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________________ महापुराणान्तर्गत श्रावकधर्म-वर्णन कुलधर्मोऽयमित्येषामहत्पूजादिवर्णनम् । तदा भरतराजर्षिरन्ववोचदनुक्रमात् ॥२५ प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टान्हिकोपि च ॥२६ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानाऽर्चा गन्धपुण्पाक्षताविका ।। २७ चैत्यचैत्यालयादोनां भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम् ।।२८ याच पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी । स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः ।।२९ महामकुटबद्धश्च विमाणी महामहः । चतुर्मुखः स बिज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ।।३०। दत्वा किमिच्छकं दानं सम्राभिर्यः प्रवर्त्यते । कल्पद्रुममहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः । ३१ आष्टान्हिका मह सार्वजनिका रूढ एव सः । महानन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः ॥३२ बलिस्नपमित्यन्यस्त्रिसन्ध्यासेवया समम । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादशम् ॥३३. एवंविधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्दामुशन्तीज्यां यत्ति प्राथमकल्पिकीम् ॥३४ वार्ता विशुद्धवृत्या स्यात् कृष्यादीनामनुष्ठितिः । चतुर्धा वणितादत्तिः दया-पात्र समान्वथे।।३५ काध्ययन नामक सातवें अंगसे उन व्रती लोगोंके लिए इज्या (पूज्या) वार्ता, दत्ति (दान) स्वाध्याय, संयम और तपका उपदेश दिया ।।२४।। पूजा आदि षट्कर्मोका पालन करना इन गृहस्थोंका कुलधर्म है, ऐसा विचार कर भरतराजषिने उस समय उन व्रती गृहस्थोंके लिए अनुक्रमसे अर्हत्पूजा आदि षट्कर्त्तव्योका उपदेश दिया ।।२५।। भरतने बताया कि उपासकाध्ययन सूत्रमें अर्हन्तदेवकी पूजा चार प्रकारकी कही गई है- नित्यमह (सदार्पण), चतुर्मुख मह, कल्पद्रुम और आष्टन्हिक पूजा । २६।। उनमेंसे प्रतिदिन अपने गृहसे जिनालयमें ले जाये गये गन्ध पुष्प, अक्षत आदिके द्वारा जिन भगवानकी पूजा करना नियमह कहलाता हैं ॥२७॥ अथवा भक्तिसे जिन बिम्ब और जिनालय आदिका निर्माण कराना, तथा उनके संरक्षणके निए ग्राम आदिका राज्यशासनके अनुसार पंजीकरण करा करके दान देना भी नित्यमह कहलाता हे ॥२.८।। तथा अपनी शक्तिके अनुसार मनीश्वरोकी नित्य आहारादि दान देतेके साथ जो पूजाकी जाती हैं, वह भी नित्यमह जानना चाहिए । ३९॥ महामुकुटबद्ध राजाओके द्वाराकी जानेवाली महापूजाको महामह कहते है। उसीके चतुर्मुख और सर्वतोभद्र नाम भी जानना चाहिए ॥३० । चक्रवतियोंके द्वारा 'तुम लोग क्या चाहते हो' इस प्रकार अर्थी या याचक जनोंसे पूछ पूछ कर जगकी आशाको पूर्ण करने वाला जो किमिच्छक दान दिया जाता है वह कल्पद्रुममह या कल्पवृक्षयज्ञ कहलाता है ।। ३१ ।। अष्टान्हिका पर्व में सर्ब साधारण जनोंके द्वारा किया जानेवाला पूजन अष्टान्हिक मह कहलाता है, जो कि संसारमें प्रसिद्ध हैं। इन चार प्रकारके महों (पूजनों) के सिवाय इन्द्रोंके द्वारा की जानेवाली महान पूजनको इन्द्रध्वजमह कहते हैं। (आजके युगमें प्रतिमाको प्रतिष्ठाके निमित्त प्रतिष्ठाकारकोंके द्वारा जो पंचकल्याणक पूजन की जाती है उसे भी इन्द्रध्वज मह जानना चाहिए।)॥३२॥ इनके अतिरिक्त जो बलि (नैवेद्य) चढाना, अभिषेक करना, आरती करना आदि कार्य तीनों सन्ध्याकालों में की जाने वालि सेवा-उपासनाके साथ किये जाते हैं, तथा इसी प्रकारके अन्य जो भी पूजा-आराधनाके कार्य गहस्थों द्वारा प्रति दिन किये जाते है, उन सबको उपर्युक्त पूजनके भेदों में ही अन्तर्गत जानना चाहिए । ३३।। इस प्रकारके विधि-विधानसे जिनेन्द्रदेवकी जो महापूजाकी जाती है, उसे विधिवेत्ता आचार्य श्रावकके षट्कर्तव्योंमें सर्व प्रथमकी जानेवाली इज्या वृत्ति कहते हैं ॥३४॥ विशद्ध प्रवृत्तिके साथ कृषि आदिक आजीविकाका अनुष्ठान करना वार्ता नामक गृहस्त्रका दूसरा कर्तव्य है। श्रावकका तीसरा कर्तव्य दत्ति अर्थात् दान देता हैं । वह दयादत्ति, पात्रदत्ति सम और अन्वयदत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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