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________________ महापुराणान्तर्गत-अष्टत्रिंशत्तमं पर्व जयन्त्यखिलवाङ्मार्गगामिन्य सूक्तयोऽहंताम्, धतान्धतमसा दीप्रा यस्त्विषोंऽशमतामिव ॥१ सजीयावृषभो मोहविषसुप्तमिदं जवात् । पविद्येव यद्विद्या सद्यः समदतिष्ठपत २ . तं नवा-परम ज्योतिर्वषम वीरमन्वतः । द्विजन्मनामथोत्पत्ति वक्ष्ये अणिक भोः शृणु । ३ भरतो भारत वष निजित्य सह पाथिवैः । षष्टया वषसहस्रेस्तु दिशां निववृते जयात् । ४ कृतकृत्यस्य तस्यान्तश्चिन्तेयमुदपद्यत । परार्थे सम्पदास्माको सोपय गा कथ भवेत् ॥५ महामहमहं कृत्वा जिनेन्द्रस्य महोदयम् । प्राणयामि जगद्विश्वं विष्वक् विप्राणयन धनम् । ६ नानगारा वसून्यस्मत् प्रतिगृहन्ति नि स्पृहा । सागार: कतमः पूज्यो धनधान्यसमृद्धिभि: ॥७ येणवतधरा धीरा धौरेया गृहमेधिनाम् । तपणीयाहि तेऽस्माभिरीप्सितर्वसुबाहनः ।।८ इति निश्चित्य राजेन्द्रः सत्कर्तुमुचिता निमान् । परीचिक्षिषुराव्हास्त तदा सर्वान् महीभुजः ॥९ सदाचार निजरिष्टः अनुजीविभिरन्विताः । अद्यास्मदुत्सवे यूयं आयातेति पृथक पृथक ।।१० हरितैरगडकुरैः पुष्पैः फलैश्चाकीर्णमङ्गणम् । सम्म्राडचीकरतेषां परीक्षायै स्ववेश्मनि ।।११ समस्त भाषाओंमें परिणत होनेवाली, अज्ञानरूप गाढ अन्धकारका नाश करनेवाली और सूर्यकी किरणोंके समान उज्ज्वल प्रकाशवाली अहंन्त भगवन्तों की सूक्तियाँ सदा जयवन्त रहे। ११. मोह रूपी विषसे सुप्त (व्यास) इस समस्त जगत्को गारुडी विद्याके समान जिनकी विद्याने अतिशीघ्र जगाकर सावधान और स्वस्थ कर दिया, वे वृषभ भगवान् सर्वदा जयशील रहें ।२।। गौतम स्वामी राजा श्रेणिकको सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हे श्रेणिक, मैं उन परम ज्योति वाले ऋषभ देवको तथा वीरनाथको नमस्कार कर अब द्विजन्मो ब्राह्मणों की उत्पत्तिको कहूंगा, सो तू सावधान होकर सुन ।।३।। ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र आदि चक्रवर्ती भरत महाराज राजाओंके साथ ही इस भारतवर्षको जीतकर साठ हजार वर्षमें दिग्विजय करके वापिस अयोध्याको लौटे ॥४॥ जब वे करनेके योग्य सभी राज-कार्योको कर चुके. तब उनके हृदयमें यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि दूसरोंके उपकारमें हमारी इस सम्पदाका सदुपयोग कैसे होवे। ५॥ उनके चित्तमें विचार आया कि मैं जिनेंद्र देवकी महान् उदयवाली · महामह' नामक पूजा को करके और सर्व जगत्को अपना यह धन देता हुआ उसे प्रसन्न करूँ । ६।। परिग्रहकी इच्छा रहित निर्ग्रन्थ मुनिजन तो हम गृहस्थो से धन लेते नहीं हैं। फिर कौन सा सागार (गृहस्थ) धन धान्यरूप समृद्धिके द्वारा पूज्य हैं । ७।। तब भरतके मनमे उचित विचार उदित हुआ कि जो मनुष्य अगुव्रतोंके धारक हैं, धीर वीर हैं, और गृहस्थोंमें अग्रणी या प्रमुख हैं, ऐसे पुरुष ही हमारे द्वारा अभीष्ट धन और वाहनों (गज-अपूवादि) के द्वारा दान देकर सन्तुष्ट करनेके योग्य हैं ।।८।। इस प्रकार निश्चयकर परिक्षा करनेके इच्छुक भरतराज ने सत्कार करनेके योग्य उन गृहस्थोंको तथा सभी राजाओं को उस समय बुलवाया ॥९॥ और तबकी यह बन्देश भेजा कि आपलोक अपने सदाचारी इष्ट बन्धुओं और परिजनोंके साथ आज हमारे उत्सव में पथक्-पृथक् आवें ।।१०।। इधर सम्राट भरतने उन लोगोंकी परीक्षाके लिए अपने राजभवनमें आंगनको हरे दूर्वा-अंकुरोंसे, पुष्पों और फलोंसे व्याप्त करा दिया ॥११॥उन आमंत्रित व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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