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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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कायोत्सर्गविधायी कर्मक्षयकारणाय भवमीतः । कृत्याकृत्यपरो यः कार्य वितनोति सूत्रमतम् ।।१७ यस्येत्थं स्थेयस्य सम्यग्वतसमितिगुप्तयः सन्ति । प्रोक्तं स पात्रमुत्तममुत्तगुणभाजनं जनः ।।१८ रागो द्वेषो मोहो क्रोधो लोभो मदः स्मरो माया । यं परिहरन्ति दिवाकरमिवान्धकारचयः १९ दर्शनबोधचरित्रत्रितयं यस्यास्ति निर्मलं हृदये । आनन्दितमव्यजनं विमुक्तिलक्ष्मीवशीकरणमा।२० यस्यानवद्यवृत्तेर्जङ्गममिव मंदिरं तपोलक्ष्म्या: । कायक्लेशैरुप्रैः कृशीकृतं राजते गात्रम् ।। २१
विजिता जगदीशा विविधा विपदः सदा प्रपद्यन्ते । तानीन्द्रियाणि सद्यो महीयसा येन जीयन्ते ।।२२ पृजायामपभाने सौख्ये दुखे समागमे विगमे । क्षभ्यति यस्य न चेतः पात्रमसावुत्तमं साधुः । २३ यस्य स्वपरविभागो न विद्यते निर्ममत्वचित्तस्य । निर्बाधबोधदीपप्रकाशिताशेषतत्त्वस्य ।। २४ संसारवनकुठारं दातुं कल्पद्रुम फलमभीष्टम् । यो धत्ते निरवयं क्षमादिगुणसाधनं धर्मम् ।। २५ लोकाचारनिवृत्त: कर्ममहाशत्रमर्दनोद्युक्तः । यो जातरूपधारी स यतिः पात्रं मतं वर्यम् ॥ २६ करता है,इस प्रकारसे जिस साधुके सम्यक् महाव्रत, समिति और गुप्तियाँ पाई जाती हैं, उसे जैन लोगोंने उत्तम गुणोंका भाजप उत्तम पात्र कहा हैं ।।५-१८॥
भावार्थ-इन तेरह श्लोकोंमें क्रमशः पाँच महाव्रत, पाँच समिति, और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकारके चारित्रके धारक साधुको उत्कृष्ट पात्र कहा गया है। अब इसी उत्तम पात्रका और भी विशेष स्वरूप कहते है-जैसे अन्धकारका समूह सूर्यको दूरसे ही त्यागता है, इसी प्रकार जिस साधुको राग द्वेष मोह लोभ क्रोध मद कामविकारका समूह सूर्यको दूरसे ही त्यागते हैं, अर्थात् दूर रहते हैं, जिसके हृदयमें भव्यजनोंको आनन्दित करनेवाला और मोक्ष लक्ष्मीको वशमें करने वाला निर्मल सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म विद्यमान है,जिस निर्दोष वृत्तिवाले साधका उग्र कायक्लेशोंसे कृश किया हुआ शरीर तपोलक्ष्मीके जंगम (चलनेवाला) मन्दिरके समान शोभाको प्राप्त करता है, जिनके द्वारा पराजित हुए जगत्के ईश्वर ब्रह्मा विष्णु महेश इन्द्रादिक देव भी सदा नाना विपदाओंको पाते हैं, ऐसी बलवती इन्द्रियोंको भी जिस महात्माने अति शीघ्र जीत लिया है, जिसका चित्त पूजामें, अपमानमें,सुखमें दुःख में और संयोगमें वियोगमें क्षोभको प्राप्त नहीं होता है, वह साधु उत्तम पात्र है ।।१९-२३।। जिसका चित्त ममतासे रहित है,और बाधा रहित ज्ञानरूप दीपकके प्रकाशसे समस्त तत्त्वोंका ज्ञायक है, एसे जिस साधुके अपने और परायेका विभाग नहीं हैं, जो संसाररूप वनको कुठारके समान और अभीष्ट फलको देने के लिए कल्पवृक्षके समान क्षमा आदि गुणोंके द्वारा सिद्ध होनेवाले निर्दोष धर्मको धारण करता है, जो लोकाचारसे रहित है, कर्मरूप महाशत्रुओंके मर्दन करनेके लिए उद्यत है, और यथाजातरूप दिगम्बर वेषको धारण करता है, ऐसा साव उत्तम श्रेष्ठ पात्र माना गया है ।।२४-२६।। अब मध्यम पात्रका स्वरूप कहते है-जो पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान उज्ज्वल सम्यग्दर्शनसे भूषित हो,जिसकी ब्रत और शीलरूपी लक्ष्मी बढ रही हो,जिसकी चित्तवृत्ति सामायिक करने में संलग्न हो,निरन्तर चारों पर्यों में उपवास करनेसे जिसका शरीर कृश हो रहा हो, सचित्त आहारसे जिसका चित्त निवृत्त हो,जो वैरागी हो
और दिवामैथुन-सेवनसे रहित हो, जिसने सदा ही दिन और रात में स्त्री-सेवनका त्याग किया हो, जिसने असंयम-कारक सर्व आरम्भोंका निराकरण कर दिया हो, जिसने सर्व प्रकारके परिग्रहकी इच्छाका निवारण कर दिया हो, जो सावद्य (पाप-युक्त) कार्योंकी अनुमोदना न करता हो,अपने उद्दश्यसे बनाये गये आहारसे जिसकी बुद्धि निवृत्त हो, इस प्रकार ग्यारह प्रतिमाधारी हो और
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