SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५४ श्रावकाचार-संग्रह जीवगुणमार्गणविधि विधानतो यो विबुध्य निश्शेषम् । रक्षति जीवनिकाय सवितेव परोपकारपरः ॥५ पथ्यं तथ्यं श्रव्यं वचनं हृदयङगमं गुणगरिष्ठम् । यो ब्रूते हितकारी परमानसतापतो भीतः ॥६ निर्माल्यकमिव मत्वा परवित्तं यस्त्रिधाऽपिनादत्ते। दन्तान्तरशोधनमपि पतितंदृष्ट्वाऽप्यदत्तमतिः॥७ तिर्यङ्मानुषदेवाचेतनभेदां चतुर्विधां योषाम् । परिहरति यः स्थिरात्मा मारीमिव सर्वथा घोराम् ८ विविध चेतनजातं सङ्ग चेतनमचेतनं त्यक्त्वा । यो नादत्ते भयो वान्तमिवान्नं त्रिधा धीरः ।। ९ त्रिविधालम्बनशुद्धिः प्रासुकमार्गेण यो व्याधारः । युगमात्रान्तरदृष्टिः परिहरमाणोऽगिनोयाति१० हृदयं विभूषयन्ती वाणी तापापहारिणी विमलाम् । मुक्तानामिव मालां यो ब्रूते सूत्रसम्बद्धाम्॥११ षट्चत्वारिंशदोषापोढां यो विशुद्धिनवकोटीम् । मृष्टामृष्टसमानो मुक्ति विदधाति विजिताक्षः १२ द्रव्यं विकृतिपुरःसरमङ्गिग्रामप्रपालनासक्तः । गुण्हाति यो विमुञ्चति यत्नेन दयाङ्गनाश्लिष्ट: १३ निर्जन्तुकेऽविरोधे दूरे गूढे विसङ्कटे क्षिपति । उच्चार प्रस्रवणश्लेष्माद्यं यः शरीरमलम् ॥ १४ जिनवचनपञ्जरस्थं विहाय बहुदुःखकारणं क्षिप्रम् । विदधाति यः स्ववश्यं मर्कटमिव चञ्चलं चित्तम् ।। १५ यो वचनौषधमनघ जन्मजरामरणरोगहरणपरम् । बहुशो मौनविधायी ददाति भव्याङ्गिनां महितम् ।। १६ र्शनसे भषित व्रत रहित जीव जघन्य पात्र जानना चाहिए ॥४। अब उत्तम पात्रका स्वरूप कहते हैं-जो मनुष्य जीवसमास, गुणस्थान और मार्गणाओंके स्वरूपको भली भाँतिसे जानकर सर्व त्रस. स्थावर जीव-समूहकी रक्षा करता है, सूर्य के समान परोपकार करने में तत्पर है, जो परके चित्तसन्तापसे डरता हुआ पथ्य, तथ्य, श्रव्य ; हृदय ग्राह्य-गुणगरिष्ठ हितकारी वचन बोलता है, जो पराये धनको निर्माल्यके समान समझकर मन वचन कायसे उसे ग्रहण नहीं करता है, यहाँ तक कि दाँतोंके भीतर लगे मैलको दूर करनेके लिए गिरे हुए तिनके को देखकर भी उसके उठाने की बुद्धि नहीं करता है,जो स्थिर चित्त तिर्यचिनी,मनुष्यनी, देवी और अचेतन पुतली रूप चारों प्रकारकी स्त्रियों को भयंकर मारीके समान समझकर उनका परिहार करता हैं, जो धीर अनेक प्रकारके चेतन और अचेतन सभी परिग्रहोंको छोड वमन किये हुए अन्नके समान त्रियोगसे पुनः नहीं ग्रहण करता हैं, जो दयाको धारण कर त्रियोगकी आलंबन शुद्धिवाला चार हाथ प्रमाण भूमिको देखता हुआ और प्राणियोंकी रक्षा करता हुआ प्रासुक मार्गसे जाता है, जो सूत्र (आगम और धागा) से संबद्ध मोतियोंकी मालाके समान हृदयको भूषित करनेवाली, सन्तापको दूर करनेवाली ऐसी निर्मल वाणीको बोलता है, जो इन्द्रिय-विजयी छयालीस दोष-रहित, नव कोटीसे विशुद्ध,ऐसे रूक्ष-स्निग्ध भोजनको समान मानता हुआ खाता हैं, जो दयासे आलिंगित शरीर वाला प्राणियोंके समूहकी परिपालनामें आसक्त चित्त होकर विकृति पुरस्सर द्रव्यको अर्थात् हस्तादिके धोने योग्य भस्म आदि को और शास्त्र पीछी कमण्डलु आदि ज्ञान - संयमके साधनोंको यत्न-पूर्वक ग्रहण करता है और यत्न-पूर्वक ही रखता है, जो जीव-रहित, छिद्र-रहित, विरोध-रहित दूरवर्ती गुप्त और संकट-रहित स्थान पर मल मूत्र कफ आदिक शारीरिक मलका क्षेपण करता है,जो वानरके समान चंचल और अनेक दुःखोंका कारणभूत चित्तको जिन वचनरूप पिंजरे में बन्द कर अपने वशमें रखता है, जो प्रायः मौन धारण करता है, तो भी जरा मरण रोगको दूर करनेवाली निर्दोष औषधिके समान अपनी महती वाणीको भव्य जीवोंके लिए प्रदान करता है,कर्मोका क्षय करने के लिए कायोत्सर्ग करता है, संसारसे भयभीत है, कर्तव्य और अकर्तव्यमें निपुण है, जो आगमानुमोदित कार्यको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy