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________________ ४९४ श्रावकाचार-संग्रह जइ जिय सुक्खइं' अहिलसइ छंडहि विसय कसाय । अह विग्घई अणिवारियई फमहि कि अज्झवसाय ॥१२२ फरसिदिउ मा लालि जिय लालिउ एहु जि सत्तु । करिनिहिं लग्गउ हत्थियउ णियलंकुसदुहु पत्त। जिब्भिविउ जिय संवरहि सरस ण भल्ला भवख । 'गालइं मच्छ चडप्फडिवि मुइबि 'सहिवि थलदुक्ख ।। १२४ . . घाणिदिय वढ' वसि करहि रक्खहु विसयकसाय५ । गंधहं लंपड सिलिम विहुउ कंजइ विच्छाय । १२५ रूवहिं उप्परि रइ म करि णयण णियारहि जंत । रूवासत्त पयंगडा पेक्सहिं दीवि पडत ॥१२६ मण गच्छहो मणमोहणहं जिय गेयहं अहिलासु । गेयरसें हियकण्णडा पत्ता हरिण विणासु ॥१२७ 'एक्कु वि इंदिउ मोक्कल उ पावइ दुक्खसयाई । जसु पुणु पंचवि मोक्कला सु पुच्छिज्मइ काई।१८ ढिल्लउ होहि म इंदियह पंचहं विणि णिवारि । इक्क णिवारहि जोहडिय अवर पराइय णारि ॥ 'खंचहि गुरुवयणंकुहि मिल्लि' म ढिल्लउ तेम। जह मोडइ मणहत्थियउ संजमभरतरु जेम।।१३० परिहरि कोहु खभाइ करि मुच्चहि कोहमलेण। हाणे सुज्झइ भंति कउ छित्तउ चडालेण ।' १३१ मउयत्तणु जिय मणि धरहि माणु पणासइ जेण । अहवा तिमिरु ण ठाहरइ सुरहु गयणि ठिएणः १३२ व्रत भी करो, अपनी शक्तिको मत छिपाओ। इस बलते (जलते) हुए शरीररुपी घरमेंसे जो काढ़ लोगे, वही बचेगा, इसमे भ्रान्ति नहीं है ।। १२१॥हे जीव, यदि तू सुख चाहता हैं, तो विषय और कषाय छोड़ दे। विघ्नाके निवारण किए विना क्या अध्यवसाय फलीभूत्त हो सकता है।। १२२।। हे जीव ,स्पर्शन-इन्द्रियका लालन मत कर,लालन करनेसे यह शत्रु बन जाती है । देखो-करिणी (हथिनी) मे आसक्त हुआ हाथी सांकल और अंकुशके दुःखको पाता है।। १२३।। हे जोव,जिव्हाइन्द्रियका संवरण कर, सरस भक्षण भला नहीं होता हैं । देखो-लोहेकी कीली (बंसी) से बिंधी हई मछली तडफडाकर और जमीनके दुःख सहकर मरती हैं ।। १२४ ।। हे मूढ, घ्राण-इन्द्रियको में कर और विषय-कषायसे अपनी रक्षा कर । देखो-सुगन्धका लम्पटी भौरा कमलमें बन्द होकर मरणको प्राप्त होता है ।।१२५।। रूपके ऊपर रति मत कर रूपपर जाते हुए नयनोंको भी रोक । दीपकमें गिरते हुए रूपासक्त पतङ्गोंको देख ।।१२६ । हे जीव, मन-मोहक गीतोंके सुननेकी अभिलाषाको मत प्राप्त हो । देखो-गीतरसके श्रवणमें आसक्त हरिण विनाशको प्राप्त होते हैं ॥१२७।। (देखो-य सब उपर्युक्त जीव) एक-एक इन्द्रि यके वशगत होकर सैकडो दाखोंको पाते है। और जिसकी पांचों ही इन्द्रियाँ स्वच्छन्द हैं,अर्थात् जो पांचोंके ही विषयोंमे आसक्त हे,उसके दुःखोंका तो पूछना ही क्या है ।। १२८।। पाँचों ही इन्द्रियोंके विषयोंमें ढोला मत हो। उनमें भी मख्यरूपसे दो इन्द्रियोंका तो निवारण कर ही । एक तो जिव्हा इन्द्रियका निवारण कर और दसरी परायी स्त्रीका निवारण कर स्पर्शन-इन्द्रियको वशमें कर।।१२९।। गुरुके वचनरुपी अंकुशसे मनरूपी गजका निवारण कर, उसे ढीला मत छोड जिससे कि संयमभार वाला यह वृक्ष सुरक्षित रह सके ।।१३०॥क्षमाके द्वारा क्रोधका परिहार कर क्रोधरुपी मैलसे मुक्त हो । चाण्डालसे छुआ हुआ मनुष्य स्नानसे शुद्ध होता है, इसमे क्या भ्रान्ति है ।।१३१।।हे जीव, मृदुताको मनमें धारण १ म सुक्खह | २ लोहकण्टकेन | ३ म मउ बिसहइ | ४ म बड | ब टि. मृढ । ५ ब पमाय । ६ एक्कहिं । ७ जीहडी। ८ म अण्ण । ९ ब मनो निवारय । १० म मेल्लि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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