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श्रावकाचार - संग्रह
तेष्वव्रता विना सङ्गात् प्राविक्षन् नृपमन्दिरम् । तानेकतः समुत्सायं शेषानाहययत् प्रभुः ॥ १२ से तू स्वव्रत सिद्धयर्थमीहमाना महान्वयाः । नैषुः प्रवेशनं तावद्द् यावदार्द्राङ्कुराः पथि ॥ १३ सघान्यैईरितः कीर्णमनाक्रम्य नृपाङ्गणम् । निश्चक्रमुः कृपालुत्वात् केचित् सावद्यमीरवः ॥४१ कृतानुबन्धना भूयश्चक्रिणः किल तेऽन्तिकम् । प्रासुकेन पथाऽन्येन भेजुः क्रान्त्वा नृपाङ्गणम् ||१५ प्राक् केन हेतुना यूयं नायाता पुनरागताः । केन ब्रूतेति पृष्टास्ते प्रत्यभाषन्त चक्रिणम् ।।१६ प्रवालपत्रपुष्पादेः पर्वणि व्यपरोपणम् । न कल्पतेऽद्य तज्जानां जन्तूनां नोऽनभिहाम् ॥। १७ सन्त्येवानन्तशों जीवा हरितेष्वङ्कुराविषु । निगोता इति सार्वज्ञं देवास्माभिः श्रुतं वचः ॥१८ तस्मान्नास्माभिराक्रान्तमद्यत्वे त्वद्- गृहाङ्गणम् । कृतोपहारमार्द्राद्रिः फलपुष्पाकु रादिभिः ।।१९ इति तद्वचनात् सर्वान् सोऽभिनन्द्य दृढव्रतान् । पूजयामास लक्ष्मीवान् दानमानादिसत्कृतैः ॥ २० तेषां कृतानि चिन्हानि सूत्र: पद्माण्हयान्निधेः । उपात्तै ब्रह्मसूत्रान्हेरेकाद्येकादशान्तकैः ॥ २१ गुणभूमिकृताद् भेदात् क्लृप्तयज्ञोपवीतिनाम् । सत्कारः क्रियते स्मैषामभ्रताश्च बहिः कृताः ॥ २२ अथ ते कृतसन्मानाः चक्रिणा व्रतधारिणः भजन्तिस्म परं दार्क्ष्य लोकश्चैनान पूजयत् ||२३ इज्यां वार्ता च दति च स्वाव्यायं संयमं तपः श्रुतोषासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥ २४
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योंमें जो अव्रती थे, वें लोग किसी प्रकारका विचार किये विना राज - मन्दिर प्रविष्ट हो गये । तब भरत नरेशने उन्हें एक और हटा कर बाहिर खडे हुए शेष लोगों को बुलवाया ॥ १२ ॥ किन्तु उत्तम वंशवाले और अपने अहिंसाव्रतकी सिद्धि या सुरक्षा के इच्छुक उच्चकुलीन लोगोंने जब तक आनेके मार्ग में जलसे गीले और हरे अंकुर विद्यमान है, तब तक राज- मन्दिर में प्रवेश करनेकी इच्छा नहीं की ।। १३ ।। और दयालु होनेसे कितने ही पाप - भीरू लोग हरे धान्योंसे व्याप्त राजभवन के आँगन का उल्लंबन किये बिना ही वापिस लोट गये ।। १४ । पुनः भरतराजके द्वारा बहुत अनुनन- विनय किये जाने पर वापिस लौटे हुए वे लोक दूसरे प्रासुक ( जीव-रहित अचित्त) मार्गसे राजागडणका उल्लंघन कर चक्रवर्ती भरतके समीप पहुंचे ॥ १५ ॥ तब चक्रवर्तीने उन लोगोंसे पूछा कि आप लोग पहले किस कारण से नहीं आये थे और पुनः किस कारणसे आये ? तब उन लोगोंने चक्रवर्तीसे कहा ||१६|| आज पर्व के दिन हम लोग प्रबाल, पत्र, पुष्पादिक की, तथा उनमें उत्पन्न हुए और हमारा कुछ भी विघात नहीं करनेवाले जन्तुओंकी हिंसा नहीं करते है ॥ १७ ॥ हे देव, 'हरित' अंकुरादिकम अनन्त निगोदिया जीव होते हैं ऐसा सर्वज्ञोक्त वचन हम लोगोंने सुना हैं ||१८|| इसलिए अत्यन्त गोले फल, फूल और अंकुरादिसे शोभायमान किये गये आपके गृहाङ्गणको आज पर्व के दिन हम लोगोंने उल्लंघन नहीं किया हैं ।। १९।। इस प्रकार उनके वचनोसे प्रसन्न हुए उस श्रीमान् भरतराजने दान, मानादि सत्कारोंसे अभिनन्दन कर उन दृढव्रती लोगोकी पूजा की ||२०|| तथा पद्म नामक निधिसे व्रत-चिन्ह स्वरूप ब्रह्म सूत्र नामक सुत्रसे प्रथम प्रतिमाका आदि लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक श्राव एकको आदि लेकर ग्यारह तककी संख्या में व्रत - परिचायक चिन्ह किये । अर्थात् जो श्रावक जितनी प्रतिमाओंका धारक था, उसे उतने ही ब्रह्मसूत्र पहनाये || २१ || इस प्रकार श्रावक व्रतरूप गुणोंकी प्रतिमारूप भूमिके आधारके भेदसे उन व्रती श्रावकोंकों यज्ञोपवीत पहनाकर चत्रवर्ती ने उनका सत्कार किया और जो अव्रतीं लोग थे, उन्हें बाहिर निकाल दिया । २२ ।। अथानन्तर चक्रवर्तीके द्वारा सन्मानको प्राप्त हुए वे व्रत-धारी लोग अपने अपने व्रतोंका और भी दृढता से पालन करने लगे और अन्य लोग उनका आदर-सत्कार करने लगे ||२३|| भरतराजने उपास
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