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________________ ३५६ औपपातिकसूत्रे प्पभिइओ अप्पेगइया वंदणवत्तियं अप्पेगइया पूयणवत्तियं एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं दंसणवत्तियं कोऊहलवत्तियं, अप्पेपरिच्छेद्यरूपकेयविक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशान्तराणि व्रजतां सार्थं वाहयन्ति योगक्षेमाभ्यां परिपालयन्तीति, दीनजनोपकाराय मूलधनं दत्त्वा तान् समर्द्धयन्तीति तथा, एतप्रभृतयः, एषु-'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित्-'वंदणवत्तिय वन्दनवृत्तिकम्-वन्दनाय वृत्तिः प्रवृत्तिर्यस्मिन् कर्मणि तत् तथा, क्रियाविशेषणमिदं; वन्दनार्थमित्यर्थः, 'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित् 'पूयणवत्तिय' पूजनवृत्तिकम्-सेवाकरणार्थम् , 'सकारवत्तियं' सत्कारवृत्तिकम्-सत्कारार्थम् , 'सम्माणवत्तिय' सम्मानवृत्तिकम्-सम्मानार्थम् , 'दंसणवत्तिय' दर्शनवृत्तिकम् दर्शनार्थम् , ' कोऊहलवत्तिय ' कौतूहलवृत्तिकम्-कौतूहलार्थम्घी, तेल आदि वस्तुओं को, तथा-परिच्छेद्य कसौटी आदि पर परीक्षा करके खरीदने बेचने योग्य मणि, मोती, मूंगा, गहना आदि वस्तुओं को लेकर नफा के लिये देशान्तर में जाने वाले सार्थ (समूह) को ले जाते हैं, तथा योग (नयी वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम ( प्राप्त वस्तु की रक्षा ) के द्वारा उनका पालन करते हैं, गरीबों की भलाई के लिये उन्हें पूँजी देकर व्यापार द्वारा उन्हें धनवान बनाते हैं, वे सार्थवाह कहलाते हैं; ऐसे सार्थवाह लोग; इनमें से-(अप्पेगइया) कितनेक (वंदणवत्तियं) वन्दना करने के लिये (अप्पेगइया) कितनेक (पूयणवत्तियं) सेवा करने के लिये, (एवं) इसी तरह (सकारवत्तियं) सत्कार करने के लिये, (सम्माणवत्तियं) समान करने के लिये, (दसणवत्तियं) दर्शन करने के लिये, (कोऊहलवत्तियं) पहिले कभी भी भगवान को नहीं देखे थे; अतः उनको देखने के लिये, માપીને ખરીદવા વેચવા યોગ્ય દૂધ, ઘી, તેલ આદિ વસ્તુઓ તથા પરિચ્છેદય =કસટી આદિ ઉપર પરીક્ષા કરીને ખરીદવા વેચવા યોગ્ય મણિ, મેતી, પરવાળાં, ઘરેણાં આદિ વસ્તુઓ લઈને નફે કરવા માટે દેશાંતરમાં જવાવાળા સાથે (સમૂહ)ને લઈ જાય છે, તથા યોગ (નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ) અને ક્ષેમ (પ્રાપ્ત વસ્તુની રક્ષા) દ્વારા તેમનું પાલન કરે છે, ગરીબોના ભલા માટે તેમને પુંજી દઈને વ્યાપાર દ્વારા ધનવાન બનાવે છે તે સાર્થવાહ કહેવાય છે. એવા मेवा सार्थ वा सोसभांना (अप्पेगइया) ४८४ (वंदणवत्तियं) बहन। ४२१॥ भाटे (अप्पेगइया) ८४ (पूयणवत्तियं) सेवा ४२१॥ भाटे, (एवं) मेवी शत (सकारवत्तिय) सत्४२ ४२१। माटे (सम्माणवत्तियं) सन्मान ४२१। भाट (दसणवत्तियं) ४शन ४२१॥ भाट (कोऊहलवत्तियं) ५७i sी ५५ मापानन नये।
SR No.006340
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages824
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aupapatik
File Size24 MB
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