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________________ श्रावकाचार-संग्रह गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्ति-वृद्धि-रक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥४९ जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्यै च बन्धमोक्षौ चं । द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्याऽऽलोकमातनुते । ४६ इति श्रीस्वामीसणन्तभद्राचार्य-विरचिते रत्नकरण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनं नाम द्वितीयमध्ययनम् ॥ १॥ मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान: । रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।४७ रागद्वेषनिवृत्तहिसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतोन् ॥४८ हिंसानृतचोर्येभ्यो मैथुनसेदापरिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विर तिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥४९ सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसगविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससङ्गानाम्।।५० गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षावतात्मकं चरणण् । पंच त्रिचतुर्भदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातम् । ५१ प्रागातिपात-वितथव्याहार-स्तेय काम-मूछेभ्य: । स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति।।५२ को प्रथमानुयोग कहते हैं । धर्मसे अनभित पुरुषको सर्वप्रथम उपयोगी होनेसे इसे प्रथमानुयोग कहा जाता है। दूसरे करणानुयोगका स्वरूप-जो लोक और अलोकके विभागको, कालके परिवर्तनका और चारों गतियोंके वर्णनको दर्पणके समान जानता हैं, उसे सम्यग्जान करणानयोग कहता हैं ।। ४४ ।। तीसरे चरणानुयोगका स्वरूप-गृहस्थ और मुनियोंके चारित्रको उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षाके कारणभूत शास्त्रको सम्यज्ञान च णानुयोग कहता हैं ।।४४।। जीवअजीव तत्त्वको, पुण्य-पापको और बन्ध मोक्षको प्रकाशित करनेवाला द्रव्यानुयोग रूप दीपक हैं, जो कि श्रतज्ञान के प्रकाशको विस्तत करता हैं। ४६ ।। भावार्थ-लोक यगपरिवर्तन आदिके वर्णन करनेको, करणानुयोग, मुनि-श्रावक चारित्र वर्णन करनेको चरणानुयोग और षट् द्रव्य, सप्त तत्त्व एवं नव पदार्थो के वर्णन करनेको द्रव्यानुयोग कहते हैं । इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित रत्नकरण्डक नामके उपासकाध्ययन में सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला दूसरा अध्ययन समाप्त हुआ। अब आचार्य सम्यक् चारित्रका वर्णन करते हैं- दर्शनमोहरूप अन्धकारके दूर होनेपर सम्यग्दर्शनके लाभसे जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसा साधु पुरुष राग और द्वेषकी निवृत्तिके लिए चारित्रको स्वीकार करता हैं ॥४७॥ क्योंकि राग और द्वेषकी निवृत्तिसे हिंसा आदि पापोंकी निवृत्ति स्वतः हो जाती हैं । धनकी अपेक्षासे रहित ऐसा कौन पुरुष हैं, जो राजाओंकी सेवा करता हो? भावार्थ- धनकी इच्छा या संगके किना कोई किसीकी सेवा नहीं करता है. उसी प्रकार राग-द्वेष के विना कोई भी पुरुष हिंसा आदि पापोंको भी नहीं करता हैं । ४८ ।। सम्यक चारित्रका स्वरूप-पापोंके आनेके द्वार-स्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन-सेवन और परिग्रहसे विरक्त होना सम्यग्ज्ञानी पुरुषका चारित्र है, अर्थात् पाँच पापोंके परित्यागको सम्यक चारित्र कहते हैं॥४९॥ वह चारित्र दो प्रकारका है-सकलचारित्र और विकलचारित्र । सर्व प्रकारके परिग्रहसे रहित मनिजनोंके सकलचरित्र होता हैं और परिग्रह-सहित गहस्थों के विकलचारित्र होता है।५० ।। अब आचार्य विकलचारित्रका वर्णन करते है- गृहस्थोंके विकलचारित्र अणुव्रत, गणव्रत और शिक्षाक्तरूप है । ये तीनों यथा क्रमसे पाँच, तीन और चार भेदवाले कहे गये हैं ।। ५१ ॥ अणुव्रतका स्वरूप-स्थूल, प्राण घातसे, स्थूल असत्य-भाषणसे, स्थूल चोरीसे स्थूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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