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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ४९३ उववासहो एक हो फल्ल इं संबोहिय परिवार । णायदत्तु दिवि देउ हुउ पुणरवि नायकुमारु ॥ १११ तें कज्जे जिय तुव भणमि' करिउपवासम्भासु' । जाम ण देहकुडिल्लियहि ढुक्कइ मरणहुयासु ११२ धम्मुजि सुद्धउ तं जि पर जं किज्जइ कारण' | अहवा तं धणु इज्जलउ जं आवइ जाएण । ११३ द्विणमनुयहं कटुडा संजम उण्णय दिति । अह उत्तमपद जोडिया जिय दोस वि गुण हुति ॥ ११४ नियमविहूणहं निट्टूडिय' जीवहं निष्फल होइ । अणबोल्लिउ कि पावियइ दाम कलत्त रु लोइ ।। ११५ जो वय-भायण सो जि तणु कि किज्जइ इयरेण । तं सिह जं जिण मुणि नवइ रहइ भत्तिभरण ।। ११६ दाणच्चणविहि जे करहिं ते जि सल+खण हत्थ । जे जिर्णातित्थह अणुसहि पाय वि ते जि पसत्थ ॥ जे सुगंति धम्मक्खर इं ते हउं मण्णमि कण्ण । जे जोवह जिणवरह मुहु ते पर लोयण धण्ण।' ११८ अवरु वि जं जहि उवयरइ' तं उवयारहि तित्थ्" । लइ जिय जीविय लाहडउ देहु म करहु णिरत्यु ॥ ११९ घरु पुरु परियणु धणियधणु बंधव पुत्त सहाई । जीवे जंतें धम्म पर अण्णु ण सरिसउ जाइ १० ।। १२० देहि दाणु व किंपि करि मा 'गोवहि जियसत्ति । जं कड्डियहं वलंतयई तं उब्वश्इ ण भंति १२१ नहीं है ओर जो खाये जाते है, ऐसे बेल भरे बेरोंसे वह धन (मूल्य) नहीं मिलता है ॥ ११० ॥ देखो - एक ही उपवासके फलसे परिवारको सम्बोधित कर नागदत्त स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से आकर फिर भी नागकुमार हुआ ।। १११ ।। उसलिए हे जीव, तुझसे कहता हूँ कि तू उपवासका अभ्यास कर, जबतक कि देहरूपी कुटी (झोंपडी) में मरणकी आग प्रवेश नहीं कर रही है ।। ११२ ।। धर्म वही विशुद्ध है, जो कि अपने शरीरसे किया जाता हैं और धन वही उज्ज्वल हैं, जो कि न्याय से आता है ।। ११३ || निर्धन मनुष्यके कष्ट संयममें उन्नति देते हैं । देखो - उत्तमपदमें जोडे गये जीवके दोष भी गुण हो जाते है । १४ । । नियमसे रहित जोवकी निष्ठा (क्रिया) निष्फलं होती हैं। क्या कोई लोकमें अनबोले दाम और कलत्र (स्त्री) को पाता हैं । भावार्थ - जैसे लोकव्यवहारमें वस्तुका दाम (मूल्य) बोलनेपर ही मिलता है, और स्त्री भी विवाह पूर्व वाग्दान हो जानेपर ही प्राप्त होती हैं, इसी प्रकार पहले व्रतका नियम लेनेपर ही आचरणरूप क्रिया सफल होती है ।। ११५ ।। जो व्रतका भाजन हो, वही शरीर है, व्रत-रहित अन्य शरीरसे क्या लाभ हैं। सिर वही शोभता हैं, जो जिनदेव और निर्ग्रन्थमुनिको भक्ति भारसे नमस्कार करे ।। ११६ ।। जो दान और पूजनविधिको करें, वे ही सुलक्षण हाथ है और जो जिनतीर्थो का अनुसरण करें, वे ही प्रशस्त पाँव है ॥ ११७ ॥ जो धर्मके अक्षरोंको सुनते है, उन्हींको में कान मानता हूँ और जो जिनवर के मुखको देखते है, वे ही लोचन परमधन्य है !। ११८।। और भी जो अंग जैसा उपकार कर सके, उससे वैसा ही उपकार कराओ । हे जीव, ( इस प्रकारसे तुम ) जीवनका लाभ लो, देहको निरर्थक मत करो ।। ११९ ॥ घर, पुर, परिजन, धनिक, धन, बान्धव, पुत्र और सहायक ये कोई भो जीवके परलोक जाते समय साथ नहीं जाते हैं, केवल एक धर्म ही साथ जाता हैं ।। १२० ।। इसलिए दान दो, कुछ १ ब टि. भणमि । झ म पइ भणिउ । २ सयासु । ३ ब टि. उपवासादिना कायखेटतेन । मणिणी । ब निष्ठा क्रिया । ५ म दम्मकलंतरु । ६ ब उपकरोति । ७ व तत्र उपकारय, उपकारनिमित्तं प्रेरय । ८ झ म लेहु । ९ ब सयाई । १० यह दोहा 'झ' में नहीं है । ११ म चउ | १२ म माण | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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