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________________ ३५० श्रावकाचार-संग्रह दाता दोषमजानानो दत्त धर्मधियाऽखिलम् । य: स्वीकरोति तहानं पात्रं त्वेष न सर्वथा ।। ७० : वहनि तानि दानानि विधिरेषा न शेमुषी। विपद्येत तरी प्राणी भूरिभिर्थक्षितविषैः ।। ७१ अल्पं जिनमतं दानं ददातीदं न कोविदाः । पीयूषेणोपभुक्तेन कि नाल्पेनापि जीव्यते ॥ ७२ ग्रहीतुः कुरुते सौख्यं दानस्तेरखिलर्यतः । पुण्यभागी ततो दाता नेदं वचनमञ्चितम् ।। ७३ आपाते लभते सौख्यं विपाके दुःखमुल्बणम् । अपथ्यरिव तैनैिर्दुजरर्जननिन्दितः ।। ७४ आपातसुखदैः पुण्यमन्ते दुःखवितारिभिः । भूमिदानादिभिर्दत्तन किम्पाकफलैरिव ।। ७५ प्रचुरापात्रसंघातं मर्दयित्वाऽपि पोषिते । पात्रे सम्पद्यते धर्मो नैषा भाषा प्रशस्यते ॥ ७६ निहत्य भेकसन्दर्भ यः प्रीणति भुजङ्गमम् । सोऽश्नुते यादृशं पुण्यं नूनमन्योऽपि तादृशम् ॥ ७७ आत्मीकरोति यो दानं जीवमर्दनसम्भवम् । आकांक्षन्नात्मनः सौख्यं पात्रता तस्य कोदशी ।। ७८ न सुवर्णादिकं देयं न दाता तस्य दायकः । न च पात्रं गृहीताऽस्य जिनानामिति शासनम् ॥ ७९ पात्रं विनाशितं तेन तेनाधर्मः प्रतितः । येन स्वर्णादिकं दत्तं सर्वानर्थविधायकम् ॥ ८० मूढ दाता तो दोषको नहीं जानते हुए धर्म बुद्धिसे सभी दानोंको देता हैं, इसलिए वह वैसा पापी नहीं हैं किन्तु जो ऐसे असद् दानको स्वीकार करता हैं वह तो सर्वथा भी पात्र नहीं माना जा सकता है।॥७०॥ 'लोकमें अनेक प्रकारके दान दिये जाते हैं, या शास्त्रोंमें अनेक प्रकारके दान बतलाये गये हैं' ऐसी बुद्धि करके उनका देना यह विधि ठीक नहीं है, क्योंकि अनेक प्रकारके खाये गये विषोंसे प्राणी अत्यधिक विपत्तिको ही प्राप्त होता है । अतः उक्त कुदानोंका देना श्रेयस्कर नहीं हैं ।।७१॥ जिन मतमें बतलाया गया आहारादिका दान तो बहुत कम हैं, उससे क्या फल मिलेगा? ऐसा कुछ विद्वान् लोग कहते हैं । आचार्य उनको उत्तर देते हुए कहते है कि ऐसी बात नहीं हैं । देखो थोडेसे उपभोग किये गये अमृतसे क्या मनुष्य जीवित नहीं हो जाता है? होता ही है ।।७२।। यदि कहा जाय कि उन भूमि-स्वर्ण-गोदानादि समस्त दानोंसे ग्रहण करने वालेको सुख प्राप्त होता है, अतः उससे दाता भी पुण्यका भागी होता हैं, सो ऐसा कथन युक्तिसगत नहीं है ।।७।। क्योंकि उन भूमि दान आदिके द्वारा वर्तमानमें भले ही कुछ सुख प्राप्त हो, परन्तु विपाक कालमें तो अपथ्य सेवनके समान उन दुर्जर एवं जन-निन्दित दानोंके द्वारा अत्यन्त उग्र दुःख ही प्राप्त होता है॥७४।। किंपाक फलके समान प्रारम्भमें सुख देने वाले और अन्तमें दुःख देनेवाले उन अधिक भूमि दानादिके देने पर भी पुण्य नही होता हैं ॥७५॥ यदि कहा जाय कि भारी भी अपात्र जीवोंके समूहका नाश करके एक पात्रके पोषण करने पर धर्म-सम्पादन होता है । सो ऐसी भाषा भी प्रशंसनीय नहीं हैं ।।७६।। देखो-जो प्रतिदिन मेंढकोंका समह मारकर साँपका पोषण करता है, वह पुरुष जैसा पुण्य प्राप्त करता है, निश्चयसे आपके द्वारा कहा गया वह अन्य पूरुष भी वैसे ही पूण्य-संचयको प्राप्त करता है। भावार्थ मेंढक मारकर साँपके पोषणमें पुण्य नहीं हैं, उसी प्रकार जीवोंका घात करके किसी कुपात्रके पोषण करने में भी कोई पुण्य नहीं है । ७७।। दूसरी बात यह हैं कि जो पुरुष जीव-घातसे उत्पन्न हुपा दान अपने सुखको चाहता हुआ, स्वीकार करता है उसकी पात्रता के पी हैं ? अर्थात वह पात्र हैं ही नहीं, प्रत्युत कुपात्र या अपात्र हैं ॥७८।। इस प्रकार कुदानोंके निषेधका उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं-न तो सुवर्णादिक पदार्थ देय है, न उनका देनेवाला दाता हो हैं और न उनका ग्रहण करनेवाला सत्पात्र ही हैं, ऐसा जिनदेवोंका शासन (आदेश या मत) हैं ॥७९॥ जिसने सभी अनर्थोंका करनेवाला सुवर्णादिकका दान दिया, उसने पात्रका भी विनाश कर दिया और अधर्म भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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