रवाहाः । 'निरुपलेवा' निरुपलेपाः-कर्मबन्धहेतुरुपलेपो रागादिस्तेन रहिताः, निरुपलेपतामेव 'कंसपाईच' इत्या दे–'मुहुयहुयासणो इव' इत्यन्तैरुपमानोपमेयभावैः प्रदर्शयति, तत्र-'कंसपाईव मुक होया' कास्यपात्रीय मुक्ततोथा मुक्तं त्यक्तं तोयमिव संसारबन्धहेतुत्वात्स्नेहो यैस्ते तथा, पथा कांस्यपात्र्यां पतितमपि जलं लिप्तं न भवति तथा संसारबन्धहेतुस्तेयु लिमो न भवतीति भावः; ‘संख इव निरंगणा' शङ्ख इव मिथ्यात्वादि भावग्रन्थ हैं। इन दोनों प्रकार के ग्रन्थों से रहित होने के कारण ये 'छिन्नयन्थ' कहे गये हैं। (हिण्णसोया) संसार का प्रवाहरूप स्रोत इनसे अलग हो चुका था। (णिरुवलेवा ) धर्मबंध में कारणभूत रागादिक लेप से भी ये रहित थे; इसलिये निरुपलेप थे। इसी बात को आगे के 'कंसपाईव' से लेकर 'मुहुयहुयासणो इव' यहाँ तक के उामान पदों के द्वारा सूत्रकार प्रकट करते हैं । (कंसपाईव मुक्कतोया) काँसे का नाजन जिस प्रकार पानी के संसर्ग से सर्वथा रहित होता है उसी प्रकार जल के तुल्य: स्नेह को संसार का बंधन का हेतु होने से जिन्होंने सर्वथा छोड दिया, अथवा काँसे के भाजन में गिरा हुआ जल जैसे लिप्त नहीं होता उसी प्रकार संसारबंवाहतु आस्रव जिनमें लिप्त नहीं होता, अतः वे काँसे के भाजन के समान निरुपलेध कहे गये हैं। (संख इव निरंगणा) शंख में હિરણ્ય આદિ દ્રવ્યગ્રંથ છે. મિથ્યાત્વ આદિ ભાવગ્રન્થ છે. આ બને પ્રકારના ગ્રન્થથી રહિત હોવાના કારણે તેઓને છિન્નગ્રંથ કહેવામાં આવ્યા छ. (छिण्णसोया) संसारना प्रवा३५ स्रोत तेमनाथी यस युध्या ता. (णिरुवलेवा) मधमा ४१२७ गाहपथी ५ ते २डित Su, तथी नि३५२५ ता. मा०४ वातने माना 'कंसपाईव' थी साधने 'सुहुयहुयासणे| इव' मी सुधीनां पानपोथी सूत्र४२ ५४८ ४२ छ. (कंसपाईव मुक्कतोया) ४iसानु पास भ पाणीना साथी सवथा २डित जय छ તેજ રીતે જલના તુલ્ય સહ જ, સંસારના બંધનને હેતુ છે તેને જેમણે સર્વથા છોડી દીધો, અથવા કાંસાના વાસણમાં પડેલા પાણી જેમ લિપ્ત થતાં (એટતાં) નથી, તેવી જ રીતે સ સારબંધનને હેતુ આસવ જેઓમાં લિપ્ત થત નથી, તેથી તેઓને કાંસાના વા સણની પેઠે નિરૂપલેપ કહેવામાં આવ્યો છે. (संख इव निरंगणा) शमन ५५ २ हात नथी तेवी रीत