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________________ ३५२ श्रावकाचार-संग्रह दुर्गन्ध्रि ववथितं शीर्ण विवर्ण नष्टचेष्टितम् । भोजनेन विना गात्रं जायते मतकोपमम् ॥ ९४ न पश्यति न जानाति न श्रृणोति न जिघ्रति । न स्पृशति न वा वक्ति मोजनेन विना जनः ।।९५ प्रविक्रीयान्नकृच्छष कान्ताकन्यातनभुवः । आहारं गुण्हते लोका वल्लभानपि निश्चितम् ।। ९६ यया खादन्त्यभक्ष्याणि क्षुधाया क्षपिता जनाः । सा हन्यतेऽशनेनैव राक्षसीव भयंकरी ।। ९७ यथैवाहारमात्रेण शरीरं रक्ष्यते नृणाम् । चामीकरस्य कोटीभिर्बन्ही भिरपि नो तथा ।। ५८ क्षिप्रं प्रकाश्यते सर्वमाहारेण कलेवरम् । नमो दिवाकरेणेव तमोजालावडण्ठितम् ।। ९९ न शक्नोति तपः कर्तुं सरोगः संयतो यतः । ततो रोगापहारार्थ देयं प्रासुकमौषधम् ।। १०० न देहेन विना धर्मो न धर्मेण विना सुखम् । यतोऽतो देहरक्षार्थ भैषज्यं दीयते यतः ॥ १०१ शरीरं संयमाधारं रक्षणीयं तपस्विनाम् । प्रासुकैरोषधेः पुंसा यत्नतो मुक्तिकांक्षिणा ।। १०२ विवेको जन्यते येन संयमो येन पाल्यते । धर्मः प्रकाश्यते येन मोहो येन निहन्यते ।। १०३ मनो नियम्यते येन रागो येन निकृत्यते । तद्देयं भव्यजीवानां शास्त्रं निर्धूतकल्मषम् ।। १०४ विवेको न विना शास्त्रं तदृतेन तपो यतः । ततस्तपोविधानार्थ देयं शास्त्रमनिन्दितम् ॥ १०५ वस्त्रपात्राश्रयादीनि पराण्यपि यथोचितम् । दातव्यानि विधानेन रत्नत्रितयवृद्धये ॥ १०६ कोई औषधि न तो भूतकाल में हुई है,न वर्तमानमें हैं और न भविष्यकाल में होगी ही।।९३।। भोजन, के बिना यह शरीर दुर्गन्ध युक्त, विकृत, जीर्ण शीर्ण' विरूप और चेष्टा-शून्य मरे हुएके समान हो जाता है ।।९४॥ भोजनके विना मनुष्य न देख पाता है, न कुछ जान पाता हैं, न सुपता है, न संवता है, न स्पर्श कर पाता हैं और न बोल ही पाता है ।।९५॥ अन्नका कष्ट पडनेपर दुभिक्षके समय लोग अपनी प्यारी स्त्री, कन्या और प्रिय पुत्रोंको भो बेंच देते हैं और बदले में आहारको ग्रहण करते हैं ।।९६।। जिस क्षुधासे पीडित जन नहीं खाने योग्य वस्तुओंको भी खाने लगते हैं, राक्षसीके समान भयंकर वह क्षुधा आहारसे ही न ट होती है ।।९७।। केवल आहारके द्वारा मनुष्यों का शरीर जैसा रक्षित होता हैं, बैसा अनेक सुवर्ण कोटि दीनारोंसे भी रक्षित नहीं हो पाता है ॥९८॥ जैसे अन्धकारके जालसे आच्छादित आकाश सूर्यसे शीघ्र प्रकाशमान हो जाता हैं इसी प्रकार भूखसे पीडित शरीर आहारसे शीघ्र कान्ति युक्त हो जाता है। अतः आहार दान श्रेष्ठ हैं और उसे देना चाहिए ।।९९॥ अब आचार्य ओषधिदानका वर्णन करते हैं-यतः रोग-सहित साधु तप नहीं कर सकता, अतः उसके रोगको दूर करनेके लिए प्रासुक औषधि देना चाहिए ॥१००।। यतः देहके विना धर्म संभव नहीं, और धर्म के विना सुख मिलना संभव नहीं, अतः देहकी रक्षाके लिए साधुको औषधि देनी चाहिए ।।१०१।। संयमका आधार शरीर है, अतः तपस्वियोंके शरीरकी मुक्ति चाहनेवाले पुरुष प्रासुक औषधियोंसे प्रयत्न पूर्वक रक्षा करें ।।१०२ । अब आचार्य ज्ञान (शास्त्र) दानका वर्णन करते है-जिसके द्वारा हित-अहितका विवेक उत्पन्न होता है जिसके द्वारा संयम पाला जाता है, जिसके द्वारा धर्म प्रकाशित होता हैं, जिसके द्वारा मोह नष्ट होता है, जिसके द्वारा मनका निग्रह होता है और जिससे रागका उच्छेद किया जाता है,ऐसा पाप-नाशक शास्त्र (ज्ञान) दान भव्य जीवोंको देना चाहिए ॥१०३-१०४॥ यतः शास्त्र के विना विवेक जागृत नहीं होता है और उसके विना तप नहीं हो सकता है,अतः तपको करने के लिए निर्दोष शास्त्रको देना चाहिए ।।१०५।। उपर्युक्त चार दानोंके सिवाय संयमी पुरुषोंको रत्नत्रयधर्मकी वृद्धि के लिए विधिपूर्वक वस्त्र,पात्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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