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________________ श्रावकाचार-संग्रह धन-धान्याविग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणमामापि ॥६॥ अप्तिवाहनातिसंग्रह-विस्मय-लोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपा: पञ्च लक्ष्यन्ते ।। ६२ ।। पञ्चाणुवतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकम् । यत्रावधिरष्टगुणा: दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ।। ६३ ।। मातङ्गो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः । नोली जयश्च सम्प्राप्ता: पूजातिशयमुत्तमम् ॥ ६४ ॥ धनधी-सत्यधोषौ च तापसाऽऽरक्षकावपि । उपाख्येयास्तथा मधु नवनीतो यथाक्रमम् ॥ ६५ ॥ मद्य-मांस-मधुत्यागः सहाणवतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुहिणां श्रमणोत्तमाः ॥ ६६ ।। इति श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचिते रत्तकरण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने अणुव्रतवर्णनं नाम तृतीयमध्ययनम् ।। ३ ।। दूसरोंका विवाह कराना, काम-सेवनके अझोके सिवाय अन्य अङ्गोसे काम-सेवन करना, अश्लील वचन या कामोत्तेजक वचन कहना, काम-सेवनकी अधिक तृष्णा रखना और व्यभिचारिणी स्त्रियोंके यहाँ गमन करना ॥६०॥ परिग्रह परिमाणाणुव्रतका स्वरूप-धन धान्य आदि परिग्रहका परिणाम करके उससे अधिकमें नि:स्पृह रहना, परिमित परिग्रहव्रत है, इसीका दूसरा नाम इच्छापरिमाणवत भी हैं ॥६१॥ इस व्रतके भी पांच अतिचार हैं-आवश्यकतासे अधिक वाहनों (रथ, घोडे, आदि सवारी साधनों ) को रखना, अधिक वस्तुओंका संग्रह करना, दूसरोंके लाभादिकको देखकर आश्चर्य करना, अधिक लोभ करना और घोडे आदिको उनकी शक्ति से अधिक जोतना, लादना, उन पर अधिक बोझा ढोना ।। ६२॥ उपर्युक्त अतीचारोंसे रहित होकर धारण की गई पाँच अणुव्रतरूप निधियाँ देवलोकको फलती है, जहाँ पर कि अवधिज्ञान, अणिमादि आठ शृद्धियाँ और दिव्यशरीर प्राप्त होता है ।:६३॥ अणुव्रतकें धारण करनेवालोंमें अहिंसाणुव्रतमें मातंग चाण्डाल, सत्याणुव्रतमे धनदेव सेठ, अचौर्याणुव्रतमें वारिषेण राजकुमार, ब्रह्मचर्याणुव्रतमें नीलीबाई और परिग्रह परिमाणाणुव्रतमें जयकुमार उत्तम पूजाके अतिशयको प्राप्त हुए है ॥६४।. हिंसा पापमें धनश्री सेठानी झूठ पापमें सत्यघोष पुरोहित. चोरीमें तावस, कुशीलमें आरक्षक (कोटपाल) और परिग्रह पापमें श्मश्रुनवनीत प्रसिद्ध हुए है ।। ६५ ॥ मद्य मांस और मधुके त्यागके साथ पाँच अणुव्रतोंके धारण करनेको उत्तम मुनियोंने गृहस्थोंके आठ मूलगुण कहे हैं ।। ६६ ॥ इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य-विरचित रत्नकरण्डक नामवाले उपासकाध्ययन में अणुव्रतोंका वर्णन करनेवाला यह तीसरा अध्ययन समाप्त हुआ। --००-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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