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________________ स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा- गतश्रावकधर्म-वर्णन जो वज्जेदि सचित्तं दुज्जय जीहां णिणिज्जिया तेण । दयभावो होंदि कओ जिणवयणं पालियं तेण । ८० जो चउवह पि भोज्जं रयणीए णेव भुंजदे णाणो । णय भुंजावद अण्णं णिसिविरओ सों हवे मोज्जो ||८१ जो णिसित वज्जदि सो उदवासं करेदि छम्माप्तं । संवच्छरस्स मज्झे आरंभचयदि रयणीए ॥८२ Rode इत्थी जो अहिलाएं ण कुठबदे णाणी । मण वाया कारण य बंभवई सो हवे सदओ ॥ ८३ जो कय-कार-सोय-मण-वय-काएण मेहुणं चयदि बंभपवज्जारूढो बंभवई सो हमें सदओ ||८४ जो आरंभ ण कुणदि अण्णं कारयवि णेव अणुमण्णे । हिंसासंतट्टमणो चत्तारंभो हवे सो हु ॥१८५ जो परिवज्जइ गंथ अभ्यंतर बाहिरं च साणंदो । पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥८६ बाहिरथ विहीणा दलिद्दमणवा सहावदो होंति । अब्भंतरगंधं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं ॥ ८७ जो अणुमणण ण कुणदि गिहत्थकज्जेसु पावमूलेतु । भवियत्वं भवंतो अणुमणविरओ हवे मोदु ॥ ८८ जो पुर्ण चिदिकज्ज सुहासुहं राय- - दोससंजुत्तो उवओगेण विहीणं स कुणदि पावं विणा कज्जं ॥ ८९ t सचित्तविरत प्रतिमाधारो श्रावक है। जो पुरुष जिस सचित्त वस्तुका स्वयं नही खाता है, उसे दूसरे को खानेके लिए देना योग्य नहीं है। क्योंकि खाने और खिलाने में कोई अन्तर नहीं है ।। ७८-७९ ।। जिस पुरुषने सचित्त वस्तुके खानेका त्याग कर दिया है, उसने अपनी दुर्जय जिव्हाको जीत लिया है। उसने दयाभाव भी प्रकट किया और जिनेन्द्रदेवके वचनोंका भी पालन किया है ||20|| अब रात्रिभोजन त्यागप्रतिमाका वर्णन करते हैं- जो ज्ञानी पुरुष खाद्य (दाल-भात आदि) स्वाद्य मिठाई आदि) ले ( अवलेह चटनी आदि) और पेय ( पानी दूध आदि) इन चारों ही प्रकारके भोजनको रात्रिमें न स्वयं खाता है और न दूसरोंको खिलाता है, वह रात्रिभोजनविरतप्रतिमाधारी श्रावक हैं ||८१|| जो पुरुष रात्रि - भोजनका त्याग करता है, वह एक वर्षमें छह मास उपवास करता है। क्योंकि वह रात्रि आरम्भका त्याग करता है ।।८२|| अब प्रह्मचर्यप्रतिमाका वर्णन करते है-जो जाती श्रावक मन, वचन और कायसे सभी प्रकारकी स्त्रियोंकी अभिलाषा नहीं करता, वह दयालु ब्रह्मचर्यव्रतका धारक हैं ॥ ८३ ॥ जो कृत कारित अनुमोदना, मन-वचन और कायसे मैथुन - सेवन छोड़ता है, वह ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यप्रतिमारूढ दयालु श्रावक है ॥ ८४ ॥ भावार्थ उक्त दोनों ही गाथाओं में 'सदय' पद प्रयुक्त हुआ हैं, जिसका अभिप्राय यह है कि स्त्रीका सेवन करनेवाला पुरुष स्त्रीकी योनि उत्पन्न होनेवाले असंख्य सूक्ष्म त्रस-जन्तुओंका घात करता हैं और स्त्री - सेवनका त्यागी उनकी रक्षा करता है, अतः वह दयालु है । अब आरम्भत्याग प्रतिमाका वर्णन करते हैंहिंसासे दुखित मनवाला जो श्रावक कृषि, व्यापारादि आरम्भ कार्यको न स्वयं करता है, न औरसे कराता है और न आरम्भ करनेवालोंको अनुमोदना ही करता हैं, वह आरम्भ त्याग प्रतिमाधारी श्रावक है ।। ८५ ।। अब परिग्रहत्यागप्रतिमाका वर्णन करते है - जो ज्ञानी पुरुष बाहिरी और भीतरी परिग्रहको पाप मानता हुआ प्रसन्नता पूर्वक उसे छोड़ता हैं, वह निर्ग्रन्थ परिग्रह त्यागी है ॥ ८६ ॥ क्योंकि दरिद्र मनुष्य तो स्वभावसे ही बाहिरी परिग्रहसे रहित होते है । किन्तु भीतरी परिग्रहको छोड़ने के लिए कोई भी समर्थ नहीं होता है || ८७|| अब अनुमतित्यागप्रतिमाका वर्णन करते हैं - जो पुरुष पापमूलक गृहस्थीके कार्योकी अनुमोदना नहीं करता हैं, किन्तु पुत्र-पौत्रादिका भविष्य उनके भवितव्य के अधीन हैं, ऐसी भावना करता हुआ गृहकार्योंसे उदासीन रहता है, वह अनुमति विरत प्रतिमाधारी है ||८| जो पुरुष राग-द्वेष के संयुक्त होकर अपने उपयोग या प्रयोजनसे रहित शुभ Jain Education International २७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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