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________________ आहार अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३५१ रागो निषद्यते येन येन धर्मो विवर्द्धते । संयम: पोष्यते येन विवेको येन जन्यते ॥ ८१ आत्मोपशम्यते येन येनोपक्रियते परः । न येन नाश्यते पात्रं तदातव्यं प्रशस्यते ॥ ८२ अभयानौषधज्ञानभेदतस्तच्चतुर्विधम् । दानं निगद्यते सद्भिः प्राणिनामुपकारकम् ।। ८३ धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितव्ये यत: स्थिति: । तद्दानतस्ततो दत्तास्ते सर्वे सन्ति देहिनाम् ।। ८४ देवरुक्तो वृणीष्वक त्रैलोक्यप्राणितव्ययोः । त्रैलोक्यं वृणुते कोऽपि न परित्यज्य जीवितम् ।। ८५ त्रैलोक्यं न यतो मूल्यं जीवितव्यस्य जायते । तद्र क्षता ततो दत्तं प्राणिनां किं न कांक्षितम् ॥ ८६ नाभीतिदानतो दानं समस्ताधारकारणम् । महीयो निर्मलं नित्यं गगनादिव विद्यते ।। ८७ आहारेण विना पंसां जीवितव्यं न तिष्ठति । आहारं यच्छता दत्तं ततो भवति जीवितम् ।। ८८ नेत्रानन्दकर सेव्यं सर्वचेष्टाप्रवर्तनम् । अन्धसा धार्यते गात्रं जीवितेनेव जन्मिनाम ॥ ८९ कान्तिः कोतिर्मतिः क्षान्ति:शान्ति तिर्गती रतिः । उक्तिः शक्तिद्युतिः प्रीतिः प्रतीतिः श्रीर्व्यवस्थितिः जित्तं देहं सर्व मञ्चन्ति तत्त्वतः । द्रविणापाकृत मत्यं वेश्या इव मनोरमाः ॥ ९१ शमो दमो दया धर्मः संयमो विनयो नयः । तमो यशो वचोदाक्ष्यं दीयतेऽन्नप्रदायिना ॥ ९२ क्षुद्रोगेण समो व्याधिराहारेण समौषधिः । नासीनास्ति न वा भावि सर्वव्यापारकारिणी ।। ९३ प्रवर्तित किया, ऐसा जानना चाहिए ॥८० ।। अब आचार्य देने योग्य वस्तुका वर्णन करते हैजिससे रागभाव नाशको प्राप्त हो,जिससे संयम धर्म बढे,जिससे संयम पुष्ट हो, जिससे विवेक उत्पन्न हो, जिससे आत्मा उपशम भावको प्राप्त हो, जिससे दूसरेका उपकार किया जाय और जिससे पात्र विनाशको प्राप्त न हो, वही वस्तु दाताके देने योग्य है और वही देय प्राज्ञपुरुषोंके द्वारा प्रशंसाको प्राप्त होता है ।।८१-८२।। प्राणियोंका उपकार करने वाला वह दान अभय आहार औषध और ज्ञानदानके भेदसे सन्त पुरुषोंने चार प्रकारका कहा है ।। ८३॥ यतः जीवनके स्थित रहनेपर ही धर्म, अथ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थोंकी स्थिति संभव है, अतः जीवोंको जीवन (अभय) दान देनेसे वे सभी पुरुषार्थ दिये जाते हैं, ऐसा समझना चाहिए ।।८४।। यदि देवतागण किसीपर प्रसन्न होकर कहें कि तुम त्रैलोक्यका राज्य और जीवितव्य इन दोनोंमेंसे किसी एकको वरण करो अर्थात् माँगो ; तो क्या कोई पुरुष जीवनको छोडकर त्रैलोक्यके साम्राज्यका वरण करेगा? कदापि नहीं ॥८५।। यतः त्रैलोक्य भी जीवनका मूल्य नहीं है, अत: उस जीवनकी रक्षा करनेवालेने प्राणियोंको कौन-सी मनोवांछित वस्तु नहीं दी? अर्थात् सभी दी; ऐसा समझना चाहिए ।।८६।। आकाशके समान समस्त वस्तुओंके आधारका कारण, महान्, निर्मल और नित्य ऐसा अभयदानके सिवाय और कोई दान नहीं हैं ।। ८७। ऐसे अभय दान का वर्णन किया । अब आहारदानका निरूपण करते हैं-आहारके विना पुरुषोंका जीवन नहीं ठहर सकता है, अतएव आहार देनेवाले पुरुषके द्वारा जीवन ही दिया जाता है, ऐसा जानना चाहिए ॥८८। जीवितव्य (आयुर्बल) के समान नेत्रोंको आनन्दकारी, सेवन योग्य और सर्व चेष्टाओंके प्रवर्तनरूप जीवोंका देह आहारसे ही धारण किया जाता हें ॥८९।। जिस प्रकार धनसे रहित पुरुषको मनोहर वेश्याएं छोड देती हैं । उसी प्रकार आहारसे रहित देहको कोन्ति कोत्ति, वुद्धि, क्षमा, शान्ति, नीति, गति, रति, उक्ति, शक्ति, दीप्ति, प्रतीति, लक्ष्मी और स्थिरता ये सब भी छोड देती हैं ।।९०-९१।। अन्न दान देनेवालेके द्वारा कषायोंकी मन्दतारूप शमभाव, इन्द्रियदमन, दया, धर्म, संयम, विनय नीति, तप, यश और वचनकी दक्षता ये सब गुण दिये जाते है॥९२॥ इस संसारमें क्षुधारोगके समान कोई व्याधि और आहारके समान सर्व व्यापार कराने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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