Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001551/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री ॥ जीवराज जैन ग्रंथमाला प्रकाशन श्रावकाचार संग्रह भाग १ ला संपादक स्व. पं. हीरालाल जैन शास्त्री RSSBHIHARS w een जैन संस्कृती संरक्षक संघ,सोलापूर. RESH DEBRITERNMENT * Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवराज जैन ग्रन्थमाला, हिन्दी विभाग पुष्प २७ श्रावकाचार संग्रह ( रत्नकरण्डक आदि ९ श्रावकाचारों का संग्रह ) (भाग १) सम्पादक एवं अनुवादक स्व. पं. हीरालाल सिद्धान्तालंकार, न्यायतीर्थ प्रकाशक अरविंद रावजी अध्यक्ष, जैन-संस्कृति-संरक्षक-संघ, शोलापुर (महाराष्ट्र) वी. नि. सं. २५१५) ( ई. सन् १९८८ २१००/ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अरविंद रावजी अध्यक्ष, जैन-संस्कृति-संरक्षक-संघ सोलापुर (महाराष्ट्र) ग्रंथमाला संपादक स्व. डॉ. आदिनाथ उपाध्ये स्व. डॉ. हीरालाल जैन प्रथम संस्करण- ५०० द्वितिय संस्करण- ५१०० मुद्रक मुद्रण सम्राट ४९५ शुक्रवारपेठ, सोलापूर- ४१३००२ ( सर्वाधिकार सुरक्षित ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी संस्थापक, जैनसंस्कृति-संरक्षक-संघ, सोलापूर. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जीवराज जैन ग्रंथमाला परिचय सोलापुर निवासी स्व. ब्र जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षों से उदासीन होकर धर्मकार्य में अपनी वृत्ति लगा रहे थे । सन् १९४० में उनकी प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित संपत्तिका उपयोग विशेषरूपसे धर्म और समाजकी उन्नति के कार्य करें। तदनुसार उन्होंने समस्त देशका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंमे साक्षात् और लिखित रूपसे सम्मतियां इस बाकी संग्रह की, कि कौनसे कार्य में संपत्तिका उपयोग किया जाय । स्फुट मनसंचय कर लेने के पश्चात् सन् १९४१ के ग्रीष्मकाल में ब्रह्मचारीजीने सिद्धक्षेत्र गजपंथ ( नाशिक ) के शीतल वातावरण में विद्वानोंकी समाज एकत्रित की। और ऊहापोहपूर्वक निर्णय के लिये उक्त विषय प्रस्तुत किया । विद्वान् सम्मेलनके फलस्वरूप ब्रह्मचारीजीने जैनसंस्कृति तथा जैनसाहित्य के समस्त अंगों के संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' नामक संस्थाकी स्थापना की। उसके लिये रु. ३०,००० के दानकी घोषणा कर दी। उनकी परिग्रहनिवृत्ति बढती बई । सन् १९४४ में उन्होंने लगभग दो लाख की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको ट्रस्टरूपसे अर्पण की । इसी संघ अंतर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' द्वारा प्राचीन प्राकृत संस्कृत-हिंदी मराठी पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है । तथा आजतक इस ग्रंथमालासे हिंदी विभाग में ४५ पुस्तके, कन्नड विभाग ३ पुस्तके, तथा मराठी विभाग में ७८ व धवलामें ९ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । प्रस्तुत ग्रंथ इस ग्रंथमालाका हिंदी विभागका २७ वाँ पुष्प है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन यह श्रावकाचार संग्रह ग्रंथ उपासकाध्ययनांगका चरणानुयोगका प्रकाशक अनुपम ग्रंथ है। इसमें सब श्रावकाचारोंका संग्रह एकत्रित किया है। श्रावक धर्मका स्वरूप क्या है, आत्मधर्मके उपासककी दिनचर्या कैसी होनी चाहिये, परिणामोंकी विशुद्धिकै लिये क्रमपूर्वक व्रत-संयमका अनुष्ठान नितांत आवश्यक है इसका विस्तारपूर्वक विवरण इस ग्रंथका पठन-पाठन करनेसे ज्ञात हो सकता है । स्व. श्रीमान् डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने सब श्रावकाचार ग्रंथोंकी नामावली भेजकर यह ग्रंथ प्रकाशित करनेके लिये मूलप्रेरणा दी इसलिये यह संस्था उनकी कृतज्ञ है । इस ग्रंथका हिंदी अनुवाद श्री. स्व. पं. हीरालालजीशास्त्री ब्यावर ने तैयार करके ग्रंथमालाको जिनवाणीका प्रचार करने में सहयोग दिया हैं, जिसके लिये हम उक्त जैनधर्मसिद्धांतके मर्मज्ञ विद्वान्को हार्दिक धन्यवाद समर्पण करते है। ___ तथा इस ग्रंथका मुद्रण कार्य सुचारु रूपसे करने में मुद्रण सम्राट सोलापूर के संचालकवर्ग ने सहयोग दिया हैं इसलिये हम उनका भी आभार मानते हैं। अंतमें इस ग्रंथका पठन-पाठन घर-घरमें होकर श्रावकधर्मकी प्रशस्त तीर्थप्रवृत्ति अखंड प्रवाहसे सदैव कायम रहे यह मंगल भावना हम प्रकट करते है। रतनचंद सखाराम मंत्री, श्री जैनसंस्कृतिसंरक्षक संघ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय वक्तव्य आज से लगभग १० वर्ष पूर्वकी बात है कि इस संस्थाके मानद मंत्री श्रीमान् सेठ वालचंद्र देवचंद्रजी शहाका विचार हुआ कि इस संस्थासे दि जैन सम्प्रदाय में उपलब्ध सभी श्रावकाचारों का संकलन करके प्रकाशित हो तो अभ्यासियोंके लिए बहुत उपयोगी रहे। उन्होंने अपना अभिप्राय अपने अनन्य सहयोगी स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्यं से कहा । डॉक्टर सा. ने एक रूप-रेखा बनाकर आपके पास भेजी। और आपने उसे मेरे पास भेजकर प्रेरणा की कि इस कार्यभारको आप स्वीकार करें । मैं उस समय ऐ पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवनका यवस्थापक होकर ब्यावर आया ही था, इसलिए मैने यह सोचकर इस कार्यको सहर्ष स्वीकार कर लिया कि सरस्वती भवनका विशाल ग्रथ - संग्रह इस कार्य में सहायक होगा । 1 स्व. डॉ. उपाध्ये सा. ने १५ श्रावकाचारोंके नाम अपने पत्र में सुझाये थे । सरस्वती भवनकी ग्रन्थ-सूचीसे कुछ और भी श्रावकाचारोंके नाम ज्ञात हुए और मैने उनकी प्रेसकापी करना प्रारम्भ कर दिया । स्व. डॉ. उपाध्येने जिस काल - क्रमसे श्रावकाचारोंके संकलनका सुझाव दिया था, उन्हेंऔर नये उपलब्ध श्रावकाचारों नाम अपने विचार से काल-क्रम से लिखकर २१९ श्रावकाचारों की सूत्री दि. २११४।७१ को श्रीमान् पं. कैलाशचन्द्रजीके पास बनारस भेजी और कालक्रमका निर्णय चाहा । उन्होंने उसी पत्र पर अपना निर्णय देकर यह भी सुझाव दिया कि पद्मनन्दिपंचविंशतिका, वरांगचरित, हरिवंशपुराण आदिमें भी जो श्रावक धर्मका प्रतिपादन किया गया है उसे भी संकलित करके प्रस्तुत संग्रह में दे दिया जाना अच्छा रहेगा । तदनुसार चारित्रप्राभृत, तत्त्वार्थ सूत्रका सप्तम अध्याय, पद्मनन्दिपंचविंशतिका, पद्मचरित, हरिवंश पुराण, वराङ्ग चरित से भी श्रावका चारका संकलन किया गया । स्व डॉ. उपाध्येके सुझाव से यह भी निर्णय किया गया कि जो श्रावकाचार स्वतंत्ररूपसे निर्मित हैं, और जो कार्तिकेयानुप्रेक्षा तथा महापुराणके श्रावक धर्मके वर्णन करनेवाले पर्व हैं उन्हें तो क्रमशः काल-क्रमके अनुसार स्थान दिया जावे । शेष जो अन्य ग्रन्थोंसे उद्धृत हों, अन्त में परिशिष्टके रूपसे दिया जावे । प्रस्तुत संकलनके मुद्रणका निर्णय वर्द्धमान मुद्रणालय में किया गया और चार वर्ष पूर्व इसकी प्रारम्भिक प्रेसकापी बनारस भेज दी गई। परन्तु वहांसे प्रूफ मेरे पास आने-जाने में समय बहुत लगता था अतः तीन वर्ष में लगभग ३० ही फॉर्म छप सके । संस्थाके मानद मंत्रीजी चाहते थे कि इस वीर निर्वाणशताब्दी पर तो श्रावकाचार-संग्रहका प्रथम भाग: प्रकाशित हो ही जाना चाहिए | पर वहां प्रूफ-संशोधन कौन करे, यह समस्या सामने थी । अन्तमें संस्थाके मंत्रीजीके परामर्शसे मैं बनारस गया और श्री. पं. महादेवजी व्याकरणाचार्यसे - जो कि प्रूफ - संशाधनके कार्य में अतिकुशल हैं - इसे स्वीकार करनेका आग्रह किया । हर्ष हैं कि उन्होंने उसे स्वीकार किया और लगभग आधे भागका उन्होंने इस वर्ष में प्रूफ-संशोधन किया, जिससे कि यह प्रथम भाग पाठकों के सम्मुख पहुँच सका हैं । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रथम भागमें १. रत्नकरण्डक, २. स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा-गत अंश, ३.महापुराण-गत अंश, ४. पुरुषार्थसिध्द्युपाय, ५. यशस्तिलक-गत अंश, ६. चारित्रसार-गत अंश, ७. अमितगतिश्रावकाचार, ८. वसुनन्दिश्रावकाचार और ९. सावयधम्मदोहा, ये नौ श्रावकाचार संकलित है। द्वितीय भागमें १ सागारधर्मामृत, २. धर्मसंग्रहश्रावकाचार, ३. गुणभूषण श्रावकाचार, ४. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, ५. धर्मपीयूष श्रावकाचार, ६. व्रतोद्योतन श्रावकाचार, ७. लाटीसंहिता, ८. उमास्वाति श्रावकाचार, ९. पूज्यपाद श्रावकाचार आदि रहेंगे। चारित्र प्राभृत, तत्त्वार्थसूत्र, पद्मचरित आदि से उद्धृत अंश परिशिष्ट में रहेंगे। इस प्रथम भागमें जिन श्रावकाचारोंका संग्रह किया गया है, वे सभी विभिन्न स्थानोंसे पूर्व प्रकाशित है किन्तु सभीके मूल पाठोंका संशोधन और पाठ-मिलान ऐ. प. दि. जैन सरस्वती भवनके हस्तलिखित मूल श्रावकाचारोंसे किया गया है । यशस्तिलकगत श्रावकाचार 'उपासंकाध्ययन' के नामसे भारतीयज्ञानपीठसे प्रकाशित हुआ है, उसीके आधार परसे केवल श्लोकोंका संकलन प्रस्तुत संग्रहमें किया हैं । पूजन सम्बन्धी गद्यभाग एवं कथानकोंका गद्य भाग स्व. डॉ. उपाध्येके परामर्श से नहीं लिया गया है। इस भागके साथ प्रस्तावना नहीं दी जा रही हैं । हाँ, दूसरे भागके साथ विस्तृत प्रस्तावना दी जावेगी, जिसमें संकलित श्रावकाचारोंकी समीक्षाके साथ श्रावकाचारका क्रमिक विकास भी दिया जावेगा। तथा संकलित श्रावकाचारोंके कर्ताओंका परिचय भी दिया जावेगा । सम्पादनमें प्राचीन प्रतियोंका उपयोग किया गया है, उनका भी परिचय दूसरे भागमें दिया जायेगा। दूसरे भागमें ही समस्त श्रावकाचारोंके श्लोकोंकी अकारादि-अनुक्रमणिका भी दी जायगी, एवं अन्य आवश्यक पारिभाषिक शब्दकोष आदि भी परिशिष्ट में ही दिये जावेंगे। अन्तमें मै संस्थाके मानद मंत्री, स्व. डॉ. उपाध्ये और श्रीमान् पं. कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्रीका बहुत आभारी हूँ, जिन्होंने इस प्रकाशनके लिए समय-समय पर सत्परामश दिया हैं । श्री. पं. महादेवजी चतुर्वेदीका भी आभारी हूँ कि उन्होंने प्रूफ-संशोधनका भार स्वीकार करके प्रथम भागको शीघ्र प्रकाशित करने में सहयोग दिया है । शुद्ध और स्वच्छ मुद्रणके लिए वर्द्धमान मुद्रणालयका भी आभारी हूँ। ऐ. पन्नालाल दि. जैन सरस्वती -हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री २।२।७६ प्रकाशकीय निवेदन चरणान योगके अनेक श्रावकाचारोंका संग्रह रूप यह ग्रंथ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । इसका प्रथमसंस्करण अल्प कालमें समाप्त होकर यह द्वितीय संस्करण ही इसकी उपयोगिता को सूचित करता हैं । इसका पठन पाठन कर जिनवाणी के प्रचार में मुमुक्षु पाठक सहयोग देवें यही नम्र प्रार्थना है। मंत्री रतनचंद सखाराम जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापूर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार - - संग्रह की विषय-सूची रत्नकरण्ड श्रावकाचार मंगलाचरण और सम्यग् धर्म-कथनकी प्रतिज्ञा सम्यग्दर्शन, आप्त और शास्त्रका स्वरूप गुरुका स्वरूप सम्यग्दर्शनके आठों अंगों का स्वरूप तीन मूढताओंका और आठ मदोंका वर्णन सम्यग्दर्शनकी महिमा सम्यग्ज्ञान और चारों अनुयोगोंका स्वरूप सम्यक चारित्र और उसके भेदोंका स्वरूप श्रावकके बारह व्रतोंका नाम-निर्देश पाँच अणुव्रतों का स्वरूप और उनके अतीचार तीन गुणव्रत और उनके अतीचार चार शिक्षाव्रत और उनके अतीचार सल्लेखनाका स्वरूप और अतीचार तथा फल धर्मका फल - वर्णन ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन ग्रन्थका उपसंहार २. स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावक-धर्म श्रावकके बारह भेदोंका वर्णन दर्शन श्रावकका वर्णन व्रत-श्रावकका विस्तृत वर्णन सामायिक व्रती श्रावकका वर्णन प्रोषधव्रती श्रावकका वर्णन सचित्त विरत श्रावकका वर्णन रात्रि - भोजन-विरन श्रावकका वर्णन ब्रह्मचारी श्रावकका वर्णन आरम्भ-विरत श्रावकका वर्णन | | | पू. सं. १-९९ १ २ ३ ३-५ 11 1 w u ६-८ ९-१६ १६-१८ १८-१९ २०-२८ २० २१-२२ २२-२५ २६ २६ २६ २७ २७ २७ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह २७ م २९-९८ له سه له سه للم سه ३३-५६ ६४-७४ ७५ ७९-८४ / परिग्रह-विरत श्रावकका वर्णन अनुमति-विरत श्रावकका वर्णन उद्दिष्ट आहार-विरत श्रावकका वर्णन ३. महापुराणान्तर्गत-श्रावक-धर्म भरतचक्रीका दिग्विजयसे लौटने पर अपनी सम्पत्तिके सदुपयोगका विचारव्रतीजनोंकी परीक्षा और उनका सन्मान कर ब्राह्मणवर्णकी स्थापना नित्यमह आदि चार प्रकारकी पूजाओंका निरूपण चार प्रकारकी दत्तियोंका निरूपण वत्ति-भेदसे चारों वर्णों का निरूपण श्रावकके करने योग्य तीन क्रियाओंका वर्णन गर्भान्वय क्रियाओंके ५३ भेदोंका पृथक्-पृथक् वर्णन दीक्षान्वय क्रियाओंके ८ भेदोंका पृथक्-पृथक् वर्णन कन्वय क्रियाके ७ भेदोंका विस्तृत वर्णन गर्भाधानादि क्रियाओंके पूर्व आवश्यक कार्योंका निदेश उक्त क्रियाओंके समय वोले जाने वाले पीठिका मंत्रोंका वर्णन ऋषिमंत्रोंका वर्णन गर्भाधान-मंत्र धृतिक्रिया-मंत्र मोदक्रिया-मंत्र प्रियोद्भव-मंत्र बहिर्यानक्रिया-मंत्र अन्नप्राशनक्रिया-मंत्र चौल कर्म-मंत्र लिपिसंख्यान-मंत्र उपनीतिक्रिया-मंत्र उपनीति संस्कार वालेके बाह्य चिन्ह व्रती द्विजोंके दश अधिकारोंका वर्णन पुरुषार्थ सिद्धयुपाय मंगलाचरण पूर्वक ग्रन्थोद्धारकी प्रतिज्ञा चिदात्मा पुरुषका स्वरूप पुरुषार्थकी सिद्धिका उपाय सम्यग्दर्शनका आठ अंगोंके साथ स्वरूप-निरूपण सम्यग्ज्ञानका आठ अंगोंके साथ स्वरूप-निरूपण सम्यक् चारित्रका स्वरूप और भेद अहिंसा व्रतका स्वरूप ९२ ९९-१२२ १०१ १०२ १०३ १०३ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १०३ १०५ १०८ १०९ ११० ११० ११२ ११३ ११४ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२-२६२ १२३ १२४-१३० الله हिंसाका विस्तृत विवेचन अष्ट मूल गुणोंका निरूपण देवता-अतिथि आदिके लिए जीव-घातका निषेध सत्य व्रतका वर्णन अचौर्यब्रतका वर्णन ब्रह्मवतका वर्णन परिग्रहत्याग व्रतका वर्णन रात्रिभोजन त्याग व्रतका वर्णन तीन गुणव्रतोंका वर्णन चार शिक्षाव्रतोंका वर्णन सल्लेखनाका वर्णन सम्यक्त्व, व्रत, शील और सल्लेखनाके अतीचारोंका वर्णन । बारह तपोंके यथाशक्ति करनेका उपदेश अन प्रेक्षा और परीषह-जयका उपदेश रत्नत्रयधर्मकी महिमा और ग्रन्थका उपसंहार यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन धर्मका स्वरूप विभिन्न-मताभिमत मोक्षके स्वरूपका प्रतिपादन और उनका निराकरणसम्यक्त्वका स्वरूप आप्तके स्वरूपका सयुक्तिक विवेचन ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदिकी आप्तताका निराकरण आगमका स्वरूप और विषय जीवादि पदार्थों का स्वरूप कर्म-बन्धके कारणोंका विवेचन लोकका स्वरूप लोक-प्रचलित मूढताओंका निराकरण सम्यग्दर्शनके दोषोंका वर्णन निशंकित अंगका वर्णन निःकांक्षित अंगका वर्णन निविचिकित्सा अंगका वर्णन समूढदृष्टि अंगका वर्णन उपगूहन अंगका वर्णन स्थितिकरण अंगका वर्णन प्रभावना अंगका वर्णन वात्सल्य अंगका वर्णन सम्यग्दर्शन और उसके भेदोंका वर्णन ال १३२ १३३ १३७ १४० १४२ १४२ १४३ १४३ १४५ १४५ १४६ १४७ १४७ १४८ १४९ १४९ १५० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह oror Mor Morrorrowroor Mor सम्यग्दर्शनके २५ दोषोंका वर्णन १५३ सम्यग्ज्ञानका स्वरूप १५४ सम्यक्चारित्रका स्वरूप और भेद अष्ट मूलगुणोंका वर्णन १५६ श्रावकके बारह व्रतोंका वर्णन १५९ अहिंसावतका वर्णन और रात्रिभोजनका निषेध / १६० सन्धानक एवं द्विदल वस्तु-भक्षणका निषेध १६१ मैत्री प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाका स्वरूप प्रायश्चित्तका विधान, वा प्रायश्चित्त देनेका अधिकारी १६३ अदत्तादानका निषेध एवं अचौर्याणुव्रतका स्वरूप १६४ सत्याणुव्रतका स्वरूप वर्णन ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप वर्णन १६७ परिग्रह परिमाणाणुव्रतका स्वरूप वर्णन गुणवतोंका वर्णन १७० शिक्षाव्रतोंका वर्णन सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत देवपूजाका विस्तृत वर्णन १७२ अतदाकार पूजनके अन्तर्गत दर्शन, ज्ञान चारित्रभक्ति, अर्हत् सिद्ध आचार्य चैत्य और शान्तिभक्तिका वर्णन १७५ तदाकार पूजनके अन्तर्गत प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना-स्तवन, अर्चन,स्तवन, जप, ध्यान, और श्रुतदेवताराधनाका वर्णन १८० ध्यानके अन्तर्गत आज्ञाविचयादि धर्मध्यानोंका विस्तृत वर्णन १९३ प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतका वर्णन २१३ भोगोपभोग शिक्षावतका वर्णन अतिथिसंविभाग शिक्षाक्तका वर्णन २१४ श्रुत-रक्षाके लिए श्रुतधरोंकी रक्षाका निर्देश २२१ ग्यारह प्रतिमाओंका संक्षिप्त वर्णन २२३ जितेन्द्रिय, श्रमण, क्षपण आदि नामोंकी सार्थकताका वर्णन सल्लेखनाका वर्णन गृहस्थके दैनिक षट् आवश्यकोंका वर्णन चार अनुयोगोंका वर्णन २३० कषायोंका वर्णन और उनके जीतनेका उपदेश २३१ वैराग्य, भय और नियमके उपदेशपूर्वक ग्रन्थका उपसंहार २३४ चारित्रसार-गत श्रावकाचार २३५-२६२ मंगलाचरण और धर्मका स्वरूप २३५ श्रावककी ११ प्रतिमाओंका नाम-निर्देश २१४ २२३ ० २३५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ विषय-सूची दार्शनिक श्रावकका स्वरूप एवं सम्यक्त्व-माहात्म्य २३६ ब्रतिक श्रावकका स्वरूप २३८ पंच अणव्रत और उनके अतिचारोंका विस्तृत वर्णन २३८ सात शीलोंका सविचार विस्तृत वर्णन । २४२ मद्य-मांसादिके भक्षण और द्यूतक्रीडाका निषेध २५१ खदिरसारके काक-मांस-भक्षण त्यागके माहात्म्यका वर्णन २५२ मद्यपानके दोष-दर्शन एवं यादव-विनाशका वर्णन २५४ सामायिकादि शेष प्रतिमाओंका वर्णन २५५ गृहस्थके इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इस षट् आर्य-कर्मोंका निरूपण - २५८ साधुओंके ऋषि, यति, मुनि, अनगार भेदोंका वर्णन २५९ सल्लेखनाका सातिचार वर्णन २६० अमितगति-श्रावकाचार २६३-४२१ पंच परमेष्ठि-स्मरण, सरस्वती-वन्दन २६३ मनुष्य भवकी महात्ताका निरूपण धर्मकी महत्ता बताकर उसे धारण करनेका उपदेश २६५ मिथ्यात्वके भेदोंका वर्णन कर उसे छोडनेका उपदेश २७२ सम्यक्त्व-प्राप्तिकी योग्यता और प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्तिका क्रम-निरूपण २७५ सम्यक्त्वके शंष भेदोंका वर्णन २७७ सम्यक्त्वका माहात्म्य-निरूपण २७८ जीवादि सप्त तत्त्वोंका विस्तृत विवेचन २८१ आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि २९१ सर्वज्ञ-सिद्धि ईश्वरके जगत्-कर्तब्यका खंडन अष्ट-मूलगुणोंका विस्तृत विवेचन रात्रिभोजनके दोष दिखाकर उसके त्यागका उपदेश ३०७ श्रावकके बारह व्रतोंका वर्णन अहिंसाणुव्रतका विस्तृत विवेचन ३१३ सत्याणुव्रतका विवेचन ३१७ अचौर्याणुव्रत और ब्रह्मचर्याणब्रतका निरूपण ३१८ परिग्रह परिमाणाणुव्रतका निरूपण ३१९ दिग्वतादि तीनों गुणवतोंका वर्णन ३२० सामायिकादि चारों शिक्षाव्रतोंका तथा सल्लेखनाका वर्णन ३२१ उक्त व्रतोंके, सम्यक्त्वके और सल्लेखनाके अतीचार ३२२ तीन शल्योंका विस्तृत वर्णन कर उनके त्यागका उपदेश २९६ २९९ ३०२ ३१२ ३२५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह الله الله الله الله » الله الله الله » سه م ليس لل N । । له । । ३७० । । । । ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन श्रावकके लिए षट् आवश्यकोंके अवश्य कर्तव्यताका उपदेश - ३३४ सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छहों आवश्यकोंका विस्तृत विवेचन ३३६ सामायिकादि करते समय आसन, मुद्रा, आवर्त आदिका वर्णन - - वन्दना-सम्बन्धी ३२ दोषोंका वर्णन कायोत्सर्ग-सम्बन्धी ३२ दोषोंका वर्णन दान, पूजा, शील और उपवासरूप चतुर्विध श्रावक धर्मका विस्तृत वर्णन दान देने के योग्य पात्रोंका और नहीं देने योग्य अपात्रोंका विस्तृत वर्णन - अभयदान आदि चारों दानोंका विस्तृत वर्णन वसति-दान आदिके फलका वर्णन ३६६ भोगभूमिज मनुष्योंके सुखादिका वर्णन ३६८ कुपात्र और अपात्र दानका फल-वर्णन सुपात्रदानका फल-वर्णन तीर्थकर जिनदेवका स्वरूप-वर्णन ३७२ सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुका स्वरूप वर्णन ३७४ जिन-पूजनके फलका वर्णन ३७५ शीलका वर्णन ३७५ द्यूतादि सप्त व्यसनोंका विस्तृत वर्णन ३७६ मौनके गुणोंका निरूपण ३८० उपवासका विस्तृन विवेचन ३८२ श्रावकके कुछ विशेष गुणोंका वर्णन दर्शन विनय आदि चारों प्रकारकी विनयका वर्णन ३८५ वैयावृत्त्यका विस्तृत विवेचन । ३८९ प्रायश्चित्त और स्वाध्याय तपका वर्णन ३९० चौदहवें परिच्छेदमें बारह भावनाओंका विस्तृत वर्णन ३९४ ध्यानके चारों भेदोंका स्वरूप धर्म्यध्यानके दश भेदोंका वर्णन ४०७ पदस्थ ध्यानका विस्तृत वर्णन ४०८ विविध मंत्र-पदोंकी आराधना-विधिका वर्णन ४०९ पिण्डस्थ, रूपस्थ और अरूपस्थ ध्यानका वर्णन ४१३ बहिरात्माका स्वरूप बताकर अन्तरात्मा बनकर परमात्मा बननेका उपदेश ४१४ ग्रन्थकारकी प्रशस्ति ८ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४२२-४८१ सम्यक्त्वका स्वरूप ४२२ जीवादि सात तत्त्वोंका स्वरूप ४२३ । । । । ३८४ । । । । । ४०५ । । । । ४२० Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ ४४६ ४५१ विषय-सूची सम्यक्त्वके आठ अंग और उनमें प्रसिद्ध पुरुषोंका निर्देश ४२८ द्यूत आदि सप्त व्यसनोंका विस्तृत विवेचन ४२९ नरकगतिके दुःखोंका विस्तृत वर्णन ४२६ तिर्यंचगति और मनुष्यगतिके दुःखोंका वर्णन ४४० देवगतिके दुःखोंका वर्णन ४४२ दर्शन प्रतिमाका वर्णन व्रत प्रतिमाका वर्णन ४४४ पात्र, दाता, देय और दानविधिका वर्णन दानके फलका वर्णन ४४८ सल्लेखनाका वर्णन सामायिक और प्रोषध प्रतिमाका वर्णन ४५१ सचित्तत्याग आदि छह प्रतिमाओंका स्वरूप-निरूपण ४५३ उद्दिष्टत्याग प्रतिमाका विस्तृत वर्णन ४५४ रात्रिभोजनके दोषोंका वर्णन श्रावकके कुछ अन्य कर्तव्योंका निर्देश ४५६ विनयका वर्णन ४५७ वैयावृत्त्यका वर्णन ४५९ कायक्लेश तपका वर्णन पंचमी व्रतका वर्णन रोहिणी, अश्विनी, आदि अनेक व्रतोंका वर्णन नाम और स्थापना पूजनका वर्णन प्रतिमा-प्रतिष्ठाका विस्तृत वर्णन ४६५ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावपूजाका वर्णन पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन पदस्थ ध्यानका वर्णन रूपस्थ और रूपातीत ध्यानका वर्णन ४७४ अष्टद्रव्यसे जिनपूजन करनेवाला स्वर्ग-सुख भोगकर और वहाँसे चयकर मनुष्य होकर कर्म क्षयकर मोक्ष प्राप्त करता है, इसका विस्तृत वर्णन - ग्रन्थकारकी प्रशस्ति ४८२ सावयधम्मदोहा ४८३-५०५ मंगलाचरण और श्रावकधर्मके कथनकी प्रतिज्ञा ४८३ मनुष्य भवकी दुर्लभता और देव-गुरूका स्वरूप ४८३ दर्शन प्रतिमाका स्वरूप ४८४ अष्टमूल गुण-पालनका उपदेश सप्त ब्यसनोंके दोष बताकर उनके त्यागनेका उपदेश ४८६ । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ४५६ ४६१ ४६१ ४६२ ४६४ ४७० ४७२ ४७३ । ४८५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रावकाचार संग्रह व्रत प्रतिमाका वर्णन पात्र, कुपात्र और अपात्रको दान देनेका फल - वर्णन दान देना ही गृहस्थ जीवनकी सफलता है। अपने लिए प्रतिकूल कार्य दूसरोंके लिए नहीं करना ही धर्मका मूल है उपवासका महत्त्व बताकर उसे करनेकी प्रेरणा एक एक इन्द्रिय विषयमें फँस कर दुःख पाने वालोंके दृष्टान्त देकर इन्द्रियविषयोंको जीतनेका उपदेश क्रोधादि कषायों के जीतनेका उपदेश अन्यायका फल वताकर उसे छोडनेका उपदेश चारों गतियों में ले जानेवाले कर्म - बन्धके कारणोंका निरूपण धर्म धारण करनेके फलका निरूपण जिनेन्द्रदेव अभिषेक और पूजनका फल- निरूपण जिन - बिम्ब और जिनालय निर्मापणका फल-वर्णन जिन - मन्दिर में तीन लोकके चित्रादि लिखानेका फल - वर्णन 'अहं' आदि मंत्रों के ध्यानका उपदेश ग्रन्थका उपसंहार और इष्ट प्रार्थना सावय धम्म दोहाका परिशिष्ट ४८८ ४९० ४९१ ४९२ ४९३ ४९४ ४९५ ४९६ ४९७ ४९८ ४९९ ५०० ५०१ ५०२ ५०३ ५०४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार नमः श्रीवर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद विद्या दर्पणायते ॥ १ देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवहंणम् । ससारदुःखतः सत्त्वान यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनोकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ ३ श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढागोढमष्टाङ्गं सम्यदर्शनमस्मयम् ॥ ४ आप्तेनोत्सन्नदोषेण सर्वज्ञनाऽऽगमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।५ क्षत्पिपासाजरातजन्मान्तक मयस्मया. न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥६ परमेष्ठी परंज्योतिविरागो विमल. कृती । सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥७ अनात्मार्थ विना रागैःशास्ता शास्ति सतो हितम ध्वनन् शिल्पिक रस्पन्मिज किमपेक्षते । आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टष्ट विरोध कम । तत्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्रं कापयघट्टनम् ॥९ जिन्होंने कपनी आत्मासे राग-द्वेषादिरूप पापमलको सर्वथा धो डाला है और जिनकी केवलज्ञानरूपी विद्या अलोकाकाश-सहित त्रिलोकोंको जानने के लिए दर्पण के समान हैं, ऐसे श्री वर्धमान् स्वामी के लिए नमस्कार हो॥१।मैं (समन्तभद्र) कर्मों के नाश करने वाले उस यथार्थ धर्मका उपदेश करता हूँ जो कि जीवोंको संसारके दुःखोंसे निकाल कर उत्तम सुखमें धारण करता है॥२॥ धर्मके ईश्वर तीर्थकरादि देवोंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है। इनके प्रतिपक्षी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसारके कारण हैं ॥ ३ ॥ सम्यग्दर्शन का स्वरूप - सत्यार्थ आप्त, आगम और गुरुका तीन मूढ़तासे रहित, आठ स्मय (मद) से रहित और आठ अङ्गेसे सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ।। ४ ॥ सत्यार्थ आप्त (देव) का लक्षणजिसने राग-द्वेषादि दोषोंका विनाश कर दिया है, जो सर्व चराचर जगत्का जानने वाला सर्वज्ञ है और वस्तु-स्वरूपके प्रतिपादक आगमका स्वामी अर्थात् मोक्ष मार्गका प्रनेता हैं वही पुरुष नियमसे सच्चा आप्त होने के योग्य हैं। अन्यथा आप्तपणा हो नहीं सकता । अर्थात् जो वीतरागी,सर्वज्ञ और हितोपदेशी नहीं हैं ऐसा पुरुष कभी सच्चा देव नहीं हो सकता है ।।५।। निर्दोष वीतरागी आप्त का लक्षण-जिसके भूख, प्यास, जरा, रोग, जन्म, मरण भय, मद, राग, द्वेष, मोह और 'च' शब्द से सूचित चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, प्रस्वेद और खेद ये दोष नहीं है, वह पुरुष वीतरागी आप्त कहा जाता है ।।६।। ऐसे ही आप्तको परमेष्ठी, परंज्योति, वीतराग, विमल, कृती, सर्वज्ञ, आदि-मध्य-अन्तसे रहित, अनादि-अनन्त और सार्व सबका हितेषी) शास्ता या मोक्षमार्गप्रणेता कहते है ।।७।। वह शास्ता विना किसी अपने प्रयोजनके केवल निस्वार्थ भावसे रागके विना सन्त जनोंको हितका उपदेश देता है । बजाने वाले शिल्पीके हाथ के स्पर्शसे ध्वनि करता हुआ मृदंग किसी से क्या अपेक्षा रखता है ? ॥८।। भावार्थ-जैसे बजता हुआ मृदंग शिल्पीसे या अन्य किसीसे कोई अपेक्षा नहीं रखता है। इसी प्रकार वीतराग पुरुष भी भव्योंको उपदेश देते हुए किसीसे कुछ अपेक्षा नहीं रखते हैं । जैसे मृदंगका स्वभाव बजने का हैं, वह बजाने वालेके हाथका निमित्त पाते ही बजने लगता है, इसी प्रकार शास्ताका स्वभाव उपदेश देने का हैं, भव्य जीवोका निमित्त पाते ही उसके द्वारा दिव्य उपदेश प्रकट होने लगता है। सत्यार्थ आगम (शास्त्र) का लक्षण-जो आप्तके द्वारा उपदिष्ट हो, वादी-प्रतिवादीके द्वारा जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सके, प्रत्यक्ष और अन . Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० इदमेवेदशं चैव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकम्पाऽऽयसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥११ कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥१२ स्वभावतोऽशची काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जगप्सा गुणप्रीतिर्मता निविचिकित्सिता ॥१३ कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असम्पक्तिरनुत्कोत्तिरमूढा दृष्टि रुच्यते ।।१४ शुद्ध शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५ दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः । प्रत्यवस्थापन प्राज्ञः स्थितीकरणमच्यते ।।१६ स्वयथ्यान् प्रति सद्भावसनाथाऽपेतकैतवा । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ।।१७ अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: स्यात्प्रभावना ।।१८ तावदञ्जनचौरोऽङ्गे ततोऽनन्तमती स्मृता । उद्दायनस्तृतीयेऽपि तुरीये रेवती मता ॥१९ मानादिक प्रमाणोंसे जिसमें कोई विरोध नहीं आता हो, जो प्रयोजन भूत तत्त्वोंका उपदेश करता हो, सर्व प्राणियोंका हितकारक हो और कुमार्गका विनाशक हो, उसे सत्यार्थ शास्त्र या आगम कहते हैं ।। ९॥ सत्यार्थ गुरुका लक्षण- जो पंचेन्द्रियोंकी आशाके वशसे रहित हो, खेती-पशुपालन आदि आरम्भ से रहित हो, धन-धान्यादि परिग्रहसे रहित हो, ज्ञानाभ्यास, ध्यान-समाधि और तपश्चरणमें निरत हो, ऐसा तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु प्रशंसनीय होता है ।।१०। अब सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंका वर्णन करते हुए सर्वप्रथम नि शंकित अंगका लक्षण कहते हैं- तत्त्व अर्थात वस्तुका स्वरूप यही ऐसा ही है. इससे भिन्न नहीं और न अन्य प्रकार से संभव है. इस प्रकार लोट निर्मित खङग् आदि पर चढे हुए पानीके सदृश सन्मार्गमें संशय-रहित अकम्प अविचल रुचि या श्रद्धाको निःशंकित अंग कहते हैं ।।११।। दूसरे नि:कांक्षित अङ्गका लक्षण-संसारका सुख कर्मके अधीन हैं, अन्त-सहित हैं, जिसका उदय दुःखोंसे अन्तरित है, अर्थात्, सुख-काल के मध्य में भी दुःखोंका उदय आता रहता हैं, और पापका बीज है, ऐसे इन्द्रियज सुख में आस्था और श्रद्धा नहीं रखना, अर्थात संसारके सुखकी आकांक्षा नहीं करना, यह निःकांक्षित अङ्ग माना गया है ।।१२।।तीसरे निविचिकित्सा अङगका लक्षण-स्वभावसे अपवित्र किन्तु रत्नत्रय के धारण क नेसे पवित्र ऐसे धार्मिक पुरुषो के मलिन शरीरको देखकर भी उसमें ग्लानि नही करना और उनके गुणोंमें प्रीति करना निर्विचि. कित्सा अङ्ग माना गया हैं |१३|| चौथे अमूढदृष्टि अंगका लक्षण-दु:खोंके कारणभूत कुमार्गमें और कुमार्ग पर स्थित पुरुष में मनसे सम्मति नहीं देना, कायसे सराहना नही करना और वचनसे प्रशंसा नही करना अमूढदृष्टि अंग कहा जाता है ।। १४ ।। पांचवे उपगुहन अंगका लक्षण-स्वयं शद्ध निर्दोष सन्मार्ग की बाल (अज्ञानी) और अशक्त जनोंके आश्रयसे होने वाली निन्दाको जो दूर करते है, उसे ज्ञानी जन उपगहन अंग कहते हैं ।।१५। छठे स्थितीकरण अंगका लक्षण - सम्यग्दर्शनसे अथवा सम्यक्-चरित्रसे चलायमान होनेवाले लोगोंका धर्मवत्सल जनोंके द्वारा पुन: अवस्थापन करनेको प्राज्ञ पुरुष स्थितीकरण अंग कहते है ॥१६॥ सातवे वात्सल्य अंगका लक्षण- अपने साधर्मी समाजके प्रति सदभावसहित, छल-कपट-रहित यथोचित स्नेहमयी प्रवृत्तिको वात्सल्य अंग कहते हैं ॥ १७॥ आठवे प्रभावना अंगका लक्षण- अज्ञानरूप अन्धकारके प्रसारके यथासंभव उपायोंके रके जिन शासनके माहात्म्यको जगतमें प्रकाशित करना प्रभावना अंग है ।। १८ ।। उपयुक्त आठ अंगोंमें से प्रथम अंग में अञ्जन चौर, दूसरे अंग में अनन्तमती, तीसरे अंगमें Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार ततो जिनेन्द्र भक्तोऽन्यो वारिषेणस्ततः परः । विष्णुश्च वज्रनामा च शेषयोर्लक्षतां गतौ ॥२० नाङ्गहीनमल छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम ॥२१ आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताऽश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोक मूढं निगद्यते ॥२२ वरोपलिप्सयाऽऽशावान् रागद्वेषमलीमसा: । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ।।२३ सग्रन्थाऽऽ भिहिसाना संसारावर्तवतिनाम । पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषाण्डिमोहनम् ।।२४ ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मया: ।२५ स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धामिविना ।।२६ यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् । अथ पाप स्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् । सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुभंस्मगढ ङ्गरान्तरोजसम् । श्यापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् । कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ।।२९ उद्दायन राजा - चौथे अंगमें रेवती रानी पांचवे अगमें जिनेन्द्रभक्त सेठ, छठे अंगमें वारिषेण राजकुमार, सातवे अंगमें विष्णुकुमार मुनि और आठवें अंगमे अज्रकुमारमुनि इस युगमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। १९-२०॥ उक्त आठ अंगोंमेंसे किसीभी अंगसे हीन सम्यग्दर्शन संसारकी परम्पराको छेदने के लिए समर्थ नहीं हैं। जैसे कि एक अक्षर से भी न्यून मंत्र विषकी वेदनाको नष्ट करने के लिए समर्थ नही होता हैं। अतः आठो अंगोंके साथ ही सम्यग्दर्शनका धारण आवश्यक है ।।२१।। अब तीन मूढ़नाओं में से पहले लोकमूढता कहते हैं-धर्म बुद्धिसे गंगादि नदियों और समुद्र में स्नान करना, वाल और पत्थरोंका ऊँचा ढेर लगाना, पर्वतसे गिरना, अग्निमें प्रवेश करना, तथा च शब्दसे सूचित इसी प्रकारके अन्य कार्य-सूर्यको अर्ध चढ़ाना, संक्रान्तिके समय तिलदान करना आदिको लोकमूढता कहा जाता है ।।२२।। दूसरी देवमूढताका लक्षण - आशा-तृष्णाके वशीभूत होकर वर पानेकी इच्छासे राग-द्वेषसे मलिन देवत्ताओंकी जी उपासनाकी जाती हैं वह देवमूढता कही जाती है ।। २३ ।। तीसरी पाषण्डिमढका लक्षण-परिग्रह, आरम्भ और हिंसासे युक्त, संसारके गोरखधन्धे रूप भंवरोंके मध्य पडे हुए पाखंण्डी लोगोंका आदर-सत्कार करना पाषण्डिसढता जानना चाहिए।२४।। अब मदोंका वर्णन किया जाता है- ज्ञान, पूजा, कुल, जाति बल, ऋद्धि, तप और शरीर, इन आठ बातोंका आश्रय लेकर अभिमान करनेको गर्व-रहित आचार्य स्मय या मद कहते है।।२५।। अभिमान यक्त चित्तवाला जो पुरुष मदसे अन्य धर्मात्मा जनोंका तिरस्कार करता हैं, व धर्मका अपमान करता है। क्योंकि धार्मिकजनोंके विना धर्म निराश्रित नहीं रह सकता हैं।। २६ ।। सम्यग्दष्टि विचारता है कि यदि पापके आस्रवका निरोध है, तो फिर मझे अन्य सम्पदासे क्या प्रयोजन है । और यदि पापका आस्रव हो रहा है, तो भी मुझे अन्य सम्पत्तिसे क्या प्रयोजन हैं ॥२७ ।। भावार्थ- पापका निरोध होनेपर ऋद्धिबल आदि सम्पदा स्वयं प्राप्त होती है. अत: उसका अहंकार करना व्यर्थ है । और जब पाप का आस्रय हो रहा है, तब प्राप्त वैभवादिका अहंकार करने पर भी उनका विनाश होगा और दुर्गतियोंमें गमन करना पङन्ना, अतः उस दशामें भी अन्य सम्पदाओंका गर्व करना व्यर्थ हैं । गणधरदेव सम्यग्दर्शनसे संयुक्त चाण्डाल-पुत्र को भी भस्म (राख) से आच्छादित और अन्तरंग में तेजसे युक्त अंगारके समान देव या आराध्य कहते हैं ।। २८ ॥ धर्म के प्रभावसे कुत्ता भी देव हो जाता हैं और पापके उदयसे देव भी कुत्ता बन जाता हैं। इसलिए जीवोंके धर्मसे अन्य और कौन सी कौन सी सम्पत्ति श्रेष्ट हो सकती? नहीं हो अपने ही Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवाऽऽगमलिङ्गिनाम् । प्रणाम विनयं चैव न कुर्युःशुधवृष्टयः ढ३० दर्शन ज्ञान-चारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्ग प्रचक्ष्यते ॥३१ विद्या-वृत्तस्य सम्भूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥३२ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ॥३३ न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभूताम् ॥३४ सम्यग्दर्शनशद्धा नारक-तिर्य-नपंसक-स्त्रीत्वानि । दुष्कुल-विकृताल्पायुदरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः ॥ ३५ ॥ ओजस्तेजो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा:। महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥ ३६ ।। अन्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः । अमराप्सरसां परिषदि चिर रमन्ते जिनेन्द्र भक्ता: स्वर्गे।। ३७ ।। नवनिधि-सप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् । वर्तयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः क्षत्रमोलिशेखरचरणाः ॥ ३८ ॥ अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादाम्भोजाः । दृष्टया सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्या: ।। ३९ ॥ सकती है, अतः धर्म का ही आचरण करना चाहिए और अहंकार नहीं करना चाहिए ।। २९ ॥ सम्यग्दृष्टि जीवोंको भय, आशा, स्नेह और लोभसे कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओंकी वन्दना और विनय नहीं करना चाहिए ॥३०। सम्यग्दर्शनकी ज्ञान और चारित्रकी अपेक्षा प्रधानतासे उपासना की जाती हैं। क्योंकि सम्यग्दर्शनको मोक्षमार्ग में कर्णधार ( खेवटिया ) कहा जाता हैं ॥ ३१ ।। जैसे बीजके अभावमें वृक्षकी उत्पत्ति स्थित, वृद्धि और फल की प्राप्ति असंभव है, उसी प्रकार सम्यक्त्वके अभावमें ज्ञान और चारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलकी प्राप्ति नहीं होती है ॥ ३२ ॥ सम्यग्दर्शका अवरोध करने वाले मोहसे अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्मसे रहित गृहस्थ मोक्षमार्गपर अवस्थित है, किन्तु दर्शनमोहवाला मुनि मोक्षमार्गपर स्थित नहीं हैं । अतएव मोहवान् मुनिसे निमोंही गृहस्थ श्रेष्ठ हैं ।।३३।। सम्यग्दर्शन के समान तीन काल और तीन लोकमें प्राणियोंकी कल्याण-कारण अन्य कोई वस्तु नही हैं और मिथ्यात्वके समान अन्य कोई अकल्याण-कारक नहीं हैं ॥३४॥ अवती भी शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नारकी, तिर्यच, नपुंसक और स्त्री पर्यायको प्राप्त नहीं होते है। तथा खोटे कुलको, विकल अंगको, अल्प आयुको और दरिद्रताको भी प्राप्त नहीं होते हैं ||२५।। सम्यग्दर्शनसे पवित्र जीव यदि मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं, तो ओज ( उत्साह ), तेज (प्रताप), विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि (उन्नति) विजय और वैभवसे संयुक्त, महान् कुलोंमें उत्पन्न होने वाले, महान् पुरुषार्थी, मानव-तिलक या मनुष्यशिरोमणि होते हैं ।। ३६ ॥ सम्यग्दर्शनसे विशिश्ट जिनेन्द्र भक्त पुरुष यदि स्वर्ग में उत्पन्न होते है तो अणिमा-महिमादि आठ ऋद्धि रूप गुणोंकी प्राप्तिसे सदा प्रमुदित और उत्कृष्ट शोभा से संयक्त होकर देवों और अप्सराओंकी सभामें चिरकाल तक आनन्दका उपभोग करते है ।।३७।। निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव नौ निधि और चौदह रत्नोंके स्वामी और सर्वभूमिके अधिपति होकर सुदर्शन चक्रको चलाने में समर्थ होते हैं और नमस्कार करते हुए क्षत्रिय राजाओंसे मुकुटोंकी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार शिवमजरमरजमक्षयमव्याबाघं विशोकमयशाम । काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ।। ४० ।। देवेन्द्र चक्रमहिमानममेयमानं राजेन्द्र चक्रमवनीन्द्र शिरोऽर्चनीयम् । धर्मेन्द्र चक्रमधरीकृत्तसर्वलोकं लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्य: ।। ४१ ।। इति श्रीस्वामीसणन्तभद्राचार्य-विरचिते रत्नक रण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनं नाम प्रथममध्ययनम् ।। १॥ .. अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । नि.सप्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥४२ प्रयमानयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि-समाधिनिदानं बोधति बोधः समीचीनः ।।४३ लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ॥४४ मालाओंसे उनके चरण व्याप्त रहते है ॥३८॥ सम्यग्दर्शनके द्वारा जिन्होंने तत्त्वार्थका भलीभाँतिसे निश्चय किया हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव अमरपति (ऊर्ध्व लोकके स्वामी इन्द्र) असुरपति (अधो लोकके स्वामी धरणेन्द्र) नरकति ( मनुष्यलोकके स्वामी चक्रवर्ती ) और यमधरपतियों (संयम-धारक साधुओंके स्वामी गणधर देवों) से जिनके चरम-कमल पूजे जाते हैं, जो लोकको शरण देने के योग्य है ऐसे धर्मचक्रके धारक तीर्थकर होते हैं ।।३९।। सम्यग्दर्शनकी शरण लेने वाले जीव अजर (जरा - रहित अरुज ( रोग-रहित) अक्षय (अविनाशी) अव्याबाध (बाधारहित) शोक-भय और शंकासे रहित, चरमसीमाको प्राप्त सुख और ज्ञानके वैभव वाले ऐसे निर्मल शिव ( परम निःश्रेयसरूप मोक्ष ) को प्राप्त हीने हैं ।। ४० ॥ इस प्रकार जिनेन्द्र देवकी भक्ति करनेवाला सम्यग्दृष्टि भव्य जीव अपरिमित प्रमाणवाली देवेन्द्र-समूह की महिमा को पाकर, मुकुटबद्ध राजाओंके शिरोंसे अर्चनीय राजेन्द्र चक्र चक्रवर्तीके पदको पाकर और सर्व लोकको अपना उपासक बनाने वाले धर्मेन्द्रचक रूप तीर्थंकर पदको पाकर अन्तमें शिवपदको प्राप्त होता इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित रत्नकरण्डक नामके उपासकाध्ययनमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ। सम्यग्ज्ञानका लक्षण - जो न्यनतासे रहित, अधिकतासे रहित, सन्देहसे रहित और विपरीततासे रहित वस्तुस्वरूपको यथार्थ जानता हैं, उसे आगमके ज्ञाता पुरुष 'सम्पग्ज्ञान' कहते है ॥ ४२ ॥ यद्यपि सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पाँच भेद हैं, तथापि ग्रन्थकार तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके लिए उपयोगी समझकर श्रुतज्ञानके चार अनयोगोंका वर्णन करते हुए सबके पहले प्रथमानुयोगका स्वरूप कहते है- पुण्यरूप अर्थका व्याख्यान करने वाले चरितको, पुराण को तथा बोधि समाधि के निधानभूत कथा-वर्णनको सम्यग्ज्ञान प्रथमानयोग जानता है ।।४३॥ भावार्थ- एक पुरुषके कथानकको चरित्र कहते है । अनेक पुरुषोके कथानकोंके वर्णन करनेको पुराण कहते है। आज तक नहीं प्राप्त हए ऐसे सम्यग्दर्शनादि गणोंकी प्राप्तिकों बोधि कहते है और प्राप्त हुए रत्नत्रयकी भलिभाँतिसे रक्षा करते हुए उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि करने को समाधि कहते है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान भी समाधि कहलाते है । इस प्रकार पुण्य-वर्धक चरित और पुराणोंको, तथा धर्म-वर्धक बोधि-समाधिके वर्णन करनेवाले शास्त्रों Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-वृद्धि-रक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥४९ जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्यै च बन्धमोक्षौ चं । द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्याऽऽलोकमातनुते । ४६ इति श्रीस्वामीसणन्तभद्राचार्य-विरचिते रत्नकरण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनं नाम द्वितीयमध्ययनम् ॥ १॥ मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान: । रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।४७ रागद्वेषनिवृत्तहिसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतोन् ॥४८ हिंसानृतचोर्येभ्यो मैथुनसेदापरिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विर तिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥४९ सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसगविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससङ्गानाम्।।५० गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षावतात्मकं चरणण् । पंच त्रिचतुर्भदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातम् । ५१ प्रागातिपात-वितथव्याहार-स्तेय काम-मूछेभ्य: । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति।।५२ को प्रथमानुयोग कहते हैं । धर्मसे अनभित पुरुषको सर्वप्रथम उपयोगी होनेसे इसे प्रथमानुयोग कहा जाता है। दूसरे करणानुयोगका स्वरूप-जो लोक और अलोकके विभागको, कालके परिवर्तनका और चारों गतियोंके वर्णनको दर्पणके समान जानता हैं, उसे सम्यग्जान करणानयोग कहता हैं ।। ४४ ।। तीसरे चरणानुयोगका स्वरूप-गृहस्थ और मुनियोंके चारित्रको उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षाके कारणभूत शास्त्रको सम्यज्ञान च णानुयोग कहता हैं ।।४४।। जीवअजीव तत्त्वको, पुण्य-पापको और बन्ध मोक्षको प्रकाशित करनेवाला द्रव्यानुयोग रूप दीपक हैं, जो कि श्रतज्ञान के प्रकाशको विस्तत करता हैं। ४६ ।। भावार्थ-लोक यगपरिवर्तन आदिके वर्णन करनेको, करणानुयोग, मुनि-श्रावक चारित्र वर्णन करनेको चरणानुयोग और षट् द्रव्य, सप्त तत्त्व एवं नव पदार्थो के वर्णन करनेको द्रव्यानुयोग कहते हैं । इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित रत्नकरण्डक नामके उपासकाध्ययन में सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला दूसरा अध्ययन समाप्त हुआ। अब आचार्य सम्यक् चारित्रका वर्णन करते हैं- दर्शनमोहरूप अन्धकारके दूर होनेपर सम्यग्दर्शनके लाभसे जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसा साधु पुरुष राग और द्वेषकी निवृत्तिके लिए चारित्रको स्वीकार करता हैं ॥४७॥ क्योंकि राग और द्वेषकी निवृत्तिसे हिंसा आदि पापोंकी निवृत्ति स्वतः हो जाती हैं । धनकी अपेक्षासे रहित ऐसा कौन पुरुष हैं, जो राजाओंकी सेवा करता हो? भावार्थ- धनकी इच्छा या संगके किना कोई किसीकी सेवा नहीं करता है. उसी प्रकार राग-द्वेष के विना कोई भी पुरुष हिंसा आदि पापोंको भी नहीं करता हैं । ४८ ।। सम्यक चारित्रका स्वरूप-पापोंके आनेके द्वार-स्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन-सेवन और परिग्रहसे विरक्त होना सम्यग्ज्ञानी पुरुषका चारित्र है, अर्थात् पाँच पापोंके परित्यागको सम्यक चारित्र कहते हैं॥४९॥ वह चारित्र दो प्रकारका है-सकलचारित्र और विकलचारित्र । सर्व प्रकारके परिग्रहसे रहित मनिजनोंके सकलचरित्र होता हैं और परिग्रह-सहित गहस्थों के विकलचारित्र होता है।५० ।। अब आचार्य विकलचारित्रका वर्णन करते है- गृहस्थोंके विकलचारित्र अणुव्रत, गणव्रत और शिक्षाक्तरूप है । ये तीनों यथा क्रमसे पाँच, तीन और चार भेदवाले कहे गये हैं ।। ५१ ॥ अणुव्रतका स्वरूप-स्थूल, प्राण घातसे, स्थूल असत्य-भाषणसे, स्थूल चोरीसे स्थूल Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार सङ्कल्पात् कृत-कारित-मननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुःस्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः छेदन-बन्धन-पीडनमतिभारारोपणं व्यतीचारा:। आहारवारणापि च स्थूलवधाड्-व्युपरते:पञ्च।।५४ स्थलमलीक न वदनि न परान वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ।। ५५ परिवाद-रहोऽभ्याख्या पैशून्यं कूटलेखकरणं च । न्यासापहारितापि च व्यतिक्रमा: पञ्च सत्यस्य ।। ५६ निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसष्टम् । न हरति यन्न च दत्ते तदकृश चौर्यादुपारमणम् ।। ५७ चौ प्रयोग चौरार्थादान-विलोप-सदशसम्मिश्राः । हीनाधिकविनिमानं पंचाऽस्तेये व्यतीपाताः ।। ५८ न तु परदारान गच्छति न परान गमयति च पापभीतेर्यत । सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ॥ ५९ अन्यविवाहाकरणाननङगक्रीडाविटत्वविपुलतषः । इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पंञ्च व्यतीचाराः ॥ ६० काम-वनसे और स्थूल ममता-भावरूप मूर्छासे, इन पाँच स्थूल पापोंसे विरक्त होना, अर्थात् स्थूल पापोंका त्याग करना अणुव्रत कहलाता हे ।। ५२ ।। अहिंसाणुव्रतका स्वरूप- मन वचन काय इन तीनों योगोके संकल्पसे, कृत कारित और अनुमोदनासे जो सजीवोंको नहीं मारता है, उसे धर्म में निपुण ज्ञानियोंने स्थूल हिंसासे विरमणरूप अहिंसाणुव्रत कहा हैं ॥५३।। इस अहिंसाणु व्रतके पाँच अतीचार ( दोष ) है- पशु-पक्षी आदि जीवोंके अंगोंका छेद करना रस्सी आदिसे बाँधना, डडे आदिसे पीडा देना, शक्तिसे अधिक भार लादना और उनके आहार (खान-पान)का रोक देना । ऐसे कार्य करनेसे अहिंसाणु व्रतमें दोष लगता हैं। ४५ ।। सत्याणु व्रतका स्वरूप-- जो लोक-विरुद्ध, राज्य-विरुद्ध एवं धर्म-विघातक ऐसी स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता हैं और न दूसरोंसें बुलवाता है, तथा दूसरेकी विपत्तिके लिए कारणभूत सत्यको भी न स्वयं कहता है और न दूसरों से कहलवाता हैं, उसे सन्तजन स्थूल मृषाबादसे विरमण अर्थात् सत्याणुव्रत कहते है । ५५ । इस सत्याणुव्रतके पांच अतीचार है-दूसरेकी निन्दा करना, दूसरेकी एकान्त या गुप्त बातको प्रकट करना, चुगली खाना, नकली दस्तावेज आदि लिखना और दूसरेकी धरोहर अपहरण करनेवाले वचन बोलना ।। ५६ ।। अचौर्याणुव्रतका स्वरूप- दूसरेकी रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई वस्तुको और विना दिए धनको जो न तो स्वयं लेता है और न उठाकर तुसरेको देता हैं. उसे स्थूल चोरीसे विरक्त होने रूप अचोर्याणुव्रत कहते हैं ।।५७ । इस अणुवतके भी पाँच अतीचार हैं-किसी को चोरीके लिए भेजना, चोरीको वस्तुको लेना, राज्य-नियमोंका उल्लंघन करना, बहुमूल्य वस्तुमें समान रूपवाली अल्प मूल्यकी वस्तु मिलाकर बेचना और देने के लिए कम और लेने के लिए अधिक नाप-तौल करना ॥ ५८ ॥ ब्रह्मचार्याणुव्रतका स्वरूप- जो पापके भयसे पराई स्त्रियों के पास न तो स्वमं जाता हैं और न दूसरोंको भेजता हैं, वह परदार-निवृत्ति अथवा स्वदारसन्तोष नामका ब्रम्हचर्याणुव्रत हैं ।। ५९ ॥ इस ब्रम्हचर्यव्रतके भी पाँच अतीचार हैं-- Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह धन-धान्याविग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणमामापि ॥६॥ अप्तिवाहनातिसंग्रह-विस्मय-लोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपा: पञ्च लक्ष्यन्ते ।। ६२ ।। पञ्चाणुवतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकम् । यत्रावधिरष्टगुणा: दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ।। ६३ ।। मातङ्गो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः । नोली जयश्च सम्प्राप्ता: पूजातिशयमुत्तमम् ॥ ६४ ॥ धनधी-सत्यधोषौ च तापसाऽऽरक्षकावपि । उपाख्येयास्तथा मधु नवनीतो यथाक्रमम् ॥ ६५ ॥ मद्य-मांस-मधुत्यागः सहाणवतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः ॥ ६६ ।। इति श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचिते रत्तकरण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने अणुव्रतवर्णनं नाम तृतीयमध्ययनम् ।। ३ ।। दूसरोंका विवाह कराना, काम-सेवनके अझोके सिवाय अन्य अङ्गोसे काम-सेवन करना, अश्लील वचन या कामोत्तेजक वचन कहना, काम-सेवनकी अधिक तृष्णा रखना और व्यभिचारिणी स्त्रियोंके यहाँ गमन करना ॥६०॥ परिग्रह परिमाणाणुव्रतका स्वरूप-धन धान्य आदि परिग्रहका परिणाम करके उससे अधिकमें नि:स्पृह रहना, परिमित परिग्रहव्रत है, इसीका दूसरा नाम इच्छापरिमाणवत भी हैं ॥६१॥ इस व्रतके भी पांच अतिचार हैं-आवश्यकतासे अधिक वाहनों (रथ, घोडे, आदि सवारी साधनों ) को रखना, अधिक वस्तुओंका संग्रह करना, दूसरोंके लाभादिकको देखकर आश्चर्य करना, अधिक लोभ करना और घोडे आदिको उनकी शक्ति से अधिक जोतना, लादना, उन पर अधिक बोझा ढोना ।। ६२॥ उपर्युक्त अतीचारोंसे रहित होकर धारण की गई पाँच अणुव्रतरूप निधियाँ देवलोकको फलती है, जहाँ पर कि अवधिज्ञान, अणिमादि आठ शृद्धियाँ और दिव्यशरीर प्राप्त होता है ।:६३॥ अणुव्रतकें धारण करनेवालोंमें अहिंसाणुव्रतमें मातंग चाण्डाल, सत्याणुव्रतमे धनदेव सेठ, अचौर्याणुव्रतमें वारिषेण राजकुमार, ब्रह्मचर्याणुव्रतमें नीलीबाई और परिग्रह परिमाणाणुव्रतमें जयकुमार उत्तम पूजाके अतिशयको प्राप्त हुए है ॥६४।. हिंसा पापमें धनश्री सेठानी झूठ पापमें सत्यघोष पुरोहित. चोरीमें तावस, कुशीलमें आरक्षक (कोटपाल) और परिग्रह पापमें श्मश्रुनवनीत प्रसिद्ध हुए है ।। ६५ ॥ मद्य मांस और मधुके त्यागके साथ पाँच अणुव्रतोंके धारण करनेको उत्तम मुनियोंने गृहस्थोंके आठ मूलगुण कहे हैं ।। ६६ ॥ इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित रत्नकरण्डक नामवाले उपासकाध्ययन में अणुव्रतोंका वर्णन करनेवाला यह तीसरा अध्ययन समाप्त हुआ। --००-- Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार दिग्व्रतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । अनुवृंहणाद् गुणानामाथ्यान्ति गुणव्रताख्यार्याः ॥ ६७ दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति सङ्कल्पो विग्व्रतमा मृत्यणुपापविनिवृत्यै ॥ ६८ मकराकर सरिदटबी गिरिजनपदयोजनानि मर्यादा: । प्राहुदिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥ ६९ अवधेर्ब हिरणुपापप्रति विरतेदिग्व्रतानि धारयताम् । पञ्चमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥७० प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतराश्चरणमोहपरिणामाः । सत्त्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते ।।७१ पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवचः कायैः । कृतकारितानुमोवैस्त्यागस्तु महाव्रतं महतम् ॥७२ ऊर्ध्वाधस्ता तिर्यग्व्यतिपातः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् । विस्मरण दिग्विरतेरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ॥७३ अभ्यन्तरं दिगबधे रपार्थ के स्यः सर्पापियोगेभ्यः । विरमणमनर्यदण्डव्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्यः ॥७४ पापोपदेशहिसादानापध्यानदुः श्रुती पञ्च । प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डाधराः ॥७५ तिर्यक्-क्लेशवणिज्या हिंसारम्भनादीनाम् । कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेश: ॥ ७६ परशुकृपाणख नित्रज्वलनायधशृङ्गिशृखलादीनाम् । वधहेतूनां दानं हिसादानं बुवन्ति बुधाः ॥७७ अब आचार्य गुणव्रतों का स्वरूप कहते हैं- दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाणग्रत इन तीनोंको पूर्वोक्त अष्टमूलगुणोंकी वृद्धि करने से आर्य पुरुष इन्हें गुणव्रत कहते हैं ||६७॥ दिग्व्रतका स्वरूप दिग्वलय अर्थात् दशों दिशाओंकी मर्यादा करके सूक्ष्म पापोंकी निवृत्तिके लिए 'मैं इस मर्यादासे बाहर नहीं जाऊँगा' इस प्रकारका मरण- पर्यन्त के लिए संकल्प करना दिव्रत हैं ।। ६८ ।। दसों दिशाओंके प्रतिसंहार में अर्थात् दिव्रत ग्रहण करने में प्रसिद्ध समुद्र, नदी, अटवी, पर्वत, जनपद ( देश ) और योजनोंके परिमाणको मर्यादा जानना चाहिए । भावार्थ-जिस दिशामें जो पर्वत, समुद्र आदि प्रसिद्ध स्थान हो, उसको आश्रय लेकर और प्रसिद्ध स्थानके अभाव में योजनोंकी सख्याका नियम लेकर दिग्व्रतको ग्रहन करना चा हए ॥ ६१ ॥ अब आचार्यं दिग्व्रतको धारण कक्नेका फल बतलाते है- दिव्रतकी मर्यादाके बाहर सूक्ष्म पापोंकी भी निवृत्ति होनेसे दिग्वतको धारण करनेवाले श्रावकों के पाँच अणुव्रत भी पाँच महाव्रतोंकी परिणतिको प्राप्त हो जाते हैं । क्योंकि स्थूल और सूक्ष्म पापोंके त्यागको ही महाव्रत कहते है ।। ७० ।। प्रत्याख्यानावरण कषायके कृश होने से अत्यन्त मन्दताको प्राप्त हुए चारित्र मोहके वे परिणाम जिनकी सत्ताका निश्चय करना भी कठिन है - महाव्रत के लिए कल्पित किए जाते है ।। ७१ ॥ महाव्रतका स्वरूप-हिंसादिक पाँचों पापोका मन-वचन-कायसे और कृत कारित अनुमोदसे त्याग करन । महाव्रत हैं और यह महापुरुषोंके होता हैं ।। ७२ ।। दिग्बत के ये पाँच अतिचार माने जाते है- ऊर्ध्वदिशाको मर्यादाका उक्लंन करना, अधोदिशा की मर्यादाका उल्लंघन करना, पूर्वादि तिर्यग्दिशाओंकी मर्यादाका उल्लंघन करना, मर्यादित क्षेत्रको बृद्ध कर लेना और मर्यादाओंको भूल जाना ॥ ७३ ॥ अनर्थदण्डका स्वरूप - दिशाओंकी मर्याद के भीतर निरर्थक पाप-योगोंसे विरमण करनेको व्रतधारियों में अग्रणी गणधरादिने अनर्थदण्ड व्रत कहा हैं ||७४ || पापोंके नहीं धारण करनेवाले निष्पाप आचार्याने अनर्थदण्ड के पाँच भेद कहे हैं- पापोपदेश, हिंसादान अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्यां ।। ७५ ।। पापोपदेश अनर्थदण्डका स्वरूप-तिर्यञ्चोंको क्लेश पहुँचाने का उन्हें बधिया करने आदिका उपदेश देना, तिर्यञ्चोंके व्यापार करने का उपदेश देना, हिंसा, आरम्भ और दूसरोंको छल-कपटसे ठगनेकी कथाओंका प्रसंग उठाना, ऐसी कथाओं का बार-बार कहना, यह पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड माना गया हैं ||७६ ॥ हिंसादानअनर्थदण्डका स्वरूप-1 -हिंसा के कारणभूत फरसा तलवार, कुदाली, आग, अस्त्र-शस्त्र, विष और सांकल आदिके देने को ज्ञानी जन हिंसादान नामका अनर्थदण्ड कहते हैं ॥७७॥अपध्यान - अनर्थदण्ड Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकाचार संग्रह 1 बधबन्धच्छेदाबेद्वेषाद् रागाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥७८ आरम्भसङग् साहसमिध्यात्वद्वेषरागमदमननैः । चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःभूतिर्भवति ॥७९ क्षितिसलिल दहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम् । सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ॥ ८० कन्दर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधन पञ्च । असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरतेः ॥८१ अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अथंवतामप्यवधौ रागरतीनां तनूकृतये ॥ ८२ ॥ भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो मुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । उपभोगोऽशनवसनप्र मतिःपञ्चेन्द्रियोविषय ॥ ८३ सहतिपरिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनंचरणौ शरणमुपयातेः॥ ८४ अल्पफल बहु बिघाताम्मूलकमार्द्राणि शृङग्वेराणि । नवनीत निम्बकुसुमं कंतकमित्येवमवहेयम् ॥८५ यदनिष्टं तद् व्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । अभिसन्धिकृता विरतिविषयाद्योग्याद्याभवति८६ नियमो यमश्च विहितो द्वेघा भोगोपभोगसंहारे । नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमी ध्रियते ८७ १० का स्वरूप - द्वेष से किसी प्राणीके वध बन्ध और छदनादिका चिन्तवन करना तथा रागसे परस्त्री आदिका चिन्तन करना, इसे जिन शासन में निपुण पुरुषोंने अपध्यान नामका अनर्थदण्ड कहा है ||७८ || दुःश्रुति - अनर्थदण्डका स्वरूप- आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, मद और काम भाव के प्रतिपादन द्वारा चित्तको कलुषित करनेवाले शास्त्रोंका सुनना दुःश्रुति नामका अनर्थदण्ड है ॥७९॥ प्रमादच अनर्थदण्डका स्वरूप- प्रयोजनके विना भूमिका खोदना, पानीका ढोलना, अग्निका जलाना, पवनका चलाना और वनस्पतीका छेदन करना तथा निष्प्रयोजन स्वयं घूमना और दूसरोंको घुमाना, इत्यादि प्रमादयुक्त निष्फल कार्योंके करनेको ज्ञानीजन प्रमादचय नामका अनर्थदण्ड कहते है ||८०|| उपर्युक्त पाँचों प्रकारके अनर्थदण्डों के त्यागको अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । उसके पांच अतिचार इस प्रकार हैं- कन्दर्प ( रागकी बहुलतासे युक्त हँसीमिश्रित अश्लील वचन बोलना ) कोत्कुच्य (कायकी कुचेष्टा करना ), मौखर्य ( व्यर्थ बकवाद करना ), अति प्रसाधन ( आवश्यकतासे अधिक भोग-उपभोग वस्तुओंका संग्रह करना) और विना सोचे-विचारे कार्यको करना ॥ ८१ ॥ तीसरे भोगोपभोगपरिमाण गुणव्रतका स्वरूप- परिग्रहपरिमाणव्रत में ली हुई मर्यादाके भीतर भी राग और आसक्ति कृश करने के लिए प्रयोजनभूत भी इन्द्रियोंके विषयोंकी संख्या के सीमित करनेको भोगोपभोगपरिमाणव्रत कहते है ॥८२॥ पाँच इन्द्रियोंके विषयभूत जो भोजन-वस्त्र आदिक पदार्थ एक वार भोग करके छोड़ दिए जावे, वे भोग कहलाते हैं और जो एक वार भोग करके भी पुनः भोगने योग्य होते है, वे उपभोग कहलाते हैं । अर्थात् भोजनादि पदार्थ भोग है और वस्त्रादिक उपभोग है ||८३ || जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी शरणको प्राप्त होनेवाले पुरुषोंको त्रस जीवोंकी हिंसाके परिहार के लिए मांस और मधुको तथा प्रमादको दूर करनेके लिए मद्यको छोड़ देना चाहिए ॥ ८४ ॥ इसी प्रकार जिनके खाने में शारीरिक लाभ अल्प है और त्रस थावर जीवोंकी हिंसा अधिक है, ऐसे मूल, कन्द, गीला अदरक, मक्खन, नीमके फूल, केतकी के फूल, तथा इसी प्रकारके अन्य पदार्थ पच उदुम्बर फल आदिका सेवन छोड देना चाहिये ।। ८५ ।। जो वस्तु शरीर के लिए अनिष्ट या हानिकारक हो उसका भी त्याग करे तथा जो कुलीन पुरुषोंके द्वारा सेवनके योग्य नहीं हो, उसे भी छोडे । सेवन के योग्य भी । वषयसे अभिप्रायपूर्वक जो त्याग किया जाता है वह भी व्रत कहलाता है ॥८६॥ भोगोपभोग- परिमाणव्रत में दो प्रकारसे त्यागका विधान किया गया है-नियमरूप और यमरूप | अल्पकालके लिए जो त्याग किया जाता हैं, उसे नियम कहते हैं और यावज्जीवन के लिए जो त्याग किया जाता है, उसे यम कहते हैं, ॥ ८७ ॥ ( अभक्ष्य और अनुपसेव्य वस्तुओंका तो जीवन . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार भोजन वाहन शयनस्नान पवित्रागराग कुसुमेषु । ताम्बूलवसन भूषणमन्मथसंगमतगीतेषु ॥ ८८ अद्य दिवा रजनी वा पक्षी मासस्तथर्तु • यनं वा । इति कालपरिच्छित्या प्रात्यस्य नं भवेशियमः । । ८९ विषय विषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिर तिलौल्यम तितृषानुभयो । भोगोपभोगपरिमाव्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ ९० ११ इति श्रीस्वामीसमन्तभद्राचार्य विरचिते रत्नकरण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनं नाम चतुर्थमध्ययनम् ॥ देशावकाशिकं वा सामायिकं प्रोषधोपवासो वा । वैयावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि । ९१ देशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ।। ९२ गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सौम्नां तपोवृद्धाः ॥९३ संवत्सर मृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च । देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधि प्राज्ञाः ॥९४ सीमान्तानां परत: स्थूलेतरपपंचपापसंत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते ॥ ९५ प्रेषणशब्वानयनं रूपाभिव्यक्ति - पुद्गलक्षेपी | देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पञ्च ।। ९६ भरके लिए ही त्यागरूप यम धारणा करना चाहिये और जो भोग्य या सेव्य हैं ऐसे ) भोजन वाहन, शयन, स्नान, केशर - चन्दन आदिका विलेपन, पुष्प धारण, सूंघन आदिमें तथा ताम्बूल, वस्त्र, आभूषण, काम सेवन, संगीत और गीत-श्रवण आदि भोग्य और सेव्य पदार्थों में आजका दिन, रात, पक्ष, मास ऋतु ( दो मास ), अयन ( छह मास ) और वर्ष आदि कालकी मर्यादाके साथ जो वस्तुका प्रत्याख्यान (त्याग) किया जाता है, वह नियम कहलाता है ।।८८-८९ ।। भोगोपभोगपरिमाणव्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार कहे गये - विषयरूप विषके सेवन से उपेक्षा नही होना, अर्थात् इन्द्रियोंके विषयसेवन में आसक्ति बनी रहना, पूर्व में भोगे हुए विषयोंका वार-वार स्मरण करना, वर्तमान विषयों में अतिलोलुपता रखना, भविष्यकालमें विषय सेवनकी अतितृष्णा या गृद्धि रखना, और नियतकाल में भी भोगोपभोग की वस्तुओंका अधिक मात्रामें अनुभव करना अर्थात् उन्हें अधिक भोगना, इन पाँचों प्रकारके अतिचारोंके सेवन से व्रत मलिन एवं सदोष होता है ।। ९० । इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य विरचित रत्नकरण्डक नामके उपासकाध्ययन में सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला छठा अध्ययन समाप्त हुआ । -:0: अब आचार्य शिक्षाव्रतों का वर्णन करते हैं-जिनेन्द्रदेवने देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषघोपवास और वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत कहे हैं । ।९१ ।। देशावकाशिक शिक्षाव्रतका स्वरूपदिग्व्रतमें ग्रहण किये विशाल देशका कालकी मर्यादासे प्रतिदिन संकोच करना अणुव्रतधारी श्रावकों का देशावका शिकव्रत है ।। ९२ ।। घर, मोहल्ला, ग्राम, खेत, नदी, वन और योजनोंकी मर्यादा करनेको वृद्ध तपस्वी जन देशावका शिकव्रतकी सीमा बतलाते हैं । अर्थात् मैं अमुक समय तक अमुक देश बाहर नहीं जाऊँगा, ऐसा नियम करना देशावका शिकव्रत हैं ।। ९३॥ वर्ष, ऋतु, अयन, मास, चातुर्मास, पक्ष और नक्षत्र के आश्रयसे नियत प्रदश में रहने के नियम करनेको ज्ञानी जन देशावकाशिकब्रतकी कालमर्यादा कहते हैं ।। ९३ ।। सीमाओंके अन्तसे परवर्ती क्षेत्र में स्थूल और पाँचों पापोंके त्याग हो जाने से देशावका शिकव्रतके द्वारा महाव्रतोंका साधन किया जाता है ।। ९५ ।। देशावका शिकव्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार कहे गये हैं- देशव्रती सीमासे बाहर किसीको भेजना, किसीको शब्द सुनाना, किसीको बुलाना, आपना रूप दिखाकर संकेत करना और कंकर - पत्थर फेंककर दूसरेका Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रावकाचार-संग्रह आसमयमुक्ति मुक्तं पञ्चाघानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥९७ मूधरुहमुष्टि वासोबन्धं पर्यवन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥९८ एकान्ते सामयिकं निक्षेपे वनेष वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया।।९९ व्यापार-वैमनस्याद् विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्या । सामयिकं बध्नीयादुपवासे चैकभश्ते वा ॥१०० सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनसलसेन चेतव्यम व्रतपञ्चकपरिपूरणकारणमवधानयक्तेन।।१०१ सामयिकं सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपमष्टमनिरिव गही तदा याति यतिभावम १०२ शीतोष्णदंशमशकपरीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः । सामयिकं प्रतिपन्ना अधिकुऊरनचलयोग।।५०३ अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके१०४ ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना । इन कार्योको करनेसे सीमाके बाहर स्वयं नहीं जानेपर भी व्रतमें दोष लगता हैं ।।९६।। अब सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैं सामायिकका समय पूर्ण होने तक हिंसादि पाँचों भावोंका पूर्णरूपसे अर्थात् मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करनेको आगमके ज्ञाता पुरुष सामायिक कहते हैं।९७॥ केशबन्धन, मष्टिबन्धन, वस्त्रबन्धन, पर्यङ्कासनबन्धन, स्थान ( खडे रहना ) और उपवेशन (बैठना ) इनको सामायिकके जानकार सामायिकका समय जानते हैं || ९८ || भावार्थ-जिस प्रकार तीसरी प्रतिमाधारी श्रावकको कमसे कम दो घडी और अधिकसे अधिक छह घडी सामायिककालका निर्देश किया गया हैं उस प्रकारका बन्धन बारहव्रतोंका अभ्यास करनेवाले गृहस्थके लिए नहीं हैं | गृहस्थ सामायियका अभ्यास धोरेधीरे अल्पकालसे प्रारम्भ करता है और उत्तरोत्तर समयको बढाता जाता है। उसका मुख्य लक्ष्य आर्त और रौद्रध्यानसे तथा संक्लेशभावसे बचकर आत्मामें स्थिर होने का है । प्रारम्भिक अभ्यासीको जबतक किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती है, तभी तक वह सामायिक में स्थिर होकर बैठ सकता है। सामायिक प्रारम्भ करने के पूर्व वह शिर-केश चोटी आदिकी गाँठ लगाता हे पहिने और ओढे हुए वस्त्रकी गाँठ लगाता है, जिसका भाव यह है कि सामायिक करते समय वायुसे उडकर ये मनको व्याकुळ न करे । सामायिकमें बैठते हुए पद्मासनमें हाथोंकी मुट्ठिको बाँधता है अर्थात् दाहिनी हथेलीको बाई हथेलीके ऊपर रखता है तथा कभी खडे होकर भी सामायिक करता है | इन सबमें यही भाव निहित है कि जब तक मुझे बैठने या खडे रहने में आकुलता नहीं होगी, तब तक में सामायिक करूँगा । इस प्रकार जबतक मेरे केशबन्ध आदि रहेगे, तबतक मैं सामायिक करूँगा, ऐसी मर्यादाको सामायिकका काल जानना चाहिए | जहाँपर चित्तमें विक्षोभ उत्पन्न न हो ऐसे एकान्त स्थानमें, वनोंमें, वसतिकाओंमें अथवा चैत्यालयोंमें प्रसन्न चित्तसे सामायिककी वृद्धि करना चाहिए ॥९९|| उपवास अथवा एकाशनके दिन गहव्यापार और मनकी व्यग्रताको दूर करके अन्तरात्माम उत्पन्न होनेवाले विकल्पोंको निवृत्ति के साथ सामायिकका अनुष्ठान प्रारम्भ करे ।। १००॥ पुनः आलस्य-रहित होकर सावधानीके साथ पाँचों व्रतोंकी पूर्णता करने के कारणभूत सामायिकका प्रतिदिन अभ्यास बढाना चाहिए ॥१०१|| यतः सामायिककालमें आरम्भसहित सभी परिग्रह नहीं होते हैं। अतः उस समय गृहस्थ वस्त्रसें वेष्टित मुनिके समान मुनिपनेको प्राप्त होता है ||१०|| सामायिकको प्राप्त हुए गृहस्थोंको चाहिए कि वे सामायिकके समय शीत, उष्ण और दंश-मशक आदि परिषहको तथा अकस्मात् आये हुए उपसर्गको भी मान-धारण करते हुए अचलयोगी होकर अर्थात् मन-वचनकायकी दृढताके साथ सहन करे ||१०३।। सामायिकके समय श्रावकको ऐसा विचार करना चाहिए कि जिस संसारमें में रह रहा हूँ वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुःखरूप है और मेरे आत्म Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ वाक्कायमानसानां दुःप्रणिधानान्यनादरास्मरणे । सामयिकस्यातिगमाः व्यज्यन्ते पञ्च भावेन ॥ १०५ पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदिच्छाभिः ॥ १०६ पञ्चानां पापानामलं क्रियाऽऽरम्भगन्धपुष्पाणाम् । स्नानाञ्जननस्याना मुषवासे परिहृतं कुर्यात् १०७ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञान-ध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ॥ १०८ चतुराहारविसर्जनमुपवास: प्रोषधः सकृद् भुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारंभमाचरति ।। १०९ ग्रहण विसर्गास्तरणान्यदृष्टसृष्टान्यनादरास्मरणे । यत्प्रोषधोपवासव्यति लंघन पञ्चकं तदिदम् ११० दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥ १११ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ ११२ नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्यांणामिष्यते दानम् ॥ ११३ रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वरूपसे भिन्न है तथा मोक्ष इससे विपरीत स्वभाववाला है, अर्थात् शरणरूप हैं, शुद्धरूप हैं, नित्य हैं, सुखमय हैं और आत्मस्वरूप है । भावार्थ- संसार, देह और भोर्गोसे उदासीन होनेके लिए अनित्य, अशरण आदि भावनाओंका तथा मोक्षप्राप्ति के लिए उसके नित्य शाश्वत सुखरूपका चिन्तवन करे ॥ १०४ ॥ इस सामायिक शिक्षाव्रत के ये पाँच अतिचार हैं- सामायिक करते समय वचनका दुरुपयोग करना, मनमें संकल्प-विकल्प करना, कायका हलन चलन करना, सामायिक में अनादर करना और सामायिक करना भूल जाना। इनको सामायिक करते समय नहीं करना चाहिये ।। १०५ ।। अब प्रोषधोपवास शिक्षा व्रतका वर्णन करते हैं - चतुर्दशी और अष्टमी के दिन सद्उपवास के दिन हिंसादिक पाँचों पापोंका, अलंकार, आरम्भ, गन्ध पुष्प, स्नान, अंजन और सूंघनी आदिका परित्याग करे ।। १०७ ॥ उपवास करनेवाले श्रावकको चाहिए कि वह तन्द्रा और आलस्य - से रहित होकर उपवास करते हुए अति उत्कण्ठा के साथ धर्मरूप अमृतको दोनों कानोंसे पान करे और दूसरों को भी पिलावे तथा ज्ञान और ध्यानमें तत्पर रहे ॥ १०८ ॥ चारों प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास कहलाता हैं और एक वार भोजन करनेको प्रोषध कहते है । इस प्रकार एकाशन रूप प्रोषध के साथ उपवास करनेको प्रोषधोपवास कहते है । इस प्रकार के प्रोषधोपवासको करके ही श्रावक गृहस्थी के आरम्भको करता हैं । अर्थात् प्रोषधोपवासके काल में वह सर्व प्रकार के गृहारम्भसे रहित रहता हैं ।। १०९ ।। . इस प्रोषधोपवासव्रत के उल्लंघन करनेवाले पाँच अतिचार इस प्रकार हैं- उपवास के दिन विना देखे शोधे किसी वस्तुका ब्रहण करना, विना देख - शोधे मल-मूत्रादिका उत्सर्ग करना, विना देखे - शोधे विस्तरादिका बिछाना, उपवास करने में आदर नहीं करना और उपवास करना भूल जाना । अतः उपवासके दिन धर्म-साधन देख शोधकर आदर और उत्साह के ११० ।। अब आचार्य वैयावृत्य नामक चौथे शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैंगृहसे रहित अर्थात् गृहत्यागी, गुणनिधान, तपोधनको अपना धर्म पालन करने के लिए उपचार ( प्रतिदान) और उपकारकी अपेक्षासे रहित होकर विधिपूर्वक अपने विभवके अनुसार दान देने को वैयावृत्य कहते हैं ।। १११ ॥ गुणानुरागसे संयमी पुरुषोंकी आपत्तियोंको दूर करना, उनके चरणों का मदन करना ( दाबना ) तथा इसी प्रकारकी और भी जो उनकी सेवा टहल या सार-सँभाल की जाती हैं वह सब वैयावृक्य है ॥ ११२ ॥ पाँचसूनारूप पापकार्यों से रहित आर्यं पुरुषोंको ना पुण्यों के साथ शुद्ध सप्त गुण से संयुक्त श्रावकके द्वारा जो आहारादि देनेके रूपमें आदर-सत्कार किया जाता हैं, वह दान कहा जाता हैं ।। ११३ || विशेषार्थ ओखली, चक्की, चौका-चूल्हा, जलघटी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह गृहकर्ममापि निचितं कर्म विमाष्टि खल गहविमुक्तानाम् ॥ अतिथीनां प्रतिपूनां धिरमलं धावते पारि॥ ११४ उच्चत्रं प्रणतर्भोगो दानादुपासनात् पूजा । मक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कोतिस्तपोनिधिषु ॥११५ क्षितिगतमिव बटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलति छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ।। ११६ आहारोषधयोरप्युपकरणावासयोश्च रानेन । बयावृत्त्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्त्राः ।। ११७ भीषण-वषमसेने कौण्डेशः शूकरश्च दृष्टान्ताः । यावृत्त्यस्यैते चतुर्विकल्पस्य मन्तव्याः ।। ११८ देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिहरणम् । कामदुहि कामवाहिनि परिचिनुयावाढतो नित्यम् ११९ हरितपिधाननिधाने ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि । वैयावृत्यस्यते व्यतिक्रमा: पञ्चकन्यन्ते।।१२१ इति स्वामिसमन्तभद्राचार्यविरचिते रत्नकरण्डकापरनाम्नि उपासकाध्ययने शिक्षाव्रतवर्णनं नाम पञ्चममध्ययनम् ।। और बुहारी, इन पाँचके आरम्भको पचसूना कहते हैं । जो इनसे रहित है. वही पात्र कहलानेके योग्य है । साधुके आहारार्थ द्वारके आगे आने पर उन्हें पडिगाहना, ऊँचे आसनपर बैठाना, पाद-प्रक्षालन करना, अर्चन-पूजन करना, प्रणाम करना, मन शुद्ध रखना, वचन शुद्ध बोलना. काय शुद्ध रखना और भोजनकी शुद्धि रखना, ये नो पुण्य हैं. जोकि नवधा भक्केि नामसे प्रसिद्ध है । श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और सत्य ये दाताके सात गुण होते है। इन गुणोंसे युक्त दाताको पंचसूनासे रहित साधुओंके लिए नवधा भक्तिसे आहारादिकके देनेको दान कहते हैं । अब आचार्य दानका फल बतलाते है-गृहसे रहित अतिथिजनोंको पूजा-सत्कारके साथ दिया गया दान गृहस्थोके गृह-कार्योसे संचित पापकर्मको दूर कर देता है। जैसे कि जल रक्तको अच्छी तरह धो डालता है ॥११४ । तपोनिधि साधुओको नमस्कार करनेसे उच्च गोत्र, दान देनेसे भोग, उपासना करनेसे पूजा, भक्ति करनेसे सुन्दर रूप और स्तुति करनेसे कीर्ति प्राप्त होती हैं ॥११५॥ उत्तम भूमिमैं बोये गये वटके छोटेसे भी बीजके समान पात्र में दिया गया अल्प भी दान समय आनेपर प्राणियोंके छायारूप वैभवके साथ भारी मिष्ट फलको देता हैं ।। ११६ ॥ वैयावृत्त्य भेद और उनके देनेवालोंमें प्रसिद्ध पुरुषोंका वर्णन है - आहार, औषधि, उपकरण (ज्ञानसंयमके साधन शास्त्र, पीछी कमंडलु) और आवास ( वसतिका ) के दानसे वैयावृत्त्यको ज्ञानी जन चार प्रकारका कहते ॥११७।। इस चार भेदरूप वैयावृत्त्यके क्रमशः श्रीषेणः राजा, वृषभसेना वणिक पुत्री, कौण्डेशमुनि और सूकरको दृष्टान्त जानना चाहिए। अर्थात् ये चारों क्रमसे आहारादि दानोंके देनेवालोंमें सबसे अ धक प्रसिद्ध हुए हैं ॥ ११८।। अब आचार्य बतलाते है कि वैयावुत्त्य करनेवाले गृहस्थको जिन-पूजन भी मावश्यक हैं--आदरपूर्वक नित्य सर्वकामनाओंके पूर्ण करनेवाले और कामविकारके जलानेवाले देवाधिदेव श्रीजिनेन्द्र भगवानकी सर्व दुःखोंको विनाशक परिचर्या अर्थात् पूजा-अर्चा भी करनी चाहिए॥११९। राजगृह नगर में अति प्रमोदको प्राप्त मेंढकने एक पुष्पके द्वारा पूजनके भावसे अरहन्तदेवके चरणोंकी पूजाके माहात्म्यको महात्मा पुरुषोंके आगे प्रकट किया है ।। १२० ।। इस वैयावृत्त्य शिक्षाव्रतके पाँच अतिचार इस प्रकार कहे गये हैं-हरित पत्रसे ढकी वस्तुको आहारमे देना, हरित पत्रपर रखी वस्तुको आहारमें देना, अनादरपूर्वक आहा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।। १२२ अन्तः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिकरणे प्रयतितव्यम् ॥ १२३ स्नेहं वैरं सङग परिग्रहं चापहाय शुद्धमनांः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियैर्वचनैः । १२४ आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रत मामरणस्थायि निःशेषम् १२५ शोकं भयमवसादं क्लेदं क लुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मनः प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै ॥ १२६ आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्धयेत्पानम् । स्निग्ध च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः ।। १२७ खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पंचनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥ १२८ जीवितमरणाशंसे भयमित्र स्मृतिनिदाननामानं । सल्लेखनातिचाराः पंच जिनेन्द्रः समादिष्टा ।। १२९ निःश्रेयसमभ्युदय निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् । निष्पिबति पीतधर्मा सवैर्दुखरनालीढः ।। १३० रत्नकरण्ड श्रावकाचार रादि देना, दान देने को और दानविधिको भूल जाना तथा अन्य दाताके साथ मत्सर भाव रखना । इनका त्यागकर दान देना चाहिए ।। १२१ इस स्वामिसमत्तभद्राचार्यविरचित रत्नकरण्डक नामवाले उपासकाध्ययन में शिक्षाव्रतों का वर्णन करनेवाला पाँचवाँ अध्ययन समाप्त हुआ । 1:0:1 अब आचार्य सल्लेखनाका वर्णन करते हैं - निष्प्रतीकार उपसर्ग दुर्भिक्ष, बुढापा और रोगके उपस्थित होनेपर धर्म की रक्षाके लिए शरीरके परित्याग करनेको आर्य पुरुष सल्लेखना कहते हैं ।। १२२ ।। जीवन के अन्त समय में संन्यासरूप क्रियाका आश्रय लेना ही जीवन भरकी तपस्याका फल है, ऐसा सर्वदर्शी भगवन्तोंने कहा हैं । इसलिए जबतक शक्ति रहे, तब तक समाधिमरण करनेमें प्रयत्न करते रहना चाहिए ।। १२३ ।। सल्लेखना धारण करते हुए कुटुम्ब - मित्रादिसे स्नेह दूर कर, शत्रुजनोंसे बैर भाव हटाकर, बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहका परित्यागकर, शुद्ध मन होकर स्वजनों और परिजनों को क्षमा करके प्रिय वचनोंके द्वारा उनसे भी क्षमा माँगे || १२४ ।। पुनः जीवन भरके कृत, कारित और अनुमोदित सर्वपापोंकी निश्छल भावसे आलोचना करके मरणपर्यन्त स्थिर रहने वाले सर्व महाव्रतोंको धारण करे ।। १२५ ।। इस प्रकार सल्लेखना स्वीकार करनेके पश्चात् शोक, भय, विषाद, क्लेश, कालुष्य और अरति भावको भी छोड़कर बल और उत्साहको प्रकटकर अमृतमय श्रुतके वचनोंसे मनको प्रसन्न रखे ||१२६ || साथ ही क्रम से अन्नके आहारको घटाकर दुग्धादिरूप स्निग्धपानको बढ़ावे । पुनः क्रमसे स्निग्धपानको भी घटाकर छांछ- उष्णजल आदि खर- पानको बढ़ावे ।। १२७ ।। पुनः धीरे-धीरे खर- पानको घटाकर और अपनी शक्तिके अनुसार उपवासको भी करके पंचनमस्कार मंत्रको मनमें जपते और उसका चिन्तवन करते हुए सम्पूर्ण प्रयत्नके साथ सावधानीपूर्वक शरीरको छोडे । १२८ ॥ जिनेन्द्र देवोंने सल्लेखनाके ये पाँच अतिचार कहे है -- सल्लेखना स्वीकार करनेके पश्चात् जीनेकी आकांक्षा करना, मरनेकी आकांक्षा करना, परीषहउपसर्गादिसे डरना, मित्रोंका स्मरण करना और आगामी भवमें सुख पाने के लिए निदान करना । इनसे रहित हो करके ही समाधिमरण करना चाहिए ।। १२९ ।। अब आचार्य अतीचार रहित सल्लेखना करनेका फल बतलाते है - जिसने रत्नत्रयरूप धर्मका पान किया है, ऐसा पुरुष सर्व दुःखोंसे रहित होकर उस निःश्रेयरूप सुखके सागरका अनुभव करता हैं, जो निस्तीर है जिसका अन्त नहीं है और जो अतिदुस्तर है - जिसका पाना अति कठिन हैं, ऐसे अहमिन्द्रादि पदरूप अभ्युदयका Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह जन्मजरामयमरणः शोकवुःखैर्भयश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ।।१३१ विद्यादर्शनशक्तिस्वास्थप्रल्हादतृप्तिशुद्धियजानिरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम् १३२ काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न बिक्रिया लक्ष्या। उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटुः॥१३३ निःश्रेयसमधिपशास्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते । निष्किट्टिकालिकाच्छविचामौकरमासुरात्मान: १३४ पूजार्थाऽजैश्वर्यबलपरिजनकामभोगभूयिष्ठः । अतिशयितभुवनमभ्दुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः।।१३५ इति श्रीस्वामीसणन्तभद्राचार्य-विरचिते रत्नकरण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनं नाम षष्ठमध्ययनम् ।। १॥ -: ० :श्रावकपदानि देवैरेकादशदेशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणः सह सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः।।१३६ सम्यदर्शनशद्धः संसारशरीरभोगनिविण्णः । पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्वपषगृह्यः।।१३७ निरतिक्रमणमणुव्रतपञ्चकमपि शीलसप्तकचापिाधारयतें निःशल्यो योऽसौ वतिनो मतो व्रतिक:१३८ भी अनुभव करता है । अर्थात् सल्लेखना करनेवाला संसारके सर्व अभ्युदय सुखको भोगकर अन्त में मोक्षके सुखको भोगता हैं ॥१३०॥ वह निःश्रेयस जन्म जरा मरण शोक दुःख और भयसे सर्वथा रहित है, नित्य शोर जहाँपर शुद्ध आत्मिक सुख है, उसीको निर्वाण मुक्ति और शिव आदि कहते हैं ॥१३१॥ उस निश्रेियसरूप मोक्षमें रहनेवाले सिद्ध भगवान अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखमय परम स्वास्थ, आनन्द, तृप्ति एवं शुद्धि से संयुक्त रहते है, वे हीनाधिक भावसे रहित समान अनन्त गुणोंके धारक है और अनन्तकाल तक सुखपूर्वक उस निश्रेयसमें निवास करते हैं ।।१३२॥ यदि तीनों लोकोंको उलट-पुलट करनेमें समर्थ कोई महान् उत्पात भी होवे, तो भी तथा सैकडों कल्पकालोंके बीत जानेपर भी मुक्त जीवोंके किसी प्रकारका विकार नहीं होता है ॥१३३॥ उस निःश्रेयसको प्राप्त हुए जीव कीट और कालिमासे रहित स्वच्छ सुवर्णके समान देदीप्यमान आत्मस्वरूपके धारक होकर त्रैलोक्यके चूडामणिरत्नकी शोभाको धारण करते हैं।।१३४॥ तथा वह समीचीन-सत्यधर्म पूजा, सम्पत्ति, आज्ञा, ऐश्वयंसे तथा परिजन और मनोऽनकल भोगोंकी अधिकतासे लोकातिशायी अद्भूत अभ्युदर को, अर्थात् स्वादिके सांसारिक सुखोको भी फलता हैं ।। १३५॥ इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित रत्नकरण्डक नामके उपासकाध्ययनमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला छठा अध्ययन समाप्त हुआ। अब आचार्य श्रावकके ग्यारह पद या प्रतिमाओंका वर्णन करते हैं - श्रीतीर्थकर देवोंने श्रावकके ग्यारह पद कहे है, जिनमें निश्चयसे प्रत्येक पदके गुण अपनेसे पूर्ववर्ती गुणोके साथ क्रमसे बढते हए रहते हैं ॥ १३६ ।। पहले दार्शनिक पदका स्वरूप-जो अतीचार-रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक है, संसार, शरीर और इन्द्रियोंके भोंगोंसे विरक्त है, पंच परमेष्ठी के चरणोंकी शरणको प्राप्त है और जो तात्त्विक सन्मार्ग के ग्रहण करनेका पक्ष रखता है, वह दार्शनिक श्रावक है।।१३७।। दूसरे व्रतिक पदका स्वरूप-जो पुरुष माया मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित होकर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार चतरावर्तत्रितयश्चतःप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।। १३९ पर्वदिनेषु चतुष्वपिमासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य। प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपरःप्रोषधानशनः१४० मलफलशाकशाख.करीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो क्यामूर्ति: १४१ अन्नं पान खाद्यं लेां नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिमुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः१४२ निरतीचार पाँचों अणुव्रतोंको भी और तीन गुणव्रत चार शिक्षाक्त रूप सातों शीलोंको भी धारण करता है, वह व्रतीजनोंके मध्य में व्रतिक श्रावक कहलाता हैं ॥१३८।। तीसरे सामायिक पद-धारी श्रावकका स्वरूप-चार वार तीन तीन आवते और चार वार नमस्कार करने वाला, यथाजातरूपसे अवस्थित. ऊर्ध्व कायोत्सर्ग और पद्मासनका धारक, मन-वचन-काय इन तीनों योगों की शुद्धिवाला और प्रातः, मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों सन्ध्याळमें वन्दना को करनेवाला सामायिकी श्रावक है ॥१३९।। इस श्लोक की व्याख्या करते हुए प्रभाचन्द्राचार्यने लिखा है कि एक एक कायोत्सर्ग करते समय णमो अरहंताणं' इत्यादि सामायिक दण्डक और 'थोस्सामिहं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंत जिणे' इत्यादि स्तवदण्डक पढ़ जाते है । इन दोनों दण्डकों के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्तों के साथ एक एक नमस्कार करे । इस प्रकार बारह आवर्त और चार प्रणामोंका विधान जानना चाहिए। दोनों हाथोंको मुकुलित करके उन्हें प्रदक्षिणाके रूपमें घुमानेको आवर्त कहते है । वर्तमान में सामायिक करने के पूर्व चारों दिशाओंमें एक एक कायोत्सर्ग करके तीन तीन आवर्त करके नमस्कार करने की विधि प्रचलित है, पर उसका लिखित आगम आधार उपलब्ध नहीं है। प्रभा चन्द्राचार्य- रचित मुद्रित क्रियाकलापमें सामायिक दण्डक और स्तवदण्डक सकलित है, उनको वहाँ से जानना चाहिये । चारित्रसार और अनगारधर्मामृत आदि में उक्त विधि कुछ अन्तर से दृष्टिगोचर होती हैं। मूल श्लोकमें पठित 'यथाजात' पद विशेषरूपसे विचारणीय है, क्योंकि इस पदका सीधा अर्थ जन्मकाल जैसी नग्नता का होता हैं । पूर्वमें वणित सामायिक शिक्षाब्रतमें इस पदका नहीं देना और इस तीसरी प्रतिमाके वर्णनमें उसका देना यह सूचित करता है कि तीसरी प्रतिमाधारीको नग्न होकरके सामायिक करना चाहिए । टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य 'यथाजात' पदका अर्थ बाह्य आभ्यन्तर परिग्रहकी चिन्तासे रहित ऐसा करते है । पर समन्तभद्रस्वामी तो इसकी सूचना सामायिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि चेलोपमृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्' इस श्लोक (संख्या १०२) में सामायिक शिक्षाव्रतके वर्णन में कर चुके हैं और उसे वस्त्र-वेष्टित मुनि के तुल्य बतला आये है। अतः इस तीसरी प्रतिमाके वर्णनमें 'यथाजात' पद देकर उन्होंने स्पष्ट रूपसे नग्न दिगम्बर वेष में सामायिक करनेका विधान किया हैं। यतः सामा. यिकको एकान्तमें करने का विधान है, अतः तीसरी प्रतिमाधारी के लिए बैसा करना संभव भी हैं। चौथे प्रौषध पदधारी श्रावक पदक। स्वरूप-प्रत्येक मास के चारों ही पर्वदिनोंमें अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर सावधान होकर प्रोषधोपवासको नियमपूर्वक करनेवाला प्रोषधोपवासी श्रावक कहलाता है ॥ १४० ॥ पाँचवे सचत्त विरत पदका स्वरूप-जो दयामूर्ति श्रावक कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा (कोंपल ) करीर (कैर) कन्द, फूल और बीजों को नही खाता है, वह सचित्त विरत पदका धारी श्रावक है।।१४ १।। छठे रात्रिभुक्तिविरत पदका स्वरूप-जो पुरुष प्राणियों पर दयार्द्र-चित्त होकर रात्रि में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों ही प्रकारके आहारको नही खाता है, वह Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रावकाचार-संग्रह मलबीजं मलन्मलं गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सम् । पश्यन्नगङमनगद्विरमति यो ब्रम्हचारी सः॥१४३ सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्मविनिवृत्तः ॥१४४ बाहोष दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपर: परिचित्तपरिग्रहाद्विरतः १४५ अनुमतिगरम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ।।१४ . गृहतो मुनिवनमित्वा गुरुपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुकृष्टश्चेलखण्डधरः ॥१४७ पापमरातिधर्मो बन्धर्जीवस्य चेति निश्चिन्बन् । समयं यदि जानीते श्रेयोज्ञाता ध्रुवं भवति ।। १४८ येन स्वयं वोतकविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम् । नीतम्तमायाति पतीच्छयव सर्वार्थसिद्धस्त्रिषु विष्टपेषु ।। १४९ रात्रिभक्ति विरतश्रावक हैं।।३४२।। सातवे ब्रह्मचारी श्रावक पदका स्वरूप-जो परुष मलका बीज मलका आधार, मलको बहनेवाला, दुर्गन्धसे युक्त और वीभत्स आकार वाले स्त्रीके अंगको देखकर अनंगसेवनसे विराम लेता हैं, अर्थात् स्त्री सेवनका सर्वथा त्याग करता है, वह ब्रह्मचारी श्रावक है ॥१४३॥ आठवे आरम्भ विरत श्रावक पदका स्वरूप-जो जीवहिंसा का रणभूत सेवा, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भसे निवृत्त होता है वह आरम्भविनिवृत्त श्रावक कहा जाते है ।। १४४॥नवे परिग्रह विरत श्रावक-पदका स्वरूपजोंधन धान्यादि बाह्य दशों प्रकारको वस्तुओंमे ममत्वको छोडकर निर्ममत्व भावनामें निरत रहता है, मायाचार आदिको छोडकर स्वस्थ आत्मस्थ) रहता है और परम सन्तोषको धारण करता है, वह चित्त में संसार रूपसे बसे हुए परिग्रहमे विरत श्रावक जानना चाहिए ॥१४५॥ दशवे अनुमति विरत पदधारी श्रावकका स्वरूप-जिसके निश्चयसे गह के कृषि आदि आरम्भमें, परिग्रहमें और इस लोक सम्बन्धी लौकिक कायोंमें अनुमोदना नही है वह समभाव का धारक अनुमतिविरत श्रावक मानना चाहिए ।।१४६।। ग्यारहवे उद्दिष्टविरत पदधारी धावक का स्वरूप-जो घरसे मुनियोंके निवास वाले वन में जाकर और गुरु के समीप ब्रतोंका ग्रहण करके भिक्षावृत्तिसे आहार ग्रहण करते हुए तपस्या करता हैं और वस्त्र-खण्डको धारण करता हैं, वह उत्कृष्ट श्रावक हे ॥१४७।। यद्यपि ग्रन्थकारने इस पदके भेदोंको नही कहा हैं, तथापि 'चेलखण्डघर' पदसे लंगोटी रखने वाले एक छोटा वस्त्र रखनेवाले ऐलक और क्षुल्लकका ग्रहण हो जाता हैं । । ग्रन्थका उपसंहार जीवका पाप शत्रु है, और धम बन्धु है,' ऐसा हृदयमें निश्चय करता हुआ पुरुष यदि समय (आगम) को जातना हैं, तो वह निश्चय से वह श्रेयो ज्ञाता अर्थात् आत्म कल्याणका जानकार है ।।१४८॥ धर्मके फलका उपसंहार ___ जिस भव्य जीवने अपने आत्माको निर्दोष विद्या (सम्यग्ज्ञान ) निर्दोष दृष्टि (सम्यग्दर्शन और निर्दोष क्रिया ( सम्यक्चारित्र ) रूप रोंके पिटारे या भाजनके रूप में परिणत किया है, 0 विशेष के लिए देखे-वसुनन्दिश्रावकाचारमे मेंरी लिखी प्रस्तावना । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीत्र सुर्तमव जननी माँ शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमित्र गुणभूषा कन्यका सम्पुनीताज्जिनपतिपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ।। १५० इति श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्यविरचिते रत्नकरण्डकापरनाम्नि उपासकाध्ययने श्रावकपदवर्णनं नाम सप्तमाध्ययनं ॥ ७ ॥ उसे तीनों लोकों में सर्व पुरुषार्थो की सिद्धि स्वयं प्राप्त होती हैं । जैसे कि स्वयं वरण करनेवाली कन्या योग्य पतिको स्वयं प्राप्त होती हैं ।। १४९ ।। अन्तिम मंगल जिनेन्द्र देवके चरण-कमलोंको देखने वाली सुखों को भूमि ऐसी सम्यग्दर्शनरूपी दृष्टि लक्ष्मी मुझे उसी प्रकार सुखी करे, जिस प्रकार कि कामी पुरुषको उसकी कामिनी स्त्री सुखी करती हैं, वह दृष्टिलक्ष्मी शुद्ध शीलवाली जननीके समान मेरी रक्षा करे और वह दृष्टलक्ष्मी मुझे उस प्रकारसे पवित्र करे, जैसे कि गुण - भूषित कन्या कुलको पवित्र करती हैं ।। १५० ।। इस प्रकार स्वामि समन्तभद्राचार्य - विरचित रत्नकरण्डक नामवाले उपासकाध्ययनमें श्रावक के ग्यारह पदोंका वर्णन करनेवाला सातवां अध्ययन समाप्त हुआ । १९ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावकधर्म-वर्णन जो जाणदि पच्जवखं तियाल-गुण-पज्जएहि संजुत्तं । लोयालोयं सयलं सो मवण्हू हवे देवो ॥१ जो ण हवदि सव्वण्हू ता कोजाणदि अदिदियं अत्थं । इंदियणाणं ण मुणदि थूलपि असेसपज्जायं ।।२ तेणुवइछि धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारहभेओ दहभेओ भासिओ विदिओ॥३ सम्गइंसणसुद्धो रहिओ मज्जाइ-थूल दोसेहिं । वयधारी सामाइउ पव्ववई पासुयाहारी ॥४ राईभोयणविरओ मेहुण-सारंभ-संगचत्तो य । कजाणुमोयविरओ उद्दिट्टाहारविरदो य ॥५ चदुगदिभव्वो सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाण पज्जत्तो। संसारतडे णियडो णाणी पावेइ सम्मत्तं ॥६ सत्तण्हं पयडीणं उवसमदो होदि उवसमं सम्मं । खयदो य होदि खइयं केवलिमूले मणुस्सस्स ।।७ अण-उदयादो छण्हं सजाइरूवेण उदयमाणाणं । सम्मत्तकम्म-उदये खयउवसमियं हवे सम्मं ।।८ गिण्हदि मुंचदि जीवो वे सम्मत्ते असंखयाराओ। पढम कसाय विणास देसवयं कुणदि उक्कस्सं॥९ जो तच्चमणेयंत णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं । लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणटंठ च ॥१० जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि गवविहं अत्थं । सुदण ण णएहि य सो सद्दिठ्ठी हवे सुद्धो॥११ जो त्रिकालवर्ती गुण-पर्यायों से संयुक्त समस्त लोक और अलोक को (और उनमें वर्तमान द्रोंको) प्रत्यक्ष जानता है, वह सर्वज्ञ देव है ।।१।। यदि सर्वज्ञ न होता, तो अतीन्द्रिय पदार्थको कौन जानता? इन्द्रिय ज्ञान तो समस्त स्थूल पर्यायोंकों भी नहीं जानता है॥२॥ उस त्रिलोक-त्रिकालज्ञ सर्वज्ञके द्वारा कहा हुआ धर्म दो प्रकारका है-एक तो परिग्रहासक्त गृहस्थोंका धर्म और दूसरा परिग्रह-रहित मुनियों का धर्म । पहला धर्म बारह भेदवाला और दूसरा धर्म दश भेद वाला कहा गया है॥३॥ उनमें से गृहस्थ या श्रावक धर्म के बारह भेद इस प्रकार हैं - १.शंकादि दोषों से रहित शुद्धसम्यग्दृष्टि, २. मद्य-मांसादि-भक्षणरूप स्थूल दोषों से रहित सम्यग्दृष्टि,३. व्रतधारी, ४. सामायिकव्रती, ५ पर्वव्रती, ६ प्रासुकाहारी, ७. रात्रि भोजनत्यागी,८. मैथुनत्यागी, ९ आरम्भत्यागी. १०,परिग्रहत्यागी, ११.कार्यानुमोदविरत और १२.उद्दिष्ट-आहार-विरत ||४-५|| अब श्रावकके प्रथम भेदका वर्णन करते हुए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के योग्य जीवका वर्णन करते हैं-चारों गतियोंमें उत्पन्न हुआ भव्य संज्ञी विशुद्ध परिणामी जागता हुआ पर्याप्तक ज्ञानी जीव संसार-तटके निकट आने पर सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ||६|| दर्शनमोहनीय कर्म की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति, तथा चारित्र मोह कर्म को अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, और लोभ. इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । तथा इन ही सातों प्रकृतियोंका केवलीके पादमूलमें क्षय करनेवाले मनुष्य के क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है ।। ७ ।। उपयुक्त सात प्रकृतियों में समान जातीय प्रकृतियोंके रूपसे उदय होने वाली छह प्रकृतियोंके अनुदयसे और सम्यक्त्यप्रकृतिके उदय होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है ॥ ८ ॥ औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यक्त्व, प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्कका विनाश अर्थात विसंयोजन और देशवत इनको यह जीव उत्कर्षसे असख्य वार ग्रहण करता और छोडता हैं।।।९।। भावार्थउक्त चारोंको यह जीव अधिक से अधिक पल्यसे असंख्यातवे भाग वार ग्रहण कर छोड सकता है । अब सम्यग्दष्टि के तत्वश्रद्धान आदि परिणति का विशेष वर्णन करते है- जो लोगोंके प्रश्नों के . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावकधर्म-वर्णन जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्त-कलत्ताइ सव्व अत्थेसु । उवसमभावे भावदि अप्पाणं मणदि तिणमेत्तं ॥१२ विसयासत्तो वि सया सव्वारभेसु वट्टमाणो वि । मोहविलासो एसो इदि सव्वं मण्णदे हेयं ॥१३ उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहस्मिय-अणराई सो सद्दिष्टि हवे परमो ।।१४ देहमिलियं पि जीवं णियणाणगणेण मुणदि जो भिण्णं । जीवमिलियं पि देहं कंचुवसरिसं वियाणेदि ॥१५ णिज्जियदोसं देवं सम्वजिवाणं दयावरं धम्म । वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सुद्दिट्ठी।।१६ दोससहियं पि देवं जीवहिंसाइ संजदं धम्म । गंथासतं च गुरुं जो मण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥१७ ण य कोवि देदि लच्छी ण कोवि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयार अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि ॥१८ भत्तीऍ पुज्जमाणो वितरदेवोवि देदि जदि लच्छी। तो कि धम्मे कोरदि एतं चितेइ सद्दिट्ठी।। १९ ज जस्स जम्मि देसे जण विह जेण. जम्मि कालम्मि। जादं जिणेणं णियदं जम्म वा अहव मरणं वा ॥२० तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि। को सक्कदि वारे, इन्दो वा अह जिणिदो वा ॥२१ एवं जो णिच्छयदो जाणदि दवाणि सव्वाणि सव्वपज्जाए।सो सद्दिट्टि सुद्धोजो संकदि सो हु कुद्दिटि२२ वशसे और व्यवहारको चलाने के लिए सप्तभंगी के द्वारा नियमसे अनेकान्तात्मक तत्त्वका श्रद्धान करता है, जो आदरके साथ जीव-अजीव आदि नौ प्रकारके पदार्थोका श्रुतज्ञानसे और नयोंसे भलीभाँति जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं ।।१०-११।। जो पुत्र-स्त्री आदि सर्व पदार्थो में गर्वको नहीं करता हैं, उपशमभावको भाता है और अपनेको तृण-समान समझता हैं, विषयोंमे आसक्त होता हुआ भी और सदा सर्व आरम्भों में प्रवृत्त होता हुआ भी जो ‘यह मोहकर्मका विलास हैं' ऐसा समझकर सबको हेय मानता हैं, जो उत्तम गुणोंके ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधओंको विनय करता है आर साधर्मी जनों का अनुरागी है, वह परम सम्यग्दृष्टि है, ॥१२-१४॥ जो देहमें मिले हए भी जीवको अपने ज्ञानगणसे अर्थात् भेदविज्ञानसे भिन्न जानता हैं और जीवसे मिले हुए भी देहको साँप की कांचली के समान भिन्न जानता हैं, जो रागादि दोषों के विजता अरिहन्त को देव मानता हैं, सर्व जीवों पर दया करनेको परम धर्म मानता हैं और परिग्रहके त्यागीको गुरु मानता है, वह निश्चयसे सम्यग्दृष्टि हैं ॥१५-१६॥ जो दोष-सहित व्यक्तिको देव मानता हैं, जीव-हिंसादिसे संयुक्त कार्यको धर्म मानता हैं और परिग्रह में आसक्त पुरुषको गुरु मानता हैं, वह निश्चयसे मिथ्यादृष्टि हैं ।।१७।। जो लोग हरि-हरादिकको लक्ष्मी-दाता मानकर पूजते हैं, उन्हें लक्ष्य करके आचार्य कहते है कि न तो कोई किसीको लक्ष्मी देता है और न कोई अन्य पूरुष जीवका उपकार ही करता हैं। पूर्व में किये हए शुभ और अशभ कर्म ही जीवका उपकार और अपकार करते है ।।१८। यदि भवितसे पूजा गया व्यन्तर देव भी लक्ष्मी दे सकता हैं,तो फिर धर्म करने की क्या आवश्यकता है इस प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने मन में विचार करता है ।।९९।। जिस जीवके जिस देशमें, जिस काल में जिस प्रकारसे जो जन्म अथवा मरण जिन देवने नियत रूपसे जाना है, उस जीवके उसी देश में, उसी कालमें और उसी कारके अवश्य होगा। उसे निवारण करनेके लिए इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई भी नहीं रोक सकता ॥२०-२१।। इस प्रकार . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रावकाचार - संग्रह जो ण विजानदि तच्च सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं । जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ॥ २३ रयणाण महारयणं सव्वं जोयाण उत्तमं जोयं । रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सव्वसिद्धियरं ॥ २४ सम्मत्तगुणपहाणी देविद-रद-वंदिओ होदि चत्तवओ वि य पावदि सग्गसुहं उत्तमं वहिं ॥ २५ सम्माइट्ठी जीवो दुग्गविहेदुदु णं बंधदे कम्मं । जं बहुभवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि ।। २६ बहुतससम ण्णदं जं मज्जं मंसादि णिदिदं दव्बं । जो ण य सेवदि नियदं सो दंसणसावओ होदि ॥ २७ जो दिढचित्तो कीरदि एयं पि वयं णियाण-परिहीणो वेरग्भावियमणो सो वि य दंसणगुणो होदि ।। २८ | पंचाव्ययधारी गुणवय- सिक्खाव एहिं संजुत्तो। दिढचित्तो समजुत्तो णाणी वयसावओ होदि ॥ २९ जो वावरे सदओ अप्पाणसमं परं पि मण्णतो णिदण-गरहणजुत्तो परिहरमाणो महारंभ । ३० तसघादं जो ण करदि मण-वय-काएहि णेव कारयदि। कुव्वंतं पण इच्छदि पढमवयं जायदे तस्स ॥ ३१ हिंसा वयण ण वयदि कक्कस वयणं पि जो ण भ सेवि । गिट्ठर वयणं पि तहा ण मासदे गुज्झ वयणं पि ।। ३२ निश्चय से सर्वद्रव्यों और सर्वपर्यायों को जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्वमें शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है || २२ || जो तत्त्वको नहीं जानता है, किन्तु जिन-वचन में श्रद्धान करता है कि जिनेन्द्रोंने जो कहा है, उस सबकी में श्रद्धा करता हूँ, ऐसा निश्चयवाला जीव भी सम्यग्दृष्टि है || २३ || सम्यग्दर्शन सर्व रत्नोंमें महारत्न है, सर्वयोगोंमें उत्तम योग है, सर्व ऋद्धियोंमें महाऋद्धि है और सर्व प्रकारकी सिद्धिका करने वाला है || २४|| सम्यक्त्व गुणकी प्रधानता वाला जीव देवेन्द्रोंसे और नरेन्द्रोंसे वन्दनीय होता है और व्रत-रहित होने पर भी नाना प्रकारके उत्तम स्वर्गसुखको पाता है ।। २५ ।। सम्यग्दृष्टि जीव दुर्गतिके कारणभूत पापकर्म को नहीं बाँधता है और पूर्वके अनेक भवों में बंधा हुआ जो दुष्कर्म है, उसका भी नाश करता है ।।२६।। अब पहले दार्शनिक श्रावकका स्वरूप कहते हैं - जो सम्यक्त्वी जीव अनेक सजीवोंसे भरे हुए मद्य-मांसादि निन्द्य द्रव्यका नियमसे सेवन नहीं करता है, वह दार्शनिक श्रावक है ||२७|| जो दृढ़ चित्त होकर उक्त एक भी व्रतका पालन करता है, निदानसे रहित हैं, और वैराग्यसे जिसका मन भरा हुआ है, वह पुरुष दर्शन गुण वाला श्रावक है ||२८|| अब दूसरे व्रतिक श्रावकाका स्वरूप कहते हैं -- जो ज्ञानी पांच अणुव्रतोंका धारक है, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंसे संयुक्त है, दृढचित्त है और समभावी है, वह व्रतिक श्रावक है ||२९|| अब अहिंसाणुव्रतका स्वरूप कहते हैं जो अपने समान दूसरे को भी मानता हुआ उनके साथ दया सहित व्यवहार करता है, अपनी निन्दा और गर्हास युक्त है, महानृ आरम्भोंका परिहार करता हुआ जो सजीवोंके घातको मन वचन कायसे न स्वयं करता है, न दूसरोंसे कराता है और न करते हुए पुरुष की अनुमोदना ही करता हैं, उसके पहला अहिंसाणुव्रत होता हैं ||३०-३१ || अब सत्याणुव्रत का स्वरूप कहते हैं-जो हिंसा करनेवाले वचन नहीं बोलता हैं, कर्कश वचन भी नहीं कहता हैं, तथा निष्ठुर वचन और दूसरे की गुप्त बात को भी प्रकट नहीं करता हैं, किन्तु सर्व जीवों को सन्तुष्ट करनेवाले fe मित प्रिय, एवं धर्म-प्रकाशक वचन बोलता हैं, वह दूसरे सत्याणुव्रत का धारक श्रावक हैं . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावकधर्म-वर्णन २३ हिद-मिदवयणं भासदि संतोसकरं तु सध्वजीवाणं । धम्म-पयासणवयणं अणुव्वदी होदि सो विदिओ ।। ३३ जो बहुमुल्ल वत्थु अप्पयमुल्लेण णेव गिण्हेदि । वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि ||३४ जो परद्रव्वं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण। दिढचित्तो सुद्धमई अणुव्वई सो हवे तिदिओ॥३५ असुइमयं दुग्गंध महिलादेहं विरज्जमाणो जो। रूवं लावण्णं पि य मणमोहण-कारण मणइ ॥३६ जो मण्णदि परमहिलं जणणी-बहिणी-सुआइ सारिच्छं ।। मण-वयणे काएण वि बंभवई सो हवे थलो ।। ३७ जो लोहं णिहणित्ता संतोसरसायणेण संतुट्ठो। णिहदि तिण्हा दुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सम्वं ॥३८ जो परिमाणं कुम्वदि धण-धण्ण-सुवण्ण-खित्तमाईणं । उवओगं जाणित्ता अणुव्वद पचमं तस्स ।। ३९ जह लोहणासणठ्ठ संगपमाणं हवेइ जोवस्त । सवदिसाण पमाणं तह लोहं णासए णियमा ॥४. जं परिमाण कोरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं । उ ओगं जाणित्ता गुणव्वदं जाण तं पढमं ॥४१ कज्ज किपि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो। सो खल हदि अणत्थो पंचपयारो वि सो विविहो ॥४२ परदोसाण वि गहणं परलच्छीणं समीहणं ज च पर-इत्थी-अवलोओ पर-कलहालोंयण पढमं॥४३ ।।३२-३३ ।। अब तीसरे अचौर्याणवतका स्वरूप कहते हैं- जो बहुत मल्यवाली वस्तुको अल्प मूल्यसे नहीं लेता है, दूसरे को भूली हुई भी वस्तुको नहीं ग्रहण करता है, जो अल्प लाभमें भी सन्तोष धारण करता हैं, जो पराये द्रव्यको, मायासे, लोभसे, क्रोधसे और मानसे अपहरण नही करता है, जो धर्म में दृढ चित्त है और शुद्ध बुद्धिका धारक है, वह तीसरे अणुव्रतका धारी श्रावक है ।। ३४-३५ । अब चौथे ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहते है-जो पुरुष स्त्रीके देहको अशुचिमय और दुर्गन्धित देखकर उससे विरक्त होता हुआ उनके रूप लावण्यको भी मनके मोहित करनेका कारण मानता है और जो पराई स्त्रियोंको अपनी माता, बहिण और पुत्रीके सदृश मन, वचन कायसे समझता है, वह स्थल ब्रह्मचर्यव्रतका धारक है ।। ३६-३७ ।। अब पाँचवे परिग्रहपरिमाणाणवतका स्वरूप कहते है-जो पुरुष लोभको जीतकर सन्तोषरूप रसायनसे सन्तुष्ट रहता है और संसारकी सर्व वस्तुओंको बिनश्वर मानता हुआ दुष्ट तृष्णाका विनाश करता है,तथा अपने उपयोगको जानकर आवश्यक धन धान्य सुवर्ण क्षेत्र आदि दश प्रकारके परिग्रहका परिमाण करता हैं, उसके पांचवा अणुव्रत होता है ।। ३८-३९ । अब तीन गुणवतोंमें से पहले दिग्व्रतनामक गुणव्रत का स्वरूप कहते है-जिस प्रकार लोभके नाश करनेके लिए जीवके परिग्रहका प्रमाण होता है, उसी प्रकार लोभका नाश करने के लिए नियमसे सर्व दिशाओंका भी प्रमाण करना आवश्यक है। जो पुरुष उपयोगी जानकर सुप्रसिद्ध सभी दिशाओंमें जाने-आनेका जीवन भरके लिए परिमाण करता है, उसके प्रथम गुणव्रत जानना चाहिए ॥ ४०-४१ ।। अब दूसरे अनर्थदण्डवत नामक गुणवतका स्वरूप कहते हैं - जो पदार्थ अपना कुछ भी कार्य नही साधता है, किन्तु नित्य ही पापको करता है, वह पदार्थ अनर्थ कहलाता है, वह अनर्थ दण्ड पांच प्रकारका है और प्रत्येक भेद अनेक रूप भेद है ॥ ४२ ॥ अन्य पुरुषके दोषोंको ग्रहण करना, दूसरे की लक्ष्मीका चाहना, परस्त्रीका अवलोकन करना और अन्यकी कलहको देखना, यह अपध्यान नामका प्रथम अनर्थदण्ड है ।। ४३ ॥ खेती Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रावकाचार-संग्रह जो उवएसो दिज्जदि किसि-पसुपालण-वणिज्जपमुहेसु । पुरिसित्थी-संजोए अणत्थदंडो हवे विदिओ ॥ ४४ विहलो जो वावारो पुढवी-तोयाण अग्गि-वाऊणं । तह वि वणप्फदि-छेदो अणत्थदंडो हवे तिदिओ ॥ ४५ मज्जार पहुदि-धरणं आउह-लोहादिविक्कणं जं च । लख्खा-खलादिगहणं अणत्थदंडो हवे तुरियो ।। ४६ जं सवणं सस्थाणं भंडण-वसियरण-कामसत्थाणं । परदोसाणं च तहा अणत्पदंडो हवे चरिमो॥४७ एवं पंचपयारं अणत्थदंडं दुहावह णिच्चं। जो परिहरेदि णाणी गुणव्वदो सो हदे विदिओ।।४८ जाणित्ता संपत्ती भोयण-तंवोल-वत्थमादीणं । जं परिपाणं कीरदि भोउवभोयं वयं तस्स ।। ४९ जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुबदे सुरिदो वि। जो मणलड्डु ब मक्खदि तस्स वयं अप्पसिद्धियरं ॥५० सामाइयस्स करणे खेत्तं काल च आसणं विलओ। मण-बयण-कायसुद्धी णायव्या हुति सत्तेय ॥ १ जत्थ ण कलयलसहो बहुजणसंघट्टणं ण जत्पत्थि । जत्थ ण दसादीया एस पसत्थो हवे देसो ॥५२ पुग्वण्हे मज्झण्हेअवरण्हे तिहिवि णालिया-छक्को। सामइयस्स कालो सविणय णिस्सेस-णिहिट्टो।।५३ बंधित्ता पज्जंक अहवा उड्ढेण उन्मओ ठिच्चा । कालपमाणं किच्चा इंदियवावार-वज्जिदो होउ॥५४ करनेका, पशु-पालनका और वाणिज्य आदि आरम्भ कार्योका जो उपदेश दिया जाता है, तथा पुरुष और स्त्रीके विवाह आदिके रूपमें संयोग करने-करानेका कथन किया जाता हैं, वह दूसरा पापोपदेशनामका अनर्थण्ड है ।। ४४॥ पृथिवी, जल, अग्नि, और वायुका निष्फल व्यापार करना, तथा वनस्पतीका निष्प्रयोजन विच्छेद करना सो प्रमादचर्या नामका तीसरा अअर्थ दण्ड है ॥४५।। बिल्ली-कुत्ता आदि मांस-पक्षी पशुओंका पालना, आयुध और लोहा आदिका बेचना, लाख और खली आदिका संग्रह करना यह हिंसादान नामका चौथा अनर्थ दण्ड है ।।४६।। कुमार्ग-प्रतिपादक शास्त्रोंका सुनना, भंडन, वशीकरण और कामशास्त्रका सुनना, तथा अन्य पुरुषोंके दोषोंका सुनना, यह दुःश्रतिनामका अन्तिम अर्थात् पाँचवा अनर्थ दण्ड है ।। ४७ ।। ऐसे पांच प्रकारके दुःखदायक अनर्थ दण्डोंके जानकर जो ज्ञानी नित्य ही उनका परिहार करता हैं, वह दूसरे अनर्थदण्ड त्याग नामक गुणवतका धारक श्रावक हैं।।४८। अब तीसरे भोगोपभोगपरिमाण गुणवतका स्वरूप कहते हैं-जो पुरुष अपने वित्त और शक्तिके अनुसार भोजन, ताम्बूल आदि भोंगोंवाली वस्त्र-भवन आदि उपभोगोंवाली वस्तुसम्पदाका परिणाम करता है, उसके भोगोपभोगपरिमाणनामक तीसरा गुणव्रत होता है ।।४९। जो पुरुष घरमें विद्यमान भी भोग और उपभोगकी वस्तुका परित्याग करता है, उसके व्रतकी देवेन्द्र भी स्तुति-प्रसंशा करते है। और जो मनके लड्ड् खाता है, उसका व्रत अल्प सिद्धिका करनेबाला होता है ।। ५० ।। अब शिक्षाव्रतका वर्णन करते हुए उसके चार भेदोंमेंसे पहले सामायिक शिक्षाव्रतका स्वरूप कहते है -सामायिक करनेके लिए क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मन:शुद्धि और वचनशुद्धिः और कायशुद्धि ये सातों ही बाते जानने के योग्य हैं ॥५१॥ जहां पर कल-कल शब्द न होता हो, जहांपर बहुत जनोंका जमघट या आवागमन न हो, और न जहांपर डांस-मच्छर आदिक हों, ऐसा प्रशस्त स्थान सामायिक करने के योग्य क्षेत्र है ।।५२।। विनय-यक्त गणधरादिने पूर्वाह, मध्याह और अपराह इन तीन कालों छह-छह घडी काल सामायिकका कहा हैं ॥५३।। पर्यंक आसनको बांधकर अथवा सीधा खडा होकर कालका प्रमाण करके, इन्द्रियोंके Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गत श्रावकधर्म-वर्णन २५ faraणेयग्गमणो संबुडकाओ य अंर्जाल किच्चा । स सरूवे संलोणो वंदण-अत्थं विचिततो ॥५५ किच्चा देसपमाणं सव्वं सावज्जवज्जिदो होउ । जो कुव्वदि सामइयं सो मुणिसरिसो हवे ताव ॥५६ पहाण - विलेवण- भूसण- इत्थीसंसग्ग-गंध-धूवादि । जो परिहरेदि णाणी वेंरग्गाभूसणं किच्चा ॥ ५७ दो पिसावासं एयमत्त निव्वियडी । जो कुणदि एवमाई तस्स वयं पोसहं विदियं ॥ ५८ तिविहे पत्तम्मि सया सद्धाइगणेहि संजुदो गाणी । दाणं जो देदि सयं णवदाणविहीहि संजुत्तो ॥ ५९ सिवखावयं च तिदियं तस्स हवे सव्र्वसिद्धिसोक्खयरं । दाणं चउविहं पिय सव्वेंदाणाण सारयरं ॥ ६० मोयणदाणं सोखं ओसहदाणेण सत्थदाणं च जीवाण अभयदाणं सुदुल्लहं सव्वदाणेसु ॥ ६१ भोयणदाणे दिण्णे तण व दाणाणिहोंति दिण्णाणि । भुवख-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीण ।। ६२ मोयणबलेण साहू सत्थं सेवेदि रत्ति दिवस पि । भोयणवाणे दिण्णं पाणा वि य रविख होंति ॥ ६३ इह-परलोयणिरीहो दाणं जो देदि परमभत्तीए । रयणत्तए सुठविदो संधो सयलो हवे तेण ।। ६४ उत्तमपत्तविसेसे उत्तमभत्तीएँ उत्तम दाण । एयदिणे वि य दिण्णं इंदसुहं उत्तमं देदि ।। ६५ पुन्वषमाणकदाणं सव्वदिसाणं पुणो वि संवरण । इदियविसयाणं तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं । ६६ वासादिकयमाणं दिणें दिणे लोह- कामसमणठठ् । सावज्जवज्जणं तस्स चउत्थं वयं होदि ||६७ व्यापारसे रहित होकर, जिन-वचनमें मनको एकाग्र करके, कायको संकोच कर, हाथकी अंजलि बाँध कर, अपने स्वरूपमें लीन होकर, अथवा वन्दनापाठके अर्थका चिन्तवन करता हुआ, देशका प्रमाण करके और सर्व सावद्य योगको छोड़कर जो श्रावक सामायिक करता है, वह उस समय ( वस्त्र - वेष्टित ) मुनिके सदृश होता है ।।५४ - ५६ ।। अब दूसरे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतका वर्णन करते है ज्ञान श्रावक सदा ही अष्टमी और चतुर्दशी इन दोनों पर्वोमें स्नान विलेपन भूषण स्त्री-संसर्ग गंध धूप आदिका परिहार करता है और वैराग्यरूप आभूषण धारण करके उपवास, एकाशन अथवा निर्विकार नीरस भोजन आदिको करता है, उसके प्रोषधोपवास नामका दूसरा शिक्षाव्रत होता है ।।५७-५८।। अब तीसरे अतिथि संविभाग शिक्षाव्रतका वर्णन करते है- जो श्रद्धा आदि गुणोंसे संयुक्त ज्ञानी पुरुष सदा तीन प्रकारके पात्रोंको नौ प्रकारकी दानविधिसे अर्थात् नवधाभक्ति से संयुक्त होकर स्वयं दान देता है, उसके यह तीसरा शिक्षाव्रत होता है। यह चार प्रकारका दान सब दानोंमें सारभुत है और सब सुखोंका तथा सिद्धियोका करनेवाला है ।। ५९-६० ।। औषधिदानके साथ भोजनदानसे सुख प्राप्त होता हैं। शास्त्रदान और जीवोंका अभयदान देना सर्वदानोंमें अति दुर्लभ है ।। ६१ ।। भोजनदान के देनेपर शेष तीनों ही दान दिये गये होते है । क्योंकि प्राणियोंको भूख और व्यासकी व्याधि दिन प्रतिदिन होती है ।। ६२ ।। भोजनके बलसे ही साधु रात-दिन शास्त्रका अभ्यास करता है और भोजनदानके देनेपर प्राण भी सुरक्षित रहते है ।। ६३ ।। जो पुरुष इस लोक और परलोकके फल की इच्छासे रहित होकर परम भक्तिसे दान देता है, वह सर्वसंवकों रत्नत्रय धर्ममें स्थापित करता हैं । उत्तम पात्रविशेषको उत्तम भक्तिसे एक दिन भी दिया उत्तम दान इन्द्रलोकके सुखको देता हैं ।।६४-६५।। अब चौथे देशावकाशिक शिक्षाव्रतको कहते है - जो पुरुष लोभ और काम बिकारके शमन करने के लिए तथा पापोंके छोडने के लिए वर्ष आदिका प्रमाण करके पूर्व मे किये हुए सर्व दिशाओं के प्रमाणको फिर भी संवरण करता है और इन्द्रियोंके भोग उपभोगरूप विषयोंका फिर भी दिन दिन संवरण करता है, उसके यह देशावकाशिक नामका चौथा शिक्षाव्रत होता है ॥ ६६-६७।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह बारस- वह जुत्तो सल्लिहणं जो कुणेदि उवसंतो सो सुरसोक्खं पाविय कमेण सोबखं परं लहदि ॥ ६८ एकं पि वयं विमलं सद्दिट्ठी जइ कुणेदि दिढचित्तो । दो विविहरिद्धिजुत्तं इंदत्तं पावए नियमा ॥ ६९ जो कुणदि काउस्सगं बारस आवत्त-संजुदो धीरो । नमणदुगं वि कुणतो चदुप्पाणामो पसण्णप्पा ॥७० चिततो ससरूवं जिर्णाबबं अह व अक्खरं परमं । झायदि कम्मविवायं तस्स वयं होदि सामइयं ॥७१ सत्तम-तेरसि-दिवसे अवरण्हे जाइऊण जिणभवणे । २६ fever किरियाकम्मं उववासं चउविहं गहियं ॥ ७२ गिवावारं चत्ता रति गमिऊण धर्मांचिताए । पच्चूसे उट्ठित्ता किरियाकम्मं च काढूण || ७३ सत्यवभासेण पुणो दिवसं गमिऊण वंदणं किच्चा । रति णेवण तहा पच्चूसे वंदणं किच्चा ॥ ७४ पुज्जण विहि च किच्चा पत्तं गहिऊण णवरि तिविहंपि । भुंजाविउण पत्तं भुंजतो पोसहो होवि ।।७५ एक्कं पि णिरारंभी उववासं जो करेदि उवसंतो। बहुभवसंचियसंकम्मं सो णाणी खवदि लीलाए । ७६ उववासं कुव्वतो आरंभ जो करेदि मोहादो । सो नियदेहं सोसदि ण झाडए कम्मलेसं पि ॥७७ सच्चित्तं पत्त - फलं छल्ली मूलं च किसलयं बीयं । जो ण य भक्खदि णाणी सचित्तविरदो हवे सों दु ॥७८ जो ण य भक्वेदि सयं तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउं । भुत्तस्स भोजिदस्स हि णत्थि विसेसो जदो को वि ।।७९ जो श्रावक बारह व्रतोंको पालता हुआ जीवनके अन्त में कषायोंको उपशान्त करता हुआ सल्लेखना करता है, वह स्वर्गके सुखको पाकरके क्रमसे मोक्षके परम सुखको प्राप्त करता है ॥६८॥ जो सम्यग्दृष्टि पुरुष दृढचित्त होकर यदि एक भी व्रतको निरतिचार निर्मल पालन करता हैं, तो वह भी नियमसे अनेक प्रकारकी ऋद्धियोंसे युक्त इन्द्रपदको पाता है ।। ३९ ।। अब सामायिक प्रतिमाका वर्णत करते हैं - जो धीर वीर श्रावक बारह आवर्त - सहित चार प्रणाम और दो नमस्कारोंको करता हुआ प्रसन्नचित्त होकर कायोत्सर्ग करता है, और उस समय अपने स्वरूपका, जिन- प्रतिबिम्बका, अथवा परमेष्ठिके वाचक अक्षरोंका, अथवा कर्मोंके विपाक ( फल ) का चिन्तवन करता हुआ ध्यान करता है, उसके सामायिक प्रतिमारूप व्रत होता है ।।७०-७१ ।। अब प्रोषधप्रतिमाका वर्णन करते हैं - सप्तमी और त्रयोदशी के दिन अपरान्हके समय जिन मन्दिरमें जाकर आवश्यक क्रिया कर्म करके चार प्रकारका आहार त्यागकर उपवासको ग्रहण करे और घरके सब व्यापार-कार्यो को छोडकर धर्मध्यानपूर्वक रात बितावे । पुनः प्रातः काल उठकर और क्रिया कर्म को करके शास्त्राभ्यास के साथ दिन बिताकर सामायिक - वन्दनादि करो पुनः धर्मध्यानपूर्वक रात बिताकर उषाकालमें सामायिकवन्दनादि करके और पूजन - विधान भी करके और यथावसर प्राप्त तीनों प्रकारके पात्रोंका पाह करके उन्हें भोजन कराकर पीछे स्वयं भोजन करनेवाले श्रावक के प्रौषधप्रतिमारूप व्रत होता है ।।७२-७६ ।। जो ज्ञानी उपशम भावको धारण करता हुआ आरम्भ रहित एक भी उपवासको करता है, वह बहुत भवोंके संचित कर्मको लीलामात्रसे क्षय कर देता है || ७६ ॥ | किन्तु जो उपवास करते हुए मोहवश आरम्भिक कार्य करता है, वह केवल अपनी देहको सुखाता हैं, पर लेशमात्र भी कर्म की वह निर्जरा नहीं करता ॥७७॥ | अब सचित्त त्याग प्रतिमाका वर्णन करते है - जो ज्ञानी पुरुष सचित्त पत्र सचित्त फल, सचित्त छाल, सचित्त मूल, सचित्त कोंपल और सचित्त बीजको नही खाता है, वह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा- गतश्रावकधर्म-वर्णन जो वज्जेदि सचित्तं दुज्जय जीहां णिणिज्जिया तेण । दयभावो होंदि कओ जिणवयणं पालियं तेण । ८० जो चउवह पि भोज्जं रयणीए णेव भुंजदे णाणो । णय भुंजावद अण्णं णिसिविरओ सों हवे मोज्जो ||८१ जो णिसित वज्जदि सो उदवासं करेदि छम्माप्तं । संवच्छरस्स मज्झे आरंभचयदि रयणीए ॥८२ Rode इत्थी जो अहिलाएं ण कुठबदे णाणी । मण वाया कारण य बंभवई सो हवे सदओ ॥ ८३ जो कय-कार-सोय-मण-वय-काएण मेहुणं चयदि बंभपवज्जारूढो बंभवई सो हमें सदओ ||८४ जो आरंभ ण कुणदि अण्णं कारयवि णेव अणुमण्णे । हिंसासंतट्टमणो चत्तारंभो हवे सो हु ॥१८५ जो परिवज्जइ गंथ अभ्यंतर बाहिरं च साणंदो । पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥८६ बाहिरथ विहीणा दलिद्दमणवा सहावदो होंति । अब्भंतरगंधं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं ॥ ८७ जो अणुमणण ण कुणदि गिहत्थकज्जेसु पावमूलेतु । भवियत्वं भवंतो अणुमणविरओ हवे मोदु ॥ ८८ जो पुर्ण चिदिकज्ज सुहासुहं राय- - दोससंजुत्तो उवओगेण विहीणं स कुणदि पावं विणा कज्जं ॥ ८९ t सचित्तविरत प्रतिमाधारो श्रावक है। जो पुरुष जिस सचित्त वस्तुका स्वयं नही खाता है, उसे दूसरे को खानेके लिए देना योग्य नहीं है। क्योंकि खाने और खिलाने में कोई अन्तर नहीं है ।। ७८-७९ ।। जिस पुरुषने सचित्त वस्तुके खानेका त्याग कर दिया है, उसने अपनी दुर्जय जिव्हाको जीत लिया है। उसने दयाभाव भी प्रकट किया और जिनेन्द्रदेवके वचनोंका भी पालन किया है ||20|| अब रात्रिभोजन त्यागप्रतिमाका वर्णन करते हैं- जो ज्ञानी पुरुष खाद्य (दाल-भात आदि) स्वाद्य मिठाई आदि) ले ( अवलेह चटनी आदि) और पेय ( पानी दूध आदि) इन चारों ही प्रकारके भोजनको रात्रिमें न स्वयं खाता है और न दूसरोंको खिलाता है, वह रात्रिभोजनविरतप्रतिमाधारी श्रावक हैं ||८१|| जो पुरुष रात्रि - भोजनका त्याग करता है, वह एक वर्षमें छह मास उपवास करता है। क्योंकि वह रात्रि आरम्भका त्याग करता है ।।८२|| अब प्रह्मचर्यप्रतिमाका वर्णन करते है-जो जाती श्रावक मन, वचन और कायसे सभी प्रकारकी स्त्रियोंकी अभिलाषा नहीं करता, वह दयालु ब्रह्मचर्यव्रतका धारक हैं ॥ ८३ ॥ जो कृत कारित अनुमोदना, मन-वचन और कायसे मैथुन - सेवन छोड़ता है, वह ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यप्रतिमारूढ दयालु श्रावक है ॥ ८४ ॥ भावार्थ उक्त दोनों ही गाथाओं में 'सदय' पद प्रयुक्त हुआ हैं, जिसका अभिप्राय यह है कि स्त्रीका सेवन करनेवाला पुरुष स्त्रीकी योनि उत्पन्न होनेवाले असंख्य सूक्ष्म त्रस-जन्तुओंका घात करता हैं और स्त्री - सेवनका त्यागी उनकी रक्षा करता है, अतः वह दयालु है । अब आरम्भत्याग प्रतिमाका वर्णन करते हैंहिंसासे दुखित मनवाला जो श्रावक कृषि, व्यापारादि आरम्भ कार्यको न स्वयं करता है, न औरसे कराता है और न आरम्भ करनेवालोंको अनुमोदना ही करता हैं, वह आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी श्रावक है ।। ८५ ।। अब परिग्रहत्यागप्रतिमाका वर्णन करते है - जो ज्ञानी पुरुष बाहिरी और भीतरी परिग्रहको पाप मानता हुआ प्रसन्नता पूर्वक उसे छोड़ता हैं, वह निर्ग्रन्थ परिग्रह त्यागी है ॥ ८६ ॥ क्योंकि दरिद्र मनुष्य तो स्वभावसे ही बाहिरी परिग्रहसे रहित होते है । किन्तु भीतरी परिग्रहको छोड़ने के लिए कोई भी समर्थ नहीं होता है || ८७|| अब अनुमतित्यागप्रतिमाका वर्णन करते हैं - जो पुरुष पापमूलक गृहस्थीके कार्योकी अनुमोदना नहीं करता हैं, किन्तु पुत्र-पौत्रादिका भविष्य उनके भवितव्य के अधीन हैं, ऐसी भावना करता हुआ गृहकार्योंसे उदासीन रहता है, वह अनुमति विरत प्रतिमाधारी है ||८| जो पुरुष राग-द्वेष के संयुक्त होकर अपने उपयोग या प्रयोजनसे रहित शुभ २७ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रावकाचार-संग्रह जों णवकोडिविसुद्धं मिक्खायरणेण भुंजदे भोज्जं । जायणरहियं जोग्गं उद्दिट्टाहार विरदो सो॥९० जो सावयवयसुद्धों अंते आराहणं परं कुणदि । सो अच्चुम्हि सग्गे इंदो सुद-से विदो होदि ।।९१ अशुभ कार्योका चिन्तवन करता हैं, वह कार्यसे बिना ही पापका संचय करता है ।।८९।।अब उद्दिष्टत्यागप्रतिमाका वर्णन करते हैं-जो श्रावक (गृह-वास छोडकर) भिक्षावृत्तिसे याचना-रहित, नवकोटिसे विशुद्ध योग्य आहारको खाता है, वह उद्दिष्टाहार-विरत प्रतिमाका धारक हैं ।। ९० ।। अब आचार्य श्रावकधर्मके वर्णनका उपसंहार करते हुए अन्तिम सल्लेखना और उसके फलका वर्णन करते है-इस प्रकार जो पुरुष श्रावकके उपर्युक्त व्रतोंका अतीचार-रहित शुद्ध पालन करता हुआ जीवनके अन्तमै परम आराधना अर्थात् सल्लेखनाको धारण कर मरण करता है, वह अच्युत स्वर्गमें देवोंसे सेवित इन्द्र होता हैं ।।१३।। इस प्रकार स्वामिकात्तिकेयातुप्रेक्षा गत श्रावकधर्मका वर्णन समाप्त हुआ। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-अष्टत्रिंशत्तमं पर्व जयन्त्यखिलवाङ्मार्गगामिन्य सूक्तयोऽहंताम्, धतान्धतमसा दीप्रा यस्त्विषोंऽशमतामिव ॥१ सजीयावृषभो मोहविषसुप्तमिदं जवात् । पविद्येव यद्विद्या सद्यः समदतिष्ठपत २ . तं नवा-परम ज्योतिर्वषम वीरमन्वतः । द्विजन्मनामथोत्पत्ति वक्ष्ये अणिक भोः शृणु । ३ भरतो भारत वष निजित्य सह पाथिवैः । षष्टया वषसहस्रेस्तु दिशां निववृते जयात् । ४ कृतकृत्यस्य तस्यान्तश्चिन्तेयमुदपद्यत । परार्थे सम्पदास्माको सोपय गा कथ भवेत् ॥५ महामहमहं कृत्वा जिनेन्द्रस्य महोदयम् । प्राणयामि जगद्विश्वं विष्वक् विप्राणयन धनम् । ६ नानगारा वसून्यस्मत् प्रतिगृहन्ति नि स्पृहा । सागार: कतमः पूज्यो धनधान्यसमृद्धिभि: ॥७ येणवतधरा धीरा धौरेया गृहमेधिनाम् । तपणीयाहि तेऽस्माभिरीप्सितर्वसुबाहनः ।।८ इति निश्चित्य राजेन्द्रः सत्कर्तुमुचिता निमान् । परीचिक्षिषुराव्हास्त तदा सर्वान् महीभुजः ॥९ सदाचार निजरिष्टः अनुजीविभिरन्विताः । अद्यास्मदुत्सवे यूयं आयातेति पृथक पृथक ।।१० हरितैरगडकुरैः पुष्पैः फलैश्चाकीर्णमङ्गणम् । सम्म्राडचीकरतेषां परीक्षायै स्ववेश्मनि ।।११ समस्त भाषाओंमें परिणत होनेवाली, अज्ञानरूप गाढ अन्धकारका नाश करनेवाली और सूर्यकी किरणोंके समान उज्ज्वल प्रकाशवाली अहंन्त भगवन्तों की सूक्तियाँ सदा जयवन्त रहे। ११. मोह रूपी विषसे सुप्त (व्यास) इस समस्त जगत्को गारुडी विद्याके समान जिनकी विद्याने अतिशीघ्र जगाकर सावधान और स्वस्थ कर दिया, वे वृषभ भगवान् सर्वदा जयशील रहें ।२।। गौतम स्वामी राजा श्रेणिकको सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हे श्रेणिक, मैं उन परम ज्योति वाले ऋषभ देवको तथा वीरनाथको नमस्कार कर अब द्विजन्मो ब्राह्मणों की उत्पत्तिको कहूंगा, सो तू सावधान होकर सुन ।।३।। ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र आदि चक्रवर्ती भरत महाराज राजाओंके साथ ही इस भारतवर्षको जीतकर साठ हजार वर्षमें दिग्विजय करके वापिस अयोध्याको लौटे ॥४॥ जब वे करनेके योग्य सभी राज-कार्योको कर चुके. तब उनके हृदयमें यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि दूसरोंके उपकारमें हमारी इस सम्पदाका सदुपयोग कैसे होवे। ५॥ उनके चित्तमें विचार आया कि मैं जिनेंद्र देवकी महान् उदयवाली · महामह' नामक पूजा को करके और सर्व जगत्को अपना यह धन देता हुआ उसे प्रसन्न करूँ । ६।। परिग्रहकी इच्छा रहित निर्ग्रन्थ मुनिजन तो हम गृहस्थो से धन लेते नहीं हैं। फिर कौन सा सागार (गृहस्थ) धन धान्यरूप समृद्धिके द्वारा पूज्य हैं । ७।। तब भरतके मनमे उचित विचार उदित हुआ कि जो मनुष्य अगुव्रतोंके धारक हैं, धीर वीर हैं, और गृहस्थोंमें अग्रणी या प्रमुख हैं, ऐसे पुरुष ही हमारे द्वारा अभीष्ट धन और वाहनों (गज-अपूवादि) के द्वारा दान देकर सन्तुष्ट करनेके योग्य हैं ।।८।। इस प्रकार निश्चयकर परिक्षा करनेके इच्छुक भरतराज ने सत्कार करनेके योग्य उन गृहस्थोंको तथा सभी राजाओं को उस समय बुलवाया ॥९॥ और तबकी यह बन्देश भेजा कि आपलोक अपने सदाचारी इष्ट बन्धुओं और परिजनोंके साथ आज हमारे उत्सव में पथक्-पृथक् आवें ।।१०।। इधर सम्राट भरतने उन लोगोंकी परीक्षाके लिए अपने राजभवनमें आंगनको हरे दूर्वा-अंकुरोंसे, पुष्पों और फलोंसे व्याप्त करा दिया ॥११॥उन आमंत्रित व्यक्ति Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्रावकाचार - संग्रह तेष्वव्रता विना सङ्गात् प्राविक्षन् नृपमन्दिरम् । तानेकतः समुत्सायं शेषानाहययत् प्रभुः ॥ १२ से तू स्वव्रत सिद्धयर्थमीहमाना महान्वयाः । नैषुः प्रवेशनं तावद्द् यावदार्द्राङ्कुराः पथि ॥ १३ सघान्यैईरितः कीर्णमनाक्रम्य नृपाङ्गणम् । निश्चक्रमुः कृपालुत्वात् केचित् सावद्यमीरवः ॥४१ कृतानुबन्धना भूयश्चक्रिणः किल तेऽन्तिकम् । प्रासुकेन पथाऽन्येन भेजुः क्रान्त्वा नृपाङ्गणम् ||१५ प्राक् केन हेतुना यूयं नायाता पुनरागताः । केन ब्रूतेति पृष्टास्ते प्रत्यभाषन्त चक्रिणम् ।।१६ प्रवालपत्रपुष्पादेः पर्वणि व्यपरोपणम् । न कल्पतेऽद्य तज्जानां जन्तूनां नोऽनभिहाम् ॥। १७ सन्त्येवानन्तशों जीवा हरितेष्वङ्कुराविषु । निगोता इति सार्वज्ञं देवास्माभिः श्रुतं वचः ॥१८ तस्मान्नास्माभिराक्रान्तमद्यत्वे त्वद्- गृहाङ्गणम् । कृतोपहारमार्द्राद्रिः फलपुष्पाकु रादिभिः ।।१९ इति तद्वचनात् सर्वान् सोऽभिनन्द्य दृढव्रतान् । पूजयामास लक्ष्मीवान् दानमानादिसत्कृतैः ॥ २० तेषां कृतानि चिन्हानि सूत्र: पद्माण्हयान्निधेः । उपात्तै ब्रह्मसूत्रान्हेरेकाद्येकादशान्तकैः ॥ २१ गुणभूमिकृताद् भेदात् क्लृप्तयज्ञोपवीतिनाम् । सत्कारः क्रियते स्मैषामभ्रताश्च बहिः कृताः ॥ २२ अथ ते कृतसन्मानाः चक्रिणा व्रतधारिणः भजन्तिस्म परं दार्क्ष्य लोकश्चैनान पूजयत् ||२३ इज्यां वार्ता च दति च स्वाव्यायं संयमं तपः श्रुतोषासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥ २४ 1 योंमें जो अव्रती थे, वें लोग किसी प्रकारका विचार किये विना राज - मन्दिर प्रविष्ट हो गये । तब भरत नरेशने उन्हें एक और हटा कर बाहिर खडे हुए शेष लोगों को बुलवाया ॥ १२ ॥ किन्तु उत्तम वंशवाले और अपने अहिंसाव्रतकी सिद्धि या सुरक्षा के इच्छुक उच्चकुलीन लोगोंने जब तक आनेके मार्ग में जलसे गीले और हरे अंकुर विद्यमान है, तब तक राज- मन्दिर में प्रवेश करनेकी इच्छा नहीं की ।। १३ ।। और दयालु होनेसे कितने ही पाप - भीरू लोग हरे धान्योंसे व्याप्त राजभवन के आँगन का उल्लंबन किये बिना ही वापिस लोट गये ।। १४ । पुनः भरतराजके द्वारा बहुत अनुनन- विनय किये जाने पर वापिस लौटे हुए वे लोक दूसरे प्रासुक ( जीव-रहित अचित्त) मार्गसे राजागडणका उल्लंघन कर चक्रवर्ती भरतके समीप पहुंचे ॥ १५ ॥ तब चक्रवर्तीने उन लोगोंसे पूछा कि आप लोग पहले किस कारण से नहीं आये थे और पुनः किस कारणसे आये ? तब उन लोगोंने चक्रवर्तीसे कहा ||१६|| आज पर्व के दिन हम लोग प्रबाल, पत्र, पुष्पादिक की, तथा उनमें उत्पन्न हुए और हमारा कुछ भी विघात नहीं करनेवाले जन्तुओंकी हिंसा नहीं करते है ॥ १७ ॥ हे देव, 'हरित' अंकुरादिकम अनन्त निगोदिया जीव होते हैं ऐसा सर्वज्ञोक्त वचन हम लोगोंने सुना हैं ||१८|| इसलिए अत्यन्त गोले फल, फूल और अंकुरादिसे शोभायमान किये गये आपके गृहाङ्गणको आज पर्व के दिन हम लोगोंने उल्लंघन नहीं किया हैं ।। १९।। इस प्रकार उनके वचनोसे प्रसन्न हुए उस श्रीमान् भरतराजने दान, मानादि सत्कारोंसे अभिनन्दन कर उन दृढव्रती लोगोकी पूजा की ||२०|| तथा पद्म नामक निधिसे व्रत-चिन्ह स्वरूप ब्रह्म सूत्र नामक सुत्रसे प्रथम प्रतिमाका आदि लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक श्राव एकको आदि लेकर ग्यारह तककी संख्या में व्रत - परिचायक चिन्ह किये । अर्थात् जो श्रावक जितनी प्रतिमाओंका धारक था, उसे उतने ही ब्रह्मसूत्र पहनाये || २१ || इस प्रकार श्रावक व्रतरूप गुणोंकी प्रतिमारूप भूमिके आधारके भेदसे उन व्रती श्रावकोंकों यज्ञोपवीत पहनाकर चत्रवर्ती ने उनका सत्कार किया और जो अव्रतीं लोग थे, उन्हें बाहिर निकाल दिया । २२ ।। अथानन्तर चक्रवर्तीके द्वारा सन्मानको प्राप्त हुए वे व्रत-धारी लोग अपने अपने व्रतोंका और भी दृढता से पालन करने लगे और अन्य लोग उनका आदर-सत्कार करने लगे ||२३|| भरतराजने उपास Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन कुलधर्मोऽयमित्येषामहत्पूजादिवर्णनम् । तदा भरतराजर्षिरन्ववोचदनुक्रमात् ॥२५ प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टान्हिकोपि च ॥२६ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानाऽर्चा गन्धपुण्पाक्षताविका ।। २७ चैत्यचैत्यालयादोनां भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम् ।।२८ याच पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी । स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः ।।२९ महामकुटबद्धश्च विमाणी महामहः । चतुर्मुखः स बिज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ।।३०। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राभिर्यः प्रवर्त्यते । कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः । ३१ आष्टान्हिका मह सार्वजनिका रूढ एव सः । महानन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः ॥३२ बलिस्नपमित्यन्यस्त्रिसन्ध्यासेवया समम । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादशम् ॥३३. एवंविधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्दामुशन्तीज्यां यत्ति प्राथमकल्पिकीम् ॥३४ वार्ता विशुद्धवृत्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठितिः । चतुर्धा वणितादत्तिः दया-पात्र समान्वथे।।३५ काध्ययन नामक सातवें अंगसे उन व्रती लोगोंके लिए इज्या (पूज्या) वार्ता, दत्ति (दान) स्वाध्याय, संयम और तपका उपदेश दिया ।।२४।। पूजा आदि षट्कर्मोका पालन करना इन गृहस्थोंका कुलधर्म है, ऐसा विचार कर भरतराजषिने उस समय उन व्रती गृहस्थोंके लिए अनुक्रमसे अर्हत्पूजा आदि षट्कर्त्तव्योका उपदेश दिया ।।२५।। भरतने बताया कि उपासकाध्ययन सूत्रमें अर्हन्तदेवकी पूजा चार प्रकारकी कही गई है- नित्यमह (सदार्पण), चतुर्मुख मह, कल्पद्रुम और आष्टन्हिक पूजा । २६।। उनमेंसे प्रतिदिन अपने गृहसे जिनालयमें ले जाये गये गन्ध पुष्प, अक्षत आदिके द्वारा जिन भगवानकी पूजा करना नियमह कहलाता हैं ॥२७॥ अथवा भक्तिसे जिन बिम्ब और जिनालय आदिका निर्माण कराना, तथा उनके संरक्षणके निए ग्राम आदिका राज्यशासनके अनुसार पंजीकरण करा करके दान देना भी नित्यमह कहलाता हे ॥२.८।। तथा अपनी शक्तिके अनुसार मनीश्वरोकी नित्य आहारादि दान देतेके साथ जो पूजाकी जाती हैं, वह भी नित्यमह जानना चाहिए । ३९॥ महामुकुटबद्ध राजाओके द्वाराकी जानेवाली महापूजाको महामह कहते है। उसीके चतुर्मुख और सर्वतोभद्र नाम भी जानना चाहिए ॥३० । चक्रवतियोंके द्वारा 'तुम लोग क्या चाहते हो' इस प्रकार अर्थी या याचक जनोंसे पूछ पूछ कर जगकी आशाको पूर्ण करने वाला जो किमिच्छक दान दिया जाता है वह कल्पद्रुममह या कल्पवृक्षयज्ञ कहलाता है ।। ३१ ।। अष्टान्हिका पर्व में सर्ब साधारण जनोंके द्वारा किया जानेवाला पूजन अष्टान्हिक मह कहलाता है, जो कि संसारमें प्रसिद्ध हैं। इन चार प्रकारके महों (पूजनों) के सिवाय इन्द्रोंके द्वारा की जानेवाली महान पूजनको इन्द्रध्वजमह कहते हैं। (आजके युगमें प्रतिमाको प्रतिष्ठाके निमित्त प्रतिष्ठाकारकोंके द्वारा जो पंचकल्याणक पूजन की जाती है उसे भी इन्द्रध्वज मह जानना चाहिए।)॥३२॥ इनके अतिरिक्त जो बलि (नैवेद्य) चढाना, अभिषेक करना, आरती करना आदि कार्य तीनों सन्ध्याकालों में की जाने वालि सेवा-उपासनाके साथ किये जाते हैं, तथा इसी प्रकारके अन्य जो भी पूजा-आराधनाके कार्य गहस्थों द्वारा प्रति दिन किये जाते है, उन सबको उपर्युक्त पूजनके भेदों में ही अन्तर्गत जानना चाहिए । ३३।। इस प्रकारके विधि-विधानसे जिनेन्द्रदेवकी जो महापूजाकी जाती है, उसे विधिवेत्ता आचार्य श्रावकके षट्कर्तव्योंमें सर्व प्रथमकी जानेवाली इज्या वृत्ति कहते हैं ॥३४॥ विशद्ध प्रवृत्तिके साथ कृषि आदिक आजीविकाका अनुष्ठान करना वार्ता नामक गृहस्त्रका दूसरा कर्तव्य है। श्रावकका तीसरा कर्तव्य दत्ति अर्थात् दान देता हैं । वह दयादत्ति, पात्रदत्ति सम और अन्वयदत्ति Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रावकाचार-संग्रह सानुकम्पमनग्राह्ये प्राणिबृन्देऽभयप्रदा । त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधः ॥३६ महातपोधनायार्या-प्रतिग्रहपुरःसरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिण्यते ।। ३७ समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रवतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥३८ समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृता श्रद्धयाऽन्विता ॥३९ आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यदशेषतः । समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥४० सैषा सकलदत्ति: स्यात स्वाध्याय श्रुतमावना · तपोऽनशनवृत्त्यादि संयमो व्रतधारणम ॥४१ विशुद्धा वृत्तिरेषैषां षट्तयोष्टा द्विजन्मनाम् । योऽतिक्रामेदिमां सोऽज्ञो नाम्नेव न गुण द्धिजः ।।४२ तप.श्रतञ्च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स ॥४३ अपापोपहता वृत्ति: स्यादेषां जातिरुत्तमा । दत्तीज्याधीतिमुख्यत्वाद् व्रतशुद्धया सुसंस्कृता ॥४३ मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्ति भेदाहिताझेदाच्चातुविध्यमिहाश्नुते ॥४५ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनात्याय्यात शद्रा न्यग्वत्तिसंश्रयात ॥४॥ तप:श्रुताभ्यामेवातो जातिसंस्कार इष्यते । असंस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विजः ॥४७ के भेदसे चार प्रकारकी वर्णन की गई हैं ।।३५।। अनुग्रह करनेके योग्य-दयाके पात्र दीन प्राणिसमदाय पर मन, वचन, कायको निर्मलताके साथ अनुकम्पा पूर्वक उनके भय दूर करनेको विद्वान लोकों ने दयादत्ति कहा है ।। ३६ ॥ महान् तपस्वी साधुजनोंके लिए प्रतिग्रह (पडिगाहन) आदि नवधा भक्ति पूर्वक आहार, औषध आदिका देना पात्रदत्ति कही जाती है ।।३७।। क्रिया, मंत्र और व्रत आदिसे जो अपने समान हैं, ऐसे अन्य साधर्मी बन्धुके लिए और संसार-तारक उत्तम गृहस्थके लिए भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। तथा मध्यमपात्र में समान सम्मानकी भावनाके साथ श्रद्धासे यक्त जो दान दिया जाता हैं, वह भी समानदत्ति हे । ३८-३९।। अपनें वंशको स्थिर रखने के लिए पुत्रको कुलधर्म ओर धनके साथ जो कुटुम्ब-रक्षाका भार पूर्ण रूपसे समर्पण किया जाता हैं, उसे सकलदत्ति कहते हैं। श्रुतज्ञानकी भावना करना अर्थात् शास्त्रोंका मनन-चिन्तन और पठन-पाठनादि करना स्वाध्याय कहलाताहै उपवासआदिकरनातप है और व्रत-धारण करनेकोसंयमकहते हैं। ४०-४१॥ यह ऊपर कही गयी छह प्रकारकी विशुद्ध बृत्ति द्विजन्मा-ब्रह्मसूत्रधारी गृहस्थोंको करना चाहिये । जो इनका उल्लंघन करे, वह अज्ञानी नामसे ही द्विज हैं, गुणोंसे द्विज नहीं समझना चाहिये ।।४।। तप, श्रुत और जाति ये तीन द्विज या ब्राह्मणपनेके कारण है । जो गृहस्थ तप और श्रुतसे रहित हैं. वह केवल जातिसे ब्राह्मण हैं । गुण या कर्मसे नहीं, ऐसा समझना चाहिये ॥४३॥ इन द्विजन्मा ब्राह्मणोंको वृत्ति पापसे रहित हैं। इसलिए इसकी जाति उत्तम कहलाती है। तथा दान, पूजन, अध्ययन आदि कार्योकी मुख्यतासे व्रतोंकी शुद्धि होने के कारण वह ब्राह्मण जाति और भी सुसंस्कृत हो गई हैं, अर्थात् अच्छे संस्कारवाली बन गई हैं ।४४।। यद्यपि मनुष्य जातिनामक नामकार्यके उदयसे उत्पन्न हुई यह मनुष्य जाति एक ही हैं, तथापि आजीविकाके भैदसे प्राप्त हुई विभिन्नताके कारण वह संसार में चार भेदोंको प्राप्त हो गई है। ४५।।व्रतोंके संस्कारसे ब्राह्मण, शास्त्रोके धारण करनेसे क्षत्रिय, न्याय पूर्वक अर्थके उपार्जन करनेसे वैश्य और तिम्न वृत्तिका आश्रय लेनेसे मनुष्य शद्र कहलाते हैं।।४६ । अतएव द्विजोंका जातिसंस्कार तप और श्रुतके अभ्याससे ही माना जाता है। जो द्विज इन दोनोंसे १. ल. अ. गुणौद्विजः । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म - वर्णन द्विजतो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातों गर्भतश्च यः । क्रियामन्त्रविहीनस्तु केवलं नाम धारकः ॥४८ तदेषां जातिसंस्कारं द्रढयन्निति सोधिराट् । संप्रोवाच द्विजन्मभ्यः क्रियाभेदानशेषतः ॥४९. तारच क्रियास्त्रिधाऽऽस्नाताः श्रावकाध्यायसङ्ग्रहे । सद्द्दृष्टिभिरनुष्ठेया महोबर्काः शुभ वहाः || ५० गर्भावयक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्वयक्रियाः । कर्त्रन्वय क्रियाश्चेति तास्त्रिधैवं बुधैर्मताः ॥५१.३० आधानाद्यास्त्रिपञ्चाशत् ज्ञेया गर्भान्वयक्रियाः । चत्वारिंशदथाष्टौ च स्मृता दीक्षान्वय क्रियाः ॥५२ कर्त्रन्वयाक्रियाश्चैव सप्त तज्ज्ञ समुच्चिताः । तासां यथाक्रमं नामनिर्देशोऽयमनूद्यते ॥ ५३ अङ्गानां सप्तमादङ्गाद् दुस्तरादर्णवादपि । इलोकैरष्टाभिरुन्नेष्ये प्राप्तं ज्ञानलवं मया ॥५४ आधानं प्रीतिसूत्रीतो धृतिर्मोदः प्रियोद्भवः । नामकर्मबहिर्यान निषद्याः प्राशनं तथा ॥५५ aftera haature लिपिसङ्ख्यानसङ्ग्रहः । उपन तितं चर्या व्रतावतरणं तथा ॥५६ विवाहो वर्णलामश्च कुलचर्या गृहीशिता । प्रशान्तिश्च गृहत्यागो दीक्षाद्यं जिनरूपता ॥५७ मीनाध्ययनवृत्तत्वं तीर्थं कृत्वस्य भावना । गुरुस्थानाभ्युपगमोगणोपग्रहणं तथा ॥ ५८ स्वगुरुस्थान संक्रान्तिः निस्सङ्गत्वात्मभावना । योग निर्वाण सम्प्राप्ति, यगनिर्वाण साधनम् । ५९ इन्द्रपपादाभिषेको विधिदानं सुखोदयः । इन्द्रत्यागावतारौ च हिरण्योत्कृष्टजन्मता ॥ ६० मन्दरेन्द्राभिषेकश्च गुरुपूजोपलम्भनम् । यौवराज्यं स्वराज्यं च चक्रलाभो विशाञ्जयः ॥ ६१ african frष्क्रान्तिर्योगसम्महः आर्हन्त्यं तद्विहारश्च यं गत्यागोऽग्र निर्वृतिः ॥६२ त्रयः पंचाशदेता हि मता गर्भान्वयक्रियाः । गर्भाधानादिनिर्वाणपर्यन्ताः परमागमे ॥ ६३ असंस्कृत हैं, वह जातिमात्रसे द्विज कहलाता हैं ||४७ || जिसका एक वार गर्भसे और दूसरी वार क्रियाओंके संस्कारसे जिसका जन्म हुआ हैं, वह द्विज कहलाता हैं । किन्तु जो क्रिया और मन्त्रसे रहित हैं, वह तो केवल नामधारक द्विज हैं. वास्तविक नहीं ||४८ | इसलिए इन द्विजोंके जातिसंस्कारों को दृढ करते हुए उस सम्राट भरतराजने उन द्विजोंके लिए वक्ष्यप्रमाण प्रकारसे समस्त क्रियाभेदोंको कहा ।। ४९ ।। थावकोंके उपासकाध्ययनसूत्रमें वे क्रियाएँ तीन प्रकारकी कही गयी हैं । सम्यग्दृष्टि गृहस्थोंको उन क्रियाओंका अवश्य पालन करना चाहिये, क्योंकि वे क्रियाएँ उत्तम फलafrat और कल्याणकारिणी हैं ॥ ५० ॥ बुद्धिमान् लोगोंने वे क्रियाएँ तीन प्रकारकी कही हैंगर्भाया, दीक्षान्वयक्रिया और कर्त्रन्वयक्रिया ।। ५१ ।। गर्भाधान आदि तिरेपन गर्भान्वयक्रियाएँ जानना चाहिए। तथा दीक्षान्वय क्रियाएँ अडतालीस मानी गई हैं ।। ५२ ।। इनके अतिरिक्त कियाशास्त्र वेत्ताओंने कर्त्रन्वय क्रियाएँ समुच्चयरूपसे सात कहीं हैं । अब आगे यथाक्रमसे उन क्रियाओंके भेदोंका नाम निर्देश किया जाता हैं ॥५३॥ श्रुतज्ञानके बारह अंगों में समुद्रसे भी दुस्तर सप्तम उपासकाध्ययन अङ्गसे मुझे जो लेशमात्रज्ञान प्राप्त हुआ हैं, उसके द्वारा में आठ श्लोकोंसे उन क्रिया - भेदोंको कहता हूँ - १, गर्भाधान, २. प्रीति, ३. सुप्रीति, ४. घृति, ५. मोद, ६. प्रियो द्भव, ७. नामकर्म, ८. बहिर्यांन, ९. निषद्या, २०. प्राशन, ११. व्युष्टि, १२. केशवाप, १३. लिपिसंख्यान संग्रह, १४, उपनीति, १५. व्रतचर्या, १६. व्रतावतरण, १७. विवाह, १८. वर्णलाभ, १९. कुलचर्या, २०. गृहीशिता, २१, प्रशान्ति, २२.गृहत्याग, २३. दीक्षाद्य, २४, जिनरूपता, २५. मौनाध्ययनवृत्तत्व, २६. तीर्थकृत्वभावना, २७. गुरुस्थानाभ्युपगम, २८. गणोपग्रह, २९. स्वगुरुस्थानसंक्रान्ति, ३०. निःसंगत्वभावना, ३१. योगिनि - र्वाण संप्राप्ति, ३२. योगनिर्वाणसाधन, ३३. इन्द्रोपपाद, ३४. अभिषेक, ३५. विधिपान, ३६ सुखोदय, ३७. न्द्रत्याग, ३८,अवतार, ३९. हिरण्योत्कृष्टजन्मता, ४० मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१. गुरुपूजोपलम्भन, ४२. ३३ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रावकाचार-संग्रह मवतारो वृत्तलामः स्थानलामो गणग्रहः । पूजाराध्यपुण्ययज्ञो दृढचर्योपयोगिता ॥ ६४ इत्युद्दिष्टाभिरपामिरुपनीत्यादयः क्रिया: । चत्वारिंशत्प्रमायक्ता: ताः स्युःक्षान्वयक्रियाः ॥ ६५ तास्तु कर्बन्वया ज्ञेया या: प्राप्या: पुण्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः सन्मार्गाराधनस्य वै ॥ ६६ सज्जातिः सद्ग्रहित्वं च पारिवाज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमाहंन्त्यं परनिर्वाणमित्यपि ॥ ६५ स्थानान्येतानि सप्त स्युः परमाणि जगस्त्रये । अर्हद्वागमृतास्वादात् प्रतिलभ्यानि देहिनाम् ॥ ६८ क्रियाकल्पोऽयमाम्नातो बहुभेदो महषिभिः । सङ्क्षपतस्तु तल्लक्ष्म वक्ष्ये सञ्चक्ष्य विस्तरम् ॥६१ आधानं नाम गर्भादो संस्कारो मंत्रपूर्वकः । पत्नीमृतुमती स्नातां पुरस्कृत्यादिज्यया ॥७० तत्रार्चनाविधी चक्रत्रयं छत्रत्रयान्वितम् । जिना मभितः स्थाप्यं समं पुण्याग्निमिस्त्रिभिः ।। ७१ प्रयोऽन्योऽहंदगणमच्छेषकेवलिनिर्वती। ये हतास्ते प्रणेतव्या: सिद्धार्चावेद्यपाश्रयाः ।। ७२ तेष्वहंदिज्वाशेषांशेराहुतिमंन्त्रपूर्विका । विधेया शुचिभिर्द्रव्यः पुंस्पुत्रोत्पत्तिकाम्यया ॥ ७३ तन्मन्त्रास्तु यथाम्नायं वक्ष्यन्तेऽन्यत्र पर्वणि । सप्तधा पीठिकाजातिमन्त्रादिप्रविमागतः ॥७४ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनः । अव्यामोहावतस्तज्जैः प्रयोज्यास्त उपासकः ॥ ७५ यौवराज्य, ४३. स्वराज्य, ४४.चक्रलाभ,४५.दिग्विजय,४६.चक्राभिषेक, ४७. साम्राज्य,४८.निष्कान्ति, ४९.योगसम्मह,५०.आर्हन्त्य,५१.अर्हद्विहार,५२. योगत्याग और ५३. अग्रनिर्वृत्ति । इस प्रकार गर्भाधानसे लेकर निर्वाणपर्यन्त तिरेपन क्रियाएँ परमागममें वर्णन की गई है ।। ५४-६३ ।।१. अवतार, २. वृत्तलाभ, ३. स्थानलाभ, ४. गणग्रह, ५. पूजाराध्य, ६ पुण्ययज्ञ, ७. दृढचर्या और ८.उपयोगिता इन आठ क्रियाओंके साथ पूर्वोक्त चौदहवीं उपनीति क्रियासे लेकर तिरेपनवीं निर्वाण क्रिया पर्यन्त चालीस क्रियाएँ मिलाकर कुल अडतालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ होती हैं ।। ६४-६५ ।। कत्रन्वयक्रियाएँ उन्हे जानना चाहिए जो पुण्यकार्य करनेवाले मनुष्यों को प्राप्त होने के योग्य है और जो निश्चयसे सन्मार्गकी आराधनाके फलरूपसे प्रवृत्त होती है ।। ६६ ।। वे कर्बन्वयक्रियाएँ सात है१.सज्जाति, २. सद्-गृहित्व, ३. पारिव्राज्य, ४. सुरेन्द्रता, ५. साम्राज्य,६.परमाईन्त्य और ७.परमनिर्वाण 1 ये सातों ही तीनों लोकोंमें परमस्थान माने गये है और इनकी प्राप्ति प्राणियोंको अरहन्तदेवकी वाणीरूपी अमृतके आस्वादनसे अर्थात् जिन वाणीके अभ्याससे होती हैं ।। ६७-६८ ॥ यद्यपि महान ऋषियोंने इन सब क्रियाओंका विधान अनेक भेदवाला वर्णन किया है,तथापि मैं विस्तारको छोडकर संक्षेपसे ही उन क्रियाओंका लक्षण कहूंगा ॥६९।। रजस्वला पत्नीको चौथे दिन स्नान करके शुद्ध होनेके पश्चात् उसे आगे करके गर्भ-धारण करने के पूर्व अरहन्तदेवकी पूजाके साथ मन्त्र-पूर्वक जो संस्कार किया जाता है, उसे आधान क्रिया कहते हैं ॥ ७० ॥ इस आधान क्रियाकी पूजामें जिनप्रतिमाके दायीं ओर तीन चक्र, बायीं ओर तीन छत्र और सामने तीन प्रकारकी पुण्याग्निको स्थापित करे ॥७१॥ तीर्थकर अर्हन्तदेवके निर्वाण होनेपर गणधर देवोंके निर्वाण होनेपर और सामान्य केवलियोंके निर्वाण होनेपर उनके अन्तिम संस्कारके समय जिन अग्नियोंमें हवन किया गया था उन तीनों पवित्र अग्नियोंको सिद्ध प्रतिमाकी वेदीके समीप तैयार करना चाहिए ॥७२॥ अर्हन्तदेवकी पूजा करनेके पश्चात् बचे हुए शेष द्रव्यांशसे, तथा अन्य पवित्र द्रव्योंके द्वारा उत्तम-पुत्रके उत्पत्तिकी कामनासे मंत्रपूर्वक उक्त तीनों अग्नियोंमें आहुति देना चाहिए ॥७३॥आहुति देनेके वे मन्त्र आगेके पर्वमें आम्नायके अनुसार कहे जावेंगे। वे पीठिकामन्त्र, जातिमन्त्र आदिके भेदसे सात प्रकारके हैं 11 ७४ ॥ जिन भगवन्तोंने इन मन्त्रोंका प्रयोग सभी क्रियाओंमें बतलाया हैं, अतएव उस विषयके . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन गर्भाधान क्रियामेनां प्रयुज्यादौ यथाविधि । सन्तानार्थ विना रागाद् दम्पतिभ्याविधीयताम् ॥७६ ( इति गर्भाधानम् ) गर्भाधानात् परं मासे तृतीये सम्प्रवर्तते । प्रोति म क्रिया प्रीतैः याऽनुष्ठेया द्विजन्ममिः ॥७७ तत्रापि पूर्ववन्मन्त्रपूर्वा पूजा जिनेशिनाम् । द्वारि तोरणनिन्यासः पूर्णकुम्भौ च सम्मती ॥७८ तदादि प्रत्यहं मेरीशब्दो घण्ट ध्वनान्वितः । यथाविभवमेवैतैः प्रयोज्यो गृहमेधिभिः । ७९ (इति प्रीतिः) आधानात् पंचमे मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते । या सुप्रीतः प्रयोक्तव्या परमोपासकवतः । ८० तत्राप्युक्तो विधिः पूर्वः सर्वोऽहंबिम्बसन्निधौ । कार्यो मन्त्रविधानज्ञैः साक्षीकृत्याग्निदेवताः।।८१ ( इसि सुप्रीतिः ) धृतिस्तु सप्तमे मासि कार्यात द्वत् क्रियादरः । गृहमेधिभिरव्यग्रमनोभिर्गर्भवृद्धये।।८२॥ (इति धृतिः) नवमे मास्यतोऽभ्यणे मोदो नाम क्रियाविधिः । तद्वदेवाहतैः कार्यो गर्भपुष्टय द्विजोत्तमैः ।। ८३ तष्टो गात्रिकाबन्धी मागल्यं च प्रसाधनम् । रक्षासूत्रविधानं च गभिण्या द्विजसत्तमः ।।८४ (इति मोदः ) प्रियोद्भवः प्रसूतायां जातकर्मविधिः स्मृतः । जिनजातकमाध्याय प्रवयो यो यथाविधि ।।८५ अवान्तर विशेषोऽत्र क्रियामन्त्रादिलक्षणः। भूयान् समस्त्यतीज्ञेयो मूलोपासकसूत्रतः।। ८६ प्रियोद्भवः) द्वादशाहात् प नामकर्म जन्मदिनान्मतम् । अनुकूले सुतस्यास्य पित्रोरपि सुखावहे ॥८७ जाननेवाले श्रावकोंको व्यामोह (हठाग्रह) छोडकर जिन मन्त्रोंका प्रयोग करना चाहिए ॥७५।। इस गर्भाधान क्रियाको पहले विधिपूर्वक करके पीछे स्त्री और पुरुष विषयानुरागके विना केवल सन्तानकी प्राप्तिके लिए समागम करें।७६।। ( यह पहली गर्भाधान क्रिया है) गर्भाधानके पश्चात् तीसरे मासमें प्रीति नामकी क्रिया की जाती है, जो प्रीतिको प्राप्त द्विजोंके द्वारा अनुष्ठान करने के योग्य हैं। ७७ ।। इस क्रियामें भी पहलेके समान मंत्र-पूर्वक जिनेश्वरदेवकी पूजा करना चाहिये, तथा द्वारपर तोरण बाँधना चाहिए और दो जलसे भरे कलश स्थापन करना चाहिए ।। ७८ ।। उस दिनसे लेकर इन द्विज गृहस्थोको प्रतिदिन अपने वैभवके अनुसार घण्टा और नगाडे बजवाना चाहिये ॥७९॥ (यह दुसरी प्रीतिक्रिया है) गर्भाधानसे पाँचवें मासमें सुप्रीति क्रिया की जाती है। इसे भी अतिप्रीतिको प्राप्त परम श्रावकोंको करना चाहिए ।।८। इस क्रियामें भी पूर्वोक्त सर्बविधि अहंद्-बिम्बके समीप मंत्र-विधानके ज्ञाता गृहस्थोंको अग्नि और देवताकी साक्षी करके करना चाहिए ॥ ८१ ।। (यह तीसरी सुप्रीति क्रिया है) गर्भाधानसे सातवें मासमें आदर पूर्वक स्थिर चित्तवाले गृहस्थोंको पूर्वके समान ही गर्भकी वृद्धिके लिए धृति नामकी क्रिया करना चाहिए ।।८२। (यह चौथी धृतिक्रिया है) इसके पश्चात् नवम मासके समीप आनेपर मोदनामक क्रियाविधि पूर्वके समान ही आदर युक्त उत्तम द्विज गृहस्थोंको गर्भकी पुष्ठिके लिए करना चाहिए ।।८३। इस क्रियामें उत्तम द्विजोंको गर्भिणीके शरीरपर गात्रिका बन्ध करना चाहिए, अर्थात् मन्त्र-पूर्वक बीजाक्षर लिखना चाहिये, मंगलाचार करना चाहिए, गर्भिणीको आभूषण पहिराना चाहिए और उसकी रक्षाके लिए रक्षासूत्र बाँधना चाहिए ।।८४ । (यह पाँचवी मोदक्रिया है) पुत्रके उत्पन्न होनेपर प्रियोद्भव नामकी क्रिया की जाती है। इसे जातकर्म विधि कहते हैं । इस क्रियाको जिन भगवान्का जन्मसमय स्मरण कर शास्त्रोक्त विधिसे करना चाहिए॥८५।। इस क्रिया में क्रियामंत्र आदि अवान्तर विशेष कार्य बहत - होते हैं, वे सब मूल उपासकाध्ययन सूत्रसे जानना चाहियें ।।८६॥(यह छठी प्रियोद्भव क्रिया है ) पुत्रके Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह यथाविभवमत्रेष्टं देवर्षिद्विजपूजनम् । शस्तं च नामधेयं तत् स्थाप्यमन्वयवृद्धिकृत् ॥ ८८ अष्टोत्तरसहस्राद्वा जिननामदम्बकात् । घटपत्रविधानेन ग्राह्यमन्यतमं शुभम् ॥ ८९ (इति नामकर्म) बहिर्यानं ततोद्वित्रः मासस्त्रिचतुरैरुत । यथानुकूलमिष्टेऽन्हि कार्य तूर्यादिमगलैः ।। ९० तत्रप्रभृत्यभीष्टं हि शिशोः प्रसववेश्मनः । बहिः प्रणयनं मात्रा धाव्युत्सङ्गगतस्य वा ॥ ९१ तत्र बन्धुजनावर्थलाभो यः पारितोषिकः। स तस्योत्तरकालेऽर्यो धनं पित्र्यं यदाप्स्यति ।। ९२॥ (इति.बहिर्यानम् ) ततः परं निषद्यास्य क्रिया बालस्य कल्प्यते । तद्योगेतल्प आस्तीण कृतमगङ्लनिधो ॥ ९३ सिद्धार्चनादिकः सर्वो विधिः पूर्ववदत्र च । यतो दिव्यासनाहत्वमस्य स्यादुत्तरोत्तरम् ।। ९४ (इति निषिद्या) गते मासपृथक्त्वे च जन्माद्यस्य यथाक्रमम् । अन्नप्राशनमाम्नातं पूजाविधिपुरःसरम् ।। ९५ (इति अन्नप्राशनम् ) जन्म-दिनसे बारह दिनके बाद जो दिन पुत्रके अनुकूल हो, तथा माता-पिताको सुखदायक हो, उस दिन नामकर्मकी क्रिया की जाती हैं ॥४७॥ इस क्रियामें अपने वैभवके अनुसार अरहन्त देव और निर्ग्रन्थ गुरुओंकी पूजा और ब्राह्मणोंका यथोचित सत्कार करना चाहिए । तथा वंशकी वृद्धि करनेवाला कोई सुन्दर नाम बालकका रखना चाहिए ॥८८॥ अथवा जिनदेवके एक हजार आठ नामोंमेंसे घट-पत्रविधानसे कोई एक शुभ नाम रखना चाहिए ॥८९॥भावार्थ-जिनेन्द्र देवके एक हजार आठ नामोंको कागजके अलग अलग टुकडों पर अष्टगंध या केशरसे सुवर्ण या अनारकी लेखनीसे लिखकर उनकी गोलिया बना लेवे । पुनः उन्हे एक घटमें भरकर पीत वस्त्र और नारियलसे ढक देवे । तदनन्तर एक कागज पर 'नाम'ऐसा शब्द लिखकर गोली बनावें और एक हजार सात कोरे कागजोंके टुकडोंकी भी गोलियाँ बनाकर उन सबको दूसरे घडे में भरकर ढक देवे । तत्पश्चात् किसी छोटे अबोध बालक या बालिकासे दोनों घडोंमेंसे एक एक गोली निकलवा लें। जिस नामकी गोलीके साथ नाम लिखी गोली निकले, वही नाम बालकका रखना चाहिए । यह घटपत्रविधि कहलाती है । यह सातवी नामकर्म संस्कार क्रिया है । तत्पश्चात् दूसरे-तीसरे अथवा तीसरे चौथे मास में किसी शुभदिन तुरही आदि मांगलिक बाजोंको बजवाते हुए अपने अनुकूल वैभवके साथ बहिर्यान क्रिया करना चाहिए ॥ ९० ॥ जिस दिन यह क्रिया की जाय, उसी दिनसे माता अथवा धायकी गोदी में बैठे हुए बालकका प्रसूतिगृहसे बाहिर ले जाना शास्त्र-सम्मत माना गया है।।९१॥ इस क्रिया करते समय उस बालकको बन्धुजनोंसे जो भी पारितोषिक (भेंट) रूपसे धनका लाभ हो,वह सब उसे उस समय समर्पित करना चाहिए,जब कि वह पिताका उत्तराधिकारी बन कर पिता के धनको प्राप्त करे । अर्थात् पिताके गृहवास छोडते समय देना चाहिए ।।९२।। यह आठवी बहिर्यानक्रिया हैं। तदनन्तर उस बालककी निषद्याक्रिया की जाती है । इस क्रियामें अन्य मांगलिक कार्योंके साथ बालकके योग्य विछायी गयी शय्या पर उसे बैठाया जाता हैं । इस क्रियामें सिद्धपूजनादिक सर्व विधि पूर्वके समान ही करना चाहिए, जिससे कि उस बालकको उत्तरोत्तर दिव्य आसन पर बैठने की योग्यता प्राप्त हो ।।९३-९४।। यह वमी निषद्याक्रिया है । इस प्रकारयथा क्रमसे जन्म-दिनके पश्चात् सात-आठ मास व्यतीत होने पर जिनेन्द्रदेवकी पूजन आदि विधिपूर्वक बालवा: . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ३७ ततोऽस्य हायने पूर्णे व्युष्टि म क्रिया मता । वर्षकधनपर्यायशब्दवाच्या यथाभुतम् ॥ ९६ अत्रापि पूर्ववद्दानं जैनी पूजा च पूर्ववत् । इष्टबन्धुसमान्हानं समाशादिश्च लक्ष्यताम् ।। ९७ (इति व्यष्टि:) केशवापस्तु केशानां शुभेऽन्हि व्यपरोपणम् । क्षौरेण कर्मणा देवगरुपूजापुर:सरम् ।। ९८ गन्धोदकाद्रितान् कृत्वा केशान् शेषाक्षतोचितान् । मौण्ड्यमस्य विधेयं स्यात् सचूलं स्वाऽन्वयोचितम् ।। ९९ स्नपनोदकधौंताङ्गमनुलिप्तं सभूषणम् । प्रणमय्य मुनीन् पश्चाद् योजयेद् बन्धुनाशिषा ॥ १०० चोलाख्यया प्रतीतेयं कृत पुण्याहमगङ्ला । क्रियास्यामादतो लोको यतते परया मुदा ।। १०. (इति केशवापः) ततोऽस्य पञ्चमे वर्षे प्रथमाक्षरदर्शने । ज्ञेयः क्रियाविधिर्नाम्ना लिपिसंख्यानसग्रहः ॥ १०२ यथाविभवमत्रापि ज्ञेयः पूजापरिच्छवः । उपाध्यायपदे चास्य मतोऽधीती गहवती ।। १०३ (इति लिपिसङ्ख्यानङ्ग्रह) क्रियोपनीति मास्य वर्षे गर्भाष्टमे मता । यत्रापनीतकेशस्य मोजीसव्रतबन्धना ॥ १०४ कृतार्हत्पूजनस्यास्य मौजीबन्धो जिनालये । गुरुसाक्षि विधातव्यो वतार्पणपुरस्सरम् ।। १०५ शिखी सितांशुकः सान्तर्वासा निर्वेषविक्रियः । व्रतचिन्हं दधत्सूत्रं तदोक्तो ब्रह्मचार्यसौ ॥ १०६ को अन्न खिलाना चाहिए ॥९५ । यह दशवी अन्नप्राशन क्रिया है तत्पश्चात् वालकको एक वर्षका होनेपर व्युष्टि नामकी क्रिया की जाती हैं। इस क्रियाका शास्त्रानुसार दूसरा नाम वर्षवर्धन या वर्षगांठ हैं ॥ ९६ ।। इस क्रिया में भी पर्व क्रियाके समान दान देना चाहिए और पूर्ववत् ही जिनपूजा करना चाहिए। इस समय इष्ट बन्धुओंको बुलाना चाहिए और भोजनादि करना चाहिए॥९७।। यह ग्यारहवीं व्युष्टि क्रिया है । तदनन्तर किसी शुभ दिन देव और गुरुकी पूजा बालकके केशोंका क्षौरकर्मसे अपनयन करावे । यह केशवाप क्रिया कहलाती है ।। ९८ । इस समय बालकके बालोंको गन्धोदकसे गीला कर और उन पर पूजनसे शेष रहे अक्षतोंको रखकर चोटी-सहित याअपने वंशकी पद्धतिके अनुसार मुंडवाना चाहिए ।।९९।। पुनः स्नानके योग्य जलसे उसका शरीर धोवे, चन्दन आदिका लेप करे,भूषण पहिनावे और मुनि जनोंको नमस्कार कराकर पीछे बन्धुजनोसे आशीष दिलावे ॥१००। यह चौल त्रिया नामसे प्रसिद्ध है। इस क्रिया पुण्याह मंगल किया जाता है और कुटुम्वीजन परम हर्षके साथ आदर पूर्वक इसमें सम्मिलित होते है ॥१०१।। यह बारहवीं केशवाप क्रिया है । तत्पश्चात् पाँचवें वर्ष में वालकको सर्वप्रथम अक्षरोंका दर्शन कराने में जो क्रियाविधि की जाती हैं,उसशा ‘लिपि संख्यान संग्रह'यह नाम जानना चाहिए। इसे करते समय अपनी सामर्थ्यके अनुसार पूजन-दान आदि करना चाहिए और जो अध्ययन कराने में कुशल गृहस्थ विद्वान् हो,उसे बालकका उपाध्याय नियुक्त करें ।१०२-१०३।। यह तेरहवीं लिपिसंख्यान क्रिया है । तदनन्तर गर्भसे आठवें वर्षमें उस बालककी उपनीति (यज्ञोपवीतधारण) क्रिया होती है। इस क्रियामें केशोंका मुण्डन, व्रत-बन्धन और मौंजीबन्धन किया जाता है ॥ १०४ ॥ प्रथम ही बालकको जिनालयमें ले जाकर उससे अरहन्त देवकी पूजन करावे । पुनः गुरुकी साक्षी पूर्वक उसे व्रत दिलाकर मौंजी बंधनकरना चाहिए। अर्थात् बालककी कमरमें मजकी रस्सी बाँधे ।।१०५।। जो शिखा (चोटी) सेयुक्त है,श्वेत वस्त्रका धोती और दुपट्टा धारण किये हैं, निर्विकार वेषका धारक है, ऐसा वह बालक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रावकाचार-संग्रह चरणोचितमन्यच्च नामधेयं तदस्य वै। वृत्तिश्च भिक्षयाऽन्यत्र राज्यन्यादुद्धवैभवात् ॥१०७ सोऽन्तःपुरे चरेत पात्र्यां नियोग इति केवलम् । तदनं देवसात्कृत्य ततोऽन्न योग्यमाहरेत् ।।१०८ __ (इत्युपनीतिः) वतचर्यामतो वक्ष्ये क्रियामस्योपविभ्रतः । कटयुरूर:शिरोलिङ्गमनूचानव्रतोचितम् ॥१०९ कटीलिङगं भवेदस्य मौजी बन्धात्त्रिभिर्गुणैः । रत्नत्रितयशध्यगतद्धि चिन्हं द्विजात्मनाम् ॥११० तस्येष्टमूलिङ्ग च सुधौतसितशाटकम् । आर्हतानां कुलं पूतं विशाल चेति सूचने ॥१११ उरोलिङ्गमथास्य स्याद ग्रथित सप्तभिर्गुण: यज्ञोपवीतकं सप्तपरमस्थानसूचकम् ।। ११२ शिरोलिगञ्च तस्यष्टं परं मौण्डयमनाविलम् । मौण्डयं मनोवचःकायगतमस्योपबृहयत् ॥११३ एवं प्रायेणलिङ्गेन विशुद्धं धारयेद् व्रतम् । स्थूलहिंसाविरत्यादिब्रह्मचर्योपबृंहितम् ।।११४ दन्तकाष्ठग्रहो नास्य न ताम्बूलं न चाञ्जनम् । न हरिद्रादिभिः स्नानं शुद्धस्नानं दिन प्रति।।११५ न खट्वाशयनं तस्य नान्याङ्गपरिघट्टनम् । भूमो केवलमेकाको शयीत् व्रतशुद्धये ॥११६ यावद विद्यासमाप्तिःस्यात् ताववस्य दृशंवतम् । ततोऽप्यूज़ वत् तत् स्याद् यन्मूल गहमेधिनाम्॥११७ सूत्रमोपासिकं चास्य स्यादध्येयं गरोर्मुखात् । विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ।।११८ व्रतके चिन्हस्वरूप उस यज्ञोपवीतसूत्रको धारण करता हुआ उस समयसे ब्रह्मचारी कहा जाता है ।।१०६।। उस समय उसके आचरणके योग्य अन्य भी नाम रखे जा सकते है। ऐश्वर्यशाली राजपुत्रोंको छोडकर शेष सब ब्रह्मचारी भिक्षावृत्तिसे अपना निर्वाह करें । तथा जो राजपुत्र है, वह भी अन्तःपुरमें जाकर माता आदिसे किसी पात्रमें भिक्षा माँगे, क्योंकि उस समय भिक्षा माँगनेका यह केवल नियोग है । भिक्षामें प्राप्त आहारका मुख्य भाग अरहन्तदेवको समर्पण कर शेष योग्य अन्नका स्वयं आहार करे ।।१०७-१०८॥ यह चौदहवीं उपनीति क्रिया हैं । अब ब्रह्मचर्यव्रतके योग्य कटि, जाँध, वक्षःस्थळ और शिरके चिन्हको धारण करनेवाले उस ब्रह्मचारी बालकके धारण करने योग्य व्रतचर्या नामकी क्रियाको कहते हैं ।।१०९॥ तीन लडीवाली मूजकी रस्सी कमरमें बाँधना कटिचिन्ह हैं। यह मौंजी बन्धन रत्नत्रयको विशुद्धिका अंग हैं और द्विज लोगोंका एक चिन्ह है ।।११०।। भली भाँतिसे धली हई श्वेत धोती धारण करना जाँचका चिन्ह हैं यह उज्ज्वल धोती अरहन्त देवोंके पवित्र और विशाल कुलकी सूचक है ।।१११॥ सात लडका गूंथा हुआ यज्ञोपवीत वक्षःस्थलका चिन्ह है। यह यज्ञोपवीत सात परमस्थानोंका सूचक है ॥११२।। उस ब्रह्मचारीके शिरका चिन्ह स्वच्छ उत्तम मुण्डन है। यह मुण्डन उसके मन, वचन और कायके मुण्डनको अर्थात् विषयोंकी अनासक्तिको बढानेवाला हैं ।।११३।। प्रायःइस प्रकारके चिन्होसे विशुद्ध और ब्रह्मचर्य व्रतसे वद्धिको प्राप्त हुए ऐसे स्थूल हिंसाविरति आदि अणुव्रत उसे धारण करना चाहिए ॥११४।। यह ब्रह्मचारी न काठ. की दातुन करे, न ताम्बूल खावे, न आँखोंमें अंजन लगावे और न हलदी आदिसे स्नान ही करे । किन्तु प्रतिदिन केवल शुद्ध जलसे स्नान करे ॥११५॥ उसे खाट या पलंग पर नहीं सोना चाहिए, न उसे दूसरेके शरीरसे अपना शरीर ही रगडना चाहिए। किन्तु अपने व्रतकी शुद्धि के लिए वह भूमिपर केवल अकेला ही सोवे ।।११६।। जब तक इसका विद्याभ्यास सम्पूर्ण न हो, तब तक उसे इस प्रकारके व्रतोंका धारण करना आवश्यक हैं । विद्याभ्यास समाप्त होनेके पश्चात् उसे गहस्थोंके वे प्रसिद्ध अष्ट मूलगुण धारण करना चाहिए ।।११७ ।। इस ब्रह्मचारीको सर्वप्रत्रम गरुके मखसे विनयके साथ उपासकाध्ययनसूत्रका अध्ययन करना चाहिए । पुनः अध्यात्म विषयक अन्य भी शास्त्र . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ३९ शब्दविद्याऽर्थशास्त्रावि चाध्येयं नास्य दुष्यति । सुसंस्कारप्रबोधाय वैयात्यख्यातयेऽपि च ।। ११९ ज्योतिर्ज्ञानमथच्छन्दो ज्ञानं ज्ञानं च शाकुनम् । सङ्ख्याज्ञानमितीदं च तेनाध्येयं विशेषतः ।। १२० ( इति व्रतचर्या) ततोsस्याधीतविद्यस्य व्रतवृत्यवतारणम् । विशेषविषयं तच्च स्थितस्योत्सगिके व्रते ।। १२१ मधुमांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । हिंसादिविर तिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ।। १२२ व्रतावतरणं चेदं गुरुसाक्षी कृतार्चनम् वत्सराद् द्वादश। दूध्वमथवा षोडशात् परम् ।। १२३ कृतद्विजार्चनस्यास्य व्रतावतरणोचितम् । वस्त्राभरणमात्यादिग्रहणं गुर्वनुज्ञया ।। १२४ शस्त्रोपजीविवग्यंश्चेद् धारयेच्छास्त्रमप्यदः । स्ववृत्तिपरिरक्षार्थ शोभार्थ चास्य तग्रहः ।। १२५ भोगब्रह्मव्रतादेवमवतीर्णो भवेत्तदा । कामब्रह्मव्रतं त्वस्य तावद्यावत्क्रियोत्तरा ।। १२६ (इति व्रतावतरणम् ) ततोऽस्य गुर्वनुज्ञानादिष्ा वैवाहिकी क्रिया । वैवाहिके कुले क न्यामुचितां परिणेष्यतः ।। १२७ सिद्धः न विधिसम्यक् निर्वर्त्य द्विजसत्तमाः । कृताग्नित्रय सम्पूजाः कुर्युस्तत्साक्षितां क्रियाम् ।। १२८ पुण्याश्रमे क्वचित् सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया भूत्या कार्य: पाणिग्रहोत्सवः ।। १२९ वैद्य प्रणीतमग्नीनां त्रयं द्वयमर्थककम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रसज्य विनिवेशनम् ॥ १३० पढना चाहिए ।। ११८|| तत्पश्चात् संस्कारों को जागृत करनेके लिए तथा विद्वत्ता प्राप्त करने के लिए शब्द विद्या (व्याकरण) अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र आदिका अध्ययन उसके लिए दोषकारक नहीं है ।। ११९ ।। इसके पश्चात् उसे विशेष रूपसे ज्योतिर्ज्ञान, छन्दोज्ञान, शाकुनज्ञान, संख्याज्ञान, बढानेके लिए तद्विषयक शास्त्रोंको भी पढना चाहिए ।। १२० ।। यह पन्दरहवीं, व्रतचर्या क्रिया हैं । विद्याध्ययन के पश्चात् उसके व्रतावरण क्रिया की जाती । इस क्रियामें वह औत्सिर्गिक व्रतरूप मूलगुणोंमें स्थित रहते हुए अध्ययनके समय के लिए हुए विशेष व्रतोंका अवतरण या त्याग कर देता है ।। १२१ ।। उस समय उसके मधुत्याग, मांस-परित्याग, पंच उदुम्बर फल- भक्षण- परिहार और हिंसादि पापोंसे विरतिरूप सार्वकालिक औत्सर्गिक व्रत जन्मपर्यन्त रहते है ।। १२२ ।। यह व्रतावतया गुरु साक्षी पूर्वक भगवान् की पूजाकर बारह वर्ष के बाद अथवा सोलह वर्ष के पश्चात् करना चाहिए ॥। १२३ ।। प्रथम ही द्विजोंका आदर-सत्कार करके व्रतावतरण क्रिया करना उचित है । तत्पश्चात् गुरुकी आज्ञा लेकर वस्त्र आभूषण और माला आदिको धारण करना चाहिए ।। १२४ ॥ इसके पश्चात् वह बालक यदि शस्त्रोपजीवी क्षत्रिय वर्गका हैं, तो अपनी जीविकाकी रक्षाके लिए शस्त्रोंको भी धारण कर सकता है । अथवा केवल शोभाके लिए भी शस्त्र धारण कर सकता है। ।। १२५ ।। इस प्रकार इस क्रियाके समय तक भोग-उपभोगके परित्यागके साथ जो ब्रह्मचर्यव्रत ले रखा था, उसका उसके यद्यपि त्याग हो जाता हैं, तथापि जब तक आगेकी वैवाहिकी क्रिया सम्पन्न नहीं होती हैं, तब तक उसके विषय सेवनके त्यागरूप ब्रह्मचर्य व्रत बना रहता हैं ।। १२६ । यह सोलहवीं व्रतावतरण क्रिया है । तदनन्तर जो विवाह करना चाहता है उसके गुरुकी अनुज्ञा लेकर विवाह के योग्य कुलमें उत्पन्न हुई योग्य कन्याके साथ विवाह करते समय वैवाहिकी क्रिया होती है । १२७ ।। उत्तम द्विजोंको चाहिए कि वे सर्वप्रथम भली भाँति से सिद्ध भगवान् की पूजन करके पुनः तीनों अग्नियोंकी जतन करके उसकी साक्षीपूर्वक विवाहकी क्रियाको करें ।। १२८ ।। किसी पुण्याश्रम या पवित्र स्थानपर सिद्धभगवान्‌ की प्रतिमाके सम्मुख उन दम्पति बननेवाले वर-वधूको बड़ी विभूति के साथ विवाहका उत्सव करना चाहिए ।। १२९ ॥ विवाह के समय वेदी पर जो तीन, दो Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्रावकाचार-संग्रह - पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्तं तद्वधूवरम् । आसप्ताहं चरेद् ब्रह्मवतं देवाग्निसाक्षिकम् ॥१३१ क्रान्त्वा स्वस्योचितां भूमि तीर्थभूमीविहत्य च । स्वगृहं प्रविशेद भूत्या परया तद्वधूवरम् ।।१३२ विमुक्तकडकणं पश्चाद् स्वगृहे शयनीयकम् । अधिशय्य यथाकालं भोगाङ्गरुपलालितम् ॥१३३ सन्तानार्थमतावेव कामसेवां मिथो भजेत् । शक्तिकालव्यपेक्षोऽयं मोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ॥१३४ (इति विवाहक्रिया । ) एवं कृतविवाहस्य गार्हस्थ्यमनुतिष्ठतः । स्वधर्मानतिवृत्यर्थ वर्णलाभमतो अवें ।। १३५ ऊदमार्योऽप्यय ताववस्वतन्त्रो गुरोगुहे । ततः स्वातन्त्र्यसिद्धयर्थवर्णलाभोऽस्य वर्णितः ।।१३६ . गुरोरनुज्ञया लब्धधनधान्यादिसम्पदः । पृथक्कृतालयस्यास्य वृत्तिर्वर्णाप्तिरिष्यते ।।१३७ तदापि पूर्ववत्सिद्धप्रितमानर्चमग्रतः । कृत्वाऽस्योपासकान् मुख्यान साक्षीकृत्यार्पये धनम् ।।१३८ धनमेतदुपादाय स्थित्वाऽस्मिन् स्वगृहे पृथक् । गृहिधर्मस्त्वया धार्यः कृत्स्नो दानादिलक्षणः ॥१३९ यथाऽस्मत्पितवत्तेन धनेनास्माभिरजितम् । यशोधर्मश्च तद्वत्त्वं यशोधार्मानुपाज॑य ।।१४० इत्येवमनुशिष्यनं वर्णलामे नियोजयेत् । सदारः सोऽपि तं धधर्म तथानष्ठातुमर्हति ॥१४१ (इति वर्णलाभक्रिया) लब्धवर्णस्य तस्येति कुलचर्याऽनुकीय॑ते । सात्विज्यादत्तिवातादिलक्षणा प्राप्रपञ्चिता ॥१४२ अथवा एक अग्नि उत्पन्न की है, उसकी प्रदक्षिणाएँ देकर वर-वधूको समीप ही बैठना चाहिए ॥१३० । इस पाणिग्रहण (विवाह) की दीक्षामें नियुक्त उन वर-वधूको देव और अग्निकी साक्षी पूर्वक सात दिन तक ब्रह्मचर्यव्रत धारण करना चाहिए ।। १३१ ।। पुनः अपने योग्य किसी देशमें परिभ्रमण कर, अथवा तीर्थभूमियों पर विहार करके वर और वधु परम विभूतिके साथ अपने घरमें प्रवेश करें।।१३२॥तत्पश्चात् कंकण-बंधनसे विमुक्त हुए वे वर-वधू अपने घरमें भोगोपभोगके साधनोंसे सुशोभित शय्यापर योग्यकालमें शयन कर केवल सन्तान प्राप्तिके लिए ही ऋतुकालमें परस्पर काम-सेवन करें। काम-सेवनका यह क्रम शक्ति और समयकी अपेक्षा रखता है। अतः अशक्त स्त्री-पुरुषको इससे विपरीत करना चाहिए, अर्थात्, ब्रह्मचयंसे रहना चाहिए ॥१३३-१३४। यह सत्तरहवी वैवाहिकी क्रिया है । इस प्रकारसे विवाह करनेवाले और गृहस्थ धर्मका पालन करनेवाले पुरुषके लिए अपने धर्मका उल्लंघन न करे, इस कारण अब वर्णलाभ क्रियाको कहते हैं ।।१३५।। विवाहित भी यह पुरुष जब तक पिताके घरमें रहता है, तब तक वह स्वतंत्र नहीं है, अतः स्वतंत्रता प्राप्त करनेके लिए यह वर्णलाभ क्रिया वर्गन की गई हैं ।।१३६।। पिताकी अनुज्ञासे जिसे धन-धान्यादि सम्पदाएँ प्राप्त हो गई है और रहनेके लिए जिसे आलय भी पृथक् मिल गया हैं, ऐसे पुरुषकी स्वतंत्र आजीविकामें लगनेंको वर्णलाभ कहते हैं ।।१३७।। इस क्रियामें भी पूर्वके समान सर्वप्रथम सिद्धप्रतिमाकी पूजन करके पिता अन्य प्रमुख श्रावकोंको साक्षी बनाकर पुत्रको अपना धन अर्पण करे और कहे कि हे वत्स, तुम इस धनको लेकर इस अपने घरमें पृथक रहो और तुम्हें दान-पूजा आदि करते हुए पूर्ण गृहस्थधर्म धारण करना चाहिए ।। १३.८-१३९ ।। जिस प्रकार हमारे पिताके द्वारा दिये गये धनसे हमने यश और धर्मका उपार्जन किया है, उसी प्रकार तुम भी गृहस्थ धर्मको पालते हुए यश और धर्मका उपार्जन करो ।।१४०।। इस प्रकारसे पुत्रको उचित शिक्षा देकर पिता उसे वर्णलाभसे नियुक्त करे, अर्थात् अपनी आजीविकाके उपार्जनके लिए स्वतंत्र कर देवे । पुनः उस पुत्रको भी अपनी स्त्रोके साथ पिता-द्वारा बतलाये गये मार्गसे गृहस्थधर्मका पालन करना चाहिए ॥१४१।। यह अठारहवीं वर्णलाभ क्रिया हैं । वर्णलाभ क्रियाके Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ४१ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषट् कर्मानुप्रवर्तनम् । गृहिणां कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यो मतः ।। १४३ ।। ( इति कुलचर्या क्रिया । ) कुलचर्यामनुप्राप्तो धर्मे दाढर्घमथोद्वहन् । गृहस्थाचार्य भावेन संश्रयेत् स गृहीशिताम् ।। १४४ ॥ ततो वर्णोत्तमत्वेन स्थापयेत् स्वां गृहीशिताम् । शुभवृत्तिक्रियामन्त्र विवाहै: सोत्तरक्रियैः ।। १४५ ।। अनन्यसदृशैरेभिः श्रुतवृत्तिक्रियादिभिः । स्वमुन्नत नयन्नेष तदाऽर्हति गृही शिताम् ।। १४६ ।। वर्णोत्तमो महादेवः सुश्रुतो द्विजसत्तमः । निस्तारको ग्रामयतिः मानार्हश्चेति मानितः ।। १४७ ॥ ( इति गृहीशिता । ) सोऽनुरूपं ततो लब्ध्वा सूनुमात्मभरक्षमम् । तत्रारोपितगार्हस्थ्यः सन प्रशान्तिमतः श्रयेत् ॥ १४८ ॥ ॥ विषयेष्वनभिष्वङ्गो नित्यस्वाध्यायशीलता । नानाविधोपवासैश्च वृत्तिरिष्टा प्रशान्तता ॥ १४९ ॥ ( इति प्रशान्तिः । ) ततः कृतार्थमात्मानमन्यम नो गृहाश्रमे । यदोद्यतो गृहत्यागे तदाऽस्यैष क्रियाविधिः ॥ १५० ॥ सिद्धाचंनां पुरस्कृत्य सर्वानाहूय सम्मतान् । तत्साक्षि सूनवे सर्व निवेद्यातो गृहं त्यजेत् ॥ १५१ ।। कुलत्रमस्त्वया तात सम्पाल्योऽस्मत्परोक्षतः । त्रिधा कृतं च नो द्रव्यं त्वयेत्थं विनियोज्यताम् । १५२ ॥ द्वारा स्वतंत्र वृत्ति करनेवाले उस गृहस्थ के लिए कुलचर्या नामकी क्रिया कही जाती है । पूजा, दत्ति वार्ता आदि लक्षणवाली इस कुलचर्याका वर्णन पहले विस्तारसे कह आये हैं ।। १४२ ।। विशुद्धरीतिसे आजीविका करना, तथा आर्य पुरुषोंके करने योग्य देवपूजा आदि षट् आवश्यक कर्माका पालना गृहस्थोंकी कुलचर्या मानी गई हैं और यही कुलधर्म कहलाता हैं ।। १४३ ।। यह उन्नीसवीं कुलचर्या । तत्पश्चात् कुलचर्याको प्राप्त वह श्रावक धर्म में दृढताको धारण करता हुआ गृहस्थाचार्य के रूपसे गृहशिताको स्वीकार करे, अर्थात् उसे गृहस्थाचार्य बनकर सब गृहस्थोंका स्वामी बनना चाहिए ।। १४४ ।। गृहस्थोंका स्वामी बननेके लिए आवश्यक है कि वह अपने आपको उत्तम वर्णवाला मान कर अपने में शुभ वृत्ति, क्रिया, मंत्र, विवाह आदि अनुत्तर या अनुपम क्रियाओंके द्वारा गृहीशिता स्थापित करे ।। १४५ ॥ । अन्य गृहस्थोंमें नही पाई जानेवाली पवित्र वृत्ति, क्रिया और श्रुतज्ञानकी प्राप्ति आदिके द्वारा अपनी उन्नति करता हुआ यह गृहस्थ गृहीशिता को पाने के लिए योग्य होता हैं ।। १४६ ।। गृहीशिता, गृहस्थ-स्वामी, या गृहस्थाचार्य के पदको प्राप्त करनेवाला वह श्रावक वर्णो = तम ( तीनों वर्णो मे श्रेष्ठ) महीदेव (भूदेव ) सुश्रुत ( उत्तम शास्त्रज्ञ ) द्विजसत्तम ( श्रेष्ठब्राह्मण ) निस्तारक (संसारसे पार उतारनेवाला) ग्रामपति ( नगर स्वामी) और सम्माननीय आदि नामों के द्वारा लोगों से सम्मानको प्राप्त होता है ।।१४७।। यह बीसवीं गृहीशिता किया हैं । तदनन्तर वह गृहस्थाचार्य अपने अनुरूप और अपने निजके गृह-भार सँभालनेमे समर्थ पुत्रको पाकरके उस पर गृहस्थीका भार समर्पण करता हुआ स्वयं परम शान्तिवृत्तिका आश्रय लेवे ।। १४८ ।। पंचेन्द्रियोंके विषयोंमे आसक्ति नही रखना, नित्य स्वाध्याय करना और नाना प्रकारके उपवास करते हुए समय बिताना प्रशान्तवृत्ति कहलाती हैं ।। १४९ ।। यह इक्कीसवीं प्रशान्तिक्रिया हैं । इस प्रकार प्रशांतवृत्तिको पालन करता हुआ और गृहाश्रममें अपनेको कृतार्थ मानता हुआ वह श्रावक जब गृहत्यागके लिए उद्यत होता हैं, तब उसके यह कही जानेवाली गृहत्यागक्रिया होती हैं ।। १५० ।। इस क्रिया में सिद्ध-पूजाको सर्व प्रथम करके अपने सर्व इष्टजनोंको बुलाकर उनकी साक्षीपूर्वक अपने पुत्र के लिए सब कुछ समर्पण कर उसे घरका त्याग कर देना चाहिए । १५१ ।। उस समय अपने ज्येष्ठ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह एकोऽशो धर्मकार्येऽतो द्वितीयः स्वगृहव्यये । तृतीयः संविभागाय भवेत्त्वत्सह जन्मनाम् ।। १५३॥ पुत्र्यश्च संविभागार्हाः समं पुत्रैः समांशकः । त्वं तु भूत्वा कुलज्येष्ठः सन्तति नोऽनुपालय ॥१५४।। श्रुतवृत्तक्रियामन्त्रविधिज्ञस्त्वमतन्द्रितः । प्रपालय कुलाम्नायं गुरुं देवांश्च पूजयन् ।।१५५।। इत्येवमनुशिष्य स्वं ज्येष्ठं सूनुमनाकुल: । ततो दीक्षामुपादातुं द्विजः स्वं गृहमुत्सृजेत् ।।१५६।। (इति गृहत्यागः।) त्यक्तागारस्य सदष्टे:प्रशान्तस्य गृहोशिनः । प्राग्दीक्षौपयिकात् कालादेशाटकधारिणः ।।१५७।। यत्पुरश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रतिधार्यते । दीक्षाधं नाम तज्ज्ञेय क्रिया जातां द्विजन्मन. ॥ १५८॥ (इति दीक्षाद्यम् । ) त्यक्ताचेलादिसङ्गस्य जैनी दीक्षामुपेयुषः । धारणं जातरूपस्य यत्तत् स्याज्जिनरूपता ।। १५९ ॥ अशक्यधारणं चेदं जन्तूनां कातरात्मनाम् । जैनं निस्सङ्गतामुख्यं रूपं धीरनिषेव्यते ।।१६०।। ( इति जिनरूपता।) कृतदीक्षोपवासस्य प्रवृत्तेः पारणाविधौ । मौनाध्ययनवृत्तत्वमिष्टमा(तनिष्ठिते: । १६१ ॥ वाचंयमो विनीतात्मा विशुद्ध करणत्रयः । सोऽधीयीत श्रुतं कृत्स्नमामूलाद्गुरुसन्निधो ॥ १६२ ॥ श्रुतं हि विधिनानेन भव्यात्मभिरूपासितम् । योग्यतामिह पुष्णाति परत्रापि प्रसीदति॥ १६३ ॥ ( अत्र मौनाध्ययनवृत्तत्वम् ।) पूत्रसे कहे-हे तात, हमारे परोक्षमें (पीछे) कुल-परम्परासे आया हुआ यह कुलधर्म तुम्हें भली भांतिसे पालन करना चाहिए । तथा मैंने अपने धनके जो तीन भाग किये है, उनका तुम्हें इस प्रकार विनियोग करना चाहिए-एक भाग तो धर्म-कार्यमें लगाना, दूसरा भाग अपने घरके कार्यो में व्यय करना और तीसरा भाग अपने सहजन्मा बन्धुओंको बराबर बाँट देना । पुत्रोंके साथ पुत्रियाँ भी समान भाग पानेके योग्य है । हे वत्स, तू कुलका ज्येष्ठ पुरुष हैं, यह ध्यानमें रख कर हमारी सन्तानका पालन करना ॥ १५२-१५४ ।। हे पुत्र, तू शास्त्र, सदाचार,क्रिया,मंत्र, आदिकी विधिका वेत्ता हैं, अतः प्रमाद-रहित होकर देव और गुरुकी पूजा करते हुए कुल-परम्पराका विधिवत् पालन करना ।। १५५ । इस प्रकारसे अपने ज्येष्ठ पुत्रको भली-भाँतिसे अनुशासित करके निराकुल होकर जिनदीक्षा ग्रहण करनेके लिए वह द्विज अपना घर छोड देवे ।। १५६ ॥ यह बाईसवीं गहत्याग क्रिया हैं । इस प्रकार गृहका त्याग करनेवाले, सम्यग्दृष्टि, प्रशान्तचित्त,एक वस्त्र-धारी उस गहस्थोंके स्वामीके जिनदीक्षाको ग्रहण करने के पूर्व कालमें जिन व्रतोंको धारण किया जाता है, उन सब व्रत-क्रियाओंके समुदायको द्विजकी दीक्षाद्य क्रिया कहते है । भावार्थ-जिन-(मुनि-) दीक्षाके पूर्व क्षल्लकके व्रत-धारण करनेका नाम दीक्षाद्य क्रिया हैं।।१५७-१५८। यह तेईसवीं दीक्षाद्यक्रिया हैं। पनः वस्त्र आदि सर्व परिग्रहका त्यागकर जैनीदीक्षाको प्राप्त होनेवाले उक्त पूरुषका यथाजात (नग्न-) रूप धारण करना जिनरूपता क्रिया हैं ।। १५९ ॥ जिनका आत्मा कातर या दीन हैं,ऐसे मनष्योंको इस जिनरूप मुद्राका धारण करना अशक्य हैं। निष्परिग्रहकी मुख्यतावाले इस जैन (दिगम्बर) रूपको धीर वीर पुरुष ही धारण करते हैं ।।१६०॥ यह चौबीसवीं जिनरूपता क्रिया हैं। जिसने दीक्षा धारणकर उपवास किया है, तथा विधिपूर्वक पारणा करने में प्रवत्ति की है ऐसा वह साध श्रुतके अभ्यास की समाप्ति पर्यन्त मौन धारणकर शास्त्रोंके अभ्यास में संलग्न रहता है, इसे मौनाध्ययनवृत्ति कहते है ॥ १६१ ॥ वचन-संयमी, विनय-शील,मन-कायसे विशुद्ध उस साधु-वचनको गरुके समीपमें रहकर आदिसे लेकर अन्त तक समस्त शास्त्रोंका अध्ययन करना चाहिये ॥१६२।। इसप्रकारकी विधिसे भव्यात्माओंके द्वारा उपासना किया गया यह शास्त्रज्ञान इस भवमें योग्यताको . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन ४3 ततोऽधीताखिलाचारः शास्त्रादिश्रुतविस्तर: । विशुद्धाचरणोऽभ्यस्येत् तीर्थकृत्त्वस्य भावनाम् ॥१६४ सा तु षोइशधाऽऽम्नाता महाभ्युदयसाधिनी । सम्यग्दर्शनशुद्धयादिलक्षणाप्राक्प्रपञ्चिता ।। १६५ ॥ (इति तीर्थकृद्भावना । ) ततोऽस्य विदिताशेषवेद्यस्य विजितात्मनः । गुरुस्थानाभ्युपगमः सम्मतो गुर्वनुग्रहात् ॥ १६६ ।।। ज्ञानविज्ञानसम्पन्नः स्वगुरोरभिसम्मतः । विनीतो धर्मशीलश्च य: सोऽर्हति गुरोः पदम् ।।१६७ ॥ ( गुरुस्थानाभ्युपगमः । ) तत: सुविहित यास्य युक्तस्य गणपोषणे । गणोपग्रहणं नाम क्रियाम्नाता महर्षिभिः ।। १६८ ॥ श्रावकानायिकासचं भाविकाः संयतानपि । सन्मार्गे वर्तयन्नेष गणपोषणमाचरेत् । १६९ ।। श्रुताथिभ्यः श्रुतं दद्यात् दीक्षाथिभ्यश्च दीक्षणम् । धाथिभ्योऽपि सद्धर्म स शश्वत् प्रतिपादयेत्।। १७० सद्वृत्तान् धारयन् सूरिरसद्वृत्तानिवारयन् । शोधयंश्च कृतादागोमलान् स बिभृयाद् गणम् ।। १७१ (इति गणोपग्रहणम्। ) गणपोषणमित्याविष्कुर्वन्नाचार्यसत्तमः । ततोऽयं स्वगुरुस्थानसंक्रान्तो यत्नवान् भवेत् ॥ १७२ ।। अधीतविद्यं तद्विद्यरादृतं मुनिसत्तमः । योग्यं शिष्यमथाहूय तस्मै स्वं भारयेत् ।। १७३ पुष्ट करता हैं और परभवमें प्रसन्न रखता हैं ।। १६३ ।। यह पचीसवीं मौनाध्ययनवृत्ति किया हैं। तदनन्तर जिसने समस्त आचार-शास्त्रोंका अध्ययन किया है, तथा शेष शास्त्रोंके अध्ययनसे जिसने समस्त श्रुतज्ञानका विस्तार प्राप्त कर लिया हैं और जिसका आचरण विशुद्ध है,ऐसा वह साधु तीर्थकर पदको प्राप्त करनेवाली भाबनाओंका अभ्यास करे ।। १६४ ।। महान् अभ्युदयकी साधक वे भावनाएँ सोलह कही गई हैं । सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि आदि उन सोलह भावनाओंका पहले विस्तारसे वर्णन किया गया हैं' ।। १६५ ।। यह छब्बीसवीं तीर्थकृद्-भावना नामकी क्रिया हैं। तदनन्तर जिसने समस्त विद्याएँ जान ली हैं और जिसने अपने आत्मापर विजय प्राप्तकर ली हैं, ऐसे उस साधुका गुरुके अनुग्रहसे गुरुका स्थान स्वीकार करना शास्त्र-सम्मत हैं ।। १६६ ।। क्योंकिजो ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न हो,अपने गुरुको अभीष्ट हो,विनीत हो और धार्मिक स्वभाववाला हो, ऐसा साधु ही गुरुके पदको धारण करने के योग्य होता हैं ।। १६७ ।। यह सत्ताईसवीं गुरुस्थानाभ्युपगम क्रिया हैं । तदनन्तर विधिपूर्वक साधुका आचार पालनेवाले और साधुगणोंके पालन-पोषण में समुद्यत साधुके गणोपग्रहण नामकी क्रिया महर्षियोंने कही हैं ।।१६८॥ इस क्रियाके धारक आचार्यको चाहिये कि वह मुनि, आर्यिका,श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विध संघको सन्मार्गमें लगाते हुए समस्त गणका पोषण करे ।। १६९ ।। ऐसे आचार्यका कर्त्तव्य हैं कि वह शास्त्राध्ययनके इच्छुक जनोंको शास्त्राध्ययन करावे, दीक्षाके इच्छुक जनोंको दीक्षा देवे और धर्स-श्रवणके इच्छुक लोगोंको निरन्तर सद्-धर्मका उपदेश करे। वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोंको गणमें रखे, असद् आचरण करनेवालोंको गणसे दूर करे और अपराध या दोष करनेवालोंके दोषोंका शोधन करते हुए समस्त गणकी रक्षा करे। १७०-१७१ ॥ यह अट्ठाईसवीं गणोपग्रहण क्रिया हैं । इस प्रकारसे गणका पोषण करता हुआ वह श्रेष्ठ आचार्य अपने गुरुका स्थान प्राप्त करनेके लिए प्रयत्नशील हो ॥ १७२ ॥ पुनः वह समस्त विद्याओंके अध्येता और विद्वान् श्रेष्ठ मुनियोंसे आदरको प्राप्त ऐसे किसी योग्य शिष्यको बुलाकर उसे अपने आचार्य पदके भारको सौंप देवे ।। १७३ ।। गुरुको अनुमतिसे वह शिष्य भी गुरुके स्थानपर अधिष्ठित होकर गुरुके Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रावकाचार-संग्रह गुरोरनमतात् सोऽपि गुरुस्थानमधिष्ठितः । गुरुवृत्ती स्वयं तिष्ठन् वर्तयेदखिलं गणम् ।। १७४ ॥ (इति स्वगुरुस्थानावाप्तिः ।) तत्रारोप्य भरं कृत्स्नं काले कस्मिश्चिदव्यथः। कुर्यादेकविहारीस निःसङ्गत्वात्मभावनाम् ॥ १७५ निःसङ्गवत्तिरेकाको विहरन् स महातपाः । चिकीर्षुरात्मसंस्कारं नान्यं संस्कर्तुमर्हति ।।१७६।। अपि राग समुत्सृज्य शिष्यप्रवचनादिषु । निर्ममत्वकतान: संश्चर्याशुद्धि तदाऽऽप्रयेत् ॥१७७।। (इति निःसङ्गत्वात्मभावना । ) कृत्वैवमात्मसंस्कारं ततः सल्लेखनोद्यतः । कृतात्मशुद्धिरध्यात्म योगनिर्वाणमाप्नुयात् ।५७८॥ योगो ध्यानं तदर्थो यो यत्नः संवेगपूर्वकः । तमाहुर्योगनिर्वाणसंप्राप्तं परमं तपः ।।१७१ ।। कृत्वा परिकरं योग्यं तनुशोधनपूर्वकम् । शरीरं कर्शयेद्दोषैः समं रागादिभिस्तदा ।।१८०॥ तदेतद्योगनिर्वाणं संन्यासे पूर्वभावना । जीविताशां मृतीच्छां च हित्वा भव्यात्मलन्धये ।। १८१॥ रागद्वेषौ समुत्सृज्य श्रेयोऽवाप्तौ च संशयम् । अनात्मीयेषु चात्मीयसङ्कल्पाद विरमेत्तदा।।१८२॥ नाहं देहो मनो नास्मि न वाणी न च कारणम् । तत्त्रयस्येत्यनुद्विग्नो भजेदन्यत्वभावनाम् ।।१८३॥ अहमेको न मे कश्चिन्नवाहमपि कस्यचित् । इत्यदीनमनाः सम्यगेकत्वमपि भावदेत् ॥१८४॥ कर्तव्य और आचरणका स्वयं पालन करे और समस्त संघसे पालन करावे ॥ १७४ ॥ यह उनतीसवीं स्वगुरुस्थानावाप्ति क्रिया हैं । इसप्रकार सुयोग्य शिष्यपर अपने आचार्य पदका सम्पूर्ण भार सौंपकर किसी भी कालमें व्यथाको नहीं प्राप्त होनेवाला वह साधु अकेला विहार करता हुआ मेरा आत्मा सर्वपरिग्रहसे रहित हैं, ऐसी भावनाको करे ॥ १७५ ।। पूर्ण अपरिग्रहवृत्तिवाला वह महा तपस्वी साधु केवल अपने आत्माका संस्कार करनेका इच्छुक होकर एकाकी विहार करे । वह अन्य साधुके संस्कारको करनेके योग्य नहीं हैं । अर्थात् उसे केवल आत्म-शुद्धिका ही प्रयत्न करना चाहिये, अन्यके उद्धारकी वह चिन्ता न करे ।। १७६ ॥ उसे उस समय शिष्य और शास्त्र-प्रवचन आदि में भी रागको छोडकर और एक मात्र निर्ममत्व-भावनामें निरत होकर अपने चर्याकी शद्धि का आश्रय लेना चाहिये ॥ १७७ ।। यह तीसवीं निःसंगत्वात्मभावना हैं । इसप्रकार आत्म-संस्कारको करके पुनः संल्लेखना धारण करनेके लिए उद्यत होकर आत्म-शुद्धि करते हुए वह साधु अध्यात्मविषयक योगनिर्वाणको प्राप्त होवे ॥ १७८ ।। योग नाम ध्यानका हैं, उसकी प्राप्तिके लिए संवेगपूर्वक जो प्रयत्न किया जाता है, उस परमतपको योगनिर्वाण-सम्प्राप्ति कहते हैं ।। १७९ ।। उस समय उसे समाधिमरणके योग्य सर्वआवश्यक परिकर्म करके विरेचन,वस्तिकर्म आदिके द्वारा शरीर शोधनपूर्वक रागादि दोषोंके साथ अपने शरीरको कृश करना चाहिये ॥ १८० ।। संन्यास धारण करनेके समय इस प्रकारको पूर्व भावना करनेको योगनिर्वाण कहते हैं। इस समय उसे 'भव्य'इस नामकी प्राप्तिके लिए जीनेकी आशा और मरनेकी इच्छाको छोडकर,तथा राग-द्वेषको-दूरकर आत्मकल्याणकी प्राप्तिमे संलग्न रहना चाहिये और अपनी आत्मासे भिन्न समस्त चेतन-अचेतन पदार्थोमें आत्मीय संकल्पको छोड देना चाहिये ॥ १८१-१८२ । उस समय उद्वेगसे रहित होकर परसे भिन्न केवल अन्यत्वभावनाका इसप्रकारसे चिन्तन करे-मैं देह नही हुँ मन नही हूँ, वाणी या वचनरूप भी नही हूँ और न इन तीनोंके कारणरूप ही हूँ।। १८३ ।। तथा एकत्व भावनाका इसप्रकार चिन्तवन करे-"मैं अकेला हूँ, न मेरा कोई हैं और न मैं किसीका हूँ” इस प्रकार दृढ चित्त होकर अपने एकत्वकी भले प्रकार भावना करनी चाहिये ॥१८४॥ उस समय वह योगी नित्य एवं अनन्त सुखके Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन यतिमाधाय लोक ने नित्यानन्तसुखास्पदे । भावयेद् योगनिर्वाणं स योगी योगसिद्धये ॥ १८५॥ (इति निर्वाणसम्प्राप्तिः। ) ततो नि शेषमाहारं शरीरं च समुन्सुजन् । योगीन्द्रो योगनिर्वाणसाधनायोद्यतो भवेत् ॥ १८६ ।। उत्तमार्थे कृतास्थानः संन्यस्ततनुरुद्धधीः । ध्यायन् मन वच कायान बहिर्भूतान् स्वकान् स्वतः ।।१८७ प्रणिधाय मनोत्ति पदेष परमेष्ठिनाम् । जीवितान्ते स्वस कुर्याद् योगनिर्बाणसाधनम् ॥ १८८ ॥ योग: समाधिनिर्वाणं तत्कृता चित्तनिर्वृतिः । तेनेष्टं साधनं यत्तद् योगनिर्वाणसाधनम् ॥ १८९ ।। ( इति योगनिर्वाणसाधनम् ।) तथा योग समाधाय कृतप्राणविसर्जनः । इन्द्रोपपादमाप्नोति गते पुण्य पुरोगताम् । १९० ।। इन्द्रा:स्युस्त्रिदशाधीशाः तेषूत्पादस्तपोबलात् । यः स इन्द्रोपपादः स्यात् क्रियाऽर्हन्मार्गसेविनाम्॥१९१ ततोऽसौ दिव्यशय्यायां क्षणादापूर्णयौवनः । प.मानन्दसाभतो दीप्तो दिव्येन तेजसा ।।१९२॥ अणिमादिभिरष्टाभि: युतोऽसाधारणगुणः । सहजाम्बरदिव्यस्रङ् मणिभूषणभूषितः ।। १९३ ।। दिव्यानुभावसंभूतप्रभावं परमहन् । बोबध्यते तदाऽत्मीयमैन्द्रं दिव्यावधित्विषा ॥ १९४ ।। ( इति इन्द्रोपपादक्रिया।) पर्याप्तमात्र एवायं प्राप्तजन्मावबोधनः । पुनरिन्द्राभिषकेण योज्यतेऽमरसत्तमैः ॥ ५९५ ॥ धाम लोकके अग्रभाग (सिद्धस्थान) पर अपनी बुद्धिको लगाकर योगनिर्वाणकी भावना भावे । अर्थात् उस योगीको सर्व ओरसे अपना चित्त हटाकर एकमात्र मोक्ष-प्राप्तिकी ही भावना करना चाहिये ।। १८५ ।। यह इकतीसवीं योगनिर्वाणसम्प्राप्ति क्रिया हैं । तदनन्तर वह योगीन्द्र समस्त प्रकारके आहारको और शरीरको त्यागकर योगनिर्वाणके साधनके लिए समुद्यत होवे ।। १.८६ ।। उत्तम मोक्ष पुरुषार्थमैं आस्था रखनेवाला तथा संन्यास धारणकर देहसे आत्मबुद्धिको दूर करनेवाला वह योगिराज, मन,वचन,कायको अपनेसे भिन्न चिन्तवन करता हुआ और पंचपरमेष्ठियोंके चरणोंमें अपनी मनोवृत्तिको निश्चल करके जीवनके अन्त समयमें योगनिर्वाणके साधनको आत्मसात करे ।।१.८७-१.८८।। योग नाम समाधिका है, उस समाधिके द्वारा चित्तकी जो निराकुलतारूप वृत्ति होती हैं,उसे निर्वाण कहते है । उस योगनिर्वाणके द्वारा जो इष्ट मोक्षका साधन होता है,उसे योगनिर्वाणसाधन कहते हैं ।। १.८९ ।। यह बत्तीसवीं योगनिर्वाणसाधन क्रिया है । उपर्युक्त प्रकारसे मनवचन-कायरूप थोगोंका समाधान करके अपने प्राणोंका विसर्जनकर पुण्यके पुरोगामी होनेपर वह इन्द्रोंमें उत्पन्न कराने वाली इन्द्रोपपाद क्रियाको प्राप्त होता है ।। १९० ।। देबोंके स्वामी इन्द्र कहलाते हैं । तपोबलसे उनमें जो उपपाद (जन्म) होता हैं, उसे इन्द्रोपपाद कहते है। यह इन्द्रोपपाद क्रिया अर्हत्प्रणीत मोक्षमार्गका सेवन करनेवाले जीवोंके ही होती हैं ॥ १९१ ।। समाधिसे मरणको प्राप्त हुआ वह योगिराज इन्द्रपदमें उत्पन्न होने के पश्चात् उसी दिव्य उपपादशय्यापर क्षण भरमें पूर्ण युवावस्थाको प्राप्त हो जाता है और दिव्य तेजसे देदीप्यमान होता हुआ परमआनन्दमें निमग्न हो जाता हैं ।। १९२ ।। अणिमा महिमा आदि आठ असाधारण गुणोसे संयुक्त होकर वह जन्मके साथ ही उत्पन्न हुए दिव्य वस्त्र, माला और मणिमय आभूषणों से विभूषित हो जाता है ।।१९३।। तब देवलोक के दिव्य माहात्म्य से उत्पन्न हुए महा प्रभावको धारण करता हुआ वह इन्द्र दिव्य अवधिज्ञानरूपी ज्योतिके द्वारा जान लेता हैं कि मैं इन्द्र पदमें उत्पन्न हुआ हूँ। १९४ ।। यह इन्द्रोपपाद नामकी तेतीसवीं क्रिया हैं । पर्याप्तियोंके पूर्ण होते ही जिसे अपने जन्मका ज्ञान प्राप्तहुआ हैं ऐसे . Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रावकाचार - संग्रह दिव्य सङ्गीतवादित्रमङ्गलोद्गीतिनिःस्वनः । विचित्रैश्चाप्सरोनृत्तैः निवृत्तेन्द्राभिषेचनः ।। १९६ ॥ किरीटमुद्रहन् दी स्वसाम्राज्यैकलाञ्छनम् । सुरकोटिभिरारूढप्रमदैर्जयका रितः ॥ १९७॥ arat सदंशुको दीप्तः भूषितो दिव्यभूषणं : ऐन्द्रविष्टरमारूढो महानेष महीयते ॥ १९८ ॥ ( इति इन्द्राभिषेकः । ) ततोऽयमानतानेतान् सत्कृत्य सुरसत्तमान् । पदेषु स्थापयन् स्वेषु विधिदाने प्रवर्तते ।। १९९ । । ) स्वविमानद्वदानेन प्रीणितविबुधैर्वृतः । सोऽनुभुङ्क्ते चिरं कालं सुकृती सुखमामरम् ॥। २०० ।। तदेतद्विधिदानेन्द्र सुखोदयविकल्पितम् । क्रियाद्वयं समाम्नातं स्वर्लोकप्रभवोचितम् ॥ २०२॥ ( इति विधिदान सुखोदयौ । ) प्रोक्तास्त्विन्द्रोपपादाभिषेकदान सुखोदयाः । इन्द्रत्यागाख्यामधुना संप्रवक्ष्ये क्रियान्तरम् ॥ २०२ ॥ fiefचन्मात्रावशिष्टायां स्वस्यामायुः स्थितौ सुरेट् बुद्ध्वा स्वर्गावतारं स्वं सोऽनुशास्त्यमरा - निति ॥ २०३ ॥ भो भोः सुधाशना यूयअस्माभिः पालिताश्चिरम्। केचित् पित्रीयिताः केचित् पुत्रप्रीत्योपलालिताः।। २०४ पुरोधमन्त्र्यमात्यानां पदे केचिन्नियोजिताः । वयस्यपीठमर्दीयस्थाने दृष्टाश्च केचन || २०५ ॥ स्वप्राणनिविशेषञ्च केचित् त्राणाय सम्मताः । केचिन्मान्यपदे दष्टाः पालकाः स्वनिवासिनाम् ॥ २०६ उस इन्द्रका उत्तम देवगण इन्द्राभिषेक करते हैं ।। १९५ ।। दिव्य संगीत, वादित्र और मंगलगीतों के शब्दोंसे और अप्सराओंके नाना प्रकार के नृत्योंसे इन्द्रका अभिषेक सम्पन्न होता हैं || १९६ ।। तदनन्तर वह अपने साम्राज्य के अद्वितीय चिन्ह स्वरूप देदीप्यमान मुकुटको धारण करता हैं । उस समय आनन्दको प्राप्त करोडो देवगण उसका जय-जयकार करते हैं । । १९७ ।। उस समयवह दिव्य मालाको और दिव्य उत्तम वस्त्रोंको धारणकर तथा देदीप्यमान दिव्य आभूषणोंसे विभूषित होकर इन्द्रासन पर आरूढ होकर महान् महिमाको प्राप्त होता है ।। १९८ ।। यह चौतीसवीं इन्द्राभिषेक क्रिया है । तदनन्तर नमस्कार करते हुए उन उत्तम देवोंको अपने अपने पदो पर स्थापित करता हुआ वह इन्द्र विधिदान क्रियामें प्रवृत्त होता है, अर्थात् आज्ञानुसारी सर्व देवोंको अपने-अपने पदो पर नियुक्त करना ही विधिदान क्रिया कहलाती हैं ।। १९९ ।। अपने-अपने विमानोंकी ऋद्धियोंके देने से अति प्रसन्न हुए देवोंके द्वारा वेष्टित हुआ वह सौभाग्यभाली इन्द्र चिरकाल तक देव लोकके सुखोंको भोगता हैं ॥ २०० ॥। इस प्रकार स्वर्ग लोकमें किये जानेके योग्य ऐसी ये विधिदान और इन्द्र सुखोदय भेदवाली दो क्रियाएँ कही गयी है ।। २०१ ।। यह पैंतीसवीं विधिदान और छत्तीसवीं सुखोदय क्रिया है । इस प्रकार इन्द्रोपपाद, इन्द्राभिषेक, विधिदान और सुखोदय, ये इन्द्रसम्बन्धी चार क्रियाएँ कही । अब इन्द्रत्याग नामकी अन्य क्रियाको कहते है ॥ २०२ वह इंद्र अपनी आयुकी स्थिति के किंचिन्मात्र अवशिष्ट रह जाने पर अपना स्वर्गसे अवतरण जानकर देवलोकों को इस प्रकारसे समझाता है ।। २०३ ।। भो भो अमृत भोजी देव लोगो, हमने तुम्हें चिरकाल तक पाला है, कितने ही देवोंको पिताके तुल्य माना हैं, कितने ही देवोंका पुत्रके समान प्रेमसे लालन-पालन किया हैं ॥ २०४॥ कितने ही देवों को पुरोहित, मंत्री और अमात्य के पद पर नियुक्त किया हैं, कितने ही देवोंको मैंने मित्र के समान देखा हैं और कितनो ही को अपने समान माना है । २०५ ॥ कितने ही देवों को अपने प्राणों के समान मानकर उन्हें अपने शरीरकी रक्षा के लिए नियुक्त किया है और कितनों हीको स्वर्ग-निवासियोंकी रक्षा के लिए सम्मान्य Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म - वर्णन केचिच्चमूचरस्थाने केचिच्च स्वजनास्थया । प्रजासामान्यमन्ये च केचिच्चानुचराः पृथक् ॥ २०७॥ केचित् परिजनस्थाने केचिच्चान्तः पुरे चरा । काश्चिद् वल्लभिका देव्यो महादेव्यश्च काश्चन ॥ २०८ इत्यसाधारणा प्रीतिर्मया युष्मासु दर्शिता । स्वामिभक्तिश्च युष्माभिर्मय्यसाधारणी धृता ॥ २०९ ।। साम्प्रतं स्वर्ग भोगेषु गतो मन्देच्छतामहम् । प्रत्यासन्ना हि मे लक्ष्मीरद्य भूलोकगोचरा ।। २१० ॥ युष्मत्साक्षिततः कृत्स्नं स्वः साम्राज्यं मयोज्झितम् यश्चान्यो मत्समो भावी तस्मै सर्व समर्पितम् ॥ २११ इत्यनुत्सुकतां तेषु भावयन्ननुशिष्य तान् । कुर्वन्निन्द्रपदत्यागं स व्यथां नैति धीरधीः ॥ २१२ ॥ इन्द्रत्यागक्रिया सैषा तत्स्वर्भोगातिसर्जनम् । धोरात्यजन्त्यनायासादैश्यं तादृशमप्य हो ।। २१३ ॥ ( इति इन्द्रत्याग: । ) अवतारक्रियास्यान्या ततः संपरिवर्तते । कृतार्हत्पूजनस्यान्ते स्वर्गांदवतरिष्यतः || २१४ || सोऽयं नृजन्मसंप्राप्त्या सिद्धि द्रागभिलाषुकः । चेतः सिद्धनमस्यायां समाधत्ते सुराधिराट् ॥ २१५ ॥ । शुभैः षोडशभिः स्वप्नं संसूचितमहोदयः । तदा स्वर्गावताराख्यां कल्याणीमश्नुते क्रियाम् । २१६।। ( इति इन्द्रावतार: । ) ४७ ततोऽवतीर्णो गर्भेऽसौ रत्नगर्भगृहोपमे । जनयित्र्या महादेव्या श्रीदेवीविशोधिते ॥ २१७ ॥ पद पर नियुक्त किया हैं ।। २०६ ।। कितने ही देवोंको सेनापतिके स्थान पर नियुक्त किया हैं और कितनों ही को अपने परिवार के लोगोंके समान समझा हैं। कितने ही देवोंको सामान्य प्रजाके समन माना और कितनों ही को पृथक रूपसे अनुचर नियुक्त किया ।। २०७ ।। कितने ही देवोंको परिजनके समान कुटुम्बी माना और कितनों को ही अन्तःपुर-चारी बनाया । कितनी ही देवियों को वल्लभकामाना और कितनी ही देवियोंको महादेवीके पद पर नियुक्त किया ।। २०८ ।। इस प्रकार से मैंने तुम लोगों में असाधारण प्रीति दिखाई और तुम लोगोंने भो मेरे पर असाधारण स्वामिभक्ति प्रकट की है ।। २०९ ।। इस समय स्वर्ग के भोगों में मेरी इच्छा मन्द हो गयी हैं और निश्चय ही भूलोक-सम्बन्धी लक्ष्मी मेरे समीप आ रही हैं ।। २१० ।। इसलिए आज तुम लोगोंकी साक्षीपूर्वक यह समस्त स्वर्गका साम्राज्य में छोड रहा हूँ और जो मेरे समान ही अन्य इन्द्र होने वाला हैं, उसके लिए यह समर्पण कर रहा हूँ ।। २११ ।। इस प्रकारसे उन सब देवोंमें अपनी अनुत्सुकता या उदासीनता की भावना करता हुआ वह धीर बुद्धिवाला इन्द्र उन सब देवोंको शिक्षा देकर इन्द्रपदका त्याग करता हुआ किसी प्रकारकी व्यथाको नहीं प्राप्त होता हैं अर्थात् सहर्ष इन्द्र पदका त्याग करता हैं ।। २१२ ।। इस प्रकार उन स्वर्गीय भोगोंका परित्याग करना, यह इन्द्रत्याग क्रिया कहलाती हैं । अहो, यह आश्चर्य हैं कि धीर वीर पुरुष अनायास ही उस प्रकारके भी परम ऐश्वर्यको सहज में छोड़ देते है ।। २१३ ।। यह सैंतीसवीं इन्द्रत्याग क्रिया हैं तदनन्तर जीवन के अन्त में अरहन्त देवकी पूजन करके स्वर्गसे अवतरित होने वाले उस इन्द्रके यह अन्य अवतार किया प्रवृत्त होती हैं ।। २१४ ॥ अभी तक इन्द्र पदका धारक मैं मनुष्यजन्म पाकर अतिशीघ्र सिद्धि ( मुक्ति लक्ष्मी) का अभिलाषी हुआ हूँ, यह विचार कर वह देवों का अधिराज इन्द्र अपना चित्त सिद्ध भगवान्‌को नमस्कार करनेमें लगाता हैं । २१५ || तब वह इन्द्र शुभ सोलह स्वप्नोंके द्वारा ( भावी माता-पिताको ) अपना महान् उदय सूचित करता हुआ स्वर्गावतार नामकी कल्याणकारिणी क्रिया को प्राप्त होता हैं ॥ २१६ ॥ यह अडतीसवीं इन्द्रावतार किया हैं । तदनन्तर वह इन्द्र जन्म देने वाली महादेवीके श्री ही आदि देवियोंके द्वारा संशोधित और रत्नोंके गर्भगृहके समान गर्भ में अव Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार - संग्रह हिरण्यवृष्टि धनदे प्राक् षण्मासान् प्रवर्षति । अन्वायान्त्यामिवानन्दात् स्वर्गसम्पदि भूतलम् ॥२१८॥ अमृत वसने मंदमवाति व्याप्तसौरमे । भूद्देव्या इव निःश्वासे प्रक्लृप्ते पवनामरैः ।। २१९ ।। दुन्दुभिध्वनिते मंद्रमुत्थिते पथि वार्मुचाम् । अकालस्तनिताशङ्कामतन्वति शिखण्डिनाम् ॥ २२० ॥ मन्दाराज मम्लानिममोदाहृतषट्पदाम् । मुञ्चत्सु गुह्यकाव्येषु निकायेष्वमृताशिनाम् ॥ २२१ ॥ देवीषूपचरन्तीषु देवीं भुवनमातरम् । लक्ष्म्या समं समागत्य श्री ही धीधृतिको तिषु ॥ २२२ ॥ कस्मिश्चित् सुकृतावासे पुण्ये राजवमंदिरें । हिरण्यगर्भो धत्तंऽसौ हिरण्योत्कृष्टजन्मताम् ॥२२३॥ हिरण्यसूचितोत्कृष्ट जन्यत्वात् स तथा श्रुतिम् । बिभ्राणां तां क्रियां धत्ते गर्भस्थोऽपि त्रिबोधभृत् ॥ २२४ ( इति हिरण्यजन्मता | ) विश्वेश्वरी जगन्माता महादेवी महासती । पूज्या सुमङ्गला चेति धत्ते रूढ़ि जिनाधिका ॥२२५॥ कुलाद्विनिलया देव्य: श्री न्ही धीधृतिकीर्तयः । समं लक्ष्म्या षडेताश्च सम्मता जिनमातृकाः ।। २२६ ।। जन्मानंतर मायातैः सुरेन्द्र मेंरुम्र्द्धनि । योऽभिषेक विधिः क्षीरपयोधेः शुचिभिर्जलैः ||२२७|| मन्दरेन्द्राभिषेकisit क्रियाऽस्य परमेष्ठिनः । सा पुनः सुप्रतीतत्वाद् भूयो नेह प्रतन्यते ॥ २२८ ॥ ( इति मन्दरेन्द्राभिषेकः ) ततोऽविद्योपदेशोऽस्य स्वतन्त्रस्य स्वयं मुवः । शिष्य मावव्यतिक्रान्तिः गुरुपूजोपलम्भनम् ॥ २२९॥ तीर्ण होता है || २१७ || गर्भ में आनेके छह मास पूर्व से ही कुबेर जननी के घर पर हिरण्यवृष्टि करता हैं, उस समय ऐसा जान पडता हैं मानो आनन्दसे स्वर्गकी सम्पदा ही भगवान्‌ के साथ इस भूतल पर आ रही है | २१८ | उस समय अमृतके समान सुखदायक मन्द मन्द पवनके भूलोक में व्याप्त होनेसे ऐसा जान पडता हैं मानों वायुकुमार देवोंके द्वारा निर्माण किया हुआ भूदेवोका निःश्वास ही हैं ॥ २१९ ॥ जब आकाशमें बजते हुए दुंदुभियोंकी गम्भीर ध्वनिके फैलने से असमयमें ही मयूरोंको मेघोंके गरजने की आशंका हो रही हो, जब यक्ष जातिके देवोंके समूह कभी नहीं मुरझानेवाली और सुगन्धिसे भौरोंको अपनी ओर आकृष्ट करनेवाली कल्पवृक्षोंके फूलो की मालाएँ आकाशसे बरसा रहे हों, एवं जब श्री, ही, बुद्धि, धृति और कीर्ति नामकी देवियाँ लक्ष्मीदेवी के साथ आकर जगन्माता महादेवीकी स्वयं सेवा उपचारकर रही हो उस समय पुण्यके आवासवाले किसी पुण्यवान् राजर्षिके राजमन्दिर में वे हिरण्यगर्भ भगवान् हिरण्योत्कृष्ट जन्मको धारण करते है २२०२२३ || जो गर्भ में रहते हुए भी मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञानके धारक हैं, ऐसे वे भगवान् हिरण्य (सुवर्ण) की वर्षांसे जन्म की उत्कृष्टता सूचित होनेके कारण 'हिरण्योत्कृष्टजन्म' इस सार्थक नामको धारण करनेवाली क्रियाको प्राप्त होते हैं ||२२४ ॥ यह उनतालीसवी हिरण्योत्कृष्ट जन्मता क्रिया हैं । उस समय जिन भगवान्‌की माता विश्वेश्वरी, जगन्माता, महादेवी, महासती, पूज्या और सुमंगला इत्यादि नामोंको धारण करती हैं ||२२५ ॥ कुलाचलों पर रहनेवाली श्री, न्ही, 'बुद्धि, धृति, कीर्ति और लक्ष्मी ये छह देवियाँ जिनमातृका अर्थात् जिनभगवान्‌की माताकी सेविका मानी गई हैं ।।२२६।। जिनभगवान्का जन्म होनेके अनन्तर स्वर्गलोकसे आये हुए सुरेन्द्र के द्वारा सुमेरुके शिखरपर क्षीरसागरके पवित्र जलसे जो भगवान्की अभिषेकविधि की जाती हैं, वह उन परमेष्ठीकी मन्दरेन्द्राभिषेक क्रिया हैं । यह क्रिया सुविज्ञात होनेसे पुनः यहाँ पर नही कही जा रही हैं ॥२२७-२२८।। यह चालीसवी मन्दराभिषेक क्रिया हैं । तदनन्तर उस स्वतन्त्र स्वयम्भू भगवानको किसीके द्वारा विद्याओं का उपदेश नही दिया जाता हैं । वे किसी गुरुका शिष्यत्व स्वीकार किये बिना ही गुरुपदकी पूजाको प्राप्त होते हैं ॥२२९॥ उस समय इन्द्र लोग आकर इस लोक त्राता त्रिजगद्गुरुकी पूजा ४८ . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गढ श्रावकधर्म-वर्णन ४९ तदेन्द्राः पूजयन्त्येनं त्रातारं त्रिजगद्गुरुम् । अशिक्षितोऽपि देवत्वं सम्मतोऽसीति विस्मिताः ।। २३० ( इति गुरुपूजनम् । ) तत: कुमारकालेऽस्य यौवराज्योपलम्भनम् । पट्टबन्धोऽभिषेकश्च तदास्य स्यान्महौजसः ।। २३१ ___(इति यौवराज्यम् ।) स्वराज्यमधिराज्येऽभिषिक्तस्यास्याक्षितीश्वरैः । शासतः सार्णवामेनां क्षितिमप्रतिशासनाम् ।।२३२ ( इति स्वराज्यम् ।) चक्रलाभो भवेदस्य निधिरत्न समुद्भवे । निजप्रकृतिभिः पूजा साभिषेकाऽघिराडिति ॥ २३३ (इति चक्रलाम:।) दिशाजयः स विज्ञेयो योऽस्य दिग्विजयोद्यमः । चक्ररत्नं पुरस्कृत्य जयतः सार्णवां महीम् ।। २३४ ( इति दिशाञ्जयः ।) सिद्धदिग्विजयस्यास्य स्वपुरानुप्रवेशने । क्रिया चक्राभिषेकान्हा साऽधुना सम्प्रकीयते ।। २३५ चक्ररत्नं पुरोधाय प्रविष्टः स्वनिकेतनम् । परायविभवोपेतं स्वविमानापहासि यत् ।। २३६ तत्र क्षणमिवासीने रम्ये प्रमदमण्डपे । चामरैर्वीज्यमानोऽयं सनिर्झर इवाद्रिराट् ॥ २३७ सम्पूज्य निधिरत्नानि कृतचक्रमहोत्सवः । दत्वाकिमिच्छकं दानं मान्यान् सम्मान्य पार्थिवान् ।।२३८ . ततोऽभिषेकमाप्नोति पार्थिवैमहितान्वयैः । नान्दीतूर्येषु गम्भीरं प्रध्वनत्सु सहस्रशः ।। २३९ यथावदभिषिक्तस्य तिरीटारोपणं ततः । क्रियते पार्थिवैर्मुख्यः चतुभिः प्रथितान्वयैः ।। २४० करते है और विस्मित होते हुए कहते हैं कि हे देव, तुम किसीके द्वारा शिक्षित नहीं होनेपर भी सबके द्वारा गुरु रूपसे सम्मान्यको प्राप्त हुए हो ।। २३० ।। यह इकतालीसबी गुरुपूजन क्रिया हैं। तदनन्तर कुमारकालके प्राप्त होनेपर उन्हें युवराजका पद प्राप्त होता हैं। उस समय उन महातेजस्वी भगवान्का पट्टबन्ध और अभिषेक किया जाता है ।। २३१ ।। यह बियालीसवीं यौवराज्य क्रिया है। तदनन्तर राजा लोग आकर इनको महाराजके पदपर स्थापित करके राज्याभिषेक करते है और भगवान् अन्यके शासनसे रहित इस समुद्रान्त पृथिवीका एकछत्र शासन करते हुए स्वराज्यको प्राप्त होते हैं ।। २६२ ।। यह तेतालीसवीं स्वराज्य प्राप्ति क्रिया है । तत्पश्चात् नौ निधियों और चौदह रत्नोंके प्राप्त होनेपर उनके चक्ररत्नकी प्राप्ति होती है । उस समय सारी प्रजा उन्हें राजाधिराज मानकर उनकी अभिषेकके साथ पूजा करती है ।। २३३ ।। यह चवालीसवीं चक्ररत्न क्रिया है। तदनन्तर चक्ररत्नको आगे करके सागरान्त समस्त पृथिवीको जीतनेवाले उन तीर्थकर भगवान्का जो दिग्विजय करनेके लिए उद्यम होता हैं, उसे दिशाजय जानना चाहिए ।। २३४ ।। यह पैतालीसवीं दिशांजय क्रिया है । जब तीर्थंकर भगवान् दिग्विजयको सिद्ध करके अपने नगरमें प्रवेश करते हैं, उस समय चक्राभिषेक नामकी क्रिया होती है, अब उसे कहते है ।। २३५॥ वे चक्रवर्ती तीर्थकर चक्ररत्नको आगे करके बहुमूल्य वैभवसे संयुक्त,स्वर्गके विमानोंका उपहास करनेवाले अपने राजभवन में प्रवेश करते हैं । २३६ ।। वहां परमरम्य आनन्द मंडपमें विराजमान होनेपर जब उनके ऊपर चँवर ढुलाये जाते हैं उस समय वे निर्झरनोंसे युक्त पर्ततराज सुमेरुके सदृश प्रतीत होते हैं ।। २३७ ।। उस समय वे निधियों और रत्नोंकी पूजाकर चक्ररत्न पानेका महान् उत्सव करते हैं और किमिच्छक दान देकर माननीय राजाओंका सन्मान करते हैं ।। २३.८ ।। तदनन्तर सहस्रों माँगलिक बादित्रोंकी गम्भीर ध्वनि होनेपर वे पूज्य कुलोत्पन्न राजाओंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त होते हैं ॥ २३९ ।। तदनन्तर यथाविधि अभिषिक्त उनके मस्तकपर प्रसिद्ध वंशवाले चार प्रमुख राजाओंके Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्रावकाचार-संग्रह महाभिषेकसामग्र्या कृतचक्राभिषेचनः । कृतमङ्गलनेपथ्यः पार्थिवैः प्रणितोऽभितः ॥ २४१ तिरीटं स्फुट रत्नांशु जटिलीकृतदिग्मुखम् । दधानश्चक्रसाम्राज्यककुदं नूपपुङ्गवः ।। २४२ रत्नांशुच्छुरितं बिभ्रत् कर्णाभ्यां कुण्डलद्वयम् । यद्वागदेव्याः समाक्रीडारथचऋद्वयायितम् ॥ २४३ तारालितरलस्थूलमुक्ताफलमुरोगृहे । धारयन् हारमाबद्धमिव मङ्गलतोरणम् ।। २४४ विलसद् ब्रह्मसूत्रेण प्रविभक्ततनन्नतिः । तटनिर्झरसम्पातरम्यतिरिवाद्रिपः ॥ २४५ सद्रत्नकटकं प्रोच्च शिखरं भुजयोर्युगम् । द्वाघिमश्लाघि बिभ्राणः कुलक्ष्माध्रद्वयायितम् ॥ २४६ कटिमण्डलसंसक्तलसत्काञ्चीपरिच्छदः । महाद्वीप इवोपान्तरनवेदोपरिष्कृतः ।। २४७ मन्दारकुसुमामोदलग्नालिकुलझंकृतैः । किमप्यारघ्रसङगीतमिव शेखरमुद्वहन् ॥ २४८ तत्कालोचितमन्यच्च दधन्मङ्गलभूषणम् । स तदा लक्ष्यते साक्षाल्लक्षम्या: पुञ्ज इवोच्छिखः।।२४९ प्रीताश्चाभिष्टुवन्त्येनं तदामी नृपसत्तमाः । विश्वञ्जयो दिशाजेता दिव्यमूतिर्भवानिति ।। २५० पोराः प्रकृतिमुख्याश्च कृतपादाभिषेचनाः । तत्कमार्चनमादाय कुर्वन्ति स्वशिरोधृतम् ।। २५१ श्रीदेव्यश्च सरिद्देव्यो देव्यो विश्वेश्वरा अपि । समुपेत्य नियोगैः स्वैस्तदैनं पर्युपासते ।। २५२ (इति चक्राभिषेक: ) द्वारा मुकुट रक्खा जाता है ।। २४० । इसप्रकार महाभिषेककी सामग्रीसे जिनका चक्राभिषेक किया गया हैं, जिन्होंने मांगलिक वेश-भूषा धारण की है, जिन्हें सर्व ओरसे राजालोग नमस्कार कर रहे हैं ।। २४१ ।। जो स्फुरायमान रत्नोंकी किरणोंसे समस्त दिशाओंको व्याप्त करनेवाले,तथा चक्रवर्तीके साम्राज्यके चिन्हस्वरूप मुकुटको धारणकर रहे है, जो राजाओंमें सर्वश्रेष्ठ है ।। २४२।। जो दोनों कानोंमें रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त तथा सरस्वतीके क्रीडा-रथके दोनों नकोंकी शोभाके समान प्रतीक होनेवाले दो कुण्डलोंको धारणकर रहे हैं ।। २४३ ॥ जो वक्षस्थलरूप गृहके द्वारपर बँधे मांगलिक तोरणके समान प्रतीत होनेवाले और ताराओंकी पंक्तिके समान चंचल स्थूल मोतियोंवाले हारको धारण किये हुए हैं ।।२४४।' शोभायमान ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) से जिनके शरीरकी उच्चता प्रकट हो रही हैं, अत एव जो तटपर गिरते हुए निर्झरनोंसे सुरम्य मूत्ति सुमेरुगिरिके सदृश प्रतीत हो रहे हैं ।। २४५ ।। जो उत्तम रत्नमय कटक मुक्त, उन्नत शिखरवाले विशाल एवं प्रशंसनीय भुजायुगलको धारण करते हुए ऐसे प्रतीत होते हैं,मानों दो कुलाचलोंको ही धारणकर रहे है। क्योंकि कुलाचलोंके कटक भाग रत्न-जडित होते हैं, उनके शिखर उन्नत होते हैं,वे अतिदीर्घ और विशाल होते हैं ॥ २४६ ।। कटि-मंडलपर सटी हुई शोभायमान करधनीको पहिने हुए वे भगवान् समीपवर्ती रत्नमय वेदिकासे घिरे हुए महाद्वीपसे मालूम पडते हैं ।।२४७॥ मन्दारकल्पवृक्षके पुष्पोंकी सुगंधिसे आकृष्ट होकर संलग्न भौरोंके समूहकी झंकारोंसे कुछ संगीत-गान करते हुए के समान सुन्दर शेखरको धारण कर रहे है ।। २४८॥ उस समय चक्राभिषेक-कालके उचित अन्य भी मांगलिक आभषणोंको धारण करते हुए वे भगवान् उन्नत शिखावाले साक्षात् लक्ष्मीके पुंजके ही समान प्रतीत होते हैं ॥ २४९ ॥ उस समय अति प्रीतिको प्राप्त श्रेष्ठ राजा लोग उनकी इस प्रकार स्तुति करतेहै-भगवन् आप विश्वविजयी हैं, दिग्विजेता हैं और दिव्यमूत्ति हैं ॥ २५० ॥ पुर-वासी लोग तथा अन्य प्रमुख पदाधिकारी गण उनके चरणोंका अभिषेक करते है और उनके चरण-चित जल को लेकर अपने अपने शिरोंपर धारण करते हैं ।। २५१ ॥ उस समय श्री,न्ही आदि कुमारिका देवियाँ, गंगा-सिन्ध आदि सरिदेवियाँ, तथा विश्वेश्वरा आदि अन्य अनेकों देवियाँ आ-आकर अपने अपने नियोगोंके Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन चक्राभिषेक इत्येकः समाख्यातः क्रियाविधिः । तदनन्तरमस्य स्यात् साम्राज्याख्यं क्रियान्तरम्।।२५३ अपरेधुदिनारम्भे धृतपुण्यप्रसाधनः । मध्ये महानृपसभं नृपासनमधिष्ठितः ।। २५४ द्रीप्रैः प्रकीर्णकवातैः स्वर्धनीसीकरोज्वलैः । वारनारीकराधूतैर्वीज्यमानः समन्ततः ।। २५५ सेवागतैः पृथिव्यादिदेवतांशः परिष्कृतः । धृतिप्रशान्तदीप्त्योजो निर्मलत्वोपमादिभिः ।। २५६ तान् प्रजानुग्रहे नित्यं समाधानेन योजयन् । सम्मानदानविश्रम्भैः प्रकृतीरनरञ्जयन् ॥ २५७ पाथिवान् प्रणतान् यूयं न्यायैः पालयत प्रजाः । अन्यायेषु प्रवृत्ताश्चेद् वृत्तिलोपो ध्रुवं हि वः ।।२५८ न्यायश्च द्वितयो दुष्टनिग्रहः शिष्टपालनम् । सोऽयं सनातनः क्षात्रो धर्मो रक्ष्यः प्रजेश्वरः ॥२५९ दिव्यास्त्रदेवताश्च मूराराध्याः स्यु विधानतः । ताभिस्तु सुप्रसन्नाभिरवश्यं भावुको जयः ।। २६० राजवृत्तिमिमां सम्यक् पालयद्भिरतन्द्रितैः । प्रजासु वतितव्यं भो भवद्भिर्यायवर्त्मना ।। २६१ पालयद्य इम धर्म स धर्मविजयी भवेत् । क्ष्मां जयेत् विजितात्मा हि क्षत्रियो न्यायजीविकः।।२६२ इहैव स्याद् यशोलाभो भूलाभश्च महोदयः । अमुत्राभ्युदयावाप्तिः क्रमात् त्रैलोक्यनिर्जयः ।। २६३ इति भूयोऽनुशिष्यतान् प्रजापालनसंविधौ । स्वयं च पालयत्येनान योगक्षेमानुचिन्तनैः ।। २६४ । अनुसार भगवान् की उपासना करती है ।। २५२ । यह छियालीसवीं चक्राभिषेक क्रिया हैं। इस प्रकार यह अद्वितीय चक्राभिषेक क्रियाकी विधि कही । अब इसके पश्चात् साम्राज्य नामकी अन्य क्रियाको कहते हैं ।। २५: ।। दूसरे दिन प्रातःकाल वे चक्रवर्ती महाराज पवित्र अलंकारोंको धारणकर महान राजाओंकी सभाके मध्य भागमें अवस्थित राजसिंहासनपर विराजमान होते हैं।।२५४॥ उस समय अति देदीप्यमान गंगानदीके जलकणोंके समान उज्ज्वल एवं वारवनिताओंके हाथोंसे सर्व ओर ढुलाये जाते हुए चँवरोंसे सुशोभित, तथा सेवाके लिए आये हुए धृति, प्रशान्ति,दीप्ति,ओज मलताके उत्पादक पथ्वी, जल, तेज, वाय और आकाश आदि देवताओके अंशोसे अर्थात उनके वैक्रियिक शरीरोंसे वेष्टित वे महाराज उन देवताओंको समाधान-पूर्वक सदा प्रजाके अनुग्रह करने में लगाते है और सन्मान, दान एवं विश्वास,धैर्य आदिको देकर प्रजाको प्रसन्न करते है।।२५५२५७ ।। उस समय नमस्कार करते हुए राजा-महाराजा लोगोंको सम्बोधनकर वे चक्रवर्ती सम्राट उन्हें आदेश देते है कि तुम लोग न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करो । यदि तुम्हारी अन्यायके कार्योमें प्रवृत्ति होगी, तो तुम लोगोंकी वृत्तिका लोप निश्चयसे हो जायगा, अर्थात् तुम्हारा राज्य नष्ट हो जायगा ।। २५८ ।। न्याय दो प्रकारका होता हैं-एक तो दुष्टजनोंका निग्रह करना और दूसरा शिष्ट पुरुषोंका पालन करना । यह दो प्रकारका क्षत्रियोंका सनातन धर्म है । राजाओंको अच्छी तरहसे इस क्षात्रधर्मकी रक्षा करना चाहिए ।२५९॥ अग्निबाण आदि दिव्य अस्त्रोंके अधिष्ठाता देवताओंकी भी विधिपूर्वक आराधना करनी चाहिये, क्योंकि आराधनासे अति प्रसन्न हुए देवताओंसे अवश्यम्भावी विजय होती हैं ।। २६० ।। हे राजा लोगो, आप सब इस राजधर्मको प्रमाद-रहित होकर सम्यक् प्रकारसे पालन करते हुए प्रजाओंमें न्यायमार्गसे व्यवहार करें ।। २६१ ।। जो राजा इस राजधर्मका भलि-भाँतिसे पालन करता हैं, वह धर्म विजयी होता है,क्योंकि अपनी आत्मापर विजय पानेवाला और न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करनेवाला क्षत्रिय ही इस पृथ्वीको जीत सकता है।।२६२॥ इसप्रकार न्यायपूर्वक राजधर्म के पालन करनेसे इस लोकमें यशका लाभ होता है, पृथिवीकी प्राप्ति होती है और महान् भाग्यका उदय होता हैं। तथा परलोकमें स्वर्गीय अभ्युदय की प्राप्ति होती है और अनुक्रमसे वह त्रैलोक्य-विजयी सिद्ध पदको प्राप्त करता हैं। २६३ ॥ इस प्रकार वे महाराज प्रजा-पालन करने की विधिमें बार-बार उन राजाओंको शिक्षण देकर स्वयं योग और क्षेमका विचार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह तदिदं तस्य साभ्राज्यं नाम धर्म्य क्रियान्तरम् । येनानुपालितेनायमिहामुत्र च नन्दति ।। २६५ ( इति साम्राज्यम् ।) एवं प्रजाः प्रजापालानपि पालयतश्चिरम् । काले कस्मिंश्चिदुत्पन्नबोधे दीक्षोद्यमो भवेत् ॥ २६६ सैषा निष्क्रान्तिरस्येष्टा क्रिया राज्याद् विरज्यतः । लौकान्तिकामरै भूयो बोधितस्य समागतः।।२६७ कृतराज्यार्पणो ज्येष्ठे सूनो पार्थिवसाक्षिकम् । सन्तानपालने चास्य करोतीत्यनुशासनम् ।। २६८ त्वया न्यायधनेनाङ्ग भवितव्यं प्रजाधृतौ । प्रजा कामदुधा धेनु: मता न्यायेन योजिता ॥ २६९ राजवृत्तमिदं विद्धि यन्न्यायन धनार्जनम् । वर्धनं रक्षणं चास्य तीर्थे च प्रतिपादनम् ।। २७० प्रजानां पालनार्थ च मतं मत्यनुपालनम् । मतिहिता हितज्ञानमात्रिकामुत्रिकाथयोः ।। २७१ ततः कृतेन्द्रियजयो वृद्धसंयोगसम्पदा । धर्मार्थशास्त्रविज्ञानात् प्रज्ञां संस्कर्तुमर्हसि ॥ २७२ अन्यथा विमति भूपो युक्तायुक्तनभिज्ञकः । अन्यथाऽन्यैः प्रणेयः स्यान्मिथ्याज्ञानलवोद्धतैः ।। २७३ कुलानुपालने चायं महान्तं यत्नमाचरेत् । अज्ञातकुलधर्मों हि दुर्वृतैर्दूषयेत् कुलम् ।। २७४ तथायमात्मरक्षायां सदा यत्नपरो भवेत् । रक्षितं हि भवेत् सर्वं नृपेणात्मनि रक्षिते ।। २७५ करते हुए उन राजाओंका पालन करते है। २६४ ।। भावार्थ-अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करनेको योग कहते है और प्राप्त हुई वस्तुके संरक्षण करनेको क्षेम कहते हैं । इस प्रकार यह उनकी धर्म-युक्त साम्राज्य नामकी वह क्रिया हैं, जिसके कि पालन करनेसे यह जीव इस लोक और परलोक दोनोंही स्थानोंमें सदा आनन्द पाता हैं ।। २६५ ॥ यह सैतालीसवीं साम्राज्य क्रिया है। इस प्रकार प्रजा और प्रजा-पालकोंका चिरकाल तक पालन करते हुए किसी समय प्रबोधके प्रकट होने पर वे दीक्षा लेनेको उद्यमी होते है ।। २६६ ॥ राज्यसे विरागको प्राप्त होनेवाले और ब्रह्मलोकसे आयेहुए लौकान्तिक देवोंके द्वारा पुनरपि सम्बोधित उनकी यह निष्क्रान्ति नामक क्रिया मानी गई है ॥ २६७ ।। उस समय वे महाराज, राजाओंकी साक्षीपूर्वक ज्येष्ठ पुत्र पर राज्यका भार समर्पण कर प्रजा-पालन करनेके लिए इस प्रकार शिक्षा देते है ।। २६८ ।। हे पुत्र, प्रजाके पालन करने में तू न्यायरूपी धनसे युक्त रहना,अर्थात् न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करना ; क्योंकि न्यायसे पालन की गई प्रजा मनोरथों को पूर्ण करनेवाली कामधेनु मानी गई हैं ।। २६९ । हे वत्स, तू इसे ही राजधर्म समझ कि न्यायसे धन उपार्जन करना, उसकी वृद्धि करना, उसका संरक्षण करना और स्थावर तीर्थ सिद्धक्षेत्र आदि तथा जंगमतीर्थ पात्र आदि में दान देना ।। २७० ।। प्रजाका पालन करनेके लिए सबसे पहले अपनी मति (बुद्धि) की रक्षा करना आवश्यक माना गया हैं। इस लोक और परलोक-सम्बन्धी पदार्थोके विषयमें हित और अहितका ज्ञान होना ही मति या बुद्धि कहलाती है ।। २७१ ।। अतएब इन्द्रियविजयी होकर वृद्धजनोंकी संगतिरूप सम्पदाद्वारा धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्रके विशिष्ट ज्ञानसे तुम्हें अपनी बुद्धिको भलीभाँति सुसंस्कृत करना चाहिए ॥ २७२ ॥ यदि राजा अपनी बुद्धिको सुसंस्कृत नहीं बनायेगा, तो वह योग्य-अयोग्यसे अनभिज्ञ रहकर विपरीत बुद्धिवाला हो जायेगा और तब वह मिथ्याज्ञानके लेश मात्रसे उद्धत अन्य कुमार्गगामियों के द्वारा कुमार्गगामी बना दिया जायगा ॥२७३।। राजाओंका कुलकी मर्यादा पालन करने के लिए महान् यत्न करना चाहिए, क्योंकि कुल धर्मसे अनभिज्ञ मनुष्य दुराचरणोंसे अपने कुलको दूषित कर देता हैं ।। २७४ ।। तथा राजाको अपनी आत्मरक्षामें भी सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए,क्योंकि राजाके द्वारा आत्म-रक्षा किये जाने पर ही सब सुरक्षित रह सकता हैं, अन्यथा नहीं ॥ २७५ ॥ अपनी रक्षा नहीं करनेवाले राजाका शत्रुओंसे,तथा . Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन अपायो हि सपत्नेभ्यो नृपस्यारक्षितात्मनः । आत्मानुजीविवर्गाच्च क्रुद्धलब्धविमानितात ॥२७६ तस्माद् रसदतीक्ष्णाद नपायानरियोजितान् । परिहत्य निरिष्टः स्वं प्रयत्नेन पालयेत् ।। २८७ स्यात् समञ्जसवृत्तित्वमप्यस्यात्माभिरक्षणे । असमञ्जसवत्तौ हि निजैरप्यभिभूयते ।। २४८ समञ्जसत्वमस्येष्टं प्रजास्वविषमेक्षिता । अनशस्यमवाग्दण्डपारुष्यादिविशेषितम् ।। २७९ ततो जितारिषड्वर्ग: स्वां वत्ति पालयन्निमाम् । स्वराज्ये सुस्थितो राजा प्रेत्य चेह च नन्दति ।।२८० समं समञ्जसत्वेन कुलमत्यात्मपालनम् । प्रजानुपालनं चेति प्रोक्ता वत्तिर्महीक्षिताम् ।। २८१ ततः क्षात्रमिम धर्म यथ क्तमनपालयन् । स्थितो राज्ये यशो धर्म विजयं च त्वमाप्नुहि ।। २८२ प्रशान्तधी: समुत्पन्नबोधिरित्यन शिष्य तम् । परिनिष्क्रान्तिकल्याणे सुरेन्द्ररभिपूजितः ।। २८६ महादानमयो दत्वा साम्राज्यपदमुत्सजन् । स राजराजो राजर्षािनष्क्रामति गृहाद् वनम् ।। २८४ धौरेयः पाथिवैः किञ्चित समरिक्षप्तां महीतलात। स्कन्धाधिरोपितां भयः सरेन्द्रभक्तिनिभरै।।२८५ आरूढः शिबिकां दिव्यां दीप्तरत्नविनिमिताम् । विमानवसति भानोरिवाऽऽयातां महीतलम् ।२८६ पुरस्सरेंषु नि.शेषनिरुद्धव्योमवोचिषु । सुरासुरेषु तन्वत्सु, सन्दिग्धाप्रमं नमः ।। २८७ अनूस्थितेषु सम्प्रीत्या पार्थिवेषु ससंभ्रमम् । कुमारमग्रतः कृत्वा प्राप्त राज्यं नवोदयम् ।। २८८ रुष्ट, लब्ध एवं अपमानित अपने ही अनजीवी वर्गसे विनाश हो जाता हैं ।।२७६॥इसलिए शत्रओंके द्वारा योजित, प्रारम्भ में सुखद, किन्तु परिणाममें अति दुखद अपायोंको दूरकर अपने इष्ट जनोंके द्वारा प्रयत्नके साथ अपनी रक्षा करना चाहिए ॥ २७७ ॥ इसके अतिरिक्त राजाको अपनी रक्षा करने में समजञ्जस वृत्तिवाला होना चाहिए, क्योंकि असमञ्जस वृत्तिवाला अपने स्वजनोसे भी पराभव को प्राप्त होता हैं ।।२७८॥ समस्त प्रजा पर पक्षपात-रहित समदृष्टि रखना, क्रूर-व्यवहार नहीं करना, कठोर वचन नहीं बोलना और कठिन दण्ड नहीं देना आदि विशेषताओंसे युक्त समदीपनाको समञ्जसवृत्ति कहते है ॥ २७९ ॥ इस प्रकार जो राजा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरंग शत्रुओंको जीतकर और अपनी उपर्युक्त समञ्जस राजवृत्तिको पालन करता हुआ अपने राज्यमें स्थिर रहता है, वह इस लोक ओर परलोकमें आनन्द को प्राप्त करता है ॥२८०॥ पक्षपात-रहित समञ्जसवृत्तिके साथ कुलको मर्यादा पा लेना,बुद्धिकी रक्षा करना,अपनी रक्षा करना और प्रजाका भलिभाँतिसे पालन करना यह सव राजाओंकी वृत्ति कहलाती है।।२८१॥ अतएव हे पुत्र,इस क्षात्रधर्मको यथोक्त रीतिसे परिपालन करते हुए राज्यमें स्थिर होकर अपने यश धर्म और विजय को प्राप्त करो ॥ २८२ ॥ इस प्रकारसे पुत्रको अनुशासित कर वे प्रशान्त बुद्धि और प्रबोधको प्राप्त भगवान् परिनिष्क्रमण कल्याणकके समय देवेन्द्रोंके द्वारा पूजे जाते है।।२८३।। तदनन्तर महान् किमिच्छक दानको देकर साम्राज्य पदको छोडकर वे राजाधिराज राजर्षि वनको जानेके लिए घरसे निकलते हैं ।। २८४॥ जिस पालखी पर भगवान विराजमान होते है, उसे सर्व प्रथम मुख्य मुख्य राजा लोग महीतलसे उठाकर और अपने कंधों पर रखकर कुछ दूर ले जाते हैं, पुनः भक्तिसे भरे हुए इन्द्र लोग अपने कंधों पर रखकर चलते है ।। २.८५ ॥ जिस दिव्य पालखी पर भगवान् आरूढ होते है, वह देदीप्यमान रत्नों से निर्मित होती हैं, अतः महीतल पर आये हुए सूर्यके विमानके समान जान पडती है ।। २८६ ।। उस समय समस्त आकाश-मार्गको रोकते हुए और अपनी कान्तिसे आकाशमें सूर्यकी प्रभाका सन्देह उत्पन्न करते हुए सुर और असुर गण आगे चलते हैं ।। २८७ ।। राज्य को प्राप्त करनेसे नवीन भाग्योदयवाले कुमारको आगे करके आश्चर्य-चकित Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह अनुयायिनि तत्त्यागादिवमन्वी भवद्युतौ । निधीनां सह रत्नानां सन्दोहेऽभ्यर्णसंक्षये ॥ २८९ सैन्ये च कृतसन्नाहे शनैः समनुगच्छति । मरुध्दूतध्वजव्रातनिरुद्ध पवनाध्वनि ।। २९० ध्वनत्सु सूरतूर्येषु नृत्यत्यप्सरसां गणे । गायन्तीषु कलक्वाणं किन्नरीषु च मङ्गलम् ॥ २९१ भगवानभिनिष्क्रान्तः पुष्ये कस्मिंश्चिदाश्रमे । स्थितः शिलातले स्वस्मिँश्चेतसीवातिविस्तृते ॥ २९२ निर्वाणदीक्षयात्मानं योजयन्नभ्दुतोयः । कृराधिपैः सुतानन्दमचतः परयेज्यया ।। २९३ aise शेष विधिर्युक्तः केशपूजादिलक्षणः । प्रागेव स तु निर्णीतो निष्क्रान्तौ वृषमेशिनः ।। २९४ ( इति निष्क्रान्तिः । 1 ) परिनिष्क्रान्तिरेषा स्यात् क्रिया निर्वाणदायिनी । अतः परं भवेदस्य मुमुक्षोर्योगसम्महः ।। २९५ यदायं त्यक्त बाह्यान्तस्सङगो निःसङ्गमाचरेत् । स दुश्चरं तपोयोगं जिनकल्पमनुत्तरम् ।। २९६ तवास्य क्षपक श्रेणी मारूढस्योचिते पदे । शुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धवातिकर्मघनाटवेः ।। २९७ प्रादुर्भवति निःशेषबहिरन्तर्म लक्षयात् । केवलाख्यं परं ज्योतिर्लोकालोकप्रकाशकम् ।। २९८ तदेतत्सिद्धसाध्यस्य प्रायुषः परमं महः | योगसम्मह इत्याख्यामनुधसे क्रियान्तरम् ।। २९९ ज्ञानध्यानसमायोगो योगो यस्तत्कृतो महः । महिमातिशयः सोऽयमाम्नातो योग सम्मह ॥ ३०० ( इति योगसम्महः । ) ततोऽस्य केवलोत्पत्तौ पूजितस्यामरेश्वरैः । बहि विभूतिरुद्भूता प्रातिहार्यादिलक्षणा ॥ ३०१ ५४ राजा लोक अति प्रीति से भगवान् के समीप अवस्थित रहते है ||२८|| भगवान् के द्वारा त्यागी जानेसे मन्दान्तिको प्राप्त हुई निधियोंका और रत्नोंका समूह उनके पीछे-पीछे आता है॥ २८९॥ वायुके द्वारा उड़ती हुई ध्वजाओंसे पवनका मार्ग (आकाश) अवरुद्ध करने वाली विशेष रूपसे सजी हुई सेना धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे चलती है ॥२९० । उस समय देव-दुन्दुभियोंके बजने पर, अप्सरागणके नृत्य करने पर, किन्नरियों द्वारा मांगलिक सुन्दर गीतोंके गाये जाने पर, भगवान् पालकीमें से निकलकर किसी पुण्यवान् आश्रममें अपने चित्तके समान अति विशाल शिलातल पर विराजमान होकर अपनी आत्माको निर्वाणकी दीक्षासे संयुक्त करते हैं, अर्थात् जिन दीक्षा लेते हैं । उस समय उस अद्भुत उदयवाले भगवान्‌को इन्द्रलोक आनन्दके साथ उत्तम सामग्री के द्वारा महान् पूजन करते हैं ।। २९१-२९३।। इस समय केशलुंच करना, पूजन करना आदि जो विधि कहनेसे शेष है, वह सब वृषभेश्वरकी दीक्षाके समय पहले ही वर्णन की जा चुकी हैं ।। २९४ || यह अडतालीसवीं निष्क्रान्तिक्रिया हैं यह निर्वाणको देनेवाली परिनिष्क्रान्ति क्रिया है । अब इसके पश्चात् उन मुमुक्षु भगवान् के योग-संग्रह नामकी क्रिया होती हैं ।। २९५ ।। जब वे भगवान् बाह्य और आभ्यन्तर सर्व परिग्रहको छोडकर पूर्ण निःसंगताको धारण कर अति दुर्धर, जिनकल्पी अनुपम तपोयोगका आचरण करते हैं, तब क्षपकश्रेणी- पर आरूढ भगवान्‌ के उचित गुणस्थानरूप पदमें शुक्लध्यान रूपी अग्निसे घातिया कर्मरूपी सघन अटवीके जला देने पर समस्त बहिरंग और अन्तरंग मलोंके क्षयसे लोकालोकको प्रकाशक केवलज्ञान नामकी परम ज्योति प्रगट होती है ।। २९६-२९८ ।। इस प्रकार साध्यको सिद्ध करनेवाले ओर परम तेजको प्राप्त हुए उन भगवान् के योगसम्मह नामकी एक और क्रिया होती हैं ।। २९९ ।। ज्ञान और ध्यानके समायोगको योग कहते हैं और उस योगसे जो अतिशय महिमाशाली तेज प्रगट होता हैं, वह योगसम्मह कहलाता है ।। ३० ।। यह उनंचासवीं योगसम्महक्रिया है । तदनन्तर केवल ज्ञानकी उत्पत्ति होने पर अमरेन्द्रोंके द्वारा पूजित उन तीर्थकर भगवान् के प्रातिहार्यादि लक्षण बाली बाह्य विभूति प्रगट होती है ।। ३०१ ॥ दिव्य आठ प्रातिहार्यो का प्रगट होना, द्वादश प्रकारकी . Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन प्रातिहार्याष्टकं दिव्यं गणो द्वादशधोदित: । स्तूपहावलीसालवलयः केतुमालिका ॥३०२ इत्यादिकामिमां भूतिमद्भुतामुपबिभ्रतः । स्यादाहन्त्यमिति ख्यातं क्रियान्तरमनन्तरम् ।। ३०३ (इति आर्हन्त्यक्रिया। ) विहारस्तु प्रतीतार्थो धर्मचक्रपुरस्सरः । प्रपञ्चितश्च प्रागेव ततो न पुनरुच्यते ॥ ३०४ (इति विहारक्रिया।) ततः परार्थसम्पत्त्यं धममार्गोपदेशनैः । कृततीर्थविहारस्य योगत्यागः परा क्रिया ।। ३० विहारस्योपसंहार: संहृतिश्च सभावनेः । वृत्तिश्च योगरोधार्था योगत्यागः स उच्यते ।। ३०६ यच्च दण्डकपाटादिप्रतीतार्थ क्रियान्तरम् । तदन्तर्भूतमेवातस्ततो न पृथगुच्यते ।। ३०७ ( इति योगत्यागक्रिया।) ततो निरुद्ध नि:शेषयोगस्यास्य जिनेशिनः । प्राप्तशैलेश्यवस्थस्य प्रक्षीणाघातिकर्मणः ॥ ३०८ क्रियानिवृति म परिनिर्वाणमयुषिः । स्वभावजनितामूलव्रज्यामास्कन्दतो मता ॥ ३०९ ( इति अग्रनिर्वृतिः ) इति निर्वाणपर्यन्ता: क्रियागर्भादिकाः सदा : भव्यात्मभिरनुष्ठेयाः त्रिपञ्चाशत्समुच्चयात् ॥३१० यथोक्तविधिनताः स्युरनष्ठेया द्विजन्मभिः । योऽप्यत्रान्तर्गतो भेदस्तं वचम्युत्तरपर्वणि ॥ ३११ शार्दूलविक्रीडितम् इत्युच्चैर्भरताधिपः स्वसमये संस्थापयन् तान् द्विजान् सम्प्रोवाच कृती सतां बहुमता गर्भान्वयोत्थाः क्रियाः । सभाओंमें देव-मनुष्य और पशुगणका समवेतहोना,स्तूप,हावली,प्राकार-वलय और ध्वजमालिका आदि अद्भुत समवसरण विभूतिको धारण करनेवाले उन भगवान्के आर्हन्त्य नामसे प्रसिद्ध एक और क्रिया होती है ।। ३०२-३०३ ।। यह पचासवीं आर्हन्त्य क्रिया हैं । तत्पश्चात् धर्मचक्रको आगे करके भगवान्का जो विहार होता हैं,वह विहार नामकी क्रिया है। यह विहार जगत्प्रसिद्ध एवं सर्व विदित हैं,पहले ही विस्तारसे कहा जा चुका हैं, इसलिए उसे पुनः नहीं कहते है।।१०४॥ यह इक्यावनवीं विहार क्रिया हैं । इस प्रकार धर्ममार्गके उपदेश द्वारा विहार करनेवाले अरहन्तके परम पुरुषार्थ मोक्षकी सम्प्राप्तिके लिए योगत्याग नामकी श्रेष्ठ क्रिया होती है ॥३०५।' विहारका उपसंहार होना, समाभूमि (समवसरण) का विघटना, और योग-निरोधके लिएप्रवृत्ति होना यह योगत्याग कहलाता है ॥३०६।। दण्ड,कपाट आदि रूपसे प्रसिद्ध और सुप्रतीत केवलिसमुद्धातरूप क्रिया हैं वह इसी योगत्याग क्रियाके अन्तर्गत हैं, अतः उसे पृथक् नहीं कह रहे हैं ।।३०७ ।। यह वावनवीं योगत्याग किया हैं। तदनन्तर समस्त योगोंका निरोध करनेवाले.शैलेशी अवस्थाको प्राप्त अघातिया कोके क्षय कर्ता उन जिनेश्वर देवके स्वभाव-जनित ऊर्ध्वगतिको प्राप्त होकर परम निर्वाणको प्राप्त करते हुए अग्रनिर्वृति नामकी क्रिया होती हैं ।।३०८-३०९।।यह तिरपनवीं अग्रनिवृति त्रिया है । इस प्रकार गर्भाधान क्रियासे लेकर निर्वाणपर्यंन्त समुच्चयरूपसे सब क्रियाएँ तिरेपन है। भव्यात्मा पुरुषोंको इनका सदा अनुष्ठान करना चाहिए ।। ३१० ॥ द्विज लोगोंको उपर्युक्त विधिके अनुसार इन क्रियाओंका पालन करना चाहिए । इन क्रियाओंमें जो अन्तर्गत और भेद है, उसे आगेके पर्बमें कहेंगे ॥ ३११ ।। इस प्रकार उन पुणवान् महाराज भरतने द्विजोंको स्वसमय अर्थात् जैनमार्गमें स्थापित करते हुए गर्भाधानसे लेकर निर्वाण-गमन तककी सज्जनोंको सम्मान्य Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्रावकाचार - संग्रह गर्भाद्या: परनिर्वृतिप्रगमनप्रान्त स्त्रिपञ्चाशतं प्रारेमेऽथ पुनः प्रवक्तुमुचिता दीक्षान्वयाख्या: क्रिया: ।। ३१२ यस्त्वेताः द्विजसत्तमैरभिमता गर्भादिकाः सत्क्रियाः, भुत्वा सम्यगधीत्य भावितमतिर्जनेश्वरे दर्शने । सामग्रीमुचितां स्वतश्च परतः सम्पादयन्नाचरेद् भव्यात्मा स समग्रधोस्त्रिजगतीचूडामणित्वं भजेत् ॥ ३१३ इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङ्ग्रहे द्विजोत्पत्तौ गर्भावयत्रियावर्णनं नाम अष्टत्रिंशत्तमं पर्व | 1011 तिरेपन गर्भान्वय क्रियाएँ कही । तत्पश्चात् कहनेके योग्य दीक्षान्वयाओं का कहना आरम्भ किया ।। ३१२॥श्रेष्ठ द्विजों द्वारा सन्मानीय इन गर्भाधानादि सत्-क्रियाओंको सुनकर और सम्यक् प्रकारसे उनका अध्ययन कर जो जिनेश्वरोक्त दर्शन में अपनी बुद्धिको संलग्न करता हैं और उचित सामग्रीको प्राप्त कर दूसरोंसे आचरण करता हुआ स्वयं भी इनका आचरण करता हैं, वह भव्यात्मा पुरुष पूर्ण ज्ञानी होकर तीन लोकके चूडामणिपनेको प्राप्त होता हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्तकर त्रिलोकके शिखर पर जा विराजता हैं ।। ३१३ ।। इस प्रकार भगवञ्जनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहमें द्विजोंकी उत्पत्ति और गर्भान्वय क्रियाओंका वर्णन करनेवाला अडतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व अथाब्रवीद् द्विजन्मभ्यो मनुदीक्षान्वयक्रियाः । यास्ता निःश्रेयसोदश्चित्वारिंशस्थाष्ट च ॥१ भ्रूयतां भो द्विजन्मानो वक्ष्ये नैःश्रेयसीः क्रियाः । अवतारादिनिर्वाणपर्यन्ता दीक्षितोचिताः ॥ २ व्रताविष्करणं दीक्षा द्विधाम्नातं च तद्वतम् । महच्चाणु च दोषाणां कृत्स्नदेशनिवृत्तितः ।। ३ महावतं भवेत् कृत्स्नहिंसाद्यागोविजितम् । विरतिः स्थूहिसादिदोषेभ्योऽणुव्रतं मतम् ।। ४ तदुन्मुखस्य या वृत्तिः मुमो दोक्षेत्यसौ मता। तामन्विता क्रिया या तु सा स्याद् दीक्षान्वया क्रिया ।५ तस्यास्तु भेवसङ्ख्यानं प्राग्निर्णीतं षडष्टकम् । क्रियते तद्विकल्पानामधुना लक्ष्मवर्णनम् ।। ६ तत्रावतारसंज्ञा स्यादाद्या दीक्षान्वयक्रिया । मिथ्यात्वदूषिते भव्ये सन्मार्गग्रहणोन्मुखे ।। ७ स तु संसृत्य योगीन्द्रं यक्ताचारं महाधियम् । गृहस्थाचार्यमथवा पृच्छतीति विचक्षणः ।। ८ बूत यूयं महाप्रज्ञा मह्यं धर्ममनाविलम् । प्रायो मतानि तीर्थ्यानां हेयानि प्रतिभान्ति मे ॥ ९ श्रौतान्यपि हि वाक्यानि सम्मतानि क्रियाविधौ । न विचारसहिष्णूनि दुःप्रणीतानि तान्यपि ॥१. इति षष्ठवते तस्मै व्याचष्टे स विदांवरः । तथ्यं मुक्तिपथं धर्म विचारपरिनिष्ठितम् ॥ ११ विद्धि सत्योद्यमाप्तीयं वचः श्रेयोऽनुशासनम् । अनाप्तोपशमन्यत्तु वचों वाङ्मलमेव तत् ।। १२ अथानन्तर सोहलवें मनु भरतमहाराजने उन द्विजोके लिए अन्तमें मोक्ष फल देनेवाली अङतालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ कहना प्रारम्भ किया ॥ १॥ वे बोले-हे द्विजो, मैं अवतारसे आदि लेकर निर्वाण तककी कल्याणकारिणी दीक्षान्वय क्रियाओंको कहता हूँ,सो सुनो।।२।। व्रतोके धारण करनेको दीक्षा कहते है और वे व्रत हिसादि दोषोंके सम्पूर्ण तथा एक देश त्याग करनेकी अपेक्षा महाव्रत और अणुव्रतके भेदसे दो प्रकारके माने नये हैं।। ३।। सूक्ष्म और स्थूल सभी प्रकारके हिंसादि पापोंका त्याग करना महाव्रत कहलता हैं और स्थूल हिंसादि दोषोंसे विरत होनेको अणुव्रत माना गया हैं ।।४।। उन व्रतोंके ग्रहण करनेके लिए उन्मुख हुए पुरुषकी जो प्रवृत्ति होती हैं,वह दीक्षा कहलाती है और उस दीक्षासे संयुक्त जो क्रियाएँ होती हैं, वे दीक्षान्वय-क्रियाएँ कही जाती हैं।॥५॥ उस दीक्षान्वयक्रियाके भेदोंकी संख्या अडतालीस हैं,जिनका कि निर्णय पहले कर आये हैं । अब उन भेदोंके लक्षणोंका वर्णन करते हैं ॥६'। उन दीक्षान्वय क्रियाओंमें पहली अवतार नामकी क्रिया है। मिथ्यात्वसे दुषित कोई भव्य पुरुष जब सन्मार्गको ग्रहण करनेके सन्मुख होता है,तब यह अवतार क्रिया की जाती हैं। ७॥ प्रथम ही वह विचक्षण भव्यपूरुष योग्य आचरणवाले महान् बद्धिशाली योगिराजके समीप जाकर, अथवा किसी गृहस्थाचार्यके समीप जाकर उनसे इस प्रकार पूछता है कि हे महाप्राज्ञ, आप मेरे लिए निर्दोष धर्मका स्वरूप कहिये, क्योंकि मुझे अन्य तीथिक लोगोंके मत प्रायः हेय प्रतीत होते है ॥८-९॥ धार्मिक क्रियाओंके करनेमें जो वेदोंके वाक्य प्रमाण माने जाते है, वे भी विचारको सहन नहीं कर सकते, अर्थात् ऊहापोह करने पर वे निःसार प्रतीत होते है,क्योंकि वे दुष्ट जनोंके द्वारा प्रणीत है ।।१०।। इस प्रकार पूछनेवाले उस भव्यपुरुषके लिए विद्वानोंमें श्रेष्ठ वे योगिराज अथवा गृहस्थाचार्य सत्ययुक्त, विचारसे परिपूर्ण एवं मोक्षके मार्गस्वरूप धर्मका व्याख्यान करते है ॥१शा वे कहते है-हे भव्य, तुम मोक्षका उपदेश देनेवाले आप्त कथित वचनको ही सत्य वचन समझो । अन्य वचन जो आप्त-कथित नही है, वे तो केवल वचन-मल ही है,सत्य नही Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह बिरागः सर्ववित् सार्वः सूक्तसूनृतपूतवाक् । आप्तः सन्मार्गदेशी यस्तदाभासास्ततोऽपरे ।। १३ रूपतेजोगुणस्थानध्यानलक्ष्मद्धिदत्तिभिः । कान्तता-विजयज्ञानदृष्टिवीर्यसुखामृतः ।। १४ प्रकृष्टो यो गणरेभिः चक्रिकल्पाधिपादिसू । समाप्त: स च सर्वज्ञः स लोकपरमेश्वरः ॥ १५ ततः श्रेयोऽथिना श्रेयं मतमाप्तप्रणेतकम् । अव्याहतमनालीढपूर्व सर्वज्ञमानिभिः ।। १६ हेत्वाज्ञायुक्तमद्वैतं दीप्तं गंभीरशासनम् । अल्पाक्षरमसन्दिग्धं वाक्यंस्वायंभवं विदुः ।। १७ इतश्च तत्प्रमाणं स्याद् श्रुतमन्त्रक्रियादयः । पदार्थाः सुस्थितास्तत्र यतो नान्यमतोचिता । १८ यथाक्रममतो ब्रमः तान्पदार्थान्प्रपञ्चतः । यैः संनिकृष्यमाणाः स्युः दुःस्थिता: परसूक्तयः ।। १९ वेदः पुराणं स्मृतयः चारित्रं च क्रियाविधिः । मन्त्राश्च देवतालिङ्गमाहाराद्याश्च शुद्धयः ।। २० एतेऽर्थाः यत्र तत्त्वेन प्रणीताः परमषिणा । स धर्मः स च सन्मार्ग: तदाभासाः स्युरन्यथा ॥ २१ श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मषम् । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तवाक् ॥ १२ पुराणं धर्मशास्त्रं च तत्स्यात् वधनिधि यत् । वधोपदेशि यत्तत्तु ज्ञेयं धूर्तप्रणेतृकम् ॥ २३ सावधविरतिवृत्तम् आर्यषट्कर्मलक्षणम् । चातुराश्रम्यवृत्तं तु परोक्तमसदञ्जसा ॥ २४ है ॥१२॥ जो वीतराग है, सर्ववेत्ता है, सब प्राणियोंका कल्याण करनेवाला हैं,सन्मार्गका उपदेशक हैं और जिसके वचन पूर्वापर विरोध-रहित,सत्य और पवित्र हैं,वह आप्त कहलाता हैं। उक्त लक्षणों से रहित सभी पुरुषोंको आप्ताभास या मिथ्याभाषी जानना चाहिए।।१३।।जो रूप, तेज, गुणस्थान, ध्यान, लक्षण, ऋद्धि, दान, सौन्दर्य, विजय, ज्ञान, दर्शन,वीर्य और सुखामृत इन गुणोंके द्वारा चक्रवर्ती और इन्द्रादिकोंसे भी उत्कृष्ट हैं,वही सर्वज्ञ हैं और वही सर्व लोकोंका परमेश्वर हैं।।१४-१५।। इसलिए कल्याणके चाहनेवाले लोगोंका इसी आप्त प्रणीत मत का आश्रय लेना चाहिए क्योंकि वह युक्तियोंसे अबाधित हैं और अपनेको सर्वज्ञ माननेवाले आप्ताभासियोंसे असंस्पृष्ट है,अर्थात् असर्वज्ञ लोग जिसका स्पर्श भी नहीं कर सके है ॥१६॥ जो युक्ति और आगमसे युक्त है,अद्वितीय है, जगत्प्रकाश है, गम्भीर शासनवाला है, अल्पअक्षर-संयुक्त है और असंदिग्ध है, ऐसे वचनको ही स्वयम्भू सर्वज्ञ-प्रणीत जानना चाहिए ॥१७॥ यतः सर्वज्ञ-प्रणीत मतमें शास्त्र,मंत्र,और क्रिया आदिक पदार्थ सुव्यवस्थित है और अन्य मतोंमें वे वैसे नहीं पाये जाते है, अतः सर्वज्ञ-प्रणीत मत ही प्रमाणभूत है ॥१८॥ हे भव्य,मैं यथाक्रमसे उन पदार्थोका विस्तार-पूर्वक निरूपण करता हूँ, क्योंकि उन तत्त्वोंके साथ भली-भाँति सन्निकर्षकी गई अर्थात् कसौटी कसी गई पर-मतकी सूक्तियाँ दोष-युक्तप्रतीत होने लगती है ॥१९॥ जिस मतमें वेद,पुराण,स्मृति, चारित्र, क्रियाओंकी विधि,मंत्र, देवता, लिंग (वेष) और आहार आदिकी शुद्धि,इन पदार्थोका यथार्थ रीतिसे परम-ऋषियोंने निरूपण किया है, वही धर्म है और वही सन्मार्ग है । जिन मतोंमें इससे अन्यथा कथन है,उन सबको धर्माभास और मार्गाभास जानना चाहिए॥२०-२१॥ सदाचार-प्ररूपक,द्वादशाङगरूप निर्दोष श्रुतज्ञान ही सच्चा वेद (ज्ञान) है । जो वाक्य हिंसाका उपदेश देनेवाला है, वह वेद नहीं है,उसे तो यमराजके वाक्य ही समझना चाहिए ॥२२॥पुराण और धर्मशास्त्र वे ही वाक्य माने जा सकते है,जो कि हिंसाके निषेध करनेवाले हों । जो पुराण या धर्मशास्त्र हिंसाके उपदेशक है,उन्हें तो धूर्त्तजनोंसे प्रणीत ही जानना चाहिए ॥२३॥ पापोंसे विरक्तिको चारित्र कहते है । वह चारित्र आर्यपुरुषों के करने योग्य पूजा,वार्ता आदि षट्कर्मस्वरूप है। दूसरे मतावलम्बियोंके द्वारा कहा गया चार प्रकारके आश्रमरूप चारित्र तो निश्चयसे असत् ही है ॥२४।। गर्भाधानसे लेकर निर्वाण तककी जो क्रियाएँ पहले कही गई है, वेही . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन ५९ क्रिया गर्भादिका यास्ता निर्वाणन्ताः पुरोदिता: । आधानादिश्मशानात्ता न ताः सम्यक् क्रियामता २५ मन्त्रास्त एव धर्म्याः स्युः ये क्रियासु नियोजिताः । दुर्मन्त्रास्तेऽत्र विज्ञेया ये युक्ताः प्राणिमारणे ॥२६ विश्वेश्वरादयो ज्ञया देवताः शान्तिहेतवः । क्रूरास्तु देवता हेया यासां स्वाद् वृत्तिरामिषैः ॥ २७ निर्वाणसाधनं यत् स्वात्तल्लिङ्गं जिनदेशितम् । एणाजिनादिचिन्हं तु कुलिगं नद्विधैः कृतम् ॥ २८ स्थान्निरामिषभोजित्वं शुद्धिराहारगोचरा । सर्वङ्कषास्तु ते ज्ञेया ये स्युरामिष भोजनः ॥ २९ अहिंसाशुद्धिरेषां स्याद् ये निःसङ्गा बगालवः । रताः पशुबधे ये तु न ते शुद्धा दुराशयाः || ३० कामशुद्धिमता तेषां विकामा ये जितेन्द्रियाः । सन्तुष्टाश्च स्वदारेषु शेषाः सर्वे विडम्बका: ।। ३१ इति शुद्ध मतं यस्य विचारपरिनिष्ठितम् । स एवाप्तस्तदुनीतो धर्मः श्रेयो हितार्थिनाम् ।। ३२ श्रुत्वेति देशनां तस्माद् भग्योऽसौ देशिकोत्तमात् । सन्मार्गे मतिमाधत्ते दुर्मार्गरतिमुत्सृजन् ।। ३३ गुरुजनयिता तत्त्वज्ञान गर्भः सुसंस्कृतः । तदा तत्रावतीर्णोऽसौ भव्यात्मा धर्मजन्मना ॥ ३४ अवतार for stiषा गर्भाधानवदिष्यते । यतो जन्मपरिप्राप्तिरुभयत्र न विद्यते ।। ३५ ततोऽस्य वृत्तलाभः स्यात् तदैव गुरुपादयोः । प्रणतस्य व्रतव्रातं विधानेनोपसेदुषः ।। ३५ इत्यवतारक्रिया | इतिवृत्तलाभ: सच्ची क्रियाएँ है । इनके अतिरिक्त गर्भ से लेकर श्मशान तककी जो क्रियाएँ अन्य लोगोंने कही है, वे सच्ची क्रियाएँ नहीं है ॥२५॥ जो गर्भाधानादि क्रियाओंमें प्रतिपादित उपयुक्तमंत्र है, वे धार्मिक मंत्र है। किन्तु जो प्राणियोंके मारने में प्रयुक्त मंत्र हैं, उन्हें तो दुर्मन्त्र ही समझना चाहिए ॥ २६ ॥ शान्ति करनेवाले विश्वके ईश्वर तीर्थंकर आदि ही सच्चे देवता समझना चाहिए। किन्तु जिनकी वृत्तिमांस से है, वे क्रूर देवता हैं, अतः उनका परित्याग करना चाहिए ||२७|| जो साक्षात् निर्वाणका कारण है, ऐसा जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थपना ही सच्चा लिंग हैं। इसके अतिरिक्त मृग, व्याघ्र आदिकेचर्म-चिन्हवाले लिंग तो लिंग ही है, क्योंकि वे कुलिंगियोंके द्वारा बनाये गये हैं ||२८|| मांस-रहित भोजन करना ही आहारfare शुद्धि कहलाती हैं । मांस भोजी हैं, उन्हें तो सर्व-भक्षी हिंसक या कषायी जानना चाहिए ॥२९॥ अहिंसा-शुद्धि उन्हीं पुरुषोंके होती हैं, जो परिग्रह - रहित और दयालु हैं । किन्तु जो पशु वध में तत्पर रहते हैं, वे दुष्ट अभिप्रायवाले शुद्ध नहीं है ।। ३०11 जो काम - विकारसे रहित जितेन्द्रिय पुरुष है और जो अपनी स्त्रियों में सन्तुष्ट हैं ऐसे मुनियों और गृहस्थोंके काम-विषयक शुद्धि मानी गई है। इनके अतिरिक्त शेष सर्व मनुष्य ब्रह्मचर्यकी विडम्बना करनेवाले है ।। ३१ ।। इस प्रकार के विचारोंसे परीक्षित किया गया जिसका मत शुद्ध हो, वही पुरुष आप्त कहलाने के योग्य है और उसीके द्वारा कहा हुआ धर्म हितके चाहनेवाले लोगोंको कल्याणकारी हो सकता है ||३२|| उत्तम उपदेशकसे इस प्रकारकी धर्म देशनाको सुनकर वह भव्य पुरुष कुमार्गके प्रेमको छोडता हुआ सन्मार्ग में अपनी बुद्धिको लगाता है । ३३ ।। उस समय गुरु ही उसका जनक है और तत्त्वज्ञान ही सुसंस्कृत गर्भ है । वह भव्यात्मा धर्मरूप जन्मके द्वारा उस तत्त्वज्ञानरूपी गर्भ में अवतीर्ण होता है ॥ ३४ ॥ इस भव्य पुरुषकी यह अवतार क्रिया गर्भाधानके समान मानी जाती है, क्योंकि जन्मकी प्राप्ति न तो गर्भाधानक्रिया में है और न अवतार क्रियामें ही है ||३५|| भावार्थ- जीव सदा ही सत्स्वरूप है अतः उसका कभी वस्तुतः जन्म होता ही नहीं है । यह पहली अवतार किया है । तदनन्तर उसी समय गुरुके चरणों में नमस्कार कर विधिपूर्वक व्रतोंके समुदायको ग्रहण करनेवाले उस भव्यात्माके वृत्तलाभ नामकी क्रिया होती है ॥ ३६ ॥ यह दूसरी वृत्तलाभ है । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० श्रावकाचार - संग्रह 1 ततः कृतोपवासस्य पूजा विधिपुरःसरः । स्थानलाभो भवेदस्य तत्रायमुचितो विधिः ।। ३७ जिनालये शुचौ रङ्गे पद्ममष्टदलं लिखेत् । विलिखेद् वा जिनास्थानमण्डलं समवृत्तकम् ।। ३८ इलक्षण पिष्टचूर्णेन सलिलालोडितेन वा । वर्तनं मण्डलस्येष्टं चन्दनाद्रिद्रवेण वा ।। ३९ तस्मिन्नष्टदले पद्मे जेने वाऽऽस्थानमण्डले । विधिना लिखिते तञ्ज्ञविष्वग्विरचितार्चने ॥ ४० जिनार्चाभिमुखं सूरि : विधिनैनं निवेशयेत् । तवोपासकदीक्षेयमिति मूनि मुहुः स्पृशन् ।। ४१ पञ्चमुष्टिविधानेन स्पृष्ट्वैनमस्तकम् । पूतोऽसि दीक्षयेत्युक्त्वा सिद्धशेषा च लम्म्भयेत् ॥ ४२ ततः पञ्चनमस्कारपदान्यस्मा उपदिशेत् । मन्त्रोऽयमखिलात् पापात्त्वां पुनीतादितीरयन् ॥ ४३ कृत्वा विधिमिमं पश्चात् पाराणाय विसर्जयेत् । गुरोरनुग्रहात् सोऽपि सम्प्रीतः स्वगृहं व्रजेत् ॥४४ इति स्थानलाभः | निर्दिष्टस्थानलाभस्य पुनरस्य गणग्रहः । स्यान्मिथ्यादेवताः स्वस्माद् विनिःसारयतो गृहात् ॥ ४५ इयन्तं कालमज्ञानात् पूजिता: स्थ कृतादरम् । पूज्यास्त्विदानीमस्माभिः अस्मत्समयदेवताः ॥ ४६ ततोऽपमृषितेनालन्यत्र स्वरमास्यताम् । इति प्रकाशमेवैतान् नीत्वाऽन्यत्र ववचित्त्यजेत् ।। ४७ गणग्रहः स एष स्यात् प्राक्तनं देवतागणम् । विसृज्याचंयतः शान्ताः देवताः समयोचिताः ॥ ४८ इति ग्रहणक्रिया | पूजाराध्याख्ययाख्याता क्रियाऽस्य स्यन्दतः परा पूजोपवाससम्पत्त्या श्रृष्वतोऽङ्गार्थसङ्ग्रहम् ।। ४९ इति पूजाराध्य क्रिया । तत्पश्चात् जिसने उपवास किया है, ऐसे उस भव्य पुरुषके पूजाको विधि पूर्वक स्थानलाभ नामकी क्रिया होती है । इसमें यह वक्ष्यमाण विधि करना उचित है ||३७|| जिनालय में किसी शुद्ध स्थानपर अष्टदलवाले कमलको लिखे, अथवा गोल आकारवाले समवरणके मंडलकी रचना करे ।। ३८ ।। इस कमलकी, अथवा समवसरण - मंडलकी रचना जलमें घोले हुए बारीक पिसे चूर्ण से अथवा घिसे हुए चन्दन- केशर आदिके रसके करना चाहिए || ३९ || मंडल - रचनाके जानकर लोगोंके द्वारा लिखित उस अष्टदल कमलकी, अथवा जैन आस्थामंडल ( समवसरण ) की विधिपूर्वक पूजन हो जानेपर आचार्य उस भव्य पुरुषको जिनप्रतिमाके सन्मुख बिठावे और उसके मस्तकका बार- बारस्पर्श करता हुआ उससे कहे कि यह तेरी श्रावकदीक्षा हैं ||४०-४१ ॥ पुनः पंचमुष्टि विधानसे उनके मस्तकका स्पर्शकर और ‘तू इस दीक्षासे पवित्र हुआ' इसप्रकार कहकर पूजनसे शेष रहे अक्षत उसके मस्तकपर डा ||४२॥ तदनन्तर 'यह मन्त्र तुझे समस्त पांपोंसे पवित्र करें' ऐसा कहकर उसे पञ्चनमस्कार मन्त्रका उपदेश देवे ॥४३॥ | यह सब विधि करके आचार्य उसे पारणाके लिए विदा करे और वह भव्य भी उसके अनुग्रहसे अति प्रसन्न होता हुआ अपने घरको जावे ॥ ४४ ॥ | यह तीसरी स्थानलाभ क्रिया है । जिसकी स्थानलाभ क्रिया अभी कही गई है, उस भव्य के मिथ्या देवताओं को अपने घरसे बाहर करते समय गणग्रह क्रिया होती हैं ॥४५॥ | उस समय वह अभी तक घरमें स्थापित उन देवताओंसे कहे कि "मैंने इतने कालतक अज्ञानसे आदरपूर्वक तुम्हारी पूजा की; अब हमें हमारे ही मतके देवता पूज्य हैं, इसलिए क्रोध न करें और अपनी इच्छानुसार अन्यत्र रहें " इसप्रकार स्पष्ट कहकर और उन देवताओंको ले जाकर किसी अन्य स्थानपर छोड जावे ।।४६-४७॥ इसप्रकार पहलेके देवताओंका विसर्जनकर अपने मतके शान्त देवताओंकी पूजा करनेवाले उन भव्यकी यह गणग्रह किया हैं ॥१४८॥ | यह चौथी गणग्रह किया हैं । तदनन्तर जिनदेवकी पूजन करते और यथा . Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रियापुण्यानुबन्धिनी । श्रृण्वतः पूर्वविद्यानामर्थं सब्रह्मचारिणः ।। ५० इति पुण्ययज्ञक्रिया । तथाऽस्य दृढचर्या स्यात् क्रिया स्वसमयश्रुतम् । निष्ठाय धृण्वतो ग्रन्थान बाह्यानन्यांश्च कांश्चन।।५१ इति दृढचर्याक्रिया। दृढव्रतस्य तस्यान्या क्रिया स्यादुपयोगिता । पर्वोपवासपर्यन्ते प्रतिमायोगधारणम् ।। ५२ इति उपयोगिताक्रिया । क्रियाकलापेनोक्तेन शुद्धिमस्योपविभ्रतः । उपनीतिरनूचानयोग्यलिङ्गग्रहो भवेत् ।। ५३ उपनीतिहि वेषस्य वृत्तस्य समयस्य च । देवतागुरुसाक्षि स्याद् विधिवत्प्रतिपालनम् ।। ५४ शक्लवस्त्रोपवीतादिधारणं वेष उच्यते । आर्यषट्कर्मजीवित्वं वृत्तमस्य प्रचक्षते ।। ५५ जैनोपासकदीक्षा स्यात् समयः समयोचितम् । दधतो गोत्रजात्यादि नामान्तरमतः परम् ।। ५६ इत्युपनीतिक्रिया। ततोऽयमुपनीतः सन् व्रतचर्या समाश्रयेत् । सूत्रमौपासकं सम्यगभ्यस्य ग्रन्थतोऽर्थतः ॥५७ __ इति व्रतचाँक्रिया। व्रतावतारणं तस्य भूयो भूषादिसङ्ग्रहः । भवेदधीतविद्यस्य यथावद् गुरुसन्निधौ ॥ ५८ ___ इति वतावरणक्रिया। विवाहस्तु भवेदस्य नियुञ्जानस्य दीक्षया । सुव्रतोचितया सम्यक् स्वां धर्मसहचारिणीम् ।। ५९ संभव उपवास करते हुए द्वादशाङगवाणी-प्रोक्त वत्त्वोंके अर्थके सुननेवाले उस भव्यके पूजाराध्य नामसे प्रसिद्ध क्रिया होती हैं ।।४९।। यह पाँचवीं पूजाराध्य क्रिया है। तत्पश्चात् अपने सहाध्यायी बन्धुओंके साथ चौदह पूर्व विद्याओंक। अर्थं सुननेवाले उस भव्यके पुण्यानुबन्धिनी पुण्ययज्ञ नामकी क्रिया होती हैं ।।५०।। यह छठी पुण्ययज्ञ क्रिया है । इसप्रकार स्वसमयके शास्त्रोंका भली भाँतिसे अध्ययन करके परसमयके अन्य किन्हीं ग्रन्थोंको सुननेवाले उस नवदीक्षित पुरुषके दृढचर्यां नामकी क्रिया होती है ।।५१।। यह सातवीं दृढचर्या क्रिया है। तदनन्तर व्रतोंमें दृढताको प्राप्त उस भव्यके आठवीं उपयोगिता क्रिया होती है । पर्वके दिन उपवासके अन्तमें रात्रिके समय प्रतिमायोगके धारण करनेको उपयोगिता कहते है ।। ५२।। यह आठवीं उपयोगिता क्रिया है। उपर्युक्त क्रिया-कलापके द्वारा शुद्धिको धारण करनेवाले उस भव्य जीवके उत्तम पुरुषोंके योग्य चिन्हको धारण करने रूप उपनीति क्रिया होती हैं । ५३।। देवता और गुरुकी साक्षीपूर्वक विधिके अनुसार अपने वेष,वृत्त (चारित्र) और समयका प्रतिपालन करना उपनीति क्रिया कहलाती हैं ॥५४॥ श्वेत वस्त्र और यज्ञोपवीत आदिको धारण करना वेष कहलाता हैं । देवपूजा आदि आर्योके करने योग्य छह कर्मोका पालन करना वृत्त कहा जाता हैं ॥५५ । तदनन्तर शास्त्रानुसार गोत्र,जाति आदि दूसरे नाम धारण करने. वाले पुरुषके जो जैन उपासकको दीक्षा होती है,उसे समय कहते हैं ॥५६।। यह नवमी उपनीति क्रिया हैं । तदनन्तर यज्ञोपवीतको धारणकर यह भव्यपुरुष शब्द और अर्थ दोनों प्रकारसे भलीभाँति उपासकाध्ययन सूत्रका अभ्यासकर श्रावकव्रतोंको पालते हुए व्रतचर्याको धारण करे।।५७।। यह दशवी व्रतचर्या क्रिया हैं। जब उक्त भव्य विद्या पढना समाप्त करता हैं और गुरुके समीप विधिपूर्वक पुनः वस्त्र-आभूषणादिको ग्रहण करता है, तब उसके व्रतावरण क्रिया होती हैं ।।५८।। यह ग्यारहवीं व्रतावतरण क्रिया हैं । जब वह भव्य अपनी धर्मसहचारिणी स्त्रीको उत्तम व्रतोंके Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह पुनर्विवाहसंस्कारः पूर्वः सर्वोऽस्य सम्मतः सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य पत्न्याः संस्कारमिच्छतः ।। ६० इति विवाह क्रिया। वर्णलाभस्ततोऽस्य स्यात् सम्बन्धं संविधित्सतः समानाजीविभिलब्धवणरन्यैरुपासकः ।। ६१ चतुरः श्रावकज्येष्ठावाहूयकृतसत्क्रियान् । तान ब्यावस्म्यनुग्राह्यो भवद्धिः स्वसमीकृतः ।। ६२ यूयं निस्तारका देवब्रह्मणा लोकपूजिताः । अहं च कृतदीक्षोऽस्मि गृहीतोपासकवतः ।। ६३ मया तु चरितो धर्मः पुष्कलो गृहमेधिनाम् । दत्तान्यपि च दानानि कृतं च गुरुपूजनम् ।। ६४ अयोनिसंभवं जन्म लब्ध्वाहं गुर्वनुग्रहात । चिरभावितमुत्सृज्य प्राप्तो वृत्तमभावितम् ।। ६५ व्रतसिद्धयर्थमेवाहमुपनीतोऽस्मि साम्प्रतम् । कृतविद्यश्च जातोऽस्मि स्वधीतोपासकश्रुतः ॥ ६६ व्रतावतरणस्यान्ते स्वीकृतामरणोऽस्म्यहम् । पत्नी च संस्कृताऽऽत्मीया कृतपाणिग्रहा पुनः॥ ६७ एवं कृतवतस्याद्य वर्णलाभों ममोचितः। सुलभः सोऽपि युष्माकमनुज्ञानात् सधर्मणाम् ।। ६८ इत्युक्तास्ते च तं सत्यमेवमस्तु समञ्जसम् । त्वयोक्तं श्लाघ्यमेवैतत् कोऽन्यस्त्वत्सदशो द्विजः ।। ६९ युष्मादृशामलाभे तु मिथ्यादृष्टिभिरप्यमा । समानाजीविभिः कर्तुं सम्बन्धोऽभिमतो हि नः ॥७० इत्युक्त्वेनं समाश्वास्य वर्णलाभेन युञ्जते । विधिवत् सोऽपि तं लब्ध्वा याति तत्समकक्षताम् ॥७१ इति वर्णलाभक्रिया। योग्य श्रावककी दीक्षासे नियुक्त करता हैं, तब उसके विवाह नामकी क्रिया होती हैं। ५९।। अपनी पत्नीके संस्कारको चाहनेवाले उस भव्यका उसी स्त्री के साथ सिद्ध भगवान्की पूजन पूर्वक पुनः विवाह-संस्कार करना आवश्यक माना गया हैं।.६०।। यह बारहवीं विवाह क्रिया हैं । तदनन्तर समान आजीविका करनेवाले वर्णलाभको प्राप्त अन्य श्रावकोंके साथ सम्बन्ध स्थापित करनेकी इच्छासे इस भव्यके वर्णलाभ नामकी क्रिया होती हैं॥६१॥ इस क्रियाके करते समय वह भव्य चार प्रमुख श्रावकोंको बुलाकर और उनका आदर-सत्कारकर उनसे कहे कि आप लोग मुझे अपने समान बनाकर मेरेपर अनुग्रह करें ॥६२।। आपलोग संसार तारक देव ब्राह्मण है, लोक-पूजितहै और मैं उपासक व्रतधारक नवशिक्षित हूँ ॥६३।। मैंने गृहस्थोंका धर्म भलीभाँति आचरण किया है, सर्वप्रकारके दान भी दिये है और गुरुजनोंका पूजन भी किया हैं ।६४।। मैंने गुरुके अनुग्रहसे अयोनिसंभव (मातृयोनिके बिना ही मन्त्र-संस्कारबाला) जन्म पाकर चिरकालसे पालन किया हुआ मिथ्यात्व आचरण छोडकर पूर्व-अभावित इस सम्यक्चारित्रको पाया है ॥६५।। व्रतोंकी सिद्धिके लिये ही मैंने इससमय यह यज्ञोपवीत धारण किया हैं और श्रावकाचार पढकर तथा अन्य विद्याओंका अभ्यासकर विद्वत्ता भी प्राप्त की हैं ॥६६॥ व्रतावतरण क्रियाके पश्चात् ही मैंने आभूषण स्वीकार किये हैं, मैंने अपनी पत्नी भी संस्कार-युक्त की हैं और उसके साथ पुनः विवाह-संस्कार भी किया है ॥६७।। इसप्रकारका व्रत-धारण करनेवाले मुझे इससमय वर्णलाभ करना उचित ही हैं और वह भी आप सब साधर्मीजनोंकी अनुज्ञासे सहजमें सुलभ है ।।६८॥ इसप्रकार कहने पर वे देव ब्राह्मण कहें कि तुमने सत्य ही कहा है, तुम्हारा कथन समीचीन और प्रशंसनीय है। तुम्हारे सदृश अन्य कौन द्विज है ॥ ६९ ॥ आप जैसे साधर्मीजनके प्राप्त नहीं होनेपर हम लोगोंको समान आजीविका करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंके साथ भी अपना विवाहादि सम्बन्ध करना पडता है॥७०॥ इस प्रकार कह कर और उसे आश्वासन देकर वे लोग उसे वर्णलाभसे संयुक्त करते है और वह भव्य भी विधिपूर्वक वर्णलाभको पाकर उन श्रावकोंकी समानताको प्राप्त होता है।।७१॥ यह तेर . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ६३ वर्णलाभोऽयमुद्दिष्टः कुलचर्याऽधुनोच्यते । आर्यषट्कर्मवृत्तिः स्यात् कुलचर्याऽस्य पुष्कला ।। ७२ इति कुलचर्यां । विशुद्धस्तेन वृत्तेन ततोऽभ्येति गृहीशिताम् । वृत्ताध्ययनसम्पत्त्या परानुग्रहणक्षमः । ७३ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृतिपुराणवित् । गृहस्थाचार्यतां प्राप्तः तदा धत्ते गृहीशिताम् ।। ७४ इति गृही शिता क्रिया । ततः पूर्ववदेवास्य भवेदिष्टा प्रशान्तता । नान विधोपवासादिभावना: समुपेयुषः ॥ ७५ इति प्रशान्तताक्रिया । गृहत्यागस्ततोऽस्य स्याद् गृहवासाद् विरज्यतः योग्यं सूनुं यथान्यायमनुशिष्य गहोज्ज्ञनम् ॥ ७६ गृहत्याग क्रिया | त्यक्तागारस्य तस्य तस्तपोवनमुपेयुषः । एकशाटकधारित्वं प्राग्वद्दीक्षाद्यमिष्यते ॥ ७७ इति दीक्षाद्य क्रिया । ततोऽस्य जिनरूपत्वमिष्यते त्यक्तवाससः । धारणं जातरूपस्य युक्ताचाराद् गणेशिनः ॥ ७८ इति जिनरूपता ! क्रियाशेषास्तु निःशेषाः प्रोक्ता गर्भान्वये यथा । तथैव प्रतिपाद्याः स्युः न भेदोऽस्त्यत्र कश्चन ।। ७९ स्वेतास्तस्वतो ज्ञात्वा भव्यः समनुतिष्ठति । सोऽधिगच्छति निर्वाणमचिरात्सुखसाद्भवन् ।। ८० इति दीक्षान्वयक्रिया । अथातः सम्प्रवक्ष्यामि द्विजाः कर्त्रन्वयक्रियाः । या प्रत्यासन्नमिष्टस्य भवेयुर्भव्यदेहिनः ।। ८१ हवीं वर्णलाभ किया है । यह वर्णलाभ क्रिया कही । अब कुलचर्या कहते है - आर्यपुरुषोंके करने योग्य कुलागत - देवपूजादि षट्कर्मोका भली-भाँति पालन करना कुलचर्या कहलाती हैं । ७२ ।। यह चौदहवीं कुलचर्यां क्रिया है । तदनन्तर उन गृहीत व्रतोंसे विशुद्ध हुआ वह श्रावक गृहीशिता क्रियाको प्राप्त होता हैं। जब वह चारित्र और विद्याध्ययनरूपी सम्पत्तिसे अन्य लोगोंके अनुग्रह करमें समर्थ हो जाता हैं, प्रायश्चित्त विधानका ज्ञाता और श्रुति, स्मृति एवं पुराणका वेत्ता बन जाता है, तब वह गृहस्थाचार्यके पदको प्राप्त होकर गृहीशिता क्रियाको धारण करता है ।।७३-७४ ।। यह पन्द्रहवीं गृहीशिता किया हैं । तत्पश्चात् नाना प्रकारके उपवास आदिकी भावनाओंको प्राप्त होनेवाले उस गृहस्थाचार्य के पूर्व बणित प्रकारसे प्रशान्तता क्रिया मानी गई है ।। ७५ ।। यह सोलहवीं प्रशान्तता क्रिया हैं । तदन्तर गृह - वाससे विरक्त होनेवाले उस प्रशान्तबुद्धि श्रावकका योग्य पुत्रको न्याय्य नीति के अनुसार शिक्षादेकर घरको छोडना गृहत्याग क्रिया है ॥७६॥ यह सत्तरहवीं गृहत्याग किया है । इसके पश्चात् घरको छोडकर तपोवनको प्राप्त होनेवाले उस भव्यका पहले किये गये वर्णनके समान एक वस्त्रको धारण कर क्षुल्लकके व्रतोंको पालना दीक्षाद्यक्रिया कहलाती है ॥७७॥ यह अठारहवीं दीक्षाद्यक्रिया हैं। तदन्तर वस्त्रका त्याग कर योग्य आचारवाले गणस्वामी आचार्य से यथाजात दिगम्बररूपका धारण करना जिनरूपता क्रिया हैं ||७८|| यह उन्नीसवीं जिनरूपता किया हैं । इससे आगेकी जानेवाली शेष समस्त क्रियाओं का जिस प्रकारसे गर्भान्वय क्रियाओंमें वर्णन किया हैं, उसी प्रकार से करना आवश्यक हैं, क्योंकि इन आगेकी दीक्षान्वय क्रियाओंका उन गर्भान्वय क्रियाओं से कोई भेद नहीं हैं ||७९॥ | जो भव्य इन क्रियाओंको यथार्थ रीतिसे जानकर उनका भली-भाँति से पालन करता हैं, वह शीघ्र ही अनन्तसुखको आत्मसात् करता हुआ निर्वाणको प्राप्त होता है ।। ८०1t इस प्रकार दीक्षान्वय क्रियाओं का वर्णन पूर्ण हुआ । अब इससे आगे हे ब्राह्मणो, मैं उन कर्त्रन्वय Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रावकाचार-संग्रह तत्र सज्जातिरित्याधा क्रिया श्रेयोऽनुबन्धिनी । या सा वाऽऽसनभव्यस्य नजन्मोपगमे भवेत् ।। ८२ सनजन्मपरिप्राप्तो दीक्षायोग्ये सदन्वये । विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ।। ८३ विशुद्धकुलजात्यादि संपत्सज्जातिरुच्यते । उदितोदितवंशत्वं यतोऽभ्येति पुमान् कृती।। ८४ पितुरन्वयशद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते । मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ॥ ८५ विशुद्धिरुभयस्यास्य सज्जातिरनुणिता । यत्प्राप्ती सुलभा बोधिरयत्नोपनतैर्गुणः ॥ ८६ सज्जन्मप्रतिलम्भोऽयमार्यावर्तविशेषतः । सत्यां देहादिसामग्रघां श्रेयः सूते हि देहिनाम् ।। ८७ शरीरजन्मना संषा सज्जातिरुपणिता । एतन्मूला यतः सर्वाः पुंसामिष्टार्थसिद्धयः ॥ ८८ . संस्कारजन्मना चान्या सज्जातिरनुकीय॑ते । यामासाद्य द्विजन्मत्वं भव्यात्मा समुपाश्नुते ॥ ८९ विशुद्धाकरसम्भूतो मणि. संस्कार योगत: । यात्युत्कर्ष यथाऽऽत्मैवं क्रियामन्त्रः सुसंस्कृतः ॥ ९० सुवर्णधातुरथवा शुद्ध्येवासाद्य संस्क्रियाम् । यथा तथैव भव्यात्मा शुद्ध्यत्यासादितक्रियः ॥ ९१ ज्ञानजः स तु संस्कार: सम्यग्ज्ञानमनुत्तरम् । यदाथ लभते साक्षात् सर्वविन्मुखतः कृती ॥ ९२ तदेष परमज्ञानगर्भात संस्कारजन्मना । जातो भवेद् द्विजन्मेति वतैः शीलश्च भूषितः ॥ ९३ व्रतचिन्हं भवेदस्य सूत्रं मन्त्र पुरःसरम् । सर्वज्ञ ज्ञाप्रधानस्य द्रव्यभावविकल्पितम् ॥ ९४ यज्ञोपवीतमस्य स्याद् द्रव्यतस्त्रिगुणात्मकम् । सूत्रमोपासिकं तु स्याद् भावारूढस्त्रिभिगुणः ॥ ९५ क्रियाओंको कहता हूँ, जो कि अतिनिकट भव्य प्राणीको प्राप्त होती हैं ॥ ८१ ।' उन कन्वय क्रियाओंमें कल्याण करनेवाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति हैं, जो किसी आसन्न भव्यको मनुष्य जन्मकी प्राप्ति होनेपर होती है ।। ८२ ॥ मनुष्यजन्मकी प्राप्ति होनेपर जब वह दीक्षाके योग्य उत्तम वंशमें विशुद्ध जन्म धारण करता हैं, तब उसके यह सज्जाति क्रिया कही जाती हैं ।। ८३ ।। विशुद्ध कुल और उत्तम जाति आदि सम्पदाके पानेको सज्जाति कहते हैं । इस सज्जातिसे ही पुण्यवान् पुरुष उत्तरोत्तर अभ्युदयवाले उत्तम वंशको प्राप्त होता हैं 11४11पिताके वंशकी जो शुद्धि हैं, वह कुल कहलाता हैं और माताके वंशकी शुद्धि जाति कही जाती है ॥८५॥ कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धिको सज्जाति कहा गया है,इस सज्जातिके प्राप्त होनेपर अनायास प्राप्त हुए गुणोंके द्वारा रत्नत्रयरूप बोधिका पाना सुलभ हो जाता है । ८६ ॥ आर्यावर्तमें जन्म लेनेकी विशेषतासे यह सज्जातित्वकी प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्रीके मिलनेपर जीवोंके नानाप्रकारसे कल्याणोंको उत्पन्न करती है ।। ८७ ॥ शरीरके साथ ही यह सज्जाति वर्णन की गई है, क्योंकि पुरुषोंके समस्त इष्ट पदार्थोकी सिद्धिका मूल कारण यही प्रथम सज्जाति है ॥४८॥ संस्काररूप जन्मसे उत्पन्न होनेवाली सज्जाति दूसरी है। उसे पाकर भव्यात्मा द्विजपनेको प्राप्त होता है।८९ ॥ जैसे विशुद्ध खानिमें उत्पन्न हुआ रत्न संस्कारके योगसे उत्कर्षको प्राप्त होता है, वैसे ही क्रिया और मंत्रोंसे सुसंस्कारको प्राप्त हुआ आत्मा भी परम उत्कर्षको प्राप्त होता है ॥ ९० ॥ अथवा जिस प्रकर सुवर्णधातु अग्नि आदिके द्वारा संस्कारको प्राप्त होकर शुद्ध हो जाती है,उसीप्रकार भव्य जीव भी सत्-क्रियाओंको पाकर शुद्ध हो जाता है ॥९१।। वह वास्तविक संस्कार ज्ञानसे उत्पन्न होता है और सबसे उत्कृष्ट ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । जब भाग्यशाली भव्य साक्षात् सर्वज्ञके मुखसे उस सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करता है, उस समय वह परमज्ञानरूप गर्भसे संस्काररूपी जन्म लेकर उन्पन्न होता है और पंच अणुव्रत तथा सप्तशीलव्रतोंसे विभूषित होकर द्विज कहलाता है।।९२-९३॥सर्वज्ञदेवकी आज्ञाको प्रधान माननेवाले उस द्विजके मंत्र पूर्वक यज्ञोपवीतसूत्रका धारण करना उसका व्रतचिन्ह है। यह यज्ञोपवीतरूप सूत्र द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारका है ॥ ९४ ॥ तीन लरका यज्ञोपवीत उस Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन STE यदैव लब्ध्रसंस्कार: परं ब्रह्माधिगच्छति । तदैनमभिनन्द्याशीर्वचोभिर्गणनायकाः ।। ९६ । लम्भयन्त्यचितां शेषां जैनी पुष्पैरथाक्षतैः । स्थिरीकरणमेतद्धि धर्मप्रोत्साहनं परम् ।। ९७ अयोनिम्भवं दिव्यज्ञानगर्भसमद्भवम् । सोऽधिगम्य परं जन्म तदा सज्जातिभाग्भवेत् ॥ ९८ ततोऽधिगतसज्जातिः सदाहित्वमसौ भजेत् । गृहमेधी भवन्नार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् ।। ९९ यदुक्तं गुहचर्यायामनुष्ठान विशुद्धिमत् । तदात्तविहितं कृत्स्नमतन्द्रालुः समाचरेत् ।। १०० जिनेन्द्राल्लब्धसज्जन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षितः । स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तमः ।। ५०१ तमेनं धर्मसाद्भुत श्लाघन्ते धामिकाः जनाः । परं तेज इव ब्राह्ममवतीर्ण महीतलम् ।। १०२ स यजन् याजयन् धीमान् यजमानरूपासितः । अध्यापयन्नधीयानो वेदवेदाङ्गविस्तरम् ॥ १०३ स्पृशन्नपि महीं नैव स्पृष्टो दोषैर्महीगते. । देवत्दमात्मसात्कुर्यादिहैवाचितैर्गुणैः ॥ १०४ मा महिमवास्य गरिमेव न लाघवम् । प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं चेति तद्गुणा: ।। १०५ गुणैरेभिरुपारूढमहिमा देदसाद्भवम् । बिभ्रल्लोकातिगं धाम महामेष महीयते ॥ १०६ ।। धभ्यराचरितैः सत्यशौचक्षान्तिदमादिभिः । देवब्राह्मणतां श्लाघ्यां स्वस्मिन सम्भावयत्यसौ।। १०७ अथ जातिमदावेशात कश्चिदेनं दिजनवः । ब्रयादेवं किमद्यैव देवभयं गतो भवान ।। १०८ द्विजका द्रव्यसूत्र है । तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप भावात्मक तीन गुणोंवाला जो श्रावकधर्म रूप सूत्र है,वह भावसूत्र कहलाता हैं ।।९५।। जब यह भव्य जीव संस्कारोंको पाकर परम ब्राह्मणत्वको प्राप्त होता हैं,तब गण-नायक आचार्य-गण आशीर्वादात्मक वचनोंसे उनका अभिनन्दनकर श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजासे शेष रहे पुष्प अथवा अक्षतोंके द्वारा उसे आशिका ग्रहण कराते हैं । यह आशिकाग्रहण एक प्रकारका धर्ममें स्थिरीकरण है और धर्म-पालन करनेमें उत्साह बढानेवाला है।॥९६-९७।। इसप्रकार जब यह भव्य जीव अयोनिसंभव और दिव्यज्ञानरूप गर्भसे उत्पन्न हुए उत्कृष्ट जन्मको प्राप्त होता हैं, तब वह सज्जातिका धारक होता है ।।९८॥ यह पहली सज्जाति क्रिया हैं । इसके पश्चात् सज्जातिको प्राप्त हुआ वह भव्य सद्-गृहस्थ होकर षट् आर्य कर्मोका परिपालन करता हआ सद्-गृहित्व क्रियाको प्राप्त होता है ।।९९।। पहले गृहचर्यामे जो-जो सर्वज्ञोक्त कर्तव्यपालन करने के लिए कह आए हैं,उन सबको उसे निर्दोषरीतिसे आलस्य-रहित होकर पालन करना चाहिए।।१०।। इस प्रकार जिनेन्द्रदेवके प्रसादसे सज्जन्मको प्राप्त और गणाधीश आचार्योसे अनुशासित वह श्रेष्ठ द्विज ब्रह्म तेजको धारण करता है ।।१०१।।धर्मको आत्मसात् करनेवाले उस द्विजको धार्मिक जन यह कहते हुए प्रशंसा करते हैं कि तू इस महीतलपर अवतीर्णं परमब्रह्म तेजके समान है ।१०२।। वह बुद्धिमान् स्वयं जिनेन्द्र देवका पूजन करते हुए अन्य लोगोंसे भी कराता हैं,स्वयं वेद-वेदांगके विस्तारको पढता हुआ दूसरोंको भी पढाता हैं और भूमिका स्पर्श करते हुए भी भूमिगत दोषोंसे स्पष्ट नहीं होता है इसप्रकार वह पूजनीय गुणोंके द्वारा इस लोकमें ही देवपनेको प्राप्त कर लेता हैं।।१०३-१०४।।इस प्रकारसे देवत्वको प्राप्त करनेपरउनकेअणिमाऋद्धि (छोटापन) नहीं हैं किन्तु महिमाऋद्धि (बडप्पन) हैं। उसके गरिमा ऋद्धि हैं, किन्तु लघिमा (लघुता)नही हैं । इसीप्रकार उसके प्राप्ति (रत्नत्रयका लाभ)प्राकाम्य (सर्वप्रियत्व) ईशित्व (सर्वस्वामित्व) और बशित्व (सबको वशमें करना) ये गुण भी उसमें रहते है ।।१०५।।इन देवोचित गुणोंके द्वारा महिमाको प्राप्त,लोकातिशायी तेजका धारक वह देवरूप भवको धारण करता हुआ इस भूमण्डल पर ही पूजा जाता है ।।१०६ ।। सत्य,शौच,क्षमा, इन्द्रिय आदि धर्मानुकूल आचरणोंसे वह अपने में प्रशंसनीय देवब्रह्मत्वको उत्पन्न करता है Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह त्वमामष्यायणः किन्न किन्तेऽम्बाऽमष्य पुत्रिका । येनैवमुन्नसो भूत्वा यास्यसत्कृत्यमद्विधान् ।१०९ जाति: सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रगेतनः । तथापि देवतात्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥११० देवतातिथिपित्रग्निकार्येष्वप्रयतो भवान् । गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामाच्च पराङ्मुखः ।। १११ दीक्षां जैनी प्रपन्नस्य जातः कोऽतिशयस्तव । यतोऽद्यापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन्।।११२ इत्युपारू ढसंरम्भमुपालब्धः स केनचित् । ददात्युत्तरमित्यस्मै वचोभियुक्तिपेशल: ।। ११३ भ्रूयतां भो द्विजम्मन्य त्वयाऽस्मद्दिव्यसम्भवः । जिनो जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गभौंऽतिनिर्मल: ।।११४ तत्राहंती त्रिधा भिन्नां शक्ति वैगुण्यसंश्रिताम् । स्वसा कृत्य समुद्भूतां वयं संस्कार जन्मना ।।११५ अयोनिसम्भवास्तेन देवा एव न मानुषाः । वयं वयमिवान्येऽपि सन्ति चेद् ब्रूहि तद्विधान् ।। ११६ स्वायम्भुबान्मुखाज्जाता: ततो देवद्विजा क्यम् । व्रतचिन्हं च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रशितम् ॥११७ पापसूत्रानुगा यूयं न द्विजा सूत्रकण्ठका: । सन्मार्गकण्टकास्तीक्ष्णा: केवलं मलदूषिताः ॥ ११८ शरीरजन्म संस्कारजन्म चेति द्विधा मतम् । जन्मागिनां मतिश्चैवं द्विधाम्नाता जिनागमे।।११९ वेहान्तरपरिप्राप्तिः पूर्वदेहपरिक्षयात् । शरीरजन्म विज्ञेयं देहभाजां भवान्तरे ॥ १२० तथालब्धात्मलामस्य पुनः संस्कारयोगत: । द्विजन्मतापरिप्राप्तिर्जन्म संस्कारजं स्मृतम् ।। १२१ ॥१०७॥ अब यदि अपनेको ब्राह्मण कहनेवाला कोई पुरुष इस देवब्राह्मणको जातिमदके आवेशसे इसप्रकार कहे कि क्या आप आज ही देवपनेको प्राप्त हो गये हैं? ।।१०८॥क्या तू अमुक प्रसिद्ध पुरुषका पुत्र नहीं हैं और क्या तेरी माता अमुककी पुत्री नहीं हैं? जिससे कि तू इस प्रकार ऊँची नाक करके मेरे जैसे पुरुषोंका सत्कार किये बिना ही जाता है ।।१०९॥ यद्यपि तेरी जाति वही हैं, कुल वही हैं और तू भी वही है जो कि प्रातःकाल था तथापि तू अपने आपको देवतारूप मान रहा है ॥११०।। तू देवता, अतिथि, पितृगण और अग्नि-हवनादि कार्योंमें प्रयत्नशील नहीं हैं और गुरुः द्विजाति और देवोंको प्रणाम करनेसे भी विमुख हैं।१११॥ जैनी दीक्षाको प्राप्त हुए तेरेकौन-सा अतिशय उत्पन्न हो गया हैं? तू तो अभी पृथ्वीका स्पर्श करनेवाला पादचारी मनुष्य ही है ॥११२॥इसप्रकार अतिक्रोधित होकर कोई ब्राह्मण उपालंभ देवे,तो उसके लिये सुन्दर युक्तियोंसे भरे हुए वचनोंसे इसप्रकार उत्तर दे ॥११३॥ हे द्विजम्मन्य, (अपने आपको ब्राह्मण माननेवाले) तू मेरा दिव्य जन्म सुन, श्री जिनदेव ही हमारे जनयिता (जनक)है और ज्ञान ही अत्यन्त निर्मल गर्भ हैं ॥१४॥उस गर्भ में उपलब्धि,उपयोग और संस्कार इन तीन गुणोंके आश्रित रहनेवाली जो रत्नत्रय स्वरूपा आहती शक्ति है, उसे आत्मसात् करके हम संस्काररूप जन्मसे उत्पन्न हुए है ॥११५।। हमलोग अयोनिजन्मा है, अतः देव ही है, मनुष्य नहीं है । यदि हमारे सदृश और भी अयोनिजन्मा देव ब्राह्मण हों, तो तू उन्हें भी देवब्राह्मण ही कह॥११६॥हम लोग स्वयम्भू सर्वज्ञके मुखसे उत्पन्न हुए है, अतः हम देवद्विज ही है और व्रतोंका चिन्ह यह शास्त्रोक्त पवित्र यज्ञोपवीत सूत्र है ॥११७॥ आपलोग तो केवल पापसूत्रों (कुशास्त्रों) के अनुयायी है,केवल कंठमें सूत्र धारण करनेसे द्विज नहीं कहला सकते है । वस्तुतः आपलोग केवल सन्मार्गके तीक्ष्ण कंटक है और मलोंसे दूषित है ॥११८॥ जीवोंका जन्म दो प्रकारका होता है,एक तो शरीरजन्म और दूसरा संस्कारजन्म । इसीप्रकार जिनागममें मरण भी दो प्रकारका माना गया है ॥११९॥ पूर्व देहके विनाशसे देहधारियोंके अन्यभवमें जो अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है,उसे शरीरजन्म जानना चाहिए ॥१२०॥इसीप्रकार क्रियाओंके संस्कारयोगसे आत्मलाभ करनेवाले जीवके जो द्विजपनाकी प्राप्ति . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन शरीरमरणं स्वायुरन्ते देह विसर्जनम् । संस्कारमरणं प्राप्तव्रतस्यागः समुज्झनम् ।। १२२ तोsयं लब्धसंस्कारो विजहाति प्रगेतनम् । मिथ्यादर्शनपर्यायं ततस्तेन मृतो भवेत् ॥ १२३ तत्र संस्कार जन्मेदमपापोपहतं परम् । जातं नो गुर्वनुज्ञानादतो देवद्विजा वयम् ।। १२४ इत्यात्मनो गुणोत्कर्ष ख्यापयन्यायवर्त्मना । गृहमेधी भवेत् प्राप्य सद्गृहित्वमनुत्तरम् ।। १२५ भूयोऽपि संप्रवक्ष्यामि ब्राह्मणान् सत्क्रियोचितान् । जातिवादावलेपस्य निरासार्थमतः परम् ॥ १२६ ब्रह्मणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः । ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवान् परमेष्ठी जिनोत्तमः ।। १२७ सह्यादिपरमब्रह्मा जिनेन्द्रो गुणबृंहणात् । परं ब्रहा यदायत्तमामनन्ति मुनीश्वराः ॥ १२८ नैणाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः । यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात् ।। १२२ दिव्य मूर्त्ते जिनेन्द्रस्य ज्ञानगर्भादनाविलात् । समासादिजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ।। १३० वर्णान्तःपातिनां नते मन्तव्या द्विजसत्तमाः । व्रतमन्त्रादिसस्कार समारोपित गौरवाः ॥ १३१ वर्णोत्तमानि त्विद्मः क्षान्तिशौचपरायणान् । सन्तुष्टान् प्राप्तवैशिष्ट्यानक्लिष्टाचार भूषणान् । १३२ क्लिष्टाचारा: परे नैव ब्राह्मणाः द्विजमानिनः । पापारम्भरता शश्वदाहत्य पशुघातिनः ।। १३३ सर्वमेधभयं धर्ममभ्युपेत्य पशुधनताम् । का नाम गतिरेषां स्याद् पापशास्त्रोपजीविनाम् ।। १३४ चीदनालक्षणं धर्ममधर्म प्रतिजानते । ये तेभ्यः कर्मचाण्डालान् पश्यामो नापरान् भुवि ॥ १३५ होती हैं, वह संस्कारज जन्म कहलाता हैं ।। १२१ ।। अपनी आयुके अन्तमे देहका छूटना - शरीर मरण हैं और व्रतोंको प्राप्त पुरुषका पापोंको छोडना संस्कार मरण है ॥ १२२॥ संस्कारको प्राप्त हुआ पुरुष यतः पूर्वकी मिथ्यादर्शन पर्यायको छोडता हैं, अतः वह पूर्वपर्यायके त्यागकी अपेक्षा मरा हुआ ही जानना चाहिए । १२३॥ उन दोनों प्रकारके जन्मोंमेंसे पाप-रहित यह निर्दोष संस्कार जन्म हमें गुरुकी अनुज्ञासे प्राप्त हुआ हैं, अतः हम देवद्विज है ।। १२४ ।। इसप्रकार न्यायमार्ग से अपने गुणों का उत्कृर्ष प्रकट करता हुआ वह देवद्विज अनुपम सद्-गृहीत्व पदको पाकर सद्-गृहस्थ होता हैं ॥१२५॥ अब मैं इससे आगे ब्राह्मणों के जातिवादका मद दूर करने के लिए सत्क्रियाओंके करने योग्य ब्राह्मणोंको और भी कथन करता हूँ ।। १२६ ।। ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः '' 'इस निरुक्ति के अनुसार ब्रह्माकी सन्तान ब्राह्मण कहते है । जिनोत्तम परमेष्ठी स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा कहलाते हैं ।। १२७ ।। वे श्री जिनेन्द्रदेव ही आदि परम ब्रह्मा है, क्योंकि वे ही आत्मा के सम्यग्दर्शनादि गुणोंको बढाते हैं । मुनीश्वर-उत्कृष्ट ब्रह्म (ज्ञान) उन्हीं जिनेन्द्रदेव के अधीन मानते हैं ।। १२८ । किन्तु मृगचर्मका धारक, दाढी - जटादि रखनेवाला पुरुष ब्रह्मा नहीं माना जा सकता हैं, क्योंकि वह कामके वंश गर्दभ-मुख बनकर ब्रह्मचर्यरूप तेजसे परिभ्रष्ट हुआ हैं ।। १२९ । । इसलिए दिव्यमूर्तिवाले जिनेन्द्रदेव के निर्मल ज्ञानरूप गर्भसे जन्म प्राप्त करनेवाले व्यक्ति ही द्विजन्मा माने गये है ।। १३० ।। व्रत और मंत्रादिके संस्कारोंसे गौरवको प्राप्त करनेवाले इन श्रेष्ठ देवब्रह्माणोंको अन्तर्गत नहीं मानना चाहिए । अर्थात् ये सामान्य त्रिवर्णी जनोंसे उत्कृष्ट हैं ।। १३१ ।। हम तो उन्हें ही वर्णोत्तम ब्राह्मण मानते हैं जो क्षमाशौच आदि गुणों में परायण है, सन्तोषधारक है, और निर्दोष आचरणरूप आभूषणोंको धारण करनेसे विशिष्टताको प्राप्त है ॥१३२॥ किन्तु जो सदोष आचारवाले हैं, सदापापारम्भमें निरत रहते है और आग्रहपूर्वक पशुओंके घातक है, ऐसे द्विजाभिमानी लोक ब्राह्मण नही माने जा सकते है ॥१३३॥ सर्वहिंसामय धर्मको स्वीकार कर पशुओंके घातक और पापोपदेशी शास्त्रोंसे आजीविका करनेवाले इन द्विजाभिमानियोंकी मरकर न जाने कौन-सी गति होती ? ॥१३४॥ पशु-यज्ञकी प्रेरणा ६७ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह पाथिवर्दण्डनीयाश्च लुण्टाका: पापपण्डिताः । तेऽमी धर्मजुषां बाह्या ये निघ्नन्त्यषणा. पशून्।।१३६ पशुहत्यासमारम्भात् क्रव्यादेभ्योऽपि निष्कृपाः । यधुच्छितिमुशन्त्येते हन्सैवं धार्मिका हताः। १३७ मलिनाचारिता ह्येते कृष्णवर्गे द्विजब्रुवाः । जैनास्तु निर्मलाचाराः शुक्लवर्गे मता बुधैः ।। १३८ श्रुतिस्मृतिपुरावृत्तवृत्तमन्त्रक्रियाश्रिता । देवतालिङ्गकामान्तकृता शुद्धिद्विजन्मनाम् ॥ १६९ ये विशनतरां वत्ति तत्क्रतां समपाश्रिताः । ते शक्लवर्गे बोद्धव्या: शेषाः शद्धेः बहिः कृता १४० तच्छुद्धयशुद्धी बोद्धव्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः । न्यायो दयावृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणम् ॥ १४१ वि शुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा द्विजाः । वर्णान्तःपातिनो नैते जगन्मान्या इति स्थितम् ॥ १४२ स्यादारेका च षटकर्मजोविनां गृहमेधिनाम् ।। हिसादोषोऽनुषङ्गी स्याज्जनानां च द्विजन्मनाम् ।। १४३ इत्यत्र बूमहे सत्यमल्पसावद्यसङ्गतिः । तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छद्धिः शास्त्रदर्शिता ।। १४४ अपि चैषां विशुद्धयङ्गं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवृण्महे ॥ १४५ तत्र पक्षो हि नानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृंहितम् ।। १४६ करनेवाले अधर्मको ही जो धर्म मानते हैं,हम उनसे अन्य किसीको भी संसारमें कर्मचाण्डाल नहीं देखते है ।।१३५॥ जो निर्दय होकर पशुओंको मारते हैं, प्रजाको धर्मके बहाने लूटते हैं, पापरूपी कार्योके पण्डित हैं,वे धर्मात्मा लोगोंसे बाह्य हैं, अत: वे राजाओंके द्वारा दण्डनीय हैं।।१३६॥ पशुहत्याके समारम्भकी अपेक्षा जो राक्षसोंसे भी अधिक निर्दयी है, यदि ऐसे ही पुरुष उत्कृष्ट माने जावेंगे, तो बडे दुखके साथ कहना होगा कि इसप्रकार धर्मात्मा लोग व्यर्थ ही मारे गय।।१३७।। मलिन आचरण करनेवाले इन द्विजम्मा ब्राह्मणोंको विद्वानोंने कृष्णवर्ग में और निर्मल आचरण करने वाले जैन लोगोंको शुक्लवर्गमें माना है ॥१३८॥ भावार्थ-हिंसानुयायी ब्राह्मण पापवर्गी हैं और अहिंसाधर्मानुयायी ब्राह्मण पुण्यवर्गी है । द्विजन्मा ब्राह्मणोंकी शुद्धि श्रुति, स्मृति,पुराण,सदाचार, मंत्र और क्रियाओंके आश्रित हैं,तथा उत्तम देवताओंकी उपासना करनेसे उत्तम लिंग (वेष) को धारण करनेसे और कामदेवका अन्त करनेसे भी उनकी शुद्धी मानी गई हैं ।।१३९॥ जो लोग अति विशुद्ध श्रुति-स्मृति आदि धर्मशास्त्रोक्त वृत्तिको धारण करते हैं,उन्हें शुक्लवर्गमें समझना चाहिये। शेष जो मलिनाचारी पापोपदेशी हिंसक मनुष्य है,वे सब शुद्धि या शुक्लवर्गसे बहिष्कृत है, अर्थात उन्हें कृष्णवर्गी मानना चाहिये ॥१४०। उन द्विजोंकी शुद्धि और अशुद्धि न्याय और अन्यायरूप प्रवृत्तिसे जाननी चाहिये । दयासे आई (भींगी या मृदु) प्रवृत्ति न्याय है और प्राणियोंका मारना अन्याय है ।।१४१।। इस सर्व कथनसे यह बात निश्चित होती है कि विशुद्ध वृत्तिवाले जैन ही वर्णोत्तम द्विज है, अतः वे ही जगन्मान्य है। केवल वर्णान्तःपाती नहीं :1१४२॥ भावार्थ-जो सदाचारी और अहिंसाधर्मके अनुयायी है, वे ही उत्तम ब्राह्मण हैं । केवल द्विज वर्णमे जन्म लेनेसे ही कोई उत्तम द्विज नहीं माना जा सकता । यहां यदि कोई यह आशंका करे कि असि मसी आदि षट् कर्मोसे आजीविका करनेवाले गृहस्थोंके और जैन द्विजोंके भी हिंसाका दोष लग सकते हैं? तो इसपर हम कहते हैं कि आपका कहना सत्य है, इन षट्कर्मोको करते हुए गृहस्थोके अल्पपापका समागम होता ही हैं,तथापि उनकी शुद्धि भी तो शास्त्रोंमें दिखाई गई हैं ॥१४३-१४४॥ उन गृहस्थोंके दोषोंकी विशुद्धिके तीन अंग हैं-पक्ष, चर्या और साधन । अब हम इन तीनोंका ही निरूपणकरते हैं।।१४५।। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसाका परिहार जैनों Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन चर्या तु देवतार्थ वा मन्त्रसिद्धयर्थमे. वा । औषधाहारवलप्त्यै वा न हिस्यामीति चेष्टितम्॥१४७ तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चितविधीयते । पश्चाच्चामालयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्शनम् ॥१४८ चर्येषा गहिणां प्रोवता जीवितान्ते तु साधनम् । देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयात्मशोधनम्।।१४९ त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनाहद्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्याग्निराकृतिः ॥ १५. चतुर्णामाम णां च शद्धिः स्यादाहते मते । चातुराश्रम्यन्येषामविचारितसुन्दरम् ।। १५१ ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षकः । इत्याश्रमास्तु जनानामुत्तरोत्तरशुद्धितः ।। १.२ ज्ञातव्याः स्युः प्रपञ्चेन सान्तर्भेदाः पृथग्विधाः । ग्रन्यगौरवभीत्या तु नातेषां प्रपञ्चना ॥१५३ सद्गृहित्वमिदं ज्ञेयं गुणैरात्मोपबृंहणम् । पारिवाज्यमितो वक्ष्ये सुविशुद्ध क्रियान्तरम् ॥ १५४ इतिसद्गृहित्वम् । गार्हस्थ्यमनुपाल्यवं गृहवासाद विरज्यत: । यद्दीक्षाग्रहणं तद्धि पारिवाज्यं प्रचक्षते ।। १५५ पारिवाज्यं पारिवाजो भावो निर्वाणदीक्षणम् । तत्र निर्ममता बत्त्या जातरूपस्य धारणम्॥१५६ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगलग्नग्रहांशके । निग्रंथाचार्यमाश्रित्य दीक्षा ग्राह्या मुमुक्षुणा ।। १५७ विशद्धकुलगोत्रस्य सद्वत्तस्य वपुष्मतः । दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः ।। १५८ ग्रहोपरागग्रहणं परिवेषेन्द्र चापयोः । वक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे ॥ १५९ का पक्ष कहलाता हैं ।।१४६।। देवताके लिए या मंत्रसिद्धिके लिए अथवा औषधि या आहार निर्माण के लिए मैं किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करूँगा,ऐसी प्रतिज्ञाकार अहिंसक आचरण करनेको चर्या कहते हैं॥१४७।। इस प्रतिज्ञामें यदि इच्छाके न रहने पर भी प्रमादसे दोष लग जावे,तो प्रायश्चित्तसे. उसकी शुद्धि की जाती हैं। पश्चात् पुत्रपर अपने सर्व कुटुम्बका भार छोडकर गृहका त्याग किया जाता है ।।१४८।। यह गृहस्थोंकी चर्या कही । जीवनके अन्त में देह,आहार और सर्व प्रकारकी इच्छाओंका त्यागकर ध्यानकी शुद्धि-द्वारा आत्मशोधन करनेको साधन कहते हैं ॥१४९।। पक्ष, चर्मा और साधन इन तीनोंमें अर्हन्मतानुयायी द्विजोंका हिंसाके साथ संस्पर्श भी नहीं होताहैं,इसप्रकार हमारे जैन पक्षपर लगाये गये दोषों का निराकरण हो जाता हैं।। १५०।। चारों आश्रमोंकी शुद्धिता भी आर्हतमतमें ही है । अन्य लोगोंकी चतुराश्रमव्यवस्था तो अविचारितरम्य है,अर्थात् जब तक उसपर विचार नहीं किया जाता,तब तक ही सुन्दर प्रतीत होती है ।१५१।। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक, ये जैनोंके चार आश्रम उत्तरोत्तर शुद्धिसे प्राप्त होते हैं ।। १५२॥ ये चारों ही आश्रम अपने-अपने अन्तर्भेदोंसे अनेक प्रकारके है,उनका विस्तारके साथ ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, किन्तु ग्रन्थ-गौरवके भयसे यहाँ उनका निरूपण नहीं किया जा रहा हैं ।।१५३।। इसप्रकार सद्-गुणोंके द्वारा आत्माकी वृद्धि करना यह सद्-गृहित्व क्रिया हैं । अब इससे आगे परिव्राज्य नामकी अति विशुद्ध अन्य क्रिया को कहते हैं ॥१५४॥ यह दूसरी सद्गुहित्व क्रिया हैं। उपर्युक्त प्रकारसे गृहस्थ धर्मका विधिवत् परिपालन करके गृहवाससे विरक्त होनेवाले श्रावकका जो दीक्षाग्रहण करना है, वह पारिव्राज्य क्रिया है ॥ १५५ ॥ परिव्राट् (गृहत्यागी) के निर्वाणदीक्षारूप भावको पारिव्राज्य कहते है । इस पारिवाज्यक्रियामें निर्ममत्व वृत्तिसे जातरूप दिगम्बर वेषको धारण किया जाता है ॥१५६।। मुमुक्षु श्रावकको शुभ तिथि,शुभ नक्षत्र,शुभ योग,शुभ लग्न और शुभ ग्रहांश (मुहूर्त) मे निर्ग्रन्थ आचार्य के पास जाकरके दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए ॥१५७॥ जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है,चरित्र उत्तम है,शरीर सुदृढ है,मुख सुन्दर है और जिसकी बुद्धि उत्तम है,ऐसे पुरुषके Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह नष्टाधिमासदिनयोः संक्रान्तौ हानिमत्तिथौं । दीक्षाविधि ममक्षणां नेच्छन्ति कृतबुद्धयः ।। १६० सम्प्रदायमनादत्य यस्त्विमं दीक्षयवधीः । स साधुभिबंहिः कार्यो वृद्धात्यासादनारतः ।। १६१ तत्र सूत्रपदान्याहः योगीन्द्राः सप्तविंशतिम् । निर्णीतै भवेत्साक्षात् पारिवाज्यस्य लक्षणम्।।१६२ जातिमत्तिश्च तत्रस्थं लक्षणं सुन्दराङ्गता । प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिषवनाथते ॥ १६३ सिंहासनोपधाने च छत्रचामरघोषणः । अशोकवृक्षनिधयो गृहशोभावगाहने ।। १६४ क्षेत्रज्ञाऽऽज्ञा समाः कोतिर्वन्द्यता वाहनानि च । भाषाहार सुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः।।१६५ जात्यादिकानिमान सप्तविंशति परमेष्ठिनाम् । गुणानाहु जेद्दीक्षां स्वेषु तेष्वकृतादरः ।। १६६ जातिमानप्यनुत्सिक्तः सम्भजेदर्हतां क्रमौ । यतो जात्यन्तरे जात्यां याति जातिचतुष्टयीम्।।१६७ जातिरन्द्री भवेदिव्या चक्रिणां विजयाश्रिता । परमः जातिराहन्त्ये स्वात्मोत्था सिद्धिमीयषाम्।।१६८ मादिष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयो । पुराण रसम्मोहात क्वचिच्च त्रितयी मता ॥ १६९ कर्शयेन्मूत्तिमात्मीयां रक्षन्मूर्तीः शरीरिणाम् । तपोऽधितिष्ठेद । दिव्यादिमूर्तीराप्तुमना मुनिः॥१७० स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनेशिनाम् । लक्षणान्यभिसन्धाय तपस्येत् कृतलक्षणः ॥ १७१ ही दीक्षा ग्रहण करनेकी योग्यता मानी गई हैं ॥१५८॥ जिस दिन ग्रहोंका उपराग हो,सूर्य-चन्द्रका ग्रहण हो अथवा उनपर (परिवेष) मण्डल हो,इन्द्र-धनुष प्रकट हो रहा हो,वक्र या क्रूर ग्रहोंका उदय हो, आकाश मेघ-पटलसे आच्छादित हो, क्षयमास या अधिक मासका दिन हो, संक्रान्तिका समय हो, अथवा तिथिका क्षय हो,उस दिन ज्ञानियोंने मुमुक्षुजनोंका दीक्षा विधान स्वीकार नहीं किया हैं, अर्थात् उक्त प्रकारके अवसरोंपर जिन-दीक्षा नहीं देना चाहिये ॥१५९-१६०॥जो अज्ञानी इस दीक्षा-सम्प्रदायका अनादर करके किसी नवीन शिष्यको दीक्षा दे देता हैं,साधुजनोंको उसका बहिष्कार करना चाहिए, क्योंकि बह वृद्धजनोंकी आम्नायकी आसादना करनेमें तत्पर हैं।।१६१।। इस पारिव्रज्य क्रिया में योगीन्द्रोंने सत्ताईस सूत्रपद कहे हैं,जिनका कि निर्णय होनेपर पारिवाज्यका साक्षात् स्वरूप प्रकट होता है ।।१६२।। वे सत्ताईस सूत्र-पद इसप्रकार है-१.जाति, २.मूर्ति, ३. मतिगत लक्षण, ४. अंग-सौन्दर्य, ५. प्रभा, ६ मंडल, ७. चक्र, ८.अभिषेक,९.नाथता,१० सिंहासन, ११. उपधान, १२. छत्र, १३. चामर, १४. घोषणा, १५. अशोकवृक्ष,१६.निधि, १७. गृहशोभा, १८. अवगाहन, १९. क्षेत्रज्ञ, २०. आज्ञां, २१. सभा,२२.कीर्ति,२३.वन्दनीयता,२४.वाहन, २५. भाषा,२६.आहार और २७. सुख । ये जाति आदिक सत्ताईस सूत्रपद परमेष्ठियोंके गुण स्वरूप कहे गये हैं। इन सूत्रपदोंमें आदर करते हुए, तथा अपनी जाति,मूर्ति आदिमें आदर न करते हए ही भव्य पुरुषको दीक्षा धारण करना चाहिये ॥१६३-१६६।। दीक्षा-धारक उत्तम जातिका भी हो,तो भी उसे अहंकार छोडकर अर्हन्तदेवोंके चरणोंकी सेवा करनी चाहिये जिससे कि दूसरे जन्ममें उत्पन्न होनेपर दिव्या,विजयाश्रिता,परमा और स्वात्मोत्था इन चार उत्तम जातियोंको प्राप्त हो ॥१६७॥इन्द्रकी दिव्या जाति है,चक्रवत्तियोंकी विजयाश्रिता जाति हैं, अरहन्तोंकी परमा जाति है और सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करनेवालोंकी स्वात्मोत्था जाति हैं।।१६.८॥इन चारों गण विशेषोंकी कल्पना मूर्ति आदिक शेष पदोंमें भी पुराणज्ञोंको बिना किसी व्यामोहके कर लेना चाहिए। किसी पदमें तीन ही पदोंकी कल्पना मानी गई हैं ॥१६९।। जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियोंको प्राप्त करना चाहता है, वह अपनी मूर्तिको कृश करे और प्राणियोंकी मूर्तियोंकी रक्षा करता हुआ तपका आचरण करे।।१७०॥इसीप्रकार अनेक लक्षणोंको धारण करनेपर भी अपने लक्षणों को उल्ले . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन ७१ म्लापयन् स्वाङ्गसौन्दर्य मुनिरुग्रं तपश्चरेत् । वाञ्छन्दिव्यादि सौन्दर्यमनिवार्य परम्परम् ।। १७२ मलीमसागो व्युत्सुष्टस्वक यप्रभवप्रभः । प्रभोः प्रभां मुनिर्ध्यायन् भवेत् क्षिप्रं प्रभास्वरः ॥ १७३ स्वं मणिस्नेहदीपादितेजोऽपास्य जिनं भजन् । तेजोमयमयं योगी स्यात्तेजोवलयोज्ज्वलः ।। १७४ त्यक्त्वास्त्र वस्त्रशस्त्राणि प्राक्तनानि प्रशान्तिभाक् जिनमाराध्य योगीन्द्रो धर्मचक्राधिपो भवेत् ॥ १७९ त्यक्तस्नानादिसंस्कारः संश्रित्य स्नातक जिनम् । मूनि मेरोरवाप्नोति परं जन्माभिषेचनम् ।। १७६ स्वं स्वम्यमैहिकं त्यक्त्वा परमस्वामिनं जिनम् । सेवित्वा सेवनीयत्वमेष्यत्येष जगज्जनैः ॥ १७७ स्वोचितासनभेदानां त्यागात्त्यक्ताम्बरो मुनिः । सैंहं विष्टरमध्यास्य तीर्थप्रख्यापको भवेत् ।। १७८ स्वोषधानाद्यनादृत्य योऽभून्नरुपधिर्भुवि । शयानः स्थण्डिले बाहुमात्रापितशिरस्त: ।। १७९ स महाभ्युदयं प्राप्य जिनो भूत्वाऽऽप्तसत्क्रियः । देवविरचितं दीप्रमास्कन्दत्युपधानकम् ।। १८० त्यक्तशीतातपत्राण सकलात्मपरिच्छदः । त्रिभिश्छत्रः समुद्भासिरत्नैरुद्भासते स्वयम् १८१ विविधव्यजनत्यागादनुष्ठिततपोनिधिः । चामराणां चतुःषष्ठ्या वीज्यते जिनपर्यये ॥ १८२ उज्झितानकसङ्गीतघोषः कृत्वा तपोविधिम् । स्यादुन्दुभिनिर्घोषं घुंष्यम णजयोदयः ।। १८३_ उद्यान विकृतां छाय मपास्य स्वां तपो व्यधात् । यतोऽयमत एवास्य स्यादशोक महाद्रुमः ॥ १८४ स्वं स्वापतेयमुचित त्यक्त्वा निर्ममतामितः । स्वयं निधिभिरभ्येत्य सेव्यते द्वारि दूरतः ॥ १८५ खनीय नहीं मानता हुआ वह साधु जिनेश्वरोंके लक्षणोंका चिन्तवन कर तपश्चरण करे ।। १७१ ॥ अनिवार्य परम्परावले दिव्य सौंदर्य आदिका इच्छुक वह साधु अपने शरीर के सौंदर्यको मलिन करता हुआ उग्र तपश्चरण करे ।।१७२ ।। अपने शरीर से उत्पन्न हुई प्रभाका परित्यागकर मलिन अंगवाला वह साधु जिन प्रभुकी प्रभाका ध्यान करता हुआ शीघ्र ही महाप्रभाका धारक हो जाता हैं ।। १७३ ॥ जो योगी मणि, तैलदीपक आदिके समान अपने तेजको छोडकर तेजोमय जिन भगवान्‌की सेवा करता है, वह भामंडल से समुज्ज्वल होता है ॥१७४॥ जो परम शान्तिको धारक साधु गृहस्थावस्थावाले अस्त्र,शस्त्र और वस्त्रको छोडकर - जिनदेवकी आराधना करता है, वह धर्मचक्रका स्वामी M होता है १७५ । जो मुनि स्नान आदि संस्कार छोड़कर स्नातक जिनदेवका आश्रय लेता हैं, वह सुमेरुके शिखर पर परमजन्माभिषेक से प्राप्त होता है ।। १७६ । जो मुनि अपने इस लोकसम्बन्धी स्वामित्वको छोड़कर परम स्वामी जिनदेव की सेवा करता हैं, वह जगत् के जीवो द्वारा सेवनीय होता हैं १७७ || जो मुनि नाना प्रकारके आसनोंको छोडकर दिगम्बर होता है, वह सिंहासन पर बैठकर तीर्थका प्रस्थापक होता हैं ।। ७८ ।। जो मुनि उपधान ( तकिया) आदिका अनादर करके परिग्रहरहित होता हैं और केवल अपनी भुजापर शिरका किनारा रखकर पृथ्वीके नीचे-ऊँचे प्रदेशपर सोता हैं,वह स्वर्गादिके महान् अभ्युदयोंको पाकर जिन बनकर और जगत्से सत्कार प्राप्तकर देवोंसे रचित दीप्तिमान उपधानको पाता हैं ॥१७ - १८०॥ जो मुनि शीत और आतपसे रक्षा करनेवाले अपने छत्र आदि राजवैभवको छोड़ता है, वह प्रकाशमान रत्नवाले तीन छत्रोंसे स्वयं सुशोभित होता है ।। १८१।। जो नानाप्रकारके वीजनोंके परित्याग - पूर्वक तपोविधिका अनुष्ठान करता हैं, वह जिनपर्यायमें अर्थात् तीर्थंकर बनने पर चौसठ चंव रोंसे वीज्यमान होता है ।। १८२ ।। जो वाद्य, संगीत आदि के शब्दों को सुननेका त्यागकर विधिवत् तपको करता है, वह दुन्दुभियोंके निर्घोष-द्वारा जय-जयकाररूप घोषणाको प्राप्त होता हैं ।। १८३|| जिसने अपने उद्यान आदिके वक्षोंकी छायाको छोड़कर तप Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार - संग्रह गृहशोभां कृतारक्षां दूरीकृत्य तपस्यतः । श्रीमण्डपादिशोभास्य स्वतोऽभ्येति पुरोगताम् ।। १८६ तपोऽवगाहनादस्य गहनान्यधितिष्ठतः । त्रिजगज्जनतास्थानसहं स्वादवगाहनम् ।। १८७ क्षेत्र वास्तुसमुत्सर्गात् क्षेत्रज्ञत्वमुपेयुषः । स्वाधीन त्रिजगत्क्षेत्र मैश्य मस्योपजायते ।। १८८ आज्ञाभिमानमुत्सृज्य मौनमास्थितवानयम् । प्राप्नोति परमामाज्ञां सुरासुरशिरोधृताम् ॥ १८९ स्वामिष्टमृत्यबन्ध्वादिसभामुत्सृष्टवानयम् । परमाप्तपद प्राप्तावध्यास्ते त्रिजगत्सभाम् ।। १९० स्वगुणtentर्तनं त्यक्त्वा त्यक्तकामो महातपाः । स्तुतिनिन्दासमो भूयः कीर्त्यते भुवनेश्वरैः । १९१ वन्दित्वा वन्द्यमर्हन्तं यतोऽनुष्ठितवांस्तप: । ततोऽयं बन्द्यते वन्द्येर निद्यगुणसन्निधिः ।। १९२ तपोऽयमनुपानत्कः पादचारी विवाहनः । कृतवान् पद्मगर्भेषु चरणन्या समर्हति ॥ १९३ वाग्गुप्तो हितवाग्वृत्त्या यतोऽयं तपसि स्थितः । ततोऽस्य दिव्यभाषा स्यात् प्रीणयन्त्यखिलां सभाम् ।। १९४ अनाश्वान्नियताहारपारणोऽतप्त यत्तपः । तदस्य दिव्यविजयपरमामृततृप्तयः ।। १९५ स्यक्तकामसुखो भूत्वा तपस्यस्थाच्चिरं यतः । ततोऽयं सुखसाद्भूत्वा परमानन्दथुं भजेत् ॥ १९६ किमत्र बहुनोक्तेन यद्यदिष्टं यथाविधम् । त्यजेन्मुनिर संकल्पस्तत्तत्सूतेऽस्य तत्तपः ।। १९७ क्रिया हैं, इसीकारणसे अरहन्त अवस्थामें उसे अशोक महावृक्ष प्राप्त होता हैं ।। १८४ ।। जो अपने योग्य धनको छोडकर निर्ममत्व भावको प्राप्त होता हैं, वह स्वयं आकर दूर समवसरण द्वारपर खडी हुई निधियोंसे सेवित होता हैं । १८५ ॥ जो सर्व ओरसे सुरक्षित गृहकी शोभाको छोडकर तपश्चरण करता हैं, उसके श्रीमण्डप ( समवसरण ) आदिकी शोभा अपने आप ही सम्मुख आती है ।। १८६ ॥ जो गहन वनों में निवासकर तपोंका अवगाहन करता हैं, उसके समवसरण में तीन जगत्की जनताको स्थान देनेवाली अवगाहन शक्ति प्राप्त होती हैं ।। १८७ ।। जो क्षेत्र वास्तु आदिका परित्यागकर अपने शुद्ध आत्मरूप क्षेत्रज्ञताको प्राप्त करता है, उसके तीनों जगत्के क्षेत्रको स्वाधीन रखनेवाला परम ऐश्वर्य प्राप्त होता है ॥१८८॥ जो अपने आज्ञाभिमानको छोडकर मौनको धारण करता है, वह सुरअसुरोंद्वारा शिरोधार्य परम आज्ञाको प्राप्त होता है ।। १८९ ।। जो अपने इष्ट सेवक बंधु आदि की सभाको छोडकर तप करता हैं, वह परम आप्तपद प्राप्त होनेपर त्रिजगत् की सभा ( समवसरण ) में विराजमान होता है । । १९० ।। जो अपने गुणोंकी प्रशंसा करना छोड़कर, इच्छा-रहित हो महान् तपश्चरण करता हैं और अपनी स्तुति-निन्दामें समान रहता है, उसका यश भुवनके ईश्वर इन्द्रादिकोंद्वारा गाया जाता है ।।१९१ ॥ | जिसने वन्दनीय अर्हन्तकी वन्दना करके तपका अनुष्ठान किया है, वह अनिन्द्य ( प्रशंसनीय ) गुणोंका भण्डार बनकर वन्दनीय गणधरादि देवोंके द्वारा वन्दना किया जाता है ॥ १९२॥ जो पादत्राण ( जूता ) और वाहनका परित्यागकर और पादचारी बनकर तपश्चरण करता है, वह देव - स्थापित पद्मोंके मध्य भागपर पाद-न्यासके योग्य होता है ॥१९३॥ जो वचन गतिको धारणकर, अथवा हितकारिणी वाणी बोलता हुआ तपमें स्थित रहता हैं, उसके समस्त सभा को प्रसन्न करनेवाली दिव्यभाषा प्राप्त होती हैं || १९४ ।। जो अनशन करके अथवा नियमित आहार और पारणाएँ करके तपको तपता है, उसके दिव्यतृप्ति, परमतृप्ति और अमृततृप्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त होती है । । १९५॥ जो मुनि काम-जनित सुखको छोड़कर चिरकाल तक तपमें स्थित रहता है, वह सुखस्वरूप होकर परमानन्द पदको प्राप्त करता है । । १९६ ॥ इस विषय में बहुत कुछ कहनेसे क्या लाभ है । संक्षेपमें इतना ही समझना चाहिए कि जो मुनि संकल्प- रहित होकर जिस जिस प्रकारकी वस्तुका त्याग करता है, उसका तपश्चरण उसी प्रकारकी उत्तम वस्तुको उत्पन्न ७२ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन प्रात्पोत्कर्ष तदस्य स्यात्तपश्चिन्तामणेः फलम् । यतोऽर्हज्जातिमादिप्राप्तिः सैषाऽनुणिता। १९८ जैनेश्वरी परामाज्ञां सूत्रोद्दिष्टां प्रमाणयन् । तपस्यां यदुपाधत्ते पारिवाज्यं तदाञ्जसम् ।। १.९ अन्यैश्च बहवाग्जाले तिबद्धं युक्तिगधितम् । पारिवाज्यं परित्यज्य ग्राह्य चेदमनुत्तरम् ।। २०० इतिपारिवाज्यम। या सुरेन्द्रपदप्राप्ति: पारिवाज्यफलोदयात् । सैषा सुरेन्द्रता नाम क्रिया प्रागनुर्वाणता ।। ६०१ इतिसुरेन्द्रता। साम्राज्यमाधिराज्यं स्याच्चक्ररत्नपुरःसरम् । निधि त्नसमुद्भूतं भोगसम्पत्परम्परम् ।। २०२ इतिसाम्राज्यम्। आहंन्त्यमहतो भावो कम वेति परा क्रिया । यत्र स्वर्गावतारादिमहाकल्याणसम्पद: ।। २०३ याऽसौ दिवोऽवतीर्णस्य प्राप्तिः कल्याणसम्पदाम् । तदाहन्त्यमिति ज्ञयं त्रैलोक्यक्षोभकारणम्॥२०४ ___ इत्यार्हन्त्यम् । भवबन्धनमुक्तस्य यावस्था परमात्मनः । परिनिर्वृत्तिरिष्टा सा परं निर्वाणमित्यपि ॥ २.५ कृत्स्नकममलापायात संशुद्धिर्याऽन्तरात्मनः । सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः सा नाभावों न गुणोच्छिदा ॥ २०६ इतिनिर्वृत्तिः। इत्यागमानुसारेण प्रोक्ताः कन्वयक्रियाः । सप्तताः परमस्थानसङ्गतिर्यत्र योगिनाम् ॥ २०७ योऽनुतिष्ठत्यतन्द्रालुः क्रियाह्येतास्त्रिधोदिताःसोऽधिगच्छत् परं धाम यत्सम्प्राप्तो परं शिवम्।।२०८ कर देता हैं।।१९७।। जिस तपश्चरणरूपी चिन्तामणिका फल परम उत्कर्षको प्राप्त कराना हैं और जिससे अर्हन्त देवकी जाति और मूर्ति आदिकी प्राप्ति होती हैं,ऐसी इस पारिब्राज्य क्रियाका वर्णन किया ।।१९.८ । जो आगमोक्त जैनेश्वरी परम आज्ञाको प्रमाण मानता हुआ तपस्याको धारण करता है,उसीके वास्तविक पारिव्राज्य क्रिया होती हैं ।।१९९।। अन्य लोगोंके द्वारा बहुतसे वचन जालमें निबद्ध और युक्तिसे बाधित पारिवाज्यको छोडकर इस जैनेश्वरीय अनुपम पारिवाज्यको ग्रहण करना चाहिए ॥२००। इसप्रकार यह तीसरी पारिव्राज्य क्रिया है । पारिव्राज्य धारण करनेके फलोदयसे जो सुरेन्द्रपदकी प्राप्ति होती हैं,वही सुरेन्द्रता नामकी क्रिया है, जिसका पहले वर्णन किया जा चुका है ॥२०१॥ यह चौथी सुरेन्द्रता क्रिया है। जिसमें चक्ररन्नके साथ निधियों और रत्नोंसे उत्पन्न हुई भोगोपभोगरूप सम्पदाकी परम्परा प्राप्त होती है, ऐसा चक्रवर्तीका महान् राज्य साम्राज्य कहलाता है ॥२०२।। यह पाँचवीं साम्राज्य क्रिया है । अर्हत्परमेष्ठीके भाव या कर्मरूप जो उत्कृष्ट क्रिया है, उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते है। इस क्रियामें स्वर्गावतार आदि पंच महाकल्याणरूप सम्पदा प्राप्त होती है ।।२०३।। स्वर्गसे अवतीर्ण तीर्थकरके जो कल्याणकरूप सम्पदाकी प्राप्ति होती है और त्रैलोक्यमें क्षोभका कारण है,उसे आर्हन्त्य क्रिया जाननी चाहिए ॥२०४॥ यहछठी आर्हन्त्यक्रिया हैं । भबबन्धनसे मुक्त हुए परमात्माकी जो अवस्था होती है,उसे परिनिर्वृति कहते है, इसका दूसरा नाम परिनिर्वाण भी है ॥२०५॥ समस्त कर्ममलके दूर हो जानेसे जो अन्तरात्माकी शुद्धि होती है, उसे सिद्धि कहते हैं । वह अपने आत्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप है । यह सिद्धि न अभावरूप है और न ज्ञानादि गुणोंके उच्छेदरूप है ॥२०६॥यह सातवीं परिनिर्वति क्रिया हैं ।इसप्रकार आगमके अनुसार ये सात कन्वय क्रियाएँ कही गई है। इन क्रियाओंका पालन करनेसे योगियोंको परम Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रावकाचार-संग्रह पुष्पिताग्रावृत्तम् जिनमतविहितं पुराणधर्म य इममनुस्मरति क्रियानिबद्धम् । अनुचरति च पुण्यधीः स भव्यो भवभयबन्धनमाशु निर्धनाति ॥ २०९ परमजिनपदानुरक्तधीः भजति पुमान् य इमं क्रियाविधिम् । स धृतनिखिलकर्मबन्धनो जननजरामरणान्तकृद् भवेत् ।। २१० शार्दूलविक्रीडितम् भव्यात्मा समवाप्य जातिमुचितां जातस्ततः सद्ग्रही । पारिवाज्यमनुत्तरं गुरुमतादासाद्य यातो विवम् । तत्रैन्द्रीं श्रियमाप्तवान पुनरतश्च्यत्वा गतश्चक्रिताम् । प्राप्ताहन्त्यपदः समग्रमहिमा प्राप्नोत्यतो निर्वृतिम् ॥ २११ इत्यार्ष भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणसहापुराणसङग्रहे दीक्षाकर्बन्वय क्रियावर्णनं नाम एकोनचत्वारिंशत्तमं पर्व ।। ३९ ॥ स्थानकी प्राप्ति होती हैं ॥२०७।। जो भव्य अतन्द्रालु होकर इन तीनों प्रकारकी कही गई क्रियाओं का अनुष्ठान करता हैं, वह उस परमधामको प्राप्त करता हैं, जिसके पानेपर परम शिव (सुख) प्राप्त होता है ॥२०८।। जो पुण्यबुद्धि भव्यपुरुष इस जिनमत-कथित क्रियानिबद्ध पुरातन धर्मको सुनता हैं,स्मरण करता है और आचरण करता हैं, वह शीघ्र ही भवभयबन्धनको नष्ट कर देता है ॥२०९॥ परम जिन-पदोंमें अनुरक्त बुद्धिवाला जो पुरुष इस क्रियाविधिको पालता है,वह सकल कर्म-बन्धनसे रहित होकर जन्म, जरा और मरणका अन्त करता हैं ।। २१० भव्यात्मा जीव प्रथम ही योग्य जाति पाकर सद्-गृहस्थ होता हैं,पुनः गुरुकी अनुज्ञानसे उत्कृष्ट पारिवाज्यको प्राप्तकर स्वर्गको जाता हैं। वहाँ पद इन्द्रकी लक्ष्मीको पाता हैं । तदनन्तर वहाँसे च्युत होकर चक्रवर्तीके पदको पाता हैं । पुनः अरहन्त पर पाकर समग्र महिमाका धारक होता हैं और तत्पश्चात् निर्वाणको प्राप्त होता हैं ॥ २११॥ इसप्रकार भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहमें दीक्षान्वय और कर्जन्वयक्रियाओंका वर्णन करनेवाला यह उन्चालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ। . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारिंशत्तमं पर्व अथातः सम्प्रवक्ष्यामि क्रियासूत्तरचलिकाम् । विशेषनिर्णयो यत्र क्रियाणां तिसणामपि ।। १ तत्रादौ तावदुन्नेष्ये क्रियाकल्पप्रक्लप्तये । मन्त्रोद्धारं क्रियासिद्धिः मन्त्राधीना: हि योगिनाम् ।। २ आधानादिक्रियारम्भे पूर्वमेव निवेशयेत् । त्रीणिच्छात्राणि चक्राणां त्रयं त्रीश्च हविर्भुजः ।। ३ मध्यवेदि जिनेन्द्रार्चाः स्थापयेच्च यथाविधि । मन्त्रकल्पोऽयमाम्नातस्तत्र तत्पूजनाविधौ ।। ४ नमोऽन्तो नीरजश्शब्दश्चतुर्थ्यन्तोऽत्र पठ्यताम् । जलेन भूमिबन्धार्थ परा शुद्धिस्तु तत्फलम् ।। ५ (नीरजसे नमः ) दर्भास्तरणसम्बन्धस्ततः पश्चादुदीर्यताम् । विघ्नोपशान्तये वर्पमथनाय नमः पदम् ।। ६ ( दर्पमथनाय नमः ) गन्धप्रदानमन्त्रश्च शीलगन्धाय वै नमः। ( शीलगन्धाय नमः ) पुष्पप्रदानमन्त्रोऽपि विमलाय नमः पदम् ।। ७ (विमलाय नमः ) कुर्यादक्षतपूजार्थमक्षताय नमः पदम् । ( अक्षताय नमः ) धूपाचे श्रुतधूपाय नमः पदमुदाहरेत् ।। ८ ( श्रुतधूपाय नमः ) ज्ञानोद्योताय पूर्व च दीपदाने नमः पदम् ( ज्ञानोद्योताय नमः ) मन्त्रः परमसिद्धाय नमः इत्यमृतोदृतौ ।। ९ (परमसिद्धाय नमः ) अब इससे आगे क्रियाओंकी उत्तरचूलिका कहते हैं। इस उत्तरचूलिकामें तीनों प्रकारकी क्रियाओंका विशेष निर्णय किया जायगा ।।१॥ इस उत्तर चूलिकामें सर्वप्रथम क्रियाकल्पकी सिद्धिके लिए मंत्रोंका उद्धार किया जायगा,क्योंकि योगियोंके भी क्रियाको सिद्धि मंत्रोंके अधीन मानी गई हैं ।।२।। गर्भाधानादि क्रियाओंके आरम्भमें सबसे पहिले तीन छत्र, तीन चक्र और तीनों अग्नियाँ स्थापित करना चाहिए ॥३॥ वेदीके मध्यभागमें विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा स्थापन करनी चाहिए। गर्भाधानादि क्रियाओंके प्रारम्भमें छत्र,चक्र,अग्नि और जिन-पूजनके समय यह वक्ष्यमाण विधि मंत्रकल्प माना गया हैं ।।४। इन क्रियाओंके करते समय जलसे भूमि शुद्धि करनेके लिए नीरजस् शब्दको चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें 'नमः' पद बोलना चाहिए । अर्थात् 'नीरजसे नमः' (कर्म-रजसे रहित जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो।) यह मंत्र बोलकर भूमिपर जल-सिंचन करे। इस मंत्रका फल भूमिका परम शुद्धि हैं ।।५।। तदनन्तर डाभका आसन ग्रहण करते हुए विघ्नोंकी उपशान्तिके लिए 'दर्पमथनाय नमः' (अहंकारके मथन करनेवाले जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो) यह पद बोलना चाहिए ॥६॥ भूमिको गन्ध-समर्पण करते हुए शीलगन्धाय नमः' (शीलरूप सुगन्धको धारण करनेवाले जिनेन्द्र देवको नमस्कार हो) यह मंत्र बोलना चाहिए। पुष्प-प्रदान करते समय 'विमलाय नमः' (मल-रहित जिनेन्द्र देवको नमस्कार हो) यह मंत्र बोलना चाहिए ॥७॥ अक्षतसे पूजा करने के लिए 'अक्षताय नमः (क्षय-रहित जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो) यह मंत्र बोले । धूपसे पूजन करते समय 'श्रुतधूपाय नमः' (सर्वत्र सुने जानेवाले यशरूप गन्धके धारक जिनेन्द्रको नमस्कार हो) यह मंत्र बोले ॥८11 दीप चढाते समय 'ज्ञानोद्योताय नमः (केवल ज्ञानरूप प्रकाशके धारक जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो) यह मंत्र बोले । अमृतमय नैवेद्यके चढाते समय 'परम सिद्धाय नमः' Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह मन्त्रैरेभिस्तु संस्कृत्य यथावज्जगतीतलम् । ततोऽन्धक् पीठिकामन्त्रः पठनीयो द्विजोत्तमैः ॥ १० पीठिकामन्त्र :- सत्यजातपदं पूर्व चतुर्यन्तं नमः परम् । ततोऽहज्जातशब्दरच तदन्तस्तत्परो मतः ।। ११ तत: परमजाताय नम इत्यपरं पदम् । ततोऽनुपमजाताय नम इत्यपरं पदम् ॥ १२ ततश्च स्वप्रधानाय नम इत्युत्तरो ध्वनिः । अचलाय नमः शब्दादक्षयाय नमः परम् ॥१३ अव्याबाधपदं चान्यदनन्तज्ञानशब्दनम । अनन्तदर्शनानन्तवीर्यशब्दो ततः पथक॥१४ अनन्तसुखशब्दश्च नीरज: शब्द एव च। निर्मलाच्छोद्यशब्दौ च तथाऽभेद्याजरती ॥ १५ ततोऽमरा प्रमेयोक्ती सागर्भावासशब्दने । ततोऽक्षोभ्याविलीनोक्ती परमादिर्घनध्वनिः ॥ १६ पृथक्पृथगिमे शब्दास्तदन्तास्तत्परा मताः। उत्तराण्यनुसन्धाय पदान्येभिः पदैर्वदेत् ॥ १७ आदी परमकाष्ठेति योगरूपाय वाक्परम । नमः शब्दमदीर्यन्ते मन्त्रविन्मन्त्रमद्धरेत ॥१८ (सर्वोत्कृष्ट सिद्धपरमेष्ठीको नमस्कार हो) यह मंत्र बोले ॥९।। इन मंत्रोंके द्वारा भूमितलको विधि पूर्वक संस्कार-युक्त शुद्ध करके तत्पश्चात् उत्तम द्विजोंको वक्ष्यमाण पीठिकामंत्र पढना चाहिए ॥१०॥ वे पीठिकामंत्र इस प्रकार है-पहले सत्यजात पदके अन्तमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें 'नम:' पद बोले-'सत्यजाताय नमः' (सत्यरूप जन्मके धारक जिनेन्द्र के लिए नमस्कार हो)। पुनः अर्हज्जात शब्दके अन्तमें चतुर्थी विभक्तिके साथ 'नमः'पद बोले- 'अर्हज्जाताय नमः' (पूज्य एवं प्रशंसनीय जन्मके धारक जिनेन्द्रके लिए नमस्कार हो)॥११॥ तत्पश्चात् 'परमजाताय नमः' (उत्कृष्ट जन्मवाले जिनेन्द्रको नमस्कार हो) और 'अनुपमजाताय नमः' (अनुपम जन्मवाले जिनेन्द्रको नमस्कार हो) इन पदोंको बोले ॥१२॥ पुनः 'स्वप्रधानाय नमः' (स्वयं ही प्रधानताको प्राप्त जिनेन्द्रको नमस्कार हो), 'अचलाय नमः' (स्वरूपमें अचल रहनेवाले देवको नमस्कार हो),और 'अक्षयाय नमः' (अविनश्वर परमेश्वरको नमस्कार हो) इन पदोंको वोले ॥१३ । तदनन्तर 'अव्याबाधाय नमः' (सर्व बाधाओंसे रहित देवको नमस्कार हो), 'अनन्त ज्ञानाय नमः' (अनन्त ज्ञानी देवको नमस्कार हो), ,अनन्त दर्शनाय नमः' (अनन्त दर्शनवाले देवको नमस्कार हो) और 'अनन्तवीर्याय नमः' (अनन्त वीर्य के धारक देवको नमस्कार हो), इन पदोंको बोले ॥१४॥ पुनः 'अनन्त सखाय नमः' (अनन्त सूखके धारक देवको नमस्कार हो). नीरजसे नमः' (कर्म-रजसे रहित देवको नमस्कार हो)' 'निर्मलाय नमः' (पाप-मलसे रहित देवको नमस्कार हो), 'अछेद्याय नमः' (जिनका किसी प्रकारसे छेदन नही किया जा सके ऐसे देवको नमस्कार हो), 'अभेद्याय नमः' (किसी भी प्रकारसे भेदको नहीं प्राप्त होनेवाले देवको नमस्कार हो), और 'अजराय नमः (वृद्धावस्थासे रहित देवको नमस्कार हो) इन पदोंको बोले ॥१५॥ तदनन्तर अमराय नमः' (मरणरहित देवको नमस्कार हो), 'अप्रमेयाय नमः' (अल्पज्ञानीके अगम्य देवको नमस्कार हो), 'अगर्भवासाय नमः' (गर्भ-वाससे रहित देवको नमस्कार हो), 'अक्षोभ्याय नमः' (कभी किसीके द्वारा क्षोभित नहीं होनेवाले देवको नमस्कार हो), 'अविलीनाय नमः' (कभी विलयको नहीं प्राप्त होनेवाले देवको नमस्कार हो) और 'परम घनाय नमः' (परम सघनताको प्राप्त देवके लिए नमस्कार हो) इन पदोंको वोले॥११६॥इस प्रकार श्लोक-पठित 'अव्याबाध आदि शब्दोंके साथ चतुर्थी विभक्ति लगाते हए अन्त में 'नमः' पदका प्रयोग करे । इसी प्रकार आगेके श्लोकोंमें कहे जानेवाले शब्दोंके साथ चतुर्थी विभक्ति लगाकर अन्तमें 'नमः'बोले ।।१७।। पुनः मंत्रको जाननेवाला द्विज आदिमें 'परम Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन लोकाग्रवासिने शब्दात्परः कार्यो नमो नमः । एवं परमसिद्धेभ्योऽहंत-सिद्धेभ्य इत्यपि ।। १९ एवं केलिसिद्धभ्यः पदाद भयोऽन्तकृत्पदात । सिद्धेभ्य इत्यमष्माच्च परम्परपदादपि ॥ २० अनादिपवपूर्वाच्च तस्मादेव पदात्परम् । अनाद्यनुपमादिभ्यः सिद्धेभ्यश्च नमो नमः ।। २१ इतिमन्त्र पदान्युक्त्वा पदानीमान्यत: पठेत् । द्विरुक्त्वाऽऽमन्त्र्य वक्तव्यं सम्यग्दृष्टिपदं ततः ।। २२ आसन्नभव्य शब्दश्च द्विर्वाच्यस्तद्वदेव हि । निर्वाणादिश्च पूजार्हः स्वाहान्तोऽग्नीन्द्र इत्यपि ।। २३ काम्यमन्त्रः- ततः स्वकाम्यसिद्ध्यर्थमिदं पदमदाहरेत् ।। सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु तत्परम् ।। २४ अपमृत्यविनाशनं भवत्वन्तं पद भवेत् । भवत्वन्तमतो वाच्यं समाधिमरणाक्षरम् ।। २५ णि:- सत्यजाताय नमः, अहंज्जाताय नमः परमजाताय नमः, अनुपमजाताय नमः, स्वप्रधा नाय नमः,अचलाय नमः अक्षयाय नमः, अव्याबाधाय नमः, अनन्तज्ञानाय नमः, अनन्तदर्शनाय नमः, अनन्तवीर्याय नमः अनन्तसुखाय नमः, नीरजसे नमः, निर्मलाय नमः, अच्छेद्याय नमः अभेद्याय नमः,अजराय नमः,अमराय नमः, अप्रमेयाय नमः, अगर्भवासाय नमः, अक्षोभ्याय नमः अविलीनाय नमः, परमघनाय नम, परमकाष्ठायोगरूपाय नमः, लोकाग्रवासिने नमो नमः, परमसिद्धेभ्यो नमो नमः अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः, केवलिसिद्धेभ्यो नमो नमः अन्तकृसिद्धेभ्यो नमो नमः,परम्परसिद्धेभ्यो नमः, अनादिपरम्पर सिद्धेभ्यो नमो नमः, अनाद्यनुपमसिद्धभ्यो नमो नमः। सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्य आसन्नभव्य निर्वाणपूजाह, निर्वाणपूजाह अग्नीन्द्र स्वाहा,सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । पोठिकामन्त्र एष स्यात् पदैरेभिः समच्चितैः । जातिमन्त्रमितो वक्ष्ये यथाश्रुतमनुक्रमात् ।। २६ काष्ठ' और अन्त में 'घोगरूपाय पदको जोडकर अन्तमें नमः शव्दको बोले। अर्थात् 'परमकाष्ठयोगरूपाय नमः' (चरम सीमाको प्राप्त योगस्वरूपवाले देवको नमस्कार हो) ।।१८।इससे आगेके पदोंके अन्तमें नमो नमः' लगाकर बोलना चाहिए । यथा-'लोकाग्रवासिने नमो नमः' (लोक-शिखरपर निवास करनेवाले सिद्ध परमेष्ठीको बार-बार नमस्कार हो), 'परमसिद्धेभ्यो नमो नमः (परम सिद्ध भगवन्तोंको बार-बार नमस्कार हो), अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नमः' (अरहन्त-सिद्धोंको बार-बार नमस्कार हो) 'केवलिसिद्धेभ्यो नमो नम' (केवली सिद्धोंको बार-दार नमस्कार हो), अन्तकृत्सिद्धेभ्यो नमो नमः' (अन्तकृत् केवली होकर सिद्ध होनेवाले सिद्धोंको बार-बार नमस्कार हो), 'परम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः' (परम्परासे हुए सिद्धोंको बार-बार नमस्कार हो), अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नमो नमः' (अनादि कालसे होनेवाले परम्परा-सिद्धोंको नमस्कार हो), 'अनाद्यनुपम सिद्धेभ्यो नमो नमः' (अनादि कालसे हुए उपमा-रहित सिद्धोंको बार-बार नमस्कार) । इन मंत्रोंको बोलकर वक्ष्यमाण पदोंको सम्बोधनरूपसे दो-दो बार उच्चारण कर पढना चाहिए। यथा"हे सम्यग्दृष्टे, हे सम्यग्दृष्टे, हे आसन्नभव्य, हे असन्नभव्य, हे निर्वाणपूजार्ह, हे निर्वाणपूजाह', बोलकर अन्त में 'अग्नीन्द्र स्वाहा' बोले। (इस मंत्रका अर्थ यह हैं-हे साम्यग्दृष्टि,हे निकट भव्य, हे निर्वाणपूजाके योग्य अग्निकुमार देवोंके इन्द्र,तेरे लिए यह हव्य द्रव्य समर्पण करता हूँ।) ॥१९२३।। तदनन्तर अपनी इष्टसिद्धिके लिए यह काम्य मंत्र बोले-'सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु, Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्रावकाचार-संग्रह सत्यजन्मपदं तान्तमादौ शरणप्यतः । प्रपद्यामीति वाच्यं स्यादर्हज्जन्म पदं तथा ।। २७ महन्मातृपदं तद्वत्त्वन्महत्सुताक्षरम् । अनादिगमनस्यति तथाऽनुपमजन्मनः ।। २८ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामीत्यतः परम् । बोद्ध्यन्तं च ततः सम्यग्दृष्टि द्वित्त्वेन योजयेत् ।। २९ ज्ञानमूतिपदं तद्वत्सरस्वतिपद तथा । स्वाहान्तमन्ते वक्तव्यं काम्यमन्त्रश्च पूर्ववत् ॥ ३० चणिः- सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यापि, अर्हन्मान्तुः शरण प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्य मि, अनुपजन्मनः शरणं प्रप द्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि,हे सम्यग्दृष्टे,हे सम्यग्दृष्टे, हे ज्ञानमूर्ते, हे ज्ञानमूर्ते, हे सरस्वति,हे सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु । जातिमन्त्रोऽयमाम्नातो जातिसंस्कार कारणम् । मन्त्रं निस्तारकादि च यथाम्नायमितो ब्रुवें ॥३१. निस्तारकमन्त्रः- स्वाहान्तं सत्यजाताय पदमादावनुस्मृतम् । तदन्तमर्हज्जाताय पदं स्यात्तदनन्तरम् ।। ३२ ततः षट्कर्मणे स्वाहा पवमुच्चारयेत् द्विजः । स्याद्ग्रामयतय स्वाहा पदं तस्मादनन्तरम् ।। ३३ अनादिश्रोत्रियायेति ब्रूयाद् स्वाहापदं ततः । तद्वच्च स्नातकायेति श्रावकायेति च द्वयम् ।। ६४ हो, अपमृत्युका विनाश हो और समाधिमरण प्राप्त हो)।२४-२५।। ऊपर कहे गये सर्व (पीठिका) मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया है । ये सब पीठिकामंत्र हैं। अब इससे आगे आगमानुसार अनुक्रमसे जाति मंत्र कहेंगे ।।२६।। तान्त अर्थात् षष्ठी विभक्त्यन्त सत्यजन्म पदके आगे शरण और उसके आगे 'प्रपद्यापि' यह पद बोले, अर्थात् 'सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि' (मै सत्यरूप जन्मके धारक अरहन्त देवकी शरणको प्राप्त होता हूँ),तदनन्तर 'अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि' (मै अरहन्तपद के योग्य जन्म लेनेवालेको शरणको प्राप्त होता हूँ)॥ २७ ॥ तत्पश्चात् अर्हन्मातृ पद,अर्हत्सुत पद, अनादिगमन पद और अनुपम जन्म पदके आगे षष्ठी विभक्ति लगाकर 'शरणं प्रपद्यामि' पद लगावे । तद्यथा-'अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि' (अरहन्त देवकी माताके शरणको प्राप्त होता हूँ), 'अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि' (अरहन्त देवके पुत्रकी शरणको प्राप्त होता हूँ), 'अनादि गमनस्य शरणं प्रपद्यामि' (अनादि-अनन्त ज्ञानके धारककी शरणको प्राप्त होता हूँ), और 'अनुपम जन्मनः शरणं प्रपद्यामि' (अनुपम जन्मके धारककी शरणको प्राप्त होता हूँ)॥२८॥ तदनन्तर 'रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि' (रत्नत्रय धमकी शरणको प्राप्त होता हुँ) यह मंत्र बोले । पुनः सम्यग्दृष्टि,ज्ञानमूर्ति और सरस्वतीके सम्वोधन विभक्तिवाले पदोंको दो-दो बार बोलकर अन्तमें स्वाहा शब्दका उच्चारण करे । तद्यथा-'हे सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, ज्ञानमूर्ते, ज्ञानमूर्ते, सरस्वति सरस्वति स्वाहा (हे सम्यग्दृष्टि, ज्ञानमूत्ति सरस्वती देवि, मै तेरे लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ) । तत्पश्चात् काम्य मंत्र पूर्वके ही समान पढना चाहिए ।।२९-३०।। ऊपर कहे गये सर्व जाति मंत्रोंका संग्रह मूल में दिया गया हैं। ये सब जाति मंत्र संस्कारके कारण हैं । अब इससे आगे निस्तारक मंत्र कहते हैं ॥ ३१ ॥ उनमें सर्वप्रथम 'सत्य जाताय स्वाहा' (सत्यरूप जन्मवाले देवके लिए यह हव्य समर्पण करता है) यह मन्त्र स्मरण किया गया हैं । पुनः 'अहज्जाताय स्वाहा' (अरहन्तरूप जन्म के धारक देवके लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ) यह मन्त्र बोले ॥३२॥ पुनः षट्कर्मणे स्वाहा' (देवपूजादि षटकर्म करनेवालेके लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ), इस मन्त्रको द्विज उच्चारण करे । उसके पश्चात् 'ग्रामयतये स्वाहा' (ग्रामयतिके लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ) यह मन्त्र बोले ॥ ३३ ॥ तदनन्तर . Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन स्याद्देवब्राह्मणायेति स्वाहेत्यन्तमतः पदम् सुब्राह्मणाय स्वाहान्तः स्वाहान्ताऽनुपमायगीः ।। ३५ सभ्यग्दृष्टिपदं चैव तथा निधिपति श्रुतिम् । ब्रूयाद् वैश्रवणोक्ति च द्विःस्वाहेति ततः परम् ॥ ३६ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयाद् पूर्ववन्मन्त्रविद् द्विजः । ऋषिमन्त्रमितो वक्ष्ये यथाऽऽहोपासकश्रुतिः ॥ ३७ चूणिः- सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा,षट्कर्मणे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादि श्रोत्रियाय स्वाहा,स्नातकाय स्वाहा,श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे, सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरण भवतु । कृषिमन्त्रः- प्रथम सत्यजाताय नमः पदमुदीरयेत् । गण्हीयादहज्जाताय नमः शब्दं ततः परम् ॥ ३८ निर्ग्रन्थाय नमो वीतरागाय नम इत्यपि । महावताय पूर्व च नमः पदमनन्तरम् ।। ३९ त्रिगप्ताय नमो महाय गाय नम इत्यतः । ततो विविधयोगाय नम इत्यनुपठ्यताम् ।। ४० विविद्धिपदं चास्मानमः शब्देन योजितम् । ततोऽङ्गधरं पूर्वञ्च पठेत् पूर्वधरध्वनिम् ।। ४१ नमः शब्दपरौ चेतौ चतुर्थ्यन्त्यावनस्मतौ । ततो गणधरायेति पदं युक्तनमःपदम् ।। ४२ परषिभ्य इत्यस्मात्परं वाच्यं नमो नमः । ततोऽनुपमजाताय नमो नम इतीरयेत् ॥ ४३ सम्यग्दृष्टिपदं चान्ते बोध्यन्तं द्विरुवाहरेत् । ततो भूपतिशब्दश्च नागरोपपदः पतिः ॥ ४४ अनादि श्रोत्रियाय स्वाहा' (अनादिकालिक श्रुत के अध्येताको यह हव्य समर्पण करता हूँ ) । तदनन्तर 'स्नातकाय स्वाहा' (स्नातक अर्हन्तके लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ), 'श्रावकाय स्वाहा' (श्रावकके लिए हव्य समर्पण करता हूँ),ये दो मन्त्र बोले ॥३४॥ तत्पश्चात् 'देवब्राह्मणाय स्वाहा' (देव ब्राह्मणके लिए हव्य समर्पण करता हूँ), 'सुब्राह्मणाय स्वाहा' (सुव्राह्मणके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) और 'अनुपमाय स्वाहा' (अनुपम देवके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) ये पद बोलना चाहिए ॥३५।। तदनन्तर सम्यग्दृष्टि, निधिपति और वैश्रवण शब्दका दो दो बार सम्बोधन कर अन्तमें स्वाहा पद बोले । यथा-'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, निधिपते निधिपते, वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा' (हे सम्यग्दृष्टि और निधियोंके स्वामी कुबेर, मै तुम्हें यह हव्य समर्पण करता हूँ) ॥३६।। तत्पश्चात् मन्त्रवेत्ता द्विज पूर्ववत् काम्यमन्त्र बोले । उपर्युक्त सर्व निस्तारकमन्त्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं । अब इससे आगे उपासकाध्ययनशास्त्रके अनुसार ऋषिमन्त्र कहता हूँ ।।३७॥ वे ऋषिमन्त्र इस प्रकार हैं-प्रथम ही 'सत्यजाताय नमः' (सत्यजन्मके धारक जिनदेवको नमस्कार हो) यह पद बोले । तत्पश्चात् 'अर्हज्जाताय नमः' 'अर्हन्तरूप जन्मके धारक देवको नमस्कार हो) इस पदका उच्चारण करे।।३८।। तदनन्तर 'नर्ग्रन्थाय नमः ' (निर्ग्रन्थगरुको नमस्कार हो) 'वीतरागाय नमः' (वीतराग देवको नमस्कार हो), 'महाब्रताय नमः (महाव्रत-धारी को नमस्कार हो), 'त्रिगुप्ताय नमः' (तीन गुप्तियोंके धारकको नमस्कार हो) महायोगायनमः (महान् योगके धारकको नमस्कार हो),और विविधयोगाय नमः' (अनेक प्रकारके योगोंके धारकको नमस्कार हो),ये मन्त्र पढना चाहिए।।३९-४०।। पुनः विविद्धि आदि शब्दोंकी चतुर्थी विभक्तिके साथ 'नमः' पद बोले-'विविधर्द्धये नमः' (विविध ऋद्धियोंके धारकके लिए नमस्कार हो), तदनन्तर 'अंगधराय नमः' (अंगोंके पारगामीको नमस्कार हो), 'पूर्वधराय नमः' (पूर्व धारियोंको नमस्कार हो), और ‘गणधराय नमः' (गणधरदेवके लिए नमस्कार हो ।।४१-४२।। पुनः 'परमर्षिभ्यः'इस पदसे परे Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० श्रावकाचार-संग्रह द्विर्वाच्यौ ताविमौ शब्दो बोध्यन्ती मन्त्रवेदिभिः । मन्त्रशेषोऽप्ययं तस्मादनन्तरमदीर्यताम् ।। ४५ कालश्रमणशब्दं च द्विरुक्त्वाऽऽमन्त्रणे ततः । स्वाहेति पदमुच्चार्य प्राग्वत्काम्यानि चोद्धरेत् ।। ४६ चणिः- सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, निर्ग्रन्थाय नमः, वीतरागाय नमः, महावताय नमः, त्रिगुप्ताय नमः,महायोगाय नमः, विविधयोगाय नमः विविधर्धये नमः,अङ्गधराय नमः, पूर्वधराय नमः, गणधराय नमः, परमर्षिभ्यो नमो नमः अनुपमज ताय नमो नमः, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । मुनिमन्त्रोऽयमाम्नातो मुनिभिस्तत्त्वदभिः । वक्ष्ये सुरेन्द्र मन्त्रं च यथा स्साहर्षभी श्रुतिः ।। ४७ प्रथमं सत्यजाताय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । ततः स्यादर्हज्ज ताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ।। ४८ ततश्च दिव्यजाताय स्वाहेत्येवमुदाहरेत् । ततो दिव्यार्चजाताय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् ।। ४९ ब्याच्च नेमिनाथाय स्वाहेत्येतदनन्तरम् । सौधर्माय पदं चास्मात्स्वाहोक्त्यन्तमनुस्मरेत् ।। ५० कल्पाधिपतये स्वाहापदं वाच्यमत: परम । भूयोऽप्यनुचरायादि स्वाहाशब्दमुदीरयेत् ।। ५१ ततः परम्परेन्द्राय स्वाहेत्युच्चारयेत्पदम् । सम्पेठदहमिन्द्राय स्वाहेत्येतदनन्तरम् ।। ५२ ततः परमाईताय स्वाहेत्येतत पदं पठेत । ततोऽप्यनपमायति पदं स्वाहापदान्वितम ।। ५३ 'नमो नमः' पद कहना चाहिए । अर्थात् 'परमर्षिभ्यो नमो नमः' (परमऋषियोंको बार-बारनमस्कार हो) । तत्पश्चात् 'अनुपमजाताय नमोनमः' (अनुपम जन्मके धारक जिनदेवको नमस्कार हो) यह मन्त्र बोले ॥४३।।अन्तमें मन्त्रवेत्ता लोक सम्बोधन विभक्त्यन्त सम्यग्दृष्टि, भूपति,नगरपति और कालश्रमण इन पदोंको दो-दो बार बोलकर अन्तमें स्वाहा पदका उच्चारण करें। यथा-'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, भूपते भूपते, नगरपते नगरपते, कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा ( हे सम्यग्दृष्टि, भूपति, नगरपति, कालश्रमण, मै तेरे लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ। ) पश्चात् पूर्ववत् काम्यमन्त्र पढे ॥४४-४६।। उपर्युक्त सर्व ऋषिमन्त्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं । ये सर्वऋषिमन्त्र तत्त्वदर्शी ऋषियोंने कहे है । अब आगे ऋषभदेव-प्रणीत श्रुतिके अनुसार सुरेन्द्र मन्त्रों को कहता हूँ।।४७॥ सर्वप्रथम ही 'सत्यजाताय स्वाहा' ( सत्यजन्म लेनेवाले को हव्य समर्पण करता हूँ ) यह मन्त्रपद बोले । तदनन्तर 'अर्हज्जाताय स्वाहा' अर्हन्तके योग्य जन्म लेनेवालेको हव्य समर्पणकरता हूँ। ) यह परम पद पढना चाहिए ॥४८॥ पुनः दिव्यजाताय स्वाहा' (दिव्य जन्म लेनेवालेको हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद बोले । पुनः 'दिव्याय॑जाताय स्वाहा' (दिव्य तेजःस्वरूप जन्म लेनेवालेको हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे ॥४९।। तदनन्तर 'नेमिनाथाय स्वाहा' (नेमिनाथके लिए, अथवा धर्मचक्रकी धुरीके स्वामी जिनदेवके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह मन्त्र बोले । इसके पश्चात् सौधर्माय स्वाहा (सौंधर्मेन्द्रके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) इस पद का स्मरण करे ।।५।। पूनः 'कल्पाधिपतये स्वाहा' (स्वर्गके अधिपतिके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद बोलना चाहिए। पुन: 'अनुचराय स्वाहा' (इन्द्र के अनुचरके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद उच्चारण करे ॥५१॥ तत्पश्चात् 'परम्परेन्द्राय स्वाहा' (परम्परासे होनेवाले इन्द्रवर्ग के लिए हव्य समर्पण करता हूँ यदू पद बोले । तदनन्तर 'अहमिद्राय स्वाहा (अहमिन्द्रवर्गके लिए हव्य समर्पण करता ह) यह पद पढे ॥५२॥ पुनः 'परमार्हताय स्वाहा' (परम आईनके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे । तदनन्तर 'अनुपमाय स्वाहा' (उपमा-रहित देवके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् । तथा कल्पपति चापि दिव्यमूति च सम्पठेत् ।।५४ द्विर्वाच्यं वज्रनामेति ततः स्वाहेति संहरेत् । पूर्ववत् काम्यमन्त्रोऽपि पाठयोऽस्यान्ते त्रिभिः पदैः।।५५ चणि:- सत्यजाताय स्वाहा, अहज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा परम्परेंद्रीय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा,परमार्हताय स्वाहा अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन वाहा । सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरण भवतुसुरेन्द्रमन्त्र एष: स्यात् सुरेन्द्रस्यानुतर्पणम् । मन्त्रं परमराजादि वक्ष्यामीतो यथाश्रुतम् ।। ५६ प्रागत्र सत्यजाताय स्वाहेत्येतत् पदं पठेत् । ततः स्यादहज्जाताय स्वाहेत्येतत्परं पदम् ॥ ५७ ततश्चानुपमेन्द्राय स्वाहेत्येतत्पद मतम् । विजयाादिजाताय पदं स्वाहान्तमन्वतः ।। ५८ ततोऽपि नेमिनाथाय स्वाहेत्येतत्पदं पठेत् । तत: परमराजाय स्वाहेत्येतदुदाहरेत् ।। ५९ परमाहताय स्वाहा पदस्मात्परं पठेत् । स्वाहान्तमनुपायोक्तिरतो वाच्या द्विजन्मभिः । ६० सम्यग्दृष्टिपदं चास्माद् बोध्यन्तं द्विरुदीरयेत् उग्रतेजः पदं चैव दिशाजयपदं तथा ।। ६१ नेम्यादिविजयं चैव कुर्यात स्वाहापदोत्तरम् । काम्यमन्त्रं च तं ब्रूयात् प्राग्वदन्ते पदैस्त्रिभिः ।।६२ चणिः- सत्यजाताय स्वाहा, अहंज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय हा विजयाय॑जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमराजाय स्वाहा, परमाहताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा,सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेज: उग्रतेज: दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा,सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु । पद बोले ॥५३॥ तत्पश्चात् सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद दो बार बोले,तथा कल्पपति और दिव्यमूर्ति पद भी सम्बोधनान्त दो-दो बार बोले । पुनः वज्रनामन् शब्द भो दो बार उच्चारणकरे । यथा-'सम्यग्दृष्टै सम्यग्दृष्टे, कल्पपते कल्पपते, दिव्यमूर्ते, दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा' (हे सम्यग्दृष्टि, हे स्वर्गाधिपति, हे दिव्यमत्ति,हे वज्रनामन्, मैं तेरे लिए हव्य समर्पण करता हूँ) इस मंत्रके पश्चात् अन्तमें तीन पदों के द्वारा काम्यमन्त्र पढना चाहिए ।।५४-५५।' इन सर्वमन्त्रों का संग्रह मूलमें दिया हुआ हैं । यह सुरेन्द्रको तृप्त करनेवाला सुरेन्द्रमन्त्र है । अब इससे आगे शास्त्रोंके अनुसार परमराजादिमन्त्र कहते हैं ।।५६।। इन मन्त्रोंमें सर्वप्रथम 'सत्यजाताय स्वाहा' (सत्य जन्मके धारण करनेवालेको हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे । पुनः ‘अर्हज्जाताय स्वाहा (अरहन्तपदके योग्य जन्म धारण करनेवालेको हव्य समर्पण करता हूँ । यद पद पढे ॥ ५७ ॥ तत्पश्चात् 'अनुपमेन्द्राय स्वाहा' (अनुपम इन्द्रके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यद पद कहे। पुनः 'विजया~जाताय स्वाहा' (विजययुक्त पूज्य जन्मवाले को हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद उच्चारण करे ॥५.८।। तदनन्तर 'नेमिनाथाय · वाहा' (नेमिनाथके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे । पुन: 'परमजाताय स्वाहा' (सर्वोत्तम जन्म-धारकके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद बोले ॥५९॥ इसके पश्चात् 'परमार्हताय स्वाहा (परम आर्हताके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद पढे । इसके पश्चात् अनुपमाय स्वाहा' (उपमारहित देव के लिए हव्य समर्पण करता हूँ) यह पद द्विजोंको बोलना चाहिए ॥६०॥ तदनन्तर सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद दो बार बोले; तथा उग्रतेजः पद,दिशांजय पद और नेमि विजय पद दो-दो बार बोलकर अन्तमें स्वाहा पदका उच्चारण करे। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ श्रावकाचार-संग्रह मन्त्रः परमराजादिर्मतोऽयं परमेष्ठिनाम् । पर्व मन्त्रमितो वक्ष्ये यथाऽऽह परमा श्रुतिः ।। ६३ तत्रादी सत्यजाताय नमः पदमुदीरयेत् । वाच्यं ततोऽर्हज्जाताय नमः इत्युत्तरं पदम् ।। ६४ ततः परमजाताय नमः पदमुदाहरेत् । परमार्हतशब्दच चतुर्थ्यन्तं नमः परम् ।। ६५ ततः परमरूपाय नमः परमतेजसे । नम इत्युभयं वाच्यं पदमध्यात्मशिभिः ।। ६६ परमादिगुणायेति पदं चान्यन्नमोयुतम् । परमस्थानशब्दश्च चतुर्थ्यन्तो नमोऽन्वितः ॥ ६७ उदाहार्य क्रम ज्ञात्वा तत: परमयोगिने । नमः परमभाग्याय नम इत्युभयं पदम् ॥ ६८ परौद्धपदं चान्यच्चतुयन्तं नमः परम् । स्यात्परमप्रसादाय नम इत्युत्तरं पदम् ६९ स्यात्परमकाक्षिताय नम इत्यत उत्तरम् । स्यात्परमविजयाय नम: इत्युत्तरं वचः ।। ७० स्यात्परमविज्ञानाय नमो वाक्तदनन्तरम् । स्यात्परमर्शनाय नमः पदमतः परम् ।। ७१ ततः परमवीर्याय पदं चास्मान्नमः परम् । परमादि सुखायेति पदमस्मादनन्तरम् ।। २ सर्वज्ञाय नमो वाक्यमर्हते नम इत्यपि । नमो नमः पदं चास्मात्स्यात्परं परमेष्ठिने ७३ यथा-'सम्यग्दष्टे सम्यग्दृष्ट, उग्रतेज उग्रतेजः, दिशांजय दिशांजय, नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा' (हे सम्यग्दृष्टि, हे उग्रतेजोधारक, हे दिशाओंके जीतनेवाले,हे नेमिविजय, मैं तुम्हारे लिए हव्य समर्पण करता हूँ) । तत्पश्चात् पूर्वके समान ही तीन पदोंके द्वारा काम्यमंत्र बोले ॥६१-६२॥ इन परमराजादि मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं। ये परमराजादि मंत्र माने गये हैं। अब आगे परमेष्ठियोंके अन्य मंत्र जिस प्रकारसे परमागममें कहे गये है,उसी प्रकारसे कहते हैं।।६३।। उनमेंसे सबके आदिमें 'सत्यजाताय नमः' (सत्यरूप जन्मवालेके लिए नमस्कार हो) यह पद बोले । तत्पश्चात 'अर्हज्जाताय नमः' (अर्हन्तके योग्य जन्म-धारकके लिए नमस्कार हो) यह पद कहे।।६४।। तदनन्तर 'परमजाताय नमः' (उत्तम जन्म लेनेवालेके लिए नमस्कार हो) यह पद बोले । पुनः चतुर्थीविभक्त्यन्त परमाहत शब्दके अन्तमें 'नमः'पद लगाकर 'परमार्हताय नमः' (परम आईतके लिए नमस्कार हो) यह मंत्र पढे ।।६५।। पुनः ‘परमरूपाय नमः' (उत्कृष्ट निर्ग्रन्थरूपके धारकको नमस्कार हो) और 'परमतेजसे नमः' (परम तेजस्वी देव को नमस्कार हो) ये दोनों मंत्रपद अध्यात्मदर्शी द्विजों को बोलना चाहिए ।।६६।। पुन: नमः शब्दके साथ परमगुणाय,अर्थात् ‘परमगुणाय नमः' (उत्तमगुणवालेके लिए नमस्कार हो) यह मंत्र कहे । तत्पश्चात् नमः पदके साथ चतुर्थीविभक्यन्त परमस्थान पद कहे, अर्थात् 'परमस्थानाय नमः' (मोक्षरूप परमस्थानके लिए नमस्कार हो) ।।६७॥ तदनन्तर मंत्रक्रम को जानकर 'परमयोगिने नमः' ( परमयोगीके लिए नमस्कार हो) और 'परमभाग्याय नमः' (परमभाग्यशाली तीर्थकर देवके लिए नमस्कार हो)इन दोनों मंत्रपदोंको बोले ॥६८।। पुन: चतुर्थीविभक्त्यन्त परद्धिपदके आगे नमः पद लगाकर परमर्द्धये नमः' (परमऋद्धि-धारकके लिए नमस्कार हो, और ‘परमप्रसादाय नमः' (उत्तमप्रसन्नताके धारकके लिए नमस्कार हो) ये दो मंत्र पढे ॥६९। पुनः 'परमकांक्षिताय नमः' (परम आनन्द की आकांक्षा वाले को नमस्कार हो) और 'परमविजयाय नमः' (कर्मशत्रुओं पर परम विजय पानेवालेके लिए नमस्कार हो) ये दो मंत्र बोले ॥७०॥तदनन्तर 'परमविज्ञानाय नमः' (परमविज्ञानशाली के लिए नमस्कार हो) और पुन: ‘परमदर्शनाय नमः' (अनन्त दर्शन गुणवालेके लिए नमस्कार हो) ये पद पढे ॥७१॥ तत्पश्चात् 'परमवीर्याय नमः' (अनन्तबलशालीके लिए नमस्कार हो) और तदनन्तर 'परम सुखाय नमः' परमसुखके धारकको नमस्कार हो) ये मंत्र कहे ॥७२॥ पुनः 'सर्वज्ञाय नमः' . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन परमादिपदान्नेत्र इत्यस्माच्च नमो नमः । सम्यग्दृष्टि पदं चान्ते योध्यन्तं द्विः प्रयज्यताम् ॥ ७४ द्विः स्तां त्रिलोकोवजयधर्ममूर्तिपदे तत: । धर्मनेमिपदं वाच्यं द्विः स्वाहेति ततः परम् ।। ७५ काम्यमन्त्रमतो ब्रूयात्पूर्ववद्विधिवद्विजः । काम्यसिद्धिप्रधाना हि सर्वे मन्त्राः स्मृता बुधः ।। ७६ चणिः- सत्यजाताय नमः, अर्हज्जाताय नमः, परमजाताय नमः परमाहताय नमः, परमरूपाय नमः परमतेजसे नमः, परमगणाय नमः,परमस्थ नाय नमः, परमयोगिने नमः परमभाग्याय नमः, परमर्द्धये नमः, परमप्रसादाय नमः, परमकाङ्क्षिताय नमः परमविजयाय नमः, परमविज्ञानाय नमः, परमदर्शनाय नमः: परमवीर्याय नमः परमसुखाय नम सर्वज्ञाय नमः. अहते नमः. परमेष्ठिने नमोनमः परमनेत्रं नमोनमः. सम्यग्दष्टे, सम्यग्दृष्टे त्रिलोकविजय धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते, धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा । सेवाफल षट्परम स्थान भवतु अपमृत्युविनाशनंभवतु. समाधिमरणं भवतु । एते तु पीठिकामन्त्रा: सप्त ज्ञेया द्विजोत्तमैः । एतैः सिद्धार्चनं कुर्यादाधानादिक्रियाविधौ ।। ७७ क्रियामन्त्रास्त एते स्युराधानादिक्रियाविधौ सूत्रे गणधरोद्धायें यान्ति साधनमन्त्रताम् ।। ७८ सन्ध्यास्वग्नित्रये देवपूजने नित्यकर्मणि । भवन्त्याहुतिमन्त्राश्च त एते विधिसाधिताः ।। ७९ सिद्धार्चासन्निधौ मन्त्रान जपेदष्टोत्तरं शतम । गन्धपुष्पाक्षता_दिनिवेदनपुरःसरम् ॥ ८० सिद्धविद्यस्ततो मन्त्ररेभिः कर्म समाचरेत् । शुक्लवासाः शुचिर्यज्ञोपवीत्यव्यग्रमानसः ।। ८१ त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारम्भे द्विजोत्तमैः । रत्नत्रितयसङ्कल्पादग्नीन्द्रमुकुटोद्भवा: ।। ८२ तीर्थकृदगणभच्छेषकेवल्यन्तमहोत्सवे । पूजाङ्गत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागता: ।। ८३ (सर्वज्ञके लिए नमस्कार हो), अर्हते नमः' (अरहन्तदेवके लिए नमस्कार हो) और परमेष्ठिनेनमोनम (परमेष्ठीके लिए बार-बार नमस्कार हो) ये मंत्र बोले ।।७३।।तत्पश्चात् 'परमनेत्रे नमो नमः' (उत्तम नेताके लिए बार-बार नमस्कार हो),यह मंत्र बोले। पुनः सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद दो बार प्रयोग करे।।७४।इसी प्रकार त्रिलोकविजय,धर्ममूति और धर्मनेमि पद भी चतुर्थीविभक्तिके साथ दो-दोबार बोलकर अन्तमें स्वाहा शब्द कहे । यथा- 'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे,त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय,धर्ममूर्ते-धर्ममूर्ते,धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाह ' (हे सम्यग्दृष्टि, हे त्रिलोकविजयी, हे धर्ममूत्ति, हे धर्मप्रवर्तक, मैं तेरे लिए यह समर्पण करता हूँ ॥७५।। इसके पश्चात् द्विज विविधत् पूर्वके समान काम्यमंत्र बोले,क्योंकि विद्वज्जनों ने सभी मंत्रोंको अभीष्ट सिद्धि-प्रधान माना हैं ।।७६।।इन सर्व परमेष्ठी मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं। उत्तम ब्राह्मणोंको ये उपर्युक्त सात पीठिकामंत्र जानना चाहिए। गांधानादि क्रियाओंकी विधि करते समय इन मंत्रोंसे सिद्ध भगबान्का पूजन करे॥७७।। गर्भाधानादि क्रियाओंकी विधि करने में ये पीठिकामंत्र क्रियामंत्र कहलाते हैं और गणधर-प्रतिपादित सूत्र में ये ही साधनमंत्रपनेको प्राप्त हो जाते हैं ।।७.८।। विधिपूर्वक सिद्ध किये हुए ये ही मंत्र तीनों सन्ध्याओं के समय तीनों अग्नियोंमें देव-पूजनरूप नित्यकर्म करते समय आहुतिमंत्र कहे जाते हैं ॥७९॥ सिद्ध-प्रतिमाके समीप गन्ध,पुष्प,अक्षत,और अर्घ आदि समर्पण कर एक सौ आठ बार इन मंत्रोंका जप करना चाहिए १८०॥ तत्पश्चात् विद्याकी सिद्धिको प्राप्त, श्वेत वस्त्र और यज्ञोपवीतका धारक द्विज निराकुल चित्त होकर इन मंत्रोंके द्वारा अन्य क्रियाओंको करे ।।८१।। गर्भाधानादि क्रियाओं के प्रारम्भ में उत्तम द्विज रत्नत्रयके संकल्प से अग्निकुमार देवोंके इन्द्रके मुकुटसे उद्भूत तीन अग्नियोंको उत्पन्न करे।।८२॥ये तीनों ही महा अग्नियाँ तीर्थकर, गणधर और Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्रावकाचार-संग्रह कुण्डत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः । गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निप्रसिद्धयः ॥ ८४ अस्मिन्नग्नित्रये पूजां मन्त्रैः कुर्वन् द्विजोत्तमः । आहिताग्निरिति ज्ञेयो नित्येज्या यस्य सद्मनि ॥८५ हविपाके च धूपे च दीपोद्बोधनसंविधो । वन्हीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ॥ ८६ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमग्नित्रयं गृहे । नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसंस्कृताः ॥ ८७ न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा । किन्त्वहं द्दिव्यमूर्ती ज्यासम्बन्धनात् पवनोऽनलः ॥ ८८ ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वार्चन्ति द्विजोत्तमाः । निर्याण क्षेत्रपूजावत्तत्पूजाडतो न दुष्यति ॥ ८९ व्यवहार नयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः । जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मभिः ।। ९० साधारणास्त्विमे मन्त्राः सर्वत्रैव क्रिय विधौ । यथा सम्भवमुन्नेष्ये विशेषविषयाश्च तान् ॥९१ गर्भाधानमन्त्राः - सज्जातिभागी भव सद्गृहिभागी भवेति च । पदद्वयमुदीर्यादौ पदानीमान्यतः पठेत् ॥ ९२ आदी मुनीन्द्रा भागीति भवेत्यन्ते पदं वदेत् । सुरेन्द्रभागी परमराज्यभागीति च द्वयम् ।। ९३ आर्हन्त्यभागी भवति पदमस्मादनन्तरम् । ततः परमनिर्वाणभागी भव पदं भवेत् । ९४ आधाने मन्त्र एषः स्यात् पूर्वमन्त्रपुरःसरः । विनियोगश्च मन्त्राणां यथाम्नायं प्रदर्शितः ॥ ९५ चूणि:- सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाण भागी भव । ( आधान मन्त्रः ) सामान्यकेवलीके अन्तिम निर्वाणमहोत्सव में पूजाका अंग बनकर पवित्रता को प्राप्त हुई है ॥८३॥ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध तीनों अग्नियों को तीन कुण्डों में स्थापित करना चाहिए || ८४ ।। इन तीनों प्रकारकी अग्नियों में मंत्रोंके द्वारा पूजा करने वाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता हैं और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती हैं वह आहिताग्नि या अग्निहोत्री द्वाह्मण जानना चाहिए । ८५ ।। नित्य पूजन करते समय इन तीनों प्रकारकी अग्नियोंका विनियोग क्रमशः नैवेद्यके पकाने में, धूपखेने में और दीपक जलाने में होता हैं ॥ ८६ ॥ बडे प्रयत्नके साथ इन तीनों अग्नियोंकी घरमें रक्षा करे और जो क्रिया-संस्कारसे रहित है, ऐसे अन्य लोगों को यह अग्नि कभी नहीं देना चाहिए ॥ ८७ ॥ अग्निमें स्वतः पवित्रता नहीं है और न वह देवतारूप ही हैं । किन्तु अरहन्तदेवकी दिव्यमूत्र्तिकी पूजाके सम्बन्धसे अग्नि पवित्र मानी गई हैं ||८८ || अतएव द्विजोत्तम लोक इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते है और इसी कारण से निर्वाणक्षेत्रकी पूजाके समान अग्निकी पूजा करनेमें कोई दोष नहीं है || ८९ ॥ | व्यवहारनय की अपेक्षा द्विजोंको अग्निकी पूज्यता इष्ट हैं, इसलिए द्विजन्मा जैनों को यह नय आज के समय में व्यवहार करने के योग्य है ।। ९० ।। ये ऊपर कहे हुए सर्वमंत्र सभी क्रियाविधिमें साधारण हैं । अब आगे विशेष क्रिया-विषयक मंत्रोंको यथासम्भव कहता हूँ ॥९१॥ गर्भधान क्रियाके मंत्र इस प्रकार हैं - यह गर्भस्थ जीव 'सज्जाति भागी भव' (उत्तम after धारण करनेवाला हो), 'सद्- गृहिभागी भव' ( सद् गृहस्थ पदका धारक हो ), पहले इन दोनों मंत्रपदोंको बोलकर तत्पश्चात् इन मंत्रपदों को पढे ||२|| प्रथम 'मुनीन्द्रभागी भव' ( महामुनिपदको प्राप्त करनेवाला हो ) यह पद बोले । तत्पश्चात् 'सुरेन्द्रभागी भव' (इन्द्रपदका भोक्ता हो), तथा 'परमराज्यभावी भव' (उत्कृष्टराज्यका स्वामी हो ) इन पदोंको वोले । ९३ ।। तदनन्तर 'आर्हन्त्यभागी भव' (अर्हन्तपदका धारक हो ) यह पद पढे । तत्पश्चात् 'परमनिर्वाणभागी भव' ( परम मोक्षका पानेवाला हो ) यह पद बोले ||१४|| गर्भाधान क्रियामें पूर्वोक्त पीठिका मंत्रों के साथ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन स्यात्प्रीतिमन्त्रस्त्रैलोक्यनाथो भवपदादिकः । त्रैलोक्यज्ञानी भव त्रिरत्नस्वामी भवेत्ययम् ।। ९६ चूणि:- त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैलोक्यज्ञानी मव, त्रिरत्नस्वामी भव । ( प्रीतिमन्त्रः ) मन्त्रोऽवतार कल्याणभागी भववदादिकः । सुप्रीतौ मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणवाक्परः ।। ९७ भागी भव पदोपेतस्ततो निष्क्रांतिवाक्परः । कल्याणमध्यमो भागी भवेत्येतेन योजितः ।। ९८ ततश्चार्हन्त्य कल्याणभागी भवपदान्वितः । ततः परम निर्वाणकल्याणपदसङ्गतः ।। ९९ भागी भवपदान्तश्च क्रमाद्वाच्यो मनीषिभिः । धृतिमन्त्रमितो वक्ष्ये प्र ेत्या श्रृणुत भो द्विजाः। १०० चूर्णि:- अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, अर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणभागी भव । ( सुप्रीतिमन्त्रः ) धृतिक्रियामन्त्रः ८५ आधानमन्त्र एवात्र सर्वत्र हितदातृवाक् । मध्ये यथाक्रमं वाच्यो नान्यो भेदोऽत्र कश्चनः ।। १०१ चूणि:- सज्जातिदातृभागी भव, सद्गृहिदातृभागो भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदानृभागीभव परमराज्यदातृभागी भव, अर्हन्त्यपददातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव । ( धृति क्रियामन्त्रः ) मोदक्रियामन्त्रः मन्त्रो मोदक्रियायां च मतोऽयं मुनिसत्तमः । पूर्व सज्जातिकल्याणभागी भव पदं वदेत् ॥ १०२ ततः सद्गृहिकल्याण मागी भव पदं पठेत् । ततो वैवाहकल्याणभागी भव पदं मतम् ॥ १०३ इन मंत्रों का उपयोग करे। मंत्रोंका यह विनियोग आम्नायके अनुसार दिखाया गया हैं ।। ९५ ।। गर्भाधानक्रिया के मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया हुआ हैं । अब प्रीतिक्रिया के मंत्र कहते है - यह गर्भस्थ शिश ' त्रैलोक्यनाथो भव' (तीनों लोकोंका स्वामी हो), ' त्रैकाल्यज्ञानी भव' (तीनों कालोंका ज्ञानी हो ) और 'त्रिरत्नस्वामी भव' ( रत्नत्रयका स्वामी हो ) । । ९६ ।। इन प्रीतिमंत्रों का संग्रह मूलमें दिया हुआ हैं । अब सुप्रीति क्रिया के मंत्र कहते है - यह गर्भस्थ बालक 'अवतारकल्याण भागी भव' (गर्भावतारकल्याणकका भोक्ता हो ) 'मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव' (सुमेरुपर्वत पर इन्द्रोंके द्वारा जन्माभिषेक कल्याणकको प्राप्त करने वाला हो), 'निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव' (निष्क्रमण कल्याणका स्वामी हो ), आर्हन्त्य कल्याणभागी भव' (केवलकल्याणकका भोक्ता हो), और 'परमनिर्वाणकल्याण भागी भव' (उत्कृष्ट निर्वाणकल्याणकका धारक हो ) येमंत्र मनीषी जनोंको क्रमसे बोलना चाहिए। ६७ १०० ।। सुप्रीति मंत्रों का संग्रह मूलमें दिया गया हैं । अब आगे धृतिक्रियाके मंत्र कहेंगे, हे ब्राह्मणो, तुम लोग प्रीति के साथ सुनो। गर्भाधानक्रियाके सर्व मंत्रोंके मध्य में 'दातृ' शब्द यथाक्रमसे लगाकर बोलना चाहिए । इसके अतिरिक्त और कोई भेद नहीं है । १०१ ।। यथा-सज्जातिदातृभागी भव' यह गर्भस्थ पुत्र ( उत्तम जातिको देनेवाला हो), 'सद्गृहिदातृभागी भव' (सद्-गृहस्थ पदका दाता हो), 'मुनीन्द्रदातृभागी भव' ( महामुनिपदका दाता हो ) सुरेन्द्रदातृभागी भव' (सुरेन्द्रपदका दाता हो ) 'परमराज्यदातृभागी भव' (परमराज्यका दाता हो), 'आर्हन्त्यदातृभागी भव' (अरहन्त पदका दाता हो), 'परम निर्वाणदातृभागी भव' (उत्कृष्ट निर्वाणपदका दाता हो) । धृतिक्रिया में इन मंत्रोंको बोले । सर्वमंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया हुआ है । अब मोदक्रिया के मंत्र कहते है । उत्तम मुनियोंने मोदक्रिया के मंत्र इस प्रकार माने हैं- सर्वप्रथम 'सज्जाति कल्याणभागी भव' ( सज्जातिके कल्याणका धारक हो ) यह पद बोले । । १०२ ।। पुनः सद्-गृहिकल्याणभागी भव' (सद्गृहस्थ के कल्याण 1 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह ततो मुनीन्द्र कल्याणभागी भव पदं स्मृतम् । पुनः सुरेन्द्र कल्याणभागी भव पदात्परम् ।। १०४ मन्दराभिषेककल्याणभागीति च भवेति च । तस्माच्च यौवराज्यादिकल्याणपदसंयुतम् ॥ १०५ भागी भवपदं वाच्यं मन्त्रयोगविशारदः । स्यान्महारराज्यकल्याणभागी भव पदं परम् ।। १०६ भूयः परमराज्यादिकल्याणोपहितं मतम् । भागी भवेत्यथार्हन्त्यकल्याणेन च योजितम् १०७ चूणिः- सज्जातिकल्याणभागी भव,सद्गृहिकल्याणभागी भव,वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्र कल्याणभागी भव,सुरेन्द्र कल्याणभागी भव,मन्दराभिषेककल्याणभागी भव,योवराज्यकल्याणभागी भव,महाराज्यकल्याणभागी भव,परमर.ज्यकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव। ( मोदक्रियामन्त्र: ) प्रियोद्भवमन्त्र:प्रियोद्भवे च मन्त्रोऽयं सिद्धार्चनपुरःसरम् । दिव्यनेमिविजयाय पदात्परमनेमिवाक् ।। १०८ विजयायेत्यथाहंन्त्यनेम्यादिविजयाय च । युक्तो मन्त्राक्षरैरेभिः स्वाहान्तः सम्मतो द्विजैः ।। १८९ चूणिः- दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परनेमिविजयाय स्वाहा, आहन्त्यनेमिविजय य स्वाहा । (प्रयोद्भवमन्त्रः) जन्मसंस्कारमन्त्रोऽयमेतेनार्भकमादितः । सिद्धाभिषेकगन्धाम्बसंसिक्तं शिरसि स्थितम् । ११० कुलजातिवयोरूपगणः शीलप्रजान्वयैः । भाग्याविधवतासौम्यमतित्वैः समधिष्ठिता । १११ सम्यग्दृष्टिस्तवाम्बेयमतस्वमपि पुत्रकः । सम्प्रीतिमाप्नहि त्रीणि प्राप्य चक्राण्यनुक्रमात् ।। ११२ का धारक हो) यह पद पढे । पुनः 'वैवाहकल्याणभागी भव' (विवाहोत्सका धारक हो) यह पद उच्चारण करे॥१०३।। तत्पश्चात् 'मुनीन्द्रकल्याणभागी भव' (महामुनि पदके कल्याणका धारक हो) यह पद बोले । तदनन्तर 'सुरेन्द्र कल्याण भव' (इन्द्र पदके कल्याणका धारक हो) यह पदकहे।।१०४॥पुनः मन्दराभिभिषेक कल्याणभागी भव' (सुमेरु पर जन्माभिषेक कल्याणकको प्राप्त हो,तत्पश्चात् 'यौवराज्यकल्याणभागी भव' (युवराज पदके कल्याणका भागी हो) यह पद पढे ॥१०५।। तदनन्तर मंत्रोंके प्रयोग करनेमे विशारद लोग 'महाराज्यकल्याणभागी भव' (महाराज पदके कल्याणकका भोक्ता हो) यह मंत्र बोलें ।।१०६।। पुन। 'परणराज्यकल्याणभागी भव' (परम राज्यके कल्याणका भागी हो) यह पद पढे । तदनन्तर 'आर्हन्त्यकल्याणभागी भव' (अरहन्त पदके कल्याणकका भोक्ता हो) यह पद बोले ॥१०७।। मोदक्रियाके सर्व मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया हुआ हैं । अब 'प्रियोद्भव क्रियाके मंत्र कहते हैं । 'प्रियोद्भव क्रियामें सिद्धोंकी पूजा करनेके पश्चात् इस प्रकार मंत्रोंको पढे-'दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा' (दिव्यनेमिके द्वारा कर्म-शत्रुओंपर विजय पानेवालेके लिए यह हव्य समर्पण करता हूँ) 'परमनेमि विजयाय स्वाहा' ( परमनेमिके द्वारा कर्म-शत्रुओं पर विजय पानेवालेके लिए हव्य समर्पण करता हूँ) और 'आर्हन्त्यने मिविजयाय स्वाहा' (अरहन्त पदरूप नेमिके द्वारा कर्म-शत्रुओं पर विजय पाने वालेके लिए हव्य समर्पण णरता हूँ इन मंत्रोंको बोलना द्विजोंको लिए आवश्यक माना गया हैं। १०८-१०९।। मोदक्रियाके मंत्रोंका संग्रह मलमें दिया हुआ है । अब जन्म-संस्कारके मंत्र कहते है-सर्वप्रथम सिद्ध-प्रतिमाका अभिषेक कर उस गन्धोदकसे उत्पन्न हुए बालकका अभिषिचन कर मंत्र पढते हुए शिर पर हाथ फेरे और कहे-यह तेरी माता कूल, जाति, वय,रूप आदि गुणोंसे विभूषित हैं,शीलवती हैं, उत्तम सन्तान उत्पन्न करनेवाली हैं, भाग्यवती हैं, सौभाग्यशालिनी हैं, सौम्य-शान्तमूर्ति हैं, और सम्यग्दृष्टि हैं। अतएव हे पुत्र, इस माताके सम्बन्धसे तू भी अनुक्रम से दिव्यचक्र, विजयचक्र और परमचक्र, इन तीनों चक्रोंको पाकर . Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ८७ इत्यङ्गानि स्पृशेदस्य प्रायः सारूप्ययोगतः । तत्राधायात्मसङ्कल्पं ततः सूक्तमिदं पठेत् ॥ ११३ अङ्गादङ्गात्सम्मवसि हृदयादपि जायसे । आत्मा वै पुत्र नामासि सजीव शरदः शतम् ।।११४ क्षीराज्यममृतं पूतं नाभावावयं युक्तिभिः । घ. तिञ्जयो भवेत्यस्य हासयेन्नाभिनालकम् ॥११५ श्रीदेव्यो जात ते जातक्रियां कुर्वन्त्विति ब्रवन् । तत्तनुं चूर्णवासेन शनैरुद्वर्त्य यत्नतः ॥ ११६ त्वं मन्दराभिषेकाो भवेति स्नपयेत्ततः । गन्धाम्बुभिश्चिरं जीव्या इत्याशास्याक्षतं क्षिपेत्॥११८ नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नमित्यास्येऽस्य सनासिके । घतमौषधसांसिद्धम वपेन्मात्रया द्विज ॥११८ ततो विश्वेश्वगन्यभागी भूया इतीरयन् । मातुस्तनमुपामन्त्र्य वदनेऽस्य समासजेत् ॥ ११९ प्रागणितमथानन्दं प्रीतिदानपुरःसरम् । विधाय विधिवत्तस्य जातकर्म समापयेत् ॥ १२० जरायुपटलं चास्य नाभिनालसमायुतम् । शुचौं भूमौ निखातायां विक्षिपेन्मन्त्रमापठन् ।। १२१ सम्यग्दृष् िपदं बोध्ये सर्वमातेति चापरम् । वसुन्ध गपद चैव स्वाहान्तं द्विरुदाहरेत् ।। १२२ चूणिः- सम्यग्दृष्टे, सम्यग्दृष्टे सर्वमातः सर्वमातः वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा । मन्त्रेणानेन सम्मन्त्र्य भूमौ सोदकमक्षतम् । क्षिप्त्वा गर्भमलं न्यस्तपञ्चरत्नतले क्षिपेत् ।।१२३ स्वत्पुत्रा इव मत्पुत्रा भूयासुश्चिरज विनः । इत्युदाहृत्य सस्याहे तत्क्षेप्तव्यं महीतले ।। १२४ सत्प्रीति को प्राप्त हो ।।११०-११२।। इस प्रकार आशीर्वाद देकर पिता उसके सर्व अंगोंका स्पर्श करे और फिर प्रायः अपने सदृश होनेसे उसमें अपना संकल्प कर अर्थात् 'यह मै ही हूँ'ऐसा आरोपकर ये सुन्दर वाक्य कहे-हैं पुत्र, तू मेरे प्रत्येक अंगसे उत्पन्न हुआ हैं और हृदयसे भी उत्पन्न हुआ हैं, अतः पुत्र-नामको धारण करनेवाला तू मेरा आत्मा ही है.तू सैकडों वर्षोतक जीवित रह ।। ११३११४॥ तदनन्तर दूध और घी रूपी पवित्र अमृत उसकी नाभिपर 'घातिञ्जयो भव' (तू घातिया कर्मोको जीतनेवाला हो) यह मंत्र पढकर सावधानीसे उसकी नाभिका नाल काटे ।।११५॥ तत्पश्चात् 'हे जात,श्रीदेव्यः ते जातक्रियां कुर्वन्तु'(हे पुत्र श्री ही आदि देवियाँ तेरे जन्मक्रिया का उत्सव करें)यह कहते हुए धीरे-धीरे यत्नपूर्वक सुगन्धित चूर्णसे उस बालकके शरीरका उबटन करे और 'त्वं मन्दराभिषेका) भव' (तू सुमेरु पर अभिषेक किये जानेके योग्य हो) यह मंत्र पढकर सुगन्धित जलसे उसे स्नान करावे । तदनन्तर 'चिरं जीव्याः'(तु चिरकाल तक जीवित रह) इस प्रकार आशीर्वाद देकर उस पर अक्षत क्षेपण करे।। ११६-११७।।तत्पश्चात् 'नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नम्' (तेरे सर्व कर्म-मल नष्ट हों) यह मंत्र पढकर उसके मुख और नाक औषधि मिलाकर तैयार किया हुआ घी मात्राके अनुसार थोडा-सा डाले ।।११८ । तत्पश्चात् 'विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूया:' (तू तीर्थकरको माताके स्तनका दुध-पान करनेवाला हो) यह कहता हुआ माताके स्तनको मंत्रित कर उसे बालकके मुख में लगा देवे ॥११९।। तदनन्तर पूर्व-वणित प्रकार से प्रीतिपूर्वक दान देते हुए उन्सव कर विधिवत् जातकर्म (जन्मकाल की क्रिया) समाप्त करे ॥१२०॥ उसके जरायु-पटलको नाभि-नालके साथ किसी पवित्र भूमिको खोदकर यह मंत्र पढते हुए गाड देवे । १२१॥ ( हे सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे, सर्वमातः सर्वमातः, वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा' ( हे सम्यग्दृष्टि सर्वकी माता पसुन्धरा,तुणे यह समर्पण करता हूँ) इस मंत्रसे मंत्रित कर उस भूमिमें जल और अक्षत डालकर पाँच प्रकार के रत्तों के नीचे वह गर्भ-मल (जरायपटल और नाभिनाल) रख देना चाहिए।१२२१२३।।अथवा,त्वत्पुत्राइव मत्पुत्रा इव मत्पुत्रा चिरजीविनो भूयासुः' (हेवसुन्धरे,तेरेपुत्रकुल-पर्वतोंके समान मेरे पुत्र भी चिरजीवी हों) यह कहकर धान्योत्पत्तिके योग्य खेतमें उस गर्भ-मलको डाल देना Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्रावकाचार-संग्रह क्षीरवक्षोपशाखाभि: उपहृत्य च भूतलम् । स्नाष्या तत्रास्य माताऽसौ सुखोष्णमन्त्रितर्जलैः॥१२५ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्यविषयं द्विरुदीरयेत् । पदमासन्न भव्येति तद्वद्विश्वेश्वरेत्यपि ॥ १२६ तत जितपुण्येति जिनमातृपदं तथा । स्वाहान्तो मन्त्र एषः स्यान्मातुः स्नानसंविधौ ।। १२७ चर्णि-: सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्टे आसन्नभव्य आसन्न भव्ये विश्वेश्वरे विश्वेश्वरे जितपुष्पे ऊजित पुण्ये, जिनमात: जिनमातः स्वाहा । यथा जिनाम्बिकापुत्रकल्याणान्यभिपश्यति । तथेयमपि मत्पत्नीत्यास्थयेमं विधि भजेत् ।। १२८ तृतीयेऽहनि चानन्तज्ञानदी भवेत्यमुम् । आलोकयेत्समुत्क्षिप्य निशि ताराङ्कितं नभः ।। १२५ पुण्याहघोषणापूर्व कुर्याद् दानं च शक्तितः । यथायोग्यं विदध्याच्च सवस्याभयघोषणाम् ॥ १३० जातकर्मविधिः सोऽयमाम्नातः पूर्वसूरिभिः । यथायोगमनुष्ठेयः सोऽद्यत्वेऽपि द्विजोत्तमैः ॥ १३१ नामकर्मविधाने च मन्त्रोऽयमनकोय॑ते । सिद्धार्चनविधौ सप्तमन्त्रा: प्रागनुवणिताः ।। १३२ ततो दिव्याष्टसहस्त्रनामभागी भवादिकम् । पदत्रितयमुच्चार्य मन्त्रोऽत्र परिवर्त्यताम् ।। १३३ चूणिः- दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव,विजयाष्ट सहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनाम भागी भव । शेषो विधिस्तु निःशेषप्रागुक्तो नोच्यतो पुनः । बहिर्यानक्रियामन्त्रस्ततोऽयमनुगम्यताम् ।। १३४ चाहिए ॥१२४॥तदनन्तर बड,पीपल आदि क्षीरी (दूधवाले ) वृक्षों की कोमल डालियोंसे पृथ्वीको शोभित कर और उस पर पुत्रकी माताको बिठाकर मंत्रित सुहाते उष्ण जलसे स्नान कराना चाहिए ।।१२५॥ माताको स्नान करानेका मंत्र यह हैं-प्रथम ही सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद दो बार कहे, तदनन्तर आसन्नभव्या,विश्वेश्वरी,जितपुण्या और जिनमाता इन पदोंको भी सम्बोधनान्त कर दो-दो बार बोले और अन्त में स्वाहा शब्द कहैं। अर्थात'सम्यग्दष्टे सम्यग्दष्टे,आसन्नभव्ये आसन्नभव्ये. विश्वेवरि विश्वेश्वरि,जितपुण्ये ऊर्जितपुण्ये जिनमातः जिनमातः स्वाहा' (हे सम्यग्दर्शनधारिणी), निकटभव्य, सर्वस्वामिनि, उत्कृष्ट पुण्यशालिनि जिनमाता, तू कल्याणकारिणी हो) यह मंत्र पुत्रकी माताको स्नान कराते समय बोलना चाहिए॥१२३-१२७॥जिसप्रकार तीर्थकरोंकी मातापुत्रकेकल्याणकोंको देखती है,उसी प्रकार मेरी यह पत्नी भी देखे,इस आस्थाके साथ स्नानकी विधि करे॥१२८॥ तीसरे दिन रात्रिके समय 'अनन्तज्ञानदर्शी भव' (तू अनन्तज्ञान-दर्शी हो) यह मंत्र पढकर उस पुत्रको उठाकर ताराओं से व्याप्त आकाश दिखाना चाहिए ।१२९।। उसी दिन पुण्याहवाचनके साथ शक्तिकेअनुसारदानकरे और यथासंभव सब जीवोंके अभय-घोषणा करनीचाहिए।। १३०। पूर्वाचार्योने यह जातकर्म या जन्मोत्सवकी विधि कही हैं : आजके समयमें भी ब्राह्मणोंको यथायोग्य यह विधि करना चाहिए।।१३१|अब नाम कर्म की विधिके समय बोले जाने वाले मंत्रों को कहते हैं-नामसंस्कारके समय सिद्धोंकी पूजा करने के लिए प्रयुक्त होनेवाले सप्तपीठिका मंत्र तो पूर्ववणित ही हैं। तत्पश्चात् 'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव' आदि तीन पदोंका उच्चारण कर मंत्र-परिवर्तन कर लेना चाहिए । अर्थात् 'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव' ( दिव्य एक हजार आठ नामोंका धारक हो), 'विजयाष्टसहस्रनामभागी भव' (विजयरूप एक हजार आठ नामोंका धारक हो), परमाप्टसहस्रनामभागी भव' (अति उत्तम एक हजार आठ नामों का धारक हो) ये मन्त्र पढना चाहिए ।। १३२१३३।। मन्त्रों का संग्रह मूल में दिया गया हैं । नामसंस्कार की शेष समस्त विधि पहले कही जा : Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन बहिर्यानक्रिया तत्रोपनयन निष्क्रान्तिभागी भव पदात्परम् । भवेद् वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव पदं ततः ।। १३५ क्रमान्सुनोन्द्रनिष्क्रांतिभागी भव पद वदेत् । ततः सुरेन्द्र निष्क्रांतिभागी भव पदं स्मृतम् ।। १३६ मन्दराभिषेक निष्क्रान्तिभागो भव पदं ततः । यौवराज्यमहाराज्यपदे भागो भवान्विते ॥ १३७ निष्क्रान्तिपदमध्ये स्तां परराज्यपदं तथा । आर्हन्त्यनिष्क्रान्तिभागी भव शिखापदम् ।। १३८ पदैरेभिरयं मन्त्रस्तद्विद्भिरनुजप्यताम् । प्रागुक्तो विधिरन्यस्तु निषद्यामन्त्र उत्तरः ।। १३९ चूणिः - उपनयननिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागो भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्र निष्क्रान्तिभागी भव, मन्दराभिषेक निष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, परमराज्य निष्क्रान्तिभागी भव, आर्हन्त्यराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव ! ( वहिर्यानमन्त्रः ) निषद्या:- दिव्यसिंहासनपदाद्द्भागी भव पदं भवेत् । एवं विजयपरमसिंहासनपदद्वयात् ।। १४० चूणि:- दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव । ( इति निषद्यामन्त्रः ) ८९ अन्नप्राशनक्रिया: प्राशनेऽपि तथा मन्त्रं पदैस्त्रिभिरुदाहरेत् । तानि स्युदिदव्य विजय क्षीणामृतपदानि वै । १४१ भागी भव पदेनान्ते युक्तेनानुगतानि तु । पदैरेभिरयं मन्त्रः प्रयोज्यः प्राशने बुधैः ।। १४२ चुकी हैं, इसलिए उसे पुनः नहीं कहते हैं । अब इसके पश्चात् बहिर्यानक्रिया के मन्त्र इस प्रकार जानना चाहिये ।। १३४ ।। उनमें सर्वप्रथम 'उपनयन निष्क्रान्ति भागीभव' (हे वत्स, तू उपनयन संस्कारके लिए निष्क्रान्ति अर्थात् बाहिर निकलनेका भागी हो ), वैवाह निष्क्रान्ति भागीभव' ( विवाह के लिए निष्काति भागी हो), ये मंत्र पढे ॥ १३५ ॥ तत्पश्चात् अनुक्रम से 'मुनीन्द्र निष्क्रान्तिभागी भव' ( मुनिपद के लिए निष्क्रमणकल्याणका भागी हो ) यह पद बोले । पुनः 'सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव' (सुरेन्द्रपदकी प्राप्तिके लिए निष्क्रमण करने वाला हो ) यह पद स्मरणीय है ॥१३६॥ तदनन्तर 'मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव' (सुमेरुपर जन्माभिषेक के लिए निष्क्रमणका भागी हो ) यह मंत्र बोले । पुनः 'यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' ( युवराज पदके लिए निष्क्रमणका भागी हो ) तदनन्तर 'महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' ( महाराज पदके लिए निष्क्रमण - भागी हो ) तत्पश्चात् परमराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव' ( चक्रवर्ती पदके लिए निष्क्रमण भागी हो ) पुनः 'आर्हन्त्य निष्क्रान्तिभागी भव' (अरहन्त पदके लिए निष्क्रमण भागी हो ।) यह अन्तिम शिखा पद बोले ।। १३७-१३८। इस प्रकार इन पदोंके द्वारा मंत्र - वेत्ता द्विज बहिर्यान क्रियाके मंत्रोंको पढे । शेष समस्त विधि पूर्वोक्त ही हैं। अब आगे निषद्यामंत्र कहते हैं ।। १३९ ॥ | बहिर्यान क्रियाके मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं । निषद्यामंत्र इस प्रकार हैं- 'दिव्यसिंहासनभागी भव' (इन्द्रके दिव्य सिंहासनका भोक्ता हो ) इसीप्रकार 'विजयसिंहासनभागी भव' (चक्रवर्ती के विजयसिंहासनका भोक्ता हो) और 'परमसिंहासनभागी भव' (तीर्थकरके परम सिंहासनका भोक्ता हो ) इन मंत्रोंको बोले ।। १४०11 उक्त मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया है । अब अन्नप्राशन क्रियाके मंत्र कहते हैं - अन्नप्राशन क्रिया के समय भी तीन पदोंके द्वारा मंत्रका उद्धार करे 1 वे पद दिव्यामृत, विजयामृत और अक्षीणामृत Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह धूणि-: दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षीणामृतभागी भव । व्युष्टि:- व्युष्टिक्रियाश्रितं मन्त्रमितो वक्ष्ये यथाश्रुतम् । तत्रोपनयनं जन्मवर्षवर्द्धनवाग्युतम्।।१४३ भागी भव पदं ज्ञेयमदो शेषपदाष्टके । वैवाहनिष्ठशब्देन मनिजन्मपदेन च ॥ १४४ सुरेन्द्र जन्मना मन्दराभिषेकपदेन च । यौवराज्यमहाराज्यपदाभ्यामप्यनक्रमात् ॥ १४५ परमार्हन्त्यराज्याभ्यां वर्षवर्द्धनसंयुतम् । भागी भव पदं योज्यं ततो मन्त्रोऽयमुद्भवेत् १४६ चणिः- उपनयन-जन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, वैवानिष्ठवर्षवर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धन भागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्द्धनमागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनमागी भव, महाराज्यवर्षवर्द्धनभागो भव, परमराज्यवर्षबद्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव । (व्युष्टिक्रियामन्त्रः) चौलकर्म:चौलकर्मण्यथो मन्त्रः स्याच्चोपयनाविकम् । मुण्डभागी भवान्तं च परमादावनुस्मृतम् ।। १४७ ततो निर्ग्रन्थमुण्डादिमागी भव पदं परम् । ततो निष्क्रान्तिमुण्डादिभागी भव पदं परम् ।।१४८ हैं। इनके अन्तमें भागी भव'इस पदके संयुक्त कर देनेसे वे तीन मंत्र बन जाते हैं । इन पदोंके द्वारा निर्मित मंत्रोंका प्रयोग बुधजन अन्न प्राशन क्रियाके समय करे ।।१४१-१४२।। वे मंत्र इस प्रकार हैं-'दिव्यामृतभागी भव' (इन्द्रके दिव्य अमृतका भोक्ता हो) 'विजयामृतभागी भव' (चक्रवर्तीके विजय अमृतका भोक्ता हो) और 'अक्षीणामृतभागी भव' (तीर्थकरके अक्षीण अमतका भोक्ता हो) । इन मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं। अब यहाँसे आगे शास्त्रानुसार ब्युष्टि-क्रियाके मंत्र कहते है-उनमें सर्वप्रथम उपनयन 'पदके आगे 'जन्मवर्षवर्धन' पद लगाकर 'भागी भव' पद लगाना चाहिए । तत्पश्चात् अनुक्रमसे वैवाहनिष्ठ, मुनीन्द्रजन्म, सुरेन्द्रजन्म, मन्दराभिषेक, यौवराज्य,महाराज्य,परमराज्य और आर्हन्त्यराज्य,इन शेष आठ पदोंके साथ 'वर्षवर्धन 'और 'भागी भव' पद लगावे । तब व्युष्टिक्रियाके मंत्र इस प्रकार हो जाते है-'उपनयनवर्षवर्धनभागी भव' (उपनयनरूप जन्मके वर्षका बढानेवाला हो), 'वैवाहनिष्ठवर्षवर्धनभागी भव' (विवाहक्रियाके वर्षका बढानेबाला हो), मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्धन भागी भव' (मुनिपदके जन्मरूपवर्षका बढानेवाला हो) 'सुरेन्द्रजन्मवर्षबर्धनभागी भव' (इन्द्रपदके जन्मरूप वर्षका बढानेवाला हो) 'मदाराभिषेकवर्षवर्धन भागी भव (सुमेरुपर होनेवाले जन्माभिषेकके वर्षका बढानेवाला हो), 'यौवराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (युवराजपदके वर्षका बढानेवाला हो) । 'महारांज्यवर्षवर्धन भागी भव' (महाराजपदके वर्षका बढानेवाला हो) 'परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (चक्रवर्ती पदके वर्षका बढानेवालाहो),औरआर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव' (अर्हन्तपदके राज्यके वर्षकाबढानेवालाहो)।।१४३-१४६।।उक्तसर्वमंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया हुआ है । अब चौलक्रियाके मंत्र कहते हैं-आदिमें 'उपनयन' पद और अन्तमें 'मण्डभागी भव'पद बोलने प्रथम मंत्र बनता है-'उपनयनमुण्डभागी भव' (उपनयद क्रियामें मण्डनक्रियाको प्राप्त हो) यह चौलक्रियाका प्रथम मंत्र हैं । ॥१४७।। पुनः 'निर्ग्रन्थमण्डभागी भव' (निर्ग्रन्थ जिनदीक्षा लेते समय मुण्डनको प्राप्त हो) यह दूसरा मंत्र हैं। तदनन्तर 'निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव' (मनि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन स्यात्परमनिस्तारककेशभागी भवेत्यतः ! परमेन्द्रपदादिश्च केशभागी भवध्वनिः ।। १४९ परमार्हन्त्यराज्यादिकेशभगीति वारद्वयम् । भवेत्यन्तपदोपेतं मन्त्रोऽस्मिन्स्याच्छिखापदम् ।। १५० शिखामेतेन मन्त्रण स्थापयेद्विधिवद् द्विजः । ततो मन्त्रोऽयमाम्नातो लिपिसंख्यातसङ्ग्रहे। १५१ चणिः- उपनयनमुण्डभागी भव,निर्ग्रन्यमण्डभागी भव,परमनिस्तारककेशभागी भाव, परमेन्द्र केशभागी भव,परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव ।। ( इतिचौलक्रियामन्त्रः ) शब्दपारभागी भव, अर्थपारभागी भव । पदशब्दार्थसम्बन्धपारभागी भवेत्यपि ।। १५२ चूणिः- शब्दपारगामी (भागी) भव,अर्थपारगामी (भागी) भव,शब्दार्थपारगामी (भागी) भव । (लिपिसङ्ख्यानमन्त्र: ) उपनीतक्रियामन्त्रं स्मरन्तीम द्विजोत्तमाः । परमनिस्तारकादिलिङ्गभागी भवेत्यतः ।। १५३ युक्तं परमपिलिङ्गेन भागी भव पदं भवेत् । परमेन्द्रादिलिङ्गादिभागी भव पदं परम् ।। १५४ एवं परमराज्यादि परमार्हन्त्यादि च क्रमात । युक्त परमनिर्वाणपदेन च शिखापदम् ॥ १५५ चूणिः- परमनिस्तारकलिङगभागो भव,परमपिलिङ्गभागी भव,परमेन्द्र लिङ्गभागी भव,परम राज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव । ( इत्युपनीतिक्रियामन्त्रः ) मन्त्रेणानेन शिष्यस्य कृत्वा संस्कारमादितः । निर्विकारेण वस्त्रेण कुर्यादेनं सवाससम ।। १५६ पदमें केशलुञ्चरूप मुण्डनको प्राप्त हो ) यह तीसरा मंत्र है ॥१४८॥ तत्पश्चात् 'परमनिस्तारककेशभागी भव' (संसार-समुद्रसे पार उतारनेवाले आचार्य केशोंको प्राप्त हो) यह चौथा मंत्र हैं । तदनन्तर परमेन्द्रकेशभागी भव' (इन्द्रपदके केशोंका धारक हो) यह पाँचवाँ मंत्र बोले ॥१४९।। पुन: ‘परमराज्यकेशभागी भव (चक्रवर्तीके केशोंशो प्राप्त हो) यह छठा मंत्र हैं। और 'आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव' कैवल्य साम्राज्यवाले अरहन्तके केशोंका धारक हो) यह सातवाँ अन्तिम मंत्र हैं। द्विज इन मंत्रोंको बोलकर विधिपूर्वक शिरपर शिखा (चोटी) मात्र रखकर मुण्डन करावे । अब इससे आगे लिपिसंख्यान क्रियाके मंत्र कहते है।।१५०-१५०।। चौल क्रियाके मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया हुआ हैं । लिपिसंख्यान क्रियाके मंत्र-'शब्दपारभागी भव' (शब्दशास्त्रका पारगामी हो) 'अर्थपारभागी भव' (सर्व अर्थका पारगामी हो) और शब्दार्थसम्बन्धपारभागी भव (शब्द और अर्थके सम्बन्धका पारगामी हो) ये मंत्र लिपिसंख्यान क्रियाके समय बोले ।।१५२।। उक्त मंत्रोंका संग्रह मूल में दिया गया हैं । उत्तम द्विज उपनीति क्रियाके मंत्र इस प्रकार स्मरण करते है-'परम निस्तारकलिंगभागी भव' (हे वत्स, तू परम निस्तारक आचार्यका चिन्ह-धारक हो) परमर्षिलिंगभागी भव' (परम ऋषिका चिन्हधारक हो) और परमेन्द्रलिंगभागी भव' (परम इन्द्रका चिन्हधारक हो) ये मंत्र बोले । पुनः क्रमसे परमराज्य, परमार्हन्त्य और परमनिर्वाण पदके साथ 'लिंगभागी भव'पद जोडकर इस प्रकारसे मंत्र बोले 'परमरायलिंगभागी भव' (परमराज्यका चिन्ह-धारक हो) 'परमार्हन्त्यलिंगभावी भव' (परम अर्हन्तपदका चिन्ह-धारक हो) और 'परम निर्वाणलिंगभागी भव (परम निर्वाणका चिन्ह-धारक हो ) ॥१५३-१५५।। इन मंत्रोंका संग्रह मूलमें दिया गया हैं । इन मंत्रोंसे प्रथम ही शिष्यका संस्कार कर उसे निर्विकार वस्त्रसे युक्त करे अर्थात् सादा वस्त्र पहि Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह कोपीनाच्छादनं चैनमन्तर्वासेन कारयेत् । मौञ्जीबन्धमतः कुर्यादनुबद्ध त्रिमेलकम् ।। १५७ सूत्रं गणधरैष्टब्धं व्रतचिन्हं नियोजयेत् । मन्त्रपूतसूतो यज्ञोपवीती स्यादसौ द्विजः ।। १५८ जात्येव ब्राह्मणः पूर्वमिदानीं व्रतसंस्कृतः । द्विजतो द्विज इत्येवं रूढिमास्तिघ्नुते गुणैः ॥ १५९ देयान्यणुव्रतः न्यस्मै गुरुसाक्षि यथाविधि । गुणशीलानुगंश्चैनं संस्कुर्याद् व्रतजातकैः ।। १६० ततोऽतिबाल-द्यादीन्नियोगादस्य निर्दिशेत् । दत्वोपासकाध्ययनं नामापि चरणोचितम् ।। १६१ ततोऽयं कृतसंस्कार: सिद्धार्चनपुरःसरम् । यथाविधानमाचार्यपूजां कुर्यादतः परम् ।। १६२ तस्मिन्दिने प्रविष्टस्य भिक्षार्थ जातिवेश्मसु । योऽथंलाभः स देयः स्यादुपाध्यायाय सादरम् ।।१६३ शेषो विधिस्तु प्राक्प्रोक्तमनूनं समाचरेत् । यावत्सोऽधीतविद्यः सन् भजेत् सब्रह्मचारिताम् ।। १६४ अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि व्रतचर्यामनुक्रमात् । स्याद्यत्रोपासकाध्यायः समासेनानु संहृतः ।। १६५ शिरोलिङ्गमुरोलिङ्ग लिङ्गकट्यूरुसंश्रितम् । लिङ्गमस्योपनीतस्य प्राग्निर्णीतं चतुविधम् ॥ १६६ तत्तु स्यादसिवृत्या वा मष्या कृष्या वणिज्यया । यथास्वं वर्तमानानां सद्दृष्टीनां द्विजन्मनाम्॥ १६७ कुतश्चित्कारणाद् यस्य कुलं सम्प्राप्तदूषणम्। सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत् स्वं यदाकुलम् ।। १६८ तदास्योपनयार्हत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततौ । न निषिद्धं हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः ।। १६९ ९२ रावे ।।१५६॥ इसे वस्त्र के भीतर कौपीन ( लंगोट ) से आच्छादित करे और उसपर मूंजकी तीन लड-वाली रस्सी बाँधे ॥१५७॥ तत्पश्चात् वह द्विज गणधर देबोंसे प्रतिपादित, व्रतोंका चिन्हस्वरूप मंत्रोंसे पवित्र किया हुआ यज्ञोपवीत पहिरावे । इसप्रकारसे यज्ञोपवीतधारण करनेवाला वह बालक द्विज हो जाता हैं ।। १५८। । इसके पूर्व वह बालक जन्मसे ही द्विज था और अब व्रतोंसे संस्कृत होकर दूसरी बार उत्पन्न हुआ हैं, अतएव दोवार जन्म लेनेसे वह 'द्विज' इस प्रकारकी रूढिको गुणोंसे प्राप्त होता हैं ।। १५९ ।। उस समय उस पुत्रके जिए यथाविधि गुरु साक्षीपूर्वक पंच अणुव्रत देना चाहिए | तथा गुणव्रत और शिक्षाव्रतके अनुगामी व्रतोंके समूहसे उसका संस्कार करना चाहिए ।। १६० ।। तदनन्तर गुरु उसे उपासकाध्ययनसूत्र पढाकर और चारित्रके योग्य उसका नाम रखकर वक्ष्यमाण अतिबालविद्या आदिका उपदेश देवे ॥ १६९॥ इसप्रकार से संस्कारको प्राप्त वह बालक पुन: सिद्धोंकी पूजा-पूर्वक यथाविधि आचार्यकी पूजा करे ।। १६२ ।। उस दिन उस बालकको अपनी जातिवालों के घरोंमें जाकर भिक्षा माँगना चाहिए। उस भिक्षा में जो कुछ अर्थ-लाभ हो, उसे आदरपूर्वक उपाध्यायको दे ( और स्वयं भिक्षासे प्राप्त आहारको खावे ) || १६३॥ शेष पूर्वोक्त सर्वविधि पूर्णरूपसे करे । इसके अतिरिक्त जब तक वह विद्या पढे, तब तक पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहे || १६४ || अब इससे आगे व्रतचर्याको अनुक्रमसे कहूँगा, जिसमें कि उपासकाध्ययनका संक्षेपसे संग्रह किया गया है॥१६५॥पूर्वोक्त प्रकारसे उपनीतसंस्कारवाले बालकको शिरका चिन्ह मुण्डन, वक्षःस्थलका चिन्ह यज्ञोपवीत कटिका चिन्ह मौंजीबन्धन और जंघाका चिन्ह श्वेत वस्त्र धारण करना चाहिए | इनका निर्णय पहले कर आये है ।। १६६ ।। जो लोग अपनी योग्यताके अनुसार असि आदि शस्त्रोंके द्वारा मी आदि लेखनकला के द्वारा, कृषिके द्वारा और वाणिज्यके द्वारा अपनी आजीविका करते है ऐसे सम्यग्यदृष्टि द्विजोंको यज्ञोपवीत आदि चारों प्रकारके चिन्ह धारण करना चाहिए॥१६७॥ यदि कदाचित् किसी कारणसे जिस किसी उच्च वर्णी पुरुषका कुल दूषणको प्राप्त हो जाय तो वह भी राजा आदी सम्मति से जब अपने कुलको शुद्ध कर ले, तब यदि उसके पूर्वज लोग दीक्षा धारण करने के योग्य कुल में उत्पन्न हुए हों, तो उसके पुत्र-पौत्रादि सन्तानके लिए उपनयन संस्कारकी योग्यताका 1 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन ९३ अदीक्षार्हे कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः । एतेषामफ्नीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः ॥ १७० तेषां स्यादुचितं लिङ्ग स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशा कधारित्वं संन्यासमरणावधि ।। १७१ स्यान्निरामिषभोजित्वं कुलस्त्रीसेवनव्रतम् । अनारम्भवधोत्सर्गो ह्यभक्ष्यापेयवर्जनम् ॥ १७२ इति शुद्धतरां वृत्ति व्रतपूतामुपेयिवान् । यो द्विजस्तस्य सम्पूर्णो वतचर्याविधिः स्मृतः ।। १७३ दशाधिकारास्तस्योक्ता: सूत्रेणोपासिकेन हि । तान्यथाक्रममद्देशमात्रणानुप्रचक्ष्महे ।। १७४ तत्रातिबालविद्याऽऽद्या कुलावधि नन्तरम् । वर्णोत्तमत्वपात्रत्वे तथा सृष्ट्यधिकारिणः ॥ १७५ व्यवहारेशिताऽन्या स्यादवध्यत्वमदण्ड्यता । मानार्हता प्रजासम्बन्धान्तरं चेत्यनुक्रमात् ॥ १७६ दशाधिकारि वास्तूनि स्युरुपासकसङ्ग्रहे । तानीमानि यथोद्देश सङ्कपेण विवृण्महे ।। १७७ बाल्यात्प्रभृति या विद्या शिक्षोद्योगात द्विजन्मनः । प्रोक्तातिबालविद्येति सा क्रिया द्विजसम्मता।।१७८ तस्यामसत्यां मूढात्मा हेयादेयानभिज्ञकः । मिथ्याश्रुति प्रपद्येत द्विजन्मान्यैः प्रतारितः ॥ १७९ बाल्य एघ ततोऽभ्यस्येद् द्विजन्मौपासिकों श्रुतिम् । स तया प्राप्त संस्कार स्वषरोत्तारको भवेत्।।१८० कुलावधि: कुलाचाररक्षणं स्याद् द्विजन्मनः । तस्मिन्नसत्यसो नष्टक्रियोऽन्यकुलतां भजेत् ।। १८१ वर्णोत्तमत्वं वर्णेषु सर्वेष्वाधिक्यमस्य वै । तेनायं श्लाघ्यतामेति स्वपरोद्धारणक्षमः ।। १८२ वर्णोत्तमत्व यद्यस्य न स्यान्न स्यात्प्रकृष्टता । अप्रकृष्टश्च नात्मानं शोधयन्न परान्नपि ॥ १८३ कहीं निषेध नहीं हैं।।१६८-१६९॥जो दीक्षाके अयोग्य कुलमें उत्पन्न हुए है और नृत्य-गान आदि विद्या एवं शिल्पसे अपनी आजीविका करते हैं,ऐसे पुरुषोंको उपनयन आदि संस्कार करनेकी आज्ञा नहीं हैं।।१७०।किन्तु ऐसे लोग यदि अपनी योग्यताके अनुसार व्रत-धारण करें तो उनके योग्य चिन्ह यह हैं कि वे संन्यास-मरण-पर्यन्त एक धोती धारण करें, निरामिष-भोजन करें विवाहित कुलस्त्रीके ही सेवनका व्रत पाले, सांकल्पिक हिंसाका त्याग करें और अभक्ष्य वस्तुओंके भक्षणका एवं अपेय मद्यादिके पीनेका त्याग करें ।।१७१-१७२।। इस प्रकार जो द्विज व्रतोंसे पवित्र, अतिशुद्ध वृत्तिको धारण करता है,उसके व्रतचर्याकी सम्पूर्ण विधि मानी गई हैं।। १७३ । व्रती द्विजोंके लिए उपासकाध्ययन सूत्रमें दश अधिकार कहे गये हैं, उन्हें अब आगे यथाक्रमसे नाम-निर्देशपूर्वक कहते है ॥१७४।। उन अधिकारों में पहला अतिबाल विद्या,दूसरा कुलावधि, तीसरा वर्णोत्तमत्व, चौथा पात्रत्व, पाँचवाँ सृष्टि-अधिकारिता,छठा व्यवहारेशिता, सातवाँ अवध्यत्व, आठवाँ अदण्डत्व, नवाँ मानार्हत्व और दशवाँ प्रजा-सम्बन्धान्तर है उपासक संग्रहमें अनुक्रमसे ये दश अधिकार वस्तुएँ प्रतिपादित की गई हैं,उन सबका नाम-निर्देशके अनुसार संक्षेपसे वर्णन करते हैं ।।१७५-१७७।। द्विजको बाल्य-कालसे जो विद्या सिखानेका उद्योग किया जाता हैं, उसे ब्राह्मण लोग अति बालविद्या नामकी क्रिया कहते हैं।। १७८।। इस अतिवालविद्याके अभाव में द्विज मूढात्मा रहता है,उसे हेय उपादेयको ज्ञान नहीं हो पाता और वह द्विजाभिमानी द्विजाभासियोंसे प्रतारित होकर मिथ्याश्रुतिको प्राप्त होजाताहै।।१७९।। इसलिए द्विजोंको बाल्यकालमें ही उपासकाध्ययन शास्त्रका अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि उपासाध्ययनके अभ्याससे संस्कारको प्राप्त हुआ द्विज स्व और परका तारनेवाला हो जाता है।।१८०॥ अपने कुलके आचारका रक्षण करना द्विजकी कुलावधि क्रिया हैं।कुलके आचारका पालन नहीं करने पर द्विजकी समस्त क्रियाएँ नष्ट हो जाती है और वह अन्य कुलको प्राप्त हो जाता हैं।।१८१।।समस्त वर्णो में श्रेष्ठ होना ही द्विजकी वर्णोत्तम क्रिया हैं। इस वर्णोत्तम क्रियासे वह प्रशंसाको प्राप्त होता हैं और स्व-परके उद्धार करने में समर्थहोताहै।।१८२।यदि इसके वर्णोत्तमत्व नहीं हैं,तो उसके प्रकृष्टता Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ श्रावकाचार-संग्रह ततोऽयं शुद्धिकामः सन् सेवेतान्यं कुलिङ्गिनम् । कुब्रह्म वा ततस्तज्जान दोषान प्राप्नोत्यसंशयम ॥ १८४ प्रदानाहत्वमस्येष्टं पात्रत्वं गुणगौरवात् । गुणाधिकोहि लोकेऽस्मिन् पूज्य: स्याल्लोकपूजिते ।।१८५ ततो गुणकृतां स्वस्मिन् पात्रतां द्रढयेद्विजः । तदभावे विमान्यत्वात् हियतेऽस्य धनं नृपैः ॥ १८६ रक्ष्यः सष्ट्यधिकारोऽपि द्विजैरुत्तमसृष्टिभिः । असदृष्टि कृतां सृस्टि परिहत्य विदूरतः ।। १८७ अन्यथा मष्टिवादेन दुर्दृष्टेन कुदृष्टयः । लोकं नृपांश्च सम्मोह्य नयन्त्युत्पथगामिताम् ।। १८८ सृष्टचन्तरमतो दूरमपास्य नयतत्त्ववित् । अनादिक्षत्रियः सृष्टां धर्मसृष्टि प्रभावयेत् ।। १८१ तीर्थकृद्भिरियं सृष्टां धर्मसृष्टिः सनातनी । तां संश्रितान्नुपान्नेव मृष्टिहेतून् प्रकाशयेत् ।। १९० अन्यथाऽन्यकृतां सृष्टि प्रपन्नाः स्युनृपोत्तमाः । ततो नश्वर्यमेषां स्यात्तत्रस्थाश्च स्युराहताः । १९१ व्यवहारेशितां प्राहुः प्रायश्चित्तादिकर्मणि । स्वतन्त्रतां द्विजस्यास्य श्रितस्य परमां श्रुतिम् ॥१९२ तदभावे स्वमन्यांश्च न शोधयितुमर्हति । अशुद्धः परतः शुद्धिमाभीप्सन्न्यक्कृतो भवेत् ।। १९३ स्वादवध्याधिकारेऽपि स्थिरात्मा द्विजसत्तमः । ब्राह्मणो हि गुणोत्कर्षान्नान्यतो वध महति ॥१९४ सर्वः प्राणी न हन्तव्यो ब्राह्मणस्तु विशेषतः । गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां वधेपि द्वयात्मता मता ।। १९५ भी नहीं हो सकती। और जो उत्कृष्टताको प्राप्त नहीं हैं,वह न तो अपने आपको शुद्ध कर सकता हैं और न दूसरोंको ही शुद्ध कर सकता है।।१८३॥तब यह अपनी शुद्धिका इच्छुक होता हुआ अन्य कुलिंगियोंकी सेवा करता है,अथवा कुदेवोंकी सेवा करता हैं और उसके फलस्वरूप तज्जनित दोषोंको असन्दिग्ध रूपसे प्राप्त होता है।।१८४।।गुणोंके गौरवसे दान देनेके योग्य पात्रता भी इन्हीं द्विजोंमें मानी जाती है क्योंकि इस लोकमें अधिक गुणवान् पुरुष लोक-पूजित जनोंके द्वारा भी पूजा जाता है।।१८५। इसलिए द्विजको चाहिए कि वह अपने भीतर गुणोंके द्वारा उत्पन्न होनेवाली पात्रताको और भी दढ करे, क्योंकि पात्रताके अभावमें लोक-सन्मान नहीं प्राप्त होता और उसके न होनेसे राजाओंके द्वारा उसका धन हरण कर लिया जाता है ॥१८६।।आगे सृष्टयधिकारको कहते है-उत्तम सष्टिवाले द्विजोंको अपने सृष्टिअधिकारकी रक्षा करनी चाहिए और मिथ्या दृष्टियोंके द्वारा चलाईगई धर्मसष्टिको दूरसे ही त्यागना चाहिए ॥१८७॥ अन्यथा मिथ्यादृष्टिलोग दूषित सृष्टिवादसे लोगोंको और राजाओंको मोहितकरउन्हें कुपथगामी कर देंगे।।१८८।।अतएव अन्य मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रवतित सृष्टिको दूरसे ही छोडकर नयतत्त्वज्ञ द्विज अनादिकालिक क्षत्रियवंशी तीर्थङ्करोंसे द्वारा रचित धर्मसष्टिकी प्रभावना करे।।१८९६ तथाइस धर्मसृष्टिका आश्रय लेनेवाले राजाओंसे सृष्टिकेकारणोंके इसप्रकार कहे कि यह धर्मसृष्टि तीर्थकरोंके द्वारा रचित है, अतः सनातनी है, अर्थात् अनादिकालसे चली आ रही हैं, अतः इसकी रक्षा करना आपका कर्तव्य है।।१५०।।यदि द्विच लोक राजाओंसे ऐसा नहीं कहेंगे तो वे नपोत्तम अन्य लोगोंके द्वारा की हुई सृष्टिको मानने लगेंगे,जिससे उनका ऐश्वर्य नहीं रह सकेगा,तथा आर्हतमतानुयायी जैन लोग भी उसी धर्मको मानने लगेंगे॥१९॥परमागम. का आश्रय लेनेवाले द्विजोंको प्रायश्चित्तादि कार्योंमें जो स्वतंत्रता हैं,उसे ही व्यवहारेशिता कहते है ॥१९२।। इस व्यवहारेशिताके अभावमें द्विज न अपने आपको शुद्ध करने के लिए योग्य रहता है और न दूसरोंको ही शुद्ध कर सकता है तथा अन्यसे शुद्धिको चाहनेवाला अशुद्ध द्विज संसारम तिरस्कार को प्राप्त होता है।।१९३।।गुणोंमें स्थिर रहनेवाला श्रेष्ठ द्विज अवध्याधिकारमें भी स्थित रहता हैं. क्योंकि गुणोंके उत्कर्षसे ब्राह्मण अन्य राजा आदिके द्वारा वधको प्राप्त नहीं होता,अर्थात अवध्य रहता है॥१९४॥सभी प्राणी हन्तव्य नहीं हैं,अर्थात् किसी भी प्राणीको नहीं मारना चाहिए और . Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन तस्मादवध्यतामेष पोषयेद् धार्मिके जने । धर्मस्य तद्धि माहात्म्यं तत्स्थो यन्त्राभिभूयते ।। १९६ तदभावे च वध्यत्वमयमृच्छति सर्वतः । एवं च सति धर्मस्य नश्येत् प्रामाण्यमर्हताम् ।। १९७ ततः सर्वप्रयत्नेन ग्क्ष्यो धर्मः सनातनः । स हि संरक्षितो रक्षां करोति सचराचरे ॥। १९८ स्याददण्डयत्वमप्येवमस्य धर्मे स्थिरात्मनः । धर्मस्थो हि जनोऽन्यस्य दण्डप्रस्थापने प्रभुः ।। १९ तद्धर्मस्थं यमाम्नाय भावयन् धर्मदशिभिः । अधर्मस्थेषु दण्डस्य प्रणेता धार्मिको नृपः ॥। २०० परिहार्य यथा देवगुरुद्रव्य हितार्थभिः । ब्रह्मस्वं च तथा भूतं न दण्डार्हस्ततो द्विजः ॥ २०१ क्याना गुण धिक्यमात्मन्यारोपयन् वशी । अदण्ड्यपक्ष स्वात्मानं स्थापयेद्दण्डधारिणाम् ॥ २०२ अधिकारे सत्यस्मिन् स्याद्दण्ड्योऽयं यथेतरः । ततश्च निस्स्वतां प्राप्तो नेहामुत्र च नन्दति ॥। २०३ मान्यत्वमस्य सन्धत्ते मानाईत्वं सुभावितम् । गुणाधिकोहि मान्यः स्याद् वन्द्यः पूज्यश्च सत्तमैः ॥ २०४ असत्यस्मिन्नमन्यत्वमस्य स्यात् सम्मतैर्जनैः । ततश्च स्थानमानादि लाभाभावात् पदच्युतिः ॥ २०५ तस्मादयं गुणैर्यत्नादात्मन्यारोप्यतां द्विजैः । ग्रत्नश्च ज्ञानवृत्तादिसम्पत्तिः सोज्झतां न तैः ।। २०६ ख़ास तौर से ब्राह्मणको नहीं मारे, क्योंकि गुणोंके उत्कर्ष और अपकर्षसे हिंसा में भी द्विरूपता मानी गई हैं। १९५। अतएव ब्राह्मण गुणोंके उत्कर्ष द्वारा धार्मिक जनोंमें अपनी अवध्यताको पुष्ट करे । यह धर्मका ही माहात्म्य हैं कि जो अपने धर्म में स्थित रहता हैं वह किसीके द्वारा अपमानित नही होता हैं ।। १९६ ।। जो ब्राह्मण गुणोंके उत्कर्ष द्वारा अपनी अवध्यताको सिद्ध नहीं करता है, प्रत्युत गुणों के अपकर्षसे अपनी हीनताको प्रकट करता है, वह सभी से वध्यताको प्राप्त होता हैं । और ऐसा होने पर अरहन्त देवके इस जैन धर्मकी प्रामाणिकता नष्ट हो जायगी । । १.९७ । । इसलिए सर्व प्रकार के प्रयत्नोंसे इन सनातन धर्मकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि भली-भाँति से संरक्षित धर्म ही इस चर (स), अचर ( स्थावर ) प्राणियोंसे भरे जगत् में जीवकी रक्षा करता हैं. । १९८ ।। इसीप्रकार धर्ममें स्थिर रहनेवाले द्विजको अपने अदण्डत्वका भी अधिकार हैं, क्योंकि धर्मस्थ पुरुष ही दूसरे अपराधी को दण्ड देने में समर्थ हो सकता है । । १९९ ।। इसलिए धर्म-दर्शी लोगोंके द्वारा बतलायी गयी धर्मात्मा की आम्नाय का विचार करता हुआ धार्मिक राजा अधर्मस्थ लोगों में दण्डका प्रणेता माना गया है,अर्थात् धार्मिक राजा ही अधर्मियोंको दण्ड देनेका अधिकारी हैं ॥ २०० ॥ | जिस प्रकार अपना हित चाहनेवाले लोगोंको देव द्रव्य और गुरु- द्रव्यका परिहार (त्याग) करना आवश्यक हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणका धन भी त्याग करनेके योग्य हैं और इसीलिए ही द्विज दण्ड देने के योग्य नहीं हैं ॥ २०१ ॥ इयुक्त अपने अधिक गुणों का आरोप करता हुआ वह जितेन्द्रिय ब्राह्मण दण्ड देने के अधिकारी राजा आदि पुरुषोंके सम्मुख अपने आपको अदण्डय अर्थात् दण्ड न देनेके योग्य पक्ष में स्थापित करे ।। २०२ ।। इस अदण्ड्य अधिकारके अभाव में अन्य पुरुषोंके समान ब्राह्मण भी दण्डनीय हो जायगा और उसके फलस्वरूप वह दरिद्रताको प्राप्त होकर न इस लोक में ही सुखी रह सकेगा और न परलोकमें ही सुखी हो सकेगा । । २०३ ॥ भलीभाँति से चिरकाल तक सुभावित सम्मानके योग्य आचरण ही ब्राह्मणको मान्यपना प्रदान करता है, क्योंकि अधिक गुणोंवाला पुरुष ही उत्तम पुरुषो के द्वारा मान्य, और पूजनीय होता हैं । २०४ | | सम्मान के योग्य गुणों के अभाव में इस द्विजको उत्तम पुरुषोंके द्वारा मान्यपना नहीं प्राप्त होगा और इस कारण उनसे स्थान, मान, आसनादिके न मिलनेसे वह ब्राह्मण अपने पदसे च्युत हो जावेगा । इसलिए द्विजको चाहिए कि वह यह मान्यत्वगुण बडे यत्नसे अपने ९५ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह स्यात् प्रजान्तरसम्बन्धे स्वोन्नतेरपरिच्युतिः । याऽस्य सोक्ता प्रजासम्बन्धान्तरं नामतो गणः। २०७ यथा कालायसाविद्धं स्वर्ण याति विवर्णताम् । न तथाऽस्यान्यसम्बन्धे स्वगुणोत्कर्षविप्लवः ॥२०८ किन्तु प्रजान्तरं स्वेन सम्बद्धं स्वगुणानयम् । प्रापयत्यचिरादेव लोहधातुं यथा रसः ।। २०९ ततो महानयं धर्मप्रभावोद्योतको गुणः । येनायं स्वगुणैरन्यानात्मसात्कर्तुमर्हति ।। २१० ___ असत्यस्मिन् गुणेऽन्यस्मात् प्राप्नुयात् स्वगुणच्युतिम् । सत्येवं गुणवत्तास्य निष्कृष्येत द्विजन्मनः ।। २११ अतोऽतिबालविद्यादीन्नियोगान् दशधोदितान् । यथार्हमात्मसात्कुर्वन् द्विजः स्याल्लोकसम्मतः।।२१२ गणेष्वेव विशेषोऽन्यो यो वाच्यो बहुविस्तरः । स उपासकसिद्धान्तादधिगम्य प्रपञ्चतः ।। २१३ क्रियामन्त्रानुषङ्गेण व्रतचर्या क्रियाविधौं । दशाधिकारा व्याख्याताः सवृत्तैराहता द्विजैः ।। २१४ क्रियामन्त्रास्त्विह ज्ञेया ये पूर्वमनुवणिता: । सामान्यविषयाः सप्त पीठिका मन्त्ररूढयः ॥ २१५ ते हि साधारणाः सर्वक्रियासु विनियोगिनः । तत औसर्गिकानेतान् मन्त्रान् मन्त्रविदो विदुः।।२१६ भोतर सम्पादन करे । ज्ञान और चरित्र आदिका धारण करना ही मान्यत्व प्राप्त करनेका प्रयत्न कहलाता हैं,अतएव द्विजोंको ज्ञान और चारित्ररूपी सम्पत्ति कभी नहीं छोडना चाहिए।।२०५-२०६॥ अब आगे ब्राह्मणका प्रजान्तर सम्बन्ध गुण कहते हैं-प्रजान्तर अर्थात् अन्य धर्मावलम्बियोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी अपनी उन्नतिसे च्युत नहीं होना ही ब्राह्मणका प्रजान्तरसम्बन्ध नामक गुण कहा गया हैं।।२०७।। जिस प्रकार काले लोहेके साथ मिला हुआ सुवर्ण विरूपताको प्राप्त हो जाता हैं,उस प्रकारसे अन्य पुरुषोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी इस ब्राह्मणके अपने गुणोंके उत्कर्षमें कोई विप्लव या बाधाक। प्रादुर्भाव नहीं होता हैं, अर्थात् लोहे के सम्बन्धसे सोना तो खराब हो जाता हैं,पर उत्तम द्विजमें अन्य धर्मावलम्बियोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी कोई खराबी नहीं आती हैं ॥२०८॥किन्तु जैसे रसायन अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले लोहेको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देती है,अर्थात् सोना बना देती हैं,उसी प्रकार यह ब्राह्मण भी अपने साथ सम्बन्ध रखनेवाले अन्य पुरुषोंको शीघ्र ही अपने गुण प्राप्त करा देता हैं।।२०९॥ इस लिए कहना चाहिए कि यह प्रजान्तर सम्बन्ध धर्मके प्रभावका उद्योत करनेवाला महान् गुण है,क्योंकि इसीके द्वारा यह द्विज अपने गुणों से अन्य लोगोंको आत्मसात् करनेके योग्य होता है,अर्थात् उन्हें अपने समान बना लेता हैं॥२१०।। इस गुणके अभाव में अन्य लोगोंके सम्बन्धसे यह अपने गुणोंसे च्युत हो सकता है और ऐसा होनेपर इस द्विजकी गुणवत्ता ही नष्ट हो जायगी ।। २११।। अतएव अतिबालविद्या आदि जो दशप्रकारके अधिकार निरूपण किये हैं,उन्हें यथायोग्य रीतिसे आत्मसात् करनेवाला द्विज ही लोगोंका मान्य हो सकता हैं।।२१२।। इन गुणरूप दश अधिकारोंमें जो अन्य विशेष गुण बहुत विस्तारके साथ विवेचन करने के योग्य है,उन्हें उपासकाध्ययनसिद्धान्तसे विस्तारके साथ जान लेना चाहिए ।।२१३।। इस प्रकार व्रतचर्या नामक क्रियाकी विधिका वर्णन करते समय उस क्रियाके योग्य मंत्रोंके प्रसंगसे सदाचार-सम्पन्न द्विजोंके द्वारा आदरणीय दश अधिकारोंका निरूपण किया ॥२१४॥इस प्रकरण में जिनका वर्णन पहले किया गया हैं,उन्हें क्रियामंत्र जानना चाहिए और जो सात पीठिकामंत्र नामसे प्रसिद्ध हैं.उन्हें सर्व क्रियाओंमें प्रयोग किये जानेवाले सामान्य मंत्र जानना चाहिए ॥२१५॥ ये पीठिका नामवाले साधारण मंत्र सभी क्रियाओंमें का । आते हैं,अतः मंत्रवेत्ता विद्वान उन्हें औत्स . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन विशेषविषयाः मन्त्राः क्रियासूक्तासु दशिताः । इतः प्रभृति चाभ्यूह्यास्ते याम्नायमग्रजः ॥२१७ मन्त्रानिम न् यथायोगं य: क्रियासु नियोजयेत्।सलोके सम्मति याति युक्ताचारो द्विजोत्तमः ॥२१८ क्रियामन्त्रविहीनास्तु प्रयोक्तृणां न सिद्धये । यथा सुकृतसन्नाहाः सेनाध्यक्षा विनायकाः ।। २१९ ततो विधिममुं सम्यगवगम्य कृतागमः । विधानेन प्रयोस्तव्या: क्रियामन्त्रपुरस्कृताः ।। २२० वसन्ततिलकावृत्तम् इत्थं स धर्मविजयी भरताधिराजो, धर्मक्रियासु कृतधी पलोकसाक्षि । ____ तान् सुव्रतान् द्विजवरान् विनियम्य सम्यक्, धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम्।।२२१ __ मालिनी इति भरतनरेन्द्रात् प्राप्तसत्कारयोगा व्रतपरिचयचारूदारवृत्ता: श्रुताढया: । जिनवृषममतानुव्रज्यया पुज्यमाना जगति बहुमतास्ते ब्राह्मणा: ख्यातिमीयुः ॥२२२ वृतस्थानथ तान विधाय समवानिक्ष्वाकुचूडामणिः, जैने वर्त्मनि सुस्थितान् द्विजारान् सम्मानयन् प्रत्यहम् । स्वं मेने कृतिन मुदा परिगतां स्वां सृष्टिमुच्च. कृतां, पश्यन् कः सुकृती कृतार्थपदवी नात्मानमारोपयेत् ।। २२३ गिक मंत्र कहते है।।२१६। इनके अतिरिक्त जो विशेष मंत्र हैं,वे ऊपर कहीं हुई क्रियाओंमे बतला आये हैं? अबव्रतचर्यासे आगेके जो मंत्र है,वे अग्रजन्मा द्विजोंको आम्नायके अनुसार स्वयं ही समझ लेना चाहिए ।।२१७॥ जो इन मंत्रोको क्रियाओंमें यथायोग्य रूपसे उपयोग करता है, वह योग्य आचरण करनेवाला उत्तम द्विज लोकमें सन्मानको प्राप्त होता है।।२१८॥जिस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सेनाध्यक्ष विना नायक (स्वामी या राजा) के कुछ भी नहीं कर सकते हैं,उसी प्रकार मंत्र-विहीन क्रियाएँ भी प्रयोग करने वाले पुरुषों की किसी भी कार्य की सिद्धि करनेके लिये समर्थ नहीं है।२१९॥इसलिए शास्त्रोंका अभ्यास करनेवाले द्विजोंको यह सब विधि भली भांतिसे जानकर मंचोच्चारणके साथ क्रियाएं विधिपूर्वक करनी चाहिए ॥२२०।। इस प्रकार उस धर्मविजयी धर्मप्रिय, कृतबुद्धि भरत महाराजने राजा लोगोंकी साक्षीपूर्वक सद्-वृत-धारक उत्तम द्विजोंको सम्यक् प्रकारसे नियमन, करके ब्राह्मण लोगोंकी सृष्टि रची' अर्थात् ब्राह्मणवर्ण की स्थापना की ॥२२१।। इस प्रकार भरतनरेन्द्रसे सम्मान-सत्कार पानेवाले, व्रतोंके अभ्याससे सुन्दर आचारके धारक,शास्त्र-ज्ञानसे सम्पन्न, श्री वृषभजिनेन्द्रके मतानुसार धारण की गई दीक्षासे पूज्यमान वे ब्राह्मण जगत्में सर्वजनोंसे सम्मानको प्राप्त कर प्रसिद्धिको प्राप्त हुए।।२२२!।तदनन्तर इक्ष्वाकुकुल चूडामणि पूज्य वह सम्राट् भरत जैनमार्ग में सम्यक् प्रकार से अवस्थित और व्रतोंका भलीभांतिसे पालन करनेवाले उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी सृष्टि करके प्रतिदिन उनका सम्मान करते हुए अपने आपको धन्य मानने लगे, सो ठीक है, क्योंकि ऐसा कौन सुकृती है, जो आनन्दसे परिणत एवं उत्कृष्टताको प्राप्त अपनी सृष्टि को देखता हुआ अपने आपको कृतकृत्य न माने? अर्थात् अपनी Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह इत्यार्षे भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसङग्रहे द्विजोत्पत्ती ____क्रियामन्त्रानुवर्णनं नाम-चत्वारिंशत्तमं पर्व ॥ ४० ॥ सुन्दर कृतिको देखकर सभी लोग अपनेको कृतार्थ मानते है ॥ २२३ ॥ इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहमें द्विजोंकी क्रिया मंत्रोंका वर्णन करनेवाला यह चालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ४० ॥ . . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥ १ परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनोवलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ २ लोकत्रयकनेत्रं निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन । अस्माभिरुपोद्धियते पुरुषार्थसिद्धघुपायोऽयम् ॥ ३ मुख्योपचारविवरणनिरस्तरविनेयदुर्बोधाः । व्यवहार-निश्चयज्ञा:प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ।। ४ निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुखः प्राय: सर्वोऽपि संसारः ।। ५ अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।। ६ माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ।। ७ व्यवहार-निश्चयों यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ ८. अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विजितः स्पर्शगन्धरसवर्णैः । गुण-पर्ययसमवेतः समाहितः समुदयग्ययध्रौव्यैः ॥ ९ वह परं ज्योति सदा जयवन्ती रहे, जिसमें समस्त अनन्त पर्यायोंके साथ सर्व पदार्थोकी माला दर्पण तलके समान प्रतिबिम्बित होती हैं ।।१।। जो परमागमका बीज हैं,जन्मान्ध पुरुषोंकी हस्तिकल्पनाके विधानका निषेधक हैं और सकल नयोंके विषयभूत एकांत कथनोंका विरोध मथन करनेवाला हैं,ऐसे अनेकान्तवादको मै नमस्कार करता हूँ ॥२॥ तीन लोक-गत पदार्थोको देखनेके लिए अद्वितीय नेत्ररूप परमागमका निरूपण कर हमारे द्वारा प्रयत्नके साथ विद्वानोंके लिए यह पुरुषार्थसिद्धिका उपायरूप ग्रन्थ उद्धार किया जाता है।।३।। मुख्य और उपचारके विवरणसे शिष्योंके अतिदुस्तर अज्ञानको दूर करने वाले व्यवहारनय और निश्चयनयके ज्ञाता पुरुष संसारमें धर्मतीर्थका प्रवर्तन करते है ॥४॥ विद्वान् लोग इन दोनों नयोंमेंसे निश्चयनयको भूतार्थ (यथार्थ) और व्यवहारनयको अभूतार्थ (अयथार्थ) कहते है। प्रायः सभी संसार यथार्थज्ञानसे विमुख हैं ॥ ५॥ मुनीश्वर लोक अज्ञ पुरुष को समझानेके लिए अभूतार्थ (व्यवहार) नयका उपदेश करते हैं । जो पुरुष केवल व्यवहारनयको ही साध्य जानता हैं,उसके लिए उपदेश नहीं हैं ॥६। जैसे सिंहके नहीं जाननेवाले पुरुषके लिए माणबक (बिलाव) ही सिंह हैं, उसी प्रकार निश्चयके नहीं जानने वाले पुरुष के व्यवहार ही निश्चयनयकी रूपताको प्राप्त होता हैं ॥७॥ जो पुरुष तात्त्विक रूपसे व्यवहार और निश्चयनयको जानकर मध्यस्थ रहता हैं, अर्थात् किसी एक नयका आग्रही नहीं होता, वह शिष्य ही भगवान्की देशनाके अविकल फलको प्राप्त करता हैं । ८। यह आत्मा चेतनास्वरूप हैं, स्पर्श रस गन्ध वर्णसे रहित है, अपने गुण-पर्यायोंसे समवेत है और उत्पाद व्यय नौव्यसे समाहित हैं॥९॥ यह चेतन आत्मा अनादिकालकी परम्परासे अपने ज्ञान-पर्यायोंके द्वारा नित्य परिणमन करता Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रावकाचार-संग्रह परिणममानो नित्यं ज्ञानविवतैरनादिसन्तत्या। परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च ॥ १. सर्वविवतॊत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति । भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः ॥ ११ जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।।१२ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकः स्वयमपि स्वकैविः । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिक कर्म तस्यापि ।। १३ एवमयंकर्मकृतर्भावरसमाहितीऽपि यक्त इवाप्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासःसखल भवब.जम्।।१४ विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ १५ अनुसरतां परमेतत करम्बिताचार नित्यनिरभिमुखाः । एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ।। १६ बहुशः समस्तविरति प्रदर्शितां यो न जातु गृण्हाति । तस्यैकदेशविर तिः कथनीयाऽनेन बीजेन ॥१७ यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।। १८ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः । अपदेऽपि सम्प्रतप्त प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ।। १९ हुआ अपने परिणामोंका कती भी है और भोक्ता भी है ।।१०।। जब यह सर्व विभावपर्यायोंसे उत्तीर्ण (पार)होकर अचल चैतन्यस्वरूपको प्राप्त करता हैं, तब सच्ची पुरुषार्थसिद्धिको पाकर कृतकृत्य होता हैं।।११।। इस संसारमें जीवकृत रागादिरूप परिणामका निमित्तमात्र पाकर पुनः अन्य पुद्गल स्वयमेव ही कर्मरूपसे परिणत हो जाते है ॥१२॥ अपने चिदात्मक रागादि भावोंके द्वारा स्वयं ही परिणमन करने वाले उस चेतन आत्माके भी पौद्गलिक कर्म निमित्तमात्र ही होता है ।।१३।। इस प्रकार यह आत्मा कर्म-कृत भावोंसे असंयुक्त होते हुए भी अज्ञानी जनोंको संयुक्तके समान प्रतिभासित होता हैं और उसका यह प्रतिभास ही निश्चयसे उसके संसारका-जन्म-स्मरणका-बीज हैं।।१४।। जब यह विपरीत अभिनिवेशको दूर कर और निज-स्वरूपको सम्यक् प्रकारसे निश्चय कर उससे अविचल होता हैं, तब यह वही जीवके अपने पुरुषार्थको सिद्ध करनेका उपाय हैं ॥१५॥ पुरुषार्थसिद्धिके इस पदका अनुसरण करनेवाले मुनिजनोंकी पापक्रिया-मिश्रित आचारसे सर्वदा परान्मुख और एकान्त विरति-(सर्वथा त्याग-) रूप अलौकिक वत्ति होतो है।।१६॥जो पुरुष अनेक वार उपदेश की गई समस्त विरतिको कदाचित् ग्रहण नहीं करता हैं,तो उसे इस बीज-(कारण-) से एक देश विरति कहना चाहिए।।१७।।जो अल्प बुद्धि पुरुष यति धर्मको नहीं कहता हुआ गृहस्थ धर्मका उपदेश देता हैं, उसका भगवत्प्रवचनमें निग्रहस्थान प्रदर्शित किया गया हैं । अर्थात् जो उपदेष्टा पहले मुनिधर्मका उपदेश न देकर श्रावक धर्मका उपदेश देता हैं, वह जिनागममें दण्डका पात्र कहा गया हैं।।१८।। क्योंकि मुनिधर्मको धारण करने के लिए प्रोत्साहित हुआ भी शिष्य उस उपदेशकके अक्रमकथनसे अपद (हीन श्रावकपद) में ही सन्तुष्ट हो जाता हैं, अतः उस दुर्मतिके द्वारा वह अतिदूर तक (दीर्घकालके लिए) ठगा गया है।।१९।। इस प्रकार उस गृहस्थको भी सम्यग्दर्शन, : Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराषार्थसिद्धयुपाप १०१ एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम्। तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति ।। २० तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।।२१ जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीतामिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत्।।२२ सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातखिलज्ञैः। किम् सत्यमसत्यं वा न जातु शङ्कति कर्तव्या ।। २३ इह जन्मनि विभवादीनमुत्र चक्रि:व-केशवत्वादीन् । एकान्तवाददूषितपरसमयानपि च ना काङ्क्षत् ।। २४ क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेष भावेष । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ॥२५ लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ।।२६ धर्मोऽभिवर्धनीयः सदाऽऽत्मनो मार्दवादिभावनया। परदोषनिगू हनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम्।।२७ कामक्र धमदादिषु चलयितुमदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।। २८ अनवरतहिसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे । सर्वेष्वपि च समिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ।। २९ आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयश्च जिनधर्मः॥३० ज्ञान,चारित्ररूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग यथाशक्ति नित्य ही सेवनीय है ।।२०। इन तीनोंमेंसे आदिमें सर्वप्रकारके प्रयत्नसे सम्यग्दर्शन उत्तम रीतिसे अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र सभ्यपनेको प्राप्त होते है ।।२१।। जीव-अजीव आदि सात तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपका विपरीत अभिनिवेशसे रहित सदा ही श्रद्धान करना चाहिए,क्योंकि वह आत्माका स्वरूप हैं।।२२।।अब आचार्य सम्यक्त्वके आठ अंगोंका वर्णन करते है-१ निःशङ्कित अङग-सर्वज्ञ देवोंके द्वारा यह समस्त वस्तु-समुदाय अनेक धर्मात्मक कहा गया है,सो क्या यह सत्य है, अथवा असत्य हैं,ऐसी शङ्का कदाचित् भी नहीं करना चाहिए ॥२३॥ २ निःकाङक्षित अङग-इस जन्ममें ऐश्वर्य सम्पदा आदिकी और परभवमें चक्रवर्ती, नारायण आदिके पद पानेकी, तथा एकान्तवादसे दूषित अन्य मतोंकी भी आकांक्षा नहीं करना चाहिए ।।२४॥ ३. निविचिकित्सा अङग-भूख-प्यास,शीतउष्ण आदि नाना प्रकारके भावोंमें,तथा मल-मूत्रादि द्रव्योंमें ग्लानि नहीं करना चाहिए !॥२५॥ ४. लोकाचारमें, मिथ्याशास्त्रोंमें,मिथ्याधर्मोमें और मिथ्यादेवताओंमें तत्त्वश्रद्धानी पुरुषको सदा ही मूढता-रहितदृष्टि रखना चाहिए ।२६।। ५. उपगृहन अंग-मार्दव आदिकी भावनासे सदा ही आत्माके धर्मको बढाना चाहिए । तथा आत्मगुणोंके बढानेके लिए पराये दोषोंका उपगृहन भी करना चाहिए ॥२७।। ६. स्थितिकरण अङग-काम क्रोध मद आदि भावोंके उदय होनेपर न्यायमार्गसे चलते (डिगते) हुए अपने आपका और अन्य पुरुषका जिस प्रकार भी संभव हो,उस प्रकारकी युक्तिसे स्थितिकरण भी करना चाहिए ॥२८॥ ७. वात्सल्य अङग-अहिंसामे, शिव-सुखरूप लक्ष्मी-प्राप्तिके कारणभूत रत्नत्रय धर्ममें और सभी साधर्मी जनोंमें परम वात्सल्यका आलम्बन करना चाहिए ॥२ ॥८. प्रभावना अङग-रत्नत्रयके तेजसे निरन्तर ही अपनी आत्माको प्रभावित करना चाहिए तथा दान तप जिन-पूजन और विद्याके अतिशयके द्वारा जिनधर्मकी प्रभावना करना चाहिए॥३०॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रावकाचार-संग्रह इत्याश्रितसम्यक्त्वैः सम्यग्ज्ञानं निरूप्य यत्नेन । आम्नाययुक्तियोगः समुपास्यं नित्यमात्महितः।।३१ पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य । लक्षणभेदेन यतो नानात्वं सम्भवत्यनयोः ।। ३२ सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात्। ३३ कारणकायविधानं समकालं जायमानयोरपि हि। दोप-प्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम्॥३४ कर्तव्योऽध्यवसायः सबनेकान्तात्मकेष तत्त्वेषु । संशयविपर्ययानध्यवसायविविक्तमत्मरूपं तत् ।।३५ ग्रन्थार्थोभयपूर्ण काले विनयेन सोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिन्हवं ज्ञानमाराध्यम् ।। ३६ विगलितदर्शनमोहैः समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थ:नित्यमपिनि प्रकम्पैःसम्यक्चारित्रमालम्ब्यम्।।३७ न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वक लभते । ज्ञानान्त मुक्तं चारित्राराधानं तस्मात् ।। ३८ चारित्रं भवति यत: समस्तसावद्ययोगपीरहरणात । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥ ३९ इस प्रकार जिन्होंने सम्यक्त्वका आश्रय लिया है, और जो आत्महितके इच्छुक हैं,उन पुरुषोंको आगमकी आम्नाय और प्रमाण नयरूप युक्तिके योगसे प्रयत्नके साथ वस्तुस्वरूपका विचारकर नित्य ही सम्यग्ज्ञानकी उपासना करना चाहिए ॥३१॥सम्यग्दर्शनके साथही उत्पन्नहोनेवालेसम्यग्ज्ञानकीआराधना पृथक् रूपसे ही करना चाहिए, क्योंकि लक्षणके भेदसे इन दोनोंमें भिन्नता हैं ।।३२॥ जिनदेवने सम्यक्त्वको कारण और सम्यग्ज्ञानको कार्य कहा है । अतः सम्यक्त्वके अनन्तर ज्ञानकी आराधना इष्ट हैं। ३३ ।। एक साथ उत्पन्न होनेवाले भी इस सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें दीपक और प्रकाशके समान कारण और कार्यका विधान भले प्रकार घटित होता हैं ।।३४।।सद्-रूप अनेक धर्मात्मक तत्त्वोंमें संशय,विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित अध्यवसाय अर्थात् जाननेका प्रयत्न करनाचाहिए,क्योंकियह सम्यग्ज्ञान भात्माका स्वरूप है ।।३५।। मूलग्रन्थ,उसका अर्थ और इन दोनोंकी पूर्ण शुद्धिके साथ योग्यकालमें विनय,धारणा और बहुमान के साथ निण्हव-रहित होकरसम्यग्ज्ञानकी आराधनाकरना चाहिए ॥३६।। भावार्थ-जैसे सम्यग्दर्शनकी आराधनाके निःशङ्कित आदि आठ अङग बतलाये गये हैं, उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानको आराधना करनेके भी ये आठ अङग बतलाये गये हैं.१. ग्रन्थाचार, २. अर्थाचार, ३. उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार, ६. उपधानाचार, ७. बहुमानाचार और ८. र। मलग्रन्थके शब्दोंका शद्ध उच्चारण एवं पठन-पाठन करना ग्रन्थाचार हैं। मलग्रन्थके अर्थका शुद्ध अवधारण करना अर्थाचार हैं। मूल और उसका अर्थ, इन दोनोंका शुद्ध पठन-पाठन करना उभयाचार हैं। दिग्दाह,उल्कापात, सूर्य-चन्द्रग्रहण, सन्ध्याकाल आदि अस्वाध्यायके कालको छोडकर स्वाध्यायके योग्य समयमें शास्त्रोंका पठन-पाठन करना कालाचार हैं । द्रव्य क्षेत्र आदिकी शद्धिपूर्वक विनयसे शास्त्राभ्यास करना विनयाचार है । शास्त्रके मूल एवं अर्थका बार-बार स्मरण करना और उसे विस्मरण नहीं होने देना उपधानाचार हैं। ज्ञानके उपकरण एवं गरुजनोंका विनय करना बहुमानाचार हैं। जिस शास्त्र या गुरुसे ज्ञान प्राप्त किया हो, उसका नाम न छिपाना अनिन्हवाचार हैं । सम्यग्ज्ञानकी आराधनाके लिए इन आठ अङगोंका पालन आवश्यक हैं। जिनका दर्शनमोहकर्म दूर हो गया है,जिन्होंने सम्यग्ज्ञानके द्वारा तत्त्वार्थको भली-भाँतिसे जान लिया है और जो सदा ही निष्कम्प चित्त रहते है,ऐसे सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंको सम्यक् चारित्र धारण करना चाहिए ॥३७।। यतः अज्ञानपूर्वक धारण किया गया चारित्र सम्यक् नाम नहीं पाता है,अतः सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके पश्चात् चारित्रका आराधन करना कहा गया है।।३८।यतः चारित्र . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरा पार्थसिद्धयुपाय १०३ हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । कात्स्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ।। ४० निरतः कात्स्न्यं निवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् । या त्वेकदेशविर तिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ॥ ४१ आत्मपरिणामहिसन हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ ४२ यत्खलु कषाययोगात् प्राणानां द्रव्य भावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।। ४३ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ युक्ताचरणस्य सतो रागाद्या वेशमन्तरेणापि न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव || ४५ व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । त्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥ ४६ यस्मात् सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥ ४७ हिंसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा । तस्मात् प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ।। ४८ सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः । हिमायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥। ४९ समस्त सावद्ययोगके परिहारसे उत्पन्न होता है, सकल कषायोंसे रहित होनेपर निर्मलता धारण करता है और सर्व पदार्थों में उदासीन रूप है, अत: वह आत्म-स्वरूप है ॥ ३९ ॥ यतः हिंसासे, असत्यवचनसे, चोरीसे, कुशीलसे और परिग्रहसे सर्वदेश विरति होनेपर सकल चारित्र और एकदेश विरति होनेपर देशचारित्र होता हैं, अतः चारित्र दो प्रकारका हैं ||४०|| जो हिंसादि सर्व पापोंकी पूर्ण निवृत्ति में निरत हैं, वह समयसारभूत साधु कहलाता हैं । और जो उक्त पापोंकी एकदेश निवृत्ति में निरत है, वह उपासक या श्रावक कहलाता हैं ॥४१ । आत्माके शुद्ध परिणामोंके घात करनेके कारण होनेसे सभी पाप हिंसारूप ही हैं । किन्तु असत्यवचनादिक पापोंके भेद आचार्योंने केवल शिष्यों के समझाने के लिए ही कहे हैं । ४२ ।' जो कषायके योगसे द्रव्य और भावरूप प्राणोंका घात किया जाता हैं, वह निश्चितरूपसे हिंसा हैं । ४३ ।। रागादि भावोंका उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा हैं और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है, इतना ही जैन आगमका सार है ।। ४४ । । प्रमाद-रहित होकर सावधानीपूर्वक योग्य आचरण करनेवाले सन्तपुरुके रागादि भावोंके आवेशके विना केवल प्राण धात हो जानेसे वह कदाचित् भी हिंसा नहीं कहलाती हैं ।। ४५ ।। किन्तु प्रमाद - अवस्थामें रागादि भावोंके आदेश से अयत्माचारी प्रवृत्ति होनेपर जीव मरे या न मरे, किन्तु हिंसा निश्चयसे आगे ही दौडती हैं ॥ ४६ ॥ क्योंकि प्रमाद - परिणत जीव कषाय सहित होकर पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता हैं भले ही पीछे अन्य प्राणियोंकी हिंसा हो, या न हो ||४७ ॥ हिंसामें अविरत भाव हिंसा हैं और हिंसारूप परिणमन होना भी हिंसा हैं । इसलिए प्रमाद युक्त योग होने पर नित्य ही प्राणघातका सद्भाव है । अर्थात् जब तक जीवके प्रमत्त योग विद्यमान है, तब तक हिंसक ही है ॥४८॥ यद्यपि निश्चयसे जीवके परवस्तुनिमित्तक सूक्ष्म भी हिंसा नहीं होती हैं, तथापि परिणामोंकी विशुद्धिके लिए हिंसा के आधारभूत असत्य भाषण, परिग्रह-संक्षरण आदि पापोंकी निवृत्ति करना चाहिए ||४९ ॥ जो पुरुष वस्तुके यथार्थस्वरूप निश्चयको नहीं जानता हुआ निश्चयसे उसे ही अङ्गीकार Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रावकाचार-संग्रह निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं स हि करणालसो बाल: ।। ५. अविधायापि हि हिसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥ ५१ एकस्याल्पा हिसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिसा स्वल्पफला भवति परिपाके ।।५२ एकस्य सैव तीवं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य। व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ।। ५३ प्रागेव फलति हिसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि । आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ।। ५४ एकः करोति हिसां भवन्ति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसा हिंसाफलभग भवत्येकः।।५५ करता है,वह अज्ञानी बाहिरी क्रियाओंमें आलसी होकर अपने करण-चरणरूप शद्धोपयोगका घात करता है ।।५०॥ भावार्थ-जो पुरुष केवल अन्तरंग भावरूप हिंसाको ही हिंसा मानकर बाहिरी हिंसादि पापोंका त्याग नहीं करता है,वह निश्चय और व्यवहार दोनों ही प्रकारकी अहिंसासे रहित हैं। कोई जीव हिंसाको नहीं करके भी हिंसाके फलका भागी होता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसाके फलका भागी नहीं होता।।५१।। भावार्थ-जिसके परिणाम हिंसारूप हुए है, चाहे वह हिंसाका कोई कार्य कर न सके,तो भी वह हिंसाके फलको भोगेगा । तथा जिस जीव के शरीरसे किसी कारण हिंसा तो गयी, किन्तु परिणामोंमें हिंसक भाव नहीं आया, तो वह हिंसा के फलका भोक्ता नहीं हैं। किसी जीवके तो की गयी थोडी-सी भी हिंसा उदय-कालमें बहुत फलको देती हैं और किसी जीवके बडी भारी भी हिंसा उदय-कालमें अल्प फलको देती हैं ।।५२।। भावार्थ-जो पुरुष किसी कारणवश बाह्य हिंसा तो थोडी कर सका हो,परन्तु अपने परिणामोंको हिंसा भावसे अधिक संक्लिष्ट रखनेके कारण तीव्र बन्ध कर चुका हो, ऐसे पुरुषके उसकी अल्प हिंसा भी फलकालमें अधिक ही बरा फल देगी। किन्तु जो पुरुष परिणामोंमें हिंसाके अधिक भाव न रखकर अचानक द्रव्यहिंसा बहत कर गया है, वह फलकालमें अल्पकलका ही भागी होगा। एक साथ दो व्यक्तियोंके द्वारा मिल करके की गयी भी हिसा उदयकालमें वित्रिचताको प्राप्त होती हैं । अर्थात् वही हिंसा एक के तीव्र फल देती हैं और दूसरेको मन्द फल देती हैं ।।५३।। भावार्थ-यदि दो पुरुष मिलकर किसी जीवकी हिंसा करें, तो उनमेंसे जिसके परिणाम तीव्र कषायरूप हुए हैं,उसे हिंसाका फल अधिक भोगना पडेगा और जिसके मन्दकषायरूप परिणाम रहे हैं,उसे अल्पफल भोगना पडेगा। कोई हिंसा करने के पहले ही फल देती हैं और कोई हिंसा करते हुए ही फल देती हैं,कोई हिंसा कर चकने पर फल देती हैं और कोई हिसा करनेका आरम्भ करके न करनेपर भी फल देती है। इस प्रकार हिंसा कषाय भावोंके अनसार फल देती हैं ।।५४।। भावार्थ-किसी जीवने हिंसा करनेका विचार किया, परन्तु अवसर न मिलनेके कारण वह हिंसा न कर सका, उन कषाय परिणामोंके द्वारा बँधे हए कर्मोका फल उदयमें आ गया,पीछे इच्छित हिंसा करनेको समर्थ हुआ,तो ऐसी दशामें हिंसा करनेसे पहले ही उस हिंसाका फल भोग लिया जाता हैं। इसी प्रकार किसी ने हिंसा करनेका विचार किया और उस विचार-द्वारा बाँधे हुए कर्मोके फलको उदयमें आनेकी अवधि तक वह उस हिंसाको करने में समर्थ हो सका, तो ऐसी दशामें हिंसा करते समय ही उसका फल भोगता हैं । कोई जीव पहले . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय १०५ कस्यापिदिशति हिंसा हिंसा फलमेकमेव फलकाले । अन्यस्य संव हिंसा विशय हसा फलं विपुलम् ॥ ५६ हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनहिंसा विशत्यहि साफलं नान्यत् ॥ ५७ विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मागमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्र सञ्चाराः॥ ५८ अत्यन्त निशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम ॥ ५९ अवध्य हिस्य - हिंसक हिंसा-हिंसाफलानि तत्वेन । नित्यमवगूहमानै निजशक्त्या त्यज्यतहिंसा ६० मद्यं मां क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरत कामे तव्यानि प्रथममेव ॥ ६१ हिंसा करके पीछे उदयकाल में फल पाता हैं । कोई जीव हिंसा करने का आरम्भ करके भी किसी कारणवश उसे नहीं कर पाता हैं, तो भी आरम्भजनित बन्धका फल उसे अवश्य ही भोगना पडता है, अर्थात् हिंसा न करने पर भी हिंसाका फल प्राप्त होता हैं। इस प्रकार जीवोंको कषायरूप भावों के अनुसार ही हिंसाका फल मिलता हैं । एक जीव हिंसाको करता हैं, परन्तु फल भोगने के भागी बहुत होते हैं । इसी प्रकार किसी हिंसाको अनेक पुरुष करते हैं, किन्तु हिंसाके फलका भोक्ता एक ही पुरुष होता हैं ॥ ५५ ॥ भावाथ किसी जीवको मारते हुए देखकर जो दर्शक लोग हर्षका अनुभव करते हैं, वे सभी उस हिंसाके फलके भागी होते हैं इसी प्रकार युद्ध आदिमें हिंसा करने वाले तो अनेक होते है, किन्तु उनको आदेश देनेवाला अकेला राजा ही उस हिंसाके फलको भोगता है । किसी पुरुषको तो हिंसा उदयकाल में एकही हिंसाके फलको देती है और किसी पुरुषको वही हिंसा अहिंसाके विपुल फलको देती हैं ।। ५६ ।। भावार्थ - किसी वनमे ध्यानस्थ साधुको कोई सिंह उन्हें खानेके लिए उनपर आक्रमण करता हैं । उसी समय कोई सूकर मुनिकी रक्षा करने के भाव से उस सिंह पर आक्रमण करता है। दोनों आपस में लढकर मरण को प्राप्त होते है । उनमें से सिंह तो मुनको खानेके भावसे हिंसक हैं, अतः उसके फलसे नरकमें जाता हैं । पर सूकर मुनि-रक्षा के भावसे सिंहके साथ युद्ध करते और उसे मारते हुए भी अहिंसाके विशाल फलको पाता हैं, अर्थात् स्वर्ग में जाकर महाऋद्धिधारक देव होता है । किसी पुरुषकी अहिंसा उदयकालमें हिंसा के फलको देती है, तथा अन्य पुरुषकी हिंसा फलकाल में अहिंसा के फलको देती है, अन्य फलको नहीं ॥५७॥ भावार्थ-कोई जीव किसी जीवके बुरा करनेका यत्न कर रहा हो, परन्तु उस जीवके पुण्योदय से कदाचित् बुराई के स्थान पर भलाई हो जावे, तो भी बुराईका यत्न करनेवाला उसके फलका भागी होगा । इसी प्रकार कोई डॉक्टर अच्छा करनेके लिए किसीका आपरेशन कर रहा हो और कदाचित् वह रोगी मर जाय, तो भी डॉक्टर अहिंसाभागके फलको ही प्राप्त होगा, हिंसाके फलको नहीं प्राप्त होगा । इस प्रकार अत्यन्त कठिन और अनेक भंगोंसे गहन वनमें मार्ग - मूढ दृष्टिवाले जनोंको विविध प्रकारके नयचक्र संचारके जानकार गुरुजन ही शरण होते है ।। ५८ ।। भावार्थजिनोपदिष्ट विविधप्रकारके आपेक्षिक कथनका रहस्य जानना नयोके विशिष्ट ज्ञानी गुरुजमों के बिना सम्भव नहीं है । जिनेन्द्रदेवका अत्यन्त तीक्ष्णधारवाला दुःसाध्य नयचक्र, उसे धारण करनेवाले अज्ञानी पुरुषोंके मस्तक को शीघ्रही खण्ड-खण्ड कर देता है ॥५९॥ भावार्थ जैन दर्शनके नयोंका रहस्य अति गन है । जो उसे समझे विना उसका उपयोग करता है, वह अपना ही अहित कर बैठता हैं । आत्म-संरक्षण में सावधान पुरुषोंको तत्त्वतः हिंस्य हिंसक हिंसा और हिंसाके फलको जानकर अपनी शक्ति से अनुसार नित्य ही हिंसा छोडना चाहिए ॥ ६० ॥ भावार्थ जिनकी हिंसा की. जाती है, उन जीवोंको हिस्य कहते हैं । हिंसा करने वाले जीव हिंसक कहलाते है । प्राणियोंके प्राण Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रावकाचार-संग्रह मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति। ६२ रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥ ६३ अभिमानभयजुगुप्सा-हास्यरतिशोककामकोपाद्याः । हिसाया:पर्यायाः सर्वेऽपिच सरकसन्निहिताः॥६४ नविना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यतेयस्मातामांसं भजतस्तस्मात्प्रसरत्यनिवारिताहिंसा॥६५ यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः ! तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ।। ६६ आमास्वपि पववास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम्॥६७ आमां वां पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ।। ६८ मधुशकलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके। भजति मधु मूढधीको य: स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ।। ६९ स्वयमेव विगलितंगण्हीयाद्वा छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात ॥७० मधु मद्यं नवनीतं च महाविकृतयस्ताः । वल्भ्यन्ते न वतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ।। ७१ पीडनरूप क्रियाको हिंसा कहते हैं और हिंसासे प्राप्त होनेवाले दुःख हिंसाके फल है। हिंसाका त्याग करनेके इच्छुकजनोंको प्रथम ही प्रयत्नपूर्वक मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंको छोडना चाहिए ॥६१॥ मदिरा मनको मोहित करती है, और मोहित-चित्त पुरुष धर्मको भल जाता है। धर्मको भूला हुआ जीव पुनः निःशङ्क होकर हिंसाका आचरण करता है ।।६२।। इसके अतिरिक्त मदिरा अनेक (असंख्य) रसज जीवोंकी योनि कही गई हैं,अतः मद्यका सेवन करने वाले जीवोंके द्वारा उन रसज जीवोंकी हिंसा अवश्य ही होती है ।।६३।। अभिमान, भय, ग्लानि, हास्य,अरति, शोक,काम, क्रोध आदिक सभी विकारी भाव हिंसाके पर्यायवाची नाम हैं। ये सभी विकारी भाव मदिराके समीपवर्ती ही है । अर्थात् मदिरा पीने वाले पुरुषकेये सभी विकारी भाव उत्पन्न होते है ॥६४॥ अतः मद्य सर्वथा त्याज्य है। यतः प्राणिघात के बिना मांसकी उत्पत्ति संभव नहीं है, अतः मांसको सेवन करनेवाले पुरुषके अनिवार्यरूपसे हिंसा होती ही है ॥६५॥ और जो स्वयं ही मरे हुए भैंसे, बैल आदिका मांस है,उसके सेवन करने में भी उस मांसके आश्रित निगोदिया जीवोंके विनाशसे हिंसा होती है ।।६६।। कच्ची,पक्की या पक रही मांसकी पेशियों (डालियों) में तज्जातीय निगोदिया जीबोंकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है ।।६७।। अतः जो जीव कच्ची या पकी मांस-पेशीको खाता है, अथवा स्पर्श भी करता है, वह अनेक कोटि जीवोंके निरन्तर संचित पिंडको मारता है अतः मांस सर्वथा अभक्ष्य है ।।६८।। इस लोकमें मधुका कण भी प्रायः मधुमक्खियों की हिंसारूपही होता हैं, अतः जो मूढ बुद्धि पुरुष मधुको खाता है, वह अत्यन्त हिंसक हैं॥६९।। जो पुरुष मधुके छत्तेसे स्वयमेव गिरी हुई मधुको ग्रहण करता हैं, अथवा धुंआ आदि करके उन मधु-मक्खियोंको उडाकर छलसे मधुको निकालता है, उसमें भी मधु-छत्तेके भीतर रहने वाले छोटे-छोटे जीवोंके घातसे हिंसा होती ही हैं ।।७०।। अतः मधु भी भक्षण करने के योग्य नहीं है। मध, मद्य, नवनीत (लोणी, मक्खन) और मांस ये चारों महा विकृतियाँ है,क्योंकि इन चारोंमें ही उसी वर्णवाले असंख्य जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते है । तथा ये सभी काम-क्रोधादि विकारोंको उत्पन्न करती है, अतः व्रती पुरुषको इनका भक्षण नहीं करना चाहिए ।।७१॥ ऊमर, कठमर. . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरापार्थसिद्धपाय योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि । त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ।। ७२ यानि तु पुनर्भवेयः कालोच्छिनत्राणि शुष्काणि मजतस्तान्यपि हिंसाविशिष्टरागादिरूपास्यात् ॥७३ अष्टावनिष्ट दुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवज्यं । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥ ७४ धर्मर्माहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तुम् । स्थावर हिसामसहास्त्रसहिसां तेऽपि मुञ्चन्तु ॥ ७५ कृतकारितानुमननैर्वाक्काय मनोभिरिष्यतेनवधा | औत्सर्गिकी निवृत्तिविचित्ररूपापवादिकीत्वेषा ।। ७६ स्तो केन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् शेषस्थावरमारणविरमणमपिभवतिकरणीयम् ७७ अमृतत्व हेतुभूतं परममहिसा रसायनं लब्ध्वा अवलोक्यबालिशानामसमञ्जसमाकुलैर्नभवितव्यम् ॥ ७८ सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थ हिंसने न दोषोऽस्ति । इति धर्ममुग्ध हृदयेन जातु भूत्वा शरीरिणो हिस्याः।। ७९ पिलकर, बड और पीपलके फल सजीवकी योनि है, इसलिए उनके भक्षण में उनके भीतर रहने वाले सजीवोंकी हिंसा होती है ॥७२॥ | और सूखे हुए पाँचों उदुम्बरफल समय पाकरत्रस जीवोंसे रहित हो जाते है, उनको भी खानेवाले पुरुषके विशिष्ट रागादिरूप हिंसा होती हैं । (क्योंकि उक्त फलोंके सूखने पर उनके भीतर रहनेवाले प्राणी भी उसीमें सूखकर मर जाते हैंऔर उन फलोंके खानेपर उन मरे हुए त्रसजीवोंका शरीर भी खाने से बचाया नहीं जा सकता है 1 ) || ७३ ॥ उपर्युक्त मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फल, आठों ही पदार्थ अनिष्ट दुस्तर पापोंके स्थान हैं, अतः इनको छोड़कर ही शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष जिनधर्म की देशना के पात्र होते है ॥७४॥ जो मनुष्य 'अहिंसारूप धर्म है' इस बात को सुनते हुए भी सर्वप्रकारकी हिंसा के परित्यागके लिए असमर्थ हों, उन्हें भी कमसे कम सहिंसा को छोडना ही चाहिए ।। ७५ ।। इस हिंसा की औत्सर्गिक निवृत्ति कृत, कारित, अनुमोदनासे मन, वचन, कायके द्वारा नव प्रकारकी कही गई है । किन्तु अपवादरूप निवृत्ति अनेक रूप कही गई हैं ||७६ ॥ भावार्थ - हिंसाको मनसे, वचनसे और कायसे न स्वयं करना, न दूसरोंसे कराना और न करते हुए जीवों की अनुमोदना करना यह औत्सर्गिक निवृत्ति हैं, क्योंकि इसमें नवकोटियोंसे हिंसाका त्याग किया गया है। यह सर्वप्रकारके आरम्भ समारम्भके त्यागी मुनिजनोंके होती हैं । किन्तु नवकोटि हिंसाका परित्याग करनेमें असमर्थ है, उन गृहस्थोंके त्रियोगसे स्वयं हिंसा न करने के रूपमें तीन प्रकारसे, तथा स्वयं न करने और न दूसरोंसे कराने रूप छह प्रकारसे जो हिंसाका त्याग होता हैं, अथवा अपने पद और परिस्थिति के अनुरूप यथासंभव प्रकारोंसे हिंसाका त्याग होता हैं, वह सब अपवादिकी निवृत्ति कहलाती हैं । प्राप्त हुए योग्य विषयोंके सेवन करनेवाले गृहस्थोंको थोडेसे एकेन्द्रिय जीवोंके घातके अतिरिक्त शेष स्थावर जीवोंके मारनेसे भी विरमण अवश्य करना चाहिए । अर्थात् प्राप्त भोगोपभोगोंके सेवनमें अपरिहार्य एकेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा के शिवाय शेष सभी स्थावर हिंसाका परित्याग करना गृहस्थको आवश्यक हैं । ७ ।। अमृतपद मोक्षके कारणभूत परम अहिंसाधर्मरूप रसायनको पाकरके अज्ञानी जनोंके असंगत वहारको देखकर ज्ञानियोंको आकुल-व्याकुल नहीं होना चाहिए ॥७८॥ भावार्थ- किसी जीवको हिंसा करते हुए भी सुखसातारूप देखकर और स्वयंको अहिंसा धर्मका पालन करते हुए भी दुखी देखकर, तथा मिथ्या दृष्टियों द्वारा हिंसा-धर्मका प्रचार करते हुए भी उनकी सुख- साताकी वृद्धिको देखकर ज्ञानी पुरुष मनमें आकुलताका अनुभव न करें, किन्तु उनके पापानुबन्धी पुण्यका उदय जानकर अपने धर्म में स्थिर रहें । 'भगवत्प्रणीत धर्म सूक्ष्म है, धर्म - कार्यके लिए जीव हिंसा करने में कोई दोष नहीं हैं', इस प्रकार धर्म-विमूढ हृदयवाले होकर मनुष्योंको कभी किसी प्राणीकी Jajn Education International १०७ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् । इति दुविवेककलितां धिषणां प्राप्य न देहिनो हिस्याः ।। ८० पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति । इति संप्रधार्य कार्य न । तिथये सत्व संज्ञपनम् ।। ८१ बहुत्ववातजनितादशनाद्व र मेकसत्वघातोत्यम् । इत्याकलय्य कार्य न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥ ८२ रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्त्वा कर्त्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥ ८३ बहुसवघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरुपायम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शर रिणो हिंस्राः ॥ ८४ बहुदु खा: संज्ञपिताः प्रयान्ति त्वतिचिरेण दुःखविच्छित्तिम् । इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ॥ ८५ कृच्छेण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव । इति तर्कमण्डलाग्रः सुखिनां घातायना देयः ॥ ८६ उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्य भूयसोऽभ्यासात् । स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्त्तनीयं सुधर्ममभिलषता ॥ ८७ धनल पिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् । झटिति घटचटकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ॥ ८८ १०८ दृष्ट्वा परं पुरस्तादशनाय क्षामकुक्षिमायान्तम् । निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि । ८९ हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥ ७९ ॥ 'धर्म देवताओंसे प्रकट होता है, उनके लिए इस लोक में सभी कुछ देनके योग्य हैं' इस प्रकारकी दुर्विवेक युक्त बुद्धिको धारण करके किसी भी प्राणीका घात नहीं करना चाहिए ॥ ८० ॥ 'अतिथि आदि पूज्य पुरुषके भोजनके निमित्त बकरे आदिके घात करने में कोई भी दोष नहीं है', ऐसा विचार करके अतिथिके लिए भी किसी प्राणीका घात नहीं करना चाहिए ॥८१॥ 'छोटे-छोटे बहुत प्राणियोंके घातसे उत्पन्न हुए भोजनकी अपेक्षा एकबडे प्राणी घातसे उत्पन्न हुआ भोजन उत्तम हैं ऐसा विचार करके भी किसी बड़े प्राणीका घात कदाचित् भी नहीं करना चाहिए ॥ ८२ ॥ । एक ही हिंसक प्राणी के मारनेसे बहुत प्राणियोंकी रक्षा होती है, ऐसा समझ करके भी सिंहादिक हिंस्रप्राणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥ ८३॥ ' अनेक प्राणियोंके घातक में सिंहादिक जीते हुए गुरु पापका उपार्जन करते हैं, ऐसी अनुकम्पा करके भी हिंसक प्राणियों को नहीं मारना चाहिए ॥८४॥ | 'बहुत दुःखोंसे पीडित प्राणी शीघ्र ही दुःखके विच्छेदको प्राप्त हो जावेंगे', इस प्रकारकी मिथ्या वासनारूपी कटारको लेकरके दुःखी भी प्राणियों को नहीं मारना चाहिए ॥८५॥ ' सुखकी प्राप्ति कष्टसे होती है, अतएव मारे गये सुखी पुरुष परलोकमें भी सुखी ही उत्पन्न होंगे ऐसा तर्क रूप खड्ग सुखी जनोंके घात करनेके लिए नहीं ग्रहण करना चाहिए ॥ ८६ ॥ | सुधर्मको अभिलाषा करनेवाले शिष्यको अधिक अभ्याससे सुगतिके साधनभूत समाधिसारको प्राप्त अपने गुरुका शिर नहीं काट देना चाहिए || ८७ ॥ भावार्थ- 'हमारे गुरुदेव अधिक काल तक योगके अभ्यास से समाधिमें निमग्न है, यदि इस समय इनका शिर काट दिया जाय, तो गुरु महाराज परम पदको प्राप्त करेंगे, ऐसो कुतर्क बुद्धिसे प्रेरित होकर यदि कोई शिष्य अपने गुरुका शिर काटेगा, तो गुरुका परम पद पाना तो सन्दिग्ध ही है, पर शिष्यको हिंसा पापका भाग होना निश्चित है। थोडेसे धन के प्यास से और शिष्यों को विश्वास उत्पन्न करने के लिए नाना प्रकारकी रीतियाँ दिखलानेवाले खारपटिक लोगों के शीघ्र ही घटके फूटने से चिडियाके मोक्ष के समान मोक्षका भी श्रदान नहीं करना चाहिए ||८८॥ भावार्थ - किसी समय भारतमें खारपटिक 'नामका एक . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषार्थसिद्धययुपाय को नाम विशति मोहं नयभङ्गविशारदानुपास्य गुरून् । विदितजिनमतःहस्यः श्रयन्नहिसां विशद्धमतिः ।। ९० यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः॥९१ स्वक्षेत्रकालभावःसदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु। तत्प्रथमसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥९२ असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रक लभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनतमस्मिन् यथास्ति घटः ॥९३ वस्तुसदापि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरितियथाऽश्वः।।९४ गहितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृत तुरीय तु ।। ९५ पैशुन्य हासगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलापतं च । अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्व गहितं गदितम् ।। ९६ छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तत्सावा यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते.॥ ९७ अरतिकरं भीतिक खेदकर वरशोककलहकरम् । यदपरमपितापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम्।।९८ मत प्रचलित था। उसकी मान्यता थी कि जैसे धडेमें बन्द चिडिया घडेके फोड देनेसे छटकारा पा जाती हैं, इसी प्रकार शरीरका घातकर देनेपर आत्मा भी शरीरबन्धनसे विमुक्त हो जाता हैं। ग्रन्थकार इसे लक्ष्यमें रख कर कहते हैं,कि इस प्रकार किसीको बन्धन-मुक्त होने या करनेकी भावनासे उसके शरीरका घात नहीं करना चाहिए और न इस प्रकारसे मोक्ष-प्राप्तिका श्रद्धान ही करना चाहिए। तथा,कृश उदरवाले किसी भूखे पुरुषको भोजनके लिए सामने आता हुआ देखकर अपने शरीरके मांसको दान करनेकी इच्छासे शीघ्रतापूर्वक अपने आपका भी घात नहीं करना चाहिए ।।.८९। भावार्थ-कुछ लोग भूखे पुरुषको अपने शरीरके मांस-दान में भारी पुण्य मानते है । उन्हें लक्ष्य में रखकर कहा गया हैं कि उनका यह कृत्य भी पापरूप ही हैं । जिनदेवोपदिष्ट अनेक नयभेदोंके विशारद गुरुजनोंकी उपासना करके जिनमतके रहस्यको जाननेवाला और अहिंसाका आश्रय लेनेवाला ऐसा कौन विशुद्ध बुद्धि पुरुष है,जो उपर्युक्त प्रकारके मोहमें प्रवेश करेगा? अर्थात् जैनधर्म के नयोंका ज्ञाता कोई भी पुरुष ऊपर कहे हिंसाके विविध प्रकारोके मोहचक्रमें नहीं पडेगा ॥९०॥ प्रमादके योगसे जो कुछ भी असत् कथन किया जाता हैं, वह सर्व असत्य जानना चाहिए। उस असत्यके चार भेद हैं ॥९१।। जिस वचन में अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावसे विद्यमान भी वस्तु निषेधित की जाती हैं,वह प्रथम प्रकारका असत्य हैं । जैसे देवदत्तके होते हुए भी यह कहना कि देवदत्त यहाँ नहीं है' ।।९।। जिस वचनमें पर द्रव्य क्षेत्र काल भावसे अविद्यमान भी वस्तु-स्वरूप प्रकट किया जाता हैं, वह दूसरे प्रकारका असत्य हैं। जैसे घडेके नहीं होनेपर भी यह कहना कि यहांपर घडा है ।।९३।। जिस वचनमें अपने स्वरूप चतुष्टयसे विद्यमान भी वस्तु अन्य स्वरूपसे कही जाती है,यह तीसरे प्रकारका असत्य जानना चाहिए । जैसे-बैलको घोडा कहना ॥९४॥ और चौथे प्रकारका असत्य गर्हित,सावद्य और अप्रियरूपमें सामान्यसे तीन प्रकारका माना गया है।।९५।। जो वचन पिशुनता और हंसीसे मिश्रित हैं, कर्कश हैं, मिथ्याश्रद्धानरूप हैं,व्यर्थ की बकवादरूप हैं,तथा और भी जो इसी प्रकारकेसूत्र-प्रतिकूलवचनहै,वेसबर्हित (निन्दित) वचन कहे गये हैं।।९६।। जिन वचनोंसे प्राणि-घात आदिकी प्रवृति हो, ऐसे छेदन, भेदन, मारण, कर्षण,वाणिज्यऔरचोरीआदिकेवचनोंकोसावद्य वचनजाननाचाहिए।।९७॥जो वचन अप्रीति-कारक, भय-जनकखेद-उत्पादक,वैर-वर्धक,शोक-कारक,कलह-कारकऔर दूसरेको सन्तापकारी है,उन सबको Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रावकाचार-संग्रह सर्वस्मिन्नप्यस्मिन् प्रमत्तयोगकहेतुकथनं यत् । अनृतवचनेऽपि तस्मानियतं हिंसा समवतरति ॥९९ हेतो प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।। १०० भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमा-मोक्तुमायतेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु॥१०१ अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद् यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।।१०२ अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम्। हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान्।।१०३ हिंसाया:स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघटमेव सा यस्माता ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः । १०४ नातिव्याप्तिश्चतयोःप्रमत्तयोगककरणविरोधात्।अपिकर्मानुग्रहणनीरागाणामविद्यमानत्वात्।। १०५ असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम्॥१०६ यद्वेदरागयोगान्मथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ।। १०७ हिस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैयुने तद्वत्।।१०८ यदपि क्रियते किञ्चिन्मदनोद्रेकादनङ्गरमणादि। तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात्।।१०९ अप्रिय वचन जानना चाहिए।।९८। इन उक्त सर्वप्रकारके वचनोंमें एक प्रमत्त योग ही कारण कहागया हैं,अतः असत्य भाषणमें नियमसे हिंसा ही अवतरित होती हैं । भावार्थ-जहाँ कषाययुक्त वचन बोला जाय,वहाँ पर हिंसा अवश्य ही हैं ।।९९॥ यतः सर्व प्रकारके असत्य वचनोंका मूलकारण प्रमत्तयोग कहा गया हैं,अतः बुरे कार्यके छोडने और उत्तम कार्यके करनेके लिए बोले जाने वाले अप्रिय वचन असत्य नहीं हैं ।।१००॥ जो पुरुष भोग और उपभोगके साधनभूत सर्वप्रकारके सावद्य वचनोंको छोडनेके लिए असमर्थ है, उन्हें भी शेष सर्वप्रकारके अनृत वचन तो नित्य छोडना ही चाहिए ।।१०१।। जो प्रमत्तयोगसे दूसरेके द्वारा नहीं दिये हुए धन-धान्यादि परिग्रहका ग्रहण करना, उसे चोरी जानना चाहिए, और यह चोरी भी हिंसा ही है ; क्योंकि, वह भी दूसरोंके प्राण-घातका कारण हैं ।। १०२।। ये धन-धान्यादिक पदार्थ पुरुषोंके बाहिरी प्राण है, जो मनुष्य जिसके धनादिकको हरण करता हैं, वह उसके प्राणोंको ही हरता है ॥१०३।। हिंसाके और चोरीके अव्याप्ति दोष नहीं हैं, क्योंकि अन्यके द्वारा स्वीकृत द्रव्यके ग्रहण करने में प्रमत्तयोग स्पष्टरूपसे पाया जाता है, अत: चोरी करने में हिंसा सुघट ही हैं ॥१०४।। तथा हिंसा और चोरीमें अतिव्याप्ति दोष भी नहीं हैं,क्योंकि वीतरागी पुरुषोंके कर्म-नोकर्म वर्गणाओंके ग्रहण करने में प्रमत्तयोग नहीं पाया जाता और प्रमत्तयोगरूप एक कारणके विरोधसे हिंसाका दोष नहीं लगता,अतः कर्म-नोकर्म वर्गणाओंके ग्रहण करते हुए भी वीतरागी पुरुष चोरीके दोषसे रहित ही जानना चाहिए॥१०५)। जो पुरुष अन्यके जलाशय-कूपादिसे जलादिके ग्रहण करनेकी निवृत्ति करने के लिए असमर्थ हों,उन्हें भी अन्य सर्व प्रकारकी अदत्त वस्तुओंका परित्याग नित्य ही करना चाहिए ।।१०६॥ जो वेदनोकषायके रागयोगसे स्त्री-पुरुषों की मैथुन क्रिया होती हैं, वह अब्रह्म कहलाता है। इस मैथुन क्रियामें भी हिसा अवतरित होती हैं, क्योंकि उसमें जीव-धात सर्वत्र पाया जाता हैं ॥१०७।। जिस प्रकार तिलोंकी नालीमें तपे लोहे के डालनेसे तिल जल-भुन जाते हैं,उसी प्रकार मैथुन समय स्त्रीकी योनिमें पुरुष-लिंगके प्रवेश करनेपर योनिस्थ बहुत जीव मरणको प्राप्त होते हैं।।१०८।। इसके अतिरिक्त काम-विकारकी अधिकतासे अनंग क्रीडा आदि जो कुछ भी अवैध मैंथनके कार्य किये जाते है, उनमें भी रागादिकी उत्पत्तिके वशसे हिंसा होती ही हैं ।।१०९॥जो : Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ पुरुषार्थसिद्धययुपाय ये निजकलत्रमात्रं परिहर्त शक्नुवन्ति न हि मोहात्। निःशेषशेषयोषिनिषेवणं तैरपि न कार्यम्।।११० या मूर्च्छी नामेदं. विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदयादुदीर्णो मूछा तु ममत्वपरिणामः ।।१११ मूछीलक्षणकरणात्सुघटाव्याप्तिःपरिग्रहत्वस्यासग्रन्थोमूर्छ।वान्विनापिकिल शेषसङ्गेभ्यः ।११२ यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्गः । __ भवति नितरां यतोऽसौ धत्ते मूच्र्छानिमित्वम् ।। ११३ एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद्धवेनैवम् । यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मच्छास्ति ।।११४ अतिसंक्षेपाद् द्विविधासभवेदाभ्यन्तरश्चबाह्यश्च प्रथमश्चतुर्दशविधोभवतिद्विविधं.द्वितीयस्तु॥११५ मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड दोषाः चत्वा श्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः॥११६ अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदी द्वौ निषःकदापिसङ्गः सर्वोऽप्यतिवर्ततेहिंसाम्॥११७ उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्याः सूचयहिंसेति । द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः ॥११८ जीव मोहके उदयसे अपनी स्त्री मात्रको छोड़ने के लिए समर्थ नहीं है,उन्हें भी शेष समस्त स्त्रियोंका सेवन नहीं करना चाहिए ॥११०।। मोहके उदयसे उत्पन्न हुआ ममत्वपरिणाम मूर्छा कहलाती है और यह जो मूर्छाभाव हैं,उसे ही परिग्रह जानना चाहिए ॥१११॥ अतः जो पुरुष मूर्छावान् है, वह शेष बाह्य परिग्रहके विना भी सग्रन्थ अर्थात् परिग्रही हैं; क्योंकि परिग्रहका मूर्छा लक्षण करनेसे उसमें परिग्रहकी व्याप्ति सुघटित होती है ।।११२।। यदि ऐसा हैं,अर्थात् मूर्छा ही परिग्रह है, तो बहिरंग परिग्रह कोई भी पदार्थ नहीं माना जायगा? इस शंकाका समाधान यह हैं कि यह बाह्य पदार्थरूप परिग्रह मूर्छाके निमित्तपनेको निरन्तर धारण करता है।।११३।। भावार्थपरिग्रहके दो भेद शास्त्रों में कहे गये है-अन्तरंग परिग्रह और बाह्य परिग्रह । पर पदार्थोमें ममतारूप मूर्छाका होना यह परिग्रहका लक्षण अन्तरंग परिणामोंसे सम्बन्ध रखता है, अतः बाह्य परिग्रहका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, यदि कोई ऐसी आशंका करे तो ग्रन्थकार उसका समाधान करते है कि मूर्छाकी उत्पत्ति में धन्य-धान्यादि बाह्य पदार्थ ही निमित्त कारण होते है,अतएव कारणमें कार्यके उपचारसे बाह्य पदार्थोमें भी मूर्छा परिग्रहः'यह लक्षण घटित हो जाता हैं। यदि कहा जाय कि बाह्य पदार्थका ग्रहण करना परिग्रह हैं,तब तो वोतरागी कषाय-रहित मुनियोंके कामणवर्गणाओंके ग्रहण करनेसे परिग्रहका उक्त लक्षण अतिव्याप्ति दोषको प्राप्त होता है । ग्रन्थकार इस आशंकाका समाधान करते हुए कहते हैं कि अतः कषाय-रहित जीवोंके कर्मवर्गणाओंके ग्रहण करने में मूर्छा नहीं हैं,अत: अतिव्याप्ति दोष नहीं प्राप्त होता ॥११४।। यह परिग्रह अतिसंक्षेपसे दो प्रकारका है-आभ्यन्तर परिग्रह और बाह्य परिग्रह । इनमें प्रथम चौदह प्रकारका है और दूसरा दो प्रकारका है।। १.५।। आभ्यन्तर परिग्रहके चौदह भेद इस प्रकार हैं-मिथ्यात्व,स्वीवेद,पुरुषवेद,नपुंसक वेदरूप रागभाव, तथा हास्यादि छह दोष, अर्थात्, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और क्रोध,मान, माया और लोभ ये चार कषाय ।।११६।। बाह्य परिग्रहके दो भेद है-सचित्त परिग्रह और अचित्त परित्रह। दास-दासी,गाय-भैस आदि सचित्त परिग्रह है और मकान, वर्तनादि अचित्त परिग्रह है। यह दोनों ही प्रकारका बाह्य परिग्रह कभी भी हिंसाका अतिक्रमण नहीं करता हैं, अर्थात् कोई भी परिग्रह किसी भी समय हिंसासे रहित नही है ।।११७।। अतएव जिनागमके ज्ञाता आचार्यगण दोनों ही प्रकारके परिग्रहके त्यागको अहिंसा सूचित करते है और दोनों प्रकारके परिग्रतके धारण करनेको हिंसा कहते है ॥११८॥ क्रोधादि कषाय हिंसाके पर्यायरूप है, अतः अन्तरंग परिग्रहोंमें Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्रावकाचार-संग्रह हिंसापर्यायत्वासिद्धाहिंसान्तरङ्गसङ्गेषु । बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूच्छंध हिंसात्वम् ।।११९ एवं न विशेषःस्यादुन्दररिपुहरिणशावकादीनाम् । नैवं भवति विशेषस्तेषां मूर्छाविशेषेण ।। १२० हरिततृणाकुरचारिणि मन्दा मृगशावके भवति मूर्छा । उन्दरनिकरोन्माथिनि मार्जारे सैव जायते तीवा ।। १२१ निर्वाध मंसिद्धयेत् कार्यविशेषो हि कारणविशेषात् । औधस्य-खण्डयोरिह माधुर्यप्रीतिभेद इव।।१२२ माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्दैव मन्दमाधुर्ये । सैवोत्कटमाधुर्य खण्डे व्यपदिश्यते तीव्रा ॥ १२३ तत्त्वार्थाश्रद्धाने नियुक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् । सम्यग्दर्शनचौरा: प्रथमकषायाश्च चत्वारः ॥१२४ प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य सन्मुखायातः । नियतं हि ते कषाया: देशचरित्रं निरुन्धन्ति।।१२५ निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसङ्गानाम् । कर्तव्यः परिहारो मार्दवशोचादिभावनया॥१२६ बहिरङ्गादपि सङ्गाद्यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचितः । परिवर्जयंदवशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा।।१२७ योऽपिनशक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिसोऽपितनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम्। १२८ रात्री भुजानानां यस्मादनिवारिता भवतिहिंसा।हिंसाविरतस्तस्मात्त्यक्तव्यारात्रिभुक्तिरपि।।१२९ रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्ति तिवर्तते हिंसा । रात्रि दिवमाहरतः कथं हि हिंसा न संभवति ।। १३० हिंसा स्वयं सिद्ध हैं। तथा बहिरंग परिग्रहोंमें मूर्छाभाव ही नियमसे हिंसापनेको प्राप्तहोताहै।।११९।। यदि कहा जाय कि ममत्व परिणामका नाम मूर्च्छी है,तब तो उदर (मूषक) का शत्रु बिलाव और हरिणके बच्चों आदिमें कोई भेद नहीं रहेगा? सो ऐसा नहीं समझना,क्योंकि उन दोनोंमें मूर्छाकी विशेषतासे बहुत भेद है ॥१२०॥ देखो-हरे तृणाङकुरोंको चरनेवाले मृगके बच्चे में मूछा बहुत मन्द होती है और चूहोंके समूहको मारकर खानेवाले बिलावमें वह मूछी अति तीव्र होती है । इसलिए दोनोंकी मूर्छा समान नहीं हैं ।।१२१।। कारणकी विशेषतासे कार्य में विशेषता निर्बाध रूपसे सिद्ध होती है । जैसे कि दूध और खांडमें मधुररसका प्रीतिभेद देखा जाता हैं।।१२२।।मन्द मधुर रसवाले दुधमें पीनेवाले पुरुषकी माधुर्यकी प्रीति मन्द होती हैं और अधिक माधुर्यवाली खांडके खाने में वह माधर्य-प्रीति तीब्र कही जाती है ।।१२३।। तत्त्वार्थके अश्रद्धामें कारण प्रथम ही मिथ्यात्व कहा गया हैं,तथा प्रथम कषाय-अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया और लोभरूप ये चार कषाय सम्यग्दर्शनरूप रत्नके चौर हैं।।१२४:। अतः इनकोछोडकरसम्यग्दृष्टिपुरुष दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषायोंको भी त्याग करके देशचरित्रके सन्मुख आता है। क्योंकि ये अप्रत्याख्यानावरण कषाय नियमके देशचारित्रका निरोध करती है,अर्थात् देशचारित्रको प्रकट नहीं होने देती है ।।१२५।। अतएव अपनी शक्तिके अनुसार मार्दव,शौच,संयम आदि धर्मोकी भावनासे शेष समस्तअन्तरंग परिग्रहोंका परिहार करना चाहिए ।।१२६।।यतः बहिरंग भी परिग्रहसे अनुचित असंयम उत्पन्न होता है, अतः सचित्त और अचित्त सभी प्रकारका बहिरंग परिग्रह भी छोड देना चाहिए। १२७।। जो पुरुष धन, धान्य, दासी दासादिक मनष्यऔरमकानसम्पदादिको छोडने के लिए समर्थ न हो, उसे भी संचित परिग्रहको कृश करना चाहिए, क्योंकि धर्मका तत्त्व तो निवृत्ति रूप ही हैं।।१२८ । यत: रात्रिमें भोजन करनेवालोंके अनिवार्य रूपसे हिंसा होती है,अतः हिंसाके त्यागी जनोंको रात्रिभोजन करना भी त्यागना चाहिए ।।१२ ॥ अनिवत्ति अर्थात् अत्यागभाव रागादिक भावोंके उदयकी उत्कृष्टतासे होता है, इसलिए वह हिंसाका अतिक्रमण नहीं करता है,तो फिर जो पुरुष रातदिन आहार करता है, उसके हिंसा कैसे नहीं संभव हैं? अर्थात् अहर्निशभोजी पुरुषके रागकी अधिकताके कारण अवश्य ही हिंसा . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराषार्थसिद्धयुपाय यद्येवं तहि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः । भोक्तव्यं तु निशायां नेत्यं भवति हिंसा ॥ १३१ नैवं वासरमुक्ते:भवतिहि रागोऽधिकोरजनिभक्तो।अन्नकवलस्यभुक्ते:भुक्ताविवमांसकवलस्य।।१३२ अर्कालोंकेन विना भुञ्जानः परिहरेत् कथं हिंसाम् । अपि बोधितः प्रदोघे भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ।। १३३ कि वा बहुप्रलपितरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः ।। परिहरति रात्रिभुक्ति सततहिंसां सपालयति ।। १३४ इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामा अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्तिते मुक्तिमचिरेण।।१३५ परिधय इव नगराणि प्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ।। १३६ प्रविधाय सुप्रसिद्धर्मादां सर्वतोऽप्यभिज्ञ न: प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्याविर तिरविचलिता।।१३७ इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्याः। सकलासंयमविरहाद्भवत्यहिंसावतं पूर्णम् ११३८ तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनामाप्रविधाय नियतकालं करणीयंविरमणंदेशात्।।१ ९ इति विरतो बहुदेशात्तदुन्थहिंसा विशेषपरिहारात् । तत्कालं विमलमतिः श्रययहिसां विशेषेणा।१४० पापद्धिजयपराजयसङ्गरपरदारगमनचार्याद्याः। न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ।। १४१ हैं ।।१३०॥ यदि ऐसा हैं,तो दिन भोजनका परित्याग कर देना चाहिए और रात्रिमें भोजन करना चाहिए । इस प्रकारसे नित्य हिंसा नहीं होती हैं ।।१३१॥ ऐसा नहीं कहना चाहिए,क्योंकि दिनम भोजनकी अपेक्षा रात्रि भोजनमें रागकी अधिकता होती है जैसे कि अन्नका ग्रास खानेवालेकी अपेक्षा मांसके ग्रासको खानेवालेको अधिक राग होता हैं ।। १३२।। सूर्यके प्रकाशके बिना भोजनको करनेवाला मनुष्य हिंसाका परिहर कैसे कर सकेगा? अर्थात् नहीं कर सकेगा। यदि दीपकको जला करके रात्रिमें भोजन करेगा,तो भोज्य पदार्थमें पडे हुए सूक्ष्म जीवोंकी हिंसाको कैसे दूर कर सकेगा ॥१३३।। अधिक कहनेसे क्या लाभ हैं,जो पुरुष मन-वचन-कायसे रात्रि भोजनका परित्याग करता हैं,वह सदा ही अहिंसा-धर्मका पालन करता है ।।१३४।। इस प्रकार रत्नत्रयात्मक मोक्षके मार्गमें जो आत्म-हितके इच्छुक पुरुष निरन्तर प्रयत्न करते है,वे शीघ्र ही मुक्तिको प्राप्त करते हैं।। १३५।। जैसे परिधि अर्थात् परिकोट-परिखा) कोट-खाई)नगरकी रक्षा करते है, उसी प्रकार शोल ब्रतोंकी रक्षा करते है । अतः ग्रहण किये गये अहिंसादि व्रतोंके परिपालनके लिए गुणव्रत और शिक्षाव्रतरूप सात शीलोंको भी पालन करना चाहिए ॥१२६।। सुप्रसिद्ध सीमा-सूचक चिन्होंके द्वारा सर्व ओर मर्यादाको करके पूर्वादिक दशों दिशाओसे अविचलित (दृढ) विरति (प्रतिज्ञा) करनी चाहिए ।।१३७।। इस प्रकार मर्यादित दिशाओंके विभागमें ही जो पुरुष गमनागमन रूप प्रवृत्ति करता हैं, उस पुरुषके नियमित सीमाके बाहिर सकल असंयमभावके अभाव होनेसे अहिंसाव्रत पूर्णताको प्राप्त होता हैं । यह दिग्विरति नामक गुणव्रत हैं।।१८।।उस दिग्ब्रतमें भी ग्राम,आपण (बाजार) भवन और मोहल्ला आदिका नियत काल तक परिमाण करके शेष देशसे विरमण अर्थात् गमनागमनका त्याग करना चाहिए। यह देशविरति नामक गुणवत हैं ।।१३९।। इस प्रकार बहुत प्रदेशसे विरत वह निर्मल बुद्धिवाला श्रावक उस नियमित काल में उस मर्यादित क्षेत्रसे बाहिर उत्पन्न होनेवाली हिंसाविशेषके परिहारसे विशेषतया अहिंसाको आश्रय करता है । अर्थात् नियतकाल तक मर्यादित क्षेत्रसे बाहिर गमनागमन न करनेसे वह वहाँ पर पूर्ण अहिंसाव्रती जैसा होता हैं ।।१४०।। अब अनर्थदण्ड Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रावकाचार-संग्रह विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम् । पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम्॥१४२ भूखननवृक्षमोट्टनशाड्वलदलनाम्बुसेचनादीनि ।निष्कारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च॥१४३ असिधेनु विषहुताशनलाङ्गलकरवालकामकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नात् ॥ १४४ रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि।।१४५ सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सम मायायाः । दूरात्परिहरणीयं शौर्यासत्यास्पदं घुतम् ।। १४६ एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं यः। तस्यानिशमनवद्यं विजयहिंसावतं लभते ।। १४७ रागद्वेषत्यागानिखिलद्रव्येष साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ।। १४८ रजनीदिनयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् । इतरत्र पुन: समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ।। १४९ सामायिकधितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् । भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ॥१५० सामायिकसंस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षार्धयोर्द्वयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ।। १५१ मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्यार्धे । उपवासं गण्हीयान्ममत्वमपहाय देहादों ।। १५२ विरति नामक तीसरे गुणवतका वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि पापद्धि (आखेट-शिकार) जय, पराजय, संग्राम परस्त्रीगमन और चोरी आदिक करने की बात कभी भी नहीं चिन्तवन करना चाहिए, क्योंकि इनका केवल पाप ही फल हैं । अनर्थण्डविरतिके पाँचभेदोंमेंसे यह प्रथम अपध्यानविरति है ॥१४१॥ विद्या, वाणिज्य मषी, कृषि, सेवा और शिल्पसे आजीविका करनेवाले पुरुषोंको उनके करनेवाले पापके उपदेशरूपसे वचन कभी भी नहीं बोलना चाहिए । यह पापोपदेश विरति है।।१४२।। भूमि खोदना,वृक्ष मोडना, दुर्वा-घास रोंदना, जल सींचना, आग जलाना और बुझाना,तथा पत्र, फल, फूल तोडना आदि कार्य निष्प्रयोजन न करे । यह प्रमादचर्याविरति है।।१४३।। छुरी, धेन, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष-बाण आदि हिंसाके उपकरणोंका दूसरोंको देना प्रयत्नके साथ परित्याग करे। यह हिंसादानविरति हैं ॥१४४।। रागादिकी बढानेवालो तथा अज्ञान-बहुल खोटी कथाओंका कभी भी श्रवण,अर्जन (संग्रह) और शिक्षण (सीखना-सिखाना) आदि न करे। यह दुःश्रुतिविरति हैं।। १४५।। जुआ सर्व अनर्थोमें प्रधान है, शौच (पवित्रता और सन्तोष) का नाशक है, मायाचारका घर हैं, चोरी और असत्यका स्थान है,उसे दूरसें ही परित्याग करना चाहिए ।। १४६ । इसी प्रकारके अन्य भी अनर्थदण्डोंको जान करके जो श्रावक उनका त्याग करता है. उसका निर्दोष अहिंसा व्रत निरन्तर विजयको प्राप्त करता हैं ।।१४७।। राग-द्वेषके त्यागसे सर्वद्रव्योंमें समस्ताभावको अवलम्बन कर आत्मतत्त्वकी प्राप्तिका मूलकारणभूत सामायिक बारंबार करना चाहिए।।१४८।। रात और दिनके अन्तमें अर्थात् प्रातःकाल और सायंकालमें मनकी चञ्चलताको रोककर यह सामायिक अवश्य ही करना चाहिए। दोनों सन्ध्याओंके सिवाय अन्य समयमें किया गया सामायिक दोषके लिए नहीं ; अर्थात् दोष-कारक नहीं है, प्रत्युत वह गुणके लिए ही होता हैं ।।१४९।। सामायिकका आश्रय करनेवाले पुरुषोंके अणुव्रत समस्त सावद्ययोगके परिहारसे चरित्र मोहके उदयमें भी महाव्रतपनेको प्राप्त होते है यह प्रथम सामायिक शिक्षावत हैं ॥ ५० । प्रतिदिन धारण किये गये सामायिकरूप संस्कारको स्थिर करनेके लिए दोनों पक्षोंके अर्धभागमें अर्थात् अष्टमी और चतुर्दशीके दिन उपवास अवश्य ही करना चाहिए ।।१५१।। प्रोषध (उपवास) दिनकें पूर्व दिनार्धमें अर्थात् मध्यान्हकाल में Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय श्रित्वा विविक्तवसतिं समस्तसावद्ययोगमपनीय | सर्वेन्द्रियार्थ विरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥ १५३ धर्मध्यानासक्तो वासरमतिवाह्य विहितसान्ध्य विधिम् । शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः ।। १५४ प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिक क्रियाकल्पम् 1 निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रासुकै द्रव्यैः ।। १५५ उक्तेन ततो विधिना नत्वा दिवमं द्वितीयरात्रि च । अतिवाहयेत्प्रयत्नादधं च तृतीयदिवसस्य ।। १५६ इति यः षोडशयामान् गमयति परिमुक्तसकलसावद्यः । तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहाव्रतं भवति ॥ १५७ भोगोपभोगतो: स्थावरी हिंसा भवेत् किलामीषाम् । भौगोगोविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिंसायाः ।। १५८ वाग्गुतेर्नात्यनृतं न समस्तादानविरहतः स्तेयम् । नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गो नागेऽप्यमूच्छंस्य ॥ १५९ इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महायतित्वमुपचारात् । उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् ।। १६०. भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा । अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यो ।। १६१ समस्त आरम्भसे विमुक्त होकर और शरीरादिमें ममत्वको छोडकर उपवासको ग्रहण करे । । १५२ ।। पश्चात् एकान्त वसतिकाको आश्रय करके और समस्त सावद्ययोगको त्याग करके सर्व इन्द्रियों के विषयोंसे विरत रहता हुआ मन-वचन-कायकी गुप्तियों के साथ स्थित होवे ।। १५३ ।। इस प्रकार धर्मध्यानमें संलग्न रहकर, आधे दिनको बिता कर और सन्ध्याकालीन विधिको करके पवित्र संस्तर पर स्वाध्याय से निद्राको जीतता हुआ रात्रिको व्यतीत करे ।। १५४ ।। पुनः प्रातःकाल उठकर और तात्कालिक क्रियाकलापको करके प्रासुक द्रव्योंके द्वारा आगमोक्त विधिसे जिनदेवकी पूजनको करे ।। १५५ ॥ तदनन्तर पूर्वोक्त विधिसे शेष समस्त दिनको तथा दूसरी रात्रिको भी बिता करके तीसरे दिनके अर्धभागको प्रयत्नसे धर्मध्यानपूर्वक धर्मसाधन करते हुए बितावे ॥ १५६ ॥ । इस प्रकार जो गृहस्थ सर्वसावद्य कार्योको छोडकर सोलह पहरोंको बिताता है, उसके उस प्रोषधोपवासकालमें निश्चय करके पूर्ण अहिंसावत होता हैं, यह दूसरा प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत है ॥। १५७ ।। भोग और उपभोगके कारणसे इन गृहस्थोंके स्थावर जीवोंकी हिंसा नियमसे होती हैं । किन्तु प्रोषधोपवासके समय भोगउपभोगके सेवनके अभाव से हिंसाका लेश भी उनके नहीं होता हैं ।। १५८।। उस समय वचनगुप्ति के पालनसे असत्य वचन भी नहीं है, समस्त अदत्तादानके अभाव से चोरी भी नहीं है, मैथुन -त्यागसे अब्रह्मभी नहीं हैं और शरीर में मूर्च्छा-रहित होनेसे उस गृहस्थ के परिग्रह भाव भी नहीं है ।। १५९ ।। इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकारकी हिंसाओंसे वह श्रावक उस समय उपचारसे महाव्रती - पनेको प्राप्त होता हैं । किन्तु चारित्रमोहके कर्म के उदय होने से वह संयम स्थानको नहीं पाता हैं । १६० ।। भावार्थ - उपवासकालमें गृहस्थ के उक्त विधिसे किसी भी प्रकारका पापकार्य नहीं होता है, अतः उसके अणुव्रत भी महाव्रत जैसे हो जाते है । अर्थात् उप ११५ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह एकमपि प्रजिघांसुनिहन्त्यनन्तान्यतस्तोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम्।१६२ नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रतजीवानाम् । यद्वापि पिण्डशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किञ्चित् ।। १६३ अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः । अत्याज्येष्वपि सीमा कार्यकदिवानिशोपभोग्यतया ॥ १६४ पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिकी निजां शक्तिम् । सीमन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्तव्या ।। १६५ इति यः परिमितमोगैः सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् । बहुतरहिंसाविरहात्तस्याहिंसा विशिष्टा स्यात् ।। १६६ । विधिना दातगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाया स्वपरानुग्रहहेतोः कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः।।१६७ संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च । वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥ १६८ ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानस्यत्वम । अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥ १६९ रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ।। १७० चारसे उन्हें महाव्रत कहा जा सकता हैं । किन्तु यतः उसके अभी संयमकी घातक प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय हैं अतः निश्चयसे उसे महाव्रती या संयमस्थानका धारण नहीं कह सकते। देशव्रती श्रावकके भोग और उपभोग-मूलक ही हिंसा होती हैं, अन्य प्रकारसे नहीं। अतएव वस्तुतत्त्व को जानकर अपनी शक्तिके अबुसार भोग और उपभोगका त्याग करना चाहिए ॥१६१।।भोग और उपभोगके निमित्तसे एकभी कन्दमूलादि साधारणशरीर को घात करने की इच्छा वाला पुरुष उस शरीरमें रहने वाले अनन्त जीवों का घात करता है, इसलिए समस्त ही अनन्त कायिक वनस्पतियोंका सर्वथा परित्याग करना चाहिए ॥१६२।। बहुत जीवोंकी उत्पत्तिका स्थानभूत नवनीत (लोणी, मक्खन) भी त्याग करनेके योग्य हैं । तथा आहार की शुद्धिमें जो कोई भी वस्तु विरुद्ध (अग्राह्य या अभक्ष्य) कही गई है, उन सभी का त्याग करना चाहिए ।। १६३1, जो भोग शास्त्र-विरुद्ध नहीं हैं,उन्हें भी बुद्धिमान् लोग अपनी शक्ति को देखकर त्याग करे। तथा जो भोगोपभोग सर्वदा के लिए त्याग नहीं किये जा सकते है उनसे सेवनमें भी एक दिन रात्रि आदि की उपभोग्यतासे काल की सीमा करनी चाहिए ।। १४६॥ प्रथम की हुई सीमामें फिर भी तात्कालिक निज शक्ति को देखकरके सीमाके भीतर और भी अन्तर सीमा प्रतिदिन करने के योग्य है ।।१६५॥इस प्रकार जो गृहस्थ सीमित अल्प भोगोंसे सन्तुष्ट रहता हुआ अधिकांश भोगोंको त्यागता है,उसके अधिकतर हिंसाके अभावसे अहिंसा विशेषताको प्राप्त होती हैं ११६६।। यह भोगोपभोग नामक तीसरा शिक्षा व्रत है । दाताके गुणोंसे युक्त श्रावक को स्व-पर अनग्रहके हेतु विधि पूर्वक यथाजातरूपधारी अतिथि साधुके लिए द्रव्यविशेष का संविभाग अवश्य करना चाहिए।।१६७।।अतिथि का संग्रह (प्रतिग्रह) करना, उच्चस्थान देना, पाद-प्रक्षालन करना, पूजन करना,प्रणाम करना, तथा वचनशुद्धि, कायशुद्धि, मनःशुद्धि, और भोजनशुद्धि, इस नवधा भक्ति को आचार्योने दान देने की विधि कहा हैं।।२६८।। इस लोक सम्बन्धी किसी भी प्रकारके फल की अपेक्षा न रखना,क्षमा धारण करना,विषाद निष्कपटभाव रखना,ईया नकरना,विषादन करना, प्रमोद भाव रखना, और अहंकार न करना ये सातदाताके गुण कहे गये हैं ।।१६९।। जो वस्तू Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरापार्थसिद्धयुपाय ११७ पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगो मोक्षकारणगणानाम् ।। अविरतसम्यग्दृष्टि. विरताविरतश्च सकलविरतश्च ।। १७१ हिंसाया पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने । तस्मादतिथिवितरणं हिंसाव्यपरणमेवेष्टम् ।। १७२ गृहमागताय गणिने मधकरवृत्त्या परानपीडयते । वितरति यों नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ।। १७३ कृतमात्मार्थ मनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः । अतिविषाद विमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिसव ।। १७४ इयमेव समर्था धमस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ।। १७५ मरणान्तेऽवश्यमह विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयदिदं शीलम ।। १७६ मरणेऽवश्यम्भाविनि कषायसल्लेख तातनुकरणमात्रे। रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ।। १७७ यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ।। १७८ नीयन्तेऽत्र कषाया हिसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयर्थम् । १७९ राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख और भय आदि को न करे और तप एवं स्वाध्याय की वृद्धि करे, वह द्रव्य अतिथि को देनेके योग्य हैं ॥१७०।। जिसमें मोक्षके कारण भूत सम्यग्दर्शनादि गुणों का संयोग हो. वह पात्र कहलाता हैं। उसके तीन भेद कहे गये है-उनमें अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं,देशविरत मध्यम पात्र हैं और सकलविरत साधु उत्तम पात्र हैं । १७१॥ यतः पात्र को दान देने पर हिंसा का पर्यायभूत लोभ दूर होता हैं, अत: अतिथि को दान देना हिंसा का परित्याग ही कहा गया है।। १७२।। जो गृहस्थ अपने घर पर आये हुए, गुणशाली, मधुकरी वृत्तिसे दूसरों को पीडा नहीं पहुँचाने वाले ऐसे अतिथिके लिए दान नहीं देता है,वह लोभवाला कैसे नहीं हैं? अर्थात् अवश्य ही लोभी हैं ।।१७३।। जो अपने लिए बनाये गये भोजन को मनिके लिए देता हैं, अरति और विषादसे विमुक्त हैं, और लोभ जिसका शिथिल हो रहा है, ऐसे गृहस्थ का भावयुक्त त्याग (दान) अहिंसा स्वरूप ही हैं।।१७४।।भावार्थ-अतिथिके लिए उपयुक्त नवधाभक्तिसे दिया गया दान अहिंसा धर्म रूप ही हैं। यह अतिथि संविभाग नामक चौथा शिक्षाव्रत हैं। अबआचार्य सल्लेखना का निरूपण करते है-यह एक ही सल्लेखना मेरे धर्मरूपी धन को मेरे साथ ले जाने के लिए समर्थ है, इसलिए निरन्तर ही भक्तिसे अन्तिम (मारणान्ति की) सल्लेखना की भावना करना चाहिए ॥१७५।। ‘मरणके अन्त में (मरते समय ) मै अवश्य ही विधिपूर्वक सल्लेखना को करूँगा', इस प्रकार की भावनासे परिणत श्रावक को अनागत भी यह सल्लेखनारूप शीलब्रत पालन करना चाहिए ॥१.६।।अवश्यम्भाबी मरणके समय कषायों को कृश करने के साथशरीरके कृश करने में व्यापार करने वाले पुरुष को समाधिमरण रागादि भावोंके नहीं होनेसे आत्मघातरूप नहीं है।।१७७।। हाँ, जो पुरुष कषायाविष्ट होकर कुम्भक (श्वास-निरोध) जल, अग्नि, विष और शस्त्रादिकोंसे प्राणों का मात करता है, उसका वह मरण सचमुच आत्मघात हैं ॥१७८।। इस समाधिमरणमें यतः हिंसाके Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह इति यी व्रतरक्षार्थ सततं पालयति सकलशीलानि । वरयति पतिवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्रीः ॥ १८० अतिचाराः सम्यक्त्वे व्रतेषु शोलेषु पञ्च पञ्चेति । सप्ततिरमी यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनो हेयाः ॥ १८१ शङ्का तथैव काङ्क्षा विचिकित्सा संस्तवोऽन्यदृष्टीनाम् । मनसा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ।। १८२ छेदनताडनबन्धाः भारस्यारोपणं समधिकस्य । पानान्नयोश्च रोधः पञ्चाहिंसाव्रतस्येति ।। १८३ मिथ्योपदेशदानं रहसोऽभ्याख्यान कूटलेखकृती । न्यासापहारवचनं साकार मन्त्रभेदश्च ।। १८४ प्रतिरूपव्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् । राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे च ।। १८५ स्मरतीवाभिनिवेशानङ्गक्रीडान्य परिणयनकरणम्। अपरिगृहीतेत रयोर्गमने चेत्वरिकयोः पञ्च ।। १८६ वास्तुक्षेत्राष्टापद हिरण्यधनधान्यदासीनाम् । कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रियाः पञ्च ॥ १८७ ऊर्ध्व मधस्तात्तिर्यक् व्यतिक्रमाः क्षेत्रवृद्धिराधानम् । स्मृत्यन्तरस्य गदिता: पञ्चेति प्रथमशीलस्य ।। १८८ ११८ प्रेषस्य संप्रयोजनमानयनं शब्दरूपविनिपात्तौ । क्षेपोऽपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पञ्चेति ॥ १८९ कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् । असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पञ्चेति ॥ १९० कारणभूत कषाय क्षीणता को प्राप्त कराये जाते है, अतः आचार्योंने सल्लेखना को अहिंसा की सिद्धि के लिए ही कहा है ।। १७९।। इस प्रकार जो गृहस्थ पुरुष अहिंसादि व्रतों की रक्षाके लिए निरन्तर सभी शीलव्रतों को पालता है, उसे शिवपदरूपलक्ष्मी उत्कण्ठित पतिवरा कन्या के समान स्वयं ही बरण करती हैं ॥ १८० ॥ सम्यग्दर्शनमें, पांचों व्रतों में तथा सल्लेखना सहित सातों शीलोंमें पांच-पांच अतिचार कहे गये हैं । वे सर्व मिलकर सत्तर होते है । ये अतीचार यथार्थ शुद्धिके प्रतिबन्धक है, अतः छोडने के योग्य है ।। ८१ ।। जिनोक्ततत्त्वमें शंका करना, सांसारिक भोगों की आकांक्षा रखना, ग्लानि करना, मिथ्यादृष्टियों की वचनसे स्तुति करना और मनसे उनकी प्रशंसा करना, ये पांच सम्यग्दर्शनके अतीचार हैं ।। १८२ ।। अपने अधीन मनुष्य- पशुओंके अंग छेदना, ताडन करना, बांधना, अधिक भार का लादना और अन्न-पान का निरोध करना ये पांच अहिंसा व्रत के अतीचार है ।। १८३॥ मिथ्या उपदेश देना, स्त्री-पुरुषों की गुप्त बातों को कहना, झूठे लेख लिखना, धरोहर के अपहारक वचन कहना और साकार मंत्रभेद ये पांच सत्याणुव्रत के अतीचार है ।। १८४ ।। प्रतिरूपक व्यवहार, स्तेन-प्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध राज्यातिक्रम, और हीनाधिकमानोन्मान, ये पांच अचौ व्रत अतीचार है ।। १८५ ॥ कामतीव्राभिनिवेश, अनंगक्रीडा, अन्यविवाहकरण, अपरिगृहीतइत्वरिकागमन और परिगृहोत - इत्वरिकागमन, ये पाँच ब्रह्मचर्याणुवनके अतीचार है ॥ १८६॥ वास्तुक्षेत्र, हिरण्य- सुवर्ण, धन-धान्य, दासी दास और कुप्यके वस्त्र -भाजनरूप दोनों भेदों में भी स्वीकृत परिमाणका उल्लंघन करना, ये पांच परिग्रहपरिमाणुव्रत के अतीचार हैं ।। १८७। ऊर्ध्वातिक्रम, अधस्तात्व्यतिक्रम, तिर्यक् व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान, ये दिव्रतरूप प्रथम शीलके पांच अतीचार हैं ।। १८८ ।। प्रेष्य-प्रयोग, आनयन, शब्दानुपात, रूपानुपात, और पुद्गलक्षेप, ये पांच देशव्रतरूप द्वितीयशील अतीचार हैं ।। १८९॥ कन्दर्प, कौत्कुच्य, भोगानर्थक्य, मौखर्य और असमीक्षिताधिकरण,ये पांच अनर्थदंडव्रतरूप तृतीय शीलव्रतके अतीचार है ॥ १९०॥ वचनदुः प्रणिधान, मनोदा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरा पार्थसिद्धयुपाय ११९ वचनमनः कायातां दुःप्रणिधानमनादरश्चैव । स्मृत्यनुपस्थानयुताः पञ्चेति चतुर्थशीलस्य ।। १९१ अनवेक्षिताप्रमाजितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः । स्मृत्यनुपस्थानमनादरश्च पञ्चोपवासस्य ॥। १९२ आहारो हि सचित्तः सचित्तमिश्रः सचित्तसम्बन्धः । godasभिषवोऽपि च पञ्चामी षष्ठशीलस्य ।। १०३ परदातृव्यपदेश: सचित्त निक्षेपतत्पिधाने च । कालस्यातिक्रमणं मात्सर्त्य चेत्यतिथिदाने ।। १९४ जीवितमरणाशंसे सुहृदनुराग सुखानुबन्धश्च। सनिदानः पञ्चैते भवन्ति सल्लेखनाकाले ।। १९५ इत्येतानतिचारानपरानपि सम्प्रतर्व्य परिवर्ज्य । सम्यक्त्वव्रतशीलै रमलैः पुरुषार्थसिद्धिमेत्य चिरात ।। १९६ चारित्रान्तर्भावात्तपोऽपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् । अनिगूहित निजवीर्यैस्तदपि निवेव्यं समाहितस्वान्तैः ॥ १९७ अनशनमवमोदर्य विविक्तशय्यासनं रसत्यागः । कायक्लेशो वृत्तेः संख्या च निषेव्यमिति तपोबाह्यम् ॥। १९८ विनयो वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः । स्वाध्यायोऽथ ध्यानं भवति निषेध्यं तपोऽन्तरङ्गमिति ।। १९९ 'जिनपुङ्गवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् । सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्ति च निषेव्यमेतदपि ।। २०० इद मावश्यकषट्कं समतास्तववन्दना प्रतिकमणम् । प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्तव्यम् ॥ २०१ प्रणिधान, कायदुः प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान, ये पांच सामायिकशिक्षाव्रतरूप चतुर्थ शीलव्रतके अतीचार है ॥ १९१ ।। अनवेक्षित अप्रमार्जितादान अनवेक्षित अप्रमार्जित संस्तर, अनवेक्षित अप्रमार्जित - उत्सर्ग, स्मृत्यनुपस्थान और अनादर ये पाँच प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतरूप पंचमशीलके अतीचार हैं ।। १९२॥ सचित्ताहार, सचित्तसंमिश्र, सचित्तसम्बन्ध, दुष्पक्व और अभिषव आहार, ये पाँच भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रतरूप षष्ठ शील के अतीचार हैं ॥ १९३॥ परदातृ-व्यपदेश, सचित्त निक्षेप, सचित्तपिधान, कालातिक्रमण और मात्सर्य, ये पांच अतिथि संविभागशिक्षाव्रतरूप सप्तम शील के अतीचार हैं ।। १९४ । । जीविताशंसा, मरणाशंसा, सुहृदनुराग, सुखानुबन्ध और निदान, ये पांच अतीचार सल्लेखना काल में होते हैं ।। १९५।। इन उपर्युक्त सत्तर अतीचारों को, तथा इसी प्रकार के संभव अन्य भी अतिचारों को स्वयं विचार करके छोड़ने वाला श्रावक निर्मल सम्यक्त्व, व्रत और शीलोंके द्वारा शीघ्र ही पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त होता हैं । । १९६ ॥ चारित्रमें अन्तर्भाव होने से तपभी मोक्षका कारण आगममें कहा गया हैं, इसलिए आपने बल-वीर्यकी नहीं छिपाकर सावधान- चित्त श्रावकोंको उस तपका भी सेवन करना चाहिए ।।१९७। वह तप दो प्रकारका है - बाह्य तप और अन्तरंग तप । इनमेंसे बाह्य तप छह प्रकारका है- अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश । इन तपोंका यथाशक्ति सेवन करे || १९८ ।। विनय, वैयावृत्त्य, प्रायश्चित्त, उत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान ये छह अन्तरंग तप हैं, इनका भी आचरण करना चाहिए ।।१९९ ॥ जिनेश्वरदेवके प्रवचन में मुनीश्वरोंका जो आचरण कहा गया है, उसे भी अपनी पदवी और शक्तिका भले प्रकारसे विचार करके पालन करना चाहिए ॥ २०० ॥ जिनागममें मुनियोंके छह आवश्यक कर्त्तव्य कहे गये है- सामायिक, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रावकाचार-संग्रह सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य। मनसः सम्यग्दण्डो गुप्नीनांत्रितयमवगन्तव्यम्।।२०२ सम्यग्गमनागमनं सम्यग्माषा तथषणा सम्यक् । सम्यग्ग्रहनिक्षेपो व्युत्सर्गः सम्यगिति समितिः।।२०३ धर्म: सेव्यः क्षान्तिप॑दुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् । आकिञ्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ।। २०४ अध्रु वमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमास्रवो जन्म। लोकवृषबोधिसंवर निर्जरा: सततमनुप्रेक्षाः ।।२०५ क्षत्तृष्णा हिममष्णं नग्नत्वं याचनाऽरतिरलामः । दंशो मशकादीनामाकोशो व्याधिदुःखमङ्गमलम ।। २०६ स्पर्शश्च तणादीनामज्ञानमदर्शन तथा प्रज्ञा। सत्कारपुरस्कारः शय्या चर्या वधो निषद्या स्त्री।। २०७ द्वाविशतिरप्यते परिषोढव्या परीषहाः सततम् । मंक्लेशमुक्तमनसा संक्लेशनिमित्तभीतेन ।। २०८ इति रत्नत्रयमेतत्प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन । परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषता ।। २०९ बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य । पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्तध्यं सपदि परिपूर्णम् । २१० असमग्न भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ।। २२१ स्तवन,वन्दना,प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । गृहस्थको यशाशक्ति इन्हें भी करना चाहिए २०१।। मुनिजन तीन गुप्तियों को धारण करते हैं-मनोगुप्ति-मनका सम्यक् निग्रह, वचनगप्ति-वचनका सम्यक् निरोध और कायगुप्ति-कायका सम्यक् नियमन । गृहस्थकीभी यशाशक्ति मन-वचन-कायको वशमें रखना चाहिए ।।२०२॥ साधु पांच समितियोंका पालन करते है-ईर्यासमिति-सावधानीपूर्वक गमनागमन करना, भाषासमिति-सम्यक् भाषा बोलना, एषणासमिति. आहार की शुद्धि रखना, आदाननिक्षेपणसमिति-देख-शोधकर उपकरणादिको लेना और रखना, तथा व्यत्सर्गसमिति-निर्जन्तु स्थानपर मल-मूत्रादिको क्षेपण करना । गृहस्थको भी उक्त सभी कार्यो में यथासम्भव यावधानी रखना चाहिए ॥२०३।। साधुजन उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव शौच,सत्य, संयम, तप, त्याग आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दश धर्मोको धारण करते है । श्रावक भी तथाशक्ति इनको धारण करें ।।२०४।।अनित्य, अशरण, जन्म (संसार) एकत्व अन्यत्व, अशचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मभावना, इन बारह अनुप्रेक्षाओंका भी निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए ॥२०५।। मुनिजन इस बाईस परीषहोंको सदा सहन करते हैक्षधा, तृषा, शीत, उष्ण, नग्नता, याचना, अरति, अलाभ, दंशमशक, आक्रोश, रोग, मल, तणस्पर्श, अज्ञान, अदर्शन, प्रज्ञा, सत्कार पुरस्कार, शय्या, चर्या, वध, निषद्या और स्त्रीपरीषह । संसार-संक्लेशके निमित्तोंसे भयभीत श्रावकों संक्लेशसे विमुक्तचित्त होकर ये बाईस परीषह भी यथासंभव सदा सहन करना चाहिए ।।२०६-२०८।। इस प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप यह रत्नत्रयधर्म निराबाध मुक्तिकी अभिलाषा रखनेवाले गृहस्थको विकल (एकदेश) रूपसे भी प्रतिसमय निरन्तर परिपालन करना चाहिए ॥२०॥पुनः नित्य उद्यमशील गृहस्थोंको बोधिलाभका अवसर पाकर और मुनियोंका पद अवलम्बनकर इस रत्नधर्मको शीघ्र ही परिपूर्ण करना चाहिए ।।२१०॥ . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषार्थसिद्धययुपाय १२१ येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१२ येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य डन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१३ येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति । २१४ योगात्प्रदेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात्। दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च।।२१५ दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ।। २१६ सम्यकचारित्राभ्यां तीर्थङ्कराहारकर्मणो बन्धः । योऽप्युपदिष्ट: समये न नयविदां सोऽपि दोषाय ।। २१७ सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थङ्कराहार-बन्धको भवतः । योगकषायो नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ।। २१८ ननु कथमेवं सिद्धयति देवायुः प्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः । सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ।। २.९ रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यत्तु पुण्य शुभोषयोगोऽयमपराधः ।। २२० अपूर्ण रत्नमय धर्मको धारण करनेवाले पुरुषके जो कर्म-बन्ध होता हैं, वह विपक्षी रागकृत है, रत्नत्रय-कृत नहीं हैं, जो मीक्षका उपाय हैं, कर्मबन्धनका उपाय नहीं है ।। २११ ।। भावार्थ-एक देश या अपूर्ण रत्नमय धर्मके धारक सम्यग्दृष्टि पुरुषके शुभ भावके कारण जो पुण्यबन्ध होता हैं, उसका रत्नत्रय परिणाम मोक्षका ही कारण हैं। इस आत्माके जिस अंशसे सम्यग्दर्शन हैं,उस अंशसे उसके कर्मबन्ध नहीं है। किन्तु जिस अंशसे राग हैं,उस अंशसे इसके कर्म-वन्ध होता हैं।।२१२।। जिस अंशसे सम्यग्ज्ञान हैं, उस अंशसे उसके कर्म-बन्ध नहीं है। किन्तु जिस अंशसे राग है,उस अंशसे इसके कर्म-बन्ध होता हैं ॥२१३॥ जिस अंशसे सम्यक्चरित्र हैं, उस अंशसे इसके कर्म-बन्ध नहीं है। किन्तु जिस अंशसे राग हैं, उस अंशसे इसके कर्म-बन्धहोता है।।२१४।। मन-वचन-कायके परिस्पन्दरूप योगसे प्रदेश बन्ध (और प्रकृति बन्ध) होता है,तथा कषायसे स्थितिबन्ध (और अनुभागबन्ध) होता है । सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र न योगरूप हैं और न कषायरूप हैं। (अतः रत्नत्रयधर्म-परिणाम जीवके किसी भी कर्म-बन्धका कारण नहीं होता हैं ॥२१५॥ आत्मस्वरूपका विनिश्चय सम्यग्दर्शन हैं, आत्मस्वरूपका परिज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा जाता हैं और आत्मस्वरूपमें अवस्थान सम्यक्चारित्र हैं। फिर इन तीनोंसे कर्मबन्ध कैसे हो सकता हैं? अर्थात् रत्नत्रयसे कर्मबन्ध नहीं होता ।।२१६॥ आगममें जो सम्यग्दर्शनसे तीर्थकर प्रकृतिका और सम्यक्चारित्रसे आहारक-प्रकृतिका कर्म-बन्ध कहा गया है,वह भी नय वेत्ताओं को दोषके लिए नहीं है ।।२१७।। क्योंकि सम्यक्त्व और चारित्रके होते हुए तज्जातीय योग और कषाय तीर्थकर और आहारक प्रकृतिका बन्ध करनेवाले होते है; यदि तज्जातीय योग और कषाय नहीं होते हैं, तो सम्यक्त्व और चारित्र उन दोनों प्रकृतियोंके बन्धक नहीं होते है । वस्तुतः तीर्थकर और आहारक प्रकृतिके बन्धके समय सम्यक्त्व और चारित्र तो उदासीन रूपसे ही रहते है।।२१८॥ यहाँ कोई शंका करता है कि फिर रत्नत्रयधारक मुनिवरोंके सर्वजन-सुप्रसिद्ध यह देवायु आदिक पुण्य-प्रकृतियोंका बन्ध किस प्रकारसे सिद्ध होता है।।२१९। ग्रन्थकार उक्त शंकाका समा. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रावकाचार-संग्रह एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि। इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः ।। २२१ सम्यक्त्वचरित्रबोधलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येष : मुख्योपचाररूपः प्रापयति परमपदं पुरुषम् ।।२२२ नित्यमपि निरुपलेप: स्वरूपसमवस्थितो निरपघातः।। गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरति विशदतमः ।। २२३ कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मा । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो नन्दति सदैव ।। २२४ एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।।२२५ वणः कृतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि । वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ।। २२६ धान करते हुए कहते हैं कि इस लोकमें रत्नत्रय तो निर्वाण (मोक्ष) का ही कारण हैं, अन्यका नहीं। रत्नत्रय-धारक मुनिवरोंके जो पुण्य प्रकृतियोंका आस्रव होता हैं वह उसके शुभोपयोगका अपराध है,रत्नत्रयका नहीं ।।२२०।। एक वस्तुमें अत्यन्त विरुद्ध दो कार्योके मिलापसे वैसा व्यवहार विरुद्ध भी रूढिको प्राप्त हो रहा है, जैसे कि 'घी जलाता है' यह व्यवहार लोकमें प्रचलित हो रहा हैं ॥२२१॥ भावार्थ-जैसे अग्नि दाहरूप कार्यमें कारण हैं और घी अदाहरूप कार्य में कारण हैं, अर्थात् दाहका उपशामक हैं। किन्तु जब घी अग्निका संयोग पाकर उष्णताको प्राप्त होता हैं,तब यह कहा जाता है कि धी ने अमुक पुरुषको जला दिया। इसी प्रकार शुभोपयोग पुण्यबन्धरूप कार्यमें कारण हैं और रत्नत्रय मोक्षरूप कार्यमें कारण है । परन्तु जब गुणस्थानारोहणकी परिपाटीमें दोनों एकत्र मिलते है,तब व्यवहारसे यह कहा जाता है कि रत्नत्रय धारक पुरुषोंके देवायु आदिक पुण्य प्रकृतियोंका बन्ध होता हैं । यदि यथार्थमें रत्नत्रयको कर्म-बन्धका कारण माना जायगा,तो फिर मोक्षका सर्वथा अभाव ही हो जायगा। अतएव सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्र लक्षणवाला यह निश्चय और व्यवहाररूप रत्नत्रय ही मोक्षका मार्ग है और यही पुरुषको परम परमात्मपद प्राप्त कराता है अर्थात् मोक्षले जाता है।।२२२।। उस परम सिद्ध पदमें यह परम पुरुष आत्मा आकाशके समान सदा ही कर्म-रजके लेपसे रहित,स्वरूप में विराजमान,निरुपद्रव और निर्मलतम अवस्थाका धारक होकर सदा ही प्रकाशमान होता है।।२२३।। यह कृतकृत्य, सर्व पदार्थोमें ज्ञाता, परमानन्दमें निमग्न ज्ञानशरीरी परमात्मा उस परमपद सिद्धलोकमें सदैव आनन्दित रहता है।।२२४।। जैसे दहीको मथनेवाली गोपी मथानीकी रस्सीको एक हाथसे खींचती है और दूसरे हाथसे उसे ढीली (शिथिल) करती है, उसी प्रकार यह अनेकान्तरूपी जैनी नीति वस्तु तत्त्वको एक धर्मसे आकर्षण करती हुई और दूसरे धर्मसे उसे शिथिल करती हुई सदा जयवन्ती रहती हैं।।२२५॥नाना प्रकारके वर्णो (अक्षरों) से पद बनते है, नाना पदोंसे वाक्य बनते है और नाना वाक्योंके द्वारा यह पवित्र शास्त्र रचा गया है । हमारे द्वारा कुछ भी नहीं किया गया है। यह कहकर ग्रंथकारने अपनी लघुता प्रकट की है ।। २२६।। इति श्री अमृतचन्द्राचार्य-विरचित पुरुषार्थसिद्धयुपायः समाप्तः । .. : Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन . षष्ठ आश्वास धर्मात्किलैष जन्तुर्भवति सुखी जगति स च पुनर्धर्मः । किरूप: किभेद: किमुपायः किंफलश्च जायेत॥१ यस्मादभ्युदयः पुंसां निःश्रेयसफलाश्रयः । वन्दति विदिताम्नायस्तं धर्म धर्मसूरयः ।। २ स प्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मा गृहस्थेतरगोचरः प्रवृत्तिर्मुक्तिहेतौ स्यानिवृत्तिभवकारणात् ।। ३ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रत्रयं मोक्षस्य कारणम् । संसारस्य च मीमांस्यं मिथ्यात्वादिचतुष्टयम् ।। ४ सम्यक्त्वं भावनामाहुर्युक्तियुक्तेषु वस्तुषु । मोहसन्देहविभ्रान्तिवजितं ज्ञानमुच्यते ॥ ५ कर्मादाननिमित्तायाः क्रियायाः परमं शमम् । चारित्रोचितचातुर्याश्चारुचारित्रमूचिरे ।। ६ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रविपर्ययपरं मनः । मिथ्यात्वं विष भाषन्ते सूरयः सर्ववेदिनः ॥७ अत्र दुरागमवासनाविलासिनीवासितचेतसां प्रवर्तितप्राकृतलोकानोकहोन्मूलनसमयस्रोतसां सदाचाराचरणचातुरी विदूरवर्तिनां परवादिनां मुक्तेरुपाये काये च बहुवृत्तयः खलु प्रवृत्तयः । तथा धर्मसे यह प्राणी जगत्में सुखी होता है। उस धर्मका क्या स्वरूप हैं? कितने भेद है? तथा उसका क्या उपाय और क्या फल हैं ॥१॥ जिससे मनुष्योंके ऐसे अभ्युदयकी प्राप्ति होती है, जिसका फल मोक्ष हैं उसे आम्नायके ज्ञाता धर्माचार्य धर्म कहते है ॥२॥ वह धर्म प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप है। मोक्षके कारणोंमें लगनेको प्रवृत्ति और संसारके कारणोंसे बचनेको निवृत्ति कहते है। वह धर्म गहस्थ धर्म और मनि धर्मके भेदसे दो प्रकारका है॥३॥ अब प्रश्न यह है कि मक्तिका कारण क्या हैं और संसारका कारण क्या हैं? तथा गृहस्थोंका धर्म क्या हैं और मुनियोंका धर्म क्या हैं? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र मोक्षके कारण हैं । तथा मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग संसारके कारण हैं।।४।। युक्तियुक्त वस्तुओंमें दृढ आस्थाका होना सम्यग्दर्शन हैं और मोह, सन्देह तथा भ्रमसे रहित ज्ञानका होना सम्यग्ज्ञान है ।।५।। जिन कामोंके करनेसे कर्मोका बन्ध होता है उन कामोंके न करनेको चारित्रमें चतुर आचार्य सम्यक्चारित्र कहते है ।।६।। तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्मक्चारित्रके विषय में विपरीत मानसिक प्रवृत्तिको सर्वविद् आचार्योने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र कहा है ।।७।। ____ अन्य मतवाले मुक्तिका स्वरूप तथा उपाय अलग-अलग बतलाते है। १. सैद्धान्तिक वैशेषिकोंका कहना है कि सशरीर का शरीर परम शिवके द्वारा प्राप्त हुए मन्त्र-तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करना और उनपर श्रद्धा मात्र रखना मोक्षका कारण है । २.तार्किक वैशेषिकोंका कहना है कि द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, विशेष और अभाव इन सात पदार्थोके साधर्म्य और वैधर्म्य मूलक ज्ञान मात्रसे मोक्ष होता है। ३. पाशुपतोंका कहना है कि तीनों समय प्रातः दोपहर और शामको भस्म लगाने,शिवलिंगकी पूजा करने, उसके सामने जलपात्र स्थापित करने,प्रदक्षिणा करने और आत्मदमन आदि क्रियाकाण्डमात्रके अनुष्ठानसे मोक्ष होता है । ४. कुलाचार्यकोंका कहना है कि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्रावकाचार-संग्रह हि-'सकलनिष्कलाप्तप्राप्तमन्त्रतन्त्रापेक्षदीक्षालक्षणाच्छद्धामात्रानुसरणान्मोक्ष: 'इति सैद्धान्तवैशेविकाः, द्रव्यगुणकर्मसामान्यसमवायान्त्यविशेषाभावाभिधानानां पदार्थानां साधर्म्यवैधावबोधतन्त्राज्जानमात्रात्' इति ताकिकवशेषिकाः, 'त्रिकालभस्मोद्धूलनेज्यागडुकप्रदानप्रदक्षिणीकारणास्मविडम्बनादिक्रियाकाण्डमात्राधिष्ठानादनुष्ठानात्' इति पाशपताः, सर्वेष पेयापेयमक्ष्याभक्ष्याविषु निःशङ्कचित्ताद् वृत्तात्' इति कुलाचार्यकाः । तथा च त्रिकमतोक्ति:-'मदिरामोदमेदुरवदनस्तरसरसप्रसन्नहृदयः सव्यपाश्र्वविनिवेशितशक्तिः शक्तिर्मुद्रासनधर ; स्वयमुमामहेश्वरायमाणः कृष्णया शर्वाणीश्वरमाराधयेदिति । प्रकृतिपुरुषयोविवेकमतेः ख्याते:' इति सांख्याः, 'नैरात्म्यादिनिवेवित. संभावनातो भावनातः' इति दशलशिष्या:, अङ्गाराजनादिवत्स्वभावादेव कालुष्योत्कर्षप्रवृत्तस्य चित्तस्य न कुतश्चिद्विशद्धचित्तवृत्तिः इति जैमिनीयाः, 'सति मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते ततः परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावे कस्यासो मोक्षः' इति समवाप्तसमस्तनास्तिकाधिपत्या बार्हस्पत्याः,'परमब्रह्मवर्शनवशादशेषभेवसंवेदनाविद्याविनाशात्' इति वेवान्तवादिनः, 'नवान्तस्तत्वमस्तीह न बहिस्तत्त्वमञ्जसा । विचारगोचरातीतेः शून्यता श्रेयसी ततः ।।८ इति पश्यतोहरा: प्रकाशितशून्यतैकान्ततिमिराः शाक्य विशेषाः, तथा 'ज्ञानसुखदुःखेच्छादेषप्रयत्नधर्मसंस्काराणा नवसंख्यावसराणामात्मगुणानामत्यन्तोन्मुक्तिमश्तिः' इति काणावाः । तदुक्तम्"बहिः शरीराद्यद्रूपमात्मन: संप्रतीयते । उक्तं तदेव मुक्तस्य मुनिना कणभोजिना" ।। ९ ___निरामयचित्तोत्पत्तिलक्षणो मोक्षक्षण इति ताथागताः । तदुक्तम्निःशंक चित्तसे समस्त पीने योग्य,न पीने योग्य, खाने योग्य, न खाने योग्य पदार्थोमें प्रवृत्ति करनेसे मोक्ष होता है। त्रिकमतमें लिखा है कि शराबकी सुगन्धसे मुखको सुवासित करके, मांसके स्वादसे हृदयको प्रसन्न करके और वाम पार्श्वमें स्त्री शक्तिको स्थापित करके योनि-मुद्रा आसनका धारक स्वयं ही शिव और पार्वती बनकर मदिराके द्वारा उमा और महेश्वरकी आराधना करे । ५.सांख्योंका कहना हैं कि प्रकृति और पुरुषके भेदज्ञानसे मोक्ष होता हैं । ६. बुद्धके शिष्योंका कहना है कि नैरात्म्य भावनाके अभ्याससे मोक्ष होता है । ७. जैमिनीयोंका मत हैं कि कोयले और अंजनकी तरह स्वभावसे ही कलुषित चित्तकी चित्तवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती। अर्थात् जैसे कोयलेको घिसनेपर भी वह सफेद नहीं हो सकता,उसी प्रकार स्वभावसे ही मलिन चित्त विशुद्ध नहीं हो सकता । ८. नास्तिक शिरोमणि बृहस्पतिके अनुयायी चार्वाकोंका कहना है कि धर्मीके होनेपर ही धर्मोका विचार किया जाता हैं। अतः परलोकमें जानेवाली किसी आत्माके न होनेसे जब परलोक ही नहीं हैं तब मोक्ष होता किसको हैं? अर्थात् जब आत्मा ही नहीं है तो मोक्षकी बात ही बेकार हैं । ९. वेदात्तियोंका मत है कि परम ब्रह्मका दर्शन होनेसे समस्त भेदज्ञानको करानेवाली अविद्याका नाश हो जाता है और उससे मोक्ष की प्राप्ति होती हैं । १०. दिखाई देनेवाले विश्वका भी निषेध करनेवाले शत्यतैकान्तवादी बौद्धविशेषोंका मत है कि न कोई अन्तस्तत्त्व आत्मा वगैरह है और न कोई वास्तविक बाहरी तत्त्व घटादिक ही है,दोनों ही विचारगोचर नहीं हैं, अतः शून्यता ही श्रेष्ठ हैं ।।८।। ११. कणादके अनुयायियोंका मत है कि ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म और अधर्म, आत्माके इन नौ गुणोंका अत्यन्त अभाव हो जानेको हो मुक्ति कहते है। कहा भी है-'शरीरसे बाहर आत्माका जो स्वरूप प्रतीत होता है,कणाद मुनिने उसीको मुक्तात्माका स्वरूप कहा है। ९ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन "दिश न कांचिद्विदिशं न कांचिन्नवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। १० दिशं न कांचिद्विदिशं न कांनिन्नवानि गच्छति नान्तरिक्षम । जीवस्तथा निर्वतिमभ्यपतः क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम्" ।। ११ 'बुद्धिमनोऽहंकार विरहादखिलेन्द्रियोपशमावहात्तदा द्रष्टः स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिः' इति कापिला: । 'यथा घटविघ ने घटाकाशमाकाशीभवति तथा देहोच्छेदात्सर्वः प्राणी परब्रह्मणि लीयते' इति ब्रह्माद्वैतवादिनः। अज्ञातपरमार्थानामेवमन्यऽपि दुर्नया: । मिथ्याशा न गण्यन्ते जात्यन्धानामिव द्विपे ।। १२ प्राय: संप्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निर्लननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम् ।। १३ दृष्टान्ता: सन्त्यसख्येया मतिस्तद्वशतिनो । कि न कुर्यमही धूर्ता विवेकरहितामिमाम् ।। १४ दुराग्रहग्रहग्रस्ते विद्वान्पुंसि करोतु किम् । कृष्णपाषाणखण्डेषु मार्दवाय न तोयदः ।। १५ ईर्ते युक्ति यदेवात्र तदेव परमार्थसत् । यद्भानुदीप्तिवत्तस्याः पक्षपातोऽस्ति न क्वचित् ॥ १६ श्रद्धा श्रेयोऽथिनां श्रेय:संश्रयाय न केवला । बक्षभितवशात्पाको जायेत किमदम्बरे ।। १७ पात्रावेशादिवन्मन्त्रादात्मदोषपरिक्षय: । दृश्येत यदि को नाम कृती क्लिश्येत संयमैः ॥ १८ १२. बौद्धोंका कहना हैं कि निराश्रय चित्तकी उत्पत्ति हो जाना हो मोक्ष हैं। कहा भी हैं-"जैसे दीपक वुझ जानेपर न किसी दिशाको चला जाता है,न किसी विदिशाको चला जाता हैं । न नीचे पृथ्वीमें समा जाता हैं और न ऊपर आकाश में समा जाता है, किन्तु तेलके क्षय हो जानेसे शान्त हो जाता है। उसी तरह निर्माणको प्राप्त हुआ जीव न किसी दिशाको जाता हैं,न किसी विदिशाको जाता हैं,न पृथ्वीमें समा जाता हैं और न ऊपर आकाशमें समा जाता है, किन्तु क्लेशोंके क्षय हो जानेसे शान्त हो जाता हैं"||१०-११।। १३.बुद्धि, मन और अहंकारका अभाव हो जानेके कारण समस्त इन्द्रियोंके शान्त हो जानेसे पुरुषका अपने चैतन्य स्वरूपमें स्थित होना मोक्ष हैं, ऐसा कपिल ऋषिके अनुयायी मानते हैं । ब्रह्माद्वैतवादियोंका कहना हैं कि जैसे घटके फूट जानेपर घटसे रोका हुआ आकाश आकाशमें मिल जाता हैं, उसी तरह शरीरका विनाश हो जानेपर सव प्राणी परम ब्रह्ममें लीन हो जाते है। जिस तरह जन्मान्ध मनुष्य हाथीके विषयमें विचित्र कल्पनाएँ कर लेते हैं, उसी तरह परमार्थको न जाननेवाले मिथ्यामतवादियोंने अन्य भी अनेक मत कल्पित कर रखे हैं, उनकी गणना करना भी कठिन है ।।१२।। (इस प्रकार मोक्षके विषयमें अन्य मतोंको बतला कर आचार्य विचारते हैं-) जैसे नकटे मनुष्यको स्वच्छ दर्पण दिखानेसे उसे क्रोध आता है, वैसे ही आजकल सन्मार्गका उपदेश भी प्रायः लोगोंके क्रोधका कारण होता है ॥१३॥ संसारमें दृष्टान्तोंकी कमी नहीं हैं, दृष्टान्तोंको सुनकर लोगोंकी बुद्धि उनके आधीन हो जाती हैं । ठीक ही है-धूर्त लोग इस विवेक शून्य पृश्वीवर क्या नहीं कर सकते॥१४। जो पुरुष दुराग्रह रूपी राहुसे ग्रस लिया गया है अर्थात् जो अपनी बुरी हठको पकडे हुए है उस पुरुषको विद्वान् कैसे समझावें । मेघके बरसनेसे काले पत्थरके टुकडोंमें कोमलता नहीं आती॥१५॥फिर भी इस लोकमें जो वस्तु युक्तिसिद्ध हो वही सत्य हैं,क्योंकि सूर्य की किरणोंकी तरह युक्ति भी किसीका पक्षपात नहीं करती ।।१६।। (इस प्रकार मनमें विचार कर आचार्य यहाँसे उक्त मतान्तरोंका क्रमशः निराकरण करते है-) १. कल्याण चाहनेवालोंका कल्याण केवल श्रद्धा मात्रसे नहीं हो सकता । क्या भूख लगनेसे ही गूलर पक जाते Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्रावकाचार-संग्रह दीक्षाक्षणान्तरात्पूर्व ये दोषा भवसंभवाः । ते पश्चादपि दृश्यन्ते तन्न सा मुक्तिकारणम् ॥ १९ ज्ञानादवगमोऽर्थानां न तत्कार्यसमागमः । तर्षापकर्षयोगि स्यादृष्टमेवान्यथा पयः !। २० ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् । तरोश्छायेव कि लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥ २१ ज्ञानं पङ्गों क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृदयम् । ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ।। २२ उक्तं च "हतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्ट: पश्यन्नपि च पङ्गलः ॥२३ निःशङ्कात्मप्रवृत्तेः स्याद्यदि मोक्षसमीक्षणम् । ठकसूनाकृतां पूर्व पश्चात्कौलेष्वसौं भवेत् ।। २४ अव्यक्तनरयोनित्यं नित्यव्यापिस्वभावयोः । विवेकेन कथं ख्याति सांख्यमुख्या: प्रचक्षते ॥ २५ है? ॥१७॥ उचित व्यक्तिमें आगत भूतावेशकी तरह यदि मन्त्र पाठसे ही आत्माके दोषोंका नाश होता देखा जाता, कौन मनुष्य संयम धारण करनेका क्लेश उठाता ॥१८।। दीक्षा धारण करनेसे पहले जो सांसारिक दोष देखे जाते हैं,दीक्षा धारण करने के बाद भी वे दोष देखे जाते हैं । अतः केवल दीक्षा भी मुक्तिका कारण नहीं है ।।१९।। भावार्थ पहले सैद्धान्त वैशेषिकोंका मत बतलाते हए कहा हैं कि वे मन्त्र-तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करने और उनपर श्रद्धा मात्र रखनेसे मोक्ष मानते है। उसीकी आलोचना करते हुए आचार्य कहते है कि न केवल श्रद्धासे ही मोक्ष प्राप्त हो सकता हैं और न मन्त्र-तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करनेसे ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। श्रद्धा तो मात्र रुचिको बतलाती है,किन्तु किसी चीजपर श्रद्धा हो जाने मात्रसे ही तो वह प्राप्त नहीं हो जाती। इसी तरह दीक्षा धारण कर लेने मात्रसे भी काम नहीं चलता,क्योंकि दीक्षा लेनेपर भी यदि सांसारिक दोषोंके विनाशका प्रयत्न न किया जाये तो वे दोष जैसे दीक्षा लेनेसे पहले देखे जाते हैं वैसे ही दीक्षा धारण करनेके बादमें भी देखे जाते हैं। यदि केवल श्रद्धा या दीक्षासे ही काम चल सकता होता तो संयम धारण करनेके कष्टोंको उठानेकी जरूरत ही नहीं रहती अतः ये मोक्षके कारण नहीं माने जा सकते। (अब आचार्य बिना ज्ञानकी क्रियाको और बिना क्रियाके ज्ञानको व्यर्थ बतलाते है-) २. ३. ज्ञानसे पदार्थोका बोध होता हैं, किन्तु उन्हें जानने मात्रसे उन पदार्थोका कार्य होता नहीं देखा जाता। यदि ऐसा होता तो पानीके देखते ही प्यास बुझ जानी चाहिए ।।२०॥ तथा ज्ञानहीन पुरुषकी क्रिया फलदायी नहीं होगी । क्या अन्धे मनुष्य वृक्ष को छायाकी तरह उसके फलोंकी शोभाका आनन्द ले सकते है? ।।२१।। क्रियाहीन पंगुका ज्ञान और ज्ञानहीन अन्धेकी क्रिया दोनों ही कार्यकारी नहीं है। अतः ज्ञान,चारित्र और श्रद्धा तीनों ही मिलकर मोक्षका कारण है ।।२२।। कहा भी हैं क्रियाकाचरणसे शन्य ज्ञान भी व्यर्थ हैं और अज्ञानीकी क्रिया भी व्यर्थ हैं। देखो,एक जंगल में आग लगमेपर अन्धा मनुष्य दौड-भाग करके भी नहीं बच सका,क्योंकि वह देख नहीं सकता था और लँगडा मनष्य आगको देखते हुए भी न भाग सकनेके कारण उसीमें जल मरा।।२३। (कौल मतवादियोंको आचार्य उत्तर देते है-) ४. यदि मद्य-मांस वगैरहमें निःशङ्क होकर प्रवृत्ति करनेसे मोक्षकी प्राप्ति हो सकती तो सबसे पहले तो ठगों और मांस बेचनेवाले कसाइयोंकी मुक्ति होनी चाहिए। उनके पीछे कौल मतवालोंकी मुक्ति होनी चाहिए।॥२४॥ (इस प्रकार केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मक्तिकी प्राप्तिको असम्भव बतलाकर आगे आचार्य सांख्य मतकी आलोचना करते है.) ५. सांख्य मतमें प्रकृति और पुरुष दोनों व्यापक और नित्य माने गये है। ऐसी अवस्थामें उनमें भेद ग्रहण कैसे सम्भव है? अर्थात् व्यापक और नित्य होनेसे प्रकृति और पुरुष दोनों सदा . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १२७ सर्व चेतसि भासेत वस्तु भावनया स्फुटम् । तावन्मात्रेण मुक्तत्वे मुक्तिः स्याद्विप्रलम्भिनाम् ।।२६ तदुक्तम् ‘पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रनिर्भेद्ये। मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम्" ।। २७ स्वभावान्तर संभूतिर्यत्र तत्र मलक्षयः । कर्तुं शक्यः स्वहेतुभ्यो मणिमुक्ताफलेष्विव ॥ २८ 'तदहर्जस्तनेहातो रक्षोदष्टर्भवस्मतेः । भतानन्वयनाज्जीवः प्रकृतिज्ञः सनातनः" ।। २९ भेदोऽयं यद्यविद्या स्याद्वैचित्र्यं जगतः कुतः । जन्ममृत्युसुखप्रायविवर्तनिवतिभिः ॥ ३० से मिले हुए ही रहते है । तब उनमें भेद ग्रहणका कथन सांख्याचार्य कैसे करते हैं ॥२५॥ (पहले नैरात्म्य भावनासे मुक्ति माननेवाले एक मतका उल्लेख कर आये हैं,उसकी आलोचना करते हुए ग्रन्थकार कहते है-) ६. भावनासे सभी वस्तु चित्तमें स्पष्ट रूपसे झलकने लगती है। यदि केवल उतनेसे ही मुक्ति प्रान्त होती हैं तो ठगोंकी भी मुक्ति हो जायेगी॥२६।।कहा भी है ''सब ओरसे बन्द जेलखाने में अत्यन्त घोर अन्धकारके होते हुए और मेरे आँख बन्द कर लेनेपर भी मुझे अपनी प्रियाका मुख स्पष्ट दिखाई देता हैं"।२७। भावार्थ-आशय यह है कि भावना जैसी भाई जाती हैं वैसी हो वस्तु दिखाई देने लगती हैं । अत: केवल भावनाके बलपर यथार्थ वस्तुकी प्राप्ति नहीं हो सकती। (इस प्रकार नैरात्म्य भावनावादीको उत्तर देकर आचार्य जैमिनिके मतकी आलो. चना करते है । जैमिनिका कहना है कि स्वभाक्से ही कलुषित चित्तकी विशुद्धि नहीं हो सकती। इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते है-(७) जिस वस्तुमें स्वभावान्तर हो सकता है,उसमें अपने कारणोंसे मलका क्षय किया जा सकता है, जैसा कि मणि और मोतियोंमें देखा जाता है अर्थात् माणि मोती वगैरह जन्मसे ही सुमैल पैदा होते है किन्तु बादको उनका मैल दूर करके उन्हें चमकदार बना लिया जाता है । इसी तरह अनादिसे मलिन आत्मासे भी कर्म-जन्य मलिनताको हटाकर उसे विशुद्ध किया जा सकता हैं।।२८।। (अब आत्मा और परलोकको न माननेवाले चावाकोंको उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं . ) ८.उस दिनका पैदा हुआ बच्चा माताके स्तनोंको पीनेकी चेष्टा करता है, राक्षस वगैरह देखे जाते हैं किसी-किसीको पूर्व जन्मका स्मरण भी हो जाता है,तथा आत्मामें पञ्च भूतोंका कोई भी धर्म नहीं पाया जाता । इन बातोंसे प्रकृतिका ज्ञाता जीव सनातन सिद्ध होता हैं।।२९।। भावार्थ-आशय यह हैं कि चार्वाक आत्माको एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता। उसका कहना हैं कि जैसे कई चीजोंके मिलानेसे शराव बन जाती है और उसमें मादकता उत्पन्न हो जाती हैं,उसी तरह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच भूतोंके मिलनेसे एक शक्ति उत्पन्न हो जाती है या प्रकट हो जाती हैं, उसे ही आत्मा कह देते हैं। जब वे पाँचों भूत बिछुड जाते हैं तो देह शक्ति भी नष्ट हो जाती हैं। अतः पञ्चभूतोंके सिवाय आत्मा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं हैं। इसका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि एक तो उसी दिनका जन्मा हुआ बच्चा माताके स्तनोंको पीनेकी चेष्टा करता हुआ देखा जाता हैं,और यदि उसके मुंहमें स्तन लगा दिया जाता हैं तो झट पीने लगता हैं । यदि बच्चे को पूर्व जन्मका संस्कार न होता तो पैदा होते ही उसमें ऐसी चेष्टा नहीं होनी चाहिए थी। यह सब पूर्व जन्मका संस्कार ही हैं। तथा राक्षस व्यन्तरादिक देव देखे जाते है जो अनेक बातें बतलाते हैं। पूर्व जन्मके स्मरणकी कई घटनाएँ सच्ची पाई गई हैं,तथा सबसे बडी बात तो यह हैं कि यदि चैतन्य भूतोंके मेलसे पैदा होता हैं तो उसमें भूतोंका धर्म पाया जाना Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रावकाचार-संग्रह शून्यं तत्त्वमहं वादी साधयामि प्रमाणतः । इत्यास्थायां विरुध्येत सर्वशून्यत्ववादिता ।। ३१ बोधो वा यदि वानन्दो नास्ति मुक्तौ भवोद्भवः । सिद्धसाध्यतयास्माकं न काचित्क्षतिरीक्ष्यते।।३२ न्यक्षवीक्षाविनिर्मोक्षे मोक्षे कि मोक्षिलक्षणम् । ह्यग्नाबन्यदुष्णत्वाल्लक्ष्म लक्ष्यं विचक्षणः ।। ३३ किं च सदाशिवेश्वरादयः संसारिणो मुक्ता वा? संसारित्वे कथमाप्तता? मुक्तत्वे 'क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्ठः पुरुषविशेष ईश्वरस्तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम् इति पतञ्जलिकल्पितम्' ... ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्तिनिसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु। आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्तिर्ज्ञानं च सर्वविषयं भगवंस्तवैव" ।। ३४ चाहिए था, क्योंकि जो वस्तु जिन कारणोंसे पैदा होती हैं उस वस्तुमें उन कारणोंका धर्म पाया जाता है,जैसे मिट्टीसे पैदा होनेवाले घडे में मिट्टीपना रहता हैं,धागोंसे बनाये जाने वाले वस्त्रमें धागे पाये जाते हैं, किन्तु चैतन्यमें पंचभूतोंका कोई धर्म नहीं पाया जाता । पंचभूत तो जड होते हैं उनमें जानने-देखनेकी शक्ति नहीं होती,किन्तु चैतन्यमें जानने-देखनेकी शक्ति पाई जाती हैं। तथा यदि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म हैं तो मोटे शरीरमें अधिक चैतन्य पाया जाना चाहिए था और दूबले शरीरमें कम । किन्तु इसके विपरीत कोई-कोई दुबले-पतले बडे मेधावी और ज्ञानी देखे जाते है और स्थल मनुष्य निर्बुद्धि होते हैं। तथा यदि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म है तो शरीरका हाथ-पैर आदि कट जानेपर उसमें चैतन्यकी कमी हो जानी चाहिए; क्योंकि पंचभूत कम हो गये है किन्तु हाथ-पैर वगैरहके कट जानेपर भी मनुष्यके ज्ञानमें कोई कमी नहीं देखी जाती। इससे सिद्ध है कि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म नहीं है बल्कि एक नित्य द्रव्य आत्माका ही धर्म है। अत: आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है। (अब आचार्य वेदान्तियोंके मतकी आलोचना करते हुए उनसे पूछते है-) ९. यदि यह भेद अविद्याजन्य हैं-अज्ञानमूलक है,तो क्यों कोई मरता है और कोई जन्म लेता है? कोई सुखी और कोई दुखी क्यों देखा जाता है? इस प्रकार संसारमें वैचित्र्य क्यों पाया जाता है।३०।। (अब आचार्य शन्यवादी बौद्धके मनकी आलोचना करते है-) १०. 'मै शून्य तत्त्वको प्रमाणसे सिद्ध करता हूँ', ऐसी प्रतिज्ञा करनेपर सर्वशून्यवादका स्वयं विरोध हो जाता है ॥३१॥ भावार्थ-आशय यह है कि शन्यतावादी अपने मतकी सिद्धि यदि किसी प्रमाणसे करता है तो प्रमाण के वस्तु सिद्ध हो जानेसे शन्यतावाद सिद्ध नहीं हो सकता । और यदि बिना किसी प्रमाणके ही शून्यतावादको सिद्ध मानता है तब तो दुनियामें ऐसी कोई वस्तु ही न रहेगी जिसे सिद्ध न किया जा सके । और ऐसी अवस्थामें बिना प्रमाणके ही शून्यतावादके विरुद्ध अशून्यतावाद भी सिद्ध हो जायेगा । अतः सर्वशून्यतावाद भी ठीक नहीं है। (अब आचार्य मुक्तिमें आत्माके विशेष गुणोंका विनाश माननेवाले कणाद मता. नयायियोंकी आलोचना करते है-) ११ यदि आप यह मानते है कि मुक्तिमें संसारिक सुख-दुःख नहीं है तो इसमें कोई हानि नहीं है,यह बात तो हमको भी इष्ट ही है। किन्तु यदि आत्माके समस्त पदार्थविषयक ज्ञान के विनाशको मोक्ष मानते है तो फिर मुक्तात्माका लक्षण क्या है? क्योंकि विद्वान् लोग वस्तुके विशेष गुणोंको ही वस्तुका लक्षण मानते है,जैसे आगका लक्षण उष्णता है,यदि आगकी उष्णता नष्ट हो जाये तो फिर उसका लक्षण क्या होगा? फिर तो आगका ही अभाव हो जायेगा; क्योंकि विशेष गुणोंके अभावमें गुणीका भी अभाव हो जाता है। अतः यदि मुक्तिम आत्माके ज्ञानादि विशेष गणोंका अभाव माना जायेगा तो आत्माका भी अभाव हो जायेगा ।।३२-३३।। तथा आपके Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १२९ इत्यवधताभिधानं च न घटेत । अनेकजन्मसन्ततेर्यावदद्याक्षयः पुमान् । यद्यसो मुक्त्यवस्थायां कुतः क्षीयेत हेतुत: ॥ ३५ बाह्ये ग्राह्ये मलापायात्सत्यस्वप्न इवात्मनः । तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽस्मिन्नवस्थानममानकम् ॥ ३६ न चायं सत्यस्वप्नोऽप्रसिद्धः स्वप्नाध्यायेऽतीव सुप्रसिद्धत्वात् । तथा हि"यस्तु पश्यति रात्र्यन्ते राजानं कुञ्जरं हयम् । सुवर्ण वृषभं गां च कुटुम्बं तस्य वर्धते" ॥ ३७ यत्र नेत्रादिकं नास्ति न तत्र मतिरात्मनि । तन्न युक्तमिदं यस्मात्स्वप्नमन्धोऽपि वीक्षते ।। ३८ जैमिन्यादेन रत्वेऽपि प्रकृष्येत मतियदि । पराकाष्ठाप्यतस्तस्या: क्वचित्ख परिमाणवत् ॥ ३९ सदाशिव ईश्वर आदिक संसारी है या मुक्त? यदि संसारी है तो वे आप्त नहीं हो सकते । यदि मुक्त हैं तो 'क्लेश,कर्म, कर्मफलका उपभोग और उसके अनुरूप संस्कारोंसे रहित पुरुप विशेष ईश्वर हैं। उस ईश्वरमें सर्वज्ञताका जो बीज है वह अपनी चरम सीमाको प्राप्त है अर्थात् वह पूर्णज्ञानी है। पतञ्जलिका यह कथन, और 'हे भगवन्! आपमें अविनाशी ऐश्वर्य है, स्वाभाविक विरागता है, स्वाभाविक सन्तोष हैं, स्वभावसे ही आप इन्द्रियजयी है । आपमें ही अविनाशी सुख, निरावरण शक्ति और सब विषयोंका ज्ञान है ।।३४॥ अवधूताचार्यका यह कथन घटित नहीं हो सकता है। (इस प्रकार कणाद मतके अनुयायियोंकी आलोचना करके आचार्य बौद्धोंकी आलोचना करते है-) १२. यदि पुरुष अनेक जन्म धारण करनेपर भी आज तक अक्षय है, उसका विनाश नहीं हुआ तो मुक्ति प्राप्त होनेपर उसका विनाश किस कारणसे हो जाता है? ॥३५।। (अब आचार्य सांख्यमतकी आलोचना करते है-) १३. जैसे वात, पित्त आदिका प्रकोप न रहनेपर आत्माको सच्चा स्वप्न दिखाई देता हैं वैसे ही ज्ञानावरण कर्म रूपी मलके नष्ट हो जानेपर आत्मा बाह्य पदार्थोको जानता हैं । अतः मुक्त हो जानेपर आत्मा अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता हैं और बाह्य पदार्थोको नहीं जानता यह कहना अप्रमाण है । यह भी अर्थ हो सकता है कि मलके नष्ट हो जाने पर आत्मा बाह्य पदार्थोको जानता है। और तब अपने इस स्वरूप में अनन्त काल तक अवस्थित रहता है ॥३६॥ यदि कहा जाय कि सच्चे स्वप्न होते ही नहीं है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है,क्योंकि 'स्वप्नाध्याय'मे सच्चे स्यप्न बतलाये हैं। जैसा कि उसमें लिखा है-'जो रात्रिके पिछले प्रहरमें राजा, हाथी, घोडा, सोना, बैल और गायको देखता है उसका कुटुम्ब बढता है ।।३७।। जहाँ नेत्रादिक इन्द्रियाँ नहीं होतीं, वहाँ आत्मामें ज्ञान भी नहीं होता, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धे मनुष्यको भी स्वप्न दिखाई देता है ॥३८॥ भावार्थ-सांख्य मुक्तात्मामें ज्ञान नहीं मानता,क्योंकि वहाँ इन्द्रियाँ नहीं होतीं। उसकी इस मान्यताका खण्डन करते हुए ग्रन्थकारका कहना है कि इन्द्रियोंके होनेपर ही ज्ञान हो और उनके नहीं होनेपर न हो ऐसा कोई नियम नहीं है। इन्द्रियोंके अभावमें भी ज्ञान होता देखा जाता है। स्वप्न दशामें इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं फिर भी ज्ञान होता है और वह सच्चा निकलता है। अतः इन्द्रियोंके अभावमें भी मुक्तात्माको स्वाभाविक ज्ञान रहता ही है। (जैमिनिके मतके अनुयायी मीमांसक कहे जाते है । मीमांसक लोक सर्वज्ञको नहीं मानते। वे वेदको ही प्रमाण मानते है। उनके मतसे वेद ही भूत और भविष्यत्का भी ज्ञान करा सकता है। उनका अहना है कि मनुष्यकी बुद्धि कितना भी विकास करे किन्तु उसमें अतीन्द्रिय पदार्थोको जाननेकी शक्ति कभी नहीं आ सकती। मनुष्य यदि अतीन्द्रिय पदार्थोको जान सकता है तो केवल वेदके द्वारा ही जान सकता है। इसकी आलोचना करते हुए आचार्य कहते हैं-) आपके आप्त Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रावकाचार-संग्रह तुच्छाभावो न कस्यापि हानिदीपस्तमोऽन्वयी। धरादिषु धियो हानौ विश्लेषे सिद्धसाध्यता॥४० तदावृतिहतो तस्य तपनस्येव दीधितिः । कथं न शेमुषी सर्व प्रकाशयति वस्तु यत् ।। ४१ ।। ब्रह्मकं यदि सिद्धं स्यानिस्तरङ्ग कुतश्च न । घटाकाशमिवाकाशे तत्रेदं लीयतां जगत् ।। ४२ अथ मतम्एक एव हि भूतात्मा देहे देहे व्यवस्थितः । एकधानेकधा चापि दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। ४३ तदयुक्तम्। एक: खेऽनेकधान्यत्र यथेन्दुर्वेद्यते जनः । न तथा वेद्यते ब्रह्म भेदेभ्योऽन्यदभेदभाक् ।। ४४ अलमतिविस्तरेण। आनन्दों ज्ञानमैश्वयं वीर्य परमपूक्ष्मता : एतदात्यन्तिकं यत्र स मोक्ष: परिकीर्तितः ।। ४५ ज्वालोरुवकबीजादेः स्वभावाद्ध्वगामिता । नियता च यथा दृष्टा मक्तस्यापि तथात्मनः ।। ४६ तथाप्यत्र तदावासे पुण्यपापात्मनामपि । रवर्गश्वभ्रागमो न स्यादलं लाकान्तरेण ते ।। ४० जैमिनि मनुष्य थे। फिर भी उनकी बुद्धि इतनी विकसित हो गई थी कि वे बेदको पूरी तरहसे जान सके। इसी तरह किसी पुरुषकी बुद्धिका विकास अपनी चरम सीमाको भी पहुंच सकता है। क्योंकि जिनकी हानि-वृद्धि देखी जाती है, उनका कहीं परम प्रकर्ष और परम अपकर्ष अर्थात् अति हानि और अति वृद्धि भी देखी जाती है । जैसे परिमाणका परम प्रकर्ष आकाशमें पाया जाता है।।३९।। यदि कहा जाय कि इस नियमके अनुसार तो किसीमें बुद्धिका सर्वथा अभाव भी हो सकता हैं तो इसका उत्तर यह है कि किसी भी वस्तुका तुच्छाभाव नहीं होता, अर्थात् वह पदार्थ एक दम नष्ट हो जाये और कुछ भी शेष न रहे, ऐसा नहीं होता । दीपक जब बुझ जाता हैं तो प्रकाश अन्धकार रूपमें परिवर्तित हो जाता है। तथा पृथिवी आदिमें बुद्धिकी अत्यन्त हानि देखी जाती हैं। क्योंकि पृथिवीकायिक आदि जीव पृथिवी आदि रूप पुद्गलोंको अपने शरीर रूपसे ग्रहण करता हैं और मरण होनेपर उन्हें छोड देता हैं । अतः जीवके वियुक्त हो जानेपर उन पृथिवी आदि रूप पुद्गलोंमें बद्धिका सर्वथा अभाव हो जाता हैं। इसमें तो सिद्ध साध्यता हैं ।। ४० ।। अतः जैसे सूर्यके ऊपरसे आवरणके हट जानेपर उसकी किरणें समस्त जगत्को प्रकाशित करती हैं । वेसे ही बुद्धिके ऊपरसे कर्मोका आवरण हट जाने पर वह समस्त जगत्को क्यों नहीं जान सकती,अवश्य जान सकती है ॥४१ । (अब आचार्य ब्रह्माद्वैतकी आलोचना करते हैं-) १४. यदि केवल एक ब्रह्म ही है तो वह निस्तरंग-सांसारिक भेदोंसे रहित क्यों नहीं हैं अर्थात् यह लोक भिन्न क्यों दिखाई देता है । तथा जैसे घटके फट जानेपर घटके द्वारा रोका गया आकाश आकाशमें मिल जाता हैं,वैसे ही इस जगतको भी उसी ब्रह्म में मिल जाना चाहिए ।। ४२।। यदि कहा जाय कि जैसे चन्द्रमा एक होते हए भी जल में प्रतिबिम्ब पडनेपर अनेक रूप दिखाई देता हैं उसी तरह एक ही ब्रह्म भिन्न-भिन्न शरीरोंमें पाया जानेसे अनेक रूप दिखाई देता है ।।४३ । किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे चन्द्रमा आकाशमें एक और जलमें अनेक दिखाई देता है, वैसे भेदोंसे जुदा एक ब्रह्म ज्ञानगोचर नहीं होता॥४४।। अस्तु,अब इस प्रसंगको यहीं समाप्त करते है । जहाँपर आत्यन्तिक चरम सीमाको प्राप्त अविनाशी सुख, ज्ञान, ऐश्वर्य, वीर्य और परम सूक्ष्मत्व आदि गुण पाये जाते है उसीको मोक्ष कहते है। जैसे आगकी ज्वाला और एरण्डके बीज स्वभावसे ही ऊपरको जाते हैं, उसी प्रकार मुक्तात्मा भी स्वभावसे ही ऊपरको जाता है ।। यदि यही माना जाये कि मुक्त होनेपर आत्मा यही रह जाता .. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन अहो धर्माराधनकमते वसुमतीपते, सम्यक्त्वं हि नाम नराणां महती खलु पुरुषदेवता । 'यत्सकृदेकमेव यथोक्तगणप्रगुणतया संजातमशेषकल्मषकलुषधिषणतया नरकादिषु गतिषु, पुष्य. दायुषामपि मनुष्याणां षट् सुतलपातालेषु,अष्टविधेषु व्यन्तरेष,दशविधेषु भवनवासिषु पञ्चविधेष ज्योतिष्केष, त्रिविधासु स्त्रीषु, विकलकर णेषु पृथ्वी-पय -पावक-पवनकायिकेषु वनस्पतिषु च न भवति संभूतिहेतुः । सावधि विदधात्याजवंजवीमावं, नियमेन संपादयति कञ्चित्कालमुपलभ्यात्मनश्चा:चारित्रे, साधु संपादनसार: संस्कार इव बीजेषु जन्मान्तरेऽपि न जहात्यात्मनोऽनुवृत्तिम्, सिद्धश्चिन्तामणिरिव च फलत्यसीम कामितानि । व्रतानि पुनरोषधय इव फलपाकावसानानि पाथेयवन्नियतवृत्तीनि च । न च सिद्ध र सवेधसंबन्धादुषर्बुधसंनिधानमात्रजन्मनि जाम्बुनद इवात्र पदार्थयाथात्म्यसमवगमान्मनोमननमात्रतन्त्रे निःशेष अतश्रवणपरिश्रमः समाश्रयणीयः, न शरीरमायासयितव्यम्, न देशान्तरमनुसरणीयम्, नापि कालक्षेपकुक्षिरपेक्षितव्यः । तस्मादधिष्ठानमिव प्रासादस्य, मौभाग्यमिव रूपसम्पदः, प्राणितमिव भोगायतनोपचारस्य, मूलबलमिव विजयप्राप्तेः, विनीतत्वमिवाभिजात्यस्य, नयानुष्ठानमिव राज्यस्थितेरखिलस्यापि परलोकोदाहरस्य सम्यक्त्वमेव ननु प्रथमं कारणं गृणन्ति गरीयांस: । तस्य चेदं लक्षणम्है कहीं जाता नहीं हैं, तो पुण्यात्माओंका स्वर्गगमन और पापात्माओंका नरक गमन भी नहीं होगा । फिर तो परलोक की कथा ही व्यर्थ हो जाती है । अतः मुक्तात्माको ऊर्ध्वगामी मानना चाहिए ।। ४५-४७ ।। (अब ग्रन्थकार सम्यक्त्वका महात्म्य और स्वरूप बतलाते है-) धर्मप्रेमी राजन्! सम्यक्त्व मनुष्योंकी एक महती पुरुष देवता है अर्थात् देवताकी तरह उनका रक्षक है । क्योंकि यदि अपने यथोक्त गुणोंसे समन्वित सम्यग्दर्शन एक बार भी प्राप्त हो जाता है तो समस्त पापोंसे कलुषित मति होने के कारण जिन पुरुषोंने नरकादिक गतियोमसे किसी एककी आयुका बन्ध कर लिया हैं उन मनुष्योंका नीचेके छह नरकोंमें, आठ प्रकारके व्यन्तरोंमें, दस प्रकारके भवनवासियों में, पाँच प्रकारके ज्योतिषी देवोंमें, तीन प्रकारकी स्त्रियोंमें, विकलेन्द्रियोंमें, पथिवीकाय, जलकाय, तैजसकाय, वायुकाय और वनस्पतिकायमें जन्म नहीं होने देता । संसारको सान्त कर देता हैं। कुछ समयके पश्चात् उस आत्माके सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र अवश्य प्रकट हो जाते है । जैसे,बीजोंमें अच्छी तरहसे किया गया संस्कार बीजोंकी वृक्षरूप पर्यायान्तर होनेपर भी वर्तमान रहता है,उसी तरह सम्यक्त्व जन्मान्तरमें भी आत्माका अनुसरण करता है, उसे छोडता नहीं है। सिद्ध चिन्तामणिके समान असीम मनोरथोंको पूर्ण करता है । व्रत तो औषधि वृक्षोंकी तरह (जो वृक्ष फलोंके पकने के बाद नष्ट हो जाते है उन्हें ओषधि वृक्ष कहते है ) मोक्षरूपी फलके पकने तक ही ठहरते है तथा कलेबाकी तरह नियत कालतक ही रहते हैं। (किन्तु सम्यक्त्व ऐसा नहीं है) पारे और अग्निके संयोगमात्रसे उत्पन्न होनेवाले स्वर्णकी तरह,पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको जानकर उनमें मनको लगाने मात्रसे प्रकट होनेवाले सम्यक्त्वके लिए न तो समस्त श्रुतको सुननेका परिश्रम ही करना आवश्यक है, न शरीरको ही कष्ट देना चाहिए, न देशान्तरमें भटकना चाहिए और न कालकी ही अपेक्षा करनी चाहिए । अर्थात् सम्यक्त्वके लिए किसी कालविशेष या देश-विशेषकी आवश्यकता नहीं है । सब देशों और सब कालोंमें वह हो सकता है । इसलिए जैसे नीवको महलका,सौभाग्यको रूप-सम्पदाका, जीवनको शारीरिक सुखका, मूल बलको विजयका, विनम्रताको कुलीनताका,और नीति पालनको राज्यकी स्थिरताका मूलकारण माना जाता हैं वैसे ही महात्मा. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रावकाचार-संग्रह भाप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं कारणद्वयात् । मूढाद्यपोढमष्टाङ्गं सम्यक्त्वं प्रशमादिभाक् ।। ४८ ॥ सर्वज्ञं सर्वलोकेशं सर्वदोषविजितम् । सर्वसत्त्वहितं प्राहुराप्तमाप्तमतोचिताः ।। ४९।। ज्ञानवान्मग्यते कश्चित्तदुक्तप्रतित्तये। अज्ञोददेशकरणे विप्रलम्भनङ्किभिः ।। ५०॥ यस्तत्त्वदेशनादुःखवाधेरुद्धरते जगत् । कथं न सर्वलोकेश: प्रव्हीभूतजगत्त्रयः ।। ५१ ।। क्षुत्पिपासाभयं द्वेषश्चिन्तनं मूढतागमः । रागो जरा रुजा मृत्युः क्रोधः खेदो मदो रतिः ॥५॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश भ्रवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ।। ५३ एमिर्दोविर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । स एव हेतुः सूक्तीनां केवलज्ञानलोचन: ।। ५४ रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यान्तकारणं नास्ति ॥ ५५ उच्चावचप्रसूतीनां सत्त्वानां सदृशाकृति । य आदर्श इवाभाति स एव जगतां पतिः ।। ५६ यस्यात्मनि भुते तत्त्वे चारित्रे मुक्तिकारणे । एकवाक्यतया वृत्तिराप्तः सोऽनुमतः सताम् ।। ५७ अत्यक्षेप्यागमात्पुंसि विशिष्टत्वं प्रतीयते । उद्यानमध्यवृत्तीनां ध्वनेरिव नगौकसाम् ।। ५८ गण सम्यक्त्वको ही समस्त परलौकिक अभ्युन्नतिका अथवा मोक्षका प्रथम कारण कहते है । उस सम्यक्त्वका लक्षण इस प्रकार हैं-अन्तरंग और बहिरंग कारणोंके मिलनेपर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थोका तीन मूढता रहित,आठ अङग सहित जो श्रद्धान होता हैं,उसे सम्वग्दर्शन कहते हैं, यह सम्यग्दर्शन प्रशम संवेग आदि गुणवाला होता हैं॥४८॥ जो सर्वज्ञ है,समस्त लोकोंका स्वामी हैं सब दोषोंसे रहित है और सब जीवोंका हितू हैं,उसे आप्त कहते हैं । चूंकि यदि अज्ञ मनुष्य उपदेश दे तो उससे ठगाये जानेकी शंका रहती हैं, इसलिए मनुष्य उपदेशके लिए ज्ञानी पुरुषकी ही खोज करते है, क्योंकि उसके द्वारा कही गई बातोंपर विश्वास करनेके लिए किसी ज्ञानीको ही खोजा जाता है ॥४९-५०।। (ऊपर आप्तको समस्त लोकोंका स्वामी बतलाया हैं। किन्तु जैनधर्ममें आप्तको न तो ईश्वरकी तरह जगत्का कर्ता हर्ता माना गया हैं और न उसे सुख-दुःखकादेनेवाला ही माना गया है । ऐसी स्थितिमें यह शङ्का होना स्वाभाविक हैं कि आप्तको सब लोगोंका स्वामी क्यों बतलाया? इसी बातको मनमें रखकर ग्रन्थकार कहते है-:) जो तत्त्वोंका उपदेश देकर दुःखो। के समद्रसे जगतका उद्धार करता है,अत एव कृतज्ञतावश तीनों लोक जिसके चरणोंमें नत हो जाते है. वह सर्वलोकोंका स्वामी क्यों नहीं है? ॥५१॥ भूख, प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बढापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति,आश्चर्य,जन्म,निद्रा और विषाद ये अठारह दोष संसारके सभी प्राणियों में पाये जाते है । जो इन दोषोंसे रहित हैं वही आप्त हैं। उसकी आँखे केवल ज्ञान है उसीके द्वारा वह चरावर विश्वको जानता है तथा वही सदुपदेशका दाता है। वह जो कुछ कहता है सत्य कहता है,क्योंकि रागसे,द्वेषसे या मोहसे झूठ बोला जाता है । किन्तु जिसमें ये तीनों दोष नहीं हैं उसके झूठ बोलनेका कोई कारण नहीं हैं ।।५२-५५।। विविध प्रकार के प्राणियोंकी आकृति समान होती है। किन्तु उनमेंसे जिसका आत्मा दर्पणके समान स्वच्छ हो वही जगत्का स्वामी है ॥५६॥ जिसकी आत्मामें, श्रुतिमें, तत्त्वमें और मुक्तिके कारणभूत चारित्रमें एकवाक्यता पाई जाती है अर्थात जो जैसा कहता है वैसा ही स्वयं आचरण करता है और वैसी ही तत्त्वव्यवस्था भी उपलब्ध होती है,उसे सज्जन पुरुष आप्त मानते है ।।५७।। (इस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि जिन पुरुषोंको आप्त माना जाता हैं वे तो गुजर चुके । हम कैसे जाने कि आप्त थे? इसका उत्तर देते हुए ग्रन्थकार कहते हैं-) परोक्ष भी पुरुषकी विशिष्टता उसके द्वारा उपदिष्ट आगमसे जानी : Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन स्वगुणः श्लाघ्यतां याति स्वदोषेर्दूष्वतां जनः । रोषतोषौ वृथा तत्र कलधौतायसोरिव ।। ५९ दृहिणा धोक्षजेशानशाक्यसूरपुरःसराः । यदि रागाद्यधिष्ठानं कथं तत्राप्तता भवेत् ।। ६० राग दिदोष संभतिज्ञयामीष तदागमात् । असत: परदोषस्य गृहीतौ पातकं महत् ।। ६१ अजस्तिलोत्तमाचित्तः श्रीरतः श्रीपतिः स्मृतः । अधनारीश्वरः शम्भुस्तथाप्येषां किलाप्तता॥ ६२ वसुदेव: पिता यस्य सवित्री देवको हरेः । स्वयं च राजधर्म स्थश्चित्रं देवस्तथापि सः ॥ ५३ त्रैलोक्यं जठरे यस्य यश्च सर्वत्र विद्यते । किमुत्पत्तिविपत्ती स्तः क्वचित्तस्येति चिन्त्यताम् ।। ६४ कपर्दी दोषवानेष नि:शरीर: शदाशिवः । अप्रामाण्यादशक्तश्च कथ तत्रागमागमः ।। ६५ परस्परविरुद्धार्थमीश्वरः पञ्चभिर्मखं । शास्त्र शास्ति भवेत्तत्र कतमार्थविनिश्चयः ॥ ६६ सदाशिवकला रुद्रे यद्यायाति यगे यगे। कथं स्वरूपभेदः स्यात्काञ्चनस्य कलास्विव ।। ६७ भैसनर्तननग्नत्वं पुरत्रयविलोपनम् ब्रह्महत्याकपालित्वमेता: क्रीडाः किलेश्वरे ॥ ६८ सिद्धान्तेऽन्यप्रमाणेऽन्यदन्यत्काव्येऽन्यदीहिते । तत्त्वमाप्तस्वरूपं च विचित्रं शैवदर्शनम् ।। ६९ एकान्तः शपथश्चैव वृथा तत्वपरिग्रहे । सन्तस्तत्त्वं न हीच्छन्ति परप्रत्ययमात्रतः ।। ७० जाती है। जैसे,बगीचे में रहने वाले पक्षियोंकी आवाजसे उनकी विशिष्टताका भान होता हैं । अर्थात् पक्षियोंको विना देखे भी जैसे उनकी आवाजसे उनकी पहचान हो जाती हैं,वैसे ही आप्त पुरुषोंको बिना देखे भी उनके शास्त्रोंसे उनकी आप्तताका पता चल जाता हैं ।।५८॥सुवर्ण और लोहकी तरह मनुष्य अपने ही गुणोंसे प्रशंसा पाता है और अपने ही दोषोंसे बदनामी उठाता हैं। इसमें रोष और तोष करना अर्थात अपने आप्तकी प्रशंसा सूनकर हर्षित होना और निन्दा सूनकर ऋद्ध होना व्यर्थ हैं ।।५९ । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध और सूर्य आदिक देवता यदि रागादिक दोषोंसे यक्त हैं तो वे आप्त कैसे हो सकते हैं? और वे रागादि दोषोंसे युक्त हैं यह बात उनके शास्त्रोंसे ही जाननी चाहिए, क्योंकि जिसमें जो दोष नहीं है उसमें उस दोषको मानने में बड़ा पाप हैं ।। ६०-६१॥ देखो, ब्रह्मा तिलोत्तमामें आसक्त है, विष्णु लक्ष्मीमें लीन है और महेश तो अर्धनारीश्वर प्रसिद्ध ही हैं। आश्चर्य हैं, फिर भी इन्हें आप्त माना जाता है। विष्णके पिता वसुदेव थे, माता देवकी थी,और वे स्वयं राजधर्मका पालन करते थे। आश्चर्य है, फिर भी वे देव माने जाते हैं। सोचनेकी बात है कि जिस विष्णुके उदरमें तीनों लोक बसते है और जो सवव्यापी हैं, उसका जन्म और मृत्यु कैसे हो सकते हैं?।।६२-६४॥ महेशको अशरीरी और सदाशिव मानते हैं, और वह दोषोंसे भी युक्त है। ऐसी अवस्थाम न तो वह प्रमाण माना जा सकता है और न वह उपदेश ही दे सकता है। क्योंकि वह दोषयुक्त है और शरीरसे रहित है । तब उससे आगमकी उत्पत्ति कैसे हो सकतीहैं? ,जब शिव पांच मखोंसे परस्पर में विरुद्ध शास्त्रोंका उपदेश देता है तो उनमेंसे किसी एक अर्थका निश्चय करता कैसे संभव है ।।६५-६६।। कहा जाता है कि कित्येक युगमें रुद्र में सदाशिवकी कला अवतरित होती हैं । किन्तु जैसे सुवर्ण और उसके टुकडोंमें कोई भेद नहीं किया जा सकता,वैसे ही अशरीरी सदाशिव और सशरीर रुद्र में कैसे स्वरूपभेद हो सकता है । ६७।। भिक्षा माँगना,नाचना, नग्न होना, त्रिपुरको भस्म करना, ब्रह्महत्या करना और हाथमें खप्पर रखना ये सदाशिव ईश्वरकी क्रीडाएं है ॥६८॥ शैवदर्शनमें तत्त्व और आप्तका स्वरूप सिद्धान्त रूपमें कुछ अन्य है,प्रमाणित कुछ अन्य किया जाता है, काव्यमें कुछ अन्य है और व्यवहार में कुछ अन्य है । शैवदर्शन भी बडा विचित्र है ॥६९ । तत्त्वको स्वीकार करने में एकान्त और कसम खाना दोनों ही व्यर्थ है। विवेकशील पुरुष दूसरोंपर विश्वास करके तत्त्वको स्वीकार नहीं करते। तपाने,काटने और कसौटीपर घिसनेसे जो Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रावकाचार-संग्रह दाहच्छेदकषाशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया । दाहच्छेदकषाशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया ।। ७१ यद्दष्टमनुमानं च प्रतीति लौकिकी भजेत् । तदाहुः सुविदस्तत्त्वं रहः कुहकजितम् ॥ ७२ निर्बोजतेव तन्त्रेण यदि स्यान्मुक्तताङ्गिनि । बोजवत्पावकस्पर्शः प्रणेयो मोक्षकांक्षिणि ।। ७३ विषसामथ्यवन्मन्त्रात्क्षयश्चेदिह कर्मणः । तहि तन्मन्त्रमान्यस्य न स्युर्दोषा भवोद्भवाः ।। ७४ ग्रहगोत्रगतोऽप्येष पूषा पूज्यो न चन्द्रमा: । अविचारिततत्त्वस्य जन्तोवृत्तिनिरङ्कशा ।। ७५ द्वैताद्वैताश्रयः शाक्यः शङ्करानुकृतागमः । कथं मनीषिभिर्मान्यस्तरसासवसक्तधी ।। ७६ ____ अर्थवं प्रत्यवतिष्ठासवो-भवतां समये किल मनुज सन्नाप्तो भवति तस्य चाप्ततातीव दुर्घटा संप्रति संजातजनवद्, भवतु वा, तथापि मनुष्यस्याभिलषिततत्त्वावबोधो न स्वतस्तथावर्शनाभावात् । परतश्चेत्कोऽसों पर:? तीर्थकरोऽन्यो वा? तीर्थकरश्चेत्तत्राप्येवं पर्यनुयोगे प्रकृतमनबन्धे । तस्मादनवस्था । तदभावमाप्तसद्भावं च वाञ्छद्धिः सदाशिवः शिवापतिर्वा तस्य तत्त्वोपदेशक: प्रतिश्रोतव्यः । तदाह पतञ्जलि:- ''स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।" तया हि। अदृष्टविग्रहाच्छान्ताच्छिवात्परमकारणात् । नादरूपं समुत्पन्नं शास्त्रं परमदुर्लभम्" ।। ७७ सोना अशुद्ध ठहरता है, उसके लिए कसम खाना बेकार हैं । तथा तपाने,काटने और कसौटीपर घिसनेसे जो सोना खरा निकलता हैं उसके लिए कसम खानेसे क्या लाभ? जो प्रत्यक्ष, अनुमान और लौकिक अनुभवसे ठीक प्रमाणित होता हैं, और गोप्यता तथा माया छलसे रहित होता है विद्वान लोग उसीको यथार्थ तत्त्व मानते हैं ।।७०-७२।। जैसे अग्निके स्पर्शसे बीज निर्बीज हो जाता है उसमें उत्पादन शक्ति नहीं रहती,वैसे ही यदि तंत्रके प्रयोगसे ही प्राणीकी मुक्ति हो जाती है तो मक्ति चाहनेवाले मनुष्यको भी आगका स्पर्श करा देना चाहिए जिससे बीजकी तरह वह भी जन्ममरणके चक्रसे छूट जाये॥७३॥ जैसे,मंत्रके द्वारा विषकी मारणशक्तिको नष्ट कर दिया जाता हैं, वैसे ही मंत्रके द्वारा यदि कर्मोका भी क्षय हो जाता है तो उन मंत्रोंके जो मान्य हैं उनमें सांसारिक दोष नहीं पाये जाने चाहिये ।।७४।। (इस प्रकार शाक्त मतकी आलोचना करके ग्रन्थकार सूर्य पूजाकी आलोचना करते हैं) ग्रहोंके कुलका होनेपर भी यह सूर्य तो पूज्य हैं और चन्द्रमा पूज्य नहीं है? ठीक ही हैं जिस जीवने तत्त्वका विचार नहीं किया,उसकी वृत्ति निरंकुश होती हैं ।।७५।। (अब बौद्ध मतकी आलोचना करते हैं ) बौद्धमत एक ओर द्वैतवादी हैं अर्थात् संयम और भक्ष्याभक्ष्य आदिका विचार करता हैं और दूसरी ओर अद्वैतवादी हैं,अर्थात सर्व कुछ सेवन करनेकी छट देता हैं। उसीके आगमका अनुकरण शंकराचार्यने किया है। ऐसा मद्य और मांसका प्रेमी मत बुद्धिमानोंके द्वारा मान्य कैसे हो सकता हैं? ।।७६।। (इस प्रकार अन्य मतोंकी समीक्षा करनेपर उन मतोंके अनुयायी कहते है-) आप जैनोंके आगममें मनुष्यको आप्त माना हैं । किन्तु उसका आप्तपना किसी भी तरह नहीं बनता । आज भी लाखों-करोडों मनुष्य वर्तमान हैं,किन्तु उनमें कोई भी आप्त नहीं देखा जाता । यदि किसी तरह मनुष्यको आप्त मान भी लिया जावे तो उसे इण्ट तत्त्वका जान स्वयं तो नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा नहीं देखा जाता । यदि दूसरेसे ऐसा ज्ञान होता हैं तो वह दसरा कौन हैं? तीर्थङ्कर है या अन्य कोई हैं? यदि तीर्थङ्कर हैं तो उसमें भी यही प्रश्न पैदा होता हैं। यदि तीर्थङ्करको इष्ट तत्त्वका ज्ञान किसी तीसरेके द्वारा होता है तो उस तीसरेको इष्ट तत्त्वका ज्ञान चौथेके द्वारा होगा और चौथेको इष्ट तत्त्वका ज्ञान पाँचवेके द्वारा होगा। इस तरह अनवस्था दोष आ जाता हैं। अतः यदि अनवस्था दोषसे बचना चाहते हैं और साथ ही साथ आप्तका Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन तथाप्तेनैकेन भवितव्यम् ! ह्याप्तानामितरप्राणिवद् गणः समस्ति संभवें वा चतुविशतिरिति नियम: कौतस्कुत इति वन्ध्यास्तनंधय धैर्य व्यावर्णनमुदीर्णमोहार्णवविलयनं च परेषाम् । यतः वक्ता नैव सदाशिवो विकरणस्तस्मात्परो रागवान् द्वै विध्यादपरं तृतीयमिति चेत्तत्कस्य हेतोरभूत् । शक्त्या चेत्परकीयया कथमसौ तद्वान संबंधतः संबंधोऽपिन जाघटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ॥ ७८ 'संबंधो हि सदाशिवस्य शक्त्या सह न भिन्नस्य संयोगः शक्तेरद्रव्यत्वात्, 'द्रव्ययोरेव संयोगः' इति योगसिद्धान्तः । 'समवाय लक्षणोऽपि न संबंधः शक्तेः पृथक्सद्धत्वात्, 'अघुत सिद्धानां गुणगुण्यादीनां समवायसंबंध :' इति वैशेषिकमं तिह्यम् । तत्त्वभावनयोद्भूतं जन्मान्तरसमुत्थया । हिताहितविवेकाय यस्य ज्ञानत्रयं परम् । ७९ दृष्टादृष्टमवत्यथ रूपवन्तमथावधेः । श्रुतेः श्रुतिसमाश्रयं क्वासौ परमपेक्षताम् ॥ ८० न चैतदसार्वत्रिकम् । कथमन्यथा स्वत एव संजातषट्पदार्थावसायप्रसरे कणचरे वाराणस्यां सद्भाव भी चाहते हैं तो तत्त्वके उपदेष्टा सदाशिव पार्वतीपतिको ही मानना चाहिये । पतञ्जलि ऋषि भी कहा हैं - 'वह पूर्वजों का भी गुरु हैं, क्योंकि कालके द्वारा उनका नाश नहीं होता । और भी कहा है- "अशरीरी, शान्त और परम कारण शिवसे परमदुर्लभ नादरूप शास्त्रकी उत्पत्ति हुई ॥ ७ ॥ तथा आप्त एक ही होना चाहिये । अन्य प्राणियों के समूहकी तरह आप्तोंका समूह तो होता नहीं हैं | और यदि हो भी तो चौबीस संख्याका नियम कहाँसे आया?' इस प्रकार दूसरे मतवालोंका उक्त कथन वन्ध्याके पुत्रके धैर्यको प्रशंसा करनेके तुल्य व्यर्थ है, वे महान् मोहके समुद्र में डूबे हुए है, क्योंकि - सदाशिव अशरीरी है अतः वह वक्ता नहीं हो सकता। और शिव यद्यपि सशरीर है मगर वह रागी है - पार्वतीसे साथ रहते है, अतः उनका उपदेश प्रमाण नहीं माना जा सकता । यदि इन दोनों सिवाय किसी तीसरेको वक्ता मानते हो तो वह तीसरा किससे हुआ । यदि कहोगे शक्ति हुआ, तो शक्ति तो भिन्न हैं, भिन्न शक्तिसे वह शक्तिवान कैसे हो सकता है, क्योंकि उन aria कोई सम्बन्ध नहीं हैं। यदि सम्बन्ध मानोगे तो विचार करनेपर उनका कोई सम्बन्ध भी नहीं बनता हैं, अतः आपका शास्त्र निराधार ठहरता है क्योंकि उसका कोई वक्ता सिद्ध नहीं होता ||७८ || सदाशिवका शक्तिके साथ संयोग सम्बन्ध तो नहीं सकता, क्योंकि शक्ति द्रव्य नहीं हैं और 'संयोग सम्बन्ध द्रव्योंका ही होता हैं' ऐसा योगोंका सिद्धान्त हैं । तथा समवाय सम्बन्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि शक्ति तो शिवसे पृथक् सिद्ध है- जुदी है और 'जो पृथक् सिद्ध नही है ऐसे गुणगुणी वगैरह ही समवाय सम्बन्ध होता है' ऐसा वैशेषिकों का मत हैं । ( इस प्रकार सदाशिववादियों के शास्त्रको निराधार बतलाकर ग्रन्थकार, मनुष्यको आप्त मानने में जो आपत्ति की गई हैं, उनका निराकरण करते है - ) पूर्वजन्म में उत्पन्न हुई तत्त्व भावनासे, हित और अहितकी पहचान करनेके लिए उत्पन्न हुए जिसके तीन ज्ञान-मति, श्रुत और अवधि दृष्ट और अदृष्ट अर्थको जानते हैं, उनमें भी अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थोंको ही जानता हैं और श्रुतज्ञान शास्त्रमें वर्णित विषयोंको जाता हैं । ऐसी अवस्थामें इष्ट तत्त्वको जानने के लिए उसे दूसरेकी अपेक्षा ही क्या रहती हैं? ॥७१-८०।। ( आगे कहते है - ) और यह बात कि तीर्थङ्कर स्वयं ही इष्ट तत्त्वको जान लेते हैं, ऐसी नहीं हैं जिसे सब न मानते हों। यदि ऐसा नहीं हैं तो स्वतः ही छ पदार्थोका ज्ञान होनेपर कणाद ऋषिके प्रति वाराणसी नगरीमें उलूकका अवतार लेनेवाले महेश्वरका यह कथन कैसे संगत १३५ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्रावकाचार-संग्रह महेश्वरस्योलूकसायुज्यसरस्येदं वचः संगच्छेत्-‘ब्रह्मतुला नामेदं दिवौकसां दिव्यमद्भुतं ज्ञानं प्रादुर्भूतमिह त्वयि तद्वत्संविधत्स्व विप्रेभ्यः । उपाये सत्युपेयस्य प्राप्ते: का प्रतिबन्धिता । पातालस्थं जलं यन्त्रात्करस्थं क्रियते यतः ।। ८१ अश्मा हेम जलं मुक्ता द्रुमो वन्हिः क्षितिर्मणिः । तत्तद्धतुतया भावा भवन्स्यद्भतसंपदः ।। ८२ सर्गावस्थितिसंहार ग्रीष्मवर्षातुषारवत् । अनाद्यनन्तभावोऽयमाप्तश्रुतसमाश्रयः ।। ८३ नियतं न बहुत्वं चेत्कथमेते तथाविधाः । तिथिताराग्रहाम्भोधिभूभृत्प्रभृतयो मता: ।। ८४ अनयव दिशा चिन्त्यं सांख्यशाक्यादिशासनम् । तत्त्वागमाप्तरूपाण। नानात्वस्याविशेषतः ।। ८५ जैनमेकं मतं मुक्त्वा द्वैताद्वैतसमाश्रयो । मा! समाश्रिताः सर्वे सर्वाभ्युपगमागमा: ।।८६।। वामदक्षिणमार्गस्थो मन्त्रीतरसमाश्रयः । कर्मज्ञानगतो ज्ञेयः शभुशाक्यद्विजागमः ।। ८७ ।। हो सकता हैं-'हे कणाद! तुझे देवोंके ब्रह्मतुला नामके दिव्य ज्ञानकी प्राप्ति हुई है इसे विप्रोंको प्रदान कर ।' साधन सामग्रीके मिलनेपर पाने योग्य वस्तुकी प्राप्तिमें रुकावट ही क्या हो सकती हैं? क्योंकि यंत्रके द्वारा पाताल में भी स्थित जल प्राप्त कर लिया जाता है ॥८१॥पत्थरसे सोना पैदा होता है । जलसे मोती बनता हैं । वृक्षसे आग पैदा होती हैं और पृथ्वीसे मणि पैदा होती हैं। इस प्रकार अपने-अपने कारणोंसे अद्भुत सम्पदावाले पदार्थ उत्पन्न होते हैं। जैसे उत्पत्ति,स्थिति और विनाशकी परम्परा अनादि-अनन्त है, या ग्रीष्म ऋतु,वर्षा ऋतु और शीत ऋतुकी परम्परा अनादि अनन्त है, वैसे ही आप्त और श्रुतकी परम्परा भी प्रवाह रूपसे चली आती है,न उसका आदि हैं और न अन्त । आप्तसे श्रुत उत्पन्न होता हैं और श्रुतसे आप्त बनता हैं ।।८२-८३।। (शैव मतवादीके यह आपत्ति की थी कि आप्त बहुतसे नहीं हो सकते और यदि हों भी तो चौवीसका नियम कैसे हो सकता हैं? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं-)यदि वस्तुओंका बहुत्व नियत न हो तो तिथि. तारा ग्रह, समद्र, पहाड आदि नियत क्यों माने गये हैं? अर्थात् जैसे ये बहुत हैं फिर भी इनकी संख्या नियत हैं उसी तरह जैन तीर्थङ्करोंकी भी चौबोस संख्या नियत हैं ।। ८४।। इसी प्रकारसे सांख्य और बौद्ध आदिके मतोंका भी विचार कर लेना चाहिये । क्योंकि उनमें भी तत्त्व,आगम और आप्तके रवरूपोंमें भेद पाया जाता है ।। ८५। एक जैनमतको छोडकर शेष सभी मतवालोने या तो द्रुतमतको अपनाया है या अद्वैत मतको अपनाया है। और उनके सभी आगम सभी मतों के स्वीकार करनेवाले है,अर्थात् किसी एक निश्चित सिद्धान्तके प्रतिपादक नहीं हैं ।।८६।। शैवमत, बौद्धमत और ब्राह्मणमत वाममार्गी और दक्षिणमार्गी हैं,मंत्र तंत्र प्रधान भी है, तथा उसको न मानने वाले भी है और कर्मकाण्डी तथा ज्ञानकाण्डी है ॥८७॥ भावार्थ-शवमत ब्राह्मणमत और बौद्धमतमें उत्तर कालमें वाममार्ग भी उत्पन्न हो गया था,और वह वाममार्ग मंत्र तंत्र प्रधान था तथा उसमें क्रियाकाण्डका ही प्राधान्य था । दक्षिण मागं न तो मत्र तत्र प्रधान था और न क्रियाकाण्डको ही विशेष महत्त्व देता था । शैवमतका तो वाममार्ग प्रसिद्ध हैं। बौद्धमतके महायान सम्प्रदायमेसे तांत्रिक वाममार्गका उदय हुआ था। वैसे बुद्धके पश्चात् बौद्धमत हीनयान और महायान सम्प्रदायोंम विभाजित हो गया था। इसीप्रकार वैदिक ब्राह्मणमत भी पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसाके भेदसे दो रूप हो गया था। पूर्व मीमांसा यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड प्रधान हैं, और उत्तर मीमांसा,जिसे बेदान्त भी करते हैं, ज्ञान प्रधान है । (अब ग्रन्थकार मनुस्मृतिके दो पद्योंको देकर उसकी आलोचना करते है-) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश स्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १३७ यच्चैतत्'श्रांत वेदमिह प्राहुधर्मशास्त्रं स्मृतिर्मता । ते सर्वार्थेष्वमीमांस्य ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ । ८८॥ ते तु यस्त्ववमन्येत हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः । स साधुभिर्बहिः कार्यो नास्तिको वेदनिन्दक:'।८९।। तदपि न साधु । यतः । समस्तयुक्तिनिर्मुक्त: केवलागमलोचनः । तत्त्वमिच्छन्न कस्येह भवेद्वादी जयावहः ।। ९० सन्तो गणेषु तुष्यन्ति नाविचारेषु वस्तुषु । पादेन क्षिप्यते ग्रावा रत्नं मौलौ निधीयते ।। ९१ श्रेष्ठो गुणहस्थः स्यात्ततः श्रेष्ठतरों यतिः । यतेः श्रेष्ठतरो देवो न देवावधिकं परम् ।। ९२ गहिना समवृत्तस्य यतेरप्यधरस्थितेः । यदि देवस्य देवत्वं न देवो दुर्लभो भवेत् ॥ ९३ देवमादौ परीक्षेत पश्चात्तद्वचनक्रमम् । ततश्च तदनुष्ठानं कुर्यात्तत्र मति ततः ।। ९४ येऽविचार्य पुनर्देवं रुचि तद्वाचि कुर्वते । तेऽन्धास्तत्स्कन्धविन्यस्तहस्ता वाञ्छन्ति सद्गतिम् ॥९५ पित्रोः शुद्धौं यथाऽपत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते । तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता ॥९६ (अब ग्रन्थकार मनुस्मृतिके दो पद्योंको देकर उसकी आलोचना करते हैं-) तथा (मनुस्मृति अ०२ श्लोक १०-११ में) जो यह कहा हैं-"श्रुतिको वेद कहते हैं और धर्मशास्त्रको स्मृति कहते है। उन श्रुति और स्मृतिका विचार प्रतिकूल तर्कोसे नहीं करना चाहिये क्योंकि उन्हींसे धर्म प्रकट हुआ हैं। जो द्विज युक्ति शास्त्रका आश्रय लेकर श्रुति और स्मृतिका निरादर करता हैं, साधु पुरुषोंको उसका बहिष्कार करना चाहिये ; क्योंकि वेदका निन्दक होनेसे वह नास्तिक हैं।।८८-८९।। यह भी ठीक नहीं हैं क्योंकि जो मतावलम्बी समस्त युक्तियोंको छोडकर केवल आगमके बलपर तत्त्वकी सिद्धि करना चाहता हैं वह किसको नहीं जीत सकता? अर्थात् सभीको जीत लेगा ॥९०॥ भावार्थ मनुस्मृतिकारने श्रुति और स्मृतिमें युक्ति लगाने का निषेध किया है किन्तु जैनाचार्य कहते है कि युक्तिके विना केवल आगमसे तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती। यदि केवल आगमसे ही तत्त्वको सिद्धि मानी जायेगी तब तो ऐसा व्यक्ति सबको जीत लेगा। अथवा सभी धर्मवाले अपने-अपने आगमोंसे अपने-अपने तत्त्व सिद्ध कर लेंगे। अतः युक्तिसे नहीं घबराना चाहिए, जो बात विचार पूर्ण होती है उसे सब ही माननेको तैयार रहते हैं । सज्जन पुरुष गुणोंसे प्रसन्न होते हैं,अविचारित वस्तुओंसे नहीं । देखो,पत्थरको पैरसे ठुकराया जाता है और रत्नकों मुकुटमें स्थापित किया जाता हैं । अतः जो गुणोंसे श्रेष्ठ है वह गृहस्थ है, गृहस्थसे भी श्रेष्ठ यति है और यतिसे श्रेष्ठ देव है। किन्तु देवसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। जिसका आचरण गृहस्थके समान है जो यतिसे भी नीचे स्थित है, ऐसे देवको भी यदि देव माना जाता है तो फिर देवत्व दुर्लक्ष नहीं रहता ॥९१-९३॥ (अब ग्रन्थकार आगम और तत्त्वकी मीमांसा करते है-) सबसे प्रथम देवकी परीक्षा करनी चाहिए, पीछे उसके वचनोंकी परीक्षा करनी चाहिए। तदनन्तर उसके अनुष्ठान (आचरण) की परीक्षा करनी चाहिए। तत्पश्चात् उसके मानने में बुद्धि करे । जो लोग देवकी परीक्षा किये बिना उसके वचनोंका आदर करते है वे अन्धे हैं और उस देवके कन्धेपर हाथ रखकर सद्गति प्राप्त करना चाहते हैं । जैसे माता-पिताके शुद्ध होनेपर सन्तान में शुद्धि देखी जाती है वैसे ही आप्तके विशुद्ध होनेपर ही आगममें शुद्धता हो सकती है। अर्थात यदि आप्त निर्दोष होता है तो उसके द्वारा कहे गये आगम में भी कोई दोष नहीं पाया जाता । अतः पहले आप्त या देवकी परीक्षा करनी चाहिए, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रावकाचार-संग्रह वाग्विशुद्धापि दुष्टा स्याद् वृष्टिवत्पात्रदोषतः । वन्द्यं वचस्तदेवोच्चैस्तोयवत्तीर्थसंश्रयम् ।। ९७ दृष्टऽथं वचसोऽध्यक्षादनुमेयेऽनुमानतः । पूर्वापराविरोधेन परोक्षे च प्रमाणता ।। ९८ पूर्वापरविरोधेन यस्तु युक्तया च बाध्यते । मत्तोन्मत्त वचःप्रख्यः स प्रमाणं किमागमः ॥ ९९ हेयोपादेयरूपेण चतुर्वगंसमाश्रयात् । कालत्रयगतानर्थान्गमयन्नागमः स्मृतः ।। १०० आत्मानात्मस्थितिर्लोको बन्धमोक्षौ सहेतुको । आगमस्य निगद्यन्ते पदार्थास्तत्त्ववेदिभिः ।। १०१ उत्पत्तिस्थितिसंहारसारा: सर्वे स्वभावतः । नयद्वयाश्रयादेते तरङ्गा इव तोयधेः ।। १०२ क्षयाक्षयैकपक्षत्वे बन्धमोक्षक्षयागमः । तात्त्विकैकत्वसद्भावे स्वभावान्तरहानितः ।। १०३ उसके बाद उसके वचनोंको प्रमाण मानना चाहिए ।।९४-९६।। जैसे वर्षाका पानी समुद्र में जाकर खारा हो जाता हैं या सांपके मुख में जाकर विषरूप हो जाता है वैसे ही पात्रके दोषसे विशुद्ध वचन भी दुष्ट हो जाता है । तथा जैसे तीर्थका आश्रय लेनेवाला जल पूज्य होता हैं वैसे हीजो वचन तीर्थङ्करोंका आश्रय ले लेता है अर्थात् उनके द्वारा कहा जाता हैं वही पूज्य होता है ॥९७।। जो वचन ऐसे अर्थको कहता हैं जिसे प्रत्यक्षसे देखा जा सकता हैं, उस वचनकी प्रमाणता प्रत्यक्षसे सिद्ध हो जाती है। जो वचन ऐसे अर्थको कहता हैं जिसे अनुमानसे ही जाना जा सकता हैं उस वचनकी प्रमाणता अनुमानसे सिद्ध होती है । और जो वचन बिल्कुल परोक्ष वस्तुको कहता हैं, जिसे न प्रत्यक्षसे ही जाना जा सकता है और न अनुमानसे, पूर्वापरमें कोई विरोध न होनेसे उस वचनकी प्रमाणता सिद्ध होती है । अर्थात् यदि उस वचनके द्वारा कही गई बातें आपस में कटती नहीं हैं, तो उस वचनको प्रमाण माना जाता हैं ॥९८।। भावार्थ- शास्त्रोंमें बहुत सी ऐसी बातोंका भी कथन पाया जाता है जिनके विषय में न युक्तिसे काम लिया जा सकता हैं और न प्रत्यक्षसे, ऐसे कथनको सहसा अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता। अत। उन शास्त्रोंकी अन्य बातें, जो प्रत्यक्ष और अनमानसे जानी जा सकती है वे यदि ठीक ठहरती हैं और यदि उनमें परस्परम विरोधी बातें नहीं कही गई है तो उन शास्त्रोंके ऐसे कथनको भी प्रमाण ही मानना चाहिए। जिस आगममें परस्परमें विरोधी बातोंका कथन हैं और युक्तिसे भी बाधा आती हैं, पागलके प्रलापके समान उस आगमको कैसे प्रमाण माना जा सकता है ॥१९॥ आगमका स्वरूप और विषय-जो धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोका अवलम्बन लेकर,हेय और उपादेय रूपसे त्रिकालवर्ती पदार्थोका ज्ञान कराता है उसे आगम कहते है ॥१००॥ तत्त्वके ज्ञाताओंका कहना है कि आगममें जीव,अजीव,अवस्थान,लोक तथा अपने-अपने कारणोंके साथ बन्ध और मोक्षका कथन होता है ।।१०१॥ भावार्थ-जिसमें चारों पुरुषार्थीका वर्णन करते हुए यह बतलाया गया हो कि क्या छोडने योग्य है और क्या ग्रहण करने योग्य है वही सच्चा आगम है । उस आगममें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका वर्णन रहता है । प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय घोव्यात्मक है-जैसे समुद्रमें लहरें उठती है,नष्ट भी होती है, फिर भी जलरूप सदा बना रहता है वैसे ही सभी पदार्थ द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयकी अपेक्षासे स्वभावसे ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होते है।।१०२।। भावार्थ-जैनधर्म में प्रत्येक वस्तको प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त माना हैं अर्थात् प्रत्येक वस्तु प्रति समय उत्पन्न होती हैं,नष्ट होती है और स्थिर भी रहती है। इसपर यह प्रश्न होता है कि ये तीनों वातें तो . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यश स्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १३९ परस्परमें विरुद्ध है,अतः एक वस्तुमें एक साथ वे तीनों बातें कैसे हो सकती है क्योंकि जिस समय वस्तु उत्पन्न होती हैं उस समय वह नष्ट कैसे हो सकती हैं और जिस समय नष्ट होती है उसी समय वह उत्पन्न कैसे हो सकती हैं । तथा जिस समय नष्ट और उत्पन्न होती है उस समय वह स्थिर कैसे रह सकती है? इसका समाधान यह हैं कि कित्येक वस्तु प्रति समय परिवर्तनशील है। संसारमें कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। उदाहणके लिए बच्चा जब जन्म लेता है तो छोटा सा होता है,कुछ दिनोंके बाद वह बडा हो जाता हैं । उसमें जो बढोतरी दिखाई देती हैं वह किसी खास समयमें नहीं हुई है, किन्तु बच्चे के जन्म लेने के क्षणसे ही उसमें बढोतरी प्रारम्भ हो जाती है और जब वह कुछ बडा हो जाता है तो वह बढोतरी स्पष्ट रूपसे दिखाई देने लगती है। इसी तरह एक मकान सौ वर्ष के बाद जीर्ण होकर गिर पडता हैं । उसमें यह जीर्णता किसी खास समयमें नहीं आई, किन्तु जिस क्षणसे वह बनना प्रारम्भ हुआ था उसी क्षणसे उसमें परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया था उसीका यह फल है जो कुछ समयके बाद दिखाई देता है। अन्य भी अनेक दष्टान्त हैं जिनसे वस्तु प्रति समय परिवर्तनशील प्रमाणित होती है। इस तरह वस्तके परिवर्तनशील होनेसे उसमें एक साथ तीन बातें होती हैं, पहली हालत नष्ट होती है, और जिस क्षणमें पहली हालत नष्ट होती हैं उसी क्षणमें दूसरी हालत उत्पन्न होती हैं । ऐसा नहीं है कि पहली हालत नष्ट हो जाये उसके बाद दूसरी हालत उत्पन्न हो पहली हालतका नष्ट होना ही तो दूसरी हालतकी उत्पत्ति है । जैसे, कुम्हार मिट्टीको चाकपर रखकर जब उसे घुमाता है तो उस मिट्टीकी पहली हालत बदलती जाती हैं और नई-नई अवस्थाएँ ससमें उत्पन्न होती जाती हैं। पहली हालतका बदलना और दूसरोका बनना दोनों एक साथ होते है । यदि ऐसा माना जायेगा कि पहली हालत नष्ट हो चुकनेके बाद दूसरी हालत उत्पन्न होती हैं तो पहली हालतके नष्ट हो चुकने और दूसरी हालतके उत्पन्न होने के बीच में वस्तुमें कौन-सी हालत-दशा मानी जायेगी। घडा जिस क्षणमें फूटता हैं उसी क्षणमें ठीकरे पैदा हो जाते है । ऐसा नहीं हैं कि घडा पहले फूट जाता है पीछेसे उसके ठीकरे बन जाते हैं । घडेका फटना ही ठीकरेका उत्पन्न होना है और ठीकरेका उत्पन्न होना ही घडेका फूटना है । अतः उत्पाद और विनाश दोनों एक साथ होते है-एकही क्षणमें एक पर्याय नष्ट होती हैं और दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है,और इनके उत्पन्न और नष्ट होने पर भी द्रव्य-मलवस्त कायम रहती हैं-न वह उत्पन्न होता हैं और न नष्ट । जैसे घडेके फट जाने और ठीकरेके उत्पन्न हो जानेपर भी मिट्टी दोनों हालतोंमें बराबर कायम रहती हैं। अत । वस्तु प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त कहलाती हैं । वस्तुको देखनेकी दो दृष्टियाँ है-एक दृष्टिका नाम हैं द्रव्यार्थिक और दूसरीका नाम हैं पर्यायाथिक । द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टि से वस्तु ध्रुव है, और पर्यायाथिक नय की दृष्टिसे उत्पाद-व्ययशील हैं। यदि वस्तुको केवल प्रतिक्षण विनाशशील या केवल नित्य माना जायेगा तो बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकेगी । क्योंकि सर्वथा एक रूप माननेपर उसमें स्वभावान्तर नहीं हो सकेगा ॥१०३।। भावार्थ-वस्तुको उत्पाद विनाशशील न मानकर यदि सर्वथा क्षणिक ही माना जायेगा तो प्रत्येक वस्तु दूसरे क्षणमें नष्ट हो जायेगी। ऐसी अवस्थामें जो आत्मा बंधा है वह तो नष्ट हो जायेगा तव मुक्ति किसकी होगी? इसी तरह यदि वस्तुको सर्वथा नित्य माना जायेगा तो वस्तुमें कभी भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा। और परिवर्तन न होनेसे जो जिस रूपमें हैं वह उसी रूपमें बनी रहेगी। अतः बद्ध आत्मा सदा बद्ध ही बना रहेगा, अथवा कोई आत्मा बँधेगा ही नहीं; क्योंकि जब वस्तु सर्वथा नित्य हैं तो Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रावकाचार-संग्रह ज्ञाता दृष्टा महान् सूक्ष्मः कृतिभुक्त्योः स्वयं प्रभुः । भोगायतनमात्रोऽयं स्वभावादूर्ध्वगः पुमान्।।१०४ ज्ञानदर्शनशन्यस्य न भेदः स्यादचेतनात् । ज्ञानमात्रस्य जीवत्वे नकधीश्चित्रमित्रवत् ।। १०५ प्रेर्यते कर्म जीवेन जीवः प्रेर्येत कर्मणा । एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविकसमानयोः ।। १०६ मन्त्रवन्नियतोऽप्येषोऽचिन्त्यशक्तिः स्वभावतः । अतः शरीरतोऽन्यत्र न भावोऽस्य प्रमान्वितः ।।१०७ सस्थावरभेदेन चतुर्गतिसमाश्रयाः । जीवा: केचित्तथान्ये च पञ्चमी गतिमाश्रिताः ।। १०८ धर्माधी नभः कालो पुद्गलश्चेति पञ्चमः । अजीवशब्दवाच्याः स्युरेते विविधपर्ययाः ।। १०१ गतिस्थित्यप्रतीघातपरिणामनिबन्धनम् । चत्वारः सर्ववस्तूनां रूपाद्यात्मा च पुद्गलः ।। ११० अन्योन्यानप्रवेशेन बन्धः कर्मात्मनों मतः । अनादिः सावसानश्च कालिकास्वर्णयोरिव ।। १११ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशप्रविभागतः । चतुर्धा निद्यते बन्धः सर्वेषामेव देहिनाम् ।। ११२ आत्मा सदा एक रूप ही रहेगा, न वह कर्ता हो सकेगा और न भोक्ता। यदि उसे कर्ता भोक्ता माना जायेगा तो वह सर्वथा नित्य नहीं रहेगा । अतः प्रत्येक वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य मानना चाहिए। आत्माका स्वरूप-आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा हैं, महान् और सूक्ष्म हैं, स्वयं ही की और स्वयं ही भोक्ता है, अपने शरीरके बराबर है, तथा स्वभावसे ही ऊपरको गमन करनेवाला हैं ।। यदि आत्माको ज्ञान और दर्शनसे रहित माना जायेगा तो अचेतनसे उसमें कोई भेद नहीं रहेगा। अर्थात जड और चेतन दोनों एक हो जायेंगे। और यदि ज्ञानमात्रको जीव माना जायेगा तो चित्र मित्रकी तरह एक बुद्धि नहीं बनेगी ।। १०४-१०५ ।। भावार्थ- जैसे चित्र और मित्र सेदो भिन्न परुष हैं उन्हें एक नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार ज्ञान और दर्शन गुणावले जीवको भी केवल मानरूप ही नहीं माना जा सकता । जीव कर्मको प्रेरित करता है और कर्म जीवको प्रेरित करता हैं। इन दोनोंका सम्बन्ध नौका और नाविकके समान है । कोई तीसरा इन दोनोंका प्रेरक नहीं हैं ॥१०६।। जैसे मंत्रमें कुछ नियत अक्षर होते है,फिर भी उसकी शक्ति अचिन्त्य होती है उसी तरह यद्यपि आत्मा शरीर-परिमाणवाला है, फिर भी वह स्वभावसे ही अचिन्त्य शक्तिवाला हैं, अतः शरीरसे अन्यत्र उसका अस्तित्व प्रमाणित नहीं है ।।१०७॥ त्रस और स्थावरके भेदसे जीव दो प्रकारके हैं ; जो नरकगति, तिर्यञ्चगति मनुष्यगति,और देवगतिमें पाये जाते है। ये सब संसारी जीवोंके भेद है । और पञ्चम गतिको प्राप्त मुक्त जीव होते है ।। १०८ ॥ धर्म, अधर्म आकाश, काल और पुद्गल ये पाँच अजीव द्रव्य कहलाते है । ये अनेक पर्यायोंवाले हैं ॥१०॥ धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंकी गतिमें निमित्त कारण हैं । अधर्म द्रव्य उनकी स्थितिमें निमित्त कारण है । आकाश सब वस्तुओंको स्थान देनेमे निमित्त हैं और काल सबके परिणमनमें निमित्त हैं । तथा जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते है, उसे पूदगल कहते है को आत्मा और कर्मका अन्योन्यानुप्रवेशरूप बन्ध होता है अर्थात् आत्मा और कर्म के प्रदेश परस्परमें मिल जाते हैं । स्वर्ण और कालिमाके बन्धकी तरह यह बन्ध अनादि और सान्त होता + अर्थात जैसे सोने में खानसे ही मैल मिला रहता हैं और बादमें मैलको दूर करके सोने को शुद्ध कर लिया जाता है वैसे ही जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि होने पर भी सान्त है, उसका अन्त हो जाता हैं। यह बन्ध चार प्रकारका है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध,अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्ध । यह चारों प्रकारका बन्ध सभी शरीरधारी जीवोंके होता है ॥१११-११२॥ भावार्थ . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १४१ - आत्मलाभ विदर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मलक्षयात । नाभावो नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्यकम् ।। ११३ बन्धस्य कारणं प्रोक्तं मिथ्यात्वासंयमादिकम् । रत्नत्रयं तु मोक्षस्य कारणं संप्रकीर्तितम् ।। ११४ आप्तागमपदार्थानामश्रद्धानं विपर्ययः । संशयश्च त्रिधा प्रोक्तं मिथ्यात्वं मलिनात्मनाम् ।। ११५ अथवा। एकान्तसंशयाज्ञानं व्यत्यासविनया प्रयम् । भवपक्षाविपक्षत्वान्मिथ्यात्वं पञ्चधा स्मृतम् ॥ ११६ अवतित्वं प्रमादित्वं निर्दयत्वमतृप्तता। इन्द्रियेच्छानुवर्तित्वं सन्तः प्राहुरसंयमम् ।। ११७ कषाया: क्रोधमानाधास्ते चत्वारश्चतुविधाः । संसारसिन्धुसंपातहेतवः प्राणिनां मताः ।। ११८ मनोवाक्कायकर्माणि शुभाशुभविभेदतः । भवन्ति पुण्यपापानां बन्धकारणमात्मनि। ११९ निराधारो निरालम्बः पवमानसमाश्रयः । नभोमध्यस्थितो लोकः सृष्टिसंहारजितः ॥ १२० अथ मतम् .. नैव लग्नं जगत्क्वापि भूभूध्राम्भोधिनिर्भरम् । धातारश्च न यज्यन्ते मत्स्यकूमाहिपोत्रिणः ॥१२१ प्रकृति शब्दका अर्थ स्वभाव हैं । कर्मोमें ज्ञानादिको घातनेका जो स्वभाव उत्पन्न होता हैं, उसे प्रकृतिबन्ध कहते है । कोमें अपने अपने स्वभावको न त्यागकर जीवके साथ बंधे रहने के कालकी मर्यादाके पडनेको स्थितिबन्ध कहते हैं । उनमें फल देनेकी न्यूनाधिक शक्तिके होनेको अनुभाग बन्ध कहते हैं और न्यूनाधिक परमाणुवाले कर्मस्कन्धोंका जीवके साथ सम्बन्ध होनेको प्रदेशबन्ध कहते हैं । रागद्वेषादिरूप आभ्यन्तर मलके क्षय हो जानेसे जीवके स्व-स्वरूपकी प्राप्तिको मोक्ष कहते है। मोक्षमें न तो आत्माका अभाव ही होता हैं, न आत्मा अचेतन ही होता है और न वहां चैतन्य अनर्थक ही हैं । अर्थात् चेतन होने पर भी आत्मामें ज्ञानादिका अभाव नहीं होता है ॥ ११३ ।। मिथ्यात्व असंयम आदिको बन्धका कारण कहा हैं । तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयको मोक्षका कारण कहा हैं ।।११४।। मलिन आत्माओंमें पाये जानेवाले मिथ्यात्वके तीन भेद हैं- १. देव, शास्त्र और उनके द्वारा कहे गये पदार्थोका श्रद्धान न करना, २. विपर्यय और ३. संशय । अथवा मिथ्यात्वके पाँच भेद भी हैं-एकान्त मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व, विपर्यय मिथ्यात्व और विनय मिथ्यात्व । ये पाँचों प्रकारका मिथ्यात्व संसारका कारण हैं ॥११५-११६।। व्रतोंका पालन न करना,अच्छे कामोंमें आलस्य करना,निर्दय होना, सदा असन्तुष्ट रहना और इन्द्रियोंकी रुचिके अनुसार प्रवृत्ति करना इन सबको सज्जन पुरुष असंयम कहते है ।। १७।। क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे कषाय चार प्रकारकी कही है। इनमेंसे प्रत्येक के चार चार भेद हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ । ये कषायें प्राणियोंको संसाररूपी समुद्र में गिराने में कारण है ।।११८ । मन वचन और कायकी क्रिया शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारकी होती हैं। इनमेंसे शुभ क्रियाओंसे आत्माके पुण्यबन्ध होता हैं और अशुभ क्रियाओंसे पापबन्ध होता हैं ।।११९।। (इस प्रकार बन्धके कारण बतलाकर ग्रन्थकार लोकका स्वरूप कहते है-) यह लोक निराधार हैं, निरालम्ब है-कोई इसे धारण किये हुए नहीं हैं, केवल तीन प्रकारकी वायुके सहारेसे आकाशके बीचोबीच में यह ठहरा हुआ हैं । न इसकी कभी उत्पत्ति हुई है और न कभी विनाश ही होता हैं ।।१२०।। जैनोंकी इस मान्यतापर दूसरे आक्षेप करते हुए कहते हैं-पृथ्वी, पहाड, समुद्र आदिके भारसे लदा हुआ यह Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रावकाचार-संग्रह एवमालोच्य लोकस्य निरालम्बस्य धारणे । कल्प्यते पवनो जैनरित्येतत्साहसं महत् ॥ १२२ यो हि वायुन शक्तोऽत्र लोष्ठकाष्ठादिधारणे । त्रैलोक्यस्य । कथं स स्याद्धारणावसरक्षम ॥१२३ तदसत। ये प्लावयन्ति पानीविष्टपं सचराचरम् । मेघास्ते वातसामात्कि न व्योम्नि समासते ।। १२४ आप्तागमपदार्थष्वपरं दोषमपश्यत: अमज्जनमनाचामो नग्नत्वं स्थितिभोजिता । मिथ्यादृशो वदन्त्येतन्मनेर्दोषचतुष्टयम् ॥ १२५ तत्रैष समाधिःब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् । मुनीनां स्नानमप्राप्तं दोषे त्वस्य विधिर्मतः ।। १२६ संगे कापालिकात्रेयीचाण्डालशबरादिभिः । आप्लुत्य दण्डवत्सम्यग्जपेन्मन्त्रमपोषितः ॥ १२७ एकान्तरं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके । दिने शुद्धयन्त्यसंदेहमतौ व्रतगता: स्त्रियः ।। १२८ यदेवाङ्गमशुद्धं स्यादद्भि शोध्यं तदेव हि । अङ्गुलौ सर्पदष्टायां न हि नासा निकृत्यते ।।१२९ जगत् किसीके भी आधार नहीं है,तथा मच्छ, कच्छप, बासुकीनाग और शूकर इसके धारणकर्ता हो नहीं सकते। ऐसा विचार करके जैन लोग इस निरालम्ब जगत्का धारणकर्ता वायको मानते हैं। किन्तु यह उनका बडा साहस है, क्योंकि जो वायु हमारे देखने में ईंट पत्थर लकडी वगैरहका भी बोझ सम्हालने में असमर्थ है, वह तीनों लोकोंको धारण करने में कैसे समर्थ हो सकता है? ॥१२१-१२३।। किन्तु उसका यह आक्षेप ठीक नहीं है,क्योंकि जो मेघ पानीके द्वारा चराचर जगत्को जलमय बना देते हैं,वे वायुके द्वारा ही क्या आकाशमें नहीं ठहरे रहते? ॥१२४।। भावार्थआज कल तो हजारों टन बोझा लेजाने वाले वायुयान वायुके सहारे ही आकाशमें उडते हुए पाये जाते है । अतः वायुमें बडी शक्ति है और वही लोकको धारण करने में समर्थ है। मच्छ कछुवे आदिको जो पुराणोंमें पृथ्वीका आधार माना गया है वह विज्ञान सम्मत नहीं है । जैन आप्त; जैन आगम और उनके द्वारा कहे हुए पदार्थोमें अन्य दोष न पाकर मिथ्यादृष्टि लोग जैन मनियोंमें दोष लगाते हुए कहते हैं कि जैनोंके साधु स्नान नहीं करते, आचमन नहीं करते, नंगे रहते है और खडे होकर भोजन करते हैं। इन दोषोंका समाधान इस प्रकार हैं ॥१२५ । ब्रह्मचर्यसे यक्त और आत्मिक आचारमें लीन मुनियोंके लिए स्नानकी आवश्यकता नहीं है। हाँ, यदि कोई दोष लग जावे तो उसका विधान हैं । यदि मुनि हाथमें खोपडी लेकर मांगने वाले वाममार्गी कापालिकोंसे, रजस्वला स्त्रीसे, चाण्डाल और म्लेच्छ आदिसे छू जाये तो स्नान करके, उपवास पर्वक कायोत्सर्गके द्वारा मंत्रका जप करना चाहिए।।१२६-१२७।। भावार्थ-साधारणत: मनिके लिए स्नान करनेका निषेध है; क्योंकि मुनि अखण्ड ब्रह्मचारी होते है तथा आरम्भ आदिसे दूर रहते है। हाँ,यदि ऊपर कही गई कोई अशुद्धि हो जाये तो वे स्नान करके बादको उसका प्रायश्चित्त करते है। जो स्त्रियाँ व्रताचरण करती हैं,वे ऋतुकाल में एकाशन अथवा तीन दिनका उपवास करके चौथे दिन स्नान करके निःसन्देह शुद्ध हो जाती हैं ।।१२८।। (इस प्रकार मुनियोंके स्नान करनेका कारण बतलाकर ग्रन्थकार आचमन विधिकी आलोचना करते है-) शरीरका जो भाग अशद्ध हो, जलसे उसीकी शुद्धि करनी चाहिए। अंगुलिमें साँपके काट लेनेपर नाकको नहीं काटा जाता हैं ।।१२९।। अधोवायुका निस्सरण आदि करनेपर यदि मुखमें अपवित्रता मानते हो तो मुखके अपवित्र : Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १४३ निष्पन्दादिविधौ वक्त्रे यद्यपूतत्वमिष्यते । तहि वक्त्रापवित्रत्वे शौचं नारभ्यते कुतः ।। १३० विकारे विदुषां द्वेषो नाविकारानुवर्तने । तन्नग्नत्वे निसर्गोत्थे को नाम द्वेषकल्मषः ।। १३१ नैष्किञ्चन्यमहिंसा च कुतः पंमिनां भवेत् । ते सगाय यदीहन्ते वल्कलाजिनवाससाम् ॥१३२ न स्वर्गाय स्थितेभक्तिर्न श्वभ्रायास्थितेः पुनः । कि तु संयमिलोकेऽस्मिन्सा प्रतिज्ञार्थमिष्यते ॥१३३ पाणिपात्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावदहं भुजे हाम्याहारमन्यथा ॥ १३४ अदेन्यासङ्गवैराग्यपरीषहकृते कृतः । अतएव यतीशानां केशोत्पाटनसद्विधिः ।। १३५ सूर्या? ग्रहणस्नानं संक्रान्तौ द्रविणव्ययः । सन्ध्यासेवाग्निसत्कारो गेहदेहार्चनो विधिः ।। १३६ नदीनदसमद्रेषु मज्जनं धर्मचेतसा । तरुस्तूपाग्रभक्तानां वन्दनं भृगुसंधयः ।। १३७ गोपृष्ठान्तनमस्कारस्तन्मूत्रस्य निषेवणम् । रत्नवाहनभूयक्षशस्त्रशैलादिसेवनम् ।। १३८ होनेपर अधोभागमें शौच क्यों नहीं करते हो ॥१३०।। भावार्थ-ब्राह्मण धर्ममें विहित कर्म करनेसे पहले शरीरकी शुद्धिके लिए तीन बार हाथसे जलपान किया जाता हैं। इसे ही आचमन कहते है । ग्रन्थकार कहते हैं कि शरीरका जो भाग अशुद्ध हो जलसे उसीकी शुद्धि करनी चाहिए, जलपान कर लेनेसे अशुद्ध शरीर कैसे शुद्ध हो सकता है? यदि मुख अशुद्ध हो तो उसकी शुद्धि करनी चाहिए और यदि कोई दूसरा अंग अशुद्ध हो तो उसकी शुद्धि करनी चाहिए । सबकी शुद्धि जलपान मात्रसे तो नहीं हो सकती । अत: आचमन करना व्यर्थ हैं । (अब मुनियोंकी नग्नताका समर्थन करते है-) विद्वान् लोग विकारसे द्वेष करते हैं, अविकारतासे नहीं। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक नग्नतासे किस बातका द्वेष? यदि मुनिजन पहिरनेके लिए वल्कल, चर्म अथवा वस्त्रकी इच्छा रखते हैं तो उनमें नैश्किचन्य मेरा कुछ भी नहीं हैं ऐसा भाव तथा अहिंसा कसे सम्भव है? अर्थात् वस्त्रादिककी इच्छा रखनेसे उससे मोह तो नबा ही रहा तथा वस्त्रके धोने वगैरहमें हिंसा भी होती ही हैं ।।१३१-१३२।। (अब मुनियोंके खडे होकर आहार ग्रहण करनेका समर्थन करते हैं-) बैठकर भोजन करनेसे स्वर्ग नहीं मिलता और न खडे होकर भोजन करनेसे नरकमें जाना पड़ता हैं । किन्तु मुनिजन प्रतिज्ञाके निर्वाहके लिए ही खडे होकर भोजन करते हैं ।।मुनि भोजन प्रारम्भ करनेसे पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि- 'जबतक मेरे दोनों हाथ मिले है और मेरेमें खडे होकर भोजन करनेकी शक्ति हैं तबतक में भोजन करूंगा अन्यथा आहारको छोड दूंगा । इसी प्रतिज्ञाके निर्वाहके लिए मुनि खडे होकर भोजन करते है ।। १३३१३४।। (अब केशलोंचका समर्थन करते हैं-) अदीनता, निष्परिग्रहपना, वैराग्य और परीषहके लिए मुनियोंको केशलोंच करना बतलाया हैं ॥१३५। भावार्थ-मुनियोंके पास एक दमडी भी नहीं रहती,जिससे क्षौरकर्म करा सकें, यदि दूसरेसे माँगते हैं तो दीनता प्रकट होती हैं, पासमें छुरा वगैरह भी नहीं रख सकते । और यदि केश बढाकर जटा रखते हैं तो उसमें जूं वगैरह पड जाती है इसलिए वह हिंसाका कारण है। इसके विपरीत केशलोंच करने में न किसीसे कुछ मांगना पडता है,न कोई हिंसा होती हैं, प्रत्युत उससे वैराग्यभाव दृढ होता हैं और कष्टोंको सहनेकी क्षमता बढती है, इसलिए मुनिगण केशलोंच करते हैं। अब आचार्य लोकमें प्रचलित मूढताओंका निषेध करते है- सूर्यको अर्घ देना,ग्रहणके समय स्नान करना,संक्रान्ति होनेपर दान देना,सध्या वन्दन करना अग्निको पूजना,मकान और शरीर. की पूजा करना, धर्म मान कर नदियों और समुद्र में स्नान करना, वृक्ष स्तूप और प्रथम ग्रासको नमस्कार करना, पहाडकी चोटीसे गिरकर मरना, गौके पृष्ठ भागको नमस्कार करना,उसका मूत्र Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्रावकाचार-संग्रह समयान्तरपाखण्डवेदलोकसमाश्रयम् । एवमादिविमूढानां ज्ञेयं मूढमनेकधा !। १३९ वरार्थ लोकयात्रार्थमपरोधार्थमेव वा । उपासनममीषां स्यात्सम्यग्दर्शनहानये ।। १४० क्लेशायैव क्रिशायैव क्रियामीष न फलावात्तिकारम् । यद्भवेन्मुग्धबोधानामूषरे कृषिकर्मवत्।।१४१ वस्तुन्येव भवेद्भक्तिः शुभारम्भाय भाक्तिके । नारत्नेषु रत्नाय भावो भवति भूतये ।। १४२ अदेवे देवताबद्धिमवते बतभावनाम् । अतत्त्वे तत्त्वविज्ञानमतो मिथ्यात्वमुत्पृजेत् ॥ १४३ तथापि यदि मूढत्वं न त्यजेत्कोऽपि सर्वथा । मित्रत्वेनानुमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दरः ॥ १४४ न स्वतो जन्तवः प्रेर्यो दुरीहाः स्युजिनागमे । स्तव एवं प्रवृत्तानां तद्योग्यानुग्रहो मतः ।। १४५ शङ्काकाङ्क्षाविनिन्दान्यश्लाघा च मनसा गिरा । एते दोषाः प्रजायन्ते सम्यक्त्वक्षतिकारणम्॥१४६ पान करना, रत्न सवारी पृथ्वी यक्ष शस्त्र और पहाड आदि की पूजा करना, तथाधर्मान्तरके पाखण्ड वेद और लोकसे सम्बन्ध रखनेवाली इस प्रकारकी अनेक मूढताएँ जाननी चाहिएँ। वरकी आशासे या लोक रिवाजके विचारसे या दूसरोंके आग्रहसे इन मूढताओंका सेवन करनेसे सम्यग्दर्शनकी हानि होती हैं ।। जिस प्रकार अज्ञजनोंको ऊसर भूमिमें खेती करनेसे केवल क्लेश ही उठाना पडता हैं,फल कुछ भी नहीं निकलता, उसी तरह इन मूढताओंके करनेसे केवल क्लेश ही उठाना पडता हैं,फल कुछ भी नहीं निकलता ॥१३६.१४१॥ वस्तुमें की गई भक्ति ही शुभ कर्मका बन्ध कराती हैं जो रत्न नहीं हैं उसे रत्न माननेसे कल्याण नहीं हो सकता !! अदेवको देव मानना, अव्रतको व्रत मानना और अतत्त्वको तत्त्व मानना मिथ्यात्व हैं अतः इसे छोड देना चाहिए। फिर भी यदि कोई इन मूढताओंका सर्वथा त्याग नहीं करे (और सम्यक्त्वके साथ-साथ किसी मूढताका भी पालन करे) तो उसे सम्यमिथ्यादृष्टि चाहिए, क्योंकि सर्वनाश अच्छा नहीं । अर्थात् मिथ्यात्व सेवनके कारण उसके धर्माचरणका भी लोप कर देना अर्थात् उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना ठीक नहीं है।।१४२।।१४४।। भावार्थ-ऊपर जिन मूढताओंका उल्लेख किया हैं, उनमेंसे बहुत-सी मढताएँ आज भी प्रचलित हैं, और लोग धर्म मानकर उन्हें करते हैं, किन्तु उनमेंकुछ भी धर्म नहीं हैं। वे केवल धर्मके नामपर कमाने-खानेका आडम्बर मात्र हैं । ऐसी मूढताओंसे सबको बचना चाहिए । किन्तु यदि कोई कारणसे उन मूढताओंको पूरी तरहसे नहीं त्याग देता और अपने धर्माचरणके साथ उन्हें भी किये जाता हैं तो उसे एकदम मिथ्यादृष्टि न मानकर सम्यक् मिथ्यादष्टि माननेकी सलाह ग्रन्थकार देते है । वे उसके उस धर्माचरणका लोप नहीं करना चाहते, जो वह मढता पालते हुए भी करता है। ऐसा प्रतीत होता हैं कि ग्रन्थकारके समयके लोक-रिवाज या कामना-वश कुछ जैनोंमें भी मिथ्यात्वका प्रचार था और बहुतसे जैन उसे छोडने में असमर्थ थे। शायद उन्हें एक दम मिथ्यादृष्टि कह देना भी उन्हें उचित नहीं जंचा, इसलिए सम्यङमिथ्यादृष्टि कह दिया है, वैसे तो मिथ्यात्वसेवी जैन भी मिथ्यात्वी ही माने गये हैं। जिन मनुष्योंकी चेष्टाएँ या इच्छाएँ अच्छी नहीं है उन्हे जिनागममें स्वयं प्रेरित नहीं करना चाहिए । अर्थात् ऐसे मनुष्यों को जैनधर्ममें लानेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिए, किन्तु यदि वे स्वयं इधर आवे तो उनके योग्य अनुग्रह-साहाय्य कर देना चाहिए ।। १४५॥ । (अब ग्रन्थकार सम्यग्दर्शनके दोष बतलाते हैं-) शङ्का, कांक्षा, विनिन्दा और मन तथा वचनसे मिथ्यादृष्टिकी प्रशंसा करना, ये दोष सम्यग्दर्शनकी हानिके कारण हैं ।।१४६।। . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १४५ अहमेको न मे कश्चिदस्ति त्राता जगत्त्रये । इति व्याधिवजोत्क्रान्तिभीति शङ्का प्रचक्षते ॥ १४७ एतत्तत्त्वमिदं तत्त्वमेतद्वतमिदं व्रतम् । एष देवश्च देवोऽयमिति शङ्कां विदु। पराम् ॥ १४८ इत्थं शतचित्तस्य न स्याद्दर्शनशुद्धता । न चास्मिन्नीप्सितावाप्तियथैवाभयवेदने ।। १४९ एष एव भवेद्दवस्तत्त्वमप्यतदेव हि । एतदेव व्रतं मक्त्यै तदेव स्यादशङ्कधीः ।। १५० तत्त्वे ज्ञाते रिपौ दृष्टे पात्रे वा समपस्थिते । यस्य दोलायते चित्तं रिक्तः सोऽमुत्र चेह च ॥१५१ अन्तस्तत्त्वविहीनस्य वृथा व्रतसमुद्यमः । पुंसः स्वभावभीरो: स्यान्न शौर्यायायुध ग्रहः ।। १५२ एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः।। १५३ उररीकृत निर्वाहसाहसोचितचेतसाम् । उभौ कामदुधौ लोको क र्तेश्चाल्पं जगत्त्रयम् ॥ १५४ क्षत्रपुत्रोऽक्षविक्षिप्तः शिक्षितादृश्यकज्जल: । अन्तरिक्षगति प्राप निःशङ्कोऽजनतस्करः ॥ १५५ स्यां देवः स्यामहं यक्षः स्यां वा वसुमतीपतिः । यदि सम्यक्त्वमाहात्म्यमस्तीतीच्छां परित्यजेत्।।१५६ उदश्वितेव माणिक्यं सम्यक्त्वं भवजैः सुखैः । विक्रीणान: पुमान्स्वस्य वञ्चक: केवलं भवेत्।।१५७ चित्ते चिन्तामणिर्यस्य यस्य हस्ते सुरद्रुमः । कामधेनुर्धने यस्य तस्य कः प्रार्थनाक्रमः ॥ १५८ इस पहले शंका दोषका वर्णन करते है-'मै अकेला हूँ,तीनों लोकोंमें मेरा कोई रक्षक नहीं है।' इस प्रकार रोगोंके आक्रमणके भयको शंका कहते है ।। अथवा यह तत्त्व है या यह तत्त्व है?' 'यह व्रत है या यह व्रत है?' 'यह देव हैं कि यह देव है?' इस प्रकारके संशयको शंकाकहते है। जिसका चित्त इस प्रकारसे शङ्कित - शङ्काकुल या भयभीत हैं उसका सम्यग्दर्शन शुद्ध नहीं हैं। तथा जैसे नपुंसक अपने मनोरथको पूरा नहीं कर सकता,वैसे ही उसे भी अभीष्टकी प्राप्ति नहीं हो सकती । 'यही देव है, यही तत्त्व है और इन्हीं व्रतोंसे मुक्ति प्राप्त हो सकती हैं। ऐसा जिसको दृढ विश्वास है वही मनुष्य निःशङ्क बुद्धिवाला हैं ।। किन्तु तत्त्वके जाननेपर, शत्रुके दृष्टि-गोचर होनेपर और पात्रके उपस्थित होने पर जिसका चित्त डोलता है, जो कुछ भी स्थिर नहीं कर सकता वह इस लोकमें भी खाली हाथ रहता है और परलोकमें भी खाली हाथ रहता हैं।।१४७१५१।। आत्मज्ञानसे शून्य मनुष्यका व्रताचरण का प्रयास व्यर्थ हैं । ठीक ही हैं जो मनुष्य स्वभाव से ही डरपोक हैं, शस्त्र ग्रहण करनेसे उसमें शौर्य नहीं आ जाता॥१५२।। ___'अकेली एक जिन-भक्ति ही ज्ञानीके दुर्गतिका निवारण करने में, पुण्यका संचय करने में और मुक्ति रूपी लक्ष्मीको देने में समर्थ हैं ।।१५३॥ 'जो अपनी प्रतिज्ञाका निर्वाह करने में उचित साहस दिखलाते हैं, इस लोक और परलोकमें वे इच्छित वस्तुको पाते है, तथा उनके यशसे तीनों लोक चलायमान हो जाते हैं ॥१५४।। अञ्जनचोर राजपुत्र था, किन्तु इन्द्रियोंकी विषयलालसाने उसे पागल कर दिया था। तब अदृश्य होनेका अञ्जन बनाना सीख लिया। फिर वह निःश होकर विद्याधर बन गया । और मुक्त हो गया ।।१५५।। (अब निष्काक्षित अंगको बतलाते हैं-) यदि सम्यग्दर्शनमें माहात्म्य है तो मैं देव होऊ', यक्ष होऊँ अथवा राजा हो इस प्रकारकी इच्छाको छोड देना चाहिए। जो सांसारिक सुखोंके बदलेमें सम्यक्त्वको बेच देता हैं वह छाछ के बदले में माणिक्यको बेच देने-वाले मनुष्यके समान केवल अपनेको ठगता है ।। ५६-१५७।। जिस सम्यदृष्टिके चित्तमें चिन्तामणि है, हाथमें कल्पवृक्ष हैं, धनमें कामधेनु हैं, उसको याचनासे क्या मतलब? जिसकी चित्तवृत्ति उचित स्थानको पाकर Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्रावकाचार-संग्रह उचिते स्थानके यस्य चित्तवृत्तिरनाकुला । तं श्रियः स्वयमायान्ति स्रोतक्विन्य इवाम्बुधिम् । १५९ तत्कुदृष्टयन्तरोद्भूतामिहामुत्र च संभवाम् । सम्यग्दर्शनशुद्धयर्थमाकांक्षां विविधां त्यजेत् ।।१६० हासास्पितुश्चतुर्थेऽस्मिन्व्रतेऽनन्तमतिः स्थिता। कृत्वा तपश्च निष्काक्षा कल्पं द्वादशमाविशत्।।१६१ तपस्तीवं जिनेन्द्राणां नेदं संवादमन्दिरम् । अदोऽपवादि चेत्येवं चेतः स्याद्विचिकित्सना ।। १६२ स्वस्यैव हि स दोवोऽयं यन्न शक्तः श्रुताश्रयम् । शीलमाश्रयितुं जन्तु तदर्थ वा निबोधितुम्।।१६३ स्वतःशद्धमपि व्योम वीक्षते यन्मलीमसम् । नासौ दोषोऽस्य किं तु स्यात्स दोषश्चक्षुराश्रय।।१६४ दर्शनाद्देहदोषस्य यस्तत्त्वाय जगप्सते । स लोहे कालिकालोकानूनं मुञ्चति काञ्चनम् ।। १६५ स्यस्यान्यस्य च कायोऽयं बहिश्छायामनोहरः । अन्तविचार्यमाणः स्यादोदुम्बरफलोपमः ।। १६६ तदैतिह्ये च देहे याथात्म्यं पश्यतां सताम् । उद्वेगाय कथं नाम चित्तवृत्ति प्रवर्तताम् ।। १६७ बालवृद्धगदग्लानान्मुनीनौद्दायनः स्वयम् । भन्निविचिकित्सात्मा स्तुति प्रापत्पुरत्वगत् ।। १६८ अन्तर्दुरन्तसंचारं बहिराकारसुन्दरम् । न श्रद्दध्यात्कुदृष्टीनां मतं किम्पाकसन्निभम् ।। १६९ श्रुतिशाक्यशिवाम्नायः क्षौद्रमांसासवा प्रयः । यदन्ते मखमोक्षाय विधिरत्रैतदन्वयः ॥ १७० निराकुल हो जाती हैं, समुद्र में नदियोंकी तरह लक्ष्मी उसे स्वयं प्राप्त होती है ॥१५८-१५९॥ अतः सम्यग्दर्शनको शुद्धिके लिए अन्य मिथ्या मतोंके सम्बन्धसे उत्पन्न होने वाली, तथा इस लोक और परलोक सम्बन्धी तीन प्रकारकी इच्छाओंको छोड देना चाहिए ।।१६०।। अनन्तम तीने पिताके परिहाससे ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और उसमें स्थिर रही। फिर बिना किसी प्रकारकी इच्छाके तप करके बारहवें स्वर्गमें उत्पन्न हुई ।।१६१ । (अब निविचिकित्सा अंगको बतलाते हैं-) जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा गया यह उग्र तप प्रशंसनीय नहीं हैं, उसमें अनेक दोष हैं।' इस प्रकार चित्तमें सोचना विचिकित्सा कहलाती है। शास्त्रमें कहे गये शीलको पालने अथवा उसका आशय समझने में जो जीव असमर्थ हैं सो यह उसीका दोष हैं । स्वतः शुद्ध आकाश भी जो मलिन दिखाई देता हैं सो यह आकाशका दोष नहीं हैं किन्तु देखनेवालेकी आँखोंका दोष हैं। जो मनुष्य शरीरमें दोष देखकर उसके अन्दर बसनेवाली आत्मासे ग्लानि करता हैं, वह लोहेकी कालिमाको देखकर निश्चय ही सोनेको छोडता हैं । अर्थात् जैसे लोहेकी कालिमाका सोनेसे सम्बन्ध नहीं हैं वैसे ही शरीरकी गन्दगीका आत्माके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः शरीरके गन्देपनको देखकर तपस्वी साधुको आत्मासे घृणा नहीं करनी चाहिए । अपना शरीर हो या दूसरेका, वह बाहरसे ही मनोहर लगता है। उसके अन्दरकी हालतका विचार करने पर तो वह उदुम्बरके फलके समान ही हैं । अतः इस परम्परागत उपदेश तथा इस शरीरके वास्तविक स्वरूपको जाननेवाले सज्जनोंकी चित्तवृत्ति (शरीरकी गन्दगीको देखकर) कैसे व्याकुल हो सकती हैं? अर्थात् नहीं हो सकती ॥१६२-१६७।। बाल, वृद्ध और रोगसे पीडित मुनियोंकी स्वयं सेवा करनेवाला, निर्विचिकित्सा अंगका पालक,राजा उद्दायन इन्द्रके द्वारा प्रशंसित हुआ।।१६८।। (अब अमूढदृष्टि अङ्गको बतलाते हैं-) जिसके अन्दर बुराइयाँ भरी हैं किन्तु जो बाहरसे सुन्दर है, किम्पाकफलके समान ऐसे मिथ्यादृष्टियोंके मतपर श्रद्धा मत करो। १६९।।वैदिक मतमें मधुके प्रयोगका विधान हैं, (बौद्धमतमें) मांस-भक्षणका विधान हैं, और शैवमतमें मद्यपानका विधान है । आम्नायोंमें जो यज्ञ-और Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन भीमभस्मजटावोयोग दृकटासनम् । मेखलाप्रोक्षणं मुद्रा वृषीदण्डः करण्डकः ।। १७१ शौचं मज्जतमाचामः पितृपूजानलाचनम् । अन्तस्तत्त्व विहीनानां प्रक्रियेयं विराजते ।। १७२ को देवः किमिद ज्ञानं किं तत्त्वं कस्तपःक्रमः । को बन्धः कश्च मोक्षो वा यत्तत्रेदं न विद्यते ।। १७३ विशुद्ध क्रिया शुद्धापि देहिषु । नाभिजातफल प्राप्त्यै विजातिष्विव जायते ।। १७४ तत्संस्तवं प्रशंसां वा न कुर्वीत कुदृष्टिषु । ज्ञानविज्ञानयोस्तेषां विपश्चिन्न च विभ्रमेत् ।। १७५ जले तैलमिवैतिह्य वृथा तत्र बहिर्द्युति । रसवत्स्यान्न यत्रान्तर्बोधो वेधाय धातुषु ।। १७६ आत्मनि मोक्षे ज्ञाने वृत्ते ताते व भरतराजस्य । ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरो विद्यते ब्रह्मा ।। १७७ कादम्बताक्ष्यगोसिंहपीठाधिपतिषु स्वयम् । आगतेष्वप्यभून्नंषा रेवती मूढतावती ॥ १७८ उपगूहस्थितीकारी यथाशक्तिप्रभावनम् वात्सल्यं च भवन्त्येते गुणाः सम्यक्त्वसंपदे ।। १७९ क्षान्त्या सत्येन शौचेन मार्दवेनार्जवेन च तपोभिः संयमैदनः कुर्यात्समय बृंहणम् ।। १८० सवित्रीव तनूजानामपराधं सधर्मसु । दैवप्रमादसंपन्नं निगूहेद् गुणसंपदा ।। १८१ अशक्तस्यापराधेन किं धर्मो मलिनो भवेत् । न हि भेके मृते याति पयोधिः पूतिगन्धिताम् ।। १८२ दोषं गूहति नो जातं यस्तु धर्मं न बृंहयेत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्वं जिनागमबहिस्थिते || १८३ मायासंयमिन्युत्सर्पे सूर्वे रत्नापहारिणि । दोषं निषूदयामास जिनेन्द्रो भक्तवाकरः ।। १८४ मोक्षकी विधियाँ है, उनमें भी उक्त वस्तुओं के सेवनका विधान आता हैं ।। १७० ।। नशा करना, भस्म रमाना, जटाजूट रखना, योगपट्ट, कटिसूत्र धारण, यज्ञके लिए पशुवध करना, मुद्रा, कुशासन, दण्ड, पुष्प रखनेका पात्र, शौच, स्नान, आचमन, पितृतर्पण और अग्निपूजा, सब आत्मतत्त्वसे विमुख साधकों की प्रक्रिया हैं। कौन देव है ? तत्त्व क्या हैं, तपस्याका क्रम क्या है ? बन्ध किसे कहते हैं? मोक्षका क्या स्वरूप हैं? ये सब बातें वहाँ नहीं हैं ।। १७१-१७३॥ । यदि देव और शास्त्र निर्दोष न हों तो प्राणियोंकी शुद्ध क्रिया भी श्रेष्ठ फल को नहीं दे सकती। जैसे विजातियों में कुलीन सन्तानकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिए मिध्यादृष्टियोकी मनसे प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और नवचन से स्तुति करनी चाहिए। तथा समझकर मनुष्यों को उनके ज्ञानादिकको देखकर भ्रम में नहीं पडना चाहिए ।। १. ४-१७५।। जहाँ धातुमें पारदकी तरह अन्तर्बोध चित्तके अन्दर नहीं भिदता, वहाँ जल में तेल की तरह बाहर में ही प्रकाशमान शास्त्रज्ञान व्यर्थ ही होता हैं । १७६ ।। आत्माको, मोक्षको, ज्ञानको, चारित्रको और भरत के पिता ऋषभदेवको ब्रह्मा कहते हैं । इनके सिवा और कोई ब्रह्मा नहीं हैं । १७७।।‘ब्रह्मा, विष्णु, शिव और जिनके स्वयं पधारने पर भी रेवती रानी मूर्ख नहीं बनी, मूढताको प्राप्त नहीं हुई ।।१७८ || ( अब उपगूहन अंगको बतलाते हैं - ) उपगूहन, स्थितिकरण, शक्ति के अनुसार प्रभावना और वात्सल्य ये गुण सम्यक्त्व रूपी सम्पदा के लिए होते हैं ।। १७९ ॥ क्षमा, सत्य, शौच, मार्दव, आर्जव, तप, संयम और दानके द्वारा धर्मकी वृद्धि करनी चाहिए। तथा जैसे माता अपने पुत्रों के अपराधको छिपाती हैं वैसे ही यदि साधर्मियोंमेंसे किसीसे दैववश या प्रमाद वश कोई अपराध बन गया हो तो उसे गुण सम्पदा से छिपाना चाहिए | क्या असमर्थ मनुष्य के द्वारा की गई गल्ती धर्म मलिन हो सकता हैं? मेढकके मर जानेसे समुद्र दुर्गन्धित नहीं हो जाता !! जो न तो दोषको ढाँकता है और न धर्मकी वृद्धि करता है, वह जिनागमका पालक नहीं हैं और उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होना भी दुष्कर है ।। १८०-१८३ ॥ 'मायाके नियंत्रण में प्रवीण रत्नको चुरानेवाले सूर्पके दोषको जिनेन्द्र भक्त सेठने छिपाया ॥ १८४ ॥ ( अब स्थितिकरण अंग १४७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्रावकाचार-संग्रह परीषहवतोद्विग्नमजातागमसङ्गमम् । स्थापयेद् भ्रस्यदात्मानं समयी समयस्थितम् ।। १८५ तपस: प्रत्यवस्यन्तं यो न रक्षति संयतम् । नूनं स दर्शनाद्वाह्यः समयस्थितिलङ्घनात् ।। १८६ नवैः संदिग्धनिर्वाहविदध्याद गणवर्धनम् । एकदोषकृते त्याज्यः प्राप्ततत्त्वः कथं नरः ।। १८७ यत: समयकार्यार्थो नानापञ्चजनाश्रयः । अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥ १८८ उपेक्षायां तु जायेत तत्त्वाद् दूरतरो नरः । ततस्तस्य भवो दीर्घः समस्योऽपि च हीयते ।। १८९ विशुद्धमनसां पुंसां परिच्छेदपरात्मनाम् । किं कुर्वन्ति कृता विघ्नाः सदाचार खिलैः खलः ।।१९० सुदतीसंगमासक्तं पुष्पदन्तं तपस्विनम् । वारिषेणः कृतत्राणः स्थापयामास संयमे ।। १९१ चैत्यैश्चैत्यालयनिस्तपोभिविविधात्मकैः । पूजामहाध्वजाद्यैश्च कुर्यान्मार्गप्रभावनम् ।। १९२ ज्ञाने तपसि पूजाया यतीनां यस्त्वसूयते । स्वर्गापवर्गमूर्लक्ष्मीननं तस्याप्यसूयते ।। १९३ समर्थश्चित्तवित्ताभ्यामिहाशासनभासकः । समर्थश्चित्तवित्ताभ्यां स्वस्यामुत्र न भासकः । १९४ तदानज्ञानविज्ञानमहामहोत्सबैः । दर्शनद्योतनं कुर्यावहिकापेक्षयोज्झितः ।। १९५ अन्तःसारशरीरेषु हितार्यवाहितेहितम् । किन स्यादग्निसंयोगः स्वणत्वाय तदश्मनि ।। १९६ को कहते हैं-) परीषह और व्रतसे घबराया हुआ तथा आगमके ज्ञानसे शून्य कोई साधर्मी भाई यदि धर्मसे भ्रष्ट होता हो तो सम्यग्दृष्टिको उसका स्थितिकरण करना चाहिए ! जो तपसे भ्रष्ट होते हुए मुनिकी रक्षा नहीं करता हैं, आगमकी मर्यादाका उल्लंघन करनेके कारण वह मनुष्य नियमसे सम्यग्दर्शनसे रहित हैं ।।१८५-१८६।। जिनके निर्वाहमें सन्देह है ऐसे नये मनुष्योंसे भी संघको बढाना चाहिए । केवल एक दोषके कारण तत्त्वज्ञ मनुष्यको छोडा नहीं जा सकता। क्योंकि धर्मका काम अनेक मनुष्योंके आश्रयसे चलता हैं। इसलिए समझा-बुझाकर जो जिसके योग्य हो उसे उसमें लगा देना चाहिए । उपेक्षा करनेसे मनुष्य धर्मसे दूर होता जाता हैं और ऐसा होनेसे उस मनुष्यका संसार सुदीर्घ होता हैं और धर्मकी भी हानि होती हैं ।। १८७-१८९।। 'सदाचारको बिगाडनेवाले दुष्ट मनुष्योंके द्वारा किये गये विध्न,विचारमें तत्पर विशुद्धमनवाले मनुष्योंका क्या कर सकते ? अर्थात् कुछ भी बिगाड नहीं कर सकते ।।१९०। 'वारिषेणने सुदतीमें आसक्त तपस्वी पृप्पदन्तकी रक्षा की और उसे संयममें लगाया ।। १९१ ।। (अब प्रभावना अंगको बतलाते हैं-) जिनबिम्ब और जिनालयोंकी स्थापनाके द्वारा,ज्ञानके द्वारा, तपके द्वारा तथा अनेक प्रकारकी महाध्वज आदि पूजाओंके द्वारा जैनधर्मकी प्रभावना करना चाहिये ॥१९२॥ जो मुनियोंके ज्ञान,तप और पूजाकी निन्दा करता है, उनमें झूठा दोष लगाता है, स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी भी नियमसे उससे द्वेष करती हैं । अर्थात् उसे न स्वर्गके सुखोंकी प्राप्ति होती हैं, और न मोक्ष ही मिलता हैं ।।१९३।। इस लोकसे बुद्धि और धनमें समर्थ होनेपर भी जो जिनशासनकी प्रभावना नहीं करता,वह बुद्धि और धनसे समर्थ होनेपर भी परलोकमें अपना कल्याण नहीं करता। अतः ऐहिक सुखकी इच्छा न करके दान, ज्ञान, विज्ञान और महापूजा आदि महोत्सवोंके द्वारा सम्यग्दर्शनका प्रकाश करना चाहिए ।।१९४-१९५।। 'जिनके अन्तरंगमें कुछ सार हैं उनका अहित चाहना भी हितके लिए होता हैं । देखो, स्वर्णपाषाणको आगमें तपानेसे क्या वह सोना नहीं हो जाता ॥ १९६ ।। . Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन पुण्यं वा पापं वा यत्काले जन्तुना पुराचरितम् । तत्तत्समये तस्य हि सुखं च दुःखं च योजयति॥१९७ विलाया महादेव्याः पूतिकस्य महीभुजः । स्यन्दनं भ्रमयामास मुनिर्वज्रकुमारकः ।। १९८ अथित्वं भक्तिसंपत्तिः प्रियोक्तिः सत्क्रियाविधिः । सधर्मसु च सौचित्यकृतिर्वत्सलता मता ।। १९९ स्वाध्याये संयमे सङ्घ सब्रह्मचारिणि । यथोचित्यं कृतात्मानो विनयं प्राहुरादरम् ॥ २०० आधिव्याधिनिरुद्धस्य निरवद्येन कर्मणा । सौचित्यकरण प्रोक्तं वैयायत्य बिमक्तये ।। २०१ जिने जिनागमे सूरी तप:श्रुतपरायणे । सद्भावशुद्धिसंपन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ।। २०२ चातुर्वर्ण्यस्य संघस्य यथायोग्यं प्रमोदवान् । वात्सल्यं यस्तु नो कुर्यात्स भवेत्समयी कथम् ।। २०३ तद्वतैविद्यया वित्त: शाहीरैः श्रीमदाश्रयः । त्रिविधातङ्कसंप्राप्तानुपकुर्वन्तु संयतान् ।। २०४ सन्न संश्च समावेव यदि चितं मलीमसम् । यात्यक्षान्तेः क्षयं पूर्वः परश्चाशुभचेष्टितात् ॥२०५ स्वमेव हन्तुमीहेत दुर्जन: सज्जनं द्विषन् । योऽधितिष्ठेत्तुलामेक: किमसो न व्रजेदधः ॥ २०६ महापद्मसुतो विष्णर्मुनीनां हास्तिने पुरे । बलिद्धिजकृतं विघ्नं शमयामास वत्सलः ।। २०७ निसर्गोऽधिगमो वापि तदप्तौ कारणद्वयम् । सम्यक्त्वभाक्पुमान्यस्मादल्पानल्पप्रयासत: ॥ २०८ आसन्नभव्यताकर्महानिसंज्ञित्वशुद्धपरिणामाः । सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाह्मोऽप्युपदेशकादिश्च ॥ २०९ जीवने पूर्वजन्ममें जो पुण्य या पाप किया है,समय आनेपर वह उसे अवश्य सुख या दुःख देता है' ॥१५७ । वज्रकुमार मुनिने राजा पूतिककी रानी महादेवी ऊविलाके रथका विहार कराया ॥१९८।। (अब वात्सल्य अंगको कहते है-)धर्मात्मा पुरुषोंके प्रति उदार होना,उनकी भक्ति करना, मिष्ट वचन बोलना, आदर-सत्कार तथा अन्य उचित क्रियाएँ करना वात्सल्य हैं ।। १९९।। स्वाध्याय, संयम, संघ,गुरु और सहाध्यायीका यथायोग्य आदर-सत्कार करनेको कृती पुरुष विनय कहते हैं । २००॥ जो मानसिक या शारीरिक पीडासे पीडित हैं, निर्दोष विधिसे उनकी सेवा-शुश्रुषा करना वैयावृत्य कहा जाता हैं । यह वैयावृत्य मुक्तिका कारण है ।।२०१॥ जिन भगवान्म, जिन-भगवान्के द्वारा कहे हए शास्त्रम, आचार्य में और तप और स्वाध्याय में लीन मनि आदिमें विशद्ध भावपूर्वक जो अनुराग होता हैं उसे भक्ति कहते है ।।२०२।। जो हर्षित होकर चार प्रकारके संघ में यथायोग्य वात्सल्य नहीं करता वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ॥२०३।। इसलिए व्रतोंके द्वारा, विद्याके द्वारा,धनके द्वारा,शरीरके द्वारा और सम्पन्न साधनों के द्वारा शारीरिक मानसिक और आगन्तुक रोगोंसे पीडित संयमीजनोंका उपकार करना चाहिए । २०४।।- 'यदि चित्त मलीन है तो सज्जन और दुर्जन दोनों समान हैं। उनमेंसे सज्जन तो अशान्तिके कारण नष्ट हो जाता है और दुर्जन बुरे कार्योके करनेसे नष्ट हो जाता हैं । क्योंकि सज्जनसे द्वेष करनेवाला दुर्जन स्वयं अपने ही घातकी चेष्टा करता है । ठीक ही हैं जो अकेला ही तराजूमें बैठ जाता है वह नीचे क्यों नहीं जायेगा ।।२०५-२०६।। _ 'महापद्म राजाके पुत्र धर्मप्रेमी विष्णुमुनिने हस्तिनागपुरमें बलिके द्वारा मुनियोंपर किया गया उपसर्ग दूर किया' । २०७।। सम्यग्दर्शन दो प्रकारसे होता हैं-एक तो परोपदेशके बिना स्वयं ही हो जाता है और दूसरे,परोपदेशसे होता हैं । क्योंकि किसी पुरुषको तो थोडा-सा प्रयत्न करनेसे ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है और किसीको बहुत प्रयत्न करनेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती हैं Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रावकाचार-संग्रह एतदुक्तं भवति- कस्यचिदासन्नभव्यस्य तनिदानद्रव्यक्षेत्रकालभावभवसंपत्सेव्यस्य विधूततत्प्रतिबन्धकारसम्बन्धस्याक्षिप्तशिक्षाक्रियालापनिपुणकरणानुबन्धस्य नवस्य भाजनस्येवासंजातदुर्वासनागन्धस्य झटिति यथावस्थितवस्तुस्वरूपसंक्रान्तिहेतुतया स्फाटिकमणिदर्पणसगन्धस्य पूर्वभवसंभालनेन वा वेदनानुभवनेन वा धर्मश्रवणाकर्णनेन वाहत्प्रतिनिधिनिध्यानेन वा महामहोत्सवनिहालनेन वा महद्धिप्राप्ताचार्यवाहनेन व नृषु नाकिषु वा तन्माहात्म्य पंभूतविभवसंभावनेन वान्येन वा केनचित्कारणमात्रेण विचारकान्तारेषु मनोविहारास्पदं खेदमनापद्य यदा जीवादिषु पदार्थेषु याथात्म्यसमवधानं श्रद्धान भवति तदा प्रयोक्तः सुकरक्रियत्वाल्लयन्ते शालयः स्वयमेव, विनीयन्ते कुशलाशयाः स्वयमेव,इत्यादिवत्तन्निसर्गात्पजातमित्युच्यते । यदा त्वव्युत्पत्तिसंशोतिविपर्यस्तिसमधिकबोधस्याधिमुक्तियुक्तिसूक्तिसम्बन्धसविधस्यप्रमाणनयनिक्षेपानयोगोपयोगावगाोष समस्तेष्वतिह्येषु परीक्षोपक्षेपादतिक्लिश्य निःशेषदुराशाविनिशाविनाशनांशुमरीचिश्चिरेण तत्त्वेषु रुचिः संजायत, तदा विधातुरायासहेतुत्वान्मया निर्मापितोऽयं सूत्रानुसारो हारो, मयेदं संपादितं रत्नरचनाधिकरणमाभरणमित्यादिवत्तदधिगमादावितमित्युच्यते । उक्तं चअद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टनिष्टं स्वदेवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ २१० द्विविधं त्रिविधं वशविधमाहुः सम्यक्त्वमात्महितमतयः । तत्त्वश्रद्धानविधि: सर्वत्र च तत्र समवृत्तिः ।। २११ ॥२०८।। 'सम्यक्त्वके अन्तरंग कारण निकट भव्यता, ज्ञानावरणादिक कर्मोकी हानि, संज्ञोपना और शद्ध परिणाम है ; तथा बाह्य कारण उपदेश आदिक है' ।।२०९।। आशय यह है कि जो कोई निकट भव्य हैं, सम्यग्दर्शनके योग्य द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और भवरूपी सम्पत्तिकी जिसे प्राप्ति हो गई है, उसमें किसी तरहकी रुकावट डालने वाला कोई प्रतिबन्धक नहीं रहा हैं, शिक्षा, क्रिया, बात. चीतको ग्रहण करने में निपुण पाँचों इन्द्रियों और मनसे जो युक्त हैं अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय है, नरे बरतनकी तरह जिनमें दुर्वासनाकी गन्ध नहीं है, वस्तुका जैसा स्वरूप हैं वैसा ही स्वरूप दर्शानेके लिए जो स्फटिक मणिके दर्पणके समान स्वच्छ है, ऐसे जीवके पूर्वभवके स्मरणसे, कष्टोंके अनुभवसे,धर्मके श्रवणसे,जिनविम्बके दर्शनसे, महामहोत्सवोंके अवलोकनसे, ऋद्धिघारी आचार्योके दर्शन करनेसे,मनुष्यों तथा देवोंमें सम्यक्त्वके माहात्म्यसे उत्पन्न हुए विभवको देखनेसे या अन्य किसी कारणसे विचाररूपी वनमें मनको न भटका कर जब जीवादिक पदार्थोमें ज्यों-का-त्यों श्रद्धान होता हैं तो उस सम्यग्दर्शनको निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते है। क्योंकि जैसे धान्य कृषक द्वारा सुलभतासे स्वयं ही कट जाते हैं अथवा सदाशयी स्वयं ही विनीत हो जाते है उसी तरह उसमें कर्ताको श्रम करना नहीं पडता । और जब संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे ग्रस्त ज्ञानवाले मनुष्यके श्रद्धा, युक्ति और आगमके निकट होकर, प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोगके द्वारा अवगाहन करनेके योग्य समस्त शास्त्रोंकी परीक्षा करनेका कष्ट उठाकर चिरकालके पश्चात् समस्त दुराशारूपी रात्रिके विनाशके लिए सूर्यको किरणोंके समान तत्त्वरुचि उत्पन्न होती है, तो उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते है । क्योंकि जैसे मैने यह हार बनाया है या मैने यह रत्नखचित आभरण बनाया हैं,वैसे ही कर्ताके द्वारा विहित परिश्रमसे उत्पन्न हुए अधिगम-ज्ञानसे वह प्रकट होता है । कहा भी हें-अब द्धिपूर्वक प्रयत्नके बिना अचानक जो इष्ट या अनिष्ट होता हैं वह अपने दैवसे होता है और बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करनेसे जो इष्ट या अनिष्ट होता हैं वह अपने पौरुषसे होता है ॥२१०॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १५१ सरागवीतरागात्मविषयत्वाद्विधा स्मृतम् । प्रशमादिगणं पूर्व परं चात्मविशुद्धिभाक् ॥ २१२ । यथा हि पुरुषस्य पुरुषशक्तिरियमतीन्द्रियाप्यङ्गनाजनाङ्गसंभोगेनापत्योत्पादनेन च विपदि धैर्यावलम्बनेन वा प्रारदध्वस्तुनिर्वहणेन वा निश्चेतुं शक्यते, तथात्मस्वभावतयातिसूक्ष्मयत्नमपि सम्यक्त्वरत्न प्रशमसंवेगानकम्पास्तिक्यैरेव वाक्यैराकलयितुं शक्यम् । तत्रयद्रागादिषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिबर्हणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समस्तव्रतभूषणम् ।। २१३ शारीरमानसागन्तुवेदनाप्रभवाद्भवात् । स्वप्नेन्द्रजालसंङ्कल्पाद्भीति: संवेग उच्यते ।। २१४ सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्य दय त्वं दयालबः । धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ।। २१५ आप्ते श्रुते व्रते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंस्तुतम् । आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं मुक्तियुक्तिधरे नरे।। २१६ रागरोषधरे नित्यं निवते निर्दयात्मनि । संसारो दीवंसारः स्यानरे नास्तिकनीतिके ।। २१७ कर्मणा क्षयतः शान्तः क्षयोपशमतस्तथा । श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं गतौ सर्वत्र जन्तुषु ॥ २१८ दशविधं तदाहआत्महितैषी महापुरुषोंने सम्यग्दर्शनके दो,तीन और दश भेद बतलाये है। इन सभी भेदोंमें तत्त्वोंका श्रद्धान समान रूपसे पाया जाता हैं । अर्थात् तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शनका सामान्य लक्षण हैं। अत: सम्यग्दर्शनके जितने भी भेद हैं उन सभीमें तत्त्वोंका श्रद्धान होना आवश्यक हैं उसके बिना सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता॥२११।। सम्यग्दर्शन रागी आत्माओंको भी हो सकता है और वीतरागी आत्माओंके भी होता हैं इसलिए उसके दो भेद कर दिये गये हैं-एक सरागसम्यग्दर्शन और दूसरा वीतरागसम्यग्दर्शन । सरागसम्यग्दर्शन प्रशम आदि गुणरूप होता है और वीतरागसम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिरूप होता हैं ।।२१२॥ जैसे पुरुषकी शक्ति यद्यपि अतीन्द्रिय है, इन्द्रियोंसे उसे नहीं देखा जा सकता,फिर भी स्त्रियोंके साथ संभोग करनेसे,सन्तानोत्पादनसे, विपत्तिमें धैर्य और प्रारम्भ किये गये कार्यको समाप्त करना आदि तातोंसे उसकी शक्तिका निश्चय किया जाता है,जैसे ही सम्यक्त्वरूपी रत्न भी आत्माका स्वभाव होने के कारण यद्यपि बहुत सूक्ष्म हैं, फिर भी प्रशम संवेग,अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिके द्वारा उसका निश्चय किया जा सकता है। (अब आस्तिक्य आदिका स्वरूप बतलाते है-) रागादिक दोषोंसे चित्तवृत्तिके हटनेको पण्डित-जन प्रशम कहते हैं । यह प्रशमगुण समस्त व्रतोंका भूषण हैं ॥२१३।। यह संसार शारीरिक, मानसिक, और आगन्तुक कष्टोंसे भरा है और स्वप्न या जादूगरके तमाशेकी तरह चञ्चल है। इससे डरना संवेग हैं ।।२१४।। सब प्राणियों के प्रति चित्तका दयालु होना अनुकम्पा हैं । दयालु पुरुष इसे धर्मका परम मूल बतलाते है ।।२१५'। मुक्तिके लिए प्रयन्नशील पुरुषका चित्त आप्तके विषयमें, शास्त्रके विषयमें, व्रतके विषय में और तत्त्वके विषयमें ये हैं' इस प्रकारकी भावनासे युक्त होता हैं उसे आस्तिक पूरुष आस्तिक्य कहते है । जो मनुष्य रागी और द्वेषी हैं, कभी व्रताचरण नहीं करता और न कभी उसकी आत्मामें दयाका भाव हो होता है उस नास्तिक धर्मवालेका संसार. भ्रमण बढता ही है ।।२५६-२.७।। सम्यग्दर्शनके तीन भेद भी है-औपश मिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । जो सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे होता हैं उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते है । जो इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते है । और जो इनके क्षयोपशमसे Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रावकाचार-संग्रह आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाम्यां भवमवपरमावादिगाढं च ॥ २१९ __ अस्यायमर्थः- भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीतागमानुज्ञासंज्ञा आज्ञा, रत्नत्रयविचारसर्गो मार्गः, पुराणपुरुषचरितश्रवणाभिनिवेश उपदेश:, यतिजनाचरणनिरूपणपात्रं सूत्रम्, सकलसमयदलसूचनाव्याज बीजम्, आप्तश्रुतवतपदार्थसमासालापाक्षेपः संक्षेपः, द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वप्रकीर्णविस्तीर्णश्रुतार्थसमर्थनप्रस्तारो विस्तारः,प्रवचनविषये स्वप्रत्ययसमर्थोऽर्थः, विविधस्यागमस्य निःशेषतोऽ न्यतमदेशावगाहालीढमवगाढम्,अवधिमनःपर्ययकेवलाधिकपुरुषप्रत्ययप्ररूढं परमावगाढम् । गृहस्थो वा यतिर्वापि सम्यक्त्वस्य समाश्रयः । एकादशविधः पूर्वश्चरमश्च चतुर्विधः ।। २२० मायानिदानमिथ्यात्वशल्यत्रितयमुद्धरेत् । आर्जवाकाङ्क्षणाभावतत्त्वभावनकोलकैः ।। २२१ दृष्टिहीनः पुमानेति न यथा पदमीप्सितम् । दृष्टिहीनः पुमानेति न तथा पदमीप्सितम् ।। २२२ सम्यक्त्वं नाङ्गहीनं स्याद्राज्यवत्प्राज्यभूतये । ततस्तदङ्गसंगत्यामङ्गी नि:संगमीहताम् ॥ २२३ होता है उसे क्षायोपशमिक कहते हैं। ये तीनों सम्यग्दर्शन सब गतियोंमें पाये जाते है ॥२१८॥ (अब सम्यक्त्वके दश भेद बतलाते हैं-) आज्ञासम्यक्त्व, मार्गसम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बीजसम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व, विस्तारसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्त्व और परमावगाढसम्यक्त्व ये सम्यक्त्बके दश भेद हे ॥२१९।। इनका स्वरूप इस प्रकार है भगवान् सर्वज्ञ अर्हन्तदेवके द्वारा उपदिष्ट आगमकी आज्ञाको ही प्रमाण मानकर जो श्रद्धान किया जाता है उसे आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं। रत्नत्रय रूप मोक्षके मार्गका कथन सुनकर जो श्रद्धान हो उसे मार्गसम्यक्त्व कहते हैं । तोर्थङ्कर बलदेव आदि पुराणपुरुषोंके चरितको सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे उपदेशसम्यक्त्व कहते है । मुनिजनोंके आचारका कथन करनेवाले आचाराङगसूत्रको सुनकर जो श्रद्धान होता हैं उसे सूत्रसम्यक्त्व कहते है। जिस पदमें सूचन रूपसे समस्त शास्त्रोंके अंश छिपे होते, है उसे बीज कहते हैं। बीज पदको समझकर सूक्ष्स तत्त्वोंके ज्ञानपूर्वक जो श्रद्धान होता है,उसे बीजसम्यक्त्व कहते हैं । संक्षेपसे आप्त, श्रुत, ब्रत और पदार्थोको जानकर उनपर जो श्रद्धान होता हैं उसे संक्षेपसम्यक्त्व कहते है । बारह अंगों,चौदह पूर्वो और अङगबाह्योंके द्वारा विस्तारसे तत्त्वार्थको सुनकर जो श्रद्धान होता है उसे विस्तारसम्यक्त्व कहते है । प्रवचनके वचनोंकी सहायताके बिना किसी अन्य प्रकारसे जो अर्थका बोध होकर श्रद्धान होता है उसे अर्थसम्यक्त्व कहते हैं। अङग,पूर्व और प्रकीर्णक आगमोंके किसी एक देशका पूरी तरहसे अवगाहन करनेपर जो श्रद्धान होता है उसे अवगाढसम्यक्त्व कहते है । और अवधिज्ञान, मनःपययज्ञान, तथा केवलज्ञानके द्वारा जीवादि पदार्थो को जानकर जो प्रगाढ श्रद्धान होता है उसे परमावगाढसम्यक्त्व कहते हैं। गृहस्थ हो या मुनि हो, सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए । अर्थात् सम्यक्त्वके बिना न कोई श्रावक कहला सकता हैं और न कोई मुनि कहला सकता है। गृहस्थके ग्यारह प्रतिमारूप ग्यारह भेद है और मुनिके ऋषि, यति, मुनि और अनागर ये चार भेद है।।२२०॥ सरलता रूपी कीलके द्वारा माया रूपी काँटेको निकालना चाहिए । इच्छाका अभाव रूपी कीलके द्वारा निदानरूपी काँटेको निकालना चाहिए और तत्त्वोंकी भावना रूपी कीलके द्वारा मिथ्यात्व रूपी काँटेको निकालना चाहिए ।२२१॥ जैसे दृष्टि अर्थात् आँखोंसे हीन पुरुष अपने इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता। वैसे ही दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शनसे हीन पुरुष मुक्तिलाभ नहीं सकता ॥२२२॥ जैसे राज्यके अंग मन्त्री सेनापति आदिके बिना राज्य समृद्धिशाली नहीं हो सकता,वैसे ही निःशङ्कित आदि अंगोंके बिना सम्यग्दर्शन भी उत्कृष्ट आभ्यन्तर और बाह्य विभूतिको नहीं दे सकता। इस : Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १५३ विद्याविभूतिरूपाद्याः सम्यक्त्वरहिते कुतः । नहि बीजव्यपायेऽस्ति सस्यसम्पत्तिरङ्गिनि ।। २२४ चक्रिश्री: संश्रयोत्कण्ठा नाक धीदर्शनोत्सुका । तस्य दूरे न मुक्तिश्रीनिर्दोषं यस्य दर्शनम् ॥ २२५ मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषा: पञ्चविंशतिः ।। २२६ निश्चयोचितचारित्र: सुदृष्टिस्तत्त्वकोविदः । अवतस्थोऽपि मुक्तिस्थो न व्रतस्थोऽप्यदर्शनः ।। २२७ बहिःक्रिया बहिष्कर्मकारणं केवलं भवेत् । रत्नत्रयसमृद्धः स्यादात्मा रत्नत्रयात्मकः ।। २२८ विशुद्धवस्तुधीदृष्टिर्बोधः साकारगोचरः । अप्रसङ्गस्तयोर्वृत्तं भूतार्थनयवादिनाम् ॥ २२९ अक्षाज्ज्ञानं रुचिर्मोहाद्देहान् वृत्त च नास्ति यत्। आत्मन्यस्मिछि वीभूते तस्मादात्मैव तत्त्रयम्।।२३० नात्मा कर्म न कर्मात्मा तयोर्यन्महदन्तरम् । तदात्मैव तदा सत्ता वात्मा व्योमेव केवलम् ।। २३१ क्लेशाय कारणं कर्म विशद्धे स्वयमात्मनि । नोष्णमम्बु स्वत: किन्तु तदोषण्यं वन्हिसंश्रयम् ।। २३२ आत्मा कर्ता स्वपर्याये कर्म कर्त स्वपर्यये। मिथो न जातु कर्तत्वमपरत्रोपचारतः ।। २३३ स्वतः सर्वस्वभावेंषु सक्रियं सचराचरम् । निमित्तमात्रमन्यत्तु वार्गतेरिव सारिणिः ।। २३४ लिए प्राणीको चाहिए कि सम्यग्दर्शनके अंगोंको प्राप्त करके निःसंग - निर्ग्रन्थ दिगम्बर हो जानेकी कामना करे ।।२२।। सम्यक्त्वसे रहित प्राणीमें सम्यग्ज्ञान की विभूति आदिक कैसे हो सकते हैं? बीजके अभावमें धान्य सम्पत्ति नहीं होती। जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष हैं, चक्रवर्तीकी विभूति उसका आलिंगन करने के लिए उत्कण्ठित रहती है और देवोंकी विभूति उसके दर्शनके लिए उत्सुक रहती हैं। अधिक क्य!,मोक्षलक्ष्मी भी उससे दूर नहीं है ।।२२४-२२५।। तीन मूढताएँ, आठ मद' छह अनायतन और आठ शंका आदिक, ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष है ।।२२६॥ स्वरूपाचरण चारित्रका धारक और तत्त्वोंका ज्ञाता सम्यग्दष्टि व्रतोंका पालन नहीं हए भी मुक्तिके मार्गमें स्थित हैं। किन्त ब्रतोंका पालन करते हए भी जो सम्यग्दर्शनसे रहित है वह मक्तिके मार्गमें स्थित नहीं हैं । २२७।। बाह्य क्रिया तो केवल बाह्य कर्मकी ही कारण होती हैं। किन्तु रत्नत्रय रूपी समृद्धिका कारण तो सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमय आत्मा ही हैं।।२२८।। निश्चयनयवादियोंके मतमें अर्थात् निश्चयनयकी दृष्टि में विशुद्ध आत्मस्वरूप में रुचि होना निश्चय सम्यक्त्व है । विशुद्ध आत्माको साकार रूपसे जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके विषयों में भेद-बुद्धि न करके एकरूप होना,अर्थात् आत्मस्वरूपमें लीन होना निश्चयचारित्र हैं ।। २२९।। इस आत्माके मुक्त हो जानेपर न तो इन्द्रियोंसे ज्ञान होता हैं,न मोहसे जन्य रुचि होती है और न शारीरिक आचरण होता है । अत: ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों आत्मस्वरूप ही हैं ।। २३०।। (अब आत्मा और कर्मका सम्बन्ध कैसा हैं यह स्पष्ट करते है-) न आत्मा कर्म है और न कर्म आत्मा हैं; क्योंकि दोनोंमें बडा भारी अन्तर हैं। अत: मुक्तावस्थामें केवल आत्मा ही रहता है और वह शुद्ध आकाश की तरह है ।।२३१॥ आत्मा स्वयं विशुद्ध हैं और कर्म उसके क्लेशका कारण हैं । जैसे जल स्वयं उष्ण नहीं होता, किन्तु आगके सम्बन्धसे उसमें उष्णता आ जाती है ।।२३२ । आत्मा अपनी पर्यायका कर्ता हैं और कर्म अपनी पर्यायका कर्ता हैं। उपचारके सिवाय दोनों परस्परमें एक दूसरेके कती नहीं हैं। अर्थात उपचारसे आत्माको कर्मका और कर्मको आत्माका कता कहा जाता है परन्तु वास्तवमें दोनों अपनी-अपनी पर्यायोंक ही कर्ता है। समस्त चराचर विश्व स्वयं अपने स्वभावका कर्ता है, दूसरे तो उसमें निमित्तमात्र है। जैसे Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रावकाचार - संग्रह जीवन्तु वा स्त्रियन्तां वा प्राणिनोऽमी स्वकर्मतः । स्वं विशुद्धं मनो हिंसन् हिंसकः पापभाग्भवेत् ॥ २३५ शुद्ध मार्गमतोद्योगः शुद्धचेतोत्रचोवपुः । शुद्धान्तरात्मसंपन्नो हिसकोऽपि न हिंसकः ॥ २३६ पुण्यायापि भवेद् दुःखं पापायापि भवेत्सुखम् । स्वस्मिन्नन्यत्र वा नीतमचिन्त्यं चित्तचेष्टितम् ।।२३७ सुखदुःखाविधातापि भवेत्पापसमा त्रयः । पेटीमध्य विनिक्षिप्तं वासः स्यान्मलिनं न किम् || २३८ बहिष्कार्यासमर्थेऽपि हृदि हृद्येव संस्थिते । परं पापं परं पुण्यं परमं च पदं भवेत् ।। २३९ प्रकुर्वाणः क्रियास्तास्ताः केवलं क्लेशभाजनः । यों न चित्तप्रचारज्ञस्तस्य मोक्षपदं कुतः ॥ २४० यज्जानाति यथावस्थं वस्तु सर्वस्वमञ्जसा । तृतीयं लोचनं नृणां सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ।। २४१. यष्टिवज्जनुषान्धस्य तत्स्यात्सुकृतचेतसः । प्रवृत्तिविनिवृत्त्यङ्गं हिताहित विवेचनात् ।। २४२ मतिर्जात दृष्टेऽर्थे दृष्टेऽदृष्टे तथागमः । अतो न दुर्लभं तत्त्वं यदि निर्मत्सरं मनः ।। २४३ यद्यर्थे दर्शितेऽपि स्याज्जन्तोः सन्तमसा मतिः । ज्ञानमालोकवत्तस्य वृथा रविरिपोरिव ।। २४४ ज्ञातुरेव स दोषोऽयं यदबाधेऽपि वस्तुनि । मतिविपर्ययं धत्ते यथेन्दो मन्दचक्षुषः ॥ २४५ ज्ञानमेकं पुनर्द्वधा पञ्चधा चापि तद्भवेत् । अन्यत्र केवलज्ञानात्तत्प्रत्येकमनेकधा ।। २४६ जल में स्वयं बहने की शक्ति हैं, किन्तु नाली उसके बहने में निमित्तमात्र है || २३३-२३४|| ये प्राणी अपने कर्मके उदयसे जीवें या मरें, किन्तु अपने विशुद्ध मनकी हिंसा करने वाला हिंसक है और इसलिए वह पापका भागी हैं। जो शुद्ध मार्ग में प्रयत्नशील हैं, जिसका मन, वचन और शरीर शुद्ध हैं, तथा जिसकी अन्तरात्मा भी शुद्ध है वह हिंसा करके भी हिंसक नहीं हैं ।। २३५-२३६ ।। अपनेको या दूसरेको सुख या दुःखका नहीं देने वाला भी मनुष्य पापका आश्रयवाला होता हैं । अर्थात् यदि उसका मन राग-द्वेषके प्रसारसे युक्त हैं, तो वह स्व-परको सुख-दुःख नहीं देने पर भी पापका आश्रय करता है । पेटीके भीतर रखा हुआ वस्त्र क्या मैला नहीं होता है? होता ही है ।। २३७-२३८ ।। बाह्य क्रिया न करते हुए भी यदि चित्त चित्त में ही लीन रहता है तो उत्कृष्ट यान, उत्कृष्ट पुण्य और उत्कृष्ट पद मोक्ष प्राप्त हो सकता हैं । जो केवल बाह्य क्रियाओंको करनेका ही कष्ट उठाता रहता हैं और चित्तकी चंचलताको नहीं समझता, उसे मोक्ष पद कैसे प्राप्त हो सकता हैं ? ।।२३९-२४०।। ( अब सम्यग्ज्ञानका स्वरूप बतलाते हैं -) जो सब वस्तुओंको ठीक रीतिसे जैसाका - तैसा जानता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते है। यह सम्यग्ज्ञान मनुष्यों का तीसरा नेत्र है । जैसे जन्मसे अन्धे मनुष्यको लाठी ऊँचीनीची जगहको बतलाकर उसे चलने और रुकने में मदद देती हैं वैसे ही सम्यग्ज्ञान हित और अहितका विवेचन करके धर्मात्मा पुरुषको हितकारक कार्योंमें लगाता है और अहित करनेवाले कामों से रोकता हैं |२४१ - २४२॥ मतिज्ञान तो इन्द्रियोंके विषयभूत पदार्थोंको ही जानता है । किन्तु शास्त्र (श्रुतज्ञान) इन्द्रियोंके विषयभूत और अतीन्द्रिय दोनों प्रकारके पदार्थोंका ज्ञान करता हैं। अतः यदि ज्ञाताका मन ईर्षा, द्वेष आदि दुर्भावोंसे रहित हैं तो उसे तत्त्वका ज्ञान होना दुर्लभ नहीं है ।.२४३।। यदि तत्त्वके जान लेनेपर भी मनुष्यकी बुद्धि अन्धकारमें रहती है तो जैसे उल्लू के लिए प्रकाश व्यर्थ होता है वैसे ही उस मनुष्यका ज्ञान भी व्यर्थ है । साफ स्पष्ट वस्तुमें भी बुद्धिका विपरीत होना ज्ञाता के ही दोषको बतलाता हैं । जैसे चन्द्रमाके विषय में काच कामलादि रोग ग्रस्त नेत्रवाले मनुष्यको विपरीत ज्ञान होता हैं- एकके दो चन्द्रमा दिखायी देते है । यह ज्ञाताकी ही खराबी हैं, चन्द्रमाकी नहीं ॥२४४-२४५ ॥ । सामान्यसे ज्ञान एक है । प्रत्यक्ष परोक्ष के भेदसे . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १५५ अधर्मकर्मनिमवितर्धर्मकर्मविनिर्मितिः । चारित्रं तच्च सागारानगारयतिसंश्रयम् ।। २४७ देशत: प्रथम तत्स्यात्सर्वतस्तु द्वितीयकम् । चारित्रं चारुचारित्रविचारोचितचेतसाम् ।। २४८।। देशत: सर्वतो वापि नरो न लभते धतम् । स्वर्गापवर्गयोर्यस्य नास्त्यन्यतरयोग्यता ।। २४९ तुण्डकण्डहरं शास्त्रं सम्यदत्त्वविधरे नरे ज्ञानहीने तु चारित्रं दुभंगाभरणोपमम् ।। २५० सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कोतिरुदाहृता । वृत्तात्पूजामवाप्नोति त्रयाच्च लभते शिवम्।।२५१ रुचिस्तत्त्वेष सम्यक्त्वं ज्ञ.नं तत्त्वनिरूपणम् । औदापीन्य परं प्राहुर्वृत्तं सर्वक्रियोज्झितम् ।। २५२ वत्तमग्निरुपायो धी: सम्यक्त्वं च रसौषधिः । साधसिद्धो भवेदेष तल्लाभादात्मपारदः ॥ २५३ सम्यक्त्वस्याश्रयश्चित्तमभ्या पो मतिसम्पदः । चारित्रस्य शरी स्याद्वित्तं दानादिकर्मणः ॥२५४ इति श्री सोमदेवसूरि-विरचिते उपासकाध्यने अपवर्गमहोदयों नाम षष्ठ आश्वासः । अथ सप्तम आश्वासः पुनर्गुणमणिकटक वेकटकमेव माणिक्यस्य,सुधाविधानमिव प्रासादस्य, पुरुषकारानुष्ठानमिव देवसम्पदः, पराक्रमावलम्बनमिव नीतिमार्गस्य, विशेषवेदित्वमिव सेव्यत्वस्य, व्रतं हि खलु वह दो प्रकारका हैं । तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय और केवलज्ञानके भेदसे पाँच प्रकारका है। केवल ज्ञानके सिवाय अन्य चार ज्ञानोंमें से प्रत्येकके अनेक भेद हैं ॥२४६।। बुरे कामोंसे बचना और अच्छे कामोंमें लगना चारित्र है । वह चारित्र गृहस्थ और मुनिके भेदसे दो प्रकारका हैं । गृहस्थोंका चारित्र देशचारित्र कहा जाता है और मुनियोंका चारित्र सकल चारित्र कहा जाता है। जिनके चित्त सद्विचारोंसे युक्त हैं वे ही चारित्रका पालन कर सकते है। जिस मनुष्य में स्वर्ग और मोक्षम-से किसीको भी प्राप्त कर सकनेकी योग्यता नहीं है वह न तो देशचारित्र हो पाल सकता हैं और न सकलचारित्र ही पाल सकता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्श नसे रहित है उसका शास्त्र-वाचन मुखको खाज मिटानेका एक साधनमात्र है। और जो मनुष्य ज्ञानसे रहित हैं उसका चारित्र धारण करना विधवा स्त्री के आभूषण धारण करनेके समान हैं ॥२४७-२५०॥ सम्यग्दर्शनसे अच्छी गति मिलती हैं । सम्यग्ज्ञानसे ससारमें यश फैलता है। सम्यक्चारित्रसे सम्मान प्राप्त होता हैं और तीनोंसे मोक्षकी प्राप्ति है ॥२५१।। तत्त्वोंमें रुचिका होना सम्यग्दर्शन हैं । तत्त्वोंका यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है और समस्त क्रियाओंको छोडकर अत्यन्त उदासीन हो जाना सम्यक्चारित्र है ।। २५२ ।। चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान उपाय है और सम्यग्दर्शन परिपूर्ण औषधियोंके तुल्य है। इन सबके मिलनेपर आत्मारूपी पारदधातु अच्छी तरह सिद्ध हो जाता हैं ।।२५३।। भावार्थ-पारेको सिद्ध करने के लिए रसायनशास्त्री उसमें अनेक औषधियोंके रमोंकी भावना दे-देकर आगपर तपाते है तब पारा सिद्ध हो जाता है वैसे ही आत्मारूपी पारदको सिद्ध करनेके लिए चारित्ररूपी अग्नि, सम्यग्ज्ञानरूपी उपाय और सम्यग्दर्शनरूपी औषधियाँ शावश्यक है। उनके मिलनेंपर आत्मा सिद्ध अर्थात् मुक्त हो जाता है। सम्यग्दर्शनका आश्रय चित्त है । सम्यक्ज्ञानका आश्रय अभ्यास है । सम्यक्चारित्रका आश्रय शरीर है और दानादि कार्यका आश्रय धन है ।। २५४ ।। इस प्रकार श्री सोमदेव सूरि विरचित उपासकाध्ययनमें रत्नत्रयका स्वरूप बतलानेवाला छठा आश्वास समाप्त हुआ। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह 1 सम्यक्त्वरत्नस्योपबृंहकमाहुः । तच्च देशयतीनां द्विविध मूलोत्तरगुणाश्रयणात् । तत्रमद्यमांसमधुत्यागः सहोदुम्बरञ्चकैः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ।। २५५ सर्वदोषोदयो मद्यान्महामोहकृतेर्मतः । सर्वेषां पातकानां च पुर सरतया स्थितम् ॥ २५६ हिताहितविमोहेन देहिनः किं न पातकम् । कुर्युः संसारकान्तारपरिभ्रमणकारणम् : २५७ मद्येन यादवा नष्टा नष्टा द्यूतेन पाण्डवाः । इति सर्वत्र लोकेऽस्मिन्सुप्रसिद्धं कथानकम् ।। २५८ विपद्येह देहिनोऽनेकशः किल । मद्यीभवन्ति कालेन मनोमोहाय देहिनाम् ।। २५९ कबिन्दुसंपन्नाः प्राणिनः प्रचरन्ति चेत् । पूरयेयुर्न संदेहं समस्तमपि विष्टपम् ।। २६० मनोमोहस्य हेतुत्वान्निदानत्वाच्च दुर्गतेः । मद्यं सद्भिः सदा त्याज्यमिहामुत्र च दोषकृत् ॥ २६१ हेतुशुद्धेः श्रुतेर्वाक्यात्पीतमद्यः किलैकपात् । मांसमातङ्गिकासङ्गमकरोन्मूढमानसः ।। २६२ एकस्मिन्वासरे मद्यनिवृत्तेर्धी तिलः किल । एतद्दोषात्सहायेषु मृतेष्वापदनापदम् ।। २६३ स्वभावाशुचि दुर्गन्धमन्यापायं दुरास्पदम् । सन्तोऽदन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गतिप्रदम् । २६४ कर्माकृत्यमपि प्राणी करोतु यदि चात्मनः । हन्यमानविधिर्न स्यादन्यथा वान जीवनम् ॥ २६५ १५६ मद्य, 1 जैसे शाणसे माणिक, चुनाकी सफेदी से मकान, पौरुष करनेसे दैव, पराक्रमसे नीति और विशेषज्ञतासे सेव्यपना चमक उठता है वैसे ही व्रत भी सम्यक्त्वरूपी रत्नको चमका देता हैं । गृहस्थोंके व्रत मूल गुण और उत्तर गुणके भेदसे दो प्रकारके होते है । आगम में पाँच उदुम्बर और मांस तथा मधुका त्याग ये आठ मूल गुण गृहस्थोंके बतलाये है || २५५॥ मद्य महामोहको करनेवाला है । सब बुराइयोंका मूल हैं और सब पापों का अगुआ है ॥ २५६॥ इसके पीनेसे मनुष्यको हित और अहितका ज्ञान नहीं रहता । और हित-अहितका ज्ञान न रहने से प्राणी संसाररूपी जंगलमें भटकानेवाला कौन-सा पाप नहीं करते ? ।। २५७ ॥ | सब लोक में यह कथा प्रसिद्ध हैं कि शराब पीनेके कारण यादव बरबाद हो गये और जुआ खेलने के कारण पाण्डव बरबाद हो गये ।। २५८।। जन्तु अनेक बार जन्म-मरण करके कालके द्वारा प्राणियों का मन मोहित करनेके लिए मद्यका रूप धारण करते हैं ।। २५९ ।। मद्यकी एक बूंदमें इतने जीव रहते हैं कि यदि वे फैले तो समस्त जगत् में भर जायें । इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है || २६० ॥ यतः मद्यपानसे मन हित अहितके विचारसे शून्य हो जाता है और वह दुर्गतिका कारण हैं, अतः इस लोक और परलोकमें बुराइयों को पैदा करनेवाले मद्यका सज्जन पुरुषोंको सदाके लिए त्याग करना चाहिए ॥ २६९ ॥ "मद्यको उत्पन्न करने वाली वस्तुओंके शुद्ध होनेसे तथा वेदमें लिखा होनेसे मूढ एकपातने मद्य पीलिया और फिर उसने मांस भी खाया और भिल्लनीको भी भोगा" || २६२ । । उक्त कथा के सम्बन्ध में एक श्लोक है, जिसका भाव इस प्रकार है- " जब कि मद्यपानके दोषसे अन्य साथी चोर मर गये तब एक दिनके लिए शराबका त्याग कर देनेसे धूर्तिल चोर बच गया " ॥ २६३॥ मांस निषेध - मांस स्वभावसे ही अपवित्र हैं, दुर्गन्धसे भरा है, दूसरोंकी जान ले लेनंपर तैयार होता हैं, तथा कसाईके घर जैसे दुस्थानसे प्राप्त होता है और विपाककालसे दुर्गतिको देता हैं, ऐसे मांसको भले आदमी कैसे खाते है ? || २६४ || यदि जिस पशुको मांस के लिये हम मारते है, दूसरे जन्म में वह हमें न मारे या मांसके बिना जीवन ही न रह सके तो प्राणी नहीं करने योग्य पशु हत्या भले ही करे। किन्तु ऐसी बात नहीं हैं । मांसके बिना भी मनुष्योंका जीवन चलता ही . Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन धर्माच्छमभुजां धर्म किन्न विद्वेषकारणम् । प्राथितार्थप्रदं द्वेष्टु को नामामरपादपम् ।। २६६ अल्वात्क्लेशात्सुखं सुष्ठ सुधीश्चेत्स्वस्य वाञ्छति । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।२६७ स सुखं सेवमानोऽपि जन्मान्तरसुखाश्रयः । यः परानुपघातेन सुखसेवापरायणः ।। २६८ स पुमान्ननु लोकेऽस्मिन्नदर्के दुःखजितः । यस्तदात्वसुखासगान मुह्येद्धर्मकर्मणि ।। २६९ स भूभारः परं प्राणी जीवन्नपि मृतश्च सः । यो न धर्मार्थकामेषु भवेदन्यसमाश्रयः ।। २७० स मूर्खः स जड: सोऽज्ञः स पशश्च पशोरपि । योऽश्नन्नपि फलं धर्माद्धर्मे भवति मन्दधीः ॥२७१ स विद्वान्स महाप्राज्ञः स धीमान्स च पण्डितः । यः स्वतो वान्यतो वापि नाधर्माय समीहते ॥२७२ तत्स्वस्य हितमिच्छन्तो मुञ्चन्तश्चाहितं महः अन्यमांः स्वमांसस्य कथं वृद्धिविधायिनः ॥२७३ यत्परत्र करोतीह सुखं वा दुःखमेव वा । वृद्धये धनवद्दत्तं स्वस्य तज्जायतेऽधिकम् ।। २७४ मद्यमांसमधुप्रायं कर्म धर्माय चेन्मतम् । अधर्मः कोऽपर: किं वा भवेद् दुर्गतिदायकम् ।। २७५ स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नागतिः ।।२७६ स्वकीयं जीवितं यद्वत्सर्वस्य प्राणिनः प्रियम् । तदेतत्परस्यापि ततो हिसां परित्यजेत् ।। २७७ हैं ॥२६५।। धर्मसे सुख भोगनेवाले मनुष्य न जाने धर्मसे द्वेष क्यों करते है? इच्छित वस्तुको देनेवाले कल्पवृक्षसे कौन द्वेष करता हैं !।२६६।। यदि बुद्धिमान् पुरुष थोडेसे कष्ट से अच्छा सुख प्राप्त करना चाहता हैं तो जो काम उसे स्वयं बुरे लगें उन कामोंको दूसरोंके प्रति भी उसे नहीं करनी चाहिए ।२६७।। जो दूसरोंका घात न करके सुखका सेवन करता हैं वह इा जन्ममें भी सुख भोगता हैं और दूसरे जन्ममें भी सुख भोगता हैं ॥२६८।। (धर्मरत्नाकरके पाठके अनुसार दूसरा अर्थ, यह भी हो सकता कि) 'जो दूसरोंके धातके द्वारा सुख भोगनेमें तत्पर रहता हैं वह वर्तमानमें सुख भोगते हुए भी दूसरे जन्ममें दुःख भोगता हैं।' (आगेके श्लोक देखते हुए यही अर्थ विशेष उचित प्रतीत होता है)।। जो मनुष्य तात्कालिक सुखोपभोगमें आसक्त होकर धर्म-कर्ममें मूढ नहीं हो जाता अर्थात् धर्म-कर्म करता रहता है,वह इस लोकमें और परलोकमें दुःख नहीं उठाता ॥२६९ । जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काममें से एकका भी पालन नहीं करता, वह पृथ्वीका भार हैं और जीते हुए भी मृत हैं ।।२७०।। तथा जो धर्मका फल भोगता हुआ भी धर्माचरण करने में आलस्य करता है वह मूर्ख है, जड हैं,अज्ञानी है और पशुसे भी गया बीता है ॥२७१।। और जो न स्वयं अधर्म करता हैं और न दूसरोंसे अधर्म कराता है वह विद्वान् हैं, बडा समझदार है, बुद्धिमान् है और पण्डित हैं ।।२७२।। जो अपना हित चाहते है और अहितसे बचते हैं वे दूसरोंके मांससे अपने मांसकी वृद्धि कैसे करते हैं ।।२७३।। जैसे दूसरोंको दिया हुआ धन कालान्तरमें व्याज के बढ जानेसे अपनेको अधिक होकर मिलता है वैसे ही मनुष्य दूसरेको जो सुख या दुःख देता हैं वह सूख या दुःख कालान्तरमें उसे अधिक होकर मिलता है। अर्थात सुख देनेसे अधिक सख मिलता है और दुःख देनेसे अधिक दुःख मिलता है।।२७४.' यदि मद्य, मांस और मधुका सेवन करना धर्म हैं तो फिर अधर्म क्या हैं और कौन दुर्गतिका कारण हैं? ॥२७५।। धर्म वही हैं जिसमें अधर्म नहीं हैं। सुख वही हैं जिसमें दुःख नहीं हैं । ज्ञान वही हैं जिसमें अज्ञान नहीं हैं और गति वही है जहाँसे लौटकर आना नहीं हैं।२७६।। जिस प्रकार सभी प्राणियोंको अपना जीवन प्रिय है उसी तरह दूसरोंको भी अपना जीवन प्रिय है। इसलिए हिंसाको छोड देना चाहिए ।।२७७॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रावकाचार-संग्रह मांसादिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु । आनृशंल्म न मत्येष मधूदुम्बरसेविषु ॥ २७८ मक्षिकागर्भसंभूतबालाण्डकनिपीडनात् । जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कललाकृति ॥ २७९ उद्भ्रान्तार्भकगर्भेऽस्मिन्नण्डजाण्डकखण्डवत् । कुतो मधु मधुच्छत्रे व्याधलुब्धकजीवितम् ।। २८. अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षन्यग्रोधादिफलेष्वपि । प्रत्यक्षा: प्राणिनः स्थूला: सूक्ष्माश्चागमगोचराः ॥२८१ मद्यादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् । तदमत्राविसंपर्क न कुर्वीत कदाचन ।। २८२ कुर्वन्नतिभिः सार्धं संसर्ग भोजनादिषु । प्राप्नोति वाच्यतामत्र परत्र च न सत्फलम् ।। २८३ दृतिप्रायेषु पानीयं स्नेहं च कुतुपादिषु । व्रतस्थो वर्जयेन्नित्यं योषितश्चावतोचिताः ।। २८४ जीवयोगाविशेषेण मयमेषादिकायवत् मुद्गमाषादिकायोऽपि मांसमित्यपरे जगुः ।। २८५ तदयुक्तम् । तदाहमांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । यद्वनिम्बो वृक्षो वक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ।।२८६ द्विजाण्डजनिहन्तण। यथा पापं विशिष्यते । जीवयोगाविशेषेऽपि तया फलपलाशिनाम् ।। २८७ स्त्रीत्वपेयत्वसामान्याहारवारिवदोहताम् । एष वादी वदन्नेवं मद्यमातृसमागमे ।। २८८ जो मांस खाते हैं उनमें दया नहीं होती। जो शराब पीते हैं वे सच नहीं बोल सकते । और जो मधु और उदुम्बर फलोंका भक्षण करते हैं उनमें कोमलपन नहीं होता ॥२७८।। मधुमक्खियोंके अण्डोंके निचोडनेसे पैदा हुए मधुका, जो रज और वीर्यके मिश्रणके समान कलल-आकृतिवाला है, सज्जन पुरुष कैसे सेवन करते हैं? ॥२७९।। मधुका छत्ता व्याकुल शिशुके गर्भकी तरह है और अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले जन्तुओंके समुदायवाला हैं। भील लोधी वगैरह हिंसक मनुष्य उसे खाते हैं । उसमें माधुर्य कहाँसे आया? ॥२८०॥ पीपल, उदुम्बर जिसे जन्तुफल भी कहते है, पाकर और वट वृक्ष आदिके फलोंमें स्थूल जन्तु रहते है जो प्रत्यक्ष दिखायी देते है । इनके सिवाय सूक्ष्म जन्तु भी उनमें पाये जाते हैं जो शास्त्रोंके द्वारा जाने जा सकते हैं ।।२८१।। मद्य मांस वगैरहका सेवन करनेवाले लोगोंके घरों में खान-पान भी नहीं करना चाहिए। तथा उनके बरतनोंको कभी भी काममें नहीं लाना चाहिए ॥२८२।। जो मनुष्य मद्य आदिका सेवन करनेवाले पुरुषों के साथ खान-पान करता हैं उसकी यहाँ निन्दा होती है और परलोकमें भी उसे अच्छे फलकी प्राप्ति नहीं होती ।।२८३।। व्रती पुरुषको चमडेकी मशकका पानी,चमडेके कुप्पोंमें रखा हुआ घी, तेल और मद्य, मांस आदिका सेवन करनेवाली स्त्रियोंको सदाके लिए छोड देना चाहिए ।।२८४॥ कुछ लोगोंका कहना हैं कि मूंग, उडद आदिमें और ऊँट, मेढा वगैरहमें कोई अन्तर नहीं हैं क्योंकि जैसे ऊँट, मेढा वगैरहके शरीरमें जीब रहता हैं वैसे ही मूंग उडद आदिमें भी जीव रहता है । दोनों ही जीवके शरीर हैं। अतः जीवका शरीर होनेसे मूंग, उडद वगैरह भी मांस ही है ।। २८५ ।। किन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि मांस जीवका शरीर हैं यह ठीक हैं। किन्तु जो जीवका शरीर हैं वह मांस होता भी है और नहीं भी होता । जैसे, नीम वृक्ष होता हैं किन्तु वृक्ष नीम होता भी हैं और नहीं भी होता। २८६।। तथा-जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनोंमें जीव हैं फिर भी पक्षीको मारने की अपेक्षा ब्राह्मणको मारने में अधिक पाप हैं। वैसे ही फल भी जीवका शरीर है और मांस भी जीवका शरीर है, किन्तु फल खानेवालेकी अपेक्षा मांस खानेवालेको अधिक पाप होता है ।।२८७॥ तथा जिसका यह कहना हैं कि फल और मांस दोनों ही जीवका शरीर होनेसे बराबर हैं उसके लिए पत्नी और माता दोनों स्त्री होनेसे समान हैं और-शराब तथा पानी . Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन शुद्धं दुग्धं न गोर्मासं वस्तुवैचित्र्यमीदृशम् । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ।। २८९ हेयं पलं पयः पेय: समे सत्यपि कारणे । विषद्रोगयुबे पत्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥ २९० शरीरावयवत्वेऽपि मांसे दोषो न सर्पिषि जिव्हावन्न हि दोषाय पादे मद्यं द्विजातिषु ।। २९१ विधिश्चेत्कवलं शुद्धचै द्विजैः सर्वं निषेव्यताम् । शुद्धचै चेत्केवलं वस्तु भुज्यतां श्वपचालये ।। २९२ तद्द्रव्यदातृपात्राणां विशुद्धौ विधिशुद्धता । यत्संस्कारशतेनापि नाजातिद्विजतां व्रजेत् ।। २९३ तच्छाक्य सांख्यचार्वाकवेदवैद्यक पदनाम् । मतं विहाय हातव्यं मांसं श्रेयोऽथभिः सदा ।। २९४ यस्तु लौल्येन मांसाशी धर्मधीः स द्विपातकः । परदारक्रियाकारी मात्रा सत्रं यथा नरः ।। २९५ क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयम्भूरमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः स्मृतिदोषादधो गतः ।। २९५ उपकाराय सर्वस्य पर्जन्य इव धार्मिकः । तस्थानास्थानचिन्तेयं वृष्टिवन हितोक्तिषु ।। २९७ चण्डोsवन्तिषु मातङ्गः पिशितस्य निवृत्तितः । अत्यल्पकालभाविन्याः प्रपेदे यक्षमुख्यताम् ।। २९८ अथ के ते उत्तरगुणाः अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि गुणाः स्युद्वंदिशोत्तरे ।। २९९ दोनों पेय होनेसे समान है । अतः जैसे वह पानी और पत्नीका उपभोग करता हैं वैसे ही शराब और माताका भी उपभोग क्यों नहीं करता ? ॥ २८८|| गौका दूध शुद्ध हैं किन्तु गोमांस शुद्ध नहीं है । वस्तु वैचित्र्य ही इस प्रकार हैं । देखो, साँपकी मणिसे विष दूर होता हैं, किन्तु साँपका विष मृत्युका कारण है ।। २८९ ।। अथवा, मांस और दुधका एक कारण होनेपर भी मांस छोडने योग्य हैं और दूध पीने योग्य हैं । जैसे कारस्कर नामके विषवृक्षका पत्ता आयुवर्धक होता हैं और उसकी जड मृत्युका कारण होती है ।। २९०।। और भी कहते हैं -मांस भी शरीरका हिस्सा है और घी भी शरीरका ही हिस्सा हैं फिर भी मांसमें दोष हैं, घीमें नहीं । जैसे ब्राह्मणोंमें जीभ में शराबका स्पर्श करनेमें दोष हैं पैर में लगानेपर नहीं ।। २९९ ।। यदि विधिसे ही वस्तु शुद्ध हो जाती तो ब्राह्मणों के लिए कोई वस्तु असेव्य रहती ही नहीं । और यदि केवल वस्तुकी शुद्धि ही अपेक्षित हैं तो चाण्डाल के घरपर भी भोजन कर लेना चाहिए ।। २९ ।। अतः द्रव्य, दाता और पात्र तीनोंके शुद्ध होनेपर ही शुद्ध विधि बनती है । क्योंकि सैकड़ों संस्कार करनेपर भी शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता || २९३ ।। इसलिए जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें बौद्ध, सांख्य, चार्वाक, वैदिक और शैवोंके मतोंकी परवाह न करके मांसका त्याग कर देना चाहिए ||२४|| जैसे जो परस्त्रीगामी पुरुष अपनी माताके साथ सम्भोग करता हैं वह दो पाप करता है, एक तो परस्त्री गमनका पाप करता है और दूसरे माताके साथ सम्भोग करनेका पाप करता है । वैसे ही जो मनुष्य धर्मबुद्धिसे लालसापूर्वक मांस भक्षण करता है वह भी डबल पाप करता है । एक तो वह मांस खाता ह दूसरे धर्म का ढोंग रचकर उसे खाता है ॥२९५ ।। "स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कान में रहनेवाला तन्दुलमत्स्य बुरे संकल्पसे नरक में गया ।। २९६ ॥ 'जैसे मेघ सबके उपकारके लिए है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी सबके उपकारके लिए है । और जैसे स्थान और अस्थानका विचार किये बिना मेघ सर्वत्र बरसता है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी हितकी बात कहने में स्थान और अस्थानका विचार नहीं करते ।। २९७ ॥ ' ' ' अवन्ति देशमें चण्ड नामका चाण्डाल बहुत थोडी देरके लिए मांसका त्याग कर देनेसे मरकर यक्षोंका प्रधान हुआ ।। २९८ ।। " ( अब श्रावकों के उत्तरगुण बतलाते है - ) पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार १५९ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रावकाचार-संग्रह हिसास्तेयानताब्रह्मपरिग्रह विनिग्रहाः । एतानि देशत: पञ्चाणवतानि प्रचक्षते ॥ ३०० संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमो व्रतमुच्यते । प्रवृत्तिविनिवृत्ती वा सदसत्कर्मसंभवे ॥३०१ हिसायामनते चौर्यामब्रह्मणि परिग्रहे । दृष्टा विपत्तिरत्रव परत्रैव च दुर्गतिः ।। ३०२ यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिंसा तु सतां मता ॥ ३०३ विकथाक्षकषायाणां निद्रायाः प्रणयस्य च । अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः पकिकीर्तितः ॥ ३०४ देवतातिथिपित्रर्थ मन्त्रौषधभयाय वा । न हिस्यात्प्राणिन सनिहिंसा नाम तद्वतम् ॥ ३०५ गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत् । द्रवद्रव्याणि सर्वाणि पटपूतानि योजयेत् ।। ३०६ आसनं शयनं मार्गमन्त्रमन्यच्च वस्तु यत् । अदृष्टं तन्न सेवेत यथाकालं भजन्नपि ।। ३०७ वर्शनस्पर्शसंकल्पसंसर्गत्यक्तभोजिताः । हिंसनाक्रन्दनप्रायाः प्राशप्रत्यूहकारकाः ।। ३०८ अतिप्रसङ्गहानाय तपसः परिवृद्धये । अन्तरायाः स्मृताः सद्भिर्वतबीजविनिक्रियाः ।। ३०९ अहिंसावतरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये । निशायां वर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ।। ३१० आश्रितेषु च सर्वेषु यथावद्विहितस्थितिः । गृहाश्रमी समीहेत शारीरेऽवसरे स्वयम् ।। ३११ शिक्षाव्रत ये बारह उत्तरगुण हैं ॥२९९।। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहका एक देश त्याग करनेको पाँच अणुव्रत कहते हैं ।।३००।। सेवनीय वस्तुका संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत हैं। अथवा अच्छे कार्यो में प्रवृत्ति और बुरे कार्योसे निवृत्तिको व्रत कहते हैं ॥३०१।। हिंसा करने,झूठ बोलने,चोरी करने,कुशील सेवन करने और परिग्रहका संचय करनेसे इसी लोकमें विपत्तियाँ आती देखी जाती है और परलोकमें भी दुर्गति होती है ।। ३०२।। हिसा - (अब अहिंसा धर्मका वर्णन करते हैं-) प्रमादके योगसे प्राणियोंके प्राणोंका घात करना हिंसा और उनकी रक्षा करना अहिंसा हैं ।।३०३॥ जो जीव ४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रियाँ, निद्रा और मोहके वशीभूत हैं उसे प्रमादी कहते हैं ॥३०४॥ देवताके लिए, अतिथिके लिए,पितरोंके लिए, मंत्रकी सिद्धिके लिए, औषधिके लिए, अथवा भयसे सब प्राणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। इसे अहिंसाव्रत कहते हैं ॥३०५॥ घरके सब काम देख-भाल कर करना चाहिए। और पतली वस्तुओंको कपडेसे छानकर ही काममें लाना चाहिए। आसन, शय्या, मार्ग, अन्न और भी जो वस्तु हो, समयपर उसका उपयोग करते समय विना देखे उपयोग नहीं करना चाहिए ।। ३०६-३०७॥ भोजनके अन्तराय-ताजा चमडा, हड्डी, मांस, लोहू और पीब वगैरहका देखना, रजस्वला स्त्री,सूखा चमडा कुत्ता वगैरहसे छू जाना, भोजनके पदार्थो में यह मांसकी तरह है' इस प्रकारका बुरा संकल्प हो जाना, भोजनमें मक्खी वगैरहका गिर पडना, त्याग की हुई वस्तुको खा लेना, मारने, काटने, रोने, चिल्लाने आदिकी आवाज सुनना,ये सब भोजनमें विघ्न पैदा करनेवाले है। अर्थात् उक्त अवस्थाओंमें भोजन छोड देना चाहिए ।।३०८॥ ये अन्तराय व्रतरूपी बीजकी रक्षाके लिए बाडके समान हैं । इनके पालनेसे अतिप्रसङग दोष की निवृत्ति होती है और तपकी वृद्धि होती हैं ।।३०९॥ रात्रि-भोजन त्याग-अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए और मूलव्रतोंको विशुद्ध रखने के लिए इस लोक और परलोकमें दुःख देनेवाले रात्रि-भोजनका त्याग कर देना चाहिए ॥३१०॥ गृहस्थको चाहिए कि जो अपने आश्रित हों पहलो उनको भोजन कराये पीछे स्वयं भोजन करे ॥३११।। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पुगत-उपासकाध्ययन १६१ संधानं पानकं धान्य पुष्पं मूलं फलं दलम् । जीवयोनि न संग्राह्यं यच्च जीवैरुपदतम् ।।३१२ अमि मिश्रमुत्सगि कालदेशदशाश्रयम् । वस्तु किञ्चित्परित्याज्यमपीहास्ति जिनागमे ।।३१३ यदन्तःशषिरप्रायं हेयं नालीनलादि तत् । अनन्तकायिकप्रायं बल्लीकन्दादिकं त्यजेत् ॥३१४ द्विदलं द्विदलं प्राश्यं प्रायेणानवतां गतम् । शिम्बयः सकलास्त्याज्याः साधिताः सकलाश्च या: ।३१५ तत्राहिसा कुतो यत्र बव्हारम्भपरिग्रहः । वञ्चके च कुशीले च नरे नास्ति दयालुता ॥३१६ शोकसन्तापसंक्रन्दपरिदेवनदुःखधीः । भवन्स्वपरयोजन्तुरसद्वेद्याय जायते ॥३१७ कषायोदयतीवात्मा भावो यस्योपजायते । जीवो जायेत चारित्रमोहस्यासो समाश्रयः ।। ३१८ मंत्रोप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि यथाक्रमम् । सत्त्वे गुणाधिके क्लिष्टे निर्गुणेऽपि च भावयेत् ।।३१९ कायेन मनसा वाचाऽपरे सर्वत्र देहिनि । अदुःखजननी वृत्तिमैत्री मैत्रीविदा मता ॥३२० तपोगुणाधिके पुंसि प्रश्रयाश्रयनिर्भर: । जायमानो मनोरागः प्रमोदो विदुषां मतः ॥३२१ दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । हर्षामर्षोज्झिता वृत्तिर्माध्यस्थ्यं निर्गुणात्मनि ॥३२२ इत्थं प्रयतमानस्य गृहस्थस्यापि देहिनः । करस्थो जायते स्वर्गो नास्य दूरे च तत्पदम् ॥३२३ अचार, पानक, धान्य, फल, मूल, फल और पत्तोंको जीवोंकी योनि होनेसे ग्रहण नहीं करना चाहिए । तथा जिसमें जीवोंका वास हो ऐसी वस्तु भी काममें नहीं लेनी चाहिए ।।३१२। जिनागममें कोई वस्तु अकेली त्याज्य बतलायी हैं,कोई वस्तु किसीके साथ मिल जानेसे त्याज्य हो जाती हैं। कोई सर्वदा त्याज्य होती हैं और कोई अमुक काल, अमुक देश और अमुक दशामें त्याज्य होती हैं ।।३१३।।जिसके बीचमें छिद्र रहते है ऐसे कमलडण्डी वगैरह शाकोंको नहीं खाना चाहिए। और जो अनन्तकाय है, जैसे लता, सूरण आदि उन्हें भी नहीं खाना चाहिए ॥३१४।। पुराने मूंग, उडद, चना आदिको दलने के बाद ही खाना चाहिए, बिना दले सारा मूंग, सारा उडद वगैरह नहीं खाना चाहिए । और जितनी साबित फलियाँ है चाहे वे कच्ची हों या आगपर पकायी गयी. हों, उन्हें नहीं खाना चाहिए। उन्हें खोलकर शोधने के बाद ही खाना चाहिए ॥३१।। जहाँ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह है वहाँ अहिंसा कैसे रह सकती है? तथा ठग और दुराचारी मनुष्यमें दया नहीं होती ॥३१६।। जो मनुष्य स्वयं शोक करता हैं तथा दूसरोंके शोकका कारण बनता हैं, स्वयं सन्ताप करता है तथा दूसरोंके संतापका कारण बनता है, स्वयं रोता हैं तथा दूसरोंको रुलाता या कलपाता है, स्वयं दुःखी होता हैं और दूसरोंको दुःखी करता है, वह असातावेदनीय कर्मका बन्ध करता हैं ।।३१७।। जिसके कषायके उदयसे अति संक्लिष्ट परिणाम होते हैं वह जीव चारित्रमोहनीय कर्मका बन्ध करता है ।। २९८ ।। मंत्री, प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाका स्वरूप-सब जीवोंसे मैत्री भाव रखना चाहिए । जो गुणोंमें अधिक हों उनमें प्रमोद भाव रखना चाहिए । दुःखी जीवोंके प्रति करुणा भाव रखना चाहिए। और जो निर्गुण हों, असभ्य और उद्धत हों उनके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए ।।३१९।। 'अन्य सब जीवोंकों दुःख न हो' मन, वचन और कायसे इस प्रकारका बर्ताव करनेको मैत्री कहते है।।३२०॥ तप आदि गुणोंसे विशिष्ट पुरुषको देखकर जो विनयपूर्ण हार्दिक प्रेम उमडता है उसे प्रमोद कहते है ।।३२१।। दयालु पुरुषोंकी गरीबोंका उद्धार करनेकी भावनाको कारुण्य कहते हैं । और उद्धत तथा असभ्य पुरुषोंके प्रति राग और द्वेषके न होनेको माध्यस्थ्य कहते हैं ।।३२२।। जो प्राणी गृहस्थ होकर भी इस प्रकारका प्रयत्न करता है, स्वर्ग तो Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रावकाचार-संग्रह पुण्यं तेजोमयं प्राहुः प्राहु। पापं-तमोमयम् । तत्पापं सि कि तिष्ठेयादीधितिमालिनि ।। ३२४ सा क्रिया कापि नास्तीह यस्यां हिंसा न विद्यते । विशिष्येते परं भावावत्र मुख्यानुषङ्गिको ।। ३२५ अध्यन्नपि भवेत्पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । अभिध्यानविशेषेण यथा धीवरकर्षको ।। ३२६ कस्यचित्सन्निविष्टस्य दारान्मातरमन्तरा । वपुःस्पर्शाविशेषेऽपि शेमुषी तु विशिष्यते ॥ ३२७ तदुक्तम् “परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः कुशलाः । . • तस्मात्पुण्योपचयः पापापचयश्च सुविधेयः" ।। ३२८ वपुषो वचसो वापि शुभाशुभसमाश्रया । क्रिया चित्तादचिन्त्येयं तदत्र प्रयतो भवेत् ॥ ३२९ क्रियान्यत्र क्रमेण स्यात्किय स्वेव च वस्तुषु । जगत्त्रयादपि स्फारा चित्तें तु क्षणतः क्रिया ॥३३० तथा च लोकोक्ति:"एकस्मिन्मनसः कोणे पुंसामुत्साहशालिनाम् । अनायासेन समान्ति भुवनानि चतुर्दश" ।। ३३१ भूपयःपवनाग्नीनां तृणादीनां च हिंसनम् । यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत्पुर्यादजन्तु यत् ।। ३३२ उसके हाथमें हैं और मोक्ष भी दूर नहीं हैं ॥३२३।। पुण्यको प्रकाशमय कहते है और पापको अन्धकारमय कहते हैं । दयारूपी सूर्यके होते हुए क्या पुरुषमें पाप ठहर सकता हैं? ॥३२४॥ ऐसी कोई क्रिया नहीं है जिसमें हिंसा नहीं होती। किन्तु हिंसा और अहिंसाके लिए गौण और मुख्य भावोंकी विशेषता हैं ।।३२५।। संकल्पमें भेद होनेसे धीवर नहीं मारते हुए भी पापी है और किसान मारते हुए भी पापी नहीं है । ३२६।। एक आदमी पत्नीके समीप बैठा हैं और एक आदमी माताके समीप बैठा है। दोनों ही नारीके अंगका स्पर्श करते हैं किन्तु दोनोंकी भावनाओंमें बडा अन्तर हैं ॥३२७।। कहा भी है- 'कुशल मनुष्य परिणामोंको ही पुण्य और पापका कारण बतलाते हैं। अतः पुण्यका संचय करना चाहिए और पापकी हानि करनी चाहिए' ॥३२८॥ मनके निमित्तसे ही शरीर और वचनकी क्रिया भी शुभ और अशुभ होती हैं । मनकी शक्ति अचिन्त्य हैं। इसलिए मनको ही शुद्ध करने का प्रयत्न करो॥३२ ॥ शरीर और वचनकी क्रिया तो क्रमसे होती है और कुछ ही वस्तुओंको अपना विषय बनाती है। किन्तु मनमें तो तीनों लोकोंसे भी बडी क्रिया क्षण-भरमें हो जाती है । अर्थात् मन एक क्षणमें तीनों लोकोंके बारे में सोच सकता है ॥३३०।। इसी विषयमें एक कहावत भी है-'उत्साही मनुष्योंके मनके एक कोने में बिना किसी प्रयासके चौदह भुवन समा जाते हैं ।।३३१।। भावार्थ-पहले बतला आये है कि जो काम अच्छे भावोंसे किया जाता हैं उसे अच्छा कहते हैं और जो काम बुरे भावोंसे किया जाता हैं उसे बरा कहते हैं। अतः वचनकी और कायकी क्रिया तभी अच्छी कही जायेगी जब उसके कर्ताके भाव अच्छे हों। अच्छे इरादेसे बच्चोंको पीटना भी अच्छा है और बुरे इरादेसे उन्हें मिठाई खिलाना भी अच्छा नहीं हैं । अतः मनकी खराबी वचनकी और कायकी क्रिया खराब कही जाती है और मनकी अच्छाई से अच्छी कही जाती हैं । इसलिए मनकी शक्तिको अचिन्त्य बतलाया हैं। मन एक ही क्षणमें दुनिया-भर की बातें सोच जाता है किन्तु जो कुछ वह सोच जाता हैं उसे एक क्षणमें न कहा जा सकता हैं और न किया जा सकता है । अतः मनका सुधार करना चाहिए। पृथ्वी, जल, हवा, आग और तृण आदिकी हिंसा उतनी ही करनी चाहिए जितनेसे अपना प्रयोजन . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन ग्रामस्वामिस्वकार्येषु यथालोकं प्रवर्तताम् । गणदोषविभागेऽत्र लोक एव यतो गुरुः ॥ ३३३ दर्पण वा प्रमादाढा द्वीन्द्रियादिविराधने । प्रायश्चित्तविधि कुर्याद्यथादोषं यथागमम् । ३३४ प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत् । एतच्छुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तं प्रचक्षते ॥ ३३५ द्वादशाङ्गधरोऽप्येको न कृच्छं दातुमर्हति । तस्माद्वहुश्रुता: प्राज्ञाः प्रायश्चित्तप्रदाः स्मृताः ॥३३६ मनसा कर्मणा वाचा यदुष्कृतमुपाजितम् । मनसा कर्मणा वाचा तत् तथैव विहापयेत् ।। ३३७ आत्मदेशपरिस्पन्दो योगो योगविदा मतः । मनोवाक्कायतस्त्रेधा पुण्यपापास्रवाश्रयः ।। ३३८ हिंसनाब्रह्मचोर्यादि कार्य कर्माशुभं विदुः । असत्यासभ्यपारुष्यप्रायं वचनगोचरम् ।। ३३९ मदेायनादि स्यान्मनोव्यापारसंश्रयम् । एतद्विपर्ययाज्ज्ञेयं शुभमेतेषु तत्पुनः ॥ ३४० हिरण्यपशभमीनां कन्याशय्यान्नवाससाम् । दानबहविधैश्चान्यैर्न पापमपशाम्यति ।। ३४१ लधनौषधसाध्यानांव्याधीनांबाह्यकोविधिः ।यथाकिञ्चित्करो लोके तथा पापोऽपिमन्यताम्।।३४२ निहत्य निखिलं पापं मनोवाग्देहदण्डनैः । करोतु सकलं कर्म दानपूजादिकं ततः ॥ ३४३ हो ॥३३२॥ नागरिक कार्योमें, स्वामीके कार्योंमें और अपने कार्योमें लोकरीतिके अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिए. क्योंकि इन कार्योकी भलाई और बुराईमें लोक ही गुरु हैं । अर्थात् लौकिक कार्योको लोकरीतिके अनुसार ही करना चाहिए ।।३३३॥ - प्रायश्चित्तका विधान-मदसे अथवा प्रमादसे द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवोंका घात हो जाने पर दोषके अनुसार आगम में बतलायी गयी विधिपूर्वक प्रायश्चित करना चाहिए ।।३३४॥ प्रायः' शब्दका अर्थ (साधु) लोक हैं । उसके मनको चित्त कहते है । अतः साधु लोगोंके मनको शुद्ध करनेवाले कामको प्रायश्चित्त कहते है ।।३३।। द्वादशांगका पाठी होनेपर भी एक व्यक्ति प्रायश्चित्त देने का अधिकारी नहीं है । अतः जो बहुश्रुत अनेक विद्वान् होते हैं वे ही प्रायश्चित देते हैं ।।३३६।। मनके द्वारा, वचनके द्वारा अथवा कायके द्वारा जो पाप किया है उसे मनके द्वारा, वचन के द्वारा अथवा कायके द्वारा ही छुडवाना चाहिए ॥३३७।। योगके ज्ञाता पुरुष आत्माके प्रदेशोंके हलन-चलनको योग कहते है। वह योग मन, वचन और कायके भेदसे तीन प्रकारका होता हैं और उसीके निमित्तसे पुण्यकर्म और पापकर्मका आस्रव होता है ।।३३८॥ हिंसा करना; कुशील सेवन करना, चोरी करना आदि कायसम्बन्धी अशुभ कर्म जानना चाहिए। झूठ बोलना, असभ्य वचन बोलना और कठोर वचन बोलना आदि वचनसम्बन्धी अशुभ कर्म जानना चाहिए 1३३९।। घमण्ड करना,ईर्ष्या करना, दूसरोंकी निन्दा करना आदि मनोव्यापार सम्बन्धी अशुभ कर्म है । तथा इससे विपरीत करनेसे काय,वचन और मन सम्बन्धी शुभ कर्म जानना चाहिए। अयौत् हिंसा न करना,चोरी न करना, ब्रह्मचर्य पालन करना आदि कायिक शुभ कर्म हैं । सत्य और हित मित वचन बोलना आदि वचन सम्बन्धी शुभ कर्म है । अर्हन्त आदि की भक्ति करना, तपमें रुचि होना,ज्ञान और ज्ञानियोंकी विनय करना आदि मानसिक शुभ कर्म है ॥३४०।। सोना, पशु, जमीन, कन्या, शय्या, अन्न, वस्त्र तथा अन्य अनेक वस्तुओंके दान देनेसे पाप शान्त नहीं होता। ३४१॥ जो रोग उपवास करने और औषधीका सेवन करनेसे दूर होते है जैसे उनके लिए केवल बाह्य उपचार व्यर्थ होता हैं वैसे ही पापके विषयमें भी समझना चाहिए । अर्थात् मन वचन और कायको वशमें किये बिना केवल बाह्य वस्तुका त्याग कर देने मात्रसे पाप रूपी रोग शान्त नहीं होता ॥३४२॥ इसलिए पहले मन,वचन और कायको वशमें करके समस्त पापके कारणोंको Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह आप्रवृत्तनिवृत्ति में सर्वस्येति कृतक्रियः । संस्मृत्य गुरुनामानि कुर्यान्निद्रादिकं विधिम् ।। ३४४ वादायुविरामे स्यात्प्रत्याख्यानफलं महत् । भोगशून्यमतः कालं नावहेदव्रतं व्रती ।। ३४५ एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः । परं फलं तु पूर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ।। ३४६ आयुष्मान्सु भागः श्रीमान्सुरूपः कीर्तिमान्नरः । अहिंसाव्रतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते ।। ३४७ पञ्चकृत्वः किलैकस्य मत्स्यस्याहिसनात्पुरा । अभूत्पञ्चाप्रदोऽतीत्य धनकीर्तिः पतिः श्रियः ॥ ३४८ अवत्तस्य परस्वस्य ग्रहण स्तेयमुच्यते । सर्वभोग्यात्तदन्यत्र भावात्तोयतृणादितः ॥ ३४९ ज्ञातीनामत्यये वित्तमदत्तमपि संगतम् । जीवतां तु निदेशेन व्रतक्षतिरतोऽन्यथा ।। ३५० संक्लेशाभिनिवेशेन प्रवृत्तिर्यत्र जायते । तत्सर्व यि विज्ञेयं स्तेयं स्वान्यजनाश्रय ॥। ३५१ रिक्थं तिधिनिधानोत्थं न राज्ञोऽन्यस्य युज्यते । यत्स्वस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः ।। ३५२ आत्माजितमपि द्रव्यं द्वापरान्यथा भवेत् । निजान्वयादतोऽन्यस्य व्रती स्वं परिवर्जयेत् ।। ३५३ मन्दिरे पदिरे नीरे कान्तारे धरणीधरे । तन्नान्यदीयमादेयं स्वापतेयं व्रताश्रयैः ।। ३५४ पौतवन्यूनताधिक्ये स्तेनकर्म ततो ग्रहः । विग्रहे संग्रहोऽर्थस्यास्तेयस्यैते निवर्तकाः ।। ३५५ १६४ दूर करो। फिर दान-पूजा आदि सब काम करो ||३४३ || रात्रिको जब सोओ तो सन्ध्याकालका कृतिकर्म करके यह प्रतिज्ञा करो कि जबतक मै गार्हस्थिक कार्यों में फिरसे न लगूं तब तक के लिए मेरे सबका त्याग है | और फिर पञ्च नमस्कार मंत्रका स्मरण करके निद्रा आदि लेवे ॥३४४॥ क्योंकि देववश यदि आयु समाप्त हो जाये तो त्यागसे बडा लाभ होता हैं । इसलिए व्रतीको चाहिए कि जिस कालमें वह भोग न करता हो उस कालको बिना व्रत के न जाने दे | अर्थात् उतने समयके लिए भोगका व्रत ले ले || ३४५ || अकेली जीवदया एक ओर है और बाकीकी सब क्रियाएँ दूसरी ओर हैं । अर्थात् अन्य सब क्रियाओंसे जीवदया श्रेष्ठ हैं। अन्य सब क्रियाओंका फल खेती की तरह हैं और जीवदयाका फल चिन्तामणि रत्नकी तरह हैं जो चाहो सो मिलता हैं । अकेले एक अहिंसा व्रत के प्रतापसे ही मनुष्य चिरजीवी, सौभाग्यशाली, ऐश्वर्यवान्, सुन्दर और यशस्वी होता हैं ।। ३४६-३४७ || पूर्व जन्ममें पाँच बार एक मछलीको न मारनेसे धनकीर्ति पाँच बार आपत्ति से बचकर लक्ष्मीका स्वामी बना ॥ ३४८ ॥ अचौर्याणुव्रत - पानी, घास आदि जो वस्तु सबके भोगने के लिए है उनके सिवाय शेष सब बिना दी हुई परवस्तुओंके ले लेना चोरी है ।। ३४९ ।। यदि कोई ऐसे कुटुम्बी मर जायें जिनका उत्तराधिकार हमें प्राप्त हैं तो उनका धन बिना दिये हुए भी लिया जा सकता हैं । किन्तु यदि वह जीवित हों तो उनकी आज्ञासे ही उनका धन लिया जा सकता है। उनकी जीवित अवस्थामें ही उनसे पूछे बिना उनका धन ले लेने से अचौर्याणुव्रतकी क्षति होती हैं ।। ३५० ।। अपना धन हो या दूसरोंका हो, जिसमें चोरीके भावसे प्रवृत्ति की जाती है तो वह सब चोरी ही समझना चाहिए ।।३५१॥ रिक्थ (जिसका स्वामी मर गया है, ऐसा धन ) निधि और निधानसे प्राप्त हुआ राजाका होता है किसी दूसरेका नहीं 1 क्योंकि जिस धनका कोई स्वामी नहीं है उसका स्वामी राजा होता है ।। ३५२ ।। अपने द्वारा उपार्जित द्रव्य में भी यदि संशय हो जाये कि यह मेरा हैं या दूसरेका, तो वह द्रव्य ग्रहण करनेके अयोग्य है अतः व्रती को अपने कुटुम्बके सिवाय दूसरों का धन नहीं लेना चाहिए ।। ३५३ ॥ किसी मकान में, मार्ग में, पानी में, जंगलमें या पहाड में रखा हुआ दूसरोंका धन अचौर्याणुव्रतीको नहीं लेना चाहिए || ३५४ || बाँट तराजूका कमती - बढती रखना, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पगत-उपासकाध्ययन रत्नरत्नाङ्गरत्नस्त्रीरत्नाम्बर विभूतयः । भवन्त्यचिन्तितास्तेषामस्तेयं येषु निर्मलम् ।। ३५६ परप्रमोषतोषेण तृष्णाकृष्णधियां नृणाम् । अत्रैव दोषसंभूतिः परत्रैव च दुर्गतिः ।। ३५७ श्रीभूति: स्तेयदोषेण पत्युः प्राप्य पराभवम् । रोहिदश्वप्रवेशेन दंशेर: सन्नधोगतः ।। ३५८ अत्यक्तिमन्यदोषोक्तिमसभ्योक्ति च वजयेत । भाषेत वचनं नित्यमभिजातं हितं मितम् ।। ३५९ तत्सत्यमपि नो वाच्यं यत्स्यात्परविपत्तये । जायन्ते येन वा स्वस्थ व्यापदश्चतुरास्पदाः ।। ३६० प्रियशील: प्रियाचार: प्रियकारी प्रियंवदः । स्यादानृशंसीनित्य नित्यं परहिते रतः ।। ३६१ केलिश्रुतसङ्ग्रेषु देवधर्मतप:सु च । अवर्णवादवाञ्जन्तुर्भवेद्दर्शनमोहवान् ।। ३६२ मोक्षमार्ग स्वयं जाननथिने यो न भाषते । महापन्हवमात्सर्यैः स स्यादावरणद्वयो।। ३६३ मन्त्रभेद: परीवादः पैशून्यं कूटलेखनम् । मुधासाक्षिपदोस्तिश्च सत्यस्य ते विघातकाः ।। ३६४ परस्त्रीराजविद्विष्टलोकविद्विष्टसंश्रयाम् । अनायक समारम्भा न कथां कथयेधः ।। ३६५ असत्यं सत्यगं किंचित्किचित्सत्यमसत्यगम् । सत्यसत्यं पुनः किचिदसत्यासत्यमेव च ।। ३६६ चोरीका उपाय बतलाना, चोरीका माल खरीदना, देशमें युद्ध छिड जानेपर पदार्थोका संग्रह कर रखना ये सब अचौर्याणवतके दोष हैं ।। ३५५।। जो निर्दोष अचौर्याणुब्रतको पालते हैं उनको रत्न, सोना, उत्तम स्त्री, उत्तम वस्त्र आदि विभूतियाँ स्वयं प्राप्त होती है, उसके लिए उन्हें चिन्ता नहीं करनी पडती । ३५६।। जो मनुष्य दूसरोंकी वस्तुओंको चुराकर प्रसन्न होते हैं, तृष्णासे कलुषित बुद्धिवाले उन मनुष्योंमें इसी जन्ममें अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं और दूसरे जन्ममें भी उनकी दुर्गति होती है ।। ३५७।। 'चोरीके दोषके कारण श्रीभूति राजाके द्वारा तिरस्कृत हुआ। और आगमें जलकर मर गया। फिर सर्पयोनिमें जन्म लेकर नरकगामी हुआ ॥३५८।। (अब सत्य व्रतका वर्णन करते हैं-) किसी बातको बढाकर नहीं कहना चाहिए, न दूसरेके दोषोंकी ही कहना चाहिए और न असभ्य वचन ही बोलना चाहिए। किन्तु मदा हित-मितऔर सभ्य वचन ही बोलना चाहिए ॥३५९।। किन्तु ऐसा सत्य भी नहीं बोलना,चाहिए, जिससे दूसरोंपर विपत्ति आती हो या अपने ऊपर दुर्निवार संकट आता हो ॥३६०।। मनुष्यको सदा प्रिय स्वभाववाला, प्रिय आचरणवाला, प्रिय करनेवाला, प्रिय बोलनेवाला, सदा दयालु और सदा दूसरोंके हितमें तत्पर होना चाहिए ।।३६१।। जो जीव केवली, शास्त्र, संघ, देव, धर्म और तपमें मिथ्या दोष लगाता है, वह दर्शन मोहनीय कर्मका बन्ध करता हैं ।।३६२।। जो मोक्षके मार्गको जानता हुआ भी,जो उसे जानने को इच्छुक हैं उसे भी नहीं बतलाता, वह अपने ज्ञानका घमण्ड करनेसे, ज्ञानको छिपानेसे तथा उसके सिवाय दूसरा कोई न जानने पावे, इस ईर्ष्या भावसे ज्ञानावरण ओर दर्शनावरण कर्मका बन्ध करता हैं ॥३६३।। संकेत आदि से दूसरेके मनकी बातको जानकर उसे दूसरोंपर प्रकट कर देना, दूसरेकी बदनामी फैलाना, चुगली खाना, जो बात दूसरेने नहीं कही या नहीं की, दूसरोंका दबाव पडनेसे ऐसा उसने कहा या किया है इस प्रकारका झूठा लेख लिखना, और झूठी गवाही देना, ये सब काम सत्यवतके घातक हैं ॥३६४।। समझदार मनुष्यको परायी स्त्रियोंकी कथा, राजविरुद्ध कथा, लोकविरुद्ध कथा और कपोलकल्पित व्यर्थ कथा नहीं कहनी चाहिए ।३६५।। वचन चार प्रकारका होता हैं । कोई वचन सत्यग असत्य होता हैं, कोई वचन असत्यग-सत्य होता हैं। कोई वचन सत्यग-सत्य होता हैं और कोई वचन असत्यग Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार - संग्रह अस्येदमंदं पर्यम्-असत्यमपि किचित्सत्यमेव यथान्धांसि रन्धयति वयति वासांसीति । सत्यमप्यसत्यं किचिद्यथार्धमासत मे दिवसे तवेदं देयमित्यास्थाय मासतमे संवत्सरमे वा दिवसे ददातीति । सत्यसत्यं किचिद्यद्वस्तु यद्देशकालाकारप्रमाणं प्रतिपन्नं तत्र तथैवाविसंवादः । असत्या त्सत्यं किंचित्स्वस्यासत्संगिरते कल्ये दास्यामीति । तुरीयं वर्जयेत्रित्यं लोकयात्रा त्रये स्थिता । सा मिथ्यापि न गीमिथ्या या गुर्वादिप्रसादिनी ॥ ३६७ न स्तूयादात्मनात्मानं न परं परिवादयेत् । न सतोऽन्यगुणान् हिस्यान्नासतः स्वस्य वर्णयेत् ॥ ३६८ तथा कुर्वन्प्रजायेत नीचंर्गोत्रोचितः पुमान् । उच्चैर्गोत्रमवाप्नोति विपरीतकृतेः कृती । ३६९ यत्परस्य प्रियं कुर्यादात्मनस्तत्प्रियं हि तत् । अतः किमिति लोकोऽयं परः प्रियपरायण ।। ३७० यथा यथा परेष्वेतच्चेतो वितन्ते तमः । तथा तथात्मनाडीषु तमोधारा निषिञ्चति ।। ३७१ दोषतोयैर्गुणग्रीष्मः संगन्तृणि शरीरिणाम् । भवन्ति चित्तवासांसि गुरूणि च लघूनि च ।। ३७२ सत्यवाक् सत्यसामर्थ्याद्वचः सिद्धि समश्नुते । वाणी चास्य भवेन्मान्या यत्र यत्रोपजायते ।। ३७३ १६६ असत्य होता है ।। ३६६ ।। इसका यह अभिप्राय है कि कोई वचन असत्य होते हुए भी सत्य होता है, जैसे- ' भात पकाता हैं, या कपडा बुनता है'। ये वचन यद्यपि असत्य है क्योंकि न भात पकाया जाता हैं और कपडा बुना जाता हैं किन्तु पके हुए को भात कहते है, और बुन जानेपर कपडा कहलाता हैं, फिर भी लोकव्यवहारमें ऐसा ही कहा जाता हैं इसलिए इस तरहके वचनोंको सत्य मानते हैं। इसी तरह कोई वचन सत्य होते हुए भी असत्य होता हैं । जैसे- किसीने वादा किया कि पन्द्रह दिन मै तुम्हें अमुक वस्तु दे दूंगा । किन्तु पन्द्रवें दिन न देकर वह एक मास में या एक वर्ष में देता है । यहाँ चूंकि उसने वस्तु दे दी इसलिए उसका कहना सत्य हैं किन्तु समयपर नहीं दी इसलिए सत्य होते हुई भी असत्य हैं । जो वस्तु जिस देशमें, जिस कालमें, जिस आकार में और जिस प्रमाणमें जानी हैं उसको उसी रूपमें कहना सत्य सत्य है । जो वस्तु अपने पास नहीं हैं उसके लिए ऐसा वचन देना कि मैं तुम्हें कल दूंगा असत्य वचन हैं । इनमेंसे चौथे असत्य असत्य वचनको कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि लोकव्यवहार शेष तीन प्रकारके वचनोंपर ही स्थित हैं । जो वचन गुरुजनोंको प्रसन्न करनेवाला हैं, वह मिथ्या होते हुए भी मिथ्या नहीं हैं। ।।३६७।। न स्वयं अपनी प्रशंसा करनी चाहिए और न दूसरोंकी निंदा करनी चाहिए। दूसरों में यदि गुण हैं तो उनका लोप नहीं करना चाहिए और अपनेमें यदि गुण नहीं है तो उनका वर्णन नहीं करना चाहिए कि मेरेमें ये गुण हैं || ३६८ || ऐसा करनेसे मनुष्य नीच गोत्रका बन्ध करता है, और उससे विपरीत करनेसे अर्थात् अपनी निन्दा और दूसरोंकी प्रशंसा करनेसे तथा दूसरोंमें गुण न होनेपर भी उनका वर्णन करनेसे और अपनेमें गुण होते हुए भी उनका कथन न करनेसे उच्चगोत्रका बन्ध करता है || ३६९ ॥ | जो दूसरोंका हित करता हैं वह अपना ही हित करता हैं फिर भी न जाने क्यों यह संसार दूसरोंका अहित करने में ही तत्पर रहता है ।। ३७०।। जैसे-जैसे यह चित्त दूसरोंके विषयमें अन्धकार फैलाता हैं वैसे-वैसे अपनी नाडियों में अन्धकारकी धाराको प्रवाहित करता हैं । अर्थात् दूसरोंका बुरा सोचनेसे अपना ही बुरा होता है || ३७१ || प्राणियों के चित्तरूपी वस्त्र यदि दोषरूपी जलमें डाले जाते हैं तो भारी हो जाते हैं और यदि गुणरूपी ग्रीष्म ऋतुमें फैलाये जाते है तो हल्के हो जाते है || ३७२ || सत्यवादीको सदा सच बोलने के कारण Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन तर्षेर्ष्याम हर्षाद्यैर्मृषाभाषामनीषितः जिव्हाच्छेदमवाप्नोति परत्र च गतिक्षतिम् ।। ३७४ अल्पैरपि समर्थ: स्यात्सहायैविजयी नृपः । कार्यायान्तो हि कुन्तस्य दण्डस्त्वस्य परिच्छदः || ३७५ न व्रतमस्थिग्रहणं शाकवयोमूलभैक्षचर्या वा । व्रतमेतदुन्नतधियामङ्गीकृतवस्तुनिर्वहणम् ॥ ३७६ अस्थाने बद्धकक्षाणां नराणां सुलभं द्वयम् । परत्र दुर्गतिदर्घा दुष्कीतिश्चात्र शाश्वती ।। ३७७ मृषोद्यादीनवोद्योगात्पर्वतेन समं वसुः । जगाम जगतीमूलं ज्वलदातङ्कपावकम् ।। ३७८ वधूवित्तस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जते । माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे ।। ३७९ धर्मभूमी स्वभावेन मनुष्यो नियतस्मरः । यज्जात्यैव पराजातिबन्धुलिङ्गिस्त्रियस्त्यजेत् ।। ३८० रक्ष्यमाणे हि बृंहन्ति यत्राहिंसादयो गुणाः । उदाहरन्ति तद्ब्रह्म ब्रह्मविद्याविशारदाः ।। ३८१ मदनोद्दीपने वृत्तं मदनोद्दीपनं रसैः । मदनोद्दीपनंः शास्त्रैर्मदमात्मनि नाचरेत् ।। ३८२ हव्यैरिव हुतप्रीति: पाथोभिरिव नीरधिः तोषमेति पुमानेष न भोगेर्भवसंभवः ।। ३८३ विषवद्विषयाः पुंसामापाते मधुरागमा: । अन्ते विपत्तिफलदास्तत्सतामिह को ग्रहः ॥ ३८४ 1 वचनकी सिद्धि प्राप्त होती हैं । जहाँ-जहाँ वह जो कुछ कहता है उसकी वाणीका आदर होता हैं || ३७३ ॥ | इसके विपरीत जो तृष्णा, ईर्ष्या, क्रोध या हर्ष वगैरह के वशीभूत होकर झूठ बोलता हैं उसकी जिव्हा कटवा दी जाती हैं और परलोकमें भी उसकी दुर्गति होती हैं ।। ३७४ | शक्तिशाली थोडेसे भी सहायकों के द्वारा राजा विजयी होता है । जैसे भालेकी नोक ही अपना काम करती है, उसमें लगा डंडा तो उसका सहायक मात्र हैं ।। ३७५ । हड्डीका धारण करना, शाक, पानी, कन्दमूलका लेना अथवा भिक्षा भोजन करना ये सब ब्रत नहीं हैं । किन्तु स्वीकार की हुई वस्तुको निबाहना ही समझदार पुरुषोंका व्रत हैं ||३७६ | 'झूठी बातका दुराग्रह करनेवाले मनुष्योंके लिए दो चीज सुलभ है - परलोकमें दीर्घकाल तक दुर्गति और इस लोक में स्थायी अपयश' | ॥ ३७७ ॥ इसके विषयमें एक श्लोक हैं- 'झूठ बोलनेके दोष के कारण पर्वतके साथ वसु भी सातवें नरकको गया, जहाँ सदा संतापरूपी अग्नि जलती रहती हैं । ३७८ ॥ अब ब्रह्मचर्या व्रतका वर्णन करते हैं - अपनी विवाहिता स्त्री और वित्त स्त्री के सिवाय अन्य सब स्त्रियोंको अपनी माता, बहिन और पुत्री मानना ब्रह्मचर्याणुव्रत हैं ||३७९ ॥ विशेषार्थ - सब श्रावकाचारों में विवाहिता के सिवाय स्त्री मात्रके त्यागीको ब्रह्मचर्याणुव्रती बतलाया है । परनारी और वेश्या ये दोनों ही त्याज्य है । किन्तु पं. सोमदेवजीने अणुव्रती के लिए वेश्याकी भी छूट दे दी हैं । न जाने यह छूट किस आधारसे दी गई है ? धर्मभूमि आर्यखण्ड में स्वभावसे ही मनुष्य कम कामी होते हैं । अत: अपनी जातिकी विवाहित स्त्रीसे ही सम्बन्ध करना चाहिए और अन्य जातियोंकी तथा बन्धु-बांधवोंकी स्त्रियोंसे और व्रती स्त्रियोंसे सम्बन्ध नहीं करना चाहिए || ३८०|| जिसकी रक्षा करने पर अहिंसा आदि गुणोंमें वृद्धि होती है उसे ब्रह्मविद्यामें निष्णात विद्वान् ब्रह्म कहते है ||३८१|| अतः कामोद्दीपन करनेवाले कार्योंसे, कामोद्दीपन करनेवाले रसोंके सेवन से और कामोद्दीपन करनेवाले शास्त्रोंके श्रवण या पठनसे अपनेमें कामका मद नहीं लाना चाहिए | ३८२ ॥ जैसे हवनकी सामग्री से अग्नि और जलसे समुद्र कभी तृप्त नहीं होते । वैसे ही यह पुरुष सांसारिक भोगों से कभी तृप्त नहीं होता ।। ३८३ ॥ | ये विषय विषके तुल्य हैं। जब आते हैं तो प्रिय लगते है किन्तु अन्त में विपत्तिको ही लाते है । अतः सज्जनका इन विषयोंमें आग्रह कैंसे हो सकता है।। ३८४ ॥ १६७ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रावकाचार-संग्रह बहिस्तास्ताः क्रियाः कुर्वनरः संकल्पजन्मवान् भावाप्तावेव निर्वाति क्लेशस्तत्राधिकः परम् ।। ३८५ farari कामकामात्मा तृतीया प्रकृतिर्भवेत् । अनन्तवीर्यपर्यायस्तस्यानारतसेवने ॥ ३८६ सर्वा क्रियानुलोमा स्यात्फलाय हितकामिनाम् । अपरत्रार्थकामाभ्यां यत्तो नस्तां तदर्थषु ।। ३८७ क्षयामयसमः कामः सर्वदोषोदयद्युतिः । उत्सूत्रे तत्र मर्त्यानां कुतः श्रेयः समागमः ।। ३८८ देहद्रविणसंस्कारसमुपार्जनवृत्तयः । जितकामे वृथा सर्वास्तत्कामः सर्वदोषभाक् ।। ३८९ स्वाध्यायध्यानधर्माद्या: क्रियास्तावन्नरे कुतः । इद्धे चित्तेन्धने यावदेष कामाशुशुक्षणिः ।। ३९० ऐदम्पर्यमतो मुक्त्वा भोगानाहारवद्भजेत् । देहदाहोपशान्दर्थमभिध्यानविहानये ।। ३९१ परस्त्रीसंगमानङ्गक्रीडान्योपयमक्रियाः । तीव्रतारतिकैतव्यं हन्युरेतानि तद् व्रतम् ।। ३९२ मद्यं द्यूतमुपद्रव्यं तौर्यत्रिकमलंक्रियाः । मदो विटा वृथाटयेति दशधानङ्गजो गणः ।। ३९३ हिंसनं साहमं द्रोह: पौरो भाग्य यंदूषणं । ईर्ष्या वाग्दण्डपारुष्यकोपजः स्याद् गणोऽष्टधा ।। ३९४ ऐश्वर्येौदार्यशौण्डीर्य सौन्दर्यवीर्यवीर्यता । लभेताद्भुत सञ्चाराश्चतुर्थव्रत पूतधीः ॥ ९५ अनङ्गानलसलीढे परस्त्रीरतिचेतसि । सद्यस्का त्रिपदो ह्यत्र परत्र च दुरास्पदाः ।। ३९६ नाना प्रकार की बाह्य क्रियाओंको करता हुआ कामी मनुष्य रति सुखके मिलने पर ही सुखी होता है । किन्तु इसमें क्लेश ही अधिक होता हैं सुख तो नाम मात्र है ।। ३८५ ।। जो अत्यन्त कामासक्त होता हैं वह निरन्तर कामका सेवन करनेसे नपुंसक हो जाता हैं और जो निरन्तर ब्रह्मचर्य का पालन करता हैं वह अनन्त वीर्यका धारी होता है ॥ ३८६ ।। जो अपना हित चाहते हैं उनकी सब अनुलोम क्रियाएँ फलदायक होती है । किन्तु अर्थ और कामको छोडकर | क्योंकि जो अर्थ और कामकी अभिलाषा करते हैं उन्हें अर्थ और कामकी प्राप्ति नहीं होती, अत: उन्हें अर्थ और कामकी प्राप्ति होने पर भी सदा असन्तोष ही रहता है ।। ३८७ ।। काम क्षय रोगके समान सब दोषों को उत्पन्न करता है । उसका आधिक्य होने पर मनुष्योंका कल्याण कैसे हो सकता हैं? ||३८८|| जिसने कामको जीत लिया उसका देहका संस्कार करना, धन कमाना आदि सभी व्यापार व्यर्थ है; क्योंकि काम ही इन सब दोषोंकी जड हैं ।। ३८९ ।। जबतक चित्तरूपी ईंधन में यह कामरूपी आग धधकती हैं तबतक मनुष्य स्वाध्याय, ध्यान, धर्माचरण आदि क्रिया कैसे कर सकता हैं? ।। ३९०1। अतः कामुकताको छोडकर शारीरिक सन्तापकी शान्तिके लिए और विषयोंकी चाहको कम करने के लिए आहारके समान भोगोंका सेवन करना चाहिए || ३९१ || परायी स्त्रीके साथ संगम करना, काम सेवनके अंगोंसे भिन्न अंगोंमें कामक्रीडा करना, दूसरोंके लडकीलडकों का विवाह कराना, कामभोगकी तीव्र लालसाका होना और विटत्व, ये बातें ब्रह्मचर्यव्रतको घातनेवाली हैं ।। ३९२ ॥ शराब, जुआ, मांस, मधु, नाच, गाना और वादन, लिंगपर लेप वगैरह लगाना, शरीर को सजाना, मस्ती, लुच्चापन और व्यर्थ भ्रमण, ये दस कामके अनुचर हैं ||३९३॥ हिंसा, साहस, मित्रादिके साथ द्रोह, दूसरोंके दोष देखने का स्वभाव, अर्थदोष अर्थात् न ग्रहण करने योग्य धनका ग्रहण करना, और देयधनको न देना, ईर्ष्या, कठोर वचन बोलना और कठोर दण्ड देना ये आठ को अनुचर हैं ।। ३९४ ।। ब्रह्मचर्याशुव्रती अद्भुत ऐश्वर्य, अद्भुत उदारता, अद्भुत शूर-वीरता, अद्भुत धीरता, अद्भुत सौंन्दर्य और अद्भुत शक्तिको प्राप्त करता हैं || ३९५ ।। जिसका कामरूपी अग्निसे वेष्टित चित्त पर-नारीसे रति करने में आसक्त हैं उसे इसी जन्म में तत्काल विपत्तियाँ उठानी पडती है और परलोक में भी कठोर विपत्तियों का सामना करना पड़ता है ॥ ३९६ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन मन्मथोन्माथितस्वान्तःपरस्त्रीरतिजातधीः । कडार पिङ्गः संकल्पानिपपात रसातले । ३९७ ममेदमिति संकल्पो गह्याभ्यन्तरवस्तुषु । परिग्रहो मतस्तत्र कुर्याच्चेतोनिकुञ्चनम् ॥ ३९८ क्षेत्रं धान्यं धनं वास्तु कुप्यं शयनमासनम् । द्विपदाः पशवो भाण्डं बाह्या दश परिग्रहा: ॥३९९ समिथ्यात्वास्त्रयो वेदा हास्यप्रभृतयोऽपि षट् । चत्वारश्च कषायाः स्युरन्तर्ग्रन्याश्चतुर्दश ।। ४०० अथवा-चेनाचेतनासङ्गाद्विधा बाह्यपरिग्रहः । अन्त स एक एव स्याद्भवहेत्वाशयाश्रयः ॥ ४०१ धनायाविद्धबुद्धीनामधनाः स्युमनोरथाः । ह्यनर्थक्रियारम्भा धीस्तथिषु कामधुक ।। ४०२ सहसंमतिरप्येष देहो यत्र न शाश्वतः । द्रव्यदारकदारेषु तत्र काऽऽस्था महात्मनाम् ॥ ४०३ स श्रीमानपि निःश्रीक: स नरश्च नराधमः । यो न धर्माय भोगाय विनयेत धनागमम् ।। ४०४ प्राप्तेऽर्थे ये न माद्यन्ति नाप्राप्ते स्पहयालयः । लोकद्वयश्रितां श्रीणां त एव परमेश्वराः ।। ४०५ चित्तस्य वित्तचिन्तयां न फलं पर मेनसः । अस्थाने क्लिश्यमानस्य न हि क्लेशात्परं फलम् ।। ४०६ अन्तर्बहिर्गते सगे निःसङ्ग यस्य मानसम् । सोऽगण्य पुण्य संपन्नः सर्वत्र सुखमश्नुते ॥ ४०७ बाह्यसङ्गरते पुंसि कुतश्चित्तविशुद्धता । सतुषे हि बहिन्यि दुर्लभान्तविशुद्धता॥४०८ सत्पात्रविनियोगेन योऽर्थसंग्रहतत्परः । लब्धेषु स परं लुब्ध: सहामत्र धनं नयन् ।।४०९ कामसे पीडित और परस्त्री संभोगके लिए उत्सुक कडार-पिङग परस्त्रीगमनके संकल्पसे नरकमें गया । ॥३९७।। इसकी कथा मूल ग्रन्थसे अथवा प्रथमानुयोगसे जानना चाहिए। (अब परिग्रह परिमाण व्रतको कहते हैं-) बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओंमें यह मेरी है' इस प्रकारके संकल्पको परिग्रह कहते हैं। उसके विषयमें चित्तवृत्तिको संकुचित करना चाहिए अर्थात् संकल्पको घटाकर परि पहका परिमाण करना चाहिए ॥३९८॥ खेत, अनाज, धन, मकान, ताँबा-पीतल आदि धातु. शय्या, आसन, दास-दासी, पशु और भाजन ये दस बाह्य परिग्रह है ।। : ९९।। मिथ्यात्व, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, शोक, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चौदह अन्तरङग परिग्रह हैं ॥४००॥ अथवाचेतन और अचेतनके भेदसे बाह्य परिग्रह दो प्रकारका है, और संसारके कारणभूत कर्माशयकी अपेक्षा अन्तरङग परिग्रह एक ही प्रकारका हैं ।४०१॥ जो धनकी वाञ्छा करते रहते हैं उनके मनोरथ सफल नहीं होते ; क्योंकि वाञ्छा करने मात्रसे इच्छित वस्तुकी प्राप्ति नहीं होती ॥४०२।। जहाँ साथ पैदा होनेवाला शरीर भी स्थायी नहीं है वहाँ शरीरसे भिन्न धन, स्त्री और पुत्र में महात्माओंकी आस्था कैसे हो सकती है? ॥४०३।। वह मनुष्य धनी होकर भी गरीब है तथा मनुष्य होकर भी मनष्योंमें नीच हैं जो धनको न धर्म में लगाता है और न भोगता है।।४०४।। जो धनको पाकर मद नहीं करते और धनके न मिलने पर उसकी इच्छा नहीं करते, वे ही इस लोक और परलोकमें लक्ष्मीके स्वामी होते है ।।४० ।। मनमें धनकी चिन्ता करनेका फल पापके सिवाय और कुछ नहीं हैं । ठीक ही है अस्थानमें क्लेश करनेके क्लेशके अतिरिक्त और क्या फल हो सकता हैं ।।४०६॥ अन्तरङग और बाह्य परिग्रहमें जिसका मन अनासक्त हैं वह महान् पुण्यशाली सर्वत्र सुख भोगता हैं। ४०७। जो पुरुष बाह्य पहिग्रहमें आसक्त हैं उसका मन कैसे विशुद्ध हो सकता है? ठीक ही हैं, जो धान्य तुष-छिलके सहित है उसके भीतरी भागका स्वच्छ पाया जाना दुर्लभ हैं।॥४०८।। भावार्थ- जब धानको कूटकर उसका छिलका अलग कर दिया जाता है तभी साफ चावल निकलता है। छिलकेके रहते हुए उसके अन्दरका चावल भी लाल ही रहता है। वैसे ही बाह्य परिग्रहमें आसक्त रहते हुए मनुष्य का मन स्वच्छ नहीं होता। जो सत्पात्रको दान देकर धन Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्रावकाचार-संग्रह कृतप्रमाणाल्लोभेन धनादधिकसंग्रहः । पञ्चमाणुव्रतज्यानि करोति गृहमेधिनाम् ।। ४१० यस्य द्वन्द्वद्वयेऽप्यस्मिन्निःस्पृहं देहिनो मनः । स्वर्गापवर्गलक्ष्मीणां क्षणात्पक्षे स दक्षते ॥ ४११ अत्यर्थमर्थकाङ्क्षायामवश्यं जायते नृणाम् । अघसंघचितं चेतः संसारावर्तवर्तगम् ।। ४१२ षष्ठया: क्षितेस्तृतीयेऽस्मिल्लल्लके दुःखमल्लके । पेते पिण्याकगन्धेन धनायाविद्धचेतसा ।। ४१३ दिग्देशानर्थदण्डानां विरतिस्त्रितयाश्रयम् । गुणवतत्रयं सद्भिः सागारयतिष स्मृतम् ।। ४१४ दिक्षु सर्वास्वधःप्रोर्ध्वदेशेषु निखिलेषु च । एतस्यां दिशि देशेऽस्मिन्नयत्येवं गतिर्मम ।। ४१५ दिग्देशनियमादेवं ततो बाह्येष वस्तुषु । हिंसालोभोपभोगादिनिवृत्तेश्चित्तयन्त्रणा ।। ४१६ रक्षन्निदं प्रयत्नेन गुणवतत्रयं गृही । आजैश्वर्य लभैश्वर्य लभेतैष यत्र यत्रोपजायते ॥ ४१७ आशादेशप्रमाणस्य गृहीतस्य व्यतिक्रमात् । देशव्रती प्रजायेत प्रायश्चित्तसमाश्रयः ।। ४१८ शिखण्डिकुक्कुटश्येन बिडालव्यालबभ्रवः । विषकण्टकशस्त्राग्निकषापाशकरज्जव: ।। ४१९ का संग्रह करने में तत्पर है,वह उस धनको परलोकमें अपने साथ ले जाता हैं । अतः वह लोभियोंमें परम लोभी है ॥४०९।। भावार्थ-जो अपने धनको सत्पात्रोंके लिए खर्च करता हैं वह असीम पूण्यका बन्ध करता है और उस पुण्यको, जो धन-प्राप्तिका मूल कारण हैं,वह अपने साथ परलोकमें ले जाता है । उसके प्रभावसे उसे उस जन्ममें भी धनका लाभ होता हैं । अतः ऐसा आदमी ही सच्चा धनका लोभी हैं। किन्तु जो धनको ही समेटकर रखता हैं-न उसे भोगता हैं और न किसीको देता है वह तो उसे यहीं छोड जाता है । अतः सत्पात्रमें धनको खरचना ही उत्तम हैं। और पुण्यरूपी धन ही सच्चा धन हैं । जिसने धनका प्रमाण किया हैं,लोभमें आकर उससे अधिकका संचय करना गृहस्थोंके परिग्रह परिमाणव्रतको हानि पहुंचाता है । अर्थात् यह उस व्रतका अतिचार हैं ।।४१०॥ जिस प्राणी का मन अन्तरङग और बहिरङग परिग्रहमें निस्पृह हैं वह क्षणभरमें स्वर्ग और मोक्षकी लक्ष्मीका स्वामी बन जाता हैं ॥४११।। धनकी बहुत अधिक तृष्णा होनेपर मनुष्योंका मन पापके भारसे दबकर संसाररूपी भँवरके गङढेमें चला जाता है ।।४१२।। 'धनका भूखा पिण्याक गंध मरकर छठे नरकके लल्लक नामके तीसरे पाथडे में गया ॥४१३।। इसकी कथा मूल ग्रन्थसे अथवा प्रथमानुयोगसे जानना चाहिए ।। अब गुणव्रतोंका वर्णन करते हैं-महापुरुषोंने दिविरति देशविरति और अनर्थदण्ड-विरतिके भेदसे गृहस्थ व्रतियोंके तीन गुणब्रत बतलाये हैं ॥४१४।। 'अमुक-अमुक दिशामें मै अमुक-अमुक स्थान तक ही जाऊँगा" इस प्रकार जन्म पर्यन्त के लिए जो सब दिशाओंमें और ऊपर तथा नीचे जानेकी मर्यादाकी जाती है उसे दिग्विरतिव्रत कहते है । और दिग्विरतिके भीतर कुछ समयके लिए जो मर्यादा जाती हैं कि मै अमुक दिशामें अमुक देश तक ही जाऊँगा, उसे देशविरति व्रत कहते हैं ॥४१५।। इस प्रकार दिशाओंका और देशका नियम कर लेनेसे उससे बाहरकी वस्तुओं में लोभ, उपभोग और हिंसा आदिके भाव नहीं होते है और उसके न होनेसे चित्त संयत होता है ॥४१६।। जो गृहस्थ प्रयत्न करके इन तीन गुणवतोंका पालन करता हैं वह जहाँ-जहाँ जन्म लेता है वहीं-वहीं उसे ऐश्वर्य और हुकूमत मिलती हैं ॥४१७।। दिशा और देशके किये हुए प्रमाणका उल्लंघन करनेसे अर्थात् उससे बाहर चले जानेसे दिग्वती और देशव्रती प्रायश्चित्तका भागी होता हैं ।।४१८॥ (अब तीसरे अनर्थदण्डविरति व्रतको कहते हैं-) मोर, मुर्गा, बाज, . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन पापाख्यानाशु माध्यानहिंसाक्रीडावृथाक्रिया: परोपतापपैशून्यशोक। क्रन्दन कारिता ।। ४२० बधबन्धन संरोध हेतवोऽन्येऽपि चेदृशाः । भवन्त्यनर्थदण्डाख्याः संपरायप्रवर्धनात् ।। ४२१ पोषणं क्रूर सत्त्वानां हिमोपकरणक्रियाम् । देशव्रती न कुर्वीत स्वकीयाचारचारुधीः ।। ४२२ अनर्थदण्डनिर्मोक्षादवश्यं देशतो यतिः । सुहृत्तां सर्वभूतेषु स्वामित्वं च प्रपद्यते ॥ ४२३ वञ्चनारम्भहिसानामुपदेशात्प्रवर्तनम् । भाराधिक्याधिकक्लेशौ तृतीयगुणहानये ॥। ४२४ इति श्री सोमदेवसूरिविरचित उपासकाध्ययने सच्चरित्र चिन्तामणिनाम सप्तम आश्वासः । अष्टम आश्वास: आदी सामायिकं कर्म प्रोषधोपासनक्रिया । सेव्यार्थनियमो दानं शिक्षा व्रतचतुष्टयम् ।। ४१५ आप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कर्म तत्सामायिकमूचिरे ॥ ४२६ आप्तस्यासन्निधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् । तार्क्ष्यमुद्रा न किं कुर्याद्विषसा मसूदनम ।। ४२७ अन्तःशुद्ध बहिःशुद्धि विदध्याद्देवतार्चने । आद्या दोश्चित्यनिर्मोक्षादन्या स्नानाद्यथाविधिः ॥ ४२८ बिलाव, साँन, नेवला, आदि हिंसक जन्तुओंका पालना, विष, काँटा, शस्त्र, आग, कोडा, जाल, रस्सा आदि हिंसा के साधन दूसरों को देना, पापका उपदेश देना, आर्त और रौद्र ध्यानका करना, हिंसामयी खेल खेलना, व्यर्थ इधर-उधर भटकना, दूसरोंको कष्ट पहुंचाना, चुगली करना, रंज करना, रोना, अन्य भी इस प्रकारके कार्य जो दूसरोंके घातमें बाँधने में और रोक रखने में कारण हैं उन्हें अनर्थदण्ड कहते है; क्योंकि उनसे संसारकी वृद्धि होती हैं - बहुत समय तक संसार में भटकना पडता हैं ।।४१९-४२१ ।। अपने आचारका पालन करनेमें दक्ष देशव्रती श्रावकको हिंसक प्राणियों का पोषण तथा हिंसाके उपकरणोंका दान नहीं करना चाहिए || ४२२|| ऊपर बतलाये हुए अनर्थदण्डोंको छोडनेसे अणुव्रती श्रावक सब प्राणियोंका मित्र और स्वामी बन जाता हैं ॥४२३|| उपदेशसे ठगी, आरम्भ, और हिंसाका प्रवर्तन करना, शक्ति से अधिक बोझा लादना और दूसरों को अधिक कष्ट देना आदि कर्म अनर्थदण्डव्रतको हानि पहुँचाते है, अर्थात् इस प्रकारके कामोंके करनेसे अनर्थदण्डव्रत में दोष लगता हैं अतः ऐसे काम अणुव्रती श्रावकको नहीं करना चाहिए ॥ ४२४ इस प्रकार सोमदेव सूरि विरचित उपासकाध्ययनमें सच्चरित्रचिन्तामणि नामका सातवां आश्वास समाप्त हुआ । अष्टम आश्वास ( अब शिक्षाव्रतों को कहते है - ) सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग - परिमाण और दान ये चार शिक्षाव्रत है || ४२५|| जिनेन्द्र भगवान्‌की पूजा करनेका जो उपदेश है उसे समय कहते है और उसमें उसके इच्छुकजनोंके जो-जो काम बतलाये गये हैं उन्हें सामायिक कहते हैं ।। ४२६ ।। जिनेन्द्र भगवान् के अभाव में उनकी प्रतिमाका पूजन करनेसे भी पुण्यबन्ध होता है । क्या गरुड - मुद्रा विषकी शक्तिको दूर नहीं करती ? ||४२७|| देवपूजन करने के लिए अन्तरङगशुद्धि और बहिरङ्गशुद्ध करनी चाहिए । चित्तसे बुरे विचारोंको दूर करनेसे अन्तरङगशुद्धि होती १७१ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रावकाचार-संग्रह संभोगाय विशुद्धयर्थ स्नानं धर्माय च स्मृतम् । धर्माय तद्भवेत् स्नानं यत्रामुत्रोचितो विधिः।।४२९ नित्यस्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे । यतेस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्य द्विहितम् ॥ ४३. वातातपादिसंसृष्टे भूरितोये जलाशये । अवगाह्याचरेत्स्नानमतोऽन्यद्गालितं भजेत् ॥ ४३१ पादजानकटिग्रीवाशिरःपर्यन्तसंश्रयम् । स्नानं पञ्चविधं ज्ञेयं यथादोषं शरीरिणाम् । ४३२ ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारम्भकर्मणः । यद्वा तद्वा भवेत्स्नानमन्त्यमन्यस्य तद्वयम् ।। ४३३ सारम्भवितम्भस्य ब्रह्मजिह्यस्य देहिनः । अविधाय बहिःशुद्धि नाप्तोपास्त्यधिकारिता ।। ४३४ अद्भिः शुद्धि निराकुर्वन्मन्त्रमात्रपरायणः । स मन्त्रैः शुद्धिमाङ् नूनं भवत्वा हत्त्वा विहृत्य च ।।४३५ मृत्स्नयेष्टकया वापि भस्मना गोमयेन च । शौचं तावत्प्रकुर्वीत यावनिर्मलता भवेत् ।। ४३६ बहिविहृत्य संप्राप्तो नानाचम्य गृहं विशेत् । स्थानान्तरात्समायातं सर्व प्रोक्षितमाचरेत् ॥४३७ आप्लुतः सप्लुतस्वान्तः शुचिवासोविभूषितः । मौनसंयमसम्पन्नः कुर्याद्देवाचंना विधिम् ।। ४३८ दन्तधावनशुद्धास्यो मुखवासोचितानन: । असंजातान्य पंसर्गः सुधीर्देवानपाचरेत् ।। ४३९ होमभूतबली पूर्वैरुक्ती भक्तविशुद्धये । भुक्त्यादौ सलिलं सपिरूधस्यं च रसायनम् ।। ४४० एतद्विधिन धाय नाधाय तदक्रिया: । दुर्भपुष्पाक्षतश्रोत्रवन्दनादिविधानवत् ।। ४४१ हैं और विधिपूर्वक स्नान करनेसे बहिरङगशुद्धि होती है ॥४२८॥ संभोगके लिए, विशुद्धिके लिए और धर्मके लिए स्नान करना बतलाया हैं। जिसमें परलोकके योग्य विधि की जाती है वह स्नान धर्मके लिए होता हैं ॥४२९॥ देवपूजा करनेके लिए गृहस्थको सदाको स्नान करना चाहिए । और मुनिको दुर्जनसे छू जानेपर ही करना चाहिए । अन्य स्नान मुनिके लिए वजित हैं ।।४३०॥ जिस जलाशयमें खूब पानी हो और वायु,धूप आदि जिसे खूब लगती हो उसमें घस करके स्नान करना उचित है, किन्तु अन्य जलाशयोंका पानी छानकर ही स्नानके काममें लाना चाहिए ।।४३१।। स्नान पाँच प्रकारका होता हैं -पैर तक, कमर तक, घुटनोतक गर्दन तक और सिर तक । इनमेंसे मनुष्योंको दोषके अनुसार स्नान करना चाहिए ।।४३२।। जो ब्रह्मचारी है और सब प्रकारके आरम्भोंसे विरत है वह इनमें से कोई-सा भी स्नान कर सकता है किन्तु अन्य गृहस्थोंको तो सिर या गर्दनसे ही स्नान करना चाहिए ।।४३३।। जो सब प्रकारके आरम्भोंमें लगा रहता है और ब्रह्मचारी भी नहीं है, उसे बाह्य शुद्धि किये बिना देवोपासना करने का अधिकार नहीं हैं।। ४३४।। जो जलसे शुद्धिका निराकरण करता हुआ केवल मन्त्रपाठमें ही तत्पर रहता हैं, उसे भोजन करके, टट्टी जाकर और विहार करके निश्चय ही मन्त्रोंके द्वारा शुद्ध हो जाना चाहिये । ४:५।। अत: मिट्टीसे ईंटसे अथवा राखसे या गोबरसे तबतक सफाई करनी चाहिए जबतक निर्मलता न आ जाये ॥४३६।। जब बाहरसे घूमकर आये तो बिना कुल्ल। किये घरमें नहीं जाना चाहिए । दूसरी जगहसे आयी हुई सब वस्तुओंको पानी छिडककर ही काममें लाना चाहिए 1.४३७॥ स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहने और चित्तको वशमें करके मौन तथा संयमपूर्वक जिनेन्द्र देवकी पूजा करे ।।४३८ दातौनसे मुख शुद्ध करे और मुखपर वस्त्र लगाकर दूसरोंसे किसी तरहका सम्पर्क न रखकर जिनेन्द्र देवकी पूजा करे ।।४३९।। पूर्व पुरुषोंने भोजनकी शुद्धि के लिए भोजन करनेसे पहले होम और भतबलिका विधान किया है । भोजन करनेसे पहले होम पूर्वक अर्थात् प्राणियोके उद्देश्यसे कुछ अन्न अलग निकालकर रख देना चाहिए। तथा भोजनके पहले पानी, घी और दूधके सेवनको रसायन कहा है । कुश, पुष्प, अक्षत, स्तवन, वन्दना आदिके विधानकी तरह उक्त विधि करनेसे . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूगत-उपासकाध्ययन १७३ द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ ४४२ जातयोऽनादयः सर्वास्तत्क्रियापि तथाविधाः श्रुति शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः || ४४३ स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तत्क्रियाविनियोगाय जैनागमविधिः परम् ।। ४४४ भ्रान्तिनिर्मुक्ति हेतुधीस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहारे तु स्वतः सिद्धे वृथागमः । ४४५ सर्व एव हि जनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ।। ४४६ द्वये देवसेवाधिकृताः संकल्पिताप्त पूज्यपरिग्रहाः कृतप्रतिमापरिग्रहाश्च । संकल्पोऽपि दलफलोपलादिष्विव न समयान्तरप्रतिमासु विधेयः । यतः शुद्धे वस्तुनि संकल्पः कन्याजन इवोचितः । नाकारान्तरसंक्रान्ते यथा परपरिग्रहे ।। ४४७ तत्र प्रथमान् प्रति समयसमाचार विधिमभिधास्यामः । तथा हिअर्हतनुर्मध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात् । श्रुतगीः साधुस्तदनु च पुरोऽपि दृगवगमवृत्तानि ।। ४४८ भूर्जे फलके सिचये शिलातले सैकते क्षितो व्योम्नि । हृदये चेते स्याप्या: समयसमाचारवेदिभिनित्यम् ॥ ४४९ रत्नत्रय पुरस्काराः पञ्चापि परमेष्ठिनः । भव्यरत्नाकरानन्दं कुर्वन्तु भुवनेन्दवः ॥ ४५० न कोई धर्म होता है और न करने से न कोई अधर्म होता हैं । अर्थात् - ऊपर भोजनकी शुद्धिके लिए जो क्रिया बतलायी है उसके करनेसे धर्म नहीं होता और न करनेसे अधर्म नहीं होता हैं ।।४४०४४१ ।। गृहस्थों का धर्म दो प्रकारका होता हैं - एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । इनमें से लौकिक धर्म लोककी रीतिके अनुसार होता हैं और पारलौकिक धर्म आगमके अनुसार होता है ||४४२ || सब जातियाँ अनादि हैं और उनकी क्रिया भी अनादि हैं। उसमें वेद अथवा अन्य शास्त्र प्रमाण रहो, उससे हमारी कोई हानि नहीं है ||४४३ ।। रत्नकी तरह जो वर्ण अपने जन्म ही विशुद्ध होते हैं उन्हें उनकी क्रियाओं में लगानेके लिए जैन आगमोंका विधान ही उत्कृष्ट हैं ।।४४४।। क्योंकि संसार - भ्रमणसे छूटने के कारणोंमें मनको लगानेवाले ज्ञानका पाना लोकमें अतिदुर्लभ हैं । रहा लौकिक व्यवहार, वह तो स्वयं सिद्ध हैं उसको बतलाने के लिए किसी आगमकी आवश्यकता नहीं है ||४४५ ॥ | तथा सभी जैनधर्मानुयायियोंको वह लौकिक व्यवहार मान्य हैं जिससे उनके सम्यक्त्वमें हानि न आती हो और न उनके व्रतोंम दूषण लगता हो ॥ ४४६ ॥ देवपूजा के दो रूप हैं - एक तो पुष्प आदिमें जिन भगवानकी स्थापना करके पूजा की जाती हैं और दूसरे, जिन-विम्बों में जिन भगवान्की स्थापना करके पूजा की जाती हैं। जिस प्रकार पुष्प फल या पाषाण में स्थापना की जाती हैं उस तरह अन्य देव हरिहरादिककी प्रतिमा में जिन भागवानुकी स्थापना नहीं करना चाहिए; क्योंकि जैसे शुद्ध कन्यामें ही पत्नीका संकल्प किया जाता है - दूसरेसे विवाहिता में नहीं, वैसे ही शुद्ध वस्तुमें ही जिनदेवकी स्थापना करना उचित है, जो अन्यरूप हो चुकी हैं उसमें स्थापना करना उचित नहीं है ||४४७ || ऊपर जो दो प्रकारके पूजन कहे हं उनमें से पुष्पादिकमें जिन भगवान्‌ की स्थापना करके पूजा करनेवालोंके लिए पूजाविधि बतलाते ह - पूजाविधिके ज्ञाताओंको सदा अर्हन्त और सिद्धको मध्यमे, आचार्यको दक्षिणमें, उपाध्यायको पश्चिम में, साधुको उत्तर में और पूर्व में सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको क्रमसे भोजपत्रपर, लकडी के पटियेपर, वस्त्रपर, शिलातलपर, रेत निर्मित भूमिपर, पृथ्वीपर, आकाश में और हृदयमें स्थापित करना चाहिए ।।४४८-४४९ ।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रावकाचार-संग्रह नरोरगसुराम्भोजविरोचनरुचिश्रियम् । आरोग्याय जिनाधीशं करोम्यर्चनगोचरम् ।। ४५१ प्रत्नकर्षविनिर्मुक्तान्नुत्नकर्मविवजितान् । यत्नतः संम्तुवे सिद्धान् रत्नत्रयमहीयसः ।। ४५२ विचार्य सर्वमैतिहमाचार्यत्वमपेयुष : आचार्यपर्यानामि संचार्य हृदयाम्बुजे ॥ ४५३ अपास्तकान्तवावीन्द्रानपारागमपारगान् । उपाध्यायानुपासेऽहमपायाय श्रुताप्तये ॥ ४५४ बोधापगाप्रवाहेन विध्यातानङ्गवन्हयः । विध्याराध्याघ्रयः सन्तु साध्यबोध्याय साधवः ।।४५५ मुक्तिलक्ष्मीलतामूलं युक्तिधीवल्लरीवनम् । भक्तितोऽर्हामि सम्यक्त्वं भुक्तिचिन्तामणिप्रदम्।।४५६ नेत्र हिताहितालोके सूत्र धीसौधसाधने । पात्रं पूजाविधेः कुर्वे क्षेत्र लक्ष्म्याः समागमे ।। ४५७ धर्म योगिनरेन्द्रस्य कर्मवैरिजयाजने । शर्मकृत्सर्वसत्त्वानां धर्मधीवृत्तमाये ॥ ४५८ जिनसिद्धसूरिवेशकसाधुश्रद्धानबोधवृत्तानाम् । कृत्वाटतयोमिष्टि विदधामि ततःस्तवं युक्त्या।।४५९ तत्त्वेषु प्रणयः परोऽस्य मनसः श्रद्धानमुक्तं जिन रेतद्वित्रिदशप्रमेदविषयं व्यक्तं चतुभिर्गुणैः । अष्टाङ्ग भुवनत्रयाचितमिदं मूढरपोढं त्रिमि श्चित्ते देव बधामि संसृतिलतोल्लासावसानोत्सवम् ॥ ४६० रत्नत्रयसे भूषित और जगत्के लिए चन्द्रमाके तुल्य पाँचों परमेष्ठी भव्य जीवरूपी समुद्रको आनन्दित करें।।४५०॥ तथा मै आरोग्य-प्राप्तिके लिए मनुष्य,नाग और देवरूपी कमलोंके लिए सूर्यकी शोभाको धारण करनेवाले जिनेन्द्र देवकी पूजा करता हूँ ॥४५१॥ पुराने कर्मोके बन्धनसे मुक्त हुए और नवीन कर्मोके आस्रवसे रहित तथा रत्नत्रयसे महान् उन सिद्धोंका मै यत्नपूर्वक स्तवन करता हूँ।।४५२।। समस्त शास्त्रोंका विचार करके आचार्य पदको प्राप्त हुए श्रेष्ठ आचार्योको अपने हृदय-कमलमें विराजमान करके पूजा करता हूँ ॥४५३।। प्रमुख एकान्तबादियोंको हरानेवाले और अपार श्रुत-समुद्र के पारगामी उपाध्याय परमेष्ठीकी मै पुण्य औरश्रुतकी प्राप्तिके लिए उपासना करता है॥४५४|| ज्ञानरूपी नदीके प्रवाहसे जिन्होंने कामरूपी अग्निको बुझा दिया है और जिनके चरण विधिपूर्वक पूजनीय हैं,वे साधु आत्माकी साधनाके लिए होवे ॥४५५।। जो मुक्ति लक्ष्मीरूपी लताका मूल है,युक्ति लक्ष्मीरूपी वेलके लिए जलके तुल्य है और जिससे भोग सामग्री प्राप्त होती है उस चिन्तामणिको देनेवाले सम्यग्दर्शनकी मै भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ ॥४५६।। जो हित और अहितको देखनेमें नेत्रके समान है, बुद्धिरूपी महलको साधने में सूत्रके (जिससे नापकर मकान बनाया जाता हैं) समान हैं तथा लक्ष्मीके समागमके लिए क्षेत्रके समान हैं, उस सम्यग्ज्ञानको मै पूजाविधिका पात्र बनाता हूँ अर्थात् उसकी मै पूजा करता हूँ ॥४५७।। जो योगीरूपी राजाके कर्मरूपी वैरियोंको जीतनेमें धनुषके समान है तथा सब प्राणियोंको सुख देने वाला हैं,मैं धर्म बुद्धिसे उस चारित्र' की शरण जाता हूँ॥४५८।। इस प्रकार अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी अष्टद्रव्यसे पूजन करके मै इनकायुक्तिपूर्वकस्तवनकरताहूँ।।४५९।। (सबसे प्रथम सम्यग्दर्शनकी भक्ति इस प्रकार करे-) जिनेन्द्र देवने तत्त्वोंमें मनकी अत्यन्त रुचिको सम्यग्दर्शन कहा हैं । इस सम्यग्दर्शनके दो, तीन और दस भेद बतलाये हैं। तथा प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणके द्वारा सम्यक्त्वकी पहचान होती है। उसके निःशंकित, निःकांक्षित आदि आठ गुण है । जो भुवनत्रयसे पूजित हैं, तीन प्रकारकी मूढतासे रहित हैं । हे देव! संसार रूपी लताका अन्त करनेवाले और तीनों लोकोंमें पूज्य उस सम्यग्दर्शनको मै अपने हृदयमें धारण Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १७५ ते कुर्वन्तु तपांसि दुर्धरधियो ज्ञानानि सञ्चिन्वतां वित्तं वा वितरन्तु देव तदपि प्रायो न जन्मच्छिदः । एषा येषु न विद्यते तव वचः श्रद्धावधानोदुरा । दुष्कर्माङ्करकुञ्जवनदहनद्योतावदाता रुचिः ।। ४६१ संसाराम्बुधिसेतुबन्धमसमप्रारम्भलक्ष्मीवन-- प्रोल्लासामतवारिवाहमखिलत्रैलोक्यचिन्तामणिम् । कल्याणाम्बुजषण्डसंभवसरः सम्यक्त्वरत्नं कृती यो धत्ते हृदि तस्य नाथ सुलभा: स्वर्गापवर्गश्रियः ।। ४६२ - (इति दर्शनभक्तिः ) अत्यल्पायतिरक्षजा मतिरियं बोधोऽवधिः सावधिः साश्चर्यः क्वचिदेव योगिनि स च स्वल्पो मनःपर्ययः । दुष्प्रापं पुनरद्य केवलमिदं ज्योतिः कथागोचरं माहात्म्यं निखिलार्थगे तु सुलभे कि वर्णयामः श्रुतेः ॥ ४६३ यद्देवैः शिरसा धृतं गणधरैः कर्णावतंसीकृतं न्यस्तं चेतसि योगिभिनॅपवरैराघ्रातसारं पुनः । हस्ते दृष्टिपथे मुख च निहितं विद्याधराधीश्वरै स्तत्स्याद्वावसरोरुहं मम मनोहंसस्य भूयान्मुदे ॥ ४६४ मिण्यातमःपटलभेदनकारणाय स्वर्गापवर्गपुरमार्गनिबोधनाय: तत्तत्त्वभावनमना: प्रणमामि नित्यं त्रैलोक्यमङ्गलकराय जिनागमाय ।। ४६५ ( इति ज्ञानभक्तिः । करता हूँ ॥४६०।। हे देव! जिनकी आपके वचनोंम एकनिष्ठ श्रद्धापूर्ण निर्मल रुचि नहीं है, जो रुचि दुष्कर्म रूपी अंकुरोंके समहको भस्म करने के लिए वज्राग्निके प्रकाशकी तरह निर्मल हैं, वे दुर्बुद्धि कितनी ही तपस्या करें,कितना ही ज्ञानार्जन करें और कितना ही दान दें, फिर भी जन्मपरम्परा का छेदन नहीं कर सकते ।।४६।। हे नाथ! संसार रूपी समुद्र के लिए सेतुबन्धके समान, क्रमसे उत्पन्न होने वाले रत्नत्रय रूपी वनके विकासके लिए अमतके मेघके समान तीनों लोकोंके लिए चिन्तामणि रत्नके समान और कल्याणरूपी कमल समूहकी उत्पत्तिके लिए तालाबके तुल्य, सम्यक्त्वरूपी रत्नको जो पुण्यात्मा हृदयमें धारण करता हैं उसे स्वर्ग और मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति सुलभ है ।।४६२।। इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानका विषय बहुत थोडा है। अवधिज्ञान भी द्रव्य क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाको लेकर केवल रूपी पदार्थोको ही विषय करता हैं। मनःपर्यय का भी विषय बहुत थोडा हैं और वह भी किसी मुनिके हो जाये तो आश्चर्य ही है। केवलज्ञान महान् हैं किन्तु उसकी प्राप्ति इस कालमें सुलभ नहीं हैं । एक श्रुतज्ञान ही ऐसा हैं जो समस्त पदार्थोको विषय करता हैं और सुलभ भी हैं, उसकी हम क्या प्रशंसा करें ।।४६३॥ जिसे देवोंने सिरपर धारण किया,गणधरोंने अपने कानका भूषण बनाया,मुनियोंने अपने हृदयमें रखा, राजाओंने जिसका सार ग्रहण किया और विद्याधरोंके स्वामियोंने अपने हाथमें,आँखोंके सामने और मुखमें स्थापित किया वह स्याद्वादश्रुत रूपी कमल मेरे मानसरूपी हंसकी प्रसन्नताके लिए हो ।.४६४।। ... आगममें कहे हुए तत्त्वोंकी मनमें भावना करता हुआ मैं मिथ्यात्व रूपी अन्धकारके पटलको दूर Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रावकाचार-संग्रह ज्ञानं दुर्भगदेहमण्डनमिव स्यात्स्वस्य खेदावहं धत्ते साधन तत्फलश्रियमयं सम्यक्त्वरत्नाकरः। कामं देव यदन्तरेण विफलास्तास्तास्तपोभूमयस्तस्मै त्वच्चरितायसंयमदमध्यानादिधाम्मेनमः।।४६६ यच्चिन्तामणिरीप्सितेषु वसतिः सौरूप्यसोभाग्ययो: श्रीपाणिग्रहकौतुकं फुलबलारोग्यागमे संगमः । यत्पूर्वेश्चरितंसमाधिनिधिमिर्मोक्षाय पश्चात्मकंतञ्चारित्रमहंनम मिविविधं स्वर्गापवर्गाप्तये।।४६७ हस्ते स्वर्गसुखान्यतकितभवास्ताश्चक्रवतिश्रियो देवाः पादतले लुठन्ति फलति द्यौः कामितं सर्वतः । कल्याणोत्सवसम्पदः पुनरिमास्तस्यावतारालये प्रागेवावतरन्ति यस्य चरितैजैनः पवित्रं मनः।।४६८ ( इति चारित्रभक्ति: ) बोधोऽवधिः श्रुतमशेषनिरूपितार्थमन्तबहिःकरणजा सहजा मतिस्ते । इत्थं स्वतः सकलवस्तुविवेकबुद्धेः का स्याज्जिनेन्द्र भवतः परतो व्यपेक्षा । ४६९ ध्यानावलोकतिमिरप्रताने तां देव केवलमयी श्रियमादधाने। आसीत्त्वयि त्रिभुवनं मुहुरुत्सवाय व्यापारमन्थरमिवैकपुरं महाय ।। ४७० छत्रं दधामि किमु चामरमुत्क्षिपामि हेमाम्बुजान्यथ जिनस्य पदेऽर्पयामि । इत्थं मुदामरपतिः स्वयमेव यत्र सेवापरः परमहं किम् वच्मि तत्र ।। ४७१ त्वं सर्वदोषरहित: सुनयं वचस्ते सत्त्वानुकम्पनपरः सकलो विधिश्च । लोकस्तथापि यदि तुष्यति न त्वयीश कर्मास्य तन्ननु रवाविव कोशिस्य ॥ ४७२ करनेवाले, स्वर्ग और मोक्ष नगरका मार्ग बतलानेवाले तथा तीनों लोकोंके लिए मंगलकारक जैन आगमको सदा नमस्कार करता हूँ ।।४६५।। (इस प्रकार ज्ञानकी भक्ति करके फिर चारित्रकी भक्ति करे-)जिसके बिना अभागे मनुष्यके शरीरमें पहनाये गये भूषणोंकी तरह ज्ञान खेदका ही कारण होता हैं,तथा सम्यक्त्व रत्नरूपी वृक्ष ज्ञानरूपी फलकी शोभाको ठोक रोतिसे धारण नहीं करता और जिसके न होनेसे बडे-बडे तपस्वी भ्रष्ट हो गये, हे देव! संयम,इन्द्रियनिग्रह और ध्यान आदिके आवास उस तुम्हारे चारित्रको मै नमस्कार करता हूँ।।४६६।। जो इच्छित वस्तुओंको देने के लिए चिन्तामणि है,सौन्दर्य और सौभाग्यका घर हैं, मोक्ष रूपी लक्ष्मीके पाणिग्रहणके लिए कंकणबन्धन हैं और कुल, बल और आरोग्यका संगम स्थान है अर्थात् तीनोंके होनेपर ही चारित्र धारण करना संभव होता है, और पूर्वकालीन योगियोंने मोक्षके लिए जिसे धारण किया था, स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्तिके लिए उस पाँच प्रकारके चारित्रको मै नमस्कार करता हूँ।४६७।। जिसका मन जैनाचारसे पवित्र है, स्वर्गके सुख उनके हाथ में है, चक्रवर्तीकी विभूतियाँ अकस्मात् उसे प्राप्त हो जाती है, देवता उसके पैरोंपर लोटते हैं, जिस दिशामें वह जाता हैं वही दिशा उसके मनोरथको पूर्ण करती हैं और जहाँ वह जन्म लेता हैं उसके जन्म लेनेसे पहिलेसे ही वहाँ कल्याणक उत्सव मनाये जाते हैं ॥४६८।। (इस प्रकार चारित्र भक्ति को करके फिर अर्हन्त भक्तिको करे ) हेजिनेन्द्र आपको जन्मसे ही अन्तरंग और बहिरंग इन्द्रियोंसे होनेवाला मतिज्ञान, समस्त कथित वस्तुओंको विषय करनेवाला श्रुनज्ञान और अवधिज्ञान होता हैं,इस प्रकार आपको स्वतः ही सकल वस्तुओंका ज्ञान है तब परकी सहायताकी आपको आवश्यकता ही क्या है? ।।४६ ॥ हे देव! ध्यानरूपी प्रकाशके द्वारा अज्ञानरूपी अन्धकारका फैलाव दूर होनेपर जब आपने केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीको धारण किया तो तीनों लोकोंने अपना काम छोडकर एक नगरकी तरह महान् उत्सव किया ।।४७०॥ 'छत्र लगाऊँ या चमर ढोरूँ, अथवा जिनदेवके चरणोंमें स्वर्णकमल अर्पित करूँ' इस प्रकार जहाँ इन्द्र स्वयं ही हर्षित होकर सेवाके लिए तत्पर है वहाँ मैं क्या कहूँ ।।४७१।। हे देव! तुम सब दोषों - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १७७ पुष्पं त्वदीयचरणार्चनपीठसङगाच्चूडामणीभवति देव जगत्त्रयस्य । अस्पृश्यमन्यशिरसि स्थितमप्यतस्ते को नाम साम्यमनुशास्तु रवीश्वराद्यैः ।। ४७३ मिश्यामहान्धतमसावृतमप्रबोधमेतत्पुरा जगदभूद्भवगर्तपाति । तद्देव दृष्टिहृदयाब्जविकासकान्तः स्याद्वादरश्मिभिरथोद्धृतदांस्त्वमेव ॥४.४ पादाम्बुजद्वयमिदं तव देव यस्य स्वच्छे मनःसरसि संनिहितं समास्ते । तं श्री: स्वयं भजति तं नियतं वृणीते स्वर्गापवर्गजननी च सरस्वतीयम् ।। ४७५ ( इत्यर्हद्भक्तिः ) सम्यग्ज्ञानत्रयेणप्रविदितनिखिलज्ञेयतत्त्वप्रपञ्चा:प्रोदय ध्यानवातैः सकलमघरजःप्राप्तकैवल्यरूपाः। कृत्वा सत्त्वोपकारंत्रिभुवनपतिभिर्दत्तयात्रोत्सवा ये ते सिद्धाः सन्तु लोकत्रयशिखरपुरीवासिनः सिद्धये __ वः ॥ ४७६ दानज्ञानचरित्रसंयमनययप्रारम्भगर्भ मनः कृत्वान्तर्बहिरिन्द्रियाणि मरुतः संयम्य पञ्चापि च । पश्चाद्वीतविकल्पजालमखिलं भ्रश्यत्तमःसंतति ध्यानं तत्प्रविधाय ये च मुमुचुस्तेभ्योऽपि बद्धोऽञ्जलिः ॥४७७ से रहित हो, तुम्हारे वचन सुनयरूप हैं-किसी वस्तुके विषयमें इतर दृष्टिकोणोंका निराकरण न करके विवक्षित दृष्टिकोणसे वस्तुका प्रतिपादन करते हैं तथा तुम्हारे द्वारा बतलायी गयी सब विधि प्राणियोंके प्रति दयाभावसे पूर्ण है। फिर भी लोक यदि तुमसे सन्तुष्ट नहीं होते तो इसका कारण उनका कर्म हैं। जैसे उल्लू को सूर्यका तेज पसन्द नहीं है किन्तु इसमें सूर्यका दोष नहीं हैं बल्कि उल्लूके ही कर्मोका दोष हैं ।।४७२।। हे देव! तुम्हारे चरणोंकी पूजाके पादपीठ संसर्ग-मात्रसे फूल तीनों लोकोंके मस्तकका भूषण बन जाता हैं अर्थात् उस फूलको सब अपने सिरसे लगाते है। और दूसरोंके सिरपर भी रखा हुआ फूल अस्पृश्य माना जाता है । अतः अन्य सूर्य रुद्रआदि देवताओंसे तुम्हारी क्या समानता की जावे ॥४७३।। हे देव! पहले मिथ्यात्वरूपी गाढ अन्धकारसे आच्छादित होने के कारण ज्ञानशून्य होकर यह जगत् संसाररूपी गढे में पड़ा हुआ था । उसका नेत्र-कमल और हृदय-कमलको विकसित करनेवाली स्याद्वादरूपी किरणोंके द्वारा तुमने ही उद्धार. किया है ॥४७४॥ हे देव! जिसके मनरूपी स्वच्छ सरोवर में तुम्हारे दोनों चरणकमल विराजमान हैं उसके पास लक्ष्मी स्वयं आती है तथा स्वर्ग और मोक्षको यह सरस्वती नियमसे उसे वरण करती है ।।४७५।। (इस प्रकार अर्हद्भक्तिको करके सिद्ध भक्ति को करे) जिन्होंने अपनी छमस्थ अवस्थामें मति, श्रुत और अवधिज्ञानके द्वारा सब ज्ञेय तत्त्वोंको विस्तारसे जाना, फिर ध्यानरूपी वायुके द्वारा समस्त पापरूपी धूलिको उडाकर केवलज्ञान प्राप्त किया; फिरइन्द्रादिकके द्वारा किये गये बडे उत्सवके साथ सर्वत्र विहार करके जीवोंका उपकार किया, तीनों लोकोंके ऊपर विराजमान वे सिद्ध परमेष्ठी हम सबकी सिद्धिमें सहायक हों ॥४७॥ मनको दान, ज्ञान, चारित्र,संयम आदिसे युक्त करके और अन्तरंग तथा बहिरंग इन्द्रियों और प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पाँचों वायुओंका निरोध करके फिर अज्ञानरूपी अन्धकारकी परम्पराको नष्ट करनेवाले निर्विकल्प ध्यानको करके जो मुक्त हुए उन्हें भी मैं हाथ जोडता हूँ॥४७७।। भावार्थपहले जो तीर्थङ्कर होकर सिद्ध हुए नमस्कार किया है। इसमें जो सामान्य जन सिद्ध हुए Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह इत्थं येऽत्र समुद्रकन्दरसरः स्रोतस्विनीभून मो- द्वीपाद्रिद्रुमकाननादिषु धृतध्यानावधानर्द्धयः । कालेषु त्रिषु मुक्तिसंगमजुषः स्तुत्यास्त्रिभिर्विष्टपैस्ते रत्नत्रयमङ्गलानि ददतां भव्येषु रत्नाकराः १७८ ।। ४७८ ( इति सिद्धभक्तिः ) भीमव्यन्तरमर्त्य भास्करसुरश्रेणीविमानाश्रिताः स्वर्ज्योतिः कुलपर्वतान्तरधरारन्धप्रबन्धस्थितीः । वन्दे तत्पुरपालमौलिविलसद्रत्नप्रदीपार्चिताः साम्राज्याय जिनेन्द्र सिद्धगणभृत्स्वाध्यायिसाध्वाकृती : समवसरणवासान् मुक्तिलक्ष्मीविलासान् सकलसमयनाथान् वाक्यविद्यासनाथान् । भवनिगल विनाशोद्योगयोगप्रकाशान् निरुपमगुणभावान् संस्तुवेऽहं क्रियावान् ।। ४८० ।। ४७९ ( इति चैत्यभक्तिः ) ( इति पञ्चगुरुभक्तिः ) भवदु खानलशान्तिर्धर्मामृतवर्षजनितजनशान्तिः । शिवशर्मा शान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः ।। ४८१ ( इति शान्तिभक्तिः ) मनोमात्रोचितायापि यः पुण्याय न चेष्टते । हताशस्य कथं तस्य कृतार्थाः स्युर्मनोरथाः ॥ ४८२ येषां तृष्णातिमिरभिदुरस्तत्त्वलोकावलोकात् पारेडवारे प्रशमजलधेः संगवार्धः परेऽस्मिन् । बाह्यव्याप्तिप्रसरविधुरश्चित्तवृत्तिप्रचारस्तेषामचविधिषु भवताद्वारिपूर: श्रिये वः ।। ४८३ उन्हें नमस्कार किया हैं । इस प्रकार समुद्र, गुफा, तालाब, नदी, पृथ्वी, आकाश, द्वीप, पर्वत, वृक्ष और वन आदिमें ध्यान लगाकर जो अतीत कालमें मुक्त हो चुके, वर्तमानमें मुक्त हो रहे है और भविष्य में मुक्त होंगे, तीनों लोकोंके द्वारा स्तुति करनेके योग्य वे भव्य शिरोमणि सिद्ध भगवन्त हमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी मङगलको देवें ॥ ४७८ ।। ( इस प्रकार सिद्धभक्ति समाप्त हुई । ) ( फिर चैत्य भक्ति करे - ) भवनवासी और व्यन्तरोंके निवासस्थानोंमें, मर्त्यलोक में, सूर्य और देवताओंके श्रेणी विमानों में, स्वर्गलोक में, ज्योतिषी देवोंके विमानोंमें, कुलाचलोंपर, पाताल लोक तथा गुफाओंमें जो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठीकी प्रतिमाएँ है, जिन्हें उन स्थानोंके रक्षक अपने मुकुटोंमें जडे हुए रत्नरूपी दीपकों से पूजते है, मैं साम्राज्य के लिए उन्हें नमस्कार करता हूँ ||४७९ | | ( इस प्रकार चैत्य भक्ति समाप्त हुई । ) ( फिर पञ्च गुरुओं की भक्ति करे - ) समवशरण में विराजमान अर्हन्तोंको, मुक्तिरूपी लक्ष्मीसे आलिंगित सिद्धोंको, समस्त शास्त्रोंके पारगामी आचार्योको, शब्दशास्त्रमें निपुण उपाध्यायों को और संसार रूपी बन्धनका विनाश करनेके लिए सदा उद्योगशील, योगका प्रकाश करनेवाले और अनुपम गुणवाले साधुओंको क्रिया कर्म में उद्यत मै नमस्कार करता हूँ ||४८० । ( इस प्रकार पञ्चगुरुकी भक्ति कर के फिर शान्ति भक्ति करे - ) संसार के दुःखरूपी अग्निको शान्त करने वाले, और धर्मामृतकी वर्षा करके जनतामें शान्ति करनेवाले तथा मोक्षसुखके विघ्नोंको शान्त - नष्ट कर देनेवाले शान्तिनाथ भगवान् शान्ति करें ।। ४८१ ।। जो केवल मानसिक संकल्पसे होने योग्य पुण्यबन्धके लिए भी प्रयत्न नहीं करता, उस हताश मनुष्य के मनोरथ कैसे पूर्ण हो सकते हैं? ॥४८२|| (फिर आचार्य . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन दूरारूढे प्रणिधितरणावन्तरात्माम्बरेऽस्मिन्नास्ते येषां हृदयकमलं मोदनिस्पन्दवृत्तिः । तत्त्वालोकावगमगलितध्वान्तबन्धस्थितीनामिष्टि तेषामहमुपनये पादयोश्चन्दनेन ।। ४८४ येषामन्तस्तदमृतरसास्वादमन्दप्रचारे क्षेत्राधीशे विगतनिखिलारम्भमोगभावः। ग्रामोऽक्षाणामुदुषित इवाभाति योगीश्वराणां कुर्मस्तेषां कलमसदकैः पूजनं निर्ममाणाम् ॥४८५।। देहारामेऽप्युपरतधियः सर्वसंकल्पशान्तेर्येषामूमिस्मयविरहिता ब्रह्मधामामृताप्तेः । आत्मात्मीयानुगविगमाद् वृत्तयः शद्धबोधास्तेषां पुष्पैश्चरणकमलान्यर्चयेयं शिवाय ।। ४८६ येषामङगे मलयजरस: संगमः कर्दमैर्वा स्त्रीबिब्बोकै: पितवनचिताभस्मभिर्वा समानः । मित्रे शत्रावपि च विषये निस्तरङ्गोऽनुषङ्गस्तेषां पूजाव्यतिकरणविधावस्तु भूत्यै हविर्वः ॥४८७ योगाभोगाचरणचतुरे दीर्णकन्दपंद स्वान्ते ध्वान्तोद्धरणसविधे ज्योतिरुन्मेषभाजि । संमोदेतामृतभत इव क्षेत्रनाथोऽन्तरुच्चर्येषां तेषु क्रमपरिचयात्स्याच्छिये व: प्रदीपः ॥ ४८८ येषां ध्येयाशयकुवलयानन्दचन्द्रोदयानां बोधाम्भोधिः प्रमवसलिलैर्माति नात्मावकाशे । लब्ध्वाप्येतामखिल भुवनेश्वर्यलक्ष्मी निरीहं चेतस्तेषामयमपचिती श्रेयसे वोऽस्तु धूपः ॥४८५।। भक्ति करे-) तत्त्वोंके यथार्थ प्रकाशसे तृष्णारूपी अन्धकारको दूरकर देनेवाला जिनकी चित्त. वृतिका प्रचार बाह्य बातोंमें नहीं होता और परिग्रहरूपी समुद्र के उस पार रहता है,तथा शान्तिरूपी समुद्रके इस पार या उस पार रहता हैं । अर्थात् जिनकी चित्तवृत्ति परिग्रहकी भावनासे मुक्त हो चुकी हैं और शान्तिरूपी समुद्र में सदा वास करती हैं, उन आचार्योकी पूजा विधि में अर्पित की गयी जलकी धारा तुम्हारा (हमारा) कल्याण करे ।।४८३।। आत्मारूपी आकाशमें ध्यानरूपी सूर्यके अपनी उन्नत अवःथाको पहुँचनेपर जिनका हृदयकमल हर्षसे निश्चल हो जाता हैं और तत्त्वोंके दर्शन तथा ज्ञानसे ज्ञानावरणादिक कर्मबन्धकी स्थिति गलने लगती है, उनके चरणोंमैं चन्दन अर्पित करके मैं उनकी पूजा करता हूँ ॥४८४'। अध्यात्मरूपी अमृत रसके पान करनेसे बाह्य बातोंमें आत्माकी गतिके मन्द पड जानेपर जिन योगीश्वरोंकी इन्द्रियोंका समूह समस्त आरम्भादिकको छोडकर अन्यत्रगत प्रतीत होता है, उन मोहरहित आचार्योकी हम अक्षतसे पूजा करते है ॥४८५॥ समस्त संकल्पोंके शान्त हो जानेके कारण जो शरीर रूप परिग्रहमें भी ममत्व भाव नहीं रखते, ब्रह्मधामरूपी अमृतकी प्राप्ति हो जानेके कारण जो भूख-प्यासकी पीडाको सहते हुए भी उसका गर्व नहीं करते, आत्मामें भी अपनेपनकी भावनाके न होनेसे जिनकी वृत्तियाँ शुद्ध ज्ञानरूप हैं,मोक्षकी प्राप्ति के लिए उनके चरण-कमलोंकी हम पुष्पसे पूजा करते है ।।४८६।।जिनके. शरीरमें लगाया गया चन्दनका लेप या कीचड, स्त्रीका विलास या स्मशानकी राख, सब समान है,तथा मित्र और शत्र दोनोंके ही विषयमें जो सम भाव रखते है अर्थात मित्रको देखकर जिनका हृदय प्रेमसे उद्वेलित नहीं होता और न शत्रुको देखकर द्वेषसे भडक उठता हैं, उनकी पूजाके लिए अर्पित किया गया नैवेद्य हमारी विभूतिका कारण हो ॥४८५।। जिनका अन्तःकरण अनेक प्रकारके योगोंका पालन करने में दक्ष हो चुका हैं, तथा कामका मद भी जाता रहा हैं और मोह रूपी अन्ध. कार नष्ट होने के करीब है, ज्ञानरूपी ज्योति प्रगट ही होना चाहती है, अतएव जिनका अन्तरात्मा चन्द्रमाकी तरह खूब आल्हाद युक्त हैं, उनके चरणोंमें अर्पित किया गया दीपक हमारी लक्ष्मीका कारण हो ।।४८८॥ ध्येयसे युक्त मनरूपी कुवलय (नीलकमल और पृथ्वीमण्डल ) के लिए चन्द्रोदयके Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० श्रावकाचार-संग्रह चित्ते चित्ते विशति करणेष्वन्तरात्मस्थितेषु स्रोतस्यूते बहिर खिलतो व्याप्तिशून्ये च पुंसि । येषां ज्योतिः किमपि परमानन्दसंदर्भगर्भ जन्मच्छेदि प्रभवति फलैस्तेषु कुर्मः सपर्याम् ॥। ४९० वाग्देवतावर इवायमुपासकानामागामितत्फल विधाविव पुण्यपुञ्जः । लक्ष्मीकटाक्षमधुपागम ने कहेतुः पुष्पाञ्जलिर्भवतु तच्चरणार्चनेन ।। ४९१ ( इत्याचार्यभक्तिः ) इदानीं ये कृतप्रतिमापरिग्रहास्तान्प्रति स्नपनार्चनस्तवजपध्यानश्रुत देवताराधनविधीन् षट प्रोदाहरिष्यामः । तथा हि श्रीकेतनं वाग्वनितनिवासं पुण्यार्जनक्षेत्रमुपासकानाम् । स्वर्गापवर्गागमनैकहेतुं जिनाभिषेकाश्रयमाश्रयामि ।। ४९२ ।। भावामृतेन मनसि प्रतिलब्धशुद्धि: पुण्यामृतेन च तनौ नितरां पवित्रः । श्री मण्डपे विविधवस्तुविभूषिताया वेद्यां जिनस्य सबनं विधिवत्तनोमि ।। ४९३ उदङ्मुखः स्वयं तिष्ठेत्प्राङ्मुखं स्थापयेज्जिनम् ! पूजाक्षणे भवेन्नित्यं यमी वाचंयमक्रियः ।। ४९४ प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना संनिधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ||४९५ ।। यः श्रीजन्मपयोनिधिर्मनसि च ध्यायन्ति यं योगिनो दं भुवनं सनाथममरा यस्मै नमस्कुर्वते । यस्मात्प्रादुरभूच्छ्रुतिः सुकृतिनो यस्य प्रसादाज्जना यस्मिन्नैष भवाश्रयो व्यतिकरस्तस्यारभे स्नापनाम् ।। ४९६ ॥ समान जिन आचार्याका ज्ञानरूपी समुद्र हर्षरूपी जलके द्वारा आत्मारूपी स्थानमें समाता नहीं हैं, इस समस्त लोककी ऐश्वर्य लक्ष्मीको प्राप्त करके भी जिनका चित्त निरीह हैं, उनकी पूजामें अर्पित की गयी धूप हमारे कल्याणके लिए हो ||४८९ ।। चित्तके चित्तमें और इन्द्रियोंके अन्तरात्मा में लीन हो जानेपर तथा इन्द्रियोंके पुंज स्वरूप पुरुषके समस्त बाह्य पदार्थोंसे निर्विकल्प हो जाने पर जिनकी परमानन्दमयी कोई एक अनिर्वचनीय ज्योति जन्म-परम्पराका छेदन करने में समर्थ होती हैं उनकी हम फलोंसे पूजा करते है १४९० ।। सरस्वती देवीके वरके समान और भविष्य में प्राप्त होनेवाले फलके लिए पुण्य समूहके समान यह पुष्पाञ्जलि आचार्यचरणोंका पूजन करने से श्रावकोंकी लक्ष्मी कटाक्षरूपी भ्रमरोंके आगमनका कारण हो । ४९१ ।। ( इस प्रकार आचार्य भक्ति समाप्त हुई) अब जो प्रतिमा में स्थापना करके पूजन करते हैं उनके लिए अभिषेक, पूजन, स्तवन, जप, ध्यान और श्रुतदेवताका आराधन इन छह विधियोंको बतलाते हैं- मैं जिनभगवान्का अभिषेक करनेके लिए जिनबिम्बका सहारा लेता हूँ | जो जिनबिम्ब लक्ष्मीका घर है, सरस्वती देवीका निवास स्थान है, गृहस्थोंके पुण्य कमानेका क्षेत्र हैं और स्वर्ग तथा मोक्षको लानेका प्रमुख कारण हैं ।। ४९२ ।। शुभ भावरूपी जलसे मेरा मन शुद्ध है और पवित्र जलसे मेरा शरीर शुद्ध है अर्थात् मैने शुद्ध जलसे स्नान किया हैं और मेरे मन में शुभ भाव है। मै श्रीमण्डप में अनेक वस्तुओंसे विभूषित वेदीपर विधिपूर्वक जिन भगवान्‌का अभिषेक करता हूँ ।। ४९३ || ऐसी प्रतिज्ञा करके स्वयं उत्तर दिशा की ओर मुंह करके खडा हो और जिनबिम्बका मुख पूर्व दिशाकी ओर करके उनकी स्थापना करे | तथा पूजाके समय सदा अपने मन, वचन कायको स्थिर रखे || ४९४ ।। देवपूजनके छह प्रकार हैं- प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजाका फल ।। ४९५ ।। पहले प्रस्तावनाको कहते हैं- जो लक्ष्मीके लिए सागर के समान है, योगीजन Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन वोतोपलेपवपुषो न मलानुषजस्त्रलोक्यपूज्यचरणस्य कुतः परोऽध्यः । मोक्षामृते धृतधियस्तव नैव कामः स्नानं ततः कमुपकारमिदं करोतु ॥ ४९७ तथापि स्वस्य पुण्यार्थ प्रस्तुवेऽभिषवं तव । को नाम सूपकारार्थ फलार्थी विहितोद्यमः । ४९० (इति प्रस्तावना) रत्नाम्बुभिः कुशकृशानुभिरात्तशुद्धौ भूमौ भुजङ्गमपतीनमृतरुपास्य। कुर्मः प्रजापतिनिकेतनदिङ्मुखानि दूर्वाक्षतप्रसवदर्भविदभितानि ॥४९९। पाथःपूर्णान्कुम्भान्कोणेषु सुपल्लवप्रसूनार्चान् । दुग्धाब्धीनिव विदधे प्रवालमुक्तोल्वणांश्चतुरः ।।५०० (इति पुराकर्म) यस्य स्थान त्रिभुवन शिरःशेखराने निसर्गात्तस्यामर्त्यक्षितिभूति भवेन्नाद्भुतं स्नानपीठम् । लोकानन्दामृतजलनिर्वारि चैतत्सुधात्वं धत्ते यत्ते सवनसमये तत्र चित्रीयते कः ॥ ५०१ तीर्योदकर्मणिसुवर्णघटोपनीतैः पीठे पवित्रवषि प्रविकल्पिताधै। लक्ष्मीश्रुतागमनबीजविदर्भगभ संस्थापयामि भुवनाधिपति जिनेन्द्रम् ।। ५०२ (इति स्थापना) मनमें जिसका ध्यान करते है,जिसके द्वारा यह लोक सनाथ हैं, जिसे देवतागण नमस्कार करते हैं, जिससे श्रुत (आगम) का प्रादुर्भाव हुआ हैं, जिसके प्रसादसे मनुष्य पुण्यशाली होते हैं, तथा जिसमें ये सांसारिक दुःख-सुखादि नहीं हैं उस जिनेन्द्र के अभिषेकको मै प्रारम्भ करता हूँ ।।४९६।। हे जिनेन्द्र शारीरिक मलसे रहित होने के कारण आपका मैलसे कोई सम्बन्ध नहीं हैं,आपके चरण तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य है, अतः दूसरा उससे भी उत्कृष्ट कैसे हो सकता है? आपका मन मोक्षरूपी अमतके पानमें निमग्न हैं अतः आप कामसे भी दूर हैं, अतः यह स्नान आपका क्या उपकार कर सकता हैं? अर्थात् स्नान या अभिषेकके तीन प्रयोजन हो सकते हैं, शारीरिक मलको दूर करना, जलार्चनके द्वारा पूज्यताका समावेश तथा गार्हस्थिक कामादि सेवनगत दोषोंकी विशुद्धि । किन्तु जिनेन्द्र देवका परम औदारिक शरीर मल रहित होता है,वे कामादिका भी सेवन नहीं करते है तथा तीनों लोक उनकी पूजा करते हैं अतः जल स्नानसे उन्हें कोई प्रयोजन नहीं रहता ॥४९॥ फिर भी मैं अपने पुण्यसंचयके लिए आपके अभिषेकको आरम्भ करता हूँ। क्योंकि ऐसा कौन फलार्थी-फलका इच्छुक हैं जो सम्यक् उपकारके लिए प्रयत्न न करना चाहता हो ॥४९८॥ (इस प्रकार प्रस्तावना कर्म समाप्त हुआ। आगे पुराकर्मको कहते है) रत्न सहित जलसे तथा कुश और अग्निसे शुद्ध की गयी भूमिमें दुग्धसे नागेन्द्रोंको संतृप्त करके पूर्वादि दश दिशाओंको दूर्वा, अक्षत,पुष्प और कुशसे युक्त करता हूँ॥४९९॥ वेदी के चारों कोनोंमें पल्लव और फूलोंसे सुशोभित, जलसे भरे हुए चार घटोंको स्थापित करता हूँ, जो मूंगे और मोतीसे युक्त होने के कारण क्षीरसमुद्र के समान हैं ।। '५ ० ०|| जिस जिनेन्द्रका निवासस्थान स्वभावसे ही तीनों लोकोंके मस्तकके ऊपर लोकके अग्रभागमें हैं (क्योंकि प्रत्येक जीव स्वभावसे ऊर्ध्वगामी हैं अतः मुक्त होनेके पश्चात् लोकके अग्रभाग तक जाकर वहीं ठहर जाता हैं) अतः यदि उसका अभिषेक सुमेरु पर्वत पर हो तो उसमें आश्चर्य ही क्या है? इसी प्रकार हे जिनेन्द्र! तुम्हारे अभिषेकके समय लोगोंके आनन्दरूपी क्षीरसमुद्र का यह जल यदि अमृतपनेको प्राप्त होता हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ।।५०१॥ मणिजडित सोनेके घटोंसे लाये गये पवित्र जलसे जो शुद्ध किया गया हैं और फिर जिसे अर्घ दिया गया हैं तथा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्रावकाचार-संग्रह सोऽयं जिनः सुरगिरिर्ननु पीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः सलिलानि साक्षात् । इन्द्रस्त्वहं तव सवप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततः कथमियं न महोत्सवश्रीः ॥ ५०३ ( इति संनिधापनम् ) योगेऽस्मिन्नाकनाथ ज्वलन पितृपते नंगमेय प्रचेतो वायो रैदेश शेषोडुपसपरिजना यूयमेत्य ग्रहाग्राः । मन्त्रैर्भूः स्वः सुधाद्यैरधिगतबलयः स्वासु दिक्षूपविष्टाः क्षेपीयः क्षेमदक्षाः कुरुत जिनसवोत्साहिन । विघ्नशान्तिम् ।। ५०४ दैवेऽस्मिन्विहितार्चने निनदति प्रारब्धगीतध्वनावातोद्यैः स्तुतिपाठ मङ्गल रवैश्चानन्दिनि प्राङ्गणे । मृत्स्नागोमय भूतिपिण्ड हरितादर्भप्रसूनाक्षतंरम्भोमिश्च सचन्दनैजनपतेर्नीराजनां प्रस्तुवे ।। ५०५ पुण्यमश्चिरमयं नवपल्लव श्रीश्चेतः सरः प्रमदमन्दसरोजगर्भम् । बागापगा च मम दुस्तरतीरमार्गा स्नानामृतैजिनपते स्त्रिजगत्प्रमोदैः ॥ ५०६ द्राक्षाखर्जूर चोंचेक्षु प्राचीनामलकोद्भवैः । राजादना म्रपूगोत्थैः स्नापयामि जिनं रसः ।। ५०७ - आयु: प्रजासु परमं भवतात्सदैव धर्मावबोधसुरभिश्चिरमस्तु भूपः । पुष्टि विनेयजनता वितनोतु कामं हैयंगवीनसवनेन जिनेश्वरस्य ।। ५०८ येषां कर्मभुजङ्गनिर्विषविध बुद्धिप्रबन्धो नृणां येषां जातिजरामृतिव्युपरमध्यानप्रपञ्चाग्रहः । येषामात्म विशुद्धबोधविभवालोके सतृष्णं मनस्तेधारोष्ण पयः प्रवाहधवलं ध्यायन्तुजेनंवपुः ||५०९ ॥ इन्द्र, जिसपर 'श्री न्ही' लिखा हुआ हैं, ऐसे सिंहासनपर तीनों लोकोंके स्वामी जिनेन्द्रदेवकी मै स्थापना करता हूँ ||५०२ ।। (यही स्थापना हैं । अब सन्निधापनको कहते है - ) यह जिनबिम्ब ही साक्षात् जिनेन्द्रदेव हैं, यह सिंहासन सुमेरुपर्वत है, घटोंमें भरा हुआ जल साक्षात् क्षीरसमुद्रका जल है और आपके अभिषेकके लिए इन्द्रका रूप धारण करनेके कारण मै साक्षात् इन्द्र हूँ तब इस अभिषेक महोत्सवकी शोभा पूर्ण क्यों नहीं होगी ! |५०३ || इस अभिषेक महोत्सव में हे कुशलकर्ता अग्नि, यम, ऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईश तथा शेष चन्द्रमा आदि आठ प्रमुख ग्रह अपने-अपने परिवार के साथ आकर और 'भूः स्वः आदि मन्त्रोंके द्वारा बलि ग्रहण करके अपनीअपनी दिशाओं में स्थित होकर शीघ्र ही जिन अभिषेकके लिए उत्साही पुरुषोंके विघ्नों को शान्त करें ॥ ५०४ ॥ | इस आनन्दपूरित आँगनमें, जो बाजों और स्तुति पाठकों के मांगलिक शब्दोंसे गूंज रहा हैं तथा जिसमें गीतोंकी ध्वनि हो रही हैं, मै इस पूजित जिनबिम्बमें मिट्टी, गोबर, राख, दुर्वा, कुश, फूल, अक्षत, जल तथ चन्दनसे जिनभगवान् की नीराजना ( आरती ) करता हूँ ||५०५ ॥ जिनभगवान् के तीनों लोकोंको हर्षित करनेवाले स्नानजलसे मेरा यह पुण्यरूपी वृक्ष चिरकाल तक नये पल्लवों की शोभाको धारण करे, चित्तरूपी तालाब में हर्षरूपी कमल विकसित हो और मेरी वाणीरूपी नदी के तटका मार्ग दुस्तर हो - उसे कोई पार न कर सके || ५०६ ।। मैं दाख, खजूर, नारियल, ईख, प्राचीन आमलक ( आँवला नामक फल ) केला आम तथा सुपारी के रसोंसे जिनभगवान्का अभिषेक करता हूँ ||५०७ || जिनदेव के घृताभिषेकसे सदैव प्रजा दीर्घजीवी हो, राजा धर्मके ज्ञानसे सुबासित हो और भव्यजन खूब पुष्टिको प्राप्त हों ।। १०८ ।। जिन मनुष्यों की बुद्धिका विलास कर्मरूपी सर्पोको निर्विष करने में संलग्न हैं, जिन मनुष्योंको जन्म, जरा, मरणको दूर करनेवाले ध्यानके विस्तारका आग्रह है तथा जिनका मन आत्माके विशुद्ध ज्ञानरूपी ऐश्वर्यको Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १८३ जन्मस्नेहच्छिदपि जगतः स्नेहहेतुनिसर्गात्पुण्योपाये मृदुगुणमपि स्तब्ध लब्धात्मवृत्तिः । चेतोजाड्यं हरदपि दधि प्राप्तजाड्यस्तभावं जैनस्नानानभवनविधौ मङ्गलं वस्तनोतु ॥ ५१० एलालवङ्गकङ्कोलमालयागरु मिश्रितः । पिष्टः कल्कैः कषायश्च जिनदेहमुपास्महे ।। ५११ नन्द्यावर्तस्वस्तिकफलप्रसूनाक्षतम्बकुशपूलै: : अवतारयामि देवं जिनेश्वरं वर्धमानश्च ।। ५१२ मद्भाविलक्षमौलतिकावनस्य प्रवर्धनाजितवारिपूरैः ।। जिनं चतुभिः स्नपयामि कुम्भनभासदोधेनुपयोधराभैः ॥ ५१३ लक्ष्मीकल्पलते समल्लसजनानन्दै. परं पल्लवैधर्मारामफलैः प्रकामसुभगस्त्वं भव्यसेव्यो भव । बोधाधीश विमुञ्च संप्रति मुहुर्दुष्कर्मधर्मक्लमं त्रैलोक्यप्रमदावहैजिनपतेर्गन्धोदकैः स्नापनात्।।५१४ शविशद्धबोधस्य जिनेशस्योत्तरोदकैः । करोम्यवभथस्नानमत्तरोत्तरसंपदे ।। ५१५ ।। अमृतकृतणिकेऽस्मिन्निजाबीजे कलादले कमले । संस्थाप्य पूजयेयं त्रिभुवनवरदं जिनं विधिना पुण्योपार्जनशरणं पुराणपुरुष स्तवोचिताचरणम् । पुरुहूतविहितसेवं पुरुदेवं पूजयामि तोयेन ।। ५१७ मन्दमदमदनमनंदमन्दरगिरिशिखरमज्जनावसरम । कन्दमुमालतिकायाश्चन्दनचर्चाचितं जिनं कुर्वे ||५१८ देखनेके लिए लालायित हैं, वे धारोष्ण दूधके प्रवाहसे धवल हुए जिनेन्द्रदेवके शरीरका ध्यान करें ॥५०॥ दही जगत के जन्म स्नेहका छेद करनेवाला होनेपर भी स्वभावसे ही स्नेह (घी) का कारण है,पुण्यके साधनमें कोमलता युक्त होते हुए भी स्थिर होकर ही वह आत्मलाभ करता है, अर्थात् दही कोमल होता है और स्थिर होनेपर ही वह जमता हैं तथा चित्तकी जडताको हरनेवाला होते हुए भी स्वयं जडस्वभाव या जलस्वभाव हैं, ऐसा दही जिन भगवान्की अभिषेक विधिमें आपका मंगलकारक हो । ५:०॥ इलायची, लौंग, कङ्कोल, चन्दन और अगुरु मिले हुए चूर्णसे और पकाकर तैयार किये गये काढेसे जिनदेवके शरीरकी उपासना करता हूँ ॥५११।। नन्द्यावर्तक, स्वस्तिक, फल, फूल अक्षत, जल और कुशसमूहसे तथा सकोरोंसे जिनेश्वरदेवकी अवतारणा करता हूँ ।।५१२।। एसे जिनेन्द्र देवका मेरी भावी लक्ष्मीरूपी लताके वनको बढानेवाले जलके पूरसे युक्त तथा कामधेनुके स्तनोंके तुल्य चार कलशोंसे अभिषेक करता हूँ॥५.३ । जिनभगवान्के तीनों लोकोंको आनन्द देनेवाले गन्धोदकके सिञ्चनसे हे लक्ष्मीरूपी कल्पलते! तुम मनुष्योंके आनन्दरूपी पल्लवोंसे उल्लासको प्राप्त होवो । हे धर्मरूपी उद्यान! तुम फलोंसे अत्यन्त सुन्दर होकर भव्यजीवोंके सेवनीय बनो। और हे ज्ञानवान् आत्मा! तुम अब दुष्कर्मरूपी घामके सन्तापको छोडो,अर्थात् बुरे कर्म करना छोड दो और बुरे कर्मोके फलसे मुक्त हो जाओ ।।५१४।। अधिकाधिक सम्पत्तिके लिए विशुद्ध ज्ञानी जिनेन्द्र भगवान्का तालाब आदिसे लाये गये शुद्ध जलसे मै अन्तिम स्नान कराता हूँ ।। ५१५।। अमृत मयी कणिकावाले तथा अपने नामसे अंकित इस सोलह पांखडीके कमलपर तीनों लोकोंको मनवांछित वर देनेवाले जिनेन्द्र भगवानको विधिपूर्वक स्थापित करके पूजना चाहिए ॥५१६।। जो पुण्यके कमानेके लिए आश्रयभूत है, पुराण पुरुष हैं, जिनका आचरण स्तुतिके योग्य हैं, और इन्द्रने जिनकी सेवा की थी, उन प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथकी मैं जलसे पूजा करता हूँ। ५१७।। जो अत्यधिक मदशाली कामका दमन करनेवाले है,सुमेरु पर्वतके शिखरपर जिनका अभिषेक हुआ हैं तथा जो यशरूपी बेलकी जड हैं उन जिनदेवकी चन्दनसे पूजा करता है।५१८॥दोषरूपी वृक्षोंके जङगलको जलानेवाले, उत्तम सुखकी उत्पत्तिके लिए मोक्षके समान तथा आगमरूपी दीपकके प्रकाशक जिनेन्द्रदेवकी सुगन्धित Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्रावकाचार-संग्रह अवमतरुगहनदहन निकाससुखसंभवामृतस्थानम् । आगमदीपालोकं कलमभवैस्तन्दुलैर्भजामि जिनम् ।। ५१९ स्मररस विमुक्त सूक्ति विज्ञानसमुद्रमुद्रिताशेषमाधीमानसकलहंसंकुसुमशररर्चयामिजिननाथम्।।५२ अर्हन्तममितनीति निरञ्जनं मिहिरमाधिदावाग्नेः । आराधयामि हविषा मुक्तिस्त्रीरमितमानसमनङ्गम् ।। ५२१ भक्त्यानतामराशयकमलवनारालतिमिरमार्तण्डम् । जिनमुपचरामि दीपैः सकलसुखारामकामदमकामम् । ५२२ अनुपमकेवलवपुष सकलकलाविलय वर्तिरूपस्थम् । योगावगम्यनिलयं यजामहे निखिलगं जिनं धूपैः ॥ ५२३ स्वर्गापवर्गसंगतिविधायिनं व्यस्तजातिमृतिदोवम् । व्योमचरामरपतिभिः स्मृतं फलैंजिनपतिमुपासे ॥ ५२४ अम्मश्चन्दनतन्दुलोद्गमहविर्दीपः सधूपैः फल रचित्वात्रिजगद्गुरुं जिनपति स्नानोत्सवानन्तरम् । तस्तौमिप्रजपामि चेतसि बधे कुर्वे श्रुताराधनं । त्रैलोक्यप्रभवं च तन्महमहं कालत्रये श्रद्दधे ॥ ५२५ यज्ञर्मुदावमृथभाग्भिरुपास्य देवं पुष्पाञ्जलिप्रकरपूरितपादपीठम् । श्वेतातपत्रचमरोरुहवर्पणाद्यैराराधयामि पुनरेनमिनं जिनानाम् ।। ५२६ (इति पूजा) तन्दुलोंसे पूजन करता हूँ ।।५१९॥ जिनकी सूक्तियाँ श्रृंगार रससे रहित हैं, जिन्होंने अपने ज्ञानरूपी समुद्रसे सबको आच्छादित किया हैं और जो लक्ष्मीरूपी मानसरोवरके राजहस है, उन जिनेन्द्रदेवकी पुष्षोंसे पूजा करता हूँ ॥५२०॥ अनन्तज्ञानशाली, निर्विकार, दुराशारूपी दावाग्नि (जङगलकी आग) के लिए मेघके समान,निराकार तथा जिनका मन मुक्तिरूपी स्त्रीमें लीन हैं, उन अर्हन्त देवकी नैवेद्यसे पूजा करता हूँ ॥५२१।। भक्तिसे विनम्र हुए देवोंके चित्तरूपी कमलवनका घोर अन्धकार दूर करनेके लिए जो सूर्यके समान हैं, और समस्त सुखोंके लिये उद्यानरूप , तथा मनोरथको पूर्ण करनेवाले है उन कामरहित जिनेन्द्रदेवकी दीपोंसे पूजा करता हूँ ॥५२२॥ अनुपम केवलज्ञान ही जिनका शरीर हैं, समस्त भाव कमोंका विनाश हो जानेपर जो रूप रहता है उसी रूपमें जो स्थित है,जिनके स्थानको योगके द्वारा जाना जा सकता हैं और जो केवलज्ञानके द्वारा सर्वत्र व्यापक है,उन जिनदेवकी मै धूपसे पूजा करता हूँ॥५२३।। जो स्वर्ग और मोक्ष का दाता हैं जन्म-मरणरूपी दोषोंसे रहित है, और विद्याधरों तथा देवोंके स्वामी जिनको स्मरण करते हैं उन जिनेन्द्रदेवकी फलोंसे पूजा करता हूँ।।५२४।। अभिषेक समारोषके पश्चात् तीनों लोकोंके गुरु जिनेन्द्रदेवकी जल,चन्दन,अक्षत, पुष्प, नैवैद्य, दीप, धूप और फलोंसे पूजा करके मैं उनका स्तवन करता हूँ, उन्हें चित्तमें धारण करता हूँ उनका नाम जपता हूँ शास्त्र की आराधना करता हूँ तथा तीनों लोकोंसे उत्पन्न हुए उनके ज्ञानरूपी तेजकी मै तीनों कालोंमें श्रद्धा करता हूँ ।।५२५॥ भावार्थ-अभिषेकके पश्चात् अष्टद्रव्यसे जिनेन्द्रदेव का पूजन करना चाहिए। तथा पूजन के पश्चात् उनका स्तवन, उनके नामका जप, ध्यान तथा शास्त्र स्वाध्याय करना चाहिए। पुष्पाञ्जलि के समूहसे जिनका पादपीठ-चरणों के पास का स्थान-भरा हुआ हैं उन जिनेन्द्र ... Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १८५ भक्तिनित्यं जिनचरणयोः सर्वसवेत्यु मैत्री सर्वातिथ्ये मम विमवधीवुद्धिरध्यात्मतत्त्वे । सद्विधेषु प्रणयपरता चित्तवृत्ति: पराथें भूयादेतद्भवति भगवन्धाम यावत्त्वदीयम् ।। ५२८ प्राविधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्यान्हसन्निधिरयं मुनिमाननेन । सायन्तनोऽपि समयो मम देव यायानित्यं त्ववाचरणकीर्तनकामितेन ।। ५२९ धर्मेषु धर्मनिरतात्मसु धर्महेतो धर्मादवाप्तमहिमास्तु नपोऽनुकूलः । नित्यं जिनेन्द्रचरणार्चनपुण्यधन्याः कामं प्रजाश्च परमा श्रियमाप्नुवन्तु ।। ५३० (इति पूजाफलम् ) आलस्याद्रपुषो हृषीकहरणाक्षेपतो वात्मन श्चापल्यान्मनसो मतेर्जडतया मान्छेन वाक्सौष्ठवे। यः कश्चित्तव संस्तवेषु समभूवेष प्रमादः स मे मिण्यास्ताननु देवताप्रणयिनां तुष्यन्ति भक्त्या यतः ॥५३१ देवपूजामनिर्माय मुनीननुपचर्य च। यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत परं तमः ।। ५३२ नमदमरमौलिमण्डलबिलग्नरत्नांशनिकरगगनेऽस्मिन् । अरुणायतेऽघ्रियुगलं यस्य स जीयाज्जिनो देवः ।। ५३३ देवकी अभिषेक पूर्वक पूजा से सहर्ष उपासना कर के मै पुनः उनको श्वेतछत्र, चमर दर्पण आदि मांगलिक द्रव्योंसे आराधना करता हूँ। ५२७।। (इस प्रकार पूजा समाप्त हुई। आगे पूजाका फल बतलाते है-) हे भगवन् ! जबतक आपका परम पदरूप स्थान प्राप्त हो, तबतक सदा आपके चरणों में मेरी भक्ति रहे, सब प्राणियोंमें मेरा मैत्रीभाव रहे, मेरी ऐश्वर्यरत मति सबका आतिथ्य सत्कार करने में संलग्न हो, मेरो बुद्धि अध्यात्म तत्त्व में लीन रहे,ज्ञानीजनोंसे मेरा स्नेह भाव रहे और मेरी चित्तवृत्ति सदा परोपकारमें लगी रहे ।।५२८॥ हे देव! प्रातःकालीन विधि आपके चरण-कमलोंकी पूजासे सम्पन्न हो, मध्यान्ह कालका समागम मुनियोंके आतिथ्य सत्कारम बीते ; तथा सायंकालका भो समय आपके चारित्रके कथन कामनामें व्यतीत हो। ५२९।। धर्मके प्रभावसे राज्यपदको प्राप्त हुआ राजा धर्मके विषयम,धार्मिकोंके विषयमें और धर्मके हेतु चैत्यालय आदिके विषयमें सदा अनुकूल रहे-उनका अहित न करके संरक्षण करे । तथा प्रतिदिन जिनेन्द्र देवके चरणोंकी पूजासे प्राप्त हुए पुण्यसे धन्य हुई जनता यथेच्छ उत्कृष्ट लक्ष्मीको प्राप्त करे ।।५३०।। शरीरके आलस्यसे या इन्द्रियोंके इधर-उधर लंग जानेसे अथवा आत्माकी अन्यमनस्कतासे अथवा मनकी चपलतासे अथवा बुद्धिकी जडतासे अथवा वाणीमें सौष्ठव (शुद्ध स्पष्ट उच्चारण) की कमीके कारण आपके स्तवनमें मुझसे जो कुछ प्रमाद हुआ है,वह मिथ्या हो । क्योंकि देवता तो अपने प्रेमियोंकी भक्तिसे सन्तुष्ट होते हैं ।।५३१।। जो गृहस्थ होते हुए भी देवपूजा किये बिना तथा मुनियोंकी सेवा किये बिना भोजन करता है, वह महापापको खाता हैं ।।५३२।। (पूजनके पश्चात् जिन भगवान्की स्तुति करना चाहिए। अत: स्तुति करते है-) नमस्कार करते हुए देवों के मुकुटोंके समूहमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंके समूहरूपी इस आकाशमें जिनके चरणयुगल सन्ध्याकी लालीकी तरह प्रतीत होते है वे जिनदेव Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्रानकार-संग्रह सुरपतियुषतिश्रवसाममरतलस्मेरमञ्जरीरुचिरम् । चरणमकिरणजालं यस्य स जयताज्जिनो जगति ॥ ५३४ वर्ण: दिविजकुञ्जरमौलिमन्दारमकरन्दस्यन्दकरविसरसारधूसरपदाम्बुज । बैदग्धीपरमपर प्राप्तवादजय विजितमनसिज ।। ५३५ मात्रा यस्त्वाममितगुणं जिन कश्चित्सावधिबोधः स्तोति विपश्चित् । मूनमसो नन काञ्चनशैलं तुलयति हस्तेनाचिरकालम् ।। ५२६ स्तोत्रे यत्र महामुनिपक्षाः सकलैतिह्याम्बुधिविधिदक्षाः। मुमुचुश्चिन्तामनवधिबोधास्तत्र कथं ननु मादृग्बोधाः ।। ५३७ तदपि वयं किमपि जिन त्वयि यद्यपि शक्तिनास्ति तथा मयि । यदियं भक्तिर्मा मौमस्थं देव न कामं कुरुते स्वस्थम् ॥ ५३८ सुरपतिविरचितसंस्तव दलिताखिलमव परमधामलब्धोक्य । कस्तव जन्तुर्गुणगणमघहरचरण प्रवितनुतां हतनतभय ॥ ५३९ जय निखिलनिलिम्पालापकल्प जगतीस्तुतकीतिकलत्रतल्प । जय परमधर्महावतार लोकत्रितयोद्धरणकसार ॥ ५४० जय लक्ष्मीकरकमलाचिताङ्ग सारस्वतरसनटनाटयरङ्ग । जय बोधमध्यसिद्धाखिलार्थ मुक्तिश्रीरमणीरतिकृतार्थ ।। ५४१ जयवन्त हों ॥५३३।। जिनके चरणोंके नखोंकी कान्तिका समूह देवांगनाओंके कानोंमें धारण की गयी कल्पवृक्षकी पुष्पित लताके संस्पर्शसे सुन्दर प्रतीत होता हैं, वे जिन भगवान् जगत् में जयवन्त हो ।।५३४॥ देवेन्द्रोंके मुकुटोंमें लगे हुए मन्दार पुष्पके परागसे जिनके चरण-कमल पाण्डुर हो गये है,जो पाण्डित्यके सर्वोत्कृष्ट स्थान हैं, जिन्होंने बादमें जयलाभ किया हैं,ऐसे कामजेता हे जिनेन्द्र देब! जयवन्त रहें ।।५३५ । जो अल्पज्ञानी विद्वान् तुम्हारे अपरिमित गुणोंका स्तवन करता है, वह निश्चय ही जल्दी में हाथसे सुमेरु पर्वतको तोलनेका प्रयत्न करता है । ५३६ ।। समस्त शास्त्ररूपी समुद्रकी विधिमें चतुर,असीम ज्ञानधारी महामुनि भी जिसका स्तवन करनेमे समर्थ नहीं हो सके, तो मेरे समान अल्पज्ञानी उसका स्तवन कैसे कर सकते है ।।५३७।। हे जिन! यद्यपि मेरेमें आपका स्तवन करनेकी शक्ति नहीं हैं, तथापि कुछ कहता हूँ क्योंकि मेरे मौन रहनेपर आपकी यह भक्ति मुझे स्वस्थ नहीं रहने देती ॥५३८॥ इन्द्रने जिसका स्तवन किया, जिसने समस्त संसार-परिभ्रमणको नष्ट कर दिया, मोक्षके साथ ही जिसने आत्मिक गुणोंको प्राप्त किया, जिसके चरण पापके नाशक हैं,और जिसने विनत मनुष्यके भयको नष्ट कर दिया है एसे हे जिनेन्द्रदेव! कौन प्राणी आपके गुणसमूहका विस्तारसे कथन कर सकता है ।।५३९।। हे समस्त देवोंकी स्तुतिके ग्रन्थरूप, और हे समस्त पृथिवीके द्वारा स्तुत कीर्तिरूपी स्त्रीके विश्रामके लिए शय्यारूप! आपकी जय हो। हे परम धर्मरूपी महलके अवतार और हे तीनों लोकोंका उद्धार करने में समर्थ! आपकी जय हो ।।५४०॥ जिनका अङग लक्ष्मीके कर-कमलोंसे पूजित हैं, जो सारस्वत रसरूपी नटके लिए रंगमंचके तुल्य है,जिनके केवलज्ञानमें समस्त पदार्थ प्रतिभासित है .. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन नमदमरमौलिमन्दरतटान्त राजत्पदनख नक्षत्रकान्त । विबुधस्त्रीनेत्राम्बुजविबोध मकरध्वजधनुरुद्धवनिरोध ।। ५४२ बोधयविदितविधेयतन्त्र का नामापेक्षा तव परत्र । दधतः प्रबोधम सुभृज्जनस्य गुरुरस्ति कोऽपि किमिहारुणस्य ।। ५४३ निजबीजबलान्मलिनापि महति धीः शुद्धि परमामभव भजति । युक्तेः कनकाइमा भवति हेम कि कोऽपि तत्र विवदेत नाम ।। ५४४ परिमाणमिवातिशयेन वियति मतिरुच्चैर्नरि गुरुतामुपैति । द्विश्ववेदिनिन्दा द्विजस्य विश्राम्यति चित्ते देव कस्य ।। ५४५ कपिलो यदि वाञ्छति वित्तिमचिति सुरगुरुर्गुम्फेष्वेष पतति । चैतन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य वद तत्र विदित ।। ५४६ भूपवनवनानलतत्त्वकेषु धिषणो तिगुणाति विभागमेषु । न पुनर्वादि तद्विपरीतधर्मधाम्नि ब्रवीति तत्तस्य कर्म ।। ५४७ तथा जो मुक्तिश्रीरूपी स्त्रीके साथ रमण करके कृतार्थ हो चुके है ऐसे हे जिनेन्द्र! आपकी जय हो । ५४१ || नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटरूपी सुमेरुके प्रान्तभाग में जिनके पद नख चन्द्रमाकी भाँति शोभित होते है, जो देवांगनाओंके नेत्ररूपी कमलोंको विकसित करते हैं और जो कामदेव के धनुष के उत्सवको रोकते है ऐसे काम-विजेता हे जिनेन्द्र देव ! आप जयवन्त हों ५४२ || हे जिन! आपने मति, श्रुत और अवधिज्ञानके द्वारा जानने योग्य वस्तुओं को जान लिया है। इसलिए आपको किसी गुरुकी आवश्यकता नहीं हुई। ठीक ही है प्राणियोंको जगानेवाले सूर्यका भी क्या कोई गुरु है ? हे भवरहित! महापुरुषोंकी मलिन बुद्धि भी अपने ज्ञान ध्यान आदि बलसे अत्यन्त शुद्ध हो जाती है । उपाय से स्वर्णपाषाण स्वर्णरूप हो जाता हैं इसमें क्या किसीको विवाद है ? ॥। ५४३-५४४ ।। ( किन्तु मीमांसक किसी पुरुषका सर्वज्ञ होना स्वीकार नहीं • करता। उसका कहना हैं कि मनुष्यकी बुद्धि में कुछ विशेषता मानी जा सकती है किन्तु उसका यह मतलब नहीं हैं कि वह अतीत और अनागतको भी जान सके, उसे उत्तर देते हुए कहते हैं -) जैसे परिमाणका अतिशय आकाशमं पाया जाता है वैसे ही बुद्धिका अत्यन्त विकास मनुष्य में होता हैं । इसलिए मीमांसकने जो सर्वज्ञकी आलोचना की हैं वह देव! किसीके भी चित्तमें नहीं उतरती ।। ५४५ ।। भावार्थ- जिसमें उतार-चढाव पाया जाता है उसका उतार-चढाव कहीं अपनी अन्तिम सीमाको अवश्य पहुँचता हैं। जैसे परिमाण ( माप) में उतार-चढाव देखा जाता हैं अतः उसका अन्तिम उतार परमाणु में पाया जाता है और अन्तिम चढाव आकाश में; परमाणुसे छोटी और आकाशसे बड़ी कोई वस्तु नहीं हैं। वैसे ही ज्ञान भी घटता बढता है किसीमें कम ज्ञान पाया जाता हैं और किसी में अधिक । अतः किसी मनुष्यमें ज्ञानका भी अन्तिम विकास अवश्य होना चाहिए और, जिसमें उसका अन्तिम विकास होता है वही सर्वज्ञ हैं । 'यदि नांख्य अचेतन प्रकृतिमें ज्ञान मानता हैं तो यह तो चार्वाके वचनोंका ही प्रतिपादन हुआ; क्योंकि चार्वाक पञ्चभूतसे आत्मा और ज्ञानकी उत्पत्ति मानता हैं । और यदि चैतन्य बाह्य वस्तुओंको नहीं जानता तो हे विश्व प्रसिद्ध देव! आप बतलावें कि वह कैसे किसीके लिए उपयोगी हो सकता है ? || ५४६ ॥ भावार्थ - सांख्य आत्मा मानता हैं और उसको चैतन्य स्वरूप भी स्वीकार कहता है किन्तु चैतन्यको ज्ञान- दर्शनरूप १८७ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ श्रावकार - संग्रह विज्ञानप्रमुखाः सन्ति विमुचि न गुणाः किल यस्य नयोऽत्र वाचि । तस्यैव पुमानपि नैव तत्र वाहाद्दहनः क इहापरोऽत्र ।। ५४८ धरणीधरधरणिप्रभृति सृजति ननु निपगृहादि गिरीशः करोति । चित्रं तथापि यत्तद्वचांसि लोकेषु भवन्ति महायशांसि ।। ५४९ पुरुषत्रयमबलासक्तमूत्ति तस्मात्परस्तु गतकायकीर्तिः । एवं सति नाथ कथं हि सूत्रमाभाति हिताहितविषयमत्र ।। ५५० सोऽहं योऽभूवं बालवयसि निश्चिन्वन्क्षणिकमतं जहासि । सन्तानोऽप्यत्र न वासनापि यद्यन्वयभावस्तेन नापि ।। ५५१ नहीं मानता। उसके मतसे ज्ञान जड प्रकृतिका धर्म हैं । इसीसे मुक्तावस्थामें चैतन्यके रहनेपर भी वह ज्ञानका अस्तित्व नहीं मानता। इसी बातको लेकर ऊपर ग्रन्थकारने सांख्यमतकी आलोचना की है । चार्वाकगुरु बृहस्पति पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायु तत्त्वसे ज्ञान बतलाता है किन्तु उनसे विरुद्ध धर्मवाले आत्मामें ज्ञान नहीं बतलाता । यह उस चार्वाकका महत्पाप है ।। ५४७ ॥ भावार्थ - चार्वाक आत्मा नहीं मानता। उसका मत है कि पृथिवी जल आदि भूतोंके मिलनेसे एक शक्ति उत्पन्न हो जाती हैं जिसे लोग आत्मा कहते है और शरीर के नष्ट होनेपर उसके साथ ही वह शक्ति भी नष्ट हो जाती है । किन्तु पञ्चभूत और आत्माका स्वभाव बिलकुल अलग है. ऐसा नियम हैं कि जो जिससे उत्पन्न होता है उसके गुण उसमें पाये जाते है, मगर पञ्चभूतोंका एक भी गुण आत्मामें नहीं पाया जाता और जो गुण आत्मामें पाये जाते है उनकी गन्ध भी पञ्चभूतों में नहीं मिलती हैं । फिर भी ज्ञानको आत्माका गुण नहीं मानता और उसे पञ्चभूतका कार्य बतलाता हैं । उसका कथन ठीक नहीं है । जिस सांख्यका यह सिद्धान्त है कि मुक्त आत्मामें ज्ञानादिक गुण नहीं है उसके मत में आत्मा भी नहीं ठहरता; क्योंकि जैसे बिना उष्णगुण के अग्नि नहीं रह सकती वैसे ही ज्ञानादिक गुणोंके बिना आत्मा भी नहीं रह सकता ।। ५४८ । ( इस प्रकार सांख्य मतकी आलोचना करके ईश्वरकी आलोचना करते हैं -) महेश्वर पृथ्वी, पर्वत आदि को तो बनाता हैं किन्तु मकान, घट आदि को नहीं बनाता। आश्चर्य हैं फिर भी उसके वचन लोकमें प्रसिद्ध हो रहे हैं ।। ५४९ ।। भावार्थ - आशय यह हैं कि यदि ईश्वर पृथ्वी, पर्वत आदि को बना सकता है तो घट, पट आदि को भी बना सकता हैं फिर उसके लिए कुम्हार और जुलाहे आदि की जरूरत नहीं होनी चाहिए। जैसे उसने मनुष्योंके लिए पृथ्वी आदि की सृष्टि की, वैसे ही वह इन चीजोंको क्यों नहीं बना देता । इससे मालूम होता है कि जगत्का कोई रचयिता नहीं है, आश्चर्य है कि फिर भी मनुष्य उसकी बातको माने जाते है । ब्रह्मा, विष्णु और महेश तो तिलोत्तमा, लक्ष्मी और गोरीमें आसक्त है तथा जो परम शिव है वह कायरहित हैं । हे नाथ! ऐसी स्थिति में उनसे हित और अहितको बतलानेवाले सूत्रोंका उद्गम कैसे हो सकता है ।। ५५०॥ ( इस प्रकार वैदिक मतकी आलोचना करके बौद्ध मतकी आलोचना करते हैं -) जो मैं बचपन में था वही मैं हूं ऐसा निश्चय करने से क्षणिक मत नहीं ठहरता । यदि कहा जाये कि सन्तान या वासनासे ऐसी प्रतीति होती हैं कि मैं वही हूँ तो न तो सन्तान ही बनती हैं और न वासना ही सिद्ध होती हैं । यदि ऐसा मानते हो कि पूर्व क्षणका उत्तर क्षणमें अन्वय पाया जाता है तो आत्माको ही क्यों नहीं मान लेते । तथा इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला निर्विकल्प ज्ञान तो विचारक नहीं हैं और जो सविकल्प . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन चित्तं न विचारकमक्षजनितमखिलं सविकल्पं स्वांशपतितम् । उदितानि वस्तु नैव स्पृशन्ति शाक्या: कथमात्महितान्युशन्ति ।। ५५२ अद्वैतं तत्त्वं वदति कोऽपि सुधियां धियमातनुते न मोऽपि । यत्पक्षहेतुदृष्टान्तवचनसंस्था: कुतोऽत्र शिवशर्मसदन ।। ५५३ हेतावनेकधर्मप्रवृद्धिराख्याति जिनेश्वरतत्त्वसिद्धिम्।। अन्यत्पुनरखिलमतिव्यतीतमुद्भाति सर्वमुरुनयनिकेत ॥ ५५४ मनजत्वपूर्वनयनायकस्य भवतो भवतोऽपि गणोत्तमस्य । ये द्वेषकलुषधिषणा भवन्ति ते जडजं मौक्तिकमपि रहन्ति ॥ ५५५ ज्ञान हैं वह निर्विकल्पके द्वारा गृहीत वस्तुम ही प्रवृत्ति करता है । तथा वचन वस्तुको नहीं कहते। ऐसी स्थितिमें बौद्ध मतानुयायी कैसे आत्महितका कथन करते है।। ५५ -५५२ ।। भावार्थ-बौद्ध. क्षणिकवादी हैं। उनके मतसे प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षणमें नष्ट होती है। किन्तु वस्तुके प्रथम क्षणके नाश हो जानेपर दूसरा क्षण और दूसरे क्षणके नष्ट हो जानेपर तीसरा क्षण उत्पन्न होता रहता है और इस तरहसे क्षण सन्तान चलती रहती है, ऐसा वे मानते है। किन्तु यदि वस्तुके पूर्व क्षण और उत्तर क्षणमें एकत्व नहीं माना जाता हैं तो वह सन्तान बन नहीं सकती और यदि एकत्व माना जाता है तो वस्तु स्थायी सिद्ध हो जाती हैं। उसी एकत्वके कारण बडे होनेपर भी हमें बचपनकी बातोंकी स्मृति रहती है और हममें से प्रत्येक यह अनुभव करता हैं कि जो मै बच्चा था वही मै अब युवा या वृद्ध हूँ। यह तो हुई बौद्ध के क्षणिकवादकी आलोचना । बौद्ध ज्ञानको निर्विकल्पक मानता है और उसे ही वस्तुग्राही कहता है । तथा निर्विकल्पकके बाद जो सविकल्पक ज्ञान होता है उसे अवस्तुग्राही कहता है। निर्विकल्पकका विषय क्षणिक निरश वस्तुहै जो बौद्धकी दृष्टिसे वास्तविक हैं ओर सविकल्पक स्थिर स्थूलाकार वस्तुको ग्रहण करता हैं जोउसकी दृष्टिसे अवास्तविक हैं । चूंकि शब्द भी स्थिर स्थूलाकार वस्तुको ही कहता है, निरंश वस्तुको वह कह ही नहीं सकता। अत: वौद्ध शब्दको भी अवस्तुग्राही मानता है, इसीलिए बौद्धमतमें शब्हको प्रमाण नहीं माना गया। ऐसी स्थिति में जब निर्विकल्पक और सविकल्पक अविचारक हैं और शब्द वस्तुग्राही नहीं है तब बौद्ध मतमें हिताहितका विचार और उपदेश कैसे सम्भव हो सकता है ? (अब अद्वैतवादकी आलोचना करते है-) हे शिव सुखके मन्दिर! जो अद्वैत तत्त्वका कथन करता है वह भी बुद्धिमानोंके विचारोंको प्रभावित नहीं करता ; क्योंकि अद्वैतवादमें पक्ष,हेतु और दृष्टान्त आदि कैसे बन सकते है? अद्वैतकी सिद्धि के लिए हेतुको मान लेनेसे उसके साथमे हेतुके पक्षधर्मत्व सपक्ष-सत्व आदि अनेक धर्म मानने पडते है और उनके माननेसे जिनेश्वरके द्वारा कहे गये द्वैत तत्त्वकी ही सिद्धि होती है-अद्वैतकी नहीं। अतः हे अनेकान्त नयके प्रणेता! तुम्हारे द्वारा कहे गये तत्त्वोंके सिवाय शेष सब बुद्धिसे परे प्रतीत होता है, वह बुद्धिको नहीं लगता ॥५५३५५४ । भावार्थ-अद्वैतवादी केवल एक ब्रह्म तत्त्व ही मानते है किन्तु बिना द्वैतके अद्वैतकी सिद्धि नहीं हो सकती ; क्योंकि अद्वैतकी सिद्धि बिना प्रमाणके तो हो नहीं सकती और प्रमाण माननेसे अनुमान आदि प्रमाण मानने पडेंगे । तथा बिना पक्ष हेतु और दृष्टान्तके अनुमान नहीं होता और इस सबके माननेसे अद्वैत नहीं ठहरता । हे देव! आप गुणोंसे श्रेष्ठ हैं, फिर भी यतः आप अनेकान्त नयके नायक होनेसे पूर्व मनुष्य थे, अतः जिनलोगोंकी मति द्वेषसे कलुषित है वे मोतीको Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह माप्तेषु बहुत्वं यः सहेत पर्यायविभूतिष्वपि महेत । नूनं वहिणादिषु देवतेषु कं तस्य स्फुटति तथाविधेषु ।। ५५६ बोक्षासु तपसि वचसि त्वयि नयदिहैक्यं सकलगुणेरहीन । तस्मादवैमि जगतां त्वमेव नाथोऽसि बुधोचितपादसेव ।। ५५७ da cafe कोऽपि तथापि विमुखचित्तो यदि विदलित मदनविशिख । निन्द्यः स एव धूके दिवापि विदृशीनमुपालभते न कोऽपि ।। ५५८ निष्किञ्चनोऽपि जगते न कानि जिन दिशसि निकामं कामितानि । नैवात्र चित्रमथवा समस्ति वृष्टिः किमु खादिह नो चकास्ति ।। ५५९ इति तदमृतनाथ स्मरशरमाथ त्रिभुवनपतिमतिकेतन । मम दिश जगदीशप्रशमनिवेश त्वत्पदनुतिहृदयं जिन ।। ५६० अमरतरुणीनेत्रानन्दे महोत्सवचन्द्रमाः स्मरमदमयध्वान्तध्वंसे मतः परमोऽर्यमा । अवयहृदयः कर्मारातौ नते च कृपात्मवानिति विसदृशव्यापारस्त्वं तथापि भवान्महान् ॥५६१ अनन्तगुण संनिधौ नियतबोध संपनिधो श्रुताब्धिबुधसंस्तुते परिमितोक्तवृत्तस्थिते । जिनेश्वर सतीदृशं त्वयि मयि स्फुटं तादृशे कथं सदृश निश्चयं तदिवमस्तु वस्तुद्वयम् ॥५६२ इसलिए छोड देते है कि वह जड या जलसे पैदा हुआ है ।। ५५५ ।। हे पूज्य ! जिन्हें अनुक्रम से होनेवाले बहुत आप्नोंकी मान्यता सह्य नहीं हैं निश्चय ही अवतार रूप ब्रह्मादि देवताओंके सामने वे अपना सिर फोडते हैं । अर्थात् अनेक देवताओंको जब वे नहीं मानते और फिरभी ब्रह्मादिक देवताओं को सिर नवाते है अतः उनका उन्हें सिर नवाना सिर फोडना हो जैसा है ।। ५५६|| हे सकलगुणशाली! आपके चारित्रमें, तपमें और वचनमें एकरूपता पायो जाती हैं अर्थात् जैसा आप कहते हैं वैसा ही आचरण भी करते हैं । इसलिए हे देवताओंसे पूजित चरण! आप ही तीनों लोकोंके स्वामी हैं, ऐसा मै मानता हूँ ।।५५७।। कामके वाणोंको चूर्ण कर डालनेवाले हे देव ! फिर भी यदि कोई तुमसे विमुख रहता हैं तो वही निन्दाका पात्र है, क्योंकि दिनके समय उल्लूके अन्धे हो जानेपर कोई भी सूर्यको दोष नहीं देता । ५५८|| हे जिन ! आपके पास कुछ भी नहीं है फिर भी आप जगत्की किन इच्छित वस्तुओंको नहीं देते ? अर्थात् सभीको इच्छित वस्तु देते हैं । किन्तु इसमें कोई अचरजकी बात नहीं हैं, क्योंकि आकाशके पास कुछ भी नहीं हैं फिर भी क्या आकाशसे वर्षा होती नहीं देखी जाती ।। ५५९ । इसलिए हे मोक्षपति ! हे कामके नाशक ! १९० तीनों लोकोंके स्वामियोंकी बुद्धिके धाम ! हे शान्तिके आगार ! हे जगत् के स्वामी जिनेन्द्रदेव ! मुझे अपने चरणोंमें नमस्कार भाव रखने वाला हृदय प्रदान करें अर्थात् मेरा हृदय सदा आपके चरणोंमें लीन रहे । ५६०॥ हे जिनदेव ! देवांगनाओंके नेत्रोंको आनन्दित करनेके लिए आप आनन्ददायक चन्द्रमा है और कामके मदरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए उत्कृष्ट सूर्य हैं । कर्मरूपी शत्रुके लिए आपके हृदय में थोडी भी दया नहीं हैं किन्तु जो आपको नमस्कार करता है उस पर आप कृपालु है । इस प्रकार विपरीत आचरण करनेपर भी आप महान् हैं ।। ५६१ ।। आप अनन्त गुण युक्त है और में थोडेसे परिमित ज्ञानका स्वामी हूँ । श्रुतके समुद्र विद्वानोंने पका स्तवन किया है और मेरे पास परिमित शब्द है और परिमित छन्द हैं । हे जिनेश! आपमें और मुझमें इतने स्पष्ट अन्तरके होते हुए हम दोनों समान कैसे हो सकते है इसलिए मैं और आप • Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलक चम्पूगत - उपासकाध्ययन 1 तदलमतुल त्वादृग्वाणीपथस्तवनोचिते त्वयि गुणगणापात्रैः स्तोत्रैर्जडस्य हि मादृशः । प्रणतिविषये व्यापारेऽस्मिन्पुनः सुलभे जनः कथमयमवागास्तां स्वामिन्नतोsस्तु नमोऽस्तु ते ॥ ५६३ जन्नेत्रं पात्रं निखिलविषयज्ञानमहसां महान्तं त्वां सन्तं सकलनयनी तिस्मृतगुणम् । महोदारं सारं विततहृदयानन्दविषये ततो याचे नो चेद्भवसि भगवन्नायविमुखः ॥ ५६४ मनुजदिविजलक्ष्मीलोचनालोकलीला श्चिरमिह चरितार्थास्त्वत्प्रसादात्प्रजाताः । हृदयमिदमिदानीं स्वामिसेवोत्सुकत्वात् सहवसतिसनाथं छात्रमित्रे विधेहि ॥ ५६५ सर्वाक्षरनामाक्षर मुख्याक्षराद्येकवर्ण विन्यासात् । निगिरन्ति जपं केचिदहं तु सिद्धक्रमेरेव ।। ५६६ पातालमत्यखेचरसुरेषु सिद्ध क्रमस्य मन्त्रस्य अधिगानात्संसिद्धेः समवाये देवयात्रायाम् । ५६७ पुष्पे: पर्व भिरम्बुजबीज स्वर्णाकंकान्त रत्नैर्वा । निष्कम्पिताक्षवलयः पर्यङ्कस्थो जपं कुर्यात् ।। ५६८ अङ्गुष्ठे मोक्षार्थी तर्जन्यां साधु बहिरिदं नयतु । इतरास्वङ्गलिषु पुनर्बहिरन्तश्चैहिकापेक्षी || ५६९ वचसा वा मनसा वा कार्यो जाप्यः समाहितस्वान्तैः । शतगुणमाद्ये पुण्यं सहस्रसंख्यं द्वितीये तु ।। ५७० दोनों दो वस्तु है । ५६२ ।। अतः हे अनुपम ! जब आप उस प्रकारके विद्वानोंके द्वारा स्तवन करने के योग्य है, तो मुझ मुर्खका उन स्तवनोंसे, जो तुम्हारे गुणसमूहको छूते भी नहीं, आपका स्तवन करना व्यर्थ हैं । किन्तु स्तवन करना कठिन होते हुए भी आपको नमस्कार करना तो सरल है उसमें मैं मूक कैसे रह सकता हूँ । अतः हे स्वामिन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥५६३॥ हे भगवन्! आप जगत् के नेत्र है, समस्त पदार्थोंके ज्ञानरूपी तेजके स्थान हैं, महान् हैं, समस्त शास्त्रोंमें आपके गुणों का स्मरण किया गया हैं, विनत मनुष्योंके हृदयोंको आनन्द देनेके विषय में आप महान् उदार है अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ । आशा है आप याचकसे विमुख नहीं होंगे अर्थात् मेरी प्रार्थना पूरी करेंगे । ५६४ || भगवन्! आपके प्रसादसे मानवीय और दैवीय लक्ष्मीके नेत्रोंके द्वारा मेरे जानेकी शोभा तो बहुत काल हुआ तभी : चरितार्थ हो चुकी है। अब तो मेरा हृदय आपकी सेवाके लिए उत्सुक है इसलिए अब मेरे हृदयको अपने निवाससे सनाथ करोमेरे हृदय में बसो | ५६५ ॥ (अब जप करने की विधि बतलाते हैं -) जप विधि कोई 'णमो अरहंताणं' आदि पूरे नमस्कार मन्त्रसे जाप करना बतलाते हैं । कोई अरहन्त सिद्ध आदि पच परमेष्ठी के नामाक्षरोंसे जप करना बतलाते है । कोई पंच परमेष्ठीके वाचक 'अ सि आ उ सा' इन मुख्य अक्षरोंसे जप करना बतलाते है । कोई 'ओ' अथवा 'अ' आदि एक अक्षरसे जप करना बतलाते है, किन्तु मै ( ग्रन्थकार ) तो अनादि सिद्ध पञ्चनमस्कार मन्त्रसे ही जप करना बतलाता हूँ ।। ५६६ ।। पाताल लोकमं अर्थात् भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें, मनुष्यों में, विद्याधरोंमें वैमानिक देवों में, जनसमाज में और देवयात्रामें सिद्धिदायक होने से पञ्चनमस्कारमन्त्रका सर्वत्र अति आदर है ।। ५६७ ।। पर्यङ्क आसन से बैठकर, इन्द्रियोंको निश्चल करके पुष्पोंसे या अँगुली के पर्वोंसे या कमलगट्टोंसे या सोने अथवा सूर्यकान्त मणिके दानोंसे अथवा रत्नोंसे नमस्कारमन्त्रका जप करना चाहिए || ५६८ ।। मोक्ष के अभिलाषी जपकर्ताको अंगूठेपर मालाको रखकर अंगूठेके पासवाली तर्जनी अंगुली द्वारा सम्यक् रीतिसे बाहरकी ओर जप करना चाहिए। और इस लोकसम्बन्धी किसी शुभ कामनाकी पूर्ति के अभिलाषीको शेष अंगुलियोंके द्वारा बाहर या अन्दर की ओर जप करना चाहिए ||५६९ || मनको स्थिर करके वचनसे या केवल मनसे जप करना चाहिए । बोल-बोलकर जप करनेसे सौगुना पुण्य होता है, किन्तु मन-ही-मन में जप करनेसे हजारगुना पुण्य ! १९१ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ श्रावकाचार-संग्रह नियमितकरणग्रामः स्थानासनमानसप्रचारज्ञः । पवनप्रयोगनिपुणः सम्यसिद्धो भवेदशेषज्ञः।।५७१ इममेव मन्त्रमन्ते पञ्चत्रिशत्प्रकारवर्णस्थम् । मुनयो जपन्ति विधिवत्परमपदावाप्तये नित्यम्।।५७२ मन्त्राणामखिलानामयमेकः कार्यकृद्भवेत्सिद्धः । अस्यैकदेशकार्य परे तु कुर्युनं ते सर्वे ।। ५७३ कुर्यात्करयोन्यासं कनिष्ठिकान्त प्रकारयुगलेना तदनुहदाननमस्तककवचास्त्रविधिविधातव्यः।।५७४ संपूर्णमतिस्पष्टं सनादमानन्दसुन्दरं जपतः । सर्वसमोहितसिद्धिनि:संशयमस्य जायेत ।। ५७५ होता है ॥५७०।। जो अपनी इन्द्रियोंको वश में कर लेता हैं और स्थान,आसन व मनके संचारको जानता हैं तथा श्वासोज्छवासके प्रयोगमें सिद्धहस्त होता है,वह सर्वज्ञ होकर सिद्ध पद प्राप्त करता हैं ।।५७१।। भावार्थ-आशय यह हैं कि जपके लिए इन्द्रियोंको वशमं करना आवश्यक है, उसके बिना जपमें मन नहीं लग सकता और बिना मन लगाये जप हो भी नहीं सकता। क्योंकि यदि मुंहसे मन्त्र बोलते रहने और हाथों से गुरिया सरकाते रहने पर भी मन कहीं और भटकता है तो वह जाप बेकार हैं। ऊपर जो मनसे और वचनसे जाप करना बतलाया हैं उसका यह मतलब नहीं हैं कि वचनसे किये जानेवाले जापमें मनको छुट्टी रहती हैं। मन तो हर हालतमें उसीमेलगा रहना चाहिए। किन्तु मनसे किये जानेवाले जापमें वचनका उच्चारण नहीं किया जाता और मन-हीमनमें जप किया जाता है । अतः प्रत्येक प्रकारके जपके लिए इन्द्रियोंपर काबू होना आवश्यक है। दूसरे, स्थान कैसा होना चाहिए,आसन किस प्रकार लगाना चाहिए, मन्त्रों में मनका संचार किस प्रकार करना चाहिए-ये सब बातें भी जप करनवालेको ज्ञात होनी चाहिए। तथा जप करते समय श्वासकी गति कैसी होनी चाहिए, कितने समयमें श्वास लेना चाहिए और कब छोडना चाहिए, इस क्रियाका अच्छा अभ्यास होना चाहिए। जो इन सब बातोंका अभ्यासी होकर जप करता हैं वह सच्चा ध्यानी बनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं । मुनि भी मोक्षको प्राप्तिके लिए इसी पैंतीस अक्षरोंके नमस्कारमन्त्रीको सदा विधिपूर्वक जपते हैं ॥५७२।। यह अकेला ही सब मन्त्रोंका काम करता है किन्तु अन्य सब मन्त्र मिलकर भी इसका एक भाग भी काम नहीं करते । ५७३।। (जप प्रारम्भ करनेसे पूर्व सकलीकरण विधान) दोनो हाथोंकी अंगुलियोंपर अँगूठेसे लेकर कनिष्ठिका अगुलीतक दो प्रकारसे मन्त्रका न्यास करना चाहिए। उसके पश्चात् हृदय मुख और मस्तकका सकलीकरण विधि करना चाहिए ।।५४७।। भावार्थ-'ॐ हां णमो अरहंताणं न्हां अंगुष्ठाभ्यां नमः, यह मन्त्र पढकर दोनों अंगूठोंको पानीमें डुबोकर शुद्ध करे । 'ॐ न्हीं णमो सिद्धाणं ही तर्जनीभ्यां नमः इस मन्त्रको पढकर दोनों तर्जनी अंगुलियोंको शुद्ध करे 'ॐ हूं णमो पायरियाणं हूं मध्यमाभ्यां नमः'इस मन्त्रको पढकर दोनों बीचकी अंगुलियोंको शुद्ध करे। 'ॐ हौ णमों उवज्झायाणं ण्हौं जनामिकाभ्यां नमः' इस मन्त्रको पढकर दोनों अनामिका अँगुलियोंको कनिष्ठिका अँगुलियोंको शुद्ध करे । फिर 'ॐ हीं हूँ -हौं न्हः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः' इस मन्त्रको पढ दोनों हथेलियोंको दोदों तरफसे शुद्ध करे। 'ॐ न्हां णम। अरहताणं हां मम शीर्ष रक्ष रक्ष स्वाहा'इस मन्त्रको पढकर मस्तकपर पुष्प डाले । 'ॐ ही णमो सिद्धाणां हीमम वदनं रक्ष रक्ष स्वाहा' इस मन्त्रको पढकर अपने मुखपर पुष्प डाले। 'ॐ है। णमो उवज्झायाणं न्हौं मम नाभिं रक्ष रक्ष स्वाहा' इस मंत्रको पढकर नाभिक स्पर्श करे। 'ॐ हः णमो लोए सव्वसाहूणं Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन मन्त्रोऽयमेव सेव्यः परत्र मन्त्रे फलोपलम्भेऽपिायद्यप्यग्रेविटपीफलति तथाप्यस्य सिच्यते मूलम् ॥५७६ अत्रामुत्र च नियतकामितफलसिद्धयेपरोमन्त्रःानाभूदस्तिभविष्यतिगुरुपञ्चकवाचकान्मन्त्रात्।।५७७ अभिलषितकामधेनौ दुरितद्रमपावके हि मन्त्रेऽस्मिन् । दृष्टादृष्टफले सति परत्रमन्त्रेकथं सजतु॥५७८ इन्थं मनो मनसि बाह्यमबाह्यवृत्ति कृत्वा हृषीकनगरं मरतो नियम्य। सम्यग्जपं विदधत सुधियः प्रयत्नाल्लोकत्रयेऽस्य कृतिनः किमसाध्यमस्ति ।।५७९।। आदिध्यासुः परंज्योतिरीप्सुस्तद्धाम शाश्वतम् । इमं ध्यानविधि यत्नादभ्यस्यतु समाहितः।। ५८० तत्त्वचिन्तामताम्भोधो दृढमग्नतया मनः । बहियाप्तो जडं कृत्वा द्वयमासनमाचरेत् ।। ५८१ सूजमप्राणयमायामः सन्नसर्वाङ्गसंचरः । ग्रावोत्कीर्ण इवासीत ध्यानानन्दसुधां लिहन् । ५८२ यदेन्द्रियाणि पञ्चापि स्वात्मस्थानि समासते। तदा ज्योतिः स्फुरत्यन्तश्चित्ते चित्तं निमज्जति।।५८३ चित्तस्यैकाग्रता ध्यानं ध्यातात्मा तत्फलप्रभुः । ध्येयमागमज्योतिस्तद्विदेहयातना ॥ ५८४ तैरश्चमामरं मार्त्य नामसं भौममङ्गजम् । सहतु समधीः सर्वमन्तरायं द्वयातिगः ।। ५८५ हः मम पादौ रक्ष रक्ष स्वाहा' इस मंत्रको पढकर पैरोंपर पुष्प डाले। इस प्रकार यह सकलीकरण क्रिया मन्त्र जपनेसे पूर्व करना चाहिए। (नमस्कार मन्त्रके जपका फल तथा माहात्म्य-) जो आनन्दपूर्वक प्राणवायके साथ सम्पूर्ण मन्त्रका अत्यन्त स्पष्ट जप करता है उसके सब मनोरथ पूर्ण होते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।५७५।। अन्य मन्त्रोंसे फल प्राप्ति होनेपर भी इसी नमस्कारमन्त्रकी आराधना करनी चाहिए। क्योंकि यद्यपि वृक्षके ऊपरके भागमें फल लगते है फिर भी उसकी जड ही सींची जाती है । अर्थात् यह मन्त्र सब मन्त्रोंका मूल है इस सिए इसीकी आराधना करनी चाहिए ।।५७६।। पंच परमेष्ठीके वाचक इस णमोकार मन्त्रके सिवाय इस लोक और परलोकमें इच्छित फलको नियमसे देनेवाला दूसरा मन्त्र न था, न है और न होगा ॥५७७।। जब यह मन्त्र इच्छित वस्तुके लिए कामधेनु और पापरूपी वृक्षके लिए आगके समान हैं तथा दृष्ट और अदृष्ट फलको देता है तो अन्योंम क्यों लगा जाये । अर्थात् इसी एक मन्त्रका जप करना उचित हैं ॥५७८।। इस प्रकार मनको मनमें और इन्द्रियोंके समूहको आभ्यन्तरकी ओर करके तथा श्वासोच्छ्वासका नियमन करके जो बुद्धिमान् प्रयत्नपूर्वक सम्यग् जप करता है उस कर्मठ व्यक्तिके लिए तीनों लोकोंमें कुछ भी असाध्य नहीं है ॥५७९।। (अब ध्यानको विधि बतलाते हैं-) जो अर्हन्त भगवान्का ध्यान करनेका इच्छुक है और उस स्थायी मोक्ष स्थानको प्राप्त करता चाहता है,उसे सावधान होकर प्रयत्नपूर्वक आगे बतलायी गयी ध्यानकी विधिका अभ्यास करना चाहिए ॥५८०॥ तत्त्वचिन्तारूपी अमृतके समुद्रम मनको ऐसा डुबा दो कि वह बाह्य बातोंमें एकदम जड हो और फिर पद्मासन या खड्गासन लगाओ।।५८१।। ध्यानरूपी आनन्दामृतका पान करते समय श्वासवायुको बहुत धीमेसे अन्दरकी ओर ले जाना चाहिए और बहुत धीमेसे बाहर निकालना चाहिए । तथा समस्त अंगोंका हलन-चलन एकदम बन्द होना चाहिए उस समय ध्यानी पुरुष ऐसा मालूम हो मानो पत्थरकी मूर्ति है ।।५८२।। जब पाँचो इन्द्रियाँ बाह्य व्यापारको छोडकर आत्मस्थ हो जाती है और चित्त अन्तरात्मामें लीन हो जाता हैं तब अन्तरात्मामें ज्योतिका उदय होता हैं ।।५८३॥ चित्त की एकाग्रताको ध्यान कहते हैं। आत्मा ध्याता यानी ध्यान करनेवाला हैं। वही ध्यानके फलका स्वामी है । आत्मा और श्रुतज्ञान ध्येय है,ध्यानमें उन्हींका चिन्तन किया जाता है और शरीर तथा इन्द्रियोंपर काबू रखना ध्यानका उपाय हैं ।।५८४।। ध्यान करते समय Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ श्रावकाचार-संग्रह नाक्षमित्वमविघ्नाय न क्लीबत्वसमृत्यवें । तस्मादविलश्यमानात्मा परं ब्रह्मैव चिन्तयेत् ।। ५८६ यत्रायमिन्द्रियग्रामो व्यासङ्गस्तेनविप्लवंम् । नारनवीत तमुद्देशं भजेताध्यात्मसिद्धये ॥ ५८७ फल्गजन्माप्ययं देहो यदलाबुफलायते । संसारसागरोत्तारे रक्ष्यस्तस्मात् प्रयत्नतः ॥ ५८८ नरेऽधीरें वृथा वर्म क्षेत्रेऽसस्ये वृतिर्वृथा । यथा सर्वो ध्यानशून्यस्य तद्विधिः ।। ५८९ बहिरन्तस्तमोवातरस्पन्दं बीपवन्मनः । यत्तत्त्वालोकनोल्लासि तत्स्यायानं सबीजकम् ।। ५९० निविचारावतारासु चेतःस्रोतःप्रवृत्तिषु। आत्मन्येव स्फुरन्नात्मा भवेदध्यानमबीजकम। ५९१ यदि कोई पशुकृत उपसर्ग उपस्थित हो जैसे सुकुमाल मुनिपर श्रृगालौने किया था, या देवकृत उपसर्ग उपस्थित हो,जैसे भगवान् पार्श्वनाथके ऊपर कमठके जीव व्यन्तरने किया था,या मनुष्यकृत उपसर्ग उपस्थित हो जैसे पाण्डवोंपर उनके शत्रुओंने किया था, या आकाशसे अचानक बिजली,पानी और ओला बरसने लगे,या जमीन चुभने लगे अथवा शरीर में ही कोई पीडा उत्पन्न हो जाये तो ध्यानी पुरुषको राग-द्वेष न करके सब प्रकारकी बाधाओंको शान्तिपूर्वक सहना चाहिए ॥५८५।। ऐसे समय असहनशीलता दिखानेसे विघ्न दूर नहीं हो सकता और न कायरता दिखलानेसे जीवन ही बच सकता हैं । अतः किसी प्रकारका दुःख न मानकर परमात्माका ही ध्यान करना चाहिए ।।५८६।। जहाँपर इन्द्रियोंको अन्य पदार्थमें आसक्तिरूपी चोरके द्वारा कोई बाधा प्राप्त न हो अर्थात् इन्द्रियाँ इधर-उधर न भटक कर अपनेमें ही आसक्त रहें,आत्माकी सिद्धिके लिए ऐसे ही स्थानपर ध्यान करना चाहिए ।।५८७॥ (यदि कोई यह सोचे कि यह शरीर तो अपना नहीं हैं और नष्ट होने वाला है। इसलिए इसे जल्दी नष्ट कर डालना चाहिए,तो उसके लिए कहते हैं-) यद्यपि इस शरीरका जन्म निरर्थक हैं फिर भी संसाररूपी समुद्र से पार उतरनेके लिए यह तुम्बी के समान सहायक हैं । इसलिए प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिए ॥५८८।। भावार्थयद्यपि तुम्बीका जन्म निरर्थक होता है,वह खाने आदिके योग नहीं होती फिर भी नदी आदि को पार करने में वह सहायक होती हैं, इस लिए लोग उसे नष्ट न करके पास रखते है । वैसे ही शरीर भी व्यर्थ हैं वह न होता तो आत्माको वारम्बार जन्म-मरणका दुःख क्यों उठाना पडता। फिर भी शरीरके बिना धर्म साधन नहीं हो सकता। ध्यानके लिए तो सुदृढ संहननवाले शरीरकी आवश्यकता होती है । अतः उसे यों ही नष्ट नहीं कर डालना चाहिए,किन्तु उसकी रक्षा करनी चाहिए, परन्तु यदि वह रक्षा करनेपर भी न बच सकता हो तो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। सारांश यह है कि धर्म सेवनके लिए शरीरको स्वस्थ बनाये रखना जरूरी हैं किन्तु धर्म खोकर शरीरको बनाये रखना मूर्खता है, जैसे कायर मनुष्यको कवच पहनाना व्यर्थ है और बिना घान्यके खेत में बाड लगाना व्यर्थ है,वैसे ही जो मनुष्य ध्यान नहीं करता उसके लिए ध्यानकी सब विधि व्यर्थ हैं ॥५८९॥ (ध्यान दो प्रकारका होता है-एक संबीज ध्यान और दूसरा अबीज ध्यान । दोनोंका स्वरूप बतलाते है-) जैसे वायुरहित स्थानमें दीपकको लौ निश्चल रहती हैं वैसे ही जिस ध्यानमें मन अन्तरंग और सहिरंग चंचलतासे रहित होकर तत्त्वोंके चिन्तनमें लीन रहता है उसे सबीज ध्यान कहते हैं और मनमें किसी विचारके न होते हुए जब आत्मा-आत्मामें ही लीन होता है उसे निर्बीज ध्यान कहते हैं ॥५९०-५९१।। भावार्थ-कर्मोके क्षय होनेसे ही मोक्ष होता हैं । और कर्मोका क्षय ध्यानसे होता है अतः जो सुमुक्षु है उन्हें ध्यानका अभ्यास अवश्य करना चाहिए। ध्यान करनेके लिए मोहका त्याग आवश्यक हैं ; क्योंकि जिसका मन स्त्री पुत्र और धनादिमें आसक्त . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १९५ है वह आत्माका ध्यान कैसे कर सकता है। इसलिए जो कामभोगसे विरक्त होकर और शरीरसे भी ममता छोडकर निर्ममत्ववाला हो जाता है वही पुरुष ध्याता हो सकता है। ध्यान शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है । वस्तुके यथार्थ स्वरूपका चिन्तन करना शुभ ध्यान है और मोहके वशीभूत होकर वस्तुके अयथार्थ स्वरूपका चिन्तन करना अशुभ ध्यान है। शुभ ध्यानसे स्वर्गादिनी प्राप्ति होती हैं और अशुभ ध्यानसे नरकादिकमें जन्म लेना पडता हैं। एक तीसरा ध्यान भी हैं जिसे शुद्ध ध्यान कहते है। रागादिके क्षीण हो जानेसे जब अन्तरात्मा निर्मल हो जातो हैं तब जो अपने स्वरूपको उपलब्धि होती हैं वह शुद्ध ध्यान है । इस शुद्ध ध्यानसे ही स्वाभाविक केवल ज्ञानलक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। सारांश यह कि जीवके परिणाम तीन प्रकारके होते है-अशुभ,शुभ और शुद्ध । अतः अशुभसे अशुभ, शुभसे शुभ और शुद्धसे शुद्ध ध्यान होता हैं। आर्त और रौद्र ध्यान अशुभ होते है,अतः उन्हें नहीं करना चाहिए । धर्मध्यान शुभ है और शुक्ल ध्यान शद्ध हैं ये दो ही ध्यान करने के योग्य है। इनमें पहले धर्म ध्यान ही किया जाता हैं। उसके लिए ध्यान करनेवालेको उत्तम स्थान चुनना चाहिए; क्योंकि अच्छे और बुरे स्थानका भी मनपर बडा प्रभाव पडता है । जहाँ दुष्ट लोग उपद्रव कर सकते हों,स्त्रियां विचरण करती हों वहाँ ध्यान नहीं करना चाहिए । तथा जहाँ तृण, काँटे, बाँबी, कंकड, खुरदरे पत्थर, कीचड, हाड, रुधिर आदि हो वहाँ भी ध्यान नहीं करना चाहिए । सारांश यह हैं कि जहाँ किसी वाह्य निमित्तसे मनमें क्षोभ उत्पन्न हो सकता हैं वहाँ ध्यान नहीं हो सकता। इसलिए ध्यान करनेवालेको ऐसे स्थान त्याग देने चाहिए । सिद्धिक्षेत्र, तीर्थङ्करोंके कल्याणकोंसे पवित्र तीर्थस्थान, मन्दिर, वन, पर्वत, नदीका किनारा, गुफा आदि स्थान जहाँ किसी तरहका कोलाहल न हो, समस्त ऋतुओंमें सुखदायक हों,रमणीक हों, उपद्रवरहित हों, वर्षा, धाम, शीत और वायुके प्रबल झकोरोंसे रहित हों, ध्यान करने के योग्य होते है। ऐसे शान्त स्थानों में काष्ठके तख्तेपर, शिलापर या भूमिपर अथवा बालूमें आसन लगाना चाहिए पर्यक आसन,अर्द्धपर्यङ्कासन,वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन,और कायोत्सर्ग ये ध्यानके योग्य आसन माने गये हैं । इस समय चूंकी जीवोंके शरीर उतने दृढ और शक्तिशाली नहीं होते,इसलिए पर्यकासन ओर कायोत्सर्ग ये दो आसन ही उत्तम माने जाते हैं। स्थान और आसन ध्यानकी सिद्धि में कारण है। इनमें से यदि एक भी ठीक न हो तो मन स्थिर नहीं हो पाता । ध्यानीको चाहिए कि वह चितको प्रसन्न करनेवाले किसी रमणीक स्थानमें जाकर पर्यंकासनसे ध्यान लगाके पालथी लगाकर दोनों हाथोंको खिले हए कमलके समान करके अपनी गोदमें रखें । दोनों नेत्रोंको निश्चल, सौम्य और प्रसन्न बनाकर नाकके अग्र भागमें ठहरावे । भौंहें विकाररहित हों और दोनों होठ न तो बहुत खुले हों और न बहुत मिले हों। शरीर सीधा और लम्बा हो मानो दीवारपर कोई चित्राम बना है। ध्यानकी सिद्धि और मनकी एकाग्रताके लिए प्राणायाम भी आवश्यक माना जाता हैं । प्राणायाम वायुकी साधनाको कहते हैं । शरीरमें जो वायु होती हैं वह मुख नाक आदि के द्वारा आती जाती हैं। इसके कारण भी मन चंचल रहता हैं । जब वह वशमें हो जाती है तब मन भी वश में हो जाता है। किन्तु जैनशास्त्रोंमें प्राणायामको चित्तशुद्धिका प्रबल साधन नहीं माना गया है ; क्योंकि उसको हठपूर्वक करनेसे मन स्थिर होने के बदले व्याकुल हो उठता है । अतः मोक्षार्थीके लिए प्राणायाम उपयुक्त नहीं हैं। किन्तु ध्यानके लमय श्वासोच्छ्वासका मन्द होना आवश्यक है, जिससे उसके कारण ध्यानमें विघ्न न Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकार-संग्रह चित्तेऽनन्तप्रभावेऽस्मिन्प्रकृत्या रसवच्चले । तत्तेजसि स्थिरे सिद्ध न किसिद्ध जगत्त्रये ॥ ५९२ पड सके । अतः ध्यान करने के लिए इन्द्रियोंको वशमें करके और राग-द्वेषको दूर करके अपने मनको ध्यानके दस स्थानोंमेसे किसी एक स्थान पर लगाना चाहिए। नेत्र, कान, नाकका अग्र भाग, सिर, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय,तालु और दोनों भौंहोंका बीच-ये दस स्थान मनको स्थिर करनेके योग्य हैं। इनमें से किसी एक स्थान पर मनको स्थिर करके ध्येयका चिन्तन करनेसे ध्यान स्थिर होता है । ध्यान करनेसे पहले ध्यानी को यह विचारना चाहिए कि देखो, कितने खेदकी बात है कि मै अनन्त गुणोंका भण्डार होते हुए भी संसाररूपी वनमें कर्मरूपी शत्रुओंसे ठगाया गया। यह सब मेरा ही दोष है। मैने ही तो इन शत्रुओंका पाल रखा है। यदि मै रागा. दिक बन्धनोंमें बँधकर विपरीत आचरण न करता तो कर्मरूपी शत्रु प्रबल ही क्यों होते? अस्तु, अब मेरा रासरूपी ज्वर उतर चला है और मै मोह नींदसे जाग गया हूं, अतः अब ध्यानरूपी तलवारकी धारसे कर्म-शत्रुओंको मारे डालता हूँ। यदि मै अज्ञानको दूर करके अपनी आत्माका दर्शन करूँ तो कर्मशत्रुओंको क्षणभरमें जलाकर राख कर दूं तथा प्रबल ध्यानरूपी कुठारसे पापरूपी वृक्षोंको जडमूलसे ऐसा काटूं कि फिर इनमें फल ही न आ सके । किन्तु मै मोहसे ऐसा अन्धा बना रहा कि मैने अपनेको नहीं पहचाना । मेरा आत्मा परमात्मा हैं परंज्योतिरूप है, जगत में सबसे महान् हैं। मुझमें और परमात्मामें केवल इतना ही अन्तर हैं कि परमात्मामें अनन्तचतुष्टयरूप गुण व्यक्त हो चुके है और मेरेमें वे गुण शक्तिरूपसे विद्यमान है। अतः मै उस परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए अपनी आत्माको जानना चाहता हूँ। न मै नारकी हूँ, न तिर्यञ्च हूँ, न मनुष्य हूँ, और न देव हूँ, 1 ये सब कर्मजन्य अवस्थाएँ है । मै तो सिद्धस्वरूप हूँ। अतः अनन्त ज्ञान,अनन्त' दर्शन,अनन्त सुख और अनन्तवीर्यका स्वामी होनेपर भी क्या मै कर्मरूपी विषवृक्षोंको उखाड कर नहीं फेक सकता? आज मै अपनी शक्तिको पहचान गया हूँ और अब बाह्य पदार्थोकी चाहको दूर करके आनन्दमन्दिरमें प्रवेश करता हूँ। फिर मै कभी भी अपने स्वरूपसे नहीं डिगूंगा । ऐसा विचारकर दृढ निश्चयपूर्वक ध्यान करना चाहिए। जिसका ध्यान किया जाता हैं उसे ध्येय कहते हैं ध्येय दो प्रकारके होते हैं-चेतन और अचेतन। चेतन तो जीव हैं और अचेतन शेष पाँच द्रव्य है । चेतन ध्येय भी दो हैं-एक तो देहसहित अरिहन्त भगवान् हैं और दूसरे देहरहित सिद्ध भगवान् है। धर्मध्यानमें इन्हीं जीवाजीवादिक द्रव्योंका ध्यान किया जाता हैं । जो मोक्षार्थी है वे तो और सब कुछ छोडकर परमात्माका ही ध्यान करते हैं। वे उसमें अपना मन लगाकर उसके गुणोंको चिन्तन करते-करते अपनेको उसमें एक रूप करके तल्लीन हो जाते है । 'यह परमात्माका स्वरूप ग्रहण करने के योग्य है और मै इनका ग्रहण करनेवाला हूँ,ऐसा द्वैत भाव तब नहीं रहत । उस समय ध्यानी मुनि अन्य सब विकल्पोंको छोडकर उस परमात्मस्वरूपमें ऐसा लीन हो जाता हैं कि ध्याता और ध्यानका विकल्प भी न रहकर ध्येय रूपसे एकता हो जाती है। इस प्रकारके निश्चल ध्यानको सबीज ध्यान कहते है। इससे ही आत्मा परमात्मा बनता हैं और जब शुद्धोपयोगी होकर मुनि अपनी शुद्ध आत्माका ध्यान करता हैं तो उस ध्यानको निर्बीज ध्यान कहते हैं। यह चित्त अनन्त प्रभावशाली हैं किन्तु स्वभावसे ही पारेकी तरह चचल है । जैसे आग के द्वारा पारा सिद्ध हो जाता है उसी तरह यदि यह आत्मज्ञानमें स्थिर होकर सिद्ध हो जाये तो इसके सिद्ध होनेसे तीनों लोकोंमें ऐसी कौन-सी वस्तु है जो सिद्ध यानी प्राप्त न हो ॥५९२॥ भावार्थ-पारा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन १९७ निर्मनस्के मनोहंसे हंसे सर्वतः स्थिरे । बोधहंसोऽखिलालोक्यसरोहंसः प्रजायते ॥ ५९३ यद्यप्यस्मिन्मन:क्षेत्रे क्रियां तां तां समादधत् । कंचिद्वेदयते भावं तथाप्यत्र न विभ्रमेत् ॥ ५९४ विपक्षे क्लेशराशीनां यस्मान्नैष विधिर्मतः । तस्मान्न विस्मयेतास्मिन् परब्रह्म समाश्रितः ।। ५९५ प्रभावैश्वर्य विज्ञानदेवतासंगमादयः। योगोन्मेषाद्धवन्तोऽपि नामी तत्त्वविदा मुदे ।। ५९६ भूमौ जन्मेति रत्नाना यथा सर्वत्र नोद्भवः । तथात्मजमिति ध्यानं सर्बत्राङिगनि नोद्भवेत् ॥५९७ तस्य कालं वदन्त्यन्तर्मुहूर्त मुनयः परम् । अपरस्पन्दमानं हि तत्परं दुर्धरं मनः ॥ ५९८ तत्कालमपि तद्धयानं स्फुरदेकारमात्मनि । उच्चैः कर्मोच्चयं भिन्द्यावलं शैलमिव क्षणात् ।। ५९९ कल्पैरप्यम्बुधिः शक्यश्चुलुक!च्चुलुम्पितुम् । कल्पान्तभूः पुनर्वातस्तं महुः शोषमानयेत् ॥ ६०० रूपे मरुति चित्ते च तथान्यत्र यथा विशन् । लभेत कामितं तद्वदात्मना परमात्मनि ॥ ६०१ स्वभावसे ही चचल होता है, किन्तु यदि आगमें आंत्र देकर विधिपूर्वक उसे सिद्ध कर लिया जाये तो उसके सिद्ध होनेसे अनेक रससिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है। वैसे ही चञ्चल मन यदि आत्मरबरूपमें स्थिर हो जाये तो फिर ऐसी कौन-सी सिद्धि हैं जो प्राप्त नहीं हो सकती। अतः मनको स्थिर करना आवश्यक है। यदि यह मनरूपी इंस अपना व्यापार छोडे दे और आत्मरूपी हंस सर्वथा स्थिर हो जाये तो ज्ञानरूपी हंस समस्त ज्ञेयरूपी सरोवरका हंस बन जाये अर्थात मन निश्चल होनेके साथ यदि आत्मा,आत्मामें सर्वथा स्थिर हो जाये तो विश्वको जाननेवाला केवलज्ञान प्रकट होता है ।।५९३।। यद्यपि इस मनरूपी क्षेत्र में अनेक क्रियाओंको करता हुआ मुनि किसी पदार्थको जान लेता है, फिर भी उसमें धोखा नहीं खाना चाहिए। क्योंकि विपक्षमें नाना क्लेशोंके रहते हुए ऐसा करना उचित नहीं है । अतः परब्रह्म परमात्मस्वरूपका आश्रय लेनेवालेको इस विपयमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।।५९४-५९५ । भावार्य-आशय यह हैं कि मनोनिग्रह करनेसे यदि कोई छोटी-मोटो ऋद्धि या ज्ञान प्राप्त हो जाये तो मोक्षार्थी ध्यानीको उसी में नहीं रम जाना चाहिए, क्योंकि उसका उद्देश्य इससे बहुत ऊँचा हैं । वह तो संसारके दुःखोंका समूल नाश करके परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए योगी बना हैं, अतः उसे प्राप्त किये बिना उसे विश्राम नहीं लेना चाहिए और मामूली लौकिक ऋद्धिसिद्धिके चक्कर में नहीं पड जाना चाहिए। क्योंकि उसके प्राप्त हो जानेपर भी अनन्त क्लेश राशिसे छुटकारा नहीं हो सकता । यही आगे स्पष्ट करते हैं-ध्यानका प्रादुर्भाव होनेसे प्रभाव, ऐश्वर्य, विशिष्ट ज्ञान और देवताका दर्शन आदिकी प्राप्ति होनेपर भी तत्त्वज्ञानी इनसे प्रसन्न नहीं होते ।।५९६।। जैसे भूमिसे रत्नोंकी उत्पत्ति होनेपर भी सब जगह रत्न पैदा नहीं होता, वैसे ही ध्यानके आत्मासे जन्य होनेपर भी सभी प्राणियोंकी आत्माओंमें ध्यान उत्पन्न नहीं होता ॥५९७॥ मुनिजन उस ध्यानका काल अन्तुर्मुहर्त बतलाते है उतने काल तक मन निश्चिल रहता हैं इससे अधिक समय तक मनको स्थिर रखना अत्यन्त कठिन हैं ।।५९८।। किन्तु आत्मामें इतने समयके लिए भी होनेवाला निश्चल ध्यान महान् कर्मसमूहका उसी प्रकार भेदन करता है जैसे वज्र क्षण भरमें पहाडको चूर्ण कर डालता है ।।५९९।। ठीक ही है सैकडो कल्पकालो तक चुल्लुओंके द्वारा समुद्रके जलको उछालने पर भी किसी मूर्ति में या चित्तमें या अन्य किसी बाह्य वस्तुमें मनको लगानेसे इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है वैसे ही आत्माके द्वारा परमात्मामें मनको लगानेसे परमात्मपदकी प्राप्ति होती है।.६०१॥ वैराग्य, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ श्रावकाचार-संग्रह वैराग्यं ज्ञानसंपत्तिरसङ्ग स्थिरचित्तता । मिस्मयसहत्वं च पञ्च योगस्य हेतवः ।। ६०२ आधिव्याधिविपर्यासप्रमादालस्यविभ्रमाः । अलाम: सङ्गितास्थैर्यमेते तस्यान्तरायकाः ॥ ६०३ यः कण्टकैस्तुवत्यङ्गं यश्च लिम्पति चन्दनः । रोषतोषाविषिक्तात्मा तयोरासीत लोष्ठवत् ॥६०४ ज्योतिबिन्दुःकलानादः कुण्डलीवायुसंचरः । मद्रामण्डलचोंद्यानि निर्बीजीकरणादिकम् ।। ६०५ ज्ञान सम्पदा, निष्परिग्रहता, चित्तकी स्थिरता तथा भूख-प्यास, शोक-मोह, जन्ममृत्युकी तथा मदको सहन करना ये पाँच बातें ध्यानमें कारण हैं ॥६०२।। पानसिक पीडा, शारीरिक रोग अतत्त्वको तत्त्व मानना,तत्त्वको समझने में अनादर करना,तत्त्वको प्राप्त करके भीउसपर आचरण न करना,तत्त्व और अतत्त्वको समान मानना,अज्ञानवश तत्त्वकी प्राप्ति न होना,योगके कारणोंमें मनको न लगाना, ये सब ध्यानके अन्तराय है ।।६०३।। भावार्थ-ध्यान मनकी एकाग्रताके होनेसे होता है और मन एकाग्र तभी हो सकता हैं या अपनी ओर तभी लग सकता है जब संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्ति हो, स्व और पदके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हो, पासमें थोडा-सा भी परिग्रह न हो,अन्यथा परिग्रहमें फंसे रहनेसे मन आत्मोन्मुख नहीं हो सकता, और चित्त भी स्थिर नहीं रह सकता। तथा भूख-प्यास वगैरहका कष्ट सहन करनेको भी क्षमता होना जरूरी हैं, नहीं तो थोडा-सा भी कष्ट होनेसे मनके अस्थिर हो उठनेपर ध्यान कैसे हो सकता है? इसी तरह यदि मनमें अहङ्कार उत्पन्न हो गया तब भी मन आत्मोन्मुख नहीं हो सकता । इसलिए ऊपर ध्यानके लिए पाँच बातें आवश्यक बतलाई हैं और कुछ बातें ध्यानको बाधक बतलाधी हैं। यदि मनमें या शरीरमें कोई पीडा हई तो ध्यान करना कठिन होता है इसी तरह प्रमादी और आलसी मनुष्य भी ध्यान नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसे मनुष्य प्रायः आरामतलब होते हैं और आरामतलब आदमी कष्ट नहीं सह सकता। जो सन्देह और विपरीत ज्ञानसे ग्रस्त है, जिन्हें यही निश्चय नहीं हैं कि आत्मा परमात्मा बन सकता है या ध्यान परमात्मपदका कारण है वे योगी बनकर भी योगकी साधना नहीं कर सकते, क्योंकि उनके चित्त में यह सन्देह बराबर काँटेको तरह कसकता रहता हैं कि न जाने इससे कुछ होगा या नहीं, यह सब बेकार न हो आदि । जो किसी लौकिक वाञ्छासे ध्यान करते है यदि उनकी वह वाच्छा पूरी न हुई तो उनका मन ध्यानसे विचलित हो जाता है, और जो परिग्रही और अस्थिर चित्त है उनका मन भी एकाग्र नहीं हो सकता। इसलिए ये सब बातें ध्यानमें विघ्न करनेवाली है । जो शरीरको काँटोंसे छेदे और जो शरीरपर चन्दनका लेप करे उन मनुष्योंपर रोष और प्रसन्नता न करके ध्यानी पुरुषको लोष्ठके समान होना चाहिए। अर्थात् जैसे लोढेपर इन बातोंका कोई प्रभाव नहीं होता वैसे ध्यानीपर भी इन बातोंका कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए और उसे दोनोंमे समबुद्धि रखनी चाहिए ।.६०४।। अब अन्य मत सम्बन्धी ध्यानका वर्णन कर उसकी समीक्षा करते हैं-तान्त्रिकों की मान्यता है कि योगी पुरुष ज्योति (ओंकार) बिन्दु (पीत-शुभ्रादि वर्णवाली बिन्दु) कला (अर्धचन्द्र) नाद (अनुस्वारके ऊपर रेखा) कुण्डली (पिंगला, इला, सुपुम्ना) वायुसंचार (कुम्भक, तेचक, पूरक) मुद्रा (पद्मासन वीरासन आदि) मण्डल (त्रिकोण, चतुष्कोण, वृत्ताकार आदि) इनके द्वारा की जानेवाली क्रियाएं, निर्बीजकरण (असंप्रज्ञात समाधि) में कारण है। इन्हें नाभिमें, नेत्रस्थानमें, ललाटपर, ब्रह्मग्रन्थि (आंतडियों के समूह) में, तालुमें, : Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन नामी नेत्रे ललाटे च ब्रह्मग्रन्थों च तालुनि । अग्निमध्ये रवी चन्द्रे लतातन्तो हृदङ्करे ॥६०६ मृत्युञ्जयं यदन्तेषु तत्तत्त्वं किल मुक्तये । अहो मूढधियामेष नयः स्वपरवञ्चनः ।। ६०७ कर्माण्यपि यदीमानि साध्यान्येवंविधैर्नयैः । अलं तपोजपाप्तेष्टिदानाध्ययनकर्मभिः ।। ६०८ अग्निमध्य (नासिका-रन्ध्र) में, रवि (दक्षिणनाडी) में, चन्द्र (वामनाडी) में, लतातन्तु (जननेन्द्रिय) में, हृदयाङ्कर में अन्तिम मरण वेलाके समय जब किया जाता हैं,तब ध्यानी पुरुष मृत्युको जीत लेता हैं। अतः ये सब मुक्ति के लिए साधन स्वरूप हैं। आश्चर्य की बात है कि मूढ बुद्धि पुरुषोंको ठगने के लिए लोगोंने यह स्व-पर-वंचक मार्ग प्ररूपण किया हैं ॥६०५. ६०७।। भावार्थ परमात्माको सब ज्योतियोंका ज्योतिस्वरूप जानकर उनके ज्योतिर्मय रूपकी कल्पना करके ध्यान का अभ्यास करनेकी व्यवस्था हठयोगमें है । तन्त्रमतमें शिव,शक्ति और बिन्दु ये तीन रत्न माने गये है। शुद्ध जगत्का उपादान बिन्दु हैं। बिन्दुका ही दूसरा नाम महामाया है। बिन्दु क्षब्ध होकर जिस प्रकार एक ओर शुद्ध देह, इन्द्रिय,भोग और भुवनके रूप में परिणत होता है उसी प्रकार यही शब्दकी भी उत्पत्ति करता है । शब्द सूक्ष्म नाद, अक्षर-बिन्दु और वर्ण भेदसे तोन प्रकारका है । निवृत्ति,प्रतिष्ठा, विद्या,शान्ति तथा शान्त्यतीत, ये कलाएँ बिन्दुकी ही पृथक्पृथक् अवस्था हैं । शान्त्यतीत रूप या परबिन्दु समस्त कलाओंकी कारणावस्था या लयावस्था है। लययोगके ध्यानका नाम बिन्दु ध्यान है। तान्त्रिक मतमें षट्चक्रोंका अभ्यास हुए विना आत्मज्ञान नहीं होता । इडा और पिंगला नामक दो नाडियोंके मध्य में जो सुषुम्ना नाडी है उसकी छह ग्रन्थियों में पद्मके आकारके छह चक्र संलग्न हैं । गुह्यस्थानमें, लिगमूलमें. नाभिदेशमें, हृदयमें, कण्ठमें और दोनों भ्रूके बीच में- इन छह स्थानोंमें छह चक विद्यमान हैं। ये छह चक्र सुषुम्ना नामकी छह ग्रन्थियोंके रूपमें प्रसिद्ध हैं । इन छह ग्रन्थियोंका भेदन करके जीवात्माका परमात्माके साथ संयोग किया जाता है । मनुष्य शरीरमें तीन लाख पचास हजार नाडियाँ हैं। उन सबमें सुषुम्ना नाडी प्रधान है। अन्य समस्त नाडियाँ इसी सुषुम्ना नाडीके आश्रयसे रहती हैं। इस सुषुम्ना नाडीके मध्यगत चित्रानाडीके मध्य सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर ब्रह्मरन्ध हैं। कुण्डलिनी शक्ति इसी ब्रह्मरन्धके द्वारा मूलाधारसे सहस्रारमें गमन करती है । इसी से इस ब्रह्म रन्धको दिव्यमार्ग कहते है । इडा नाडी वाम भागमें स्थित होकर सुषुम्ना नाडीको प्रत्येक चक्रमें घेरती हुई दक्षिण नासापुटसे और पिंगल नाडी दक्षिण भागमें स्थित होकर सुषुम्ना नाडीको प्रत्येक चक्रमें परिवेष्टित करके बायें नासापुटसे आज्ञाचक्रमें मिलती है । इडा और पिंगला के बीच-बीच में सुषुम्ना नाडीके छह स्थानोंमे छह शक्तियाँ और छह पद्म निहित हैं। कुण्डलिनीने कुण्डलित होकर सुषुम्ना नाडीके समस्त अंशको घेर रखा हैं । तथा अपने मुख में अपनी पूंछको डालकर साढे तीन घेरे दिये हुए स्वयंभू लिंगको वेष्ठित करके ब्रह्मद्वारका अवरोध कर सुषुम्नाके मार्गम स्थित है। यह कुण्डलिनी सर्पका-सा आकार धारण करके जहाँ निद्रा ले रही है, उसी स्थानको मूलाधार चक्र कहते है। मूलाधार चक्रके ऊपर लिंगमूलमें षड्दल विशिष्ट स्वाधिष्ठान नामक चक्र है । स्वाधिष्ठान चक्रके ऊपर नाभिमूल में मणिपूर नामक दशदलपद्म है। जो योगी इस चक्रमें ध्यान करते हैं उनकी कामनासिद्धि, दुःख निवृत्ति और रोगशान्ति होती हैं, इसके द्वारा वे परदेहमें भी प्रवेश कर सकते है और अनायास ही कालको भी जीतने में समर्थ होते है । यह तन्त्रसाधकोंका मत हैं। इसी मतका निरूपण तथा निषेध ग्रन्थ कारने श्लोक बम्बर ६०५-६०७ में किया है। यदि इस प्रकारके प्रपंचोंसे Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्रावकाचार-संग्रह योऽविचारितरम्येषु क्षणं देहातिहारिषु । इन्द्रियार्थेषु वश्यात्मा सोऽपि योगी किलोच्यते ।। ६०९ यस्येन्द्रियार्थतष्णापि जर्जरीकुरुते मनः । तन्निरोधभवो धाम्नः स ईप्सीत कथं नरः ।। ६१० आत्मज्ञः संचित दोषं यातनायोगकर्मभिः । कालेन रुपयन्नेति योगी रोगी च कल्पताम् ।। ६११ लाभेऽलामे वने वासे मित्रेऽमित्रे प्रियेऽप्रिये । सुखे दुःखे समानात्मा भवेत्तद्ध्यानधी:सदा ।। ६१२ परे ब्रह्मण्यनूचानो धृतिमैत्रीदयान्वितः । अन्यत्र सूनृताद्वाक्यानित्यं वाचंयमी भवेत् ॥ ६१३ संयोगे विप्रलम्भे च निवाने परिदेवने । हिंसायामन्ते स्तेये भोगरक्षासु तत्परे ॥ ६१४ । जन्तोरनन्तसंसारभ्रमैनोरदनर्मनी । आर्तरौद्रे त्यजेद्धयाने दुरन्तफलदायिनी ।। ६१५ ये काम हो सकते हैं तो जप-तप,देवपूजा, दान और शास्त्रपठन, आदि कर्म व्यर्थ हो है ॥६०८॥ कैसी विचित्र बात है कि जो बिना विचारे सुन्दर प्रतीत होनेवाले और क्षण भरके लिए शारीरिक पीडाको हरनेवाले इन्द्रियोंके विषयोंमें फंसा हुआ हैं वह भी योगी कहा जाता है ॥६०९।। इन्द्रियोंके विषयोंकी लालसा जिसके मनको सताती रहती हैं वह मनुष्य इन्द्रियोंके निरोधसे प्राप्त होनेवाले मोक्ष धामकी इच्छा ही कैसे कर सकता हैं ।।६१०|| रोगी भी अपनेको जानता हैं। योगी भी अपनी आत्माको जानता है। रोगी अपने शरीरमें संचित हुए दोषको समयसे उपवास आदिके कष्ट तथा औषधादिके द्वारा क्षय कर देता हैं और नीरोग हो जाता है। योगी भी अपनी आत्मामें संचित हुए दोषको परीषहसहन तथा ध्यानादिकके द्वारा समयसे क्षय कर देता है और मुक्तावस्थाको प्राप्त कर लेता है ।।६११।। जो ध्यान करना चाहता हैं उसे सदा हानि और लाभमें, वन और घरमें,मित्र और शत्रुमे, प्रिय और अप्रियमें तथा सुख और दुःख में समभाव रखना चाहिए ॥६१२॥ तथा परम आत्मतत्त्वका पूर्णज्ञान होने के साथ-साथ धैर्य, मित्रता और दयासे युक्त होन। चाहिए। और उसे सदा सत्य वचन ही बोलना चाहिए, अथवा मौनपूर्वक रहना चाहिए ॥६१३।। आर्त और रोद्रध्यानका स्वरूप तथा उनको त्यागनेका उपदेश-संयोग, वियोग, निदान, वेदना, हिंसा झूठ, चोरी और भोगोंकी रक्षामें तत्परतासे होनेवाले आर्त और रौद्रध्यान वुरे फलोको देनेवाले हैं और जीवको अनन्त संसारमें भ्रमण करानेवाले पापरूपी रथके मार्ग हैं । इनको त्याग देना चाहिए ॥६:४-६१५।। भावार्थ-पहले ध्यानके तीन भेद बतलाकर आर्तध्यान और रौद्रध्यानको अशुभ ध्यान बतला आये हैं । यहाँ उन दोनो ध्यानोंका ही स्वरूप बतलाया है। आतध्यान चार प्रकारका होता है-एक,अनिष्ट वस्तका संयोग हो जानेपर उससे छटकारा पानेके लिए जो रात-दिन अनेक प्रकारके उपायोंका चिन्तन करना हैं उसे अनिष्टसंयोग नामका आर्तध्यान कहते हैं। जैसे किसीको कुरूपा कुलटा पत्नी मिल गयी या कर्कशा पत्नी मिल गयी तो कैसे यह मरे या कैसे इससे पिण्ड छूटे इस प्रकारका निरन्तर चिन्तन करते रहना प्रथम आर्तध्यान हैं । यदि किसी अप्रिय वस्तुका संयोग हो जाये तो उससे बचने के लिए रात-दिनका कलपना छोडकर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि वह अपने अनुकूल हो जाये । दूसरा, इष्टवस्तुका वियोग हो जानेपर उसकी प्राप्तिके लिए जो रात-दिन चिन्तन करते रहना है उसे इष्टवियोग नामका आर्तध्यान कहते है। तीसरा, आगामी भोगोंकी प्राप्तिके लिए सतत चिन्ता करना निदान नामका आर्तध्यान है। चौथे, शरीरमें कोई पीडा हो जानेपर उसके दूर करने के लिए जो रातदिन चिन्तन करता हैं उसे वेदना नामका आर्तध्यान कहते है । आशय यह है कि किसी भी . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन २०१ बोध्यागमकपाटे ते मुक्तिमार्गार्गले परे । सोपाने श्वभ्रलोकस्य तत्त्वेक्षावृतिपक्ष्मणी ॥ ६१६ लेशतोऽपि मनों यावदेते समधितिष्ठतः । एष जन्मतरस्तावदुच्चैः समधिरोहति ॥ ६१७ ज्वलन्नञ्जनमाधत्ते प्रदीपो न रवि: पुनः । यथाशयविशेषेण ध्यानमारमते फलम् ।। ६१८ प्रमाणनयनिक्षेपैः सानुयोगविशुद्धधीः । मति तनोति तत्त्वेष धर्मध्यानपरायणः ।। ६१९ अरहस्ये यथा लोके सती काञ्चनकर्मणी । अरहस्यं तथेच्छन्ति सुधियः परमागमम् ॥ ६२० यः स्खलत्यल्पबोधानां विचारेष्वपि मादृशाम् । स संसारार्णवे मज्जज्जन्त्वालम्बः कथं भवेत्।। ६२१ अहो मिथ्यातम: पुसा युक्तिद्योते स्फुरत्यपि । यदन्धयति चेतांसि रत्नत्रयपरिग्रहे ॥ ६२२ आशास्महे तदेतेषां दिन यत्रारतकल्मषाः । इदमेते प्रपश्यन्ति तत्त्वं दुःखनिवर्हणम् ।। ६२३ अकृत्रिमो विचित्रात्मा मध्ये च सराजिमान् । मरुत्रयीवृतो लोकः प्रान्ते तद्धामनिष्ठितः ॥६२४ प्रकारको मानसिक वेदनासे पीडित होकर जो बुरे संकल्प-विकल्प किये जाते हैं वह सब आर्तध्यान है। दूसरा अशुभ ध्यान रौद्रध्यान हैं । इसके भी चार प्रकार हैं-पहला, दूसरोंको सताने में उनकी जान लेने में आनन्द मानना हिंसानन्दी नामका रौद्रध्यान हैं। दूसरा, झूठ बोलने में आनन्द मानना मृषानन्दी नामका रौद्रध्यान हैं । तीसरा, चोरी करने में आनन्द अनुभव करना, चौर्यानन्दी नामका रौद्रध्यान है । चौथा, विषय-भोगकी सामग्रीका सवय करने में आनन्द मानना विषयानन्दी नामका रौद्रध्यान है । ये दोनों ही प्रकारके ध्यान नहीं करने चाहिए । क्योंकि ये दोनों अशुभ ध्यान ज्ञानकी प्राप्तिको रोकनेके लिए किवाडके तुल्य है, मुक्तिके मार्गको बन्द करने के लिए सांकलके तुल्य है, नरकलोकमें उतरने के लिए सीढीके तुल्य हैं और तत्त्वदृष्टिको ढाँकनेके लिए पलकोंके समान है ।।६१६।। जब तक मन में ये दोनों अशुभध्यान लेशमात्र भी रहते है तब तक यह जन्मरूपी वृक्ष बराबर ऊँचा होता जाता है ।।६१७।। जैसे दीपक भी जलता है और सूर्य भी जलता है। किन्तु दीपकके जलनेसे काजल बनता है,सूर्यसे नहीं। बैसे ही ध्यान भी ध्यान करनेवालेके अच्छे या बुरे भावोंके अनुसार ही अच्छा या बुरा फल देता है ।। ६१८।। (अब धर्मध्यानका वर्णन करते है-) जो निर्मल बुद्धि मनुष्य धर्मध्यान करता है वह प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोगद्वारोंके साथ तत्त्वोंका चिन्तत करने में मनको लगाता है। ६१९।। (धर्मध्यानके चार भेद है-आज्ञा विचय, अपायविचय, लोक या संस्थानविचय और विपाकविचय। इनमेंसे प्रत्येकका स्वरूप बतलाते है-) जैसे संसारमें सोनेके दो काम प्रकट रूपमें होते है-एक उसे कसौटीपर कसा जाता हैं-दूसरें, उसे छैनीसे काटकर देखा जाता हैं। इन दो कामोंसे सोनेकी पहचान भलीभाँति हो जाती है। वैसे ही बुद्धिमान् मनुष्य परमागमको भी गूढतारहित ही पसन्द करते हैं । आशय है कि सोनेके समान परमागम भी ऐसा होना चाहिए जिसे सत्यकी कसौटीपर कसा जा सके। किन्तु जो आगम हमारे सरीखे अल्पज्ञानियोंके विचारोंकी कसौटीपर भी खरा नहीं उतरता, वह संसाररूपी समद्रमें डूबते हुए जीवोंका सहारा कैसे हो सकता है ।। ६२०-६२१।। ___अपायविचयका स्वरूप-आश्चर्य हैं कि युक्तिरूपी प्रकाशके फैले रहते भी मिथ्यात्वरूपी अन्धकार रत्नत्रयको ग्रहण करने में मनुष्योंके चित्तोंको अन्धा बनाता है। हम उस दिनकी आशा करते हैं जब ये मनुष्य पापोंको दूर करके दुःखोंसे छुडानेवाले तत्त्वको देख सकेंगे ।। ६२२-६२३।। लोकविचयका स्वरूप-यह लोक अकृत्रिम है-इसे किसी ने बनाया नहीं हैं। तथा इसका स्वरूप भी विचित्र हैं-कोई मनुष्य दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथ दोनों कल्होंपर रखकर खडा हो तो उसका जैसा आकार होता है वैसा ही आकार इस लोकका है। उसके बीच में चौदह Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्रावकार-संग्रह रेणुवज्जन्तवस्तत्र तिर्यगूर्वमधोऽपि च । अनारतं भ्रमन्त्येते निजकर्मानिलेरिता: ।। ६२५ इति चिन्तयतो धयं यतात्मेन्द्रियचेतसः । तमांसि द्रवमायान्ति द्वादशात्मोदयादिव ॥ ६२६ भेदं विजितामेवमभेदं भेदवजितम् । ध्यायन्सूक्ष्म क्रियाशुद्धो निष्क्रिय योगमाचरेत् ।। ६२७ विलीनाशयसम्बन्धः शान्तमारतसंचयः । देहातीतः परंधाम कैवल्यं प्रतिपद्यते ॥ ६२८ राजू लम्बी और एक राजू चौडी त्रसनाली हैं । त्रसजीव उसी त्रसनालीमें रहते है। यह लोक चारों ओरसे तीन वातवलयोंसे घिरा हुआ हैं। उन वातवलयोंका नाम घनोदधिवातवलय, घनवातवलय और तनवातलय हैं । वलय कडेको कहते हैं। जैसे कडा हाथ या पैरको चारों ओरसे घेर लेता है वैसे ही ये तीन वायु भी लोकको चारों ओरसे घेरे हुए है। इसलिए उन्हें वातवलय कहते है। तथा लोकके ऊपर उसके अग्रभागमें सिद्ध स्थान है,जहाँ मुक्त हुए जीव सदा निवास करते है। इस प्रकार लोकके स्वरूपका चिन्तन करनेको लोकविचय या संस्थान विचय धर्मध्यान कहते हैं ।।६२४॥ विपाकविषयका स्वरूप - उस लोकके ऊपर नीचे और मध्यमें सर्वत्र अपने कर्मरूपी वायुसे प्रेरित होकर धूलिके समान जीव सदा भ्रमण करते हैं । इस प्रकार कर्मोंके विपाक यानी उदय का चिन्तन करनेको विपाकविचय धर्मध्यान कहते है।।६२५।। भावार्थ-जैसे वायुके झोंकेसे धूलके कण उडते फिरते है वैसे ही अपने-अपने अच्छे या बुरे कर्मोके प्रभावसे जीव भी तीनों लोकोंमें सदा भ्रमण करते रहते हैं। अपने-अपने उपार्जन किये हुए कर्मके फलका जो उदय होता हैं उसे विपाककहते है। वह विपाक प्रतिक्षण होता रहता हैं और अनेक रूप होता हैं। उसका विचार करना विपाक बिचय धर्मध्यान कहा जाता हैं। इस प्रकार अपनी इन्द्रियोंकी और चित्तको संयत करके जो धर्मध्यान करता है उसका अज्ञान ऐसा विलुप्त होता है जैसे सूर्यके उदयसे अन्धकार नष्ट होता है।।६२६ । (धर्मध्यानके बाद शुक्लध्यान होता हैं। अतः शुक्लध्यानका स्वरूप बतलाते है . ) अभेदरहित भेद अर्थात पथक्त्ववितर्क और भेदरहित अभेद अर्थात् एकत्ववितर्क शुक्लध्यानको करके जीवसूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामक ध्यानको करता है और फिर क्रियानिवृत्ति नामक चौथे शुक्लध्यानको करता हैं । इसके करते ही आत्मासे समस्त कर्मोंका सम्बन्ध छूट जाता है । श्वासोच्छवास रुक जाता है और - अशरीरी आत्मा परंधाम-मोक्षको प्राप्त करता है ।। ६२७-६२८।। भावार्थ-जो ध्यान क्रियारहित इन्द्रियातीत और अन्तर्मुख होता है उसे शुक्लध्यान कहते हैं। कषायरूपी मलके क्षय होनेसे अथवा उपशम होनेसे आत्माके परिणाम निर्मल हो जाते है और उन परिणामोंके होते हुए ही यह ध्यान होता है. इसलिए आत्माके शुचि गुणके सम्बन्धसे इसे शुक्लध्यान कहते है । उसके चार भेद है-पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और क्रिया निवृत्ति । इनमें से पहलेके दो शुक्लध्यान उपशम श्रेणी या क्षपकश्रेणीवाले जीवोंके होते है और शेष दो शुक्लध्यान केवलज्ञानियोंके होते हैं पहला शुक्ल ध्यान वितर्क वीचार और पृथक्त्वसहित होता हैं । इसमें पृथक-पृथक् रूपसे श्रुतज्ञान और योग बदलता रहता हैं। इसलिए इसे पृथक्त्ववितर्क वीचार कहते है। पृथक्त्व अनेकपनेको कहते है। वितर्क श्रुतज्ञानको कहते है और वीचार ध्येय,वचन और योगके संक्रमणको कहते है। जिस शुक्लध्यानमें ये तीनों बातें होती है उसे पहला शुक्लध्यान जानना चाहिए । दूसरा शुक्लध्यान वितर्कसहित विचाररहित अतएव एकत्वविशिष्ट होता है। इस ध्यानमें ध्यानी मुनि एकद्रव्य अथवा एक पर्यायको एक योगसे चिन्तन करता है। इसमें अर्थ, व्यंजन और योगका संक्रमण नहीं होता। इसलिए इसे एकत्व वितर्क कहते है । इस ध्यानसे घातिकर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते है और ध्यानी : Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत - उपासकाध्ययन प्रक्षीणोभयकर्माणं जन्मदो षैविवजितम् । लब्धात्मगुणमात्मानं मोक्षमा हुमनीषिणः ।। ६२९ मार्गसूत्रमनुप्रेक्षाः सप्त तत्त्वं जिनेश्वरम् । ध्यायेदागमचक्षुष्मान्प्रसंख्यानपरायणः ।। ६३० ज्ञाने तत्वं यथैतिह्यं श्रद्दधे तदनन्यधीः । मुञ्चेऽहं सर्वमारम्भमात्मन्यात्मानमादधे ।। ६३१ आत्मायें बोधिसंपत्तेरात्मन्यात्मानमात्मना । यदा सूते तदात्मानं लभते परमात्मना ।। ६३२ ध्यातात्मा ध्येयमात्मव ध्यानमात्मा फलं तथा । आत्मा रत्नत्रयात्मोक्तो यथायुक्तिपरिग्रहः । ६३३ सुखामृत सुधासू 'तस्तद्रवेरुदयाचल: । परं ब्रह्माहमत्रासे तमः पाशवशीकृतः ।। ६३४ यदा चकास्ति मे चेतस्तद्धयानोदयगोचरम् । तदाहं जगतां चक्षुः स्यामादित्य इवातमाः ।। ६६५ आदी मध्वमधु प्रान्ते सर्वमिन्द्रियजं सुखम् । प्रात स्नायिषु हेमन्ते तोयमुष्णमिवाङ्गिषु ।। ६३६ यो दुरामयदुवंशी बद्धग्रासो यमोऽङ्गिनि । स्वभावसुभगे तस्य स्पृहा केन निवार्यते ।। ६३७ मुनि सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है। उसके बाद आयु जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रहती है तब तीसरा शुक्लध्यान होता है। इसे करनेके लिए पहले केवली बादर काययोग में स्थिर होकर बादर वचनयोग और बादर मनोयोगको सूक्ष्म करते है । फिर काययोगको छोड़कर वचनयोग ओर मनोयोग में स्थिति करके बादर काययोगको सूक्ष्म करते हैं। पश्चात् सूक्ष्म काययोग में स्थिति करके वचनयोगका और मनोयोगका निग्रह करते है तब सूक्ष्मक्रिय नामक ध्यानको करते हैं। इसके बाद अयोगकेवली गुणस्थान में योगका अभाव हो जानेसे आस्रवका निरोध हो जाता है । उस समय वे अयोगी भगवान् समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यानको ध्याते हैं । इस ध्यान में श्वासोच्छ्वासकासंचार ओर समस्तयोग तथा आत्माके प्रदेशोका हलन चलन आदि क्रियाएँ नष्टहो जाती है । इसलिए इसे समुच्छिन्नक्रिय या क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं । इसके प्रकट होनेपर अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समय में कमकी ७२ प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती है । अन्तसमय में Marat बची १३ प्रकृतियाँ भी नष्ट हो जाती है और योगी सिद्धपरमेष्ठी बन जाता हैं ( शुक्तध्यानसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतः मोक्षका स्वरूप बतलाते हैं - ) जिसके द्रव्यकर्म और भावकर्म नष्ट हो गये है, अतएव जो जन्म, जरा, मृत्यु आदि दोषोंसे रहित हैं तथा अपने गुणों को प्राप्त कर चुका हैं उस आत्माको बुद्धिमान् मनुष्य मोक्ष कहते है ।। ६२९ ।। शास्त्रद्रष्टा ध्यानी पुरुषको सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः ' इस सूत्रका बारह अनुप्रेक्षाओं का, साततत्त्वोंका और जिनेन्द्र भगवान्का ध्यान करना चाहिए || ६३०|| मैं आगमानुसार तत्त्वोंको जानता हूँ और एकाग्र मन होकर उनका श्रद्धान करता हूँ | तथा समस्त आरम्भको छोड़ता हूँ और अपने में अपनेको लगाता हूँ ।। ६३१|| जब यह ज्ञानरूप सम्पत्तिका स्वामी आत्मा आत्मासे आत्मामें आत्माको ध्यान करता हैं तब आत्माको प्रमात्मरूपसे पाता है ।। ६३२ ।। आत्मा ध्यान करनेवाला हैं, आत्मा ही ध्येय है, आत्मा ही ध्यान है और रत्नत्रयमयी आत्मा ही ध्यानका फल है । युक्ति के अनुसार उसको ग्रहण करना चाहिए ।। ६३३ ।। मैं सुखरूपी अमृतके लिए चन्द्रमा हूँ | तथा सुखरूपी सूर्य के लिए उदयाचल हूँ। मै परब्रह्म स्वरूप हूँ किन्तु अज्ञानान्धकाररूपी जाल में फँसकर इस शरीर में ठहरा हुआ हूँ ||६३४ | जब मेरे चित्त में उस ध्यानका उदय होगा तब मै अन्धकाररहित सूर्य के समान संसारका द्रष्टा हो जाऊँगा । ६३५ ।। जितना भी इन्द्रियजन्य सुख है, वह प्रारम्भ में मीठा प्रतीत होता है किन्तु अन्तमें कटुक ही लगता है । जैसे जो लोग शीतऋतु में प्रातः स्नान करते है उन्हें पानी उष्ण प्रतीत होता है || ६३६ || जो यमराज रोगसे ग्रस्त और देखनेमें असुन्दर प्राणीको खानेके लिए २०३ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.४ श्रावकार-संग्रह जन्मयौवनसंयोगसुखानि यदि देहिनाम् । निविपक्षाणि को नाम सुधीः संसारमुत्सृजेत् ।। ६३८ अनुयाचेत नायूंषि नापि मृत्युमुपाहरेत् । भृतो भृत्य इवासीत कालावधिमविस्मरन् ।। ६३९ महाभागोऽहमद्यास्मि यत्तत्त्वचितेजसा । सुविशुद्धान्तरात्मासे तम:पारे प्रतिष्ठितः ॥ ६४० तन्नास्ति यदहं लोके सुखं दुःखं च नाप्तवान् । स्वप्नेऽपि न मया प्राप्तो जैनागमसुधारसः ।।६४१ सम्यगेतत्सुधाम्भोबिन्दुमप्यालिहन्मुहुः । जन्तुर्न जातु जायेत जन्मज्वलनभाजनः ।। ६४२ देवं देवसभासीनं पञ्चकल्याणनायकम् । चतुस्त्रिशद्गुणोपेतं प्रातिहायोपशोभितम् ।। ६४३ निरञ्जनं जिनाधीशं परमं रमयाश्रितम् । अच्युतं च्युतदोषौघमभवं भवभूद्गुरुम् ।। ६४४. सर्वसंस्तुत्यमस्तुत्यं सर्वेश्वरमनीश्वरम् । साराध्यमनाराध्यं सर्वाश्रयमनाभयम्।। ६४५ प्रभवं सर्वविद्यानां सर्वलोकपितामहम् । सर्वसत्त्वहितारम्भं गतसर्वमसर्वगम् ॥ ६४६ नम्रामर किरीटांशुपरिवेषनभस्तले । भवत्पादद्वयद्योतिनख नक्षत्रमण्डलम् ।। ६४७ स्तूयमानमनूचानब्रह्मोद्यब्रह्मकामिमि । अध्यात्मागमवेधोभिर्योगिमुख्यमहद्धिभिः ।। ६४८ तैयार रहता है, स्वभावसे ही सुन्दर मनुष्य में उसकी रुचिको कौन हटा सकता है? ॥६३७।। यदि प्राणियोंके जन्म,यौवन,संयोग और सुखके विपक्षी भृत्यु,बुढापा, वियोग और दुःख न होते तो कौन बुद्धिमान् संसारको छोडता? ॥६३८।। अतः न तो आयुकी याचना करना चाहिए कि मैं और अधिक दिनों तक जीता रहूँ, और न मृत्युको बुलाना चाहिए कि मै जल्दी मर जाऊँ किन्तु अपने जीवनकी अवधिको न भूलकर वेतन पानेवाले नौकरकी तरह रहना चाहिए।। ६३९।। आज मै बडा भाग्यशाली हूँ, क्योंकि तत्त्वरुचिरूपी तेजसे मेरा अन्तरामा सुविशुद्ध हो गया है और मै मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको पार कर चुका हूँ॥६४०॥ ससारमें ऐसा कोई सुख और दुःख नहीं हैं जो मैने नहीं भोगा। किन्तु जैनागमरूपी अमृतका पान मैने स्वप्न में भी नहीं किया ।। ६४१।। इस अमृतके सागरकी एक बूंदको भी बार-बार आस्वादन करनेवाला प्राणी फिर कभी भी जन्मरूपी अग्निका पात्र नहीं बनता ॥६४२।। (अब अर्हन्तदेवका ध्यान करनेकी प्रेरणा करते हैं-) समवसरणमें विराजमान.पाँच कल्याणकोंके नायकचौंतीस अतिशयोंसे यक्त. आठ प्रातिहायौंसे सशोभित, घातियाकर्मरूपी मलसे रहित,उत्कृष्ट अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीसे वेष्टित,जिनश्रेष्ठ, आत्म स्वरूपसे कभी च्युत न होनेवाले, दोषसमूहसे रहित, संसारातीत किन्तु संसारी प्राणियोंके गुरु, स्वयं सबके द्वारा स्तुति करनेके योग्य, किन्तु जिनके लिए कोई भी स्तुति-योग्य नहीं, स्वयं सबके स्वामी किन्तु जिनका स्वामी कोई नहीं, सबके आराध्य किन्तु जिनका कोई आराध्य नहीं,सबके आश्रय किन्तु जिनका कोई आश्रय नहीं,समस्त विद्याओंके उत्पत्तिस्थान, सब लोकोंके पितामह, सब प्राणियोंके हितू, सबके ज्ञाता, स्वशरीर प्रमाण, नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटोंके किरणजालरूपी आकाशमें जिनके दोनों चरणोंके प्रकाशमान नख नक्षत्रमण्डलके समान प्रतीत होते है, ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मको पानेके इच्छुक अध्यात्म शास्त्रके रचयिता ऋद्धिधारी ऋषिगण जिनकी स्तुति करते है, उन रूपरहित किन्तु सबका निरूपण करनेवाले,स्वयं शब्दरूप न होते हुए भी शब्द यानी आगमके द्वारा कहे जानेवाले,स्पर्शगुणसे रहित किन्तु ध्यानके द्वारा स्पृष्ट,रस गुणसे रहित किन्तु सरस उपदेशके दाता, गन्ध गुणसे रहित किन्तु गुणोंकी सुगन्धसे विशिष्ट, इन्द्रियोंके सम्बन्धसे रहित किन्तु इन्द्रियोंके विषयोंके प्रकाशक, आनन्दरूपी धान्यकी उत्पत्तिके लिए पृथ्वीकी तृष्णा रूपी अग्निको लपटोंको शान्त करनेके लिए पानी,दोषरूपी धूलिको हटाने के लिए वायु,पापरूपी Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत - उपासकाध्ययन नीरूपं रूपिताशेषमशब्द शब्दनिष्ठितम् । अस्पर्श योगशंस्पर्शमरसं सरसागमम् ।। ६४९ गुणैः सुरमितात्मानमगन्धगुण संगमम् । व्यतीतेन्द्रियसंबन्धमिन्द्रियार्थावभासकम् ।। ६५० भुवमानन्द सस्यानामम्भस्तृष्णानलाचिषाम् । पवनं दोष रेणूनामग्निमेनोवनी रुहाम् ।। ६५१ यजमानं सदर्थानां व्योमालेपादिसंपदाम् । भानु भव्यारविन्दानां चन्द्रं मोक्षामृतश्रियाम् । ६५२ अतावकगुणं सर्व त्वं सर्वगुणभाजनः । त्वं सृष्टि सर्वकामानां कामसृष्टिनिमीलनः ।। ६५३ खसुप्तदीनिर्वाणेऽप्राकृते वा त्वयि स्फुटम् । खसुप्तदोपनिर्वाणं प्राकृतं स्याज्जगत्त्रयम् ।। ६५४ त्रयीमार्ग त्रयोरूपं त्रयीमुक्त्रं त्रयीपतिम् । त्रयीव्याप्त त्रयीतत्त्वं त्रयीचूडामणिस्थितम् ॥ ६५५ जगतां कौमुदीचन्द्र कामकल्पावनीरुहम् । गुणचिन्तामणिक्षेत्रं कल्याणागमनाकरम् ।। ६५६ प्रणिधानप्रदीपेषु साक्षादिः चकासतम् । ध्यायेज्जगत्त्रयाचर्हिमर्हन्तं सर्वतो मुखम् ।। ६५७ आहुस्तस्मात्परं ब्रह्म तस्मादेन्द्रं पदं करे । इमास्तस्मादयत्नाप्यादचत्राङ्का क्षितिपश्रियः ।। ६५८ यं यमध्यात्ममार्गेषु भावमस्मयंत्सराः । तत्पदाय दधत्यन्तः स स तत्रैव लीयते ।। ।। ६५९ अनुपायानिलोद्भ्रान्त पुंस्तरूणां मनोबलम् : तद्भूमावेव भज्येत लीयमानं चिरादपि ।। ६६० वृक्षोंको जलाने के लिए अग्नि, आकाशकी तरह निर्लिप्त रहना आदि उत्तमोत्तम सम्पत्तियों के दाता, भव्यरूपी कमलोंके विकास के लिए सूर्य, मोज्ञरूपी अमृतके लिए चन्द्रमा, अलौकिक गुशाली, समस्त गुणोंके भाजन, सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाले कामविकारको दूर करनेवले, नैयायिक मत में निर्वाणका स्वरूप आकाशकी तरह माना गया हैं क्योंकि मुक्त अवस्था में आत्माके विशेष गुणों का उच्छेद हो जाता है । सांख्य मत में निर्वाणका स्वरूप सोये हुए मनुष्य - की तरह माना गया है क्योंकि मुक्तावस्थामें ज्ञान नही रहता, बौद्ध मतमें दीपकके निर्वाणकी तरह आत्माका निर्वाण माना गया हैं किन्तु अर्हन्त भगवान् में तीनों प्रकारके निर्वाण अपने प्राकृत रूप में विद्यमान है। राग-द्वेष और मोहसे रहित होने के कारण वे प्रायः आकाशकी तरह शून्य है, ध्यानमें लीन होने के कारण सुप्त है और दीपकी तरह केवलज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थक प्रकाशक है रत्नत्रय जिनका मार्ग हैं, सत्ता, सुख, और चैतन्यसे बिशिष्ट होने के कारण जो त्रयीरूप हैं. राग द्वेष और मोहसे मुक्त है स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोकके स्वामी हैं, तीनों लोकोंको जान लेनेके कारण तीनों लोकोंमें व्याप्त है, अथवा सदा रहनेसे तीनों कालों में व्याप्त है, उत्पाद, य और धोयुक्त है, तीनों लोकोंके शिखरपर विराजमान है तथा जगत् के लिए पूर्णिमासीके चन्द्रमा है, इच्छित वस्तुके लिए कल्पवृक्ष है, गुणरूपी चिन्तामणिके स्थान, कल्याणकी प्राप्तिके लिए खनि, तीनों लोकोंसे पूजनीय और ध्यानरूपी दीपकों के प्रकाश में साक्षात् चमकनेवाले अर्हन्त भगवान्का ध्यान करना चाहिए ।।६४३ - ६५७ ॥ उन अर्हन्तका ध्यान करनेसे मरब्रह्मकी प्राप्ति होती है, उनका ध्यान करनेसे इन्द्रपद तो हाथ में हो समझना चाहिए। तथा चक्रवर्तीकी विभूति भाविना प्रयत्नके प्राप्त हो जाती है ।। ६५८ ।। मान और ईर्षासे रहित पुरुष अध्यात्म मार्ग में अपने अतकरण में अर्हन्तपदकी प्राप्तिके लिए जो-जो भाव रखते है वह वह भाव उसीमें लीन हो जाता है ।। ६५९ ।। पुरुषरूपी वृक्षोंका मनरूपी पत्ता मोक्ष के लिए जो उपायरूप नहीं हैं ऐसे मिथ्यादर्शन आदि रूप वायुसे सदा चंचल बना रहता हैं। किन्तु अर्हन्नरूपी भूमि में पहुँचकर वह मनरूपी पत्ता टूटकर उसीमें चिरकालके लिए लीन हो जाता है । ६६० ।। मावार्थ- पुरुष एक वृक्ष हैं और मन उसका पत्ता है । जैसे वायुसे पत्ता सदा हिलता रहता हैं वैसे ही नाना प्रकारके सांसारिक धन्धों में २०५ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रावकाचार-संग्रह ज्योतिरेकं परं वेषः करीषाश्चसमित्समः । तत्प्राप्त्युपायविमूढा भ्रमन्ति भवकानने ॥ ६६१ परापरपरं देवमेवं चिन्तयतो यतेः । भवन्त्यतीन्द्रियास्ते ते भावा लोकोत्तरश्रियः ।। ६६२ व्योमच्छायानरोत्सगि यथामूर्तमपि स्वयम् । योगयोगात्तथात्माऽयं भवेत्प्रत्यक्षवीक्षणः ।। ६६३ न ते गुणा न तज्ज्ञानं न सा दृष्टिन तत्सुखम् । यद्योगधोतने न स्यादात्मन्यस्ततमश्चये ।। ६६४ देवं जगत्त्रयीनेत्रं व्यन्तराद्याश्च देवताः । समं पूजाविधानेषु पश्यन् दूरं ब्रजेदधः ।। ६६५ ताः शासनाधिरक्षार्थ कल्पिताः परमागमे । अतो यज्ञांशपानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ।। ६६६ तच्छासनकमक्तीनां सुशां सुवतात्मनाम् स्वयमेव प्रसीदन्ति ताः पुंसां सपुरन्दराः ॥ ६६७ तखामबद्धकक्षाणां रत्नत्रयमहीयसाम् । उभे कामदुधे स्यातां द्यावाभूमी मनोरथैः ।। ६६८ कुर्यात्तपो जपेन्मन्त्रान्नमस्येद्वापि देवताः । सस्पहं यदि तच्चेतो रिक्तः सोऽमुत्र चेह च ।। ६६९ ध्यायेद्वा वाङ्मयं ज्योतिर्गुरुपञ्चकवाचकम् एतद्धि सर्वविद्यानामधिष्ठानमनश्वरम् ॥ ६७० fy फंसे रहनेके कारण मनुष्यका मन भी सदा चंचलबना रहता है। किन्तु जब मनुष्य मोक्ष के उपाय में लगकर अपने मनको स्थिर करनेका प्रयत्न करता है और अर्हन्तका ध्यान करता है तो उसका मन उसीमें लीन होकर उसे अईन्त बना देता है और तब मनरूपी पत्ता टूटकर गिरपडता हैं क्योंकि अर्हन्त अवस्थामें भाव मन नहीं रहता। जैसे आग एक है किन्तु कण्डा,पत्थर और लकडीके रूप में वह विभिन्न आकार धारण कर लेती है। वैसे ही आत्मा एक हैं किन्तु स्त्री, नपुंसक और पुरुषके वेषमें वह तीन रूप प्रतीत होती है । उस आग या आत्माकी प्राप्तिके उपायोंसे अनजान मनुष्य संसाररूपी जंगल में भटकते फिरते है।।६६१।। इस प्रकार जो मुनि पर और अपरसे भी श्रेष्ठ श्री अर्हन्तदेवका ध्यान करता है उसके बड़े उच्च अलौकिक हम इन्द्रियोंसे नहीं जान सकते ॥६६२।। जैसे आकाश स्वयं अमतिक हैं फि छायाके संसर्गसे शून्य आकाशमें भी पुरुषका दर्शन होता हैं वैसे ही यद्यपि आत्मा अमूर्तिक हैं फिर भी ध्यानके सम्बन्धसे उसका प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है ।। ६६३। न ऐसे कोई गुण हैं, न कोई ज्ञान है, न ऐसी कोई दृष्टि हैं और न ऐसा कोई सुख है जो अज्ञान आदि रूप अन्धकारके समूहका नाश हो जानेपर ध्यानसे प्रकाशित आत्मामें न होता हो । अर्थात् ध्यानके द्वारा आत्मामें अज्ञानरूप अन्धकारके नष्ट हो जानेपर ज्ञानादि सभी गुण प्रकाशित हो जाते है ।।६६४॥ (कुछ व्यन्तरादिक देवता जिनशासनके रक्षक माने जाते हैं । कुछ लोक उनकी भी पूजा करते है। उसके विषयमें ग्रन्थकार बतलाते है-) जो श्रावक तीनो लोकोंके द्रष्टा जिनेन्द्र देवको और व्यन्तरादिक देवताओंको पूजाविधानमें समान रूपसे मानता हे अर्थात् दोनोंकी समान रूपसे पूजा करता हैं वह नरकगामी होता हैं ।। ६६५।। परमागम में जिनशासनकी रक्षाके लिए उन शासन-देवताओंकी कल्पना की गयी है अतः पूजाका एक अंश देकर सम्यग्दृष्टियोंको उनका सम्मान करना चाहिए ।।६६६।। जो व्रती सम्यग्दृष्टि जिनशासनमें अचल भक्ति रखते हैं उनपर वे व्यन्तरादिक देवता और उनके इन्द्र स्वयं ही प्रसन्न होते है ।।६६७।। जो रन्नत्रयके धारक मोक्षाधामकी प्राप्तिके लिए कमर कस चुके हैं, भूमि और आकाश दोनों ही उनके मनोरथोंको पूर्ण करते हैं। ६६८।। तप करो, मन्त्रोंका जाप करो अथवा देवोंको नमस्कार करो, किन्तु यदि चित्तमें सांसारिक वस्तुओंकी चाह है कि हमें यह मिल जाये तो वह इस लोकमें भी खाली हाथ रहता है और परलोक में भी खाली हाथ रहता है ।। ६६९।। अथवा पञ्चपरमेष्ठीके वाचक मंत्रका ध्यान . Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २०७ ध्यायन् विन्यस्य देहेऽस्मिन्निदं मन्दिरमुद्रया। सर्वनामादिवहि वणधिन्तं सबीजकम् ॥ ६७१ तप.श्रुतविहीनोऽपि तद्धयानाविद्धमानसः । न जातु तमसा स्रष्टा तत्तत्त्वचिदीप्तधीः ।। ६७२ अधीत्य सर्वशास्त्राणि विधाय च तप: परम् । इमं मन्त्रं स्मरन्त्यन्ते मुनयोऽनन्यचेतसः ।। ६७३ मन्त्रोऽयं स्मतिधाराभिश्चित्तं यस्याभिवर्षति । तस्य सर्वे प्रशाम्यन्ति क्षुद्रोपद्रवपासवः ॥ ६७४ अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। भवत्येतस्मृतिजन्तुरास्पदं सर्वसंपदाम् ॥ ६७५ उक्तं लोकोत्तरं ध्यान किञ्चिल्लौकिकमुच्यते । प्रकीर्णकप्रपञ्चेन दृष्टाऽदृष्टाफलाश्रयम् ॥ ६७६ पञ्चमूर्तिमयं बीजं नासिकाने विचिन्तयन् । निधाय संगमे चेतो दिव्यज्ञानमवाप्नुयात् ।। ६७७ यत्र तत्र हृषीकेऽस्मिन्निदधीताचलं मनः । तत्र तत्र लभेतायं बााग्राह्याश्रयं सुखम् ।। ६७८ स्थूल सूक्ष्म द्विधा ध्यानं तत्त्वबोजसमाश्रयम् । आयेन लभते कामं द्वितीयेन परं पदम् ।। ६७९ पद्ममुत्थापयेत्पूर्व नाडी संचालयेत्ततः । मरुच्चतुष्टयं पश्चात्प्रचारयतु चेतसि ॥ ६८० करना चाहिए; क्योंकि यह मंत्र सब विद्याओंका अविनाशी स्थान है । ६७०॥ जिसमें पञ्च नमस्कार मंत्रके पांचों पदोंके प्रथम अक्षर सन्निविष्ट हैं ऐसे 'अह' इस मन्त्रको इस शरीरमें स्थापित करके मन्दिर मुद्राके द्वारा ध्यान करनेवाला मनुष्य तप और श्रुतसे रहित होनेपर भी कभी अज्ञानका जनक नहीं होता; क्योंकि उसकी बुद्धि उस तत्त्वमें रुचि होनेसे सदा प्रकाशित रहती है ।।६७१६७२।। सब शास्त्रोंका अध्ययन करके तथा उत्कृष्ट तपस्या करके मुनिजन अन्त समय मन लगाकर इसी मन्त्रका ध्यान करते हैं ।। ६७३॥ यह मन्त्र जिसके चित्तमें स्मृतिरूपी धाराओंके द्वारा बरसता हैं अर्थात् जो बारम्बार अपने चित्त में इस मन्त्रका स्मरण करता है, उसके छोटे-मोटे सब उपद्रवरूपी धूल शान्त हो जाती हैं ।। ६७४॥ अपवित्र या पवित्र, ठीक तरहसे स्थित या दुःस्थित जो प्राणी इस मन्त्रका स्मरण करता हैं उसे सब सम्पत्तियाँ प्राप्त होती है ।।६७५।। अलौकिक ध्यानका वर्णन हो चुका । अब उसकी चूलिकाके रूपमें दृष्ट और अदृष्ट फलके दाता लौकिक ध्यानका कुछ वर्णन करते है ।।६७६।। नाकके अग्र भागमें दृष्टिको स्थिर करके और मनको भौंहोंके बीच में स्थापित करके जो पंचपरमेष्ठीके वाचक ‘ओं' मन्त्रका ध्यान करता है वह दिध्य ज्ञानको प्राप्त करता हैं ॥६७७।। जिस-जिस इन्द्रियमें यह मनको स्थिर करता हैं,इसे उस-उस इन्द्रियमें बाह्य पदार्थों के आश्रयसे होनेवाला सुख प्राप्त होता है ।। ६७८।। ध्यानके दो भेद हैं-एक स्थूलध्यान, दूसरा सूक्ष्मध्यान । स्थूलध्यान किसी तत्त्वका साहाय्य लेकर होता हैं और सूक्ष्मध्यान बीजपदका साहाय्य लेकर होता है । स्थूलध्यानसे इच्छित वस्तुको प्राप्ति होती है और सूक्ष्मध्यानसे उत्तम पद मोक्ष प्राप्त होता हैं ॥६७९।। पहले नाभिमें स्थित कमलका उन्थापन करे । फिर नाडीका संचालन करे। फिर जो पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल ये चार वायुमण्डल स्थित है उनको आत्मामें प्रचारित करे ॥६८०।। भावार्थ-योग अथवा ध्यानके आठ अंग है-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । ध्यानकी सिद्धि और अन्तरात्माकी स्थिरताके लिए प्राणायामको भी प्रशंसनीय बतलाया हैं । प्राणायामके तीन भेद है-पूरक, कुम्भक और रेचक। नासिकाके द्वारा वायुके अन्दरकी ओर ले जाकर शरीरमें पूरनेको पूरक कहते हैं। उस पूरक वायुको स्थिर करके नाभिकमल में घडेकी तरह भरकर रोके रखनेका नाम कुम्भक है । और फिर उस वायुको यत्नपूर्वक धीरे-धीरे बाहर निकालनेको रेचक कहते है। इसके अभ्यासके मन स्थिर होता है। मनमें संकल्पविकल्प नहीं उठते,और कषायोंको साथ विषयोंकोचाह भी घट जाती है। प्राणायामके Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्रावकार-संग्रह दीपहस्तो यथा कश्चित्किचिदालोक्य तं त्यजेत् । ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य पश्चात्तं ज्ञानमुत्सजेत्।।६८१ सर्वपापासवे क्षीणे ध्याने भवति भावना । पापोपहतबुद्धीनां ध्यानबार्ताऽपि दुर्लभा॥ ६८२ दधिभावगतं क्षीरं न पुनः क्षीरतां व्रजेत् । । तत्त्वज्ञानविशुद्धात्मा पुनः पापन लिप्यते ।।६८ः मन्दं मन्दं क्षिपेद्वायु मन्दं मन्दं विनिक्षिपेत् । न क्वचिद्वार्यते वायर्न च शीघ्र प्रमुच्यते । ६८४ रूपं स्पर्श रसं गन्धं शब्दं चैव विदूरतः । आसन्नमिव गुण्हान्ति विचित्रा योगिनां गतिः ।। ६८५ बग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाड्कुरः ।। ६८६ नाभी चेतसि नासाग्रे दृष्टो भाले च मूर्धनि । विहारयेन्मनो हंसं सदा कायसरोवरे ।। ६८७ यायाव्योम्नि जले तिष्ठेन्निषीदेदनलाचिषि । मनोमरुत्प्रयोगेण शस्त्रैरपि न बाध्यते ॥ ६८८ जीवः शिवः शिवो जीवः कि मेदोऽस्त्यत्र कश्चन । पाशवद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः शिवः पुनः ।। ६८९ अभ्यासी योगीको चार पवनमण्डलोंको भी जानना आवश्यक है : ये चारों पवनमण्डल नासिकाके छिद्र में स्थित हैं। इनका ज्ञान सरल नहीं हैं। प्राणायामके महान् अभ्याससे ही इन चार पवनमण्डलोंका अनुभव हो सकता है। ये चार पवनमण्डल है-पार्थिव, वारुग, मरुत ओर आग्नेय। इनका स्वरूप ज्ञानार्णवके २९ वें प्रकरण में वर्णित है । वहाँ से जाना जा सकता हैं । इन पवनमण्डलोंकी साधनाके द्वारा लौकिक शुभाशुभ जाना जा सकता है। यह ऊपर कहा ही है कि लौकिक ध्यानका वर्णन करते है सो यह सब वशीकरण स्तम्भन,उच्चारण आदि लौकिक क्रियाओंके लिए उपयोगी हैं। जैसे कोई आदमी दीपक हाथ में लेकर और उसके द्वारा आवश्यक पदार्थको देखकर उस दीपकको छोड़ देता है वैसे ही ज्ञानके द्वारा ज्ञेय पदार्थको जानकर पीछे उस ज्ञानको छोड देना चाहिए ॥६८१।। समस्त पापकर्मोका आस्रव रुक जानेपर ही मनुष्यको ध्या। करनेकी भावना होती है। जिनकी बुद्धि पापकर्ममें लिप्त है उनके लिए तो ध्यानकी चर्चा भी दुर्लक्ष है । अर्थात् पापी मनष्य ध्यान करना तो दूर रहा, ध्यानका नाम भी नहीं ले पाते ॥६८२।। तथा जैसे जो विशुद्ध हो जाता है वह फिर दूधरूप नहीं हो सकता, वैसे ही जिसका आत्मा तत्त्वज्ञानसे विशद्व हो जाता हैं वह फिर पापोंसे लिप्त नहीं होता ।। ६८३।। ध्यान करते समय बायुको धीरेधीरे छोडना चाहिए और धीरे-धीरे ग्रहण करना चाहिए । न वायुके हठपूर्वक रोकना ही चाहिए और न जल्दी निकालना चाहिए । अर्थात् श्वासोच्छ्वासकी गति बहुत मन्द होनी चाहिए ६८४|| योगियोंकी गति बडी विचित्र होती है। वे दूरवर्ती रूप, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्दको ऐसे जान लेते है मानो वह समीप ही है ।।६८५ । जैसे बीजके जल कर राख हो जानेपर उससे अंकर उत्पन्न नही हो सकता वैसे ही कर्मरूपी बीजके जलकर राख हो जानेपर संसाररूपी अंकुर नहीं उगता ॥६८६।। कायरूपी सरोववरके नाभिदेशम,चित्तमें नाकके अग्रभागम, दृष्टि में मस्तकमें अथवा शिरोदेशमें मनरूपी हंसका विहार सदा कराना चाहिए । अर्थात् ये सब ध्यान लगाने के स्थान हैं, इनमेंसे किसी भी एक स्थानपर मनको स्थिर करके ध्यान करना चाहिए ।।६८७। जो मन और बायको साध लेता है वह आकाशमें बिहार कर सकता हैं, जल में स्थिर रह सकता है और आगकी लपटोंमें बैठ सकता हैं । अधिक क्या? शस्त्र भी उसका कुछ बिगाड नहीं कर सकते ॥६८८। जीव शिव अर्थात् परमात्मा है और परमात्मा जीव है। इन दोनोंमें क्या कुछ भी भेद हैं? जो कर्मरूपी बन्धनसे बँधा हुआ है वह जीव है और जो उससे मुक्त हो गया वह परमात्मा हैं अर्थात् आत्मा और परमात्मामें शुद्धता और अशुद्धताका अन्तर है, अन्य कुछ भी अन्तर नहीं है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन २०९ साकारं नश्वरं सर्वमनाकारं न दृश्यते । पक्षद्वयविनिर्मुक्तं कथं ध्यायन्ति योगिनः ॥ ६९० अत्यन्तं मलिनो देहः पुमानत्यन्त निर्मलः । । देहादेनं पृथक्कृत्वा तस्मानित्य विचिन्तयेत् ।। ६९१ तोयमध्ये यथा तैलं पृथग्भावेन तिष्ठति । तथा शरीरमध्येऽस्मिन्पुमानास्ते पृथक्तया ॥ ६९२ दध्नः सपिरिवात्मायमुपायेन शरीरत: । पृथक्रियत तत्त्वज्ञेश्चिरं संसर्गवानपि । ६९३ पुष्पामोदौ तरुच्छाये यद्वत्सकलनिष्कले । तद्वत्तो देहदेहस्थो यद्वा लपनविम्बवत् ॥ ६९४ एकस्तम्भं नवद्वारं पञ्चपञ्चनाश्रितम् । अनेककक्षमेवेदं शरीरं योगिनां गृहम् ॥ ६९५ ध्यानामृतान्नतप्तस्य क्षान्तियोषिद्रतस्य च । अत्रैव रमते चित्तं योगिनो योगबान्धवे ॥ ६९६ रज्जुभिः कृष्यमाणः स्याद्यथा पारिप्लवो हयः । कृष्टस्तथेन्द्रियरात्मा ध्याने लीयेत न क्षणमः ॥६९७ रक्षां संहरणं सृष्टि गोमुद्रामृतवर्षणम् । विधाय चिन्तयेदाप्तमाप्तरूपधरः स्वयम् ।। ६९८ शुद्ध आत्माको ही परमात्मा कहते हैं ।।६८९।। जो साकार हैं वह विनाशी हैं और जो निराकार हैं वह दिखायी नहीं देता। किन्तु आत्मा तो न साकार है और न निराकार है,उसका योगीजन कैसे ध्यान करते है? ।।६९०'। शरीर अत्यन्त गन्दा है किन्तु आत्मा अत्यन्त निर्मल है। अतः शरीरसे आत्माको जुदा करके सदा उसका ध्यान करना चाहिए ।।६९१।। जैसे पानीके बीच में रहकर भी तेल पानीसे जुदा रहता है.वैसे ही शरीर में रहकर भी आत्मा उबसे अलग ही रहता हैं ॥६९२।। जैसे घी और दहीका सम्बन्ध पुराना है फिर भी जानकार लोग उपायके द्वारा दहीसे घीको अलग कर लेते हैं वैसे ही इस आत्माका शरीरके साथ यद्यापि बहुत पुराना सम्बन्ध हैं,फिर भी तत्त्वके ज्ञाता पुरुष उपायके द्वारा आत्माको शरीरसे अलग कर लेते हैं ।। ८ ९३।। अथवा जैसे पुष्प साकार हैं किन्तु उसकी गन्ध निराकार हैं,या वृक्ष साकार हैं किन्तु उसकी छाया निराकार है अथवा मुख साकार हैं किन्तु उसका प्रतिविम्ब निराकार हैं वैसे ही शरीर और शरीरमें स्थित आत्माको जानना चाहिए ।। ६९४।। यह शरीर ही योगियोंका धर है। यह घर एक आयुरूपी स्तम्भपर ठहरा हुआ हैं। इसमें नौ द्वार है-दोनों आँखोंके दो छिद्र, दोनों कानोंके दो छिद्र, नाकके दो छिद्र, मुखक र मल-मूत्र त्यागके दो छिद्र । पाँचों इन्द्रियरूपी मनुष्य इसमें वास करते है और या अनेक कोठरियोंसे युक्त हैं।। ६९५॥ चुंकि यह शरीर योगका सहायक हैं इसलिए जो योगी ध्यानरूपी अन्न-जलसे सन्तुष्ट रहते है और क्षमारूपी स्त्रीमें आसक्त होते है उनका मन इसी में रमता है, इससे बाहर नहीं जाता ॥६५६।। जैसे रासके खींचनेसे वोडा चंचल हो जाता हैं वैसे ही इन्द्रियों-. के द्वारा आकृष्ट आत्मा क्षणभर भी ध्यानमें लीन नहीं हो सकता। अतः ध्यानी पुरुषको इन्द्रियोंको वशमें रखना चाहिए, स्वयं उनके वश नहीं होना चाहिए ॥६९७।। रक्षा, संहार,सृष्टि, गोमुद्रा और अमृतवृष्टि को करके स्वयं आप्त स्वरूपधारी मनुष्यको आप्तके स्वरूपका ध्यान करना चाहिए ।।६९८॥ विशेबार्थ-धर्मध्यानके संस्थान विचय नामक भेदके भी चार अवान्तर भेद है-पिण्डस्थ पदस्थ रूपस्थ और रूपातोत । पिण्डस्थध्यानमें पाँच धारणाएँ होती है-पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्त्वरूपवती। पार्थिव धारणाका स्वरूप इस प्रकार हैं-प्रथम ही योगी निःशब्द, तरंगरहित क्षीरसमुद्रका ध्यान करता है। उसके मध्य में एक सुनहरे रंगके सहस्रदल कमलका ध्यान करता है। फिर उस कमलके मध्य में मेरुके समान एक कणिकाका ध्यान करता हैं और फिर उस कणिकाके ऊपर स्थित सिंहासनपर अपनेको बैठा हुआ विचारता है। यह पार्थिवी धारणा है। अब आग्नेयी धारणाको कहते है- फिर वह योगी अपने नाभिमण्डल में सोलह पत्रोके एक कमलका Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. श्रावकाचार-संग्रह धूमवनिर्वमेत्पापं गुरुबीजेन् तादृशा । गण्हीयादमृतं तेन तद्वर्णेन मुहुर्मुहुः ।।६९९ संन्यस्ताभ्यामधोध्रिभ्यामूर्वोरुपरि युक्तितः । भवेच्च समगुल्फाभ्यां पद्मवीरसुखासनम् ।। ७०० तत्र सुखासनस्येदं लक्षणम्गुल्फोत्तानकराङ्गुष्ठरेखारोंमालिनासिकाः । समदृष्टिः समाः कुर्यानातिस्तब्धो न वामनः ।।७०१ तालत्रिभागमध्याङ्घिः स्थिरशीर्षशिरोऽधरः । समनिष्पन्दपायॆग्रजानुभ्र हस्तलोचनः ।। ७०२ न खात्कृलिन कण्डूतिनौष्ट भक्तिर्न कम्पितिः । न पर्वगणितिः कार्यानोक्तिरन्दोलितिः स्मितिः।।७०३ न कुर्याद्दूरदृक्पातं मैव केकरवीक्षणम् । न स्पन्दं पक्ष्ममालानां तिष्ठेन्नासाग्रदर्शनः ॥ ७०४ विक्षेपाक्षेपसंमोहदुरीहरहिते हृदि । लब्धतत्त्वे करस्थोऽयमशेषो ध्यानजो विधिः ।। ७०५ चिन्तन करता है । फिरे उन सोलह पत्रोंपर 'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः' इ सोलह अक्षरोंका ध्यान करता हैं और कमलकी कणिकापर 'हँ' का ध्यान करता है फिर 'ह' की रेफसे निकलती हुई धूमकी शिखाका चिन्तन करता है। फिर उसमें से निकलते हुए स्फुलिंगोंका चिन्तन करता है। फिर उसमें से निकलती हुई ज्वालाकी लपटोंका और उन लपटोंके द्वारा हृदयस्थित कमलको जलता हुआ चिन्तन करता है। उस कमलके जल चुकनेके पश्चात् शरीरके बाहर बडवानलकी तरह जलती हुई अग्निका चिन्तन करता है । यह प्रज्वलित अग्नि उस नाभिस्थ कमलको और शरीरको भस्म करके जलानेके लिए कुछ शेष न रहनेसे स्वयं शान्त हो जाती है ऐसा चिन्तन करता हैं । अब मारुती धारणाको कहते हैं-फिर योगी आकाशको पूरकर विचरते हुए महावेगशाली और महाबलवान वायुमण्डलका चिन्तन करता है। उसके बाद ऐसा चिन्तन करता हैं कि उस महावायुने शरीरादिककी सव भस्मको उडा दिया है। आगे वारुणी भारणाको कहते हैं-फिर वह योगी बिजली गर्जन आदि सहित मेघोंके समूहसे भरे हुए आकाशका चिन्तन करता है। फिर उनको बरसते हुए चिन्तन करता हैं। फिर उस जलके प्रवाहसे शरीरादिकी भस्मको बहता हुआ चिन्तन करता है। अब तत्त्वरूपवती धारणाको कहते है-फिर वह योगी पूर्ण चन्द्रमाके समान निर्मल सर्वज्ञ आत्माका चिन्तन करता हैं। फिर वह ऐसा चिन्तन करता है कि वह आत्मा सिंहासनपर विराजमान हैं, दिव्य अतिशयोंसे सहित हैं और देवदानव उसकी पूजा कर रहे हैं। फिर वह उसे आठ कर्मोसे रहित पुरुषाकार चिन्तन करता हैं । यह तत्त्व-रूपवती धारणा है। इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यानका अभ्यासी योगी शीघ्र ही मोक्ष सुखको प्राप्त कर लेता है। उक्त श्लोकके द्वारा ग्रन्थकारने इन्हीं धारणाओंका कथन किया हैं। उस प्रकारके बीजाक्षर हैं' से धमकी तरह पापको नष्ट करना चाहिए । अर्थात् आग्नेयी धारणामें हें की रेफसे निकलती हई धूमशिखाका चिन्तन करनेसे धूमकी तरह पापका क्षय होता हैं । तथा उस अमृत वर्णअकारसे बारबार अमृतको ग्रहण करना चाहिए ।।६९९।। भावार्थ-'अर्ह' पदका ध्यान करे। ध्यानके समय 'है' के द्वारा पापका विनाश होता हुआ चिन्तन करे और अलंकारसे अमृत को ग्रहण करे। ध्यानके आसनोंका स्वरूप-जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनोंसे नीचे दोनों पिण्डलियोंपर रखकर बैठा जाता हैं उसे पद्मासन कहते है । जिसमें दोनों पैर दोनों दोनों घुटनोंके हिस्सेपर रखकर बैठा जाता है अर्थात बायीं ऊरूके ऊपर दायाँ पेर और दायीं ऊरूके ऊपर बायाँ पैर रखा जाता है उसे वीरासन कहते हैं। और जिसमें पैरोंकी गाँठे बराबर में रहती है उसे सुखासन कहते हैं ।।७००॥ पैरोंकी गाँठोपर बायीं हथेलीके ऊपर दायीं हथेलीको सीधा रखे। अँगूठोंकी रेखा,नाभिसे निकलकर ऊपरको जानेवाली रोमावली और नाक एक मीधमें हों। दृष्टि सम हो । शरीर न एकदम तना . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत - उपासकाध्ययन यस्यापदद्वयमलंकृतियुग्मयोग्यं लोकत्रयाम्बुजसरः प्रविहारहारि । ( इति तोयम् ) तां वाग्विलासवसति सलिलेन देवीं सेवे कविद्युतरुमण्डन कल्पवल्लीम् । ७०६ यामन्तरेण सकलार्थसमर्थनोऽपि बोधोऽव केशितरुवन्न फलाथिसेव्यः । सोऽत्यल्पवेद्यपि ययानुगतस्त्रिलोक्याऽऽसेव्यः सुरनुरिव तं प्रयजेय गन्धैः ।। ७०७ ( इति गन्धम् ) या स्वल्पवस्तुरचनापि मितप्रवृत्तिः संस्कारतो भवति तद्विपरीतलक्ष्मीः । स्वयंल्लरीवनलतेव सुधानुबन्धात्तामद्भुत स्थितिमहं सदकैः श्रयामि ।। ७०८ यद्वीजमल्पमपि सज्जनधीधरायां लब्ध प्रवृद्धि विविधानवधिप्रबन्धैः । ( इत्यक्षतम् ) ( इति पुष्पम् ) ( इति चरुम् ) सस्यैर पूर्व रसवृत्तिभिरेव रोहत्याश्चयंगोचरणविधि प्रसवैर्भजे ताम् ।। ७०९ या स्पष्टताधिकविधिः परतन्त्रनीतिः प्रायः कलापरिगतापि मनः प्रसूते । स्पष्टं स्वतन्त्रमुपशान्तकलं च नृणां चित्रा हि वस्तुगतिरन्नविर्धयंजे ताम् ।। ७१० हुआ हो और न एकदम झुका हो । खड्गासन अवस्थामें दोनों चरणोंके बीच में चार अंगुलका अन्तर होना चाहिए । सिर और गर्दन स्थिर हो । एडी, घुटने, भृकुटि, हाथ और आँखे समान रूपसे निश्चल हो । न खांसे, न खुजायें। न ओठ चलाये, न काँपे, न हाथ के पर्वोपर गिनें, न बोले, न हिले-डुले, न मुसकराये, न दृष्टिको दूर तक ले जाये और न कटाक्षसे ही देखे । आँखके पलकोंको न मारे और नाकके अग्रभाग में अपनी दृष्टिको स्थिर रखे। हृदय में चंचलता, तिरस्कार, मोह और दुर्भावनाके न होनेपर तथा तत्त्वज्ञानके होनेपर यह समस्त ध्यानकी विधि करमें स्थित अर्थात् सुलभ है । । ७०१ - ७०५ ।। ( अब अष्टद्रव्यसे शास्त्रका पूजन कहते हैं -) जिसके सुबन्त और तिङन्तरूप अथवा शब्द और धातुरूप दोनोंपद (चरण) शब्दालंकार और अथलिकारके योग्य है, तथा तीनों लोकरूपी कमलसरोवरमें विचरण करनेसे मनोहर है उस कविरूपी कल्पवृक्षों को शोभित करने के लिए कल्पलताके तुल्य सरस्वती देवीको में जलसे पूजता हूँ ||७०६ || जिसके बिना समस्त पदार्थो का समर्थन करनेवाला भी ज्ञान फलहीन वृक्षकी तरह फलार्थी पुरुषोंके द्वारा सेबनीय नहीं होता, और जिसका अनुसरण करनेवाला अत्यन्त अल्पज्ञानी भी मनुष्य कल्पवृक्षकी तरह तीनों लोकोंसे पूजित होता है, उस जिनवाणीको में गन्धसे पूजता हूँ ।। ७०७ ।। भावार्थ - जिनवाणी स्व और परका ज्ञान कराकर जीवोंको हितमें लगाती है और अहितसे बचाती हैं। अतः हिताहित के विवेकसे रहित बहुत ज्ञान भी मोक्षाभिलाषियोंके लिए बेकार हैं । और हिताहितके विवेकसे युक्त अल्पज्ञान भी पूजनीय हैं; क्योंकि उसीके द्वारा जीव सिद्ध-बुद्ध बनकर त्रिलोकपूजित होता हैं । जिस जिनवाणी के संस्कारवश अल्प अर्थवाला और अल्प शब्दवाली रचना भी महान् अर्थशाली और महाशब्दवाली हो जाती हैं, जैसे अमृतके सिञ्चनसे बडकी लता भी कल्पलता हो जाती है । उस अद्भुत स्थितिवाली जिनवाणीको मै अक्षतसे पूजता हूँ ।। ७०८ || जिस जिनवाणीका छोटा-सा भी बीज सज्जनकी बुद्धिरूपी भूमिमें अनेक प्रकारके असीम वृद्धिंगत प्रबन्धोके द्वारा और अपूर्व रससे युक्त फलोंके साथ उगता है, तथा जिसकी विधि आश्चर्यका विषय है उस जिनवाणीको में फूलोंसे पूजता हूँ ।। ७०९ || जो शब्दरूप होनेसे नेत्रका विषय नहीं हैं अतएव अति अस्पष्ट है, तथा जो कण्ठ तालु आदि स्थानोंसे उत्पन्न होनेके कारण परतन्त्र है और मूर्तिसहित है- साकार हैं, उस वाणीको मनुष्यों का मन स्पष्ट स्वतन्त्र और शरीर - रहित प्रकट करता हैं। आशय यह हैं कि जिनवाणी श्रुत ज्ञानरूप हैं और श्रुतज्ञान अस्पष्ट होता है तथा श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशमसे अधीन २११ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्रावकार-संग्रह एकं पदं बहुपदापि बदासि तुष्टा वर्णात्मिकापि च करोषि न वर्णमाजम् । सेवे तथापि भवतीमथवा जनोऽर्थी दोषं न पश्यति तदस्तु तवैष दीपः ।। ७११ (इति दीपम्) चक्षः परं करणकन्दरितेऽर्थे मोहान्धकारविधती परमः प्रकाशः । तद्धामगामिपथवीक्षणरत्नदीपस्त्वं सेव्यसे तदिह देवि जनेन धूपैः ।। ७१२ (इति धूषम्) चिन्तामणित्रिदिवधनुसुरतमाद्याः पुंसा मनोरथपथप्रथितप्रभावाः। भावा भवन्ति नियतं तव देवि सम्यक्सेवाविधेस्तदिदमस्तु मुदे फलं ते ।। ७१३ (इति फलम्) कलधौतकमलमौक्तिकदुकूलमणिजालचामरप्रायः । आराधयामि देवी सरस्वती सकलमङ्गलैमविः ॥ ७१४ स्याद्वावभूधरभवा मुनिमाननीया देवैरनन्यशरणैः समुपासनीया। स्वान्ताधिताखिलकलङ्कहरप्रवाहा वागापगास्तु मम बोधगजावगाहा ।। ७१५ मुर्धाभिषिक्तोऽभिषवाज्जिनानामर्योऽर्चनात्संस्तवनात् स्तवाहः । जपी जपावधानविधेरबाध्यः श्रुताश्रितश्रीः श्रुतसेवनाच्च ।। ७१६ होनेसे परतन्त्र भी होता है। किन्तु केवलज्ञान होने पर बही वाणी स्पष्ट,स्वतन्त्र और निराकार रूपमें अवतरित होती हैं । सच है वस्तुओंकी गति बडी विचित्र हैं उस वाणीको मै चरुसे पूजता हूँ ॥७१०।। हे जिनवाणी माता! आप बहुत पदवाली होनेपर भी सन्तुष्ट होनेपर एक पद देती है, वर्णात्मक होनेपर भी वर्ण प्रधान नहीं करती, इस तरह आप बहुत कृपण हैं,फिर भी मै आपकी सेवा करता हूँ; क्योंकि अर्थी मनुष्य दोष नहीं देखता । यह विरोधाभास अलंकार है। इसका परिहार इस तरह है। द्वादशांग रूप जिनवाणीके पदोंकी संख्या एक सौ बारह करोड तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच है । अतः वह वहुपदा है । और उसके द्वारा एक पद-अद्वितीय मोक्ष प्राप्त होता है। तथा वह जिनवाणी अक्षरात्मक है मगर आत्माको ब्राह्मणादि वर्गोसे मुक्त कर देती हैं। अतः मै उसे दीप अर्पित करता हूँ ॥७११।। हे देवी स• स्वती! गुफाके समान इन इन्द्रियोंसे दूरवर्ती पदार्थको देखने के लिए आप चक्षु के समान है, अर्थात् जो पदार्थ इन्द्रियोंके अगोचर है उन्हें जिनवाणोके प्रसादसे जाना जा सकता है,और मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए आप परम प्रकाशके तुल्य हैं । तथा मोक्ष महलको जानेवाले मार्गको दिखाने के लिए आप रत्नमयी दीपक है। इस लिए लोग धूपसे आपका पूजन करते है ॥७१२ । हे देवि! आपकी विधिपूर्वक सेवा करनेसे मनुष्योंके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले चिन्तामणि रत्न, कामधेनु और कल्पवृक्ष आदि पदार्थ नियमसे प्राप्त होते हैं अतः यह फल आपकी प्रसन्नताके लिए हो ।।७१३।। मै स्वर्गक मल, मोती, रेशमी वस्त्र, मणियोंका समूह और चमर वगैरह मांगलिक पदार्थोसे सरस्वती देवीकी आराधना करता हूँ।।७१४।। स्याद्वादरूपी पर्वतसे उत्पन्न होनेवाली, मुनियोंके द्वारा आदरणीय, अन्यकी शरणमें न जानेवाले देवोंके द्वारा सम्यक् रूपसे उपासनीय और जिसका प्रवाह अन्तःकरणके समस्त दोषोंको हरनेवाला हैं, ऐसी वाणीरूपी नदी मेरे ज्ञानरूपी हाथीके अवगाहनके लिए हो, अर्थात् मै ज्ञान-द्वारा उस जिनवाणीका अवगाहन करूँ-उसमें डुबकी लगाऊँ ।।७१५।। जिनभगवान्का अभिषेक करनेसे मनुष्य मस्तकाभिषेकका पात्र होता है, पूजा करनेसे पूजनीय होता हैं, स्तवन करनेसे स्तवनीय (स्तवन किये जानेके योग्य) होता है, जपसे जप किये जाने के योग्य होता है, ध्यान करनेसे बाधाओंसे रहित होता हैं और श्रुतकी सेवा (स्वाध्यायादि) करनेसे महान् शास्त्रज्ञ होता है।।७१६।। .. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकबम्पूगत-उपासकाध्ययन ___ २१३ २१३ दृष्टस्त्वं जिन सेवितोऽसि नितरां भावैरनन्याश्रयः स्निग्धस्त्वं न तथापि यत्समविधिर्भक्ते विरक्तेऽपि च । मच्चेत्तः पुनरेतदीश भवति प्रेमप्रकृष्टं ततः । कि भाषे परभत्र यामि भवतो भूयात्पुनदर्शनम् ।। ७१७ पर्वाणि प्रोष धान्याहुर्मास चत्वारि तानि च । पूजाक्रियावताधिक्याद्धर्मकर्मात्र बहयेत् ॥ ७१८ रसत्यागेकभक्तकस्थानोपवसनक्रियाः । यथाशक्तिविधेया: स्युः पर्वसन्धौ च पर्वणि ॥ ७१९ तन्नरन्तर्यसान्ततिथितीर्थक्षपूर्वकः । उपवासविधिश्चित्रश्चिन्त्य: श्रुतसमाश्रयः ॥ ७२० स्नानगन्धाङ्गसंस्कारभूषायोषाविषक्तधीः । निरस्तसर्वसावधक्रियः संयमतत्परः ॥ ७२१ देवागारे गिरौ चापि गहे वा गहनेऽपि वा । उपोषितो भवेन्नित्यं धर्मध्यानपरायणः ॥ ७२२ तोपवासस्य बव्हारम्भरतात्मनः । कायक्लेश: प्रजायेत गजस्नानसमक्रियः ।। ७२३ अनवेक्षाप्रतिलेखनदुष्कर्मारम्भदुर्मनस्काराः । आवश्यकविरतियुताश्चतुर्थमेते विनिघ्नन्ति ॥ ७२४ विशुद्धनान्तरान्माय कायक्लेशविधि विना । किमग्नेरन्यदस्तीह काञ्चनाश्मविशुद्धये ॥ ७२५ हे जिनेन्द्र! मैने तुम्हारा दर्शन किया और जिनका अन्य आश्रय नहीं हैं ऐसे भावोंसे तुम्हारी अतिशय सेवा (पूजा) की । यद्यपि हे प्रभो, तुम राग-द्वेषसे रहित होनेके कारण निस्नेह हो, तथापि भक्तमें और विरक्तमें तुम्हारा समभाव है अर्थात् जो तुम्हारी सेवा करता हैं उससे तुम्हें राग नहीं है और जो तुम्हारी सेवा नहीं करता, उससे द्वेष नहीं है। फिर भी मेरा यह चित्त हे स्वामिन्! आपके प्रति प्रेमसे भरा हैं । अधिक क्या कहूँ अब मैं जाता हूँ। मुझे आपका पुनः दर्शन प्राप्त हो ॥७१७। प्रोषधोपवास व्रतका स्वरूप-प्रोषध पर्वको कहते है। वे पर्व प्रत्येक मासमें चार होते हैं। इन पर्वोमें विशेष पूजा, विशेष क्रिया और विशेष ब्रतोंका आचरण करके धर्म-कर्मको बढाना चाहिए ॥७१८॥ पर्व तथा पर्वके सन्धि दिनोंमें रसोंका त्याग, एकाशन, एकान्त स्थल में निवास, उपवास आदि क्रियाएँ यथाशक्ति करनी चाहिए ।।७१९॥ लगातार या बीचमें अन्तराल देकरके तिथि तीर्थङ्करोंके कल्याणक तथा नक्षत्र आदिका विचार करके आगमानुसार अनेक प्रकारके उपवासकी विधिको विचार लेना चाहिए । अर्थात् रसत्याग, एकभक्त, उपवास आदि कोई तो सदा करते हैं,कोई अमुक तिथिको करते है,कोई तीर्थङ्करोंके कल्याणकके दिन करते है, इस प्रकार अनेक प्रकारके उपवासकी विधिका आगमानुसार विचार कर करना चाहिए ।।७२०॥ (आगे उपवासकी विधि बतलाते है-) उपवास करनेवाला गृहस्थ स्नान, इत्र-फुलेल, शरीरकी सजावट, आभूषण और स्त्रीसे मनको हटाकर तथा समस्त सावध क्रियाओंसे विरक्त होकर संयममें तत्पर हो और देवालयमें, पहाडपर या घरमें अथवा किसी दुर्गम एकान्त स्थानमें जाकर धर्मध्यानपूर्वक अपना समय बितावे ।।७२१-७२२॥ जो पुरुष उपवास करके भी अनेक प्रकारके आरम्भोंमें फंसा रहता हैं, उसका उपवास केवल कायक्लेशका ही कारण होता हैं और उसकी क्रिया हाथीके स्नानकी तरह व्यर्थ है ।।७२३॥ बिना देखे और बिना साफ किये किसी भी पापकार्यसे युक्त आरम्भको करना, बुरे विचार लाना और सामायिक,वन्दना, प्रतिक्रमण आदि षट्कर्मोको न करना,ये काम प्रोषधोपवासव्रतके घातक है । अतः उपवासके दिन इस प्रकारकी असावधानी नहीं करनी चाहिए ॥७२४॥ (यह कहा जा सकता है कि उपवास करनेसे शरीरको कष्ट होता है और शरीरको कष्ट देनेसे Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्रावकाचार संग्रह हस्ते चिन्तामणिस्तस्य दुःखद्रुमदवानलः । पवित्रं यस्य चारित्रेश्चितं सुकृतजन्मनः ।। ७२६ यः सकृत्सेव्यते भावः स भोगो भोजनादिकः । भूषादिः परिभोगः स्यात्पौनःपुन्येन सेवनात् ॥ ७२७ परिमाणं तयोः कुर्याच्चिसव्याप्तिनिवृत्तये । प्राप्ते योग्ये च सर्वस्मिनिच्छया नियमं भजेत् ॥ ७२८ यमश्च नियमश्चेति द्वौ त्याज्ये वस्तुनि स्मृतौ । यावज्जीवं यमो ज्ञेयः सावधिनियमः स्मृतः ॥ ७२९ पलाण्डुकेतकी निम्बुसुमनः सूरणादिकम् । त्यजेदजन्म तद्रूपबहुप्राणिसमाश्रयम् ॥ ७३० goddata निषिद्धस्य जन्तुसंबन्धमिश्रयोः । अवीक्षितस्य च प्राशस्तत्संख्याक्षतिकारणम् ।। ७३१ इत्थं नियतवृत्तिः स्यादनिच्छोऽप्याश्रयः श्रियाम् । नरो नरेषु देवेषु मुक्तिश्रीसविधागमः । ७३२ यथाविधि यथादेशं यथाद्रव्यं यथापात्रं यथाकालं दानं देयं गृहाश्रमंः ॥ ७३३ आत्मनः श्रेयसेऽन्येषां रत्नत्रयसमृद्धये । स्वपरानुग्रहायेत्थं यत्स्यात्तद्दानमिष्यते ।। ७३४ दातृपात्र विधिद्रव्यविशेषात्तद्विशिष्यते । यथा घनाघनोद्गीणं तोयं भूमिसमाश्रयम् ॥ ७३५ आत्माका कुछ लाभ नहीं है । अतः उपवास नहीं करना चाहिए। इस प्रकारकी आपत्ति करनेवालोंको ग्रन्थकार उत्तर देते हैं - ) शरीरको कष्ट दिये बिना शरीरमें रहनेवाली आत्मा विशुद्ध नहीं हो सकती । सुवर्ण पाषाणको शुद्ध करके उसमें से सोना निकालनेके लिए क्या अग्निके सिवा दूसरा कोई उपाय है ? अग्निमें तपानेसे ही सोना शुद्ध होता हैं, वैसे ही शरीरको कष्ट देनेसे आत्म। विशुद्ध होती है || ७२५ ॥ जिस पुण्यात्मा पुरुषका चित्त चारित्रसे पवित्र है, चिन्तामणिरत्न उसके हाथमें है, जो दुःखरूपी वृक्षको जलानेके लिए अग्निके समान है । चारित्र ही वह चिन्तामणि रत्न है जो दुःखों को नष्ट करनेवाला हैं ||७२६ || भोगपरिभोगपरिमाणव्रत ( अब भोगपरिभोगपरिमाणव्रतको कहते है - ) जो पदार्थ एक बार ही भोगा जाता है जैसे भोजन आदिक उसे भोग कहते है । और जो बार-बार भोगा जाता हैं। जैसे भूषण आदिक उसे परिभोग या उपभोग कहते हैं ।। ७२७ ।। चित्तके फैलाव को रोकनेके लिए भोग और उपभोगका परिणाम कर लेना चाहिए। और जो कुछ प्राप्त है और प्राप्त होने के साथ-ही साथ जो सेवन करनेके योग्य है उसमें भी अपनी इच्छानुसार नियम कर लेना चाहिए ।। ७२८|| भोगपरिभोगका परिणाम दो प्रकारसे किया जाता हैं- एक यम रूपसे, दूसरे नियम रूपसे । जीवन पर्यम्त त्याग करनेको यम कहते है और कुछ समयके लिए त्याग करनेको नियम कहते है ।। ७२९ ।। प्याज आदि जमीकन्द, केतकी और नीमके फूल तथा सूरण आदि तो जीवन पर्यन्तको छोड देना चाहिए, क्योंकि इनमें उसी प्रकारके बहुत जीवोंका वास होता है || ७३०| जो भोजन कच्चा हैं या जल गया हैं, जिसका खाना निषिद्ध हैं, जो जन्तुओंसे छू गया हैं या जिसमें जन्तु जा पड़े हैं, तथा जिसे हमने देखा नहीं हैं ऐसे भोजनको खाना भोगपरिभोगपरिमाणव्रतकी क्षतिका कारण होता है | ७३१ ।। इस प्रकार जो भोगोपभोगका परिमाण करता है वह मनुष्य और देवपर्याय में जन्म लेकर बिना चाहे ही लक्ष्मीका स्वामी बनता है और मुक्ति भी उसे मिल जाती है ।।७३२ ॥ ( अब दानका वर्णन करते है - ) गृहस्थोंको विधि, देश, द्रव्य, आगम, पात्र और कालके अनुसार दान देना चाहिए ||७३३|| जिससे अपना भी कल्याण हो और अन्य ( मुनियों) के रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी उन्नति हो, इस तरह जो अपनें और दूसरोंके उपकारके लिए दिया जादा हैं उसे ही दान कहते हैं ।।७३४ | | जैसे मेघोंसे बरसा हुआ पानी भूमिको पाकर विशिष्ट फलदायी हो जाता हैं वैसे ही दाता, पात्र, विधि और द्रव्यकी विशेषतासे दान में भी विशे Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २१५ दातानुरागसंपन्नः पात्रं रत्नत्रयोचितम् । सत्कारः स्याद्विधिद्रव्यं तपःस्वाध्यायसाधकम् ।। ७३६ परलोकधिया कश्चित्कश्चिदहिकचेतसा । औचित्यमनसा कश्चित्सतां वित्तव्ययस्त्रिधा ।। ७६७ परलोकैहिकौचित्येष्वस्ति येषां न धीः समा। धर्मः कार्य यशश्चेति तेषामेतत् त्रयं कुतः ।। ७३८ अमयाहारभैषज्यश्रुतभेदाच्चतुर्विधम् । दानं मनीषिभिः प्रोक्तं भक्तिशक्तिसमाश्रयम् ।। ७३९ सौरूप्यमभयादाहुराहाराद्भोगवान् भवेत् । आरोग्यमौषधाज्ज्ञेयं श्रुतात्स्याच्छुतकेवली ।। ७४० अभयं सर्वसत्वानामादी दद्यात्सुधीः सदा । तद्धीने हि वृथा सर्वः परलोकोचितो विधिः ।। ७४१ बानमन्यद्भवेन्मा वा नरश्चेवभयप्रदः । सर्वेषामेव दानानां यतस्तद्दानमुत्तमम् ॥ ७४२ तेनाधीतं श्रुतं सर्व तेन तप्तं तपः परम् । तेन कृत्स्नं कृतं दानं यः स्यादभयदानवान् ।। ७४३ नवोपचारसंपन्नः समेतः सप्तभिर्गुणैः । अन्नश्चतुर्विधैः शुद्धः साधूनां कल्पयस्थितिम् ।। ७४४ प्रतिग्रहोच्चासनपादपूजाप्रणामवाक्कायमनःप्रसादाः। विधाविशुद्धिश्च नवोपचारा: कार्या मुनीनां गृहसंश्रितेन ।। ७४५ षता आ जाती हैं ।।७३५।। जो प्रेमपूर्वक दे वह दाता हैं, जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे भूषित हैं वह पात्र है। आदरपूर्वक देनेका नाम विधि है और जो तप और स्वाध्यायमें सहायक हो वही द्रव्य है ।।७३६।। सज्जन पुरुष तीन प्रकारसे अपने धनको खर्च करते है : कोई परलोकको बुद्धिसे कि परलोकमें हमें सुख प्राप्त होगा, धन खरचते है । कोई इस लोकके लिए धन खरचते हैं और कोई उचित समझकर धन खरचते है। किन्तु जिन्हें न परलोकका ध्यान हैं, न इहलोकका ध्यान है और न औचित्यका ही ध्यान है वे न धर्म कर सकते हैं न अपने लौकिक कार्य कर सकते है और न यश ही कमा सकते हैं ।।७३७।।-७३८|| बुद्धिमान् पुरुषोंने चार प्रकारका दान बतलाया है-अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदान । ये चारों दान अपनी शक्ति और श्रद्धाके अनुसार देने चाहिए ।।७३९।। अभयदानसे सुन्दर रूप मिलता है। आहार दानसे भोग मिलते है। औषधदानसे आरोग्य प्राप्त होता हैं और शास्त्रदानसे श्रुतकेवली होता है ॥७४०॥ सबसे प्रथम सब प्राणियोंको अभयदान देना चाहिए। क्योंकि जो अभयदान नहीं दे सकता उस मनुष्यकी समस्त पारलौकिक क्रियाएँ व्यर्थ है । ७४१ ।। और कोई दान दो या न दो, किन्तु अभयदान जरूर देना जाहिए; क्योंकि सब दानोंमें अभयदान श्रेष्ठ हैं।७४२।। जो अभयदान देता हैं, वह सब शास्त्रोंका ज्ञाता हैं, परम तपस्वी है और सब दानोंका कर्ता है। ७४३।। भावार्थप्राणिमात्रका भय दूर करके जीवनकी रक्षा करना अभयदान है । जो इस दानको करता हैं वह सब दानोंको करता हैं ; क्योंकि जीवनकी रक्षा सब चाहते हैं। सबको अपना-अपना जीवन प्रिय है । यदि जीवनपर ही संकट हो ती आहारदान या औषधदान या शास्त्रदान किस कामका। जो मनुष्य अपनेसे दूसरोंकी रक्षा नहीं कर सकता अर्थात् जो अहिंसा धर्मका पालन नहीं करता वह यदि परलीकके लिए धर्मकर्म करे भी तो वह सब व्यर्थ है। क्योंकि धर्मका मल जीवरक्षा है। यदि मूल ही नहीं तो धर्म कहाँ से हो सकता है। अतः प्राणिमात्रको यथाशक्ति जीवनदान देना ही सर्वोत्तम दान है। (अब आहारदानको कहते हैं-) सात गुणोंसे युक्त दाताने नवधा भक्तिपूर्वक साधुजनोंको अन्न, पान, खाद्य, लेद्यके भेदसे चार प्रकारका शुद्ध आहार देना चाहिए । ७४४॥ (अब नवधा भक्ति बतलाते हैं-) गृहस्थको मुनियोंकी नबधा भक्ति करनी चाहिए। सबसे पहले अपने द्वारपर मुनिको आते देख कर उन्हें आदरपूर्वक ग्रहण करना चाहिए कि स्वामिन् ! ठहरिए, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्रावकाचार - संग्रह श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिविज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः । यत्रते सप्त गुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।। ७४६ तत्र विज्ञानस्येवं लक्षणम् - विवणं विरसं विद्धमसात्म्यं प्रभृतं च यत् । मुनिभ्योऽन्नं न तद्देयं यच्च मुक्तं गदावहम् । ७४७ उच्छिष्टं नीचलोका मन्योद्दिष्टं विगर्हितम् । न देयं दुर्जनस्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् । ७४८ ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्रानीतमुपायनम् । न देयमापणक्रीतं विरुद्धं वाऽयथर्तुकम् ।। ७४९ दधिपपयोभक्ष्यप्रायं पर्युषितं मतम् । गन्धवर्णरस भ्रष्टमन्यत्सर्व विनिन्दितम् ॥ ७५० बालग्लानतपःक्षीणवृद्धव्याधिसमन्वितान् । मुनीनुपचरेत्रित्यं यथा ते स्युस्तपः क्षमाः । ७५१ शाठ्यं गर्वमवज्ञानं परिप्लवमसंयमम् । वाक्पारुष्यं विशेषेण वर्जयेद्भोजनक्षणे ॥ ७५२ अभक्तानां कदर्याणामव्रतानां च सद्मसु । न भुञ्जीत तथा साधुदैन्य कारुण्यकारिणाम् ।। ७५३ नाहरन्ति महासत्त्वाश्चित्तेनाप्यनुकम्पिताः । किन्तु ते दैन्यक्कारुण्य संकल्पोज्झितवृत्तयः ।। ७५४ धर्मेषु स्वामिसेवायां सुतोत्पत्तौ च कः सुधीः । अन्यत्र कार्यदेवाभ्यां प्रतिहस्तं समादिशेत् ।। ७५५ ठहरिए, ठहरिए । यदि वे ठहर जायें तो घरमें ले जाकर उन्हें ऊँचे आसनपर बैठाना चाहिए । फिर उनके चरणोंको धोकर पूजा करनी चाहिए। फिर प्रणाम करनाचाहिए। फिर उनसे निवेदन करना चाहिए कि मेरा मन शुद्ध है, वचन शुद्ध है, काय शुद्ध हैं और अन्न, जल शुद्ध है | ये नवधा भक्ति है || ७४५ ॥ ( अब दाताके सात गुण बतलाते है - ) जिस दातामें श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलोभीपना, क्षमा और शक्ति ये सात गुण पाये जाते हैं वह दाता प्रशंसा के योग्य होता हैं । ७४६ ॥ ( इन गुणों में से विज्ञानगुणका स्वरूप ग्रन्थकार स्वयं बतलाते हैं -) जो भोजन विरूप हों, चलितरस हो, फेंका हुआ हो, साधुकी प्रकृतिके विरुद्ध हो, जल गया हो, तथा जो खानेसे रोग पैदा करे, वह भोजन मुनिको नहीं देना चाहिए || ७४७ ।। जो उच्छिट हो - खानेसे बच गया हो, नीच लोगों के खाने योग्य हो, दूसरोंके लिए बनाया हो, निन्दनीय हो, दुर्जनसे छू गया हो या किसी देवता अथवा यक्ष के उद्देश्यसे रखा हो, वह भोजन मुनिको नहीं देना चाहिए ।। ७४८ ॥ जो दूसरे गाँवसे लाया गया हो, या मन्त्रके द्वारा लाया गया हो, या भेंटमे आया हो या बाजारसे खरीदा हो या ऋतुके प्रतिकुल हो, वह भोजन मुनिको नहीं देना चाहिए || ७४९ || दही, घी, दूध आदि बासी भी खाने के योग्य है, किन्तु जिसका रूप गन्ध और स्वाद बदल गया हो वह मुनिको देने के योग्य नहीं है ||७५० || अवस्थामें छोटे, रोगसे दुर्बल, बूढे और कोढ आदि व्याधियोंसे पीडित मुनियोंकी सदा सेवा करनी चाहिए, जिससे वे तप करने में समर्थ हो सके ।। ७५१ ।। भोजन के समय कपट, घमण्ड, निरादर, चंचलता, असंयम और कठोर वचनोंको विशेष रूपसे छोडना चाहिए अर्थात् वैसे तो इनको सदा ही छोडना चाहिए, किन्तु भोजन के समय तो खास तोरसे छोड देना चाहिए, क्योंकि इन सबका मनपर अच्छा असर नहीं पडता और मन खराब होनेसे भोजनका भी परिपाक ठीक नहीं होता ।। ७५२ ।। जो भक्तिपूर्वक दान नहीं देते, या अत्यन्त कृपण हैं अथवा अती है या दीनता और करुणा उत्पन्न करते हैं अर्थात् अपनी दीनता प्रकट करते हैं, या करुणा बुद्धिसे दान देते हैं, उसके घरपर साधुको आहार नहीं लेना चाहिये ।।७५३ ।। 'साधु बडे सत्त्वशाली होते हैं, चित्तसे भी बड़े दयालु होते हैं । उनकी वृत्ति दीनता और करुणाजन संकल्पोंसे रहित होती है । अतः वे दीनों और दयापात्रोंके घरपर आहार नहीं करते ||७५४।: ( जो लोग स्वयं दान न देकर दूसरोंसे दान दिलाते है उनके बारेमें ग्रन्थकार कहते है - ) जो काम दूसरोंसे . Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत - उपासकाध्ययन आत्मवित्तपरित्यागात्परैर्धर्म विधायने । निःसंदेहमवाप्नोति परभोगाय तत्फलम् ।। ७५६ भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरस्त्रियः । विभवो दानशक्तिश्च स्वयं धर्मकृतेः फलम् ।। ७५७ शिल्पotosardarसंभलीपतितादिषु । देहस्थिति न कुर्वीत लिङ्गिलिङ्गोपजीविषु ।। ७५८ दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः । मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तव ।।७५९ पुष्पादिरशनादिर्वा न स्वयं धर्म एष हि । क्षित्यादिरिव धान्यस्य किं तु भावस्य कारणम् ॥७६० युक्त हि श्रद्धया साधु सकृदेव मनो नृणाम् । परां शुद्धिमवाप्नोति लोहं विद्धं रसैरिव ।। ७६१ तपोदानाचंनाहीनं मनः सदपि देहिनाम् । तत्फलप्राप्तये न स्यात्कुशूलस्थितबीजवत् ।। ७६२ आवेशिका श्रितज्ञातिदीनात्मसु यथाक्रमम् । यथौचित्यं यथाकालं यज्ञपञ्चकमाचरेत् । । ७६३ काले कलौं चले चिसे देहे चाज्ञादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ।। ७६४ यथा पूज्य जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिमितम् । तथा पूर्वमुनिच्छाया पूज्याः संप्रति संयताः । ७६५ तदुत्तमं भवेत्पात्रं यत्र रत्नत्रयं नरे । देशव्रती भवेन्मध्यमन्यच्चासंयतः सुदृक् ॥ ७६६ कराने लायक है, या जो भाग्यवश हो जाता है उनको छोडकर धर्मके कार्य, स्वामीकी सेवा और सन्तानोत्पत्तिको कौन समझदार मनुष्य दूसरेके हाथ सौंपता है ? ॥७५५|| जो अपना धन देकर दूसरोंके द्वारा धर्मं कराता है वह उसका फल दूसरोंके भोगके लिए ही उपार्जित करता हैं इसमें सन्देह नहीं है ।।७५६॥ खाद्य पदार्थ, भोजन करनेकी शक्ति, रमण करने की शक्ति, सुन्दर स्त्रियाँ, सम्पत्ति और दान करनेकी शक्ति, ये चीजें स्वयं धर्म करनेसे ही प्राप्त होती हैं ।।७५७॥ नाई, धोबी, कुम्हार, लुहार, सुनार, गायक, भाट, दुराचारिणी स्त्री, नीच लोगोंके घरमें तथा जो मुनियों, के उपकरण बेचकर उनसे आजीविका करते है उनके घर में मुनिको आहारनहीं करनाचाहिए ॥ ७५८ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण ही जिनदीक्षाके योग्य हैं किन्तु आहार दान देनेके योग्य चारों ही वर्ण हैं; क्योंकि सभी प्राणियोंको मानसिक, वाचनिक और कायिक धर्मका पालन करनेकी अनुमति हैं ।। ७५९ ।। पुष्प आदि और भोजन आदि स्वयं धर्म नहीं है, किन्तु जैसे पृथ्वी आदि धान्यकी उत्पत्ति में कारण हैं वैसे ही ये चीजें शुभ भावोंके होनेमें कारण हैं ।।७६०|| भावार्थपूजामें जो पुष्प आदि चढाये जाते है और मुनिको जो आहार दिया जाता हैं सो ये पुष्प आदि द्रव्य या भोजन स्वयं धर्म नहीं है । किन्तु इनके निमित्तसे जो शुभ भाव होते है वे धर्म के कारण है क्योंकि उनसे शुभ कर्मका बन्ध होता हैं। मनुष्योंका मन यदि एक बार भी सच्ची श्रद्धासे युक्त होतो वह उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होता है। जैसे पारद के योग से लोहा अत्यन्त शुद्ध हो जाता हैं ।।७६१ ।। और प्राणियों के मन होते हुए भी यदि वह मन तप, दान और पूजामें रत न हो तो जैसे खेती में पडा. हुआ बीज धान्यको उत्पन्न नहीं कर सकता वैसे ही वह मन भी उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता । अतः यदि मन हैं तो उसे शुभ कार्यो में लगाना चाहिए ||७६२ ।। अपने घरपर आये हुए अतिथिको, अपने आश्रितको सजातायको और दीन मनुष्योंको समयके अनुसार यथायोग्य पाँच दान क्रमशः देने चाहिए || ७६३ || यह बडा आश्चर्य हैं कि इस कलिकालमें जब मनुष्योंका मन चंचल रहता है और शरीर अन्नका कीडा बना रहता है, आज भी जिनरूपके धारक मनुष्य पाये जाते है ।। ६४ ।। जैसे पाषाण आदि में अंकित जिनेन्द्र भगवान्‌की प्रतिकृति पूजने योग्य हैं, लोग उसकी पूजा करते हैं, वैसे ही आजकल के मुनियोंको भी पूर्वकालके मुनियोंकी प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए || ७६५ ।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे विभूषित मुनि उत्तम पात्र हैं । अणुव्रती श्रावक मध्यमपात्र है और असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्यपात्र है || ७६६ । । जिस मनुष्य में २१७ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्रावकाचार - संग्रह यत्र रत्नत्रयं नास्ति तदपात्रं विदुर्बुधाः । उप्तं तत्र वृथा सर्वमूषरायां क्षिताविव ॥ ७६७ पात्रे दत्तं भवेदन्नं पुण्याय गृहमेधिनाम् । शुक्तावेव हि मेघानां जलं मुक्ताफलं भवेत् ॥ ७६८ मिथ्यात्वग्रस्त चितेषु चारित्रामास भागिषु । वोषायैव भवेद्दानं पयःपानमिवाहिषु ॥ ७६९ कारुण्यादथवौचित्यात्तेषां किञ्चिद्दिशन्नपि । विशेदुद्धृतमेवानं गृहे भुक्ति न कारयेत् ।। ७७० सत्कारादिविधावेषां दर्शनं दूषितं भवेत् । यथा विशुद्धमप्यम्बु विषभाजन संगमात् । ७७१ शाक्यनास्तिकयागज्ञजटिलाजीवकाविभिः । सहावासं सहालापं तत्सेवां च विवर्जयेत् ।। ७७२ अज्ञाततत्त्वचेतोभिर्दुराग्रहमलीमसैः । युद्धमेव भवेद् गोष्ठ्यां दण्डादण्डि कचाकचि || ७७३ भयलोमोपरोधाद्यैः कुलिङ्गिषु निषेवणे । अवश्यं दर्शनं म्लायेशी चराचरणे सति ।। ७७४ बुद्धिपरुषयुक्तेषु देवायत्तविभूतिषु । नृषु कुत्सित सेवायां दैन्यमेवातिरिच्यते ।। ७७५ समयी साधकः साधुः सूरिः समयदीपकः । तत्पुनः पञ्चधा पात्रमामनन्ति मनीषिणः ।। ७७६ गृहस्थो वा यतिर्वापि जैनं समयमास्थितः । यथाकालमनुप्राप्तः पूजनीयः सुदृष्टिभिः । ७७७ ज्योतिर्मन्त्रनिमित्तज्ञः सुप्रज्ञः कार्यकर्मसु । मान्यः समयिभिः सम्यक्परोक्षार्थसमर्थधीः ।। ७७८ दीक्षायात्रा प्रतिष्ठाद्या: क्रियारुद्विरहे कुतः । तदर्थं परपृच्छायां कथं च समयोन्नतिः ।। ७७९ न सम्यग्दर्शन है, न सम्यग्ज्ञान हैं और न सम्यक् चारित्र हैं उसे विद्वज्जन अपात्र समझते है । जैसे ऊसर भूमि में कुछ भी बोना व्यर्थ होता हैं वैसे ही अपात्रको दान देना भी व्यर्थ है ।।७६७ ॥ पात्रको आहार दान देने से गृहस्थोंको पुण्य फल प्राप्त होता है; क्योंकि मेघका पानी सीप में ही जानेसे मोती बनता है, अन्यत्र नहीं ॥७६८ || जिनका चित्त मिथ्यात्व में फँसा हैं और जो मिथ्या चारित्रको पालते हैं, उनको दान देना बुराईका ही कारण होता हैं. जैसे सांपको दूध पिलाने से वह जहर ही उगलता है, ।।७६९ ।। ऐसे लोगोको दयाभावसे अथवा शक्तित समझकर यदि कुछ दिया भी जाये तो भोजनसे जो अवशिष्ट रहे वही देना चाहिए। किन्तु घरपर नहीं जिमाना चाहिए । ७७० ।। जैसे विषैले बरतन के सम्बन्धसे अशुद्ध जल भी दूषित हो जाता हैं वैसे ही इन मिथ्यादृष्टि साधुवेषि योंका आदर-सत्कार करनेसे श्रद्धान दूषित हो जाता है ।। ७७१ || अतः बौद्ध, नास्तिक, याज्ञिक, जटाधारी तपस्वी और आजीवक आदि सम्प्रदाय के साधुओंके साथ निवास, बातचीत और उनकी सेवा आदि नहीं करना चाहिए ||७७२ ॥ तत्त्वोंसे अनजान और दुराग्रही मनुष्योंके साथ बातचीत करनेसे लढाई ही होती है जिसमें डण्डा डण्डी और केशाकेशी तककी नौबत आ सकती हैं ।। ७७३ ॥ जो स्त्री-पुरुष किसी अनिष्टके भयसे या पुत्र आदि के लालचसे या दूसरोंके आग्रहसे कुलिङगी साधुओंकी सेवा करते हैं, उनका श्रद्धान नीच आचरण करनेसे अवश्य मलिन होता हैं ।। ७७४ ।। सभी मनुष्य बुद्धिशाली हैं और यथायोग्य पौरुष - उद्योग भी करते है किन्तु सम्पत्तिका मिलना तो भाग्य के अधीन हैं। फिर भी यदि मनुष्य बुरे मनुष्योंकी सेवा करता है तो यह तो दीनताका अतिरेक हैं ।।७७५।। अब अन्य प्रकार से पात्रके पाँच भेद और उनका स्वरूप बतलाते हैं - बुद्धिमान् पुरुष समयी, साधक, साधु, आचार्यं और धर्मके प्रभावकके भेदसे पात्रके पाँच भेद मानते हैं ।। ७७६॥ गृहस्थ हो या साधु, जो जैन धर्मका अनुयायी है उसे समयी या साधर्मी कहते है । ये साधर्मी पात्र यथाकाल प्राप्त होनेपर सम्यग्दृष्टि भाइयों को उनका आदर-सत्कार करना चाहिए। ७७७ ।। जिनकी बुद्धि परोक्ष अर्थको भली प्रकारसे जानने में समर्थ हैं उन ज्योतिषशास्त्र, मन्त्रशास्त्र और निमित्तशास्त्र के ज्ञाताओंका तथा कार्यक्रम अर्थात् प्रतिष्ठा आदिके ज्ञाताका साधर्मी भाइयोंको सम्मान करना चाहिए ॥ ७७८॥ यदि न हो तो जिनदीक्षा, तीर्थयात्रा और जिन विम्बप्रतिष्ठा आदि Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन २१९ मुलोत्तरगुणश्लाध्यैस्तपोभिनिष्ठितस्थितिः । साधुः साधु भवेत्पूज्य: पुण्योपाजितपण्डितैः ।। ७८० ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे चातुर्वर्ण्यपुरःसर: । पूरिदेव इवाराध्यः संसाराब्धितरण्डकः ।। ७८१ लोकवित्वकवित्वाद्यैर्वावाग्मित्वकोपाल: । मार्गप्रभावनौद्युक्तः सन्तः पूज्या विशेषतः । ५८२ मान्य ज्ञानं तपोहीनं ज्ञानहीनं तपोऽहितम् । द्वयं यत्र स देव: स्यात् द्विहीनो गणपूरणः ।। ७८३ अहंदूपे नमोऽस्तु स्याद्विरतो विनयक्रिया । अन्योन्यं क्षुल्लके चाहमिच्छाकारवचः सदा ॥ ७८४ अनुवीचीवचो भाष्यं सदा पूज्यादिसंनिधौ। यथेष्टं हसनालापान वर्जयेद् गुरुसंनिधौ ।। ७८५ . मुक्तित्रिप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्त: सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन् शुष्यति ॥७८६ सर्वारम्भप्रवृत्तानां गृहस्थानां धनव्यय । बहुधास्ति ततोऽत्यर्थं न कर्तव्या विचारणा ॥ ७८७ . यथा यथा विशिष्यन्ते तपोज्ञानादिभिर्गुणैः । तथा तथाधिक पूज्या मुनयो गृहमेधिभिः ॥ ७८८ देवाल्लब्धं धनं धन्यैर्वप्तव्यं समयाश्रिते । एको मुनिर्भवेल्लभ्यो न लभ्यो वा यथागमम् ।। ७८९ क्रियाएँ कैसे हो सकती है ; क्योंकि इनमें मुहूर्त देखने के लिए ज्योतिष विद्या और क्रियाकर्म करानेके लिए प्रतिष्ठाशास्त्रके ज्ञाताको आवश्यकता होती है। शायद कहा जाये कि दूसरे लोगोंमें जो जोतिषी या मन्त्रशास्त्री है उनसे काम चला लिया जायेगा। किन्तु इस तरह दूसरोंसे पूछनेसे अपने धर्मकी उन्नति कैसे हो सकती है ।।७७९।। भावार्थ-अपने धर्मको उन्नति तो तभी हो सकती है जब अपने में भी सब आवश्यक बातोंके जाननेवाले हों। तथा अपने महर्त विचारमें भी दूसरोंसे अन्तर है और प्रतिष्ठा आदि विधि तो बिलकुल ही अलग हैं । अत जैन ज्योतिष और जैन मन्त्रशास्त्रके और प्रतिष्ठाशास्त्रके वेत्ताओंका भी सम्मान करना चाहिए, जिससे वे बने रहें और हमारे धर्मकी क्रियाएँ शुद्ध विधिपूर्वक चालू रहें। मूलगुण और उत्तरगुणोंसे युक्त तपस्वी महात्माको साधु कहते है। जो पुण्यको कमानेमें चतुर हैं उन्हें साधुकी भक्तिभावसे पूजा करनी चाहिए ॥७८०।। जो ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्डमें चतुर्विध संघके मुखिया होते हैं तथा संसाररूपी समुद्रसे पार उतारने में समर्थ हैं उन्हें आचार्य कहते है। उनकी देवके समान आराधना करनी चाहिए।।७८१।। जो लोकज्ञता तथा कवित्व आदिके द्वारा और शास्त्रार्थ तथा वक्तृत्वशक्तिके कौशल-द्वारा जैन धर्मकी प्रभावना करने में सदा संलग्न रहते हैं उन सज्जन पुरुषोंका विशेषरूपसे समादर करना चाहिए ।।७८२ । तपसे हीन ज्ञान भी समादरके योग्य हैं । और ज्ञानसे हीन तप भी पूजनीय है। किन्तु जिसमें ज्ञान और तप दोनों है वह देवता हैं और जिसमें दोनों नहीं हैं वह केवल संघका स्थान भरनेवाला हैं ॥७८३।। जिन-मुद्राके घारक साधुओंको 'नमोऽस्तु' कहकर अभिवादन करना चाहिए । त्यागियोंकी विनय करना चाहिए। और क्षुल्लक त्यागी परस्परमें एक दूसरेका सदा 'इच्छामि' कहकर अभिवादन करते हैं। पूज्य पुरुषोंके सामने सदा शास्त्रानुकूल वचन बोलना चाहिए । तथा गुरुजनों के समीपमें स्वच्छन्दतापूर्वक हँसी-मजाक नहीं करना चाहिए ।।७८४७८५11 केवल आहारदानके लिए साधुओंकी परीक्षा नहीं करनी चाहिए। चाहे वे सज्जन हों या दुर्जन हों । गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता है ।।७८६ । गृहस्थ लोग अनेक आरम्भोंमें फँसे रहते है और उनका धन भी अनेक प्रकारसे खर्च होता हैं । इससे तपस्वियोंको आहारदान देने में ज्यादा सोच-विचार नही करना चाहिए ।।७८७।। मुनिजन जैसे-जैसे तप, ज्ञान आदि गुणोंसे विशिष्ट हों वैसे-वैसे गृहस्थोंको उनका अधिक समादर करना चाहिए ॥७८८। धन भाग्यसे मिलता है, अतः भाग्यशाली पुरुषोंको आगमानुकूल कोई मुनि मिले या न मिले, किन्तु उन्हें अपना धन जैन . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्रावकाचार-संग्रह उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । नैकस्मिन्पुरुष तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः ।। ७९० .. ते नामस्थापनाद्रव्यभावन्यासंश्चतुर्विधाः । भवन्ति मुनयः सर्वे दानमानादिकर्मसु ।। ७९१ उत्तरोत्तरभावेन विधिस्तेषु विशिष्यते । पुण्यार्जने गृहस्थानां जिनप्रतिकृतिष्विव ।। ७९२ अतद्गुणेषु भावेष व्यवहारप्रसिद्धये । यत्संज्ञाकर्म तन्नाम नरेच्छावशवर्तनात् ॥ ७९३ साकारे वा निराकारे काष्ठावो यन्निवेशनम् । सोऽयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥ ७९४ आगामिगुणयोग्योऽर्थो द्रव्यन्यासस्य गोचरः । तत्कालपर्ययाक्रान्तं वस्तु भावो विधीयते ॥ ७९५ यदात्मवर्णनप्राय मणिकाहायं विभ्रमम् । परप्रत्ययसंभूतं वानं तद्राजसं मतम् ।। ७९६ पात्रापात्रसमावेश्वमसत्कारमसंस्तुतम् । दासभत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे ॥ ७९७ आतिथेयं स्वयं यत्र यत्र पात्रनिरीक्षणम् । गुणाः श्रद्धादयो यत्र दानं तत्सात्त्विक विदुः ।। ७९८ उत्तमं सात्त्विकं दानं मध्यमं राजतं भवेत् । दानानामेव सर्वेषां जघन्यं तामसं पुनः ।। ७९९ यद्दत्तं तवमुत्र स्यादित्यसत्यपरं वचः । गावः पयः प्रयच्छन्ति कि न तोयतृणाशनाः ।। ८०० मुनिभ्यः शाकपिण्डोऽपि भक्त्या काले प्रकल्पितः । भवेदगण्यपुण्यार्थ भक्तिश्चिन्तामणिर्यतः ॥८०१ धर्मानुयायियोंमें अवश्य खर्च करना आहिए। ७८९।। जिन भगवान्का यह धर्म अनेक प्रकारके मनुष्योंसे भरा हैं । जैसे मकान एक खम्भेपर नहीं ठहर सकता वैसे ही यह धर्म भी एक पुरुषके आश्रयसे नहीं ठहर सकता ॥७९०।। नाम, स्थापना,द्रव्य और भावनिक्षेपकी अपेक्षासे मुनि चार प्रकारके होते है और वे सभी दान, सम्मानके योग्य हैं ।।७९१।। किन्तु गृहस्थोंके पुण्य उपार्जनकी दृष्टिसे जिनविम्बोंकी तरह उन चार प्रकारके मुनियोंमें उत्तरोत्तर रूपसे विशिष्ट विधि होती जाती है ।।७९२।। अब क्रमशः चारों निक्षेपोंका स्वरूप बतलाते है-नामसे व्यक्त होनेवाले गुणसे हीन पदार्थोमें लोक-व्यवहार चलानेके लिए मनुष्य अपनी इच्छानुसार जो नाम रख लेते है उसे नामनिक्षेप कहते हैं ॥७९३।। तदाकार या अतदाकार लकडी वगैरहमें यह अमक है इस प्रकारके अभिप्रायसे जो स्थापना की जाती हैं उसे स्थापनानिक्षेप कहते है।।७९४।। जो पदार्थ भविष्यमें अमुक गुणोंसे विशिष्ट होगा उसे अभी से ही उस नामसे पुकारना द्रव्य निक्षेप है। और जो वस्तु जिस समय जिस पर्यापसे विशिष्ट हैं उसे उस समय उसी रूप कहना भावनिक्षेप है ।।७९५।। अब प्रकारान्तरसे दानके तीन भेद बतलाते है-जो दान अपनी ख्यातिको भावनासे कभी-कभी किसीको तब दिया जाता है जब दूसरे दाताको वैसे दानसे मिलनेवाले फलको देख लिया जाता हैं, उस दानको राजस दान कहते है । अर्थात् उसे स्वयं तो दानपर विश्वास नहीं होता किन्तु किसीको दानसे मिलनेवाला फल देखकर कि इसने यह दिया था तो उससे इसे अमुक-अमुक लाभ हुआ,दान देता है। ऐसा दान रजोगुण प्रधान होनेसे राजस कहा जाता है ॥७९६॥ पात्र और अपात्रको समानरूपसे मानकर या पात्रको अपात्रके समान मानकर बिना किसी आदर-सम्मान और स्तुतिके, नौकर-चाकरोंके उद्योगपूर्वक जो दान दिया जाता हैं उस दानको तामस दान कहते है ।।७९७॥ जिस दान में स्वय पात्रको देखकर उसका अतिथि-सत्कार किया जाता हैं तथा जो श्रद्धा वगैरह के साथ दिया जाता हैं उस दानको सात्त्विक दान कहते है ।।७९८।। इन तीनों दानोंमें-से सात्त्विक दान उत्तम है, राजस दान मध्यम है और तामस दान सब दानोंमें निकृष्ट है ॥७९९।।जो दिया जाता है परलोकमें बही मिलता है,ऐसा कहना झूठ है। क्या पानी और घास खानेवाली गायें दूध नहीं देती है? अतः मुनियोंको समयपर भक्तिपूर्वक दिया गया शाक-पात भी अपरिमित पुण्यका Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन २२१ अभिमानस्य रक्षार्थ विनयायागमस्य च । भोजनादिविधानेषु मौनमूचुर्मुनीश्वराः ॥ ८०२ लोल्यत्यागात्तपोवृद्धिरभिमानस्य रक्षणम् । ततश्च समवाप्नोति मन:सिद्धि जगत्त्रये ॥ ८०३ धुतस्य प्रश्रयाच्छ यः समद्धेः स्यात्समाश्रयः। ततो मनुजलोकस्य प्रसीदति सरस्वतो।। ८०४ शारीरमानसागन्तुव्याधिसंगधसंभवे । साधुः संयमिनां कार्यःप्रतीकारो गृहाश्रितः ।। ८०५ तत्र दोषधातुमलविकृतिजनिताः शारीराः, दौमनस्यदुःस्वप्नसाध्वसादिसंपादिता मानसाः, शीतवाताभिघातादिकृता आगन्तवः । मुनीनां व्याधियुक्तानामुपेक्षायामुपासकैः । असमाधिर्मवेत्तेषां स्वस्य चाधर्मकर्मता ॥ ८०६ सौमनस्यं सदाऽऽचर्य व्याख्यातृषु पठत्सु च । आवासपुस्तकाहारसोकर्यादिविधानकैः ।। ४०७ अङ्गपूर्वप्रकीर्णोक्तं पूक्तं केवलिभाषितम् । नश्यन्निर्मूलतः सर्व श्रुतस्कन्धधरात्यये ।। ८०८ प्रश्रयोत्साहनानन्दस्वाध्यायोचितवस्तुभिः । श्रुतवृद्धान्मुनीन्कुर्वजायते श्रुतपारगः ।। ८०९ श्रुतात्तत्वपरिज्ञानं श्रुतात्समयवर्धनम् । श्रेयोऽथिनां श्रुताभावे सर्वमेततमस्यते ।। ८१० कारण होता है; क्योंकि भक्ति ही चिन्तामणि हैं ।।८००-८०१।। अब भोजनके समय मौनका विधान करते है-जिनेन्द्र भगवान्ने अभिमानकी रक्षाके लिए और श्रुतकी विनयके लिए भोजन आदि के समय मौन करना बतलाया है। भोजनकी लिप्साके त्यागनेसे तपकी वृद्धि होती है और अभिमानकी रक्षा होती है और उनके होनेसे मन वशमें होता है । श्रुतकी विनय करनेसे कल्याण होता हैं, सम्पत्ति मिलती हैं और उससे मनुष्यपर सरस्वती प्रसन्न होती हैं ।।८०२-८०४।। भावार्थ-भोजनके समय मौन करनेसे जूठे मुंह वाणीका उच्चारण नहीं करना पडता। यह वाणी की विनय हैं । इसके करनेसे वाणीपर असाधारण अधिकार प्राप्त होता है। जो लोग दिन-भर बक-झक करते है उनके वचनकी कीमत जाती रहती है। दूसरा लाभ यह हैं कि माँगना नहीं पडता। माँगनेसे स्वाभिमानका घात होता हैं और न माँगनेसे उनकी रक्षा होती है । तथा अपनी इच्छाको रोकना पड़ता है और इच्छाका रोकना तप है अतः मौनसे तपकी वृद्धि होती है और मन वशमें होता हैं, अतः मौनपूर्वक भोजन करना चाहिए। मुनिजनोंको शारीरिक,मानसिक या कोई आगन्तुक रोगादिककी बाधा होनेपर गृहस्थोंको उसका प्रतीकार करना चाहिए ॥८०५।। वात, पित्त, कफ, रुधिरादि धातु और मलके विकारसे जो रोग होते है उन्हें शारीरिक कहते है । मनके दूषित होनेसे, बुरे स्वप्नोंसे या भय आदिके कारणसे जो रोग होते हैं वे मानसिक हैं, ठण्डी वायु आदि लग जानेसे जो आकस्मिक बाधा हो जाती हैं उसे आगन्तुक कहते है । इन बाधाओंको दूर करने का प्रयत्न गृहस्थोंको करना चाहिए ; क्योंकि रोगग्रस्त मुनियोंकी अपेक्षा करनेसे मुनियोंकी समाधि नहीं बनती और गृहस्थोंका धर्म-कर्म नहीं बनता ।।८०६।। श्रुतको रक्षाके लिए श्रुतधरोंकी रक्षा आवश्यक है - जो जिनशास्त्रोंका व्याख्यान करते है या उनको पढते है उन्हें, रहनेको निवास-स्थान, पुस्तक और भोजन आदिकी सुविधा देकर गृहस्थोंको सदा अपनी सदाशयताका परिचय देते रहना चाहिए ॥८०७।। क्योंकि श्रुतके व्याख्याता और पाठक श्रुतसमूहके धारक है-उनके नष्ट हो जानेसे केवली भगवान्के द्वारा उपदिष्ट ग्यारह अंग और चौदह पूर्व रूप समस्त श्रुतज्ञान जडसे नष्ट हो जायेगा ।।८०८। जो आश्रय देकर, उत्साह बढाकर, आराम देकर तथा स्वाध्यायके योग्य शास्त्र आदि वस्तुओंओ देकर मनियोंको शास्त्रमें निपुण बनानेंका प्रयत्न करते हैं वे स्वयं श्रुतके पारगामी हो जाते है ।।८०९।। श्रुत या शास्त्रसे ही Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ श्रावकाचार-संग्रह अस्त्रघारणवबाह्ये क्लेशे हि सुलमा नराः । यथार्थज्ञानसंपन्ना शौण्डीरा इव दुर्लभाः ।। ८११ . ज्ञानभावनया हीने कायक्लेशिनि केवलम् । कर्मवाहीकवत्किञ्चिद्व्येति किञ्चिदुदेति च ।। ८१२ सणिवज्ञानमेवास्य वशायाशयदन्तिनः । तदृते च बहिः पलेशः क्लेशः एव परं भवेत् ।। ८१३ बहिस्तपः स्वतोऽभ्येति ज्ञानं भावयत: सत: । क्षेत्रज्ञे यनिमग्नेऽत्र कुतः स्युरपराः क्रियाः।। ८१४ यदज्ञानी युगः कर्म बहुन्निःक्षपयेन वा । तज्ज्ञानी योगसंपन्नः क्षपयेत्क्षणतो ध्रुवम् ॥ ८१५ ज्ञानी पटुस्तदैव स्याहिः क्लेष्टर्वतेऽखिले । ज्ञातुर्ज्ञानसवेऽत्यस्य न पटुत्वं युगैरपि ॥ ८१७ स्वरूपं रचना शुद्धिर्भूषार्थश्च समासतः। प्रत्येकमागमस्यैतद्वैविध्यं प्रतिपद्यते ॥ ८१८ __ तत्र स्वरूपं च द्विविधम्- अक्षरम् अनक्षरं च । रचना द्विविधा- गद्यम्, पद्यं च । शुद्धिद्विविधा-प्रभादप्रयोगविरहः, अर्थव्यञ्जनविकलतापरिहारश्च । भूषा द्विविधा-वागलंकारः, अर्थालंकारश्च । अर्थो द्विविध:-चेतनोऽचेतनश्च जातिय॑क्तिश्चेति वा। सार्ध सचित्तनिक्षिप्तवृत्ताभ्यां दानहानये । अन्योपदेशमात्सर्यकालातिक्रमणक्रियाः ।। ८५९ तत्त्वोंका यान होता है और शास्त्रसे ही जिन-शासनकी वृद्धि होती है। यदि शास्त्र न हों तो अपने कल्याणके इच्छुक जनोंकों सर्वत्र अन्धकार ही दिखलायी दे ।।८१०।। जैसे तलवार वगैरह बाँधनेका कष्ट उठानेवाले मनुष्य तो सरलतासे मिल जाते हैं, किन्तु सच्चे शूरवीरोंका मिलना दुर्लभ है । वैसे ही बाह्य कष्ट उठानेवाले मनुष्य सुलभ है किन्तु सच्चे ज्ञानी दुर्लभ है ।। ८. १।। जो मनुष्य ज्ञानकी भावनासे शून्य है और केवल शरीरको कष्ट देता है, बोझ ढोनेवाले मनुष्यकी तरह उसका एक कष्ट जाता हैं तो दूसरा आ जाता है और इस तरह वह केवल कायक्लेश हो उठाता रहता है।।८१२।। मनष्यके मनरूपी हाथीको वशमें करनेके लिए ज्ञान ही अंकुशके तुल्य है अर्थात् जैसे अंकुश हाथीको रोकता हैं वैसे ही ज्ञान मनुष्यके मनको बुरी तरफ जानेसे रोकता है । उस ज्ञान के बिना जो शारीरिक कष्ट उठाया जाता हैं वह कष्ट केवल कष्ट ही के लिए हैं, उससे कुछ भी लाभ नहीं होता १८१३॥ जो ज्ञानकी भावना करता हैं उसे बाह्य तप स्वयं प्राप्त हो जाता हैं! क्योंकि जब आत्मा ज्ञानमें लीन हो जाता हैं तो अन्य क्रियाएँ कैसे हो सकती हैं? ॥८१४॥ अज्ञानी जिस कर्मको बहतसे युगोंमें भी नहीं नष्ट कर पाता ; ध्यानसे युक्त ज्ञानी पुरुष उस कर्मको निश्चयसे क्षग-भरम ही नष्ट कर देता है ।।८१५।। समस्त बाह्य व्रतोंमें क्लेश उठानेवाले अज्ञानी यतिसे ज्ञानी पुरुष तत्काल कुशल हो जाता हैं, किन्तु बाह्य व्रतोंको करनेवाला अज्ञानी, युग बीत जानेपर भी ज्ञानके एक अंशमें भी कुशल नहीं होता ।।८१६।। जिसकी वाणी व्याकरणके द्वारा शुद्ध नहीं हुई और बुद्धि नयोंके द्वारा शुद्ध नहीं हुई वह मनुष्य दूसरोंके विश्वासके अनुसार चलनेसे कष्ट उठाता हुआ अन्धेके समान आचरण करता हैं ।।८१७:। प्रत्येक शास्त्र में संक्षेपसे इतनी बातें होती हैं-स्वरूप, रचना, शद्धि, अलंकार और वर्णित विषय । ये प्रत्येक दो-दो प्रकारके होते हैं। ८१८।। स्वरूप दो प्रकारका डोता है-अक्षररूप और अनक्षर रूप । रचना दो प्रकारकी होती हैं-गद्यरूप और पद्यरूप । शुद्धि दो प्रकारकी होती हैं-एक तो प्रमादसे कोई प्रयोग न किया हो, दूसरे न उसमें कोई अर्थ छूटा हो और न कोई शब्द छूटा हो । अलंकार दो तरहके होते हैं-एक शब्दालंकार और दूसरा अर्थालंकार । वणित विाय दो प्रकारका होता है-चेतन और अचेतन या जाति और व्यक्ति । सचित्त पत्ते आदिमें आहारको रखना,सचित्त पत्ते आदिसे आहारको ढांकना, यह दाता हैं और यह आहार Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २२३ नतेर्गोत्रं श्रियो दानादुपास्ते: सर्वसेव्यताम् । भक्तेः कीर्तिमवाप्नोति स्वयं दाता यतीन्भजन् ।।८२० मूलवतं व्रतान्यर्चापर्वकर्माकृषिक्रियाः । दिवा नवविधं ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ।। ८२१ परिग्रहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । तद्धानौ च वदन्त्येतान्येकादश यथाक्रमम् ।। ८२२ अध्यधिवतमारोहेत्पूर्वपूर्वव्रतस्थितः । सर्वत्रापि समा: प्रोक्ता ज्ञानदर्शनभावनाः ।। ८२३ षडत्र गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युब्रह्मचारिणः । भिक्षुको द्वौ तु निदिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ।।८२४ तत्तद्गुणप्रधानत्वाधतयोऽनेकधा स्मृताः । निरुक्ति युक्तितस्तेषां वदतो मन्निबोधत ।। ८२५ जित्वेन्द्रियाणि सर्वाणि यो वेत्त्या-मानमात्मना । गहस्थो वा स जितेन्द्रिय उच्यते ।। ८२६ । मानमायामदामर्षक्षपणाक्षपणः स्मृतः । यों न श्रान्तो भवेद्धान्तेस्तं विदुः श्रमण बुधाः ।। ८२७ भी इसीका हैं इसप्रकार कहकर दान देना, दान देते हुए भी आदरपूर्वक न देना या अन्य दाताओंसे ईर्ष्या करना और साधुओंके भिक्षाके समयका उल्लंघन करना ये पाँच बातें मुनिदान व्रतमें दोष लगानेवाली हैं । अतः श्रावकको इन्हें नहीं करना चाहिए ।।८१९।। जो दाता स्वयं यतियोंको दान देता है उसे मनिको नमस्कार करनेसे उच्च गोत्र मिलता है, दान देनेसे लक्ष्मी मिलती हैं, उनकी उपासना करनेसे सब लोग उनकी सेवा करते है. और उनकी भक्ति करनेसे संसारमं यश होता हैं ॥८२०। (अब थावककी ग्यारह प्रतिमाएँ बतलाते है-) सम्यग्दर्शनके साथ अष्टमलगणका निरतिचार पालन करना पहली प्रतिमा है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंको निरतिचार पालन करना दूसरी व्रत प्रतिमा है। नियमसे तीनों सन्ध्याओंको विधिपूर्वक स मायिक करना तीसरी सामायिक प्रतिमा हैं। (ग्रन्थकारने उसके लिए अर्चा शब्दका प्रयोग किया हैं जिसका अर्थ पूजा होता हैं। उन्होंने सामायिकमें पूजनपर विशेष जोर दिया है। इसीसे अर्चा शब्दका किया जान पडता है। ) प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको नियमसे उपवास करना चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा हैं । खेती आदिका न करना पाँचवीं प्रतिमा है। दिन में ब्रह्मचर्यका पालन करना छठी दिवामैथुनत्याग प्रतिमा हैं। मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे स्त्रीसेवनका त्याग सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा हैं। सचित्त वस्तुके खानेका त्याग करना आठवीं सचित्तत्याग प्रतिमा है। समस्त परिग्रहका त्याग देना नौवीं परिग्रहत्याग प्रतिमा है। किसी आरम्भ उद्योग या विवाहादि कार्यमें अनुमति न देकर केवल भोजन मात्रमें अनुमति देना दसवीं आरम्भत्याग प्रतिमा हैं और अपने भोजनमें भी किसी प्रकारकी अनुमति नहीं देना ग्यारहवीं प्रतिमा है। ये क्रमसे ११ प्रतिमाएँ है ।।८२१-८२२॥ प्रतिमा धारणाका क्रम तथा उनके धारकोकी संज्ञाएँ-पूर्व पूर्व प्रतिमा रूप व्रतमें स्थित होकर अपने ऊपर के व्रतपर आरोहण करे । ज्ञान और दर्शन की भावनाएँ तो सभी प्रतिमाओंमें समान कही है। ८२३ । इन ग्यारह प्रतिमाओंमें से पहलेकी छह प्रतिमाके धारक गुहस्थ कहे जाते हैं । सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमाके धारक ब्रह्मचारी कहे जाते हैं तथा अन्तिम दो प्रतिमावाले भिक्षु कहे जाते हैं और उन सबसे ऊपर मुनि या साधु होता है ।।८२४।। उन-उन गुणोंकी 'प्रधानताके कारण मुनि अनेक प्रकारके बतलाये है । अब उनके उन नामोंकी युक्तिपूर्वक निरुक्ति बतलाते है, उसे मुझसे सुनिए ।।८२५॥ जो सब इन्द्रियोंको जीतकर अपनेसे अपनेको जानता है वह गृहस्थ हो या वानप्रस्थ, उसे जितेन्द्रिय कहते हैं ।।८२६।। मान, माया,मस्ती और रोधका नाश कर देनेसे क्षपण कहते है और जगह-जगह विहार करता हुआ वह थकता नहीं है Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्रावकाचार-संग्रह यो हताशः प्रशान्ताशस्तमाशाम्बरमूचिरे । यः सर्वसङ्गसंत्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः ।। ८२८ रेषणात्क्लेशराशीनामृषिमाहुर्मनीषिणः । मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कोय॑ते मुनिः ।।८२९ यः पापपाशनाशाय यतते स यतिभवेत् । योऽनीहो बेहगेहेऽपि सोऽनगारः सतां मतः ।। ८३० आत्माशुद्धिकरर्यस्य न संगः कर्मदुर्जनः । स पुमाञ्शुचिराख्यातों नाम्बुसंप्लुतमस्तकः ।। ८३१ धर्मकर्मफलेऽनीहो निवृत्तोऽधर्मकर्मणः । तं निर्मममुशन्तीह केवलात्मपरिच्छदम् ।। ८.२ यः कर्मद्वितयातीतस्तं मुमुखं प्रचक्षते । पार्लोिहस्य हेम्नो वा यो बद्धो बद्ध एव सः ।। ८३३ निर्ममो निरहंकारो निर्मानमदमत्सरः । निन्दायां संस्तवे चैव समधी: शंसितव्रतः ।। ८३४ योऽवगम्य यथाम्नायं तत्त्वं तत्त्वकभावनः । वाचंयम: स विज्ञेयो न मौनी पशुवन्नरः ।। ८३५ भुते व्रते प्रसंख्याने संयमे नियमे यमे । यस्योच्चैः सर्वदा चेतः सोऽनूचानः प्रकीर्तितः ।। ८३६ इसलिए उसे श्रमण कहते है ।।८२७॥ उसने अपनी लालसाओंको नष्ट कर दिया हैं अथवा उसकी लालसाएँ शान्त हो गयी हैं इसलिए उसे आशाम्बर कहते है और वह अन्तरंग तथा बहिरंग सब परिग्रहोंसे रहित है इसलिए उसे नग्न कहते है ॥८२८।। क्लेशसमूहको रोकनेके कारण विद्वान् लोग उसे ऋषि कहते हैं। और आत्म विद्यामें मान्य होनेके कारण महात्मा लोग उसे मुनि कहते है। ॥८२९॥ जो पापरूपी बन्धनके नाश करनेका यत्न करता है उसे यति कहते है और शरीररूपी घरमें भी जिसकी रुचि नहीं है, उसे अनगार कहते हैं ॥८३०॥ जो आत्माको मलिन करनेवाले कर्म रूपी दुर्जनोंसे सम्बन्ध नहीं रखता, वही मनुष्य शुचि या शुद्ध है, सिरसे पानी डालनेवाला नहीं। अर्थात् जो पानीसे शरीरको मलमलकर धोता हैं वह पवित्र नहीं है किन्तु जिसकी आत्मा निर्मल हैं वही पवित्र हैं । अर्थात् यद्यपि मुनि स्नान नहीं करते किन्तु उनकी आत्मा निर्मल है इसलिए उन्हें पवित्र या शुचि कहते है ॥८३२।। जो धर्माचरणके फलमें इच्छा नहीं रखता तथा अधर्माचरणका त्यागी हैं और केवल आत्मा ही जिसका परिवार या सम्पत्ति हैं उसे निर्मम कहते हैं । अर्थात् मुनि अधार्मिक काम नहीं करते, केवल धार्मिक काम करते हैं। किन्तु उन्हें भी किसी लौकिक फलकी इच्छासे नहीं करते, अपना कर्तव्य समझकर करते हैं । और उनके पास अपनी आत्माके सिवाय और कुछ रहता नहीं है, शरीर हैं किन्तु उससे भी उन्हें कोई ममता नहीं रहती, इसीलिए उन्हें 'निर्मम' कहते है ।। जो ।।८३२॥ पुण्य और पाप दोनोंसे रहित हैं उसे मुमुक्ष कहते हैं। क्योंकि बन्धन लोहेके हों या सोनेके हों,जो उनसे बँधा हैं वह तो बद्ध ही हैं । अर्थात् पुण्यकर्म सोनेके बन्धन हैं और पापकर्म लोहेके बन्धन है दोनों ही जीवको संसारमें बाँधकर रहते हैं। अतः जो पापकर्मको छोडकर पुण्यकर्ममें लगा हैं वह भी कर्मबन्ध करता हैं,किन्तु जो पुण्य और पाप दोनों को छोडकर शुद्धोपयोगमें सलीन है वही मुमुक्षु है ।।८३३॥ जो ममतारहित है, अहंकाररहित हैं, मान, मस्ती और डाहसे रहित हैं तथा निन्दा और स्तुतिमें समान बुद्धि करता है यह प्रशंसनीय व्रतका धारक 'समधी'कहलाता हैं ।। ८३४।। जो आम्नायके अनुसार तत्त्वको जानकर उसीका एकमात्र ध्यान करता है उसे मौनी जानना चाहिए । जो पशुकी तरह केवल बोलता नहीं हैं वह मौनी नहीं हैं ॥८३५॥ जिसका मन श्रुतमें, व्रतमें, ध्यानमें, संयममें तथा यम और नियममें संलग्न रहता है उसे अनूचान कहते हैं अर्थात् वैदिक धर्ममें साङग वेदके पूर्ण विद्वान्को अनूचान कहते है। किन्तु ग्रन्थकारका कहना हैं कि जो श्रुत, व्रत नियमादिकमें रत हैं वही अनूचान है । और इसलिए जैनम नि ही 'अनूचान' कहे जा सकते हैं ।। ८३६।। जो इन्द्रियरूपी चोरोंका विश्वास नही करता तथा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २२५ योऽक्षरतेनेष्वविश्वस्तः शाश्वते पथि निष्ठितः । समस्तसत्त्वविश्वास्यः सोऽनाश्वानिह गीयते ॥४३७ तत्त्वे पुमान्मनः पुंसि मनस्यक्षकदम्बकम् । यस्य युक्तं स योगी स्यान्न परेच्छादुरीहितः ।। ८३८ कामः क्रोधो मदो माया लोभश्चेत्यग्निपञ्चकम् । येनेदं साधितं स स्यात्कृती पञ्चाग्निसाधकः।। ८३९ मानं ब्रह्म क्या ब्रह्म ब्रह्म कामविनिग्रहः । सम्यगत्र वसन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः ।। ८४० क्षान्तियोषिति यः सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः । स गृहस्थो भवेन्नूनं मनोदैवतसाधकः ।। ८४१ ग्राम्यमर्थ बहिश्चान्तर्यः परित्यज्य संयमी । वानप्रस्थः स विज्ञेयो न वनस्थः कुटुम्बवान् :। ८४२ संसाराग्निशिखाच्छेदो येन ज्ञानासिना कृतः । तं शिखाच्छेदिनं प्राहुन तु मण्डितमस्तकम् ॥ ८४३ कर्मात्मनो विवेक्ता य: क्षीरनीरसमानयोः । भवेत्परमहंसोऽसौ नाग्निवत्सर्वभक्षकः ।। ८४४ ज्ञानर्मनो वपुर्वनियमरिन्द्रियाणि च । नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्वी न वेषवान् ॥ ८४५ पञ्चेन्द्रियप्रवत्त्याख्यास्तिथयः पञ्च कीतिताः । संसाराश्रयहेतुत्वाताभिर्मवतोऽतिथिर्भवेत् ॥८४६ स्थायी मार्गपर दृढ रहता हैं और प्राणी जिसका विश्वास करते है अर्थात् जो किसीको भी कष्ट नहीं पहुँचाता उसे अनाश्वान् कहते है। अर्थात् वैदिक धर्म में जो भोजन न करे वह अनाश्वान् कहा जाता हैं। किन्तु ग्रन्थ कार कहते हैं कि जिसमें उक्त बातें हों उसीको अनाश्बान् कहना चाहिए॥८३७॥ जिसका आत्मा तत्त्वमे लीन है, मन आत्मामें और आत्मा तत्त्वमें लीन हैं वह योगी है। जो दूसरी वस्तुओंकी इच्छावाले दुष्ट संकल्पसे युक्त हैं वह योगी नहीं है ।।८३८।। काम, क्रोध, मद, माया और लोभ ये पाँच अग्नियाँ है । जो इन पाँचों अग्नियोंको अपने वशमें कर लेता हैं उसे पञ्चाग्निका साधक कहते हैं अर्थात् वैदिक साहित्य में पाँच अग्नियोंकी उपासना करनेवालेको पञ्चाग्निसाधक कहते है। किन्तु ग्रन्थकारका कहना है कि सच्ची अग्नि तो काम क्रोधादिक हैं जो रात-दिन आत्माको जलाती है । उन्हींका साधक पञ्चाग्निका साधक है। बाह्य अग्नियोंकी उपासनावाला नहीं ।।८३९ । ज्ञानको ब्रह्म कहते है । दयाको ब्रह्म कहते हैं । कामको वशमें करनेको ब्रह्म कहते हैं । जो आत्मा अच्छी रीतिसे ज्ञानकी आराधना करता हैं या दयाका पालन करता हैं अथवा कामको जीत लेता हैं वही ब्रह्मचारी है ।।८४०।। जो क्षमारूपी स्त्रीम आसक्त है, सम्यग्ज्ञानरूपी अतिथिका प्यारा है और मनरूपी देवताकी साधना करता है वही सच्चा गृहस्थ है । अर्थात् जो क्षमाशील है, ज्ञानी है और मनोजयी है वही वास्तव में गृहस्थ हैं।। ८४१।। जो अन्दरसे और बाहरमें अश्लील बातोंको छोडकर संयम धारण करता हैं उसे वानप्रस्थ जानना • चाहिए। जो कुटुम्बको लेकर जंगल में जा बसता है वह वानप्रस्थ नहीं है ॥८४२'। जिसने ज्ञानरूपी तलवारके द्वारा संसाररूपी अग्निकी शिखा यांनी लपटोंको काट डाला उसे शिखाछेदी कहने है, सिर घुटानेवालेको नहीं ॥८४३॥ संसार अवस्थामें कर्म और आत्मा दूध और पानीकी तरह मिले हुए हैं । जो दूध और पानी की तरह कर्म और आत्माको जुदा-जुदा कर देता है वही परमहंस साघु हैं । जो आगकी तरह सर्वभक्षी हैं जो मिल जाये वही खा लेता हैं वह परमहंस नहीं है। ८४४। जिसका मन ज्ञानसे, शरीर चारित्रसे और इन्द्रियाँ नियमोंसे सद' प्रदीप्त रहती हैं वही तपस्वी हैं, जिसने कोरा वेष बना रखा है वह तपस्वी नहीं है । १८४५।। पाँचों इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयमें लगना ही पाँच तिथियाँ है । यतः इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयमें प्रवृत्ति करना संसारका कारण है । अतः जो उनसे मुक्त हो गया उसे अतिथि कहते है ।।८४६ || भावार्थ- भोजन Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रावकाचार-संग्रह अबोहः सर्वसत्त्वेषु यज्ञो यस्य दिने दिने । स पुमान्दीक्षितात्मा स्यान्न त्वजादियमाशयः ॥ ८४७ दुष्कर्मदुर्जनास्पर्शी सर्वसत्वहिताशयः । स श्रोत्रियो भवेत्सत्यं न तु यो बाह्यशौचवान् ।। ८४८ अध्यात्माग्नी दयामन्त्रः सम्यक्कर्मसमिच्चयम् । यो जुहोति स होता स्यान्न बाह्याग्निसमेधकः।।८४९ भावपुष्पर्यजेद्देवं व्रतपुष्पैर्वपुर्गृहम् । क्षमापुष्पैर्मनोन्हि यः स यष्टा सतां मतः ॥ ८५० षोडशानामुदारात्मा यः प्रभुर्भावनत्विजाम् । सोऽध्वर्युरिह बोद्धव्यः शिवशर्माध्वरोऽदुरः ।। ८५१ विवेक वेदयेदुच्चर्य शरीरशरीरिणोः । स प्रीत्यै विदुषां वेदो नाखिलक्षयकारणम् ॥ ८५२ जातिर्जरा मृतिः पुंसां त्रयी संसृतिकारणम् । एषा त्रयी यतस्त्रय्याः क्षीयते सा त्रयी मता ।। ८५३ अहिंसः सद्वतो ज्ञानी निरीहो निष्परिग्रहः । यः स्यात्स ब्राह्मणः सत्यं न तु जातिमदान्धलः । ८५४ सा जाति: परलौकाय यस्याः सद्धर्मसंभवः । न हि सस्याय जायेत शुद्धा भूर्बीजजिता॥ ८५५ के लिए आनेवाले साधु अतिथि कहे जाते है । अतिथि शब्दका एक अर्थ यह भी होता है कि जिसके आनेकी कोई तिथि (मिति) निश्चित ही है वह अतिथि है। साधु आहारके लिए किस दिन आ जायेंगे यह पहलेसे निश्चय तो होता नहीं, तथा साधुओंके अष्टमी आदिका विचार भी नहीं होता। अतः वे अतिथि कहलाते है । ग्रन्थकार कहते हैं कि अतिथि शब्दका यह अर्थ तो लौकिक हैं। वास्तवमें तो पाँचों इन्द्रियाँ ही द्वितीया, पंचमी, एकादशी और चतुर्दशी रूपी पाँच तिथियाँ है और जो उनसे मुक्त हो गया, जिसने पाचों इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लिया वही वास्तवमें अतिथि हैं। जो प्रतिदिन समस्त प्राणियोंमें मैत्रीरूपी यज्ञका आचरण करता हैं वह मनुष्य दीक्षित कहलाता हैं । जो बकरे आदिका बलिदान करता है वह दीक्षित नहीं हैं ।। ८४७॥ जो वुरे कामोंको नहीं करता और न बुरे मनुष्योंकी संगति ही करता है तथा सब प्राणियोंका हित चाहता हैं वह वास्तवमें श्रोत्रिय है. जो केवल बाह्य शद्धि पालता हैं वह श्रोत्रिय नहीं है ||८४८. जो आत्मारूपी अग्निमें दयारूपी मन्त्रोंके द्वारा कर्मरूपी काष्ठ-समहूसे हवन करता है वह होता हैं ; जो बाह्य अग्निमें हवन करता हैं वह होता नहीं है ।।८४९।। जो भावरूपी पुष्पोंसे मनरूपी अग्निकी पूजा करता है उसे सज्जन पुरुष यष्टा अर्थात् यज्ञ करनेवाला कहते हैं । जो महात्मा सोलह कारण भावनारूपी यज्ञ करनेवाले ऋत्विजोंका स्वामी है, मोक्ष-सुखरूपी यज्ञके उद्धारक उस पुरुषको अध्वर्यु जानना चाहिए ।।८५०-८५१।। जो आत्मा और शरीरके भेदको जोरदार शब्दोंमें बतलाता है वही सच्चा वेद है और विद्वान् लोग उससे ही प्रेम करते हैं। किन्तु जो सब पशुओंके विनाशका कारण हैं वह वेद नहीं हें ॥८५२।। जन्म, बुढापा और मृत्यु ये तीनों संसारके कारण है। इस त्रयी अर्थात् तीनोंका जिस त्रयीसे नाश हो वही त्रयी हैं । आशय यह है कि ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदको त्रयी कहते है । किन्तु ग्रन्थकारका कहना है जो संसारके कारण जीवन मृत्य और बढापेको कष्ट कर दे, जिससे संसार में न जन्म लेना पडे और न मृत्युका दुःख उठाना पडे वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही सच्ची त्रयी है ।।८५३।। जो अहिंसक है, समीचीन व्रतोंका पालन करता हैं, ज्ञानी हैं, सांसारिक चाहसे दूर हैं और काम, क्रोध, मोह आदि तथा जमीन-जायदाद, धन आदि अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहसे रहित हैं वही सच्चा ब्राह्मण हैं। जो जातिके मदसे अन्धा है, अपनेको सबसे ऊँचा और दूसरोंको नीच समझता है वह ब्राह्मण नहीं है ।।८५४॥ वही जाति परलोकके लिए उपयोगी हैं जिससे सच्चे धर्मका जन्म होता हैं, जमीन Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २२७ स शैवो यः शिवज्ञात्मा स बौद्धो योऽन्तरात्मभूत् । स सांख्यो यः प्रसंख्यावान्स द्विजो यो न जन्मवान् ।। ८५६ ज्ञानहीनो दुराचारो निर्दयो लोलुपाशय: दानयोग्यः कथं स स्याद्यश्चाक्षानुमतक्रियः ॥ ८५७ अनुमान्या समद्देश्या त्रिशुद्धा भ्रामरी तथा । भिक्षा चतुर्विधा ज्ञेया यतिद्वयसमाश्रया ।। ८५८ तरुदलमिव परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रशीपमिव देहम् । स्वयमेव विनाशोन्मुखमवबुध्य करोतु विधिमन्त्यम् ।। ८५९ गहनं न शरीरस्य हि विसर्जन किं तु गहनमिह वृत्तम् । तन्न स्थास्नु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिदमाहुः ।। ८६० प्रतिदिवसं विजहद्वलमुज्झद्भुक्ति त्यजत्प्रतीकारम् । वपुरेव नणां निगिरति चरमचरित्रोदयं समयम् ।। ८६१ शद्ध भी हो किन्तु यदि उसमें बीज न डाला गया हो तो अनाज पैदा नहीं हो सकत ब्रामण जाति शुद्ध भी हो किन्तु उसमें यदि समीचीन धर्मके पालनकी परिपाटी न हो तो वह शुद्ध जाति भी व्यर्थ है ।।८५५।। जो शिव अर्थात् अपने कल्याणरूप मुक्तिको जानता हैं वही सच्चा शैव-शिवका अनुयायी हैं। जो अपनी अन्तरामाका पोषक है वही वास्तव में बौद्ध हैं। जो आत्मध्यानी हैं वही सांख्य है और जिसे फिर संसारमें जन्म नहीं लेना हैं वही द्विज अर्थात् ब्राह्यण है ।।८५६॥ जो अज्ञानी है, दुराचारी हैं, निर्दय है, विषयोंका लोलुपी है तथा इन्द्रियोंका दास है वह दानका पात्र कैसे हो सकता है? अर्थात् ऐसे आदमीको कभी भी दान नहीं देना चाहिए ।८५७।। देशविरत और सर्ववितरको अपेक्षासे भिक्षा चार प्रकारकी होती हैं-अनुमान्या, अनुद्देश्या, विशुद्धा और भ्रामरी ।।८५८।। भावार्थ-मुनिसम्बन्धी भिक्षाके लिए तो भ्रामरी शब्द शास्त्रोंमें अति प्रसिद्ध है। टिप्पणकारने अनुमान्या भिक्षाको दस प्रतिमापर्यन्त बतलाया है और आमन्त्रणपूर्वक भोजनको समुद्देश्य बतलाते हुए छठी प्रतिमापर्यन्त बतलाया है । छठी प्रतिमापर्यन्त गृही संज्ञा है। छठी के पश्चात नवीं प्रतिमापर्यन्त ब्रह्मचारी संज्ञा हैं और भिक्षक संज्ञा केवल अन्तिम दो प्रतिमाधारियोंकी है। दसवीं प्रतिमाका धारी घर छोडकर बाहर रहने लगता हैं और आमन्त्रणदाताके घर भोजन करता है। अतः वह उद्दिष्ट भोजन करता हैं क्योंकि दाता उसके उद्देश्यसे भोजन तैयार करता है। इसलिए उसकी भिक्षा समुद्देश्या होनी चाहिए । वह अनुमति-त्यागी होता है अतः भोजनके विषयमें किसी प्रकारकी अनुमति नहीं दे सकता। किन्तु नौवीं प्रतिमा तकके धारी भोजनके विषय में अनुमति दे सकते है अतः उनकी भिक्षा अनुमान्या होनी चाहिए। ग्रन्थकारने भिक्षाके भदोंका जो क्रम रखा है उससे भी यही ध्वनित होता हैं कि प्रारम्भिक प्रतिमावाले अनुमान्या भिक्षा करते है, दसवीं प्रतिमावाले समुद्देश्या और अन्तिम प्रतिमावाले त्रिशुद्धा भिक्षा करते है, तथा साधु भ्रामरीभिक्षा करते हैं। (अब सम धिमरणकी विधि बतलाते है-) वृक्षके पके हुए पत्तेकी तरह या तेलरहित दीपककी तरह शरीरको स्वयं ही विनाशोन्मुख जानकर अन्तिम विधि (समाधिमरण) करना चाहिए ।८५९॥ किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि शरीरको त्याग देना कठिन नहीं है किन्तु उसमें संयमका धारण करना कठिन है। अत: यदि शरीर ठहराने योग्य हो तो उसे नष्ट नहीं कर डालना चाहिए और यदि वह नष्ट होता हो तो उसका रंज नहीं करना चाहिए ।।८६०।। (यह कहा जा सकता है कि यह हमें कैसे मालूम हो कि समाधिमरणका समय आ गया है? इसका उत्तर ग्रन्थकार स्वयं देते है-) अब शरीर Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्रावकाचार-संग्रह सविधायापकृतिरिव जनिताखिलकायकम्पनाता। यमदूतीव जरा यदि समागता जीवितेषु कस्तषः ।। ८६२ कर्णान्तकेशपाशग्रहणविधेोधितोऽपि यदि जरया। स्वस्य हितैषी न भवति तं कि मृत्युनं संग्रसते ।। ८६३ उपवासादिभिरङ्गे कषायदोषे च बोधिभावनया । कृतसल्लेखनकर्मा प्रायाय यतेत गणमध्ये ।। ८६४ यमनियमस्वाध्यायास्तपांसि देवार्चनाविधिनम् । एतत्सर्व निष्फलमवसाने चेन्मनो मलिनम्।।८६५ द्वादशवर्षाणि नपः शिक्षितशस्त्रो रणेषु यदि मुह्येत् । कि स्यात्तस्यास्त्रविधेर्यथा तथान्ते यतेः पुराचरितम् ।। ८६६ स्नेहं विहाय बन्धुषु मोहं विभवेषु कलुषतामहिते। गणिनि च निवेद्य निखिलं दुरीहितं तदनु भजतु विधिमुचितम् ।। ८६७ अशनं क्रमेण हेयं स्निग्धं पानं ततः खरं चैव।। तदनु च सर्वनिवृत्ति कुर्याद्गुरुपञ्चकस्मृतौ निरतः ॥ ८६८ कदलीघातवदायुः कृतिनां सकृदेव विरतिमुपयाति। तत्र पुनर्नैष विधिर्यदेवे क्रमविधिर्नास्ति ।। ८६९ सूरी प्रवचनकुशले साधुजने यत्नकर्मणि प्रवणे। चित्ते च समाधिरते किमिहासाध्यं यतेरस्ति ।।८७० की शक्ति प्रतिदिन घटने लगे, खाना-पीना छूट जाये और कोई उपाय कारगर न हो स्वयं शरीर ही मनुष्योंको यह बतला देता है कि अब समाधिमरण करनेका समय आ गया है।। ८६१॥ जब सन्निकटवर्ती अपकारकी तरह समस्त शरीरमें कँपकँपी पैदा करने वाला बढापा यमके दूतकी तरह आकर खडा हो गया तो फिर जीनेको क्या लालसा?।।८६२।। बुढापेके द्वारा कानके समीपके बालोंको पकडकर समझाये जानेपर भी अर्थात् बुढापेके चिन्हस्वरूप कानके पासके बालोके सफेद हो जानेंपर भी जो अपने हितमें नहीं लगता है क्या उसे मौत नहीं खाती? ॥८६३॥ जो समाधिमरण करना चाहता है, उसे उपवास आदि के द्वारा शरीरको और ज्ञानभावनाके द्वारा कषायोंको कृश करके किसी मुनिसंघमें चला जाना चाहिए ।८६४।। यदि मरते समय मन मैला रहा तो जीवन-भरका यम, नियम,स्वाध्याय, तप, देवपूजा और दान निष्फल है ।।८६५।। जैसे एक राजाने वारह वर्ष तक शस्त्र चलाना सीखा। किन्तु जब युद्धका अवसर आया तो वह शस्त्र नहीं चला सका । उस राजाकी शस्त्रशिक्षा किस कामकी, वैसे ही जो व्रती जीवनभर धर्माचरण करता रहा, किन्तु जब अन्त समय आया तो मोहमें पड गया । उस व्रतीका पूर्वाचरण किस कामका ।।८६६।। कुटुम्बियोंसे स्नेह, सम्पत्तिसे मोह और जिन्होंने अपना बुरा किया हैं उनके प्रति कलषपनेको छोडकर आचार्यसे अपने सब अपराधोंको कहदे,और उसके बाद समाधिमरणके योग्य विधिका पालन करे ।।८६७।। धीरे-धीरे भोजनको छोड दे और दूध, मठा वगैरह रख ले। फिर उन्हें भी छोडकर गर्म जल रख ले। उसके बाद पञ्च नमस्कार मन्त्रके स्मरण में लीन होकर सब कुछ छोड दे ।।८६८।। यदि किसी पुण्यशाली पुरुषकी आयु कटे हुए केले की तरह एक साथ ही समाप्त होती हो तो वहाँ समाधिमरणको यह विधि नहीं,है क्योंकि दैववश अचानक मरण उपस्थित होनेपर क्रमिक विधि नहीं बन सकती ।।८६९॥ यदि समाधिमरण करानेवाले आचार्य आगममें कुशल हों और साधुसंघ प्रयत्न करने में कुशल हो तथा समाधिमरण करनेवालेका Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन २२९ जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबन्धविधिः । एते सनिदाना स्युःसल्लेखनहानये पञ्च ॥८७१ आराध्यरत्नत्रयमित्थमर्थी समपितात्मा गणिने यथावत् ।। समाधिभावेन कृतात्मकार्यः कृती जगन्मान्यपदप्रभुः स्यात् ।। ८७२ विप्रकीर्णार्थवाक्यानामुक्तिरुक्तं प्रकीर्णकम् । उक्तानुक्तामृतस्यन्दबिन्दुस्वादनकोविदः ।। ८७३ अदुर्जनत्वं विनयो विवेकः परीक्षणं तत्त्वविनिश्चयश्च । एते गुणाः पञ्च भवन्ति यस्य स आत्मवान्धर्मकथापर: स्यात् ।। ८७४ असूयकत्वं शठताऽविचारो दुराग्रहः सूक्तविमानना च । पुंसाममी पञ्च भवन्ति दोषास्तत्त्वावबोधप्रतिबन्धनाय ।। ८७५ पुंसों यथा संशयिताशयस्य दृष्टा न काचित्सफला प्रवृत्तिः । धर्मस्वरूपेऽपि विमूढबुद्धस्तथा न काचित्सफला प्रवृत्तिः ॥ ८७६ जातिपूजाकुलज्ञानरूपसपत्तपोबले । उशन्त्यहंयुतोद्रेक मदमस्मयमानसा: । ८७७ यो मदात्समयस्थानाममवमानेंन मोदते । स नूनं धर्महा यस्मान्न धर्मो धार्मिकैविना ।। ८७८ देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने॥८७९ स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः । षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ।। ८८० मन ध्यानमें लगा रहे तो फिर कुछ भी असाध्य नहीं है ।।८७०।।। समाधिमरणके अतीचार : जीनेकी इच्छा करना,मरनेकी इच्छा करना,मित्रोंको याद करना, पहले भोगे हुए भोगोंका स्मरण करना और आगामी भोगोंकी इच्छा करना,ये पाँच बातें समाधिमरणव्रतमें दोष लगानेवाली है ।।८७१।। इस प्रकार आचार्यके ऊपर विधिवत् अपना भार सौंपकर तथा रत्नत्रयकी आराधना करके जो समाधिमरग करता है वह संसार में पूजनीय पदका स्वामी होता है ।।८७२।। अब कुछ प्रकीर्णक बातें बतलाते है। उक्त-जिन्हें कह चुके और अनुक्त,जिन्हें नहीं कहा, उन सब विषयरूपी अमतसे टपकनेवाली बूंदोंका स्वाद लेने में चतुर पण्डितजनोंने फुटकर बातोंका कथन करनेको प्रकीर्णक कहा है ।।८७३।। सज्जनता,विनय, समझदारी, हिताहितकी परीक्षा और तत्त्वोंका निश्चय जिसमें ये पाँच गुण होते है वही विशिष्ट आत्मा,धर्म कथा,धार्मिक चर्चा या धर्मोपदेशका अधिकारी है ।।८७४।। किसीके गुणोंमें दोष लगाना, ठगना, विचारहीनता, हठीपना और अच्छी बातका निरादर करना, मनुष्योंके ये पाँच दोष तत्त्वको समझने में रुकावट डालते है । अर्थात् जिसमें ये दोष होते हैं वह तत्त्वको समझनेका प्रयत्न नहीं करता और अपनी ही हांके जाता है ।।८७५॥ जैसे प्रत्येक बातको सन्देहकी दृष्टि से देखनेवाला संशयाल मनुष्य किसी भी काममें सफल होता नहीं देखा जाता, वैसे ही जो मनुष्य धर्मके स्वरूपके विषयमें भी मूढबुद्धि है उसकी कोई प्रवृत्ति सफल नहीं होती ।।८७६॥ गर्वसे रहित गणधरादिक देव,जाति,प्रतिष्ठा,कुल, ज्ञान रूप, सम्पत्ति,तप और बलका सहारा लेकर अहंकार करने को मद या घमंड कहते हैं। अर्थात लोकमें इन आठ वातोंको लेकर लोग घमंड करते देखे जाते है ॥८७७।। जो मनुष्य घमण्डमें आकर अपने साधर्मी भाइयोंका अपमान करके प्रसन्न होता है वह निश्चयसे धर्मघातक हैं; क्योंकि धार्मिकोंके बिना धर्म नहीं हैं ॥८७८।। देवपूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थोंके छह दैनिक कर्म हैं। प्रत्येक गृहस्थको प्रतिदिन ये छह काम अवश्य करने चाहिए ॥८७९।। सुज्ञ जनोंने गृहस्थोंके लिए देवपूजाके विषयमें छह क्रियाएँ बतलायो हैं-पहले अभिषेक, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० श्रावकाचार-संग्रह आचार्योपासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् । तत्क्रियाणामनुष्ठानं श्रेयः प्राप्तिकरो गणः ।। ८८१ शुचिविनयसंपन्नस्तनूचापलवर्जितः । अष्टदोषविनिर्मुक्तमधीतां गुरुसंनिधौ ॥ ८८२ अनुयोगगुणस्थानमार्गणास्थानकर्मसु । अध्यात्मतत्त्वविद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ।। ८८३ गृही यतः स्वसिद्धान्तं साधु बुध्येत धर्मधीः । प्रथमः सोऽनुयोगः स्यात्पुराणचरिताश्रयः ।। ८८४ अधोमध्योर्ध्वलोकेषु चतुर्गतिविचारणम् । शास्त्रं करणमित्याहुरनुयोगपरीक्षम् ॥ ८८५ ममेदं स्यादनुष्ठानं तस्यायं रक्षणक्रमः । इत्थमात्मचरित्रायो ऽनुयोगश्चरणाश्रितः ।। ८८६ जीवाजीवपरिज्ञानं धर्माधर्मावबोधनम् । बन्धमोक्षज्ञता चेति फलं द्रव्यानुयोगतः ।। ८८७ जीवस्थान गुणस्थानमार्गणास्थानगो विधिः । चतुर्दशविधो बोध्यः स प्रत्येकं यथागमम् ८८८ आदितः पञ्च तिर्यक्षु चत्वारि श्वभ्रिनाकिनोः । गुणस्थानानि मन्यन्ते नृषु चैव चतुर्दश ।। ८८९ अनहितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतम् । तच्च मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः ॥ ८९० 1 फिर पूजन, फिर भगवान् के गुणों का स्तवन, फिर पञ्च नमस्कार मन्त्र वगैरह का जाप, फिर ध्यान और अन्त में जिनवाणीका स्तवन । इसी क्रमसे जिनेन्द्र देवकी आराधना करनी चाहिए ॥ ८८० ॥ आचार्यकी उपासना, देवशास्त्र गुरुकी श्रद्धा, शास्त्र के अर्थका विवेचन, उसमें बतलायी गयी क्रियाओंका आचरण ये सब कल्याणका प्राप्ति करनेवाले है || ८८१ ।। अपने कल्याणके इच्छुक शिष्यसमुदायको पवित्र होकर तथा शारीरिक चपलताको छोड़कर विनयपूर्वक गुरुके समीपमें आठ दोषोंसे रहित अध्ययन करना चाहिए ||८८२ ॥ भावार्थ - आचार्य परमेष्ठी या आध्याय परमेष्ठी गुरु कहलाते है । उनसे विनयपूर्वक अध्ययन, शास्त्रचर्चा, उनकी आज्ञा का पालन आदि करना चाहिए । ज्ञानाराधनाके आठ दोष होते है- स्वाध्यायके समयका ध्यान न रखना पहला दोष है । शुद्ध उच्चारण न करना, अक्षरादिको छोड़ जाना दूसरा दोष है । शास्त्रका अर्थ ठीक न करना तीसरा दोष है । न उच्चारण ठीक करना और न अर्थ ठीक करना चौथा दोष है । जिनसे पढ़ा है या विचारा है उनका नाम छिपाना पाँचवाँ दोष है । जो पढा है उसको अवधारण न करना छठा दोष है । विनयपूर्वक अध्ययन न करना सातवाँ दोष हैं और गुरुका आदर न करना आठवाँ दोष हैं । इन आठ दोषोंको टालकर गुरुसे अध्ययन करना चाहिए। चारों अनुयोगोंके शास्त्र तथा गुणस्थान और मार्गणास्थानका और अध्यात्म तत्त्वरूप विद्याका पढना स्वाध्याय है ।। ८८३ || धर्मात्मा गृहस्थ जिससे अपने सिद्धान्तों को अच्छी तरह समझ सकता हैं वह प्रथमानुयोग है । उसमें त्रेसठ शलाकापुरुषोंका वृत्तान्त या प्रसिद्ध पुरुषोंका चरित्र पाया जाता है ||८८४ | | अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक में चारों गतियोंका विचार जिसमें किया गया हो उसको करणानुयोग कहते हैं । यह करणानुयोग अन्य अनुयोगोंकी परीक्षा करनेकी कसौटी है । अर्थात् इसीपरसे अन्य सबके प्रामाण्य की परीक्षा की जाती हैं । ८८५ ।। यह मेरा अनुष्ठान - कर्तव्यकर्म हैं और उसके पालनका यह क्रम हैं । इस प्रकार आत्माके चरित्रका वर्णन जिसमें किया गया हो उसे चरणानुयोग कहते हैं ।। ८८६।। द्रव्यानुयोग से जीव और अजीव द्रव्यका ज्ञान होता हैं, धर्म और अधर्म द्रव्यका ज्ञान होता है तथा बन्ध और मोक्षका ज्ञान होता हैं । ८८७॥ जीवसमास, गुणस्थान और मार्गणा प्रत्येक चौदहचौदह प्रकार के होते है । इनका स्वरूप आगमोंसे जानना चाहिए । तिर्यञ्चों में पहले केपाँच गुणस्थान होते है । देव और नारकियोंमें पहले के चार गुणस्थान होते है और मनुष्यों में चौदहों गुणस्थान होते है ।।८८८-८८९ ।। अपनी शक्तिको न छिपाकर जो कायक्लेश किया जाता हैं, शारीरिक Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन 1 अन्तर्बहिर्मलप्लोषाबात्मनः शुद्धिकारणम् । शारीरं मानसं कर्म तपः प्राहुस्तपोधनाः ।। ८९१ कषायेन्द्रियदण्डानां विजयो व्रतपालनम् । संयमः संयतः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम् ।। ८९२ अस्यायमर्थः कषन्ति संतापयन्ति दुर्गतिसंग संपादनेनात्मानमिति कषायाः क्रोधादय । अथव। यथा विशुद्धस्य वस्तुनो नैयग्रोधादयः कषाया कालुष्यकारिणः, तथा निर्मलस्यात्मनो मलिनत्व हेतुत्वात्कषया इव कषायाः । तत्र स्वपरापराधाभ्यामात्मेतरयोरपायोऽपायानुष्ठानमशुभपरिणामजननं वा क्रोधः, विद्याविज्ञानंश्वर्यादिभिः पूज्यपूजाव्यतिक्रमहेतुरहंकारो युक्तिदर्शनेऽपि दुराग्रहापरित्यागो वामान: । मनोवाक्काय क्रियाणामयाथातथ्यात्परवञ्चनाभिप्रायेण प्रवृत्तिः ख्यातिपूजालाभाद्यभिनिवेशेन वा माया । चेतनाचेतनेषु वस्तुषु चित्तस्य महान्ममेदं भावस्तदभिवृद्धि विनाशयोर्महान्स - न्तोषोऽसन्तोषो वा लोभः । सम्यक्त्वं धनन्त्यनन्तानुबन्धिनस्ते कषायकाः || अप्रत्याख्यानरूपाश्च देशव्रतविघातिनः ।। ८९३ प्रत्याख्यानस्वभावाः स्युः सयमस्य विनाशकाः । चारित्रे तु यथाख्याते कुर्युः संज्वलनाः क्षतिम् ॥ ८९४ कष्ट उठाया जाता हैं उसे तप कहते है । किन्तु वह तप जैनमागके अविरुद्ध यानी अनुकूल होनेसे ही लाभदायक हो सकता है । अथवा अन्तरङग और बाह्य मलके संतापसे आत्माको शुद्ध करने के लिए जो शारीरिक और मानसिक कर्म किये जाते है उसे तपस्वीजन तप कहते हैं ।। ८९०-८९१।। आत्माका वल्याण चाहनेवालोंके द्वारा जो कषायों का निग्रह, इन्द्रियोंका जय, मन, वचन और काय की प्रवृत्तिका त्याग तथा व्रतोंका पालन किया जाता हैं उसे संयमी पुरुष संयम कहते हैं । ८९२।। इसका खुलासा इस प्रकार हैं- जो आत्माको दुर्गतियों में ले जाकर कष्ट दें उन्हें कषाय करते हैं। अथवा जैसे वटवृक्ष वगैरहका कसैला रस साफ वस्तुको भी काला कर देता है वैसे ही जो निर्मल आत्माको मलिन करनेमें कारण हो उसे कसैले रसके समान होने से कषाय कहते हैं । वे काय चार है- क्रोध, मान, माया और लोभ । अपनी या दूसरोंकी गलतीसे अपना या दूसरोंका २३१ नष्ट होना या अनिष्ट करना अथवा बुरे भावोंका उत्पन्न होना क्रोध हैं। विद्या, ज्ञान या ऐश्वर्य वगैरह के घमंड में आकर पूज्य पुरुषोंका आदर-सत्कार नहीं करना अथवा युक्ति देनेपर भी अपने दुराग्रहको नहीं छोडना मान है। दूसरोंको ठगने के अभिप्राय से अथवा ख्याति, आदर-सत्कार या धनलाभ आदि के अभिप्रायसे मन, वचन और कायकी मिथ्याप्रवृत्ति करना अर्थात् सोचना कुछ. कहना कुछ और करना कुछ इसे माया कहते है । चेतन स्त्री- पुत्रादिकमें और अचेतन जमीन-जायदाद आदि में 'यह मेरे है इस प्रकारकी जो अत्यन्त आसक्ति होती है अथवा इन वस्तुओं की वृद्धि होनेपर जो महान् संतोष या इनकी हानि होनेपर जो महान् असन्तोष होता है वह लोभ हैं । इस प्रकार ये चार कषाय हैं । इन चारोंमें से प्रत्येककी चार-चार अवस्थाएँ होती हैं- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें से जो कषाय सम्यग्दर्शनको घातती हैं अर्थात् सम्यग्दर्शनको नहीं होने देतीं उन्हें अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं | जो कषाय सम्यग्दर्शनको तो नहीं घातती किन्तु देशव्रतको घातती है उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं ।। ८९३ । जो कषाय न तो सम्यग्दर्शनको रोकती है और न देशचारित्रको रोकती हैं किन्तु संयमको रोकती है, उन्हें प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं । और जो कषाय केवल यथाख्यात चारित्रको नहीं होने देतीं उन्हें संज्वलनकषाय कहते है ।। ८९४ ॥ चारों क्रोध आदि 1 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ श्रावकाचार - संग्रह पाषाणभूर जोवारिलेखाप्रख्यत्वभाग्भवन् । क्रोधो यथाक्रमं गत्यं श्वभ्रतिर्यनुना किनाम् ।। ८९५ शिलास्तम्मा स्थिसाध्मवेत्रवृत्तिद्वितीयकः । अधः पशुनरस्वर्गगतिसंगतिकारणम् ।। ८९६ वेणुमूलैरजाश्रृङ्गर्गोमूत्रंश्चामरैः समा । माया तथैव जायेत चतुर्गतिवितीर्णये ।। ८९७ क्रिमिनोलीय पुर्लेवहरिद्वारागसंन्निभः । लोभः कस्य न संजातस्तद्वत्संसारकारणम् ।। ८९८ कषायोंमेंसे प्रत्येकके शक्तिकी अपेक्षासे भी चार-चार भेद होते हैं । पत्थर की लकीरके समान क्रोध, पृथिवीकी लकीरके समान क्रोध, धूलिकी लकीरके समान क्रोध और जलकी लकीरके समान क्रोध । जैसे पत्थरकी लकीरका मिटना दुष्कर है वैसे ही जो क्रोध बहुत समय बीत जानेपर भी बना रहता हैं वह उत्कृष्ट शक्तिवाला होता है और ऐसा क्रोध जीवको नरक गति में ले जाता हैं । जैसे पृथ्वीको लकीर बहुत समय बाद मिटती है वैसे जो क्रोध बहुत समय बीत जानेपर मिटे वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला क्रोध हैं ऐसा क्रोध जीवको पशुगतिमें ले जाता है । जैसे धूल में की गयी लकीर कुछ समयके बाद मिटती है वैसे ही जो क्रोध कुछ समयके बाद मिट जायेवह अजघन्य शक्तिवाला क्रोध हैं । ऐसा क्रोध जीवको मनुष्य गतिमें उत्पन्न करता हैं । जैसे पानीमें की गयी लकीर तुरन्त ही मिट जाती हैं वैसे हो जो क्रोध तुरन्त ही शान्त हो जाये वह जघन्य शक्तिवाला क्रोध है । ऐसा क्रोध जीवको देवगति में उत्पन्न कराने में निमित्त होता हैं ||८९५|| मान कषाया के भी शक्तिकी अपेक्षा चार भेद है- पत्थर के स्तम्भके समान, हड्डी के समान, गोली लकडीके समान और बेत के समान । जैसे पत्थरका स्तम्भ कभी नमता नहीं है वैसे ही जो मान जीवको कभी विनयी नहीं होने देता वह उत्कृष्ट शक्तिवाला मान है, ऐसा मान जीवको नरकतिमें जानेकनिमित्त होता है । जैसे हड्डी बहुत काल बीते बिना नमनें योग्य नहीं होती वैसे ही जो बहुत काल बीते बिना जीवको विनयी नहीं होने देता वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला मान है । ऐसा मान जीवकी पशुगति में उत्पन्न होनेका निमित्त होता हैं । जैसे गीली लकडी थोडे कालमें ही नमने योग्य हो जाती है वैसे ही जो थोड़े समयमें ही शान्त हो जाता है वह अजघन्य शक्तिवाला मान हैं । ऐसा मान जीवको मनुष्यगतिमें उत्पन्न कराता है । जैसे वेत जल्दी ही नम जाता हैं वैसे ही जो जल्दी ही शान्त हो जाये वह जघन्य शक्तिवाला मान हैं ऐसा मान जीवको देवगति में उत्पन्न कराता हैं ।। ८९६ ।। इसी प्रकार बाँसकी जड़, बकरीके सींग, गोमूत्र और चामरोंके समान माया क्रमशः चारों गतियों में उत्पन्न करानेमें निमित्त होती है । अर्थात् जैसे बाँसकी जड़में बहुत-सी शाखाप्रशाखा होती हैं वैसे ही जिसमें इतने छल छिद्र हों कि उनका कोई हिसाब ही न हो, उसे उत्कृष्ट शक्तिवाली माया कहते है । जैसे बकरी के सींग टेढे होते हैं उस ढंगका टेढापन जिसके व्यवहार में हो वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाली माया हैं । जैसे बैल कुछ मोडा देकर मूतता है उतना टेढापन जिसमें हो वह अजघन्य शक्तिवाली माया है और जैसे चामर ढोरते समय थोडा मोडा खा जाते है किन्तु तुरन्त ही सीधे हो जाते है वैसे ही जिसमें बहुत कम टेढापन हो जो जल्द ही निकल जाये वह जघन्य शक्तिवाली माया हैं। चारों प्रकारकी माया क्रमसे जीवको चारों गतिमें उत्पन्न कराने में कारण हैं ।। ८९७ ।। किरमिचके रंग, नीलके रंग, शरीरके मल और हल्दी के रंगके समान लोभ शेष कषायोंकी तरह किस जीवके संसार भ्रमणका कारण नहीं होता। जैसे किरमिचका रंग पक्का होता हैं वैसे ही जो खूब गहरा और पक्का हो वह तो उत्कृष्ट शक्तिवाला लोभ हैं । जैसे नीलका रंग किरमिचसे कम पक्का होता हैं मगर होता वह भी गहरा ही हैं वैसे ही जो कम पक्का और Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २३३ किञ्चयोषधक्रिया रिक्ता रोगिणोऽपथ्यसेविनः । क्रोधनस्य तथा रिक्ता: समाधिश्रुतसंयमाः ।। ८९९ मानदावाग्निदग्धेषु मदोषरकषायिषु । नद्रुमेषु प्ररोहन्ति न सच्छायोचिताकुराः ॥९०० यावमायानिशालेशोऽप्यात्माम्बुषु कृतास्पदः । न प्रबोधभियं तावद्धत्ते चित्ताम्बुजाकरः ।। ९०१ लोभकोकसचिन्हानि चेत.स्रोतांसि दूरतः । गुणाध्वन्यास्त्यजन्तीह चण्डालसरसीमिव ।। ९०२ तस्मान्मनोनिकेतेऽस्मिन्निदं शल्यचतुष्टयम् । यतेतोद्धर्तुमात्मज्ञः क्षेमाय शमकीलकः ॥ ९०३ षट्स्वर्थेष विसर्पन्ति स्वभावादिन्द्रियाणि षट् । तत्स्वरूपपरिज्ञानात्प्रत्यावर्तेत सर्वदा ॥ ९०४ आपाते सुन्दरारम्भविषाके विरसक्रियः । विषेर्वा विषय प्रेस्ते कुतः कुशलमात्मनि ॥ ९.५ दुश्चिन्तनं दुरालापं दुापारं च नाचरेत् । ती व्रतविशुद्धधर्थ मनोवाक्कायसंश्रयम् ।। ९०६ अभङ्गानतिचाराभ्यां गृहीतेषु व्रतेषु यत् । रक्षणं क्रियते शश्वत्तद्भवेद् व्रतपालनम् ।। ९०७ वैराग्यभावना नित्यं नित्यं तत्त्वविचिन्तनम् । नित्यं यत्नश्च कर्तव्यो यमेष नियमेषु च ।। ९०८ . गहरा राग होता है वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला लोभ हैं। जैसे शरीरका मल हल का गहरा होता है वैसे ही जो हलका गहग राग होता हैं वह अजघन्य शक्तिवाला लोभ है । तथा जैसे हल्दीका रंग हलका होता है और जल्दी ही उड जाता हैं वैसे ही जो बहुत हलका राग होता है वह जघन्य शक्तिवाला लोभ हैं । ये चारों प्रकारके लोभ जीवको क्रमशः चारों गतियोंमें उत्पन्न कराने में निमित्त होते हैं ।।८९८ । जैसे अपथ्य सेवन करनेवाले रोगीका दवा-सेवन व्यर्थ हैं वैसे ही क्रोधी मनष्यका ध्यान,शास्त्राभ्यास तथा संयम सब व्यर्थ है १८९९।। मानरूपी वनकी आगसे जले हए और मदरूपी खारी मिट्टीसे सने हुए मनुष्यरूपी वृक्षोंमें अच्छी छाया देनेवाले नये अंकुर नहीं उगते। अर्थात् जैसे वनकी आगसे जले हुए और खारी मिट्टीसे सने हुए वृक्ष में नये अंकुर पैदा नहीं होते वैसे जो मनुष्य घमंडी और अहंकारी है उनमें भी सद्गुण प्रकट नहीं हो सकते ॥९००। जैसे थोडी-सी भी रातके रहते हुए जलाशयमें कमल नहीं खिलते वैसे ही आत्मामें थोडी-सी भी मायाके रहते हुए चित्त बोधको प्राप्त नहीं होता। अर्थात् मायाचारीके हृदयमें ज्ञानका प्रवेश नहीं होता ॥९०१॥ जैसे गुणी पथिक चाण्डालोंके तालाबको दूरसे ही छोड़ देते है क्योंकि उसके स्रोतोंमें हड्डियाँ पडी होती हैं वैसे ही जिसके चित्तमें लोभका वास होता हैं उसे गुण दूरसे ही छोड़ देते है । अर्थात् लोभी मनुष्यके सभी गुण नष्ट हो जाते हैं ॥९०२।। अतः आत्मदर्शी मनुष्यको अपने कल्याणके लिए सयमरूपी कीलके द्वारा अपने मनरूपी मन्दिरसे इन चारों शल्योंको निकालनेका प्रयत्न करना वाहिए ।।९०३।। छहों इन्द्रियाँ स्वभावसे ही अपने-अपने विषयोंमें प्रवृत्त होती है। अत उन विषयोंके स्वरूपको जानकर सदा उन इन्द्रियोंको उनके विषयोंम फँसनेसे बचाना चाहिए ॥९०४।। ये विषय विषके समान हैं। जब प्राप्त होते हैं तो अच्छे मालम होते है किन्तु जब वे अपना फल देते हैं तो अत्यन्त विपरीत हो जाते हैं। जो आत्मा इन विषयोंके चक्करमें फंसा हुआ है उसकी कुशल कैसे हो सकती हैं? ।।९०५।। व्रती पुरुषको अपने व्रतोंको शुद्ध रखने के लिए मनमें बुरे विचार नहीं लाना चाहिए । वचनसे बुरी बात नहीं कहनी चाहिए और शरीरसे बुरी चेष्टा नहीं करनी चाहिए । जो व्रत ग्रहण किये हों उनमें न तो अतिचार लगने दे और न व्रतको खण्डित ह ने दे । इस प्रकार जो व्रतोंकी रक्षा की जाती हैं उसे ही व्रतोंका पालन करना कहा जाता है ।।९०६-९०७ । अतः सदा वैराग्यको भाना चाहिए । सदा तत्त्वोंका चिन्तन करते रहना चाहिए और सदा यम और नियमोंमें प्रयत्न करते रहना चाहिए ।।९०८।। देख हुए और Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह तत्र दृष्टानुश्राविकविषय वितृण्णस्य मनोवशीकारसंज्ञा वैराग्यम् । प्रत्यक्षानुमानागमानुभूतपदार्थविषयाऽसंप्रमोषस्वभावा स्मृतिस्तत्त्वविचिन्तनम् । बाह्याभ्यन्तरशौचतपःस्वाध्यापप्रणिधानानियमाः । अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा नियमाः । इत्येष गृहिणां धर्मः प्रोक्तः क्षितिपतीश्वर । यतीनां तु श्रुतात् ज्ञेयो मूलोत्तरगुणाश्रयः ।। ९०९ इति श्रीसकलताकिकलोकचूडामणेः श्रीमन्नेमिदेवभगवत: शिष्येण सद्योऽनवद्यगद्यपद्यविद्याधरचक्रवतिशिखण्डमण्डनीभवच्चरणकमलेन श्रीसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्ये धर्मामृतवर्षमहोत्सवो नामाष्टम आश्वासः : सुने हुए विषयोंकी तृष्णाको छोडकर मनको वशमें करनेको वैराग्य कहते हैं। प्रत्यक्षसे,अनुमानसे और आगमसे जाने हुए पदार्थोका जो भ्रान्तिरहित स्मरण हैं उसे तत्त्वचिन्तन कहते है। बाह्य और आभ्यन्तर शौच तथा सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ध्यानको यम कहते है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहको नियम कहते हैं । इस प्रकार हे राजन्! यह गृहस्थोंका धर्म कहा । यतियोंका धर्म, उनके मूल गुण और उत्तरगुण आगमसे जानना चाहिए ।।९०९॥ इस प्रकार समस्त तार्किकलोकचूडामणि श्रीमान् ने मिदेवआर्य के शिष्य, निर्दोष गद्य-पद्य-रचना करनेवाले विद्वज्जन-चक्रवर्तियोंके शिखामणिके समान शोभायमान चरण-कमवाले श्रीसोमदेव सूरि विरचित यशोधरचरित अपर नामक यशस्तिलकचम्पूमहाकाव्यमें धर्मामृतवर्ष महोत्सव नामका यह आठवाँ आश्वास समाप्त हुआ। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमच्चामुण्डराय-प्रणीत चारित्रसार-गत श्रावकाचार अरिहनन-रजोहनन-रहस्यहरं पूजनाहमहन्तम् । सिद्धान् सिद्धाष्टगुणान् रत्नत्रयसाधकान् स्तुवे साधून ।।१।। धीमज्जिनेन्द्रकथिताय सुमंगलाय लोकोत्तमाय शरणाय विनेयजन्तोः । धर्माय कायवचनाशयशुद्धितोऽहं स्वर्गापवर्गफलदाय नमस्करोमि ॥२॥ धर्मः सर्वसुलाकरो हितकरो धर्म बुधाश्चिन्वते धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं धर्माय तस्मै नमः । धर्मानास्त्यपरः सुहृद्भवभूतां धर्मस्य मूलं दया धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिन हे धर्म मां पालय ।।३।। सम्यक्त्व-पञ्चाणुव्रतवर्णनम् - सम्यग्दृष्टीनां चत्वारो वन्दना प्रधानभूताः-अर्हन्तः सिद्धाः साधवो धर्मश्चेति । तत्राहसिद्धसाधवो नमस्कारेणोक्ताः । धर्म उच्यते-आत्मानमिष्टनरेन्द्र सुरेन्द्रमुनीन्द्र मुक्तिस्थाने धत्त इति धर्मः, अथवा संसारस्थान् प्राणिनो धरते धारयतीति वा धर्मः । स च सागारानगारविषयभेदाद द्विविधः तत्र सागराधर्म उच्यते दार्शनिक-वतिकावपि सामायिकः प्रोषधोपवासश्च । सचित्तरात्रिभुक्तिवनिरतौ ब्रह्मचारी च ॥४॥ मोहरूप अरिके हनन करनेवाले, ज्ञानावरण और दर्शनावरणकर्मरूप रजके विनाशक,अन्तरायरूप रहस्यके अपहारक एवं पंचकल्याणकरूप पूजाओंके योग्य ऐसे अरहन्त भगवान्की में स्तुति करता हूँ । सम्यक्त्त्व आदि आठ गुण जिन्हें सिद्ध हो गये है, ऐसे सिद्ध परमेष्ठियोंकी मै स्तुति करता हूँ और रत्नत्रयके साधक आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओंकी मैं स्तुति करता हूँ ॥३॥ मै श्रीमज्जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट उस धर्मको भी मनवचकायकी शुद्धिपूर्वक नमस्कार करता हूँ जो कि श्रेष्ठ मंगलरूप है, लोकमें उत्तम हैं, विनम्र प्रागियोंको शरण देनेवाला है और स्वर्ग तथा मोक्षके सुखरूप फलको देनेवाला है ॥२॥ धर्म सर्व सुखोंका भण्डार हैं, जगतका हितकारी है,उस धर्मको ज्ञानीजन संचय करते है, धर्मके द्वारा ही शिवका सुख प्राप्त होता हैं, ऐसे धर्मके लिए मेरा नमस्कार हो । संसारी प्राणियोंका धर्मसे अन्य कोई मित्र नहीं हैं, धर्मका मूल दया है, ऐसे धर्ममे मै प्रतिदिन अपने चित्तको लगाता हूँ । हे धर्म, मेरी पालना करो ॥३॥ अब सम्यग्दर्शन और पंच अणुव्रतोंका वर्णन करते हैं-सम्यग्दृष्टि जीवोंके लिए अरहन्त सिद्ध साधु और धर्म ये चार वन्दनामें प्रधानभूत है । उनमें अरहन्त सिद्ध और साधुओंका स्वरूप नमस्कार पद्योंके द्वारा कह दिया गया है । अव धर्मका स्वरूप कहते हैं-जो आत्माको अभीष्ट नरेंद्र सुरेन्द्र, तीर्थकर पद और मुक्तिस्थानमें धारण करे, वह धर्म है । अथवा संसारमें स्थित प्राणियोंको जो धारण करता हैं, वह धर्म है। वह सागार (श्रावक) और अनगार (मनि) के भेदसे दो प्रकारका हैं। उसमेंसे सागारधर्मको कहते हैं दार्शनिक प्रतिक सामायिकी प्रोषधोपवासी सचित्तभुक्ति-विरत रात्रिभुक्तिवत-निरत Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ . श्रावकाचार-संग्रह आरम्भाद् विनिवृत्तः परिग्रहादनुमतस्तथोद्दिष्टः । इत्येकादश निलया जिनोदिता: श्रावकाः क्रमशः ।।५।। व्रतादयो गुणा दर्शनादिभिः पूर्वगुणः सह क्रमप्रवृद्धा भवन्ति । तत्र दार्शनिक: संसारशरीरभोगनिविण्णः पञ्चगुरुचरणभक्तः सम्यग्दर्शनविशुद्धश्च भवति । जिनेन भगवतार्हता परमेष्ठिनोपविष्टे निर्ग्रन्थलक्षणे मोक्षमार्गे श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तस्य सम्यग्दर्शनस्य मोक्षपुरपथिकपाथे. यस्य मुक्तिसुन्दरी-विलासमणिदर्पणस्य संसारसमुद्रगवितंभग्नजनदत्तहस्तावलम्बनस्यैकादशोपासकस्थानप्रासादाधिष्ठानस्योत्तमक्षमादिवशकुलधर्मकल्पपादपमूलस्य परमपावनस्य सकलमङ्गलनिलयस्य मोक्षमुख्यकारणस्याष्टाङ्गानि भवन्ति-निःशङ्कितत्त्वं नि:कांक्षता निविचिकित्सिता समूढदृष्टित्वं उपवंहणं स्थितिकरणं वात्सल्यं प्रभावना चेति। तत्रेहलोकः परलोकः व्याधिर्मरणं अगुप्ति: अत्राणं आकस्मिक इति सप्तविधाद्भयाद्विनिमुक्तता,अथवाऽहंदुपदिष्टद्वादशाङ्गप्रवचनगहने एकमक्षरं पदंवा किमिदं स्याद्वानति शङ्कानिरासो निःशङ्कितत्वम् । ऐहलौकिक-पारलौकिकेन्द्रियविषयोपभोगाकांक्षानिवृत्तिः, कुदृष्टयन्तराक्रांक्षानिरासो वा नि:कांक्षता । शरीराद्यशुचित्वभावमवगम्य शुचीति मिथ्यासङ्कल्पापनयोऽयवाsहत्प्रवचने इबमयुक्तं घोरं कष्टं न चेविदं सर्वमुपपन्नमित्यशभभावनानिरासो विचिकित्साविरहः । ब्रह्मचारी आरम्भ-निवृत्त परिग्रह-निवृत्त अनुमति-निवृत्त और उद्दिष्ट-निवृत्त ये ग्यारह स्थान वाले श्रावक जिन भगवान्ने क्रमसे कहे है ॥४-५॥ व्रतप्रतिमा आदिके गुण दर्शनप्रतिमा आदि पूर्वगुणोंके साथ क्रमसे बढते हुए होते हैं, अर्थात् उत्तरप्रतिमाधारी श्रावकके लिए पूर्व प्रतिमाओंके गुण अधिक विशुद्धिके साथ धारण करना आवश्यक हैं। इनसे प्रथम प्रतिमाधारी दर्शनिक श्रावक हैं, जो कि संसार और इन्द्रिय-भोगोंसे विरक्त होता हैं, पंच परम गुरुके चरणोंका भक्त होता है और सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध होता हैं । जिनेन्द्र भगवान् अरहन्त परमेष्ठीसे उपदिष्ट वीतराग स्वरूप मोक्षमार्गमें श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन मोक्षपुरको जानेवाले पथिकके लिए मार्गका भोजन है, मुक्ति सुन्दरीके श्रृंगार-विलासके लिए मणिके दर्पण समान है, संसार-सागरके गड्ढेकी भवरमें निमग्न जनको हाथका अवलम्बन देनेवाला है,उपासकोंके ग्यारह खण्डवाले भवनका आधारभूत अधिष्ठान है, उत्तम क्षमा आदि दश प्रकारके कुल धर्मरूपी कल्पवृक्षका मूल है, परम पवित्र है, सर्वमंगलोंका आश्रय हैं और मोक्षका प्रधान कारण हैं । इस सम्यग्दर्शनके आठ अंग है-निःशंकित, निःकांक्षित, निविचिकित्सा अमूढदृष्टि, उपवृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना । अब इन अंगोंका क्रमसे स्वरूप कहते है-इहलोकभय, परलोकभय, व्याधिभय, मरणभय, अगुप्तिभय अत्राणभय और आकस्मिकभय इन सातों प्रकारके भयोंसे रहित होना नि शंकित अंग है। अथवा अरहन्त भगवान्के द्वारा उपदिष्ट और अत्यन्त गहन ऐसे द्वादशांगरूप प्रवचनमें 'यह एक अक्षर अथवा पद क्या जिनोक्त हैं, या नहीं' ऐसी शंकाका न होना निःशंकित अंग है। इस लोक और परलोकमें इन्द्रियके विषय-सम्बन्धी उपभोगकी आकांक्षा न करना,अथवा मिथ्यादृष्टि होनेकी आकांक्षा नहीं करना निःकांक्षित अंग है । शरीर आदिके अपवित्रपनेको जानकर 'यह शरीर पवित्र हैं' ऐसे मिथ्या संकल्पको दूर करना, अथवा अर्हत्प्रवचनमें यदि यह घोर कष्टवाला अयुक्त कथन न होता, तो सर्व ठीक था, ऐसी अशुभ भावनाका दूर करना निर्विचिकित्सा अंग हैं । तत्त्वसे रहित होनेपर भी तत्त्वके समान प्रतिभासित होनेवाले अनेक प्रकारके दुर्नयरूप . Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रसार-गत श्रावकाचार २३७ बहुविधेषु दुर्णयवर्त्मसु तत्त्ववदामासमानेष युक्त्यभावमध्यवस्य परोक्षाचक्षुषा विरहितमोहममूढदष्टित्वम् । उत्तमक्षमादिभावनयाऽऽत्मन आत्मीयस्य च धर्मपरिवृद्धिकरणमुपवृहणम् । कषायोदया. दिषु धर्मपरिभ्रंशकारणेषुपस्थितेषु स्वपरयोधर्मप्रच्यवनपरिपालनं स्थितिकरणम् । जिनप्रणीते धर्मामृते नित्यानुरागताऽथवा सद्यःप्रसूता यथा गौर्वत्से स्निह्यति तथा चातुर्वण्य संघेऽकृत्रिमस्नेहकरणं वात्सल्यम् । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयप्रभावादात्मनः प्रकाशनमषवा ज्ञानतपःपूजासु ज्ञानदिनकर-किरणः परसमयखतोद्योत वरणकरणं च, महोपवासादिलक्षणेन देवेन्द्र विष्टरप्रकम्पनसमर्थन सत्तपसा स्वसमयप्रकटन च,महापूजामहादानादिभिधर्मप्रकाशनं च प्रभावना एवंविधाष्टाङ्ग विशिष्टं सम्यक्त्वम् । तद्विकयोरणुव्रतमहाव्रतयो मापि न स्यात् । सम्यग्दर्शनमणुव्रतयक्तं स्वर्गाय, महाव्रतयुक्तं मोक्षाय च । सम्यक्त्वमङ्गहीनं राज्यमिव श्रेयसे भवेनैव । न्यूनाक्षरो हि मन्त्रो नालं विषवेदनोच्छित्त्यै ।।६। सम्यक्त्वस्य गणा: संवेगो निर्वेदो निन्दा गर्दा तपोपशमभक्ती। अनुकम्पा वात्सल्यं गुणास्तु सम्यक्त्वयुक्तस्य ॥७॥ उक्तं चाबद्धायुष्कविषये सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यनपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कृलविकृताल्पायुर्वरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः ॥८॥ मिथ्यामार्गोमें परीक्षारूप नेत्रोंके द्वारा युक्तिके अभावको जानकर मोहरहित होना अमूढदृष्टि अंग हैं। उत्तम क्षमादि धर्मोकी भावनासे अपने और अपने परिजनोंके धर्मकी तृप्ति करना उपवृंहण अंग हैं । कषायोदय-आदिक धर्म-भ्रष्ट करनेवाले कारणोंके उपस्थित होनेपर अपनी और अन्यकी धर्मभ्रष् होनेसे रक्षा करना स्थितिकरण अंग हैं । जिन-प्रणीत धर्मामतमें नित्य अनुराग करना, अथवा जैसे-सद्यः प्रसूता गो अपने बछडेको अत्यन्त स्नेह करती है, उसी प्रकार चार प्रकारके संघ पर अकृत्रिम स्नेह करना वात्सल्य अंग हैं। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके प्रभावसे आत्माका प्रभाव प्रकाशित करना, प्रभावना अंग है। अथवा खद्योतोंके प्रकाशका आवरण करना, देवेन्द्रों के सिंहासनोंको कम्पित करने में समर्थ महोपवास आदि स्वरूपवाले उत्तम तपश्चरणके द्वारा अपनेशासनकी प्रभावना करना, और महापूजा, महादान आदि कार्योंके द्वारा धर्मका प्रकाश करना प्रभावना अंग हैं। इस प्रकारके आठ अंगोंसे विशिष्ट सम्यग्दर्शन पहली प्रतिमाधारीके होता है । सम्यग्दर्शनसे रहित पुरुषके अणुव्रत और महाव्रतका नाम तक भी नहीं होता है। यह सम्यग्दर्शन यदि अणुव्रत-युक्त हों तो स्वर्ग के लिए कारण है और महाव्रत-युक्त हो तो मोक्षके लिए कारण हैं । जिस प्रकार सेना आदि अंगोंसे रहित राज्य कल्याणकारी नहीं होता हैं,उसी प्रकार निःशंकित आदि अंगोंसे हीन सम्यग्दर्शन भी कल्याणकारी नहीं होता हैं । क्योंकि एक अक्षरसे भी न्यून मंत्र विषकी वेदनाको दूर करने के लिए समर्थ नहीं होता है ।६। अब सम्यग्दर्शनके गुण कहते हैं-संवेग निर्वेद निन्दा गर्दा उपशम भक्ति अनुकम्पा और वात्सल्य ये सम्यक्त्वयुक्त पुरुषके आठ गुण हैं ॥७॥ जिसके आगामी भवकी आयु नहीं बंधी है,ऐसे अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टिके विषयमें कहा है-सम्यग्दर्शनसे शुद्ध अवती भी पुरुष मरकर नारक, Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्रावकाचार-संग्रह भवाब्धौ भव्यसार्थस्य निर्वाणद्वीपयायिनः । चारित्रयानपात्रस्य कर्णधारो हि दर्शनम् ।।९।। दार्शनिकस्य कस्यचित्कदाचिद्दर्शनमोहोक्यावतीचाराः पञ्च भवन्ति-शङ्काकांक्षा विचिकिसाऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा इति । तत्र मनसा मिथ्यादृष्टेशनिचारित्रगुणोद्धावनं प्रशंसा, वचसा भूताभूतगुणोद्भावनं संस्तवः, एवं प्रशंसा-संस्तवयोनिसकृतो वाक्कृतश्च मेवः । शेषाः सुगमाः । सम्यग्दर्शनसामान्यादणुवतिकमहावतिनोरिमेऽतीचाराः।। वतिको निःशल्य: पञ्चाणवत-रात्रिभोजनविरमण शीलकसप्तकं निरतिचारेण यः पालयति स भवति । तत्र यथा शरीरानप्रवेशिकाण्डकुन्तादिप्रहरणं शरीरिणां बाधाकरम्, तथा कर्मोदयविकारे शरीरमानसबाधाहेतुत्वाच्छल्यमिव शल्यम् । तत्त्रिविधम्-मायानिदान मिथ्यावर्शनभेदात् । माया वंचनम् । निवानं विषयभोगाकांक्षा। मिथ्यादर्शनमतत्त्वश्रद्धानम् । उत्तरत्र वक्ष्यमाणेन महावतिनापि शल्यत्रयं परिहर्तव्यम्। ___ अभिसन्धिकृतो नियमो व्रतमित्युच्यते, सर्वसावधनिवृत्त्यसंभवादणुव्रतं द्वीन्द्रियादीनां जंगमप्राणिनां प्रमत्तयोगेन प्राणव्यपरोपणान्मनोवाक्कायैश्य निवृत्तः आगारीत्याधणुवतम् । तस्य प्रमत्त. योगात्प्राणाव्यपरोपणलक्षणस्य पञ्चातिचारा भवन्ति-बन्धो वधः छेनः अतिमारारोपणं अन्नपाननिरोधश्चेति । तत्राभिमतदेशगमनं प्रत्युत्सुकस्य त प्रतिबन्धहेतोः कोलादिषु रज्ज्वादिभिव्य॑तिषड़गो तिर्यंच, नपुंसक और स्त्री नहीं होते । तथा वे दुष्कुल,विकल-अंग, अल्प आयु और दरिद्रताको भी संसाररूप समदमें चारित्ररूप जहाज पर सवार होकर निर्वाणरूप दीपको जानेवाले भव्य जीवरूप सार्थवाहका सम्यग्दर्शन कर्णधार (खेवटिया) है ।।९।। सम्यग्दर्शनके धारक किसी जीवके कदाचित् दर्शनमोहके उदयसे ये पाँच अतीचार होते हैं-शंका कांक्षा विचिकित्सा अन्यदष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव । मनसे मिथ्यादृष्टि पुरुषके ज्ञान और चारित्रगुणका प्रकट करना प्रशंसा है और वचनसे उसमें विद्यमान और अविद्यमान गुणोंका कहना संस्तव हैं। इस प्रकार प्रशंसा और संस्तवमें मनःकृत और वचनकृत भेद है। शेष तीन अतीचार सुगम हैं। सम्यग्दर्शनकी समानतासे ये पाँचो ही अतीचार अणुव्रती और महाव्रती दोनोंके होते हैं। जो शल्यरहित होकर पाँच अणुव्रत, रात्रि-भोजन त्याग और तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रतरूप सात शीलोंको अतीचार-रहित पालन करता हैं, वह दूसरी प्रतिमाधारी वतिक श्रावक हैं। शल्य नाम वाणका है। जैसे शरीरमें प्रविष्ट वाण भाला आदि शस्त्र जीवोंको बाधा करता हैं, उसी प्रकार कर्मोदयके विकार में जो शल्यके समान शरीर और मनमें बाधाका कारण हो, उसे शल्य कहते है । वह शस्य माया निदान और मिथ्यादर्शनके भेदसे तीन प्रकारकी हैं। दूसरेको ठगना माया है । विषयभोगोंकी आकांक्षा करना निदान हैं। अतत्त्वोंका श्रद्धान करना और तत्वोंका श्रद्धान नहीं करना मिथ्यादर्शन है। श्रावकको और आगे कहे जानेवाले महाव्रतीको भी तीनों शल्योंका त्याग करना चाहिए । अभिप्रायपूर्वक नियम करना व्रत कहलाता है । गृहस्थके सर्व सावद्ययोगकी निवृत्ति असंभव हैं, अतः जो प्रमत्तयोगसे द्वीन्द्रियादिक त्रस प्राणियोंके प्राण-घातसे मन वचन काय द्वारा निवृत्त होता हैं. वह गृहस्थ प्रथम अहिंसाणवतका धारक हैं । प्रमत्तयोगसे प्राणोंका अविघात लक्षणवाले इस अहिसाणवतके पाँच अतीचार इस प्रकार हैं-बन्ध वध छेद अतिभारारोपण और अन्न-पान निरोध। अपने अभीष्ट स्थानको जानेके लिए उत्सुक पुरुष पशु आदिको उसे रोकने के निमित्तसे कील, खंटी : Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रसार-गतश्रावकाचार २३९ बन्धः । दण्डकशावेत्रादिभिः प्राणिनामभिघातो वधः। कर्णनासिकादीनामवयवानामपनयनं छेदः । न्यायावनपेताद्धारादतिरिक्तस्य भारस्य वाहनमतिलोभाद् गवादीनामतिमारारोपणम् । तेषां गवादीनां कुतश्चित्कारणात् क्षुत्पिपासाबाधोत्पादनमन्नपाननिरोध इति।। स्नेहस्य मोहस्य द्वषस्य वोद्रेकाद्यदसत्याभिधानं ततो निवृत्तादरो गृहीति द्वितीयमणुव्रतम् । तस्य व्रतस्य पञ्चातिकमा भवन्ति मिथ्योपदेशः रहोऽभ्याख्यानं कूष्टलेखक्रियान्यासापहारः साकारमन्त्रभेदश्चेति । तत्राभ्युदयनिःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेषु अन्यस्यान्यथा प्रवर्तनमभिसन्धानं वा मिथ्योपदेशः । स्त्रीपुरुषाभ्यामेकान्तेऽनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशन रहोऽभ्याख्यानम् । अन्येनानक्तं यत्किञ्चित्परप्रयोगवशादेवं तेनोक्तमनुष्ठितमिति वञ्चनानिमित्तं लेखनं कूटलेखक्रिया। हिरण्यादेवव्यस्य निक्षेप्तुधिस्मृतसंख्यस्य अल्पसंख्यानमावदानस्य एवं'इत्यनुज्ञावचनं न्यासापहारः । अर्थप्रकरणाङ्गविकारभ्रूक्षेपादिभिः पराकूतमुपलभ्य यदाविष्करणमसूयादिनिमित्तं तत्साकारमन्त्रभेद इति। अन्यपीडाकरं पार्थिवादिमयादवशपरित्यक्तं वा निहितं पतितं विस्मृतं वा यवदत्तं ततो निवृत्तादरः श्रावक इति ततीयमणुव्रतम् । अदत्तादानविरते: पञ्चातिचारा भवन्ति-स्तेनप्रयोगः तदाहृतावानं विरुद्धराज्यातिक्रमः हीनाधिकमानोन्मानं प्रतिरूपकव्यवहारश्चेति । मोषकस्य विधा प्रयोजनम्-मुष्णन्तं स्वयमेव प्रयुंक्ते, अन्येन वा प्रयोजयति प्रयक्तमनुमन्यते वायःसःस्तेनप्रयोगः । आदिमें रस्सी आदिके द्वारा बाँधना बन्ध नामका अतीचार है । लकडी चाबुक बेंत आदिसे प्राणियोंको मारना वध नामका अतीचार हैं । जीवोंके कान नाक आदि अंगोंका काटना छेद नामका अतिचार है। अतिलोभसे बैल घोडे आदि पर न्याय-सगत भारसे अधिक भारका लादना अतिभारारोपण नामका अतिचार हैं । किसी भी कारणसे उन बैल आदिका खान-पान रोककर उन्हें भूख-प्यासकी बाधासे पीडित करना अन्न-पाननिरोध नामका अतिचार है । स्नेह मोह और द्वेषकी तोव्रतासे जो असत्य बोला जाता है उसके त्यागमें आदर रखना यह गृहस्थ का दूसरा सत्याणवत है। इस व्रतके पाँच अतींचार इस प्रकार हैं-मिथ्योपदेश रहोऽभ्याख्यान कूट लेखक्रिया न्यासापहार और साकार मंत्रभेद । अभ्युदय और निःश्रेयससाधक क्रिया-विशेषों में अन्य पुरुषको अन्यथा प्रवृत्ति कराना, अथवा अन्यथा अभिप्राय कहना मिथ्योपद्रेश है। स्त्री-पुरुषके द्वारा एकान्तमें की गई रति क्रिया आदि गुप्त बातका प्रकाशन करना रहोऽभ्याख्यान हैं । अन्यके द्वारा नहीं कही गई जिस किसी बातको परके आग्रहसे 'उसने ऐसा कहा हैं, अथवा किया है' इस प्रकार दूसरेको ठगनेके लिए झूठे लेख लिखना कूट-लेखक्रिया हैं । अमानतमें रखे हुये सुवर्ण आदि द्रव्यका परिणाम भूल जानेसे अल्प परिमाणमें मांगनेपर उतने ले जानेकी धरोहर रखनेवाले पुरुषको स्वीकृतिका वचन कहना न्यासापहार हैं। किसी अर्थके प्रकरणसे, अंगविकारसे अथवा भ्रुकुटी-विक्षेप आदिसे दूसरेका अभिप्राय जानकर ईर्ष्या आदिके निमित्तसे उसे प्रकट करना साकारमंत्रभेद हैं । राजा आदिके भयसे परवश होकर छोडे गये, रखे हुए गिरे और भूले हुए पराये द्रव्यको बिना दिये लेना चोरी हैं । यह उसके स्वामीको पीडा करती हैं। ऐसी चोरोसे निवृत्त होने में आदर रखना यह श्रावकका तीसरा अचौर्याणुव्रत है। इस अदत्तादानविरतिके पाँच अतीचार इस प्रकार है-स्तेनप्रयोग तदाहृतादान विरुद्धराज्यातिक्रम हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार । चोरको तीन प्रकारसे प्रेरणाकी जाती हैं-एक तो चोरको चोरी करनेके लिए स्वयं प्रेरणा करता है,दूसरे अन्य किसीसे Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ... श्रावकाचार-संग्रह अप्रयुक्तेनाननुमतेन च चौरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानम् । विरुद्धं राज्यं विरुद्धराज्यम् । उचितन्यायादन्येन प्रकारेणादानं ग्रहणमतिक्रमः । तस्मिन् विरुद्धराज्ये योऽसावतिक्रमः स विरुद्धराज्यातिक्रमः । प्रस्थादि मानं तुलाघन्मानम् । एतेन न्यूनेनान्यस्मै देयमधिकेनात्मना ग्राह्यमित्येवमाविकटप्रयोगो होनाधिकमानोन्मानम् । कृत्रिमैहिरण्यादिभिर्वञ्चनापूर्वको व्यवहार: प्रतिरूपकव्यवहार इति। उपात्ताया अनुपात्तायाश्च पराङ्नायाः सङ्गाद्विरतरतिविरताविरत इति चतुर्थमणुव्रतम्। स्ववारसन्तोषव्रतस्यातीचाराः पञ्च भवन्ति-पर विवाहकरणं इत्वरिकाऽपरिगृहीतागमनं इत्वरिकापरिगृहीतागमनं अनङ्गक्रीडा कामतीवाभिनिवेशश्चेति। तत्र सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयाद्विवहनं विवाहः परस्य विवाहकरणं परविवाहकरणम् । ज्ञानावरणक्षयोपशमादापादितकलागुणज्ञतया चारित्रमोहस्त्रीवेदोदयप्रकर्षादङ्गोपाङ्गवामोदयावष्टम्माच्च परपुरुषानेतीति इत्करिका या गणिकात्वेन वा पुंश्चलित्वेन वा परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता,तस्यां गमनमित्वरिकाऽपरिगृहीता गमनम् । या पुनरेकपुरुषभर्नुका सा परिगृहीता,तस्यांगमनमित्वारिकापरिगृहीतागमनम्। अगं प्रजननं योनिश्च तत्तो जघनादन्यत्रानेकविधप्रजननविकारेण रतिरनङ्गक्रीडा कामस्य प्रवद्धः प्रेरणा कराता है और तीसरे चोरी करनेवाले की अनुमोदना करता है, यह सब स्तेन प्रयोग है। जिसे चोरीके लिए प्रेरणा भी नहीं की है, ऐसे चोरके द्वारा लाये गये द्रव्यको ग्रहण करना तदाहृतादान है। विद्रोह या विप्लव युक्त राज्यको विरुद्धराज्य कहते है। उचित न्याय मार्गको छोडकर अन्य प्रकारसे द्रव्यको ग्रहण करना अतिक्रम कहलाता है । इस प्रकार विरुद्ध गज्यमें अतिक्रम विरुद्धराज्यातिक्रम है। (राज्यके नियमोंके विरुद्ध वस्तुको लाना-ले जाना और राज्य-करकी चोरी करना भी इसीके अन्तर्गत है। ) नापने के प्रस्थ आदिको मान कहते हैं और तोलनेके वाँट आदिको उन्मान कहते है । कम नाप-तोलके बाँटोंसे दूसरोंको देना और अधिक (भारी) ना - तोलके बाँटोसे स्वयं ग्रहण करना, इत्यादि छलमय कूट प्रयोग करना होनाधिकमानोन्मान है। कृत्रिम (बनावटी या मिलावट वाले) सुवर्णादिकके द्वारा वंचनापूर्वक व्यवहार करना प्रतिरूपक व्यवहार है। उपात्त (विवाहित) और अनुपात्त (अविवाहित) परस्त्रीके संगसे विरतरति होना अर्थात् उनके साथ काम सेवन नहीं करना और अपनी स्त्री सन्तोष धारण करना यह गृहस्थका विरताविरतरूप चौथा अणुव्रत है। इस स्वदारसन्तोषाणुव्रतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-परविवाहकरण इत्वरिकाऽपरिगृहीतागमन इत्वरिकापरिगृहीतागमन अनंगक्रीडा और कामतीब्राभिनिवेश । सातावेदनीय और चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे कन्याके पाणिग्रहको विवाह कहते है। अन्य पुरुषका विवाह करना परविवाहकरण नामका अतीचार हैं । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषसे प्राप्त हुए कलागुणको धारण करनेसे, चारित्रमोह-गत स्त्रीवेदके उदय-प्रकर्षसे और अंगोपांग नाम कर्मके उदयके साहाय्यसे जो पर-पुरुषोंके समीप जातीहै, उसे इत्वरिका कहते है । वेश्या होनेसे अथवा व्यभिचारिणी होनेसे पर-पुरुषोंके पास जानेवाली पति-रहित स्त्रीको इत्वरिका अपरिगहीता कहते हैं। उसमें गमन करना इत्वरिकाऽपरिगृहीतागमन है । जिस स्त्रीका एक पुरुष स्वामी है, वह परिगृहीता कहलाती है। ऐसी व्यभिचारिणी स्त्रीमें गमन करना इत्वरिका परिगृहीता गमन है । कामसेवनके अंग प्रजनन (लिंग) और योनि हैं। उनसे अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें अनेक प्रकारके प्रजनन विकारोंसे रति करना अनंगक्रीडा कहलाती हैं। कामसेवनके अति बढे हुए : Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रतवर्णनम् परिणामोऽनुपरतवृत्यादिः कामतीत्राभिनिवेश इति । धन-धान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृतपरिच्छेदो गृहीति पञ्चममणुव्रतम् । परिग्रहविरमणव्रतस्य पञ्चातिक्रमा भवन्ति-क्षेत्र वास्तु - हिरण्य- सुवर्ण-धन-धान्य- दासी दास- कुप्यमिति । तत्र क्षेत्र शस्याधिकरणम्, वास्तु आगारम्, हिरण्यं रूप्यादिव्यवहारप्रयोजनम्, सुवर्ण विख्यातम्, धनं गवादि, धान्यं ब्रीह्यादि, दासीदासं मृत्यस्त्रीपुरुषवर्गः, कुप्यं क्षौमकार्पासकोशेयञ्चन्दनादि । एतेषु एतावानेव परिग्रहो मम, नातोऽन्यस्य इति परिच्छिन्नप्रमाणात् क्षेत्रवास्त्वादिविषयादतिरेकोऽतिलोभवशात्प्रमाणातिरेक इति । रात्रान्नपानखाद्यलेह्येभ्यश्चतुभ्यः सत्त्वानुकम्पया विरमणं रात्रिभोजनविरमणं षष्ठमणुव्रतम् । वधावसत्याच्चौर्याच्च कामाद् ग्रन्थान्निवर्तनम् । पञ्चधाऽणुव्रतं राज्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥ १०॥ इत्यव्रतवर्णनम् । 10 परिणामको और निरन्तर कामसेवनमें लगे रहनेको काम तीव्राभिनिवेश कहते है । धनधान्य क्षेत्र आदि परिग्रहका इच्छाके वशसे परिणाम करना यह गृहस्थका पाँचवाँ अणुव्रत है। इस परिग्रहपरिमाणव्रत के पाँच अतीचार इस प्रकार है- क्षेत्र वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दासी दास और कुप्य । धान्यकी उत्पत्ति के स्थानको क्षेत्र कहते है । रहनेके घरको वास्तु कहते है । चांदी के रुपया आदि सिक्के जिनसे लेन-देनका व्यवहार चलता हैं, हिरण्य कहलाते है | सुवर्ण तो प्रसिद्ध ही है। गाय-भैंस आदि पशुओंको धन कहते हैं। गेहूँ चावल आदिको धान्य कहते है । सेविका स्त्रीको दासी और सेवक पुरुषको दास कहते है । वस्त्र, कपास, कोशा, चन्दन, वर्तन आदिको कुप्य कहते है । इन पाँचों प्रकार के पदार्थोंमें 'इत्तना ही मेरे परिग्रह है, इससे अधिक या अन्य वस्तुका नहीं' इस प्रकार क्षेत्र वास्तु आदि विषयक स्वीकृत प्रमाणसे अति लोभवश अधिक रखकर ग्रहण किय गये परिमाणका उल्लंघन करना परिग्रह परिमाणव्रतके अतीचार है । प्राणियों पर अनुकम्पाके भावसे रात्रिमें अन्न, पान, खाद्य और लेह्य इन चारों प्रकारके आहार करनेका त्याग करना सो रात्रिभोजनविरमण नामका छठा अणुव्रत है । जैसा कि कहा है-स्थूल हिंसासे, असत्यसे, काम सेवनसे और परिग्रहसे निवृत्त होना यह पाँच प्रकारका अणुव्रत है और रात्रि में भोजन नहीं करना यह छठा अणुव्रत हैं ॥ १० ॥ इस प्रकार अणुव्रतों का वर्णन समाप्त हुआ । २४१ 101 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्रावकाचार-संग्रह शीलसप्तकवर्णनम् स्थवीयसी विरतिमभ्युपगतस्य श्रावकस्य व्रतविशेषो गुणवतत्रयं शिक्षाबतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्युच्यते । दिग्विरतिः देशविरतिः अनर्थदण्डविरतिः सामायिकं प्रोषधोपवासः उपभोगपरिभोगपरिमाणं अतिथिसंविभागश्च । तत्र प्राची अपाची उवीची प्रतीची ऊध्र्व अधो विदिशश्चेति । तासां परिमाणं योजनादिभिः पर्वताविप्रसिद्धाभिज्ञानश्च ताश्च दुष्परिहारः क्षुद्रजन्तुभिराकुला अतस्ततो बहिर्न यास्यामीति निवृत्तिदिग्विरतिः । निरवशेषतो निवृत्ति कर्तुमशक्नुवतः शक्त्या प्राणिवधविरति प्रत्यागर्णस्यात्र प्राणनिमित्तं यात्रा भवतु. मा वा, सत्यपि प्रयोजनभूयस्त्वे परिमिताद्दिगवधेर्बहिर्न यास्यामीति प्रणिधानादहिंसाधणुव्रतधारिणोऽप्यस्य परिगणितादिगवधेर्बहिर्मनोवाक्काययोगैःकृतकारितानुमतविकल्पैहिसादिसर्वपापनिवृत्तिरिति महावतं भवति । दिग्विरमणवतस्य पञ्चातिचारा भवन्ति-ऊर्ध्वातिक्रमः अधोऽतिक्रमः तिर्यगतिक्रमःक्षेत्रवृद्धिः स्मृत्यन्तराधानं चेति । तत्र पर्वतमरुद्भूम्यादीनामारोहणादू,तिक्रमः।कूपावतरणादिरधोऽतिक्रमः। भूमिबिल-गिरिदरीप्रवेशादिस्तिर्यगतिक्रमः । प्राग्दिशो योजनादिमिः परिच्छिद्य पुनर्लोभवशात्ततोऽ अब तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप सात शीलवतोंका वर्णन करते है-स्थायी विरतिभावको स्वीकार करनेवाले श्रावकके तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतरूप जो व्रतविशेष धारण किये जाते है, उन्हें शीलसप्तक कहते है। इनके नाम इस प्रकार हैं-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति (ये तीन गुणव्रत है), सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागवत (ये चार शिक्षाव्रत है)। ___ इनमेंसे पहले दिग्विरति व्रतका वर्णन करते हैं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व दिशा, अधोदिशा और चारों (ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य) विदिशाएँ, इन दशों दिशाओंका योजनादिकसे अथवा पर्वत नदी आदि प्रसिद्ध चिन्होंसे जीवन-पर्यन्तके लिए परिमाण कर और यह विचार कर कि 'ये सब दिशाएँ जिनका परिहार करना दुःसाध्य है, ऐसे छोटे सूक्ष्म जन्तुओंसे भरी हुई हैं, अतः इस ग्रहण की गई सीमासे बाहर मै नहीं जाऊँगा' ऐसा नियम कर दिशाओंकी निवृत्ति करनेको दिग्विरतिव्रत कहते हैं । पूर्णरूपसे हिंसादि पापोंकी निवत्ति करने के लिए असमर्थ गहस्थके अनुसार प्राणिधात-त्यागके प्रति उद्यत होनेपर प्राणोंकी रक्षाके लिए यात्रा अर्थात जीवन निर्वाह हो, अथवा मत होवे, भारी प्रयोजनके आ जानेपर भी मैपरिमाण की गई दिशाओंकी मर्यादासे बाहर नहीं जाऊँगा, इस प्रकारकी प्रतिज्ञासे अहिंसादि अणवनधारी भी इस श्रावकके परिगणित दिशाओंकी मर्यादासे बाहिर मन-वचन-कायसे और कृतकारित-अनुमोदनसे हिंसादि समस्त पापोंको पूर्ण निवृत्ति होती है, अतः वहाँकी अपेक्षा उसके अणुव्रत भी महावत कहलाते हैं। - इस दिग्विरमण व्रतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-ऊर्ध्वातिक्रम, अधोऽतिक्रम,तिर्यगतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान । पर्वत और मरुभूमि (आकाश) आदि उर्ध्व प्रदेशोंके आरोहणसे ऊर्ध्व-दिशाकी सीमाका उल्लंघन करना ऊर्ध्वातिक्रम है । कूप-वावडी आदि अधोभागमें उतरनेसे सीमाका उल्लंघन करना अधोऽतिक्रम है । भूमिके बिल और पर्वतकी कन्दरा आदिमें : Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलसप्तकवर्णनम् घिकाकांक्षण क्षेत्रवृद्धिः । इदमिदं मया योजनादिभिरभिज्ञानं कृतमिति तदभावः स्मृत्यन्तराधानम् । दिग्विरमणव्रतस्य प्रमादान्मोहार व्यासङ्गादतीचारा भवति । मदीयस्य गृहान्तरस्य तडागस्य वा मध्यं मुक्त्वा देशान्तरं न गमिष्यामीति तन्निवृत्तिर्देशविरतिः । प्रयोजनमपि दिग्विरतिवद्देशविरतिव्रतस्य । तस्य पञ्चातिचारा भवन्ति-आनयनं प्रेष्यप्रयोगः शब्दानुपात: रूपानुपात: पुद्गलक्षेप इति । तत्रात्मना सङ्कल्पितदेशे स्थितस्य प्रयोजनवशाद्यत्किञ्चिदानयेत्याज्ञापनमानयनम् । परिच्छिन्न देशा बहिः स्वयमगत्वाऽन्य प्रेष्यप्रयोगनं वाभिप्रेत व्यापारसाधनं प्रेष्यप्रयोगः । व्यापारकरान् पुरुषानुद्दिश्याभ्युत्का सिकादिकरणं शब्दानुपातः । मम रूपं निरीक्ष्य व्यापारमचिरा निष्पादयन्तीति स्वाङ्गदर्शनं रूपानुपातः । कर्मकरानन्द्दिश्य लोष्ठपाषानादिनिपातः पुद्गलक्षेप इति । दिग्विरतिः सार्वकालिकी । देशविर तिथंथाशक्ति कालनियमेनेति । प्रयोजनं विना पापादान हेतुरनर्थदण्डः । स च पञ्चविधः - अपध्यानं पापोपदेशः प्रमादाचरितं हिंसाप्रदानं अशुभश्रुतिरिति । तत्र जयपराजयवधबन्धाङ्गच्छेदद सर्वस्व हरणादिकं कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् । पापोपदेशश्चतुविधः क्लेशवणिज्या तिर्यग्वणिज्या वधकोपदेशः प्रवेश करनेसे ( तथा पूर्वादि दिशाओंकी सीमित मर्यादासे बाहर जानेसे ) तिरछी मर्यादाका उल्लंघन करना तिर्यगतिक्रम है। पहले जो दिशाओंकी योजनादिके द्वारा परिमाण लिया था पुनः लोभके वशसे उससे अधिकको आकांक्षा करना क्षेत्रवृद्धि हैं । मैने योजनादिकोंके द्वारा अमुकअमुक दिशा में इतना - इतना परिमाण किया हैं, उस मर्यादाका विस्मरण हो जाना स्मृत्यन्तराधान है । दिग्विरमण व्रतके ये सब अतीचार प्रमादसे, मोहसे अथवा चित्तके अन्यत्र लगनेसे होते हैं । २४३ मैं अपने-अपने घरके मध्य भागको, अथवा तालाब ( उद्यान आदि) के मध्य भागको छोड कर ( इतने समय तक ) इससे बाहर अन्य देश में नहीं जाऊँगा, इस प्रकारकी देश-निवृत्तिको देशविरतिव्रत कहते हैं । इस देशविरतिव्रतका प्रयोजन भी दिग्विरतिव्रत के समान जानना चाहिए । इस व्रतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेत्र | अपने द्वारा संकल्पित देशमें अवस्थित रहते हुए भी प्रयोजनके वशसे ( मर्यादाके बाहरसे) 'तुम यह वस्तु ले आओ' इस प्रकारकी आज्ञा देकर वस्तुको मँगाना आनयन अतीचार हैं। सीमित देशसे बाहर स्वयं नहीं जाकर किसी अन्यको भेजकर ही अपना अभीष्ट व्यापार साधन करना प्रेष्यप्रयोग है। सीमित क्षेत्रसे कार्य करनेवाले पुरुषोंको लक्ष्य करके खाँसना, चुटकी आदि जाना शब्दानुपात है । सीमासे बाहर कार्य करनेवाले लोग मेरे रूपको देखकर लेरे कार्यको शीघ्र सम्पन्न कर देंगे, इस अभिप्रायसे अपने अगको दिखाना रूपानुपात हैं। सीमा बाहर काम करनेवालोंको लक्ष्य करके लोष्ठ पाषाण आदिको फेंक कर अपना अभिप्राय प्रकट करना पुद्गल क्षेप हैं। दिग्विरतिव्रत सार्वकालिक अर्थात् जीवन भरके लिए होता है और देशविरतिव्रत यथाशक्ति कालके नियमसे अल्पकालके लिए होता है । प्रयोजनके विना पाप-उपार्जनके कारणोंको अनर्थदण्ड कहते हैं । वह पाँच प्रकारका हैअपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति । अमुककी जीत और अमुककी हार कैसे हो, अमुक वध, बन्ध और अंगोंका छेदन कैसे हो, अमुक पुरुषका सर्वधनापहरण कैसे हो, इत्यादि मनसे चिन्तन करना अपध्यान अनर्थदण्ड हैं । पापोपदेश चार प्रकारका हैं-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेश और आरम्भकोपदेश । इस प्रदेशमें दासी और दास सुलभ है (अल्प Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ श्रावकाचार-संग्रह आरम्भकोपदेशश्चेति । तत्रास्मिन् प्रदेशे दास्यो दासाश्च सुलभास्तानमून वेशानीत्वा विक्रय कृते महानर्थलामो भविष्यतीति क्लेशवणिज्या । गोमहिष्यादीन् पशूनत्र गृहीत्वाऽन्यत्र देशे व्यवहारे कृते सति भूरिवित्तलाम इति तिर्यगवणिज्या । वागुरिक-शौकरिक-शाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुन्तप्रभूतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति वचनं वधकोपदेशः । आरम्भकेभ्यः कृषीबलादिभ्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यारम्भोऽनेनोपायेन कर्तव्य इत्याख्यानमारम्भकोपदेशः । इत्येवं प्रकारं पापसंयुक्त वचनं पापोपदेशः। प्रयोजनमन्तरेण भूमिकुट्टनसलिलसेचनाग्निविध्यापनवातप्रतिघातवनस्पतिच्छेदनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम् । विषशास्त्राग्निरंज्जुकशादण्डदिहितोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम् । रागादिप्रवृद्धितो दुष्टकथाश्रवणश्रावशिक्षणव्यापृतिरशुभ तिरिति । एतस्मादनर्थदण्डाद्विरति: कार्या। अनर्थदण्डविरमणव्रतस्य पञ्चातिचारा भवन्ति-कन्दर्पः कौकुच्यं मौखयं असमीक्ष्याधिकरणं उपभोगपरिभोगानर्थक्यमितिाचारित्रमोहोदयापादितादागोद्रेकाद्योहास्यसंयुक्तोऽशिष्ट वाक्प्रयोगः सः कन्दर्पः । रागस्य समादेशाद्धास्यवचनमशिष्टवचनमित्येतदुभयं परस्मिन् दुष्टेन कायकर्मणा युक्तं मल्यमें मिलते है। उन्हें अमुक देशोंमें ले जाकर बेंचनेपर भारी धनलाभ होगा, इस प्रकारका उपदेश देना क्लेशवणिज्या है। गाय-भैंस आदि पशुओंको यहाँ पर खरीद कर अन्य देशमें बेंचने पर भारी धन-लाभ होगा, ऐसा उपदेश देना तिर्यग्वणिज्या हैं । जाल बिछाकर मग आदिके पकड़ने वालोंसे यह कहना कि इस देशमें मृग आदि बहुत हैं, सूकर पकडने वालोंसे यह कहना कि अमुक देशमें सूकर बहुत पाये जाते है और पक्षी पकडने वालोंसे यह अहना कि अमुक प्रदेशमें पक्षी आदि बहुत है, ऐसे कहनेको वधकोपदेश कहते हैं। खेती आदिका आरम्भ करनेवाले किसान आदिकोंसे यह कहना कि भूमि इस प्रकार जोतना चाहिए, पानी इस प्रकार सींचना चाहिए, अग्नि इस प्रकार लगाना चाहिए, पवनसे अन्नकी उडावनी इस प्रकार से करना चाहिए और पेडोंकी इस प्रकारसे काट-छाँट करना चाहिए, इस प्रकारका उपदेश देना आरम्भकोपदेश कहलाता हैं। इन चारों प्रकारके,तथा इसी प्रकारके पाप-संयुक्त वचन कहना पापोपदेश अनर्थदण्ड है। प्रयोजनके बिना ही भूमिको कुटना-खोदना, जलका, सींचना, अग्निका बुझाना, पवनका प्रतिघात करना और वनस्पतिका छेदना आदि पाप कार्य करनेको प्रमादाचरित कहते है। विष, शास्त्र, अग्नि, रस्सी, चावक, दण्डा आदि हिंसाके उपकरण देना हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड हैं। राग-द्वेष आदिकी वृद्धिके कारण होनेसे खोटी कथाओंका सुचना, सुनाना, शिक्षण देना और उनका प्रसार करना अशुभश्रति हैं। इस प्रकारके अनर्थदण्डसे विरति करना चाहिए। ऐसे पाँच प्रकारके अनर्थदण्डोंका त्याग करना अनर्थदण्डव्रत है। अनर्थदण्ड विरमणव्रतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-कन्दर्प, कौत्कुच्य,मौखर्य, असमीक्ष्या. धिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य । चारित्रमोहके उदयसे होनेवाले रागके उद्रेकसे जो हास्यमिश्रित अशिष्ट वचन बोलना सो कन्दर्प हैं। दूसरे मनुष्य पर कायकी खोटी चेष्टाको दिखाते हए रागसे समाविष्ट हॅसीके वचन बोलना, अशिष्ट वचन बोलना, अथवा दोनों ही कार्य करना कौत्कूच्य कहलाता है। अशालीनरूपसे जो कुछ भी अनर्थक बहुत बकवाद करना, सो मौखर्य है। मन, वचन और कायके भेदसे असमीक्ष्याधिकरण तीन प्रकारका हैं। दूसरेका अनर्थ करनेवाले काव्य आदिका चिन्तवन करना मानसअसमीक्ष्याधिकरण हैं । निष्प्रयोजन कथाओंका व्याख्यान करना अथवा अन्यको पीडाकारी वचन कहना वाचनिक असमीक्ष्याधिकरण है। प्रयोजनके विना - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलसप्तकवर्णनम् २४५ कौत्कुच्यम् । अशालीनतया यत्किञ्चनानर्थकं बहुप्रलपनं तन्मौखर्यम् । असमीक्ष्याधिकरणं त्रिविधं. मनोवादकायविषयभेदात् । तत्र मानसं परानर्थककाव्यादिचिन्तनम् । वाग्भवं निष्प्रयोजननकथाव्याख्यानम,परपीडाप्रधानं यत्किञ्चनवक्तत्वं च । कायिक प्रयोजनमन्तरेण गच्छंस्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्ताचित्तपत्रपुष्पफलच्छेदनभेदनकुट्टनक्षेपणादीनि कुर्यात्; अग्निविषक्षारादिप्रदानं चारभेत । इत्येवमादि तदेतत्सर्वमसमीक्ष्याधिकरणम् । यस्य यावतार्थेनोपभोगपरिभोगौ परिकल्पितौ तस्य तावानेवार्थ इत्युच्यते । ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यं तदुपभोगानर्थक्यम् । सम्यगेकत्वेनायनं गमनं समयः, स्वविषयेभ्यो विनिवृत्त्य कायवाङ्मनःकर्मणामात्मना सह वर्तनाद् द्रव्यार्थेनारमन एकत्वगमनमित्यर्थः । समय एव सामायिकम्, समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । तच्च नियतकाले नियतदेशे च भवति । नियक्षेपमेकान्त भवनं वनं चैत्यालयादिक च देशं मर्यादीकृत्य केशबन्धं मुष्टि बन्धं वस्त्रबन्धं पर्यङ्कमकरमुखाद्यासनं स्थानं च कालमवधि कृत्वा शीतोष्णादिपरीषहविजया उपसर्गसहिष्णुमौंनी हिंसादिभ्यो विषयकषायेभ्यश्च विनिवृत्त्य सामायिके वर्तमानो महाव्रती भवति । हिंसादिषु सर्वेष्वनासक्तचित्तोऽभ्यन्तरप्रत्याख्यानसंयमघातिकर्मोदयजनितमन्दाविर तिपरिणामे सत्यपि महाव्रतमित्युपचर्यते । एवं च कृत्वाऽभाव्यस्यापि चलते हुए, खडे हुए या बैठे-बैठे ही सचित्त-अचित्त पत्र-पुष्प-फलादिका छेदन-भेदन करना,कटना, फेंकना आदि कार्य करना, अग्नि, विष, क्षार आदिको देने और बतानेका आरम्भ करना, तथा इसी प्रकारके और भी जितने अनर्थ कार्य हैं उनका करना सो वह सर्व असमीक्ष्याधिकरण हैं। जिस मनुष्यका जितने धन या वस्तुओंसे उपभोग-परिभोग हो सकता है, उतना वह उसके लिए 'अर्थ' कहा जाता है। उससे अधिक अन्यका संग्रह करना यह उसका आनर्थक्य हैं। इस प्रकार आवश्यकतासे अधिक उपभोग-परिभोगको वस्तुओंका संग्रह करना उपभोगपरिभोगानर्थक्य कहलाता है। इस प्रकार अनर्थदण्डव्रतके अतीचारोंका वर्णन किया। अब सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैं-सम्यक प्रकारसे आत्माके एकत्वके साथ गमन करना, अर्थात् आत्मामें तल्लीन होना समय हैं। मन-वचन-काकी क्रियाओंका अपने-अपने विषयोंसे निवृत्त होकर आत्माके साथ वर्तन करनेको समय कहते हैं। अर्थात् द्रव्यार्थरूपसे आत्माका एकत्वगमन या एकाग्र होना समय कहलाता हैं । इस एकत्वगमन रूप समयको ही सामायिक कहते हैं । अथवा समय अर्थात् आत्मस्वरूपकी प्राप्ति जिसका प्रयोजन हो, उसे सामायिक कहते हैं । यह सामायिक नियतकाल में नियतदेशमें किया जाता है। विक्षेप-रहित एकान्त भवन, वन या चैत्यालय आदि योग्य देशको मर्यादा करके. केशबन्ध, मुष्टिबन्ध, वस्त्रबन्ध, पर्यङ्कासन, मकरमुखासन आदि आसन, स्थान और कालको मर्यादा करके शीत-उष्ण आदि परीषहोंको जीतनेवाला, आनेवाले उपसर्गोको सहन करनेवाला, मौनधारक,हिंसादिकपापोंसे और विषय-कषायोंसे निवृत्त होकर सामायिक में वर्तमान श्रावक महाव्रती होता हैं। यद्यपि उसके भीतर संयमका घात करनेवाले प्रत्याख्यानावरणकषायरूप कर्मके उदय-जनित मन्द अविरति परिणाम पाये जाते है, तथापि हिंसादिक सर्व सावद्ययोगमें अनासक्त चित्त होनेसे उसके अणुव्रतोंको उपचारसे महाव्रत कहा जाता है । इस प्रकार सामायिक करके अन्तरंगमें असंयम भाववाले और बाहर निर्ग्रन्थ लिंग धारण करनेवाले, तथा ग्यारह अंगोंका अध्ययन करनेवाले अभव्य जीवके भी उपरिम (नवम) अवेयक विमानवासी अहमिंद्रोंमें उत्पन्न Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्रावकाचार-संग्रह निग्रंथलिङ्गधारिणएकादशागाध्ययिनो महावतपरिपालनादसंयममावस्याप्यपरिमप्रैवेयकविमानवासितोपपन्ना भवति । एवं भव्योऽपि निर्ग्रन्थरूपधारी सामायिकवशावहमिन्द्रस्थानवासी भवति चेत् किं पुनःसम्यग्दर्शनपूतात्मा सामायिकमापन्न इति । सामायिकवतस्य सर्वसावग्रयोगप्रत्याख्यानस्य पञ्चातीचारा भवन्ति-कायदुःप्रणिधानं वाग्दुःप्राणिधानं मनोदुःप्रणिधानं अनावरः स्मृत्यनुपस्थापनं चेति तत्र । दुष्टं प्रणिधानं दुःप्रधानम्, अन्यथा वा प्रणिधानं दुःप्रणिधानम् . क्रोधादिपरिणामवशाददुष्टं प्रणिधानं भवति । शरीरावयवानाम निमृतावस्थामं कायदुःप्रणिधानम् । वर्णसंस्कारे भावार्थे चागमकत्वं चापलादि वाग्दुः गणिधानम् । मनसोऽपितत्वं मनोदुःप्रणिधानम् । इति कर्तव्यताँ प्रत्यसाकल्याउथ कथञ्चित्प्रवृत्तिरनत्साहोऽनादरः । अनैकाग्यमसमाहितमनस्कता स्मत्यनुपस्थापनम् । अथवा रात्रिदिवं प्रमादिकस्य सञ्चिन्त्यानुपस्थापनं स्मृत्यनुपस्थानम् । मनोदुःप्रणिधान-स्मृत्यनुपस्थानयोरयं भेदः- क्रोधाद्यावेशासामायिकौदासीन्येन वाऽचिरकालमवस्थापनं मनसो मनोदुःप्रणिधानम् । चिन्ताया: परिस्पन्दनादैकाग्येणानवस्थापनं स्मृत्यनुपस्थापनमिति विस्पष्टमन्यत्वम् । प्रोषधः पर्वपर्यायवाची । शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तीन्सुक्यानि पञ्चापोन्द्रियाणि उपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवासः : उक्तं च उपत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः वसन्ति यत्र स प्राजक्पवासोऽभिधीयते ॥११॥ होना संभव होता है । इसी प्रकार द्रव्यनिसर्ग्रन्थरूपधारी भव्य भी सामायिकके वशसे अहमिन्द्रोंके स्थानका निबासी होता है । फिर सम्यग्दर्शनसे पवित्र आत्मा वाला यदि कोई निर्ग्रन्थ लिंग धारणकर सामायिकको प्राप्त हो, तो उसका क्या कहना ; वह तो मोक्षको ही प्राप्त करेगा। ___ सार्वसावद्ययोगके परित्यागवाले इस सामायिकव्रतके पांच अतीचार इस प्रकार है-कायदुःप्रणि धान, वाग्दु प्रणिधान, मनोदुःप्रणिधान, अनादर और स्मृत्युपस्थापन।खोटे उपयोगको दुःप्रणिधान कहते हैं। अथवा अन्यथा प्रवृत्तिको दुःप्रणिधान कहते हैं। क्रोधादिकषायरूप खोटे परिणामोके वशसे दष्ट प्रणिधान होता हैं। शरीरके हस्त-पाद आदि अंगोंको स्थिर न रखना कायदुःप्रणिधान हैं । शब्दोंके उच्चारणमे और उसके भावरूप अर्थमें अजानकारी और चपलता आदि रखना वाग्दुःप्रणिधान हैं । सामायिक करने में मनका उपयोग न लगाना मनोदुःप्रणिधान हैं । सामायिकमें करने योग्य कार्योके प्रति अपूर्णता रखन।, उनमें जिस किसी प्रकार पूरा करनेकी प्रवृत्ति होना, सामायिक करने में उत्साह न होना अनादर हैं । सामायिक करते समय चित्त एकाग्र न रखना, अथवा चित्त में समाधानता न रखना, अथवा रात-दिन प्रमाद-युक्त रहनेसे बोलते या चिन्नवन करते हए पाठ या अर्थको भूल जाना स्मृत्यनुपस्थापन कहलात है। मनोदुःप्रणिधान और स्मृत्यनुपस्थापनमें यह भेदहैं-कि क्रोधादिके आवेशसे अथवा सामायिक करने में उदासीनता रखनेसे अल्पकाल सामायिकमें मनका लगना मनोदुःप्रणिधान हैं । और चिन्ताके विकल्प उठते रहनेसे चित्तका एकाग्रतासे स्थिर न रहना स्मृत्यनुपस्थापन है । इस प्रकार दोनों अतीचारोंमे भिन्नता स्पष्ट हैं। .. प्रोषध शब्द पर्वका पर्यायवाची हैं । कर्ण आदि पाँचों इन्द्रियाँ अपने शब्द आदि विषयोंके ग्रहणके प्रति उत्सुकता छौड्कर जब आत्मामें आकर निवास करती है. तब उसे उपवास कहते है। ____ कहा भी हैं-सब इन्द्रियाँ अपने विषयभुत कार्योसे निवृत्त होकर और आत्मामें आकर जब निवास करे, तब वह ज्ञानियोंके द्वारा उपवास कहा जाता है ॥११॥ . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलसप्तकवर्णनम् २४७ पर्वणि चतुविधाऽऽहारनिवृत्तिः प्रोषधोपवासः। निरारम्मः पावकः स्वशरीरसंस्कारकारण. स्नानगन्ध्रमाल्याभरणादिभिर्भावरहितः शचाववकाशे साधुनिवासे चैत्यालये स्वप्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणबावणचिन्तनावहितान्तःकरण. सन्नुपवसेत् । .. प्रोषधोपवासस्य पञ्चातिचारा भवन्ति- अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गः अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितावानं अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितसंस्तरोपक्रमणं अनादरः स्मृत्यनुपस्थान चेति । तत्र जन्तवः सन्ति, न सन्ति वेति प्रत्यवेक्षणं चक्षषोापारो मदुनोपकरनेन यत् क्रियते प्रयोजनं तत्प्रमार्जनं अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितायां भुवि मूत्रपुरीषोत्सर्गोऽप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गः । अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्याहंदाचार्यादिपूजोपकरणस्य गन्धमाल्यधूपादेरात्मपरिधानाद्यर्थस्य वस्त्रपात्रादेश्चादानमप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादानम् । अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्य प्रावरणादेः सं तरणस्योपक्रमणमप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितसंस्तरोपक्रमणम् । क्षत्पीडितत्वादावश्यकेष्वनुत्साहोऽनादरः । स्मृत्यनुपस्थानं व्याख्यातमेव । उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यत इत्युपभोगः अशनपानगन्धमाल्यादिः । सकृद् भुक्त्वा पुनरपि भुज्यत इति परिभोगः, आच्छादनप्रावरणालङ्कारशयनासनगृहयानवाहनादिः । तयोः परिमाणमुपभोगपरिमोगपरिमाणम् ।मोगपरिसंख्यानं पञ्चविधम्-त्रसघातप्रमाद-वहुवधानिष्टानुपसेव्यविषय पर्वके दिन चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवास है। पर्वके दिन श्रावक आरम्भ-रहित होकर और अपने शरीरके संस्कारके कारणभूत स्नान-गन्ध-माला-आभूषण आदिसे रहित होकर किसी पवित्र स्थान पर, साधुओंके निवास स्थलपर, चैत्यालयमें, अथवा अपने प्रोषधोपवासके घरमें धर्म-कथाओंके सुनने-सुनाने में और तत्त्व-चिन्तवन में मनको लगाता हुआ उपवास करे। प्रोषधोपवासके पांच अतीचार इस प्रकार है-अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थापन । यहाँ जीव है, अथवा नहीं, इस प्रकार आँखसे देखने को प्रत्यवेक्षण कहते है। किसी कोमल बुहारी आदि उपकरणसे स्थानके शुद्ध करने या बुहारनेको प्रमार्जन कहते है। बिना देखी बिना शोधी भूमिपर मल-मूत्रको छोडना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग कहलाता हैं । अरहंत और आचार्यादि की पूजाके उपकरण, गन्ध, माला, धूप आदि सामग्री और अपने पहनने आदिके वस्त्र-पात्र आदिका बिना देखे बिना शोधे ग्रहण करना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान है। बिना देखे बिना शोधे ओढने और बिछानेके वस्त्र-बिस्तर चटाई आदिका उपयोग करना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितसंस्तरोपक्रमण हैं। भूखसे पोडित होनेके कारण उपवासके दिन करने योग्य आवश्यकोंमें उत्साह न रखना अनादर है । स्मृत्यनुपस्थापनकी व्याख्या सामायिकके अतीचारोंमें पहले कर ही चुके है। जो प्राप्त करके आत्मसात् कर भोगे जायें ऐसे भोजन, पान, गन्ध, माला आदि पदार्थ उपभोग कहलाते है। एक बार भोग करके फिर भी जो भोगे जावें, ऐसे ओढने बिछानेके वस्त्र, अलंकार, शयन, आसन, गृह, यान और वाहन आदि पदार्थ परिभोग कहलाते है। उनका परिमाण करना उपभोगपरिमाण हैं। भोगपरिसंख्यान सघात, प्रमाद, बहुवध, अनिष्ट और अनुपसेव्य विषयके भेदसे पाँच प्रकारका है-त्रसघातके प्रति निवृत्त चित्तवाले श्रावकको मधु और मांसका भक्षण सदाके लिये छोड देना चाहिये । मद्यका सेवन मोहित करके कार्य और अकार्यके विवेकको नष्ट कर देता है,अतएव प्रमादको दूर करनेके लिए उस मद्यका त्याग करना चाहिये। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्रावकाचार-संग्रह भेदात् । तत्र मधुमासं सदा परिहर्तव्यं सघातं प्रतिनिवृत्तचेतसा ! मद्यमुपसेव्यमान कार्याकार्यविवेकसम्मोहकरमिति तद्वर्जनं प्रमादविरहाय । केतक्यर्जुनपुष्पादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानानि, आर्द्रश्रृङ्गवेरमूलकहरिद्रानिम्बकुसुमादीन्यनन्तकायव्यपदेशाहा॑णि । एतेषामुपसेवनेन बहुघातोऽल्पफलमिति तत्परिहारः श्रेयान् । यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टानिवर्तनं कर्तव्यम् । न हि व्रतमभिसन्धिनियमाभावे सतीष्टानामपि चित्रवस्त्रवेषाभरणादीनामनपसेव्यानां परित्यागः कार्यों यावज्जीवम् । अथ न कालपरिच्छेवेन वस्तुपरिमाणेन च शक्त्यनुरूपं निवर्तनं कार्यम् । उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतस्यातीचाराः पञ्च भवन्ति-सचित्ताहारः सचित्तसम्बन्धाहारः सचित्तसन्मिश्राहार:, अभिषवाहारः दुष्पक्वाहारश्चेति । तत्र चेतनावद्रव्यं सचित्तं हरितकायः, तदभ्यवहरणं सचित्ताहारः । सचित्तवतोपश्लिष्ट सचित्तसम्बद्धाहारः । सचित्तेन व्यतिकीर्णः सचित्तसम्मिश्राहारः । सौवीरादिद्रवो वा वृष्यं वाऽभिषवाहारः । सान्तस्तन्दुलभावेनातिक्लेदनेन वा दुष्ट: पक्वो दुःपक्वाहारः । सम्बन्ध मिश्रयोरयं भेदः-संसर्गमात्र सम्बन्धः, सूक्ष्मजन्तुव्याकीर्णत्वाकेतकी, अर्जुन पुष्प आदि अनेक त्रसजन्तुओंके योनिस्थान हैं, गीला अदरक, मूली, हलदी, निम्।पुष्प आदि अनन्तकायवाले पदार्थ हैं । इतके सेवन करने में बहुत जीवोंका घात हैं और फल अल्प प्राप्त होता है,इसलिये इनका परिहार करना ही श्रेयस्कर है । सवारीके यान वाहन और आभूषण आदि पदार्थोमें जितनेसे कार्य चले, उतने रखना ही इष्ट हैं, उससे अधिक अन्य पदार्थ अनिष्ट हैं, अतः इस व्रतधारीको अनिष्टसे निवृत्ति करना चाहिये । अभिप्रायपूर्वक नियमके अभावमें किसी वस्तुका सेवन नहीं करना व्रत नहीं कहलाता है,अतः अपने लिए इष्ट भी अनेक जाति के वस्त्र, विविध पोशाकें और अनेक प्रकारके आभूषण आदि जो प्रतिदिन सेवन करने में नहीं आते है, उनका परित्याग भी यावज्जीवनके लिए कर देना चाहिये । यदि यह सभव न हो तो कालकी मर्यादाके साथ वस्तुओंका परिमाण करते हुए शक्तिके अनुसार अनुपसेव्यसे निवृत्ति अवश्य करना चाहिये। उपभोगपरिभोग परिमाणवतके पाँच अतीचार इस प्रकार हैं-सचित्ताहार,सचित्तसम्बन्धाहार सचित्तसन्मिश्राहार अभिषवाहार और दुःपक्वाहार । चेतनावाली हरितकायिक वनस्पति आदि द्रव्यको सचित्त कहते हैं । सचित्त वस्तुको खाना सचित्ताहार । सचित्त वस्तुसे लिपटा हआ या सचित्त पत्र आदि पर रखा हुआ आहार सचित्त सम्बद्धाहार है। सचित्तसे मिश्रित आहार सचित्तसन्मिश्राहार है । सौवीर (सिरका अर्क आसव) आदि तरल और पौष्टिक पदार्थोको अभिषवाहार कहते हैं । भीतर चावल रूपवाला अर्थात् अर्धपक्व अथवा अधिक पक जानेसे जला हुआ दुष्ट पक्व आहार दुःपक्वाहार कहलाता हैं । सचित्त सम्बन्ध और सचित्तमिश्रमें यह भेद हैं कि जिस आहारका सचित्त पत्रादिके साथ केवल संसर्ग हुआ है, वह सचित्त सम्बन्धाहार कहलाता हैं और जिस आहारमें हरी मिर्च या हरे धनिये आदिके छोटे-छोटे सचित्त टुकड़ोंके सूक्ष्म जीव इस प्रकार मिल गये हों कि जिनका अलग करना शक्य नहीं है, ऐसे आहारको सचित्तसन्मिश्राहार कहते है। इनमेंसे प्रारम्भके तीन प्रकारके आहारोंके खाने पर सचित्त वस्तुका उपयोग होता है, चौथे प्रकारके आहार करने पर इन्द्रियोंमें मदकी वृद्धि होती हैं और पंचम प्रकारके Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलसप्तकवर्णनम् २४९ द्विभागीकर्तुमशक्य: सन्मित्रः । एतेषामभ्यवहरणे सचित्तोपयोग इन्द्रियमदवृद्धिर्वातादिप्रकोपो वा स्यात् । तत्प्रतीकारविषये पापलेपो भवति । अतिथयश्चैनं परिहरेयरिति । संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः । अथवा नास्य तिथिरस्तीत्यतिथिः, अनियतकालगमनमित्यर्थः । अतिथये संविभागोऽतिथिसंविभागः । स चतुविध:-मिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रय मेदात् । उक्तं हि-प्रतिग्रहोच्चस्थाने च पादक्षालनमर्चनम् । प्रणामो योगशुद्धिश्च भिक्षाशुद्धिश्च ते नव ।।१२।। उक्तं हि श्रद्धा शक्तिरलब्धत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा। इति श्रद्धादयः सप्त गुणा:स्युप्रेहमेधिनाम् ॥१३॥ एवंविधनवविधपुण्यः प्रतिपत्तिकुशलेन सप्तगुणैः समन्वितेज मोक्षमार्गमभ्युद्यतायातिथये संयमपरायणाय शुद्धचेतसाऽऽश्चर्यपञ्चकादिकमनिच्छता निरवद्या भिक्षा देया। धर्मोपकरणानि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रोपबृंहणानि दातव्यानि । औषधं ग्लानाय वातपित्तश्लेष्मप्रक पहताय योग्य. मपयोजनीयम । प्रतिश्रयश्च परमधर्मश्रद्धया प्रतिपादयितव्य इति । अतिथिसंविभागवतस्य पञ्चातिचारा भवन्ति सचित्तनिक्षेपः सचिलपिधानं परव्यपदेशः मात्सर्य कालातिक्रमश्चेति । तत्र सचित्ते पद्मपत्रादौ निधानं सचित्तनिक्षेपः । सचित्तेनावरणं आहार करने पर वात आदि दोषका प्रकोप हो सकता हैं, और फिर उसके प्रतीकार करने में पापका लेप होता है, इसलिये अतिथिजनोंको इस प्रकारके आहारोंका परिहार करना चाहिये । जो संयमका विनाश नहीं करते हुए अर्थात् संयमकी रक्षा करते हुए सदा विहार करते रहते हैं, उन्हें अतिथि कहते हैं । अथवा जिसको तिथि निमत नहों, अर्थात् अनियत कालमें जो गमन करें, उन्हें अतिथि कहते हैं । एसे अतिथिके लिए आहार आदिका जो बिभाग किया जाता है. वह अतिथिसंविभाग कहलाता हैं। यह अतिथिसंविभाग भिक्षा उपकरण औषधि और प्रतिश्रय ( निवास स्थान वसतिका आदि) के भेदसे चार प्रकारका है। अतिथिको भिक्षा (आहार) देनेके विषयमें कहा गया हैं कि साधुको आता हुआ देखकर उसे पडिगाहे, ऊँचे स्थान पर बिठावे, पाद-प्रक्षालन करे.. पूजन करे, मन-वचन-काय इन तीनों योगोंकी शुद्धि कहे और आहार शुद्धि कहे ॥१२॥ दाताके गुण इस प्रकार कहे गये हैं-श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया और भमा ये सात गुण गृहस्थोंके होने चाहिये ॥१३॥ इस प्रकार उपर्युक्त नव प्रकारके पुण्योंसे नवधा भक्ति करने में कुशल और सात गणोंसे संयुक्त श्रावकको मोक्षमार्ग पर चलने में उद्यत, और संयम-परायण अतिथिके लिएशद्ध चित्तसे पंचाश्चय आदि फलकी इच्छा न करते हुए निर्दोष भिक्षा देना चाहिये । तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको बढानेवाले धर्मोपकरण पीछी शास्त्र कमण्डलु आदि देनी चाहिये । वात-पित्त-कफके प्रकोपसे पीडित रोगी साधुको योग्य औषधि देनी चाहिये । तथा उनके ग्राममें आने पर परमश्रद्धासे वसतिका आदिका आश्रय प्रदान करना चाहिये। __इस अतिथिभविभागवतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान परव्यपदेश मात्सर्य और काला तक्रम । देने योग्य आहारको सचित्त कमलपत्र आदिपर रखना Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्रावकाचार-संग्रह सचित्तपिधानम् । अयमत्र दाता दीयमानोऽप्ययमस्येति समर्पणं परव्यपदेशः । प्रयच्छतोऽपि सत आवरमन्तरेण दानं मात्सर्यम् । अनगाराणामयोग्ये काले भोजनं कालातिक्रम इति। पात्रदानं स्वस्य परस्य चोपकारः । स्वोपकारः पुण्यसञ्चयः परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः । तच्च दानं पारम्पर्येण मोक्षकारणं साक्षात्पुण्यहेतुः । विधिविशेषाद् द्रव्यविशेषाद् दातृविशेषात पात्रविशेषाद् दानविशेषः । तत्र प्रतिग्रहोच्चदेशस्थापनमित्येवमादीनां क्रियाणामादरेण करणं विधिविशेषः । दीयमानेऽन्नादी प्रतिगृहीतुस्तपःस्वाध्यायपरिवृद्धिकरणत्वाद् द्रव्यविशेषः । प्रतिगहीतजनेऽभ्यस्ततया त्यागोऽविषादो दित्सतो वदतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः,कुशलाभिसन्धितावसधारा-सुरप्रशंसादिदृष्टफलानपेक्षिता,निरुपरोधत्वमनिदानत्वंश्रद्धादिगुणसमन्वितत्वमित्येवमादि बातृविशेषः । मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः । ततश्च फलविशषः। सत्पात्रोपगतं दानं सुक्षेत्रगतबीजवत् । फलाय यदपि स्वल्पं तदनल्पाय कल्पते ॥१४॥ तथा च दानफलविशेषेणोत्तमभोगभूमौ दशविधकल्पवृक्षजनितसुखफलं श्रीषणोऽन्वभूत् । तथा च दानानुमोवेन रतिवररतिवेगाख्यं कपोतमिथुनं विजयार्धप्रतिबद्धगान्धारविषयसुसीमासचित्तनिक्षेप है। आहारको सचित्त पत्रादिसे ढकना सचित्तपिधान है। इस आहारका दाता यह है. और दिया जानेवाला आहार इस अमुक पुरुषका हैं, ऐसा कहकर आहार देना परव्यपदेश है। आहार देते हुए भी आदरके विना देना मात्सर्य है। साधुओंको अयोग्यकाल में भोजन देने के लिए खडे होना कालातिक्रम अतीचार है। पात्रदान अपना भी उपकारक है और परका भी उपकारक हैं । दान देने पर पूण्यका संचय होना अपना उपकार है और अतिथिके सम्यग्ज्ञान आदिकी वृद्धि होना यह परका उपकार हैं । यह दान परम्परासे मोक्षका कारण है और साक्षात् पुण्यका कारण हैं। विधिकी विशेषतासे, द्रव्यकी विशेषतासे, दाताकी विशेषतासे और पात्रकी विशेषतासे दानमें विशेषता हो जाती है। प्रतिग्रह, उच्चस्थान पर स्थापन इत्यादि पूर्वोक्त क्रियाओंका आदरसे करना विधिकी विशेषता है। भिक्षामें दिया जानेवाला अन्न आदि यदि लेनेवाले पात्रके तप, स्वाध्याय आदिकी वद्धि करे, तो यह द्रव्यकी विशेषता कहलाती हैं। आहार लेनेवाले साधुको अभ्यस्त रीतिसे दान देना, विषाद नहीं करना, देनेके इच्छुक, देनेवाले और दे रहे दाताके प्रति प्रेमभाव रखना,अपने दानकी कशलताकी प्रख्याति चाहना, रत्न-सुवर्णादिके वर्षा की, और देवों द्वारा प्रशंसा आदि इहलौकिक फलोंकी अपेक्षा न रखना, किसीको दान देनेसे नहीं रोकना, निदान नहीं करना और श्रद्धा आदि गणोंसे युक्त होना इत्यादि दाताकी विशेषता है। साधुमें मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गणोंका संयोग होना यह पात्रकी विशेषता है । इन विशेषताओंसे युक्त दानके फलमें भी विशेषता होती हैं। . जैसे उत्तम क्षेत्रमें बोया गया छोटा-सा भी बीज भारी फलको देता है, इसी प्रकार सत्पात्र. में दिया गया अल्प भी दान अनल्प (भारी) फलके लिए होता है अर्थात् महान् फल देता हैं ।। १४॥ देखो-श्रीषेण राजाने दानके फलकी विशेषतासे उत्तम भोगभूमि में दश प्रकारके कल्पवक्षजनित सुखोंका फल भोगा। तथा दानकी अनुमोदनासे रतिवर कपोत और रतिवेगा कपोती नामके कपोत युगल मेंसे विजयाध पर्वतपर अवस्थित गान्धारदेशकी सुसीमा नगरीके राजा आदित्य : Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ शीलसप्तकवर्णनम् नगराधिपतेरादित्यगते रतिवरवरो हिरण्यवर्मनामा नन्दनोऽभूत् । तस्मिन्नेव गिरी गिरिविषये भोगपुरपतेर्वायुरथस्य रतिवेगवरी प्रभावत्याख्या तनयाऽभूत् । एवं हिरण्यवर्मा प्रभावती च जातिकुलसाधित विद्याप्रमावेन सुखमन्वभूताम् । उक्तहिंसादिपञ्चदोषविरहितेन द्यूतमद्यमांसानि परिहर्तव्यानि । तथा चोक्तं महापुराणे हिसाऽसत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मासान्मधाद्विरतिर्गृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ।।१५।। कितवस्य सदा रागद्वेषमोहवञ्चनानतानि प्रजायन्ते, अर्थक्षयोऽपि भवति, जनेष्वविश्वसनीयश्च । सप्तव्यसनेषु प्रधानं द्यूतं तस्मात्तरिहर्तव्यम् । तथा च-भरतेऽस्मिन् कुलालविषये श्रावस्तिपुराधिपतिः सुकेतुमहाराजो महाभोगी चूतव्यसनाभिहतः स्वकीयं कोशं राष्ट्रमन्तःपुरंच हारयित्वा महादुःखाभिभूतोऽभूत् । तथा च युधिष्ठिरोऽपि धूतेन राज्या भ्रष्टः कष्टां दशामवाप। मांसानिवृत्तिरहिसाव्रतपरिपालनार्थम् । मांसाशिनं साधवो विनिन्दन्ति, प्रेत्य च दुःखभाग् भवति । तथा चान्यरुक्तम् मांस भक्षयति प्रेत्य यत्य मांसमिहादम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥१६॥ गतिके रतिवर कपोतके हिरण्यवर्मा नामका पुत्र हुआ। और उसी ही पर्वतपर गिरिदेशमें भोगपुर के स्वामी वायुरक्षके वह रतिवेगा कपोती प्रभावती नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । पुनः हिरण्यवर्मा और प्रभावतीने जाति विद्या,कुल विद्या और साधित विद्याओंके प्रभावसे जीवन भर सुख भोगे। उपर्युक्त हिंसादि पाँच पापोंसे रहित श्रावकको द्यूत, मद्य और मांसका भी परिहार करना चाहिए। जैसा कि महापुराण में कहा है बादर भेदस्वरूप स्थूल हिंसासे, अंसत्यसे, चोरीसे, अब्रह्मसे और परिग्रहसे, तथा तसे, मांससे और मद्यसे विरत होना ये गृहस्थोंके आठ मूलगुण हैं ॥१५॥ ___ द्यूत खेलनेवालेके सदा राग, द्वेष, मोह, कपट और असत्य वचन उत्पन्न होते है, धनका नाश भी होता हैं, और लोगोंमें अविश्वासका पात्र भी बनता है । सातों ही व्यसनोंमें चूत सबसे प्रधान हैं, इसलिये उसका पारत्याग ही करना चाहिये । देखें-इसी भरतक्षेत्रके कुलाल देशमें श्रावस्ती नगरीका राजा सुकेतु महाराज महान् भोगवाला था, किन्तु द्यूतव्यसनका मारा वह अपने खजानेको, राष्ट्रको और अन्तःपुरको भी हार कर महादुःखोंसे पीडित हुआ। तथा युधिष्ठिर महाराज भी द्यूतसे राज्यभ्रष्ट होकर अत्यन्त कष्टदायिनी दशाको प्राप्त हुए। अहिंसाव्रतकी परिपालनाके लिए मांससे निवृत्ति करना चाहिये। मांस-भक्षी पुरुषकी साधुजन निन्दा करते हैं और परलोकमें वह भारी दुःखोंको भोगता हैं । जैसा कि अन्य मतवालोंने भी कहा हैं इस लोकमें मै जिसका मांस खाता हूँ,परलोकमें वह मुझे खायेगा । अर्थात् । 'मांस' ये दो अक्षर हैं, 'मां' मुझे, 'स' वह खायगा, जिसे कि मै आज खा रहा हूँ, यह 'मांस' शब्दकी मांसता Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्रावकाचार-संग्रह मांसं प्राणिशरीरं प्राण्यङगस्य च विदारणेन विना । तन्नाप्यते ततस्तत्त्यक्तं जैनः सदा सर्वैः ।। १७॥ तथा हि कुम्मनाम्नो नरपतेर्भीमो नाम महानसिक स्तिर्यग्मांसमलभमानो मृतशिशुमांस सर्वसंभारेण सन्मिश्रं कृत्वा कुम्भस्य दत्तवान् । ततः प्रभृति सोऽपि नरमांसलोलुपः सञ्जातः । तज्ज्ञात्वा प्रकृतयो राज्यस्थायमयोग्य इति तं परिहृतवत्यः । तथा च विन्ध्यमलयकुटजवने किरात मुख्यः खदिरसारः समाधिगुप्तमुनि दृष्ट्वा प्रणतः । तस्मै धर्मलाभ इत्युक्ते कोऽसौ धर्मः कोऽसौ लाभ इत्युक्तपरिप्रश्ने मांसादिनिवृत्तिर्धर्मस्तत्प्राप्तिर्लाभ:, ततः स्वर्गादिसुखं जायत इत्युक्तवतिमुनो तत्सर्वं परिहर्तुं महमशक्ल इति वचने तद कूतमवधार्य त्वया काकमांसं पूर्वीक भक्षितसुत न वेत्युक्तेऽकृत मक्षणोऽहमिति प्रतिवचने यद्येवं तदभक्षणव्रतं त्वया गृह्यतामित्युपदेशेन तत्परिगृह्याभिवन्द्य गतवतः कालान्तरे तस्यामये समुत्पन्ने सति वैद्येन काकमांसभक्षणादस्य व्याधे मनीषी जन कहते हैं ||१६|| मांस यह प्राणियों का शरीर जनित पदार्थ हैं, क्योकि यहमांस प्राणियोंके अंगका विदारण किये बिना नहीं प्राप्त होता हैं, अतः सभी जैन लोग सदाके लिए उस मांसका त्याग करते है ।। १७ ।। देखो - राजा कुम्भके भीम नामका एक रसोइया ( पाचक ) था । किसी दिन उसे तिर्यंच पशुका मांस नहीं मिला, इसलिये उसने एक मरे हुए बालकका मांस पकाया और उसमेंसब मसाले डालकर राजा कुम्भको खानेके लिए दिया । उसे यह बहुत स्वादिष्ट लगा और तबसे वह नर-मांस खानेका लोलुपी हो गया । यह बात जानकर वहाँकी प्रजाने 'यह राज्यके अयोग्य हैं । ऐसा निश्चयकर उसे राज्यसे निकाल दिया । इसी प्रकार विन्ध्याचलके मलयकुटज वनमें खदिरसार नामके एक भीलोंके मुखियाने समाधिगुप्त मुनिको देखकर उन्हें नमस्कार किया । मुनिराजने उसके लिए 'धर्मलाभ हो' ऐसा आशीर्वाद दिया । इस पर खदिरसारने पूछा कि धर्म क्या हैं और उसका लाभ क्या है? उसके ऐसा पूछने पर मुनिराजने कहा कि मांसादिका त्याग करना धर्म है, और उसकी प्राप्ति होना लाभ कहलाता है । उस धर्मके लाभसे स्वर्गादिके सुख प्राप्त होते हैं । मुनिराज के ऐसा कहने पर खदिरसार ने कहा कि मै सर्व प्रकार के मांसका त्याग करनेके लिए असमर्थ हूँ । उसके यह कहने पर मुनिराजने उसका अभिप्राय जानकर उससे पूछा कि क्या तूने पहले कभी काकका मांस खाया हैं, या नहीं ? इसके उत्तरमें खदिरसारने कहा कि मैने आज तक कभी भी काकका मांस नही खाया है। यह सुनकर मुनिराजने कहा कि यदि ऐसा हैं, तो तू काक- मांसके नहीं खानेका व्रत ग्रहण कर ले । इस प्रकार मुनिराजके उपदेशसे काक- मांस' के न खानेका व्रत लेखर और मुनिराजकी वन्दना करके वह चला गया । कालान्तर में उसके किसी रोग के उत्पन्न होने पर वैद्य कहा कि काक- मांस खानेसे इनकी व्याधिका उपशमन होगा । तब खदिरसारने मनमें सोचा कि कण्ठगत भी प्राणोंके होने पर मुझे मांस भक्षण नहीं करना चाहिये । मैने काक-मांसके उपयोग न करने का व्रत तपोधन मुनिराजके समीप ग्रहण किया हैं। अब ( परीक्षा के समय ) संकल्पका भंग करने पर सत्पुरुषता कैसे रहेगी । इसलिए मैं काक -मांसका भक्षण नहीं करूँगा ऐसी उसनें प्रतिज्ञा की । उसकी प्रतिज्ञा सुन कर और उससे उसके अभिप्रायको जानकर उसे काक-मांस खिलाने के लिए उसका बहनोई सौरपुर नगरका राजा शूरवीर जब अपने नगरसे खदिरसार के Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलसप्तकवर्णनम् २५३ रुपशमो भविष्यतीत्युक्ते कण्ठगतेष्वपि प्राणेषु मया न कर्त्तव्यं तत्काकमांसोपयोगविरमणवतं तपोधनसमीपे परिगृहीतं सङ्कल्पभङ्गे कुतः सत्पुरुषता? तत: काकमांसाभ्यवहरणं न करिष्यामीति प्रतिज्ञाने समुपलक्षिततदीयाकूतस्तं मांसमुपयोजयितुं सौरपुराधिपतिः शूरवीरनामा तस्य मैथुन: समागच्छन् वनगहनगतवटतरोरधः काञ्चिदमिरुदती समीक्ष्य 'कथय केन हेतुना रोदिष्येका त्वम्' इत्यनुयुक्ता साऽवोचवहं यक्षी । तव श्यालकं बलवदामयपरिपीडितं मांसभक्षणविरमणव्रतफलेन मे भविष्यन्तमधिपति भवानद्य मांसभोजनेन नरकगतिभागिनं कर्तुं प्रारभत इति रोदनमनुभवामीति तयोदितः 'श्रद्धेहि' तदहं न कारयिष्यामीति व्याहृत्य गत्वा तमवलोक्य शरोरामयनिराकरणहेतुस्त्वया मांसोपयोगः क्रियतामिति प्रियश्यालकवचनश्रवणेन त्वं प्राणसमो बन्धुः श्रेय एव मे कथयितुमर्हसि, न हितार्थवचनतन्नरकगतिप्रापणहेतुत्वात् । एवं म्रियमाणोऽपि म्रिये, नतु प्रतिज्ञाहानि करोमि' इति निगदितस्तदभिप्रायविधारणात् स तस्मै यक्षीनिरूपितवृत्तान्तमकथयत् । सोऽपि तदाकर्णनावहिंसादिश्रावकवतमविकलमादाय जीवितान्ते सौधर्मकल्पे देवोऽभवत् । शूरवीरश्च तस्य परलोकक्रियावसान उपगच्छन् यक्षी निरीक्ष्य कथय स कि मे मैथुनस्तव पतिरजायतेति परिपष्टा साऽवोचत् - स्वीकृतसमस्तवतसंग्रहस्यामुख्यव्यन्तरगतिपराङ्मुखस्य सौधर्मकल्पे समुत्पत्तिरासीत् । ततो मदधिपत्वप्रच्युतः प्रकृष्टदिव्यभोगमन भवतीति हृदयगततद्वचनार्थनिश्चतमतिरहो व्रतप्रमावः समभिलषितफलप्रदानसमर्थ इति समाधिगुप्तमुनिसमीपे परिगृहीतश्रावकवतो बभूव । खदिरसारो यहाँ जा रहा था, तब गहन वनके मध्य वट वृक्ष के नीचे किसी रोती हुई स्त्रीको देखकर उसने उससे पूछा कि 'कहो किस कारणसे तुम यहाँ अकेली बैठी रो रही हो?' ऐसा पूछे जानेपर वह बोली-मै एक यक्षी हूँ। तुम्हारा साला जो किसी बलिष्ठ रोगसे पीडित है, वह काक-मांस भक्षण न करनेके व्रतके फल से मर कर मेरा पति होनेवाला है। किन्तु आप आज उसे मांस भोजन करा कर नरकगतिका भागी बनाने के लिए जा रहे हैं, इस दुःखसे मै रो रही हूँ । उस यक्षीके ऐसा कहने पर शूरवीरने कहा-तू विश्वास कर, मै उसे मांस-भोजन नहीं कराऊँगा। ऐसा कहकर वह सालेके घर गया और उसे अत्यन्त रुग्ण देखकर बोला कि तुम्हें शरीरके रोगनिराकरण करनेके लिए मांसका उपयोग करना चाहिये । इस प्रकार प्रिय साले (बहनोई) के वचन सुनकर खदिरसारने कहा-'तुम मेरे प्राणों के समान बन्धु हो, तुम्हें मेरे कल्याणकी ही बात कहनी चाहिये । मांस-भक्षण करनेका कहना यह मेरे हितके लिए नहीं हैं,क्योंकि ये तो मुझे नरकगतिमें पहुंचाने के कारण हैं । इस प्रकार यदि मुझे मरना पडेगा, तो मर जाऊँगा, किन्तु अपनी प्रतिज्ञाका भंग नहीं करूँगा। इस प्रकार कहने से उसका अभिप्राय जानकर शूरवीरने खदिरसारके लिए यक्षीके द्वारा कहा हुआ सर्व वृत्तान्त कहा। वह भी उसे सुनकर श्रावकके अहिंसादि सर्व व्रतोंको ग्रहण करके जीवन के अन्त में मर कर सौधर्म कल्पमें देव उत्पन्न हुआ। पूनः शुरवीर उसकी परलोक सम्बन्धी सब क्रियाके पूर्ण होने पर अपने नगरको वापस जाते हुए यक्षीको देखकर पूछा-कि कहो, क्या मेरा साला तुम्हारा पति हो गया? ऐसा पूछने पर वह बोली-कि उसने मरते समय श्रावकके समस्त व्रत समुदायको स्वीकार कर लिया था, इसलिए वह हीन व्यन्तर देवोंकी गतिसे पराङमुख होकर सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न हुआ हैं और इस प्रकार मेरा पति होनेसे छुटकारा पाकर स्वर्गके उत्तम दिव्य भोगोंका अनुभव कर रहा है। यक्षीका यह कयन सुनकर और हृदयगत उसके वचनका अर्थ निश्चय कर उसने मनमें कहा-अहो व्रतका प्रभाव अभिलषित फलके देने में समर्थ है। और फिर समाधिगुप्त मुनिराजके समीप जाकर उसने . Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ श्रावकाचार-संग्रह द्विसागरोपमकालो दिव्यभोगमनभूय समनुष्ठितभोगनिदानः स्वजीवितान्ते ततः प्रच्यतः प्रत्यन्तपुरे सुमित्रनामा मित्रराज्ञः पुत्रोऽभूत् । निदर्शनतपः कृत्वा व्यन्तर आसीत् । तत: कुणिकमरपतेः श्रीमतीदेध्याश्च श्रेणिकोऽभूदिति । एवं दृष्टादृष्टफलस्याप्यहितं मांसम् । । मद्यपस्य हिताहितविकता वाच्यावाच्यता गम्यागम्यता कार्याकायं च नास्ति । मद्यमुपसेविनो जनस्य स्मृति विनाशयति । विनष्टस्मृतिक: किं न करोति, कि न भाषते, कमुन्मार्ग न गच्छति? सर्वदोषाणामास्पदं तदेव तस्याख्यानम् ।। तथाहि-कश्चिद् ब्राह्मणो गुणी गङ्गास्नानार्थ गच्छन्नटवीप्रदेशे प्रहसनशीलेन मदिरामदोन्मत्तेन कान्तासहितशबरेण स निरुध्य मांसभक्षण-सुरापान-शबरीसंसर्गेषु भवताऽन्यतममङ्गीकरणीयमन्यथा भवन्तं व्यापादयामीत्युक्तः किंकर्तव्यतामूढः प्राण्यङ्गत्वान्मांसभक्षणे पापोपलेपो भवति, शबरीसंसर्गे जातिनाशः संजायते, पिष्टोदकगुडधातस्यादिसमुत्पन्नं निरवद्यं मद्यमिदं पिबामीति पीत्वा विनष्टस्मृतिरगम्यगममक्ष्यभक्षणं च कृतवान् । तथा हि-मद्यपायिनामपराधेन द्वीपायनमुनिकोपार भस्मीभूतायां द्वारवत्यां विनष्टा यादवा इति । श्रावकके सर्ववत ग्रहण कर लिए । खदिरसार दो सागरोपम काल तक दिव्य भोगोंका अनुभव कर और आगामी भवमें भी भोगोंके पानेका निदान कर अपने जीवनके अन्तम वहाँसे च्युत हुआ और प्रत्यन्तपुर नामक नगरमें मित्र राजाके सुमित्र नामका पुत्र हुआ । इस भवमें वह सम्यक्त्वरहित तप करके व्यन्तरदेव हुआ। पुनः वहाँसे च्युत होकर कुणिक नरपति और श्रीमती देवीके श्रेणिक नामका राजा हुआ। इस प्रकार उक्त कथानकोंसे यह स्पष्ट है कि मांस-भक्षणका प्रत्यक्ष फल भी अहितकर है और परोक्ष फल भी अहितकर है । अतः मांस-भक्षणका त्याग करना चाहिये। मदिरा-पान करनेवालेके हित-अहितका कुछ विचार नहीं रहता, क्या कहना चाहिये, क्या नहीं? आदि किसी प्रकारका विवेक नहीं रहता है। मद्य-सेवी मनुष्यकी स्मरणशक्ति नष्ट हा जाती हैं और जिसकी स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है, वह कौन-सा पाप कार्य नहीं करता? कौन-से दुर्वचन नहीं बोलता? और किस कुमार्ग पर नहीं जाता हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि वह सभी दोषोंका स्थान बन जाता है। इसका एक कथानक इस प्रकार है कोई गुणी ब्राह्मण गंगा स्नानके लिए जा रहा था। किसी अटवी-प्रदेशमें मदिराके मदसे उन्मत्त, किसी हँसी-मजाक करनेवाले स्त्री-सहित भीलने उसे रोक कर कहा कि मांस-भक्षण, मद्य-पान और हमारी भीलनीके साथ संसर्ग, इन तीनोंमेंसे कोई एक कार्य आप अंगीकार करें, अन्यथा मै आपको मार डालूंगा। ऐसा कहने पर वह ब्राह्मण किंकर्तव्य-विमूढ हो गया और विचारने लगा कि प्राणीका अंग होनेसे मांस-भक्षण करने पर तो पाप लगेगा, भीलनीके साथ संसर्ग करने पर मेरी जातिका नाश हो जायगा । अतएव अन्नकी पीठी जल गुड धातकीके फूल आदिसे उत्पन्न हुआ यह मद्य निर्दोष हैं, अतः इस मद्यको मै पीता हूँ । इस प्रकार विचार कर उसने मद्य पीना स्वीकार किया और पी करके स्मरण-शक्ति नष्ट हो जानेसे उसने अगम्यगमन भी किया अर्थात् भीलनीके साथ संसर्ग भी किया और मांस-भक्षण भी किया। और भी देखोमद्य पीनेवाले यादवोंके अपराधसे द्वीपायन मुनिके कोप द्वारा द्वारिकाके भस्म होने पर सब यादव भी नष्ट हो गये। . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलसप्तकवर्णनम् मत्तो हिनस्ति सर्व मिथ्या प्रलपति विवेकविकलतया । मातरपि कामयते सावद्यं मद्यमत एव ।। १८ ।। सामायिकः सन्ध्यात्रयेऽपि भुवनत्रयस्वामिनं वन्दमानो वक्ष्यमाणव्युत्सर्गतपसि कथितक्रमेण द्विनिषण्णं यथाजातं द्वादशावर्तमित्यपि । चतुनंति त्रिशुद्धं च कृतिकर्म प्रयोजयत् ॥ १९ ॥ अस्य सामायिकस्यानन्तरोक्त शीलसप्तकान्तर्गतं सामायिकं व्रतं व्रतिकस्य शीलं भवतीति । प्रोषधोपवासः मासे मासे चतुर्ष्वपि पर्व दिनेषु स्वकीयां शक्तिमनिगृह्य प्रोषधनियमं मन्यमानो भवतीति व्रतिकस्य यदुक्तं शीलं प्रोषधोपवासस्तदस्य व्रतमिति । २५५ सचित्तव्रतो दयामूर्तिर्मूलफलशाखाकरी र कन्दपुष्पबीजादीनि न भक्षयत्यस्योपभोगपरिभोग परिमाणशीलवतातिचारो व्रतं भवतीति । भक्तव्रता रात्री स्त्रीणां भजनं रात्रिभक्तं तद् व्रतयति सेवत इति रात्रिव्रतातिचारा रात्रिभवतव्रतः दिवाब्रह्मचारीत्यर्थः । मद्यसे उन्मत्त पुरुष सब जीवोंको मारता हैं, असत्य प्रलाप करता है और विवेक शून्य हो जानेसे अपनी माताके साथ भी काम सेवन करना चाहता है । अतएव मद्य सेवन सर्ब पाप कार्योसे भरा हुआ हैं ।। १८ ॥ ( इस प्रकार व्रत प्रतिमाका वर्णन किया । ) अब सामायिक प्रतिमाका वर्णन करते हैं - प्रात. मध्यान्ह और सायंकाल, इन तीनों ही सन्ध्याओं में तीन भुवनके स्वामी जिनेन्द्रदेवकी वन्दना करते हुए आगे कहे जानेवाले व्युत्सर्ग तप कथितक्रमसे सामायिक करना चाहिए । वह क्रम इस प्रकार है - सामायिक खड़े होकर या बैठकर इन दो आसन से करे । उस समय यथाजात रूप रहे, बारह आवर्त्त करे और चार नमस्कार करे । इस प्रकार सामायिकका कृतिकर्म मन वचन कायकी शुद्धि पूर्वक करे ||१९|| सात शीलोंके अन्तर्गत सामायिक व्रत प्रतिमाधारीके शील (अभ्यास) रूप है और वही तीसरी सामायिक प्रतिमाधारीके व्रत रूपमें है । प्रत्येक मास में जो चार पर्व होते हैं, उन चारों ही पर्व दिनोंमें अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर प्रोषधोपवास करनेका नियम करना चौथी प्रोषधप्रतिमा है । व्रत प्रतिमाधारीके यह प्रोषधोपवास शीलरूप में है और इस प्रतिमावालेके वह व्रतरूपमें हैं । पाँचवी सचित्तप्रतिमाका धारी दयामूर्ति होता हैं, अत: वह मूल, फल, शाक, शाखा, कैर, कन्द, पुष्प और बीजादिक सचित्त वस्तुओं को नहीं खाता हैं । उपभोगपरिभोगपरिमाण शीलव्रतके जो सचित्ताहार आदि अतीचार हैं, उनका त्याग ही इस प्रतिमावालेके व्रतरूप हो जाता हैं । छठीं प्रतिमाका नाम रात्रिभक्तिव्रत है। रात्रिमें ही स्त्रियोंके सेवन करनेका व्रत लेना और दिनमें ब्रह्मचारी रहनेका नियम करना रात्रि भक्तव्रत प्रतिमा हैं । इस प्रतिभाका धारक रात्रिभोजनव्रत के अतीचारोंका त्यागी होता हैं । . Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्रावकाचार-संग्रह ब्रह्मचारी शुक्रशोणितबीजं रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जा शुक्र सप्तधातुमने कत्रोतोविलं मूत्रपुरीषभाजनं कृमिकुलाकुलं विविधव्याधिविधुरमपायप्रायं कृमिभस्मविष्टापर्यवसानमङ्गमित्यनङ्गाद् विरतो भवति । आरम्भविनिवृत्तोऽसिम षिकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भात् प्राणातिपातहेतोरितो भवति । परिग्रहविनिवृत्तः क्रोधादिकषायाणामार्त्तरौद्र यो हिसादिपञ्चपापानां भयस्य च जन्मभूमिः दूरोत्सात धर्म्यशुक्लः परिग्रह इति मत्वा दशविधबाह्यपरिग्रहाद्विनिवृत्तः स्वच्छः सन्तोषपरो भवति । अनुमतिविनिवृत्त आहारादीनामारम्भाणामनुमननाद्विनिवृत्तो भवति । उद्दिष्टविनिवृत्तः स्वोद्दिष्टपिण्डोपधिशयनवसनादविरतः सन्नेकशाटकधरो मिक्षाशनः पाणिपात्रपुटेनोपविश्य मोजी रात्रिप्रतिमादिवितप.समुद्यत आतापनावियोग रहितो भवति । अणुव्रत महाव्रतिनो समितियुक्तो संयमिनौ भवतः । समिति विना विरतो । तथा चोक्तं वर्गणाखण्डस्य बन्धनाधिकारे सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा हैं । इस प्रतिमाका धारक ब्रह्मचारी पुरुष इस शरीरको मातापिता के रज- वीर्य से उत्पन्न हुआ, रस, रक्त, मांस, मेदा, हड्डी, मज्जा और वीर्य इन सात धातुओंसे भरा हुआ अनेक छिद्ररूप बिलों वाला, मल-मूत्रका भाजन, कृमि- कुलसे व्याप्त, विविध रोगों से ग्रस्त, विनश्वर अपायमय और अन्तमें कीडे पडकर सडने वाला अथवा जलाया जानेपर भस्मभावको प्राप्त होनेवाला अथवा किसीके द्वारा खाये जानेपर विष्टारूप परिणत होनेवाला देखकर काम सेवन से विरत होता हैं । आठवीं आरम्भ त्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमा वाला जीवघातके कारणभूत असि, मषी, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भोंसे विरत हो जाता हैं । नववीं परिग्रहत्याग प्रतिमा हैं । इस प्रतिमाका धारक श्रावक परिग्रहको क्रोधादि कषायोंके उत्पन्न करने की, आर्त्त - रौद्रध्यानकी हिंसादि पञ्च पापोंकी और जन्मभूमि समझ कर तथा उसे धर्म-शुक्लध्यानसे दूर करनेवाला मानकर बाहरी दस प्रकारके परिग्रहसे निवृत्त होता है और हृदय में स्वच्छ सन्तोषको धारण करता हैं । दसवीं अनुमतित्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमाका धारक श्रावक आहार बनाने आदि कार्योके आरम्भोंकी अनुमोदनासे भी निवृत्त हो जाता है । ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा हैं। इस प्रतिभाका धारक श्रावक अपने निमित्त बने हुए भोजन, उपकरण, शय्या और वस्त्र आदिसे भी विरत होकर एकमात्र शाटक ( धोती या चादर ) को धारण करता हैं, भिक्षावृत्तिसे पाणिपुट द्वारा बैठकर भोजन करता हैं, रात्रिप्रतिमा आदि तपोंके करनेमें उद्यत रहता है और दिनमें आतापन योग आदिसे रहित रहता है। समिति युक्त अणुव्रती और महाव्रती पुरुष क्रमशः देशसंयमी और सकलसंयमी कहलाते है और समिति के बिना वे देशविरत और सर्वविरत कहलाते हैं । जैसा कि षट्खण्डागमके वर्गणाखण्ड के बन्धन अधिकारमें कहा हैं Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ शीलसप्तकवर्णनम् ''संजम-विरईणं को भेदो? सममिदिमहत्वयाणुव्वयाई संजमी । समिदोहिं विणा महन्व. याणुव्वयाई विरदी” इति । आद्यास्तु षट्जघन्याः स्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः । शेषो द्वावृत्तमावक्ती जैनेष जिनशासने ।।२० । असिमषिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्षचर्यासाधकत्वैहिसाऽभावः क्रियते। तत्राहिंसापरिणामत्वं पक्षः । धर्मार्थ देवतार्थ मन्त्रसिद्धयर्थमौषधार्थमाहारार्थ स्वभोगार्थ च गृहमे धनो हिसां न कुर्वन्ति । हिंसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्धः सन परिग्रहपरित्यागकरणे सत स्वगहं धर्म च वंश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति । सकलगुणसम्पूर्णस्य शरीरकम्पनोच्छ्वासनोन्मीलनविधि परिहरमाणस्य लोकाप्रमनसः शरीरपरित्यागः साधकत्वम् । एवं पक्षादिभिस्त्रिभिहिंसाधुपचितं पापमपगतं भवति । जैनागमे चत्वार आश्रमाः । उक्तं चोंगसकाध्ययने ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । . इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तमाङ्गाद् विनि:सृताः ॥२१॥ तत्र ब्रह्मचारिणः पञ्चविधा: उपनयावलम्बादीक्षागूढनैष्ठिकभेदेन । तत्रोपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिणः समभ्यस्तागमा: गृहधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति । अवलम्बब्रह्मचारिणः क्षुल्लक "शंका-संयम और विरत में क्या भेद हैं? समाधान-समिति-सहित महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं और समितियोंके विना वे महाव्रत और अणुव्रत विरति या व्रत कहे जाते है।" ऊपर कही गई ग्यारह प्रतिमाओंसे जैनियोंमें आदिके छह प्रतिमाधारी जघन्य श्रावक, उसके पश्चात् तीन प्रतिमाधारी मध्यम श्रावक और अन्तिम शेष दोनों प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक जिनशासनमें कहे गये है ।।२०। असि मषि कृषि वाणिज्य आदिके द्वारा गृहस्थोंके हिंसा संभव होनेपर भी पक्ष चर्या और साधकपने के द्वारा हिंसाका अभाव कर दिया जाता हैं । सदा अहिंसारूप परिणाम रखनेको पक्ष कहते हैं । गृहस्थ श्रावक धर्मके लिए, देवता के लिए मंत्र-सिद्धि के लिए, औषधिके लिए, आहारके लिए और अपने भोगके लिए हिंसा नहीं करते हैं । कदाचित् हिंसा संभव होनेपर प्रायश्चित्त वधिसे विशुद्ध होता हुआ परिग्रहका परित्याग करने के समय अपने घरको और धर्मको अपने वंशमें उत्पन्न हुए पुत्र आदिको समर्पण कर जब तक घरका परित्याग करता हैं, तब तक उसके व्रतोंका परिपालन करना चर्या कही जाती है। इस प्रकार जीवनपर्यन्त व्रत पालन कर,अन्त समयमें सकल गणोंसे परिपूर्ण होकर, वह जब शरीर-कम्पन, ऊर्वश्वास संचलन और नेत्रोन्मीलन विधि. का परिहार कर लोकाग्रनिवासी सिद्धोंमें मनको लगाते हुए शरीरका परित्याग करता हैं, तब उसके साधकपना कहलाता हैं । इस प्रकार पक्षादि इन तीन धर्मकायोंके द्वारा हिंसादिसे संचित उसका पाप दूर हो जाता है। जैन आगममें चार आश्रम वणित है। जैसा कि उपासकाध्ययनमें कहा है-ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ और भिक्षुक । जैनियों के ये चार आश्रम सातवें उपासकाध्ययन अंगसे निकले हैं।।२१।। इनमेंसे ब्रह्मचारी पाँच प्रकार के है-उपनय, अवलम्ब, अदीक्ष, गूढ और नैष्ठिक । जो गणधर सूत्र (यज्ञोपवीत) को धारण कर और समस्त आगमोंका अभ्यास कर गृहस्थ धर्मका Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्रावकाचार-संग्रह रूपेणाऽऽगममभ्यस्य परिगृहीतगृहावासा भवन्ति । अदीक्षाब्रह्मचारिणः वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । गूढब्रह्मचारिणः कुमारश्रमणा: सन्तः स्वीकृतागमाभ्यास। बन्धुभिर्युःसहपरीषहैरात्मना नपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासरता भवन्ति । नैष्ठिकब्रह्मचारिणः समाधिगतशिखालक्षितशिरोलिङ्गा गणधरसूत्रोपलक्षितोरोलिङ्गाः शुक्लरक्तवसनखण्डकोपीनलक्षितकटीलिङ्गाः स्नातका भिक्षावृत्तयो देवताचंनपरा भवन्ति । गृहस्थस्येज्या वार्ता दत्ति: स्वाध्याय: संयमः तप इत्यार्यषट् कर्माणि भवन्ति । तत्रार्हत्पूजेज्या, सा च नित्यमहश्चतुर्मुखं कल्पवृक्षोऽष्टान्हिक ऐन्द्रध्वज इति । तत्र नित्यमहो नित्यं यथाशक्ति जिनगृहेभ्यो निजगृहाद् गन्धपुष्पाक्षतादिनिवेदनं चैत्यचैत्यालयं कृत्वा ग्रामक्षेत्रादौनां शासनदानं मुनिजनपूजनं च भवति । चतुर्मुखं मुकुटबद्धः क्रियमाणपूजा, सैव महामह सर्वतोभद्र इति । कल्पवृक्षोऽथिनः प्रार्थितार्थः सन्तर्प्य चक्रवत्तिभिः क्रियमाणो महः । अष्टान्हिकं प्रतीतम् । ऐन्द्रध्वज इन्द्रादिभिः क्रियमाणः। बलि स्नपनं सन्ध्यात्रयेऽपि जगत्त्रयस्वामिनः पूजाभिषेककरणम् । पुनरप्येषां विकल्पा: अन्येऽपि पूजाविशेषाः सन्तीति। अनुष्ठान करते हैं, वे उपनय-ब्रह्मचारी हैं । जो क्षुल्लकरूप धारण करके आगमोंका अभ्यास कर गृहवासको स्वीकार करते हैं, वे अवलम्बब्रह्मचारी हैं । जो ब्रह्मचारीके वेषको नहीं धारण करके और आगमोंका अभ्यास करके गृहस्थधर्म में निरत होते हैं, वे अदीक्षाब्रह्मचारी है । जो कुमारावस्थामें ही श्रमण (मुनि) वेष स्वीकार कर और समस्त आगमोंका अभ्यास कर, बन्धुजनोंके द्वारा आग्रह किये जाने पर दुःसह परीषहोंके द्वारा पीडित होने पर, अपने आप अथवा राजाओंके द्वारा कहे जानेपर परमेश्वररूप दिगम्बर वेष छोड कर गृहवासमें रत होते हैं, वे गूढब्रह्मचारी हैं । जो समाधिगत शिखा (चोटी शिरोलिंगको धारण करते है, गणधरसूत्ररूप उरोलिंगको धारण करते है, भिक्षावृत्तिसे आहार करते हैं और देवपूजामें सदा तत्पर रहते है ऐसे स्नातक नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं। इज्या (पूजा), वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप ये गृहस्थोंके छह आर्य कर्म करने योग्य होते हैं । अरहंतदेवकी पूजा करना इज्या है। वह पाँच प्रकार की है-नित्यमह, चतुर्मुख. मह, कल्पवृक्षमह, अष्टान्हिकमह और इन्द्रध्वजमह । नित्य अपनी शक्तिके अनुसार अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनभवनोंके लिए चढाना, जिनदेवकी पूजन करना, प्रतिमा और चैत्यालय बनवा करके खेत आदिका राज्यशासनके नियमानुसार दान देना और मुनिजनोंका पूजन करना नित्यमह हैं। मुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो पूजा की जाती है, वह चतुर्मुखमह है। उसे ही महामह और सर्वतोभद्रमह भी कहते है । याचकजनोंकी याचनाको द्रव्य द्वारा सन्तुष्ट कर चक्रवर्ती सम्राटोंके द्वारा की जानेवाली पूजा कल्पवृक्षमह कहलाती है। अष्टान्हिक पर्वमें की जानेवाली पूजा अष्टान्हिकमह हैं, जो सुप्रसिद्ध है। इन्द्र आदिके द्वारा की जानेवाली पूजा ऐन्द्रध्वज कहलाती है । इनके अतिरिक्त नैवेद्य समर्पण करना, अभिषेक करना, तीनों सन्ध्याओंमें तीन जगत्के स्वामी जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना, अभिषेक करना आदि भी पूजन के ही अन्तर्गत है। उक्त पाँचों प्रकारकी पूजाओंके अन्य भी भेद है जो सब पूजा विशेष ही हैं। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलसप्तकवर्णनम् २५९ वार्ताऽसिमषिकृषिवाणिज्यादिशिल्पकर्मभिविशुद्धवृत्त्याऽर्थोपार्जनमिति । दति: दयापात्रसमसकलभेदाच्चतुविधा। तत्र वयादत्तिरनुकम्पयाऽनुग्रहोभ्यः प्राणिभ्यस्त्रिशुद्धिभिरभयदानम् । पात्रदत्तिर्महातपोधनेभ्यः प्रतिग्रहार्चनादिपूर्वकं निरवद्याहारदानं ज्ञानसंयमोपकरणादिवानं च । समदत्तिः स्वसमक्रियाय मित्राय निस्तारकोत्तमाय कन्याभूमिसुवर्णहस्त्यश्वरत्नादिदानम् । स्वसमानाभावे मध्यमपात्रस्यापि दानम् । सकलत्तिरात्मीयत्वसन्ततिस्थापनार्थ पुत्राय गोत्रजाय वा धर्म धनं समय प्रबानमन्वयत्तिश्च सैव । स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च। संयमः पञ्चाणुव्रतप्रवर्तनम् । तपोऽनशनादिद्वादशधिधानुष्ठानम् । इत्यार्यषटकर्मनिरता गृहस्था द्विविधा भवन्ति-जातिक्षत्रियास्तीर्थक्षत्रियाश्चेति । तत्र जातिः क्षत्रियब्राह्मणवैश्यशूद्रभेदाच्चतुविधाः । तीर्थक्षत्रियाः स्वजीवन विकल्पादनेकधा भिद्यन्ते । वान स्था अपरिगृहीतजिनरूपा वस्त्रखण्डधारिणो निरतिशयतपःसमुद्यता भवन्ति । भिक्षवों जिनरूपधारिणस्ते बहुधा भवन्ति-अनगारा यतयो मुनय ऋषयश्चेति । तत्रानगाराः सामान्यसाधव उच्चन्ते । यतय उपशम-क्षपकश्रेण्यारूढा मण्यन्ते । मुनयोऽवधिमनःपर्यय. असि मषि कृषि वाणिज्य आदिसे और शिल्प कार्मोके द्वारा विशुद्धवृत्तिसे धनोपार्जन करनेको वार्ता कहते हैं । दत्ति दानको कहते है । वह दया पात्र सम और सकलके भेदसे चार प्रकार की है । अनुकम्पासे अनुग्रह करनेके योग्य प्राणियों के लिए मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक अभयदान देना दयादत्ति हैं। महातपस्वी साधुओंको प्रतिग्रह-पूजा दपूर्वक निर्दोष आहार देना और ज्ञान-संयमके उपकरण आदिका देना पात्रदत्ति है। अपने ही समान क्रियाओंका आचरण करनेवाले मित्रके लिए उत्तम निस्तारक गृहस्थाचार्य के लिए कन्या भूमि सुवर्ण हस्ती अश्व रथ और रत्न आदिका दान देना समदत्ति हैं। अपने समान व्यक्तिके अभावमें मध्यम पात्र श्रावकके लिए भी उक्त वस्तुओंका देना भी समदत्ति हैं। अपनी सन्तान-परम्परा चलाने के लिए पुत्रको या गोत्रज पुरुषको अपने द्वारा किये जानेवाले धर्मकार्य और धनको समर्पण करके सर्वस्व प्रदान करना सकलदत्ति है । इसे ही अन्वयदत्ति कहते हैं । तत्त्वज्ञानके पठन, पाठन और स्मरण करनेको स्वाध्याय कहते हैं। पाँच अणव्रतोंका पालन करना संयम हैं । और अनशनादिक बारह प्रकारके तपोंका आचरण करना तप कहलाता है। इन उपर्युक्त छह प्रकारके आर्य कर्मों में निरत गृहस्थ दो प्रकारके होते हैं-जातिक्षत्रिय और तीर्थक्षत्रिय । क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रके भेदसे जातिक्षत्रिय चार प्रकार के है। तीर्थक्षत्रिय अपनी आजीविकाके भेदोंसे अनेक प्रकारके होते है। जिन्होंने जिनरूप दिगम्बर वेष ग्रहण नहीं किया हैं ऐसे वस्त्रखण्डके धारक और निरतिशय तप करने में सदा उद्यत पुरुष वानप्रस्थ कहलाते हैं। जिनरूपको धारण करनेवाले भिक्षु कहलाते हैं । वे अनेक प्रकारके होते हैं। यथाअनगार यति मुनि और ऋषि । सामान्य साधुओंको अनगार कहते है । उपशम श्रेणी और क्षपकश्रेणी पर आरूढ और कर्मोकी उपशमना एवं क्षपणा करने में उद्यत साधु यति कहे जाते हैं। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्रावकाचार-संग्रह केवलज्ञानिनश्च कथ्यन्ते । ऋषय ऋद्धिप्राप्तास्ते चतुविधा:-राजब्रह्मदेवपरमभेदात् । तत्र राजर्षयो विक्रियाऽक्षीद्धप्राप्ता भवन्ति । ब्रह्मर्षयो बुद्धचोषधिऋद्धियुक्ताः कोय॑न्ते । देवर्षयो गगनगमद्धिसंयक्ताः कथ्यन्ते। परमर्षयः केवलज्ञानिनो निगद्यन्ते । अपि च देशप्रत्यक्ष वित्केवल भूदिह मुनिः स्यादृषिः प्रोद्गद्धिरारूढश्रेणियुग्मोऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधुरुक्तः । राजा ब्रह्मा च देव: परम इति ऋषिविक्रियाऽक्षीणशक्ति. प्राप्तो बुद्धधौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदी क्रमेण ॥२२।। उक्तैरुपासकारणान्तिको सल्लेखना प्रीत्या सेव्या । स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणां मलानामुच्छ्वासनिःश्वासस्य च कदलीघात-स्वपाकच्युतिकारणवशात्संक्षयो मरणम् । तच्च द्विविधम्-नित्यमरणं तद्भवमरणं चेति । तत्र नित्यमरणं समये समये स्वायुरादीनां निवृत्तिः । तद्भवमरणं भवान्तरप्राप्तिरनन्तरोपश्लिष्टपूर्वभवविगमनम् । अत्र पुनस्तद्भवमरणं ग्राह्यम् । मरणान्तः प्रयोजनमस्या इति मारणान्तिको । बाह्यस्य कायस्याभ्यन्तराणां कषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना। उपसर्गे दुभिक्षे नरसि निःप्रतिक्रियायां धर्मार्थं तनत्यजनं अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी मुनि कहे जाते हैं । ऋद्धि-प्राप्त साधु ऋषि कहलाते है । वे चार प्रकारके होते हैं-राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि । विक्रिया और अक्षीण ऋद्धिके धारक साधु राजर्षि कहलाते हैं। बुद्धि और औषधिऋद्धिसे युक्त साधु ब्रह्मर्षि कहलाते है । आकाशगमनऋद्धिसे संयुक्त साधु देवर्षि कहे जाते हैं और केवलज्ञानी परमर्षि कहे जाते हैं। जैसा कि कहा है देशप्रत्यक्षके धारक और केवलज्ञान-धारक मुनि कहे जाते हैं । जिन्हें ऋद्धि प्रकट हुई हैं, वे ऋषि कहे गये हैं। दोनों श्रेणियों पर आरूढ साधु यति हैं और शेष सर्व साधु अनगार कहे गये है। ऋद्धि धारक साध भी चार प्रकार के है-विक्रिया और अक्षीणशक्तिको प्राप्त साध राजर्षि हैं, बुद्धि और औषधिऋद्धिके स्वामी ब्रह्मर्षि है । आकाशमें गमन-कुशल साधु देवर्षि है और विश्ववेत्ता सर्वज्ञ परमर्षि जानना चाहिये ॥२२॥ उपयुक्त सभी प्रकारके उपासकों (श्रावकों) को मारणान्तिक सल्लेखनाका प्रीतिपूर्वक सेवन करना चाहिए। कदलीघातसे,अथवा अपना विपाककाल पूर्ण हो जाने के कारणवशसे अपने परिणामोंके द्वारा पूर्व भवमें उपार्जित आयुकर्मका, स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका, मनोबल, वचन बल, कायबलका और श्वासोच्छ्वासका क्षय होना मरण हैं । वह दो प्रकारका हैं-तित्यमरण और तद्भवमरण । प्रतिसमय अपने आयुकर्म के निषेकोंकी निर्वृत्ति रूप निर्जरा होनेको नित्यमरण कहते है। नवीन भवकी प्राप्ति और उसके अनन्तर पूर्ववर्ती भवके विनाशको तद्भवमरण कहते है। यहाँ पर तद्भवमरण का ग्रहण करना चाहिए। मरणका अन्तकाल जिसका प्रयोजन है ऐसी सल्लेखनाको मारणान्तिकी कहते है। बाहरी शरीरका और भीतरी कषायोंका क्रमसे उनके कारणोंको घटाते हुए सम्यक् प्रकारसे क्षीण करना सल्लेखना कहलाती है । निःप्रतीकार उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष पडने पर और बुढापा आ जाने पर धर्मकी रक्षाके लिए शरीरका त्याग करना सल्लेखना है। इसलिए आवश्यकादि करते समय नित्य प्रार्थना किये जानेवाले समाधिमरणके अवसर पर यथाशक्ति प्रयत्न करके और उस समय शीत-उष्ण आदि परीषहोंके प्राप्त होने पर Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलसप्तकवर्णनम् २६१ सल्लेखना । ततो नित्यप्राथितसमाधिमरण यथाशक्ति प्रयत्नं कृत्वा शीतोष्णाधुपश्लेषे सति तप:स्थो यथाशक्ति प्रयत्नं कृत्वा शीतोष्णाद्युपश्लेषे सति तपःस्थो यथा शीतोष्णादो हर्षविषादं न करोति, तथा सल्लेखनां कुर्वाणः शीतोष्णादौ हर्षविषावमकृत्वा स्नेहं सङ्गवरादिकं परिग्रहं च परित्यज्य विशुद्धचित्तः स्वजनपरिजने क्षन्तव्यं निःशल्यं च प्रियवचनैविधाय विगतमानकषायः कृतकारितानुमतमेनः सर्वमालोच्च गुरौ महाव्रतमामरणमारोप्यारतिबन्यविषादभयकालण्यादिकमपहाय सत्त्वोत्साहमुदीर्य श्रुतामृतेन मनः प्रसाद्य क्रमेणाहारं परिहाय ततः स्निग्धपानं तदनन्तरं खरपानं तदनु चोपबासं कृत्वा गुरोः पादमूले पञ्चनमस्कारमुच्चारयन् पञ्चपरमेष्ठिनां गुणान् स्मरन् सर्वयत्नेन तनुं त्यजेत् । इयं सल्लेखना संयतस्यापि । अथ सल्लेखनाया मरणविशेषोत्पादनसमर्थाया असंक्लिष्टचित्तेनारभ्यायाः, पञ्चातीचारा भवन्ति-जीविताशंसा मरणाशंसा मित्रानुरागः सुखानुबन्ध: निदानं चेति । तत्र शरीरमिदमवश्यं जलबुबुदवदनित्यमस्यावस्थानं कथं स्यादित्यादरो जीविताशंसा । आशंसाऽऽकांक्षणमभिलाष इत्यनर्थान्तरम् रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवनसंक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तप्रणिधानं मरणाशंसा । व्यसने सहायत्वमुत्सवें संभ्रम इत्येवमादि सुकृतं बाल्ये सहपांशुक्रीडनमित्येवमादीनामनुस्मरणं जैसे तपश्चर्या में स्थित साधु शीत-उष्णादि की बाधा होनेपर हर्ष-विषाद नहीं करता हैं, उसी प्रकार सल्लेखनाको करता हुआ श्रावक भी हर्ष-विषाद न करके, सर्वपरिजनोंसे स्नेह, शत्रुओंसे वैर,साथियोंकी संगति और परिग्रहका परित्याग कर विशुद्ध चित्त होकर स्वजन और परिजनोंको नि.शल्य होकर प्रिय वचनोंसे क्षमा करे और क्षमा माँगे । पुनः मानकषायसे रहित होकर कृत कारित और अनुमोदनासे अपने सर्व पापोंकी गुरुके समीप आलोचना करके मरणपर्यन्तके लिए महाव्रतोंको धारण करके अरति, दीनता, विषाद, भय और कालुष्य आदिको दूर कर बल और उत्साहको प्रकट कर श्रुतवचनामृतसे मनको प्रसन्न करके क्रमसे आहारको घटाकर स्निग्ध पान प्रारंभ करे । तदनन्तर स्निग्ध पानको घटाकर खरपान प्रारंभ करे और तत्पश्चात् खरपानको भी घटाकर और यथाशक्ति कुछ दिन तक उपवास करके गुरुके पादमूलमें रहते हुए पंच नमस्कार मंत्रका उच्चारण करते और पंच परमेष्ठियोंके गुणोंका स्मरण करते हुए पूर्ण सावधानीके साथ शरीरका त्याग करे। इस सल्लेखनाका धारण साधुके भी होता है। मरण विशेषके उत्पादनमें समर्थ और संक्लेश-रहित चित्तसे आरंभ की गई इस सल्लेखनाके पाँच अतीचार इस प्रकार है-जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान । यह शरीर अवश्य ही हेय है, जलके बबूलेके समान अनित्य हैं, यह जानते हुए भी इसका अवस्थान कैसे हो, इस प्रकार जीनेके प्रति आदर रखना जीविताशंसा है। आशंसा, आकांक्षा और अभिलाष, ये सब एकार्थक नाम हैं। रोग या उपद्रवके आ जानेसे आकुलित होकर जीवन में संक्लेश प्राप्त होने पर मरणके प्रति चित्तको लगाना मरणाशंसा है। जोव्यसन (कष्ट) के समय सहायक और उत्सवके समय हर्ष मनानेवाले, तथा अन्य अनेक प्रकार सुकृतके करनेवाले, बचपन में धूलि पर साथ खेलनेवाले इत्यादि नाना प्रकारके मित्रोंका स्मरण करना मित्रानुराग हैं? पैने अपने जीवन में ऐसे भोजन किये, ऐसी शय्याओं पर शयन किया, ऐसे खेले, इत्यादि Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्रावकाचार-संग्रह मित्रानुरागः । एवं मया भक्तं शयितं क्रीडितमित्येवादि प्रीतिविशेष प्रति स्मृतिसमन्वाहार: सुखानुबन्धः । विषयतुखोत्कर्षामिलापभोगाकांक्षतया नियतं चित्तं दीयते तस्मिन् तेनेति वा निदानमिति। इति श्रीमच्चामुण्डरायप्रणीते चारित्रसारे सागारधर्मः समाप्तः । पूर्व कालीन प्रीति विषयक बातोंको बार-बार याद करना सुखानुबन्ध हैं। उत्कृष्ट विषयसुख पानेकी अभिलाषा और भोगोंकी आकांक्षासे जिसके लिए या जिसमें नियत रूपसे चित्तको दिया जाय अर्थात् लगाया जाय, उसे, निदान कहते है। इस प्रकार श्रीमच्चामुण्डराय विरचित चारित्रसारमें सागार धर्मका वर्णन समाप्त हुआ । : Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथामितगतिकृतः श्रावकाचारः नापाकृतानि प्रभवन्ति भूयस्तमांसि यदृष्टिहराणि सद्यः । ते शाश्वतीमस्तमया मज्ञा जिनेन्दवो वो वितरन्तु लक्ष्मीम् ।। १ विभिद्य मर्माष्टकङ्खलां ये गुणाष्टकेश्वर्यमुपेत्य पूतम् । प्राप्तास्त्रिलोकानशिखामणित्वं भवन्तु सिद्धा मम सिद्धये ते ।। २ य चारयन्ते चरितं विचित्रं स्वयं चरन्तो जनमचंनीयाः। आचार्यवर्या विचरन्तु ते मे प्रमोदमाने हृदयारविन्दे ॥ ३ येषां तप: श्रीरनघा शरीरे विवेचिका चेतसि तत्त्वबुद्धिः । सरस्वती तिष्ठति वक्त्रपझे पुनन्तु तेऽध्यापकपुङ्गवा वः ।।४ कषाय सेनां प्रतिबन्धिनी ये निहत्य धीराः शमशोलशस्त्रैः । सिद्धि विबाधां लघु साधयन्ते ते साधवो मे वितरन्तु सिद्धिम् ।। ५ विभूषितोऽन्हाय यया शरीरी विमुक्तिकान्तां विदधाति बश्याम् । सा दर्शनज्ञानचरित्रभूषा चित्ते मदीये स्थिरतामपैतु ।। ६ मातेव या शास्ति हितानि पुंसो रजः क्षिपन्ती ददती सुखानि । समस्तशास्त्रार्थविचारदक्षा सरस्वती सा तनुतां मति ते ।। ७ शास्त्राम्बुधः पारमियति येषां निषेवमाणाः पदपद्मयुग्मम् । गुणः पवित्रैर्गुरवो गरिष्ठां कुर्वन्तु निष्ठां मम ते वरिष्ठाः ।। ८ जिन श्रीजिनचन्द्र के द्वारा यथार्थ दृष्टिके हरण करनेवाले मोहरूप महान्धकारशीघ्र ही दूर किये जाते है अतः वे पुनः अपना प्रभाव जगत् पर जमाने में समर्थ नहीं होते है और जिन्होंने अज्ञानी पर-वादियोंको सदाके लिए अस्त कर दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रचन्द्र हम और आप सबको शाश्वती मोक्षलक्ष्मी प्रदान करें ।।१।। जो ज्ञानावरणादि अष्टकर्मरूप सांकलका विभेदन कर और सम्यक्त्वादि अष्टगुणरूप पवित्र ऐश्वर्यको पाकर तीन लोकके चूडामणिपनेको प्राप्त हुए हैं ऐसे वे सिद्धभगवान् मेरे लिए सिद्धि के निमित्त हों ॥२॥ जो नाना प्रकारके चारित्रका स्वयं आचरण करते हुए जगत्को आचरण कराते हैं, ऐसे पूजनीय आचार्यवर्य मेरे प्रमुदित हृदय-कमलमें सदा विचरण करें ।।३।। जिनके शरीरमें पाप-रहित निर्मल तपोलक्ष्मी सुशोभित हैं,जिनके चित्तमें भेदविज्ञान करानेवाली विवेचक तत्त्वबुद्धि विद्यमान है और जितके मुख-कमलमें सरस्वती विराजमान है, ऐसे श्रेष्ठ उपाध्याय परमेष्ठी हम और आपको पवित्र करें ॥४॥ जो धीर वीर सिद्धिकी रोकनेवाली क्रोधादि कषायरूपी सेनाको शम और शीलरूप शस्त्रोंके द्वारा विनष्ट करबाधा-रहित सिद्धिको अल्प कालमें शीघ्र ही सिद्ध कर लेते है, वे साधुजन मुझे सिद्धि देवें ॥५।। जिस रत्नत्रय रूप विभूषासे विभूषित जीव मुक्तिरूपी कान्ताको शीघ्र अपने वशमें कर लेता हैं,वह सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप विभूषा मेरे चित्तमें स्थिरताको प्राप्त हो ।।६।। जो माताके समान पुरुषोंको हितकी शिक्षा देती है, उनकी कर्मरूप रजको दूर करती हैं और सुखोंको प्रदान करती है, वह सर्वशास्त्रोंके अर्थ-विचार करने में प्रवीण सरस्वती मेरी बुद्धिको विस्तृत करे ।।७॥ जिनके चरण-कमल .| Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रावकाचार-संग्रह उपासकाचारसारं सङ्क्षेपतः शास्त्रमहं करिष्ये । शक्नोति कर्तुं श्रुतकेवलिभ्यो न व्यासतोऽन्यो हि कदाचनापि ।। ९ कुदुष्टभावाः कृतिमस्तदोषां निसर्गतो यद्यपि दूषयन्ते । तथापि कुर्वन्ति महानुभावास्त्याज्या न यूकाभयतो हि शादी ॥ १० संसारकान्तारमपास्तपारं बम्भ्रम्यमाणो लभते शरीरी । कृच्छ्रेण नृत्वं सुखसस्यबीजं प्ररूढदुष्कर्मशमेन नूनम् ॥ ११ नरेषु चक्री त्रिदशेषु वज्त्री मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु । मतो महीभृत्सु सुवर्णशैलो भवेंषु मानुष्यभवः प्रधानम् ।। १२ त्रिवर्गसारः सुखरत्नखानिर्धर्मप्रधानं भवतीह येन । सम्यक्त्वशुद्धाविह मुक्तिलाभः प्रधानता तेन मताऽस्य सद्भिः ।। १३ यथा मणिग्रविगणेष्वनर्घो तथा कृतज्ञो गुणवत्सु लभ्यः । न सारवत्वं न तथाङ्गिवर्गः सुखेन मानुष्यभवो भवेषु ॥ १४ शमेन नीतिविनयेन विद्या शौचेन कीर्तिस्तपसा सपर्या । बिना नरत्वेन न धर्मसिद्धिः प्रजायते जातु जनस्य पथ्या ।। १५ युगलकी सेवा करनेवाला मनुष्य शास्त्रसमुद्रके पारको प्राप्त होता है और जो पवित्र गुणोंसे गरिष्ठ है, ऐसे श्रेष्ठ गुरुजन मेरी धर्म-निष्ठाको सुदृढ करें ||८|| मैं अमितगति उपासकों के आचारविचार करनेवाले इस साररूप श्रावकाचार - शास्त्रको संक्षेपसे निरूपण करूँगा, क्योंकि विस्तारसे तो निरूपण करनेके लिए श्रुतकेवलियोंसे भिन्न अन्य कोई भी मनुष्य कदाचित् भी समर्थ नहीं है || ९ || यद्यपि क्षुद्र स्वभाववाले मनुष्य निर्दोष कृतिको स्वभावसे ही दोष लगाते हैं, तथापि महान् पुरुष अपने कार्यको करते ही हैं, क्योंकि यूका (जूं) के भयसे साडी त्यागने योग्य नहीं होती है ॥ १० ॥ सारसे रहित इस असार संसार- कान्तारमें परिभ्रमण करता हुआ यह प्राणी अति उग्र दुष्कर्मो के शमनसे प्रादुर्भूत सुखरूप शालिधान्यके बीज समान इस मनुष्यपनाको महान् कष्ट पाता है || ११|| जिस प्रकार मनुष्योंमं चक्रधारी चक्रवर्ती, देवोंमें वज्रधारी इन्द्र, मृगों में सिंह, व्रतों में प्रशमभाव और पर्वतों में सुवर्णशैल सुमेरु प्रधान माना जाता है, उसी प्रकार देव-नारकादिके सभी भवों में मनुष्य-भव प्रधान माना गया है || १२ || जैसे सम्यक्त्वकी शुद्धि होने पर धर्मका लाभ होता हैं, उसी प्रकार धर्म-अर्थ- कामरूप त्रिवर्गका सार और सुखरूप रत्नकी खानिवाला यह सर्व पुरुपार्थो में प्रधान धर्म पुरुषार्थ इस मनुष्य भवमें ही संभव है, अतएव सन्त जनोंके द्वारा इस नर भवकी प्रधानता मानी गई है || १३|| जैसे पाषाणके समूहमें अनमोल मणि पाना सुलभ नहीं और जैसे गुणवन्तों में कृतज्ञ मनुष्य मिलना सुलभ नहीं हैं, उसी प्रकार सभी भवोंमें सारवान् सुखकां अपेक्षा मनुष्य भवका पाना प्राणियोंको सुलभ नहीं हैं || १४ || जैसे शमभाव के बिना नीति नहीं रह सकती, विनयके बिना विद्या प्राप्त नहीं हो सकती, निर्लोभपना के बिना कीत्ति नहीं हो सकती और तपके बिना पूजा प्राप्त नहीं हो सकती है, उसी प्रकार मनुष्यपनाके बिना जीवके हितरूप Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २६५ अन्नेन गात्रं नयनेन वक्र नयेन राज्यं लवणेन भोज्यम् । धर्मण होनं बत जीवितव्यं न राजते चन्द्रमसा निशीथम् ।। १६ सस्येन देश: पयसाऽब्जखण्ड: शौर्येण शस्त्री विटपीफलेन । धर्मेण शोभामुपयाति मर्यो मदेन दन्ती तुरगो जवेन ॥ १७ मानुष्यमासाद्य सुकृच्छलभ्यं नयो विशुद्धिविदधाति धर्मम् । अनन्यलभ्यं स सुवर्णराशि दारिद्रयवग्धो विजहाति लब्ध्वा ॥ १८ अनादरं यो वितनोति धर्मे कल्याणमालाफलकल्पवृक्षे । चिन्तामणि हस्तगतं दुरापं मन्ये स मुग्धस्तृणवज्जहाति ।। १९ दुःखानि सर्वाणि निहन्तुकामनिष्पीडितमाणिगणानि धर्मः। उपासनीयो विधिना विधिहरग्निहिमानीव दुरुत्तराणि ॥ २० सस्यानि बीजं ससिलानि मेघं घृतानि दुग्धं कुसुमानि वृक्षम् । काङ्क्षत्यहान्येष विना दिनेशं धर्म विना काङ्क्षति यः सुखानि ।। २१ आयान्ति लक्ष्म्यः स्वयमेव रुच्यं धर्म दधानं पुरुषं पवित्राः । प्रसूनगन्धस्थगिताखिलाशं सरोजिनीखण्डमिवालिमालाः ।। २२ निषेवते यो विषयं विहीनं धर्म निराकृत्य सुखामिलाषी। पीयूषमत्यस्य स कालकूटं सुदुर्जरं खादति जीवितार्थो ॥२३ धर्मकी सिद्धि भी कदापि नहीं हो सकती है ।।१५।। जैसे अन्नसे हीन शरीर, नयनसेहीन मुख, नीतिसे हीन राज्य, नमकसे हीन भोजन, और चन्द्रमासे हीन रात्रि नहीं सोहैं, वैसे ही धर्मसे हीन जीवन भी नहीं सोहता हैं ।।१६।। जैसे धान्यसे देश, जलसे कमल-वन, शौर्यसे शस्त्रधारी, फलसे वृक्ष, मदसे गज और वेगवान् गतिसे अश्व शोभाको प्राप्त होता है, वैसे ही धर्मसे मनुष्य शोभाको प्राप्त होता है ॥१७॥ जो बुद्धि-विहीन मनुष्य ऐसे अतिकष्टसे प्राप्त हुए मनुष्यभवको पाकरके भी धर्मको धारण नहीं करता हैं, वह उस दारिद्रयपीडित पुरुषके समान मूर्ख हैं, जो अन्यको नहीं प्राप्त होनेवाली सुवर्णराशिको पाकरके भी उसे छोड देता हैं ॥ ५८।। जो पुरुष कल्याणोंकी परम्परारूप फलोंको देनेनाले कल्पवृक्षके समान धर्म में अनादर करता हैं, वह मूढ अति दुर्लक्ष हस्तगत चिन्तामणिको तण के समान छोडता है, ऐसा मैं मानता हूँ ।।१९।। जिन्होंने सर्व प्राणियोंको पीडित कर रक्खा है, ऐसे समस्त दुःखोंको नष्ट करनेकी इच्छावाले विधि-ज्ञाता पुरुषोंको चाहिए कि वे विधि पूर्वक धर्मको उसी प्रकारसे उपासना करे, जिस प्रकारसे कि अति भयंकर हिमपातसे पीडित पुरुष अग्निकी उपासना करते हैं ।२०।। जो पुरुष धर्म-सेवनके विना सुखोंको चाहता हैं, वह उस पुरुष के समान मूर्ख हैं, जो कि बीजके बिना धान्यको चाहे, मेघके बिना जलको चाहे, दुग्धके बिना घृतके चाहे, वृक्षके बिना पुष्पको चाहे और सूर्यके बिना दिनको चाहता है ।।२१। धर्मको धारण करनेवाले भव्य पुरुषके समीप पवित्र लक्ष्मियाँ स्वयं ही आती है, जिस प्रकार कि कुसुमोंकी सुगन्धिसे सर्व दिशाओंकों व्याप्त करनेवाले कमलिनी-वनके समीप भौंरोंकी पंक्ति स्वयमेव आती हैं ।।२२।। जो हीन पुरुष धर्मका निराकरण कर और सुखाभिलाषी होकर Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह मोगोपभोगाय करोति वीनो दिवानिशं कर्म यथा सुयत्नः। तथा विधत्ते यदि धर्ममेकं क्षणं तदानीं किमु नैति सौख्यम् ।। २४ ये योजयन्ते विषयोपभोगे मानुष्यमासाद्य दुरापमज्ञाः । निष्कृत्य कर्पूरवनं स्फुटं ते कुर्वन्ति वाटी विषपादपानाम् ।। २५ गृहन्ति धर्म विषयाकुला ये न भगुरे मङ्क्ष मनुष्यभावे । प्रदह्यमाने भवनेऽग्निना ते निस्सारयन्ते न धनानि नूनम् ॥ २६ सर्वेऽपि भावाः सुखकारिणोऽमी भवन्ति धर्मेण विना न पुंसाम् । तिष्ठन्ति वृक्षाः फलपुष्पयुक्ताः कालं कियन्तं खलु मूलहीनाः ।। २७ मोक्षावसानस्य सुखस्य पात्रं भवन्ति भव्या भवभीरवो ये। भजन्ति भक्त्या जिननाथदृष्टं धर्म निराच्छादमदूषणं ये ।। २८ लक्ष्मी विधातुं सकलां समर्थ सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनम् । परीक्ष्य गण्हन्ति विचारदक्षा: सुवर्णवद्वञ्चनमीतचित्ताः ।। २९ स्वर्गापवर्गामलसौख्यखानि धर्म गृहीतुं परमो विवेकः । सवा विधेयो हत्ये पटिष्टर्बुधस्तु तं रत्नमिवापदोषम् ।। ३० इन्द्रिय-विषयोंका सेवन करता हैं, वह अमृतको छोडकर और जीवनका अभिलाषी हो करके अति भयंकर कालकूट विषको खाता है ॥२३॥ यह दीन पुरुष भोगोपभोगकी प्राप्तिके लिए दिनरात जैसा प्रयत्न करता है, वैसा प्रयत्न यदि एक क्षणभर भी धर्म के लिए करे,तो क्या वह तभी सुखको नहीं प्राप्त होगा? अर्थात् अवश्य ही सुखको प्राप्त होगा ।।२४। जो अज्ञानी जन इस दुर्लभ मनुष्य-जन्मको पाकर उसे विषयोंके उपभोगमें लगाते है, वे मानो कर्पूरके वनको काट कर निश्चयसे विष-वृक्षोंकी वाटिकाको लगाते है ।।२५।। जो इस क्षण-भंगुरमनुष्य भवमें विषयाकुलित होकर धर्मको ग्रहण नहीं करते हैं, वे निश्चयसे अग्नि-द्वारा भवनके जलने पर भी उसमें रखे हुए अपने धनको नहीं निकालते हैं, ऐसा मै मानता हूँ॥२६॥ धर्मके विना मनुष्यको ये सभी सुखकारी पदार्थ कभी भी प्राप्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि मूल-जडसे हीन फल- युक्त भी वृक्ष कितने काल तक ठहर सकते है ।।२७।। जो भव-भीरु भव्य पुरुष विषय-स्वादसे रहित, निर्दोष जिननाथोपदिष्ट धर्मको भक्तिसे सेवन करते हैं, वे मोक्ष-पर्यन्त सुखके भाजन होते हैं । २८।। जैसे ठगाये जानेके भयसे चिन्तित मनुष्य भलीभाँतिसे परीक्षा करके सुवर्णको खरीदते हैं, उसी प्रकार विचार-दक्ष पुरुष भी सर्व प्रकारकी लक्ष्मीको देनेम समर्थ, विश्वकल्याणकारी अति दुलभ इस धर्मकी भी परीक्षा करके ही उसे ग्रहण करते है ।।२९।। जिस प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य निर्दोष रत्नके खरीदने में परम विवेक रखते हैं, उसी प्रकार चतुरज्ञानी जनोंको भी स्वर्ग और मोक्षके निर्मल सूखोंकी खानिरूप धर्मको ग्रहण करनेके लिए परमविवेक हृदयमें सदा धारण करना चाहिये ॥३०॥ संसारके सभी शब्दमात्रसे 'धर्म, धर्म' ऐसा कहते है, किन्तु उसके वास्तविक स्वरूपका विचार नहीं करते हैं। जैसे 'दुग्ध' नामकी शब्द-समता होनेपर भी आक-दुग्ध और गो-दुग्धमें महान् अन्तर है, वैसे ही 'धर्म' इस नामकी समानता होने पर भी उसकी पूजनीयता नाना भेदोंसे भेदको . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २६७ तं शब्दमात्रेण वदन्ति धर्म विश्वेऽपि लोका न विचारयन्ति । न शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेदविभेद्यते क्षीरमिवार्चनीयम् ॥ ३१ हिंसानृतस्तेयपरांगसंगग्रन्थग्रहादत्तदुरन्तदुःखाः। धर्मेषु येष्वत्र भवन्ति निन्द्यास्ते दूरतो बुद्धिमतां विवाः ।। ३२ निहन्यते यत्र शरीरिवर्गो निपीयते मद्यमुपास्यते स्त्री। बोभुज्यते मांसमनर्थमूलं धर्मस्य वार्ताऽपि न तत्र नूनम् ।। वधादयः कल्मषहेतवो ये न सेवितास्ते वितरन्ति धर्मम् । न कोद्रवाः क्वापि वसुन्धरायां निवीयमाना जनयन्ति शालिम् ।। ३४ हिंसापरस्त्रीमधुमांससेवां कुर्वन्ति धर्माय विबुद्धयो ये । पीयूषलाभाय विवर्द्धयन्ते विषद्रुमास्ते विविधरुपायैः ।। ३५ यमद्यमांसाङ्गिवधादयोऽमी निर्मानयुक्ताः कुशलाय शास्त्रैः। आकर्णनीयानि न तानि दक्षैः शत्रूदितानीव वचांसि जातु ॥ ३६ पठन्ति श्रृण्वन्ति वदन्ति भक्त्या स्तुवन्ति रक्षन्ति नयन्ति बुद्धिम् । ये तानि शास्त्राण्यनुमन्यमानास्ते यान्ति सद्योऽपि कुयोनिमग्नाः ।। ३७ धर्म वदन्तेऽङ्गिवधादयोमी विधीयमाना यदि नाम तथ्यम् । सांसारिकाचारविधौ प्रवृत्ता न पापिनः केऽपि तदा भवन्ति ।। ३८ रागादिदोषाकुलमानसैर्ये प्रन्थाः क्रियन्ते विषयेषु लोलः । कार्याः प्रमाणं न विचक्षणेस्ते जिघृक्षभिर्धर्ममगहणीयम् ।। ३९ प्राप्त होती हैं । भावार्थ-वीतराग-प्ररूपित धर्म और सरागियों द्वारा 'नरूपित धर्म में महान् अन्तर हैं ॥३१॥ जिन-जिन धर्मो में अत्यन्त दुःखोंके देनेवाले हिंसा, असत्य, स्तेय, स्त्री-संगम और परिग्रहरूप ग्रह विद्यमान है, वे सभी धर्म निन्द्य हैं, अतएव बुद्धिमान् लोगोंको उनका दूरसे ही परित्याग करना चाहिए ॥३२।। जिस धर्म में प्राणिवर्ग मारा जाता हैं, मद्य-पान किया जाता है, स्त्री-सेवन होता है और सर्व अनर्थों का मूल मांस खाया जाता है, वहाँ पर निश्चयसे धर्मकी मात्रा भी नहीं हैं, ऐसा जानना चाहिए ।।३३।। जो हिंसादि कार्य पापके हेतु हैं, वे सेवन करने पर भी धर्मको उत्पन्न नहीं करते है । कभी कहीं पर पृथिवीमें बोये गये कोदों शालिधान्यको उत्पन्न नहीं करते हैं ॥३४॥ जो निर्बुद्धि जन धर्म प्राप्त करने के लिए जीवहिंसा करते हैं, परस्त्री, मधु और मांसका सेवन करते है, वे लोग अमृत पानेके लिए विविध उपायोंसे विषवृक्षोंको ही बढाते हैं ॥३५।। जिन शास्त्रोंके द्वारा मद्य-मांसका सेवन और हिंसादि कार्य कुशल-मंगलके लिए प्रतिपादन किये गये हैं, वे शास्त्र शत्रुओंके द्वारा कहे गये वचनोंके समान कदाचित् भी चतुर जनोंको नहीं सुनना चाहिए ॥३६।। जो अज्ञजन उक्त प्रकारके पाप-वर्धक शास्त्रोंको पढते है, सुनते है,भक्तिसे प्रवचन करते हैं, स्तवन करते है, उनकी रक्ष एवं वृद्धि करते हैं और अनुमोदना करते है, वे सभी मूर्ख लोग कुयोनिको प्राप्त होते है ।।३७ । यदि वे अनुष्ठान किये गये जीवहिंसादि कार्य यथार्थमें धर्मको देते है, तब तो फिर सांसारिक आचारके विधानमें प्रवृत्त कोई भी पुरुष पापी नहीं ठहरते है ।।३८॥ रागादि दोषोंसे जिनका मन आकुलित हैं और इन्द्रिय-विषयोंके जो लोलुपी है, ऐसे Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रावकाचार-संग्रह ये द्वेषरागश्रमलोभमोहप्रमादनिद्रामवखेव्हीनाः । विज्ञातनिःशेषपदार्थतत्त्वास्तेषां प्रमाणं वचन विधेयम् ॥ ४० रागादिदोषा न भवन्ति येषां न सन्त्यसत्यानि वचांसि तेषाम् । हेतुव्यपाये नहि जायमानं विलोक्यते किञ्चन कार्यमार्यः ॥ ४१ विना गुरुभ्यों गुणनीरवेभ्यो जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि।। निरीक्षते कुत्र पदार्थजातं विना प्रकाशं शुभलोचनोऽपि । ४२ ये ज्ञानिनश्चारुचरित्रमाजो ग्राह्यो गुरूणां वचनेन तेषाम् । सन्देहमत्यस्य बुधेन धर्मो विकल्पनीयं वचनं परेषाम् ।। ४३ भीतैर्यथा वञ्चनतः सुवर्ण प्रताडनच्छेदनतापघर्षेः । तथा तपःसंयमशीलशौचैः परीक्षणीयो गुरुरुद्धबोधेः ।। ४४ संसारमुद्भूतकषायदोषं विलङ्घिषन्ते गुरुणा विना ये । विभीमनक्रादिगणं ध्रुवं ते वादि तितीर्षन्ति विना तरण्डम् ॥ ४५ येषां प्रसादेन मनः करीन्द्रः क्षणेन वश्यो मवतीह दुष्टः । मजन्ति तान्ये गणिनो न मक्त्या तेभ्यः कृतघ्ना न परे भवन्ति ।। ४६ कृतोपकारो गुरुणा मनुष्यः प्रपद्यते धर्मपरायणत्वम् । चामीकराश्मैव सुवर्णभावं सुवर्णकारेण विशारदेन ।। ४७ लोगोंके द्वारा जो शास्त्र बनाये जाते हैं, उन्हें निर्दोष धर्म धारण करनेके इच्छुक विचक्षग जन धर्मके विषयमें प्रमाण न माने ॥३९॥ किन्तु जो द्वेष, रागके आश्रयभूत लोभ, मोह,प्रमाद निद्रा, मद, खेदसे रहित हैं और जिन्होंने सर्व पदार्थोके रहस्यभूत तत्त्वोंको जान लिया हैं,ऐसे वीतरागी सर्वज्ञदेवके वचन प्रमाण मानना चाहिये ।।४०॥ जिनके रागादिक दोष नहीं होते है, उनके वचन असत्य नहीं होते है, क्योंकि कारणके अभावमें कोई भी कार्य आर्य पुरुषोंके द्वारा नहीं देखा जाता हैं। कहनेका भाव यह है कि असत्य बोलने का कारण राग-द्वेषादिक हैं। जिन पुरुषोंके उनका अभाव है, उनके वचन सदा सत्य ही होते है ।।४१॥ गुणोंके समुद्र ऐसे गुरुओंके विना विचक्षण पुरुष धर्मको नहीं जान पाता हैं। क्या सुन्दर नेत्रवाला भी पुरुष विना प्रकाशके कहीं किसी भी पदार्थ-समूहको देख सकता हैं ॥४२॥ जो ज्ञानवान् और सुन्दर पवित्र चरित्रके धारक हैं, ऐसे गुरुओंके वचनसे समझदार पुरुषको सन्देह छोडकर धर्म ग्रहण करना चाहिये । जिनका ज्ञान और चारित्र समुज्ज्वल नहीं है, ऐसे सामान्य लोगोंके वचन सन्देहके योग्य होते हैं । ४३।। जिस प्रकार ठगाये जानेके भयसे लोग ताडन, तापन, छेदन और घर्षणके द्वारा सुवर्णकी परीक्षा करते है, उसी प्रकार 'गुरु' इस शब्दसे कहे जानेवाले व्यक्तियोंकी तप, संयम, शील और ज्ञान इन चार बातोंसे परीक्षा करनी चाहिये ।।४४।। जो गुरुके विना ही कषायरूप दोषके उत्पन्न करनेवाले संसारको लांधना चाहते है, वे निश्चयसे मगर-मच्छादिसे भरे हुए अति भयंकर समुद्रको नावके विना ही तिरना चाहते है ॥४५॥ जिनके प्रसादसे इस लोकमें अति दुष्ट मनरूपी मदोन्मत्त गजेन्द्र क्षणमात्रमें वश हो जाता है, ऐसे गुणी गुरुजनोंकी जो लोग भक्तिसे सेवा-उपासना नहीं करते हैं, उनसे अतिरिक्त अन्य कोई कृतघ्नी नहीं हैं ॥४६॥ गुरुके द्वारा जिसका उपकार किया गया है, ऐसा मनुष्य धर्ममें निपुणताको प्राप्त हो जाता Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २६९ निवर्तमानं व्रततो गुरुभ्यो न शक्यते वारयितुं परेण । व्यलोकवादी व्यवहारकार्ये साक्षीकृतैरेव नियम्यते हि ॥ ४८ दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शोलेन भार्या सरसी जलेन । न सूरिणा भाति विना व्रतस्थः शमेन विद्या नगरी जनेन ।। ४९ विधीयते सुरिवरेण सारो धर्मो मनुष्ये वचनरुवारः। मेघेन देशे सलिलः फलाढ्यो निरस्ततापैरिव सस्यवर्गः ।। ५० लब्धे पदे सम्महनीयवृत्तीगुरोरनुष्ठाय बिनीतचेताः । पापस्य मव्यो विदधाति नाशं व्याधेरिव व्याधिनिषदनस्य ।। ५१ सर्वोपकारं निरपेक्षचित्त: करोति यो धर्मधिया यतीशः । स्वकार्यनिष्ठरुपमीयतेऽसौ कथं महात्मा खलु बन्धुलोकैः ।। ५२ निषेव्यमाणानि वचांसि येषां जीवस्य कुर्वन्त्यजरामरत्वम् । नागधनीया गुरवः कथं न ते विभीषणा संसृतिराक्षसीतः ।। ५३ मातापितृज्ञातिनराधिपाया जीवस्य कुर्वन्त्यपकारजातम् । यत्सूरिदत्तामलधर्मनन्नास्तेनैष तेभ्योऽतिशयेन पूज्यः ।। ५४ निषेवमाणो गुरुपादपनं त्यक्तान्यकर्मा न करोति धर्मम् । प्ररूढसंसारवनक्षयाग्नि निरर्थकं जन्म नरस्य तस्य ।। ५५ हैं जैसे कि चतुर सुनारके द्वारा सोना सुवर्णताको प्राप्त हो जाता है ।।४७॥ व्रतसे पराङमुख होनेवाला मनुष्य गुरुके सिवाय अन्य पुरुषसे निवारण नहीं किया जा सकता। व्यावहारिक कार्यो में झूठ बोलनेवाला मनुष्य साक्षात्कारी मनुष्योंके द्वारा ही नियंत्रित किया जाता हैं। ॥४८॥ जैसे दुग्धसे गाय, कुसुमसे वेलि, शीलसे नारी, जलसे सरोवर, प्रशमभावसे विद्या और मनुष्योंसे नगरी शोभाको प्राप्त होती हैं. उसी प्रकार व्रती पुरुष गुरुसे शोभा पाता हैं । विना गुरुके व्रती जन भी शोभा नहीं पाते ॥४९. उत्तम आचार्य उदार वचनोंसे मनुष्यमें सारभूत धर्मका विधान करता है । जैसे कि मेघ फलयुक्त देशमें सन्तापको दूर करनेवाले जल से धान्य-समूहको उपजाता हैं ॥५०॥ जैसे रोगी वैद्यका उपदेश ग्रहण कर उसके द्वारा बतलाई गई औषधिको ग्रहण कर अपनी व्याधिका नाश करता है, उसी प्रकार विनम्रचित्त भव्य पूज्य आचारवाले गुरुसे उपदेशको प्राप्त कर पापका नाश करता है ॥५१।। जो आचार्य निरपेक्ष चित्त होकर धर्मबुद्धिसे सर्व प्राणियोंका उपकार करता हैं, वह महात्मा अपने कार्य-साधनमें तत्पर बन्धुजनोंसे कैसे उपमाको प्राप्त हो सकता है। कहनेका भाव यह हैं कि स्वार्थी बन्धुओंसे परमार्थी गुरुकी कोई तुलना नहीं की जा सकती है ।।५२॥ जिनके सेवन किये गये वचन जीवको अजर अमर बना देते हैं, ऐसे गुरुजन संसृतिरूपी राक्षसीसे भयभीत पुरुषके द्वारा कैसे आराधनाके योग्य नहीं है ॥५३॥ लोकमें जो माता-पिता, जातीय बन्धु और राजादिक जीव नाना उपकारोंको करते है, वे आचार्य-प्रदत्त निर्मल धर्मसे प्रेरित हो करके ही करते है, इसलिए गुरुजन माता-पितादिसे भी अधिक अतिशयके साथ पूज्य हैं। ५४॥ जो पुरुष अन्य सर्व कार्य छोडकर गुरुके चरणकमलकी सेवा करता हुआ पति प्रौढ संसाररूप वनका नाश करने के लिए अग्निके समान धर्मका सेवन नहीं करता हैं,उसका मनुष्य जन्म निरर्थक है ।।५५।। इस Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. श्रावकाचार-संग्रह यं सूरयो धर्मधिया वधन्ते यं बान्धवाः स्वार्थधिया जनानाम् । अर्थ तयोरन्तरमत्र वेद्यं सताऽणुमेोरिव जायमानम् ।। ५६ लक्ष्मी करीन्द्रश्रवणास्थिरां च तृणाग्रतोयस्थितिजीवितव्यम् । विनश्वरं यौवनकं च दृष्ट्वा धर्म न कुर्वन्ति कथं महान्तः ।। ५७ अनश्वरी यो विदधाति लक्ष्मी विधूय सर्वां विपक्षणेन । कथं स धर्मः क्रियते न सद्भिस्त्याज्येन देहेन मलायनेन ।। ८५ पिण्ड ददाना न नियोजयन्ति कलेवरं भत्यमिवात्मनीने । कार्ये सदा ये चरितोपकारे ते वञ्चयन्ति स्वयमेव मूढाः ।। ५९ गहाङ्गजापुत्रकलत्रमित्रस्वस्वामिभूत्यादिपदार्थवर्गे। विहाय धर्म न शरीरमाजामिहास्ति किञ्चित् सहगामि पथ्यम् ॥ ६० घातिक्षयोदभूतविशुद्धबोधप्रकाशविद्योतितसर्वतत्त्वाः । भवन्ति धर्मेण जिनेन्द्र चन्द्रास्त्रिलोकनाथाचितपादपाः ।। ६१ आराध्यमानस्त्रिदशैरनेकविराजते स्वः प्रतिबिम्बकर्वा । धर्मप्रसादेन निलिम्पराजः सुराङ्गनावक्त्रसरोजमङगः ।। ६२ द्वात्रिंशदु:शसहस्रमूर्धप्रसूनमालापिहिताघ्रियुग्मः । धर्मेण राज्यं विदधाति चक्री विडम्बमानस्त्रिदशेन लीलाम् ।। ६३ संसारमें मनुष्योंको जो अर्थ आचार्य धर्मबुद्धिसे देते है और बन्धुजन स्वार्थबुद्धिसे देते हैं, उन दोनोंका अन्तर सज्जनोंको अणु और सुमेरुके समान जानना चाहिये ॥५६।। लक्ष्मीको गजराजके कानके समान चंचल देखकर, तथा जीवनको तृणके अग्र भाग पर स्थित जल-बिन्दुके समान क्षण-भंगुर देखकर और जवानीको अतिशीघ्र ढलती हुई देखकर महान् पुरुष धर्मको कैसे नहीं आचरण करते हैं, अर्थात् संसारकी क्षण-भंगुर दशाको देखकर वे धर्मको धारण करते ही है ।।५७॥ जो धर्म सभी विपदाओंको क्षणभरमें दूर कर अविनश्वर लक्ष्मीको देता है, वह धर्म सज्जनोंके द्वारा इस त्याज्य और मलके घर शरीरसे कैसे नही धारण किया जायगा? अर्थात् सज्जन ऐसे क्षण-भंगुर शरीरसे अवश्य ही धर्मका पालन करेंगे ।।५८।। जो पुरुष सेवकके समान इस शरीरको भोजन देते हुए भी अपने कल्याणरूप उपकारी कार्यमें नहीं लगाते है, वे मूढ जन स्वयमेव ही ठगाये जाते है ।।५९।। इस लोकमें एकमात्र हितकारी धर्मके सिवाय गृह, पुत्री, पुत्र, कलत्र, मित्र, धन, स्वामी, सेवक आदि समस्त पदार्थों से कोई भी प्राणियोंके साथ परभवमें जानेवाला नहीं हैं ।।६०॥ वातिया कर्मोंके क्षयसे प्रकट हुए निर्मल केवलज्ञानरूप परम प्रकाशसे सर्व तत्त्वोंको प्रकाशित करनेवाले, और तीनों लोकोंके स्वामियों द्वारा जिनके चरणकमल चर्चित हैं, ऐसे जिनेन्द्रचन्द्र तीर्थंकर देव इस धर्मके प्रभावसे होते है।॥६१।। अपने प्रतिबिम्बके समान अनेकों देवोंके द्वारा आराधना किया जानेवाला,और देवाङगनाओंके मुख-सरोजका भ्रमर ऐसा देवाधिपति इन्द्र भी धर्मके प्रसादसे ही स्वर्गमें शोना पाता हैं ॥६२।। बत्तीस हजार राजाओंके मस्तकोंकी पुष्पमालाओसे जिसके चरण-कमल आच्छादित हो रहे है और जो अपनी लीलासे देवोंके इन्द्रकी लीलाको विडम्बित करता हैं, ऐसा चक्रवर्ती भी . Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २७१ मनोमवाक्रान्तविदग्धरामाकटाक्षलक्षीकृतकान्तकायः । दिगङ्गनाध्यापितशुद्धकोतिर्धर्मेण राजा भवति प्रतापी ॥ ६४ मतगजा जङ्गमशैललीलास्तुरामा निजितवायुवेगाः ।। पदातयः शक्रपदातिकल्पा रथा विवस्वद्रथसनिकायाः ।। ६५ योषाश्च शोभाजितदेवयोषा निलिम्पवासप्रतिमा निवासाः । अनन्यलभ्या धन्यधान्यकेशा भवन्ति धर्मेण पुराजितेन ।। ६६ परेऽपि भावा भुवने पवित्रा भवन्ति पुण्यन विना जनस्य । विना मृणाल: (हि नालः) क्वचनापि दृष्टाः सम्पद्यमाना न पयोजखण्डाः ।।१७ स्वपूर्वलोकानुचितोऽपि धर्मो ग्राह्यः सतां चिन्तितवस्तुदायी। प्रप्रार्थयन्ते न किमीश्वरत्वं स्वजात्ययोग्यं जनता सदाऽपि ।। ६८ त्यजन्त्यनकामतमप्यवयं सम्प्राप्य पुण्यं जनयाचनीयम् । कुष्टं कुलायातमपि प्रवीणा: कल्पत्वमासाद्य परित्यजन्ति ।। ६५ मूर्खापवादत्रसनेन धर्म मुञ्चन्ति सन्तो न बुधार्चनीयम् । ततो हि दोषः परमाणुमात्रो धर्मव्युदासे गिरिराजतुल्य: ।। ७० निखिलसुखफलानां कल्पने वृक्ष कुमतमतिविमोता ये विमुञ्चन्ति धर्मम् । विमलमणिविधानं पावनं दृष्टतुष्टय स्फुटमगतबोधाः प्राप्य ते वर्जयन्ति । ७१ अपने महान् साम्राज्यको धर्मके प्रसादसे ही धारण करता हैं ।। ६३॥ कामदेवके आक्रमणसे आक्रान्त सुन्दर चतुर नारियोंके कटाक्षोंसे जिनका सुन्दर देह लक्ष्य बनाया गया है और जिनकी निर्मल कीत्ति दशों दिशाओंमें व्याप्त हो रही हैं,ऐसा कामदेव सदृश अति सुन्दर और प्रतापी राजा धर्मके प्रभावसे होता है ।।६४।। जंगम शैलोंकी लीलाके धारक मदोन्मत्त मतंगज, (हस्ती) वायुके वेगको जीतनेवाले अश्व, इन्द्रके पदातियोंके तुल्य पैदल चलनेवाले सैनिक, सूर्यके समान शीघ्रगामी रथ, अपनी शोमासे देवाङगनाओंको जीतनेवाली स्त्रियाँ, इन्द्र-भवनके सदृश निवास,और अन्य जनोंके द्वारा अलभ्य धन-धान्यके भण्डार पूर्वोपार्जित धर्मसे ही प्राप्त होते हैं ।। ६५-६६।। इनके अतिरिक्त संसारमें अन्य भी जितने उत्तम एवं पवित्र पदार्थ है, वे सभी मनुष्यको पुण्यके विना नहीं प्राप्त होते हैं । क्या मृणालके विना कभी कहीं पर कमलवन पाये जाते देखे गये हैं ॥६७।। अपने कुलके पूर्व पुरुषोंके द्वारा असंचित भी चिन्तित वस्तु-दायी सत्य धर्म सज्जनोंको ग्रहण करना चाहिये । क्या अपनी जातिके अयोग्य ईश्वरपनेको जनता सदा ही नहीं चाहा करती हैं ॥६८।। जैसे प्रवीण पुरुष औषधिके द्वारा कायाकल्प करके कुल क्रमागत भी कुष्ट रोगका परि. त्याग कर देते है,वैसे ही जनताके द्वारा पूज्य, पवित्र, पुण्यरूप धर्मको प्राप्त करके बुद्धिमान् लोग वश-परम्परागत पापरूप अधर्मको छोड देते है ।।६९।। सज्जन पुरुष मूर्ख जनोंके अपवादके भयसे ज्ञानियोंसे पूजनीय धर्मको नहीं छोडते है, क्योंकि मूोसे निन्दा किये जाने पर तो दुःखरूप दोष परमाणु बराबर ही हैं, किन्तु धर्मको छोड देने पर गिरिराज सुमेरुके समान महान् दुःख प्राप्त होता है ।।७०॥ जो अज्ञानी पुरुष कुबुद्धिजनोंके अपवादसे भयभीत होकर समस्त सुखरूप फलोंको देनेके लिए कल्पवृक्षके समान धर्मको छोड देते है, वे निश्चयसे पावन निर्मल मणियोंके निधानको Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ श्रावकाचार-संग्रह अमरनरविभूति यो विधायार्चनीयां नयति निरपवादां लीलया मुक्तिलक्ष्मीम् । अमितगजिनेशः सेव्यतामेष धर्मः शिवपदमनवा लब्धकामेरकामैः ।। ७२ इत्यमितगतिकृतश्रावकाचारे प्रथमः परिच्छेदः ॥१॥ द्वितीयः परिच्छेदः मिथ्यात्वं सर्वदा हेयं धर्म वर्धयता सता। विरोधो हि तयोढिं मृत्युजीवितयोरिव ॥१ संयमा नियमः सर्व नाश्यन्ते तेन पावना: । क्षयकालानलेनेव पादपाः फलशालिनः ॥२ अतत्त्वमपि पश्यन्ति तत्त्वं मिथ्यात्वमोहिताः । मन्यन्ते तृषितास्तोयं मृगा हि मगतष्णिकाम् । ३ विम्रान्ता क्रियते बुद्धिमनोमोहनकारिणा । मिथ्यात्वेनोपयुक्तेन मद्येनेव शरीरिणः ॥ ४ पवार्थानां जिनोक्तानां तवद्धानलक्षणम् । ऐकान्तिकाविभेदेन सप्त भेदमुदाहृतम् ।। ५ क्षणिकोऽक्षणिको जीवः सर्वदा सगुणोऽगुणः । इत्यादिभाषमाणस्य तदैकान्तिकमिष्यते ॥६ सर्वज्ञेन विरागण जीवाजीवादिभाषितम् । तथ्यं न वेति संकल्पो दृष्टिः सांशयिकी मता ।। ७ आगमा लिगिनो देवा धर्माः सर्वे सदा समा: । इत्येषा कथ्यते बुद्धिःपुंसो वैनयिकी जिनः ॥ ८ पूर्णः कुहेतुवृष्टान्तैर्न तत्त्वं प्रतिपद्यते । मण्डलश्चर्मकारस्य भोज्यं चर्मलवरिव ।। ९ पाकर दुष्टजनोंको प्रसन्न करनेके लिए छोड़ देते है ॥७१।। जो धर्म प्रार्थनाके योग्य देव और मनुष्योंकी विभूतिको देकर लीलामात्रसे निर्दोष मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त करता है,वह अमित (अनन्त) ज्ञानशाली जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहा गया धर्म सांसारिक कामनाओंसे रहित किन्तु निर्दोष शिवपदकी कामना करनेवाले पुरुषोंको अवश्य सेवन करना चाहिये ॥७२।। इस प्रकार अमितगति आचार्य-रचित श्रावकाचारमें प्रथम परिच्छेद समाप्त हुआ। धर्मकी वृद्धि करनेवाले सत्पुरुषको मिथ्यात्वका सर्वथा त्याग करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व और धर्म इन दोनोंमें मरण और जीवनके सदृश महान् विरोध है ।।१।। जैसे प्रलयकालकी अग्निसे फलशाली वृक्ष जला दिये जाते हैं, वैसे ही मिथ्यात्वके द्वारा सभी पवित्र यम,नियम और संयम नाश कर दिये जाते हैं ॥२॥ मिथ्यात्वसे मोहित पुरुष अतत्त्वको भी तत्त्व मानते है । जैसे कि तृषातुर हरिण मृगतृष्णाको भी जल मानते है ।।३॥ जैसे मद्यके द्वारा प्राणीकी बुद्धि विभ्रमरूप हो जाती है, उसी प्रकार मनको मोहित करनेवाले मिथ्यात्वसे उपयुक्त जीवकी बुद्धि भी विभ्रमरूप कर दी जाती हैं ।।४।। जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे गये पदार्थोके श्रद्धान न करनेको मिथ्यात्व कहते है, उसे एकान्तिक आदि सात भेद कहे गये है।।५।। आगे ग्रन्थकार उन सातों भेदोंका निरूपण करते है-जीव सर्वथा क्षणिक ही है, अथवा अक्षणिक (नित्य) ही है, सगुण ही हैं, अथवा निर्गुण ही है, इत्यादि एकान्तरूपसे कथन करनेवालेके ऐकान्तिक मिथ्यात्व कहा गया हैं ।।६।। वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा कहे गये जीव-अजीवादि तत्त्व सत्य हैं कि नहीं, ऐसा विचार करनेवालेके सांशयिक मिथ्या त्व माना गया है ।।७।। सभी आगम, सभी गुरु सभी देव और सभी धर्म सदा समान हैं, इस प्रकारकी मनुष्यको बुद्धिको जिनदेवोंने वै नयिक मिथ्यात्व कहा हैं ।।८।। खोटे हेतु और दृष्टान्तोसे परिपूर्ण मनुष्य यथार्थ तत्त्वको नहीं प्राप्त कर पाता है । : Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २७३ अतथ्यं मन्यते तथ्यं विपरीतरुचिर्जनः । दोषातुरमनास्तिक्तं ज्वरीव मधुरं रसम् ॥ १० शीनो निसर्गमिथ्यात्वस्तत्त्वातत्त्वं न बुद्धयते । सुन्दरासुन्दरं रूपं जात्यन्ध इव सर्वदा ।। ११ देवो रागी यतिः सङ्गी धर्मः प्राणिशुनिम्भनम् । मूढदृष्टिरिति ब्रूते युक्तायुक्ताविवेचकः ।। १२ सप्तप्रकारमिथ्यात्वमोहितेनेति जन्तुना । सर्व विषाकुलेनेव विपरीतं बिलोक्यते ।। १३ । न तत्त्वं रोचते जीवः कथ्यमानमपि स्फुटम् । कुधीरुक्तंमनुक्तं वा निगसर्गेण पुनः परम् ॥ १४ पठन्नपि वचो जनं मिथ्यात्वं नैव मुञ्चति । कुदृष्टि: पन्नगो दुग्धं पिबन्नपि महाविषम् ।। १५ उदये दृष्टिमोहस्य मिथ्यात्वं दुःखकारणम् । घोरस्य सन्निपातस्य पंचत्वमिव जायते ।। १६ बहु बध्नाति यः कर्म स्तोकं भुंक्ते कुदर्शनः । स भवारण्यट्ठःखेभ्यो विमोक्षं लप्स्यते कथम ।। १७ अलि पचमानस्य पुरुषस्य दिने दिने। धान्यस्य गृण्हतः खारी कदा धान्यविमुक्तता ।। १८ न वक्तव्यमिति प्रा. कदाचन यतो भवी । कर्म भक्त बहु स्तोकं स्वीकरोति विसंशयम् ।। १९ अन्यथैकेन जीवेन सर्वेषां कर्मणां ग्रहे । सर्वेषां जायतेऽन्येषां न कथं मुक्तिसङ्गतिः ।। २० समस्तानां तथैकेन पुद्गलानां ग्रहेंऽङ्गिना । अनन्तानन्तकालेन न बन्धः सान्तरः कथम् ।। २१ जैसे कि चमडेके टुकडोंसे भरे हुए मुखवाला चमारका कुत्ता वास्तविक भोजनको नहीं खा पाता है। यह गहीत मिथ्यादष्टि है।.९।। जैसे वात-पित्तादि दोषोंसे पीडित चित्तवाला ज्वरवान मनुष्य मधुर रसको भी कटुक मानता हैं, इसी प्रकार विपरीत श्रद्धानी मनुष्य अतथ्य भी पदार्थको तथ्य मानता है। यह विपरीत मिथ्यादष्टि है ।।१०।। जैसे जन्मान्ध मनुष्य सुन्दर और असून्दर रूपको सर्वथा ही नहीं जानता है, इसी प्रकार निसर्गमिथ्यात्वसे दूषित दीन पुरुष तत्त्व और अतत्त्वको नहीं समझता है । यह निसर्गमिथ्यात्वका स्वरूप है ।११। योग्य अयोग्यके विवेकसे रहित मूढदृष्टि मनुष्य सरागी पुरुषको देव, परिग्रही व्यक्तिको गुरु और प्राणि-घातको धर्म कहता हैं । यह मूढ मिथ्यादृष्टि हैं ।।१२।। इन सात प्रकारके मिथ्यात्वोंसे मोहित प्राणी सर्व वस्तुतत्त्वको विपरीत ही देखता हैं । जैसे कि विषसे आकुलित पुरुषको सभी कुछ विपरीत दिखता हैं । १३॥ कुबुद्धि पुरुष यथार्थ रीतिसे स्पष्ट कहे गये तत्त्वका भी श्रद्धान नहीं करता हैं। किन्तु उक्त या अनुक्त तत्त्वका स्वभावसे ही श्रद्धान करता है ॥१४।। मिथ्यादृष्टि मनुष्य जैन वचनको पढता हुआ भी मिथ्यात्वको नहीं छोडता हैं । जैसे कि दुग्धको पीता हुआ भी सर्प अपने महाविषको नहीं त्यागता है ।।१५।। दर्शनमोहनीयकर्मके उदय होने पर दुःखोंका कारण मिथ्यात्व प्रकट होता है। जैसे कि घोर सन्निपातके होने पर जीवके मरण प्राप्त होता है ।।१६॥ __जो मिथ्यादृष्टि बहुत कर्मको बाँधता हैं और अल्पकर्मको भोगता है, वह भव-काननके दुःखोंसे कैसे छूट सकेगा ।।१७।। जैसे प्रतिदिन अंजली प्रमाण धान्यको खानेवाले और खारी प्रमाण धान्यको ग्रहण करनेवाले मनुष्यके धान्यका बीतना कब हो सकता हैं ।।१८। । ऐसी अशंका करनेवालेके लिए आचार्य उत्तर देते है-ज्ञानी जनोंको ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि जीवके परिणामोंकी विशुद्धिके योगसे कदाचित् ऐसा भी अवसर आता हैं, जबकि वह निःसन्देह रूपसे बहुत कर्मको भोगता है और अल्प कर्मको स्वीकार करता हैं ॥१९।। यदि ऐसा न माना जाय, तो एक जीवके द्वारा सर्व कर्मोके ग्रहण करने पर शेष अन्य सर्व जीवोंके मुक्तिकी प्राप्ति कैसे संगत नहीं होगी ।।२०।। इसी प्रकार एक जीवके द्वारा समस्त कर्मपुद्गलोंके ग्रहण करने पर अनन्तानन्तकालके द्वारा भी बन्ध अन्तर-सहित कैसे नहीं होगा ।।२१।। जिस प्रकार Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्रावकाचार-संग्रह सस्यानीवोषरक्षेत्रे निक्षिप्तानि कदाचन । न व्रतानि प्ररोहन्ति जीवे मिथ्यात्ववासिते ॥ २२ मिथ्यात्वेनानु विद्धस्य शल्येनेव महीयसा । समस्तापन्निदानेन जायते निर्वतिः कुतः ।। २३ षोढानायतनं जन्तोः सेवमानस्य दुःखदम् । अपथ्यमिव रोगित्वं मिथ्यात्वं परिवर्धते ।। २४ मिथ्यादर्शनविज्ञानचारित्रः सह भाषिताः । तदाधारा जनाः पापा: षोढाऽनायतनं जिनः ।। २५ एकैकं वा त्रयो द्वद्वे रोचन्ते न परे त्रयः । एकस्त्रीणीति जायन्ते सप्ताप्येते कुदर्शनाः ।। २६ दवीयः कुरुते स्थान मिथ्यादृष्टिरभीप्सितम् । अन्यत्र गमकारीव घोरैर्युक्तो व्रतैरपि ।। २७ न मिथ्यात्वसमः शत्रुन मिथ्यात्वसमं विषम् । न मिथ्यात्वसमो रोगो न मिथ्यात्वसमं तमः ।।२८ द्विषद्विषतमोरोगवुःखमेकत्र जायते । मिथ्यात्वेन दुरन्तेन जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ।। २१ वरं ज्वालाकुले क्षिप्तो देहिनाऽऽत्मा हुताशने । न तु मिथ्यात्वसंयुक्तं जीवितव्यं कथञ्चन ।। ३० पापे प्रवर्त्यते येन येन धर्मानिवर्त्यते । दुःखे निक्षिप्यते येन तन्मिथ्यात्वं न शान्तये ॥ ३१ क्षेत्रस्वभावगो घोरा निरन्ता दुःसहाश्चिरम् । विविधा दुर्दशा: श्वभ्रे कायमानससम्भवाः ।। ३२ ऊसर भूमिवाले खेतमें बोये गये धान्य कभी भी नहीं उपजते है, उसी प्रकार मिथ्यात्वसे वासित जीवमें व्रत भी अंकुरित नहीं होते हैं ।।२२।। जैसे महान् शल्यसे अनुबिद्ध पुरुषके सुखकी प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार समस्त आपत्तियोंके निधानभूत मिथ्यात्वसे संयुक्त पुरुषके निवृति (मुक्ति) का सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ।।२३।। जैसे अपथ्यके सेवन करनेवाले मनष्यके दुःखदायी रोगपना उत्तरोत्तर बढता है, उसी प्रकार छह प्रकारके अनायतनों (अधर्म के स्थानों के सेवन करनेवाले पुरुषके दुःखदायी मिथ्यात्व भी उत्तरोत्तर बढता है ।।२४।। मिथ्या दर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीनोंके साथ इनके आधारभूत पापी मनुष्य, ये छह अनायतन जिनदेवने कहे हैं ॥२५॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोमेंसे एक-एकको नहीं माननेवाले तीन मिथ्यादृष्टि, तथा उनमेंसे किन ही दो-दोको नहीं माननेवाले तीन मिथ्यादृष्टि और तीनोंको ही नहीं माननेवाले एक मिथ्यादृष्टि इस प्रकारसे सात प्रकारके मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये ।।२६।। जैसे अन्यत्र अर्थात् विपरीत दिशामें गमन करनेवाला जीव अपने अभीष्ट स्थानको और भी दूर करता जाता है, उसी प्रकार अति कठिन घोर व्रतोंके आचरणसे युक्त भी मिथ्यादृष्टि पुरुष अपने मुक्ति स्थानको और भी अत्यन्त दूर करता जाता है ॥२७॥ संसारमें इस जीवका मिथ्यात्वके समान कोई शत्रु नहीं, मिथ्यात्वके समान कोई विष नहीं, मिथ्यात्वके समान कोई रोग नहीं और मिथ्यात्वके समान कोई अन्धकार नहीं हैं ॥२८॥ शत्रु, विष, अन्धकार और रोग,इनके द्वारा एक भवमें ही दुःख दिया जाता है, किन्तु इस दुरन्त मिथ्यात्वके द्वारा जन्म-जन्ममें जीवको महान् दु:ख दिया जाता है ।।२९।। भयंकर ज्वालाओंसे व्याप्त अग्निमें किसी जीवात्माका फेंका जाना भला हैं, किन्तु मिथ्यात्वसे संयुक्त जीवितव्य तो किसी भी प्रकारसे भला नहीं है।३०।। जिस मिथ्यात्वके द्वारा जीव पापमें प्रवृत्त कराया जाता है, धर्मसे दूर हटाया जता है, तथा दुख में फेंका जाता है, वह मिथ्यात्व कभी भी जीवकी शान्तिके लिए नहीं हो सकता है ॥३१॥ इस दुरन्त दुःखदायी मिथ्यात्वके द्वारा जीवोंको नरकोंमें क्षेत्रस्वभावसे होनेवाले घर कायिक और मानसिक अकथनीय नाना प्रकारके दुःसह दुःख चिरकाल तक निरन्तर सहना पडते हैं। इस मिथ्यात्वके द्वारा ही विवेकरहित जीवन बितानेवाले पराधीन तिर्यचोंमें भी दाह देना, बाँधना, चिन्ह करना, अंग छेदना और शीत वात आदिसे होनेवाले नानाप्रकारके भयंकर दुख: Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २७५ दोहबाहाङ्कनाच्छेवशीतवातादिगोचराः । परायत्तेषु तिर्यक्ष विवेकरहितात्मतु ॥ ३३ दैन्यदारिद्रयदौर्भाग्यरोगशोकपुरस्सगः । आर्यम्लेच्छप्रकारेषु मानुषेषु निरन्तराः ॥ ३४ स्वस्य हानि परद्धिमीक्षमाणेष मानिषु । योज्यमानेषु देवेषु हठतः प्रेष्यकर्मणि ॥ ३५ मिथ्यात्वेन दुरन्तेन विधीयन्ते शरीरिणाम् । वेदना दुःश्रवा भीमा वैरिणेव दुरात्मना ।। .६ यान्यन्यान्यपि दुःखानि संसाराम्भोधिवर्तिनाम् । न जातु यच्छता तेन मिथ्यात्वेन विरम्यते ।। ३७ विवेको हन्यते येन मूढता येन जन्यते । मिथ्यात्वतः परं तस्माद्दुःखद किम विद्यते ।। ३८ लब्धं जन्मफलं तेन सार्थकं तस्य जीवितम् । मिथ्यात्वविषमुत्सुज्य सम्यक्त्वं येन गृह्यते ।। ३९ भव्यः पञ्चेन्द्रियः पूणो लब्धकालादिलब्धिकः । पुद्गलार्धपरावर्ते काले शेषे स्थिते सति ।। ४० अन्तर्मुहूर्तकालेन निर्मलीकृतमानसः । आद्यं गण्हाति सम्यक्त्वं कर्मणां प्रशमे सति ।। ४१ निशीथं वासरस्येव निर्मलस्य मलीमसम् । पश्चादायाति मिथ्यात्वं सम्यक्त्वस्यास्य निश्चितम् ॥४२ तस्य प्रपद्यते पश्चान्महात्मा कोऽपि वेदकम् । तस्यापि क्षायिकं कश्चिदासन्नीभूत निर्वृतिः ॥ ४३ लब्धशुद्धपरीणाम: कल्मषस्थितिहानिकृत् । अनन्त गुणया शुद्धया वर्धमानः क्षणे क्षणे ॥ ४४ प्रकृतीनामस्तानामनुभागस्य खर्वकः । वर्धकः पुनरन्यासां युक्तायुक्तविवेचकः ।। ४५ स्थितेऽन्तकोटिकोटोकस्थितिके सति कर्मणि । अध.प्रवृत्तिकं नाम करणं कुरुते पुरा ।। ४६ भोगना पडते है। इसी मिथ्यात्त्रके द्वारा नाना प्रकारके आर्य और म्लेच्छ मनुष्योंमें निरन्तर दोनता, दरिद्रता, दुर्भाग्य, रोग और शोक आदिके नाना दुःखोंको भोगना पडता हैं। तथा इसी मिथ्यात्वके द्वारा देवोंमें उत्पन्न हो करके भी परस्पर एक दूसरेकी ऋद्धिको देखकर ईर्ष्याभाव उत्पन्न होनेसे और दासकर्ममें हठात् नियुक्त किये जानेपर अपने अपमानको देखकर उन अभि. मागी देवोंमें दुःसहदुःख देखे जाते है। इस प्रकार इस दुरात्मा दुरन्त दुखदायी महान् शत्रु मिथ्यात्वके द्वारा जीवोंको चारों ही गतियोंमें दुःसह भयंकर वेदनाएँ दी जाती हैं।।३२.३६॥ संसाररूपी समुद्रमें पड़े हुए जीवोंको अन्य जितने भी दुःख भोगना पडते हैं, उन सबको देता हुआ यह मिथ्यात्व कभी भी विश्राम नहीं लेता हैं, अर्थात् निरन्तर महादुःखोंको देता ही रहता है ॥३७॥ जिस मिथ्यात्वसे विवेक नष्ट होता है और मूढता उत्पन्न होती हैं, उस मिथ्यात्वसे बढकर और दुःखदायी संसारमें क्या है, अर्थात् मिथ्यात्वसे बढकर संसारमें दुःखदायी और कोई भी पदार्थ नहीं है ।।३८।। जिस जीवने ऐसे भयंकर मिथ्यात्वरूपी विषको छोडकर सम्यक्त्वको ग्रहण किया है,उसका जीवन सार्थक है और उसीने जन्मका फल प्राप्त किया है । ३९॥ संसारमें परिभ्रमणका काल अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाग शेष रह जाने पर भव्य, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक और काललब्धि आदिको पानेवाला जीव अन्तर्मुहर्तकालके द्वारा अपने मानसको निर्मल करके सम्यग्दर्शनके निरोधक कर्मोके उपशम होने पर आद्य औपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण करता हैं ॥४०-४१।। जैसे निर्मल दिनके पश्चात् अवश्य ही मलीमस रात्रि आती हैं, उसी प्रकार इस औपशमिकसम्यक्त्वके अन्तमुंहूर्त पश्चात् मिथ्यात्व अवश्य उदयको प्राप्त होता हैं, यह निश्चित है ।।४२।। तत्पश्चात् कोई महान् आत्मा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता हैं और कोई अतिनिकट भव्य क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त होता हैं ।।४३।। जब यह जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके सन्मुख होता है, तब प्रतिक्षण अनन्तगुणी विशुद्धिसे वर्धमान विशुद्ध परिणामवाला होता है, पापप्रकृतियोंकी स्थितिको प्रतिक्षण हीन करता हैं, अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागको प्रतिक्षण घटाता हैं और प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागको प्रतिक्षण बढाता है और योग्य अयोग्यका विवेचक बनता हैं। उक्त Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अपूर्वकरणं तस्मात्तस्मादप्यनिवृत्तिकम् । विदधाति परीणामशुद्धिकारी क्षणे क्षणे ॥। ४७ तत्राद्ये करणे नास्तिच्छेदः स्थित्यनुभागयोः । अनन्तगुणया शुद्धया कर्म बध्नाति केवलम् । ४८ द्वितीयः कुरुते तत्र किञ्चित्स्थित रसक्षयम् । शुभानामशुभानां च वर्धयन् व्हासयन्त्रसम् ॥। ४९ अन्तर्मुहूर्तिकः कालस्तेषां प्रत्येकमिष्यते 1 आदिमे कुरुते तस्मिन्नान्तरं करणं परम् ॥ ५० प्रशमय्य ततो भव्यः कर्मप्रकृतिसप्तकम् । अन्तमुहूतिकं पूर्वं सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ।। ५१ अन्तरे करणे तत्र युक्त्वाऽनन्तानुबन्धिभिः । अन्तर्मुहूर्त कालेन मिथ्यात्वमपवर्तते ।। ५२ मिथ्यात्वं भिद्यते भेदः शुद्धाशुद्धविमिश्रितैः । ततः सम्यक्त्व मिथ्यात्वसम्य‌मिध्यात्वनामभिः ||५३ क्षपयित्वा परः कश्चित्कर्मकृप्रतिसप्तकम् । आदत्ते क्षायिकं पूतं सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् ।। ५४ प्रशमे कर्मणां षष्णामुदयस्य क्षये सति । आदत्ते वेदकं वन्द्यं सम्यक्त्वस्योदये सति ।। ५५ आदिमं त्रितयं हित्वा गुणेषु सकलेष्वपि । सम्यक्त्वं क्षायिकं ज्ञेयं मोक्षलक्ष्मीसमर्पकम् ।। ५६ श्रावकाचार-संग्रह जीव अन्त: कोडाकोडीप्रमाण कर्मस्थिति सत्त्वके रह जाने पर अधः प्रवृत्तकरणको करता है, पश्चात् प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व परिणामोंको प्राप्त हुआ अपूर्वकरणको करके सम्यक्त्वप्राप्ति किये विना नहीं लौटनेवाले ऐसे अनिवृत्तिकरणको धारण करके अन्तर्मुहूर्त शुद्ध परिणामोंको धारण करता है ।।४४-४७।। क्ष उपर्युक्त तीनों करणों में से पहले अधःकरण में किसी भी कर्मकी स्थिति और अनुभागका विच्छेद नहीं होता हैं, केवल वह अनन्तगुणी विशुद्धिसे पुण्य प्रकृतिरूप कर्मको बाँचता हैं । दूसरा अपूर्वकरण शुद्ध कर्मोंके रसको बढाता हुआ और अशुभ कर्मो के रसको घटाता हुआ पाप कर्मोकी स्थिति और रसका कुछ क्षय करता हैं । उपर्युक्त प्रत्येक करणका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा गया है । इनमें से आदिके करणमें यह जीव अन्तरकरण करता है ।।४८- ५० ।। विशेषार्थ - यहाँ जो यह कहा गया हैं कि आदिके करणमें जीव अन्तरकरण करता है, सो यह कथन सिद्धान्तशास्त्रोंके विरुद्ध हैं, क्योंकि उनमें स्पष्ट कहा गया हैं- 'अणियअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु अंतरं करेदि ' ( कसा पाहुडसुत्त १० । ९३ ) अर्थात् तीसरे अनिवृत्तिकरणके संख्यात भागोंके व्यतीत होने पर जीव अन्तरकरण करता हैं । विवक्षित कर्मकी अधस्तन और उपरितन स्थितियोंको छोडकर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियोंके निषेकोंका करणपरिणामोंसे अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं । ( विशेष के लिए देखें कसायपाहुडसुत. पृ. ६२६ ) सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव उस अन्तरकरण के समयमें अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायोंके साथ मिथ्यात्वकर्मका अपवर्तन करता है ।।५१|| इस अन्तरकरण के समय होनेवाले विशुद्धपरिणामोंके द्वारा मिथ्यात्वकर्मके शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र रूप से सम्यक्त्वप्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व नामवाले तीन टुकडे कर देता हैं ।। ५२ ।। तदनन्तर वह जीव अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शनमोहके उक्त तीन विभाग, इन सातों कर्मप्रकृतियों का उपशम करके अन्तर्मुहूर्तकाल की स्थितिवाले प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है । ५३ ।। तदनन्तर कोई निकट संसारी भव्य उक्त सातों कर्म प्रकृतियों का क्षय करके मुक्तिका कारण क्षायिकसम्यक्त्वको ग्रहण करता है ॥ ५४ ॥ कोई जीव उक्त सात कर्मोंमेंसे छह कर्मो का उपशम और शदयाभावी क्षय होने पर वन्दनीय वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करता हैं ॥ ५५ ॥ भावार्थ- वर्तमानकालमें उदय आने योग्य कर्म निषेकोंका उदयाभावी क्षय और आगामी कालमें उदय आनेके योग्य निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम होने पर, तथा सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय होने , Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २७७ तुर्यादारभ्य विज्ञेयमुपशान्तान्तमाविमम् । चतुर्थे पंचमे षष्ठे सप्तमे वेदकं पुनः ।। ५७ साध्यसाधनभेदेन द्विधा सम्यक्त्वमिष्यते । कथ्यते क्षायिकं साध्यं द्वितीयं साधनं परम् ।। ५८ प्रथमायां त्रयं पृथ्व्यामन्यासु क्षायिकं विना 1 सम्यक्त्वमुच्यते सद्भिर्भवभ्रमणसूदनम् ॥ ५९ तिर्यङ्म नवदेवानां सम्यक्त्वत्रितयं मतम् । निलिम्पीनां तिरश्चीनां क्षायिक विद्यते न तु॥६० क्षायोपशमिकस्योक्ताः षट्पष्टिर्जलराशयः । अन्तमौंहतिकी ज्ञेया प्रथमस्य स्थिति: परा।। ६१ पूर्वकोटिद्वयोपेतास्त्रयस्त्रिशन्नदीशिनः । ईषदूना स्थिति या क्षायिकस्योत्तमा बुधः ॥ ६२ अधस्ताच्छवभ्रभूषट्के सर्वत्र प्रमदाजने । निकायत्रितये पूर्व जायते न सुदर्शनः ।। ६३ पञ्चाक्षं सञ्जिनं हित्वा परेषु द्वादशेष्वपि । उत्पद्यते न सदष्टिमिथ्यात्वबलभाविष ॥ ६४ वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा । विरागं क्षायिकं तत्र सरागमपरे द्वयम् ॥ ६५ संवेगप्रशमास्तिक्यकारुण्यव्यक्तिलक्षणम । सराग पटभिज्ञेयमपेक्षालक्षणं परम निसर्गाधिगमो हेतू तस्य बाह्यावदाहृतौ । लब्धिः कर्मसमाधीनामन्तरङ्गो विधीयते ॥ ६७ सम्यक्त्वाध्यषिते जीवे नाज्ञानं व्यवतिष्ठते । मास्वता भासिते देशे तमसः कीदृशी स्थितिः ।। ६८ पर जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता हैं, उसे वेदक सम्यक्त्व होते हैं । शेष छह प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेकी अपेक्षा उसे ही क्षायोपशमिकसम्यक्त्व भी कहते है । चौदह गुणस्थानोंमेंसे आदिके तीन गुणस्थानोंको छोडकर ऊपरके समस्त गुणस्थानोंमें मोक्षलक्ष्मीको समर्पण करनेवाले क्षायिकसम्यक्त्वका सद्भाव जानना चाहिये ॥५६।। चौथे गुणस्थानसे लेकर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक आदिका औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता हैं। तथा वेदकम्यक्त्व चौथे, पाँचवें, छ और सातवें गुणस्थान में पाया जाता है ।।५७॥ साध्य और साधनके भेदसे सम्यक्त्व दो प्रकारका कहा गया है। क्षायिकसम्यक्त्व साध्यरूप हैं और शेष दोनों सम्यक्त्व साधनरूप हैं ।।५८॥ पहली रत्नप्रभा पृथ्वीके नारकियोंके भवभ्रमणके नाशक तीनों ही सम्यक्त्व पाये जाते है। किन्तु शेष छह पृथिवियोंके नारकियोंके क्षायिकके विना दो ही सम्यक्त्व सन्त पुरुषों ने कहे हैं ॥५९॥ तिर्यंच और मनुष्योंके तीनों ही सम्यक्त्व हो सकते हैं। किन्तु देवांगनाओंके तथा तिर्यंचनियोंके क्षायिकसम्यक्त्व नहीं पाया जाता हैं ॥६०॥ क्षायोकशमिकसम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरोपम कही गयी है। पहलेकी अर्थात. औपशमिकसम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्महर्तमात्र है।शक्षायिकसम्यक्त्वकी उत्कष्ट स्थिति कुछ कम दो पूर्वकोटी वर्षसे अधिक तेतीस सागरोपम ज्ञानियोंने कही है॥६२। सम्यग्दृष्टिजीव मर कर नीचेकी छह पृथिवियोंमें, सभी प्रकारको स्त्रियोंमें, और अपर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न नहीं होता हैं ।। ६३।। चौदह जीवसमासोंमेंसे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त इन दो जीवसमासोंको छोडकर मिथ्यात्वके बलसे होनेवाले शेष बारह जीवसमासोंमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता हैं।.६४।। ज्ञानियोंने सम्यक्त्व दो प्रकारका कहा हैं-वीतरागसम्यक्त्व और सरागसम्यक्त्व । इनमें क्षायिक वीतरागसम्यक्त्व है और शेष दोनों सरागसम्यक्त्व है ॥६५।। संवेग, प्रशम, आस्तिक्य और कारुण्यभावसे व्यक्त लक्षणवाला सरागसम्यक्त्व है और उपेक्षाभाव-स्वरूप वीतरागसम्यक्त्व चतुर जनोंको जानना चाहिये ॥६६॥ उस सम्यक्त्वके निसर्ग और अधिगम ये दो बाह्य कारण कहे गये है। दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धी कर्मोके उपशम आदिकी प्राप्ति. को अन्तरंग कारण कहा गया है ॥६७।। सम्यक्त्वते सहित जीवमें अज्ञान नहीं ठहर सकता है। सूर्यसे प्रकाशमान प्रदेशमें अन्धकारकी स्थिति कैसे हो सकती हैं। ६८॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ श्रावकाचार-संग्रह न दुःखबीजं शुभवर्शनक्षितो कदाचन क्षिप्तमपि प्ररोहति । सदाऽप्यनुप्तं सुखबीजमुत्तमं कुदर्शनी तद्विपरीतमीक्षते ॥ ६९ सम्यक्त्वमेघः कुशलाम्बु वन्दितं निरन्तरं वर्षति धोतकल्मषः । मिथ्यात्वमेघो व्यसनाम्बु निन्दितं जनावनो क्षालितपुण्यसञ्चयः ।। ७० न भीषणो दोषगणः सुवर्शने विगर्हणीयः स्थिरतां प्रपद्यते । मुजङ्गमानां निवहोऽवतिष्ठते सवा निवासेऽध्यषिते गरुत्मता ।। ७१ विवर्धमाना यमसंयमादयः पवित्रसम्यक्त्वगुणेन सर्वदा। फलन्ति हृद्यानि फलानि पादपा महोबकेनेव मलापहारिणा ।। ७२ निषेवते यो विषयाभिलाषको निरस्य सम्यक्त्वमधीः कुदर्शनम् । स राज्यमत्यस्य मुजिष्यतां स्फुटं बहावकाझी वृणुते दुराशयः ॥ ७३ तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रपञ्चे देवें रागद्वेषमोहादिमुक्ते । साधौ सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ।। ७४ देहे मोगे निन्दिते जन्मवासे कृष्टेष्वासक्षिप्तबाणास्थिरत्वे । यवैराग्यं जायते निष्प्रकम्पं निर्वेगोऽसौ कथ्यते मुक्तिहेतुः ।। ७५ कान्तापुत्रभ्रातृ मित्रादिहेतोः शिष्टद्विष्टे निर्मिते कार्यजाते। पश्चात्तापो यो विरक्तस्य पुंसो निन्दा सोक्ताऽवद्यवृक्षस्य दात्री ।। ७६ सम्यग्दर्शनरूप शुभ भूमिमें गिरा हुआ भी दूःखरूप बीज कदाचित् भी अकुरित नहीं ह ता हैं । और विना बोया गया भी सुखरूप बीज सदा ही अंकुरित होता है । किन्तु मिथ्यादर्शनरूप अशुभभूमिमें इससे विपरीत देखा जाता है । अर्थात् मिथ्यादृष्टिके दुःखरूप बीज विना बोये भी उगते है और सुखरूप बीज बोये जानेपर भी नहीं उगते है ॥६९॥ कल्मष पापोंको धोनेवाला सम्यक्त्वरूपी मेघ वन्दनीय कल्याणकारी जलकी निरन्तर वर्षा करता है। किन्तु पुण्यके संचयको धोनेवाला मिथ्यात्वरूपी मेघ निन्दनीय दुःखदायी जलको जनरूप भूमिमें निरन्तर बरसाता रहता हैं ॥७०॥ सम्यग्दर्शनके सद्भावमें भीषण एवं निन्दनीय भी दोषोंका समूह स्थिरताको नहीं प्राप्त होता है। गरुडसे सेवित स्थान पर साँपोंक समुदाय क्या कभी ठहर सकता है,अर्थात् कभी नहीं ठहर सकता ॥७॥ पवित्र सम्यक्त्वरूप गुणसे सिंचित यमनियमं संयमादिक सदा बढते रहते है। जैसे मलको दूर करनेवाले मेघके जलसे सिंचित वृक्ष सदा मनोहर फलोंको फलते रहते है।।७२।। जो कुबुद्धि विषयाभिलाषी होकर और सम्यक्त्वको दूर कर मिथ्यादर्शनका सेवन करता है, वह दुष्टचित्त पुरुष राज्यको छोडकर और महत्त्वाकांक्षी बनकर सेवकवृत्तिको अंगीकार करता हैं ॥७३॥ अब आचार्य संवेगादिक गुणोंका वर्णन करते है-हिंसा पापके विस्तारसे रहित अहिंसामयी सत्य धर्ममें, राग द्वेष और मोहादिसे रहित देवमें और सर्व प्रकारके परिग्रहके सन्दर्भसे रहित साधुमें जो निश्चल अनुराग होता है, वह संवेग कहलाता है ।।७४।। निन्दनीय शरीरमें, भोगम और कान तक खींचकर शीघ्र छोडे गये बाणके समान अस्थिर संसारमें जो निष्प्रकम्प वैराग्य होता हैं, वह मुक्तिका हेतु निर्वेद कहलाता है ॥७५।। स्त्री, पुत्र, भाई, मित्र आदिके निमित्तसे राग-द्वेषरूप कार्योंके हो जानेपर उनसे विरक्त हुए पुरुषके हृदयमें जो पश्चात्ताप होता है, वह . Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २७९ जाते दोषे द्वेषरागादिदोषरग्ने भक्त्याऽऽलोचना या गुरूणाम् । पञ्चाचाराचारकाणामदोषा सोक्ता गर्दा गर्हणीयस्थ हन्त्री ।। ७७ रागद्वेषक्रोधलोभप्रपञ्चाः सर्वानर्थावासभूता दुरन्ताः । यस्य स्वान्ते कुर्वते न स्थिरत्वं शान्तात्माऽसौ कथ्यते भव्यसिंहः ।। ७८ लोकाधीशाभ्यर्चनीयाध्रियुग्मे तीर्थाधीशे साधुवर्गे सपर्या । या निर्व्याजा भाव्यते भव्यलोकैर्भक्तिः सेष्टा जन्मकान्तारशस्त्री॥ ७९ कारण्यं छत्तकामरकामर्धर्माधारावतिः प्राणिवर्गे। भैषज्याद्यः प्रासुकैर्वय॑ते या तद्वात्सल्यं कथ्यते तथ्यबोधेः॥ ८० जन्माम्भोधौ कर्मणा भ्राम्यमाणे जीवनामे दुःखितेऽनेक भेदे । चित्तात्वं यद्विधत्ते महात्मा तत्कारुण्यं दयते दर्शनीयः ।। ८१ प्रवध्यते दर्शनमष्टभिर्गुणः शरीरिणोऽमीभिरपास्तदूषणः। गुरूपदेशरिष धर्मवर्धन विधीयमानहृदये निरन्तरम् ।। ८२ अपारसंसारसमुद्रतारकं वशीकृतं येन सुदर्शनं परम् । वशीकृतास्तेन जनेन सम्पदः पररलभ्या विपदामनास्पदम् ।। ८३ पापरूप वृक्षोंको नाश करनेवाली निन्दा कही गई है।॥७६।। राग-द्वेष आदि दोषों द्वारा पापकार्यके हो जाने पर पंच आचारके आचरण करनेवाले गुरुजनोंके आगे भक्तिके साथ अपने दोषोंकी निर्दोष आलोचना की जाती हैं,उसे निन्दनीय दोषोंकी नाश करनेवाली गर्दा कहा गया है ॥७७॥ सभी अनर्थोके निवासभूत और दुःखसे जिनका अन्त होता है ऐसे राग-द्वेष, क्रोध, लोभ आदिक विकारी भाव जिस पुरुषके हृदयमें स्थिरता नहीं करते हैं, वह भव्यसिंह शान्तात्मा प्रशंसनीय होता हैं । अर्थात् जिनका मन राग द्वेषादिसे रहित शान्त होता हैं, उसके उपशम गुण जानना चाहिये ॥७८ । तीनों लोकोंके स्वामी इन्द्र, नरेन्द्र और नागेन्द्रसे जिनके चरणकमल युगल पूजे जाते हैं ऐसे तीथंकरदेवमें तथा साधुवर्गमें भव्य लोगोंके द्वारा जो निश्छल पूजा की जाती है, वह संसार-कान्तारको काटने वाली भक्ति कही गई हैं ।७९।। कर्मरूप काननके छेदनेके इच्छुक एवं अन्य कामनाओंसे रहित पुरुषोंके द्वारा धर्मके आधारभूत प्राणियों पर जो औषधि आदिक प्रासुक द्रव्योंसे वैयावृत्त्य की जाती है, उसे यथार्थज्ञानियोंने वात्सल्य गुण कहा है।।८०॥ संसाररूप समुद्र में कर्मके निमित्तसे परिभ्रमण करनेवाले महान् दुःखी ऐसे अनेक भेदोंवाले प्राणिवर्गमें जो महान् आत्मा चित्तकी दयालुताको धारण करता है, उसे दर्शनीय आचार्योंने कारुण्यभाव कहा हैं ।।८१॥ जिस प्रकार हृदयमें निरन्तर धारण किये गये गुरुजनोंके उपदेशोंसे धर्मका ज्ञान बढता है, उसी प्रकार दूषण-रहित इन उपर्युक्त आठों गुणोंके द्वारा जीवके सम्यग्दर्शन वृद्धिको प्राप्त होता हैं ।।८२।। जिस जीवने इस अपार संसार-समुद्रसे पार उतारने वाले और विपदाओंसे रहित ऐसे श्रेष्ठ सम्यग्दर्शनको अपने वश में कर लिया उस पुरुषने दूसरोंके द्वारा अलभ्य ऐसी सभी श्रेष्ठ सम्पदाएँ अपने वशमें कर लीं, ऐसा समझना चाहिए ।।८३।। . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्रावकाचार-संग्रह सुदर्शने लब्धमहोदये गुणाः श्रिया निवासा विकसन्ति देहिनि । विरस्तदोषापचये सरोवरे हिमेतरांशाविव पंकजाकराः ।। ८४ दर्शनबन्धनं परो बन्धुर्वर्शनला मान्न परो लाभः । दर्शन मित्रान परं मित्रं दर्शनसोख्यान्न परं सौख्यम् ॥ ८५ लब्ध्वा मुहूर्तमपि ये परिवर्जयन्ते सम्यक्त्वरत्नमनवद्यपदप्रदायि । भ्राम्यन्ति तेऽपि न चिरं भववारिराशौ तद्विभ्रतां चिरतरं किमिहास्ति वाच्यम् ॥ ८६ पापं यजतमनेकमवैर्दुरन्तेः सम्यक्वमेतदखिलं सहसा हिनस्ति । भस्मीकरोति सहसा तृणकाष्ठशशि कि नोजितोज्ज्वलशिखो ज्वलनः समृद्धम् ॥ ८७ नैव भवस्थितिवेदिनि जीवें दर्शनशालिनि तिष्ठति दुःखम् । कुत्र हिमस्थितिरस्ति हि देशे ग्रीष्मदिवाकरदीधितितप्ते ॥ ८८ भुवन जनताजन्मोत्पत्तिप्रपञ्चनिषूदिनी, जिनमतरुचिश्चिन्तामण्या यकैरुपमीयते । त्रिदशसरणीं ते भाषन्ते समां परमाणुना, प्रभवति मतिमिथ्या मिथ्यावृशामथवा सदा ।। ८९ महान् उदयवाले और समस्त दोषोंके समूहसे रहित ऐसे सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो जानेपर जीवोंमें लक्ष्मी निवासभू अनेक गुण स्वयं विकासको प्राप्त होते है । जैसे रात्रिके दूर होनेपर और सूर्यके उदय होने पर सरोवर में कमलोंका समूह विकासको प्राप्त होता हैं ॥ ८४ ॥ संसार में सम्यग्दर्शनरूप बन्धुके समान दूसरा कोई बन्धु नहीं, बम्यग्दर्शनके लाभके समान कोई अन्य लाभ नहीं, सम्यग्दर्शनरूप मित्र के समान कोई दूसरा मित्र नहीं और सम्यग्दर्शन के सुखके समान और कोई दूसरा सुख नहीं है ॥ ८५ ॥ ऐसे निर्दोष मोक्ष पदके देनेवाले सम्यक्त्वरूप रत्नको एक मुहूर्तमात्र के लिए भी पाकर जो छोड देते है, वे जीव भी संसार समुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण नहीं करते है । फिर जो इस सम्यक्त्व रत्नको चिरकाल तक धारण करते है । उनका तो कहना ही क्या हैं ॥८६॥ जीव अनेक दुरन्त भावों द्वारा जो पाप उपार्जित करता है, उस सबको यह सम्यक्त्व सहसा क्षणमात्रमें विनष्ट कर देता है । क्या स्फुरायमान उज्ज्वल शिखाओंवाली अग्नि, तृण और काष्ठके विशाल समूहको सहसा भस्म नहीं कर देती हैं ॥ ८७॥ संसारकी स्थिति जाननेवाले ऐसे सम्यग्दर्शनसे युक्त जीवमें दुःख नहीं ठहर सकते है । जैसे ग्रीष्मकालके सूर्यकी किरणों से प्रदीप्त प्रदेशमें शीतकी स्थिति कैसे रह सकती है ॥८८॥ तीनों लोकोके प्राणियोंके संसारकी उत्पत्ति के प्रबन्धकी नाश करनेवाली ऐसी जनमत-विषयक श्रद्धाको जो लोग चिन्तामणिरत्नसे उपमा देते है, वे लोग आकाशको परमाणुके समान कहते है । अर्थात् चिन्तामणिरत्नसे जिन मतकी श्रद्धारूप सम्यक्त्वरत्न बहुत अधिक महत्त्वशाली है । अथवा मिथ्यादृष्टि जीवोंकी बुद्धि सदा Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः अवहितमनाः सद्योत्सङ्गं निधानमिवोत्तमं नयति हृदयं यः सम्यक्त्वं शशाङ्ककरोज्ज्वलम् । अमितगतयः क्षिप्रं लक्ष्म्यः श्रयन्ति तमादृता निरुपमा गुणाः कान्तं कान्तं स्वयं प्रमदा इव । ९० इत्युपासकाचारे द्वितीयः परिच्छेदः तृतीयः परिच्छेदः जीवाजीवादितत्त्वानि ज्ञातव्यानि मनीषिणा । श्रद्धानं कुर्वता तेषु सम्यग्दर्शनधारिणा ॥ १ तत्र जीवा द्विधा ज्ञेया मुक्तसंसारिभेदतः । अनादिनिधनाः सर्वे ज्ञानदर्शनलक्षणाः ।। २ तत्र क्षताष्टकर्माणः प्राप्ताष्टगुणसम्पदः । त्रिलोकवेदिनो मुक्तास्त्रिलोका प्रनिवासिनः ।। ३ अनन्तरेषदूनांगसमानाकृतयः स्थिराः । आत्मनीनजनाभ्यर्च्य भाविनं कालमासते ॥ ४ संसारिणो द्विधा जीवाः स्थावराः कथितास्त्रसाः । द्वितीयेऽपि प्रजायन्ते पूर्णापूर्णतया द्विधा ॥ ५ आहारविग्रहाक्षानवचोमानसलक्षणम् । पर्याप्तीनां मतं षट्कं पूर्णापूर्णत्वकारणम् || ६ चतस्रः पञ्च षड्ज्ञेयास्तेषां पर्याप्तयोऽङिगनाम् । एकाक्ष बिकलाक्षाणां पञ्चाक्षाणां यथाक्रमम् ॥७ २८१ मिथ्यारूप ही रहती है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ॥ ८९ ॥ जो मनुष्य सावधान चित्त होकर चन्द्रकिरणोंके समान उज्ज्वल सम्यक्त्वको घरके मध्य में स्थित निधि ज्यों अपने हृदय में धारण करता हैं उस मनुष्यका अपरिमित ज्ञानवाली और अनुपम गुणोंको धारण करनेवाली लक्ष्मियाँ शीघ्र ही आदरपूर्वक आश्रय लेती है । जैसे कि सुन्दर पतिको उत्तम स्त्रियाँ स्वयं प्राप्त होती है ।। ९० । इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचार में द्वितीय परिच्छेद समाप्त हुआ । सम्यग्दर्शनके धारक मनीषी पुरुषको जीव, अजीव आदि तत्त्वोंका श्रद्धान करते हुए उन्हें सम्यक् प्रकारसे जानना चाहिये || १ || उन सात तत्त्वों में जीव मुक्त और संसारीके भेदसे दो प्रकार से जानना चाहिये। ये सभी जीव अनादिनिधन हैं, अर्थात् आदि अन्तसे रहित है और ज्ञान-दर्शन लक्षणवाले हैं ||२|| उनमें जो मुक्त जीव है, वे अष्टकर्मोंसे रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंकी सम्पदाको प्राप्त हैं, तीनों लोकोंके ज्ञाता है और लोकके अग्र भाग पर निवास करते हैं ॥ ३ ॥ वे मुक्त जीव अन्तिम शरीरसे कुछ कम समान आकारके धारक हैं, स्थिर हैं, आत्म- हितैषी जनोंसे पूज्य हैं और आगामी अनन्त काल तक इसी स्वरूपसे अवस्थित रहेंगे || ४ || संसारी जीव दो प्रकारके कहे गये है - त्रस और स्थावर । ये दोनों ही प्रकारके जीव पर्याप्त और अपर्याप्तरूपसे दो प्रकार के होते हैं ||५|| आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, वचन और मन लक्षणवाली ये छह पर्याप्तियाँ उनके पर्याप्त और अपर्याप्तपनेकी कारण मानी गई हैं ||६|| भावार्थ - जिनके अपने योग्य पर्याप्तियोंकी पूर्णता होती हैं, वे पर्याप्त जीव कहलाते हैं और जिनके पूर्णता नहीं होती है, वे अपर्याप्त जीव कहलाते हैं । उन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय प्राणियोंके Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २८२ श्रावकाचार-संग्रह एकाक्षा: स्थावरा जीवाः पञ्चधा परिकीर्तिताः । पृथिवी सलिलं तेजो मारुतश्च वनस्पतिः ॥ ८ भेदास्तत्र त्रयः पृथ्व्याः कायकायिकतद्भवाः । निर्मुक्तस्वीकृतागामिरूपा एवं परेष्वपि ।। ९ मता द्वित्रिचतुःपञ्चहृषीकास्त्र सकायिकाः । पञ्चाक्षा द्विविधास्तत्र संज्ञ्य संज्ञिविकल्पतः ।। १० सङ्केतदेशनाला ग्राहिणः सञ्ज्ञिनो मताः । प्रवृत्तमानसप्राणा विपरीतास्त्वसंज्ञिनः ॥ ११ स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रमतीन्द्रियम् । तस्य स्पर्शरसो गन्धो रूपं शब्दश्च गोचरः ।। १२ गण्डूपदजलौकाव्यकृमिशङ्खन्द्रगोपकाः । गदिता विविधाकारा द्विहृषीकाः शरीरिणः ।। १३ यूकापिपीलिका लिक्षाकुन्यु मत्कुणवृश्चिकम् । त्रिहृषीकं मतं प्राज्ञविचित्राकारसंयुतम् ॥ १४ पतङ्गमक्षिकादंशमशका भ्रमरादयः । चतुरक्षा बिबोद्धव्या विबुद्ध जिनशासनः ।। १५ तिर्यग्योनिभवाः शेषाः श्वाभ्रमानवनाकिनः । विभिन्ना विविधे मेंदः स्वीकृतेन्द्रियपञ्चकाः ॥ १६ हृषीकपञ्चकं भाषाकायस्वान्तबलत्रिकम् । आयुरुछ्वास निश्वासद्वन्द्वं प्राणा दशोदिताः ॥ १७ शरीराक्षायुरुच्छ्वासा भाषिता निखिलेष्वपि । विकलासंज्ञिनां वाणी पूर्णानां संज्ञिनां मनः ॥ १८ यथाक्रमसे चार, पाँच और छह पर्याप्तियाँ जानना चाहिये ||७|| भावार्थ - एकेन्द्रिय जीवके आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ होती है । द्वीन्द्रियसे लगाकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तकके विकलेन्द्रिय जीवके उक्त चार और वचन ये पाँच पर्याप्तियाँ होती है और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके मन-सहित शेष सब अर्थात् छह पर्याप्तियाँ होती हैं । एकेन्द्रिय स्थावर जीव पाँच प्रकारके कहे गये है- पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ||८|| इनमें से पृथिवीके तीन भेद है - पृथिवी काय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव । एकेन्द्रिय पृथ्वीका यिक जीवके द्वारा छोडा गया शरीर पृथिवीकाय कहलाता हैं । पृथिवीजीवके द्वारा धारण किया हुआ शरीर पृथिवीकायिक कहलाता हैं और जो एकेन्द्रिय जीव आगामी समय में पृथिवोकायिक होने वाला है, ऐसा विग्रहगति वाला अन्तरालवर्ती जीव पृथिवी जीब कहलाता हैं । इसी प्रकारसे जल आदि शेष चार प्रकार के एकेन्द्रिय जीवोंके भी तीन-तीन भेद जानना चाहिये ||९|| त्रसकायिक जीव चार प्रकारके माने गये हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजीव । इनमें पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञीके भेंदसे दो प्रकारके जानना चाहिये ||१०|| जो जीव शिक्षा, उपदेश, आलाप (शब्द) के ग्रहण करनेवाले हैं, जिनके मनप्राण पाया जाता है, वे संज्ञी कहलाते है | इनसे विपरीत जीवोंको असंज्ञी जानना चाहिये ॥ ११ ॥ इन्द्रियाँ पाँच होती हैं- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । इनका विषय क्रमसे स्पर्श, रस. गन्ध, रूप और शब्द हैं ॥१२॥ गिंडोला, जौंक, कौंडी, कृमि, शंख और इन्द्रगोप आदि नाना आकार वाले द्वीन्द्रिय जीव कहे गये हैं | | १३ | | जूं, कीडी, लीख, कुन्थु, खटमल, बिच्छू आदि विचित्र आकारोंसे संयुक्त त्रीन्द्रियजीव ज्ञानियोंने कहे है ॥ ४ ॥ पतंग, मक्खी, डाँस, मच्छर और भौंरा आदि चतुरिन्द्रिय जीव जिनशासनके जानकारों द्वारा ज्ञातव्य हैं ॥ १५ ॥ उपर्युक्त जीवोंके सिवाय शेष तिर्यग्योनिके अनेक भेदवाले जीव तथा नारकी, मनुष्य और देव ये सभी पंचेन्द्रिय जीव जानना चाहिये ।। १६ ।। पाँच इन्द्रियाँ, भाषाबल, कायबल ये तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दो इस प्रकार दश प्राण कहे गये है ॥ १७॥ शरीर, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण सभी एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके होते है । विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके वाणी ( वचन ). < Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २८३ एकद्वित्रिचतुःपञ्चहषीकाणां विभाजिताः । अन्येषां त्रिचतुःपञ्चषट् सप्ताङ्गायुरिन्द्रियैः ।। १९ जरायुजाण्डजाः पोता गर्भजा देवनारकाः । उपपादभवा शेषाः सम्मूर्च्छनभवा मताः ॥ २० श्वाभ्रसम्मन्छिनो जीवा भूरिपापा नपुंसकाः । स्त्रीपुंवेदा मता देवा सवेदत्रितया: परे ॥२१ सचित्तः संवृत्त: शीतः सेतरो वा विमिश्रकः । विभेदैरान्तभिन्ना नवधा योनिरङ्गिनाम् ।। २२ भूरूहेषु दश ज्ञेयाः सप्त नित्यान्यधातुषु । नारकामरतियंक्षु चत्वारो विकलेषु षट् ।। २३ चतुर्दश मनुष्येषु योनयः सन्ति पिण्डिताः । सर्वे शतसहस्राणामशीतिश्चतुरुत्तराः ।। २४ गतीन्द्रियपूर्योगज्ञानवेदऋधादयः। संयमाहारमध्येक्षालेश्यासम्यक्त्वसंज्ञिनः ।। २५ माय॑न्ते सर्वदा जीवा यासु मार्गणकोविदः । सम्यक्त्वशुद्धये मार्यास्ताश्चतुर्दश मार्गणाः ।। २६ प्राण होता हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके मन प्राण होता है ॥१८॥ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंके उत्तरोत्तर विभाजित अधिक-अधिक प्राण होते है। अर्थात् एकेन्द्रिय जीवके स्पर्शनेन्द्रिय, शरीर, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। द्वीन्द्रिय जीवके रसनेन्द्रिय और वचन-सहित छह प्राण, श्रीन्द्रिय जीवके घ्राणेन्द्रिय-सहित सात प्राण, चतुरिन्द्रिय जीवके चक्षुरिन्द्रिय-सहित आठ प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियके श्रोत्रेन्द्रिय-सहित नौ प्राण और संज्ञी पंचेन्द्रियके मन-सहित दश प्राण होते है। पर्याप्तकोंसे भिन्न जो अपर्याप्त जीव हैं, उनमें एकेन्द्रियके स्पर्शनेन्द्रिय, शरीर और आयु ये तीन प्राण होते है । द्वीन्द्रियके रसना-सहित चार प्राण होते है । त्रीन्द्रियके घ्राण-सहित पाँच प्राण. चतुरिन्द्रिय के चक्षु-सहित छह प्राण और पंचेन्द्रियके श्रोत्र-सहित सात प्राण होते हैं, ऐसा जानना चाहिये ।।१९।। ___ माताके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले जीव तीन प्रकार के होते है-जरायुज, अण्डज और पोत । देव और नारकी उपपाद जन्म वाले हैं और शेष सर्व जीव सम्मूर्च्छन जन्मवाले माने गये हैं ।२०।। अत्यन्त पापी, नारकी और सम्मूर्च्छन जीव नपुंसकवेदी हैं। देव, स्त्री और पुरुषवेदी होते हैं । इनके सिवाय शष सर्व जीव तीनों वेदवाले माने गये है ।।२१॥ सचित, संवृत, शीत इनसे विपरीत अचित्त, विवृत और उष्ण तथा मिश्रित अर्थात् सचित्ताचित्त, संवृत विवत और शीतोष्ण इस प्रकार अन्तर भेदोंसे भेदको प्राप्त नौ प्रकारकी योनियाँ देह-धारियोंके होती हैं ॥२२॥ इन योनियोंके उत्तर भेद ८४ लाख है। उनमेंसे वृक्षोंको दस लाख योनियाँ जानना चाहिये। नित्यनिगोद, इतरनिगोद और पृथ्वीकायिक आदि चार धातुवाले एकेन्द्रिय जीवोंके ७-७ लाख योनियाँ होती हैं । नारकी,देव और पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी ४-४ लाख योनियाँ होती हैं । विकलत्रयजीवोंकी ६ लाख योनियाँ हैं और मनुष्योंमें १४ लाख योनियाँ होती हैं। इस प्रकार सभी मिलकर (१० + (५४६%) ४२ + ४ + ४ + ४ + ६ + १४%८४) चौरासी लाख योनियाँ होती है। ये सभी सचित्तादि योनियोंके ही उत्तरभेदरूप जानना चाहिये ।। २३-२४।। जीवोंके अन्वेषणमें चतुर पुरुषोंके द्वारा जिन आधारों पर जीव सदा अन्वेषण किये जाते है, उन्हें मार्गणा कहते है। वे मार्गणाएँ चौदह होती है-१. गति, २. इन्द्रिय, ३. काय. ४. योग, ५. वेद, ६. कषाय, ७. ज्ञान, ८. संयम, ९. दर्शन, १०. लेश्या, ११. भव्यत्व, १२. सम्यक्त्व, १३. संज्ञित्व और १४. आहार. मार्गणा । अपने सम्यक्त्वकी शुद्धिके लिए ज्ञानियोंको सदा इनके द्वारा जीवोंका अन्वेषण करना Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ श्रावकाचार-संग्रह मिथ्यादक सासादनो मिश्रदृष्टिः सम्यग्दृष्टिः संयतासंयताख्यः । ज्ञेयावन्यौ दो प्रमत्ताप्रमत्ती सत्ता पूर्वेणानिवृत्यल्पलोभो ।। २७ शान्तक्षीणो योग्ययोगी जिनेन्द्रो द्विः सप्तवं ते गुणस्थानमेवाः । त्रैलोक्यापारूढिसोपानमास्तिथ्यं येषु ज्ञायते जीवतत्त्वम् ।। २८ धर्माधर्मनमःकालपुद्गलाः परिकीर्तिताः । अजीवाः पञ्च सूत्रज्ञरुपयोगविजिताः ॥२९ अमूर्ता निष्क्रिया नित्याश्चत्वारो गदिता जिनः । रूपगन्धरसस्पर्शशब्दवन्तोऽत्र पुद्गलाः ।। ३० लोकालोको स्थितं व्याप्य व्योमानन्तप्रदेशकम् । लोकाकाशं स्थिती व्याप्य धर्माधमौं समन्ततः३१ धमाधमकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशकः । अनन्तानन्तमानास्ते पुद्गलानामुदाहृताः ।। ३२ जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थितिविधायिनी । धर्माधर्मो मतो प्राराकाशमवकाशकृत् ॥ ३३ असंख्यभुवनाकाशे कालस्य परमाणवः । एकैका वर्तना कार्या मुक्ता इव व्यवस्थिताः ।। ३४ जीवितं मरणं सोल्यं दुःखं कुर्वन्ति पुद्गलाः । अणुस्कन्धविकल्पेन विकल्पद्वयमागिनः ।। ३५ विश्वम्भराजलच्छायाचक्षुरिन्द्रियगोचराः । कर्माणि परमाणुश्च षड्विधः पुद्गलो मतः ।। ३६ स्थूलस्पूनमय स्थूलं स्थूलसूक्ष्मं जिनेश्वरैः । सूक्ष्मस्थूलं मतं सूक्ष्मं सूक्ष्मसूक्ष्मं यथाक्रमम् ।। ३७ यद्वाक्कायमनःकर्म योगोऽसावात्रवः स्मृतः । कर्माननत्यनेनेति शब्दशास्त्रविकशारदः ।। ३८ चाहिये ॥२५-२६।। त्रैलोक्यके अग्र भागपर चढनेके लिए सोपान मार्गके समान चौदह गुणस्थान कहे गये हैं-१. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन, ३. मिश्रदृष्टि, ४. असंयतसम्यग्दृष्टि, ५. संयनासंयत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मलोभ, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगिजिनेन्द्र और १४. अयोगिजिनेन्द्र । इन चौदह गुणस्थानोंमें जीवतत्त्वका वास्तविक तथ्य जाना जाता हैं ।।२७-२८।। अब अजीवतत्त्वका वर्णन करते हैं । जैन सूत्रज्ञ पुरुषोंने चैतन्य उपयोगसे रहित अजीवद्रव्य पाँच प्रकारके कहे है-धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य और पुद्गलद्रव्य ।।२९॥ इनमेंसे प्रारम्भके चार द्रव्य जिनेन्द्रदेवने अमूर्त, निष्क्रिय और नित्य कहे है। पुद्गलद्रव्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दवाला कहा है ॥३०॥ आकाशके अनन्त प्रदेश है और वे लोक-अकोकको व्याप्त करके सर्वत्र स्थित है। धर्म और अधर्मद्रव्य समानरूपसे सारे लोकाकाशको व्याप्त करके स्थित हैं ॥३१॥धर्म, अधर्म और एक जीवके असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं । और पुद्गलोंके प्रदेश अनन्तानन्त प्रमाण कहे गये हैं।॥३२॥ ज्ञानियोंने धर्म और अधर्मद्रव्यको क्रमसे जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिके करानेवाला कहा है, अर्थात् धर्मद्रव्य जीव-पुद्गलोंकी गतिमें और अधर्मद्रव्य स्थितिमें सहायक होता हैं । आकाशद्रव्य सर्वद्रव्योंको अवकाश देता हैं ।।३३।। लोकाकाशमें कालके परमाणु असंख्यात है । वर्तना इनका कार्य है और ये मुक्ताफलके समान लोकाकाशके एक-एक प्रदेश पर भिन्न-भिन्न रूपसे अवस्थित है ।।३४॥ पुद्गल जीवोंको जीवन, मरण और सुख-दुःख करते है । अणु और स्कन्धके भेदसे पुद्गलद्रव्यके दो भेद कहे गये हैं ॥३५।। जिनेश्वर देवने पुद्गल को छह प्रकारका कहा है-१. स्थूल-स्थूल, जैसे पृथ्वी। २. स्थूल, जैसे जल। ३. स्थूलसूक्ष्म, जैसे छाया ४. सूक्ष्मस्थूल, जैसे नेत्र विना शेष चार इन्द्रियोंके विषय रस, गन्ध आदि । ५. सूक्ष्म, जैसे कर्म-वर्गणा । और ६. सूक्ष्मसूक्ष्म, जैसे परमाणु ॥३६-३७ । अब आस्रव. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २८५ शुभ: शुभस्य विज्ञेयस्तथान्योऽन्यस्य कर्मणः । कारणस्यानुरूपं हि कार्यं जगति जायते ॥ ३९ संसारकारणं कर्म सकषायेण गृह्यते । येनान्येनाऽकषायेण कषायस्तेन वय॑ते ।। ४० । ज्ञाताज्ञातामन्दमन्दाविभावैश्चित्रश्चित्रं जन्यते कर्मजालम् । नाचित्रत्वे कारणस्यह कार्य किञ्चिच्चित्रं दृश्यते जायमानम् ॥ ४१ तिरस्कारमात्सर्यपैशुन्यविघ्नप्रपतापलापादिदोषैरनेकः । विबोधावरोधस्तदीक्षावरोधो दुरन्तः कृताते गहणीयः ॥ ४२ वधाक्रन्ददैन्यप्रलापप्रपञ्चैनिकृष्टेन तापेन शोकेन सद्यः । परात्मोमयस्थेन कर्माङ्गिवगैरसातं सदा गृह्यते दुःखपाकम् ।। ४३ साधूपास्याप्राणिरक्षातितिक्षासर्वज्ञार्चादानशौचादियोगः । सातं कर्मोत्पद्यते शर्मपाकं शिष्टाभीष्ट: पोषितैः सज्जनैर्वा ।। ४४ मोक्तव्येनावर्णवादेन देवे धर्म सङ्घ वीतरागे श्रुते च । मद्येनेवास्वाद्यमानेन सद्यो घोराकारो जन्यते दृष्टिमोहः ।। ४५ तत्त्वका वर्णन करते है-मन, वचन, कायकी क्रियाको योग कहते हैं और उसे ही आस्रव कहा गया हैं। जिसके द्वारा कर्म आते हैं, उसे आस्रव कहते हैं, इस प्रकारकी निरुक्ति आस्रव शक्तिकी शब्दशास्त्रके वेत्ताओंने की है ।।३८।। मन, वचन,कायकी शुभ क्रिया रूप योग शुभ कर्मके आस्रवका कारण हैं और अशुभ योग अशुभ कर्मके आस्रवका कारण है । क्योंकि जगत्में कारणके अनुरूप ही कार्य होता हैं ॥३९॥ यतः सकषाय जीवके द्वारा संसारका कारणभूत कर्म ग्रहण किया जाता हैं और अकषाय जीवके द्वारा कर्म नहीं ग्रहण किया जाता है, अतः कषायको त्यागने योग्य कहा गया है ॥४०॥ ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, तीव्रभाव, मन्दभाव और आदि शब्दसे अधिकरण और वीर्य आदि नाना प्रकारके भावोंसे अनेक प्रकारका कर्मजाल उत्पन्न होता हैं, अर्थात् भावोंकी हीनाधिकता आदि कारणोंसे कर्मके आस्रवमें विभिन्नता पाई जाती हैं । क्योंकि लोकमें कारणकी विचित्रताके अभावमें कार्यकी विचित्रता उत्पन्न होती हुई नहीं देखी जाती हैं ।।४१॥ ज्ञान और दर्शनका, तथा इनके धारण करनेवाले जीवोंका तिरस्कार करना, उनसे मत्सरभाव रखना, चुगली खाना, विघ्न करना, विघात करना और उन्हें झूठे दोष लगाना, इत्यादि अनेक प्रकारके दोषयुक्त दुरन्त कार्योंसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका निन्दनीय आस्रव होता है ॥४२॥ प्राणियोंका वध करना, आक्रन्दन करना, दीनपना प्रकट करना, बकवाद करना, सन्ताप करना, शोक करना इत्यादि निष्कृष्ट कार्य चाहे स्वयं करे, चाहे अन्यमें उत्पन्न लरावे और चाहे स्व और पर दोनोंमें ही पैदा करे, इनसे प्राणिवर्ग दुःख देनेवाले असातावेदनीय कर्मको ग्रहण करता हैं।।४३।। साधुओंकी उपासना करना, प्राणियोंकी रक्षा करना, क्षमाभाव रखना, सर्वज्ञदेवका पूजन करना, दान देना, निर्लोभ परिणाम रखना आदि पुण्यरूप कार्योंसे सुख देनेवाले सातावेदनीय कर्मका आस्रव होता है। जैसे कि पालन-पोषण किये गये शिष्ट, इष्ट और सज्जनोंसे सुख प्राप्त होता है।।४४॥ वीतराग, देव, धर्म, संघ और शास्त्रके विषयमें किये निन्द्य त्याज्य अवर्णवादसे घोर भयंकर Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्रावकाचार-संग्रह सोल्यध्वंसी जन्यते निन्दनीयो रोद्रो भावो यः कषायोदयेन । धत्ते जन्तोरेष चारित्रमोहं विद्वेषी वाराध्यमानो निकृष्टः ॥ ४६ बहारम्मग्रन्थसन्दर्भद रोद्राकारस्तीवकोपाविजन्यैः। श्वभ्रावासे प्राप्यते जीवितव्यं किंवा दुःखं दीयते नाघचष्टेः ॥ ४७ नानाभेवा कूटमानाविभेदैर्मायाऽनिष्टाऽऽराध्यमाना जनानाम् । तैर्यग्योन्यं जीवितव्यं विधत्ते किंवा बत्ते वञ्चना न प्रयुक्ता ।। ४८ अल्पारम्भग्रन्थसन्दर्भवः सौम्याकारमन्वकोपादिजन्यः। सद्यो जीवो नीयते मानुषत्वं कि नो सौख्यं वीयते शान्तरूपैः।। ४९ सम्यग्दृष्टि: श्रावकीयं चरित्रं चित्रा कामा निर्जरा रागिवृत्तम् । आयुर्दैवं प्राणमाजो दवन्ते शान्ता भावाः किं न कुर्वन्ति सौख्यम् ।। ५० संवादित्वं प्राञ्जला योगवत्तिर्नाम्नो ज्ञेयं कारणं पूजितस्य । वक्रो योगोऽवादि संवादहान्या साधं हेतुनिन्दनीयस्य तस्य ॥५१ नीचर्गोत्रं स्वप्रशंसाऽन्यनिन्दे कुर्वाणोऽसत्सदगुणोद्भावनाशी। प्राप्नोत्यङ्गी प्रार्थनीयं महेष्टरुच्चैर्गोत्रं मक्षु तद्वपरीत्ये ।। ५२ दर्शनमोहकर्मका आस्रव होता हैं । जैसे कि आस्वादे गये मद्यसे शीघ्र ही घोर आकार वाली बेहोशी प्राप्त होती है ॥४५॥ कषायके उदयसे जो सुखका विध्वंसक निन्दनीय रौद्रभाव उत्पन्न होता है, वह जीवके चारित्रमोहकर्मका आस्रव कराता है । जैसे कि आराधना किया गया निकृष्ट पुरुष चित्तमें विद्वेष भाव उत्पन्न कराता है।॥४६॥ बहुत आरम्भ, परिग्रहके सन्दर्भसे उत्पन्न हुए तथा रौद्र आकारवाले तीव्र क्रोधादि कषायोंके द्वारा प्रकट हुए दुर्भावोंसे यह जीव नारकावासमें जीवनको प्राप्त करता हैं, अर्थात् उक्त प्रकारके भावोंसे नारकायुका आस्रव होता है । आचार्य कहते है कि पापरूप चेष्टाओंके द्वारा कौन-सा दुःख नहीं दिया जाता है ।।४७।। कूट नाप तौल आदि अनेक प्रकारोंसे आराधना की गई अनेक भेदवाली अनिष्ट मायाचारी जीवोंको तिर्यग्योनियों. में जीवन प्रदान करती है; अर्थात् मायाचारसे तिर्यगायुकर्मका आस्रव होता है । दूसरोंके साथ की गई वंचना क्या दुःख नहीं देती? अर्थात् दुःख देती ही है ।।४८॥ अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रहके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए, सौम्य आकष्र वाले मन्द क्रोधादि-जनित भावोंसे जीव शीघ्र ही मनुष्य भवको प्राप्त करता है, अर्थात् मनुष्यायुका आस्रव करता हैं । आचार्य कहते है कि शान्तरूप परिणामोंसे क्या सुख नहीं प्राप्त होता है? होता ही हैं ॥४९॥ सम्यग्दर्शन धारण करना, श्रावकका चारित्र पालना, नाना प्रकारकी अकामनिजरा करना, सराग चारित्र पालना इत्यादि कार्य प्राणियोंको दैवायु प्रदान करते है। सो ठीक ही हैशान्त परिणाम क्या सुख नहीं देते हैं? देते ही हैं? ॥५०॥ विसंवाद-रहित आचरण करना और मन वचन कायकी उज्ज्वल वृत्ति रखना शुभनामकर्मके आस्रवके कारण जानना चाहिए। विसंवाद करना और योगोंकी कुटिलता रखना निन्दनीय अशुभनामकर्मके आस्रवके कारण हैं ।।५१।।अपनी प्रशंसा करना,अन्यकी निन्दा करना, अपने असत् गुणोंको प्रकट करना और दूसरोंके सद् गुणोंको भी आच्छादित करना, इत्यादि कार्योंसे जीव नीचगोत्रकर्मका आस्रव करता हैं । इनसे विपरीत . Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २८७ दानं लामो वीर्यभोगोपमोगा नो लभ्यन्ते देहिना विघ्नभाजा। विज्ञायेत्थं विघ्नमीतेन विघ्नो नो कर्तव्यः पण्डितेन त्रिधाऽपि ।। ५३ ये गृह्यन्ते पुद्गला: कर्मयोग्याः क्रोधाचाढचश्चेतनरेष वन्धः । मिथ्या दृष्टिनिर्वतत्वं कषायो योगो ज्ञेयस्तस्य बन्धस्य हेतुः ।। ५४ बन्धः स मतः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन । पदभिश्चतुष्प्रकारो येन भवें भ्रम्यते जीवः ॥ ५५ स्वभाव: प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विभागस्तु प्रदेशोऽशप्रकल्पनम् ।। ५६ करोति योगात्प्रकृतिप्रदेशो कषायतः स्थित्यनुभागसज्ञो। स्थिति न बन्धः कुरुते कषाये क्षीणे प्रशान्ते स ततोऽस्ति हेयः ।। ५७ स्वीकरोति सकषायमानसो मुञ्चते च विकषायमानसः । कर्म जन्तुरिति सूचितो विधिर्बन्धमोक्षविषयो विबन्धकैः ।। ५८ आस्रवस्य निरोधो यः संवरः स निगद्यते । भावद्रव्यविकल्पेन द्विविधः कृतसंवरैः ॥ ५९ कार्योंके करने पर महापुरुषोंके द्वारा प्रार्थनीय उच्चगोत्रको जीव शीघ्र ही प्राप्त करता है।॥५२॥ दुसरोंके दान, लाभ, वीर्य, भोग और उपभोगमें विघ्न करनेवाले जीव दान, लाभ, वीर्य, भोग और उपभोगको नहीं पाते है, ऐसा जानकर विघ्नसे भयभीत पंडितजनोंको मन, वचन और कायसे किसीके भी लाभ, भोग-उपभोगादिमें विघ्न नहीं करना चाहिये ॥५३।। अब बन्धतत्त्वका वर्णन करते हैं-क्रोधादि कषायोंसे मुक्त जीवोंके द्वारा जो कर्मयोग्य पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं, वह बन्ध कहलाता हैं । उस बन्धके कारण मिथ्यादर्शन, अविरति,कषाय और योग जानना चाहिये ॥५४॥ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे वह बन्ध प्रवीण पुरुषोंने चार प्रकारका कहा हैं । इस बन्धके द्वारा ही जीव संसारमें परिभ्रमण करता हैं ।।५५॥ ज्ञानावरणादि कर्मोंके ज्ञानादिके आवरण करनेके स्वभावको प्रकृतिबन्ध कहते हैं। बंधे हुए कर्म जितने समय तक आत्मासे संलग्न रहेंगे, उतने कालकी मर्यादाको स्थितिबन्ध कहते हैं। कर्मोके फल देनेके विपाकको अनुभागबन्ध कहते है और आये हुए कर्मपरमाणुओंमें ज्ञानावरणादिरूपसे उनके विभाग होनेको प्रदेशबन्ध कहते है ॥५६॥ योगसे प्रकृति और प्रदेशबन्ध होता हैं, तथा कषायसे स्थिति और अनुभागबन्ध होता है। जब कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते है, तब कर्मोका स्थितिबन्ध नहीं होता हैं, अतएव कषाय छोडने योग्य है ।।५७।। कषाययुक्त चित्तवाला मनुष्य कर्मोको ग्रहण करता है और कषाय-रहित चित्तवाला मनुष्य कर्मोको छोडता है। इस प्रकार कर्मों के बन्ध और मोक्ष विषयक विधि कर्म-बन्धनसे रहित वीतराग सर्वज्ञदेवने सूचितकी हैं ।।५८॥ अब संवर तत्त्वका वर्णन करते हैं-कर्मोके आस्रवका निरोध करनेवाले मुनीश्वरोंके कर्मों. के आनेके निरोधको संवर कहा है । वह संवर दी प्रकारका है-द्रव्यसंवर और भावसंवर ।।५९।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ श्रावकाचार-संग्रह क्रोध लोभ भयमोहरोधनं भावसंवरमुशन्ति देहिनाम् । भाविकल्मषविशेषरोधनं द्रव्यसंवरमवास्तकल्मषम् ।। ६० 1 धार्मिकः शमितो गुप्तो विनिर्जितपरीषहः । अनुप्रेक्षापरः कर्म संवृणोमि ससंयमः ॥ ६१ मिथ्यात्वाव्रतको पादियोगः कर्म यदयंते । तन्निरस्यति सम्यक्त्वव्रत विग्रहरोधनैः ।। ६२ पूर्वोपार्जितकर्मेक देश संक्षयलक्षणा । सविपाकाऽविपाका च द्विविधा निर्जराकथि || ६३ यथा फलानि पच्यन्ते कालेनोपक्रमेण च । कर्माण्यपि तथा जन्तोरुपात्तानि विसंशयम् ।। ६४ अनेहसा या दुरितस्य निर्जरा साधारणा साऽपरकर्मकारिणी । विधीयते या तपसा महीयसा विशोषणी साऽपरकर्म त्रारिणी ।। ६५ वितप्यमानस्तपसा शरीरी पुराकृतानामुपयाति शुद्धिम् । न मायमानः कनकोपल: कि सप्ताचिषा शुद्धयति कश्मलेभ्यः ।। ६६ घातिकर्म विनिहत्य केवलं स्वीकरोति भुवनावभासक्रम् । चेतनः सकललोकसन्ततं ध्वान्तराशिमिव मास्करो दिवम् ।। ६७ निमूmकाषं स निकृत्य कल्मषं प्रयाति सिद्धि कृतकर्मनिर्जरः । विनिर्मलध्यानसमृद्ध पावके निवेश्य वग्धाऽखिलबन्धकारणम् ॥ ६८ पापोंके नाश करनेवाले आचार्योंने क्रोध, लोभ, भय और मोक्षके निरोधको जीवोंका भावसंवर कहा है । तथा आनेवाले कर्मोंके प्रवेश रोकनेको द्रव्यसंवर कहा है ।। ६० ।। दश धर्मो का पालक, पाँच समितियों में सावधान, तीन गुप्तियोंसे सुरक्षित, बाईस परीषहोंका विजेता, बाहर अनुप्रेक्षाओंका चिन्तक और पाँचों संयमोंका धारक पुरुष आनेवाले कर्मोंका संवर करता है ॥ ६१ ॥ यह जीव मिथ्यात्व, अव्रत, क्रोधादि कषाय और योगके द्वारा जो कर्म उपार्जित करता है, उसे सम्यक्त्व, व्रत, कषाय, निग्रह और योग-निरोधके द्वारा दूर करता है || ६२ ॥ अब निर्जरातत्त्व का वर्णन करते है - पूर्वोपार्जित कर्मोंके एकदेश क्षय होनेको निर्जरा कहते है । सविपाक और अविपाकके भेदसे वह निर्जरा दो प्रकारकी कही गई हैं ||६३|| जिस प्रकार वृक्षोंके फल अपने कालसे, तथा पाल आदि उपक्रमसे पकते है, उसी प्रकारसे जीवोंके उपार्जित कर्म भी यथाकाल और उपक्रम द्वारा निःसंशय पकते हैं अर्थात् निर्जीर्ण होते है ।। ६४ ।। जो अपना समय पाकर कर्मकी निर्जरा होती हैं, वह साधारण है, अर्थात् सभी संसारी जीवोंके होती है और वह नवीन कर्मका बन्ध कराती हैं । किन्तु जो महान् तपके द्वारा कर्म- निर्जरा की जाती है. वह पूर्व संचित कर्मों को सुखाती हैं और नवीन आनेवाले कर्मो को रोकती है || ६५ ॥ तपके द्वारा भलीभाँति तपा हुआ मनुष्य पूर्वोपार्जित कर्मो का क्षय कर शुद्धिको प्राप्त होता है। अग्निके द्वारा संदग्ध सुवर्णपाषाण क्या कीट- कालिमा शुद्ध नहीं होता है ? होता ही है || ६६ ॥ | यह चेतन आत्मा. घातिया कर्मोंको तपके द्वारा विनष्ट करके सर्वलोक-प्रकाशक एवं सर्वजगन्मान्य केवलज्ञानको प्राप्त करता है । जैसे सूर्य अन्धकारके समूहका नाश कर प्रकाशमान दिनको प्राप्त करता हैं || ६७ ॥ अतिनिर्मल शुक्लध्यानरूप समृद्ध पावकमें प्रवेश कराके समस्त कर्मबन्ध के कारणोंको जलाकर और संचित कर्मोकी निर्जरा करता हुआ यह आत्मा सर्वकर्मो के कल्मषको निर्मूल क्षय करके सिद्धिको प्राप्त करता हैं ॥ ६८ ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २८९ निसर्गतो गच्छति लोकमस्तकं कर्मक्षयानन्तरमेव चेतनः । धर्मास्तिकायेन समीरितोऽनघं समीरणेनेव रजश्चयः क्षणात् ॥ ६९ निरस्तदेहो गुरुदुःखपीडितां विलोकमानो निखिलां जगत्त्रयीम् । स भाविनं तिष्ठति कालमुज्ज्वलो निराकुलानन्तसुखान्धिमध्यगः ।। ७० यवस्ति सौख्यं भवनत्रये परं सुरेन्द्रनागेन्द्र नरेन्द्र भोगिनाम् । अनन्तमागोऽपि न तन्निगद्यते निरेनसः सिद्धसुखस्य सूरिभिः ।। ७१ इमे पदार्थाः कथिता महषिभिर्ययायथं सप्त निवेशिता हदि । विनिर्मला तत्त्वरुचि वितन्वते जिनोपदेशा इव पापहारिणः ।। ७२ विरागिणा सर्वपदार्थवेदिना जिनेशिनते कथिता न वेति यः। करोति शङ्कां न कदापि मानसे निःशङ्कितोऽसौ गदितो महात्मना ।। ७३ विधीयमानाः शमशीलसंयमा: श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । सांसारिकानेकसुखप्रद्धिनीं निष्कांक्षितो नेति करोति काङ्क्षाम् ।। ७४ तपस्विनां यस्तनमस्तसंस्कृति जिनेन्द्रधर्म सुतरां सुदुष्करम् । निरीक्षमाणो न तनोति निन्दनं स मण्यते धन्यतमोऽचिकित्सन् ।। ७५ देवधर्मसमयेषु मूढता यस्य नास्ति हृदये कदाचन ।। चित्तदोषकलितेषु सन्मतेः सोऽर्च्यते स्फुटममूढदृष्टिकः ।। ७६ अब मोक्षतत्त्वका वर्णन करते है-उपर्युक्त प्रकारसे यह जीव नवीन कर्मबन्धके कारणोंका अभाव कर, तथा संचित कर्मोंकी निर्जरा कर सर्व कर्मोंके क्षयके अनन्तर ही धर्मास्तिकायसे प्रेरित होता हआ स्वभावसे ही निर्दोष लोकशिखरको प्राप्त हो जाता हैं। जैसे कि पवनके द्वारा उडाया गया रजका पुञ्ज क्षणमात्रमें ऊपर चला जाता है ॥६९।। इस प्रकार कर्मरूप देहसे रहित अतएव उज्ज्वलताको प्राप्त हुआ यह आत्मा अतिदु खसे पीडित इस समस्त जगत्त्रयको अव. लोकन करता हुआ आगे अनन्तकाल तक निराकुल अनन्त सुख-सागरके मध्यमें निमग्न रहता है।७० । तीनों लोकोंमें देवेन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र और सौभाग्यशालियोंको जो उत्कृष्ट सौख्य प्राप्त है, वह कर्म-रहित मोक्ष-सुखके अनन्तवें भाग भी नहीं है, ऐसा आचार्योने कहा हैं ॥७१।। महषियोंने ये जो सात तत्त्व या पदार्थ कहे हैं उन्हें जो यथार्थ रीतिसे अपने हृदयमें जिनोपदेशके समान धारण करते हैं, वे जीव पापोंको अपहरण करनेवाली अतिनिर्मल तत्त्वकी प्रतीतिको धारण करते हैं ॥७२।। अब सम्यक्त्वके निःशंकित आदि आठ अंगोंका वर्णन करते हैं-वीतरागी सर्वपदार्थोके वेत्ता जिनेन्द्र देवने ये सर्व पदार्थ कहे है, अथवा नहीं? इस प्रकारकी शकाको जो कभी भी मन में नहीं करता है, महापुरुषोंने उसे पहला निःशंकित अंग कहा है ।।७३ । मेरे द्वारा किये जानेवाले ये शम, शील और संयम मुझे सांसारिक अनेक प्रकारके सुखोंको बढानेवाली मनोवांछित लक्ष्मीको देवें, ऐसी आकांक्षा निःकांक्षित गुणका धारक कभी नहीं करता है। यह दूसरा वि:काक्षित अंग है ।।७४।। जो तपस्वियोंके संस्कार-रहित मलिन शरीरको और सुतरां अतिदुष्कर जिनेन्द्र धर्मको निरीक्षण करता हुआ भी उनकी निन्दा नहीं करता हैं, वह तीसरे निविचिकित्सा अंगका धारक उत्तम अन्य पुरुष कहा गया है ।।७५॥ जिस सुबुद्धिके हृदयमें नाना प्रकारके दोषोंसे युक्त कुदेव,कुधर्म और कुमत पर कभी भी मूढता नहीं हैं, वह निश्चयसे चौथे अमूढदृष्टि अंगका Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० श्रावकाचार-संग्रह यो निरीक्ष्य यतिलोकदूषणं कर्मपाकजनितं विशुवधीः । सर्वथाऽप्यवति धर्मबुद्धितः कोविदास्तमुपगूहकं विदुः ॥ ७७ विवर्तमान जिननाथवर्मनो निपीड्यमानं विविधः परीषदः । विलोक्य यस्तत्र करोति निश्चलं निरुच्यतेऽसौ स्थितिकारकोत्तमः ॥ ७८ करोति सङ्घ बहुधोपसर्गरूपते धर्मधियाऽनपेक्षः। चतुर्विधव्यापृतिमुज्ज्वला यो वात्सल्यकारी समतः सुदृष्टिः ।। ७९ निरस्तदोषे जिननाथशासने प्रभावमा यो विदधाति मक्तितः । तपोवयाज्ञानमहोत्सवादिभिः प्रभावकोऽसौ गदितः सुवर्शनः ।। ८० गुणैरमीभिः शुमदृष्टिकण्ठिका दधाति बहां हृदि योऽष्टभिः सदा ।। करोति वश्याः सकला: स सम्पदो वभूरिवेष्टा: सुभगो वशंवदः ।। ८१ सुदर्शनं यस्य स नामभाजनं सुदर्शनं यस्य स सिद्धिभाजनम् । सुदर्शनं यस्य स धीविभूषितः सुदर्शनं यस्य स शीलभूषितः ।। ८२ नो जायेते पावने ज्ञानवृत्ते सम्यक्त्वेन प्राणिनो जितस्य । शर्माधारे कोशराज्ये न दृष्टे नूनं क्वापि न्यायहीनस्य राज्ञः ।। ८३ सुवर्शनेनेह विना तपस्यामिच्छन्ति ये सिद्धिकरी विमूढाः । कांक्षन्ति बीजेन विनाऽपि मन्ये कृषि समुद्धा फलशालिनी ते ।। ८४ धारक कहा गया हैं 11७६।। जो विशुद्धबुद्धि पुरुष साधु लोगों में कर्म-विपाक-जनित किमी दूषणको देखकर धर्मबुद्धिसे सर्वथा रक्षा करता हैं, उसे ज्ञानियोंने पाँचवें उपगूहन अग का धारक कहा हैं ॥७७॥ जो विविध परिषहोंसे पीडित होकर जिनराजके धर्ममार्गसे भ्रष्ट होते हुए पुरुषको देखकर उसे धर्ममार्गमें निश्चल करता हैं, वह छठे स्थितिकरण अंगके धारकोंमें उत्तम कहा गया हैं ।।७८!। नाना प्रकारके उपसर्गोके द्वारा पीडित चतुर्विध संघ पर जो वांछा-रहित होकर धर्मबुद्धिसे निर्मल वैयावृत्त्य करता है, वह सातवें वात्सल्य अंगका धारक सम्यग्दृष्टि माना गया हैं ॥७९।। जो निर्दोष जिनराजके शासनकी तप, दया, ज्ञान, महोत्सवादिके द्वारा शक्तिके अनुसार प्रभावना करता है, वह आठवें प्रभावना अंगका धारी प्रभावक सम्यग्दृष्टि कहा गया है ।।८०॥ जो पुरुष इन उपर्युक्त आठ गुणोंसे निबद्ध शुभ सम्यग्दर्शनरूपी कंठी (माला) को सदा अपने हृदयमें धारण करता हैं, वह सर्व सम्पदाओंको अपने वशमें कर लेता हैं। जैसे कि उत्तम मालाका धारण करनेवाला सौभाग्यशाली मिष्ट-भाषी पुरुष अभीष्ट स्त्रियोंको अपने वशमें कर लेता हैं ॥८॥ जिसके सम्यग्दर्शन है वही पुरुष सुपात्र है, जिसके सम्यग्दर्शन हैं वही मुक्तिका भाजन हैं, जिसके सम्यग्दर्शन हैं, वही बुद्धिसे विभूषित है और जिसके सम्यग्दर्शन है वही शीलसे विभूषित है ।।८२॥ सम्यवत्वसे रहित जीवके ज्ञान और चारित्र पवित्र नहीं होते है । जसे निश्चयसे न्याय-रहित राजाके यहाँ सुखके आधारभूत कोष और राज्य नहीं देखे जाते ।।८३। जो मूढमति पुरुष सम्यग्दर्शनके विना केवल तपस्याको सिद्धि (मुक्ति) की करनेवाली मानते हैं,वे मानो बीज Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः लोकालोकविलोकिनीमकलिलां गीर्वाणवर्गाचताम्, दत्ते केवलसम्पदं शमवतामानीय या लीलया । सम्यग्दृष्टि र पास्तदोष निवहा यस्यास्ति सा निश्चला तेन प्रापि न कि सुखं बुधजनंरभ्यर्च्यमानं स्थिरम् ।। ८५ सम्यक्त्वोत्तमभूषणोऽमितगतिर्धते व्रतं यस्त्रिधा, भुक्त्वा भोगपरम्परामनुपमां गच्छत्यसौ निर्वृत्तिम् । सर्वापायनिषूदिनीमपमलां चिन्तामण सेवते, यः पुण्याभरणाचितः स लभते पूतां न कां सम्पदम् ॥ ८६ इत्यमितगतिकृतश्रावकाचारे तृतीयः परिच्छेदः ।। चतुर्थः परिच्छेदः केचिदन्ति नास्त्यात्मा परलोकगमोद्यतः । तस्याभावे विचारोऽयं तत्त्वानां घटते कुतः ॥ १ विद्यते परलोकोऽपि नाभावें परलोकिनः । अमावें परलोकस्य धर्माधर्मक्रिया वृथा ।। २ इहलोके सुखं हित्वा ये तपस्यन्ति दुधियः । हित्वा हस्तगतं ग्रासं ते लिह्यन्ति पदाङ्गुलीः ॥ ३ निहाय कलिलाशङ्कां सन्चेष्टं चेष्टतां जनः । चेतनस्य विनष्टस्य विद्यते न पुनर्भवः ॥ ४ नाभ्यलोकमतिः कार्या मुक्त्वा शर्मेहलौकिकम् । दृष्टं विहाय नादृष्टे कुर्यते धिषणां बुधाः ॥ ५ २९१ के बिना ही फलशालिनी समृद्ध कृषिको चाहते है ||८४|| जो लोक- अलोककी अवलोकन करने - वाली, निर्मल- समूह से पूजित ऐसी कैवल्यसम्पदा शमभावी साधुओंको लीलामात्र से लाकर देती है, ऐसी सर्वदोष-समुदायसे रहित यथार्थ सच्ची दृष्टि जिसके हृदयमें निश्चलरूपसे विद्यमान है, उस पुरुषने ज्ञानियोंसे प्रार्थनीय सुखको क्या चिरकालके लिए नहीं पा लिया है? पा ही लिया है । ८५॥ जो सम्यक्त्वरूप उत्तम आभूषणका धारक अमितगति पुरुष व्रतोंको मन वचन कायरूप त्रियोगसे धारण करता है, वह अनुपम भोंगों की परम्पराको भोग कर मोक्षको प्राप्त होता हैं । जो पुण्यरूप आभूषण से अर्चित मनुष्य सर्व अपायोंकी नाश करनेवाली मल-रहित चिन्तामणिको सेवन करता है. वह किस पवित्र सम्पदाको नहीं प्राप्त करता हैं ? अर्थात् गभी प्रकारकी सम्पदाओंको पाता ॥ ८६ ॥ इस प्रकार अमितगति-रचित श्रावकाचार में तीसरा परिच्छेद समाप्त हुअ' । कितने ही नास्तिकमति चार्वाक कहते है कि परलोकमें गमन करनेको उद्यत कोई आत्मा दिखाई नहीं देता है, इसलिये उसके अभाव में तत्त्वोंका यह पुर्वोक्त विचार कैसे सुघटित हो सकता हैं ||१|| परलोकमें जानेवाले आत्माके अभाव में परलोक भी सिद्ध नहीं होता हैं और इस प्रकार परलोकके अभाव में धर्म-अधर्मकी क्रिया व्यर्थ है । २|| जो दुर्बुद्धि पुरुष इस लोकके सुख को छोडकर तपश्चरण करते हैं, वे मानों हस्त-गत ग्रासको छोड़कर पैरकी अँगुलीको चाटते हैं ॥ ३ ॥ इसलिये पापकी शंकाको छोडकर मनुष्यको यथेष्ट - मनमाना - आचरण करना चाहिये। क्योंकि चेतनके विनष्ट होनेपर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है ||४|| अतएव पुरुषोंको इस लोकका सुख Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह 1 पृथिव्यम्भोऽग्निवातेभ्यो जायते यन्त्रवाहकः । विष्टोदकगुडादिभ्यो मदशक्तिरिव स्फुटम् ।। ६ जन्मपञ्चत्वयोरस्ति न पूर्वपरयोरयम् । सदा विचार्यमाणस्य सर्वथाऽनुपपत्तितः ॥ ७ परात्मवैरिणां नेतन्नास्तिकानां कथञ्चन । युज्यते वचनं तत्त्वविचारानुपपतितः ॥ ८ विद्यते सर्वथा जीवः स्वसंवेदनगोचरः । सर्वेषां प्राणिनां तत्र बाधकानुपपत्तितः ॥ ९ शक्यते न निराकर्तु केनाप्यात्मा कथञ्चन । स्वयंवेदनवेद्यत्वात् सुखदुःखमिव स्फुटम् ।। १० अहं दुःखी सुखी चाहमित्येषः प्रत्यय: स्फुट: । प्राणिनां जायतेऽध्यक्षो निर्बाधो नात्मना विना ॥११ स्वसंवेदनतः सिद्धे निजे वपुषि चेतने । शरीरे परकोटोऽपि स सिद्धयत्यनुमानतः ॥ १२ परस्य ज्ञायते देहे स्वकीय इब सर्वथा । चेतनो बुद्धिपूर्वस्य व्यापारस्योपलब्धितः ।। १३ जन्मपञ्चत्वयोरस्ति न पूर्वपरयोरयम् । नैषा गीर्युज्यते तत्र सिद्धत्वादनुमानतः ॥ १४ चैतन्यमादिमं नूनमन्यचैतन्यपूर्वकम् । चैतन्यत्वाद्यथा मध्यमन्त्यमन्यस्य कारणम् ।। १५ २९२ छोडकर परलोकके सुखमें बुद्धि नहीं करना चाहिये । क्योंकि बुधजन प्रत्यक्ष दृष्ट वस्तुको छोडकर अदृष्ट परोक्ष वस्तुके पानेकी बुद्धि नहीं करते है |५|| जैसे दालोंकी पीठी, जल, गुड आदिके संयोगसे मदशक्ति स्पष्टरूपसे प्रगट होती दिखती है, इसी प्रकार पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इस भूतचतुष्टयसे इस शरीररूप यंत्रका संचालन करनेवाला आत्मा नामक पदार्थ उत्पन्न होता हैं, वस्तुतः आत्मा नामका कोई पदार्थ नहीं है || ६ || इस प्रकार जन्मसे पूर्व में और मरणके पश्चात् जीब नामका कोई पदार्थ नहीं हैं, क्योंकि युक्तिसे विचार करनेपर उसका सर्वथा अभाव प्रतीत होता है ||७|| किन्तु पराये और अपने वैरी नास्तिक लोगों का यह कथन कदाचित् भी सत्य नहीं हैं, क्योंकि युक्तिसे विचार करने पर वह सत्य सिद्ध नहीं होता हैं ||८|| सभी प्राणियों के स्वानुभवगोचर अर्थात् अपने अनुभव में आनेवाला जीव सर्वथा विद्यमान है, क्योंकि स्वसवेदन में कोई बाधक प्रमाण नहीं पाया जाता हैं ||९|| आत्माका अस्तित्व किसीके भी द्वारा किसी भी प्रकार मे निराकरण करना शक्य नहीं है, क्योंकि वह सुख-दुःख के समान स्व-संवेदन प्रत्यय-स्वानुभव - प्रत्यक्ष से स्पष्ट जाना जाता हैं ॥ १०॥ ' मैं दुःखी हूँ, मैं सुखी हूँ' ऐसा स्वसंवेदन - प्रत्ययरूप स्पष्ट निर्बाध प्रत्यक्ष आत्मा विना प्राणियोंके नहीं हो सकता है ।। ११ । । इस प्रकार अपने शरीर में स्वसंवेदन - प्रत्यक्षसे चेतन आत्माके सिद्ध होने पर परके शरीरमें भी अनुमानसे उसकी सिद्धि होती है ॥२२॥ वह अनुमान प्रमाण इस प्रकार हैं- परके देहमें चेतन आत्मा है, क्योंकि उसके बुद्धिपूर्वक व्यापार पाया जाता हैं । जैसे कि अपने में बुद्धिपूर्वक व्यापार सर्वथा पाया जाता हैं ||१३|| और जो तुम नास्तिकोंने कहा हैं कि 'जन्मसे पूर्व और मरणके पश्चात् जीवनामक कोई पदार्थ नहीं हैं, सो यह कथन भी युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि अनुमानसे आत्माका अस्तित्व सिद्ध है ।।१४।। यथा - आद्य चैतन्य निश्चयसे अन्य चैतन्य-पूर्वक हैं, क्योंकि वह चैतन्यरूप है । जैसे कि मध्यका चैतन्य और अन्तका चैतन्य अन्यका कारण है ॥ १५ ॥ भावार्थ- द्रव्यकी पर्याय सदा बदलती रहतो हैं, फिर भी उसका सर्वथा अभाव नहीं होता, क्योंकि सत्का कभी अभाव और असत् का उत्पाद असंभव है । इस नियम के अनुसार 'हमारा मनुष्यपर्यायरूप चैतन्य इससे पूर्ववर्ती देवादिपर्यायवाले चैतन्य-पूर्वक उत्पन्न हुआ हैं जैसे कि बालपन के चैतन्यपूर्वक युवावस्थारूप मध्यवर्ती चैतन्य उत्पन्न होता हैं और मध्य चैतन्यपूर्वक वृद्धावस्थारूप अन्त्य चैतन्य उत्पन्न होता है। इसी प्रकार अन्त्य चैतन्यपूर्वक आगामी भवका चैतन्य उत्पन्न Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २९३ तत्रैव वासरे जातः पूर्वकेणात्मना विना । अशिक्षितः कथं बालो मुखमर्पयति स्तने ।। १६ भूतेभ्यो येन तेभ्योऽयं चेतनो जायते कथम् । विभिन्नजातितः कार्य जायमानं न दृश्यते ।। १७ प्रत्येक युगपद्वै (ते? ) भ्यो भूतेभ्यो जायते भवी । विकल्पे प्रथमे तस्य तावत्त्वं केन वार्यते ।। १८ विकल्पे स द्वितीयेऽपि कथमेकस्वभावकः । मिन्नस्वभावकरेभिर्जन्यते वद चेतनः ।। १९ चेतनो येन तेभ्योऽपि मतेभ्यो न विरुध्यते । भिन्नानां मौक्तिकादीनां तोयादिभ्योऽपि दर्शनात २० तदयुक्तं यतो मुक्तातोयादीनां विलोक्यते । एकपोलकी जातिभिन्नताऽतः कुतस्तनी। २१ यतः पिष्टोदकादिभ्यो मदशक्तिरचेतना । सम्भूताऽचेतनेभ्योऽतो दृष्टान्तोऽस्ति न चेतने ।। २२ न शरीरात्मनोरवयं वक्तव्यं तत्त्ववेदिभिः । शरीरे तदवाथेऽपि जीवस्यानुपलब्धितः ॥ २३ होता हैं । पूर्वपर्यायवों चैतन्य उत्तरपर्यायवर्ती चैतन्यका कारण हैं और उत्तरपर्यायरूप चैतन्य पूर्वपर्यायवर्ती चैतन्यका कार्य है। इस प्रकार बीज-वृक्षके समान यह कार्य-कारणकी परम्परा चैतन्यको भी सदा प्रवर्तमान रहती है । अतएव सिद्ध हुआ कि हमारा वर्तमान चैतन्य पूर्वपर्यायवर्ती चैतन्यपूर्वक उत्पन्न हुआ हैं । इस अनुमानसे चेतन आत्माका अस्तित्व और परलोकका अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि पूर्व भव आदि न माने जावें तो उस ही दिनका उत्पन्न हुआ अशिक्षित शिशु आत्माके पूर्वसंस्कारके विना माँके स्तन पर अपने मुखको कैसे लगा देता हैं? कहनेका भाव यह कि तत्कालका उत्पन्न शिशु पूर्वजन्मके संस्कारसे ही माँके स्तनको चूसने लगता है ॥१६॥ और जो तुमने कहा हैं कि पृथ्वी आदि भूतचतुष्टयसे चैतन्य आत्मा उत्पन्न होता है, सो भाई, यह बताओ कि अचेतन भूतोंसे यह चेतन आत्मा कैसे उत्पन्न हो जाता हैं? क्योंकि भिन्न जातिवाले कारणसे भिन्न जातिवाला कार्य उत्पन्न होता हुआ नहीं दिखाई देता है । अर्थात् कारणके अनुसार ही कार्य उत्पन्न होता हैं । यतः पृवी आदि भूत अचेतन है, अतः उनसे भिन्न जातीय चेतनकी उत्पत्ति कभी भी संभव नहीं हैं ।।१७।। फिर भी यदि तुम्हारा यही दुराग्रह हो कि पृथ्वी आदि भूतोंमेंसे एक-एक भूतसे चेतन उत्पन्न होता है कि सभीसे युगपत् एक चेतन उत्पन्न होता हैं? प्रथम विकल्प मानने पर जितने भूत हैं, उतने ही चेतनोंका उत्पन्न होना कैसे रोका जा सकता है, अर्थात् प्रत्येक भूतसे अपनी-अपनी जातिका ही चेतन उत्पन्न होगा। ऐसी दशामें भतचतुष्टयसे एक नहीं, किन्तु अनेक चेतन उत्पन्न होंगे, जो कि दिखाई नहीं देते है।।१८॥ दूसरे विकल्पके मानने पर हम पूछते है कि भिन्न-भिन्न स्वभाववाले उन भूतोंसे एक स्वभाववाला चेतन कैसे पैदा हो सकता हैं, यह बताओ ।।१९।।। यदि आप कहें कि अचेतन भी भूतोंसे चेतनका उत्पन्न होना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि भिन्न जातिवाले मोतियोंकी उत्पत्ति जलादिसे भी देखी जाती है। सो तुम्हारा यह कथन अयुक्त हैं, क्योंकि मोती और जलादिककी एक पौद्गलिक जाति ही है, अतः उनकी जातिकी भिन्नता कैसे संभव है ।।२० २१।। तथा अचेतन पीठी-गुड-जल आदिके संयोगसे अचेतन ही मदशक्ति उत्पन्न होती है,इसलिये तुम्हारा यह दृष्टान्त चेतनके विषयमें देना ठीक नहीं हैं ।।२२।। तत्वज्ञ पुरुषोंको शरीर और आत्माकी एकता भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि मरणके पश्चात् शरीरके तदवस्थ रहने पर भी जीवकी उपलब्धि नहीं होती है। इससे ज्ञात होता है कि शरीर और आत्मा ये दो भिन्न-भिन्न जातिके पदार्थ है, एक नहीं है ।।२३।। एक ज्ञानमात्र तत्त्वकेमाननेवाले ज्ञानाद्वैतवादी कहते है कि निरंश और क्षणिक ज्ञानके अतिरिक्त आत्मा नामकी कोई वस्तु नहीं है, उनको लक्ष्य करके आचार्य कहते हैं कि 'ज्ञानको छोडकर आत्मा नामकी कोई वस्तु नहीं है' यह वचन Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ श्रावकाचार-संग्रह ज्ञानं विहाय नात्माऽस्ति नेदं वचनमञ्चितम् । ज्ञानस्य क्षणिकत्वेन स्मरणानुपपत्तितः ॥ २४ मात्मा सर्वगतो वाच्यस्तत्स्वरूपविचारिभिः । शरीरव्यतिरेकेण येनासौ दृश्यते न हि ।। २५ शरीरतो बहिस्तस्य विज्ञान विद्यते न था। विद्यते चेत्कथं तत्र कृत्याकृत्यं न बुद्धचते ।। २६ यदि नास्ति कुतस्तस्य तत्र सत्ताऽवगम्यते । लक्षणेन विना लक्ष्यं न क्वापि व्यवतिष्ठते ।। २७ सर्वेषामेक एवात्मा युज्यते नेति जल्पितुम् । जन्ममृत्यसुखादीनां भिन्नानामुपलम्भतः ॥ २८ न वक्तव्योऽणमात्रोऽयं सर्वैर्येनानुभूयते । अभीष्टकामिनीस्पर्शे सर्वाङ्गीणः सुखोदयः ॥ २९ समीरणस्वभावोऽयं सुन्दरा नेति भारती । सुखज्ञानादयो भावाः सन्ति नाचेतने यतः ॥ ३० न ज्ञानविकलो वाच्यः सर्वथाऽऽत्मा मनीषिभिः । क्रियाणां ज्ञानजन्यानां तत्राभावप्रसङ्गतः ।। ३१ प्रधानज्ञानतो ज्ञानी न वाच्यो ज्ञानशालिभिः । अन्यज्ञानेनन ह्यन्यो ज्ञानी क्यापि विलोक्यते ॥३२ सत्य नहीं हैं, क्योंकि ज्ञानके क्षणिक होनेसे पूर्वज्ञात स्मरण नहीं होना चाहिये । किन्तु हम आप सभी लोगोंको पूर्वज्ञात पदार्थका स्मरण पाया जाता हैं, अतः आत्मा नामका कोई नित्य पदार्थ अवश्य है, यह सिद्ध होता है ॥२४॥ आत्माको सर्वव्यापक माननेवाले ब्रह्माद्वैतवादियोंको लक्ष्य करके आचार्य कहते है कि आत्म-स्वरूपका विचार करनेवालोंको 'आत्मा सर्वगत या सर्वव्यापक है, ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि शरीरके अतिरिक्त वह अन्तरालमें कहीं नहीं दिखाई देता है ।।२५।। इतने पर भी यदि आप आत्माको सर्वव्यापक मानें तो हम पूछते है कि शरीरसे बाहिर फिर कृत्य और अकृत्यका ज्ञान क्यों नहीं होता है? यदि कहा जाय कि शरीरके बाहिर आत्माका ज्ञान नहीं होता हैं, तो फिर शरीके बाहिर उस आत्माकी सत्ता कैसे जानी जा सकती है, यह बतलाइये, क्योंकि लक्षणके विना लक्ष्य कहीं पर भी नहीं ठहर सकता है ।।२६-२७॥ भावार्थज्ञान लक्षण है और आत्मा लक्ष्य हैं । जहाँ पर लक्षण नहीं पाया जाता हैं, वहाँ पर लक्ष्य कैसे पाया जा सकता है । अतएव आत्माको सवव्यापक मानना मिथ्या हैं। यदि आप कहें कि 'सभी शरीरोंमें एक ही आत्मा रहता है' सो यह कहना भी योग्य नहीं हैं, क्योंकि सभी शरी रोमें भिन्न-भिन्न ही जन्म, मरण और सुख-दुःखादिकी उपलब्धि होती हैं, इसलिये सभी शरीरोंम एक आत्माका कथन मिथ्या है ।।२८।। कुछ लोग आत्माको अणुमात्र मानते हैं, उनको लक्ष्य करके आचार्य कहते है कि आत्माका अणुमात्र भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि अभीष्ट स्त्रीके स्पर्श के समय सारे शरीरसे उत्पन्न हआ सुखका आल्हाद सभी लोग अनभव करते हैं ।।२९। यदि कहा जाय कि सर्वाङमें सुखका अनुभव तो पवनके तीव्र वेगके संचारसे होता हैं, सो यह कहना भी सुन्दर नहीं है, क्योंकि सुख, ज्ञान आदिक चेतनभाव अचेतन पवनमें संभव नहीं है । अतएव आत्माको अणु-प्रमाण न मानकर शरीर-प्रमाण ही मानना चाहिये ।।३०।। कुछ लोग आत्माको ज्ञानसे रहित मानते है, उनको लक्ष्य करके आचार्य कहते हैं कि बुद्धिमान् लोगोंको आत्मा ज्ञानसे विकल कभी भी नहीं कहना चाहिये, क्योंकि यदि आत्माको ज्ञानसे शून्य माना जाय, तो ज्ञान-जन्य क्रियाओंका आत्मामें अभाव प्राप्त होता है। किन्तु आत्मामें तो ज्ञानजनित क्रियाएँ देखी जाती है अतः उसे ज्ञान-युक्त ही मानना चाहिये ॥३१।। यदि कहा जाय कि आत्मामें जो ज्ञानके सद्भावकी प्रतीति होती है, वह प्रधान (प्रकृति) जनित ज्ञानके संसर्गसे . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः न शुद्धः सर्वथा जीवो बन्धाभावप्रसङ्गतः । न हि शुद्धस्य मुक्तस्य दृश्यते कर्मबन्धनम् ॥ ३३ प्रधानेन कृते धर्मे मोक्षभागी न चेतनः । परेण विहिते भागे तृप्तिभागी कुतः परः ।। ३४ प्रधानं यदि कर्माणि विधत्ते मुञ्चते यदि । किमात्माऽनर्थकः सांख्यैः कल्प्यते मम कथ्यताम् ॥ ३५ न ज्ञानमात्रतो मोक्षस्तस्य जातूपपद्यते । भैषज्यज्ञानमात्रेण न व्याधिः क्वाऽपि नश्यति ।। ३६ अचेतनस्य न ज्ञानं प्रधानस्य प्रवर्तते । स्तम्भकुम्भादयो दृष्टा न क्वापि ज्ञानयोगिनः ।। ३७ ऊह्यं स्वयमकर्तारं भोक्तारं चेतनं पुनः । भाषमाणस्य सांख्यस्य न ज्ञानं विद्यते स्फुटम् ॥ ३८ सकलैर्न गुणैर्मुक्तः सर्वथाऽऽत्मोपपद्यते । न जातु दृश्यते वस्तु शशशृङ्गमिवागुणम् ।। ६९ न ज्ञानज्ञानिनोर्भेदः सर्वथा घटते स्फुटम् । सम्बन्धाभावतो नित्यं मेरुकैलासयोरिव ।। ४० सममायेन सम्बन्धः क्रियमाणो न युज्यते । नित्यस्य व्यापिनस्तस्व सर्वदाऽप्यविशेषतः ॥ ४१ होती है । इस पर आचार्य कहते है कि ज्ञानशालियोंको ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि अन्यके ज्ञानसे कोई अन्य पुरुष ज्ञानी हुआ कहीं भी नहीं देखा जाता हैं ||३२|| जो लोग संसारी जीवको भी सर्वथा शुद्ध मानते है, उनको लक्ष्य करके आचार्य कहते हैं कि संसारी जीव सर्वथा शुद्ध नहीं हैं, क्योंकि उसके शुद्ध मानने पर कर्म-बन्धके अभावका प्रसंग आता है । देखो शुद्ध मुक्त जीवके कर्म - बन्धन नहीं पाया जाता है ||३३|| यदि प्रधान (प्रकृति) के द्वारा धर्म किया जाता हैं, यह माना जाय, तो फिर चेतन पुरुष मोक्षका भागी नहीं हो सकता, क्योंकि अन्यके द्वारा आहारादिके भोगने पर अन्य पुरुष तृप्तिका अनुभव कैसे कर सकता हैं ।। ३४ ।। यदि प्रधान पुण्य-पापरूप कर्मोंको करता हैं और यदि वही छोड़ता हैं, तो फिर मुझे बतलाइये कि सांख्योंने इस अनर्थक आत्माकी कल्पना क्यों की है ||३५|| सांख्यमती कहते हैं कि द्वैतरूप भ्रमसे कर्मबन्ध होता है और अद्वैतरूपके ज्ञानमात्रसे कर्म-बन्ध नष्ट हो जाता है, इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि केवल ज्ञानमात्रसे जीवका मोक्ष कभी भी नहीं होता है। क्योंकि कहीं पर भी औषधिके ज्ञानमात्रसे व्याधि नष्ट नहीं होती है || ३६ || * २९५ दूसरी बात यह है कि अचेतन प्रधानके ज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती हैं। क्योंकि कहीं पर भी अचेतन स्तम्भ, कुम्भ आदि पदार्थ ज्ञानोपयोगवाले नहीं देखे जाते है ||३७|| स्वयं आत्माको अकर्ता कहकर और फिर चेतनको भोक्ता कहनेवाले सांख्य के ज्ञान नहीं है, यह स्पष्ट ज्ञांत होता है ||३८|| वैशेषिक- नैयायिक मतावलम्बी मुक्त जीवको बुद्धि-सुख आदि समस्त गुणोंसे रहित मानते हैं, उनको लक्ष्य में रखकर आचार्य कहते हैं कि सर्वगुणोंसे सर्वथा रहित मुक्त आत्मा संभव नहीं है, क्योंकि शश-शृंगके समान सर्वथा गुण-रहित कोई भी वस्तु कदाचित् भी नहीं दिखाई देती है ||३९|| भावार्थ- गुणोंके समुदायरूप द्रव्यको ही गुणी कहते हैं । यदि मुक्त अवस्था में गुणोंका सर्वथा अभाव माना जायगा, तो गुणीका भी अभाव मानना पडेगा । अतएव गुण-रहित मुक्त जीवको कहना मिथ्या हैं । जो लोग ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथा भेद मानते हैं, उनका निषेध करते हुए आचार्य कहते है कि ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथा भेद घटित नहीं होता जैसे कि मेरु और कैलास पर्वत में सम्बन्धका अभाव होनेसे नित्य ही सर्वथा भेद घटित होता है ॥ ४० भावार्थ - यदि ज्ञानसे ज्ञानीमें सर्वथा भेद माना जायगा, तो उनका परस्परमें सम्बन्ध नहीं बन सकेगा । यदि कहा जाय कि समवाय के द्वारा ज्ञान और ज्ञानी में सम्बन्ध बन जायगा, सो यह कहना भी युक्ति संगत नहीं हैं, क्योंकि समवायके नित्य और व्यापक होनेसे उसका सर्वत्र सभी जड़ और चेतन पदार्थोंसे विना किसी विशेषताके सम्बन्ध होना चाहिये ||४१॥ भावार्थ - यदि समवायसे ज्ञान और आत्मा ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह नित्यताऽनित्यता तस्य सर्वथा न प्रशस्यते । अभावादर्थनिष्पत्तेः क्रमतोऽक्रमितोऽपि वा ।। ४२ न नित्यं कुरुते कार्य विकारानुपपत्तितः । नानित्यं सर्वथाऽनिष्टमारोग्यं मृतवैद्यवत् ॥ ४३ नामूर्तिः सर्वथा युक्तः कर्मबन्धाप्रसङ्गतः । नमसो न ह्यमूर्तस्य कर्मलेपो विलोक्यते ॥ ४४ स यतो बन्धतोऽभिन्नो लक्षणतः पुनः । अमूर्तताऽऽत्मनस्तस्य सर्वथा नोपपद्यते ॥। ४५ निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः स्थित्युत्पसिव्ययात्मकः । कर्त्ता भोक्ता गुणो सूक्ष्मो ज्ञाता द्रष्टा तनुप्रमः स्थिते प्रमाणतो जीवें सर्वेऽप्यर्थाः स्थिता यतः । क्रियमाणा ततो युक्ता सप्ततत्त्वविचारणा ।। ४७ परे वदन्ति सर्वज्ञो वीतरागो न विद्यते । किञ्चिज्ज्ञत्वादशेषाणां सर्वथा रागतत्त्वतः ॥ ४८ तवयुक्तं वचस्तेषां ज्ञानं सर्वार्थगोचरम् । न विना शक्यते कर्तु सर्वपुंज्ञानवारणम् ।। ४९ समस्ताः पुरुषा येन कालत्रितयवर्तिनः । निश्चिताः स नरः शक्तः सर्वज्ञस्य निषेधने ॥। ५० का सम्बन्ध होना माना जाय, तो घटपटादि अचेतन पदार्थोंमें ज्ञानका सम्बन्ध क्यो न माना जाय? क्योकि उसे नित्य और व्यापक माना गया है । समवाय के सर्वथा नित्यता और अनित्यता भी नहीं मानी जा सकती है, क्योंकि दोनों ही अवस्थाओंमें क्रमसे अथवा युगपत् अर्थ क्रियाका अभाव रहेगा ||४२ || आचार्य इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते है कि नित्य पदार्थ तो क्रमसे या एक साथ कार्य नहीं कर सकता है, क्योंकि नित्म पदार्थ में विकार होना संभव नहीं है, यदि नित्यमें भी विकार माना जायगा, तो उसे अनित्य मानना पडेगा । इसी प्रकार सर्वथा अनित्य पदार्थ भी क्रमसे अथवा युगपत् कार्य नहीं कर सकता है । जैसे कि मरा हुआ वैद्य रोगी पुरुषको नीरोग नहीं कर सकता हैं ।। ४३ ।। जो लोग संसारी आत्माको सर्वथा अमूर्त मानते हैं उनका निषेध करते हुए आचार्य कहते हैं कि आत्माको सर्वथा अमूर्त कहना युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि संसारी आत्मा के कर्म-बन्धका प्रसंग देखा जाता हैं । किन्तु सर्वथा अमूर्त आकाशके कर्म लेप नहीं देखा जाता है। इससे ज्ञात होता है कि संसारी आत्मा सर्वथा अमूर्त्त नहीं है॥४४॥ | यतः यह आत्मा कर्म-बन्धसे अभिन्न हैं और जीव तथा कर्मके लक्षण भिन्न-भिन्न होनेसे लक्षणकी अपेक्षा दनों भिन्न हैं, अतः जीवके अमूर्तता सर्वथा नहीं बन सकती है ।। ४५ ।। भावार्थ - कर्मो के साथ सम्बन्ध होनेसे जीवको कथंचित् मूर्त्त मानना चाहिये । उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि जीवका निर्बाध अस्तित्व हैं, वह स्थिति उत्पत्ति व्ययात्मक है, कर्मोका कर्त्ता और भोक्ता हैं, गुणी हैं, सूक्ष्म ( अमूर्त) हैं, ज्ञाता द्रष्टा और शरीर प्रमाण है ॥ ४६॥ इस प्रकार प्रमाणसे जीवतत्त्वकी सिद्धि हो जाने पर अजीव, आस्रव आदि अन्य तत्त्व भी स्वतः सिद्ध हो जाते है । अतएव प्रकृतमें किया गया सप्ततत्त्वका विचार सर्वथा युक्ति-पंगत हैं ॥ ४७ ॥ कितने ही लोग कहते हैं कि संसारमें कोई भी सर्वज्ञ और वीतराग नहीं है, क्योंकि सभी जीवके सर्वदा अल्पज्ञता और रागपना दिखाई देता है ||४८ || आचार्य इसका निषेध करते हुए कहते है कि सर्वज्ञ और वीतरागका निषेध कारक उक्त वचन अयुक्त है, क्योंकि सर्व पदार्थोको विषय करनेवाले ज्ञानके विना सभी पुरुषोंमें सर्व जाननेवाले ज्ञानका निवारण करना शक्य नहीं हैं । जिस व्यक्तिने विकालवर्ती समस्त पुरुषोंको भली-भाँति जान लिया है कि इनमें कोई सर्वज्ञ नहीं हैं' वही पुरुष सर्वज्ञका निषेध करने में समर्थ हो सकता है, अन्य नहीं ॥ ४९ ॥ यदि कहा जाय कि अभाव प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञका निषेध करना शक्य हैं, मो यह कथन भी युक्ति-संगत नहीं हैं, क्योंकि अतीन्द्रिय सर्वज्ञके विषय में अभाव प्रमाणकी प्रवृत्तिका अभाव २९६ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २९७ न चाभावप्रमाणेन शक्यते स निषेधितुम् । सर्वज्ञेऽतीन्द्रिये तस्य प्रवृत्तिविगमत्वतः ॥५१ प्रमाणामावतस्तस्य न च युक्तं निषेधनम् । अनुमानप्रमाणं हि साधनं तस्य विद्यते ।। ५२ वीतरागोऽस्ति सर्वज्ञः प्रमाणाबाधितत्वतः । सर्वदा विदितः सद्भिः सुखादिकमिव ध्रुवम् ॥ ५३ क्षीयते सर्वथा रागः क्वापि कारणहानितः । ज्वलनो हीयते किं न काष्ठानां च वियोगतः ।। ५४ प्रकर्षस्य प्रतिष्ठानं ज्ञानं क्वापि प्रपद्यते । परिमाणमिवाकाशे तारतम्योपलब्धितः ।। ५५ प्रकर्षावस्थितिर्यत्र विश्व दृश्वा स गीयते । प्रणेता विश्वतत्त्वानां प्रहताशेषकल्मषः ।। ५६ बोध्यमप्रतिबन्धस्य बुध्यमानस्य न श्रमः । बोधस्य दहतोऽसह्यं पावकस्येव विद्यते ॥ ५७ अनुपदेशसंवादि लामालाभादिवेचनम् । समस्तज्ञमतेऽन्यस्य निलिग शोभते कथम् ॥ ५८ अपौरुषेयतो युक्तमेतदागमतो न च युक्त्या विचार्यमाणस्य सर्वथा तस्य हानितः ।। ५९ है ॥५०॥ भावार्थ-निषेध-योग्य वस्तु और उसका आधारभूत पदार्थ इन दोनोंका जिस पुरुषको ज्ञान हो, वही पुरुष अभाव प्रमाणके द्वारा निषेध्य वस्तुका निषेध कर सकता है। जैसे कोई पुरुष पहले भूमिके आधार पर आधेय घटको देख रहा था। पीछे घटके नहीं देखने पर ही वह कह सकता हैं कि यहाँ पर घट नहीं है। किन्तु जैसे घट और भूतल इन्द्रियगोचर है, इस प्रकारसे पुरुषके भीतर पाया जानेवाला सर्व-ज्ञायक ज्ञान इन्द्रिय-गोचर नहीं है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय हैं, अतः अभाव प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञका निषेध नहीं किया जा सकता हैं। यदि कहा जाय कि सर्वज्ञके सद्भावको सिद्ध करनेवाले प्रमाण का अभाव होनेसे सर्वज्ञका निषेध करते हैं, सो यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञका साधक अनुमानप्रमाण विद्यमान है ॥५१॥ वह इस प्रकार हैं-सन्तोंके द्वारा सर्वदा विदित सर्वज्ञ है, क्योंकि उसके विषयमें सुनिश्चित बाधक प्रमाण का अभाव है। जैसे कि सुखादिक स्वसंवेदन गोचर होनेसे निर्बाध सिद्ध है। इस अनुमान प्रमाणसे सर्वज्ञ की सिद्धि होती हैं ।।५२।। अब वीतरागकी सिद्धि करते है-किसी आत्मामें राग सर्वथा क्षयको प्राप्त होता हैं, क्योंकि रागके कारणोंकी अतिशय युक्त हानि पायी जाती है। जैसे कि काष्ठादि रूप इन्धनके अभावसे प्रज्वलित भी अग्नि सर्वथा क्षयको प्राप्त हो जाती है ।।५३॥ आगे सर्वज्ञताकी और भी सिद्धि करते हैं-तारतम्यरूपसे प्रकर्षको प्राप्त होनेवाला ज्ञान किसी विशिष्ट आत्मामें चरम प्रकर्षको भी प्राप्त होता है। जैसे कि आकाशमें परिमाणकी वृद्धिके तारतम्य पाये जानेसे उसका चरम प्रकर्ष भी पाया जाता हैं ।।५५।। जहाँपर ज्ञानकी परम प्रकर्षरूप अवस्था पायी जाती हैं, वह पुरुष विश्वदृश्वा सर्वज्ञ कहा जाता हैं । वही विश्वतत्त्वोंका प्रणेता है और समस्त राग-द्वेषादि से रहित वीतराग भी वही पुरुष जानना चाहिए ।५६। यदि कहा जाय कि जानने योग्य पदार्थ तो अनन्त है, उन सबको जानने में सर्वज्ञको भारी परिश्रम उठाना पडता होगा? सो इसका उत्तर यह है कि आवरणके प्रतिबन्धसे रहित निरावरण ज्ञानवाले सर्वज्ञको जानने योग्य ज्ञेय पदार्थों के जानने में कोई परिश्रम नहीं होता है । जैसे कि दहन योग्य इन्धनको जलाते हुए पावकको कोई परिश्रम नहीं होता है ।।५७। दूसरी बात यह है कि देश-कालसे दूरवर्ती परोक्ष पदार्थोका और लाभ-अलाभ का ज्ञान सर्वज्ञके विना उपदेशके अन्य अल्पज्ञ पुरुष में कैसे शोभा को प्राप्त हो सकता है? अर्थात सर्वज्ञके माने विना न तो देशान्तरित, कालान्तरित सूक्ष्म पदार्थोंका ज्ञान ही हो सकता है और न आगामी काल में होनेवाले हानि-लाभका ही ज्ञान हो सकता है, अतः सर्वज्ञको मानना ही चाहिए ।।५८।। मीमांसक लोक अपौरुषेय वेदरूप आगमसे सर्व पदार्थों का ज्ञान होना मानते है। आचार्य उनका निषेध करते हुए कहते है कि अपौरुषेय आगमसे सर्व पदार्थोंका ज्ञान Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० श्रावकाचार-संग्रह आगमोऽकृत्रिमः कश्चिन्न कदाचन विद्यते । तस्य कृत्रिमतस्तस्माद्विशेषानुपलम्भतः ।। ६० पश्यन्तो जायमानं यत्ताल्वादिक्रमयोगत: । वदन्त्यकृत्रिमं वेदमनायं किमतः परम् ॥ ६१ त्रिलोकव्यापिनो वर्णा व्यज्यन्ते व्यञ्जकैरिति । न सत्यभाषिणी भाषा सर्वव्यक्तिप्रसङ्गतः ।। ६२ एकत्रभाविनः केचिद्व्यज्यन्ते नापरे कयम् । न दीपव्यज्यमानानां घटादीनामयं क्रम: ।। ६३ व्यञ्जकव्यतिरेकेण निश्चीयन्ते घटादयः । स्पर्शप्रभृतिभिर्जातुन वर्णाश्च कथञ्चन ।। ६४ व्यज्यन्ते व्यञ्जर्वर्णा न व्यज्यन्ते पुनर्बुवम् । इत्यत्र विद्यते काचिन्न प्रमा वेदवादिनाम् ॥ ६५ विना सर्वज्ञदेवेन वेदार्थ: केन कथ्यते । स्वयमेवेति नो वाच्यं संवादित्वप्रसङ्गतः ।। ६६ न पारम्पर्यतो ज्ञानमसर्वहः प्रवर्तते । समस्तानामिवान्धानां मलज्ञानं विना कृतम ६७ कृत्रिमेष्वप्यनेकेषु न कर्ता स्मर्यते यतः । कर्बस्मरणतो वेदो युक्तो तात्कृत्रिमस्ततः ॥ ६८ होता हैं, यह कथन युक्त नहीं है, क्योंकि युक्ति के द्वारा विचार करने पर उस अपौरुषेय आगम की सर्वथा हानि सिद्ध होती है। ५९।। आचार्य उस अपौरुषेय आगमके विषयमें मीमांसकोंसे पूछते है कि वह आगम अकृत्रिम है, अथवा कृत्रिम हैं? अकृत्रिम आगम तो कोई कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि उस अकृत्रिम आगमकी कृत्रिम आगमसे कोई विशेषता नहीं पाई जाती है ॥६॥ देखो-वेदके जो शब्द तालु-ओष्ठ आदि स्थानोंके क्रमिक संयोगसे उत्पन्न होते हुए प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होते हैं, उन शब्दोंको भी यदि मीमांसक अकृत्रिम कहते हैं, तो इससे अधिक और क्या आश्चर्य हो सकता हैं? यदि कहा जाय कि वर्ण (अक्षर) तो त्रिलोक-व्यापी और नित्य हैं, वे व्यंजक वायुके द्वारा व्यक्त होते है, उत्पन्न नहीं होते है । सो ऐसी भाषा बोलना भी समीचीन नहीं हैं, क्योंकि अभिव्यंजक वायुके द्वारा वर्णोंको अभिव्यक्त माननेपर तो सर्व ही वर्गों की अभिव्यक्तिका प्रसंग प्राप्त होता है ।।६१-६२।। यह कैसे संभव है कि एक स्थान पर बर्तमान सर्व शब्दोंमेंसे अभिव्यंजक वायुके द्वारा कुछ अक्षर तो अभिव्यक्त हों और कुछ अभिव्यक्त न हों? देखो-दीपकसे अभिव्यक्त होनेवाले घट पटादिकमें यह क्रम नहीं पाया जाता है। अर्थात् जैसे एक स्थानवर्ती घट-पटादिक दीपकके द्वारा एक साथ सर्व ही प्रकाशित होते है। ऐसा नहीं होता कि कुछ प्रकाशित हों और कुछ प्रकाशित नहीं हो ॥६३॥ दूसरी बात यह हैं कि जैसे व्यञ्जक दीपकादिके बिना भी घट-पटादिक पदार्थ स्पर्श आदिके द्वारा निश्चय किये जाते है, इस प्रकार वर्ण कदाचित् भी अन्य प्रकारसे निश्चय नहीं किये जाते हैं ॥६४।। इतने पर भी यदि वेद-वादी कहें कि व्यञ्जक वायुओंके द्वारा वर्ण व्यक्त किय जाते है, किन्तु नियमसे उत्पन्न नहीं किये जाते है, सो उनके इस कथनकी पुष्टिमें कोई प्रमाण नहीं है।॥६५।। इसके अतिरिक्त यह भी बतलाइए कि सर्वज्ञ देवके विना वेदका अर्थ किसके द्वारा कहा जाता है? यदि कहा जाय कि वेद अपने अर्थको स्वयं ही कहता है, सो ऐसा नहीं कह सकते, क्यों कि यदि वेद अपना अर्थ स्वयं ही कहता होता, तो फिर उसके अर्थके विषयमें कोई विसंवाद नहीं होना चाहिए था। किन्तु वेद याक्योंके अर्थमें विसंवाद पाया जाता है, अतएव यह कहना कि "वेद अपना अर्थ स्वयं कहता है" सर्वथा मिथ्या है ।। ६६ । यदि कहा जाय कि वेदका ज्ञान परम्परासे सर्व अज्ञानी जनोंमें प्रवर्तता चला आ रहा है, सो यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि समस्त अन्य पुरुषोंका ज्ञान मूलभूत ज्ञानके विना कार्यकारी नहीं होता हैं ॥६७।। पूनः मीमांसक कहता हैं कि वेदके कर्ताका किसीको स्मरण नहीं है, अतः वह अकृत्रिम Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः २९९ हिंसादिवादकत्वेन न वेदो धर्मकांक्षिभिः । ठकोपदेशवन्नूनं प्रमाणीक्रियते बुधैः ।। ६९ वीतरागश्च सर्वज्ञो जिन एवाशिष्यते । अपरेषामशेषाणां रागद्वेषादिदृष्टितः ॥७० न विरागा न सर्वज्ञा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । रागद्वेषमवक्रोधलोभमोहादियोगतः ।। ७१ रागवन्तो न सर्वज्ञा यथा प्रकृतमानवाः । रागवन्तश्च ते सर्वे न सर्वज्ञास्ततः स्फुटम् ॥ ७२ आश्लिष्टास्तेऽखिलैर्दोषैः कामकोपभयादिभिः । आयुधप्रमवाभूषकमण्डल्वादियोगतः ॥ ७३ प्रमदा भाषते काम द्वषमायुधसङ्ग्रहः । अक्षसूत्रादिकं मोहं शौचाभावं कमण्डलुः ।। ७४ परमः पुरुषो नित्यः सर्वदोषैरपाकृतः । तस्यैतेऽवयवा: सर्वे रागद्वेषादिभागिनः ।। ७५ नषाऽपि रोचते भाषा विचारोद्यतचेतसाम् । रागित्वेऽवयवानां हि विरागोऽवयवी कुतः ।। ७६ बुद्धिमद्धेतुकं विश्वं कार्यत्वात्कल शादिवत् । बुद्धिमास्तस्य यः कर्ता कथ्यते स महेश्वरः ॥ ७७ हैं, सो उसका यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनेक कृत्रिम भी कार्यों का कर्ता लोगोंको स्मत नहीं है, इसलिए क्या वे कार्य अकृत्रिम मान लिये जायेंगे? कभी नहीं । इसलिए स्मरण न होनेसे वेदको अकृत्रिम कहना योग्य नहीं है ।।६८। इसके अतिरिक्त वेद हिंसा आदि पापकार्योका भी प्रतिपादन करता हैं, इसलिए धर्मकी आकांक्षावाले बुधजन ठगोंके उपदेशके समान वेदको निश्चयसे प्रामागिक नहीं मानते हैं ।।६९।। ___ अतएव सत्यार्थ एवं निरवद्य अर्थका प्रकाशक एकमात्र वीतराग रूपसे जिनदेव ही अवशिष्ट रहता है,अतः उसे ही सच्चा देव मानना चाहिए और उसके ही वचन प्रामाणिक हैं । इस वीतराग सर्वज्ञ जिनदेवके अतिरिक्त शेष समस्त पुरुषोंके राग-द्वेषादिके देखे जानेसे उन्हें सत्यार्थ वक्ता या शास्ता नहीं माना जा सकता है ।।७०।। संसारमें लौकिक जनोंके द्वारा देव माने जानेवाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर न वीतराग है और न सर्वज्ञ ही हैं, क्योंकि उनमें राग द्वेष मद क्रोध लोभ मोह आदि दोषोंका संयोग पाता हैं ।।७१।। रागवाले पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकते हैं, जैसे कि सामान्य संसारी मनुष्य । रागवाले वे ब्रह्मादिक सभी देव है, अतः स्पष्ट रूपसे वे सर्वज्ञ नहीं हैं ।।७२।। वे ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर, काम, क्रोध भय आदि समस्त दोषोंसे संयुक्त हैं, क्योंकि उनके आयुध, स्त्री, आभूषण और कमण्डलु आदिका संयोग पाया जाता हैं ।।७३।। प्रमदा स्त्रीका सद्भाव उनके काम-विकारको कहता है, आयुधोंका संग्रह उनके द्वेषभाव को प्रकट करता है, माला, यज्ञोपवीतादिक उनके महके द्योतक हैं और कमंडल उनके शौच का अभाव बतलाते है ।।७४॥ प्रकारसे यह सिद्ध हुआ कि जिनके राग-द्वेषादिके कारणभूत स्त्री-शस्त्रादिक का परिग्रह पाया जाता हैं, वे सच्चे देव कदापि नहीं हो सकते है । पुरुषाद्वैतवादी कहते है कि सर्वदोषोंसे रहित एक परम पुरुष ही नित्य है, अत उसे ही सत्यार्थ मानना चाहिए। इस मंसार में जितने भी रागद्वषादि के धारक पुरुष दिखाई देते है, वे सर्व उस एक परम पुरुष या परमब्रह्मके अवयव (अंश) है ।।७५।। उनका ऐसा कथन भी विचार-चतुर चित्तवाले पुरुषोंको नहीं रुचता हैं. कारण कि अवयवोंके सरागी होनेपर अवयवी नीरागी कैसे हो सकता है? भावार्थजब परम पुरुषके अवयव भूत संसारी प्राणी सरागी दिखते है, तो उनका आधारभूत अवयवी परम ब्रह्म वीतरागी कैसे हो सकता है? अर्थात् कभी नहीं हो सकता ॥७६।। जो वैशेषिक आदि अन्तमतावलम्बी लोग ईश्वरको जगत् का कर्ता मानते है, उनका निषेध करने के लिए आचार्य पहले उनका पक्ष उपस्थित करते है यह समस्त विश्व किसी बुद्धिमान् पुरुष के निमित्तसे निर्मित है क्योंकि वह कार्य हैं। जो-जो Torrivas Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० श्रावकाचार-संग्रह न विना शम्भुना नूनं देहब्रुमनगादयः । कुलालेनेव जायन्ते विचित्रा कलशादयः ।। ७८ ततोऽस्ति जगतः कर्ता विश्वदृश्वा महेश्वरः । वचन विद्यते नेदं चिन्त्यमानं विचक्षणः ।। ७९ कार्यत्वादित्यवं हेतुस्तस्या साधयते यथा । बुद्धिमत्त्वं तथा तस्य देहवत्त्वमपि ध्रुवम् ।। ८० नाशरीरी मया दृष्टः कुम्भकार: क्वचिद्यतः । फूलालस्तस्य दृष्टान्तस्ततो ब्रूते सदेहताम् ।। ८१ सदेहस्य च कर्तृत्वे सोऽस्मदाविसमो मतः । दृश्यतां प्रतिपद्येत कुम्भकारादिवत्ततः ।। ८२ भुवनं क्रियते तेन विनोपकरणैः कथम् । कृत्वा निवेश्यते कुत्र निरालम्बे विहायसि ।। ८३ विचेतनानि भूतानि सिसृक्षावशतः कथम् । विनिर्माणाय विश्वस्य वर्तन्ते तस्य कथ्यताम ॥ ८४ बुद्धोऽपि न समस्तज्ञः कथ्यते तथ्यवादिभिः । प्रमाणादिविरुद्धस्य शून्यत्वानिवेदनात् ।। ८५ प्रमाणेनाप्रमाणेन सर्वशून्यत्वसाधने । विकल्पद्वयमायाति कोकयुग्ममिवाम्भसि ॥ ८६ साधनेऽस्य प्रमाणेन सर्वशून्यव्यतिक्रमः । अङ्गीकृते प्रमाणस्य तनिषेधायिनः ।। ८७ प्रमाणव्यतिरेकेण सर्वशून्यत्वसाधने । सर्वस्य चिन्तितं सिद्धयेत्तत्वं केन निषिध्यते ॥ ८८ कार्य होते हैं, वे वे किसी न किसी बुद्धिमान्के निमित्तसे निर्मित होते है, जैसे कलश आदि पदार्थ । जो कोई भी बुद्धिमान् इस जगत्का कर्ता हैं, वही महेश्वर कहा जाता हैं । विना महेश्वरके शरीर, वृक्ष और पर्वतादिक पदार्थ नहीं उत्पन्न हो सकते है, जैसे कि कुम्भकारके विना कलश आदि अनेक विचित्र पदार्थ नहीं उत्पन्न हो सकते है । अतएव इस जगत्का कर्ता कोई विश्वदर्शी महेश्वर हैं। आचार्य उनके इस पूर्व पक्षका निषेध करते हुए कहते है कि यह उपर्युक्त वचन बुद्धिमान् जनोंके द्वारा विचार करनेपर युक्तिसंगत नहीं ठहरता हैं ।।७७-७९ । देखो-कार्यत्व यह हेतु जिस प्रकारसे उस महेश्वरके बुद्धिमान्पनाको सिद्ध करता है, उसी प्रकारसे उसके निश्चयसे शरीरवानपनाको भी सिद्ध करता है ।।८०। क्योंकि कहीं पर भी मैंने कुम्भकारको शरीर-रहित नहीं देखा है, इसलिए आपके द्वारा कुम्भकारका जो दृष्टान्त दिया गया हैं वह ईश्वरके सशरीरपनाको ही कहता है ।।८शा और शरीर-सहित ईश्वरको जगत्का का मानने पर तो वह हम आपके समान दृश्यपनेको प्राप्त हो जाता हैं, जैसे कि सशरीरी कुम्भकार सर्व जनोंको प्रत्यक्ष दिखाई देता है ॥८२।। और आप यह भी बतलाइये कि उपकरणोंके विना वह भवनको कैसे बनाता हैं? तथा भवनवर्ती पदार्थोंको बना-बना करके वह इस निरालम्ब आकाशमें उन्हें कहाँ पररखता हैं।।८३॥ यदि कहा जाय कि ईश्वरकी सृष्टि रचनेकी इच्छाके वशसे पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय विश्वके निर्माण के लिए प्रवृत्त होते हैं, तो यह कहिये कि वे अचेतन पृथ्वी आदि भूतचतुष्टय विश्वका निर्माण कैसे कर सकते हैं? इस प्रकार तर्क-बलसे विचारनेपर ईश्वर जगत्का कर्त्ता सिद्ध नहीं होता है ।।८४।। अब आचार्य बुद्धके सर्वज्ञताका निषेध करते हैं-यथार्थवादी पुरुष बद्धको भी सर्वज्ञ नहीं कहते हैं, क्योंकि उसने प्रमाणादिसे विरुद्ध शून्यत्वादिका कथन किया हैं ।।८५।। प्रमाणसे अथवा अप्रमाणसे सर्वशून्यताके साधनमें जलमें चक्रवाक-युगलके समान दो विकल्प सामने आते है? अर्थात बौद्ध लोग यह बतावें कि वे सर्वशून्यताकी सिद्धि किसी प्रमाणसे करते है, अथवा विना किसी प्रमाणके ही करते है ।।८६।। प्रमाणसे सर्वशून्यताके सिद्ध करनेपर तो सर्व शन्यताका ही व्यतिक्रम हो जाता है, क्योंकि उस शून्यताके निषेध करनेवाले प्रमाणको आप बौद्धोंने अंगीकार कर लिया है ॥८७।। यदि कहा जाय कि हम लोग प्रमाणके विना ही सर्वशून्यताका साधन करते है, तो फिर सभी लोगोंका चिन्तित-मन चाहा-तत्त्व सिद्ध हो जायगा, उसका विना प्रमाण : Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३०१ सर्वत्र सर्वदा तत्त्वे क्षणिके स्वीकृते सति । फलेन सह सम्बन्धो धार्मिकस्य कुतस्तनः ।। ८९ वध्यस्य वधको हेतुः क्षणिके स्वीकृते कथम् । प्रत्यभिज्ञा कथं लोकव्यवहारप्रवतिनी॥ ९. व्याघ्न्या: प्रयच्छतो देहं निगद्य कृमिमन्दिरम् । दातदेयविमूढस्य करुणा बत कीदृशी ।। ९१ जननी जगतः पूज्या हिंसिता येन जन्मनि । मांसोपदेशिनस्तस्य दया शौद्धोदनेः कुतः ।। ९२ यो ज्ञात्वा प्राकृतं धर्म भाषतेऽसौ निरर्थकः । निर्गुणो निष्क्रियो मूढ सर्वज्ञः कपिलः कथम् ।। ९३ आर्यास्कन्धानलादित्यसमीरणपुरःसरा: । निगद्यन्ते कथं देवा: सर्वदोषपयोधयः ।। ९४ गूथमश्नाति या हन्ति खुरश्रृङ्गः शरीरिणः । सा पशुगौं: कथं वन्द्याः वषस्यन्ती स्वदेहजम् ।। ९५ चेद्दुग्धवानतो वन्द्या महिषी कि न वन्द्यते । विशेषो दृश्यते नास्या महिषीतो मयाऽधिका ।। ९६ या तीर्थमनिदेवानां सर्वेषामाश्रयः सदा । ऊहते हन्यते या गौमविक्रीयते कथम् ॥ ९७ मुसलं देहली चुल्ली पिप्पलश्चम्पको जलम् । देवा येरभिधीयन्ते वय॑न्ते ते: परेऽत्र के ॥ ९८ के कैसे निषेध किया जा सकेगा ।।८८।। इस प्रकार बौद्धोंके द्वारा मानी गई सर्वशून्यता सिद्ध नहीं होती है, अतः उसे मानना मिथ्या है। तथा तत्त्वको सर्व देश और सर्व कालमें सर्वथा क्षणिक स्वीकार करने पर धर्मके फलका धर्मात्मा पुरुषके साथ सम्बन्ध कैसे बन सकेगा ।।८९।। भावार्थयदि जीवको सर्वथा क्षणिक माना जाय तो जो धर्म करेगा, वह उसी क्षण नष्ट हो जायगा तब उस धर्मका फल उसे कसे मिल सकेगा? इसी प्रकार क्षणिक वस्तुके स्वीकार करने पर हिंसक जीव हिसाका हेतु कैसे माना जा सकेगा? तथा देन-लेन आदि लोक व्यवहारकी चलाने वाली प्रत्यभिज्ञा कैसे संभव होगी ॥९०।। भावार्थ-इसने मुझे पहले ऋण दिया था, आज मै उसे दे दे रहा हूँ,इस व्यक्तिसे मुझे इतना लेना है आदि लोक व्यवहार प्रत्यभिज्ञान-पूर्वक ही चलते है । यदि सर्वथा क्षणिकवाद माना जाय, तो यह सर्व व्यवहार समाप्त हो जायगा। यह शरीर कृमियोंका घर हैं' ऐसा कह कर व्याघ्रीके लिए शरीर-समर्पण करने वाले दाता और देयके ज्ञानसे विमूढके करुणा कैसे संभव है, यह अति दुःखकी बात है ॥९१।। जिसने जगत्की पूज्य अपनी जननीको जन्मकालमें ही मार दिया और बुद्धत्व प्राप्तिके पश्चात् मांस खानेका उपदेश दिया, उस शुद्धोदन राजाके पुत्र बुद्धके दया कैसे मानी जा सकती है ।।९२॥ इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि बुद्ध भो सर्वज्ञ नहीं हैं । अब आचार्य सांख्यमतके प्रवर्तक कपिलके भी सर्वज्ञताका निराकरण करते हुए कहते हैं कि जो ज्ञानको जड प्रकृतिका धर्म कहता हैं और पुरुषको निर्गुण, निष्क्रिय और प्रयोजन-रहित कहता है वह मूढ कपिल सर्वज्ञ कैसे हो सकता हैं ।।९३।। इस प्रकार आर्या (देवी), स्कन्द (कार्तिकेय),अग्नि, सूर्य, समीरण (पवन) आदिक जो सर्व दोषोंके समुद्र है, वे देव कैसे कहे जा सकते हैं ।।९४॥ जो गाय विष्टा खाती हैं, खुर और सींगोंसे प्राणियोंको मारती है और अपने पुत्र के साथ काम-सेवन करती हैं, वह पशु गाय कैसे वन्दनीय हो सकती है ।।९५। यदि कहा जाय कि वह लोगोंको दुग्ध दान करनेसे वंद्य है, तो फिर इसी कारणसे भैंस क्यों वन्दनीय नहीं हैं? क्योंकि दुग्ध देनेकी दृष्टिसे तो हमें भैसकी अपेक्षा गायमें कोई विशेषता नहीं दिखाई देती है ।।९६।। जो गायको सभी तीर्थों, मुनिजनों और देवोंका सदा आश्रय मानते है आश्चर्य है कि वे मूढ लोग उसे क्यों दुहते है, क्यों मारते हैं और क्वों बेचते है ।।९७।। इसके अतिरिक्त जो लोग मुसल, देहली. चूल्हा, पीपल,चंपा और जल आदिको भी देव कहते है, उन लोगोंके द्वारा इस लोकमें देव माननेसे और कोन छोडा ... Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्रावकाचार-संग्रह इत्थं विविच्य परिमुच्य कुदेववर्ग गण्हाति यो जिन पति मजते स तत्त्वम् । गृहाति यः शुभमति: परिमुच्य काचं, चिन्तामणि स लमते खलु किं न सौख्यम् ॥ ९९ मिथ्यात्वदूषणमपास्य विचित्रदोषं संरूढसंसृतिवधूपरितोषकारि । सम्यक्त्वरत्नममलं हृदि यो निधत्ते, मुक्त्यङ्गनाऽमितगतिस्तमुपैति सद्यः ॥ १०० इत्यमितगतिकृतश्रावकाचारे चतुर्थः परिच्छेदः ।। पञ्चमः परिच्छेदः मद्यमांसमधुरात्रिभोजन क्षीरवृक्षफलवर्जनं विधा। कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निषेविते व्रतम् ॥ १ मद्यपस्य धिषणा पलायते दुर्भगस्य वनितेव दूरतः। निन्द्यता च लभते महोदयं क्लेशितेव गुरुवाक्यमोचितः ॥ २ विव्हलः स जननीयति प्रियां मानसेन जननीं प्रियीयति । किङ्करोयति निरीक्ष्य पार्थिवं पाथिवीयति कुधीः स किङ्करम् ।। ३ सर्वतोऽप्युपहसन्ति मानवा वाससीमपहरन्ति तस्कराः । मूत्रयन्ति पतितस्य मण्डला विस्तृत विवरकाङ्क्षया मुखे ।। ४ जायगा? अर्थात् फिर तो सभी भली बुरी वस्तुओंको देव मानना चाहिए ॥९८॥ इस प्रकारसे जो भले प्रकार विचार करके कुदेवोंके समुदायको छोडकर जिनेन्द्रदेवका आश्रय ग्रहण करता है, वह वास्तविक तत्त्वका सेवन करता हैं । जो श्रेष्ठ बुद्धि पुरुष काचको छोडकर चिन्तामणि रत्नको ग्रहण करता है, वह निश्चयसे क्या सुखको नहीं पाता है? अर्थात् सुखको पाता ही है ॥९९॥ संसति (संसार) रूपी वधूको सन्तुष्ट करनेवाले अर्थात् संसारको बढानेवाले और नाना प्रकारके दोषोंको करनेवाले मिथ्यात्वरूपी महा दूषणको दूर करके निर्दोष निर्मल सम्यक्त्वरूपी रत्नको अपने हृदयमें धारण करता है,वह पुरुष अमित ज्ञानका धारक होकर शीघ्र ही मुक्ति रूपी अंगना को प्राप्त करता है।।१०।। इस प्रकार अमितगति-विरचित उपासकाचारमें चतुर्थ परिच्छेद समाप्त हुआ। पांचवा परिच्छेद व्रतोंके ग्रहण करनेकी इच्छासे ज्ञानी जन मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन और क्षीरी वृक्षोंके फलोंके भक्षणका मन वचन कायसे त्याग करते हैं, क्योंकि इनके त्यागका परिपालन करने पर व्रत परिपुष्ट होते हैं । १॥ अब आचार्य सर्वप्रथम मद्यपानके दोष बतलाते हैं-मद्य पीने वालेकी बुद्धि इस प्रकार भाग जाती है, जैसे कि अभागी स्त्री उसे दूरसे छोड कर भाग जाती है। तथा उसकी निन्दा उत्तरोत्तर बढती है, जैसे कि गुरुके वचन न मानने वालेके क्लेश वृद्धिको प्राप्त होता हैं ।।२।। मद्यपानसे विव्हल चित्त हुआ पुरुष अपनी स्त्रीके साथ माताके समान आचरण करता है और माताके साथ स्त्री के समान आचरण करता है। इसी प्रकार राजाके साथ किकरके समान आचरण करता हैं और किंकरके साथ राजाके समान आचरण करता है ।।३।। मद्यपायी पुरुषकी सभी मनुष्य सब ओरसे हँसी करते है, चोर उसके वस्त्र चुरा लेते हैं और कुत्ते छेद समझ कर भूमि पर पडे हुए उसके खुले मुखमें मूत देते हैं ।। ४॥ मदिरा पान करने वाला पुरुष . Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३०३ मंक्ष मछति बिभेति कम्पवे फत्करोति हदते प्रछर्दति । खिद्यते स्खलति वीक्षते दिशो रोदिति स्वपिति जक्षतीय॑ति ।। ५ ये भवन्ति विविधाः शरीरिणस्तत्र सूक्ष्मवपुषो रसाङ्गिकाः । तेऽखिला झटिति यान्ति पञ्चतां निन्दितस्य चषकस्य पानतः ।। ६ वारुणीनिहितचेतसोऽखिला यान्ति कान्तिमतिकीर्तिसम्पदः । वेगतः परिहरन्ति योषितो वीक्ष्य कान्तमपराङ्गनागतम् ।। ७ गायति भ्रमति वक्ति गद्गदं रौति धावति विगाहते क्रमम् । हन्ति हृष्यति न बुध्यते हितं मद्यमोहितमतिविषीदति ।। ८ तोतुदीति भविनः सुरारतो वावदीति वचनं विनिन्दितम् । मोमुषीति परवित्तमस्तधोर्बोमजीति परकीयकामिनीं ।। ९ नानटीति कृतचित्रचेष्टितो नन्नमीति पुरतोऽजनं जगम् । लोलठीति मवि रासमोपमो रारहीति सुरापविमोहितः ।। १. सीधलालसधियो वितन्वते धर्मसंयमविचारणां यके। मेरुमस्तकनिविष्टमूर्तयस्ते स्पृशन्ति चरणैर्भुवस्तलम् ।। ११ दोषमेवमवगम्य वारुणी सर्वथा तु द'वयन्ति पण्डिताः । कालकूरमवबुध्य दुःखदं भक्षयन्ति किम जीवितार्थिनः ॥ १२ शीघ्र ही मच्छित हो जाता हैं, डरता है, काँपता है, चिल्लाता हैं,रोता है, वमन करता है, खेद. खिन्न होता है, गिरता हैं, सर्व दिशाओंमें देखता हैं, पुन: रोने लगता है. सोता है, अकड जाता है और अन्य लोगोंसे ईर्ष्या करता है ।।५।। इस निन्द्य मद्यके पीनेसे उस मदिरामें जोनाना प्रकारके सूक्ष्म शरीरवाले असंख्य रसांगी जीव उत्पन्न है, वे सब शीघ्र ही मरणको प्राप्त हो जाते हैं ।।६।। मदिरामें आसक्त चित्तवाले पुरुषको कान्ति बुद्धि कोति और सम्पत्ति आदि सभी विशेषताएँ उसको छोडकर वेगसे इस प्रकार दूर चली जाती है, जिस प्रकारसे कि अन्य स्त्रीमें आसक्त अपने पतिको देखकर उसकी विवाहिता स्त्री उसे लोडकर चली जाती है ।।७।। मद्य-पानसे मोहित बद्धिवाला शराबी कभी गाता है, कभी मूच्छित हो भ्रमयुक्त होता हैं, कभी गद्गद वचन बोलता है, कभी रोता है, कभी इधर-उधर दौडता हैं, कभी किसीको मारता हैं, कभी हर्षित होता हैं और कभी विषादको प्राप्त होता हैं. किन्तु अपने हितको नहीं जानता हैं ।।८।। सुरा-पानमें रत पुरुष कभी प्राणियोंको सताता हे,कभी निन्दित वचन बोलता हैं, कभी पराये धनको चुराता हैं और कभी वह नष्टबुद्धि परायी स्त्रीको भोगने लगता है ॥९।। मदिरासे मोहित हुआ मनुष्य कभी नाना प्रकारकी चेष्टाएं करता हुआ नाचता हैं, कभी प्रत्येक मनुष्यको नमस्कार करने लगता हैं, कभी गर्दभके समान भू मपर लोटने लगना हैं और उसीके समान रेंकने लगता हैं ॥१०॥ मदिरा-पानकी लालसा युक्त बुद्धिसे जो मनुष्य धर्म और संयमके पालन करने का विचार करते हैं, वे मनुष्य मेरुपर्वतके मस्तकपर बैठकर अपने चरणोंसे भूतल का मानों स्पर्श करना चाहते हैं ।।११।। इस प्रकारसे मदिरा-पानके अनेक दोषोंका जानकर पण्डितजन उसका सर्वथा ही पान नहीं करते १ म. 'न हि धयंति' पाठः । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्रावकाचार-संग्रह मांसभक्षण विषक्तमानसो यः करोति करुणां नराधमः । भूतले कुलिशव न्हिता पिते नूनमेष वितनोति वल्लरीम् ।। १३ जायते न पिशितं जगत्त्रये प्राणिघातनमृते यतस्ततः । मंक्षु मूलमुदखानि खादता ही दया झटिति धर्मशाखिनः ।। १४ देहिनो भवति पुण्यसञ्चयः शुद्धया न कृपया विना ध्रुवम् । दृश्यते न लतयाऽऽमया विना सार्द्रया जगति पुष्पसञ्चयः ।। १५ भक्षयन्ति पिशितं दुराशया ये स्वकीयबलपुष्टिकारिणः । घातयन्ति भवभागिनस्तके खादकेन न विनाऽस्ति घातकः ॥ १६ हन्ति स्वादति पणायते पलं मन्यते दिशति संस्करोति यः । यान्ति ते षडपि दुर्गंत स्फुटं न स्थितिः खलु परत्र पापिनाम् ।। १७ अत्ति यः कृमिकुलाकुलं पलं पूयशोणितवसा दिमिश्रितम् । तस्य किञ्चन न सारमेयतः शुद्धबुद्धिरभिवेक्ष्यतेऽन्तरम् ।। १८ आमिषाशनपरस्य सर्वथा विद्यते न करुणा शरीरिणः । पापमर्जति तथा विना परं बम्भ्रमीति भवसागरे ततः ।। १९ नास्ति दूषणमिहामिषाशने यैर्हषोकवशनिगद्यते । व्याघ्र सूकरकिरात धीवरास्सैनिकृष्टहृदयैर्गुरुकृताः ॥ २० है । कालकूट विषको महादुःखदायी जानकर भी क्या जीनेके इच्छुक पुरुष उसे खाते है ? अर्थात् नहीं खाते है ।। १२ । अब आचाय मांस भक्षणका तिषेध करते है-मांस भक्षण में आसक्त चित्तवाला जो अधम मनुष्य करुणाको करना चाहता है, वह निश्चयसे वज्राग्निसे सन्तप्त भूतल पर लताको विस्तारना चाहता है ॥ १३ ॥ यतः जगत्त्रयमें भी प्राणिघात के विना मांस उत्पन्न नहीं होता है, अतः मांस खानेवाले पुरुषके द्वारा काटे गये धर्मरूप वृक्ष की मूलभूत दया ही शीघ्र खोद डाली गई समझना चाहिए || १४ || शुद्ध दयाके विना जीवके पुण्यका संचय निश्चयसे कभी नहीं हो सकता हैं । जगत् में मैने हरी-भरी लताके विना पुष्पों का संचय कहीं नहीं देखा हैं ॥१५॥ जो दुष्ट चित्त पुरुष अपने शरीर के बलको पुष्ट करनेकी इच्छासे मांसको खाते है, वे नियमसे अन्य प्राणियोंका घात करते हैं, क्योंकि खानेवालेके विना घातक कसायी जीव घात नहीं करता । अर्थात् कसायी मांस-भक्षकोंके लिए ही जीवघात करता है ।। १६ ।। जो जीव-घात करता है, मांस खाता है, उसे बेचता हैं, उसके खानेकी अनुमोदना करता हैं, खानेका उपदेश देता है और मांस पकाता है ये छहों ही पापी निश्चयसे दुर्गतिको जाते हैं, क्योंकि पापियोंकी परलोक में अन्यत्र स्थिति हो नहीं सकती हैं ।। १७ ।। जो मनुष्य कृमि- कुलसे व्याप्त और पीब, रक्त, चर्वी आदिसे मिश्रित मांसको खाता हैं, शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष उसका कुत्ते से कुछ भी अन्तर नहीं देखते है || १८ || मांस खाने में तत्पर पुरुषके करुणा सर्वथा ही नहीं होती हैं और करुणाके विना वह पापका ही उपार्जन करता हैं, जिसके फलसे वह भव-सागर में ही परिभ्रमण करता रहता हैं ||१९|| जो इन्द्रियोंके वशीभूत हुए मनुष्य यह कहते है कि मांस खाने में यहाँ कोई दोष नहीं है, उन निकृष्ट चित्त पुरुषोंने व्याघ्र, भील और धीवरोंको अपना गुरु बना Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः मांसवत्मननिविष्टचेतसः सन्ति पूजिततमा नरा यदि । गूथयूथ कृतदेह पुष्टयः सूकरा न नितरां तथा कथम् ।। २१ भक्षयन्ति पलमस्तचेतनाः सप्तधातुमय देहसम्भवम् । यद्वदन्ति च सुचित्तमात्मनः किं विडम्बनमतः परं बुधाः ॥ २२ भुञ्जते पलमघौघकारि ये ते व्रजन्ति भवदुःखमूजितम् । ये पिबन्ति गरलं सुदुर्जरं ते धयन्ति मरणं किमद्भुतम् ॥ २३ चित्रदुःखसुखदानपण्डिते ये वदन्ति पिशिताशने समे । मृत्युजीवितविवर्द्धनोद्यते ते वदन्ति सदृशे विषामृते ।। २४ जायते द्वितयलोकदुःखदं पिशितमङ्गसङ्गिनाम् । भक्षितं द्वितयजन्मशर्मदं जायतेऽशनमपास्तदूषणम् ॥ २५ मांसमित्थमवबुध्य दूषितं त्यज्यते हितगवेषिणा त्रिधा । मन्दिरं न विदता निषेव्यते तीव्र दृष्टिविषपन्नगाकुलम् ॥ २६ माक्षिकं विविधजन्तुघातजं स्वादयन्ति बहुदुःखकारि ये । स्वल्पजन्तुविनिपातिभिः समास्ते भवन्ति कथमत्र खट्टिकैः ।। २७ ग्रामसप्तकविदाहरेसा तुल्यता न मधुभक्षिरेफसः । तुल्यमञ्ज लिजलेन कुत्रचिनिम्नगापतिजलं न जायते ।। २८ लिया है ||२०|| यदि मांस भक्षण में आसक्त चित्त पुरुष उत्तम और पूज्य माने जावें, तो विष्टासमूहसे देहके पुष्ट करनेवाले सूकर कैसे अति पूज्य न माने जावें ||२१|| जो बुद्धि-रहित पुरुष सप्तधातुमय देहसे उत्पन्न होनेवाले मांसको खाते है और फिर भी अपने आपके पवित्रता कहते है, सो हे बुधजनो, उससे अधिक और क्या विडम्बना हो सकती है ||२२|| जो पाप-पुंजका संचय करनेवाले माँसको खाते है, वे अति प्रचण्ड सांसारिक दुःखोंको प्राप्त होते है । जो अति दुर्जर विषको पोते है, वे यदि मरणको प्राप्त होते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ||२३|| जो लोग नाना प्रकार दुःख देनेवाले मांसको और अनेक प्रकारके सुख देनेवाले अन्नाहारको समान कहते है, वे मृत्यु देनेवाले विषको और जीवन बढानेवाले अमृतको समान कहते हैं ||२४|| देहधारियोंके मांस का भक्षण दोनों लोकोंम दुःखोंका देनेवाला है और दूषण रहित अन्नके आहारका भक्षण दोनों लोकोंमें सुखका देनेवाला हैं ।। २५ । इस प्रकारसे अतिदोष युक्त मांसको जान करके अपने हित के अन्वेषक जन मन वचन कायसे उसका त्याग करते है । क्योंकि जानकार लोग तीव्र दृष्टि विषधारी सर्पोंसे व्याप्त मकान में निवास नहीं करते हैं ||२६|| अब आचार्य मधु-सेबनका निषेध करते है - नाना प्रकारके जन्तुओंके घातसे उत्पन्न होनेवाले और भारी दुखोंको करनेवाले मधुको जो लोग खाते हैं, वे इस लोक में अल्प जन्तुओंके मारनेवाले खटीकों के समान कैसे हो सकते हैं ? कहनेंका भाव यह हैं कि मधु-भक्षी पुरुष खटीकसे भी अधिक पापी है ||२७|| सात ग्रामोंके जलाने के पापके साथ भी मधु-भक्षीके पापकी समानता नहीं है । अंजली में भरे जलके साथ समुद्र के जलकी समानता कहीं भी कभी नहीं हो सकती हैं । भावार्थ - जैसे अंजली के जलसे समुद्रका जल असंख्यात गुण होता है, उसी प्रकार सात ग्रामोंके जलानेके पापसे भी असंख्यात गुणा पाप मधुके भक्षण में ३०५ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ श्रावकाचार-संग्रह म्लेच्छलोकमुखलालयाऽविलं मद्यमांसशितभाजनथितम् । सार, गतघणस्य स्वादतः कीदृशं भवति शौचमुच्यताम् ॥ २९ यश्चिखादिषति सारघं कुधीर्मक्षिकागणविनाशनस्पृहः । पापकर्दमनिषेधनिम्नगा तस्य हन्त करुणा कुतस्तनी ॥ ३० भक्षितो मधुकणोऽपि सञ्चितं सूक्ते झटिति पुण्यसञ्चयम् । काननं विषमशोचिषः कणः किं न भस्मयति वृक्षसङ्कटम् ३१ योऽत्ति नाम मधु भेषजेच्छया सोऽपि याति लघु दुःखमुल्बणम् । किन नाशयति जीवितेच्छया मक्षितं झटिति जीवितं विषम् ॥ ३२ घोरदुःखदमवेत्य कोविदा वर्जयन्ति मधु शर्मकांक्षिणः । कुत्र तापकमवेत्य पावकं गृण्हते शिशिरलोलमानसाः ॥ ३३ संसजन्ति विविधाः शरीरिणो यत्र सूक्ष्मतनवो निरन्तराः । तद्ददाति नवनीतमङ्गिनां पापतो न परमत्र सेवितम् ।। ३४ चित्रजीवगणसूदनास्पदं विलोक्य नवनीतमद्यते। तेषु संयमलवोऽपि विद्यते धर्मसाधनपरायणः कुतः ॥ ३५ यन्महूर्तयुगतः परं सदा मूर्च्छति प्रचरजीवराशिभिः । तद् गिलन्ति नवनीतमत्र ये ते व्रजन्ति खलु कां गति मृताः । ३६ जानना चाहिए ॥२८॥ म्लेच्छ लोगोंके मुखकी लारसे व्याप्त, मद्य और मांसके संचयवाले पात्र में रखे हुए मधुको खानेवाले निर्दयी पुरुषके पवित्रता कैसे रह सकती है, सो कहिये ।।२९।। जो कुबुद्धी पुरुष मक्षिका-समूहके विनाशकी इच्छा रखता हुआ मधुको खाना चाहता है, उस पुरुषके पापरूप पंकको धोनेवाली नदीके समान करुणा बुद्धि कैसे हो सकती हैं? अर्थात् कभी नहीं हो सकती॥३००॥ मधुका खाया हुआ एक कण भी बहुत कालसे संचित किये पुण्यके पुंजको क्षण मात्र में नष्ट कर देता है । विषम वन्हिका एक कण क्या वृक्षोंसे व्याप्त वनको नहीं जला देता हैं? अर्थात् जला ही देता है ।।३१।। जो पुरुष औषधि की इच्छासे भी मधुको खाता है,वह भी शीघ्र उग्र दुःखको प्राप्त होता है । क्या जीनेकी इच्छासे खाया गया विष शीघ्र ही जीवनको नष्ट नहीं करता है? करता ही है ।।३२।। इस प्रकारसे घोर दुःखदायी मधुको जानकर सुखके वांछक विद्वान् मधुका परित्याग करते हैं । शीतलता पानेकी लालसावाले मनुष्य तापकारी पावकको जानकर कहाँ ग्रहण करते है, अर्थात् नहीं ग्रहण करते है। अतः ज्ञानियोंको मधु-भक्षण सर्वथा छोड देना चाहिए ॥ ३३॥ अब आचार्य नवनीत (मक्खन) भक्षणका निषेध करते है-जिसके भीतर सूक्ष्मशरीर वाले नाना प्रकारके प्राणी निरन्तर उत्पन्न होते रहते है, ऐसे नवनीतका सेवन मनुष्योंको उस पापका संचय देता है, जिससे बडा और कोई पाप संसारमें नहीं है ।।३४।। नाना प्रकारके जीवसमूहके विनाशका स्थान ऐसा नवनीत देखकर भी जो लोग उसे खाते हैं, उनमें संयमका लेश भी नहीं हैं, फिर धर्मसे साधनकी तत्परता तो कैसे हो सकती हैं ॥३५ । जिस नवनीतमें दो महर्तके पश्चात् प्रचुर जीबराशि सदा उत्पन्न होती रहती हैं, उस नवनीतको जो लोग यहाँ पर खाते है, वे मरकर कौन सी गतिको जाते है, यह हम नहीं जानते ॥३६॥ यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः - ये जिनेन्द्रवचनानुसारिणो घोरजन्मवनपातमीरवः । तैश्चतुष्टयमिदं विनिन्दितं जीवितावधि विमुच्यते त्रिधा ।। ३७ मद्यमांसनवनीतसारघं यश्चतुष्कभिदमद्यते सदा। गृद्धिरागवधसङ्गबृंहणं तेश्चतुर्गतिमवो विगाह्यते ॥ ३८ यः सुरादिषु निसेवतेऽधमो नित्यमेकमपि लोलमानसः । सोऽपि जन्मजलधावटाटयते कथ्यते किमिह सर्वमक्षिणः ।। ३९ यत्र राक्षसपिशाचसञ्चरो यत्र जन्तुनिवहो न दश्यते । यत्र मुक्तमपि वस्तु भक्ष्यते यत्र घोरतिमिरं विजृम्भते ॥४. यत्र नास्ति यतिवर्गसङ्गमो यत्र नास्ति गुरुदेवपूजनम् । यत्र संयमविनाशिभोजनं यत्र संसजति जीवभक्षणम् ॥ ४१ यत्र सर्वशुभकर्मवर्जनं यत्र नास्ति नमनागमक्रिया। तत्र दोषनिलये दिनात्यये धर्मकर्मकुशला न भञ्जते ।। ४२ भुञ्जते निशि दुराशया यके गद्धिदोषवशतिनो जनाः। भूतराक्षसपिशाचशाकिनीसङ्गतिः क्रथममीभिरस्यते ॥ ४३ वल्भते दिननिशीथयोः सदा यो निरस्तयमसंयमक्रियः । शङ्गपृच्छशफसङ्गजितो भण्यते पशुरयं मनीषिभिः ४४ हैं कि नवनीतके दो मुहूर्त्तकी मर्यादा तपाकर बी बनानेकी अपेक्षासे कही गई है, न कि खानेकी अपेक्षासे । अतएव मक्खनका खाना उचित नहीं हैं, क्योंकि लारके संयोगसे और भी असंख्य सूक्ष्म जीव उसमें उत्पन्न हो जाते है । अतएव जो जिनेन्द्र देवके वचनानुसार आचरण करने वाले हैं घोर संसार-कान्तारके निपातसे भयभीत है, वे पुरुष मद्य, मांस, मधु और नवनीत इन चारों ही अतिनिन्द्य पदार्थोंको जीवन भरके लिए मन वचन कायसे खानेका परित्याग कर देते है ।।३७॥ जो लोग गद्धि, राग और हिंसाका संग बढानेवाले मद्य, मांस, मधु और नवनीत इन चारोंको ही सदा खाते रहते हैं, वे निश्चयसे इस चतुर्गतिरूप संसार समुद्र में गोता खाते रहते है ।।३८।। जो अधम चंचल चित्त पुरुष इन मद्य मांसादिकमेंसे किसी एक भी निंद्य पदार्थका सेवन करता हैं, वह भी संसार-सागरमें परिभ्रमण करता हैं, फिर सभीके खाने वालेकी तो बात ही क्या कहना है ।।३९।। अब आचार्य रात्रि-भोजनका निषेध करते है-जिस रात्रिमें राक्षस, भूत और पिशाचोंका संचार होता है, जिसमें सूक्ष्म जन्तुओंका समूह दिखाई नहीं देता है, जिसमें स्पष्ट न दिखनेसे त्यागी हुई भी वस्तु खा ली जाती हैं, जिसमें घोर अन्धकार फैलता हैं, जिसमें साधु वर्गका संगम नहीं है, जिसमें देव और गुरुकी पूजा नहीं की जाती है, जिसमें खाया गया भोजन संयमका विनाशक है, जिसमें जीते जीवोंके भी खानेकी संभावना रहती है, जिसमें सभी शुभ कार्योंका अभाव होता हैं, जिसमें संयमी पुरुष गमनागमन क्रिया भी नहीं करते हैं, एसे महादोषोंके आलय भूत, दिनके अभाव स्वरूप रात्रिके समय धर्म-कार्यो में कुशल पुरुष भोजन नहीं करते हैं ।। ४०-४२।। खानेकी गृद्धिताके दोषवशवर्ती जो दुष्ट चित्त पुरुष रात्रिमें खाते है, वे लोग भूत, राक्षस, पिशाच और शाकिनी-डाकिनियोंकी संगतिको कैसे छोड सकते है? अर्थात् रात्रिमें राक्षस पिशाचादिक ही खाते है, अतः रात्रिभोजियोंको उन्हींकी संगतिका जानना चाहिये ।।४३।। जो मनुष्य यम-नियम-संयमादिकी क्रियाओंको छोडकर रात्रि Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्रावकाचार-संग्रह आमनन्ति दिवसेषु भोजनं यामिनीषु शयनं मनीषिणः । ज्ञानिनामवरेषु जल्पनं शान्तये गुरुषु पूजनं कृतम् ।। ४५ भुज्यते गुणवर्तकदा सदा मध्यमेन दिवसे द्विरुज्ज्वले । न रात्रिदिनयोरनारतं भुज्यते स कथितोऽधमो नरः ॥ ४६ यो विवर्ण्य वदनावसानयोर्वासरस्य घटिकाद्वयं सदा । भुञ्जते जितहृषीकवादिनस्ते भवन्ति भवभारवजिताः ॥ ४७ ये विधाय गुरुदेवपूजनं भुञ्जतेऽन्हि विमले निराकुलाः । ते विधूय लघु मोहतामसं सम्भवन्ति सहसा महोदयाः ॥ ४८ यो विमुच्य निशि भोजनं त्रिधा सर्वदाऽपि विदधाति वासरे। तस्य याति जननार्धमञ्चितं मुक्तिर्वाजतमपास्तरेकसः । ४९ यो निवृत्तिमविधाय वल्भनं वासरेषु विदधाति मूढधीः । तस्य किञ्चन न विद्यते फलं भावि तेन भुविना कुलान्तरम् ।। ५० ये व्यवस्थितमहत्सु सर्वदा शर्वरीषु रचयन्ति भोजनम् । निम्नगामि सलिलं निसर्गतस्ते नयन्ति शिखरेषु शाखिनाम् ।। ५१ सूचयन्ति सुखदायि येऽङ्गिनां रात्रिभोजनमपास्तचेतनाः । पावकोद्धतशिखाकरालितं ते वदन्ति फलदायि काननम् ॥ ५२ ये ब्रुवन्ति दिनरात्रिभोगयोस्तुल्यतां रचितपुण्यपापयोः । ते प्रकाशतमसोः समानतां दर्शयन्ति सुखदुःखकारिणोः ।। ।। ५३ दिन सदा ही खाया करता हैं, उसे ज्ञानी पुरुष सींग, पूछ और खुरके संगसे रहित पशु कहते हैं ||४४ || बुद्धिमान् लोग तो दिनमें भोजन, रात्रिमें शयन, ज्ञानियोंके मध्य में अवसर पर संभाषण और गुरुजनों में किया गया पूजन शान्तिके लिए मानते है ॥ ४५ ॥ गुणवान् उत्तम पुरुष दिनमें दो बार भोजन करते हैं । किन्तु जो रात्रि दिन निरन्तर भोजन करता है, बह अधम पुरुष कहा गया हैं ||४६ || इन्द्रियोंरूपी बोडोंको जीतनेवाले जो पुरुष दिनकी आदि और अन्तिम दो दो घडी समयको छोड़कर भोजन करते हैं, वे ही पुरुष संसारके भारसे रहित होते हैं अर्थात् मोक्षको प्राप्त करते है ॥४७॥ जो पुरुष देव और गुरुका पूजन करके दिन के निर्मल प्रकाशमें निराकुल होकर भोजन करते है, वे शीघ्र ही मोहरूप महा अन्धकारका नाश कर सहसा महान् उदयवाले होते हैं, अर्थात् आईन्त्य पदको पाते हैं । ४८ । जो पुरुष मन वचन कायसे रात्रिमें भोजनका परित्याग करके सदा ही दिन में भोजन करता है, पापसे रहित उस पुरुषका रात्रि में भोजन के परित्यागसे आधा जन्म उपवासके साथ व्यतीत होता हैं । भावार्थ - रात्रिभोजन त्यागी अपने जीवनके आधे भागको उपवासके साथ व्यतीत करनेसे महान् पुण्यका संचय और दुष्कर्मकी निर्जरा करता है ॥ ४९ ॥ जो मूढ पुरुष रात्रि भोजनकी निवृत्ति नहीं करके दिनमें भी भोजन करते है, उनके उसका कुछ भी फल नहीं होता हैं। हां, उनका भावी जन्म दिवाभोजी कुलमें होना संभव है ||५० || जो रात्रिमें दीपकादिका प्रकाश करके सदा भोजन करते हैं, वे स्वभावतः नीचे की ओर बहनेवाले जलको वृक्षोंके शिखरों पर ले जाना चाहते है ||५१ ॥ जो अज्ञानी पुरुष रात्रि भोजनको जीवोंके लिए सुखदायी कहते है, वे आगकी उद्धत शिखाओंसे विकरालताको प्राप्त हुए वनको फलोंको देनेवाला कहते है ॥ ५२ ॥ जो लोग Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचार रात्रिभोजनमधिश्रयन्ति ये धर्मबुद्धिमधिकृत्य दुधियः । ते क्षिपन्ति पविवन्हिमण्डलं वृक्षपद्धतिविवृद्धये स्फुटम् ।। ५४ ये विधृत्य संकलं दिनं क्षुधा भञ्जते सुकृतकांक्षया निशि। ते विवृध्य फलशालिनी लतां भस्मयन्ति फलकांक्षया पुनः ।। ५५ ये सदाऽपि घटिकाद्वयं त्रिधा कुर्वते दिनमुखान्तयोर्बुधाः । भोजनस्य नियम विधीयते मासि तैः स्फुटमुपोषितद्वयम् ॥ ५६ रोगशोककलिराटिकारिणी राक्षसीव भय सूयनी प्रिया । कन्यका दुरितपाकसम्भवा रोगिता इव निरन्तरापदः ।। ५७ देहजा व्यसनकर्मयन्त्रिताः पन्नगा इव वितीर्णभीतयः । निर्धनत्वमनपायि सर्वदापात्रदानमिव दत्तवृद्धिकम् ।। ५८ सङ्कट सतिमिरं कुटीरकं नीचचित्तमिव रन्ध्रसंकुलम् । नीचजातिकुलकर्मसङ्गमः शोलशौचशमधर्म निगमः ।। ५९ व्याधयो विविधदुःखदायिनो दुर्जना इव परापकारिणः । सर्वदोषगणपीड्यमानता रात्रिभोजनपरस्य जायते ॥ ६० पुण्यकारी दिनके भोजनकी और और पापकारी रात्रिके भोजनकी समानताको कहते हैं,वे सुखकारी प्रकाश और दुःखकारी अन्धकारकी समानताको प्रकट करते हैं ।।५३।। जो दुर्बुद्धि मनुष्य धर्म बुद्धि करके रात्रिमें भोजन करते है, वे निश्चयसे वृक्षोंकी परम्पराकी वृद्धि के लिए वज्राग्निके मण्डलको वृक्षों पर फेंकते है ।।५४॥ जो लोग पुण्यकी आकांक्षासे सारे दिन भूख की बाधा सहन कर रात्रिमें भोजन करते है, वे फल पाने की इच्छासे पहले लताको बढाकर पुनः उस फलवाली लताको मानों भस्म करते हैं ।।५५।। जो ज्ञानी लोग सदा ही दिनकी आदि अन्तकी दो दो घडी कालको मन वचन कायसे छोडकर भोजनका नियम धारण करते है, वे प्रत्पेक मासमें निश्चयसे दो उपवास करते हैं ।।५६ । भावार्थ-प्रतिदिन प्रातः और सायंकालके एक एककी मिलाकर दो महत भोजनका त्यागकर मध्यवर्ती समयमें ही भोजन करते हैं, उन्हें मासके तीस दिनोंमें साठ मुहूर्त भोजनका त्याग रखनेसे दो उपवासका पुण्यलाभ होता हैं, क्योंकि एक दिनरातके तीस महत होते हैं। अब आचार्य रात्रि-भोजनके दोष कहते हैं-रात्रि भोजन करने वाले मनुष्यको रोग, शोक, कलह और राड करने वाली, तथा भयको देनेबाली राक्षसीके समान स्त्री मिलती है, दुष्कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई, निरन्तर आपदाएँ देनेवाली रोगिणी दुर्भाग्यवाली कल्याएं पैदा होती हैं ।।५।। दुर्व्यसन और कुकर्म करने में चतुर, सांपोंके समान सदा भय देनेवाले पुत्र उत्पन्न होते हैं, अपात्रदानके समान निरन्तर दुःखोंकी वृद्धि करने वाली दरिद्रता निरन्तर प्राप्त होती हैं ।५८ । नीच पुरुषके धनके समान अनेक छिद्रोंसे व्याप्त, संकटोंसे भरा, अन्धकार मय घर प्राप्त होता है, सदा नीच जाति और नीच कुल और नीच कार्य करने का समागम मिलता है, तथा शील शौच शम और धर्मका निर्गमन होता हैं, अर्थात् कभी धर्म-धारण करनेका भाव नहीं होता है ।।५९॥ परका अपकार करने वाले दुर्जनोंके समान नाना प्रकारके दुःखोंको देनेवाली व्याधियाँ घेरे रहती है, और रात्रिभंजी पुरुष सदा सभी दोषों एवं रोगोंसे पीडित रहता हैं ।।६०।। अब आचार्य रात्रिभोजन त्याग करनेके गुण बतलाते है-जो मनुष्य सदा रात्रि Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० श्रावकाचार-संग्रह पद्मपत्रनयनाः प्रियंवदा: श्रीसमा: प्रियतमा मनोरमाः । सुन्दरा दुहितरः कुल:लयाः पुण्यपङ्क्तय इवात्तविग्रहाः ।। ६१ भ्रंशितव्यसनवृत्तयोऽमला: पावना हिमकरा इवाङ्गजाः । शक्रमन्दिरमिवास्ततामसं मन्दिरं प्रचुररत्नराजितम् ।। ६२ लब्धचिन्तितपदार्थमुज्ज्वलं मूरिपुण्यमिव वैभवं स्थिरम् । सर्वरोगगणमुक्तदेहता सर्वशर्मनिवहाधिवासिता ॥ ६३ ज्ञानदर्शनचरित्रभूतयः सर्वयाचितविधानपण्डिताः । सर्वलोकपतिपूजनीयता रात्रिभुक्तिविमुखस्य जायते ॥ ६४ सूकरी संवरी वानरी धीवरी रोहिणी मण्डली शाकिनी क्लेशिनी। दुर्भगा निःसुता निर्धवा निर्धना शर्वरीमोजिनी जायते भामिनी ।। ६५ बान्धवैरञ्चिता देहजैर्वन्दिता भूषणभूषिता दूषणजिता। श्रीमती हीमती धीमती धर्मिणी वासरे जायते भुक्तित: शर्मिणी ।। ६६ रात्रिभोजनविमोचिनां गुणा ये भवन्ति भवमागिनां परें। तानपास्य जिननाथमीशते वक्तुमत्र न परे जगत्त्रये ॥ ६७ यत्र सूक्ष्मतमवस्तनूभृतः सम्भवन्ति विविधाः सहस्रशः । पञ्चधा फलमुदुम्बरोद्भवं तन्न भक्षयति शुद्धमानसः ।। ६८ भोजनसे विमुख रहता हैं उसके कमलपत्रके समान नयनवाली प्रियभाषिणी, लक्ष्मीके समान मनोहारिणी प्रियतमा स्त्रियां प्राप्त होती हैं सुन्दर आकार वाली, कलाओंकी जाननेवाली पूण्यकी पंक्तिके समान शरीरको धारण करनेवाली उत्तम कन्याएँ उत्पन्न होती है ।।६।। व्यसनोंसे रहित, निर्मल आचरण एवं व्यापार करने वाले, चन्द्र के समान पावन शान्ति देनेवाले पुत्र पैदा होते हैं। अन्धकारसे रहित, प्रचुर रत्नराशिसे भरपूर इन्द्र के भवनके सम न सुन्दर मन्दिर प्राप्त होता हैं ॥६२।। मन-चिन्तित पदार्थोंको देनेवाला महान् पुण्यके पुंजके समान उज्ज्वल स्थिर रहने वाला वैभव प्राप्त होता है । सर्व रोगोंके समूहसे रहित नीरोग देह मिलती है, सभी सुखोंके समुदायसे युक्त निवास प्राप्त होता हैं ।।६३॥ सर्व मनोवांछित सम्पदाओंके देने में प्रवीण सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रकी विभूति प्राप्त होती है । तथा रात्रिभोजन त्यागी पुरुषके सर्व लोकोंके स्वामियोंसे पूजनीयता प्राप्त होती है ।।६४।। जो स्त्री रात्रिमें भोजन करती हैं, वह मर कर रात्रि भोजनके पापसे भीलनी, वानरी, धीवरी, रोहिणी (गाय),कुकरी, सदा शोक और क्लेश भोगने वाली, अभागिनी,निःसन्तान, निर्धन और पति-रहित विधवा स्त्री होती है ॥६५।। जो स्त्री दिनमें भोजन करती हैं, वह उसके पुण्यसे पर भवमें बान्धवोंसे अचित, पुत्रोंसे वन्दित, भूषणोंसे आभूषित, व्याधियोंसे वर्जित, श्रीमती, लज्जावती, बुद्धिमती, धर्म करने वाली और सदा सुख भोगनेवाली स्त्री होती हैं ॥६६।। रात्रिभोजनका परित्याग करने वाले जीवोंके जिन महान् गुणोंकी प्राप्ति परभवमें होती है, उन्हें कहने के लिए तीन जगत्में एक जिननाथको छोडकर और कोई समर्थ नहीं है ।।६७।। अब आचार्य पंच उदुम्बर फलोंके खाने का निषेध करते हैं-जिनमें नाना प्रकारके सूक्ष्म शरीरके धारक सहस्रों प्राणी उत्पन्न होते हैं, एसे बड, पीपल, उम्बर और कटूम्बर इन पाँच प्रकार उदुम्बर फलोंको . Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः क्षीरमूरूहफलानि मुञ्जते चित्रजीवनिहितानि येऽधमाः। जन्मसागरनिपातकारणं पातकं किमिह ते न कुर्वते ।। ६९ असंख्यजीवस्य विधातवत्तिभिर्न धीवरैरस्ति समं समानता। अनन्तजीवव्यपरोपकारिणामुदुम्बराहारविलोलचेतसाम् ॥ ७० ये खादन्ति प्राणिवर्ग विचित्रं दृष्ट्वा पञ्चोदुम्बराणां फलानि । श्वभ्रावासं यान्ति ते घोरदुःखं कि निस्त्रिशैः प्राप्यते नव दुःखम् ।। ७१ अघप्रदायोनि विचिन्त्य धर्मधीरुदुम्बराणां न फलानि वल्भते। विधातमिष्टे सुखदे प्रयोजने करोति कस्तद्विपरीतमुत्तमः ।। ७२ आदावेव स्फुट मिह गुणा निर्मला धारणीया, पापध्वंसि व्रतमपमलं कुर्वता श्रावकीयम् । कत्तुं शक्यं स्थिरगुरुभरं मन्दिरं गर्तपूर, न स्थेयोभिर्दृढतममृते निमितं ग्रावजालैः ।। ७३ दातुं दक्षः सुरतरुरिव प्रार्थनीयं जनानां चित्ते येषामिति गुणगणो निश्चलत्वं बिति । भक्त्वा सौख्यं भवनमहितं चिन्तितावाप्तभोगं, ते निर्बाधाममितगनय: श्रेयसी यान्ति लक्ष्मीम् ॥७४ इत्यमितगति कृतश्रावकाचारे पञ्चमः परिच्छेदः शुद्ध मानस वाले मनुष्य नहीं खाते हैं ॥६८॥ जो अधम पुरुष क्षीरी वृक्षोंसे उत्पन्न हुए और नाना प्रकारके जीवोंसे भरे हुए इन उदुम्बर फलोंको खाते हैं, वे संसार-सागरमें निपातके कारणभूत कौनसे पापको इस लोकमें संचय नहीं करते हैं? अर्थात् सभी पापोंका संचय करते है ॥६९॥ अनन्त जीवोंका घात करने वाले उदुम्बर फलोंके भक्षणकी लालसा रखनेवाले पुरुषोंकी समानता तो असंख्य जीवोंके मारनेकी भाजीविकावाले धीवरोंके साथ भी नहीं हैं ॥७०॥जो पुरुष पंच उदुम्बर फलोंके नाना प्रकारके प्राणी वर्गको देखकर भी उन्हें खाते है, वे घोर दु:खवाले नारकावासको प्राप्त होते हैं । सो ठीक ही है, क्योंकि निर्दयी पुरुष कौनसे दुःखोंको नहीं पाते? सभी दुःखोंको पाते है ।।७।। वर्ममें जिसकी बुद्धि है, ऐसा पुरुष पापको देने वाले फलोंको विचार करके उदुम्बरोंके फलोंको नहीं खाते हैं । ऐसा कौन उत्तम पुरुष है, जो कि अपने सुखदायक इष्ट प्रयोजनको सिद्ध करने के लिए उससे विपरीत कार्यको करेगा? कोई नहीं करेगा ।।७२।। इस लोकमें पापोंका ध्वंस करनेवाले, निर्मल श्रावकोंके व्रतोंको धारण करने वाले गृहस्थोंको ये उपर्युक्त निर्मल मूल गुण प्रारम्भ में ही धारण करना चाहिए । जैसे स्थिर और गुरुभारको धारण करने में समर्थ ऐसे मन्दिरकी नींव सुदृढ पाषाण-समूहके द्वारा पूरे किये विना अतिदृढ भवन निर्माण नहीं किया जा सकता है ।।७३।। याचक जनोंको कल्प वृक्षके समान मनोवांछित वस्तुओंके देने में समर्थ यह उपयुक्त मूलगुणोंका समूह जिन श्रावकोंके हृदयमें निश्चलताको धारण करता है, वे मनुष्य संसारपूज्य मन चिन्तित भोगवाले सुखोंको भोगकर अमित ज्ञानके धारक होते हुए सर्व बाधाओंसे रहित नैःश्रेयसी मुक्ति लक्ष्मीको प्राप्त होते है ।।७४।। इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचारमें पंचम परिच्छेद समाप्त हुआ। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ श्रावकाचार-संग्रह षष्ठः परिच्छेदः मद्यादिभ्यो विरतैर्ब्रतानि कार्याणि शक्तितो भव्यैः । द्वादश तरसाच्छेत्तुं शस्त्राणि शितानि भववृक्षम् ॥ १ अणुगुणशिक्षाद्यानि व्रतानि गृहमेधिनां निगद्यन्ते । पञ्चत्रिचतुः संख्यासहितानि द्वादश प्राज्ञैः ॥ २ हिंसाऽसत्य स्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिरूपाणि । ज्ञेयान्यणुव्रतानि स्थूलानि भवन्ति पञ्चात्र ॥ ३ द्वेधा जीवा जैनैर्मतास्त्र सस्थाबरप्रभेदेन । तत्र त्रसरक्षायां तदुच्यतेऽणुव्रतं प्रथमम् ४ स्थावरघाती जीवस्त्रससंरक्षी विशुद्धपरिणामः । योऽक्षविषयानिवृत्तः स संयतासंयतो ज्ञेयः ।। ५ हिंसा द्वेधा प्रोक्ताssरम्मानारम्भजत्वतों दक्षैः । गृहवासतो निवृत्तो द्वेधाऽपि त्रायते तां च ॥ ६ गृहवाससेवनरतो मन्दकषायप्रवर्तितारम्भः । आरम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियतम् ॥ ७ शमिताद्याष्टकषायः प्रवर्तते यः परत्र सर्वत्र । निन्दागर्हाविष्टः स संयमासंयमं धत्ते ॥ ८ कामासूयामायामत्सर वैशून्यदन्यमदहीनः । धीरः प्रसन्नचित्तः प्रियंवदो वत्सलः कुशलः ।। ९ यादे टिष्टो गुरुचरणाराधनोद्यतमनीषः । जिनवचनतोयधीतस्वान्तकलङ्को भवविमीरुः ।। १० मद्य-मांसादिसे विरक्त भव्य पुरुषोंको चाहिए कि वे संसार वृक्षको वेगसे छेदने के लिए तीक्ष्ण शस्त्रके समान बारह व्रतोंकों अपनी शक्तिके अनुसार धारण करें ||१|| ज्ञानियोंने पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकारकी संख्यावाले बारह व्रत गृहस्थोंके कहे है ||२|| स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापोंकी निवृत्तिरूप पाँच अणुव्रत जानने योग्य है || ३ || अब आचार्य सर्व प्रथम अहिंसाणुव्रतका वर्णन करते हैं-जैनोंने त्रस और स्थावरके भेदसे जीव दो प्रकारके माने है । उनमें से द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंकी रक्षा करने पर प्रथम अणुव्रत होता हैं ||४|| जो पुरुष स्थावर पृथिवीकायिकादि जीवोंका घात करता हुआ भी जीवोंका संरक्षण करता हैं, विशुद्धपरिणाम वाला हैं और इन्द्रियोंके विषयोंसे निवृत्त हैं, उसे संयतासंयत श्रावक जानना चाहिए ||५|| जैन शास्त्रोंमें दक्ष पुरुषोंने आरम्भजा और अनारम्भजा के भेदसे हिंसा दो प्रकारकी कही है। जो मनुष्य गृहवाससे निवृत्त होता है, वह दोनों ही प्रकारकी हिंसाको बचाता है । किन्तु जो गृहवासके सेवनमें निरत है, मन्दकषायी है, आरम्भ में प्रवृत्त है, वह निश्चयसे आरम्भजा हिंसाकी रक्षा करने में समर्थ नहीं है | १६ - ७॥ भावार्थ - खान-पान और व्यापार आदिमें होने वाली हिंसाको आरम्भजा हिंसा कहते है । तथा संकल्प पूर्वक की जानेवाली हिंसाको अनारम्भजा या सांकल्पिकी हिंसा कहते है । गृहत्यागी साधु दोनों ही प्रकारकी हिंसाका त्यागी होता है, किन्तु गृहवासी श्रावक केवल सांकल्पिकी हिंसाका ही त्यागी होता है, क्योंकि अपन और अपने कुटुम्ब निर्वाहके लिए उसे कृषि, व्यापार आदिके आरम्भको करना ही पडता है । जिसकी अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ये आदिकी आठ कषाय शान्त हो गई है, और जो सभी लौकिक और पारलौकिक कार्यों में अपनी निन्दा और गर्हासे युक्त होकर प्रवृत्ति करता है, वह पुरुष सयमासंयमको धारण करता है | ८|| इस संयमासंयमका धारक पुरुष काम, असूया ( डाह - ईर्ष्या), माया, मत्सर, पैशुन्य, दैन्य और मदसे रहित होता है, धीर वीर होता है, सदा प्रसन्नचित्त रहता है, प्रिय वचन बोलता हैं, सर्वके साथ वात्सल्य भाव रखता है, धर्म - कार्य में कुशल होता है, हेय और उपादेयका जानकार होता है, गुरुजनोंके चरणोंकी आराधनायें जिसकी बुद्धि उद्यत रहती है, जिनवचनरूप जलसे जिसने अपने हृदय के कलंकको धो डाला है, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३१३ सम्यक्त्वरत्नभषो मन्दीकृतसकलविषयकृतगद्धिः । एकादशगुणवर्ती निगद्यते श्रावकः परमः ॥ ११ संरम्भसमारम्भारम्भर्योगकृतकारितानुमतैः । सकषायैरभ्यस्तैस्तरसा सम्पद्यते हिंसा । १२ त्रित्रित्रिचतुःसंख्यैः संरम्भाद्यैः परस्परं गणितैः । अष्टोत्तरशतभेदा हिंसा सम्पद्यते नियतम् ॥ १३ जीवत्राणेन विना ब्रतानि कर्माणि नो निरस्यन्ति । चन्द्रेण विना ऋक्षन हन्यन्ते तिमिरजालानि ||१४ तिष्ठन्ति व्रतनियमानाहिंसामन्तरेण सुखजनकाः । पृथिवीं न विना दृष्टास्तिष्ठन्तः पर्वता: क्वापि१५ निघ्नानेनाहिसामा-माऽऽधारा निपात्यते नरके । स्वाधारांनहि शाखां छिन्नानः पतति कि भमौ।। १६ समतो विरताविरतः स्वल्पकषायो विवेकपरमनिधिः । रक्षति यस्त्रसदशकं प्रणिहन्ति स्थावरचतुष्कम् ।। १७ सर्वविनाशी जीवस्त्रसहननं त्यज्यते यतो जनैः । स्थावरहननानुमतिस्ततः कृता तैः कथं भवति ॥ १८ सपारसे भयभीत है, सम्यक्त्वरत्नसे विभूषित है, सर्व इन्द्रियोंके विषयोंमें जिसकी गद्धि मन्द हो गई है, ऐसा ग्यारह प्रतिमारूप गुणोंका धारक परम श्रावक कहा जाता हैं ।।९-११।। गृहस्थके एक सौ आठ भेदवाली हिंसा नियमसे होती रहती हैं । वे एक सौ आठ भेद इस प्रकारसे होते हैंसंरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप तीन प्रकारकी हिंसा मन वचन कायरूप तीन योगोंसे, कृत कारित और अनुमोदनारूप तीन प्रकारोंसे तथा क्रोध मान माया और लोभ रूप चार कषायोंसे निरन्तर होती रहती हैं। इनका परस्पर गुणा करने पर हिंसाके एक सौ आट भेद हो जाते है ॥१२-१३।। भावार्थ-हिंसा करनेका विचार संरम्भ कहलाता है. हिंसाके उपकरण आदिके जुटानेको समारम्भ कहते है और हिंसा प्रारम्भ करनेको आरम्भ कहते हैं । ये तीनों ही कार्य मन वचन और काय इन तीनों योगोसे किये जाते है, अत: उक्त तीनोंका इन तीन योगोंसे गुणा करने पर नौ ( ३४३=९) भेद हो जाते हैं। पुनः ये नवों ही कार्य स्वयं करे, दूसरोंसे करावे और दूसरोंको करते हुए देखक र उनकी अनुमोदना करे तो (९४३-२७) सत्ताईस भेद हो जाते है। यह सत्ताईस भेदरूप हिंसा क्रोधसे भी होती हैं, मानसे भी होती हैं.मायासे भी होती है और लोभ कषायसे भी होती है । अत: उक्त सत्ताईस भेदोंका इन चार कषायोंसे गुणा करने पर (२७४४=१०८) एक सौ आठ भेद हो जाते हैं । इन एक सौ आठ प्रकारोंसे जीव-हिंसाका पाप सदा लगता रहता हैं। अतः धर्मधारणके इच्छुक श्रावकोंको उक्त एक सौ आठ प्रकारसे त्रस हिंस का त्याग करना चाहिए तभी उसका अहिंसाणवत निर्दोष पल सकता हैं। जीवोंकी रक्ष के विना व्रतें कर्मोका विनाश नहीं कर सकते है । जैसे कि चन्द्र के विना नक्षत्र अन्धकारके जाल को नहीं नष्ट कर पाते हैं ।।१४।। अहिंसाके विना व्रत-नियमादिक सुखके उत्पादक नहीं होते हैं। जैसे कि पृथिवीके बिना पर्वत कहीं पर भी ठहरे हुए नहीं दिखाई देते हैं ।।१५।। आत्म-गुणोंकी आधारभूत अहिंसाको विनाश करने वाला पुरुष अपनी आत्माको नरकमें गिराता हैं । अपनी आधारभूत शाखाको छेदनेवाला पुरुष क्या भूमि पर नहीं 'गरता हैं ।।१६।।। जो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय,मज्ञी पंचेन्द्रिय,असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्तरूप दश भेद वाले त्रसोंके तथा बादरसूक्ष्म एकेन्द्रियोंके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद रूप चार प्रकारके स्थावरोंके प्राणियोंके हितकी रक्षा करता हैं, अत्यल्प कषाय वाला है और परम विवेकका निधान है, वह पुरुष विरताविरत श्रावक माना गया हैं ।।१७।। यहाँ पर कोई आशंका करता है कि केवल त्रस हिंसाके त्यागका उपदेश देकर गृहस्थको स्थावर हिंसाकी अनुमोदनाका दोष प्राप्त होता है? उसका परिहार करते हुए आचार्य कहते हैं कि जीव साधारणतः सर्व जीवोंका Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ अमितगतिकृतः श्रावकाचार त्रिविधा त्रिविधेन मता बिरतिहिंसादितो गृहस्थानाम् । त्रिविधा त्रिविधेन पुनर्गृहचारकतो निवृत्तानाम् ।। १९ atraguोरभेदो येषामैकान्तिको मतः शास्त्रे । कार्याविनाशे तेषां जीवविनाशः कथं वार्यः ॥ २० आत्मशरीरविभेदं वदन्ति ये सर्वथा गतविवेकाः । कायवधे हन्त कथं तेषां सञ्जायते हिंसा ।। २१ मिन्नाभिन्नस्य पुनः पीडा सम्पद्यते तरां घोरा । देहवियोगे यस्मात्तस्मादनिवारिता हिंसा ।। २२ तत्पर्यायविनाशो दुःखोत्पत्तिः परश्च संक्लेशः । यः सा हिंसा सद्भिर्वर्जयितव्या प्रयत्नेन ॥ २३ प्राणी प्रमादकलितः प्राणव्यपरोपणं यदाधत्ते । सा हिंसाऽकथि दक्षैर्भववृक्षनिषेकजलधारा ।। २४ त्रियतां मा मृत जीवः प्रमादबहुलस्य निश्चिता हिंसा । प्राणव्यपरोपेऽपि प्रमादहीनस्य सा नास्ति २५ यो नित्योऽपरिणामी तस्य न जीवस्य जायते हिसा न हि शक्यते निहन्तुं केनापि कदाचनाकाशम् ॥२६ क्षणिको यो व्ययमानः क्रियमाणा तस्य निष्फला हिंसा । चलमानः पवमानो न चाल्यमानः फलं कुरुते ॥। २७ विनाश करता हैं । और प्रत्येक जैन सर्व हिंसाके त्यागका भाव रखता हैं, किन्तु स्थाबर हिंसाके छोडनेकी असमर्थता होनेसे यतः जैन लोग त्रस - हिंसाका त्याग करते है, अत: उनके द्वारा स्थावर जीवघातकी अनुमोदना कैसे की गई हो सकती है ? अर्थात् वे स्थावर जीवोंकी अनुमोदना के दोष भागी नहीं होते हैं ॥ १८ ॥ | गृहस्थोंके हिंसादि पापोंसे निवृत्ति कृत और कारितकी मन वचन काय इन तीन योगोंसे होती हैं । किन्तु गृहाचारसे निवृत्त पुरुषोंके कृत कारित और अनुमोदनाकी मन वचन कायसे हिंसादि पापोंकी निवृत्ति होती हैं ।। १९ । । भावार्थ - गृह में रहने वालोंकी कृषि आदि हिंसा के कार्यों में अनुमोदना होती रहती है, अतः उन्हें हिंसाका कृत और कारितसे त्यागी जानना चाहिए। किन्तु गृहाचारसे निवृत्त पुरुषोंकी नव कोटी - विशुद्ध हिंसादिनिवृत्ति होती हैं, ऐसा जानना चाहिए। जिन अन्यमतावलम्बियों के शास्त्रमें जीव और शरीरम एकान्तरूपसे अभेद माना गया हैं, उनके मतानुसार शरीरके विनाश होनेपर जीवका विनाश कैसे रोका जा सकता है | २० || इसी प्रकार जो विवेक-रहित पुरुष जीव और शरीर में सर्वथा भेद मानते हैं, उनके मतानुसार कायका वध होनेपर जीवोंकी हिंसा कैसे हो सकती है, यह आश्चर्य की बात हैं ||२१||किन्तु जो शरीरसे आत्माको कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानते हैं, उन जैनोंके मतानुसार तो देहके वियोग होनेपर यतः घोर पीडा प्राप्त होती है, अतः हिंसा अनिवार्य रूपसे होती ही है ।। २२|| इस जीवकी वर्तमान पर्यायका विनाश होनेपर दुःख की उत्पत्ति होती हैं और परम संक्लेश भी होता हैं । अतः सज्जनोंको प्रयत्नके साथ हिंसाका परित्याग करना चाहिए ||२३|| जब प्रमाद संयुक्त कोई प्राणी किसीके या अपने प्राणोंका घात करता है, तब शास्त्रों में निपुण पुरुषोंने संसार वृक्षको सींचनेके लिए जल धाराके समान उसे हिंसा कहा है ।। २४ ।। प्रमाद-बहुल जीवके द्वारा प्राणी मरे, अथवा नहीं मरे, उसके हिंसा निश्चित हैं किन्तु प्रमादसे रहित जीवके उसके द्वारा किसी के प्राण घात हो जानेपर भी हिंसा नहीं है ॥२५॥ जो सांख्यमती जीवको नित्य और अपरिणामी मानते हैं उनके मतानुसार जीवकी हिंसा नहीं होती है। क्योंकि कभी भी किसीके द्वारा आकाश विनष्ट नहीं किया जा सकता हैं ॥२६॥ बौद्धमती जीवको सर्वथा क्षणिक और प्रति समय व्ययस्वभावी मानते है, उनके मत में की गई भी हिंसा निष्फल है अर्थात् फल नहीं देती हैं । जैसे कि स्वयं चलता हुआ पवन Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३१५ यस्मानित्यानित्यः कावियोगे निपोड्यते जीवः । तस्मादुक्ता हिंसा प्रचुरकलिकवन्धवृद्धिकरी॥२८ देवातिथिमन्त्रौषधिपित्रादिनिमित्ततोऽपि सम्पन्ना। हिंसाऽऽधत्ते नरके किं पुनरिह साऽन्यथा विहिता ॥ २९ आत्मवधो जीववधस्तस्य च रक्षाऽऽत्मनो भवति रक्षा। आत्मा न हि हन्तव्यस्तस्य वधस्तेन मोक्तव्यः ॥ ३० सर्वा विरतिः कार्या विशेषयित्वाऽतिचारमीतेन । पौर्वापर्यं दृष्ट्वा सूत्रार्थं तत्वतो बुद्ध्वा ।। ३१ शक्त्यनुसारेण बुर्धविरतिः सर्वाऽपि युज्यते कत्तुंम् । तामन्यथा दधानो भङ्गं याति प्रतिज्ञायाः॥३२ केचिद्वदन्ति मूढा हन्तव्या जीवघातिनो जीवाः । परजीवरक्षणार्थ धर्मार्थ पापनाशार्थम् ।। ३३ युक्तं तन्नैवं सति हिलत्वात्प्राणिनामशेषाणाम् । हिंसायाः कः शक्तो निषेधने जायमानायाः ।। ३४ धर्मोहिसाहेतुहिंसातो जायते कथं तथ्यः । न हि शालिः शालिभवः कोद्रवतो जायते जातु ॥ ३५ दूसरेके द्वारा चलाये जाने पर भी फल नहीं करता हैं ॥२७॥ भावार्थ-जीवको सर्वथा नित्य माननेपर किसी के द्वारा घात भी किया जाय, तो वह मर नहीं सकता हैं, अतः जीवकी हिंसा संभव ही नहीं। तथा सर्वथा अनित्य एवं क्षण-विनश्वर मानने पर जब वह प्रति समय स्वयं ही विनष्ट हो रहा हैं, तब उसके मारनेपर भी दूसरेको हिंसाका फल नहीं मिलेगा। अतः जीवको सर्वथा नित्य और अनित्य मानना युक्ति संगत नहीं हैं । किन्तु यत: कायके वियोग होनेपर जीव पीडाको प्राप्त होता हैं, अत: उसे कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानना चाहिए। अर्थात् द्रव्यको अपेक्षा वह नित्य हैं और पर्यायका वियोग होता है अत: अनित्य हैं । अतएव हिंसाको प्रत्र र पाप-बन्धकी वृद्धि करने वाली कहा गया है ।।२८।। जब देवता, अतिथि, मंत्र, औषधि और पितर आदिके निमित्तसे भी की गई हिंसा जीवको नरकमें ले जाती है, तब अन्य प्रकारसे की गई हिंसा क्या उसे नरकमें नहीं पहुँचायगी? अर्थात् किसी भी प्रकारसे की गई हिंसा जीवको नरकमें ले ही जाती है ।।२९।। किसी भी जीवका वध करना आत्म-वध है और अन्य जीवकी रक्षा करन' आत्म-रक्षा है यतः आत्म-वध करना योग्य नहीं है, अतः पराये जीवका घात छोडना ही चाहिए ॥३०॥ इस लिए अतीचारके भयसे डरने वाले गृहस्थको पूर्वापर स्थितिको देखकर तथा आगमके अर्थको तत्त्वरूपसे जानकर सर्व-प्रकारकी हिंसाका विशेष रूपसे त्याग करना चाहिए ।।३१।। ज्ञानी जनोंकी शक्तिके अनुसार सम्पूर्ण हिंसाका त्याग करना योग्य है। जो अन्यथा अर्थात् शक्तिके विपरीत हिंसाका त्याग करते हैं, वे प्रतिज्ञाके भंगको प्राप्त होते हैं ।।३२॥ कितने ही मूढ कहते है कि अन्य जीवोंकी रक्षाके लिए. धर्म उपार्जनके लिए और पापके नाशके लिए जीवोंके घात करनेवाले प्राणियोंको मार देना चाहिए ।।३३।। किन्तु उनका यह कथन योग्य नहीं है, क्योंकि इस प्रकार समस्त प्राणो हो हिंसक हो जायेंगे, फिर उनकी की जानेवाली हिंसाको रोकने में कौन समर्थ होगा? ।।३४॥ भावार्थ-यदि यह नियम मान लिया जाय कि जो अन्यको हिंसा करता हैं, वह मारनेके योग्य हैं, या उसके मारनेसे अन्य जीवकी रक्षा, धर्मका उपार्जन और पापका विनाश होता हैं, तो जो मनष्य हिंसक सिंह आदिको मारेगा, वह उसको मारनेवाला होनेसे स्वयं हिंसक हो जाता है अतः वह भी मारने योग्य सिद्ध होता हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर सभी प्राणी हिंसक बनते जावेंगे। फिर उन सबकी हिंसाका निषेध कैसे किया जा सकेगा? अत: जीवघाती प्राणी मार देना चाहिए, यह कथन युक्ति संगत नहीं हैं । सत्य धर्म तो अहिंसा-हेतुक है, वह हिंसासे कैसे हो Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह पापनिमित्तं हि वधः पापस्य विनाशने कथं शक्तः । छेदनिमित्त: परशुः शक्नोति लतां न वर्धयितुम् ।। ३६ हिस्राणां यदि घाते धर्मः सम्भवति विपुलसुखदायी। सुखविघ्नस्तहि कृतः परजीवविघातिनां घाते ॥ ३७ यस्माद् गच्छन्ति गति निहता गुरुदुःखसङ्कटा हिस्राः । तस्माद् दु:खं वधतः पापं न कथं भवति घोरम् ।। ३८ दुःखवतां भवति वधे धर्मो नेदमपि युज्यते वक्तुम् । मरणे नरके दु:खं घोरतरं वार्यते केन ।। ३९ सुखितानामपि घाते पापप्रतिषेधने परोऽधर्मः । जीवस्य जायमानो निषेधितुं शक्यते केन ॥ ४० पौर्वापर्यविरुद्धं सम्यक्त्वमहीध्रपाटने वज्रम् । इत्थं विचार्य सद्भिः परवचनं सर्वथा हेयम् ॥ ४१ अज्ञानतो यदेनो जीवानां जायते परमघोरम् । तच्छक्यते निहन्तुं ज्ञानव्यतिरेकत। केन ॥ ४२ यो धर्मार्थ छिन्ते हिंस्राहिस्रसुखदुःखिनो भविनः । पीयूषं स्वीकर्तुं स वपति विषविटपिनो नूनम् ॥४३ वचसा वपुषा मनसा हिंसा विवघाति यो जनो मूढः । जन्मवनेऽसौ दीर्घ दीर्घ सञ्चूर्यते दुःखी ॥४४ सकता है? क्योंकि शालिधान्यसे उत्पन्न होने वाला शालि-तन्दुल कोदोंसे उत्पन्न हुआ नहीं दिखाई देता है॥३५॥ जीवोंका घात तो पापके उपार्जनका ही निमित्त है। वह पापका विनाश करने में समर्थ नहीं हो सकता। जो कुठार लताके काटने में निमित्त हैं, वह लताको बढानेके लिए समर्थ नहीं हो सकता है॥३६॥ यदि हिसक प्राणियोंके घातमें महान् फलको देनेवाला धर्म संभव है, तो फिर अन्य जीव-घातक प्राणियोंके घात करनेपर उनके सुखमें विघ्न भी संभव हैं,अतः हिंसक जीवोंके घातसे सुखका उपार्जन मानना असंगत हैं ।।३७।। यत: मारे गये हिंसक प्राणी घोर दुःखोंसे व्याप्त नरकादि दुर्गतिको जाते है, अतः उन्हें दुःखको देनेवाले पुरुषके घोर पाप कैसे नहीं होगा ॥३८॥ जो लोग यह कहते हैं कि दुःखी प्राणियोंके मारनेमें धर्म होता हैं,क्योंकि मारने वाला उसको दुखसे छुडा देता है, आचार्य इसका निषेध करते हुए कहते है कि यह कहना भी योग्य नहीं है, क्योंकि दुखी प्राणी के मरण होनेपर आगे नरकमें मिलने वाला अति घोर दुःख कौन रोक सकेगा? ।।३९।। भावार्थ-दुखी जीवको मारनेसे वह दुःखसे छूट जायगा, इसका क्या प्रमाण है। अधिक संभव तो यही हैं कि जो यहीं पर महाकष्ट भोग रहा है, वह मरकर नरकमें और भी घोर दुःख भोगेगा। अतः दुःखीको मारनेसे वह दुःखसे छूट जायगा, यह मानना सर्वथा अनुचित हैं। कोई लोग कहते है कि सुखी जीवोंके घात करने पर उनके द्वारा किये जाने वाले पापोंके रोकनेसे परमधर्म होता है। उनका यह कथन भी योग्य नहीं हैं, क्योंकि जीवके अन्यत्र उत्पन्न होने पर वहां किये जाने वाले पापोंको कौन रोक सकता हैं? इसलिए सुखी जीवोंको मारने में धर्म नहीं हैं ।।४०।। इस प्रकार विचार कर पूर्वापर विरोधसे युक्त और सम्यक्त्वरूप पर्वतके भेदने में वज्रके समान अज्ञानियों के वचन सज्जनोंको सर्वथा त्यागने के योग्य है ॥४१॥ अज्ञानसे जीवोंके जो महाघोर पापका उपार्जन होता हैं, वह ज्ञानके अतिरिक्त और किससे विनाशको प्राप्त किया जा सकता है? अर्थात् अज्ञान-जनित पाप सद्-ज्ञानसे ही दूर हो सकता है,अतः सद् ज्ञानकी प्राप्तिका प्रयत्न करना चाहिए ॥४२॥ जो लोग धमके लिए हिंसक, अहिंसक, सुखी और दुखी प्राणियोंको मारते है, वे निश्चयसे अमृत पाने के लिए विषके वृक्षको बोते है ॥४३॥ जो Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः यन्म्लेच्छेष्वपि गह्यं यदनावेयं जिघृक्षतां धर्मम् । यदनिष्टं साधुजनैस्तद्वचनं नोच्यते सद्भिः ॥ ४५ कामक्रोधात्रीडाप्रमादमदलोभमोहविद्वेषः । वचनमसत्यं सन्तो निगदन्ति न धर्मरतचित्ताः ॥ ४६ सत्यमपि विमोक्तव्यं परपीडारम्भतापभयजनकम् । पापं विमोक्तुकामैः सुजनैरिव पापिनांवृत्तम् ॥ ४७ भाषन्ते नासत्यं चतुष्प्रकारमपि संमृतिविभीताः । विश्वासधर्महननं विषादजननं बुधावमतम् ॥४८ असदुद्भावनमाद्यं वचनमसत्यं निगद्यते सद्भिः ऐकान्तिकाः समस्ता भावा जगतीति विज्ञेयम् ॥ ४९ तदपलपनं द्वितीयं वितथं कथयन्ति तथ्यविज्ञानाः । सृष्टिस्थितिलययुक्तं किञ्चिन्नास्तीति यदभिहितम् ॥ ५० विपरीतमिदं ज्ञेयं तृतीयकं यद्वदन्ति विपरीतम् । सग्रन्थं निर्ग्रन्थं निर्ग्रन्थमपीह सग्रन्थम् ॥ ५१ सावद्याप्रियगर्ह्यप्रभेदतो निन्द्यमुच्यते त्रेधा । वचनं वितथं दक्षैर्जन्माब्धिनिपातने कुशलम् ।। ५२ आरम्भ: सावद्या विचित्रभेदा यतः प्रवर्तन्ते । सावद्यमिदं ज्ञेयं वचनं सावद्यवित्रस्तैः ॥ ५३ कर्कश निष्ठुर भेदनविरोधनादिबहुभेदसंयुतम् । अप्रियवचनं प्रोक्तं प्रियवाक्यप्रवणवाणीकः ।। ५४ हिंसनताडन भीषणसर्वस्वहरणपुरःसर विशेषम् । गर्ह्यवचो भाषन्ते गर्भोज्झितवचनमार्गज्ञाः ।। ५५ ३१७ मूढ पुरुष मनसे, वचनसे और कायसे हिंसाको करता हैं, वह इस अतिदीर्घ संसाररूप वन में दीर्घ कालक हिंसा के फलसे दुख भोगता हुआ परिभ्रमण करता रहता हैं || ४४|| अब आचार्य सत्याणुव्रतका वर्णन करते हैं- जी वचन म्लेच्छ जनों में भी निन्द्य माने जाते है, धर्मको ग्रहण करने वालोंको जो अनादरणीय हैं, और साधु जनोंको जो इष्ट नहीं है, ऐसे वचन सज्जन पुरुषों को नहीं बोलना चाहिए ॥ ४५ ॥ जिनका धर्म में चित्त संलग्न हैं, ऐसे पुरुष काम क्रोध कुतुहल प्रमाद मद लोभ मोह और विद्वेष भावसे असत्य वचन नहीं बोलते है || ४६ || जिस प्रकार सज्जन पुरुष पापियोंके आचरणको छोडते है, इसी प्रकारसे पापको छोडनेकी इच्छा वाले सज्जनोंको पर पीडा - कारक, आरम्भ-जनक, सन्ताप उत्पादक और भय वर्धक सत्य वचन भी छोडना योग्य हैं । अर्थात् ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए जो दूसरे जीवोंको पीडा, सन्ताप, भय आदि उत्पन्न करें ।।४७।। संसारसे भयभीत पुरुष विश्वास और धर्मके जलाने वाले, विषादके उत्पन्न करने वाले और बुधजनोंसे तिरस्कार पानेवाले असदुद्भावन, भूतनिन्हव, विपरीत और निन्द्य इन चारों ही प्रकारके असत्य वचनोंको नहीं बोलते है ।। ४८ ।। संसारमें समस्त पदार्थ नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार से एक धर्म रूप कहे जाने वाले वचनों को सज्जनोंने असदुद्भावन नामका प्रथम असत्य कहा है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ४९ ॥ | उत्पत्ति, स्थिति और विनाशयुक्त कोई भी वस्तु नहीं है, ऐसे कथनको सत्यज्ञानी पुरुषोंने सत्का अपलाप करनेवाला दूसरा भूतनिन्हव नामका असत्य कहा हैं ।। ५० ।। लोकमें जो परिग्रहसहित है उन्हें निर्ग्रन्थ कहना और जो परिग्रह - रहित हैं उन्हें सग्रन्थ कहना, ऐसे जो विपरीत कथन करते हैं, उसे विपरीत नामका तीसरा असत्य जानना चाहिए ।। ५२ ।। सावद्य, अप्रिय और गर्ह्यके भेदसे दक्ष पुरुषोंने निन्द्य वचन तीन प्रकारका कहा गया है। यह चौथा असत्य वचन संसार-समुद्रमें डुबानेमें कुशल हैं ॥ ५२ ॥ | जिस वचनके बोलनेसे अनेक भेदवाले पाप-युक्त आरम्भ कार्य प्रवृत्त होते हैं, उसे पापसे भयभीत पुरुषोंको सावद्य वचन जानना चाहिए ।। ५३ ।। प्रिय वचन रूप वाणीके बोलनेमें प्रवीण पुरुषोंने कर्केश, निष्ठुर, भेद-कारक क्षौर विरोध-वर्धक आदि अनेक भेदोंसे संयुक्त वचनों को अप्रिय वचन कहा हैं ।। ५८ ।। गर्ह्यवचनसे रहित जैन मार्ग के ज्ञाता पुरुषोंने हिंसाकारी, ताडनारूप, भयानक और पराये धनके हरण करनेवाले इत्यादि लोक-निन्द्य वचनों Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० श्रावकाचार-संग्रह अथ्यं पश्यं तथ्यं श्रव्यं मधुरं हितं वचो वाच्यम् । विपरीतं मोक्तव्यं जिनवचनविचारकैनित्यम् ॥ ५६ वैरायासाप्रत्ययविषादकोपादयो महादोषाः । जन्यन्तेऽनतवचसा कुभोजननेनेव रोगगणाः ॥ ५७ वचसाऽनतेन जन्तोव॑तानि सर्वाणि झटिति नाश्यन्ते। विपुलफलवन्ति महता दवानलेनेव विपिनानि ।। ५८ क्षेत्रे ग्रामेऽरण्ये रथ्यायां पथि गृहे खले घोषे । ग्राह्यं न परद्रव्यं भ्रष्टं नष्टं स्थितं वाऽपि ॥ ५९ तणमात्रमपि द्रव्यं परकीयं धर्मकांक्षिणा पुंसा । अवितीर्ण नादेयं वहिनसमं मन्यमानेन ।। ६० यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । आश्वासकर बाह्यं जीवानां जीवितं वित्तम् ॥ ६१ सदशं पश्यन्ति बुधाः परकीयं काञ्चनं तृणं वाऽपि । सन्तुष्टा निजवितैः परतापविभौरवो नित्यम् ।। ६२ तैलिकलुब्धकखट्टिकमार्जारव्याघ्रधीवरादिभ्यः । स्तेनः कथितः पापी सन्ततपरतापदानरतः ॥ ६३ स्वसृमातदुहितसदृशीर्दृष्ट्वा परकामिनीः पटीयांसः । दूरं विवर्जयन्ते भुजगीरिव घोरदृष्टिविषाः॥ न निषेव्या परनारी मदनानलतापितरपि त्रेधा । क्षुत्क्षामैरपि दक्षेर्न भक्षणीयं परोच्छिष्टम् ।। ६५ विषवल्लीमिव हित्वा पररामां सर्वथा त्रिधा दूरम् । सन्तोषः कर्तव्यः स्वकलत्रेणैव बुद्धिमता ॥६६ को गीवचन कहा हैं ।।५५॥ इसलिए जिनवचनोंके विचारक पुरुषोंको कभी भी गद्य वचन नहीं वोलना चाहिए और प्रयोजनवाले पथ्य, तथ्य, श्रवण योग्य, मधुर, हितकारी वचन बोलना चाहिए ॥५६॥ जैसे खोटा भोजन करनेसे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार असत्य वचन बोलनेसे वैरभाव, विभ्रम, प्रतीति, विषाद और क्रोध आदि अनेक महादोष उत्पन्न होते है ॥५७।। जैसे महा दावानलसे महान् फलशाली वृक्षोंसे युक्त वन जला दिये जाते है, उसी प्रकार असत्य वचनसे जीवोंके सर्व व्रत शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ॥५८।। अब आचार्य अचौर्याणुव्रतका वर्णन करते हैखेतमें, ग्राममें, वनमें, गलीमें, मार्गमें, घरमें, खलिहानमें अथवा ग्वालटोलीमें रखे, गिरे, पडे या नष्ट भ्रष्ट हुए पराये द्रव्यको नहीं ग्रहण करना चाहिए ।।५९॥ धर्मकी आकांक्षा रखनेवाले पुरुषको चाहिए कि वह विना दिया हुआ तृणमात्र भी पराया द्रव्य अग्निके समान मानकर ग्रहण न करें ।।६०।। जो पुरुष जिस किसीके धनको हरण करता है, वह उसके जीवनका ही अपहरण करता हैं । क्योंकि धन जीवोंका धैर्य बंधाने वाला बाहरी प्राण हैं ।।६१।। अपने धनसे सन्तुष्ट रहनेवाले और दूसरोंको सन्त' प देनेसे सदा डरनेबाले ज्ञानी जन पराये सुवर्ण और तृणको भी समान ही दृष्टिसे देखते हैं ॥६२।। सदा दूसरोंको सन्ताप देने में संलग्न चोर, तेली,शिकारी, खटीक, बिलाय, बाघ धीवर आदिसे भी अधिक पापी कहा गया हैं ।। ६३।। ___अब आचार्य ब्रह्मचर्याणुव्रतका वर्णन करते है-ज्ञानी पुरुष परायी स्त्रियोंको बहिन, माता और पुत्री के समान देखकर घोर दृष्टि-बिषवाली सर्पिणीके समान दूरसे ही परित्याग करते हैं ।।६४॥ कामाग्निसे अत्यन्त सन्तप्त भी पुरुषोंको मन वचन कायसे परायी स्त्रीका सेवन नहीं करना चाहिए । जैसे कि भूखसे अति पीडित भी पुरुषोंको पराया झूठा भोजन नहीं खाना चाहिए ॥६५॥ इस लिए बुद्धिमान् पुरुषको परायी स्त्री विष वेलिके समान जानकर सदा मन वचन कायसे दूर से ही छोडकर अपनी विवाहिता स्त्रीसे ही सन्तोष करना चाहिए ।।६६।। कामदेवसे आकुलित भी Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३१९ नासक्त्या सेवन्ते भायाँ स्वामपि मनोभवाकुलिताः। यन्हिशिखाऽप्यासक्त्या शीतात: सेविता दहति ॥ ६७ः दृष्ट्या स्पृष्ट्वा लिष्ट्वा दृष्टिविषायाऽहिमूतिरिव हन्ति । तां पररामां भव्यो मनसाऽपि न सेवते जातु ॥ ६८ तीव्राकारा तप्ता या स्पृष्टा दहति पावकशिखेव । मारयति योषमुक्ता प्ररूढविषविटपिशाखेव ॥६९ मोहयति झटिति चित्तं निषेवमाणा सुरेव या नितराम् । या गलमालिङ्गति निपीडयति गण्डमालेव ॥७० व्याघ्रीव याऽऽमिषाशा विलोक्य रमसा जनं विनाशयति । पुरुषार्थपरैः सद्भिः परयोषा सा त्रिधा त्याज्या ।। ७१ मलिनयति कुलद्वितयं दीपशिखेवोज्ज्वलाऽपि मलजनंजी। पापोपभुज्यमाना परवनिता तापने निपुणा ॥ ७२ वास्तु क्षेत्रं धान्यं दासी दासश्चतुष्पदं भाण्डम् । परिमेयं कर्तव्यं सर्वं सन्तोषकुशलेन ॥ ७३ विध्यापयति महात्मा लोभं दावाग्निस निमं ज्वलितम् । भवनं तापयमानं सन्तोषोदगाढसलिलेन.७४ सर्वारम्भा लोके सम्पद्यते परिग्रहनिमित्ताः । स्वल्पयते यः सङ्गं स्वल्पयति स सर्वमारम्भम् ॥७५ ककुबष्ट केऽपि कृ वा मर्यादा यो न लधयति धन्यः । दिग्विरतेस्तस्य जिनैर्गुणत्र कतंथ्यते प्रथमम् ।। ७६ ज्ञानीजन अति आसक्तिसे अपनी स्त्रीका भी सेवन नहीं करते हैं । देखो-शीतसे पीडित पुरुषोंके द्वारा अति आसक्तिसे सेवन की गई अग्निकी ज्वाला उन्हें जलाती ही है। ६७॥जो परायी स्त्री देखी, स्पर्शी और आलिंगन की गई दृष्टिविषा नागिनीके समान पुरुषका घात करती है, उसपररामाका भव्य पुरुष मनसे भी कदापि सेवन नहीं करते है ॥६८॥ यह जो स्पर्श की गई भी परस्त्री अति प्रदीप्त आकार वाली तप्तायमान अग्निशिखाके समान जलाती हैं और सेवन की गई परस्त्री तो विस्तृत विषवृक्षकी शाखाके समान मार देती है ॥६९।। जो सेवन की गई परस्त्री मदिराके समान चित्तको शीघ्र अत्यन्त मोहित कर देती हैं और जो गलेम आलिंगन की गई परस्त्री गंडमाल रोग के समान अत्यन्त पीडा देती हैं ।।७०॥ जो परस्त्री मांस-भक्षिणी व्याघ्रीके समान देखते ही मनुष्यको शीघ्र विनष्ट कर देती हैं, ऐसी परायी स्त्री धर्म पुरुषार्थमें तत्पर सज्जनोंको मन वचन कायसे त्याग देना चाहिए ॥७॥ उज्ज्वल सन्दर आकार वाली भी भोगी गई पापिनी परायी स्त्री प्रकाशमान दीपशिखाके समान दोनों कुलोंको मलिन करती है,मलको उत्पन्न करती हैं और सन्तापको बढाती हैं ।। २।। अब आचार्य परिग्रहपरिमाण-अणुव्रतका वर्णन करते हैंसन्तोषमें कुशल गृहस्थको मकान, खेत, धन, धान्य, दासी, दास, चौपाये-गाय आदि और वासनवस्त्रादिक सर्व प्रकारके परिग्रहका परिमाण करना चाहिए ॥७३॥ परिग्रहपरिमाण करने वाला महात्मा सन्तोष रूप प्रगाढ जलके पूरसे दावाग्निके समान जलने वाले और सारेसंसारको संतप्त करनेवाले लोभको बुझाकर शान्त कर देता हैं ।।७४।। लोकमें सभी आरम्भ परिग्रहके निमित्त ही सम्पादित किये जाते है । अतः जो पुरुष परिग्रहको अल्प करता है, वह सभी आरम्भोंको भी कम करता है ।।७५ । अब दिग्विरति नामक प्रथम गुणव्रत कहते हैं-जो धन्य पुरुष आठों दिशाओंमें जीवन भरके लिए जाने जानेकी मर्यादा करके उसे उल्लंघन नहीं करता हैं उसके जिन भगवान्ने दिग्विरति नामका प्रथम गुणव्रत कहा हैं ॥७६॥ दिग्वतकी मर्यादाके बाहिर सर्व आरम्भ की निवत्ति Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्रावकाचार-संग्रह सर्वारम्मानिवृत्तेस्ततः परं तस्य जायते पूतम् । पापापायपटीयः सुखकारि महाव्रतं पूर्णम् ॥ ७७ वेशावधिमपि कृत्वा यो नाकामति सदा पुनस्त्रेधा । देशविरते द्वितीयं गुणवतं वर्ण्यते' तस्य ॥७८ काष्ठेनेव हुताशं लाभेन विवर्धमानमतिमात्रम्। प्रतिदिवसं यो लोमं निषेधयति तस्य क: सदशः ॥ ७९ सोऽनर्थ पञ्चविध परिहरति विवृद्धशुद्धधर्ममतिः । सोऽनयंदण्डविरति गुणवतं नयति परिपूर्तिम्।।८० पञ्चाना दुष्टाध्ययनं पापोपदेशनासक्तिः । हिंसोपकारि दानं प्रमावचरणं श्रुतिर्दुष्टा ।। ८१ मण्डलविडालकुक्कुटमयूरशुकसारिकादयो जीवा: । हितकामैन ग्राह्याः सर्वे पापोपकारपराः ॥ ८२ लोहं लाक्षा नीली कुसुम्भमदनं विषं शस्त्रम् । सन्धानकं च पुष्पं सर्वं करुणापरयम् ।। ८३ नाली सूरणकन्दी दिवस द्वितयोषिते च दधिमथिते। विद्धं पुष्पितमन्नं कालिङ्ग द्रोणपुष्पिका त्याज्या ।। ८४ आहारो निःशेषो निजस्वभावादन्यभावमुपयातः । योऽनन्तकायिकोऽसौ परिहर्तव्यो दयालोढः ।। ८५ हो जानेसे उसके अणुव्रत भी पापोंके विनाश करने में निपुण, सुखकारी और पवित्र पूर्ण महाव्रत रूप हो जाते हैं ।।७७।। अब दूसरे देशविरति गुणवतका स्वरूप कहते है-दिग्ब्रतकी मर्यादाके भी भीतर दैनिक आवश्यकताके अनुसार देश की मर्यादा को करके जो उसका मन वचन कायसे अतिक्रमण नहीं करता है, उसके देशविरति नामका दूसरा गुणव्रत कहा जाता है ।।८।। जैसे काठके लाभसे अग्नि उत्तरोत्तर बढ़ती है,उसी प्रकार परिग्रहकी प्राप्तिसे लोभ भी उत्तरोत्तर अत्यधिक बढता है। जो पुरुष प्रतिदिन लोभका निषेध करता है, उसके समान कौन हो सकता हैं ।।९।। अब अनर्थदण्ड विरतिनामक तीसरे गुणवतको कहते हैं-जिसकी शुद्ध धर्म धारण करने में बुद्धि बढ रही है, ऐसा जो पुरुष वक्ष्यमाण पांचों प्रकारके अनर्थो का परिहार करता है, वह अनर्थ दण्ड विरति नामक गुणवतकी परिपूर्ति करता है ।।८०। दुष्ट ध्यान (अपध्यान) पापोपदेशनासक्ति, हिंसोपकरणदान, प्रमादाचरण और दुष्टशास्त्रश्रवण, य पांच अनर्थदण्ड कहे गये हैं ।।८१।। भावार्थ-किसीकी जीत और किसीकी हारका चिन्तवन करना, आर्त और रौंद्र ध्यान करना दुष्टध्यान अनर्थदण्ड है। हिंसादि पाप कर्मोका उपदेश देना पापोपदेश अनर्थदण्ड है। हिंसा करने वाले अस्त्र-शस्त्रादि उपकरणोंको देना हिंसोपकरणदान अनर्थ दण्ड हैं । निष्प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोंकी विराधना करना प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है और राग-द्वेष बढाने वाली खोटी कथाओंका सुनना दुःश्रुति अनर्थदण्ड हैं श्रावकको इन पांचों ही अनर्थदण्डोंका त्याग करना चाहिए। आत्म-हितके इच्छुक पुरुषोंको कुत्ता, बिलाव, मुर्गा, मोर, तोता, मैना आदि पापोंका उपकार करने वाले अर्थात् पापोंको बढाने वाले हिंसक जीव ग्राह्य नहीं हैं, अतः इन्हें नहीं पालना चाहिए ।।८२।। करुणामें नत्पर पुरुषोंको लोहा, लाख, नील, कुसुम (रंग), धतूरा, विष, सन, शस्त्र, सन्धानक (अचार-मुरब्बा) और सभी प्रकारके पुष्प इन वस्तुओंका त्याग करना चाहिए। अर्थात इनका व्यापार न करे और न स्वयं उपयोगमें लावे ॥८३।। कमलनाल, सूरण, जमीकन्द, तथा दो दिनका वासी दही छाँछ, वींधा अन्नअंकुरित अन्न, कलींदा (तरबूज) और द्रोणपुष्पिका (राई-सरसों) इन वस्तुओंका भक्षण त्यागने के योग्य है ॥८४।। जो चारों ही प्रका• का आहार अपने वास्तविक स्वभावसे अन्य स्वभावको प्राप्त हो जाय, अर्थात् जिसका स्वाद बिगड जाय, ऐसा चलितरस वाला आहार और सभी प्रकार १, मु. 'तस्य जायेत'। . Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३२१ स्यक्तातरौद्रयोगो भक्त्या विदधाति निर्मलध्यानः । सामायिक महात्मा सामायिक संयतो जीवः।।८६ कालत्रितये त्रेधा कर्तव्या देववन्दना सद्भिः । त्यक्त्वा सर्वारम्भं भवमरणविभीतचेतस्कैः ॥ ८७ सदनारम्भनिवृतराहारचतुष्टयं त्रिधा हित्वा । पर्वचतुष्के स्थेयं शमसंयमसाधनोयुक्तैः ।। ८८ ताम्बूलगन्धमाल्यस्नानाभ्यङ्गादिसर्वसंस्कारम् । ब्रह्मवतरतचित्त: स्थातव्यमुपोषितैस्त्यक्त्वा ।।८९ उपवासानपवासकस्थानेष्वेकमपि विधत्ते यः । शक्त्यनुसारपरोऽसौ प्रोषधकारो जिनरुक्तः ।। ९० उपवासं जिननाथा निगदन्ति चतुविधाशनत्यागम् । सजलमनुपवासममी एकस्थानं सकृद्धक्तम् ॥९१ भोगोपभोगसंख्या विधीयते येन शक्तितो भक्त्या । भोंगोपभोगसंख्याशिक्षाव्रतमुच्यते तस्य ।। ९२ ताम्बूलगन्धलेपनमज्जनभोजनपुरोगमो भोगः । उपभोगो भूषास्त्रीशयनासनवस्त्रवाहाद्यः ॥ ९३ परिकल्प्य संविभागं स्वनिमित्तकृताशनौषधादीनाम् । भोक्तव्यं सागाररतिथिव्रतपालिभिनित्यम् ९४ अततिः स्वयमेव गहं संयमविराधयन्ननाहतः। यः सोऽतिथिरुद्दिष्टः शब्दार्थविचक्षणःसाधः॥९५ अशनं पेयं स्वाधं खाद्यमिति निगद्यते चतुर्भेदम् । अशनमतिविधयो निजशक्त्या संविभागोऽस्य । की अनन्त काय वाली वनस्पति दयालु पुरुषोंको त्यागना चाहिए ।।८५।। अब शिक्षाव्रतका वर्णन हुए पहले सामायिक शिक्षाव्रतको कहते है-जो आर्त और रौद्रध्यानको छोडकर और निर्मल धर्मध्यानसे युक्त होकर भक्ति के साथ सामायिक करता है, वह महात्मा सामायिक संयत जीव जानना चाहिए । ८६।। जन्म-मरणके भयसे डरने वाले सज्जन पुरुषोंको पूर्वाह,मध्यान्ह और अपराण्ह इन तीनों ही कालोंमें सर्व आरम्भको छोडकर देववन्दना करना चाहिए। यह प्रथम सामायिक शिक्षाक्त है ।।८७॥ अब दूसरे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतको कहते है-शमभाव और संयमके साधनामें उद्यक्त पुरुषोंको सदा प्रत्येक मासकी ही दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी इन चारों पर्वोमें घरके आरम्भसे निवृत्त होकर और खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय इन चारों ही प्रकारके आहारको छोडकर धर्मस्थानमें रहना चाहिए ।। ८८।। उपवास करने वाले श्रावकोंको ब्रह्मचर्यव्रत में संलग्न चित्त होकर ताम्बूल, सुगन्ध, माला, स्नान, उबटन आदि सभी शारीरिक संस्कार छोडकर एक स्थान पर धर्म-साधन करते हुए ठहरना चाहिए ॥८९।। जो-जो श्रावक शक्तिके अनुसार उपवास, अनुपवास, और एकाशन इनमेंसे एकको भी पर्वके दिनोंमें करता हैं, वह भी जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्रोषधव्रतधारी कहा गया हैं ।।९० । चारों प्रकारके त्यागको जिनेन्द्र भगवान्ने उपवास कहा हैं, जलके सिवाय शेष तीन प्रकारके आहार त्यागको अनुपवास और एक बार भोजन करनेको एकस्थान या एकाशन कहा है ।।९।। अब तीसरे भोगोपभोगपरिमाण शिक्षाव्रतको कहते हैं-जो अपनी शक्तिके अनुसार भवितसे भोग और उपभोगकी सख्याका नियम करते हैं, उसे सन्त पुरुषोंने भोगोपभोगसंख्यान शिक्षाव्रत कहा हें ॥९॥ ताम्बल, गन्ध-लेपन, स्नान, भोजन आदि एक बार भोगने में आनेवाले पदार्थ भोग कहलाते हैं और आभूषण, स्त्री, शय्या, आसन, वस्त्र, सवारी आदि बार-बार भोगने में आनेवाले पदार्थोंको उपभोग कहते हैं ॥९३३ अब चाथे अतिथिसंविभाग शिक्षावतको कहते है-अतिथिसंविभाग व्रतके पालन करने वाले गहस्थोंको अपने निमित्त बनाये गये भोजन औषधि आदिका अतिथिके लिए संविभाग करके नित्य भोजन करना चाहिए ॥९४॥ अतिथि' इस शब्दके अर्थ-विचारक पुरुषोंने उसे अतिथि कहा है जो कि संयमकी विराधना नहीं करता हुआ बिना बुलाये श्रावकके घर स्वयं जाता है ।।९५।। अशन, पेय, स्वाद्य और खाद्य इस Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्रावकाचार-संग्रह मुदगोपनाद्यमशनं क्षौरजलाधं मतं जिनै: पेयम् । ताम्बूलवाडिमा स्वाधं खायं स्वपूपाद्यम् ॥९७ ज्ञात्वा मरणागमनं तत्त्वमति निवारमतिगहनम् । पृष्ट्वा बान्धववर्ग करोति सल्लेखनां धीरः ॥ ९८ आराधनां भगवती हृदये निधत्ते सज्ञानदर्शनचरित्रतपोमयीं यः। निर्धूतकर्ममलपङ्कमसो महात्मा शर्मोदकं शिबसरोवरमेति हंसः ।। ९९ जिनेश्वर निवेदितं मननदर्शनालंकृत, द्विषड्विधमिदं व्रतं विपुलबुद्धिभिर्धारितम् । विधाय नरखेचरत्रिदशसम्पदं पावनी, ददाति मनिपुंगवामितगतिस्तुति निर्वतिम् ॥ इत्यमितगत्याचार्यकृतश्रावकाचारे षष्ठः परिच्छेदः ।। सप्तमः परिच्छेदः व्रतानि पुण्याय भवन्ति जन्तोर्न सातिचाराणि निषेवितानि । सस्यानि कि क्वापि फलन्ति लोके मलोपलोढानि कदाचनापि ॥ १ मत्वेति सद्धिः परिवर्जनीया व्रते व्रते ते खलु पञ्च पञ्च । उपेयनिष्पत्तिमपेक्षमाणा भवन्त्युपाये सुधियः सयत्नाः ॥ २ भारातिमात्रव्यतिरोपघातच्छेदान्नपानप्रतिषेधबन्धाः । अणुव्रतस्य प्रथमस्य वक्षः पञ्चापराधाः प्रतिषेधनीयाः ॥ ३ प्रकार आहार के चार भेद कहे गये है। इनका अपनी शक्तिके अनुसार अतिथिके लिए श्रावकको विभाग करना चाहिए ।।९६।। मुंगकी दाल, भात आदिको अशन कहते हैं । पीने योग्य दूध जलादिको जिनदेवने पेय कहा हैं । ताम्बूल, अनार आदि फलोंको स्वाद्य कहा हैं और पूआ मिठाई आदिको खाद्य कहा है ॥९७।। अब सल्लेखनाका वर्णन करते हैं-अपने दुनिवार अति भयंकर मरणका आगमन जानकर तत्त्वज्ञानी धीर वीर श्रावक अपने बान्धव वर्गसे पूछ कर सल्लेखनाको धारण करते हैं ।।९८॥ जो श्रावक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपोमयी भगवती आराधनाको अपने हृदय में धारण करता है, वह भव्य हंस महात्मा सर्वकर्म मलरूप पंकसे रहित, सुखरूप सलिलसे भरपूर शिवरूप सरोवरको प्राप्त होता हैं ॥ ९९।। इस प्रकार जिनेश्वर देवसे कथित, सम्यग्दर्शन-ज्ञानसे अलंकृत और विशालवुद्धि श्रावकोंसे धारण किये ये बारह भेदरूप व्रत मनुष्य, विद्याधर और देवलोककी पावन सम्पदाको देकर अन्तमें अमितज्ञानधारी मुनिश्रेष्ठोंसे पूजित मुक्ति लक्ष्मीको देते हैं ।।१०।। इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचारमें छठा परिच्छेद समाप्त हुआ। अतीचार-सहित सेवन किये गये व्रत मनुष्योंको पुण्यके लिए नहीं होते है । लोकमें क्या कहीं भी कदाचित् मलसे व्याप्त धान्य फलती है । नहीं फलती है ॥१॥ ऐसा जानकर सज्जनोंको एकएक व्रतके पाँच अतीचार नियमसे छोडना चाहिए । उपेय जो व्रत उनको भले प्रकारसे निष्पन्न करनेकी अपेक्षा रखनेवाले बुद्धिमान् लोग अतीचारोंके त्यागरूप उपायमें प्रयत्नशील होते हैं ॥२॥ अब सर्वप्रथम अहिंसाणुव्रतके अतीचार कहते हैं-भारका अधिक मात्रामें लादना, लाठी-बेंत आदिसे आघात पहुंचाना, नाक-कान आदि अंगों का छेदना, अन्न-पानका रोकना और रस्सी आदि से बांधना ये पाँच अपराधरूप अतीचार प्रथम अणुव्रतके हैं अतएव व्रत-धारण करने में दक्षपूरुषोंको इनका त्याग करना चाहिए ॥३।। अब दूसरे सत्याणुव्रतके अतीचार कहते है-दूसरेके न्यास (धरोहर) . Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३२३ भ्यासापहारः परमन्त्रभेदो मिथ्योपदेशः परकूटलेखः । प्रकाशना गुह्यविचेष्टितानां पञ्चातिचाराः कथिता द्वितीये ॥ ४ व्यवहारः कृत्रिमजः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् । ते मानवपरीत्यं विरुद्धराज्यव्यतिक्रमणम् ॥ ५ आत्तानुपात्तत्वरिकाङ्गसङ्गावनङ्गसङ्गो मदनातिसङ्गः । परोपयामस्य विधानमेते पञ्चातिचारा गदिताश्चतुर्थे ।। ६ क्षेत्रवास्तुधनधान्यहिरण्यस्वर्णकर्मकरकुप्यकसंख्याः । योऽतिलपति परिग्रहलोलस्तस्य पञ्चकमवाचि मलानाम् ॥ ७ स्मृत्यन्तरपरिकल्पनमधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमाः प्रोक्ताः। क्षेत्रवृद्धिः प्राज्ञैरतिचाराः पञ्च तद्विरते: ।।८। आनयनयुज्ययोजनपुद्गलजल्पनशरीरसज्ञाख्याः । अपराधा: पञ्च मता देशव्रतगोचरा: सद्भिः ।। ९ असमीक्षितकारित्वं प्राहुट्टैगोपभोगनरर्थ्यम् । कन्दर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमनर्थदण्डस्य ।। १० का अपहरण करनेवाला वचन कहना, परके गुप्तमंत्रका भद करना, मिथ्या उपदेश देना, परको ठगने के लिए कूटलेख करना अर्थात् जाली दस्तावेज आदि बनाना और दूसरेकी गुप्त या एकान्तम की गई चेष्टाओंका प्रकाशन करना ये पाँच अतीचार दूसरे अणुव्रतके कहे गये हैं ।। ४।। अब तीसरे अचौर्याणुव्रतके अतीचार कहते हैं-कृत्रिम व्यवहार करना, अर्थात् असली वस्तुमें नकली मिलाकर बेचना,स्तेन-नियोग करना, अर्थात् चोरको चोरी करनेम लगाना, चोरीसे लाये गये द्रव्यको लेना, मान वैपरीत्य करना, अर्थात् बडे बाँटोंसे लेना और छोटे बांटोंसे देना और राज्य नियमोंका उल्लंघन करना, ये पाँच अतोचार अचौर्याणुव्रतके है ।।५।। अब चौथे ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचार कहते हैं-दूसरेकी गहीता या अगहीत व्यभिचारिणी स्त्रीके अंगके साथ संगम करना,अनंग-क्रीडा करना, कामसेवनका तीव्र भाव रखना और दूसरेके विवाहका विधान करना, ये पाँच अतीचार चौथ अणुव्रतके कहे गये हैं।६।। अब पाँचवें परिग्रहपरिमाणवतके अतीचार कहते है-क्षेत्र,वास्तु, धन-धान्य, हिरण्य-सुवर्ण,दासी-दास आदि नौकर और कुप्य-भाण्डकी ग्रहण की गई संख्याका जो परिग्रह-लोभी पुरुष उल्लंघन करता है, उसके ये पांच अतीचार कहे गये हैं।७॥ अब प्रथम दिव्रत गणव्रतके अतीचार कहते है-ग्रहण की गई क्षेत्र-मर्यादाका भल जाना, ऊर्ध्वगमनकी मर्यादाका उल्लंघन करना, अधोगमनको मर्यादा का उल्लंघन करना, तिर्यग्गमनकी मर्यादाका उल्लंघन करना, और क्षेत्रको मर्यादा बढा लेना, ये पाँच अतीचार दिग्विरति गुणवतके प्राज्ञ पुरुषों ने कहे है ।।८।। अब दूसरे देशवत गुणवतके अतीचार कहते है-देशकी गृहीत मर्यादाके बाहरसे किसी पुरुषको या वस्तुको बुलाना, मर्यादाके बाहिर भेजना, मर्यादाके बाहिर लोष्ठ आदि फेंककर संकेत करना, मर्यादाके बाहिर अवस्थित पुरुषके साथ बोलता और मर्यादाके बाहिर शरीर का संकेत कर कार्य कराना, ये पाँच देशवतके अतीचार सन्तपुरुषोंके द्वारा माने गये है ॥९॥ अब तीसरे अनर्थण्डविरति गुणवतके अतीचार कहते हैं-विना देखे-सोचे कार्य करना, अनर्थक भोग-उपभोग की वस्तुओंका संग्रह करना, हास्य मिश्रित अयोग्य वचन बोलना, कायकी कुचेष्टा करना और निरर्थक बकवाद करना, ये अनर्थदण्डव्रतके पाँच अतीचार हैं ॥१०॥ अब प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत के अतीचार कहते हैं-मन, वचन और काय इन तीनों योगोंका खोटा उपयोग Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ श्रावकाचार-संग्रह योगाः दुष्प्रणिधाना: स्मृत्यनुपस्थानमावरामावः । सामायिकस्य जैनेरतिचाराः पञ्च विज्ञयाः ॥११ ज्ञेया गतोपयोगा उत्सर्गादानसंस्तरकविद्धाः । उपवासे मुनिमुख्यैरनादरः स्मृत्यसमवस्थाः ।। १२ सहचित्तं सम्बद्धं मिश्र दुष्पक्षमभिषवाहारः । भोगोपमोगविरतरतिचाराः पञ्च परिवाः ॥ १३ मत्सरकालातिक्रमसचित्तनिक्षेपणापिधानानि । दानेऽन्यव्यपदेशः परिहर्तव्या मलाः पञ्चः ॥ १४ जीवितमरणाशंसानिदानमित्रानुरागसुखशंसाः । सन्न्यासे मलपञ्चकमिदमाहुविदितविज्ञेयाः ।। १५ शङ्काकांक्षानिन्दापरशंसासंस्तवा मलाः पञ्च । परिहर्तव्याः सद्भिः सम्यक्त्वविशोधिभिः सततम् ।। १६ सप्तति परिहरन्ति मलानामेवमुत्तमधियो वतशद्धये । श्रावका जगति ये शुभचित्ता ते भवन्ति भवनोसमनायाः ॥ १७ करना (रखना), सामायिक करनेकी याद भूल जाना और सामायिक करने में आदर नहीं रखना ये पाँच अतीचार सामायिकके जैनियोंको जानना चाहिए।।११।। अब दूसरे प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतके अतीचार कहते हैं-उपयोग रहित होकर विना देखे-शोधे किसी वस्तुका छोडना, ग्रहण करना और विस्तरादिका बिछाना, उपवास करनेमें अनादर करना और उपवास करना भूल जाना, ये पाँच अतीचार श्रेष्ठ मुनियोंने उपवासके कहे हैं ।।१२।। अब तीसरे भोगोपभोग परिमाण व्रतके अतीचार कहते हैं-सचित्त वस्तुका आहार करना, सचित्तसे स्पर्शित वस्तुका आहार करना, सचित्तसे मिश्रित वस्तुका आहार करना, दुःपक्व वस्तुका आहार करना और गरिष्ठ वस्तुका आहार करना, ये भोगोपभोग विरक्तिके पाँच अतीचार छोडना चाहिए ।।१३।। अब चौथें अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रतके अतीचार कहते है-दान देनेवालोंके साथ मत्सर भाव रखना, दान देने के समयका उल्लंघन करना, दान-योग्य वस्तुका सचित्त पत्रादि पर रखना,आहारको सचित्त पत्रादिसे ढकना और दान दूसरेसे दिलवाना,ये पाँच अतीचार अतिथि संविभाग व्रतके है, इनका परिहार करना चाहिए ।।१४।। __अब सल्लेखनाके अतीचार कहते है-समाधिमरण लेनेके पश्चात् शरीरको स्वस्थ होता जानकर जीनेकी इच्छा करना, रोगादिके बढने पर मरणकी इच्छा करना, आगामी भवमें सुख प्राप्तिका निदान करना, मित्रोंके अनुरागका स्मरण करना और पूर्वकाल में भोगे हुए भोगोंका चिन्तवन करना ये पाँच अतीचार सर्वज्ञदेवने संन्यासके कहै है ।।१५।। अब सम्यग्दर्शनके अती. चार कहते हैं-जिनदेवके वचनोंमें शंका करना, भोगोंकी आकांक्षा करना, मिथ्या दृष्टियोंकी प्रशंसा करना और उनकी स्तुति करना ये पाँच सम्यग्दर्शनके अतीचार हैं। सम्यग्दर्शनकी शुद्धि चाहने वाले सन्तोंको इनका निरन्तर परिहार करना चाहिए ।।१६।। जो उत्तम बुद्धिवाले श्रावक ब्रतोंकी शुद्धि के लिए उपर्युक्त सत्तर अतीचारोंका परिहार करते है, वे प्रशस्त चित्त पुरुष तीनों भुवनोंके उत्तम स्वामी होते हैं ॥१७।। अब शल्य दूर करनेका उपदेश देते है-निदान, माया और विपरीत दृष्टि (मिथ्यात्व) ये तीन शल्य वाणोंकी पंक्तिके समान दुःखों को करनेवाली . Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३२५ निदानमायाविपरीतवृष्टी राचपङ्क्तीरिव दुःखक/ः। ये वर्जयन्ते सुखमागिनस्ते निःशल्यता शर्मकरीह लोके ।। १८ यस्यास्ति शल्यं हृदये त्रिभेदं व्रतानि नश्यन्त्यखिलानि तस्य । स्थिते शरीरं ह्यवगाह्य काण्डे जनस्य सौख्यानि कुतस्तनानि ।। १९ प्रशास्तमन्यच्च निदानमुक्तं निदानमुक्तैर्वतिनामषीन्द्रः । विमुक्तिसंसारनिमित्तभेदा द्विधा प्रशस्ता पुनरभ्यधायि ॥२० कर्मव्यपायं भवदुःखहानि बोधि समाधि जिनबोधसिद्धिम् । आकांक्षतः क्षीणकषायवृत्तेविमुक्तिहेतुः कथितं निदानम् ।। २१ जाति कुलं बान्धवजितत्वं दरिद्रतां वा जिनधर्मसिद्धच । प्रयाचमानस्य विशुद्धवृत्तः संसारहेतुर्गदितं जिनेन्द्रः ।। २२ उत्पत्तिहीनस्य जनस्य नूनं लाभो न जातिप्रभृतेः कदाचित् । उत्पत्तिमाहुर्भवमुद्धबोधा भवं च संसारमनेककष्टम् ॥ २३ संसारलामो विवधाति दुःखं शरीरिणां मानसमाङ्गिकं च । यतस्ततः संसतिदुःखमीतस्त्रिधा निदानं न तदर्थमिष्टम् ।। २४ भोगाय मानाय निदानमीशर्यदप्रशस्तं द्विविधं तदिष्टम् । विमुक्तिलाभप्रतिवन्धहेतोः संसारकान्तारनिपातकारि ॥ २५ ये सन्ति दोषा भुवनान्तराले तानङ्गभाजां वितनोति भोगः । के तेऽपराधा जननिन्द्रनीया न दुर्जनो यान रभसा करोति ।। २६ है । जो इनवा परित्याग करते है, वे सुख के भागी होते है । क्योंकि लोक में निःशल्यता सुखको करने वाली है ।।१८। जिसके हृदयमें ये तीन प्रकारकी शल्य रहती है, उनके समस्त व्रत नष्द हो जाते हैं । शरीरमें भीतर प्रविष्ट हुए वाणके विद्यमान रहने पर मनुष्यको सुख कहाँ से हो सकते हैं ।।१९।। निदानसे रहित ऋषिराजोंने व्रतियोंके निदान दो प्रकारके कहै हैं-प्रशस्तनिदान और अप्रशस्त निदान । पुनः मुक्ति और संसारके निमित्त भेदसे प्रशस्त निदान भी दो प्रकारका कहा हैं ।।२०। कर्मोंका विनाश, सांसारिक दुःखोंकी हानि, बोधि, समाधि और जिनेन्द्रप्ररूपित ज्ञानकी सिद्धिको चाहने वाले कषाय-रहित पुरुषका निदान मुक्तिका कारण कहा गया हैं ।।२१। जिनधर्मकी सिद्धि के लिए उत्तम जाति, उत्तम कुल, बन्ध-बान्धवसे रहितता और दरिद्रताको चाहने वाले विशुद्धवृत्ति पुरुषंका निदान जिनेन्द्रदेव ने संसारका कारण कहा है ।।२२।। उत्पत्ति-रहित जीवके जाति आदिका लाभ कदाचित् भी नहीं होता हैं। उत्कृष्ट बोधवाले पुरुषोंने उत्पत्तिको भव कहा हैं, भव नाम संसार का हैं और संसार अनेक कष्टमय हैं ॥२३॥ यतः संसारका लाभ देहधारियोंको अनेक मानसिक और शारीरिक दुःख देता है अतः संसारके दुःखोंसे भयभीत पुरुषोंको सांसारिक सुखके लिए मन, वचन, कायसे किया गया निदान कभी भी इष्ट नहीं है ।।२४॥ अब आचार्य अप्रशस्त निदानके दोष कहते है-आचार्योंने अप्रशस्त निदान दो प्रकार का कहा हैं-भोगके लिए और मानके लिए । ये दोनों ही प्रकारका अप्रशस्त निदान मक्ति लाभके प्रतिबन्धका कारण होनेसे संसार-कानन में ही गिराने वाला हैं ।।२५।। इस लोकके मध्यमें जितने भी दोष हैं, उन सबको यह भोग-निमित्त किया गया निदान विस्तृत करता हैं । वे कौन Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ श्रावकाचार-संग्रह ये पीडयन्ते परिचर्यमाणा ये मारयन्ते बत पोष्यमाणाः । ते कस्य सौख्याय भवन्ति मोगा जनस्य रोगा इब दुनिवाराः ।। २७ विनश्वरात्मा गुरुपङ्ककारी मेघो जलानीव विवर्धमानः । ददाति यो दुःखशतानि कष्टं स कस्य भोगो विदुषोऽनिषेभ्यः ॥ २८ यो बाधते शक्रममेयशक्ति स कस्य बाधां न करोति भोगः । यः प्लोषते पर्वतवर्गमग्निः स मुञ्चते कि तणपर्णराशिम् ॥ २९ समीरणाशीव विभीमरूपः कोपस्वभावः पररन्ध्रवर्ती। अनात्मनीनं परिहर्तकामैन याचनीयः कुटिलः स भोगः ॥३. देवं गुरुं धार्मिकमर्चनीयं मानाकुलात्मा परिभूय भूयः । पाथेयमादाय कुकर्मजालं नीचां गति गच्छति नीचकर्मा ॥३१ वामन: पामनः कोपनो वञ्चन: कर्कशो रोमशः सिध्मल: कश्मल:। कौलिको मालिक: सालिकश्छिम्पक: किङ्करो लुब्धको मुग्धकः कुष्ठिकः ।। ३२ शिवत्रक: कोशिको मूषको जाहको वज़ुलो मञ्जुल: पिप्पल: पन्नगः । कुक्कुरस्तित्तिरो रासमो वायसः कुर्कुटो मर्कटो मानतो जायते ॥३३ से मनुष्यों के द्वारा निन्दनीय अपराध हैं, जिन्हें यह दुष्ट निदान शीघ्र ही न करता हो ॥२६॥ जो भोग भली भांतिसे परिचर्या करने पर भी पीडा देते हैं और खूब पोषण किये जाने पर भी जीवोंको मारते है, अति आश्चर्य है कि वे भोग किसके सुख के लिए हो सकते है, जो कि मनुष्यको दुनिवार रोगोंके समान दुखि देते है ॥२७॥ ये सांसारिक भोग क्षण भंगुर हैं, महापाप-पंक को उपजाने वाले हैं, जैसे कि अधिक जलको बरसाने वाला मेध भारी कीचड उत्पन्न कर देता है। जो काले मेघके समान सैकडों दुःखोंको देता है, वह भोग किस विद्वान्के लिए सेवन करने के योग्य है? ॥२८।। जो काम भोग अपरिमित शक्तिशाली शक्रको भी बाधित करता हैं, वह फिर किसके बाधा नहींकरेगा? जो अग्नि पर्वतोंके समूहको भी जला देती हैं, वह क्या तूण और पत्तोंके पुंजको छोड देगी? कभी नहीं ।।२९।। काम-भोग पवन-भक्षी सूर्यके समान अतिभयंकर है, क्रोधी स्वभावाला हैं, कीडियोंके द्वारा बनाई गई बांभी के बिलोंमें रहता हैं। अतएव आत्माके अकल्याणका परिहार करनेके इच्छुक जनोंको यह सर्पके समान कुटिल गति वाला भोग कभी याचना नहीं करना चाहिए । अर्थात् सर्परूप भोगका निदान सर्वथा त्याज्य हैं ॥३०।। अब मान-निमित्तक निदानके दोष कहते हैं-मानसे जिसकी आत्मा आकुलित है,वह पुरुष देव, गुरु और धर्मात्मा पूज्य जनोंका बार बार अपमान करता हैं और उसके फलसे वह नीचकर्म उपार्जन कर खोटे कर्म जालरूप पाथेय (मार्ग-भोजन) को साथ लेकर नीच गतिको जाता हैं ॥३१॥ मानकषायके पोषण-निमित्त किये गये निदानसे यह जीव नाना गतियोंमें बौना. चर्मरोगी,क्रोधी,वंचक,कर्कश, रोम युक्त, भूरे शरीरवाला, कोली (जुलाहा), माली, सिलावट, छीपा, चाकर, लब्धक (भील), मुढ, कोढी, चीता, घूघू, मूषक,सेही वंजुल, मंजुल तथा तिप्पल जातिका पक्षी, सर्प, कुत्ता, तीतर, गर्दभ, काक, मुर्गा और वानर होता हैं ।।३२-३३।। भावार्थ-मनुष्य और तिर्यंच में जितनी भी नीच जातियां है, उनमें यह जीव मानकषायके निमित्त वाले निदानसे ही जन्म लेता है। इसी प्रकार सेवन किया गया यह मान निदान मनुष्यकी लक्ष्मी,क्षमा, कीति, दया, पूजा, . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३२७ लक्ष्मीक्षमाकोतिकृपासपर्या निहत्य सत्या जनपूजनीयाः । निषेव्यमाणो रमसेन मानः श्वभ्रालये निक्षिपतेऽतिघोरे ।। ३४ अनन्तकालं समवाप्य नीचां यद्येकदा याति जनोऽयमुच्चाम् । तथाप्यनन्ता बत याति जातीरुच्चा गुणः कोऽपि न चात्र तस्य ।। ३५ उच्चासु नीचासु च हन्त जन्तोलब्धासु नो योनिषु वृद्धिहानी। उच्चो न नीचोऽहमपास्तबुद्धिःस मन्यते मानपिशाचवश्यः ॥ ३६ उच्चोऽपि नोचं स्वमवेक्ष्यमाणो नीचस्य दु:खं न किमेति घोरम नीचोऽपि वा पश्यति यः स्वमच्चं स सोख्यमच्चस्य न कि प्रयांति॥ ३७ उच्चत्वनीचत्वविकल्प एष विकल्पमान: सुखदुःखकारी। उच्चत्वनीचत्वमयी न योनिर्ददाति दुःखानि सुखानि जातु ॥ ३८ हिनस्ति धर्म लभते न सोख्यं कुबुद्धिरुच्चत्वनिदानकारी। उपति कष्टं सिकतानिपीडी फलं न किञ्चिज्जननिन्दनीयः ॥ ३९ यशांसि नश्यन्ति समानवृत्तेर्गदातुरस्येव सुखानि सद्यः । विवर्धते तस्य जनापवादो विषाकुलस्येव मनोविमोहः ।। ४० हुताशनेनेव तुषारराशिविनाश्यतेऽलं विनयो मदेन । नैवानुरागं विनयेन हीने लोकेऽशमेनेव चरित्रमेति ॥ ४१ आदि सभी जन-पूजनीय गुणोंका नाश करके अति घोर नरकालयमें शीघ्र फेंक देता हैं ॥३४॥ मान कषायके निमित्तसे यह जीव अनन्त काल तक नीची जातियोंको पाकर यदि एक बार ऊँची जातिको पा भी लेता है, तो भी पुनः अनन्तों नीच जातियोंको पाता हैं। जब यह एकादि बार ऊंच जाति को पाता भी हैं, तो दुःख है कि उसमें उसके कोई भी उच्च गुण नहीं प्राप्त होता ।।३५।। इस प्रकार ऊच और नीच जातियोंमें नाना योनियोंके पाने पर भी जीवकी कोई वद्धि या हानि नहीं होती है, अर्थात् जीवत्व विद्यमान रहता है, तथापि यह मान कषायरूप पिशाचके वश में हो बुद्धि रहित बनकर मै ऊंच हूँ, मै नीच है, ऐसा मानता है, यह अति खेदकी बात हैं ।।३६।। उच्च कुलीन पुरुष भी अपने से अधिक उच्चकुलीन पुरुषको देखता हुआ क्या नीच जातिके घोर दुःखको नहीं पाता हैं? इसी प्रकार नीच जातिका पुरुष भी स्वयंको ऊंचा देखता हुआ क्या उच्च जातिके सुखको नहीं पाता हैं? ॥३७॥ वास्तविक बात यह है कि ऊंचता और नीचताकी कल्पना एक विकल्प ही है, जिसे करने पर वह विकल्प सुख और दुःख करता है। ऊचता या नीचता मयी योनि जीवको कदाचित भी सुख या दःख नहीं देती है, किन्तु किये गये पुण्य कर्म या पाप कर्म ही जीवको सुख दुःख देते है ।।३८॥ उच्चता का निदान करने वाला कुबुद्धि अपने धर्मको नाश करता हैं और सुखको नहीं पाता है। बालूको पेलनेवाला केवल कष्ट हो पाता हैं, किन्तु वह जन-निन्दनीय पुरुष कुछ भी फलको नहीं पाता हैं ।।३९।। निदान करने वाले पुरुषका यश नष्ट हो जाता हैं, जैसे कि रोगसे पीडिन पुरुषका सुख शीघ्र नष्ट हो जाता है। उसका लोगोंमें अपवाद बढता हैं, जैसे कि विषसे आकूलित पुरुष का मनोविभ्रम बढता है ।। ४०।। जैसे अग्नि से तुषार पुंज विनष्ट होता हैं, उसी प्रकार अहंकारसे विनय गुण सर्वथा नष्ट हो जाता है। विनयसे हीन पुरुष लोकमें किसीका अनुराग नहीं पाता है जैसे कि शमभाव के विना मनुष्य चारित्र को नहीं पाता है ।।४शा गर्ववाले पुरुष Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ श्रावकाचार-संग्रह पूता गुणा गर्ववत: समस्ता भवन्ति वन्ध्या यमसंयमाद्याः । प्ररोप्यमाणा विधिना विचित्राः किमूषरें भूमिरहाः फलन्ति ।। ४२ न जातु मानेन निदानमित्थं करोति दोषं परिचिन्त्य चित्रम् । प्राणापहारं न विलोक्यमानो विषेण तुप्ति वितनोति कोऽपि ॥ ४३ यो घातकत्वादिनिदानमज्ञः करोति कृत्वाऽऽचरणं विचित्रम् । ही वर्धयित्वा फलदानदक्षं स नन्दनं मस्मयते वराक: ॥ ४४ यः संयम दुष्करमावधानो मोगादिकांक्षां वितनोति मूढः । कण्ठे शिलामेष निधाय गुर्वी विगाहते तोयमनल्पमध्यम् ॥ ४५ त्रिधाऽविधेयं सनिदानमित्थं विज्ञानदोषं चरणं चरद्भिः । अपथ्यसेवां रचयन्ति सन्तो विज्ञातदोषा न कृतोषधेच्छाः ॥ ४६ आयासविश्वासनिराशशोकद्वेषावसावश्रमवरभेदाः । भवन्ति यस्यामवनाविवागा: सा कस्य माया न करोति कष्टम् ॥ ४७ स्वल्पाऽपि सर्वाणि निषेव्यमाणा सत्यानि माया क्षणत: क्षिणोति । नाल्पा शिखा कि दहतीन्धनानि प्रवेशिता चित्ररुचेश्चितानि ॥ ४८ नितितुं वृत्तवनं कुठारी, संसारवृक्षं सवितुं धरित्री। बोधप्रभा ध्वंसयितुं त्रियामा माया विवा कुशलेन दूरम् ॥ ४९ के यम, संयमादिक सभी पवित्र गुण निष्फल जाते है । ऊषर भूमिमें विघि पूर्वक आरोपण किये भी नाना प्रकारके वृक्ष क्या फल देते है ॥४२॥ इस प्रकार नाना प्रकारके दोषोंका चिन्तवन कर कोई भी बुद्धिमान मनुष्य मानसे निदानको कभी भी नहीं करता हैं। प्राणोंके अपहरणको करने वाले विषको देखता हुआ कोई भी पुरुष विषसे अपनी तृप्ति नहीं करता हैं ।।४३।। जो अज्ञानी पुरुष नाना प्रकारके चारित्रका पालन करके दूसरेके बात करने आदिका द्वीपायन मुनिके समान निदान करता हैं, यह दीन वराक उत्तम फल देने में समर्थ नन्दन वनका संवर्धन करके पुनः उसे भस्म करता है ।।४४।। अति कठिन संयमको धारण करता हुआ भी जोमूढ पुरुष भोग आदिकी आकांक्षाको करता हैं, वह अपने कण्ठमें भारी वजनी शिलाको बांधकर अत्यन्त गहरे जल में अवगाहन करता है ।।४५। इस प्रकार निदानके दोषोंको जानकर चारित्रका पालन करनेवाले पुरुषोंको मन वचन कायसे निदान नहीं करना चाहिए। जिन्होंने अपथ्य सेवनके दोष जान लिये है, और जो नीरोग होनेके इच्छासे औषधिका सेवन करते है ऐसे सन्त पुरुष अपथ्यका सेवन नहीं करते है इस प्रकार निदान शल्यका वर्णन किया ॥४६॥ अब मायाशल्यका वर्णन करते है-जैसे भूमिमें वृक्ष उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार जिस मायाके होने पर प्रयास, विश्वासका विनाश, शोक, द्वेष, अवसाद, श्रम और वैर आदि अनेक भेदवाले दोष उत्पन्न होते है, यह माया किस पुरुषको कष्ट नहीं देती है।।४७।। थोडी सी भी सेवन की गई माया क्षण भर में सर्व सत्यका विनाश कर देती है । अग्निकी प्रवेश की गई छोटी सी भी ज्वाला क्या संचित्त इंधनको नहीं जलाती है? जलाती ही है ॥४८॥ जो चारित्ररूप वनको काटने के लिए कुठारीके समान हैं, संसाररूपी वृक्षको उपजानेके लिए पृथिवीके समान हैं, ज्ञानरूप सूर्यको प्रभाका विध्वंस करने के लिए रात्रिके समान है, ऐसी मायाका कुशल पुरुषोंको दूसरे ही परित्याग कर देना चाहिए ।।४९।। यह माया मैत्री का घात करती हैं, शत्रुताको बढाती हैं,पापको विस्तारती हैं, धर्मका विध्वंस करती है, दुःख . Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३२९ हिनस्ति मंत्री वितनोत्यमैत्री तनोति पापं विधुनोति धर्मम् ।। पुष्णाति दुःखं विधुनोति सौख्यं न वञ्चना कि कुरुते विनिन्द्यम् ।। ५० न बुध्यते तत्त्वमतत्त्वमङ्गी विमोह्यमानो रमसेन येन। त्यजन्ति मिथ्यात्वविषं पटिष्ठाः सदा विभेदं बहुदुःखदायि । ५१ वदन्ति केचित्सुखदुःखहेतुर्न विद्यते कर्म शरीरमाजाम् । मानस्य तस्मिन्निखिलस्य हानेर्मानव्यपेतस्य न चास्ति सिद्धिः ।। ५२ सत्त्वेऽपि कर्तुं न सुखाविकायं तस्यास्ति शक्तिर्गतचेतनत्वात् । प्रवर्तमाना: स्वयमेव दृष्टा विचेतना क्वापि मया न कार्ये ।। ५३ एषा महामोहपिशाचश्यन युज्यते गीरभिधीयमाना। प्रमाणमस्माकमवाध्यमानं यतोऽस्य सिद्धावनुमानमस्ति ॥ ५४ रागरोषमदमत्सरशोकक्रोधलोमभयमन्मथमोहाः । सर्वजन्तुनिवहरनभूताः कर्मणा किम् भवन्ति विनते ॥ ५५ ते जीवजन्याः प्रभवन्ति नूनं नैषाऽपि भाषा खलु युक्तियुक्ता। नित्यप्रसक्तिः कथमन्यथेषां सम्पद्यमाना प्रतिषेधनीया ॥५६ का पोषण करती है और सुखका विनाश करती है, वह माया किस निन्द्य कार्यको नहीं करती हैं, अर्थात् सभी निन्द्य कार्योंको करती हैं। इस प्रकार माया शल्यका वर्णन किया।।५०।। अब मिथ्यात्व शल्यका वर्णन करते है-जिसके द्वारा अति शीघ्र विमोहित हुआ प्राणी तत्त्व और अतत्त्वको नहीं समझता हैं, ऐसे बहुत दुःखोंके देनेवाले अनेक प्रकारके मिथ्यात्वरूप विषका चतुर पुरुष सदा ही परित्याग करते हैं ॥५शा कितने ही मतावलम्बी कहते है कि प्राणियोंको सुख-दुख देने में कारणभूत कोई कर्म नहीं है, क्योंकि उसकी सिद्धि करने में सभी प्रमाणोंकी हानि अर्थात् अभाव है और प्रमाणके अभावमें कर्मकी सिद्धि हो नहीं सकती हैं । भावार्थ-अन्य मतवाले जो कर्मको नहीं मानते है, उनका कहना हैं कि कर्म नामक पदार्थ प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय नहीं है, क्योंकि वह इन्द्रियोंसे नहीं दिखता हैं । अनुमान प्रमाणका भी विषय नहीं हैं, क्योंकि उसका साधक कोई लिंग दृष्टिगोचर नहीं होता है, जिससे कि उसकी सिद्धि की जा सके । कर्मके समान अन्य पदार्थके नहीं पाये जानेसे वह उपमान प्रमाणसे भी सिद्ध नहीं होता हैं । कमके विना नहीं होनेवाले पदार्थकी अप्राप्ति से यह अर्थापत्ति प्रमाणका भी विषय नहीं है। हमारे आगममें कर्म नामक पदार्थका वर्णन नहीं है अतः आगमसे भी उसकी सिद्धि नहीं है। परिशेष में अभाव प्रमाणसे उसका अभाव ही सिद्ध होता है 1५२।' उनका कहना है कि जैन लोग कर्मको अचेतन मानते हैं और इसीलिए उसकी जीवमें सुख-दुःखादि कार्य करनेकी शक्ति नहीं हैं। उनका कहना है कि मैने किसी भी कार्य में प्रवर्तमान कोई भी अचेतन पदार्थ कहीं पर भी नहीं देखा है इसलिए कर्म नामका कोई पदार्थ नहीं हैं ।।५३।। आचार्य उनका उत्तर देते हुए कहते है-कि महामोहरूप पिशाचके वश में हुए लोगोंकी यह उपर्युक्त वाणी योग्य नहीं है, क्योंकि हमारे पास कर्मकी सिद्धि में अबाध्यमान अनुमान प्रमाण है ।।५४।। यथा-सर्वप्राणिसमूहके द्वारा अनुभवमें आनेवाले ये राग, द्वेष, मद, मत्सर, शोक, क्रोध,लोभ, भय, काम और मोह आदि विकार भाव कर्मके विना कैसे हो सकते है? अतः इन विकाररूप कार्योंसे उनके कारणरूप कर्मका अनुमान होता हैं ।।५५॥ यदि आप कहें कि ये रागादि भाव नियमसे जीव-जनित ही है, कर्म-जनित नहीं, सो ऐसी भी भाषा आपकी निश्चयसे युक्ति-संगत नहीं है, Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० श्रावकाचार-संग्रह मित्ये जीवे सर्वदा विद्यमाने कादाचित्का हेतुना केन सन्ति । निर्मुक्तानां जायमाना निषे, ते शक्यन्ते केन मुक्तिश्च तेभ्यः ।। ५७ तुल्यप्रतापोधमसाहसाना केचिल्लभन्ते निजकार्यसिद्धिम् । परे न तामत्र निगद्यतां मे कर्माणि हित्वा यदि कोऽपि हेतुः ।। ५८ विचित्रदेहाकृतिवर्णगन्धप्रभावजातिप्रभवस्वभावाः । केन क्रियन्ते भुवनेऽङ्गिवर्गाश्चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्राः ।। ५९ विवद्धर्थ मासान्नव गर्भमध्ये बहुप्रकारैः कलिलादिभावः ।। उद्वयं निष्कासयते सवित्र्याः को गर्मतः कर्म विहाय पूर्वम् ।। ६. विलोकमानाः स्वयमेव शक्ति विकारहेतुं विषमयाजाताम् । अचेतनं कर्म करोति कार्य कथं वदन्तीति कथं विदग्धाः ।। ६१ नानाप्रकारा मुवि वृक्षजातीविध्य पत्राणि पुरातनानि । अचेतन: कि न करोति कालः प्रत्यग्रपुष्पप्रसवादिरम्याः ॥ ६२ यैनि:शेषं चेतनामुक्तमुक्तं कार्याकारि ध्वस्तकार्यावबोधः । धर्माधर्माकाशकालावि सर्वं द्रव्यं तेषां निष्फलत्वं प्रयाति ॥ ६३ क्योंकि रागादि भावोंको जीव-जनित मानने पर उनका जीवके साथ नित्य सम्बन्ध प्राप्त होता है, फिर उनका प्रतिषेध कैसे किया जा सकेगा? भावार्थ-यदि रागादि भावोंको आत्माका स्वभाव माना जाय, तो स्वभावका अभाव कभी होता नहीं, अतः मुक्त जीवों के भी उनका सद्भाव मानना पडेगा। किन्तु मुक्त जीवोंके रागादिका अभाव सभी मानते हैं । अतएव उन्हें जीवका स्वभाव नहीं माना जा सकता ।।५६।। जीवके सर्वदा नित्य विद्यमान रहने पर रागादि भावोंका कदाचित् होना किस कारणसे संभव हैं । मुक्त जीवोंके उनकी उत्पत्ति होने का निषेध कैसे किया जा सकता हैं? और उनसे मुक्ति अर्थात् छुटकारा भी कैसे हो सकता हैं । ५७ । समान प्रतापी, समान उद्यमी और समान साहसी पुरुषोंमेंसे कितने ही पुरुष तो अपने अभीष्ट कार्यकी सिद्धिको प्राप्त करते है और कितने ही पुरुष सफलताको नहीं पाते हैं। इनकी सफलता और विफलतामें यदि कर्मको छोड कर कोई अन्य हेतु हैं, तो मुझे बतलाओ? भावार्थ-समान पुरुषार्थ करने वालोंमेंसे कूछको सफलता मिलने और कुछको सफलता नहीं मिलने में कर्मके सिवाय और कोई अन्य कारण नहीं है ॥५८॥ संसारमें नाना प्रकारके विचित्र देहोंके आकार, वर्ण, गन्ध, प्रभाव, जाति और कलादिमें उत्पन्न होनेवाले भिन्न-भिन्न स्वभावके धारक प्राणियोंको पुरातन कर्मके सिवाय और कौन बनाता हैं? ॥५९॥ माताके गर्भ के मध्य में बहुत प्रकारके रस, रुधिर आदि भावोंके द्वारा नौ मास तक बढाकार पूर्व कर्मके सिवाय गर्भसे बाहिर कौन निकालता है ।।६०। यदि कहा जाय कि कर्म तो अचेतन है, वे शरीरोंके नाना प्रकारके कार्य कैसे कर सकते है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते है-विष और मदिराके पीनेसे उत्पन्न हुई विकार हेतुक शक्तिको स्वयमेय ही देखनेवाले चतुर पुरुष यह कैसे कहते हैं कि अचेतन कर्म कैसे कार्य करता है ।।६१।। और भी देखो-भतल पर अपने पुराने पत्रोंको छोडकर और नवीन उत्पन्न हुए अंकुर, पुष्प और फलादिसे रमणीय नाना प्रकारकी वक्ष जातियोंको क्या अचेतन काल नहीं करता है । भावार्थ-जैसे अचेतन काल वृक्षोंके पुराने पत्रोंको झडाकर नवीन पत्रादिको उत्पन्न करने में निमित्त है, उसी प्रकारसे अचेतन कर्म भी जीवोंके नाना प्रकारके शरीरादिके निर्माण में हेतु हैं ।।६२।। कार्य-कारण सम्बन्धी ज्ञानसे Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३३१ जीवरमतः सह कर्म मूतं सम्बध्यते नेति वचो न वाच्यम् । अनादिभूतं हि जिनेन्द्रचन्द्राः कर्माङ्गिसम्बन्धमदाहरन्ति । ६४ इत्यादि मिथ्यात्वमनेकभेदं यथार्थतत्त्वप्रतिपत्तिसूदि । विवर्जनीयं त्रिविधेन सद्भिर्जनं व्रतं रत्नमिवाश्रयद्भिः ।। ६५ एकादशोक्ता विदितार्थतत्त्वरुपासकाचारविविभेदाः । पवित्रमारोढुमनस्यलभ्यं सोपानमार्गा इव सिद्धिसोधम् ।। ६६ दार्शनिकः यो निर्मलां दष्टिमनन्यचित्तः पवित्रवृत्तामिव हारयष्टिम् । गुणावनद्धां हृदये निधत्ते स वर्शनी धन्यतमोऽभ्यधायि ।। ६७ प्रतिक: विभूषणानीव दधाति धीरो व्रतानि यः सर्वसुखाकराणि । आऋष्टमीशानि पवित्रलक्ष्मीं तं वर्णयन्ते वतिनं वरिष्ठाः ॥ ६८ सामायिक: रौद्रार्थमुक्तो भवदुःखमोची, निरस्तनिशेषकषायदोषः । सामायिकं यः कुरुते त्रिकालं सामायिकस्थः कथितः स तथ्यम् ।। ६९ रहित जो पुरुष चेतना-रहित सभी पदार्थोको कार्यकारी नहीं मानते है, उनके मतमें धर्म, अधर्म, आकाश, कालादि सभी द्रव्य निष्फलताको प्राप्त होते है ।।६३।। और यह कहना कि अमूर्त जीवोंके साथ मूर्त कर्म सम्बन्धको प्राप्त नहीं होते है, पो नहीं कहना चाहिए, क्योंकि जिनेन्द्रचन्द्र जीव और कर्मके सम्बन्धको अनादिकालीन कहते हैं और अनादि वस्तु तर्कका विषय नहीं होती है ।। ६४।। इत्यादि अनेक भेदवाले और यथार्थ तत्त्वज्ञानका नाश करनेवाले मिथ्यात्वका रत्न के समान जन व्रतोंका आश्रय करनेवाले सज्जन पुरुषोंको मन वचन कायसे परित्याग करना चाहिए ॥६५॥ ___ अब आचार्य श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करते है-तत्त्वार्थके जानने वाले महापुरुषोंने श्रावकाचार विधिके ग्यारह भेद कहे हैं, जो कि अन्य साधारण जनोंके द्वारा अलभ्य और पवित्र सिद्धिरूपी सौध (महल) पर आरोहण करनेके लिए सोपान मार्गके समान १. गर्शनिक श्रावक जिसका अन्यत्र चित्त नहीं लग रहा हैं, ऐसा जो पुरुष पवित्र और गोल मणियों वाली गुण (सूत्र) से पिरोयी गई हारकी लडीके समान निमल समीचीन दृष्टिको अपने हृदयमें धारण करता हैं, वह दर्शन प्रतिमाधारी उत्तम धन्य पुरुष कहा गया हैं ।।६७॥ २. व्रतिक श्रावक जो धीर पुरुष सर्व प्रकारके सुखोके भण्डार और पवित्र स्वर्ग-मोक्षरूप लक्ष्मीको आकृष्ट करने में समर्थ ऐसे बारह व्रतोंको आभूषणोंके समान धारण करता है, उसे व्रतधारियोंमें श्रेष्ठ पुरुष व्रत प्रतिमाधारी कहते है ॥६८॥ ३. सामायिकी श्रावक जो रुद्र और आर्तध्यानसे रहित हैं, सांसारिक दुःखोंका त्याग करना चाहता है और Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह प्रोषधोपवासी मन्दीकृताक्षार्थसुखाभिलाषः करोति यः पर्वचतुष्टयेऽपि । मदोपवासं परकर्म मुक्त्वा स प्रोषधी शुद्धधियामभीष्टः ।। ७० सचित्तविरतः दयाचित्तो जिनवाक्यवेदी न बल्भते किञ्चन यः सचित्तम् । अनन्यसाधारणधर्मपोषी सचित्तमोची स कषायमोची ।। ७१ दिवाब्रह्मचारी निषेवते यो दिवसेन नारीमुद्दामकन्दर्पमदापहारी। कटाक्षविक्षेपशरैरविद्धो बुदिवाब्रह्मचरः स बुद्धः ।। ७२ ब्रह्मचारी यो मन्यमानो गुणरत्नचोरी विरक्तचित्तस्त्रिविधेन नारीम् । पवित्रचारित्रपदानुसारी स ब्रह्मचारी विषयापहारी॥७३ आरम्भविरतः विलोक्य षड्जीवविघातमुच्चरारम्भमत्यस्यति यो विवेकी। आरम्भमुक्तः स मतो मुनीन्द्ररागिक: संयमवृक्षसेकी ।। ७४ समस्त कषायरूप दोषोंसे मुक्त हैं, ऐसा जो पुरुष त्रिकाल सामायिक करता है, वह यथार्थ सामायिकमें स्थित कहा गया है ।।६९।। ४. प्रोषधोपवासी श्रावक जो पुरुष इन्द्रिय-सुखोंकी अभिलाषाको मन्द करके प्रत्येक मासकी चारों ही पर्वो में अन्य सर्व कार्य छोडकर सदा उपवास करता हैं, वह शुद्ध बुद्धि वालोंका अभीष्ट प्रोषधोपवास प्रतिमाधारी श्रावक हैं ।।७०॥ ५. सचित्तविरत श्रावक जिन वचनोंका वेत्ता जो दयालु चित्त पुरुष किसी भी सचित्त वस्तुको नहीं खाता है, वह अनन्य साधारण धर्मका पोषक एवं कषायोंका विमोचक सचित्तत्याग प्रतिमाधारी है।।७१।। ६. दिवाब्रह्मचारी श्रावक अत्यन्त उग्र कामदेबके मदको दूर करने वाला, स्त्रियोंके कटाक्ष विक्षेपरूप बाणोंसे नहीं वेधा गया जो पुरुष दिनमें स्त्रीका सेवन नहीं करता है, उसे ज्ञानियोंने प्रबद्ध दिवाब्रह्मचारी श्रावक कहा हैं !।७२।। ७. अहर्निश ब्रह्मचारी श्रावक __ जो विषय-सेवनसे विरक्त चित्त पुरुष स्त्रीको गुणरूप रत्नोंकी चुराने वाली मानता हआ मन वचन कायसे उसका सेवन नहीं करता हैं, वह पवित्र चारित्र पदका अनुसरण करने वाला और विषयोंका अपहारक ब्रह्मचारी कहा गया हैं ।।७३।। ८. आरम्भविरत श्रावक जो विवेकी पुरुष आरम्भको षट्कायिक जीवोंका विघातक देखकर कृषि व्यापारादि आरम्भ करनेका त्याग करता हैं, वह विरागी संयमरूप वृक्षका सींचने वाला आरम्भ त्यागी श्रावक मुनिराजोंके द्वारा माना गया है ।।७४।। . Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः परिग्रहत्यागी यो रक्षणोपार्जननश्वरत्वैर्वदाति दुःखानि दुरुत्तराणि । विमुच्यते येन परिग्रहोऽसौ गीतोऽपसगैरपरिग्रहोऽसौ ।। ७५ अनुमतित्यागी आरम्भसन्दर्मविहीनचेताः कायेषु मारीमिव हिस्ररूपाम् । यो धर्मसक्तोऽनुमति न धत्ते निगद्यते सोऽननुमन्तृमुख्यः ॥७६ उद्दिष्टत्यागी यो बन्धुराबन्धुरतुल्यचितो गृहाति भोज्यं नवकोटिशद्धम् । उद्दिष्टवर्जी गणिभिःस गीतो विमीलुकः संसृतियातुधान्याः ॥ ७७ क्रमेणामंश्चित्ते निवर्धात मुदैकादशगुणानलं निन्दागर्हानिहितमनसो येऽस्ततमसः । भवान् द्विवान भ्रान्त्वाऽमरमनुजयो रिमहसो विधूतनोबन्धाः परमपद' मायान्ति सुखवम् ॥ ७८ इदं धत्ते भक्त्या गृहिजनहितं योऽत्र चरितं मवक्रोधायासप्रमहमदनारम्भमकरम् । भवाम्भोधि तीवा जननमरणावर्तनिचितं, वजत्येषोऽध्यात्मामितगतिमतं निर्वृतिपदम् ।। ७९ इत्यमितगत्याचार्यकृतश्रावकाचारे सप्तमः परिच्छेदः समाप्तः ९. परिग्रहत्यागी श्रावक जो परिग्रह रक्षण, उपार्जन, विनाश आदिके द्वारा जीवोंको अति भयंकर दुःखोंको देता हैं, ऐसा समझकर जो सत्पुरुष परिग्रहको छोडता हैं, यह निर्ग्रन्थ पुरुषोंके द्वारा अपरिग्रही श्रावक कहा गया है ।।७५।। १०. अनुमतित्यागी श्रावक __ जो सर्व आरम्भ-परिग्रहसे रहित और धर्ममें आसक्त चित्त पुरुष पापकार्यों में हिंसक मारीके समान प्रवीण अनुमतिको नहीं देता है, वह अनुमति त्यागियोंमें मुख्य कहा जाता है ।।७६।। ११ उद्दिष्टत्यागी श्रा क ___ जो भले और बुरे आहारमें समान चित्त रखने वाला पुरुष नव कोटीसे विशुद्ध भोजनको ग्रहण करता है. वह संसृतिरूप राक्षसोसे भयभीत उद्दिष्टत्यागी श्रावक गुणिजनोंके द्वारा कहा गया हैं ।।७७।। जिनका अज्ञान अन्धकार दूर हो गया है, अपने पापोंकी निन्दा और गर्हामें जिनका चित्त लग रहा हैं, ऐसी जो पुरुष जो क्रमसे हर्ष पूर्वक इन ग्यारह प्रतिमावाले गुणोंको भली भांतिसे चित्तमें धारण करते हैं, वे देव और मनुष्य के दो तीन तेजस्वी भवोंको धारण कर अन्तमें कर्म-बन्धनको दूर करते हुए सुखदायी परम पदको प्राप्त होते हैं ।।७८।। इस प्रकार जो पुरुष इस लोकमें गहस्थजनोंका हितकारी चारित्र भक्तिसे धारण करता हैं, वह मद क्रोध-आयास प्रमोद, कामविकार, और आरम्भ रूप मगर-मच्छोंवाले, जन्म-मरणरूप भ्रमरोंसे व्याप्त इस संसारसमुद्रको तिर करके अतीन्द्रिय अमित ज्ञान-सुखवाले मोक्ष-पदको शीघ्र प्राप्त होता हैं ॥७९॥ इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचारमें सप्तम परिच्छेद समाप्त हुआ। १. मु. पदवी। २. म. सुखदाम् । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह अष्टमः परिच्छेदः जिनं प्रणम्य सार्वीयं सर्वज्ञं सर्वतोमुखम् । आवश्यकं मया षोडा संक्षेपेण निगद्यते ।। १ आगमोऽनन्तपर्यायो मतो जैनो व्यवस्थितः । अभिधातुं ततः केन विस्तरेण स शक्यते । २ मत्तोऽपि सन्ति ये बालाश्चित्राकारेषु जन्तुषु । अस्यावबोधतस्तेषामुपकारो भविष्यति ॥ ३ आवश्यकं न कर्त्तव्यं नैष्कल्यादित्यसाम्प्रतम् । प्रशास्ताध्यवसायस्य फलस्यात्रोपलब्धितः ॥ ४ प्रशस्ताध्यवसायेन संचित कर्म नाश्यते । काष्ठं काष्ठान्त केनेव दीप्यमानेन निश्चितम् ।। ५ जायते न स सर्वत्र न वाच्यमिति कोविदः । स्फुटं सम्यक्कृते तत्र तस्य सर्वत्र सम्भवात् ।। ६ न सम्यक्करणं तस्य जायते ज्ञानतो विना । शास्त्रतो न विना ज्ञानं शास्त्रं तेनाभिधीयते ॥ ७ लाभ पूजायशोऽथित्वैस्तस्य सम्यक्कृतावपि । प्रशस्ताध्यवसायस्य सम्भवो नोपलभ्यते ।। ८ तदयुक्तं यतो नेर्द सम्यक्करणमुच्यते । अत एवात्र मृग्यन्ते सम्यक्कृत्यधिकारिणः ।। ९ संसारदेहभोगानां योऽसारत्वमवेक्षते । कषायेन्द्रिययोगानां जयनिग्रहरोधकृत् ॥ १० अनेकयोनिपाताले विचित्रगतिपत्तने । जन्ममृत्युजरावर्ते मूरिकल्मषपाथसि ।। ११ संसारसागरे भीमे दुःखकल्लोलसङ्कुले । रागद्वेषमहान रौद्रव्याधिझषाकुले ॥ १२ ३३४ सर्व हितकारी सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जिनदेवका नमस्कार करके मैं संक्षेपसे छह आवश्यकोंको कहता हूँ || १|| जिन भाषित आगम यतः अनन्त पर्यायरूप अवस्थित हैं, अतः उसे विस्तार से कहने के लिए कौन समर्थ हो सकता हैं || २ || नाना प्रकारके प्राणियों में जो मेरेसे भी अल्पबुद्धिवाले मनुष्य हैं उनका उपकार मेरे द्वारा किये जानेवाले वर्णनसे होगा, यह समझकर में उनका वर्णन करता हूँ ||३|| कितने ही लोग कहते है कि आवश्यकों का पालन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका कोई फल नहीं है। आचार्य उत्तर देते हैं कि यह कथन अयुक्त है, क्योंकि आवश्यक करनेमें प्रशस्त अध्यवसाय परिणाम-रूप फलकी प्राप्ति पायी जाती हैं। इस प्रशस्त अध्यवसायके द्वारा संचित कर्म विनाशको प्राप्त होता हैं जैसे कि प्रदीप्त अग्निके द्वारा काष्ठ निश्चित रूपसे भस्म हो जाता है ।।४-५ ।। यदि कहा जाय कि यह कर्म विनाशरूप फल सब लोगोंके नहीं देखा जाता हैं । विज्ञजनोंको ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि आवश्यकों के सम्यक् प्रकारसे करने पर उनका फल निश्चितरूपसे सर्वत्र संभव है || ६ || आवश्यकोंका सम्यक् प्रकारसे करना ज्ञानके बिना नहीं होता है और ज्ञानकी प्राप्ति शास्त्र के बिना नहीं होती हैं, इस कारण शास्त्र-स्वाध्याय करना आवश्यक कहा गया है ।।७।। यदि कहा जाय कि लाभ पूजा और यशकी इच्छासे सम्यक् प्रकार आवश्यकोंके करने पर भी प्रशस्त अध्यवसायका होना संभव नहीं पाया जाता है, तो यह कथन अयुक्त हैं, क्योंकि लाभ पूजा आदिकी इच्छासे आवश्यकोंके करनेको सम्यक् प्रकारसे करना नहीं कहा जाता है । इसीलिए ही सम्यक् प्रकारसे आवश्यक करनेके अधिकारी पुरुष यहाँपर अन्वेषण किये जाते है ।।८ - ९ || अब आचार्य आवश्यक करनेके योग्य पुरुषका स्वरूप कहते हैं- जो निरन्तर संसार देह और इन्द्रिय-भोगोंकी असारता को देखता हो, कषाय-जयी हो, इन्द्रिय-निग्रही हो और मन वचन कायरूप योगोंका निरोध करनेवाला हो ||१०|| तथा अनेक योनिरूप पातालवाले, विचित्र गतिरूप नगरवाले, जन्म-जरा-मरणरूप भँवर वाले, अत्यन्त मलिन जलसे भरे हुए, दुःखरूप कल्लोलोंसे व्याप्त, राग-द्वेषरूप महान् मगरोंसे और रौद्र व्याधिरूप मीनोंसे आकुलित ऐसे महा भयंकर संसार सागर में चिरकालसे परिभ्रमण करने वाले जीवोंके जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी वन्दनाका प्राप्त करना अत्यन्त कठिन हैं, ऐसा अपने हृदय में : Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३३५ चिरं बम्भ्रम्यमाणानां जिनेन्द्रपक्वन्दना । दुरापा जायतेऽत्यन्तमिति यो हृदि मन्यते ॥ १३ अनर्थकारिणः कान्ताजननीजनकादयः । स्वस्योपकारिणो येन बुध्यन्ते परमेष्ठिनः ।। १४ सर्वाणि गृहकार्याणि परकार्याणि पश्यति । शुद्धधीधर्मकार्याणि निजकार्याणि यः सदा ॥ १५ यौवनं जीवितं धिष्ण्यमैश्वर्य जनपूजितम् । नश्वरं वीक्षते सर्व शरदभ्रमिवानिशम् ॥ १६ दर्शनज्ञानचारित्रत्रितयं भवकानने । नानीते दुर्लभं भूयो भ्रष्टं रत्नमिवाम्बधौ । १७ । मयूरस्येव मेघौघे वियुक्तस्येव बान्धवे । तृष्णार्तस्येव पानीय विवद्धस्येव मोक्षणे ॥ १८ सव्याधेरिव कल्पत्वे विदृष्टेरिव लोचने । जायते यस्य सन्तोषो जिनवक्त्रविलोकन ।' १९ परीषहसहः शान्तो जिनसूत्रविशारदः । सम्यग्दृष्टिरनाविष्टों गरुभक्तः प्रियंवदः ।। २० आवश्यकमिदं धीरः सर्वकर्मविषदनम । सम्यक्र्तमसो योग्यो नापरस्यास्ति योग्यता ॥२॥ औचित्यवेदक: श्राद्धो विधानकरणोद्यतः । कर्मनिर्जरणाकांक्षी स्ववशीकृतमानसः ।। २२ भाक्तिको बुद्धिमानर्थी बहुमानपरायणः । पठने श्रवणे योग्यो विनयोद्यमभूषितः ।। २३ गुणाय जायते शान्ते जिनेन्द्रवचनामृतम् । उपशान्तज्वरे पूतं भैषज्यमिव योजितम् ।। २४ अयोग्य य वचो जन जायतेऽनर्थहेतवे । यतस्तत: प्रयत्नेन मग्यो योग्यो मनीषिभिः ॥ २५ कषायाकूलिते व्यथं जायते जिनशासनम् । सन्निपातज्वरालोढे दत्तं पथ्यमिवौषधम् ।। २६ मानता हो, स्त्री माता पितादि कुटुम्बी जन मेरे अनर्थकारी है, पंच परमेष्ठी ही मेरे उपकारी है, ऐसा जो जानता हो, जो घरके सभी कार्योंको पर-कायं देखता हो, धर्मके कर्मोको जो सदा निज कार्य मानता हो, शुद्ध बुद्धि हो, जो यौवन, जीवन, गृह और लोक-मान्य ऐश्वर्यको निरन्तर शरद् ऋतुके बादलके समान विनश्वर देखता हो, जो भववन में सम्यग्दर्शन ज्ञान चा रत्ररूप रत्नत्रयका पाना समुद्र में गिरे हुए रत्नके समान अति दुर्लभ जानता हो, जिसे जिनेन्द्रदेवके मुख-कमलके अवलोकन करनेपर ऐसा परम सन्तोष प्राप्त होता हो, जैसा कि मयरको मेघ-समहके देखने पर, वियोगी पुरुषको बान्धवके देखनेपर, प्याससे पीडितको जलके देखनेपर,बन्धन-बद्ध पुरुषको बन्धनसे छूटनेपर, व्याधि-युक्त पुरुषको नीरोग होनेपर और अन्धे पुरुषको नेत्र मिलनेपर परम हर्ष होता है। जो हरीषको सहन करनेवाल हो, शान्तस्वभावी हो, जिन आगमम विशारद हो, सम्यग्दष्टि हो, अहकार-रहित हो, गुरुभक्त और प्रिय वक्ता हो, ऐसा धीर वीर पुरुष सव कर्मोके विनाश करनेवाले आवश्यकोंके करने के लिए योग्य हैं। जिसके उपर्युक्त गुण नहीं है. उसके आवश्यकोंके करने की योग्यता नहीं है, ऐसा जानना चाहिए ॥१०-२१॥ आवश्यकोंके करने में उद्यत पुरुष क्षेत्र कालादिका वेत्ता हो, श्रद्धा-युदत हो, कर्मोको निर्जरा करनेका इच्छुक हो, अपने मनको अपने वशम करनेवाला हो, भक्ति-युक्त हो, बुद्धिमान् हो, धर्मार्थी हो, महान् विनय में परायण हो, शास्त्रोंके पठन-श्रवणमें योग्य हो और विनयके साथ आवश्यक करने में उद्यम-संयुक्त हो, वह पुरुष आवश्यकोंके करनेके योग्य हैं । २२-२३।। जिसके कषाय शान्त है, ऐसे पुरुष में जिनेन्द्र के वचनरुप अमृत गुणके लिए होता हैं, जैसे कि जिसका ज्वर उपशान्त हो गया हैं, ऐसे पुरुषको दिया गया शुद्ध औषघि आरोग्य वृद्धि के लिए होता हैं। किन्तु अयोग्य पुरुषके जैन वचन अनर्थ के लिए होते है। इसलिए मनीषी पुरुषोंको प्रयत्नके साथ आवश्यक करने का अधिकारी योग्य व्यक्ति ढूंढना चाहिए क्योंकि कषायसे आकुलित पुरुष में जिनदेवका उपदेशरूप शासन व्यर्थ जाता हैं, जैसे कि सन्निपात ज्वरसे व्याप्त पुरुषको दी गई पथ्य औषधि भी व्यर्थ जाती है ।।२४-२६।। अब आचार्य आवश्यक करनेवाले पुरुषके चिन्ह कहते हैं-जिसे उत्तम धर्म कथा सुनने में आनन्द आता हो, जो Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह तत्कथाश्रवणानन्दो निन्दाश्रवणवर्जनम् । अलुब्धत्वमनालस्यं निन्द्यकर्मव्यपोहनम् ।। २७ कालक्रमाव्युदासित्वमुपशान्तत्वमार्जवम् । विज्ञेयानीति चिन्हानि षडावश्यककारिणः॥ २८ सामायिकं स्तवः प्राजर्वन्दना सप्रतिक्रिया। प्रत्याख्यानं तनसर्गः षोढाऽऽवश्यकमीरितम् ।। २९ द्रव्यतः क्षेत्रतः सम्यक्कालतो भावतो बुधैः । नामतो न्यासतो ज्ञात्वा प्रत्येकं तन्नियुज्यते ॥ ३० जीविते मरणे योगे वियोगे विप्रिये प्रिये । शत्रौ मित्रे सुखे दुःखे साम्यं सामायिक विदुः ॥३१ जिनानां जितजेयानामनन्तगुणमागिनाम् । स्तवेऽस्तावि गुणस्तोत्रं नामनिर्वचनं तथा ॥ ३२ कर्मारण्यहताशानां पञ्चानां परमेष्ठिनाम् । प्रणतिर्वन्दनाऽवादि त्रिशुद्धया त्रिविधा बुधः ॥ ३३ द्रव्यक्षेत्रादिसम्पन्नदोषजालविशोधनम् । निन्दागर्हाक्रियालीढं प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ३४ नामावीनामयोग्यानां षण्णां त्रेधा विवर्जनम् । प्रत्याख्यानं समाख्यातमागाम्यागोनिषिद्धये ।। ३५ आवश्यकेषु सर्वेषु यथाकालमनाकुलः । कायोत्सर्गस्तनूत्सर्गः प्रशस्तध्यानवर्द्धकः । ३६ ज्ञेयास्तत्रासनं स्थानं कालो मुद्रा तनूत्सतिः । नामावर्तप्रमा दोषाः षडावश्यककारिभिः ॥ ३७ अस्यते स्थीयते यत्र येन वा वन्दनोद्यतैः । तदासनं विबोद्धव्यं देशपद्मासनादिकम् ।। ३८ संसक्तः प्रचुरच्छिद्रस्त्रणपश्विादिदूषितः । विक्षोभको हृषीकाणां रूपगन्धरसादिभिः ।। ३९ दूसरोंकी निन्दाके सुननेका त्यागी हो, लोभ-रहित हो, आलस्य-रहित हो, निन्दा कर्म न करता हो, काल-क्रमका उल्लंघन करनेवाला न हो, उपशान्त चित्त हो और मार्दवगुणका धारक हो ये षट् आवश्यक करनेवालेके चिन्ह जानना चाहिए ॥२७-२८ ज्ञानी पुरुषोंने आवश्यक छह प्रकारके कहे हैं-सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ।।२।। ये छहों ही प्रकारके आवश्यक नाम, स्थापना,द्रव्य,क्षेत्र, काल, और भाव की अपेक्षा छह-छह प्रकारके जानकर ज्ञानियोंको करना चाहिए।।२९-३०।। १ सामायिक का स्वरूप-जीवनमें, मरणमें, संयोगमें, वियोगमें, प्रियमें, अप्रियमें, शत्रुमें, मित्रमें, सुख में, और दुःख में समता रखनेको सामायिक कहते हैं ।।३।। २ स्तवनका स्वरूप-जिन्होंने जीतने योग्य कर्मोंको जीत लिया हैं ऐसे अनन्त गुणशाली जिनेन्द्रदेवोंके गुणोंकी स्तुति करना. तथा उनके नामोंकी निरुक्ति करना स्तवन कहलाता हैं ।।३२॥ ३ वंदनाका स्वरूप-कर्म रूपवनको जलाने के लिये अग्नि समान पांचों परमेष्ठियोंको मन वचन कायकी शुद्धिसे नमस्कार करनेको ज्ञानियोंने तीन प्रकारकी वन्दना कहा है ।।३३।। ४ प्रतिक्रमणका स्वरूप-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिके निमित्तसे उत्पन्न हुए दोषोंके पुंजकी शुद्धि करना, निन्दा और गर्दारूप क्रियाके साथ अपनी आलोचना करना सो प्रतिक्रमण कहा गया है ॥३४॥ ५ प्रत्याख्यानका स्वरूप-धर्म साधन के अयोग्य नामादिक अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छहोंका वचन कायसे त्याग करना प्रत्याख्यान कहा गया है । यह प्रत्याख्यान आगामी काल में पापोंके निषेधके लिए करना आवश्यक हैं ॥३५॥ ६ कायोत्सर्गका स्वरूप-सभी आवश्यक कर्मोंमें यथा समय आकुलता-रहित होकर शरीरसे ममत्वका त्याग करना कायोत्सर्ग कहलाता हैं। यह आवश्यक प्रशस्तध्यानका बढाने वाला है ॥३६।। उपर्युक्त छह आवश्यक करनेवालोंको उनके योग्य आसन, स्थान, काल, मुद्रा, कायोत्सर्ग, प्रणाम, आवर्त और प्रमाण दोष जानना चाहिए ।।३७।।। इनमेंसे सबसे पहले आसनका वर्णन करते है-वन्दना करनेके लिए उद्यत पुरुष जिस स्थानपर या जिसके द्वारा 'आस्यते' अर्थात् स्थिर होते हैं, वह देश (क्षेत्र) और पद्मासनादिक आसन जानना चाहिए ॥३८।। अब आवश्यक करनेके अयोग्य क्षेत्रको कहते है-जो स्थान स्त्री Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः परोषहकरो दंशशीतवातातपादिभिः । असम्बद्धजनालाप: सावद्यारम्भ गर्हितः । ४० आर्द्राभूतो मनोऽनिष्ट: समाधाननिषूदकः । योऽशिष्टजनसञ्चारः प्रदेशं तं विवर्जयेत् ॥। ४१ विविक्तः प्रासुकः सेव्यः समाधानविवर्धकः । देवर्जुदृष्टिसम्पातवजितो देवदक्षिणः ॥ ४२ जनसञ्चार निर्मुक्तो ग्राह्यो देशो निराकुलः । नासन्नो नानिदूरस्थः सर्वोपद्रववर्जितः ॥ ४३ स्थेयोऽच्छिद्रं सुखस्पर्श विशब्दकमजन्तुकम् । तृणकाष्ठादिकं ग्राह्यं विनयस्योपबृंहकम् ।। ४४ जङ्घाया जङ्घाऽऽश्लेषे मध्यभागे प्रकीर्तितम् । पद्मासनं सुखाधायि सुसाध्यं सकलैर्जनैः ॥ ४५ बुधैरुपधोभाग जंघयोरुभयोरपि । समस्तयोः कृते ज्ञेयं पर्यङ्कासनमासनम् ॥ ४६ ऊर्वोरुपरि निक्षेपे पादयोविहिते सति । वीरासनं चिरं कर्तुं शक्यं धीरैर्न कातरैः ॥ ४७ तपाणिमये योगे स्मृतमृत्कुटुकासनम् । गवासनं जिनैरुक्तमार्याणां यतिवन्दने ॥ ४८ विनयासक्तचित्तानां कृतिकर्मविधायिनाम् । न कार्यव्यतिरेकेण परमासनमिष्यते ॥ ४९ पुरुष - नपुंसकादिसे संसक्त हो, जिस भूमि पर छेद या बिल अधिक हो, जो तृण धूलि आदिसे दूषित हो, रूप रस गन्ध आदिके द्वारा जो इन्द्रियोंके विक्षोभको करे, डांस, मच्छर, शीत, उष्णता और पवनादिके द्वारा परीषह उत्पन्न करे, अज्ञानी जनोंके असंबद्ध वचनालाप से युक्त हो, सावद्य और आरम्भसे निन्दा - योग्य हो, पानीसे या सीलनसे गीला हो, मनको अप्रिय या अनिष्टकारी हो, चित्तके समाधानका विनाशक हो और जहाँ पर अशिष्ट जनोंका संसार हो, ऐसे आवश्यकोंके अयोग्य प्रदेशको छोड देना चाहिए ।।३९-४१ ।। अब आवश्यक करनेके योग्य क्षेत्रको कहते हैं- जहाँ पर सर्वथा एकान्त हो, प्रासुक भूमि हो, साधर्मी व्रतीजनोंके सेवन योग्य हो, चित्तमें समाधान बढाने वाला हो, देवकी सीधी दृष्टि के संपात रहित हो, देवके दक्षिण भाग में हो जन-संचारसे निर्मुक्त हो, आकुलता रहित हो, न अधिक समीप हो और न अधिक दूर हो और सर्व प्रकार के उपद्रवसे रहित हो । ऐसा स्थान आवश्यक करनेके लिए ग्रहण करनेके योग्य हैं ।१४२-४३।। आवश्यक करनेवाला जिस भूमि, काष्ठपट्ट या चटाई आदि पर बैठे वह स्थिर हो, छिद्र - रहित हो, सुख स्पर्शरूप हो, शब्द-रहित हो, जीव-रहित हो, विनयका बढ़ाने वाला हो, ऐसे तृण, काठ, चटाई आदिको आवश्यक करने के लिए ग्रहण योग्य कहा गया है || ४८|| अब सामायिक आदि आवश्यक करने के योग्य आसनका निरूपण करते है- जंबाका जंघा के साथ समभाग में आश्लेपपूर्वक बैठनेको पद्मासन कहा गया है । यह सर्व जनोंके द्वारा सुसाध्य है और सुखदायक है, अतः इसे सुखासन भी कहते है ।। ४५ ।। भावार्थ- दायिनी जाँघके नीचे बायें पैरका, तथा बायीं जाँघ के नीचे दाहिने पैरको रखकर बैठना पद्मासन या सुखासन हैं। दोनों ही जंघाओंमेंसे एक जाँघके आधे भाग में और दूसरी जाँघके ऊर्ध्व भाग में करने पर बुधजनोंको पर्यकासन नामका आसन जानना चाहिए । अर्थात् बायीं जाँघके ऊपर दायें पैरको, अथवा दाहिनी जाँघके ऊपर बायें पैरको रखकर बैठना पर्यकासन हैं ॥ ४६ ॥ ३३७ दोनों जाँघों के ऊपर दोनों पैरोंको रखकर बैठनेको वीरासन कहते हैं । यह वीरासन चिर काल तक वीर पुरुष ही मांड सकते हैं, कायर पुरुष नहीं मांड सकते है ||४७|| दोनों एडियों को मिलाकर उकडूं बैठनेको उत्कुटुकासन कहते है । गायके समान बैठनेको गवासन कहते है । साधुओंकी वन्दना के समय आर्यिकाओं को गवासनसे वन्दना करनेका विधान जिनेन्द्रदेव ने किया हैं ||४८ || विनय में जिनका चित्त आसक्त हैं, ऐसे कृतिकर्म करने वाले पुरुषोंको आवश्यक कार्यों के बिना अन्य आसन करना नहीं कहा गया हैं । अर्थात् सामायिक आदिके समय पद्मासन आदिका Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ श्रावकाचार-संग्रह स्थीयते येन तत्स्थानं द्विप्रकारमुदाहृतम् । वन्दना क्रियते यस्मादृथ्वभूयोपविश्य वा ॥ ५० घटिकानां मतं षट्कं सन्ध्यानां त्रितयं जिनैः । कार्यस्यापेक्षया कालः पुनरन्यो निगद्यते ॥ ५१ जिनेन्द्र बन्दनायोगमुक्ताशुक्तिविभेदतः । चतुविधोदिता मुद्रा मुद्रामार्गविशारदः । ५२ जिनमुद्राऽन्तरं कृत्वा पादयोश्चतुरंगुलम् । ऊर्ध्वं जान्वोरधः स्थानं प्रलम्बित भुजद्वयम् ।। ५३ मुकुली भूतमाधाय जठरोपरिकूर्परम् । स्थितस्य वन्दनामुद्रा करद्वन्द्वं निवेदिता ।। ५४ जिना: पद्मासनादीनामङ्कमध्ये निवेशनम् । उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे ।। ५५ मुक्ताशुक्तिमता मुद्रा जठरोपरिकूर्परम् । ऊर्ध्वजानो: करद्वन्द्वं संलग्नाङ्गुलि सूरिभिः ।। ५६ त्यागो देहममत्वस्य तनूत्सूतिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादिविभेदेन चतुबिधा ॥ ५७ आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपविष्टोपविष्टाख्या कथ्यते सा तनूत्सृतिः ।। ५८ धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपविष्टोत्थितां सन्तस्तां वदन्नि तनूत्सूतिम् ॥ ५९ आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । उत्थितोपविशत्सञ्ज्ञां तां भाषन्ते विपश्चितः ।। ६० धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विचिन्त्यते । उत्थितोत्थितनामानं तां वदन्ति मनीषिणः ॥ ६१ उपयोग करे और आवश्यकता होने पर अन्यका भी उपयोग करे ||४९ || अब आचार्य स्थानका वर्णन करते हैं - सामायिकादि आवश्यक करते समय जिस प्रकारसे अवस्थित रहे, उसे स्थान कहते हैं । वह दो प्रकारका कहा गया है, क्योंकि वन्दना या तो खड़े हो करके की जाती है, अथवा बैठकर की जाती है ||५० || अब सामायिकादिके कालको कहते है - जिनेन्द्रदेवने तीनों ही सन्ध्याओंमें आवश्यक करनेका काल छह घडी कहा हैं किन्तु कार्यकी अपेक्षा अन्य काल भो कहा है। भावार्थ - सामायिकादि आवश्यक तीनों सन्ध्याओं में किये जाते है और उनका उत्कृष्ट काल छह वडी हैं । शक्तिके अभाव में, अथवा अन्य आवश्यक कार्यके आ जानें परचार घडीका मध्यमकाल और दो घडीका जघन्यकाल भी कहा गया हैं ।। ५१ ।। अब आचार्य मुद्राके भेद कहते है - जिनेन्द्र मुद्रा, वन्दनामुद्रा, योगमुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्राके भेदसे मुद्रा मार्गके विशारदोंने चार प्रकारकी मुद्रा कही हैं ॥५२॥ | अब आगे मुद्राओंका स्वरूप कहते हैं- दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर और दोनों भुजाओंको नीचे लटका कर सीधी जंघाएँ रखते हुए कायोत्सर्ग रूपसे खडे होने को जिनमुद्रा कहते है ॥५३॥ दोनों हाथोंको मुकुलित कर और उनकी कोहिनियोंको पेटके ऊपर रख कर खडे हुए पुरुष वन्दना मुद्रा कही गई हैं || ५४ ॥ पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासनसे बैठने के समय आसनोंकी गोद में नाभिके समीप दोनों हाथों की हथेलियोंको चित्त रखनेको जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते है ॥५५ ॥ दोनों हाथोंकी अँगुलियोंको मिला कर दोनों कुहनियोंको पेट पर रखकर खडे हुए पुरुष के आचार्योंने मुक्ताशुक्तिमुद्रा कही है ॥५६ || अब कायोत्सर्गका वर्णन करते है - शरीरसे ममत्व भावके त्यागको कायोत्सर्ग कहा गया हैं । वह उपविष्टोपविष्ट आदिके भेदसे चार प्रकार का है ॥५७॥ | जिस कायोत्सर्ग में आर्त और रौद्र ये दोनों अप्रशस्त ध्यान बैठ करके चिन्तवन किये जाते हैं, वह उपविष्टोपविष्ट नामका कायोत्सर्ग कहा जाता हैं ||५८ || जिस कायोत्सर्ग में बैठकर धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्त ध्यान चिन्तवन किये जाते हैं, उसे सन्न पुरुष उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग कहते है॥५९ ।। जिस कायोत्सर्ग में आर्त्त और रौद्र ये दो अप्रशस्न ध्यान खडे होकर चिन्तवन किये जाते है, उसे महाबुद्धिशाली पुरुष उत्थितोपविष्टनामका कायोत्सर्ग कहते है ॥ ६० ॥ जिस कायोत्सर्ग में धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्त ध्यान खड़े हो करके चिन्तवन किये जाते है, उसे . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः एक द्विचित्रचतुः पञ्चदेहाश प्रणतेर्मतः । प्रणामः पञ्चधा देवैः पादानतनरामरैः ॥ ६२ एकाङ्गः शिरसो नामे स द्वयङ्गः करयोर्द्वयोः । त्रयाणां मूर्द्धहस्तानां स त्र्यङ्गो नमने मतः ॥ ६३ चतुर्णां करजानूनां नमने चातुरंगकः । करमस्तकजानूनां पञ्चाङ्गः पञ्चके नते ॥ ६४ कथिता द्वादशावर्ता पुर्वचनचेतसाम् । स्तवसामायिकाद्यन्तपरावर्तनलक्षणः ॥ ६५ अष्टाविंशति संख्याना: कायोत्सर्गा मता जिनैः । अहोरात्रगताः सर्वे षडावश्यककारिणाम् ।। ६६ स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैर्वन्दनायां षडीरिताः । अष्टौ प्रतिक्रमे योग मक्तौ तो द्वावुदाहृतो ।। ६७ अष्टोत्तरशतोच्छ्वास: कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे । सान्ध्ये प्राभातिके चार्धमन्यस्तत्सप्तविंशतिः ॥ ६८ विद्वज्जन उत्थितोत्थित नामका कायोत्सर्ग कहते हैं ॥ ६१ ॥ अत्र प्रणामका वर्णन करते हैं जिनके चरणों में मनुष्य और देवगण नमस्कार करते है ऐसे जिनेन्द्रदेवोंने एक दो तीन चार और पाँच अंगों के नमनसे प्रणाम पाँच प्रकारका कहा है ।। ६२ ।। एक शिरके नमानेको एकाङ्ग नमस्कार कहते हैं। दोनों हाथों को जोड़कर नमस्कार करनेको द्वयाङ्ग नमस्कार कहते हैं । एक शिर और दोनों हाथों को जोड़कर नमन करनेको याङ्ग नमस्कार माना गया हैं। दोनों हाथों और दोनों जाँघोंको नमा करके नमस्कार करनेपर चतुरङ्ग नमस्कार होता हैं । तथा दोनों हाथ, दोनों जाँघें और मस्तक इन पाँचों अंगोंको नमा करके नमस्कार करनेपर पञ्चाङ्ग नमस्कार कहा गया हैं ।।६३-६४ । अब आवर्त्तका वर्णन करते है - स्तवन और सामायिकके आदिमें और अन्त में काय, वचन और मनरूप तीन योगोंके परिवर्तन स्वरूप बारह आवर्त्त कहे गये है || ६५ ॥ विशेषार्थ - मन वचन कायके परिवर्तन करनेको आवर्त कहते है । तीनों योगों का परिवर्तन चार बार किया जाता है, अतः ( ३x४ = १२) बारह आवर्त हो जाते हैं । जैसे ' णमो अरहंताणं' इत्यादि सामायिक दण्डकके पहले क्रिया विज्ञापनरूप मनोविकल्प होता है, उस मनोविकल्पको छोडकर सामायिक दण्डकके उच्चारणमें मनको लगाना मन परावर्तन है । उसी सामायिक दण्डकके पूर्व भूमि स्पर्श करते हुए नमस्कार किया जाता हैं, उस समय वन्दनामुद्रा की जाती है, उस वन्दनामुद्राको त्यागकर पुनः खड़े होकर मुक्त- शुक्ति मुद्रारूप दोनों हाथोंको करके तीन बार घुमाना सो काय-परावर्तन है । 'चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमि' इत्यादि पाठको छोडकर 'णमो अरिहंताणं' इत्यादि पाठका उच्चारण करना वाक्परावर्तन हैं। इस प्रकार सामायिक दण्डकके आदिमे मन वचन और काय परावर्तनरूप तीन आवर्त होते हैं । इसी प्रकार सामायिक दण्डकके अन्त में भी तीन आवर्त होते है | इस प्रकार सामायिक दण्डकके आदि अन्तके छह आवर्त और स्तव दण्डकके आदि अन्त के छह आवर्त होते हैं। दोनोंके मिलाकर बारह आवर्त हो जाते हैं । ये बारह आवर्त एक कायोत्सर्ग में होते है । कुछ लोग बारह आवर्तीका इस प्रकार कथन करते हैं- सामायिक करनेके पूर्व मन वचन कायकी शुद्धि स्वरूप तीन बार हस्त- सम्पुटको घुमाकर नमस्कार करनेको एक दिशा सम्बन्धी तीन आवर्त कहते हैं । इस प्रकार चारों दिशाओंके बारह आवतं हो जाते हैं । अब कायोत्सर्गकी संख्या और उनके करनेका विचार करते है - छहों आवश्यक करनेवालोंके दिन और रात्रि सम्बन्धी सर्व कायोत्सर्ग जिनदेवोंने अट्ठाईस कहे है ।। ६६ । । यथा - स्वाध्याय करने में बारह, और वन्दनामें छह कायोत्सर्ग ज्ञानियोंने कहे हैं । प्रतिक्रमण करते समय आठ और योगभक्ति करते समय दो कायोत्सर्ग कहे गये हैं || ६७ || अब विभिन्न ससयोमें किये जानेवाले कायोत्सर्गोका कालप्रमाण बतलाते हैं- सन्ध्या अर्थात् सायंकाल-बम्बन्धी प्रतिक्रमण करते समय एकसी आठ श्वासोच्छ्वासवाला कायोत्सर्ग किया जाता है । प्रभानकाल सम्बन्धी प्रतिक्रमण में उससे आधा ३३९ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० श्रावकाचार-संग्रह सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे । सन्ति पञ्चनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति ।। ६९ प्रतिक्रमद्वयं प्राजैः स्वाध्यायानां चतुष्टयम् । वन्दनात्रितयं योगभक्तिद्वितयमिष्यते ।। ७० उत्कृष्टश्रावकेणते विधातव्याः प्रयत्नतः । अन्यरेते यथाशक्ति संसारान्तं यियासुमिः ।। ७१ इच्छाकारं समाचारं संयमासंयमस्थितः । विशुद्धवृत्तिभिः साधं विदधाति प्रियंवदः ।। ७२ वैराग्यस्य परां भूमि संयमस्य निकेतनम् । उत्कृष्ट: कारयत्येष मुण्डनं तुण्डमुण्डयोः ॥ ७३ केवलं वा सवस्त्रं वा कोपीनं स्वीकरोत्ससो। एकस्थानानपानीयो निन्दागहापरायणः ।। ७४ स धर्मलाभशब्देन प्रतिवेश्म सुधोपमाम् । सपात्रो याचते भिक्षां जरामरणसूदनीम् ॥ ७५ समस्तादरनिर्मुक्तो मदाष्टकवशीकृतः । प्रतीक्ष्यपीडनाकारी कूर्चमूर्द्धजकुंचकः ।। ७६ अर्थात् चौपन श्वासोच्छ्वासला कायोत्सर्ग कहा गया हैं । अन्य सर्व कायोत्सर्ग सत्ताईस श्वासोच्छ्वास काल प्रमाण कहे गये है ॥६८॥ संसारके उन्मूलनमें समर्थ पंचनमस्कार मंत्रके नौ वार चिन्तवन करनेपर सत्ताईस श्वासोच्छ्वास माने जाते है ॥६९:। विशेषार्थ-एक बार नमस्कारमंत्र. को तीन श्वासोच्छ्वासोंमें बोलना या मनमें उच्चारण करना चाहिए । बाहरसे भीतरकी ओर वायुके खींचनेको श्वास कहते हैं । भीतरकी ओर से बाहर वायुके निकालनेको उच्छ्वास कहते है। इन दोनोंके समूहको श्वासोच्छ्वास कहते हैं । श्वास लेते समय 'णमो अरहंताण' पद और श्वास छोडते समय ‘णमो सिद्धाणं' पद बोले । पुनः श्वास लेते समय ‘णमो आयरीयाणं' और श्वास छोडते समय 'णमो उवज्झायाणं' पर वोले । पुनः पंचम पदके आधे भागको श्वास लेते समय और शेष आधे भागको श्वास छोडते समय बोले । अर्थात् ‘णमो लोए' श्वास लेते समय और 'सवसाहूण' श्वास छोडते समय बोलना चाहिए । इस प्रकार एक पंचनमस्कार मंत्रका उच्चारण तीन श्वापोच्छ्वासमें करना चाहिए। इस विधिसे नौ बार णमोकारमंत्रके उच्चारणके चिन्तवनमें सत्ताईस श्वासोच्छ्वास प्रमाण कालका एक जघन्य कायोत्सर्ग होता है। मध्यम कायोत्सर्गका काल चौपन श्वासोच्छवास प्रमाण और उत्कृष्ट कायोत्सर्गका काल एक सौ आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण कहा गया है। श्रावकोंको प्रतिदिन दो बार प्रतिक्रमण, चार बार स्वाध्याय, तीन बार वन्दना और दो बार योगभक्ति करना चाहिए, ऐसा ज्ञानियोंने कहा है ॥७०॥ उत्कृष्ट श्रावकको ये सर्व कार्य प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए। और संसारके पार जाने के इच्छुक अन्य पुरुषोंको उन्हें यथा शक्ति करना चाहिए ॥७१॥ संयमासंयम (देश चारित्र) की स्थितिवाले प्रियभाषी श्रावक विशुद्ध वृत्तिवाले श्रावकोंके साथ इच्छाकार समाचारको करते है ।।७२।। ग्यारहवीं प्रतिमाधारक उत्कृष्ट श्रावक वैराग्यकी परम भमिरूप, तथा संयमके गहस्वरूप शिर और दाढीके मंडनको कराता हैं ॥७३॥ वह केवल कोपीन (लंगोटी) अथवा वस्त्र-सहित कौपीनको स्वीकार करता हैं। अर्थात् ऐलक एक कौपीन रखते है और क्षुल्लक कौपीन और एक वस्त्र रखते हैं । ये उत्कृष्ट श्रावक एक स्थान पर ही अन्न-पानको ग्रहण करते हैं और अपनी निन्दा और गह में तत्पर रहते है।।७४।। वे पात्र-(भाजन) सहित श्रावकके प्रति घर जाकर अमृतके समान जरा-मरणका नाश करनेवाली भिक्षाको ‘धर्म लाभ हो', ऐसा कहकर याचना करते हैं ।।७५।। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि ऐलक न तो भोजन-पात्र ही रखते हैं और न घर-घर जाकर भिक्षा-याचना ही करते है। श्लोक-कथित विधि क्षल्लकके लिए हैं । अब वन्दनाके बत्तीस दोषोंका वर्णन करते है-समस्त प्रकारके आदरसे रहित होकर वन्दना करना अनादरदोष है श जातिकुलादि आठ मदोंमेंसे किसी भी मदके वशीभूत : Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचार: ३४१ चलयन्नखिलं काय दोलारूढ इवाभितः । अग्रतः पार्वतः पश्चाद्रिखन् कूर्म इवामितः ॥ ७७ करटीवांकुशारूढः कुर्वन्मूर्द्धनतोन्नतिम् । क्षिप्रं मत्स्य इवोत्पत्य' परेषां निपतन पुरः ।। ७८ कुर्वन् वृक्षोभमद्वन्द्वं विज्ञप्ति द्राविडीमिव । पूज्यात्मासादनाकारी गर्वादिजनभीषितः ॥ ७९ भयसप्तकवित्रस्त: परिवारद्धिवितः । समाजतो बहिर्भूय किञ्चिल्लज्जाकुलाशयः ।। ८०॥ प्रतिकलो गरोभूत्वा कुर्वाणो जल्पनाविकम् । कस्यचिदुपरि क्रुद्धस्तस्याकृत्वा क्षमा त्रिधा ।। ८१ ज्ञास्यते वन्वनां कृत्वा भ्रमयस्तर्जनीमिति । हसनोद्धट्टने कुर्वन् भृकुटीकुटिलालकः ।। ८२ निकटीभूय गुर्बादेराचार्याविनिरीक्षितः । करदानं गणमंत्वा हत्वा दृष्टिपथं गुरोः ।। ८३ लब्ध्वोपकरणादीनि तेषां लाभाशयाऽपि च । असम्पूर्णविधानेन सूत्रोदितपिधायकम् ॥ ८४ कुर्वन्मूक इवात्यर्थ हुंकारादिपुरस्सरम् । वन्दारूणां स्वशब्देन परेषां छापयन् ध्वनिम् ।। ८५ होकर वन्दना करना स्तब्ध दोष हैं २। वन्दनीय जनको देखकर अंगोंके दाबनेको पीडित दोष कहते हैं । वन्दनाके समय शिर मूंछ-दाढीके केशोंको मरोडना कुंचित दोष है ४। वन्दनाके समय झूलामें बैठे हुएके समान सर्व ओरसे सारे शरीरको चलाना दोलायित दोष है ५। कछएके समान आगेसे, पीछेसे, बाजूसे-चारों ओरसे अंगोंका संकोच-विस्तार करना कच्छप-रिगित दोष है ६। हाथके अंगूठेको मस्तक पर अंकुशके समान रखकर हाथीके समान शिरको ऊँचा-नीचा करना अंकुशित दोष है ७। मच्छके समान शीघ्र उछलकर दूसरे वन्दना करनेवालोंके आगे पडना अथवा मछलीके समान तडफडाते हुए वन्दना करना मत्स्योद्वर्तन दोष हैं । ८। द्रविड देश के पुरुषकी विनंतीके समान वक्षस्थल पर दोनों हाथोंको करके वन्दना करना द्राविडी विज्ञप्ति दोष हैं ९। पूज्य पुरुषोंकी अवज्ञा करते हुए वन्दना करना आसादना दोष है १०। गुरु आदिके भयसे वन्दना करना विभीत दोष है १५ । इहलोक भय परलोकभय आदि सात भयोंसे डरते हुए वन्दना करना भय दोष है १२' अपने कुटुम्ब-परिवारकी ऋद्धि के गर्वसे युक्त होकर वन्दना करना ऋद्धि गौरव दोष है १३। साधर्मी समाजसे बाहर होकर कछ लज्जाकलित चित्त होकर वन्दना करना लज्जित दोष है १४। गुरुके प्रतिकूल होकर वन्दना करना प्रतिकूल दोष हैं १५। वचनालाप करते हुए वन्दना करना शब्ददोष हैं १६। किसीके ऊपर क्रोधित होकर तथा उससे मन वचन काय द्वारा क्षमा न माँग कर वन्दना प्रदुष्ट दोष है १७। कोई जान ले कि मैने वन्दना की है इस अभिप्रायसे तर्जनीको घुमाते हुए वन्दना करना मनोदुष्ट दोष है १८६ हँसते और अंगोंको घिसते हुए वन्दना करना हसनोद्घट्टन दोष है १९। भृकुटीको टेडी करते हुए वन्दना करना भुकुटी कुटिलदोष हे २०। गुरु आदिके अति निकट जाकर वन्दना करना प्रविष्ट दोष है २१॥ आचार्य आदिकके द्वारा देखने पर तो सम्यक् प्रकारसे वन्दना करना, अन्यथा यद्वा तद्वा वन्दना करना दृष्ट दोष है २२। संघम कर दान मानकर वन्दना करना करमोचन दोष हैं २३। गुरुकी दृष्टि बचाकर वन्दना करना अदृष्ट दोष हैं २४। उपकरण आदि प्राप्तकर वन्दना करना आलब्ध दोष हैं २५। उपकरण आदिके पाने की इच्छासे वन्दना करना अनालब्ध दोष हैं २६. काल, शब्द आदिकी पूरी विधि न करके अधूरी वन्दना करना हीन दोष हैं २७। सूत्र-कथित अर्थको ढककर वन्दना करना पिधायक दोष हैं २८। गूंगेके समान अत्यधिक हुंकारादि करते हुए वन्दना करना मूकदोष है २९। अन्य वन्दना करनेवालोंके शब्दको अपने उच्चस्वरसे बोले गये शब्दोंसे ढकते हुए वन्दना करना दुर्दुरदोष हैं ३०। गुरु आदिके बिलकुल आगे खडे होकर वन्दना करना अग्रदोष है १. म. 'इवीत्प्लुत्य' पाठः Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ श्रावकाचार-संग्रह गर्वादेरग्रतो भूत्वा मूर्धापरिकरभ्रमी । द्वात्रिशदिति मोक्तव्या दोषा बन्दनकारिणाम ॥ ८६ क्रियमाणा प्रयत्नेन क्षिप्रं कृषिरिप्सितम् । निराकृतमला इत्ते वन्दना फलमुल्वणम् ।। ८७ स्तब्धीकृतकपावस्य स्थानमश्वपतेरिव । चलनं बातधूताया लताया इव सर्वतः ॥ ८८ श्रयणं स्तम्भकुड्यादेः पट्टिकाधुपरि स्थितिः । मालमालम्बनं कृत्वा शिरसाऽवस्थितिः कृता ।। ८९ निगडेनेव बद्धस्य विकटा रवस्थितिः । कराभ्यां जघनाच्छादः किरातयुवतेरिव ॥९० शिरसो नमनं कृत्वा विधायोन्नमनं स्थितिः । उन्नमय्य स्थितिर्वक्षः शिशोर्धाच्या इव स्तनम् ॥ ९१ काकस्येव चलाक्षस्य सर्वत: पावंवीक्षणम् । ऊधि:कम्पनं मून: खलीनातहरेरिव ॥ ९२ स्कन्धारूढगजस्येव कृतग्रीवानतोन्नती । सकपित्थकरस्येव मुष्टिबन्धनकारिणः ।। १३ कुर्वत: शिरस: कम्पं मुफसञ्जाविधायिनः । अप्रैलीगणनादीनि भ्रूनत्यादिविकल्पनम् ॥ ९४ मदिराकुलितस्येव घूर्णनं दिगवेक्षणम् । ग्रीवोलनयनं भूरि ग्रीवाधोनयनादिकम् ॥ ९५ ३श वन्दना करते हए अन्त भागको जल्दी-जल्दी वोलकर, या क्रम भल जाने पर मध्यके भागको छोडकर अन्तिम भागको बोलते हुए वन्दना करना उत्तरचलिक दोष है ३२॥ वन्दना करनेवालोंको ये बत्तीस दोष छोडना चाहिए। क्योंकि प्रयत्न पूर्वक दोषरहित की गई वन्दना खेतीके समान शीघ्र ही अभीष्ट उत्तम फलको देती है ।।७६.८७॥ ___ अब कायोत्सर्गके बत्तीस दोष कहते है-घोडेके समान एक पाँव उठाकर कायोत्सर्ग करना घोटक दोष है ११ वायुसे कम्पित लताके समान शरीरके ऊपरी भागको सर्व ओर घुमाते हुए कायोत्सर्ग करना लता दोष हैं २। स्तम्भ भित्ति आदिका आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करना स्तम्भकुड्य दोष है ३। पाटे आदिके ऊपर खडे होकर कायोत्सुर्ग करना पट्टिकादोष है ४। शिरसे मालाका आलंबन लेकर खडे रहना मालादोष हैं ५। बेडीसे बंधे हुए पुरुषके समान टेढे पैर रखकर कायोत्सर्ग करना निगडदोष हैं ६। दोनों हाथोंसे भीलनीके समान जघन भागको ढंककर खडे हो कायोत्सर्ग करना किरात युवति दोष है ७। शिरको बहुत नीचे झुकाकर कायोत्सर्ग करना शिरोनमन दोष हैं ८1 शिरको बहुत ऊँचा उठा कर कायोत्सर्ग करना उन्नमन दोष है ९। जैसे धाय बालकको दूध पिलानेके लिए अपने स्तनको ऊँचा उठाती है, उसी प्रकार अपने वक्षःस्थल ऊँचा उठाकर कायोत्सर्ग करना धात्री दोष हैं १०। काकके समान चंचल नेत्रके द्वारा सर्व ओर पार्श्वभागमें देखते हुए कायोत्सर्ग करना वायस दोष है ११। खलीन (लगाम) से पीडित घोडेके समान शिरको कभी ऊँचे और कभी नीचे कँपाते हुए कायोत्सर्ग करना खलोन दोष हैं १० जिसके कंधे पर महावत बैठा है, ऐसे हाथीके समान ग्रीवाको ऊँत्री नीची व रते हुए कायोत्सर्ग करना गज दोष हैं। किसी किसी प्रतिमें गजके स्थान पर 'युग' पाठ पाया जाता हैं । तदनुसार जिसके कंधे पर रथका जूवा रखा हुआ है, उस गजके समान ग्रीवाको ऊँचे नीचे करते हुए कायोत्सर्ग करनेको युगदोष जानना चाहिए १३। हाथमें कपित्थ (कथा) लिये हुएके समान मुट्टी बाँधकर कायोत्सर्ग करना कपित्थ दोष हैं १४१ शिरको कपाते हुए कायोत्सर्ग करना शिरःकम्पित दोष हे १५। गूंगे पुरुषके समान अंगोंसे संकेत करते हुए कायोत्सर्ग करता मूकदोष हैं ६। अंगली गिनते हुए कायोत्सर्ग करना अंगुलीदोष हैं १७। भ्रकुटी नचाते हुए कायोत्सर्ग करना भ्रदोष है १८ मदिरा पानसे व्याकुल पुरुषके समान घूमते हुए कायोत्सर्ग करना मदिरापायी दोष हैं १९। दिशाओंको देखते हुए कायोत्सर्ग करना दिगवेक्षण दोष हैं २०। ग्रीवाको अधिक ऊँची करके कायोत्सर्ग करना ग्रीवोनयन दोष हैं २१। ग्रीवाको अधिक नीची करके ... Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३४३ निष्ठीवनं वपुस्पर्शः प्रपञ्चबहला स्थितिः । मूत्रोदितविधेरूनं वयोपेक्षादिवर्जनम् ॥ ९६ कालापेक्षाव्यतिक्रान्तिाक्षेपासक्तचित्तता। लोभाकुलितचित्तत्त्वं पापकार्योद्यमः परः ॥ ९७ कृत्याकृत्यविमूढत्वं द्वात्रिंशदिति सर्वथा । कायोत्सर्गविधेर्दोषास्त्याज्या निर्जरणाथिमिः॥ ९८ समाहितमनोवृत्तिः कृतद्रव्यादिशोधनः । विविक्तं स्थानमासाद्य' कृतेर्यापथशोधनः ॥ ९९ गर्वादिवन्दनां कृत्वा पर्यङ्कासनमास्थितः । विधाय वन्दनामुद्रां सामान्योक्तनमस्कृतिः ।। १०० ऊर्ध्वः सामायिकं स्तोत्रं स मुक्ताशुक्तिमुद्रकः । पठित्वाऽऽवतिताव? विदधाति तनूत्सृतिम् ॥ १०१ कृत्वा जैनेश्वरी मुद्रां ध्यात्वा पञ्चनमस्कृतिम् । उक्त्वा तीर्थंकरस्तोत्रमुपविश्य यथोचितम् ।। १०२ चैत्यभक्ति समुच्चार्य भूयः कृत्वा तनूत्सृतिम् । उक्त्वा पंचगुरुस्तोत्रं कृत्वा ध्यानं यथाबलम्॥१०३ विधाय वन्दनां सूरेः कृतिकर्मपुरस्सराम् । गृहीत्वा नियमं शक्त्या विधत्ते साधुवन्दनाम् ॥ १०४ आवश्यकमिदं प्रोक्तं नित्यं व्रतविधायिनाम् । नैमित्तिकं पुनः कार्य यथागममतन्द्रितैः ।। १०५ येन केन च सम्पन्न कालुष्यं देवयोगतः । क्षमयित्वैव तं त्रेधा कर्तव्याऽवश्यकक्रिया ।। १०६ कायोत्सर्ग करना ग्रीवाधोनयन दोष है २२। कायोत्सर्ग करते समय थूकना निष्ठीवन दोष हैं २३। कायोत्सर्ग करते समय शरीरके अंगोंका स्पर्श करना वपुःस्पर्शनदोष है २४। छ ल-प्रपंचके भावोंके साथ कायोत्सर्ग करना प्रपचबहुलदोष हैं २५। आगमोक्त विधिसे हीन कायोत्सर्ग करना विधिन्यून दोष हैं २६। अपनी आयुकी अपेक्षा न करके मात्रासे अधिक कायोत्सर्ग करना वयोपेक्षादिवर्जन दोष है २७। कायोत्सर्गके कालकी अपेक्षाका उल्लंघन कर कायोत्सर्ग करना कालापेक्षब्यतिक्रान्तिदोष है २८। मनके क्षोभ कारक कार्योंमें चित्त लगाते हुए कायोत्सर्ग करना व्याक्षेपासक्त चित्त दोष हैं २९। लोभसे आकुलित चित्त होकर कायोत्सर्ग करना लोभाकुलित दोष है ३०। पाप कार्य में उद्यमशील होते हुए कायोत्सर्ग करना पाप कार्योद्यम दोष है ३१॥ कर्त्तव्यअकर्तव्य के ज्ञानसे रहित पुरुषका कायोत्सर्ग करना मूढदोष हैं ३२॥ कर्मनिर्जरा करनेके इच्छक मुमुक्षु जनोंको कायोत्सर्ग विधि के ये बत्तीस दोष सर्वथा त्यागने योग्य है ।।८८-८९।।। जिसको चित्तवृत्ति समाधानको प्राप्त हैं और जिसने द्रव्य क्षेत्रादिकी भली-भाँतिसे शुद्धि की हैं, ऐसा श्रावक एकान्त स्थानको प्राप्त होकर और ईर्यापथ शुद्धि करके गुरु आदिकी वन्दना करके पर्यकासनसे बैठकर वन्दनामुद्रा करके सामान्य रीतिसे नमस्कारमंत्र पढ पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार करे । पुनः खडा होकर सामायिकस्तोत्र पढकर मुद्राशुक्तिमुद्रा धारण करके आवर्त क्रिया कर कायोत्सर्ग करे। पुन: जैनेश्वरी मुद्रा धारण कर पंच नमस्कारमंत्रका ध्यानकर और तीर्थङ्करस्तोत्रको पढकर यथोचित आसनसे बैठकर, चैत्यभक्तिका उच्चारण कर पुनः कायोत्सर्ग करके और फिर भी कायोत्सर्ग करके पंचपरमेष्ठिस्तोत्र पढकर और अपने बलके अनुसार ध्यान करके कृतिकर्म पूर्वक आचार्यकी वन्दना करके और अपनी शक्तिके अनुसार भोग-उपभोगका नियम करके अन्तमें साधु-वन्दना करे। यह आवश्यक नित्य प्रति व्रतधारी श्रावककों के लिए कहा गया है। तथा नैमित्तिक आवश्यक भी आगमानुसार आलस्यरहित होकर करना चाहिए ॥९९१०५॥ दैवयोगसे जिस किसी भी पुरुष के द्वारा जिस किसी भी निमित्तसे चित्तमें कलुषता उत्पन्न हो जाय, तो उसे मन वचन कायसे क्षमा करा करके ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिए ।।१०६।। जो मढ पाक्षिक या चातुर्मासिक क्रियाको क्षमा-याचना किये विना ही करता हैं, वह उसके १. मु. 'मास्थायः पाठः । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ श्रावकाचार-संग्रह क्रियां पक्षोद्भवां मूढश्चतुर्मासमवां च यः । विधत्तेऽक्षमयित्वाऽसौ न तस्याः फलमश्नुते ॥ १०७ देवनरायः कृतमुपसर्ग बन्दनकारी सहति समस्तम् । कम्पनमुक्तो गिरिरिव धीरो दुष्कृतकर्मक्षपणमवेक्ष्य ।। १०८ इत्थमदोषं सततमनूनं निर्मलचित्तो रचयति नूनम् । यः कृतिकर्मामितगतिदृष्टं पानि स नित्यं पदमनदृष्टम ॥ १०९ इत्यमितगत्याचार्यप्रणीते श्रावकाचारे अष्टमः परिच्छेदः । नवमः परिच्छेदः दानं पूजा जिनः शीलमुपवासश्चतुर्विधः । श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावकः ।। १ धान वितरता वात्रा देयं पात्रं विधिर्मतिः । फलैषिणाऽवबोध्यानि धीमता पञ्च तत्त्वतः ॥ २ भाक्तिकं तौष्टिकं श्राद्धं सविज्ञानमलोलुपम् । सात्त्विक क्षमकं सन्तो दातारं सप्तधा विदुः ॥ ३ यो धर्मधारिणां दत्ते स्वयं सेवापरायणः । निरालस्योऽशठः । शान्तो भाक्तिकः स मतो बुधः ॥४ तुष्टिदत्तवतो यस्य ददतश्च प्रवर्तते । देयासक्तमतेः शृद्धास्तमाहुस्तौष्टिकं जिनाः ।। ५ साधूभ्यो वदता दानं लभ्यते फललीप्सितम् । यस्यैषा जायते श्रद्धा नित्यं श्राद्धं वदन्ति तम् ॥ ६ द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं भावं सम्यग्विचिन्त्य यः । साधुभ्यो ददते दानं सविज्ञानमिमं विदुः ॥ ७ फलको नहीं पाता हैं ।।१०७।। वन्दनादि आवश्यक करनेवाला पुरुष देव,मनुष्यादिके द्वारा किये गये सभी उपसर्गको अपने द्वारा किये गये खोटे कर्मोंका क्षय देखकर कम्पन-रहित पर्वत के समान धीरवीर होकर सहन करता है ।।१०८।। इस प्रकार जो निर्मल चित्त होकर कृतिकर्मको करके नित्य सम्पूर्ण विधि पूर्वक निर्दोष वन्दनादि आवश्यक कर्म करता हैं, वह अमित ज्ञानियों के द्वारा देखे गये और हमारे अदष्ट ऐसे नित्य मोक्ष पदको प्राप्त करता हैं ।।१०९।। इस प्रकार अमितगति विरचित श्रावकाचारमें आठवां परिच्छेद समाप्त हुआ। जिनदेवने दान पूजा शील और उपवास यह चार प्रकारका धर्म श्रावकोंके संसार-कान्तारको जलानेके लिए अग्निके समान कहा हैं ।।१॥ दानको देनेवाले और उसके फलको चाहनेवाले वद्धिमान् श्रावकको दाता, दानयोग्य वस्तु, पात्र, विधि और बुद्धि ये पाँच बातें यथाथरीतिसे जानना चाहिए ॥२।। सर्व प्रथम दाताका स्वरूप कहते हैं-सन्त पुरुषोंने दाताको भक्तिमान्, सन्तोषी, श्रद्धा युक्त, दान देनेके ज्ञानसे सहित,लोलुपता रहित, सात्त्विक और क्षमाशील इन सात गणोंवाला कहा हैं ।।६।। जो बुद्धिमान् श्रावक आलस्यरहित और शान्त है तथा धर्म धारकोंकी सेवामें स्वयं ही तत्पर रहता है, उसे ज्ञानीजनोंने भक्ति गुणसे युक्त दाता कहा है ।।४। जिसके चित्त में पहले दिये गये दानमें और अभी वर्तमानमें दिये जानेवाले दान में सन्तोष हैं और देय वस्तुमें जिसकी बुद्धि लोभ-रहित है ऐसे दातारको वीनरागी जिनदेवोंने सन्तोष गुणसे युक्त दाता कहा हैं ।।५।। साधुओं को दान देनेवाला सदा ही अभीष्ट फल पाता हैं ऐसी दृढ श्रद्धा जिसके हृदयमें नित्य रहती हैं, उस श्रावकको श्रद्धागुणसे युक्त दाता कहते हे ॥६॥ जो बुद्धिमान् श्रावक द्रव्य क्षत्र काल भावका भली भाँतिसे विचार करके साधुओंके लिए दान देता है, उसे विज्ञान गुण-युक्त दाता कहते हैं।७। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३४५ त्रिधाऽपि याचते किंचिद्यो न सांसारिक फलम् । ददानो योगिनां दानं भाषन्ते तमलोलपम् ॥८ स्वल्पवित्तोऽपि यो दत्ते भक्तिभारवशीकृतः । स्वाढचाश्चर्यकरं दान सात्त्विकं तं प्रचक्षते ।। ९ कालष्यकारणे जाते निवारे महीयसि । यो न कुप्यति केभ्योऽपि क्षमकं कथयन्ति तम् ॥१० सर्वैरलंकृतो वो जघन्यो वजितो गुणः । मध्यमोऽनेकधाऽवाचि दाता दानविचक्षणः ॥ ११ विनीतो धार्मिकः सेव्यस्तत्कालक्रमवेदकः । जिनेशशासनाभिज्ञो भोगनिःस्पहमानसः ।। १२ दयालः सर्वजीवानां रागद्वेषादिवजितः । संसारासारतावेदी समदर्शी महोद्यमः ॥ १३ परोषहसहो धीरो निजिताक्षो विमत्सरः । 'परात्मसमयाभिज्ञः प्रियवादी निरुत्सुकः ॥ १४ वासितो वतिनां पूतैः परासाधारणैर्गुणैः । लोकलोकोत्तराचारविचारी सङ्घवत्सलः ।। १५ आस्तिक्यो निरहङ्कारो वैयावृत्यपरायणः । सम्यक्त्वालङ्कृतो दाता जायते भुवनोत्तमः ।। १६ आत्मीयं मन्यते द्रव्यं यो दत्तं वतवतिनाम् । शेषं पुत्रकलत्राद्यैस्तस्करैरिव लुण्ठितम् ।। १७ यो लोकद्वितये सौख्यं कुर्वते मम साधवः । गन्धवा दारुणं दुःखमिति पश्यति चेतसा ।। १८ योऽत्रैव स्थावरं वेत्ति गृहकार्ये नियोजितम् । सहगामि परं वित्तं धर्मकार्ये यथोचितम् ॥ १९ जो योगिजनोंको दान देते हुए भी किसी भी सांसारिक फलकी कुछ भी याचना मन वचन कायसे नहीं करता है, उसे अलुब्धता गुण-युक्त दान कहते है ।।८।। जो अल्पधनी हो करके भी भक्तिभारसे नम्रीभूत श्रावक धनियोंको भी आश्चर्यकारी दान देता है, उसे सत्त्वगणसे यक्त दाता कहते है ।।९।। किसी महान दुनिवार कालुष्य कारणके उपस्थित होने पर भी जो किसी पर भी कुपित नहीं होता हैं, उसे क्षमागुणसे युक्त दाता कहते है ॥१०॥ दाताके इन सातों गुणोंसे संयुक्त दाताको दानशास्त्रके विद्वानोंने उत्तम दाता कहा हैं । इन गुणोंसे रहित दाताको जघन्य दाता कहा है तथा दो, तीन, चार आदि गुणवाले अनेक प्रकारके दाताको मध्यम दाता कहा है ।।११। अब दाताके कुछ और भी विशेष गुण कहते हैं-जो विनीत हो, धर्मात्मा हो, अन्य पुरुषोंसे सेव्य हो, दानके कालक्रमका वेत्ता हो, जिनेन्द्रदेवके शासनका ज्ञाता हो, जिसका मन भोगोंसे निःस्पह हो, सर्वजीवोंपर दया करने वाला हो, राग-द्वेषादिसे रहित हो, संसारकी असारताका जानकार ही, समदर्शी हो, महान् उद्यमी हो, परीषहोंको सहनेवाला हो, धीर वीर हो, इन्द्रियजयी हो, मत्सर-रहित हो, अपने और परके सिद्धान्तका ज्ञाता हो, प्रियवादी हो, विषयोंके सेवनमें उत्सुकता-रहित हो,दूसरे लोगोंमें नहीं पाये जानेवाले ऐसे असाधारण पवित्र व्रतियोंके गुणोंसे जिसका चित्त संवासित हो, लौकिक और लोकोत्तर आचारका विचारक हो, संघर्म वात्सल्य भावका धारक हो, आस्तिक हो, अहंकार-रहित हो, वैयावृत्य करने में तत्पर हो और सम्यक्त्वसे अलंकृत हो, ऐसा दाता लोकमें उत्तम माना जाता हैं ।।१२-१६॥ व्रतियोंके लिए दिये गये द्रव्यको जो अपना मानता हो और शेष द्रव्यको पत्र-स्त्री आदि लुटेरोंके द्वारा लूटा गया जैसा मानता हो, वही दाता श्रेष्ठ जानना चाहिए ॥१७.। ये साधुजन तो मेरे दोनों लोकोंमें सुख करने वाले हैं और ये बन्धुजन दोनों लोकोंमें दुःख करनेवाले हैं, ऐसा जो अपने हृदयसे देखता हो, वही दाता प्रशंसाके योग्य हैं ।।१८।। जो गृह-कार्यमें लगाये गये धनको यहीं रहनेवाला जानता है और धर्मकार्य में यथोचित लगाये धनको अपने साथ जानेवाला मानता है, वही यथार्थमें दाता हैं ।।१९।। जो जीवन योवन और धन को शरद् ऋतुके मेघोंके समान क्षण१. म. 'वरात्मट' पाठ । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ श्रावकाचार-संग्रह शरदभ्रसमाकारं जीवितं यौवन धनम् । यो जानाति विचारज्ञो दत्ते दानं स सर्वदा ।। २० यो न दत्ते तपस्विभ्यः प्रासुकं दानमञ्जसा । न तस्यात्मम्भरेः कोऽपि विशेषो विद्यते पशोः ॥२१ गहं तदुच्यते तुङ्ग तय॑न्ते यत्र योगिनः निगद्यते परं प्राज्ञैः शारवं घनमण्डलम् ।। २२ धौतपादाम्भस्सा सिक्तं साधूनां सौधमुच्यते । अपरं कर्दमालिप्तं मयंचातकबन्धनम् ।। २३ स गही मण्यते भव्यो यो दत्ते दानमञ्जसा। न परो गेहयुक्तोऽपि पतत्त्रीय कदाचन ।। २४ कि द्रव्येण कुबेरस्य कि समुद्रस्य वारिणा। किमन्धसा गृहस्थस्य भक्तिर्यत्र न योगिनाम् ।। २५ ध्यानेन शोभते योगी संयमेन तपोधनः । सत्येन वचसा राजा गृही दानेन चारुणा ॥ २६ तपोधनं गृहायातं यो न गृहाति भक्तितः । चिन्तामणि करं प्राप्त स कुधीस्त्यजति स्फुटम् ।। २७ विद्यमानं धनं धिष्ण्ये साधुभ्यो यो न यच्छति । स वञ्चति मूढात्मा स्वयमात्मानमात्मना ।।२८ स भण्यते गृहस्वामी यो भोजयति योगिनः । कुर्वाणो गृहकर्माणि परं कर्मकरं विदुः ।। २९ यः सर्वदा क्षुधां धृत्वा साधुवेलां प्रतीक्षते । स साधूनामलाभेऽपि दानपुण्येन युज्यते ॥ ३० भवने नगरे ग्रामे कानने दिवसे निशि । यो धत्ते योगिनश्चिते दत्तं तेभ्योऽमुना ध्रुवम् ॥ ३१ यः सामान्येन साधनां दानं दातुं प्रवर्तते । त्रिकालगोचरास्तेन भोजिताः पूजिता: स्तुताः ॥३२ दत्ते दूरेऽपि यो गत्वा विमृश्य व्रतपालिनः । स स्वयं गृहमायाते कथं दत्ते न योगिनि ।। ३३ भंगुर जानता है, वही विचारशील दाता सदा ही दान देता है ॥२०॥ जो गृहस्थ तपस्वियोंके लिए प्रासुक दान नहीं देता है, उसका अपना पेट भरनेवाले पशुसे निश्चयतः कोई भी भेद नहीं हैं ॥२॥ जिस घर में साधुजन दान द्वारा तृप्त किये जाते है, वही ऊँचा घर कहा जाता हैं । दान रहित घरको तो ज्ञानियोंने शारदीय मेघमण्डल कहा है ।।२२।। साधुओंके चरण-कमलोंके धोये गये जलसे जो घर संसिक्त है, वही सौध कहा जाता है, अन्य घर तो मनुष्यरूप चरनेवाले पशके बाँधने का कीचडलिप्त स्थान है ।।२३।। वही भव्य गृहस्थ कहा जाता हैं, जो नियमसे दान देता है। दान-रहित अन्य पुरुष तो गृह-युक्त होनेपर भी पक्षीके समान कदाचित् भी गेही अर्थात घरवाला नहीं कहा जा सकता ।।२४।। जहाँपर योगियोंका भोजन पान नहीं, ऐसे कुबेरके द्रव्यसे क्या समुद्रके जलसे क्या और गृहस्थके अन्न-पानसे क्या लाभ हैं ।।२५।। योगी ध्यानसे, तपोधन संयम से, राजा सत्य वचनसे और गृहस्थ सुन्दर दानसे शोभा पाता है ॥२६॥ जो गृहस्थ स्वयं घर आये हुए तपोधन साधुको भक्तिसे पडिगाहता नहीं हैं, वह हाथमें आये हुए चिन्तामणि रत्नको निश्चय ही छोडता है।।२७।। जो श्रावक घरमें विद्यमान भी धनको साधुओंके लिए नहीं देता हैं, वह मूढात्मा स्वयं ही अपने आपके द्वारा अपनेको ठगता हैं ।।२८।। जो योगियोंको भोजन कराता हैं, वही पुरुष गृहका स्वामी कहा जाता है। दानके बिना घरके कार्योंको करनेवालोंको तो घरवा कर्मकर (नौकर) कहते हैं !॥२९॥ जो गृहस्थ भूख लगनें पर भोजन करनेके पूर्व साधुओंके आहारकी वेलामें उनके आगमनकी प्रतीक्षा करता हैं,वह साधओंके अलाभ होने पर भी दानके पुण्यसे संयुक्त होता है ।।३०।। जो पुरुष भवन में, नगरमें, ग्राममें, वनमें, दिनमें, और रात्रिमें योगियोंको अपने चित्तम धारण करता हैं, अर्थात् उनका सदा स्मरण करता रहता हैं, उसने साधुओंको निश्चयसे दान दिया,ऐसा जानना चाहिए ।।३।।। जो सामान्यतः सदा ही साधुओंको दान देने में प्रवृत्त होता हैं उसने त्रिकालवर्ती साधुओंको भोजन कराया, उनकी पूजा और स्तुति की ऐसा समझना चाहिए ॥३२।। जो दूर जाकर और व्रती पूरुषोंका अन्वेषण करके उन्हें दान देता हैं, यह स्वयं ही घरमें आये योगीको कैसे दान नहीं देगा? अवश्य . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३४७ सद्रव्याद्रव्ययोर्मध्ये य: पात्रं प्राप्य भक्तित: । ददानः कथ्यते दाता न दाता भक्तिजितः ॥ ३४ पात्रे ददाति योऽकाले तस्य दानं निरर्थकम् । क्षेत्रेऽप्युप्तं विना कालं कुत्र बीजं प्ररोहति ॥ ३५ काले ददाति योऽपात्रे वितीणं तस्य नश्यति । निक्षिप्तमषरे बीजं कि कदाचिदवाप्यते ।। ३६ प्रक्रमेण विना बन्ध्यं वितीर्ण पात्रकालयोः । फलाय किमसंस्कारं विक्षिप्तं क्षेत्रकालयोः ।। ३७ कलं पात्रं विधि ज्ञात्वा दत्तं स्वल्पमपि स्फुटम् । उप्तं बीजमिव प्राविधत्ते विपुलं फलम् ॥ ३८ देयं स्तोकादपि स्तोकं व्यपेक्षो न महोदयः । इच्छानुसारिणी शक्ति: कदा कस्य प्रजायते ॥ ३९ श्रुत्वा दानमतिर्यो भण्यते वीक्ष्य मध्यमः । श्रुत्वा दृष्ट्वा च यो दत्ते दानं स च जघन्यकः ॥४० ताडनं पीडनं स्तेयं रोषणं षणं भयम। कत्वा ददाति यो दानं सदाता नमतो जिनः।। पटीयसा सदा दानं प्रदेयं प्रियवादिना । प्रियेण रहितं दत्तं परमं वैरकारणम् ॥ ४२ यः शमापाकृतं वित्तं विधाणयति दुर्मतिः । कलि गृहातिः मूल्येन दुनिवारमसो ध्रुवम् ।। ४३ जीवा येन विहन्यन्ते येन पात्रं विनाश्यते । रागो विवर्धते येन यस्मात्सम्पद्यते भयम् ॥ ४४ आरम्भा येन जन्यते दुःखितं यच्च जायते । धर्मकामन तद्देयं कदाचन निगद्यते ।। ४५ हलविदार्यमाणायां गभिण्यामिव योषिति । म्रियन्ते प्राणिनो यस्यां सा भू: किं ददतः फलम् ।।४६ ही देगा ।।३३।। सधन और निर्धन इन दो प्रकारके दातारोंके मध्य में जो पात्रको पाकर भक्ति पूर्वक दान देता है, वही दाता कहा जाता है। भक्ति-रहित होकरके देनेवाला दाता नहीं कहा जाता है।॥३४॥ जो असमयमें पात्रको दान देता हैं, उसका दान निरर्थक है, खेतके भीतर असमयमें बोया गया बीज कहाँ अंकुरित होता है ।। ३५।। जो अपात्रको समयपर भी दान देता है,उसका वह दान न नष्ट हो जाता हैं। क्योंकि ऊसर भूमिमें बोया गया बीज क्या कभी प्राप्त होता हैं ।।३६।। योग्य पात्रको और योग्य समयमें विधिके विना दिया दान निष्फल जाता हैं। क्या संस्कार-रहित बीज योग्य क्षेत्र में योग्य समयपर बोनेपर भी फल के लिये होता हैं? अर्थात् फल नहीं देता है ॥३७॥ काल, पात्र और विधिको जानकर बुद्धिमानोंके द्वारा दिया गया अति अल्प भी दान योग्य भूमिमें ठीक समयपर विधिवत् बोये गये अल्प भी बीजके समान विपुल फलको देता है।३८।। नहीं शक्ति हो, तो भी कमसे कम ही दान देते रहना चाहिए, किन्तु अधिक धनके होने की अपेक्षा नहीं रखना चाहिए, क्योंकि इच्छाके अनुसार दान देने की शक्ति कब किसके पूरी होती हैं? भावार्थ-जब जैसी सामर्थ्य हो उसके अनुसार दानको देते रहना चाहिए ॥३९।। ' साधुको आया हुआ सुनकर दान देने में बुद्धि करने वाला पुरुष उत्तम दाता कहा जाता है। साधुको देखकर दान देनेवाला पुरुष मध्यम दाता कहलाता है। और जो सुनकर और देखकर पीछे दान देता हैं वह जघन्य दाता कहलाता हैं ।।४०।। जो ताडन, पीडन, चोरी, रोष,दोष और भय करके दान देता है, जिनदेवने उसे दाता नहीं माना है ।।४१।। चतुर पुरुषोंको प्रिय वचन बोलते हुए ही सदा दान देना चाहिए। क्योंकि प्रिय वचनसे रहित दिया गया दान तो परम वैरका ही कारण होता हैं ॥४२।। जो दुर्बुद्धि पुरुष शम भावसे रहित होकर धनको देता हैं, वह निश्चयसे मूल्य देकर दुनिवार पापको ग्रहण करता हैं ॥४३॥ अब दान देने के योग्य देय वस्तुका निर्णय करनेके पूर्व आचार्य दान में नहीं देने योग्य वस्तुओंका निरूपण करते हैंजिसके देनेसे जीव मारे जावें, जिससे पात्रका विनाश हो, जिससे रागभाव बढे, जिससे भय उत्पन्न हो, जिससे आरम्भ बढे और जिससे दुःख पैदा हो, ऐसी वस्तुएं धर्मकी कामना करनेवाले गृहस्थों के द्वारा कभी भी देय नहीं कही गई है ॥४४-४५।। जिस भूमिके हलोंसे विदारे Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ श्रावकाचार-संग्रह सर्वत्र भ्रमता येन कृतान्तेनेव देहिनः। विपाटयन्ते न तल्लोहं दत्तं कस्यापि शान्तये ॥ ४७ यदर्थ हिस्यते पात्रं यत्सदा भयकारणम् । संयमा येन हीयन्ते दुष्कालेनेव मानवाः ॥ ४८ रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहमनोमवाः । जन्यन्ते तापका येन काष्ठेनेव हुताशनाः ।। ४९ तोनाष्टापदं यस्य दीयते हितकाम्यया । स तस्याष्टापदं मन्ये दत्ते जीवितशान्तये ॥ ५० संसजन्त्यङिगनो येष भरिशस्त्रसकायिकाः । फलं विश्राणने तेषां तिलानां कल्मषं परम् ।। ५१ प्रारम्मा यत्र जायन्ते चित्राः संसारहेतवः । तत्सम ददतो घोरं केवलं कलिलं कलम् ।। ५२ पीडा सम्पद्यते यस्या वियोगे गोनिकायतः । यथा जीवा विहन्यन्ते पुच्छशङ्गखुरादिभिः ।। ५३ यस्यां प्रदुह्यमानायां तर्णकः पीडयते तराम् । तां गां वितरतो श्रेयो लभ्यते न मनागपि ॥ ५४ या सर्वतीर्थदेवानां निवासी मतविग्रहा । दीयते सा गौः कथं दुर्गतिगामिभिः ।। ५५ तिलधेनुं घृतधेनुं कांचनधेनुं च रुक्मधेनुं च । परिकल्प्य भक्षयन्तश्चण्डालेभ्यस्तरां पापाः ।। ५६ या धर्मवनकुठारी पातकवसतिस्तपोदयाचोरी । वैरायासासूयाविषादशोकश्रमक्षोणी ॥ ५७ जाने पर शस्त्रोंसे विदीर्ण किये गर्भिणी स्त्रीके समान प्राणी मरते है, वह भूमि क्या देने वालेके फलको दे सकती हैं? अर्थात् नहीं दे सकती हैं, अतः भूमिका दान योग्य नहीं है ॥४६।। जिसके द्वारा सर्वत्र परिभ्रमण करने वाले यमराजके तुल्य प्राणी मारे जाते है, वह दिया गया लोहेका शस्त्र किसीकी भी शान्तिके लिए नहीं हो सकता है। अतः लोहदान योग्य नहीं हैं ॥४७॥ जिस सुवर्णकी प्राप्तिके लिए लोग पात्रको भी मार देते है जो सदा भयका कारण है, जिसके द्वारा संयम नष्ट होता हैं, जैसे कि दुष्कालके द्वारा म नव नष्ट होते है, जिसके द्वारा राग द्वेष मद क्रोध लोभ मोह और काम विकार जैसे सन्ताप-दायी दुर्भाव पैदा होते है, जैसे कि काष्ठसे सन्तापक पावक उत्पन्न होता हैं । ऐसा अष्टापद (सुवर्ण) जो अन्यको हित-कामनासे देता हैं, वह उसके जीवनको शान्त करने के लिए अष्टापदनामका हिंसक प्राणी देता हैं, ऐसा मैं मानता हूँ। अतएव सुवर्णदान भी देने के योग्य नहीं हैं ॥४८-५०॥ जिन तिलोंमें भारी त्रसकायिक जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं ऐसे उन तिलोंके दान देने में महा पापका संचय ही फल जानना चाहिए । अतः तिल-दान भी योग्य नहीं ॥५१॥ __ जिसमें रहने पर संसारके कारणभूत अनेक प्रकारके आरम्भ होते है, ऐसे घरको देनेवाले पुरुषके केवल घोर पापरूप ही फल प्राप्त होता हैं । अतः गृह-दान भी योग्य नहीं हैं ।।५२॥ गायोंके समूह से वियुक्त करने पर जिसके भारी पीडा होती हैं, जो पूंछ, सींग और खुर आदिसे जीवोंको मारती हैं और जिसके दुहने पर बछडा अत्यन्त पीडित होता है, ऐसी गायको दानमें देते हए पुरुष का जरा सा भी कल्याण नहीं होता हैं । अतः गो-दान भी योग्य नहीं है।।५३-५४।। जिन अन्यमतावलम्बियोंने गायके शरी रमें सर्वतीर्थ ओर सर्व देवताओं का निवास कहा है. उसी गायको दुर्गतिगामी पुरुष कैसे तो देते हैं और लेने वाले कैसे लेते हैं, यह महान् आश्चर्यकी बात है । अतः गो-दान भी योग्य नहीं हैं ।।५५।। जो लोग तिल की गाय, घीकी गाय, सोनेकी गाय और चांदीकी गाय बनाकर पुन: उसे खाते है, वे लोग तो चाण्डालसे भी अधिक पापी हैं, क्योंकि चाण्डाल तो कम से कम गायको नहीं खाता है ।।५६।। जो कन्या धर्मरूप वनको काटनेके लिए कुठारी के समान हैं, अनेक पापोंकी वसति है, तप और दयाको चुरानेवाली है, वैर, आयास असूया, विषाद, शोक और श्रमकी भूमि हैं और जिसमें आसक्त हुए पुरुष अति दुःखवाले संसार . Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३४९ यस्यां सक्ता जीवा: दुःखतमानोत्तरन्ति भवजलधेः । कः कन्यायां तस्यां दत्तायां विद्यते धर्मः ॥५८ सर्वारम्भकरं ये वीवाहं कारयन्ति धर्माय । ते तरुखण्डविवृद्धय क्षिपन्ति वन्हिज्वलज्ज्वालम् ।।५९ य: संक्रान्तौ ग्रहणे वारे वित्तं ददाति मूढमतिः । सम्यक्त्ववनं छित्वा मिथ्यात्ववनं वपत्येषः ।।६० ये ददते मृततप्त्यै बहुधा दानानि नूनमस्तधियः । पल्लवयितुं तरं ते भस्मीभूतं निषिञ्चन्ति॥६१ विप्रगणे सति भुक्ते तप्ति: सम्पद्यते यदि पितृणाम् । नान्येन घृते पीते भवति तदाऽन्यः कथं पुष्टः।।६२ दाने दत्ते पुत्रमुच्यन्ते पापतोऽत्र यदि पितरः । विहित तदा चरित्र परेण मुक्ति परो याति ॥ ६३ गङ्गा गतेऽस्थिजाते भवति सुखी यदि मतोऽत्र चिरकालम् । भस्मीकृतस्तदाऽम्भःसिक्तः पल्लवयते वृक्षः।। ६४ उपयाचन्ते देवान्नष्टधियो ये धनादि ददमानाः । ते सर्वस्वं दत्वा ननं क्रीणन्ति दुःखानि ॥ ६५ पूर्णे काले देवनं रक्ष्यते कोऽपि नूनमुपयातैः । चित्रमिदं प्रतिबिम्बरचेतनै रक्ष्यते तेषाम् ।। ६६ मांसं यच्छन्ति ये मढा ये च गण्हन्ति लोलपाः । द्वये वसन्ति ते श्वभ्रे हिंसामार्गप्रवतिनः ।। ६७ धर्मार्थ ददते मांसं ये नूनं मूढबुद्धयः । जिजीविषन्ति ते दीर्घ कालकूट विषाशने ॥ ६८ तादृशं यच्छतां नास्ति पापं दोषमजामताम् । यादृशं गुण्हतां मांसं जानतां दोषमूजितम् ।। ६९ सागरसे पार नहीं उतर सकते है, ऐसी कन्याके देने पर कौन सा धर्म होता है? अर्यात् धर्म नहीं, प्रत्युत पाप ही होता है । अत: कन्या-दान भी योग्य नहीं हैं ।।५७-५८। जो लोग धर्मप्राप्तिके लिए सभी आरम्भके करनेवाले विवाहको कराते हैं, वे वक्षोंके वनकी वृद्धि के लिए जलती ज्वालावाली अग्निको फेंकते है, ऐसा मै मानता हूँ । अतः अन्यका विवाह कराना योग्य नहीं है ॥५९।। जो मूढ बुद्धि पुरुष संक्रान्ति, ग्रहण, रविवार आदिके समय धनको देता है, वह सम्यक्त्वरूप वनका छेदन करके मिथ्यात्वरूप वनको बोता है ।।६०। जो नष्ट वुद्धि पुरुष मरे पुरुषोंकी तृप्तिके लिए अनेक प्रकार के दान देते है, वे भस्म हुए वृक्षको पल्लवित करनेके लिए मानों सींचते है ॥६१।। यदि ब्राह्मण वर्ग के भोजन करने पर पितर लोगोंको तृप्ति प्राप्त होती है,तो यहां पर अन्य पुरुषके घी पीने पर दूसरा पुरुष क्यों पुष्ट नहीं हो जाता हैं। अतः पितृ-तृप्तिके लिए ब्राह्मणोंको भोजन कराना योग्य नहीं है ।।६।। यदि पुत्रके द्वारा दान दिये जाने पर पितर लोग पापसे छूट जाते है, तो दूसरेके द्वारा चारित्र धारण करने पर अन्य दूसरेको मुक्ति में जाना चाहिए ।।६३।। यदि अस्थि-पुंजके गंगामें विसर्जन करने पर मृत पुरुष चिरकाल तक सुखी रहता है, तो समझना चाहिए कि भस्मीभूत हुआ वृक्ष जलसे सींचने पर पल्लवित हो रहा है ।। ६४॥ जो नष्ट बुद्धि पुरुष देवोंको धन देते हुए उनसे और भी अधिक धनकी याचना करते है, वे अपना सर्वस्व देकर नियम से दुखोंको खरीदते है ॥६५।। आयु कालके समाप्त हो जाने पर समीपमें आये हुए स्वयं देव भी नियमसे किसीकी रक्षा नहीं कर सकते, तो यह आश्चर्यकी बात है कि उन देवोंके बनाये गये अचेतन प्रतिविम्ब मरते की कैसे रक्षा कर सकते है? कभी नहीं कर सकते 1६६।। जो मूढ मांसका दान करते है और जो लोलुपी उसे ग्रहण करते है-वे हिंसामार्गके प्रवर्तक दोनों ही मरकर नरक में निवास करते है ॥६७।। जो मूढ बुद्धि पुरुष धर्मके लिए मांसको देते है, वे निश्चयसे कालकुट विषके खाने पर जीने की इच्छा करते है १६८॥ मांस देने के दोषों को नहीं जानने वाले पुरुषों के मांस-दान करने पर वैसा उग्रपाप नहीं होता है, जैसा कि मांस-भक्षणके उग्र पापोंको जानते हुए उसे ग्रहण करने वाले पुरुषोंके महान् पापका संचय होता है ।।६९॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० श्रावकाचार-संग्रह दाता दोषमजानानो दत्त धर्मधियाऽखिलम् । य: स्वीकरोति तहानं पात्रं त्वेष न सर्वथा ।। ७० : वहनि तानि दानानि विधिरेषा न शेमुषी। विपद्येत तरी प्राणी भूरिभिर्थक्षितविषैः ।। ७१ अल्पं जिनमतं दानं ददातीदं न कोविदाः । पीयूषेणोपभुक्तेन कि नाल्पेनापि जीव्यते ॥ ७२ ग्रहीतुः कुरुते सौख्यं दानस्तेरखिलर्यतः । पुण्यभागी ततो दाता नेदं वचनमञ्चितम् ।। ७३ आपाते लभते सौख्यं विपाके दुःखमुल्बणम् । अपथ्यरिव तैनैिर्दुजरर्जननिन्दितः ।। ७४ आपातसुखदैः पुण्यमन्ते दुःखवितारिभिः । भूमिदानादिभिर्दत्तन किम्पाकफलैरिव ।। ७५ प्रचुरापात्रसंघातं मर्दयित्वाऽपि पोषिते । पात्रे सम्पद्यते धर्मो नैषा भाषा प्रशस्यते ॥ ७६ निहत्य भेकसन्दर्भ यः प्रीणति भुजङ्गमम् । सोऽश्नुते यादृशं पुण्यं नूनमन्योऽपि तादृशम् ॥ ७७ आत्मीकरोति यो दानं जीवमर्दनसम्भवम् । आकांक्षन्नात्मनः सौख्यं पात्रता तस्य कोदशी ।। ७८ न सुवर्णादिकं देयं न दाता तस्य दायकः । न च पात्रं गृहीताऽस्य जिनानामिति शासनम् ॥ ७९ पात्रं विनाशितं तेन तेनाधर्मः प्रतितः । येन स्वर्णादिकं दत्तं सर्वानर्थविधायकम् ॥ ८० मूढ दाता तो दोषको नहीं जानते हुए धर्म बुद्धिसे सभी दानोंको देता हैं, इसलिए वह वैसा पापी नहीं हैं किन्तु जो ऐसे असद् दानको स्वीकार करता हैं वह तो सर्वथा भी पात्र नहीं माना जा सकता है।॥७०॥ 'लोकमें अनेक प्रकारके दान दिये जाते हैं, या शास्त्रोंमें अनेक प्रकारके दान बतलाये गये हैं' ऐसी बुद्धि करके उनका देना यह विधि ठीक नहीं है, क्योंकि अनेक प्रकारके खाये गये विषोंसे प्राणी अत्यधिक विपत्तिको ही प्राप्त होता है । अतः उक्त कुदानोंका देना श्रेयस्कर नहीं हैं ।।७१॥ जिन मतमें बतलाया गया आहारादिका दान तो बहुत कम हैं, उससे क्या फल मिलेगा? ऐसा कुछ विद्वान् लोग कहते हैं । आचार्य उनको उत्तर देते हुए कहते है कि ऐसी बात नहीं हैं । देखो थोडेसे उपभोग किये गये अमृतसे क्या मनुष्य जीवित नहीं हो जाता है? होता ही है ।।७२।। यदि कहा जाय कि उन भूमि-स्वर्ण-गोदानादि समस्त दानोंसे ग्रहण करने वालेको सुख प्राप्त होता है, अतः उससे दाता भी पुण्यका भागी होता हैं, सो ऐसा कथन युक्तिसगत नहीं है ।।७।। क्योंकि उन भूमि दान आदिके द्वारा वर्तमानमें भले ही कुछ सुख प्राप्त हो, परन्तु विपाक कालमें तो अपथ्य सेवनके समान उन दुर्जर एवं जन-निन्दित दानोंके द्वारा अत्यन्त उग्र दुःख ही प्राप्त होता है॥७४।। किंपाक फलके समान प्रारम्भमें सुख देने वाले और अन्तमें दुःख देनेवाले उन अधिक भूमि दानादिके देने पर भी पुण्य नही होता हैं ॥७५॥ यदि कहा जाय कि भारी भी अपात्र जीवोंके समूहका नाश करके एक पात्रके पोषण करने पर धर्म-सम्पादन होता है । सो ऐसी भाषा भी प्रशंसनीय नहीं हैं ।।७६।। देखो-जो प्रतिदिन मेंढकोंका समह मारकर साँपका पोषण करता है, वह पुरुष जैसा पुण्य प्राप्त करता है, निश्चयसे आपके द्वारा कहा गया वह अन्य पूरुष भी वैसे ही पूण्य-संचयको प्राप्त करता है। भावार्थ मेंढक मारकर साँपके पोषणमें पुण्य नहीं हैं, उसी प्रकार जीवोंका घात करके किसी कुपात्रके पोषण करने में भी कोई पुण्य नहीं है । ७७।। दूसरी बात यह हैं कि जो पुरुष जीव-घातसे उत्पन्न हुपा दान अपने सुखको चाहता हुआ, स्वीकार करता है उसकी पात्रता के पी हैं ? अर्थात वह पात्र हैं ही नहीं, प्रत्युत कुपात्र या अपात्र हैं ॥७८।। इस प्रकार कुदानोंके निषेधका उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं-न तो सुवर्णादिक पदार्थ देय है, न उनका देनेवाला दाता हो हैं और न उनका ग्रहण करनेवाला सत्पात्र ही हैं, ऐसा जिनदेवोंका शासन (आदेश या मत) हैं ॥७९॥ जिसने सभी अनर्थोंका करनेवाला सुवर्णादिकका दान दिया, उसने पात्रका भी विनाश कर दिया और अधर्म भी : Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३५१ रागो निषद्यते येन येन धर्मो विवर्द्धते । संयम: पोष्यते येन विवेको येन जन्यते ॥ ८१ आत्मोपशम्यते येन येनोपक्रियते परः । न येन नाश्यते पात्रं तदातव्यं प्रशस्यते ॥ ८२ अभयानौषधज्ञानभेदतस्तच्चतुर्विधम् । दानं निगद्यते सद्भिः प्राणिनामुपकारकम् ।। ८३ धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितव्ये यत: स्थिति: । तद्दानतस्ततो दत्तास्ते सर्वे सन्ति देहिनाम् ।। ८४ देवरुक्तो वृणीष्वक त्रैलोक्यप्राणितव्ययोः । त्रैलोक्यं वृणुते कोऽपि न परित्यज्य जीवितम् ।। ८५ त्रैलोक्यं न यतो मूल्यं जीवितव्यस्य जायते । तद्र क्षता ततो दत्तं प्राणिनां किं न कांक्षितम् ॥ ८६ नाभीतिदानतो दानं समस्ताधारकारणम् । महीयो निर्मलं नित्यं गगनादिव विद्यते ।। ८७ आहारेण विना पंसां जीवितव्यं न तिष्ठति । आहारं यच्छता दत्तं ततो भवति जीवितम् ।। ८८ नेत्रानन्दकर सेव्यं सर्वचेष्टाप्रवर्तनम् । अन्धसा धार्यते गात्रं जीवितेनेव जन्मिनाम ॥ ८९ कान्तिः कोतिर्मतिः क्षान्ति:शान्ति तिर्गती रतिः । उक्तिः शक्तिद्युतिः प्रीतिः प्रतीतिः श्रीर्व्यवस्थितिः जित्तं देहं सर्व मञ्चन्ति तत्त्वतः । द्रविणापाकृत मत्यं वेश्या इव मनोरमाः ॥ ९१ शमो दमो दया धर्मः संयमो विनयो नयः । तमो यशो वचोदाक्ष्यं दीयतेऽन्नप्रदायिना ॥ ९२ क्षुद्रोगेण समो व्याधिराहारेण समौषधिः । नासीनास्ति न वा भावि सर्वव्यापारकारिणी ।। ९३ प्रवर्तित किया, ऐसा जानना चाहिए ॥८० ।। अब आचार्य देने योग्य वस्तुका वर्णन करते हैजिससे रागभाव नाशको प्राप्त हो,जिससे संयम धर्म बढे,जिससे संयम पुष्ट हो, जिससे विवेक उत्पन्न हो, जिससे आत्मा उपशम भावको प्राप्त हो, जिससे दूसरेका उपकार किया जाय और जिससे पात्र विनाशको प्राप्त न हो, वही वस्तु दाताके देने योग्य है और वही देय प्राज्ञपुरुषोंके द्वारा प्रशंसाको प्राप्त होता है ।।८१-८२।। प्राणियोंका उपकार करने वाला वह दान अभय आहार औषध और ज्ञानदानके भेदसे सन्त पुरुषोंने चार प्रकारका कहा है ।। ८३॥ यतः जीवनके स्थित रहनेपर ही धर्म, अथ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थोंकी स्थिति संभव है, अतः जीवोंको जीवन (अभय) दान देनेसे वे सभी पुरुषार्थ दिये जाते हैं, ऐसा समझना चाहिए ।।८४।। यदि देवतागण किसीपर प्रसन्न होकर कहें कि तुम त्रैलोक्यका राज्य और जीवितव्य इन दोनोंमेंसे किसी एकको वरण करो अर्थात् माँगो ; तो क्या कोई पुरुष जीवनको छोडकर त्रैलोक्यके साम्राज्यका वरण करेगा? कदापि नहीं ॥८५।। यतः त्रैलोक्य भी जीवनका मूल्य नहीं है, अत: उस जीवनकी रक्षा करनेवालेने प्राणियोंको कौन-सी मनोवांछित वस्तु नहीं दी? अर्थात् सभी दी; ऐसा समझना चाहिए ।।८६।। आकाशके समान समस्त वस्तुओंके आधारका कारण, महान्, निर्मल और नित्य ऐसा अभयदानके सिवाय और कोई दान नहीं हैं ।। ८७। ऐसे अभय दान का वर्णन किया । अब आहारदानका निरूपण करते हैं-आहारके विना पुरुषोंका जीवन नहीं ठहर सकता है, अतएव आहार देनेवाले पुरुषके द्वारा जीवन ही दिया जाता है, ऐसा जानना चाहिए ॥८८। जीवितव्य (आयुर्बल) के समान नेत्रोंको आनन्दकारी, सेवन योग्य और सर्व चेष्टाओंके प्रवर्तनरूप जीवोंका देह आहारसे ही धारण किया जाता हें ॥८९।। जिस प्रकार धनसे रहित पुरुषको मनोहर वेश्याएं छोड देती हैं । उसी प्रकार आहारसे रहित देहको कोन्ति कोत्ति, वुद्धि, क्षमा, शान्ति, नीति, गति, रति, उक्ति, शक्ति, दीप्ति, प्रतीति, लक्ष्मी और स्थिरता ये सब भी छोड देती हैं ।।९०-९१।। अन्न दान देनेवालेके द्वारा कषायोंकी मन्दतारूप शमभाव, इन्द्रियदमन, दया, धर्म, संयम, विनय नीति, तप, यश और वचनकी दक्षता ये सब गुण दिये जाते है॥९२॥ इस संसारमें क्षुधारोगके समान कोई व्याधि और आहारके समान सर्व व्यापार कराने वाली Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ श्रावकाचार-संग्रह दुर्गन्ध्रि ववथितं शीर्ण विवर्ण नष्टचेष्टितम् । भोजनेन विना गात्रं जायते मतकोपमम् ॥ ९४ न पश्यति न जानाति न श्रृणोति न जिघ्रति । न स्पृशति न वा वक्ति मोजनेन विना जनः ।।९५ प्रविक्रीयान्नकृच्छष कान्ताकन्यातनभुवः । आहारं गुण्हते लोका वल्लभानपि निश्चितम् ।। ९६ यया खादन्त्यभक्ष्याणि क्षुधाया क्षपिता जनाः । सा हन्यतेऽशनेनैव राक्षसीव भयंकरी ।। ९७ यथैवाहारमात्रेण शरीरं रक्ष्यते नृणाम् । चामीकरस्य कोटीभिर्बन्ही भिरपि नो तथा ।। ५८ क्षिप्रं प्रकाश्यते सर्वमाहारेण कलेवरम् । नमो दिवाकरेणेव तमोजालावडण्ठितम् ।। ९९ न शक्नोति तपः कर्तुं सरोगः संयतो यतः । ततो रोगापहारार्थ देयं प्रासुकमौषधम् ।। १०० न देहेन विना धर्मो न धर्मेण विना सुखम् । यतोऽतो देहरक्षार्थ भैषज्यं दीयते यतः ॥ १०१ शरीरं संयमाधारं रक्षणीयं तपस्विनाम् । प्रासुकैरोषधेः पुंसा यत्नतो मुक्तिकांक्षिणा ।। १०२ विवेको जन्यते येन संयमो येन पाल्यते । धर्मः प्रकाश्यते येन मोहो येन निहन्यते ।। १०३ मनो नियम्यते येन रागो येन निकृत्यते । तद्देयं भव्यजीवानां शास्त्रं निर्धूतकल्मषम् ।। १०४ विवेको न विना शास्त्रं तदृतेन तपो यतः । ततस्तपोविधानार्थ देयं शास्त्रमनिन्दितम् ॥ १०५ वस्त्रपात्राश्रयादीनि पराण्यपि यथोचितम् । दातव्यानि विधानेन रत्नत्रितयवृद्धये ॥ १०६ कोई औषधि न तो भूतकाल में हुई है,न वर्तमानमें हैं और न भविष्यकाल में होगी ही।।९३।। भोजन, के बिना यह शरीर दुर्गन्ध युक्त, विकृत, जीर्ण शीर्ण' विरूप और चेष्टा-शून्य मरे हुएके समान हो जाता है ।।९४॥ भोजनके विना मनुष्य न देख पाता है, न कुछ जान पाता हैं, न सुपता है, न संवता है, न स्पर्श कर पाता हैं और न बोल ही पाता है ।।९५॥ अन्नका कष्ट पडनेपर दुभिक्षके समय लोग अपनी प्यारी स्त्री, कन्या और प्रिय पुत्रोंको भो बेंच देते हैं और बदले में आहारको ग्रहण करते हैं ।।९६।। जिस क्षुधासे पीडित जन नहीं खाने योग्य वस्तुओंको भी खाने लगते हैं, राक्षसीके समान भयंकर वह क्षुधा आहारसे ही न ट होती है ।।९७।। केवल आहारके द्वारा मनुष्यों का शरीर जैसा रक्षित होता हैं, बैसा अनेक सुवर्ण कोटि दीनारोंसे भी रक्षित नहीं हो पाता है ॥९८॥ जैसे अन्धकारके जालसे आच्छादित आकाश सूर्यसे शीघ्र प्रकाशमान हो जाता हैं इसी प्रकार भूखसे पीडित शरीर आहारसे शीघ्र कान्ति युक्त हो जाता है। अतः आहार दान श्रेष्ठ हैं और उसे देना चाहिए ।।९९॥ अब आचार्य ओषधिदानका वर्णन करते हैं-यतः रोग-सहित साधु तप नहीं कर सकता, अतः उसके रोगको दूर करनेके लिए प्रासुक औषधि देना चाहिए ॥१००।। यतः देहके विना धर्म संभव नहीं, और धर्म के विना सुख मिलना संभव नहीं, अतः देहकी रक्षाके लिए साधुको औषधि देनी चाहिए ।।१०१।। संयमका आधार शरीर है, अतः तपस्वियोंके शरीरकी मुक्ति चाहनेवाले पुरुष प्रासुक औषधियोंसे प्रयत्न पूर्वक रक्षा करें ।।१०२ । अब आचार्य ज्ञान (शास्त्र) दानका वर्णन करते है-जिसके द्वारा हित-अहितका विवेक उत्पन्न होता है जिसके द्वारा संयम पाला जाता है, जिसके द्वारा धर्म प्रकाशित होता हैं, जिसके द्वारा मोह नष्ट होता है, जिसके द्वारा मनका निग्रह होता है और जिससे रागका उच्छेद किया जाता है,ऐसा पाप-नाशक शास्त्र (ज्ञान) दान भव्य जीवोंको देना चाहिए ॥१०३-१०४॥ यतः शास्त्र के विना विवेक जागृत नहीं होता है और उसके विना तप नहीं हो सकता है,अतः तपको करने के लिए निर्दोष शास्त्रको देना चाहिए ।।१०५।। उपर्युक्त चार दानोंके सिवाय संयमी पुरुषोंको रत्नत्रयधर्मकी वृद्धि के लिए विधिपूर्वक वस्त्र,पात्र, Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३५३ वर्यमध्यजघन्यानां पात्राणामपकारकम् । दानं यथायथं देयं वैयावृत्यविधायिना ।। १०७ पोष्यन्ते येन चित्राः सकलसुखफलस्तोमरोपप्रवीणा: सम्यक्त्वज्ञानचर्या यमनियमतपोवृक्षजातिप्रबन्धाः । भव्यक्षोणीषु तद्यः क्षतनिखिलमलं मुञ्चते वानतोयं । तुल्यस्तस्योपकारी मधुपरवकृतो भव्यमेघस्य नान्यः ।। १०८ वात्सल्यासक्तचित्तो नविनयपरो दर्शनालङ्कृतात्मा, देयादेये विदित्वा वितरति विधिना यो यतिभ्योऽत्र दानम् । कोति कुन्दावदाताममितगतिमतां पूरयन्तीं त्रिलोकी, लब्ध्वा क्षिप्रं स याति क्षपितभवभयं मोक्षमक्षीणसोल्यम् ॥ १०९ इत्युपासकाचारे नवमः परिच्छेदः समाप्तः । दशमः परिच्छेदः पात्रकुपात्रापात्राज्यवबुध्य फलाथिना सदा देयम् । क्षेत्रमनवबुद्धयोप्तं बीज नहि फलति फलमिष्टम् । पात्रं तत्वपटिष्ठरुत्तममध्यमजघन्यभेदेन । त्रेधा क्षेत्रमिवोक्तं त्रिविधफलनिमित्ततां ज्ञात्वा ।। २ उत्तममुत्तमगुणतो मध्यमगुणतोऽत्र मध्यमं पात्रम् । विज्ञेयं बुद्धिमता जघन्यगुणतो जघन्यं च ।। ३ तत्रोत्तमं तपस्वी विरताविरतश्च मध्यमं ज्ञेयम् । सम्यग्दर्शन मूषः प्राणी पात्रं जघन्यं स्यात् ॥४ आश्रय आदि यथायोग्य पात्रका विचारकर देना चाहिए ।।१०६।। इस प्रकार उत्तम पात्र मुनिजन, मध्यम पात्र एकादश प्रतिमाधारी श्रावक और जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टि,इन तीनों ही प्रकारके पात्रोंको उनका उपकार करनेवाली वस्तु वैयावृत्त्य करनेवाले गृहस्थ के द्वारा यथायोग्य दानमें देना चाहिए ॥१०७॥ जिस भव्यरूप मेबके जल-दानसे समस्त सुखरूप फलोंके समूहोंके रोपनेमें प्रवीण नाना प्रकारके सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, यम, नियम, तपरूप वृक्षजातियोंके समुदाय पुष्टिको प्राप्त होते है, और जो भव्यजीवरूपी पृथ्वी पर सर्व मलको नाश करनेवाले दानरूप जलको बरसाता हैं, उस मधुर शब्द करनेवाले भव्य रूप मेघके समान जीवोंका उपकारी और कोई अन्य नहीं है ।।१०८। वात्सल्य भावमें जिसका चित्त आसक्त हैं, नीति और विनयमें तत्पर है, जिसका आत्मा सम्यग्दर्शन से अलंकृत है, ऐसा जो गहस्थ देय और अदेय वस्तुको जानकर विधिपूर्वक साधुओंको दान देता है, वह अमित ज्ञानियोंके द्वारा कही गई. कुन्द पुष्पके समान उज्ज्वल, और तीन लोकमें व्याप्त होनेवाली कीर्तिको पाकर शीघ्र ही अनन्त सुखवाले और संसारके भयको नष्ट करनेवाले मोक्षको प्राप्त करता हैं ।।१०९।। इस प्रकार अमितगति विरचित श्रावकाचारमें नवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। दसवां परिच्छद फलके इच्छुक पुरुष द्वारा सदा ही पात्र,कुपात्र और अपात्रको जानकर ही दान देना चाहिए। क्योंकि क्षेत्रका विचार किये बिना बाया गया बीज इष्ट बीजको नहीं फलता हैं ॥१॥ तत्त्वके जानकारोंने उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे पात्रको तीन प्रकारका कहा है। जैसे कि तीन प्रकारके फल पानेके निमित्तसे जानकर क्षेत्रको तीन प्रकारका कहा गया हैं ।।२।। बुद्धिमान् पुरुषके द्वारा उत्तम गुणसे उत्तम पात्र, मध्यम गुणसे मध्यम पात्र और जघन्य गुणसे जघन्य पात्र जानने योग्य है ।।३।। इनमें तपस्वी साधु उत्तम पात्र है, विरताविरत श्रावक मध्यमपात्र है और सम्यग्द Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ श्रावकाचार-संग्रह जीवगुणमार्गणविधि विधानतो यो विबुध्य निश्शेषम् । रक्षति जीवनिकाय सवितेव परोपकारपरः ॥५ पथ्यं तथ्यं श्रव्यं वचनं हृदयङगमं गुणगरिष्ठम् । यो ब्रूते हितकारी परमानसतापतो भीतः ॥६ निर्माल्यकमिव मत्वा परवित्तं यस्त्रिधाऽपिनादत्ते। दन्तान्तरशोधनमपि पतितंदृष्ट्वाऽप्यदत्तमतिः॥७ तिर्यङ्मानुषदेवाचेतनभेदां चतुर्विधां योषाम् । परिहरति यः स्थिरात्मा मारीमिव सर्वथा घोराम् ८ विविध चेतनजातं सङ्ग चेतनमचेतनं त्यक्त्वा । यो नादत्ते भयो वान्तमिवान्नं त्रिधा धीरः ।। ९ त्रिविधालम्बनशुद्धिः प्रासुकमार्गेण यो व्याधारः । युगमात्रान्तरदृष्टिः परिहरमाणोऽगिनोयाति१० हृदयं विभूषयन्ती वाणी तापापहारिणी विमलाम् । मुक्तानामिव मालां यो ब्रूते सूत्रसम्बद्धाम्॥११ षट्चत्वारिंशदोषापोढां यो विशुद्धिनवकोटीम् । मृष्टामृष्टसमानो मुक्ति विदधाति विजिताक्षः १२ द्रव्यं विकृतिपुरःसरमङ्गिग्रामप्रपालनासक्तः । गुण्हाति यो विमुञ्चति यत्नेन दयाङ्गनाश्लिष्ट: १३ निर्जन्तुकेऽविरोधे दूरे गूढे विसङ्कटे क्षिपति । उच्चार प्रस्रवणश्लेष्माद्यं यः शरीरमलम् ॥ १४ जिनवचनपञ्जरस्थं विहाय बहुदुःखकारणं क्षिप्रम् । विदधाति यः स्ववश्यं मर्कटमिव चञ्चलं चित्तम् ।। १५ यो वचनौषधमनघ जन्मजरामरणरोगहरणपरम् । बहुशो मौनविधायी ददाति भव्याङ्गिनां महितम् ।। १६ र्शनसे भषित व्रत रहित जीव जघन्य पात्र जानना चाहिए ॥४। अब उत्तम पात्रका स्वरूप कहते हैं-जो मनुष्य जीवसमास, गुणस्थान और मार्गणाओंके स्वरूपको भली भाँतिसे जानकर सर्व त्रस. स्थावर जीव-समूहकी रक्षा करता है, सूर्य के समान परोपकार करने में तत्पर है, जो परके चित्तसन्तापसे डरता हुआ पथ्य, तथ्य, श्रव्य ; हृदय ग्राह्य-गुणगरिष्ठ हितकारी वचन बोलता है, जो पराये धनको निर्माल्यके समान समझकर मन वचन कायसे उसे ग्रहण नहीं करता है, यहाँ तक कि दाँतोंके भीतर लगे मैलको दूर करनेके लिए गिरे हुए तिनके को देखकर भी उसके उठाने की बुद्धि नहीं करता है,जो स्थिर चित्त तिर्यचिनी,मनुष्यनी, देवी और अचेतन पुतली रूप चारों प्रकारकी स्त्रियों को भयंकर मारीके समान समझकर उनका परिहार करता हैं, जो धीर अनेक प्रकारके चेतन और अचेतन सभी परिग्रहोंको छोड वमन किये हुए अन्नके समान त्रियोगसे पुनः नहीं ग्रहण करता हैं, जो दयाको धारण कर त्रियोगकी आलंबन शुद्धिवाला चार हाथ प्रमाण भूमिको देखता हुआ और प्राणियोंकी रक्षा करता हुआ प्रासुक मार्गसे जाता है, जो सूत्र (आगम और धागा) से संबद्ध मोतियोंकी मालाके समान हृदयको भूषित करनेवाली, सन्तापको दूर करनेवाली ऐसी निर्मल वाणीको बोलता है, जो इन्द्रिय-विजयी छयालीस दोष-रहित, नव कोटीसे विशुद्ध,ऐसे रूक्ष-स्निग्ध भोजनको समान मानता हुआ खाता हैं, जो दयासे आलिंगित शरीर वाला प्राणियोंके समूहकी परिपालनामें आसक्त चित्त होकर विकृति पुरस्सर द्रव्यको अर्थात् हस्तादिके धोने योग्य भस्म आदि को और शास्त्र पीछी कमण्डलु आदि ज्ञान - संयमके साधनोंको यत्न-पूर्वक ग्रहण करता है और यत्न-पूर्वक ही रखता है, जो जीव-रहित, छिद्र-रहित, विरोध-रहित दूरवर्ती गुप्त और संकट-रहित स्थान पर मल मूत्र कफ आदिक शारीरिक मलका क्षेपण करता है,जो वानरके समान चंचल और अनेक दुःखोंका कारणभूत चित्तको जिन वचनरूप पिंजरे में बन्द कर अपने वशमें रखता है, जो प्रायः मौन धारण करता है, तो भी जरा मरण रोगको दूर करनेवाली निर्दोष औषधिके समान अपनी महती वाणीको भव्य जीवोंके लिए प्रदान करता है,कर्मोका क्षय करने के लिए कायोत्सर्ग करता है, संसारसे भयभीत है, कर्तव्य और अकर्तव्यमें निपुण है, जो आगमानुमोदित कार्यको Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३५५ कायोत्सर्गविधायी कर्मक्षयकारणाय भवमीतः । कृत्याकृत्यपरो यः कार्य वितनोति सूत्रमतम् ।।१७ यस्येत्थं स्थेयस्य सम्यग्वतसमितिगुप्तयः सन्ति । प्रोक्तं स पात्रमुत्तममुत्तगुणभाजनं जनः ।।१८ रागो द्वेषो मोहो क्रोधो लोभो मदः स्मरो माया । यं परिहरन्ति दिवाकरमिवान्धकारचयः १९ दर्शनबोधचरित्रत्रितयं यस्यास्ति निर्मलं हृदये । आनन्दितमव्यजनं विमुक्तिलक्ष्मीवशीकरणमा।२० यस्यानवद्यवृत्तेर्जङ्गममिव मंदिरं तपोलक्ष्म्या: । कायक्लेशैरुप्रैः कृशीकृतं राजते गात्रम् ।। २१ विजिता जगदीशा विविधा विपदः सदा प्रपद्यन्ते । तानीन्द्रियाणि सद्यो महीयसा येन जीयन्ते ।।२२ पृजायामपभाने सौख्ये दुखे समागमे विगमे । क्षभ्यति यस्य न चेतः पात्रमसावुत्तमं साधुः । २३ यस्य स्वपरविभागो न विद्यते निर्ममत्वचित्तस्य । निर्बाधबोधदीपप्रकाशिताशेषतत्त्वस्य ।। २४ संसारवनकुठारं दातुं कल्पद्रुम फलमभीष्टम् । यो धत्ते निरवयं क्षमादिगुणसाधनं धर्मम् ।। २५ लोकाचारनिवृत्त: कर्ममहाशत्रमर्दनोद्युक्तः । यो जातरूपधारी स यतिः पात्रं मतं वर्यम् ॥ २६ करता है,इस प्रकारसे जिस साधुके सम्यक् महाव्रत, समिति और गुप्तियाँ पाई जाती हैं, उसे जैन लोगोंने उत्तम गुणोंका भाजप उत्तम पात्र कहा हैं ।।५-१८॥ भावार्थ-इन तेरह श्लोकोंमें क्रमशः पाँच महाव्रत, पाँच समिति, और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकारके चारित्रके धारक साधुको उत्कृष्ट पात्र कहा गया है। अब इसी उत्तम पात्रका और भी विशेष स्वरूप कहते है-जैसे अन्धकारका समूह सूर्यको दूरसे ही त्यागता है, इसी प्रकार जिस साधुको राग द्वेष मोह लोभ क्रोध मद कामविकारका समूह सूर्यको दूरसे ही त्यागते हैं, अर्थात् दूर रहते हैं, जिसके हृदयमें भव्यजनोंको आनन्दित करनेवाला और मोक्ष लक्ष्मीको वशमें करने वाला निर्मल सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म विद्यमान है,जिस निर्दोष वृत्तिवाले साधका उग्र कायक्लेशोंसे कृश किया हुआ शरीर तपोलक्ष्मीके जंगम (चलनेवाला) मन्दिरके समान शोभाको प्राप्त करता है, जिनके द्वारा पराजित हुए जगत्के ईश्वर ब्रह्मा विष्णु महेश इन्द्रादिक देव भी सदा नाना विपदाओंको पाते हैं, ऐसी बलवती इन्द्रियोंको भी जिस महात्माने अति शीघ्र जीत लिया है, जिसका चित्त पूजामें, अपमानमें,सुखमें दुःख में और संयोगमें वियोगमें क्षोभको प्राप्त नहीं होता है, वह साधु उत्तम पात्र है ।।१९-२३।। जिसका चित्त ममतासे रहित है,और बाधा रहित ज्ञानरूप दीपकके प्रकाशसे समस्त तत्त्वोंका ज्ञायक है, एसे जिस साधुके अपने और परायेका विभाग नहीं हैं, जो संसाररूप वनको कुठारके समान और अभीष्ट फलको देने के लिए कल्पवृक्षके समान क्षमा आदि गुणोंके द्वारा सिद्ध होनेवाले निर्दोष धर्मको धारण करता है, जो लोकाचारसे रहित है, कर्मरूप महाशत्रुओंके मर्दन करनेके लिए उद्यत है, और यथाजातरूप दिगम्बर वेषको धारण करता है, ऐसा साव उत्तम श्रेष्ठ पात्र माना गया है ।।२४-२६।। अब मध्यम पात्रका स्वरूप कहते है-जो पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान उज्ज्वल सम्यग्दर्शनसे भूषित हो,जिसकी ब्रत और शीलरूपी लक्ष्मी बढ रही हो,जिसकी चित्तवृत्ति सामायिक करने में संलग्न हो,निरन्तर चारों पर्यों में उपवास करनेसे जिसका शरीर कृश हो रहा हो, सचित्त आहारसे जिसका चित्त निवृत्त हो,जो वैरागी हो और दिवामैथुन-सेवनसे रहित हो, जिसने सदा ही दिन और रात में स्त्री-सेवनका त्याग किया हो, जिसने असंयम-कारक सर्व आरम्भोंका निराकरण कर दिया हो, जिसने सर्व प्रकारके परिग्रहकी इच्छाका निवारण कर दिया हो, जो सावद्य (पाप-युक्त) कार्योंकी अनुमोदना न करता हो,अपने उद्दश्यसे बनाये गये आहारसे जिसकी बुद्धि निवृत्त हो, इस प्रकार ग्यारह प्रतिमाधारी हो और Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ श्रावकाचार-संग्रह राकाशशाङ्कोज्ज्वलदृष्टिभूषः, प्रवर्धमानवतशीललक्ष्मीः । सामायिकारोपितचित्तवृत्तिनिरन्तरोपोषितशोषिताङ्ग ।। २७ सचेतनाहारनिवृत्तचितो वैरागिको मुक्तदिनव्यवायः। निरस्तशश्वद्वनितोपभोगो निराकृतासंयमकारिकर्माः ।। २८ निवारिताशेषपरिग्रहेच्छः सावद्यकर्मानुमतेरकर्ता । औद्देशिकाहारनिवृत्तबुद्धिकुंरन्तसंसारनिपातमीतः ।। २९ उपासकाचारविधिप्रवीणो मन्दीकृताशेषकषायवृत्तिः । उत्तिष्ठते यो जननव्यपाये तं मध्यमं पात्रमुवाहरन्ति ॥ ३० कुमुदवान्धवदीधितिदर्शनो भवजरामरणातिविभीलुकः।। कृतचतुर्विधसङ्घहिते हितो जननमोगशरीरविरक्तधीः ।। ३१ भवति यो जिनशासनमासकः सततनिन्दनगर्हणचञ्चरः। स्वपरतत्त्वविचारणको विदो व्रतविधाननिरुत्सुकमानसः ।। ३२ जिनपतीरिततत्त्वविचक्षणो विपुलधर्मफलेक्षणतोषितः । सकलजन्तुक्यादितचेतनस्तमिह पात्रमुशन्ति जघन्यकम् ॥ ३३ घरति यश्चरणं परदुश्चरं विकटघोरकुदर्शनवासितः । निखिलसत्त्वहितोद्यतचेतनो वितथकर्कशवाक्यपराङ्मुखः ॥ ३४ धनकलत्रपरिग्रहनि:स्पृहो नियमसंयमशीलविभूषितः । कृतकषायहृषीकविनिर्जयः प्रणिगदन्ति कुपात्रभिमं बुधाः ।। ३५ गतकृपः प्रणिहन्ति शरीरिणो वदति यो वितथं परुषं वचः । हरति वित्तमदत्तमनेकधा मदनगणहतो मजतेऽङ्गनाम् ॥ ३६ इस दुरन्त संसार-सागरमें गिरनेके भयसे डर रहा हो, श्रावकोंके आचार विधिमें प्रवीण हो, जिसने अपनी समस्त कषायवृत्तिको मन्द कर दिया हो, तथा जो संसारके विनाशमें उद्यत हो, ज्ञानियोंने उसे मध्यम पात्र कहा हैं ।।२७.३०॥ अब जघन्य पात्रका स्वरूप कहते है-जिसका सम्यग्दर्शन कुमुदबन्धु-चन्द्रकी किरणोंके समान उज्ज्वल हो, जो जन्म जरा और मरणके दुःखोसे भयभीत हो, जिसने चतुर्विध संघके हितका भाव किया हो, संसार और भोगोंसे विरक्त चित्त हो, जो जिनशासनका प्रभावक हो, निरन्तर अपनी निन्दा और गर्हामें प्रवीण हो, जो स्व-परतत्त्वके विचारनेमें विद्वान् हो, जिसका मन व्रतोंके धारण करने में उत्सुक न हो, फिर भी जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्ररूपित तत्त्वोंका जानकार हो, धर्मके विशाल फलके देखनेसे सन्तुष्ट हो और सर्व प्राणियोंपर जिसका हृदय दयासे द्रवित हो, ऐसे अविरति सम्यग्दृष्टि जीवको जघन्य पात्र कहते हैं ॥३१-३३।। अब कुपात्रका स्वरूप कहते हैजो विकट घोर मिथ्यात्वसे वासित चित्त हो फिर भी परम दुष्कर तपश्चरण करता हो, जिसका चित्त सकल प्राणियोंके हित करने में उद्यत हो, असत्य कर्कश वचन बोलनेसे पराङमुख हो, धन, स्त्री और परिग्रहसे निःस्पृह हो, नियम, संयम और शीलसे विभूषित हो, जिसने कषाय और इन्द्रियोंका विजय दिया हो, ऐसे पुरुषको बुधजन कुपात्र कहते है ।। ३४-३५।। अब अपात्रका स्वरूप कहते है-जो निर्दय होकर प्राणियोंको मारता, जो असत्य और पुरुष .. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३५७ विविधकोषविधायिपरिग्रहः पिबति मद्यमयन्त्रितमानसः । कृमिकुलाकुलितं ग्रसते फलं कलिलकर्मविधानविशारदः ।। ३७ दृढकुटुम्बपरिग्रहपञ्जरः प्रशमशीलगुणवतजितः । गुरुकषायभुजङ्गमसेवितो विषयलोलमपात्रमशन्ति तम् ।। ३८ विबुध्य पात्रं बहुधेति पण्डितैविशुद्धबुद्धया गुणदोषभाजनम् । विहाय गां परिगृह्य पावनं शिवाय दानं विधिना वितीर्यते ।। ३९ कृतोसरासमपवित्रविग्रहो निजालयद्वारगतो निराकुलः । ससम्भ्रमः स्वीकुरुते तपोधनं नमोऽस्तु तिष्ठति कृतध्वनि तः ।। ४० सुसंस्कृते पूज्यतमे गृहान्तरे तपस्विनं स्थाश्यते विधानतः । मनीषितानेकफलप्रदायक सुदुर्लभं रत्नमिवास्तदूषणम् ॥ ४१ अनेकजन्माजितकर्मकतिनस्तपोनिधेस्तत्र पवित्रवारिणा। स सादरं क्षालयते पदद्वयं विमुक्तये मुक्ति सुखाभिलाषिणः ॥ ४२ प्रसूनगन्धाक्षतदीपिकादिभिः: प्रपूज्य मामरवर्गपूजितम् । मुदा मुमुक्षोः पदपङ्कजद्वयं स वन्दते मस्तकपाणिकुड्मलः ॥ ४३ मनोवचःकायविशुद्धिमञ्जसा विधाय विध्वस्तमनो भवद्विषे। चतुर्विधाहारमहार्यनिश्चयो ददाति स प्रासुकमात्मकल्पितम् ।। ४४ वचन बोलता हो, जो विना दिया धन अनेक अवैध मार्गोसे हरण करता हो, कामबाणसे पीडित होकर जो स्त्रीका सेवन करता हो, अनेक दोषोंका विधायक परिग्रह रखता हो,जो मद्यको पीता हो, अनियन्त्रित चित्त हो, जो कृमि-समूहसे भरे हुए मांस और उदुम्बर फलोंको खाता हो,पापकर्मोके करने में विशारद हो, जो कुटुम्ब और परिग्रहके दृढ पिंजरे में बन्द हो, जो प्रशमभाव, शील, व्रत और गुणवतसे रहित हो, जो प्रबल कषायरूप भुजंगोंसे से वित हो और इन्द्रियोंके विषयोंका लोलुपी हो, ऐसे पुरुषको अपात्र कहते है ।।३६-३८।। इस प्रकार पंडितजन अपनी विशुद्ध बुद्धिसे गुण और दोषके भाजन अनेक प्रकारके पात्रोंको जानकर निंद्य पात्रको छोडकर और पवित्र पात्रको ग्रहण कर मोक्ष-प्राप्तिके लिए विधि-पूर्वक दान देते हैं ॥३९।। अब उत्तम पात्रको आहार देनेकी विधि कहते है-जिसने स्नानसे पवित्र होकर धोती और दुपट्टा धारण किया है, जो अपने भवनके द्वारपर खडा है, आकुलतासे रहित है, ऐसा श्रावक स्वयं आये हुए तपोधन साधुको देखकर 'नमोऽस्तु', 'तिष्ठ' ऐसी ध्व न करता हुआ अत्यन्त हर्षके साथ उन्हें स्वीकार करता हैं, अर्थात् पडिगाहता है, पुनः सुसंस्कृत और पूज्यतम गृहके मध्य में विधिपूर्वक उस तपस्वीको बैठाता हैं, पुनः मनोवांछित अनेक फलोंके देने वाले, अति दुर्लभ निर्दोष रत्नके समान अनेक जन्म-संचित कर्मोके काटनेवाले और मुक्ति-सुखके अभिलाषी उस तपोनिधिके चरण-युगलको मुक्ति पाने के लिए पवित्र जलसे सादर प्रक्षालन करता हैं, पुनः मनुष्य और देव गणसे पूजित उस मुमुक्षु साधुके चरणकमल युगलक पुष्प, गन्ध, अक्षत, दीपक आदि द्रव्योंसे पूजाकर अपने मस्तकपर हस्त-युगलको जोडकर रखते हुए उनकी वन्दना करता है, पुनः मन वचन कायकी शुद्धिको करके निश्चयसे कामदेव-रूपी शत्रुके विध्वंसक उस तपोधनको अपने लिए बनाये प्रासुक चतुर्विध आहारको अप१ मु. पलं' पाठः। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ श्रावकाचार-संग्रह अनेन दत्तं विधिना तपस्विनां महाफलं स्तोकमपि प्रजायते। वसुन्धरायां बटपादस्य किं न बीजमुप्तं परमेति विस्तरम् ॥ ४५ निवेशितं बीजमिलातलेऽनघे विना विधानं न फलावहं यथा। तथा न पात्राय वितीर्णमञ्जसा ददाति दानं विधिना विना फलम् ॥ ४६ सदाऽतिथिभ्यो विनयं वितन्वता निजं प्रदेयं प्रियजल्पिना धनम् । प्रजायते कर्कशभाषिणा स्फुटं धनं वितीर्ण गुरुवैरकारणम् ॥ ४७ निगद्य यः कर्कशमस्तचेतनो निजं प्रदत्ते द्रविणं शठत्वतः । सुखाय दुःखोदयकारणं परं मूल्येन गण्हाति स दुर्मनाः कलिम् ॥ ४८ सम्यग्मक्ति कुर्वतः संयतेभ्यो द्रव्यं भावं कालमालोक्य दत्तम् । दातुर्दानं भूरि पुण्यं विधत्ते सामग्रीतः सर्वकार्यप्रसिद्धिः ।। ४९ • बलाहकादेकरसं विनिर्गतं यथा पयो भूरिरसं निसर्गतः । विचित्रमाधारमवाप्य जायते तथा स्फुटं दानमपि प्रदातृतः ।।५।। घटे यथाऽमे सलिलं निवेशितं पलायते क्षिप्रमसौ च भिद्यते। तथा वितीर्ण विगुणाय निष्फलं प्रजायते दानमसौ च नश्यते ॥५१।। विना विवेकेन यथा तपस्विना यथा पटुत्वेन विना सरस्वती। तथा विधानेन विना वदान्यता न जायते कर्मकरी कदाचन ॥५२।। रिहार्य नियमके साथ अलोभवृत्तिसे देता हैं। सारांश-उक्त प्रकारसे पडिगाहना आदि नवधा भक्तिपूर्वक साधुओंको निर्दोष प्रासुक आहार देना चाहिए ।।४०-४४।। इस उपर्युक्त विधिसे तपस्वियोंको दिया गया थोडा सा भी दान महान् फलको उत्पन्न करता हैं । उत्तम भूमिमें बोया वट वृक्षका बीज क्या महा विस्तारको नहीं प्राप्त होता हैं? होता ही हैं ॥४५॥ और जैसे निर्दोष भी भूमितल पर विना विधिके बोया गया बीज फल-प्रदायक नहीं होता हैं, उसी प्रकार विना विधिके पात्रके लिए दिया गया दान भी नियमसे फलको नहीं देता हैं ॥४६।। इसलिए सदा ही विनयका विस्तार करते हुए प्रिय वचन बोलनेवाले गृहस्थको अतिथियोंके लिए अपना धन देना चाहिए । क्योंकि कर्कश बोलनेवाले दाताके द्वारा दिया धन नियमसे महा बैरका कारण होता है ।।४७।। जो निर्बुद्धि पुरुष मूर्खतासे कर्कश वचन बोल कर सुख पानेके लिए पात्रोंको धन देता है,वह दुर्बुद्धि धनरूप मूल्यसे परम दुखोंके उदयके कारणभूत पापको ग्रहण करता है ॥४८॥ जो बुद्धिमान् पुरुष द्रव्य, क्षेत्र,काल भावका विचार करके भले प्रकारसे भक्तिको करते हुए संयमी पुरुषोंके लिये दान देता है, वह दान दाताके लिए भारी पुण्यका विधान करता है, क्योंकि सभी कार्योंकी सिद्धि समुचित कारण-सम्पन्न सामग्रीसे होती है ।।४९।। जैसे मेघसे एक रसवाला निकला हुआ जल नाना प्रकारके आधारोंको पाकर स्वभावतः विभिन्न रसवाला हो जाता है उसी प्रकार दातासे दिया गया एक प्रकारका भी दान पात्रोंके भेदसे स्पष्टतः नाना प्रकारका फल देनेवाला हो जाता हैं ।।५०।। जैसे मिट्टीके कच्चे घड में भरा हुआ जल शीघ्र ही बाहिर निकल जाता हैं और वह घडा भी फूट जाता हैं, इसी प्रकार गुण-रहित पात्रके लिए दिया गया दान भी निष्फल जाता है और वह पात्र भी विनष्ट हो जाता है ।।५१।। जैसे विवेकके विना तपस्वीपना सुखकारी नहीं, जैसे चातुर्यके विना सरस्वती सुख कारिणी नहीं है, इसी प्रकार नवधा भक्तिरूप विधि विधानके Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३५९ यथा वितीर्ण भुजगाय पावनं प्रजायते प्राणहरं विषं पयः । भवत्यपात्राय धनं गुणोज्ज्वलं तथा प्रदत्तं बहुदोषकारणम् ।।५३॥ वितीयं यो दानमसंयतात्मने जनः फलं कांक्षति पुण्यलक्षणम् । वितीर्य बीजं ज्वलिते स पावके समीहते सस्यमपास्तदूषणम् ।।५४॥ विमुच्य यः पात्रमवद्य विच्छिदे कुधीरपात्राय ददाति भोजनम् । स कषितं क्षेत्रमपोह्य सुन्दरं फलाय बीजं क्षिपते बतोपले ।।५५।। यथा रजोधारिणि पुष्टिकारणं विनश्यति क्षीरमलाबुनि स्थितम् । प्ररूढमिथ्यात्वमलाय देहिने तथा प्रदत्तं द्रविणं विनश्यति ।।५६।। नो दातारं मन्मथाक्रान्तचित्तः, संसारातर्याति पापावलीढः । अम्मोराशेस्तराल्लोहमय्या नावा लोहं तार्यमाणं न दृष्टम् ॥५७।। ग्रन्थारम्मक्रोधलोभादिपुष्टो ग्रन्थारम्भकोधलोभादि पुष्टम् । जन्माराते रक्षितुं तुल्यदोषी नूनं शक्तो नो गृहस्थं गृहस्यः ।।५८॥ लोभमोहमदमत्सरहीनो लोभमोहमदमत्सरगहम। पाति जन्मजलधेरपरागो रागवन्तमपहस्तितपाप: ॥५९।। 'भूरिदोषनिचिताय फलार्थी यो ददाति धनमस्तविचारः । तद्ददाति मलिम्लुचहस्ते कानने पुनरपि ग्रहणाय ॥६०॥ दानं पतिभ्यो दवता विधानतों मतिविधेया भवदुःखशान्तये । दुरन्तसंसारपयोधिपातिनी न भोगबुद्धिर्मनसाऽपि धीमता ॥६॥ विना उदारता भी सुखकारी नहीं होती है -1५२॥ जैसे सांपके लिये पिलाया गया पवित्र भी दूध प्राण-हारी विषको ही उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अपात्रके लिए दिया गया उज्ज्वल गुणकारी भी धन अनेक दोषोंका कारण होता हैं ।। ५३।। जो मनुष्य असंयमी पुरुषको दान देकर पुण्यवाले फलको चाहता हैं, बह जलती हुई अग्निमें बीजको डाल करके दोष-रहित धान्यको चाहता है ॥५॥ जो कुबुद्धि पापके नाशके लिए पात्रको छोडकर अपात्रके लिए भोजन देता है,वह जोते गये सुन्दर खेतको छोडकर फल-प्राप्तिके लिए पाषाणपर बीज फेंकता हैं, यह अत्यन्त दुःख हैं ।।५५ जैसे कडवीरजको धारण करनेवाली तूंबडीमें रखा गया पुष्टिकारक दूध विनष्ट हो जाता हैं, इसी प्रकार मिथ्यात्वमलसे व्याप्त पुरुषके लिए दिया गया धन भी विनष्ट हो जाता है।।५६।। काम विकारसे जिसका चित्त व्याकुल है ऐसा पापसे व्याप्त पात्र संसारके दुःखसे दाताको रक्षा नहीं कर सकता हैं । जैसे दुस्तर समुद्रसे लोहमयी नावके द्वारा लोहा तिराया गया किसीने नहीं देखा है ।।५७।। परिग्रह, आरम्भ और क्रोध-लोभादि कषायोंसे पुष्ट गृहस्थ, परिग्रह, आरम्भ और क्रोध-लोभादि कषायोंसे पुष्ट गृहस्थको संसाररूपी वैरीसे रक्षा करने के लिए समर्थ नहीं हैं क्योंकि दोनों ही समान दोषोंके धारक है ।।५८। किन्तु लोभ मोह मद गत्सरसे रहित, पापोंसे मुक्त वीतरागी पात्र लोभ, मोह, मद और मत्सरके स्थान और रागवाले दाताकी संसार-समुद्रसे रक्षा करता हैं ॥५९।। जो विचार-रहित पुरुष फल पानेका इच्छुक होकर सर्वदोषोंसे भरे हुए पुरुषको धन देता है, वह वापिस पानेके लिए वनके भीतर चोरके हाथ में धनको देता हैं ।।६०।। अतएव १. मु. 'सर्व' पाठ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० श्रावकाचार संग्रह प्रदाय दानं यतिनां महात्मनां यो याचते भोगमर्थकारणम् । मनीषितानेकसुखप्रदं मणि प्रदाय गृण्हाति स दुर्जरं विषम् ॥ ६२ ॥ पन्नगानामिव प्राणिवित्रासिनामर्जने रक्षणे पोषणे सेवने । याति घोराणि दुःखानि येषां जनः सन्ति भोगाः कथं ते मता धीमताम् || ६३॥ श्रद्धीयमाना अपि वञ्चयन्ते निषेव्यमाणा अपि मारयन्ते । ये पोष्यमाणा अपि पीडयन्ते ते सन्ति भोगाः कथमर्थनीयाः || ६४॥ उत्पद्यमाना निलयं स्वकीयं ये हव्यवाहा इव धार्यमाणाः । प्रप्लोषयन्ते हृदयं ज्वलन्तस्ते याचनीयाः कर्यामन्द्रियार्थाः ।। ६५ दत्तप्रलापभ्रमशोकमूर्च्छाः सन्तापयन्तः सकलं शरीरम् । ये दुनिवारां जनयन्ति तृष्णां ज्वरा इवंते न सुखाय सन्ति ।। ६६ विधाय दानं कुधियो यतिभ्यो ये प्रार्थयन्ते विषयोपभोगम् । ते लाङ्गलैर्गा खलु काञ्चनीयैविलिख्य किम्पाकवनं वपन्ति ॥ ६७ भिन्दन्ति सूत्राय मणि महाघं काष्ठाय ते कल्पतरुं लुनन्ति । नावं च लोहाय विपाटयन्ते भोगाय दानं ननु ये ददन्ते ।। ६८ परेरशक्यं दमितेन्द्रियाश्वाश्चरन्ति धर्मं विषयाथिनो ये । पाषाणमादाय गले महान्तं विशन्ति ते नीरमलभ्यपारम् || ६९ बुद्धिमान् गृहस्थको चाहिए कि वह विधि पूर्वक साधुओंको दान देते हुए संसार के दुःखों की शान्तिके लिए अपनी बुद्धि करें, अर्थात् संसार के दुःखोंसे छूटनेकी भावनासे साधुओं को दान देना चाहिए। किन्तु दुरन्त संसार - समुद्र में गिरानेवाली भोग-प्राप्तिकी बुद्धि तो मनसे भी नहीं करना चाहिए ||६१|| जो व्रती महात्माओंको दान देकर अनर्थ के कारणभूत भोगको चाहता है, वह मनोवाञ्छित अनेक सुखोंको देनेवाले मणिको देकर दुर्जर विषको ग्रहण करता है || ६२ || प्राणियों को अतित्रास देनेवाले सांपोंके समान जिन भोगोंके उपार्जनमें, संरक्षणमें, पोषण में और सेवन में मनुष्य घोर दुःखों को प्राप्त होता हैं, वे भोग बुद्धिमान् पुरुषोंके अभिमत कैसे हो सकते हैं? कभी नहीं हो सकते || ६३ || जो भोग श्रद्धायुक्त प्रीति करते हुए भी पुरुषोंको ठगते है, सेवन किये जाने पर भी मारते है, पोषण किये जाने पर भी पीडा देते हैं, वे भोग बुद्धिमानोंके द्वारा चाहने योग्य कैसे हो सकते हैं, कभी नहीं हो सकते || ६४|| जैसे जलती हुई अग्नि अपने उपजनेके स्थान घरको ही जला देती हैं, इसी प्रकार ये मान्यता किये गये इन्द्रियों के विषयभूत भोग जलते हुए हृदयको और भी जलाते है ||६५॥ प्रलाप भ्रम शोक मूर्च्छा आदि को देनेवाले सारे शरीरको सन्ताप पहुंचाने वाले ये भोग दुर्निवार तृष्णाको हो उत्पन्न करते हैं, वे सुख के लिए नहीं हो सकते ॥ ६६ ॥ जो कुबुद्धि लोग साधुओंको दान देकर विषयोंके उपभोगकी कामना करते है, वे सुवर्णके हलोंसे पृथ्वीको जोतकर उसमें किम्पाक वृक्षोंके वनको बोते हैं ॥ ६७॥ जो लोग भोगोंकी प्राप्ति के लिए दान देते है, वे निश्चयसे सूत्र (धागा) के पानेके लिए महामूल्य मणियोंके हारको तोडते है, काष्ठके लिए कल्पवृक्षको काटते हैं और लोहाके लिए नावको उखाडते है, ऐसा में मानता हूँ ||६८ || दमन किये हैं इन्द्रियरूप अश्व जिन्होंने ऐसे जो संयमी पुरुष विषयोंके अर्थी होकर साधारण अन्य जनोंके द्वारा अशक्य धर्मका आचरण करते हैं, वे अपने गले में महान् पाषाणको Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः दिने दिने ये परिचर्यमाणा विवर्धमान): परिपीडयन्ति । ते कस्य रोगा इव सन्ति मोंगा बिनिन्दनीया विदुषोऽर्थनीयाः ॥ ७० प्रयच्छन्ति सौख्यं सुराधीश्वरेभ्यो न ये जातु भोगाः कथं ते परेभ्यः । निशुम्भन्ति ये मत्तमत्र द्विपेन्द्रं न कण्ठीरवास्ते फुरङ्गं त्यजन्ति ॥ ७१ न याचनीया विदुषेति दोषं विज्ञाय रोगा इव जातु भोगाः । कि प्राणहारित्वमवेक्ष्यमाणो जिजीविषुः खादति कालकूटम् ।। ७२ सम्पद्यमानाः सुरमनुजभवारिचन्तितप्राप्त सौख्या याच्यन्ते लब्धुकामैः कथमपविपदं धर्मतो मुक्तिकान्ताम् । सख्यं स्वीकर्तुकामाः क्षुदुरुतरतरोः काण्डविच्छेददक्षं स्वीकर्तुं किं पलालं फलममलधियः कुर्वते कर्षणं हि ॥ ७३ त्यक्त्वा भोगामिलाषं भव मरणजरारण्य निर्मूलनार्थ, दत्ते दानं मुदा यो नयविनयपरः संयतेभ्यो यतिभ्यः । भुक्त्वा भोगान रोगानमरवरवधूलोचनाम्भोज भानुनित्यां निर्वाणलक्ष्मीममितगतियतिप्रार्थनीयां स याति ।। ७४ इत्यपासकाचारे दशमः परिच्छेदः बाँध कर अलम्य अपार तीर वाले समुद्र में प्रवेश करते हैं ।। ६९ ।। जो भोग दिन दिन परिचर्या किये जाने पर भी रोगोंके समान बढते हुए मनुष्यों को अति पीडा देते है, वे अति निन्दनीय भोग किस विद्वान् के चाहने योग्य हो सकते है || ७० ॥ जो भोग देवोंके स्वामी इन्द्रोंके लिए भी कभी सुख नहीं देते है, वे अन्य लोगोंको तो कैसे दे सकते हैं? जो सिंह इस लोकमें मदोन्मत्त गजराज को मारते है, वे हरिणको नहीं छोडते हैं ।। ७१ ।। इस प्रकार विद्वान् पुरुषको चाहिए कि रोगके समान भोगोंके दोष जानकर उनके पाने के लिए कदाचित् भी याचना अर्थात् निदान नहीं करना चाहिए। प्रत्यक्षमें कालकूट विषकी प्राण अपहरण करनेकी शक्तिको देखता हुआ जीनेका इच्छुक पुरुष क्या उसे खाता हैं? नहीं खाता ||७२ || धर्म सेवन करके सर्व विपदाओंसे रहित मुक्तिरूपी कान्ताको प्राप्त करनेके इच्छुक पुरुष विना चिन्तवन किये ही स्वयमेव प्राप्त होनेवाले देव और मनुष्य-सम्बन्धी भोगोंकी कैसे याचना करते हैं? अर्थात् नहीं करते हैं । क्षुधा रूपी विशाल वृक्षके काण्ड - भागके विच्छेदमें दक्ष धान्यको प्राप्त करनेकी इच्छावाले निर्मल बुद्धि पुरुष क्या पलाल ( पियार भूसा) को पाने के लिए खेती करते है ? नहीं करते हैं ॥७३॥ अत एव भोगोंकी अभिलाषा छोडकर जन्म जरा मरणरूप वनके निर्मूलन करनेके लिए नय और विनयमें तत्पर जो गृहस्थ हर्षके साथ संयमी साधुओं को दान देता हैं, वह देवलोककी श्रेष्ठ देवाङ्गनाओंके नयन-कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्य सदृश होकर रोग - रहित भोगोंको भोगकर अन्तमें अमितगति यतिसे प्रार्थनीय नित्य निर्वाण-लक्ष्मीको प्राप्त करता हैं ॥७४॥ इस प्रकार अमितगति विरचित श्रावकाचार में दशम परिच्छेद समाप्त हुआ । ३६१ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ श्रावकाचार-संग्रह एकादशः परिच्छेदः फलं नाभयदानस्य वक्तुं केनापि पार्यते । यस्याऽऽकल्पं मुख जिव्हा व्याप्रियन्ते सहस्रशः ॥१ धर्माऽऽर्थकाममोक्षाणां जीवितं मलमिष्यते । तदक्षता न कि दत्तं हरता तन्नं कि हृतम् ।। २ गोपालब्राह्मणस्त्रीतः पुण्यभागी यदीष्यते । सर्वप्राणिगणत्रायी नितरां न तवा कथम् ।। ३ यद्यकमेकदा जीवं त्रायमाणः प्रपूज्यते । न तथा सर्वदा सर्व त्रायमाणः कथं बुधः ॥ ४ चामीकरमयीमुरू ददानः पर्वतैः सह । एकजीवाभयं नूनं दवानस्य समः कुतः ।। ५ गुणानां दुरवापाणामथितानां महात्मभिः । दयालुर्जायते स्थान मणीनामिव सागरः ॥ ६ संयमा नियमाः सर्वे दयालोः सन्ति देहिनः । जायमाना न दृश्यन्ते भूरुहा धरणीमते ॥ ७ कारणं सर्ववैराणां प्राणिनां विनिपातनम् । तत्सदा त्यज्यतस्त्रेधा कुतो वैरं प्रजायते ।। ८ मनोभूरिव कान्ताङ्गः सुवर्णाद्रिरिवः स्थिरः । सरस्वानिव गम्भीरो भास्वानिव हि भासुरः ।। ९ आदेयः सुभगः सौम्यस्त्यागी भोगी यशोनिधिः । भवत्यभयदानेन चिरंजीवी निरामयः ॥ १० तीर्थकृच्चक्रिदेवानां सम्पदो बुधवन्दिताः । क्षणेनाभयदानेन दीयन्ते दलितापद: ११ तदस्ति न सुखं लोके न भूतं न भविष्यति । यन्न सम्पद्यते सद्यो जन्तोरभयदानतः ।। १२ अब आचार्य सर्वप्रधान अभयदानका फल वर्णन करते है जिसके मुखमें हजारों जिव्हाएं हों, ऐसा व्यक्ति भी यदि कल्प काल-पर्यन्त अभयदानके फलको कहने के लिए व्यापार करे, तो भी वह कहनेको समर्थ नहीं हो सकता हैं।।१। धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोका मूल कारण जीवन कहा जाता हैं। उस जीवनकी रक्षा करने वालेने क्या नहीं दिया? और जीवनको हरण करने वालेने क्या नहीं हरा ।।२।। गाय बालक ब्राह्मण और स्त्री इनकी रक्षा करनेसे यदि मनष्य पूण्यभागी कहा जाता हैं, तो सर्व प्राणि-समहकी रक्षा करने वाला अधिक पूण्यभागी कैसे नहीं होगा? अर्थात् प्राणिमात्रका रक्षक सर्वाधिक पूण्यभागी है।३।। यदि एक बार एक जीवकी रक्षा करने वाला जगत्में पूजा जाता हैं, तो सर्वदा सर्व प्राणियोंकी रक्षा करनेवाला पुरुष ज्ञानियोंके द्वारा कैसे नहीं पूजा जायगा॥४॥ सर्व पर्वतोंके साथ सुवर्णमयो पृथ्वीको देनेवाला पुरुष एक जीवको अभय दान देनेवाले पुरुषके साथ निश्चयसे कैसे समान हो सकता हैं? नहीं हो सकता ।।५।। जिस प्रकार सर्व प्रकारके मणियोंका स्थान समुद्र है,उसी प्रकार अति दुर्लभ और महात्माओंसे पूजित सर्व गुणोंका स्थान दयालु पुरुष होता हैं ॥६॥ दयालु पुरुषके सभी संयम और नियम स्वतः होते है। क्योंकि पृथ्वीके विना वृक्ष उत्पन्न होते हुए नहीं दिखाई देते हैं ॥७॥ प्राणियों का विनाश सर्व प्रकारके वैर-भावों का कारण है इसलिए प्राणियों के विनाशको मन वचन कायसे सदा त्याग करनेवाले पुरुषके वैरभाव कैसे प्रवृत्त हो सकता है ॥८॥ अभयदानके फलसे जीव कामदेवके समान सुन्दर देह वाला होता हैं, सुवर्णाचलके समान स्थिर होता है, सागरके समान गम्भीर होता है, सूर्यके समान भास्वर होता हैं, सर्व लोगोंका प्यारा होता हैं, सौभाग्यशाली होता हैं, सौम्यमूत्ति होता है, त्यागी होता हैं, भोगवान् और यशोनिधान होता हैं, एवं नीरोग तथा चिरजीवी होता हैं ।।९-१०।। संसारमें आपत्तियोंको दूर करने वाली और विद्वानोंसे वन्दित जितनी भी तीर्थकर, चक्रवर्ती और देवोंकी सम्पदाएं है, वे सब अभयदानके द्वारा क्षणभरमें दी जाती हैं ।।११।। इस संसारमें ऐसा कोई सुख न हैं न भूतकाल में था और न आगामी काल में होगा, जो जीवको अभयदानसे शीघ्र न प्राप्त होता १. मु. भास्वरः।' Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृत. श्रावकाचारः शरी ध्रियते येन शमेनेव महाव्रतम् । कस्तस्याहारदानस्य फलं शक्नोति भाषितुम् ॥१३ . आहारेण विना कायो न तिष्ठति कदाचन । भास्करेण विना कुत्र वासरो व्यवतिष्ठते ॥१४ शमस्तपो दया धर्मः संयमो नियमो दमः । सर्वे तेन बितीयन्ते येनाहारो वितीर्यते॥१५ ।। चिन्तितं पूजितं भोज्यं क्षीयते तस्य नालये । आहारो भक्तितो येन दीयते व्रतवतिनाम् ॥ १६ कल्याणानामशेषाणां भाजनं स प्रजायते । सलिलानाभिवाम्भोधिर्येनाहारो वितीर्यते । १७ स्वयमेव प्रियोऽविष्य धनं दातारमन्धसः । आयान्ति तरसा श्रेष्ठा: सुभगं वनिता इव ।।१८ सम्पदस्तीर्थकर्तणां चक्रिणामर्धचक्रिणाम् । भजन्त्यशनदं सर्वाः पयोधिमिव निम्नगाः ॥१९ प्रक्षीयन्ते न तस्यार्था ददानस्यापि भूरिशः । ददाना जनतानन्दं चन्द्रस्येव मरीचयः ॥२० यत्फलं ददत: पृथ्वीं प्रासुक यच्च भोजनम् । अनयोरन्तरं मन्ये तृणाब्धि-जलयोरिव ।।२१ अन्नदानप्रसादेन यत्र यत्र प्रजायते । तत्र तत्रास्यते भोगेर्न भास्वानिव रश्मिभिः ॥२२ दवानोऽशनमात्रं यत्फलमाप्नोति मानवः । दाता सुवर्णकोटीनां न कदाचन तद् ध्रुवम् १२३ विना भोगोपभोगभ्यश्चिरं जीवति मानवः । न विनाऽऽहारमात्रेण तुष्टिपुष्टिप्रदायिना ।।२४ हो । अर्थात् अभय दानके फलसे सभी सुख प्राप्त होते है ।। २।। जिस प्रकार समभावके द्वारा महाव्रत पुष्ट होते है, उसी प्रकार अभयदानके द्वारा शरीर पुष्ट होता हैं। ऐसे उस अभयदानके फलको कहनेके लिए कौन पुरुष समर्थ हो सकता है। अर्थात् अभयदानका फल वर्णनातीत हैं ।।१३॥ अब आचार्य आहार दानका वर्णन करते है-आहारके विना यह शरीर किसीभी प्रकारसे नही ठहर सकता है जैसे कि सूर्यके विना दिन कहां ठहर सकता हैं ।। १४॥ जो पुरुष आहार देता है, उसके द्वारा शम, नप, दया, धर्म, संयम नियम और दम आदि सभी गुण दिये दाते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥१५॥ जो पुरुष भक्तिसे व्रतधारियोंको आहार देता है, उसके घर में मनोवांछित और प्रशंसनीय भोजन सामग्री कभी क्षयको प्राप्त नहीं होती है ।।१६।। जो आहार दान देता हैं वह समस्त कल्याणोंका भाजन होता है, जैसे कि समुद्र सर्वजलोंका भाजन होता है ।।१७।। जैसे उत्तम स्त्रियां सौभाग्यशाली पुरुषके पास स्वयं आती है, उसी प्रकार आहार दान देनेवाले धन्यपुरुषके पास सर्व प्रकारकी लक्ष्मिणं अन्वेषण करके स्वयमेव शीघ्र आती है ।।१८।। जैसे समस्त नदियां समुद्रको प्राप्त होती है, उसी प्रकार तीर्थंकर चक्रवर्ती और अर्धचक्री नारायण आदिकी समस्त सम्पदाएं आहार देनेवाले पुरुषको प्राप्त होती है ।।१९। जैसे जनताके आनन्दको देने वाली चन्द्रमाकी किरणे कभी क्षीण नही होती है, उसी प्रकार बहुत भो आहारदान देनेवाले पुरुषकी सम्पदाएं कभी भी क्षयको प्राप्त नहीं होती है ।।२०।। समस्त पृथ्वीके दानका जो फल है और प्रासुक भोजनके दानका जो फल हैं, इन दोनों में मै तृण और समुद्र जलके समान महान् अन्तर मानता हूँ। भावार्थ-तणकी नोंकपर रखा जल-बिन्दु और समुद्रका जल जैसा भू-दान और आहार-दानमें महान अंतर है ।।२१।। अन्न दानके प्रसादसे यह जीव जहां जहां भी उत्पन्न होता है, वहां वहां पर भोगोंसे रिक्त नहीं होता है । जैसे कि सूर्य जहां जहां भी जाय, वह किरणों से रहित नहीं होता है ।।२२।। केवल आहार दानको देनेवाला मानव जो फल प्राप्त करता है,वह कोटि-सुवर्णके दानसे भी नियमतः कदाचित् भी प्राप्त नहीं होता है । २३।। भोग और उपभोग १. मु तत्रोझ्यते . Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह केवलज्ञानतो ज्ञानं निर्वाणसुखतः सुखम् । आहारदानतो दानं नोत्तमं विद्यते परम् ॥ २५ अन्धसा क्रियते यावानुपकारः शरीरिणः । न तावान् रत्नकोटीभिः पुजिताभिरिति 'स्फुटम् ॥२६ हीयन्ते निखिलाश्चेष्टा विना भोजनमात्रया । गुप्तयो व्यवतिष्ठन्ते विना कुत्र तितिक्षया ।। २७ शौर्यते तरसा गात्रं जन्तोर्वजितमन्धसा । विना नीरं क्व सस्यस्य कोमलस्य व्यवस्थितिः ।। २८ यथाऽऽहारः प्रियः पुंसां न तथा किञ्चनापरम् । विक्रीयन्ते प्रियाः पुत्रास्तदर्थ कथमन्यथा ॥ २९ यत्किञ्चित्सुन्दरं वस्तु दृश्यते भुवनत्रये । तदन्नदायिना क्षिप्रं लभ्यते लीलयाऽखिलम् ।। ३० बहुनाऽत्र किमुक्तेन विना सकलवेदिना । फलं नाऽऽहारदानस्य परः शक्नोति भाषितुम् ।। ३१ रक्ष्यते तिनां येन शरीरं धर्मसाधनम् . पार्यते न फलं वस्तुं तस्य भैषज्यदायिनः ।। ३२ येनौषधप्रदस्यह बचनैः कथ्यनैः कथ्यते फलम् । चुलकर्मीयते तेन पयो नूनं पयोनिधेः ।। ३३ वातपित्तकफोत्थाने रोगैरेषन पोडयते । दावैरिव जलस्थाची भेषजं येन दीयते॥ ३४ रागनिपीडितो योगी न शक्तो व्रतरक्षणे । नास्वस्थः शक्यते कर्तु स्व-स्वकर्म कदाचन ॥ ३५ न जायते सरोगत्वं जन्तोरोषधदायिनः । पावकं सेवमानस्य तुषार हि पलायते ।। ३६ के विना मनुष्य चिरकाल तक जीवित रह सकता हैं। किन्तु तुष्टि और पुष्टिको देनेवाले केवल आहारके विना जीवित नहीं रह सकता है ॥२४॥ इस संसारमें केवलज्ञानसे उत्तम कोई दूसरा ज्ञान नहीं है, निर्वाणके सुखसे श्रेष्ठ कोई सुख नहीं हैं और आहार दानसे उत्तम कोई दान नहीं हैं ।।२५।। भोजनके द्वारा शरीर-धारीका जितना उपकार किया जाता है, उतना उपकार एकत्र पुंज किये कोटि-रत्नोंके द्वारा भी नहीं किया जाता हैं यह बात स्पष्ट है ।।२६ । भोजनकी मात्राके विना प्राणीकी समस्त चेष्टाए नष्ट हो जाती है । देखो-क्षमाके विना मन-वचन-काय-गुप्तियां कहां ठहर सकती हैं ।।२७।। आहारके विना प्राणीका शरीर शीघ्र क्षीण हो जाता हैं। देखो-जलके विना कोमल घासकी स्थिति कहां हो सकती हैं ।।२८ । मनुष्योंको जैसा आहार प्यारा हैं,वैसी और कोई वस्तु प्यारी नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय, तो केवल आहार प्राप्त करनेके लिए मनुष्य अपने प्रिय पुत्रोंको कैसे बेंच देते है ।।२९।। तीन भुवनमें जो कुछ भी सुन्दर वस्तु दिखाई देती वह सर्व अन्नदान करने वाले पुरुषको लीला मात्रसे शीघ्र प्राप्त हो जाती हैं ॥३०॥ इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ हैं । आहारदानके फलको सर्वज्ञके विना अन्य कोई पुरुष कहने के लिए समर्थ नहीं हैं ।।३१॥ अब आचार्य औषधिदानका वर्णन करते है-जिस औषधिदानके द्वारा धर्मके साधनभूत व्रती पुरुषोंके शरीरकी रक्षा की जाती हैं, उस औषधि-दाता पुरुषके पुण्य-फल को कहने के लिए कोई समर्थ नहीं है ।।३२।। जो पुरुष औषधि-दाताके पुण्यफल को इस संसार में वचनोंसे कहना चाहता है, मानों वह समुद्र के जलको चुल्लुओंसे मापना चाहता है ।।३३।। जो पुरुष औषधि देता हैं, वह वात पित्त और कफसे उत्पन्न होनेवाले रोगोंसे पीडित नहीं होता हैं, जैसे कि जलमें स्थित पुरुष दावानलसे पीडित नहीं होता हैं ।। ६४॥ रोगोंसे पीडित हुआ योगी अपने व्रतके संरक्षणमें समर्थ नहीं हो सकता है । क्योंकि अस्वस्थ पुरुष आकुलताके कारण निराकुल स्वस्थ कार्य कदाचित् भी नहीं कर सकते है ।।३५।। औषधिदान देनेवाले पुरुषका शरीर रोग-सहित कभी नहीं हो सकता है क्योंकि अग्निका सेवन करने वाले पुरुषके पाससे तुषार दूर भाग जाता है।।३६।। १. मु.-रपि। ... Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३६५ आजन्म जायते यस्य न व्याधिस्तनुतापकः । कि सुखं कथ्यते तस्य सिद्धस्येव महात्मनः ।। ७ विधानमेष कान्तीनां कीर्तीनां कुलमन्दिरम् । लावण्यानां नदीनाथो भैषज्यं येन दीयते ॥३८ ध्वान्तं दिवाकरस्येव शीतं चित्ररुचेरिव । भैषज्यदायिनस्त'द्वद्रोगित्वं प्रपलायते ||३९ आरोग्यं क्रियते येन योगिनां रोगमुक्तये । तदीयस्य न धर्मस्य समर्थः कोऽपि वर्णने । ४० चारित्रं दर्शनं ज्ञानं स्वाध्यायो विनयो नयः । सर्वेऽपि विहितास्तेन दत्तं येनौषधं सताम् ॥४१ संसृतिश्छिद्यते येन निर्वृतियेन दीयते । मोहो विधूयते येन विवेको येन जन्यते ॥४२ कषायो मद्यते येन मानसं येन शम्यते । अकृत्यं त्याज्यते येन कृत्यं येन प्रवर्त्यते ॥४३ तत्त्वं प्रकाश्यते येन येनातत्त्व निषिध्यते । संयमः क्रियते येन सम्यक्त्वं येत पोष्यते ॥ ४४ देहिभ्यो दीयते येन तच्छास्त्रं सिद्धिलब्धये । कस्तेन सदृशो धन्यो विद्यते भवनत्रये ॥४५ मुक्ति: प्रदीयते येन शास्त्रदानेन पावनी । लक्ष्मी सांसारिकों तस्य प्रददानस्य कः श्रमः ।।४६ लभ्यते केवलज्ञानं यतो विश्वावभासकम् । अपरज्ञानलामेष कीदृशी तस्य वर्णना ।।४७ मामरश्रियं भुक्त्वा भवनोत्तमपूजिताम् । ज्ञानदानप्रसादेन जीवो गच्छति निर्वतिम् ॥४८ चतुरङ्गं फलं येन दीयते शास्त्रदायिना। चतुरङ्ग फलं तेन लभ्यते न कथं स्वयम ।।४९ जिस पुरुषके शरीर में सन्ताप-जनक व्याधि जीवन भर नहीं होती हैं, सिद्धके समान उस महात्माके सुखका क्या वर्णन किया जा सकता हैं ॥ ७॥ जो पुरुष औषधि-दान देता हैं, वह कान्तिका विधान, कीर्तियोंका कुलमन्दिर और सौन्दर्यका सागर होता है। : ८॥ जैसे सूर्य के शरीरसे अन्धकार दर भागता हैं, और अग्निके शरीरसे शीत दर भागता हैं. उसी प्रकार औषधि देनेवाले गता हैं, उसी प्रकार औषधि देनेवाले पुरुषके शरीरसे रोगीपना दूर भागता हैं ।।३९।। जिस औषधिदानके द्वारा योगियोंको रोग-मुक्त कर उन्हें आरोग्य प्राप्त कराया जाता हैं, उस पुरुषके धर्मका फल वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं हैं ।।४०।। जिस पुरुषने सज्जनोंको औषधिदान दिया, उसने उन्हें चारित्र, दर्शन, ज्ञान, स्वाध्याय, विनय और नीति आदि सभी कुछ दिया, ऐसा समझना चाहिए ।-४ ॥ अब आचार्य शास्त्रदानका वर्णन करते है-जिस शास्त्रदान के द्वारा संसारका उच्छेद होता है, जिसके द्वारा निर्वति (मुक्ति) प्राप्त होती है, जिसके द्वारा मोह विनष्ट होता हैं, जिसके द्वारा विवेक उत्पन्न होता है, जिसके द्वारा कषायोंका मर्दन किया जाता है, जिसके द्वारा मन शान्त होता है, जिसके द्वारा अकृत्य छूटता है, जिसके द्वारा मनुष्य कर्तव्य कार्यमें प्रवृत्त होता है, जिसके द्वारा सत्त्वका प्रकाश होता है और जिसके द्वारा अतत्त्वका निषेध होता है, जिसके द्वारा संयम धारण किया जाता है और जिसके द्वारा सम्यक्त्व पुष्ट होता है, ऐसा शास्त्र-दान सिद्धिकी प्राप्तिके लिए जो प्राणियोंको देता है, उसके समान तीन भुवन में अन्य कौन धन्यपूरुष है? अर्थात् शास्त्रका दाता पुरुष तीनों लोकोंमें महान् धन्य है ।४२-४५॥ जिस शास्त्र-दानके द्वारा परमपावन मुक्ति प्रदान की जाती है, उस शास्त्र दानके सांसारिक लक्ष्मीको देने में क्या श्रम है ।।४६।। जिस शास्त्रदानके द्वारा समस्त विश्वका प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा अन्य ज्ञानोंके लाभमें उसका वर्णन कैसा! अर्थात् अन्य ज्ञानोंका पाना तो सहज ही है ।।४७।। ज्ञान-दानके प्रसादसे जीव तीनों लोकोंमें उत्तम एवं पूज्य मनुष्यों और देवोंकी लक्ष्मीको भोग कर मुक्तिको प्राप्त करता है ।।४८॥ जिस शास्त्रदानके करनेवाले पुरुषके द्वारा चार पुरुषार्थरूप चतुरंग फल दिया जाता है, उसके द्वारा वह शास्त्र-दाता पुरुष स्वयं ही चतुरंगफलको कैसे नहीं १. मु. देहाद् । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह शास्त्रदायो सतां पूज्यः सेवनीयो मनीषिणाम् । वादी वाग्मी कविर्मान्यः ख्यातशिष्यः प्रजायते ॥५० विचित्र रत्ननिर्माणः प्रोसुङ्गो बहुभूमिकः । लभ्यते वासवानेन वासश्चन्द्र करोज्ज्चलः ।।५१ कोमलानि महा_णि विशालानि धनानि च । वासोदानेन वासांसि सम्पद्यन्ते सहस्रशः ।।५२ ववती जनतानन्दं चन्द्रकान्तिरिवामला । जायते पानदानेन वाणी तापापनोदिनी । ५३ ददानः प्रासुकं द्रव्यं रत्नत्रितयबंहकम् । काङ्कितं सकलं द्रव्यं लभते परदुर्लभम् ॥५४ विश्राणयति यो दानं सेवमानस्तपस्विनः । सेव्यते भुवनाधीश: स तदादेशकाक्षिभिः ॥५५ यः प्रशंसापरो भूत्वा दानं यच्छति योगिनाम् । प्रशस्य: स सदा सद्भिजिनेन्द्र इव नम्यते ॥५६ दत्ते शुश्रूषयित्वा यो दानं संयमशालिनाम् । शुभ्रष्यते बुधरेष भक्त्या गुरुरिवानिशम् ।।५७ आवृत्य दीयते दानं साधुभ्यो येन सर्वदा । सावरेणव लोकेन निधानमिव गृह्यते ॥५८ पूजापरायणः स्तुत्वा यो यच्छति महात्मनाम् । त्रिदर्शस्तीर्थकारीव स्तावं स्तावं स पूज्यते ॥५९ यदयदानं सतामिष्टं तपः संयमपोषकम् । तत्तद्वितरता भक्त्या प्राप्यते फलमीप्सितम् ।।६० दानानीमानि यच्छन्ति स्तोकान्यपि महाफलम् । बीजानीव वटादीनां निहितानि विधानतः ॥६१ पायगा! शास्त्रका दान करनेवाला पुरुष सज्जनों के द्वारा पूज्य है,मनीषियोंसे सेवनीय है और वह वादी, वाग्मी, कवि, मान्य एवं प्रसिद्ध शिष्योंवाला होता है ।।४९-५०॥ अब आचार्य वसतिकादानका वर्णन करते है-साधुओंकी निवासके योग्य वसतिकाके दानसे मनुष्य नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित, अति उन्नत, अनेक मंजिलवाला और चन्द्रकी किरणोंसे भी उज्ज्वल प्रासादको प्राप्त करता है ।।५१।। अब आनार्य वस्त्रदान आदिका फल बतलाते हैं-आर्यिका श्राविका आदि साधर्मी जनोंको वस्त्रदान करनेसे कोमल, बहुमल्य विशाल और सघन सहस्रों वस्त्र प्राप्त होते हैं ।।५२।। व्रती पुरुषोंको पीने योग्य पानक प्रदान करनेसे चन्द्रकान्तिके समान निर्मल, जनताको आनन्द देनेवाली और सन्तापको दूर करनेवाली मधुर वाणी प्राप्त होती हैं ।।५३।। व्रती पुरुषोंको रत्नत्रयधर्म के बढानेवाले प्रासुक द्रव्यका दान करनेवाला पुरुष मनोवांछित एवं अन्य साधारणजनोंको दुर्लभ ऐसे सर्वद्रव्योंको प्राप्त करता है ।।५४|| जो पुरुष तपस्वियोंकी सेवा करता हुआ उन्हें दान देता हैं, वह सुखके वांछक ऐसे भुवनके स्वामी इन्द्रादिके द्वारा सदा सेवित होता हैं । जो पुरुष योगियोंकी प्रशंसा करता हुआ उन्हें दान देता है,वह पुरुष संसारमें सदा प्रशंसाको प्राप्त करता है, तथा सज्जनोंके द्वारा तीर्थंकरके समान नमस्कारको प्राप्त होता हैं ।।५५-५६।। जो सेवा-शुश्रूषा करके संयम-धारण करनेवाले पुरुषोंको दान देता हैं, वह विद्वानोंके द्वारा भक्तिके साथ निरन्तर गुरुके समान शुश्रूषाको प्राप्त करता हैं।। ५७।। जो आदरके साथ सदा साधुओंको दान देता है, वह दाता लोगों के द्वारा निधानके समान ही आदरके साथ ग्रहण किया जाता हैं ।।५८।। जो दाता पूजामें तत्पर होकर और स्तुति करके महात्माओंको दान देता हैं, वह तीर्थकरके समान इन्द्रोंके द्वारा बार बार स्तुति करके पूजा जाता हैं ॥५९।। जो दान तप और संयमका पोषक हैं,तथा सज्जनोंको अभीष्ट है, उसे भक्तिके साथ दान देनेवाला पुरुष अभीप्सित फलको प्राप्त करता हैं ।।६०॥ ये ऊपर कहे गये आहारादिक अल्प दान भी महान् फलको देते हैं। जैसे कि विधिपूर्वक भूमिमें बोये गये वट आदिके छोटे बीज महान् वृक्षरूप फलको देते हैं ।।६।। जो मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट पात्रोंको दान देता है, वह महान् उदयको प्राप्त होकर Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३६७ पात्रेभ्यो यः प्रकृष्टभ्यो मिथ्यादृष्टिः प्रयच्छति । स याति भोगभूमीषु प्रकृष्टासु महोदयः ।।६२ क्रोशत्रयबपुस्तत्र त्रिपल्योपमजीवितः । चिन्ताकल्पितसान्निध्यं सम्भोगसुखमश्नुते ॥६३ सदा मनोऽनकलाभिः सेव्यमाना विवानिशम् । नारीभिर्न गतं कालं जानते भोगभूभुवः ॥६४ मध्यमानां तु पात्राणां दानतो याति मध्यमाम् । कारणस्यानुरूपं हि कार्य जगति जायते ।।६५ शिक्रोशोच्छ्यदेहोऽसौ द्विपल्यायुनिरामयः । स तत्रास्ते महावासः कान्ताऽऽस्याम्मोजषट्पदः ॥६६ जघन्येभ्यः स पात्रेभ्यो जघन्य याति दानतः । एककोशोच्छ्यो भूमिमेकपल्योपस्थितिः ॥६७ ।। बदरामलकविभीतकमात्रं त्रिद्वयेकवासरैः क्रमशः । आहारं कल्याणं दिव्यर भुञ्जते धन्याः ।।६८ विश्राणयन् यतीनामुत्तममध्यमजघन्यपरिणामः । दानं गच्छति भूमिरुत्तममध्यमजघन्यां वा ।।६९ सर्वे द्वन्द्वपरित्यक्ताः सर्वे क्लेशविजिता: । सर्वे यौवनसम्पन्ना: सर्वे सन्ति प्रियंवदाः । ७० मददैन्यश्रमायासक्रोधलोमभयक्लमाः । मुक्तानामिव नो तेषां नाप्यन्यत्र गमागमाः ॥७१ अयमेव विशेषोऽस्ति देवेभ्य! भोगभागिनाम् । यत्ते यान्ति मता नाकं देवास्तियनरत्वयोः ॥२ यतो मन्दकषायास्ते ततो यान्ति त्रिविष्टपम् । उक्तं तीव्रकषायत्वं दुर्गतः कारणं परम् ।।७३ दीयन्ते चिन्तिता भोगा येषां कल्पमहीरहैः । दशाङ्गः कः सुखं तेषां शक्तो वर्णयितुं गिरा ।।७४ उत्कृष्ट भोगभूमियोंमें जाता है ॥६२।। वहाँ पर उसे तीन कोशका शरीर मिलता है और तीन पल्योपमका आयुष्य प्राप्त होता है । वह वहाँपर चिन्तवन मात्रसे ही प्राप्त होनेवाले भोगोंका सुख भोगता है ।।६।। भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले जीव सदा मनोऽनुकूल स्त्रियोंके द्वारा रात्रि-दिन सेवा किये जाते हुए अपने व्यतीत होनेवाले समयको नहीं जानते है ।। ६४॥ मध्यमपात्रोंको दान देनेसे मिथ्यादृष्टि मनुष्य मध्यम भोगभूमिको प्राप्त होते हैं। क्योंकि संसारमें कारणके अनुरूप ही कार्य होता हैं ॥६५।। वहाँपर उसे दो कोश ऊँचा शरीर प्राप्त होता हैं, दो पल्योपम की आयु होती हैं, सदा नीरोग रहता है, महान् आवास प्राप्त होता है और सदा सुन्दर स्त्रियोंके नयनकमलका भ्रमर बना हुआ भोगोंको भोगता है ।।६६।। वह मिथ्यादृष्टि मनुष्य यदि जघन्य पात्रोंको दान देता है, तो उसके फलसे जघन्य भोगभूमिको प्राप्त होता हैं, जहाँपर एक कोश ऊँचा शरीर मिलता हैं और एक पल्योपमकी स्थिति होती हैं ।।६७॥ उपर्युक्त भोगभूमियोंमें क्रमसे तीन, दो और एक दिनमें वेर, आँवला और बहेडाप्रमाण कल्याणरूप दिव्य रसवाले आहारको वे भोगभूमिके धन्य पुरुष भोगते हैं अर्थात् खाते है ।।६८।। अथवा जो पुरुष साधुजनोंको उत्तम, मध्यम और जघन्य परिणामोंसे दान देता है, वह तदनुरूप उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमिको प्राप्त करता हैं । भोगभूमिके ये युगलिया सभी जीव आजीविकाके द्वन्द्वसे रहित होते हैं, सभी सर्व प्रकारके क्लेशोंसे रहित होते है, सभी नवयौवन सम्पन्न होते है और सभी प्रियवचन बोलते है ॥६९-७०।। उन भोगभूमियाँ जीवोंके मुक्त जीवोंके समान मद,दैन्य, श्रम, प्रयास,क्रोध,लोभ,भय और क्लेश नहीं होते है और न उनका अपने स्थानसे बाहिर गमनागमन होता है ।।७१।। देवोंसे भोगभूमियोंकी वह ही विशेषता है कि ये भोगभू मियाँ जीव मरकर देवलोकको जाते है और देव मरकर मनुष्य और तिर्यत्रोंमें उत्पन्न होते है ।।७२।। यतः ये भोगभूमिके जीव मन्द कषायवाले होते है, अतः मरकर देवलोक को जाते है। क्योंकि दुर्गतिका कारण तीव्र कषायपना कहा गया है ।।७।। जिन भोगभू मियोंको दशजातिके कल्पवृक्षोंसे मनोवांछित भोग प्राप्त होते हैं, उनके सुखको वाणीसे कहने के लिए कौन समर्थ है ।।७४ । १ म स भोग। २. मु भोगिनाम । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ श्रावकाचार-संग्रह - न वियोगः प्रियः साधं न संयोगोऽप्रियैः सह । न व्रतं न तपस्तेषां न वैरं न परामवः ॥७५ यतः स्वस्वामिसम्बन्धस्तेषां नास्ति कदाचन । परच्छन्दानुवतित्वं ततस्तेषां कुतस्तनम् ।।७६ नापूर्णे समये सर्वे ते म्रियन्ते कदाचन । रचयन्ति न पशून्यं सुखसागरमध्यगाः ।।७७ आयासेन विना भोगी नीरोगीभूतविग्रहः । क्षुतेन पुरुषस्तत्र म्रियते जम्भयाऽगनाः ॥७८ ते जायन्ते कलालापं मकरध्वजसनिमाः । सर्वे भोगक्षमा रम्या दिनानां सप्तसप्तकैः ।।७९ । कोमलालापया कान्तः कान्तयाऽऽर्यो निगद्यते । कान्तेनाऽऽर्या पुनः कान्ता चित्रचाटुविधाधिना ॥८० आदेयाः सुभगा: सौम्या: सुन्दराङ्गा वशंवदाः । रमन्ते सह रामाभिः स्वसमाििमयो मुदा ।। ८१ युग्ममुत्पद्यते साधं युग्मं यत्र विपद्यते । शोकाक्रन्दादयो दोषास्तत्र सन्ति कुतस्तनाः।। ८२ करि-केसरिणौ यत्र तिष्ठन्तो बान्धवाविव । एकत्र सर्वदा प्रीत्या सख्यं तत्र किमुच्यते ।। ८३ कुपात्रदानतो याति कुत्सितां भोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नुते ॥८४ येऽन्तरद्वीपजा: सन्ति ये नरा म्लेच्छखण्डजा: । कुपात्रदानत: सर्वे ते भवन्ति यथायथम् ॥८५ वर्यमध्यजघन्यासु तिर्यञ्चः सन्ति भूष ये । कुपात्रदानवृक्षोत्थं भुञ्जन्ते तेऽखिला: फलम् ।।८६ उन भोगभूमिके जीवोंका न प्रियजनोंके साथ वियोग होता हैं और न अप्रिय जनोंके साथ संयोग ही होता है । उनके न व्रत है, न तप है, न वैरभाव है और न उनका कभी पराभव ही होता है ।।७५।। यत: उन भोगभूमियोंके परस्परमें स्वामी और सेवकका सम्बन्ध कभी भी नहीं हैं. अतः उनके दूसरोंकी इच्छाके अनुकूल चलना कैसे संभव है ॥७६।। वे सभी भोगभू मियां जीव समय पूर्ण होनेके पूर्व अकालमें कभी भी नहीं मरते है और न परस्परमें एक दूसरेके साथ पैशुन्यभाव ही रखते हैं। वे सदा सुख-सागरमें निमग्न रहते है ।।७७।। उन्हें विना परिश्रमके ही भोगोंकी प्राप्ति होती है,उनका शरीर सदा नीरोग रहता है । भोगभू मिया पुरुष आयु पूर्ण होने पर छींकसे मरता है और स्त्री जंभाईसे मरती है ।।७८।। वे भोगभूमियां जीव मधुर-भाषी और कामदेवके सदृश सुन्दर होते हैं । तथा जन्म लेनेके बाद सात सप्ताहमें अर्थात् ४९ दिनोंमें भोग भोगने में समर्थ पूर्ण युवावस्थाको प्राप्त हो जाते है ।।७९।। भोगभूमिया स्त्री अति मधुरवाणीसे अपने पतिको 'आर्य' कह कर सम्बोधन करती हैं और नाना प्रकारकी चाटकारी करनेवाला पुरुष अपनी स्त्रीको 'आर्या, आर्ये' कह कर सम्बोधन करता हैं ।।८०।। वे भोगभूमियां मनुष्य आदरणीय, सौभाग्यसम्पन्न, सौम्य, सुन्दर शरीर और प्रियवचन बोलने वाले होते हैं। तथा वे सदा ही अपने समान ही वय-रूपशालिनी स्त्रियोंके साथ हर्षसे परस्पर रमते रहते हैं ।। ८१।। यतः जिस भोगभूमिमें स्त्री-पुरुष युगलरूपसे एक साथ ही उत्पन्न होते है और एक साथ ही विनाशको प्राप्त होते हैं, अतः वहाँ पर शोक, आक्रन्दन, रोदन आदि दोष कैसे हो सकते हैं? अर्थात् वहां पर उत्पन्न होनेवालों के जीवन में कभी भी शोक आदिका अवसर नहीं आता है ।।८।। जिस भोगभमिमें हाथी और सिंह जैसे जाति-विरोधी जीव भी बन्धु-जनोंके समान एक स्थान पर सर्वदा प्रीतिसे रहते है, वहां पर उनकी मित्रताका क्या कहता है ।।८३।। कुपात्रोंको दान देनेसे मनुष्य कुभोगभूमिम जाता है, क्योंकि खोटे क्षेत्रमें बीजके बोने पर कौन पुरुष सुक्षेत्रके फलको प्राप्त कर सकता है ॥८४॥ जो अन्तरद्वीपज मनुष्य है और जो म्लेच्छखंडज मनुष्य है वे सब यथा संभव कुपात्र दानसे उत्पन्न होते है ।।८५॥ उत्तम मध्यम और जघन्य भोगभूमियोंमें जो तिर्यंच है, वे सब कुपात्रदानरूप वृक्षसे उत्पन्न हुए फलको भोगते है ।।८६।। यहां आर्यखण्ड में जो दासी. दास और म्लेच्छ पुरुष, तथा हाथी, कुत्ते आदि पशु जो भोग भोगते हुए दिखाई देते है, उनके वे भोग निश्चयसे . Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः दासीदास द्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये । कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवतां स्फुटम् ॥८७ दृश्यन्ते नीचजातीनां ये भोगा भोगिनामिह । सर्वे कुपात्रदानेन ते दीयन्ते महोदयाः ॥८८ अपात्राय धनं दत्तं व्यर्थं सम्पद्यतेऽखिलम् । ज्वलिते पावके क्षिप्तं बीजं कुत्राङ्कुरीयत ॥८९ अपात्रदानतः किञ्चिन्न फलं पापतः परम् । लभ्यते हि फलं खेदो वालुका पुञ्जपीडने ॥९० विश्राणितमपात्राय विधत्तंऽनर्थमूजितम् 1 अपथ्यं भोजनं दत्ते व्याधि कि न दुरुद्धरम् ।।९१ संस्कृत्य सुन्दरं भोज्यं येनापात्राय दीयते । उत्पाद्य प्रबलं धान्यं दह्यते तेन दुधिया ॥ ९२ शीघ्रपात्रेण संसारादेकेनापि महीयसा । तार्यन्ते बहवो लोकाः पोतेनेव पयोनिधेः ।। ९३ जगदुद्योतते सर्वमेकेनापि विवस्वता । नक्षत्र निवहैः सर्वैरुदितेरपि नो पुनः ॥ ९४ एकेनापि सुपात्रेण तार्यते भवनीरधेः । सहस्रं रप्यपात्राणां पुञ्जितैर्न पुनर्जनः ||९५ अपात्रदानदोषेभ्यो बिभ्यता पुण्यशालिना । विबुध्य यत्नतः पात्रं देयं दानं विधानतः ॥ ९६ अपात्राय धनं दत्ते यो हित्वा पात्रमुत्तमम् । साधुं विहाय चौराय धनमर्पयति स्फुटम् ।।९७ अपात्रमिव यः पात्रं विबुद्धिरवलोकते । चिन्तामणिमसौ मन्ये मन्यते लोष्ठसन्निभम् ॥ ९८ त्यक्त्वा शर्मप्रदं पात्रमपात्रं स्वीकरोति यः । स कालकूटमादत्ते मुक्त्वा पीयूषमस्तधीः ॥९९ कुपात्रदानसे प्राप्त हुए जानना चाहिए ॥ ८७ ॥ तथा यहां पर नाना प्रकारके भोगोंको भोगने वाले नीच जाति के जा भाग्यशाली लोग दिखाई देते हैं, वे सब कुपात्रदानसे दिये गये भोग है ॥८८॥ ३६९ ( जो पुरुष व्रत और सम्यक्त्वसे रहित एवं उन्मार्गगामी होता है, उसे अपात्र कहते हैं । ) ऐसे अपात्र के लिए दिया गया समस्त धन व्यर्थ जाता हैं। क्योंकि जलती हुई अग्निमें फेंका गया बीज कहां अंकुरित हो सकता हैं ॥ ८९ ॥ अपात्रोंको दान देनेसे पापके सिवाय और कुछ भी फल नहीं हैं। क्योंकि बालूके पुंजके पेलने पर खेदरूप फल ही प्राप्त होता है ।। ९० ।। कभी कभी तो अपात्र के लिए दिया गया दान महान् अनर्थ को करता है। रोगी पुरुषको दिया गया अपथ्य भोजन क्या दुरुद्धर व्याधिको नहीं उत्पन्न करता है? करता ही है । ९५१|| जो पुरुष सुन्दर भोजन बना करके अपात्र के लिए देता है, वह दुर्बुद्धि उत्तम धान्य उत्पन्न करके उसे जलाता है ॥९२॥। इसलिए अपात्रको कभी दान नहीं देना चाहिए। जैसे एक जहाजके द्वारा बहुत से लोग समुद्रके पार उतार दिये जाते है, उसी प्रकार एक ही गरिष्ठ पात्र के द्वारा अनेक लोग संसारसागर से पार उतार दिये जाते है । ९३|| देखो - एक ही सूर्यके द्वारा सारा जगत् प्रकाशित हो जाता है, किन्तु शदयको प्राप्त सर्व नक्षत्रोंके समूहोंसे भी सारा जगत् प्रकाशित नहीं होता ॥ ९४ ॥ इसी प्रकार एक ही सुपात्रके द्वारा अनेक जीव संसार सागर से पार उतार दिये जाते हैं, किन्तु सहस्रों अपात्रोंके समूह द्वारा एक भी जन संसार-सागर से पार नहीं उतरता हैं ।। ९५ ।। इस प्रकार अपात्र दान के दोषोंसे डरनेवाले पुण्यशाली पुरुषों को प्रयत्न पूर्वक पात्रका ज्ञान करके विधिसे उसे दान देना चाहिए || ९६ || जो पुरुष उत्तम पात्रको छोडकर अपात्र के लिए दान देता है, वह निश्चयसे साधु पुरुषको छोडकर चोरके लिए धन अर्पण करता है || ९७|| जो निर्बुद्धि पुरुषपात्र को भी अपात्र के समान देखता है, वह चिन्तामणि रत्नको लोष्टके समान समझता हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥ ९८ ॥ जो पुरुष सुख देनेवाले पात्रको छोडकर दुःखदायी अपात्रको स्वीकार करता हैं, १. मु दुरुत्तरम् । २. मु. गरायसा । वह Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. श्रावकाचार-संग्रह पात्रापात्रविभागेन मिथ्यादृष्टेरिदं फलम् । उदितं दान प्राज्यं सम्यग्दृष्टेर्वदाम्यतः ॥१०० दानं त्रिविधपात्राम सम्यग्दृष्टिर्यथागमम् । ददानो लमते याच्या कल्याणानां परम्पराम् ।।१०१ पात्राय विधिना दत्वा दानं मत्वा समाधिना । अच्युतान्तेषु कल्पेषु जायन्ते शुद्धदृष्टयः ॥१०२ उत्पद्योत्पादशय्यायां देहोद्योतितपुष्कराः । सुप्तोत्थिता इव क्षिप्रमुत्तिष्ठन्ति दिवौकसः ॥१०३ निषण्णस्तत्र शय्यायां तोक्ष्यन्ते समन्ततः । निकाया देव-देवीनां रचिताञ्जलिकुडमलाः ॥१०४ स्तुवाना मां स्तवैः श्रव्यदिव्याभरणभासुराः । मूर्ताः केऽमी विलोक्यन्ते पुण्यपुजा इवाभितः।।१०५ रभ्या रामा मयेमाः काश्चित्रचापरायणाः । लावण्याम्बनिधर्वेला लोक्यन्ते कलनिस्वनाः ॥१०६ किमिदं दृश्यते स्थानं रामणीयकमन्दिरम् । कथमत्राहमायात: कि स्वप्नोऽयमुतान्यथा ।।१०७ किमकारि मया पुण्यं यातो येनात्र बन्धुरे । न पुण्यव्यतिरेकेण लभते सुखसम्पदम् ।।१०८ इत्थं चिन्तयतां तेषां भवकारणकोऽवधिः । सम्पद्यते तरां दीप्रः पूर्वसम्बन्धसूचकः ॥१०९ ज्ञानेन तेन विज्ञाय दानपुण्यप्रभावतः । त्रिदशीभूतमात्मानं ते व्रजन्ति सुखासिकाम् ॥११० प्रीतेनामरबर्गेण स्वसम्बन्धेन सादरम् । क्रियमाणं ततस्तुष्टा भजन्ते जननोत्सवम् ॥१११ ज्ञात्वा धर्मप्रसादेन तत्र प्रभवमात्मनः । पूजयन्ति जिनास्तेि भक्त्या धर्मस्य वृद्धये ११२ नष्टबुद्धि पुरुष अमृतको छोडकर कालकूट विषको ग्रहण करता है।।९९।। यह दानसे उत्पन्न होने वाला फल पात्र-अपात्रके विभागसे मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासे कहा । अब इससे आगे सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा पात्र-दानके फलको कहते है ।। १००।। सम्यग्दृष्टि पुरुष तीन प्रकारके पात्रोंके लिये आगमके अनुसार दान देता हुआ प्रार्थनीय कल्याणोंकी परम्पराको प्राप्त होता हैं।।१०।। पात्रके लिये विधि-पूर्वक दान देकर और समाधिके साथ मरण करके शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव अच्युत पर्यन्त सोलह स्वर्गामें उत्पन्न होते है॥१०२।। वहां स्वर्गों में उत्पादशय्या पर उत्पन्न होकर अपने शरीरकी कान्तिसे आकाशको प्रकाशनान करते हुए वे देव लोग सोकर उठे हुए के समान शीघ्र उठ बैठते हैं ।।१०३॥ उस उत्पादशय्या पर बैठे बैठे ही देव लोग अपने चारोंओर हाथों की अंजलि बांधे हए देव और देवियोंके समुदायोंको देखते है ।।१०४।। और विचारते है कि सुनने योग्य सुन्दर स्तवनोंसे मेरी स्तुति करते हुए, भव्य आभरणोंसे भासुरायमान मूर्तमान् पुण्य-पुंजके समान ये कौन मेरे चारों ओर दिखाई दे रहे हैं? ||१०५॥ नाना प्रकारकी चाटुकारी करने में परायण, कल-कल मधुर शब्द बोलने वाली, सौन्दर्य-सागरकी वेलाके समान ये रमणीक कौनसी स्त्रियां देख रही हैं ॥१०६॥ यह अत्यन्त रमणीक भवनवाला कौन सा स्थान मुझे दिखाई दे रहा हैं? मै ऐसे दिव्य स्थान पर कैसे आया हूँ? अथवा क्या यह सब स्वप्न हैं ।।१०७।। मैने पूर्णजन्म में क्या पुण्य किया हैं कि मैं ऐसे सुन्दर स्थानमें उत्पन्न हुआ हूँ। क्योंकि पुण्यके विना ऐसी सुखसम्पदा नहीं प्राप्त होती हैं ।।१०८।। इस प्रकार चिन्तवन करते हुए उन देवोंके पूर्वरूपके सम्बन्धका सूचक, अति देदीप्यमान भव-कारणक अवधिज्ञान उत्पन्न होता है ।।१०९।। उस ज्ञानके द्वारा यह जानकर कि मै दानके पुण्य-प्रभावसे यहां देव लोक में देव उत्पन्न हुआ हूँ' वे लोग सुखरूप समाधानको प्राप्त होते हैं । ११०॥ तत्पश्चात् प्रीतिको प्राप्त हुए देवगण सादर अपने अपने सम्बन्धको प्रकट करके सन्तुष्ट होते हुए उनका जन्मोत्सव करते हैं और वे देवगण जन्मोत्सवके आनन्दका उपभोग करते है ॥१११॥ तदनन्तर धर्मके प्रभावसे स्वर्गलोकमें अपना जन्म जान कर वे देवगण धर्मकी और भी वृद्धिके लिये भक्तिके साथ जिन भगवान्का पूजन करते है।।११२॥ वे देवगण अपने प्रतिबिम्बके Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३७१ . सुखवारिधिमग्नास्ते सेव्यमाना: सुधाशिभिः । सर्वदा व्यवतिष्ठन्ते प्रतिबिम्बैरिवात्मनः ।।११३ ते सर्वे क्लेशनिर्मुक्ता द्वाविंशतिमवन्वताम् । आसते तत्र भञ्जाना दानवक्षफलं सुराः ।१५४ तेषां सुखप्रमा वक्ति वचोभिर्यो महात्मनाम् । प्रयाति पदविक्षेपैगंगनान्तमसो ध्रुवम् ॥११५ नवयौवनसम्पना दिव्यभूषणभूषिताः । ते वरेण्यादिसंस्थाना जायन्तेऽन्तर्मुहूर्ततः ।।११६ तेषां खेदमदस्वेदजरारोगादिवजिता: । जायन्ते भास्कराकारा: स्फाटिका इव विग्रहाः ॥११७ राजते हृदये तेषां हार यष्टिविनिर्मला । निसर्गसम्भवा मूर्ता सम्यग्दृष्टिरिव स्थिता ॥११८ मुकुटो मस्तके तेषामुद्योतितदिगन्तरः । निषधानामिवादित्यं तमोऽवंसी विभासते ।।११९ निधुवनकुशलाभिः पूर्णचन्द्राननाभि: स्तनभरविनतामिमन्मथाध्यासिताभिः । पृथुतरजघनाभिर्बन्धुराभिर्वधूभिः सभममलवचोमिः सर्वदा ते रमन्ते ॥१२० दिवोऽवतीर्योजितचित्तवृत्तयो, महान भावा भुवि पुण्यशेषतः । भवन्ति वशेषु धाचितेषु विशुद्धसम्यक्त्वधना नरोत्तमाः ।। १२१ अवाप्य ते चक्रधरादिसम्पदं मनोरमामत्र विपुण्यदुर्लभाम । नयन्ति कालं निखिलं निराकुला न लभ्यते किं खलु पात्रदानतः ॥१२२ निषेव्य लक्ष्मीमिति शर्मकारिणी, प्रथीयसी द्वित्रिभवेषु कल्मषम् । प्रदह्यते ज्ञानकृशानुनाऽखिलं, श्रयन्ति सिद्धि विगतापदं सदा ॥१२३ समान अन्य देवोंसे सेवित होते हुए सदा सुख-सागरमें निमग्न रहते हैं ।।११३।। वे देवगण सदा सर्व प्रकारके क्लेशोंसे विमुक्त रहते है, और दानरूप वृक्ष के फलको भोगते हुए बाईस सागरोपम काल तक स्वर्ग लोकमें रहते है ।।१ ४ । उन महान् भाग्यशाली देवोंके सुखके प्रमाणको जो पुरुष वचनोंसे कहना चाहता है, वह निश्चयसे एक एक पद-निक्षेप करते हए अनन्त आकाशके अन्तको जाना चाहता हैं ।।११५।। वे देव सदा नवयौवनसे सम्पन्न रहते है, दिव्य आभषणों से भषित रहते है, उत्तम प्रथम समचतुरस्रसंस्थानके धारक होते हैं, और अन्तर्मुहूर्तमें ही वे उत्पन्न हो जाते हैं ॥११६।। उन देवोंके शरीर खेद, मल, प्रस्वेद, जरा, रोग आदिसे रहित और स्फटिक मणिके समान स्वच्छ प्रकाशमान आकार वाले होते है ।। ११७।। उनके वक्षःस्थल पर अति निर्मल हारोंकी लडी इस प्रकार शोभित होती हैं, मानों स्वभावसे उत्पन्न हुई मूर्तरूप सच्ची दष्टि ही हृदय पर अवस्थित है ।।११८।। उन देवोंके मस्तक पर दिशाओंके अन्तरालको प्रकाशित करनेवाला मकुट इस प्रकार शोभित होता है, मानों निषध पर्वत पर अन्धकारका ध्वंस करनेवाला सूर्य ही प्रकाशमान हो रहा है । ११९।। वे देव सदा ही काम सेवनमें कुशल, पूर्ण चन्द्रके समान मुखवाली, स्तनोंके भारसे नम्रीभत, कामदेवसे व्याप्त, विशाल जघनवाली और निर्मल वचन बोलनेवाली सुन्दर स्त्रियोंके साथ रमण करते रहते है ।। १२०।। वे लोग स्वर्गसे अवतरण करके शेष पुण्यके प्रभावसे विद्वत्पूज्य वंशोंमें उदार चित्तवृत्तिवाले, विशुद्ध सम्यक्त्वरूप धनके धारक मनुष्योंमें उत्तम ऐसे महानुभाववाले महा मानव उत्पन्न होते है ।१२१।। वे जीव इस मनुष्य भवमें पुण्यहीन जनोंको अतिदुर्लभ ऐसी चक्रवर्ती आदिको मनोरम सम्पदाको पाकर निराकुल रहते हुए अपने समस्त जीवन-कालको व्यतीत करते है। क्योंकि पात्र दानके पुण्यसे क्या नहीं प्रााप्त होता? अर्थात् सभी कुछ प्राप्त होता है ।।१२२।। इस प्रकार मनुष्य और देवोंके दो-तीन भवोंमें सुखकारिणी विशाल लक्ष्मीका उपभोग करके ध्यानरूप वन्हिके द्वारा समस्त पाप कर्मोको जला करके वे सदाके लिए सर्व आपदाओंसे रहित सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होते है ॥१२३॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ श्रावकाचार-संग्रह विधाय सप्ताष्टभवेषु वा स्फुट जघन्यतः कल्मषकक्षकर्तनम् । वजन्ति सिद्धि मुनिदानवासिता व्रतं चरन्तो जिननाथभाषितम् ॥१२४ पात्रदानमहनीयपादप: शुद्धदर्शनजलेन वद्धितः। यद्ददाति फलचित सतां, तस्य को भवति वर्णने क्षमः ।।१२५ गणेशिनाऽमितगतिना यदीरितं, दानजं फलमिदमीर्यते परैः।। विभासितं दिनमणिना यदम्बरं भास्यते कथमपि दीपकैरिदम् ।।१२६ इत्यमितगत्याचार्यकृतोपासकाचारे एकादशः परिच्छेदः ॥११॥ द्वादशः परिच्छेदः भावद्रव्यस्वभावा यैरुन्नता: कर्मपर्वताः । विभिन्ना ध्यानवज्रेण दुःखव्यालालिसकुलाः ।।१ कर्मक्षयभवाः प्राप्ता मुक्तिदूतीरपच्छिद: । नवकेवललब्धीर्ये पञ्चकल्याणभागिनः ॥२ सर्वभाषामयी भाषा बोधयन्ती जगत्त्रयीम् । आश्चर्यकारिणी येषां ताल्वोष्ठस्पन्दजितः ॥३ वचांसि तापहारीणि पयांसीव पयोमुचः । क्षिपन्तो लोकपुण्येन भूतले विहरन्ति ये ॥४ प्रातिहार्याष्टकं कृत्वा येषां लोकातिशायिनीम् । सपर्या चक्रिरे सर्वे सादरा भुवनेश्वराः ।।५ येषामिन्द्राज्ञया यक्ष: स्वर्गशोभाभिभाविनीम् । करोत्यास्थायिकों कीर्णा लोकत्रितयजन्तुभिः ॥६ आद्यसंहतिसंस्थाना निःस्वेदा क्षीरशोणिता । राजते सुन्दरा येषां सुगन्धिरमला तनः ॥७ अथवा जघन्यरूपसे सात-आठ भवोंमें पापोंकी कक्षाका क्षय करके मुनिदानकी वासनासे वासित वे जीव जिननाथसे भाषित व्रतोंका आचरण करते हुए सिद्धिको प्राप्त होते हैं ।।१२४॥ शुद्ध सम्यग्दर्शनरूप जलसे बढाया गया यह पात्र दानरूप महान् वृक्ष सज्जनोंको जो उत्तम फल देता हैं, उसका वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता हैं? कोई भी नहीं ।।१२५ ।। अमित ज्ञानके धारक गणधर देवोंने दानका जो फल वर्णन किया है, वह दूसरे सामान्य लोगोंके द्वारा नहीं कहा जा सकता है । जो आकाश दिनमणि सूर्यके द्वारा प्रकाशित होता है, वह दीपकोंके द्वारा किसी भी प्रकारसे प्रकाशित नहीं हो सकता हैं ॥१२६।। इस प्रकार अमितगति-विरचित उपासकाचार में ग्यारहवां परिच्छेद समाप्त हुआ। अब आचार्य जिनदेवकी पूजाका महत्त्व बतलाते हुए पहले जिनदेवके स्वरूपका वर्णन करते हैं-जिन्होंने द्रव्य और भावस्वरूपकी अपेक्षा अति उन्नत और दुःखरूप सॉंकी पंक्तिसे व्याप्त ऐसे कमरूप पर्वतोंको ध्यानरूप वज्रके द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया हैं, जिन्होंने पापोंके छेदनेवाली तथा कर्मक्षयसे उत्पन्न हुई नव केवललब्धियोंको मुक्तिरूपी स्त्रीकी दूतीके समान प्राप्त कर लिया हैं जो गर्भ-जन्मादि पंच कल्याणकोंके धारक हैं, जिनकी सर्व भाषामयी भाषा तीनों जगत्को प्रबोध करनेवाली है, और तालु ओष्ठके संयोगसे रहित होनेके कारण जगत्को आश्चर्य करनेवाली है, और जैसे मेध सन्तापहारी जलको बरसाते हैं, उसी प्रकार जो जगत्के सन्तापको हरनेवाले वचनोंको वर्षा करते हुए लोगोंके पुण्यसे इस भूतल पर विहार करते है, भुवनके ईश्वर इन्द्रादिक जिनके समीप आठ आश्चर्यकारी प्रातिहार्योको रच कर आदरके साथ जिनको लोकातिशायिनी पूजाको करते है, इन्द्रकी आज्ञासे यक्ष स्वर्गकी शोभाको भी तिरस्कृत करनेवाली और तीन जगत्के प्राणियोंसे व्याप्त ऐसी जिनकी आस्थायिका (सभाभमि-या समवसरण) को रचता है, जिनका शरीर आद्य वज्रवृषभनाराचसंहनन और आद्य समच Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः येषां द्विष्ट: क्षयं याति तुष्टो लक्ष्मी प्रपद्यते । न रुष्यन्ति न तुष्यन्ति ते तयोः समवृत्तयः ।।८ लक्ष्मी सातिशयां येषां भवनत्रयतोषिणीम् । अनन्यभाविनी शक्तो वक्तुं कश्चिन्न विद्यते ॥९ रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहादयोऽखिला: । येष दोषा न तिष्ठन्ति तप्तेष नकुला इव ॥१० शक्तितो भक्तितोऽर्हन्तों जगतीपतिपूजिताः । ते द्वेधा पूजया पूज्या द्रव्यभावस्वरूपया' ॥११ वचोविग्रहसङ्कोचो द्रव्यपूजा निगद्यत । तत्र मानससङ्कोचो भावपूजा पुरातनः ॥१२ गन्धप्रसूनसान्नाय दीपधूपाक्षतादिभिः । क्रियमाणाऽथवा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ।।१३ व्यापकानां विशुद्धानां जिन नामनुरागतः । गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते ।।१४ द्वेधाऽपि कुवत. पूजा जिनानां जितजन्मनाम् । न विद्यते यो लोके दुर्लभं वस्तु पूजितम् ॥१५ यैः कल्मषाष्टक प्लुष्टं विशुद्धध्यानतेजसा । प्राप्तमष्टगुणश्वर्यमात्मनीनमनव्ययम् ।।१६ क्षुधातृषाश्रमस्वेदनिद्रातोषाधमावतः । अन्नपानासनस्नानशयनाभरणादिभिः ।।१७ सुधादिनोदनर्येषां नास्ति जातु प्रयोजनम् । सिद्ध हि वांछिते कार्ये काणान्वेषणं वृथा 1॥१८ कर्मव्यपायतो येषां न पुनर्जन्म जायते । विलयं हि गते बोजे कुतः सम्पद्यतेऽङ्कुरः ।। १९ तुरस्र संस्थानवाला है, प्रस्वेदरहित हैं,क्षीर वर्णका रुधिर हैं,ऐसा निर्मल सुगन्ध मय जिनका सुन्दर शरीर शोभाको प्राप्त हो रहा है, जिनसे द्वेष करने वाला क्षयको प्राप्त होता हैं और सन्तुष्ट होनवाला लक्ष्मीको प्राप्त होता है, फिर भी जो दोनों में समवृत्ति रहते हुए न किसीसे रुष्ट होते है, और न किसीसे सन्तुष्ट ही होते है, जिनकी तीन भवनको सन्तोष देनेवाली और अन्यमें नहीं पाई जानेवाली ऐसी सातिशय लक्ष्मीका वर्णन करने के लिए कोई भी पुरुष समर्थ नहीं है, जिनमें राग द्वेष मद वेध लोभ मोह आदिक सभी दोष सर्वथा नहीं पाये जाते है, जैसे कि तप्त स्थानों पर नेवले नहीं पाये जाते है, एसे तीनों लोकोंके स्वामियोंसे पूजित अरहन्तदेव द्रव्य और भावस्वरूप दो प्रकारके पूजनके द्वारा शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक पूजनीय है ।।१-१२॥ वचन और शरीरका संकोच करना अर्थात् अन्य क्रियाएँ रोककर जिनेन्द्रदेवके सन्मुख करना. यह द्रव्यपूजा कही जाती है। तथा मनका संकोच करना अर्थात् मनको अन्य ओरसे हटाकर जिन भक्तिमें लगाना इसे पुरातन पुरुषोंने भावपूजा कही हैं ।।१२।। अथवा गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, अक्षत आदिसे विधिपूर्वक की जानेवाली पूजाको द्रव्धपूजा जानना चाहिए । और जिनेन्द्रदेवोंके व्यापक विशुद्ध गुणोंका परम अनुरागसे जो बार-बार चिन्तवन करना सो यह भावपूजा कही जाती है।।१३-१४।। संसारको जीतनेवाले जिनेन्द्रदेवोंकी दोनों ही प्रकारसे पूजा करनेवाले पुरुषको दोनों ही लोकोंमें कोई भी श्रेष्ठ वस्तु पाना दुर्लभ नहीं है ।।१५।। __जिन्होंने विशुद्ध ध्यानके तेजसे आठो कर्माका विनाश करके अपने अक्षय स्वरूपवाले आठ गण रूप ऐश्वर्यको प्राप्त कर लिया हैं, भूख, प्यास,भ्रम,प्रस्वेद, निद्रा,हर्ष,विषाद आदिके अभाव होनेसे जिनके क्षुधा आदिके दूर करनेवाले अन्न, पान, आसन, स्नान, शयन और आभूषण आदिसे जिन सिद्ध भगवन्तोंके कदाचित् भी कोई प्रयोजन नहीं रहा है, क्योंकि वांछित कार्य के सिद्ध हो जाने पर कारणोंका अन्वेषण करना वृथा हैं ।। १६-१८।। कर्मोका अभाव हो जानेसे जिनके संसारमें पुनः जन्म नहीं होता हैं, क्योंकि बीजके ही विनष्ट हो जाने पर अंकुर कैसे उत्पन्न हो सकता है ।।१९।। जिनके कर्म-जनित राग-द्वेषादिक कोई भी दोष नहीं पाये जाते है, क्योंकि निमित्तके नहीं १. मु. स्वभावया। २. मु. सान्नाह्य। ३. मु. प्लष्ट्वा । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ श्रावकाचार-संग्रह रागद्वेषादयो दोषा येषां सन्ति न कर्मजाः । निमित्तरहितं क्वापि न नमित्तं विलोक्यते ॥२० न निर्वृतिममी मुक्त्वा पुनरायान्ति संसृतिम् । शर्मदं हि पदं मुक्त्वा दुःखदं कः प्रपद्यते ॥२१ सुखस्य प्राप्यते येषां न प्रमाणं कथञ्चन । आकाशस्येव नित्यस्य निर्मलस्य गरीयसः ॥२२ पश्यन्ति ये सुखीभूता लोकानशिखरस्थिताः । लोकं कर्मभ्रकुंशेन नाटयमानमनारतम् ।।२३ येषां स्मरणमात्रेण पुंसां पापं पलायते । ते पूज्या न कथं सिद्धा मनोवाक्कायकर्मभिः ।।२४ चारयन्त्यनुमन्यन्ते पञ्चाचारं चरन्ति ये । जनका इव सर्वेषां जीवानां हितकारिणः ॥२५ येषां पादपरामर्शेर्जीवा मुञ्चन्ति पातकम् । निखिलं हिमरश्मीनां चन्द्रकान्तोपला इव ॥२६ उपदेशः स्थिरं येषां चारित्रं क्रियते तराम् । ते पूज्यन्ते त्रिधाऽऽचार्याः पदं वयं यियासुभिः ॥२७ उन्नतेभ्यः ससत्त्वेभ्यो येभ्यो दलितकल्मषाः । जायन्ते पावना विद्या: पर्वतेभ्यः इवापगाः ।।२८ चरन्तः पञ्चधाऽऽचारं भवारण्यदवानलम् । द्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धं पाठयन्ति पठन्ति ये॥.९ येषां वचोन्हदे स्नाता न सन्ति मलिना जनाः । तेऽर्च्यन्ते न कथं दक्षरुपाध्याया विरेफसः ॥३० यै 'रनङ्गानलस्तीवः सन्तापितजगत्त्रयः । विध्यापित: शमाम्भोभिः पापपङ्कापहारिभिः ।।३१ रहने पर कहीं पर भी नैमित्तिक कार्य नहीं देखा जाता हैं ॥२०॥ वे सिद्ध भगवन्त मुक्तिको छोडकर कभी भी संसारमें नहीं आते है। क्योंकि सुख देनेवाले पदको छोडकर कौन दुःखदायी पदको पाना चाहता हैं ।।२१।। जिनके आकाशके समान नित्य, निर्मल और महान् सुखका प्रमाण कभी भी नहीं पाया जा सकता है ।।२२।। ___ जो लोकके अग्र शिखर पर अवस्थित हो परम सुखी होकर कर्मरूप नट के द्वारा नचाये जानेवाले संसारको निरन्तर देखते रहते है, और जिनके स्मरण मात्रसे पुरुषोंके पाप दूर भाग जाते है ऐसे वे परम शद्ध स्वभावी सिद्ध भगवन्त मन वचन कायसे कैसे पूजने योग्य नहीं हैं. अपित् अवश्य ही पूजने योग्य है ।।२३-२४॥ जो पाँच प्रकारके आचारका स्वयं आचरण करते हैं, दूसरोंको आचरण कराते है और आचरण करनेवालोंको अनुमति देते हैं, जो पिताके तुल्य सब जीवोंके हितकारी हैं, जैसे कि चन्द्र किरणोंका स्पर्श करके चन्द्रकान्तमणि जलको छोडता है, उसी प्रकार जिनके चरणोंका स्पर्श करके जीव अपने पापोंको छोड़ देते है, जिनके उपदेशोंसे साधुजन अपने चारित्रको अति दृढ करते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी श्रेष्ठ पदको जाने के इच्छुक भव्य पुरुषोंके द्वारा मन वचन कायसे पूजे जाते हैं ।।२५-२७|| जैसे उन्नत पर्वतोंसे पावन नदियां निकलती हैं, उसी प्रकार जिन विद्योन्नत सत्त्वशाली उपाध्यायोंसे पापोंका दलन करनेवाली पवित्र विद्याएँ उत्पन्न होती हैं, जो संसारकानन को जलाने के लिए दावानलके समान पंच आचारोंका स्वयं आचरण करते हैं, जो द्वादशाङगरूप श्रतस्कन्धको स्वयं पढते है और अन्य शिष्योंको पढाते है, जिनके वचनरूप सरोवरमें स्नान करनेवाले मलिन पुरुष भी मलिन नहीं रहते, प्रत्युत निर्मल हो जाते है, ऐसे पाप-रहित उपाध्याय परमेष्ठी चतुर पुरुषोंके द्वारा कैसे नहीं पूजे जाते है, अर्थात् अवश्य ही पूजे जाते हैं ॥२८-३०॥ जिन्होंने तीन जगत्को सन्तापित करनेवाले, तीव्र कामरूप अनल (अग्नि) को पापरूप कीचडके दूर करनेवाले शमभावरूप जलसे बुझा दिया है, जो भव-काननको जलानेकी इच्छासे निर्दोष तपको करते हैं, जिन्होंने सर्व प्रकारके परिग्रह को दूर कर दिया हैं, जो अपने १. मु. विरेपसः । - Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३७५ दिधक्षवो भवारण्यं ये कुर्वन्ति तपोऽनघम् । निराकृताखिलग्रन्था निस्स्पृहाः स्वतनावपिः ॥३२ निधानमिव रक्षन्ति ये रत्नत्रयमादृताः । ते सद्भिर्वरिवस्यन्ते साधवो मव्यबान्धवाः ।।३३ अर्चयक्ष्यस्त्रिधा पुंभ्यः पञ्चेति परमेष्ठिनः । नश्यन्ति तरसा विघ्ना बिडालेभ्य इवाऽऽखवः ॥३४ पूजयन्ति न ये दोना भक्तित: परमेष्ठिनः । सम्पद्यते कुतस्तेषां शर्म निन्दितकर्मणाम् ।।३५ इन्द्राणां तीर्थकर्तणा केशवानां स्थाङ्गिनाम् । सम्पदः सकला: सद्यो जायन्ते जिनपूजया ॥३६ मानवमानवावासे त्रिदर्शस्त्रिदशालये । खेचरः खेचरावासे पूज्यन्ते जिनपूजकाः ॥३७ सकामा मन्मथालापा निविडस्तनमण्डला: । रमणी रमणीयाङ्गा रमयन्ति जिनाचिनः ॥३८ पवित्रं यन्निरातङ्क मुक्तानां' पदमव्ययम् । दुष्प्रापं विदुषामयं प्राप्यते तजिनार्चकः ।।३९ जिनस्तवं जिनस्नानं जिनपूजां जिनोत्सवम् । कुर्वाणो भक्तितो लक्ष्मी भजते याचितां जनः ।।४० संसारारातिभीतस्य व्रतानां गुरुसाक्षिकम् । गृहीतानामशेषाणां रक्षणं शीलमुच्यते ॥४१ साक्षीकृता व्रतादाने कुर्वते परमेष्ठिनः । भूपा इव महादुःखं विचारे व्यभिचारिणः ॥४२ एकदा ददते दु खं नरनाथास्तिरस्कृताः । गुरवो न्यक्कृता दुःखं वितरन्ति भवे मवें ।.४३ शरीरमें भी निस्पृह है, जो निधानके समान रत्नत्रय धर्मकी अति आदरपूर्वक रक्षा करते है ऐसे भव्य जीवोंके बन्धु साधुजन सज्जनोंके द्वारा निरन्तर आराधना किये जाते हैं।॥३१-३३।। इस प्रकार उपर्युक्त इन पंच परमेष्ठियोंका मन वचन कायसे पूजन करनेवाले पुरुषोंके सर्व विघ्न इस प्रकारसे शीघ्र विनष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार कि विलावोंसे मूषक विनष्ट हो जाते है ।।३४।। जो दीन पुरुष पंच परमेष्ठीकी भक्ति से पूजा नहीं करते हैं उन निन्द्य कर्म करनेवाले पुरुषोंको सुख कहांसे प्राप्त हो सकता है ॥३५॥ जिनेन्द्रदेवकी पूजासे इन्द्रोंकी, तीर्थंकरोंकी, नारायणोंकी और चक्रवर्तियोंको सर्व सम्पदाएं शीघ्र प्राप्त होती है ॥३६॥ जिन देवकी पूजा करने वाले पुरुष मनुष्यलोकमें मानवोंके द्वारा, देवलोकमें देवोंके द्वारा और विद्याधरोंके आवासमें विद्याधरोंके द्वारा पूजे जाते है ।।३७।। जिन भगवान्की पूजा करनेवाले मनुष्योंको काम सेवनके लिए उत्सुक, मधर वचन बोलनेवाली. सघन स्तन-मण्डलोंकी धारक और रमणीय शरीर वाली ऐसी रमणियां रमाती हैं, अर्थात् जिनपूजनके पुण्यबन्धसे स्वर्गादिमें उत्तम स्त्रियोंकी प्राप्ति होती हैं।।३८।। सिद्धोंका जो पद परम पवित्र हैं, आतंक-रहित है, अव्यय हैं, दुष्प्राप्य है और विद्वानोंके द्वारा प्रार्थनीय हैं, वह जिनदेवकी पूजा करनेवाले पुरुषोंको प्राप्त होता है ।।३९। जिनदेवका स्तवन, जिनेन्द्रका अभिषेक, जिन पूजा और जिन देवका उत्सव भक्तिसे करनेवाला मनुष्य मनोवांछित लक्ष्मीको प्राप्त करता हैं ।।४०।। अब आचार्य आगे शीलका वर्णन करते हैं-संसाररूप शत्रुसे भयभीत पुरुष के गुरु-साक्षी पूर्वक ग्रहण किये समस्त व्रतोंकी रक्षा करनेको शील कहते हैं ॥४१॥ व्रत-ग्रहण करने में साक्षी किये गये परमेष्ठी व्रतोंके पालने के विचारमें व्यभिचार करने वाले पुरुषको राजाओं के समान महादुःख देते है ॥४२॥ भावार्थ-जैसे राजा के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा के भंग करने वाले पुरुषको राजा भारी दण्ड देता हैं, उसी प्रकार पंच परमेष्ठीकी साक्षी पूर्वक व्रत ग्रहण करके उसे भंग करनेवाला पुरुष महान् दुःख को पाता हैं । अरहन्तादि परमेष्ठी वीतराग है, वे किसी को कुछ दुःख नहीं देते है। किन्तु उनकी साक्षीपूर्वक व्रत लेकर उसे भंग करने वाला पुरुष अपने ही मलिन १. मु. सिद्धांनां । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ श्रावकाचार-संग्रह मक्षयित्वा विषं घोरं वरं प्राणा विसजिताः। न कदाचिद्वतं भग्नं गृहीत्वा सूरिसाक्षिकम् ।.४४ वसनर्मूषण_नः सकलैरपि शोभते । शीलेन बुधपूज्येन न पुनर्वजितो जनः ॥४५ सहज भूषणं शीलं शीलं मण्डनमुत्तमम् । पाथेयं पुष्कलं शीलं शीलं रक्षणमूजितम् ।।४६ शीलेन रक्षितो जीवो न केनाप्यभिभूयते । महाहृदनिमग्नस्य किं करोति दवानलः ॥४७ बान्धवाः सुहृदः सर्वे निःशीलस्य पराङ्मुखाः । शत्रवोऽपि दुराराध्या: सम्मुखा: सन्नि शीलिनः ॥४८ शीलतो न परो बन्धुः शीलतो न परः सुहृत् । शीलतो न परा माता शोलतो न पर: पिता ॥४९ उपकारो न शीलस्य कर्तुमन्येन शक्यते । कल्पद्रुमः फलं दत्ते पर: कुत्र महोरुहः ।।५० तापेऽपि सुखितः शीली शीलमोची पुनर्जनः । चित्रं जनांगलिच्छाये स्थितोऽपि परितप्यते ।।५१ कदाचन न केनापि सुशील: परिभूयते । न तिरस्क्रियते यो हि श्लाघ्यते तस्य जीवितम् । ५२ भङ्गस्थानपरित्यागी व्रतं पलायतेऽमलम् । तस्करलु यते कुत्र दूरतोऽपि पलायितः ।।५३ नानानर्थकर द्यूतं मोक्तव्यं शीलशालिना । शीलं हि नाश्यते तेन गरलेनेव जीवितम् १५४ परिणामोंसे पापका उपार्जन कर नरकादिमें दुःखोंको भोगता हैं, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। तिरस्कार किये गये राजा लोग तिरस्कार करनेवाले मनुष्यको एक बार ही दुःख देते है। किन्तु तिरस्कार किय गये गुरुजन भव-भवमें दुःख देते है । यहां पर भी ऊपर कहा भावार्थ जानना ।।४३।। भयंकर घोर विषको खाकरके प्राणोंका विसर्जन करना उत्तम है, किन्तु गुरुको साक्षी पूर्वक व्रतको ग्रहण करके उसे भग्न करना कदाचित् भी अच्छा नहीं है।।४४।।सर्व वस्त्रोंसे और आभूषणोंसे भी रहित पुरुष यदि विद्वत्पूज्य शीलसे संयुक्त हो, तो शोभाको प्राप्त होता है। किन्तु शीलसे रहित और वस्त्राभूषणोंसे भूषित पुरुष शोभाको नहीं पाता है ।।४५।। शील सहज भूषण हैं, शील उत्तम मण्डन है, शील पुष्ट पाथेय (मार्ग भोजन) है और शील हो जीवोंका परम संरक्षण हैं ।।४६।। शील से रक्षित पुरुष किसीके द्वारा भी पराभव को प्राप्त नहीं हो सकता। क्योंकि महान् सरोवरमें निमग्न पुरुष का दावानल क्या करेगा? कुछ भी नहीं कर सकता हैं ॥४७॥ शीलसे रहित पुरुषके सभी बन्धु और मित्रजन पराङमुख हो जाते है। किन्तु शीलवान् पुरुषके अत्यन्त दुराराध्य शत्रु भी सन्मुख होकर सहायक होते हैं ।।४८। शीलसे श्रेष्ठ कोई बन्धु नहीं, शीलसे श्रेष्ठ कोई मित्र नहीं, शीलसे श्रेष्ठ कोई माता नहीं और शीलसे श्रेष्ठ कोई पिता इस संसारमें नहीं है ।।४९।। शीलके समान जीवका अन्य कोई उपकार नहीं कर सकता है। कहीं अन्य कोई वृक्ष कल्पद्रुमके समान मनोवांछित फलको दे सकता हैं ।।५०॥ आचार्य कहते हैं कि शीलवान् पुरुष ताप (घाम) मे खडा होकरके भी सुखी हैं और शीलका छोडनेवाला व्यक्ति मनुष्योंकी अंगुलियों की छायामें स्थित रहते हुए भी सन्तापको पाता हैं, यह महान् आश्चर्य है ।।५।। उत्तम शीलका धारक पुरुष कभी भी किसीके द्वारा पराभवको प्राप्त नहीं हो सकता है और न किसीके द्वारा तिरस्कृत ही होता है। शीलवान् पुरुषका जीवन ही प्रशंसनीय होता हैं ॥५२॥ व्रत-भंग होने के स्थानका परित्यागी पुरुष ही व्रतको निर्मल पालता है। जो चोरों को दूरसे ही देखकर भाग जाता है, वह चोरोंके द्वारा कहां लूटा जा सकता है ॥५३॥ अब आचार्य शील भंग करनेवाले व्यसनोंसे दूर रहने का उपदेश देते हुए पहले जुआ खेलनेका निषध करते हैशीलवान् पुरुषको नाना अनर्थ करनेवाला द्यूतका त्याग करना ही चाहिए। जैसे विषपानसेजीवनका नाश होता है, उसी प्रकार जुआ खेलनेसे शील का नाश होता हैं ।।५४।। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३७७ विषादः कलहो रोटि: कोपो मानः श्रमो भ्रमः । पैशुन्यं मत्सरः शोक: सर्वे द्यूतस्य बान्धवाः ॥५५ दुखानि तेन जन्यन्ते जलानीवाम्बुवाहिना । व्रतानि तेन धूयन्ते रजांसीव च वायना ।।५६ न श्रियस्तत्र तिष्ठन्ति चूतं यत्र प्रवर्तते । न वृक्षजातयस्तत्र विद्यन्ते यत्र पावकः ।।५७ मातुरप्युत्तरीयं यो हाते जनपूजितम् । अकर्तव्यं परं तस्य कुर्वतः कीदृशी त्रपा ।।५८ सम्पदं सकलां हित्वा स गण्हाति महाऽऽपदमा स्वकुलं मलिनीकृत्य वितनोति च दर्यशः ।।५९ नरकरपरः क्रुद्धारकस्येव मस्तके । जनस्य कितवस्तस्य दुर्वालो ज्वाल्यतेऽनल: ।।६० कर्कशं दुःश्रवं वाक्यं जल्पन्तो वञ्चिताः परे । कुर्वन्ति युतकारस्य कर्णनासादिकर्तनम् ॥६१ विज्ञायेति महादोष वृतं दीव्यन्ति नोत्तमाः । जानानाः पावकोष्णत्वं प्रविशन्ति कथं बधाः ॥६२ वितनोति दृशा रागं या वात्येव रजोमयी। विध्वंसयति या लोकं शर्वरीव तमोमयी ॥६२ या स्वीकरोति सर्वस्वं चौरीवार्थपरायणा। छलेन या निगण्हाति शाकिनीवामिषप्रिया । ६४ बन्हिज्वालेव या स्पष्ट। सन्तापयति सर्वतः । शुनीव कुरुते चाटु दानतो यातिकश्मला ॥६५ विमोहयति या चितं मदिरेव निषेविता । सा हेया दूरतों वेश्या शीलालङ्कारधारिणा ॥६६ विषाद, कलह, राड, क्रोध, मान, श्रम, भ्रम, पैशुन्य, मत्सर और शोक ये सभी द्यूतके बान्धव है। अर्थात् जहाँ छुत-सेवन होगा, वहाँ पर सर्व ही दोष उपस्थित रहेंगे ॥५५॥ जैसे मेघोंके द्वारा जल उत्पन्न होता हैं, उसो प्रकार उघ द्यूतके द्वारा दुःख उत्पन्न होते है और जैसे पवनके द्वारा धूलि उडा दी जाती है, उसी प्रकार द्यूतके द्वारा व्रत उडा दिये जाते है ।।५६।। जहाँ पर द्यूतकी प्रवृत्ति होती है, वहां पर लक्ष्मी नहीं ठहरती है। जहाँ पर अग्नि विद्यमान हैं, वहाँ पर वक्षोंकी जातियाँ नहीं रह सकती हैं ।।५७।। जो द्यूत व्यसनी माताके भी जन-पूजित उत्तरीय (ओढनेके वस्त्र) को भी हर ले जाता है, उसे किसी भी नहीं करने योग्य कार्यको करते हुए लज्जा कैसे हो सकती हैं ।।५८॥ जुआ खेलने वाला पुरुष सर्व सम्पदाका त्याग कर महा आपदाओं को ग्रहण करता है और अपने कुलका मलिन करके अपयशको विस्तारता हैं ।।५९।। जैसे क्रोधित नारको अन्य नारकी के शिर पर भयंकर अग्नि जलाते है, उसी प्रकार अन्य जुआरी पुरुष भी हारने वाले जुआरीके मस्तक पर अग्नि जलाते है ।।६०.। जिनका धन ठग लिया गया , ऐसे जुआरी कर्कश और कर्णोको दु.खदायो वचनोंको बोलते हुए जुआरीके कान, नाक आदि अंगोंको काटते हैं ।। ६१।। इस प्रकार जुआ खेलनेके महादोषोंको जानकर उत्तम पुरुष जुआ नहीं खेलते हैं। अग्निकी उष्णताको जानते हुए ज्ञानी जन अग्निमें कैसे प्रवेश कर सकते हैं ।।६२॥ अब आचार्य वेश्या-व्यसनका निषेध करते हैं-जो धूलि उडानेवाली आँधीके समान आँखोंमें रागको विस्तारती हैं, जो अन्धकारमयी रात्रिके समान लोकका विध्वंस करती हैं, जो चोरके समान अर्थपरायण होकर दूसरेके सर्व धनका अपहरण करती है. जो मांस-भक्षण-प्रिय राक्षसीके समान लोगों को निगल जाती हैं अर्थात् उनके शरीरका सत्त्व खींच कर उन्हें निःसत्त्व कर देती हैं, जो अग्नि ज्वालाके समान स्पर्श की हुई सर्व ओरसे सन्ताप उत्पन्न करती हैं, जो कुत्तीके समान ‘स्वार्थ-साधनके लिए अपने यारकी चाटुकारी करती हैं, जो दान देने में अति कृपण है । अथवा जो धन के देने से अति पापिनी कुत्तीके समान खुशामद करती है,और जो मदिराके समान सेवन की गई चित्तको विमोहित करती हैं, ऐसी वेश्या शीलरूप अलंकारको धारण करनेवाले पुरुषके द्वारा दूरसे ही हेय हैं ।।६३.६६।। व्यभिचारी पुरुष सत्य,शौच, शमभाव, शील, संयम, नियम,यम आदि सर्व Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ श्रावकाचार-संग्रह सत्यं शीलं शमं शौचं संयम नियम दमम् । प्रविशन्ति बहिर्मुक्त्वा विटा: पण्याङ्गनागृहम् ।।६७ तपो व्रतं यशो विद्या कुलीनत्वं दमो दया । छेद्यन्ते वेश्यया सद्यः कुठार्येवाखिला लताः ॥६८ जननी जनको भ्राता तनयस्तनया स्वसा । न सन्ति वल्लभास्तस्य दारिका यस्य वल्लभाः ॥६९ न तस्मै रोचते सेव्यं गुरूणां वचनं हितम् । सशर्करमिव क्षीरं पित्ताकुलितचेतसे ॥७० वेश्यावक्त्रगतां निन्द्यां लालां पिबति योऽधमः । शुचित्वं मन्यते स्वस्य का पराऽतो विडम्बना ।।७१ यो वेश्यावदनं निस्ते मूढो मद्यादिवासितम् । मद्यमांसपरित्यागवतं तस्य कुतस्तनम् ।।७२ वदनं जघनं यस्या नीचलोकमलाविलम् । गणिकां सेवमानस्य तां शौचं बत कीदृशम् ।।७३ या परं हृदये धत्ते परेण सह भाषते । परं निषेवते लुब्धा परमाव्हयते दृशा ॥७४ सरलोऽपि स वक्षोऽपि कुलीनोऽपि महानपि । ययेारिव निःसार: सुपर्वापि विमुच्यते ॥७५ न सा सेंव्या त्रिधा वेश्या शीलरत्नं यियासता । जानानो न हि हिंस्रत्वं व्याघ्री स्पृशति कश्चन ॥७६ तिरश्ची मानुषी देवी निर्जीवा च नितम्बिनी । परकीया न भोक्तव्या शीलरत्नवता विधा । ७७ जीवितं हरते रामा परकीया निषेविता । प्लोषते सर्पिणी दुष्टा स्पृष्टा दृष्टिविषा न किम् ।।७८ गुणोंको बाहिर ही छोडकर वेश्याके घर में प्रवेश करते है । अर्थात् वेश्याके घरमें प्रवेश करते ही उक्त सर्व धर्मकार्योका विनाश हो जाता हैं ।।६७।। जैसे कुठारीके द्वारा सभी लताएँ विच्छिन्न हो जाती है, उसी प्रकार वेश्याके द्वारा तप व्रत यश विद्या कुलीनता इन्द्रिय-दमन और दया आदि गुण शीघ्र विच्छिन्न हो जाते हैं ।। ६८। जिस पुरुषको वेश्या प्यारी है, उसे मातापिता भाई पुत्र पुत्री और बहिन आदि कोई भी प्यारे नहीं रहते हैं ॥६९।। वेश्या-व्यतनी पुरुषको गुरुजनोंके हितकारी सेवन-योग्य वचन भी नहीं रुचते हैं, जैसे कि पित्तसे आकुलित चित्तवाले पुरुषको शक्कर मिला-हुआ दूध भी नहीं रुचता हैं ।।७०।। जो अधम पुरुष वेश्याके मुखकी निन्द्य लारको पीता हैं और फिर भी अपने आपके पवित्रता मानता है, इससे अधिक और क्या विडम्बना हो सकती हैं ॥७१।। जो मूढ मनुष्य मदिरा आदिसे वासित वेश्याके मुखको चूमता है, उसके मद्य और मांसके परित्यागका व्रत कैसे रह सकता है ॥७२॥ जिस वेश्याका मुख और जधन नीच लोगोंके थूक और मत्रादि मलसे व्याप्त रहता है, ऐसी वेश्याको सेवन करनेवाले पुरुषके बताओ-पवित्रता कैसे रह सकती हैं ॥७३॥ जो वेश्या किसी अन्य पुरुषको हृदयमें धारण करती हैं, किसी और के साथ संभाषण करती हैं, धनकी लोभिनी होकर किसी अन्य का सेवन करती हैं और नेत्र-कटाक्षसे किसी और पुरुषको बुलाती है, (वह क्या कभी किसीके साथ सच्चा प्यार कर सकती है ) ।।७४।। जिस वेश्याके द्वारा सरल, सुचतुर, कुलीन और महान् भी पुरुष धन रहित होने पर उत्तम पोर वाले निःसार साँठेके समान छोड दिया जाता हैं, (उस वेश्याके साथ प्रीति करना कहाँ तक उचित है) ॥७५।। इसलिए शीलरूप रत्नकी रक्षा करनेके इच्छुक पुरुषको मन वचन और कायसे ऐसी वेश्याका कभी सेवन नहीं करना चाहिए । व्याघ्रीकी हिंसकताको जानता हुआ कोई पुरुष उसका स्पर्श नहीं करता है ॥७६।। अब आचार्य परस्त्री व्यसनका निषेध करते हैं-शीलवान् पुरुषको तिर्यचनी, मनुष्यनी, . देवी और निर्जीव काष्ठ पाषाणरूप आकार वाली स्त्री, ये चारों ही प्रकारकी परायी स्त्रियोंको मन वचन कायसे कभी भी नहीं भोगना चाहिए।।७७॥ सेवन को गई परायो स्त्री मनष्यके जीवन का अपहरण करती है। दुष्ट दृष्टिविषवाली सर्पिणी स्पर्श किये जाने पर क्या नहीं जलाती है? Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३७९ यच्चेह लौकिकं दुःखं परनारी निषेवणे । तत्प्रसून मतं प्राज्ञैर्नारकं दारुणं फलम् ।। ७९ स्वजनै रक्ष्यमाणायास्तस्या लामोऽतिदुष्करः । तापस्तु चिन्त्यमानायां सर्वाङ्गीणो निरन्तरः ॥८. प्राप्यापि कष्टकष्टेन तां देशे यत्र तत्र वा। कि सुखं लभते भीत: सेवमानस्त्वरान्वितः ।।८१ या हिनस्ति स्वकं कान्तं सा जार न कथं खला। विडाली याऽत्ति पुत्रं स्वं सा कि मुञ्चति मूषकम्॥८२ यावद्दर्श कुचेतस्क: कि वाञ्छति पराङ्गनाम् । न पापत: परो लाभ: कदाचित्तत्र विद्यते ॥८३ या स्वं मुञ्चति भरि विश्वासस्तत्र कीदृशः । का विश्वासमते स्नेहः किं सुखं स्नेहतो विना ।।८४ वधो बन्धो धनभ्रंशस्ताप: शोक: कुलक्षयः । आयासः कलहो मृत्य. पारदारिक-बान्धवाः ॥८५ लिङ्गच्छेदं खरारोहं कुलालकुसुमार्चनम् । जननिन्दामभोग्यत्वं लभते पारदारिकः ।।८६ लब्ध्वा विडम्बना गमित्र प्राप्तः स पञ्चताम् । श्वभ्रे यदःखमाप्नोति कस्तद्वयितं क्षमः ।।८७ एकान्ते यौवन-ध्वान्ते नारों नेदीयसी सतीम् । दृष्ट्वा क्षुभ्यति धीरोऽपि का वार्ता कातरे जने।।८८ जल्पनं हसनं नर्म क्रीडा वस्त्रावलोकनम् । आसनं गमनं स्थानं वर्णनं भिन्नभाषणम् ।।८९ नार्या परिचयं साधं कुर्वाणः परकीयया । वृद्धोऽपि दूष्यते प्रायस्तरुणो न कथं पुनः ।.९० अपितु जलाती ही है ।।७८।। परस्त्रीके सेवन करने पर इस लोकमें जो लौकिक दुःख प्राप्त होते है, ज्ञानियोंने उन्हें तो उसके फूल कहे हैं और नरकोंके दारुण दुःख उसके फल कहे है ।।७९।। स्वजनोंके द्वारा रक्षा की जाती हुई परस्त्रीकी प्राप्ति ही प्रथम तो अतिदुष्कर है। उसे पानेकी चिन्ता करते रहनेपर निरन्तर सर्व अंगम सन्ताप उत्पन्न होता है ।।८०। यदि वह परस्त्री किसी प्रकार अतिकष्टसे प्राप्त भी हो जाय तो जिस किसी स्थानपर भयभीत होकर आतुरतासे युक्त होकर सेवन करता हुआ पुरुष क्या सुख पा सकता है? कुछ भी नहीं ॥८१ । जो परस्त्री अपने सग पतिको भी मार डालती हैं, वह दुष्ट क्या अपने जारको नहीं मार सकती हैं? जो बिल्ली अपने पुत्रको खा जाती हैं, वह क्या चूहीको छोड देगी ॥८२।। ऐसी आपदा देनेवाली परस्त्रीको खोटे चित्तवाले पुरुष क्यों भोगते हैं, यह आश्चर्य एवं दुःखकी बात हैं । परस्त्रीके सेवन में पापके सिवाय कदाचित् भी कोई लाभ नहीं है ।। ८३।। जो परस्त्री अपने भर्तारको भी छोड देती हैं, उसमें विश्वास कैसा? और विश्वासके विना स्नेह कैसा? तथा स्नेहके विना सुख क्या मिल सकता है।।८४।। वध, बन्ध, धन-विनाश, सन्ताप, शोक, कुल-क्षय, परिश्रम, कलह और मृत्यु ये सभी अवगुण परस्त्री-सेवन करनेवाले पुरुषके बान्धव है ।।८५।। परस्त्री-सेवी पुरुष इसी लोकमें लिंगके छेदनको, गधेपर चढनेको, कुलाल-कुसुमोंके द्वारा पूजनको अर्थात् गोबरी कंडों आदिको मारको, जन-निन्दाको और अभोगपना या दुर्भाग्यको प्राप्त होता है ।।८६ । इस प्रकार इसो लोकमें उक्त प्रकारकी बडी-बडी विडम्बनाओंको पाकर वह मरणको प्राप्त होता हैं और नरकों में उत्पन्न होकर वहाँ पर जो जो दुःख पाता है, उसे वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ है । ८७।। एकान्त स्थानपर यौवनके अन्धकारमें अतिवृद्ध सती साध्वी स्त्रीको देखकर धीर-वीर पुरुष भी क्षोभको प्राप्त हो जाता है, तो फिर कायर पुरुषकी तो बात ही क्या है ।।८८।। परायी स्त्रीके साथ एकान्तमें बोलना, हँसना, मजाक करना, खेलना, उनका मुख देखना अथवा 'वक्र'-पाठ माननेपर तिरछी नजरसे देखना, उनके साथ बैठना, गमन करना, खडे रहना, किसी बातका वर्णन करना, शील-भेदक संभाषण करना और परिचय प्राप्त करना आदि कार्य करते हुए प्रायः वृद्ध पुरुष भी दोषको प्राप्त होता है, तो फिर जवान पुरुष क्यों नही दोषको प्राप्त होगा? अवश्य ही होगा ॥८९-९०।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. श्रावकाचार-संग्रह विबुध्येति महादोषं पररामा मनीषिभिः । विधा दूरतः सद्भिभुजङ्गीव भयङ्करा ॥९१ नामापि कुरुते यस्या गृहीतं गुरु कल्मषम् । मृगया सा त्रिधा हेया भवदुःखविभीरुणा ॥९२ त्रस्यन्ति सर्वदा दोनाश्चलतः पर्णतोऽपि ये । हिस्यन्ते तेऽपि यर्जीवास्तेभ्यः किं निघृणा: परे ।।९३ निरागसः पराधीना: नश्यन्तो भयविव्हलाः । कुरङ्गा यनिहन्यन्ते पापिष्ठा न परे ततः ।।९४ गृहोतोऽपि तृणं दन्तैर्देहिनो मारयन्ति ये । व्यानेभ्यस्ते दुराचारा विशिष्यन्ते कथं खला: ॥९५ ये मारयन्ति निस्त्रिशा ये मार्यन्ते च विन्हलाः । तेषां परस्परं नास्ति विशेषस्तक्षणं विना ॥९६ स्वमाप्तं परमांसयें पोषयन्ति दुराशयाः । स्वमांसमेव खाद्यन्ते हठतो नारकैरिमे ॥९५ स्वल्पायुविकलो रोगी विचक्षुर्बधिरः खलः । वामन: पामनः षण्ढो-जायते स भवे भवे ॥९८ दुःखानि यानि दृश्यन्ते दुःसहानि जगत्त्रये । सर्वाणि तानि लभ्यते प्राणिमर्वनकारिणा ॥९९ इति दोषवती मत्वा मृगया हितकांक्षिणा । नानाऽनर्थकरी त्याज्या राक्षसीव विभीषणा ।।१०० भोजनं कुर्वता कार्य मोनं शीलवता सता । सन्तोषित्वमिवानिन्धं मैक्ष्यशुद्धिविधायिना ॥१०१ सर्वदा शस्यते जोषं भोजने तु विशेषतः । रसायनं सदा श्रेष्ठं सरोगित्वे पुनर्न किम् ॥१०२ इस प्रकार परस्त्री-सेवनके महादोषोंको जानकर मनीषी सत्-पुरुषोंको परस्त्री भयंकर सर्पिणीके समान दूग्से ही छोड देनी चाहिए ॥९१ अब आचार्य मृगया (शिकार) व्यसनका निषेध करते हैं-जिसका नाम लेना भी भारी पापका उपार्जन करता है, वह मृगया संसारके दुःखोंसे डरनेवाले पुरुषको मन वचन कायसे छोड देना चाहिए ।।९२।। जो बेचारे दीन प्राणी पत्तेके हिलनेसे भी सदा त्रासको प्राप्त होते हैं, उन्हें जो मारते हैं उनसे अधिक निर्दयी और कौन है ।।९३।। जो लोग निरपराधी,पराधीन, भय-विव्हल हो भागते हुए ऐसे हरिणोंको मारते है, उनसे अधिक और कोई पापी नहीं है ।.९४॥ जो दाँतोंसे तणोंको दबाये हई है, ऐसे हरिणादिकको जो मारते हैं,वे दुष्ट दुराचारी मनुष्य व्याघ्रोंसे कैसे विशिष्ट हैं? अर्थात वे व्याघ्रसमान ही हैं ॥१५॥ जो निर्दयी पुरुष जीवोंको मारते हैं और जो भय-विव्हल जीव मारे जाते है, उन दोनोंमें परस्पर उस क्षणके विना और कोई विशेषता नहीं है भावार्थ-वर्तमान समयमें तो मरनेवाले और मारनेवाले में हीनाधिकता है। किन्तु आगे नरकगतिमें उत्पन्न होनेपर वे आपसमें एक दूसरेको मारेंग, अतः वहाँकी अपेक्षा कोई होनाधिकता नहीं है ।।९६।। जो दुष्टचित्त जीव दूसरोंके मांससे अपने मांसको पोषित करते है, वे जीव हठात् नारकियोंके द्वारा अपने ही मांसको खाते हैं। भावार्थ-जो यहाँपर पराये मांसको खाते है, नरकम उत्पन्न होनेपर वहाँ नारकी उन्हीं का मांस काट-काटकर उन्हें खिलाते है ॥९७। शिकार खेलनेवाला मनुष्य भव भव में अल्पायुका धारी, विकलांगी, रोगी, अन्धा, बहिरा, दुष्ट, बौना, कोढी और नपुंसक होता है ।।९८।। इस तीन जगत्में जितने भी दुःसह भयानक दुःख दिखाई देते है, वे सर्व दुःख जीवोंका घात करनेवाला प्राणो पाता हैं ।।९९।। इस प्रकारसे अत्यन्त दोषवाली मृगयाको जानकर अपना हित चाहनेवाले पुरुषको नाना अनर्थ करनेवाली भयानक राक्षसीके समान उसका त्याग कर देना चाहिए ।। १००॥ ___अब आचार्य मौनके गुणोंका वर्णन करते हुए भोजनादिके समय मौन-धारण करने का उपदेश देते हैं-जैसे भिक्षाकी शुद्धिका आचरण करनेवाले साधुको अनिन्द्य सन्तोषपनाके साथ मौन-धारण करना आवश्यक हैं, उसी प्रकार शीलवान् पुरुषको भी भोजन करते हुए सदा मौन धारण करना चाहिए ॥१०१।। मौन सदा रहना ही प्रशंसनीय है। फिर भोजनके समयमें तो Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृत. श्रावकाचारः ३८१ सन्तोषो भाव्यते तेन वैराग्यं तेन दृश्यते । संयमः पोष्यते तेन मौनं येन विधीयते ।। १०३ वचोव्यापारतो दोषा ये भवन्ति दुरुत्तराः । ते सर्वेऽपि निर्वार्यन्ते मौनव्रतविधायिना ।।१०४ सागारोऽपि जनो येन प्राप्यते यतिसंयमम् । मौनस्य तस्य शक्यन्ते केन वर्णयितुं गुणाः ।।१०५ जोषेण विशतो रोध: कल्पषस्य विधीयते । बलिष्ठेन महिष्ठेन सलिलस्येव सेतुना ।।१०६ हुङ्कारागुलिखात्कारभ्रूमूर्द्धचलनादिभिः । मौनं विदधता सज्ञा विधातव्या न गृद्धये ॥१०७ सार्वकालिकमन्यच्च मौनं द्वेधा विधीयते । भक्तित शक्तितो भव्यर्मवभ्रमणभीरुभिः ।।१०८ भव्येन शक्तितः कृत्वा मौनं नियतकालिकम् । जिनेन्द्रभवने देया घण्टिका समहोत्सवम् ।।१०९ न सार्वकालिके मौने निर्वाहव्यतिरेकतः । 'उद्यापनं परं प्राज्ञैः किञ्चनापि विधीयते ।।११० आवश्यके मलक्षपे पापकार्ये विशेषतः । मौनी न पीडयते पापैः सन्नद्धः सायकैरिव ॥१११ कोपादयो न संक्लेशा मौनवतफलाथिना । पुर: पश्चाच्च कर्तव्या: सूधते तद्धितः कृतः ॥११२ वाचंयमः पवित्राणां गुणानां हितकारिणाम् । सर्वेषां जायते स्थानं मणीनामिव नीरधिः ११३ मौन रखना विशषकर प्रशसनीय है। रसायनका सेवन सदा हो श्रेष्ठ है, फिर सरोगी होनेपर तो उनका सेवन कैसे श्रेष्ठ नहीं होगा ।।१०।। जो पुरुष मौन धारण करता है, उसका सन्तोष दृढ होता है, उससे वैराग्य भाव दिखाई देता है और उससे संयम पुष्ट होता है ।।१०३।। वचनोंके व्यापारसे जो भयंकर दोष उत्पन्न होते है, वे सब मौन व्रतके धारण करनेवाले पुरुषके द्वारा सहजमें ही निवारण कर दिये जाते है ।। १०४।। जिस मौनव्रतके द्वारा गृहस्थ भी मनुष्य मुनिके संयमको प्राप्त होता है, उस मौनव्रतके गण किसके द्वारा वर्णन किये जा सकते है ।।१०५।। जैसे पुख्ता बने हर महान् बाँधके द्वारा जल रोका जाता है, उसी प्रकार मौनके द्वारा भीतर प्रवेश करते हुए पापोंका निरोध किया जाता हैं ॥१०६।। मौनको धारण करनेवाला पुरुष भोजनकी शुद्धि के लिए हुँकार, अंगुलि-चालन,खात्कार (खंखारना), भ्रकुटी चढाना और शिर हिलाना आदिके द्वारा किसी प्रकारका संकेत न करे ॥१०७।। भवभ्रमणसे भयभीत भव्य पुरुषोंको अपनी शक्तिके अनुसार भक्ति-पूर्वक सर्वकालिक और असार्वकालिक यह दो प्रकारका मौन धारण कर चाहिए । भावार्थ-जीव-पर्यन्तके लिए धारण किया गया मौन सार्वकालिक कहलाता है । अल्प या नियत समयके लिए धारण किया गया मौन असार्वकालिक कहलाता है ।।१०८॥ नियत कालिक मौन पालन करके भव्य पुरुषको भक्तिसे जिनेन्द्र भवनमें महोत्सव करके एक घण्टा देना चाहिए ।।१०९।। सार्वकालिक मौनमें निर्वाहके अतिरिक्त और किसी प्रकारके उद्यापनका कुछ भी विधान ज्ञानियोंने नहीं किया है। भावार्थ-असार्वकालिक मौनव्रतकी पूर्णता होनेपर मन्दिरमें घण्टाका दान करना उसका उद्यापन है। किन्तु सार्वकालिक मौनमें उसका पूर्ण रीतिसे निर्वाह करना ही उद्यापन है ।।११।। जिसप्रकार सदा बस्तर (कवच) आदिसे सन्नद्ध योद्धा बाणोंसे पीडित नहीं होता है, उसी प्रकार सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओंके करते समय, मल-मत्रके क्षेपणके समय भोजनके समय और विशेषकर मैथन-सेवनादि पापकार्योंके करते समय मौन-धारण करनेवाला पुरुष पापोंसे पीडित नहीं होता है ।। १११।। मौनव्रतके फलार्थी पुरुषको भोजनादिके करनेके पूर्वया पश्चात् क्रोधादिक अथवा किसी प्रकारका संक्लेशादिक नहीं करना चाहिए। क्योंकि कषाय या संक्लेशादि करनेसे मौनव्रतका विनाश हो जाता है।।११।जैसे समुद्र सर्व प्रकारके मणियोका स्थान है, उसीप्रकार वचनका संयम पालनेवाला मौन-धारक पुरुष सभी सुखकारो पवित्र गुणोंका स्थान हो जाता १. मु उद्योतनं। २. मु. सुख Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ श्रावकाचार-संग्रह वाणी मनोरमा तस्य शास्त्रसन्दर्भमिता । आदेया जायते येन क्रियते मौनमुज्ज्वलम् ॥११४ पदानि यानि विद्यन्ते वन्दनीयानि कोविदः । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते प्राणिना मौनकारिणा ॥११५ निर्मलं केवलज्ञानं लोकालोकावलोकनम् । लीलया लभ्यते येन किं तेनान्यन्न कांक्षितम् ।।११६ रागो निवार्यते येन धर्मो येन विवर्धते । पापं निहन्यते येन संयमो येन जन्यते ।।११७ अनेक जन्मसंबद्धकर्मकाननपावकः उपवासः स कर्तव्यो नीरागीभतचेतसा॥१८ उपेत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः । वसन्ति यत्र स प्रारुपवासोऽमिधीयते ।।११९ स सार्वकालिको जैनैरेकोऽन्योऽसार्वकालिकः । द्विविधः कथ्यते शक्तो हृषीकाश्वनियन्त्रणे ॥१२० तत्राद्यो म्रियमाणस्य वर्तमानस्य चापरः । कालानुसारत: कार्य क्रियमाणं महाफलम् ॥१२१ वर्तमानो मतस्त्रेधा स वर्यो मध्यमोऽधमः । कर्त्तव्यः कर्मनाशाय निजशक्त्यनुगृहकैः ।। १२२ चतुर्णा यत्र भुक्तीनां त्यागो वर्यश्चतुर्विधः । उपवासः सपानीयस्त्रिविधो मध्यमो मतः ।।१२३ मुक्तिद्वयपरित्यागे द्विविधो' गदितोऽधमः । उपवासस्त्रिधाऽप्येष शक्तित्रितयसूचकः ॥१२४ हैं अर्थात् मौन धारण करनेवाले पुरुषको सभी उत्तम गुण स्वयं प्राप्त होते है ॥११३।। जो पुरुष उज्ज्वल निर्दोष मौनका पालन करता हैं, उसकी वाणी शास्त्र-सन्दर्भसे युक्त, मनोहर और सर्वके द्वारा आदरणीय हो जाती है ।।११४॥ संसारमें विद्वानों के द्वारा वंदनीय जितने भी पद हैं, वे सब मौन-धारण करनेवाले प्राणोको प्राप्त होते हैं ।। ११५।। जिस मौनव्रतके द्वारा लोक और अलोकका अवलोकन करनेवाला निर्मल केवलज्ञान लीलामात्रसे प्राप्त हो जाता हैं, उससे अन्य मनोवांछित कौनसी वस्तु नहीं मिलेगी? सर्व ही मिलेगी ।। ११६।। अब आचार्य उपवासका वर्णन करते है-जिसके द्वारा इन्द्रियोंके विषयोंका राग दूर किया जाता है, जिसके द्वारा धर्मकी वृद्धि होती हैं, जिसके द्वारा पाप विनष्ट होते है, जिसके द्वारा संयम उत्पन्न होता हैं और जो अनेक जन्मोंमें बँधे हुए कर्मरूप काननको जलाने के लिए अग्निके समान हैं, ऐसा उपवास राग-रहित चित्तसे व्रती पुरुषको करना चाहिए ॥११७.११८।। जिसमें सर्व इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यसे निवृत्त होकर आत्माके समीप निवास करती है, उसे उपवास कहते हैं । ऐसा उपवास ज्ञानी जनोंको करना चाहिए ।। ५१९।। जिन देवोंने इन्द्रियरूप घोडोंके नियन्त्रण करने में समर्थ वह उपवास दो प्रकारका कहा हैं-एक सार्वकालिक और दूसरा असार्वकालिक ॥१२०।। इनमेंसे पहला सार्वकालिक उपवास समाधिसे मरनेवाले पुरुषके कहा गया हैं । और दूसरा असार्वकालिक उपवास विद्यमान पुरुषके कालके नियमानुसार किया जाता हैं और महाफलको देता हैं ।।१२१।। वर्तमान पुरुषके द्वारा किया जानेवाला असार्वकालिक उपवाम तीन प्रकारका माना गया है-उत्तम, मध्यम और अधम । यह तीनों ही प्रकारका उपवास अपनी शक्तिको नहीं छिपा करके कर्मोका नाश करने के लिए व्रतीजनोंको करना चाहिए ।।१२२॥ जिस उपवालमें चारों प्रकारके भोजन का त्याग हो, वह उत्तम उपवास हैं। जिसमें पानी मात्र रखकर शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग किया जाय,वह मध्यम उपवास माना गया हैं । जिसमें खाद्य और स्वाद्य इन दो प्रकारके आहारका त्यागकर लेह्य और पेयरूप दो प्रकारका आहार ग्रहण किया जाय, वह अधम उपवास कहा गया है । यह तीनों ही प्रकारका उपवास श्रावककी तीन प्रकारकी शक्तिका सूचक हैं ।।१२३-१२४।। १. मु. त्रिविधो। . Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृत: श्रावकाचारः ३८३ प्रहरद्वितये भुत्वा समेत्याचार्यसन्निधिम् । वन्दित्वा भक्तितः कृत्वा कायोत्सर्ग यथागमम् ॥१२५ पञ्चाङ्ग प्रणांत कृत्वा गृहीत्वा सूरिवाक्यत । उपवासं पुनः कृत्वा कायोत्सर्ग विधानतः ।।१२६ आचार्य स्तवतः स्तुत्वा वन्दित्वा गणनायकम् । दिनद्वयं ततो नेयं स्वाध्यायासक्तचेतसा ।।१२७ विधाय साक्षिणं सूरि गृह्यमाणः पटीयसा । सम्पद्यते तरामेष व्यवहार इव स्थिरः ॥१२८ सर्वभोगापभोगानां कर्तव्या विरतिस्त्रिधा । शयितव्यं महीपृष्ठे प्रासुके कृतसंस्तरे ।। १२९ विहाय सर्वमारम्भमतंयमविवर्धकम् । विरक्त वेता स्थे यतिनेव पटीया .१३. तृतीये वासरे कृत्वा सर्वमावश्यकादिकम् । भोजयित्वाऽतिथि भक्त्या भोक्तव्यं गहमेधिना ।।१३१ उपवासः कृतोऽनेन विधानेन विरागिणा । हिनस्त्येकोऽपि रेफांसि तमांसीव दिवाकरः ।।१३२ उपवासं विना शक्तो न पर: स्मरमर्दने । सिंहेनैव विदीर्यन्ते सिन्धुरा मदमन्थरा: ।।१३३ उपवासेन सन्तप्ते क्षिप्रं नश्यति पातकम् । ग्रीष्मार्काध्यासिते तोयं कियत्तिष्ठति पल्वले ॥१३४ नित्यो नैमित्तिकश्चेति द्वेधाऽसौ कथितो बुधैः । प्रोषधे समतो नित्यो बहु गऽन्ये व्यवस्थिताः । १३५ अब आचार्य उत्तम उपवास करने की विधि कहते हैं-उपवास करनेके पहले दिन दोपहरके समय भोजन करके, आचार्य के समीप आकर, भक्तिसे उनकी वन्दनाकर, कायोत्सर्ग करके यथाक्रमसे पंचांग नमस्कार करे। पुनः आचार्य के वचनोंसे उपवासको ग्रहण कर और पुनः कायोत्सर्ग करके विधिपूर्वक आचार्यकी स्तुति करके तथा गणनायककी वन्दना करके स्वाध्यायमें चित्त लगाकर दो दिन व्यतीत करना चाहिए ।।१२५-१२७।। भावार्थ-यहाँपर जो दो दिन स्वाध्यायपूर्वक बिताने का निर्देश किया हैं, उसका अभिप्राय यह है कि एक दिन में आठ पहर होते हैं । पूर्वोक्त रीतिसे उपवास करनेवाला पर्वके पूर्ववर्ती दिनके मध्यान्ह काल में भोजन करके भोजनका परित्याग किया । पुनः पर्वके दिन पूरे आठ पहर भोजन नहीं किया। पुनः पर्वके अगले दिन मध्यान्ह कालमें भोजन किया। इस प्रकार पर्वके पूर्ववर्ती दिनके दो पहर,रात्रिके चार पहर पर्वके दिनके आठ पहर और अगले दिनके दो पहर इस प्रकार सोलह पहरतक अन्न-जलका त्याग रहनेसे दो दिन धर्मध्यानपूर्वक 'बतानेका आचार्यने उल्लेख किया है। आचार्यको साक्षी करके चतुर पुरुषके द्वारा ग्रहण किया गया उपवास अति स्थिरताको प्राप्त होता है। जैसे कि बड़े पुरुषको साक्षीमे किया गया व्यवहार स्थिर होता हैं । उपवासके दिन सर्व प्रकारके भोग और उपभोगोंका मन वचन कायसे त्याग करना चाहिए भूतल पर प्रासुक बिस्तर बिछाकर सोना चाहिए, और असंयमका बढानेवाला सर्व आरम्भ छोडकर विरकन चित्त हो चतुर पुरुषको साधके समान रहना चाहिए । तीसरे दिन सर्व आवश्यक क्रिया आदिको करके और भक्तिके साथ अतिथिको भोजन करा करके गृहस्थको स्वयं भोजन करना चाहिए । इस प्रकारकी विधिसे विरागी पुरुषके द्वारा किया गया एक भी उपवास अनेक भवके पापोंका नाश कर देता है, जैसे कि सूर्य अन्धकारका नाश कर देता है ।। १२८-१३२।। उपवासके विना अन्य कोई व्रतादिक कामदेवके मर्दन करने में समर्थ नहीं हैं । क्योंकि मदसे उन्मत्त हाथी सिंहके द्वारा ही विदीर्णं किये जाते है ।। १३३।। उपवाससे तपाये गये पुरुष के पाप शोघ्र नष्ट हो जाते हैं । ग्रीष्म ऋतुके सूर्यसे तपाय गये भूतलपर जल कितनी देर ठहर सकता है ।।१३४।। ज्ञानियोंने नित्य और नैमित्तिकसे भेदसे यह उपवास दो प्रकारका कहा हैं। अष्टमी और चतुर्दशी पर्वके दिन किया जानेवाला नित्य उपवास कहा जाता है और अन्य दिन१. मु. भूतले। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ श्रावकाचार-संग्रह उपवासा विधीयन्ते ये पञ्चम्यादिगोचराः । उक्ता नैमित्तिकाः सर्वे से कर्मक्षपणक्षमाः ॥१३६ गुरुतरकर्मजालसलिलं भवभक्षकरं बहुपरिणाममेघनिवहप्रसवं प्रसभम् । क्षपति सर्वमुन उपवासपयोजपतिविरचित वृति निखिलदेहितडागततेः ॥१३७ जनयति यो विधूय विपदं रमसाऽपचिति'घटयति सम्पदं त्रिदशमानववर्गनुताम् । विधिविहतस्य तस्य पुरुषः श्रुतकेवलिनो वदति फलं न कोऽप्यनशनस्य परो भुवने ।।१३८ रचयति यस्त्रिधा व्रतमिदं महितं महितैरमितगतिश्चतुर्विधमनन्यमनाः पुरुषः । भवशतसञ्चितं कलिलमेष निहत्य पुन: शिवपदमेति शाश्वतमपास्तसमस्तमलम् ॥१३९ इत्युपासकाचारे द्वादशः परिच्छेदः । • त्रयोदशः परिच्छेदः शशाङ्कामलसम्यक्त्वो वताभरणभूषितः । शीलरत्नमहाखानिः पवित्रगुणसागरः ।।१ ऋजुभूतमनोवृत्तिर्गुरुशभूषणोद्यतः । जिनप्रवचनाभिज्ञः पावकः सप्तधोत्तमः ॥२ निसर्गजरुचो जन्तावेकान्तरुचिराजिते । असहाये महाप्राज्ञे सदायतनसेवके ।।३ विशेषोंपर किया जानेवाला उपवास नैमित्तिक कहलाता है, जो कि अनेक प्रकारका शास्त्रोंमें बताया गया हैं ।।१३५॥ पंचमी, एकादशी आदिके दिन जो उपवास किये जाते है,वे नैमित्तिक कहे गये हैं। ये सभी नित्य-नैमित्तिक उपवास कर्मोंका क्षय करने में समर्थ है ॥१३६॥ संवरको धारण करनेवालेका समस्त प्राणियोंरूप तालाबोंकी पंक्तिमे भरे हुए संसाररूप वृक्षको उत्पन्न करनेवाले, नाना प्रकारके कषाय परिणामरूप मेघोंसे उत्पन्न हुए एसे अतिगुरु कर्मजाल रूप उग्र जलको उपवासरूप सूर्य शं न ही सुखा देता है ।।१३७।। जो उपवास वेगसे संचित हुई विपत्तियोंका विनाशकर देव और मनुष्य वर्गकी उत्तम सम्पदाको शीघ्र घटित करता है, ऐसे विधिपूर्वक किये गये उपवासके फलको श्रुतकेवलीके सिवाय और कोई पुरुष इस लोकमे नहीं कह सकता है ।।१३८ । इस प्रकार महापुरुषोंके द्वारा पूजित है,इस चतुर्विध व्रतको मन वचन काय द्वारा जो अमितगति पुरुष एकाग्रचित्तसे धारण करता है,वह सैकडों भवोंको संचित पापको विनष्ट करके पुनः सर्वमलोंसे रहित होकर शाश्वत शिवपदको प्राप्त करता है ।।१३९।। इस प्रकार अमितगति विरचित उपासकाध्ययनमें बारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। अब आचार्य श्रावकके विशेष गुणोंका वर्णन करते है शंकादि दोषोंसे रहित चन्द्रमाके समान निर्मल सम्यक्त्वका धारक, व्रतरूप आभरणसे भूषित, शीलरूप रत्नकी महाखानि, पवित्र गुणोंका सागर,सरल मन और बुद्धिवाला, गुरुकी सेवा शुश्रूषा करने में उद्यत,तथा जिन-आगमका ज्ञाता, ऐसे सात प्रकारका उत्तम श्रावक होता है ॥१-२॥ आगे कहे जानेवाले गुणोंसे युक्त पुरुषमें सम्यग्दर्शन निश्चय रूपसे रहता है-जिसके तत्त्वोंकी स्वभाव-जनित श्रद्धा हो, जो आत्मप्रतीतिपर एकान्त दृढ रुचिसे विराजमान हो, परको सह'यता१. मु.-प्रभवं । २. म. संवृतेः । ३. मु.-सोपचिति । ४.-मताम् । ५. मु. धनं। : Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचार: कृतानायतनत्यागे परदृष्ट्यविमोहिते । शासनासादनाहीने जिनशासन बृंहके ॥४ सोपानं सिद्धिसौधस्य कल्मषक्षपणक्षमम् । ज्ञानचारित्रयोर्हेतुः स्थिरं तिष्ठति दर्शनम् ॥५ न निरस्यति सम्यक्त्वं जिनशासनभावितः । गृहीतं वन्हिसन्तप्तो लोहपिण्ड इवोदकम् ॥६ दर्शनज्ञानचारित्रतपस्सु विनयं परम् । करोति परमश्रद्धस्तितीर्षुर्भववारिधिम् ॥७ जिनेशानां विमुक्तानामाचार्याणां विपश्चिताम् । साधूनां जिनचैत्यानां जिनराद्धान्तवेदिनाम् ||८ कर्त्तव्या महती भक्तिः सपर्या गुणकीर्तनम् । अपवादतिरस्कारः सम्भ्रमः शुभदृष्टिभिः ||९ आगमाध्ययनं कार्यं कृतकालाविशुद्धिना । विनयारूढचित्तेन बहुमान विधायिना ॥। १० कुर्वताऽवग्रहं योग्यं सूरितिन्हवमोचिना । परमां कुर्वता शुद्धि व्यञ्जनार्थद्वय स्थिताम् ॥११ संयमे संयमाधारे संयमप्रतिपादिनि । आदरं कुर्वतो ज्ञेयश्चारित्रश्नियः परः ।। १२ महातपः स्थिते साधौ तपः कार्ये ससंयमे । भक्तिमात्यन्तिकों प्राहुस्तपसो विनयं बुधाः ॥ १३ सम्यक्त्वचरणज्ञानत पानीमानि जन्मिनाम् । निस्तारणसमर्थानि दुःखोर्मेर्भवनीरधेः ॥ १४ चतुविध 'मिदं साधोः पोष्यमाणमहनिशम् । सिद्धि साधयते सद्यः प्रार्थितां नृपतेरिव ॥ १५ सिषाधयिषते सिद्धि चतुरङ्गमृतेऽत्र यः । स पोतेन विना मूढस्तितीर्षति पयोनिधिम् ।।१६ से रहित दृढ आत्मविश्वासी हो, महान् बुद्धिमान् हो, उत्तम धर्मस्थानोंका सेवक हो, अनायतनों अर्थात् कुधर्मस्थानोंका त्यागी हो, मिथ्यामतोंसे विमोहित न हो, जिनशासनको आसादनासे रहित हो, जिनशासनका बढाने वाला हो, ऐसे पुरुषमें मुक्तिरूप महलके सोपान स्वरूप, ज्ञान चारित्रका हेतु और कर्मों के क्षय करने में समर्थ ऐसा सम्यग्दर्शन स्थिर होकर ठहरता है ।। ३५ ।। जिनशासनकी भली-भाँति से भावना करनेवाला पुरुष सम्यक्त्वको नहीं त्यागता है । जैसे अग्निसे सन्तप्त लोक पिण्ड ग्रहण किये गये जलको नहीं त्यागता हैं || ६ || जो पुरुष श्रद्धालु हैं और संसार सागरसे पार उतरना चाहता है, वह दर्शन ज्ञान चारित्र और तपमें परम विनयको धारण करता है ॥ ७ ॥ जिनेन्द्रदेव, सिद्धपरमेष्ठी, आचार्य, महाज्ञानी उपाध्याय, साधुगण, जिन चैत्य और जिन सिद्धान्तके वेत्ताओंकी महाभक्ति पूजा और गुणस्तुति उत्तम सम्यग्दृष्टियोंको करनी चाहिए। तथा जैन शासन में उठे हुए अपवादका सोत्साह निराकरण करना चाहिए यह दर्शन विनय हैं ।। ८-९ ।। काल आदिको शुद्धिको करके, और चित्तमें विनय भाव धारण करके, बहुत सम्मानको करते हुए, योग्य अवग्रह (प्रतिज्ञा ) करके, अपने गुरुका निन्हव त्याग कर शब्दकी, अर्थकी और दोनोंकी परम शुद्धि को रखते हुए आगमका अध्ययन करना चाहिए। यह ज्ञानविनय है ।। १०-११॥ संयम में, संयम आधारभूत साधुओंमें, सयमके प्रतिपादन करनेवाले आचार्य और उपाध्यायमें परम आदरभाव रखनेवाले पुरुषके चारित्रविनय जानना चाहिए ||१२|| महान्तपमें स्थित साधु और संयम युक्त तपके कार्य में अत्यन्त भक्ति रखनेको ज्ञानियोंने तपकी विनय कहा हैं ।।१३।। ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार आराध गएँ प्राणियोंको दुःख रूप तरंगोंसे युक्त संसाररूप समुद्रसे पार उतारनेमें समर्थ है || १४ || रात्रि - दिन पोषण की गई ये चार प्रकारकी आराधनाएँ साधुको शीघ्र ही मुक्तिको सिद्ध करती है। जैसे कि भली प्रकार पोषण की गई राजाकी चतुरंग सेना वांछित कार्यको सिद्ध करती हैं ।। १५ ।। जो अज्ञानी पुरुष इस लोक में चार आराधनाओं के विना सिद्धिको साधन करना चाहता हैं, वह जहाज के विना ही समुद्रको तिरना १. मुदृष्टिता । २. मु. चतुरङग - 1 ३८५ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ श्रावकाचार-संग्रह लोकद्वयेऽपि सौख्यानि दृश्यन्ते यानि कानिचित् । जन्यन्ते तानि सर्वाणि चतुरङ्गेण देहिनः ॥१७ निरस्यति रजः सर्व न्यायं सूचयते हितम् । मातेव कुरुते कि न चतुरङ्ग निषेवणा ॥१८ चतुरङ्गमपाकृत्य कुर्वते कर्म ये परम् । कल्पद्रुममपाकृत्य ते भजन्ति विषद्रुमम् ।। १९ चतुरङ्गं सुखं दत्तयत्तत्कर्म परं कथम् । यत्करोति सुहृत्कार्य तन्न वैरी कदाचन ॥२० ये सन्ति साधवोऽन्ये च चतुरङ्गविभूषणाः । विधेयो विनयस्तेषां मनोवाक्कायकर्मभिः ।।२१ गणानामनवद्यानां तदीयानामनारतम । चिन्तनीयं पटीयोंभिरुपबंहणकारणम् ॥२२ ध्यायतो योगिनां पथ्यमपथ्यप्रतिषेधनम् । मानसो विनयः साधोजीयते 'शुद्धिसाधकः ॥२३ यश्चिन्तयति साधूनामनिष्टं दुष्टमानसः । सर्वानिष्टखनिर्मूढो जायते स मवें मये।२४ दर्भगो विकलो मर्यो निविवेको नपुंसकः । नीचकर्मकरो नीचो यतिदूषणचिन्तकः ।।२५ विज्ञायेति महाप्राज्ञाः संयतानामरेफसाम् । सञ्चिन्तयति नानिष्टं त्रिविधेन कदाचन । २६ श्रवणीयमनाक्षेपं सपर्याप्रतिपादकम् । अनवज्ञापरं तथ्यं मधुरं हृदयङ्गमम् ।। २७ वचनं वदत: पथ्यं रागद्वेषाद्यनाविलम् । वाचिको विनयोऽवाचि वचनीयनिखर्वकः ॥२८ अभ्याख्यानतिरस्कारकारकं गुणदूषकम् । न वाच्यं वचनं भक्तस्तपोधनविनिन्दकम् ।। २९ वदन्ति दूषणं दीना ये साधूनामनेनसाम् । ते भवन्ति दुराचारा दूष्या जन्मनि जन्मनि ३० चाहता है ।।१६।। इस लोक और परलोकमें जितने कुछ भी सुख दिखाई देते है वे सब जीवको इस चतुरंगी आराधनाके द्वारा ही प्राप्त होते है ।।१७।। भली-भाँतिसे सेवित यह चतविध आराधना माताके समान कर्म-रजको दूर करती है, न्याय युक्त कर्तव्यको सूचित करती है और एसा कौन सा हितकारी कार्य है, जिसे यह न करती हो ।।१८।। जो पुरुष इस चतुरंगी आराधनाको छोडकर मक्ति प्राप्तिके लिये अन्य कार्य करते है, वे कल्पवृक्षको छोडकर विष वृक्ष की सेवा करते हैं ।।१९।। यह चतुर्विध आराधना जो सुख देती हैं, वह अन्य कार्य कैसे दे सकता हैं? मित्र जो सुखका कार्य करता है. वह वैरी कदाचित् भी नहीं कर सकता ॥२०॥ जो साधु इस चतुर्विध आराधनाओंसे विभषित है. वे अन्य हैं और उनकी विनय मन वचन कायसे करना चाहिए।।२१।। निर्दोष गुणोंका बद्धिमान पुरुषोंको निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए. क्योकि वह धर्म बढानेका कारण हैं।।२२॥ योगियोंके पथ्य (हित) रूप और अपथ्यका निषेध करनेवाले गुणका चिन्तवन करते हुए साधुके सिद्धिका साधक मानसिक विनय होता हैं ।।२३।। जो दुष्टचित्त पुरुष साधुओंका अनिष्ट चिन्तवन करता है. वह मूढ भव भवमें सभी अनिष्टोंकी खानि होता है ।। २४|| यतियोंके दोषोंका चिन्तवन करनेवाला पुरुष भव भवमें दुर्भागी विकलांगी मख अविवेकी नपंसक और नीचकर्म करनेवाला होता हैं। २ ।। ऐसा जानकर महान् ज्ञानी पुरुष पाप-रहित साधुओंके अनिष्टका त्रियोगसे कदाचित् भी चिन्तवन नहीं करते है ।।२६।। यह मानसिक विनयका वर्णन किया । * अब वाचनिक विनयका वर्णन करते है-सुननेके योग्य, आक्षेप-रहित, पूजा-उपासनाके प्रतिपादक, अवज्ञा-रहित, सत्य,मधुर,हृदयको प्रिय, पथ्य और राग-द्वेषा दिसे रहित वचन बोलनेवाले परुषके वचन-सम्बन्धी दोषोंका दूर करनेवाला वाचनिक विनय कहा गया हैं ।।२७-२८॥ भक्त श्रावकोंको साधके दोष प्रकट करनेवाले, तिरस्कार करनेवाले,गुणोंमें दोष लगानेवाले और उनकी निन्दा करनेवाले वचन कभी नहीं कहना चाहिए ।।२९।। जो अज्ञानी हीन जन दोष-रहित साधुओंके दोष कहते है, वे जन्म-जन्ममें दुराचारी और दोषोंके भाजन होते है ।। ३०॥यति-निन्दा १. मु. ज्ञेय। २. मु. धन्याः । ३. म. सिद्धि- । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३८७ अनादेयगिरो गाः क्लेशिनः शोकिनो जडाः । यतिनिन्दापरा: सन्ति जन्मद्वितपदूषिताः ॥३१ कि चित्रमपरं तस्माद्यदुदासीनचेतसाम् । वन्दका वन्दितास्तेषां निन्दका: सन्ति निन्दिताः ।।३२ यादशः क्रियते भाव: फलं तत्रास्ति तादृशम् । यादशं चय॑ते रूपं तादृशं दृश्यतेऽब्द के ॥३३ वतिनां निन्दक वाक्यं विबुद्धयेति न सर्वदा । मनोवाक्काययोगेन वक्तव्यं हितमिच्छता ॥३४ अभ्यत्थानासनत्यागप्रणिपाताञ्जलिक्रिया । अयाति संयते काया यात्यनवजनं पुनः ॥३५ आयातं ये तप राशि विलोक्यापि न कुर्वते । अभ्युत्थानासनत्यागी नभ्य: सन्त्यधमा: परे ।।३६ यत्र यत्र विलोक्यन्ते संयता यतमानसाः। तत्र तत्र प्रणन्तव्याविनयोद्यतमानसे: ।। ३७ शय्योपवेशनस्थानगमनादीनि सर्वदा 1 विधातव्यानि नीचानि संयताराधनापरैः ।।.८ पुण्यवन्तो वयं येषामाज्ञां यच्छन्ति योगिनः । मन्यमानैरिति प्राज्ञैः कर्तव्यं यतिभाषितम् ।। ३९ निष्ठीवनमवष्टम्भं जम्भणं गात्रभञ्जनम । असत्यभाषणं नर्म हास्यं पादप्रसारणम् ।।४० अभ्याख्यानं करस्फोट करेण करताडनम् । विकारमङ्गस कारं वजयद्यतिसन्निधौ ।।४१ उच्चस्थानस्थितैः कार्यः वंदना न तपस्विनाम् । न गतिमतः कार्य: विनीतैनं च पृष्ठतः ।।४२ विधेति विनयोऽध्यक्षः करणीयो मनोषिभिः । परोक्षेऽपि स साधूनामाज्ञाकरणलक्षणः ॥४३ करनेवाले पुरुष अनादरणोय वचन वाले, निन्द्य, क्लेश-युक्त, रोगी शोकी मर्ख और दोनों जन्मोंको दूषित करनेवाले होते है ।।३१।। इससे अधिक आश्चर्यकी और क्या बात हो सकती है कि उदासीन चित्त रहनेवाले साधुओंकी वन्दना करनेवाले इस संसारमें वन्दन य होते हैं और निन्दा करनेवाले पुरुष निन्दाके पात्र होते है ।। ३२।। जो मनुष्य इस जन्म में जैसा भाव करता है उसे पर भवमें वैसा ही फल प्राप्त होता है। मनुष्य जैसा रूप बनाता है, दर्पण में वैसा ही दिखाई देता है ।।३३।। ऐसा जानकर अपना हित चाहनेवाले पुरुषको व्रतियोंके निन्दक वाक्य कभी भी मन वचन कायसे नहीं बोलना चाहिए ॥३४॥ यह वाचनिक विनय हैं । अब कायिक विनयका वर्णन करते है-संयमी साधके आनेपर उठकर खडा होना, अपने आसनका त्याग करना, नमस्कार करना,हाथ जोडकर अंजुली बाँधना आदि क्रियाएँ भक्तिसे करना चाहिए । तथा उनके चलने पर पीछे-पीछे चलना चाहिए ।। ३५।। जो पुरुष तपोराशि साधुको आता हुआ देखकर भी उठकर खडे नहीं होते और अपना आसन-त्याग नहीं करते हैं उनसे अधम और कोई साधु मनुष्य नहीं है ।।३६।। जहाँ-जहाँ पर भी संयत मनवाले साधुजन दिखाई देवें, वहाँ-वहाँ पर विनयसे उद्यत चित्तवाले श्रावकोंको उन्हें नमस्कार करना चाहिए ॥३७।। साधुओंकी आराधनामें तत्पर श्रावकोंको सदा ही साधओंसे नीचे स्थानपर सोना उठना व बैठना, और गमनादिक क्रिया करना चाहिए ।।३८ । 'हम लोग पुण्यवान् हैं, जिनपर योगीज न आज्ञा करते है' ऐसा मानते हुए ज्ञानीजनोंको साधुओं द्वारा कहा गया कार्य विनयके साथ करना चाहिए ।।३।। साधुओंके समीप थूकना, सहारा लेकर बैठना, जंभाई लेना, शरीर के अंगोंका चटकाना. असत्य बोलना. हंसी-मजाक करना, पैर पसारना. गप्त बात कहना, चटकी बजाना. हाथसे हाथ ताडना अर्थात ताली बजाना, अंगोंकी विकाररूप चेप्टा करना और अंगोंका संस्कार करना, इत्यादि अयोग्य कार्योको नहीं करना चाहिए ॥४०-४१॥ ऊँचे स्थानपर बैठकर उन्हें बाई ओर या पीछेको ओर करके तपस्वियोंको वन्दना नहीं करना चाहिए तथा विनीत पुरुषोंको साधुके साथ गमन करते समय न उन्हें बाई ओर करके गमन करना चाहिए और न पीछेको ओर करके आगे गमन करना चाहिए ॥४२॥ इस प्रकार मनीषीजनोंको मानसिक वाचनिक और कायिक यह तीन प्रकारका प्रत्यक्ष Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ श्रावकाचार-संग्रह 1 संधे चतुविधे भक्त्या रत्नत्रितयराजिते । विधातव्यो यथायोग्यं विनयो नयकोविदैः ॥४४ विनयेन विहीनस्य व्रतशीलपुरसराः । निष्फलाः सन्ति निश्शेषा गुणा गुणवतां मताः ॥४५ विनश्यन्ति समस्तानि व्रतानि विनयं विना । सरोरुहाणि तिष्ठन्ति सलिलेन विना कथम् ॥४६ निर्वृतिस्तरसा वश्या विधीयते । आत्मनीनसुखाधारा सौभाग्येनेव कामिनी ॥ ४७ सम्यग्दर्शनचारित्रत पोज्ञानानि देहिना । अवाप्यन्ते विनीतेन यशांसीव विपश्चिता ॥४८ तस्य कल्पद्रुमो भृत्यस्तस्य चिन्तामणिः करे । तस्य सन्निहितो यक्षो विनयो यस्य निर्मलः ॥ ४९ आराध्यन्तेऽखिला येन त्रिदशाः सपुरन्दराः । सङ्घस्याराधनें तस्य विनीतस्यास्ति कः श्रमः ॥५० क्रोधमानादयो दोषाश्छिद्यन्ते येन वैरदाः । न वैरिणो विनीतस्य तस्य सन्ति कथञ्चन ॥ ५१ कालत्रयेsपि ये लोके विद्यन्ते परमेष्ठिनः । तेन विनीतेन निश्शेषाः पूजिता वन्दिताः स्तुताः ॥५२ गर्यो निखर्व्यते तेन जन्यते गुरुगौरवम् । आर्जवं दश्ते स्वस्य विनयं वितनोति यः ||५३ विनयः कारणं मुक्तेविनयः कारणं श्रियः 1 विनयः कारणं प्रीतेविनयः कारणं मतेः ॥ ५५ विनय करना चाहिए। तथा साधुजनोंके परोक्षमें भी उनकी आज्ञाको पालन करना ही हैं लक्षण जिसका ऐसा परोक्ष विनय करना चाहिए ||४३|| नयविशारद जनोंको रत्नत्रयसे विराजित चतुविध संघपर भक्तिके साथ यथायोग्य विनय करना चाहिए। क्योंकि विनयसे रहित पुरुष के व्रत-शीलपूर्वक शेष समस्त गुण निष्फल है, ऐसा गुणीजनों का मत है ।।४४-४५ ।। विनयके विना समस्त व्रत उसी प्रकारसे विनष्ट हो जाते है, जिस जलके विना कमल नष्ट हो जाते है । क्योंकि सरोवर में जलके विना कमल कैसे जीवित रह सकते है ||४६ || जिस प्रकार सौभाग्यके द्वारा कामिनी स्त्री वशमें आजाती है, उसी प्रकार विनयके द्वारा आत्मा के हितरूप सुखकी आधारभूत मुक्तिरूपी स्त्री भी शीघ्र ही अवश्य वश में की जाती हैं ॥४७॥ जैसे विद्वान् पुरुष अपनी विद्वत्ताके द्वारा यशको प्राप्त करता है, उसी प्रकार प्राणीगण भी विनयसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और ज्ञानको प्राप्त करते हैं || ४८ || जिस पुरुष के पास निर्मल विनय गुण होता है, उसका कल्पवृक्ष दास है, उसके हाथ में चिन्तामणि आ गया है और सर्व कार्यका कर्त्ता यक्ष समीपस्थ हैं, ऐसा जानना चाहिए ।। ४९ । जिस विनीत पुरुष के द्वारा इन्द्र सहित समस्त देवगण आराधना किये जाते है अर्थात् सेवक बन जाते हैं, उस विनीत पुरुषकी संघकी आराधना करनेमें क्या परिश्रम है, अर्थात् कुछ भी नहीं है ।। ५० ।। जिस विनयके द्वारा वैर भावके देने और बढानेवाले क्रोधमान आदिक दोष नाश किये जाते है, उस विनयके धारक विनीत पुरुषके वैरी किसी भी प्रकार नहीं हो सकते हैं ।। ५१ ।। इस लोक में तीनों कालों में जितने भी परमेष्ठी विद्यमान है, वे सब विनीत पुरुषके द्वारपूजे, वंदे और स्तुति किये गये समझना चाहिए ॥५२॥ । जो मनुष्य विनयका विस्तार करता है. उसके द्वारा गर्वका विनाश किया जाता हैं, गुरुजनोंका गौरव बढाया जाता हैं और अपना सरलभाव प्रकट किया जाता है ।। ५३ ।। विनयवान् पुरुषकी निर्मल कीर्ति महीतलपर अतिशयरूपसे परिभ्रमण करती हैं, अर्थात् सर्व जगत् में फैलती हैं और चन्द्रकी कान्तिके समान जगत् के प्रणियोंको सुख उपजाती हैं || ५४ ॥ विनय मुक्तिका कारण है, विनय लक्ष्मीका कारण है, विनय प्रीति १. मु. प्रश्रयं । . Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३८९ विनयेन विना पुंप्तो न सन्ति गुणसम्पदः । न बोजेन विना क्वापि जायन्ते सस्यजातयः ॥५६ प्रश्रयेण विना लक्ष्मी यः प्रार्थयति दुर्मनाः । स मूल्येन विना नूनं रत्नं स्वीकर्तुमिच्छति ॥५७ का सम्पदविनीतस्य का मंत्री चलचेतसः । का तपस्या विशीलस्य का कीति: कोपत्तिनः ॥५८ न शठस्येह यस्यास्ति तस्यामुत्र कथं सुखम् । न कच्छे कर्कटी यस्य गृहे तस्य कुतस्तनी ॥५२ लाभालाभो विबुद्धयेति भो विनीताविनीतयोः । विनीतेन सदा भाष्यं विमुच्याविनयं त्रिधा ॥६. कृतान्तरिव तुर्वारः पीडितानां परीषहैः । वयावृत्त्यं विधातव्यं मुमुक्षूणां विमुक्तये ।६१ दुभिक्षे नरके धारे चौरराजाद्युपद्रुते । कर्मक्षयाय कर्तव्या व्यावृतिततिनाम् ॥६२ आचार्यऽध्यापके वृद्ध गणरक्षे प्रवर्तके । शैक्षे तपोधने सङ्घ गणे ग्लाने दशस्वपि । ६३ प्रासुकैरोषधेर्योग्यैर्मनसा वपुषा गिरा विधेया व्यावृतिः सद्धिर्भवभ्रान्ति जिहासुभिः ॥६४ तपोभिर्दुष्करै रोग: पीड्यमानं तपोधनम् । यो दृष्ट्वोपेक्षते शक्तो निर्धर्मा न ततः परः ॥६५ गृहस्थोऽपि यति यो वंयावृत्त्यपरायणः । वैयावयविनिर्मुक्तो न गृहस्थो न संयतः ।।६६ वयावृत्त्यपरः प्राणी पूज्यते संयतैरपि । लभते न कुत: पूजामुषकारपरायणः॥६७ संयमो दर्शनं ज्ञानं स्वाध्यायो विनयो नयः । सर्वेऽपि तेन दीयन्ते वैयावृत्यं तनोति यः ।।६८ का कारण हैं और विनय बुद्धिका भी कारण है।।५५।। विनयके विना पुरुषको गुणरूप सम्पदा प्राप्त नहीं होती हैं, जैसे बीजके बिना कहीं भी धान्यकी जातियाँ उत्पन्न नहीं होती है ॥५६॥ जो दुर्वृद्धि पुरुष विनयके विना लक्ष्मीको चाहता हैं, वह निश्चयसे मूल्यके विना ही रत्नको पानेको इच्छा करता है ।।५७॥ अविनीत अर्थात् विनय-रहित पुरुष के सम्पदा कहां? चंचल चित्त मनुष्य की मित्रता कैसी? शील-रहित पुरुषके तपस्या कहाँ और क्रोधी पुरुषकी कीर्ति कैसे संभव हैं ।।५८।। जिस शठ पुरुषके इस लोकमें सन्तोष रूप सुख नहीं हैं उसके परलोकमें सुख कहाँसे प्राप्त हो सकता हैं? जिसकी कछवाडी में ककडी नहीं है, उसके घर में वह कहांसे हो सकती है ॥५९।। इसलिए हे भक्त पुरुषो, विनयवान् और अविनयीके इस प्रकारके लाभ और अलाभको जान करके अविनयको त्रियोगसे छोडकर सदा विनीत रहना चाहिए॥६०। इस प्रकार विनयका वर्णन किया। अब आचार्य वैयावृत्त्य तपका वर्णन करते हैं यमराजके समान दुनिवार परीषहोंसे पीडित मोक्षाभिलाषो साधुजनोंकी वैयावृत्त्य मोक्ष-प्राप्तिके लिए करना चाहिए ॥६॥ दुभिक्षके समय, मारीके आनेपर, रोगके होनेपर तथा चोर, राजा आदिके उपद्रव होनेपर कर्मक्षयके लिए व्रती पुरुषोंकी वैयावृत्त्य करना चाहिए ।।६२।। संसारके परिभ्रमणके त्यागकी इच्छा रखनेवाले सज्जन पुरुषोंको आचार्य, उपाध्याय, वृद्ध मुनि, गणरक्षक, प्रवर्तक, शंक्ष्य, तपस्वी, संघ, गण और ग्लान (रोगी) साधु, इन दशों ह प्रकारके साधुओंकी योग्य प्रासुक औषधियोंके द्वारा मन वचन और कायसे वैयावृत्त्य करनी चाहिए ।।६३-६४।। सामर्थ्यवान् हो करके भी जो पुरुष तपोंसे और दुष्कर रोगोंसे पीडित तपोधन साधुको देखकर उपेक्षा करता है, अर्थात् उनको वैयावृत्त्य नहीं करता हैं, उससे अन्य कोई अधर्मी नहीं हैं ॥६५।। वैयावृत्त्यमें तत्पर गृहस्थ भी साधुके समान जानना चाहिए । जो वैयावृत्त्यसे रहित हैं, वह पुरुष न गृहस्थ है और न साधु ही हैं ॥६६।। वैयावृत्त्य करनेवाला प्राणी संयमी पुरुषोंके द्वारा भी पूजा जाता है। दूसरेके उपकारको करनेवाला पुरुष पूजाको कैसे नहीं पाता हैं? अर्थात् अवश्य ही पूजाको पाता हैं ।। ६७।। जो पुरुष वैयावृत्य करता है, वह संयम दर्शन ज्ञान स्वाध्याय . Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह निर्वतिर्दीयते तेन तेन धर्मो विधास्यते । आगमोऽध्याप्यते तेन क्रियते तेन वा न किम् ॥६९ समाधिविहितस्तेन जिनाज्ञा तेन पालिता। धर्मो विस्तारितस्तेन तीयं तेन प्रतितम् ।।७० दुष्प्रापं तीर्थकर्तृत्वं त्रैलोक्यक्षोभणक्षमम् । प्राप्यते व्यावृतेर्यस्यास्तस्या: कि न परं फलम् ॥७१ परस्यापोह्यते दुःखं सदा येनोपकुर्वता । सम्पद्यते कथं तस्य क्व कार्य कारणं विना ॥७२ सेव्यो दीर्घायुरादों नीरोगो निरुपद्रवः । वदान्यः सुन्दरो दक्षो जायते स प्रियंवदः ॥७३ स धामिक: स सदष्टिः स विवेकी स कोविदः । स तपस्वी स चारित्री व्यावत्ति विदधाति यः॥७४ आश्रित्य भक्तितः पूरि रत्नत्रितयभूषितम् । प्रायश्चित्तं विधातव्यं गृहीत्वा व्रतशुद्धये । ७५ न सदोषः क्षमः कर्तृ दोषाणां व्यपनोदनम् । कर्दमाक्तं कथं वास: कर्दमेण विशोध्यते ॥७६ बोषमालोचितं ज्ञानी सूरिशो व्यपोहितुम् । अज्ञानेनैव वैद्येन व्याधिः ववापि चिकित्स्यते । ७. आलोच्यर्जुस्वभावेन ज्ञानिने संयतात्मने । तदीयवाक्यतः कार्य प्रायश्चित्तं मनीषिणा ॥७८ प्राञ्जलीभूय कर्तव्या सूरेरालोचना त्रिधा । विपाके दुःखदं कार्य वक्रभावेन निमितम् । ७९ विनय, नय आदि सभी कुछ देता हैं । क्योंकि वैयावृत्त्यसे स्वास्थ्य-लाभ करनेपर ही संयम-पालनादि संभव है ।।६८। जिस पुरुषके द्वारा वैयावृत्य करनेसे निराकुलता प्रदान की जाती हैं,उसके द्वारा धर्म साधन कराया जाता है, और आगमका पठन-पठन कराया जाता है। अथवा अधिक क्या कहें-वैयावृत्य करनेवालेके द्वारा क्या नहीं कराया जाता? अर्थात् सभी उत्तम कार्य कराये जाते हैं ॥६९॥ जिस पुरुषने साधुजनोंकी वैयावत्य की, उसने उन्हें समाधि कराई, उसने जिनेन्द्रकी आज्ञाका पालन किया उसने धर्मका विस्तार किया और उसने तीर्थका प्रवर्तन किया ।। || जिस वैयावृत्त्यके द्वारा तीन लोकको क्षोभित करने वाला अत्यन्त कष्टसे पाने योग्य ऐसा तीर्थंकरपना प्राप्त होता हैं, उस वैयावृत्त्य करनेका अन्य क्या फल नहीं प्राप्त हो सकता है? अर्थात् सभी कुछ प्राप्त हो सकता हैं ॥७१।। सदा परोपकार करनेवाले जिस पुरुषके द्वारा अन्यके दुःख दुर । जाते है. उसके द:ख कैसे प्राप्त हो सकता है? अर्थात कभी वह दुखी नहीं हो सकता। क्योंकि कारणके विना कार्य कहाँ हो सकता है ।।७२॥ वैयावृत्त्य करनेवाला पुरुष सत्पुरुषों के द्वारा सेव्य होता है, दीर्घायु होता है, आदरणीय, नीरोग, उपद्रव-रहित, उदार, प्रियभाषी,सुन्दर और चतुर होता हैं ।।७३।। जो पुरुष वैयावृत्त्य करता है, वह धर्मात्मा है, वह सम्यग्दृष्टि है, वह विवेकी है, वह विद्वान् हैं, वह तपस्वी हैं और यह चारित्रका धारक हैं ।।७४।। इस प्रकार वैयावृत्यका वर्णग किया। अब आचार्य प्रायश्चित्त तपका वर्णन करते है-व्रतको ग्रहण करके उसमें लगनेवाले दोषोंकी शुद्धिके लिये रत्नत्रयसे विभूषित आचार्यका आश्रय लेकर भक्तिसे अपने दोषोंका प्रायश्चित्त करना चाहिए। ७५।। जो आचार्य स्वयं ही दोष युक्त है, वह अन्यके दोषोंको दूर करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि कीचडसे लिप्त वस्त्र कीचडसे कैसे शुद्ध किया जा सकता हैं? अर्थात कभी भी शुद्ध नहीं किया जा सकता हैं ।।७६॥ ज्ञानवान् आचार्य ही शिष्यके द्वारा कहे गये दोषको दूर करनेमें समर्थ है । क्योंकि अज्ञानी वैद्य के द्वारा कहीं पर भी व्याधिकी चिकित्सा नहीं की जा सकती है ।।७७।। इसलिए ज्ञानी संयमी आचार्य के आगे सरल भावसे अपने दोषोंकी आलोचना करके उनके वचनानुसार मनीषी मुनि और गृहस्थोंको प्रायश्चित्त करना चाहिये ।।७८।। मन वचन कायको सरल करके अंजलि बाँधकर आचार्य के आगे आलोचना करना चाहिए। क्योंकि कुटिल भावसे किया गया कार्य परिणामके समय दुःखदायी होता है ।।७१।। प्रायश्चित्तसे जिसके दोषोंकी शुद्धि Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः फलाय जायते पुंसो न चारित्रमशोधितम् । मलग्रस्तानि सस्यानि कीदृशं कुर्वते फलम् ॥८० वाचना पृच्छनाऽऽनुप्रेक्षा धर्मदेशना । स्वाध्यायः पञ्चधा कृत्यः पञ्चमो गतिमिच्छता । ८११ तपोऽन्तरानन्तरभेदभिन्ने तपोविधो किञ्चन पापहारि । स्वाध्यायतुल्यं न विलोक्यतेऽन्यद्धृषीकदोषशमप्रवीणम् ॥८२ स्वाध्याय मत्यस्य चलस्वभावं न मानसं यन्त्रयितुं समर्थः । शक्नोति नोन्मूलयितुं प्रवृद्धं तमः परी भास्करमन्तरेण ॥ ८३ यां स्वाध्यायः पापहानि विधत्ते कृत्वैाम्यं नोपवासः क्षमस्ताम् । शक्तः कर्तु संयतानां ' न कार्यं लोके दृष्टोऽसं 'यतो दुष्टचेष्टः || ८४ विज्ञातनिःशेषपदार्थ जातः कर्मास्रवद्वारपिधानकारी । भूत्वा विधत्ते स्वपरोपकारं स्वाध्यायवर्ती बुधपूजनीयः । ८५ बुद्धतत्त्वो विधुनोति सद्यो विध्वंसिताशेषहृषीकदोषः । तपोविधानंर्भवको टिलक्षर्नून तदज्ञो न धुनोति कम ८६ नहीं की गई हैं, ऐसा चारित्र पुरुषको फल नहीं देता है। क्योंकि मलसे दूषित धान्य उत्तम फलको कैसे उत्पन्न कर सकता हैं ||८०| इस प्रकार प्रायश्चित तपका वर्णन किया । अब आचार्य स्वाध्याय तपका वर्णन करते हैं- पचमीगति मुक्तिको चाहनेवाले पुरुषोंको वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मदेशनारूप पाँच प्रकारका स्वाध्याय करना चाहिए || ८१|| विशेषार्थ आगमके निर्दोष शब्द और अर्थका भव्योंको पढाना - सिखाना वाचवा स्वाध्याय हैं । संशय के दूर करने के लिए तत्त्वका रहस्य गुरुजनोंसे पूछना पृच्छना स्वाध्याय है । आगमके पाठका शुद्ध उच्चारण करना कंठस्थ याद करना आम्नाय स्वाध्याय है । पदार्थ के शास्त्र - प्ररूपित स्वरूपका बार-बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय हैं । दूसरोंके लिए धर्मका उपदेश देना धर्मदेशना नामक स्वाध्याय हैं । इन पाँच प्रकारोंमें से जहाँ जब जो संभव एवं आवश्यक हो, वहां पर उस स्वाध्यायको करते रहना चाहिए | अन्तरंग और बाह्य के भेदसे भिन्न बारह प्रकारके तपो विधान में पापोंका दूर करनेवाला और इन्द्रियोंके दोषोंके प्रशमन करनेमें प्रवीण ऐसा स्वाध्याय के समान अन्य और कोई तप नहीं है ।।८२|| इस चंचल स्वभाववाले मनको नियंत्रित करनेके लिए स्वाध्यायको छोडकर अन्य कोई तप समर्थ नहीं हैं । बढे हुए अन्धकारको उन्मूलन करने के लिए सूर्यके अतिरिक्त और कौन समर्थ हो सकता हैं || ८३ || एकाग्र होकर किया हुआ स्वाध्याय जितनी पाप हानिको करता हैं, उतनी पाप हानिको करने के लिए उपवास समर्थ नहीं है । क्योंकि संयत पुरुषोंके कार्यको करने के लिए लोकमें दुष्ट चेष्टावाला असंयत मनुष्य समर्थ नहीं हो सकता है । प्रतियों में संवृत पाठ भी पाया जाता है, तदनुसार संबर-मुक्त पुरुषोंके कार्यको संवर - रहित दुष्ट चित्त पुरुष नहीं कर सकता, एसा अर्थ होता है || ८४॥ स्वाध्याय करनेवाला पुरुष श्रुतज्ञानके बलसे समस्त पदार्थ समूहको जानता हैं, कर्मोंके आनेके द्वारोंको बन्द करता हैं, तथा अपना और पराया उपकार करता है, अतएव वह विद्वज्जनोंके द्वारा पूजनीय होता हैं ।। ८५ । जो तत्त्वों का ज्ञाता है और जिसने इन्द्रियोंके समस्त दोषोंको विश्वस्त कर दिया हैं, एसा ज्ञानी पुरुष शीघ्र ( एक अन्तर्मुहूर्त में ) जितने कर्मका विनाश करता हैं, उतने ही कर्मका विनाश अज्ञानी पुरुष लाखों करोडों भवोंमें सहस्रों १. मु. सवृतानां । २. मु. असंवृतो । ३९१ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ श्रावकाचार-संग्रह निरस्तसर्वाक्षकषायवृत्तिविधीयते येन शरीरिवर्गः । प्ररूढजन्माकुरशोषपूषा स्वाध्यायतोऽन्योस्ति ततो न योगः ॥८७ गुणाः पवित्राः शमसंयमाद्या वियोधहीनाः क्षणतश्चलन्ति । कालं कियन्तं तलपुष्पपूर्णास्तिष्ठन्ति वृक्षा: क्षतमूलबन्धाः ।।८८ जानात्यकृत्यं न जनो न कृत्यं जैनेश्वरं वाक्यमबुध्यमानः ।। करोत्यकृत्यं विजहाति कृत्यं ततस्ततो गच्छति दुःखमुग्रम् ।।८९ अनात्मनीनं परिहतुकामा गृहीतुकामा: पुनरात्मनीनम् । पठन्ति शश्वज्जिननाथवाक्यं समस्तकल्याणविधायि सन्तः ।।९० सुखाय ये सूत्रमपास्य जैनं मूढाः प्रयन्ते वचनं परेषाम् । तापच्छिदे ते परिहत्य 'तोयं भजन्ति कल्पक्षयकालन्हिम् ॥९१ विहाय वाक्यं जिनचन्द्रदृष्टं परं न पीयूषमिहास्ति किञ्चित् । मिथ्याशा वाक्यमपास्य नूनं पश्यामि नो किञ्चन कालकूटम् ।।९२ विधीयते येन समस्तमिष्टं कल्पद्रुमेनेव महाफलेन । आवयं या विश्वजनीनवृत्तिर्मुक्त्वा परं कर्म जिनागमोऽसौ ।।९३ तपों विधानोंके द्वारा निश्चयसे नहीं कर सकता हैं।८६।। जिस स्वाध्यायके द्वारा प्राणिवर्ग समस्त इन्द्रियों और कषायोंकी प्रवृत्तिसे रहित किया जाता हैं और जो बढ़ते हुए भवाङकुरके सुखानेके लिए सूर्य सदृश हैं, ऐसे स्वाध्यायसे अन्य और कोई योग (ध्यान) नहीं है ।।८७ । कषायोंकी मन्दता रूप प्रशम भाव और संयम आदिक जितने भी पवित्र गुण है, वे सब यदि ज्ञानसे रहित हैं, तो क्षण मात्रमें चलायमान हो जाते हैं। जिन वृक्षोंका मूल जड-बन्धन विनष्ट हो गया हैं, ऐसे पत्र-पुष्पोंसे परिपूर्ण भी वृक्ष कितने समय तक खडे रह सकते है ।। ८८।। भावार्थसर्व गुणोंका मूल आधार ज्ञान है, उसके विना अन्य गुण अधिक कालतक ठहर नहीं सकते। अतः स्वाध्यायके द्वारा ज्ञानार्जन करना आवश्यक हैं। जिनराजके कहे वचनोंको नहीं जाननेवाला मनुष्य कृत्य (करने योग्य ) और अकृत्य (नहीं करने योग्य) को नहीं जानता हैं इसलिए वह अकृत्य कर्मको करता है और कृत्य कार्यको छोडता है। और इसीसे वह उग्र दुःखको प्राप्त होता है ।।८९।। जो सन्त पुरुष आत्माके अकल्याणकारी मिथ्यात्वादिको छोडनेके इच्छुक हैं, तथा आत्माके कल्याणकारी सम्यक्त्वादिको ग्रहण करनेके अभिलाषी है, वे सर्वप्रकारके कल्याणोंको करनेवाले जिनेन्द्रदेवके वचनोंको निरन्तर पढते हैं ॥९॥ जो मूढजन सुख पानेके लिए जैन सूत्र (आगम) को छोडकर अन्य मिथ्यादष्टियोंके वचनोंका आश्रय लेते हैं, वे मानो अपने सन्तापको दूर करने के लिए जलको छोडकर कल्पान्तके समयवाली प्रलयकालकी अग्निका सेवन करते हैं ।।९१।। जिनेन्द्रचन्द्र के द्वारा उपदिष्ट वाक्यको छोडकर इस लोकमें अन्य कुछ भी उत्तम अमृत नहीं हैं । तथा मिथ्यादृष्टियोंके वाक्यको छोडकर निश्चयसे में अन्य कोई कालकूट विषको नहीं देखता हूँ ।।९२।। जिस जिनागमके अभ्याससे महान् फलदायक कल्पवृक्ष के समान समस्त इष्ट अर्थ प्राप्त होते हैं, ऐसे इस विश्व-कल्याणकारी जिनागमका अन्य सर्व कार्य छोडकर निरन्तर अभ्यास करना चाहिए ॥९३।। इस प्रकार स्वाध्यायतप१. मु. परिमुच्य। . Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३९३ परेऽपि ये सन्ति तपोविशेषा जिनेन्द्रचन्द्रोदित सूत्रदृष्टाः । स्वशक्तितस्ते निखिला विधेया विधानतः कर्मनिकर्तनाय ।।९४ सौख्यं स्वस्थं दीयते येन नित्यं रागावेशश्छिद्यते येन सद्यः । येनानन्दो जन्यते याचनीयस्तं सन्तोषं कुर्वते केन भव्याः ।।९५ नेष्टं दातुं कोऽप्युपायः समर्थः सौख्यं नृणामस्ति सन्तोषतोऽन्यः । अम्मोजानां कः प्रबोधं विधातुं शक्तो हित्वा भानुमन्तं न दृष्टः ॥९६ विमच्य सन्तोषमपास्तबद्धिः सुखाय यः काइक्षति कञ्चनान्यम् । दारिद्रयहानाय स कल्पवृक्षं निरस्य गृहाति विषद्रुमं हि ॥९७ क्रोधलोभमदमत्सरशोका धर्महानिपटवः परिहार्याः ।। व्याधयो न सुखघातपटिप्ठा: पोषयन्ति कृतिनः सुखकांक्षाः ॥९८ सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं सक्लिश्यमानेषु कृपापरत्वम्। . मध्यस्थभावो विपरीतवत्तौ सदा विधेयो विदुषा शिवाय ।।९९ अनश्वरश्रीप्रतिबन्धकेषु प्रभूतदोषोपचितेषु नित्यम् ।। विरागमाव: सुधिया विधेयो भवाङ्ग भोगेष विनश्वरेषु ॥१०० श्रावकधर्म भजति विशिष्टं योऽनघचित्तोऽमितगतिदष्टम् । गच्छति सौख्यं विगलितकष्टं स क्षपयित्वा सकलमनिष्टम् ।।१०१ इत्युपासकाचारे त्रयोदशः परिच्छेदः ।। का वर्णन किया। उपर्युक्त वैयावत्य, स्वाध्याय आदिके सिवाय अन्य भी जो तपोविशेष जिनेन्द्रचन्द्रोपदिष्ट आगममें प्रतिपादन किये गये हैं, उन सबको भ अपनी शक्तिके अनुसार कर्मों के काटनेके लिए विधिपूर्वक करना चाहिए ॥९४।। जिसके द्वारा आत्मीय नित्य सुख प्रदान किया जाता है, जिसके द्वारा रागका आवेश शीघ्र छेदा जाता हैं और जिसके द्वारा मनोवांछित आनन्द उत्पन्न होता है, उस सन्तोषको कौन भव्य पुरुष धारण नहीं करते है । अर्थात् ऐसे परम सुख और शान्तिके देनेवाले सन्तोषको धारण करना चाहिए ।।९५॥ मनुष्योंको अभीष्ट सुख देनेके लिए सन्तोषके सिवाय अन्य कोई उपाय समर्थ नहीं हैं। कमलोंको विकसित करने के लिए सूर्यके सिवाय और कौन समर्थ देखा गया हैं ।।९६॥ जो नष्टबुद्धि पुरुष सुख पानेके लिए सन्तोषको छोडकर अन्य काम-भोगादिककी आकांक्षा करता है, वह दरिद्रताको दर करने के लिए कल्पवक्षको छोडकर नियमसे विषवृक्षको ग्रहण करता हैं ।।९।। धर्मकी हानि करने में दक्ष ऐसे क्रोध लोभ मद मत्सर और शोकका परिहार करना चाहिए। क्योंकि सुख के इच्छुक ज्ञानीजन सुख का घात करनेवाली व्याधियोंको पोषण नहीं करते हैं ॥९८ । विद्वानोंको आत्मकल्याणके लिए सदा सर्व प्राणियोंपर मैत्रीभाव, गुणी जनोंपर प्रमोदभाव, दुखी जीवोंपर करुणाभाव और विपरीत दृष्टिवालोंपर माध्यस्थभाव रखना चाहिए ।।९९।। अविनाशो लक्ष्मीके प्रतिबन्धक,अनेक दोषोंसे संयक्त और विनश्वर ऐसे संसार, शरीर और इन्द्रिय-भोगोंमें ज्ञानीको सदा विरागभाव रखना चाहिए । १००।। इस प्रकार अमितज्ञानी जिनेन्द्रदेवसे उपदिष्ट तथा अमितगति आचार्यसे प्ररूपित ऐसे विशिष्ट श्रावक धर्मको जो निर्मल चित्त पुरुष धारण करता हैं, वह सकल अनिष्ठोंका क्षय करके सर्वं कष्टोंसे रहित ऐसे अविनाशी सुखको प्राप्त होता है ।।११।। इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचार में तेरहवां परिच्छेद समाप्त हआ। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ श्रावकाचार-संग्रह चतुर्दशः परिच्छेदः यौवनं नगनदीस्यदोपमं शारदाम्बुदविलासि जीवितम् । स्वप्नलब्धधनविभ्रमं धनं स्थावरं किमपि नास्ति तत्त्वतः ॥ १ विग्रहा गदभुजङ्गमालया सङ्गमा विगमदोषदूषिताः । सम्पदोऽपि विपदा टाक्षिता नास्ति किञ्चिदनुपद्रवं स्फुटम् ॥२ प्रीतिकीर्तिमतिकान्तिभूतयः पाकशासनशरासनस्थिराः । अध्वनीनपथसङ्गसङ्गमाः सन्ति मित्र पितृपुत्रबान्धवाः । ३ मोक्षमेकमपहाय कृत्रिमं नास्ति वस्तु किमपीह शाश्वतम् । किञ्चनाषि सहगापि नात्मनो ज्ञानदर्शनमास्य पावनम् । ४ सन्ति ते त्रिभुवनेन देहिनो येन यान्ति समवति मन्दिरम् । चचापखचिता हि कुत्र ते ये व्र 'जन्ति न विनाशमम्बुदाः ॥ ५ देहपंजरमपास्य जर्जरं यत्र तीर्थपतयोऽपि पूजिताः । यान्ति पूर्णसमये शिवास्पदं तत्र के जगति नात्र गत्वराः ॥ ६ यं करोति पुरतो यमराजो भक्षणाय भुवने क्षुधितात्मा । कानने मृगमिव द्विपरी तस्य नास्ति शरणं भुवि कोऽपि । ७ अब आचार्य बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन करते हुए पहली अनित्यानुप्रेक्षाका स्वरूप करते हैं मनुष्यका यौवन तो पर्वतकी नदीके वेगके समान हैं, जीवन शरद् ऋतुके मेघके विलास समान हैं अर्थात् क्षणमात्रमें विलयको प्राप्त हो जाता है। तथा यह धन स्वप्न में पाये हुए धनके समान झूठा है । वास्तव में यहाँ कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है || १ || ये शरीर रोगरूप सर्पोंके घर है, इष्ट वस्तुओंके संयोगके दोषसे दूषित हैं, तथा सम्पदाएँ भी विपदाओं के कटाक्षसे युक्त हैं । अतः यह स्पष्ट हैं कि इस संसारमें कोई भी वस्तु उपद्रव रहित नहीं हैं ||२|| प्रीति, कीर्ति, बुद्धि, कान्ति और विभूति ये सब इन्द्र-धनुष के समान अस्थिर हैं, और ये मित्र पुत्र पिता बन्धुजन मार्ग में मिले हुए पथिकोंके संयोगके समान शीघ्र ही बिछुड जानेवाले हैं || ३ || एकमात्र मोक्षको छोडकर शेष सब कृत्रिम वस्तुओंमें से कोई भी वस्तु इस लोकमें शाश्वत नहीं है । तथा पवित्र आत्मीय गुण ज्ञान दर्शनको छोड़कर आत्माके साथ और कुछ भी जाने वाला नहीं हैं ||४|| तीन लोक में ऐसे कोई भी प्राणी नहीं हैं जो कि यमराजके मन्दिरको न जाते हों ? अर्थात् सभी प्राणी मरणको प्राप्त होते है । इन्द्र-धनुष से संयुक्त ऐसे कौनसे मेघ है, जो कि विनाशको प्राप्त न होते हों ।। ५ ।। जब आयु पूर्ण हो जानेपर जगत्पूज्य तीर्थंकर देव भी इस जर्जर देह-पंजरको छोडकर मोक्ष-धामको चले जाते है, तब फिर ऐसे वे कौन जन है जो कि यम-मन्दिरको जानेवाले न हों ? अर्थात् सभी प्राणी जाने वाले हैं || ६|] इस प्रकार अनित्य भावना वही । अब अशरणानुप्रेक्षाको कहते हैं- भूखी हैं आत्मा जिसकी ऐसा यमराज संसार में जिस Start खानेके लिए आगे करता हैं, उस जीवकी रक्षा करनेके लिए लोकमें कोई भी शरण नहीं १. मु. भजन्ति । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृत: श्रावकाचारः ३९५ अन्तकेन यदि विग्रहभाजः स्वीकृतस्य समपत्स्यत पाता। रक्षित: सुरवरैरमरिष्यन्नो तदा सुर-वधूनिकुरम्बः ।।८ यं निहन्तुममरा न समर्था हन्यते न स परैः समवर्ती । यो द्विपर्न समदैरपि भग्नो भज्यते हि शशकै स वृक्षः ॥९ स्यन्दनद्विपपदातितुरङगमंन्त्रतन्त्रजपपूजनहोमैः ।। शक्यते न स खल रक्षितुमङ्गी जीवितव्यपगमे म्रियमाणः ॥१० ये धरन्ति धरणीं सह शैलये क्षिपन्ति सकलं ग्रहचक्रम् । ते भवन्ति भवने न स कश्चिद्यो निहन्ति तरसा यमराजम् ।।११ यो हिनस्ति रभसेन बलिष्ठानिन्द्रचन्द्र रविकेशवरामान । रक्षको भवति कश्चन मृत्योनिघ्नतो भवभूतो न ततोऽत्र ।।१२ चित्र जीवाकुलायां तनभागिना कुर्वता चेष्टितं सर्वदा मोहिना। गण्हता मुञ्चता विग्रहं संसतो नर्तकेनेव रङगक्षितौ भ्रम्यते ।।१३ श्वसिति रोदिति सीदति खिद्यदे स्वपिति रुष्यति तुष्यति ताम्यति । लिखति दीव्यति सीव्यति नत्यति भ्रमति जन्मवने कलिलाकुलः ॥१४ जनकस्तनयस्तनयो जनको जननी गहिणी गहिणी जननी। भगिनी दुहिता दुहिता भगिनी भवतीति बताङ्गिगणो बहुशः ।।१५ है। जैसे कि वनम सिंह जब हरिणको भक्षण करनेको उद्यत हो, तब उसे बचानेके लिए कोई भी संसारमें शरण नहीं है ।।७।। यदि यमराजसे ग्रसित प्राणीको बचाने वाला कोई होता, तो उत्तम देवों और इन्द्रोंसे सुरक्षित देवाङगनाओंका समुदाय कभी नहीं मरता ॥८॥ जिस यमराजको मारने के लिए देवगण भी समर्थ नहीं है, वह यमराज दूसरे प्राणियोंके द्वारा नहीं मारा जा सकता है। जो वृक्ष मदोन्मत हाथियोंके द्वारा भी भग्न नहीं किया जा सकता, वह शशको (खरगोशों) के द्वारा कैसे भग्न किया जा सकता है ॥९॥ जीवनके समाप्त होनेपर मरते हुए प्राणीकी रक्षा करने लिए रथ हाथी प्यादे घोडे, तथा मंत्र तंत्र जप पूजन और हवन भी निश्चयसे समर्थ नहीं है ।। १० । संसारमें ऐसे पुरुष हैं जो पर्वतोंके साथ पृथिवीका धारण कर सकते है और ऐसे भी पुरुषोंका होना संभव है जोकि समस्त ग्रहचक्रको उठाकर फेंक सकते है। कितु जो यमराजको शीघ्र मार सके, ऐसा कोई पुरुष इस भुवनमें नहीं है ।।११॥ जो मृत्यु रूप यमराज बडे बलशालो इन्द्र चन्द्र सूर्य नारायण और बलभद्रकों अतिशीघ्र मार देता है,उस मृत्युसे संसारके प्राणियोंको मारनेसे बचाने वाला इस संसारमें कोई भी रक्षक नहीं है ।।१२। इस प्रकार अशरण भावना कही। अब संसारानुप्रेक्षाको कहते है-नाना प्रकारके जीवोंसे भरी हुई इस संसाररूपी रंगभूमि पर नाना प्रकार की चेष्टाएं करते हुए यह मोही शरीरधारी शरीरको ग्रहण करते और छोडते हए सर्वदा परिभ्रमण करता रहता है।। १३॥ पाप कर्मसे व्याकल हआ यह जीव सर्वदा संसा कभी श्वास लेता है, कभी रोता है, कभी पीडित होता है,कभी खेद खिन्न होता है, कभी सोता है, कभी रुष्ट होता है कभो सन्तुष्ट होता है, कभी तमतमाता है, कभी लिखता है, कभी खेलता है, कभी कपडे सीता है और कभी नाचता है। इस प्रकार नाना प्रकारकी चेष्टाएँ करता हुआ घूमता रहता है ।।१४।। इस संसारम आज जो पिता है, मरकर कल वह पुत्र बन जाता है. आज जो पुत्र है Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ श्रावकाचार-संग्रह कलिलजालवशः स्वयमात्मनो भवति यत्र सुतो निजमातरि । किमपरं बत तत्र निगद्यते विविधदुःखखनो जननार्णवें ॥१६ किमपि वेत्ति शिशुन हिताहितं विविध 'दुःखमुपैति युवा परम् । विकलतां भजते स्थविरस्तरां भवति शर्म कदा बत संसृतौ ॥१७ न सोऽस्ति सम्बन्धविधिजगत्त्रये समं समस्तैरपि देहधारिभिः । अवापि यो न भ्रमता भवार्णवे शरीरिणा कर्मनियन्त्रितात्मना ।।१८ यत्र चित्रविवर्तः परावय॑ते कर्मणाऽनारतं भ्रम्यमाणो जनः । दुःसहं दुर्वचं मानसं कायिकं तत्र दुःखं न कि संसतावते ।।१९ देहबान्धवनिमित्तमङिगना पापकर्म विविध विधीयते । एककेन बृहती विषह्यते नारकी गतिमुपेयुषा व्यथा ॥२० पद्मपत्रनयना मनोरमा: कारयन्ति दुरितं दुरुत्तरम् । दति विकटदःखसटामेककस्य शरणं न गच्छतः। २१ माततातसुतदारबान्धवाः शर्मदा मम मधेति तप्यते । कर्म पूर्वमपहाय विद्यते नात्र कोऽपि सुखदुःखकारकः ।।२२ वह पिता बन जाता हैं । माता गृहिणी बन जाती है, गृहिणी माता बन जाती है, बहिन पुत्री बन जाती हैं और पूत्री बहिन बन जाती है। यह बहुत दुःखकी बात है कि प्राणिगण इस प्रकार परस्परमें नाना प्रकारके सम्बन्धोंको प्राप्त होते हुए संसारमें परिभ्रमण करते हैं ॥१॥ विविध दुःखोंकी खानिरूप इस संसार-समुद्र में इससे अधिक और आश्चर्य और दुःखको क्या बात हो सकती है कि जहाँ पर पाप-जालके वश होकर स्वयं यह जीव अपनी माताके गर्भ में अपना पुत्र हो सकता हैं ।।१६।। बाल्यावस्थामें बालक अपने हित और अहितको कुछ भी नहीं जानता है, युवा पुरुष वियोगके परम दुःखको प्राप्त होता है और वृद्ध पुरुष अत्यन्त विकलताको प्राप्त होता हैं। फिर बताओ संसारमें जीवके सुख कब होता हैं ।।१७।। कर्मरूप यंत्रसे प्रेरित इस देहधारी आत्माने संसारसमुद्र के परिभ्रमण करते हुए तीन लोकमें ऐसा कोई भी नाते रिश्तेदारीका सम्बन्ध नहीं है,जो कि समस्त देहधारियोंके साथ अनन्तबार नहीं पाया हो ॥१८॥ जिस संसारमें कर्मके वशसे निरन्तर परिभ्रमण करता हुआ यह जीव नाना प्रकारकी पर्यायोंसे परिवर्तित होता रहता है,उस संसारमें बताओ ऐसा कौन-सा दुःसह वाचनिक मानसिक और कायिक दुःख है, जो न इसने भोगा हो? अर्थात् सभी प्रकारके दुःख इस जीवने अनन्तबार भोगे है ।।१९॥ यह संसार भावना कही । __ अब एकत्वानुप्रेक्षा कहते है-यह जीव शरीर और बन्धु जनोंके निमित्त नाना प्रकारके पापकर्म करता है, किन्तु उसके फलसे नारकगतिको प्राप्त होकर अकेला ही वहाँकी भारी व्यथाको सहता हैं ।।२०।। कमलपत्रके समान नेत्रवाली ये मनोहर स्त्रियाँ दुम्नर पापको कराती है। किन्तु उस पापके फलसे विकट दुःखोंसे व्याप्त दुर्गतिको अकेले जाते हुए इस जीवका कोई शरण नहीं हैं ।२१।। ये माता पिता पुत्र स्त्री और बन्धुजन मेरे हैं, ऐसा मान कर यह जीव सदा निरर्थक सतप्त होता रहता हैं। किन्तु पूर्व कर्मको छोड करके इस संसारमें जीवको कोई सुख या दुःखका देने वाला नहीं हैं ।।२२।। इस लोक में अपने कर्मसे उत्पन्न हुई वेदनाको प्राप्त हुए जीवका यत्नसे १. मु. विरह । www.jainelibrary.prg Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः वेदनां गतवतः स्वकर्मजामत्र यो न विदधाति किञ्चन । किं करिष्यति परत्र यत्नतो देहजादिनिवहः स पालितः ॥ २३ एकको भ्रमति दुःखकानने याति निर्वृतिनिवासमेककः । एककः श्रयति दुःखमेकक. शर्म याति न परोऽस्य विद्यते ॥ २४ जन्म मृत्यु र तिकीर्ति सम्पदामेकको भवति भाजनं सदा । नास्ति कोऽपि सचिवः शरीरिणो द्रव्यमुक्तिमपहाय तत्त्वतः ॥ २५ अनादिरात्माऽनिधनः सचेतनों विधाय यः कर्म फलस्य भोजकः । हि हितादानविमोक्षको विदस्ततः शरीरं विपरीतमात्मनः ॥२६ सदाऽपि या यत्नशतैः प्रपात्यते न यत्र कायोऽपि निजः स देहिनः । परं स्वकीयं किमु तत्र विद्यते प्रवर्तते यत्र ममेति मोहितः ॥ २७ विमुच्य जन्तोरुपयोगमञ्जसा न दर्शनज्ञानमयं परं निजम् । परत्र सर्वत्र ममेति शंमुषी प्रवर्तते मोहपिशाचनिर्मिता ।। २८ भवन्ति ये कार्मणयोगसम्भवाः परेऽत्र भावा वपुरात्मजादयः । विहाय ते दुःखपरम्परां परां परं न किञ्चिद्वितरीतुमीशते ॥ २९ अनात्मनीना भवदुःखहेतवो विनश्वराः कर्मभवा यतोऽखिलाः । ततो न बाह्येषु विशुद्धबुद्धयो ममेति बुद्धि मनसाऽपि कुर्वते ||३० पालन किया हुआ यह पुत्र आदिका समूह जब कुछ उपकार नहीं कर सकता है, तब वह परलोकमें क्या उपकार करेगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं करेगा ||२३|| यह जीव इस भववन में अकेला ही भ्रमण करता हैं और अकेला ही मुक्तिधामको जाता है। अकेला ही यह दुःख भोगता हैं और अकेला ही सुख भोगता हैं। इसका दूसरा कोई सगा साथी नहीं है || २४|| यह जीव सदा अकेला ही जन्म मरण, प्रीति, कीर्ति और सम्पदाओंका भाजन होता हैं । इस देहधारीका कोई भी सचिव या साथी एक मुक्तिदश को छोड़कर वास्तवमें और कोई नहीं है ।। २५ ।। यह एकत्वभावना कही । ३९७ अब अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते है - यह आत्मा अनादि हैं, अनन्त हैं, सचेतन हैं, कर्मोंका कर्त्ता है और कर्मों के फलका भोक्ता है, तथा हितके ग्रहण और अहितके छोडने में कुशल है । किन्तु शरीर आत्माके उक्त स्वभावसे विपरीत हैं, अर्थात् आदि और अन्तवाला हैं, जड है, न वह कर्मका कर्ता-भोक्ता है और न हित-अहितका जानने वाला है । अतएव यह सिद्ध होता है कि आत्मा और शरीर ये दो भिन्न पदार्थ है ।। २६ । जो शरीर इस संसार में सदा ही सैकड़ों प्रयत्नोंसे पालन किया जाता है, वह शरीर भी जब जीवका निजी नहीं है, तब अन्य वस्तु अपनी कैसे हो सकती हैं, जिसमें कि 'यह मेरी वस्तु है' ऐसा कहकर मोहित हुआ यह जीव प्रवृत्ति करता है । २७॥ जीवके दर्शन ज्ञानमयी उपयोगको छोडकर निश्चयसे कोई पर वस्तु अपनी नहीं है । फिर भी आश्चर्य हैं कि मोह पिशाचसे निर्मित 'यह मेरा है' ऐसी बुद्धि सर्वत्र पर पदार्थों में सदा लगी रहती है |२८|| कर्मों के संयोग से उत्पन्न हुए जितने भी शरीर, पुत्र आदिक पर पदार्थं संसार में है, दुःखकी उत्कट परम्पराके सिवाय और कुछ भी देनेके लिए समर्थं नहीं है । अर्थात् उनसे सुख पानेकी कल्लना करना व्यर्थ है । २९|| कर्मोंके संयोगसे उत्पन्न हुए जितने भो पदार्थ है, वे सब आत्माके हितकारी नहीं है, संसारके दुःखोंके कारण है Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ श्रावकाचार-संग्रह न विद्यते यत्र कलेवरं निजं स्वकीयबुद्धया मनसि व्यवस्थितम् । तदीयसम्बन्धमवा: सुतादयः परे कथं तत्र निजा निगद्यताम् ॥३१ करोति बाह्येषु ममेति शेमुषीं परेष्वयं यावदनर्थकारिणीम् । न निर्ममस्तावदमुष्य संसृतेरिति त्रिधा सा विदुषा विमुच्यताम् ।।३२ क्षणादमेव्याः शुचयोऽपि भावा: संसर्गमात्रेण भवन्ति यस्य । शरीरत: सन्ततपूतगन्धेस्ततः परं किञ्चन नास्त्यशौचम् ।।३३ बहुप्रकाराशुचिराशिपूर्णे शुक्रास्रजाते शुचिता क्व काये । अमेध्यपूर्णः किममेध्यकुम्भो दृष्टो हि मेध्य वमुपाददानः ।।३४ मज्जास्थिमेदोमलमांसखानि विगर्हणीयं कृभिजालगेहम् । देहं दधानः शुचिताभिमानं मूों विधत्ते न विशुद्धबुद्धिः ।।३५ स्त्रवन्नवस्रोतविचित्रगथं यो वारिणा शोधयते शरोरम् । अन्हाय दुग्धेन निघष्य मन्ये विशुद्धमङ्गारमसौ विधत्तं ॥३६ न हन्यते तेन जलेन पापं विवर्यते येन विवियं रागम् । यद्यस्य जन्म'प्रभवे समर्थ तत्तस्य दृष्टं न विनाशकारि ।।३७ विनाश्यते चेत्सलिलेन पापं धर्मस्तदानीं क्रियते किमर्थम् । आरोहणं कोऽपि करोति वृक्षे फले हि हस्तेन न लभ्यमाने ।।३८ और विनाशीक है । इस लिए निर्मल बुद्धिवाले ज्ञानी जन बाह्य पदार्थोमें 'यह मेरा है' ऐसी बद्धिको मनसे भी नहीं करते है॥३०॥ जहां 'यह मेरा है' इस प्रकारकी आत्मबुद्धिसे मनमें अघस्थित यह शरीर भी अपना नहीं है, वहां उस शरीरके सम्बन्धसे उत्पन्न हुए ये पर पुत्रादिक निजी कैसे हो सकते है, यह कहो? अर्थात् जब यह शरीर ही अपना नहीं, तो पुत्रादिक अपने कैसे हो सकते है॥३१॥ जब तक यह अज्ञानी जीव बाहिरी पर पदार्थोमें 'यह मेरा है ऐसी अनर्थकारिणी बुद्धिको करता है, तब तक इसका संसारसे निकलना संभव नहीं है,अतः ज्ञानी जनोंको पर पदार्थोमें ममत्वबुद्धि मन वचन कायसे छोड देना चाहिए ।।३२।। यह अन्यत्व भावना कही। ____ अब अशुचिभावना कहते है-जिस शरीरके संसर्गमात्रसे पवित्र भी पदार्थ क्षण भरमें अपवित्र हो जाते हैं, ऐसे निरन्तर दुर्गन्धमय शरीरसे अन्य और कोई भी वस्तु अपबित्र नहीं है ॥३३॥ अनेक प्रकारकी अशुचि वस्तुओंसे भरे हुए और रज-वीर्यसे उत्पन्न हुए इस शरीर में पवित्रता कहाँ सम्भव हैं? विष्ठासे भरा हुआ अपवित्र घडा क्या पवित्रताको प्राप्त होता हुआ कहीं देखा गया है ।।३४।। मज्जा, हड्डी, मेदा, मल-मूत्र और माँसकी खानिवाला, तथा कृमिजालका घर एसे निन्दनीय शरीरको धारण करते हए मूर्ख मनुष्य ही पवित्रताका अभिमान करता हैं, किन्तु विशुद्ध बुद्धिवाला पुरुष ऐसे निन्द्य शरीरमें पवित्रताका भाव नहीं करता है ।।३५।। जिसके नौ द्वारोंसे निरन्तर मल-मूत्रादिक बहते रहते है, ऐसे शरीरको जो जलसे शुद्ध करना चाहता है, वह काले कोयलेको दूधसे धर्षण करके निर्मल बनाना चाहता हैं, ऐसा मैं मानता हूँ ।।३६।। जिस जलके द्वारा धोने से शरीरका राग बढकर पाप बढता है, उस जलसे वह पाप कैसे विनष्ट किया जा सकता है? जो वस्तु जिसके उत्पन्न करने में समर्थ हैं, वह उसका विनाश करनेवाली नहीं देखी गई है ।।३७॥ यदि जलसे पाप विनष्ट किया जाता हैं, तो बताओ-धर्म. किसलिए १. मु. विर्ण-। . Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः माघेन तीवः क्रियते शशाङ्को ग्रीष्मेण भानुर्यदि नाम शीतः । देहस्तदानीं पयसा विशुद्धो विधीयते दुर्वचगूथयूथः ।।३९ सज्ज्ञानसम्यक्त्वचरित्रतोयेविगाद्यमानैर्मनसाऽपि जीवः । विशोध्यमानस्तरसा पवित्र शुद्धिमभ्येति भवान्तरेऽपि ।।४० रन्ध्ररिवाम्ब विततैरुदधौ तरण्डे जीवे मनोवचनकायविकल्पजालैः । जन्माणवे विशति कर्म विचित्ररूपं सद्यो निमज्जनविधायि सुनिवारम् ।।४१ चित्रण कमपवनेन नियुज्यमान: प्राणिप्लवो बहुविधासुखभाण्डपूर्णः । संसारसागरमसारमलभ्यपारं भूरिभ्रमं भ्रमति कालमनन्तभानम् ॥४२ कर्माददाति यदयं भविन: कषाय: संसारदुःखमविधाय न तद् व्यपैति । यबन्धनं हि विदधाति विपक्षवर्गस्तन्नाम कस्य विरचय्य सुखं प्रयाति ।। ४३ भेदा. सुखासुखविधानविधौ समर्था ये कर्मणो विविधबन्ध र सा भवन्ति । जन्तोः शभाशभमन:परिणामजन्यास्तभ्रंम्यते भववने चिरमेष जोवः ॥४४ गण्हाति कर्म सुखद शुभयोगवृत्त्या दु खप्रदायि तु यतोऽशुभयोगवृत्त्या । आद्या सुखाथिभिरतः सततं विधेया हेया परा प्रचुरकष्टनिदानभूता ॥४५ किया जाता है? हाथसे फल के प्राप्त किये जानेपर कोई भी पुरुष वृक्षपर आरोहण कहीं करता हैं।।३८1। यदि माघ म सके द्वारा चन्द्रमा तीव्र सन्तप्त किया जाय और ग्रीष्मऋतुके द्वारा सूर्य शीतल किया जाय, ये दोनों असम्भव कार्य सम्भव हों, तो निन्दनीय मल-मूत्रका पुंज यह देह भी जलसे शुद्ध होता है ऐसा माना जा सकता है ॥३९।। इस लिए मनके द्वारा अवगाहन किये गये पवित्र सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्ररूप जलसे शीघ्र शुद्ध किया गया यह जीव अन्य भवमें भी अशुद्धिको प्राप्त नहीं होता हैं ।।४०।। भावार्थ -जलादिसे पवित्रता मानना मिथ्या है। जीवकी शुद्धि रत्नत्रय रूप धर्मके परिपालनसे ही होती है । यह अशुचि भावना कही। ____ अब आस्रवानप्रेक्षा कहते हैं-जिस प्रकार समुद्र के विस्तत छिद्रोंके द्वारा नावके भीतर जल प्रवेश करता हैं, उसी प्रकार संसाररूप समुद्र में पडे हुए जीवके भीतर मन वचन कायके विकल्पजालोंसे अति दुनिवार और शीघ्र डुबानेवाला नाना प्रकारका कर्म प्रवेश करता हैं ।।४।। तीव्र-मन्द आदि अनेक प्रकारके पवनके द्वारा प्रेरित और नाना प्रकारके दुःखरूप भांडों (बर्तनों) से परिपूर्ण यह प्राणीरूपी नौका इस असार अगम अपार और भारी भंवरवाले संसार-सागर में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करती रहती हैं ।।४२।। जीवका जो यह कषायभाव कर्मको ग्रहण करता है, वह जीवको सांसारिक दुःख दिये विना दूर नहीं होता है। जैसे शत्रुवर्ग जो बन्धन बाँधता हैं, वह किसे सुख दे करके जाता है? अर्थात् वह तो दुःख दे करके ही छूटता हैं ।।४।। जोवके नाना प्रकारके शभ-अशुभ मनके परिणामोंसे उत्पन्न हुए, सुख और दुःख देनेकी विधिमें समर्थ जो अनेक प्रकारके अनुभागबन्धके रस-भेदवाले कर्म बँधते हैं, उनके द्वारा यह जीव इस भयंकर भव-वन में चिरकालतक परिभ्रमण कराया जाता है ।।४४|| यतः शुभयोगकी परिणतिसे यह जीव सुखदायो पुण्यकर्म को ग्रहण करता है और अशुभ योगको परिण तिसे दुःखदायक पापकर्म को ग्रहण करता हैं, अत: सुखार्थीजनोंको आद्य जो शुभयोग परिणति है, यह नित्य करना चाहिए १. मु भीमें। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० श्रावकाचार-संग्रह एकप्रकारमपि योगवशादुपेतं कुर्वन्ति कर्म विविधं विविधाः कषायाः। एकस्वभावमुपगम्य जलं धनेभ्यः प्राप्य प्रदेशमुपयाति न कि विभेदम् ॥४६ मिथ्यात्वदीर्वत्यकषाययोगप्रमाददोषा विविधप्रकाराः । कर्मास्रवाः सन्ति शरीरभाजां जलास्रवा वा सरसां प्रवाहाः ॥ ४७ संवरणं तरसा दुरितानामात्रवरोधकरेषु नरेषु। आगमनस्य कृते हि निरोधे कुत्र विशन्ति जलानि सरस्सु ॥४८ नश्यति कर्म कदाचन जन्तोः संवरेण विना न गृहीतम् । शुष्यति कुत्र जलं हि तडागे सङ्गमने बहुधाऽभिनवस्य ॥४९ योगनिरोधकरस्य सुदृष्टेरस्तकषायरिपोविरतस्य । यत्नपरस्य नरस्य समस्तं संवृतिमच्छति नूतनमेनः । ५० धर्मधरस्य परीषहजेतुर्वृत्तवतः समितस्य सुगुप्तेः । आगमवासितमानसवृत्तः सङ्गतिरस्ति न कर्मरजोभिः ।।५१ दर्शनबोधचरित्रतपोभिश्चेतसि कल्मषमेति न तुष्टे । शूरतरैः पुरुषः कृतरक्षे शत्रुबलं विशति क्व पुरे हि ।।५२ पातकमास्रवति स्थिररूपं संमतिमाप्तवतां न यतीनाम् । वर्मधरान नरान् रणरङ्गे क्वापि भिनत्ति शिलीमुखजालम् । ५३ और प्रचुर कष्ट देनेकी करणभूत दूसरी अशुभयोग प्रवृत्ति छोडना चाहिए ।।४५।। योगके वशके ग्रहण किये गये एक प्रकारके भी कर्मको नाना प्रकारकी कषाय नाना प्रकारका फल देनेवाला कर देती है। जैसे मेघोंसे एक स्वभाववाला जल नीम ईख आदि विभिन्न जातिके वृक्षोंके प्रदेशको प्राप्त होकर क्या कटुक मिष्ट आदि अनेक भेदको नहीं प्राप्त हो जाता हैं ? अर्थात् हो ही जाता है।४६।। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग और प्रमादरूप दोष शरीरधारियोंके नाना प्रकारके कर्मास्रवके कारण है। जैसे कि सरोवरके प्रवाह उसमें जलके आनेके कारण है ।।४७।। यह आस्रव भावना कही। अब संवरानुप्रेक्षा कहते है-सम्यक्त्वादि भावोंके द्वारा आस्रवका निरोध करनेवाले मनुष्योंमें कर्मोके आनेका शीघ्र संवर होता हैं क्योंकि जल आगमनके द्वारोंका निरोध कर दिये जानेपर सरोवरोंमें जल कहाँ प्रवेश कर सकते है ।।४८।। संवरके विना ग्रहण किया हुआ जीवका कर्म कदाचित् भी नष्ट नहीं होता हैं । जैसे कि अनेक द्वारोंसे नवीन जलका मंगम होते रहने पर सरोवरम जल कहाँ सूख सकता हैं ।।४९।। योगोंका निरोध करनेवाले, सम्यग्दृष्टि, कषायरूप शत्रुके विनाशक, संयमी और सावधान पुरुष के समस्त नवीन कर्म संवरको प्राप्त होता हैं ।।५०।। भावार्थ-कर्मास्रवके कारणभूत मिथ्यात्वादिक भावोंके दूर होनेपर कर्मका आना रुकता ही है । जो मनुष्य उत्तम क्षमादि दशधर्मोका धारण करनेवाला हैं, परीषहोंका विजेता हैं, सामानिकादि चारित्रका धारक है, ईर्यादि समितियोंसे संयुक्त है, गुप्तियोंसे सुरक्षित है और जैनागमसे जिसकी चित्तवृत्ति सुवासित है, उस पुरुषके कर्मरूप रजसे संगति नहीं हो सकती है ।।५१|| सम्यदर्जन ज्ञान चारित्र और तपसे युक्त चित्तमें पापकर्म प्रवेश नहीं कर पाता है, जैसे कि अत्यन्त शूरवीर पुरुषोंसे जिसकी रक्षा की जा रही है, ऐसे नगरमें शत्रुओंको सेना कहाँ प्रवेश कर सकती हैं ।।५२।। स्थिररूप आत्माका अनुभव करनेवाले आत्मज्ञानी साधुओंके १. मु. जुष्ठे। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः कामकषाय हृषीकनिरोधं यो विदधाति परैरसुसाध्यम् । केवललोकविलोकितलोको याति स मुक्तिपुरीमनपायाम् ' ॥ ५४ दृढीकृतो याति न कर्मपर्वतः शरीरिणां निर्जरया विना क्षयम् । न धान्यपुञ्जः प्रलयं प्रपद्यते व्ययं विना क्वापि विवधितश्चिरम ।। ५५ निरन्तरानेकभवाजितस्य या पुरातनस्य क्षतिरेकदेशतः । विपाकजापाकजभेदतो द्विधा यतीश्वरास्तां निगदन्ति निर्जराम् ॥ ५६ अनेहसा या कलिलस्य निर्जरा विपाकजां तां कथयन्ति सूरयः । अपाकजाता भवदुः खर्खावणी विधीयते या तपसा गरीयसा । ५७ विपाकजायामुदितस्य कर्मणो मता परस्यामखिलस्य विच्युतिः । यतो द्वितीयाऽत्र ततो विधानतः सदा विधेया कुशलेन निर्जरा ॥ ५८ तपोभिरुः सति संवरे रजो निषूद्यमानं सकलं पलायते । निरास्रवं वारि विवस्वदंशुभिर्न शोष्यमाणं सरसोऽवतिष्ठते ।। ५९ परेण जीवस्तपसा प्रतापितो विनिर्मलत्वं रभसा प्रपद्यते । सुवर्णशैलस्य मलोऽवतिष्ठते प्रताप्यमानस्य कृशानुना कथम् ।। ६० कर्मका आस्रव नहीं होता है । जैसे कि रणभूमिमें कवचधारी मनुष्योंको बाणोंका समूह कहीं भी नहीं भेद सकता है ।। ५३ ।। जो मनुष्य साधारण जनोंके द्वारा असाध्य ऐसे काम विकार, कषाय और इन्द्रिय-विषयोंका निरोध करता है, वह केवलज्ञानको प्राप्तकर उसके द्वारा समस्त लोकको देखता हुआ अपाय-रहित एवं अति कठिनतासे पाने योग्य एसी मुक्तिपुरीको जाता है ।। ५४ ॥ इस प्रकार संवर भावना कही । अब निर्जरानुप्रेक्षा कहते हैं- जीवोंके साथ दृढरूपसे बँधा हुआ कर्मरूपी पर्वत निर्जराके विना क्षयको प्राप्त नहीं होता है। जैसेकि चिरकालतक वृद्धिको प्राप्त हुआ धान्यका पुंज व्यय के विना कभी भी विनाशको नहीं प्राप्त हो सकता है ।। ५५ ।। निरन्तर अनेक भवोंमें उपार्जित पुरातन कर्मके एकदेश विनाशका निर्जरा कहते हैं । यतीश्वरोंने विपाकजा और अविपाकजाके भेदसे निर्जराको दो प्रकारका कहा है ।। ५६ ।। अपनी स्थितिके पूर्ण होनेपर यथाकाल होनेवाली कर्मकी निर्जराको आचार्य विपाकजा निर्जरा कहते हैं। जो उग्र तपके द्वारा संसारके दुःखोंका विनाश करनेवाली निर्जरा की जाती है, वह अविपाकजा निर्जरा कहलाती है ।। ५७ ।। विपाकजा निर्जरामें तो उदयको प्राप्त हुए कर्मकी ही हानि होती है, किन्तु दूसरी अविपाकजा निर्जसमें उदय और अनुदय प्राप्त सभी कर्मका विनाश होता है। इसलिए कुशल पुरुषको सदा विधिपूर्वक दूसरी अविपाकजा निर्जरा करनी चाहिए ॥ ५८ ॥ नवीन कर्मोंका संवर होनेपर उग्रतपोंके द्वारा निर्जरा किया जानेवाला कर्मरूप समस्त रज पलायमान हो जाता है क्योंकि नवीन जलके आगमन से रहित सरोवरका पुरातन जल सूर्यकी किरणोंके द्वारा सुखाये जानेपर ठहरता नहीं हैं । ५९ ॥ उत्कृष्ट तपके द्वारा तपाया गया जीव शीघ्र निर्मलताको प्राप्त होता है। अग्निके द्वारा भली भांति तपाये गये सुवर्ण पाषाणका मल कैसे ठहर सकता है ? अर्थात् नहीं ठहर सकता ॥ ६० ॥ यह निर्जरा भावना कही । १. मु० दुरवापाम् । ५१ ४०१ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ श्रावकाचार-संग्रह व्योममध्यगमकृत्रिमं स्थिरं लोकमगिनिवहेन सलकुलम् । सप्तरज्जुधन सम्मितं जिना वर्णयन्ति पवमानवेष्टितम् ।। ६१ जन्ममृत्युकलितेन जन्तुना कर्मवैरिवशतिना सता । यो न तत्र बहुशो विगाहितो विद्यते न विषयः स कश्चन ।। ६२ भूरिशोऽत्र सुखदुःखदायिनीतिजातिगतियोनिसम्पदः । यन्त्रितो विविधकर्मशृङ्खलैः का न निविंशति चेतनश्चिरम् ।। ६३ बान्धवो भवति शात्रवोऽपि वा कोऽत्र कस्य निजकार्यजितः । बन्धुरेष मम शत्रुरेष वा शेमुषीमिति करोति मोहितः ।। ६४ देवमर्त्यपशुनारकेष्वयं दुःखजालकलितेष्वनारतम् । कामकोपमदलोभवासितो वर्तते भवविपर्ययाकुल: ।। ६५ जन्मतिनिवहो वियुज्यते युज्यते स्वकृतकर्मभिः पुनः शुष्कपत्रनिवहः परस्परं मारुतैरिव विभीमवृत्तिभिः ।। ६६ एष वेष्टयति भोगकांक्षया कोशकार इव लालया स्वयम् । कर्मबीजभवया विनिन्द्यया घोरमृत्युभयदानदक्षया ।। ६७ चेतसीति सततं वितन्वतो लोकरूपमुपजायते परा। राक्षसी त इव संसृतेः स्फुटं धर्मकर्मजननी विरक्तता ।। ६८ अब लोकभावना कहते हैं-यह लोक अनन्त आकाशके मध्य में अवस्थित है. अकृत्रिम है, स्थिर है, प्राणियोंके समहसे भरा हुआ है, सातराजके घन प्रमाण (७४ ७४७ = ३४३ ) तीन सौ तैतालीस राज है और तीन वातवलयोंसे वेष्टित है. ऐसा लोकका स्वरूप जिन देव वर्णन करते हैं ।। ६१ ।। कर्मरुप वैरीके वशवर्ती होकर जन्म मरणको करते हुए इस जीवने इस लोकमें ऐसा कोई भी स्थान नहीं है. जिसे कि अनेकबार अवगाहन न किया हो।। ६२ ।। इस लोक में विविध कर्म-शृंखलासे बँधे हुए इस चेतन प्राणीने भारी सुख-दुःख देनवाली ऐसी कौनसी मूर्ति, जाति, गति, योनि और सम्पदा है जिसे अनन्तबार न प्राप्त किया हो ? अर्थात् सभीको पाया है ।। ६३ ॥ इस लोकमें अपने कार्यसे रहित होकर अर्थात् विना स्वार्थके कौन किसका बान्धव या वैरी होता है ? किन्तु मोहसे मोहित हुआ यह जीव ऐसी बुद्धि करता है कि यह मेरा बन्धु है और यह मेरा शत्रु है ।। ६४ ॥ दुःखोंके समूहसे भरे हुए देव मनुष्य पशु और नारक पर्यायमें निरन्तर काम क्रोध मद और लोभसे वासित हुआ यह जीव सांसारिक विपरीत बुद्धिसे आकुल-व्याकुल होता रहता है ।। ६५ ।। अपने द्वारा किये गये पूर्व कर्मोंसे संसारी जीवोंका समूह सदा संयुक्त और वियुक्त होता रहता है जैसे कि प्रचण्ड वेग वाले पवनोंसे उडाया गया सूखे पत्रोंका समूह परस्पर संयुक्त और वियुक्त होता रहता है । ६६ ॥ यह जीव कर्मरूप बीजसे उत्पन्न होनेवाली, घोर मृत्युके भयको देने में दक्ष और अति निन्द्य ऐसी भोगोंकी आकांक्षासे स्वयंको कर्मोंसे वेष्टित करता रहता है, जैसे कि कोशाका कौडा अपनी लारसे स्वयंको वेष्टित करता रहता है ॥६७ ।। इस प्रकारसे चित्तमें निरन्तर लोकका स्वरूप विचारते हुए राक्षसीके समान इस ससारसे धर्म-कार्यकी जननी, परम उदासीनतारूप विरक्ति उत्पन्न होती है ।। ६८ ॥ यह लोक भावना कही । १. मु० 'भूति' पाठः । २. मु० निकरः । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ४०३ देशजातिकुलरूपकल्पताजीवितव्यबलवीर्यसम्पदः । देशनाग्रहणबुद्धिधारणाः सन्ति देहिनिवहस्य दुर्लभाः ।। ६९ हन्त तासु सुखदानकोविदा ज्ञानदर्शनचरित्रसङ्गतिः । लभ्यते तनुभताऽतिकृच्छतः कामिनीष्विव कृतज्ञता सती ।। ७० साधुलोकमहिता प्रमादतो बोधिरत्र यदि जातु नश्यति । प्राप्यते न भविना तदा पुन!रधाविव मनोरमो मणिः ॥ ७१ हन्त बोधिमपहाय शर्मणे योऽधमो वितनुते धनार्जनम् । जीविताय विषवल्लरी स्फुटं सेवतेऽमृतलतामपास्य सः ।। ७२ योऽत्र धर्ममुपलभ्य मुञ्चते क्लेशमेष लभतेऽतिदारुणम् । यो निधानमनघं व्यपोहते खिद्यते स नितरां किमद्भुतम् ॥ ७३ मुञ्चता जननमृत्युयातनां गृह्यता च शिवतातिमुत्तमाम् । शाश्वती मतिमता विधीयते बोधिरद्रिपतिचूलिका स्थिरा ।। ७४ निरुपमनिरवद्यशर्ममूलं हितमभिपूजितमस्तसर्वदोषम् । भजति जिननिवेदितं स धर्म भजति जनः सुखभाजनं सदा यः ।। ७५ व्यपनयति भवं दुरन्तदुःखं वितरति मुक्तिपदं निरामयं यः ।। भवति कृतधिया त्रिधा विधेयः सकलसमीहितसाधनः स धर्मः ॥ ७६ ___ अब बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं-धर्म-धारण करनके योग्य देश जाति कुल रूप सौन्दर्य दीर्घायु बल वीर्य सम्पदा, जिनवाणीका उपदेश, उसके ग्रहण करनेकी बुद्धि और उसे धारण करनेकी शक्ति इतनी बातोंका मिलना जीव-समुदायको उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं ।। ६९ ।। आचार्य खेद प्रकट करते हुए कहते हैं कि उपर्युक्त सामग्रीमें भी सुख देने में प्रवीण ऐसी सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी संगति यह प्राणी अति कष्टसे प्राप्त करता है, जैसे कि स्त्रियोंमें सुन्दर कृतज्ञता अति कष्टसे पाई जाती है ॥७०॥ इस लोकमें साधुजनोंसे पूजित रत्नत्रयकी प्राप्तिरूप यह बोधि यदि कदाचित् प्रमादसे नष्ट हो जाती है, तो वह फिर संसारी जीवको नहीं प्राप्त होती है। जैसे कि समुद्र में गिरा हुआ मनोहर मणि पुनः नहीं प्राप्त होता हैं ।।७१॥ यह बडे दुःखकी बात है कि ऐसी अतिदुर्लभ बोधिको पाकरके भी जो अधम पुरुष उसे छोडकर सुख के लिए धनका उपार्जन करता है, वह अमृतलताको छोडकर जीवित रहने के लिए नियमसे विषवेलिका सेवन करता है ॥७२॥ जो मनुष्य इस भवमें ऐस उत्तम धर्मको पाकरके छोडता है, वह अतिदारुण क्लेशको पाता है । जो निर्दोष धनके भण्डारको छोडता है, वह अत्यन्त खेदित होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ।। ७३ ।। जो मतिमान् पुरुष जन्म-मरणकी यातनाको छोडता है और उत्तम कल्याण-परम्पराको ग्रहण करता है, वह सुमेरुको स्थिर चूलिकाके समान रन्नत्रयकी प्राप्तिरूप बोधिको शाश्वत नित्य बनाता है ।। ७४ ।। यह बोधिदुर्लभ भावना कही। . __ अब धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं-जो जीव जिनभाषित, निरुपम, निप्पाप, सुखका मूलकारण हितकारक, जगत्पूजित और सर्व दोषरहित ऐसे जिनधर्मका सेवन करता है, वह जीव सदा ही सुखका भाजन होता है ॥ ७५ ॥ जो धर्म दुरन्त दुःखवाले संसारको दूर करता है और निरामय मुक्तिपदको देता है, ऐसा सर्व मनोरथोंका साधन करनेवाला वह धर्म मनीषी जनको मन वचन Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ श्रावकाचार-संग्रह मनुजभवमवाप्य यो न धर्म विषयसुखाकुलितः करोति पथ्यम् । मणिकनकनगं समेत्य मन्ये पिपतिषति स्फुटमेष जीवितार्थी ।। ७७ कलुषयति कुधीनिरस्तधर्मो भवशतमेकभवस्य कारणं यः । अभिलषितफलानि दातुमीशं त्यजति तृणाथितया स कल्पवृक्षम् ॥ ७८ शमयमनियमव्रताभिरामं चरति न यो जिनधर्ममस्तदोषम्। भवमरणनिपीडितो दुरात्मा भ्रमति चिरं भवकानने स भीमे ।। ७९ विगलितकलिलेन येन युक्तो भवति नरो भुवनस्य पूजनीयः । शुचिवचनमनःशरीरवृत्त्या भजति बुधो न कथं तमत्र धर्मम् ।। ८० शान्तिर्दिवमार्जवं निगदितं सत्यं शुचित्वं तपस्त्यागोऽकिञ्चनता मुमक्षपतिमिब्रह्मव्रतं संयमः । धर्मस्येति जिनोदितस्य दशधा निर्दषणं लक्षणं । कुर्वाणो भवयन्त्रणाविरहितो मुक्त्यनां श्लिष्यति ।। ८१ योऽनुप्रेक्षा द्वादशापीति नित्यं भव्यो भक्त्या ध्यायति ध्यानशील: । हेयादेयाशेषतत्त्वावबोधी सिद्धि सद्यो याति स ध्वस्तकर्मा ।। ८२ सूचिततत्त्वं ध्वस्तकुतत्त्वं भवभयविदलनदमयमकथनम् । यो हृदि धत्ते पापनिवृत्त्यै शुचिरुचिरुचिरं जिनपतिवचनम् ।। ८३ कायसे धारण करनेके योग्य है ।। ७६ ।। मनुष्य भवको पाकरके जो जीव विषय सुखसे आकुलित होकर हितकारी पथ्यरूप धर्मका आचरण नहीं करता है, वह रत्न-सुवर्णके पर्वतको प्राप्त होकरके भी जीनेका इच्छुक होकर उससे नीचे गिरनेकी इच्छा करता है, ऐसा मै नियमसे मानताहूँ। ७७ ।। जो कुबुद्धि पुरुष धर्म छोडकर एक भवके कारण अनेक भवोंका बिगाडता है, वह अभिलषित फलोंका देने में समर्थ कल्प वृक्षको तृणका इच्छुक होकर छोडता है, ऐसा मैं मानता हूँ॥७८॥ जो दुरात्मा पुरुष शम यम नियम और व्रतोंसे अभिराम, तथा सर्व दोषोंसे रहित ऐसे जिनधर्मका आचरण नहीं करता है, वह जन्म मरणसे पीडित होता हुआ इस भयंकर भव-काननमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।।७९।। जिस निष्पाप धर्मसे संयुक्त मनुष्य जगत्का पूजनीय हो जाता है। उस धर्मको इस लोकमें ज्ञानी जन पवित्र मन वचन और कायकी प्रवृत्तिसे कैसे नहीं सेवन करते है ? अर्थात् सेवन करते ही हैं ।। ८०॥मोक्षके अभिलाषी जनोंके स्वामी जिनदेवोंने धर्म दश प्रकारका कहा है-क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच संयम तप त्याग आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य । जो जीव जिनोपदिष्ट इस दश प्रकारके निर्दोष लक्षण वाले धर्मका पालन करता है, वह भवयंत्रणासे रहित होकर मुक्तिरूपी अगना को आलिंगन करता है ।। ८१।। इस प्रकार धर्म भावना कही। जो ध्यानशील भव्य भक्तिसे नित्य ही इन बारह भावनाओंका चिन्तवन करता है, वह समस्त हेय-उपादेय तत्त्वका ज्ञाता बनकर और कर्मोंका नाश कर शीघ्र ही सिद्धिको प्राप्त हीता है ।। ८२ ।। जो पुरुष तत्वको प्रकट करनेवाले, कुतत्त्वके विनाशक, भव-भवके विदलन करनेवाले इन्द्रिय-दमन और पाप- विरमणरूप संयमका कथन करने वाले, तथा पवित्ररुचिसे सुन्दर ऐसे जिनेन्द्रदेवके वचनको पापोंकी निवृत्तिके लिए हृदयमें धारण करता है, वह केवलज्ञानरूप प्रकाशसे सर्वलोकको प्रकाशित कर स्वयं सर्व जगत्को देखता हुआ मुनिराजों और देवराजोंसे पूजित, Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अमितगतिकृतः श्रावकाचार: ४०५ केवललोकालोकितलोकोऽमितगतियतिपतिसुरपतिमहिताम् । याति स सिद्धि पावनशुद्धि विगलितकलिमलगुणमणिसहिताम् ॥ ८४ इत्युपासकाचारे चतुर्दशः परिच्छेदः । पञ्चदशः परिच्छेदः नियम्य करणग्रामं व्रतशीलगुणावत ' । सर्वो विधीयते भव्यविधिरेष विमक्तये ॥ १ न सा सम्पद्यते जन्तोः सर्वकर्मक्षयं विना । रजोऽपहारिणी वृष्टिबलाहकमिवोजिता ।। २ समस्तकर्मविश्लेषो ध्यानेनैव विधीयते । न भास्करं विनाऽन्यन हन्यते शार्वरं तमः ॥ ३ यत्न: कार्यो बुधाने कर्मभ्यो मोक्षकांक्षिभिः रोगेभ्यो दुःखकारिभ्यो व्याधितैरिव भेषजे ।। ४ आद्यत्रिसंहतेः साधोरान्तमौहतिक परम् । वस्तुन्यकत्र चित्तस्य स्थैर्य ध्यानमदीर्यते ॥ ५ तवन्येषां यथाशक्ति मनोरोधविधायिनाम् । एकद्वित्रिचतुःपञ्चषडापिक्षणगोचरम् ॥ ६ साधकः साधनं साध्यं फलं चेति चतुष्टयम् । विबोद्धव्यं विधानेन बुधः सिद्धि विधित्सुभिः ७ संसारो साधको भव्यः साधनं ध्यानमुज्ज्वलम् । निर्वाणं कथ्यते साध्यं फलं सौख्यमनश्वरम् ।। ८ आतं रौद्रं तथा धर्म्य शुक्लं चेति चतुर्विधम् । ध्यानं ध्यानवतां मान्यैर्भवनिर्वाणकारणम् ।। ९ कल्मषसे रहित एवं अनन्त गुणरूप मणियोंसे सहित ऐसी पावन शुद्धिवाली सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करता है । ८३-८४ ॥ इस प्रकार अमितगति-विरचित श्रावकाचारमें चौदहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। अब आचार्य ध्यानका वर्णन करते हैं-व्रत शील और गुणोंसे संयुक्त भव्य पुरुष मुक्तिकी प्राप्तिके लिए अपने इन्द्रियोंके समूहका नियमन करके यह आगे कहे जानेवाली सर्व विधिका पालन करते हैं ।। १ । वह मुक्ति सर्व कर्मोंके क्षय हुए विना जीवको नहीं प्राप्त हो सकती है । जैसे कि मेघके विना धूलिको दूर करने वाली उत्तम वर्षा नहीं हो सकती है ।। २ ॥ सर्व कर्मोंका अभाव ध्यानके द्वारा ही किया जाता है । क्योंकि सूर्यके विना रात्रिका अन्धकार अन्य के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता है ।। ३ ।। इसलिए कर्मोंसे मोक्ष पानेकी आकांक्षा रखने वाले ज्ञानी जनोंको ध्यानमें प्रयत्न करना चाहिए। जैसे कि दुःखकारी रोगोंसे छुटकारा पाने के लिए रोगी पुरुष औषधिके लिए प्रयत्न करते हैं ।। ४ ।। .अब ध्यानका स्वरूप कहते हैं-आदिके तीन संहननों मेंसे किसी एक संहननके धारक साधुको उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक जो एक वस्तुके चिन्तवनमें चित्तकी स्थिरता रहती है, उसे ध्यान कहते हैं ॥५॥ उक्त उत्तम तीन संहननोके सिवाय अन्य संहनन-धारक और मनका निरोध करने वाले पुरुषोंके उनकी सामर्थ्य के अनुसार एक दो तीन चार पांच छह आदि क्षणों तक चित्तकी स्थिरता रहती है।। ६ ।। सिद्धिके इच्छक ज्ञानी जनोंको ध्यानका साधक, साधन साध्य और फल इन चार बातोंका विधिपर्वक ज्ञान करना चाहिए ॥७॥ आचार्य उक्त चारों बातोंका स्पष्टीकरण करते हैं-संसारी भव्य पुरुष ध्यानका साधक होता है, उज्ज्वल ध्यान साधन है, मोक्ष साध्य है और अविनश्वर सुख ध्यानका फल है ।। ८ ।। अब ध्यानके भेद कहते हैं-आर्तध्यान रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान यह चार १. मु० दृते । २. मु मतं । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ श्रावकाचार-संग्रह संसारकारणं पूर्व परं निर्वृतिकारणम् । इत्याद्यं द्वितयं त्याज्यमादेघमपरं बुधैः ॥ १० प्रियायोगा प्रियायोगपीडालक्ष्मीविचिन्तनम् । आतं चतुविधं ज्ञेयं तिर्यग्गतिनिबन्धनम् ।। ११ रौद्रं हिसानृतस्तेयभोगरक्षणचिन्तनम् । ज्ञेयं चतुविधं शक्तं श्वभ्रभूमिप्रवेशने ।। १२ आज्ञापायविपाकानां चिन्तनं लोकसंस्थितेः । चतुर्धाऽभिहितं धर्म्यं निमित्तं नाशकर्मणः ।। १३ शुक्लं पृथक्त्ववतर्कवीचारं प्रथमं मतम् । जिनैरेकत्ववीत कवीचारं च द्वितीयकम् ।। १४ अन्यत्सूक्ष्मक्रियं तुयं समुच्छिन्नक्रियं मतम् । इत्थं चतुविधं शुक्लं सिद्धिसौधप्रवेशकम् ॥ १५ आतं तनूमतां ध्यानं प्रमत्तान्तगुणाश्रितम् । संयतासंयतान्तानां रौद्रं ध्यानं प्रवर्तते ॥ १६ अनपेतस्य धर्मस्य धर्मतो दशभेदतः । चतुर्थः पञ्चमः षष्ठः सप्तमश्च प्रवर्तकः ॥ १७ प्रकारका ध्यान ध्यानवालोंके मान्य गणधरादि देवोंने क्रमशः संसार और मोक्षका कारणभूत कहा है ।। ९ ।। उनमेंसे आदिके दो ध्यान संसार के कारण हैं और अन्तिम दो ध्यान मोक्षके कारण हैं । अतः ज्ञानी जनोंको आदिके दो ध्यान छोडना चाहिए और अन्तके दो ध्यान ग्रहण करना चाहिए ।। १० ।। अब आर्त्तध्यानका वर्णन करते हैं-प्रिय वस्तुके वियोगका, अप्रिय वस्तुके आयोग ( संयोग ) की पीडा दूर करनेका और लक्ष्मीकी प्राप्तिका चिन्तवन करना, यह चार प्रकारका आर्त्तध्यान है । इसे तिर्यग्गतिका कारण जानना चाहिए ।। ११ ।। अब रौद्रध्यानका वर्णन करते हैं- हिंसा करनेका. झूठ बोलनेका, चोरी करनेका तथा भोगोंकी रक्षाका चिन्तवन करना, यह चार प्रकारका, रौद्रध्यान है । यह नरकभूमि में प्रवेश कराने में समर्थ है, ऐसा जानना चाहिए ।। १२ ।। अब धर्म्यध्यानका वर्णन करते हैं- सर्वज्ञदेवकी आज्ञाका चिन्तवन करना, सांसारिक दुःखोंके विनाशका चिन्तवन करना, कर्मोंके विपाक (फल) का चिन्तवन करना और लोकके संस्थानका विचार करना यह चार प्रकारका धर्म्यध्यान है, जो कि स्वर्गके सुखका कारण कहा गया है ।। १३ ॥ अब शुक्लध्यानका वर्णन करते हैं- पहला पृथक्त्ववितर्कवीचार, दूसरा एकत्ववितर्कअवचार, तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और चौथा समुछिन्न क्रिया निवृत्ति यह चार प्रकारका शुक्लध्यान जिन भगवान् ने कहा है, जो कि मुक्ति महल में प्रवेश करानेका कारण है ।। १४-१५ ।। विशेषार्थ - वस्तु के द्रव्य गुण और पर्यायका परिवर्तन करते हुए चिन्तवन करना एकत्ववितर्क विचार है । योगोंको बादररूपसे सूक्ष्म क्रियामें परिणत होना सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान है । योगोंकी क्रिया विच्छिन्न होनेको समुच्छित क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान कहते हैं । इनमें से पहला शुक्लध्यान आठवेंसे ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है। दूसरा शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थानमें होता है । तीसरा शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थानके अन्त में और चौथा शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थानमें होता है । अब ध्यानके स्वामियोंको कहते हैं - आर्त्तध्यान छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके जीवोंके होता है । रौद्रध्यान संयतासंयत नामक पांचवें गुणस्थान तक के जीवोंके होता है ।। १६ ।। धर्मसे संयुक्त धर्म्यध्यान आज्ञाविचय आदिके भेदसे दश प्रकारका कहा गया है और इसके प्रवर्तक या आराधक स्वामी चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थानके धारक जीव होते हैं ।। १७ ।। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः समर्थ निर्मलीकर्तु शुक्लं रत्नशिखास्थिरम् । अपूर्वकरणादीनां मुमुक्षूणां प्रवर्तते ॥ १८ अन्हायोद्धयते सर्वं कर्म ध्यानेन सञ्चितम् । वृद्धं समीरणेनेव बलाहककदम्बकम् ।। १९ ।। ध्यानद्वयेन पूर्वेण जन्यन्ते कर्मपर्वताः । वज्रेणेव विभिद्यन्ते परेण सहसा पुनः ।। २० यो ध्यानेन विना मूढः कर्मच्छेदं चिकीर्षति । कुलिशेन विना शैलं स्फुटमेष बिभित्सति ॥ २१ ध्यानेन निर्मलेनाऽऽशु हन्यते कर्मसञ्चयः । हुताशनकणेनापि प्लुष्यते' कि न काननम् ।। २२ विशेषार्थ - धर्म्यध्यानके वे दश भेद इस प्रकार हैं- अपायविचय उपायविचय जीवविश्चय अजीवविचय विपाकविचय विरागविचय भवविचय संस्थानविचय आज्ञाविचय और हेतुविचय । इनका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है-संसार में परिभ्रमण करते और नाना प्रकारके दुःखोंको उठाते हुए ये जीव कैसे इनसे छूटें? में भी कैसे इनसे छूटं ? इस प्रकारके चिन्तवन करनेको अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं । सांसारिक दुःखोंसे छूटने की कारणभूत मन वचन कायकी उत्तम प्रवृत्ति मेरे कब व कैसे हो, ऐसा विचारना उपाय विचय धर्मध्यान है। जीव उपयोग स्वरूप है, अपने शुभअशुभ कर्मोंका कर्त्ता और उनके फलका भोक्ता है. असंख्यात प्रदेशी है, सूक्ष्मं एवं अमूर्त हैं, इत्यादिरूपसे जीवके स्वरूपका चिन्तवन करना जीवविचयधर्मध्यान है। अजीवद्रव्यका स्वरूप और उनके भेदोंका विचार करना अजीवविचय धर्मध्यान है । आठ कर्मोंके फल देनेका, उनके शुभ - अशुभ अनुभागका विचारना विपाकविचयधर्मध्यान है । यह शरीर अशुचि है, अशुचिका बीज है, कर्मबन्धका कारण है, इसमें रति करना नरक- निगोदका कारण है, इत्यादि रूपसे वैराग्यका चिन्तवन करना विरागविचय धर्मध्यान है । यह जीव नाना योनियोंमें जरायुज, अण्डज आदि नाना प्रकार के जन्मों को धारण करता हुआ, एक भवसे अन्य भवमें ऋजुगति, वक्रगतिसे गमन करता रहता है; संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीवने अनन्त भवपरिवर्तन किये हैं- इत्यादि विचार करता भवविचय धर्मध्यान है । लोकके आकारका चिन्तवन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है | अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान छद्मस्थ जीवोंके नहीं हो सकता है, अतः उनके विषयमें वितराग सर्वज्ञ देवकी आज्ञाको प्रमाण मानकर परलोक, बन्ध, मोक्ष आदिका विचार करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । आगमनके किसी विवादास्पद विषयको तर्ककी कसोटीपर कसकर स्याद्वादनयके द्वारा उसका निर्धारण करना हेतुविचय धर्मध्यान है । इन दशों भेदोंका विवेचन चारित्रसारसे जानना चाहिए । ४०७ आत्माको निर्मल करनेके लिए समर्थ और रत्नकी ज्योतिके समान स्थिर ऐसा शुक्लध्यान आठवें अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवर्त्ती मुमुक्षु साधुओंके होता है ॥ १८ ॥ चिरकालसे सचित सब कर्म ध्यानके द्वारा शीघ्र उडा दिये जाते हैं, जिस प्रकार कि बढ़े हुए बादलोंका समुदाय पवनके द्वारा उडा दिया जाता है ।। १९ ।। पूर्वके आर्त ओर रौद्र इन दो ध्यानोंके द्वारा कर्म रूप पर्वत उत्पन्न किये जाते है और अन्तके धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानोंके द्वारा वे वज्र के समान सहसा छिन्न-भिन्न कर दिये जाते हैं ।। २० ।। ध्यानके विना जो मूढ कर्मोंका छेद करना चाहता है, वह निश्चयसे वज्र के विना पर्वतका भेदन करना चाहता है । २१॥ निर्मल ध्यानके द्वारा कर्मोंका सचय शीघ्र विनष्ट कर दिया जाता है क्या अग्निके कण-द्वारा वन जला नहीं दिया जाता है ? अर्थात् जला ही दिया जाता है ।। २२ ।। ध्यानको करने की इच्छा रखनेवाले पुरुषको ध्याता ध्येय ध्यानकी १. भु० ' स्यष्यते ' पाठः । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ श्रावकाचार-संग्रह ध्यानं विधित्सता ज्ञेयं ध्याता ध्येयं विधिः फलम्। विधेयानि प्रसिद्धयन्ति सामग्रीतो विना न हि ॥२३ निसर्गमार्दवोपेतो निष्कषायो जितेन्द्रियः । निर्ममो निरहङ्कारः पराजितपरीषहः ॥ २४ हेयोपादेयतत्त्वज्ञो लोकाचारपराङ्मुख । विरक्तः कामभोगेषु भवभ्रमणभीरुकः ।। २५ लाभेऽलाभे सुखे दुःखे शत्रो मित्रे प्रियेऽप्रिये । मानपमानयोस्तुल्यो मृत्युजीवितयोरपि ।। २६ निरालस्यो निरुद्वगो जितनिद्रो जितासनः । सर्वव्रतकृताभ्यासः सन्तुष्टो निष्परिग्रहः ।। २७ । सम्यक्त्वालङ्कतःशान्तो रम्यारम्यनिरुत्सुकः। निर्भयो भक्तिकः श्राद्धोवीरो'वैरागिकोऽशठः ।। २८ निनिदानो निरापेक्षा विभक्षुर्देहपञ्जरम् । भव्यः प्रशस्तते ध्याता यियासुः पदमव्ययम ।। २९ ध्येयं पदस्थपिण्डस्थरूपस्थारूपभदतः । ध्यानस्यालम्बनं प्राश्चतुविधमुदायतम् । ३० यानि पञ्चनमस्कारपदादीनि मनीषिणा । पदस्थं ध्यातुकामेन तानि घ्ययनि तत्त्वतः ।। ३१ मरुत्सखशिखो वर्णो भूतान्तः शशिशेखरः । आद्यलध्वादिको ज्ञात्वा ध्यातुः पापं निषूदते । ३२ विधि और ध्यानका फल ये चार बातें जानने योग्य हैं । क्योंकि योग्य सामग्रीके विना करने योग्य कार्य सिद्ध नहीं नहीं होते हैं ।। २३ ।। __ अब ध्यान करनेवाले ध्याताका स्वरूप कहते हैं-जो स्वभावसे ही कोमल परिणामोंसे युक्त हो, कषाय-रहित हो, इन्द्रिय-विजेता हो, ममत्व-रहित हो, अहंकार-रहित हो, परीषहोंको पराजित करनेवाला हो, हेय और उपादेयतत्त्वका ज्ञाता हो. लोकाचारसे पराङ्मुख हो, काम-भोंगोंसे विरक्त हो, भव-भ्रमणसे भयभीत हो, लाभ-अलाभमें, सुख-दुःख में, शत्रु-मित्रमें, प्रिय-अप्रियमें, मान-अपमानमें और जीवन-मरण में समभावका धारक हो, आलस्य-रहित हो, उद्वग-रहित हो, निद्रा.विजयी हो, आसन-विजेता अर्थात् दृढासन हो, अहिंसादि सर्व व्रतोंका अभ्यासी हो, सन्तोषयुक्त हो, परिग्रह-रहित हो, सम्यग्दर्शनसे अलंकृत हो, शात्त हो, सुन्दर और असुन्दर वस्तुमें निरुत्सुक हो, भय-रहित हो, देव गुरु शास्त्रकी भक्ति करनेवाला हो, श्रद्धागुणसे युक्त हो, कर्मशत्रुओंके जीतने में शूर-वीर हो, वैराग्य-युक्त हो, मूर्खता-रहित हो, अर्थात् ज्ञानवान हो. निदानरहित हो, परकी अपेक्षासे रहित हो, अर्थात् स्वावलम्बी हो, शरीररूप पिंजरेके भेदनेका इच्छुक हो और जो अविनाशी शिवपदको जानेका अभिलाषी हो, ऐसा ध्याता भव्य पुरुष प्रशंसनीय होता है ॥ २४-२९ ।। __ अब ध्येयका स्वरूप कहते हैं-ध्यानके आलम्बनको ध्येय कहते हैं । वह ज्ञानियोंने पदस्थ पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीतके भेदसे चार प्रकारका कहा है ।। ३० ।। अब पहले पदस्थध्यानका स्वरूप कहते हैं-पदस्थ ध्यानको ध्यानेकी इच्छा करनेवाले मनीषी पुरुषको पंच नमस्कार पद.आदि जितने भी परमेष्ठी-वाचक मन्त्र पद हैं, उन्हें निश्चयसे चिन्तवन करना चाहिए ।। ३१ ।। अब उन्हीं मन्त्रपदोंका स्पष्टीकरण करते हैं-अग्निकी शिखावाचक रेफ या रकार वर्ण जिसके ऊपर है, ऐसा जो सबका अन्तिमवर्ण ह कार है और चन्द्र जिसके शेखरस्वरूप है, तथा आदिका लघु अक्षर अकार जिसके आदिमें है, ऐसा 'अर्ह' पद जान १. मु० 'वरंगिको' पाठः । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर वलय यंत्र हीं है| वाही हेही णमो णमो विटोमहिपत्ताण सव्वोसहि। णमो ही णमा पत्ताणं ६७ दीवचिबल्डीणं का ॐ हीं है। णमो नहीं है जिविउव्वणइडि खेलोसहि जल्लोसार ही हैंॐहीं पन्ताणं पत्ताणं णमोचोइस अटुंगमे माधान मित्तकुसलाण पर TES णमो अही है|अडी. णमो रहीं हैं|ॐहीं मोणमा पोरगण आभोसहि। चारीण पत्ताणं वीण पुवीणं ॐही णमो विउला मदीणं १८ डीईॐहा है णमो हीणीकायबलाण अभियान णमो नहीं हणमी मणतीहिाजेणाण/ रगणाणं घोरगुण / हणमो ३२ विज्जाहराणं (ॐहा है। हीह णमो णमोणमा ॐ नाणे सव्वाहिजि T णमो जी काबुदाणं/ ॐही हैं जो 8 २०. उजुमदी नामोबोहिय णमो बदीण गाणं परमोहि अजमोरोहि ॐही है|ॐ ही है|ॐ ही हैं| ॐहीह णमा जवाणघारपरक्कमाण घोर अर्हते न मयं णमो बोहिय / मो मारणाण समणा ही है|ॐहीं णमोपण णमोहीम बीजबुदाणं/ जिणा यसवीणं महुसवीणं सप्पिसती/गमाला रही हणमो मोसय णमोबोलि णमो । ही ململ ) चाणं घोरतवाणं घोर ११ बुद्धीणं । मी गामीण A8 ही हैंॐही है Alelle lala / Stiogy relan ताण २७४ ४५ a दिदिविसाणे सोदारा। विसाणं/दिदि णमाणमा | आसी KET المها णमा तन्ततवाणामहातवाणी ॐही हैं| 98 T 38 - ॐही है| ॐ ही हैं| ॐ ही णमाणमा दिन्त मो Lallana णमा OLDEEP Jos णमो णमो नहीं हैं|ही ka/plorse fieliabhima ईॐॐहा हैं|ॐनी क्रा Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०९ अमितगतिकृतः श्रावकांचार: स्थितोऽसि आ उ सा मन्त्रश्चतुष्पत्रे । कुशेशये । ध्यायमानः प्रयत्नेन कर्मोन्मूलयतेऽखिलम् ।। ३३ तन्नाभौ हृदये वक्त्रे ललाटे मस्तके स्थिम् । गुरुप्रसादतो बुद्ध्वा चिन्तनीयं कुशेशयमृ ।। ३४ aar' farent वर्णाः स्थिता. पद्म चतुर्दले । विश्राणयन्ति पञ्चापि सम्यग्ज्ञानानि चिन्तिताः । ३५ स्थितपञ्चनमस्कार रत्नत्रयपदैर्दलैः । अष्टभिः कलिते पद्म स्वरकेसरराजिते ।। ३६ स्थितोऽहंमित्ययं मन्त्रो ध्यायमानो विधानतः । ददाति चिन्तितां लक्ष्मीं कल्पवृक्ष इवोप्रिताम् । ३७ करके ध्यान करने पर ध्याताके पापको विनष्ट करता है ।। ३२ ॥ तथा चार पत्रवाले कमलमें और मध्यकणिकापर क्रमशः असि आउ सा अक्षररूप मन्त्र का प्रयत्नपूर्वक ध्यान किया जाय तो वह ध्याता के सर्व कर्मोंका उन्मूलन करता है ।। ३३ ।। उसकी रचना इस प्रकार है } इसी चार पत्रवाले कमलको नाभिमें, हृदयमें मुखमे, ललाटपर और मस्तकपर गुरुप्रसादसे जानकर चिन्तवन करना चाहिए ।। ३४ ।। अ इ उ ए ये चार पत्रवाले कमलपर स्थापितकर यदि चिन्तवन किये जावें तो वे पाँचों ही ज्ञानोंको प्रदान करते है, ।। ३५ ।। यथा वाय. आठ पत्रवाले कमलपर पंचनमस्कारमन्त्रके पाँच पद और रत्नत्रयके तीन पद स्थापित करके तथा मध्यकणिकाकी केसर पर १६ स्वरोंको स्थापित करके और मध्यमें 'अर्ह' स्थापित कर यदि यह मन्त्र विधिपूर्वक ध्यान किया जाता है तो कल्पवृक्षके समान श्रेष्ठ लक्ष्मीको प्रदान करता है ।। ३३-३७ || इस मन्त्रकी रचना इस प्रकार है १. अ इ उ य उ । सम्यक नमः Videnth नमः नमः THE HEA htt णमो : अ आ अं अः रहंताणं अर्ह व्व्वसाहूणं ફૅ णमो लोए ई. ち अ ऊ णमो णमो اعلم! हिद्वाण णमो सा सि अ आ उ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार संग्रह हसतकारस्तोमः सोऽहं मध्यस्थितो विगतमूर्द्धा । पार्श्वप्रणवचतुष्को ध्येयो द्विप्रान्तकृतमायः । ३८ सहस्रा द्वादश प्रोक्ता जपहोमविचक्षणैः । ॐ जोग्गेत्यादिमन्त्रस्य तद्भागो दशमः पुनः ॥ ३९ ४१० मन्त्रः- ॐ जोगे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारस्से स्वाहा अयं मन्त्रः, जाप्यं द्वादशसहस्रं १२००० । होम: द्वादशशतम् १२०० । चक्रस्योपरिजाप्यन जातिपुष्पैर्मनोरमैः । विद्या सूचयते सम्यक् स्वप्ने सर्वं शुभाशुभम् ।। ४० पार्श्वभाग में चार प्रणव (ॐ) और प्रान्त भाग में दो माया (-हीं) वर्णों को रखकर मध्य में सः हः स्थापित कर प्रमाद रहित हो कर उक्त मंत्र का ध्यान करना चाहिए ।। ३८ ।। विशेषार्थभाषावचनिकाकार स्व० पं० भागचन्द्रजीने श्लोक ३२ से ४८ तक का अर्थ नहीं लिखा है । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि इनका अर्थ हमकों यथार्थ सर्व प्रतिभास्या नाहीं, तातें नहीं लिख्या है । श्री दिगम्बराचार्य शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवमें तथा श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्रमें इस श्लोक के अर्थपरक बहुत कुछ समतावाले श्लोक मिलते हैं, जो कि नीचे टिप्पणी' में दिये गये हैं, इन दोनों में परस्पर बहुत कुछ समानता होने पर भी मध्यवर्ती हलीं पद योगशास्त्र में अधिक मिलता है | मराठी अनुवाद वाले प्रस्तुत ग्रन्थ में भी इस श्लोक का अर्थ नहीं लिखा है । केवल इतना लिखा है कि इस प्रकारसे इस मन्त्र का ध्यान करे । नहीं सःक्ष्मी हः ह्रीं योगशास्त्रके गुजराती अनुवादमें लिखा है कि नहीँ ओं औँ सः ह्यली हं ओं औं -हीं' इस प्रमाण चिन्तवन करे । मुद्रित एवं वि० स० १८७८ के हस्तलिखित ऐ० प० दि जैन सरस्वती भवन के ज्ञानार्णवमें नहीं ॐ ॐ सः नहीं हं सः' ऐसे मंत्र को लिखा है । परन्तु 'प्रणव युगलस्य युग्म ' पद का अर्थ चार ओंकार होता है, अतः तदनुसार नहीं ॐ ॐ सः हं ॐ ॐ ही' ऐसा मन्त्र होना चाहिए । प्रस्तुत श्लोकके प्रथम चरण 'हसतीकारस्तोमः' का स्पष्ट भाव मुझे भी समझने में नहीं आया है । फिर भी यह पद मराठी अनुवाद सहित मुद्रित चित्र गत 'क्ष्मी' या योगशास्त्र के श्लोक के चतुर्थ चरणगत 'ह्मली' पद विशेष का द्योतक प्रतीत होता है | मन्त्र शासनके वेत्ताजनोंसे इसका ठीक भाव समझ कर ही इसमें कहे गये मंत्र का जाप करना चाहिए । जप और होम करने में विचक्षण पुरुषोंने 'ॐ जोंग्गे' इत्यादि मंत्र का जाप १२ हजार करने को कहा है, तथा उसका दशम भाग होम करना कहा है। पूर्ण मंत्र इसप्रकार है- 'ॐजोग्गे मग्गे १. प्रणवयुगलस्य युग्मं पार्श्वे मायायुगं विचिन्तयति । मूर्द्धस्थं हंसपदं कृत्वा व्यस्तं वितन्तद्रात्मा ।। ॐ द्विपार प्रणवद्वन्द्वं प्रान्तयोर्मायया वृतम् । सोsहं मध्येऽधिमूद्धानं ह्यलीकारं विचिन्तयेत् ॥ ( ज्ञानार्णव, प्रक० २८, श्लो० ८९ ) ( योगशास्त्र, प्रकाश ८, श्लो० ६३ ) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ॐ ही कारद्वयान्तस्थो हंकारो रेफभूषितः । ध्यातव्योऽष्टदले पद्म कल्मषक्षपणक्षमः । ४१ सप्ताक्षरं महामन्त्रं ॐ वहीँ कारपदानतम् विदिग्दलगतं तत्र स्वाहान्तं विनिवेशयेत् ।। ४२ दिशिस्वाहान्तों हीं हॅ' नमो हो" हः पदोत्तमम् । तत्र स्वाहान्तों हीँ न्हेँ कणिकायां विनिक्षिपेत् ॥ ४३ तत्पद्मं त्रिगुणीभूतं मायाबीजेन वेष्टयेत् । विचिन्तयेच्छुचीभूतः स्वेष्ट कृत्यप्रसिद्धये ॥ ४४ पद्मस्योपरि यत्नेन हेयादेयोपलब्धये । मन्त्रेणानेन कर्तव्यो जपः पूर्वविधानतः ।। ४५ ॐ हीँ णमो अरहंताणं नमः ' इति मूलमन्त्रः । जाप्य १०००० । होम: १००० । तच्चे भूदे भब्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारस्से स्वाहा' । इस मंत्रका १२००० प्रमाण जाप करे और १२०० प्रमाण आहुति देवे ।। ३९ ।। नाभि, हृदय और मस्तक पर कमल चक्र से ऊपर मनोहर मालती के पुष्पों द्वारा उपर्युक्त मंत्र का जाप करने से उक्त विद्या स्वप्न में सर्व शुभ और अशुभ फल को उत्तम प्रकार से सूचित करती है ॥ ४० ॥ आठ पत्रवाले कमलमें ॐ हीं इन दोनोंके अन्तमें स्थित रेफ-युक्त अहं पद अर्थात् 'अहं' इस मन्त्रका ध्यान करना चाहिए। ॐ ह्रीं अईं यह मन्त्र सर्व पापों के क्षय करनेमें समर्थ है भावार्थ - कमलके प्रत्येक पत्र पर तथा कणिका के मध्य में 'ॐ हीँ अहं' इस मन्त्रका ध्यान करे ।। ४१ ।। आठ दलवाले कमलके विदिशावाले पत्रों पर 'ॐ ही ' पदसे युक्त तथा अन्त में 'स्वाहा' पद - सहित णमो अरिहंताणं' इस सात अक्षर वाले मंत्र को स्थापित करे । पुनः दिशावाले पत्रों पर आदिमें 'ॐ' पद तथा अन्तमें 'स्वाहा' पदके साथ क्रमशः 'हीँ हूँ नहीँ -ह:' इन पदों से युक्त ' णमो अरहंताणं, इस मन्त्र को स्थापित करे। कणिका में 'ॐ ही अहे स्वाहा' यह मंत्र लिखे । इस कमलको 'ही' इस मायाबीज से तीन वार वेष्टित करे । इस प्रकारके यन्त्र को कमल के ऊपर लिखकर पवित्र होकर अपने इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए, तथा हेय उपादेय की प्राप्ति के लिए 'ॐ' हों णमो अरिहंताणं न्हं नमः इस मंत्र का पूर्वोक्ति विधिसे जप करना चाहिए ।। ४२-४५ ।। उक्त कमलकी रचना इस प्रकार है २. हीं । अरहंताणं स्वाहा, ملا ela ही णमो 3 अरहंताणं स्वाहा ॐ ह्री अर्ह स्वाहा अरहंताणं स्वाहा, ॐ ही णमो हीं णमो ॐ ह्रीं णमो अरहंताणं स्वाहा ॐ हीं णमो अरहंताणं स्वाहा of Falle 'ॐ ह्रीँ णमो अरहंताणं नमः' यह मूल मंत्र है । इसका जाप १० हजार करे और एक हजार होम करे । १. मु० हैं । ४११ ३. मु० ॐ हीं हैं नमो हैं णमो अरहेताणं हीं नमः । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ श्रावकाचार-संग्रह सव्येनाप्रतिचक्रेण फडिति प्रत्येकमक्षरम् । कोणषट्के विचक्राय स्वाहा बाह्येऽपसव्यतः ।। ४६ निवेश्य विधिना दक्षो मध्ये तस्य निवेशयेत् । भूतान्तं बिन्दुसंयुक्तं चिन्तयेच्च विशुद्धधीः ।। ४७ विधाय वलयं बाह्ये तस्य मध्ये विधानतः । गमो जिणाणमित्याद्यैः पूरयेत् प्रणवादिकः ॥ ४८ ॐ णमो जिणाणं १।ॐ नमो परमोहिजिणाणं २ । ॐ णमो सवोहिजिणाणं ३ । ॐ णमो अणंतोहिजिणाणं ४ । ॐ णमो कोदबुद्धीणं ५ । ॐ नमो बीजबुद्धीणं ६ । ॐ णमो पदाणुसारीणं ७ । ॐ णमो संभिण्णसोदराणं ८ । ॐ णमो उज्जुमदीणं ९ । ॐ णमो विउलमदोणं १० । ॐ णमो दसपुवीणं ११ । ॐ णमो चोदसपुवीणं १२ । ॐ णमो अटुंगणिमित्तकुसलाणं १३ । ॐ णमो विगुव्वणइड्ढिपत्ताणं १४ । ॐ णमो विज्जाहराणं १५ । ॐ णमो चारणाणं १६ । ॐ णमो पण्णसमणाणं १७ । ॐ णमो आगासगामीणं १८ । ॐ नमो छह कोणवाला चक्र बनाकर भीतरी छह कोण में बांई ओर से अप्रतिचक्रे फट इन अक्षरों को लिखे, तथा बाहिरी छह कोणों के मध्य में 'विचक्राय स्वाहा' इन अक्षरोंको दक्ष पुरुष विधिसे स्थापित करे । पुनः वह विशुद्ध बुद्धि ध्याता पुरुष मध्यवर्ती स्थान में रेफ बिन्दु संयुक्त अन्तिम अक्षर 'ह' का अर्थात् 'ह' पदका चिन्तवन करे । पुनः इसके बहिरी भागमें वलयाकार बनाकर और विधि पूर्वक उसके विभाग कर णमो जिणाणं' इत्यादि पदोंको प्रणवादि पदों के साथ अर्थात् 'ॐ ही अहँ, के साथ लिखे । अन्तमें 'ओं नौं झौं श्री ही ति कीति बुद्धि लक्ष्मी स्वाहा' इन पदों के द्वारा उक्त वलयको पूरित करे । इस यंत्र की आराधना करनेके पूर्व पांचों अंगुलियों पर पंचनमस्कार मंत्रको स्थापित करते हुए सकलीकरण करे । यथा-'ॐ णमो अरहंताणं -हाँ स्वाहा, यह मंत्र बोलकर अंगूठे की शुद्धि करे, 'ॐ णमो सिद्धाणं हीं स्वाहा' यह बोलकर तर्जनीकी शुद्धि करे, ॐ णमो आयरियाणं हूँ स्वाहा' यह बोलकर मध्यमाकी शुद्धि करे, ॐ णमो उवज्झाय णं हौं स्वाहा' यह बोलकर अनामिकाकी शुद्धि करे और 'ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं न्हः स्वाहा' यह मंत्र बोलकर कनिष्ठा अंगुलीकी शुद्धि करे । इस प्रकार तीन बार अंगुलियों पर मंत्र-विन्यास करके पुनः मस्तकके ऊपर तथा, पूर्व दक्षिण, पश्चिम और उत्तर वाले शरीर-भाग पर मंत्र विन्यास करके जप प्रारम्भ करे ।। ४६-४८ ।। उपर्युक्त यन्त्रकी रचना इस प्रकार हैं . Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ४१३ ॐ ज्रौं झौं श्री ही धृति कोत्ति बुद्धि लक्ष्मी स्वाहा, इति पदैर्वलयं पूरयेत् । एवं पञ्चनमस्कारेण पञ्चाङ्गुलिन्यस्तेन सकलीक्रियते ॐ णमो अरहंताणं हं स्वाहा अगुष्ठे । ॐ णमो सिद्धाणं हीं स्वाहा तर्जन्याम् । ॐ णमो आयरियाणं हं स्वाहा मध्यमायाम् । ॐ णमो उवज्झायाणं हौं स्वाहा अनामिकायाम् । ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं हः स्वाहा कनिष्ठिकायाम् । एवं वारत्रयमङ्गुलीषु विनस्य मस्तकस्योपरि पूर्वदक्षिणापरोत्तरेषु विन्यस्य जपं कुर्यात् । अभिधेया नमस्कारपदैर्ये परमेष्ठिनः । पदस्थास्ते विधीयन्ते शब्देऽर्थस्य व्यवस्थितेः ।। ४९ अनन्तदर्शनज्ञानसुखवीयरलङ्कृतम् । प्रतिहार्याष्टकोपेतं नरामरनमल्कृतम् ।। ५० शुद्धस्फटिकसंकाशशरीरमुरुतेजसम् । घातिकर्मक्षयोत्पन्ननवकेवललब्धिकम् ।। ५१ विचित्रातिशयाधारं लब्धकल्याणपञ्चकम् । स्थिरधीः साधुरर्हन्तं ध्यायत्येकाग्रमानसः ।। ५२ पिण्डस्थो ध्यायते यत्र जिनेंद्रो हतकल्मषः । तत्पिण्डपञ्चकध्वन्सि पिण्डस्थं ध्यानमिष्यते ।। ५३ प्रतिमायां समारोप्य स्वल्पं परमेष्ठिनः । ध्यायतः शुद्धचित्तस्य रूपस्थं ध्यानमिष्यते ।। ५४ सिद्धरूपं विमोक्षाय निरस्ताशेषकल्मषम् । जिनरूपमिव ध्येयं स्फटिकप्रतिबिम्बितम् ।। ५५ अरूपं ध्यायति ध्यानं परं संवेदनात्मकम् । सिद्धरूपस्य लाभाय नीरूपस्य निरेनसः ।। ५६ बहिरन्तः परश्चेति त्रेधाऽऽत्मा परिकीर्तितः । प्रथम द्वितयं हित्वा परात्मानं विचिन्तयेत् । ५७ बहिरात्माऽऽत्मविभ्रान्तिः शरीरे मुग्धचेतसः । या चेतस्यात्मविभ्रान्तिः सोऽन्तरात्याऽभिधीयते ।।५८ श्यामो गौरः कृशः स्थूल: काणः कुण्ठोऽबलो बली। वनिता पुरुष षण्ढो विरूपो रूपवानहम् ।। ५९ नमस्कार वाले पदोंके द्वारा जो परमेष्ठी कहे जाते हैं, वे पदस्थ कहलाते हैं, क्योंकि शब्दमें अर्थ की व्यवस्था मानी गई हैं ।। ४९ ।। इस प्रकार पदस्थ ध्यानका वर्णन किया। अब पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन करते हैं-एकाग्र चित्तवाला स्थिरबुद्धि साधु अनन्त दर्शन ज्ञान सुख वीर्यसे अलंकृत, आठ प्रातिहार्यों से संयुक्त, मनुष्य और देवोंसे पूजित, शुद्ध स्फटिक मणिके सदृश निर्मलशरीर और महान तेजके धारक, घातिया कर्मोके क्षय से उत्पन्न हुई नौ केवललब्धिके स्वामी, नाना प्रकारके अतिशयों के आधार और पांच कल्याणकोंके प्राप्त होने वाले ऐसे अरहन्त परमेष्ठी को पिण्डस्थ ध्यानमें ध्याता है ।। ५०-५२ ।। जिस परमौदारिक शरोररूप पिण्ड में स्थित पापोंके विनाशक जिनेन्द्रदेव ध्याये जाते हैं, वह औदारिकादि पांच शरीर रूप पिण्डका नाशक पिण्डस्थ ध्यान कहा जाता हैं ।। ५३ ।। अब रूपस्थ ध्यानका स्वरूप कहते हैं-परमेष्ठीके स्वरूपको प्रतिमामें आरोपण करके ध्यान करनेवाले शुद्धचित्त पुरुषके ध्यानको रूपस्थ ध्यान कहते हैं ।। ५४ ॥ अब अरूपस्थ या रूपातीत ध्यानका स्वरूप कहते हैं-समस्त कर्मोसे रहित सिद्धभगवान्के स्वरूपका स्फटिक में प्रतिबिम्बित जिनराजके रूपके समान रूप रस गन्ध स्पर्श से रहित, केवलज्ञानात्मक ध्यान करना अरूपस्थ ध्यान है । यह रूपातीत और सर्व कर्मरहित निर्मल सिद्ध स्वरूपकी प्राप्तिके लिए ध्याया जाता है ।। ५५-५६ ॥ अब आत्माके तीन भेदों का वर्णन करते हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा-इस प्रकार आत्मा तीन प्रकार का कहा गया है । इनमेंसे प्रथम और द्वितीय भेदको छोडकर परमात्माका चिन्तवन करना चाहिए । जिस मूढ बुद्धि पुरुषको शरीरमें आत्माकी भ्रान्ति है, वह बहिरात्मा है । चित्तमें जिसे आत्माकी भ्रान्ति है, वह अन्तरात्मा कहा जाता है ॥ ५७-५८ ।। भावार्थ-अन्य आचार्योंने केवल बहिरात्मा को त्याज्य कहा है और यहां पर अन्तरा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ श्रावकाचार-संग्रह जातदेहात्मविभ्रान्तरेषा भवति कल्पना । विवेकं पश्यतः पुंसो न पुनर्देहदेहिनोः ॥ ६० शत्रुमित्रपितभ्रातमातकान्तासुतावयः । देहसम्बन्धतः सन्ति न जीवस्य निसर्गजाः ।। ६१ श्वाभ्रस्तिर्यङनरो देवो भवामीति विकल्पना। श्वाभ्रतियङनदेवाङ्ग सङ्गतो न स्वभावतः ।। ६२ बालकोऽहं कुमारोऽहं तरुणोऽहमहं जरी । एता देहपरीणामजनिताः सन्ति कल्पनाः । ६३ ।। विदग्धः पण्डितो मूर्यो दरिद्रः साधनोऽधनः । कोपनोऽसूयको मूढो द्विष्टस्तुष्टोऽशठः शठः ॥ ६४ सज्जनो दुर्जनो दीनो लब्धो मत्तोऽपमानितः । जातचित्तात्मसम्भ्रान्ते रेषा भवति शेमषी ।। ६५ देहे यात्ममतिर्जन्तोः सा वर्द्धयति संसृतिम् । आत्मन्यात्ममतिर्या सा सद्यो नयति निर्वृतिम् ॥६६ योजागाऽऽत्मनः कार्ये कायकार्य स मञ्चति । यः स्वपित्यात्मनः कार्ये कायकायं करोति सः॥६७ ममेदमहमस्यास्मि स्वामी देहादिवस्तुनः । यावदेषा मतिर्बाह्ये तावद्धयानं कुतस्तनम् ।। ६८ स्माको त्याज्य कहा है, सो यह विरोध कैसा ? ऐसी शंका नहीं करना चाहिए । कारण कि यहां पर चेतनके विकार रूप मन, राग-द्वेषादिकको आत्मस्वरूप माननेवालेके लिए अन्तरात्मा कहा गया है, सो वह त्यागने योग्य ही है। जहां पर 'सम्यग्दृष्टिको अन्तरात्मा कहा गया है, वह उपादेय ही है, ऐसा विवक्षाभेद जानना । अब बहिरात्माका स्वरूप कहते हैं-जो अपने को में काला हूं मैं गोरा हूँ, मैं पतला हूं, में मोटा हूं. मैं काणा हूँ, मैं विकलांग हूं, मैं निर्बल हूं, मैं सबल हूं, मैं स्त्री हू, मैं पुरुष हूँ में नपुंसक हूं, मैं कुरूप हूं, मैं रूपवान हूं, इस प्रकार शरीरमें आत्माकी भ्रान्तिवाले जिस पुरुषकी कल्पना होती है और जिसे देह और देही (जीव) का भेद दिखाई नहीं देता, उसे बहिरात्मा कहते हैं । किन्तु जिसे देह और देहीका भेद दिखाई देता हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुषको उक्त प्रकारकी कल्पना नहीं होती है । ५९-६९ ।। यह शत्रु है, यह मित्र है, यह पिता है, यह भाई है, यह माता है, यह स्त्री है और ये पुत्रादिक हैं, ऐसी कल्पनाएं देहके सम्बन्धसे जीवकी होती हैं, किन्तु ये शत्रु-मित्रादिकके सम्बन्ध स्वभाव-जनित नहीं हैं ।। ६१ ।। मैं नारकी हूं, मैं तिर्यच हू, मैं मनुष्य हूं और मैं देव हूं, यह कल्पना नारकी, तियं च, मनुष्य और देवगतिके शरीरके संगसे होती है, स्वभावसे नहीं है ।। ६२ ।। मैं बालक हूं, मैं कुमार हूं मैं जवान हूं, मैं बूढा हूं, ये सब कल्पनाएं देहके परिवर्तन से उत्पन्न होती हैं, ।। ६३ ।। मैं चतुर हूं, विद्वान् हूं, मूर्ख हूं, दरिद्र हूं, धनिक हूँ, निर्धन हू, क्रोधी हूं, ईर्ष्यालु हू, द्वेषी हूं, सन्तुष्ट हूं, ज्ञानी हूं, अज्ञानी हूं, सज्जन हूं, दुर्जन हूं, दीन हूं, लोभी हूं, उन्मत्त हू, अपमानित हूं, ऐसी बुद्धिरूप कल्पना चित्तमें आत्माकी भ्रान्तिवाले पुरुषके होती है ॥ ६४-६५ ।। __ जीवको शरीरमें जो आत्मबुद्धि होती है, वह संसारको बढाती है । किन्तु आत्मामें जो आत्मबुद्धि होती है, वह शीघ्र ही मुक्तिको ले जाती है ।। ६६ ।। जो पुरुष आत्माके कार्यमें जागता है, वह शरीरके कार्यको छोडता है। किन्तु जो आत्माके कार्यमें सोता है, वह शरीरके कार्यको करता है ॥ ६७ ।। जब तक 'यह मेरा है' और 'मैं इसका स्वामी हूं' ऐसी बुद्धि बाहिरी देहादि वस्तुमें लगी रहेगी, तब तक ध्यान कहांसे हो सकता है ? अर्थात् देहादिक परपदार्थमें आत्मबुद्धि बनी रहने तक तो आत-रौद्र ध्याय ही होंगे 'शुद्ध ध्यान कहांसे संभव है ।। ६८ ॥ 'मैं किसीका नहीं हूं, और न कोई बाहरी पदार्थ मेरा है, ऐसी बुद्धि जब साधकके प्रकट होती है, १. मु०-'नृवेषाङ्गलिङ्गतो' पाठ । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ४१५ नाहं कस्यापि मे कश्चिन्न भावोऽस्ति बहिस्तनः । यदेषा शेमुषी साधोः शुद्धध्यानं तदा मतम् ।। ६९ रागद्वेषमद क्रोध लोभमन्मथमत्सराः । न यस्य मानसे सन्ति तस्य ध्यानेऽस्ति योग्यता ।। ७० रागद्वेषादिभिः क्षिप्तं मनः स्थैर्य प्रचात्यते । कांचनस्येव काठिन्यं दीप्यमानैर्हताशनैः ।। ७१ विद्यमाने कषायेऽस्ति मनसि स्थिरता कथम् । कल्पांतपवनः स्थौयं तृणं कुत्र प्रपद्यते ।। ७२ अक्षय्यकेवलालोक विलोकितचराचरम् । अनन्तवीर्यशर्माणममूर्त्तमनुपद्रवम् ।। ७३ निरस्त कर्मसंबंधं सूक्ष्मं नित्यं निरास्त्रवम् । ध्यायतः परमात्मानमात्मनः कर्मनिर्जरा ॥ ७४ आत्मानमात्मना ध्यायन्नात्मा भवति निर्वृतः : घर्षयन्नात्मनाऽऽत्मानं पावकोभवति द्रुमः ।। ७५ न यो विविक्तमात्मानं देहादिभ्यो विलोकते । स मज्जति भवांभोधी लिंगस्थोऽपि दुरुत्तरे ।। ७६ सविज्ञानमविज्ञानं विनश्वरमनश्वरम् । सदानात्मीयमात्मीयं सुखदं दुःखकारणम् । ७७ अनेकमेकमंगादि मन्यमानो निरस्तधीः । जन्ममृत्युजरावर्ते बंभ्रमीति भवोदधौ ॥ ७८ आत्मनो देहतोऽन्यत्वं चिन्तनीयं मनीषिणा । शरीरभारमोक्षाय सायकस्येव कोशतः । ७९ या देहात्मैकताबुद्धिः सा मज्जयति संसृतौ । सा प्रापयति निर्वाणं या देहात्मविभेदधीः ।। ८० यः शरीरात्मनोरैक्यं सर्वथा प्रतिपद्यते । पृथक्त्वशेमुषी तस्य गूथमाणिक्ययोः कथम् ॥ ८१ तभी उसके शुद्धध्यान माना गया है ।। ६९ ।। राग द्वेष मद क्रोध लोभ काम विकार और मत्सर भाव जिस पुरुष के मन में नहीं होते हैं, उसके ध्यान की योग्यता होती है ।। ७० ।। राग-द्वेषादिकसे विक्षिप्त हुए मनकी स्थिरता चलायमान हो जाती है । जैसे कि देदीप्यमान अग्निसे सोनेकी कठिनता भी पिघल जाती है ।। ७१ ॥ मनमें कषायके विद्यमान रहने पर स्थिरता कैसे संभव है ? प्रलयकालके पवन द्वारा उडाये गये तृण स्थिरताको कहां पा सकते हैं ।। ७२ ।। जिन्होंने अक्षय केवलज्ञानके द्वारा सर्व चर-अचर जगत् को देख लिया है, जो अनन्त बल और सुखके धारक हैं अमूर्त हैं, उपद्रव रहित हैं, जिन्होंने सर्व कर्मोंके सम्बन्धको दूर कर दिया है, सूक्ष्म स्वरूपी हैं, नित्य हैं और कर्मोंके आस्रवसे सर्वथा रहित हैं, ऐसे सिद्ध परमात्माका ध्यान करनेवाले जीवके कर्मोंकी निर्जरा होती है ।। ७३-७४ ।। आत्माके द्वारा आत्माको ध्याता हुआ यह आत्मा निर्वृत्त होता हुआ स्वयं सिद्धपरमात्मा बन जाता है । जैसे कि अपने आपसे घर्षणको प्राप्त हुआ वृक्ष अग्नि बन जाता है ।। ७५ ।। जो पुरुष देहादिकसे अपने आपको भिन्न नहीं देखता है, वह मुनि, लिंग में स्थित हो करके भी इस दुस्तर संसार-समुद्र में डूबता है ।। ७३ ।। जो अज्ञानी जीव अचेतनको चेतन मानता है, विनश्वरको अविनश्वर मानता है, परायेको अपना मानता है, दुःखके कारणको सुखदायी मानता है और शरीर - रागादि अनेक विभिन्न पदार्थोंको एक मानता है, वह जन्म-जरा, मरणरूप भंवर वाले संसार-समुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।। ७७-७८ ।। इसलिए शरीरके भारसे मुक्ति पानेके लिए ज्ञानी जनोंको तरकस से बाणके समान देहसे आत्माकी भिन्नताका चितवन करना चाहिए । ७९ ।। देहमें जो आत्माके एकत्वकी बुद्धि है, वह संसार में डुबाती है और देसे आत्मा भिन्नत्वकी जो बुद्धि है, वह निर्वाणको प्राप्त कराती है ॥ ८० ॥ जो जीव शरीर और आत्मामें सर्वथा एकपना मानते हैं, उनके विष्टा और माणिकमें भिन्नपकी बुद्धि केसे हो सकती है ? भावार्थ-आत्मा तो माणिक रत्न के समान पवित्र है और शरीर विष्टाके समान अपवित्र है । जो विष्टामें पडें रत्नके समान शरीरमें अवरुद्ध चेतन आत्मारामको एक माने, उन मिथ्या दृष्टि जीवोंका कल्याण कहाँ संभव है ।। ८१ ।। जैसे नेत्रका विषय Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ श्रावकाचार-संग्रह देहचेतनयोर्भेदो भिन्नज्ञानोपलब्धितः । सर्वदा विदुषा ज्ञेयश्चक्षुःघ्राणार्थयोरिव ।। ८२ न यस्य हानितो हानिर्न वृद्धिवृद्धितो भवेत् । जीवस्य सह देहेन तेनैकत्वं कुतस्तनम् ॥ ८३ तत्वतः सह देहेन यस्य नानात्वमात्मनः । कि देहयोगजस्तस्य सहैकत्वं सुतादिभिः ।। ८३ ममत्वधिषणा येषां पुत्रमित्रादिगोचरा । साऽऽत्मरूपपरिच्छेदच्छेदिनी मोहकल्पिता ।। ८५ पत्तनं काननं सौधमेषाऽनात्मधियां मतिः । निवासो दृष्टवानामात्मैवास्त्यक्षयोऽमलः ॥ ८६ शुद्धस्य जीवस्य निरस्तमत्तः सर्व विकाराः परकर्मजन्याः । मेघादिजन्या व तिग्मरमेविनश्वरा: संत्ति विभास्वरस्य 120 दृष्टात्मतत्त्वो द्रविणादिलक्ष्मी न मन्यते कर्मभवां स्वकीयाम् । विपक्षलक्ष्मी भवने विवेकी प्रपद्यते चेतसि कः स्वकीयाम् ।। ८८ ज्ञानदर्शनमयं निरामयं मृत्युसंभवविकारजितम् । आमनन्ति सुधियोऽत्र चेतनं सूक्ष्ममव्ययमपास्तकल्मषम् ।। ८९ विग्रहं कृमिनिकायसंकुलं दुःखदं हृदि विचितयंति ये। गुप्तिबद्धमिव ते सचेतनं मोचयन्ति तनुयन्त्रमन्त्रितम् ।। ९० स्थित्वा प्रदेश विगतोपसर्गे पयंकबंधस्थितपाणिपद्मः नासाग्रसंस्थापितदृष्टिपातो मन्दीकृतोच्छ्वासविवृद्धवेगः ॥ ९१ रूप और घ्राणका विषय गन्ध ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं, इसी प्रकार भिन्न-भिन्न ज्ञानकी उपलब्धि होनेसे शरीर और चेतन आत्माका भेद भी विद्वानको सदा ही जानना चाहिए ॥ ८२ ।। जिस शरीरकी हानिसे जीवकी कोई हानि नहीं होती और जिस शरीरकी वृद्धिसे जीवकी कोई वृद्धि नहीं होती है, उस जीवका देहके साथ एकपना कैसे हो सकता है ।। ८३ ।। तात्त्विकरूपसे जिस आत्माका देहके साथ भिन्नपना है, उसका देहके संयोगसे उत्पन्न हुए पुत्रादिके साथ एकपना कैसे हो सकता है ।। ८४ ।। जिन जीवोंके पुत्र-मित्रादि-विषयक ममत्व बुद्धि लग रही है, वह मोहकर्मकल्पित है और आत्माके ज्ञानस्वरूपको छेदने वाली है ।। ८५ ।। मेरा निवास नगर है, वन है और भवन है, ऐसी बुद्धि आत्म-ज्ञानसे रहित मिथ्यादृष्टि जीवोंके होती है । किन्तु जिन्होंने वस्तु-स्वरूपको जाना है, ऐसे आत्मदर्शी ज्ञानियोंका निवास तो अक्षय निर्मल आत्मा ही है ।। ८६ ।। अमूर्त शुद्ध जीवके राग-द्वेषादि सभी विकार भाव कर्मोदय-जनित हैं। जैसे कि प्रकाशमान सूर्यके मेघादि-जनित विनश्वर विभाव देखे जाते हैं ।। ८७ ।। जिन पुरुषने आत्मतत्त्वको जाना है, वह कर्म-जनित धनादिसम्पदाको अपनी नहीं मानता है । लोकमें एसा कौन विवेकी पुरुष है जो अपने शत्रुकी लक्ष्मीको मनमें अपनी समझता हो ।। ८८ ।। ज्ञानीजन तो जन्म मरण आदि विकरोंसे रहित, निरामय, सूक्ष्म, अव्यय और कर्ममल रहित ज्ञान दर्शनमयी शुद्ध चेतनको ही अपना मानते हैं ।। ८९ ।। जो ज्ञानी पुरुष अपने मन में शरीरको कृमिजालसे भरा हुआ और दुखोंका देनेवाला चिन्तवन करते हैं, वे शरीररूप यन्त्रसे बंधे हुए सचेतन आत्मारामको गुप्त बन्धनसे बंधे हुए किसी. पुरुषके समान छुडाते हैं ।। ९० ।। मनीषी पुरुषी उपसर्ग-रहित किसी एकान्त प्रदेशमें जा कर, पद्मासनसे बैठकर, हस्त कमलको उस पर रख कर, अपनी दृष्टिको नासाके अग्रभाग पर स्थापित कर, श्वासोच्छ्वास के बढे हुए वेगको मन्द कर, चंचल स्वभाववाले मनको वश में कर, इन्द्रियोंकी विषय-प्रवृत्तिको जीतकर और Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ४१७ विधाय वश्यं चपलस्वभावं मनो मनीषी विजिताक्षवृत्तिः । विमक्तये ध्यायति ध्वस्तदोषं विविक्तमात्मानमनन्यचित्तः ।। ९२ अभ्यस्यतो ध्यानमनन्यवृत्तरित्थं विधानेन निरन्तरायम् । व्यपैति पापं भवकोटिबद्ध महाशमस्येव कषायजालम् ।। ९३ ध्यानं पटिष्टन विधीयमानं कर्माणि भस्मीकुरुते विशुद्धम् । कि प्रेर्यमाणः पवनेन नाग्निश्चितानि सद्यो दहतींधनानि ।। ९४ त्यागेन होनस्य कुतोऽस्ति कत्तिः सत्येन होनस्य कुतोऽस्ति पूजा। न्यायेन हीनस्य कुतोऽस्ति लक्ष्मी ध्यानेन होनस्य कुतोऽस्ति सिद्धिः ॥ ९५ तपांसि रौद्राण्यनिशं विधत्तां शास्त्राण्यधींतामखिलानि नित्यम् । धत्तां चरित्राणि निरस्ततन्द्रो न सिध्यति ध्यानमृते तथापि । ९६ ध्यानं यहहाय ददाति सिद्धि न तस्य खेदः परशर्मदाने । क्षयानलं हन्ति यदभ्रवृन्दं न तस्य खेदः परवन्हिघाते । ९७ तपोऽन्तरानन्तरभेदभिन्ने तपोविधाने द्विविधे कदाचित् । समस्तकर्मक्षपणे समर्थ ध्यानेन शुद्धेन समं न दृष्टम् ।। ९८ ध्यानस्य दृष्ट-वेति फलं विशालं मुमुक्षुणाऽऽलस्यमपास्य कार्यम् । कार्ये प्रमाद्यति न शक्तिमन्तो विलोकमानाः फलभूरिलाभम् ॥ ९९ तपोविधानर्बहजन्मलक्षयों दद्यते संचितकर्मराशिः। क्षणेन स ध्यानहुताशनेन प्रवर्त्तमानेन विनिर्मलेन ॥ १०० एकाग्रचित्त होकर सर्व दोष-रहित अपनी एक मात्र निर्मल आत्माका ध्यान करता है ॥ ९१-९२ ।। इस प्रकार पूर्वोक्त विधान से निरन्तराय ध्यानका अभ्यास करने वाले एकाग्रचित्त पुरुषके कोटि भवोंके बँधे पाप नष्ट हो जाते हैं जैसे कि महान् प्रशमभावके धारकके कयायोंका समूह नष्ट हो जाता है ।। ९३ ।। चतुर ज्ञानी पुरुषके द्वारा किया गया निर्मल ध्यान कर्मोको भस्म कर देता है । पवनके द्वारा प्रेरणाको प्राप्त अग्नि संचित ईंधनको क्या शीघ्र नहीं जला देती है ।। ९४ ।। दानसे हीन पुरुषकी कीर्ति कैसे संभव है ? सत्यसे रहित मनुष्यकी पूजा कैसे हो सकती है ? न्यायसे रहित पुरुषको लक्ष्मी कैसे प्राप्त हो सकती है और ध्यानसे रहित पुरुषको सिद्धि (मक्ति) कैसे मिल सकती है ? अर्थात् नहीं मिल सकती है ।। ९५ । भले ही कोई पुरुष निरन्तर भयंकर तपोंको करे, भले ही कोई सदा समस्त शास्त्रोंको पढ और भले ही कोई मनुष्य आलस्य-रहित होकर चरित्र धारण करे, तथापि ध्यानके विना वह सिद्धि को नहीं पाता है । अर्थात् सभी धर्म-कार्योंमें ध्यान प्रधान है ।। ९६ ॥ जो ध्यान शीघ्र सिद्धिको प्रधान करता है, अर्थात् परम अतीन्द्रिय शिव-सुखको देता है, उसको इद्रियज सांसारिक सुखके देने में क्या खेद हो सकता है ? जो मेघ-समूह प्रलयाग्निका नाश करता है, उसे अन्य अग्निके बुझाने में कोई खेद नहीं होता है ।। ९७ ।। अन्तरंग और बाह्य तपके भेदसे भिन्न दो प्रकारके तपोविधान में समस्त कर्मोंके क्षय करने में समर्थ शद्धध्यानकेसमान अन्य तप नहीं देखा गया है ।। ९८ ।। इस प्रकार ध्यानके विशाल फलको देखकर मुमुक्षु पुरुषको आलस्य छोडकर ध्यान करना चाहिए क्योंकि शक्तिशाली पुरुष भारी फलका लाभ देखते हुए अपने अभीष्ट कार्यमें प्रमाद नहीं करते हैं ।। ९९ ।। अनेकों लाखों जन्मों में किये गये नाना प्रकरके . Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः निर्वाणहेतो' भवपातमीताने प्रयत्नः परमो विधेयः । यियासुभिर्मुक्तिपुरीमबाधामुपायहीना न हि साध्यसिद्धिः ॥ १०१ देहात्मनोरात्मवता वियोगो मनः स्थिरीकृत्य तथा विचिन्त्यः ।। हेतुर्भवानर्थपरम्परायाः स्वप्नेऽपि योगो न यथाऽस्ति भूयः ।। १०२ निरस्तसर्वेन्द्रियकार्यजातो यो देहकार्य न करोति किचित् । स्वात्मीयकायोद्यतचित्तवृत्तिः स ध्यानकायं विदधाति धन्यः ।। १०३ यद्धिडमानं जगवन्तराले धर्तुं न शक्यं मनुजामरेन्द्रः तन्मानसं यो विदधाति वश्यं ध्यानं स धीरो विदधात्यवश्यम् ।। १०४ बाणैः समं पंचभिरुनवेगविद्धस्त्रिलोकस्थितजीववर्गः। न मन्मथस्तिष्ठति यस्य चित्त विनिश्चलस्तिष्ठति तस्य योगः ॥ १०५ न रोषो न तोषो न मोषो न दोषो न कामोन कम्पो न दामो न लोभः । न मानो न माया न खेदो न मोहो यदीयेऽस्ति चित्ते तदोयेऽस्ति योगः ॥ १०६ प्रवर्द्धमानोद्धतसेवनायां जोवस्य गुप्ताविव मन्यते यः । शरीरकुटयां वसति महात्मा हानाय तस्या यतते स शीघ्रम् ॥ १०७ उपवासादि तपोंके द्वारा जितनी संचित कर्मराशि जलाई जाती है, उतनी कर्मराशि अति निर्मलता पूर्वक किये गये ध्यानरूप हुताशनके द्वारा क्षणभरमें जला दी जाती हैं ।।१००॥ इसलिए जो संसारमें पडनेसे भयभीत पुरुष हैं, और बाधारहित मुक्तिपूरीको जानेके इच्छुक हैं, उन्हें निर्वाणके कारणभूत ध्यानमें परम प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि उपायके विना अभीष्ट साध्यकी सिद्धी नहीं होती है ॥१०१॥ आत्मज्ञानी पुरुषको मन स्थिर करके देह और आत्माकी विभिन्नता का इस प्रकारसे चिन्तवन करना चाहिए, कि संसारके अनर्थोकी परम्पराका कारणभूत इस देहका संयोग आगे फिर स्वप्नमें भी कभी नहीं होवे ।।१०२।। जो पुरुष सर्व इन्द्रियोंके विषयभूत कार्यसमूहको दूर करके देहके कुछ भी कार्यको नहीं करता है और अपने आत्मीय कार्यके करने में उद्यत चित्तवृत्ति होकर ध्यानके कार्यको करता है, वह पुरुष धन्य है ।।१०३।। ____ जगत्के अन्तरालमें डोलता हुआ जो मन नरेन्द्र, देवेन्द्र और अहमिन्द्रोंके द्वारा भी वशमें करने के लिए शक्य नहीं है,उस मनको जो अपने वश में कर लेता है, वह धीर-वीर पुरुष अवश्य ध्यानको करने में समर्थ होता है ॥१०४। अपने उग्र पंच बाणोंसे जिस कामदेवने त्रिलोकमें स्थित समस्त प्राणिवर्गको विद्ध कर रक्खा है, वह कामदेव जिसके मन में नहीं रहता है, उसका ध्यानरूप योग निश्चल रह सकता है ।।१०५॥ जिसके चित्तमें न द्वेष है, न राग है, न चोरीका भाव है, न अन्याय आदि कोई दोष है, न कामभाव है, न कम्पन है, न दम्भ है, न लोभ है, न मान है, न माया है, न खेद है और न मोह है; उसी पुरुषके चिन्तमें ध्यान हो सकता है ।। १०६ । जो महान् आत्मा दुःख रूप उद्धत परिणतिसे प्रवर्धमान इस शरीररूपी कुटीमें अवस्थित जीवको कारागारमें निबद्ध पुरुषके समान मानता है, वही पुरुष उस शरीररूप कुटीके विनाशके लिए शीघ्र प्रयत्न करता है ।।१०७। जो पुरुष समाधिके विध्वंस करने में अतिकुशल ऐसे लोक-व्यवहाररूप जालको कभी भी नहीं करता है, और जिसकी चित्तवृत्ति सर्व सांसारिक कार्योसे निस्पृह है उसी पुरुषके १. मु०-हेतोर्भव Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह समाधिविध्वंसविधौ पटिष्टं न जातु लोकव्यवहारपाशम । करोति यो निस्पचित्तवृत्तिः प्रवर्तते ध्यानममुष्य शुद्धम् १०८ विधीयते ध्यानमवेक्षमाणर्यद्भूतबोधैरिह लोककार्यम् । रौद्रं तदात्तं च वदन्ति सन्तः कर्मदुमच्छेदनबद्धकांक्षाः ॥ १०९ सांसारिकं सौख्यमवाप्तुकामानं विधेयं न विमोक्षकारि । न कर्षणं सस्यविधायि लोके पलाललाभाय करोति कोऽपि ॥ ११० अभ्यस्यमानं बहुधा स्थिरत्वं यथैति दुर्बोधमपीह शास्त्रम् । ननं तथा ध्यानमपीति मत्वा ध्यानं सदाऽभ्यस्यतु मोक्तु कामः ॥ १११ अवाप्य मानुष्यमिदं सुदुर्लभं करोति यो ध्यानमनन्यमानसः । भनक्ति संसारदुरंतपंजरं स्फुटं स सद्यो गुरुदुःखमन्दिरम् ।। ११२ यो जिनदृष्टं शमयमसहितं ध्यानमपाकृतसकलविकारः । ध्यायति धन्यो मुनिजनमहितं चित्तनिवेशितपरमविचारः ॥ ११३ नाकिनिकायस्तुतपदकमलोदीर्णदुरुत्तरभवभयदुःखाम् ।। याति स भव्योऽमितगतिरनघां मुक्तिमनश्वरनिरुपमसौख्याम् ॥ ११४ यदर्थमात्रापदवाक्यहीनं मया प्रमादादिह किञ्चनोक्तम् । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी सरस्वती केवलबोधलक्ष्मीम् ।। ११५ इत्यमितगति-विरचिते उपासकाचारे पञ्चदशः परिच्छेदः समाप्त। निर्मल ध्यान होता है ॥१०८।। जो बोध-रहित अज्ञानी पुरुष लौकिक कार्यकी इच्छा रखते हुए ध्यान करते हैं, उसे कर्मरूप वृक्षको छेदने में कमर बांधकर उद्यत सन्त जन रौद्र और आर्तध्यान कहते हैं ॥१०९।। मोक्षके सुखको करनेवाला ध्यान सांसारिक सुखके पानेकी इच्छासे ज्ञानियोंको नहीं करना जाहिए। क्योंकि लोकमें धान्यको उत्पन्न करनेवाला कृषिकार्य कोई भी भूसेके लाभको लिए नही करता हैं ।।११०।। जैसे अत्यन्त कठिन भी शास्त्र निरन्तर अनेक प्रकारसे अभ्यास किये जाने पर स्थिरताको प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकारसे ध्यानको भी मानकर मुक्ति पानेके इच्छुक पुरुषको निश्चयसे ध्यानका सदा अभ्यास करना चाहिए ॥१११।। इस अति दुर्लभ मनुष्यभवको पा करके जो पुरुष एकाग्र चित्त होकर ध्यानको करता है, वह भारी दुखोंके गृहरूप इस दुःखदायी संसार पिंजरको शीघ्र भेदता है ।।११२।। जो पुरुष सकल विकारोंको दूर कर और चित्तमें परम शुद्ध विचारोंको अवस्थित कर जिनेन्द्रोपदिष्ट कषायोंके निरोधरूप शमभावसे और पंच पापोंके त्यागरूप संयमभावसे युक्त ममिजन-पूजित ध्यानको ध्याता है वह पुरुष धन्य है ।११३।। परम शुक्ल ध्यानकी करनेवाला ऐसा भव्य अमितज्ञानी होकर और देव-समूहसे पूजित चरण-कमलवाला बन कर दुरुत्तर भव-भयके दुःखोंसे रहिन, निर्दोष, अविनश्वर, अनुपम सुखवाली मुक्तिको प्राप्त करता है ।।११४।।। इस ग्रन्थ में मैंने प्रमादसे यदि अर्थ, मात्रा, पद और वाक्यसे हीन कुछ भी कहा हो तो सरस्वती देवी उसके लिए मुझे क्षमा करके केवलज्ञानरूप लक्ष्मी को देवें॥११५॥ इस प्रकार अमितगति आचार्य विरचित उपासकाध्ययनमें पन्द्रहवाँ परिच्छेद ___ समाप्त हुआ। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ग्रन्थकर्तुः प्रशास्तः अभूत्समो यस्य न तेजसेनः स शुद्धबोधोऽजनि देवसेनः । मनीश्वरो निजितकर्मसेनः पादारविन्दप्रणतेन्द्रसेनः ।। १ दोषान्धकारपरिमर्दन बद्धकक्षो भूतस्ततोऽमितगतिर्भुवनप्रकाशः ॥ तिग्मधुतेरिव दिन: कमलाव बोधी मार्गप्रबोधनपरो बुधपूजनीयः ॥ २ विद्वत्समूहाचित चित्रशिष्यः श्रीनेमिषेणोऽजनि तस्य शिष्यः । श्रीमाथुरानूकनभः शशाङ्कः सदा विधूताऽऽर्हततत्त्वशङ्कः ॥ ३ माधवसेनोऽजनि महनीयः संयतनाथो जगति जनीयः । जीवनराशेरिव मणिराशी रम्यतमोडतोखिलतिमिराशी ॥। ४ विजितना कि निकाय मवज्ञया जयति यो मदनं पुरुविक्रमम् । त्यजति मा किमयं परनाशधीरिति कषायगणो विगतो यतः ।। ५ तस्मादजायत नयादिव साधुवादः शिष्टाचतोऽमितगतिर्जगति प्रतीतः । विज्ञातलौकिक हिताहित कृत्यवृत्तेराचार्यवर्यपदवीं दधतः पवित्राम् ।। ६ अयं तडित्वानिव वर्षणं धनो रजोपहारी धिषणापरिष्कृतः । उपासकाचारमिमं महामनाः परोपकाराय महन्नतोऽकृत ॥ ७ जिनके चरणारविन्दोंमें इन्द्रोंकी सेना नम्रीभूत है, जिन्होंने कर्मों की सेनाको जीता है और जो शुद्ध ज्ञानके धारक हैं, ऐसे देवसेन मुनिराज इस कालमें हुए। जिनके तेजको समता सूर्य भी नहीं कर सकता था ।। १ ।। उन देवसेनके शिष्य अमितगति हुए जो कि सूर्य के समान दोषरूप अथवा दोषा (रात्रि) रूप अन्धकारके परिमर्दन करनेमें कमर कसे हुए थे, समस्त भुवनके प्रकाशक थे, भव्यरूप कमलों को प्रबुद्ध कर उन्हें सन्मार्गका ज्ञान करानेवाले थे और ज्ञानियोंके द्वारा पूजनीय थे ।। २ ।। उनके शिष्य श्री नेमिषेण हुए जिनके अनेक शिष्य विद्वद्वृन्दसे पूजित थे, जो श्री माथुर सम्प्रदायरूप आकाशको प्रकाशित करनेवाले चन्द्रमाके समान थे और जो सदा ही जैनमतप्रतिपादित तत्त्वों में शंकाएं उठानेवालोंका भलीभांति से निराकरण करते थे || ३ || नेमिषेण शिष्य माधवसेन हुए, जो कि महान् पूज्य थे, साधुओंके स्वामी थे, और जगज्जनोंके परम हितैषी थे। जैसे जल - राशि (समुद्र) से अतिरमणीय मणिराशि उत्पन्न होती है और जैसे क्षीरसागर से सर्वलोक का अन्धकारनाशक चन्द्रमा प्रकट हुआ माना जाता है, उसी प्रकार श्री नेमिषेणसे उनके शिष्य माधवसेन प्रकट हुए ।।४।। जिसने देव समूहके जीतने वाले कामदेवको भी तिरस्कार करके जीत लिया है, जो महान पराक्रमी है पर ( शत्रु) पक्षके नाश करनेमें जिसकी बुद्धि लग रही है ऐसा माधवसेन मुझे क्यों छोड़ेगा, यह सोचकर ही मानों कषायोंका समूह उनसे दूर भाग गया । अर्थात् वे माधवसेन काम-जयी और कषायरहित थे ।। ५ ।। जैसे न्यायनीतिसे साधुवाद प्रकट होता है, उसी प्रकार लौकिक हित-अहितरूप कर्तव्यों के ज्ञाता, और पवित्र आचार्य पदवीके धारक उन माधवसेनसे इिष्टजनों के द्वारा पूजित और जगत् में प्रसिद्ध में अमितगति हुआ ।। ६ ।। जैसे बिजलीयुक्त मेघ जलकी वर्षा करके जगत्की रजको दूर करता है, उसी प्रकार बुद्धि से परिष्कृत, महामना और महोदयवाले इस अमितगतिने भव्य जीवोंके उपकारके लिए इस उपासकाचार ( श्रावकाचार ) को बनाया ।। ७ ।। इस ग्रन्थ में जो सिद्धान्त-विरुद्ध कहा गया है, वह ज्ञानीजनोंको संशोधन करके Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः यदत्र सिद्धान्तविरोधि भाषितं विशोध्य सद्ग्राह्यमिमं मनीषिभिः । पलालमत्यस्य न सारकांक्षिभिः किमत्र शालिः परिगृह्यते जनैः ॥ ८ ॥ यावत्तिष्ठति शासन जिनपतेः पापापहारोद्यतं यावद् ध्वंसयते हिमेतररुचिविश्वं तमः शार्वरम् । यावद् धारयते महीध्रखचितं पातत्रयी विष्टपं तावच्छास्त्रमिदं करोतु विदुषाभ्यस्यस्यमानं मुम् ||९ ग्रहण करना चाहिए। जैसे कि धान्यरूप सारके इच्छुक पुरुष इस लोक में भूसेको छोडकर क्या शालिको ग्रहण नहीं करते हैं ? करते ही हैं ॥ ८ ॥ ग्रन्थकार की अन्तिम मंगल कामना जब तक पापोंके दूर करनेमें उद्यत यह जिनेन्द्रदेवका जैन शासन संसारमें विद्यमान रहे, जब तक उष्ण किरणवाला यह सूर्य रात्रिकालीन अन्धकारका नाश करता रहे, और जबतक तीनों वातवलय पर्वतों से व्याप्त इस विश्वको धारण करते रहें, तब तक पठन-पाठन रूपसे अभ्यास किया जाता हुआ यह उपासकाचार - शास्त्र विद्वानोंके आनन्दको करता रहे ।। ९ ।। ५४ ४२१ . Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि वसुणदि आइरियविरइय वसुनन्दि-श्रावकाचार सुरवइतिरोडमणिकिरणवारिधाराहिसित्तपयकमलं'वरसयलविमलकेवलपयासियासेसतच्चत्थं।।१ सायारो णायारो भवियाणं जेण' देसिओ धम्मो । णमिऊण तं जिणि सावयधम्म परवेमो॥२ विउलगिरि पव्वएणं इंदभूइणा सेणियस्स यह सिट्टा तह गुरुपरिवाडीए भणिज्जमाणं णिसामेह ।।३ दसण-वय-सामाइय-पोसह-सचित्त-राइ भत्ते य बंभारंभ-परिगह-अणुमण-उद्दिट्ठ-देसविरयम्मि॥४ एयारस ठाणाई सम्मत्तविज्जियस्स जीवस्स । जम्हा ण संति तम्हा सम्मत्तं सुणह वोच्छामि ।।५ अत्तागमतच्चाणं जं सदहणं सुणिम्मलं होइ। संकाइदोसरहियं तं सम्मत्तं मुणेयव्वं ॥६ अत्ता दोसविमुक्को पुव्वापरदोसवज्जियं वयणं । तच्चाई जीवदवाइयाइं समयम्हि याणि ।७ छुह-तण्हा भय-दोसो राओ मोहो जरा रुजा चिता मिच्च खओ सेओ अरइ मओ विम्हओ जम्मं ।।८ णिद्दा तहा विसाओ दोसा एएहि वज्जिओ अत्ता । वयणं तस्स पमाणं 'संतस्थपरूवयं जम्हा ।।९ देवेन्द्रोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणियोंकी किरणरूपी जलधारासे जिनके चरण-कमल अभिषिक्त हैं, जो सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञानके द्वारा समस्त तत्त्वार्थको प्रकाशित करनेवाले हैं और जिन्होंने भव्य जीवोंके लिए श्रावकधर्म और मुनिधर्मका उपदेश दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके हम (वसुनन्दि) श्रावकधर्मका प्ररूपण करते हैं।।१-२।। विपुलाचल पर्वतपर (भगवान् महावीरके समवसरणमें) इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरने विम्बसार नामक श्रेणिक महाराजको जिस प्रकारसे श्रावकधर्मका उपदेश दिया है उसी प्रकार गुरु-परम्परासे प्राप्त वक्ष्यमाण श्रावकधर्मको, हे भव्य जीवो, तुम लोग सुनो ।३ ॥ देशविरति नामक पंचम गुणस्थानमें दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग, ये ग्यारह स्थान (प्रतिमा, कक्षा या श्रेणी-विभाग)होते हैं ।। ४ ।। उपर्युक्त ग्यारह स्थान यतः (चूंकि)सम्यक्त्वसे रहित जीवके नहीं होते हैं, अतः (इसलिए)मैं सम्यक्त्वका वर्णन करता हूँ, सोहे भव्य जीवो, तुम लोग सुनो।।५ ।। आप्त (सत्यार्थ देव)आगम (शास्त्र) और तत्त्वोंका शंकादि (पच्चीस) दोष-रहित जो अतिनिर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना चाहिए ॥६॥ आगे कहे जानेवाले सर्व दोषोंसे बिमुक्त पुरुषको आप्त कहते हैं । पूर्वापर दोषसे रहित (आप्तके) वचनको आगम कहते हैं और जीवद्रव्य आदिक तत्त्व हैं। इन्हें समय अर्थात् परमागमसे जानना चाहिए ।। ७ ।। क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, जरा, रोग, चिन्ता, मृत्यु, खेद स्वेद (पसीना), अरति, मद, विस्मय, जन्म निद्रा और विषाद, ये अट्ठारह दोष कहलाते हैं, जो आत्मा इन दोषोंसे रहित है, वही आप्त कहलाता है। तथा उसी आप्तके वचन प्रमाण हैं, क्योंकि वे विद्यमान अर्थके १ ध. जुअलं । २ द. जिणेण । ३ झ. द. इरि । ४ ६. ध. राय । ५ घ दिवाई। ६ ध. तम्हा । ७ द. मच्चस्सेओखेओ। ८ ध. सुत्तत्थ । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ वसुनन्दि-श्रावकाचार जीवाजीवासव-बंध-संवरो णिज्जरा तहा मोक्खो। एयाइं सत्त तच्चाई सद्दहंतस्स' सम्मत्तं ॥१० जीवतत्त्व-वर्णन सिद्धा संसारत्था दुविहा जीवा जिहि पप्णत्ता। असरीराणंतचउदय णिया णिव्वुदा सिद्धा ।।११ संसारत्था दुविहा थावर-तसभेयओ'मुणेयवा। पंचविह थावरा खिदिजलग्गिवाऊवणफ्फइणो।।१२ पज्जत्तापज्जत्ताबायर-सुहूमाणिगोद णिच्चियरा। पत्तेय. पइट्ठियरा थावरकाया अणेयविहा॥१३ वि-ति-चउ-पंचिदियभेयओ तसा चउन्विहा मुणेयव्वा । पज्जत्तियरा सणियरमेयओ हुँति बहुभेया ॥१४ आउ-कुल-जोणि-मग्गण-गुण-जीवुवओग पाण-सण्णाहिाणाऊण जीवदव्वं सदहणंहोइ कायव्वं। १५ अजीवतत्व-वर्णन दुविहा अजीवकाया उरूविणो अरूविणो मुणेयव्वा । खंधा देस-पएगा अविभागी रूविणो चदुधा ।१६ सयलं मुणेहि खंधं अद्धं देसो पएसमद्धद्धं । परमाणू अविभागी पुग्गलदव्वं जिणुद्दिट्ठ॥१७ पुढवी जलं च छाया चरिदियविसय-कम्म-परमाणू । अइथूलथूलं सुहुमं सुहुमंच' अइंसुहमं ॥१८ प्ररूपक हैं ।। ८-९ ।। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये सात तत्त्व कहलाते हैं और उनका श्रद्धान करना सम्यक्त्त कहलाता है ।। १० ।। सिद्ध और संसारी, ये दो प्रकारके जीव जिनेन्द्र भगवान्ने कहे हैं। जो शरीर-रहित हैं, अनन्त-चतुष्टय अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यसे संयुक्त हैं तथा जन्म-मरणादिकसे निवृत्त हैं, उन्हें सिद्ध जीव जानना चाहिए।११।। स्थावर और त्रसके भेदसे संसारी जीव दो प्रकारके जानना चाहिए। इनमें स्थावर जीव पाँच प्रकारके हैं-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ।।१२।। पर्याप्त-अपार्याप्त, बादर-सूक्ष्म, नित्यनिगोद-इतरनिगोद, प्रतिष्ठितप्रत्येक और अप्रतिष्ठितप्रत्येकके भेदसे स्थावरकायिक जीव अनेक प्रकारके होते हैं ।।१३।। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियके भेदसे त्रसकायिक जीव चार प्रकारके जानना चाहिए। ये ही त्रस जीव पर्याप्त-अपर्याप्त और संज्ञी-असंज्ञी आदिक प्रभेदोंसे अनेक प्रकारके होते हैं ||१४|| आय, कूल, योनि, मार्गणास्थान. गणस्थान. जीवसमास, उपयोग, प्राण और संज्ञाके द्वारा जीवद्रव्यको जानकर उसका श्रद्धान करना चाहिए ।।१५।। (विशेष अर्थ के लिए परिशिष्ट देखिये) अजीवद्रव्यको रूपी और अरूपीके भेदसे दो प्रकारका जानना चाहिए । इनमें रूपी अजीवद्रव्य स्खंध, देश, प्रदेश और अविभागीके भेदसे चार प्रकारका होता हैं । सकल पुद्गलद्रव्यको स्कंध, स्कंधका आधे भागको देश, आधेके आधेको अर्थात् देशके आधेको प्रदेश और अविभागी अशको परमाणु जानना चादिए, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ॥१६-१७।। अतिस्थूल (बादर-ब दर), स्थूल (बादर), स्थूल-सूक्ष्म, सूक्ष्म और सूक्ष्-सूक्ष्म, इस प्रकार पृथिवी आदिकके छः भेद होते हैं ।। (इन छहोंके दृष्टान्त इस प्रकार हैं--पृथिवी अतिस्थूल पुद्गल है । जल स्थूल है । छाया स्थूल-सूक्ष्म है । चार इन्द्रियों के १ध. सद्दहणं। २ ध.-ट्ठयणिया । ३ घ भेददो। ४ झ.ध. पयट्ठियरा। ५ द. ओय । ६ ध. रूविणोऽरूविणो। ७. द. ध. मुणेहि। ८. चकारात् 'सुहुमथूल' ग्राह्मम् । ९ मुद्रित पुस्तकमें इस गाथाके स्थानपर निम्न दो गाथाएं पाई जाती हैं -- Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ श्रावकाचार-संग्रह चउविहमहविदव्वं धम्माधम्मबराणि कालोय । गइ-ठाणग्गहणलक्खणाणि तह वट्टण गणोय ॥१९ परमत्थो ववहारो दुविहो कालो जिणेहि पण्णत्तो । लोयायासपएसट्ठियाणवो मुक्खकालस्स ।। २० गोणसमयस्सरे एए कारणभूया जिणेहि णिहिट्ठा । तीदागणादभूओ ववहारो शंतसमओ य ।। २१ परिणामि-जीव-मुत्ताइएहि णाऊण दवसब्भाव । जिणवयणमणुसरतेहि थिरमइ होइ कायव्वा ।। २२ परिणामि जीव मुत्तं सपएसं एयखित्त किरिया य । णिच्चं कारणकत्ता सव्वगदमियरम्हि अपवेसो ॥ २३ दुण्णि य एयं एवं पंच य तिय एय दुण्णि चउरो य । पंच य एवं एयं मूलस्स य उत्तरे णेयं ॥ २४ . सुहुमा अवायविसया खणखइणो अत्थपज्जया दिट्ठा । वंजणपज्जाया पुण थूला गिरगोयरा चिरविवत्था । २५ विषय अर्थात् स्पर्श, रस, गंध और शब्द सूक्ष्म-स्थूल हैं । कर्म सूक्ष्म हैं और परमाणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है। ।। १८ ॥ धर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये चार प्रकारके अरूपी अजीवद्रव्य हैं। इनमें आदिके तीन क्रमशः गतिलक्षण, स्थितिलक्षण और अवगाहनलक्षणवाले हैं तथा काल वर्तनालक्षण है ॥ १९ ॥ जिनेन्द्र भगवान्ने कालद्रव्य दो प्रकारका कहा है-परमार्थकाल और व्यवहारकाल । मुख्यकालके अणु लोकाकाशके प्रदेशोंपर स्थित हैं। इन कालाणुओंको व्यवहारकालका कारणभत जिनेन्द्र भगवानने कहा है व्यवहारकाल अतीत और अनागत-स्वरूप अनन्त समयवाला कहा गया है ।। २०-२१॥ परिणामित्व, जीवत्व और मूर्तत्वके द्वारा द्रव्यके सद्भावको जानकर जिन भगवान्के वचनोंका अनुसरण करते हुए भव्य जीवोंको अपनी बुद्धि स्थिर करना चाहिए ।। २२ ॥ उपर्युक्त छह द्रव्योंमेंसे जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं । एक जीवद्रव्य चेतन है और सब द्रव्य अचेतन हैं । एक पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और सब द्रव्य अमूत्तिक हैं। जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये पाँच द्रव्य प्रदेशयुक्त हैं, इसीलिए बहुप्रदेशी या अस्तिकाय कहलाते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, और आकाश, ये तीन द्रव्य एक-एक (और एक क्षेत्रावगाही ) हैं । एक आकाशद्रव्य क्षेत्रवान् है, अर्थात् अन्य द्रव्योंको क्षेत्र (अवकाश) देता है । जीव और पुद्गल, ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये चार द्रव्य नित्य हैं,(क्योंकि, इनमें व्यंजनपर्याय नहीं है ।) पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति काय, आकाश और काल, ये पांच द्रव्य कारणरूप हैं । एक जीवद्रव्य कर्ता है। एक आकाश, द्रव्य सर्वव्यापी है । ये छहों द्रव्य एक क्षेत्र में रहनेवाले हैं, तथापि एक द्रव्यका दूसरेमें प्रवेश नहीं है । इस प्रकार छहों मूलद्रव्योंके उपर्युक्त उत्तर गुण जानना चाहिए ।। २३-२४ ।। पर्यायके दो भेद हैं-अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय । इनमें अर्थपर्याय सूक्ष्म हैं, अवाय (ज्ञान) विषयक है अतः अइथूलथूलथूलं थूलं सुहुमं च सुहुमथूलं च । सुहुमं च सुहुमसुहुमं धराइयं होई छब्भेयं ।। १८ पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसय कम्मपरमाणू । छविहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणिदेहिं ।। १९ ये दोनों गाथाएं गो. जीवकांडमें क्रमशः ६०२ और ६०१ नं० पर कुछ शब्दभेदके साथ पाई जाती है। १ झ ध. वत्तण । २ व्यवहारकालस्य । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४२५ परिणामजुदो जीवो गइगमणुवलंभओ असंदेहो । तह पुग्गलो य पाहणपहुइ-परिणामसणा गाउं ।। २६ ।। बंजणपरिणइविरहा धम्मादीआ हवे अपरिणामा। अत्थपरिणाममासिय सम्वे परिणामिणो अत्था ।। २७ ।। जीवो हु जीवदव्वं एक्कं चिय चेयणाच्या सेसा ।। मुत्तं पुग्गलदव्वं रूवादिविलोयणा ण सेसाणि ।। २८ ।। सपएस पंच कालं मुत्तूण पएससंचया णेया । अपएसी खलु कालो पएसबंधच्चुदो जम्हा ॥ २९ मागासा एगसरूवा पएसअविओगा। ववहारकाल-पग्गल-जीवा है अणेयरूवा ले ॥३० आगासमेव खित्तं अवगाहणलक्खणं जदो भणियं । सेसाणि पुणोऽखितं अवगाहणलक्खणाभावा ।। ३१ 'सक्किरिय जीव-पुग्गल गमणागमणाइ-किरियउवलंभा। सेसाणि पुण वियाणसु किरियाहीणाणि तदभावा ।। ३२ मुत्ता' जीवं कायं णिच्चा सेसा पयासिया समये । वंजणपरिणामचुया इयरे तं परिणयं पत्ता ३३ शब्दसे नहीं कही जा सकती हैं और क्षण-क्षणमें बदलती हैं । किन्तु व्यंजनपर्याय स्थूल है, शब्दगोचर हैं अर्थात् शब्दसे कही जा सकती हैं और चिरस्थायी हैं ।। २५ ।। जीव परिणामयुक्त अर्थात् परिणामी है, क्योंकि उकसा स्वर्ग, नरक आदि गतियोंमें निःसन्देह गमन पाया जाता है। इसी प्रकार पाषाण, मिटो आदि स्थल पर्यायोंके परिणमन देखे जानेसे पदगलको परिणामी जानना चाहिए ।। २६ ।। धर्मादिक अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये चार द्रव्य व्यंजनपर्यायके अभावसे अपरिणामी कहलाते हैं। किन्तु अर्थपर्यायकी अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी माने जाते हैं, क्योंकि अर्थपर्याय सभी द्रव्यों में होती हैं ।। २७ ।। एक जीवद्रव्य ही जीवत्व धर्मसे युक्त है, और शेष सभी द्रव्य चेतनासे रहित हैं। एक पुद्गलद्रव्य ही मत्तिक है, क्योंकि, उसीमें ही रूप, रसादिक देखे जाते हैं । शेष समस्त द्रव्य अमूर्तिक हैं, क्योंकि, उनमें रूपादिक नहीं देखे जाते हैं ।। २८ ।। ___कालद्रव्यको छोडकर शेष पाँच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए; क्योंकि उनमें प्रदेशोंका संचय पाया जाता है । कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योंकि, वह प्रदेशोंके बंध या समूहसे रहित है, अर्थात् कालद्रव्यके कालाणु भिन्न-भिन्न ही रहते हैं ।। २९ ।। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीनों द्रव्य एक-स्वरूप हैं, अर्थात् अपने स्वरूप या आकारको बदलते नहीं हैं, क्योंकि इन तीनों द्रव्योंके प्रदेश परस्पर अवियुक्त हैं, अर्थात् समस्त लोकाकाशमें व्याप्त हैं । व्यवहारकाल, पुद्गल और जीव, ये तीन द्रव्य अनेकस्वरूप हैं, अर्थात् वे अनेक रूप धारण करते हैं ।३०।। एक आकाशद्रव्य ही क्षेत्रवान है, क्योंकि, उसका अवगाहन लक्षण कहा गया है। शेष पांच द्रव्य क्षेत्रवान् नहीं है, क्योंकि उनमें अवगाहन लक्षण नहीं पाया जाता है ।। ३१॥ जीव और पुद्गल ये दो क्रियावान् हैं, क्योंकि इनमें गमन, आगमन आदि क्रियाएँ पाई जाती हैं । शेष चार द्रव्य क्रिया-रहित हैं, क्योंकि उनमें हलन-चलन आदि क्रियाएँ नहीं पाई जाती हैं ।। ३२ ।। जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्योंको छोडकर शेष चारों द्रव्योंको परमागममें नित्य कहा गया है, क्योंकि उनमें व्यंजन-पर्याय नहीं पाई जाती हैं । जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्यों में व्यंजन-पर्याय पाई जाती हैं, इसलिए वे १ ध ‘सक्किरिया पुणु जीवा पुग्गल गमणाए'। २ झ. मोत्तूं. ब. मोत्तूं । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ श्रावकाचार-संग्रह जीवस्सुवयारकरा कारणभूया ह पंच कायाई। जीवो सत्ता भओ सो ताणं ण कारणं होई ॥ ३४ कत्ता सुहासुहाणं कम्माणं फल भोयओ जम्हा । जीवो तप्फलभोया भोया सेसा ण कत्तारा ॥ ३५ सध्वगदत्ता सव्वगमायासं व सेसगं दव्वं । अप्परिणामादीहि य बोहव्वा ते पयत्तेण ।। ३६ "ताण पवेसो वि तहा ओ अण्णेण्णमणववेसेण । णिय-णियभावं पि सया एगौहंता वि ण मुयंति ॥ ३७ अण्णोण्णं पविसंता दिता उग्गासमण्णमणेसि । मेल्लंता वि य णिच्चं स-सगभावं ण वि चयसि ।। ३८ आस्त्रवतत्त्व-वर्णन मिच्छत्ताविरह-कसाय-जोयहेहि आसवइ कम्म । जीवम्हि उवहिमज्झे जह सलिलं छिद्दणावाए । ३९ * अरहतंभत्तियाइसु सुहोवओगेण आसवइ पुण्णं । विवरीएण दुपावं जिणवारदेहि ॥ ४० बधतत्त्व-वर्णन १°अण्णोण्णाणुपवेसो जो जीवपएसकम्मखंधाणं । सो पर्याड-दिदि-अणुभव-पएसदो चउविहो बंधो ॥ ४१ परिणामी और अनित्य हैं ।।३३।। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये पाँचों द्रव्य जीवका उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत है। किन्तु जीव सत्तास्वरूप है, इसलिए वह किसी भी द्रव्यका कारण नहीं होता है ।।३४।। जीव शुभ और अशुभ कर्मोका कर्ता है, क्योंकि वह कर्मोके फलको प्राप्त होता है और इसलिए वह कर्मफलका भोक्ता हैं। किन्तु शेष द्रव्य न कर्मोंके कर्ता हैं और न भोक्ता ही हैं ।।३५।। सर्वत्र व्यापक होनेसे आकाशको सर्वगत कहते है। शेष कोई भी द्रव्य सर्वगत नहीं है। इस प्रकार अपरिणामित्व आदि के द्वारा इन द्रव्योंको प्रयत्नके साथ जानना चाहिए ।।३६।। यद्यपि ये छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करके एक ही क्षेत्रमें रहते हैं, तथापि एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें प्रवेश नही जानना चाहिए। क्योंके. ये सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाही हो करके भी अपने-अपने स्वभावको नहीं छोडते हैं ॥३७॥ कहा भी है-छहों द्रव्य परस्परमें प्रवेश करते हुए, एक दूसरेको अवकाश देते हुए और परस्पर मिलते हुए भी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोडते हैं ॥३८।। जिस प्रकार समद्रके भीतर छेदवाली नाव में पानी आता है, उसी प्रकार जीवयें मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार कारणों के द्वारा कर्म आस्रवित होता है ।३९।। अरहंतभक्ति आदि पुण्यक्रियाओंमें शभोपयोगके होनेसे पुण्यका आस्रव होता है। और विपरीत अशुभोपयोग से पापका आस्रव होता है, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेवने कहा है ।।४० । जीवके प्रदेश और कर्मके स्कन्धोंका परस्परमें मिलकर एकमेक होजाना बंध कहलाता है। वह बन्ध प्रकृति, स्थिति, १ झ.ब. संतय० । २ ब ताण । ३ ब. फलयभोयओ। ४ द. कत्तारो, प. कत्तार । ५ ध. 'ताणि', प. 'णाण' । ६ झ. उक्तं । ७पंचास्ति० गा०७। ८ झ. -हेहि । ९ ब. उ। १.ध. अण्णण्णा । मिथ्यात्वादिचतुष्केन जिनपूजादिना च यत् । कर्माशभं शुभं जीवमास्पन्दे स्यात्स आस्रवः ॥१६ --गुण० श्राव. स्यादन्योऽन्यप्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः । स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावादिस्वभावकः ।। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४२७ संवरतत्त्व-वर्णन सम्महि वहिं य कोहाइकसायणिग्हगुणेहि । जोगणिरोहेण तहा कम्मासवसंवरो होइ ॥ ४२ * निर्जरातत्त्व-वर्णन सविवागा अविवागा दुविहा पुण निज्जरा मुणेयव्वा । सम्वेसि जीवाणं पढमा विदिया तवस्सीणं ॥ ४३ जह रुद्धम्मि पवेसे सुस्सइ सरपाणियं रविकरहिं । तह आसवे णिरुद्ध तवसा कम्मं मणेयव्वं ॥ ४४ मोक्षतत्त्व-वर्णन णिस्सेसकम्ममोक्खो मोक्खो जिणसासणे समुट्ठिो । तम्हि कए जोवोऽयं अणुहवइ अणंतयं सोक्खं । ४५* णिद्देसं सामित्तं साहणमहियरण-ठिदि-विहाणाणि' । एएहि सव्वभावा जीवादीया मणेयध्वा ।। ४६ सत्त वि तच्चाणि मए भणियाणि जिणागमाणसारेण । एयाणि सदहतो सम्माइट्ठी मुणेयवो ॥ ४७ अनुभव (अनुभाग) और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका होता है ।। ४१ ॥ सम्यग्दर्शन, व्रत और क्रोधादि कषायोंके निग्रहरूप गुणोंके द्वारा तथा योग-निरोधसे कर्मों का आस्रव रुकता है अर्थात् संवर • अविपाकके भेदसे निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिए। इनम पहली सविपाक निर्जरा सब संसारी जीवोंके होती है, किन्तु दूसरी अविपाक निर्जरा तपस्वी साधुओंके होती है। जिस प्रकार नवीन जलका प्रवेश रुक जानेपर सरोवरका पुराना पानी सूर्यकी किरणोंसे सूख जाता है, उसी प्रकार आस्रवके रुक जानेपर संचित कर्म तपके द्वारा नष्ट हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ४३-४४ ।। समस्त कर्मों के क्षय हो जानेको जिनशासनमें मोक्ष कहा गया है । उस मोक्षके प्राप्त करनेपर यह जीव अनन्त सुखका अनुभव करता है ।। ४५ ।। निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान, इन छह अनयोगद्वारोंसे जीव आदिक सर्व पदार्थ जानना चाहिए ।। ४६ ।। (इनका विशेष परिशिष्टम देखिये) ये सातों तत्त्व मैंने जिनागमके अनुसार कहे हैं । इन तत्त्वोंका श्रद्धान करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये ॥ ४७ ।। १ निर्देशः स्वरूपाभिधानम् । स्वामित्वमाधिपत्यम् । साधनमुत्पत्तिकारणम् । अधिकरणमधिष्ठानम् । स्थितिः कालपरिच्छेदः । विधानं प्रकारः। सम्यक्त्ववतः कोपादिनिग्रहाद्योगरोधतः । कर्मास्रवनिरोधो यः सत्संवरः स उच्चते ॥ १८ ॥ + सविपाकाविपाकाथ निर्जरा स्याद द्विधादिमा । ___संसारे सर्वजीवानां द्वितीया सूतपस्विनाम् ॥ १९॥ -गुण० श्राव. ** निर्जरा-संवराभ्या यो विश्वकर्मक्षयो भवेत् । .. स मोक्ष इह विज्ञेयो भव्युनिसुखात्मक ।। २०॥ .. --गुण० श्राव. नमेसे Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह सम्यक्त्व के आठ अङ्ग णिस्संका णिक्कखा' निव्विदिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवगूहण ठिदियरणं वच्छल्ल पहावणा चेव ।। ४८ ।। संवेओ जिओ निदा गरहा? उवसमो भत्ती । 'वच्छल्लं अणुकंपा अट्ठ गुणा हुंति सम्मत्ते । ४९ ॥ पाठान्तर - पूया अदण्णजणणं' अरुहाईणं पयत्तेण ॥ इच्चाइगुणा बहवो सम्मत्तविसोहिकारया भणिया । जो उज्जमेदि एसु" सम्माइट्ठी जिणक्खादो ॥ ५० ॥ काइदोरहिओ निस्संकाइगुणजयं परमं । कम्मणिज्जरणहेऊ तं सुद्धं होइ सम्मत्तं ॥ ५१ ॥ ४२८ अङ्गों में प्रसिद्ध होनेवालोंके नाम रायगिहे निस्संको चोरो णामेण अंजणो भणिओ। चंपाए णिक्कंखा वणिगसुदा णंतमइणामा ।। ५२ निविदिगिच्छो राओ उद्दायणु णाम रुइवरणयरे । रेवइ महरा णयरे अमूढदिट्ठी मुणेयव्वा ।। ५३ ठिदियरणगुणपउत्तो मागहणय रम्हि वारिसेणो दु । हथणापुर म्हि णयरे वच्छल्लं विण्हुणा रइयं ।। ५४ उवगूहणजुतो जिणयत्तो तामलित्तणयरीए । वज्जकुमारेण कथा पहावणा चैव महुराए" ।। ५७ निःशंका, निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये सम्यक्त्वके आठ अंग होते हैं ॥ ४८ ॥ सम्यग्दर्शन होनेपर संवेग, निर्वेग, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण उत्पन्न होते हैं ।। ४९ ।। ( पाठान्तरका अर्थ - अर्हतादिककी पूजा और गुणस्मरणपूर्वक निर्दोष स्तुति प्रयत्न पूर्वक करना चाहिये ।) उपर्युक्त आदि अनेक गुण सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि करनेवाले कहे गये हैं । जो जीव इन गुणोंकी प्राप्ति में उद्यम करता है, उसे जिनेन्द्रदेवने सम्यग्दृष्टि कहा है ।। ५० ।। जो शंकादि दोषोंसे रहित है, नि:शंक परम गुणोंसे युक्त है और कर्म- निर्जराका कारण है वह निर्मल सम्यग्दर्शन हैं ।। ५१ ।। राजगृह नगरमें अंजन नामक चोर निःशंकित अंग में प्रसिद्ध कहा गया है । चम्पानगरी में अनन्तमती नामकी afaaiपुत्री निःकांक्षित अंग में प्रसिद्ध हुई । रुचिवर नगर में उद्दायन नामक राजा निर्विचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध हुआ । मथुरानगरमें रेवती रानी अमूढदृष्टि अंग में प्रसिद्ध जानना चाहिये । मागधनगर ( राजगृह ) में वरिषेण नामक राजकुमार स्थितिकरण गुणको प्राप्त हुआ । हस्तिनापूर नामके नगर में विष्णुकुमार मुनिने वात्सल्य अंग प्रकट किया है। ताम्रलिप्तनगरी में जिनदत्त सेठ उपगूहन गुणसे युक्त प्रसिद्ध हुआ है और मथुरा नगरी में वज्रकुमारने प्रभावना अंग प्रकट किया है ।। ५२-५५ ।। जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान करता हुआ उपर्युक्त इन आठ गुणोंसे युक्त सम्यक्त्व को धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है ।। ५६ ।। सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पाँच उदुम्बरफल सहित सातों ही व्यसनोंका त्याग करता १ इ. झ. 'णिस्संकियनिक्कंखिय' इति पाठः । २ झ. गरुहा । ३ झ. ध. प. प्रतिषु गाथोत्तरास्यायं पाठः 'पूया अवण्णजणणं अरुहाईणं' । ४ अदोषोद्भावनम् । ५ झ. 'ए' । झ प्रती पाठोऽयमधिक:- 'अतो गाथाषट्कं भावसंग्रहग्रन्थातृ । + भाव सं० गा० २८० - २८३ । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार उंबर-वड-पिप्पल-पिपरीय'-संधाण-तरुपसूणाई ताई परिवज्जियव्वाइं ।। ५८ जूयं मज्जं मंसं वेसा पारद्धि-चोर-परयारं । दुगइगमणस्सेदाणि हेउभूदाणि पावाणि ॥ ५९॥ द्यूतदोष-वर्णन जयं खेलंतस्स हु कोहो माया य माण-लोहा य । एए हवंति तिव्वा पावइ पावं तदो बहुगं ।। ६० पावेण तेण जर-मरण-वीचिपउरम्मि दुक्खसलिलम्मि। चउगइगमणावत्तम्मि हिंडइ भवसमुद्दम्मि६१ तत्थ वि दुक्खमणतं छेयण-भेयण विकतणाईणं । पावइ सरणविरहिओ जूयस्य फलेण सो जीवो ६२ ण गणेइ इट्ठमित्तं ण गुरुं ग य मायरं पियरं वा । जूवंधो वुज्जाइं कुणई अकज्जाइंबहुयाइं ॥६३ सजणे य परजणे वा देसे सव्वत्थ होइ जिल्लज्जो। माया वि ण विस्सासं वच्चइ जयं रमंतस्स ।। ६४ अग्गि-विस-चोर-सप्पा दुक्खं थोवं कुणंति" इहलोए दुक्खं जणेइ जूयं परस्स भयसयसहस्सेसु ।। ६५ अक्खे हिरो रहिओणमणइ सेसिदिएहि वेएडा जयंधोणय केण विजाणइ संपूण्णकरणो वि॥६६ अलियं करेइ सव्ह जंपइ मोसं भणेइ अइदुळं। पासम्मि बहिणि-मायं सिसु पि हणेइ कोहंधो । ६७ ण य भुंजइ आहारं णि ण लहेइ रत्ति-दिण्णं ति कत्थ विण कुणेइ रइं अत्थइ चिताउरो णिच्च।।६८ है, वह दर्शनश्रावक कहा गया है ।। ५७ ॥ ऊंबर, बड, पोपल, कटूमर और पाकर फल, इन पांचों उदुम्बर फल, तथा सधानक (अचार) और वृक्षोंके फूल ये सब नित्य त्रसजीवोंसे संसिक्त अर्थात् इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए ।। ५८॥ जआ, शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी, परदार-सेवन, ये सातों व्यसन दुर्गति-गमनके कारणभूत पाप हैं ॥ ५९ ।। जूआ खेलनेवाले पुरुषके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय तीव्र होती हैं, जिससे जीव अधिक पापको प्राप्त होता है ।। ६० ।। उस पापके कारण यह जीव जन्म, जरा मरणरूपी तरंगोंवाले, दुःखरूप सलिलसे भरे हुए और चतुर्गति-गमनरूप आवों ( भंवरों) से संयुक्त ऐसे संसार-समुद्र में परिभ्रमण करता है ।। ६१ ।। उस संसारमें जुआ खेलनेके फलसे यह जीव शरण-रहित होकर छेदन, भेदन, कर्तन आदिके अनन्त दुःखको पाता है, ।। ६२ ।। जूआ खेलनेसे अन्धा हुआ मनुष्य इष्ट-मित्र, को कुछ नहीं गिनता है, न गुरुको, न माताको और न पिताको ही कुछ समझता है, किन्तु स्वच्छन्द होकर पापमयी बहुतसे अकार्योंको करता है ।। ६३ ।। जूआ खेलनेवाला पुरुष स्वजनमें, परजनमें, स्वदेशमें, परदेशमें, सभी जगह निर्लज्ज हो जाता है। जूआ खेलनेवाले का विश्वास उसकी माता तक भी नहीं करती है ।। ६४ ।। इस लोकमें अग्नि, विष, चोर और सर्प तो अल्प दुःख देते हैं, किन्तु जुआका खेलना मनुष्यके हजारों लाखों भवोंमें दुःखको उत्पन्न करता है ।। ६५ ।। आँखोंसे रहित मनुष्य यद्यपि देख नहीं सकता है, तथापि शेष इन्द्रियोंसे तो जानता है । परन्तु जूआ खेलने में अन्धा हुआ मनुष्य सम्पूर्ण इन्द्रियोंवाला हो करके भी किसीके द्वारा कुछ नहीं जानता है।। ६६ ।। वह झूठी शपथ करता है, झूठ बोलता है, अति दुष्ट वचन कहता है और क्रोध है, अति दुष्ट वचन कहता है और क्रोधान्ध होकर पासमें खडो हुई बहिन, माता और बालकको भी मारने लगता है ।। ६७ ।। जुआरी मनुष्य चिन्तासे न आहार करता है, न रात-दिन नींद लेता है, न कहीं पर किसी भी वस्तुसे प्रेम करता है, किन्तु १ द. पंपरीय। २ प. संहिद्धाई। ३ झ. 'लोहो' इति पाठः। ४ व. विरहियं इति पाठः । ५ ब. 'करंति' इति पाठः । ६झ -'वरो' इति पाठः। * द्यतमध्वमिषं वेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः। सप्तव तानि पापानि व्यसनानि त्यजेत्सुधीः ।। ११४ ।। गुण श्राव० । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० श्रावकाचार संग्रह इच्चैवमाइ बहवो दोसे' नाऊण जूयरमणम्मि । परिहरियव्वं णिच्चं दंसणगुणमुव्वहंतेण ॥ ६९ मद्यदोष- वर्णन मज्जेण णरो अवसो कुणेड कम्माणि णिदणिज्जाहूं । इहलोए परलोएअणुहवइ अनंतयं दुक्खं ॥७० अघिओ विचिट्ठो पडेइ रत्थाययंगणे मत्तो । पडियस्य सारमेया वयणं विलिति जिन्भाए । ७१ उच्चारं परसवणं तत्थेव कुणंति तो समुल्लवइ । पडिओ वि सुरा मिट्ठो पुणो वि मे देइ मूढमई ।। ७२ food अजाण माणस्स हिप्पइ परेहिं । लहिऊण किंचि सण्णं इदो तदो धावइ खलंतो ॥७३ जेणज्ज मज्झ दव्वं गहियं दुट्ठेण से जमो कुद्धो । कहि जाइ सो जिवंतो सीसं छिदामि खग्गेण । ७४ एवं सो गज्जतो कुविओ गंतूण मंदिरं णिययं । धित्तूण लउडि सहसा रुट्ठो भंडाई फोडेइ । ७५ णिययं पि सुयं बहिण अणिच्छमाणं बला विधंसेइ । जंपइ अजंणिज्जं ण विजाणइ कि प मयमत्तो ॥ ७६ अवराई बहुसो काऊण बहूणि लज्जणिज्जाणि । अणुबंधइ बहु पावं मज्जस्स वसंगदो संतो ॥७७ पावेण तेण बहुसो जाइ जरा मरणसावयाइण्णे । पावइ अनंतदुक्खं पडिओ संसारकंतारे ॥ ७८ एवं बहुपया दो णाऊण 'मज्जपाणम्मि : मण वयण- काय-कय- कारिदाणुमोएहि वज्जिज्जो ॥ ७९ निरन्तर चिन्तातुर रहता है ।। ६८ ।। जुआ खेलने में उक्त अनेक भयानक दोष जान करके दर्शनगुण को धारण करनेवाले अर्थात् दर्शन प्रतिमायुक्त उत्तम पुरुषको जूआका नित्य ही त्याग करना चाहिए ।। ६९ ।। मद्य-पानसे मनुष्य उन्मत्त होकर अनेक निंदनीय कार्योंको करता है, और इसीलिए इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुःखो को भोगता हैं ।। ७० । मद्यपायी उन्मत्त मनुष्य लोकमर्यादाका उल्लंघन कर बेसुध होकर रथ्यांगण ( चौराहे ) में गिर पडता है और इस प्रकार पडे हुए उसके (लार बहते हुए) मुखको कुत्ते जीभ से चाटने लगते हैं ।। ७१ ।। उसी दशा में कुत्ते उसपर उच्चार ( टट्टी) और प्रस्रवण (पेशाब) करते हैं । किन्तु वह मूढमति उसका स्वाद लेकर पडे-पडे ही पुनः कहता है कि सुरा (शराब) बहुत मिठी हैं, मुझे पीनेको और दो ।। ७२ ।। उस बंसुध पडे हुए मद्यपायी के पाम जो कुछ द्रव्य होता है, उसे दूसरे लोग हर ले जाते हैं । पुनः कुछ संज्ञाको प्राप्तकर अर्थात् कुछ होश में आकर गिरता पडता इधर-उधर दौडने लगता है ।। ७३ ।। और इस प्रकार बकता जाता है कि जिस बदमाशने आज मेरा द्रव्य चुराया है और मुझे क्रुद्ध किया है, उसने यमराजको ही क्रुद्ध किया है. अब वह जीता बचकर कहाँ जायगा, मैं तलवार से उसका शिर का गा ।। ७४ ।। इस प्रकार कुपित वर गरजता हुआ अपने घर जाकर लकडीको लेकर रुष्ट हो सहसा भांडों ( बर्तनों) को फोडने लगता है ।। ७५ ।। वह अपने ही पुत्रको बहिनको, और अन्य भी सबको - जिनको अपनी इच्छाके अनुकूल नहीं समझता है, बलात् मारने लगता है और नहीं बोलने योग्य वचनोंको बकता है । मद्य - पानसे प्रबल उन्मत्त हुआ वह भले-बुरेको कुछ भी नहीं जानता है ।। ७६ ।। मद्यपानके वशको प्राप्त हुआ वह इन उपर्युक्त कार्योंको, तथा और भी अनेक लज्जा-योग्य निर्लज्ज कार्योंको करके बहुत पापका बंध करता है ।। ७७ । उस पापसे वह जन्म, जरा और मरणरूप श्वापदों (सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर जानवरोंसे) आकीर्ण अर्थात् भरे हुए संसार रूपी कान्तार ( भयानक वन ) में पडकर अनन्त दुःखको पाता है ।। ७८ ।। इस तरह मद्यपान में अनेक प्रकारके दोषोंको जान करके मन, वचन और काय, तथा कृत, कारित और अनुमोदनासे उसका १ झ 'दोषा' इति पाठः । २ ब. रत्थाइयंगणे । प. रत्थायंगणे । ३ झ. नाऊण । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार मधुदोष-वर्णन जह मज्ज तह य महू जणयदि पावं णरस्स अइबहुयं । असुइ व्व णिदणिज्ज वज्जेयन्वं पयत्तेण ।। ८० दळूण णसणमझे पडियं जइ मच्छियं पिणिट्टि वइ । कह मच्छियंडयाणं णिज्जासं' णिग्घिणो पिबइ ।। ८१ भो भो जिभिदियलुद्धयाणमच्छरयंपलोएह किमि मच्छियणिज्जासं महं पवित्तं भणंति जटो।।८२ लोगे वि सुप्पसिद्धं बारहंगामाइ जो डहइ अदओ। तत्तो सो अहिययरोपाविछो जो महुंहणइ।। ८३ जो अवलेहइ' णिच्चं णि स्यं सो जाइ"णस्थि संदेहो । एवं णाऊण फुडं वज्जेयव्वं महुं तम्हा । ८४ मांसदोष-वर्णन मंसं अमेज्झसरिसं किमिकुलभरियं दुगंधवीमच्छं । पाएण छिवेउं जंण तीरए तं कह भोत्तुं ॥ ८५ मंसासणेण वड्ढइ दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमइ तो तं पि वण्णिए पाउणइ दोसे ।। ८६ लोइय सस्थम्मि वि वणियं जहा गयणगामिणो विप्पा। भुवि मंसासणेण पडिया तम्हा ण पउंजए' मंसं ॥ ८७ वश्यादोष-वर्णन कारुय-किराय-चंडाल-डोंब पारसियाणमुच्छिठें । सो भक्खेइ जो वसइ एयरत्तिपि वेस्साए ॥८८ त्याग करना चाहिए।॥७९।। मद्यपानके समान मधु-सेवन भी मनुष्यके अत्यधिक पापको उत्पन्न करता है । अशुचि (मल-मूत्र वमनादिक) के समान निंदनीय इस मधुका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए ।। ८० ।। भोजनके मध्यमें पड़ी हुई मक्खी को भी देखकर यदि मनुष्य उसे उगल देता है अर्थात् महमें रखे हुए ग्रास को थूक देता है तो आश्चर्य है कि वह मधु-मक्खियोंके अंडोके निर्दयतापूर्वक निकाले हुए घृणित रसको अर्थात् मधुको निर्दय या निघृण बनकर कैसे पी जाता है ।। ८१॥ भो-भो लोगो, जिन्हेन्द्रिय-लब्धक (लोलपी) मनुष्योंके आश्चर्य को देखो, कि लोग मक्खियोंके रसस्वरूप इस मधुको कैसे पवित्र कहते हैं ।। ८२ ।। लोकमें भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो निर्दयी बारह गाँवोंको जलाता है, उससे भी अधिक पापी वह है जो मध-मक्खियोंके छत्तेको तोडता है ।। ८३ ।। इस प्रकार के पाप-बहुल मधुको जो नित्य चाटता है-खाता है, वह नरकमें जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । ऐसा जानकर मधुका त्याग करना चाहिए ।। ८४ ।। मांस अमेध्य अर्थात् विष्टाके समान है, कृमि अर्थात् छोटे-छोटे कीडोंके समूहसे भरा हुआ है, दुर्गन्धियुक्त है, बीभत्स है और पैरसे भी छुने योग्य नहीं है, तो फिर भला वह मांस खानेके लिए योग्य कैसे हो सकता है ।। ८५ । मांस खानेसे दर्प बढता है, दर्पसे वह शराब पीने की इच्छा करता है और इसीसे वह जुआ भी खेलता है । इस प्रकार वह प्रायः ऊपर वर्णन किये गये सभी दोषोंको प्राप्त होता है ।। ८६ ।। लौकिक शास्त्रमें भी ऐसा वर्णन किया गया है कि गगनगामी अर्थात् आकाशमें चलनेवाले भी ब्राह्मण मांसके खानेसे पृथ्वीपर गिर पडे । इसलिए मांसका उपयोग नहीं करना चाहिए ।। ८७ ।। जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्याके.साथ निवास करता है वह कारु अर्थात् लुहार, चमार, किरात (भोल), चंडाल, डोंब (भंगी) और पारसी आदि नीच लोगोंका १ झ. निर्यासं निश्चोटनं निबोडनमिति । प. नि:पीलनम् । ध. निर्यासम् । २ ण. ध. मच्छेयर । ३ आस्वादयति । ४ झ नियं । ५ प. जादि । ६ झ. नाऊण । ७ ब. लोइये। ८ इ. 'ण वज्जए', भ 'ण पवज्जए' इति पाठः । ९ झ. ट. वेसाए । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ श्रावकाचार-संग्रह रतं जाऊन ' रं सव्वस्तं' हरइ वंचणसएहि । काऊण मुयइ पच्छा पुरिसं चम्मट्टिपरिसेसं ॥ ८९ पण पुरओ एस्स सामी मोत्तूणं णत्थि मे अण्णो । उच्च अण्णस्स पुणो करेइ चाडूणि बहुयाणि ।। ९० मणी कुलजो सूरो विकुणइ दासत्तणं पि णोचाणं । वेस्सा 'कएण बहुगं अवमाणं सहइ का मंधी ॥। ९१ जे मज्जमंसदोसा वेस्सा' गमणम्मि होंति ते सध्वे । पावं पि तत्थ हिट्ठ पावइ नियमेण सविसेसं ॥ ९२ पावेण ते दुक्खं पावइ संसार-सायरे घोरे । तम्हा परिहरियव्वा वेस्सा" मण-- वयण काहि ॥ ९३ पारद्विदोष-वर्णन सम्मत्तस्स पहाणो अणुकंवा वणिओ गुणी जम्हा । पारद्धिरमणसोलो सम्मत्तविराहओ तम्हा ।। ९४ दट्ठूण मुक्ककेसं पलायमाणं तहा पराहुतं । रद ' धरियतिणं सूरा कयापराहं विण हणंति ।। ९५ frei पलायमाणो तिण' 'चारी तह णिरवराहो वि । कह जिग्घणो हणिज्जइ' ' आरण्णणिवासिणो वि मए ॥ ९६ गो-बंभणित्थिघायं परिहरमाणस्स होइ १२ जह धम्मो । सव्वेसि जीवाणं दयाए ता कि ण सो हुज्जा ।। ९७ १३ जूठा खाता है । क्योंकि, वेश्या इन सभी नीच लोगों के साथ समागम करती है ॥ ८८ ॥ वेश्या, मनुष्य को अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकडों प्रवंचनाओ से उसका सर्वस्व हर लेती है और पुरुषको अस्थि - चर्म परिशेष करके, अर्थात् जब उसमें हाड और चाम ही अवशेष रह जाता है, तब उसको छोड़ देती है ।। ८९ ।। वह एक पुरुषके सामने कहती है कि तुम्हें छोडकर अर्थात् तुम्हारे सिवाय मेरा कोई स्वामी नहीं है । इसी प्रकार वह अन्य से भी कहती है और अनेक चाटुकारियां अर्थात् खुशामदी बातें करती ॥ ९० ॥ मानी, कुलीन और शूरवीर भी मनुष्य वेश्या में आसक्त होनेसे नीच पुरुषोंकी दासता ( नौकरी या सेवा) को करता है और इस प्रकार वह कामान्ध होकर वेश्याओं के द्वारा किये गये अनेकों अपमानोंको सहन करता है ।। ९१ ।। जो दोष मद्य और मांसके सेवन में होते हैं, वे सब दोष वेश्यागमन में भी होते हैं । इसलिए वह मद्य और मांस सेवनके पापको तो प्राप्त होता ही है, किन्तु वेश्या सेवनके विशेष अधम पापको भी नियम से प्राप्त होता है ।। ९२ ।। वेश्या सेवन-जनित पाप से यह जीव घोर संसार-सागरमें भयानक दुःखोंको प्राप्त होता है, इसलिए मन, वचन और कायसे वेश्याका सर्वथा त्याग करना चाहिए ।। ९३ ।। सम्यग्दर्शनका विराधक होता है ।। ९४ ।। जो मुक्त केश हैं, अर्थात् भयके मारे जिनके रोंगटें (बाल) खडे हुए हैं' ऐसे भागते हुए तथा पराङ्मुख अर्थात् अपनी ओर पीठ किये हुए हैं और दाँतों में तृण अर्थात् घासको दाबे हुए हैं, ऐसे अपराधी भी दीन जीवोंको शूरवीर पुरुष नहीं मारते हैं ।। ९५ ।। भय के कारण नित्य भागनेवाले, घास खानेवाले तथा निरपराधी और वनोंमें रहनेवाले ऐसे मी मृगोंको निर्दयी पुरुष कैसे मारते हैं ? ( यह महा आश्चर्य है ! ) ।। ९६ ।। यदि गौ, ब्राह्मण और स्त्री-घातका परिहार करनेवाले पुरुषको धर्म होता है तो सभी जीवों की दयासे वह धर्म क्यों नहीं होगा ? ।। ९७ ।। जिस १ झ. नाऊण, २ ब. सव्व सहरइ । ३ झ. व. 'णत्थि' स्थाने 'तं ण' इति पाथ: । ४ झ. वुच्चइ । ५, ६, ७ झ. ब. वेसा० । ८ झ. दंत० । ९ ब. तणं । १० ब. तण० । ११ झ. ब. हणिज्जा । १२ ब. हवइ । १३ ब. दयायि । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४३३ गो-बंभण-महिलाणं विणिवाए हवइ जह महापावं । तह इयरपाणिघाए वि होइ पावं ण संदेहो।। ९८ महु-मज्ज-मंससेवी पावइ पावं चिरेण जं घोरं । तं एयदिणे पुरिसो लहेइ पारद्धि रमणेण ।। ९९ संसारम्मि-अणंतं दुक्खं पाउणदि तेण पावेण । तम्हा विवज्जियव्वा पारद्धी देसविरऐण ।। १०० चौर्यदोष-वर्णन परदव्वहरणसीलो इह-परलोए असायबहुलाओ।पाउणइ जायणाओण कयावि सुहं पलोएइ ।। १०१ हरिऊण परस्स धणं चोरोपरिवेवमाणसव्वंगो। चहऊण गिययगेह' धावइ उप्पहेण संतत्तो' ।। १०२ कि केण वि विट्ठो हं ण वेत्ति हियएण धगधगतेण । ल्हुक्कद्द पलाइ' पखलइ णि ण लहेइ भयविट्ठो' ।। १०३ ण गणेइ माय-वप्पं गुरु-मित्तं सामिणं तस्वि वा।। पबलेण" हरइ छलेणं किंचिण्ण किपि जंतेसि। १०४ लज्जातहाभिमाणं जस-सौलविणासमादणासंच। परलोयभयं चोरो अगणंतो साहसं कुणइ ।। १०५ हरमाणो परदव्वं दळूणारक्खिएहि तो सहसा । रज्जूहि बंधिऊणं धिप्पइ सो मोरबंधेण ॥ १०६ हिंडाविज्जइ टिटे रत्थासु चढाविऊण खरपुटिं। वित्थारिज्जइ चोरो एसो त्ति जणस्स मज्झम्मि।। प्रकार गौ, ब्राह्मण और स्त्रियों के मारने में महापाप है, उसी प्रकार अन्य प्राणियोंके घातमें भी महापाप होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। ९० ।। चिरकाल तक मधु, मद्य और मांसका सेवन करनेवाला जिस घोर पापको प्राप्त होता है, उस पापको शिकारी पुरुष एक दिन भी शिकार के खेलनेसे प्राप्त होता है ।। ९९ ।। उस शिकार खेलनेके पापसे यह जीव ससारमें अनन्त दुःखको प्राप्त होता है। इसलिए देशविरत श्रावकको शिकारका त्याग करना चाहिए ॥१००। पराये द्रव्यको हरनेवाला, अर्थात् चोरी करनेवाला मनुष्य इस लोक और परलोक में असाता-बहुल, अर्थात् प्रचर दुःखोंसे भरी हई अनेकों यातनाओंको पाता है और कभी भी सूखको नहीं देखता है।।१०।। पराये धनको हर कर भय-भीत हआ चोर थर-थर काँपता है और अपने घरको छोडकर संतप्त होता हुआ वह उत्पथ अर्थात् कुमार्गसे इधर-उधर भागता फिरता है ।। १०२ ।। क्या किसीने मुझे देखा है, अथवा नहीं देखा है, इस प्रकार धक् धक् करते हुए हृदयसे कभी वह चोर लुकता-छिपता है, कभी कहीं भागता है और इधर-उधर गिरता है तथा भयाविष्ट अर्थात् भयभीत होनेसे नींद नहीं ले पाता है।॥ १०३ ।। चोर अपने माता, पिता, गरु, मित्र, स्वामी और तपस्वीको भी कुछ नहीं गिनता है; प्रत्युत जो कुछ भी उनके पास होता है, उसे भी बलात् या छलसे हर लेता है ॥ १०४ ॥ चोर लज्जा, अभिमान, यश और शीलके विनाशको, आत्माके विनाशको और परलोकके भयको नहीं गिनता हुआ चोरी करनेका साहस करता है। १०५ ।। चोरको पराया द्रव्य हरते हुए देखकर आरक्षक अर्थात् पहरेदार कोटपाल आदिक रस्सियोंसे बांधकर, मोरबंधसे अर्थात कमरकी ओर हाथ बाँधकर पकड लेते हैं । १०६ । और फिर उसे टिटा अर्थात् जुआखाने या गलियोंमें घुमाते हैं और गधेकी पीठ पर चढाकर 'यह चोर है' ऐसा लोगोंके बीच में घोषित कर उसकी बदनामी फैलाते हैं । १०७ ॥ और भी जो कोई मनुष्य दूसरेका धन हरता है, वह इस १ ब. णिययप्रगेहं । २ झ. ब. संत्तट्ठो। ३ म. पलायमाणो। ४ झ. भयपत्थो, ब. झयवच्छो । ... ५झ.ब. पच्चेलिउ । ६झ कि घणं. व. कि वणं । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ श्रावकाचार-संग्रह अण्णो वि परस्स धणं जो हरई' सो एरिसं फलं लहइ । एवं भणिऊण पुणो णिज्जइ पुर-बाहिरे तुरियं ॥१०८ णेत्तुद्धारं अह पाणि-पायगहणं णिसुंभणं अहवा। जीवंतस्स विसूलावारोहणं कीरइ खलेहि' १०९ एवं पिच्छंता विहु परदव्वं चोरियाइ गेण्हति । ण मुणंति कि पि सहियं पेच्छह हो मोह माहप्पं ।। परलोए वि य चोरी चउगइ-संसार-सायर-निमण्णो। पावइ दुक्खमणंतं तेयं परिवज्जए तम्हा १११ परदारादोष-वर्णन बठूण परकलतं णिन्द्धी जो करेइ अहिलासं । णय कि पि तत्थ पावइ पावं एमेव अज्जेइ ११२ णिस्ससइ रुयइ गायइ णिययसिरं हणइ महियले पउह। परमहिलमलभमाणो असप्पलावं पिजपेइ।। चितेइ मं किमिच्छह ण वेइ सा केण वा उवाएण । 'अण्णेमि' कहमि कस्स वि ण वेत्ति चिताउरो सददं ॥११४ ण य कत्थ वि कुणइ रई मिट्ठ पि य भोयणं ण भुंजेइ । णिइं अलहमाणो अच्छइ विरहेण संतत्तो ॥१९५ लज्जाकुलमज्जायं छंडिऊण मज्जाइमोयणं किच्चा। परमहिलाणं चित्तं अमुणंतो पत्थणं कुणइ ॥११६ णेच्छंति जइ वि ताओ उवयारसयाणि कुणइ सो तह वि । णिन्भच्छिज्जंतो पुण अप्पाणं झूरइ विलक्खो। ११७ प्रकार फलको पाता है, ऐसा कहकर पुनः उसे तुरन्त नगरके बाहर ले जाते हैं ।। १०८ ॥ वहाँ ले जाकर खलजन उसकी आंखें निकाल लेते हैं, अथवा हाथ-पैर काट डालते हैं, अथवा जीता हुआ ही उसे शूलीपर चढा देते हैं ।। १०९ । इस प्रकारके इहलौकिक दुष्फलोंको देखते हुइ भी लोग चोरीसे पराये धनको ग्रहण करते हैं और अपने हितको कुछ भी नहीं समझते हैं, यह बडे आश्चर्यकी बात है। हे भव्यो, मोहके माहात्म्यको देखो ॥११०॥ परलोक में भी चोर चतुर्गतिरूप संसार-सागरमें निमग्न होता हुआ अनन्त दुःखको पाता है, इसलिए चोरीका त्याग करना चाहिए ।। १११ ।। जो निर्बुद्धि पुरुष परायी स्त्रीको देखकर उसकी अभिलाषा करता है, सो ऐसा करनेपर वह पाता तो कुछ नहीं है, केवल पापका ही उपार्जन करता है, ।। ११२॥ परस्त्री-लम्पट पुरुष जब अभिलषित पर-महिलाको नहीं पाता है, तब वह दीर्घ निःश्वास छोडता है रोता है कभी गाता है, कभी अपने शिरको फोडता है और कभी भूतल पर गिरता पडता है और असत्प्रलाप भी करता है ।। ११३ ।। परस्त्री-लम्पट सोचता है कि वह स्त्री मुझे चाहती है, अथवा नहीं चाहती ? मैं उसे किस उपायसे लाऊँ ? किसीसे कहूं, अथवा नहीं कहूं? इस प्रकार निरन्तर चिन्तातुर रहता है ॥ ११४ ।। वह परस्त्री-लम्पटी कहीं पर भी रतिको नहीं प्राप्त करता है, मिष्ट भी भोजनको नहीं खाता है और कुल-मर्यादाको छोडकर मद्य-मांस आदि निंद्य भोजनको करके परस्त्रियों के चित्तको नहीं जानता हुआ उनसे प्रार्थना किया करता है ।। ११६ ॥ इतने पर भी यदि वे स्त्रियां उसे नहीं चाहती हैं तो वह उनकी सैकडों खुशामदें करता है। फिर भी उनसे भर्त्सना किये जाने पर विलक्ष अर्थात् लक्ष्य-भ्रष्ट हुआ वह अपने आपको झूरता रहता है ।। ११७ ।। यदि वह लम्पटी १ झ हरेइ । २ ब. खिलेहि । ३ ब. मोहस्स । ४ अलभमाणो। ५ इ. -कुलकम्म, म. ब. ध. -कुलक्कम। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ वसुनन्दि-श्रावकाचार अह भुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बला धरेऊणं । किं तत्थ हवइ सुक्खं पच्चेल्लिउ पावए दुक्खं ।। ११८ अह कावि पावबहुला असई णिण्णासिऊण णियसीलं । सयमेव पच्छियाओ' उवरोहवसेण अप्पाणं ॥ ११९ जइ देइ तह वि तत्थ सुण्णहर-खंडदेउलयमज्झम्मि' । सच्चित्ते भयभीओ सोक्खं कि तत्थ पाउणइ ।। १२० सोऊण कि पि सह सहसा परिवेवमाणसव्वंगो।। ल्हुक्कइ पलाइ पखलइ चउद्दिसं णियइ भयभीओ ॥ १२१ जई पुण केण वि दीसइ णिज्जइ तो बंधिऊण णिवगेहं । चोरस्स णिग्गहं सो तत्थ वि पाउणइ सविसेसं ॥ १२२ पेच्छह मोहविडिओ लोगो क्ण एरिसं दोसं । पच्चक्खं तह वि खलो परिस्थिमहिलसदि" दुच्चित्तो ।। १२३ परलोयम्मि अणंतं दुक्खं पाउणइ इहभवसभुद्दम्मि । परयारा परमहिला तम्हा तिविहेण वज्जिज्जा ॥ १२४ सप्तव्यसनदोष-वर्णन रज्जन्मंसं वसणं बारह संवच्छराणि वणवासो। पत्तो तहावमाणं जूएण जुहिट्ठिलो राया ॥१२५ उज्जाणम्मि रमंता तिसाभिभूया जल त्ति णाऊण पिबिऊण जुण्णमज्जंणट्ठा ते जादवातेण।।१२६ मंसासणेण गिद्धो वगरक्खो एग चक्कणयरम्मि।रज्जाओ पन्भट्ठो अयसेण मुओ गओणरयं।।१२७ नहीं चाहनेवाली किसी पर-महिलाको जबर्दस्ती पकडकर भोगता है, तो वैसी दशामें वह उसमें क्या सुख पाता है ? प्रत्युत दुःखको ही पाता है ।। ११८ ।। यदि कोई पापिनी दुराचारिणी अपने शीलको नाश करके उपरोधके वशसे कामी पुरुषके पास स्वयं उपस्थित भी हो जाय, अपने आपको सौंप भी देवे ॥ ११९ ॥ तो भी उस शून्य गृह या खंडित देवकुल के भीतर रमण करता हुआ वह अपने चित्तमें भय-भीत होनेसे कहाँ पर क्या सुख पा सकता है ? ।। १२० ।। वहाँ पर कुछ भी जरासा शब्द सुनकर सहसा थर-थर काँपता हुआ इधर-उधर छिपता है, भागता है, गिरता है और भय-भीत हो चारों दिशाओंको देखता है।।१२१।। इसपर भी यदि कोई देख लेता है तो वह बांधकर राज-दरबारमें लाया जाता है और वहांपर वह चोरसे भी अधिक दंडको पाता है ।।१२२।। मोहकी विडम्बनाको देखो कि परस्त्री-मोहसे मोहित हुए खल लोग इस प्रकारके दोषों को प्रत्यक्ष देखकर भी अपने चित्तमें परायी स्त्रीकी अभिलाषा करतें हैं ।।१२३॥ परस्त्री-लम्पटी परलोकमें इस संसारसमुद्र के भीतर अनन्त दुःखको पाता है। इसलिए परिगृहीत या अपरिगृहीत परस्त्रियोंको मन वचन कायसे त्याग करना चाहिये ॥१२४॥ जूआ खेलनेसे युधिष्ठिर राजा राज्यसे भ्रष्ट हुए, बारह वर्ष तक वनवासमें रहे तथा अपमानको प्राप्त हुए ॥ १२५ ॥ उद्यानमें क्रीडा करते हुए प्याससे पीडित होकर यादवोंने पुरानी शराबको 'यह जल है' ऐसा जानकर पिया और उसीसे वे नष्ट हो गये ।। १२६ ।। एकचक्र १ झ. सयमेवं । २ ध.-प्रस्थिता। ३ झ. मज्झयारम्मि। ४ झ. म. भयभीदो। ५ झ. ब. भो चित्तं । ६ झ. ब. तो। ७ म. लुद्धो। ८ ब. एय० । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ श्रावकाचार-संग्रह सम्वत्थ णिवुणबुद्धी वेसासंगेण चारुदत्तो वि । खइऊण धणं पत्तो दुक्खं परदेसगमणं च ॥ १२८ होऊण चक्कवट्टी चउदहरयणारिओ' वि संपत्तो।मरिऊण बंभदत्तो णिरयं पारद्धिरमणेण ।। १२९ णासावहारतोसेण दंडणं पविऊण सिरिभूई । मरिऊण अदृझाणेण हिंडिओ वीहसंसारे ॥ १३० होऊण खयरणाहो वियक्खणो अद्धचक्कवट्टी विमरिऊण गओ णरयं परिथिहरणेण लंकेसो।१३१ एदे' महाणुभावा दोसं एक्केक-विसण-सेवाओपित्ताजो पुण सत्त वि सेवइ वणिज्जए कि सो।१३२ साकेते सेवंतो सत्त वि वसणाई रुद्ददत्तो वि । मरिऊण गओ गिरयं भमिओ पुण दोहसंसारे ।। १३३ नरकगतिदुःख-वर्णन सत्तण्हं विसणाणं फलेण संसार-सायरे जीवो। पावइ बहुदुक्खं तं संखेवेण वोच्छामि ॥ १३४ अइणिठ्ठरफरसाइं अइदुगंधाइं । असुहावहाई णिच्चं णिरएसुप्पत्तिठाणाई । १३५ तो ते समुप्पण्णो आहारेऊण पोग्गले असुहे । अंतोमुत्तकाले पज्जत्तीओ समाणेइ ॥ १३६ उववायाओ णिवडइ पज्जत्तयओ दंडत्ति महिवी अइकक्खडमसहंतो सहसा उप्पडदि पुण पडइ जई को वि उसिणणरए मेरुपमाणं खिवेइ लोहंडं। ण विपावइ धरणिमपत्तं सडिज्ज'' तं खंडखंडेहि नामक नगर में मांस खानेमें गृद्ध बक राक्षस राज्यपदसे भ्रष्ट हुआ, अपयशसे मरा और नरक गया ॥१२७।। सर्व विषयोंमें निपुण बुद्धि चारुदत्तने भी वेश्याके संगसे धनको खोकर दुःख पाया और परदेशमें जाना पडा ।। १२८ ॥ चक्रवर्ती होकर और चौदह रत्नोंके स्वामित्वको प्राप्त होकर भी ब्रह्मदत्त शिकार खेलनेसे मरकर नरकमें गया ।। १२९ ।। न्यासापहार अर्थात् धरोहरको अपहरण करनेके दोषसे दंड पाकर श्रीभूति आर्तध्यानसे मरकर संसार में दीर्घकाल तक रुलता फिरा ।।१३०।। विचक्षण, अर्धचक्रवर्ती और विद्याधरोंका स्वामी होकर भी लंकाका स्वामी रावण परस्त्रीके हरणसे मरकर नरकमें गया ।।१३१।। ऐसे ऐसे महानभाव एक एक व्यसनके सेवन करने से दु:खकाप्राप्त हुए। फिर जो सातों ही व्यसनों को सेवन करता है, उसके दुःखका क्या वर्णन किया जा सकता है ।। १३२ ।। साकेत नगरमें रुद्रदत्त सातों ही व्यसनोंको सेवन करके मरकर नरक में गया और फिर दीर्घकाल तक संसारमें भ्रमता फिरा ।। १३३ ।। सातों व्यसनोंके फलसे जीव संसार-सागरमें जो भारी दुःख पाता है, उसे मैं संक्षेपसे कहता हूँ ।। १३४ ॥ नरकोंमें नारकियोंके उत्पन्न होने के स्थान अत्यन्त निष्ठुर स्पर्शवाले हैं, पीप और रुधिर आदिक अति दुर्गन्धित और अशुभ पदार्थ उनमें निरन्तर बहते रहते हैं। उनमें उत्पन्न होकर नारकी जीव अशुभ पुद्गलोंको ग्रहण करके अन्तमुंहूर्त कालमें पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है । १३५-१३६ ।। वह नारकी पर्याप्तियोंको पूरा कर उपपादस्थानसे दडेके समान महीपृष्ठपर गिर पडता है । पु:न नरकके अति कर्कश धरातलको नहीं सहन करता हुआ वह सहसा ऊपरको उछलता है और फिर नीचे गिर पडता है । १३७ ।। यदि कोई उष्णवेदनावाले नरकमें मेरु-प्रमाण लोहेके गोले फेंके, तो वह भूतलको नहीं प्राप्त होकर अन्तरालमें ही बिला जायगा अर्थात् गल जायगा । (नरकोंमें ऐसी उष्ण वेदना है)।। १३८ ।। यदि १ ब. -रयणीहिओ । २ ब. गयउ । ३ प. एए। ४ झ. ब. वसण । ५ प साकेए । ६ ब. असुहो । ७ झ. दड त्ति, उदय ति ८ ब. प. महिंवट्टे म. महीविढे ९ इ. विलयम् जत्तंत०, झ विलज्जतं, विलिज्जतं अंत० । म. विलयं जात्यंत । मूला राधना गा० १५६३ । १० झ. तेवर्ड, ब. ते वर्ल्ड । ११ झ. संडेज्ज, म सडेज्ज । मलारा. १५६४ । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४३७ तं तारिससीदुण्हं खेत्तसहावेण होइ णिरएसु । विसहइ जावज्जीवं वसणस्स फलेणिमोजीओ।।१४० तोतम्हि जायमत्ते सहसा वठ्ठण णारया सवे पहरंति सत्ति-मुग्गर'-तिसूल-णाराय-खगहिं ।। १४१ तोखंडिय-सव्वंगो करुणपलावं रुवेह दीणमहो।पभणंति तओ रुट्ठा कि कंदसि रे दुरायारा॥१४२ जोवणमएण मत्तो लोहकसाएण रंजिओ पुव्वं । गुरुवयणं लंधित्ता जूयं रमियो जं आसि' ॥ १४३ तस्स फलमुदयमागयमलं हि रुयणेण विसहरें दुट्ट रोवंतो वि ण छुट्टसि कयावि पुवकयकम्मस्स एवं सोऊण तओ माणसदुक्खं वि से समुप्पण्णं । तो दुविह-दुक्खदड्ढोरोसाइट्ठो इमं भणइ । १४५ जइ वा पुस्वम्मि भवे जूयं रमियं मए मदवसेण । तुम्ह' को अवराहो कओबला जेण मं' हणह॥ एवं मणिए चित्तूण सुठु द्रुहि अग्गिकुंडम्मिापज्जजलम्मिणिहित्तो डज्झइसो १२ अंगमंगेसु ।१४७ तत्तोणिस्सरमाणं दळूण ज्झसरेहि' अहव कुतेहिं । पिल्लेऊण रडतं तत्थेव छुहंति अदयाए ।। १४८ हा मुयह मंमा पहरह पुणो वि ण करोमि एरिसं पावं । दंतेहि अंगुलोओ धरेइ करुणं१४ पुणो रुवइ॥ ण मुयंति तह वि पावा पेच्छइ लीलाए कुणइ जंजोवो'तपावंविलवंतोएहि दुहिणित्थरइ'" कोई उतने ही बडे लोहेके गोलेको शीतवेदनावाले नरकमें फेंके, तो वह धरणीतलको नहीं प्राप्त होकर ही सहसा खड खंड होकर बिखर जायगा । (नरकोंमें ऐसी शीतवेदना)।। १३९ ।। नरकोंमें इस प्रकारको सर्दी और गर्मी क्षेत्रके स्वभाव से होती है । सो व्यसनके फलसे यह जोव ऐसी तीव्र शीत-उष्ण वेदनाको यावज्जीवन सहा करता है ।। १४० ।। उस नरकमें जीवके उत्पन्न होनेके साथ ही उसे देखकर सभी नारकी सहसा-एकदम शक्ति, मुद्गर, त्रिशूल, बाण और खड्गसे प्रहार करने लगते हैं ।। १४१ ।। नारकियोंके प्रहारसे खंडित हो गये हैं सर्व अंग जिसके, ऐसा वह नवीन नारकी दीन-मुख होकर करुण प्रलाप करता हुआ रोता है । तब पुराने नारकी उसपर रुष्ट होकर कहते हैं कि रे दुराचारी, अब क्यों चिल्लाता है ।। १४२ ।। यौवनके मदसे मत्त होकर और लोभकषायसे अनुरंजित होकर पूर्व भवमें तूने गुरुवचनको उल्लंघन कर जुआ खेला है ।। १४३ ।। अब उस पापका फल उदय आया है, इसलिए रोनेसे बस कर, और रे दुष्ट, अब उसे सहन कर । रोनेसे भी पूर्वकृत कर्मके फलसे कभी भी नहीं छूटेगा ।। १४४ ।। इस प्रकारके दुर्वचन सुननेसे उसके भारी मानसिक दुःख भी उत्पन्न होता है। तब वह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकारके दुःखसे दग्ध होकर और रोषमें आकर इस प्रकार कहता है ।। १४५ ।। यदि मैंने पूर्व भवमें मदके वश होकर जुआ खेला है, तो तुम्हारा क्या अपराध किया है, जिसके कारण जबर्दस्ती तुम मुझे मारते हो । १४६ ।। ऐसा कहनेपर अतिरुष्ट हुए वे नारकी उसे पकडकर प्रज्वलित अग्निकुण्डमें डाल देते हैं, जहां पर वह अंग-अंगमें अर्थात् सर्वाङ्ग में जल जाता है ।। १४७ ।। उस अग्निकुण्डसे निकलते हुए उसे देखकर झसरोंसे (शस्त्र-विशेषसे)अथवा भालोंसे छेदकर चिल्लाते हए उसे निर्दयतापूर्वक उसी कुण्डमें डाल देते हैं ।। १४८ । हाय, मुझे छोड दो, मुझ पर मत प्रहार करो, मैं ऐसा पाप फिर नहीं करूंगा, इस प्रकार कहता हुआ वह दांतोंसे अपनी अंगुलियां दबाता है और करुण प्रलाप-पूर्वक पुनः रोता है ।। १४९ ।। तो भी वे पापी नारकी उसे नहीं छोडते हैं । देखो, जीव जो पाप लीलासे-कुतुहल मात्रसे, करता है, उस पापसे विलाप करते हुए वह उपर्युक्त दुःखोको १ ब. मोग्गर-। २ ब. खंडय० । ३ इ. जं मांसि । ४ ब. रुण्णेण । ५ इ. नं, झ. ब. त। ६ ब. कयाई। ७ इ. झ म विसेसमप्पण्णं । ८ इ ब. या। ९ इ तुम्हे, झ. तोम्हि, ब तोहितं । १० इ. महं, म.हं। ११ इ. हणहं । १२ इ. मुद्ध, म मुधा । १३ इ तासे हि, म. ता सही। १४ झ. ब. कलणं । १५ इ. जूवो। १६ ब. एयहं । १७ म. णित्थरो हं हो। प. णिच्जरइ। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ श्रावकाचार-संग्रह तत्तोपलाइऊणं कह वि य माएण'वड्ढसव्वंगो। गिरिकंदरम्मि सहसा पविसइ सरणं त्ति मण्णत्तो॥ तत्थ वि पडंति उरि सिलाउ तो ताहि चण्णिओ संतो। गलमाणरुहिरधारो रडिऊण खणं तओ णोइ' ॥ १५२ रइयाण सरीरंकीरइ जइतिलपमाणखंडाइ।पारद-रसुव्व लग्गइ अपुण्णकालम्मि ण मरेइ ।। १५३ तत्तो पलायमाणो रुंभइ सोणारएहिं दळूण। पाइज्जइ विलवंतो अय-तंबय-कलयलं तत्तं ॥१५४ पच्चारिज्जइजते पीयं मज्ज महं च पुस्वभवे । तं पावफलं पत्तं पिबेहि अयकलयलं घोरं ।। १५५ कह वि तओ जइ छुट्टो असिपत्तवणम्मि विसइ भयभीओ। णिबडंति तत्थ पत्ताई खग्गसरिसाइं अणवरयं ।। १५६ तो तम्हि पत्तपडणेण छिण्णकर-चरण भिण्णपुद्धि-सिरो। पगलंतरुहिरधारो कंदतो सो तओ णीइ° । १५७ तुरियं पलायमाणं सहसाधरिऊण णारया कूरा। छित्तूण तस्स मंसं तुंडम्मि छुहंति'' तस्सेव ।। १५८ भोत्तुं अणिच्छमाणं णियमंसं तो भणंति रे दुटु । अइमिट्ठ भणिऊण भक्खंतो आसि जं पुष्वं । १५९ भोगता है ।। १५० ।। जबर्दस्ती जला दिये गये हैं सर्व अंग जिसके, ऐसा वह नारकी जिस किसी प्रकार उस अग्निकुण्डसे भागकर पर्वतकी गुफामें 'यहां शरण मिलेगा ऐसा समझता हुआ सहसा प्रवेश करता है ।। १५१ ।। किन्तु वहांपर भी उसके ऊपर पत्थरोंकी शिलाएं पडती हैं, तब उनसे चूर्ण होता हुआ और जिसके खूनकी धाराएँ बह रही हैं, ऐसा होकर चिल्लाता हुआ क्षणमात्रमें वहांसे निकल भागता है।। १५२ ।। नारकियोंके शरीरके यदि तिल-तिलके बराबर भी खंड कर दिये जावें, तो भी वह पारेके समान तुरन्त आपसमें मिल जाते हैं, क्योंकि, अपूर्ण कालमें अर्थात् असमयमें नार में मरता है।। १५३॥उस गफामेंसे निकलकर भागता हआ देखकर वह नारकियोंके द्वारा रोक लिया जाता है और उनके द्वारा उसे जबर्दस्ती तपाया हुआ लोहा तांबा आदिका रस पिलया जाता है ।। १५४ ।। वे नारकी उसे याद दिलाते हैं कि पूर्व भवमें तूने मद्य और मधुको पिया है, उस पापका फल प्राप्त हुआ है, अतः अब यह घोर 'अयकलकल' अर्थात् लोहा, तांबा आदिका मिश्रित रस पी ।। १५५ ॥ यदि किसी प्रकार वहांसे छूटा, तो भयभीत हुआ वह असिपत्र बनमें, अर्थात् जिस वनके वृक्षोंके पत्ते तलवारके समान तीक्ष्ण होते हैं, उसमें 'यहां शरण मिलेगा' ऐसा समझकर घुसता है। किन्तु वहांपर भी तलवारके समान तेज धारवाले वृक्षोंके पत्ते निरन्तर उसके ऊपर पडते हैं ।। १५६ । जब उस असिपत्रवनमें पत्तोंके गिरने से उसके हाथ, पैर, पीठ, शिर आदि कट-कटकर अलग हो जाते हैं, और शरीरसे खूनकी धारा बहने लगती है, तब वह चिल्लाता हुआ वहांसे भी भागता है ।। १५७ ।। वहांसे जल्दी भागते हुए उसे देखकर क्रूर नारकी सहसा पकडकर और उसका मांस काटकर उसीके मुंहमें डालते हैं । १५८ ॥ जब वह अपने मांसको नहीं खाना चाहता है, तब वे नारको कहते हैं कि, अरे दुष्ट, तू तो पूर्व भवमें परजीवोंके मांसको बहुत मीठा कहकर खाया १ झ. वयमाएण, ब वपमाएण । २ इ. तेहि । ३ म. णियइ । ४ ब. णाइज्जइ । म. पविज्जइ । ५ इ. अयवयं, य. अससंवय । ६ कलयल-ताम्र-शीसक-तिल-सर्जरस-गुग्गुल-सिक्थक-लवण-जतु-वज्रलेपाः क्वाथयित्वा मिलिता 'कलकल' इत्युच्यन्ते । मूलारा० गा० १५६९ आशाधरी टोका। ७ ब. म. तो। ८ ब तव । ९ झ वच्छ० । १० इ. म. णियइ । ११ इ. छहंति । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार तं कि ते विस्तरियं जेण मुहं कुणसि रे पराहुत्तं । एव भणिऊण कुसि छुहिति तुंडम्मि पज्जलियं ।। १६० अइतिव्वदाहसंताविओ तिसावेयणासमभिभओ । किमि - इ - रुहिरपुण्णं वइतरणिण तओ विसइ ॥ १६१ तत्थ वि पविट्ठमित्तो' खारुण्हजलेण दड्ढसव्वंगो । freers तओ तुरिओ हाहाकार पकुब्वती ।। १६२ दट्ठूण णारया णीलमंडवे ' तत्तलोहपडिमाओ । आलिंगाविति तहि धरिऊण बला विलवमाणं ॥ १६३ अगणित्ता गुरुवयणं परिस्थि-वेसं च आसि सेवंतो । एहिं तं पावफलं ण सहसि किं रुवसि तं जेण ।। १६४ पुव्यभवे जं कम्मं पंचिदियवसगएण जीवेण हसमाणेण विबद्धं तं कि णित्थरसि रोवंतो ।। १६५ किकवाय गिद्ध - वायसरूवं धरिऊण णारया चेव । ४पहरंति वज्जमयतुंड - तिक्खणहरेहि" दयरहिया ।। १६६ धरिऊण उड्ढजंघ करकच- चक्केहिं केइ फार्डति । मुसलेह मुग्गरेहिय चुण्णी चुण्णी कुणंति परे ।। १६७ जिमाछेयण णयणाण फोडणं दंतचूरणं दलणं । मलणं कुणंति खंडंति केई तिलमत्तखंडेहि ।। १६८ ४३९ करता था ।। १५९ ।। सो क्या वह तू भूल गया है, जो अब अपना मांस खानेसे मुंहको मोडता है, ऐसा कहकर जलते हुए कुशको उसके मुखमें डालते हैं ।। १६० ।। तब अति तीव्र होकर और प्यासकी प्रबल वेदनासे परिपीडित हो वह ( प्यास बुझाने की इच्छा से) कृमि, पीप और रुधिरसे परिपूर्ण वैतरणी नदीमें घुसता है । १६१ ।। उसमें घुसते ही खारे और उष्ण जलसे उसका सारा शरीर जल जाता है, तब वह तुरन्त ही हाहाकार करता हुआ वहांसे निकलता है ।। १६२ । नारकी उसे भागता हुआ देखकर और पकडकर काले लोहेसे बनाये गये नील- मंडप में ले जाकर विलाप करते हुए उसे जबर्दस्ती तपाई हुई लोहेकी प्रतिमाओंसे ( पुतलियोंसे ) आलिंगन कराते हैं ।। १६३ ।। और कहते हैं कि- गुरुजनोंके वचनोंको कुछ नहीं गिनकर पूर्वभव में तूने परस्त्री और वेश्या का सेवन किया है। अब इस समय उस पापके फलको क्यों नहीं सहता है, जिससे कि रो रहा है ।। १६४ ।। पूर्वभव में पांचों इन्द्रियोंके वश होकर हँसते हुए रे पापी जीव, तूने जो कर्म बांधे हैं, सो क्या उन्हें रोते हुए दूर कर सकता है ? ।। १६५ ।। वे दया- रहित नारकी जीव ही कृकवाक ( कुक्कुट - मुर्गा ) गिद्ध, काक, आदिके रूपोंको धारण करके वज्रमय चोंचोंसे, तीक्ष्ण नखों और दांतोंसे उसे नोचते हैं ।। १६६ ।। कितने ही नारकी उसे ऊर्ध्वजंघ कर अर्थात् शिर नीचे और जांघें ऊपर कर करकच (करोंत या आरा) और चक्रसे चीर फाड डालते हैं । तथा कितने ही नारकी उसे मूसल और मुद्गरोंसे चूरा-चूरा कर डालते हैं ।। १६७ ।। कितने हो नारकी जीभ काटते हैं, आंखें फोडते हैं, दाँत तोडते हैं और सारे शरीरका दलन-मलन करते हैं। कितने ही नारकी तिल -प्रमाण खंडोंसे उसके टुकडे-टुकडे कर डालते हैं ।। १६८ ।। कितने ही नारकी तपाये हुए तीक्ष्ण रेतीले १ ब. सत्तो. प. म. मित्ता । २ काललोहघटितमडपे । मूलाराधना गा० १५६९ विजयो. टीका । ३ प० णिरसि, झ. ब. णिच्छरसि । ४ प. पहणंति । ५ इ. तिक्खर्णादि : मूलारा० १५७१ । चुणीकुव्वंति परे णिरया । ६ म. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह अण्णे कलंकवालय' थलम्मि तत्तम्मि पाडिऊण पुणो। लोट्टाविति रडतं णिहणंति घसंति भूमीए । असुरा वि कूरपावा तत्थ वि गंतूण पुव्ववेराई । सुमराविऊण तओ जुद्धं लायंति अण्णोण्णं ॥ १७० सत्तव अहोलोए पुढवीओ तत्थ सयसहस्साइं। णिरयाणं चुलसीई सेटिंद-पइण्णयाण हवे ।। १७१ रयणप्पह-सक्करपह-बालुप्पह-पंक-धूम-तमभासा ।। तमतमपहा य पुढवीणं जाण अणुवत्थणामाई' ।। १७२ . पढमाए पुढवीए वाससहस्साई वह जहण्णाऊ । समयम्मि वणिया सायरोवमं होई उक्कस्सं' ।। १७३ पढमाइ जमुक्कस्सं विदियाइसु साहियं जहण्णं तं । तिय सत्त दस य सत्तरस दुसहिया बीस तेत्तीसं ॥ १७४ सायरसंखा एसा कमेण विदियाइ जाण पुढवोसु । उक्कस्साउपमाणं णिहिट्ठ जिणरिदेहि ।। १७५ एत्तियपमाणकालं सारीरं माणसं बहुपयारं । दुक्खं सहेइ तिव्वं वसणस्स फलोणमा जावा ।। १७६ तिर्यंचगतिदुःख-वर्णन तिरियगईए वि तहा थावरकाएसु बहुपयारेसु । अच्छइ अणंतकालं हिंडतो जोणिलक्खेसु। १७७ कहमवि णिस्सरिऊणं तत्तो विलिदिएसु संभवइ । तत्थ वि किलिस्समाणो कालमसंखेज्जयं वसइ ॥ १७८ मैदानमें डालकर रोते हुए उसे लोट-पोट करते हैं, मारते हैं, और भूमिपर घसीटते हैं ।। १६९ ।। क्रूर और पापी असुर जातिके देव भी वहां जाकर और पूर्वभवके वैरोंकी याद दिलाकर उन नारकियोंको आपसमें लडवाते हैं ।। १७० ।। अधोलोकमें सात पृथिवियाँ हैं, उनमें श्रेणीबद्ध, इन्द्रक और प्रकीर्णक नामके चौरासी लाख नरक हैं ।। १७१।। उन पथिवियोंके रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और तमस्तमप्रभा (महातमप्रभा) ये अन्वर्थ अर्थात् सार्थक नाम जानना चाहिए ।। १७२। परमागममें प्रथम पृथिवीके नारकियोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी कही गई है, और उत्कृष्ट आय एक सागरोपम होती है।॥१७३।। प्रथमादिक पृथिवियोंमें जो उत्कृष्ट आयु होती है, कुछ अधिक अर्थात् एक समय अधिक वही द्वितीयादिक पृथिवियोंमें जघन्य आय जानना चाहिए। जिनेन्द्र भगवानने द्वितीयादिक पृथिवियोम उत्कृष्ट आयुका प्रमाण क्रमसे तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सत्तरह सागर, बाईस सागर और तैंतीस सागर प्रमाण कहा है ।। १७४-१७५ ।। व्यसन-सेवनके फलसे यह जीव इतने ( उपर्युक्त-प्रमाण) काल तक नरकोंमें अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक तीव दुःखको सहन करता है ।। १७६ ।। __इसी प्रकार व्यसन-सेवनके फलसे यह जीव तिर्यञ्च गतिकी लाखों योनिवाली बहुत प्रकारकी स्थावरकायकी जातियोंमें अनन्त काल तक भ्रमण करता रहता है ।। १७७ ।। उस स्थावकायमेंसे किसी प्रकार निकलकर विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें उत्पन्न होता है, तो वहां भी क्लेश उठाता हुआ असंख्यात काल तक परिभ्रमण करता रहता है । १७८ ।। ...१ कलववालुय- कदंबप्रसूनाकारा वालुकाचितदुःप्रवेशाः वज्रदलालकृत-खदिरांगार-कणप्रकरोप मानाः। मूलारा० गा० १५६८ विजयोदया टीका। २ व जुप्स । ३ इ. अनुतृतथ०, म अणुवट्ठ । ४ मुद्रितप्रती गाथेयं रिक्ता। . Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ वसुनन्दि-श्रावकाचार तो खिल्लविल्लजोएण कह वि पंचिदिएसु उववण्णो । तत्थ वि असंखकालं जोणिसहस्सेसु परिभमइ ॥ १७९ छेयण-भेयण-ताडण-तासण-णिल्लंछणं तहा दमणं । णिक्खलण-मलण-दलणं पउलण उक्कत्तणं चेव' ।। १८० २ बंधण-भारारोवण लंछण पाणण्णरोहणं सहणं । सोउण्ह-भुक्ख-तण्हादिजाण तह पिल्लयविओय' ॥ १८१ इच्चेवमाइ बहुयं दुक्खं पाउणइ तिरियजोणीए । विसणस्स फलेण जदो वसणं परिवज्जए तम्हा ।। १८२ मनुष्यगतिदुःख-वर्णन मणयत्ते वि य जीवा दुक्खं पावंति बहुवियप्पेहि । इटाणिठेसु सया वियोय-संयोयज तिव्वं ॥ १८३ उप्पण्णपढमसमयम्हि कोई जणणीइ छंडिओ संतो । कारणवसेण इत्थं सीउण्ह-भुक्ख-तण्हाउरो मरई ॥ १८४ बालत्तणे वि जीवो माया-पियरेहि कोवि परिहोणो उच्छिठें भक्खंतो जीवइ दुक्खेण परगेहे।।१८५ यदि कदाचित् खिल्लविल्ल योगसे* पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हो गया, तो वहां भी असंख्यात काल तक हजारों योनियोंमें परिभ्रमण करता रहता है ॥ १७९ ।। तिर्यञ्च योनिमें छेदन, भेदन, ताडन, त्रासन, निलांछन ( बधिया करना ), दमन, निक्खलन ( नाक छेदन ), मलन, दलन, प्रज्वलन, उत्कर्तन, बंधन, भारारोपण, लांछन ( दागना), अन्न.पान-रोधन, तथा शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि बाधाओंको सहता है, और पिल्लों (बच्चों) के वियोग-जनित दुखको भोगता है। ।। १८०१८१ ।। इस प्रकार व्यसनके फलसे यह जीव तिर्यञ्च-योनिमें उपर्युक्त अनेक दुःख पाता है, इसलिए व्यसनका त्याग कर देना चाहिए ॥ १८२ ।। मनुष्य भवमें भो व्यसनके फलसे ये जीव सदैव बहुत प्रकारसे इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में वियोग-संयोगसे तीव्र दुःख पाते हैं ।। १८३ ।। उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही कारणवशसे.माताके द्वारा छोडे गये कितने ही जीव इस प्रकार शीत, उष्ण, भूख और प्याससे पीडित होकर मर जाते हैं ।। १८४ ।। बालकपन में ही माता-पितासे रहित कोई जीव १ मूलारा० गा० १५८२ । २ मूलारा० गा० १५८३ । ३ स्तनन्धयवियोगमित्यर्थः । ४.ध. प. जाईए । ५ झ. ब. मणुयत्तेण । । मण्यत्तणे । 8 इतः पूर्व झ. ब. प्रत्योः इमे गाथेऽधिके उपलभ्यतेतिरिएहिं खज्जमाणो दुटुमणस्सेहिं हम्ममाणो वि । सम्वत्थ वि संतट्ठो विसहदे भीमं ॥१॥ अण्णोण्णं खज्जता तिरिया पावंति दारुणं दुक्ख । माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ राखंदि॥२॥ तिर्यचोंके द्वारा खाया गया. दृष्ट शिकारी लोगोंके द्वारा मारा गया और सब ओरसे संत्रस्त होता हुआ भय-जनित भयंकर दुःख को सहता है ॥१॥ तिथंच परस्परमें एक दूसरेको खाते हुए दारुण दुःख पाते हैं। जिस योनिमें माता भी अपने पत्रको खा लेती है, वहां दुसरा कौन रक्षा कर सकता है ।। २ ॥ -स्वामिकाति० अन०, गा० ४१-४२ * भाड़ में भुनते हुए धान्यमें से दैववशात् जैसे कोई एक दाना उछलकर बाहिर आ पड़ता है उसी प्रकार दैववशात् एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियोंमें से कोई एक जीव निकलकर पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो जाता है, तब उसे खिल्लविल्ल योगसे उपन्न होना कहते हैं। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ श्रावकाचार-संग्रह पूव्वं दाणं दाऊण को वि सधणो जणस्स जहजोगं । पच्छा सो धणरहिओ ण लहइ कूरं पि जायंतो ।। १८६ अण्णो उ पावरोएण' बाहिओ णयर-बज्झदेसम्मि । अच्छइ सहायरहिओ ण लहइ सघरे वि चिटेउं ॥ १८७ तिसओ वि भुक्खिओ हं पुत्ता मे देहि पाणमसणं च । एवं कूवंतस्स वि ण कोइ वयणं च से देइ ।। १८८ तो रोय-सोयभरिओ-सव्वेसि सव्वहियाउ" दाऊण । दुक्खेण मरइ पच्छा धिगत्थु मणुयत्तणमसारं ।। १८९ अण्णाणि एवमाईणि जाणि दुक्खाणि मणुयलोयम्मि । दीसंति ताणि पावइ वसणस्स फलेणिमो जीवो ॥ ११० दवगतिदुःख-वर्णन किंचवसमेण पावस्स कह वि देवत्तणं वि संपत्तो । तत्थ वि पावइ दुक्खं विसणज्जियकम्मपागण । १९१ दटूण महढ्डीणं देवाणं ठिइज्जरिद्धिमाहप्पं । अप्पडिढओ विसूरइ माणसदुक्खेण डझंतो॥ १९२ हा मणुयभवे उप्पज्जिऊण तव-संजमं वि लभृण । मायाए जं वि कयं देवदुग्गयं तेण संपत्तो। १९३ कंदप्प-किब्भिसासुर-वाहण-सम्मोह देवजाईसु । जावज्जीवं णिवसइ विसहंतो माणसं दुक्खं ।। १९४ पराये घरमें जूठन खाता हुआ दुःखके साथ जीता है ।। १८५ ।। यदि कोई मनुष्य पूर्वभवमें मनुष्योंको यथायोग्य दान देकर इस भवमें धनवान् भी हुआ और पीछे (पाप उदयसे) धन-रहित हो गया, तो मांगनेपर खानेको कूर (भात) तक नहीं पाता है ।। १८६ ।। कोई एक मनुष्य पापरोग अर्थात् कोढसे पीडित होकर नगरसे बाहर किसी एकान्त प्रदेश में सहाय-रहित होकर अकेला रहता है, वह अपने घरमें भी नहीं रहने पाता ।। १८७ ।। मैं प्यासा हुं और भूखा भी हूं; बच्चो, मुझे अन्न जल दो-खाने-पीनेको दो-इस प्रकार चिल्लाते हुए भी उसको कोई वचनसे भी आश्वासन तक नहीं देता है ।। १८८ ।। तब रोग-शोकसे भरा हुआ वह सब लोगोंको नाना प्रकारके कष्ट देकरके पीछे स्वयं दुःखसे मरता है। ऐसे असार मनुष्य जीवनको धिक्कार है ।। १८९ ।। इन उपर्युक्त दुःखोंको आदि लेकर जितने भी दुःख मनुष्यलोकमें दिखाई देते हैं, उन सबको व्यसनके फलसे यह जीव पाता है ।। १९० ॥ यदि किसी प्रकार पापके कुछ उपशम होनेसे देवपना भी प्राप्त हुआ तो, वहांपर भी व्यसन-सेवनसे उपाजित कर्मके परिपाकसे दुःख पाता है । १९१ ।। देव,पर्यायमें महद्धिक देवोंकी अधिक स्थिति.जनित ऋद्धिके माहात्म्यको देखकर अल्प ऋद्धिवाला वह देव मानसिक दुःखसे जलता हुआ, विसूरता (झूरता) रहता है ।। १९२ ।। और सोचा करता है कि हाय, मनुष्य-भवमें भी उत्पन्न होकर और तप-संयमको भी पाकर उसमें मैंने जो मायाचार किया, उसके फलसे में इस देव-दुर्गतिको प्राप्त हुआ हूँ, अर्थात् नीच जातिका देव हुआ हूँ ।। १९३ ।। कन्दर्प, किल्विषिक, असुर, वाहन, सम्मोहन आदि देवोंकी कुजातियोंमें इस प्रकार मानसिक दुःख सहता हुआ वह यावज्जीवन निवास करता है ।। १९४ देवगतिमें छह मास आयुके शेष रह जानेपर वस्त्र और आभूषण मैले । कुष्टरोगेणेत्यर्थः । २ ध. 'पभुक्खिओ' ३ व. देह। ४ (कूजंतस्स ? ) । ५ ब सवहियाउ । सर्वाहितान् इत्यर्थः । ६ इ. कं कप्प, झ. बि जं कयं । ७ इ. समोह । . Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४४३ छम्मासाउयसेसे वत्थाहरणाई हुंति मलिणाई । णाऊण चवणकालं अहिययरं रुयइ सोगेण ।। १९५ हा हा कह णिल्लोए' किमिकुलभरियम्मि अइदुगंधम्मि । णवमासं पुइ-रुहिराउलम्मि गब्भम्मि वसियव्वं ।। १९६ किं करमि कत्थ वच्चम्मि कस्स साहामि जामि के सरणं । ण वि अत्थि एत्थ बंधू जो मे धारेइ णिवडतं ॥ १९७ वज्जाउहो महप्पा एरावण-वाहणो सुरिदो वि। जावज्जीवं सो सेविओ विण धरेइ मंतहवि ॥ १९८ जई मे होहिहि मरणं ता होज्जउ किंतु मे समुप्पत्ती। एगिदिए जाइज्जा णो मणुस्सेसु कइया वि ।। १९९ अहवा कि कुणइ पुराज्जियम्मि उदयागयम्मि कम्मम्मि । सक्को वि जदो ण तरइ अप्पाणं रक्खिउं काले ॥ २०० एवं बहुप्पयारं सरणविरहिओ खरं विलबमाणो । एइंदिएसु जायइ मरिऊण तओ णियाणेण ॥२०१ तत्थ वि अणंतकालं किलिस्समाणो सहेइ बहुदुक्खं । मिच्छत्तसंसियमई जीवो किं कि दुक्खं ण पाविज्जइ ॥ २०२ पिच्छह दिव्वे भोये जीवो भोत्तण देवलोयम्मि । एइंदिएसु जायइ धिगत्थ संसारवासस्स ॥२०३ एवं बहुप्पयारं दुक्खं संसार-सायरे घोरे । जीवो सरण-विहीणो विसणस्स फलेण पाउणइ ।। २०४ दर्शनप्रतिमा *पंचुंबरसहियाई परिहरेइ इय जो सत्त विसणाई । सम्मत्तविसुद्धमई सो सणसावयो भणिओ। अर्थात् कान्ति-रहित हो जाते हैं, तब वह अपना च्यवन-काल जानकर शोकसे और भी अधिक रोता है ।। १९५ और कहता है कि हाय हाय, किस प्रकार अब मैं मनुष्य-लोकमें कृमि-कुल-भरित, अति दुर्गन्धित, पीप और खूनसे गर्भ में नौ मास रहूँगा ? ॥ १९६ ।। मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किससे कहूँ, किसको प्रसन्न करूँ, किसके शरण जाऊँ यहा पर मेरा कोई भी ऐसा बन्धु नहीं है, जो यहाँसे गिरते हुए मझे बचा सके ।। १९७ ।। वज्रायुध, महात्मा, ऐरावत हाथीकी सवारीवाला और यावज्जीवन जिसकी सेवा की है, ऐसा देवोंका स्वामी इन्द्र भी मुझे यहाँ नहीं रख सकता है ।। १९८ ।। यदि मेरा मरण हो, तो भले ही हो, किन्तु मेरी उत्पत्ति एकेन्द्रियोंमें होवे, पर मनुष्योंमें तो कदाचित् भी नहीं होवे ।। १९९ ॥ अथवा अब क्या किया जा सकता है, जब कि पूर्वोपाजित कर्मके उदय आनेपर इन्द्र भी मरण-कालमें अपनी रक्षा करने के लिए शक्त नहीं हैं।। २००।। इस प्रकार शरण-रहित होकर वह देव अनेक प्रकारके करुण विलाप करता हुआ निदानके फलसे वहाँसे मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है ।। २०१ ।। वहाँ पर भी अनन्त काल तक क्लेश पाता हुआ बहुत दुःखको सहन करता है । सच बात तो यह है कि मिथ्यात्वसे संसिक्त बुद्धिवाला जीव किस-किस दुःखको नहीं पाता है ।। २०२ ॥ देखो, देवलोकमें दिव्य भोगोंको भोगकर यह जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है ऐसे संसार-वासको धिक्कार है ।। २०३ ।। इस तरह अनेक प्रकारके दुःखोंको घोर संसार-सागरमें यह जीव शरण-रहित होकर अकेला ही व्यसनके फलसे प्राप्त होता है ।। २०४ ।। जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध-बुद्धि जीव इनपंच उदुम्बर सहित सातों व्यसनोंका परित्याग । नृलोके । २ इ. करम्मि । ३ वज्रायुध : । ४ ब. प्रतौ 'दुक्खं' इति पाठो नास्ति । ५ झ पाविज्जा। प. पापिज्ज । ६ प. पेच्छह । ७ ब. धिगत्थ ८ प. ध. प्रत्योः इय पदं गाथारम्भेऽस्ति । * उदुंबराणि पंचव सप्त च व्यसनान्यापे । वर्जयेद्यः सः सागारो भवेद्दार्शनिकाव्हयः ११२। गुणश्रा० For Private & Personal use only | Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ श्रावकाचार-संग्रह एवं सणसावयठाणं पढम समासओ भणियं । वयसावयगुणठाणं एत्तो विवियं पवक्खामि ॥ २०६ द्वितीय व्रतप्रतिमा-वर्णन *पंचेव अणुव्वयाइं गुणन्वयाइं हवंति पुण' तिण्णि । सिक्खावयाणि चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि ॥ २०७ पाणाइवायविरई सच्चमदत्तस्स वज्जणं चेव । थूलयड बंभचेर इच्चाए गंथपरिमाणं ॥ २०८ ते तसकाया जीवा पुवुद्दिट्ठा ण हिंसियव्वा ते । एइंदिया वि णिक्कारणेण पढमं वयं थूलं ।। २०९ अलियं ण जपणीयं पाणिबहकरंतु सच्चवयणं पि । रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ।। २१० पुर-गाम-पट्टणाइसुपडियं णलैंचणिहिय वीसरियं परदध्वमगिण्हंतस्स होइ थूलवयं तदिय ॥२११ *पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकोडासया विवज्जतोथूिलयडबंभयारी जिणेहि भणिओपवयणम्मि।।२१२ जं परिमाणं कीरड धण-धण्ण-हिरण्ण-कंचणाईणं। तं जाण पंचमवयं णिहिट्ठमुवासयज्झयणे ॥ २१३ (१) गुणव्रत-वर्णन पुव्वत्तर-दक्षिण-पच्चिमासु काऊण जोयणपमाणं परदो गमणणियत्ती दिसि विदिसि गुणव्वयं पढमं ॥ २१४ (२) करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन-श्रावक कहा गया है ।। २०५ ।। इस प्रकार दार्शनिक श्रावकका पहला स्थान संक्षेपसे कहा । अब इससे आगे व्रतिक श्रावकका दूसरा स्थान कहता हूँ ।।२०६।। द्वितीय स्थानमें, अर्थात् दूसरी प्रतिमामें पाँचों ही अणुव्रत, तीन गुणव्रत, तथा चार शिक्षावत होते हैं ऐसा जानना चाहिए ।। २०७ ।। स्थूल प्राणातिपातविरति, स्थूल सत्य, अदत्त वस्तुका वर्जन स्थूल ब्रह्मचर्य और इच्छानुसार स्थूल परिग्रहका परिमाण ये पांच अणुव्रत होते हैं ।। २०८ ।। जो त्रसजीव पहले बतलाये गये हैं, उन्हें नहीं मारना चाहिए और निष्कारण णर्थात् बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोंको भी नहीं मारना चाहिए, यह पहला स्थल अहिंसावत है ॥२०९। रागसे अथवा द्वेषसे झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए और प्राणियोंका घात करनेवाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, यह दूसरा स्थूल सत्यव्रत जानना चाहिए ।। २१० ।। पुर, ग्राम, पत्तन, क्षेत्र आदिमें पडा हुआ, खोया हुआ, रखा हुआ, भुला हुआ, अथवा रख करके भूला हुआ पराया द्रव्य नहीं लेनेवाले जीवके तीसरा स्थूल अचौर्यव्रत होता है ।। २११ ।। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें स्त्री-सेवन और सदैव अनंगक्रीडाका त्याग करने वाले जीवको प्रवचनमें जिनेन्द्र भगवान्ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है ।। २१२ ।। धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण आदिका जो परिमाण किया जाता है, वह पंचम अणुव्रत जानना चाहिए, ऐसा उपासकाध्ययन में कहा गया है ।। २१३ ॥ पूर्व, उत्तर. दक्षिण और पश्चिम १ ब. तद । (तह ? ) २ ब. बंभचेरो । ३ इ. हिंसयव्वा । ४ इ. झ विइयं, वियं । ५ ब. तइयं । ६ ब. जाणि । ७ ब परओ। * पंचधाणुव्रतं यस्य त्रिविधं च गुणवम् । शिक्षाव्रतं चतुर्धा स्यात्सः भवेद् वतिको यतिः ॥ १३० ॥ क्रोधादिनापि नो वाच्यं वचोऽसत्यं मनी षिणा। सत्यं तदपि नो वाच्य यत्स्यात प्राणिविघातकम् ॥१३४॥ ग्रामे चतु पथादौ वा विस्मतं पतितं धतम । परद्रव्यं हिरण्यादि वर्ण्य स्तेयविजिना ।। १३५ ।। * स्त्रीसेवानगरमणं यः पर्वणि परित्यजत्। सः स्थूल ब्रह्मचारो च प्रोक्तं प्रवन ने जिनेः ।१३६ -गुण पाव० (१) धनधान्यहिरण्यादिप्रमाणं यद्विधीयते । ततोऽधिके च दातास्मिन् निवृत्तिः सोऽपरिग्रहः ।।१३७।। (२) दिग्देशानथदण्डविरति। स्याद् गुणवतम् । सा दिशाविरतियां स्याद्दिशानुगमनप्रमा ॥ १४० ।। , Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुन न्दि-प्रावकाचार वय-भंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण । कीरइ गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥ २१५ (१) अय-दंड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताणं ।। जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं ॥ २१६ (२) शिक्षाव्रत-वर्णन जंपरिमाणं कोरइ मंडण-तंबोल-गंध-पुप्फाणांत भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्त। २१७ (३) सगसत्तीए महिला-वत्थाहरणाण जंतु परिमाणं । तं परिभोयणिवुत्ती' विदियं सिक्खावयं जाण ॥ २१८ (४). अतिहिस्स संविभागो तइयं सिक्खावयं मुणेयव्वं तत्थ वि पंचहियाराणेया सुत्ताणुमग्गेण।।२१९ (५) पत्तंतर दायारो दाणविहाणं तहेव दायव्वं । दाणस्स फलं णेया पंचहियारा कमेणेदे ।। २२० (६) दिशाओंमें योजनोंका प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशाओंमें गमन नहीं करना, यह प्रथम दिग्वत नामका गुणव्रत है ।। २१४ ।। जिस देशमें रहते हुए व्रत-भंगका कारण उपस्थित हो, उस देशमें नियमसे जो गमननिवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशवत नामका गुणव्रत जानना चाहिए ।। २१५ ।। लोहेके शस्त्र तलवार, कुदाली वगैरहके, तथा दंडे और पाश (जाल) आदिके बैंचनेका त्याग करना, झूठी तराजू और कूट मान अर्थात् नापने-तोलने आदिके बाँटोंको कम नहीं रखना, तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियोंका संग्रह नहीं करना, सो यह तीसरा अनर्थदण्डत्याग नाम, का गुणव्रत जानना चाहिए। २१६।। मंडन अर्थात् शारीरिक शृङ्गार, ताम्बूल, गध और पुष्पादिकका जो परिमाण किया जाता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में भोगविरति नामका प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है ॥ २१६ ।। अपनी शक्तिके अनुसार स्त्री-सेवन और वस्त्र-आभूषणोंका जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग-निवृति नामका द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए ।। २१८ ।। अतिथिके संविभागको तीसरा शिक्षाबत जानना चाहिए। इस अतिथिसंविभागके पाँच अधिकार उपासकाध्ययन सूत्रके अनुसार (निम्न प्रकार) जानना चाहिए।। २१९॥ पात्रोंका भेद, दातार, दान-विधान, दात योग्य पदार्थ और दानका फल, ये पाँच अधिकार क्रमसे जानना चाहिए।॥२२०।। १ इ. झ. ब. विइयं । २ ब. संगहे। ३ इ. झ. प तइयं, ब. तियई। ४ ब. णियत्ती। ५ झ. विइयं,ब. बीय। (१) यत्र व्रतस्य भंगः स्याद्देशे तत्र प्रयत्नतः । गमनस्य निवृत्तिर्या सा देशविरतिर्मता ।।१४१।। (२) कूटमानतुला-पास-विष-शस्त्रादिकस्य च । क्रूरप्राणिभृता त्यागस्तत्तुतीयं गुणवतम् ।।१४२।। (३) भोगस्य चोपभोगस्य संख्यानं पात्रसत्क्रिया।सल्लेखनेति शिक्षाख्यं व्रतमुक्तं चतुर्विधम्॥१४३॥ यः सकृद् भुज्यते भोगस्ताम्बूलकुमादिकम् । तस्य या क्रियते संख्या भोगसंख्यानमुच्यते ॥ १४४ ।।-गुण० श्राव० (४) उपभोगो मुहुर्भाग्यो वस्त्रस्याभरणादिकः ।या यथाशक्तितः संख्या सोपभोगप्रमोच्यते।।१४५।। (५) स्वस्य पुण्यार्थमन्यस्य रत्नत्रसमृद्धये । यद्दीयतेऽत्र तदानं तत्र पञ्चाधिकारकम् ॥ १४६ ॥ (६) पात्रं दाता दानविधियं दानफल तथा । अधिकारा भवन्त्ये ते दाने पश्च यथाक्रमम् ।। १४ ।। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ श्रावकाचार-संग्रह पात्रभेद-वर्णन तिविहं मुह पत्तं उत्तम-मज्झिम-जहण्णभेएण वय-णियम-संजमधरो उत्तमपत्तंहवे साहू ॥२२१ (१ एयारस ठाणठिया मज्झिमपत्तं खु सावया भणिया । अविरयसम्माइट्ठी जहण्णपत्तं मुणयन्वं ।। २२२ (२) वय-तव-सीलसमग्गो सम्मत्तविवज्जिओ कुपत्तं तु । सम्मत्त-सोल-वयवज्जिओ अपत्तं हवे जोओ ॥ २२३ (३) दातार-वर्णन सद्धा भत्ती तुट्ठी विण्णाणमलुद्धया' खमा सत्ती। जत्थेदे सत्त गुणा तं दायारं पसंसंति ॥२२४ (४) दानविधि-वर्णन पडिगहमुच्चट्ठाणं पादोदयमच्चणं च पणमं च । मणबयण-कायसुद्धी एसणसुद्धी य दाणविही ॥ २२५ (५) पत्तं णियघरदारे दळूणण्णत्थ वा विमग्गित्ता। पडिगहणं कायव्वं णमोत्थ ठाहु त्ति भणिऊण ।। २२६ णेऊण णिययगेहं गिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि । ठविऊण तओ चलणाण धोवणं होइ कायब्वं ॥ २२७ पाओदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अच्चणं कुज्जा। गंधक्खय-कुसुम-वज्ज-दीव-धूवेहि य फलेहिं ।। २२८ उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारके पात्र जानना चाहिए । उनमें व्रत, नियम और संयमका धारण करनेवाला साधु उत्तम पात्र है ।। २२१ ॥ ग्यारह प्रतिमा-स्थानोंमें स्थित श्रावक मध्यम पात्र कहे गये हैं, और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको जघन्य पात्र जानना चाहिए ।। २२२ ।। जो व्रत, तप और शीलसे सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह कुपात्र है । सम्यक्त्व, शील और व्रतसे रहित जीव अपात्र है ॥ २२३ ।।। जिस दातारमें श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति,, ये सात गुण होते हैं, ज्ञानी जन उस दातारकी प्रशंसा करते हैं ।। २२४ ।। प्रतिग्रह अर्थात् पडिगाहना-सामने जाकर लेना, उच्चस्थान देना अर्थात् ऊँचे आसन पर बिठाना, पादोदक अर्थात् पैर धोना, अर्चा करना, प्रणाम करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणा अर्थात् भोजनकी शुद्धि, ये नौ प्रकारको दानकी विधि हैं ॥ २२५ ।। पात्रको अपने घरके द्वारपर देखकर, अथवा अन्यत्रसे विमार्गण कर-खोजकर, 'नमस्कार हो, ठहरिए,' ऐसा कहकर प्रतिग्रहण करना चाहिए ।। २२६ ॥ पुनः अपने १ ब. मलुद्धदया। २ प. ध सत्तं । ३ ध. उच्च । (१) पात्रं त्रिधोत्तमं चैतन्मध्यमं च जघन्यकम । सर्वसंयमसंयक्त। साध: स्यात्पात्रमत्तमम् ॥ १४८ ।। (२) एकादशप्रकारोऽसौ गृही पात्रमनुत्तमम् । विरत्या रहितं सम्यग्दृष्टिपात्रं जघन्यकम्।। १४९ ।। (३) तपःशीलवतैर्युक्तः कुदृष्टिः स्यात्कुपात्रकम् । अपात्रं व्रतसम्यक्त्वतपःशीलविवर्जितम् ।। १५० ।। -गुण० श्रा० (४) श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं तुष्टिः शक्तिरलुब्धता । क्षमा च यत्र सप्तैते गुणा दाता प्रशस्यते ।। १५१ ।। (५) स्थापनोच्चासनपाद्यपूजाप्रणम नैस्तथा । मनोवाक्कायशुद्धया वा शुद्धो दानविधिः स्मृतः ।। १५२ ॥ --गुण० श्राव० Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४४७ पुप्फंजलि खिवित्ता पयपुरओ वंदणं तओ कुज्जा। चइऊण अट्ट-रुद्दे मणसुद्धी होइ कायव्वा ।। २२९ णिठ्ठर-कक्कस वयणाइवज्जणं तं वियाण वचिसुद्धिासव्वत्थ संपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धी वि।२३० *चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए ।संजमिजणस्स दिज्जइ साणेया एसणासुद्धी॥२३१ दाणसमयम्मि एवं सुत्तणुसारेण णव विहाणाणि।भणियाणि मए एण्हिं दायव्वं वण्णइस्सामि ।।२३२ दातव्य-वर्णन आहारोसह-सत्थाभयभेओ जं चउन्विहं दाणं । तं वुच्चइ दायव्वं णिविट्टमवासयज्झयणे ।। २३३ असणं पाणं खाइमं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुवुत्त-णव-विहाणेहि तिविहपत्तस्स दायव्वो। २३४ अइबुड्ढ-बाल-मयंध-बाहिर देसंतरीय-रोडाणं जहजोग्गं दायव्वं करुणादाण त्ति भणिऊण ॥ २३५ उववास-वाहि-परिसम-किलेस परिपीडयं मुणेऊण । पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्वं ॥२३६ आगम-सत्थाई लिहाविऊण दिण्जति जं जहाजोग्गं । तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्झावणं च तहा ।। २३८ घरमें ले जाकर निरवद्य अर्थात् निर्दोष तथा ऊंचे स्थानपर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणोंको धोना चाहिए ।। २२७ ।। पवित्र पादोदकको शिरमें लगाकर पुनः गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलोंसे पूजन करना चाहिए ।। २२८ ।। तदनन्तर चरणोंके सामने पुष्पांजलि क्षेपण कर वंदना करे। तथा, आर्त और रौद्र ध्यान छोडकर मनःशद्धि करना चाहिए ।। २२९ ।। निष्ठर और कर्कश आदि वचनोंके त्याग करनेको वचनशुद्धि जानना चाहिए। सब ओर संपुटित अर्थात् विनीत अग रखनेवाले दातारके कायशुद्धि होती है। २३० ।। चौदह मल-दोषोंसे रहित, यतनासे शोधकर संयमी जनको जो आहारदान दिया जाता है, वह एषणा-शुद्धि जानना चाहिए ।। २३१ ॥ विशेषार्थ-नख, जंतु, केश, हड्डी, मल, मूत्र, मांस, रुधिर, चर्म, कंद, फल, मूल, बीज और अशुद्ध आहार ये भोजन-सम्बन्धी चौदह दोष होते हैं । इस प्रकार उपासकाध्ययन सूत्रके अनुसार मैंने दानके समयमें आवश्यक नौ विधानों को कहा। अब दातव्य वस्तुका वर्णन करूँगा।॥२३२।। आहार, औषध, शास्त्र और अभयक भेदसे जो चार प्रकारका दान है, वह दातव्य कहलाता है, ऐसा उपासकाध्ययनमें कहा गया है। २३३ ।। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकारका श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्तिसे तीन प्रकारके पात्रको देना चाहिए ।। २३४ ।। अति वृद्ध, बालक, मक (गूगा). अंध वधिर (बहिरा) देशान्तरीय (परदेशी) और रोगी दरिद्री जीवोंको ‘करुणादान दे रहा हूँ ऐसा कहकर अर्थात् समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए।। २३५ ।। उपवास ; व्याधि, परिश्रम और क्लेशसे परिपीडित जीवको जानकर अर्थात् देखकर शरीरके योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए ॥२३६।। जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रों को दिये जाते हैं, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए। तथा जिन-वचनोंका अध्यापन कराना-पढाना भी शास्त्रदान है ।। २३७ ।। १ झ. ब. एयं। २ इ. वच्चइ,। ३ दरिद्राणाम् । ४ झ. पडि० । । झ ध. ब. प्रतिषु गाथेयमधिकोपलम्यतेणह-जंतु-रोम-अट्टी-कण-कुडय-मंस-रुहिर-चम्माइं । कंद-फल-मूल-बोया छिण्ण मला चउद्दसा होति ।। १ ।। -मूलाचार ४८५ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ श्रावकाचार-संग्रह जंकीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं तं जाण अभयदाणं सिहाणि सव्ववाणाणं ॥२३८ दानफल-वर्णन अण्णाणिणो वि जम्हा कज्ज ण कुणंति णिप्फलारंभं । तम्हा दाणस्स फलं समासदो वण्णहस्सामि ।। २३९ जह उत्तमम्मि खित्ते' पइण्णमण्णं सुबहुफलं होई। तह दाणफलं णेयं दिण्णं तिविहस्स पत्तस्स । २४० जह मज्झिमम्मि खित्ते अप्पफलं होइ वावियं बीयं । मझिमफलं विजाणह कुपत्तदिण्णं तहा दाणं ।। २४१ जह ऊसरम्मि खित्ते पइण्णबीयं ण कि पि. रहेछ । फलवज्जियं वियाणह अपत्तदिण्णं तहा दाणं ।। २४२ कम्हि "अपत्तविसेसे दिण्णं दाणं दुहावहं होइ । जह विसहरस्स दिण्णं तिम्वविसं जायए खोरं ।। २४३ मेहावीणं एसा सामण्णपख्वणा मए उत्ता । इण्हि पभणामि फलं समासओ मंदबुद्धीणं । २४४ मिच्छादिट्ठी भद्दो दाणं जो देइ उत्तम पत्ते । तस्स फलेणुववज्जइ सो उत्तमभोयभमोसु ।। २४८ जो मज्झिमम्मि पत्तम्मि देइ दाणं खु वामदिट्ठी वि । सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु ।। २४६ जो पुण जहाणपत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो वि णरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जीवो ।। २४७ जायइ कुपत्तदाणेण वामदिट्ठी कुभोयभूमीसु । अणुमोयणेण तिरिया वि उत्तट्टणं जहाजोग्गं ।। २४८ मरणसे भयभीत जीवोंका जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सर्व दानोंका शिखामणिरूप अभयदान जानना चाहिए ।। २३८ । चकि, अज्ञानीजन भी निष्फल आरम्भवाले कार्यको नहीं करते हैं, इसलिए मैं दानका फल संक्षेपसे वर्णन करूंगा ॥ २३९ ।। जिस प्रकार उत्तम खेतमें बोया गया अन्न बहुत अधिक फलको देता है, उसी प्रकार त्रिविध पात्रको दिये गये दानका फल जानना चाहिए।॥ २४० ।। जिस प्रकार मध्यम खेतमें बोया गया बीज अल्प फल देता है, उसी प्रकार कुपात्रमें दिया गया दान मध्यम फलवाला जानना चाहिए ।। २४१ ।। जिस प्रकार ऊसर खेतमें बोया गया बीज कुछ भी नहीं ऊगता है उसी प्रकार कुपात्र में दिया गया दान भी फल-रहित जानना चाहिए ।। २४२ ।। प्रत्युत किसी अपात्र विशेष में दिया गया दान अत्यन्त दुःखका देनेवाला होता है । जै विषधर सर्पको दिया गया दूध तीवविषरूप हो जाता है ।। २४३ ।। मेधावी अर्थात् बुद्धिमान पुरुषों के लिए मैंने यह उपर्युक्त दानके फलका सामान्य प्ररूपण किया है। अब मन्दबुद्धिजनोंके लिए सक्षेपसे (किन्तु पहलेकी अपेक्षा विस्तारसे) दानका फल कहता हूँ ।। २४४ ॥ - जो मिथ्यादृष्टि भद्र अर्थात् मन्दकषायी पुरुष उत्तम पात्रमें दान देता है, उसके फलसे वह उत्तम भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ।। २४५ ।। जो मिथ्यादृष्टि भी पुरुष मध्यम पात्रमें दान देता है, वह जीव मध्यम भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ।। २४५ ।। और जो तथाविध अर्थात् उक्त प्रकार का मिथ्यादृष्टि भी मनुष्य जघन्य पात्रमें दानको देता है, वह जीव उस दानके फलसे जघन्य भोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ।। २४७ ।। मिथ्यादृष्टि जीव कुपात्रको दान देने से कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न १, २, ३, झ. ब. छित्ते । ४ झ. किंचि रु होइ, ब. किंति विरु होइ । ५ झ. ब. उ पत्त० । ६ प्रतिषु 'मेहाविऊण' इति पाठः । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ वसुनन्दि-श्रावकाचार बताउगा सुविट्ठी' अणुमोयणेण तिरिया। णियमेणुववज्जति य ते उत्तमभोगभूमीसु ॥ २४९ तत्थ वि दहप्पयारा कप्पदुमा दिति उत्तमे भोए। खेत्त सहावेण सया पुग्वज्जियपुण्णसहियाणं ॥२५० मज्जंग-तूर-भसण-जोइस-गिह-मायणंग-दीवंगा । वत्थंग-भोयणंगा मालंगा सुरतरू दसहा ॥ २५१ अइसरसमइसुगंधं दिलैचि यजंजणेइ अहिलासाइंदिय-बलपुट्टियरं मज्जंगा पाणयं दिति ॥२५२ तय-वितय घणं सुसिरं वज्जं पूरंगपायवादिति। वरमउड-कुंडलाइय-आभरणं भूसणदुमा वि ॥ २५३ ससि-सूरपयासाओ अहियपयासं कुणंति जोइदुमा । __णाणाविहपासाए दिति सया गिहदुमा दिव्वे ।। २५४ कच्चोल-कलस-थालाइयाइं भायणदुमा पयच्छति । उज्जोयं दीवदुमा कुणंति गेहस्स मज्झम्मि ।। वर-पट्ट-चीण-खोमाइयाई वत्थाई दिति वत्थदुमा ।वर-चउविहमाहारंभोयणरुक्खा पयच्छति।।२५६ वर बहुल परिमलामोयमोइयासामुहाउ मालाओ। मालादुमा पयच्छंति विविहकुसुमेहि रइयाओ॥ उक्किट्ठभोयभूमीसु जे गरा उदय-सुज्ज-समतेया। छधणुसहस्सुत्तुं मा हुति तिपल्लाउगा सम्वे ।। होता है । दानकी अनुमोदना करनेसे तिर्यञ्च भी यथायोग्य उपर्युक्त स्थानोंको प्राप्त करते हैं. अर्थात् मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च उत्तम पात्र दानकी अनुमोदनासे उत्तम भोगभूमिमें, मध्यम पात्रदानकी अनुमोदनासे मध्यम भोगभूमिमें, जघन्य पात्रदानको अनुमोदनासे जघन्य भोगभूमिमें जाता है इसी प्रकार कुपात्र और अपात्र दानकी अनुमोदनासे भी तदनुकूल फलको प्राप्त होता है ।। २४८ ॥ बद्घायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्थामें पहिले मनुष्यायको बाँध लिया है, और पीछे सम्यग्दर्शनको उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देनेसे और उक्त प्रकारके ही तर्यञ्च पात्र-दानकी अनमोदना करनेसे नियमसे वे उत्तम भोगभमियोंमें उत्पन्न होते है।। २४९ ।। उन भोगभमियोंमें दश प्रकारके कल्पवक्ष होते हैं, जो पर्वोपाजित पण्य-संयक्त जीवों को क्षेत्रस्वभावसे सदा ही उत्तम भोगोंको देते हैं ।।२५०।। मद्यांग, तूर्यांग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग दीपांग, वस्त्राग, भोजनाग, और मालांग ये दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं ।। २५१ ।। अति सरस, अति सुगन्धित, और जो देखने मात्रसे ही अभिलाषाको पैदा करता है, ऐसा इन्द्रिय-बलका पुष्टि कारक पानक (पेय पदार्थ) मद्यांगवृक्ष देते हैं ।। २५२ ।। तूर्यांग जातिके कल्पवृक्ष तत, वितत, धन और सूषिर स्वरवाले बाजोंको देते हैं। भूषणांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट, कुण्डल आदि आभूषणोंको देते हैं ।। २५३ ।। ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्ष चन्द्र और सूर्यके प्रकाशसे भी अधिक प्रकाश को करते हैं। गहांग जातिके कल्पवृक्ष सदा नाना प्रकारके दिव्य प्रासादों (भवनों) को देते हैं ।।२५४॥ भाजनांग जातिके कल्पवृक्ष वाटली, कलश, थाली आदि भाजनोंको देते हैं । दीपांग जातिके कल्पवृक्ष घरके भीतर प्रकाशको किया करते हैं ।।२५५।। वस्त्रांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम रेशमो, चीनी और कोशे आदिके वस्त्रोंको देते हैं। भोजनांग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम चार प्रकारके आहारको देते हैं ।। २५६ ।। मालांग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकारके पुष्पोंसे रची हुई और प्रवर, बहुल परिमल सुगंधसे दिशाओंके मुखोंको सुगंधित करनेवाली मालाओंको देते हैं ।।२५७।। उत्तम भोगभूमियों में जा मनुष्य उत्पन्न होते हैं, वे सब उदय होते हुए सूर्यके समान तेजवाले, छह हजार धनुष ऊँचे और तीन पल्यकी आयुवाले होते हैं । २५८ ।। १ इ. सद्दिट्ठी, ब. सदिट्ठी । २ झ. ब. छित्त० । इ छेत्त । ३ झ. प. दिट्टविय । ४ झ. 'ज' इति पाठो नास्ति । ५ ब. कंचोल । ६ ब बहल । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० श्रावकाचार-संग्रह देहस्सुच्चत्तं मज्झिमासु चत्तारि धणुसहस्साई। पल्लाणि दुणि आऊ पुण्णिदुसमप्पहा पुरिसा॥ दोधणुसहस्सुत्तुंगा' मणुया पल्लाउगा जहण्णासु। उत्तत्तकणयवण्णा' हवंति पुण्णाणुभावेण ।। २६० जे पुण कुभोयभूमीसु सक्कर-समसायमट्टियाहारा' फल-पुप्फहारा केई तत्थ पल्लाउगा सव्वे ।। जायंति जुयल-जुयला उणवण्णदिणेहिं जोव्वणं तेहिं । समचउरससंठाणा वरवज्जसरीरसंघयणा ॥ बाहत्तरि-कलसहिया चउसद्विगुणणिया तणुकसाया।बत्तीसलक्खणधरा उज्जमसीला विणीया य ।। णवमासाउगिसेसे गन्भंधरिऊण सूइ-समयम्हिासुहमिच्चणा मरित्ता णियमा देवत्तु पावंति ॥२६४ जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वि तिविहपत्तस्साजायंति दाणफलओ कप्पेसु महडिढया देवा।२६५ अच्छरसयमझगया तत्थाणुहविऊण विविहसुरसोक्खं । तत्तो चुया समाणा मंडलियाईसु जायते ॥ तत्थ वि बहुप्पयारं मणुयमुहं भुंजिऊण णिदिवघं । विगदभया वेरग्गकारणं किंचि दळूण । २६७ पडिबुद्धिऊण चइऊण णिवसिरि संजमं च धित्तूण । उप्पाइऊण णाणं केई गच्छति णिव्वाणं ॥२६८ अण्णे उ सुदेवत्तं समाणुसत्तं पुणो पुणो लहिऊण'°। सत्तट्ठभवेहि तओ करंति कम्मक्खयं णियमा । एवं पत्तविसेसं दाणविहाणं फलं च णाऊण । अतिहिस्स संविभागो कायन्वो देसविरदेहि १ ॥ २७० मध्यम भोगभूमियोंमें देहकी ऊंचाई चार हजार धनुष है, दो पल्यकी आयु है, और सभी पुरुष पूर्णचन्द्रके समान प्रभावाले होते हैं ।। २५१ ।। जघन्य भोगभूमियोंमें पुण्यके प्रभावसे मनुष्य दो हजार धनुष ऊंचे, एक पल्यकी आयुवाले और तपाये गये स्वर्ण के समान वर्णवाले होते हैं ।।२६०।। जो जीव कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं, उनमेंसे कितने ही वहाँपर स्वभावतः उत्पन्न होनेवाली शक्करके समान स्वादिष्ट मिट्टीका आहार करते हैं, और कितने ही वृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले फलपुष्पोंका आहार करते हैं और ये सभी जीव एक पल्यकी आयुवाले होते हैं ।। २६१ ।। भोगभूमिमें जीव युगल-युगलिया उत्पन्न होते हैं और वे उनचास दिनोंमें यौवन दशाको प्रप्त हो जाते हैं वे सब समचतुरस्र संस्थानवाले और श्रेष्ठ वज्रवृषभशरीरसंहननवाले होते हैं । २६२ ।। वे भोगभूमियां पुरुष जीव बहत्तर कला-सहित और स्त्रियां चौसठ गुणोंसे समन्वित, मन्दकषायी, बत्तीस लक्षणोंके धारक, उद्यमशील और विनीत होते हैं ॥ २६३ ।। नौ मास आयुके शेष रह जानेपर गर्भको धारण करके प्रसूति-समयमें सुख मृत्युसे मरकर नियमसे देवपने को पाते हैं ।। २६४ ।। जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत जीव हैं, वे तीनो प्रकारके पात्रोंको दान देने के फलसे स्वर्गोंमें महद्धिक देव होते हैं ।। २६५ ॥ वहांपर सैकडों अप्सराओंके मध्य में रहकर नाना प्रकारके देव-सुखोंको भोगकर आयुके अन्त में वहांसे च्युत होकर मांडलिक राजा आदिकोंमें उत्पन्न होते हैं ।। २६६ ।। वहांपर भी नाना प्रकारके मनुष्य-सुखोंको निर्विघ्न भोगकर भय-रहित होते हुए वे कोई भी वैराग्यका कारण देखकर प्रतिबद्धित हो, राज्यलक्ष्मीको छोडकर और संयमको ग्रहण कर कितने ही केवलज्ञानको उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त होते हैं और कितने ही जीव सुदेवत्व और सुमानुषत्वको पुनः पुनः प्राप्तकर सात-आठ भवके पश्चात् नियमसे कर्मक्षयकों करते हैं ।।२६७-२६९।। इस प्रकार पात्र की विशेषताको, दानके विधानको और उसके फल को जानकर देशविरती श्रावकोंको अतिथिका संविभाग अर्थात् दान अवश्य करना चाहिए ।। २७० ।। १ इ. सहसा तुंगा। २ म. उत्तमकंचणवण्णा। ३ इ.-मट्टियायारा। ४ म.-संहणणा। ५ इ. वावत्तर, झ. ब. बावत्तरि । ६ इ. सूय० । ७इ समाण, झ, समासा। ८ प. जायंति । ९ ब. विगदब्भयाइ। १० ब. लहिओ। ११ प. विरएहिं । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार सल्लेखना - वर्णन धरिऊन वत्थमेत्तं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं । सगिहे जिणालए वा तिविहाहारस्स वोसरणं । २७१ जं कुइ गुरुसयासम्म' सम्ममालोइऊण तिविहेण । सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिक्खावयं भणियं ॥ २७२ एवं वारसभेयं वयठाणं वण्णियं मए विदियं सामाइयं तइज्जं ठाणं संखेवओ वोच्छं ।। २७३ सामायिक प्रतिमा 1 ★ होऊण सुई चेइयगिहम्मि सगिहे व चेइयहिमुहो । अण्णत्थ सुइपए से पुव्वमहो उत्तरमहो वा ॥ २७४ जिणवयण - धम्म- चेइय-परमेट्ठि- जिनालयाण णिच्चपि खं बंदणं तियालं कोरइ सामाइयं तं खु ।। काउस्सग्गम्हि ठिओ लाहालाहं च सत्तु-मित्तं च संजोय-विप्पजोयं तिण-कंचण-चंदणं वासि २७६ जो पसइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं । वर अटूपाडिहेरेहि संजयं जिणसरूवं च ॥ २७७ सिद्धसरूवं झायइ अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं । खण मेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स ।। २७८ एवं तइयं ठाणं भणियं सामाइयं समासेण । पोसहविहि चउत्थं ठाणं एत्तो पवक्खामि ॥। २७९ प्रोषधप्रतिमा उत्तम - मज्झ जहणं तिविहं पोसहविहाण मुद्दिट्ठ। सगसत्ताए मासम्मि चउस्सु पव्वेसु कायव्वं २८० वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रहको छोडकर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर जो श्रावक गुरुके समीपमें मन-वचन-कायसे अपनी भले प्रकार आलोचना करके पानके सिवाय शष तीन प्रकारके आहारका त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्रमें सल्लेखना नामका चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है ।। २७१ - २७२ । इस प्रकार बारह भेदवाले दूसरे व्रतस्थानका मैंने वर्णन किया। अब सामायिक नामके तीसरे स्थानको में संक्षेपसे कहूँगा ।। २७३ ।। स्नान आदि से शुद्ध होकर चैत्यालय में अथवा अपने ही घरमें प्रतिमाके सन्मुख होकर, अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पंच परमेष्ठी और कृत्रिम - अकृत्रिम जिनालयोंकी जो नित्य त्रिकाल वदना की जाता है, वह सामायिक नामका तीसरा प्रतिमास्थान है ।। २७४ २७५ जो श्रावक कार्योत्सर्ग में स्थित होकर लाभ-अलाभको शत्रु-मित्रको, इष्टवियोग अनिष्ट संयोगको, तृण- कांचनको, चन्दनको और कुठारको समभावसे देखता है, और मनमें पंच नमस्कारमंत्रको धारण कर उत्तम अष्ट प्रतिहार्योंसे संयुक्त अर्हन्तजिनके स्वरूपको और सिद्ध भगवान्‌ के स्वखपको ध्यान करता है, अथवा संवेग-सहित अविचल - अग होकर एक क्षण को भी उत्तम ध्यान करता है, उसके उत्तम सामायिक होती है ।। २७६ - २७८ ।। इस प्रकार सामायिक नामका तीसरा प्रतिमास्थान संक्षेपसे कहा । अब इससे आगे प्रोषधविधि मामके चौथे प्रतिमास्थानको कहूँगा ।। २७९ ।। उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका प्रोषध-विधान कहा गया है। यह श्रावक ४५१ 1 १ इ. पयासिम्मि । २ इ. विइयं, ब बीयं । ३ इ. तइयं, म. तिदीयं । ४ झ करेइ । ५ कुठारं । ६ इ. मज्झम- जहणं । ७ प पव्वसु । ★ वैयप्रयं त्रिविधं त्यक्त्वा त्यक्त्वाऽऽरम्भपरिग्रहम् । स्नानादिना विशुद्धांगशुद्धया सामायिकं भजेत् ।। १६४ ।। गहे जिनालयेऽन्यत्र प्रदेशे वाऽनघे शुची । उपविष्टः स्थिता वापि योग्यकालसमाश्रितम् ॥ १६५ ॥ कायोत्सर्गस्थितो भूत्वा ध्यायेतंचपदी हृदि । गुरून् पञ्चाथवा सिद्धस्वरूपं चिन्तयेत्सुधीः ।। १६७ ।। $ मामे नत्वारि पर्वाणि प्रोषधाख्यानि तानि च । यत्तत्रोपोषण प्रोषधोपवासस्तदुच्यते ।। १६९ ।। -गुण० श्राव० Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ श्रावकाचार-संग्रह सत्तमि तेरसि दिवसम्मि अतिहिजणभोयणावसाणम्मि । भोत्तूण भुंजणिज्जं तत्थ वि काऊण मुहसुद्धि ॥ २८१ पक्खालिऊण वयणं कर-चरणे नियमिऊण तत्थेव । पच्छा जिणिदभवणं गंतूण जिणं णमंसित्ता ॥ २८२ गुरुपुरओ किदियम्मं' बंदणपुव्वं कमेण काऊण। गुरुसक्खियमुववासं गहिऊण चउव्हिहं विहिणा || वाण कहाणुपेण- सिक्खावण-चितणोवओगेह । णेऊण दिवससेसं अवराहियवंदणं किच्चा । २८४ रणि समयहि ठिच्चा काउस्सग्गंण निययसत्तीए । पडिलेहिऊण भूमि अप्पमाणेण संथारं ।। २८५ दाऊण किचि रात सहऊण' जिणालए णियघरे वा । अहवा सयलं ति काऊस्सग्गेण णेऊण || २८६ पच्चूसे उद्वित्ता वंदणविहिणा जिणं णमंसित्ता । तह दव्व-भावपुज्जं जिण सुय- साहूण काऊण ॥ २८७ उत्तविहाणेण तहा दियहं रत्ति पुणो वि गमिऊण पारणदिवसम्मि पुणो पूर्व काऊण पुव्वं व ।। २८८ गंण निययगेहं अतिहिविभागं च तत्थ काऊण। जो भुंजइ तस्स फुडंपोसहवि हि उत्तमं होइ । २८९ ★ हक्क तह मज्झिमं वि पोसहविहाणमुद्दिट्ठ । णवर विसेसो सलिल छंडिता' वज्जए सेसं ॥ ऊ गुरुवकज्जं सावज्जविवज्जियं णियारंभं । जइ कुणइ तं पि कुज्जा सेसं पुग्वं व णायव्वं ॥ को अपनी शक्तिके अनुसार एक मासके चारों पर्वोंमें करना चाहिए । २८० ॥ सप्तमी और त्रयोदशी के दिन अतिथिजनके भोजन के अन्तमें स्वयं भोज्य वस्तुका भोजनकर वहींपर मुख शुद्धिको करके, मुखको और हाथ-पैरोंको धोकर वहाँपर ही उपवास सम्बन्धी नियम करके पश्चात् जिनेन्द्र भवन जाकर और जिनभगवान्‌को नमस्कार करके गुरुके सामने वन्दनापूर्वक क्रमसे कृतिकर्मको करके, गुरुकी साक्षी से विधिपूर्वक चारों प्रकारके आहारके त्यागरूप उपवासको ग्रहण कर शास्त्र वाचन, धर्मकथा-श्रवण-श्रावण, अनुप्रेक्षा- चिन्तन, पठन-पाठन आदिके उपयोग द्वारा दिवस व्यतीत करके तथा आपराह्निक-वंदना करके, रात्रिके समय अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्ग से स्थित होकर, भूमिका प्रतिलेखन (संशोधन) करके, और अपने शरीर के प्रमाण बिस्तर लगाकर रात्रि में कुछ समय तक जिनालय अथवा घरमें सोकर, अथवा सारी रात्रि कायोत्सर्गसे बिताकर प्रातःकाल उठकर वंदना विधि से जिन भगवान्‌को नमस्कार कर, तथा देव, शास्त्र और गुरुका द्रव्य वा भावपूजन करके पूर्वोक्त विधान से उसी प्रकार सारा दिन ओर सारी रात्रिको फिर भी बिताकर पारणाके दिन अर्थात् नवमी या पूर्णमासीको पुनः पूर्वके समान पूजन करके तत्पश्चात् अपने घर जाकर और वहाँ अतिथिको आहारदान देकर जो भोजन करता है, उसके निश्चयसे उत्तम प्रोषधविधि होती है ।। २८१ - २८९ ।। जिस प्रकारका उत्कृष्ट प्रोषध विधान कहा गया है, उसी प्रकारका मध्यम प्रोषध विधान भी जानना चाहिए । केवल विशेषता यह है कि जलको छोडकर शेष तीनों प्रकारके आहारका त्याग करना चाहिए ।। २९० ।। जरूरी कार्य को समझकर सावद्य-रहित अपने घरू आरम्भ बछडा । १ ब. किरियम्मि । २ ध झ ब. प्रतिषु 'णाऊण' इति पाठ: ।. * उत्तमो मध्यमश्चैव जघन्यश्चेति स विधा । यथाशक्तिविधातव्यः कर्मनिर्मूलनक्षमः ।। १७० ।। सप्तम्यां च त्रयोदश्यां जिनाच पात्रसत्क्रियाम् । विधाय विधिवच्चकभक्तं शुद्धवपुस्ततः ।। १७१ । गुर्वादिनिधि गत्वा चतुराहारवर्जनम् । स्वकृत्य निखिलां रात्रि नयेच्च सत्कथानकैः ॥ १७२ ॥ प्रातः पुनः शुचिर्भूत्वा निर्माप्यार्हत्पूजनम् । सोत्साहस्तदहोरात्रं सद्ध्यानाध्ययनैर्नयेत् ॥ १७३ ॥ तत्पारणान्हि निर्माप्य जिनाच्च पात्रसत्क्रियाम् । स्वयं वा चैकभक्तं यः कुर्यात्तस्योत्तमो हि सः ।। १७४ ।। मध्यमोऽपि भवेदेवं स त्रिधाहारवर्जनम् । जलं मुक्त्वा जघन्यस्त्वेकभक्तादिरनेकधा ।। १७५ ।। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४५३ आयंबिल' णिन्वयडी' एयद्वाणं च एयभत्तं वा । जं कीरइ तं णेयं जहण्णयं पोसहविहाणं ।। २९२॥ सिरहाणुव्वट्टण-गंध-मल्लकेसाइदेहसंकप्पं । अण्णं पि रागहेउं विवज्जए पोसहदिणम्मि ॥ २९३ एवं चउत्थठाणं विवणियं पोसह समासेण । एत्तो कमेण सेसाणि सुणह संखेवओ वोच्छं ॥२९४ सचित्तत्यागप्रतिमा जं बज्जिज्जइ हरियं तुय'-पत्त-पवाल-कंद-फल-बीयं । अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिवित्ति तं ठाणं ॥ २९५* रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा मण-वयण-काय-कय- कारियाणमोएहि मेहुणं णवधा । दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सो सावओ छहो ।। २१६ (१) ब्रह्मचर्यप्रतिमा पुवृत्तणवविहाणं पि मेहणं सव्वदा विवज्जतो। इथिकहाइणिवित्तो सत्तमगुणवंभयारी सो ।। २९७ (२) को यदि करना चाहे, तो उसे भी कर सकता है। किन्तु शेष विधान पूर्वके समान ही जानना चाहिए।। २९१ ।। जो अष्टमी आदि पर्वके दिन आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, अथवा एकभक्तको करता है, उसे जघन्य प्रोषध विधान जानना चाहिए ॥ २९२ ॥ (विशेषार्थ परिशिष्टमें देखो।) प्रोषधके दिन शिरसे स्नान करना, उबटना करना, सुगंधित द्रव्य लगाना, माला पहनना, बालों आदिका सजाना, देहका संस्कार करना, तथा अन्य भी रागके कारणोंको छोड देना चाहिए।।२९३॥ इस प्रकार प्रोषध नामका चौथा प्रतिमास्थान संक्षेपसे वर्णन किया । अब इससे आगे शेष प्रतिमास्थानोंको संक्षेपसे कहूँगा, सो सुनो ।। २९४ ।। जहाँपर हरित त्वक् (छाल), पत्र, प्रवाल, कंद, फल, बीज, और अप्रासुक जल त्याग किया जाता है, वह सचित्त-विनिवृत्तिवाला पाँचवाँ प्रतिमास्थान है ।। २९५ ।। जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना, इन नौ प्रकारोंसे दिन में मैथुनका त्याग करता है, वह प्रतिमारूप गुणस्थानमें छठा श्रावक है, अर्थात् छठी प्रतिमाधारा है ।। २९६ ।। जो पूर्वोक्त नौ प्रकारके मैथुनको सर्वदा त्याग करता हुआ स्त्रीकथा आदिसे भी निवृत्त हो जाता है, वह सातवे प्रतिमारूप गुणका १ आयंबिल-अम्लं चतुर्थो रसः, स एव प्रायेण व्यंजने यत्र भोजने ओदन-कुल्माषा-सक्तुप्रभृतिके तदाचामाम्लम् । आयंबिलमपि तिविहं उक्किट्र-जहण्ण-मज्झिमभेदेहि । तिविहं जं विउलपूवाइ पकप्पए तत्थ ॥१०२॥ मिय-सिंधव-सुंठि मिरीमेही सोंवच्चलं च विडलवणे । हिगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ।।१०३।। अभिधानराजेन्द्र । २ ब. णिग्घियडी। ३ इ. झ तय०। ४ ब. किरियाण। ५ ब. सव्वहा । ६ झ. ब. णियत्तो। * स्नानमद्वर्त्तनं गन्धं माल्यं चैव विलेपनम् । यच्यान्यद् रागहेतुः स्याद्वज्यं तत्प्रोषधोऽखिलम् ॥१७६॥ * मूलं फलं च शाकादि पुष्पं बीजं करीरकम् । अप्रासुकं त्यजेन्नीरं सचित्तविरतो गृही ॥ १७८ ॥ -गुण. श्राव (१) स दिवा-ब्रह्मचारी यो दिवा स्त्रीसंगमं त्यजेत् । (२) स सदा ब्रह्मचारी यः स्त्रीसंगं नवधा त्यजत् ।। १७९ ॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ श्रावकाचार-संग्रह आरम्भनिवृत्तप्रतिमा जं किचि गिहारंभ बहु थोग' वा सया विवज्जेइ । आरंभणियत्तमई सो अट्टम सावओ भणिओ ॥ २९८ (१) परिग्रहत्यागप्रतिमा मोत्तूण वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं । तत्थ वि मुच्छं ण करेइ जाणइ सो सावओ णवमो ।। २९९ (२) अनुमतित्यागप्रतिमा पुट्ठो वाऽपुट्ठो वा णियगेहि परेहि च सगिहकज्जमि। - अणुमणणं जो ण कुणइ वियाण सो सावओ दसमो ।। ३०० (३) उद्दिष्टत्यागप्रतिमा एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो । वत्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ ।। ३०१ (४) *धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढमो। ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ।। धारी ब्रह्मचारी श्रावक है ।। २९७ ।। जो कुछ भी थोडा या बहुत गहसम्बन्धी आरम्भ होता है, उसे जो सदाके लिए त्याग करता है, वह आरम्भसे निवृत्त हुई है बुद्धि जिसकी, ऐसा आरम्भत्यागी आठवाँ श्रावक कहा गया है ।। २९८ ।। जो वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर शेष सब परिग्रहको छोड देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रहमें भी मर्छा नहीं करता है, उसे परिग्रहत्यागप्रतिमाधारी नवमा श्रावक जानना चाहिए ।। २९९ ।। स्वजनोंसे और परजनोंसे पूछा गया जो श्रावक अपने गहसम्बन्धी कार्यमें अनुमोदना नहीं करता है, उसे अनुमतित्याग प्रतिमाधारी दसवाँ श्रावक जानना चाहिए ॥ ३०० ।। ग्यारहवें प्रतिमास्थानमें गया हुआ मनुष्य उकृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं, प्रथम एक वस्त्रका रखनेवाला और दूसरा कोपीन (लंगोटी) मात्र परिग्रहवाला।। ३०१ ।। प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (जिसे कि क्षुल्लक कहते हैं) धम्मिल्लोंका चयन अर्थात् हजामत कैचीसे अथवा उस्तरेसे कराता है । तथा, प्रयत्नशील या सावधान होकर पीछी आदि उपकरणसे स्थान । झ. थोवं । २ झ. ब. बिइओ। ३ ब. वयणं । ४ ब. लेहइ मि । (१) सः स्यादारम्भविरतो विरमेद्योऽखिलादपि ।। पापहेतों: सदाऽऽरम्भात्सेवाकृष्यादिकात्सदा ।। १८० ॥ (२) निर्मूर्च्छ वस्त्रमानं यः स्वीकृत्य निखिलं त्यजेत् । बाह्य परिग्रहं स स्याद्विरक्तस्तु परिग्रहात् ॥ १८ ॥ (३) पृष्टोऽपृष्टोऽपि नो दत्तेऽनमति पापहेतुके । ऐहिकाखिल कार्ये योऽनुमतिविरतोऽस्तु सः ॥ १८२ ।।-गुण० श्रावक ) गेहादिव्याश्रमं त्यक्त्वा गर्वन्ते व्रतमाश्रितः। भक्ष्याशी: यस्तस्पतप्यददिदष्टाविरतो हि सः॥१८३ ।। * उद्दिष्टविरतो द्वधा स्यादाद्यो वस्त्रखण्डभाक् । संमूर्ध्वजानां । वपनं कर्तनं चैव कारयेत्॥१८४॥ गच्छेन्नाकारितो भोक्तं कुर्यादभिक्षां यथाशनम् । पाणिपात्रेऽन्यपात्र वा भजेदभक्ति निविष्टवान् ।। १८५ ।। भुक्त्वा प्रक्षाल्य पादं त्र) च गत्वा च गरुसन्निधिम । चतुर्धानपरित्यागं कृत्वाऽऽलो वनमाश्रयेत् ।। १८६ ।।-गुण. आ० (४) गेहादिव्य , Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४५५ मुंजे पाणिपत्तम्मि भायणे वा सई समुवइट्ठो । उववासं पुण नियमा चउग्विहं कुणइ पश्वेसु ॥ ३०३ पक्खालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिज्चा । भणिऊण धम्मलाहं जायइ भिक्खं सयं चैव ॥ ३०४ सिघं लाहाला हे अदीणवयणो नियत्तिऊण तओ । अण्णमि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण कार्य' वा ॥ जइ अद्धव कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । भोत्तूण निययभिक्खं तस्सण्णं भुंजए सेसं ।। ३०६ अह ण भणइ तो भिक्वं भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिलं ।। ३०७ पक्वं जिज्जो सोहिऊन जत्तेण । पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्म ॥ ३०८ जइ एवं ण रज्जो काउंरिसगिहम्मि' चरियाए । पविसत्ति एयभिक्खं पवित्तिणियमणं ता कुज्जा ।। तण गुरुसमीपच्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा । गहिऊण तओ सव्वं आलोचेज्जा पयत्तेण ॥ ३१०★ एमेव होइ बिइओ णवरिविसेसो कुणिज्ज नियमेण । लोचं धरिज्ज पिच्चं भुंजिज्जो पाणिपत्तम्मि ।। ३११ (१) आदिका प्रतिलेखन अर्थात् संशोधन करता है ।। ३०२ ॥ पाणि- पात्र में या थाली आदि भाजन में ( आहार रखकर ) एक बार बैठकर भोजन करता है । किन्तु चारों पर्वोंमें चतुविध आहारको त्यागकर उपवास नियमसे करता है ।। ३०३ ।। पात्रको प्रक्षालन करके चर्याके लिए श्रावकके घरमें प्रवेश करता है और आंगन में ठहरकर 'धर्म - लाभ' स्वयं ही भिक्षा मांगता है ।। ३०४ ॥ भिक्षालाभके अलाभमें अर्थात् भिक्षा न मिलनेपर, अदीन-मुख वहाँसे शीघ्र निकलकर दूसरे घर में जाता है और मौन से अपने शरीरको दिखलाता है ।। ३०५ ।। यदि अर्ध- पथ में, अर्थात् मार्गके बीच में ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घर से प्राप्त अपनी भिक्षाको खाकर, शेष अर्थात् जितना पेट खाली रहे, तत्प्रमाण उस श्रावकके अन्नको खावे ॥ ३०६ ॥ यदि कोई भोजन के लिए न कहे, तो अपने पेटके पूरत करनेके प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य अन्य श्रावकोंके घर जावे । आवश्यक भिक्षा प्राप्त करनेके पश्चात् किसी एक घरमें जाकर प्रासुक जल माँगे ।। ३०७ || जो कुछ भी भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे और यत्नके साथ अपने पात्रको प्रक्षालनकर गुरुके पासमें जावे ।। ३०८ ।। यदि किसीको उक्त विधिसे गोचरी करना न रुचे, तो वह मुनियोंके गोचरी कर जानेके पश्चात् चर्याके लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षाके नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चय के लिए किसी श्रावक जनके घरमें जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले, तो उसे प्रवृत्ति - नियमन करना चाहिए, अर्थात् फिर किसी के घर न जाकर उपवास का नियम कर लेना चाहिए ।। ३०९ ।। पश्चात् गुरुके समीप जाकर विधिपूर्वक चतुविध (आहारके त्यागरूप ) प्रत्याख्यान ग्रहण कर पुनः प्रयत्न के साथ सर्वदोषोंकी आलोचना कके ।। ३१० ।। इस प्रकार ही अर्थात् प्रथम उत्कृष्ट श्रावकके समान ही द्वितीय उत्कृष्ट श्रावक होता है, केवल विशेषता यह है कि उसे नियमसे केशोंका लोंच करना चाहिए, पीछी रखना चाहिए और पाणिपात्र में खाना चाहिए ।। ३११ ।। दिन में प्रतिमायोग धारण करना अर्थात् नग्न होकर १ ब. कायव्वं । २ प अट्टवहे । ३ कांउंरिसिगोहणम्मि । ४ ध. नियमेणं । (१) द्वितीयोऽपि मवेदेवं स तु कौपीनमात्रवान् । कुर्याल्लोचं धरेत्पिच्छं पाणिपात्रेऽशनं भजेत् | १८ | Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ श्रावकाचार-संग्रह दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसू णत्थि अहियारो। सिद्धत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं' ॥ ३१२ (१) उद्दिपिंडविरओ दुवियप्पो सावओ समासेण । एयारसम्मि ठाणे भणिओ सुत्ताणुसारेण ॥ ३१३ रात्रिभोजनदोष-वर्णन एयारसेसु पढमं वि जदो णिसिभोयणं कुणंतस्स । ठाणं ण ठाइ' तम्हा णिसित्ति परिहरे णियमा ।। ३१४ चम्मट्टि-कीड-उंदुर-भुयंग-केसाइ असणमझम्मि । पडियं ण कि पि पस्सइ भंजइ सव्वं पि णिसिसमये ।। ३१५ दीउज्जोयं जह कुणइ तह वि चरिदिया अपरिमाणा । णिवडंति दिद्विराएण मोहिया असणमज्झम्मि ।। ३१६ इयएरिसमाहारं भुजतो आदणासमिह लोए । पाउणइ परभवम्मि चउगइ संसारदुक्खाई। ३१७ एवं बहुप्पयार दोसं णिसिभोयणम्मि णाऊण । तिविहेण राइभुत्ती परिहरियव्वा हवे तम्हा ।३१८ श्रावकके अन्य कर्तव्य विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं । सत्तीए जहजोग्गं कायव्वं देसविरएहि ।। ३१९ (२) दिनभर कायोत्सर्ग करना, वीरचर्या अर्थात् मनिके समान गोचरी करना, त्रिकाल योग अर्थात् गमि पर्वतके शिखरपर, बरसातमें वृक्षके नीचे, और सर्दी में नदीके किनारे ध्यान करना, सिद्धान्तग्रन्थोंका अर्थात् केवली, श्रुतकेवली-कथित गणधर, प्रत्येकबुद्ध और अभिन्नदशपूर्वी साधुओंसे निर्मित ग्रन्थोंका अध्ययन और रहस्य अर्थात प्रायश्चित्त शास्त्रका अध्ययन, इतने कार्योमें देशविरतो श्रावकोंका अधिकार नहीं है ।। ३१२ ।। ग्यारहवें प्रतिमास्थानमें उपासकाध्ययन-सूत्रके अनुसार संक्षेपसे मैंने उद्दिष्ट आहारके त्यागी दोनों प्रकारके श्रावकोंका वर्णन किया ।। ३१३ ।। ~ कि, रात्रिको भोजन करनेवाला मनुष्यके ग्यारह प्रतिमाओंमेंसे पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए नियमसे रात्रिभोजनका परिहार करना चाहिए ।। ३१४ ।। भोजनके मध्य गिरा हुआ चर्म अस्थि, कीट-पतंग सर्प और केश आदि रात्रिके समय कुछ भी नहीं दिखाई देता है, और इसलिए रात्रिभोजी पुरुष सबको खा जाता है ।। ३१५ ।। यदि दीपक जलाया जाता है, तो भी पतंगे आदि अगणित चतुरिन्द्रिय जीव दृष्टिरागसे मोहित होकर भोजनके मध्य गिरते हैं ।। ३१६ ॥ इस प्रकारके कीट-पतंगयुक्त आहारको खानेवाला पुरुष इस लोकमें अपनी आत्माका या अपने आपका नाश करता है, और परभवमें चतुर्गतिरूप संसारके दुखोंको पाता है ।। ३१७ ।। इस प्रकार रात्रिभोजनमें बहुत प्रकारके दोष जान करके मन, वचन, कायसे रात्रि भोजनका परिहार करना चाहिए ।। ३१८ ।। देशविरत श्रावकोंको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन-विधान करना चाहिए ।। ।। ३१९ ।। दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और १ प. ब. विरयाणं । २ ब. पि । ३ ब. वाइ । ४ ब. दुदुर । ५ ध. दुंदुर । ध. पयारे। ६ध. दोसे । (१) वीरचर्या-दिनच्छाया सिद्धान्ते निह्यसंश्रुतौ । कालिके योऽवयोगेऽस्य विद्यते नाधिकारिता ।। १८८॥-गुण० श्राव० (२) विनयः स्याद्वयावृत्त्यं कायक्लेशस्तथार्चना। कर्तव्या देशविरतेर्यथाशक्ति यथागमम् ॥ १९०॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ वसुनन्दि-श्रावकाचार विनयका वर्णन दसण-णाण-चरिते तव उवयारम्मि पंचहा विणओ। पंचमगइगमणत्थं' कायव्वो देसविरएण। (१) णिस्संकिय-संवेगाइ जे गुणा वणिया मए' पुव्वं । तेसिमणुपालणं जं वियाण सो दंसणो विणओ ।। ३२१ (२) णाणे जाणवयरणे य णाणवंतम्मि तह य भत्तीए । जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाणविणओ हु ।। ३२२ (३) पंचविहं चारित्तं अहियाराजे य वणिया तस्स । जंतेसि बहुमाणं वियाण चारित्तविणओ सो॥३२३ बालो यं बुड्ढो यं संकप्पं वज्जिऊण तवसीण' । जं पणिवायं कीरह तवविणयं तं वियाणीहि ॥ ३२४ (४) उवयारिओ वि विणओ मण-वचि-काएण होइ तिवियप्पो । सो पुण दुविहो भणिओ पच्चक्ख-परोक्खभेएण ॥ ३२५ (५) जं दुप्परिणामाओ मणं णियत्ताविऊण सुहजोए । ठाविज्जइ सो विणओ जिणेहि माणस्सिओ भणिओ ।। ३२६ (६) उपचारविनय, यह पाँच प्रकारका विनय पंचमगति गमन अर्थात् मोक्ष-प्राप्तिके लिए श्रावकको करना चाहिए ।। ३२० ॥ निःशंकित, संवेग आदि जो गुण मैंने पहले वर्णन किये हैं, उनके परिपालन को दर्शन-विनय जानना चाहिए ।। ३२१ ।। ज्ञानमें, ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदिकमें, तथा ज्ञानवंत पुरुषमें भक्तिके साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है, वह ज्ञानविनय है ३२२ ॥ परमागममें पांच प्रकारका चरित्र और उसके जो अधिकारी या धारण करनेवाले वर्णन किये गये हैं, उनके आदर-सत्कारको चरित्रविनय जानना चाहिए ।। ३२३ ।। यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकारका संकल्प छोडकर तपस्वी जनोंका जो प्रणिपात अर्थात् आदरपूर्वक वंदन आदि किया जाता है, उसे तप विनय जानना चाहिए ॥ ३२४ । औपचारिक विनय भी मन, वचन, कायके भेदसे तीन प्रकारकी होती है और वह तीनों प्रकारका वियन प्रत्यक्ष, और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है ।। ३२५ ।। जो मनको खोटे परिणामोंसे हटाकर शुभयोगमें स्थापन किया जाता है अर्थात् लगाया जाता है, उसे जिन भगवान्ने मानसिक विनय कहा है ।। ३२६ ।। १३. गमणत्थे। २ इ म. तवस्सीणं। ४ न.प. वियाहिं। .. (१) दर्शनज्ञानचारित्रैस्तपसाऽप्युपचारतः । विनयः पंचधा स स्यात्समस्तगुणभूषणः ।। १९१ ।। (२) निःशंकित्वादयः पूर्व ये गुणा वर्णिता मया । यत्तेषां पालनं स स्याद्विनयो दर्शनात्मकः १९२ । (३) ज्ञाने ज्ञानोपचारे च........ (४) यहाँका पाठ मुद्रित प्रतिमें नहीं है और उसकी आदर्शभूत पंचायती मन्दिर देहली की हस्तलिखित प्रतिमे भी पत्र टूट जानेसे पाठ उपलब्ध नहीं नहीं है । —संपादक । (५) मनोवाक्काय भेदेन....................। प्रत्यक्षतरभेदेन सापि स्थाद्विविधा पुनः। (६) दुर्थ्यानात्समाकृष्य शुभध्यानेन धार्यते । मानसं त्वनिशं प्रोक्तो मानसो विनयो हि सः ।। १९७।। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ श्रावकाचार-संग्रह हिय-मिय पुज्ज' सुत्ताणुवीचि अफरसमकक्कसं वयणं । संजमिजणम्मि जं चाइभासणं वाचिओ विणओ।। ।। ३२७ (१) किरियम्मभट्ठाणं णवणंजलि आसणुवकरणदाणं । एते पच्चुग्गमणं च गच्छमाणे अणुव्वजणं । ३२८ (२) कायाणुरूवमद्दणकरणं कालाणुरूवपडियरणं । संथाणभणियकरणं उवयरणाणं च पडिलिहणं ।। ३२९ इच्चेवमाइ काइयविणओ रिसि-सावयाण कायव्वो। जिणवयणमणुगणंतेण देसविरएण जहजोग्गं ॥ ३३० (३) इय पच्चक्खो एसो भणिओ गुरुणा विणा वि आणाए।। अणुवट्टिज्जए जं तं परोक्खविणओ ति विण्णेओ ।। ३३१ (४) विणएण ससंकुज्जलजसोहधवलियदियंतओ पुरिसो।। सव्वत्थ हवइ सुहओ तहेव आदिज्जवयणो य ॥ ३३२ (५) जे केइ वि उवएसा इह-परलोए सुहावहा संति । विणएण गुरुजणाणं' सम्वे पाउणइ ते पुरिसा । ३३३ (६) हित, मित, पूज्य, शास्त्रानकल तथा हृदयपर चोट नहीं करनेवाले कोमल वचन कहना और संयमी जनोंमें चाटु (नर्म) भाषण करना सो वाचिक विनय है ।। ३२७ ।। साधु और श्रावकोंका कृतिकर्म अर्थात् वंदना आदि करना, उन्हें देख उठकर खडे होना, नमस्कार करना, अंजली जोडना, आसन और उपकरण देना, अपनी तरफ आते देखकर उनके सन्मुख जाना, और जानेपर उनके पाछ-पीछे चलना, उनके शरीरके अनुकूल मर्दन करना, समयके अनुसार अनुकरण या आचरण करना, संस्तर आदि करना, उनके उपकरणोंका प्रतिलेखन करना, इत्यादिक कायिक विनय है। यह कायिक विनय जिनवचनका अनुकरण करनेवाले देशविरती श्रावकको यथायोग्य करना चाहिए ।। ३२८-३३० ।। इस प्रकारसे यह तीनों प्रकारका प्रत्यक्ष विनय कहा । गुरुके विना अर्थात् गुरुजनोंके नहीं होनेपर भी उसकी आज्ञाके अनुसार मन, वचन, कायसे जो अनुवर्तन किया जाता है, वह परोक्ष-विनय है, ऐसा जानना चाहिए।। ३३१।। विनयसे पुरुष शशांक (चन्द्रमा) के समान उज्वल यशःसमहसे दिगन्तको धवलित करता है । विनयसे वह सर्वत्र सुभग अर्थात् सब जगह सबका प्रिय होता है और तथैव आदेयवचन होता है, अर्थात् उसके वचन सब जगह आदरपूर्वक ग्रहण किये जाते हैं ।। ३३२ । जो कोई भी उपदेश इस लोक और परलोकमें जीवोंको सुखके देनेवाले होते हैं, उन सबकों मनुष्य गुरुजनोंकी विनयसे प्राप्त करते हैं ।। ३३३ ।। १ ध. पुज्जा । २ प्रतिष 'गुरुजणाओ' इति पाठः। (१) वचो हितं मितं पूज्यमनुवीचिवचोऽपि च । यद्यतिमनुवर्तेत वाचिको विनयोऽस्तु सः ।। १९८॥ (२) गुरुस्तुतिक्रियायुक्ता नमनोच्चासनार्पणम् । सम्मुखो गमनं चव तथा वाऽनुव्रजक्रिया ।। १९९ ।। (३) अंगसंवाहनं योग्यप्रतीकारादिनिमितिः । विधीयते यतीनां यत्कायिको विनयो हि सः ।। २०० ।। (४) प्रत्यक्षोऽप्ययमेतस्य परोक्षस्तु विनापि वा । गुरूंस्तदाज्ञयव स्यात्प्रवृत्तिः धर्मकर्मसु ॥ २०१ ।। (५) शशांक निर्मला कीत्तिः सौभाग्यं भाग्यमेव च । आदेयवचनत्वं च भवेद्विनयतः सताम् ।। २०२।। (६) विनयेन समं किंचिन्नास्ति मित्रं जगत्त्रये । यस्मात्तेनैव विद्यानां रहस्यमपलभ्यते ॥ २०३ ।। —गुण० श्राव० Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४५९ देविंद-चक्कहर-मंडलीयरायाइ जं सुहं लोए । तं सव्वं विणयफलं णिव्वाणसुहं तहा' चेव ॥ ३३४ सामण्णा वि य विज्जा ण विणयहीणस्स सिद्धिमुवयाइ। कि पुण णिव्युइविज्जा विणयविहीणस्स सिज्झेइ ।। ३३५ सत्तू वि मित्तभावं जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स । विणओ तिविहेण तओ कायव्वो देसविरएण ३३६ (१) वैयावृत्त्यका वर्णन अइबाल-बुड-रोगाभिभूय-तणुकिलेससत्ताणं । चाउवणे संघे जहजोगंतह मणुण्णाणं ।। ३३७ (२) कर-चरण-पिट-सिरसाणं महण-अभंग-सेवकिरियाहि उव्वत्तण-परियत्तण-पसारणकुंचणाईहिं ३३८ पडिजग्गणेहि तणजोय-भत्त-पाणेहि भेसजेहिं तहा। उच्चराईण विकिंचणेहि तणुधोवणेहि।। च ३३९ संथारसोहणेहि य विज्जावच्चं सया पयत्तेण । कायव्वं सत्तीए णिन्विदिगिच्छेण भावेण ।। ३४२ णिस्संकिय-संवेगाइय जे गुणा वणिया मणो विसया । ते होंति पायडा पुण५ विज्जावच्चं करंतस्स ।। ३४१ देह-तव-णियम-संजम-सील-समाही य अभयदाणं च । गइ मइ बलं च दिण्णं विज्जावच्चं करतेण ॥ ३४२ (३) संसारमें देवेन्द्र, चक्रवर्ती, और मांडलिक राजा आदिके जो सुख प्राप्त हैं, वह सब विनय का ही फल है । और इसी प्रकार मोक्षका सुख पाना भी विनयका ही फल है ।। ३३४ ।। जब साधारण विद्या भी विनय-रहित पुरुषके सिद्धिको प्राप्त नहीं होती है, तो फिर क्या मुक्तिको प्राप्त करनेवाली विद्या विनय-विहीन पुरुषके सिद्ध हो सकती है ? अर्थात् कभी नहीं सिद्ध हो सकती ।। ३३५ ।। चवि, विनयशील मनुष्यका शत्रु भी मित्रभावको प्राप्त हो जाता है, इसलिए श्रावकको मन, वचन, कायसे विनय करना चाहिए। ३३६ ।। मुनि, आयिका, श्रावक और श्राविका इस चार प्रकारके चतुर्विध संघमें अतिबाल, अतिवृद्ध, रोगसे पीडित अथवा अन्य शारीरिक क्लेशसे संयुक्त जीवोंका, तथा मनोज्ञ अर्थात् लोकमें प्रभावशाली साधु या श्रावकोंका यथायोग्य हाथ, पैर, पीठ और शिरका दबाना, तेलमर्दन करना, स्नानादि कराना, अग सेकना, उठाना, बैठाना, अंग पसारना, सिकोडना, करवट दिलाना, सेवा-शुश्रूषा आदि समयोचित कार्योंके द्वारा, शरीरके योग्य पथ्य अन्न-जल द्वारा, पथा औषधियोंके द्वारा, उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र) आदि के दूर करनेसे, शरीरके धोनेसे. और सस्तर (बिछौना) के शोधनेसे सदा प्रयत्नपूर्वक ग्लानि-रहित भावसे शक्तिके अनसार वैयावत्य करना चाहिए।।३३७-३४० ।। निशंकित आदि और संवेग आदि जो मनोविषयक गण पहले वर्णन किये गये हैं. वे सब गण वैयावत्य करनेवाले जीवके प्रकट होते हैं। ३४१॥ वैयावृत्त्यको करनेवाले श्रावकके द्वारा देह, तप, नियम, संयम और शीलका समाधान, अभय दान तथा गति, मति और बल दिया जाता है ।। ३४२ ।। भावार्थ-साधु जन या श्रावक आदि १ प. तहच्चेव । २ इ. सिज्झेह, झ. सिज्झिहइ, ब. सब्भिहइ । ३ इ. पडित्तग्गा०, ब. पडिज्जग्ग० । ४ ब. मुणे । ५ ध. गुण । ) विद्वेषिणोऽपि मित्रत्वं प्रयान्ति विनयाद्यतः। तस्मात्त्रेधा विधातव्यो विनयो देशसंयतः॥२०४॥ (२) बाल वार्धक्यरोगादिक्लिप्टे संघ चतुर्विधे । वैयावृत्यं यथाशक्तिविधेयं देशसंयतः ।। २०५ ।। (३) वपुस्तपोबलं शीलं गति-बुद्धि-समाधयः । निर्मलं नियमादि स्याद्वैयावृत्यकृतार्पणम् ।। २०५।। -गुण० श्रा० Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० श्रावकाचार-संग्रह गुणपरिणामो जायइ जिणिंद-आणा य पालिया होइ । जिणसमय-तिलयभूओ लगभइ अयतो वि गुणरासी ॥ ३४३ भमइ जए जसकित्ती सज्जणसुइ-हियय-णयण-सुहजणणी। अण्णेवि य होति गणा विज्जावच्चेण इहलोए ॥ ३४४ (१) परलोए वि सरूवो चिराउसो रोय-सोय-परिहीणो। बल-तेय-सत्तजत्तो जायइ अखिलप्पयाओ वा ।। ३४५ जल्लोसहि-सव्वोसहि-अक्खीणमहाणसाइरिद्धीओ । अणिमाइगुणा य तहा विज्जावच्चेण पाउणइ॥ कि जंपिएण-बहणा तिलोहसंखाहकारयमहतं । तित्थयरणामपुण्णं विज्जावच्चेण अज्जेइ ॥ ३४७ तरुणियण-णयण-मणहारिरूव-बल-तेय-सत्तसंपण्णोजाओ विज्जावच्चं पुवं काऊण वसुदेवो॥३४८ वारवईए' विज्जाविच्चं किच्चा असंजदेणावि । तित्थयरणामपुण्णं समज्जियं वासुदेवेण ॥ ३४९ एवं गाउण फलं विज्जावच्चस्स परमभत्तीए । णिच्छयजुत्तेण सया कायव्वं देसविरएण ।। ३५० जब रोग आदिसे पीडित होकर अपने व्रत, संयम आदिके पालने में असमर्थ हो जाते हैं, यहाँ तक कि पीडाकी उग्रतासे उनकी गति, मति आदि भी भ्रष्ट होने लगती है और वे मतप्राय हो जाते हैं, उस समय सावधानीके साथ की गई वैयावृत्ति उनके लिए संजीवनी वटीका काम करती है, वे मरनेसे बच जाते हैं, गति, मति यथापूर्व हो जाती है और वे पूनः अपने व्रत, तप, संयम आदिकी साधनाके योग्य हो जाते हैं, इसलिए ग्रन्थकारने यह ठीक ही कहा है कि जो वैयावृत्त्य करता है, वह रोगी साधु आदिको अभयदान, व्रत-संयम-समाधान और गति-मति प्रदान करता है, यहाँ तक कि वह जीवन-दान तक देता है और इस प्रकार वैयावृत्त्य करनेवाला सातिशय अक्षय पुण्यका भागी होता है । वैयावृत्त्य करनेसे गुण-परिणमन होता है, अर्थात् नवीन सद्गुणोंका प्रादुर्भाव और विकास होता है, जिनेन्द्र-आज्ञाका परिपालन होता है, और अयत्न अर्थात् प्रयत्नके बिना भी गुणोंका समूह प्राप्त होता है तथा वह जिन-शासनका तिलकभूत प्रभावक व्यक्ति होता है ।। ३४३ ।। सज्जन पुरुषों के श्रोत्र, नयन और हृदयको सुख देनेवाली उसकी यश कीति जगमें फैलती है, तथा अन्य भी बहुतसे गुण वैयावृत्त्यसे इस लोक में प्राप्त होते हैं ।। ३४४ ॥ वैयावृत्त्यके फलसे परलोकमें भी जीब सुरूपवान्, चिरयाष्क, रोग-शोकसे रहित, बल, तेज और सत्त्वसे युक्त तथा पूर्ण प्रतापी होता है ।। ३४५ ।। वैयावृत्त्यसे जल्लौषधि, सवौंषषि, और अक्षीणमहानस आदि ऋद्धियाँ, तथा अणिमा आदि अष्ट गुण प्राप्त होते हैं ।। ३४६ ।। अधिक कहनेसे क्या, वैयावृत्त्य करनेसे यह जीव तीन लोकमें संक्षोभ अर्थात् हर्ष और आश्चर्यको करानेवाला महान् तीर्थङ्कर नामका पुण्य उपार्जन करता है ।। ३४७ ॥ वसुदेवका जीव पूर्वभवमें वैयावृत्त्य कर तरुणीजनोंके नयन और मनको हरण करने वाले रूप, बल, तेज और सत्त्वसे सम्पन्न वसूदेव नामका कामदेव हुआ। ३४८॥ द्वारावतीमें व्रत-संयमसे रहित असंयत भी वासुदेव श्रीकृष्णने वैयावृत्त्य करके तीर्थंकर नामक पुण्यप्रकृतिका उपार्जन किया ।। ३४९ ॥ इस प्रकार वैयावृत्त्यके फलको जानकर दृढ निश्चय होकर परम भक्तिके साथ श्रावकको सदा वैयावृत्त्य करना चाहिए ॥ ३५० ।। १ द्वारावत्याम् । (१) वैयावृत्यकृतः किञ्चिदुर्लभं न जगत्त्रये । विद्या कीर्तिः यशो लक्ष्मीः धीः सौभाग्यगुणेष्वपि ।। २०७ ।।-गुण० श्रा० Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-प्रावकाचार कारक्लेशका वर्णन आयंबिल णिब्वियडी एयटाणं छट्टमाइखवणेहिं जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयव्वो।३५१(१) मेहाविणरा एएण चेव बुझंति' बुद्धिविहवेण । ण य मंदबुद्धिणो तेण कि पि वोच्छामि सविसेसं ॥ पंचम व्रतका वर्णन आसाढ कत्तिए फग्गुणे य सियपंचमीए गुरुमूले । गहिऊण विहि विहिणा पुव्वं काऊण जिणपूजा । पडिमासमेक्कखमणेण जाव वासाणि पंच मासा य । अविच्छिण्णा कायव्वा मुत्तिसुहं जायमाणेण ।। ३५४ अवसाणे पंच घडाविऊण पडिमाओ जिणवरिदाणं । तह पंच पोत्थयाणिय लिहाविऊणं ससत्तीए ।। तेसि पइट्ठयाले जं कि पि पइट्ठजोग्गमुवयरणं । तं सव्वं कायव्वं पत्तेयं पंच पंच संखाए ॥ ३५६ सहिरण पचकलसे पुरओ वित्थरिऊण वत्थमहे । पक्कण्णं बहुभेयं फलाणि विजिहाणि तह चेव ।। दाणं च जहाजोगं दाऊण चउम्विहस्स संघस्स। उज्जवणविही एवं कायव्वा देसविरयेण ।। ३५८ उज्जवणविही ण तरइ काउं जड को वि अत्थपरिहीणो। तो विउणा कायव्वा उववासविही पयत्तेण । ३५९ जइ अंतरम्मि कारणवसेण एक्को व दो व उपवासा' । ण कओ तो मूलाओ पुणो वि सा होइ कायव्वा ॥ ३६० आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान (एकाशन), चतुर्थभक्त अर्थात् उपवास, षष्ठ भक्त अर्थात् वेला, अष्टमभक्त अर्थात् तेला आदिके द्वारा जो शरीरको कृश किया जाता है, उसे कायक्लेश जानना चाहिए ।। ३५१ । बुद्धिमान् मनुष्य तो इस संक्षिप्त कथनसे ही अपनी बुद्धिके वैभव द्वारा कायक्लेशके विस्तृत स्वखपको समझ जाते हैं । किन्तु मन्दबुद्धि जन नहीं समझ पाते हैं, इसलिए कायक्लेशका कुछ विस्तृत स्वरुप कहूँगा ।। ३५२ ।। आषाढ, कात्तिक या फाल्गुन मास में शुक्ला पंचमीके दिन पहले जिन-पूजनको करके पुन: गुरुके पाद-मूलमें विधिको ग्रहण करके, अर्थात् उपवासका नियम लेकर, प्रतिमास एक क्षमणके द्वारा अर्थात् एक उपवास करके पाँच वर्ष और पाँच मास तक मुक्ति-सुखको चाहनेवाले श्रावकोंको अविच्छिन्न अर्थात् विना किसी नागाके लगातर यह पंचमीव्रत करना चाहिए ।। ३५३-३५४ ।। व्रत पूर्ण हो जानेपर जिनेन्द्र भगवानकी पाँच प्रतिमाएँ बनवाकर, तथा पाँच पोथियों (शास्त्रों) को लिखाकर अपनी शक्तिके अनुसार उनकी प्रतिष्ठाके लिए जो कुछ भी प्रतिष्ठाके योग्य उपकरण आवश्यक हों, वे सब प्रत्येक पाँच पाँचकी संख्यासे बनवाना चाहिए ।। ३५५-३५६ ।। हिरण्य-सुवर्ण सहित अर्थात् जिनके भीतर सोना, चाँदी, माणिक आदि रखे गये हैं, और जिनके मुख वस्त्रसे बँधे हुए हैं, ऐसे पाँच कलशोंको जिनेन्द्रवेदिकाके सामने रखकर, तथैव नानाप्रकारक पकवान और विविध फलोंको भी रखकर और चतुर्विध संघको यथायोग्य दान देकर देशविरत श्रावकोंको इस प्रकार व्रत उद्यापन विधि करना चाहिए ।। ३५७-३५८ ।। यदि कोई धन-हीन श्रावक उद्यापनकी विधि करनेके लिए समर्थ न हो, तो उसे विधिपूर्वक यत्नके साथ उपवास-विधि दुगुनी करना चाहिए।। ३५९ ।। यदि व्रत करते हुए बीचमें १ ब. वुभंति । ध. जुज्झति । २ प. पुज्जा। ३ ध अविछिण्णा। ४ ध. उववासो। (१) आचाम्लं निविकृत्यकभक्त-षष्ठाष्टमादिकम् । यथाशक्तिश्च क्रियते कायक्लेशः स उच्यते ।। २०८ ॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ श्रावकाचार-संग्रह एस कमो णायवो सम्वविहीणं भणिज्जमाणाणं । एवं णाऊण फुडं ण पमाओ होइ कायम्वो॥३६१ पंचमिउववासविहिं किच्चा देविंद-चक्रवद्वित्ते। भोत्तूण दिव्वमाए पच्छा पाउणदि णिश्वाणं । ३६२ रोहिणीव्रत-वर्णन विहिणा गहिऊण विहि रोहिणिरिक्खम्मि पंच वासाणि । पंच य मासा जाव उ' उपवासं तम्मि रिक्खम्मि ॥ ३६३ काऊणुज्जवणं पुण पुत्वविहाणेण होइ कायव्वं । णवरि विसेसोपडिमा कायव्वा वासुपुज्जस्स ।। ३६४ तस्स फलेणित्थी वा पुरिसो सोयं ण पिच्छइ कया वि। भोत्तूण विउलभोए पच्छा पाउणइ णिव्वाणं ।। ३६५ अश्विनीव्रत-वर्णन गहिऊणस्सिणिरिक्खम्मि विहिं रिक्खेसु सत्तवीसेसु । रिक्खं पडि एक्केक्को उववासो होइ कायम्वो ।। ३६६ एवं काऊण विहि सत्तीए जो करेइ उज्जवणं । भुत्तूणब्भुदयसुहं सो पावइ अक्खयं सुक्खं ।। ३६७ सौख्यसम्पत्तिव्रत-वर्णन एया पडिवा वीया उ दुण्णि तोया उ तिण्णि चउत्थीओ' । चत्तारि पंच य छट्ठीउ छठेव ।। ३६८ सत्तेव सत्तमीओ अट्ठम्मिओ य गव य णवमीओ। दस दसमीओ य तहा एयारस एयारसीओ य ।। ३६९ किसी कारणवश एक या दो उपवास न किये जा सके हों, तो मूलसे अर्थात् प्रारम्भ से लेकर पुन: वही उपवास विधि करना चाहिए ।। ३६० ॥ यह क्रम आगे कहे जाने वाले सभी व्रत-विधानोंका जानना चाहिए, ऐसा भले प्रकार जानकर कभी भी ग्रहण किये गये व्रतमें प्रमाद नहीं करना चाहिए ।। ३६१ ॥ श्रावक इस पंचमीव्रत के उपवास-विधानको करके देवेन्द्र और चक्रवत्तियों के दिव्य भोग भोगकर पीछे निर्वाण पदको प्राप्त करता है ।। ३६२ ।। रोहिणी नक्षत्र में विधिपूर्वक व्रत-विधिको ग्रहणकर पाँच वर्ष और पाँच मास तक उसी नक्षत्र में उपवासको ग्रहणकर, पुनः अर्थात् व्रतपूर्ण होने के पश्चात् पूर्वोक्त विधानसे उसका उद्यापन करना चाहिए । यहाँ केवल विशेषता यह है कि प्रतिमा वासुपूज्य भगवान की बनवाना चाहिए ।। ३६३-३६४ ।। इस रोहिणी व्रतके फलसे स्त्री हो या पुरुष, वह कभी भी शोकको नहीं देखता है, अर्थात् उसका जीवन रोगशोक-रहित सुखसे व्यतीत होता है और वह विपुल भोगोंको भोगकर पीछे निर्वाण-सुखको प्राप्त होता है ।। ३६५ ॥ अश्विनी नक्षत्र में व्रत-विधि को ग्रहणकर पुनः सत्ताईस नक्षत्रोंमें प्रत्येक अश्विनी नक्षत्रपर एक-एक उपवास करना चाहिए । इस प्रकार अश्विनी व्रतको विधिको करके जो अपनी शक्तिके अनुसार उद्यापन करता है, वह अभ्यदय अर्थात् स्वर्गके सुखको भोगकर अक्षय मुक्तिसुखको प्राप्त करता है ।। ३६६-३६७ ।। प्रतिपदा आदिक तिथियोंमें यथोक्त संख्याके क्रमसे प्रति पदका एक, द्वितीयाके दो, तृतीयाके तीन, चतुर्थीके चार, पंचमीके पाँच, षष्ठीके छह, सप्तमीके सात, अष्टमीके आठ. नवमीके नौ, दशमीके दस एकादशी के ग्यारह, द्वादशीके बारह्, त्रयोदशीके १ झ. जाओ। २ शोकं । ३ ब चोत्थीओ। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४६३ बारस य बारसीओ तेरह तह तेरसीओणायव्वा। चोइस य चोहसीओ पण्णारस पुण्णिमाओ य॥३७० उववासा कायवाजहुत्तसंखाकमेण एयासु। एसाणामेण विहि विष्णेया सुक्खसंपत्ती ।। ३७१ एयस्से संजायइ फलेण अन्मुदयसुक्खसंपत्ती। कमसो मुत्तिसुहस्स वि तम्हा कुज्जाप यत्तेण ।। ३७२ नन्दीश्वरपंक्तिव्रत-वर्णन काऊण अट्ट एयंतराणि रइयरणगेसुचतारि । दहिमुहसेलेसु पुणो अंजणजिणचेइए छठें॥३७३ गंदीसरम्मि दीवे एवं चउसु वि दिसासु कायव्वा । उववासा एस विहि णंदोसरपंति णामेण ॥३७४ जंकि पि देवलोए महड्डिदेवाण माणुसाण सुहं । भोत्तूण सिद्धिसोक्खं पाउणइ फलेण एयस्स॥३७५ विमानपंक्तिव्रत-वर्णन एयंतरोववासा चत्तारि चउहिसासु काऊण । छठें मज्झे एवं तिसट्टिखु तो विहिं कुज्जा॥३७६ पटुवणे णिढवणे छठें मज्मम्मि अट्ठयं च तहा। एस विही णायव्वा विमाणपंति ति णामेण ॥ ३७७ फलमेयस्से भोत्तण देव-मणुएसु इंदियजसुक्खं । पच्छा पावइ मोक्खं थुणिज्जमाणो सुरिदेहिं ।। ३७८ उद्देसमेत्तमेयं कीरइ अण्णं पिजं ससत्तीए। सुत्तुत्ततवविहाणं कायकिलेसुत्तितं विति ।। ३७९ जिण सिद्ध-सूरि-पाठय-साहूणं जं सुयस्स विहवेण । कीरइ विविहा पूजा वियाण तं पूजणविहाणं ॥ ३८० (१) तेरह, चतुर्दशीके चौदह और पूर्णमासीके पन्द्रह उपवास करना चाहिए । इस उपवास-विधिका नाम सौख्यसंपत्तिव्रत जानना चाहिए । इस व्रत-विधिके फलसे अभ्युदय-सुखकी संप्राप्ति होती है और क्रमसे मुक्तिसुखकी भी प्राप्ति होती । इसलिए प्रयत्नके साथ इस व्रतको करना चाहिए। ।। ३६८-३७२ ॥ नन्दीश्वर द्वीपमें एक दिशासम्बन्धी आठ रतिकर पर्वतोंमें विद्यमान जिन-बिम्ब सम्बन्धी आठ एकान्तर उपवास करके, पुन: चार दधिमुख नामक शैलोंमें विद्यमान जिनबिम्ब सम्बन्धी चार एकान्तर उपवास करके, पुन: एक अंजनगिरिस्थ जिनबिम्ब सम्बन्धी षष्ठभक्त अर्थात एक वेला करे । इस प्रकार चारों ही दिशाओं में उपवास करना चाहिए । इस उपवासविधिका नाम नन्दीश्वर पंक्ति व्रत है । इस व्रतके फलसे देवलोक में महद्धिक देवोंके जो कुछ भी सुख हैं और मनुष्योंके जितने सुख हैं, उन्हें भोगकर यह जीव सिद्धि-सुखको प्राप्त होता है ॥३७३-३७५।। चारों दिशाओं में स्थित चार श्रेणीबद्ध विमान सम्बन्धी चार एकान्तर उपवास करके, पूनः मध्यमें स्थित इन्द्रक विमान सम्बन्धी एक षष्ठभक्त अर्थात् वेला करे। इस प्रकार यह विधि तिरेसठ बार करना चाहिए। प्रस्थापन अर्थात् व्रत-प्रारम्भ करनेके दिन और निष्ठापन अर्थात् व्रत समाप्त होने के दिन वेला करे, तथा मध्यमें अष्टम भक्त अर्थाततेला करे। इस उपवासविधिका नाम विमान-पंक्ति व्रत जानना चाहिए।। ३७६-३७७॥ इस व्रत-विधानके फलसे यह जीव देव और मनुष्योंमें इन्द्रिय-जनित सुख भोगकर पीछे देवेन्द्रोंसे स्तुति किया जाता हुआ मोक्षको पाता है।। ३७८ ।। व्रतोंका यह उद्देशमात्र वर्णन किया गया है। इनके अतिरिक्त अन्य भी सूत्रोक्त तप-विधानको जो अपनी शक्तिके अनुसार करता है, उसे आचार्योने कायक्लेश इस नामसे कहा है ।। ३७९ ।। अर्हन्त जिनेन्द्र, सिद्ध भगवान्, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंकी तथा शास्त्रका जो वैभवसे नाना प्रकार को पूजा की जाती है, उसे पूजन-विधान जानना चाहिए।।३८०। नाम, स्थापना, (१) गुरूणामपि पंचानां या यथाभक्ति--शक्तितः। क्रियतेऽनेकधा पूजा सोऽर्चनाविधिरुच्यते।२११॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ श्रावकाचार-संग्रह णाम-ट्रवणा-दव्वे खित्ते काले वियाण भावे य । छविहपूया भणिया समासओ जिणरिदेहिं ।। ३८१ (१) नामपूजा उच्चारिऊण णामं अरुहाईणं विसुद्धदेसम्मि । पुप्फाणि जं खिविज्जंति वणिया' णामपूया सा ॥ ३८२ (२) स्थापना पूजा सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णता। सायारवंतवत्थुम्मि जंगुणारोवणं पढमा।। ३८३ अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णिययबुद्धोए । संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असन्भावा ।। ३८४ (३) हुंडावसप्पिणीए विइया ठवणाण होदि कायवालोए कुलिंगमइमोहिए जदो होइ संदेहो ३८५(४) कारागिदपडिमा पइट्ठलक्खणविहिं फलं चेव। एदे पंचहियाराणायव्वा पढमठवणाए॥३८६ (५) कारापक-लक्षण भागी वच्छल्ल-पहावणा-खमा-सच्च-महवोवेदो। जिणसासण-गुरुभत्तोसुत्ते कारावगो भणिदो।३७८ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा संक्षेपसे छह प्रकारकी पूजा जिनेन्द्रदेवने कही है ।। ३८१ ।। अरहन्त आदिका नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेशमें जो पुष्प क्षेपण किये जाते हैं, वह नामपूजा जानना चाहिए ।। ३८२ ।। जिन भगवान्ने सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना, यह दो प्रकारकी स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तुमें जो अरहन्त आदिके गुणोंका आरोपण करना, सो यह पहली सद्भावस्थापना पूजा है । और अक्षत, वराटक ( कौडी या कमलगट्टा ) आदिम अपनी बुद्धिसे यह अमुक देवता है ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, सो यह असद्भावस्थापना पूजा जानना चाहिए ।।३८३-३८४॥ हुडावसर्पिणी कालमें दूसरी असद्भावस्थापना पूजा नही करना चाहिए, क्योंकि, कुलिंग-मतियोंसे मोहित इस लोकमें संदेह हो सकता है ।। ३८५ ।। पहली सद्भावस्थापना-पूजामें कारापक अर्थात् प्रतिमाको बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा करानेवाला, इन्द्र अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य, प्रतिमा, प्रतिष्ठाको लक्षणविधि, ओर प्रतिष्ठाका फल, ये पाँच अधिकार जानना चाहिए॥ ३८६ ।। भाग्यवान, वात्सस्य.प्रभावना.क्षमा. सत्य और मार्दव गणसे संयक्त देव, शासन अर्थात् शास्त्र और गुरुकी भक्ति करनेवाला प्रतिष्ठाशास्त्र में कारापक कहा गया है १ ब वाणिया। २ इ. एसु। ३ य. ध होई। (१) स नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-कालाच्च भावतः । षोढार्चाविधिरुद्दिष्टो विधेयो देशसंयतः ।। २१२।।-गुण० श्राव. (२) नामोच्चारोऽहंतादीनां प्रदेशे परितः शुचौ । य: पुष्पाक्षतनिक्षपा क्रियते नामपूजनम् ।। २१३ ॥ (३) सद्भावेतरभेदेन स्थापना द्विविधा मता। सद्भावस्थापना भावे साकारे गुणरोपणम् ।। २१४ ॥ उपलादौ निराकारे शुचौ संकल्पपूर्वकम् । स्थापनं यदसद्भावः स्थापनेति तदुच्चते ।। २१५ ।। (४) हूंडावसर्पिणीकाले द्वितीया स्थापना बुधः। न कर्तव्या यतो लोके समूढसंशयो भवेत् ॥ २१६॥ (५) निर्मापकेन्द्रप्रतिमा प्रतिष्ठालक्ष्म तत्फलम् । अधिकाराश्च पंचते सद्भावस्थापने स्मृताः ।।२१७॥ -गुणभुषण श्रावकाचार Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-प्रावकाचार ४६५ इंद्र-लक्षण देश-कुल-जाइसुद्धोणिरुवम-अंगो विसुद्धसम्मत्तो। पढमाणिओयकुसलो पइट्टलक्खणविहिविदण्णू ।। सावयगुणोववेदो उवासयज्झयणसत्थथिरबुद्धी । एव गुणो पइट्ठाइरिओ जिणसासणे भणिओ ॥ ३८९ प्रतिमा-विधान * मणि-कणय-रयण-रुप्पय-पित्तल-मुत्ताहलोवलाईहिं । पडिमालक्खणविहिणा जिणाइपडिमा घडाविज्जा। ३९० बारह-अंगंगी जा' दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा। चोद्दहपुवाहरणा ठावेयव्वा य सुयदेवी ।। ३९१ अहवा जिणागमं पुत्थएम सम्म लिहाविऊण तओ। सुहतिहि-लग्ग मुहुत्ते आरंभो होइ कायव्वो। ३९२ प्रतिष्ठा-विधान अटुवसहत्थमेत्तं भूमि संसोहिऊण जइणाए। तस्सुवरि मंडओ पुण कायव्वो तप्पमाणेण ।। ३९३ चउतोरण-चउदारोवसोहिओ विविहवत्थकयभूसो। धुन्वंतधय-वडाओ णाणापुष्फोवहारड्ढो॥३९४ लंबंतकुसुमदामो वंदणमालाहिभूसियदुवारो। दारुवरि उहयकोणेमु पुण्णकलसेहि रमणीओ।। ३९५ तस्स बहुमज्झदे मे पइट्ठसत्थम्मि वुत्तमाणेण । समचउरंसं पीठं सव्वत्थ समं च काऊण ।। ३९६ चउसु वि दिसासु तोरण-वंदणमालोववेददारणि। णंदावत्ताणि तहा दिढाणि रइऊण कोणेसु॥३९७ पडिचोणणेत्तपट्टाइएहि वहिं बहुविवेहिं तहा उल्लोविऊण उरि चंदोवयमणिविहाणेहि ।। ३९८ ॥ ३८७ जो देश, कुल और जातिसे शुद्ध हो, निरुपम अंगका धारक हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोगमें कुशल हो, प्रतिष्ठाको लक्षण-विधिका जानकर हो, श्रावकके गुणोंसे युक्त हो, उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) शास्त्रमें स्थिरबुद्धि हो, इस प्रकारके गुणवाला जिनशासनमें प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है ।। ३८८-३८९ ।। मणि, स्वर्ण, रत्न, चाँदी, पीतल, मुक्ताफल (मोती) और पाषाण आदिसे प्रतिमाकी लक्षणविधिपूर्वक अरहंत, सिद्ध आदिकी प्रतिमा बनवाना चाहिए ॥३९०।। जो श्रुतज्ञानके बारह अंग-उपांगवाली है, सम्यग्दर्शनरूप तिलकसे विभूषित है, चारित्ररूप वस्त्रकी धारक है, और चौदह पूर्वरूप आभरणोंसे मंडित है, ऐसी श्रुतदेवी भी स्थापित करना चाहिए ।।३९१।। अथवा जिनागमको पुस्तकोंमें सम्यक् प्रकार लिखाकर तत्पश्चात् शुभ तिथि, शुभ लग्न और शुभ मुहूर्तमें प्रतिष्ठाका आरम्भ करना चाहिए ।। ३९२ ।। आठ-दस हाथ प्रमाण लम्बीचौडी भूमिको यतनाके साथ भले प्रकार शुद्ध करके उसके ऊपर तत्प्रमाण मंडप बनाना चाहिए। वह मंडप चार तोरणोंसे और चार द्वारोंसे सुशोभित हो, नाना प्रकारके वस्त्रोंसे विभूषित हो, जिसपर ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही हों, जो नाना पुष्पोपहारोंसे युक्त हो, जिसमें पुष्प-मालाएँ लटक रही हों. जिसके दरवाजे वंदन-मालाओंसे विभूषित हों, जो द्वारके ऊपर दोनों कोनोंमें जलपरिपूर्ण कलशोंसे रमणीक हो। उस मंडपके बहुमध्यदेश में, अर्थात् ठीक बीचोंबीच प्रतिष्ठाशास्त्रमें कहे हुए प्रमाणसे समचतुरस्र अर्थात चौकोण पीठ (चबतरा) बनाकर और उसे सर्वत्र समान करके, चारों ही दिशाओंमें तोरण और वंदनमालाओंसे संयुक्त द्वारोंको बनाकर, तथा कोनोंमें दृढ मजबूत और स्थिर नद्यावर्त बनाकर, चीनपट्ट (चाइना सिल्क), कोशा नादि नाना प्रकारके १ ध अंगेगिज्जा। २ झ. वज्जावत्ताणि, म. प. छत्तावत्ताणि । ध छज्जावत्ताणि । स्वर्णरत्नमणिरौप्यनिर्मितं स्फाटिकामलशिलाभव तथा । उत्थिताम्बुजमहासनांगितं जैन बिम्बमिह शस्यते बुधै. ।। ६९ ।।-वसुबिन्दुप्रतिष्ठापाठ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह संभूसिऊण चंदद्धचंदवन्यवरायलाईहिं । मत्तादामेहि तहा किकिणिजालेहि विविहेहि ।। ३९९ छत्तहिं चामरेहि य दप्पण-भिगार-तालवट्टहिं । कलसेहि पुप्फवडिलिय-सुपइट्टय-दीवणिवहेहि।।४०० एवं रयणं काऊण तओ अब्भंतरम्मि भागम्मि । रइऊण विविहभडेहि वेइयं चउसु कोणेसु ।। ४०१ इंदो तह दायारो पासुयसलिलेण धारणादिण्हे' । पक्खालिऊण देहं पच्छा भोत्तूण महुरणं ।।४०२ उववासं पुण पोसहविहिणा गहिऊण गुरुसयासम्मि। णव-धवलवत्थभूसो सिरिखंडविलित्तसन्वंगो।। आहरण-वासियाईहिं भूसियंगो सगं सबुद्धीए । सक्कोहमिइ वियप्पिय विसेज्ज जागावणि इंदो ४०४ पुन्व॒त्तवेइमज्जे लिहेज्ज चण्णण पंचवण्णण । पिहुकणियं पइट्टाकलावविहिणा सुकंदुत्थं ॥ ४०५ रंगावलि च मज्झे ठविज्ज सियवत्थपरिवुडं पीठं। उचिदेसु तह पइट्ठोवयरणवव्वं च ठाणेसु।। ४०६ एवं काऊण तओ ईसाणदिसाए वेइयं दिव्वं । रहऊण व्हवणपीठ तिस्से मज्झम्मि ठावेज्जो॥४०७ अरुहाईणं पडिमं विहिणा संठाविऊण तस्सुरि । धूलोकलसहिसेयं कराविए सुत्तहारेण ।। ४०८ वत्थादियसम्माणं कायव्वं होदि तस्स सत्तीए। * पोक्खणविहिं च मंगलरवेण कुज्जा तओ कमसो।। नेत्राकर्षक वस्त्रोंसे निर्मित चन्द्रकान्तमणि तुल्य चतुष्कोण चंदोवेको तानकर चन्द्र, अर्धचन्द्र, बुद्बुद, वराटक ( कौडी ) आदिसे तथा मोतियोंकी मालाओंसे, नाना प्रकारकी छोटी घण्टियोंके समूहसे, छत्रोंसे, चमरोंसे, दर्पणोंसे, भङ्गारोंसे, तालवन्तोसे, कलशोंसे, पुष्प-पटलोंसे, सुप्रतिष्ठक ( स्वस्तिक ) और दीप-समूहोंसे आभूषित करे । इस प्रकारकी रचना करके पुनः उस चबूतरेके आभ्यन्तर भागमें चारों कोणोंमें विविध भाँडों (बर्तनो) से वेदिका बनाना चाहिए।।३९३-४०१।। धारणाके दिन अर्थात् प्रतिष्ठा करते समय उपवास ग्रहण करनेके पहले इन्द्र (प्रतिष्ठाचार्य)ओर दातार (प्रतिष्ठा-कारापक)प्रासुक जलसे देहको प्रक्षालनकर अथोंत् स्नानकर तत्पश्चात् मधुर अन्नको खाकर, पुनः गुरुके पासमें प्रोषधविधिसे उपवासको ग्रहणकर, नवीन, उज्ज्वल श्वेत वस्त्रोंसे विभूषित हो, श्रीखण्ड चन्दनसे सर्व अंगको लिप्तकर, आभरण और वासिका (सुगधित द्रव्य या चूर्ण आदि) से विभूषित-अंग होकर, अपने आपको अपनी बुद्धिसे में इन्द्र हूँ ऐसा संकल्प करके वह इन्द्र (और प्रतिष्ठाकारक) यज्ञावनि अर्थात् प्रतिष्ठामंडपमें प्रवेश करे ॥४०२-४०४।। प्रतिष्ठा-मंडपमें जाकर तत्रस्थ पूर्वोक्त वेदिकाके मध्यमें पंच वर्णवाले चूर्णके द्वारा प्रतिष्ठाकलापकी विधिसे पथु अर्थात् विशाल कणिकावाले नील कमलको लिखे और उसमें रंगावलिको भरकर उसके मध्य में श्वेत वस्त्रसे परिवृत पीठ अर्थात् सिंहासन या ठौनाको स्थापित कर तथा प्रतिष्ठामें आवश्यक उपकरण द्रव्य उचित स्थानोंपर रखे। ४०५-४०६।। इस प्रकार उपर्युक्त कार्य करके पुन: ईशान दिशामें एक दिव्य वेदिका रचकर, उसके मध्यमें एक स्नान-पीठ अर्थात् अभिषेकार्थ सिंहासन या चौकी वगैरहको स्थापित करे । और उसके ऊपर विधिपूर्वक अरहंत आदिकी प्रतिमाको स्थापित कर सूत्रधार अर्थात् प्रतिमा बनानेवाले कारीगरके द्वारा धूलिकलशाभिषेक करावे । तत्पश्चात् उस सूत्रधारका अपनी शक्तिके अनुसार वस्त्रदिकसे सन्मान करना चाहिये । तत्पश्चात् क्रमशः प्रोक्षणविधिको मांगलिक वचन गीतादिसे करे ।। धूलीकलशाभिषेक और प्रोक्षणविधिके जानने के लिए परिशिष्ट देखिए) ।।४०७-४०९। तत्पश्चात् आकर-शुद्धिके १ इ दियह, झ ध दियहे, ब प दियहो । २ पंचवर्णचूर्ण-श्वेतमुक्ताचूर्ण, पीत-हरिद्रपीतमणिचूर्ण, हरित-वैड्यरत्नचूर्ण, रत्न-माणिक्य-ताम्रमणिचूर्ण, कृष्ण-गरुत्मणिचूर्ण, ( वसुबिन्दु प्रतिष्ठापाठ ) ३ इ झ ध फ सुकंदुटुं, ब सुकंदुळं । नीलोत्पलमित्यर्थः । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४६७ तप्पाओग्गुवयरणं अप्पसमीवं णिविसिऊण तओ । आगरसुद्धि कुज्जा पइट्ठसत्युत्तमग्गेण ।। ४१० एवं काऊण तओ खुहियसमुद्दोव्व गज्जमाणेहिं । वरभेरि-करड-काहल-जय-घंटा-संख-णिवहेहिं ४११ गुलगुलगुलंत तविलेहि कंसतालेहि झमझमंतेहि। घुम्मंत पडह-मद्दल' हुडुक्कमुखेहि विविहेहि ४१२ गिज्जत संधिबंधाइएहि गेएहि बहुपयारेहि । वीणावंसेहि तहा आणयसहि रम्नेहिं । ४१३ बहुहाव-भाव-विन्भम-विलास-कर-चरण-तणुवियारेहिं । णच्चंत णवरसुब्मिण्ण-णाडएहि विविहेहिं ।। ४१४ थोत्तेहि मंगलेहि य उच्चाहसएहि महुरवयणस्स धम्माणुरायरत्तस्स चाउवण्णस्स संघस्स ।। ४१५ भत्तीए पिच्छमाणस्स तओ उच्चाइऊण जिणपडिमं । उस्सिय सियायवत्तं सियचामरधन्वमाण सव्वंगं ।। ४१६ आरोविऊण सीसे काऊण पयाहिणं जिणगेहस्स। विहिणा ठविज्ज पुवुत्तवेइयामज्मपीठम्मि॥४१७ चिट्ठज्ज-जिणगणारोवणं कुणंतोििणदपडिबिवे।इविलग्गस्सदए चंदणतिलयं तओ दिज्जा ४१८ सव्वावयवेसु पुणो मंतण्णासं कुणिज्ज पडिमाए। विविहचणं च कुज्जा कुसुमेहि बहुप्पयारेहिं ४१९ दाऊण महपडं धवलवत्थजुयलेण मयणफलसहियं ।। ___अक्खय-चरु-दोवेहिं य धूवेहि फलेहि विविहेहि ॥ ४२० बलिवत्तिएहिं जावारएहि य सिद्धत्थपण्णरुखैहि पुव्वुत्तुवयरणेहि य रएज्ज पुज्जं सविहवेण ४२१ योग्य उपकरणोंको अपने समीप रखकर प्रतिष्ठाशास्त्र में कहे हुए मार्गके अनुसार आकर शुद्धिको करे । (आकरशुद्धिके विशेष स्वरूपको जानने के लिए परिशिष्ठ देखिए) ।।४१०। इस प्रकार आकारशुद्धि करके पुन: क्षोभित हूए समुद्र के समान गर्जना करते हुए उत्तमोत्तम भेरी करड, काहल, जयजयकार शब्द, घण्टा और शंखोंके समूहोंसे गुल-गुल शब्द करते हुए तबलोंसे, झम-झम शब्द करते हुए कंसतालोंसे, घुम-घुम शब्द करते हुए नाना प्रकारके ढोल, मृदंग, हुडुक्क आदि मुख्य-मुख्य बाजोंसे, सुर-आलाप करते हुए संधिबंधादिकोंसे अर्थात् सारंगी आदिसे, और नाना प्रकारके गीतोंसे, सरम्य वीणा. बाँसरीसे तथा सन्दर आणक अर्थात वाद्यविशेषके शब्द प्रकारके हाव, भाव, विभ्रम, विलास तथा हाथ, पैर और शरीरके विकारोंसे अर्थात् विविध नृत्योंसे नाचते हुए नौ रसोको प्रकट करनेवाले नाना नाटकोंसे, स्तोत्रोंसे, मांगलिक शब्दोंस, तथा उत्साहशतोंसे अर्थात् परम उत्साहके साथ मधुरभाषी, धर्मानुराग-रक्त और भक्तिसे उत्सवको देखनेवाले चातुर्वर्ण संघके सामने, जिसके ऊपर श्वेत आतपत्र (छत्र) तना है, और श्वेत चामरोंके ढोरनेसे व्याप्त है सर्व अंग जिसका, ऐसी जिनप्रतिमाको वह प्रतिष्ठाचार्य अपने मस्तकपर रखकर और जिनेन्द्रगृहकी प्रदक्षिणा करके, पूर्वोक्त वेदिकाके मध्य-स्थित सिंहासनवर विधिपूर्वक प्रतिमाको स्थापित कर, जिनेन्द्र-प्रतिबिम्ब अर्थात् जिन-प्रतिमाम जिन-भगवान्के गुणोंका आरोपण करता हुआ, पुनः इष्ट लग्नके उदयमें अर्थात् शुभ मुहुर्तमें प्रतिमाके चन्दनका तिलक लगावे । पुनः प्रतिमाके सर्व अंगोपांगोंमें मंत्रन्यास करे और विविध प्रकारके पुष्पोंसे नाना पूजनोंको करे । तत्पश्चात् मदनफल ( मैनफल या मैनार ) सहित धवल वस्त्र-युगलसे प्रतिमाके मुखपट देकर अर्थात् वस्त्रसे मुखको आवृत कर, अक्षत, चरु, दीपसे, विविध धूप फलोंसे, बलि-वत्तिकोंसे १ ब. मद्दल २ इ. गएहिं ब. गोएहि । ३ ड. उब्भिय । ४ इ, दोलिमाण० । ५ म. जुवारेहि । ६ ध. प. परए। सेनाना Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ श्रावकाचार-संग्रह रति जग्गिज्ज' पुणो तिसट्टि सलायपुरिससुकहाहि । संघेण समं पुज्जं पुणो वि कुज्जा पहायम्मि ॥ एवं चत्तारि विणाणि जाव कुज्जा तिसंझ जिणपूजा। नेत्तुम्मीलणपुज्जं चउत्थण्हवणं तओ कुज्जा ।। ४२३ एवं ण्हवणं काऊण सत्थमग्गेण संघमज्झम्मि।तो वक्खमाणविहिणा जिणपयपूया य कायव्या॥४२४ गहिऊण सिसिरकर-किरण-णियर-धवलयर-रययभिंगारं। मोत्तिय-पवाल-मरगय-सुवण्ण-मणि-खचिय'वरकंठं ॥ ४२५ सयवत्त-कुसुम कुवलय-रपिंजर-सुरहि-विमल-जलभरियं । जिणचरण-कमलपुरओ खिविज्जि ओ तिष्णि धाराओ॥ ४२६ कप्पूर-कुंकुमायरु-तुरुक्कमीसेण चंदणरसेण । वरवहलपरिमलामोयवासियासासाहेण ॥ ४२७ वासाणुमग्गसंपत्तमुइयमत्तालिरावमुहलेण । सुरमउडघिट्टचलण"भत्तीए समलहिज्ज जिणं । ४२८ ससिकतखंडविमलेहि विमलजलसित्त अइ सुयंधेहिाजिणपडिमपइट्ठयज्जिविसुद्धपुण्णंकुरेहिं व ४२९ वर कमल-सालितंडुलचएहि । सुछंडिय" दीहसयलेहि । मणुय-सुरासुरमहियं पुज्जिज्ज जिणिदपयजुयलं ॥ ४३० अर्थात् पूजार्थ निर्मित अगरबत्तियोंसे, जावारकोंसे, सिद्धार्थ ( सरसों ) और पर्ण वृक्षोंसे तथा पूर्वोक्त उपकरणोंसे पूर्ण वैभवके साथ या अपनी शक्तिके अनुसार पूजा रचे ।।४११-४२१।। पुनः संघके साथ तिरेसठ शलाका पुरुषोंकी सुकथालापोंसे रात्रिको जगे अर्थात् रात्रि जागरण करे और फिर प्रातःकाल संघके साथ पूजन करे ॥४२२।।इस प्रकार चार दिन तक तीनों संध्याओंमें जिनपूजन करे । तत्पश्चात् नेत्रोन्मीलन पूजन और चतुर्थ अभिषेक करे ।। ४२३ ।। इस प्रकार शास्त्र के अनुसार संघके मध्यमें जिनाभिषेक करके आगे कही जानेवाली विधिसे जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंकी पूजा करना चाहिये ।।४२४।। मोती, प्रवाल, मरकत, सुवर्ण और मणियोंसे जटित श्रेष्ठ कण्ठवाले, शतपत्र (रक्त कमल) कुसुम, और कुवलय (नील कमल) के परागसे पिंजरित एवं सुरभित विमल जलसे भरे हुए शिशिरकर ( चन्द्रमा) की किरणों के समूहसे भी अति धवल रजत ( चाँदी ) के भृङ्गार ( झारी ) को लेकर जिनभगवानके चरणकमलोंके सामने तीन धाराएँ छोडना चाहिए ।।४२५-४२६।। कपूर, कुंकुम, अगर, तगरसे मिश्रित, सर्वश्रेष्ठ विपुल परिमल ( सुगन्ध ) के आमोदसे आशासमूह अर्थात् दशों दिशाओंको आवासित करनेवाले और सुगन्धिके मार्गके अनुकरणसे आये हुए प्रमुदित एवं मत्त भ्रमरोंके शब्दोंसे मुखरित, चंदनरसके द्वारा, (निरन्तर नमस्कार किये जानेके कारण ) सुरोंके मुकुटोंसे जिनके चरण घिस गये हैं, ऐसे श्रीजिनेन्द्रको भक्तिसे विलेपन करे ।। ४२७-४२८ ॥ चन्द्रकान्तामणिके खंड समान निर्मल, तथा विमल ( स्वच्छ ) जलसे धोये हुए और अतिसुगंधित, मानों जिनप्रतिमाकी प्रतिष्ठासे उपार्जन किये गये विशुद्ध पुण्यके अंकुर ही हों, ऐसे अखंड और लम्बे उत्तम कलमी और शालिधान्यसे उत्पन्न तन्दुलोंके समूहसे, मनुष्य सुर और असुरों के द्वारा पूजित श्रीजिनेन्द्रके चरण १ ब. जग्गेज्ज । प. जगोज । २ ब. तेसठि । ३ ब. खविय । ४ ध. प. कमल । ५ म. चरणं । ६ झ. मिउ । ७ ब. सुछडिय।। * विदध्यात्तन गन्धेन चामीकर शलाकया । चक्षुरुन्मीलनं शक्रः पूरकेन शुभोदये ।। ४१८ ।। -वसुबिन्दुप्रतिष्ठापाठ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४६९ मालइ-कयंब-कणयारि-चंपयासोय-बउल-तिल एहि । मंदार-णायचंपय-पउमुप्पल-सिंदुवारेहि ॥४३१ कणवीर-मल्लियाहिं' कचणार-मचकुद-किं कराएहिं । सुरवणज जूहिया-पारिजातय -जासवण-टगरेहि ॥४३२ सोवण्ण-रुप्पि-मे हिय मुत्तादामेहि बहुवियप्पे ह । जिणपय-पंकयजयलं पुजिजज्ज सुरिदसयमहियं ।। दहि-दुद्ध-सप्पिमिस्सेहि कलमभत्तहिं बहुप्पयारेहिं । तेवट्ठि विजर्णोहिं य बहुविहपक्कण्णभएहि।।४३४ रुप्पय-सुवण्ण-कंसाइथालिणिहिएहि विविहमवर्खहि । पुज्ज वित्थारिज्जो भत्त ए जिणिदपयपुरओ। दीहि णियपहोहामियक तेएहि धूमर हिएहि । मंद चलमंदाणिलवसेण णच्चंत अच्चीहि ।।४२६ घणपडलकम्मणिवहव्व दूर मबसारियंधयारेहिं । जिणचरणकमलपुरओ कुणिज्ज रयणं सुभत्तीए। कालायरु-णह चंदह-कप्पूर सल्हारसाइदव्वेहि । णिप्पणधमवत्तोहि परिमलाय'त्तियालीहि ॥४३८ उग्गसिहादेसियसग्ग-मोक्खमम्गेहि बहलधूमेहिं । धूविज्ज जिणिदपयारविंदजुयलं सुरिंदणुयं ॥४३९ जंबीर-मोच-दाडिम-कवित्थ -पणस-णालिएरेहिं । हिताल-ताल-खज्जूर-णिबु-नारंग चारहि ।।४४० यगलको पूजे ।।४२९-४३०।। मालती, कदम्ब, कर्णकार (कनर), चंपक, अशोक, बकुल, तिलका मन्दार, नागचम्पक, पद्म (लाल कमल), उत्पल (नीलकमल), सिंदुवार (वक्षविशेष य, निर्गुण्डी), कर्णवोर (कर्नेर), मल्लिका, कचनार, मचकुन्द, किरात (अश कवृक्ष), देवोंके नन्दनवनमें उत्पन्न होनेवाले कल्पवृक्ष, जुही पारिजातक, जपाकुसुम, और तगर (आदि उत्तम वृक्षोंसे उत्पन्न) पुष्पोंसे, तथा सुवर्ण, चाँदीसे निर्मित फूलोंसे और नाना प्रकारके मुक्ताफलोंकी मालाओंके द्वारा,सौ जाति के इन्द्रोंसे पूजित जिनेन्द्र के पद-पंकज-युगलको पूजे ।।४३१-४३३।। चाँदी, सोना, और काँसे आदिकी थालियोंमें रखे हुए दही, दूध और धीसे मिले हुए नाना प्रकारके चाँवलोंके भातसे, तिरेसठ प्रकारके व्यंजनोंसे, तथा नाना प्रकारको जातिवाले पकवानोंसे और विविध भश्य पदार्थों से भक्तिके साथ जिनेन्द्र-चरणोंके सामने पूजाको विस्तारे अर्थात नैवेद्यसे पूजन करे । ४३४-४३५।। अपने प्रभासमूहसे अमित (अगणित ) सूर्योके समान तेजवाले, अथवा अपने प्रभापूञ्जसे सूर्यके तेजको भी तिरस्कृत या निराकृत करनेवाले, धूम-रहित, तथा धीरे-धीरे चलती हुई मन्द वा के वशसे नाचती हई शिखाओंवाले, और मेघ-पटलरूप कर्मसमहके समान या है अंधकारको जिन्होंने, ऐसे दीपकोंसे परमभक्तिके साथ जिन-चरण-कमलोंके आगे पूजनकी रचना करे, अर्थात् दोपसे पूजन करे ।।४३६-४३७ । कालागुरु, अम्बर, चन्द्रक, कपूर, शिलारस ( शिलाजीत) आदि सुगंधित द्रव्योंसे बनो हुई, जिसकी सुगन्धसे लुब्ध होकर भ्रमर आ रहे हैं, तथा जिसकी ऊँची शिखा मानों स्वर्ग और मोक्षका मार्ग ही दिखा रही हैं, और जिसमें ने बहुत-सा धुआँ निकल रहा हैं, ऐसी धूपकी बत्तियोंसे देवेन्द्रोंसे पूजित श्रीजिनेन्द्रके पादारविन्दयु.लको धूपित करे, अर्थात् उक्त प्रकारकी धूपमे पूजन करे ।।४३८-४३९।। जबीर (नीबू विशेष!, मोच (केला), दाडिम (अनार), कवित्थ (कवीट या कथा). पनस, नारियल, हिताल, ताल, खजूर, निम्बु, नारंगी, अचार (चिरौंजी), पूगीफल (सुपारी), १ध. प. मल्लिया । २ झ. ब. ध. प. सुरपुण्ण । ३ ध. प. पारियाय । ४ ब. सेहिय (निवत्त इत्यर्थः) । ५ निराकृत इत्यर्थः । ६ प. ब ध. मुबसा. । ७ झ. ब, तुरुक्क । ८ झ. ब. दिवेहिं । ९ प. वत्ताहिं । १० इ पंति., झ. यट्टि., ब. यड्ढि । ११ ब. कपिह। १२ झ. वारेहि। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० श्रावकाचार-संग्रह पूईफल - तिदु- आमलय- जंबु - विल्लाइ सुरहिमिट्टेहिं । जिणपयपुरओ रयणं फलेहि कुज्जा सुपवकेहि ॥ अविमंगलाणि य बहुबिहपूजोवयरणदव्वाणि । धूवदहणाइ' तहा जिणपूयत्थं वितीरिज्जा ||४४२ एवं चलडिमाए ठवणा भणिया थिराए एमेव । वरिविसेसो आगरसुद्धि कुज्जा सुठाणम्मि ||४४३ चित्तपडिलेवपडिमाए दप्पणं दाविऊण पडिबिबे' । तिलयं दाऊण मुहवत्थं दिज्ज पडिमाए । आगरसुद्धि च करेज्ज दप्यणे अह व अण्णंपडिमाए । एत्तियमेत्तविसेसो सेसविही जाण पुष्वं व ॥ ४४५ एवं चिरंतणाणं पि कट्टिमाकट्टिमाण परिमाणं । जं कीरइ बहुमाणं ठवणापुज्जं हि तं जाण । ४४६ जे पुत्रसमुद्दिट्ठा ठेवणापूयाए पंच अहियारा । चत्तारि तेसु भणिया अवसाणे पंचमं मनिओ || ४४७ I द्रव्य - पूजा - दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्वपूजा सा । दव्वेण गंध-सलिलाइ पुग्वभणिएण कायव्वा ।। (५) तिविहा दव्वे पूजा सचित्ताचित्तमिस्स भएन । पञ्चवख जिणाईणं सचित्तपूजा' जहाजोग्गं ॥। ४४९ तेन्दु, आंवला, जामुन, विल्वफल आदि अनेक प्रकारके सुगंधित, मिष्ट और सुपक्व फलोंसे जिनचरणोंके आगे रचना करे अर्थात् पूजन करे ||४४० - ४४१ ।। आठ प्रकार के मंगल-द्रव्य और अनेक प्रकारके पूजाके उपकरण द्रव्य, तथा धूप- दहन ( धूपायन) आदि जिन-पूजन के लिए वितरण करे । ४४२।। इस प्रकार चलप्रतिमाकी स्थापना कही गई है, स्थिर या अचल प्रतिमाकी स्थापना भी इसी प्रकार की जाती हैं। केवल इतनी विशेषता हैं कि आकरशुद्धि म्वरस्थान में ही करे । ( भित्ति या विशाल पाषाण और पर्वत आदिपर) चित्रित् अर्थात् उकेरी गई, प्रतिलेपित अर्थात् रंग आदि बनाई या छापी गई प्रतिमाका दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखाकर और मस्तकपर तिलक देकर तत्पश्चात् प्रतिमा के मुखवस्त्र देवे । आकरशुद्धि दर्पण में करे अथवा अन्य प्रतिमामें करे । इतना मात्र ही भेद हैं, अन्य नहीं । शेष विधि पूर्वके समान ही जानना चाहिये ||४४३ - ४४५॥ इसी प्रकार चिरन्तन अर्थात् पुरातन कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओंका भी जो बहुत सम्मान किया जाता हैं, अर्थात् पुरानी प्रतिमाओंका जीर्णोद्धार, अविनय आदिसे रक्षण, मेला, उत्सव आदि किया जाता है, वह सब स्थापना पूजा जानना चाहिए || ४४६ ॥ स्थापना - पूजाके जो पाँच अधिकार पहले (गाथा नं. ३८९ में ) कहे थे उनमेंसे आदिके चार अधिकार तो कह दिये गये है, अवशिष्ट एक पूजाफल नामका जो पंचम अधिकार है उसे इस पूजन अधिकार के अन्त में कहेंगे ।।४४७।। जलादि द्रव्यसे प्रतिमादि द्रव्यकी जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा जानना चाहिए। वह द्रव्यसे अर्थात् जल-गंध आदि पूर्व में कहे गये पदार्थ समूहसे ( पूजन-सामग्री मे ) करना चाहिए । ४४८ ।। द्रव्य - पूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेदसे तीन प्रकारकी हैं। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान् और गुरु आदिका यथायोग्य पूजन करना सो सचित्तपूजा है । उनके अर्थात् जिन, १ झ. ब. भूयाणाईहि । २ झ. ब. बिंबो । ४ ब. ध. पुज्जा । (१) जलगंधादि कैर्द्रव्यैः पूजनं द्रव्यपूजनम् । दव्यस्याप्यथवा पूजा सा तु द्रव्याचंना मता ।। २१९ ।। - गुण. श्री. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचारः ४७१ तेसि च सरीराणं दध्वसुदस्स वि अचित्तपूजा सा। जा' पुण दोण्हं की रइ णायव्वा मिस्सपूजा सा॥४५० (१) अहवा आगम-णोआगमाइभेएण बहुविहं दव्वं । णाऊण दब्धपूजा कायदा सुत्तमग्गेण ।।४५१ क्षेत्र-पूजा जिणजम्मण-णिवखमणे णाणप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु । णिसिहीसु खेत्तपूजा पुरविहाणेण कायव्वा ।। ४५२ (२) ___ काल-पूजा गब्भावयार-जम्माहिसेय-णिक्खमण-णाण-णिव्वाणं । जम्हि दिणे संजाद जिगण्हवणं तद्दिणे कुज्जा ॥४५३ इच्छरस साप्प-दहि-खीर- गंध-जलपुण्णविविहकलसेहि। णिसिजागरणं च संगीय-णाडयाई हि कायव्वं ।। ४५४ गंदीसर दिवसेसु तहा अण्णेसु उचियपव्वे सु। जं कोरइ जिनमहिम विण्णेया कालपूजा सा ।।४५५ (३) भाव-पूजा काऊणाणंतचउद्याइगुण कित्तणं जिणाईणं । जं वंदणं तियालं कीरइ भावच्चणं तं ख ।। ४५६ तीर्थंकर आदिके शरीरकी, और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदिपर लिपिबद्ध शास्त्रकी जो पूजा की जाती है, वह अचित्त पूजा हैं । और जो दोनों का पूजन किया जाता है वह मिश्रपूजा जानना चाहिए ॥४४९-४५०।। अथवा आगमद्रव्य नो आगमद्रव्य आदिके भेदसे अनेक प्रकारके द्रव्य निक्षेप. को जानकर शास्त्र-प्रतिपादित मार्गसे द्रव्यपूजा करना चाहिए ।।४५१।। जिन भगवानकी जन्मकल्याणभूमि, निष्क्रमणकल्याणभूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तर्थचिन्हस्थान और निषीधिका अर्थात निर्वाण भूमियोंमें पूर्वोक्त विधानसे क्षेत्रपूजा करना चाहिए, अर्थात् यह क्षेत्रपूजा कहलाती हैं ।।४५२।। जिस दिन तीर्थङ्करोंके गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणक हुए है, उस दिन इक्षुरस, घृत, दधि, क्षोर, गंध और जलसे परिपूर्ण विविध अर्थात अनेक प्रकारके कलशोसे, जिन भगवान्का अभिषेक करे तथा संगीत, नाटक आदिके द्वारा जिनगुणगान करते हुए रात्रि-जागरण करना चाहिए। इसी प्रकार नन्दीश्वर पर्वतके आठ दिनोंमें तथा अन्य भी उचित पर्वोमें जो जिन-महिमा की जाती है, वह कालपूजा जानना चाहिए ॥४५।।४५५।। परम भक्तिके साथ जिनेन्द्र भगवान्के अनन्तचतुष्टय आदि गुणोंका कीर्तन करके जो १ध. जो। २ प ध. सजायं । ११) चेतनं वाऽचेतनं वा मित्रद्रव्य मिति त्रिधा। साक्षाजिनादयो द्रव्यं चेतनाख्यं तदुच्यते ।२२०।। तद्वपुद्रव्य शास्त्रं वाऽचित्तं मित्रं तु तद्वयम् । तस्य पूजनतो द्रव्यपूजनं च त्रिधा मतम् ।२२१॥ (२) जन्म-नि.क्रमणज्ञानोत्पत्तिक्षेत्रे जिनेशिनाम् । निषिध्यास्वपि कर्तव्या क्षेत्रे पूजा यथाविधिा२२२॥ (३) कल्याणपंचकोत्पत्तिर्यस्मिन्नन्हि जिनेशिनाम् । तदन्हि स्थापना पूजाऽवश्यं कार्या सुभकिातः२२३ पर्वण्यष्टान्हिके ऽन्य स्मन्नपि भक्त्या स्वशक्तित: । महामहविधान यत्तत्कालार्चनमुच्यते ॥२२४ । -गुण. श्रा. Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ श्रावकाचार संग्रह पंचणमोकारएहि अहवा जावं कुणिज्ज सत्तीए' । अहवा जिणिदयोत्तं वियाण भावच्चणं तं पि ॥ ४५७ पिंडत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जियं अहवा जं झाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिद्दि ||४५८ (१) पिंडस्थ-स्थान सिकिरण विप्फुरतं अट्ठमहापाडिहेर परियरियं । झाइज्जइ जं निययं पिंडत्थं जाण तं झाणं ।। ४५९ ( २ ) अहवा जाहिं च विप्पिऊण' मेरुं अहोविहायम्मि | झाइज्ज' अहोलोयं तिरियम्मं तिरियए वीए । उड्ढमि उड्ढलोयं कप्पविमाणाणि संधपरियंते । गेविज्जमय । गीवं अणुद्दिसं हणुपएसम्म ।।४६१ विजय च वइजयंतं जयंतमवराजियं च सव्वत्थं । ५ झा इज्ज मुहपए से णिलाडदेसम्मि सिद्धसिला ।। ४६२ (३) तस्सुवरि सिद्धगिलयं जह सिहरं जाण उत्तमंगम्मि एवं जं णियदेहं झाइज्जइ तं पिडित्थं ४६३ त्रिकाल वंदना की जाती है, उसे निश्चयसे भावपूजा जानना चाहिए ।। ४५६ ।। अथवा पंच णमोकार पदोंके द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करे । अथवा जिनेन्द्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान करने को भावपूजन जानना चाहिए ||४५७॥ अथवा पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत रूप जो चार प्रकारका ध्यान किया जाता है; उसे भी भावपूजा कहा गया हैं ।। ४५८ ।। श्वेत किरणोंसे विस्फुरायमान, और अष्ट महाप्रातिहार्योंसे परिवृत (संयुक्त) जो निजरूप अर्थात् केवली तुल्य आत्म स्वरूपका ध्यान किया जाता है, उसे पिंडस्थ ध्यान जानना चाहिए ।। ४५९ ।। अथवा, अपने नाभिस्थानमें मेरुपर्वतकी कल्पना करके उसके अधोविभाग में अधोलोकका ध्यान करे । नाभिसे ऊर्ध्वभाग में ऊर्ध्वलोकका चिन्तवन करे ? स्कन्धपर्यन्त भाग में कल्पविमानोंका, ग्रीवास्थानपर नवग्रैवेयकोंका, हनुप्रदेश अर्थात् ठोडीके स्थानपर नव अनुदिशोंका, मुखप्रदेशपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धिका ध्यान करे । ललाट देशमे सिद्धशिला, उसके ऊपर उत्तमांग में लोकशिखरके तुल्य सिद्धक्षेत्रको जानना चाहिए। इस प्रकार जो निज देहका ध्यान किया जाता हैं, उसे भी पिंडस्थ ध्यान जानना चाहिए ||४६० - ४६३ ।। एक अक्षरको आदि लेकर अनेक प्रकारके 1 १ म. सुभत्तीए । २ म. नियरूव । ३ इ. वियप्पेऊण । ४ इ झाइज्जइं । ५ ध. परेयंत प परियंतं । (१) स्मृत्वानन्तगुणोपेतं जिनं सन्ध्यात्रयेऽर्चयेत् । वन्दना क्रियते भक्त्या तद्भावार्चनमुच्यते ॥ २२५ ॥ जाप्यः पंचपदानां वा स्तवनं वा जिनेशिनः । क्रियते यद्यथाशक्तिस्तद्वा भावार्चनं मतम् २२६ पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । तद्ध्यानं ध्यायते यद्वा भावपूजेति सम्मतम् २२७॥ (२) शुद्धस्फटिकसंकाशं प्रातिहार्याष्टकान्वितम् । यद् ध्यायतेऽर्हतो रूपं तद्ध्यान पिण्डज्ञकम् २२८ अधोभाग मधोलोकं मध्याशं मध्यमं जगत् । नाभौ प्रकल्ययेन्मेरुं स्वर्गाणां स्कन्धमूर्ध्वत २२९ (३) ग्रैवेयका स्वग्रीवायां हन्वामनुदिशान्यपि । विजयाद्यान्मुखं पंच सिद्धस्थानं ललाटके ||२३०|| मूर्ति लोकाग्रमित्येवं लोकत्रितयसन्निभम् चिन्तनं यत्स्वदेहस्य पिण्डस्य तदपि स्मृत । २३१ | - गुण. श्राव. . Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचारः ४७३ पदस्थ-ध्यान जं झाइज्जइ उच्चारिऊण परमेछिमंत ग्यममलं। एयवखरादि विविहं पयस्थझाणं मणेयव्वं ।।४६४ (१) सुण्णं अयारपुरओ झाइज्जो उड्ढरेह-बिंदुजुयं । पावंधयारमहणं समंतओ फुरियसियतेयं ।।४६५ (२) अ सि आ उ सा सुवण्णा झायव्वा तसत्तिसपण्णा। चउपत्तकमलमज्झे पढमाइकमेण णिविसिऊणं ॥४६६ (३) ते चिय वण्णा अट्टदल पंचकमलाण माझदेसेसु । णिसिऊण सेसपर मेट्टि अक्खरा चउसु पत्तेसु ॥४६७ रयणत्तय तव-पडिमा-वण्णा णिविसिऊण सेसपत्तेसु। सिर-वयण-कंठ-हियए णाहिपएसम्मि शायव्वा ।।४६८ अहवा णिलाडदेसे पढमं बीयं विसुद्धदेसम्मि । दाहिणदिसाइ णिविसिऊण सेसकमलाणि झाएज्जो ॥४६९ (४) पंच परमेष्ठीवाचक पवित्र मंत्रपदोंका उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता हैं, उसे पदस्थ ध्यान जानना चाहिए ॥४६४|| विशेषार्थ- ओं यह एक अक्षरका मन्त्र है । अर्ह, सिद्ध ये दो अक्षरके मन्त्र है । ओं नमः यह तीन अक्षरका मन्त्र हैं। अरहंत, अहं नमः, यह चार अक्षरका मन्त्र हैं। अ सि आ उ सा यह पाँच अक्षरका मन्त्र है। ओं नमः सिद्धेभ्यः यह छह अक्षरका मन्त्र है। इसी प्रकार ओ व्हीं नमः, ओं ण्हीं अहं नमः, ओंण्हीं श्रीं अहं नमः, अर्हन्त, सिद्ध, अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुभ्यो नमः इत्यादि पंचपरमेष्ठी या जिन. तीर्थकर वाचक नामपदोंका ध्यान पदस्थ ध्यानके ही अन्तर्गत है। पापरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला और चारों ओरसे सूर्य के समान स्फुरायमान शुक्ल तेजवाला ऐसा तथा ऊर्ध्वरेफ और बिन्दुसे युक्त अकारपूर्वक, हक रका, अर्थात् अहं इस मन्त्र का ध्यान करे । ४६५।। चार पत्रवाले कमलके भीतर प्रथमादि क्रमसे अनन्त शक्ति-सम्पन्न अ. सि, आ,उ, सा इन सुवर्णोंको स्थापितकर ध्यान करना चाहिए। अर्थात् कमलके मध्यभागस्थ कणिकामें अं (अरहत) को, पूर्व दिशाके पत्रपर सि (सिद्ध) को, दक्षिण दिशाके पत्रपर आ (आचार्य) को, पश्चिम दिशाके पत्रपर उ (उपाध्याय) को और उत्तर दिशाके पत्रपर सा (साधु ) को स्थापित कर उनका ध्यान करे ।।४६६।। पुन: अष्टदलवाले कमलके मध्यदेशमें दिशासम्बन्धा चार पत्रोंपर उन्हीं वर्णोंको स्थापित करके, अथवा पंचपरसेष्ठीके बाचक अन्य अक्षरोंको स्थापित करके तथा विदिशा सम्बन्धी शेष चार पत्रोंपर रत्नत्रय और तपवाचक पदोंके प्रथम वर्णोंको अर्थात् दर्शनका १) एकाक्षर, दिकं मत्रमुच्चार्य पामेष्ठिनाम् । क्रमस्य चिन्तनं यतत्पदस्थध्यानसंज्ञकम् ।।२३२।। (२) अकारपूर्वक शून्य रेफानुस्वारपूर्वकम् । पापान्धकारनिर्गाशं ध्यातव्यं तु सितप्रभम् ॥२३३।। ( ३) चतुर्दलस्य पद्मस्य कणि कायंत्रमन्तरम् । पूर्वादिदिक्क्रमान्न्यस्य पदाद्यक्षरपंचकम् ।।२३४॥ -गण. श्राव. (४) तच्चाष्टपत्र रद्मानां तदेवाक्षरपंचकम् । पूर्ववन्यस्य दृग्ज्ञानचारित्रतपसामपि ।।२३५।। विदिक्ष्वाद्यक्षर न्यस्य ध्यायेन्मूनि गले हृदि । नाभौ वक्त्रेऽथवा पूर्व ललाटे मूर्टिन वापरम् ।। चत्वारि यानि पद्मानि द क्षणादिदिशास्वपि । विन्यस्य चिन्तयेन्नित्यं पापनाशनहेतवः ।२३७। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार-संग्रह अट्ठदलकमलमज्झे झा एज्ज नहं दुरेहबिदुजयं । सिरिपंचणमोक्का रेहिं वलइयं पत्तरेहासु' । ४७० णिसिऊण णमो अरिहंताणं पत्ताहमवग्गह। ४७४ भणिऊण वेढिऊण य मायाबीएण तं तिउणं ।। ४७१ ( २ ) आयास-फलिह मंणिह तणुप्पहासलिलणिहिणिब्बुडतं । णर सुरतिरीडमणिकिरणसमूह रंजियपथंबुरुहो । ४७२ वरअट्टपा डिहेरे हि परिउट्टो समवसरणमज्झगओ परमप्पाणंतच उट्टयण्णिओ पवणमग्गट्टो । ४७३ (२) एरिसओ च्चिय परिवारवज्जिओ खीरजलहिमज्झे वा । वरखोर वण्णकंदुस्थ' कण्णियामज्झदेसट्टो || area हिसलिलधारा हिसेयधवलीकयंगसव्वंगो । जं झा इज्जइ इवं रूवत्थं जाण तं झाणं | ४७५ (३) रुपातीत ध्यान वण्ण-रस-गंध-फार्सोहि वज्जिओ णाण-दसणसरूवो । जं झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवर हियं ति ॥ ४७६ (४) द, ज्ञानका ज्ञा, चारित्रका चा और तपका त इन अक्षरोंको क्रमशः स्थापित करके इस प्रकार के अष्ट दलवाले कमलका शिर, मुख, कण्ठ, हृदय और नाभिप्रदेश, इन पाँच स्थानोंमें ध्यान करना चाहिए । अथवा प्रथम कमलको ललाट देश में, द्वितीय कमलको विशुद्धदेश अर्थात् मस्तकपर और शेष कमलोंको दक्षिण आदि दिशाओं में स्थापित करके उनका ध्यान करना चाहिए ||४६७-४६९॥ अष्ट दलवाले कमलके भीतर कणिकामें दो रेफ और बिन्दुसे युक्त हकारके अर्थात् 'हैं' पदको स्थापन करके कणिकाके बाहर पत्ररेखाओंपर पंच णमोकार पदोंके द्वारा वलय बनाकर उनमें क्रमशः ' णमो अरहंताणं' आदि पाँचों पदोंको स्थापित करके और आठों पत्रोंको आठ वर्णोंके द्वारा चित्रित करके पुनः उसे मायाबीजके द्वारा तीन बार वेष्टित करके उसका ध्यान करे । ४७०-४७१। आकाश और स्फटिकमणिके समान स्वच्छ एवं निर्मल अपने शरीरकी प्रभारूपी सलिलनिधि (समुद्र) में निमग्न, मनुष्य और देवोंके मुकुटों में लगी हुई मणियोंकी किरणोंके समूहसे अनुरजित है चरण कमल जिनके ऐसे, तथा श्रेष्ठ आठ महाप्रातिहार्योंसे परिवृत, समवसरणके मध्य में स्थित, परम अनन्त चतुष्टयसे समन्वित, पवनमार्गस्थ अर्थात् आकाशमें स्थित, अरहन्त भगवान्का जो ध्यान किया जाता हैं, वह रूपस्थ ध्यान हैं । अथबा ऐसे ही अर्थात् उपर्युक्त सर्व शोभासे समन्वित किन्तु समवसरणादि परिवारसे रहित, और क्षीरसागरके मध्य में स्थित, अथवा उत्तम क्षीरके समान धवल वर्णके कमलकी कर्णिकाके मध्यदेश में स्थित, क्षीरसागरके जलकी धाराओंके अभिषेकसे धवल हो रहा है सर्वाग जिनका ऐसे अरहन्त परमेष्ठीका जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान जानना चाहिए ।।४७२-४७५।। १ ब. रेहेसु । २ ब. खंदुट्ट | (१) मध्येऽष्टपत्र पद्मस्य खं द्विरेफं सबिन्दुकम् । स्वरपंचपदावेष्ट्यं विन्यस्यास्य दलेषु तु ।।२३८ । भूत्वा वर्गाष्टक पत्र प्रान्ते न्यस्यादिमं पदम् । मायाबीजेन संवेष्टयं ध्येयमेतत्सुशर्मदम् । २३९ । (२) आकाशस्फटिकाभासः प्रातिहार्याष्टकात्वितः । सर्वामरैः सुसंसेव्योऽप्यनन्तगुणलक्षितः ॥ २४०॥ वोक्तेन वर्जितः क्षीरनीरधीः । मध्ये शशांकसकाशनीरे जातस्थितो जिनः ।। २४१ || - गुण. श्री. (३) क्षीराम्भोधिः क्षीरधाराशुभ्राशेषाङगसङगमः । एवं यच्चिन्त्यते तत्स्याद् ध्यानं रूपस्थनामकम्।। (४) गन्धवर्णं रसस्पर्श वर्जितं बोधदृङमयम् । यच्चिन्त्यतेऽर्हद्रूपं तद्ध्यानं रूपवर्जितम् ॥२४३॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार अहवा आगम-जोगमाइ 'भेएहि सुनमग्गेण । णाऊण भावपुज्जा कायव्वा देसविरहि ।।४७७ एसा छव्हिपूजा णिच्च धम्माणरायरत्त हि । जहजोग्गं कायव्वा सव्र्व्वेहि पि देस विरहि ||४७८ (१) एयारसंगधारी जो हसहस्सेण सुरवरदो वि । पूजाफलं ण सक्कइ णिस्सेसं वणिउ जम्हा ॥ ४७९ तम्हा है जियसत्तीए थोयवयणेण किं पि वोच्छामि । धम्माणुरायरत्तो भवियजणो होइ जं सब्बो ||४८० 'कुत्थंभरिदलमेत्तं' जिणभवणे जो ठवेह जिणपडिमं । सरिसवमेत्तं पिलहेइ सो जरो तित्ययरपुष्णं ।। ४८१ जो पुण जिनिदभवणं समुण्णयं परिहि-तोरणसमग्गं । जिम्मावर तस्स फलं को सक्कड़ वणिजं स्यलं ।। ४८२ (२) जलधाराणिवखेवेण पावमलसोहणं हवे नियमं । चंदणलेवेण णरों जावइ नोहग्गसंपण्णो ॥ ४८३ जायइ अक्खयणि ह रयणसामिओ अक्वएहि अक्खोहो । अक्खीणलद्वित्तो अक्खप्रसं क्खं च पावेइ ॥ ४८४ कुसुमेहिं कुसेस यवयणु तरुणीजणणयण- कुसुमवरमाला वलएण चिचय दे हो जयइ कुसुमाउहो चेव ४८५ वर्णं, रस, गंध और स्पर्शसे रहित, केवल ज्ञान दर्शन स्वरूप जो सिद्ध परमेष्ठीका या शुद्ध आत्माका ध्यान किया जाता हैं, वह रूपातीत ध्यान है ||४७६ ॥ अथवा आगमभावपूजा और आगमभावपूजा आदिके भेदसे शास्त्रानुसार भावपूजाको जानकर वह श्रावकोंको करना चाहिए || ४७७ || इस प्रकार यह छह प्रकारकी पूजा धर्मानुरागरक्त सर्व देशव्रती श्रावकों को यथायोग्य नित्य ही करना चाहिए ||४७८|| जबकि ग्यारह अंगका धारक, देवोंमें सर्वश्रेष्ठ इन्द्र भी सहस्र जिव्हाओंसे पूजा के समस्त फलको वर्णन करने के लिए समर्थ नहीं हैं, तब मैं अपनी शक्तिके अनुसार थोडेसे वचन द्वारा कुछ कहूँगा, जिससे कि सर्व भव्य जन धर्मानुरागमें अनुरक्त हो जावें ।।४७९-४८०।। जो मनुष्य कुन्थुम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसोंके बराबर भी जिनप्रतिमाको स्थापन करता हैं, वह तीर्थंकर पद पानेके योग्य पुण्यको प्राप्त करता हैं, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदिसे संयुक्त जिनेन्द्रभवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ हो सकता हैं ।।४८१४८२ ॥ पूजन के समय नियमसे जिन भगवान्‌ के आगे जलधाराके छोडने से पापरूपी मैलका संशोधन होता हैं । चन्दनरसके लेपसे मनुष्य सौभाग्यसे सम्पन्न होता हैं ।। ४८३ || अक्षतोंसे ' पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नोंका स्वामी चक्रवर्ती होता हैं, सदा अक्षोभ अर्थात् रोगशोक-रहित निर्भय रहता हैं, अक्षीण लब्धि से सम्पन्न होता है और अन्त में अक्षय मोक्ष सुखको पाता है । ८८४॥ पुष्पोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुखवाला, तरुणीजनों के कठूंबरि १ झ ब णोआगमेहि । २ ध सव्वे । ३ ध कुस्तुंबरी दलय । प कुस्तंभरिदलमेत्ते फलमात्रे । ४ धणियादलमात्रे । ४७५ ( १ ) इत्येषा षड्विधा पूजा यथाशक्ति स्वभक्तितः । यथाविधिविधातव्या प्रयतैर्देशसंयतेः ॥ २४४ ॥ (२) कुंस्तुवरखण्ड मात्र यो निर्माप्य जिनालयम् । स्थापयेत्प्रतिमां स स्यात् त्रैलोक्यस्तुतिगोचरः २४५ यस्तु निर्मापयेत्तुंङग जिनचैत्यं मनोहरम् । वक्तुं तस्य फलं शक्तः कथं सर्व विदोऽखिलम् २४६ - गुण. श्राव Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ श्रावकाचार-संग्रह जायइ णिविज्जदाणेण' सत्तिगो कंति-तेय-संपण्णो। लावण्णजलहिवेलातरंगसंपावियसरीरो॥४८६ दीवहिं दीवियासेसजीवदव्वाइतच्चसम्भावो । सम्भावणियकेवलपईवतेएण होइ गरो । ४८७ धूवेण सिसिरयरधवलकित्तिधलिजयत्तओ पुरिसो। जायइ फलेहि संपत्तपरमणिव्वाणसोवखफलो॥४८८ घंटाहि घंटसदाउलेसु पवरच्छराणमज्झम्मि । संकोडइ सुरसंघायसेविओ वरविमाणेसु ॥४८९ छत्तेहि एयछत्तं भुंजइ पुहवी सवत्तपरिहीणो' । चामरदाणण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं४९. अहिसेयफलेण णरो अहिसिचिज्जइ सुदंसणस्सुवरि । खीरोयजलेण सुरिदप्पमुहदेवेहि भत्तीए ।।४९१ विजयपडाएहि णरो संगाममुहे मु विजइओ होइ। छवखंडविजयणाहो णिप्पडिवक्खो जसस्सी य ॥४९२ कि जंपिएण बहुणा तीसु वि लोएस कि पि जं पोक्खं । पूजाफलेण सव्वं पाविज्जइ णस्थि संदेहो। अणुपालिऊण एवं सावयधम्म तओवसाणम्मि । सल्लेहणं च विहिणा काऊण समाहिणा कालं ॥ सोहम्माइसु जायइ कप्पविमाणेसु अच्चुयंतेसु । उपवादगिहे कोमलसुयंधसिलसंपुडस्संते५ ।।४९५ . अंतोमहत्तकालेण तओ पज्जत्तिओ समाणेइ । दिव्यामलदेहधरो जायइ णवजुव्वणो चेव ।।४९६ समचउरससंठाणो रसाइधाऊहिं वज्जियसरीरों। दिणयरसहस्सतेओ णवकुवलयसुरहिणिस्सासो॥ नयनोंसे और पुष्पोंकी उत्तम मालाओंके समूहसे समचित देहवाला कामदेव होता है ॥४८५।। नैवेद्यके चढानेसे मनुष्य शक्तिमान् कान्ति और तेजसे सम्पन्न, और सौन्दर्यरूपी समद्रकी वेला (तट) वर्ती तरंगोंसे संप्लावित शरीरवाला अर्थात् अतिसुन्दर होता है ।। ४८६॥ दीपोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य सद्भावोंके योगसे उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी प्रदीपके तेजसे समस्त जीवद्रव्यादि तत्त्वोंके रहस्यको प्रकाशित करनेवाला अर्थात् केवलज्ञानी होता है।'४८७।। धूपसे पूजा करनेवाला मनुष्य चन्द्रमाके समान धवल कीर्तिसे जगत्त्रयको धवल करनेवाला अर्थात् त्रैलोक्यव्याप यशवाला होता है । फलोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाणका सुखरूप फल पानेवाला होता है ।। ४८८।। जिनमन्दिरमें घंटा समर्पण करनेवाला पुरुष घंटाओंके शब्दसे आकुल अर्थात् व्याप्त, श्रेष्ठ विमानोंमें सुर-समूहसे सेवित होकर प्रवर-अप्सराओंके मध्यमें क्रीडा करता है।४८९ । छत्र-प्रदान करनेसे मनष्य शत्ररहित होकर पृथ्वीको एक-छत्र भोगता है। तथा चमरोंके दानसे चमरोंके समूहों द्वारा पग्विीजित किया जाता हैं, अर्थात् उसके ऊपर चमर ढोरे जाते हैं ।।४९०।। जिनभगवान्के अभिषेक करनेके फलसे मनुष्य सुटर्शनमेरुके ऊपर क्षीरसागरके जलसे सुरेन्द्र प्रमुख देवोंके द्वारा भक्तिके साथ अभिषिक्त किया जाता है ॥४९१। जिन-मन्दिरमें बिजय-पताकाओंके देनेसे मनुष्य संग्रामके मध्य विजयी होता है । तथा षट्खंडरूप भारतवर्षका निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता हैं ॥४९२॥ अधिक कहने से क्या लाभ है, तीनों ही लोकोंमें जो कुछ भी सुख है, वह सब पूजाके फलसे प्राप्त होता हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।४९३।। इस प्रकार श्राव रुधर्मको परिपालन कर और उसके अन्तमें विधिपूर्वक सल्लेखना करके समाधिसे मरण कर अपने पुण्यके अनुसार सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त कल्पविमानोंमें उत्पन्न होता हैं । वहाँके उपपादगहोंके कोमल एवं सुगन्धयुक्त शिला-सम्पुटके मध्य में जन्म में लेकर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अपनी छहों पर्याप्तियोंको सम्पन्न कर लेता है तथा अन्तर्मुहूर्त के ही भीतर दिव्य निर्मल देहका धारक १ ब. णिवेज्ज । २ झ छत्तिहिं । ३ सपत्नपरिहीनः । । ४ ब. जसंसी | ५ झ. प. सपुडस्तो | Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार पडिब झिऊण सुत्तुटिओ व्व संखाइमहर सद्देहि । दळूण सुरविभूई विभिहियओ पलोएइ ।।४९८ कि सुमिणदंसमिणं ण वेत्ति जा चिठ्ठए वियप्पेण । अयंति तक्ख गं चिय थुइमुहला आयरक्खाई ॥४९९ जय जीव णद वड्ढाइचारुसद्देहि सोयरम्मेहि । अच्छरसयाउ वि तओ कुणंति चाडूणि विविहाणि ॥५०० एवं थुणिज्जमाणो' सहसा पाऊण ओहिणाणण । गंतूण हाणगेहं वुगणवाविम्हि व्हाऊण॥५०१ आहरणगिहम्हि तओ सोल सहाभूसणं च गहिऊण । पूजोवयरणसहिओ गंतूण जिणालए सहसा५०२ वरवज्जाविविहमंगलरवेहि गंधवखयाइदव्वेहिं । महिऊण जिणवरिदं थुत्तसहस्सेहि थुणिऊण।।५०३ गंतूण समागेहं अणेयसुरसंकुलं परम 'म्म । सिंहासणस उरि चिटुइ देवेहि थुव्वंतो ।।५०४ उस्सर्यासयायवत्तो सियचामरधुव्वमाणसव्वंगो । पवरच्छराहि कडइ दिव्यद्वगुणप्पहावेण ॥५०५ दोसु सायरेषु य सुरसरितीरे से नसिहरेस । अलियगमणागमणो देवुज्जाणाइस रमेइ।।५०६ आसाढ कात्तिए फग्गुणे य णंदीसरटुदिवसे यु। विविहं करेइ महिम गंदीसरचेइय"गिहे॥५०७ पंचसु मेरुसु तहः विमाणजिग चेइएस विविहस । पंचसु कल्लाणेसु य करेइ बहुवियप्पं ।।५०८ एवं नवयौवनसे युक्त हो जाता हैं । वह देव समचतुरस्र संस्थानका धारक, रसादि धातुओंसे रहित शरीरवाला, सहस्र सूर्यों के समान तेजस्वी, नवीन नीलकमलके समान सुगन्धि निःश्वासवाला होता हैं ४९४-४९७॥ _सोकर उठे हुए राजकुमारके समान वह देव शंख आदि बाजोंके मधुर शब्दोंसे जागकर देव-विभूतिको देखकर और आश्चर्यसे चक्तिहृदय होकर इधर उधर देखता हैं । क्या यह स्वप्न दर्शन है, अथवा नहीं या यह सब वास्तविक है, इस प्रकार विकल्प करता हुआ वह जब तक बैठता हैं कि उसी क्षण स्तुति करते हुए आत्मरक्षक आदि देव आकर, जय (विजयी हो), जीव (जीते रहो , नन्द (आनन्दको प्राप्त हो),वर्द्धस्व (वृद्धिका प्राप्त हो),इत्यादि श्रोत्र-सुखकर सुन्दर शब्दोंसे नाना चाटुकार करते हैं। तभी मैकडों अपराएँ भो आकर उनका अनुकरण करती है ।।४९८-५००। इस प्रकार देव और देवांगनाओंसे स्तुति किया गया वह देव सहसा उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे अपना सब वृत्तान्त जानकर, स्नानगृहमें जाकर स्नान-वापिकाम स्नान कर तत्पश्चात आभरणगृह में जाकर सोलह प्रकारके आभूषण धारण कर पुनः पूजनके उपकरण लेकर सहसा या शीघ्र जिनालयमें जाकर उत्तम बाजोंसे, तथा विविध प्रकारके मांगलिक शब्दोंसे और गंध, अक्षत आदि द्रव्योंसे जिनेन्द्र भगवान्का पूजन कर, और सहस्रों स्तोत्रोंसे स्तुति करके तत्पश्चात् अनेक देवोंसे व्याप्त और परम रमणीक सभा-भवन में जाकर अनेक देवोंसे स्तुति किया जाता हआ,श्वेत छत्र को धारण करता हुआ और श्वेत चमरोंने कम्पमान या रोमांचित है सर्व अंग जिसका, ऐसा वह देव सिंहासनके ऊपर बैठता है । ( वहाँपर वह) उत्तम अप्सराओं के साथ क्रीडा करता है,और अणिमा,महिमा आदि दिव्य आठ गुणोंके प्रभावसे द्वीपों में, समुद्रोंमें, गंगा आदि नदियोंके तीरोंपर, शलोंके शिखरोंपर, तथा नन्दनवन आदि देवोद्य.नों में अस्खलित (प्रतिबन्ध-रहित) गमनागमन करता हुआ आनन्द करता है ॥५०१-५०६॥ वह देव आषाढ,कात्तिक और फाल्गुन मास में नन्दीश्वर पर्व के आठ दिनोंमें, नन्दीश्वर द्वीपके जिन चैत्यालयोंमें जाकर अनेक प्रकारकी पूजा महिमा १ झ. अच्छरसाह, ब. अच्छरसमओ । २ ध. विविहाणं । ३ प. प माणा | ४ इ. सरित्तीसु । ५१. घरेसु। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार - संग्रह इच्चाइ बहुविणोएहि तत्थ विषेऊण सगठिई तत्तो । उव्वट्टिओ समाणो चक्कहराई जाएइ । । ५०९ भोत्तूण मणुयसोक्खं पस्सिय वेरगकारणं किं चि । मोत्तूण रायलच्छी तणं व गहिऊण चारितं ॥ काऊण तवं घोरं लद्धीओ तष्फलेण लवण । अट्टगुणे ' सरियत्तं च किं ण जिज्झइं तवेण जए || ५११ बुद्धि तवो विय लद्धी विउव्त्रणलद्धी तहेव ओसहिया । रस-बल- अक्खीणा वि य रिद्धीओ सत्त पण्णत्ता ।।५१२ ४७८ अणिमा महिमा लघिमा वागम्म वसित्त कामरूवित्तं । ईसत पावणं तह अट्ठगुणा वष्णिया समए ॥ एवं काऊण तवं पासुयठाणम्मि तह य गंतून पलियंक बंधित्ता काउस्सग्गेण वा ठिच्चा ।। ५१४ जइ खाइयसद्दिट्ठी पुव्वं खविघाउ सत्त पयडीओ । सुरणिरय-लिरिक्खाऊ तहि भवे णिट्टियं चैव । अह बेगसद्दिकी पत्तठाणम्मि अप्पमत्ते वा । सरिऊन धम्मझाणं सत्त वि जिट्टवइ पयडीओ ॥ ५१६ काऊ पत्तेयरपरियत्त 'सयाणि खवयपाउग्गो । होऊण अप्पमत्तों विसोहिमाऊरिऊण खणं । ५१७ करणं अधापवत्तं पढमं पडिवज्जिऊण सुक्कं च । जायइ अनुव्त्रकरणो कसायखवणुज्जओ' वीरो || एक्क्कं ठिदिखंडं पाडइ अंतोमुहुत्तकालेण । ठिदिखंड 'पडणकाले अणुभागस्याणि पाडे ॥ ५१९ करता है । इसी प्रकार पाँचों मेरुवर्वतोंपर, विमानोंके जिन चैत्यालयों में, और अनेकों पंच कल्याणकों में नाना प्रकारकी पूजा करता है। इस प्रकार इन पुण्य वर्धक और आनन्दकारक नाना बिनोदोंके द्वारा स्वर्ग में अपनी स्थितिको पूरी करके वहाँसे च्युत होता हुआ वह देव मनुष्यलोक में चक्रवर्ती आदिकोंमें उत्पन्न होता हैं ।। ५०७ - ५०९ ।। मनुष्य लोक में मनुष्यों के सुखको भोगकर और कुछ वैराग्यका कारण देखकर, राज्यलक्ष्मीको तृणके समान छोडकर, चारित्रको ग्रहण कर, घोर तपको करके और तपके फलसे विक्रियादि लब्धियों को प्राप्त कर अणिमादि आठ गुणों के ऐश्वर्यको प्राप्त होता हैं । जगमें तपसे क्या नहीं सिद्ध होता ? सभी कुछ सिद्ध होता है । ५१०- ५११।। बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि और अक्षीण महानस ऋद्धिइस प्रकार ये सात ऋद्धियाँ कही गई है ॥५१२|| अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राकाम्य, वशित्व, कामरूपित्व, ईशत्व, और प्राप्यत्व, ये आठ गुण परमागम में कहे गये है ।। ५१३।। इस प्रकार वह मुनि तपश्चरण करके, तथा प्रासुक स्थानमें जाकर और पर्यंकासन बाँधकर अथवा कायोत्सर्ग स्थित होकर, यदि वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं, तो उसने पहले ही अनन्तानुबन्धी- चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक, इन सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है, अतएव देवायु, नारकायु और तिर्यगायु इन तीनों प्रकृतियोंको उसी भवमें नष्ट अर्थात् सत्त्व-व्युच्छिन्न कर चुका है। और यदि वह वेदक, सम्यग्दृष्टि हैं, तो प्रमत्त गुणस्थान में, अथवा अप्रमत्त गुणस्थान में धर्मध्यानका आश्रय करके उक्त सातों ही प्रकृतियों का नाश करता हैं । पुनः प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में सैकड़ों परिवर्तनों को करके, क्षपक श्रेणिके प्रायोग्य सातिशय अप्रमत्त संयत क्षणमात्र में विशोधिको आपूरित करके और प्रथम अधःप्रवृत्तकरणको और शुक्लध्यानको प्राप्त होकर कषायों के क्षपण करने के लिए उद्यत वह वीर अपूर्वकरण संयत हो जाता है ।।५१४ - ५१८।। अपूर्वकरण गुणस्थान में वह अन्तर्मुहूर्तकाल - के द्वारा एक स्थितिखंडको गिराता हैं । एक स्थितिखंडके पतनकाल में सैकडों अनुभागखण्डों का पतन करता हैं । इस प्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ अनिवृत्तिकरण १ झ ध. प. गुणी । २झ सब्भुं । ध प सज्यं ( साध्यमित्यर्थः) । ३ ध प परियत । ४ इ. ध. जिओ । ५ ब. कंडं । ६ ब कंड | Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४७९ गच्छइ विसुद्धमाणो पडिसमयमणंतगुणविसोहीए। अणियटिगणं तत्थ वि सोलह पयडीओ पाडेइ५२. अट्ठ कसाए च तओ णqसयं तहेव इथिवेयं च । छण्णोकसाय पुरिसं कमेण कोहं पि संछुहइ ॥५२१ कोहं माणे माण मायाए तं पि छुहइ लोहम्मि । बायरलोहं' पितओ कमेण णिटुवइ तत्येव ।।५२२ अणुलोहं वेदंतो संजायइ सुहमसंपरायो सो । खविऊण सुहमलोहं खीणकसाओ तओ होइ ॥५२३ तत्थेव सुक्कझाणं विदियं पडिवजिऊण तो तेण । णिद्दा-पयलाउ दुए दुचरिमसमयम्मि पाडेइ ५२४ णाणतराय दसयं दंसण वत्तारि चरिमसमयम्मि। हणिऊण तक्खणे च्चिय सजोगिकेवलिजिणो होइ ।।२२५ तो सो तियालगोयर-अणंतगुणपज्जयप्पयं वत्थु । जाणइ पस्सइ जुगवं णवकेवललद्धिसपण्णो।।५२६ दाणे लाहे भोए परिभोए वीरिए सम्मत्ते। णवकेवललद्धोओ सण जाणे चरित्ते य ॥५२७ ।। उक्कस्सं च जहण्णं पज्जायं विहरिऊण सिज्झेइ । सो अकयसमुग्धाओ जस्साउसमाणि कम्माणि॥ गुणस्थानको प्राप्त होता है । वहाँपर पहले मोलह प्रकृतियों को नष्ट करता है ।।५१९-५२०॥ विशेषार्थ वे सोलह प्रकृतियाँ ये हैं-नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, स्त्यानगुद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत, आतप, एकेन्द्रियजाति, साधारण, सूक्ष्म और स्थावर । इन प्रकृतियोंको अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम भागमें क्षय करता हैं । सोलह प्रकृतियोंका क्षय करने के पश्चात् आठ मध्यम कषायोंको. नपुंसकवेदको, तथा स्त्रीवेदको, हास्यादि छह नोकषायोंको और पुरुषवेदको नाश करता है और फिर क्रमसे संज्वलन क्रोधको भी संक्षुभित करता है । पुनः सज्वलनक्रोधको संज्वलनमानमें, संज्वलनमानको संज्वलन गाया और संज्वलन मायाको भी बादर-लोभ में संक्रामित करता हैं ! तत्पश्चात् क्रमसे बादर लोभको भी उसी अनिवृत्तिकरण गणस्थानमें निष्ठापन करता है, अर्थात् सूक्ष्म लोभरूपसे परिणत करता है ।।५५१-५२२।। तभी सूक्ष्मलोभका वेदन करनेवाला वह सूक्ष्मसामराय गुणस्थानवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय संय . होता है। तत्पश्चात् सूक्ष्म लोभका भी क्षय करके वह क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थ नमें जाकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ होता हैं। वहाँपर ही द्वितीय शुक्कध्यानको प्राप्त करके उसके द्वारा बारहवें गुणस्थानके द्विचरम समयमें निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियोंको नष्ट करता है । चरम समयमें ज्ञानावरण कर्मकी पाँच, अन्तरायकर्मकी पाँच और दर्शनावरणकी चक्षुदर्शन आदि चार इन चौदह प्रकृतियोंका क्षय करके वह तत्क्षण ही सयोगि-केवलो जिन हो जाता हैं ।।५२३-५२५ । तब वह नव केवललब्धियोंसे सम्पन्न होकर त्रिकाल-गोचर अनन्त गुण पर्यायात्मक वस्तुको युगपत् जानता और देखना है। क्षायिकदान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक परिभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक दर्शन (केवल दर्शन), क्षायिक ज्ञान).(केवलं ज्ञान),और क्षायिक चारित्र (यथाख्यात चारित्र), ये नव केवललब्धियाँ हैं ।।५२६-५२७।। वे सयोगि केवलो भगवान् उत्कृष्ट और जघन्य पर्याय-प्रमाण विहार करके, अर्थात् तेरहवें गुणस्थानका उत्कृष्ट काल-आठ वर्ष और अन्तर्मुहर्तकम पूर्वकोटी वर्षप्रमाण है और जवन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं, सो जिस केवलोकी जितनी आय हैं, तत्प्रमाण काल तक नाना देशोंमें विहार कर और धर्मोमदेश देकर सिद्ध होते हैं। (इनमें कितने ही सयोगिकेवली समुद्घात करते हैं और कितने ही नहीं करते है । ) सो जिस केवलीके आयु कर्मकी १ झ. लोहम्मि । प. लोयम्मि । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० श्रावकाचार-संग्रह जस्स ण हु आउसरिसाणि णामागोयाणि वेयणीयं च । सो कुणइ समुग्घायं णियमेण जिणो ण संदेहो ॥५२९ छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं होज्ज'। सो कुणइ समुग्घायं इयरो पुण होइ भयणिज्जो ।।५३० अंतोमहत्तसेसाउगम्मि दंड कवाड पयरं च । जापूरणमथ पयरं कवाडदंडं णियतणुपमाणं च ।।५३१ एवं पएसपसरण-संवरणं कुणइ अट्टसमएहिं । होहिति जोइचरिमे अघाइकम्माणि सरिसाणि। ५३२ बायरमण-वचिजोगे रुंभइ तो थूलकायजोगेण । सुहुमेण तं पि रुंभइ सुहुमे मण-वयणजोगे य ॥५३३ सो सुहुमकायजोगे वटुंतों झाइए तइयसुक्कं । रुभित्ता तं पि पुणा अजोगिकेवलिजिणो होइ। ५३४ बावत्तरि पयडीओ चउत्थसुक्केण तत्थ घाएइ। दुचरिमसमम्हि तओ तेरस चरिमम्मि णिटुवइ ।।५३५ तो तम्मि चेव समय लोयग्गे उड्ढगमणसभाओ। संचिट्ठइ असरीरो पवरटुगुणप्पओ णिच्च।५३६ सम्मन णाण सण अहेव वोरिय सुहमं अवगहणं । अगुरुलहुमव्वावाहं सिद्धाणं वणिया गुणटुंदे ।।५३७ स्थितिके बराबर शेष नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मकी स्थिति होती है, वे तो समुद्घात किये बिना ही सिद्ध होते हैं। किन्तु जिनके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म आयु के बराबर नहीं है वे सयोगिकेवली जिन नियमसे समुद्घात करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं हैं ।। ५२८-५२९ छह मासकी आय अवशेष रहनेपर जिसके केवलज्ञान उत्पन्न होता हैं, केवली समद्घात करते हैं, इतर केवली भजनीय हैं,अर्थात् समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं ।। ५३०।। सयोगिकेवली अन्तर्मुहुर्तप्रमाण आयुके शेष रह जानेपर (शेष कर्मोको स्थितिको समान करनेके लिए)आठ समयों के द्वारा दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण, पुनः प्रतर कपाट, दंड और निज देह-प्रमाण, इस प्रकार आत्म-प्रदेशोंका प्रसारण और संवरण करते है । तब सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तमें अघातिया कर्म सदृश स्थितिवाले हो जाते है ।।५३१-५३२।। तेरहवें गुणस्थानके अन्त में सयोगिकेवली जिनेन्द्र बादरकाययोगसे बादर मनोयोग और बादर वचनयोगका निरोध करते हैं । पुनः सूक्ष्म काययोगसे सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करते है। तब सूक्ष्म काययोग में वर्तमान सयोगिकेवली जिन तृतीय शुक्लध्यानको ध्याते हैं और उसके द्वारा उस सूक्ष्म काययोग का भी निरोध करके वे चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली जिन हो जाते है।।५३३-५३४|| उस चौदहवें गणस्थानके द्विचरम समयमें चौथे शुक्लध्यानसे बहत्तर प्रकृतियोंका धात करता हैं और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियोंका नाश करता है । उस ही समयमें ऊध्वंगमन स्वभाववाला यह जीव शरीर. रहित और प्रकृष्ट अष्ट-गुण-सहित होकर नित्यके लिए लोकके अग्र भागपर निवास करने लगता हैं ॥५३५-५२६।। सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरु १ इ. म. णाणं । -म और इ प्रतिमें ये दो गाथाएं और अधिक पाई जाती हैमोहक्खएण सम्म केवलणाणं हणेइ अण्णाणं । केवलदसण ५सण अणंतविरियं च अन्तराएण ।।१।। सहमं च णामकम्म आउहणणेण हवइ अवगहणं । गोय च अगुरुलहयं अव्वाबाहं च वेयणीयं च।।२।। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४८१ जं कि पि सोखसारं तिसु वि लोएस मणुय-देवाणं । तमणंतगुणं पि ण एयसमयसिद्धाणुभूयसोक्खसम ।।५३८ सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमठ्ठमए। भुंजिवि पुर-मणय मुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं ।। लघुत्व और अव्याबाधत्व, ये सिद्धोंके आठ गुण वर्णन किये गये हैं ।।५३७॥ तीनों ही लोकोंमें मनुष्य और देवोंके जो कुछ भी उत्तम सुखका सार हैं, वह अनन्तगुणा हो करके भी एक समयमें सिद्धोंके अनुभव किये गये सुखके समान नहीं है ।।५३८ । (उत्तम रीतिसे श्रावकोंका आचार पालन करनेवाला कोई गृहस्थ ) तीसरे भव में सिद्ध होता है, कोई क्रमसे देव और मनुष्यों के सुखको भोगकर पाँचवें, सातवें या आठवें भव में सिद्ध पदको प्राप्त करते है ।।५३९।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति आसी ससमय-परसमविदू सिरिकुंदकुंदसंताणे । भव्वयणकुमुयवसिसिरयरो सिरिणंदिणामेण ॥ कित्ती जस्सिदुसुमा सयलभुवणमज्झे जहिच्छं भमित्ता, णिच्चं सा सज्जणाणं हियय-वयण-सोए णिवासं करेई । जो सिद्धतंबुरासि सुणयतरणमासेज्ज लीलावतिण्णो, वण्णेउं को समत्थो सयलगुणगणं से वियड्ढो' वि लोए ॥५४१ सिस्सो तस्स जिणिदसासणरओ सिद्धंतपारंगओ, खंती-मद्दव-लाहवाइदसहाधम्मम्मि णिच्चज्जओ। पुण्णेंदुज्जलकितिपूरियजओ चारित्तलच्छीहरो, संजाओं णयणं दिणाममणिणो भव्वासयाणंदओ ॥ सिस्सो तस्स जिणागम-जलणिहिवेलातरंगधोयमणो। संजाओ सयलजए विक्खाओ मिचन्दु त्ति। तस्स पसाएण मए आइरियपरंपरागयं सत्थं । वच्छल्लयाए रइयं भवियाणमुवासयज्झयणं ।।५४४ जं कि पि एस्थ मणियं अयाणमाणेण पवयणविरुद्धं । खमिऊण पवयणधार। सोहित्ता तं पयासंतु ५४५ छच्च सया पण्णसुत्तराणि एयस्स गंथपरिमाणं । वसुणंदिणा णिबद्धं वित्थयरियध्वं वियड्ढेहि ५४६ श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी अम्नायमें स्व-समय और पर-समयका ज्ञायक, और भव्यजनरूप कूमदवनके विकसित करने के लिए चन्द्र-तुल्य श्रीनन्दि नामक आचार्य हुए ।।५४०।। जिसकी चन्द्रसे भी शुभ्र कीत्ति सकल भुवनके भीतर इच्छानुसार परिभ्रमण कर पुनः वह सज्जनोंके हृदय, मुख और श्रोतमें नित्य निवास करती है, जो सुनयरूप नावका आश्रय करके सिद्धान्तरूप समुद्रको लीलामात्रसे पार कर गये, उस श्रीनन्दि आचार्यके सकल गुणगणोंको कौन विचक्षण वर्णन करनेके लिए लोकमें समर्थ है? ॥५४१।। उस श्रीनन्दि आचार्यका शिष्य, जिनेन्द्र-शासनमें रत,सिद्धान्तका पारंगत, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश प्रकारके धर्ममें नित्य उद्यत, पूर्णचन्द्र के समान उज्ज्वल कीत्तिसे जगको पूरित करनेवाला, चारित्ररूपी लक्ष्मीका धारक और भव्य जीवोंके हृदयोंको आनंद देनेवाला ऐसा नयनन्दि नामका मुनि हुआ।५४२।। उस नयनन्दिका शिष्य, जिनागम रूप जलनिधिकी वेला-तरंगोंसे धुले हुए हृदयवाला नेमिचन्द्र इस नामसे सकल जगत्में विख्यात हुआ ॥५४३।। उन नेमिचन्द्र आचार्य के प्रसादसे मैने आचार्य-परम्परासे आया हुआ यह उपासकाध्ययन शास्त्र वात्सल्य भावनासे प्रेरित होकर भव्य जीवोंके लिए रचा है। ५४४।। अजानकार होनेसे जो कुछ भी इसमें प्रवचन-विरुद्ध कहा गया हो, सो प्रवचन के धारक (जानकार) आचार्य मुझे क्षमाकर और उसे शोधकर प्रकाशित करें ।।५४५।। वसुनन्दिके द्वारा रचे गये इस ग्रन्थका परिमाण (अनु. ष्टप श्लोकोंकी अपेक्षा)पचास अधिक छह सौ अर्थात् छह सो पचास (६५०) हैं । विचक्षण पुरुषोंको इस ग्रन्थका विस्तार करना चाहिए, अथवा जो बात इस ग्रन्थ में संक्षेपसे कही गई हैं, उसे वे लोक विस्तारके साथ प्रतिपादन करें॥५४६।। इत्युपासकाध्ययनं वसुनन्दिना कृतमिदं समाप्तम् । १३. सेवियट्टो, म. सेवियतो। ( विदग्ध इत्यर्थः ) Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावयधम्म दोहा नवकारेष्पिणु पंचगुरु दूरिदलिय दुहकम्मु । संखेवे पयडक्खहि अक्खमि सावयधम्म् ॥ १ दुज्जणु सुहियउ होउ जगि सुयण पयासिउ जेण । अमिउ वि वासक तह जिम मरगउ' कच्चेण ॥२ जह समिलहिं सायर गर्याहं दुल्लहु जूवहं रंधु । तह" जीवहं भवजलगयहं मणुयत्तण संबंधु || ३ सुह सारउ मणुयत्तणहं तं सुहु धम्मायतु | धम्मु अरे जिय तं करहि जं अरहंतें" वृत्तु ॥४ अरहंतु वि दोसह रहिउ जासु'वि केवलणाणु । णाणमुणिय कालत्तयहो वयणु वि तासु पमाणु ॥ ५ तं पायडु जिणवरवयणु गुरु उवए' सें होइ । अंधारई विणु दीवयें अहव कि पिछह कोइ ||६ संजम सील सउच्च नउ जसु सूरिहिं गुरु सोइ । दाहछेयकसघायखम् उत्तम कंचणु होइ ॥ ७ माई गुरुउवएसियई र सिवपट्टणि जंति । तं विणु वग्धहं वणय रहं चोरहं पिडि वि पडंति ॥ ८ पारविहन्तं कहिउ रे जिय सावयधम्मु । सत्तिए परिपालंतयहं सहलउ माणुस जम्मु ||९ पंचुंबरह णिवित्ति जसु विसणु'ण एक्कु बि होइ । सम्मत्ते सुविसुद्धमइ पढमउ सावज होइ || १० पंचाणुव्वय जो धरइ निम्मल गुणवय तिण्णि । सिवखावयई चयारि जसु सो बीयउ मणि गण्णि || 1 अति दुःखदायी कर्मोंके दलन करनेवाले पञ्च परमगुरुओंको नमस्कार करके मैं संक्षेपसे प्राकृत भाषा के शब्दों द्वारा श्रावकके धर्मको कहता हूँ || १|| दुर्जन सुखी होवे, जिसने जगत् में सुजनको प्रकाशित किया हैं, जैसे कि विषसे अमृत, अन्धकारसे दिन और काचसे मरकतमणि प्रकाशित होता हैं ||२|| जैसे समुद्र में गिरी हुई समिलाके लिए जुवाका छेद पाना दुर्लभ है, उसी प्रकार भव-जल में पडे जीवको मनुष्यपनेका सम्बन्ध होना दुर्लभ हैं || ३ || मनुष्यपनेका सार सुख है, वह सुख धर्मके अधीन हैं । धर्म भी वह है जिसे अरहन्त देवने कहा है । अतएव रे जीव, तू उस धर्मका पालन कर ||४|| अरहन्तदेव भी वे हैं जो कि राग-द्वेषादि अठारह दोषोंसे रहित है और जिनके केवलज्ञान है उस केवलज्ञानके द्वारा त्रिकालवर्ती सर्व पदार्थों के जाननेवाले उन अरहन्तदेवके वचन भी प्रमाण है ||५|| वह जिनवरका वचन गुरुके उपदेशसे प्रकट होता हैं । अथवा अन्धकार में दीपकसे बिना क्या कोई कुछ देख सकता है | ६ || जिस सूरिमें संयम, शील, शौच और तप है, वही गुरु है | दाह, छेदन, कसौटी-कष और घन-घातको सहन करनेवाला सुवर्ण ही उत्तम होता हैं ||७|| गुरुके द्वारा उपदिष्ट मार्गसे मनुष्य शिवपुरको जाते है । उसके बिना मनुष्य कालरूप व्याघ्र, कषायरूप भील और इन्द्रियरूप चोरोंके पिण्ड में पड जाते हैं ||८|| 3 हे जीब, वह श्रावकधर्म ग्यारह प्रकारका कहा गया है । शक्तिके अनुसार उसका परिपालन करनेवाले जीवों का मनुष्यजन्म सफल है || ९ || जिसके पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग हैं, व्यसन एक भी नहीं हैं, और सम्यक्त्वके द्वारा जिसकी बुद्धि सुविशुद्ध है, वह प्रथम दर्शन प्रतिमाका धारक श्रावक है ।। १० ।। जो अतिचार-रहित निर्मल पाँच अणुव्रतोंको और तीन गुणव्रतोंको धारण करता १ द. अक्खिय । २ म. तमिण । ३ द मरगय । ४ म जिह। म तिह । ६ अ. द. अरि । ७ म अरहंत । ८ म जसु पुणु । ९ म उपरसई । १० म वसणु । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ श्रावकाचार-संग्रह चउरतुहं दोसहं रहिउ पुवायरियकमेण । जिण वंदइ संझइं तिहिं सो तिज्जउ णियमेण ।। १२ उभयचउद्दसि अट्ठमिहिं जो पालइ उवबासु । सो चउत्थु सावउ भणिउ दुक्कियकम्भविणासु ॥१३ पंचमु सावउ'जाणि जसु हरियह णाहि पवित्ति । मणक्यकाहि छट्टयहि दिवसहि णारिणिवित्ति॥ बंभयारि सत्तमु भणिउ अट्ठम् चत्तारंभु । मुक्कपरिग्गहु जाणि जिय णवमउ वज्जियडंभु॥१५ अणमइ देइ ण पुच्छियउ दसमउ जिग-उवइछ । एयारहमउ तं दुविहु णउ भुंजइ उद्दिठ्ठ' ।।१६ एयवत्थु पहिलउ विदिउ कयकोवीणपविति। कत्तरि-लोयणि हिचिहुर सइं पुणु भोज्ज णिवित्त ॥१७ ए ठाणइं एयारसई सम्मत्त मुक्काई । हुति ण पउमई सरवर हं विणु पाणिय सुक्काहं ।। १८ अत्तागमतच्चाइयह जं णिम्मलु सद्धाणु । संकाइयदोसहं हिउ तं सम्मत्तु बियाणु ।।१९ संकाइय अट्ठ मय परिहरि मूढय' तिणि । जे छह कहिय अणायदण दसण-मल अवगणि १२० मुणि दंसणु जिय जेण विणु सावय-गुण ण हु होइ । जह सामग्गि विवज्जियहं सिज्झइ कज्जु ण कोइ ।।२१ हैं, एवं जिसके चार शिक्षाक्त है, उसे अपने मन में दूसरी व्रत प्रतिमाका धारक श्रावक मानो ॥११॥ जो पूर्वाचार्योंके क्रमानुसार बत्तोस दोषोंसे रहित होकर तीनों संध्याओंमें जिनदेवकी वन्दना करता है, वह नियमसे तीसरी सामायिक प्रतिमाका धारक श्रावक है ।।१२।। जो प्रत्येक मासकी दोनों चतुर्दशी और अष्टमीको दुष्कृत कर्मोका विनाश करनेबाला उपवास धारण करता हैं, वह चौथी प्रोषध प्रतिमाका धारक श्रावक है ।।१३।। जिसकी हरित सचित्त वस्तुओंके भक्षण में प्रवृत्ति नहीं है. वह पाँचवीं सचित्त त्याग प्रतिमाका धारक श्रावक हैं। जिसके मन-वचन-कायसे दिन में स्त्रीसेवनकी निवृत्ति है, वह छठी दिवामैथुनत्याग प्रतिमाका धारक श्रावक हैं ।।१४।। स्त्री-सेवनका सर्वथा त्यागी ब्रह्मचारी सातवाँ श्रावक हैं । आरम्भका त्यागी आठवाँ श्रावक है। परिग्रहका त्यागी और दंभसे रहित मनुष्यको हे भव्यजीव, नवमी प्रतिमाका धारक जानो ॥१५॥ जो पूछनेपर भी गृह-कार्योंके करने में अनुमति नहीं देता है, उसे जिनदेवने दसवाँ अनुमतित्यागी श्रावक कहा हैं। जो उद्दिष्ट भोजन नहीं करता है, वह उद्दिष्टत्यागी ग्यारहवाँ श्रावक हैं। वह दो प्रकारका है ।।१६।। उनमें पहिला एक वस्त्र धारण करता है और दूसरा केवल लंगोटी रखता हैं । पहिला कैंची (या उस्तरे) से केश दूर करता हैं और दूसरा केशोंका लोंच करता है। ये दोनों ही स्वयं भोजन बनानेकी निवृत्ति रखते हैं ।।१७॥ श्रावकके ये ग्यारह प्रतिमारूप स्थान है। ये स्थान सम्यक्त्वसे रहित जीवोंके नहीं होते हैं। जैसे कि पानीके विना सूखे सरोवर में कमल नहीं होते है ।। १८॥ __ आप्त, आगम और तत्त्वादिकोंका जो शंकादि दोषोंसे रहित निर्मल श्रद्धान है, उसे ही सम्यक्त्व जानना चाहिए ।।१५। शकादिक आठ दोष, आठ मद, तीन मूढता और छह अनायतन ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष कहे गये है, इनका परिहार करना चाहिए ।।२०।। हे जीव, उसे सम्यग्दर्शन जानो, जिसके बिना श्रावकका कोई भी गुण नहीं होता हैं । जैसे कि सामग्रीसे रहित पुरुषका कोई कार्य सिद्ध नहीं होता हैं ।।२१॥ १ म ज कच्चासणहं। २ म दंभु । ३ व उबइठ्ठ । ४ व भोय- । झ 'किय सहसंग णिवित्ति। इति पाठान्तरम् । ५ म मूढा । ६ ब सुय । म सुणि । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावयधम्मदोहा मज्जु मंसु महु परिहरहि करि पंचुंबर दूरि । आयहं ' अंतरि अट्ठहंमि तस उत्पज्जई भूरि ॥ २२ महु आसायउ थोडउ वि जासइ पुष्णु बहुत्तु । वइसाणरहं तिडिक्कड' वि काणणु डहरू महंतु ||२३ arrass सनियहं महुपरिहरियउ होइ । जं कीरइ तं कारियह एहु अहाणउ लोइ ||२४ सब इ कुसुनई छंडियई करि पंचुंबर-चाउ । ३ हुति विमुक्कई मंडणई जइ मुक्कउ अणुराउ ॥ २५ अट्ठइ पालइ मूलगुण पिवइ जु गालिउ णीरु । अह चित्तें सुविसुद्धइणा सुज्झइ 'सव्य सरीरु ॥२६ जेण अगालिउ जल पियउ जाणिज्जइ ण पवाणु । जो तं पियइ अगालिउ सो धीवरहं पहाणु ॥२७ आमिससरिसउ भासियउ सो अंधउ जो खाइ । दोहि मुहुर्त्ताह उप्पारहि लोणिउ सम्मुच्छाइ ॥२८ संगे मज्जामिसरयहं मइलिज्जइ सम्मत्तु | अंजणगिरिसंगे ससिहि किरणई काला हुति ॥२९ अच्छउ मोयणु ताहं घरि सिट्ठहं वयणु ण जुत्तु ताहं समउ जं 'वासियई मइलिज्जइ सम्मसु । ३० तामच्छउ तहं मंडयहु पक्कासण लित्ताहं । हुति ण जोग्गइं सावयहं तहं भोयण पत्ताहं ॥ ३१ चम्मट्ठई पीयई जलई तामच्छउ दूरेण । दंसणसुद्धि न होइ तसु खद्धइ घियतिल्लेण ॥ ३२ ४८५ मद्य मांस और मधुका परिहार करो, पाँच उदुम्बरफलोंको दूर करो। इन आठोंके भीतर भारी त्रसजीव उत्पन्न होते है ॥ २२ ॥ थोडा सा भी खाया हुआ मधु बहुत पुण्यका नाश करता है । अग्निका छोटा सा भी तिलंगा महावनोंको भी जला देता हैं ।। २३ ॥ मधु खानेका दूसरोंको उपदेश न देनेसे, तथा अनुमोदना न करनेसे मधुका परिहार होता है। क्योंकि जो स्वयं करता है और दूसरों से कराता है, वे दोनों समान हैं, यह कहावत लोक में प्रसिद्ध है || २४ ॥ सर्व प्रकारके पुष्पोंके खानेका त्याग कर, तभी पंच उदुम्बरोंका त्याग संभव होगा । यदि आभूषण पहिरनेका अनुराग छूट जाय तो आभूषण स्वयं ही छूट जाते हैं ||२५|| इस प्रकार जो आठ मूल गुणोंको पालता है और जो वस्त्र - गालित जल पीता हैं, तथा जिसका चित्त सुविशुद्ध है, उसका सर्वशरीर शुद्ध है || २६ ॥ जो अगालित जल पीता है, वह जिन आज्ञाको नहीं जानता है । जो अगालित जलको पीता है, वह धीवरों में प्रधान है ||२७|| I दो मुहूर्त्तके ऊपर लोनी (मक्खन) में सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इसलिए वह मांस-सदृश कही गई है। जो उस लोनीको खाता हैं, वह अन्धा हैं, अर्थात् हेय-उपादेयके ज्ञानसे रहित है || २८ । मद्य और मांस सेवनमें निरत पुरुषोंके संगसे सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है । अंजनगिरिके संगसे चन्द्रकी धवल किरणे भी काली हो जाती है ।। २९ । उन मद्य मांग-भोजियोंके घरमें भोजन करना तो दूर रहा, शिष्टजनों को उनके साथ वचन बोलना भी योग्य नहीं हैं । जो उन लोगों के साथ निवास करते हैं, उनका सम्यक्त्व मलिन हो जाता है ||३०||उन मद्य मांसभाजियोंके घरके पकाये हुए भोजनसे लिप्त भाण्ड (वर्तन ) तो रहने ही दो, उनके ( सूखे ) कांसे आदके पात्रों में भोजन बनाना या करना भी श्रावकके योग्य नहीं हैं ॥ ३१ ॥ जो चर्च में रखे हुए जलको पीता हैं, वह तो दूर ही रहे, जो चर्ममें रखे घी और तेलको ४ साइ | १ द आर्याह । २ म तिडिक्किङउ । ३ ब टि. उपदेशेन विना अनुमोदेन विना । ५ झ. सुच: इ । ६ झ म जें क. ७ ब टि. तेषां मद्यनांसरतानां पुरुषाणां भाण्डानां भोजनं तावदास्ताम्, सा वार्ता तिष्ठतु । कथम्भूतानां भाण्डानां पक्वाशन लिप्तानाम् । ८ ब तेषां कांस्यादिपात्राणां अपि भोजनं न यवतम् । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ श्रावकाचार-संग्रह रुहिरामिसु चम्मट्टि सुर पच्चक्खिउ' बह जंतु । अंतराय पालह भविय दंसणसद्धिणिमित्त ॥३३ मूलउ णाली मिल्हसणु तुंबड करड कलिंगु । सूरणु फुल्लत्याणयहि, भक्खहि सणभंग । ३४ अण्णु जि मुललिउ फुल्लियउ, सायह चलियउ जं जि। दो दिण वसियउ दहि महिउ ण हु भुजिज्जइ तं जि ॥३५ वे दल मीसिउ दहि महिउ जुत्त ण सावय होइ । खद्धइ सण-भंग पर सम्मत्तु वि मइलेइ ॥३६ तंबोलोसहि जल मुइवि अत्थम्मिए सूरि । भोग्गासण फल अहिलसई तं किउ दंसणदूरि ॥३७ जूएं धणहु ण हाणि पर वयह मि होइ विणासु। लग्गउ कट्ठ ण डहए पर इयरहं डहइ हुयासु।।३८ जइ देखेवउ छंडियउ ता जिय छडिउ जूउ । अह अग्गिहि उल्हावियइं अवसण अदुइ धूउ ॥३९ दय जि मूल धम्मंघियह सो उप्पाडिउ तेण । फल दलकुसुमहं कवण कह आभिसु भक्खिउ तेण ।। पिट्टि५-मंसु जइ छंडियउ ता जिय छंडिउ मांसु । जह अपथ्ये वारियए वारिउ बाहि पवेसु ।। ४१ मुहुवि लिहिवि मुत्तई सुणहु एहु जि मज्जहु दोसु । मत्तउ बहिणि जि अहिलसइ, ते तहु णरय पवेसु । ४२ भो खाता हैं, उसके भी सम्यग्दर्शनकी शुद्धि नहीं होती है ।।३२॥ रुधिर, मांस, चर्म, अस्थि, मदिरा, प्रत्याख्यात (त्यागी) वस्तु और वहुत जन्तुओंसे परिपूर्ण वस्तुका सम्यग्दर्शनकी शद्धिके निमित्त हे भव्य, अन्तराय पालन करना चाहिए । अर्थात् भोजनके समय उक्त वस्तुओंके थालीमें आते ही भोजनका त्याग कर देना चाहिए ॥३३॥ कन्दमूल,कमलनाल,कमल-मूल (जड), लहसुन, तुम्बा, करड, कलिंग, सूरण, फूल और अथाना (अचार) इनके भक्षण करनेपर सम्यग्दर्शनका भंग होता हैं ।।३४।। इसी प्रकार अन्य जो सुले धुने, पुष्पित, अकुरित एवं स्वाद-चलित जो-जो पदार्थ हैं,उन्हें भी नहीं खाना चाहिए,तथा दो दिनका बासी दही और मही (छांछ ) भी नहीं खाना चाहिए ॥३५।। द्विदल-मिश्रित दही और मही भी श्रावकके खाने योग्य नहीं हैं। इनके खानेसे सम्यग्दर्शनका भंग होता है और सम्यक्त्व रहे भी, तो वह मलिन हो जाता हैं ।।३६।। ताम्बूल, औषधि और जलको छोडकर जो सूर्यके अस्तंगत होनेपर भोज्य, अशन और फलाहारकी अभिलाषा करते हैं, वे अपनेसे सम्यग्दर्शनको दूर करते हैं ॥३७॥ जुआ खेलनेसे केवल धनकी ही हानि नहीं होती, पर व्रतोंका भी विनाश होता हैं । काठमें लगी हुई अग्नि केवल उसे ही नहीं जलाती हैं, किन्तु दूसरोंको भी जला देती है॥३८॥ यदि जुआका देखना भी छोड दिया, तो हे जीव, जूआका खेलना छूट गया। जैसे अग्निके बुझा देनेपर अवश्य ही धुंआ नहीं उठता है ।।३९॥ धर्मरूपी वृक्षका मूल दया ही हैं । जिसने उसे जडमूलसे उखाड डाला, वहाँ पर धर्मरूपवृक्षके पत्र, फल और पुष्पोंकी कथा कहाँ संभव है। ऐसे मनुष्यने तो मांस ही भक्षण कर लिया समझना चाहिए ॥४०॥ जिसने दाल आदिकी पीठीरूप मांस का खाना छोड दिया उस जीवने मांस को छोड दिया, ऐसा समझना चाहिए। जैसे अपथ्य-सेवनके निवारणसे व्याधिका प्रवेश निवारण हो जाता हैं ॥४१॥ ___मदिरा पीनेवाले बेहोश मनुष्यका मुख चाँट कर कुत्ता भी मुखमें मूत जाता है, यह मद्यपानका महा दोष है । मदिरा पानसे उन्मत्त हुआ पुरुष अपनी बहिनको भी काम-सेवनके लिए १ ब. नियम युक्तवस्तुनियमभंगे सति । २ ब जन्तोर्वधं दृष्टा । ३ ब 'ढिस' पाठः । टि पद्मिनीकन्दम् । ४ ब धमीहिपस्य | म. पुट्टि । ब. पिष्टेन निष्पादितम् । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावयधम्मदोहा ४८७ मज्जु मुक्क मुक्कह मयह अण्णु जि वेसा मुक्क।जह बाहिहि विणिवास्यिहि वैयण होइ न इबक ।। वेसहि लग्गिवि धणियधणु तुट्टइ बंधउ मित्त । मुच्चइ गरु सम्वहिं गुणहि वेसागिह' पइ संतु ॥४४ कामकहा परिचत्तियइ जिय दारिय परिचत्त । अह कंदे उप्पाडियाइ वेलिहिं पत्त समत्त ॥४५ पारद्धउ परणिग्घिउ हणइ णिरारिउ जेण । भयभग्गा मुहगहियतिण णरयहु गच्छई तेण ।।४६ मुक्क सुणहमंजरपमह जइ मुक्की पारद्धि । बीयई रुद्ध पाणियई रुद्धोअंकुरलद्धि ।।४७ चोरी चोर इणेइ पर बहुय किलेसह खाणि । देई अणत्थु कुडुंबहमि गोत्तहु जस-धणहाणि ।।४८ मुक्कहं कुडतुलाइयहं चोरी मुक्की होइ । अहव वणिज्जई छंडियई दाण ण मग्गइ कोइ॥४९ परतिय वह-वंधण ण पर अण्णु वि परणिणि। . विसकलि धारइ ण पर करइ वि पाणहं हाणि ॥५० जइ अहिलासु णिवारियउ ता वारिउ पर-यारु । अह जाइक्कें जितइण जितउ सयलु खंधाह।।५१ वसणइ तावच्छंतु जिय परिहर वसणासत । सुक्कहं संसर्ग हरिय पेक्खह तरु डझंत ॥५२ मूलगुणा इय एत्तडइ हियडइ थक्कइ जासु । धम्मु अहिंसा देउ जिणु रिति गुरु वेसण तास ।।५३ जसु दसणु तस् माणुसह दोस पणासइ जति । जहि पएसि णिवसइ गरुड तहि कि विसहर ठति ५४ अभिलाषा करता है, जिससे कि उसका नरकमें प्रवेश होता है ।।४२ । जिसने मद्य-पान छोड दिया उसने सभी मद-कारक वस्तुओंको छोड़ दिया। तथा उसने वेश्याका भी त्याग कर दिया समझना चाहिए । जैसे कि व्याधियोंके निवारण हो जानेपर एक भी वेदना नहीं होती है ।।४३ वेश्या-सेवनम लगे हुए धनिक पुरुषका सर्वधन समाप्त हो जाता है, उसके बंधु मित्र भी छूट जाते है और वेश्याके घरमें प्रवेश करनेवाला पुरुष सभी गुणोंसे विमुक्त हो जाता है ।।४४।। हे जव, कामकयाके परित्यागसे वेश्याका परित्याग भी हो जाता हैं। जैसे जड-कन्दके उखाड देनेपर वेलिके पत्ते समाप्त हो जाते है, अर्थात् स्वयं सुख जाते है ।।४५।। शिकारी अतिनिर्दयी होता है, जो निरपराध, भयभीत और मुख में तिनकोंको दाबे हुए हरिणोंको मारता है, इससे वह नरकको जाता है ।। ४६।। यदि शिकार खेलना छोड दिया है, तो कुत्ता, बिल्ली, शिकारी हिंसक प्राणियोंको पालना भी छोड । बीजकों कानी : देना रोक देनेपर अंकुरकी उत्पत्तिका अवरोध हो जाता है ॥४७। चोरी चोरका हनन करती ही है, पर अन्य भी बहुतसे क्लेशोंकी हानि है । वह कुटम्बका भी अनर्थ करती है और गोत्रके यश एवं धनको भी हानि करती है ।।४८कट-तुलादिके छोड देनेदर चोरो छूटतो है। जैसे कि वाणिज्यके छोड देनेपर कोई दान नहीं माँगता है ।।४९।। परस्त्री वध-बन्धन ही नहीं, अपितु वह नरककी नसेनी भी है। विषवृक्षकी जड मूच्छित ही नहीं करती किन्तु प्राणोंकी भी हानि करती है ।।५०।। यदि काम-अभिलाषाका निवारण कर दिया, तो परदाराका भी त्याग हो गया । जैसे नायकके जीत लेनेपर सकल स्कन्धावार (पैन्य) जीता समझा जाता है ।।५१।। हे जीव, व्यसनोंका सेवन तो दूर रहे, व्यसनोंमें आसक्त पुरुषोंके संसर्गका भी परिहार कर । देखो-सूखे वृक्षोंके संसर्गस हरे वृक्ष भी जल जाते है ।.५२।। इस प्रकार ये उपर्युक्त मूलगुण जिसके हृदय में निवास करते है, और जिसका धर्म अहिंसा, १ झ म-घरि | २ जिय । ३ म घारइ । ४ म तावई छंडि । ब टि. तावत्तिष्ठन्तु । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ श्रावकाचार-संग्रह वंसणरहिय जि. तउ करहिं ताहं वि णिग्फल णि? । विणु बीयई कणभरणमिय भणु कि खेत्ती दिट्ठ॥५५ सणसुद्धिए सुखयहं होइ सयल पणि? । अह कप्पडि अणतोरियइ किम लग्ग मंजिट्ट ॥५६ सणभूमिहि बाहिरा जिय वय-हक्ख ण हुंति । विणु वयरुक्खहं सुक्खफल आयासहुण पडंति।।५७ छुड़' सणु गड्ढायरहु हियडइ णिच्चल जाउ । वय-पासाउ समाढवउ चंचल धणु जिय आउ।।५८ अणुवयगुणसिक्खावयई ताई जि बारह हुंति। मुंजाइवि णर-सुर-सुहई जिउ णिव्याणहु गिति॥५९ मणवयकाहिं दयकरहि जेण ग ढुक्कइ पाउ । उरि सण्णाह बद्धइण अवसण लग्गइ घाउ । ६० अलिउ कसायहि मा चहिं अलिए गउ वसुराउ। हिं णिविठ्ठ साखंडु तहं डालहु होइ पपाउ' ॥६१ णासइ धणु तसु घरतणउ जो वरदव्य हरेइ । गहि कवेडउ पेसियउ काई ण काई करेइ ।६२ मणि" इच्छिया परमहिल रावणु सीय विणठु । दिट्टिइं मारइ जिट्ठिधिसुता को जीवइ छ। ६३ पसुधण-धण्णइं खेत्तियइं करि परिमाणपवित्ति । बलियई बहुयइं बंधणइंदुक्कर तोडहुं जंति ।।६४ देव जिन एवं ऋषि गुरु है, उसीके सम्यग्दर्शन है ।।५३।। जिस मनुष्यके सम्यग्दर्शन हैं, उसके दोष विनाशको प्राप्त हो जाते है। जिस प्रदेश में गरुड निवास करता हैं, वहाँ पर क्या विषधर सर्प ठहर सकते हैं ।।५४॥ __ जो जीव सम्यग्दर्शनसे रहित होकर तप करते हैं, उनकी क्रियानिष्ठा निष्फल हैं । बीजके बिना, कहो कहीं कण-भारसे झुकी हुई खेती देखी गई हैं ।।५५॥ सम्यग्दर्शनको शद्धिसे शुद्ध पूरुषोंके ही सर्व ब्रतोंको निष्ठा होती है। हरडा-फिटकरीके लगाये बिना कपडे पर मंजीठका रंग क्या चढ सकता है ॥५६।। हे जीव सम्यग्दर्शनकी भूमिसे बाहिर व्रतरूपी वृक्ष नहीं होते है और व्रत वक्षोंके बिना सुखरूपी फल आकाशसे नहीं टपकते हैं ।।५७।। जब सम्यग्दर्शन हृदयमें गाढ रूपसे निश्चल दढ हो जावे, तब उस सम्यग्दर्शन रूपी नींवकी भूमि पर व्रतरूपी प्रासादको बनाना शीघ्र आरम्भ करो। हे जीव यह धन और आयु चंचल है ।।५८॥ __ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये श्रावकके बारह ब्रत होते है। ये व्रत मनष्य और देवोंके सुखोंका उपभोग कराकर जीवको निर्वाण पद तक ले जाते हैं।॥५९॥मन वचन कायसे दया कर, जिससे कि पाप न ढूंके । वक्षःस्थलपर कवच बाँधनेसे अवश्य ही शस्त्रके धाव नहीं लगते हैं ।।६०।। कषायसे असत्य मत बोल । असत्य से वसुराजा नरक गया। जिस शाखापर उसका खंडन करने वाला बैठा हैं, उस डालीका प्रपात (पतन ) होता ही है ।। ६१।।जो पर-द्रव्यका हरण करता हैं, उसके घरका धन भी नष्ट हो जाता हैं । जिसने अपने घरमें डाकूका प्रवेश कराया है, वह क्या क्या नहीं करेगा ॥६२।। रावणने परस्त्री सोताकी मनमें इच्छा का, तो वह रावण विनष्ट हो गया । दृष्टिविष सर्प देखने मात्रसे मार डालता हैं, फिर उसके द्वारा डसे जाने पर तो कौन जी सकता है ॥६३।। पशु-धन, धान्य, खेती आदिमें परिमाण करके प्रवृत्ति कर । बहुत बल (आँटे) वाले बन्धनोंका तोडना दुष्कर होता है ।। ६४।। १ यदा २ ब टि. समारोपयत ययम् । ३ म पमाउ । ४ ब धाडउ । ५ म माणइं। ६ ब टि. बलवत्तराणि बहुबन्ध नानि तोटने सति दुस्तराणि भवन्ति । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावयधम्मदोहा ४८९ भोगहं करहि पमाणु जिय इंदिय म करि सदप्पु । हुंति ण भल्ला पोसिया दुद्धे काला सप्पु ॥६५ दिसि विदिसिहि परिमाणु करि जिय बहु जायइ जेण । साक्कलिहि 'आसागहिं संजमु पालिउ' तेण ॥६६ लोहु लक्ख विसु सणु मयणु दुट्टभरण पसुमारु । छडि अणत्थहं पिडि पडिउ किम तरिहहि संसारु । ६७ संझहि तिहि सामाइयां उप्पज्जइ बहु पुण्णु। कालि वरिट्टइं भंति कउ जइ उत्पज्जइ धष्णु॥६८ चिरकय कामहं खउ कर इ पवादहि उववासु । अहवा सोसइ सर-सलिल भंति ण गिभि विणेसु ॥ पत्तहं दिज्जइ दाणु जिय कालि विहाणे तंपि। अह विहि-विरहिउ बीउ वि फलइ ण किपि ॥७० सण्णासेण मरतयहं लठभइ इच्छियलद्धि । इत्थु ण कायउ भंति करि जहिं साहसु हि सिद्धि ॥७१ ए बारह वय जो करइ सो गच्छइ सुरलोई । सहसणयणु धरणिदि जहिं वण्णइ ताई विमोइ ।।७२ आउति सग्गहु चइवि उतमवंसहं हुंति । भुंजिवि हरि-बल-चक्किसुहु पुणु तक्यरणु करंति ।।७३ उक्किट्टई विहिं तिहिं भवहिं भुजिवि सुर-णरसोक्ख । जति जहण्णई धुणियरय भवि सत्तटुमि मोक्खु ।।७४ हे जीव, भोगोंका भी प्रमाण कर, इन्द्रियोंको दर्प-युक्त मत कर । दूधसे पोषण किये गये काले साँप भले नहीं होते हैं ।।६५॥ दिशा-विदिशाओंमें गमनागमनका प्रमाण कर, क्योंकि इनसे जीव-घात होता हैं। जिसने आशारूपी गजोंको सांखलोंसे बाँधा, उसने संयमका पालन किबा । कुछ प्रतियोंमें 'मोक्कलियई' पाठ है, तदनुसार यह अर्थ होता है कि जिसने आशारूपी गजोंको उन्मक्त छोडा, उसने अपने संयमका निपात कर दिया, इस अर्थमें 'पालिउ' के स्थान पर 'पाडिउ' पाठ समझना चाहिए, क्योंकि संस्कृत और प्राकृत भाषामें ड और ल में व्यत्यय देखा जाता है । ६६।। लोह, लाख, विष, सन, मैन इनका बेचना, दुष्ट जीवोंका पालना और पशुओं पर भार लादना इनको छोड । अनर्थोके समूहमें पडकर संसारको किस प्रकार तरेगा ।।६७।। तीनों संन्ध्याओंमें सामायिक करनेसे बहुत पुण्य उत्पन्न होता हैं । समय पर वर्षा होनेसे यदि धान्य उत्पन्न हो,तो इसमें भ्रांति क्या है ।। ६८ । पर्व के दिन किया गया उपवास चिर कालके किये हुए कर्मोका क्षय करता है । अथवा गर्मी के दिनोंमें सूर्य सरोवरके जल को सुखा देता हैं,इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है ।।६९।। हे भव्य जीव, योग्य काल में योग्य विधानके साथ पात्रोंको दान देना चाहिए। क्योंकि विधिसे रहित बोया गया बज कुछ भी फल नहीं देता है ।।७०।। संन्याससे मरण करनेवाले श्रावकोंकौ इच्छित ऋद्धि प्राप्त होती है, इसमें कुछ भी भ्रान्ति न करो। क्योंकि जहाँ साहस होता है, वहाँ पर अवश्य सिद्धि होती है ।।७१।। जो जीव इन बारह व्रतोंका पालन करता हैं, वह देवलोक जाता है, जहाँ पर सहस्र नयत इन्द्र और धरणेन्द्र भी उसकी विभतिका वर्णन करते हैं 1७२।। आयुष के अन्त में स्वर्गसे च्युत होकर उत्तम वंशवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होते है और नारायण, बलभद्र एव चक्रवर्तीके सुख भोगकर पुनः तपश्चरण करते है ।७३।। वे भव्य १ म मोक्काालयइं । २ ब टि आशा वांछा एव गतः आशा गजो वा । ३ ब टि. अथवा डलपो स संबमः पाततः । ४ ब टि पेटके समूह ५ झ तारसह । ६ ख उप्पज्जइ बधण्ण । ७ झ-दिणई। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० श्रावकाचार-संग्रह संगचाउ जे करहिं जिय ताहं ण वय मज्छंति । अह कि लग्गहि चोरडा जे दूरे णासंति ॥७५ एह धम्म जो आयराइ बंमणु सुदु वि कोइ। सो सावउ कि सावयहं अण्णु कि सिरि मणि होइ।। मज्जु मंसु मह परिहरइ संपइ सावउ सोइ । पीरुक्खइ एरंडवणि किं ण भवाई होइ ।।७७ सावयधम्महि सयलहमि दाणु पहाणु सुवृत्तु । तं विजई विणएण सहु बुझिवि पत्तु अपत्तु॥७८ उत्तमु पत्तु मुणिदु जगि मज्झिमु सावउ सिट्ठ । अविग्यसम्माइट्ठि जणु पणिउ पत्तु कणिठ्ठ।।७९ पत्तहं जिणउरएसियहं तीहिमि देइ ज दाणु । कल्लाण पंचई लहिधि मुंजइ सोक्खणिहाणु ८० दसणरहिय कुपत्त जइ दिण्णइ ताह कुभोउ । खारघडइ अह णिवडियउ णीरु वि खार उ होइ ॥८१ हयगय-सुणहहं दारियहं मिच्छाविठिहि भोय । ते कुपत्तदाणंघिवह फल जाणहु बहुभेय' ।।८२ तं अपत्तु आगमि भणिउ ण उ वय दंसण जासु । णिप्फलु दिण्णउ होइ तसु जह ऊसरि वउ सासु ॥८३ हारिउ ते धणु अप्पणउं दिण्णु अपत्तहं जैण । 'उप्पाहं चोरहं अप्पियउ खोज ण पत्तउ केण । ८४ एक्कु वि तारइ भवजहिं वहु दायार सुपत्तु । सुपरोहण एक्क वि बहुय दीसइ पारहु णितु ॥८५ दाण "कुपत्तहं दोसडइ वोलिज्जइ ण हु भंति । पत्चरु पत्थरणाव कहिं दीसइ उत्तारंति ।।८६ जीव उत्कृप्ट रुपसे तो-तीन भवोंमें देब-मनुष्योंके सुख भोग कर और जघन्य रूपसे सात-आठ भवोंमें कर्म-रजको दूर कर मोक्षकों जाते हैं ।।७४।। जो जीव परिग्रहका त्याग करते हैं,उनके व्रत भंग नहीं होते है । क्या उन सुभटोंके पीछे चोर लग सकते है, जो उनकों देखकर दूरसे ही भागते है ।।७५।। जो कोई भी ब्राह्मण या शुद्र इन उपर्युक्त धर्मका आचरण करता हैं, वह श्रावक है। और क्या श्रावकके शिर पर कोई मणि रहता हे ॥७६। सम्प्रति इस पंचकाल में जो मद्य मांस और मधुका त्याग करता हैं, वही श्रायक है । क्या अन्य वृक्षोंके रहित एरण्ड-वन में छाया नहीं होती है ।।७।। श्रावकके सर्व धर्मोमे दान देना प्रधान धर्म कहा गया है । इसे पात्र-अपात्रका विवेक कर विनयके साथ देना चाहिए।।७८||जगत्मे उत्तम पात्र मनीन्द्र और मध्यमपात्र श्रावक कहा गया हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य कनिष्ठ (जघन्य) पात्र कहा गया है।।७९॥जिनदेवके, द्वारा उपदिष्ट उक्त तीनों ही प्रकारके पात्रोंको जो दान देता है, वह पंच कल्याणकोंको प्राप्त करके सुखके निधान शिव-पदका उपभोग करता हैं ।। ८०॥ सम्यग्दर्शनसे रहित कुपात्रको यदि दान दिया जाता है, तो उससे कुभोग प्राप्त होते है। जैसे खारे घडे में डाला हुआ पानी भी खारा हो जाताहैं।। ८१।। मिथ्याद्दष्टिको घोडे हाथी कुत्ते और वेश्याओंका जो भाग प्राप्त हैं, वे सब कुपात्रदानरुपी वक्षके नाना प्रका१के फल जानो ॥८२॥ जिसके व्रत और सम्यग्दर्शन नहीं है, आगममें उसे अपात्र कहा गया है । उसे दिया गया दान निष्फल होता है, जैसे कि ऊसर भूमिमें बोया गया धान्य निष्फल जाता है ।।८।। जिसने अपात्रको दान दिया, उसने अपना धन खोया । उत्पथमें चोरोंको अर्पण किया गया धन किसने वापिस खोज पाया है ||८|| एक ही सुपात्र अनेक दातारोंको भवसागरसे पार उतार देता है। एक ही उत्तम जहाज अनेक पुरुषोंको पार लगाता हुआ देखा जाता है ॥८५।।कुपात्रको दान देना दोषयुक्त कहा गया १ ब मिथ्यादृष्टीनां हयादीना ये भोगा भवन्ति तत्सर्व कुपात्रदानवृक्षस्य फलं जयम् । २ म कउ । ३ टि उत्तथे । ४ झ अपत्तहं । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावयधम्म दोहा जई गिहत्थु दाणेण विणु जगि पभणिज्जइ कोइ । ता गित्य पक्खि व हवइ जे' घरु ताह वि होई ॥८७ धम्म करउं जइ होइ धणु इहु दुव्वयणु म बोल्लि । हकारउ जमभडतणउ आवइ अज्जु कि कल्लि | ८८ काई बहुत्तई संपयई जा' किवणह घरि होइ । 'उबहिणीरु खारें भरिउ पाणिउ पियइ ण कोई ।। ८९ पत्तहं दिण्णउ थोवडउ रे जिय हो बहुत । वडहं बोउ धरिणिहि पडिउ वित्थरु लेइ महंतु । . ९० धम्म परिणइ चाउवि पत्तहं दिष्णु । स इयजल सिपिहि गयउ मत्तिउ होइ रवण्णु ॥ ९१ दिज्जइ तं पावियइ एउ ण वयणु विसुध्दु । गाइ पइण्णई खडभुसई कि ण पयच्छइ दुध्दु ॥ ९२ जो घरि हुतई धण कणइ मुणिहि कुभोयणु देइ । जम्मि जम्मि दालिद्दडउ पुट्ठि ण त छंडे ||३ कह भोयण सहं भिट्टडी दिण्णु कुभोयणु जेण । हुतई घरि परि वविय बबूल इं तेण । ९४ 9 जय दिज्ज इत्थु भवि तं लब्इ परलोइ । मूलें सिंचाइ तरुबरहं फलु डार्लाहि पुणु होइ ॥ ९५ पत्तहं दाणई दिण्णइण मिच्छदिट्ठि वि जति उतमाई भोघावहि इच्छिउ भोउ लहंति ॥९६ कम्ण खत्तिय सेव जहिं ण उ वाणिज्जग्यासु । घरिघरि दस विह' कप्पयर ते पूहि अहिलासु ।। fift दे ण धम्मतरु दाण-सलिल-सिचंतु । जइ मिच्छत हुयासगहु रक्खिज्जइ डज्झतु ||९८ धम्मु करतहं होइ धणु इत्यु ण कायउ भंति । जलु कड्ढतहं कूवयहं अवसई सिरउ वहति ९९ है, इनमें भ्रान्ति नहीं है । कहीं पत्थरोंकी नाव पत्थरको पार उतारती देखी गई है || ८६ ॥ | यदि दान के बिना भी जगत् में कोई मनुष्य गृहस्थ कहा जाय तब तो पक्षी भी गृहस्थ हो जाता है, क्योंकि घोंसलारून घर तो उसके भी होता है ॥ ८७ । 'यदि धन हो जाय तो धर्म करूँ, ऐसा दुर्वचन मत बोल | क्योंकि यमराजके दूतका हकारा आज आ जाय कि काल, इसका क्या भरोसा है ॥ ८८ ॥ उस बहुत सम्पत्ति से क्या लाभ, जो कृपणके घरमें होती है। समुद्र खारे पानी से भरा है, उसका कोई पानी नहीं पीता है । ८९|| हे जो, पात्र को दिया गया थोडा सा भी दान बहुत होता है । MAT बीज भूमि में पडकर भारी विस्तार ले लेता है ॥ ९० ॥ पात्रको दिया हुआ दान धर्मस्वरूपसे परिणत होता है । देखो स्वाति नक्षत्रका जल सोपमं जाकर रमणीक मोती बन जाता है ।। ९१ ॥ 'जो दिया जाता है, वही प्राप्त होता है' यह वचन विशुद्ध ( यथार्थ ) नहीं है । देखो - गायको खल और भुस दिया जाता है, तो क्या वह दूध नहीं देती है ||१२|| जो मनुष्य घर में धन-धान्यके होते हुए भी मनिको कुमोजन देता है, दारिद्र्य जन्म-जन्म में उसका पीछा नहीं छोडता है ।। ९३ ।। जिसने मुनियोंको भोजन दिया है, उसे उत्तम भोजनसे भेट कहाँ हो सकती है ! घरमें प्रचुर बीजोंके होते हुए उबल बोवे है ।। ९४ ।। हे जीव, जो कुछ इस भव में दिया जाता है, वहीं परलोक में प्राप्त होता है। वृक्षके मूलको सींचनेपर ही डालियों में फल लगते है । ९५ ।। पात्रोंको दान देनसे मिथ्यादृष्टि भी उत्तमभोगभूमिको जाते है और इच्छित भोगोंको पाते है ||२६|| जिस भोगभूमि में खेती और न सेवाकार्य है और न व्यापारका प्रयास ही है । वहांपर घर-घर में दस प्रकार के कैल्प - वृक्ष हैं, वे जीवोंकी सब अभिलाषाओं को पूरा करते है । ९७॥ दानरूपी जलसे सींचा गया धर्मरूपी वृक्ष क्या क्या सुफल नहीं देता है? यदि मिथ्यात्वरूप अग्निके द्वारा उसकी जलने से रक्षा की जाय ||१८|| धर्म करनेवालोंके धन होता है, इसमें कोई भी भ्रान्ति नहीं है । जैसे कूपसे जलके निकलने ६ म दस १ झ जह। २ ५ ज३ ३ झ सायर | ४ बसिहु । कप्पयर गहिं । ७ काइमि । ८ म घडति । ५ यह दोह 'झ' प्रतिमे नहीं है ४९१ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ श्रावकाचार-संग्रह धम्म धणु पर होइ थिरु विग्घई विहडिवि जति । अह सरवरु अविणइं रहिउ फुट्टिवि जाइ तडत्ति ॥१०० धम्म सुहु पावेण दुहु एउ पसिद्धउ लोइ । तम्हा धम्म समायरहि जिम हियइच्छिउ होइ ॥१०१ धम्में जाणहि जति पर पावें जाण वहति । घरयर गेहोवरि चढहिं कूवखगय तलि जति ।।१०२ धम्म एक्कु वि बहुं भरइ सई भुक्खियउ अहम्म । वडुबहुयहं छाया करइ तालु सहइ सइं घम् ।। १०३ काइं बहुत्तई जंपियई जं अप्पहु पडिकूल । काइं मि परहु ण तं करहि एहु जि धम्म मूलु ॥१०४ सत्थसएण' वि जाणियह धम्मु ण चढइ मणेवि । दिणयरसय जइ उग्गमइ घूयड अंधउ तोवि१०५ पोट्टहं लग्गिवि पावमइ करइ परत्तहं' दुक्ख । देवल-लग्गिय-खिल्लियइं किण्ण पलोट्टइ मुक्खु' ।१०६ छुड सुविसुद्धिए होइ जिय तणु मणु वय सामग्गि । धम्म विढप्पइ इत्तियहंधणहुँ विलग्गउ अग्गि । "थुण वयणे झायहि महिं जिणु भुवणत्तयबंधु । काहिं करि उववासु जिय जै खुट्टइ भवसिंधु १०८ होइ वणिज्जु ण पोट्टलिहिं उववाहि ण उ धम्म। एहु अयाणहु सो चवइ जसु कउ भारिउ कम्मु ।।१०९ पोलियहि मणिमोत्तियहि धणु कित्तिर्याह ण माइ । बोरिहिं भरिउ बलद्दडा तं णाही ज खाइ। पर उसमें स्रोतोंसे अबश्य ही जल प्रवाहित होता हैं, अर्थात् झरोंके द्वारा और पानी आ जाता हे ॥९९॥ धर्मसे धन स्थिर होता हैं और विघ्न विघट जाते है । जैसे (पाल-वन्धसे जल सरोवरमें भरा रहता है । ) किन्तु पाल-बन्धसे रहित सरोवर तुरन्त फूट जाता हैं (और उसका सारा जल बाहिर निकल जाता हैं) ।।१००।। धर्मसे सुख और पापसे दुख होता है, यह बात लोक में प्रसिद्ध हैं । इसलिए धर्मका आचरण कर, जिससे मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हों ।।१०१।। धर्मसे मनुष्य यानवाहनोंके द्वारा जाते हैं और पापसे मनुष्य यानोंका वहन करते है। घरके बनानेवाले कारीगर घरके ऊपर चढते है और कूप खनन करनेवाले लोग नीचे तल भागकी ओर जाते हैं ।।१०२।। धर्मसे एक ही पुरुष बहुत लोगोंका भरण-पोषण करता हैं और अधर्मी स्वयं भूखा रहता हैं। वटवक्ष बहत जनोंपर छाया करता हैं और ताडवृक्ष स्वयं धाम सहता है ॥१०३।। बहुत कहनेसे क्या लाभ, जो कार्म अपने लिए प्रतिकूल हो, उसे कभी दूसरोंके लिए भी मत करो। यह धर्मका मल है ।।१०४।। सैकडों शास्त्रोंके जान लेनेपर भी मिथ्यादृष्टि जीवके मनपर धर्म नहीं चढता है । यदि सैकडों सूर्य भी उदित हो जायें, तो भी घुग्धू अन्धा ही रहता है।।१०५॥ पापबुद्धि पुरुष पेटके लिए दूसरोंको दुःख पहुँचाता हैं । मूर्ख मनुष्य देवालयमें लगी हुई खीलोंके लिए क्या उसे नहीं पटकता हैं ।।१०६।। हे जीव, यदि तन-मन और वचनकी सामग्री विशुद्ध हो, तो इतनेसे ही धर्म बढता हैं । (धर्मके लिए धनकी आवश्यकता नहीं हैं। ) फिर उस धनमें आग लगने दे ॥१०॥ त्रिभुवनके बन्धु जिनदेवका वचनोंसे स्तवन कर, मनसे ध्यान कर और कायसे उपवास कर,जिससे कि हे जीव, भव-सिन्धु अन्तको प्राप्त हो ।१०८1। पोटलीसे वाणिज्य नहीं होता और उपवासोंसे धर्म नहीं होता। यह बात तो वही अज्ञानी मनुष्य कहता हैं जिसने भारी दुष्कर्म किया हैं ।।१०९।। देखो-मणि-मोतियोंकी पोटलिया से कितना धन कमाया जा सकता हैं इसका माप (परिमाण) १श-सएहिं । २ झ म याणियाहिं । ३ ब टि. परलोकस्य । ४ ब टि. कि मो लानाखोलीनिमित्त देवगृहं न पातयति? अपि तु पलोट्टइ-पातयति । ५ व म मुणि । ६ ब टि. अज्ञानी पुमान् । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४९३ उववासहो एक हो फल्ल इं संबोहिय परिवार । णायदत्तु दिवि देउ हुउ पुणरवि नायकुमारु ॥ १११ तें कज्जे जिय तुव भणमि' करिउपवासम्भासु' । जाम ण देहकुडिल्लियहि ढुक्कइ मरणहुयासु ११२ धम्मुजि सुद्धउ तं जि पर जं किज्जइ कारण' | अहवा तं धणु इज्जलउ जं आवइ जाएण । ११३ द्विणमनुयहं कटुडा संजम उण्णय दिति । अह उत्तमपद जोडिया जिय दोस वि गुण हुति ॥ ११४ नियमविहूणहं निट्टूडिय' जीवहं निष्फल होइ । अणबोल्लिउ कि पावियइ दाम कलत्त रु लोइ ।। ११५ जो वय-भायण सो जि तणु कि किज्जइ इयरेण । तं सिह जं जिण मुणि नवइ रहइ भत्तिभरण ।। ११६ दाणच्चणविहि जे करहिं ते जि सल+खण हत्थ । जे जिर्णातित्थह अणुसहि पाय वि ते जि पसत्थ ॥ जे सुगंति धम्मक्खर इं ते हउं मण्णमि कण्ण । जे जोवह जिणवरह मुहु ते पर लोयण धण्ण।' ११८ अवरु वि जं जहि उवयरइ' तं उवयारहि तित्थ्" । लइ जिय जीविय लाहडउ देहु म करहु णिरत्यु ॥ ११९ घरु पुरु परियणु धणियधणु बंधव पुत्त सहाई । जीवे जंतें धम्म पर अण्णु ण सरिसउ जाइ १० ।। १२० देहि दाणु व किंपि करि मा 'गोवहि जियसत्ति । जं कड्डियहं वलंतयई तं उब्वश्इ ण भंति १२१ नहीं है ओर जो खाये जाते है, ऐसे बेल भरे बेरोंसे वह धन (मूल्य) नहीं मिलता है ॥ ११० ॥ देखो - एक ही उपवासके फलसे परिवारको सम्बोधित कर नागदत्त स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से आकर फिर भी नागकुमार हुआ ।। १११ ।। उसलिए हे जीव, तुझसे कहता हूँ कि तू उपवासका अभ्यास कर, जबतक कि देहरूपी कुटी (झोंपडी) में मरणकी आग प्रवेश नहीं कर रही है ।। ११२ ।। धर्म वही विशुद्ध है, जो कि अपने शरीरसे किया जाता हैं और धन वही उज्ज्वल हैं, जो कि न्याय से आता है ।। ११३ || निर्धन मनुष्यके कष्ट संयममें उन्नति देते हैं । देखो - उत्तमपदमें जोडे गये जीवके दोष भी गुण हो जाते है । १४ । । नियमसे रहित जोवकी निष्ठा (क्रिया) निष्फलं होती हैं। क्या कोई लोकमें अनबोले दाम और कलत्र (स्त्री) को पाता हैं । भावार्थ - जैसे लोकव्यवहारमें वस्तुका दाम (मूल्य) बोलनेपर ही मिलता है, और स्त्री भी विवाह पूर्व वाग्दान हो जानेपर ही प्राप्त होती हैं, इसी प्रकार पहले व्रतका नियम लेनेपर ही आचरणरूप क्रिया सफल होती है ।। ११५ ।। जो व्रतका भाजन हो, वही शरीर है, व्रत-रहित अन्य शरीरसे क्या लाभ हैं। सिर वही शोभता हैं, जो जिनदेव और निर्ग्रन्थमुनिको भक्ति भारसे नमस्कार करे ।। ११६ ।। जो दान और पूजनविधिको करें, वे ही सुलक्षण हाथ है और जो जिनतीर्थो का अनुसरण करें, वे ही प्रशस्त पाँव है ॥ ११७ ॥ जो धर्मके अक्षरोंको सुनते है, उन्हींको में कान मानता हूँ और जो जिनवर के मुखको देखते है, वे ही लोचन परमधन्य है !। ११८।। और भी जो अंग जैसा उपकार कर सके, उससे वैसा ही उपकार कराओ । हे जीव, ( इस प्रकारसे तुम ) जीवनका लाभ लो, देहको निरर्थक मत करो ।। ११९ ॥ घर, पुर, परिजन, धनिक, धन, बान्धव, पुत्र और सहायक ये कोई भो जीवके परलोक जाते समय साथ नहीं जाते हैं, केवल एक धर्म ही साथ जाता हैं ।। १२० ।। इसलिए दान दो, कुछ १ ब टि. भणमि । झ म पइ भणिउ । २ सयासु । ३ ब टि. उपवासादिना कायखेटतेन । मणिणी । ब निष्ठा क्रिया । ५ म दम्मकलंतरु । ६ ब उपकरोति । ७ व तत्र उपकारय, उपकारनिमित्तं प्रेरय । ८ झ म लेहु । ९ ब सयाई । १० यह दोहा 'झ' में नहीं है । ११ म चउ | १२ म माण | Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ श्रावकाचार-संग्रह जइ जिय सुक्खइं' अहिलसइ छंडहि विसय कसाय । अह विग्घई अणिवारियई फमहि कि अज्झवसाय ॥१२२ फरसिदिउ मा लालि जिय लालिउ एहु जि सत्तु । करिनिहिं लग्गउ हत्थियउ णियलंकुसदुहु पत्त। जिब्भिविउ जिय संवरहि सरस ण भल्ला भवख । 'गालइं मच्छ चडप्फडिवि मुइबि 'सहिवि थलदुक्ख ।। १२४ . . घाणिदिय वढ' वसि करहि रक्खहु विसयकसाय५ । गंधहं लंपड सिलिम विहुउ कंजइ विच्छाय । १२५ रूवहिं उप्परि रइ म करि णयण णियारहि जंत । रूवासत्त पयंगडा पेक्सहिं दीवि पडत ॥१२६ मण गच्छहो मणमोहणहं जिय गेयहं अहिलासु । गेयरसें हियकण्णडा पत्ता हरिण विणासु ॥१२७ 'एक्कु वि इंदिउ मोक्कल उ पावइ दुक्खसयाई । जसु पुणु पंचवि मोक्कला सु पुच्छिज्मइ काई।१८ ढिल्लउ होहि म इंदियह पंचहं विणि णिवारि । इक्क णिवारहि जोहडिय अवर पराइय णारि ॥ 'खंचहि गुरुवयणंकुहि मिल्लि' म ढिल्लउ तेम। जह मोडइ मणहत्थियउ संजमभरतरु जेम।।१३० परिहरि कोहु खभाइ करि मुच्चहि कोहमलेण। हाणे सुज्झइ भंति कउ छित्तउ चडालेण ।' १३१ मउयत्तणु जिय मणि धरहि माणु पणासइ जेण । अहवा तिमिरु ण ठाहरइ सुरहु गयणि ठिएणः १३२ व्रत भी करो, अपनी शक्तिको मत छिपाओ। इस बलते (जलते) हुए शरीररुपी घरमेंसे जो काढ़ लोगे, वही बचेगा, इसमे भ्रान्ति नहीं है ।। १२१॥हे जीव, यदि तू सुख चाहता हैं, तो विषय और कषाय छोड़ दे। विघ्नाके निवारण किए विना क्या अध्यवसाय फलीभूत्त हो सकता है।। १२२।। हे जीव ,स्पर्शन-इन्द्रियका लालन मत कर,लालन करनेसे यह शत्रु बन जाती है । देखो-करिणी (हथिनी) मे आसक्त हुआ हाथी सांकल और अंकुशके दुःखको पाता है।। १२३।। हे जोव,जिव्हाइन्द्रियका संवरण कर, सरस भक्षण भला नहीं होता हैं । देखो-लोहेकी कीली (बंसी) से बिंधी हई मछली तडफडाकर और जमीनके दुःख सहकर मरती हैं ।। १२४ ।। हे मूढ, घ्राण-इन्द्रियको में कर और विषय-कषायसे अपनी रक्षा कर । देखो-सुगन्धका लम्पटी भौरा कमलमें बन्द होकर मरणको प्राप्त होता है ।।१२५।। रूपके ऊपर रति मत कर रूपपर जाते हुए नयनोंको भी रोक । दीपकमें गिरते हुए रूपासक्त पतङ्गोंको देख ।।१२६ । हे जीव, मन-मोहक गीतोंके सुननेकी अभिलाषाको मत प्राप्त हो । देखो-गीतरसके श्रवणमें आसक्त हरिण विनाशको प्राप्त होते हैं ॥१२७।। (देखो-य सब उपर्युक्त जीव) एक-एक इन्द्रि यके वशगत होकर सैकडो दाखोंको पाते है। और जिसकी पांचों ही इन्द्रियाँ स्वच्छन्द हैं,अर्थात् जो पांचोंके ही विषयोंमे आसक्त हे,उसके दुःखोंका तो पूछना ही क्या है ।। १२८।। पाँचों ही इन्द्रियोंके विषयोंमें ढोला मत हो। उनमें भी मख्यरूपसे दो इन्द्रियोंका तो निवारण कर ही । एक तो जिव्हा इन्द्रियका निवारण कर और दसरी परायी स्त्रीका निवारण कर स्पर्शन-इन्द्रियको वशमें कर।।१२९।। गुरुके वचनरुपी अंकुशसे मनरूपी गजका निवारण कर, उसे ढीला मत छोड जिससे कि संयमभार वाला यह वृक्ष सुरक्षित रह सके ।।१३०॥क्षमाके द्वारा क्रोधका परिहार कर क्रोधरुपी मैलसे मुक्त हो । चाण्डालसे छुआ हुआ मनुष्य स्नानसे शुद्ध होता है, इसमे क्या भ्रान्ति है ।।१३१।।हे जीव, मृदुताको मनमें धारण १ म सुक्खह | २ लोहकण्टकेन | ३ म मउ बिसहइ | ४ म बड | ब टि. मृढ । ५ ब पमाय । ६ एक्कहिं । ७ जीहडी। ८ म अण्ण । ९ ब मनो निवारय । १० म मेल्लि । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४९५ माया मिल्लाहि थोडिय वि दूसइ चरिउ विसुन्दु। कंजिबिदुवि' वित्तुडइ सुध्दुवि गुलियउ दुध्दु ॥ लोहु मिल्लि चाइसलिल हलुवउ जायइ जेमा लोह-मुक्कु सायरु तर इपेक्खि' परोहण तेम १३४ मोजिछिज्जें दुब्बलउ होइ इयरु" परिवारु । हलुवउ उग्घाउंतयहं अहव णिरग्गल वारु ।।१३५ मिच्छत्ते गरु मोहियउ पाउ वि धम्म मुणेइ । भंति कजणु धत्तूरियउ डलु वि सुवण्णु भणेइ ।। १३६ जइ अच्छहि मंतोसु करि जिय सोक्खहं विउलाह । अहवा गंदु वि को करइ रवि मिल्लिवि कमलाहं ।।१३७ मणुयह विणयविवज्जियहं गण सयलवि णासंति । अह सरवरि विणु पाणियई केम रहं त ।।१३८ विज्जावच्चे विरहियउ वय-णियरो विण ठाइ । सुक्कसाहु कि हंसउल जंतउ धरणइंजाइ ॥१३९ सज्झाएँ गाणह पसरु रुज्झइ इंदियगाउ' । पच्चूसे सूरुग्गमणि घूयडकुलु णिच्छाउ' ॥१४० गुणवंतहं सह संगु करि भल्लिम पावहि जेम सुवणसुपत्त विवज्जियउ वरतरु वुच्चइ केम ।।१४१ सत्तु वि महा ई उवसमइ सयलवि जिय वसि हुति। वयणइं कक्कस पोसियइं पुरिसहहोइणकित्ति भोयणु 'मउणें जो क इ सरसइ सिज्झइ तासु । अहवा ४ वसइ समुद्दि जिय लच्छि म करहु५ णिवासु ।। १४३ कर, जिससे कि मानका विनाश हो। अथवा सूर्यके गगनमें स्थित रहनेपर अन्धकार नहीं ठहर सकता हैं ॥१३२।। मायाको छोड, जो थोडी भी विशुद्ध चारित्रको दुषित कर देती हैं। कांजीके एक बिन्दु भी गुडयुक्त शुद्ध दूधको भी फाड देतो है ।। १३३।। लोभको छोड, जिससे चतुर्गतिरूपी जल (पार करनेके लिए तू) हलका हो जाय । देख,लोह-पुक्त (काठ की) नाव जैसे सागरको तर जाती है ।।१३४।। मोहके क्षय होनेपर राग-द्वेषादिरूप अन्य परिवार स्वयं ही दुर्बल हो जाता है। अथवा अर्गला (सांकल) रहित द्वार उघाडने में हलका होता ही है ॥१३५।। मिथ्यात्वसे मोहित मनुष्य पापको भी धर्म मानता है। यदि धत्तुरेसे उन्मत्त पुरुष डले (पत्थरके टुकडे ) को भी सोना कहे तो इसमें क्या भ्रान्ति है ।।१३६।। हे जीव, यदि विपुल सुखको इच्छा हैं, तो तू सन्तोषको धारण कर । अथवा सूर्यको छोडकर कमलोंका आनन्द और कौन कर सकता हैं ।।१३।। विनयसे रहित मनुष्यके समप्त गण नष्ट हो जाते हैं । अथवा सरोवर में पानीके बिना कमल कैसे रह सकते है ॥१३८॥ वैयावृत्यसे रहित व्रतों का समूह भी नहीं ठहरता हैं । सूखे सरोवरसे जाता हुआ हमोंका समुदाय क्या रोका जा सकता है ।।१३९ । स्वाध्यायसे ज्ञानका प्रसार होता हैं और इन्द्रियोंका समदाय (विषयोंमें जानेसे) रोका जाता हैं । प्रत्यूषकालमें सूर्यके उदय होनेपर घूकोंका समुदाय निस्तेज हो जाता हैं ।। १४०।। गुणवन्तोंके साथ संगति कर, जिससे कि भलाई पावे । सुमनों और सूपत्रोसे रहित वृक्ष श्रेष्ठ कसे कहा जा सकता हैं ।। १४१।। मधुर वचन बोलनेसे शत्रु भी शान्त हो जाता है और सभी जीव वशमें हो जाते है । कर्कश वचनोंके बो टनेपर पुरुषको कति नहीं होती है।।१४।। जो पुरुष मौनसे भोजन करता है, उसे सरस्वती सिद्ध होती है । अथवा समुद्र में लक्ष्मी भी निवास १ म बिदुइं । २ ब पिक्खि । ३ झ म णु। ४ म छिज्न उ । झ छिज्जइ। ५ ब टि. इतरद् रागदेषादिकम । ६ म इच्छहि । बटि. यदि तिष्ठति सन्तोषं कृत्वा । ७ ब टि. विपूलानि विस्तीर्णानि सौख्यानि भवन्ति। ब विज्जाविच्चें। ९ब इन्द्रियग्रा पो निरुध्यते । १० निस्तेजो भवति । ११ ब सत्त वि महरई जपियइ। १२ म झ चाइ कविते पोरिसइ। १३ ब मोणि। १४ ब अह ववसाइ समद्दि। टि. समुद्रव्यवसायेन । झ साय । १५ ब करउ । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ श्रावकाचार - संग्रह विसय कसाय - वसण-निवहु अण्णु वि मिच्छाभाउ । पित्तणु कक्कसवाणु मिल्लहि सयलु अणाउ ।। १४४ अण्णाएं आवंति जिय आवइ' धरण ण' जाइ । उम्मग्गे चल्लंतयहं कंटउ भज्जइ पाइ ।। १४५ परिहरि पुत्तु वि अप्पणउ जसु अण्णायपवित्ति । अप्पणियां मरइ कुसियारउ ण उ भंति ॥ अण्णाएं बलियहं विखउ कि दुब्बलहं ण जाइ। जहं बाएं वच्चति गय तह कि पूणी' ठाइ || १४७ अण्णाएं दालिद्दियहं रे जिय दुहु आवग्गु । लक्कडियहं त्रिणु खोडयहं मग्गु सचिवखलु दुग्गु || १४८ अण्णाएं दालिद्दियहं ओहट्टइ णिव्बाहु । लुंगउ' पायपसारणई फिट्टइ५ को संदेहु ११४९ ता अच्छउ जिय पिसुणमइ संगु जि ताह विरुध्दु सप्पह संग कट्टियउ चंदणु पिवखु सुबंधु ॥। १५० बिहडावर ण हु संघडइ पिसुणु परायउ हु । टालइ रय' ण उत्तिडउ उंदरु को संदेह ।। २५१ धम्मं विणु जे सुक्खडा तुट्टा गया वियार । तरुवर खंडिवि खुडिय ते फल एक्कु जिवार ॥ १५२ सुहियउ हुवउ ण कोवि इह रे जिय गरु पावेण । कद्दमि ताडिउ उट्ठियउ गिदुर विदुर केण । । १५३ रे जिय पुव्विणि धम्म किउ एवहि करि संताव | भंति कवण दिणु णावियई खडहडि निवडइ णाव ॥१५४ ९ करती हैं, सो हे जीव, वह भी मौनरूप स्वमुद्रावाले तुझ में निवास करे । भावार्थ- प्राकृत 'समुद्दि ' पदका संस्कृतरूप 'समुद्र' और 'स्वमुद्रे' दोनों होते है । यतः लक्ष्मी समुद्र में निवास करती है, यह प्रसिद्धि है, अतः वह समुद्रा वाले मौनभोजी पुरुषमें भी रहे, ऐसा अभिप्राय ग्रन्थकारने आशीर्वादरूपसे प्रकट किया हैं || १४३ ॥ विषय, कषाय, व्यसन समूह, पिशुनता, कर्कश वचन, सकल अन्याय और अन्य सर्व मिथ्याभाव इनको भी छोड देना चाहिए || १४४ ।। हे जीव, अन्याय से आपत्तियाँ आती है, फिर उन्हें रोका नहीं जा सकता । उन्मार्गपर चलनेवालोंका पांव काँटेसे भग्न होता हैं ।। १४५ ।। जिसकी अन्याय में प्रवृत्ति हो, ऐसे अपने पुत्रका भी परिहार कर । देखो - कुशियारा कीड अपनी ही लारसे मरता है, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है ।। १४६ ॥ ॥ अन्याय से बलवानोंका भी क्षय हो जाता हैं, फिर क्या दुर्बलोंका क्षय नहीं होगा ? जिस वायुके वेगसे हाथी भी उड जाते हैं, वहां क्या रुईकी पोनी ठहर सकती हैं ||१४७।। रे जीव, अन्याय से दरिद्रियोंका दुःख और वढता है । लकडीके खोडों ( डूंडों) के विना वर्षा ऋतु मार्ग कीचडमय और दुर्गम हो जाता है। ( इसी प्रकार न्यायके खोडे लगाये विना दरिद्री पुरुषों की दशा और भी दुःखमय हो जाती है | ) || १४८ || अन्यायसे दरिद्री पुरुषोंका निर्वाह दूर हट जाता हैं । लुंगी पांवोंके पसारनेसे फटती ही है, इसमें क्या सन्देह हैं || १४९ || इसलिए हे जीव, पिशुनमति ( चुगलखोर) मनुष्यको दूर ही रहने दे, उसका संग भी बुरा होता हैं । देखो -सांपके संगसे सुगन्धी चन्दन वृक्ष भी काट दिया जाता है ।। १५० ।। पिशुन पुरुष परायें स्नेहको तोडता ही है, जोडता नहीं । देखो - उंदर ( चूहा ) बिलमेंसे रज निकालता ही हैं, उसे भरता नहीं, इसमें क्या सन्देह है ।।१५१॥ धर्मके विना जो सुख भोग हैं, उन्हें टूटा गया विचार । जो वृक्षको काट कर फल तोड़े जाते है, वे एक ही बार प्राप्त होते है ।१५२।। रे जीव, यहाँ पापसे कोई मनुष्य सुखी नहीं हुआ । कीचडमें मारी गई गेंद उठती हुई किसीने देखी हैं ।। १५३॥ रे जीव, पूर्व भव में धर्म नहीं १ ब टि. आपदः २ ब निषेध्दुं न शक्यते । ३ म सूणी । ४ ब लग्गउ | ५ म फाटइ । झ फट्टइ । झ फट्ट । ७ ब अरि । ८ म पुश्व । ९ ब खरहडि । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुन न्दि-श्रावकाचार जेण सूदेउ सुणरु हसि पो पई कियउ ण घम्म । विण्णिवि छतें वारियहि इकु पाणिउ अरु धम्म ।।१५५ अभयदाणु भयभीत्यहं जोवह दिण्णु ण आसि । वार वार मरहिं डरसि केम चिराउसु होसि।। विज्जावच्च ण पइं कियउ दिण्णु ण ओसहदाणु । एवहिं वाहिहिं पीडियउ कंदिम होहि अयाणु ।। संबह दिण्ण ण चउविहहं भत्तिए भोयणदाणु । रे जिय काइं चड फहि दूरीकयणिव्वाण ।।१५८ पोत्यय दिण्ण ण मणिवरहं विहिय ण सत्थह पुन्ज । मइ पंडियउ कइत्तु गुणु चाहहि केम णिलज्ज ।। १५९ पाउ करहि सुह अहिलसहि परसिविणे वि ण होइ । माडिइं णिबइ वाइयइ अब कि चक्खइ कोइ ।।१६० गरुआरंभ हं णरयगइ तिवसाय हवति । इक छिद्दिय पाहणरिय बडुइ णाव ण भंति ।।१६१ कूडतुलामाणाइयहि हरि-करि-खर-विसभेसु । जो गच्चइ णडु पेक्खणउ सो गिण्हइ बहुवेसु।।१६२ हलुवारंभहि मणुयगइ मंदक साहिं होइ । छुडु सावउ धणु वाहुडइ लाहउ पुणरवि होइ ॥१६३ सम्मत्तें सावयवर्याह उप्पज्जइ सुरराउ । जोग वणि उ छंटियइं सो वारइ वि ण जाउ ॥१६४ किया,ऐसा सन्ताप कर । यदि नाविकके विना नाव खड्ढे में जा गिरे, तो इसमें कौनसी भ्रांति हैं ॥१५४।। जिससे तू उत्तम देव और उत्तम मनुष्य होता, उस धर्मको तूने नही किया । देख-एक छत्रसे धारण करनेसे एक पानी और दूसरा घाम ये दोनों ही निवारण किये जाते है ।।१५५।। भय-भीत जीवोंको तून कभी अभयदान नहीं दिया। अब बार-बार मरनेसे डरता है। चिरायुष्क कैसे हो सकता है ।। १५६।। तूने पहिले कभी साधुजनोंकी वैयावृत्त्य भी नहीं की और ओषधिदान भोनहीं दिया। अब इन व्याधियोंसे पीडित हो कर अजान बनकर आक्रन्दन करते हो ॥१५७॥ चतुर्विध संघको तूने भक्तिसे भोजनदान नहीं दिया । अब रे जीव, निर्वाण को दूर करके क्या तडफडाता हैं । १५८|| मुनिवरोंको न पुस्तकों का दान दिया और न शास्त्रोंको पूजा ही की। अब हे निर्लज्ज, बुद्धि, पांडित्य और कवित्व गुण किस प्रकार चाहता हैं ।। १५९।। पाप करता हैं और सुख चाहता है, पर यह स्वप्नमें भी नहीं होगा ! मांडी (घर ) में नीम बोनेपर क्या कोई आम चख सकता है । १६०।। भारी आरम्भ और तीव्र कषायसे नरक गति होती हैं। पाषाणोंसे भरी नाव ए ही छेदसे डूब जाती हैं, इसमें भ्रान्ति नही ।।१६१।। कूट तुला, कूट मान आदिसे सिंह,हाथी गधा, विषधारक प्राणी और मेंढा आदि पशुओंमे उत्पन्न होता हैं ।। जो नट नाटकयें नाचता हैं, वह बहुत वेष धारण करता है ।। १६२।। लघु आरम्भ और मन्दकषायसे मनुष्यगति प्र.प्त होती है। व्यापार में लगा श्रावकका धन शीघ्र वापिस लौटता हैं और फिर भी लाभ होता है ।।१६३।। सम्यक्त्वसे और श्रावकके व्रतोंसे मनुष्य देवगतिमें देवराज उत्पन्न होता है । जो बीज योग्य अबनी में बोया गया और समय पर सींचा गया,यह उत्पन्न होनेसे रोका नहीं जा सकता हैं।। १६४।। १झ मायइ । म माइण्णिवें । । टि. वाटिकायाम् । २ झ गवणिठ्ठिउ । म गविणिBिउ । ब० टि. गगने सहस्थित. पुरुष: पश्चात्त्यक्त.स द्वारे वि म जाउ मा गच्छतु । अपि तु यात्येव त्यक्तः । परं उद्धारपर्यन्तं याति । यथा गहश्राबवायोर्मध्ये मुनिर्मोक्षं गतस्तहि श्रावक: स्वर्ग किं न याति, अपि तु यात्येव इति इति भावः ( ? ) परन्तु यह अर्थ मूल दोहे के उत्तरार्ध पे नही निकलता है । जो अर्थ ऊपर किया गया है, वह 'झप्रतिके टब्बेके आधारसे किया है। -सम्पादक Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ श्रावकाचार-संग्रह धम्में जं जं अहिलसइ तं तं लहइ अमेसु । पावें पावइ पावियउ वालिद्दु वि सकिलेसु ॥१६५ धम्म हरि हल चक्कवइ कुलयरु जायइ कोइ। भवणत्तयवंदियचलणु कुवि तित्थंकर होइ ।।१६६ जासु जणणि सग्गागमणि पिच्छइ सिविणय-पंति। पह तेएं संभावियइ सूरुग्गमण णं भंत्ति ।। १६७ जो जम्मुच्छवि कहावियउ अमियघडहिं सक्केण ।। - किम हा विज्जइ अतुलबल जिणु अहवाऽसक्केण ।। १६८ । सुरसायरि जसु णिक्कमणि घल्लइ चिहुर सुरिंदु । अह उत्तमकज्जहं हवइ ठाउ जि खोर समुदु ।। णाणुग्गमि जसु समवसरणि पत्तामरसंघाउ । होइ कमलमलियभसलु सूरुग्णमणि तलाउ ।।१७० जसु पत्तुत्तमराइयउ विलुलतो वि असोउ । 'अइदूरुज्झियपरियणहं किम उप्पज्जइ सोउ ।।१७१ वारिउ तिमिरु जिणेसरह भामंडल अदित्तु । हयतमु होइ सुहावणउ इ थु ण काइं विचित्तु ।।१७२ माहउ सरणु सिलीमुहउ कुसुमासणि 'थिप्पति । सुमणस अलियविवज्जिया जिणचलणहं णिवडंति ।।१७३ धवलु वि सुरमउड़कियउ सिंहागणु बहु रेइ । अह वा मुरमणिमंडियउ जिणवर आसणु होइ। १७४ सद्दमिसिण दुंदुहि रडइ छंडहु जीवहं खेरि' । हक्कारइ गर तिरिय सुर एग्सि होइ स भेरि ॥१७५ जीव धर्मसे जो जो अभिलाषा करता हैं, वह सबको पाता है। पापी जीव पापसे दरिद्रता भी पाता हैं और क्लेश युक्त भी रहता हैं ॥१६५।। धर्मसे कोई हरि, हलधर, चक्रवर्ती और कुलकर होता हैं और कोई भुवनत्रयसे वन्दित चरणवाला तीर्थकर भी होता है ।१६६।। जिसकी माता स्वर्गसे आगमनके समय स्वप्नोंकी पंक्ति देखती है । सूर्योदयकी संभावना होनेपर पथ (मार्ग) उसके तेजसे प्रकाशित हो जाता हैं,इसमें भ्रान्ति नहीं है ।।१६७।। जो तीर्थंकर जन्मोत्सवके समय शक्रके द्वारा अमृत घटोंसे नहलाये जाते हैं । अथवा अतुलवली जिनदेव क्या अशक्त पुरुषके द्वारा नहलाये जा सकते हैं।।१६८॥ निष्क्रमण कल्याणकके समय जिनके केशोंको सुरेन्द्र क्षीर सागरमें डालते है । अथवा उत्तम कार्योंका स्थान भी क्षीर सागर ही हैं ॥१६९।। केवलज्ञानके उदय होनेपर जिसके समवशरणमें देवोंका समदाय प्राप्त होता है। जैसे सूर्यके उदय होनेपर तालाब भ्रमर-संवेष्टित विकसित कमलवाला हो जाता हैं ॥१७०।। उन तीर्थंकरके ऊपर उत्तम पत्रोंसे विराजित अशोक वृक्ष लहलहाता हैं। (अशोक यह सूचित करता हैं कि) जिन्होंने परिजनोंको बहुत दूरसे परित्याग कर दिया,उन्हेंशोक कैसे उत्पन्न हो सकता हैं ॥१७१ । जिस जिनेश्वरका अज्ञान-अन्धकार दूर हो गया, उनका भामण्डस अतिदीप्त, अन्धकार-नाशक और सुहावना होता हैं, तो इसमें कोई विचित्र बात नहीं है ॥१७२।। माधव अर्थात् वसन्त ऋतु है शरण जिनके ऐसे भौंरे तो कुसुमोंके आसन पर बैठ कर तृप्त होते हैं। किन्तु अलि (भौंरोंसे) विवर्जित सुमनस (पुष्प) एवं अलीक (असत्य) रहित सुमनस (देव) जिनदेवके चरणों पर पड़ते हैं । समवशरणमें होनेवाली पुष्पवृष्टिको लक्ष्यमें रखकर ग्रन्थकारने उक्त श्लेषवाक्य लिखा है ।।१७३।। धवल ओर देवोंके मुकुटोंसे अंकित जिनदेवका सिंहासन बहुत शोभायुक्त होता है । अथवा जिनवरका आसन देव-मणियोंसे मंडित होता ही है ।।१७४।।शब्दके मिषसे दुंदुभि यह शब्द करती है कि जीवोंके प्रति वैरभाव छोडो । वह भेरी इस प्रकार मनुष्य, तिर्यंच और १ व टि. अति दूरे त्यक्तपरिजनस्य शोकः कथमुत्पद्यते । २ ब टि. माधवो वसन्तः शरणं स्यात । ३ वैरम् । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४९९ चामर ससह करधवल जसु चउसाठ पडंति । हरिसिय जिणपासट्टिया अह सच्चामर हंति।।१७६ छतई छण' ससिपंडर इं सुरण' णाय घरंति । विसहर सुरचकिहि महिय जिणपुंडरिय'हवंति ।। झुणि अक्खिय संपुष्णहल जीवासासणि' जासु । अमियसरिस हियमहुर गिर अह व ण वल्लह कासु ॥१७८ एह विहुइ जिणेस हं. हुव धम्म एण्ड्ड । वणसइ णयणाणंदयरि होइ वसन्तें मंड । १७९ एवं विहु जो जिणु गहइ वंछिउ सिज्झइ तासु । बीजे अहवा सिंचियइं खेत्तिय होइ ण कासु । १८० जो जिणु व्हावइ घय-पर्याह सुरहिं हाविज्जइ सोइ । सो पावइ जो जं करइ एह पसिद्ध उ लोइ । गयोएण जि जिणवरहं हाविय पुण्णु बहुत्तु । तेलहं बिदुवि विमलजलि को वारइ पसरंतु । १८२ जलधारा जिणपयगयउ रग्रहं पणासइ णामु । ससहराकरणकरालियहं तिमिरहु कित्तिउ थामु।।१८३ जो चच्चइ जिणु चंदणइ होइ सुरहि तस देहु । तिल्लें जह दीवहं गयइं उज्जोइज्जइ गेहु।। १८४ जिणु अच्चइ जो अवखहि तसु वरवंसय सूइ । अह विहियई पुयपंचमिहिं होइ वि चक्किविहइ ।। खुट्टइ भोउ ण तसु गहइ जो कुमुमहिं जिणणाहु । अह सरवरि पइसारिणए पाणि उ होइ अगाहु।। देवोंको हक्कारती है ।।१७५।। उन तीर्थकर देवके ऊपर चन्द्र किरणोंके समान धवल चौंसठ चमर ढुलते है । (वे मानों यह कह रहे है कि) जो हर्षित होकर जिनदेवके पास स्थित होते हैं,वे सच्चामर अर्थात् सच्चे देव हो जाते है ।।१७६।। पूर्णमासी के चन्द्र तुल्य तीन श्वेत छत्रोंको जिन भगवानके ऊपर देव, मनुष्य और नाग धारण करते हैं । (वे मानों यह प्रकट करते है कि भगवानके ऊपर छत्र ताननेवाले पुरुष) धरणेन्द्र, इन्द्र और चक्रवर्तीसे पूजित जिन पुण्डरीक तीर्थकर परमदेव होते हैं।॥१७७।। जिनकी दिव्यध्वनि (पुण्य पापके ) सम्पूर्ण फलोंको कहनेवाली और जीवोंको आश्वासन देनेवाली होती है । अथवा अमृतके सदृश और हृदयको मधुर लगनेवाली वाणी किसे प्यारी नहीं लगती हैं ।। १७८ः। जिनेश्वरदेवकी इस प्रकारकी विभूति धर्मसे ही होती हैं । नयनोंका आनन्द करनेवाली वनश्री वसन्तसे ही मण्डित होतो है।। १७९।। इस प्रकारके जिनदेवकी जो पूजा करता हैं, उसका वांछित अर्थ सिद्ध होता हैं । अथवा बीजके सींचने पर किसकी खेती अच्छा नहीं होती हे ॥१८०।। जो जिनदेबको घी और दूधसे नहलाता हैं, वह देवोंके द्वारा नहलाया जाता हैं। 'जों जैसा करता है, वह वैसा पाता है' यह उक्ति लोकमें प्रसिद्ध ही हे।। १८१।।सुगन्धित जलके द्वारा जिनवरको नहलानेसे बहुत पुण्य होता हैं । तेलकी एक बिन्दुको भी निर्मल जल में फैलनेसे कोन रोक सकता है ।।१८२।। जिनदेवके चरणों पर छोडी गई जलधारा पाप-रजका नाम तक नष्ट कर देती है। चंद्र, किरणोंसे करालित (विनष्ट ) तिमिरका वि तना सामर्थ्य हैं ।। १८३।। जो जिनदेवकी चन्दनसे पूजा करता है उसका शरीर सुगन्धित होता हैं | जसे कि दीपकम ड ले गये तेलसे घर प्रकाशित होता हैं ||१८ ॥ जो अक्षतोंसे जिनदेवको पूजता हैं, उसका उत्तम वंशमे जन्म होता है और श्रुतपचमीके पूजा-विध नसे चक्रवर्तीकी विभूति प्राप्त होती है ।।१८५।। जो पुष्पोंसे जिननाथ की पूजा करता हैं, उसके भोग कभी कम नहीं पडते । जैसे सरोवरमें नदीको सारिणी (नहर) के द्वारा १ पूणिमाचन्द्रवत । २ ब टि. धरणेन्द -इन्द्र-चक्रिमहिता अिनपुण्डरीकास्तीर्थकरपरमदेवा भवन्ति । ३ ब कथितसम्पूर्णफला जीवानाम श्वासिनी स्यात् । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० श्रावकाचार-संग्रह वज्जई दिण्णई जिणहु जिय दालिद्दहु णासु । दुरिउ ण ढुक्कइ तहु णरहु लच्छिहु' होइ ण णासु ॥१८७ दीवई दिण्णई जिणवरहं मोहह होइ ण ठाउ । अह उववासहि रोहिणिहि सोउ विलयह जाउ । धूवउ खेवई जिणवरहं तसु पसरइ सोहाग । इत्थु म कायउ भंति करि तें पडिबद्धउ सांग ॥१८९ देइ जिणिदहं जो फलइ तसु इच्छियइं फलंति । भोयधरहं गय रुक्खडा सयल मणोरह दिति १९० जिणपयगयकुसुमंजलिहिं उत्तमसिय पंजोउ । सरगयरविकिरणावलिए णलििह लच्छिम होइ १९१ जिणपडिमई कारावियई संसारहं उतारु । गमणट्ठियह तरंडउ वि अह व ण पावइ पारु ।।१९२ जिणभवणइं कारावियई लब्भइ सम्गि विमाणु । अह टिक्कई आराइणई' होइ समीहिइ' ठाणु।। जो धवलावइ जिणभवणु तसु जसु कहिमि ण माइ । ससिकरणियरु सग्यमिलिउ जगु धवलणहं वसाइ ।।१९४ जो पइठावइ जिणवरहं तसु पसरइ जगि कित्ति । उवहिवेल छणससिगुणइं को वार इपसरति ।। आरत्तिउ दिण्णउ जिणहं उज्जोयइ सम्मत्तु । भुवणुमास इ सुरगिरिहिं सूरु पयाहिण किंतु ।। १९६ तिलयइं दिण्णइं जिणभवणि ५ जणि अणुराउ ण माइ । चंदकति चंदहं मिलिउ पाणिय दिण्ण ण ठाइ ॥१९७ चंदोवई दिण्णइं जिणहं मणिमंडियइ विसाल । अह संबंधा ससहरहं गहतारायणमाल ।।१९८ अगाध पानी हो जाता हैं ।।१८६।। हे जीव, जिनदेवको नैवेद्य चढानेसे दारिद्रयका नाश हो जाता है। उस मनुष्यके पास पाप नहीं ढूंकता और लक्ष्मीका भी नाश नहीं होता है ।।१८७।। जिनवरको दीप चढानेसे मोहको स्थान नहीं मिलता । तथा रोहिणीव्रतके उपवाससे शोक भी प्रलयको प्राप्त हो जाता हैं ॥१८८।। जो जिनवरके आगे धूप खेता है, उसका सौभाग्य फैलता है और उसने स्वर्गको बाँध लिया.इसमें कछ भी भ्रांति मत कर॥१८९।। जो जिनेन्द्रको फल चढाता हैं.उसको यथेच्छ फल प्राप्त होते है । भोगभूमिके कल्पवृक्ष उसके सब मनोरथोंको पूरा करते है ।।१९०। जिनदेवके चरणोंपर चढाई गई पुष्पांजलिसे उत्तम लक्ष्मीका संयोग होता हैं। देखो-सरोवरमें गई हुई सूर्यको किरणावलीसे कमलिनियोंमें लक्ष्मी प्राप्त होती हैं ।। १९१।। जिनप्रतिमा करानेसे जीव संसारके पार उतरता हैं । अथवा गमनके उद्यत पुरुषोंको जहाज क्या पार नहीं पहुंचाता हैं? पहुँचाता ही हैं ।।१९२।। जिन-भवनको बनवानेसे मनुष्योंको स्वर्गमें विमान प्राप्त होता हैं । तथा जिनभवनकी टीक (छाप) और आरास (पलस्तर) करनेसे समीहित स्थानकी प्राप्ति होती हैं ॥१९३।। जो जिन-भवनको सफेदी कराकर धवल करता है उसका यश कहीं भी नहीं समाता । शरद् ऋतुसे मिली हुई किरणोंका समूह समस्त जगत्को धवलित कर देता है ॥१९४। जो मनुष्य जिनवरकी प्रतिष्ठा करता हैं, उसकी कीत्ति जगत्में फैलती है । पूर्णमासीके चन्द्रके गुणोंसे प्रसारको प्राप्त होती हुई समुद्र की वेलाको कौन रोक सकता है ।। १९५।। जो जिनदेवकी आरती करता है, उसके सम्यक्त्वका उद्योत होता है। सुरगिरि (सुमेरु) की प्रदक्षिणा देता हुआ सूर्य समस्त भुवनको प्रकाशित करता हैं ।। १९६।। जिन भवनपर तिलक देनेसे अर्थात् शिखर पर कलशा चढानेसे जगत्में उसका अनुराग नहीं समाता जैसे चन्द्रकान्तमणि चन्द्रमाकी किरणोंसे मिलकर पानी देनेसे नहीं रुकता है । १९७।। जिन भगवान्को चढाये हुए मणि-मंडित विशाल चन्दोवा ( ऐसे प्रतीत होते १ म लच्छिहि। २ म आराणह । ३ म समाहिहि । ४ म पयाहि ण। ५ म जिगवरहं । ६ ब संबंधी। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-: ५०१ भच्छाहणि पावहरि जिणहरि घंट रसंति । कुमुयाणंदणि तमहरणि छणजामिण ण हु मंति१९९ चिध' चमर छत्तई जिणहं दिण्णई लब्मइ रज्जु । अह पारोहहिं निगाह वडु वित्थरइ ण चोज्जु || जिणहरि लिहियई मंडियई लज्छि समीहिय होइ । पुण्णु महंतउ तासु फलु कहिवि कि 'सक्कइ कोइ ।। २०१ -श्रावकाचार जंबदीउ समोसग् णु णंदीसर लोयाणि । जिणवरभवणि लिहा वियई सयलहं दुक्खहं हाणि ॥ २०२ दिors वत्थ सुअज्जियहं दिव्वंवर लब्भंति । पाणिउ पेसिउ पउमिणिहि पउमइ देइ न भंति ॥ सारंभई व्हवणाइयहं जे सावज्ज भणति । दंसणु तेहि विणा सियउ इत्थु ण कायउ भंति || २०४ पुग्गलु जीवें सहु गणिय 'जो इच्छइ धणचाउ । इणि' सम्मत्ते तसु तणई किन सम्मतु वि जाउ ।। सम्मत्तं विणु वय विगय वयहं गयहं गउ धम्मू । धम्मे जंते सुक्खु गउ तें विणु निष्फलु जम्मु २०६ पुण्ण रासि ण्हवणाइयई पाउ लहुवि किउ तेण । विसकणियई बहु उवहिजल णउ दूसिज्जइ जेण || तें सम्मत महारयण हिययंचलि थिरु बंधि । तें सहु जहि जह जाहि जिय तह तह पावहि सिद्धि ॥२०८ arrear विहि जो करइ इच्छिय भोयणिबंधु। विक्कइ सुमणि वराडियइ सो जाणहु जाच्चंधू है) जैसे ग्रह और तारागणकी माला चन्द्रमासे सम्बद्ध हुई हो ॥ १९८॥ | जिनमन्दिर में बजताहुआ घंटा भव्यजनोंका उत्साह वर्धक एवं पाप-हारक होता है । पूर्णचन्द्रवालि रात्रि कुमुदोंको आनन्द देनेवाली और अन्धकारको हरनेवाली होती है ।। १९९ ।। जिनभगवान्‌को ध्वजा, चमर | और छत्र चढ़ाने से राज्य प्राप्त होना | यदि प्रारोहों (जटाओं) के निकलनेसे वटवृक्ष विस्तृत हो तो कोई आश्चर्य नही है |२००। " जिनमन्दिर में मांडने लिखनेसे मनोवांछित लक्ष्मी प्राप्त होती है, और महापुण्य होता है । उसके फलको कहते के लिए कोई भी समर्थ नहीं है । २०१ ॥ जम्बूद्वीप, समवशरण, नन्दीश्वर द्वीप और तीन लोकोंकी रचनाको जिनेंद्रभवनमें लिखवाने मे सकल दुखोंकी हानि होती हे । २०२ ।। सुआर्यिकाओं को वस्त्रदेनेसे दिव्य वस्त्र प्राप्त होते हैं । कमलिनियोंको पानी देनेपर वे कमलोंको देती हैं, इसमें भ्रान्ति नहीं हैं । २०३ || जो अभिषेकादिके समारम्भको सावद्य (पापयुक्त ) कहते है, उन्होंने सम्यग् - दर्शनका विनाश कर दिया, इसमें कोई भ्रान्ति नही हैं ॥ २००॥ जो पुद्गलको जीवके साथ गिनकर ( मानकर ) धनके त्यागकी इच्छा करता हैं, उसके इस प्रकारसे सम्यक्त्व माननेपर क्या उसके सम्यक्त्व उत्पन्न ह गया ? भावार्थ- जो जीव और दुद्गलकी एकता मानकर धनत्यागची इच्छा करता है, वह मिथ्यादृष्टि ही है, उसके धनत्यागसे कोई भी लाभ नही हैं ।। २०५ ॥ सम्यक्त्वके विना व्रत भी गये | व्रतोंके जानेसे धर्म गया और धर्मके जानेसे सुख भी गया । फिर उसके विना मनुष्यजन्मनिष्फल हैं ॥। २०६ || पुण्यकी राशिवाले अभिषेकादि कार्य में अभिषेक करनेवाले के द्वारा यदि अल्प पाप भी किया गया, तो विषको एक कणिकासे समुद्रका सर्व जल दूषित नही हो सकता ।।२०७।। अतएव सम्यक्त्वरूपी महारत्नको हृदयरुप अंचलमें स्थिर बाँध । उसके साथ हे जीव, तू जहां जहाँ जायगा, तहाँ तहाँ सिद्धि पायगर ।। २०८ । जो मनुष्य भोग-प्राप्तिकी इच्छासे ज्ञान और पूजन-विधान करता हैं, वह उत्तममणिको कीडियों में बेचता है, उसे जन्मान्ध जानो ॥ २०९॥ १ ब चिधई चमरई छत्तई वि । २ मण । ३ ब टि. यः पुमान् पुद्गलः (स्य) जीवेन सह ऐक्यं सन्यते बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिरेव । तल्य धनत्यानेन न किमपि । ४ ब ईदृशेन सम्यक्त्वेन । ब लहुक्किउ । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ श्रावकाचार-संग्रह तें कम्मक्खउ मग्गि जिय जिम्मल बोहिसमाहि । ण्हवणदाणपूजाइयइं में सामयपइ जाहि ।।२१० पुण्णु पाउ जसु मणि ण समु तसु दुत्ता भवसिंधु । कणय-लोहणियलई जियहु कि कुहिं पय बंधु ।।२११ ण हु विग्गासिय कमलदलु ससरु स विदु सरेहु । वंछिज्जइ इय कप्पयरु कामिउ को संदेहु ॥६१२ हियकलिणि ससहरधवल सुद्धफलिहसंकास। भविया 'पडिम जिणेसरहुं तोडइ चउगइपास।।२१३ जासु हियइ असि आ उ सा पाउ ण ढुक्कइ ताहं । अह दावाणलु कि करइ पाणियगहिरठियाहं ।। जिय मंतई सत्तक्ख रइ'दुरियई दूर हु जति । अह सोहहं गुंजारियई हरिणउलई कहिं ठंति २१५ विणिसयइं असि आ उ सा जं वासरि फल विति । इक्कसएण वि तं णि फल सत्तक्ख रइं ण भंति ॥२१६ गरुड'सहावई परिणवइ रे जिय जाब हि मंति । ताव हि णरु विसघेरियउ उटावइ ण हु भंति ।। जिण गण देइ अचेयणु वि वंदिउ णिदिउ दोस्। इउ णियभावहं तणउ फलु जिणह ण रोसु ण तोसु ॥२१८ मणुयत्तणु दुल्लहु लहिवि भोयहं पेरिउ जेण। इंधणकज्जे कप्पयद्द मूलहो खंडिउ तेण ॥२१९ दुल्लहु लहिवि णरत्तयण विसयह तोसिउ जेण । पट्टोल्लइ"तग्गय थियहं सुरयणु फोडिउ तेण २२० इस लिए हे जीव, अभिषेक, दान, पूजादिसे कर्मोका क्षय,निर्मल बोधि और समाधि की माँग कर जिससे शाश्वत पदपर जा सको।।२१०॥जिसके मन में पुण्य और पाप समान नहीं है, उसे भवसिंध पार करना कठिण हैं । सोने और लोहे की बेङी क्या जीवके पाद-बन्धनको नहीं करती है ।।२११॥ कमलकी कणिकाकी परिधिमें अकारादि सोलह स्वरोंका, कणिकाके मध्य में रेफ और बिन्दुसहित इकारका, अर्थात 'हे' पदका और कमलके आठों पत्रोंपर कवर्गादि आठ बगकि अक्षरोंका विकास न करके, अर्थात ध्यान न करके जो इस लोकके मनोरथ पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्षको इच्छा करता हे, वह कामी है, इसमें क्या सन्देह है ॥२१२॥ हृदयकलममें ध्यान की गई चन्द्रके समान धवल और स्फटिकके समान शुद्ध जिनेश्बरकी प्रतिमा चतुर्गतिके पाशको तोड़ती है ॥२१३॥ जिसके हृदय में 'अ सि आ उ सा विद्यमान है, अर्थात् जो निस्तर इस पंचाक्षरी मन्त्र का जप करता है, उसके पास पाप नहीं ढूंकते हैं । जैसे गहरे पानी में बैठे हुए जीवोंका दावानल क्या कर सकता है ॥२१४॥ हे जीब, ‘णमो अरहताणं' इस सात अक्षरोंके मन्त्रसे सर्व पाप दूर भागते है । अथवा सिंहकी गुज्जारमे हरिण-कुल कहीं ठहर सकता हैं ।।२१५॥ 'अ सि आ उ सा'इस पंचाक्षरी मंत्रका प्रतिदिन दो सौ जप जो फल देता हैं, वही फल णमो अरहताणं'इस सप्ताक्षरी मंत्रको एक सौ जप देता है, इसमें भ्रान्ति नही है ।।२१६।। हे जीव, जब मन्त्र-वेत्ता गरुडस्वभावसे परिणत होता हे, तब वह उसीसमय विषसे मूच्छित मनुष्यको उठा देता हैं,इसमे भ्रान्ति नही हे ।।२१७॥वंदना की गई अचेचन भी जिन-प्रतिमा गुणको और निन्दा की गई दोषको देती है यह अपने भावोंका ही फल हैं । जिनभगवान्के तो न रोष हैं और न तोष ।।२१८॥ दुर्लभ मनुष्यपना पाकर जिसने उसे भोगोंमे लगाया, उसने इंधनके लिए कल्पवृक्षको जड़-मूलसे काट डाला ॥२१९।।दुर्लभ नर जन्म पाकर जिसने विषयोंमें सन्तोष माना, उसने तागा (धागा) के लिए पट (वस्त्र) को फाङा १ म भाइय । २ ब टि. णमो अरहताणं । ३ म गरुडहं भा वइं । ४ म- घारियउ | ५ म झ पट्टोलय । ६ ब टि. हीरदवरकनिमित्तं सूरत्न स पूमान स्फेटति । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ५०३ दुल्लहु लहि मणुयत्तणउ भोयहं पेरिउ जेण । लोहकज्जि दुत्तरतरणि णाव बियारिय तेण ॥२२१ दुण्णि सयइं विसत्तरई पढियइं सिवगइ दिति । धम्मधेणु संदोहयहं वर उ दिति ण भंति ॥२२२ णयमुरसेहरमणिकिरणपाणिय पयपोमाइं। 'संघहं जाहं समुल्लसहि ते जिण दितु सुहाई ॥२२३ दसणु णाण चरित्तु तउ रिसि गुरु जिणवर देउ । बोहिसमाहिए सहु मरणु भवि हज्जउ एउ ।। २२४ इय सावयधम्मदोहा समत्ता। और रजके लिए चिन्तामणि रत्नको फोडा, ऐसा समझना चाहिए ।।२२२॥ दुर्लभ मनुष्य जन्मको पाकर जो भोगोंमें प्रेरित रहा, उसने लोहाके लिए दुस्तर तरणि अर्थात् उत्तम नावको तोड डाला ॥२२१।। यं उपर्युक्त दो सौ बीस दोहे पढनेपर शिवगति देते हैं । धर्मरूपी कामधेनु उत्तम प्रकारसे दुहनेवाले लोगोंको वर श्रेष्ठ पय (दुध पक्षान्तरमें पद) देती है, इसमें भ्रान्ति नहीं है ॥२२॥ नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटोंकी मणियोंकी किरणोंसे जिनके चरणकमल प्रकाशमान हैं और जो चतुर्विध संघको उल्लासके करनेवाले है, ऐसे वे जिनदेव सुखको देवें ॥२२३।। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, ऋषि-गुरु, जिनवर-देव और बोधि-समाधि-सहित मरण, ये मुझे भव-भवमें प्राप्त होवें ।२२४।। इति श्रीश्रावकधर्म दोहा समाप्त । १ ब टि. संघस्य उल्लासं कुर्वन्ति । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट कुछ प्रतियोंमें कुछ दोहे अधिक पाये जाते है जो कि प्रक्षिप्त प्रतीत होते है,क्योंकि गन्थकर्ताने अपने दोहोंकी संख्या - जिनमें कि श्रावक धर्मका वर्णन किया गया है, २२० ही कही है। पर विषयकी समानताके कारण उन अधिक पाये जानेवाले दोहोंको यहाँपर दिया जा रहा है दोहाङ्क २२ और २३ के मध्य 'भ' प्रतिमेंमज्जहु तिजहु भन्वयण जेण मई विवरीय । हीणकुलेसु य जोय कहिं तस थावर उवति ।।१ परिहर मांस हु अरि जिय पंचेहि णासो पसेहि । तस्सु वि थावर धाइही सम्मोच्छिय बहु होइ ॥२ अर्थ- हे भव्यजनो, मद्यको तजो, इसके पीनसे बुद्धि विपरीत हो जाती है। यह हीन कूलोंके योग्य कही है। उसमें त्रस और स्थावर जीव उत्पन्न होते है ।। १।। अरे जीव, मांसका परिहार कर, वह पंचेन्द्रिय जीवोंके नाशसे प्रसूत होता है और फिर भी उसमें बहुत अस और स्थाबर सम्मृर्छन जीव उत्पन्न होते रहते है ॥२॥ दोहाङ्क २८ और २९ के मध्य 'क' प्रतिमेंचउ ए इंदिय विणि छह अट्ठह तिणि हवंति । दह चरिदिय जोवडा बारह पंच हवति ॥३ दोहाङ्क ७६ और ७७ के मध्य 'भ' प्रतिमेंभरहे पंचमकालहि ण स्सेणी महन्वयघारी। अत्थि अणुव्वयधारी कोट्टिहि लक्खेसु कोई ॥४ । अर्थ-भरतक्षेत्रमें इस पञ्चमकालमें श्रेणीपर चढनेवाले उपशमक या क्षपक महाव्रतधारी नहीं होते है। केवल महाव्रतधारी करोडोंमें कोई और अणव्रतधारी लाखोंमें कोई विरला होता है॥४॥ दोहाङ्क १८१ और १८२ के मध्य 'क' प्रतिमेंजिण्ण व्हावद उत्तमरसहि सक्कर-अम्ममवेहि । सो नर जम्मोवहि तरहि इत्थु म भंति करेहि ॥५ जो घियकचनवण्णडइ जिणु ण्हावइ धरि भाउ । सो दुग्गइ गइ अवहरइ जम्मि ण ढक्कइ पाउ ॥६ दुद्धे जिणवरु जो ण्हवइ मुत्ताहलधवलेण। सो संसारि ण संभवइ दुवई पावमलेण ॥७ दुद्धशडाझढि उत्तरइ दडवड दहिउ षडंति (°तु भविबहं मुच्चइ कलिमलहं जिणदिट्ठउ विसहंतु ।।८ सम्वोसहि जिण हाहियइं कलिमलरोय गलति । मणवंछियसय संभवहि मणिगण एम भणति ।।९ अर्थ-जो जिनभगवान्को शक्कर और आमके उत्तम रसोंसे नहलाता है, वह मनुष्य संसारसागरके पार उतरता है, इसमें भ्रान्ति मत करों॥५॥ जो कंचनवर्णघृतसे जिनभगवान्को उत्तमभावोंसे नहलाता है, वह खोटी गतिको दूर करता है और जन्मभर उसे पाप ढूंकता नहीं है ।।६।। जो मुक्ताफलके समान दूधसे जिनवरको नहलाता है, वह फिर संसारमें उत्पन्न नहीं होता और पापमलसे मुक्त हो जाता है ।।७|| दूधकी धाराके पश्चात् जिनभगवान्पर धडाधड पडता हुआ दही भव्यजनोंको कलिमलसे मुक्त कर देता है ।।८।। सवौंषधिके द्वारा जिनभगवान्को नहलानेसे Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५०५ भव्योंके कलि-मलरोग गल जाते हैं और मनोवांछित सैकडों पदार्थ प्राप्त होते है, ऐसा मुनिजन कहते है ।।९।। दोहाङ्क २०६ और २०७ के मध्य 'अ' प्रतिमेंपारंभइ ण्हवणाइयई जे सावय जि भणंति । दसण तेहं विणासियउ एत्थु ण कावउ भंति ।। १० ___ अर्थ- जो जिनभगवान्के अभिषेक करने में सावद्यदोषको कहते हैं, उनका सम्यग्दर्शन विनष्ट हो जाता है, इसमें कुछ भी भ्रान्ति नहीं है ।।१०।। . दोहाङ्क २२३ और २२४ के मध्य मेंजो जिण साणि भासियउ सो मई कहियउ सारु। जो पालेसइ भाउ करि सोतरि पावइ पारु ।।११ एह धम्म जो आचरइचउवण्णहं मह कोइ । सो णरु णारी भव्ययण सुरयइ पावइ सोइ ॥१२ काइ बहुलइं इंखियई तालू सूखइ जेण । यहु परमक्खरू चेर लइ कम्मक्खउ हुइ तेण ॥१३ भव्वय लग्गा सुवयण सुग्गइ गज्छइ जेण । जह दिट्ठिवउ भवगयह कणिउ ण किम्वउ तेण।।१४ अर्थ- जो जिनशासनमें कहा हैं, वही श्रावकधर्मका सार मंने कहा है। जो भावोंसे इसे पालेगा, वह संसार-सागरको तैरकर पार हो जायगा ।।११।। डस श्रावक धर्मको चारों वर्णो मेंसे जो कोई भी भव्य नर-नारी जन आचरण करेंगे,वे देवगतिको पावेंग ।।१२।। बहुत कहनेसे क्या, जिससे कि ताल सूखे । यही परम अक्षरको चिरकाल तक धारण करो, जिसने कि कर्मक्षय होवे ।।१३।। जिससे भव्यजीव सुगतिको प्राप्त होते है, वे ही सुवचन है । जिनसे भवगतिको देखना पडे ऐसे वचन नहीं कहना चाहिए ।।१४।। दोहाङ्क २२४ के पश्चात् 'क' प्रति मेंइय दोहावद्ध वयधम्म देवसेणे उदिठ्ठ । लहु अक्खर मत्ताहीणमो पय सयण खमंतु ॥१५ ___ अर्थ-इस प्रकार देवसेनने इस दोहाबद्ध श्रावकव्रतधर्मका उपदेश दिया। इसमें लघु अक्षर मात्रसे हीन जो पद हों, उन्हें सज्जन क्षमा करें ।।१५।। झ प्रतिमें दोहाङ्क ९४ नहीं हैं। वस्तुतः वह मूलका नहीं होना चाहिए, तभी ग्रन्थकारका २२० दोहोंके द्वारा श्रावकघर्मके प्रतिपादनका कथन ठीक बैठता है । मुद्रित प्रति के अनुरोधसे उसे यहाँपर दिया गया हैं। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________