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________________ ४५४ औपपातिकसूत्रे पुरुषाणां रागादिदोषवत्त्वात् अस्मदादिवत् इति, नन्मतनिरासार्थमिदमुक्तम् । 'अस्थि देवा अस्थि देवलोया' सन्ति देवाः भवनपत्यादयः, सन्ति देवलोकाः-देवानां लोकाः= स्थानानि सौधर्मादीनि । यत्वाहुः-न सन्ति देवादयोऽप्रत्यक्षत्वात् इति, तन्मतव्युदासार्थमिदमुक्तम् , 'अस्थि सिद्धी अस्थि सिद्धा' अस्ति सिद्धिः, सन्ति सिद्धाः-सिद्धिः सिध्यन्तिनिष्टितार्था भवन्ति यस्यां सा तथा, सिद्धिमन्तः सिद्धाः। 'परिणिवाणे' परिनिर्वाणमस्ति-परिनिर्वाणं कर्मकृतसन्तापोपशान्त्या सुस्थत्वम् । निःशेषतः सकलकर्मक्षयजन्यमात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः । 'अस्थि परिणिव्वुया' सन्ति परिनिर्वृताः अपुनरावृत्त्या सकलसन्तापदर्शक नहीं हो सकते हैं उसी प्रकार कोई भी व्यक्ति रागादिक से विशिष्ट होने के कारण अतीन्द्रियार्थ पदार्थों का द्रष्टा नहीं हो सकता है । इस प्रकार जो यह मीमांसकों की मान्यता है उस मान्यता को दूर करने के लिये अतीन्द्रियार्थ द्रष्टा की यह स्थापना की है । (अत्थि देवा अस्थि देवलोया) पुण्यजनित अलौकिक क्रीडा का जो अनुभव करते हैं उनका नाम देव है । वे देव भवनपति आदि के भेद से ४ प्रकार के हैं। इनके रहने के स्थान भी हैं । जिन्हें स्वर्ग या देवलोक कहते हैं । जो यह कहते हैं कि अप्रत्यक्ष होने से देवादिक नहीं हैं उनके इस मत का निराकरण करने के लिये देवों का स्वरूप कहा है । (अत्थि सिद्धी अत्थि सिद्धा) सिद्धि है, और सिद्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है ऐसे सिद्ध भी हैं। (परिणियाणे) परिनिर्वाण-मुक्ति है । कर्मकृत सन्ताप की उपशांति से उद्भूत सुस्थत्व का नाम परिनिर्वाण है । समस्त कर्मों के अत्यंत विनाश से जन्य जो आत्यंतिक सुख है उसका नाम सुस्थत्व है । (अत्थि परिणिबुया) अपुनरावृत्तिविशिष्ट होने से सकल संताप આથી જેમ આપણે રાગ આદિ સંપન્ન હોવાથી અતીદિયાથના દર્શક બની શકતા નથી તેજ પ્રકારે કોઈ પણ વ્યક્તિ રાગ આદિકોથી વિશિષ્ટ હેવાના કારણે અતીન્દ્રિય પદાર્થોના દ્રષ્ટા બની શકે નહિ. એવી જે આ મીમાંસકેની માન્યતા છે તે માન્યતાને દૂર કરવાને માટે અતીયિાર્થ દ્રષ્ટાની આ સ્થાપના ४॥छ. (अस्थि देवा अत्थि देवलोया) पुश्यनित मौलि पाना मनु. ભવ કરે છે તેમનું નામ દેવ છે. તે દેવે ભવનપતિ આદિના ભેદથી ૪ પ્રકારના છે. તેમનાં રહેવાનાં લક એટલે સ્થાન પણ છે જે એમ કહે છે કે અપ્રત્યક્ષ હોવાથી દેવ આદિક નથી. તેમના આ મતનું નિરાકરણ કરવા भाट वोनु स्व३५ ४९ छे. ( अत्थि सिद्धी अस्थि सिद्धा) सिद्धि छे. मने सिद्धि ने प्राप्त-थ गई छ वा सिद्ध ५५ छ. (परिणिव्वाणे) परिनिर्वाण-मुहित छ. भतरे सता५ तेनी Saiतिथी अत्पन्न થતું જે સુસ્થત્વ તેનું નામ પરિનિર્વાણ છે. સમસ્ત કર્મોના અત્યંત વિનાशथी पेह। यतु मायाति: सुप छे तेनु नाम सुस्था५ . (अत्थि परि
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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