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________________ श्रावकाचार-संग्रह बारस- वह जुत्तो सल्लिहणं जो कुणेदि उवसंतो सो सुरसोक्खं पाविय कमेण सोबखं परं लहदि ॥ ६८ एकं पि वयं विमलं सद्दिट्ठी जइ कुणेदि दिढचित्तो । दो विविहरिद्धिजुत्तं इंदत्तं पावए नियमा ॥ ६९ जो कुणदि काउस्सगं बारस आवत्त-संजुदो धीरो । नमणदुगं वि कुणतो चदुप्पाणामो पसण्णप्पा ॥७० चिततो ससरूवं जिर्णाबबं अह व अक्खरं परमं । झायदि कम्मविवायं तस्स वयं होदि सामइयं ॥७१ सत्तम-तेरसि-दिवसे अवरण्हे जाइऊण जिणभवणे । २६ fever किरियाकम्मं उववासं चउविहं गहियं ॥ ७२ गिवावारं चत्ता रति गमिऊण धर्मांचिताए । पच्चूसे उट्ठित्ता किरियाकम्मं च काढूण || ७३ सत्यवभासेण पुणो दिवसं गमिऊण वंदणं किच्चा । रति णेवण तहा पच्चूसे वंदणं किच्चा ॥ ७४ पुज्जण विहि च किच्चा पत्तं गहिऊण णवरि तिविहंपि । भुंजाविउण पत्तं भुंजतो पोसहो होवि ।।७५ एक्कं पि णिरारंभी उववासं जो करेदि उवसंतो। बहुभवसंचियसंकम्मं सो णाणी खवदि लीलाए । ७६ उववासं कुव्वतो आरंभ जो करेदि मोहादो । सो नियदेहं सोसदि ण झाडए कम्मलेसं पि ॥७७ सच्चित्तं पत्त - फलं छल्ली मूलं च किसलयं बीयं । जो ण य भक्खदि णाणी सचित्तविरदो हवे सों दु ॥७८ जो ण य भक्वेदि सयं तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउं । भुत्तस्स भोजिदस्स हि णत्थि विसेसो जदो को वि ।।७९ जो श्रावक बारह व्रतोंको पालता हुआ जीवनके अन्त में कषायोंको उपशान्त करता हुआ सल्लेखना करता है, वह स्वर्गके सुखको पाकरके क्रमसे मोक्षके परम सुखको प्राप्त करता है ॥६८॥ जो सम्यग्दृष्टि पुरुष दृढचित्त होकर यदि एक भी व्रतको निरतिचार निर्मल पालन करता हैं, तो वह भी नियमसे अनेक प्रकारकी ऋद्धियोंसे युक्त इन्द्रपदको पाता है ।। ३९ ।। अब सामायिक प्रतिमाका वर्णत करते हैं - जो धीर वीर श्रावक बारह आवर्त - सहित चार प्रणाम और दो नमस्कारोंको करता हुआ प्रसन्नचित्त होकर कायोत्सर्ग करता है, और उस समय अपने स्वरूपका, जिन- प्रतिबिम्बका, अथवा परमेष्ठिके वाचक अक्षरोंका, अथवा कर्मोंके विपाक ( फल ) का चिन्तवन करता हुआ ध्यान करता है, उसके सामायिक प्रतिमारूप व्रत होता है ।।७०-७१ ।। अब प्रोषधप्रतिमाका वर्णन करते हैं - सप्तमी और त्रयोदशी के दिन अपरान्हके समय जिन मन्दिरमें जाकर आवश्यक क्रिया कर्म करके चार प्रकारका आहार त्यागकर उपवासको ग्रहण करे और घरके सब व्यापार-कार्यो को छोडकर धर्मध्यानपूर्वक रात बितावे । पुनः प्रातः काल उठकर और क्रिया कर्म को करके शास्त्राभ्यास के साथ दिन बिताकर सामायिक - वन्दनादि करो पुनः धर्मध्यानपूर्वक रात बिताकर उषाकालमें सामायिकवन्दनादि करके और पूजन - विधान भी करके और यथावसर प्राप्त तीनों प्रकारके पात्रोंका पाह करके उन्हें भोजन कराकर पीछे स्वयं भोजन करनेवाले श्रावक के प्रौषधप्रतिमारूप व्रत होता है ।।७२-७६ ।। जो ज्ञानी उपशम भावको धारण करता हुआ आरम्भ रहित एक भी उपवासको करता है, वह बहुत भवोंके संचित कर्मको लीलामात्रसे क्षय कर देता है || ७६ ॥ | किन्तु जो उपवास करते हुए मोहवश आरम्भिक कार्य करता है, वह केवल अपनी देहको सुखाता हैं, पर लेशमात्र भी कर्म की वह निर्जरा नहीं करता ॥७७॥ | अब सचित्त त्याग प्रतिमाका वर्णन करते है - जो ज्ञानी पुरुष सचित्त पत्र सचित्त फल, सचित्त छाल, सचित्त मूल, सचित्त कोंपल और सचित्त बीजको नही खाता है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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