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________________ २८ श्रावकाचार-संग्रह जों णवकोडिविसुद्धं मिक्खायरणेण भुंजदे भोज्जं । जायणरहियं जोग्गं उद्दिट्टाहार विरदो सो॥९० जो सावयवयसुद्धों अंते आराहणं परं कुणदि । सो अच्चुम्हि सग्गे इंदो सुद-से विदो होदि ।।९१ अशुभ कार्योका चिन्तवन करता हैं, वह कार्यसे बिना ही पापका संचय करता है ।।८९।।अब उद्दिष्टत्यागप्रतिमाका वर्णन करते हैं-जो श्रावक (गृह-वास छोडकर) भिक्षावृत्तिसे याचना-रहित, नवकोटिसे विशुद्ध योग्य आहारको खाता है, वह उद्दिष्टाहार-विरत प्रतिमाका धारक हैं ।। ९० ।। अब आचार्य श्रावकधर्मके वर्णनका उपसंहार करते हुए अन्तिम सल्लेखना और उसके फलका वर्णन करते है-इस प्रकार जो पुरुष श्रावकके उपर्युक्त व्रतोंका अतीचार-रहित शुद्ध पालन करता हुआ जीवनके अन्तमै परम आराधना अर्थात् सल्लेखनाको धारण कर मरण करता है, वह अच्युत स्वर्गमें देवोंसे सेवित इन्द्र होता हैं ।।१३।। इस प्रकार स्वामिकात्तिकेयातुप्रेक्षा गत श्रावकधर्मका वर्णन समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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