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________________ ३५६ श्रावकाचार-संग्रह राकाशशाङ्कोज्ज्वलदृष्टिभूषः, प्रवर्धमानवतशीललक्ष्मीः । सामायिकारोपितचित्तवृत्तिनिरन्तरोपोषितशोषिताङ्ग ।। २७ सचेतनाहारनिवृत्तचितो वैरागिको मुक्तदिनव्यवायः। निरस्तशश्वद्वनितोपभोगो निराकृतासंयमकारिकर्माः ।। २८ निवारिताशेषपरिग्रहेच्छः सावद्यकर्मानुमतेरकर्ता । औद्देशिकाहारनिवृत्तबुद्धिकुंरन्तसंसारनिपातमीतः ।। २९ उपासकाचारविधिप्रवीणो मन्दीकृताशेषकषायवृत्तिः । उत्तिष्ठते यो जननव्यपाये तं मध्यमं पात्रमुवाहरन्ति ॥ ३० कुमुदवान्धवदीधितिदर्शनो भवजरामरणातिविभीलुकः।। कृतचतुर्विधसङ्घहिते हितो जननमोगशरीरविरक्तधीः ।। ३१ भवति यो जिनशासनमासकः सततनिन्दनगर्हणचञ्चरः। स्वपरतत्त्वविचारणको विदो व्रतविधाननिरुत्सुकमानसः ।। ३२ जिनपतीरिततत्त्वविचक्षणो विपुलधर्मफलेक्षणतोषितः । सकलजन्तुक्यादितचेतनस्तमिह पात्रमुशन्ति जघन्यकम् ॥ ३३ घरति यश्चरणं परदुश्चरं विकटघोरकुदर्शनवासितः । निखिलसत्त्वहितोद्यतचेतनो वितथकर्कशवाक्यपराङ्मुखः ॥ ३४ धनकलत्रपरिग्रहनि:स्पृहो नियमसंयमशीलविभूषितः । कृतकषायहृषीकविनिर्जयः प्रणिगदन्ति कुपात्रभिमं बुधाः ।। ३५ गतकृपः प्रणिहन्ति शरीरिणो वदति यो वितथं परुषं वचः । हरति वित्तमदत्तमनेकधा मदनगणहतो मजतेऽङ्गनाम् ॥ ३६ इस दुरन्त संसार-सागरमें गिरनेके भयसे डर रहा हो, श्रावकोंके आचार विधिमें प्रवीण हो, जिसने अपनी समस्त कषायवृत्तिको मन्द कर दिया हो, तथा जो संसारके विनाशमें उद्यत हो, ज्ञानियोंने उसे मध्यम पात्र कहा हैं ।।२७.३०॥ अब जघन्य पात्रका स्वरूप कहते है-जिसका सम्यग्दर्शन कुमुदबन्धु-चन्द्रकी किरणोंके समान उज्ज्वल हो, जो जन्म जरा और मरणके दुःखोसे भयभीत हो, जिसने चतुर्विध संघके हितका भाव किया हो, संसार और भोगोंसे विरक्त चित्त हो, जो जिनशासनका प्रभावक हो, निरन्तर अपनी निन्दा और गर्हामें प्रवीण हो, जो स्व-परतत्त्वके विचारनेमें विद्वान् हो, जिसका मन व्रतोंके धारण करने में उत्सुक न हो, फिर भी जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्ररूपित तत्त्वोंका जानकार हो, धर्मके विशाल फलके देखनेसे सन्तुष्ट हो और सर्व प्राणियोंपर जिसका हृदय दयासे द्रवित हो, ऐसे अविरति सम्यग्दृष्टि जीवको जघन्य पात्र कहते हैं ॥३१-३३।। अब कुपात्रका स्वरूप कहते हैजो विकट घोर मिथ्यात्वसे वासित चित्त हो फिर भी परम दुष्कर तपश्चरण करता हो, जिसका चित्त सकल प्राणियोंके हित करने में उद्यत हो, असत्य कर्कश वचन बोलनेसे पराङमुख हो, धन, स्त्री और परिग्रहसे निःस्पृह हो, नियम, संयम और शीलसे विभूषित हो, जिसने कषाय और इन्द्रियोंका विजय दिया हो, ऐसे पुरुषको बुधजन कुपात्र कहते है ।। ३४-३५।। अब अपात्रका स्वरूप कहते है-जो निर्दय होकर प्राणियोंको मारता, जो असत्य और पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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