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भावकाचार संग्रह
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बधबन्धच्छेदाबेद्वेषाद् रागाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥७८ आरम्भसङग् साहसमिध्यात्वद्वेषरागमदमननैः । चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःभूतिर्भवति ॥७९ क्षितिसलिल दहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम् । सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ॥ ८० कन्दर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधन पञ्च । असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरतेः ॥८१ अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अथंवतामप्यवधौ रागरतीनां तनूकृतये ॥ ८२ ॥ भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो मुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । उपभोगोऽशनवसनप्र मतिःपञ्चेन्द्रियोविषय ॥ ८३ सहतिपरिहरणार्थ क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये । मद्यं च वर्जनीयं जिनंचरणौ शरणमुपयातेः॥ ८४ अल्पफल बहु बिघाताम्मूलकमार्द्राणि शृङग्वेराणि । नवनीत निम्बकुसुमं कंतकमित्येवमवहेयम् ॥८५ यदनिष्टं तद् व्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । अभिसन्धिकृता विरतिविषयाद्योग्याद्याभवति८६ नियमो यमश्च विहितो द्वेघा भोगोपभोगसंहारे । नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमी ध्रियते ८७
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का स्वरूप - द्वेष से किसी प्राणीके वध बन्ध और छदनादिका चिन्तवन करना तथा रागसे परस्त्री आदिका चिन्तन करना, इसे जिन शासन में निपुण पुरुषोंने अपध्यान नामका अनर्थदण्ड कहा है ||७८ || दुःश्रुति - अनर्थदण्डका स्वरूप- आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, मद और काम भाव के प्रतिपादन द्वारा चित्तको कलुषित करनेवाले शास्त्रोंका सुनना दुःश्रुति नामका अनर्थदण्ड है ॥७९॥ प्रमादच अनर्थदण्डका स्वरूप- प्रयोजनके विना भूमिका खोदना, पानीका ढोलना, अग्निका जलाना, पवनका चलाना और वनस्पतीका छेदन करना तथा निष्प्रयोजन स्वयं घूमना और दूसरोंको घुमाना, इत्यादि प्रमादयुक्त निष्फल कार्योंके करनेको ज्ञानीजन प्रमादचय नामका अनर्थदण्ड कहते है ||८०|| उपर्युक्त पाँचों प्रकारके अनर्थदण्डों के त्यागको अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । उसके पांच अतिचार इस प्रकार हैं- कन्दर्प ( रागकी बहुलतासे युक्त हँसीमिश्रित अश्लील वचन बोलना ) कोत्कुच्य (कायकी कुचेष्टा करना ), मौखर्य ( व्यर्थ बकवाद करना ), अति प्रसाधन ( आवश्यकतासे अधिक भोग-उपभोग वस्तुओंका संग्रह करना) और विना सोचे-विचारे कार्यको करना ॥ ८१ ॥ तीसरे भोगोपभोगपरिमाण गुणव्रतका स्वरूप- परिग्रहपरिमाणव्रत में ली हुई मर्यादाके भीतर भी राग और आसक्ति कृश करने के लिए प्रयोजनभूत भी इन्द्रियोंके विषयोंकी संख्या के सीमित करनेको भोगोपभोगपरिमाणव्रत कहते है ॥८२॥ पाँच इन्द्रियोंके विषयभूत जो भोजन-वस्त्र आदिक पदार्थ एक वार भोग करके छोड़ दिए जावे, वे भोग कहलाते हैं और जो एक वार भोग करके भी पुनः भोगने योग्य होते है, वे उपभोग कहलाते हैं । अर्थात् भोजनादि पदार्थ भोग है और वस्त्रादिक उपभोग है ||८३ || जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी शरणको प्राप्त होनेवाले पुरुषोंको त्रस जीवोंकी हिंसाके परिहार के लिए मांस और मधुको तथा प्रमादको दूर करनेके लिए मद्यको छोड़ देना चाहिए ॥ ८४ ॥ इसी प्रकार जिनके खाने में शारीरिक लाभ अल्प है और त्रस थावर जीवोंकी हिंसा अधिक है, ऐसे मूल, कन्द, गीला अदरक, मक्खन, नीमके फूल, केतकी के फूल, तथा इसी प्रकारके अन्य पदार्थ पच उदुम्बर फल आदिका सेवन छोड देना चाहिये ।। ८५ ।। जो वस्तु शरीर के लिए अनिष्ट या हानिकारक हो उसका भी त्याग करे तथा जो कुलीन पुरुषोंके द्वारा सेवनके योग्य नहीं हो, उसे भी छोडे । सेवन के योग्य भी । वषयसे अभिप्रायपूर्वक जो त्याग किया जाता है वह भी व्रत कहलाता है ॥८६॥ भोगोपभोग- परिमाणव्रत में दो प्रकारसे त्यागका विधान किया गया है-नियमरूप और यमरूप | अल्पकालके लिए जो त्याग किया जाता हैं, उसे नियम कहते हैं और यावज्जीवन के लिए जो त्याग किया जाता है, उसे यम कहते हैं, ॥ ८७ ॥ ( अभक्ष्य और अनुपसेव्य वस्तुओंका तो जीवन
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