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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४९५ माया मिल्लाहि थोडिय वि दूसइ चरिउ विसुन्दु। कंजिबिदुवि' वित्तुडइ सुध्दुवि गुलियउ दुध्दु ॥ लोहु मिल्लि चाइसलिल हलुवउ जायइ जेमा लोह-मुक्कु सायरु तर इपेक्खि' परोहण तेम १३४ मोजिछिज्जें दुब्बलउ होइ इयरु" परिवारु । हलुवउ उग्घाउंतयहं अहव णिरग्गल वारु ।।१३५ मिच्छत्ते गरु मोहियउ पाउ वि धम्म मुणेइ । भंति कजणु धत्तूरियउ डलु वि सुवण्णु भणेइ ।। १३६ जइ अच्छहि मंतोसु करि जिय सोक्खहं विउलाह । अहवा गंदु वि को करइ रवि मिल्लिवि कमलाहं ।।१३७ मणुयह विणयविवज्जियहं गण सयलवि णासंति । अह सरवरि विणु पाणियई केम रहं त ।।१३८ विज्जावच्चे विरहियउ वय-णियरो विण ठाइ । सुक्कसाहु कि हंसउल जंतउ धरणइंजाइ ॥१३९ सज्झाएँ गाणह पसरु रुज्झइ इंदियगाउ' । पच्चूसे सूरुग्गमणि घूयडकुलु णिच्छाउ' ॥१४० गुणवंतहं सह संगु करि भल्लिम पावहि जेम सुवणसुपत्त विवज्जियउ वरतरु वुच्चइ केम ।।१४१ सत्तु वि महा ई उवसमइ सयलवि जिय वसि हुति। वयणइं कक्कस पोसियइं पुरिसहहोइणकित्ति भोयणु 'मउणें जो क इ सरसइ सिज्झइ तासु । अहवा ४ वसइ समुद्दि जिय लच्छि म करहु५ णिवासु ।। १४३ कर, जिससे कि मानका विनाश हो। अथवा सूर्यके गगनमें स्थित रहनेपर अन्धकार नहीं ठहर सकता हैं ॥१३२।। मायाको छोड, जो थोडी भी विशुद्ध चारित्रको दुषित कर देती हैं। कांजीके एक बिन्दु भी गुडयुक्त शुद्ध दूधको भी फाड देतो है ।। १३३।। लोभको छोड, जिससे चतुर्गतिरूपी जल (पार करनेके लिए तू) हलका हो जाय । देख,लोह-पुक्त (काठ की) नाव जैसे सागरको तर जाती है ।।१३४।। मोहके क्षय होनेपर राग-द्वेषादिरूप अन्य परिवार स्वयं ही दुर्बल हो जाता है। अथवा अर्गला (सांकल) रहित द्वार उघाडने में हलका होता ही है ॥१३५।। मिथ्यात्वसे मोहित मनुष्य पापको भी धर्म मानता है। यदि धत्तुरेसे उन्मत्त पुरुष डले (पत्थरके टुकडे ) को भी सोना कहे तो इसमें क्या भ्रान्ति है ।।१३६।। हे जीव, यदि विपुल सुखको इच्छा हैं, तो तू सन्तोषको धारण कर । अथवा सूर्यको छोडकर कमलोंका आनन्द और कौन कर सकता हैं ।।१३।। विनयसे रहित मनुष्यके समप्त गण नष्ट हो जाते हैं । अथवा सरोवर में पानीके बिना कमल कैसे रह सकते है ॥१३८॥ वैयावृत्यसे रहित व्रतों का समूह भी नहीं ठहरता हैं । सूखे सरोवरसे जाता हुआ हमोंका समुदाय क्या रोका जा सकता है ।।१३९ । स्वाध्यायसे ज्ञानका प्रसार होता हैं और इन्द्रियोंका समदाय (विषयोंमें जानेसे) रोका जाता हैं । प्रत्यूषकालमें सूर्यके उदय होनेपर घूकोंका समुदाय निस्तेज हो जाता हैं ।। १४०।। गुणवन्तोंके साथ संगति कर, जिससे कि भलाई पावे । सुमनों और सूपत्रोसे रहित वृक्ष श्रेष्ठ कसे कहा जा सकता हैं ।। १४१।। मधुर वचन बोलनेसे शत्रु भी शान्त हो जाता है और सभी जीव वशमें हो जाते है । कर्कश वचनोंके बो टनेपर पुरुषको कति नहीं होती है।।१४।। जो पुरुष मौनसे भोजन करता है, उसे सरस्वती सिद्ध होती है । अथवा समुद्र में लक्ष्मी भी निवास १ म बिदुइं । २ ब पिक्खि । ३ झ म णु। ४ म छिज्न उ । झ छिज्जइ। ५ ब टि. इतरद् रागदेषादिकम । ६ म इच्छहि । बटि. यदि तिष्ठति सन्तोषं कृत्वा । ७ ब टि. विपूलानि विस्तीर्णानि सौख्यानि भवन्ति। ब विज्जाविच्चें। ९ब इन्द्रियग्रा पो निरुध्यते । १० निस्तेजो भवति । ११ ब सत्त वि महरई जपियइ। १२ म झ चाइ कविते पोरिसइ। १३ ब मोणि। १४ ब अह ववसाइ समद्दि। टि. समुद्रव्यवसायेन । झ साय । १५ ब करउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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