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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३४९ यस्यां सक्ता जीवा: दुःखतमानोत्तरन्ति भवजलधेः । कः कन्यायां तस्यां दत्तायां विद्यते धर्मः ॥५८ सर्वारम्भकरं ये वीवाहं कारयन्ति धर्माय । ते तरुखण्डविवृद्धय क्षिपन्ति वन्हिज्वलज्ज्वालम् ।।५९ य: संक्रान्तौ ग्रहणे वारे वित्तं ददाति मूढमतिः । सम्यक्त्ववनं छित्वा मिथ्यात्ववनं वपत्येषः ।।६० ये ददते मृततप्त्यै बहुधा दानानि नूनमस्तधियः । पल्लवयितुं तरं ते भस्मीभूतं निषिञ्चन्ति॥६१ विप्रगणे सति भुक्ते तप्ति: सम्पद्यते यदि पितृणाम् । नान्येन घृते पीते भवति तदाऽन्यः कथं पुष्टः।।६२ दाने दत्ते पुत्रमुच्यन्ते पापतोऽत्र यदि पितरः । विहित तदा चरित्र परेण मुक्ति परो याति ॥ ६३ गङ्गा गतेऽस्थिजाते भवति सुखी यदि मतोऽत्र चिरकालम् । भस्मीकृतस्तदाऽम्भःसिक्तः पल्लवयते वृक्षः।। ६४ उपयाचन्ते देवान्नष्टधियो ये धनादि ददमानाः । ते सर्वस्वं दत्वा ननं क्रीणन्ति दुःखानि ॥ ६५ पूर्णे काले देवनं रक्ष्यते कोऽपि नूनमुपयातैः । चित्रमिदं प्रतिबिम्बरचेतनै रक्ष्यते तेषाम् ।। ६६ मांसं यच्छन्ति ये मढा ये च गण्हन्ति लोलपाः । द्वये वसन्ति ते श्वभ्रे हिंसामार्गप्रवतिनः ।। ६७ धर्मार्थ ददते मांसं ये नूनं मूढबुद्धयः । जिजीविषन्ति ते दीर्घ कालकूट विषाशने ॥ ६८ तादृशं यच्छतां नास्ति पापं दोषमजामताम् । यादृशं गुण्हतां मांसं जानतां दोषमूजितम् ।। ६९ सागरसे पार नहीं उतर सकते है, ऐसी कन्याके देने पर कौन सा धर्म होता है? अर्यात् धर्म नहीं, प्रत्युत पाप ही होता है । अत: कन्या-दान भी योग्य नहीं हैं ।।५७-५८। जो लोग धर्मप्राप्तिके लिए सभी आरम्भके करनेवाले विवाहको कराते हैं, वे वक्षोंके वनकी वृद्धि के लिए जलती ज्वालावाली अग्निको फेंकते है, ऐसा मै मानता हूँ । अतः अन्यका विवाह कराना योग्य नहीं है ॥५९।। जो मूढ बुद्धि पुरुष संक्रान्ति, ग्रहण, रविवार आदिके समय धनको देता है, वह सम्यक्त्वरूप वनका छेदन करके मिथ्यात्वरूप वनको बोता है ।।६०। जो नष्ट वुद्धि पुरुष मरे पुरुषोंकी तृप्तिके लिए अनेक प्रकार के दान देते है, वे भस्म हुए वृक्षको पल्लवित करनेके लिए मानों सींचते है ॥६१।। यदि ब्राह्मण वर्ग के भोजन करने पर पितर लोगोंको तृप्ति प्राप्त होती है,तो यहां पर अन्य पुरुषके घी पीने पर दूसरा पुरुष क्यों पुष्ट नहीं हो जाता हैं। अतः पितृ-तृप्तिके लिए ब्राह्मणोंको भोजन कराना योग्य नहीं है ।।६।। यदि पुत्रके द्वारा दान दिये जाने पर पितर लोग पापसे छूट जाते है, तो दूसरेके द्वारा चारित्र धारण करने पर अन्य दूसरेको मुक्ति में जाना चाहिए ।।६३।। यदि अस्थि-पुंजके गंगामें विसर्जन करने पर मृत पुरुष चिरकाल तक सुखी रहता है, तो समझना चाहिए कि भस्मीभूत हुआ वृक्ष जलसे सींचने पर पल्लवित हो रहा है ।। ६४॥ जो नष्ट बुद्धि पुरुष देवोंको धन देते हुए उनसे और भी अधिक धनकी याचना करते है, वे अपना सर्वस्व देकर नियम से दुखोंको खरीदते है ॥६५।। आयु कालके समाप्त हो जाने पर समीपमें आये हुए स्वयं देव भी नियमसे किसीकी रक्षा नहीं कर सकते, तो यह आश्चर्यकी बात है कि उन देवोंके बनाये गये अचेतन प्रतिविम्ब मरते की कैसे रक्षा कर सकते है? कभी नहीं कर सकते 1६६।। जो मूढ मांसका दान करते है और जो लोलुपी उसे ग्रहण करते है-वे हिंसामार्गके प्रवर्तक दोनों ही मरकर नरक में निवास करते है ॥६७।। जो मूढ बुद्धि पुरुष धर्मके लिए मांसको देते है, वे निश्चयसे कालकुट विषके खाने पर जीने की इच्छा करते है १६८॥ मांस देने के दोषों को नहीं जानने वाले पुरुषों के मांस-दान करने पर वैसा उग्रपाप नहीं होता है, जैसा कि मांस-भक्षणके उग्र पापोंको जानते हुए उसे ग्रहण करने वाले पुरुषोंके महान् पापका संचय होता है ।।६९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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