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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३५३ वर्यमध्यजघन्यानां पात्राणामपकारकम् । दानं यथायथं देयं वैयावृत्यविधायिना ।। १०७ पोष्यन्ते येन चित्राः सकलसुखफलस्तोमरोपप्रवीणा: सम्यक्त्वज्ञानचर्या यमनियमतपोवृक्षजातिप्रबन्धाः । भव्यक्षोणीषु तद्यः क्षतनिखिलमलं मुञ्चते वानतोयं । तुल्यस्तस्योपकारी मधुपरवकृतो भव्यमेघस्य नान्यः ।। १०८ वात्सल्यासक्तचित्तो नविनयपरो दर्शनालङ्कृतात्मा, देयादेये विदित्वा वितरति विधिना यो यतिभ्योऽत्र दानम् । कोति कुन्दावदाताममितगतिमतां पूरयन्तीं त्रिलोकी, लब्ध्वा क्षिप्रं स याति क्षपितभवभयं मोक्षमक्षीणसोल्यम् ॥ १०९ इत्युपासकाचारे नवमः परिच्छेदः समाप्तः । दशमः परिच्छेदः पात्रकुपात्रापात्राज्यवबुध्य फलाथिना सदा देयम् । क्षेत्रमनवबुद्धयोप्तं बीज नहि फलति फलमिष्टम् । पात्रं तत्वपटिष्ठरुत्तममध्यमजघन्यभेदेन । त्रेधा क्षेत्रमिवोक्तं त्रिविधफलनिमित्ततां ज्ञात्वा ।। २ उत्तममुत्तमगुणतो मध्यमगुणतोऽत्र मध्यमं पात्रम् । विज्ञेयं बुद्धिमता जघन्यगुणतो जघन्यं च ।। ३ तत्रोत्तमं तपस्वी विरताविरतश्च मध्यमं ज्ञेयम् । सम्यग्दर्शन मूषः प्राणी पात्रं जघन्यं स्यात् ॥४ आश्रय आदि यथायोग्य पात्रका विचारकर देना चाहिए ।।१०६।। इस प्रकार उत्तम पात्र मुनिजन, मध्यम पात्र एकादश प्रतिमाधारी श्रावक और जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टि,इन तीनों ही प्रकारके पात्रोंको उनका उपकार करनेवाली वस्तु वैयावृत्त्य करनेवाले गृहस्थ के द्वारा यथायोग्य दानमें देना चाहिए ॥१०७॥ जिस भव्यरूप मेबके जल-दानसे समस्त सुखरूप फलोंके समूहोंके रोपनेमें प्रवीण नाना प्रकारके सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, यम, नियम, तपरूप वृक्षजातियोंके समुदाय पुष्टिको प्राप्त होते है, और जो भव्यजीवरूपी पृथ्वी पर सर्व मलको नाश करनेवाले दानरूप जलको बरसाता हैं, उस मधुर शब्द करनेवाले भव्य रूप मेघके समान जीवोंका उपकारी और कोई अन्य नहीं है ।।१०८। वात्सल्य भावमें जिसका चित्त आसक्त हैं, नीति और विनयमें तत्पर है, जिसका आत्मा सम्यग्दर्शन से अलंकृत है, ऐसा जो गहस्थ देय और अदेय वस्तुको जानकर विधिपूर्वक साधुओंको दान देता है, वह अमित ज्ञानियोंके द्वारा कही गई. कुन्द पुष्पके समान उज्ज्वल, और तीन लोकमें व्याप्त होनेवाली कीर्तिको पाकर शीघ्र ही अनन्त सुखवाले और संसारके भयको नष्ट करनेवाले मोक्षको प्राप्त करता हैं ।।१०९।। इस प्रकार अमितगति विरचित श्रावकाचारमें नवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। दसवां परिच्छद फलके इच्छुक पुरुष द्वारा सदा ही पात्र,कुपात्र और अपात्रको जानकर ही दान देना चाहिए। क्योंकि क्षेत्रका विचार किये बिना बाया गया बीज इष्ट बीजको नहीं फलता हैं ॥१॥ तत्त्वके जानकारोंने उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे पात्रको तीन प्रकारका कहा है। जैसे कि तीन प्रकारके फल पानेके निमित्तसे जानकर क्षेत्रको तीन प्रकारका कहा गया हैं ।।२।। बुद्धिमान् पुरुषके द्वारा उत्तम गुणसे उत्तम पात्र, मध्यम गुणसे मध्यम पात्र और जघन्य गुणसे जघन्य पात्र जानने योग्य है ।।३।। इनमें तपस्वी साधु उत्तम पात्र है, विरताविरत श्रावक मध्यमपात्र है और सम्यग्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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