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________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार शिवमजरमरजमक्षयमव्याबाघं विशोकमयशाम । काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ।। ४० ।। देवेन्द्र चक्रमहिमानममेयमानं राजेन्द्र चक्रमवनीन्द्र शिरोऽर्चनीयम् । धर्मेन्द्र चक्रमधरीकृत्तसर्वलोकं लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्य: ।। ४१ ।। इति श्रीस्वामीसणन्तभद्राचार्य-विरचिते रत्नक रण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनं नाम प्रथममध्ययनम् ।। १॥ .. अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । नि.सप्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥४२ प्रयमानयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि-समाधिनिदानं बोधति बोधः समीचीनः ।।४३ लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ॥४४ मालाओंसे उनके चरण व्याप्त रहते है ॥३८॥ सम्यग्दर्शनके द्वारा जिन्होंने तत्त्वार्थका भलीभाँतिसे निश्चय किया हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव अमरपति (ऊर्ध्व लोकके स्वामी इन्द्र) असुरपति (अधो लोकके स्वामी धरणेन्द्र) नरकति ( मनुष्यलोकके स्वामी चक्रवर्ती ) और यमधरपतियों (संयम-धारक साधुओंके स्वामी गणधर देवों) से जिनके चरम-कमल पूजे जाते हैं, जो लोकको शरण देने के योग्य है ऐसे धर्मचक्रके धारक तीर्थकर होते हैं ।।३९।। सम्यग्दर्शनकी शरण लेने वाले जीव अजर (जरा - रहित अरुज ( रोग-रहित) अक्षय (अविनाशी) अव्याबाध (बाधारहित) शोक-भय और शंकासे रहित, चरमसीमाको प्राप्त सुख और ज्ञानके वैभव वाले ऐसे निर्मल शिव ( परम निःश्रेयसरूप मोक्ष ) को प्राप्त हीने हैं ।। ४० ॥ इस प्रकार जिनेन्द्र देवकी भक्ति करनेवाला सम्यग्दृष्टि भव्य जीव अपरिमित प्रमाणवाली देवेन्द्र-समूह की महिमा को पाकर, मुकुटबद्ध राजाओंके शिरोंसे अर्चनीय राजेन्द्र चक्र चक्रवर्तीके पदको पाकर और सर्व लोकको अपना उपासक बनाने वाले धर्मेन्द्रचक रूप तीर्थंकर पदको पाकर अन्तमें शिवपदको प्राप्त होता इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित रत्नकरण्डक नामके उपासकाध्ययनमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ। सम्यग्ज्ञानका लक्षण - जो न्यनतासे रहित, अधिकतासे रहित, सन्देहसे रहित और विपरीततासे रहित वस्तुस्वरूपको यथार्थ जानता हैं, उसे आगमके ज्ञाता पुरुष 'सम्पग्ज्ञान' कहते है ॥ ४२ ॥ यद्यपि सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि मनःपर्यय और केवलज्ञान ये पाँच भेद हैं, तथापि ग्रन्थकार तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके लिए उपयोगी समझकर श्रुतज्ञानके चार अनयोगोंका वर्णन करते हुए सबके पहले प्रथमानुयोगका स्वरूप कहते है- पुण्यरूप अर्थका व्याख्यान करने वाले चरितको, पुराण को तथा बोधि समाधि के निधानभूत कथा-वर्णनको सम्यग्ज्ञान प्रथमानयोग जानता है ।।४३॥ भावार्थ- एक पुरुषके कथानकको चरित्र कहते है । अनेक पुरुषोके कथानकोंके वर्णन करनेको पुराण कहते है। आज तक नहीं प्राप्त हए ऐसे सम्यग्दर्शनादि गणोंकी प्राप्तिकों बोधि कहते है और प्राप्त हुए रत्नत्रयकी भलिभाँतिसे रक्षा करते हुए उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि करने को समाधि कहते है। धर्मध्यान और शुक्लध्यान भी समाधि कहलाते है । इस प्रकार पुण्य-वर्धक चरित और पुराणोंको, तथा धर्म-वर्धक बोधि-समाधिके वर्णन करनेवाले शास्त्रों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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