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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार दिग्व्रतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । अनुवृंहणाद् गुणानामाथ्यान्ति गुणव्रताख्यार्याः ॥ ६७ दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति सङ्कल्पो विग्व्रतमा मृत्यणुपापविनिवृत्यै ॥ ६८ मकराकर सरिदटबी गिरिजनपदयोजनानि मर्यादा: । प्राहुदिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥ ६९ अवधेर्ब हिरणुपापप्रति विरतेदिग्व्रतानि धारयताम् । पञ्चमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥७० प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतराश्चरणमोहपरिणामाः । सत्त्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते ।।७१ पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवचः कायैः । कृतकारितानुमोवैस्त्यागस्तु महाव्रतं महतम् ॥७२ ऊर्ध्वाधस्ता तिर्यग्व्यतिपातः क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम् । विस्मरण दिग्विरतेरत्याशाः पञ्च मन्यन्ते ॥७३ अभ्यन्तरं दिगबधे रपार्थ के स्यः सर्पापियोगेभ्यः । विरमणमनर्यदण्डव्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्यः ॥७४ पापोपदेशहिसादानापध्यानदुः श्रुती पञ्च । प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डाधराः ॥७५ तिर्यक्-क्लेशवणिज्या हिंसारम्भनादीनाम् । कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेश: ॥ ७६ परशुकृपाणख नित्रज्वलनायधशृङ्गिशृखलादीनाम् । वधहेतूनां दानं हिसादानं बुवन्ति बुधाः ॥७७ अब आचार्य गुणव्रतों का स्वरूप कहते हैं- दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाणग्रत इन तीनोंको पूर्वोक्त अष्टमूलगुणोंकी वृद्धि करने से आर्य पुरुष इन्हें गुणव्रत कहते हैं ||६७॥ दिग्व्रतका स्वरूप दिग्वलय अर्थात् दशों दिशाओंकी मर्यादा करके सूक्ष्म पापोंकी निवृत्तिके लिए 'मैं इस मर्यादासे बाहर नहीं जाऊँगा' इस प्रकारका मरण- पर्यन्त के लिए संकल्प करना दिव्रत हैं ।। ६८ ।। दसों दिशाओंके प्रतिसंहार में अर्थात् दिव्रत ग्रहण करने में प्रसिद्ध समुद्र, नदी, अटवी, पर्वत, जनपद ( देश ) और योजनोंके परिमाणको मर्यादा जानना चाहिए । भावार्थ-जिस दिशामें जो पर्वत, समुद्र आदि प्रसिद्ध स्थान हो, उसको आश्रय लेकर और प्रसिद्ध स्थानके अभाव में योजनोंकी सख्याका नियम लेकर दिग्व्रतको ग्रहन करना चा हए ॥ ६१ ॥ अब आचार्यं दिग्व्रतको धारण कक्नेका फल बतलाते है- दिव्रतकी मर्यादाके बाहर सूक्ष्म पापोंकी भी निवृत्ति होनेसे दिग्वतको धारण करनेवाले श्रावकों के पाँच अणुव्रत भी पाँच महाव्रतोंकी परिणतिको प्राप्त हो जाते हैं । क्योंकि स्थूल और सूक्ष्म पापोंके त्यागको ही महाव्रत कहते है ।। ७० ।। प्रत्याख्यानावरण कषायके कृश होने से अत्यन्त मन्दताको प्राप्त हुए चारित्र मोहके वे परिणाम जिनकी सत्ताका निश्चय करना भी कठिन है - महाव्रत के लिए कल्पित किए जाते है ।। ७१ ॥ महाव्रतका स्वरूप-हिंसादिक पाँचों पापोका मन-वचन-कायसे और कृत कारित अनुमोदसे त्याग करन । महाव्रत हैं और यह महापुरुषोंके होता हैं ।। ७२ ।। दिग्बत के ये पाँच अतिचार माने जाते है- ऊर्ध्वदिशाको मर्यादाका उक्लंन करना, अधोदिशा की मर्यादाका उल्लंघन करना, पूर्वादि तिर्यग्दिशाओंकी मर्यादाका उल्लंघन करना, मर्यादित क्षेत्रको बृद्ध कर लेना और मर्यादाओंको भूल जाना ॥ ७३ ॥ अनर्थदण्डका स्वरूप - दिशाओंकी मर्याद के भीतर निरर्थक पाप-योगोंसे विरमण करनेको व्रतधारियों में अग्रणी गणधरादिने अनर्थदण्ड व्रत कहा हैं ||७४ || पापोंके नहीं धारण करनेवाले निष्पाप आचार्याने अनर्थदण्ड के पाँच भेद कहे हैं- पापोपदेश, हिंसादान अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्यां ।। ७५ ।। पापोपदेश अनर्थदण्डका स्वरूप-तिर्यञ्चोंको क्लेश पहुँचाने का उन्हें बधिया करने आदिका उपदेश देना, तिर्यञ्चोंके व्यापार करने का उपदेश देना, हिंसा, आरम्भ और दूसरोंको छल-कपटसे ठगनेकी कथाओंका प्रसंग उठाना, ऐसी कथाओं का बार-बार कहना, यह पापोपदेश नामका अनर्थदण्ड माना गया हैं ||७६ ॥ हिंसादानअनर्थदण्डका स्वरूप-1 -हिंसा के कारणभूत फरसा तलवार, कुदाली, आग, अस्त्र-शस्त्र, विष और सांकल आदिके देने को ज्ञानी जन हिंसादान नामका अनर्थदण्ड कहते हैं ॥७७॥अपध्यान - अनर्थदण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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