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________________ ३२ श्रावकाचार-संग्रह सानुकम्पमनग्राह्ये प्राणिबृन्देऽभयप्रदा । त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधः ॥३६ महातपोधनायार्या-प्रतिग्रहपुरःसरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिण्यते ।। ३७ समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रवतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥३८ समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृता श्रद्धयाऽन्विता ॥३९ आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थ सूनवे यदशेषतः । समं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥४० सैषा सकलदत्ति: स्यात स्वाध्याय श्रुतमावना · तपोऽनशनवृत्त्यादि संयमो व्रतधारणम ॥४१ विशुद्धा वृत्तिरेषैषां षट्तयोष्टा द्विजन्मनाम् । योऽतिक्रामेदिमां सोऽज्ञो नाम्नेव न गुण द्धिजः ।।४२ तप.श्रतञ्च जातिश्च त्रयं ब्राह्मण्यकारणम् । तपश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स ॥४३ अपापोपहता वृत्ति: स्यादेषां जातिरुत्तमा । दत्तीज्याधीतिमुख्यत्वाद् व्रतशुद्धया सुसंस्कृता ॥४३ मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्ति भेदाहिताझेदाच्चातुविध्यमिहाश्नुते ॥४५ ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनात्याय्यात शद्रा न्यग्वत्तिसंश्रयात ॥४॥ तप:श्रुताभ्यामेवातो जातिसंस्कार इष्यते । असंस्कृतस्तु यस्ताभ्यां जातिमात्रेण स द्विजः ॥४७ के भेदसे चार प्रकारकी वर्णन की गई हैं ।।३५।। अनुग्रह करनेके योग्य-दयाके पात्र दीन प्राणिसमदाय पर मन, वचन, कायको निर्मलताके साथ अनुकम्पा पूर्वक उनके भय दूर करनेको विद्वान लोकों ने दयादत्ति कहा है ।। ३६ ॥ महान् तपस्वी साधुजनोंके लिए प्रतिग्रह (पडिगाहन) आदि नवधा भक्ति पूर्वक आहार, औषध आदिका देना पात्रदत्ति कही जाती है ।।३७।। क्रिया, मंत्र और व्रत आदिसे जो अपने समान हैं, ऐसे अन्य साधर्मी बन्धुके लिए और संसार-तारक उत्तम गृहस्थके लिए भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। तथा मध्यमपात्र में समान सम्मानकी भावनाके साथ श्रद्धासे यक्त जो दान दिया जाता हैं, वह भी समानदत्ति हे । ३८-३९।। अपनें वंशको स्थिर रखने के लिए पुत्रको कुलधर्म ओर धनके साथ जो कुटुम्ब-रक्षाका भार पूर्ण रूपसे समर्पण किया जाता हैं, उसे सकलदत्ति कहते हैं। श्रुतज्ञानकी भावना करना अर्थात् शास्त्रोंका मनन-चिन्तन और पठन-पाठनादि करना स्वाध्याय कहलाताहै उपवासआदिकरनातप है और व्रत-धारण करनेकोसंयमकहते हैं। ४०-४१॥ यह ऊपर कही गयी छह प्रकारकी विशुद्ध बृत्ति द्विजन्मा-ब्रह्मसूत्रधारी गृहस्थोंको करना चाहिये । जो इनका उल्लंघन करे, वह अज्ञानी नामसे ही द्विज हैं, गुणोंसे द्विज नहीं समझना चाहिये ।।४।। तप, श्रुत और जाति ये तीन द्विज या ब्राह्मणपनेके कारण है । जो गृहस्थ तप और श्रुतसे रहित हैं. वह केवल जातिसे ब्राह्मण हैं । गुण या कर्मसे नहीं, ऐसा समझना चाहिये ॥४३॥ इन द्विजन्मा ब्राह्मणोंको वृत्ति पापसे रहित हैं। इसलिए इसकी जाति उत्तम कहलाती है। तथा दान, पूजन, अध्ययन आदि कार्योकी मुख्यतासे व्रतोंकी शुद्धि होने के कारण वह ब्राह्मण जाति और भी सुसंस्कृत हो गई हैं, अर्थात् अच्छे संस्कारवाली बन गई हैं ।४४।। यद्यपि मनुष्य जातिनामक नामकार्यके उदयसे उत्पन्न हुई यह मनुष्य जाति एक ही हैं, तथापि आजीविकाके भैदसे प्राप्त हुई विभिन्नताके कारण वह संसार में चार भेदोंको प्राप्त हो गई है। ४५।।व्रतोंके संस्कारसे ब्राह्मण, शास्त्रोके धारण करनेसे क्षत्रिय, न्याय पूर्वक अर्थके उपार्जन करनेसे वैश्य और तिम्न वृत्तिका आश्रय लेनेसे मनुष्य शद्र कहलाते हैं।।४६ । अतएव द्विजोंका जातिसंस्कार तप और श्रुतके अभ्याससे ही माना जाता है। जो द्विज इन दोनोंसे १. ल. अ. गुणौद्विजः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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