SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९२ श्रावकाचार-संग्रह धम्म धणु पर होइ थिरु विग्घई विहडिवि जति । अह सरवरु अविणइं रहिउ फुट्टिवि जाइ तडत्ति ॥१०० धम्म सुहु पावेण दुहु एउ पसिद्धउ लोइ । तम्हा धम्म समायरहि जिम हियइच्छिउ होइ ॥१०१ धम्में जाणहि जति पर पावें जाण वहति । घरयर गेहोवरि चढहिं कूवखगय तलि जति ।।१०२ धम्म एक्कु वि बहुं भरइ सई भुक्खियउ अहम्म । वडुबहुयहं छाया करइ तालु सहइ सइं घम् ।। १०३ काइं बहुत्तई जंपियई जं अप्पहु पडिकूल । काइं मि परहु ण तं करहि एहु जि धम्म मूलु ॥१०४ सत्थसएण' वि जाणियह धम्मु ण चढइ मणेवि । दिणयरसय जइ उग्गमइ घूयड अंधउ तोवि१०५ पोट्टहं लग्गिवि पावमइ करइ परत्तहं' दुक्ख । देवल-लग्गिय-खिल्लियइं किण्ण पलोट्टइ मुक्खु' ।१०६ छुड सुविसुद्धिए होइ जिय तणु मणु वय सामग्गि । धम्म विढप्पइ इत्तियहंधणहुँ विलग्गउ अग्गि । "थुण वयणे झायहि महिं जिणु भुवणत्तयबंधु । काहिं करि उववासु जिय जै खुट्टइ भवसिंधु १०८ होइ वणिज्जु ण पोट्टलिहिं उववाहि ण उ धम्म। एहु अयाणहु सो चवइ जसु कउ भारिउ कम्मु ।।१०९ पोलियहि मणिमोत्तियहि धणु कित्तिर्याह ण माइ । बोरिहिं भरिउ बलद्दडा तं णाही ज खाइ। पर उसमें स्रोतोंसे अबश्य ही जल प्रवाहित होता हैं, अर्थात् झरोंके द्वारा और पानी आ जाता हे ॥९९॥ धर्मसे धन स्थिर होता हैं और विघ्न विघट जाते है । जैसे (पाल-वन्धसे जल सरोवरमें भरा रहता है । ) किन्तु पाल-बन्धसे रहित सरोवर तुरन्त फूट जाता हैं (और उसका सारा जल बाहिर निकल जाता हैं) ।।१००।। धर्मसे सुख और पापसे दुख होता है, यह बात लोक में प्रसिद्ध हैं । इसलिए धर्मका आचरण कर, जिससे मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हों ।।१०१।। धर्मसे मनुष्य यानवाहनोंके द्वारा जाते हैं और पापसे मनुष्य यानोंका वहन करते है। घरके बनानेवाले कारीगर घरके ऊपर चढते है और कूप खनन करनेवाले लोग नीचे तल भागकी ओर जाते हैं ।।१०२।। धर्मसे एक ही पुरुष बहुत लोगोंका भरण-पोषण करता हैं और अधर्मी स्वयं भूखा रहता हैं। वटवक्ष बहत जनोंपर छाया करता हैं और ताडवृक्ष स्वयं धाम सहता है ॥१०३।। बहुत कहनेसे क्या लाभ, जो कार्म अपने लिए प्रतिकूल हो, उसे कभी दूसरोंके लिए भी मत करो। यह धर्मका मल है ।।१०४।। सैकडों शास्त्रोंके जान लेनेपर भी मिथ्यादृष्टि जीवके मनपर धर्म नहीं चढता है । यदि सैकडों सूर्य भी उदित हो जायें, तो भी घुग्धू अन्धा ही रहता है।।१०५॥ पापबुद्धि पुरुष पेटके लिए दूसरोंको दुःख पहुँचाता हैं । मूर्ख मनुष्य देवालयमें लगी हुई खीलोंके लिए क्या उसे नहीं पटकता हैं ।।१०६।। हे जीव, यदि तन-मन और वचनकी सामग्री विशुद्ध हो, तो इतनेसे ही धर्म बढता हैं । (धर्मके लिए धनकी आवश्यकता नहीं हैं। ) फिर उस धनमें आग लगने दे ॥१०॥ त्रिभुवनके बन्धु जिनदेवका वचनोंसे स्तवन कर, मनसे ध्यान कर और कायसे उपवास कर,जिससे कि हे जीव, भव-सिन्धु अन्तको प्राप्त हो ।१०८1। पोटलीसे वाणिज्य नहीं होता और उपवासोंसे धर्म नहीं होता। यह बात तो वही अज्ञानी मनुष्य कहता हैं जिसने भारी दुष्कर्म किया हैं ।।१०९।। देखो-मणि-मोतियोंकी पोटलिया से कितना धन कमाया जा सकता हैं इसका माप (परिमाण) १श-सएहिं । २ झ म याणियाहिं । ३ ब टि. परलोकस्य । ४ ब टि. कि मो लानाखोलीनिमित्त देवगृहं न पातयति? अपि तु पलोट्टइ-पातयति । ५ व म मुणि । ६ ब टि. अज्ञानी पुमान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy