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________________ पीयूषवर्षिणी-टीका. सू. २६ भगवदन्तेवासिवर्णनम् मत्तमातंगा अच्छिद्दपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तियासिद्धान्तप्रवीणतया न किञ्चिदविदितं तेषां भवतीति भावः । पुनस्ते कीदृशाः ? इत्यनेकैविशेषणैःकथयति-'आयावायं जमइत्ता' आत्मवादान् यमयित्वा-स्वसिद्वान्तान् पुनः पुनरभ्यस्य-अतिपरिचितान् विधाय, 'नलवणमिव मत्तमातंगा' नलवनमिव मत्तमातङ्गाः-क्रीडाद्यर्थ पुनःपुनःप्रवेशेन कमलवनं यथा मदोन्मत्ता गजेन्द्रा अतिपरिचितं कुर्वन्ति तथैव ते पुनःपुनरभ्यासेन निजसिद्धान्तं परिचितं कृतवन्तोऽतस्ते तत्तुल्या इत्यर्थः । 'अच्छिह-पसिण-चागरणा' अच्छिद्र-प्रश्न-व्याकरणाः-अच्छिद्राः-निरन्तराः-धारावाहिकरूपाः प्रश्ना, निरन्तराण्युत्तराणि येषु तादृशानि व्याकरणानि-विस्तारयुक्तव्याख्यानानि येषां ते-अच्छिद्रप्रश्नव्याकरणाः-पुनःपुनःप्रश्नोत्तरसमुचितव्याख्यानिनिपुणाः, अत एव- रयण-करंडग-समाणा' रत्न-करण्डक-समानाः-रत्नानां मगिमाणिक्यादीनां करण्डको मञ्जूषा तस्य समानास्तत्तल्याः, करण्डको यथा बहुविधरत्नपूर्णो भवति दृष्टि से बाहर हो। और भी ये कैसे थे ? सो इस बात को आगे के विशेषणों द्वारा सूत्रकार कहते हैं-(आयावायं जमइत्ता नलवणमिव मत्तमायंगा) जिस प्रकार मदोन्मत्त गजराज सरोवर आदि में क्रीड़ा करने के लिये पुनःपुनः प्रवेश कर कमलवन से पूर्ण परिचित हो जाते हैं उसी प्रकार ये भी ज्ञानरूपी सरोवर में क्रीडा करने के लिये पुनः २ प्रवेश कर स्वपर-सिद्धान्तरूपी कमलवन से पूर्ण परिचित थे। ( अच्छिद-पसिण-वागरणा ) जब ये प्रवचन करते थे तब उसमें श्रोताजन धारावाहिकरूप से प्रश्न किया करते थे, उनका उत्तर भी ये उसी ढंग से देते थे । ( रयण-करंडक-समाणा) इसलिये ये ऐसे ज्ञात होते थे कि मानों रत्नकरण्डक हैं; जैसे रत्नों का करण्डक अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम अमूल्य रत्नों से भरपूर होता उता ते पत मान विशेषणेवा। सूत्र४२ ४ छ-(आयावायं जमइत्ता नलवणमिव मत्तमायंगा) 2ी रीते महोन्मत्त ४२४ सरोव२ माहिभां ક્રીડા કરવા માટે વારંવાર પ્રવેશ કરીને કમલેના વનથી પૂર્ણ પરિચિત થઈ જાય છે, તેવી જ રીતે તેઓ પણ જ્ઞાનરૂપી સરોવરમાં ક્રીડા કરવાના કારણે વારંવાર પ્રવેશ કરીને સ્વપર-સિદ્ધાંતરૂપી કમલવનથી પૂર્ણ પરિચિત હતા. (अच्छिद-पसिण-वागरणा) न्यारे ते अपयन ४२ता ता त्यारे तेभा श्रोताજનો એકધારી રીતે પ્રશ્ન કર્યા કરતા હતા અને તેના ઉત્તર પણ તેઓ તેવીજ રીતે भापता ता. (रयण-करंडग-समाणा) मेथी तेस। सेवा सागतात, तणे રત્નને કરંડિઓ હોય. જેમ રત્નોને કરંડિઓ અનેક પ્રકારના ઉંચામાં ઉંચાં
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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