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________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार सङ्कल्पात् कृत-कारित-मननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुःस्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः छेदन-बन्धन-पीडनमतिभारारोपणं व्यतीचारा:। आहारवारणापि च स्थूलवधाड्-व्युपरते:पञ्च।।५४ स्थलमलीक न वदनि न परान वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ।। ५५ परिवाद-रहोऽभ्याख्या पैशून्यं कूटलेखकरणं च । न्यासापहारितापि च व्यतिक्रमा: पञ्च सत्यस्य ।। ५६ निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसष्टम् । न हरति यन्न च दत्ते तदकृश चौर्यादुपारमणम् ।। ५७ चौ प्रयोग चौरार्थादान-विलोप-सदशसम्मिश्राः । हीनाधिकविनिमानं पंचाऽस्तेये व्यतीपाताः ।। ५८ न तु परदारान गच्छति न परान गमयति च पापभीतेर्यत । सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसन्तोषनामापि ॥ ५९ अन्यविवाहाकरणाननङगक्रीडाविटत्वविपुलतषः । इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पंञ्च व्यतीचाराः ॥ ६० काम-वनसे और स्थूल ममता-भावरूप मूर्छासे, इन पाँच स्थूल पापोंसे विरक्त होना, अर्थात् स्थूल पापोंका त्याग करना अणुव्रत कहलाता हे ।। ५२ ।। अहिंसाणुव्रतका स्वरूप- मन वचन काय इन तीनों योगोके संकल्पसे, कृत कारित और अनुमोदनासे जो सजीवोंको नहीं मारता है, उसे धर्म में निपुण ज्ञानियोंने स्थूल हिंसासे विरमणरूप अहिंसाणुव्रत कहा हैं ॥५३।। इस अहिंसाणु व्रतके पाँच अतीचार ( दोष ) है- पशु-पक्षी आदि जीवोंके अंगोंका छेद करना रस्सी आदिसे बाँधना, डडे आदिसे पीडा देना, शक्तिसे अधिक भार लादना और उनके आहार (खान-पान)का रोक देना । ऐसे कार्य करनेसे अहिंसाणु व्रतमें दोष लगता हैं। ४५ ।। सत्याणु व्रतका स्वरूप-- जो लोक-विरुद्ध, राज्य-विरुद्ध एवं धर्म-विघातक ऐसी स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता हैं और न दूसरोंसें बुलवाता है, तथा दूसरेकी विपत्तिके लिए कारणभूत सत्यको भी न स्वयं कहता है और न दूसरों से कहलवाता हैं, उसे सन्तजन स्थूल मृषाबादसे विरमण अर्थात् सत्याणुव्रत कहते है । ५५ । इस सत्याणुव्रतके पांच अतीचार है-दूसरेकी निन्दा करना, दूसरेकी एकान्त या गुप्त बातको प्रकट करना, चुगली खाना, नकली दस्तावेज आदि लिखना और दूसरेकी धरोहर अपहरण करनेवाले वचन बोलना ।। ५६ ।। अचौर्याणुव्रतका स्वरूप- दूसरेकी रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई वस्तुको और विना दिए धनको जो न तो स्वयं लेता है और न उठाकर तुसरेको देता हैं. उसे स्थूल चोरीसे विरक्त होने रूप अचोर्याणुव्रत कहते हैं ।।५७ । इस अणुवतके भी पाँच अतीचार हैं-किसी को चोरीके लिए भेजना, चोरीको वस्तुको लेना, राज्य-नियमोंका उल्लंघन करना, बहुमूल्य वस्तुमें समान रूपवाली अल्प मूल्यकी वस्तु मिलाकर बेचना और देने के लिए कम और लेने के लिए अधिक नाप-तौल करना ॥ ५८ ॥ ब्रह्मचार्याणुव्रतका स्वरूप- जो पापके भयसे पराई स्त्रियों के पास न तो स्वमं जाता हैं और न दूसरोंको भेजता हैं, वह परदार-निवृत्ति अथवा स्वदारसन्तोष नामका ब्रम्हचर्याणुव्रत हैं ।। ५९ ॥ इस ब्रम्हचर्यव्रतके भी पाँच अतीचार हैं-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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